सारसूत्र:
जीववहो अप्पवहो,
जीवदया अप्पणो दया
होइ।
ता सव्वजीवहिंसा,
परिचत्ता
अत्त कामेहिं।।
32।।
तुमं सि
नाम स चव,
जं हंतव्वं
ति मन्नसि।
तुमं सि
नाम स चेव,
जं अज्जावेयव्वं
ति मन्नसि।।
33।।
रागादीणमणुप्पासो,
अहिंसकत्तं
त्ति देसियं
समए।
तेसिं चे उप्पत्ती,
हिंसेत्ति
जिणेहि णिद्दिट्ठा।।
34।।
अज्झवसिएण बंधो,
सत्ते मारेज्ज
मा थ मारेज्ज।
एसो बंधसमासो,
जीवाणं णिच्छयणयस्स।।
35।।
हिंसा
दो अविरमणं,
वहपरिणामो
य होइ हिंसा हु।
तम्हा पमत्तजोग,
पाणव्ववरोवओ
णिच्चं।।
36।।
अत्ता
चेव अहिंसा,
अत्ता हिंसति
णिच्छओ समए।
जो होदि अप्पमत्तो,
अहिंसगो हिंसगो इदरो।। 37।।
तुगं न मंदराओ,
आगासाओ विसालयं नित्थि।
जह तह जयंमि
जाणसु,
धम्ममहिंसासमं
नत्थि।।
38।।
परमात्मा
को अस्वीकार
करनेवाले और
लोग भी हुए हैं; लेकिन जैसी
कुशलता से
महावीर ने
अस्वीकार किया,
वैसा किसी
ने भी नहीं
किया। कुशलता
से मेरा अर्थ
है, परमात्मा
को अस्वीकार
भी किया और
फिर भी परमात्मा
को बचा लिया।
इनकार भी किया,
परमात्मा
को खोने भी न
दिया। मूर्ति-भंजक
बहुत हुए हैं;
लेकिन
मूर्ति तोड़ने
में ही
परमात्मा भी
टूट गया।
महावीर ने
मूर्ति तोड़ी,
लेकिन उस
अमूर्त को
पूरा-पूरा बचा
लिया। यही उनकी
कुशलता है।
परमात्मा
जब मूर्ति बन
जाता है तो
थोथा हो जाता
है। परमात्मा
जब तक अमूर्त
अनुभव हो, तभी तक
बहुमूल्य है।
जैसे ही आकार
दिया, वैसे
ही परमात्मा
से दूर होने
लगे; क्योंकि
परमात्मा
निराकार है।
जैसे ही पत्थर
में परमात्मा
को देखना शुरू
किया, वैसे
ही आंखें अंधी
होनी शुरू हो
जाती हैं।
इस्लाम
ने भी
मूर्तियां तोड़ीं।
महावीर ने भी
मूर्तियां तोड़ीं।
लेकिन महावीर
ने बड़ी कुशलता
से तोड़ीं।
महावीर ने बड़ी
अहिंसा से तोड़ीं, बड़े प्रेम
से तोड़ीं।
जरा-सा फासला
है, लेकिन
बड़ा भेद है।
इस्लाम ने बड़े
क्रोध से तोड़
दीं, बड़ी
हिंसा से तोड़
दीं। हिंसा और
क्रोध में, तोड़ने के
आग्रह में, एक बात साफ
हो गई। जब हम
आग्रह से कोई
चीज तोड़ते हैं
तो उसका अर्थ
है, कहीं
अचेतन में
हमारा लगाव
है। तोड़ने
योग्य मानते
हैं, इतना
श्रम उठाते
हैं तोड़ने के
लिए, तो
जरूर हमें
लगता है कि
मूर्ति में
कोई मूल्य है।
महावीर ने इस
तरह न तोड़ा।
तोड़ा भी, मूर्ति
बिखेर भी दी, चोट भी न हुई,
आवाज भी न
हुई, और
भीतर जो छिपा
था, अमूर्त,
उसे बचा भी
लिया।
कारवां
लग चुका है
रस्ते पर
फिर
कोई रहनुमा न
आ जाए
बुत-ओ-बुतखाना
तोड़ने वाले
इसी
जद में खुदा न
आ जाए
देखो-देखो
इन आंसुओं पे "जमील'
तुहमते-इल्तिजा
न आ जाए।
बुत-ओ-बुतखाना
तोड़ने वाले
इसी
जद में खुदा न
आ जाए।
मूर्तियों
और मंदिर से
छुटकारा
उपयोगी है। लेकिन
ध्यान रखना, इसी जद में
कहीं खुदा न आ
जाए! कहीं ऐसा
न हो कि मंदिर
और मूर्ति
तोड़ने में
खुदा भी टूट
जाए!
उसे तो
बचाना है, जो मंदिर
में छिपा है।
उसे तो बचाना
है जो मूर्ति
में छिपा है।
महावीर ने बड़ी
कुशलता से
बचाया है। इसे
समझने की
कोशिश करें।
"जीव
का वध अपना ही
वध है। जीव की
दया अपनी ही
दया है। अतः
आत्म-हितैषी
पुरुषों ने
सभी तरह की
जीव-हिंसा का
परित्याग
किया है। जिसे
तू हनन योग्य
मानता है, वह
तू ही है।
जिसे तू आज्ञा
में रखने
योग्य मानता
है, वह तू
ही है।'
यही तो
उपनिषद कहते
हैं। यही तो
वेद कहते हैं।
लेकिन उपनिषद
और वेद
परमात्मा के
नाम से कहते
हैं; महावीर
ने आत्मा के
नाम से कहा।
बड़ा फर्क है। जैसे
ही परमात्मा
का विचार होता
है, ऐसा
लगता है ईश्वर
कोई और, कहीं
और। दूरी पैदा
हो जाती है।
महावीर ने आत्मा
के नाम से वही
कहा। आत्मा से
दूरी पैदा नहीं
होती। वह
तुम्हारा स्वरूप
है। वह
तुम्हारा
होने का
केंद्र है। तो
दूसरे में भी
तुम्हें जब
अपना केंद्र
दिखाई पड़ने
लगे, तब
महावीर कहते
हैं, तुम
जागे।
अहिंसा
का पूरा
शास्त्र
दूसरे में भी
स्वयं को
देखने का ही
शास्त्र है।
लेकिन इस
दूसरे को देखने
को एक
परमात्मा को
महावीर नहीं
मानते कि
परमात्मा सब
में छाया हुआ
है। महावीर
मानते हैं, तुम्हीं
दूसरे से जुड़े
हो और दूसरा
तुमसे जुड़ा
है। जीवन एक
अंतरात्माओं
का अंतर्जाल
है; अंतरात्माओं
का अंतर्संबंध
है। जैसे मकड़ी
का जाला होता
है; एक
धागे को हिला
दो, पूरा
जाला हिल जाता
है--ऐसे ही एक
व्यक्ति की चेतना
को हिला दो, सारा
अस्तित्व हिल
जाता है। एक
वृक्ष को चोट
पहुंचा दो, चोट सभी पर
फैल जाती है।
क्योंकि हम
अलग-थलग नहीं
हैं। हम
टूटे-टूटे
नहीं हैं।
मेरे और तुम्हारे
बीच कोई दीवाल
नहीं है। जो
मुझे घटेगा, वह तुम्हें
भी घटेगा। जो
तुम्हें
घटेगा, वह
मुझ तक भी आ जाएगा।
जैसे हम सागर
में एक कंकड़
को फेंक दें, लहरें उठती
हैं, दूर-दिगंत
तक फैलती चली
जाती हैं। अगर
मैंने तुम्हें
चोट पहुंचाई
तो एक कंकड़
फेंका सागर
में। माना, तुम्हारी
तरफ फेंका था,
लेकिन उसकी
लहरें सभी को
आंदोलित
करेंगी। उन सभी
में मैं भी
सम्मिलित
हूं।
तो जो
दुख देता है, वह अपने हाथ
से अपने लिए
दुख निर्मित
करता है। जो
सुख बांटता है,
वह अपने हाथ
से अपने लिए
सुख
निमंत्रित
करता है। तुम
जो दोगे वही
तुम्हें
मिलेगा। जो
तुमने दिया था
पहले वही तुम
पा रहे हो।
किया तुमने दूसरे
के साथ था, हो
गया तुम्हारे
साथ।
महावीर
कहते हैं, तुम्हारे
अतिरिक्त
यहां कोई नहीं
है। तो तुम जो
भी करोगे, अपने
ही साथ कर रहे
हो।
हमारी
हालत ऐसी है, जैसे तुमने
उस शेखचिल्ली
की कहानी सुनी
होगी। वह बैठा
था, शांति
से राह चलते
लोगों को देख
रहा था। एक मक्खी
उसे परेशान
करने लगी, आकर
नाक पर बैठने
लगी। एक-दो
दफे उसने
झपट्टा मारा,
लेकिन मक्खियां
जिद्दी होती
हैं। जैसे ही
उसने झपट्टा
मारा, मक्खी
फिर आकर नाक
पर बैठ गई।
फिर उसे क्रोध
आने लगा। यह
छोटी-सी मक्खी
और उसे सता
रही है! उसका
क्रोध बढ़ता
चला गया। उसने
और झपट्टे जोर
से मारे। फिर
उसके
बर्दाश्त के
बाहर हो गया।
पास में ही
पड़ी हुई छुरी
थी, उठाकर
छुरी उसने
मक्खी को
मारी। मक्खी
तो उड़ गई, नाक
कट गई।
तुमने
जो चोट दूसरे
को मारी है, वह क्रोध
में तुम्हीं
को लग गई है।
महावीर का यह
मूलभूत आधार
है। अगर तुम
दुखी हो तो
तुमने किसी को
दुख देना चाहा
था; अन्यथा
तुम दुखी न हो
सकते थे। तुम
पीड़ित हो, परेशान
हो, चिंताग्रस्त
हो, संताप
से भरे हो, चैन
खो गया, शांति
खो गई, जीवन
की
प्रफुल्लता
खो गई है, तो
जरूर यही
तुमने जीवन के
साथ किया है।
जीवन के साथ
तुम जो करते
हो, उसी के
प्रतिफल
तुम्हें
मिलते हैं।
हमारी
हालत उलटी है।
साधारणतः हम
ऐसा सोचते हैं
कि दूसरे हमें
दुखी कर रहे
हैं। दूसरे तो
केवल तुमने जो
दिया था वापिस
लौटा रहे हैं।
तुम्हारी
धरोहर
तुम्हें सौंप
रहे हैं। और अगर
तुमने ऐसा
देखा कि दूसरे
तुम्हें दुखी
कर रहे हैं तो
तुम्हारी
पूरी
जीवन-दिशा
भ्रांत हो
जाएगी। तब तुम
कभी सुखी न हो
सकोगे। क्योंकि
दूसरों को तुम
कैसे बदलोगे? अपने को ही
बदलना इतना
मुश्किल है, दूसरों को
तुम कैसे
बदलोगे? फिर
दूसरा कोई एक
थोड़ी है, अनंत
हैं! इस अनंत
को तुम कैसे
बदलोगे? और
इसको बदलने के
लिए तो अनंत
काल लग जाएगा।
अगर बदल भी
पाए तो इतना
समय लग जाएगा...!
एक तो बदलना
असंभव, बदल
भी लिया तो
अनंत काल तुम
दुख भोगते
रहोगे।
यहीं
माक्र्स और
महावीर की
दृष्टि में
भेद है।
माक्र्स कहता
है, समाज जुम्मेवार
है, अर्थव्यवस्था
जुम्मेवार
है। इसे बदल
दो, सब सुख
हो जायेगा।
परमात्मा को
मनुष्य से अलग
दूर ऊपर आकाश
में माननेवाले
कहते हैं, प्रार्थना
करो, पूजा
करो, सब
ठीक हो
जायेगा।
गंगा-स्नान
करो, सब
ठीक हो
जायेगा। वे भी
बड़ी झूठी
बातें हाथ में
दे रहे हैं।
महावीर
सीधी बीमारी
का निदान करते
हैं। वे कहते
हैं, न तो कोई
परमात्मा ऊपर
बैठकर
तुम्हें दुख
दे रहा है।
इसलिए
तुम्हें दुख
नहीं दिया जा
रहा है कि तुमने
प्रार्थना
नहीं की है, कि तुमने
पूजा नहीं की
है। ऐसा
परमात्मा भी
क्या
परमात्मा
होगा जो
तुम्हारी
पूजा की अपेक्षा
और आकांक्षा
रखता हो, और
जो इसलिए
नाराज हो जाता
हो कि तुम ठीक
से पूजा नहीं
कर रहे, प्रार्थना
नहीं कर रहे, तुम नियम और
व्यवस्था से
नहीं चल रहे!
ऐसा परमात्मा
तो बड़ा
अहंकारी
होगा। ऐसा परमात्मा
तो स्वयं दुखी
होगा, तुम्हें
कैसे सुखी कर
पाएगा? थोड़ा
सोचो, अगर
परमात्मा
तुम्हारी
प्रार्थनाओं
से सुखी होता
हो, तो मरा
जाता होगा, पागल हुआ
जाता होगा!
इतने लोग हैं,
कौन
प्रार्थना
करता है? जो
प्रार्थना
करते हैं, वे
भी परमात्मा
के लिए
प्रार्थना
नहीं करते; वे भी कुछ और
मांगने के लिए
करते हैं। जब
काम निपट जाता
है तो भूल
जाते हैं। दुख
में याद आ जाती
है, सुख
में विस्मरण
हो जाता है।
दुख में
विस्मरण नहीं
होता, सुख
में विस्मरण
हो जाता है।
परमात्मा को
तो वे भी याद
नहीं करते
हैं। तो
परमात्मा तो
पागल हुआ जा
रहा होगा, अगर
तुम्हारी
प्रार्थनाओं
से उसे
प्रसन्न होने
की अपेक्षा है
तो!
महावीर
कहते हैं, ऐसा कोई
परमात्मा
नहीं है। यह
भी तुम्हारे भुलावे
हैं। तुम सत्य
को नहीं देखना
चाहते कि
तुमने दुख
फैलाया, इसलिए
दुख पा रहे हो,
तो तुम कोई
न कोई बहाना
खोजते हो
बाहर। कभी
समाज-व्यवस्था
में, कभी
भाग्य में, कभी प्रकृति
के दोषों में,
कभी त्रिगुणों
में, कभी
परमात्मा की
प्रार्थना-पूजा
में--लेकिन तुम
बाहर कोई
सहारा खोजते
हो। तुम एक
बात नहीं देखना
चाहते कि तुम जुम्मेवार
हो।
जीवन
का सबसे बड़ा
कठोर सत्य यही
है--इसे
स्वीकार कर
लेना कि जो
मुझे हो रहा
है, उसके लिए
मैं जुम्मेवार
हूं। बड़ी
उदासी आएगी।
मैं जुम्मेवार
हूं--अपने
दुखों के लिए,
अपनी
चिंताओं के
लिए! दूसरे पर
जुम्मा टाल के
थोड़ी राहत
मिलती है। कम
से कम इतनी तो
राहत मिलती है
कि दूसरे कर
रहे हैं, मैं
क्या करूं!
असहाय होने का
मजा तो आ जाता
है।
महावीर
ने कहा, यह धोखाधड़ी
अब और मत करो।
यह तुमने किया
था, वही
लौट रहा है।
यह तुमने दिया
था, उसकी
ही
प्रतिध्वनि
है। और अगर
तुमने यह न
देखा तो तुम
फिर वही किए
चले जा रहे हो
जिसके कारण तुम
दुखी हो। तो
जाल फैलता ही चला
जायेगा।
यह
दुष्चक्र का
अंत ही न
होगा। चाक
घूमता ही रहेगा।
"जीववहो अप्पवहो!' जीव का वध
अपना ही वध
है। जब भी
तुमने किसी को
मारा, अपने
को ही काटा और
मारा।
"जीवदया अप्पणो
दया होइ।' और
जीव पर जब भी
तुमने दया की,
किसी पर भी,
तुमने अपने
पर ही दया की।
"अतः
आत्महितैषी
पुरुषों ने
सभी तरह की
जीव-हिंसा का
परित्याग
किया है।' यह
वचन समझना। "आत्महितैषी'
आत्मकाम--अत्त कामेहिं।
स्वार्थ का जो
अर्थ होता है,
वही। आत्महितैषी,
अपना हित चाहनेवालों
ने...।
यहां
जैनों को भी
कुछ बात समझ
लेनी जैसी है।
भ्रांतियां
हमारी ऐसी हैं
कि सत्य भी
हमारे हाथ लग
जाएं तो हम
उन्हें विकृत कर
लेते हैं। जैन
सोचते हैं कि
वे जीव-दया कर
रहे हैं, दूसरे
पर दया कर रहे
हैं। महावीर
कहते हैं, जिसने
जीव पर दया की
उसने अपने पर
दया की। बस इतना
ही। नहीं तो
एक नया अहंकार,
एक नया भूत
पैदा होता है
कि मैं
जीव-दया कर
रहा हूं, कि
मैं अहिंसक
हूं, कि
मैंने देखो
कितने जीवों
को बचाया! एक
नई अकड़ पैदा
होती है। इतना
ही कहो कि
तुमने अपने को
दुख देने से
स्वयं को
बचाया। तुमने
स्वार्थ साधा।
तुमने
आत्महित
साधा। इसमें
घोषणा और विज्ञापन
करने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। तुम ऐसी
तो घोषणा नहीं
करते कि आज
मैंने अपना
सिर दीवाल से
नहीं तोड़ा।
तुम ऐसा तो
नहीं कहते कि
आज मैंने पैर में
छुरा नहीं
मारा। तुम ऐसा
कहोगे तो लोग
हंसेंगे। लोग
कहेंगे, इसमें
क्या बड़ा किया?
यह तो सभी
करते हैं।
अगर
तुमने
जीव-हिंसा
नहीं की, तो
कुछ पुण्य
किया, ऐसा
मत सोचो। इतना
ही कि अपने पर
दया की। यह
सूत्र बड़ा
बहुमूल्य है।
नहीं तो एक
नया पागलपन
शुरू होगा।
पहले तुम
सोचते थे, दूसरे
तुम्हें दुख
दे रहे हैं; अब तुम
सोचने लगोगे
कि तुम दूसरों
को सुख दे रहे
हो। लेकिन अगर
तुम दूसरों को
सुख दे सकते हो
तो दुख भी दे
सकते हो। मूल
भ्रांति तो
मौजूद रही। और
अगर तुम
दूसरों को
सुख-दुख दे
सकते हो तो
दूसरे
तुम्हें
क्यों नहीं दे
सकते? तर्क
तो वहीं का
वहीं रहा, कहीं
हटा न।
महावीर
चाहते हैं कि
तुम इस गहन
सत्य को एक बार
प्रगाढ़ता
से अंगीकार कर
लो कि तुम जो
करोगे, वह
अपने ही साथ
कर रहे हो।
दूसरे निमित्त
हो सकते हैं, बहाने हो
सकते हैं।
लेकिन अंततः,
अंततोगत्वा,
सभी किया
हुआ अपने साथ
किया हुआ
सिद्ध होता है।
"जीव
का वध अपना ही
वध है। जीव की
दया अपनी ही
दया है...।'
महावीर
कहते हैं, धार्मिक
व्यक्ति
स्वार्थी
व्यक्ति है।
उसे समझ में आ
गया कि अपने
साथ क्या करना
है। उसने अपने
साथ
शिष्टाचार
सीख लिया।
अधार्मिक
व्यक्ति
अशिष्ट है; अपने साथ ही
अशिष्टता कर
रहा है।
अधार्मिक व्यक्ति
अज्ञानी है; अपने को ही
काट रहा है, चोट पहुंचा
रहा है। सोचता
है, दूसरे
को चोट पहुंचा
रहे हैं। उस
सोचने में, उस सपने में,
अपने को ही तोड़ता चला जाता
है।
"आत्महितैषी पुरुषों ने
सभी तरह की जीवहिंसा
का परित्याग
किया है।' उन्होंने
किसी भी तरह
की हिंसा को
अपने जीवन में
बचाया नहीं।
हिंसा
का अर्थ होता
है: दूसरे को
दुख देने की आकांक्षा।
हिंसा का अर्थ
होता है:
दूसरे के दुख
में सुख लेने
का भाव। हिंसा
का अर्थ है: परपीड़न
में रस। जिसको
आज आधुनिक
मनोविज्ञान सैडिज़म
कहता
है--दूसरे को
पीड़ा देने में
रस--उसको ही महावीर
हिंसा कहते
हैं।
महावीर
की हिंसा का
सिद्धांत अति
मनोवैज्ञानिक
है। दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं।
मनोवैज्ञानिक
उनका विभाजन
करते हैं।
एक--जिनको वे सैडिस्ट
कहते हैं, जो दूसरे को सताने में
रस लेते हैं।
एक बड़ा
लेखक हुआ:
सादे। उसके
नाम पर सैडिज़म
निर्मित हुआ।
उसका एक ही रस
था, दूसरों
को सताने
में। वह प्रेम
भी करता किसी
स्त्री को तो
द्वार-दरवाजे
बंद करके पहले
तो उसकी पिटाई
करता, कोड़े मारता, लहूलुहान
कर देता। वह चिल्लाती
और चीखती, भागती
और वह कोड़े
मारता। और
भागने का कोई
उपाय न था, द्वार-दरवाजे
बंद थे। जब तक
वह
चीखती-चिल्लाती
न, रोती-भागती
न, तब तक
उसकी
कामोत्तेजना
न जागती। ये कमोत्तेजना
का उपाय था।
जब वह स्त्री
भागने, चीखने-चिल्लाने
लगती और लहू
बहने लगता, तब उसकी कामोत्तेजना
जगती। तब वह
उसे प्रेम
करता। उसके
नाम पर सैडिज़म
शब्द निर्मित
हुआ। वह जेल
में मरा, क्योंकि
अनेक
स्त्रियों के
साथ उसने यही
किया।
लेकिन
एक बड़े
आश्चर्य की
बात पता चली
कि जिन स्त्रियों
ने भी दि सादे
से प्रेम किया, उनको फिर
किसी दूसरे का
प्रेम कभी न
जंचा। माना कि
वह दुबारा
हिम्मत न की
उसके पास जाने
की, लेकिन
फिर सब प्रेम
फीके पड़ गए।
यह भी थोड़ी हैरानी
की बात हुई।
जैसी
उत्तेजना
उसने जगाई, जैसा तूफान
उसने खड़ा कर
दिया, वैसा
फिर कोई भी न
कर पाया। दि
सादे तो अपना
बैग साथ में
लेकर चलता
था--कहां कौन
मिल जाये, क्या
पता! उस बैग
में, जैसे
डाक्टर लेकर
चलता है, उसका
सब साज-सामान
होता था। कोड़े,
कांटे, चुभाने
के सामान, सब
सामान लेकर
चलता था। कब
कहां कोई
स्त्री मिल
जाए, किसी
से प्रेम हो
जाए, और
सामान न हो तो
कैसे प्रेम
करे!
लेकिन
स्त्रियों के
अनुभव से भी
यह पता चला कि
उनको भी इसमें
रस आया है।
चाहे हिम्मत न
रही दुबारा इस
आदमी के पास
जाने की, लेकिन
इस आदमी को वे
स्त्रियां
कभी भूल न
सकीं। तो
मनोवैज्ञानिकों
को पहली दफा
एक सूत्र समझ
में आना शुरू
हुआ कि
स्त्रियों को
स्वयं को पीड़ा
देने में कुछ
रस मालूम होता
है; जैसे
पुरुषों को दूसरों
को पीड़ा देने
में कुछ रस
मालूम होता है।
फिर एक
दूसरा आदमी
हुआ: मैसोच।
उसके नाम पर
दूसरा शब्द
बना: मैसोचिज़म।
मैसोचिज़म
का अर्थ है:
स्वयं को दुख
देने में रस
लेना। वह खुद
को सताता था।
वह भी कोड़े
मारता था, लेकिन खुद
को मारता था।
और जब तक वह
अपने को ठीक
से पीटता, मारता
और खुद
चीखने-चिल्लाने
न लगता, तब
तक उसकी
कामोत्तेजना
न जगती थी। तो
जो स्त्री
उसके प्रेम
में पड़ जाती, वह स्त्री
को कहता कि
पहले मुझे
मारो, पीटो,
मेरी छाती
पर नाचो। जैसे
काली नाचती है
शिव की छाती
पर, ऐसा मैसोच
कहता कि पहले
मेरी छाती पर
नाचो, मुझे
रौंदो।
जब वह काफी
पीटा जाता, और खून बहने
लगता और सब
तरफ कोड़ों
के निशान बन
जाते, तब
कामोत्तेजना
का ज्वार
उठता। तब वह
प्रेम कर
पाता। ये भी
उसके लिए
कामोत्तेजना
को जगाने का
उपाय था। उसके
नाम पर
मनोवैज्ञानिकों
ने दूसरा शब्द
बनाया: मेसोचिज़म।
तो दो
तरह के लोग
हैं दुनिया
में: दूसरे के
दुख में रस
लेनेवाले और
स्वयं के दुख
में रस
लेनेवाले।
तुम
जिनको त्यागी, महात्मा
कहते हो, उनमें
से अधिक तो मेसोचिस्ट
हैं, बीमार
हैं।
वास्तविक
स्वस्थ आदमी न
तो दूसरे को
दुख देने में
रस लेता है, न खुद को दुख
देने में रस
लेता है। दुख
में रस नहीं
लेता--स्वस्थ
आदमी का लक्षण
है। दुख में
रस लेने का
अर्थ हुआ: परवर्शन;
कुछ विकृति
हो गई; कहीं
कुछ गड़बड़ हो
गई बात।
फूल
में कोई रस ले, यह समझ में
आता है: लेकिन काटों में
कोई रस लेने
लगे...। फूल को
कोई अपने
हाथों पर रखे,
आंखों की
पलकों से छुआए,
समझ में आता
है। फूल की
माला बनाकर
अपने गले में
डाल ले, समझ
में आता है।
लेकिन
कांटों को कोई
अपने में
चुभाने लगे और
कांटों का हार
बनाकर पहनने
लगे, तो कुछ
विकृति हो गई।
कहीं स्वभाव
से च्युत हो
गया यह आदमी।
दुख
में रस, चाहे
वह अपने दुख
में हो और
चाहे दूसरे के
दुख में हो, हिंसा है।
इसलिए अगर तुम
मुझ से पूछो
तो महावीर के
पीछे चलने
वाले जैन
मुनियों में
निन्यान्नबे
प्रतिशत तो
महावीर के
दुश्मन हैं।
वे हिंसा में
रस ले रहे हैं;
यद्यपि
उन्होंने
हिंसा का रुख
अपनी तरफ बदल
लिया है।
यह भी
थोड़ा सोचने
जैसा है।
महावीर
कहते हैं, दूसरे को भी
दुख दो तो भी
अपने पर लौटता
है--जरा वर्तुल
बड़ा होता है।
अगर
तुमको मैं कोड़ा
मारूं तो
भी कोड़ा
मेरी तरफ
लौटेगा, थोड़ा
समय लगेगा; क्योंकि तुम
तक की दूरी
जाना, फिर
लौटना। फिर हो
सकता है, तुम
भी सीधा-सीधा
न भेजो, केयर
आफ भेजो; तो
लंबी यात्रा
होगी। कभी जन्म
भी लग जाते
हैं। कभी
जन्मों के बाद
लौटेगा कोड़ा।
मैं भी भूल
चुका होऊंगा
कि कब तुम्हें
दिया था--लेकिन
आएगा।
फिर
जिसको मेसोचिस्ट
हम कहते हैं, वह ज्यादा
कुशल है। वह
कहता है, इतनी
लंबी यात्रा
क्या करनी है;
कोड़ा अपने हाथ
में लेकर खुद
ही को मार
लेना उचित है।
वह ज्यादा नगद
है। मगर हर
हालत में कोड़ा
अपने पर ही
पड़ता है। तो
दुख चाहे तुम
दूसरे को दो, चाहे अपने
को दो--तुम
हिंसक हो।
तुमने
देखा होगा
काशी के
रास्तों पर
कांटों पर
लेटे हुए
त्यागियों
को--वे मैसोचिस्ट
हैं, वे हिंसक
हैं। वे रस ले
रहे हैं खुद
को सताने
में।
तुमने
ऐसे साधुओं को
देखा होगा, जो महीनों
का उपवास कर
रहे हैं। वे दुखवादी
हैं। वे अपने
को सता रहे
हैं। वे हिंसा
में मजा ले
रहे हैं।
तुमने ऐसे
साधुओं के
बाबत सुना होगा,
जिन्होंने
अपनी आंखें फोड़ लीं।
वे दुखवादी
हैं। तुमने
ऐसे साधुओं के
संबंध में
सुना होगा
जिन्होंने
अपनी
जननेंद्रियां
काट ली हैं।
वे दुखवादी
हैं।
आदमी
दो हिस्सों
में बंटा है:
दूसरे को दुख
दो या अपने को
दुख दो, मगर
दुख दो।
स्वस्थ
आदमी सब भांति
की हिंसा का
त्याग करता है।
यह महावीर के
स्वास्थ्य की
परिभाषा है। स्वस्थ
व्यक्ति
अहिंसक होता
है। न वह
दूसरे को दुख
देता न स्वयं
को दुख देता, क्योंकि दुख
देने में कुछ
अर्थ ही नहीं
है। दुख देना
तो जीवन के
अवसर को
व्यर्थ करना
है, खराब
करना है। जहां
संगीत उठ सकता
था आनंद का, उस ऊर्जा को
तुमने दुख में
बदल लिया।
जहां फूल खिल
सकते थे, वहां
कांटे बिछा
लिये।
"जीव
का वध अपना वध
है।' ऐसे
महावीर
परमात्मा की
भावना को भीतर
से ले आते
हैं। मंदिर
गिरा देते हैं,
परमात्मा
को बचा लेते
हैं। क्योंकि
जब मेरे देने
से तुम तक दुख
पहुंचता है और
फिर मुझ पर लौट
आता है, तो
इसका अर्थ एक
ही हुआ कि मैं
और तुम जुड़े
हैं; कोई
सेतु है। कुछ
आवागमन हो रहा
है। कुछ
लेन-देन चल
रहा है। हमारे
फासले और फर्क
ऊपर-ऊपर होंगे,
भीतर कहीं
गहराई में हम
जुड़े हैं। तभी
तो मैं तुम्हें
दुख दे पाता
हूं और फिर
दुख मेरे पास लौट
आता है। बीच
में कोई दीवाल
होती, कोई
खाई होती, खड्ड
होता, सेतु
न होता, हमें
जोड़नेवाला
कोई तत्व न
होता, तो
ठीक था; दुख
कैसे लौटता? जाता है, आता
है। तरंगें
जाती हैं, लौट
आती हैं। अर्थ
हुआ कि कोई
गहराई में हम
एक ही सागर के
हिस्से हैं।
उस सागर का
नाम ही परमात्मा
है।
लेकिन
महावीर उसे
बाहर स्थापित
नहीं करते; तुम्हारे
भीतर स्थापित
करते हैं।
क्योंकि बाहर
जैसे ही परमात्मा
स्थापित किया
जाता है, लोग
पूजा और
प्रार्थना
में लग जाते
हैं। लोग जीवन
का रूपांतरण
नहीं करते, पूजा-प्रार्थना
करते हैं। वे
परमात्मा से
कहते हैं, हे
प्रभु! जीवन
को बदलो! बिगाड़ते
जीवन को खुद
हैं और आशा
रखते हैं, कोई
और बदलेगा। तो
फिर ऐसा
परमात्मा भी पुराने
ढांचे को
चलाने का ही
आधार बन जाता
है। क्योंकि
जब तक तुम न
बदलोगे, कोई
न बदलेगा। अगर
कोई परमात्मा
होता तो उसने कभी
का बदल दिया
होता। तुम
कितने दिन से
प्रार्थना कर
रहे हो!
तुम्हारे हाथ
कब से जुड़े
हैं नमाज में!
तुम कितने दिन
से झुके बैठे
हो मूर्तियों
के समाने! कुछ
भी तो नहीं
होता। सदियां
बीत गईं, जनम-जनम
तुमने
प्रार्थना की
है, पूजा
की है--कुछ भी
तो नहीं होता।
तुम वहीं के वहीं
हो।
देखो
पूजा
करनेवाले को!
