सूत्र:
गाइ—गाइ
अब का कहि गाऊं।
गावनहर
को निकट
बताऊं।।
जब
लगि है इहि तन
की आसा,
तब लगि करै
पुकारा।।
जब
मन मिल्यौ आस
नहीं तन की,
तब को
गावनहारा।।
जब
लगि नदी न
समुंद समावै,
तब लगि बढै
हंकारा।।
जब
मन मिल्यौ
रामसागर सौ,
तब यह मिटी
पुकारा।।
जब
लगि भगति
मुकति की आसा,
परमत्व सुनि
गावै।।
जहं—जहं
आस घरत है इहि
मन, तहं—तहं
कछू न पावै।।
छांडै
आस निरास
परमपद, तब
सुख सति कर
होई।।
कहि
रैदास जासौ और
करत है,
परमतत्व अब
सोई।।
राम—भगत
को जन न कहाऊं,
सेवा करूं न
दासा।।
जोग
जग्य गुन कछू
न जानूं,
ताते रहूं
उदासा।।
भगत
भया तो चढ़ै
बड़ाई, जोग
करूं जग मानै।।
जो
गुन भया तो
कहै गुनीजन,
गुनी आपको
जानै।।
ना
मैं ममता मोह
न महिया,ये
सब जाहिं
बिलाई।।
दोजख
भिस्त दोऊ सम
करि जानु, दुहं
ते तरक है भाई।।
मैं
अरू ममता देखि
सकल जग, मैं
से मूल
गंवाई।।
जब मन
ममता एक—एक मन, तबहि
एक है भाई।।
कृस्न
करीम राम हरि राधव, जब
लगी एक न पेखा।।
वेद
कितेब कुरान पुरानन, सहज
एक नहीं देखा।।
जोई—जोई
पूजिय सोई—सोई
कांची, सहज भाव
सति होई।।
कहि
रैदास मैं ताहि
को पूजूं, जाके
ठांव नांव नहीं
होई।।
स्वामी
कृष्णानंद
भारती ने यह
गीत भेजा है—
प्राण—पाहुन!
दिव्य लोचन दो
कि
तुमको देख
पाऊं।
बंद
पलकें हों, मगर
दिलबर!
तुझे
मैं देख पाऊं!
अश्रु
से धो, प्यार
का
जीवन—कमल
चरणन चढ़ाऊं।
प्यार
के गा गीत
प्यारे!
मैं
हृदय में ही
समाऊं।
जिंदगी
के गीत छेड़ो,
बांसुरी
प्रियतम
बजाऊं।
आज
मधुबन बीच
प्यारे!
रास
प्रियतम संग
रचाऊं।
तुम
मिले, प्रियतम
मिला,
जन्नत
मिला, क्या और
चाहूं?
प्यारे
के ये गीत
तेरे
अधर
पर मैं
गुनगुनाऊं।
दूर
हूं तुमसे
पिया!
पर
गीत तो उर में
छिड़े हैं।
धड़कते
दिल में
तुम्हीं,
पर
देख तो सकते
नहीं हैं।
प्राण
पाहुन! दिव्य
लोचन दो,
कि
तुमको देख
पाऊं।
गीत
उठते हैं भक्त
के हृदय में—
अनंत गीत उठते
हैं! जैसे
वसंत में फूल
ही फूल खिल
जाते हैं डाली—डाली
फूलों से लद
जाती है—वैसे
ही भक्त के
हृदय में भी
गीतों की झड़ी
लगती है!
अनूठे स्वर
छिड़ते हैं!
नहीं सुने जो
स्वर कभी, वे
सुनाई पड़ते
हैं! नहीं
देखा जो रूप, आंखें और
हृदय उस रूप
में नहाते
हैं!
पर
यह घड़ी भी दूर
की है, रैदास
कहते हैं। अभी
भी पास आना
नहीं हुआ। यह
घड़ी भी फासले
की है। अभी
द्वैत कायम है।
भक्त और भगवान
अभी भिन्न—भिन्न
हैं। अभी ऐक्य
नहीं सधा।
बन
गीत अधरों से
सदा छिड़ते
तुम्हीं,
बन
अश्रु नयनों
से ढलकते हो
तुम्हीं,
गीत
के हर रंग में, हर
ढंग में,
कसक
बन प्रियतम!
सदा ढलते
तुम्हीं।
साज
हो,
थृंगार
जीवन के
तुम्हीं,
प्रीत
की मूरत
तुम्हीं बस एक
हो
प्यास
जीवन की, कसक
उर की पिया!
आस
जीवन की
तुम्हीं बस एक
हो।
छोड़
तुमको और कुछ
चाहूं नहीं,
एक
तुम ही जिंदगी
की प्यास हो।
अश्रु
नयनों के, अधर
का हास भी,
हृदय
की धड़कन, तुम्हीं
संसार हो।
हृदय
में प्रियतम!
बसो तुम हर
घड़ी,
क्या
कहूं दिलबर!
तुम्हीं हर
सांस हो।
मैं
बुलाऊं या
नहीं, तुम हो
सदा,
ओ
निठुर
प्रियतम! कहो
क्यों छिपे हो?
हृदय
में प्रियतम!
बसो तुम हर
घड़ी,
क्या
कहूं दिलबर!
तुम्हीं हर
सांस हो।
श्वास—श्वास
भी उसी के साथ
डोलती मालूम
होती है, लेकिन
फिर भी अभी
फासला है।
रैदास के सूत्र
समझने जैसे
हैं। क्योंकि
साधारणत: लोग
समझ लेते हैं
कि आ गई यह मस्ती,
गीत का
गुंजन उठने लगा,
पैर में
नृत्य समा गया,
तो बस मंजिल
आ गई। मंजिल
करीब आ गई, इसका
तो लक्षण हैं
ये गीत, मगर
मंदिर में अभी
प्रवेश नहीं
हुआ। शायद
सीढ़ियों तक
पहुंच गए हो।
लेकिन लोग
सीढ़ियों तक
पहुंच कर भी
लौट गए हैं, इसे मत भूल
जाना। मंदिर
के द्वार पर
दस्तक देते—देते
भी लौट गए हैं,
इसे मत
विस्मरण करना।
उसका दामन हाथ
में आते— आते
भी छूट गया है,
इसे क्षण भर
को, पल भर
को न भूलना।
बहुत बार लगता
है कि करीब आ
गए, और फिर
फासले अनंत हो
जाते हैं।
क्योंकि करीब
होना भी एक
फासला है, निकट
होना भी दूरी
का ही एक नाम
है।
ऐक्य
सधना चाहिए, निकटता
नहीं। निकटता
काफी नहीं।
सुंदर है, सुखद
है, मधुमय
है— पर्याप्त
नहीं। भक्त जब
तक भगवान न हो
जाए, भगवान
जब तक भक्त न
हो जाए, तब
तक ठहरना मत।
तब तक जानना
सराय है, मुकाम
है। रुक लेना,
दुपहरी हो
तो, क्षण
भर वृक्ष की
छाया में, मगर
भूल मत जाना, घर मत बना
लेना। चलना है
अभी और, यात्रा
अभी शेष है।
बन
गीत अधरों से
सदा छिड़ते
तुम्हीं
बन
अश्रु नयनों
से ढलकते हो
तुम्हीं
गीत
के हर रंग में, हर
ढंग में
कसक
बन प्रियतम!
सदा ढलते
तुम्हीं।
ये
लक्षण अच्छे
हैं। जैसे
आषाढ़ के मेघ
घिरने लगे। अब
होगी वर्षा।
अब हुई अब हुई।
अब प्यासी
धरती की प्यास
बुझेगी। मगर
जरूरी नहीं कि
मेघ बरसे ही।
हवाएं उड़ा ले
जा सकती हैं।
आए मेघ फिर
छितर जा सकते
हैं। जब तक
मिलन पूरा
नहीं हो गया
है तब तक
सावचेत रहना।
और
अक्सर ऐसा
होता है कि जब
मंजिल करीब
आती है तो लोग
इतने आश्वस्त
हो जाते हैं
कि अब तो आ ही गए, कि
उनके पैर ढीले
हो जाते हैं।
दूर होते हैं
तो गति से
चलते हैं, पास
आ जाते हैं तो
गति भूल जाते
हैं। मीलों जो
चल आते हैं वे
भी मंजिल जब
करीब आ जाती
है तो
सुस्ताने बैठ
जाते हैं— इस
भरोसे में कि
अब क्या डर, अब तो आ ही गए!
मीलों चले आए,
नहीं थके, कोसों चले
आए, नहीं
थके — क्योंकि
दूर का तारा
पुकारे जाता
था। अब तो
तारा हाथ में
है— आया आया; अब हाथ
बढ़ाने तक में
मुश्किल
मालूम होती है,
इतना श्रम
करना भी कठिन
मालूम होता है।
और
अक्सर दूरी के
कारण लोग नहीं
चूकते, निकटता
के कारण चूकते
हैं। हैरानी
होगी यह बात
जान कर। दूर
जो हैं वे तो
शायद पा
जाएंगे, लेकिन
बहुत पास जो
हैं—डर है, खतरा
है। मनुष्य के
मन का बड़ा
अजीब गणित है;
वह कहता है,
अब तो हाथ
में बात आ ही
गई। ऐसा जब
तुम कहते हो
तभी डर है, तभी
खतरा है।
दीप
मंदिर के जला
लो,
आंख
में अंजन लगा
लो,
अश्रु
से धो नयन
अपने,
पलक
में प्रियतम
बसा लो।
प्यार
के वह गीत बन
कर,
हर
अधर पर गा रहा
है।
हर
हृदय के तार
पर,
झंकार
बन कर छा रहा
है।
शुभ घड़ी
है— जब प्रभु
तुम्हारा गीत
बनता है; जब
तुम्हारी
हृदय—तंत्री
पर उठता है; जब तुम्हारी
मृदंग बजती है
प्राणों की; जब तुम उसकी
ताल में ताल
मिलाने लगते
हो, उसके
छंद में छंद, उसकी गति
में गति; जब
तुम्हारे पैर
उसके साथ चलते
हैं! सुंदर है,
अति सुंदर
है! बहुत कम सौभाग्यशालियो
को ऐसा क्षण
मिलता है कि
उसके हाथ नाचे।
मगर ध्यान रहे,
डूब जाना है
उसमें। नाचने
में तो दूरी
बनी रहेगी।
हाथ में भी
हाथ रहा तो भी
फासला है। और
हाथ में जो
हाथ है वह छूट
सकता है। एकता
ही सध जानी
चाहिए।
रैदास
के आज के
सूत्र बड़े
अनूठे हैं। वे
एकता के सूत्र
हैं। रैदास
कहते हैं इतने
से सच्चे खोजी
की तृप्ति
नहीं होती कि
मस्ती आ गई, आनंद
आ गया, मदहोशी
आ गई, एक
स्वतंत्रता
की सुवास उठने
लगी, झलक
मिलने लगी
परमात्मा की।
नहीं, इतने
से सच्चा खोजी
नहीं रुकता।
इतने से सच्चे
खोजी की गति
और बढ़ जाती है,
क्योंकि
खतरा अब है।
मझधार में तो
बहुत कम नावें
डूबती हैं।
नावें डूबती
हैं साहिल से
टकरा कर, किनारे
से टकरा कर
डूब जाती हैं।
किसी तरह
मझधार से तो
बचा लाते हैं
लोग, क्योंकि
मझधार में लोग
बहुत सावचेत
होते हैं, बहुत
सावधान होते
हैं। जब तूफान
उठा हो और
सागर की लहरें
चांद—तारों को
छूने की कोशिश
करती हों, सागर
विक्षिप्त हो,
विक्षुब्ध
हो—तब तो तुम
पूरी सावधानी
बरतोगे। तब तो
तुम्हारा रोआ—रोआ
जागा हुआ होगा।
तब तो तुम
पहरे पर रहोगे।
तब तो पतवार
तुम्हारे हाथ
में होगी।
लेकिन तूफान
जा चुका, मझधार
भी पीछे छूट
गई, डूबने
का खतरा भी न
रहा, उथला
किनारा करीब
आने लगा—यह
रहा, यह
रहा! अब
किनारे पर
पहुंचे ही
पहुंचे!.. .हाथ
से पतवार भी
धीमी पड़ जाती
है, छूट
जाती है। वह
पुराना होश भी
खो जाता है, वह पुरानी
जागरूकता भी
बंद हो जाती
है, सो
जाती है। फिर
तुम नींद में
पड़ने लगे। अब
खतरा है। अब
किनारे से नाव
टकरा सकती है।
ऐसी
बेबूझ घटना
बहुत बार घटी
है। लोग मझधार
से बच आए और
किनारों पर
टकरा गए और डूब
गए।
महावीर
की मृत्यु का
दिन आया।
महावीर का
सबसे प्रमुख
शिष्य गौतम
पास के ही गांव
में उपदेश
देने गया था।
महावीर ने जान
कर ही भेजा था।
महावीर
अस्वस्थ थे—छह
महीने से
अस्वस्थ थे।
दीया
टिमटिमाता—टिमटिमाता
सा था। कब
ज्योति उड़
जाएगी, कोई
कह नहीं सकता
था। सारे
शिष्य इकट्ठे
हो गए थे, दूर—दूर
से आ गए थे, सैकड़ों
मील की यात्रा
करके महावीर
के अंतिम दर्शन
को उपस्थित हो
गए थे। और
गौतम, जो
कि जीवन भर
साथ रहा; जो
छाया की तरह
साथ रहा; जिसने
महावीर की
वैसी अथक सेवा
की, जैसी
शायद ही कभी
किसी ने किसी
की होगी—एक ही
दिन पहले
महावीर ने
उससे कहा गौतम,
तू पास के
गांव में जा।
भिक्षा भी
मांग लाना और
गांव के लोगों
को उपदेश भी
दे आना।
महावीर ने जान
कर ही गौतम को
भेजा। सोच—समझ
कर भेजा। एक
उपाय की भांति
भेजा।
गौतम
तो दूसरे गांव
गया और महावीर
ने देह छोड़ दी।
जब गौतम वापस
आ रहा था तो
रास्ते पर
राहगीरों ने
गौतम से कहा
कि अब कहां जा
रहे हो, अब
किसके लिए जा
रहे हो? दीया
तो बुझ गया!
