कुल पेज दृश्य

रविवार, 26 अप्रैल 2015

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं--(ध्यान--साधना)-ओशो

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं
(ओशो)

प्रसतावना:

जीवन के गर्भ में क्‍या छुपा है उसकी शुन्‍य अंधेरी तलहेटी की जड़े किस स्‍त्रोत की और बह रही है.....कहां से और किन छुपे रहस्‍यों से उनको पोषण मिल रहा है....ये कुदरत का एक अनुठाओर अनसुलझा रहस्‍य है। और यही तो है जीवन का आंनद....लेकिन न जाने क्‍या हम इस रहस्‍य को जानना चाहते है, कभी ज्‍योतिष के माध्‍यम से, कभी दिव्‍य दृष्‍टी या और तांत्रिक माध्‍यमों से परंतु सब नाकाम हो जाते है। और कुदरत अपने में अपनी कृति को छपाये ही चली आ रही है।
ठीक इसी तरह कभी नहीं सूलझाया जा सकता उस रहस्‍य का नाम परमात्‍मा है। परंतु कृति के परे प्रकृति और कही दूर अनछुआ सा कर्ता जो पास से भी पास और दूर से भी दूर। परंतु जब कृति जब प्रकृति में उतपति ओर लवलीन होती है,
तब हम ठगे से सोचते है ये क्‍या इस बीज में कैसे हो सकता है इतना विशाल वृक्ष....कोई बुद्धि मानने को तैयार नहीं होती। लेकिन बीज जैसे ही मिटता है, उस अंधेरे के गर्भ में मिटना और उत्‍पति युगपत घटित होती है...दूसरी और एक वृक्ष की उत्‍पति होती है। वो कोमल पत्‍ते जब धरा से अपना मुख मंडल पहली बार बहार निकालते है और देखते है उस आसमान को सूर्य की चमक को उन रहस्‍यमय बादलो को...चारों और फैले पशु पक्षियों के कलरव को चाँद तारों को तब उसे खुद अपने पर यकिन नहीं होता....ओह.....निरंजन....इतना रहस्‍य। ठीक इस तरह से प्रत्‍येक मनुष्‍य का जीवन चल रहा होता है। और एक दिन मेरे जीवन में वह रहस्‍य का पल आ गया।
जब मेरे बीज को किसी ने अंधकार भरे रहस्‍यों में छूपा दिया और और प्रेम के उस उत्‍ताप से जब उसमें से कोमल अंकूरो को बहार निकलते देखा तो मैं मानने को तैयार नहीं था। इतना सब मेरे ही आस पास घटित हो रहा था। और मैं उसे कभी महसूस क्‍यों नहीं कर पाय, क्‍यों उस देख नहीं पाया....क्‍यों उस मधुर राग के ताल और सूरोंसे अनभिक रह गया। क्‍या मेरे पास कान, आँख आरे समझ नहीं थी। परंतु मैं क्‍या कोई भी प्राणी ये मानने को तैयार नहीं होता की वह कुछ नहीं जानता।
जानना ही हमारा भ्रम है, बुद्धि से हम क्‍या जान सकते है....उसकी सीमा होती है। लेकिन जब कोई अपने को पहली बार जानता है कि मैं कुछ नहीं जानता....तब ही पहला कदम उठता है जानने के लिए।
ओशो के 1985 में भारत आने के समय मेरा व्‍यवसाय बहुत अच्‍छा चल रहा था। जीवन में वो सब मैं पा रहा था जिसका मैंने सपना भी नहीं देखा था। लाखों में खेल रहा था। एक अति साधारण परिवार में जन्‍म लेने के बाद इस तरह से इतनी जल्‍दी मेरा काम इतना फैल जायेगा मैंने सोचा भी नहीं था। बोधिउनमनि (मेरी लड़कीजो उस समय पाँच साल की थी) को स्‍कूल का होम वर्क करने के लिए एक टीचर आता था। वह ओशो को पढ़ता था। एक दिन वह एक ओशो की कोई पुस्‍तक लिए उसने लाख कहा की भाई साहब ये पुस्‍तक पढ़ो....परंतु न जाने क्‍या ये मन वो सब नहीं करता जिसमें इसकी मोत हो। ये कैसे जानता था की इस आदमी ने अगर ओशो को पढ़ लिए तो यह वहीं आदमी नहीं रहेगा। यही तो मन का खेल है। बिना कुछ जाने बिना किसी कारण के। मैंने वह पुस्‍तक नहीं पढ़ी........समय बदल गया....राज से रंक हो गया.....बात करीब, सब खत्‍म हो गया।
लेकिन समय की गति रूकती कहां है। वह चलती रहती है। आप तो उसके चक्र में केवल उलझ सकते हो। मेरी दोस्‍त जो फिल्‍मों और नाटको में करती थी.....एक दिन मैं उसके घर गया हुआ था, उसका एक दोस्‍त जो आलइंडिया रेडियों में काम करता था...शायद उसका नाम ओझा था। वह ओशो को पढ़ता था। कई बार मुझे तर्क वितर्क भी करता था और उसे हरा देता था। जब मैं उसके घर पर गया तो वहां पर एक वाकमेन रखा था। मैंने उसे कानों से लगा कर चला दिया.....ओशो जी आवाज कितनी मधुर और कितनी कोमल....परंतु न जाने मेरे प्राण कांप गये...मेरे शरीर से पसीना छूट गया और मैंने जल्‍दी से वह वाकमैन वहीं पर रखा और उठ कर चल दिया वह बैचारी चाय का कप हाथ में लिए आवाज मारती रह गयी.....कहां जा रहे है....चाय तो बन गई। लेकिन मैंने मूड कर नहीं देखा और घर पर आकर लेट गया पूरी रात एक अजीब सी हालत थी। न कोई बेचेनी...एक अजीब सी सिहरन एक नाजुक सी टीस जो मधुरता के साथ एक विशाद भी साथ लिए थी।
दिल्‍ली पब्‍लिक लाईब्रेरी का मैं छोटी उम्र से ही सदस्‍य था। क्‍योंकि किताबे मेरी दोस्‍त थी। और इससे अच्‍छी जगह कहीं और नहीं थी। एक दिन यूं ही किताब देखते—देखते एक पुस्‍तक मेरे सामने आई....मैं मृत्‍यु सिखाता हूं और जी दोनों हाथ आसमान की और उठाये हुए थे। नीले रंग का चोगा हल्‍कि होती नीली पटीयों में से ओशो ऐसे लग रहे थे जैसे आसमान पर दूज का चाँद निकल आया है। एक तरफ तो देख कर अति प्रसन्‍नता हुई.....लेकिन दूसरे ही क्षण प्राण कांप गये। मन ने कहा इसे नहीं पढ़ना। दूसरे ही क्षण मन के दूसरे तल से एक और आवाज आई हजारों किताबें पढ़ी है तब इस किताब में ऐसा क्‍या है कि नहीं पढ़ना। इस पढ़ना है। ये सब युगपत ही हुआ....मन के दोनों तलों को मैंने एक साथ देखा....जिसे हम अच्‍छा या बुरा भी कह सकते है।
किताबें लाकर रख दी फिर भी नहीं पढ़ी.....मेरी वह दोस्‍त अपने घर इंदोर जा रही थी। उसने वह किताब देखी और कहने लगी की मैं इसे ले जा रही हूं....मुझे कुछ राहत मिली चलों ये कुछ दिन के लिए तो मुझसे दूर रहेगी....इसे नपढ़ने की गिलानी से तो बच जाऊंगा। और एक महीने बाद जब वह आई तो वह किताब मेरे हाथ पर रखते हुए अपनी बड़ी—बड़ी नीली आंखों से देखते हुए कहने लगी सूना....ये किताब तुमने पढ़नी है। एक हुक्‍म....उसकी वह सुंदर गहरी आंखें....एक खास प्रकार का तेज लिए हुए थी। और मैंने गर्दन नीची कर ली।
श्‍याम के समय मैंने उस पुस्‍तक का उठाया। उस पर पहले तो अख़बार का कवर लगया ताकि कोई यह देख न ले कि मैं ओशो की पुस्‍तक पढ़ रहा हूं। और मैं उसे खोल कर पढ़ना शुरू किया....अरे ये क्‍या....एक दो, तीन.....नो दस। ही लाईने पढ़ी और मेरी आंखें बद हो गई। लगा मैंने वह सब जान लिए जिसको मैं जानना चाहता था। घंटों मेरी वही अवस्‍था रही। उन दस लाईनों में मुझे ऐसा कुछ मिल गया जो हजारों पुस्‍तकों को पढ़ कर नहीं मिला था। मानों मेरा चलना रूक गया...मेरी मंजिल मुझे मिल गई।
सुबह सब दूकान का काम करने के बाद....मैंने अदविता (अपनी पत्‍नी) को कहां की मुझे कुछ पैसे दे दों उसने मेरी आंखों में देखा और उसके चेहरे पर एक अजीब सी खुशी लोट आई और वह अंदर जाकर 2500/— रूपये ले आई। लेकिन उसने नहीं पूछा की तुम कहां जा रहे हो। शायद वह जानती थी। और मैं सीधा राज योग सफदजंग चला गया। और वहां जाकर किताब निकालने लगा। वहां के संचालक श्री ओम प्रकाश सरसवती जी थी। वह उठ कर आये और मुझे इस तरह सक किताबे निकालते देख कर कहने लगे कि पहले तुम्‍हें नहीं देखा....क्‍या दिल्‍ली के ही रहने वाले हो। मैंने कहा हां....उस समय कितबों बहुत सस्‍ती थी,  60, 70 रूपये से अधिक कोई पूस्‍तक नहीं थी। इस तरह से आप जान सकते है 2500, रूपये में कितनी किताबें आ सकती थी।
ओम प्रकाश जी मेरी और देखा और मैंने अपनी जेब से सभी पैसे निकाल कर मेज पर रख दिये और कहां की इसमें जितनी भी पुस्‍तके आये वह मुझे दे दो। मेरी यह बात सून कर स्‍वामी जी रो पड़े और मुझे अपने गले से लगा लिया...मैं भी फफक...कर उनसे चिपट कर रो रहा था....हम कितनी ही देर इस अवस्‍था में रहे हमे पता नहीं। तब स्‍वामी जी ने कहां की जब वह पूना से चल रहे थे और ने उन्‍हें कहा था कि तुम दिल्‍ली जाकर मेरा काम करो। तब मेरे पास जितने पैसे थे उन सब के फूड पास खरीदे और बुकशाप में ले जाकर रख दिये कि इनमें जितनी भी किताबें आये वह मुझे दे।
और आज स्‍वामी जी नहीं है लेकिन उनके होनहार सपूत्र उनके काम को बढ़ा रहे है...ओशो वर्ड के नाम से। ये पुस्‍तक मेरे लिए अनमोल है....जब यह मेरे हाथ में आई तो मैं अपनी पुरानी यादों में खो गया। कैसे यादें सामने आकार खड़ी हो जाती है....समय के इस अंतराल में मानों अभी कल ही की तो बाद है.....हाथ बढ़ाया और छू लिया। ये पुस्‍तक विरल है। आप इसको बढ़े गहरे में डूब को पढ़ना शायद मृत्‍यु के पार ले जाये.....
स्‍वामी आनंद प्रसाद मनसा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें