सूत्र:
सच्चाम्म” विसदि तवो, सच्चाम्मि
संजमो तह वसे तेसा
वि गुणा।
सच्चं णिबंधणं हि य, गुणाणमदधीव
मच्छाणं।।
17।।
सुबण्णरूप्पस्स उ पव्वया भवे,
सिया हु केलाससमा
असंखया।
नरस्स लुद्धस्स
न तेहि कींचि,
इच्छा हु आगाससमा
अणन्तिया।।
18।।
जहा पोम्मं
जले जायं, नोवलिप्पइ
वारिणा।
एवं अलितं कामेहिं,
तं वयं
बूम माहणं।।
19।।
जीवो बंभ जीवम्मि, चेव चरिया
हविज्ज
जा जदिणो।
तं जाण बंभचेरं, विमुक्क परदेहनित्तिस्स।।
20।।
तेल्लो काडविडहनो, कामग्गी विसयरूक्खपज्जलिओ।
जोव्वणतणिल्लचारी, जं ण डहइ
सो हदइ धण्णों।।
जा
जा वज्जई
रयणी, ण
सा पडिनियत्तई।
पहला
सूत्र:
"सच्चाम्मि वसदि तवो'--सत्य
में तप का वास
है। "सच्चामि
संजमो तह वसे तेसा
वि गुणा।' "सत्य
में संयम और
समस्त शेष
गुणों का भी
वास है। जैसे
समुद्र
मछलियों का
आश्रय है, वैसे
ही समस्त
गुणों का सत्य
आश्रय है।'
सत्य
का अर्थ समझ
लेना अत्यंत
अनिवार्य है।
साधारणतः
हम सोचते हैं, सत्य
कोई वस्तु है,
जिसे खोजना
है; जैसे
सत्य कहीं रखा
है, तैयार
है; किसी
दूर के मंदिर
में सुरक्षित
है प्रतिमा की
भांति--हमें
यात्रा करनी
है, मंदिर
के द्वार
खोलने हैं, और सत्य को
उपलब्ध कर
लेना है। ऐसा
सोचा तो भूल
हो गई शुरू से
ही।
सत्य
कोई वस्तु
नहीं है। सत्य
तो एक प्रतीति
है,
अनुभूति
है। कहीं
तैयार रखा
नहीं है। जीयोगे
तो तैयार
होगा। कहीं
मौजूद नहीं है
कि उघाड़ लेना
है। ऐसा नहीं
है कि चाबी
मिल जायेगी, ताला खोल
लोगे, तिजोड़ी तक पहुंच
जाओगे--और धन
तो तिजोड़ी
में रखा ही था;
जब चाभी न
मिली थी तब भी
रखा था; जब
ताला न खोला
था तब भी रखा
था; न
खोलते सदा के
लिए तो भी रखा
रहता--ऐसा
नहीं है। सत्य
तो जीवंत
अनुभूति है।
संज्ञा नहीं,
क्रिया है।
सत्य
का अर्थ है:
ऐसे जीना, जिस
जीवन में कोई
वंचना न हो; ऐसे जीना कि
बाहर और भीतर
का तालमेल हो।
सत्य एक संगीत
है--बाहर और
भीतर का
तालमेल है। तो
कदम-कदम
सम्हालना
होगा, क्योंकि
सत्य आचरण है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं: "सत्य में
तप है, संयम है,
समस्त
गुणों का वास
है।' क्योंकि
सत्य आचरण है।
जिसने
सत्य को साध
लिया, सब सध
जायेगा। फिर
अलग से कुछ
साधने को बचता
नहीं।
क्योंकि
जिसने बाहर और
भीतर का एक ही
जीवन शुरू कर
दिया, उसके
जीवन में
हिंसा नहीं हो
सकती; उसके
जीवन में झूठ
नहीं हो सकता;
उसके जीवन
में क्रोध
नहीं हो सकता;
उसके जीवन
में
प्रतिस्पर्धा
नहीं हो सकती।
असंभव है।
सत्य आया तो
जैसे प्रकाश
आया; अब
अंधेरा नहीं
हो सकता।
लेकिन
सत्य न तो कोई
वस्तु
है--वस्तु
होती तो उधार
भी मिल जाती।
सत्य उधार
नहीं मिलता।
मेरे पास हो
तो भी तुम्हें
देने का कोई
उपाय नहीं। सत्य
कोई सिद्धांत
भी नहीं है; नहीं
तो एक बार कोई
खोज लेता, सबके
लिए, सदा
के लिए मिल
जाता। सत्य
कोई तर्क की
निष्पत्ति भी
नहीं है, कि
केवल विचार
करने से मिल
जायेगा, कि
ठीक से सोचा
तो मिल
जायेगा। नहीं,
जो ठीक से जीएगा, उसे
मिलेगा।
सोचना काफी
नहीं है--जीना
पड़ेगा।
दो ढंग
से जीने के
उपाय हैं। एक, जिसे
हम असत्य का
जीवन कहें।
तुम कुछ हो, कुछ होना
चाहते हो--बस
असत्य शुरू हो
गया। तुम कुछ
हो, कुछ और
दिखाना चाहते
हो--असत्य हो
गया। तुम कुछ
हो, और
तुमने कुछ
मुखौटे ओढ़ लिए;
होना तो कुछ
था, प्रदर्शन
कुछ और हो
गया--असत्य हो
गया।
इसे
समझोगे तो
पाओगे कि
तुम्हारे
तथाकथित धर्मों
ने तुम्हें
सत्य की तरफ
ले जाने में
सहायता नहीं
दी बाधा डाल
दी। क्योंकि
उन सबने तुम्हें
पाखंड
सिखाया। उन
सबने कहा, कुछ
हो जाओ।
महावीर
कहते हैं, तुम
जो हो उसमें
ही रह जाओ; कुछ
और होने की
कोशिश मत करना,
अन्यथा असत्य
शुरू हो
जाएगा। कमल
कमल हो, गुलाब
गुलाब हो; कमल
गुलाब होने की
कोशिश न करे, अन्यथा
असत्य शुरू हो
जाएगा। तुम
तुम हो। तुम महावीर
होने की कोशिश
भी करोगे तो
असत्य हो जाएगा।
तुम बुद्ध
होने की कोशिश
करोगे तो
असत्य हो
जायेगा। कभी
कोई दूसरा
महावीर हो
पाया? कितने
लोगों ने तो
कोशिश की है!
कितने लोगों
ने कोशिश नहीं
की है! पच्चीस
सौ वर्षों में
हजारों लोग
महावीर होने
की चेष्टा में
रत रहे हैं--कोई
दूसरा महावीर
हो पाया?
इतिहास
के ज्वलंत
तथ्यों को भी
हम देखते नहीं, आंखें
चुराते हैं।
कोई दूसरा कभी
बुद्ध हो पाया?
कभी कोई
दूसरा राम
मिला इस जीवन
के पथ पर? कभी
फिर कृष्ण की
बांसुरी
दुबारा सुनी
गई? पुनरुक्ति
यहां होती
नहीं। अनुकरण
यहां संभव
नहीं। यहां
प्रत्येक बस
स्वयं होने को
पैदा हुआ है।
और जिसने भी
दूसरे होने की
कोशिश की वह
पाखंडी हो
जाता है।
आदर्शों
ने तुम्हें
असत्य कर दिया।
यह बात बड़ी
कठिन मालूम
होगी; क्योंकि
तुम तो सोचते
हो, आदर्शवादी
जीवन बड़ा महान
जीवन है।
आदर्शवादी
जीवन असत्य का
जीवन है।
आदर्शवादी का
अर्थ है कि
मैं कुछ हूं, कुछ होने
में लगा हूं।
सत्यवादी के
जीवन का अर्थ
है: जो है, मैंने
उसे स्वीकार
किया; अब
मैं उसको सरलता
से जी रहा हूं;
जो है--बुरा
भला, शुभ-अशुभ;
जैसा हूं, जैसा इस
अनंत ने मुझे
चाहा है, जैसा
इस अनंत ने
मुझे सरजा है,
जैसा इस
अनंत ने मुझे गढ़ा है--मैं
उससे राजी
हूं।
सत्य
है परम
स्वीकार
स्वयं का, और
तब शेष गुण
अपने-आप चले
आते हैं, छाया
की तरह चले
आते हैं। शेष
गुणों को
खोजना भी नहीं
पड़ता।
आदर्शवादी खोजता
है; सत्यवादी
के पास अपने
से चले आते
हैं। आदर्शवादी
खोजता रहता है
और कभी नहीं
पाता।
सत्यवादी
खोजता नहीं, और पा लेता
है।
लेकिन
सत्य, समझ में
आ जाए तो पहला
तो सत्य का
अर्थ है: तुम जैसे
हो, निंदा
मत करना। तुम
जैसे हो, दूसरे
से तुलना मत
करना।
क्योंकि
तुलना में ही
स्पर्धा शुरू
हो गई। तुम
जैसे हो, वैसे
को
परिपूर्णता
से स्वीकार कर
लेना। रत्तीभर
भी ना-नुच न
करना, यहां-वहां
न डोलना। तुम
जो हो सकते हो,
तुम हो।
तुम्हें जैसा
अस्तित्व ने
चाहा है, वैसे
तुम हो। इसमें
कुछ सुधार की
जरूरत नहीं
है। दौड़-धूप
बंद करनी है।
और इस होने
में थिर हो
जाना है। नहीं
तो तुम डोलते
रहोगे--कभी
राम होना
चाहोगे, धनुष
उठा लोगे; कभी
कृष्ण होना
चाहोगे, बांसुरी
बजाने लगोगे,
न बांसुरी
बजेगी न धनुष
उठेगा। कभी
महावीर होना
चाहोगे, नग्न
खड़े हो
जाओगे--प्रदर्शन
हो जाएगा।
नग्न खड़े हो
जाओगे लेकिन
महावीर का
निर्दोष भाव
कहां से लाओगे?
तुम्हारी
नग्नता तो
आरोपित होगी।
जो भी आरोपित
है, वह
निर्दोष नहीं
होता।
तुम्हारी
नग्नता तो चेष्टित
होगी, प्रयास
से होगी। जो
भी प्रयास से
होता है, वह
निर्दोष नहीं
होता। जो भी
चेष्टा से होता
है, वह तो
जबर्दस्ती
होता है।
महावीर
नग्न कभी हुए
नहीं--उन्होंने
पाया। नग्न
होने का कोई
अभ्यास नहीं
किया, जैसा
जैन मुनि करते
हैं। नग्न
होने के लिए
कोई आयोजन, व्यवस्था
नहीं
जुटाई--अचानक
पाया कि नग्न
हो गए हैं।
कथा है:
महावीर घर से
निकले तो एक
चादर लेकर निकले
थे। सोचा
जितना कम होगा
परिग्रह, उतनी
कम असुविधा
होगी। सोचा था,
जितना कम
होगा पास में,
उतनी चिंता
कम होगी। एक
चादर लेकर
निकले थे। वही
ओढ़नी थी, वही बिछौना
था। वही दिन
में वस्त्र का
काम दे देगी।
वर्षा होगी तो
सिर पर ढांककर
छाता बना
लेंगे। राह पर
चल रहे थे कि
एक नंगे
भिखारी ने, भिखमंगे ने कहा, कुछ
दे जाएं। सब
लुटा चुके थे।
यह एक चादर
बची थी, तो
आधी फाड़कर
उसे दे दी।
सोचा एक से
चलता है, आधे
से भी चल
जाएगा।
जिनको
समझ आ जाए तो
कम से कम में
भी चल जाता है
और जिनको समझ
न हो तो
ज्यादा से
ज्यादा में भी
नहीं चलता। सवाल
वस्तुओं का
नहीं है, सवाल
समझ का है।
महावीर
ने कहा, इतनी
लंबी की जरूरत
भी क्या है, थोड़े पैर सिकोड़कर
सो जाएंगे। तन
पूरा न ढंकेगा,
थोड़ा कम ढंकेगा,
हर्ज क्या
है! हवा
आती-जाती
रहेगी, थोड़ी
सूरज की
किरणें शरीर
को मिलेंगी।
लेकिन
आगे बढ़े, भागे
जा रहे हैं
जंगल की तरफ, एक गुलाब की
झाड़ी से आधी
चादर उलझ गई
कांटों में।
हंसने लगे। तो
कहा, मर्जी
नहीं है
अस्तित्व की,
कि चादर को
ले जाऊं। राह
में कोई मिल
गया, आधा
बोझ उसने ले
लिया। अब यह
झाड़ी मिल गई; अब यह
मांगती है, आधी मुझे दे
दो। तो आधी
चादर झाड़ी को
दे दी। सोचा
कि आधी से चल
जाएगा, बिना
भी चल जाएगा।
आखिर सारे
पशु-पक्षी
बिना चादर के
चला रहे हैं।
तो मैं आदमी
हूं; जो
पशु-पक्षी कर
लेते हैं वह
मुझसे न हो
सकेगा? और
अब झाड़ी से छुड़ाना
शोभा नहीं
देता।
जिसने
देना ही जाना
हो,
छुड़ाने का उसका मन
नहीं करता।
जिसने देने का
ही रस पाया हो,
वह झाड़ी से
भी न छीनना
चाहेगा। वह
चादर झाड़ी को
भेंट कर दी, वे नग्न हो
गए। ऐसे
महावीर नग्न
हुए।
यह कोई
चेष्टा न
थी--यह घटना
थी। इसके पीछे
कोई आयोजन न
था;
न कोई
शास्त्र थे, न कोई
सिद्धांत था।
नग्न होने के
लिए कोई विचार
न था। यह कोई
अनुशासन नहीं
था, जो
उन्होंने
थोपा अपने
ऊपर। ऐसा जीवन
के सहज प्रवाह
में पाया कि
जो लेकर आए थे
वह भी जा
चुका। फिर वे नग्न
हो गए। फिर
नग्न होने में
जो मस्ती पायी
तो फिर
उन्होंने
दुबारा चादर
पाने का कोई
आग्रह न रखा।
क्योंकि
जो नग्न होकर
मिला...क्या
मिला नग्न होकर? अपने
जीवन का सत्य।
हम
नग्न होने से
डरते क्यों
हैं?