पिंजड़ा पड़ा है,
पक्षी तो उड़
गया। फूल तो
धूल में गिर
गया, सुवास
आकाश में समा
गई। अब कहां
जा रहे हो?
गौतम
तेजी से चला
जा रहा था।
महावीर बीमार
हैं। भेजा था
तो आज्ञा पूरी
करनी थी, लेकिन
जल्दी भिक्षा
मांग, जल्दी
उपदेश दे, भाग
रहा था कि
वापस पहुंच
जाए। वहीं बैठ
कर रोने लगा।
और उसने उन
यात्रियों से
पूछा कि एक
बात भर मुझे
पूछनी है
अंतिम समय में
उन्होंने
मुझे स्मरण
किया था या
नहीं? और
यदि स्मरण
किया था तो
मेरे लिए कोई
संदेश छोड़ गए
हैं या नहीं?
और
वह संदेश बहुत
महत्वपूर्ण
है,
रैदास के आज
के सूत्रों को
समझने में बड़ा
सहयोगी है।
उन
यात्रियों ने
कहा हां, अंतिम
संदेश
तुम्हारे लिए
ही छोड़ गए हैं।
कहा कि गौतम
को मैंने दूर
भेजा है, क्योंकि
पास रहते—रहते
वह भूल ही गया
था कि एक होना
है। इतने पास
था कि उसे
विस्मरण हो
गया था कि एक
होना है। उसे
दूरी की याद
दिलाने के लिए,
कि पास भी
एक दूरी है, मैंने दूर
भेजा है। और
यह मेरा सूत्र
है, गौतम
को कह देना, कि हे गौतम, तू पूरी नदी
तो तैर गया, अब किनारे
पर आकर क्यों
रुक गया है? पूरी नदी तो
तैर चुका, अब
किनारे को भी
छोड़! अब
किनारे से भी
उठ आ!
जैसे
कोई आदमी नदी
पार कर जाए और
फिर किनारे को
पकड़ कर भी नदी
में ही बना
रहे — इस आशा
में कि अब तो
किनारा मिल
गया,
अब क्या
करना है! मगर
है वह नदी में
ही, किनारे
को पकड़े है।
महावीर
के संदेश का
अर्थ था गौतम, तूने
सब छोड़ दिया—
घर—द्वार, परिवार—सब
छोड़ कर तू
मेरे साथ हो
लिया। लेकिन
अब तूने मुझे
पकड़ लिया है।
अब तू सोचता
है कि अब मुझे
क्या करना है!
अब सदगुरु मिल
गए, अब
उनकी सेवा
करता हूं।
मेरा काम पूरा
हो गया। अब तू
किनारे को पकड़
कर रुक गया है।
मुझे भी छोड़
दे!
क्योंकि
बाहर कुछ भी
पकड़ो तो बंधन
है। अंतत:
सदगुरु भी
बंधन बन जाता
है। सदगुरु और
सारे बंधनों
से छुड़ा देता
है और अंत में
स्वयं से भी
छुड़ा देता है।
वही सदगुरु है।
इस
वचन को सुनते
ही गौतम समाधि
को उपलब्ध हो
गया। जो समाधि
जीवन भर छलती
रही,
वह एक क्षण
में उपलब्ध हो
गई। चोट गहरी
थी। आघात ऐसा
था कि पहुंच
गया होगा
प्राणों के अंतरतम
तक। आज के
सूत्र खूब
हृदयपूर्वक
समझना।
गाइ—गाइ
अब का कहि गाऊं।
रैदास
कहते हैं. बहुत
गाया, गाता ही
रहा, लेकिन
अब क्या कह कर
गाऊं? यह
परम दशा है।
यह परमावस्था
है। यह
निर्वाण की
स्थिति है। अब
तक गाया, अब
शब्द भी नहीं
मिलते गाने को।
अब शब्द छोटे
पड़ते हैं, ओछे
पड़ते हैं। जो
गीत गाना है
उनमें समाता
नहीं। शब्दों
के पात्र बहुत
छोटे हैं, गीत
का सागर बहुत
बड़ा। शब्द रह
गए गागर जैसे,
गीत हो गया
सागर जैसा। अब
कैसे कोई सागर
को गागर में
भरे?
गाइ—गाइ
अब का कहि गाऊं।
कितना
गाया! रैदास
कहते हैं.
जिंदगी भर हो
गई नाचते, गीत
गाते, उसकी
मस्ती को
बिखराते, उसकी
रोशनी को
छितराते, मगर
अब सब शब्द
छोटे पड़ने लगे,
सब गीत कचरा
मालूम होने
लगे। अब स्वर
उस नि:स्वर को
प्रकट नहीं कर
पाते। अब शब्द
उस निःशब्द को
प्रकट नहीं कर
पाते। अब भाषा
उस मौन को
कहने में
असमर्थ है। अब
वीणा चाहे भी
तो उस अनाहत
को उठाने की
सामर्थ्य
नहीं रखती है।
वीणा का सब
नाद आहत नाद
है।
ये
'आहत' और 'अनाहत' शब्द
समझ लेने जैसे
हैं! आहत नाद
का अर्थ होता है
किसी चीज को
छेड़ने से जो
पैदा हो; जैसे
वीणा के तार
छेड़े तो नाद
पैदा हुआ। इस
नाद को कहते
हैं आहत नाद।
मृदंग पर थाप
दी, नाद
पैदा हुआ। यह
आहत नाद। कि
बांसुरी में
फूंक मारी, चोट पड़ी, चोट
से स्वर जगे—यह
आहत नाद।
आहत
नाद का अर्थ
है दो की
जरूरत है। एक, जिस
पर चोट मारी
जाए; और एक,
जो चोट मारे।
वीणा चाहिए और
वीणावादक
चाहिए, तो
आहत नाद पैदा
होगा। आहत नाद
द्वंद्व का
नाद है। कितना
ही सुंदर हो, लेकिन
द्वंद्व तो
मौजूद है, दुई
तो मौजूद है, फासला तो
मौजूद है।
वीणाकार वीणा
नहीं हो गया
है। वीणाकार
अलग है, वीणा
अलग है।
इसलिए
चीन में
रहस्यवादियों
की एक पुरानी
उक्ति है कि
जब वीणावादक
अपने वादन में
पूर्ण कुशल हो
जाता है तो
वीणा को तोड़
देता है; और जब
धनुर्धर अपनी
धनुर्विद्या
में पारंगत हो
जाता है तो धनुष
को तोड़ देता
है। क्योंकि
उतनी दुई भी
फिर सही नहीं
जाती। उतना
द्वैत भी फिर
बरदाश्त नहीं
होता—खलता है,
अखरता है।
यही
तो प्रेम की
पीड़ा है।
प्रेमी चाहते
हैं एक हो
जाएं और हो
नहीं पाते।
नहीं हो पाते
इसलिए कलह है, हो
जांए तो कलह
मिट जाए। सारी
दुनिया में
प्रेमी
निरंतर कलह
में लगे रहते
हैं। प्रेम की
घड़ियां तो कभी—कभार
होती हैं, कलह
ही ज्यादा
होती है। कलह
की रात में
कभी एकाध
प्रेम का दीया
थोड़ी— बहुत
देर को जगमगा
उठता है, फिर
बुझ जाता है, फिर अंधेरी
रात।
प्रेम
की पीड़ा यही
है कि प्रेमी
चाहते हैं एक हो
जाएं, मगर एक
हो जाने में
एक बुनियादी
भूल काम कर
रही है इसलिए
एक नहीं हो
पाते। प्रेमी
चाहता है
प्रेयसी मेरे
साथ एक हो जाए और
प्रेयसी
चाहती है कि
प्रेमी मेरे
साथ एक हो जाए;
मैं तो रहूं
दूसरा खो जाए।
यही कलह है!
