अध्याय—15
सूत्र—
यदादित्यगतं
तेजो
जगद्यासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमलि
यचाग्नौ
तत्तेजो
विद्धि मांक्कम्।।
12।।
गामांविश्य
च भूतानि
धारयाथ्यमोजसा।
पुष्णामि
चौषधी: सर्वा:
सोमो भूत्वा
रसात्मक:।।
13।।
अहं
वैश्वानरो
भूत्वा
प्राणिनां
देहमांश्रित:।
प्राणायानसमांयुक्त:
पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।
14।।
सर्वस्य
चाहं हृदि
संनिविष्टो मत:
स्मृतिज्ञनिमयहेनं
च।
वेदैश्च
सवैंरहमेव
वेद्यो वेदान्तकृद्वेदीवदेव
चाहम्।। 15।।
और
हे अर्जुन, जो तेज
सूर्य में
स्थ्ति हुआ
संपूर्ण जगत
को प्रकाशित
करता है तथा
जो तेज चंद्रमा
में स्थ्ति है
और जो तेज
अग्नि में
स्थित है,
उसको तू मेरा
ही तेज जान।
और
मैं ही पृथ्वी
में प्रवेश
करके अपनी शक्ति
से सब भतों को
धारण करता हूं
और रस—स्वरूप
अर्थात
अमृतमय सोम
होकर संपूर्ण
औषधियों को
अर्थात
वनस्पतियों
को पुष्ट करता
हूं।
मैं
ही सब
प्राणियों के
शरीर में
स्थित हुआ
वैश्वानर
अश्निरूप
होकर प्राण और
अपान मे
स्थ्ति हुआ
चार प्रकार के
अन्न को पचाता
हूं।
और
मैं ही सब
प्राणियों के
ह्रदय में
अंतर्यामीरूय
से स्थित हूं
तथा मेरे से
ही स्मृति, ज्ञान और
अपोहन अर्थात संशय—विसर्जन
होता है और सब
वेदों द्वारा
मैं ही जानने
के योग्य हूं
तथा वेदांत का
कर्ता और वेदों
को जानने वाला
भी मैं ही हूं।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न :
कल
आपने
रासपुतिन की
जो घटना कही, वह
विस्मयजनक है।
हमने तो अब तक
यही सुना था
कि शक्ति जब
जागती है—उसे
चाहे कुंडलिनी
कहें या
त्रिनेत्र—तो
उसकी अग्नि
में मनष्य के
सभी मैल, सभी
कलुष जल जाते
हैं, और वह
शुद्ध और
पवित्र हो
जाता है!
इस संबंध में
कुछ बातें
महत्वपूर्ण
हैं।
एक, शक्ति
स्वयं में
निष्पक्ष और
निरपेक्ष है।
शक्ति न तो
शुभ है और न
अशुभ। उसका
शुभ उपयोग हो
सकता है; अशुभ
उपयोग हो सकता
है।
दीए से
अंधेरे में
रोशनी भी हो
सकती है, और किसी के
घर में आग भी
लगाई जा सकती
है। जहर से हम
किसी के प्राय
भी ले सकते
हैं, और
किसी
मरणासन्न
व्यक्ति के
लिए जहर औषधि
भी बन सकता है।
शक्ति
सभी— भौतिक या
अभौतिक—निष्पक्ष
और निरपेक्ष
है। क्या
उपयोग करते
हैं, इस
पर परिणाम
निर्भर होंगे।
शुद्ध
अंतःकरण न हुआ
हो, तो
भी शक्ति
उपलब्ध हो
सकती है।
क्योंकि
शक्ति की कोई
शर्त भी नहीं
कि शुद्ध अंतःकरण
हो, तो ही
उपलब्ध होगी।
अशुद्ध
अंतःकरण को भी
उपलब्ध हो
सकती है। और
अक्सर तो ऐसा
होता है कि
अशुद्ध
अंतःकरण शक्ति
को पहले
उपलब्ध कर
लेता है।
क्योंकि
शक्ति की आकांक्षा
भी अशुद्धि की
ही आकांक्षा
है।
शुद्ध
अंतःकरण
शक्ति की
आकांक्षा
नहीं करता, शांति की आकांक्षा
करता है।
अशुद्ध
अंतःकरण
शक्ति की आकांक्षा
करता है, शांति
की नहीं।
शुद्ध
अंतःकरण को
शक्ति मिलती
है, वह
प्रसाद है, वह परमात्मा
की कृपा है, अनुकंपा है।
वह उसने मांगा
नहीं है, वह
उसने चाहा भी
नहीं है। वह
उसने खोजा भी
नहीं है। वह
उसे सहज मिला
है।
अशुद्ध
अंतःकरण को
शक्ति मिलती
है, वह
उसकी वासना की
मांग है। वह
प्रभु का
प्रसाद नहीं
है। वह उसने
चाहा है, यत्न
किया है, और
उसे पा लिया
है। शक्ति की
चाह ही हमारे
भीतर इसलिए
पैदा होती है
कि हम कुछ
करना चाहते
हैं। शक्ति के
बिना न कर
सकेंगे।
शुद्ध
अंतःकरण कुछ
करना नहीं
चाहता। शक्ति
की कोई जरूरत
भी नहीं है।
अशुद्ध
अंतःकरण बहुत
कुछ करना
चाहता है।
वासनाओं की
पूर्ति करनी
है; महत्वाकांक्षाएं
भरनी हैं; मन
की पागल दौड़
है, उस दौड़
के लिए सहारा
चाहिए ईंधन
चाहिए। तो
शक्ति की मांग
होती है।
और
शक्ति मिलती
है न तो
शुद्धि से, न अशुद्धि
से। शक्ति
मिलती है यत्न,
प्रयत्न, साधना से।
अगर कोई
व्यक्ति अपने
चित्त को
एकाग्र करे, तो शुभ
विचार पर भी
एकाग्र कर
सकता है, अशुभ
विचार पर भी।
इस
संबंध में
महावीर की
अंतर्दृष्टि
बडी गहरी है।
महावीर ने
ध्यान के दो
रूप कर दिए
हैं। एक को वे
धर्म— ध्यान
कहते हैं; एक को
अधर्म— ध्यान।
ऐसा भेद
मनुष्य जाति
के इतिहास में
किसी दूसरे
व्यक्ति ने
नहीं किया। यह
भेद बड़ा कीमती
है। हमें तो
लगेगा कि सभी
ध्यान
धार्मिक होते
हैं। लेकिन
महावीर दो
हिस्से करते
हैं, अधर्म—ध्यान
और धर्म—ध्यान।
तो
ध्यान अपने आप
में धार्मिक
नहीं है।
शुद्ध
अंतःकरण के
साथ जुड़े तो
ही धार्मिक है, अशुद्ध
अंतःकरण के
साथ जुड़े तो
अधार्मिक है।
आपको
भी अनुभव हुआ
होगा।
धार्मिक
ध्यान का तो
अनुभव शायद न
हुआ हो, लेकिन
अधार्मिक
ध्यान का आपको
भी अनुभव हुआ
है।
जब आप
क्रोध में
होते हैं, तो चित्त
एकाग्र हो
जाता है। जब
कामवासना से
भरते हैं, तो
चित्त एकाग्र
हो जाता है। परमात्मा
पर मन को
लगाना हो, तो
यहां—वहा
भटकता है। एक
सुंदर स्त्री
मन में समां
जाए, तो
भटकता नहीं है,
सुंदर
स्त्री में
रुक जाता है। परमात्मा
की मूर्ति पर
ध्यान को
लगाएं, तो
बडी मेहनत
करनी पड़ती है
तो भी नहीं
रुकता। एक
नग्न स्त्री
का चित्र
सामने रखा हो,
तो मन एकदम
रुक जाता है; कहीं जाता
नहीं। पास
शोरगुल भी
होता रहे, तो
भी मन विचलित
नहीं होता।
इसे
महावीर अधर्म—ध्यान
कहते हैं। यह
भी ध्यान तो
है ही।
क्योंकि
ध्यान का तो
मतलब है, मन का ठहर
जाना। वह कहां
ठहरता है, यह
सवाल नहीं है।
जब आप
क्रोध में
होते हैं, तब मन ठहर
जाता है।
इसलिए आपको
अनुभव होगा कि
क्रोध में
आपकी शक्ति बढ़
जाती है।
साधारणत: हो
सकता है आपमें
इतनी शक्ति न
हो, लेकिन
जब क्रोध में
आप होते हैं, तो अनंत
गुना शक्ति हो
जाती है।
क्रोध की
अवस्था में
लोगों ने ऐसे
पत्थरों को
हटा दिया है, जिनको सामान्य
अवस्था में वे
हिला भी नहीं
सकते। क्रोध
की अवस्था में
अपने से
दुगुने
ताकतवर आदमियों
को लोगों ने
पछाड़ दिया है,
जिनको
साधारण
अवस्था में वे
देखकर भाग ही
खड़े होते।
क्रोध
में मन एकाग्र
हो जाता है, शक्ति
उपलब्ध होती
है। वासना के
क्षण में मन
एकाग्र हो
जाता है, शक्ति
उपलब्ध होती
है। एकाग्रता
शक्ति है।
कहां एकाग्र
कर रहे हैं, यह बात
एकाग्रता के
लिए आवश्यक
नहीं है कि वह शुभ
हो या अशुभ हो।
रासपुतिन
जैसे व्यक्ति
बड़ी एकाग्रता
को साधते हैं।
लेकिन हृदय
अशुद्ध है, तो उस
एकाग्रता का
अंतिम परिणाम
अशुभ होता है।
रासपुतिन ने
अपनी शक्तिओं
का जो उपयोग
किया.......।
जार का
एक ही लड़का था, रूस के
सम्राट का एक
ही लड़का था।
और सम्राट और
सम्राज्ञी
दोनों ही उस
लड़के के लिए
बड़े चिंतातुर
थे। वह बचपन
से ही बीमांर
था, अस्वस्थ
था। रासपुतिन
की किसी ने
खबर दी कि वह
शायद ठीक कर दे।
रासपुतिन ने
उसे ठीक भी कर
दिया।
रासपुतिन ने
उसके सिर पर
हाथ रखा और वह
बच्चा पहली
दफा ठीक
स्वस्थ अनुभव
हुआ।
लेकिन
तब से सम्राट
के पूरे
परिवार को
रासपुतिन का
गुलाम हो जाना
पड़ा। क्योंकि
रासपुतिन दो दिन
के लिए कहीं
चला जाए, तो वह बच्चा
अस्वस्थ हो
जाए।
रासपुतिन का
रोज राजमहल
आना जरूरी है।
और यह बात
थोड़े दिन में
साफ हो गई कि
रासपुतिन अगर
न होगा, तो
बच्चा मर
जाएगा। इलाज
तो कम हुआ, इलाज
बीमांरी बन
गया! पहले तो
कुछ
चिकित्सकों
का परिणाम भी
होता था, अब
किसी का भी
कोई परिणाम न
रहा। अब
रासपुतिन की
मौजूदगी
नियमित चाहिए।
और उस
लड़के के आधार
पर रासपुतिन
जितना शोषण कर
सकता था जार
का और ज़ारीना
का, उसने
किया। उसने जो
चाहा, वह
करवाया।
मुल्क का
प्रधानमंत्री
भी नियुक्त
करना हो, तो
रासपुतिन
जिसको इशारा
करे, वह
प्रधानमंत्री
हो जाए।
क्योंकि वह
लड़के की जान
उसके हाथ में
हो गई। जिस
व्यक्ति ने
चित्त को बहुत
एकाग्र किया
हो, यह बड़ा
आसान है। वह
बच्चा
सम्मोहित हो
गया। वह बच्चा
हिम्मोटाइब्द
हो गया। अब यह
सम्मोहित
अवस्था उस
बच्चे की, शोषण
का आधार बन गई।
जीसस
ने भी लोगों
को स्वस्थ किया
है। जीसस ने
भी लोगों के
सिर पर हाथ
रखकर उनकी बीमांरियां
अलग कर दी हैं।
रासपुतिन के
पास भी ताकत
वही है, जो जीसस के
पास है।
रासपुतिन भी
बीमांरी दूर
कर सकता है।
लेकिन
रासपुतिन बीमांरी
को रोक भी
सकता है, जीसस
वह न कर
सकेंगे।
रासपुतिन बीमांरी
का शोषण भी कर सकता
है, जीसस
वह न कर
सकेंगे।
हृदय
शुद्ध हो, तो वही
शक्ति सिर्फ
चिकित्सा
बनेगी। हृदय
अशुद्ध हो, तो वही
शक्ति शोषण भी
बन सकती है।
कठिनाई
हमें समझने
में यह होती
है कि अशुद्ध
हृदय एकाग्र
कैसे हो सकता
है! कोई अड़चन
नहीं है।
एकाग्रता तो
एक कला है; मन को एक
जगह रोकने की
कला है। इसलिए
अगर दुनिया
में बुरे
लोगों के पास
भी शक्ति होती
है, तो
उसका कारण यही
है कि उनके
पास भी
एकाग्रता
होती है।
हिटलर
के पास बड़ी
एकाग्रता है।
जर्मन जैसी
बुद्धिमान
जाति को इतने
बड़े पागलपन
में उतार देना
सामान्य
व्यक्ति की
क्षमता नहीं
है। हिटलर ने
जो भी कहा, वह जर्मन
जाति ने
स्वीकार कर
लिया। उसकी आंखों
में जादू था।
उसके कहने में
बल था। उसके
खड़े होते से
सम्मोहन पैदा
हो जाता।
जर्मनी
की पराजय के
बाद जिन लोगों
ने अंतर्राष्ट्रीय
अदालत में
वक्तव्य दिए—उसमें
बड़े बुद्धिमान
लोग थे, प्रोफेसर थे,
युनिवर्सिटी
के वाइस
चांसलर थे—उन्होंने
यही कहा कि हम
अब सोच भी
नहीं पाते कि
हमने यह सब
कैसे किया!
