अध्याय—15
सूत्र—174
न
रूपमस्येह
तथोपलभ्यते
नान्तो
न चादिर्न च
संप्रतिष्ठा।
अश्वथमेनं
सुविरूद्धमूलम्
असङ्गशस्त्रेण
दृढ़ेन छित्वा।।
3।।
तत: पदं
तत्परिमार्गितव्यं
यीस्मन्गता
न निवतर्न्ति
भूय:।
तमेव ब्राह्य
पुरुषं
पुपद्ये
यत:
प्रवृत्ति:
प्रमृता
पुराणी।। 4।।
निर्मानमोहा
जितसङ्गदोषा
अध्यात्मनित्या
विनिवृक्कामा:।
द्वन्द्वैर्विमुक्ता:
सुखदुखसंज्ञै:
गव्छज्यमूढा:
पदमव्ययं तत्।।
5।।
इस
संसार— वृक्ष
का रूप जैसा
कहा है, वैसा
यहां नहीं पाया
जाता है; क्योंकि
न तो इसका आदि
है और न अंत है
तथा न अच्छी
प्रकार से
स्थिति ही है।
इसलिए हम
अहंता? ममता
और वासनारूप
अति दृढ़
मूलों वाले
संसाररूप
पीपल के वृक्ष
को दृढ़
वैराग्यरूप
शस्त्र
द्वारा काटकर, उसके
उपरांत उस परम
पद रूप
परमेश्वर को
अच्छी प्रकार
खोजना चाहिए
कि जिसमें गए हुए
पुरुष फिर
पीछे संसार
में नहीं आते
हैं।
और
जिस परमेश्वर
से यह पुरातन
संसार— वृक्ष
की प्रवृत्ति
विस्तार को
प्राप्त हुई
है उस ही आदि
पुरुष के मैं
शरण है हम
प्रकार दृढ़
निश्चय करके
नष्ट हो गया
है मान और मोह
जिसका तथा जीत
लिया है
आसक्तिरूप
दोष
जिन्होंने और
परमात्मा के
स्वरूप में है
निरंतर
स्थिति जिनकी
तथा अच्छी प्रकार
से नष्ट हो गई
है कामना
जिनकी? ऐसे वे सुख—
दुख नामक
द्वंद्वों से
विमुक्त हुए ज्ञानीजन
उस अविनाशी
परम पद को
प्राप्त होते
हैं।
सूत्र
के पहले कुछ
प्रश्न।
पहला
प्रश्न :
आपने
कल माता और
पिता के बारे
में जो भी कहा, वह बहुत
प्रिय था।
माता—पिता
बच्चों को
प्रेम देते
हैं, लेकिन
बच्चे माता—पिता
को प्रेम
क्यों नहीं दे
पाते हैं?
—तीन बातें
समझनी जरूरी
हैं।
एक तो
आपसे मैंने
कहा कि अपने
माता—पिता को
प्रेम दें।
प्रश्न
जिन्होंने
पूछा है, वे बच्चों
से अपने लिए
प्रेम मांग
रहे हैं। वहीं
भूल हो गई है।
सभी
मां—बाप
बच्चों से
प्रेम मांगते
हैं। आपके मां—बाप
ने भी आपसे
मांगा होगा और
आप नहीं दे
पाए। आप भी
अपने बच्चों
से मांग रहे
हैं और प्रेम
पाने की
संभावना बहुत
कम है। आपके
बच्चे भी अपने
बच्चों से
मांगेंगे।
जो
मैंने कहा था, वह कहा था
बच्चों के लिए
मां —बाप को
प्रेम देने के
लिए। मां—बाप
बच्चों से
प्रेम मांगें,
इसके लिए
नहीं। और
प्रेम कभी
मांगकर मिलता
नहीं, और
मांगकर मिल भी
जाए, तो
उसका कोई
मूल्य नहीं है।
जहां मांग
पैदा होती है,
वहीं प्रेम
मर जाता है।
दूसरी
बात, मां —बाप
का प्रेम
बच्चे के
प्रति
स्वाभाविक, सहज, प्राकृतिक
है। जैसे नदी
नीचे की तरफ
बहती है, ऐसा
प्रेम भी नीचे
की तरफ बहता
है। बच्चे का
प्रेम मां—बाप
के प्रति बडी
अस्वाभाविक, बड़ी साधनागत
घटना है। वह
जैसे पानी को
ऊपर चढाना हो।
तो
गुरजिएफ का जो
सूत्र था, वह यह था कि
जो लोग अपने
मां—बाप को
प्रेम दे पाते
हैं, उन्हें
ही मैं मनुष्य
कहता हूं; क्योंकि
अति कठिन बात
है।
सभी
मां—बाप अपने
बच्चों को
प्रेम देते
हैं, वह
सहज बात है।
उसके लिए
मनुष्य होना
भी जरूरी नहीं
है, पशु भी
उतना करते हैं।
मां —बाप से
बच्चे की तरफ
प्रेम का बहना
नदी का नीचे
उतरना है।
बच्चे मां—बाप
को प्रेम दें,
तो
ऊर्ध्वगमन
शुरू हुआ। अति
कठिन बात है।
मां—बाप
सोचते हैं, हम इतना
प्रेम बच्चों
को देते हैं, बच्चों से
हमें प्रेम
क्यों नहीं
मिलता? सीधी—सी
बात उनकी
स्मृति में
नहीं है। उनका
अपने मां—बाप
के प्रति कैसा
संबंध रहा? और अगर आप
अपने मां—बाप
को प्रेम नहीं
दे पाए, तो
आपके बच्चे भी
कैसे दे
पाएंगे? और
जैसा आप अपने
बच्चों को दे
रहे हैं, आपके
बच्चे भी उनके
बच्चों को
देंगे, आपको
क्यों देंगे?
यह
प्राकृतिक
पशु .में भी हो
जाता है।
इसलिए मां—बाप
इसमें बहुत
गौरव अनुभव भ करें
कि वे बच्चों
को प्रेम करते
हैं। यह सीधी
स्वाभाविक, प्राकृतिक
घटना है। मां—बाप
बच्चों को
प्रेम न करें,
तो
अप्राकृतिक
घटना होगी।
बच्चे मां—बाप
को प्रेम करें,
तो अस्वाभाविक
घटना घटती है,
बहुत
बहुमूल्य।
क्योंकि वहां
प्रेम
प्रकृति के
चक्र से मुक्त
हो जाता है, वहां प्रेम
सचेतन हो जाता
है।
इसलिए
सभी प्राचीन
संस्कृतियां
माता—पिता के
लिए परम आदर
का स्थापन
करती हैं। और
इसे सिखाना
होता है। इसके
संस्कार
डालने होते
हैं। इसके लिए
पूरी
संस्कृति का
वातावरण
चाहिए, पूरी हवा
चाहिए, जहां
कि यह ऊपर की
तरफ उड़ना आसान
हो सके।
नीचे
की तरफ उतरने
में कुछ भी
गौरव—गरिमा
नहीं है। कठिन
और भी है। जब
एक बच्चा पैदा
होता है, तो बच्चा तो
निर्दोष होता
है, सरल
होता है। और
बड़ी बात है—वही
उसका गुण है, जिसकी वजह
से आपका प्रेम
उसकी तरफ बहता
है—असहाय होता
है, हेल्पलेस
होता है।
असहाय को
प्रेम देने
में आपके
अहंकार को बड़ी
तृप्ति मिलती
है। असहाय को
बड़ा करने में
आपको बड़ा रस
आता है। फिर
बच्चा
निर्दोष होता
है। उसको घृणा
करने का तो
कोई उपाय भी
नहीं। उस पर
कठोर होने में
आपको मूढ़ता
मालूम पड़ेगी।
पर जैसे—जैसे
बच्चा बडा
होता है, वैसे—वैसे
आपका प्रेम
सूखने लगता है;
वैसे—वैसे
आप कठोर होने
लगते हैं!
जैसे—जैसे
बच्चा अपने
पैरों पर खडा
होने लगता है,
वैसे—वैसे
आप और बच्चे
के बीच खाई
बढ़ने लगती है।
क्योंकि अब
बच्चा असहाय
नहीं है। और
अब बच्चे का
भी अहंकार
पैदा हो रहा
है। अब बच्चा
भी संघर्ष
करेगा, प्रतिरोध
करेगा, बगावत
करेगा, लड़ेगा।
अब उसकी जिद्द
और उसका हठ
पैदा हो रहा
है। उससे आपके
अहंकार को चोट
पहुंचनी शुरू
होगी।
नवजात
बच्चे को
प्रेम करना
बड़ा सरल है।
लेकिन जैसे ही
बच्चा बड़ा
होना शुरू
होता है, प्रेम करना
मुश्किल, कठिन
होने लगता है।
ठीक
इससे उलटी बात
खयाल में रखें
कि बच्चे के लिए
आपको प्रेम
करना बहुत
कठिन है, घृणा करना
सरल है।
क्योंकि आप
शक्तिशाली
हैं। और
निर्बल हमेशा
शक्तिशाली को
घृणा करेगा।
शक्तिशाली
दया बता सकता
है निर्बल के
प्रति, लेकिन
निर्बल को दया
बताने का तो कोई
उपाय नहीं है।
निर्बल
शक्तिशाली को
घृणा करेगा।
बच्चा
अनुभव करता है, असहाय है
और आप
शक्तिशाली
हैं। बच्चा
अनुभव करता है,
वह परतंत्र
है और सारी
शक्ति, सारी
परतंत्रता का
जाल आपके हाथ
में है। जैसे
ही बच्चे का
अहंकार बड़ा
होगा—बड़ा होगा
ही, क्योंकि
वही गति है जीवन
की—जैसे ही
बच्चा सजग
होगा और
समझेगा मैं हूं, वैसे ही
आपके साथ संघर्ष
शुरू होगा।
आप
चाहेंगे
आज्ञा माने, और बच्चा
चाहेगा कि आशा
तोड़े।
क्योंकि
आज्ञा मनवाने
में आपके
अहंकार की तृप्ति
है और आशा
तोड्ने में
उसके अहंकार
की तृप्ति है।
और बच्चे के
मन में आपके
लिए घृणा होगी,
और आपका
प्रेम सिर्फ
जालसाजी
मालूम होगी।
क्योंकि
प्रेम के नाम
पर आप बच्चे
का शोषण कर रहे
हैं, ऐसा
बच्चे को
प्रतीत होगा।
और सौ में
नब्बे मौके पर
बच्चा गलती
में भी नहीं
है। प्रेम के
नाम पर यही हो
रहा है।
यह
सारी घृणा
बच्चे में
इकट्ठी होगी।
अगर बच्चा
लड़का है, तो पिता के
प्रति घृणा
इकट्ठी होगी,
अगर लड़की है,
तो मां के
प्रति घृणा
इकट्ठी होगी।
कोई बेटा अपने
बाप को आदर
नहीं कर पाता।
आदर करना पड़ता
है, मजबूरी
है, लेकिन
भीतर से बगावत
करना चाहता है।
कोई लड़की अपनी
मां को प्रेम
नहीं कर पाती।
दिखलाती है, वह
शिष्टाचार है।
लेकिन भीतर
ईर्ष्या, जलन
और संघर्ष है।
इसलिए
गुरजिएफ की
बात मूल्यवान
है कि जो व्यक्ति
अपने मां—बाप
को प्रेम कर
पाए, उसे
ही मैं मनुष्य
कहता हूं।
क्योंकि यह
बड़ी कठिन
यात्रा है।
इसलिए
आप अगर अपने
बच्चों को
प्रेम करते
हैं, तो
बहुत गौरव मत
मान लेना। सभी
अपने बच्चों
को प्रेम करते
हैं, आपके
बच्चे भी
करेंगे।
इसमें कोई
विशेषता नहीं
है। लेकिन अगर
आप अपने मां—बाप
के प्रति आदर
करते हैं, प्रेम
करते हैं, सम्मान
रखते हैं, तो
जरूर गौरव की
बात है, जरूर
महत्वपूर्ण
बात है।
क्योंकि यह एक
चेतनागत
उपलब्धि है। और
यह तब ही हो
सकती है, जब
आप मूल के
प्रति
श्रद्धा से भर
जाएं।
अन्यथा
हर बेटे को
ऐसा लगता है
कि बाप मूढ़ है।
और जैसे—जैसे
आधुनिक विकास
हुआ है शिक्षा
का, वैसे—वैसे
यह प्रतीति और
गहरी होने लगी
है।
शायद
बाप उतना पढ़ा—लिखा
न हो, जितना
बेटा पढ़ा—लिखा
है। बाप बहुत—सी