शरीर को भी
हम
छिपा-छिपाकर
दिखाते हैं।
उतना ही
दिखाते हैं
जितना हमें
लगता है, दिखाने
योग्य है।
उतना ही
दिखाते हैं
जितना लगता है
कि दूसरों को
भी रुचेगा,
भाएगा। उसको
छिपाते हैं जो
हमें लगता है
कहीं दूसरों
को न रुचे,
न भाए।
कपड़े तुम अपने
लिए थोड़े ही
पहनते हो, दूसरों
के लिए पहनते
हो। इसलिए तो
जिस दिन घर में
बैठे हो, छुट्टी
के दिन बैठे
हो तो कैसे ही
कपड़े पहने बैठे
रहते हो।
बाजार चले कि सजे, कि
तैयार हुए।
विवाह में जा
रहे हैं, महोत्सव
में जा रहे
हैं, तो और सजे, और
भी तैयार हुए।
दूसरे
के लिए कपड़े
पहनते हैं हम।
शरीर के उन
हिस्सों को
छिपाते हैं जो
हम चाहते हैं
कोई दूसरा जान
न ले। ये कपड़े
हम कोई धूप, सर्दी,
वर्षा से
बचाने को थोड़े
ही पहने हुए
हैं; इनके
पीछे बड़ा मन
जुड़ा है, बड़ा
आयोजन जुड़ा
है।
जिस
दिन किसी
स्त्री को तुम
चाहते हो
लुभाना, उस दिन
तुम ज्यादा
देर रुक जाते
हो दर्पण के
सामने। उस दिन
ज्यादा ढंग से
दाढ़ी
बनाते हो, कपड़े
सजाते हो, इत्र
छिड़क
लेते हो।
दूसरे के लिए
है यह आयोजन।
हम
दिखाते हैं
केवल अपने हाथ, अपना
चेहरा; शेष
शरीर को हम
ढांके हैं।
ढांकने के दो
अर्थ हैं। एक
तो हम सोचते
हैं, दिखाने
योग्य नहीं।
दूसरा: ढांकने
से जो ढंका है उसमें
आकर्षण बढ़ता
है। दूसरे उसे
उघाड़ना चाहते
हैं।
स्त्रियां
अगर नग्न हों
तो कोई गौर से
देखे भी न।
आदि समाजों
में, आदिवासियों
में
स्त्रियां
नग्न हैं, कोई
चिंता नहीं
करता।
स्त्री
खूब ढांककर
शरीर को चलती
है। जो-जो ढंका
है,
उसे-उसे उघाड़ने
का सहज मन
होता है।
तो एक
तो हम छिपाते
भी हैं; हम
आकर्षित भी
करते हैं, लुभाते
भी हैं। इसके
पीछे आयोजन
है। हमारे वस्त्रों
के पीछे भी
आयोजन है।
किसी दिन हम
थक जाते हैं
इन वस्त्रों
से, इस
प्रदर्शन से,
इस दिखावे
से, इस
नाटक से, तो
फिर हम दूसरा
आयोजन करते
हैं--नग्न
कैसे हो जाएं!
लेकिन वह भी
आयोजन है।
सरलता से तुम
कुछ भी न होने दोगे?
सहजता से
तुम कुछ भी न
होने दोगे? तुम्हारे
जीवन में क्या
कोई भी
निर्दोष ज्योति
न जगेगी? सभी
प्रयोजन से
होगा? सोच-सोचकर
होगा? हिसाब
लगाकर होगा?
अब जैन
मुनि हैं, नग्न
खड़े हैं। मगर
नग्न खड़ा होना
उनका वैसे ही है,
जैसे तुमने
दांव लगाया हो
जुए पर। वे
कहते हैं, नग्न
हुए बिना
मोक्ष न
मिलेगा।
इसलिए दिगंबर जैन
कहते हैं कि
स्त्रियों का
मोक्ष नहीं है;
क्योंकि
स्त्रियों को
नग्न करना
कठिन होगा, समाज
डांवांडोल
होगा, अड़चन
खड़ी होगी। तो
स्त्री को
पहले पुरुषऱ्योनि
में जन्म लेना
पड़ेगा।
क्योंकि बिना पुरुषऱ्योनि
में जन्म लिये
वह नग्न न हो
सकेगी। नग्न न
हो सकेगी, तो
मोक्ष कैसे?
अब तुम
थोड़ा सोचो!
नग्न होने में
भी दांव है, हिसाब
है, गणित
है। यह नग्न
होना भी शुद्ध
सरल नहीं है। महावीर
नग्न हुए थे, मोक्ष का
कोई सवाल न
था--एक भिखारी
ने चादर मांग
ली थी। महावीर
नग्न हुए थे, मोक्ष का
कोई सवाल न
था--एक फूलों
की झाड़ी ने चादर
छीन ली थी।
महावीर नग्न
हुए थे, इसके
पीछे कभी सोचा
भी न था।
लेकिन
तुम जब नग्न
होओगे, तो
मोक्ष...।
तुम्हारी
नग्नता भी
सौदा है।
कपड़ों
में ढांका
है हमने अपने
शरीर को। और
ऐसे ही हमने
बहुत-बहुत
पर्तें अपने
मन में ढांकी
हैं। हम वही
कहते हैं, जो
हम सोचते हैं
रुचिकर
लगेगा। हम वही
कहते हैं, चुन-चुनकर,
छांट-छांटकर,
जो दूसरे को
मोहित करेगा
और हमारी एक
सुंदर प्रतिमा
निर्मित
होगी। हम वही
नहीं कहते जो
हमारे भीतर
उठता है। भीतर
गालियां भी उठती
हों तो भी हम
बाहर स्वागत
के गीत गाए
चले जाते हैं।
भीतर क्रोध भी
उठता है तो भी
ओंठों पर
मुस्कुराहट
को फैलाए चले
जाते हैं।
मुस्कुराहट
झूठी होती है।
जो भी थोड़ा आंखवाला
है, वह देख
लेगा, झूठी
है; जबर्दस्ती
ओंठों को ताना
गया है, खींचा
गया है--बही
नहीं है।
मुस्कुराहट
भीतर से उठी
नहीं है।
मुस्कुराहट
कहीं से आयी
नहीं है, बस
ऊपर से लीपी-पोती
गयी है। लेकिन
हमारी
मुस्कुराहट
झूठी है।
हमारे आंसू
झूठे हैं।
हमारी
सहानुभूति झूठी
है, उदासी
झूठी है।
हमारा सारा
जीवन एक झूठ
का व्यापार
है।
जब
महावीर कहते
हैं सत्य, तो
उनका अर्थ यह
नहीं है, जैसा
गणित में होता
है--दो और दो
चार, यह
सत्य हुआ गणित
का--ऐसे सत्य
की बात महावीर
नहीं कर रहे
हैं। जब
महावीर कहते
हैं सत्य, तो
वे यह कह रहे
हैं कि तुम जो
हो, जैसे
हो, निपट
और नग्न, खोल
दो अपने को वैसा
ही। तुम चिंता
न करो कि कौन
क्या सोचेगा। तुम
अपने में कोई
भी आयोजन न
करो। जैसे
वृक्ष खड़े हैं
नग्न और सहज, ऐसे ही तुम
भी नग्न और
सहज हो जाओ।
महावीर
का सत्य बड़ा
कठिन है। पर
महावीर का सत्य
बड़ा गहरा भी
है। और महावीर
का सत्य ही
सत्य है, दार्शनिकों
के सत्य में
कुछ भी नहीं
रखा है। वह तो
बातचीत है, शब्दों का
जाल है। वह भी
शायद कुछ
छिपाने की चेष्टा
है।
तुम
अपने को पकड़ो।
तुम अपना पीछा
करो और जगह-जगह
देखो, चौबीस
घंटे में
कितना असत्य
कर रहे हो!
अनजाने ही!
ऐसा भी नहीं
कि तुम सभी
असत्य
जान-जानकर बोलते
हो, सोच-सोचकर
बोलते हो--आदत
इतनी प्रगाढ़
हो गई है, ऐसे
रग-रोएं
में समा गई है,
ऐसे खून-खून
की बूंद में
बैठ गई है, कि
अब तो तुम किए
चले जाते हो, कोई हिसाब
भी नहीं रखना
पड़ता। तुमसे
असत्य ऐसे ही
निकलता है
जैसे वृक्षों
से पत्ते
निकलते हैं।
अब कुछ करना
भी नहीं पड़ता,
कुशलता
इतनी गहन हो
गई है। कभी तो
तुम चौंकोगे
कि जहां जरूरत
भी नहीं होती,
वहां भी
असत्य निकलता
है। जहां उससे
कुछ लाभ भी
होने को नहीं
है वहां भी
असत्य निकलता
है। वहां भी
सत्य नहीं
निकलता, वहां
भी असत्य
निकलता है।
कभी
तुमने पकड़ा
अपने को? ऐसे मौकों पर
भी, जब कि
कोई लाभ भी
नहीं दिखाई
पड़ता झूठ
बोलने में, लेकिन झूठ
बोलने की आदत
हो गई है! इस
आदत को तोड़ना
पड़े! कितनी ही
मजबूत हो, कितने
ही हथौड़े
मारने पड़ें, पर तोड़ना
पड़े! और
धीरे-धीरे तुम
जो हो उसके
लिए राजी होना
पड़े! हो सकता
है, प्रतिष्ठा
खो जाए; क्योंकि
हो सकता है, प्रतिष्ठा
तुम्हारे
असत्य पर ही
खड़ी हो। हो
सकता है, तुम्हारा
सम्मान खो जाए;
क्योंकि
अकसर इस बात
की संभावना है
कि तुम्हारा
सम्मान
तुम्हारे
उन्हीं झूठों
पर खड़ा हो, जो
तुमने समाज के
सामने बोले
हैं।
तुम्हारा दिखावा,
तुम्हारे
प्रदर्शन, तुम्हारे
नाटक ही
बुनियाद में
हों, तो सम्मान
भी गिर जाएगा।
गिर जाने दो!
इसे ही मैं संन्यास
कहता हूं, जिसको
महावीर सत्य
कह रहे हैं।
तुम
जैसे हो, तुम
बेशर्त उसे
स्वीकार कर
लो। कठिन
होगा। आग से
गुजरना होगा।
मगर आग निखारेगी।
कचरा जल जाएगा,
कुंदन बाहर
आएगा। साफ
शुद्ध सोना
होकर तुम निकलोगे।
जो सोना आग से
निकलने से डर
गया वह कभी
शुद्ध नहीं हो
पाता। जो
मनुष्य सत्य
की आग से
निकलने से
डरता है, वह
कभी मनुष्य
नहीं हो पाता।
"सत्य
में तप, संयम,
शेष समस्त
गुणों का वास
है।'
तो
पहला सत्य तो
जो मैं हूं, वैसा
ही अपने को
स्वीकार कर
लूं। जो मैं
हूं, उससे
अन्यथा होने की
चेष्टा भी न
करूं; क्योंकि
उस सब चेष्टा
में ही झूठ
प्रवेश करता है।
तुम
क्रोधी हो, तो
तुम क्या करते
हो? तुम
अक्रोध की
साधना करते
हो। मेरे पास
लोग आते हैं, वे कहते हैं,
"मन बड़ा
अशांत है, शांति
की कोई तरकीब
बता दें।' क्या
करोगे शांति
की तरकीब का? ऊपर-ऊपर लीपा-पोती
कर लोगे, भीतर
अशांति उबलती
रहेगी
ज्वालामुखी
की तरह।
ऊपर-ऊपर तुम
शांति के भवन
बना लोगे, ज्वालामुखियों
पर बैठे होंगे
भवन। भूकंप आते
ही रहेंगे।
शांत तुम हो न
पाओगे।
शांत
होने की उतनी
जरूरत नहीं है, जितनी
अशांति को
समझने की
जरूरत है।
पहले तो अशांति
को स्वीकार
करने की जरूरत
है कि मैं
अशांत हूं। फिर
अशांति को
पहचानने की
जरूरत है कि
यह अशांति
क्या है--बिना
किसी निंदा
के। पहले से
ही अगर तुमने
तय कर लिया कि
अशांति बुरी
है तो तुम जान
कैसे पाओगे, देख कैसे
पाओगे? जो
आंखें पहले ही
पक्षपात से भर
गईं और जिन्होंने
तय कर लिया कि
अशांति बुरी
है और अशांति
से छूटना है, वे आंखें
अशांति का
अवलोकन न कर
पाएंगी। अवलोकन
शुद्ध न होगा,
अवलोकन
प्रामाणिक न
होगा। तुम
पहले से ही
तैयार हो। तुम
जूझने को
तैयार हो, लड़ने
को तैयार हो।
दुश्मन को कभी
कोई भर आंख देख
पाता है!
दुश्मन से तो
हम आंखें बचा
लेते हैं।
मित्र को देख
पाते हैं। प्रेमी
को देख पाते
हैं। जिससे
हमारा प्रेम हो,
उसकी आंखों
में आंखें डाल
पाते हैं।
तो
अपने को प्रेम
करो,
अगर सत्य
होना है। और
जैसे भी हो
बुरे-भले, यही
हो, इसके
अतिरिक्त कुछ
और हो नहीं
सकता था। जो
तुम हुए हो, इसको पहचानो,
परखो, जांचो, खोलो
एक-एक गांठ।
अशांति है तो
अशांति सही, क्या करोगे?
अशांति
तुम्हारा
तथ्य है। जैसे
आग जलाती है, वह उसका
गुणधर्म है।
अशांति
तुम्हारे आज
का तथ्य है।
आज तुम जैसे
हो उसमें
अशांति के फूल
लगते हैं, अशांति
के कांटे लगते
हैं। लेकिन
देखो, पहचानो,
समझो, स्वीकार
करो। भागो
मत। डरो मत।
विपरीत की
चेष्टा मत
करो। अशांति
है तो शांति
को लाने के
प्रयास में
संलग्न मत हो
जाओ। वह
प्रयास
अशांति से
बचने का
प्रयास है।
बचकर कोई कभी
बच नहीं पाया।
अगर कामवासना
है तो उतरो।
उस गहरे कुएं
में उतरो
जिसका नाम कामवासना
है। उसकी सीढ़ी
दर सीढ़ी नीचे
जाओ। उसकी
आखिरी तलहटी
को खोजो। वहीं
से उठेगा
ब्रह्मचर्य।
जागरण से
उठेगा
ब्रह्मचर्य।
कामवासना की
पहचान में से
ही
ब्रह्मचर्य
पैदा होता है।
कामवासना में
ही छिपा है
ब्रह्मचर्य; जैसे
कामवासना बीज
का खोल है और
उसके भीतर छिपा
है कोमल तंतु,
कोमल पौधा
ब्रह्मचर्य
का। तुम समझो,
बीज को कैसे
जमीन में बोएं,
फिर कैसे सम्हालें--उसी
से निकलेगा।
कीचड़ से जैसे
कमल निकलता है,
ऐसे ही
कामवासना से
ब्रह्मचर्य
निकलता है।
अशांति
का ही सार है
शांति। उसी के
भीतर से निचोड़ना
है। जैसे
फूलों से इत्र
निचोड़ते
हैं,
ऐसे ही
क्रोध से निचुड़कर
करुणा आती है।
तो जो
तुम्हारे पास
है उसके
विपरीत होने
में मत लग
जाओ। जो
तुम्हारे पास
है उसको ही
कैसे रूपांतरित
करें, कैसे
उसमें से ही
सार को खोजें,
असार को
त्यागें, कैसे
उसको निचोड़ें,
इत्र बनाएं--तो
तुम सत्य हो
सकोगे।
महंगा
है यह सौदा।
इसलिए महावीर
कहते हैं, तप
है यह सत्य।
इसमें तपना
पड़ेगा। यह
तपना सस्ता
तपना नहीं है
कि धूप में
खड़े हो गए और
तप लिए। वह तो
बच्चे भी कर
लेते हैं। वह
तो बुद्धू भी कर
लेते हैं।
उसके लिए तो
कोई
बुद्धिमत्ता
की जरूरत नहीं
है। जड़ भी कर
लेते हैं।
वस्तुतः जो जड़बुद्धि
हैं, वे
ज्यादा आसानी
से कर लेते
हैं। क्योंकि
जितनी जड़बुद्धि
होती है उतनी
जिद्दी होती
है। और जितनी जड़बुद्धि
होती है, उतनी
संवेदनहीन
होती है। धूप
में भी खड़े हो
जाते हैं, थोड़े
दिन में उसका
भी अभ्यास हो
जाता है। उपवास
भी कर लेते
हैं, उसका
भी अभ्यास हो
जाता है। कुछ
लोग हैं जो
खड़े हैं
वर्षों से, बैठे नहीं, लेटे
नहीं--उसका भी
अभ्यास हो
गया। लेकिन
तुमने कभी इन
लोगों की
आंखों में गौर
से देखा! वहां तुम्हें
प्रतिभा की
दमक न मिलेगी।
वहां तुम्हें
आनंद और शांति
के स्वर सुनाई
न पड़ेंगे। इनकी
छाती के पास, हृदय के पास
कान लगाकर
सुनना; वहां
कोई अनाहत का
नाद न मिलेगा।
वहां तुम पाओगे:
जड़ता, राख,
मरे हुए
लोग।
अकसर
हठी जड़ होता
है। और जिसको
तुम तप कहते
हो,
वह हठ से
ज्यादा नहीं
है, जिद्द है, क्रोध
है, अहंकार
है--लेकिन
सत्य नहीं।
सत्य
का तप क्या है? सत्य
का तप है: अपने
को जैसा है वैसा
स्वीकार किया,
वैसा ही
प्रगट किया; अपने और
अपनी
अभिव्यक्ति
में कोई भेद न
किया। फिर जो
हो, समाज
अच्छा कहे
बुरा कहे, लोग
चाहें न चाहें,
सम्मान दें
अपमान दें, फिर जो हो--यह
है असली तप।
लोग निंदा
करें, वह
भी स्वीकार
है। लोग
प्रशंसा करें,
वह भी
स्वीकार है। लोग
भूल जाएं, उपेक्षा
करें, वह
भी स्वीकार
है। यह है तप।
सत्य होने को
महावीर कहते
हैं तप।
"सच्चामि वसदि तवो'--सत्य
में बसता है
तप। संयम भी
वहीं है।
इन दो
शब्दों को समझ
लेना चाहिए, क्योंकि
महावीर ने इन
दो शब्दों का
साथ-साथ उपयोग
किया।
तप का
अर्थ है:
तुम्हारे
भीतर ऐसी
बहुत-सी सचाइयां
हैं जिनके
कारण तुम्हें
अड़चन होगी। उस
अड़चन को झेलने
के लिए तैयार
होना तप है।
तुम्हारे भीतर
ऐसी बहुत-सी सचाइयां
हैं;
जिनके कारण
बहुत-से काम
तुम जो अभी कर
रहे हो, कल
न कर पाओगे।
वह जो न करने
की अवस्था है,
वही संयम
है।
समझो!
अब तक तुम दान
दे रहे थे।
लेकिन सच्चा
आदमी सोचेगा:
"दान का भाव
उठा है या
नहीं?' दान के
लिए ही तो सभी
दान नहीं देते,
और दूसरे
कारणों से
देते हैं। राह
पर भिखमंगा पकड़
लेता है, इज्जत
दांव पर लगा
देता है।
भिखमंगा भी
अकेले में
तुमसे भीख
नहीं मांगता,
क्योंकि
अकेले में
जानता है कि
तुम धुतकारोगे।
बीच बाजार में
पकड़ लेता है।
वहां इज्जत
सवाल है: "लोग
क्या कहेंगे,
दो पैसे भी
न देते बने!
लोग हंसेंगे!'
वहां तुम दो
पैसा देकर
दानी बन जाना
चाहते हो।
क्योंकि उस दो
पैसे में
इज्जत मिल रही
है, वह
इज्जत तुम
दुकान पर काम
में ले आओगे।
दो पैसे से
तुम दो रुपये निकालोगे।
जिसने आज
तुम्हें दानी
की तरह देख
लिया है, कल
वही ग्राहक की
तरह दुकान पर
होगा, तो
तुम जो भी दाम
बताओगे, मान
लेगा--आदमी
दानी है!
बाजार में अगर
भिखमंगे
ने पकड़ लिया
तो तुम्हें
देना ही पड़ता
है।
एक मारवाड़ी
को एक भिखमंगे
ने पकड़ लिया
बाजार में।
तख्ती लगाए था
भिखमंगा कि
मैं अंधा हूं।
और उसने कहा, "सेठ
कुछ मिल जाए!
बड़े दिन से
सिनेमा नहीं
गया हूं।' मारवाड़ी तो तैयार ही
था कि कैसे
छूटे! उसने
देखा, "सिनेमा--और
तख्ती लगाए हो
कि मैं अंधा
हूं! सिनेमा
जाकर करोगे
क्या? धोखा
देने की कोशिश
कर रहे हो?' उस
अंधे ने कहा,
"दाता! गाने
ही सुन लूंगा!
अब देने से न
बचो।'
भीड़ लग
गई थी। सेठ ने
देखा, बचने का
उपाय नहीं है,
तो पांच
पैसे का
सिक्का
निकालकर उसको
देने लगा।
अंधे ने कहा
कि सेठ, बैंक
में जमा करवा
देना। मेरा
मार्केट तो मत
बिगाड़ बाबा!
पांच पैसे?
भिखमंगा
भी बाजार में
है;
उसका भी
मार्केट है।
सेठ भी बाजार
में है; उसका
भी मार्केट
है। न दे तो
उसका मार्केट बिगड़ता
है। ये लोग
देख रहे हैं
चारों तरफ, वे कहेंगे, अरे कृपण!
अरे कंजूस!
उस सेठ
ने कहा कि "तू
पहचाना कैसे
कि पांच पैसे
का सिक्का है, अगर
तू अंधा है? अभी मैंने
दिया भी नहीं,
हाथ में ही
लिया है।' उस
अंधे ने कहा,
"मालिक! अब
और क्या
प्रमाण चाहिए!
मारवाड़ी
से भीख मांग
रहा हूं, इससे
बड़ा प्रमाण
अंधे होने का
और क्या होगा?'
भिखमंगा
भी सोच-समझकर पकड़ता है।
भिखमंगा भी
जानता है, दान
तो कोई देना
नहीं चाहता।
लेकिन लोग
इतने ईमानदार
भी नहीं हैं
कि कह दें कि
हम दान नहीं
देना चाहते।
लोग दिखाना
चाहते हैं कि
हम हैं तो
दानी। उसी का
भिखमंगा शोषण
कर रहा है।
तुम भी लज्जा से
भर जाते हो कि
अब कैसे निकलें!
चलो, छुटकारा
पाने के लिए
देते हो।
लेकिन अगर तुम
ईमानदार हुए
तो तुम कहोगे
कि बाबा, मेरे
मन में देने
की कोई इच्छा
नहीं है। चाहे
बाजार में
सारी इज्जत
प्रतिष्ठा पर
लग जाए, चाहे
कल दुकान बंद
क्यों न हो
जाए, चाहे
लोग तुम्हें कृपण
समझें, बेईमान
समझें, धोखेबाज
समझें, धन
का आग्रही
समझें--लेकिन
तुम कहोगे कि
क्या करूं, मेरे मन में
देने का कोई
स्वर नहीं है।
तप
पैदा होगा।
संयम भी पैदा
होगा।
क्योंकि बहुत-से
काम तुम कर
रहे हो इसलिए, क्योंकि
करने चाहिए।
अगर सब खरीद
रहे हैं कोई सामान,
नया
फर्नीचर, नई
कार, तो
तुम भी खरीद
रहे हो--बिना
इसकी फिक्र
किए कि तुम्हें
जरूरत है।
तुमने कभी
सोचा कि तुम
जो चीजें खरीद
लाते हो, उनकी
जरूरत थी? लेकिन
अगर पड़ोसी
खरीद लाए थे
तो तुम भी
खरीद लाते हो।
तुमने
कभी सोचा है
कि तुम जो कर
रहे हो, जो
दिखावा कर रहे
हो, उसकी
कोई जरूरत है?
लेकिन और
दिखावा कर रहे
हैं तो तुम
कैसे रह सकते
हो! अगर
व्यक्ति सचाई
से अपने भीतर
देखने लगे, तो पाएगा:
अचानक बहुत-से
काम तो बंद हो
गए, क्योंकि
निष्प्रयोजन
थे; दूसरे
कर रहे थे, दूसरों
के दिखावे के
लिए तुम भी कर
रहे थे।
लड़की
की शादी करनी
है,
लोग हजारों
रुपये लुटाते
हैं--उनके पास
नहीं हैं, कर्ज
लेकर लुटाते
हैं। क्यों? और दूसरों
ने, दुश्मनों
ने, पड़ोसियों ने--पड?ोसी
यानी
दुश्मन--उन्होंने
अपनी लड़की की
शादी में इतना
लगाया...। अब
तुम्हारी
इज्जत दांव पर
लगी है।
तुम्हारे
अहंकार का
सवाल है।
तुम्हें भी लगाना
होगा।
तुम्हें लड़की
से कोई मतलब
नहीं है। न
तुमने जो दिया
है, वह
प्रेम से दिया
है। न तुमने
लड़की को दिया
है। तुमने
अहंकार को
दिया है। तुम
अपने झंडे को
ऊंचा करके दिखाना
चाहते थे कि
देख लो! तुम
अगर गौर से
अपनी सचाई को
पहचानने लगो
तो तुम पाओगे:
तप भी आता, संयम
भी आता।
सौ में
निन्यान्नबे आकांक्षाएं
तुम्हारी
बिलकुल
व्यर्थ हैं।
वे तुमने न
मालूम कैसे
उधार ले ली
हैं।
संक्रामक रोग
की तरह
तुम्हें लग गई
हैं। दुख आएगा
तो तुम स्वीकार
करोगे। और
बहुत-से सुख
जो सुख नहीं
हैं,
तुम दूसरों
के कारण ही
भोगे चले जाते
हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन जा रहा
था। पूछा, "कहां
जा रहे हो?' उसने
कहा, "शास्त्रीय
संगीत सुनने
जा रहा हूं।' मैंने कहा,
"लेकिन तुम
जानते नहीं।'
उसने कहा, "अब क्या
करें! सभी जा
रहे हैं, न
जाओ तो ऐसा
लगता है कि
शास्त्रीय
संगीत नहीं
आता। हालांकि
कुछ समझ में
नहीं आता
मेरे। अभी से
डरा हुआ हूं
कि वहां
करूंगा क्या।
मुझे तो उलटी घबड़ाहट
होती है। जब
आऽऽऽऽ करने
लगते हैं, मुझे
ऐसा लगता है
कि अब पता
नहीं कब यहां
से निकलना हो
पाएगा।' उसने
बताया मुझे कि
पहले भी एक
दफा ऐसा हो
चुका है: मैं
गया था
शास्त्रीय
संगीत सुनने
और जब संगीतज्ञ
बहुत आऽऽऽऽ
करने लगा तो
मैं रोने लगा।
तो मेरे पड़ोस
के लोगों ने
पूछा कि अरे
मुल्ला! हमने
तो कभी सोचा
भी न था कि तुम
इतने संगीत के
पारखी हो!
