सूत्र:
जो
दिन आवहि सो
दिन जाही।
करना कूच रहन
थिरू नाही।।
संगु
चलत है हम भी
चलना। दूरि
गवनु सिर ऊपरि
मरना।।
क्या
तू सोया जाब
अयाना। तै
जीवन जगि सचु
करि जाना।।
जिनि
दिया सु रिजकु
अंबराबै। सब
घट भीतरि हाटु
चलावै।।
करि
बंदिगी छांडि
मैं मेरा।
हिरदे नामु
सम्हारि
सबेरा।।
जनमु
सिरानो पंथु न
संवारा। सांझ
परी दह दिसि अंधियारा।
कह
रविदास नदान
दिवाने।
चेतसि नाही
दुनिया फनखाने।।
ऊंचे
मंदिर,
सालि रसोई।एक
घरी पुनि रहन
न होई।।
इह
तनु ऐसा जैसे
घास की टाटी।
जलि गयो घास
रलि गयो माटी।
भाई
बंधरू कुटंब
सहेरा। ओई भी
लागे काढ़
सबेरा।।
घर
की नारि उरहि
तन लागी।उह तौ
भूत भूत करि
भागी।।
हरि—सा
हीरा छांडिकै,
करै आन की आस।
ते
नर जमपुर
जाहिंगे,
सम भाषै
रैदास।
अंतरगति
रांचै नहीं,
बाहर कथै
उदास।।
ते
नर जमपुर
जाहिंगे,
सत भाषै
रैदास।।
रफ्ता—रफ्ता
यह जमाने का
सितम होता है
एक
दिन रोज मेरी
उम्र से कम
होता है
बाग
रोता है
असीराने—कफस
को शायद
दामने—सज्जा—ओ—गुल
सुबह को नम
होता है
मनुष्य
सोचता है कि
जी रहा है, सच्चाई
कुछ और है; हम
रोज मर रहे
हैं। यह
प्रक्रिया, जिसे हम
जीवन कहते हैं,
मृत्यु की
प्रक्रिया है।
जिस दिन हम
जन्मे उसी दिन
से मरना शुरु
हो गया है।
रोज एक—एक दिन
चुकता जाता, प्रतिपल
जीवन क्षीण
होता। घट खाली
हो रहा है, भर
नहीं रहा है।
और बूंद—बूंद
खाली हो तो
सागर भी खाली
हो जाता है।
और हम तो केवल
गागर हैं।
रफ्ता—रफ्ता
यह जमाने का
सितम होता है
लेकिन
इतने धीरे—
धीरे होती है
यह बात कि पता
नही चलती।
इतने आहिस्ता—
आहिस्ता होती
है यह बात कि
जो बहुत सचेत
हैं,
जो बहुत
जागरूक हैं, बहुत सावधान
हैं, उन्हीं
के अनुभव में
आती है, बाकी
तो धोखा खा
जाते हैं।
रफ्ता—रफ्ता
यह जमाने का
सितम होता है
एक
दिन रोज मेरी
उम्र से कम
होता है
बाग
रोता है
असीराने—कफस
को शायद
दामने—सज्जा—ओ—गुल
सुबह को नम
होता है
सुबह
जाकर बगीचे
में देखा है—
फूलों की
पंखुड़ियां, घास
की पत्तियां,
पत्तियों
के किनारे
गीले होते है।
शायद बगीचा रो
रहा है, बगीचे
की आंखों में आंसू
हैं— जान कर यह
बात कि ये फूल
अभी हैं, अभी
नहीं हो
जाएंगे, जान
कर यह बात कि
यहां सभी कुछ
पिंजड़े में
बंद कैदियों
जैसे हैं।
पिंजड़ों
में बंद पक्षी
ही नहीं हैं—
आदमी भी, जो
पिंजड़ों में
बंद दिखाई
नहीं पड़ता; क्योंकि
उसके पिंजड़े सूक्ष्म
हैं, अदृश्य
हैं। वह भी
बंद है। वह भी
कैदी है। कोई
हिंदू पिंजड़े
में बंद है, कोई मुसलमान
पिंजड़े
में बंद है, कोई
जैन पिंजड़े
में बंद है।
ये सब पिंजड़े
हैं। पक्षपात
अर्थात
पिंजड़ा। बिना
जाने किसी बात
को मान लेना
अर्थात पिंजड़ा।
बिना अनुभव
किए आस्था बना
लेना अर्थात
अंधापन।
शायद
बगीचा भी
हमारे लिए
रोता है, रोज
सुबह फूलों के,
पत्तियों
के कोर—किनारे
गीले होते हैं।
लेकिन हमें
होश नहीं, हम
दौड़े चले जाते
हैं अपनी
बेहोशी में।
हम वही किए
चले जाते हैं
जो हमने कल
किया था, परसों
किया था, जो
हमने पिछले
जन्मों में
अनंत बार किया
है।
हजार
तरह तखथ्युल
ने करवटें
बदलीं
कफस—कफस
ही रहा, फिर
भी आशिया न
हुआ
कैद
तो कैद ही
रहेगी, घर
नहीं बन सकती।
तुम्हारी
कल्पनाएं
कितनी ही
करवटें बदलें—
और यही हमने
किया है
जन्मों—जन्मों
में।
कल्पनाओं ने
करवटें बदलीं।
कभी यह थे तो
वह होना चाहा,
कभी वह थे
तो यह होना
चाहा— ऐसे
हमने चौरासी
करोड़ योनियों
में यात्रा की
है। कल्पनाओं
की करवटें हैं,
और कुछ भी
नहीं।
गरीब
अमीर होना
चाहता है और
अमीर सोचता है, गरीबी
में बड़ा
अध्यात्म है।
अमीर सोचता है,
गरीबी में
बड़ी
स्वतंत्रता
है। अमीर सोचता
है, गरीब
जानता है कैसे
घोड़े बेच कर
सोना, मैं
तो सो ही नहीं
पाता। शथ्या
है सुंदर तो
क्या होगा, भवन है
सुंदर तो क्या
हो गया— नींद
तो खो गई है!
भोजन है
स्वादिष्ट तो
क्या करूं, भूख तो खो गई
है! भूख तो है
गरीब के पास, भोजन है
अमीर के पास।
गरीब तडूफता
है कि भोजन हो
अमीर जैसा; और अमीर
तडूफता है कि
भूख हो गरीब
जैसी। जो जहां
है वहीं
अतृप्त है।
जिनके पास धन
है उनकी चिंता
का अंत नहीं।
और जिनके पास
धन नहीं है
उनकी एक ही
चिंता है कि
धन कैसे हो।
जिनके पास है
वे डरे हैं कि
कहीं खो न जाए,
जिनके पास
नहीं है वे
पीड़ित हैं कि
कब होगा।
जिनके पास है
वे चाहते हैं
कि और हो।
तृप्ति कहीं
भी नहीं है।
आपा— धापी है, असंतोष है, अतृप्ति है।
ये
सब हमारे
पिंजड़े हैं
जिनमें हम बंद
हैं। ये
अदृश्य हैं
पिंजड़े।
इसलिए हम चलते
हैं,
उठते हैं, बैठते हैं; फिर भी हम
पिंजड़ों में
बंद हैं। ठीक
से समझो तो
शरीर भी
पिंजड़ा है, मन भी
पिंजड़ा है।
शरीर है हड्डी—मांस—मज्जा
से बना पिंजड़ा;
मन है विचार,
धारणाएं, पक्षपात, इनसे बना
पिंजड़ा। मन और
शरीर से जो
मुक्त है, वही
मुक्त है, वही
जानता है जीवन
के परम
सौंदर्य को, जीवन के
अर्थ को—
अर्थवत्ता को,
जीवन की
भगवत्ता को!
वही जानता है
जीवन की
शाश्वतता को।
वही परिचित
होता है— वह जो
रहस्यों का
रहस्य है, परमात्मा—उससे।
उससे परिचित
होते ही
मृत्यु मिट
जाती है, दुख
मिट जाते है, पीड़ाएं मिट
जाती हैं। आनद
की अहर्निश
वर्षा होने
लगती है, अमृत
की झड़ी लग
जाती है। फिर
सावन ही सावन
है, फिर
कोई दूसरी ऋतु
ही नहीं है।
आग
थे इकिदाए—इश्क
में हम
हो
गए खाक, इन्तिहा
है यह
शुरू—शुरू
में तो सभी को
लगता है आग
हैं,
अंगारे हैं।
यह तो बहुत
देर में पता
चलता है कि सब
अंगारे राख हो
जाते हैं।
जिसको अंगारा
रहते हुए यह
पता चल जाए कि
मैं राख हो
जाऊंगा, उसके
जीवन में
संन्यास का
पदार्पण होता
है; उसके
जीवन में
ध्यान की किरण
उतरती है, समाधि
की तलाश शुरू
होती है।
अंगारे
तो सभी राख हो
जाएंगे। जब तक
अंगारे हो तब
तक उस गरमी का
कुछ उपयोग कर लो, तब
तक उस जीवन की
उष्मा का कोई
सदुपयोग कर लो,
कोई सृजन कर
लो। उससे बना
लो कुछ ऐसा जो
मिटेगा नहीं।
मत गंवाओ उसे
उसमें जो कि
मिट ही जाने
वाला है। रेत
के भवन मत
बनाओ, कागज
की नावें मत
चलाओ।
एक
नाव ऐसी भी है
जो पार ले
जाती है, लेकिन
वह नाव ध्यान
की है। एक ऐसा
भी भवन है जो
परमात्मा का
मंदिर बन जाता
है, लेकिन
वह भवन चैतन्य
का है, बोध
का है, बुद्धत्व
का है। उसे
जिसने नहीं
पाया उसने
जीवन को
गंवाया—व्यर्थ
गंवाया!
रंगे—निशात
देख मगर
मुत्मइन न हो
शायद
कि यह भी हो
कोई सूरत मलाल
की
गुलशन
बहार पर है, हंसो
ऐं गुलो हंसों
जब
तक खबर न हो
तुम्हे अपने
मआल की
अहसास
अब नही है मगर
इतना याद है
शक्लें
जुदा—जुदा थीं
उरूजो—जवाल की
रंगे—निशात
देख........
देखो
चारों तरफ लोग
हंस रहे, मुस्करा
रहे, जीवन
को जीने की
चेष्टा कर रहे।
हारे आखिर में
भला, मगर
चेष्टा में
कोई कमी नहीं
है।
मुस्कुराहटें
चाहे झूठी हों,
ऊपर से
चिपकाई गई हों,
मगर हैं तो
बहुत।
रंगे—निशात
देख........
देखो
ये रंगीनियां!
देखो यह
उल्लास! यह
ऊपर—ऊपर का
उल्लास, ये
ऊपर—ऊपर की
रंगीनियां, यह ऊपर—ऊपर
की बहार, यह
झूठी बहार, ये झूठे
वसंत!
रंगे—निशात
देख मगर
मुत्मइन न हो
लेकिन
खयाल रखना, धोखा
मत खा जाना, आश्वस्त मत
हो जाना।
लोगों को
हंसते देख कर
यह मत समझ
लेना कि उनकी
जिंदगी में
हंसी है। हंसी
तो कभी कुछ
थोड़े से लोगों
की जिंदगी में
होती है— कोई
बुद्व, कोई
जीसस, कोई
कबीर, कोई
नानक, कोई
रैदास। इस जगत
में बहुत थोड़े
से लोग हंस
सके हैं। हंस
सके हैं वे ही
जिन्होंने
अपने को जाना
है। उनके भीतर
फव्वारे फूटे
हैं— आनद के, उल्लास के, उत्सव के।
बाकी सब
हंसिया झूठी
हैं, थोथी
हैं— भीतर के
खालीपन को
छिपाने के
उपाय हैं, भीतर
की रिक्तता को
भुलाने की
व्यवस्थाएं
हैं।
आंसू
हैं भीतर, और
आंसू किसको
दिखाओ! आसुओ
को छिपाना
पड़ता है, कोई
क्या कहेगा? क्यों अपनी
भद्द कराओ! अंहकार
कहता है, छिपा
लो आसुओ को, हंसो, मुस्कुराओ।
नहीं भीतर
मुस्कुरा
सकते, कम
से कम बाहर
मुस्कुराओ।
नहीं हो सत्य
तुम्हारे पास,
कोई फिकर
नहीं, कम
से कम सत्य का
पाखंड तो करो!
फूल असली न
मिलें न सही, प्लास्टिक
के भी फूल तो
उपलब्ध हैं!
कम से कम पड़ोसी
तो धोखा खा
जांएगे!