बातें नहीं भी
जानता है, जो
बेटा जान सकता
है। रोज शान
विकसित हो रहा
है। इसलिए बाप
का ज्ञान तो
पिछड़ा हो जाता
है; आउट आफ
डेट हो जाता
है।
तो
बेटे के मन
में स्वभाविक
हो सकता है कि
बाप कुछ भी
नहीं जानता।
श्रद्धा कैसे
पैदा हो? श्रद्धा
किन्हीं
तथ्यों पर
आधारित नहीं
हो सकती।
श्रद्धा तो
सिर्फ इस बात
पर आधारित हो
सकती है कि
पिता उदगम है,
स्रोत है; और जहां से
मैं आया हूं, उससे पार
जाने का कोई
उपाय नहीं।
मैं कितना ही
जान लूं,
मैं कितना ही
बड़ा हो जाऊं
अपनी आंखों
में, मेरा
अहंकार कितना
ही
प्रतिष्ठित
हो जाए, लेकिन
फिर भी मूल और
उदगम के सामने
मुझे नत होना
है। क्योंकि
कोई भी अपने
उदगम से ऊपर
नहीं जा सकता।
कोई
वृक्ष अपने
बीज से ज्यादा
नहीं होता। हो
भी नहीं सकता।
बीज में पूरा
वृक्ष छिपा है।
कितना ही
विराट वृक्ष
हो जाए वह
छोटे—से बीज
में छिपा है।
और उससे
अन्यथा होने
की कोई नियति
नहीं है। और
अंतिम फल जो
होगा वृक्ष का, वह यह
होगा कि
उन्हीं बीजों
को वह फिर पुन:
पैदा कर जाए।
उदगम
से आप कभी बड़े
नहीं हो सकते।
मूल से कभी
विकास बड़ा
नहीं हो सकता।
वृक्ष कभी बीज
से बड़ा नहीं
है, कितना
ही बडा दिखाई
पड़े। इस
अस्तित्वगत
घटना की गहरी
प्रतीति माता—पिता
के प्रति आदर
से भर सकती है।
लेकिन
आप माता—पिता
की तरह इसको
मत सुनना, इसको
बेटे और बेटी
की तरह सुनना।
यह आपके माता—पिता
के प्रति आपकी
श्रद्धा के
लिए कह रहा
हूं। अब जाकर
अपने घर में
आप अपने
बच्चों से
श्रद्धा मत
मांगने लगना।
क्योंकि तब आप
बात समझे ही
नहीं, चूक
ही गए।
और जिस
समाज में भी
माता—पिता के
प्रति
श्रद्धा कम हो
जाएगी, उस समाज में
ईश्वर का भाव
खो जाता है।
क्योंकि
ईश्वर आदि
उदगम है। वह
परम स्रोत है।
अगर आप
अपने बाप से
आगे चले गए
हैं तीस साल
में, आपके
और बाप के बीच
अगर तीस साल
की उम्र का
फासला है, आप
इतने आगे चले
गए हैं बाप से,
तो परम पिता
से, परमेश्वर
से तो आप बहुत
आगे चले गए
होंगे। अरबों—खरबों
वर्ष का फासला
है। अगर
परमात्मा मिल
जाए, तो वह बिलकुल
महाजड़, महामूढ़
मालूम पड़ेगा।
जब पिता ही
मूड मालूम
पड़ता है, अगर
परमात्मा से
आपका मिलन हो,
तो वह तो
आपको मनुष्य
भी मालूम नहीं
पड़ेगा।
पीछे
की ओर, मूल
की ओर, उदगम
की ओर सम्मान
का बोध अत्यंत
विचार और विवेक
की निष्पत्ति
है। वह
प्रकृति से
नहीं मिलती।
विमर्श, चिंतन,
ध्यान से
उपलब्ध होती
है।
पर
ध्यान रखना, जो भी मैं
कह रहा हूं वह
आपसे बेटे और
बेटियों की
तरह कह रहा
हूं पिता और
माता की तरह
नहीं।
दूसरा
प्रश्न :
आपने
पहले कहा है, क्षण—
क्षण जीयो, वर्तमान में
जीयो। अब आप
कह रहे हैं, अतीत में लौटो।
हम क्या करें?
वर्तमान में
जीना तभी संभव
है, जब
अतीत से
छुटकारा हो
जाए। उसके
पहले कोई
वर्तमान में
जी नहीं सकता।
इन दोनों
बातों में कोई
विरोध नहीं है।
वर्तमान में
वही जी सकता
है, जिसके
मन पर अतीत का
कोई बोझ नहीं।
अतीत का बोझ
हो, तो
वर्तमान में
जीने का उपाय
नहीं।
और
अतीत का बोझ
आपके ऊपर है।
यह अतीत में
लौटने की
प्रक्रिया उस
बोझ को काटने
का उपाय है।
उससे छुटकारा
चाहिए, वह गिर जाए।
जैसे
वस्त्रों को
छोड्कर कोई
नग्न खड़ा हो
जाए, ऐसा
अतीत छूट जाए
और आप नग्न
वर्तमान में
खड़े हो जाएं, तो ही
वर्तमान में
जी सकेंगे, तो ही क्षण—
क्षण होने का
अनुभव होगा।
ये दो बातें
विरोधी मालूम
पड़ सकती हैं। लेकिन
अतीत में
लौटना
वर्तमान में
जीने की कला
है।
अतीत
में जीने को
नहीं कह रहा
हूं आपसे कि
आप अतीत में
जीएं। अतीत
में जीने का
कोई उपाय नहीं
है। जो जा
चुका वह जा
चुका, वह
अब है नहीं।
उसमें जीएंगे
कैसे? कल
तो बीत गया।
और कल को लाने
का अब कोई
मार्ग नहीं है।
लेकिन
कल की स्मृति
भीतर टंगी रह
गई है। वह अभी
भी मौजूद है।
कल बीत चुका, सांप जा
चुका, उसकी
केंचुली आपके
मन में अटकी
रह गई है।
वह जो
कल की स्मृति
आपके मन में
आज भी मौजूद
है, उस
स्मृति से
छुटकारा
चाहिए। उस
स्मृति से
आपका रस
समाप्त हो जाए।
उस स्मृति के
न तो आप पक्ष
में रहें, न
विपक्ष में। न
तो उस स्मृति
से लगाव रहे
और न घृणा। उस
स्मृति से
आपका सारा
संबंध छूट जाए,
जैसे वह हुई
या नहीं हुई
बराबर हो जाए।
तो आप अतीत से
मुक्त हो गए; तो आपने
अतीत की स्लेट
को पोंछकर साफ
कर दिया। तब
ही आप वर्तमान
में जी पाएंगे।
तब आपकी आंखें
उज्ज्वल
होंगी, ताजी
होंगी, नई
होंगी। और आप
जो भी देखेंगे,
उसमें आपकी आंखों
पर पड़ी हुई
अतीत की धूल
बाधा नहीं
देगी। वह धूल
नहीं है वहा; दर्पण
स्वच्छ है।
तो
अतीत में
लौटने की
प्रक्रियाएं
वर्तमान में
जीने की
विधियां हैं।
और जो व्यक्ति
अतीत में
लौटने से डरता
है, वह
डरता ही इसलिए
है कि अतीत
बहुत भारी है।
अतीत का स्मरण
ही उसको बेचैन
और विचलित कर
देता है। उसका
अर्थ है कि मन
में भीतर अतीत
के घाव अभी
हरे हैं। कैसे
वर्तमान में
जीएंगे?
कल
किसी ने आपको
गाली दी थी, वह आदमी
आपको आज फिर
सड़क पर दिखाई
पड़ गया है।
आपकी आंखें
खाली नहीं हैं;
गाली से भरी
हैं। आपका मन
खाली नहीं है,
कल की गाली
अभी भी
अनुगूंज कर
रही है, अभी
भी गंज रही है।
और उस आदमी को
देखते ही गाली
फिर से सजग हो
जाएगी। और इस
आदमी को आप
वैसा नहीं
देखेंगे, जैसा
वह अभी है।
वैसा देखेंगे,
जैसा वह कल
गाली देते समय
था।
और हो
सकता है, वह आदमी
क्षमा मांगने
आ रहा हो। और
हो सकता है, वह भूल ही
चुका हो गाली।
हो सकता है, उसने
पश्चात्ताप
कर लिया हो, अपने को दंड
दे लिया हो।
लेकिन यह नया
आदमी आपको
दिखाई नहीं
पड़ेगा। आपके
पास आंखें
पुरानी हैं।
आप आज देख ही
नहीं रहे हैं;
कल से देख
रहे हैं।
और
हमारा सारा
देखना ऐसा है, हमारा
सारा सुनना
ऐसा है। हम
होते ही यहां
हैं न के
बराबर, निन्यानबे
प्रतिशत अतीत
बीच में खड़ा
होता है। उसके
कारण वर्तमान
से वंचित हो
जाते हैं।
तो जो
कल मैंने आपको
कहा अतीत में
लौटने के प्रयोग, वे अतीत
से छूटने के
प्रयोग हैं।
लौटकर वहां
टिक नहीं जाना
है। लौटकर वहा
रुक नहीं जाना
है। लौटना है
सिर्फ इसलिए,
ताकि अतीत
को आप सचेतन
रूप से जी लें।
इस बात को
थोड़ा खयाल से
समझ लें।
अतीत
में आप रहे
हैं, लेकिन
तब आप अचेतन
थे। कल इस
आदमी ने गाली
दी थी, तब
आपके पास होश
नहीं था। तब
गाली इतने जोर
से चोट की थी, आप इतने
धुएं से भर गए
थे, क्रोध
इतना उबल आया
था कि आप देख
नहीं सके क्या
हुआ। उस क्रोध
की मूर्च्छा
में आप सचेतन
रूप से अनुभव
से गुजर नहीं
सके।
लेकिन
अब तो कल बीत
गया। कल की
गाली भी गई, आदमी भी
गया, कल भी
गया। अब आप
बैठकर चुपचाप
कल की घटना
में फिर से
उतर सकते हैं।
और अब आप
सचेतन रूप से,
काशसली उतर
सकते हैं। जो
कल संभव नहीं
हुआ, वह आज
संभव हो सकता
है।
और आप
चकित हो
जाएंगे। अगर
आप होशपूर्वक
कल की घटना
में गए, तो आप अचानक
पाएंगे, उस
घटना का दंश
समाप्त हो गया।
उस घटना में
कोई चोट न रही,
उस गाली में
अब कोई काटे न
रहे। और अगर
यह स्मृति में
हो सकता है, तो इससे एक
अनुभव मिलेगा
कि अगर आप यह
वस्तुत भी कर
सकें, तो आपकी
जिंदगी में
कोई कांटे
नहीं रह
जाएंगे।
तब कल
फिर कोई गाली
आपको देगा—जिंदगी
के रास्ते पर
बहुत काटे हैं—और
जब कल आपको
दुबारा कोई
गाली दे, तो आपका यह
सचेतन गाली
में लौटने का
अनुभव सहयोगी
होगा। तब आप
अतीत बनने ही
मत देना, तब
आप वहीं देख
लेना। तब आप
वहीं खड़े हो
जाना शात और
इस घटना को
ऐसे ही देखना,
जैसे यह कोई
स्मृति का एक
खेल हो।
वस्तुत: न
घटती हो, सिर्फ
मन में एक
कल्पना हो रही
हो। तो फिर आपका
अतीत निर्मित
ही न होगा।
अतीत
के साथ दो काम
करने हैं। जो
बंधा हुआ अतीत
है, जिसको
हम इस मुल्क
में कर्म और
संस्कार कहते
रहे हैं, उसकी
निर्जरा करनी
है, उसको
झाडू देना है।
और दूसरा काम
यह करना है कि
अब आगे अतीत
निर्मित न हो
पाए। तो रोज—रोज
झाडू देना है।
जैसे ही धूल
पड़े, उसी
समय झाडू देना
है। इकट्ठा
करने का
प्रयोजन भी
क्या है? जिससे
कल छूट ही
जाना है, उसे
आज बांध लेने
की जरूरत क्या
है? और जो
कल बोझ बन
जाएगा, उसे
हम आज संग्रह
क्यों करें?