जैसे कोई
शक्ति हमसे करवा
रही थी।
दुनिया
में बुरे आदमी
के पास भी
ताकत होती है, भले आदमी
के पास भी
ताकत होती है।
ताकत एक ही है।
बुरे आदमी के
पास हृदय का
यंत्र बुरा है।
वही ताकत उसके
बुरे यंत्र को
चलाती है।
यह
बिजली दौड़ रही
है। इससे
बिजली भी चल
रही है, पंखा भी चल
रहा है। पंखा
खराब हो, बिजली
वही दौड़ती
रहेगी, लेकिन
पंखे में खड़—खड़
शुरू हो जाएगी।
पंखा बहुत
खराब हो, तो
टूटकर गिर भी
सकता है, और
किसी के प्राण
भी ले सकता है।
कसूर बिजली का
नहीं है।
मनुष्य
तो एक यंत्र
है। शक्ति तो
सभी परमात्मा
की है, चाहे
बुरे आदमी में
हो, चाहे
भले आदमी में
हो। शक्ति का
स्रोत तो एक
ही है। राम
में भी वही
स्रोत है, रावण
में भी वही
स्रोत है।
रावण के लिए
कोई अलग मांर्ग
नहीं है शक्ति
को पाने का।
उसी महास्रोत
से रावण भी
शक्ति पाता है,
जिस
महास्रोत से
राम शक्ति
पाते हैं।
शक्ति
के स्रोत में
कोई भी फर्क
नहीं है, लेकिन दोनों
के हृदय में
फर्क है। एक
के पास शुद्ध
हृदय है, एक
के पास अशुद्ध
हृदय है। उस
अशुद्ध हृदय
में से शक्ति
विनाशक हो
जाती है।
शुद्ध हृदय से
शक्ति
निर्मात्री, सृजनात्मक
हो जाती है।
शुद्ध से जीवन
बहने लगता है,
अशुद्ध से
मृत्यु बहने
लगती है।
शुद्ध से
प्रकाश बन
जाता है, अशुद्ध
से अंधकार बन
जाता है।
लेकिन
शक्ति का
स्रोत एक है।
दो स्रोत हो
भी नहीं सकते, दो स्रोत
का कोई उपाय
भी नहीं है।
कितना ही बुरा
आदमी हो, परमात्मा
उसके भीतर वही
है।
इसलिए
जो सदगुरु
वस्तुत:
सैकड़ों लोगों
पर साधना के
प्रयोग किए
हैं, करवाए
हैं, उन्होंने
अनिवार्यरूप
से कुछ
व्यवस्था की है
जिससे कि
अंतःकरण
शुद्ध हो। या
तो साधना के
साथ शुद्ध हो
या साधना के
पूर्व शुद्ध
हो; शक्ति
की घटना घटने
के पहले
अंतःकरण
शुद्ध हो जाए।
अन्यथा हित की
जगह अहित की
संभावना है।
आप
सोचें, अगर आपको
अभी शक्ति मिल
जाए, तो आप
क्या करेंगे?
अगर आपको एक
शक्ति मिल जाए
कि आप चाहें
तो किसी को
जीवन दे सकें
और चाहे तो
किसी को
मृत्यु दे
सकें, तो
आपके मन में
सब से पहले
क्या खयाल
उठेगा?
शायद
यह आपके मन
में खयाल उठे
कि मित्र को
मैं शाश्वत
बना दूं।
लेकिन शत्रु
को नष्ट कर
दूं यह खयाल
पहले उठेगा।
वह जो अंतःकरण
भीतर है, जैसा है, वैसे
ही खयाल देगा।
अगर
आपको यह शक्ति
मिल जाए कि आप
अदृश्य हो
सकते हैं, तो आपको
यह खयाल शायद
ही आए कि
अदृश्य होकर
जाऊं और लोगों
के पैर दबाऊं,
सेवा करूं।
मैं नहीं
सोचता कि यह
खयाल भी आ
सकता है।
अदृश्य होने
का खयाल आते
ही से, किसकी
पत्नी को आप
ले भागें, किसकी
तिजोरी खोल
लें, जहा
कल तक आप
प्रवेश नहीं
कर सकते थे, वहां कैसे
प्रवेश कर
जाएं, वही
खयाल आएगा।
सोचने
भर से कि आपको
अगर अदृश्य
होने की शक्ति
मिल जाए, तो आप क्या
करेंगे? एक
कागज पर आप
बैठकर आज ही
रात लिखना, तो आपको
खयाल में आ
जाएगा कि. अभी
शक्ति मिल नहीं
गई है, सिर्फ
खयाल है, लेकिन
मन सपने
संजोना शुरू
कर देगा कि
क्या करना है।
और
शक्ति अशुद्ध
को भी मिल
सकती है।
इसलिए शक्ति
के स्रोत
छिपाकर रखे गए
हैं।
सीक्रेसी, योग, तंत्र
और धर्म के आस—पास
इतनी गुप्तता
का कुल कारण
यही है।
क्योंकि
शक्ति का
स्रोत गलत
आदमी को भी
मिल सकता है; खतरनाक आदमी
को भी मिल
सकता है। और
जब भी कोई
वितान—कोई भी
विज्ञान, चाहे
आंतरिक, चाहे
बाह्य—ऊंचाइयों
पर पहुंचता है,
तो खतरे
शुरू हो जाते
हैं।
अभी
पश्चिम में
विचार चलता है
कि विज्ञान की
जो नई खोजें
हैं, वे
गुप्त रखी
जाएं, अब
उनको प्रकट न
किया जाए।
क्योंकि
विज्ञान की नई
खोजें अब खतरे
की सीमां पर
पहुंच गई हैं।
वे बुरे आदमी
के हाथ में पड़
सकती हैं। पड़
ही रही हैं; क्योंकि
राजनीतिज्ञ
के हाथ में पड़
जाती है सारी
खोज।
आइंस्टीन, जिसने
हाथ बंटाया
अणु शक्ति के
निर्माण में,
उसने कभी
सोचा भी नहीं
था कि हिरोशिमां
और नागासाकी
में एक—एक लाख
लोग जलकर राख
हो जाएंगे
मेरी खोज से।
आइंस्टीन
से मरने के
पहले किसी ने
पूछा कि तुम
अगर दुबारा
जन्म लो तो
क्या करोगे? तो उसने
कहा, मैं
एक प्लंबर
होना पसंद
करूंगा बजाय
एक वैज्ञानिक
होने के।
क्योंकि वैज्ञानिक
होकर देख लिया
कि मेरे मांध्यम
से, मेरे
बिना जाने, मेरी बिना आकांक्षा
के, मेरे
विरोध में, मेरे ही
हाथों से जो
काम हुआ, उसके
लिए मैं रोता
हूं।
क्योंकि
शक्ति तो
खोजता है
वैज्ञानिक और
राजनीतिज्ञ
के हाथ में
पहुंच जाती है।
और
राजनीतिज्ञ
शुद्ध रूप से
अशुद्ध आदमी
है। वह पूरा
अशुद्ध आदमी
है। क्योंकि
उसकी दौड़ ही
शक्ति की है।
उसकी चेष्टा
ही
महत्वाकांक्षा
की है। दूसरों
पर कैसे हावी
हो जाए! तो
आइंस्टीन ने अपने
अंतिम पत्रों
में अपने
मित्रों को
लिखा है कि
भविष्य में अब
हमें सचेत हो
जाना चाहिए।
और हम जो
खोजें, वह गुप्त
रहे।
यह
खयाल पश्चिम
को अब आ रहा है।
लेकिन
हिंदुओं को यह
खयाल आज से
तीन हजार साल पहले
आ गया।
पश्चिम
में बहुत लोग
विचार करते
हैं कि हिंदुओं
ने, जिन्होंने
इतनी गहरी
चितना की, उन्होंने
विज्ञान की
बहुत—सी बातें
क्यों न खोजी!
चीन को
आज से तीन
हजार साल पहले
यह खयाल आ गया
कि विज्ञान
खतरनाक है।
चीन में सबसे
पहले बारूद
खोजी गई।
लेकिन चीन ने
बम नहीं बनाए; फुलझड़ी—फटाके
बनाए। बारूद
वही है, लेकिन
चीन ने फुलझड़ी—फटाके
बनाकर बच्चों
का खेल किया, इससे ज्यादा
उनका उपयोग
नहीं किया।
यह तो
बिलकुल साफ है
कि जो फुलझड़ी—फटाके
बना सकता है, उसको साफ
है कि इससे
आदमी की हत्या
की जा सकती है।
क्योंकि कभी—कभी
तो फुलझड़ी—फटाके
से हत्या हो
जाती हैं। हर
साल दीवाली पर
न मालूम कितने
बच्चे इस
मुल्क में
मरते हैं; अपंग
हो जाते हैं; आंख फूट
जाती है, हाथ
जल जाते हैं।
तो तीन
हजार साल पहले
चीन को फटाके
बनाने की कला
आ गई। बम बड़ा
फटाका है।
लेकिन चीन ने
उस कला को उस
तरफ जाने ही
नहीं दिया, उसको खेल
बा दिया। जैसे
ही यूरोप में
बारूद पहुंची
कि उन्होंने तत्काल
बम बना लिया।
बारूद की ईजाद
पूरब में हुई
और बम बना
पश्चिम में।
हिंदुओं
को, चीनिओं
को तीन हजार
साल पहले बहुत—से
विज्ञान के
सूत्रों का
खयाल हो गया।
और उन्होंने
वे बिलकुल
गुप्त कर दिए।
वे सूत्र नहीं
उपयोग करने
हैं।
न केवल
विज्ञान के
संबंध में, बल्कि
धर्म के संबंध
में भी
हिंदुओं को, तिब्बतिओं
को, चीनिओं
को, पूरे
पूरब को कुछ
गहन सूत्र हाथ
में आ गए। और
यह बात भी साफ
हो गई कि ये
सूत्र गलत
आदमी के हाथ
में जाएंगे, तो खतरा है।
तो उन सूत्रों
को अत्यंत
गुप्त कर दिया।
जब गुरु
समझेगा शिष्य
को इस योग्य, तब वह उसके
कान में दे
देगा।
सीक्रेसी, अत्यंत
गुप्तता और
गुह्यता है।
और वह तब ही
देगा, जब
वह समझेगा कि
शिष्य इस
योग्य हुआ कि
शक्ति का
दुरुपयोग न
होगा।
इसलिए
जो भी
महत्वपूर्ण
है, वह
शास्त्रों
में नहीं लिखा
हुआ है।
शास्त्रों
में तो सिर्फ
अधूरी बातें
लिखी हुई हैं।
कोई भी गलत
आदमी शास्त्र
के मांध्यम से
कुछ भी नहीं
कर सकता।
शास्त्र में
मूल बिंदु छोड़
दिए गए हैं।
जैसे सब बता
दिया गया है, लेकिन चाबी
शास्त्र में
नहीं है। महल
का पूरा वर्णन
है। भीतर के
एक—एक कक्ष का
वर्णन है।
लेकिन ताला
कहा लगा है, इसकी किसी
शास्त्र में
कोई चर्चा
नहीं है। और
चाबी का तो
कोई हिसाब
शास्त्र में
नहीं है। चाबी
तो हमेशा
व्यक्तिगत
हाथों से गुरु
शिष्य को देगा।
जिसको
हम मंत्र कहते
रहे हैं और
दीक्षा कहते रहे
हैं, वह
गुप्तता में,
जो जानता है
उसके द्वारा
उसको चाबी दिए
जाने की कला
है, जिससे
खतरा नहीं है,
जो
दुरुपयोग
नहीं करेगा; और चाबी को
सम्हालकर
रखेगा, जब
तक कि योग्य
आदमी न मिल
जाए। और अगर
योग्य आदमी न
मिले, तो
हिंदुओं ने तय
किया कि चाबी
को खो जाने
देना, हर्जा
नहीं है। जब
भी योग्य आदमी
होंगे, चाबी
फिर खोजी जा
सकती है।
लेकिन गलत
आदमी के हाथ
में चाबी मत
देना। वह बड़ा
खतरा है। और
एक बार गलत
आदमी के हाथ
में चाबी चली
जाए तो अच्छे
आदमी के पैदा
होने का उपाय
ही समाप्त हो
जाता है।
तो
ज्ञान चाहे खो
जाए लेकिन गलत
को मत देना।
यह जो हिंदुओं
ने ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य और
शूद्र की
व्यवस्था की,
उस
व्यवस्था में
यह सारा का
सारा खयाल था।
ब्राह्मण के
अतिरिक्त
चाबी किसी को
न दी जाए।
शूद्र
के हाथ तक तो
पहुंचने न दी
जाए। शूद्र से
कोई मतलब उस
आदमी का नहीं, जो शूद्र
घर में जन्मा
है। हिंदुओं
का हिसाब बहुत
अनूठा है।
हिंदुओं का
हिसाब यह है
कि पैदा तो हर
आदमी शूद्र ही
होता है।
शूद्रता तो
जन्म से सभी
को मिलती है।
इसलिए
ब्राह्मण को
हम द्विज कहते
हैं। उसका
दुबारा जन्म
होना चाहिए।