दोनों की यही
आकांक्षा है।
यह कैसे पूरी
हो? यह तो
असंभव है। दोनों
चाहते हैं मैं
तो रहूं तू खो
जा। जब दोनों
यही चाहते हैं
तो फिर कलह ही
होगी।
और
प्रार्थना
में यही भेद
है। प्रेमी
चाहते हैं कि
दूसरा खो जाए
और प्रार्थी
चाहता है कि
मैं खो जाऊं।
इसलिए मैं
प्रेम को
प्रार्थना की
उलटी अवस्था
कहता हूं और
प्रार्थना को
प्रेम का सीधा
हो जाना।
प्रार्थना को
मैं प्रेम की
पराकाष्ठा
कहता हूं।
प्रेम, जिसको
आंखें मिल गई
हैं, प्रार्थना
बन जाता है।
कहते हैं
प्रेम अंधा है,
निश्चित ही
अंधा है, लेकिन
उसके पास आंखें
भी हो सकती
हैं। और जिस
दिन प्रेम के
पास आंखें
होती हैं उस
दिन
प्रार्थना का
जन्म होता है।
प्रेम
शीर्षासन कर
रहा है, सिर
के बल खड़ा है, इसलिए चल
नहीं पाता, गति नहीं है।
पैर के बल खड़ा
हो जाए, गति
आ जाती है। और
एक कदम जो
चलता है, वह
एक हजार मील
चल सकता है, क्योंकि एक
ही कदम एक बार
में चला जाता
है। कदम—कदम
चल कर—लाओत्सु
ने कहा है—दस
हजार मीलों की
यात्रा भी
पूरी हो जाती
है।
प्रार्थना
अस्तव्यस्त
हो तो उसका
नाम प्रेम है
और प्रेम
व्यवस्थित हो
जाए तो
प्रार्थना।
प्रेम ऐसे है
जैसे नया—नया
सिक्खड़ वीणा
बजाए और
प्रार्थना
ऐसे है जैसे
वीणा किसी
उस्ताद के
हाथों में हो।
प्रेम
की पीड़ा यही
है कि दोनों
एक होना चाहते
हैं,
मगर गलत
आकांक्षा है
कि दूसरा
मुझमें डूब
जाए। और
प्रार्थना का
रस यही है—
प्रार्थना भी
एक होना चाहती
है, मगर
हिसाब और है
प्रार्थना का—
मैं डूब जाऊं,
मैं मिट
जाऊं! प्रेमी
दूसरे को
मिटाना चाहते
हैं, पोंछ
डालना चाहते
हैं। पति
चाहता है
पत्नी मेरी
छाया हो जाए।
पतियों ने
पत्नियों को
समझाया है
सदियों—सदियों
में कि हम
परमात्मा हैं,
कि मैं
परमात्मा हूं।
तुम मेरी छाया
हो जाओ, तुम
मुझ पर
समर्पित हो
जाओ। तुम अपना
निजी
अस्तित्व न
रखो।
मगर
कैसे कोई अपना
अस्तित्व खो
दे! और जब कोई
जबरदस्ती कर
रहा हो कि खो
अपना
अस्तित्व, तब
तो खोना और भी
मुश्किल हो
जाता है, और
भी असंभव हो
जाता है। तो
पत्नी भी अपनी
सुरक्षा में
लग जाती है, वह भी अपने
दांव—पेंच
चलाने लगती है।
एक राजनीति
शुरू होती है।
प्रेम जो
प्रार्थना बन
सकता था, प्रार्थना
बनना तो दूर
रहा, एक
राजनीति बन
जाती है, एक
कलह बन जाती
है, एक
संघर्ष बन
जाता है।
प्रेम
प्रार्थना बन
जाए तो गृहस्थ
संन्यासी हो
गया—गृहस्थ
रहते—रहते
संन्यासी हो
गया। फिर कहीं
संन्यास
खोजने की और
जरूरत नहीं है।
आहत
नाद है
द्वंद्व से
पैदा हुआ नाद।
दो हैं और दो
में टकराहट
होती है।
प्रेम आहत नाद
है और
प्रार्थना
अनाहत नाद।
अनाहत का अर्थ
है जहां दो
नहीं है, वीणा
और वीणावादक
एक हैं। जैसे
वीणा खुद ही
अपने को बजा
रही है! जैसे
स्व—स्फूर्त
बज रही है, बजाने
वाला नहीं है!
जैसे तीर खुद
चल रहा है, चलाने
वाला नहीं है!
या कि चलाने
वाला ही है और
तीर नहीं है!
या कि बजाने
वाला ही है और
वीणा नहीं है,
वाद्य नहीं
है! जो मर्जी
हो। मगर एक
बात खयाल रखना—
अद्वैत, एक
बचा, दो
लीन हो गए।
इस
एक के भीतर जो
संगीत उठता है
उसका नाम अनाहत, ओंकार।
यह संगीत
अस्तित्व का
संगीत है। इस
संगीत को कैसे
भाषा में बांधें?
इसको कैसे
गीतों में
ढालें? कैसे
पद्य बनाएं? कैसे गद्य
बनाएं? यह
कैसे
मात्राओं और
छंदों में
आबद्ध होगा? असंभव है!
इसलिए
रैदास कहते
हैं गाइ—गाइ—खूब
गाया, खूब
नाचा—गाइ—गाइ
अब का कहि
गाऊं! अब क्या
करूं? अब
गाते नहीं
बनता। जबान ही
नहीं लड़खड़ा गई
है, प्राण
भी लड़खड़ा गए
हैं। असीम हाथ
में लग गया है।
अब किसके बूते
में है कि
असीम को सीमा
में डाल दे? निराकार का
स्वाद आ गया, अब इसे आकार
में
अभिव्यक्त
करने का कोई
उपाय नहीं है।
और अगर गाना
भी चाहूं तो
उसका नाम नहीं
है कोई, अब
किसके गीत
गाऊं? राम
के गीत गाए
पहले, कि कृष्ण
के गीत गाए, कि अल्लाह
के। मगर अब
किसके गीत
गाऊं? जानने
के बाद अब
किसके गीत
गाऊं? उसका
कोई नाम नहीं
है, उसका
कोई पता नहीं,
उसका कोई
ठिकाना नहीं।
और अब ज्ञाता
और शेय एक हो
गए, गायक
और गेय एक हो
गए। अब कौन तो
गाए और कौन
सुने?
भक्त
पहले गाता है—गाना
ही पड़ता है।
भक्ति की
शुरुआत गीत से
है। भक्ति का
रास्ता गीतों
से पटा है, पत्थरों
से नहीं।
भक्ति के
मार्ग पर
दोनों तरफ
वृक्षों में
गीत लगते हैं।
मैं
नालाए—दिल से
काम लूंगा
मुझी से होगा
यह काम मेरा
सबा
को है क्या
गरज कि उन तक
वो ले के जाए
पयाम मेरा
भक्त
कहता है मुझे
तो गाना ही
पड़ेगा, अपनी
ही आवाज पर
भरोसा करना
पड़ेगा। हवाएं
मेरे पैगाम को
उन तक न ले जा
सकेंगी। यह
मेरा प्रेम का
संदेश कौन
पहुंचाएगा?
सबा
को है क्या
गरज कि उन तक
वो ले के जाए
पयाम मेरा
मैं
नालाए—दिल से
काम लूंगा
मुझी से होगा
यह काम मेरा
शुरुआत
में तो, प्रथम
चरणों में तो
भक्त गुंजार
बन जाता है, नृत्य बन
जाता है, पैरों
में घुंघरू
बांध लेता है,
बांसुरी
उठा लेता है, कि इकतारा!
लेकिन बस यह
शुरू की बात
है। जल्दी ही
बांसुरी भी खो
जाती है, शर
शांत हो जाते
हैं, वीणा
बोलती नहीं, इकतारा मौन
हो जाता है।
जब तक मीरा
बुद्ध न हो
जाए तब तक कुछ
कमी रह गई।
मीरा शुरुआत
तो ठीक है, प्रारंभ
तो सुंदर है, लेकिन अंत
तो बुद्धत्व
ही है।
गाइ गाइ अब का
कहि गाऊं।
गावनहर को
निकट बताऊं।।
गा—गा
कर कहता था कि
परमात्मा पास
है,
अब कैसे
कहूं कि
परमात्मा पास
है?
क्योंकि
पास तो दूरी
का एक संबंध
है। कोई दो
मील दूर है, कोई
दो गज दूर है, कोई दो इंच
दूर है, मगर
ये सब दूरी ही
दूरी है। दो
इंच जो दूर है
वह भी दूर है।
रंध्र भी रह
गई भक्त और
भगवान के बीच
तो अनंत फासला
है।
गावनहार
को निकट
बताऊं! अब
कैसे कहूं कि
वह निकट है।
पहले तो कहता
था बहुत निकट
है— पुकारो और
सुन लेगा, आवाज
दो और दौड़ा
चला आएगा। अब
कैसे कहूं कि
वह निकट है
क्योंकि वह तो
अब मेरे भीतर
बैठा है। अब
कौन उसके गीत
गाए, क्योंकि
अब तो वही
मुझमें समाया
है! अपनी ही स्तुति
अब कैसे करूं—
अहं
ब्रह्मास्मि!
जब जाना जाता
है कि मैं ही
ब्रह्म हूं तो
अब कैसी
स्तुति, कैसी
प्रार्थना!
कबीर
ने कहा है.
उठूं बैठूं सो
परिक्रमा! अब
मंदिर की
परिक्रमा
करने नहीं
जाता, मेरा जो
उठना— बैठना
है वही
परिक्रमा है।
अब मंदिर में
जाकर भोग नहीं
लगाता। खाऊं—पीऊं
सो सेवा! अब तो
खुद ही खा—पी
लेता हूं। वह उसकी
ही सेवा है।
क्योंकि वही
मेरे भीतर
खाता है, पीता
है, वही
मेरे भीतर
उठता है, बैठता
है। अब कबीर
बचा कहां! अब
वही है!
जब लगि है
इहि तन की आसा,
तब लगि करै
पुकारा।।
रैदास
कहते हैं जब
तक तुम पुकार
रहे हो, प्रार्थना
कर रहे हो, तब
तक ध्यान रखना,
कहीं न कहीं
पीछे कोई आशा,
कोई वासना,
कोई कामना
छिपी होगी।
प्रार्थना
सुंदर है, प्रार्थना
अपूर्व है, मगर
प्रार्थना के
पार भी कुछ है।
प्रार्थना से
उठोगे तो
परमात्मा
मिलेगा, प्रार्थना
में ही पड़े
रहे तो
परमात्मा
नहीं मिलेगा।
यद्यपि बिना
प्रार्थना के
भी परमात्मा
नहीं मिलेगा।
प्रार्थना
सीडी है— चढ़ो
भी, उतरो
भी। सीढ़ियां
चढ़ गए, सीढ़ियों
का काम समाप्त
हुआ।
प्रार्थना
नाव है, बैठो
भी इस किनारे,
उस किनारे
भूल मत जाना, उतर भी जाना।
फिर यह मत
कहना कि जिस
नाव ने हमें
इतनी दूर तक ले
आई, जिसकी
हम पर इतनी
कृपा है, अब
इसको कैसे छोड़
दें! फिर नाव
को मत पकड़
लेना।
प्रार्थना
साधन है, ध्यान
साधन है, योग
साधन है।
स्मरण रहे कि
साधनों को पकड़
मत लेना, अन्यथा
साध्य से चूक
जाओगे।
जब लगि है
इहि तन की आसा,
तब लगि करै
पुकारा।।
रैदास
ठीक कहते हैं।
तुम्हारी
प्रार्थनाओं
में जरा
झांकना, परखना,
जरा विश्लेषण
करना, और
तुम पाओगे
कहीं न कहीं
कोई न कोई आशा
छिपी है, कोई
मांग—सूक्ष्म
होगी, अदृश्य
होगी। चाहे
तुम यह ही
क्यों न कह
रहे होओ
परमात्मा से
कि हे प्रभु, जो तेरी
मर्जी हो सो
कर, मगर
भीतर यह खयाल
होगा कि मर्जी
तेरी वही होगी
जो मेरी है, अन्य कैसे
हो सकती है! अब
तू कुछ गलत
मर्जी तो
करेगा नहीं।
तुझसे गलत तो
हो ही नहीं
सकता। भीतर
वही भाव बना
हुआ है कि मैं
जो चाहता हूं
वही होगा, क्योंकि
परमात्मा
अन्यथा कैसे
सोचेगा! अरे, क्या उसको
पता नहीं है, उसे तो
अंतस्तल का
बोध है! लाख
ऊपर से कहूं
कि जो तेरी
मर्जी हो सो
पूरा कर, मगर
वह तो प्राणों
के प्राणों
में झांकेगा!
जरा
तुम गौर करना
अपनी
प्रार्थना
में। तुम जब
कहते हो जो
तेरी मर्जी हो
वही पूरी हो, तब
भी तुम्हारी
मर्जी है कुछ।
यहां
रोज ऐसा होता
है। संन्यासी
मुझे लिखते
हैं कि आप
जैसा कहें वैसा
हम करें। उनके
सामने कोई
विकल्प होते
हैं। किसी के
घर से पत्र
आया है कि एक
महीने के लिए
वापस आ जाओ।
अब जाएं कि न
जाएं? मुझे
पूछते हैं कि
जाएं कि न
जाएं, जो
आपकी मर्जी!
मैं उनसे
पूछता हूं सच—सच
कह दो, थोड़ी—बहुत
भी तुम्हारी
मर्जी हो तो
प्रकट कर दो।
नहीं—नहीं, वे
कहते हैं, जो
आपकी मर्जी!