तो जो
संगृहीत है, उससे
छूटना है। और
जो संगृहीत हो
सकता है, उसको
संगृहीत नहीं
करना है।
पिछले
संस्कार को
पोंछना है, नए संस्कार
को निर्मित
नहीं होने
देना है। तब
आप दर्पण की
तरह स्वच्छ हो
जाएंगे। तब
जगत आपको वैसा
ही दिखाई
पड़ेगा जैसा है।
तब आप उसको
बिगाड़ेंगे
नहीं, तब
आप उसमें
जोडेंगे और
घटाएंगे नहीं।
और अगर ऐसी
दर्पण जैसी
स्थिति मिल
जाए, तब जो
हम जानते हैं,
वह संसार
नहीं है, वह
परमात्मा है।
तब जो हम
जानते हैं, वह मूल है, उत्स है, उदगम
है। उसे जानते
ही जीवन के
सारे दुख
तिरोहित हो जाते
हैं।
इन
दोनों बातों
में विरोध
नहीं है। एक
है लक्ष्य, वर्तमान
में जीना। और
दूसरी है विधि,
अतीत में
उतरना, जिससे
यह लक्ष्य
पूरा हो सकता
है। लेकिन
कठिन हमें
मालूम पड़ता है।
सुना
है मैंने कि
मुल्ला
नसरुद्दीन को
गाली देने की
सहज आदत थी, अकारण भी,
निर्जीव
वस्तुओं को भी।
अपनी बैलगाड़ी
को हाककर ले
जाता खेत तक, तो बैलों को
भी गाली देता।
गांव
में एक फकीर
आया हुआ था और
नसरुद्दीन को उसने
रास्ते पर
बैलों को गाली
देते देखा।
उसने
नसरुद्दीन को
समझाया। और
बात तो सीधी
थी; समझने
का कोई खास
कारण भी न था।
बैलों को माली
देने का कोई
अर्थ नहीं है।
और उनसे दूर
के कामुक
रिश्ते जोड़ना—मां—बहन,
उनकी मां और
बहन से संबंध
जोड़ना निपट पागलपन
की बात है।
नसरुद्दीन को
समझ में भी आ
गया। तो उसने
प्रतिशा कर ली,
कसम खा ली
कि अब, अब
दुबारा ऐसी
भूल नहीं
करूंगा।
लेकिन
कसमों से
आदतें कभी
टूटती नहीं।
और कसमों से
आदतें टूटती
होतीं, तो सारी
दुनिया कभी की
बदल गई होती।
और सिर्फ
बुद्धि को बात
ठीक लगती है, उतना ही
काफी नहीं है
जीवन
रूपांतरण के
लिए। क्योंकि
जीवन बुद्धि
से ज्यादा
गहरा है। वहा
अचेतन परतें
हैं। और
बुद्धि की खबर
वहा तक नहीं
पहुंचती।
पंद्रह
दिन ही नहीं
बीते होंगे कि
फिर फकीर रास्ते
पर मिल गया।
फकीर दिखाई
पड़ा, तो नसरुद्दीन
उस वक्त बैलों
को गाली दे
रहा था और
कोड़े मार रहा
था। जैसे ही
फकीर को देखा,
तो उसने
फकीर को
अनदेखा कर
दिया, और
जोर से बैलों
से कहा कि
सुनो, अगर
पंद्रह दिन
पहले की बात
होती, तो
जो बातें
मैंने कहीं, वह मैं
तुमसे कहता।
लेकिन चूंकि
अब मैं कसम खा
चुका हूं,
इसलिए प्यारे
बच्चो, जरा
जल्दी—जल्दी
चलो।
वह
गालियां दे
रहा था, लेकिन बैलों
से कहा कि अगर
पंद्रह दिन
पहले की बात
होती, तो
ये बातें
मैंने तुमसे
कही होतीं। अब
चूंकि कसम खा
चुका..।
जो भी
हमने पीछे
किया है, सोचा है, उस
सबके गहरे
खांचे हमारे
मन पर होते
हैं। और
उन्हीं
खांचों को हम
रोज—रोज उपयोग
करते हैं, तो
खांचे और गहरे
हो जाते हैं।
आप निर्णय भी
कर लें कि अब
ऐसा नहीं
करूंगा, तो
इस निर्णय का
खांचा तो इतना
गहरा नहीं
होता, यह
तो निर्णय अभी
पतली लकीर है।
यह निर्णय कभी
भी हार जाएगा,
क्योंकि
पुराने खांचे
हैं, उनकी
लीकें बन गई
हैं।
जैसे
गांव के कच्चे
रास्तों पर
गाड़ी की लीक
बन जाती है।
फिर आप
बैलगाड़ी
चलाएं, उसी लीक में
चके फिर पहुंच
जाएंगे, फिर
पहुंच जाएंगे।
वे गड्डे खाली
हैं, चकों
को उनमें जाना
आसान है। ठीक
मन पर लीकें
हैं। अतीत का
अर्थ है, अनंत
लीकें। तो आप
कितनी ही
बातें समझ
लेते हैं; बुद्धि
सहमत हो जाती
है, निर्णय
ले लेते हैं; संकल्प कर
लेते हैं। और
जब संकल्प
करते हैं, तब
सोचते हैं कि
कुछ होने—जाने
वाला है। घड़ी
भी नहीं बीत
पाती कि जो
आपने निर्णय
लिया था, वह
टूट जाता है।
और तब सिर्फ
आत्मग्लानि
पैदा होती है,
और कुछ भी
नहीं।
आपके
संत, आपके
फकीर, आपके
पंडित—पुरोहित,
आप में
सिर्फ
आत्मग्लानि
पैदा करवा
पाते हैं और
कुछ भी नहीं।
क्योंकि उनकी
बातें तो
तर्कयुक्त
हैं। आप भी कह
नहीं सकते कि
वे गलत
कह रहे
हैं। स्वीकार
करना पड़ता है
कि ठीक कह रहे
हैं। उस
स्वीकृति में
आप निर्णय
लेते हैं।
लेकिन
निर्णय किसके
खिलाफ ले रहे
हैं! न मालूम
कितनी लंबी
लकीरें भीतर
हैं, गहरे
खांचे हैं।
उनमें चलने की
आदत हो गई है।
उनमें चलना
सुगम है। वे
खांचे बार—बार
आपको
खींचेंगे।
अतीत
में वापस
उतरने का अर्थ
यह है, इन
खांचों को
मिटाना जरूरी
है। इसके पहले
कि आप कसम
खाएं, बदलाहट
का कोई निर्णय
लें, जिससे
आप छूटना
चाहते हैं, उससे सचेतन
रूप से गुजर
जाना जरूरी है।
आप प्रयोग
करके देखें, कि चीज से भी
आप सचेतन रूप
से गुजर
जाएंगे, उससे
छुटकारा हो
जाएगा।
एक
महिला मेरे
पास लाई गई।
उसके पति चल
बसे हैं। तीन
महीने हो गए, लेकिन वह
रोई भी नहीं।
बुद्धिमान है;
एक
युनिवर्सिटी
में प्रोफेसर
है। पढ़ी—लिखी
है। किताबें
लिखी हैं।
कविताएं
लिखती है।
प्रवचन करती
है। और जब
नहीं रोई, और
उसकी आंख से आंसू
न गिरे, तो
आस—पास के
लोगों ने भी
बड़ी प्रशंसा
की। उस
प्रशंसा ने
अहंकार को और
बल दिया। उससे
वह और भी अकड़
गई। लेकिन तीन
महीने के बाद
उसे
हिस्टीरिया
के फिट आने
शुरू हो गए; मूर्च्छा
आने लगी। तो
मूर्च्छा की
चिकित्सा
शुरू हो गई।
लेकिन
किसी ने भी यह
फिक्र न की कि
उसने दुख की एक
गहरी वेदना को
बिना जीए दबा
लिया। यह
बिलकुल
स्वाभाविक था
कि वह रो लेती।
और समझदार लोग
आस—पास होते, तो उसे
रोने में
सहायता
पहुंचाते। यह
उचित था कि
घाव जी लिया
जाता। वह नहीं
हो पाया। भीतर
रोना भरा रहा।
आंसू निकलना
चाहते थे, रोक
लिए गए। उन
सबका बोझ भारी
हो गया। मन
हलका न हो
पाया। उस मन
के बोझ का
परिणाम होने
ही वाला था कि
कोई भी भयानक
बीमारी पैदा
हो जाए।
उस
स्त्री की
पूरी बात
सुनकर मैंने
उसे कहा कि
कुछ और इलाज
की जरूरत नहीं
है, तू
जी भरकर रो ले।
उसने कहा, लेकिन
क्या फायदा
रोने से? रोने
से क्या मरा
हुआ व्यक्ति
मिलेगा?
मैं भी
नहीं कह रहा
हूं कि रोने
से मरा हुआ
व्यक्ति
मिलेगा। रोने
से तू ठीक से
जीवित हो
सकेगी। मरा
हुआ व्यक्ति
तो नहीं मिलने
वाला है।
लेकिन अगर
नहीं रोई, तो तू भी
मरी हुई हो
जाएगी। मरी
हुई हो ही गई
है। तेरा हृदय
भी पत्थर जैसा
हो जाएगा।
उसने
कहा, अब
बड़ा मुश्किल
है। जिस क्षण
पति मरे थे, उस समय तो
आसान था; अब
तो समय भी
काफी बीत चुका।
उससे
कहा, तुझे
लौटाना पड़ेगा;
अतीत में
वापस जाना
पड़ेगा।
तुझे उस दिन
से फिर कहानी शुरू
करनी पड़ेगी, जिस दिन पति
मरे थे। तो तू आंख
बंद कर ले और
जिस क्षण पहला
तुझे समाचार
मिला पति के
मरने का, वहाँ
से फिर से तू यात्रा
शुरू कर। ये पीछे
के जो दिन बीते,
इनको भूल जा
और फिर से जी।
वह मेरे
सामने बैठी—बैठी
ही विकल हो गई।
उसके हाथ—पैर में
कंपन आ गया।
उसकी आंखें बद
हो गई। उसके जबडे
भिंच गए। चीख
और रोना शुरू
हो गया। कोई
पंद्रह दिन गहन
पीड़ा रही।
लेकिन तब
हल्कापन आ गया।
अब वह हंस
सकती है।
इस फर्क
को आप समझ लें।
रोने
से सचेतन रूप
से गुजरी, तो अब हंस
सकती है। रोने
को दबा लिया
था, तो
हंसना तो दूर,
हिस्टीरिया
परिणाम था।
अतीत को
सचेतन रूप से
एकबार आप देख
लें, तो
आप हंस सकते
हैं। तब बोझ
तिरोहित हो
जाता है। और
उसके बाद ही
वर्तमान में
जीना संभव है।
आखिरी
प्रश्न :
गीता
की धारणा है
कि संसार
श्रेष्ठ से
अश्रेष्ठ की
ओर पतन है।
उसके अनुसार
हिंदुओं की सतयुग
से लेकर
कलियुग के
अवरोहण की
धारणा भी सही
लगती है।
लेकिन ज्ञात
इतिहास बताता
है कि मनुष्य—जाति
नरमेध, दासता और
दरिद्रता से
निकलकर क्रमश:
समृद्धि और
स्वतंत्रता
की ओर गतिमान
रही है। इसमें
तथ्य क्या है?