वह गुरु के
पास फिर से
उसका जन्म
होगा। मां—बाप
ने जो जन्म
दिया, उसमें
तो शूद्र ही
पैदा होता है।
उससे कोई कभी
ब्राह्मण
पैदा नहीं
होता है। और
जो अपने को
मां—बाप से
पैदा होकर
ब्राह्मण समझ
लेता है, उसे
कुछ पता ही
नहीं है।
ब्राह्मण
तो पैदा होगा
गुरु की
सन्निधि में।
वह दुबारा
उसका जन्म
होगा, वह
ट्वाइस बॉर्न
होगा। इसलिए
हम उसे द्विज
कहते हैं, जिसका
दूसरा जन्म हो
गया। और दूसरे
जन्म के बाद
वह अधिकारी
होगा कि गुरु
उसे जो गुह्य
है, जो
छिपा है, वह
दे। जो नहीं
दिया जा सकता
सामान्य को, वह उसे दे।
वह उसकी धरोहर
होगी।
इसलिए
बहुत सैकड़ों
वर्ष तक
हिंदुओं ने
चेष्टा कि
उनके शास्त्र
लिखे न जाएं, कंठस्थ
किए जाएं।
क्योंकि
लिखते ही चीज सामान्य
हो जाती है, सार्वजनिक
हो जाती है।
फिर उस पर
कब्जा नहीं रह
जाता। फिर
नियंत्रण
रखना असंभव है।
और जब
लिखे भी गए
शास्त्र, तो मूल
बिंदु छोड़ दिए
गए हैं। इसलिए
आप शास्त्र
कितना ही पढ़ें,
सत्य आपको
नहीं मिल
सकेगा। सब
शास्त्र पढकर
आपको अंततः
गुरु के पास
ही जाना पड़ेगा।
तो सभी
शास्त्र गुरु
तक ले जा सकते
हैं, बस।
और सभी
शास्त्र आप
में प्यास
जगाके और
बेचैनी पैदा
करेंगे, और
चाबी कहां है,
इसकी चिंता
पैदा होगी। और
तब आप गुरु की
तलाश में
निकलेंगे, जिसके
पास चाबी मिल
सकती है।
आध्यात्मिक
विज्ञान तो और
भी खतरनाक है।
क्योंकि आपको
खयाल ही नहीं
कि
आध्यात्मिक
विज्ञान क्या
कर सकता है।
अगर कोई
व्यक्ति थोड़ी—सी
भी एकाग्रता
साधने में सफल
हो जाए, तो वह दूसरे
लोगों के मनों
को बिना उनके
जाने प्रभावित
कर सकता है।
आप छोटे—मोटे
प्रयोग करके
देखें, तो
आपको खयाल में
आ जाएगा।
रास्ते
पर जा रहे हों, किसी
आदमी के पीछे
चलने लगें; कोई तीन—चार
कदम का फासला
रखें। फिर
दोनों आंखों
को उसकी चेथी
पर, सिर के
पीछे थिर कर
लें। एक
सेकेंड भी आप
एकाग्र नहीं
हो पाएंगे कि
वह आदमी लौटकर
पीछे देखेगा।
आपने कुछ किया
नहीं; सिर्फ
आंख।
लेकिन
ठीक रीढ़ के
आखिरी हिस्से
से मस्तिष्क शुरू
होता है।
मस्तिष्क रीढ़
का ही विकास
है। जहा से
मस्तिष्क
शुरू होता है, वहां
बहुत
संवेदनशील
हिस्सा है।
आपकी आंख का
जरा—सा भी
प्रभाव, और
वह संवेदना
वहा पैदा हो
जाती है; सिर
घुमांकर
देखना जरूरी
हो जाएगा।
और अगर
आप दस—पांच
लोगों पर
प्रयोग करके
समझ जाएं कि
यह हो सकता है, तो उस
संवेदनशील
हिस्से से कोई
भी विचार किसी
व्यक्ति में
डाला जा सकता
है।
बहुत
बार ऐसा होता
है, आपको
पता भी नहीं
होता है कि
बहुत—से विचार
आप में किस
भांति प्रवेश
कर जाते हैं।
बहुत बार ऐसा
होता है कि
किसी व्यक्ति
के पास आप
जाते हैं और
आपके विचार
तत्काल बदलने
लगते हैं; बुरे
या अच्छे होने
लगते हैं।
संतों
के पास अक्सर
अनुभव होगा कि
उनके पास जाकर
आपके विचारों
में एक झोंका
आ गया; कुछ
बदलाहट हो गई।
बुरे आदमी के
पास जाकर भी
एक झोंका आता
है, कुछ
बदलाहट हो
जाती है। संत
किसी भावना
में जीता है।
उस भावना में
वह इतनी सघनता
से जीता है कि
जैसे ही आप
उसके पास जाते
हैं, आपके
मस्तिष्क में
उसकी चोट पड़नी
शुरू हो जाती
है। वहा एक
सतत वातावरण
है। बुरा आदमी
भी एक भावना
में जीता है।
वह उसकी
एकाग्रता है।
उसके पास आप
जाते हैं कि
चोट पड्नी
शुरू हो जाती
है।
भीड़
में जब भी आप
जाते हैं, तभी आप
लौटकर अनुभव
करेंगे कि मन
उदास हो गया, थक गया, जैसे
आप कुछ खोकर
लौटे हैं।
क्योंकि भीड़
एक उत्पात है;
उसमें कई
तरह के
मस्तिष्क हैं,
कई तरह की
एकाग्रताएं
हैं। वे सब एक
साथ आपके ऊपर
हमला कर देती
हैं।
इसलिए
सदियों से
साधक स्वात की
तलाश करता रहा
है। एकांत की
तलाश, आप
जानकर हैरान
होंगे, जंगल
और पहाड़ के
लिए नहीं है। एकांत
की तलाश आपसे
बचने के लिए
है। वह कोई
जंगल की खोज
में नहीं जा
रहा है, न
पहाड़ की खोज
में जा रहा है।
वह आपसे दूर
हट रहा है। वह
आपसे बच रहा
है।
नकारात्मक है
खोज। पहाड़
क्या दे सकते
हैं! पहाड़ कुछ
नहीं दे सकते।
लेकिन आप बहुत
कुछ छीन सकते
हैं।
पहाडों
के पास कोई
मस्तिष्क
नहीं है।
इसलिए पहाड़ों
के पास आप
निश्चित रह
सकते हैं। वे
न तो बुरा
देंगे, न भला देंगे।
जो आपके भीतर
है, वही
होगा। लेकिन
आदमियों के
पास आप
निश्चित नहीं
रह सकते।
क्योंकि पूरे
समय उनके
विचार आप में
प्रवाहित हो
रहे हैं—वे न
भी बोलें तो
भी, वे न भी
चाहें तो भी।
उनका कचरा आप
में बह रहा है;
आपका कचरा
उनमें बह रहा
है। तो जब भी
आप भीड़ में
जाते हैं, आप
कचरे से भरकर
लौटते हैं। एक
कनफ्यूजन, एक
भीतर भीड़ पैदा
हो जाती है।
अगर
आपको थोड़ी सी
भी एकाग्रता
अनुभव हो जाए, तो आप
किसी के भी
विचार बदल
सकते हैं। बड़ी
ताकत है विचार
बदलने में।
तर्क करने की
जरूरत नहीं है।
विवाद करने की
जरूरत नहीं है।
सिर्फ
एक विचार सतत
किसी की तरफ
फेंकने की
जरूरत है।
उसके विचार
बदलने शुरू हो
जाते हैं।
और अगर
आप कोई अशुभ
काम करवाना
चाहें, तो कोई अड़चन
नहीं है। उसकी
जेब में हाथ
डालकर उसके
नोट निकालने
की जरूरत नहीं
है। उससे ही
कहा जा सकता
है कि निकालो
नोट और सड़क पर
गिरा दो। वह
खुद ही रूमाल
निकालने के
बहाने रूमाल
के साथ नोट भी
गिरा देगा। और
वह सोचेगा कि
भूल से गिर
गया।
जीवन
के गहन में
प्रवेश किया
जा सकता है
एकाग्रता के
सेतु से। शुभ
भी किया जा
सकता है, अशुभ भी
किया जा सकता
है। इसलिए
एकाग्रता की
कला किसी
शास्त्र में
लिखी हुई नहीं
है। और जो भी
लिखा हुआ है, उसको आप
वर्षों करते
रहें, तो
भी एकाग्र न
होंगे।
इसलिए
बहुत लोग मेरे
पास आते हैं, वे कहते
हैं कि हम
वर्षों से
एकाग्रता साध
रहे हैं, लेकिन
कुछ हो नहीं
रहा है! वे
किताब पढ़कर
साध रहे हैं।
कभी होगा भी
नहीं। थोड़े
दिन में थक
जाएंगे।
किताब भी फेंक
देंगे, एकाग्रता
को भी भूल
जाएंगे।
वह
एकाग्रता तभी
कोई उनको बता
सकेगा, जब पाया
जाएगा कि उनका
हृदय उस
शुद्धि में है
कि अब वे किसी
को नुकसान
नहीं पहुंचा
सकते हैं।
बच्चों के हाथ
में तलवार
नहीं दी जा
सकती। और जो
दे, वह
आदमी
मंगलदायी
नहीं है।
रासपुतिन
या दुर्वासा, या उस तरह
के लोग
शक्तिशाली
लोग हैं।
अदम्य उनके
पास ऊर्जा है,
लेकिन हृदय
की शुद्धि
नहीं है।
रासपुतिन
जैसे लोग कैसे
सूत्र खोज
लेते हैं? रासपुतिन
भटका है। जैसे
गुरजिएफ सूफी
फकीरों, लामांओं,
ईरान, तिब्बत,
भारत, मिल,
सब जगह जैसे
गुरजिएफ भटका
कोई बीस साल
तक सूत्रों की
तलाश में, वैसे
ही रासपुतिन
भी भटका है।
और आज की
नैतिकता इतनी
कमजोर है कि
जिनको आप साधारणत:
साधु भी कहते
हैं, वे भी
खरीदे जा सकते
हैं। और छोटी—मोटी
बातें लीक आउट
हो जाती हैं।
रासपुतिन
भटका तलाश में
कि कहां से
सूत्र मिल सकते
हैं। और उसने
जरूर कहीं से
सूत्र खरीद
लिए। उसने अथक
मेहनत की। और
वर्षों के
श्रम के बाद
उसने कुछ
रास्ते निकाल
लिए। कुछ छोटी—मोटी
कुंजिया उसके
हाथ में आ गईं।
और उसने उनका
उपयोग किया।
आज भी
कुछ लोगों के
पास छोटे—मोटे
सूत्र हैं।
अनेक कारणों
से गलत लोगों
के पास भी
सूत्र पहुंच
गए हैं। कभी
मोह के कारण
पहुंच जाते
हैं; कभी
भूल—चूक से भी
पहुंच जाते
हैं। कभी बाप
मरता है और
सिर्फ मोह के
कारण कुछ जानता
है, वह
बेटे को दे
जाता है। बेटा
योग्य नहीं भी
होता है तो भी।
कभी गुरु मरता
है और सिर्फ
इस आशा में दे
जाता है कि आज
नहीं कल शिष्य
योग्य हो जाएगा।
कई बार
सूत्रों की
चोरी भी हो
जाती है। धन
की ही चोरी
नहीं हो सकती,
सूत्रों की
भी चोरी हो
सकती है।
हिंदुस्तान
में बहुत दिन
तक वैसा हुआ।
बौद्धों के
पास कुछ सूत्र
थे, जो
हिंदुओं के
पास नहीं थे।
तो हिंदू
बौद्ध भिक्षु
बनकर वर्षों
तक बौद्ध गुरुओं
की शरण में रहे,
ताकि कुछ
सूत्र वहा से
पाए जा सकें।
कुछ सूत्र
हिंदुओं के
पास थे, जो
जैनों या
बौद्धों के
पास नहीं थे।
तो जैन और
बौद्ध, हिंदू
बनकर वर्षों
तक हिंदू
गुरुओं की शरण
में रहे, ताकि
कहीं से कुछ
पाया जा सके।
और जैसे ही
उन्होंने पा
लिया, वह
दूसरी परंपरा
को दे दिया गया।
हजारों
साल से खोज
चलती है। उस
खोज में ठीक
और गलत सब तरह
के लोग लगे
हुए हैं।
रासपुतिन
ने भी सूत्र
खोज लिए। और
मनुष्य तो
शक्तिशाली था।
क्योंकि
सूत्रों से ही
कुछ नहीं होता।
आपको अगर
कुंजी भी दे
दी जाए, तो आप इतने
कमजोर हैं कि
कुंजी हाथ में
रखे बैठे
रहेंगे, ताले
तक भी कुंजी
नहीं
पहुंचाएंगे।
या भरोसा ही न
करेंगे कि
कुंजी खोल भी
सकती है कुछ।
या कुंजी को
कुछ और समझते
रहेंगे। या जहा
ताला नहीं है,
वहा कुंजी
लगाते रहेंगे।
लेकिन
रासपुतिन अथक
चेष्टा किया, और उसने
कुछ पाया। और
उसे पाकर उसने
श्रम भी किया
उस पर। और एक