तो मैं वही
कहता हूं जो
उनकी मर्जी
नहीं है। और
तब तत्क्षण
उनके चेहरे
उतर जाते हैं।
तो मैं कहता
हूं छोड़ो, जाने
की जरूरत नहीं।
फिर दो दिन
में उनकी
चिट्ठी आ जाती
है कि मन बड़ी
बेचैनी में है,
बड़ी अशांति
में है। रह—रह
कर लगता है कि
थोड़े दिन के
लिए हो आते, वैसे जो
आपकी मर्जी।
जब तक वे
मुझसे कहलवा न
लें कि जाओ, तब तक उनके
चित्त को
शांति नहीं
मिलती। तो फिर
क्या मतलब है
पूछने का? मतलब
उनका यह है कि
आप वही कहो जो
हम चाहते हैं,
तो दोहरे
काम सधे अपनी
मर्जी भी पूरी
हुई और समर्पण
का भी मजा रहा
कि देखो कितने
समर्पित हैं!
जब कभी मैं
वही कह देता
हूं जो वे
चाहते हैं तो
उनका अहोभाव
देखने योग्य
होता है! वे
अपनी ही पीठ
ठोकते हैं
जैसे, कि
देखो समर्पण
हो तो ऐसा हो!
आदमी
बहुत चालबाज
है। चालबाज
इतना कि औरों
से करे
चालबाजी सो तो
ठीक,
अपने से भी
चालबाजी करता
है!
तुम
अपनी
प्रार्थनाओं
में झांकना।
तुम्हारी
प्रार्थनाएं
शुद्ध
धन्यवाद हैं या
उनमें कोई
कामना है—
छिपी किसी
कोने—कातर में, मन
की किसी अचेतन
पर्त में, किसी
अंधेरे में, कहीं दबी मन
की किसी कोठरी
में, सरकती
कहीं भीतर—
कोई वासना है?
कोई कामना
है? कुछ
पूरा कर लेना
चाहते हो? कुछ
परमात्मा का
उपयोग करना
चाहते हो?
रैदास
कहते हैं और
अनुभव से कहते
हैं कि जब लगि
है इहि तन की
आसा,
तब लगि करै
पुकारा!
प्रार्थना
चलती ही तब तक
है जब तक इस तन
में,
इस मन में, इस संसार
में कुछ आशा
बंधी है, कुछ
कामना बंधी है।
जिस दिन सब
कामना क्षीण
हो जाती है
प्रार्थना
विलीन हो जाती
है, एक मौन
छा जाता है।
फिर मौन ही
प्रार्थना है!
फिर शून्य ही
निवेदन है!
निवेदन करने
को ही कुछ न
बचा।
दिल
है तो उसी का
है जिगर है तो
उसी का
अपने
को रहे—इश्क
में बरबाद जो
कर दे
अपने
को मिटा ही
डालना है पूरा।
यह जो प्रेम
की राह है—रहे—इश्क—यह
तो दीवानों की
राह है, यह तो
परवानों की
राह है! शमा के
पास परवाने का
नाच देखा है? वही भक्ति
है, वही
प्रार्थना है!
शमा के पास
नाचता हुआ
परवाना
प्रतिपल करीब
आता जाता है; मौत के करीब
आ रहा है; अपने
को मिटाने के
करीब आ रहा है।
जल्दी ही जल
जाएंगे पंख और
राख होकर पड़ा
रह जाएगा।
लेकिन कोई
अनिर्वचनीय
आकर्षण, कोई
अगम्य आकर्षण
उसे खींच रहा
है। जीवन से
भी ज्यादा
मूल्यवान कुछ
उसे दिखाई पड़
रहा है।
दिल
है तो उसी का
है जिगर है तो
उसी का
अपने
को रहे—इश्क
में बरबाद जो
कर दे
और
तुम्हारी
आत्मा ही तब
पैदा होगी, तुम्हारे
पास दिल ही तब
होगा और जिगर
भी तुम्हारे
पास तभी होगा,
जब तुम
प्रेम के
मार्ग पर
परवाने की तरह
अपने को लुटा
दोगे। सच में
ही! किसी छिपी
आकांक्षा, आशा
से नहीं। भीतर
कहीं इस भाव
से नहीं कि
मिटा लूंगा
अपने को तो
इतना—इतना
पाऊंगा, कि
इतना स्वर्ग
का आनंद, इतना
बैकुंठ का रस...।
क्यों
दिल के तकाजे
पर बेवक्त दुआ
मांगी
कुछ
जब्र किया
होता, कुछ सब
किया होता
जब
भी तुम मांगते
हो,
इसी बात की
खबर दे रहे हो
कि तुम्हें
धीरज नहीं है,
तुम्हें
भरोसा नहीं है।
कहते हैं न
पलटू काहे होत
अधीर! क्यों
इतने अधीर हुए
जाते हो? तुम्हारी
प्रार्थना
तुम्हारे
अधैर्य की अभिव्यक्ति
है, और
क्या! कि
जल्दी करो! कि
हे प्रभु, बहुत
देर हुई जा
रही! कि
बेईमान आगे
निकले जा रहे
हैं! कि
अधार्मिक
पदों पर बैठ
गए हैं और मुझ धार्मिक
को तो देखो!
मैं तुम्हारी
प्रार्थना में
लीन, हाथ
कुछ लगता
नहीं! क्या बिलकुल
विस्मरण कर
दिया है? क्या
तुम्हारे लोक
में भी अन्याय
चलने लगा है? सुना तो था
कि देर होती
है अंधेर नहीं,
लेकिन अब तो
अंधेर भी
दिखाई पड़ने
लगा!
ये
सब तुम्हारे
भीतर मन में
बातें होती
हैं। मेरे पास
लोग आते हैं।
वे कहते हैं, जिंदगी
भर नीति से, नियम से, मर्यादा
से जीए— पाया
क्या? जमाने
भर के बेईमान,
लुच्चे—लफंगे
पदों पर चढ़ गए
प्रतिष्ठा पा
रहे हैं— हमें
क्या मिला? हम जिंदगी
भर नीति से
गुजारते रहे,
सदाचरण से
गुजारते रहे,
कभी इंच भर
धर्म से यहां—वहां
न हुए— हमारी
उपलब्धि क्या
है?
तो
हमें तो शक
होता है— लोग
मुझसे आकर
कहते हैं— कि
परमात्मा है
भी या नहीं।
और अगर है भी
तो वह भी
बेईमानों का
है,
अगर है भी
तो वह भी उनका
है जो उसे
रिश्वत खिला सकते
हैं। देर ही
नहीं है— वे
मुझसे आकर
कहते हैं— कि
अब तो हमें शक
होने लगा कि
अंधेर भी है।
और जब यहां
ऐसा हो रहा है
तो परलोक का
क्या भरोसा!
आखिर यह लोक
भी तो उसी का
है। अगर यहां
बेईमानी सफल
हो रही है तो
हमें तो शक है
कि वहां भी
बेईमानी ही
सफल होगी।
बड़ा
अधैर्य है और
भीतर मांग तो
खड़ी ही है। और
तुम आंख के
किनारे से देख
रहे हो कि कब
पूरी हो। ऐसे
ऊपर से कहते
हो कि मैं कुछ
मांगने थोड़े
ही आया हूं।
क्यों
दिल के तकाजे
पर बेवक्त दुआ
मांगी
मत
मानो मन की इन
चालबाजियों
को।
क्यों
दिल के तकाजे
पर बेवक्त दुआ
मांगी
कुछ
जब किया होता, कुछ
सब्र किया
होता
सच्चा
प्रार्थी तो
जब्र करता है, सब
करता है।
चुपचाप
प्रतीक्षा
करता है। उसे
जो करना होगा
करेगा। और वह
जो करेगा वही
ठीक है। वह
कुछ ठीक करे
यह सवाल ही
नहीं है, वह
जो करता है
वही ठीक है।
दिल दिया, दर्द
दिया, दर्द
में लज्जत दी
है
मेरे
अल्लाह ने
क्या—क्या
मुझे दौलत दी
है
वह
जो प्रार्थना
से भरा हुआ
हृदय है, वह तो
हर चीज के लिए
धन्यवादी है।
दिल
दिया, दर्द
दिया, दर्द
में लज्जत दी
है
और
क्या चाहिए? सुख
की तो मांग का
सवाल ही नहीं
है। वह इसके
लिए भी
धन्यवादी है
कि दिल दिया, दिल में
दर्द की
क्षमता दी और
दर्द में भी
एक प्रसाद
दिया, एक
लज्जत दी, एक
सौंदर्य दिया।
क्योंकि दर्द
न होता तो दिल
न होता, दिल
न होता तो तुम
पत्थर होते।
दिल है, दर्द
है, तो तुम
पत्थर नहीं हो—
तुम प्राण हो,
तुम
प्राणवान हो।
तुम्हारे
भीतर
संवेदनशीलता
है। और
तुम्हारी
संवेदनशीलता
ही तुम्हारी
एकमात्र
संभावना है
विकास की।
दिल
दिया, दर्द
दिया, दर्द
में लज्जत दी
है
मेरे
अल्लाह ने क्या—क्या
मुझे दौलत दी
है
सच्ची
प्रार्थना तो
धन्यवाद है, आभार
है। उसमें
मांग नहीं
होती। और जहां
मांग नहीं है
वहां शब्दों
की क्या जरूरत!
और जहां मांग
नहीं है वहां
कहना क्या है,
झुक जाना
है! मौन जो झुक
जाता है उसने
जान लिया राज
प्रार्थना का।
उसे सिब्दा
करना आ गया।
जब मन मिल्यौ
आस नहीं तन की,
तब को
गावनहारा।।
रैदास
कहते हैं जब
मन उससे मिल
गया,
पाने की कोई
इच्छा न रही, मन और तन का
विस्मरण हो
गया— तब को
गावनहारा! तब
कौन गाए, क्या
गाए, क्या
कहे, क्यों
कहे, किसलिए?
तब एक सहज
मौन उतरता है।
इस सहज मौन से
ही व्यक्ति
मुनि होता है—
किसी आचरण से
नहीं, किसी
बाह्य
व्यवस्था से
नहीं।
मुझसे
लोग आकर पूछते
हैं कि आप
अपने
संन्यासी को
विस्तारपूर्वक
आचरण के नियम
क्यों नहीं देते
हैं— कैसे उठे
कैसे बैठे, क्या
खाए क्या पीए,
क्या न खाए
क्या न पीए?