रंगे—निशात
देख मगर
मुत्मइन न हो
देखो
चारों तरफ
लोगों की
हंसिया, मुस्कुराहटें,
उल्लास, उत्सव,
तमाशे—शहनाइयां
बज रही हैं, बांसुरिया
बज रही हैं, गीत गाए जा
रहे हैं, नाच
हो रहे हैं।
देखो सब, मगर
आश्वस्त मत हो
जाना, मान
मत लेना कि यह
सच है!
रंगे—निशात
देख मगर
मुत्मइन न हो
शायद
कि यह भी हो
कोई सूरत मलाल
की
खयाल
रहे कि शायद
यह भी दुख को
प्रकट करने का
एक ढंग है।
फ्रेड्रिक
नीत्शे से
किसी ने पूछा
तुम सदा हंसते
रहते हो, तुम्हारी
हंसी का राज?
नीत्शे
ने कहा अगर सच
पूछो तो मैं
इसीलिए हंसता
हूं कि कहीं
रोने न लगू।
अगर न हसूंगा
तो रो पडूगा।
वह जो ऊर्जा आंसू
बनने को तत्पर
खड़ी है, उसे
किसी तरह
मुस्कुराहट
बनाता हूं।
ऐसे औरों को
धोखा देता हूं
और औरों की आंखों
में देखता हूं
कि वे धोखा खा
गए, तो
उनके धोखे से
खुद धोखा खाता
हूं। जिंदगी
बड़ी बेबूझ है!
यहां तुम
दूसरे को धोखा
देते—देते
अपने को धोखा
देने लगते हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
सांझ को टहलने
निकला था।
अंधेरी
संध्या होने
लगी। राजमहल
के करीब ही था
कि कुछ बदमाश
छोकरे उसे परेशान
करने लगे। कोई
उसका कोट
खींचने लगा, कोई
उसके कोट के
खीसे में हाथ
डालने लगा।
किसी ने उसकी
छड़ी छीनने की
कोशिश की।
छोकरों की भीड़
थी। मुल्ला
बूढ़ा आदमी।
उसने कहा इनसे
बचना मुश्किल
है। लेकिन
उसने कुछ धूप
में बाल नहीं
पकाए, अनुभव
से बाल पकाए
हैं। पूछा कि
तुम्हें पता
है, मैं
कहां जा रहा
हूं? राजमहल
जा रहा हूं।
आज भोज है
राजमहल में, तुम यहां
क्या कर रहे
हो भू: सारा
गांव
निमंत्रित है,
तुम्हें
पता नहीं?
जैसे
ही लड़कों ने
यह सुना वे
भागे मुल्ला
को छोड़ कर
राजमहल की तरफ।
जब सारे लड़के
भागे तो
मुल्ला भी
उनके पीछे भागने
लगा। उसने
सोचा, हो न हो
बात सच ही हो।
मैंने तो झूठ
कहा था, मगर
कौन जाने भूल
से झूठ सच ही
हो! किसको पता,
आज राजमहल
में निमंत्रण
हो ही! इतने
लोग धोखा खा
गए तो चल कर
देख ही लेना
ठीक है।
तुमने
खुद भी पाया
होगा कि तुम
अगर झूठ बोलते
रहो तो धीरे—
धीरे अपने ही
झूठ पर
तुम्हें
विश्वास आ
जाता है। फिर
तय करना
मुश्किल हो
जाता है कि जो
मैं बोला था
वह झूठ था या
सच था? अगर लोग
मान लें तो
उनके मानने के
कारण तुम भी उसे
सच मान लेते
हो।
रंगे—निशात
देख मगर
मुत्मइन न हो
शायद
कि यह भी हो
कोई सूरत मलाल
की
यह
भी शायद दुख
का एक आवरण हो, एक
ढंग हो, एक
सूरत हो।
गुलशन
बहार पर है, हंसों
ऐं गुलो हंसों
वसंत
आ गया है, तो
फूलो, हंसो!
जब
तक खबर न हो
तुम्हें अपने
मआल की
तब
तक तुम्हें
अपने भविष्य
का कुछ पता
नहीं है, हंस
लो। देर नहीं
है पतझड़ के
आने में। सुबह
खिला फूल सांझ
गिर जाएगा। जो
पत्ता अभी हरा
है, जल्दी
ही पीला पड़
जाएगा। जो अभी
ऐसा गरूर से
भरा था, जो
अभी ऐसा मगरूर
था, हवाओं
से जूझता था, कि सूरज की
किरणों से
टक्कर लेने की
सामर्थ्य
समझता था, कि
पक्षियों के
गीत के साथ
नाच रहा था—
उसे पता भी
नहीं कि सूरज
ढल भी न पाएगा
और जिंदगी ढल
जाएगी! सुबह
जो खिला था वह
सांझ मुरझा जाएगा।
गुलशन
बहार पर है, हंसों
ऐं गुलो हंसो
जब
तक खबर न हो
तुम्हे अपने
मआल की
अहसास
अब नहीं है
मगर इतना याद
है
शक्लें
जुदा—जुदा थीं
उरूजो—जवाल की
आखिर
में तुम पाओगे
कि जिसको
तुमने उत्थान
कहा और जिसको
तुमने पतन कहा, वह
एक ही चीज थी, शक्लें अलग—
अलग थीं।
जिसको तुमने
दुख कहा और
जिसको तुमने
सुख कहा, वह
एक ही चीज थी, शक्लें अलग—
अलग थीं। मगर
यह पता इतनी
देर से चलता
है कि फिर कुछ
किया नहीं जा
सकता। सांझ आ
गई, और
पंखुड़ियां
झरने लगीं, और पत्ते
पीले पड़ गए; फिर कुछ
करना भी
चाहोगे तो न
कर सकोगे।
इस
देश की परंपरा
थी सदियों तक
कि संन्यास
लिया जाए
पचहत्तर साल
के बाद।
महावीर और
बुद्ध ने वह
परंपरा तोड़ दी
और उन्होंने
बड़ी अनुकंपा
की कि उस
परंपरा को तोड़
दिया। वह
परंपरा
चालबाज थी। उस
परंपरा में
होशियारी थी।
वह परंपरा
बेईमानों की
ईजाद थी, पंडित—पुरोहितों
का तर्क था कि
अंतिम चरण में,
जब संध्या आ
जाएगी और सूरज
डूबने लगेगा
और जब
पंखुड़ियां
बिखरने को हो
जाएंगी और
पत्ते पीले
पड़ने लगेंगे,
जब पतझड़
द्वार पर
दस्तक देने
लगेगी— तब
संन्यास ले
लेना।
लेकिन
उस संन्यास का
क्या मूल्य? अर्थहीन
होगा वह
संन्यास, व्यर्थ
होगा वह
संन्यास!
हुआ
अहसास पैदा
मेरे दिल में
तकें—दुनिया का
मगर
कब,
जब कि
दुनिया को
जरूरत ही न थी
मेरी
तब
दुनिया छोड़ने
का खयाल पैदा
हुआ— कब! जब
दुनिया को
मेरी जरूरत ही
न थी! यह कोई
छोड़ना हुआ, यह
कोई त्याग हुआ,
यह कोई
संन्यास हुआ!
बुद्ध और
महावीर ने
मनुष्य—जाति
को जो दान
दिया वह था
युवा—संन्यास—
बड़े से बड़ा
दान! लोग कहते
हैं, उन्होंने
बड़े से बड़ा
दान— अंहिसा।
वह कुछ भी
नहीं है। उनका
बड़े से बड़ा
दान है— इस बात
का बोध कि
जितने जल्दी
हो सके उतने
जल्दी अपनी
तरफ मुड़ आओ।
देर नहीं है
सांझ के होने
में, कब हो
जाएगी पता
नहीं, सूरज
कब ढल जाएगा
पता नहीं। यह
घड़ी हाथ में
है, अगली घड़ी
हाथ मे होगी
पता नहीं। कल
पर भरोसा न
करो।
महावीर
और बुद्ध को
हिंदू समाज
माफ नहीं कर
सका। माफ न
करने का सबसे
बड़ा कारण यह
था कि उन्होंने
युवकों को
संन्यास दिया!
उन्होंने
बच्चों को भी
संन्यास दिया।
बच्चे और युवक
संन्यासी हो
जाएं तो जो
समाज का ढांचा
है बना—बनाया, सदियों
पुराना, वह
बिखर जाए।
ब्राह्मण—पुरोहित
का क्या हो? वह चाहता है
कि जन्म से
लेकर मृत्यु
तक तुम्हारा
सारा
क्रियाकांड
करे। वह चाहता
है कि जन्म के
दिन से लेकर
मरने तक तुम्हारा
शोषण करे।
उसने इस तरह
का जाल फैलाया
है कि पैदा हो
तो उसकी जरूरत,
नामकरण हो
तो उसकी जरूरत,
यज्ञोपवीत
हो तो उसकी
जरूरत, विवाह
हो तो उसकी
जरूरत, फिर
तुम्हारे
बच्चे पैदा
हों तो उसकी
जरूरत, फिर
तुम के होओ तो
उसकी जरूरत, तुम मरो तो
उसकी जरूरत।
उसने
तुम्हारी
पूरी जिंदगी
को कस लिया है, एक
कोने से दूसरे
कोने तक उसने
कुछ छोड़ा नहीं
है। मर जाने
के बाद भी
तुम्हारा
पीछा नहीं
छोड़ता। तीसरा
करवाएगा, तेरहवीं
करवाएगा, इतने
से ही काम
नहीं है, हर
साल पितृ—पक्ष
में तुम्हारा
शोषण करेगा।
मर गए, उनको
भी नहीं छोड़ता।
जिंदा हैं
उनको तो कैसे
छोड़ सकता है!
बुद्ध
और महावीर ने
उसकी ये चार
आश्रमों की
व्यवस्था तोड़
दी। संन्यासी
का अर्थ ही
होता है कि जो
ब्राह्मण, पंडित,
पुरोहित से
मुक्त हो गया।
और संन्यासी
वर्णातीत है।
ब्राह्मणों
की व्यवस्था
वर्ण पर खड़ी
है— चार वर्ण—ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
लेकिन
संन्यासी का
कोई वर्ण नहीं
होता। जैसे ही
कोई व्यक्ति
संन्यासी हुआ
कि वह वर्ण के
अतीत हो जाता
है, वह
वर्ण के बाहर
हो जाता है।
उस पर फिर कोई
मर्यादा और
नियम लागू
नहीं होते। वह
अतिक्रमण है।
तो
आश्रम की
व्यवस्था तोड़
दी,
क्योंकि
युवकों को
संन्यास दिया,
और वर्ण की
व्यवस्था तोड़
दी, क्योंकि
संन्यासी
किसी वर्ण का
नहीं होता।
संन्यासी
होते ही उसका
एक वर्ण रह
जाता है—
संन्यास। फिर
वह ब्राह्मण
रहा हो पहले, कि शूद्र
रहा हो, कि
क्षत्रिय रहा
हो, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। दोनों
तरह से
हिंदुओं की जड़
व्यवस्था थी
उसको तोड़ दिया
बुद्ध और
महावीर ने।
क्षमा नहीं कर
सकते हिंदू
उन्हें।
लेकिन
उन्होंने बात
तो बड़ी
क्रांतिकारी
की। जब जीवन
हाथ में है, ऊर्जा
है, उमंग
है, कुछ कर
गुजरने का
सामर्थ्य है,
चुनौतियां
लेने का साहस
है। जब तुम
पर्वत चढ़ सकते
हो तब चढ़ो। जब
सागर तैर सकते
हो तब तैसे।
जब अस्थिपंजर
हो जाओगे तब
संन्यास लोगे?