बडी अनूठी
क्षमता बुराई
की उसने पैदा
कर ली।
रासपुतिन
प्रतीक बन गया
इस सदी में
बुरे से बुरे
आदमी का।
लेकिन बड़ा
शक्तिशाली था।
ध्यान
रहे, हृदय
की शुद्धि
अत्यंत
अपरिहार्य है।
इसलिए
बुद्ध ने तो
अपने शिष्यों
को पहले चार ब्रह्मविहार
साधने को कहा
है। जब तक ये
चार
ब्रह्मविहार
न सध जाए—ब्रह्मविहार, जब तक
ब्रह्म में
इनके द्वारा
विहार न होने
लगे—तब तक कोई
योगिक साधना
नहीं करनी है।
तो करुणा पहले
सध जाए; मैत्री
पहले सध जाए; मुदिता पहले
सध जाए; उपेक्षा
पहले सध जाए।
ये चार :
करुणा, मैत्री, मुदिता,
उपेक्षा।
क्योंकि जिसकी
करुणा गहन है,
वह किसी को
नुकसान न
पहुंचा सकेगा।
जिसकी मैत्री
की भाव—दशा है,
उसके लिए
कोई शत्रु न
रह जाएगा। और
मुदिता का 'अर्थ है, प्रफुल्लता,
प्रसन्नता।
जो प्रसन्न है
और प्रफुल्ल
है, वह किसी
को दुखी नहीं
करना चाहता।
सिर्फ दुखी
आदमी ही दूसरे
को दुखी करना
चाहता है।
तो जब
भी आप किसी को
दुखी करना
चाहते हों, समझना कि
आप दुखी हैं।
आनंदित आदमी
किसी को दुखी
नहीं करना
चाहता।
आनंदित आदमी
चाहता है, सभी
आनंदित हो
जाएं। आनंदित
आदमी आनंद को
बांटना और
फैलाना चाहता है।
जो हमारे पास है,
वही हम
बांटते हैं; उसी को हम
फैलाते हैं।
इसलिए
बुद्ध ने
मुदिता को
अनिवार्य कहा।
क्योंकि जब तक
तुम
प्रसन्नचित्त
न हो जाओ, तब तक तुम
खतरनाक हो।
दुखी
आदमी खतरा है।
वह किसी को
सुखी नहीं
देखना चाहेगा।
दुखी आदमी
चाहता है कि
सब लोग मुझसे
ज्यादा दुखी
हों, तभी उसको
लगता है कि
मैं थोड़ा सुखी
हूं? तुलना
में।
और
चौथा बुद्ध ने
कहा, उपेक्षा,
इनडिफरेंस।
बुद्ध ने कहा,
जब ऐसी
उपेक्षा सध
जाए कि जीवन
हो या मृत्यु,
बराबर मालूम
पड़े। सुख हो
या दुख, समान
मालूम पड़े।
हानि हो या
लाभ, सफलता
हो या विफलता,
कोई चिंता न
रह जाए। इन
चार
ब्रह्मविहारो
के सध जाने के
बाद साधक योग
में प्रवेश
करे।
इसलिए
पतंजलि ने भी
आठ यम—नियम की
पहले ही
व्यवस्था दी
है। और इसके
पहले कि धारणा, ध्यान और समाधि
के अंतिम तीन
चरण आएं, पांच
चरणों में
हृदय का पूरा
रूपांतरण है।
वे जो पांच
प्राथमिक चरण
हैं, जब तक
उनसे हृदय का
रूपांतरण न
होता हो, तब
तक तीन चरण, पतंजलि राजी
नहीं हैं।
अभी
पश्चिम में
पूरब से कई
कुंजियां
पहुंच रही हैं।
जैसे महेश
योगी ध्यान की
एक पद्धति
पश्चिम ले गए।
तो उन्होंने
बाकी सारे यम—नियम
अलग कर दिए।
सिर्फ मंत्र—योग।
उसका परिणाम
होता है, लेकिन खतरनाक
है। आग के साथ
खेलना है। और
लोग जल्दी
उत्सुक होते
हैं, क्योंकि
न कोई नियम है,
न कोई साधना
है। बस, एक
बीस मिनट
बैठकर एक
मंत्र—जाप कर
लेना है; पर्याप्त
है। तुम चोर
हो, तो
अंतर नहीं
पड़ता; तुम
बेईमान हो, तो अंतर
नहीं पड़ता।
तुम हत्यारे
हो, तो
अंतर नहीं पड़ता।
बीस मिनट
मंत्र—जाप कर
लेना है।
उस
मंत्र—जाप से
शांति मिलती
है, क्योंकि
मंत्र मन को
संगीत से भर
देता है।
लेकिन ध्यान
रहे, हत्यारे
को शांति
मिलनी उचित
नहीं है।
क्योंकि
हत्यारे की
पीड़ा क्या है?
कि उसने
हत्या की है!
यह उसकी पीड़ा
है; यह
अपराध उसके
ऊपर है। इसको
अगर शांति मिल
जाए, यह
दूसरी हत्या
करेगा। इसको अशांत
होना उचित है,
यह इसके
कर्म का सहज
परिणाम है। और
यह अशांत रहे,
पीड़ा भोगे,
तो शायद
हत्या से
बचेगा।
चोर को शांति
मिलनी उचित
नहीं है। उसके
हृदय की धड़कन
बढ़ी ही रहनी
चाहिए।
क्योंकि जैसे
ही उसको शांति
मिलती है, वह
दुबारा चोरी
करेगा। और
करेगा क्या? बुरे आदमी
को शांति
मिलनी उचित
नहीं है। यह
ऐसे ही है, जैसे
बुरे आदमी को
स्वास्थ्य
मिलेगा, तो
वह करेगा क्या?
जीसस
के जीवन में
एक बड़ी प्यारी
कथा है। और वह
यह है कि जीसस
एक गांव से
गुजरे।
उन्होंने एक
आदमी को एक
वेश्या के
पीछे भागते
हुए देखा। तो
उन्होंने उस
आदमी को रोका, क्योंकि
चेहरा उसका
पहचाना हुआ मालूम
पड़ा। और जीसस
ने कहा कि अगर
मैं भूलता
नहीं हूं तो जब
मैं पहली दफा
आया, तुम
अंधे थे। और
मेरे ही
स्पर्श से
तुम्हारी आंखें
वापस लौटीं।
और अब तुम आंखों
का क्या कर
रहे हो!
वेश्या के
पीछे भाग रहे
हो?
उस
आदमी ने कहा, हे प्रभु,
मैं तो अंधा
था। तुमने ही
मुझे आंखें
दीं। अब मैं
इन आंखों का
और क्या करूं?
आंखें रूप
देखने के लिए
हैं। और अगर
मैं तुम्हारे
पास आंखें
मांगने आया था,
तो इसीलिए मांगने
आया था कि आंखों
से रूप देख
सकूं।
जीसस
ने सोचा भी
नहीं होगा कि
जिसको आंखें
दी हैं, वह आंखों का
क्या करेगा।
सभी आदमी आंखों
का एक ही
उपयोग नहीं कर
सकते। उपयोग
तो आदमियों पर
निर्भर होगा। आंखें
तो उपकरण हैं।
तो अगर
मंत्र—जाप से
बेईमान को शांति
मिले, तो
वह बेईमानी में
और कुशल हो
जाएगा।
खतरनाक है यह
बात। और मंत्र—जाप
से अगर धन की
दौड़ में कोई
आदमी लगा है, उसको शांति
मिले, तो
उसकी धन की
दौड़ और कुशल
हो जाएगी; और
क्या होगा! और
महेश योगी से
लोग पूछते हैं,
तो वे कहते
हैं, बिलकुल
ठीक है। तुम जहा
भी जा रहे हो, तुम जो भी कर
रहे हो, उसमें
ध्यान से
सफलता मिलेगी।
निश्चित
सफलता मिलेगी।
लेकिन तुम
कहां जा रहे
हो, यह
पूछ लेना
जरूरी है। तुम
क्या कर रहे
हो, यह पूछ
लेना जरूरी है।
सभी सफलताएं
सफलताएं नहीं
हैं। बुरे काम
में विफल हो
जाना बेहतर है।
बुरे काम में
सफल हो जाना
बेहतर नहीं है।
तो सफलता अपने
आप में कोई
मूल्य नहीं है।
लेकिन
यह परिणाम
पश्चिम में
घटित होगा, क्योंकि
कोई भी यम और
नियम के लिए
तो राजी नहीं
है। लोग चाहते
हैं, जैसे
वे
इंस्टैंट
काफी बना लेते
हैं, वैसा
इंस्टैंट
मेडिटेशन हो!
एक पांच मिनट
में काम किया,
और उस काम
के लिए भी कुछ
करना नहीं है।
आप हवाई जहाज
में उड़ रहे
हों, तो भी
मंत्र—जाप कर
सकते
हैं।
कार में चल
रहे हों, तो भी मंत्र—जाप
कर सकते हैं।
ट्रेन में
बैठे हों, तो
भी मंत्र—जाप
कर सकते हैं।
उसमें कोई कुछ
आपको बदलना
नहीं है।
सिर्फ एक
तरकीब है, जिसका
उपयोग करना है।
वह तरकीब आपको
भीतर शांत
करेगी। वह शांति
आत्मज्ञान
नहीं बन सकती।
वह शांति
अक्सर तो
आत्मघात
बनेगी।
क्योंकि आपके
पास जो
व्यक्तित्व
है, वह
खतरनाक है। वह
उस शांति का
उपयोग करेगा।
इसलिए
अगर पतंजलि और
बुद्ध और
महावीर ने
ध्यान के
पूर्व कुछ
अनिवार्य
सीढ़ियां रखी
हैं, तो अकारण
नहीं रखी हैं।
गलत आदमी के
पास शक्ति न
पहुंचे, इसलिए।
और गलत आदमी
अगर चाहे, तो
पहले ठीक होने
की प्रक्रिया
से गुजरे। और
उसके हाथ में
चाबी तभी आए, जब कोई
दुरुपयोग, अपने
लिए या दूसरों
के लिए, वह
न कर सके।
यही
सवाल नहीं है
कि दूसरों के
लिए आप हानि
पहुंचा सकते
हैं, खुद
को भी पहुंचा
सकते हैं। गलत
आदमी खुद को
भी पहुंचाएगा।
सच तो
यह है कि बिना
खुद को हानि
पहुंचाए, कोई दूसरे
को हानि
पहुंचा ही
नहीं सकता।
इसका कोई उपाय
ही नहीं है।
इसके पहले कि
मैं आपको आग
लगाऊं, मुझे
खुद जलना
पड़ेगा। इसके
पहले कि मैं
आपको जहर पिलाऊं,
मुझे खुद
पीना पड़ेगा।
जो मैं दूसरों
के साथ करता
हूं वह मुझे
अपने साथ पहले
ही कर लेना पड़ता
है।
दूसरा
प्रश्न :
साधन
तत्व को
अभ्यास और
वैराग्य, ऐसे दो
भागों में
बांटने का
क्या कारण है?
क्या वे एक
ही चीज के दो
छोर नहीं हैं?
क्या सम्यक
साधना पद्धति
के अभ्यास से
वैराग्य का
उदय
अवश्यंभावी
नहीं है? और
वैराग्य क्या
स्वयं एक साधन
पद्धति नहीं है?
अभ्यास और वैराग्य
बड़ी भिन्न
बातें हैं। वैराग्य
तो एक भाव है; और
अभ्यास एक
प्रयत्न, एक
यत्न है। वैराग्य
तो आपको कई
बार अनुभव
होता है।
लेकिन उसकी
हल्की झलक आती
है। उसको अगर
आप अभ्यास न
बना सकें, तो
वह खो जाएगा।
अभ्यास का
अर्थ है कि
जिस वैराग्य
की झलक मिली
है, वह झलक
न रह जाए, उसकी
गहरी लकीर हो
जाए आपके भीतर।
जैसे
कि आप धन के
लिए दौड़ते थे।
और धन आपको
मिल गया। धन
के मिलने के
बाद आपके मन
में विषाद
आएगा।
क्योंकि आप
पाएंगे कि
कितनी आशा की
थी, आशा
तो कुछ पूरी न
हुई! कितने
सपने संजोए थे,
वे सब सपने
तो धूल में
मिल गए! धन हाथ
में आ गया।
कितना नहीं
सोचा था आनंद
मिलेगा; वह
आनंद तो कुछ
मिला नहीं!
तो जो
भी धन को पा
लेगा, उसके
पीछे एक छाया
आएगी, जहा
वैराग्य का
अनुभव होगा।
उसे लगेगा, धन बेकार है।
लेकिन अगर इसे
अभ्यास न
बनाया, तो
यह झलक खो
जाएगी। और मन
फिर कहेगा कि
आनंद इसलिए
नहीं मिल रहा
है, क्योंकि
धन आनंद के
लिए पर्याप्त
नहीं है, और
चाहिए। दस
हजार ही हैं, दस लाख ही
हैं, करोड़
चाहिए।
करोड़
भी मिल जाएंगे
एक दिन, कुछ अड़चन
नहीं है। तब फिर
वैराग्य का
उदय होगा। फिर
लगेगा कि वे
सब इंद्रधनुष
खो गए। वह सब
मृग—मरीचिका
हाथ नहीं आई।
फिर खाली के
खाली हैं। और
इतना जीवन गया
मुफ्त!