वे
मेरी बात समझ
ही नहीं पा
रहे हैं। उनके
मेरे बीच कोई
संवाद ही नहीं
हो पा रहा है।
सदियों—
सदियों से तो
आचरण दिया गया
है,
लेकिन हुआ
क्या? मैं
आचरण में
भरोसा नहीं
करता। मेरा
भरोसा अंतस
में है।
तुम्हारे
भीतर चेतना का
दीया जल जाए
बस, फिर
शेष उसकी
रोशनी में जो
तुम्हें ठीक
लगे करना।
उसकी रोशनी में
तुम जो करोगे
वही ठीक होगा।
और अगर दीया न
जले तो तुम
लाख व्यवस्था से
चलो, इंच—इंच
पांव फूंक—फूंक
कर रखी, तुमसे
सिर्फ मूढ़ता
ही होगी और
कुछ भी नहीं।
बौद्ध
ग्रंथों में
बौद्ध भिक्षु
के लिए तैंतीस
हजार नियमों
का उल्लेख है।
उनको याद ही
रखना मुश्किल
है। और क्यों
इतना उल्लेख
करना पड़ा? क्योंकि
हर छोटी—मोटी
चीज का अगर
बाहर से ही
नियमन होना है
तो कोकाकोला
कोई पीए कि
नहीं, लिखना
पड़ेगा; फिर
फैंटा, उसके
बाबत क्या
खयाल है? आदमी
ऐसा बेईमान है
कि तुम कहो
कोकाकोला मत
पीओ तो वह
कहेगा ठीक है,
तो फैंटा
पीएंगे।
फैंटा से बचाओ
तो लिमका
पीएगा। तुम
बचाए जाओ, वह
तरकीबें
खोजता जाएगा।
अगर
नियम ही बनाने
हैं तो तैंतीस
हजार नियम भी
छोटे पड़
जाएंगे। नियम
से काम नहीं
हो सकता, बोध
से काम हो
सकता है—सिर्फ
बोध ही सहयोगी
हो सकता है।
मैंने
सुना है, गांव
के ग्रामीण
श्री भोंदूमल
जी अपना इलाज
करवाने बड़े
शहर जा रहे थे।
दोस्तों ने
उन्हें
समझाया कि
डॉक्टर से
सारी बातें
विस्तारपूर्वक
समझ लेना और
जैसा डॉक्टर
कहे वैसा करना,
अपने मन से
कुछ नहीं।
भोंदूमल
ने मित्रों की
बात गांठ बांध
ली। शहर के एक
प्रसिद्ध
डॉक्टर के
यहां पहुंचे, सब
हाल बताया।
डॉक्टर ने
जांज—पड़ताल के
बाद दवा दी।
चार गोलियां
देकर
उन्होंने कहा
कि ये गोली दूध
के साथ लेना
है।
भोंदूमल
जी ने पूछा :
हुजूर, चारों
गोली एक साथ
गटक जाना है
या एक—एक करके
खाना है? जैसी
तुम्हारी
इच्छा हो—
डॉक्टर बोला—
इससे कुछ भी
फर्क नहीं
पड़ता।
मैं
तो चारों
इकट्ठी ही
खाऊंगा—
भोंदूमल जी
बोले। अच्छा
एक बात तो और
बता दीजिए कि
दूध गर्म होना
चाहिए कि ठंडा?
कुनकुना
दूध अच्छा
रहेगा— डॉक्टर
ने जवाब दिया।
अच्छा
तो साथ ही यह
भी बताने की
कृपा करें डॉक्टर
साहब कि भैंस
का दूध
पौष्टिक
रहेगा कि गऊ माता
का?
अरे
भाई तुम्हें
जो मिल जाए, वही
सबसे अच्छा—
डॉक्टर ने
झुंझलाते हुए
कहा।
नहीं
डॉक्टर साहब, सच—सच
कहिए न! कौन सा
दूध बलवर्धक
होता है?
ठीक
है,
गाय का दूध
ठीक होगा।
दूध
गिलास मे लेकर
पीना या कटोरे
में?
भोंदूमल ने
जिज्ञासा
जाहिर की।
डॉक्टर
ने गुस्से में
कहा : लोटे में
पीना।
जो
आशा हुजूर—
भोंदूमल ने सब
बातें
विस्तार से
पूछ लेना उचित
समझा। बोला :
डॉक्टर साहब, दूध
खड़े—खड़े पीऊं
या बैठ कर?
मुझे
दूसरे मरीज भी
देखने हैं या
तुम्हीं से सिर
खपाता रहूं? जैसा
तुम्हें
अच्छा लगे
वैसा करना।
गुस्सा मत
होइए डॉक्टर
साहब, एक
बात और पूछता
हूं मगर शर्म
आती है।
क्या
बात है? डॉक्टर
ने
उत्सुकतावश
पूछा— बोलो।
भोंदूमल
ने डॉक्टर के
कान में कहा :
दूध का लोटा
मैं अपने हाथ
से पीऊं या
मेरी पत्नी
मुझे पिलाए? कोई
नुकसान तो
नहीं है यदि
वह पिलाए।
हां, कोई
नुकसान नहीं—
डॉक्टर को उसकी
बात पर हंसी आ
गई। अब लाओ
मेरी फीस दस
रुपये और अब
जाओ!
भोंदूमल
जी ने सहजता
से बोला, बंधा
दूं हुजूर या
फुटकर दे दूं?
डॉक्टर
का पारा
सातवें आसमान
पर चढ़ गया। वह
चिल्ला कर
बोला, अच्छा
अब तुम भागों
यहां से। फीस
रहने दो और
मुझसे लो ये
दस रुपये, मगर
मेरा पिंड छोड़ो!
ऐसा कह कर
उसने भोंदूमल
को दो पांच—पांच
के नोट थमा
दिए।
हुजूर, यह
तो बताइए कि
अब पैदल जाऊं
या रिक्शा
में? कोई
खतरा तो नहीं
है?
कोई
खतरा नहीं है, रिक्शा
में जाओ। मगर
जल्दी जाओ, मेरा सिर न
खाओ। पांच
रुपये रिक्शावाले
को दे देना और
पांच रुपये
में गोलियां खरीद
लेना।
दोनों
नोट लेकर
प्रसन्नता से
भोंदूमल जी
चले गए।
डॉक्टर ने
अपने सिर का
पसीना पोंछा
और एक सिरदर्द
की गोली खाई
और मन ही मन
सोचा कि झंझट
टली। लेकिन दो
ही मिनट बाद
देखा कि
भोंदूमल फिर
सामने— चेहरे
पर चिंता और
असमंजस का भाव
लिए। भोंदूमल
जी बोले
गुस्सा ने
होइए डॉक्टर
साहब, मैं
आखिर ठहरा
गांव का गंवार,
सोचा सब—कुछ
विस्तार से
पूछ लेना ही
अच्छा। बस एक
आखिरी शंका और,
उसका और
समाधान कर
दीजिए, आपकी
बड़ी मेहरबानी
होगी। बस यह
और बता दीजिए
कि कौन से
पांच के नोट
की दवा खरीदनी
है और कौन सा
पांच का नोट रिक्शावाले
को देना है?
अगर
आदमी के आचरण
को एक—एक इंच
सम्हालना हो
तो
विक्षिप्तता
पैदा होगी। और
वही हुआ। आज
जो मनुष्य—जाति
इतनी रुग्ण, इतनी
विक्षिप्त
दिखाई पड़ रही
है, उसका
कारण है
तुम्हारे
धर्मगुरुओं
की लंबी परंपरा,
जिन्होंने
हर छोटी बात
के लिए
तुम्हें नियम
दे दिए। रोशनी
चाहिए—तुम्हारे
पास अपनी
रोशनी चाहिए।
फिर उस रोशनी
से तुम जीओ।
तुम्हारा
अंतःकरण सजग
चाहिए। फिर वह
अंतःकरण
तुम्हें
मार्ग—दर्शन
देगा।
सदगुरु
का काम है
तुम्हारे
भीतर सोए हुए
गुरु को जगा
देना, बस। जब
तुम्हारा
भीतर का गुरु
जाग जाए तो
सदगुरु का काम
पूरा हो गया।
अब वह इंच—इंच
तुम्हारे
जीवन की अगर
व्यवस्था
बिठाता रहे तो
तुम्हारे
जीवन में कभी
व्यवस्था आ ही
नहीं सकती। और
रोज शंकाएं
खड़ी होंगी और
रोज अड़चनें
आएंगी। और अगर
तुम बंधे
नियमों से
जीओगे तो
जिंदगी तो रोज
बदल जाती है।
तुम्हारे
नियम होंगे
बंधे—बंधाए, उनका जिंदगी
से कभी तालमेल
नहीं होगा।
तुम रोज
मुश्किल में
पड़ोगे। तुम
रोज अड़चन में
पाओगे अपने को
कि अब क्या करूं!
जिंदगी
बदल गई, नियम
पुराना। नियम
बना था जब तुम
बैलगाड़ी में
बैठते थे और काम
में ला रहे हो
अब जब कि तुम
हवाई जहाज में
उड़ रहे हो।
तुम रोज
उलझनों में
उलझते जाओगे।
तुम सुलझोगे
नहीं। इसलिए
कोई सदगुरु
तुम्हें
बाह्य
व्यवस्था नहीं
देता, अंतर—बोध
देता है।
रैदास
कहते हैं:
जब मन मिल्यौ
आस नहीं तन की,
तब को
गावनहारा।।
तुम्हारा
मन परमात्मा
से मिल जाए, बस
काम हो गया।
फिर न कोई गीत
है, न कोई
गाने वाला है,
न गाने का
कोई सवाल है।
फिर कहने को
कुछ भी नहीं।
फिर तुम एक
सहज—स्फूर्त
जीवन जीओगे, जिस पर ऊपर
से कुछ भी
आरोपित नहीं
होता— अंतस से
प्रवाहित
होता है!
जब लगि नदी
न समुंद समावै,
तब लगि बढै
हंकारा।।
नदी
जब तक समुद्र
में नहीं गिर
जाती, तब तक
बड़ा शोरगुल मचता
है। हंकारा
शब्द दो अर्थ
रखता है. एक तो
शोरगुल और एक
अहंकार।
दोनों एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
जब लगि नदी
न समुंद समावै,
तब लगि बढै
हंकारा।।
जब
तक नदी नहीं
समा जाती
समुद्र में तब
तक काफी
शोरगुल भी
मचाती है और
काफी अहंकार
से भी भर जाती
है। जितना
अहंकार होता
है उतना
शोरगुल मचाती
है,
जितना
शोरगुल मचाती
है उतना
अहंकार मजबूत
होता है कि
मैं भी कुछ
हूं!
कहते
हैं ऊंट
पहाड़ों के पास
जाना पंसद
नहीं करते, शायद
इसीलिए
रेगिस्तानों
में रहते हैं।
ऊंट पहाड़ के
पास जाए तो
अहंकार को चोट
लगती है।
रेगिस्तान
में रहता है
तो पहाड़ है
खुद ही।
नदी
भी समुद्र के
पास जाकर ही
पहली दफा सचेत
होती है कि
मेरी स्थिति
क्या है। जब
तक समुद्र से
दूर थी, कर
लिया शोरगुल
बहुत, अकड़
ली बहुत, कर
लिया अहंकार
बहुत— बहुत
किया हंकारा।
और बहुत किया
अहंकार।
जब लगि नदी
न समुंद समावै,
तब लगि बढै
हंकारा।।
जब मन मिल्यौ
रामसागर सौ,
तब यह मिटी
पुकारा।।
और
जब राम के
सागर में गिर
जाता है
व्यक्ति या नदी
जब समुद्र में
समा जाती है—
सब पुकार मिट
जाती है, सब
मांग मिट जाती
है, सब
प्रार्थना खो
जाती है— तब को
गावनहारा? फिर
कौन गाए? किसके
गीत गाए?
'जोश' बिसाते—शौक
में मर्ग है
अस्त जिंदगी
बाजिए—इश्क
जीत ले, बाजिए—उम्र
हार कर
'जोश' बिसाते—शौक
में मर्ग है
अस्त जिंदगी
अगर
प्रेम के
रास्ते पर
चलना है, अगर
प्रभु—मिलन की
आकांक्षा है—
बिसाते—शौक—
अगर उसके
साक्षात्कार
की लगन है तो
फिर मरने की
तैयारी
दिखानी पड़ेगी।
उसके
साक्षात्कार की
लगन है तो
मृत्यु की अगन
से गुजरना
पड़ेगा।
'जोश' बिसाते—शौक
में मर्ग है
अस्त जिंदगी
उसके
रास्ते पर
मरना ही असली
जिंदगी को
पाना है।
बाजिए—इश्क
जीत ले
जिंदगी
का दांव, प्रेम
का दांव जीत
ले!