रोज चला जाता
है मंदिर, रोज लौट आता
है--वही का वही
है! कोई भी तो
रूप बदलता
नहीं। हां, एक और खतरा
पैदा हो जाता
है। अब वह
आश्वस्त हो
जाता है कि
ठीक है, प्रभु
खयाल रखेगा।
और जो उसे
करना है, किये
चला जाता है।
जो करता है, उससे जीवन
निर्मित होगा;
पूजा से
नहीं।
देखो-देखो
इन आंसुओं पे "जमील'
तुहमते-इल्तिजा
न आ जाए!
जमील
ने कहा है कि
ये जो आंसू बह
रहे हैं आनंद
के, कोई भूल
से इन्हें
प्रार्थना न
समझ ले! कहीं
इन पर
प्रार्थना का
आरोप न आ जाए!
महावीर
ने कभी हाथ भी
नहीं जोड़े, झुके भी
नहीं--कहीं
प्रार्थना का
आरोप न आ जाए! कहीं
कोई यह न कह दे
कि यह आदमी
प्रार्थना कर
रहा है!
क्योंकि
प्रार्थना का
अर्थ हुआ:
मैंने किया है
गलत, कोई और
उसे ठीक कर
दे। लेकिन यह
तो गणित के
बाहर होगा, जीवन के
गणित के
विपरीत होगा।
मैंने किया
गलत, मुझे
ही ठीक करना
होगा। जो घट
रहा है मेरे
पास, वह
मेरे ही
कर्मों का फल
है। मुझे कर्म
रूपांतरित
करने होंगे।
कठिन होगा
मार्ग, लेकिन
कोई उपाय
नहीं। कठिन
होगा मार्ग, पर बस एक ही
मार्ग है।
कठिन ही मार्ग
है।
"जिसे
तू हनन योग्य
मानता है वह
तू ही है।' जिसे
तू मारने चला
है, जिसे
तूने मारने की
योजना बनाई है,
वह तू ही
है। "जिसे तू
आज्ञा में
रखने योग्य मानता
है, वह भी
तू ही है।' जिसे
तूने गुलाम
बना लिया है
वह भी तू है।
जिसे तू मारने
चला है वह भी
तू है। यह एक
ही आत्मा का विस्तार
है। ठीक तेरे
जैसा ही
चैतन्य दूसरे
में भी है।
हजार
मिट्टी के
दीये हों, ज्योति एक
है। ज्योति का
स्वभाव एक है।
मिट्टी के
दीयों में बड़ा
फर्क हो सकता
है--एक आकार, दूसरा आकार,
हजार आकार
हो सकते हैं; एक रंग, दूसरा
रंग, हजार
रंग हो सकते
हैं। छोटे
दीये, बड़े
दीये, लेकिन
सबके भीतर जो
ज्योति जलती
है वह एक है।
जो
मेरे भीतर है, उससे अन्यथा
तुम्हारे
भीतर नहीं है।
मुझ में और
तुम में जो
फर्क और फासले
हैं, वे
मिट्टी के
दीये के हैं।
मेरी देह अलग,
तुम्हारी
देह अलग; रंग-ढंग
अलग, शैली-व्यवस्था
अलग--पर सब
ऊपर-ऊपर की
बात है! जैसे-जैसे
भीतर उतरोगे,
वैसे-वैसे
ही भेद समाप्त
होते जाते
हैं। जब ठीक
अंतर्तम में
पहुंचोगे तो
पाओगे: जो
दीया यहां जल
रहा है, जो
ज्योति यहां
जल रही है, वही
ज्योति वहां
भी जल रही है।
ज्योति का
स्वभाव एक है।
इसलिए इस
ज्योति को
नुकसान
पहुंचाना
अपने ही स्वभाव
को नुकसान
पहुंचाना है।
"जिसे
तू हनन योग्य
मानता है वह
तू ही है। और
जिसे तू आज्ञा
में रखने
योग्य मानता
है, वह भी
तू ही है।
इसलिए न तो
किसी को आज्ञा
में रख, न
किसी को हनन
योग्य मान।'
यहां
सभी मालिक हैं; गुलाम होने
को कोई भी
नहीं है।
थोड़ा
सोचना। तुम तो
जिनसे प्रेम
करते हो, उन्हें
भी गुलाम बना
लेते हो। पति
पत्नी का मालिक
हो जाता है।
वह पत्नी से
कहता है, मान
कि मैं
परमात्मा
हूं। पति
परमेश्वर हो
जाता है।
पत्नी यद्यपि
लिखती है, "तुम्हारी
दासी' चिट्ठी-पत्री
में, बाकी
वह असलियत
नहीं है। दिल
में वह भी
सोचती है कि तुम्हारी
मालकिन।
इसीलिए तो घर
स्त्री का समझा
जाता है, वह
घरवाली समझी
जाती है। कोई
पति को थोड़े
ही घरवाला
कहता है, पत्नी
को! मालकियत
उसकी है। और
मुश्किल है
ऐसा पति खोजना
जो उसकी
मालकियत
मानकर न चलता
हो। तो
ऊपर-ऊपर पति
बाजार में
दिखलाता रहता
है कि मैं
मालिक हूं, भीतर-भीतर
पत्नी रोज उसे
जतलाती रहती
है सुबह से
सांझ तक, अनेक
मौकों पर
कि मालिक कौन
है, ठीक
समझ लेना!
मुल्ला
नसरुद्दीन
के घर उसके
मित्र इकट्ठे
थे एक दिन।
कुछ झंझट हो
गई। पत्नी
झपटी, जैसी
उसकी आदत। तो
वह भागकर बिस्तर
के नीचे छिप
गया। पत्नी
झुक आयी और
उसने कहा, "निकल
बाहर...! निकलो
बाहर।' तो
मुल्ला और
भीतर सरकता
गया बिस्तर
के। उसने कहा,
"निकलते हो
कि नहीं...!' उसने
कहा कि "आज तय
ही हो जाये कि
मालिक कौन है!
नहीं निकलते!'
यह कोई
तय करने का
ढंग हुआ!
लेकिन
जिन्हें हम
प्रेम करते
हैं उनको भी
हम गुलामी में
बांधते
हैं। इसलिए तो
प्रेम से भी
लोग ऊब जाते
हैं; प्रेम से
भी छुटकारा
चाहते हैं।
बड़ी अजीब बात है!
यहां इस जगत
में प्रेम भी
दुख देता
मालूम पड़ता
है। क्योंकि
प्रेम हम कहते
हैं, है
कुछ और। नाम
हम अच्छे
चुनते हैं, सुंदर चुनते
हैं--लेकिन
नाम ही सुंदर
और अच्छे हैं,
भीतर कुछ और
है।
तुम
जरा गौर करना
कि जब तुम
किसी को कहते
हो कि मुझे
तुझसे प्रेम
है, तो तुम
जरा गौर करना,
तुम्हारी
असली
आकांक्षा
क्या है? असली
आकांक्षा कुछ
और होगी।
प्रेम के नाम
के नीचे कुछ
और छिपा
होगा--हिंसा
छिपी होगी, स्वामित्व
का भाव छिपा
होगा, महत्वाकांक्षा
छिपी होगी। एक
आदमी को कब्जे
में ले लेने
की आकांक्षा
छिपी होगी।
इसीलिए तो
जिसको तुम
कब्जे में ले
लेते हो, उसमें
रस खो जाता
है।
किस
पति को पत्नी
में रस है? बड़ा रस था जब
तक पाया न था।
तब तक जान
दांव पर लगा
देने को तैयार
थे। मिलते ही
सब हाथ-पैर
ढीले हो जाते
हैं, बात
खतम हो गई!
क्योंकि जो रस
था, वह
जीतने में था।
जो रस था, वह
चुनौती में
था। अब चुनौती
दूसरी
स्त्रियों से
आती है, पत्नी
से नहीं आती।
पत्नी तो जीत
ली। अब जीते हुए
को क्या
जीतना! कोई भी
रास्ते से
गुजरती स्त्री
आकर्षण का
कारण बन जाती
है, क्योंकि
फिर, फिर
कोई विजय की
यात्रा के लिए
एक निमंत्रण
मिला। प्रेम
के नाम पर जीत
की आकांक्षा
होगी। जीत
यानी अहंकार।
और फिर प्रेम
के नाम पर
कब्जियत की
दौड़ चलती है, कौन कब्जा
करे! कौन असली
मालिक है, यह
तय करने में
जिंदगी खराब
हो जाती है।
हर छोटी-बड़ी
बात पर झगड़ा
चलता है। कलह,
एक-दूसरे को
आज्ञा में
रखने की
चेष्टा!...बाप
बेटे से कहता
है कि मेरी
मानकर चल, क्योंकि
मुझे तुझसे
प्रेम है। मैं
जो कहता हूं
वैसा कर, क्योंकि
मुझे तुझसे
प्रेम है। मैं
जो कहता हूं, उससे विपरीत
मत करना, क्योंकि
मुझे तुझसे
प्रेम है। मैं
तेरे हित में
कह रहा हूं!
अपना
हित साध नहीं
पाये, दूसरे
का हित तुम
क्या साधोगे?
खुद कोरे के
कोरे रह गये, बेटे को
उपदेश दिये जा
रहे हो! बेटा
भी सुन लेता
है जब तक
कमजोर है। वह
भी देखता है
कि ठहरो थोड़े,
जल्दी ही
मैं भी
शक्तिशाली हो जाऊंगा।
तो अगर बेटे
जवान होकर बाप
को सताने
लगते हैं, यह
कुछ आकस्मिक
नहीं है। हर
बाप ने बेटे
को, जब वह
छोटा था, सताया
है--उसके ही
हित में सताया
है; मगर
सताया है। हित
की बातें तो
सब व्यर्थ की
बकवास है--सताने
का मजा...!
बूढ़े
हो जाने पर
बेटा उत्तर
देने लगता है।
जो दिया था, वह वापिस
लौटने लगता
है।
मैंने
सुना है, एक
घर में शादी
होकर, पत्नी
आयी। तो बूढ़ा
बाप, पति
का बाप, उसे
पसंद नहीं
पड़ता था। किसी
को पसंद नहीं
पड़ता। वह
चाहती थी कि
किसी तरह इस
बूढ़े से
छुटकारा हो।
एक बोझ...।
लेकिन कोई
उपाय न था।
कहीं जाने की
कोई जगह न थी।
बूढ़े को वहां
रहना ही पड़ा।
वह बहुत बूढ़ा
हो गया था।
उसके हाथ भी
कंपते थे।
भोजन करता तो
कभी-कभी चम्मच
से बाहर सामान
भी गिर जाता, कभी चम्मच
भी गिर जाती, कभी उसके
कपड़ों पर भी
खाना गिर
जाता। तो
पत्नी बहुत
नाराज होती
थी। आखिर
पत्नी ने एक
दिन उसे उठा
दिया कुर्सी
से, खाने
की टेबल पर से,
कोने में ले
जाकर बिठा
दिया और कहा
कि चम्मच से
अब खाना तुम
बंद करो! एक
बर्तन में
इकट्ठा सब भोजन
रख दिया और
कहा कि इसी से
तुम भोजन करो।
उस दिन से
बूढ़े को टेबल
पर आने की
मनाही हो गई।
लेकिन बूढ़ा
बूढ़ा होता जा
रहा था और
हाथ-पैर उसके
कंपते थे और
अब और कंपने
लगे। क्योंकि
अब घर में यह स्थिति
हो गई कि आदमी
की आदमी की
तरह गिनती न रही।
एक दिन उसके
हाथ से बर्तन
भी छूट गया, तो उसकी बहू
ने कहा कि "अब
बहुत हो गया!
अब तुम्हें तो
जानवरों जैसी
व्यवस्था
करनी पड़गी।'
तो उसने एक
बड़ी बालटी में
उसके सामने भोजन
रखना शुरू कर
दिया; जैसे
गाय-भैंस का
रखते हों।
ऐसा
कुछ दिन चला।
इस युवती का
छोटा बेटा था।
वह यह सब
देखता रहता
था। एक दिन वह
बाहर से, बढ़ई
कुछ काम कर
रहा था घर में,
लकड़ी के
टुकड़े उठा
लाया और
उन्हें जोड़-जोड़कर कुछ
बनाने लगा। तो
उसकी मां ने
और उसके पिता
ने, दोनों
टेबल पर बैठे
थे, पूछा,
"क्या कर
रहे हो?' तो
उसने कहा कि
मैं भी आप
दोनों के लिए,
जब आप बूढ़े
हो जाएंगे, तो यह लकड़ी
की बालटी बना
रहा हूं।
स्वभावतः
सब चीजें
वर्तुल में
घूमती हैं। जो
तुम अपने बाप
के साथ कर रहे
हो, याद रखना,
बेटा
तुम्हारे साथ
करेगा! ध्यान रखना,
जो बेटा
तुम्हारे साथ
कर रहा है, वह
तुमने अपने
बाप के साथ
किया था। और
ध्यान रखना, तुम जो बेटे
के साथ अभी कर
रहे हो, वह
कल लौटायेगा।
क्योंकि
जिंदगी में
कोई भी चीज
रुकती नहीं, लौटानी पड़ती है।
सोच-समझकर!
प्रेम के नाम
पर अधिकार, गुलामी मत
थोपना।
क्योंकि प्रेम
तो परम
स्वतंत्रता
है। जिसको
प्रेम है, वह
अकारण है। वह
कुछ भी थोपता
नहीं। प्रेम
का अर्थ ही
होता है:
दूसरे को
दूसरा होने
देने की स्वतंत्रता।
दूसरा जैसा है
उसको वैसा ही
अंगीकार कर
लेने की
क्षमता प्रेम
है। न उसे
बदलना
है--बड़े-बड़े
आदर्शों के
नाम पर भी नहीं,
क्योंकि सब
आदर्श
मालकियत करने
के ढंग हैं। तुम
बेटे से कहते
हो, यह आदत
गलत है, इसे
छोड़ो! अब
तुम आदत के
बहाने बेटे की
गर्दन पर
कब्जा कर रहे
हो। आदत अगर
गलत है तो
निवेदन कर दो।
आदत अगर गलत
है तो जतला
दो। लेकिन
इसके बहाने
मालकियत मत
करो। इतना ही
कहो कि मुझे
गलत दिखाई
पड़ती है आदत, फिर
तुम्हारी
मर्जी! फिर
तुम अपने
मालिक हो! फिर
अगर तुमने गलत
को भी चुना, तो चुनो!
कल रात
मैं एक आधुनिक
विचारक, "साज़'
की एक किताब
पढ़ रहा था।
उसमें कुछ
परिभाषाएं दी
हैं। उसमें
जवान, प्रौढ़
आदमी की
परिभाषा भी
है। उसने लिखा
है: प्रौढ़ वह आदमी
है, जिसे
ठीक करने की
तो आजादी है
ही, गलत
करने की भी
आजादी है। अगर
गलत करने की
आजादी न हो तो
आजादी क्या
हुई? अगर
ठीक ही करने
की
स्वतंत्रता
हो तो यह तो स्वतंत्रता
शब्द का बड़ा
दुरुपयोग
हुआ।
प्रेम
स्वतंत्र
करता है।
निश्चित, सावधान
करता है, कि
यहांऱ्यहां
मैं गया हूं
और मैंने गङ्ढे
पाए, तुम
सोच-समझ कर
जाना, सम्हलकर
जाना। अगर
जाने का मन हो
तो मेरा अनुभव
ले लो, मेरे
अनुभव के बाद
जाना। जाने से
नहीं रोकता हूं;
लेकिन मैं
गिर गया था, उसकी खबर
तुम्हें दे
देता हूं। हो
सकता है, तुम
न भी गिरो। हो
सकता है, तुम
सम्हलकर जाओ
और बचकर निकल
आओ। लेकिन मैं
जल गया था। तो इतना
तुम्हें कह
देता हूं कि
वहां जलन है, फिर तुम
सोचकर जाना। न
जाओ, तुम्हारी
मर्जी! जाओ
तुम्हारी
मर्जी!