क्योंकि धन
कोई ऐसे ही
नहीं मिलता, जीवन से
खरीदना पड़ता
है। खुद को
बेचो, तो
धन मिलता है।
जितना खुद को
मिटाओ, उतना
धन इकट्ठा
होता है।
तो
आत्मा नष्ट
होती जाती है, सोने का
ढेर लगता जाता
है। फिर विषाद
पकड़ेगा; फिर
वैराग्य
लगेगा; लेकिन
उसकी झलक ही
आएगी। मन फिर
जोर मारेगा कि
छोड़ो भी, एक
करोड़ से कहीं
दुनिया में
सुख मिला है!
यह वही मन है, जो दस लाख पर
कहता था, करोड़
से मिलेगा। यह
वही मन है, जो
दस हजार पर
कहता था, दस
लाख पर मिलेगा।
यह वही मन है, जो दस पैसे
पर कहता था, दस हजार पर
मिलेगा।
जब तक
कोई पूरा
अध्ययन न करे
अपने जीवन की
घटनाओं का; और
वैराग्य की जो
झलकें आती हैं,
उनको पकड़ न
ले, और फिर
उन वैराग्य की
झलकों का
अभ्यास न करे..।
अभ्यास का
मतलब है, उनकी
पुनरुक्ति, उनका बार—बार
स्मरण, उनकी
चोट निरंतर
भीतर डालते
रहना। और जब
भी मन पुराना
धोखा दे, तो
वैराग्य का
स्मरण खड़ा
करना।
तो एक
घटना बनेगी।
जब वैराग्य
पानी पर खींची
लकीर न होगा, पत्थर पर
खींची लकीर हो
जाएगा। और उसी
वैराग्य के
सहारे मन का
अंत होगा, नहीं
तो मन का अंत
नहीं होगा। एक—एक
बूंद वैराग्य
इकट्ठा करना
होगा। उसका
नाम अभ्यास है।
यह बड़े
मजे की बात है
कि वैराग्य तो
सभी को आता है; ऐसा आदमी
ही खोजना
मुश्किल है, जिसको
वैराग्य न आता
हो। हर संभोग
के बाद वैराग्य
आता है। हर
संभोग के बाद
ब्रह्मचर्य
की आकांक्षा
उठती है। हर
बार ज्यादा खा
लेने के बाद
उपवास की
सार्थकता
दिखाई पड़ती है।
हर बार क्रोध
करके
पश्चात्ताप
उठता है। हर
बार बुरा करके
न करने की
प्रतिज्ञा मन
में आती है।
पर क्षणभर को
रहती है, यह
बात। मन प्रबल
है, क्योंकि
मन का अभ्यास
जन्मों—जन्मों
का है।
तो दो
तरह के अभ्यास
हैं जगत में।
एक मन का
अभ्यास और एक
वैराग्य का
अभ्यास। तो आप
मन का अभ्यास
तो पूरी तरह
करते हैं।
वैराग्य मन का
विपरीत है।
वैराग्य का
मतलब यह है कि
मन का एंटीडोट।
वह मन जब भी
नया धोखा खड़ा
करे, तब
आपको वैराग्य
की स्मृति खड़ी
करनी है। यह
तो मैं पहले
भी सुन चुका, यह तो मैं
पहले भी कर
चुका; यह
तो मेरा अनुभव
है और परिणाम
क्या हुआ?
निरंतर
परिणाम का
चिंतन पुराने
अनु_भव
की स्मृति है,
और पुरानी
झलकों का
संग्रह है।
इसको जब कोई
साधता ही चला
जाता है, तो
धीरे— धीरे मन
के विपरीत एक
नई शक्ति का
निर्माण होता
है। जो मन के
लिए नियंत्रण
बन जाता है, और मन के लिए
साक्षी बन
जाता है; और
मन की जो पताल
दौड़ है, उसे
तोड्ने में
सहयोगी हो
जाता है। कई
बार मन आपको
पकड लेगा फिर—फिर।
लेकिन अगर
वैराग्य का
थोड़ा—सा
संग्रह है, तो पुन:
स्मरण आ जाएगा
और आप रुक
सकेंगे।
अभ्यास
का केवल इतना
ही अर्थ है, जीवन में
जो सहज वैराग्य
की झलक आती है,
उसको संजो
लेना है, इकट्ठा
कर लेना है; उसकी शक्ति
निर्मित कर
लेनी है। और
अभ्यास के
उपाय हैं।
मृत्यु
तो आपको कई
दफा अनुभव
होती है, लेकिन हमने
ऐसी व्यवस्था
कर ली है कि
उसके अनुभव की
हमें चोट नहीं
लगती।
कोई
कहता है, कोई मर गया।
अगर वह कोई
बहुत निकट का
नहीं है, तो
हम कहते हैं, बुरा हुआ।
बात समाप्त हो
गई। उसके बाद हमारे
मन में कुछ भी
नहीं होता।
कोई बहुत निकट
का मर गया, तो
दिन दो दिन
खयाल में रहता
है। कोई बहुत
ही निकट का मर
गया—कि पत्नी चल
बसी, कि
बेटा, कि
पति, कि
पिता—तो थोड़ी
चोट लगती है
कुछ दिन। यह
हमने इंतजाम
किया है।
यह
इंतजाम ऐसा ही
है, जैसे
ट्रेन में बफर
लगे होते हैं।
दो रेल के
डब्बों के बीच
में बफर लगे
रहते हैं, ताकि
धक्का बफर पी
जाएं और
यात्रियों को
धक्का न लगे।
कार में
स्टिंग लगे
रहते हैं कि
गड्डा आए, तो
स्टिंग गड्डे
के धक्के को
पी जाएं, भीतर
बैठे यात्री
को धक्का न
लगे।
तो
हमने अपने
चारों तरफ बफर
लगा रखे हैं।
चोट आए, तो बफर पी
जाए। तो अगर
मुसलमान मर
गया, तो
हिंदू के लिए
बफर है कि ठीक
है, मुसलमान
था, मर गया
तो क्या हर्ज
है! पहले ही मर
जाना चाहिए था।
आदमी बुरा था।
और होने से
कोई लाभ भी नहीं
था। हिंदू मर
गया, तो
मुसलमान के
लिए बफर है।
नीग्रो मर जाए,
तो अमेरिकी
को फिक्र नहीं।
अमेरिकी मरे,
तो नीग्रो
को प्रसन्नता
है। ये हमने
बफर पैदा किए
हैं। शत्रु मर
जाए, तो
ठीक। इन सब
बफर के बाद दो—चार
लोग ही बचते
हैं हमारे आस—पास,
जिनकी मौत
से हमको थोड़ी—बहुत
चोट पहुंचेगी।
नहीं तो हर एक
की मौत से चोट
पहुंचती है।
क्योंकि कौन
मरता है, इससे
क्या फर्क
पड़ता है। मौत
घटती है। और
मौत की चोट
पहुंचती है, और वैराग्य
का उदय होता
है। लेकिन
हमने तरकीबें
बना रखी हैं।
फिर जो हमारे
बिलकुल निकट
हैं, उनसे
भी बचने के
लिए हमने बफर
बना रखे हैं।
अगर पत्नी भी
मर जाए, तो
भी हम कहते
हैं, जल्दी
ही मिलना होगा,
स्वर्ग में
मिलेंगे।
थोड़े ही दिन
की बात है। और
आत्मा अमर है,
इसलिए
पत्नी कुछ मरी
नहीं है। यह
तो सिर्फ शरीर
छूट गया है।
कोई रास्ता हम
खोज लेते हैं।
बेटा
मर जाए, तो हम कहते
हैं, परमात्मा,
जो प्यारे
लोग हैं, उनको
जल्दी उठा
लेता है। यह
बफर है। इससे
हम अपने को
राहत देते हैं,
कसोलेशन
देते हैं।
इससे सांत्वना
बना लेते हैं
कि ठीक है, परमात्मा
के लिए प्यारा
होगा, इसलिए
बेटे को उठा
लिया। आपका
बेटा परमात्मा
को प्यारा
होना ही
चाहिए! सिर्फ
गलत लोग ज्यादा
जीते हैं।
अच्छे लोग तो
जल्दी मर जाते
हैं। कि अपना
कोई कर्म होगा,
जिसकी वजह
से दुख भोगना
पड़ रहा है।
मौत को
बचाते हैं; कुछ और
चीजें बीच में
ले आते हैं।
कर्म का फल है,
इसलिए
भोगना पड़ रहा
है। अब फल है, तो भोगना पड़ेगा।
तो मौत को हटा
दिया, डायवर्शन
पैदा हो गया।
अब हम कर्म की
बात सोचने लगे।
लड़का, मौत,
अलग हट गई।
थोड़े दिन में
सब भूल जाएगा,
हम अपने काम—
धंधे में लग
जाएंगे।
इस तरह
हमने बफर हर
चीज में खड़े
कर रखे हैं और
वैराग्य उदय
नहीं हो पाता।
अभ्यास
का अर्थ है, बफर का
तोड़ना। और हर
जगह से, जहा
से भी सूरज की
किरण मिल सके,
वैराग्य की
किरण मिल सके,
वहा से उसे
भीतर आने देना।
सब तरफ खुले
होना।
बुद्ध
अपने
भिक्षुओं को
कहते थे, मरघट पर जाओ।
पहला ध्यान
मरघट पर। और
तीन महीने
मरघट पर रहो।
भिक्षु कहते,
लेकिन मरघट
पर जाने की
क्या जरूरत है?
ध्यान यहीं
कर सकते हैं!
बुद्ध कहते, यहां न होगा।
तुम मरघट पर
ही बैठो दिन—रात।
चिताएं
जलेंगी, लोग
आएंगे—जाएंगे;
तुम वहीं
ध्यान करना।
तीन
महीने जो मरघट
पर बैठकर
ध्यान कर लेता, उसके मौत
के संबंध में
जितने बफर
होते, सब
टूट जाते। तब
वह यह नहीं
देखता, कौन
मरा। मौत
दिखाई पड़ती।
कौन का कोई
संबंध नहीं रह
जाता। और
चौबीस घंटे
मरघट पर बैठे—बैठे
यह असंभव है
तीन महीने में
कि आपको यह समझ
में न आ जाए कि
यह देह आज
नहीं कल जलेगी।
यह असंभव है
कि आपको सपने
न आने लगें कि
आप जलाए जा
रहे हैं चिता
पर, तीन
महीने मरघट
में रहने पर।
यह असंभव है
कि मौत इतनी
प्रगाढ़ न
दिखाई पड़ने लगे
कि जीवन का रस
खो जाए।
तो मौत
का अभ्यास हो
जाएगा मरघट पर।
अभ्यास से
वैराग्य उदय
होगा, घना
होगा। जीवन के
साथ जो हमारे
राग के, लगाव
के संबंध हैं,
वे क्षीण और
शिथिल हो
जाएंगे।
अगर
बुद्ध के जमाने
में एक्सरे
रहा होता, तो वे
कहते कि अपनी
पत्नी का
एक्सरे अपने
साथ रखो। और
जब भी पत्नी
की याद आए
एक्सरे देखो,
तो समझ में
आएगा कि देह
कितनी सुंदर
है। लोग फोटो
रखते हैं।
फोटो रखना ठीक
नहीं है।
एक्सरे की
कापी रख लेना
एकदम अच्छा है।
और जब भी मन
में आ जाए तो
फिर—फिर उसको
देख लेना उचित
है।
तो
एक्सरे की
फोटो अभ्यास
बन जाएगी।
उससे वैराग्य
का जन्म होगा; सघन होगा।
फिर धीरे—
धीरे पत्नी को
भी देखेंगे, तो आपके पास
एक्सरे वाली आंखें
हो जाएंगी। तो
उसकी सुंदर
चमड़ी के पीछे
हड्डियां
दिखाई पड़ने
लगेंगी। जब
उसको छाती से
लगाएंगे, तो
आपको
अस्थिकंकाल
छूता हुआ मालूम
पड़ेगा।
ये बफर
तोड्ने हैं और
वैराग्य को
जन्माना है।
और उसका
निरंतर
अभ्यास चाहिए।
क्योंकि मन का
पुराना
अभ्यास है। और
मन से संघर्ष
है। मन को
काटना है। मन
बहुत सबल है।
आपने ही उसको
सबल किया है।
अब हम
सूत्र को लें।
और हे
अर्जुन, जो तेज
सूर्य में
स्थित हुआ
संपूर्ण जगत
को प्रकाशित
करता है तथा
जो तेज चंद्रमा
में स्थित है
और जो तेज
अग्नि में
स्थित है, उसको
तू मेरा ही
तेज जान।
और मैं
ही पृथ्वी में
प्रवेश करके
अपनी शक्ति से
सब भूतों को
धारण करता हूं
और रस—स्वरूप
अर्थात
अमृतमय सोम
होकर संपूर्ण
औषधियों को
अर्थात
वनस्पतियों
को पुष्ट करता
हूं।
मैं ही
सब प्राणियों
के शरीर में
स्थित हुआ वैश्वानर
अग्निरूप
होकर प्राण और
अपान से युक्त
अन्न को पचाता
हूं। और मैं
ही सब
प्राणियों के
हृदय में
अंतर्यामीरूप
से स्थित हूं
तथा मेरे से
ही स्मृति, ज्ञान और
अपोहन अर्थात
संशय—विसर्जन
होता है और सब
वेदों द्वारा
मैं ही जानने
योग्य हूं तथा
वेदांत का
कर्ता और
वेदों को
जानने वाला भी
मैं ही हूं।
कुछ
बातें। पहली
बात, कृष्ण
के ये सारे
सूत्र अर्जुन
का समर्पण
संभव हो सके, इसके लिए
हैं। कृष्ण ये
सारी बातें कह
रहे हैं उस एक
केंद्र की ओर
इशारा करने को,
जो सबका
आधार है।
और अगर
वह आधार हमें
दिखाई पड़ने
लगे, तो
हम उस आधार की
शरण सहज ही जा
सकेंगे। अगर हमारी
बुद्धि को
उसकी झलक भी
मिलने लगे, तो हम अपने
होने का आग्रह,
और अपने
आपको कुछ
समझने का
आग्रह, अस्मिता
और अहंकार की
आति हमारी
छूटनी शुरू हो
जाएगी।
तो
कृष्ण जब बार—बार
यह कहते हैं
कि मैं यह हूं
मैं यह हूं
मैं यह हूं तो
बहुत—से पढ़ने
वालों को गीता
में ऐसा लगता
है कि कृष्ण
बड़े अहंकारी
हैं। यह आदमी
अजीब है। यह
क्यों कहे चला
जाता है कि
सभी चांद—सूरज
की रोशनी मैं
हूं! कि सभी
रसों में छिपा
हुआ रस मैं
हूं! कि सभी
प्राणों में
धड़कता प्राण
मैं हूं!