……बाजिए—उम्र
हार कर
वहां
तो सब गंवा
देना होगा, जीवन
गंवा देना होगा,
तो प्रेम की
बाजी जीती जा
सकती है।
जब मन मिल्यौ
रामसागर सौ,
तब यह मिटी
पुकारा।।
मिटने
की तैयारी
चाहिए।
भक्त
का अर्थ है
मिटने की लिए
आतुर। भक्त का
अर्थ है. जिसे
जीवन से भी
बड़े जीवन की प्रतीति
होने लगी। जो
अपने छोटे से
जीवन को उस
विराट जीवन
में लीन कर
देना चाहता है।
जो बूंद की तरह
अपने को पहचान
गया है और अब
समुद्र में उतर
जाना चाहता है।
क्योंकि
समुद्र में
उतरे बिना
समुद्र होने का
और कोई उपाय
नहीं है।
जब लगि
भगति मुकति की
आसा,
परमत्व सुनि
गावै।।
और
अगर तुम्हारे
भीतर भक्ति की, मुक्ति
की इत्यादि
आशाएं और
आकांक्षाएं
हैं, तब तक
तुम्हारी
पुकार जारी
रहेगी, प्रार्थना
जारी रहेगी, पूजा जारी
रहेगी। तब तक
गीत गा सकते
हो, स्तुति
कर सकते हो
करनी ही पड़ेगी,
क्योंकि जब
तक मांग है तब
तक परमात्मा
के साथ तुम्हारा
व्यवहार वही
है जो किसी
भिखारी का
किसी धनपति के
साथ होता है।
भिखमंगा
स्तुति करता
है, कहता
है, हे
दाता! हालांकि
कर रहा है
चालबाजी।
दाता तो कह
रहा है, लेकिन
वह सिर्फ
खुशामद है, वह सिर्फ
मक्खन लगा रहा
है, तुम्हें
मूरख बना रहा
है। शायद
बातों में आ
जाओ।
मुल्ला
नसरुद्दीन
रास्ते से
गुजर रहा था। रास्ते
के किनारे
बैठे एक आदमी
ने पुकार दी
कि बड़े मियां, मुझ
अंधे पर भी
कुछ दया करो, दो आने मिल
जाएं!
नसरुद्दीन
ने गौर से
देखा और कहा
कि तुम अंधे! तुम्हारी
एक आंख तो
बिलकुल ठीक
मालूम होती है।
तो
उसने कहा
मालिक, एक ही
आना मिल जाए!
मगर कुछ तो
मिल जाए। न
सही अंधा...। एक
और कहानी
मैंने सुनी है
कि मुल्ला जा
रहा था सिनेमा
देखने।
सिनेमा के
बाहर ही एक
भिखमंगे ने
हाथ फैलाया और
कहा कि सूरदास
को कुछ मिल
जाए। मुल्ला
जल्दी में था,
कौन झंझट
करे, कौन
बकवास करे!
उसने एक दस
पैसे का
सिक्का डाल दिया।
उस अंधे ने
सिक्के को गौर
से देखा और
कहा, सिक्का
नकली है।
मुल्ला ने कहा
हद हो गई! तुम
अंधे हो और
तुम्हें
सिक्का नकली
है यह भी पता
चल गया!
उसने
कहा. अब आपसे
क्या छिपाना!
असल में आज
मैं अपने
मित्र की जगह
बैठा हुआ हूं।
मेरा मित्र
अंधा है।
तो
मुल्ला ने
पूछा : तेरा
मित्र कहां है?
कहा
वह सिनेमा
देखने गया है।
मैं तो असल
में बहरा हूं।
भिखमंगा
जो व्यवहार कर
रहा है वही
प्रार्थना करने
वाले का होता
है— याचक का
व्यवहार। कुछ
मांग है तो
स्तुति कर रहे
हो। बड़ा
शोरगुल मचाते
हैं भक्त जाकर
मंदिरों में कि
हे पतितपावन, कि
हम पापी हैं
और तू पापों
को क्षमा करने
वाला, कि
तेरी करुणा का
कोई अंत नहीं!
वे यह कह रहे
हैं कि देखें
हमारे पाप भी
क्षमा कर पाता
है कि नहीं! वे
यह समझाने की
कोशिश कर रहे
हैं परमात्मा
को कि अब तेरी
इज्जत का सवाल
है। हम तो पाप
किए रहे, करते
रहे, करेंगे,
क्योंकि
हमें भरोसा है
कि हे
परवरदिगार, तू रहीम है, रहमान है, तू महा
करुणावान है!
अरे तेरी
करुणा पर हमें
इतना भरोसा है,
हमारी
श्रद्धा तो
देख कि हम
करते रहेंगे
पाप! अरे
हमारे पाप
क्या—छोटे—मोटे!
और तेरी करुणा—
अनंत! तू कहीं
गिनती करता है
इन छोटी—मोटी
बातों की!
तुम
ईश्वर तक को
धोखा देने का
आयोजन कर रहे
हो। और ध्यान
रहे,
ईश्वर कोई
व्यक्ति नहीं
है जिसको धोखा
दिया जा सके
और ईश्वर
तुमसे बाहर
नहीं है जो
धोखा खा सके।
वह तो धोखा
देने वाले के
भीतर बैठा हंस
रहा है। वह तो
तुम्हारे
अंतर्तम में
बैठा देख रहा
है तुम्हारी
चालबाजिया।
वह जब तुम
डुबकी लगाते
हो गंगा मैया
में तो वह कहता
है, हे चार
सौ बीस! तू
मुझको भी धोखा
दे रहा है!
जब लगि
भगति मुकति की
आसा,
परमत्व सुनि
गावै।।
जितनी
छींटें हैं
लहु की सब हैं
तारीखे—जुनू
गौर
से नज्जाराए—दीवारे—जिदा
कीजिए
जरा
इस जिंदगी के
कारागृह की
दीवालों पर
पड़े हुए खून
के छींटे तो
देखो! कितने
लोग आए और
कितने लोग गए!
कितने लोग बने
और कितने लोग
मिटे! यह
अस्तित्व का
इतिहास तो
समझो। यहां
थोड़े—बहुत दिन
तुम भी शोरगुल
करोगे, फिर
खून के कुछ
छींटे पड़े रह
जाएंगे और सब
विदा हो जाएगा।
राख पड़ी रह
जाएगी, अंगारा
बुझ जाएगा।
मगर चार दिन
की जिंदगी में
कितने उपद्रव
कर लेते हो!
उपद्रव ही
नहीं कर लेते,
फिर उपद्रव
से कैसे क्षमा
मिले; पाप
ही नहीं कर
लेते, फिर
पाप से कैसे
छुटकारा हो—
उसका भी आयोजन
कर लेते हो!
सत्यनारायण
की कथा, और
यज्ञ, और
हवन, और
पूजा, और
पाठ— ये पापी
चित्त की ही
चालबाजिया
हैं। पाप भी
करता है, यज्ञ—हवन
भी करता है, ये दोनों एक
ही चित्त के
दो हिसाब हैं।
जहं—जहं आस
घरत है इहि मन,
तहं—तहं कछू न
पावै।।
और
मजा क्या है
कि जहां—जहां
तुमने आशा
लगाई इस मन के
द्वारा, वहीं—वहीं
कुछ भी कभी
नहीं पाया। धन
में लगाई आशा
और राख लगी
हाथ। तन में
लगाई आशा और
राख लगी हाथ।
यश, पद, प्रतिष्ठा,
जहां जिसने
आशा लगाई वहीं
कुछ भी नहीं
पाया। बस दूर
से लगता है कि
यह रहा
क्षितिज, अब
पहुंचे, अब
पहुंचे, मगर
क्षितिज तक
कोई कभी
पहुंचता नहीं।
जहं—जहं आस
घरत है इहि मन,
तहं—तहं कछू न
पावै।।
कुछ
भी मिलता नहीं; मगर
यह मन की
बेहोशी है कि
चले जा रहे हो,
भागे जा रहे
हो। कब जागोगे?
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
सांझ बहुत पी
गया। नशे में
धुत्त सड़क के
किनारे खड़ा था।
एक सिपाही
वहां से गुजरा।
उसने कहा कि
नसरुद्दीन के
बच्चे, यहां
क्यों खड़ा है?
नसरुद्दीन
बोला खड़ा हूं!
अरे अपने घर
की राह देख
रहा हूं।
सिपाही
ने कहा मैं
कुछ समझा नहीं
तुम्हारा मतलब।
इधर खड़े—खड़े
घर की राह
देखने का क्या
मतलब?
नसरुद्दीन
ने कहा इस समय
सारा शहर मेरी
आंखों के आगे
घूम रहा है!
अपना घर आते
ही उसमें घुस
जाऊंगा। जाने
की जरूरत क्या? सारा
शहर घूम रहा है।
बस प्रतीक्षा
कर रहा हूं कि
जैसे ही मेरा
घर आए......।
मन
भी बेहोश है।
तो किसकी
प्रतीक्षा कर
रहे हो? घर
ऐसे नहीं आएगा।
और मन ने
जितने घर
तुम्हें बताए,
कोई भी घर
साबित नहीं
हुए। कब
जागोगे? कितनी
बार गड्डों
में गिरते हो!
मगर कुएं से बचते
हो तो खाई में
गिरते हो, खाई
से बचते हो तो
कुएं में
गिरते हो! कब
बचोगे गिरने
से?
फूल
हंस—हंस कर
दिखाते हैं
जहां को दागे—दिल
मुख्तलिफ
शक्लें हैं
इजहारे—गमो—
आलाम की
फूल
हंस—हंस कर कह
रहे हैं कि
समझो!
फूल
हंस—हंस कर
दिखाते हैं
जहां को दागे—दिल
अपने
हृदय के घाव
दिखा रहे हैं
हंस—हंस कर कि
जरा देखो!
मुख्तलिफ
शक्लें हैं
इजहारे—गमो—
आलाम की
दुख—शोक
की बहुत
शक्लें हैं, बहुत
रंग—रूप हैं!
फूल
भी बस
मुर्झाने के
करीब है, अब
मुर्झाया तब
मुर्झाया।
सुबह हो गई, सांझ होने
में कितनी देर
लगेगी! जन्म आ
गया तो मृत्यु
भी आती ही
होगी। और
जवानी आ गई तो
बुढ़ापे ने
पहले कदम रख
दिए। ये सब
दुख ही दुख की
शक्लें हैं।
लेकिन एक शक्ल
से गाते हो तो
तुम दूसरी
शक्ल के धोखे
में आ जाते हो।
और यहां अनंत
शक्लों में है
दुख मौजूद।
इसलिए अनंत
जीवन लग जाते
है, फिर भी
लोग जाग नहीं
पाते हैं।
मेरा
दौरे—गुजिश्ता
भी यूं ही
गुजरा है ३
हमदम
बना
रक्खी थी इक
सूरत खुशी की, शादमा
क्या था
जिन्होंने
जाना उनसे तो
पूछो। जो थोड़े
पके हैं, जिनके
जीवन में थोड़ी
परिपक्वता आई
है, उनसे
तो पूछो। वे
कहते हैं —
मेरा
दौरे—गुजिश्ता
भी यूं ही
गुजरा है ऐं
हमदम
ऐ
मित्र! मेरा भूतकाल
भी बस यूं ही
गुजरा है— ऐसी
ही
भ्रांतियों
में!
बना
रक्खी थी इक
सूरत खुशी की, शादमां
क्या था
बस
किसी तरह से
ऊपर से पोत—पात
कर एक खुशी की
सूरत बना रखी
थी,
आनंद जैसा
कुछ भी न था।
शादमां क्या
था! आनंद तो
जरा भी न था।
मगर अहंकार के
कारण दिखाते
रहे कि बड़ा
आनंदित हूं।
आखिर किससे
कहें अपना
दुख! और रोने
से भी क्या होगा?
सिर्फ
अहंकार के
कारण दिखलाते
रहे कि प्रसन्न
हैं, आनंदित
हैं, बहुत
आनंदित हैं।
सिर्फ लोगों
को दिखलाते
रहे आनंदित
हैं, क्योंकि
क्यों अपने
हृदय के घाव
दिखलाए, क्या
सार है?
मगर
तुम्हारा
सारा अतीत, तुम्हारा
सारा जीवन
सिवाय घावों
की एक कतार के
और क्या है!