उसने
कहा,
"पारखी-वारखी
कुछ नहीं; यही
हालत मेरे
बकरे की हुई
थी। उसी रात
मर गया था। यह
आदमी बचेगा
नहीं। यह
बिलकुल मरने
के करीब है।
इसलिए मुझे
याद आ रही है
बकरे की, कि
बेचारा बकरा,
इसी तरह
शास्त्रीय
संगीत
करते-करते..!'
मगर
जाना पड़ रहा
है,
क्योंकि
सारा
मोहल्ला-पड़ोस
जा रहा है।
इज्जत का सवाल
है।
तुमने
कभी गौर किया
अपने को! तुम
बहुत-सी चीजों
में सम्मिलित
हुए हो, जहां
तुम कभी जाना
न चाहते थे, लेकिन क्या
करते! तुम भीड़
के हिस्से हो!
तुमने कभी-कभी
अपनी जरूरतों
को भी कुर्बान
किया है--उन
बातों के लिए
जो तुम्हारी
जरूरतें न
थीं। तुमने
गहने खरीद लिए
हैं, पेट
को भूखा रखा
है। तुमने बड़ा
मकान बना लिया
है, बच्चों
के लिए औषधि
नहीं जुटा
पाए। तुमने
कार खरीद ली, बच्चों को
शिक्षा नहीं
दे पाए।
तुमने
कभी गौर किया
है कि तुम वे
चीजें कर गुजरे, जो
न करते तो चल
जाता; और
उन चीजों को न
कर पाए जो कि
करनी बिलकुल
जरूरी थीं।
संयम
पैदा होता है, जो
व्यक्ति
सच्चा होने
लगता है। उसे
दिखाई पड़ता है,
जो मेरे लिए
जरूरी है वह
करूंगा; जो
नहीं जरूरी है
वह नहीं
करूंगा। और
ऐसा व्यक्ति
धीरे-धीरे भीड़
के बाहर हो
जाता है। इस
अकेले हो जाने
का नाम ही
संन्यास है।
भीड़ में ही
होता है, लेकिन
अकेला हो जाता
है। अपने ढंग
से जीता है।
और अपने ढंग
को किसी हालत
में भी समझौता
नहीं करता।
कुछ भी हो जाए,
सत्य की
आकांक्षा
करनेवाला
समझौतावादी
नहीं होता। वह
आगे-पीछे नहीं
देखता, वह
यह हिसाब नहीं
लगाता कि इसके
क्या परिणाम
होंगे। वह
कहता है, जो
भी परिणाम
होंगे उसका तप
झेल लूंगा; जो भी खोना
पड़ेगा, उसका
संयम हो
जाएगा। लेकिन
जो मैं हूं, उससे अन्यथा
मैं नहीं होना
चाहता।
एक बड़ी
क्रांति घटती
है,
जब तुम अपने
से राजी होते
हो। जब तुम
अपने से राजी
होते हो तो
तुम अपने भीतर
उतरने लगते
हो। जब तुम
अपने से राजी
होते हो और
यहां-वहां नहीं
दौड़ते और
दूसरों का
अनुगमन नहीं
करते तो तुम
अपने में
डूबने लगते हो,
एक डुबकी
लगती है। उस
डुबकी के
माध्यम से तुम
अपनी सतह से
ही परिचित
नहीं होते, अपने भीतर
की गहराइयों
से परिचित
होने लगते हो।
और एक
दिन ऐसी भी
घड़ी आती है कि
तुम अपने
केंद्र पर
आरोपित हो जाते
हो। वही है
धर्म, आत्मज्ञान
कहो।
"सत्य
में तप, संयम
और शेष समस्त
गुणों का वास
होता है। जैसे
समुद्र
मछलियों का
आश्रय है, वैसे
ही सत्य समस्त
गुणों का
आश्रय है।'
सत्य
जैसे सागर है, सभी
नदियां
उसी में गिर
जाती हैं, ऐसे
ही सत्य जीवन
का परम आचरण
है; धर्म
का
पर्यायवाची
है; और सभी
गुण उसी में
गिर जाते हैं।
लेकिन
लोग उलटा कर
रहे हैं। लोग
कहते हैं, तप
साध रहे हैं, संयम साध
रहे
हैं--क्योंकि
सत्य पाना है।
महावीर कहते
हैं, सत्य
साधो, तो
संयम और तप
अपने से आ
जाते हैं। अब
इतनी सीधी-सी
बात भी कैसे
चूक जाती है!
ऐसा लगता है, लोग चूकना
ही चाहते हैं।
अब इतना
साफ-सा वचन है।
"सच्चाम्मि
वसदि तवो'...लेकिन किसी
जैन मुनि से
पूछो, तो
वह कहेगा, "तप
करोगे तो ही
सत्य मिलेगा।
तपश्चर्या के
बिना कहीं
सत्य मिला है!'
महावीर ठीक
उलटी बात कह
रहे हैं कि
सत्य के बिना
कहीं
तपश्चर्या
हुई है! दोनों
दुश्मन मालूम
पड़ते हैं। यह
जैन मुनि महावीर
के पीछे चलता
हुआ मालूम
नहीं पड़ता। यह
तो उलटा ही
काम कर रहा
है। यह तो
कारण को पकड़कर
कार्य को लाना
चाहता है, जो
कि संभव नहीं
है। कार्य से
कारण आता है।
तुम चलते हो, तुम्हारी
छाया
तुम्हारे
पीछे चलती है।
महावीर कहते
हैं, तुम
चलोगे, तुम्हारी
छाया
तुम्हारे
पीछे चलेगी।
जैन मुनि कहता
है, छाया
का पीछा करो, कहीं ऐसा न
हो कि छाया
यहां-वहां चली
जाए!
अब तुम
अड़चन में पड़
जाओगे, अगर
तुमने छाया का
पीछा किया तो
तुम तो उलटी यात्रा
पर लग गए। यह
तो छाया
तुम्हारी
आत्मा हो गई, तुम छाया हो
गए।
महावीर
कहते हैं, सत्य
में तप, संयम
और शेष समस्त
गुणों का वास
हो जाता है। वे
नाम भी नहीं
गिनाते।
गिनाने की कोई
जरूरत नहीं
है। कह दिया
सागर, तो
सभी नदियां
आ गईं। आ ही
जाती हैं
देर-अबेर।
नदी-नदी का
कहां-कहां
पीछा करोगे? सागर को ही
पकड़ लो। जब
सागर ही मिलता
हो तो नदियों
के पीछे क्यों
भटकते हो?
लेकिन
अगर जैन मुनि
ऐसी बात कहे, तो
उसका खुद का
क्या हो!
क्योंकि वह भी
नदियों के
पीछे भटक रहा
है।
इसे
समझो।
जैनों
का शब्द है:
"उपवास'। बड़ा
प्यारा शब्द
है! उपवास
शब्द का अर्थ
होता है: अपने
अंतर्तम में
वास। उप+वास:
अपने पास होना;
अपने निकट
होना। इसका
खाने न खाने
से कुछ भी संबंध
नहीं। तुम
जिसे उपवास
कहते हो, वह
अनशन है, उपवास
नहीं। फर्क
क्या है? महावीर
कहते हैं, जब
तुम अपने पास
हो जाओगे तो
उन घड़ियों
में भोजन भूल
जाता है, क्योंकि
शरीर भूल जाता
है। जब कोई
अपने पास होता
है, आत्मा
के पास होता
है। जब आत्मा
का सत्संग चलता
है, जब उस
रस में कोई
डूबता
है--कहां याद
रहती है भूख-प्यास
की!
तुमने
कभी खयाल नहीं
किया! कोई
मित्र घर आ
जाए वर्षों का
बिछड़ा
हुआ,
भूख याद
पड़ती है? प्यास
पता चलती है? घंटों बीत
जाते हैं, बैठे
हैं, चर्चा
कर रहे हैं, न भूख है न
प्यास है।
तुम्हारा
प्रेमी मिल
जाए,
तुम्हारी
प्रेयसी मिल
जाए--भूख, प्यास
भूल जाती है।
घड़ियां ऐसे
बीतने लगती हैं
जैसे पल भागे।
दिन-रातें ऐसे
गुजर जाती हैं
जैसे आईं और
गईं, पता
ही न चला।
तो जरा
सोचो, जिस दिन
भीतर का
प्यारा, भीतर
का प्रियतम
मिल जाए, जब
उसके पास
सरकने लगोगे
तो कहां याद
आएगी भूख की, कहां याद
आएगी प्यास
की!
महावीर
कहते हैं, उपवास
के कारण अनशन
हो जाता है।
जैन मुनि कहता
है, अनशन
करो तो आत्मा
के पास जाओगे।
अब बड़ा
मुश्किल है
मामला। अनशन
करनेवाला और
भी शरीर के
पास हो जाता
है। भूखे मरोगे
तो शरीर की ही
याद आएगी।
नहीं तो करके
देख लो। उपवास
करके देख लो।
जिसको जैन
मुनि उपवास कहते
हैं,
मैं तो अनशन
कहता हूं।
अनशन करके देख
लो। जिस दिन
खाना न खाओगे,
उस दिन खाने
ही खाने की
याद आएगी। उस
दिन रास्ते पर
गुजरोगे
तो न तो कपड़े
की दुकानें
दिखाई पड़ेंगी,
न जूतों की
दुकानें; बस
रेस्तरां,
होटल, उन्हीं-उन्हीं
के बोर्ड एकदम
पढ़ोगे और
दिल में बड़ी
तरंगें उठेंगी।
रसगुल्ले
उठेंगे! रसमलाई
फैलेगी!
संदेशों के
संदेश आएंगे।
भूखा
आदमी भोजन का
ही सोच सकता
है।
इसलिए
जैन जब उपवास
करते हैं पर्यूषण
के दिनों में, तो
मंदिर में गुजारते
हैं ज्यादा
समय, क्योंकि
घर तो बहुत
ज्यादा याद
आती है। मंदिर
में किसी तरह
भुलाए रखते
हैं; शोरगुल
मचाए
रखते हैं! और
फिर वहां और
भी उन्हीं
जैसे भूखे बैठे
हैं, उनको
देखकर भी ऐसा
लगता है: "कोई
अकेले ही थोड़े
ही हैं! अपन ही
थोड़े ही
परेशान हो रहे
हैं, और भी
सब हो रहे हैं!'
और
एक-दूसरे की
हिम्मत बंधाए
रखते हैं।
बैंड-बाजा बजाए
रखते हैं। घर
आए तो भोजन की
याद आती है।
वहां भी भोजन
की ही याद आती
है। तुम जिस
चीज के साथ जबर्दस्ती
करोगे, उसका
कांटा चुभेगा।
महावीर
कहते हैं, उपवास
हो जाए--अनशन
अपने से हो
जाता है।
जैन
मुनि कहते हैं, अनशन
करो तो उपवास
होगा। यही
पूरी की पूरी
उलट-बांसी
चल रही है, उलटी
धारा बह रही
है।
"समुद्र
जैसे सभी
नदियों का
आश्रय है, ऐसे
ही सत्य सभी
धर्मों का
आश्रय है।
कदाचित सोने
और चांदी के
कैलाश के समान
असंख्य पर्वत
हो जाएं तो भी
लोभी पुरुष को
उनसे कुछ भी
नहीं होता, तृप्ति नहीं
होती, क्योंकि
इच्छा आकाश के
समान अनंत है।'
सोने
और चांदी के
कैलाश, हिमालय
के हिमालय
सोने और चांदी
के, अनंत
हिमालय, असंख्य
पर्वत
तुम्हें
उपलब्ध हो
जाएं, तो
भी लोभी पुरुष
को उनसे कुछ
भी नहीं होता।
क्योंकि लोभ
का इससे कोई
संबंध ही नहीं
है। लोभ का जो
तुम्हारे पास
है उससे कोई संबंध
ही नहीं है।
लोभ की दौड़ तो
उसके लिए है जो
तुम्हारे पास
नहीं है।
लोभ के
गणित को समझो।
जो तुम्हारे
पास है, लोभ
उसको देखता ही
नहीं; जो
तुमसे दूर है,
उसी को
देखता है।
एक
बहुत मोटा
आदमी था।
डाक्टर ने
उसको सलाह दी
कि अब तुम कुछ
और नहीं करते
तो मरोगे। तुम
गोल्फ खेलना
शुरू कर दो।
तो वह सात दिन
बाद आया। उसने
कहा,
बड़ी
मुश्किल है।
अगर गेंद को
बहुत पास रखता
हूं तो दिखाई
नहीं पड़ती!
तोंद बड़ी है।
अगर बहुत दूर
रखता हूं तो
चोट नहीं मार
सकता। अब करूं
क्या?