आज के जमाने
में तो गीता
जैसी किताब
लिखनी बड़ी
मुश्किल हो
जाए; कहनी
भी मुश्किल हो
जाए। फौरन
पत्थर पड़ जाएं।
क्योंकि लोग
कहें कि दिमाग
खराब है आपका!
सभी कुछ आप
हैं?
और अगर
हिंदुओं को
गीता पढ़ते
वक्त यह खयाल
नहीं आता, तो बफरों
के कारण। उनको
लगता है, कृष्ण
भगवान हैं, इसलिए ठीक
है। लेकिन
मुसलमान जब
गीता पढ़ता है,
तो उसे फौरन
खयाल आता है
कि यह आदमी
ठीक नहीं मालूम
पड़ता। जैन जब
पढ़ता है, तो
उसे फौरन समझ
में आता है कि
यह आदमी
अहंकारी है।
हिंदू
सोच लेता है
कि भगवान हैं, ठीक है।
बाकी अगर वह
भी विचार
करेगा, तो
उसको भी लगेगा
कि यह बात
क्या है? कृष्ण
क्यों इतना
जोर देते हैं
कि मैं ही सब कुछ
हूं?
और
आपको अगर ऐसा
लगे कि कृष्ण
अहंकारी हैं, इतना जोर
अपने मैं पर
देते हैं, तो
समझना कि यह
चोट आपके
अहंकार को लग
रही है। यह
आपका अहंकार
क्रुद्ध हो
रहा है।
कृष्ण
का क्या
प्रयोजन होगा? कृष्ण
क्यों इतना
जोर दे रहे
हैं स्वयं पर?
कृष्ण के
जोर का कारण
आप समझ लें।
कृष्ण
का जोर स्वयं
पर नहीं है; कृष्ण का
जोर अर्जुन
मिट जाए, इस
पर है। पर
इसके लिए एक
ही उपाय है कि
अर्जुन का
केंद्र
अर्जुन के
बाहर हट जाए।
अर्जुन का
केंद्र
अर्जुन के
भीतर न हो, कहीं
बाहर हो जाए।
कृष्ण की यह
सारी चेष्टा
इसीलिए है कि
अर्जुन देख
पाए कि उसके
भीतर जो मैं
की आवाज है, वह व्यर्थ है;
और वह
संपूर्ण के
केंद्र पर
समर्पित हो
जाए।
अर्जुन
ने कहीं भी यह
सवाल नहीं
उठाया कि आप इतने
अहंकार की
बातें क्यों
कर रहे हैं! यह
भी जरा
आश्चर्यजनक
है। क्योंकि
अर्जुन
बुद्धिमान है; जैसा
सोफिस्टिकेटेड
होना चाहिए, उतना है।
सुशिक्षित है,
सुसंस्कारी
है। उस समय के
प्रतिभावान
व्यक्तियों
में एक है।
मेधावी है।
नहीं तो कृष्ण
की मित्रता का
कोई अर्थ भी न
था। और कृष्ण
जिसके सारथी
बनने को राजी
हो गए हैं, वह
कोई साधारण
गंवार नहीं है।
पर अर्जुन एक
बार भी नहीं
कहता कि आप
क्यों अपने
अहंकार की
घोषणा किए जा
रहे हैं!
कृष्ण
अर्जुन से कह
सके, क्योंकि
अर्जुन का एक
प्रेम, एक
सतत प्रेम
कृष्ण के
प्रति है। और जहा
प्रेम हो, वहां
हम समझ पाते
हैं कि यह जो
कहा जा रहा है
इसमें कोई
अहंकार नहीं
है। और प्रेम
हो, तो यह
भी हम समझ
पाते हैं कि
यह मेरे लिए
कहा जा रहा है।
तो अर्जुन को
पूरे समय यह
लगा है कि मैं
मिट जाऊं, इसकी
चेष्टा के लिए
कृष्ण अपने
मैं को बड़ा कर रहे
हैं। वे अपने
मैं को खड़ा कर
रहे हैं, ताकि
मेरा मैं उस
बड़े मैं में
खो जाए। वे
अपने मैं के
विराट रूप को
मुझे दे रहे
हैं, ताकि
मैं एक बूंद
की तरह उस
सागर में खो
जाऊं।
यह
सिर्फ एक उपाय
है। अर्जुन
मिट सके, राजी हो सके
मिटने को, इसके
लिए यह सिर्फ
एक सहारा है।
प्रत्येक
गुरु अपने
शिष्य को यह
सहारा देगा ही।
जिस दिन शिष्य
मिट जाएगा, उस दिन
गुरु हंसकर
उससे भी कह
देगा कि तुम
भी नहीं हो, मैं भी नहीं
हूं।
लेकिन
उसके पहले यह
नहीं कहा जा
सकता। यह बड़ी
अड़चन की बात
है। क्योंकि
गुरु अगर यह
कह दे, मैं
भी नहीं हूं
तुम भी नहीं
हो, तो
शिष्य यह तो मान
लेगा कि तुम
नहीं हो, यह
नहीं मान सकता
कि मैं नहीं
हूं। क्योंकि
यह मानना बहुत
कठिन बात है।
यह तो कोई भी मान
लेगा कि तुम
नहीं हो, बिलकुल
ठीक है, सच
है। यह तो हम
पहले ही जानते
थे। इसलिए जो
गुरु कहे, मैं
नहीं हूं? शिष्य
बिलकुल राजी
होगा।
कृष्णमूर्ति
के पास वैसी
घटना रोज घट
रही है।
कृष्णमूर्ति
उलटा प्रयोग
कर रहे हैं, ठीक
कृष्ण से उलटा।
लेकिन वह
प्रयोग सफल
नहीं हो रहा
है। वह सफल
नहीं हो सकता।
उस सफलता के
लिए तो अर्जुन
से भी श्रेष्ठ
शिष्य चाहिए,
जो कि बड़ा
मुश्किल मामला
है।
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, न मैं
गुरु हूं न
मैं अवतार हूं;
मैं कोई भी
नहीं हूं। वे
जो शिष्य
बैठकर सुनते
हैं, वे
बड़े प्रसन्न
होते हैं। वे
कहते हैं, बिलकुल
ठीक है। लेकिन
इससे यह खयाल
नहीं आता उनको
कि हम भी नहीं
हैं। अपने मैं
से भरकर लौटते
हैं, घटकर
नहीं।
और एक
खतरा हो जाता
है कि अब जहा
भी कृष्ण मिल
जाएंगे उनको, और कृष्ण
कहेंगे कि मैं
हूं प्राणों
का प्राण; मैं
हूं
ज्योतियों की
ज्योति। वे
कहेंगे, आपका
दिमाग खराब है।
क्योंकि
कृष्णमूर्ति
ने कहा है कि
मैं कुछ भी
नहीं हूं।
ज्ञानी तो सदा
यह कहते हैं
कि मैं कुछ भी
नहीं हूं।
ज्ञानी
सदा जानते हैं
कि वे कुछ भी
नहीं हैं।
लेकिन
अज्ञानियों
से बात करना
जोखम का काम
है।
कृष्ण
इतने जोर से
कह रहे हैं कि
मैं यह हूं ताकि
अर्जुन को
प्रतीति होने
लगे कि वह कुछ
भी नहीं है।
यह ठीक
वैसा ही है, जैसा कि
एक बड़ी
प्रसिद्ध
घटना है, जो
आपने सुनी
होगी कि अकबर
ने एक लकीर
खींच दी दीवाल
पर और अपने
दरबारियों को
कहा कि इसे
बिना छुए छोटा
कर दो। वे
नहीं कर पाए
क्योंकि
बुद्धि सीधी
कहेगी कि बिना
छुए कैसे छोटी
होगी? हाथ
लगाना पड़े, पोंछना पड़े।
लेकिन बीरबल
ने एक बड़ी
लकीर उसके पास
खींची। उस
लकीर को नहीं
छुआ, लेकिन
वह छोटी हो गई।
ये
कृष्ण इतना ही
कर रहे हैं कि
अर्जुन की लकीर
के पास एक
बहुत बड़ी लकीर
खींच रहे हैं, कृष्ण की
लकीर। वह
अर्जुन का मैं
है, छोटा—सा
टिमटिमाता
दीया; और
कृष्ण कह रहे
हैं, सूर्यों
का सूर्य मैं
हूं। तू इधर
देख, तू इस
तरफ मुड़, तू
कहां छोटे—से
दीए
की
टिमटिमाती लौ!