जैसे दीपावली
पर दीयों की
कतारें लोग
जलाते हैं, तुमने जीवन
में घावों की
कतारें ही
जलाई हैं।
दीये की
कतारें भी जल
सकती थीं। यही
घाव दीये भी
बन सकते थे।
यही ऊर्जा जो
दुख बनी, आनंद
भी बन सकती थी।
मगर तुम कला
ही न सीखे। उस
कला का नाम ही
धर्म है।
जहं—जहं आस
घरत है इहि मन,
तहं—तहं कछू न
पावै।।
छांडै आस
निरास परमपद,
यह
कला है धर्म
की:
छांडै आस
निरास परमपद,
तब सुख सति कर
होई।।
निश्चय
ही आनंद होगा।
रैदास कहते
हैं आश्वासन
देता हूं,
निश्चित ही
आनंद होगा!
गवाही हूं मैं,
साक्षी हूं
मैं। बस एक
काम तुम करो—
छांडै आस! यह
मन की आशा, यह
मन का जाल, ये
मन की
कल्पनाएं, ये
स्वप्न— ये
छोड़ो। निरास
परमपद! सब
आशाएं छोड़ दो।
वह जो
तुम्हारी
भीतर की दशा
होगी— आशाशन्य,
कामनाशन्य,
वासनाशन्य,
तृष्णाशन्य—
वही परमपद है,
वही
निर्वाण है।
तब सुख सति
कर होई।।
तब
सुख निश्चित
ही होता है।
कहि रैदास
जासौ और करत
है, परमतत्व
अब सोई।।
जिसने
इतना जान लिया, फिर
उसे करने को
कुछ नहीं रह
जाता, फिर
परमात्मा सब
करता है। खुदा
और नाखुदा मिल
कर डुबो दें
यह तो मुमकिन है
मेरी
वजहे—तबाही
सिर्फ द्या हो
नहीं सकता
तूफान
अकेला क्या
मेरी नाव को
डुबाएगा! हां
मेरा मांझी, मेरा
खुदा...।
खुदा
और नाखुदा मिल
कर डुबो दें
यह तो मुमकिन है
मांझी
में और
परमात्मा में
कोई सांठ—गांठ
हो जाए और वे
मेरी नाव को
डुबो दें, यह
तो मुमकिन है।
मेरी वजहे—तबाही
सिर्फ द्या हो
नहीं सकता
इस
संसार का कोई
तूफान, कोई
आधी मुझे डुबा
नहीं सकते।
लेकिन
मांझी, परमात्मा
तुम्हें
क्यों डुबाना
चाहेगा? वह
तो तुम्हें
उबारना चाहता
है। तुम उसकी
ही संतति हो।
कौन मां, कौन
बाप अपने
बच्चों को
डुबाना
चाहेगा? डूबते
हो तो तुम
अपने ही हाथ
से डूब रहे हो।
तुम जिस नाव
में बैठे हो
उसी में छेद
करते रहते हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने कुछ
मित्रों के
साथ मछलियों
के शिकार के
लिए गया। नाव
जब बीच नदी
में पहुंची, वह
जहां बैठा था
वहीं अपने
चाकू से छेद
करने लगा।
उसके मित्र
बहुत चौंके।
चंदूलाल ने
कहा यह क्या
करते हो? ढ़ब्बू
जी ने कहा
पागल हो गए हो,
होश है?
मुल्ला
ने कहा मैं
अपनी जगह पर
कर रहा हूं।
तुम्हें बीच
में बोलने की
जरूरत नहीं।
तुम्हें जो
करना हो अपनी
जगह पर तुम
करो।
चंदूलाल
ने कहा यह बात
ठीक है। ढ़ब्बू
जी ने भी कहा
यह बात
तर्कसंगत है।
वह अपनी जगह
पर छेद कर रहा
है,
हम क्यों
बोलें? अपना
क्या लेता—देता
है?
यहां
एक आदमी छेद
करता है और न
मालूम कितने
आदमी डूबते
हैं! इससे
उलटा भी सच है
यहां एक आदमी छेद
को भर देता है
और न मालूम
कितने आदमी
उबर जाते हैं!
जिंदगी जुड़ी
है,
जिंदगी
संयुक्त है।
हम अलग—अलग
नहीं हैं।
इसलिए एक
व्यक्ति जब
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता
है तो सारे
जगत में
बुद्धत्व की
लहर फैल जाती
है।
जब
भारत में
बुद्ध हुए, उसी
समय महावीर
हुए, उसी
समय मक्सली
गोशाल हुआ, उसी समय
प्रबुद्ध
कात्यायन हुआ,
उसी समय
संजय
वेलट्ठीपुत्त
हुआ, और— और
न मालूम कितने
बुद्ध शात—
अज्ञात नाम—
अचानक जगह—जगह
फूल खिल गए।
और ऐसा भारत
में ही नहीं
हुआ, सारी
दुनिया में
लहर दौड़ी।
यूनान में
सुकरात हुआ, पाइथागोरस
हुआ, हेराक्लाइटस
हुआ। ईरान में
जरथुस्त्र
हुआ; चीन
में लाओत्सु
हुआ, च्चांगत्सु
हुआ, लीहत्सु
हुआ। एक ऐसी
लहर उठी सारी
दुनिया में, जगह—जगह दीये
जल गए! एक दीया
क्या जला, दीयों
की पंक्तियां
लग गईं!
तुम
जो भी कर रहे
हो— सोचना, विचारना,
उसका
परिणाम सिर्फ
तुम पर ही
होने को नहीं
है। तुम जो भी
कर रहे हो
उससे पूरा
अस्तित्व
प्रभावित
होता है। एक
बार तुम्हें
पता चल जाए कि
सब आशा गई, सब
आशा व्यर्थ हो
गई और तुम
निराश.. निराश
शब्द से घबड़ा
मत जाना, क्योंकि
निराश शब्द का
तुम्हारे मन
में बड़ा नकारात्मक
अर्थ है।
निराश शब्द
नकारात्मक
नहीं है।
आमतौर
से हम कहते
हैं,
फलां आदमी
बड़ा निराश।
निराश का मतलब
उदास। निराश
का मतलब हारा—
थका। निराश का
मतलब जिंदगी
में कोई रस न
रहा, बुझा—बुझा।
निराश का अर्थ
है आत्महत्या
करने को
उत्सुक, आतुर।
हमने
नकारात्मक
अर्थ दे दिया
है, क्योंकि
हम आशा से
जीते हैं।
हमने आशा को
बड़ा विधायक
अर्थ दिया है,
इसलिए
हमारा
स्वाभाविक
कदम हुआ कि हम
निराशा को
नकारात्मक
अर्थ दे दें।
लेकिन
बुद्ध ने कहा
धन्य हैं वे
जो निराश हैं, क्योंकि
परम पद उन्हीं
का है। वही
रैदास कह रहे
हैं छांडै आस
निरास परमपद!
बुद्ध का वचन
ही दोहरा रहे
हैं। सभी
बुद्ध एक—दूसरे
को दोहराते
हैं। बुद्धों
के पास अलग—
अलग बात कहने
को है भी नहीं,
हो भी नहीं
सकती—सत्य एक है।
निराश
का अर्थ— थका—मांद।, बुझा—बुझा,
ऊबा हुआ—ऐसा
नहीं होता।
असल में निराश
का अर्थ होता
है अत्यंत
प्रफुल्लित, क्योंकि जब
कोई आशा ही न
रही तो दुख का
कोई कारण ही न
रहा। निराश का
अर्थ होता है
परम सुखी।
बुद्ध ने कहा
है महा सुख।
रैदास ने भी
बुद्ध के शब्द
का ही उपयोग
किया है।
छांडै आस
निरास परमपद,
तब सुख सति कर
होई।।
सुख
होगा, निश्चित
सुख होगा!
लेकिन एक काम
तुम्हें करना होगा
आशा की
भ्रांति छोड़
दो। आशा
नकारात्मक है,
क्योंकि
उससे कभी कुछ
नहीं मिलता।
धोखा है आशा, मृग—मरीचिका
है। इसलिए
निराशा
नकारात्मक
नहीं, विधायक
अवस्था है!
सिर्फ
बुद्धत्व ही
जानता है निराशा
क्या है।
ध्यान की परम
अवस्था है
निराशा, परमपद
है। और जिसने
यह जान लिया
उसने सब जान
लिया।
दिल
रहीने— आरजू
है,
आरजू
मरहूने—यास
घर
हमें बरबाद
करने को बनाना
चाहिए
अभिलाषाओं
के पास गिरवी
है दिल।
दिल
रहीने— आरजू
है...
दिल
तो गिरवी है
आशाओं के पास।
......आरजू मरहूने—यास
और
अभिलाषाएं
निराशाओं के
पास गिरवी हैं।
घर
हमें बराबाद
करने को बनाना
चाहिए
मगर
करें क्या, जिंदगी
है तो कुछ न
कुछ बनाते हैं;
जानते हुए
भी कि सब
बरबाद हो
जाएगा! रेत के
ही घर बनाते
हैं; जानते
हैं गिर
जाएंगे। ताश
के पत्तों के
घर बनाते हैं,
जानते हैं
हवा के झोंके
आके और सब भूमिसात
हो जाएगा।
हमारी जिंदगी
ताश के पत्तों
का घर— और क्या!
मगर क्या करें,
कुछ न करें
तो क्या करें!
कम से कम
व्यस्त तो रखती
हैं आशाएं
हमें, उलझाए
तो रखती हैं!
कम से कम
भांति तो बनी
रहती है कि
कुछ हो रहा है,
कुछ कर रहे
हैं! न कभी कुछ
हुआ है, न
कभी कुछ होता
है, न कभी
कुछ हो सकता
है— जो ऐसा जान
लिया वही
संन्यासी है।
राम—भगत को
जन न कहाऊं,
सेवा करूं न
दासा।।
बड़े
क्रांतिकारी
वचन हैं।
रैदास कहते
हैं — अब मैं यह
नहीं कह सकता
कि मैं राम का
भगत हूं। अब
कहां भक्त, अब
कौन भगवान?
राम—भगत को
जन न कहाऊं ...
अब
मुझे तुम छोड़
दो कहना कि
मैं भक्त हूं।
वह बात गई, वह
द्वैत गया, वह द्वंद्व
गया।
....... सेवा करूं न
दासा।।
अब
तुम मुझे दास
भी मत समझो, क्योंकि
मैं सेवा ही
नहीं करता अब
किसी की—परमात्मा
की भी सेवा
नहीं करता!
सेवक कोई बचा ही
नहीं। सेवक और
सेव्य एक हो
गए; दास और
मालिक एक हो
गए; भक्त
और भगवान एक
हो गए।
जोग जग्य
गुन कछू न
जानूं,
ताते रहूं
उदासा।।
न
मुझे योग आता
है— अब जरूरत
क्या योग की!
योग तो
प्रक्रिया है, ध्यान
तो प्रक्रिया
है मिलन की।
योग का अर्थ
ही होता है
जोड़; जो
जुड़ा दे वह
योग। लेकिन जो
जुड़ गया उसके
लिए अब क्या
योग!
जोग जग्य
गुन कछू न
जानूं,
ताते रहूं
उदासा।।
न
तो मुझे योग
का अब कुछ पता
है,
न यश का कुछ
पता है।
.....ताते
रहूं उदासा।।
उदास
को भी फिर
खयाल कर लेना।
जैसे 'निराश' शब्द
नकारात्मक
नहीं है, वैसा
ही 'उदास' शब्द भी
नकारात्मक
नहीं है। उद्—आस—
जिसकी आशा
नहीं बची।
उदासीन— जो
आशा छोड़ कर
थिर हो गया।
लेकिन
हमने ये सारे
शब्द खराब कर
लिए हैं।
उदासीन हम
उसको कहते हैं
जो बिलकुल
बैठा है मुर्दे
की तरह और
जिसके चेहरे
पर मक्खियां
उड़ रही हैं, उसको
कहते हैं उदास।
बुद्ध हैं
उदास; ये
मक्खियां उड़
रही हैं जिनके
चेहरों पर, इनको उदास
मत समझ लेना।
ये तो सिर्फ
रुग्ण हैं, उदास क्या
खाक! मक्खियां
भी नहीं उड़ा
सकते— आलसी
हैं। उदास
क्या खाक!