तो संन्यास
तो फिर
मुर्दों का
हुआ। उस
मुर्दा
संन्यास में
फूल नहीं लग
सकते। जिसमें
पाप करने की
क्षमता नहीं
रह जाती उसमें
पुण्य करने की
क्षमता भी
नहीं रह जाती,
इस गणित को
याद रखना।
क्षमता तो एक
ही है, चाहे
पाप कर लो
चाहे पुण्य।
क्षमता तो एक
ही है, चाहे
संसार बसा लो
चाहे संन्यास।
क्षमता तो एक
ही है, चाहे
धन कमा लो
चाहे ध्यान।
उर्जा तो एक
ही है, चाहे
शाश्वत को खोज
लो चाहे
क्षणभंगुर
में गंवा दो, चाहे
मरुस्थल में
भटक जाओ या
सागर पर पहुंच
जाओ।
रैदास
के सूत्र—
जो
दिन आवहि सो
दिन जाही।
जो
दिन आया है, जाएगा।
जो जीवन मिला
है, छिन
जाएगा। अवसर
है यह। यह सदा
के लिए नहीं
मिल गया है।
इसकी सीमा है।
इसकी सीमा के
भीतर कुछ कर
लो—कुछ ऐसा जो
कि शाश्वत से
जोड़ दे, तो
तुम असीम हो
जाओ। जीवन की
सीमा है लेकिन
एक और जीवन है,
परम जीवन, जिसकी कोई
सीमा नहीं।
देह में जो
जीवन है वह तो
आज है, कल
नहीं हो जाएगा।
इसकी मृत्यु
तो सुनिश्चित
है। मृत्यु से
बचा नहीं जा
सकता।
आश्चर्यजनक
है मगर सत्य
है कि इस जगत
में इस जीवन
में एक ही बात
सुनिश्चित है,
और वह है
मृत्यु। जन्म
के बाद अगर
कोई चीज
बिलकुल
सुनिश्चित है,
सौ प्रतिशत,
तो वह
मृत्यु।
करना
कूच रहन थिरू
नाही।।
कूच
तो करना पड़ेगा।
यह काफिला तो
उठेगा। यह सब
ठाठ पड़ा रह
जाएगा। यह
सराय है, रात
ठहर गए ठीक, सुबह तो
बोरिया—बिस्तर
बांध ही लेना
होगा। इस सराय
को घर न समझ लो।
करना
कूच रहन थिरू
नाही।।
कूच
तो करना ही है।
रहना घिर नहीं
है। तो इस
सराय की
दीवालों को
रंगते रहोगे
रात भर? दीवालों
पर तस्वीरें
टांगते रहोगे
रात भर? इस
सराय की सफाई
करते रहोगे
रात भर? इस
सराय के
इंतजाम में ही
गवां दोगे
सारा समय? और
सुबह आएगी और
सराय छिन
जाएगी!
नहीं; सराय
का उपयोग कर
लो। सराय में
ही सब समय मत
गंवा दो। इस शरीर
में ही मत
उलझे रहो।
थोड़े सुलझो।
इस शरीर से
थोड़े जागो। इस
शरीर से थोड़े
ऊपर उठो। माना
कि सत्तर—अस्सी
साल इस शरीर
में रहना है, मगर अनंतकाल
की तुलना में
सत्तर— अस्सी
साल का क्या
मूल्य है! एक
रात से भी कम।
और दिन जाते
देर कहां लगती
है— दिन यूं
जाते हैं! पकड़
में तो समय
आता नहीं, मुट्ठी
में तो समय
आता नहीं।
सुबह हुई कि
सांझ हो जाती
है। सुबह होती
शाम होती, उम्र
यूं ही तमाम
होती!
कल
भी वही किया
था,
आज भी वही
कर लोगे, परसों
भी वही कर
लोगे, कल
भी वही करोगे।
एक दिन मौत
द्वार पर खड़ी
हो जाएगी, क्या
उत्तर दोगे!
सिर झुका कर
खड़ा होना
पड़ेगा, हाथ
खाली होंगे।
भीख मांगोगे
कि थोड़ा समय
और, थोड़ा
जीवन और, क्योंकि
यह तो बेकार
गया। और उस
भीख का परिणाम
है कि फिर
तुम्हें जन्म
मिलेगा। तुम
जो मांगोगे सो
मिलेगा। तुम
अगर फिर जन्म
मांगते हो, फिर जन्म
मिलेगा, फिर
किसी गर्भ में
पैदा हो जाओगे।
मगर तुम
दोहराओगे
वहीं भूलें जो
तुमने पहले दोहराई
थीं, शायद
और भी आश्वस्त
होकर
दोहराओगे कि
कोई फिकर नहीं,
जन्म तो फिर—फिर
मिल जाता है, जल्दी क्या
है!
इसीलिए
तो भारत में
इतना आलस्य है।
जन्म ही जन्म
तो हैं, जल्दी
क्या है! फिर
मिलेगा जन्म,
फिर मिलेगा
जन्म, कर
लेंगें आगे।
मगर तुम तुम
ही हो, आज
नहीं करोगे, कल भी तो तुम
तुम ही रहोगे।
सच तो यह है कि
अगर आज नहीं
किया तो कल तो
तुम और थोड़े
ज्यादा तुम हो
जाओगे, क्योंकि
एक दिन और
तुमने जी लिया,
आदतें और
मजबूत हो गईं।
मैंने
सुना है, महामहिम
मटकानाथ
ब्रह्मचारी, मुल्ला
नसरुद्दीन, ढ़ब्बू जी
और चंदूलाल एक
बार चारों जुआ
खेलते पकड़े गए।
छापा मारने
वाला पुलिस
अफसर खुशी से
फूला न समाया।
चारों से उसने
कहा कि चलो
थाने, आज
तुम्हें मजा
चखाएं! वे
चारों मजे से
साथ हो लिए।
एक
चौराहे पर
पहुंच कर
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा माई—बाप, आधी
फर्लांग की
दूरी पर ही
बढ़िया चाय—पान
की दुकान है।
कल हमें सजा
हो जाएगी, फिर
पता नहीं वह
बढ़िया चाय
पीने को हमें
मिले या न
मिले! और वे
मीठे और
जायकेदार पान
फिर खाने को
मिलें या न
मिलें! यदि आप
आज्ञा दें तो
हम चारों जाकर
आखिरी बार चाय—पान
कर आएं, साथ
में आपके लिए
भी लेते आएंगे।
विचार
तो बढ़िया है—पुलिस
अफसर बोला—जाओ, जल्दी
से वापस आना
और मेरे लिए
पान जरा बढ़िया
लगवा कर लाना।
वे
चारों गए सो
गए। बेचारा
पुलिस अफसर
दों—तीन घंटे
तक उनके लौटने
की राह देखता
रहा। एक वर्ष
बाद दीवाली के
दिन फिर वही
घटना घटी।
चारों के चार
फिर जुआ खेलते
पकड़े गए।
पुलिस अफसर
बोला बच्चू अब
न छोडूंगा।
बुरे फंसे हो
इस बार। पिछली
बार तो धोखा
देकर निकल गए
थे,
अब चलो थाने,
तुम्हें
अच्छा मजा
चखाता हूं।
चारों
फिल्मी गाने
की धुन
गुनगुनाते
हुए फिर साथ
हो लिए। फिर
रास्ते में
वही चौराहा
पड़ा। और नसरुद्दीन
ने फिर वही
पुरानी बात
दोहराई. माई—बाप, जैसा
कि आपको पता
ही है, पास
ही चाय—पान की
दुकान है, यदि
आज्ञा दें तो
हम लोग जाते—जाते
एक बार चाय—पान
कर आएं और
आपके लिए भी
श्रेष्ठतम
पान लगवा
लाएंगे।
पुलिस
अफसर तो क्रोध
से लाल होकर
बोला, चालबाजो,
मैं
तुम्हारी एक—एक
चालबाजी से
अच्छी तरह
परिचित हूं।
मुझसे फिर वही
चालाकी करने
की कोशिश!
बदमाशो, क्या
तुम सोचते हो
कि मैं निरा
मूर्ख हूं? अरे लोमड़ी
की औलादो, मैंने
भी घाट—घाट का
पानी पीया है।
बाल धूप में
नहीं पकाए।
तुम सब यहीं
रुको, मैं
खुद जाता हूं
तुम्हारे लिए
पान लेकर आता
हूं।
तुम
तो तुम्हीं
हो! इधर से
नहीं उधर से, भूल
तुम वही करोगे।
इस जन्म में
जो की है वही
अगले जन्म में
करोगे, वही
और अगले जन्म
में करोगे।
ऐसे
नहीं चलेगा।
इस बात को तीर
की तरह भीतर
चुभ जाने दो—
जो
दिन आवहि सो
दिन जाही।
करना कूच रहन
थिरू नाही।।
संगु
चलत है हम भी
चलना।
खयाल
रखना, जब भी
किसी अरथी को
निकलते देखो
तो स्मरण रखना—
संगु चलत है
हम भी चलना।
अरथी को तो
पहुंचाने
जाते हो मरघट
तक, उतनी
दूर तक संग
जाते हो वह तो
ठीक; यह भी
याद रखना कि
हमें भी चलना
है देर— अबेर?
एक
भ्रांति है
मनुष्य के मन
में कि सदा
दूसरे लोग
मरते हैं। और
एक तरह से बात
जंचती भी है
क्योंकि तुम
तो अभी तक मरे
नहीं। तुम
दूसरों को
मरघट पहुंचा
आते हो, फिर
घर आ जाते हो।
तुम सोचते हो
कि मैं तो
सिर्फ काम
लोगों को मरघट
पहुंचाने का
करता हूं मैं
थोड़े ही मरता
हूं। मगर
जिनको तुम पहुंचा
आते हो वे भी
ऐसा ही सोचते
रहे। वे भी
पहुंचाते रहे।
एक दिन दूसरे
लोग तुम्हें
पहुंचा आएंगे
और यही सोचते
हुए घर लौट
जाएंगे कि
बेचारा मर
गया! यह खयाल
ही नहीं आता
कि मैं भी
बेचारा हूं
मुझे भी मरना
है!
अंग्रेजी
में प्रसिद्ध
कहावत है कि
जब चर्च की
घंटियां बजे—
क्योंकि गांव
में जब कोई मर
जाता है यूरोप
में तो चर्च
की घंटियां
बजती हैं ताकि
गांव भर को
खबर हो जाए— कि
जब चर्च की
घंटियां बजे
तो यह पूछने
मत भेजना कि
कौन मर गया है, जानना
कि तुम्हीं मर
गए।
यह
कहावत
प्रीतिपूर्ण
है,
अर्थपूर्ण
है, गहन है,
गहरी है, इसमें डुबकी
मारो। जब चर्च
की घंटियां
बजे तो यह
पूछने मत
भेजना कि कौन
मर गया। जब
रास्ते से
अरथी निकले तो
यह पूछने मत
भेजना कि कौन
मर गया। जानना
कि तुम्हीं
मरे। ये सब
तुम्हारी ही
शक्लें हैं।
मगर लोग तो
अदभुत हैं।
एक
सुबह—सुबह
अरथी निकली।
सर्दी के दिन।
मुल्ला नसरुद्दीन
अपने आगन में
सूरज की तरफ
मुंह किए धूप ले
रहा है। उसकी
पत्नी ने कहा
नसरुद्दीन, कोई
मर गया। और जो
मर गया है, मालूम
होता है कुछ
खास आदमी रहा
होगा, क्योंकि
अरथी में बहुत
लोग हैं।
रास्ते से
अरथी गुजर रही
है।
नसरुद्दीन
ने कहा बड़े
बेवक्त मरा और
बड़े बेवक्त अरथी
गुजर रही है।
अभी मैं उस
तरफ मुंह नहीं
किए हूं अभी
मैं धूप ले
रहा हूं। तू
ही देख ले और
हाल—चाल मुझे
बता देना।
आदमी
पीठ तक बदलने
को राजी नहीं
है कि लौट कर देख
ले,
तो क्या खाक
स्मरण करेगा
कि यह मृत्यु
मेरी मृत्यु
है! हर मृत्यु
तुम्हारी
मृत्यु है!
मनुष्यों की
ही नहीं, पीला
पत्ता जब
वृक्ष से
गिरता है तो
याद करना कि
तुम गिरे। फूल
जब सांझ को
कुम्हला जाए
और झर जाए, उसकी
पंखुड़ियां
धूल में पड़
जाएं, तो
जानना कि तुम
धूल में पड़े
हो। जब पैरों
के नीचे उसकी
पंखुड़ियां दब
जाएं, कुचल
जाएं, तो
जानना कि तुम
कुचले गए हो।
ऐसा
जब तुम समझने
लगोगे, ऐसा
जब तुम्हारे
भीतर प्रगाढ़
भाव हो जाएगा,
तो धर्म की
क्रांति होती
है, अन्यथा
नहीं। मंदिर—मस्जिदों
में जाने से
नहीं। ये सब
खेल—खिलौने
हैं।
संगु
चलत है हम भी
चलना।
पहुंचा
आना अरथी को
मरघट तक, मगर
कह आना कि हम
भी आते हैं।
देर— अबेर आना
ही है।
दूरि
गवनु सिर ऊपरि
मरना।।
थोड़ी
देर सही। थोड़ा
और चलेंगे
जिंदगी में, मगर
सिर पर मौत
लटकी हुई है, उससे बचा
नहीं जा सकता।
कितने ही तेजी
से भागों, मौत
से बचने का
कोई उपाय नहीं
है।
एक
सूफी फकीर के
शिष्य ने सपना
देखा कि रात
मौत ने उसके
कंधे पर हाथ
रखा। नींद में
भी घबड़ा गया।
पूछा कि क्या
बात है, किसलिए
मेरे कंधे पर
हाथ रख रही हो?