और मिट्टी का
तेल—वह भी
मिलना
मुश्किल—उसमें
तू कब तक
टिमटिमाता
रहेगा, इस तरफ देख।
और अर्जुन का
प्रेम है इतना
कृष्ण के
प्रति, वह
देख सकता है।
इतना भरोसा है
कि यह आदमी कह
रहा है, तो
कोई सूरज होगा
उसमें। और
सूरज सबके
भीतर छिपा है,
इसलिए अड़चन
कुछ भी नहीं
है। अगर
अर्जुन भाव से
देख ले, तो
कृष्ण के भीतर
का सूरज दिख
जाएगा। और जिस
दिन कृष्ण के
भीतर का सूरज
दिखेगा, वह
अपने टिमटिमाते
दीए को छोड़
देगा।
टिमटिमाता
दीया छूट जाए
तो अपने भीतर
का सूरज भी
दिखेगा।
लेकिन यह गुरु
जो है, वाया
मीडिया है।
अपने ही भीतर
के सूरज को
देखना अति
कठिन है।
क्योंकि अपनी
नजर तो अपने
दीए पर ही लगी
है। इस दीए का
बुझना जरूरी
है। यह गुरु
के सहारे बुझ
जाएगा। और एक
बार बुझ जाए, तो गुरु के
सूरज को देखने
की कोई जरूरत
नहीं है, अपना
सूरज भी दिखाई
पड़ने लगेगा।
हम दीए
से आविष्ट
होकर बैठे हैं।
हमारी हालत
ऐसी है, सूरज निकला
है खुले मैदान
में, हम
अपना दीया रखे
उस पर आंख
गड़ाए बैठे हैं।
इतने जन्मों
से आंख गड़ाए
हैं कि हिप्नोटाइज्ड
हो गए हैं। वह
दीया ही दिखाई
पड़ता है। और
दीया देखते—देखते
आंखें भी इतनी
छोटी हो गई
हैं कि अगर एक
दफे सूरज की तरफ
देखें, तो
अंधेरा ही
दिखाई पड़ेगा।
कृष्ण
का सहारा
सिर्फ इतना है
कि आहिस्ता से
अर्जुन को
उसके दीए से
हटा लें। और
एक बार वह
सूरज कृष्ण का
देख ले, तो वह कृष्ण
का सूरज नहीं
है, वह सभी
का सूरज है; वह सभी के
भीतर बैठा है।
इसे खयाल में
रखें।
और हे
अर्जुन, जो तेज
सूर्य में
स्थित हुआ
संपूर्ण जगत
को प्रकाशित
करता है तथा
जो तेज चंद्रमा
में स्थित है
और जो तेज
अग्नि में
स्थित है, उसको
तू मेरा ही
तेज जान। और
मैं ही पृथ्वी
में प्रवेश करके
अपनी शक्ति से
सब भूतों को
धारण किए हूं
और रस—स्वरूप
अर्थात
अमृतमय सोम
होकर संपूर्ण
औषधियों को
अर्थात
वनस्पतियों
को पुष्ट करता
हूं।
सोम दो
अर्थ रखता है।
एक तो सोम का
अर्थ है, चंद्रमा।
हिंदुओं का जो
रस—विज्ञान है,
उसमें
औषधियों को जो
पुष्टि मिलती
है, वह चंद्रमा
से मिलती है।
सूर्य उनको
प्राण देता है।
सूर्य के बिना
औषधियां बड़ी
नहीं होंगी, वनस्पतिया
बड़ी नहीं
होंगी; वृक्ष
बड़े नहीं
होंगे। सूरज
उन्हें प्राण
देता है।
लेकिन जो रस
है, जो
उनमें
जीवनदायी
तत्व है, वह
उन्हें चांद
से मिलता है; वह चांद के
द्वारा मिलता है।
यह बात
काल्पनिक
समझी जाती थी
आज तक कि
आयुर्वेद और
हिंदुओं की यह
जो रस—विद्या
है, यह
काव्य है, प्रतीक
है। लेकिन इधर
पचास वर्षों
में जो खोजबीन
हुई है, उससे
सिद्ध हो रहा
है कि चांद
निश्चित ही
प्राण देने
वाला है।
और
सूरज जो कुछ
भी देता है, उसमें एक
उत्तेजना है,
और चांद जो
भी देता है, उसमें एक
शांति है।
इसलिए जितनी शांत
औषधियां हैं,
उन सब में
चांद छिपा है।
और जो
सर्वाधिक
शांतिदायी
औषधि थी, इसी
कारण—वह दूसरा
अर्थ है सोम
का—उसे हम सोम—रस
कहते थे।
पश्चिम
में
वैज्ञानिक
बड़ी खोज में
लगे हैं कि वेदों
ने जिसको सोम—रस
कहा है, वह क्या है? पच्चीसों
प्रस्ताव किए
गए हैं, पच्चीसों
दावे किए गए
हैं कि यह
वनस्पति सोम—रस
होनी चाहिए।
कुछ लक्षण
मिलते हैं, लेकिन पूरे
लक्षण किसी
वनस्पति से
नहीं मिलते।
संभावना इस
बात की है कि
वह वनस्पति
पृथ्वी से खो
गई। या
हिंदुओं ने
उसे विलुप्त
कर दिया।
काफी
काम इस समय
विज्ञान में
चलता है। बड़े
ग्रंथ लिखे
जाते हैं, बड़ी शोध
की जाती है
सोम की खोज के
लिए। क्यों? क्योंकि
पश्चिम में
इधर तीस
वर्षों में
वनस्पति के
द्वारा, औषधि
के द्वारा, रसायन के
द्वारा समाधि
कैसे प्राप्त
की जाए, इस
संबंध में बड़ा
आंदोलन है। तो
एल. एस डी., मारिजुआना,
मेस्कलीन, इन सब की बड़ी
पकड़ है। और
सारी
गवर्नमेंट्स
डर गई हैं, सारी
दुनिया में
रुकावट लगा दी
गई है कि कोई भी
इन चीजों को न
ले।
और यह
बड़े मजे की
बात है कि
शराब सबसे
ज्यादा खतरनाक
है, लेकिन
शराब सब जगह प्रचलित
है! और ये
औषधियां शराब
जैसी खतरनाक नहीं
हैं, लेकिन
इन पर भारी
रोक है। और डर
इस बात का है
कि ये औषधियां
व्यक्ति में ऐसे
क्रांतिकारी
फर्क ले आती
हैं कि आज का
जो समाज है, वह उस
व्यक्ति का
उपयोग नहीं कर
सकेगा।
जैसे
अगर युवक एल.
एस डी, मारिजुआना,
और इस तरह
की चीजों का
उपयोग करने
लगें, तो
उनको युद्ध पर
नहीं भेजा जा
सकता। वे इतने
शांत हो
जाएंगे कि
उनको युद्ध पर
नहीं भेजा जा
सकता। उनसे
दंगे, उपद्रव
नहीं करवाए जा
सकते। उन्हें
रस ही नहीं रह
जाएगा लड़ने का।
इन
सारी औषधियों
के कारण
पश्चिम के एक
बहुत बड़े
विचारक अल्डुअस
हक्सले ने
घोषणा की थी
कि इस सदी के
पूरे होते—होते
हम सोम का पता
लगा लेंगे।
क्योंकि सोम
इन्हीं sए मिलती—जुलती
कोई चीज होनी
चाहिए। इनसे
बहुत श्रेष्ठ,
लेकिन इनसे
मिलती—जुलती।
क्योंकि वेद
में जो वर्णन
है सोम का कि
ऋषि सोम को पी
लेते हैं और समाधिस्थ
हो जाते हैं, और परमात्मा
के आमने—सामने
उनकी चर्चा और
बातचीत होने
लगती है। इस
लोक से रूपांतरित
हो जाते हैं; किसी और
आयाम में
प्रविष्ट हो
जाते हैं।
हो
सकता है, सोम इस तरह
का रासायनिक
रस रहा हो कि समाज
को उसे
विलुप्त कर
देना पड़ा हो।
क्योंकि समाज
उसके सहारे
नहीं चल सकता।
अगर लोग बहुत
आनंदित हो
जाएं, नाचने—गाने
लगें और
तल्लीन रहने
लगें, तो समाज
नहीं चल सकता
है। समाज के
लिए थोड़े दुखी,
परेशान लोग
चाहिए; वे
ही चलाते हैं।
उनके बिना
नहीं चल सकता।
अगर
सभी लोग
प्रसन्न हों, तो बहुत
मुश्किल है
काम। किसको
लगाइएगा दौड़
में कि तू
फैक्टरी चला।
वह कहेगा, ठीक
है, रोटी
मिल जाती है।
किसको दौड़ में
लगाइएगा कि तू
दिल्ली जा! वह
कहेगा, हम
पागल नहीं हैं।
हम जहा हैं, वहीं दिल्ली
है। हम मजे
में हैं।
यह जो
इतनी दौड़ चलती
है, अर्थ
की, राजनीति
की, सब तरह
की
विक्षिप्तता
की, इसके
लिए दुखी लोग चाहिए।
युद्ध चलते
हैं, संघर्ष
चलता है, और
चैन नहीं है
एक क्षण को, इसके लिए
बेचैन लोग
चाहिए।
हिप्पियों
से अमेरिका
डरा हुआ है। क्योंकि
अगर सारे लड़के
और लड़किया
हिप्पियों
जैसे हो जाएं, तो
अमेरिका
डूबेगा। इस
अर्थ—तंत्र
में उसकी कोई
जगह न रह
जाएगी।
इनको
लड़वाया नहीं
जा सकता है।
ये लड़ने से
इनकार करते
हैं। और यह
परिणाम है एल
एस. डी. और मांरिजुआना
और मेस्कलीन
का, तो
सोम का क्या
परिणाम रहा
होगा!
सोम
अदभुततम रस है।
हिंदू धारणा
से सभी
वनस्पतियों
में चांद उतरता
है। लेकिन सोम
नाम की जो
वनस्पति है, उसमें
चांद पूरा
उतरता है। वह
चांद की पूरी
शांति को पी
जाती है। उसके
पत्ते—पत्ते
में, उसके
फूल में, उसकी
जड़ों में चांद
छिप जाता है।
और उसका अगर
विधिवत उपयोग
किया जाए, तो
समाधि फलित
होती है।
निश्चित ही, उस पर रोक
लगाई गई होगी;
उसको
छिपाया गया
होगा या नष्ट
कर दिया गया
होगा। इसलिए
बहुत खोज करके
हिमालय में भी
सोम वनस्पति
उपलब्ध नहीं
होती।
लेकिन
कृष्ण यहां कह
रहे हैं कि
मैं वही सोम
हूं। चांद भी
मैं हूं, सूरज भी मैं
हूं। इस जगत
में जो तेज है,
वह भी मेरा
है, और इस
जगत में जो शांति
है, सन्नाटा
है, वह भी
मेरा है। इस
जगत में जो
तरंगें हैं, वे भी मेरी
हैं। इस जगत
में जो मौन है,
वह भी मेरा
है। इस जगत का
जो ताप—उत्तप्त
व्यक्तित्व
है, वह भी
मैं हूं; और
इस जगत का जो शांत
समाधिस्थ
व्यक्तित्व
है, वह भी
मैं हूं।
मैं ही
सब प्राणियों
के शरीर में
स्थित हुआ वैश्वानर
अग्निरूप
होकर प्राण और
अपान से युक्त
हुआ अन्न को
पचाता हूं। और
मैं ही सब
प्राणियों के
हृदय में
अंतर्यामीरूप
से स्थित हूं।
यह
काफी
महत्वपूर्ण
बात है, सभी
प्राणियों के
हृदय में
अंतर्यामीरूप
से स्थित हूं।
आपके
भीतर कहां
अंतर्यामी है? अगर आप
अपने
अंतर्यामी को
पकड़ लें, तो
क्या के चरण
हाथ में आ गए।
कौन—सा तत्व
है आपके भीतर
जो अंतर्यामी
है? कैसे
उस तत्व को
पकड़े?
अंतर्यामी
का अर्थ होता
है, भीतर
का जानने वाला।
भीतर जो छिपा
है जानने वाला।
तो जिस तत्व
को आप जान
नहीं सकते और
जो सबको जानता
है, धीरे—
धीरे उसकी
गहराई में
डूबना है।
शरीर
को मैं जानता
हूं। शरीर को
देखता हूं। तो
जिसे मैं
जानता हूं और
देखता हूं वह
अलग हो गया, पृथक हो
गया, वह
मेरा ज्ञाता न
रहा, ज्ञेय
हो गया, वह
आब्जेक्ट हो
गया। वह संसार
का हिस्सा हो
गया।
भीतर आंख
बंद करता हूं
तो हृदय की
धड़कन भी मैं
सुनता हूं? अपने
हृदय की धड़कन
भी सुनता हूं।
तो यह हृदय की
धड़कन मेरी न
रही; यंत्रवत
हो गई, शरीर
की हो गई। मैं
देखने वाला
इसके पीछे खड़ा
हूं। इसको भी
मैं सुनता हूं;
इससे मैं
अलग हो गया, फासला हो
गया।
आंख
बंद करता हूं
विचारों की
बदलियां
घूमती हैं।
उनको भी मैं
देखता हूं कि
यह विचार जा
रहा है, यह अच्छा, यह बुरा; यह
क्रोध, यह
लोभ। इन
विचारों के
पार मैं देखने
वाला हो गया।
समस्त
ध्यान की
प्रक्रियाएं
इतनी ही
चेष्टा करती
हैं कि
तुम्हें यह
समझ में आना
शुरू हो जाए
कि तुम क्या—क्या
नहीं हो। नेति—नेति; यह भी मैं
नहीं, यह
भी मैं नहीं।
काटते जाओ। जो
भी दिखाई पड़
जाए, जो भी
ज्ञेय बन जाए
जो भी
आब्जेक्ट बन
जाए, उसे
छोड़ते जाओ; इलिमिनेट
करो, नकार
करो। और उस
जगह ही रुको, जहा सिर्फ
जानने वाला ही
रह जाए। वह
अंतर्यामी है।
वह जो भीतर
छिपा और सब
जानता है, और
किसी के
द्वारा कभी
जाना नहीं
जाता।
क्योंकि उसके
पीछे जाने का
कोई उपाय नहीं
है। वह सबसे पीछे
है। वह अंत है।
वह मूल है। वह
उत्स है।
अगर हम
अपने भीतर के
अंतर्यामी को
पकड़ लें, वही हम हैं, अगर उसमें
हम खडे हो
जाएं और ठहर
जाएं, तो
हम कृष्ण में
खड़े हो गए। और
तब हम भी कह
सकेंगे कि यह
सूरज मेरी ही रोशनी
है, और यह
चांद मुझसे ही
चमकता है, औषधियां
मुझसे ही बड़ी
होती हैं; और
इस जगत में जो
सोम बरस रहा
है, वह मैं
ही हूं।
अंतर्यामी
को आप पकड़ लें, तो यही
घोषणा जो
कृष्ण की है, आपकी घोषणा
हो जाएगी। और
तभी आप समझ
पाएंगे कि
कृष्ण अहंकार
के कारण यह
घोषणा नहीं कर
रहे हैं, यह
एक आतरिक
अनुभव के कारण
कर रहे हैं।
और मैं
ही सब
प्राणियों के
हृदय में
अंतर्यामीरूप
से स्थित हूं
तथा मेरे से
ही स्मृति, जान और
अपोहन, संशय—विसर्जन
होता है और सब
वेदों द्वारा
मैं ही जानने
के योग्य हूं
तथा वेदात का
कर्ता और
वेदों को
जानने वाला भी
मैं ही हूं।
मुझसे
ही स्मृति, ज्ञान और
अपोहन।
तीन
शब्दों का
कृष्ण ने
उपयोग किया है, स्मृति, ज्ञान और
अपोहन। अपोहन
का अर्थ है, संशय—विसर्जन।
यह बड़ी समझने
की बात है।
अपोहन शब्द
याद रखने जैसा
है।
आपके
भीतर सदा
ऊहापोह चलता
है। ऊहापोह का
मतलब है, यह ठीक कि वह ठीक!