उदासी हमारे
अर्थों में
उदासी नहीं है,
आलस्य नहीं
है, प्रमाद
नहीं है, सुस्ती
नहीं है, काहिलता
नहीं है, अकर्मण्यता
नहीं है। उदास
का अर्थ है
जिसकी आशा छूट
गई; जिसने
देख लिया आशा
को आर—पार; पहचान
लिया आशा का
जाल, छिटक
आया आशा के
जाल के बाहर।
भगत भया तो
चढ़ै बड़ाई,
रैदास
ने कहा भक्त
हो जाओ तो लोग
बड़ाई करते हैं।
जोग करूं
जग मानै।।
उलटे—सीधे
आसन लगाओ, सिर
के बल खड़े हो
जाओ, दुनिया
आदर देती है।
जो गुन भया
तो कहै गुनीजन,
गुनी आपको
जानै।।
अगर
किसी तरह का
गुण हो, किसी
तरह की कला हो,
कोई
निपुणता हो, कोई कुशलता
हो, तो
सम्मान मिलता
है और अंहकार
बढता है।
ना मैं
ममता मोह न
महिया,ये
सब जाहिं
बिलाई।।
मुझे
इन सब बातों
में न कोई मोह
है,
न कोई ममता
है, क्योंकि
एक बात मैने
जान ली इस जगत
में सम्मान
मिले कि अपमान,
आदर मिले कि
अनादर, सब
बिला जाते हैं।
कितने लोग इस
जमीन पर आए और
गए, कितने
लोग मूंछों पर
ताव देकर चले—न
मूंछें हैं, न लोग हैं!
कितने लोग
अकड़े हैं, कितने
लोगों ने
सिकंदर होने
के दावे किए
हैं, कितने
लोगों ने
तलवारें
चमकाई हैं!
कहां हैं तलवारें?
कहां हैं
सिकंदर? सब
धूल में मिल
गए! इसे देखो, इसे पहचानो
और इस भ्रांति
से जागो!
ना मैं
ममता मोह न
महिया,ये
सब जाहिं
बिलाई।।
मैं
माया—ममता, मोह
इन सबको नहीं
मथता। इन सबसे
मक्खन नहीं
निकलता। इन
सबसे मौत ही
निकलती है।
दोजख भिस्त
दोऊ सम करि जानु, दुहं
ते तरक है भाई।।
रैदास
कहते हैं कि
मैं तो स्वर्ग
और नरक को एक समान
जानता हूं।
क्यों? क्योंकि
जहां दो है
वहीं उपद्रव
है। जहां दुई
है वहीं संकट
है।
दोजख भिस्त
दोऊ सम करि जानु, दुहं
ते तरक है भाई।।
इसलिए
मैंने दोनों
छोड़ दिए, दोनों
को तर्क कर
दिया। स्वर्ग
भी छोड़ दिया, नरक भी छोड़
दिया। अब तो
मैं राम में
लीन हुआ और
राम को अपने
में लीन हो
जाने दिया।
मैं अरू ममता
देखि सकल जग, मैं
से मूल
गंवाई।।
मैंने
तो गौर से
देखा, समझा, पहचाना और
एक बात पा ली
कि मैं ही
सारे उपद्रव की
मूल हैं—मैं—
भाव। मैंने
मैं— भाव को जड़
से काट दिया।
न धन, न पद, न प्रतिष्ठा,
इनको नहीं
काटता फिरा।
ये तो
पत्तियां
काटना है।
पत्तियां
काटने से
वृक्ष नहीं
नष्ट होते, और घने हो
जाते हैं। मैंने
तो जड़ ही काट
दी।
मैं
भी तुमसे जड़
ही काटने को
कह रहा हूं!
हालांकि
तुम्हें
सदियों—सदियों
से कहा गया है
पत्ते काटते
रहो। कोई कहता
है क्रोध न
करो,
कोई कहता है
कि सप्ताह में
एक दिन घी न
खाओ; कोई
कहता है नमक
छोड़ दो; कोई
कहता है कि
रात पानी न
पीओ, कोई
कहता है छान
कर पानी पीओ, कोई कहता है
मुंह पर पट्टी
बांध लो।
आचार्य
तुलसी
अणुव्रत आंदोलन
चलाते हैं। जब
मेरी उनसे बात
हुई तो मैंने
उनसे कहा क्या
खाक अणुव्रत!
अरे महाव्रत!
चलाना ही हो
तो महाव्रत।
उन्होंने कहा
महाव्रत यानी
क्या? मैंने
कहा जड़ से
काटो। इसको
कहते हैं महाव्रत।
ये क्या पत्ते—पत्ते
काट रहे हो!
मगर
अणुव्रत
लोगों को
जंचता है, क्योकि
उसमें कुछ
जीवन में
क्रांति करनी
ही नहीं पड़ती।
अणुव्रत का
मतलब यह है कि
कुछ थोड़ा सा, रंचमात्र कर
लो— अणुव्रती
हो गए! क्या
अणुव्रत लिया—
कि रात पानी
नहीं पीएंगे,
अणुव्रत हो
गया! कोई बड़ी
भारी क्रांति
कर रहे हो तुम
कि रात पानी नहीं
पीओगे? दो—चार
दिन प्यास
लगेगी, फिर
अभ्यास हो
जाएगा। कि
किसी ने नियम
बना लिया कि
सप्ताह में एक
दिन नमक नहीं
खाएंगे। बड़ी
कृपा की नमक
पर! कि कभी
एकादशी का
व्रत रखेंगे।
टुच्ची बातें
हैं। मगर
आचार्य तुलसी
कहे जाते हैं
अणुव्रत—
अनुशास्ता!
टुच्ची बातें,
जिनका कोई
मूल्य नहीं है,
दो कौडी की
बातें।
एक
सज्जन जिनके
घर मैं मेहमान
होता था, सत्तर
साल की उम्र
के सज्जन, वे
तुलसी जी के
भक्त थे। फिर
भूल—चूक से
मेरे हाथ में
पड़ गए। तो
मुझसे
उन्होंने कहा
कि आपका
अणुव्रत के
संबंध में
क्या खयाल है?
मैंने कहा :
चालबाजिया
हैं, धोखाधडिया
हैं। आदमी
सस्ते उपाय
चाहता है।
पहले
तो उन्हें चोट
लगी,
फिर
उन्होंने कहा
कि ऐसे तो
मेरे मन को
धक्का लगा
आपकी बात से, मगर बात ठीक
ही है।
क्योंकि
मैंने सत्तर
साल की उम्र
में ब्रह्मचर्य
का व्रत लिया।
अब है यह धोखा
ही और मन में
अभी भी
ब्रह्मचर्य है
नहीं। और अब
आप से क्या
छिपाना, पहले
भी मैं चार
दफे ले चुका
हूं
ब्रह्मचर्य का
व्रत।
चार
दफे
ब्रह्मचर्य
का व्रत कैसे
लोगे? ब्रह्मचर्य
का व्रत तो एक
ही दफे लिया
जा सकता है, चार दफे
कैसे लोगे? इसका मतलब
हुआ बार—बार
टूटता रहा। तो
फिर मैंने कहा
कि अब और लोगे
कि नहीं? उन्होंने
कहा कि अब
नहीं लूंगा, क्योंकि बार—बार
फजीहत होती है।
जब भी टूटता
है तो मन में
ग्लानि होती
है, और
आत्मग्लानि
पैदा होती है।
मगर तालियां
बज जाती हैं।
जब भी लो, लोग
कहते हैं अहा!
देखो अणुव्रत
ले लिया, ब्रह्मचर्य
का अणुव्रत हो
गया।
पत्ते
काटते रहोगे!
जड़ तो एक ही है
कि मन ने जहां—जहां
भी आशा बांधी
वहीं—वहीं राख
हाथ लगी। मन
को ही काट दो।
जड़ को ही काट
दो। मूर्च्छा
तोड़ो। और यह
जीवन का जो
वृक्ष है, यह
एकदम तिरोहित
हो जाएगा, जैसे
कभी था ही
नहीं।
ध्यान
को मैं
महाव्रत कहता
हूं।
मैं अरू ममता
देखि सकल जग, मैं
से मूल
गंवाई।।
जब मन ममता एक—एक
मन, तबहि एक है
भाई।।
जब
उस एक के साथ
एकता हो जाए, तभी
जानना कि एक
है। उसके पहले
दोहराते रहो
कि एक है—
अल्लाह—ईश्वर
तेरे नाम, सबको
सन्मति दे
भगवान—दोहराते
रहो, करते
रहो बकवास जो
भी तुम्हें
करनी हो, भजन
कहो, कीर्तन
कहो, जो भी
तुम्हें करना
हो करते रहो।
मगर जब तक
तुम्हें
अनुभव न हो
जाए उस एक का, उसके साथ एक
होने का, तब
तक यह सब
बातचीत है और
भुलावा है।
कृस्न करीम
राम हरि राधव, जब
लगी एक न पेखा।।
जब
तक ये सब एक न
दिखाई न पड़े
तब तक जानना
अभी सत्य को नहीं
जाना।
वेद कितेब कुरान
पुरानन, सहज
एक नहीं देखा।।
फिर
तुम पढ़ते रहो
वेद,
फिर तुम
पढ़ते रहो
बाइबिल, फिर
पढ़ते रहो
कुरान और
पुराण, लेकिन
कुछ सार नहीं
है— जब तक सहज
एक नहिं देखा!
सहज भाव से एक
की प्रतीति होनी
चाहिए, अनुभव
होना चाहिए।
और सहज भाव कब
होता है? सहज
भाव होता है
जब मन में न
अतीत की
स्मृतियां
होती हैं, न
भविष्य की
वासनाएं होती
हैं, तब
सहज भाव होता
है।
जोई—जोई पूजिय
सोई—सोई कांची, सहज
भाव सति होई।।
सुनते
हो,
रैदास कह
रहे हैं तुमने
जो—जो पूजा, सब कच्चा! अब
तक तुमने जो
भी पूजा की, सब कच्ची!
जोई—जोई पूजिय
सोई—सोई कांची, सहज
भाव सति होई।।
सच्ची
बात तो एक है—सहज
भाव।
कहि रैदास मैं
ताहि को पूजूं, जाके
ठांव नांव नहीं
होई।।
जिसका
न कोई नाम है न
कोई ठिकाना, न
जो काबा में
मिलता है न
काशी में, जो
न राम के नाम
से जाना जाता
है और न रहीम
के, जिसका
कोई नाम नहीं,
जो अनाम है,
अपरिभाष्य
है, अनिर्वचनीय
है— उस एक को
कैसे पूजोगे?
उसकी पूजा
की एक ही विधि
है अपने को
उसमें डुबा दो,
मिटा दो!
परवाने बनी, दीवाने बनो!
जब
तक परवाने
नहीं हो, दीवाने
नहीं हो, तब
तक परमात्मा
दूर हो कि पास,
दूर ही है।
जिस दिन तुम
परवाने की तरह
नाचोगे और आते
जाओगे करीब—करीब
शमा के, और
वह आखिरी घड़ी
जब परवाना शमा
में कूद पड़ता
है और जल कर
राख हो जाता
है— इधर मिटा
परवाना कि उधर
परमात्मा
प्रकट हुआ!
तुम
मिटो तो
परमात्मा हो।
तुम्हारा
होना ही बाधा
है। तुम ही हो
बीच की दीवाल।
तुम जाओ तो
दीवार हट जाए, द्वार
खुल जाए।
तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई ताला नहीं
है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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