अपना
सत्य निवेदन
कर देना
पर्याप्त है।
लेकिन गर्दन
पर हम हावी हो
जाते हैं। हम
आदर्शों का
उपयोग भी
कारागृहों की
तरह करते हैं, जंजीरों की तरह करते
हैं।
महावीर
कहते हैं:
"जिसे
तू हनन योग्य
मानता है, वह
तू ही है। और
जिसे तू आज्ञा
में रखने
योग्य मानता
है वह भी तू ही
है।'
एक बड़ी
महत्वपूर्ण
बात इस सूत्र
से निकलती है।
अगर तुमने
किसी को गुलाम
बनाने की
चेष्टा की तो
वही व्यक्ति
तुम्हें भी
गुलाम बनाने
की चेष्टा करेगा।
क्योंकि जिसे
तुम आज्ञा में
रखना चाहते हो, वह तुम ही
हो। भूल के
किसी को गुलाम
मत बनाना, अन्यथा
तुम गुलाम बन
जाओगे। और अगर
तुम गुलाम बन
गए हो तो
खोजबीन करना;
तुम पाओगे
कि गुलाम
बनाने की
आकांक्षा का
ही यह परिणाम
है। परिपूर्ण
स्वस्थ आदमी
वही है, जो
न तो किसी का
गुलाम है और न
किसी को गुलाम
बनाना चाहता
है। क्योंकि
जब तक गुलाम
बनाने की चाह
है तब तक
गुलामी आती
रहेगी।
ठीक
तुम जैसे ही
लोग हैं सब
तरफ। जो तुम
चाहते हो, वही वे भी
चाहते हैं। जो
तुम नहीं
चाहते, वही
वे भी नहीं
चाहते। इस
सत्य को ठीक
से समझना।
जीसस
से कोई पूछता
है, एक युवक निकोदेमस,
कि मैं
जल्दी में हूं,
मुझे कुछ
छोटा-सा सूत्र
दे दें जो
मेरा जीवन बदल
दे। तो जीसस
ने कहा, दूसरे
के साथ वह मत
करना, जो
तुम चाहते हो,
दूसरा
तुम्हारे साथ
न करे।
उन्होंने कहा,
इतना काफी है।
इतने से सारा
धर्म निकल आता
है। दूसरे के
साथ वह मत
करना, जो
तुम नहीं
चाहते कि
दूसरा
तुम्हारे साथ
करे। बस काफी
है।
यह एक
वचन ही बाइबिल
की पूरी कथा
है, पूरा सार
है। महावीर का
भी पूरा सार
यही है। वे
समझा रहे हैं
कि तुम्हें यह
बात खयाल में
आ जाये कि
दूसरा "दूसरा'
नहीं
है--तुम्हारे
जैसा ही
चैतन्य, तुम्हारी
जैसी ही आत्मा,
ठीक
तुम्हारे ही
जैसे सुख और
दुख का
आकांक्षी, ठीक
तुम जैसा ही
मोक्ष का खोजी,
स्वतंत्रता
का दीवाना है।
इतना
खयाल रखना।
इतना खयाल
रखकर अगर चले
तो न तो तुम
किसी को बांधोगे
और न तुम बंधोगे।
बांधनेवाला
भी बंध जाता
है। कारागृह
का मालिक भी
कारागृह को
छोड़कर थोड़े ही
जा सकता है।
कैदी भीतर
होंगे, मालिक
बाहर
होगा--लेकिन
बाहर जो है वह
भी खड़ा रहता
है कि कैदी
भाग न जायें।
उसे भी
कैदियों कि
साथ कैदी ही
हो जाना पड़ता
है।
"जिनों
ने, जाग्रत
पुरुषों ने
कहा है, राग
आदि की
अनुत्पत्ति
अहिंसा, और
उसकी
उत्पत्ति
हिंसा है।'
"जागे
हुए पुरुषों
ने कहा है, राग
आदि की
उत्पत्ति
हिंसा और
अनुत्पत्ति
अहिंसा है।'
यह
अहिंसा का बड़ा
सूक्ष्मतम
विश्लेषण है।
दूसरे को चोट
करने जाओ, यह तो दूर की
बात है। यह तो
फिर विचार का
स्थूल होने की
बात है।
तुम्हारे मन
में राग उठा
तभी हिंसा उठ
जाती है। फिर
तुम करो या न
करो, यह
सवाल नहीं है।
तुम्हारे मन
में जरा-सा
राग उठा...तुम
राह से जाते
थे, एक बड़ा
मकान देखा, तुम्हारे मन
में हुआ: "ऐसा
मकान मैं भी
बनाऊं!' हिंसा
हो गई। हिंसा
का बीज पड़ गया;
क्योंकि अब
इस बड़े मकान
को बनाने के
लिए धन चाहिए,
इस बड़े मकान
को बनाने के
लिए दूसरों से
धन छीनना
पड़ेगा। इस बड़े
मकान को बनाने
के लिए अब प्रतिस्पर्धा
करनी पड़ेगी।
इस बड़े मकान
को बनाने के
लिए ईमानदारी,
बेईमानी, सब मार्गों
से खोजबीन
करनी
पड़ेगी--जैसे
भी। इस बड़े
मकान की
आकांक्षा के
उठते ही
तुम्हारे
भीतर हिंसा का
बीज पड़ गया।
देर लगेगी
वृक्ष बनने
में; लेकिन
अगर बचना हो
वृक्ष से तो
बीज से ही बच
जाना।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, राग की
उत्पत्ति--हिंसा।
ऐसा मत सोचना
कि किसी की
गर्दन काटोगे
तब हिंसा।
यही
अपराध और पाप
का भेद है।
अपराध--जब पाप वास्तविक
होकर प्रगट हो
जाता है। जब
पाप कानून की
पकड़ में आ
जाता है तो
अपराध। और जब
तक पाप कानून
की पकड़ में
नहीं आता तभी
तक पाप। तुम
अपने मन में
बैठे अगर
दुनियाभर को
भी मारने का
विचार करते
रहो, तो कोई
अदालत
तुम्हें दंड
नहीं दे सकती।
पुलिस नहीं आ
सकती पकड़ने
कि तुम बहुत
हिंसा के
विचार कर रहे
हो। विचार की
स्वतंत्रता
है तुम्हें।
विचार को
व्यक्त मत
करना।
कानून
इतनी ही फिक्र
करता है कि
तुम जो सोचते हो, करना मत; किया
तो पकड़े
गये। अगर तुम
सिर्फ सोचते
रहो, तुम्हारी
मौज। लेकिन
धर्म इससे
गहरे जाता है।
धर्म कहता है,
तुम सोचना
मत। क्योंकि
जो तुमने सोचा,
कितनी देर
बचोगे करने से?
विचार
वस्तु बन जाता
है। जो भाव है,
वह कल घना
होकर बरसेगा।
आज जो बिलकुल
छोटा-सा मालूम
पड़ता था, वह
कल बड़ा हो
जायेगा; वह
फैलता रहेगा।
आज कहीं भी
पता न चलता था,
तुम बिलकुल
शांत बैठे थे।
महावीर
के जीवन में
उल्लेख है कि
उनका एक शिष्य
था: प्रसेनचंद्र।
वह सम्राट था
पहले, फिर
संन्यस्त हो
गया, नग्न
मुनि हो गया।
एक दिन
प्रसेनचंद्र
का एक दूसरा
मित्र बिंबिसार
महावीर के
दर्शन को आया।
वह भी सम्राट
था। उसने आकर
महावीर को
पूछा कि राह
में प्रसेनचंद्र
को खड़े देखा
एक गुफा में। धन्यभागी
है प्रसेनचंद्र!
मेरा बचपन का
साथी है। वह मुनित्व
को उपलब्ध हो
गया। वह
दिगंबर मुनि
हो गया। एक मैं
हूं अभागा, अभी भी सड़-गल
रहा हूं संसार
में। एक
प्रश्न मेरे
मन में उठा है,
वह आप से
पूछना है। जब
मैं प्रसेनचंद्र
के पास से
गुजर रहा था
और मेरे मन
में यह भाव
उठा कि धन्यभागी
है प्रसेनचंद्र--मेरे
साथ ही बड़ा
हुआ, साथ
हम पढ़े और
लिखे और खेले
और ये इतने
बड़े आंतरिक
साम्राज्य का
मालिक हो गया
और मैं कुछ भी
न कर पाया; मैं
बाहर की
व्यर्थ की
चीजें जुटाने
में लगा रहा; मेरी जिंदगी
यूं ही गई--तो
तब मेरे मन
में सवाल उठा
था कि अगर प्रसेनचंद्र
की इसी समय
मृत्यु हो
जाये तो यह
किस स्वर्ग में
या मोक्ष में जन्मेगा, वह मैं आप से
पूछता हूं।
महावीर
ने कहा, उस
समय अगर प्रसेनचंद्र
की मृत्यु हो
जाती तो वह
सातवें नर्क
में पड़ता।
बिंबिसार
ने कहा, आप
क्या कहते हैं?
सातवें
नर्क में? तो
हमारी क्या
गति होगी? वह
सब छोड़कर खड़ा
है!
महावीर
ने कहा कि तुम
आए, उसके
पहले
तुम्हारा फौज-फांटा आया;
तुम्हारे
वजीर निकले, सेनापति
निकले, सिपाही
निकले, उन
सब ने भी प्रसेनचंद्र
को देखा।
तुम्हारे दो
वजीर उसके पास
खड़े होकर बात
करने लगे कि
ये देखो, बुद्धू
की तरह यहां
खड़ा है! यह प्रसेनचंद्र
है! यह बड़ा
सम्राट था।
अगर आज लगा
रहता अपने काम
में तो सारी
जमीन का मालिक
हो जाता। यहां
बुद्धू की तरह
खड़ा है नग्न!
और ये अपने वजीरों
के ऊपर सब छोड़
आया है। इसके
बेटे छोटे हैं
और वजीर सब
लूटे ले रहे
हैं। जब तक
इसके बेटे बड़े
होंगे तब तक खजाने में
कुछ बचेगा ही
नहीं।
उन
दोनों वजीरों
ने ऐसी बात की, प्रसेनचंद्र ने सुनी। वह
आंख बंद किये
खड़ा था। लेकिन
उसने सुनी।
सुनते ही
क्रोध आ गया।
उसने कहा, "अच्छा!
तो मेरे वजीर
समझते क्या
हैं, क्या
मैं मर गया
हूं! मैं अभी
जिंदा हूं!' क्रोध में, जैसी उसकी
पुरानी आदत थी,
हाथ उसका
तलवार पर चला
गया। तलवार अब
नहीं थी, अब
तो नंगा खड़ा
था। लेकिन
पुरानी आदत...!
तलवार पर हाथ
चला गया। जब
तलवार पर उसका
हाथ गया तो उसकी
पुरानी एक और
आदत भी थी कि
जब भी वह बहुत
क्रोध में आ
जाता और तलवार
पर उसका हाथ
जाता तो दूसरे
हाथ से वह
अपना मुकुट
सम्हालता कि
कहीं वह गिर न
जाये क्रोध
में। अब मुकुट
भी न था।
दूसरा हाथ
उसने मुकुट
सम्हालने के
लिए रखा; वहां
कुछ भी न था।
अपने ही माथे
को छूकर उसे
याद आयी कि
अरे, यह
मैं क्या कर
रहा हूं!
तत्क्षण उसने
अपना तनाव छोड़
दिया, हिंसा
का भाव छोड़
दिया।
तो
महावीर ने कहा, जब तुम गुजर
रहे थे उसके
पास से, तब
उसका हाथ
तलवार पर था।
मरता तो
सातवें नर्क
जाता। लेकिन
अब अगर मरे तो
मोक्ष उसका
है। घड़ी भर का
ही फासला हुआ
है। बाहर से
देखने पर प्रसेनचंद्र
अब भी वैसा
है। बाहर तो
कोई भी फर्क न
पड़ा, लेकिन
भीतर की भाव-दशा
बदल गई।
तुम्हारा
होना, तुम्हारा
भीतर, तुम्हारा
आंतरिक तत्व
है। भाव
तुम्हें भीतर बदलते
हैं। विचार
तुम्हें भीतर
बदलते हैं। बाहर
तो जब तुम
विचारों को
लाते हो तो
समाज शुरू
होता है। समाज
जहां शुरू
होता है वहां
कानून शुरू
होता है।
लेकिन तुम
जहां हो, वहां
पाप और पुण्य
का हिसाब है, वहां धर्म
का हिसाब है।
"राग
आदि की
उत्पत्ति
हिंसा, अनुत्पत्ति
अहिंसा है।'
जान
भी जिंदगी पे
देते हैं
जिंदगी
काबिलेऱ्यकीं
भी नहीं।
मैं
हूं वोह जिससे
चर्ख दबता था
अब
तो गरदानती
जमीं भी
नहीं।
आज
नहीं कल, यह
शरीर तो
गिरेगा, मिट्टी
में मिल
जायेगा। मैं
हूं वोह जिससे
चर्ख दबता था--कभी
आकाश दबता था।
अब तो गरदानती
जमीं भी
नहीं--फिर
जमीन भी कोई
फिक्र न
करेगी।
जान भी
जिंदगी पे
देते हैं।
जिंदगी
काबिलेऱ्यकीं
भी नहीं।
और जिस
जिंदगी पर हम
मरने-मारने को
उतारू हो जाते
हैं, वह
जिंदगी पानी
का एक बबूला
है--अब मिटा तब
मिटा; एक
सपने में
खींची गई लकीर
है--खिंची भी
नहीं, सिर्फ
खिंचे
होने का खयाल
है!
जिस
जिंदगी के लिए
हम मरने-मारने
को उतारू हो जाते
हैं उस जिंदगी
का मूल्य
कितना है? जिस दिन
व्यक्ति को
अपने जीवन का
मूल्य दिखाई पड़ना शुरू
होता है कि इस
जीवन का कोई
भी मूल्य नहीं
है, मिट्टी
में मिट्टी
गिर जायेगी, तो मैं
व्यर्थ इस
मिट्टी को
बचाने के लिए
जो उपाय करता
हूं, राग-द्वेष
करता हूं, उनका
कोई सार नहीं
है। जीवन की
असारता दिखाई
पड़ जाये तो सब
राग-द्वेष की
असारता दिखाई
पड़ जाती है।
उस असारता के
अनुभव का नाम
ही अहिंसा है!
लेकिन
हम झूठ में
ऐसे रगे-पगे
हैं, कि जहां
बार-बार आशा
टूटती है वहां
भी आशा किये
चले जाते हैं;
जहां कभी
कुछ नहीं
मिलता वहां भी
खोजे चले
जाते हैं!
एक
सूफी फकीर के
घर एक रात चोर
घुस गए। सूफी
सोया था, उठा
और दीया जला
लिया उसने।
चोर बड़े घबड़ा
गए। उसने कहा,
"घबड़ाओ मत! मैं
तुम्हारा साथ
दूंगा।'
उन्होंने
कहा, "मतलब? तुम पागल तो
नहीं हो? होश
में हो? हम
चोर हैं!'
उसने
कहा, "तुम
फिक्र छोड़ो।
इस घर में मैं
तीस साल से रह
रहा हूं और
खोज रहा हूं
कि कुछ मिल
जाये, मिलता
नहीं। मैं
तुम्हें साथ
दूंगा। अगर
तुम खोज लो, आधा-आधा
बांट लेंगे।
तो मैं दीया
जलाकर आया, भाग मत
जाना।'
जिस
जिंदगी में
तुम रह रहे हो
जन्मों से, उसमें कुछ
पाया है? लेकिन
उम्मीद नहीं
छूटती। शायद
मिले कल, ऐसे
आशा के सहारे
बंधे जीते हो।
अनुभव पर सदा तुम्हारी
आशा जीत जाती
है। यही जीवन
का सबसे बड़ा
रोग है: अनुभव पर
आशा की जीत।
अनुभव तो कहता
है, कुछ भी
नहीं है।
अनुभव तो हजार
बार कह चुका
कि कुछ भी
नहीं है।
अनुभव से तो
सदा हाथ में
राख लगी है।
लेकिन आशा
कहती है, कौन
जाने!
उम्मीद
तो बंध जाती, तस्कीन तो
हो जाती
वादा न
वफा करते, वादा तो
किया होता।
उम्मीद
तो बंध जाती, तस्कीन तो
हो जाती--एक
भरोसा तो आ
जाता, एक
आशा तो बंध
जाती! वादा न
वफा करते--कोई
जरूरत न थी कि
जो वायदा किया
था वह पूरा
करते। वादा तो
किया होता!
आदमी
इतने से ही जीये
चला जाता है:
"कहा तो होता!
आशा तो बंधा
दी होती! सांत्वना
तो रखवा देते!'
तुमने
कभी गौर किया? तुम उन
चीजों पर भी
भरोसा किये
जाते हो जिनको
तुम जानते हो
कुछ परिणाम
होने का नहीं।
बहुत बार जान
चुके हो कि
कुछ मिलता
नहीं! कितनी
बार क्रोध
किया! कितनी
बार कामवासना
में जले, डूबे,
क्या मिला?