लोभ की
तोंद बड़ी है।
जो पास है वह
तो दिखाई ही नहीं
पड़ता। जो दूर
है वही दिखाई
पड़ता है।
लेकिन जो दूर
है वह तभी तक
दिखाई पड़ता है
जब तक दूर है।
जैसे-जैसे तुम
पास आए, तुम्हारी
तोंद भी गई।
जब तुम पास
पहुंचे वह तोंद
के नीचे फिर
ढंक गया। अब
फिर दूर रखो।
तुम्हारे पास
दस हजार हैं
तो नहीं दिखाई
पड़ते, लाख
दिखाई पड़ते
हैं। लाख हो
गए, वे
नहीं दिखाई
पड़ते, वे
तोंद के नीचे
पड़ गए--दस लाख
दिखाई पड़ते
हैं। अगर यह
गणित समझ में
आ गया, तो
एक हिमालय हो
कि हजार
हिमालय हो
जाएं सोने से
भरे हुए
तुम्हारे पास,
क्या फर्क
पड़ता है!
जो
तुम्हारे पास
है,
वह लोभ को
दिखाई नहीं
पड़ेगा; जो
दूर है, जो
नहीं है, वही
दिखाई पड़ता
है।
तो जो
इस बात को समझ
लेगा, वह एक
बात समझ लेगा
कि लोभ के
तृप्त होने का
कोई उपाय नहीं
है। चोट लग ही
नहीं सकती।
पास रखो, दिखाई
नहीं पड़ता; दूर रखो, दिखाई
पड़ता
है--लेकिन दूर
को चोट कैसे
मारो! चोट तो
पास को लग
सकती थी।
इसलिए लोभ कभी
तृप्त नहीं
होता। तुम यह
मत सोचना कि
गरीब आदमी का
तृप्त नहीं
होता, अमीर
का तो हो जाता
होगा। किसी का
तृप्त नहीं
होता। अमीर
गरीब से भी
ज्यादा गरीब
हो जाता है। जितना
होता जाता है
उतनी ही
मुश्किल होती
जाती है। इतना
हो गया, कुछ
भी नहीं
हुआ--और
बेचैनी बढ़ती
है। गरीब को तो
कम से कम एक
चैन रहता है, एक आशा रहती
है कि जब हो
जाएगा तो सब
ठीक हो जाएगा;
अमीर की वह
आशा भी छिन
जाती है।
क्योंकि उसे एक
बात...कब तक झुठलाएगा
वह कि इतना तो
हो गया, और
कुछ भी नहीं
हुआ!
यह कुछ
आश्चर्यजनक
नहीं है कि
जैनों के
चौबीस ही
तीर्थंकर
राजपुत्र थे।
यह कुछ
आश्चर्यजनक
नहीं है कि
बुद्ध भी
राजपुत्र थे।
और कृष्ण और राम
और हिंदुओं के
सारे अवतार
शाही घरों से
आए थे। अगर
उनको यह दिखाई
पड़ गया, तो
इसके दिखाई
पड़ने के पीछे
एक कारण है।
उन्होंने दौड़
को देखा।
कितना धन था, कुछ सार
नहीं मिलता, लोभ तो पकड़े
ही रहता है!
तो एक
बात तय है कि
लोभ का जिसने
साथ रखा, अतृप्ति
की छाया बनती
रहेगी। लोभ से
जिसने तृप्ति
चाही, वह
असंभव चाह रहा
है--जो न हुआ है,
न होता है, न हो सकता
है। तृप्ति
अगर चाहनी
हो तो लोभ से जागो।
"कदाचित
सोने और चांदी
के कैलाश के
समान असंख्य
पर्वत हो
जाएं...।'
"सुवण्णरूप्पस्स उ पव्वया
भवे, सिया
हु केलाससमा
असंखया...'
असंख्य हो
जाएं कैलास; "नरस्स लुद्धस्स
न तेहि किंचि...' फिर भी लोभी
को कोई तृप्ति
नहीं।
"इच्छा
हु आगाससमा
अणन्तिया।'
इच्छा आकाश
की तरह अनंत
है। बढ़ो, दिखाई पड़ता
है, आकाश
छू रहा है
पृथ्वी को, यही कोई
दस-पांच मील
दूर, क्षितिज
पास ही दिखाई
पड़ता है--पहुंचो,
कभी मिलता नहीं।
तुम
जितने बढ़ते हो, क्षितिज
भी उतना ही
तुम्हारे साथ
बढ़ता जाता है।
तुम्हारे और
क्षितिज के
बीच का जो
फासला है, वह
सदा उतना ही
रहता है।
उसमें कोई
अंतर नहीं पड़ता।
तुम्हारे पास
क्या है, इससे
कुछ भेद नहीं
पड़ता।
तुम्हारे और
तुम्हारे लोभ
का अंतर सदा
समान रहता है।
गरीब और उसकी
उपलब्धि में,
अमीर और
उसकी उपलब्धि
में उतना ही
अंतर है। अंतर
बराबर है।
ऐ
शेख! अगर खुल्द
की तारीफ यही
है
मैं
इसका तलबगार
कभी हो नहीं
सकता।
कवि ने
कहा है कि अगर
तुम्हारे
स्वर्ग की यही
प्रशंसा है कि
वहां सोने के
वृक्ष हैं और
हीरे-जवाहरातों, मणि-माणिक्य
के फूल हैं, और वहां
सुंदर
स्त्रियां
हैं जिनका रूप
कभी ढलता नहीं,
और वहां
शराब के चश्मे
हैं--तो कवि ने
कहा है: ऐ शेख!
अगर खुल्द
की तारीफ यही
है--अगर तेरे
स्वर्ग की यही
तारीफ है, यही
प्रशंसा है, मैं इसका
तलबगार कभी हो
नहीं सकता--तो
फिर मैं इसकी
आकांक्षा
नहीं कर सकता।
क्योंकि यह तो
फिर वही मूढ़ता
है जो संसार
की है। इसमें
तो कुछ भेद न
हुआ। यहां
थोड़े-थोड़े ढेर
थे सोने-चांदी
के, वहां
कैलाश जैसे
पर्वत होंगे।
यहां सुंदर स्त्रियां
थीं, लेकिन
उनका रूप ढल
जाता था; वहां
सुंदर
स्त्रियां
होंगी जिनका
रूप न ढलेगा।
अंतर परिमाणात्मक
है, गुणात्मक
नहीं--क्वांटिटी
का है, क्वालिटी
का नहीं।
मैं
इसका तलबगार
कभी हो नहीं
सकता!
जिसने
जीवन की लोभ
की प्रक्रिया
को समझ लिया, वह
स्वर्ग की
मांग न करेगा।
और अगर तुम
अभी भी स्वर्ग
की मांग कर
रहे हो तो तुम
समझना कि तुम संसार
को ही बार-बार
मांगे जा रहे
हो। तुम्हारा
स्वर्ग तुम्हारे
संसार का ही
फैलाव है, इसका
ही विस्तार
है।
तुम
जरा स्वर्ग की
तारीफ तो
देखो! तुम जरा
शास्त्रों
में स्वर्ग का
वर्णन तो
देखो! जिनने
ये शास्त्र
लिखे हैं, वे
बुद्धिमान
नहीं हो सकते।
और जिन्होंने
स्वर्ग की ये प्रशंसाएं
की हैं, वे
लोभ से मुक्त
नहीं हो सकते।
वस्तुतः
स्वर्ग की इन
आकांक्षाओं
में लोभ ही सघनीभूत
होकर प्रगट
हुआ है। जो
यहां पूरा
नहीं होता, जो क्षितिज
यहां नहीं
मिलते, उनको
पूरा कर लेने
की आकांक्षा
है। लोभ, स्वर्ग
में कह रहा है,
घबड़ाओ मत, वहां
तुम जहां खड़े
हो वहीं जमीन
आसमान को
छुएगा।
कल्पवृक्ष!
आकांक्षा हुई
नहीं कि पूरी
हुई। तुमने
चाहा नहीं कि
पा लूं
क्षितिज को और
क्षितिज खुद
चला आएगा। तुम्हें
जाना न पड़ेगा।
ये जो आकांक्षाएं
हैं,
ये धार्मिक
नहीं हैं--ये
अधार्मिक
आदमी की आकांक्षाएं
हैं। संसार
में आकांक्षा
हार गई तो वह
कहता है, कोई
हर्ज नहीं, स्वर्ग में
पूरी कर लेंगे;
जो यहां
नहीं हुआ उसे
वहां पूरा कर
लेंगे।
यह
जन्नत मुबारिक
रहे जाहिदों
को
कि
मैं आपका
सामना चाहता
हूं।
जो
जानते हैं, वे
कहते हैं
"प्रभु!
तुम्हारा
मुकाबला
चाहते हैं।'
यह
जन्नत मुबारिक
रहे जाहिदों
को! यह
तुम्हारे
तथाकथित
त्यागी, विरक्तों को मुबारिक!
जिन्होंने
यहां बेचारों
ने छोड़ा है इस
आकांक्षा में
कि वहां पा
लेंगे, उनको
दे देना
जन्नत। यहां
स्त्रियां
छोड़ दी हैं, बैठे हैं
आसन लगाए, आशा
कर रहे हैं अप्सराओं
की। उर्वशी से
कम में उनका
काम न चलेगा।
चौंक-चौंककर
देखते हैं, मेनका अभी
तक आई नहीं!
सुना तो था कि
आती है। जब ऋषि-मुनि
पहुंच जाते
हैं समाधि की
अवस्था को, समाधि में
भी आंख
खोल-खोलकर देख
लेते हैं, मेनका
अभी तक आई
नहीं। इंद्र
का आसन नहीं
डोला! लेकिन
जो आंख
खोल-खोलकर
मेनका को देख
रहा है, उसकी
समाधि कहां
लगी? उसकी
समाधि कैसे
लगेगी?
समाधि
का अर्थ है:
लोभ व्यर्थ हो
गया। ऐसे समाधान
का नाम समाधि
है। लोभ
व्यर्थ हो
गया--यहां का
नहीं, वहां का
नहीं, लोभ
मात्र व्यर्थ
हो गया। न अब
यहां, न अब
वहां--अब लोभ
की कोई
आकांक्षा न
रही। जान लिया,
पहचान लिया,
लोभ का सार
पकड़ लिया कि लोभ
कभी तृप्त
नहीं हो सकता,
इसलिए अब
लोभ छोड़ दिया।
संसार का लोभ
नहीं--लोभ को
ही छोड़ दिया।
क्योंकि जब तक
लोभ है, लोभ
नए संसार बनाए
चले जाता है।
लोभ संसार का सूत्र
है।
तो लोग
कहते हैं, "हम
कोई संसारी
थोड़े ही हैं!
हमने तो संसार
छोड़ दिया है।
हम तो उस सुख
की तलाश कर
रहे हैं जो
शाश्वत है।' लेकिन सुख
की ही तलाश
जारी है। ये
लोग, जिनको
तुम संन्यासी
कहते हो, ऋषि-मुनि
कहते हो, ये
संसारी हैं; ये तुमसे भी
गहन संसारी
हैं। तुम तो
छोटे-मोटे से
राजी हो, छोटा-मोटा
टीला सोने का
काफी है; ये
कहते हैं, सुमेरु
पर्वत, कैलाश,
हिमालय!
इनका लोभ
तुमसे बड़ा है।
"नरस्स लुद्धस्स
न तेहि किंचि!' इनका
लोभ इन्हें
गिद्ध बना रहा
है। ये बैठे
व्यर्थ की
आकांक्षा
लगाए।
गिद्धों
को देखा है!
जहां लाश पड़ी
है,
वहीं
मंडराते हैं।
ऐसा ही लोभ भी
गिद्ध की भांति
व्यर्थ पर, असार पर, मुर्दे
पर मंडराता
है। और जीवन
चूका जाता है।
यह
जन्नत मुबारिक
रहे जाहिदों
को
कि
मैं आपका
सामना चाहता
हूं।
जिसने
समझा लोभ के
सत्य को, वह
लोभ से मुक्त
हुआ। ऐसा नहीं
कि वह चेष्टा
करता है मुक्त
होने की; क्योंकि
चेष्टा तो तभी
होती है जब
नया लोभ पैदा
हो। समझना!
तुम तो चेष्टा
कर ही नहीं
सकते बिना लोभ
के।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं,
"ध्यान तो
करें, लेकिन
लाभ क्या? कोई
लाभ बताएं।' तो मैं उनसे
कहता हूं, तुम
महर्षि महेश
योगी के पास
जाओ। वे लाभ
बताते हैं। वे
कहते हैं, धन
भी बढ़ेगा
ध्यान करने
से। तब तो
अमरीका में इतना
प्रभाव है।
ध्यान में किसकी
चिंता है! धन
बढ़ाना है! धन
भी बढ़ेगा
ध्यान करने
से! कभी सोचा
नहीं था किसी
ने कि ध्यान
करने से धन
बढ़ता है।
लेकिन अगर
लोगों को
ध्यान में लगाना
हो तो धन
बढ़ाने का
प्रलोभन देना
जरूरी है। धन
में ही लोग
उत्सुक हैं, ध्यान में
उत्सुक नहीं।
उन्हें ध्यान
का पता ही नहीं।
ध्यान
का अर्थ है:
ऐसी मनोदशा
जिसके पार कोई
लोभ की
आकांक्षा
नहीं है।
अब तुम
पूछते हो, "ध्यान
से लाभ क्या?' कुछ भी लाभ
नहीं है। कमल
खिलते
हैं--लाभ क्या?
सूरज
निकलता
है--लाभ क्या? परमात्मा
है--लाभ क्या? बुद्ध और
महावीर सिद्धशिलाओं
पर बैठे
हैं--लाभ क्या?
तुम
सोचते हो कि
पच्चीस सौ साल
में खूब धन
इकट्ठा कर
लिया होगा
महावीर ने
सिद्ध शिला पर
बैठे-बैठे, खूब
दुकान चलाई
होगी? लाभ
क्या?