पहली बात, बच्चा
पैदा होता है,
तब वह
निर्दोष है, तब उसकी
स्लेट कोरी है।
न उस पर बुरा
है कुछ, और
न अच्छा है।
बच्चा साधु
नहीं है, निर्दोष
है। असाधु भी
नहीं है।
असाधु तो है
ही नहीं, साधु
होने का दोष
भी अभी उसके
ऊपर नहीं है।
अभी उसने हा
और न कुछ भी
नहीं कहा है।
अभी उसने बुरा
और अच्छा कुछ
भी चुना नहीं
है। अभी
निर्विकल्प
है। अभी उसका
कोई चुनाव
नहीं है। अभी
च्वाइसलेस है।
अभी उसे पता
भी नहीं कि
क्या अच्छा है
और क्या बुरा
है। अभी भेद
पैदा नहीं हुआ।
अभी बच्चा
अभेद में जी
रहा है।
यह जो
बच्चे की दशा
है, यही
दशा पूरे समाज
की भी कभी रही है,
उसी को
हिंदू सतयुग
कहते हैं। और
ठीक मालूम
होता है, वैज्ञानिक
मालूम होता है।
क्योंकि एक
व्यक्ति की
जीवन—कथा जो
है, वही
जीवन—कथा सभी
व्यक्तियों
की जीवन—कथा
है।
बच्चा
निर्दोष पैदा
होता है और का
सब दोषों से
भरकर मरता है।
सतयुग बचपन है
समाज का। और
कलियुग
बुढ़ापा है
समाज का; वह अंतिम
घड़ी है। जब सब
तरह के रोग
इकट्ठे कर लिए
गए। जब सब तरह
की बीमारियां
संगृहीत हो
गईं। जब सब
तरह के
अनुभवों ने
आदमी को चालाक
और बेईमान बना
दिया, भोलापन
खो गया।
हालांकि
उस बेईमानी और
चालाकी से कुछ
मिलता नहीं है।
क्योंकि
मिलता होता, तो के
प्रसन्न होते
और बच्चे दुखी
होते। खोता ही
है, मिलता
कुछ नहीं है।
लेकिन मन
समझाता है कि
होशियारी.।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
फैक्टरी में
काम करता था, तो उसका
हाथ कट गया।
मशीन के भीतर
आ गया बायां
हाथ और कट गया।
महीनों के
इलाज के बाद
जब वह अस्पताल
से वापस लौटा,
उसके मित्र
उसे देखने आए।
और उन्होंने
कहा कि
नसरुद्दीन, परमात्मा को
धन्यवाद दो कि
अच्छा हुआ कि
दायां हाथ न
कटा, नहीं
तो जिंदगी
बेकार हो जाती।
नसरुद्दीन ने
कहा कि
धन्यवाद देने
की कोई जरूरत
नहीं। हाथ तो
मेरा भी मशीन
में दायां ही
गया था, वह
तो मैंने वक्त
पर चालाकी की,
दायां
तत्काल
खींचकर बायां
अंदर कर दिया।
तो
जिसे हम आदमी
की समझदारी
कहते हैं, वह इससे
ज्यादा नहीं
है। क्योंकि
फल क्या है? सारी
बुद्धिमत्ता
कहा ले जाती
है? हाथ
में बचता क्या
है? बच्चे
को हानि क्या
है? उसकी
निर्दोषता से
उसका क्या खो
रहा है? निर्दोष
चित्त का कुछ
खो ही नहीं
सकता।
क्योंकि उसकी
कोई पकड़ नहीं
है।
मनुष्य
की जो, एक—एक
व्यक्ति की जो
कथा है, हिंदू
विचार पूरे
जीवन की कथा
को भी वैसा ही
स्वीकार करता
है। मनुष्य—जाति
का जो आदिम
युग था, वह
सतयुग है। जब
लोग सरल थे और
बच्चों की
भांति थे। और
यह बात सच
मालूम पड़ती है।
आज भी आदिम
जातियां हैं,
वे सरल हैं
और बच्चों की
भांति हैं।
फिर
सभ्यता, समझ, गणित
का विकास होता
है। हृदय खोता
है और बुद्धि
प्रबल होती है।
भाव क्षीण
होते हैं और
हिसाब मजबूत
होता है।
कविता खो जाती
है और गणित ही
गणित रह जाता
है। आज जैसा
अमेरिका है।
सब चीज गणित
हो जाती है। आंकडे
सब कुछ हो
जाते हैं।
सबसे ऊपर
कैलकुलेशन, हिसाब हो
जाता है।
चालाकी है।
लेकिन हिंदू
हिसाब से
कलियुग है।
आखिरी वक्त है;
सबसे बुरा
वक्त है।
इसे
विकास कहें या
इसे पतन कहें? के को
बच्चे का
विकास कहें? या बूढ़े को
बचपन का खो
जाना कहें, पतन कहें? अगर आप से
कोई पूछे, तो
दोनों में
क्या होना
चाहेंगे? उससे
निर्णय हो
जाएगा।
क्योंकि जो आप
होना चाहेंगे,
वही पाने
योग्य है, वही
श्रेष्ठ है।
जो आप न होना
चाहेंगे, वहीं
कुछ भांति, भूल, कहीं
कुछ अंधकार है।
कोई भी
बूढा नहीं
होना चाहता और
कोई भी सिर्फ गणित
में नहीं जीना
चाहता।
क्योंकि जीवन
के आनंद की
कोई भी झलक
मस्तिष्क में
कभी नहीं उतरती।
जीवन का आनंद, जीवन का
नृत्य, जीवन
की सुगंध तो
हृदय ही अनुभव
करता है।
मस्तिष्क सब
कुछ दे सकता
है, सिवाय
आनंद को
छोड्कर। और
हृदय के साथ
शायद सब कुछ
खो जाएगा, सिर्फ
आनंद बचेगा।
लेकिन सब कुछ
खोकर भी आनंद
बचाने जैसा है।
जिसको
हम वैज्ञानिक
विकास कहते
हैं, वह
विज्ञान का
विकास होगा।
ज्यादा बड़ी
मशीनें हमारे
पास हैं, ज्यादा
बडे मकान
हमारे पास हैं।
लेकिन वे आनंद
का विकास तो
नहीं हैं।
क्योंकि उन
बड़े मकानों
में भी दुखी
लोग रह रहे
हैं। झोपड़ों
में भी इतने
दुखी लोग नहीं
थे, जितने
बड़े मकानों
में दुखी लोग
रह रहे हैं।
और जिनके पास
कुछ भी न था, कोई औजार न
थे, कोई
शस्त्र—साधन न
थे, वे भी
इससे ज्यादा
आनंदित थे।
हमारे पास
एटामिक
मिसाइल्स हैं,
चांद पर
पहुंचने के
उपाय हैं, लेकिन
सुख का कोई कण
भी नहीं है।
कैसे
हम नापते हैं, यह सवाल
है। अगर आप
सिर्फ रुपयों
के ढेर से
नापते हैं कि
आदमी का विकास
हुआ कि पतन, तो विकास
हुआ है। अगर
आप आदमी में
देखते हैं और
नापते हैं, तो पतन हुआ
है। तो आपकी
दृष्टि पर
निर्भर करेगा।
क्या
दृष्टिकोण है?
मापदंड
क्या है? क्राइटेरियन
क्या है? नापते
कैसे हैं?
हिंदू
चिंतन, उपनिषद के
ऋषि या गीता
के कृष्ण, मनुष्यता
से नापते हैं।
क्या आपके पास
है, यह
मूल्यवान
नहीं है, आप
क्या हैं, यही
मूल्यवान है।
कितना आपके
पास है, यह
व्यर्थ हिसाब
है। कितनी
आत्मा है!
कितना सत्व
है! कितना
चैतन्य है! आप
क्या हैं!
बीइंग से
नापते हैं, हैविग से नहीं।
आपके बैंक
बैलेंस से
आपके होने का
कोई नाता नहीं
है। आप नग्न
खड़े हों, तो
भी कोई फर्क
नहीं पड़ता, तो भी आपके
भीतर सत्व हो
सकता है।
महावीर
जैसे नग्न खड़े
व्यक्ति के
पास भी आत्मा
है, सब
कुछ है। बाहर
से कुछ भी
नहीं है। कैसे
नापते हैं!
इस युग
से ज्यादा
दुखी कोई युग
नहीं था। इस
युग से ज्यादा
विक्षिप्तता
किसी युग में
नहीं थी। फिर
भी हम कहे चले
जाते हैं, संपन्न
हैं! फिर भी हम
कहे चले जाते
हैं, वैभवशाली
हैं!
सच है, बात तो सच
है। इतनी
संपन्नता भी
कभी नहीं थी।
इतनी
विपन्नता भी
कभी नहीं थी।
पर दो अलग कोण
हैं नापने के।
एक कोण है, जो
धन से नापता
है, पदार्थ
से नापता है।
और एक कोण है, जो चेतना से
नापता है।
चेतना
की दृष्टि से
मनुष्य का पतन
हुआ है परमात्मा
से। इसलिए हम
चेतना को फिर
वापस उसी
स्थिति में ले
जाएं, जहां
से परमात्मा
से हमारा
संबंध छूटता
है। फिर हमारी
धारा वहीं गिरे,
तो वही परम
निष्पत्ति
होगी।
लेकिन
पदार्थ की
दृष्टि से, साधन—सामग्री
की दृष्टि से
हम रोज विकास
कर रहे हैं।
हम विकास कर
रहे हैं, यह
कहना भी शायद
ठीक नहीं है, क्योंकि
मशीनें खुद ही
विकास कर रही
हैं। अब तो
आदमी को उसमें
हाथ बंटाने की
भी जरूरत नहीं
है। कंप्यूटर
हैं, वे
विकास करते
चले जाएंगे।
और वैज्ञानिक
कहते हैं, इस सदी के
पूरे होते—होते
हम ऐसी मशीनें
पैदा कर लेंगे,
जो मशीनों
को जन्म दे
सकें, अपने
से बेहतर
मशीनों को
जन्म दे सकें।
वह बिल्ट—इन
हो जाएगा, कि
मशीन जब टूटने
के करीब आए, मिटने के
करीब आए, तो
अपने से बेहतर
मशीन को जन्म
दे जाए। जैसे
आप एक बच्चे
को जन्म दे
जाते हैं। तब
तो फिर आपकी
बिलकुल भी
जरूरत नहीं
होगी। तब
मशीनें
विकसित होती
रहेंगी। आप
अपने घर भी
बैठे रहे, जैसे
थे वैसे रहे, तो भी
मशीनें
विकसित होती
रहेंगी।
मशीन
ही विकसित हो
रही है। आदमी
खों रहा है।
इस हिसाब से
पतन है।
इसमें
पूरा पूरब
सहमत है।
बुद्ध, लाओत्से, कृष्ण, सब
सहमत हैं, जीसस,
मोहम्मद, सब सहमत हैं,
जरथुस्त्र,
कनक्यूसियस,
सब सहमत हैं
कि बचपन
श्रेष्ठतम है,
शुद्धता की
दृष्टि से। और
इसलिए जब कोई
व्यक्ति, लाओत्से
कहता है, पुन:
बचपन को
उपलब्ध हो जाता
है, तब वह
संत हो गया।
वर्तुल पूरा
हुआ। उदगम से
फिर मिलना हो
गया। कृष्ण भी
यही गीता में
कह रहे हैं।
अब हम
सूत्र को लें।
इस
संसार—वृक्ष
का रूप जैसा
कहा है, वैसा यहां
नहीं पाया जाता
है, क्योंकि
न तो इसका आदि
है और न अंत है
तथा न अच्छी
प्रकार से
स्थिति ही है।
इसलिए इस
अहंता, ममता
और वासनारूप
अति दृढ़ मूलों
वाले संसाररूप
पीपल के वृक्ष
को दृढ़
वैराग्यरूप
शस्त्र द्वारा
काटकर.।
यह जो
उलटे वृक्ष की
कल्पना कृष्ण
ने दी, ऐसा
हम खोजने
जाएंगे, तो
हमें मिलेगा
नहीं। उसके कई
कारण हैं।
पहला
तो कारण यह है
कि हम उस
वृक्ष की एक
छोटी शाखा हैं।
हम खोजने जा
नहीं सकते। हम
उस वृक्ष से
दूर खड़े होकर
देख नहीं सकते।
हम उस वृक्ष
के अंग हैं।
इसलिए हम कैसे
देख पाएंगे कि
वृक्ष उलटा
खड़ा है; जड़ ऊपर है और
पत्ते नीचे
हैं। हम पत्ते
ही हैं या हम
शाखाएं हैं।
हम वृक्ष के
अंग हैं, उससे
हम दूर नहीं
हो सकते हैं।
इसलिए
संसार के
वृक्ष की यह
उलटी जो
अवस्था है, ध्यान की
परम गुह्य
स्थिति में ही
दिखाई पड़ती है।
उसके पहले
नहीं। क्यों?
क्योंकि
ध्यान की उस
गुह्य स्थिति
में आप वृक्ष
के हिस्से
नहीं रह जाते,
आप संसार के
हिस्से नहीं
रह जाते।
इसलिए सिर्फ
समाधि में ही
इस उलटे वृक्ष
का पूरा रूप
दिखाई पड़ता
है। यह
समाधिस्थ
चित्त की
अनुभूति है।
आप इसे
समझ लें
बुद्धि से, उतना ही
काफी है। आप
इसे देख न
पाएंगे।
वृक्ष विराट
है।
वैज्ञानिक
कहते हैं, इसका
हम कोई ओर—छोर
नहीं उपलब्ध
कर पाते हैं।
जितनी खोज
बढ़ती है, उतना
ही यह वृक्ष
विराट मालूम
होता है। रोज
नए तारे खोजे
जाते हैं; नए
सूरज खोजे
जाते हैं।
अब तक
कोई चार अरब
सूरज खोजे जा
चुके हैं। और
कभी ऐसा लगता
था कि एक सीमा
आ जाएगी, जब खोज
समाप्त हो
जाएगी; हम
पहुंच जाएंगे
अंतिम सीमा पर।
पर अब कोई
सीमा नहीं
मालूम होती है।
जितना आगे
बढ़ते हैं, नई
खोज होती चली
जाती है।
वृक्ष
बहुत बड़ा
मालूम होता है, विराट
मालूम होता है।
और हम उसके
अंग हैं, इसलिए
दूर खड़े होकर
हम देख नहीं
पाते हैं।
देखने की कोई
संभावना भी
नहीं है।
फिर न
तो इसका कोई
आदि है और न
अंत है। अगर
इसका कोई
प्रारंभ होता, तो भी
देखना आसान था।
अगर कभी यह
अंत होता होता,
तो भी देखना
आसान था। यह
एक अनंत
श्रृंखला है।
एक तरफ एक
ग्रह उजड्ता
है, तो
दूसरा ग्रह
निर्मित हो
जाता है। एक
तरफ एक सूरज
बुझता है, तो
दूसरे सूरज
में प्राण आ
जाते हैं।
वैज्ञानिक
सोचते हैं कि
शायद पांच
हजार वर्ष बाद
हमारा सूरज ठंडा
हो जाएगा, क्योंकि
उसकी गरमी रोज
चुकती जाती है।
लेकिन कुछ
दूसरे सूरज, जो ठंडे पडे
हैं, गरम
होते जा रहे
हैं। जैसे ही
हमारा सूरज
ठंडा होगा, कोई सूरज
दूसरा गरम हो
जाएगा। इस
सूरज के ठंडे
होते ही इस
पृथ्वी से
जीवन तिरोहित
हो जाएगा।
लेकिन किसी और
पृथ्वी पर
जीवन के
अंकुरण शुरू
हो जाएंगे।
वैज्ञानिक
हिसाब से कोई
पचास हजार
पृथ्वियों पर
जीवन अभी है।
होना चाहिए।
वृक्ष की एक
शाखा सूखती है,
तो दूसरी
शाखा निकल
जाती है।
वृक्ष मुरझाए,
कि नए अंकुर
आ जाते हैं।
पुराने पत्ते
गिर भी नहीं
पाते कि नए पत्ते
प्रकट होने
लगते हैं।
श्रृंखला
अनंत है।
इसलिए न पीछे
खड़े होने का
उपाय है, न आगे खड़े
होने का उपाय
है। न किनारे
खड़े होने का
उपाय है, क्योंकि
हम उसके
हिस्से हैं, हम श्रृंखला
हैं।
और
इसलिए भी
अच्छी प्रकार
से नहीं समझा
जा सकता, क्योंकि
इसकी कोई ठीक
स्थिति नहीं
है। यह शब्द
समझ लेने जैसा
है। स्थिति
केवल
परमात्मा की
है, संसार
की केवल गति
है, स्थिति
नहीं है।
यहां
सब चीजें हो
रही हैं; कोई भी चीज
है की अवस्था
में नहीं है।
इसलिए बुद्ध
ने तो कहा कि
है शब्द का
प्रयोग ही मत
करना। जैसे हम
कहते हैं, वृक्ष
है। तो बुद्ध
कहते हैं, ऐसा
कहना ही मत, क्योंकि है
की कोई स्थिति
नहीं है।
वृक्ष हो रहा
है। जब तुम
कहते हो, वृक्ष
है, तब भी
वह हो रहा है।
हम कहते हैं, यह जवान है, तब भी हम गलत
कहते हैं।
क्योंकि जब हम
कहते हैं, जवान
है, तब वह
जवान हो रहा
है या का हो
रहा है। लेकिन
है की कोई
स्थिति नहीं
है। हमेशा
होने की
स्थिति है, भवति। सभी
कुछ बिकमिंग
है। कहीं कुछ
ठहरा नहीं है।
स्थिति
का अर्थ है, ठहराव।
परमात्मा के
सिवाय और किसी
की कोई स्थिति
नहीं है। बाकी
सब बहाव है।
जैसे नदी बह
रही है, ऐसे
आप भी बह रहे
हैं। ऐसी हर
चीज बह रही है।
यह
वृक्ष एक बहाव
है, इसलिए
भी देखना बहुत
मुश्किल है।
क्योंकि हर
चीज बदल रही
है। आप देख भी
नहीं पाते कि
बदल जाती है।
आप इसके पहले
कि समझ पाएं, स्थिति बदल
जाती है। इसके
पहले कि आप
पकड़ पाएं, जिसको
आप पकड़ रहे थे,
वह वहा
मौजूद न रहा।
कुछ और हो गया।
यहां सब धुआं—
धुआं है, बादलों
की तरह है।
जैसे बादलों
में हम आकृति
नहीं पकड़ पाते
हैं। आप देख
रहे हैं कि एक
हाथी बन रहा
है बादलों में;
और आप देख
भी नहीं पाए
कि हाथी बिखर
गया, कुछ
और बन गया।
पूरा
जगत धुआं— धुआं
है। स्थिति
केवल
परमात्मा की
है। और जब तक
स्थिति
उपलब्ध न हो, तब तक कोई
भी ठहराव समझ
का, बुद्धि
का नहीं हो
सकता। तब तक
ज्ञान की कोई
अवस्था नहीं
है। इसलिए
हिंदुओं की
सारी चेष्टा
इस बात में
रही है कि
कैसे आप गति
से मुक्त हों
और स्थिति को
प्राप्त हों।
कैसे दौड़ना
बंद हो और
ठहरना आए।
कैसे प्रवाह
रुके, थम
जाए। नदी बहते—बहते
कैसे एकदम जम
जाए, बर्फ
हो जाए। सब
चीजें ठहर
जाएं।
इस
भीतर के चित्त
की दौड के रुक
जाने का नाम
ही ध्यान है।
भीतर कुछ भी न
दौड़े, कोई
गति न रहे, कोई
प्रवाह न रहे,
सब चीजें
फ्रोजन हो
जाएं, जड़
हो जाएं, ठहर
जाएं, सब
कंपन समाप्त
हो जाएं; उसी
क्षण आप
परमात्मा हो
गए। जब तक आप
बहते हैं, तब
तक संसार है।
जब आप ठहरते
हैं, तब आप
परमात्मा हैं।
परमात्मा
ही समझा जा
सकता है। यह
बड़ा
विरोधाभासी
लगेगा।
क्योंकि
विज्ञान कहता
है, संसार
समझा जा सकता
है, परमात्मा
को समझने का
कोई उपाय नहीं।
परमात्मा का
पता ही नहीं
चलता है कि वह
कहां है!
समझना दूर, यह भी तय
करना मुश्किल
है कि है भी या
नहीं। और गीता
कहती है कि
सिर्फ
परमात्मा ही
समझा जा सकता
है, क्योंकि
वह थिर है। वह
जाना जा सकता
है, उस पर
भरोसा किया जा
सकता है, वह
रिलाएबल है।
ऐसा नहीं कि
आप एक आंख
उठाकर
देखेंगे और जब
दुबारा आंख
खोलेंगे, तो
वह बदल गया।
वह वही होगा—इस
जन्म में, अगले
जन्म में, कल्पों—कल्पों
बाद, युगों—युगों
बाद—आप जब भी
लौटकर आएंगे,
वह वही होगा।
वह
कूटस्थ है, वह ठहरा
हुआ है, वहां
कुछ भी बदलता
नहीं। आप
कितना ही
परिभ्रमण
करें, कितना
ही समय व्यतीत
करें, जब
भी आप लौटेंगे,
आप पाएंगे,
घर वैसा का
वैसा है, सब
वही है। वहां
रत्तीभर कोई
परिवर्तन
नहीं हुआ है।
यह
अपरिवर्तित
ही समझा जा
सकता है।
क्योंकि यह
भरोसे योग्य
है। इस पर
श्रद्धा की जा
सकती है।
संसार तो
भरोसे योग्य
नहीं है। वह
तो छाया की
भांति है।
खलील
जिब्रान की एक
बड़ी प्रसिद्ध
कहानी है। एक
लोमडी सुबह—सुबह
उठी। भोजन की
तलाश पर निकली।
सूरज उगता था
उसके पीछे।
बड़ी लंबी छाया
लोमड़ी की बनी।
लोमड़ी ने अपनी
छाया देखी और
सोचा, आज
तो एक हाथी
मिले, तभी
पेट भर पाएगा!
इतनी लंबी
छाया कि एक
हाथी के बिना
भोजन का कोई
उपाय नहीं। और
छाया से ही
लोमडी जान
सकती है कि
मैं कितनी बडी
हूं। और जानने
का उपाय भी
नहीं। आप भी
दर्पण से ही
जानते हैं कि
आप कौन हैं।
और तो कोई
उपाय नहीं।
दर्पण यानी
छाया!
लोमड़ी
बड़ी चिंतित भी
हुई, क्योंकि
कहां पाएगी
हाथी? और
भूख बढ़ने लगी
और खोजती रही,
खोजती रही।
दोपहर हो गई, सूरज ऊपर आ
गया; अभी
तक भोजन भी
नहीं मिला। और
हाथी को पाने
का खयाल, तो
भूख भी हाथी
जैसी, हाथी
को पचाने जैसी
भीतर हो गई।
क्योंकि सारा
मन का खेल है।
लेकिन
हाथी मिला
नहीं, भोजन
मिला नहीं।
नीचे झुककर
उसने फिर छाया
देखी। सूरज अब
ऊपर आ गया, तो
छाया करीब—करीब
खो गई। तो
लोमड़ी ने कहा,
अब तो एक
चींटी भी मिल
जाए तो भी काम
चलेगा।
संसार
छाया की तरह
है। और बचपन
में हर आदमी
सोचता है कि
हाथी नहीं मिला, तो काम
नहीं चलेगा।
और बुढ़ापे में
हर आदमी जानता
है कि चींटी
भी मिल जाए, तो भी काम
चलेगा। छाया
छोटी होती
जाती है।
सभी
बच्चे सिकंदर
होना चाहते
हैं। सभी के
कहने लगते हैं, अंगूर
खट्टे हैं।
सभी बच्चे
संसार को
जीतने निकलते
हैं। सभी बूढ़े
वैराग्य की
बातें करने
लगते हैं।
इसलिए नहीं कि
वैराग्य आ गया।
इसलिए कि छाया
सिकुड़ गई। और
अब इतने से भी
काम चल जाएगा।
और कुछ न भी
मिला, तो
भी काम चल
जाएगा।
वैराग्य
का मतलब है, छाया
सिकुड़ गई। यह
वैराग्य कोई
वास्तविक
नहीं है। अगर
यह वैराग्य
वास्तविक हो,
तो जवानी
में भी आ सकता
था। इसके लिए
बुढ़ापे तक
रुकने की कोई
जरूरत न थी।
यह जो
लोमड़ी का कहना
है कि चींटी
से भी काम चल जाएगा, यह कोई
बुद्धिमत्ता
नहीं है। अगर
यह
बुद्धिमत्ता
होती, तो
सुबह भी छाया
की भ्रांति
में आने का
कोई प्रयोजन न
था। सिर्फ
छाया सिकुड़ गई
है।
इस
संसार को
समझने का ठीक—ठीक
उपाय नहीं है, क्योंकि
प्रतिपल बदल
रहा है। इसकी
कोई स्थिति
नहीं है।
इसलिए इस
अहंता, ममता
और वासनारूप
अति दृढ़ मूलों
वाले
संसाररूप पीपल
के वृक्ष को
दृढ़ वैराग्य
शस्त्र
द्वारा काटकर।
इसको
जानने में
उलझने की भी
कोई जरूरत
नहीं है।
क्योंकि इसको
जान—जानकर भी
कोई कभी जान
नहीं पाता।
विज्ञान
सोचता था, इसी सौ
वर्ष पहले, कि जल्दी
ऐसा दिन आ जाएगा,
जब हम सब
जान लेंगे। अब
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
वह दिन कभी भी
नहीं आएगा।
क्योंकि
जितना हम
जानते हैं, उतना पता
चलता है कि और
भी जानने को
शेष है। जितना
हम जानते हैं,
उतने ही
अनजान तथ्य
सामने आ जाते
हैं जिनको जानने
की चुनौती मिल
जाती है। एक
समस्या हल
नहीं होती, पचास खड़ी हो
जाती हैं।
उसको हल करने
के कारण ही
पचास
समस्याएं उठ
आती हैं, पचास
प्रश्न उठ आते
हैं।
अब विज्ञान
का भरोसा
डगमगा गया है।
अब विज्ञान भी
मानता है कि
कोई अंतिम शान
उपलब्ध हो
सकेगा, इसकी आशा
नहीं है। सब
कामचलाऊ शान
है।
रिलेटिविटी
का यही मतलब
है कि सब शान
कामचलाऊ है।
हम जितना
जानते हैं, उतने तक ठीक
है। बाकी
जितना हम और
ज्यादा
जानेंगे? सब
गड़बड़ हो जाएगा।
परमात्मा
ही जाना जा
सकता है। उसकी
स्थिति है।
इसलिए धर्म के
अतिरिक्त
ज्ञान का कोई
भी द्वार नहीं
है।
विज्ञान
कामचलाऊ
उपयोगिता का
द्वार है, शान का
नहीं। उससे जो
भी हम जानते
हैं, वह
करीब—करीब
सत्य है, एप्राक्सिमेटली।
लेकिन करीब—करीब
सत्य का कोई
मतलब नहीं
होता। करीब—करीब
सत्य का असत्य
ही मतलब होता
है। या तो कोई
चीज सत्य होती
है या नहीं
होती। करीब—करीब
सत्य का कोई
अर्थ नहीं
होता। पर
उपयोगिता
विज्ञान की है।
शान
धर्म के माध्यम
से उपलब्ध
होगा। और
ज्ञान तभी
उपलब्ध होगा, जब हम
स्थिति को
उपलब्ध हो
जाएं। अगर
परमात्मा की
स्थिति है और
हमारी गति है,
तो मिलन
नहीं हो सकता।
समान समान का
ही मिलन संभव
है। जब हम भी
स्थित होंगे,
तो उससे
मिलन हो जाएगा।
उस जैसे जब
होंगे, तब
हमारा उससे
मिलन हो जाएगा।
ठहरते
ही उस ठहरे
हुए का अनुभव
शुरू हो जाता
है। और ठहरने
का एक ही उपाय
है। इस संसार
के वृक्ष को
समझने से कुछ
न होगा, वरन अहंता, ममता और
वासना, इन
तीनों को
वैराग्यरूपी
शस्त्र
द्वारा काटकर,
उसके उपरात
उस परम पद
परमेश्वर को
अच्छी प्रकार
खोजना चाहिए।
वृक्ष
को खोजने में
न पड़े। वृक्ष
को तो काट ही
दें। और उसको
खोजने में
चलें, जिसका
पतन वृक्ष है।
जिससे गिरकर
वृक्ष पैदा हो
रहा है, उस
मूल उदगम को
खोजने चलें।
उस बीज को
पकड़े, उस
मूल स्रोत को
पकडे।
कभी
आपने बीज को
तोड़कर देखा? बीज आप
बोते हैं, एक
वृक्ष उससे निकल
आता है। लेकिन
जो बीज आप
बोते हैं, उससे
यह वृक्ष
निकलता है? क्योंकि वह
बीज तो सड़
जाता है, गल
जाता है, मिट्टी
में मिल जाता
है। उस बीज से
यह वृक्ष
निकलता नहीं।
उस बीज को कभी
तोड़कर आपने
देखा है? कहीं
आप इस वृक्ष
को खोज पाएंगे?
उस बीज में
कहीं यह वृक्ष
मिलता भी नहीं
है खोजने से।
वैज्ञानिक, वनस्पतिशास्त्री
भी कहते हैं
कि बीज में
कोई शून्य से
ही वृक्ष
निकलता है।
बीज तो केवल
उस शून्य को
अपने भीतर
छिपाए हुए है।
बीज तो सिर्फ
खोल है, भीतर
कोई शून्य
छिपा है। बीज
की खोल टूटकर
मिट्टी में
मिल जाती है, उस शून्य से
ही वृक्ष
निकलता है।
तो बीज
के भीतर जो
छिपा शून्य है, वही उदगम
है। और जब तक
हम उस शून्य
में प्रवेश न
कर जाएं, तब
तक मूल का, सत्य
का कोई अनुभव
संभव नहीं है।
इसलिए
बुद्ध ने तो
अपने सारे
धर्म को
शून्यता की
छाया दे दी, शून्यता
का रंग दे
दिया। और कहा
कि शून्य में
प्रवेश कर जाओ,
तो ब्रह्म
की उपलब्धि है।
और कोई ब्रह्म
नहीं है।
जो भी
दिखाई पड़ता है, वह खोल है।
उस खोल के
भीतर न दिखाई
पड़ने वाला
छिपा है। उस
अदृश्य को
जानने की दो
बातें कृष्ण
कह रहे हैं।
पहले तो
वैराग्य से
अहंकार, ममता
और वासना को
काट डालें।
वैराग्य
का क्या मतलब
है? वैराग्य
का मतलब है, यह बोध कि जहां
—जहां मुझे
सुख का खयाल
होता है, वहा
सुख नहीं है।
यह शास्त्र से
पढ़कर नहीं आ
जाएगा। संसार
को ही उसके
पूरे तत्व में
समझने से आएगा।
आपने
बहुत प्रयोग
किए हैं। जहां—जहां
सुख की छाया
दिखी है, वहा—वहा
दौड़े हैं। फिर
वहा सुख पाया
या नहीं? अगर
नहीं पाया, कभी भी नहीं
पाया। जहं। भी
प्रतिबिंब
दिखा, वहीं
गए और मृग—मरीचिका
मिली। जहां भी
ध्वनि मिली, वहीं गए, लेकिन
पाया कि सिर्फ
खाली घाटियों
में गूंजती
आवाज थी।
इंद्रधनुषों
की खोज की।
बड़े रंगीन थे
दूर से; पास
गए, खो गए।
हाथ में कुछ
भी न आया। इन
सारे जीवन के
अनुभवों का जो
निचोड़ है, वह
वैराग्य है।
तो किसी
शास्त्र को
पढ़ने से
वैराग्य नहीं
आ जाएगा; कि
आप भर्तृहरि
का वैराग्य—शतक
पढ़ लें और
सोचें कि
वैराग्य आ
जाएगा।
भर्तृहरि को
वैराग्य—शतक
का अनुभव आया
गहन भोग से।
भर्तृहरि
ने दो किताबें
लिखी हैं। एक
का नाम है, श्रृंगार—शतक।
वह उसका पहला
अनुभव है, संसार
का अनुभव। तब
उसने भोगा।
उसने
सब भूलें कीं, जो कोई भी
समझदार आदमी
करेगा। जो कोई
भी हिम्मती
आदमी करेगा, उसने वे सब
भूलें कीं।
उसने अपने को
भूलों से
बचाया नहीं।
क्योंकि
भूलों से जो
बचता है, वह
अनुभव से भी
बच जाता है।
वह संसार के
सब गली—कूचों
में भटका।
उसने संसार की
सब पगडंडियां
छान डालीं।
उसने बुरे और
भले का भेद भी
नहीं किया।
जहां उसकी
वासना ले गई, गया। लेकिन
होश सजग रखा
और इस बात को
जांचता रहा कि
जहां—जहां
वासना ले जाती
है, वहां
कुछ मिलता है
या नहीं!
हर बार
असफलता मिली।
सुख कभी भी न
पाया। सदा ही
भ्रांति
सिद्ध हुई।
वासना ने जहां
—जहां मार्ग
दिखाया, वहीं—वहीं
व्यर्थता हाथ
आई, वहीं—वहीं
विषाद मिला।
हजारों
वासनाओं के
मार्गों पर
चलकर जब एक ही
अनुभव होता है
निरपवाद रूप
से, तो
वैराग्य का
जन्म होता है।
वैराग्य
वासना की
असफलता का सतत
अनुभव, उसका
सार—निचोड़ है।
और तब यह बात
कठिन नहीं रह
जाती, अहंकार
को, ममता
को, वासना
को काट देना
जरा भी कठिन
नहीं रह जाता।
वैराग्य
की प्रतीति का
अर्थ है, जहां —जहां
वासना कहती है
सुख है, वहां—वहा
सुख नहीं है। जहां—जहां
वासना कहती है
सुख है, वहा—वहा
दुख है, और
जहां—जहां
वासना कहती है
दुख है, वहां—वहां
सुख है। वासना
धोखा देती है,
प्रवंचक है,
दि ग्रेट
डिसीवर। इस
प्रतीति का
नाम वैराग्य
है। और तब सुख
में खोजना बंद,
और दुख में
खोज शुरू होती
है।
दुख की
खोज को हम तप
कहते हैं।
तपश्चर्या का
अर्थ है, अब मैं सुख
में नहीं
खोजता; सुख
में खोजा और
नहीं पाया, अब मैं दुख
में खोजूंगा।
क्योंकि अगर
सुख में खोजने
से दुख मिला, तो संभावना
है कि शायद
दुख में खोजने
से सुख मिल
सके। विपरीत
यात्रा
करूंगा।
वैराग्य
अनुभव है
वासना की
विफलता का। और
जैसे ही यह
अनुभव गहरा हो
जाता है, यह अनुभव
शस्त्र बन
जाता है। तब
साधक अपने
भीतर वैराग्य
के शस्त्र को
लिए रहता है।
जैसे ही वासना
उससे कहती है
वहां सुख, वहीं
वह शस्त्र से
गिराकर काट
डालता है। वह
कहता है, मैं
जानता हूं; यह बहुत बार
हो चुका।
बुद्ध को जब
पहली समाधि
उपलब्ध हुई, तो उन्होंने
जो पहले शब्द
अपने भीतर कहे—किसी
और से नहीं, खुद से कहे—वे
ये थे कि बस, हे काम के
देवता, अब
तुझे मेरे लिए
कष्ट न करना
पड़ेगा। मैं भी
दौड़ा और मेरे
कारण तू भी
काफी दौड़ा। अब
तुझे मेरे लिए
नए घर न बनाने
पड़ेंगे।
क्योंकि
मैंने आधार ही
गिरा दिया, अब कोई
बुनियाद ही न
रही।
वैराग्य
के शस्त्र का
अर्थ है, भीतर एक
सजगता। वासना जहां—जहां
धोखा देने लगे,
वहां —वहां
सजगता रुकावट
बन जाए। वहा—वहां
हम पुन: स्मरण
कर सकें कि इस
तरह की वासना में
हम बार—बार
उतर चुके हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी मरने के
करीब थी। तो
उसने मुल्ला
से कहा कि
मुल्ला, शादी तो तुम
करोगे ही मेरे
मरने के बाद।
शादी तो तुम
करोगे ही, यह
निश्चित है।
नसरुद्दीन ने
कहा, जल्दी
नहीं करूंगा।
पहले कुछ दिन
आराम करूंगा।
यह
विवाह काफी
थका दिया है।
इस विवाह ने
काफी दुख दे
दिया है।
लेकिन इससे
कोई वैराग्य
उत्पन्न नहीं
हुआ है। थोड़े
दिन आराम करके
वासना फिर सजग
हो जाएगी।
वासना फिर
ताजी हो।
जाएगी।
विश्राम के
बाद वासना की
माग फिर खडी
हो जाएगी।
आप भी
बहुत बार
वैराग्य की
हलकी झलक से
भरते हैं। हर
वासना के बाद
वैराग्य की
झलक हर आदमी
को आती है। हर
संभोग के बाद
क्षणभर को
प्रत्येक
स्त्री—पुरुष
को यह प्रतीति
होती है कि बस, बहुत हुआ,
व्यर्थ है।
लेकिन थोड़ी
देर आराम के
बाद फिर वासना
सजग हो जाती
है। तो वह जो
क्षणभर का
अनुभव था, वह
शस्त्र नहीं
बन पाता। वह
जो अनुभव था, संगृहीत
नहीं होता। वह
बूंद—बूंद की
तरह खो जाता
है, कभी
गागर भर नहीं
पाती। साधक
बूंद—बूंद
अनुभव को
इकट्ठा करता
है और गागर को
भरता है। वह
बूंद—बूंद को
खो जाने नहीं
देता।
आपके
अनुभव में और
बुद्ध के
अनुभव में
बहुत फर्क
नहीं है। बस, इतना ही
फर्क है कि
आपके पास कोई
गागर नहीं है,
जिसमें आप
अपनी बूंदें भर
लेते। आपको
उतने ही अनुभव
हुए हैं, ज्यादा
हो गए होंगे, क्योंकि
बुद्ध को मरे
पच्चीस सौ साल
हो गए। बुद्ध
से ज्यादा
अनुभव आपको हो
चुके हैं।
लेकिन बूंद—बूंद
होते हैं, खो
जाते हैं।
इकट्ठे नहीं
हो पाते हैं; उनकी चोट
नहीं बन पाती।
शस्त्र
निर्मित नहीं
हो पाता।
अपने
अनुभवों को
इकट्ठा करें।
अनुभवों को खो
जाने मत दें।
क्योंकि उनके
अतिरिक्त
ज्ञान का और
कोई मार्ग
नहीं है। बूंद—बूंद।
इकट्ठा करके
आपके पास इतनी
अनुभव की
क्षमता हो
जाएगी कि
वासना कमजोर
पड़ जाएगी।
काटना भी नहीं
पड़ता, अनुभव
ही काफी होता
है। अनुभव ही
काफी होता है,
वासना से
लड़ना भी नहीं पड़ता।
वासना धीरे—
धीरे
निर्वीर्य हो
जाती है।
इस
वृक्ष को
वैराग्यरूप
शस्त्र
द्वारा काटकर, उसके
उपरात उस परम
पद परमेश्वर
को अच्छी प्रकार
खोजना चाहिए
कि जिसमें गए
हुए पुरुष फिर
पीछे संसार
में नहीं आते।
और जिस
परमेश्वर से
यह पुरातन
संसार—वृक्ष
की प्रवृत्ति
विस्तार को
प्राप्त हुई है,
उस ही आदि
पुरुष के मैं
शरण हूं इस
प्रकार दृढ़ निश्चय
करके..।
इस
प्रक्रिया को
थोड़ा सजगता से
समझ लें।
हम सब
बार—बार
जन्मते हैं, बार—बार
मरते हैं।
लेकिन हर मरण
मूर्च्छा में
है, और हर
जन्म भी
मूर्च्छा में
है। इसलिए
आपको कुछ याद
नहीं कि पहले
भी आप थे। यह
जन्म आपको
पहला मालूम
पड़ता है, और
यह मौत जो आती
है, आखिरी
मालूम पड़ती है।
क्योंकि
दोनों तरफ
अंधकार है।
स्मृति खो गई
है।
होशपूर्वक मर
सकें, तो
होशपूर्वक
जन्म होगा।
लेकिन
मरना अभी दूर
है, भविष्य
में है। पीछे
लौटा जा सकता
है। और जो
जन्म हो चुका
है आपका चालीस,
पचास, साठ
साल पहले, उस
जन्म को
होशपूर्वक
फिर से देखा
जा सकता है।
उसकी पूरी
फिल्म आपके
भीतर संगृहीत
है। जैसे मैं
बोल रहा हूं
और टेप
रिकार्ड कर
रहा है। मैं
बोल चुकूंगा,
फिर आप टेप
को लौटा लें, तो फिर से
सुन सकेंगे।
आपका
मस्तिष्क
बिलकुल टेप का
यंत्र है। वह
सब रिकार्ड कर
रहा है। वहा
कुछ भी नहीं
खोया है। जो
भी आपने कभी
जाना है, वह वहा
अंकित है। आप
पीछे इस
रिकार्ड का
उपयोग करना
सीख जाएं, इसे
लौटाकर बजाना
सीख जाएं, तो
आप उन अनुभवों
से फिर गुजर
सकते हैं, जिनसे
आप बेहोशी में
गुजर गए हैं।
आप पिछले जन्म
में वापस जा
सकते हैं, और
पिछले जन्म के
पीछे मृत्यु
में जा सकते
हैं। और तब
यात्रा का
द्वार खुल
जाता है।
इस
भांति जो
व्यक्ति पीछे
लौटता है
होशपूर्वक, उसकी आगे
के लिए भी होश
की क्षमता
निर्मित हो जाती
है। वह मरेगा,
लेकिन
होशपूर्वक
मरेगा। वह
जन्मेगा, लेकिन
होशपूर्वक
जन्मेगा। वह
जीएगा, लेकिन
होशपूर्वक
जीएगा। और जो
व्यक्ति
होशपूर्वक
जीने लगा, संसार
उसे नहीं बांध
पाता। बांधती
है हमारी
मूर्च्छा।
वैराग्य के
द्वारा ममता,
अहंता और
वासना को
काटकर जो
व्यक्ति परमेश्वर
को खोजता है, मूल उदगम को
खोजता है, वह
व्यक्ति फिर
संसार में
वापस नहीं आता।
फिर
संसार में
वापस आने का
कोई कारण नहीं
रह जाता।
संसार में हम
वापस होते हैं
बार—बार
मूर्च्छा के
कारण, सोए
हुए होने के
कारण।
और जिस
परमेश्वर से
यह पुरातन
संसार—वृक्ष
की प्रवृत्ति
विस्तार को
प्राप्त हुई
है, उस
ही आदि पुरुष
के मैं शरण हूं, इस प्रकार
दृढ़ निश्चय
करके नष्ट हो
गया है मान और
मोह जिनका तथा
जीत लिया है
आसक्तिरूप
दोष
जिन्होंने और
परमात्मा के
स्वरूप में है
निरंतर
स्थिति जिनकी
तथा अच्छी
प्रकार से
नष्ट हो गई है
कामना जिनकी,
ऐसे वे सुख—दुख
नामक
द्वंद्वों से
विमुक्त हुए
ज्ञानीजन उस
अविनाशी परम
पद को प्राप्त
होते हैं।
यह
सूत्र, कि मैं उस
आदि पुरुष, उस आदि उदगम
के शरण हूं
बहुमूल्य है।
शरण का भाव
बहुमूल्य है।
क्योंकि
वासना भी काटी
जा सकती है
वैराग्य से, फिर भी
अहंकार शेष रह
जाता है।
वासना तोड़ी जा
सकती है
वैराग्य से, लेकिन तब
वैराग्य का
अहंकार सघन हो
जाता है कि
मैं विरागी हूं, कि मैं
त्यागी हूं कि
मैंने इतना
छोड़ा, कि
मैंने वासना
नष्ट कर दी।
एक गहन अग्नि
जलने लगती है।
अहंकार नए रूप
ले लेता है, सूक्ष्म, पर और भी
प्रगाढ़।
इसलिए
कृष्ण एक शर्त
जोड़ते हैं, वैराग्य
के शस्त्र से
काटकर मैं उस
आदि पुरुष के
शरण हूं,
ऐसा दृढ़ भाव
करें।
यह
वैराग्य कहीं
मेरे अहंकार
को भरने का
कारण न बने।
क्योंकि जब तक
मैं हूं तब तक
मूल उदगम में
खोना आसान
नहीं, तब
तक बूंद अपने
को पकड़े है, सागर में
खोने को राजी नहीं
है।
मूल
उदगम में मैं
मैं नहीं रह
जाऊंगा, मेरी
अस्मिता खो
जाएगी। मेरा
सत्व बचेगा, मेरी चेतना
बचेगी, लेकिन
मैं का रूप खो
जाएगा, मैं
का नाम खो
जाएगा। सभी
नाम—रूप विलीन
हो जाएंगे।
यदि साधक
वैराग्य को
साधते—साधते
साथ में
शरणागति के
भाव को न साधे,
तो भटक जाता
है। तब वैसा
साधक हो सकता
है शुद्ध हो
जाए, लेकिन
उसकी शुद्धि
में भी जहर
होगा। पवित्र
हो जाए, लेकिन
उसकी
पवित्रता
निर्दोष न
होगी। उसकी
पवित्रता में
भी दोष होगा।
शुभ हो जाए, सच्चा हो
जाए नैतिक हो
जाए; लेकिन
उसकी नीति, उसकी सचाई, उसकी शुभता,
भीतर एक मूल
गलत भित्ति पर
खड़े होंगे। वे
अस्मिता की
भित्ति पर खड़े
होंगे। मैं
शुद्ध हूं मैं
शुभ हूं,
मैं नैतिक हूं, यह भाव बना
ही रहेगा। और
यह आखिरी
दीवार हो
जाएगी। मैं
हूं यह बना ही
रहेगा। और जब
तक मैं हूं तब
तक परमात्मा
नहीं है।
लोग
मुझसे पूछते
हैं कि
परमात्मा को
हम खोजते हैं, मिलता
नहीं है। मैं
उनसे कहता हूं, तुम जब तक
खोजोगे, तब
तक मिलने का
कोई उपाय भी
नहीं है!
क्योंकि तुम
ही बाधा हो।
यह खोजने वाला
ही उपद्रव है।
और जब तक यह
खोजने वाला न
खो जाए, तब
तक मिलने की
कोई आशा नहीं
है।
बुद्ध
ने परमात्मा
को अस्वीकार
किया है। और
कहा कि कोई
परमात्मा
नहीं है।
लेकिन
तब एक मुसीबत
शुरू हुई।
दार्शनिक रूप
से कोई अड़चन
नहीं है
परमात्मा को
अस्वीकार
करने में, लेकिन तब
साधक में
शरणागति का
भाव कैसे पैदा
करोगे? परमात्मा
हो या न हो, यह
मूल्यवान भी
नहीं है। है, इसको सिद्ध
करने की कोई
जरूरत भी नहीं
है।
बुद्ध
ने कह दिया कि
नहीं कोई
परमात्मा है।
लेकिन तब एक
अडूचन शुरू
हुई। और वह
अड़चन यह थी कि
शरणागति कैसे
हो? व्यक्ति
अपने अहंकार
को कैसे खोएगा?
तो उसके लिए
नए सूत्र
खोजने पड़े। वे
नए सूत्र फिर
वही के वही हो
गए; उससे
कोई फर्क न
पड़ा।
तो
बुद्ध—भिक्षु कहता
है, बुद्धं
शरणं गच्छामि।
संघ शरणं
गच्छामि।
धम्म शरणं
गच्छामि। पर
शरणं गच्छामि,
उससे बचने
का कोई उपाय
नहीं है!
बुद्ध
कहते हैं, कोई
भगवान नहीं है।
लेकिन बुद्ध
के साधक को
बुद्ध को ही
भगवान कहना
पड़ता है। और
बुद्ध भी
इनकार नहीं
करते कि मुझे
भगवान मत कहो।
क्योंकि
बुद्ध को एक
अड़चन साफ
दिखाई पड़ती है।
बुद्ध कह सकते
हैं, मुझे
भगवान मत कहो।
क्योंकि
बुद्ध को कोई
रस आता होगा
किसी के भगवान
कहने से, यह
धारणा ही
मूढूतापूर्ण
है।
फिर
बुद्ध इनकार
क्यों नहीं कर
देते? और
जब कोई बुद्ध
के सामने आकर
कहता है, बुद्धं
शरणं गच्छामि—हे
बुद्ध, तुम्हारी
शरण जाता हूं
तब वे क्यों
नहीं कहते कि
मैं कोई भगवान
नहीं हूं।
मेरी शरण
क्यों जाते
हो!
कारण
है। बुद्ध को
कोई रस नहीं
है कि कोई
उन्हें भगवान कहे, न कहे।
लेकिन यह जो
जा रहा है शरण,
इसके शरण
जाने का कोई
मार्ग खोजना
पड़े। और
परमात्मा को
इनकार कर दिया
है, तो
परमात्मा को
जिस झंझट से
छुटकारा दिला
दिया, उसी
झंझट में खुद
को बैठ जाना
पड़ा। वह
परमात्मा की
जगह खाली कर
दी। और कोई
चाहिए, जिसकी
शरण जा सकें।
लेकिन
बुद्ध तो कल
मर जाएंगे।
परमात्मा तो
कभी नहीं मरता, बुद्ध कल
मर जाएंगे।
फिर क्या होगा?
फिर किसकी
शरण जाएंगे? क्योंकि लोग
पूछेंगे, बुद्ध
अब कहां हैं? अगर कहते हो,
आकाश में
हैं, तो
फिर परमात्मा
बन गया। अगर
कहते हो, कहीं
भी बुद्ध हैं और
वहा से सहायता
करेंगे, तो
परमात्मा बन
गया।
तो संघ
शरणं गच्छामि।
इसलिए दूसरा
सूत्र जोड़ना
पड़ा कि यह जो
भिक्षुओं का संघ
है, साधकों
का, सिद्धों
का, इसकी
शरण जाओ। यह
रहेगा।
लेकिन
यह भी जरूरी
नहीं कि सदा
हो।
हिंदुस्तान
से खो गया, बुद्धों
का कोई संघ न
रहा। तो किसकी
शरण जाओ? तो
बुद्ध को
तीसरा सूत्र
खोजना पड़ा, धम्म शरणं
गच्छामि—धर्म
की शरण जाओ।
धर्म सदा
रहेगा।
लेकिन
क्या फर्क पड़ता
है! शरण जाना
ही पड़ेगा।
क्योंकि शरण
जाए बिना साधक
का अहंकार
नहीं खोता।
इसलिए पतंजलि
ने अनूठी बात
कही है, और वह यह कि
परमात्मा
स्वयं को खोने
की एक विधि है।
परमात्मा है
या नहीं, यह
सवाल ही नहीं
है। यह
परमात्मा तो
सिर्फ एक
तरकीब है खुद
को खोने की।
इस दार्शनिक
विवेचन का कोई
भी मूल्य नहीं
है हिंदुओं के
लिए कि ईश्वर
है या नहीं।
ईसाइयों
ने बड़ी मेहनत
की ईश्वर को
सिद्ध करने की
कि वह है। मगर
उनकी मेहनत से
कुछ सिद्ध
नहीं होता।
क्योंकि जिन
दलीलों से
सिद्ध करो, वे
दलीलें काटी
जा सकती हैं।
कट जाती हैं।
उनमें कोई बड़ी
दलील ऐसी नहीं
है, जो न
काटी जा सके।
हिंदुओं
ने कभी कोशिश
नहीं की ईश्वर
को सिद्ध करने
की। क्योंकि
वे कहते हैं, यह तो
सिर्फ एक
ट्रिक है, यह
तो सिर्फ एक
युक्ति है; यह तो सिर्फ
एक उपाय है।
उपाय है कि
तुम शरण जा
सकी।
इसलिए
जब पहली दफा
ईसाई भारत आए
या इस्लाम
भारत आया, तो उनको
बड़ी हैरानी
हुई कि हिंदू
भी कैसे मूढ़ हैं!
कोई पत्थर को
रखकर पूज रहा
है, कोई
झाड़ को पूज
रहा है, कोई
नदी को पूज
रहा है।
पत्थर! कोई
मूर्ति भी
नहीं है। ऐसे
ही अनगढ़ पत्थर
पर सिंदूर पोत
दिया है, उसको
पूज रहे हैं।
हनुमान जी
हैं! बहुत
अजीब लगा उनको
कि यह सब क्या
हो रहा है!
लेकिन
उन्हें पता
नहीं कि
हिंदुओं ने
बड़े गहन तत्व
को खोज लिया
है। वे यह
कहते हैं कि
इससे फर्क ही
नहीं पड़ता कि
तुम किसको पूज
रहे हो। तुम
पूज रहे हो, यह सवाल
है। तुम कहां
झुक रहे हो, यह बेमानी
है। तुम झुक
रहे हो, बस
इतना काफी है।
तो तुम
पीपल के वृक्ष
के सामने झुक
जाओ। यह तो
बहाना है। यह
पीपल का वृक्ष
बहाना है।
परमात्मा भी
बहाना है। है
या नहीं, इससे हमें
कोई प्रयोजन
भी नहीं है।
हमें झुकने
में सहयोगी है,
तो झुक जाओ।
क्योंकि
झुकने से तुम
उसे जान लोगे,
जिसे बिना
झुके तुम कभी
नहीं जान सकते
हो। और वह
तुम्हारे
भीतर छिपा है।
इसलिए दुनिया
में हिंदू
धर्म को समझने
में बड़ी अड़चन
हुई है। हिंदू
धर्म सबसे कम
समझा गया धर्म
है। क्योंकि
उसके रूप ऐसे
अनगढ़ दिखाई
पड़ते हैं। पर
उनके अनगढ़
होने का कारण
है। कारण है
कि बड़ी गहरी
बात हिंदुओं
की पकड़ में आ
गई। ईश्वर
महत्वपूर्ण
नहीं है, झुकता
हुआ साधक, झुका
हुआ साधक, शरण
में गया हुआ
साधक।
तो जहां
शरण मिल जाए, जिसके
माध्यम से मिल
जाए। वह है या
नहीं, यह
भी गौण है।
शरण मिल जाए, तो सब हो
जाता है।
कृष्ण कह रहे
हैं, उस
आदि पुरुष के
मैं शरण हूं, इस प्रकार
दृढ़ निश्चय
करके नष्ट हो
गया है मान और
मोह जिसका......।
स्वाभाविक
है, जो
भी शरण जाएगा,
उसका मान और
मोह नष्ट हो
जाएगा। और जो
शरण नहीं गया,
उसका मान और
मोह कभी नष्ट
नहीं होता।
इसलिए
मैं कई दफा
चकित होता हूं।
जैन या बौद्ध
भिक्षु गहन
मान से भर
जाते हैं।
जैनों को तो
शरण जाने का
और भी उपाय
नहीं।
बौद्धों ने तो
बुद्ध को ही
शरण जाने का
उपाय बना लिया।
महावीर ने कहा, अशरण रहो,
किसी की शरण
मत जाओ।
बात
में कुछ गलती
नहीं है। अगर
अशरण रहकर भी
निरअहंकारी
हो सको, तो इससे बडी
और कोई बात
नहीं है। फिर
जरूरत भी नहीं
है शरण जाने
की। लेकिन कौन
रह सकेगा बिना
शरण जाए निरअहंकारी?
कभी करोड़
में एकाध कोई
व्यक्ति, जो
शरण न गया हो
और निरअहंकारी
हो जाए। शरण
जा—जाकर भी
अहंकार नहीं
मिटता। झुक—झुककर
भी नहीं झुकता,
तो बिना
झुके बहुत
कठिन है।
महावीर का झुक
गया होगा, महावीर
के पीछे चलने
वालों को
मुश्किल खड़ी
है। वह झुक
नहीं पाता।
इसलिए
जैन साधु बड़ी
साधना करता है।
वैसी साधना
संभवत: दुनिया
में कोई भी
धर्म का साधु
नहीं करता है।
उसकी साधना
प्रगाढ़ है।
लेकिन उसका
अहंकार भी
उतना ही
प्रगाढ़ है।
इसलिए जैन
साधु जिस अकड़
से चलता है, वैसी अकड़
की हम सूफी
फकीर में
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
सूफी फकीर तो
सोचकर चकित ही
हो जाएगा कि
क्या कर रहे
हो तुम! इतनी
अकड़! जैन
साधु किसी को
नमस्कार नहीं
कर सकता।
क्योंकि कोई
है ही नहीं
जिसकी शरण
जाना है।
मैं एक
बड़े जैन साधु
आचार्य तुलसी
के साथ मौजूद
था; कई
वर्ष पहले। मोरारजी
देसाई उनको
मिलने आए। तब
वे सत्ता में
थे। नेहरू
जिंदा थे और
मोरारजी
सत्ता में थे।
मोरारजी ने
नमस्कार किया
आचार्य तुलसी
को। आचार्य
तुलसी तो
नमस्कार किसी
को कर नहीं
सकते, सिर्फ
आशीर्वाद दे
सकते हैं।
मोरारजी
किसी साधु से
कम साधु नहीं
हैं। कोई जैन
साधु उतना
अहंकारी नहीं
हो सकता। वे
भी पक्के
नैतिक पुरुष
हैं; बिलकुल
पत्थर की तरह।
चोट तत्काल लग
गई। और जो
पहला सवाल
उन्होंने
पूछा वह यह कि
मैंने हाथ
जोडकर
नमस्कार किया;
आपने हाथ
जोड़कर जवाब
क्यों नहीं
दिया? और
आप ऊपर क्यों
बैठे हैं, और
मुझे नीचे
क्यों बिठाया
है?
दोनों
साधु पुरुष
हैं! और बड़ी
अड़चन खड़ी हो
गई। और दस—बीस
विद्वान सारे
मुल्क से
बुलाए गए थे
गोष्ठी के लिए; उसी में
मुझे भी
निमंत्रित
किया था
उन्होंने।
मैं समझा कि
गोष्ठी तो
समाप्त हो गई।
क्योंकि अब वह
कैसे चलेगी!
यह पहला ही
प्रश्न है। और
मोरारजी ने
कहा, जब तक
इसका जवाब न
मिले, आगे
कुछ बात करने
का प्रयोजन
नहीं है।
तुलसीजी
चुप रहे। अब
क्या कहें!
क्योंकि जैन
साधु को आज्ञा
नहीं है कि
नमस्कार करे
किसी को। कोई
नमस्कार
योग्य है भी
नहीं। शरण
किसी की जाना
नहीं है।
मैंने
कहा कि अगर यह
नियम है, तो दूसरे को
भी नमस्कार करने
से रोकना
चाहिए। जैसे
ही कोई दूसरा
नमस्कार करे,
कहना चाहिए,
रुको! उसका
नमस्कार ले
लेना और फिर
अपनी तरफ से
नमस्कार न
देने का नियम
जरा बेईमानी
है। या उसको
कहना चाहिए कि
सावधान! आप
करो, आपकी
मरजी। हम
लौटाएंगे
नहीं।
और
मोरारजी को
मैंने कहा कि
आपको उनका ऊपर
बैठना अखर रहा
है कि अपना
नीचे बैठना
अखर रहा है, यह साफ हो
जाना चाहिए, फिर कुछ बात
आगे चले।
क्योंकि ऊपर
तो एक छिपकली
भी चल रही है, उससे आपको
कोई एतराज
नहीं है। आप
नीचे बिठाए गए
हैं, इससे
अड़चन है। अगर
आपको भी ऊपर
बिठाया गया
होता, तो
कोई अड़चन न थी।
नैतिक पुरुष
कितना ही
नैतिक हो जाए, धार्मिक
नहीं हो पाता।
मोरारजी की
नैतिकता में
संदेह नहीं है।
आचार्य तुलसी
की नैतिकता
में कोई संदेह
नहीं है।
दोनों साधु
पुरुष हैं। पर
अहंकार सघन है।
और जब साधु का
अहंकार सघन हो,
तो असाधु से
भी खतरनाक
होता है। उसको
झुकाया नहीं
जा सकता।
असाधु तो थोड़ा
डरता भी है कि
मैं असाधु हूं
साधु डरता ही
नहीं। उसको
झुकाएंगे
कैसे? असाधु
तो खुद अपने
डर के कारण
झुका रहता है।
साधु की अकड़ तो
सख्त है। वह
टूट जाएगा, झुक नहीं
सकता।
लेकिन
हिंदुओं ने
मौलिक तत्व को
पकड़ लिया है, कि कहीं
से भी झुकना आ
सके, और
किसी भी तरह
शरण जाने का
भाव पैदा हो
सके, तो
वही परम साधना
है।
स्वभावत:, मान और
मोह नष्ट हो
जाएगा। और
जैसे—जैसे मान—मोह—आसक्ति
नष्ट होते हैं,
वैसे—वैसे
परमात्मा के
स्वरूप में
स्थिति बनने
लगेगी।
क्योंकि ये ही
हिलाते हैं।
इनकी वजह से
कंपन होता है।
इनकी वजह से
बेचैनी और
अशांति होती
है। इनकी वजह
से गति होती
है।
परमात्मा
में जिसकी
स्थिति बनने
लगती है, सुख—दुख
नामक
द्वंद्वों से
विमुक्त हुए
ज्ञानीजन उस
अविनाशी पद को,
परम पद को
प्राप्त होते
हैं।
वह परम
पद छिपा है
भीतर। जैसे ही
हमारा हिलन—डुलन
बंद हो जाता
है, कंपन
शात हो जाता
है, ज्योति
थिर हो जाती
है, वह परम
पद हमें
उपलब्ध हो
जाता है। जो
सदा से हमारा
है, जो सदा
से हमारा रहा
है, हम
उसके प्रति
प्रत्यभिज्ञा
से भर जाते
हैं। हम पहचान
जाते हैं कि
हम कौन हैं!
मैं के
मिटते ही मैं
कौन हूं इसकी
पहचान आ जाती
है।
आज
इतना ही।
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