हाथ खाली के
खाली रहे।
लेकिन फिर
भी...।
हजार
बार भी वादा
वफा न हो लेकिन
मैं
उनकी राह में
आंखें बिछा के
देख तो लूं।
--न
आये, कोई
हर्जा नहीं!
हजार बार न
आये, कोई
हर्जा नहीं।
एक हजार एकवीं
बार शायद आ
जाये। मैं
उनकी राह में
आंखें बिछा के
देख तो लूं!
ऐसे ही
सब बैठे हैं
अपने दरवाजों
पर, राह में
आंखें बिछाए,
उसकी, जो
न कभी आया है और
न कभी आएगा।
बंद करो
दरवाजे। उठो,
बहुत देख
चुके यह राह!
तुम जिसकी राह
देख रहे हो, वह है ही
नहीं। उसके
आने का कोई
सवाल नहीं है।
वासनाओं
से जिसने आनंद
के आने की राह
देखी है वह
गलत की राह
देख रहा है, जो आ ही नहीं
सकता। वासना
का स्वभाव
आनंद नहीं।
सिर्फ आशा बंधाती
है। वासना ढपोरशंख
है।
तुमने
कहानी सुनी है? एक आदमी ने
शिव की बड़ी
भक्ति की। जब
उसकी भक्ति
पूरी हो गई, शिव ने कहा, तू वरदान
मांग ले। उस
आदमी ने कहा,
"मैं क्या मांगूं! आप
ही जो उचित हो,
दे दें।' शिव ने
उठाकर अपना
शंख दे दिया
और कहा, यह
शंख है, इससे
तू जो भी मांगेगा
मिल जायेगा।
तू कहेगा कि
एक मकान मिल
जाये, एक
मकान मिल
जायेगा। तू
कहेगा, धन
की वर्षा हो जये, धन
की वर्षा हो
जायेगी।
उस
आदमी ने
तत्क्षण--शिव
को तो भूल ही
गया--प्रयोग
किया कि
हीरे-जवाहरात
बरस जाएं, बरस गए। घर, आंगन, द्वार
सब भर गए। यह
खबर धीरे-धीरे
आसपास फैलने
लगी। क्योंकि
अचानक वह आदमी
ऐसी शान से
रहने लगा कि
दूर-दूर तक
उसकी सुगंध फैल
गई। एक
संन्यासी
उसके दर्शन को
आया। वह रात ठहरा।
संन्यासी ने
कहा कि मुझे
पता है कि
तुम्हें शंख
मिल गया है, क्योंकि
मुझे भी मिल
गया है। मैंने
भी शिव की भक्ति
की थी। मगर
तुम्हारा शंख
मुझे पता नहीं,
मेरा शंख तो
महाशंख है।
इससे जितना
मांगो, दुगना
देता है। कहो
लाख मिल जायें
दो लाख...।
तो
उसने कहा, देखें
तुम्हारा शंख!
लोभ बढ़ा। इतना
सब मिल रहा था
उसे, लेकिन
फिर भी लोभ
पकड़ा। उसने
कहा, देखें
तुम्हारा
शंख। उस
संन्यासी ने
शंख दिखलाया
और संन्यासी
ने शंख से कहा
कि एक करोड़
रुपये चाहिए।
शंख बोला, एक
क्या करोग,
दो ले लो! वह
भक्त तो...कहा
कि बस ठीक है।
आप तो संन्यासी
हैं, आपको
क्या करना!
छोटे शंख से
भी काम चल
जायेगा, छोटा
मेरे पास है।
छोटा तो उसने
संन्यासी को दे
दिया।
संन्यासी तो
भाग गया उसी
रात। उसने
सुबह उठते ही
से
पूजा-प्रार्थना
की, अपने
महाशंख को
निकाला और कहा,
"हो जाये करोड़
रुपयों की
वर्षा!' शंख
बोला, दो करोड़ की कर
दूं? मगर
हुआ कुछ भी
नहीं। उस आदमी
ने कहा, "अच्छा
दो करोड़
की सही।' उसने
कहा, अरे, चार की कर
दूं? मगर
हुआ कुछ नहीं।
वह आदमी थोड़ा
घबड़ाया। उसने
कहा कि भई
करते क्यों
नहीं...चार ही
सही। उसने कहा,
"अरे, आठ
की कर दें न...!' ऐसा
ही ढपोरशंख
था वह। उससे
कुछ हुआ नहीं,
वह दुगना
करता जाता...!
वासना ढपोरशंख
है। राग ढपोरशंख
है। वह तुमसे
कहता है कि
होगा, होगा;
जितना मांग
रहे हो उससे
ज्यादा होगा।
तुम्हारे
सपने से भी
बड़ा सपना पूरा
कर के दिखला
दूंगा। क्या
तुमने खाक आशा
की है! जो तुम्हें
दूंगा, तुम
चकित हो
जाओगे। तुमने
इसकी कभी आशा
भी नहीं की थी,
सोचा भी न
था।
मगर ये
सब बातें हैं।
अनुभव तो कुछ
और कहता है।
अनुभव तो कहता
है, न दो की
वर्षा होती है,
न चार की
वर्षा होती है,
न आठ की
वर्षा होती
है। लेकिन आशा
बड़ी होती चली
जाती है। आशा
कहे चली जाती
है, "अरे!
और कर दूं! तुम
घबड़ा क्यों
रहे हो? अगर
इतने दिन
बेकार गये, कोई फिक्र
नहीं, आगे
देखो, भविष्य
में देखो!
अतीत का हिसाब
मत रखो। सूरज ऊगेगा!
चंदा चमकेगा!
जरा आगे देखो!'
आशा
तुम्हें आगे
खींचे लिये
चली जाती है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, "राग की
उत्पत्ति...।' जहां से आशा
का जन्म होता
है, वहीं
समझने की
जरूरत है, वहीं
जागने की
जरूरत है।
वहीं आशा को
मत सहारा
देना। कहना, "ठीक ढपोरशंख,
तुझे जो
कहना हो, कह।
हम कुछ मांगते
ही नहीं। न हम
लाख मांगते न
दो लाख
मांगते। हमने
मांग ही छोड़
दी।' थोड़े
दिन में तुम
पाओगे कि जब
तुम न मांगोगे
तो ढपोरशंख
दुगना न कर
पाएगा।
क्योंकि वह
दुगना तभी
करता है, जब
तुम मांगते
हो। तुम न
मांगो तो वह
चुप हो जाएगा।
तुम न मांगो
तो वासना आशा
न बंधाएगी।
तुम मांगते हो,
इसलिए बंधाती
है। भूल
तुम्हारे
मांगने में हो
जाती है। तुमने
मांगा कि तुम
आशा के चक्कर
में पड़े। आशा
कहती है, दुगना
दिला देंगे!
जड़ से
महावीर पकड़ते
हैं।
"हिंसा
करने के
अध्यवसाय से
ही कर्म का
बंध होता है।
फिर कोई जीव
मरे या न मरे, जीवों के
कर्म-बंध का
यही स्वरूप
है।'
यह बड़ा
बहुमूल्य
सूत्र है। इस
सूत्र को गीता
के
परिप्रेक्ष्य
में समझने की
जरूरत है, क्योंकि
गीता का सारा
संदेश यही है।
कृष्ण अर्जुन
को कहते हैं, न कोई मरता
है न कोई
मारता है, तो
तू बेफिक्री
से मार।
क्योंकि
आत्मा तो अमर है।
न हन्यते हन्यमाने
शरीरे! शरीर
के मारने से
वह नहीं मरती।
तू फिक्र छोड़!
यह तो मिट्टी
है, गिरेगी,
गिर
जायेगी।
लेकिन जो इसके
भीतर छिपा है,
वह तो रहेगा
और रहेगा!
कृष्ण
बिलकुल ठीक कह
रहे हैं, आत्मा
मरती नहीं।
महावीर कुछ और
बात प्रवेश करते
हैं। महावीर
कहते हैं, हिंसा
करने के अध्यवसाय
से...हिंसा
करने के विचार
से, भाव से,
कर्म का बंध
होता है। फिर
कोई जीव मरे
या न मरे...।
किसी के मरने
से हिंसा नहीं
होती; तुमने
मारना चाहा, इससे हिंसा
होती है।
कृष्ण
बिलकुल ठीक
कहते हैं कि
काट डालो, कोई मरेगा
नहीं; क्योंकि
आत्मा मरणधर्मा
नहीं है। लेकिन
महावीर कहते
हैं, तुमने
काट डालना
चाहा! कटा कोई
या नहीं कटा, यह सवाल
नहीं है; तुमने
काटना चाहा, तुम्हारी उस
चाह में हिंसा
है। फिर कोई
मरा न मरा, यह
बात
अप्रासंगिक
है। तुमने
मारना चाहा था,
तुम फंस गए।
तुम्हारी
मारने की चाह
ने बीज बो दिया।
तुम दुख
पाओगे। तुम्हें
दुख मिलेगा।
इसलिए नहीं कि
तुमने लोग मारे,
क्योंकि
लोग तो मरे ही
नहीं, लेकिन
तुमने मारना
चाहे।
वस्तुतः
हिंसा घटती है
या नहीं घटती
है, यह
सवाल नहीं है।
गहरा सवाल यही
है कि तुम्हारी
आकांक्षा
मारने की थी।
कभी-कभी तो
ऐसा भी हो जाता
है कि
तुम्हारी
आकांक्षा कुछ
थी, हो कुछ
जाता है।
ऐसा
हुआ, चीन में
कोई पांच हजार
साल पहले इस
तरह अकुपंचर
की विद्या का
जन्म हुआ। एक
आदमी को
जिंदगी भर से
सिरदर्द था।
वह बड़ा तकलीफ
में पड़ा था।
वह बड़ा परेशान
था। सब इलाज
कर चुका था, कोई इलाज
नहीं होता था।
कोई दवा नहीं
मिलती थी। कोई
चिकित्सक ठीक
नहीं कर पाता
था। पत्थर के
बोझ की तरह
उसका सिर
चौबीस घंटे
भारी था। और
जैसे बिजली
कौंधती हो, ऐसे उसके
सिर में तड़फन
थी। वह न बैठ
सकता था, न
काम कर सकता
था। जीना उसका
दूभर हो गया
था। आत्महत्या
करने का उपाय
किया था तो
लोगों ने करने
न दिया। कोई
दुश्मन था
उसका, किसी
से झगड़ा
हो गया, उस
दुश्मन ने एक
तीर उसे मारा।
वह तीर उसके
पैर में लगा
और पैर में
तीर के लगते
ही सिरदर्द चला
गया। वह
चिकित्सकों
के पास गया।
उसने कहा, "यह
हुआ क्या? यह
तीर पैर में
लगा और उसी
क्षण दर्द चला
गया।' ऐसे
अकुपंचर का
जन्म हुआ। तब
लोगों ने
खोजबीन करनी
शुरू की कि
ऐसा मालूम
पड़ता है कि
पैर में लगने
से सिर में
कोई परिणाम
हुआ है। तो
फिर सिरदर्द
वाले लोगों को
उसी पैर के स्थान
पर तीर चुभाने
से फायदा देखा
गया। और सिरदर्द
के बीमार भी
ठीक हो गए उसी
जगह तीर
चुभाने से। तो
फिर बिंदु खोजे
गए अकुपंचर के,
सात सौ
बिंदु शरीर
में। तो कुछ
बिंदु हैं
जिनको दबाने
से कुछ
बीमारियां
ठीक हो जाती
हैं। कुछ
बिंदु हैं
जिनको दबाने
से कुछ और
बीमारियां ठीक
हो जाती हैं।
तो शरीर
विद्युत का
मंडल है।
उसमें एक तरफ
से विद्युत को
दबाने से कहीं
दूसरी तरफ
विद्युत में
परिणाम होते
हैं। बड़ा
रहस्यमय है।
लेकिन
अकुपंचर काम
करता है।
अब
सवाल यह है कि
जिस आदमी ने
तीर मारा था, उसने पाप
किया या पुण्य?
क्योंकि
जीवनभर का
सिरदर्द चला
गया। अगर हम फल
को देखें, तब
तो पुण्य
किया। लेकिन
अगर उसके भाव
को देखें, तो
तो पाप ही है।
क्योंकि वह तो
मारना चाहता
था। वह कोई
इसका सिरदर्द
ठीक करना नहीं
चाहता था।
उसने तो मारना
चाहा था।
इसलिए उसने तो
हिंसा की। यह
बात
अप्रासंगिक
है कि यह आदमी
ठीक हो गया।
इससे उसका कोई
संबंध नहीं
है। यह तो दुर्घटना
है।
तो
तुम्हारा
कृत्य फल के
द्वारा
निर्धारित नहीं
होता कि पाप
है या पुण्य
है, तुम्हारे
अभिप्राय के
द्वारा
निर्धारित होता
है, इन्टेशन। कभी ऐसा भी
हो सकता है, बुरे
अभिप्राय से
ठीक घट जाये, और कभी ऐसा
भी हो सकता है
कि ठीक
अभिप्राय से बुरा
घट जाये।
लेकिन फल से
निर्णय नहीं
होता; निर्णय
तुम्हारे
अभिप्राय से
होता
है--तुम्हारे
अंतर्तम में
तुमने क्या
चाहा था! कभी
ऐसा भी हो
सकता है कि
तुम कुछ भला
करने गए थे और
बुरा हो गया।
तो भी वह पाप
नहीं है। कभी
तुम बुरा करने
गए थे और भला
हो गया, तो
भी वह पाप है।
महावीर
का विश्लेषण
फल पर नहीं ले
जाता। कृष्ण
और महावीर
दोनों राजी
हैं कि आत्मा
मरती नहीं।
फिर भी महावीर
कहते हैं, मारने की
आकांक्षा, मारने
की आकांक्षा
में हिंसा है।
मारने की आकांक्षा
ही बंधन का
कारण है।
धन
नहीं बांधता।
धन तुम्हारे
चारों तरफ पड़ा
रहे, लेकिन धन
को पकड़ने
की, परिग्रह
की आकांक्षा बांधती
है। पत्नी, स्त्री नहीं
बांधती, भोगने की
कामना बांधती
है। ऐसा ठीक
से देखोगे
तो सारा जाल
भीतर है, बाहर
नहीं।
लोग
मुझसे कहते
हैं कि संसार
छोड़ना है।
जैसे संसार
कहीं बाहर है!
संसार से उनका
मतलब है--दुकान, बाजार, पत्नी,
बच्चे--इनको
छोड़ना है।
संसार भीतर
है। संसार तुम्हारे
अभिप्राय में
है। संसार
तुम्हारी कामना
और वासना में
है।
"हिंसा
करने के
अध्यवसाय से
ही कर्म का
बंध होता है।
फिर कोई जीव
मरे या न मरे, जीवों के
कर्म-बंध का
यही स्वरूप
है।'
आशा के
स्वभाव को
समझने की
कोशिश करो।
अनुभव को
जिताओ, आशा
को हराओ।
जो तुमने जीवन
के अनुभव से
जाना है उसका
भरोसा करो। जो
तुम्हारा मन
फैलाव करता है,
सपनों के, उनका भरोसा
मत करो।
यूं तो
नहीं कहता कि
सचमुच करो
इंसाफ
झूठी
भी तसल्ली हो
तो जीता ही
रहूं मैं।
तुम भी
झूठी तसल्लियों
में जी रहे
हो। तुम
दूसरों से
झूठी तसल्ली
मांगते हो।
पश्चिम
से जब लोग
पूरब आते हैं
तो बड़े हैरान
होते हैं। क्योंकि
पूरब के आदमी
झूठी तसल्लियां
देने में बड़े
कुशल हैं।
यहां इस मुल्क
में अगर तुम
किसी के पास
जाओ और कहो कि
फलां काम करना
है, आप करवा
देंगे। वह
कहता है, बिलकुल
करवा देंगे।
पश्चिम में
ऐसा नहीं है। अगर
वह करवा सकेगा
तो ही कहेगा।
फिर भी वह शर्त
के साथ कहेगा
कि मैं कोशिश
करूंगा। होगा
कि नहीं होगा,
यह मुश्किल
है। मैं अपनी
तरफ से कोशिश
करूंगा। अगर
नहीं करवा
सकेगा तो
स्पष्ट "नहीं'
कहेगा कि
नहीं, यह
मुझसे न हो
सकेगा, क्षमा
करें! पूरब
में ऐसा नहीं
है। तुम किसी
से भी कहो, वह
कहता है, हां
करवा देंगे!