बर्ट्रेंड
रसेल ने लिखा
है कि यह पूरब
के लोगों का
मोक्ष मुझे घबड़ाता
है--सीधा साफ
गणित वाला
आदमी है--मुझे घबड़ाता
है। अनंत काल
तक वहां
बैठे-बैठे
करेंगे क्या? एक
दफा मुक्त हो
गए, हो गए; फिर लौटने
का तो उपाय भी
नहीं है।
संसार से बाहर
जाने की
व्यवस्था है,
भीतर आने की
व्यवस्था
नहीं है।
सोच-समझकर बाहर
जाना--गए कि गए;
फिर लाख सिर
मारो, दरवाजा
नहीं खुलता।
अब तक जो भी
मोक्ष गया, लौटकर नहीं
आ पाया।
इसीलिए जो
समझदार हैं, वे कहते हैं,
जल्दी क्या
है? वे
कहते हैं, पहले
इसको तो भोग
लें!
देख ले
इस चश्मे-दहर
को दिल भरकर "नज़ीर'
फिर
तेरा काहे को
इस बाग में
आना होगा।
खूब
देख लो दिल
भरकर! लौटकर
आना...कोई आया
नहीं। इसलिए
लोग कहते हैं, थोड़ा
टालो मोक्ष को,
इतनी जल्दी
कहां है!
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं,
अभी तो हम
जवान हैं। कब
तक रहोगे जवान?
टालो! चलो
जवानी के नाम
पर टालो कि जब
बूढ़े होंगे
तब। बूढ़ा आदमी
कहता है, अभी
तो मैं जिंदा
हूं। टालो! जब
मर जाओगे--तब? कोई न कोई
बहाना आदमी खोजे जाता
है। लेकिन
असली बहाना यह
है कि तुम्हें
वस्तुतः धर्म
में कुछ लाभ
नहीं दिखाई पड़
रहा। सुनते हो
बातें
महावीरों की,
बुद्धों
की--चमत्कृत
हो जाते हो।
सुनते हो गुणगान
उस परम दशा का,
तुम्हारे
भीतर लोभ जगता
है कि अरे, हमें
यह भी मिल जाए!
लेकिन जो
तुम्हें मिल
रहा है, मिला
हुआ है, या
मिलने की आशा
में है, उसके
साथ-साथ मिल
जाए! यह भी
तुम्हारा लोभ
ही बनता है।
और
ध्यान?--तुलसी
ने कहा है: स्वांतः
सुखाय
तुलसी रघुनाथ
गाथा! अपनी
प्रसन्नता के
लिए, आनंद
के लिए! कोई
पूछता है कि
क्यों गाए
जाते हो राम
के गीत! स्वांतः
सुखाय
तुलसी रघुनाथ
गाथा--अपने सुख
के लिए। कहीं
कोई भविष्य
में लाभ नहीं
है। अभी, यहीं--मजा
आ रहा है। मैं
ही तुमसे बोल
रहा हूं--स्वांतः
सुखाय
तुलसी रघुनाथ
गाथा। बोल रहा
हूं--न कोई लाभ
है, न कोई
लोभ है। बोल
रहा हूं, ऐसे
ही जैसे पक्षी
कलरव कर रहे
हैं वृक्षों
में। काश, तुम
भी ऐसे ही सुन
सको जैसे मैं
बोल रहा हूं!
तो ध्यान हो
गया।
ध्यान
के लिए कुछ
करने का थोड़े
ही सवाल है।
ध्यान तो एक
समझ की दशा है, एक
प्रज्ञा की
स्थिति है।
जहां लोभ गिर
गया वहां
ध्यान। जहां
तुमने लोभ की
असारता
संपूर्णता से
जान ली और
पहचान ली, कि
यह असंभव
आकांक्षा है,
पूरी नहीं
होगी। इसमें
तुम्हारी
कमजोरी का
सवाल नहीं है।
तुम कितने ही
बलशाली होओ तो
भी पूरी न
होगी। नेपोलियन
भी पूरी नहीं
करता, सिकंदर
भी पूरी नहीं
करता, चंगेज
और नादिर और तैमूर कोई
पूरी नहीं
करते। इसमें
कमजोरी या
ताकत का सवाल
नहीं है। यह
तो ऐसे ही है
जैसे कोई रेत
से तेल निचोड़ने
की कोशिश कर
रहा है। इसमें
ताकत और
कमजोरी का थोड़े
ही सवाल है।
रेत में तेल
है ही नहीं, तो निचुड़ेगा
कैसे?
लोभ से
जो आनंद को निचोड़ने
की कोशिश कर
रहा है, बस
उलझ गया।
कोशिश जारी
रहेगी, हाथ
कभी कुछ भी न
लगेगा।
"कदाचित
सोने और चांदी
के कैलाश के
समान असंख्य
पर्वत हो जाएं,
तो भी लोभी
पुरुष को उनसे
कुछ भी नहीं
होता।'
तृप्ति
नहीं होती, क्योंकि
इच्छा आकाश के
समान अनंत है।
लेकिन इस लोभ
की दौड़ में
तुम कुछ गंवा
रहे हो, मिलता
तो कुछ भी
नहीं। एक बात
तय है कि
मिलता कुछ भी
नहीं। लेकिन
गंवा तुम बहुत
कुछ रहे हो। कमा
तो कुछ भी
नहीं पाते, गंवाते बहुत
हो। अपने को
गंवा रहे हो।
धन के ठीकरे
इकट्ठे करोगे,
आत्मा को
बेचते जाओगे
टुकड़ा-टुकड़ा
करके; क्योंकि
बिना अपने को
बेचे यह धन
इकट्ठा न होगा।
बिना अपने को
बेचे तुम लोभ
की दौड़ में न
लग पाओगे। हर
कदम, लोभ
की दिशा में
उठाया गया, आत्मघात है।
यह जिस दिन
जीवन का दीया
बुझने लगेगा उस
दिन पछताओगे,
उस दिन
रोओगे; लेकिन
तब बहुत देर
हो चुकी होगी।
तूफाने-दर्दो-गम
में न गुल हो
सकी मगर
शम-ए-हयात
सांस के झोंके
से बुझ गई।
बड़े-बडे
तूफान और दुख
और दर्द भी
जिसे नहीं
बुझा पाते, वह
जिंदगी बस जरा
से सांस के
झोंके से बुझ
जाती है।
तूफाने-दर्दो-गम
में न गुल हो
सकी मगर
शम-ए-हयात
सांस के झोंके
से बुझ गई।
पर जिस
दिन वह जीवन
की शमा, वह
जीवन की
ज्योति सांस
के जरा-से
झोंके में बुझने
लगेगी, उस
दिन पछताओगे,
छाती पीटोगे,
रोओगे।
मेरे देखे
मरते वक्त
आदमी का जो
रुदन है, मरते
वक्त आदमी की
जो पीड़ा है, वह मृत्यु
के कारण नहीं
है--वह व्यर्थ
गए जीवन के
कारण है। सारा
जीवन असार गया,
हाथ यह मौत
आई अब।
क्या-क्या
चाहा था!
कैसी-कैसी
चाहत न की थी!
कैसे-कैसे
इंद्रधनुष
फैलाए थे वासनाओं
के! वह तो कुछ
भी हाथ न आया।
हाथ यह मौत आई
है। जिसको कभी
न चाहा था वह
हाथ आई। जिसको
कभी न मांगा
था वह मिली।
जिसकी कभी
आरजू न की थी, मिन्नत न की
थी, प्रार्थना
न की थी, जिसके
लिए परमात्मा
के द्वार पर
कभी दस्तक न दी
थी, वह
मिली। और
जो-जो चाहा था
वह तो मिला ही
नहीं। उसको
पाने की कोशिश
में जो जीवन
मिला था वह भी गंवा
दिया।
इसलिए
धार्मिक
व्यक्ति कल का
भरोसा नहीं
करता। वह कल
पर नहीं
टालता। कल पर
टालना ही लोभ
है। लोभ का
अर्थ है: कल
मिलेगा।
धार्मिक
व्यक्ति कहता
है,
अभी जिएंगे,
यहीं जिएंगे।
कल होता कहां?
भविष्य है
कहां? भविष्य
तुम्हारे मन
का ही खेल है।
जो है वह तो सदा
वर्तमान है।
जिस दिन
तुम्हारे मन
में कोई लोभ न
होगा, उसी
दिन तुम पाओगे,
भविष्य भी
खो गया। लोभ
भविष्य है। भय
अतीत है। भय
के कारण तुम
अतीत को पकड़े
रहते हो।
क्योंकि कुछ
तो सहारा
चाहिए, नहीं
तो गिर पड़ेंगे
अखंड खड्ड
में। पकड़े
रहते हो कि
मैं कौन
हूं--जाति, कुल,
धर्म, परिवार,
वंश, प्रतिष्ठा,
पद, उपाधि,
जो-जो किया
उस सबका सार
संग्रह--तुम पकड़े रहते
हो। अतीत को पकड़े रहते
हो, क्योंकि
वही लगता है
कि उसी को पकड़कर
लटके रहें, अन्यथा
शून्य है
विराट। अगर
कोई सहारा न
रहा पीछे, शून्य
में गिर
जाएंगे।
अतीत
को पकड़े
हो--भय के कारण।
और भविष्य को जिलाए
रखते हो, जगाए
रखते हो--लोभ
के कारण। लोभ
और भय एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
इसलिए लोभी
कभी भय से मुक्त
नहीं हो सकता
और भयभीत कभी
लोभ से मुक्त
नहीं हो सकता।
तुमने
देखा! जितना
तुम्हारे पास
धन इकट्ठा होता
जाता है, उतना
ही भय भी बढ़ता
जाता है। यह
बड़ा अजीब
मामला है। लोग
धन इकट्ठा
करते हैं ताकि
भय न रहे जीवन
में; लेकिन
जैसे-जैसे धन
इकट्ठा होता
है, वैसे-वैसे
भय बढ़ता है, घटता नहीं।
अब और एक नया
भय लगता है कि
कोई धन न छीन
ले। अब एक नया
भय लगता है कि
कहीं जो मिला
है वह खो न जाए!
मिला कुछ भी
नहीं है; लेकिन
खो न जाए, यह
भय तुम्हारे
जीवन को घेर
लेता है। तब
तुम और ज्यादा
दौड़ में लगते
हो कि और कमाओ,
और इकट्ठा
करो। इसलिए तो
देने में डरते
हो कि कहीं दे
दिया तो फिर
भय में खड़े हो
जाओगे। इकट्ठा
होता जाता है,
कृपणता
बढ़ती चली जाती
है। जितना धनी,
उतना
ज्यादा कृपण
हो जाता है।
गरीब तो शायद
कुछ दे भी दे, क्योंकि वह
कहता है, दे
भी दिया, तो
क्या हर्ज है,
वैसे ही कुछ
नहीं है; होता
तो बचाते, जब
है ही नहीं तो
बचाना क्या!
अमीर तो कुछ
भी नहीं दे
पाता। एक-एक
पैसे का हिसाब
रखता है। अब डरता
है कि एक भी
पैसा खिसका तो
कम हुआ। अब यह
बड़े मजे की
बात है, मिला
कुछ भी नहीं
है; लेकिन
कम होने का डर पकड़ता है।
कोई छीन न ले!
धन की
आकांक्षा भय
से होती है--धन
पाकर भय और
दुगना हो जाता
है।
तुमने
भय के कदम
देखे! लोभ के
पीछे-पीछे ही
चलते हैं।
लेकिन
धार्मिक
व्यक्ति अभी
जीता है।
मैं
कल का भरोसा
नहीं करता
साकी
मुमकिन
है कि जाम रहे
मैं न रहूं।
मैं
कल का भरोसा
नहीं करता
साकी
मुमकिन
है कि जाम रहे
मैं न रहूं।
आज
काफी है। यह
क्षण काफी है।
इस क्षण में
जो जीता है, वही
ध्यान में है।
जिसने पूछा, ध्यान का
लाभ क्या, वह
कल पर सरक
गया। उसने
पूछा, लाभ
क्या? मिलेगा
क्या? कृष्ण
की पूरी गीता
बस इतनी-सी ही
बात कहती है:
मैं
कल का भरोसा
नहीं करता
साकी
मुमकिन
है कि जाम रहे
मैं न रहूं।
कृष्ण
कहते हैं, फलाकांक्षा-रहित
होकर तू कर्म
में जुट
जा--यही ध्यान
है, यही
धर्म है।
फलाकांक्षा
यानी लोभ। तू
यह मत पूछ कि
क्या मिलेगा।
जैसे ही कोई
व्यक्ति लोभ
को हटाकर जीना
शुरू कर देता
है, उसके
जीवन में
ध्यान की
वर्षा हो जाती
है, उसका
कण-कण ध्यान
से भर जाता
है। लोभ के
बादल को हटाओ,
ध्यान का
आकाश उपलब्ध
हो जाता है।
"जिस
प्रकार जल में
उत्पन्न हुआ
कमल जल से
लिप्त नहीं
होता, इसी
प्रकार
काम-भोग के
वातावरण में
उत्पन्न हुआ
जो मनुष्य
उससे लिप्त
नहीं होता, उसे हम
ब्राह्मण
कहते हैं।'
महावीर
की ब्राह्मण
की परिभाषा:
"जहा पोम्मं
जले जायं,
नोवलिप्पइ वारिणा।
एवं अलितं कामेहिं, तं
वयं बूम माहणं।।'
उसे
कहते हैं हम
ब्राह्मण, जो
कामवासना में
पैदा हुआ, कामवासना
में ही जन्मा
और बड़ा हुआ, कामवासना के
ही जगत में
जीता
है--लेकिन कमल
के फूल की
भांति, अलिप्त,
जगत उसे छू
नहीं पाता।
इसे
समझें।
हिंदू-शास्त्र
भी कहते हैं
कि जन्म से तो
सभी शूद्र
हैं। जन्म से
तो सभी शूद्र
हैं ही; क्योंकि
जन्म ही कीचड़
में होता है, जन्म ही कामवासना
में होता है।
जन्म ही असंभव
है कामवासना
के बिना। तो
जन्म से तो
सभी कीचड़ हैं,
शूद्र हैं।
फिर इनमें से
ब्राह्मण कोई
बन सकता है, बनना चाहे।
सभी बन सकते
हैं, बनना
चाहें। लेकिन
ब्राह्मण कोई
तभी बनता है, जब कमल की
भांति कीचड़ से
दूर होता जाता
है--इतना दूर, इतना पार और
इतना अलिप्त
कि जल उसे छू
भी नहीं पाता;
ऐसा
निर्दोष कि
कुछ भी उसे
दोषी नहीं कर
पाता; ऐसा
पुण्य का फूल
कि पाप उसे छू
भी नहीं पाता।
पाप में ही
खड़ा रहेगा, क्योंकि
जाओगे कहां? संसार से
भागोगे कहां?