तो मौत ने
कहा कि मैं
तुझे बताने आई
हूं कि आज संध्या
सूरज के डूबने
के साथ मैं आ
रही हूं।
चूंकि तू इस
बड़े फकीर का
शिष्य है, तेरे
लिए यह विशेष
छूट कि तुझे
मैंने पहले से
खबर दे दी।
नियम नहीं है
यह खबर देने
का, अचानक
आना ही नियम
है, अनायास
पकड़ लेना ही
नियम है।
क्योंकि खबर
दे दो तो लोग
बचें, भागें,
इंतजाम
करें। मगर तू
इस बड़े फकीर
का शिष्य है, तुझ पर दया
करके मैं कह
देती हूं कुछ
करना हो तो कर
ले। ज्यादा
देर नहीं बची है।
आधी
रात ही उसकी
नींद खुल गई, घबड़ा
गया बहुत।
फकीर से पूछा
कि मैं क्या
करूं? फकीर
ने कहा अब
करने को और
क्या है! अब तो
एक ही उपाय है
कि ले मेरा
घोड़ा और जितने
दूर निकल जा सके
निकल जा। इस
जगह रुकना अब
एक क्षण ठीक
नहीं।
फकीर
मजाक कर रहा
था। मगर शिष्य
मजाक को समझ न
सका। उसने तो
ले लिया घोड़ा
और भागा। जी—जान
छोड़ कर भागा।
रास्ते में
पानी पीने तक
को नहीं रुका।
भागता ही गया, भागता
ही गया। मीलों
भागने के बाद
सांझ होते—होते
दमिश्क शहर के
बाहर जाकर एक
आम की बगिया में
ठहरा। बड़ा
प्रसन्न था कि
इतने दूर निकल
आया, अब
मौत वहां
खोजती फिरेगी!
अपनी ही पीठ
ठोंकी। अपनी
ही नहीं ठोकी,
फिर घोड़े की
भी पीठ ठोकी।
और घोड़े से
कहा कि तू भी
दमदार है, क्योंकि
उसको भी न दिन
भर चारा मिला
न पानी मिला।
और कहा तेरी
चाल भी तेज है।
हो भी क्यों न,
है मेरे
गुरु का घोड़ा!
तूने मुझे बचा
लिया। सूरज ढल
रहा है, हम
इतने दूर निकल
आए। अब कहां
मौत पता
लगाएगी!
यह
बात ही वह
घोड़े से कर
रहा था, और तो
कोई था भी
नहीं वहां।
मगर बात करनी
ही थी तो घोड़े
से ही कर रहा
था। तभी वह
हाथ, जो
रात सपने में
उसके कंधे पर
पड़ा था, फिर
उसके कंधे पर
पड़ा। घबड़ा कर
देखा, पीछे
मौत खड़ी है।
मौत खिलखिला
कर हंस रही है।
उसने कहा :
धन्यवाद तो
घोड़े को मैं
भी दूंगी कि ठीक
वक्त पर ठीक
जगह ले आया।
यही वह वृक्ष
है जिसके नीचे
तुम्हें मरना
है। असल में
रात मुझे
इसीलिए आना
पड़ा, मैं
बहुत चिंतित
थी कि तुम इस
वृक्ष तक बारह
घंटे में कैसे
पहुंचोगे? इसलिए
तुम्हें
पूर्व से
सूचना देनी
पड़ी। क्योंकि
जब तक तुम
यहां न पहुंच
जाओ तब तक मैं नहीं
आ सकती। घोड़ा
दमदार है और
तुम भी आदमी
हिम्मत के हो।
मैं तक चिंतित
थी, कि शक
था मुझे कि
तुम पहुंच
पाओगे सांझ
होते—होते, मगर तुम
पहुंच गए और
मैं आ गई। यही
जगह है जहां
तुम्हें मरना
है। कहां
भागोगे? कितने
ही तेज घोड़ों
को ले लो, हवाई
जहाज पर सवार
हो जाओ, कहां
भागोगे? मौत
से नहीं भाग
पाओगे।
दूरि
गवनु सिर ऊपरि
मरना।।
कितनी
ही दूर निकल
जाओ,
मगर ध्यान
रखना कि मौत
सदा सिर पर है।
जहां भी होओगे
वहीं मरोगे।
मृत्यु तो
होनी ही है।
क्या
तू सोया जाब
अयाना।
मृत्यु
जैसी घटना
घेरे हुए है
और फिर भी तुम
कैसे अज्ञानी
हो कि सो रहे
हो! जागो!
यह
सूफी फकीर का
शिष्य नहीं
पूछा गुरु से
कि अभी बारह
घंटे बचे हैं, अमृत
का स्वाद चखा
दो। जिंदगी तो
गई ही गई, सांझ
मौत आएगी सो
आएगी, बड़ी
कृपा है कि
पहले खबर दे
दी उसने। अब
तक तो ध्यान
नहीं हुआ, अब
सारी शक्ति
लगा देता हूं
बारह घंटों
में, क्योंकि
अब बचाने को
भी क्या है! अब
दांव पर सब लगा
देता हूं।
यह
नहीं पूछा। यह
पूछा कि अब
क्या करूं, मौत
से कैसे बचूं?
गुरु ने तो
मजाक किया था
कि तू घोड़ा ले
ले और निकल
भाग। लेकिन
अगर शिष्य में
थोड़ी भी समझ
होती तो वह कहता,
घोड़ा मुझे
कहां ले जाएगा?
मौत का जाल
बड़ा है, सारे
जगत को घेरे
हुए है, वह
कहीं भी मुझे
पकड़ लेगी। आप
मुझे इस तरह
धोखा न दें।
घोड़ा क्या खाक
मुझे बचाएगा,
घोड़े की भी
मौत होने वाली
है। यह देह तो
गई अब तो मुझे
कुछ शाश्वत को
पाने का
रास्ता दें।
ध्यान
के लिए पूछा
होता, परमात्मा
के लिए पूछा
होता! लेकिन
लोग वह नहीं
पूछते।
चार
आदमी बात कर
रहे थे। एक ने
कहा कि अगर
पता चल जाए, डाक्टर
तुम्हारा कह
दे कि बस अब
तीन महीने से ज्यादा
नहीं बचोगे तो
तुम क्या
करोगे? जहां
तक मेरी बात
है— उसने कहा—
कि अगर मुझे
डाक्टर कह दे
कि तीन महीने
से ज्यादा मैं
नहीं बचूँगा
तो मैं सब
धंधा—वंदा बेच
कर दुनिया के
चक्कर पर निकल
जाऊंगा; वह
मेरी दिली
आकांक्षा है
कि सारी
दुनिया देख डालूं—
ताजमहल, और
खजुराहो और
कोणार्क, और
बोरोबूदर।
दुनिया पड़ी है!
हिमालय, और
आल्फ, और
स्विटजरलैंड,
और कश्मीर।
देखा नहीं, जिंदगी भर
धंधे में ही
पड़ा रहा, यह
दुकान पर ही
बैठा रहा। अगर
मेरा डाक्टर
मुझसे कह दे
कि तीन महीने
बचे हैं, सब
दुकान बेच कर
बाल—बच्चों को
नमस्कार करके
मैं तो दुनिया
के चक्कर पर
निकल जाऊंगा।
दूसरे
ने कहा कि अगर
मुझे पता चल
जाए कि तीन
महीने ही बचूंगा
तो पहला काम
तो मैं यह
करूंगा कि
पत्नी को तलाक
दूंगा, जो कि
मैं जिंदगी भर
से सोच रहा
हूं। और फिर
जितनी
स्त्रियां
मिल सकती हैं
भोग ही लूंगा।
फिर जो भी
खर्चा हो जाए,
फिर हर रात
एक नई स्त्री
को ले आऊंगा।
जब तीन ही
महीने बचे तो
अब क्या लोक—लज्जा,
अब क्या
नीति—अनीति!
अब मौत ही आ
रही है तो कौन
फिकर करे!
तीसरे
ने कहा, अगर
मेरा डाक्टर
मुझसे कह दे
कि तीन महीने
ही बचे हैं तो
मैं सब बेच—बाच
कर बस शराब
पीकर पड़ा
रहूंगा।
मस्ती। तीन
महीने ही बचे
तो फिर कमी
नहीं करूंगा,
फिर फिकर
नहीं करूंगा
कि शराब से
बीमारी होती है,
शराब से यह
होता है वह
होता है। फिर
ये बेवकूफी की
बातें छोड़
दूंगा। मौत ही
आ रही है, तो
फिर तो पीए ही
पड़ा रहूंगा; जैसे ही होश
आएगा फिर पी
लूंगा; जैसे
ही होश आएगा
फिर पी लूंगा।
चौथा
था एक यहूदी; या
समझो कि
मारवाड़ी।
उसने कहा. अगर
मेरा डॉक्टर
मुझसे कहे कि
तीन महीने ही
बचे हैं तो
मैं दूसरे
डॉक्टर के पास
जाकर सलाह
लूंगा। इतनी
आसानी से मरने
वाला नहीं हूं।
मगर चारों में
से एक ने भी
मतलब की बात न
कही, बेमतलब
बातें। चलो
तीन महीने
नहीं छह महीने
जी लोगे, तब
भी क्या फर्क
पड़ता है? समय
की मात्रा बढ़
जाने से कोई
फर्क नहीं
पड़ता, तुम्हारी
चेतना का गुण
बदलना चाहिए।
इसलिए
कहते हैं
रैदास
तै
जीवन जगि सचु
करि जाना।।
तुम्हारी
चेतना का गुण
बदलना चाहिए—सोने
से जागने की
तरफ यात्रा
होनी चाहिए।
अपनी
हालत का खुद
अहसास नहीं है
मुझको
मैंने
औरों से सुना
है कि परेशान
हूं मैं
ऐसी
हमारी बेहोशी
है! हमें अपनी
हालत का खुद ही
पता नहीं हैं।
औरों से सुना
है कि परेशान
हूं मैं! लोग
कहते हैं कि
तुम सोए हो।
तुम्हें पता
नहीं कि तुम
सोए हो। आते
हैं बुद्ध और
चिल्लाते हैं
तुम्हारे कानों
में कि तुम
सोए हो, लेकिन
तुम नींद में
भी जागने का
सपना देख रहे हो।
तुम हर तरह से
बचने की कोशिश
में संलग्न हो—
नींद न टूटे, नींद बनी
रहे। तुमने
नींद में इतने
न्यस्त
स्वार्थ जोड़
दिए हैं, तुमने
इतने मीठे—मधुर
सपने सजा लिए
हैं कि
तुम्हें डर
लगता है कि
कहीं सच में
ही यह नींद न
हो। नहीं तो
इस महल का
क्या होगा—
सोने का महल
जो मैंने
बनाया! ये जो
अप्सराएं उतरी
हैं, इनका
क्या होगा!
क्या
तू सोया जाब
अयाना। तै
जीवन जगि सचु
करि जाना।।
क्योंकि
जो जागे हैं
उन्होंने ही
जीवन के सत्य
को जाना है।
उन्होंने ही
जीवन को सत्य
कर लिया है।
बाकी सब का
जीवन तो असत्य
है।
मुझे
अहसास कम था
वरना दौरे—जिंदगानी
में
मेरी
हर सांस के
हमराह मुझमें
इंकलाब आया
होश
कम था, नहीं तो
हर श्वास के
साथ क्रांति आ
रही थी, जा
रही थी।
मुझे
अहसास कम था.......
चेतना
कम थी, चैतन्य
कम था, जागृति
कम थी।
मुझे
अहसास कम था
वरना दौरे—जिंदगानी
में
मेरी
हर सांस के
हमराह मुझमें
इंकलाब आया
हर
श्वास के साथ
क्रांति घट
सकती थी।
इसलिए बुद्ध
ने तो श्वास
के ऊपर
निरीक्षण करने
पर बहुत जोर
दिया है, विपस्सना
उसी विधि का
नाम है। आती
श्वास को देखो,
जाती श्वास
को देखो।
देखते—देखते
आती—जाती
श्वास को, तुम
जाग जाओगे।
क्योंकि
श्वास
तुम्हें जोड़े
है शरीर से।
जब तुम श्वास
को देखोगे तो
तुम अचानक
पाओगे, तुम
श्वास से
भिन्न हो, तुम
द्रष्टा हो।
और जिसने जान
लिया कि मैं
श्वास से
भिन्न हूं
उसने जान लिया
कि मैं शरीर
से भिन्न हूं।
क्योंकि शरीर
से जोड्ने
वाली गांठ
श्वास है। अगर
मैं श्वास से
ही भिन्न हूं
तो श्वास ने
जिस शरीर से
जोड़ दिया है
उससे तो मैं
भिन्न हूं ही।
इसमें फिर कोई
संदेह नहीं रह
जाता।
मुझे
अहसास कम था
वरना दौरे—जिंदगानी
में
मेरी
हर सांस के हमराह
मुझमें
इंकलाब आया
प्रतिपल
क्रांति
तुम्हारी
श्वास के साथ
आ रही है, जा
रही है— जरा
अहसास बढ़ाओ, जरा चैतन्य
जगाओ, जरा
जागो।
ध्यान
की सारी
विधियां
जागरण की
विधियां हैं।
कैसे भी हो, जागना
है। कोई
अलार्म लगा कर
जाग जाता है, कोई पड़ोसी
से कह देता है
द्वार पर दस्तक
दे देना। कोई
अपनी पत्नी से
कह देता है कि
आख पर ठंडे पानी
के छींटे मार
देना। और कोई
जिसे पता है, समझ है थोड़ी,
अपने से ही
कह कर सो जाता
है; अगर
नाम उसका राम
है तो कहता है—
राम, मुझे
ठीक पांच बजे
उठा देना! और
तुम चकित होओगे
कि ठीक पांच
बजे नींद खुल
जाएगी। अगर
तुम समग्र भाव
से यह विचार
करके सो गए हो
कि पांच बजे
मुझे उठा देना,
तो ठीक पांच
बजे तुम्हारी
नींद खुल
जाएगी, क्योंकि
तुम्हारे
शरीर के भीतर
भी एक घड़ी है जो
काम कर रही है।
अब
तो वैज्ञानिक
शरीर की इस
घड़ी से राजी
हो गए हैं।
तभी तो
तुम्हें ठीक
वक्त पर भूख लग
आती है, और
ठीक समय पर
नींद आ जाती
है, और ठीक
समय पर नींद
खुल जाती है।
अगर जरा देर
हो जाए तो पेट
कुडबुडाने
लगता है, वह
शरीर की घड़ी
कहने लगती है
कि अब बहुत
देर हुई जा
रही है। अगर
जरा देर हो
जाए तो आंखों
में झपकी आने
लगती है। शरीर
कहता है, समय
हो गया, अब
बिस्तर लो।
ज्यादा देर
बिस्तर पर पड़े
रहो, नींद
खुलने का समय
हो गया हो, तो
सिर भारी हो
जाता है। फिर
दिन भर सुस्ती
पकड़े रहती है।
शरीर
की एक घड़ी है।
चौबीस घंटे
शरीर की घड़ी
काम कर रही है।
अगर थोड़ा होश
हो तो तुम
अपने से ही कह
कर सो जा सकते
हो,
वही जागरण
हो जाएगा।
लेकिन
अगर इतना होश
न हो तो किसी
गुरु को खोजो कि
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक दे दे।
किसी ऐसे गुरु
को खोजो कि
दस्तक देकर ही
न लौट जाए; अगर
न उठो तो सिर
पर डंडा भी
मारे। अगर
छीना— झपटी भी
करना पड़े तो
करे, मगर
खींच कर
बिस्तर के
बाहर निकाल ले।
लेकिन जागना
तो होगा, अन्यथा
जीवन व्यर्थ
जा रहा है।
प्रतिपल हाथ
से तुम गंवा
रहे हो एक परम
संपदा।
और
कैसे—कैसे
धोखे आदमी
अपने को दे
लेता है! पहला
तो सबसे बड़ा
धोखा यह है कि
आदमी सोचता है, मैं
जागा ही हुआ
हूं। यह सबसे
बड़ा धोखा है।
अब और क्या
जागना है! आख
खुली है, दुनिया
को देख रहा
हूं। चलता हूं
उठता हूं
बैठता हूं सड़क
से गुजरता हूं
घर आता हूं
दफ्तर जाता
हूं हर किसी
से टकरा नहीं
जाता— तो जागा
ही हुआ हूं।
यह सबसे बड़ा
धोखा है, क्योंकि
जिसने मान
लिया मैं जागा
ही हुआ हूं अब
वह जागने का
कोई उपाय न
करेगा।
गुरजिएफ
कहता था एक
कहानी बार—बार
कि एक जादूगर
के पास बहुत
सी भेड़ें थीं।
और उसने पाल
रखा था भेड़ों
को भोजन के
लिए। रोज एक
भेड़ काटी जाती
थी,
बाकी भेड़ें
देखती थीं, उनकी छाती थर्रा
जाती थी। उनको
खयाल आता था
कि आज नहीं कल
हम भी काटे
जाएंगे।
उनमें जो कुछ
होशियार थीं,
वे भागने की
कोशिश भी करती
थीं। जंगल में
दूर निकल जाती।
जादूगर को
उनको खोज—खोज
कर लाना पड़ता।
यह रोज की
झंझट हो गई थी।
और न वे केवल
खुद भाग जातीं,
और भेड़ों को
भी समझातीं कि
भागो, अपनी
नौबत भी आने
की है। कब
हमारी बारी आ
जाएगी पता
नहीं! यह आदमी
नहीं है, यह
मौत है! इसका
छुरा देखते हो,
एक ही झटके
में गर्दन अलग
कर देता है!
आखिर
जादूगर ने एक
तरकीब खोजी, उसने
सारी भेड़ों को
बेहोश कर दिया
और उनसे कहा, पहली तो बात
यह कि तुम भेड़
हो ही नहीं।
जो कटती हैं
वह भेड़ है, तुम
भेड़ नहीं हो।
तुममें से कुछ
सिंह हैं, कुछ
शेर हैं, कुछ
चीते हैं, कुछ
भेड़िए हैं।
तुममें से कुछ
तो मनुष्य भी
हैं। यही नहीं,
तुममें से
कुछ तो जादूगर
भी हैं।
सम्मोहित
भेड़ों को यह
भरोसा आ गया।
उस दिन से बड़ा
आराम हो गया
जादूगर को। वह
जिस भेड़ को
काटता, बाकी
भेड़ें हंसती
कि बेचारी
भेड़! क्योंकि
कोई भेड़ समझती
कि मैं मनुष्य
हूं! और कोई
भेड़ समझती कि
मैं तो खुद ही
जादूगर हूं
मुझको कौन
काटने वाला
है! कोई भेड़ समझती
मैं सिंह हूं
ऐसा झपट्टा
मारूंगी
काटने वाले पर
कि छठी का दूध
याद आ जाएगा।
मुझे कौन काट
सकता है? यह
बेचारी भेड़ है,
रें—रें
करके काटी जा
रही है! और यह
भेड़ भी कल तक यही
सोचती रही थी
जब दूसरी
भेड़ें कट रही
थीं कि मैं
सिंह हूं कि
मैं मनुष्य
हूं कि मैं
जादूगर हूं, कि मैं यह
हूं कि मैं वह
हूं। उस दिन
से भेड़ों ने
भागना बंद कर
दिया।
गुरजिएफ
कहता था आदमी
करीब—करीब ऐसी
हालत में है।
तुम सोए हो, गहन
निद्रा में
सोए हो।
आध्यात्मिक
अर्थों में
सोने का अर्थ
समझ लेना।
सोने का अर्थ
यह नहीं होता
कि जब तुम रात
को बिस्तर पर
आख बंद करके
सोते हो तभी
सोते हो। वह
शारीरिक
निद्रा है।
आध्यात्मिक
निद्रा का
अर्थ होता है, जिसको
स्वयं का पता
नहीं हैं वह
सोया है।
महावीर
से किसी ने
पूछा है मुनि
की क्या
परिभाषा? तो
मुनि की
परिभाषा में
महावीर ने कहा
असुत्ता मुनि।
जो सोया नहीं
है वह मुनि।
और फिर उसने
पूछा कि अमुनि
की क्या
परिभाषा? तो
महावीर ने कहा
सुत्ता अमुनि।
जो सोया है वह
अमुनि।
प्यारी
परिभाषा की।
इसमें जैन
धर्म कहीं आया
ही नहीं। असल
में महावीर
जैसे व्यक्तियों
के पास जैन, बौद्ध,
ईसाई जैसी
बातें नहीं
आतीं, होती
ही नहीं।
किसी
जैन मुनि से
पूछो कि मुनि
यानी कौन? तो
अगर वह मुंह—पट्टी
वाला है तो
पहले तो कहेगा—
जो मुंह पर
पट्टी बांधता
हो। अगर वह
दिगंबर है तो
कहेगा— जो
नग्न हो, जो
एकाहारी हो, जो भिक्षा
मांग कर लाता
हो, जो तीन
वस्त्रों से
ज्यादा पास न
रखता हो।
श्वेतांबर है
तो— जो सफेद
कपड़े पहनता हो।
इस तरह की
परिभाषाएं
करेंगे ये लोग।
महावीर की
परिभाषा इनसे
न हो सकेगी।
ये खुद ही
जागे नहीं हैं,
ये क्या खाक
कहेंगे—
असुत्ता मुनि—
कि जिसकी नींद
टूट गई है वह
मुनि; और
जो अभी भी सो
रहा है वह
अमुनि। फिर
चाहे तुम नंगे
ही क्यों न सो
रहे हो, इससे
क्या फर्क
पड़ता है! इसका
मतलब हुआ कि
दिगंबर सो रहे
हो।
बहुत
से लोग सोते
हैं नंगे।
पश्चिम में तो
सारे लोग नंगे
ही सोते हैं।
इधर शायद भारत
को छोड़ कर
दुनिया में
कोई कौम नहीं
है जो नंगी न
सोती हो।
क्योंकि कपड़े
पहने सोना, यह
भी कोई सोना
है! पजामा
बंधा है जोर
से, धोती
बंधी है। वह
तो तुम बड़ी
कृपा करते हो
कि टोपी और
जूते उतार
देते हो। और
स्त्रियां
बांधे हुए हैं
कपड़ों पर कपड़े
और सो रही हैं।
शरीर को
विश्राम तक
नहीं लेने
देते।
तो
कोई दिगंबर हो, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। नंगा सो
रहा है। कोई
कपड़ों में सो
रहा है। कोई
सफेद कपड़ों
में सो रहा है—
श्वेतांबर।
कोई मुंह पर
पट्टी बांध कर
सो रहा है।
पता नहीं
किसको धोखा
दिया जा रहा
है! इतने सस्ते
अगर कोई मुनि
हो सकते होते
तो दुनिया मुनियों
से भर गई होती।
इतनी आसानी से
कोई मुनि नहीं
होता।
मुनि
की परिभाषा
महावीर की ठीक
है जागो! फिर जागने
का क्या अर्थ
लें?
तुम्हें और
सब तो दिखाई
पड़ता है, सिर्फ
तुम ही नहीं
दिखाई पड़ते।
देखने वाला भर
दिखाई नहीं
पड़ता। इसलिए
जागने की
परिभाषा है
देखने वाले को
जो देख ले; जो
स्वयं को
पहचान ले, जो
अंतर्मुखी हो
जाए।
दूसरों
को देख रहे हो
और सोच रहे हो
कि तुम जागे
हो। वे
तुम्हें देख
रहे हैं और
सोच रहे हैं
कि जागे हैं।
न उन्हें उनका
पता है, न
तुम्हें अपना
पता है। कोई
अगर पूछता है,
आप कौन? तो
जल्दी से नाम
बता दिया, जाति
बता दी, देश
बता दिया, पासपोर्ट
निकाल कर बता
दिया, आइडेंटिटी
कॉर्ड बता
दिया। ये तुम
कोई भी नहीं
हो। ये सब
सांयोगिक
बातें हैं कि
तुम भारत में
पैदा हुए।
पाकिस्तान
में हो सकते
थे, चीन
में हो सकते
थे। यह
सांयोगिक बात
है कि
तुम्हारे मां—बाप
ने तुम्हारा
नाम राम रख
दिया; तुम्हारा
नाम कृष्ण हो
सकता था।
एक
हिंदू को मैं
जानता हूं
उनका नाम है
रामप्रसाद, था
कहना चाहिए।
फिर वे
मुसलमान हो गए,
उनका नाम हो
गया—
खुदाबख्या।
वे मुझसे
मिलने आए।
मैंने पूछा :
कहो
रामप्रसाद
कैसे हो? उन्होंने
कहा.
रामप्रसाद अब
मेरा नाम नहीं
मैं मुसलमान
हो गया। बहुत
दिन रह लिया
शूद्र
हिंदुओं में,
बरदाश्त के
बाहर हो गया।
बहुत
अत्याचार हुआ
मेरे ऊपर।
तो
मैंने कहा अब
तुम्हारा नाम? उन्होंने
कहा
खुदाबख्या।
मैंने कहा :
बड़ी हैरानी की
बात है।
खुदाबख्या का
वही मतलब होता
है जो
रामप्रसाद का।
राम का प्रसाद
कहो या खुदा
की बख्याशि
कहो, एक ही
बात है। क्या
खाक बदले तुम
भी— रामप्रसाद
से बदले तो
खुदाबख्या हो
गए! कुएं से
निकले तो खाई
में गिर गए।
नाम
बदलने से क्या
होगा? नाम तुम
हो ही नहीं, तो कितना ही
बदल लो। न तुम
नाम हो, न
तुम जाति हो, न तुम वर्ण
हो, न तुम
धर्म हो। मंदिर
जाओ कि मस्जिद,
अगर सोए हो
तो सोए—सोए
मंदिर जाओगे,
सोए—सोए
मस्जिद जाओगे।
सवाल जागने का
है। तुम्हें
पता ही नहीं
कि तुम कौन हो।
लेकिन धोखा दे
दिया गया है।
नाम पकड़ा दिया
तो तुम सोचते
हो कि यही नाम
मैं हूं। उसी
नाम को लेकर
जिंदगी भर
गुजार लोगे।
कभी सोचोगे भी
कि नहीं, नाम
मैं कैसे हो
सकता हूं?
अनाम
पैदा होते हैं
सभी बच्चे।
किसी बच्चे से
तो पूछो पैदा
होते से ही कि
भई तेरा नाम? कहां
से आ रहे हो? कौन हो? जाति?
वह चुप ही
रहेगा। उसको
नाम, जाति,
धर्म
इत्यादि
सीखने में दों—चार
साल लग जाएंगे।
तुमने
एक मजे की बात
देखी—छोटे—छोटे
बच्चे शुरू—शुरू
में एक बड़े
महत्व की बात
कहते हैं।
जैसे तुमने
बच्चे का नाम
मुन्ना रख
दिया, तो जब
बच्चे को भूख
लगती है तो वह
कहता है, मुन्ना
को भूख लगी है।
यही बड़ी
महत्वपूर्ण
बात है। अभी
उसका
तादात्म्य
नहीं हुआ है
मुन्ना से।
अभी वह मुन्ना
को अलग मानता
है। वह कहता
है, मुन्ना
को भूख लगी है।
वह यह नहीं
कहता, मुझे
भूख लगी है।
अभी मैं और
मुन्ना में
भेद है। धीरे—
धीरे भेद मिट
जाएगा। जब भी
मुन्ना को भूख
लगेगी बाद में,
तब तक वह
मुन्नालाल हो
जाएगा, तो
वह कहेगा, मुझे
भूख लगी है।
लेकिन सच यह
है कि बच्चा
ज्यादा ठीक कह
रहा था कि मुन्ना
को भूख लगी।
मैं तो देखने
वाला हूं कि
मुन्ना को भूख
लगी।
स्वामी
राम ऐसे ही
बोलने लगे थे।
वे यह नहीं
कहते थे, मुझे
प्यास लगी है,
वे कहते थे,
राम को
प्यास लगी है,
राम को भूख
लगी है। एक
जगह अमरीका
में कुछ लोगों
ने उन्हें
बहुत गालियां
दीं, अपमान
किया। वे खड़े
हंसते रहे। एक
आदमी ने पूछा
कि आप हंस
क्यों रहे हैं?
आपकी समझ
में नहीं आ
रहा, हम
गाली दे रहे
हैं?
उन्होंने
कहा राम को
तुम जितनी
चाहो गाली दो, मेरा
क्या लेना—देना?
मेरा कोई
नाम ही नहीं
है। अनाम पैदा
हुआ, अनाम
हूं अनाम
जाऊंगा। राम
से अपना लेना—देना
क्या है? तुम
दे रहे हो
गाली, मैं
मस्त हो रहा
हूं। मैं देख
रहा हूं कि
अजीब हैं ये
लोग भी, किसको
गाली दे रहे
हैं जो है ही
नहीं! किस राम
की बात चल रही
है? तुम
मुझे गाली दे
ही नहीं सकते,
क्योंकि
तुम्हें मेरा
नाम ही पता नहीं
है। तुम मेरा
अपमान नहीं कर
सकते, क्योंकि
तुम्हें मेरा
नाम ही पता
नहीं है। तुम
मेरे मुंह पर
भी अगर कालिख
पोत दो तो वह
मुझ पर नहीं
लगेगी, क्योंकि
मैं शरीर नहीं
हूं। मेरा
अंतर्तम तो
वैसा ही
उज्जवल रहेगा,
वैसा ही
स्वच्छ।
तुम्हारे हाथ
ही खराब होंगे।
अब तुम अपनी
जबान ही खराब
कर रहे हो
गालियां देकर।
मैं देख रहा
हूं कि बेचारे
कितनी मेहनत
कर रहे हैं, किसको गाली
दे रहे हैं—जो
है ही नहीं, जो केवल एक
कल्पनामात्र
है!
नाम
सब कल्पित हैं।
मगर हम
कल्पनाओं को
अपना मान लेते
हैं। हमारा
जागना कल्पित
है। और इस
कल्पना में ही
हम भटक लेते
हैं और इसी
कल्पना में
जीते जी मर जाते
हैं।
क्या
तू सोया जाब
अयाना। तै
जीवन जगि सचु
करि जाना।।
जो
जागा उसने ही
जीवन के सत्य
को जाना है।
जिनि
दिया सु रिजकु
अंबराबै।
जीवन
मिला है और
तुम केवल
जीविका ही
जुटा रहे हो!
जीवन बस
जीविका
जुटाने में बिता
दोगे? रोटी—रोजी—कपड़ा—मकान..
और मैं नहीं
कहता कि यह
जरूरी नहीं है।
रोटी भी जरूरी
है, कपड़ा
भी जरूरी है, मकान भी
जरूरी है; मगर
और भी जरूरतें
हैं, इससे
भी बड़ी
जरूरतें हैं।
ये सीढ़ियां
हैं, इनका
उपयोग कर लो, लेकिन मंदिर
को मत भूल
जाना! जीविका
कमा लेना जीवन
नहीं है।
जीविका तो
शरीर के लिए
जरूरी है और
जीवन तो आत्मा
का होता है।
सब घट
भीतरि हाटु
चलावै।।
जरा
उसको तो देखो
जो सबके घटों
के भीतर श्वास
को चला रहा है, जीवन
को चला रहा है।
उस चलाने वाले
को पहचानो, कि बाहर ही
उलझे रहोगे?
युद्ध
के समय सेना
में जबरदस्ती
लोगों को
भर्ती किया जा
रहा था।
उन्हीं लोगों
में मुल्ला
नसरुद्दीन को
भी पकड़ लाया
गया था।
मुल्ला को सभी
परीक्षणों से
गुजारा गया और
उसने सभी
परीक्षणों से
बचने की कोशिश
की। गलत—सही
जवाब दिए, उलटे—सीधे
उत्तर लिखे, मगर फिर भी
उसे खरा साबित
कर दिया गया।
उन्हें तो
भर्ती करना ही
था। मुल्ला
परेशान था, क्योंकि वह
सेना में
भर्ती नहीं
होना चाहता था।
अंतिम
परीक्षण
नेत्र—परीक्षण
था। मुल्ला को
एक बड़े बोर्ड
के समक्ष ले
जाया गया, जिस
पर वर्णमाला
के अनेक अक्षर,
अनेक चिह्न,
अनेक
प्रकार के
निशान बने हुए
थे।
अच्छा
यह तो बताओ
जरा
नसरुद्दीन कि
यह कौन सा अक्षर
है?
चुनाव
अधिकारी ने एक
अक्षर की ओर
इशारा करते हुए
नसरुद्दीन से
पूछा। मुल्ला
ने इनकार में
सिर हिलाते
हुए कहा महोदय,
मुझे कुछ भी
स्पष्ट दिखाई
नहीं दे रहा
कि वह क्या है।
अधिकारी ने
पूछा कि
तुम्हें
दिखाई नहीं पड़
रहा है अक्षर?
मुल्ला ने
कहा अक्षर!
मुझे बोर्ड
नहीं दिखाई पड़
रहा। अधिकारी
ने बड़े बोर्ड
बुलवाए। बड़े—
बड़े अक्षरों
वाले बोर्ड।
मगर वह हमेशा
यही कहे, मुझे
कुछ दिखाई
नहीं पड़ रहा—
कहां बोर्ड है?
कहां अक्षर
है?
हार
कर
अधिकारियों
ने... कुछ सूझा
नहीं तो अंततः
एक थाली
बुलवाई और चिढ़
कर मुल्ला से
पूछा, नसरुद्दीन!
हाथ में रखो, देखो इसको, अब तो बता दो
कि यह क्या है?
या कि इसे
भी नहीं
पहचानते? नसरुद्दीन
ने गौर से
देखा थाली को
और कहा. अरे, यह मेरी
अठन्नी कहां
मिली आपको!
इसे मैं तीन दिन
से खोज रहा
हूं।
सिर
ठोक लिया अधिकारियों
ने— कहा, ठीक
है। छुट्टी
पाई वहां से।
नसरुद्दीन
बाहर निकला
प्रसन्नता
में, पास
ही जाकर एक
मेटिनी शो में
बैठ गया। जब
इंटरवल हुआ और
प्रकाश हुआ तो
वह देख कर चकित
हुआ कि बगल
में वही
अधिकारी बैठा
हुआ है। उसके
तो प्राण निकल
गए! इसके पहले
कि अधिकारी कुछ
कहे— कि
तुम्हें थाली
अठन्नी दिखाई
पड़ती थी और
इतने दूर बैठ
कर तुम्हें
फिल्म मजे से
दिखाई पड़ रही
है; और
बोर्ड
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता था, अक्षर
की तो बात ही
क्या थी— इसके
पहले कि
अधिकारी कुछ
कहे, अधिकारी
कहने ही कहने
को था कि
नसरुद्दीन ने
कहा कि महोदय,
यह बस कहां
जा रही है?
धोखा
ही देने पर
तुले हो तो
बात दूसरी है।
और दूसरों को
दे रहे होते
धोखा तो भी
ठीक था अपने
को ही दे रहे
हो,
और दिए चले
जाते हो। रोज—रोज
नये—नये धोखे
ईजाद करने
पड़ते हैं, क्योंकि
पुराने धोखे
बासी पड़ जाते
हैं। एक पत्नी
से ऊब गए तो
दूसरी स्त्री
में रस लेने
लगते हो। एक
पति से ऊब गए
तो दूसरे
पुरुष में रस
लेने लगते हो।
एक भोजन से ऊब
गए तो दूसरा
भोजन, एक
मकान से ऊब गए
तो दूसरा
खरीदने का
सोचने लगते हो।
एक
धोखा टूट नहीं
पाता कि तुम
नये धोखे खड़े
कर लेते हो।
अगर धोखा देना
ही तय कर रखा
है,
तब तो बात
और है। मगर तब
खयाल रखना, यह धोखे की
आदत जन्मों—जन्मों
तक भटकाएगी
सडाएगी, गलाकी।
जिनि दिया
सु रिजकु
अंबराबै। सब
घट भीतरि हाटु
चलावै।।
उस
मालिक को
पहचानो, जो सब
घटों के घट
में विराजमान
है।
करि
बंदिगी छांडि
मैं मेरा।
रैदास
कहते हैं मैंने
तो एक ही
प्रार्थना
जानी— जिस दिन
मैंने 'मैं' और 'मेरा'
छोड़ दिया।
वही बदगी है।
करि
बंदिगी छांडि
मैं मेरा।
हिरदे नामु
सम्हारि
सबेरा।।
यह
बड़ा प्यारा
वचन है। कहते
हैं जिस दिन
मैंने मैं और
मेरा छोड़ दिया।
क्योंकि मैं
भी धोखा है और
मेरा भी धोखा
है। जब मैं भी
नहीं रहता और
कुछ मेरा भी
नहीं रहता, तब
जो शेष रह
जाता है
तुम्हारे
भीतर, वही
तुम हो, वही
तुम्हारी
ज्योति है—
शाश्वत, अंनत,
असीम।
तत्वमसि! वही
परमात्मा है।
बंदगी की यह
परिभाषा कि
मैं और मेरा
छूट जाए, तो
सच्ची बंदगी।
हिरदे
नामु सम्हारि
सबेरा।।
इसलिए
जल्दी करो।
हृदय में
सम्हालना ही
हो तो
परमात्मा के
नाम को
सम्हालों, अपने
नाम को छोड़ो।
अपने को छोड़ो
और परमात्मा
को सम्हालो।
अंहकार छोड़ो,
परमात्मा
को विराजमान
करो।
इस
वाक्य के दो
अर्थ हो सकते
हैं। सबेरा का
अर्थ जल्दी भी
होता है कि
जल्दी करो। और
सबेरा का अर्थ
सबेरा भी होता
है— सुबह।
हिरदे
नामु सम्हारि
सबेरा।।
जिस
दिन तुमने
अपने भीतर
प्रभु को
सम्हाल लिया
उसी दिन सुबह
हो गई; उसके
पहले तुम रात
में ही रहे—
रात ही रात थी,
लंबी रात थी,
जन्मों—जन्मों
की रात थी। यह
जो रोज सूरज
ऊगता है, इससे
सुबह नहीं
होती।
जब
तक तुम्हारे
भीतर प्रभु का
पर्दापण न हो
तब तक सुबह के
धोखे में मत
पड़ना। बाहर की
सुबह सुबह
नहीं है, बाहर
का सबेरा
सबेरा नहीं है।
बाहर का सबेरा
तुम्हारा
अंधेरा नहीं
काट सकेगा।
भीतर का सबेरा
चाहिए।
बंदगी
में तुम क्या
करते हो लेकिन? मैं
और मेरा तो
छोड़ते ही नहीं,
मैं और मेरा
बढ़ाने के लिए
प्रार्थना
करते हो।
तुम्हारी
बंदगी भी अजीब
है। तुमने
उलटी बंदगी कर
ली। खोपड़ी ही
जैसे लोगों की
उलटी है।
प्रार्थना
करने जाते हैं
तो मांगते हैं
कि और धन दे, और दौलत दे, यश मिले, सम्मान
मिले, चुनाव
जीत जाऊं, लाटरी
का नंबर खुल
जाए। लोग
प्रार्थना
में भी
प्रार्थना
नहीं करते—
वही पुरानी
मूढ़ता, उसी
की पुनरुक्ति।
जिसने बदगी
जानी है वह
कुछ और ही तरह
की बात जान
लेता है।
अपने
ही हाथ से दे—दे
जो तुझे देना
है
मेरी
तशहीर न फर्मा
मुझे साइल न
बना
जिसने
बंदगी जानी वह
कहता है. जो
तुझे देना हो अपने
ही हाथ से दे देना, न
देना हो न
देना। अपने ही
हाथ से दे—दे
तुझे जो देना
है
मेरी
तशहीर न
फर्मा.......
नाहक
मुझसे
ढिंढोरा न
पिटवा।
....... मुझे
साइल न बना
और
मुझे भिक्षु न
बना,
मुझे
भिखारी न बना,
मुझे
मांगने को
मजबूर मत कर।
हो तेरी मर्जी
तो दे दे, जो
देना हो दे दे।
तू जो दे दे
मैं उसमें
राजी हूं
क्योंकि जो तू
देगा वही शुभ
है। और जो मैं
मांग्ता—
अंधेरे में, अंधेपन में,
बेहोशी में—वह
अशुभ होगा।
मेरे मांगे का
क्या! मेरे
मांगे में तो
गलतियां ही
होने वाली हैं।
जनमु
सिरानो पंथु न
संवारा।
मैं
क्या मांग
तुझसे! जन्म
बीत गया, अभी
तक अपना पथ भी
नहीं खोज सका,
अभी तक पंथ
भी न संवार
सका।
सांझ परी
दह दिसि
अंधियारा।
और सांझ
होने के करीब
आने लगी, जल्दी
ही दसों
दिशाओं में
अंधेरा छा
जाएगा। क्या
मांग तुझसे? मैं जो
मांगूंगा, क्षुद्र
ही होगा, व्यर्थ
ही होगा। इसी
क्षुद्र में डूबा—डूबा
तो समाप्त हुआ
हूं।
थोड़ी
तंबाकू और
डालिए, ढ़ब्बू
जी बोले।
पनवाड़ी ने पान
में कहे
अनुसार
तंबाकू डाल दी।
यार जरा लौंग
और पिपरमेंट
भी थोड़ा तेज।
पान वाले ने
वैसा ही किया।
ढ़ब्बू जी
बोले अरे
गुलकंद लगाना
तो भूल ही गए
भाई! पान वाले
ने अनमने भाव
से गुलकंद लगा
दिया। अब ऐसा
करो एक इलायची
और डालो, कुछ
स्वाद तो आए
कम से कम— ढ़ब्बू
जी बोले।
इलायची डाले
जाने पर
उन्होंने पुन:
प्रार्थना की,
अरे पनवाड़ी
जी, यदि
पान—बहार
मसाला हो तो
थोड़ा वह भी
डालिए न और
जरा चमन—बहार
तेज! दुकानदार
से अब रहा न
गया। गुस्से
में किड़किड़ाते
हुए बोला और
जनाब यदि आप
आदेश दें तो
आपका यह
पच्चीस पैसे
का सिक्का भी
इसी में डाल
दूं!
मांगोगे
क्या? मांगने
योग्य
तुम्हारे पास
समझ कहां? तुम
जो मांगोगे
गलत होगा।
तुम्हारी सब
मांगें गलत
हैं। और जो
तुम पाओगे वह
भी बस यही
होगा जो तुम
मांगोगे।
पच्चीस पैसे का
सिक्का आखिर
में हाथ लगेगा।
लोग
यही मांग रहे
हैं। मंदिरों
में जाकर
लोगों की
प्रार्थनाएं
सुनो, मस्जिदों
में उनके उठे
हुए हाथ देखो।
झोली फैलाए
हुए हैं, भिखारी
बने हैं।
नहीं, परमात्मा
से कुछ भी
मांगना नहीं
है। उससे तो
कहना. जो तेरी
मर्जी हो वह
कर! तेरी मर्जी
पूरी हो! तो
मेरा पंथ संवर
जाए!
सांझ परी
दह दिसि
अंधियारा।
अंधियारा
घिरने लगा है, सांझ
होने लगी है।
कुछ सम्हाल
नहीं पाया।
नहीं कि
शास्त्र नहीं
पढ़े — पढ़े।
नहीं कि
गुरुओं के वचन
नहीं सुने—
सुने। मगर
शास्त्र हों
कि गुरु हों, अर्थ तो तुम
अपने निकाल
लेते हो। और
तुम्हारे
अर्थ बस
तुम्हारे
अर्थ हैं। न
उसका कृष्ण से
कोई संबंध है,
न बुद्ध से,
न जीसस से, न मोहम्मद
से।
एक
दिन मटकानाथ
ब्रह्मचारी
अपने मित्र
भोंदूमल को
शान—दान कर
रहे थे।
भोंदूमल की
जीवनचर्या की
बहुत आलोचना
कर रहे थे।
उसने उसे अनेक
उपदेश दिए, धर्मोपदेश
दिए। अंत में
उन्होंने
जीवन में
ब्रह्मचर्य
का महत्व और
ब्रह्ममुहूर्त
में जागने के
आध्यात्मिक
लाभों पर
प्रकाश डालने
के बाद पूछा :
सच—सच कहो
भोंदूमल, तुम
सोकर कब उठते
हो?
उपदेश
और सलाह—मशवरे
सुन—सुन कर थक
चुके भोंदूमल
ने रोती सी
आवाज में जवाब
दिया, आप
मानेंगे नहीं,
लेकिन सच
कहता हूं जैसे
ही सूरज की
किरणें मेरे
कमरे में
प्रवेश करती
हैं मैं फौरन
जाग जाता हूं।
फिर
झूठ बोले—मटकानाथ
ब्रह्मचारी
का क्रोध भड़क
उठा—सरासर झूठ
बोलते हुए
तुझे शर्म नही
आती?
वाह रे
निशाचर, सारा
गांव जानता है
कि तुम दिन भर
सोते हो और
शाम को चार
बजे सोकर उठते
हो। अरे
कुंभकरण, कुछ
तो लाज करो!
ईश्वर
की सौगंध खाकर
कहता हूं मैं
झूठ नहीं बोलता—
भोंदूमल ने
सफाई दी। मेरे
कमरे के
दरवाजे—खिड़कियों
का मुंह
पश्चिम दिशा
की ओर है, मैं
क्या करूं!
उठता हूं तभी
जब सूरज की
किरणें मेरे मुंह
पर पड़ती हैं।
अब मकान ही
गलत बना है तो
उसमें मेरा
क्या कसूर है?
अर्थ
तो तुम
निकालोगे
अपने!
ब्रह्ममुहूर्त
शब्द में क्या
अर्थ होगा? तुम
अपना अर्थ
डालोगे।
ब्रह्मचर्य
में तुम अपना
अर्थ डालोगे।
प्रार्थना
तुम अपनी गढ़
लोगे। पूजा
तुम अपनी बना
लोगे। भगवान
गढ़ लिए हैं
तुमने।
मिट्टी—पत्थर
के खिलौनों की
तुम पूजा कर
रहे हो। और
तुम्हें कभी
समझ भी नहीं
आती, सोच
भी नहीं आता
कि हम क्या
करने में लगे
हैं। संसार
में धोखा खा
रहे हो, धोखा
दे रहे हो; धर्म
के नाम पर भी
धोखा दे रहे
हो और धोखा खा
रहे हो।
अब
जागो! कहीं
ऐसा न हो कि
सांझ आ जाए और
दसों दिशाओं
से अंधेरा घिर
जाए। सांझ आ
ही रही है और
अंधेरा भी
घिरेगा ही।
कह रविदास
नदान दिवाने।
ऐ
पागल, ऐं
नादान!
चेतसि
नाही दुनिया
फनखाने।।
यह
दुनिया तो
नाशवान है, तू
चेतता नहीं!
तुम
टालते हो। तुम
कहते हो, चेतेंगे,
जरूर
चेतेंगे! तो
पहला तो धोखा
यह कि कुछ लोग
मानते हैं कि
वे चेत ही गए
हैं। यही नहीं,
वे दूसरों
को चेताने में
लगे हैं। खुद
तो चेत ही गए
हैं, अब
दूसरों को
चेताना है।
दूसरा धोखा यह
कि अगर आज
नहीं चेते हैं
तो कल चेत
जाएंगे, अभी
जल्दी क्या है?
अभी कोई
सांझ हुई नहीं
जाती। और ऐसे
ही तुम कल भी
कह रहे थे; ऐसे
ही तुम आज भी
कह रहे हो, और
ऐसे ही तुम कल
भी कहोगे।
चेताने वाले
हार—हार जाएं
तो भी तुम
अपनी आदतों
में जड़ हो गए
हो।
इलाहाबाद
के पंडित बड़े
ही प्रसिद्ध
हैं। एक
इलाहाबादी
पंडित अपने
जजमान के यहां
भोजन करने
पहुंचे। वह
जजमान उन्हें
बुला कर तो
बड़ी परेशानी
में पड़ गया, क्योंकि
पंडित जी धीरे—
धीरे पूरी
रसोई साफ कर
गए। घर के
सारे भोज्य
पदार्थ खत्म
होने लगे। अब
जजमान बड़ी
मुसीबत में, यह बात कैसे
छिपाए कि अब
घर में भोजन
खत्म होने को
है! तो उसने
पंडित जी से
कहा : पंडित जी,
पानी—वानी
भी तो पीजिए।
पानी तो आपने
अभी तक पीआ ही
नहीं!
पंडित
जी हंसते हुए
बोले : हें—हें—हें!
जजमान, पानी
तो मैं आधा
भोजन करने के
बाद ही पीता
हूं।
तुम
भी टाले जाते
हो। अभी आधा
भोजन ही नहीं
हुआ है, अभी
जागने का सवाल
क्या! अभी तो
तुम्हारा मन कहता
है, अभी तो
मैं जवान हूं!
अभी जागने की
बात! ये तो
बुढ़ापे की
बातें हैं, ये तो
वृद्धावस्था
की बातें हैं।
जब जिंदगी हाथ
से छूटने लगती
है तब जाग
लेंगे; अभी
तो भोग लें।
दो घड़ी की जिंदगी
है— खा लें, पी
लें, मौज
कर लें। अभी
कहां जागना
है! अभी यह
कहां जागने की
झंझट! कहीं
जाग गए तो फिर
कैसे खाएंगे—पीएंगे,
मौज कैसे
करेंगे?