चाहे वह करवा
सकता हो, चाहे
उसकी क्षमता
में हो चाहे न
हो; लेकिन
वह यह कहता है
कि क्यों नाहक
तुम्हें दुखी
करना। जब होगा
तब होगा, अभी
तो तसल्ली!
जब
पश्चिम से लोग
पूरब आते हैं, धंधे और
व्यवसाय के
लिए, तो वे
बड़े हैरान
होते हैं।
उनको समझ में
ही नहीं आता
कि किसकी
मानें, किसकी
न मानें; क्योंकि
सभी "हां' कहते
हैं। "नहीं' तो कोई
मुश्किल से
कहता है।
"नहीं' तो
जैसे अशिष्टाचार
है।
तुमने
भी कभी खयाल
किया? कोई
तुम्हारे पास
आता है कि
नौकरी चाहिए,
तुम कहते हो
कि हां, कोशिश
करेंगे, दिलवा
देंगे! ऐसा
कहते वक्त तुम
क्षणभर
को भी सोच
नहीं रहे हो
कि दिलवाने
की कोई
तुम्हारी
आकांक्षा है।
तुम टाल रहे
हो कि झंझट मिटाओ,
जाओ। और तुम
कह रहे हो कि
ठीक है
मलहम-पट्टी कर
दी, अब तुम
आशा में जीयो।
पूरब
में यही
शिष्टाचार है, सांत्वना
बंधा दो। कोई
मर गया, तुम
पहुंच जाते हो
कहने कि कोई
हर्जा नहीं, आत्मा तो
अमर है।
तुम्हें पता
है! लेकिन तुम
कहते हो, पता
हो या न हो, अब
यह तो कोई दुख
में पड़ा है, इसको तो
सांत्वना दो!
यूं तो
नहीं कहता कि
सचमुच करो
इंसाफ
झूठी
भी तसल्ली हो
तो जीता ही
रहूं मैं।
और ऐसी
झूठी तसल्ली
के धागे पर
लोग जीते रहते
हैं। यही
तुम्हारे
साधु-संन्यासी
कर रहे हैं।
वे तुम्हें
झूठी तसल्ली बंधाए
जाते हैं। तुम
उनके पास जाओ
और तुम कहो कि
मन में बड़ी
अशांति है, वह कहता है,
"कोई फिक्र
न करो। यह
राम-राम जपना,
सब ठीक हो
जायेगा।' अब
राम-राम जपने
से कोई भी
संबंध अशांति
का नहीं है।
अशांति तुम
पैदा कर रहे
हो, राम का
इसमें कुछ हाथ
नहीं है।
अशांति तुम
पैदा किये चले
जाओगे, राम-राम
भी जपोगे,
क्या होगा?
थोड़ी और
अशांति बढ़
जाएगी, बस।
उसने
तुम्हारे मूल
कारण को न
पकड़ा। मूल कारण
पकड़ना
झंझट की बात
है, मुश्किल
बात है, कठिन
बात है। शायद
उसको भी पता न
हो, लेकिन
तुम्हारी
तसल्ली उसने बंधा
दी। तुम भी
प्रसन्न
लौटे। तुम भी
आनंदित हुए कि
चलो। तुम गए
कि आशीर्वाद
दे दो कि शांत हो
जाये चित्त।
भारत
में साधु हैं, जो तैयार
बैठे हैं, हाथ
तैयार ही रखते
हैं वे
आशीर्वाद
देने को। वे
कहते हैं, यह
लो आशीर्वाद।
न कुछ लेना है,
न कुछ देना
है। न उनका
कुछ हर्जा हो
रहा है और न
तुम्हें कुछ
मिल रहा है; लेकिन बात
हो गई, तसल्ली
बंध गई। तुम
अपने घर लौट
गए, जैसे
के तैसे, जैसे
आये थे। थोड़ी
और आशा मजबूत
लेकर लौट गए कि
अब सब ठीक हो
जायेगा।
अगर
तुम ईमानदारी
से जीवन का
रूपांतरण
चाहते हो तो
उनके पास जाना
जो तसल्ली बंधाते
न हों; जो
तुम्हारे
जीवन का निदान
सीधा कर के रख
देते हों
सामने--चाहे
चोट भी लगती
हो; चाहे
तुम्हारा घाव
भी छू जाता हो
और तुम्हारी मलहम-पट्टी
उखड़ जाती हो; चाहे
तुम्हारे
नासूर से मवाद
निकल आती हो।
लेकिन उनके
पास जाना जो
तसल्ली बंधाने
के आदी नहीं
हैं; जो
तुम्हारे
जीवन के सत्य
को वैसा का
वैसा रख देते
हैं जैसा है।
पीड़ा होती है।
लेकिन
जीवन-रूपांतरण
में पीड़ा छुपी
है। और अगर
तुमने उनकी
बात सुनी और
समझने की
कोशिश की और
जीवन में वैसा
आचरण और
व्यवहार किया
तो तुम बदल
जाओगे।
तसल्ली उन्होंने
नहीं बंधाई, लेकिन
तुम्हारे जीवन
को क्रांति दे
देंगे वे।
लेकिन तुम
मुफ्त तसल्ली
में घूमते हो।
फिर एक साधु
चुक जाता है, क्योंकि कई
दफे तसल्ली
बंधा चुका, अब तुम्हें
उसमें भरोसा
नहीं रहा, फिर
तुम दूसरा
साधु खोज लेते
हो। साधुओं की
कोई कमी नहीं
है। जिंदगी
बड़ी छोटी है, साधु बहुत
हैं। तसल्ली,
तसल्ली, तसल्ली।
तुम घूमते
फिरते हो।
बंद
करो! जीवन के
सत्य को पकड़ो!
जीवन का सत्य
सुगम नहीं है, सांत्वना
नहीं है। जीवन
का सत्य कठोर
है। कांटा चुभा
है तुम्हारी
छाती में, उसे
निकालने में
पीड़ा होगी।
तुम चीखोगे, चिल्लाओगे।
लेकिन वह
चीख-चिल्लाहट
जरूरी है। और
तुम्हें जो उस
पीड़ा से गुजारने
में साथी हो
सके, उसे
मित्र मानना।
सदगुरु
तसल्ली नहीं
देता। सदगुरु
सत्य देता है, फिर चाहे
कितना ही कड़वा
हो। आखिर
वैद्य अगर यह
सोचने लगे कि
मीठी ही दवा
देनी है, तो
चिकित्सा न
होगी, मरीज
चाहे प्रसन्न
हो जाये क्षणभर
को। शरबत पिला
दे मरीज को, लेकिन इससे
बीमारी ठीक न
होगी; मरीज
प्रसन्न होकर
घर लौट जायेगा,
लेकिन
बीमारी और बढ़
जायेगी। नहीं,
कड़वी दवा भी देनी
पड़ती है, जहर
जैसी दवा भी
देनी पड़ती है।
मरीज नाराज भी
होता है, तो
भी देनी पड़ती
है।
आशा ने
सारे संसार को
भटकाया हुआ
है। और आशाएं
मत खोजो। जहां
आशा टूटती हो, जहां तसल्ली
उखड़ती हो,
जहां
तुम्हारे
सांत्वना के
सब जाल बिखरते
हों, जहां
तुम्हारा
सारा
व्यक्तित्व
जो अब तक झूठ पर
खड़ा था
तहस-नहस होकर
खंडहर हो जाता
हो--वहां जाना।
दुर्धर्ष है
मार्ग।
लोग
कहते हैं मौत
से बदतर है
इंतजार
मेरी
तमाम उम्र कटी
इंतजार में
सभी की
कटती है। तुम
कर क्या रहे
हो सिवाय इंतजार
के?
सैमुअल
बैकेट का एक
छोटा नाटक
है--वेटिंग
फार गोडोड, गोडोड की
प्रतीक्षा।
यह गोडोड
कौन है? किसी
ने सैमुअल
बैकेट को पूछा
कि आखिर यह गोडोड
कौन है!
क्योंकि पूरा
नाटक पढ़ जाओ, पता ही नहीं
चलता कि गोडोड
कौन है।
सैमुअल बैकेट
ने कहा कि अगर
मुझे ही पता
होता तो मैंने
नाटक में लिख
दिया होता।
मुझे भी पता
नहीं, गोडोड कौन है।
लोग
प्रतीक्षा कर
रहे हैं। ठीक
से पूछो, किसकी
प्रतीक्षा कर
रहे हो? उनको
भी पता नहीं
है। गोडोड
यानी वह, जिसका
पता नहीं, लेकिन
प्रतीक्षा कर
रहे हैं। सभी
लोग उत्सुकता
से बैठे हैं
दरवाजे खोले
हुए--कोई
आनेवाला है।
यह गोडोड
की कहानी बड़ी
प्यारी है। दो
आदमी बैठे
हैं। ऐसे नाटक
शुरू होता है।
और वे
एक-दूसरे से
पूछते हैं कि
क्यों भई, क्या हाल है?
वह कहता है,
"सब ठीक है।
आज आयेगा, ऐसा
मालूम पड़ता
है।' कौन आयेगा,
इसकी तो कोई
बात ही
नहीं--"आज
आयेगा, ऐसा
मालूम पड़ता
है।' दूसरा
कहता है, "सोचता
तो मैं भी
हूं। आना
चाहिए। कब से
हम राह देख
रहे हैं! और
भरोसा बंधवाया
था। और आदमी
ऐसा गैर-भरोसे
का नहीं है।
देखें शायद आज
आए।' ऐसी
बात चलती है।
वे दोनों
देखते रहते
हैं रास्ते की
तरफ, रास्ते
के किनारे
बैठे। कोई आता
नहीं। दोपहर हो
जाती है। सांझ
हो जाती है।
वे कहते हैं,
"फिर नहीं
आया। हद्द हो
गयी बेईमानी
की! आदमी ऐसा
तो न था, कुछ
अड़चन आ गई
होगी, कोई
बीमार हो गया!'
बाकी कौन है
इसकी कोई बात
नहीं चलती। कई
दफे वे परेशान
हो जाते हैं।
वे कहते हैं,
"अब बहुत हो
गया, बंद
करो जी
इंतजार!' मगर
दोनों बैठे
हैं। कभी-कभी
कहते हैं "अब
मैं चला। तुम
ही करो।' एक
कहता है कि
बहुत हो गया, एक सीमा
होती है। मगर
जाता-करता कोई
नहीं, क्योंकि
जाएं भी कहां!
कहीं और जाओगे,
वहां भी
इंतजार करना
पड़ेगा। रहते
वहीं हैं।
बैठे वहीं
हैं। बात भी
करते रहते हैं,
कभी यह भी
नहीं एक-दूसरे
से पूछते कि
किसका इंतजार
कर रहे हो? मान
लिया है कि
किसी का
इंतजार कर रहे
हैं।
यह जो गोडोड है, यह सब को पकड़े
हुए है।
तुमने
कभी पूछा है, किसकी राह
देख रहे हो? कौन आनेवाला
है? किसके
लिए द्वार खोले
हैं? और
किसके लिए घर
सजाए बैठे हो?
नहीं, तुम
कहोगे यह तो
हमें पक्का
पता नहीं है, कौन आनेवाला
है; लेकिन
कोई आनेवाला
है, ऐसा
लगता है।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं कि हम
क्या खोज रहे
हैं, हमें
पता ही नहीं; मगर खोज रहे
हैं। अब खोजोगे
कैसे अगर यह
ही पता नहीं
कि क्या खोज
रहे हो?
लोग
मेरे पास आते
हैं, वे कहते
हैं, कुछ
पूछना है; लेकिन
हमें मालूम
नहीं कि क्या
पूछना है। और
वे गलत नहीं
कहते, बड़े
ईमानदार लोग
हैं। यही
स्थिति है।
लोग पूछना
चाहते हैं, कुछ पूछना
जरूर है। ऐसा
आभास मालूम
होता है। कहीं
प्राणों में
ऐसी घुमड़
मालूम होती है,
कुछ पूछना
है--लेकिन
क्या? कुछ
पकड़ में नहीं
आता। कुछ रूप
नहीं बनता।
कुछ आकार नहीं
बैठता। खोजना
है--लेकिन
क्या? यह गोडोड कौन
है? किसी
को मालूम
नहीं।
इस
इंतजार से जागो!
यह प्रतीक्षा
बहुत हो चुकी।
न कभी कोई आया
है, न कभी कोई
आयेगा। बंद करो
दरवाजे। अब तो
उसको खोजो जो
तुम हो। कभी
धन में
प्रतीक्षा की,
कभी पद में
प्रतीक्षा की;
कभी लोगों
की आंखों में
सम्मान चाहा,
कभी
प्रार्थना की,
आकाश की तरफ
देखा, किसी
परमात्मा को
खोजा--लेकिन
सब गोडोड!
तुम्हें साफ
नहीं, तुम
क्या खोज रहे
हो, तुम
क्या मांग रहे
हो! अब तो उचित
है कि अपने
में डूबो।
उसे देखें जो
हम हैं। किसी
और की
प्रतीक्षा करनी
उचित नहीं है।
"हिंसा
में विरत न
होना, हिंसा
का परिणाम
रखना हिंसा ही
है...।'
अगर
तुमने हिंसा
का बोधपूर्वक
त्याग नहीं किया
है तो हिंसा
जारी रहेगी।
महावीर और
सूक्ष्म तल पर
ले जाते हैं।
वे कहते हैं, दूसरे को
मारने का, दूसरे
को दुख देने
का भाव तो
हिंसा है ही; लेकिन अगर
तुमने
बोधपूर्वक
दूसरे को दुख
देने की समस्त
संभावना का
त्याग नहीं
किया है, अगर
तुमने अहिंसा
को बोधपूर्वक
अपनी जीवनचर्या
नहीं बनाया है,
तो भी हिंसा
है।
हिंसा
में विरत न
होना, जागकर होशपूर्वक,
निर्णयपूर्वक अपने सामने
यह साफ न कर
लेना कि मैं
हिंसा से विरत
हुआ, तो
खतरा है।
जिससे तुम
विरत नहीं हुए
हो, वह
पैदा हो सकता
है। किसी घड़ी,
किसी असमय
में, किसी
परिस्थिति
में, जिससे
तुम विरत नहीं
हुए हो, उसके
पैदा होने की
संभावना है। माना
कि तुमने सोचा
भी नहीं कि
किसी को मारना
है; लेकिन
कोई छुरी लेकर
सामने आ गया
तो तुम भूल जाओगे।
तुम्हारे पास
अहिंसा की कोई
शैली नहीं है।
तुम हिंसा की
शैली को पकड़
लोगे, क्योंकि
वह पुरानी आदत
है।
तो
महावीर यह कह
रहे हैं कि
हिंसा की शैली
तो जन्मों-जन्मों
की आदत है।
अहिंसा की
शैली को
बोधपूर्वक
स्वीकार करना
पड़ेगा। उसे
जीवन की साधना
बनाना होगा। नहीं
तो जब कोई
हिंसा करने को
तैयार हो
जाएगा, तुम
अचानक भूल
जाओगे। तुमने
सोचा भी न था
हिंसा करने के
लिए, लेकिन
हिंसा होगी।
पुरानी आदत है,
पुराने
संस्कार हैं।
पुराने संस्करों
को गिराने के
लिए
बोधपूर्वक
निर्णय
चाहिए। हिंसा
से विरत होने
का निर्णय
चाहिए।
"हिंसा
में विरत न
होना, हिंसा
का परिणाम
रखना हिंसा ही
है...।'
संभावना
भी बचा लेना
हिंसा है।
"इसलिए
जहां प्रमाद
है, वहां
नित्य हिंसा
है...।'
यह
गहरी से गहरी
पकड़ है, जो
हो सकती है।
"जहां
प्रमाद है
वहां नित्य
हिंसा है...।'
प्रमाद
यानी
मूर्च्छा।
जहां सोया-सोयापन
है; जहां चले
जा रहे हैं
नींद में, आंखें
खुली हैं, लेकिन
मन सोया, बेहोश
है; जहां
हम मूर्च्छा
में चल रहे
हैं--वहां
हिंसा है।
क्योंकि
मूर्च्छित
व्यक्ति क्या
करेगा? हजार
परिस्थितियां
रोज आती हैं
हिंसा की, मूर्च्छित
व्यक्ति क्या
करेगा? होश
तो है नहीं कि
कुछ नया जीवन-उदबोध, कुछ
नयी जीवन-उमंग,
कोई नई किरण
फूट सके।
बेहोश है तो
पुरानी आदत से
चलेगा, बेहोश
आदमी आदत से
चलता है। होशवाला
आदमी प्रतिपल
होश से चलता
है, आदत से
नहीं।
किसी
ने गाली दी, तुम्हें याद
भी न रहेगा कि
तुम्हारा
चेहरा तमतमा
गया। यह तमतमा
जाएगा, तब
पता चलेगा कि
अरे, फिर
हो गया! यह एक
क्षण में हो
जाता है, क्षण
के खंड में हो
जाता है। एक
सुंदर स्त्री पास
से गुजरी, कोई
चीज हिल गई
भीतर। अभी
खाली बैठे थे
तो कुछ बात न
थी। स्त्री का
खयाल ही न था।
अभी बैठे
वृक्षों की
हरियाली देखते
थे; खिले
फूलों को, आकाश
के तारों को
देखते थे--कुछ
पता भी न था, लेकिन
परिणाम तो
भीतर पड़ा है।
आदत तो पुरानी
भीतर पड़ी है।
एक स्त्री पास
से गुजर गई, क्षणभर में बिजली
कौंध गई। भीतर
कुछ हिल गया।
भीतर कोई
तूफान उठ आया।
भीतर कोई
वासना सजग हो
गई। बीज तो
पड़े ही हैं, जब भी वर्षा
हो जायेगी, अंकुर हो
जायेंगे।
तो
महावीर कहते
हैं, "वस्तुतः
मूर्च्छा ही
हिंसा है और अमूर्च्छा
अहिंसा है।
आत्मा ही
अहिंसा है और
आत्मा ही हिंसा
है। जब आत्मा
मूर्च्छित है
तो हिंसा; जब
आत्मा जाग्रत
है तो अहिंसा।
यह सिद्धांत
का निश्चय है।'
अत्ता चेव
अहिंसा--आत्मा
ही अहिंसा, आत्मा ही
हिंसा। यह
सिद्धांत का
निश्चय है।
"जो
अप्रमत्त है
वह अहिंसक है।'
जो
जागा हुआ है, जो
होशपूर्वक
जीता है, अवेयरनेस,
सम्यक बोध,
एक-एक कदम
बोधपूर्वक
रखता है, विवेकपूर्वक रखता है--वह
अहिंसक है।
"जो प्रमत्त
है, वह
हिंसक है।' जो नशे में
जी रहा है, जिसे
ठीक पता भी
नहीं है--कहां
जा रहे हैं, क्यों जा
रहे हैं--चला
जा रहा है!