जहां जाओगे
वहां भी संसार
है। जहां भी
जाना-आना हो
सकता है वहां
संसार है।
इसलिए तो हम
संसार को आवागमन
कहते
हैं--आना-जाना।
तो कहां जाओगे?
कहां आओगे?
जहां भी
जाओगे, जहां
भी आओगे, वहीं
संसार है। ठहर
जाओ! आना-जाना छोड़ो! जहां
हो वहीं ठहर
जाओ! भीतर
उतरो! इतने
भीतर उतर जाओ
कि बाहर की
धुन भी न
पहुंचे! इतने
भीतर उतर जाओ
कि बाजार चलता
रहे और चलता
रहे और
तुम्हें पता
भी न चले।
इतने भीतर उतर
जाओ कि पत्नी
पास हो, बच्चे
पास हों, मकान
हो, घर-गृहस्थी
हो, सब
हो--लेकिन तुम
भीतर अकेले हो
जाओ।
सबके
बीच जो अकेला
हो गया, वही
संन्यासी है।
भीड़ के बीच जो
भीड़ का हिस्सा
न रहा, वही
संन्यासी है।
जल में
कमलवत--महावीर
कहते हैं--यही
मेरी व्याख्या
है ब्राह्मण
की!
इसलिए
ब्राह्मण कोई
जाति से नहीं
होता, न जन्म
से होता है।
जन्म और जाति
से तो सभी शूद्र
हैं।
ब्राह्मण तो
कोई उपलब्धि
से होता है। इसलिए
महावीर ने
वर्ण-व्यवस्था
नहीं मानी। महावीर
ने कहा, यह
कैसे हो सकता
है कि कोई कहे,
कि मैं
ब्राह्मण हूं
जन्म से! जन्म
से तो कोई ब्राह्मण
नहीं
होता--जागरण
से कोई
ब्राह्मण होता
है। होश से
कोई ब्राह्मण
होता है।
"जीव
ही ब्रह्म है।
देहासक्ति
से मुक्त होकर
मुनि की
ब्रह्म के लिए
जो चर्या है, वही
ब्रह्मचर्य
है।'
बड़ी प्यारी
परिभाषा है!
ब्राह्मण की
जो चर्या है, वह
ब्रह्मचर्य।
और प्रत्येक
व्यक्ति के
भीतर ब्रह्म
है।
"जीव
ही ब्रह्म है।
देहासक्ति
से मुक्त
व्यक्ति की जो
चर्या है, वही
ब्रह्मचर्या
है, वही
ब्रह्मचर्य
है।'
जैसे
ही तुम शरीर
के द्वारा
नहीं जीते, शरीर
का उपयोग करते
हो, लेकिन
शरीर के मालिक
होकर जीते हो;
शरीर सेवक
हो जाता है, तुम स्वामी
हो जाते--उसी
क्षण
तुम्हारे
भीतर के
ब्रह्म का
आविष्कार हुआ;
तुमने जाना,
तुम कौन हो।
और उस जानने
के बाद जो
आचरण है, वही
ब्रह्मचर्य
है।
ब्रह्मचर्य
का इतना छोटा-सा
अर्थ जो लोग
ले लेते हैं--वीर्य-नियमन--काफी
नहीं है। एक
हिस्सा है, लेकिन पूरा
नहीं है। पूरा
अर्थ तो
ब्रह्मचर्य
शब्द में छिपा
हुआ
है--ब्रह्म
जैसी चर्या, ईश्वर जैसा
आचरण।
तुम्हारे
भीतर जो ईश्वर
छिपा है उससे
जब तुम जीने
लगोगे तो
ब्रह्मचर्य। स्वभावतः
वीर्य-नियमन
अपने से आ
जाएगा, उसे
लाना भी न
पड़ेगा। वह
उसके साथ आया
हुआ अनुषंग है।
अभी तो
हम ऐसे जीते
हैं जैसे शरीर
हैं। शरीर में
हैं,
ऐसे भी
नहीं--शरीर ही
हैं, ऐसे
जीते हैं। अभी
तो कोई
तुम्हारा
शरीर काट दे
तो तुम समझोगे
कि तुम कट गए।
अभी तो कोई
शरीर को मार
डाले तो तुम
समझोगे कि तुम
मर गए। अभी तो
शरीर से तुमने
अपने पृथक
"होने' को
जरा भी नहीं
जाना, रत्तीभर
फासला नहीं कर
पाए।
काट
कर पर मुतमईन
सैयाद बेपरवा
न हो
रूह
बुलबुल की
इरादा रखती है
परवाज का।
ऐसी
घड़ी अभी
तुम्हारे पास
नहीं आई कि
तुम मौत से कह
सको--
काट
कर पर मुतमईन
सैयाद बेपरवा
न हो
कि हे जल्लाद!
पंख काटकर तू
निश्चिंत मत
बैठ!
रूह
बुलबुल की
इरादा रखती है
परवाज का।
पंखों
से क्या
लेना-देना है, आत्मा
उड़ने का
इरादा रखती है
आकाश में।
पंखों को
काटकर तू
निश्चिंत मत
हो जा। जिस
दिन ऐसी घड़ी
आती है कि तुम
मौत से कह
सकोगे कि काट
डाल शरीर को, लेकिन इससे
निश्चिंत
होकर मत बैठना,
क्योंकि
मैं अनकटा
पीछे हूं।
शरीर से थोड़े
ही चलता
था--शरीर मेरे कारण
चलता था। मैं
चलता रहूंगा।
शरीर से थोड़े ही
उड़ता
था--शरीर मेरे
कारण उड़ता
था। मैं उड़ता
रहूंगा।
काट
कर पर मुतमईन
सैयाद बेपरवा
न हो
रूह
बुलबुल की
इरादा रखती है
परवाज का।
लेकिन
जब तुम अपनी
रूह को पहचान
सको,
आत्मा को
अलग शरीर से, तब तुम मौत
से भी हंसकर
दो बातें कर
सकोगे।
"जीव
ही ब्रह्म है।'
जो अपने
भीतर उतरेगा,
पाएगा।
लेकिन जिनको
तुमने धर्म
जाना है, वे
तुम्हें भीतर
तो उतरने की
तरफ नहीं ले
जाते, वे
तुम्हें बाहर
के मंदिरों-मस्जिदों
में भटकाते
हैं। वे
तुम्हारे हाथ
में कुछ झूठे
धर्म पकड़ा
देते हैं।
इन्हीं
धर्मों के
कारण दुनिया
में इतना
अधर्म है।
हम
तो "ताबां' हुए
हैं लामजहब
मजहला
देख सब के
मजहब का।
--यह सब
उपद्रव और
अज्ञान देखकर,
मजहब के नाम
पर जो चलता है,
बहुत-से
धार्मिक
व्यक्ति अधार्मिक
हो जाते हैं।
तुम्हें
पहुंचाना है
तुम्हारे
भीतर; कहीं और
मंदिर नहीं
है। तुम्हें
लगाना है तुम्हारी
पूजा और
अर्चना में; कहीं और
देवता नहीं
है। तुम्हें
जगाना है वहां,
जहां
तुम्हारी
चैतन्य की
धारा उठती
है--उसी गंगोत्री
में।
धीरे-धीरे
उतरो भीतर।
शरीर को देखो
और
पहचानो--मेरी
खोल है, मेरे
घर की दीवाल
है। और भीतर
उतरो--विचार
को पकड़ो और
पहचानो।
विचार तुम
नहीं हो, क्योंकि
तुम उसे भी
देख सकते हो।
और थोड़े भीतर
उतरो--वासना, भावना को
पकड़ो, पहचानो।
यह भी तुम
नहीं हो, क्योंकि
तुम पहचाननेवाले
हो, देखनेवाले हो, द्रष्टा
हो। ऐसे चलते
चलो, चलते
चलो--उस घड़ी तक,
जब केवल
द्रष्टा रह
जाए, और
देखने को कुछ
भी न बचे, शुद्ध
दर्शन हो!
जिसके
पीछे तुम न जा
सको--वही तुम
हो। जिसके और पीछे
तुम न जा
सको--वही तुम
हो। ऐसे पीछे
उतरते-उतरते-उतरते
साक्षी पकड़
में आता है।
बस उसके पार
फिर कोई नहीं
जा सकता।
साक्षी के
साक्षी तुम
नहीं हो सकते
हो। आखिरी घड़ी
आ गई। बुनियाद
आ गई अस्तित्व
की। भूमि आ गई, जिस
पर सब खड़ा है, सारा महल
खड़ा है। जिसने
इस अस्तित्व
की बुनियाद को
पकड़ लिया, आत्मा
को पकड़ लिया, वही
ब्राह्मण है।
और उसके जीवन
की चर्या ब्रह्मचर्य
है।
"विषयरूपी वृक्षों से
प्रज्वलित कामाग्नि
तीनों लोकरूपी
अटवी को जला
देती है, किंतु
यौवनरूपी
तृण पर संचरण
करने में कुशल
जिस महात्मा
को वह नहीं
जलाती या
विचलित नहीं
करती, वह
धन्य है।'
"जो
रात बीत रही
है वह लौटकर
नहीं आती।
अधर्म करनेवाले
की रात्रियां
निष्फल चली जाती
हैं।'
विषयरूपी
वृक्षों से
प्रज्वलित कामाग्नि
तीनों लोकरूपी
अटवी को जला
रही है। तीनों
लोक जल रहे
हैं एक ही
कामना में।
नर्क तो जल ही
रहा है। तुमने
नर्क की कथाएं
सुनी
हैं--अग्नि की
लपटें, और
लोग जलाए
जा रहे हैं।
लेकिन तुमने
जरा गौर से
अपने आसपास
देखा, यहां
क्या हो रहा
है! लपटें
यहां भी हैं
और लोग जल रहे
हैं! लपटें
जरा सूक्ष्म
हैं--वासना की
हैं, काम
की हैं, दिखाई
नहीं पड़तीं।
शायद नर्क की
लपटें ज्यादा
स्थूल होंगी।
लेकिन स्थूल
लपटों के साथ
तो कुछ उपाय
भी किया जा
सकता है, क्योंकि
दिखाई पड़ती
हैं।
मैंने
सुना है, एक
धनपति मरा।
कंजूस था
बहुत। तो मरते
वक्त उसने
अपनी पत्नी से
कहा कि मेरे
कपड़े पहनाने
की लाश को कोई
जरूरत नहीं
है। सम्हालकर
रखना, बच्चों
के काम आ
जाएंगे।
पत्नी ने कहा,
"क्या बात
करते हो! नंगे
जाने का सोचते
हो?' धनपति
ने कहा, "मुझे
पता है, कहां
जाना है। वहां
काफी गर्मी
है। तू फिक्र
मत कर।' मर
गया, लेकिन
दूसरे ही दिन
रात आकर
दरवाजे पर
उसने खटखट की।
पत्नी घबड़ाई।
उसने कहा कि
सुन, मेरा
कोट कमीज सब
निकालकर दे।
पत्नी ने कहा
कि तुम तो
कहते थे ऐसी
जगह जाना है, जहां काफी
गर्मी है।
उसने कहा, "वहीं
गया; लेकिन
सभी धनी वहां
गए हैं, उन्होंने
सब एयरकंडीशन्ड
कर डाला। मरा
जा रहा हूं
ठंड में, सिकुड़ा
जा रहा हूं।
कपड़े दे। शीत
सर्दी के सब
कपड़े दे दे।'
भूत
लेने आया है
कपड़े!
तो
नर्क में तो
संभव भी है कि एयरकंडीशनिंग
हो सके; क्योंकि
लपटें बाहर
हैं। यहां इस
पृथ्वी पर लपटें
बहुत अदृश्य
हैं। बाहर
इतनी नहीं हैं
जितनी भीतर
हैं। रोएं-रोएं
में हैं।
तुम्हें कोई
आग में फेंक
नहीं रहा है, तुम आग में
ही खड़े हो।
कामवासना
जलाती है, इसे
देखा नहीं!
कितना जलाती
है! किस बुरी
तरह जलाती है!
तृप्त होती ही
नहीं। और तुम
जो भी कामवासना
की तृप्ति के
लिए आयोजन
करते हो, वह
सब अग्नि में
डाले गए घी की
तरह सिद्ध
होता है। और
बढ़ती है, और
लपटें लेती
है। एक स्त्री
से तृप्त नहीं,
दो स्त्री
से तृप्त नहीं,
तीन स्त्री
से तृप्त
नहीं--किससे
कौन तृप्त है!
पश्चिम
के एक बहुत
बड़े विचारक मार्शेल
ने लिखा है कि
जीवन भर के
अनुभव के बाद
मैं यह कहता
हूं कि मुझे
सारी
स्त्रियां भी
संसार की मिल
जाएं, तो भी
मैं तृप्त न
हो सकूंगा।
तृप्त
कोई हो ही
नहीं सकता, क्योंकि
तृप्ति के लिए
हम जो करते
हैं वह घी सिद्ध
होता है।
अभ्यास और
बढ़ता है। और
जड़ें मजबूत
होती हैं मूढ़ता
की।
"विषयरूपी वृक्षों से
प्रज्वलित कामाग्नि
तीनों लोकरूपी
अटवी को जला
रही है।'
नर्क
तो जल ही रहा
है;
साफ-साफ
लपटें हैं
उसकी। पृथ्वी
भी जल रही है; लपटें उतनी
साफ नहीं हैं।
स्वर्ग भी जल
रहा है; लपटें
और भी सूक्ष्म
हैं स्वर्ग
में। पृथ्वी पर
तो लपटें पाप
की हैं।
स्वर्ग में
लपटें पुण्य की
हैं--और भी
सूक्ष्म हैं।
देवता भी जल
रहे हैं।
देवताओं की भी
भाग-दौड़ मची
है--वही वासना,
वही उपद्रव,
वही
नाच-गान। और
वहां भी घबड़ाहट
है। वहां भी
तृप्ति मालूम
नहीं होती।
कथा है
उर्वशी की।
पृथ्वी पर
विचरण करने आई
थी,
पुरुरवा के
प्रेम में पड़
गई--एक मृत्य
के प्रेम में,
एक पृथ्वीवासी
के प्रेम में।
देवताओं से
तृप्ति न
मिली। देवता
नहीं तृप्त कर
पाए। जो भी
मिल जाए उससे
तृप्ति नहीं
होती।
अप्सराएं तड़पती
हैं पृथ्वी के
पुरुषों के
लिए। यह कथा
है उर्वशी की।
पृथ्वी के लोग
तड़फ रहे
हैं अप्सराओं
के लिए। कुछ
मामला ऐसा है
कि जो जहां है
वहां अतृप्त
है। कहीं और, कहीं और
होते तो
तृप्ति हो
जाती!
"किंतु
यौवनरूपी
तृण पर संचरण
करने में कुशल
जिस महात्मा
को वह नहीं
जलाती या
विचलित नहीं
करती, वह
धन्य है...।'
तीनों
लोक जल रहे
हैं। जो इस
विराट दावानल
में अलिप्त
खड़ा है, अनजला खड़ा है, जिसे
कोई लपट भीतर
से नहीं पकड़ती,
जिसके भीतर
कामवासना की
लपट नहीं
उठती--वह धन्य
है।
एक ही
धन्यता को
महावीर जानते
हैं--और वह
धन्यता है
वासना की दौड़
से छूट जाना।
क्योंकि वासना
की दौड़ से
छूटते ही तुम
आत्मा में थिर
हो जाते हो।
वासना ऐसे है
जैसे हवा के थपेड़े, और
लौ को डगमागाते
हैं तुम्हारी
ज्योति की, तुम्हारे
दीये को। और
वासना से छूट
जाना ऐसे है
जैसे हवाएं
बंद हो गईं और
ज्योति
निष्कंप हो
गई। वासना यानी
आत्मा का
डगमगाना।
आत्मा यानी
वासना से मुक्त
हो जाना।
डगमगाहट गई, अकंप हुए!
धन्य है वह
व्यक्ति!
"जो-जो
रात बीत रही
है, वह
लौटकर नहीं
आती। अधर्म
करने वाले की रात्रियां
निष्फल चली
जाती हैं।'
बहादुरशाह
जफर ने मरने
के पहले कुछ
वचन कहे:
न
किसी की आंख
का नूर हूं
न
किसी के दिल
का करार हूं
जो
किसी के काम न
आ सके
मैं
वो एक मुश्ते-गुबार
हूं।
--एक
मुट्ठी भर
धूल!
न
किसी की आंख
का नूर हूं!
--अब
किसी के आंख
की रोशनी नहीं
हूं मैं।
न
किसी के दिल
का करार हूं!
--न
किसी के प्रेम,
लागत, चाहत
का विषय हूं, विषयवस्तु
हूं।
जो
किसी के काम न
आ सके!
--अब तो
बस हालत ऐसी
है कि एक
मुट्ठी भर धूल
हूं जो किसी
के भी काम की
नहीं है।
आदमी
की देखी हालत!
जानवर मर जाते
हैं तो कुछ
काम भी आ जाते
हैं। हाथी मर
जाए तो हजारों
में बिकता है।
जिंदा हाथी की
कीमत कम है, मरे
की ज्यादा है।
जिंदा को पाले
कौन! न राजा-महाराजा
रहे, न
महंत-अधिपति
रहे--हाथी को
पाले कौन! मर
जाता है तो भी
कीमत है लेकिन,
हड्डियां
बिक जाती हैं।
आदमी अकेला
प्राणी है
संसार में
जिसका मरने पर
कुछ भी, कुछ
काम नहीं आता;
सब जलानेऱ्योग्य
सिद्ध होता है;
सब व्यर्थ
सिद्ध होता
है!
जो
किसी के काम न
आ सके
मैं
वो एक मुश्ते-गुबार
हूं।
दिन
रात बीते चले
जाते हैं...
बजुज गोरेगरीबां
नक्शे-पा थे
फिर नहीं आगे
यहीं
तक हर मुसाफिर
ने पता पाया
है मंजिल का।
लोगों
को देखो! बस
उनके पैर उनके
मरघट तक जाते हैं।
और वहां सब खो
जाता है।
बजुज गोरेगरीबां
नक्शे-पा थे
फिर नहीं
आगे--बस मौत तक
लोगों के पैरों
के चिह्न
दिखाई पड़ते
हैं। यहीं तक
हर मुसाफिर ने
पता पाया है
मंजिल का।
पर मौत
मंजिल है कि कब्र
गंतव्य है?...कि
चले और गिरे
कब्र में, तो
जीवन का अर्थ
क्या हुआ, सार्थकता
क्या हुई? नहीं,
कुछ और भी
लोग हुए हैं, थोड़े-से धन्यभागी
लोग, जिन्होंने
मौत के आगे का
भी पता पाया
है। उन्हीं की
हम यहां चर्चा
कर रहे
हैं--महावीर, बुद्ध, कृष्ण,
क्राइस्ट, मोहम्मद, जरथुस्त्र,
लाओत्सु।
कुछ हैं
थोड़े-से धन्यभागी,
जिन्होंने
जीवन इस तरह
से साधा कि
मौत से बचकर
निकल गये।
उनकी
साधना की कला
क्या है?
उनकी
कला का सूत्र
महावीर कह रहे
हैं:
"यौवनरूपी तृण पर
संचरण करने
में कुशल जिस
महात्मा को वह
नहीं जलाती या
विचलित नहीं
करती, वह धन्यभागी
है।'
जो
जीवन में
रहते-रहते
जीवन की वासना
के पार हो
जाता है, उसे
मौत के आगे
रास्ता मिल
जाता है।
क्योंकि मौत
सिर्फ वासना
की है, तुम्हारी
नहीं है।
अगर
तुमने वासना
को जीते-जी
त्याग दिया, तो
फिर तुम्हारी
कोई मौत नहीं
है। अन्यथा, जिसको तुम
जिंदगी कहते
हो वह बस
नाममात्र को
जिंदगी
है--कहने को।
जिंदगी जैसा
क्या है वहां?
कहां हैं
अंगार? राख
ही राख है।
मुझसे
जो पूछिए तो
बहरहाल शुक्र
है
यूं
भी गुजर गई
मेरी यूं भी
गुजर गई।
बस
ऐसी ही गुजरी
जाती है।
लोग
कहते हैं, सब
ठीक है। पर
कभी गौर से
देखा, जब
लोग कहते हैं
सब ठीक है; तब
उनके चेहरे पर
कैसी उदासी
होती है! जब वे
कहते हैं, सब
ठीक है, तो
जैसे कहते हैं,
कुछ भी ठीक
कहां! मगर अब
कहने से भी
क्या सार है! सब
ठीक है!
किसी
से पूछो, कहो, क्या हालचाल
हैं?--कहता
है, सब ठीक
है, सब मजे
में चल रही है!
मुझसे
जो पूछिए तो
बहरहाल शुक्र
है।
यूं
भी गुजर गई
मेरी यूं भी
गुजर गई।
बस
किसी तरह
ले-देकर गुजर
जाती है।
ऐसे-वैसे गुजर
जाती है। इसको
तुम जिंदगी
कहते हो जो
ऐसे गुजर जाती
है?
अगर
इसको जिंदगी
कहते हो, तो
किसी दिन
रोओगे, तड़फोगे और कहोगे:
मैं
वो एक मुश्तेगुबार
हूं
जो
किसी के काम न
आ सके...!
गुजारो मत--जीयो! काटो
मत--जीयो!
गंवाओ मत--जीयो!
"जा जा
वज्जई रयणी, ण
सा पडिनियत्तई।
अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ।।'
जो-जो
रात बीत रही, लौटकर
नहीं आएगी, नहीं आती
है।
"अधर्म
करने वाले की रात्रियां
निष्फल चली
जाती हैं।'
निष्फल
मत जाने दो! ये
दिवस-रात महंगे
हैं। ये
दिवस-रात बड़ी
मुश्किल से
मिले हैं।
मनुष्य
का जन्म
दुर्लभ है।
कोटि-कोटि
योनियों के
बाद मनुष्य हो
पाता है।
कितनी
आकांक्षाओं, कितनी
अभीप्साओं
को लेकर तुम
मनुष्य हुए
हो! अब इसे ऐसे
ही मत गुजर
जाने देना!
कितनी चेष्टाओं
और कितने
जन्मों के
यात्रा-पथों
के बाद, कितनी
देहें, कितनी
योनियों में
भटकने के बाद,
सौभाग्य का
क्षण आया है
कि तुम मनुष्य
हुए हो? इसे
ऐसे ही मत
गंवा देना! ये
दिन फिर लौटकर
नहीं आते! ये
रातें गईं तो
गईं। इनमें
एक-एक क्षण को
इस ढंग से
जीना कि क्षण
तो जाए, लेकिन
अमृत की
तुम्हें खबर
दे जाए। क्षण
तो जाएगा ही, लेकिन इस
ढंग से निचोड़
लेना कि क्षण
तो चला जाए, लेकिन सार
तुम्हारे साथ
रह जाए। क्षण
तो जाए, लेकिन
अमृत का द्वार
खोलता जाए। यह
जीवन तो जाएगा
ही, लेकिन
जाते-जाते तुम
जीवन का ऐसा
उपयोग कर लेना
कि तुम इसके
कंधों पर चढ़
जाओ और इसके
पार देख लो।
इसके पार जो
है वही असली
जीवन है।
मनुष्य
संक्रमण है, एक
सेतु है। पीछे
अतीत
है--जानवरों
का, पशु-पक्षियों
का, पत्थरों
का, पहाड़ों
का। आगे
परमात्मा है।
तुम बीच के
सेतु हो। यह
मनुष्य कुछ घर
नहीं है, जहां
बस जाना है--यह
धर्मशाला है,
जहां रात
टिके, सुबह
जाना है।
याद
रखना, यात्रा
अभी होने को
है--हो नहीं गई!
अभी कुछ घटने
को है, घट
नहीं गया।
तुम
सिर्फ एक अवसर
हो। अवसर को
ही सत्य मत
मान लेना। तुम
सिर्फ एक
संभावना हो, अनंत
संभावना, जिसमें
अगर ठीक से
तैयारी चली, अगर तुम
अपने को मंदिर
बना पाए, तो
किसी दिन, सत्य
कहो, ब्रह्म
कहो, या जो
नाम तुम्हें
पसंद हो, जीवन
का वह भगवत
रूप, भगवत्ता
तुममें
उतरेगी।
तो इस
जीवन को तुम
भोग ही मत
समझना--यह
जीवन योग भी
है। भोग का
अर्थ है:
गुजार दो; यह
कर लो, वह
कर लो; यह
भोग लो, वह
भोग लो। योग
का अर्थ है: गुजारो
ही मत, सुधारो भी। योग का
अर्थ है; सजाओ, कोई
मेहमान आने को
है! अतिथि आ
रहा पास। ऐसा
न हो कि वह आए
और तुम्हें
तैयार न पाए।
तुम तैयार रहना,
द्वार खोले!
सिंहासन
सजाकर रखना!
धूप-दीप, अर्चा,
फूल, वंदनवार!
तुम्हारे
क्षण अमृत की
तैयारी में लगें!
तुम्हारे
दिवस और
रात्रि ध्यान
बन जाएं। धीरे-धीरे
समाधि का
संगीत
तुम्हारे
भीतर उठे, बजे!
तो ही, तुम
किसी दिन जान
पाओगे--उसे, जो तुम हो!
जान पाओगे उसे,
जो जीवन का
अर्थ है, प्रयोजन
है! जान पाओगे
उसे, जो
जीवन का
गंतव्य है।
उसे जाने बिना
जो जीते हैं, वे नाममात्र
को जीते हैं।
उसे जानकर जो
जीते, वही
जीते हैं। उसे
बिना जाने जो
जीते, वे
तो सिर्फ
मरते। उसे
जानकर जो मरते
भी हैं, तो
भी अमृत को
उपलब्ध होते
हैं।
आज
इतना ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं