अध्याय—14
सूत्र—
सर्वयोनिषु
कौन्तेय
मूर्तय:
सम्भवन्ति
या:।
तासो
ब्रह्म
महद्योनिरहं
बीजप्रद: पिता।।
4।।
सत्वं
रजस्तम इति
गुणा: प्रकृतिसंभवा।
निबध्नन्ति
महाबाहो देहे
देहिनमध्ययम्।।
5।।
तत्र
सत्वं
निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन
बध्नाति
ज्ञानसङ्गेन
चानघ ।। 6।।
तथा है
अर्जुन,
नाना प्रकार
की सब योनियों
में गिनी
मूर्तियां
अर्थात शरीर
उत्पन्न
होते है,
उन सकी
त्रिगुणमयी
माया तो गर्भ
को धारण करने वाली
माता है और
मैं बीज को
स्थापन करने
वाला बिता हूं।
हे अर्जुन,
सत्वगुण,
रजोगुण और
तमोगुण,
ऐसे यह
प्रकृति से
उत्पन्न हुए तीनों
गुण हम अविनाशी
जीवात्मा को
शरीर में
बांधते हैं।
हे
निष्पाप,
उन तीनों गुणों
में प्रकाश
करने वाला
निर्विकार
सत्वगुण तो निर्मल
होने के कारण
सुख की आसक्ति
ले और ज्ञान
की आसक्ति से
अर्थात ज्ञान
के अभिमान से
बांधता है।
सूत्र
के पहले थोड़े—से
प्रश्न।
पहला
प्रश्न :
पांडवों में
ज्येष्ठ
युधिष्ठिर को
धर्मराज कहा
गया है, लेकिन
कृष्ण ने
धर्मराज को
छोड्कर
अर्जुन को
गीता कही। ऐसा
क्यों? क्या
धर्मराज
पात्र न थे?
इस
संबंध में
बहुत सी बातें
समझनी जरूरी
हैं। पहली बात, धर्म
को जानना
शास्त्र से, परंपरा से, एक बात है।
धर्म को जानना
जीवन से, बिलकुल
दूसरी बात है।
और जीवन से
केवल वे ही
जान सकते हैं,
जिनके ऊपर
शास्त्रों का,
परंपरा का
बोझ न हो।
जिनके
ऊपर
शास्त्रों का
बोझ है, उनकी
जिज्ञासा कभी
भी मौलिक नहीं
हो पाती। उनकी
जिज्ञासा भी
झूठी होती है।
वे प्रश्न भी
पूछते हैं, तो
शास्त्रों के
कारण। प्रश्न
भी उनके अपने
नहीं होते।
उनके प्रश्न
सैद्धांतिक
होते हैं, जीवंत
नहीं। वे तत्व
की चर्चा करते
हैं, जैसा
एक विचारक करे।
लेकिन वे तत्व
की वैसी खोज
नहीं करते, जैसा एक
साधक करे।
उनके लिए
तत्वचर्चा एक
बौद्धिक
विलास है, जीवन—मरण
की समस्या
नहीं।
धर्मराज
परंपरा से
धार्मिक हैं।
शास्त्रों ने
क्या कहा है, इसे
वे जानते हैं।
उनका अस्तित्व
धार्मिक नहीं
है। उन्होंने
अस्तित्वगत
रूप से धर्म
को खोजा नहीं।
उसके जीवन में
भी उसके
स्पष्ट लक्षण
मिलेंगे।
परंपरागत
रूप से जो
आदमी धार्मिक
है,
उस आदमी के
पास कोई निज
की चेतना नहीं
होती। वह
स्वयं नहीं
सोचता। नियम
के अनुसार
चलता है। नियम
अगर गलत हो, तो वह गलत
चलता है। नियम
अगर सही हो, तो वह सही
चलता है। समाज
जिसे भी ठीक
कहता है, उसे
वह मानता है, चाहे वह गलत
ही क्यों न हो।
महाभारत
के उन दिनों
में जुए को
अनैतिक नहीं माना
जाता था, वह
अधार्मिक भी
नहीं था।
सिर्फ एक खेल
था। जैसे कोई
आज फुटबाल खेल
रहा है, वालीबाल
खेल रहा है, और उस खेल
में कोई
अनैतिकता
नहीं है। ऐसा
ही जुआ भी खेल
था, एक
क्रीड़ा थी।
उसमें कोई
अनीति नहीं थी।
तो समाज में
कोई जुए के
विपरीत भाव
नहीं था।
युधिष्ठिर
जुआ खेल सकते
हैं। उन्हें
इसमें जरा भी
अड़चन नहीं हुई।
धर्मराज होने
मात्र से जुआ
खेलने में
उन्हें कोई
पीड़ा, कोई
विचार नहीं
उठा। और जुआ
ही नहीं खेल
सकते, अपनी
स्त्री को दाव
पर भी लगा
सकते हैं।
क्योंकि उस
समाज में
स्त्री पुरुष
की संपत्ति थी,
स्त्री— धन!
उन दिनों तक
समाज की चेतना
इस जगह नहीं
थी कि स्त्री
को हम
स्वतंत्र
व्यक्तित्व
दिए होते। वह
पुरुष की
संपत्ति थी, पति की
संपदा थी। तो
जब मैं अपना
धन लगा सकता
हूं तो अपनी
पत्नी भी लगा
सकता हूं।
क्योंकि
पत्नी मेरा
पजेशन थी, मेरा
परिग्रह थी।
युधिष्ठिर
द्रौपदी को
दाव पर लगा
सकते हैं।
उनकी चेतना को
जरा भी चोट
नहीं हुई।
उन्हें ऐसा
नहीं लगा कि
मैं यह क्या
कर रहा हूं!
कोई व्यक्ति
किसी की
संपत्ति कैसे
हो सकता है? वस्तु
संपत्ति नहीं
हो सकती
वस्तुत: तो; तो व्यक्ति
तो संपत्ति
कैसे हो सकता
है? व्यक्ति
पर कोई
मालकियत नहीं
हो सकती। और
व्यक्तियों
को जुए के दाव
पर नहीं लगाया
जा सकता।
लेकिन वह समाज,
उन दिनों की
परंपरा
स्त्री को
संपदा मानती
थी, पुरुष
उसे जुए पर
दाव पर लगा
सकता था।
तो
युधिष्ठिर को
कोई अपनी
चेतना नहीं है।
न अपना कोई
विचार है, न
अपनी कोई
जिज्ञासा है।
वे परंपरागत
रूप से
धार्मिक व्यक्ति
हैं। गीता
उनसे नहीं कही
जा सकती।
कृष्ण
जैसे
व्यक्तित्व
का संपर्क परंपरागत
चेतना से नहीं
हो सकता।
कृष्ण को तो
वही समझ पाएगा, जो
परंपरागत
नहीं है। जो
शास्त्र से
बंधा नहीं है,
और जिसकी
जिज्ञासा आंतरिक
है।
अर्जुन
की जिज्ञासा
में बड़ा फर्क
है। अर्जुन के
लिए यह जीवन—मरण
की समस्या है।
युद्ध के इस
क्षण में वह
कोई शास्त्र
का विवेचन
नहीं उठा रहा
है। युद्ध के
इस क्षण में
उसकी चेतना
में ही यह पीड़ा
खड़ी हो गई है, एक
अंतर्द्वंद्व
उठ खड़ा हुआ है,
कि जो मैं
कर रहा हूं, क्या वह
करने योग्य है?
वस्तुत:
सच तो यह है कि
शास्त्र तो
कहते हैं, क्षत्रिय
का धर्म है कि
लड़े।
क्षत्रिय को
युद्ध में कुछ
भी पाप नहीं
है। क्षत्रिय
काटे, इसमें
कुछ पाप नहीं
है। वह उसके
क्षत्रिय
होने का
हिस्सा है।
लेकिन अर्जुन
को एक
अस्तित्वगत, एक्सिस्टेंशियल
सवाल खड़ा हो
गया है। वह यह
कि अगर मैंने
इन सब को मार
ही डाला और
इनको मारकर
मैं इस राज्य
का मालिक भी
हो गया, तो
क्या वह राज्य,
वह मालकियत
इतनी कीमत की
है कि इतने
जीवन नष्ट किए
जाएं? क्या
मुझे यह हक है
कि मैं इतने
जीवन नष्ट करूं?
सिर्फ इस
सुख को पाने
के लिए कि मैं
सम्राट हो गया!
क्या सम्राट
होने का इतना
अर्थ है? इतना
मूल्य है? इतने
जीवन के विनाश
का कोई कारण
है?
अर्जुन
का सवाल उसकी
निजता से उठा
है। वह किसी
शास्त्र से
नहीं आया है।
अगर अर्जुन भी
शास्त्रीय
होता, तो गीता
का सवाल ही
नहीं उठता।
युधिष्ठिर यह
सवाल नहीं
पूछते।
युधिष्ठिर
जुआ खेलते
वक्त नहीं
पूछे; पत्नी
को दाव लगाते
वक्त नहीं
पूछे। युद्ध
के क्षण में
भी क्यों
पूछते! सदा से
क्षत्रिय
लड़ता रहा है।
और अपनी रक्षा
के लिए और
अपनी संपदा के
लिए और अपनी
सीमा और राज्य
के लिए लड़ना
उसका कर्तव्य है।
यह बात उठती
नहीं थी।
अर्जुन को उठी।
अर्जुन
बड़ी आधुनिक
चेतना है, एक
अर्थ में। यह
केवल उसी
व्यक्ति को उठ
सकता है, ऐसी
संकट की
स्थिति, जो
परंपरा से
बंधा हुआ नहीं
है, युवा
है; जीवंत
है; जीवन
को जी रहा है
और जीवन में
समस्याएं हैं,
उनको हल
करना चाहता है।
इसलिए
गीता जैसा
जीवंत
शास्त्र जगत
में दूसरा
नहीं है।
क्योंकि गीता
जैसी जीवंत
स्थिति किसी
शास्त्र के
जन्म में
कारणभूत नहीं
बनी।
युद्ध
अत्यंत संकट
का क्षण है।
जहां मृत्यु
निकट, वहा
जीवन अपनी
पूरी ज्योति
में जलता है।
जितनी घनी
होती है
मृत्यु, जितना
अंधकार
मृत्यु का सघन
होता है, उतनी
ही जीवन की
बिजली जोर से
चमकती है।
मृत्यु के
क्षण में ही
जीवन का सवाल
उठता है कि जीवन
क्या है।
कुरान
है,
बाइबिल है,
महावीर के
वचन हैं, बुद्ध
के वचन हैं, बड़े
बहुमूल्य।
लेकिन उनकी
परिस्थिति
इतनी जीवंत
नहीं है। जीवन
के इतने घनेपन
में, जहां
मृत्यु चारों
तरफ खड़ी हो, जहां निर्णय
बड़ा मूल्यवान
होने वाला है;
लाखों
लोगों का जीवन
निर्भर करेगा
अर्जुन के
निर्णय पर।
अर्जुन भाग
जाता है तो, अर्जुन लड़ता
है तो, अर्जुन
के ऊपर भाग्य—निर्धारण
है लाखों
लोगों के जीवन
का।
अगर
महावीर के पास
कोई कुछ पूछने
आया है, तो
उसके जीवन का
निर्धारण
होगा, उसकी
अपनी निजी बात
होगी। लेकिन
अर्जुन का
सवाल बड़ा गहन
है। उसके साथ
लाखों जीवन
बुझेंगे, जलेंगे।
वह जो पूछ रहा
है, बड़ा
शाश्वत है।
अर्जुन
को ही गीता
कही जा सकती
है,
धर्मराज
युधिष्ठिर को
नहीं। और
अर्जुन कोई
धार्मिक
व्यक्ति नहीं
है, यह
ध्यान रखें।
इसीलिए
प्रश्न उठ सका।
धार्मिक
व्यक्ति होता,
तो प्रश्न
उठता ही नहीं।
अगर वह
धार्मिक होता,
परंपरा के
अनुसार हिंदू
होता, तो
वह लड़ता।
क्योंकि
क्षत्रिय का
धर्म है लड़ना।
कोई शास्त्र
नहीं कहता
हिंदुओं का कि
क्षत्रिय न
लड़े। लडूना
उसका धर्म है।
वह क्षत्रिय
होने के भीतर
है।
अगर
अर्जुन जैन
होता जन्म से, तो
लड़ने का सवाल
ही नहीं उठता
था। लड़ना पाप
है। युद्ध का
मौका ही नहीं
आता। वह कभी
का संन्यस्थ
हो गया होता, वह कभी का
जंगल चला गया
होता। अगर
अर्जुन जैन या
बौद्ध होता, तो कभी का जा
चुका होता।
अगर हिंदू
होता, परंपरागत,
तो लड़ता। यह
कोई सवाल नहीं
था।
अर्जुन
धार्मिक नहीं
है,
इसीलिए
उसकी चितना मौलिक
है। वह किसी
शास्त्र से, किसी विधि
से बंधा हुआ
नहीं है। वह
किसी को मानकर
चल नहीं रहा
है। जीवन सवाल
उठा रहा है, वह अपना
उत्तर खोज रहा
है। इस खोज से
ही कृष्ण उससे
संबंध जोड़ पाए।।
कृष्ण जैसे
व्यक्ति केवल
उन्हीं लोगों
से संबंध जोड़
पा सकते हैं, जो बंधे हुए
लीक से, किसी
लकीर से जुड़े
हुए नहीं हैं,
जो मुक्त
हैं और जिनके
प्रश्न अपने
हैं।
मेरे
पास जैन आते
हैं। वे पूछते
हैं,
निगोद क्या
है? जैनों
के सिवाय कोई
मुझसे कभी
नहीं पूछा कि
निगोद क्या है।
क्योंकि किसी
के शास्त्र
में निगोद का
वर्णन नहीं है।
वह जैनों के
शास्त्र में
हैं। वह जैनों
का अपना
पारिभाषिक
शब्द है। आपके
मन में तो सवाल
ही नहीं उठ सकता
कि निगोद क्या
है। यह शब्द ही
व्यर्थ है।
लेकिन जैन के
मन में उठता
है। इसलिए
नहीं कि उसके
जीवन की
समस्या है।
उसने किताब में
पढा है। पढा है,
तो सवाल उठता
है। बौद्ध कभी
नहीं पूछते कि
परमात्मा कहा है,
क्योंकि उनके
शास्त्र में
लिखा है, परमात्मा
है ही नहीं।
हिंदू पूछते
हैं, परमात्मा
कहां है? उसका
रूप क्या है? उसने सृष्टि
क्यों बनाई? जैन कभी
नहीं पूछता कि
परमात्मा ने
सृष्टि क्यों
बनाई! क्योंकि
जैन मानता ही
नहीं कि सृष्टि
बनाई गई है।
वह मानता है, सृष्टि शब्द
ही गलत है।
इसका कभी सृजन
हुआ नहीं है।
अस्तित्व सदा
से है। असृष्ट
है। इसकी कोई
सृष्टि कभी
नहीं हुई।
इसलिए बनाने
वाले का तो
कोई सवाल नहीं
है।
लेकिन
ये सब सवाल
शास्त्रीय
हैं। ये आपने
कहीं पढ़ लिए, पढ़ने
से आपके मन
में पैदा हुए
हैं। ये उधार
हैं। आपने ही
जीवन में इनको
नहीं खोजा है।
शब्द आपके
भीतर गए, और
शब्दों से नए
शब्द पैदा हो
गए हैं।
शब्दों की
संतान हैं।
लेकिन
हिंदू मेरे
पास आता है, वह
पूछता है, क्रोध
से कैसे मुक्त
होऊं? जैन
आता है, वह
भी पूछता है, क्रोध से
कैसे मुक्त
होऊं? बौद्ध
आता है, वह
भी पूछता है, क्रोध से
कैसे मुक्त
होऊं? यह
सवाल शास्त्र
से नहीं आ रहा
है, यह
जीवन से आ रहा
है। शास्त्र
के सवाल तीनों
के अलग हैं।
जीवन का सवाल
तीनों का एक
है। और जब भी
कोई व्यक्ति
जीवन से उठने
लगेगा, पूछने
लगेगा, तो
प्रश्न एक हो
जाएगा।
क्योंकि हर मनुष्य
की कठिनाई एक
है। शास्त्र
अलग हैं, आदमी
एक है।
शास्त्र
भिन्न—भिन्न
हैं; आदमी
का स्वभाव एक
है।
इसलिए
गीता अनूठा है
शास्त्र। और
इसलिए गीता
हिंदू के भी
काम आ सकता है, मुसलमान
के भी काम आ
सकता है, जैन
के भी काम आ
सकता है।
क्योंकि जिस
समस्या से वह
उठा है, वह
समस्या सबकी
समस्या है। जब
मैं कहता हूं
सबकी समस्या
है, तो
आपको थोड़ी
हैरानी होगी,
क्योंकि आप
कोई महाभारत
के युद्ध में
खड़े हुए नहीं
हैं। फिर से
सोचें तो आप
पाएंगे कि आप
महाभारत के युद्ध
में ही खड़े
हुए हैं।
हर
मनुष्य युद्ध
में खड़ा हुआ
है। प्रतिपल
युद्ध है।
किसी न किसी
से लड़ ही रहे
हैं। और जब लड़
रहे हैं, तो
किसी न किसी
की मृत्यु और
जीवन आपके हाथ
में है। चाहे
इंच—इंच किसी
को मिटा रहे
हों, चाहे
इकट्ठा मिटा
रहे हों, लेकिन
किसी को आप
मिटा रहे हैं,
मिटाना चाह
रहे हैं। किसी
को समाप्त कर
देना चाहते
हैं। किसी की
जगह खुद हो
जाना चाहते
हैं। और जहां—जहां
संघर्ष है, प्रतिस्पर्धा
है, युद्ध
है, वहां—वहा
सवाल है, क्या
इसका कोई
मूल्य है?
एक
राजनीतिज्ञ
कभी नहीं
पूछता कि मैं
इतनी दौड़— धूप
कर रहा हूं? इतने
लोगों को
खींचकर पीछे
करूंगा, आगे
जाऊंगा, क्या
इसका सच में
कोई मूल्य है कि
इतना उपद्रव
लिया जाए?
धन
की खोज में
दौड़ने वाला
कभी नहीं
सोचता कि मेरे
धन की तलाश से
कितने लोग
निर्धन हो
जाएंगे! क्या
धन का इतना
मूल्य है कि
इतने लोग दुखी
और पीड़ित हो
जाएं? मेरी
तिजोरी भर
जाएगी, लेकिन
कितने पेट
खाली हो
जाएंगे! क्या
तिजोरी को
भरने में इतनी
कोई सार्थकता
है?
तराजू
पर अगर तौले
कोई भी, तो जो
भी आप कर रहे
हैं, आपको
पूछना ही
पड़ेगा कि यह
करने योग्य है?
इसके करने
का परिणाम जो
चारों तरफ हो
रहा है, उतना
मूल्य चुकाया
जाए, ऐसी
यह मंजिल है? इतनी यात्रा
की जाए और
पहुंचें कहीं
भी न......।
प्रत्येक
व्यक्ति
महाभारत में
खड़ा है। और
प्रत्येक
व्यक्ति के
सामने यही
सवाल है, मैं
दूसरे को
मिटाऊं अपने
होने के लिए?
अजुर्न
के सामने सवाल
है कि अपने को
बचाने के लिए
इन सबको
मिटाऊं? उसके
सामने सवाल है
कि इनमें मेरे
मित्र भी हैं,
मेरे
संबंधी भी हैं।
खुद अर्जुन का
गुरु सामने
दुश्मन के दल
में खड़ा है।
जिससे मैंने
सब सीखा, जो
मैंने सीखा है
जिससे, उसको
ही मिटाने के
काम में लाऊं?
प्रियजन
हैं, संबंधी
हैं। घर का ही
झगड़ा है, पारिवारिक
युद्ध है।
ध्यान
रहे,
सारे युद्ध
पारिवारिक
हैं, क्योंकि
मनुष्यता
परिवार है। आप
किसी से भी लड़
रहे हों, आपके
ही भाई से लड़
रहे हैं। वह
भाई कितने
पीछे आपसे
जुड़ा है, यह
दूसरी बात है।
लेकिन अगर आप
पीछे जाएंगे,
तो कहीं न
कहीं पाएंगे
कि आपके दोनों
का पिता कहीं
न कहीं पीछे
एक था।
ईसाई
कहते हैं कि
एक आदमी आदम
और महिला ईव, उन
दोनों से ही
सारी
मनुष्यता
पैदा हुई है।
वह ठीक ही है।
कहानी ठीक ही
है। हम आज
कितने ही दूर
हों। वृक्ष की
शाखाएं एक—दूसरी
शाखाओं से
बहुत दूर निकल
जाती हैं।
उपशाखाएं
पहचान भी नहीं
सकतीं। लेकिन
नीचे जड़ में
एक वृक्ष से
जुडी हैं।
सारी
मनुष्यता एक
वृक्ष है। और
सारा संघर्ष
पारिवारिक है।
और जब भी आप
किसी को मिटा
रहे हैं, तो
अपने ही किसी
को मिटा रहे
हैं। कितना ही
अपरिचय हो गया
हो, लेकिन
जहां भी कोई
मनुष्य है, वह मुझसे
जुडा है।
मनुष्य होने
के कारण हम एक
परिवार के
हिस्से हैं।
अर्जुन
की समस्या
आपकी भी 'समस्या
है, हर
आदमी की
समस्या है। और
जब आप लड़ेंगे,
तो जिसको आप
दुश्मन मान
रहे हैं, जिनको
आप दुश्मन मान
रहे हैं, अगर
थोड़ा
पहचानेंगे, गौर करेंगे,
तो पाएंगे,
सगे—संबंधी
उस तरफ भी खड़े
हैं। अन्यथा
हो भी नहीं
सकता।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि ठीक से
सोचने पर
पाएंगे कि
प्रत्येक
व्यक्ति
महाभारत के
युद्ध में है।
और थोड़ा होश
हो,
तो आप भी
यही पूछेंगे,
जो अर्जुन
पूछ रहा है।
और थोड़ा होश
हो, तो आप
भी कृष्ण को
खोजेंगे, जैसा
अर्जुन ने खोज
लिया है। और
गीता आपके लिए
भी सार्थक हो
सकती है।
धर्मराज
मूल्य के नहीं
हैं,
उनका बहुत
मूल्य नहीं है।
अर्जुन
मूल्यवान है।
और ऐसा सदा
होता है। आज
भी पंडित हैं,
धर्मगुरु
हैं, पोप
हैं, शंकराचार्य
हैं, मठाधीश
हैं, साधु
हैं परंपरागत,
संन्यासी
हैं, उनका
धर्म से कोई
संबंध नहीं है।
वे सब धर्मराज
हैं। उनकी खोज
वास्तविक
नहीं है। उनके
लिए धर्म भी
एक लकीर है, सुविधापूर्ण
है, कनवीनिएंट
है। उसके साथ
जीने में
उन्हें आराम
है, सांत्वना
है। और ऐसा
सदा हो जाता
है।
एक
तरफ जीसस है, जो
सूली पर लटकता
है और एक तरफ
वेटिकन का पोप
है। क्या
संबंध है? इतना
ही संबंध है
कि सूली पर
जीसस लटकता है,
वेटिकन का
पोप सोने की
एक सूली अपने
गले में लटकाए
है। क्या
संबंध है? सूलियों
में गले लटकाए
जाते हैं, गले
में सूलियां
नहीं लटकाई
जातीं! और फिर
सोने की सूली
का क्या अर्थ
है? ये
धर्मराज हैं।
पोप
को आप
अधार्मिक
नहीं कह सकते।
नियम से जीते
हैं। समय पर
प्रार्थना
करते हैं। समय
पर बाइबिल
पढ़ते हैं।
जीवन को आंचरण
में बांध रखा
है। कोई चोर
नहीं हैं, बेईमान
नहीं हैं, व्यभिचारी
नहीं हैं। जो
दस आज्ञाएं
बाइबिल में
हैं, शायद
उनको पूरी तरह
पालन करते हैं।
लेकिन फिर भी
धार्मिक नहीं
हैं। फिर भी
जीवन में वह
ज्योति नहीं
है, जो
जीसस के जीवन
में है।
जीसस
की खोज अपनी
है। प्राणों
को दाव पर
लगाया है, तो
खोजा है। पोप
की खोज अपनी
नहीं है, एक
परंपरपात
व्यवस्था है।
पोप एक पद है।
जीसस कोई पद
नहीं है। और
जीसस होने में
कठिनाई है, पोप होने
में सुविधा है।
सभी पोप होना
चाहेंगे।
जितने ईसाई
पादरी हैं, सभी
प्रतिस्पर्धा
में हैं कि वे
कब पोप के पद
तक पहुंच जाएं।
लाखों में एक
पहुंच पाएगा।
बारह लाख
कैथोलिक पादरी
हैं सारी
दुनिया में।
बड़ा
साम्राज्य है।
बारह लाख
पुरोहित, छोटा—मोटा
साम्राज्य
नहीं है! फिर
इन बारह लाख
में से एक
आदमी पोप पाल
तक पहुंच पाता
है। इसके
चुनाव हैं, सीढ़ियां हैं,
उनको पार करते—करते
कोई एक आदमी
पहुंच पाता है।
तीस वर्ष
अंदाजन, तीस—चालीस
वर्ष में कोई
एक आदमी पोप
हो पाता है।
जीसस
मर गए तैंतीस
वर्ष में। पोप
होते—होते कोई
भी आदमी पचास
साल पार कर
जाता है, साठ
पार कर जाता
है। का ही
आदमी पोप हो
सकता है।
क्योंकि यह जो
पदों की
परंपरा है, एक—एक सीडी
चढ़ना है। अगर
जीसस होते, कभी पोप
नहीं हो पाते,
क्योंकि
तैंतीस साल
में कोई पोप
हो ही नहीं सकता।
उसका तो एक
ढांचा है। और
तैंतीस साल के
आदमी पर भरोसा
भी नहीं किया जा
सकता। कोई
परंपरा भरोसा
नहीं कर सकती
कि उसको पोप बनाए।
तैंतीस साल का
आदमी खतरनाक
है।
अमेरिका
में हिप्पी
युवकों का एक
नारा है कि तीस
साल के ऊपर जो
हो,
उसका भरोसा
मत करो।
क्योंकि तीस
साल के बाद
मुश्किल है कि
आदमी बेईमान न
हो जाए। अनुभव
आदमी को
बेईमान बनाना
शुरू कर देता
है। और वह
जितना अनुभवी
होने लगता है,
उतनी ही
क्रांति
क्षीण हो जाती
है।
इसके
विपरीत मैं
अभी एक लेख पढ़
रहा था।
जिसमें एक के
आदमी ने लेख
लिखा है और
उसने कहा है
कि तीस साल से
कम आदमी का
कोई भरोसा मत
करो। उसकी भी
दलीलें हैं।
वह कहता है, तीस
साल के पहले
आदमी का अनुभव
ही नहीं है।
और जिसका कोई
अनुभव नहीं, उसकी बातों
का कोई भरोसा
नहीं है। उसे
मनुष्य जाति
के इतिहास का
कोई खयाल नहीं
है।
जो
भूलें हजार
बार हो चुकी
हैं,
जवान हमेशा
उन्हीं को
दोहराता है, क्योंकि
उसके पास कोई
अनुभव नहीं है।
का कभी भूलें
नहीं दोहराता।
लेकिन का कभी
कोई नया काम
ही नहीं करता,
भूलें
दोहराने का
कोई कारण नहीं
है। भूल तो
उससे होती है,
जो नया काम
करता है।
जीसस
पोप नहीं हो
सकते। अगर आदि
शंकराचार्य
पैदा हों, तो
किसी मठ के
शंकराचार्य
नहीं हो सकते।
तैंतीस साल
में
शंकराचार्य
समाप्त हो गए।
कुछ
कारण हैं। एक
तो परंपरागत
सिंहासन है।
उन पर पहुंचता
ही वह है, जो
बिलकुल
मुर्दा होता
है। नहीं तो
गुजर नहीं
सकता है। बीच
की जो सीढ़ियां
हैं, उनसे
कभी का हटा
दिया जाएगा।
अगर जरा—सी भी
बगावत का
लक्षण है, जरा—सा
भी स्वयं के
सोचने का ढंग
है, तो वह
कभी का अलग छांट
दिया जाएगा।
वहा तक तो वही
पहुंचेगा, जो
बिलकुल लकीर
का फकीर है।
जिसने
पच्चीसों
वर्ष तक
प्रमाण दे दिए'
हैं, कि
न मैं सोचता हूं, न मैं
विचारता हूं
मैं सिर्फ
दोहराता हूं।
मैं सिर्फ एक
ग्रामोफोन
रिकार्ड हूं।
वह आदमी पोप
तक पहुंच
पाएगा। वह
धर्मराज होगा।
लेकिन गीता
उससे नहीं
कही
जा सकती।
इसलिए
अर्जुन पात्र
है,
और धर्मराज
पात्र नहीं
हैं।
दूसरा
प्रश्न :
युद्ध की
पार्श्वभूमि
में मृत्यु का
क्षण अर्जुन
के रूपांतरण
में सहायक सिद्ध
हुआ। क्या
अर्जुन
अन्यत्र
रूपांतरित न
हो पाता? और
क्या हमें भी
अनिवार्यत:
मृत्यु के
क्षण जैसी
स्थिति
रूपांतरण के
लिए आवश्यक है?
निश्चय
ही,
जब तक किसी
व्यक्ति को
मृत्यु का ठीक—ठीक
बोध नहीं होता,
जब तक
मृत्यु का तीर
आपके हृदय में
ठीक—ठीक चुभन
पैदा नहीं
करता, तब
तक आप जीवन के
संबंध में
सोचना शुरू
नहीं करेंगे।
मृत्यु
ही सवाल उठाती
है कि जीवन
क्या है। अगर
मृत्यु न हो, तो
जीवन के संबंध
में कोई सवाल
न उठेगा। अगर
मृत्यु न हो, तो धर्म के
जन्म का कोई
उपाय नहीं है।
मृत्यु
ही हिलाती है।
मृत्यु ही
जगाती है।
मृत्यु ही
प्रश्न बनाती
है कि जिस
जीवन को तुम
जी रहे हो, अगर
वह कल मिट ही
जाने वाला है,
तो उसका
मूल्य क्या? उसमें अर्थ
क्या है? जिसके
लिए तुम आज
इतने बेचैन हो
और वह कल ऐसे मिट
जाएगा, जैसे
पानी पर खींची
गई लकीर, तो
खींचने के लिए
इतनी आतुरता
क्या है? जिन
हस्ताक्षरों
को करने में
तुम इतनी पीड़ा
उठा रहे हो कि
जीवन उन्हें
याद रखे, वे
रेत पर बनाए
गए हस्ताक्षर
हैं। तुम पूरे
भी न कर पाओगे
कि हवा का
झोंका उन्हें
पोंछ जाएगा।
तो जीवन में
इतना ज्यादा
रस व्यर्थ
मालूम होगा।
मृत्यु
ही बताएगी कि
जिसे तुम जीवन
समझ रहे हो, वह
जीवन नहीं है।
और मृत्यु ही
तुम्हें
धक्का देगी कि
तुम उस जीवन
की खोज करो, जिसे मृत्यु
न मिटा सके।
क्योंकि वही
जीवन है, जो
अमृत है; और
जहां कोई
मृत्यु न होगी,
कोई अंत न
होगा।
अगर
ऐसा कोई जीवन
नहीं है, तो
जिसे हम जीवन
कह रहे हैं, यह नितांत
मूढ़ता है। यह
नितांत असंगत,
एक
दुखस्वप्न, एक नाइटमेयर
है। अगर कोई
ऐसा जीवन हो
सकता हो, जिसका
अंत न हो, तो
ही इस जीवन
में भी कोई
सार हो सकता
है। क्योंकि
तब हम इस जीवन
को उस जीवन
में जाने की परिस्थिति
बना सकते हैं।
तब हम इस जीवन
को उस जीवन
में प्रवेश की
साधना बना
सकते हैं। तब
हम इस जीवन को
एक द्वार की
तरह, एक
शिक्षण की तरह
उपयोग कर सकते
हैं और परम जीवन
में प्रवेश कर
सकते हैं। इस
जीवन का एक ही
उपयोग हो सकता
है कि यह किसी
महत्तर जीवन
में जाने का
साधन बन जाए।
मृत्यु
ही बताती है
कि यह अंत
नहीं है। अंत
कहीं और खोजना
होगा। मृत्यु
ही बताती है
कि यह यात्रा—पथ
भला हो, मंजिल
नहीं है।
मंजिल कहीं और
खोजनी होगी।
अर्जुन
को ही नहीं, किसी
को भी मृत्यु
ही जगाती है।
अगर कोई
समझदार हो
अर्जुन जैसा,
तो दूसरे की
मृत्यु भी
जगाने वाली बन
जाती है। अगर
कोई मूढ़ हो, तो दूसरे की
मृत्यु का
उससे कोई
संबंध नहीं जुड़ता।
हेनरिक
हेन,
एक जर्मन
कवि ने लिखा
है।
जिस
गांव में
हेनरिक हेन था, उस
गाव की परंपरा
थी कि जब भी
कोई गांव में
मर जाए, तो
चर्च की घंटी
बजे। चर्च का
घंटा बजे, ताकि
पूरे गांव को
खबर हो जाए कि
कोई मर गया है।
और लोग पूछने
भेज दें चर्च
में कि कौन मर
गया है।
हेनरिक
ने अपनी डायरी
में लिखा है, डोंट
सेड एनीबडी टु
आस्क, फार
द्य दि बेल
टाल्स, इट
टाल्स फार दी!
मत भेजो किसी
को पूछने कि
चर्च का घंटा किसके
लिए बज रहा है।
यह घंटा
तुम्हारे लिए
बज रहा है।
कोई भी मरे, तुम्हारी
मौत का ही
इशारा है।
हर
मौत खबर है कि
तुम भी मरोगे।
हर मौत किसी
अंश में
तुम्हारी मौत
है। जब भी कोई
मरता है, कुछ
हिस्सा
तुम्हारा मर
जाता है। और
तुम्हारी मौत
तुम्हें घेर
लेती है
क्षणभर को।
अर्जुन
को दूसरे की
मृत्यु भी
प्रतीक हुई जा
रही है। वह
सिर्फ यही
नहीं पूछ रहा
है कि इनको
मैं क्यों
मारूं, वह यह
पूछ रहा है कि
अगर यह मारना
ही सब कुछ है, तो जीवन का
मूल्य क्या है?
अगर इस
मृत्यु से
जीवन मिलता हो,
तो ऐसे जीवन
का मैं त्याग
करता हूं। वह
यह कह रहा है
कि अगर मृत्यु
के माध्यम से
जीवन मिलता हो,
तो मैं ऐसे
जीवन का त्याग
करता हूं।
इससे तो बेहतर
है, मैं
भाग जाऊं जंगल।
इससे तो बेहतर
है, मैं मर
जाऊं मारने की
बजाए।
जब
भी आप किसी और
की मृत्यु देख
रहे हैं, तब
अगर आप थोड़े
भी
विचारपूर्ण
हैं, तो आप तत्क्षण
सजग हो जाएंगे
कि आपकी मौत
भी करीब है।
और जिस क्यू
में यह आदमी
गिर गया है, उसी क्यू
में आप भी खड़े
हैं। थोड़े
फासले पर खड़े
होंगे। यह
नंबर एक था, इसका वक्त आ
गया। लेकिन
इसके आने से
एक नंबर आप भी
आगे सरक गए हैं।
क्यू में आप
थोड़े आगे आ गए
हैं। जहां मौत
घटने वाली है,
उस बिंदु के
आप करीब सरक
रहे हैं। हर
क्यू में
गिरने वाला
आदमी आपको
करीब ला रहा
है। हर रास्ते
से निकलती लाश
आपकी मौत को
करीब ला रही
है। हर लाश एक
सीढ़ी है, जो
आपको मौत तक
पहुंचा देगी।
मृत्यु
का बोध बुद्ध
को संन्यस्थ
जीवन में ले
गया। मृत्यु
का बोध ही
किसी भी
मनुष्य को कभी
भी धार्मिक
होने की
प्रेरणा दिया
है। मृत्यु का
परम वरदान है।
मृत्यु है, इसलिए
आप सोचते हैं।
कोई
भी जानवर
धार्मिक नहीं
है। न होने का
कारण कुल इतना
है कि कोई भी
जानवर अपनी
मृत्यु के
संबंध में नहीं
सोच पाता।
मृत्यु उसके
लिए कभी भी
विचारणीय
नहीं बनती।
इतना भविष्य
में पशु का मन
नहीं सोच सकता।
और अगर कोई मर
भी जाए, तो
पशु यह नहीं
सोच सकता कि
मैं मरूंगा।
यह एक
दुर्घटना है।
इस पर कोई सोच—विचार
भी नहीं होता।
अगर पशुओं को
भी खयाल आ जाए
कि उनकी
मृत्यु करीब
है, तो वे
भी अपना धर्म
निर्मित कर
लें।
धर्म
वस्तुत:
मृत्यु के पार
जाने का उपाय
है। इसलिए जिस
व्यक्ति को भी
वस्तुत:
धार्मिक रूपांतरण
से गुजरना हो, उसे
अपनी मृत्यु
के प्रति बहुत
सघन रूप से
सचेत हो जाना
चाहिए।
मृत्यु
के प्रति सचेत
होने का अर्थ
मृत्यु से भयभीत
होना नहीं है।
सच तो यह है, जो
सचेत नहीं
होते, वे
ही भयभीत होते
हैं। जो सचेत
होते हैं, वे
तो उसके पार
जाने का उपाय
करने लगते हैं।
उनका मृत्यु
का भय नष्ट हो
जाता है।
मृत्यु
का बोध, कांशसनेस
आफ डेथ चाहिए,
कि मृत्यु
है, और
उससे हम आंख न
चुराए। और
हमारे आंख
चुराने से हम
बचेंगे नहीं। आंख
चुराना
शुतुरमुर्गी
है।
शुतुरमुर्ग
छिपा लेता है
अपनी गर्दन को
रेत में, कोई
दुश्मन को
देखता है तो। आंख
बंद हो जाती
है, रेत
में गर्दन छिप
जाती है; शुतुरमुर्ग
सोचता है, जो
दुश्मन दिखाई
नहीं पड़ता, वह नहीं है।
यह तर्क
शुतुरमुर्गी
है। हम भी यही
तर्क का उपयोग
करते हैं। जिस
चीज से हम
डरते हैं, उसको
हम देखते नहीं
हैं। और सोचते
हैं, न
दिखाई पड़ने से
हम बच जाएंगे।
असल
में जिससे भी
भय हो, उसकी
तरफ आंख गड़ाकर
ही देख लेना
उपाय है।
क्योंकि तब
कुछ किया जा
सकता है।
मौत
के प्रति
ध्यान जरूरी
है। हम उससे
भाग न सकेंगे।
हम कहीं भी
भागें, हम
उसी में पहुंच
जाएंगे।
हमारी सब भाग—दौड़
मृत्यु में ले
जाएगी। उससे
बचने का कोई
भी उपाय नहीं
है। सिर्फ एक
ही उपाय है कि
हम मृत्यु को
देखें, समझें,
और अपने
भीतर किसी ऐसे
तत्व को खोज
लें, जो
नहीं मर सकता
है। फिर
मृत्यु
व्यर्थ हो
जाती है। फिर
कोई हंस सकता
है। फिर कोई
मृत्यु के साथ
खेल सकता है।
कृष्ण
भी अर्जुन को
यही इशारा दे
रहे हैं। वे
यही समझाने की।
कोशिश कर रहे
हैं कि मृत्यु
वास्तविक
नहीं है!
क्योंकि जो
भीतर छिपा है, वह
कभी भी नहीं
मरता। न उसे
हम जला सकते हैं
जलाने से; न
उसे डुबा सकते
हैं, न गला
सकते हैं; न
उसमें छिद्र
किए जा सकते
हैं शस्त्रों
से, न उसे
आग जलाती है।
जब कोई मार भी
डाला जाए, तो
भी वह नहीं
मरता है।
अर्जुन
मृत्यु के
प्रति सचेत हो
गया है। कृष्ण
उसे अमृत के
प्रति सचेत
करने की कोशिश
कर रहे हैं।
लेकिन ध्यान
रहे,
अमृत के
प्रति उसी की आंखें
उठ सकती हैं, जो मृत्यु
को देखने में
ठीक—ठीक सफल
हो गया।
क्योंकि
मृत्यु के पार
अमृत है।
पहले
तो मृत्यु को
देखना ही
पड़ेगा। और आंख
इतनी गहरी
चाहिए कि
मृत्यु के आर—पार
प्रवेश कर जाए
और छिपे हुए
अमृत को खोज
ले।
जो
मृत्यु से
बचेगा, वह
आत्मा से भी
बच जाएगा। जो
मृत्यु से आंख
चुराएगा, अमृत
से भी उसके
संबंध जुड़
नहीं पाएंगे।
यह उलटा मालूम
होगा, पैराडाक्सिकल
लगेगा, विरोधाभासी,
कि जो
मृत्यु से
बचता है, वही
मरता है। और
जो मृत्यु का
साक्षात कर
लेता है, उसकी
कोई मृत्यु
नहीं है।
धर्म
मृत्यु के
साक्षात्कार
की प्रक्रिया
है।
तीसरा
प्रश्न :
ज्ञानों में
भी अति उत्तम
परम ज्ञान, ऐसा
कृष्ण ने कहा।
क्या ज्ञान
में भी श्रेणी—क्रम
है?
ज्ञान
में तो कोई
श्रेणी—क्रम
नहीं है, लेकिन
व्यक्ति
भिन्न—भिन्न
हैं, इसलिए
एक ज्ञान आपके
लिए परम ज्ञान
हो सकता है और
दूसरा ज्ञान
आपके लिए परम
ज्ञान न हो।
परम ज्ञान से
प्रयोजन है, जिस ज्ञान
से आपकी
मुक्ति हो जाए।
जिस साधना—विधि
से आप सिद्ध
हो जाएंगे, वह आपके लिए
परम है।
हजार
साधना—विधियां
हैं। उनमें
कोई श्रेणी—क्रम
नहीं है। वे
सभी श्रेष्ठ
हैं। लेकिन वे
सभी आपके लिए
श्रेष्ठ नहीं
हैं। कोई और
उनसे पहुंच
सकता है।
व्यक्ति
भिन्न—भिन्न
हैं। सभी
रास्ते वहां
पहुंचा देते
हैं। जो
रास्ता आपको
पहुंचा देता
है,
वह परम है
आपके लिए। जो
रास्ता मुझे
पहुंचा देता
है, वह परम
है मेरे लिए।
आपका रास्ता
मेरे लिए दो
कौड़ी का है।
मेरा रास्ता
आपके लिए दो
कौड़ी का है।
उसका कोई भी
मूल्य नहीं।
यह
जो परम शब्द
का कृष्ण
उपयोग कर रहे
हैं,
यह दो
रास्तों में
तौलने के कारण
नहीं है। हजार
रास्ते हैं।
लेकिन एक
व्यक्ति को एक
ही रास्ता
पहुंचाएगा।
और अपने
रास्ते को खोज
लेना परम को
खोज लेना है।
इसे
थोड़ा ठीक से
समझ लें। यह
तुलना
रास्तों को
नीचा—ऊंचा
करने की नहीं
है। इसलिए
कृष्ण को
समझने में कई
बार'
कठिनाई
होती है। जब
वे भक्ति की
बात करते हैं,
तब वे कहते
हैं, परम।
जब वे ज्ञान
की बात करते
हैं, तब वे
कहते हैं, परम।
इसलिए इतनी
टीकाएं कृष्ण
की गीता पर हो
सकीं। और सभी
टीकाकार गलती
करते हुए भी
ऐसा नहीं मालूम
पड़ते कि गलती
करते हैं।
क्योंकि उनके
मन की बात भी
कृष्ण ने कहीं
कही है। वे
उसकी ऊपर उठा
लेते हैं।
जैसे
रामानुज, भक्त
हैं और मानते
हैं कि भक्ति
ही मार्ग है।
तो कृष्ण के
वचन हैं, जिसमें
उन्होंने कहा है
कि भक्ति परम
है, सर्वश्रेष्ठ
भक्त है। तो
बस, उसको
रामानुज चुन
लेंगे, उसको
बिंदु बना
लेंगे, आधार।
और उसके आधार
पर पूरी गीता
की व्याख्या
कर देंगे। जो
गलत है।
क्योंकि कई
जगह कृष्ण
ज्ञान को परम
कह रहे हैं कि
ज्ञानी परम
श्रेष्ठ है।
तब रामानुज
उसकी ऐसी
व्याख्या
करेंगे कि
जिससे वह
भक्ति
श्रेष्ठ रहे
और यह ज्ञान
नंबर दो का हो
जाए। कैसे वे
व्याख्या
करेंगे?
आदमी
शब्दों के साथ
खेल कर सकता
है। खेल यह है
कि वे कहते
हैं,
परम ज्ञानी
वही है, जिसको
भक्ति का
ज्ञान है। हल
हो गया। अड़चन
हल हो गई।
शंकर
ज्ञान को
श्रेष्ठ
मानते हैं।
वचन हैं गीता
में,
यही वचन है कि
मैं तुझसे परम
ज्ञान कहता
हूं। तो शंकर
क्या करेंगे
जहां भक्ति
श्रेष्ठ है? शंकर करेंगे
कि भक्ति भी ज्ञान
तक पहुंचने का
एक मार्ग है।
लेकिन ज्ञान
ही है अंत।
भक्ति भी एक
मार्ग है
ज्ञान तक
पहुंचने का।
लेकिन वह
मार्ग
कमजोरों के
लिए है। जो
सबल हैं, वे
सीधा ज्ञान का
मार्ग ले लेते
हैं। जो
भावाविष्ट
हैं, भावुक
हैं, स्त्रैण
हैं, वे
भक्ति का
मार्ग लेंगे—।
वह भी एक
मार्ग है।
उसको भी
बरदाश्त किया
जा सकता है।
कृष्ण
कहीं कर्म को
श्रेष्ठ कहते
हैं। कहते हैं, कर्मयोगी
ही श्रेष्ठ है।
तो तिलक उसको
पकड़ लेते हैं,
और गीता की
पूरी
व्याख्या
कर्मयोग कर
देते हैं। तब
ज्ञान भी तभी
सार्थक है, जब कर्म में
उतरे। और
भक्ति भी तभी
सार्थक है, जब वह
तुम्हारा
कर्म और सेवा
बन जाए। फिर
तिलक के पीछे
चलकर गांधी और
विनोबा कर्म का
विस्तार किए
चले जाते हैं।
गीता
की हजार
व्याख्याएं
संभव हैं।
हजार
व्याख्याएं
हुई हैं। होने
का कारण यह है
कि कृष्ण
पाथिक नहीं
हैं। वे किसी
एक पंथ की बात
नहीं कह रहे
हैं। वे सभी
दृष्टियों की
बात कर रहे
हैं। और सभी
दृष्टियों
में जब वे जिस
दृष्टि की बात
करते हैं, उसमें
जो श्रेष्ठतम
है, उसको
खींचकर ऊपर
लाते हैं। और
जब वे उस
दृष्टि की बात
करते हैं, तो
उसके साथ
तत्सम हो जाते
हैं, एक हो
जाते हैं। फिर
वे भूल जाते
हैं कि और भी
दृष्टियां
हैं। और तभी
ऐसा हो सकता
है, नहीं
तो उस दृष्टि
का पूरा गहन
विश्लेषण भी
नहीं हो सकता।
कृष्ण दूर खड़े
होकर
विश्लेषण
नहीं करते हैं।
जब वे भक्ति
की बात अर्जुन
से कह रहे हैं,
तब वे भक्त
ही हो जाते
हैं। और तब वे
उसका गुणगान
करते हैं
जितना हो सकता
है। उस गुणगान
में वे कंजूसी
नहीं करते। और
उस गुणगान में
यह खयाल नहीं
रखते कि पहले
मैंने क्या
कहा है।
क्योंकि वह तो
सिर्फ चालाक
आदमियों का
हिसाब है कि
पहले मैंने
क्या कहा था।
वे इसका भी
हिसाब नहीं
रखते कि कल
मैं क्या कहूंगा।
क्योंकि वे
कोई दुकानदार
नहीं हैं। कल,
कल देखा
जाएगा।
और
जब वे गुलाब
के फूल की
प्रशंसा
करेंगे, तो सब
फूल भूल
जाएंगे। और जब
वे कमल के फूल
की प्रशंसा
करेंगे, तो
सब फूल भूल
जाएंगे। तब
कमल का फूल ही
सारे फूलों का
सार हो जाएगा।
लेकिन यह
दृष्टि समझनी
कठिन है, क्योंकि
तब कृष्ण
बेबूझ हो जाते
हैं। और
संप्रदाय
वाले लोग फिर
उनसे अपना—अपना
मतलब निकालते
हैं।
इसलिए
सभी ने कृष्ण
के साथ
ज्यादती की है।
ज्यादती करनी
ही पड़ेगी, क्योंकि
इतना विराट
हृदय है!
कृष्ण जैसा
हृदय बहुत
मुश्किल है, जहां सब समा
जाएं।
नसरुद्दीन
गांव का
न्यायाधीश हो
गया था। पहला
ही मुकदमा
उसकी अदालत
में आया। पक्ष
के वकील ने
कुछ कहा, अपना
वक्तव्य दिया।
नसरुद्दीन ने
कहा, बिलकुल
ठीक। जो कोर्ट
का क्लर्क था,
जो नीचे ही
नसरुद्दीन के
बैठा था, वह
थोड़ा घबड़ाया।
जज को ऐसा
निर्णय नहीं
देना चाहिए।
अभी दूसरे
पक्ष की बात
सुनी ही नहीं
गई।
उसने
झुककर
नसरुद्दीन को
कहा कि शायद
आपको पता नहीं
अदालत के नियम।
आप चुप रहें।
निर्णय आखिर
में। और अगर
आप अभी कह
देते हैं कि
बिलकुल ठीक, तो
फिर दूसरे
विपक्षी को
कहने का क्या
मौका रहा!
नसरुद्दीन ने
कहा, बिलकुल
ठीक। उस
क्लर्क से कहा।
फिर
विपक्षी की
बात सुनी। और
जब विपक्षी
अपना पूरा
वक्तव्य दे
चुका, तो
नसरुद्दीन ने
कहा, बिलकुल
ठीक। क्लर्क
झुका और उसने
कहा, अब हद
हो गई। पक्ष
भी ठीक; मैंने
विरोध किया, वह भी ठीक, अब यह
विरोधी जो कह
रहे हैं, यह
भी ठीक! आपका
मतलब क्या है?
ये सब ठीक
नहीं हो सकते!
नसरुद्दीन ने
कहा कि बिलकुल
ठीक।
इस
भाव—दशा को
समझना थोड़ा
कठिन है। या
तो मूढ़ में हो
सकती है यह
भाव—दशा, या
परम शानी में।
या तो मूढ़ ऐसी
मूढ़ता कर सकता
है कि सभी को
ठीक कह दे। और
या फिर परम
शानी ऐसे
ज्ञान की बात
कर सकता है कि
सभी को ठीक
कहे। मध्य में
तो हमें सदा
ऐसा लगेगा कि
कुछ ठीक और कुछ
गलत। अगर एक
पक्ष ठीक है, तो विपक्ष
गलत होगा ही।
हम
सब अरस्तु के
तर्क से जीते
हैं। जहां
विपरीत बातें, दोनों
सही नहीं हो
सकतीं। दोनों
गलत हो भी
सकती हैं, लेकिन
दोनों सही
नहीं हो सकतीं।
सही तो एक ही
हो सकती है।
लेकिन
कृष्ण जैसे
व्यक्ति
अरस्तू के
तर्क से नहीं
जीते हैं।
कृष्ण जैसे
व्यक्ति
विराट हैं।
उनमें सब
समाया हुआ है।
और जब भी वे
किसी एक बात
की चर्चा करते
हैं,
तो पूरे
उसमें तल्लीन
हो जाते हैं।
उस तल्लीनता
के कारण वे
जगह—जगह कभी
भक्ति को
श्रेष्ठ कहते
हैं, कभी ज्ञान
को श्रेष्ठ
कहते हैं, कभी
कर्म को
श्रेष्ठ कहते
हैं।
आप
क्या करें? आप
उलझन में पड़
जाएंगे।
क्योंकि अगर
वे एक को
श्रेष्ठ कह
दें, तो आप आंख
बंद करके चल
पड़े। लेकिन
शायद उचित ही
है कि वे आपको आंख
बंद करने का
मौका नहीं देते।
वे आपसे यह कह
रहे हैं कि
मैं तो सबको
श्रेष्ठ कह
रहा हूं लेकिन
तुम्हारे लिए
क्या श्रेष्ठ है,
वह तुम्हें
खोजना पड़ेगा।
तुमसे किस चीज
का तालमेल बैठ
जाता है, तुम्हारे
हृदय में कौन—सी
चीज अनुगूंज
पैदा करती है,
तुम्हारी
धड़कनें किस
बात के साथ
नाचने लगती हैं,
तुम किससे
अपना तारतम्य
पाते हो, वही
तुम्हारे लिए
श्रेष्ठ है।
इसे
खयाल रखें, अन्यथा
कृष्ण बहुत
असंगत मालूम
होंगे। सभी
महापुरुष
असंगत होते
हैं, सिर्फ
क्षुद्र
व्यक्तित्व
असंगत नहीं
होते। क्योंकि
उनमें विपरीत
समाया होता है।
वे अपने से
भिन्न को भी
अपने भीतर समा
लेते हैं।
चौथा
प्रश्न :
कृष्ण, बुद्ध,
महावीर
जानते हैं कि
संसार माया है,
एक स्वप्न
है, तो भी
वे अपने
शिष्यों के
साथ इतना श्रम
क्यों करते
हैं? क्या
उनका श्रम भी,
शिष्यों को
साधना करवाना
भी माया के ही
अंतर्गत नहीं
है?
निश्चित
ही माया के
अंतर्गत है।
जैसे कोई सोया
हो,
स्वप्न देख
रहा हो कि
उसके घर में
आग लग गई है।
और तड़फ रहा
हो, नींद
में हाथ—पैर
मार रहा हो, चिल्ला रहा
हो, आग! आग!
आप जागे हुए
बैठे हैं। और
आप जानते हैं,
कहीं आग
नहीं लगी है।
आप जानते हैं
कि वह स्वप्न
देख रहा है।
उसके माथे पर
जो पसीना बह
रहा है, वह
स्वप्न की आग
से पैदा हुआ
है। उसके मुंह
से जो
चिल्लाहट
निकल रही है, आग, मर गए;
लुट गए; वह
स्वप्न की आग
से निकल रही
है। आप उसको
जगाने की
कोशिश करेंगे,
जाग जाओ।
हिलाके, उससे
कहेंगे, यह
स्वप्न है।
स्वप्न
को तोड्ने की
क्या जरूरत? स्वप्न
स्वप्न है ही।
स्वप्न को
तोड्ने के लिए
आप परेशान
क्यों हो रहे
हैं? अगर
स्वप्न
स्वप्न ही है,
तो इतनी
परेशानी आपको
क्या है! इसको
चिल्लाने दो,
रोने दो, चीखने दो।
स्वप्न ही है।
लेकिन फिर भी
आप कोशिश
करेंगे। माना
कि जो यह देख
रहा है, वह
तो स्वप्न है,
लेकिन जो यह
भोग रहा है, वह सत्य है।
इस
फर्क को ठीक
से समझ लें।
जो
यह देख रहा है
कि आग लगी है, वह
तो स्वप्न है,
लेकिन जो यह
भोग रहा है, जो पीड़ा, वह
सत्य है। उस
पीड़ा में कोई
फर्क नहीं
पड़ता। वस्तुत:
घर में आग लगी
हो, तो भी
इतनी ही पीड़ा
होती है, और
सपने में आग
लगी हो, तो
भी इतनी ही
पीड़ा हो रही
है। या कि कोई
फर्क पड़ता है?
पीड़ा
वास्तविक है।
संसार असत्य
है,
लेकिन
संसार में
भोगा गया दुख
वास्तविक है।
यह संसार सत्य
हो या असत्य
हो, इससे
फर्क नहीं
पडता; आप
दुख भोग रहे
हैं, यह
सवाल है। और
बुद्ध और
महावीर और
कृष्ण जानते
हैं कि तुम्हारा
दुख असत्य से
पैदा हो रहा
है, लेकिन
तुम दुखी हो, यह निश्चित
है।
इतना
भर कह देने से
कि यह सब माया
है,
सपना है; छोड़ो, इसमें
कुछ रखा नहीं
है, तुम्हारा
दुख नहीं
मिटेगा।
तुम्हें जगाना
पड़ेगा।
साधना
पद्धति का
अर्थ होता है, जगाने
की कोई
व्यवस्था। और
यह नींद ऐसी
गहरी है, यह
नींद साधारण
नींद नहीं है।
साधारण नींद
में तो दूसरा
आदमी आपको
हिलाकर उठा दे।
यह नींद ऐसी
गहरी है कि जब
तक आप ही अपने
को हिलाना न
शुरू करें, कोई कृष्ण, कोई बुद्ध
आपको हिलाकर
नहीं उठा सकते
हैं।
इसलिए
कृष्ण, बुद्ध
और महावीर
इतना ही कर
सकते हैं कि
आपको कुछ
विधियां दें,
जिनके
माध्यम से आप
अपने को
हिलाना शुरू
करें और किसी
दिन जाग जाएं।
जागकर आप भी
पाएंगे कि
स्वप्न था।
जागकर आप भी
पाएंगे कि जो
मैं देख रहा
था, वह
वास्तविक नहीं
था। लेकिन फिर
भी आप बुद्ध
के चरणों में
सिर रखकर धन्यवाद
देंगे।
क्योंकि जो आप
भोग रहे थे, वह काफी
वास्तविक था।
झूठी
चीजों से भी
सत्य भोग भोगा
जा सकता है।
एक आदमी
रास्ते पर
देखता है, रस्सी
पड़ी है अंधेरे
में और सांप
दिखाई पड़ती है;
वह भाग खड़ा
होता है। उसकी
छाती कम
धड़केगी, क्योंकि
वहां रस्सी है,
सांप नहीं?
सांप होता
तो ज्यादा
धड़कती?
इस
आदमी के लिए
तो सांप है ही।
यह भाग रहा है।
इसकी घबड़ाहट
तो वास्तविक
है। इसकी पीड़ा
वास्तविक है।
इसका हार्ट
फेल हो सकता
है। और आप यह न
कह सकेंगे कि
गलत है
तुम्हारा
हार्ट फेल।
क्योंकि
तुमने जो देखा, वह
सांप नहीं था,
रस्सी थी।
वापस लौटो। यह
बिलकुल ठीक
नहीं है। यह
जायज नहीं है।
मगर
आपके कहने से
कोई वापस
लौटने वाला
नहीं है। जायज—नाजायज
कौन पूछेगा? यह
हृदय की धड़कन
बंद हो सकती
है झूठे सांप
को देखकर।
वास्तविक
हृदय की धड़कन
बंद हो सकती
है झूठे सांप
को देखकर!
आप
दुख तो भोग ही
रहे हैं। इस
दुख से बाहर
आने की
व्यवस्था
साधना है।
और
महावीर, बुद्ध
और कृष्ण इतना
श्रम लेते हैं,
वह श्रम भी
आपको श्रम
मालूम पड़ रहा
है। शायद आपको
कभी—कभी तो पागलपन
भी मालूम पड़ता
होगा। क्योंकि
श्रम में भी कोई
पुरस्कार तो दिखाई
पड़ता नहीं।
श्रम भी आदमी
करता है, तो
कुछ पाने को।
इनको मिलता
क्या है? कभी—कभी
जीसस जैसे
व्यक्ति को
सूली मिल जाती
है, और तो
कुछ मिलता
नहीं। कभी
सुकरात को जहर
मिल जाता है, और तो कुछ
मिलता नहीं। यह—पुरस्कार
है!
मिलता
क्या है? श्रम
ही दिखाई पड़ता
है। किसलिए
श्रम कर रहे
हैं? आपको
ऐसा लगता है
कि श्रम कर
रहे हैं, उनकी
तरफ से श्रम
नहीं है। उनकी
तरफ से सहज
आनंद है। उनकी
तरफ कोई मेहनत
नहीं हो रही
है। जो
उन्होंने
जाना है, उसे
दूसरे को भी
जना देना एक
आनंद है। जो
उन्होंने
पाया है, वह
दूसरा भी पा
ले, उस
दूसरे के पाने
में भी बड़ा
आनंद है।
यह
श्रम किसी
पुरस्कार को
पाने के लिए
नहीं है। यह
श्रम अपने में
ही पुरस्कार
है। इसके पार
और कुछ पाने
का सवाल नहीं
है। यह श्रम
प्रेम का एक
हिस्सा है। यह
एक करुणा है।
अब
हम सूत्र लें।
हे
अर्जुन, नाना
प्रकार की सब
योनियों में
जितनी मूर्तियां
अर्थात शरीर
उत्पन्न होते
हैं, उन
सबकी
त्रिगुणमयी
माया तो गर्भ
को धारण करने
वाली माता है
और मैं बीज को
स्थापन करने
वाला पिता हूं।
हे अर्जुन, सत्वगुण, रजोगुण और
तमोगुण, ऐसे
यह प्रकृति से
उत्पन्न हुए
तीनों गुण इस
अविनाशी
जीवात्मा को
शरीर में
बांधते हैं।
हे निष्पाप, उन तीनों
गुणों में
प्रकाश करने
वाला निर्विकार
सत्वगुण तो
निर्मल होने
के कारण सुख
की आसक्ति से
और ज्ञान की
आसक्ति से
अर्थात ज्ञान
के अभिमान से
बांधता है।
पहली
बात,
गीता के
अनुसार और
वस्तुत:
सांख्य के
अनुसार प्रकृति
तीन तत्वों का
मेल है, सत्व,
रज, तम।
यह
आश्चर्य की
बात है कि जगत
में जहां भी
किसी ने
विश्लेषण
किया है जीवन
का,
अंतिम
विश्लेषण
हमेशा तीन पर
टूट जाता है।
प्रतीकों में,
धारणाओं
में, सिद्धांतों
में अस्तित्व
तीन हिस्सों
में टूट जाता
है।
ईसाइयत
ट्रिनिटी में
विश्वास करती
है कि ईश्वर
के तीन रूप
हैं। और उनसे
ही सारा जगत
निर्मित होता
है। हिंदू
त्रिमूर्ति
में विश्वास
करते हैं कि
परमात्मा के
तीन चेहरे हैं, ब्रह्मा,
विष्णु, महेश।
उन तीन चेहरों
से ही सारा
जगत, उन
तीन
व्यक्तित्वों
से ही सारा
जगत निर्मित है।
सांख्य
अति
वैज्ञानिक है।
वह ट्रिनिटी
और
त्रिमूर्ति
की बात नहीं
करता, तीन
चेहरों की बात
नहीं करता, वह तीन
तत्वों की बात
करता है, सत्य,
रज, तम। '
सत्व, रज,
तम, तीनों
के तीन गुण
हैं। और उन
तीनों गुणों
के मेल से
सारा
अस्तित्व गतिमान
है।
तम
स्थिति—स्थापक
है। तम का
अर्थ है, आलस्य
की, विश्राम
की दशा, ठहरी
हुई दशा, अवरोधक।
एक पत्थर आप
फेंकते हैं।
अगर आप न
फेंकते, तो
पत्थर अपनी
जगह पड़ा रहता।
अपनी जगह पड़ा
रहना तम है।
जब तक कि कोई
बाहरी चीज
धक्का न दे, सभी चीजें
अपनी जगह पड़ी
रहेंगी। तम का
अर्थ है, अपनी
जगह ठहरे रहना,
हटना नहीं।
और जब आप
पत्थर को
फेंकते हैं, तब भी आपको
ताकत लगानी
पड़ती है। वह
ताकत इसीलिए
लगानी पड़ती है,
क्योंकि
पत्थर अपनी
जगह रहना
चाहता है।
उसको जगह से
हटाने में
आपको संघर्ष
करना पड़ता है।
फिर
आप पत्थर को
फेंक भी देते
हैं,
अगर तम जैसी
कोई चीज न
होती, तो पत्थर
फिर कभी रुकता
ही नहीं। वह
चलता ही चला
जाता। लेकिन
पत्थर लड़ रहा
है रुकने के
लिए। आपने
फेंक दिया, तो आपने
थोडी—सी ऊर्जा
उसको दी, शक्ति
दी अपने शरीर
की। वह शक्ति
जैसे ही चुक
जाएगी, पत्थर
वापस जमीन पर
गिर जाएगा।
विज्ञान
जिसको
ग्रेविटेशन
कहता है, सांख्य
उसको तम कहता
है, ठहरने
की, प्रतिरोध
की, रुकने
की, स्थिति
में बने रहने
की। अगर
दुनिया में तम
न हो, तो
फिर कोई भी
चीज ठहरेगी
नहीं। बड़ा
मुश्किल हो
जाएगा। सभी
चीजें गति में
रहेंगी। और
गति इतनी
विक्षिप्त हो
जाएगी कि उसके
ठहरने का कोई
उपाय नहीं रह
जाएगा। अकेली
गति काफी नहीं
है। ठहरने का
तत्व कहीं
प्रकृति में
गहन होना चाहिए।
तम
है स्थिति का, ठहरने
का तत्व, कहें
मृत्यु का
तत्व।
क्योंकि
मृत्यु ठहरा
लेती है। मर
जाने के बाद
फिर कोई गति
नहीं है।
इसलिए तामसिक
व्यक्ति हम
उसको कहते हैं,
जो मरा—मरा
जीता है।
जिसमें तम
इतना है, कि
जिसमें गति है
ही नहीं। जो
चलता ही नहीं,
उठता ही
नहीं। जिसके
भीतर कोई क्रांति,
कोई
परिवर्तन, कोई
नया नहीं होता;
कुछ
रूपांतरण
नहीं होता। जो
पत्थर की तरह
पड़ा हुआ है।
देखें, हम
प्रकृति में
भी इसी तरह
हिसाब लगाते
हैं विकास का।
जितना ज्यादा
तम हो, उतनी
अविकसित चीज
मानी जाएगी।
जितना कम तम
हो, उतनी
विकसित। आदमी
सबसे ज्यादा
गतिमान है।
पत्थर सबसे
ज्यादा
गतिहीन है।
पौधों में
थोड़ी गति है।
पशुओं में और
ज्यादा।
मनुष्य में
बहुत।
मनुष्य
पानी में भी
गति करे, जमीन
पर भी, हवा
में, आकाश
में भी, चांद—तारों
तक भी जाए। उसे
रोकने का उपाय
नहीं, सब
तरफ भागता है।
इसलिए मनुष्य
सर्वाधिक
विकसित है।
उसने अपने तम
की या अपने
भीतर की
मृत्यु पर सर्वाधिक
विजय पा ली है।
वह बदल सकता
है।
समाज
में भी वही
समाज सबसे
ज्यादा
प्रगतिशील होगा, जिसने
तम को तोड़
दिया है।
पश्चिम के
समाज अपने तम
को तोड्ने में
काफी सफल हुए
हैं। विकास
तीव्र हो गया
है। लेकिन
किन्हीं
सीमाओं में
विकास इतना
ज्यादा हो गया
है कि ठहरने
की उन्हें कला
ही भूली जा रही
है। तो भी
घबड़ा गए हैं।
क्योंकि
एक आदमी चल
पड़े और रुकना
न जाने, रुकना
भूल जाए!
मंजिल पर
पहुंचने को
चला था, लेकिन
मंजिल पर
रुकना पड़ेगा;
और वह रुकना
भूल जाए! और
चलना ऐसा हो
जाए कि वह रुकना
भी चाहे, तो
रुक न सके।
मंजिल भी आ
जाए, तो
क्या करे? मंजिल
पीछे छूट
जाएगी। वह
आदमी चलता ही
रहेगा।
तम
ठहरने वाली, ठहराने
वाली, रोकने
वाली। रज गति
देने वाली, तीव्रता
देने वाली। रज
शक्ति है, ऊर्जा
है प्रवाहमान,
जैसे नदी, विद्युत।
यह
सारा जगत
गतिमान है।
अगर चीजें
ठहरी ही रहें, तो
जगत नहीं हो
सकता। उसमें
चलना, उसमें
बढ़ना।
बच्चा
पैदा होता है, बढ़ेगा।
मौत अगर तम है,
तो जीवन रज
है, जन्म
रज है। जन्म
के क्षण में
बच्चे में रज
का तत्व ज्यादा
होता है, तम
का कम। के में
तम बढ़ जाता है
और रज कम हो
जाता है। जिस
दिन रज और तम
दोनों समान
होते हैं, उस
दिन व्यक्ति
जवान होता है;
उस दिन
उसमें गति और
ठहराव बराबर
होते हैं। उस
दिन संतुलन
होता है। उस
दिन एक बैलेंस
होता है।
इसीलिए जवानी
में एक
सौंदर्य है।
बच्चे
में एक त्वरा
होती है, चंचलता
होती है, क्योंकि
रज तेज होता
है, तम कम
होता है। तुम
उसे कहो कि
बैठो शात, तो
वह शात नहीं
बैठ सकता। को
को बहुत अखरता
है कि बच्चे
शात नहीं बैठ
सकते। उनको
अखरने का कारण
है। क्योंकि
वे चंचल नहीं
हो सकते।
लेकिन
उनको पता नहीं
है कि बच्चे
के नहीं हैं, इसलिए
उनसे ठहरने की
आकांक्षा
करनी गलत है।
अगर उन्हें
ठहराना भी हो,
तो एक ही
उपाय है कि
उन्हें काफी
दौड़ाओ कि वे थक
जाएं। उनका रज
थक जाए। उनका
रज थक जाए, तो
तम ज्यादा हो
जाएगा। फिर वे
बैठ जाएंगे।
उनके विश्राम
का एक ही उपाय
है कि वे काफी
दौड़ लें।
बुढ़े
के दौड़ने का
एक ही उपाय है
कि काफी
विश्राम कर ले, तो
थोड़ा दौड़ सकता
है। उसका तम
थक जाए
विश्राम कर—करके,
तो रज थोड़ा
गतिमान हो
सकता है।
और
जवानी एक
संतुलन है। और
जब पूरी तरह
संतुलित होती
है गति की
क्षमता और
ठहरने की क्षमता, तो
सौंदर्य
प्रकट होता है।
क्योंकि
दोनों विपरीत
बिलकुल मिल
जाते हैं।
दोनों में जरा
भी भेद नहीं
रह जाता।
दोनों तनाव एक
जगह पर आ जाते
हैं। उस तनाव
का नाम जवानी
है, उस
टेंशन का नाम,
जहां दोनों
विपरीत
शक्तियां
बराबर मात्रा
की हो जाती
हैं।
सत्व
न तो गति का
तत्व है, न
ठहरने का।
सत्व है
संतुलन। सत्य
वहीं प्रकट
होता है, जहां
दोनों तत्व
संतुलित हो
जाते हैं।
सत्व है
बैलेंस।
इसलिए जब भी
आप जीवन की
किसी भी दिशा
में संतुलन को
पाते हैं, तो
सत्व प्रकट
होता है।
साधु
का अर्थ है, जो
संतुलन को
उपलब्ध हुआ, सात्विक हुआ।
सत्व है संयम,
विपरीत के
बीच संयम।
दोनों विपरीत
टूट गए। दोनों
विपरीत एक—दूसरे
को साध दिए।
दो विरोधी
स्वरों से एक
संगीत पैदा हो
गया। इस संगीत
का नाम है
सत्य।
रज
और तम शक्ति, दौड़,
ठहरने के
नियम हैं। और
दोनों के बीच
जब कोई संतुलन
पैदा होता है,
तो जो तत्व
पैदा होता है,
वह है सत्य।
इन तीन तत्वों
से मिलकर
प्रकृति बनी
है।
प्रकृति
में जहां भी
सौंदर्य
दिखाई पड़ता है, वहां
समझना कि सत्य
पैदा हो गया।
हम भगवान के
मंदिर में
मूर्ति पर फूल
ले जाकर चढ़ाते
हैं। वह फूल
सत्व का
प्रतीक है। वह
फूल सौंदर्य
का प्रतीक है।
वृक्ष के जीवन
में, प्राणों
में, फूल
तभी खिलता है,
जब एक गहन
संतुलन पैदा
हो जाता है।
उस संतुलन को
हम परमात्मा
के चरणों में
चढ़ाते हैं। वह
प्रतीक है।
ऐसा संतुलन, ऐसा फूल
हमारे जीवन
में खिले और
हम उसे मंदिर में
चढ़ा सकें, वह
उसकी
आकांक्षा है,
वह उस दिशा
की तरफ हमारा
भाव है।
बुद्ध
में जो संतुलन
दिखाई पड़ता है, वह
सत्य है। महान,
महानतम
व्यक्तियों
में भी, पृथ्वी
पर जो हम देख
सकते हैं
ज्यादा से
ज्यादा, वह
सत्व है।
इन
तीनों के पार
भी एक अवस्था
है,
जिसको
कृष्ण बाद में
बताएंगे, जिसे
वे गुणातीत
कहते हैं। पर
उस अवस्था को
देखा नहीं जा
सकता। बुद्ध
में वह पैदा
होती है, कृष्ण
में पैदा होती
है, पर
उसको हम देख
नहीं सकते हैं।
वह तो हममें
ही जब पैदा हो,
तभी हम उसका
अनुभव कर सकते
हैं।
बुद्ध
को भी हम
ज्यादा से
ज्यादा सत्व
में देख सकते
हैं,
क्योंकि आंखें
सत्य को देख सकती
हैं। आंखें
प्रकृति की
हैं। वे भी
तीन तत्वों से
बनी हैं।
उनमें भी रज
है, तम है
और सत्व है।
इसलिए जो
हमारी आंखों
में छिपा है, उसे हम
पहचान सकते
हैं, ज्यादा
से ज्यादा। वह
भी सभी लोग
नहीं पहचान
सकेंगे।
बुद्ध
के पास अगर
कोई तामसी
जाएगा, तो
बुद्ध को
बिलकुल नहीं
पहचान पाएगा।
वह समझेगा कि
कोई ढोंगी है,
वह समझेगा
कि लोगों को
धोखा दे रहा
है। इससे
सावधान रहना,
कहीं रात सो
गए, जेब न
काट ले! वह
बुद्ध के पास
भी अपनी जेब
पर हाथ रखेगा
कि क्या
भरोसा! देखने
में तो भोला
लगता है, लेकिन
भोलापन हमेशा
खतरनाक होता
है। पता नहीं
बनकर भोला
बैठा हो यह
आदमी। कोई
तरकीब हो। कोई
इसके पीछे
हिसाब जरूर
होगा, नहीं
तो कोई क्यों
भोला बैठेगा!
बुद्ध
के पास अगर
कोई रज से भरा
हुआ,
भाग—दौड़ से
भरा हुआ, चंचल
व्यक्ति
पहुंचेगा, तो
वह मुर्दा
समझेगा बुद्ध
को। कि यह
क्या जीवन है?
यह भी कोई
जीवन है!
पलायनवादी, एस्केपिस्ट
है यह आदमी।
यह भाग गया।
इसमें कुछ कमी
है। यह लड़ न
सका। कायर है,
कमजोर है।
लोगों
ने ऐसा कहा है।
कहने वाले का
कारण है।
क्योंकि वह
चंचलता में
जीवन देखता है, भाग—दौड़
में जीवन
देखता है।
ऊर्जा नाचती
हो, वहां
जीवन देखता है।
यहां
बुद्ध में सब
शात है। यहां
जैसे कोई तरंग
भी नहीं हिलती।
तो वह कहेगा, यह
भी कोई जीवन
है! यह तो मरने
का एक ढंग हुआ।
यह आदमी तो मर
चुका। मैदान
में आओ जिंदगी
के। वहा
तुम्हारा पता
चलेगा। भगोड़े
हो।
बुद्ध
को भी वही
पहचान पाएगा, जिसमें
सत्व का थोड़ा
उदय हुआ हो।
क्योंकि हम
वही पहचान
सकते हैं, जो
हमारे भीतर है।
अन्यथा को
पहचानने का
कोई उपाय नहीं
है। वही देख
सकते हैं, जो
हमारी आंख में
भी आ गया हो।
वही हमारे
हृदय को भी छू
सकता है, जो
हमारे हृदय
में भी कंपित
हो रहा हो।
समान समान से
मिल जाते हैं।
समान समान को
पहचान लेते
हैं।
तो
सात्विक व्यक्ति
ही बुद्ध को पहचान
पाएगा कि कौन—सी
महान घटना घटी
है। इस
व्यक्ति के
भीतर कौन—सा
फूल खिला है।
इसलिए बुद्ध
के पास वे ही
लोग इकट्ठे हो
पाएंगे, जो
सात्विक हैं,
जो सरल हैं,
जो संतुलित
हैं, जो
संयमी हैं, और
जिन्होंने एक
भीतरी हारमनी,
एक
लयबद्धता को
पा लिया है।
बहुत लोग पास
से गुजरेंगे,
उन बहुतों
में से बहुत
थोड़े लोग ही
बुद्ध के पास
रुक पाएंगे।
सांख्य
ने इन तीन
तत्वों को
खोजा। ये तत्व
बड़े अदभुत हैं।
और इन तीन
तत्वों के
आधार पर मनुष्य
का,
प्रकृति का
सारा व्यवहार
समझा जा सकता
है।
फिर
आधुनिक
विज्ञान ने भी
तीन तत्वों की
खोज की है, और
परमाणु के
विस्फोट पर
उनको पता चला
कि परमाणु भी
तीन तत्वों से
ही निर्मित है।
एक को वे कहते
हैं
इलेक्ट्रान, एक को
पाजिट्रान, एक को न्यूट्रान।
और उन तीनों
के भी लक्षण
करीब—करीब वही
हैं, जो
सत्व, रज
और तम के हैं।
उनमें से एक
स्थिति को
पकड़ने वाला है,
एक गति देने
वाला है, और
एक संतुलन है।
निश्चित
ही,
कहीं गहराई
में विज्ञान
भी उसी तत्व
को छू रहा है, जिसको
सांख्यों ने
छुआ था, जिसकी
कृष्ण इन
सूत्रों में
बात कर रहे
हैं। और ये
तीन तत्व वही
हैं, जिनको
हिंदू मिथ में
हमने ब्रह्मा,
विष्णु, महेश
कहा है। तीनों
के लक्षण भी
यही हैं उनके।
ब्रह्मा पैदा
करता है, वह
रज है। विष्णु
सम्हालते हैं,
संतुलन
देते हैं, वे
सत्व हैं। शिव
तम हैं; विनष्ट
करते हैं। सब
चीजें शात हो
जाती हैं वापस।
इसलिए
अक्सर तामसी
जो लोग हैं, शिव
की पूजा करते
दिखाई पड़ते
हैं। शिव उनको
रसपूर्ण
मालूम होते
हैं। शिव
विध्वंसक हैं,
वे मृत्यु
के प्रतीक हैं।
इसलिए शिव के
पीछे अगर चरस,
गांजा, अफीम
तेजी से चल
पड़ा, उसका
कारण है।
क्योंकि ये
सभी तत्व
मृत्यु के
तत्व हैं। सभी
विध्वंसक हैं।
सभी आपको नष्ट
कर देंगे।
इनके विनाश
में जो रस आ
सकता है, वह
तामसी वृत्ति
को आ सकता है।
पश्चिम
में एल .एस डी., मेस्केलीन,
मारिजुआना
तेज गति पर है।
और पश्चिम के
ये भक्त—मारिजुआना
के भक्त, एल
एस डी के भक्त—उनके
मन में भी शिव
के प्रति बड़ा
प्रेम पैदा हो
रहा है।
हिप्पी आता है,
तो काशी
जाता है। काशी
शिव की नगरी
है। वहा जाकर
वह शिव के
दर्शन करता है।
वह नेपाल जाता
है। क्योंकि
वहा शिव के
बड़े प्राचीन
मंदिर हैं, शिव— भक्तों
की बड़ी पुरानी
धारा है।
अमेरिका की
हिप्पी
बस्तियों में
भी बम भोले, जय भोले की
आवाज सुनाई
पड़ने लगी है।
जहर
मौत का प्रतीक
है। और जहर
आपके भीतर
चीजों को ठंडा
कर देता है, गति
छीन लेता है।
इसलिए नशे का
इतना रस है।
क्योंकि आप
इतने तनाव में
रहते हैं, इतनी
भाग—दौड़ में
रहते हैं, कि
थोड़ी शराब पी
लेते हैं, तो
थोड़ा तनाव कम
हो जाता है, भाग—दौड़ कम
हो जाती है।
पड़ जाते हैं, बेहोशी में
पड़ जाते हैं, लेकिन रुक
जाते हैं।
सभी
मादक द्रव्य
तमस पैदा करते
हैं। वे आपके
भीतर दौड़ को
रोक देते हैं।
इसलिए बहुत
दौड़ने वाले
लोग शराब से
नहीं बच सकते।
क्योंकि उनकी
दौड़ इतनी
ज्यादा है कि
उनको इस दौड़
को रोकने के
लिए किसी न
किसी तरह की
बेहोशी चाहिए।
वे बेहोश
होंगे, तभी
रुक पाएंगे, नहीं तो रुक
नहीं सकते।
रात नींद में
भी दौड़ते
रहेंगे।
पश्चिम
में शराब का
मूल्य बढ़ता
चला गया है, क्योंकि
पश्चिम दौड़
रहा है, उसने
रज पर भरोसा
कर लिया है।
रज पर अगर आप
भरोसा करेंगे,
तो तम को भी
आपको साथ में
लाना पड़ेगा।
नहीं तो रज
घातक हो जाएगा,
आप
विक्षिप्त हो
जाएंगे।
पश्चिम
में अधिकतम
लोग पागल हो
रहे हैं, वह रज
का परिणाम है।
ज्यादा
दौड़ेंगे, तो
विक्षिप्त हो
जाएंगे।
ठहरना भी उतना
ही जरूरी है।
और जो व्यक्ति
जानता है—जैसा
ताओ ने कहा है,
कहां ठहर
जाना—जो जानता
है, कहां
ठहर जाना, वह
कभी संकट में
नहीं पड़ता।
दौड़ना
भी जरूरी है, ठहरना
भी जरूरी है।
दौड़ने और
ठहरने में जो
संतुलन को
पैदा कर लेता
है, वह
सत्व को
उपलब्ध हो
जाता है, वह
साधु है।
साधुता
का अर्थ है, भीतर
एक लयबद्धता
पैदा हो जाए।
न तो दौड़ हो और
न मूर्च्छा हो।
मूर्च्छा हो
तो तम होता है;
दौड़ हो तो
पागलपन होता
है। दौड़ और
रुकने की
क्षमता दोनों
मिल जाएं और
एक तीसरा तत्व
पैदा हो जाए।
उस तत्व को
कृष्ण ने सत्व,
सांख्य ने
सत्व कहा है।
यह
तत्व भी आखिरी
नहीं है। इस
संसार में
श्रेष्ठतम है।
इससे ही कोई
मुक्त नहीं हो
जाएगा, लेकिन
इससे मुक्ति
की संभावना
बनती है।
ध्यान
रहे,
कोई
सात्विक होकर
मुक्त नहीं हो
जाएगा।
सात्विक होकर
भी संसार का
ही हिस्सा
रहेगा। इसलिए
साधु मुक्त
नहीं होता।
संत को हम
मुक्त कहते
हैं, साधु
को नहीं।
लेकिन साधु
में संत होने
की क्षमता हो
जाती है। चाहे
तो साधु संत
हो सकता है।
साधुता
में सिर्फ
पूर्व— भूमिका
है। संतुलन
पैदा हो गया
है। अब चाहे
तो समाधि भी आ
सकती है।
लेकिन संतुलन
ही समाधि नहीं
है। ये तीन
तत्व तो
प्रकृति के ही
हैं। इसमें तम
मूर्च्छा में
ले जाता है।
इसमें रज गति
और विकास, त्वरा
में ले जाता
है। इसमें
सत्य शाति में
ले जाता है।
लेकिन ये
तीनों तत्व
जगत के भीतर
हैं।
सत्य
के भी पार
जाना जरूरी है।
तब गुणातीत
अवस्था पैदा
होती है, जो
तीनों गुणों
के पार है। और
जो तीनों
गुणों के पार
है, वह
प्रकृति के
पार है। वही
परमात्मा है।
तीन गुण
प्रकृति के; और तीनों
गुणों के जो
पार निकल जाए,
वह
परमात्मा है,
वह पुरुष है,
वह मुक्त की
दशा है।
लेकिन
सत्व द्वार बन
जाता है। पर
अगर आप नासमझी
करें, तो सत्व
ही बाधा भी बन
सकता है।
क्योंकि अगर
साधुता का
अभिमान आ जाए,
जो कि आ
सकता है।
शांति का
अभिमान आ जाए,
जो कि आ
सकता है। सत्व
में ज्ञान का
अभिमान आ जाए,
जो कि आ
सकता है।
सात्विक होने
की अहंमन्यता
आ जाए, जो
कि बड़ी सरल है।
इसलिए
साधु से
ज्यादा
अहंकारी आदमी
दूसरे नहीं
पाए जाते।
उनके पास
अहंकार करने
को कुछ है भी।
और जब कुछ
अहंकार करने
को हो, तब बड़ी
कठिनाई हो
जाती है।
संसार में तो
ऐसे लोग भी
अहंकार में
पड़े हैं, जिनके
पास अहंकार
करने को कुछ
भी नहीं है।
उनका अहंकार
जस्टीफाइड भी
नहीं है। वे
भी अहंकार कर
रहे हैं।
लेकिन साधु का
अहंकार
न्यायसंगत भी
मालूम पड़ सकता
है। उसके पीछे
तर्क है, आधार
भी है। वह शात
है। वह सत्व
में ठहरा हुआ
है। वह एक तरह
का सुख पा रहा
है।
सत्य
एक सुख देता
है,
जिसका
अंतिम दर्जा
स्वर्ग है।
सत्व की जो
आखिरी दशा है,
वह स्वर्ग
है, मोक्ष
नहीं, स्वर्ग।
सुख की बड़ी
गहन क्षमता है।
उसके
पास कुछ है।
और जब हम ना—कुछ
के अभिमानी हो
जाते हैं, तो
जिनके पास कुछ
है, उनको
अहंकार पकड़ ले,
इसमें
आश्चर्य नहीं
है। वही खतरा
है। उनको
अहंकार से
छुड़ाना बहुत
मुश्किल है।
संसारी को
अहंकार से
छुड़ाना बहुत
आसान है, साधु
को अहंकार से
छुड़ाना बहुत
मुश्किल है।
क्योंकि उसको
लगता है कि
अहंकार का कुछ
कारण है। वह
ऐसे ही अहंकार
नहीं कर रहा
है, कुछ
वजह है। वह
वजह बाधा बन
जाती है।
अब
हम इस सूत्र
को देखें।
हे
अर्जुन, नाना
प्रकार की सब
योनियों में
जितनी मूर्तियां,
जितने शरीर,
जितने रूप
उत्पन्न होते
हैं, उन
सबकी
त्रिगुणमयी
माया को तो
गर्भ धारण करने
वाली माता
समझो। यह जो
प्रकृति है
तीन गुणों से
भरी हुई, इसे
तुम मां समझो,
गर्भ समझो।
और मैं बीज को
स्थापन करने
वाला पिता हूं।
तो
शरीर और रूप
तो इन तीन
गुणों से
मिलता है। मन, शरीर, रूप इन तीन गुणों
से मिलता है। चेतना
परमात्मा से आती,
इन तीनों
गुणों के पार
से आती है।
चेतना इन
तीनों गुणों
के भिन्न जगत
से आती है। और
इन तीन के
भीतर आवास
करती है।
लेकिन
इन तीनों में
से किसी न
किसी में जकड़
जाने का डर है।
या तो आलस्य
में उलझ जाती
है,
तम में पड़
जाती है। या
तो
विक्षिप्तता
में, चंचलता
में, दौड़
में पड जाती
है। और या फिर
सत्व के
अहंकार में पड़
जाती है। और
इन तीनों में
से किसी एक से
भी जुड़ जाए, तो अपने
वास्तविक
स्वरूप को
नहीं पहचान
पाती, क्योंकि
वास्तविक
स्वरूप तीनों
के पार से आता
है।
यह
इसका अर्थ है।
तीन गुण तो
मां है, और
मैं बीज को
स्थापन करने
वाला पिता हूं।
मैं से अर्थ
है, ब्रह्म।
मैं से अर्थ
है, इस जगत
की परम चेतना।
हे
अर्जुन, सत्वगुण,
रजोगुण और
तमोगुण, ऐसे
यह प्रकृति से
उत्पन्न हुए
तीनों गुण इस
अविनाशी
जीवात्मा को
शरीर में
बांधते हैं।
ये तीन
जीवात्मा के
लिए बंधन
निर्मित करते
हैं। इन तीनों
के बिना
जीवात्मा
शरीर में नहीं
हो सकती। तम
चाहिए, जो
ठहराव की
शक्ति दे। रज
चाहिए, जो गति
दे और जीवन दे।
सत्व चाहिए, जो संतुलन
दे, सुख दे।
अगर इन तीनों
में से एक भी
कम है, तो
आप टिक न
पाएंगे।
अगर
सुख बिलकुल न
रह जाए, तो आप
आत्महत्या कर
लेते। क्यों?
किसलिए
जीएं? सुख
की थोड़ी झलक
तो चाहिए।
असाधु में भी
थोड़ी—सी तो
सुख की झलक
चाहिए ही। आज
नहीं कल, कल
नहीं परसों, कहीं सुख
मिलेगा, इसका
थोड़ा आसरा
चाहिए। उतना
भी काफी है
बांधने के लिए।
अगर सुख के सब
सेतु टूट जाएं,
साफ हो जाए,
कोई सुख
नहीं, आप
इसी क्षण मर
जाएंगे। ये
तीनों चाहिए।
ये तीन शरीर
को बांधते हैं।
हे
निष्पाप, उन
तीनों गुणों
में प्रकाश
करने वाला
निर्विकार
सत्वगुण है।
इन तीनों
गुणों में
सबसे ज्यादा
प्रकाशित, सबसे
ज्यादा
निर्मल, निर्विकार
सत्वगुण है।
निर्मल होने
के कारण सुख
की आसक्ति से
और ज्ञान की
आसक्ति से
अर्थात ज्ञान
के अभिमान से
बांधता है।
चूंकि
सत्वगुण
निर्मल है, शात
है, शुद्ध
है, सुख
देता है, ज्ञान
भी देता है।
क्योंकि एक
क्लैरिटी, एक
स्वच्छता आंखों
में आ जाती है,
देखने की एक
क्षमता आ जाती
है, चीजों
को आर—पार
पहचानने की
कला आ जाती है।
सुख भी देता
है भीतर और
साथ में एक
जानकारी, जीवन
में प्रवेश
करने की, ज्ञान
की क्षमता
देता है। पर
इन दोनों से
अभिमान पैदा
होता है।
ज्ञान
से भी अभिमान
पैदा होता है
कि मैं जानता
हूं। सुख से
भी अभिमान
पैदा होता है
कि मैं सुखी
हूं। और वह जो
मैं का भाव इन
दोनों से पैदा
हो जाता है, तो
सत्वगुण भी
फिर संसार में
ही रखने का
कारण बनता है।
जिस
दिन ये दोनों
बातें भी छोड़
दी जाती हैं, न
तो कोई सुख से
बंधता है और न
कोई ज्ञान से.।
इसे
थोड़ा हम समझ
लें।
हम
तो दुख से भी
बंधे हुए हैं।
दुख को भी
कहते हैं, मेरा
दुख, मेरा
सिरदर्द, मेरी
बीमारी। उसके
साथ भी हम मैं
को जोड़ते हैं।
अज्ञान के साथ
भी हम मैं को
जोड़ते हैं, तो ज्ञान के
साथ तो हम मैं
को जोड़ेंगे ही।
सुख के साथ तो
हम कैसे
बचेंगे बिना
जोड़े!
इसलिए
अगर स्वर्ग के
देवता मुक्त
होने से वंचित
रह जाते हैं, तो
उसका कारण है।
सत्व के साथ
बंधे हुए लोग
हैं। सुख बहुत
है। और जहां
सुख ज्यादा हो,
वहा
तादात्म्य तोड्ने
का मन भी पैदा
नहीं होता।
दुख से तो तदात्मय
तोड्ने का मन
भी पैदा होता
है कि कोई
समझा दे कि
दुख अलग है और
मैं अलग हूं।
कोई बता दे कि
अज्ञान अलग है
और मैं अलग
हूं इसकी थोड़ी
आकांक्षा
होती है।
क्योंकि दुख
कोई भी चाहता
नहीं है, अज्ञान
कोई भी चाहता
नहीं है।
लेकिन
जब आप सुख में
हों और कोई
बताए कि तुम
अलग और सुख
अलग,
तो आप उसको
मित्र न
समझेंगे, शत्रु
समझेंगे।
उससे कहेंगे,
जाओ, कहीं
और समझाओ। कोई
आपसे कहे, तुम्हारा
ज्ञान अलग, तुम अलग, यह
ज्ञान कचरा है।
तुम ज्ञान
नहीं हो। यह
सुख व्यर्थ है।
तुम सुख नहीं
हो, तुम दूर
अलग हो।
इसलिए
संतों ने कहा
है,
दुख अभिशाप
नहीं, वरदान
है। क्योंकि
दुख में दुख
से टूटने की
कामना पैदा होती
है।
सूफी
फकीर जुन्नैद
बीमार रहता था।
उसके भक्तों
ने उससे कहा
कि तुम एक दफा
प्रार्थना
करो परमात्मा
से,
तो
तुम्हारी सब
बीमारी दूर हो
जाए।
जुन्नैद
हंसने लगा।
कहा,
प्रार्थना
तो हम करते
हैं।
उन्होंने कहा,
अगर तुम
प्रार्थना
करते हो, तो
बीमारी दूर
क्यों नहीं
होती? उसने
कहा, प्रार्थना
ही हम यह करते
हैं कि बीमारी
बनी रहे।
क्योंकि मुझे
अच्छी तरह याद
है, जब भी
बीमारी मिट
जाती है, मैं
परमात्मा को
भूल जाता हूं।
यह उसकी बड़ी
कृपा है।
बीमारी बनी
रहती है, तो
मैं सोचता
रहता हूं मैं
शरीर नहीं हूं।
यह बीमारी
शरीर को है, मैं अलग हूं।
और जैसे ही
बीमारी हटती
है, सुख हो
जाता है, मैं
भूल ही जाता
हूं कि यह
शरीर मैं नहीं
हूं।
दुख
भी साधना बन
जाता है। दुख
जब साधना बन
जाता है, तो
उसे हमने
तपश्चर्या
कहा है।
तपश्चर्या का
मतलब यह है कि
दुख से हम
अपने को अलग
कर रहे हैं।
इसलिए साधक
सामान्य
दुखों से अपने
को तोड़ता ही
है, अगर
जरूरत पड़े तो
विशेष दुख भी
अपने लिए पैदा
कर लेता है, जिनकी वजह
से वह अपने को
तोड़ सके।
आपने
देखा है, सुना
है, कोई साधु
कीटों पर लेटा
हुआ है। कोई
साधु दिन—रात
आग को जलाकर
बैठा रहता है।
भयंकर गर्मी
है और वह आग को
जलाकर बैठा है।
पसीने—पसीने
होता रहता है।
शरीर सूखता है।
इसमें वस्तुत:
जो जानता है
रहस्य को.....।
जरूरी
नहीं कि ऐसा
करने वाले सभी
जानते हों।
उसमें कई तरह
के लोग हैं।
उसमें कई तो
सिर्फ
दुखवादी हैं, जो
खुद को सताने
में मजा ले
रहे हैं।
उसमें कई
सिर्फ एक्झिबीशनिस्ट
हैं, प्रदर्शनवादी
हैं, जो
दूसरों को
अपना दुख
दिखाकर मजा ले
रहे हैं।
क्योंकि
दूसरे उनको
पूजते हैं
सिर्फ इसीलिए कि
वे काटो पर
लेटे हुए हैं।
लेकिन
इसमें से कुछ
हैं,
जो इस
तपश्चर्या को
कर रहे हैं।
उनकी
तपश्चर्या
क्या है? उनकी
तपश्चर्या यह
है कि सारे
शरीर पर कांटे
चुभ रहे हैं, तब वे भीतर
अपने को इस
स्मृति से भर
रहे हैं कि मैं
शरीर नहीं हूं।
ये कांटे मुझे
नहीं छू रहे
हैं। ये काटे
शरीर को छू रहे
हैं। और वे तब
तक काटो पर
लेटे रहेंगे,
जब तक कि
काटे बिलकुल
ही विस्मृत न
हो जाएं। शरीर
को ही छुए, उनको
जरा भी न चुभे।
जब चेतना काटो
से बिलकुल अलग
हो जाएगी, तभी
वे इस काटो की
सेज से उठेंगे।
तो
साधक अपने आस—पास
आयोजित दुख भी
कर सकता है, जिससे
अपने को तोड़े।
सुख
की आसक्ति से
और ज्ञान की
आसक्ति से!
सत्य भी जान
के अभिमान से
बांधता है।
तम
और रज तो
बांधते ही हैं, सत्व
भी बांधता है।
बुरा तो बांधता
ही है, जिसे
हम अच्छा कहते
हैं, वह भी
बांधता है।
शुभ भी बांधता
है। यहां
जंजीरें
सिर्फ लोहे की
ही नहीं हैं, सोने की भी
हैं। कुछ लोहे
की जंजीरों से
बंधते हैं, कुछ सोने की
जंजीरों से
बंध जाते हैं।
के लेकिन
बंधते दोनों
हैं। और जबतक
बंधन है, तब
तक संसा रहे।
इन
तीन गुणों के
बंधन के पार
जो उठ जाए, वही
व्यक्ति उस परम
ज्ञान को
अनुभव कर पाता
है, कृष्ण
कह रहे हैं, जिसे मैं
तुझे फिर से
कहूंगा।
आज
इतना ही।
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