तुम अपने को
पकड़ो। अपने को
हिलाओ, डुलाओ,
जगाओ! झटका
दो!
सूफियों
में एक
प्रक्रिया
है--झटका देने
की। सूफियों
का एक वर्ग
साधकों को
कहता है कि जब
भी तुम्हें
लगे कि तंद्रा
आ रही है, जोर
से एक झटका
शरीर को दो।
जैसे कोई
वृक्ष तूफान
में हिल जाता
है, आंधी
में कंप जाता
है, धूल-धंवास
गिर जाती है, ऐसा कभी
अपने को झटका
दो।
तुम
कभी कोशिश
करके देखना। क्षणभर को
तुम पाओगे एक
ताजगी, एक होश,
अपनी याद, मैं कौन हूं!
चैतन्य थोड़ी
देर को प्रखर
होगा, झलकेगा;
फिर खो
जायेगा। ऐसे
झटके अपने को
देते रहना।
कभी-कभी
छोटी चीजें
काम की हो
जाती हैं।
बहुत छोटी
चीजें काम की
हो जाती हैं।
तो जब भी कोई गाली
दे, एक झटका
अपने को देना।
इसको
धीरे-धीरे
अपने जीवन की
व्यवस्था बना
लेना। कोई
गाली देगा, तुम अपने को
झटका दोगे।
झटका देकर तुम
पाओगे कि आदत
से संबंध छूट
गया। यही तो "इलेक्ट्रो
शाक...' मनोविज्ञान
इसी को कहता
है। आदमी पागल
हो जाता है, कोई उपाय
नहीं सूझता, कैसे ठीक
करें, तो
उसके
मस्तिष्क में
बिजली दौड़ा
देते हैं। होता
क्या है? जब
बिजली तेजी से
दौड़ती है तो
उसके
मस्तिष्क में
एक झंझावात
आता है। एक
झटका लगता है।
उस झटके के
कारण, वह
जो पागलपन उस
पर सवार था, उससे उसका
संबंध क्षणभर
को टूट जाता
है। क्षणभर
को वह भूल
जाता है कि
मैं पागल हूं।
सातत्य टूट
जाता है, कंटीन्यूटी
टूट जाती है।
फिर उसे याद
नहीं रहती।
फिर जब वापिस
लौटता है झटके
के बाद, तो
उसे याद नहीं
रहती कि वह
अभी थोड़ी देर
पहले पागल था,
अब उसको
पागल रहना है।
आदत से संबंध
छूट गया। तो
अकसर लाभ हो
जाता है। अकसर
पागल ठीक हो
जाता है।
लेकिन यह तुम
खुद अपने लिए
कर सकते हो।
और हम
सब पागल हैं।
और हमारा सारा
व्यवहार सोया
हुआ है। जिस
भांति बन सके, जगाने की
चेष्टा अपने
को करनी है।
कई तरह से झटके
दिये जा सकते
हैं। कोई भी
छोटा स्मरण भी
सहयोगी हो
सकता है।
तुम्हें
मैंने माला दी
है। इसको ही
एक नयी स्मरण
की आदत बना लो
कि जब कोई कामवासना
उठने लगे, तत्क्षण
माला को हाथ
में पकड़ लेना।
किसी को पता
भी न चलेगा।
लेकिन उस माला
को पकड़ना
तुम्हें याद
दिला देगा कि
अरे! फिर गिरे,
फिर गिरने
को तैयार हुए!
तुम्हें
मैंने गैरिक वस्त्र
दिये हैं, वे
याददाश्त के
लिए हैं; अन्यथा
गैरिक
वस्त्रों से
क्या होता
जाता है!
एक
आदमी शराबी है, वह संन्यास
लेने आ गया
था। वह कहने
लगा कि मैं शराबी
हूं, अब
आपसे कैसे छिपाऊं!
संन्यास भी
लेना है। घबड़ाहट
यही है कि
गैरिक
वस्त्रों में
फिर शराब-घर
कैसे जाऊंगा!
"वह तेरी
फिक्र है। वह
हमारी क्या
फिक्र है? तू
चिंता करना।
हमने अपना काम
कर दिया, तुझे
संन्यास दे
दिया। अब
इसमें हम क्या
फिक्र करें, कहां तू
जायेगा कहां
नहीं। तेरे
पीछे हम कोई चौबीस
घंटे घूमेंगे
नहीं। अब तू
ही निपट लेना।'
उसने
कहा कि झंझट
में डाल रहे
हो आप।
झंझट
तो है।
क्योंकि
सोए-सोए जीते
थे, जागना एक
झंझट है। पर
वह हिम्मतवर
आदमी है।
साफ-सुथरा
आदमी है।
अन्यथा कहने
की कोई जरूरत
ही नहीं थी, छिपा जाता।
शराब पीते हैं,
कौन कहता
है! लेकिन कुछ
दिन बाद आया
और उसने कहा
कि मुश्किल हो
गई। अब पैर
रुकते हैं।
ऐसा नहीं कि
शराब पीने का
मन अब नहीं
होता; होता
है, लेकिन
अब ये गैरिक
वस्त्र झंझट
का कारण हैं।
वहां पहुंच
जाता हूं तो
लोग चौंककर
देखते हैं
जैसे कि कोई
अजूबा जानवर
हूं। सिनेमा-घर
में खड़ा था
कतार में, तो
चारों तरफ लोग
देखने लगे। दो
आदमियों ने आकर
पैर छू लिये
तो मैं भागा
कि अब
यहां...जहां
लोग पैर छू
रहे हैं, अब
यहां सिनेमा
में जाना
योग्य नहीं है।
तुमने
कहानी सुनी है
पुरानी? एक
चोर भागा।
उसके पीछे लोग
लगे थे। उसे
कोई भागने का,
बचने का
उपाय नहीं
दिखाई पड़ा। वह
एक नदी के किनारे
पहुंचा। वहां
कुछ राख का
ढेर पड़ा था।
उसने जल्दी से
कपड़े उतारकर
तो फेंके नदी
में, नग्न
हो गया, डुबकी
मारी, राख
ऊपर से डाल ली
और झाड़ के
नीचे आंख बंदकर
के बैठ गया।
पद्मासन लगा
लिया। पकड़नेवाले
आ गये, कोई
वहां दिखाई
नहीं पड़ता--एक
साधु महाराज।
उन्होंने
सबने पैर छुए।
चोर ने कहा, "अरे हद्द हो
गई! मैं झूठा
साधु हूं और
मेरे लोग पैर
छू रहे हैं!' लेकिन एक
झटका लगा कि
काश! मैं
सच्चा होता तो
क्या न हो
जाता! लेकिन
उस झटके में
क्रांति हो
गई। लोग तो
चले गए पैर
छूकर, लेकिन
वह सदा के लिए
साधु हो गया।
उसने कहा, जब
झूठे तक को, जब झूठी
साधुता तक को
ऐसा सम्मान
मिल गया, जब
झूठे में ऐसा
रस, तो
सच्चे की तो
कहना क्या!
स्मरण
के साधन हैं।
गैरिक वस्त्र
है तुम्हारा, किसी को
मारने के लिए
हाथ उठने
लगेगा तो अपना
गैरिक वस्त्र
भी दिखाई पड़
जायेगा। बस
उतना ही काफी
होगा। हाथ को
नीचे छोड़
देना। शराब का
प्याला हाथ
में उठा लो, पास लाने
लगो, तो
गैरिक वस्त्र
दिखाई पड़
जायेगा। फिर
हाथ को वहीं
वापिस लौटा
देना।
धीरे-धीरे तुम
पाओगे, एक
नए बोध की दशा
तुम्हारे
भीतर सघन होने
लगी, जो
पुरानी आदतों
को काट देगी।
"जैसे
जगत में मेरू
पर्वत से ऊंचा
और आकाश से विशाल
कुछ भी नहीं
है, वैसे
ही अहिंसा के
समान कोई धर्म
नहीं है।'
इसलिए
महावीर ने
अहिंसा को परम
धर्म कहा है।
आकाश से विशाल, मेरुओं से भी ऊंचा!
"अहिंसा'
शब्द सोचने
जैसा है।
महावीर ने
प्रेम शब्द का
उपयोग नहीं
किया, यद्यपि
ज्यादा उचित
होता कि वे
प्रेम शब्द का
उपयोग करते।
लेकिन
उन्होंने
किया नहीं।
उनके न करने
के पीछे कारण
हैं। क्योंकि
प्रेम शब्द से
तुम कुछ समझे
बैठे हो जो कि
बिलकुल गलत है।
उसी शब्द का
उपयोग करने से
कहीं ऐसा न हो,
महावीर को
डर रहा, कि
तुम अपना ही
प्रेम समझ लो
कि तुम्हारे
ही प्रेम की
बात हो रही
है। तो महावीर
को एक नकारात्मक
शब्द उपयोग
करना पड़ा:
अहिंसा; हिंसा
नहीं। लेकिन
महावीर का
मतलब प्रेम से
है। सूफी
जिसको "इश्क' कहते हैं, जीसस ने
जिसको प्रेम
कहा है--वही
महावीर की अहिंसा
है। लेकिन
महावीर एक-एक
शब्द को बहुत
सोचकर बोले
हैं, तुम्हारी
तरफ देखकर
बोले हैं।
क्योंकि प्रेम
के साथ
तुम्हारा
पुराना
एसोसिएशन है,
पुराना
संबंध है।
तुमने प्रेम
से अब तक जो
मतलब समझे हैं
वे राग के हैं,
काम के हैं।
तुम्हारे लिए
प्रेम का एक
ही मतलब होता
है: वासना।
तुमने प्रेम
का दूसरा गहनतम
अर्थ नहीं
जाना।
प्रेम
का वास्तविक
अर्थ होता है:
इतने स्वस्थ हो
जाना कि तुम न
किसी को दुख
पहुंचाना
चाहते हो, न स्वयं को
दुख पहुंचाना
चाहते हो। तुम
अपने को भी
प्रेम करते हो,
दूसरे को भी
प्रेम करते
हो। और यह
प्रेम अब कोई
संबंध नहीं है,
तुम्हारी
दशा है। कोई न
भी हो तो भी
तुम्हारे चारों
तरफ प्रेम
फैलता रहता
है। जैसे
अकेले में
खिले विजन में
फूल, तो भी
तो सुगंध
बिखरती रहती
है। दीया जले
अकेले अंधकार
में, अमावस
की रात में, तो भी तो
प्रकाश फैलता
रहता है। दीया
यह थोड़े ही
सोचता है कि
कोई यहां है
ही नहीं, तो
फायदा क्या!
फूल यह थोड़े
ही सोचता है, इस रास्ते
से कोई गुजरता
ही नहीं, कोई
नासापुट
आएंगे ही नहीं
यहां, तो
किसके लिए गंध
बिखेरूं! छोड़ो, क्या
सार है! ऐसे ही
प्रेम को जो
उपलब्ध है, वह यह थोड़े
ही सोचता है
कि कोई लेगा
तब दूं, या
किसी खास को
दूं। प्रेम
उसका स्वभाव
है।
लेकिन
महावीर ने
अहिंसा शब्द
का उपयोग
किया। उस शब्द
के कारण
उन्होंने
पुरानी एक
भ्रांति से
बचाना चाहा
आदमी को, ताकि
लोग उनके ही
प्रेम को न
समझ लें कि
महावीर
उन्हीं के
प्रेम का
समर्थन कर रहे
हैं। लेकिन एक
दूसरी
भ्रांति शुरू
हो गयी। आदमी
इतना उलझा हुआ
है कि तुम उसे
बचा नहीं
सकते। तब
अहिंसा शब्द
के साथ एक नयी
भ्रांति शुरू
हो गयी।
अब जैन
मुनि हैं, उनके जीवन
में प्रेम
दिखाई ही नहीं
पड़ेगा। उनने
अहिंसा का
ठीक-ठीक मतलब
ले लिया, हिंसा
नहीं करनी; तो
नकारात्मक, विधायक कुछ
भी नहीं, पाजिटिव कुछ भी
नहीं। चींटी
नहीं मारनी,
मगर चींटी
के प्रति कोई
प्रेम नहीं
है। चींटी नहीं
मारनी, क्योंकि
मारने से नर्क
जाना पड़ता है।
यह तो लोभ ही
हुआ। किसी को
नहीं मारना, किसी को
गाली नहीं
देना, क्योंकि
गाली देने से
मोक्ष खोता
है। यह तो लोभ
ही हुआ, प्रेम
नहीं। इस फर्क
को समझना।
तो मैं
तुमसे यह कहना
चाहता हूं कि
अहिंसा का महावीर
का अर्थ है:
प्रेम।
तुम्हारा
प्रेम नहीं; क्योंकि एक
और प्रेम है।
लेकिन जैन
मुनियों की
अहिंसा भी
नहीं, क्योंकि
वह बिलकुल
मुर्दा है। वह
मर गयी। नकार में
कहीं कोई जी
सकता है? सिर्फ
नकार-नकार में
कोई जी सकता
है? नकार
में कोई घर
बना सकता है? कुछ विधायक
चाहिए।
विधायक
का अर्थ है:
कुछ ऊर्जा
तुम्हारे
भीतर जगनी
चाहिए। सिकुड़ने
से ही थोड़े ही
काम चलेगा!
किसी को मारो
मत, बिलकुल
ठीक; लेकिन
क्यों न मारो
किसी को? क्योंकि
तुम्हें
प्रेम है, इसलिए।
इसलिए नहीं कि
मारोगे तो
नर्क जाना पड़ेगा।
यह कोई प्रेम
हुआ? यह तो
अपना ही लोभ
हुआ। लोगों को
मत मारो, क्योंकि
तुम्हारा
प्रेम
तुम्हें
बताएगा कि दूसरे
को मारना, दूसरे
को दुख
देना...तो तुम
कैसे आशा बांधते
हो कि
तुम्हारे
जीवन में प्रेम
का फैलाव हो
सकेगा?
प्रेम
फैलता है, बढ़ता है।
महावीर कहते
हैं, "आकाश
जैसा! सुमेरू
पर्वत से भी
ऊंचा, आकाश
से भी विशाल!'
तो यह
कुछ विधायक
घड़ी हो तो ही
बढ़ सकती है।
कुछ हो तो बढ़
सकता है।
अहिंसा
का तो अर्थ है:
हिंसा का न
होना। यह तो ऐसे
ही हुआ जैसे
कि चिकित्सा-शास्त्र
में अगर पूछा
जाये कि
स्वास्थ्य क्या
है, तो वे
कहते हैं
बीमारी का न
होना। लेकिन
मुर्दा भी
बीमार नहीं
होता, लेकिन
उसको तुम
स्वस्थ न कह
सकोगे। वह
स्वास्थ्य की
परिभाषा पूरी
करता है, क्योंकि
बीमार नहीं
है। जिंदा ही
बीमार होता है,
मुर्दा
कैसे बीमार
होगा? बीमार
होने के लिए
जिंदा होना
जरूरी है। तो
यह स्वास्थ्य
की परिभाषा
पर्याप्त
नहीं है कि बीमार
न होना। यह तो
नकारात्मक
हुई। हां, स्वस्थ
आदमी बीमार
नहीं होता, यह बात जरूर
सच है। लेकिन
स्वास्थ्य
कुछ और भी है।
बीमारी न होने
से ज्यादा कुछ
है, कुछ
विधायक है। जब
तुम स्वस्थ
रहे हो, क्या
तुमने अनुभव
नहीं किया, क्या तुम
इतना ही जानते
हो कि न टी. बी., न कैंसर, न
और रोग? क्या
जब तुम स्वस्थ
होते हो, तब
तुमको इनकी
याद आती है कि
देखो, कितना
मजा आ रहा है, न टी. बी. है, न कैंसर है? ऐसा होता है?
जब तुम
स्वस्थ होते
हो, न तो टी.
बी. की याद आती
है, न
कैंसर की, न
नकार की।
स्वास्थ्य
का अपना ही रस
है।
स्वास्थ्य का
अपना ही
अहोभाव है।
स्वास्थ्य की
अपनी ही प्रफुल्लता
है।
स्वास्थ्य का
झरना फूटता
है। यह कोई
बीमारी की बात
नहीं है।
ऐसा
समझो कि एक
झरना है, उसके
मार्ग पर
पत्थर रखे
हैं। तो हम
कहते हैं, पत्थर
हटा लो, तो
झरना फूट
जाये।
लेकिन
पत्थर का हटा
लेना ही झरना
नहीं है। क्योंकि
कई जगह और जगह
भी पत्थर पड़े
हैं, वहां हटा
लेना, तो
झरना नहीं फूटेगा;
तुम बैठे
रहना कि पत्थर
तो हटा लिये, बस झरना हो
गया। पत्थर का
हटाना झरने के
लिए जरूरी हो
सकता है, लेकिन
पत्थर के हटने
में ही झरना
नहीं है। झरना
तो कुछ विधायक
बात है। हो तो
पत्थर के हटने
पर प्रगट हो
जायेगा; न
हो तो तुम
पत्थर हटाए
बैठे रहना
जैसे जैन मुनि
बैठे हुए हैं।
यह नहीं करते,
वह नहीं
करते--सब नहीं
करने पर है।
चोरी नहीं करते,
लेकिन अचोर
नहीं हैं। लोभ
नहीं करते, लेकिन अलोभी
नहीं हैं।
हिंसा नहीं
करते, लेकिन
अहिंसक नहीं
हैं। क्योंकि
विधायक चूक रहा
है।
जिंदगी
जिंगारे-आईना
है, आईना है
इश्क।
संग
है मामूरए-कौनेन
और शोला है
इश्क।
इल्म
बरबत है, अमल
मिजराब
है, नग्मा है इश्क।
जर्रा-जर्रा
कारवां है, इश्क खिज्रे-कारवां।
प्रेम
स्वच्छ दर्पण
है। और प्रेम
के सिवाय जीवन
में जो कुछ है, वह दर्पण पर
मैल है, धूल
है। सांसारिक
वस्तुएं तो
पत्थर हैं।
प्रेम प्रकाश
है। ज्ञान
वाद्य है।
आचरण मिजराब
है। प्रेम
संगीत है।
जीवन का कण-कण
यात्री है।
प्रेम
यात्री-दल का
पथ-प्रदर्शक
है।
महावीर
ने जिसे
अहिंसा कहा है, वह सूफियों
का इश्क है।
इस बात को अब
दोहरा देने की
जरूरत पड़ी है।
क्योंकि जैसी
मुश्किल महावीर
को मालूम पड़ी
थी प्रेम के
साथ, वैसी
ही मुश्किल
मुझे मालूम
पड़ती है
अहिंसा के
साथ। महावीर
प्रेम शब्द का
उपयोग न कर
सके, क्योंकि
गलत धारणा
लोगों के मन
में प्रेम की
थी। आज मुझे
अहिंसा शब्द
का उपयोग करने
में अड़चन होती
है, क्योंकि
बड़ी गलत धारणा
लोगों के मन
में है।
हमारे
सभी शब्द
हमारे कारण
खराब हो जाते
हैं, गंदे हो
जाते हैं; क्योंकि
हमारे शब्दों
में भी हमारी
प्रतिध्वनि
होती है। जब
कामी प्रेम की
बात करता है
तो उसका प्रेम
भी काम से भर
जाता है। जब
निषेधात्मक
वृत्तियों का
व्यक्ति अहिंसा
की बात करता
है तो उसकी
अहिंसा
निषेधात्मक
हो जाती है।
अहिंसा यानी
प्रेम, परम
प्रेम।
है
अब जिंदगी सायए
इश्क में
ज़रा मौत
दामन बचा कर
चले
वह
शोलों से अकसर
रहे हमकिनार
जो
फूलों से दामन
बचा कर चले।
--जिंदगी
अब प्रेम के
साथ है, प्रेम
की छाया में
है।
है
अब जिंदगी सायए
इश्क में
ज़रा मौत
दामन बचा कर
चले।
--अब
जरा मौत
होशियारी से
चले, क्योंकि
जो प्रेम के
साये में आ
गया उसकी कोई मौत
नहीं। वह अमृत
को उपलब्ध हो
जाता है।
और
प्रेम फूल
जैसा है। मौत
अंगार जैसी
है। लेकिन इस
जीवन की, अस्तित्व
की यही
महत्वपूर्ण राजभरी
बात है कि
अंततः फूल
जीतते हैं, अंगार हार
जाते हैं।
अंततः कोमल
जीतता है, कठोर
हार जाता है।
गिरता है पहाड़
से जल, कोमल
जल, क्षीणदेह जलधार, बड़ी-बड़ी
चट्टानें
मार्ग में पड़ी
होती हैं--कौन
सोचेगा कि ये
चट्टानें कभी
कट जायेंगी!
लेकिन एक दिन
धीरे-धीरे
धीरे-धीरे
चट्टानें कटती
जाती हैं और
रेत होती जाती
हैं। धार बड़ी कोमल
है। चट्टानें
बड़ी कठोर हैं।
लेकिन कोमल सदा
जीत जाता है।
अंतिम विजय
कोमल की है।
वह
शोलों से अकसर
रहे हमकिनार
जो
फूलों से दामन
बचा कर चले।
और
जिन्होंने
अपने को फूलों
से बचाया, कोमलता से
बचाया, उनकी
जिंदगी में
अंगारे ही
अंगारे रहे, जलन ही जलन
रही।
तुम
फूल को कमजोर
मत समझना। तुम
फूल को महाशक्तिशाली
समझना। पत्थर
कमजोर हैं; यद्यपि
दिखाई यही
पड़ता है कि
पत्थर बड़े
मजबूत, बड़े
शक्तिशाली
हैं। लेकिन
पत्थर मुर्दा
हैं, शक्तिशाली
हो कैसे सकते
हैं? फूल
जीवंत है।
उसके खिलने
में जीवन है।
उसकी सुगंध
में जीवन है।
उसकी कोमलता
में जीवन है।
अकसर
हम हिंसा के
लिए राजी हो
जाते हैं, क्योंकि
हिंसा लगती है
ज्यादा मजबूत,
शक्तिशाली!
अहिंसा, प्रेम
लगता है कमजोर।
हम जल्दी
भरोसा कर लेते
हैं हिंसा पर;
अहिंसा पर
भरोसा नहीं कर
पाते, क्योंकि
फूलों पर
हमारा भरोसा
उठ गया है।
कोमल की शक्ति
को हम भूल ही
गये हैं।
विनम्र की शक्ति
को हम भूल गए
हैं। प्रेम
बलवान है, यह
हमें याद भी न
रहा है। हम तो
सोचते हैं, क्रोध बलवान
है। बस यही
धार्मिक और
अधार्मिक
आदमी का अंतर
है।
अगर
तुम मुझ से
पूछो तो
धार्मिक आदमी
वह है जो यह
जान गया कि
कोमल अंततः
जीतता है; जिसका भरोसा
फूल पर आ गया
और पत्थर से
जिसकी श्रद्धा
उठ गई। और
अधार्मिक
आदमी वह है, जो भला फूल
की प्रशंसा
करता हो, लेकिन
जब समय आता है
तो पत्थर पर
भरोसा करता
है।
महावीर
की अहिंसा
अनुयायियों
के हाथ में पड़कर
विकृत हो गयी, निषेध हो
गयी है। वह
बड़ा विधायक
जीवन-स्रोत था।
लेकिन हमारी
अड़चन है। जो
भी हम सुनते
हैं, उसका
हम अर्थ अपने
हिसाब से
लगाते हैं।
अगर कोई मर
गया--किसी का
प्रेमी मर गया,
किसी की
प्रेयसी मर
गई--तो हम अपने
हिसाब से अर्थ
लगाते हैं।
जिसकी
प्रेयसी मर गई
है या प्रेमी
मर गया है, उसे
अगर हम रोता
नहीं देखते, आंख में
आंसू नहीं
देखते, तो
हम सोचते हैं,
"अरे! तो कुछ
दर्द नहीं हुआ,
दुख नहीं
हुआ? रोई
भी नहीं? तो
कोई लगाव न
रहा होगा। तो
कोई चाहत न
रही होगी। तो
कोई प्रेम न
रहा होगा।'
लेकिन
तुम्हें पता
है, अगर सच
में ही गहरी
पीड़ा हो तो
आंसू आते
नहीं! आंसू भी
रुक जाते हैं।
और आंसू बहुत
गहरी पीड़ा के
सबूत नहीं
हैं--पीड़ा के
सबूत
हैं--बहुत
गहरी पीड़ा के
सबूत नहीं
हैं। अब बड़ी
कठिनाई है।
आंसू तब भी
नहीं आते, जब
पीड़ा नहीं
होती; और
आंसू तब भी
नहीं आते जब
महान पीड़ा
होती है। तो
भूल-चूक की
संभावना है।
कभी यह भी हो
सकता है कि
रूखी आंखों को
देखकर तुम
सोचो कि कोई
पीड़ा नहीं हुई;
और कभी यह
भी हो सकता है,
क्योंकि
मैं कहता हूं
रूखी आंखों
में बड़ी गहरी
पीड़ा है कि
आंसू भी नहीं
बह रहे, तो
फिर उसको भी
तुम समझ लो कि
बड़ी गहरी पीड़ा
हो रही है
जिसको कोई
पीड़ा नहीं
हुई। जिंदगी
में शब्द
सीमित हो जाते
हैं।
अस्तित्व में
शब्दों की कोई
सीमा नहीं है।
वहां तो हमें
प्रत्येक घटना
को उसके निजी
व्यक्तित्व
में देखना
चाहिए। कोई
पुरानी
परिभाषा से
नहीं चलना
चाहिए।
शक
न कर मेरी
खुश्क आंखों
पर
यूं
भी आंसू बहाए
जाते हैं।
--यह
भी एक ढंग है।
तो तुम
जल्दी से
निर्णय मत
लेना। महावीर
ने प्रेम की
ही बात कही, लेकिन प्रेम
शब्द का उपयोग
नहीं किया।
प्रेम शब्द का
उपयोग न करने
के कारण अतीत
की भूल तो बचा
ली, लेकिन
भविष्य की भूल
हो गयी। तो
पीछे जो आये, उन्होंने
अहिंसा को
सिर्फ निषेध
बना लिया। शब्द
में निषेध है।
सारे शब्द
निषेधात्मक
हैं। अचौर्य,
अपरिग्रह, अहिंसा, अकाम,
अप्रमाद--सारे
शब्द
निषेधात्मक
हैं। तो ऐसा लगा
उनको कि
महावीर कहते
हैं: नहीं, नहीं,
नहीं। हां
की कोई जगह
नहीं है। इसी
कारण हिंदुओं
ने तो महावीर
को नास्तिक ही
कह दिया; क्योंकि
परमात्मा
नहीं और फिर
सारा शास्त्र "नहीं'
से भरा है।
नहीं, लेकिन
उस "नहीं' के
भीतर बड़ी गहरी
"हां' छिपी
है। "नहीं' का
उपयोग करना
पड़ा, क्योंकि
लोगों ने "हां'
वाले
शब्दों का
दुरुपयोग कर
लिया था।
लेकिन
भूल फिर हो
गयी। महावीर
का कोई कसूर
नहीं है। शब्द
का उपयोग करना
ही पड़ेगा। और
आदमी कुछ ऐसा
है, तुम जो भी
शब्द उसे दो
वह उसका ही
दुरुपयोग कर लेगा।
क्योंकि
सुनते तुम वही
हो जो तुम सुन
सकते हो। तो
महावीर के
पीछे
निषेधात्मक
लोगों की कतार
लग गई। इसलिए
तो महावीर का
धर्म फैल नहीं
सका। कहीं निषेध
के आधार पर
कोई चीज फैलती
है? महावीर
का धर्म सिकुड़कर
रह गया।
"नहीं-नहीं' पर कोई
जिंदगी बनती
है? "नहीं-नहीं'
से कोई
जिंदगी के गीत
बनते हैं? तो सिकुड़
गया। लेकिन
कुछ रुग्ण लोग,
जो
नकारात्मक थे,
उनके पीछे
इकट्ठे हो
गये। उनकी
कतार लगी है।
उनका सारा
हिसाब इतना है
कि बस "नहीं' कहते जाओ।
जो भी चीज हो
उसे इनकार
करते जाओ। इनकार
कर-कर के वे
कटते जाते हैं,
मरते जाते
हैं। तो उनकी
प्रक्रिया
करीब-करीब आत्मघात
जैसी हो गयी।
इसलिए जैन
मुनियों के पास
जीवन का उत्सव
न मिलेगा, जीवन
का अहोभाव न
मिलेगा।
इसलिए जैन
मुनियों के पास
तुम्हें जीवन
की सुरभि न
मिलेगी।
तुम्हें जैन
मुनियों के
पास कोई गीत
और नृत्य न
मिलेगा।
यह भी
क्या धर्म हुआ, जिससे नृत्य
पैदा न हो सके!
यह भी क्या
धर्म हुआ
जिससे गीत का
जन्म न हो सके,
जिसमें फूल
न खिलें!
यह सिकुड़ा
हुआ धर्म हुआ।
यह बीमारों को
उत्सुक
करेगा। निषेधात्मक
और नकारात्मक
लोगों को बुला
लेगा। यह एक
तरह का
अस्पताल होगा,
मंदिर
नहीं।
इसलिए
मैं तुमसे कह
देना चाहता
हूं कि महावीर
की अहिंसा का
ठीक-ठीक अर्थ
प्रेम है।
सूफी जिसे
इश्क कहते हैं, उसी को
महावीर
अहिंसा कहते
हैं। जीसस ने
कहा है, प्रेम
परमात्मा है।
उसी को महावीर
ने कहा है:
तुगं न मंदराओ, आगासाओ विसालयं
नत्थि।
जह तह जयंमि
जाणसु, धम्महिंसासमं नत्थि।।
"जैसे
जगत में मेरू
पर्वत से ऊंचा
कोई और पर्वत
नहीं, और
आकाश से विशाल
कोई और आकाश
नहीं, वैसे
ही अहिंसा के
समान कोई धर्म
नहीं है।'
आज
इतना ही।
thank you guruji
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