यह भी ठीक, वह
भी ठीक! कुछ
समझ नहीं पड़ता,
क्या ठीक।
संशय! मन
डोलता रहता है
घड़ी के
पेंडुलम की
तरह, बाएं —दाएं;
कहीं ठहरता
नहीं मालूम
पड़ता। यह
ऊहापोह की
अवस्था है।
अपोहन
का अर्थ है, इससे
विपरीत
अवस्था। जहा
कोई ऊहापोह
नहीं, जहा
संशय चला गया;
जहा असंशय
आप खड़े हो गए। जहा
पेंडुलम
घूमता नहीं है;
खड़ा हो गया
है घिर। जहा
कोई कंपन नहीं
है। जहा यह
ठीक या वह ठीक,
ऐसा भी कोई
सवाल नहीं है।
जहा आप सिर्फ
खड़े हैं, जहा
चुनाव न रहा।
जिसको
कृष्णमूर्ति
च्चाइसलेसनेस
कहते हैं, वह
अपोहन है। जहा
सब चुनाव शांत
हो गए; जहा
मुझे चुनना
नहीं कि यहां
जाऊं कि वहा
जाऊं। जहा आप
बिना चुनाव
चुपचाप खड़े
हैं, जहा
चित्त थिर है।
कृष्ण
कहते हैं, स्मृति
मैं हूं।
क्योंकि आपके
भीतर जिसको आप
स्मृति कहते
हैं, उसको
कृष्ण स्मृति
नहीं कह रहे
हैं। जिसको आप
मेमोरी कहते
हैं, वह
नहीं। कि आपको
पता है कि
आपका नाम क्या
है, आपकी
तिजोरी में
कितना रुपया जमां
है, आपकी
दुकान कहां है,
इससे
प्रयोजन नहीं
है स्मृति का।
स्मृति से इस
बात का
प्रयोजन है कि
मैं कौन हूं।
सेल्फ
रिमेंबरिग।
मेमोरी नहीं,
आत्म—बोध, कि मैं कौन
हूं!
आप
दुकानदार हैं, यह आत्म—बोध
नहीं है।
क्योंकि
दुकानदार
होना
सांयोगिक है;
कोई आपका
स्वभाव नहीं
है।
लेकिन
हम उसको भी
स्वभाव की तरह
पकड़ लेते हैं।
दुकानदार को
दुकान से हटाओ, उसको
लगता है, उसकी
आत्मा जा रही
है। नेता को
पद से हटाओ, उसको लगता
है, मरे; गए। पद के
बिना वह कुछ
भी नहीं है।
मैंने
सुना है, एक गाव से
चार चोर
निकलते थे।
उन्होंने
देखा कि एक नट
छलांग लगाकर
बड़ी ऊंची
रस्सी पर चढ़
गया। और रस्सी
पर नाचने के
कई तरह के
करतब दिखाने लगा।
उन चोरों ने
कहा, यह
आदमी तो काम
का है! इसको
उड़ा ले चलें।
हमें बड़ी
मेहनत पड़ती है
मकानों में
चढ़ने में रात।
यह तो गजब का
आदमी है! एक
इशारा करो कि
दूसरी मंजिल
पर पहुंच जाए।
उस नट
को उन्होंने
उड़ा लिया। रात
उन्होंने बड़े
से बड़ा जो नगर
का सेठ था, उसकी
हवेली चुनी; जिसको वे अब
तक नहीं चुन
पाए थे, क्योंकि
हवेली बड़ी थी,
चढ़ने में
अड़चन थी।
नट को
लेकर वे
पहुंचे। बड़े
प्रसन्न थे।
उन्होंने नट
से कहा, अब तू देर न
कर भाई। एक, दो, तीन, छलांग लगा, ऊपर चढ़।
लेकिन नट वहीं
खड़ा रहा।
उन्होंने फिर
दुबारा कहा; नट वहीं फिर
खड़ा रहा।
उन्होंने फिर
तीसरी बार कहा।
तीसरी बार एक
चोर बिलकुल
नाराज हो गया,
उसने कहा, अभी तू खड़ा
क्यों है? चढ़!
हमारे पास ज्यादा
समय नहीं है।
नट ने
कहा, पहले
नगाड़ा बजाओ।
बिना नगाड़े के
कैसे नट चढ़
सकता है!
नगाड़ा जब बजे,
तब उसने कहा,
मैं. नहीं
तो मेरे पैर
में गति ही
नहीं है। हम
खड़े नहीं हैं,
कोई उपाय ही
नहीं है। अब
चोर नगाड़ा तो
बजा नहीं सकता।
पर नट ठीक कह
रहा था। लेकिन
उसको भी खयाल
नहीं है कि
अगर वह छलांग
लगा सकता है, तो नगाड़े से
कुछ लेना—देना
नहीं है।
दुकानदार
होना आपका, कि
डाक्टर होना,
कि मजदूर
होना, कि
स्त्री होना,
कि पुरुष
होना, सांयोगिक
है। वह कोई
आपका स्वभाव
नहीं है। और
आप वह नहीं
रहेंगे, तो
सब मिट गया, ऐसा कुछ
नहीं है। कुछ
नहीं मिटता।
उसकी जो
स्मृति है, उसको कृष्ण
नहीं कह रहे
हैं कि वह मैं
हूं नहीं तो
आप सोचें कि
कृष्ण.।
कृष्ण
कह रहे हैं, आत्म—स्मरण
मैं हूं सेल्फ
रिमेंबरेंस
मैं हूं। जिस
दिन आप स्मरण
करेंगे इन सब
संयोगों से हटकर
आपका जो स्वभाव
है, आप कौन
हैं! मैं कौन
हूं!
ये
सारी
सांयोगिक
बातें हैं।
मेरा नाम, मेरा घर,
पता, ये
सब कुछ मूल्य
के नहीं हैं।
मेरा न कोई
नाम है, और
न मेरा कोई घर
है, और न
मेरा कोई रूप
है। मेरी वह
जो अरूप और
अनाम स्थिति
है, उसको
कृष्ण कहते
हैं, वह
स्मृति है।
स्मृति
शब्द बाद में
बिगड़ा और कबीर
और दादू के
समय में सुरति
हो गया। नानक
और दादू और
कबीर सुरति का
उपयोग करते हैं।
वे कहते हैं, सुरति
जगाओ। सुरति
का मतलब है, जगाओ उसको, जो आपके
भीतर परमात्मा
है।
और जब
रमण कहते हैं, जानो कि
तुम कौन हो—हू
एम आई; तो
वे इसी कृष्ण
के पीछे पड़े
हैं। यही कह
रहे हैं कि
पीछे पहचानो।
वह जो सब
संयोगों के
पार है, सब
स्थितियों के
पार है, सभी
स्थितियों से
गुजरता है, फिर भी किसी
स्थिति के साथ
एक नहीं है, सभी
अवस्थाओं से
गुजरता है.।
कभी आप
बच्चे हैं; कभी जवान
हैं; कभी
के हैं; लेकिन
आपके भीतर कोई
है, जो न
बच्चा है, न
जवान है, न
का है; जो
तीनों से
गुजरता है।
जैसे तीन
स्टेशनें हों
और आपकी ट्रेन
तीनों से गुजर
जाए। वह जो
यात्री भीतर
बैठा है, जो
सदा चल रहा है,
कहीं भी
ठहरता नहीं है,
किसी भी
अवस्था के साथ
एक नहीं हो
जाता है; सदा
अवस्था—मुक्त
है, उसकी
स्मृति को
कृष्ण कहते
हैं, मैं
हूं। शान! यहां
ज्ञान से अर्थ
नालेज का नहीं
है।
विश्वविद्यालय
ज्ञान देते
हैं। कृष्ण उस
ज्ञान की बात
नहीं कर रहे
हैं। शिक्षक
ज्ञान देते
हैं! स्मृति
इकट्ठी कर लेती
है ज्ञान को।
संग्रह हो
जाता है आपके
पास, बड़ी
सूचनाएं
इकट्ठी हो
जाती हैं।
कृष्ण उसको
ज्ञान नहीं कह
रहे हैं।
ज्ञान
से अर्थ नालेज
नहीं है। शान
से अर्थ प्रज्ञा
है। ज्ञान से
अर्थ विजडम है।
बड़ी अलग बात
है। क्योंकि
यह हो सकता है, आप कुछ न
जानते हों और
ज्ञानी हों।
और यह भी हो
सकता है, बहुत
कुछ जानते हों
और निपट
अज्ञानी हों।
आपके जानने से
कोई संबंध
नहीं है।
एक
आदमी बहुत कुछ
जान सकता है।
सब शास्त्र
कंठस्थ हों; तोते की
तरह कंठस्थ हो
सकते हैं, जरा
भी भूल न करे।
यंत्रवत
स्मृति हो। और
फिर भी जीवन
में व्यवहार
जो करे, वहां
अज्ञानी
सिद्ध हो।
आपको
वेद कंठस्थ
हों, सारी
बातें याद हों,
और गीता
आपकी जबान पर
बैठी हो; और
आपको मालूम है
बिलकुल कि न
तो शस्त्रों
से छिदता हूं
न अग्नि मुझे
जला सकती है।
और जरा—सा दुख
आ जाए और आप
छाती पीटकर रो
रहे हैं! सब गीता
वगैरह रखी रह
जाती है! वहा
पता चलता है
कि यह प्रज्ञा
है या नहीं।
प्रज्ञा आपके
अनुभव में काम
आती है। और
शान केवल
बुद्धि की
बातचीत है। और
बुद्धि की
बातचीत तो हम
कुछ भी इकट्ठी
कर ले सकते
हैं।
मैं एक
प्रोफेसर के
घर मेहमान था।
ऐसे अचानक
मेरे कान में
पति—पत्नी की
बात पड़ गई।
मैं अपने कमरे
में बैठा था, जहा उनके
घर में रुका
था। पति बाहर
से आए। पत्नी
से कहा—कुछ
जोर से ही कहा,
बड़े
प्रसन्न थे—कि
आज रोटरी क्लब
में रात मेरा
व्याख्यान है
तिब्बत के ऊपर।
पत्नी ने कहा,
तिब्बत? लेकिन
तुम तिब्बत तो
कभी गए नहीं!
पति ने कहा, छोड़ो भी।
सुनने वाले ही
कौन से तिब्बत
होकर आए हैं!
यह मैं
सुन रहा था।
तब मुझे पता
चला कि शान के
लिए तिब्बत
जाने की कोई
जरूरत नहीं है, न सुनने
वाले को, न
बोलने वाले को।
अक्सर
अध्यात्म के
नाम पर ऐसे ही
तिब्बत के यात्री
चलते रहे हैं।
न सुनने वाले
को कुछ पता है
कि ब्रह्म
क्या, न
बोलने वाले को
कुछ पता है।
जब दोनों को
पता नहीं, तो
कोई अड़चन ही
नहीं है। यहां
जो कृष्ण कह
रहे हैं ज्ञान,
तो विजडम, प्रज्ञा से
उसका संबंध है।
अनुभव में
जिसके, जीवन
में जिसका बोध
सधा हुआ है, कैसी भी
अवस्था हो, जिसके बोध
को डिगाया
नहीं जा सकता,
वह मैं हूं।
स्मृति, ज्ञान
और अपोहन, सब
वेदों द्वारा
जानने योग्य।
ये ही तीन
बातें हैं।
सारा वेदांत
इन्हीं तीन की
खोज करता है।
और न केवल सब
वेदों द्वारा
मैं ही जानने
के योग्य हूं
वरन वेदांत का
कर्ता और
वेदों को
जानने वाला भी
मैं ही हूं।
सारे
वेद मुझे ही
खोजते हैं। और
सारे वेद मेरे
ही अनुभव से
निकलते हैं।
सारे
वेदों की खोज
क्या है? कि वह
अंतर्यामी
मिल जाए। वह
जो भीतर छिपा
हुआ राजों का
राज है, वह
मिल जाए।
लेकिन वेद
निकलते कहां
से हैं?
जिनको
वह मिल जाता
है, उनकी
वाणी वेद बन
जाती है। जो
उसे पा लेते
हैं, उनकी
सुगंध वेद बन 'जाती है। जो
वहां तक पहुंच
जाते हैं उस
अंतर्यामी तक,
फिर वे जो
भी कहते हैं, वही वेद बन
जाता है। वे न
कहें, तो
मौन उनका वेद
हो जाएगा। वे
चलें—फिरें, उठें, तो
उनकी गतिविधि
वेद हो जाएगी।
अगर
बुद्ध को चलते
हुए भी देख लो, तो भी उस
चलने में समाधि
है; उसमें
भी इशारा है।
अगर कृष्ण को
बांसुरी
बजाते हुए देख
लो, तो उस
बांसुरी में
वेद है; उसमें
सारा वेदांत
है, उसमें
सारा इशारा है।
कृष्ण
कहते हैं कि
मैं ही सबकी
खोज, और
मैं ही सब का
मूल उत्स। और
यह जो मैं है, तुम्हारे
भीतर छिपा हुआ
अंतर्यामी है।
कृष्ण बाहर से
बोल रहे हैं, लेकिन जिसकी
तरफ इशारा कर
रहे हैं, वह
अर्जुन के
भीतर है।
गुरु
सदा बाहर से
बोलता है, लेकिन
जिस तरफ इशारा
करता है, वह
शिष्य के भीतर
है। इसलिए दो
पड़ाव हैं
यात्रा के। एक
तो बाहर का
गुरु, वह
पहला पड़ाव है।
और फिर भीतर
का गुरु, वह
अंतिम पड़ाव है।
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