ऐसे
ही खाते—पीते, मौज
करते तुम
कितनी बार जीए
और कितनी बार
मरे! और मौज भी
क्या कर रहे
हो? खाने—पीने
में भी
तुम्हारी
क्या मौज हो
सकती है? मौज
तो सिर्फ एक
है जो भीतर
जगती है और
भीतर जगे मौज
तो खाने में
भी होती है
फिर, पीने
में भी होती
है फिर, उठने—बैठने
में भी होती
है। श्वास—श्वास
लेना आनंद का
एक अदभुत
अनुभव हो जाता
है। लेकिन मौज
तो भीतर नहीं
है।
अब
यह जो पंडित
जी हैं, जो
आधा भोजन करने
के बाद पानी
पीएंगे, यह
कुछ मौज कर
रहे हैं? एक
ऐसी कहानी
मैंने और सुनी
है। एक युवती
विवाहित होकर
आई। जिससे
विवाह हुआ था
वह भी पहुंचे
हुए पंडित थे।
लेने आए अपनी
पत्नी को
ससुराल, तो
वे एक पूरी का
एक ही कौर
करते थे। इधर
पूरी परसी
नहीं गई कि
उधर खत्म। वह
परसने वाली जब
तक लौट कर
देखे, पूरी
नदारद! पत्नी
छुप कर देख
रही थी, बेचारी
को शर्म आने
लगी कि लोग
क्या कहेंगे
कि ऐसा पति
मिला। तो उसने
वहीं कोने से
इशारा किया दो
अंगुली का, कि कम से कम
दो टुकड़े तो
करो! पंडित जी
समझे कि वह यह
कह रही है कि
यह रिवाज ठीक
नहीं है, हमारे
यहां तो दो
पूरी एक साथ...।
सो वे दो पूरी
का एक कौर
करने लगे।
उनकी
पत्नी ने तो
सिर ठोक लिया।
रात जब पत्नी
मिली तो उसने
कहा तुमने तो
हद कर दी! पहले
ही ठीक थे। कम
से कम एक कौर
तो कर रहे थे
एक पूरी का।
मैंने कहा था
कि दो कौर करो
और तुमने दो
शइरयों का एक
कौर करना शुरू
कर दिया!
पति
ने कहा तुझे
पता नहीं कि
हम किस परिवार
से हैं। रघुकुल
रीति सदा चलि
आई! मैं तो कुछ
भी नहीं हूं
मेरे
स्वर्गवासी
पिता थे कि जब
भी कहीं किसी
के यहां भोजन
करने जाते थे
तो उनको
बैलगाड़ी में
डाल कर वापस
घर लाना पड़ता
था। एक बार तो
उनकी हालत
इतनी खराब हो
गई थी कि जब बैलगाड़ी
में उनको किसी
तरह डाल कर घर
लाया गया तो
वैद्य बुलाना
पड़ा। वैद्य ने
गोली दी तो
उन्होंने आख
खोल कर कहा कि
वैद्यराज, अगर
गोली ही खाने
की जगह होती
तो एक लड्ड और
न खा लेते! अब
जगह कहां!
इस
तरह के लोग
तुम सोचते हो
भोग रहे हैं? सड़
रहे हैं भोग
के नाम पर!
इनके चेहरों
पर कोई आनंद
तो दिखाई नहीं
पड़ता। इनकी आंखों
में कोई रस तो
नहीं बहता
मालूम होता।
इनके आस—पास
कोई तरंग तो
नहीं है
उल्लास की, उत्सव की।
खाए जा रहे
हैं, क्योंकि
भीतर खालीपन
लगता है, उसको
किसी तरह भरना
है। और कितना
ही खाओ, भीतर
का खालीपन
भरेगा नहीं, क्योंकि
खालीपन
तुम्हारी
आत्मा में है,
वह केवल
परमात्मा के
उतरने से
भरेगा और किसी
तरह नहीं भर
सकता। कोई
अपनी तिजोड़ी
में धन इकट्ठा
कर रहा है और सोच
रहा है इस तरह
भर जाएगा। कोई
बड़े मकान
बनाता जा रहा
है और सोच रहा
है इस तरह
जीवन में अर्थ
आ जाएगा।
नहीं; अर्थ
तो सिर्फ एक
ही तरह से आता
है— सिर्फ एक
ही तरह से और केवल
एक ही तरह से—
कि तुम किसी
तरह परमात्मा
से संयुक्त हो
जाओ! और
संयुक्त होने
का एक ही उपाय
है: चेतो।
चेतसि
नाही दुनिया
फनखाने।।
यहां
तो अंधेरा ही
अंधेरा है, सपने
ही सपने हैं।
सब नाशवान है,
सब झूठ है।
इस परिभाषा को
खयाल में रखना।
मनीषियों ने
सत्य उसे कहा
है जो सदा रहे
और असत्य उसे
कहा है जो
क्षणभंगुर हो।
बुझा
दे ऐ हवाए—तुद
मदफन के
चिरागों को
सियह—बस्ती
में ये एक
बदनुमा धब्बा
लगाते हैं
मुरत्तब
कर गया इक
इश्क का कानून
दुनिया में
वो
दीवाने हैं जो
मजनू को
दीवाना बताते
हैं
उसी
महफिल से मैं
रोता हुआ आया
हूं ऐ 'आसी'
इशारों
में जहां
लाखों
मुकद्दर बदले
जाते हैं
बुझा
दे ऐ हवाए—तुद..
ऐ
तेज हवा, बुझा
दे।
मदफन
के चिरागों को
ये
समाधि पर जो
चिराग जलाए
हैं,
ऐं तेज हवा,
इनको बुझा
दे।
सियह—बस्ती
में ये एक
बदनुमा धब्बा
लगाते हैं
इस
अंधेरे की
दुनिया में इन
चिरणों से
धब्बा लगता है।
ये चिराग
अच्छे नहीं
लगते इस
अंधेरी
दुनिया में।
और
लोग भी अजीब
हैं,
समाधि पर
चिराग जलाते
हैं! जब आदमी
मर गया तब उसकी
समाधि पर चिराग
जलाते हैं।
अरे चिराग
जलाओ अपने
भीतर— जब
जिंदा हो तब!
जिंदगी का
चिराग बनाओ।
बुझा
दे ऐं हवाए—तुंद
मदफन के
चिरागों को
सियह—बस्ती
में ये एक
बदनुमा धब्बा
लगाते हैं
मुरत्तब
कर गया इक
इश्क का कानून
दुनिया में
वो
दीवाने हैं जो
मजनू को
दीवाना बताते
हैं
और
जिन्होंने
मजनू को
दीवाना बताया
है,
वे दीवाने
हैं; उन्हें
पता ही नहीं
जीवन के सत्य
का। मजनू नहीं
है दीवाना—उसे
प्रेम का राज
पता चल गया है।
स्मरण
रखना, लैला और
मजनू की कहानी
एक सूफी कहानी
है। गलत लोगों
के हाथ में पड़
कर बदनाम हो
गई। लैला
प्रतीक है
परमात्मा का
और मजनू
प्रतीक है
साधक का, खोजी
का। यह एक
सूफी कहानी है,
लेकिन
बरबाद हो गई।
गलत
लोगों के हाथ
में श्रेष्ठतम
चीजें पड़ जाएं
तो बरबाद हो
जाती हैं।
गंदे हाथों
में सुगंधित
फूल भी
दुर्गंध से भर
जाते हैं। अब
तो लैला—मजनू
की कहानी
साधारण प्रेम
की कहानी हो
गई है। यह
असाधारण
प्रार्थना की
कहानी है।
उसी
महफिल से मैं
रोता हुआ आया
हूं ऐ 'आसी'
इशारों
में जहां
लाखों मुकद्दर
बदले जाते हैं
रोते
हुए मत जाना
इस महफिल से।
जाग सको तो
मुकद्दर बदल
जाए,
चेत सको तो
भाग्य बदल जाए।
ऊंचे
मंदिर,
सालि रसोई।
बनाओ
बड़े—बड़े मंदिर, चढ़ाओ
बड़े—बड़े पकवान—
सब झूठ! जब तक
चेतना का
मंदिर न हो, जब तक ध्यान
का भोजन न हो, तब तक
तुम्हारी
मंदिर से कोई
पहचान ही नहीं
है, तीर्थ
से तुम्हारा
कोई संबंध ही
नहीं है।
एक घरी
पुनि रहन न
होई।।
ये
मंदिर गिर
जाएंगे। ये
मंदिर भी
मिट्टी—रेत के
बने हैं। ये
मूर्तियां भी
बिखर जाएंगी।
इह
ततु स्टेका
जैके ताक की टाठी।
यह
शरीर तो घास—पात
है।
लील
गयी ताक मील
ठावो माठी।।
जल्दी
ही घास जल
जाएगा और
मिट्टी में
मिल जाएगा।
भाई बंधरू
कुटंब सहेरा।
भाई
बंधु, परिवार के
लोग, संगी—साथी, सखा......
ओई भी लागे
काढ़ सबेरा।।
जैसे
ही श्वास उड़ी, पंछी
उड़ा, पिंजड़ा
पड़ा रह गया कि
वे भी सब कटने
लगेंगे, भागने
लगेंगे। इतना
ही नहीं...
घर की नारि
उरहि तन लागी।
तुम्हारी
प्रेयसी, तुम्हारी
पत्नी, जो
तुम्हारे अंग
लगने को पागल
होती थी, तुम्हारे
आलिंगन के लिए
दीवानी होती
थी, अगर
उसके पास आओगे
जब शरीर
मिट्टी में
मिल जाएगा...
उह तौ भूत
भूत करि
भागी।।
वह
भी भूत— भूत कह
कर चिल्ला कर
भागेगी।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी मरने के
करीब थी।
दोनों बैठे
बात कर रहे थे।
नसरुद्दीन की
पत्नी ने कहा
कि तुम्हें
आत्मा में
विश्वास नहीं, लेकिन
मुझे है। और
अब मैं मर रही
हूं तो मैं
वायदा करती
हूं कि मरने
के बाद
तुम्हें
दर्शन दूंगी।
पत्नी
तो जब मरेगी, मरेगी,
मुल्ला के
प्राण—पखेरू
आधे उसी वक्त
उड़ गए। उसने
कहा कि फिर दो
बात का खयाल
रखना. एक— रात
कभी दर्शन मत
देना; और
तू दे भी
दर्शन तो रात
को घर में मैं
रहूंगा भी
नहीं। तेरी ही
वजह से लौटता
हूं। फिर घर
लौटने की
जरूरत भी क्या
है मुझे! और
रात तो तू
दर्शन देना ही
नहीं, दर्शन
देना हो तो
दिन में देना।
और तब देना जब
दस—पांच आदमी
मेरे साथ हों,
अकेले में
मत देना।
क्योंकि तू
जानती है कि
मैं हृदय—दुर्बलता
से पीड़ित हूं।
और अच्छा तो
यह हो कि
दर्शन देना ही
मत, मैं
बिलकुल मान
लेता हूं कि
आत्मा होती है,
कोई मुझे
झगड़ा नहीं है।
तुम
जिनको प्रेम
करते हो वे भी
अगर शरीर—रहित
तुम्हारे
सामने आकर खड़े
हो जाएं तो तुम्हारे
प्राण कैंप
जाएंगे, तुम
घबड़ा उठोगे।
तुम्हारा
प्रेम तो देह
से था। तुमने
तो देह के
भीतर जो छिपा
है उसे कभी
पहचाना भी
नहीं था, उससे
जान—पहचान भी
नहीं थी; वह
तो अपरिचित है,
अनजान है, अजनबी है।
ये सब संगी—साथी
छूट जाएंगे, साथ छोड़
देंगे, कन्नी
काट जाएंगे।
कहि
रविदास सबै जग
लूटया। हम तौ
एक राम कहि छूटया।।
रैदास
कहते हैं:
धोखे— धड़ी ने, माया
ने, मृत्यु
ने सारे जगत
को लूटा है।
तो हम पर राम
की कृपा हो गई
है।
हम
तौ एक राम कहि
छूटया।।
हमने
तो राम को
स्मरण किया, इसलिए
छूट सके। हमने
तो प्रभु पर
सब समर्पित
किया, इसलिए
छूट सके। नहीं
तो यहां सिर्फ
लुटना ही होता
है और कुछ हाथ
लगता नहीं।
यह
तुम्हारे ऊपर
निर्भर है—
लुट कर जाओगे
कि कुछ लेकर
जाओगे? भिखारी
की तरह मरोगे
कि सम्राट की
तरह? संन्यासी
वही है जो
सम्राट की तरह
मरे। संसारी
तो भिखारी की
तरह ही मरता
है।
हरि—सा
हीरा छांडिकै,
करै आन की आस।
ते
नर जमपुर
जाहिंगे,
सम भाषै
रैदास।
भीतर
हीरे भरे हैं
और तुम बाहर
कंकड़—पत्थर
बीन रहे हो—
औरों से आशा
लगाए बैठे हो!
हरि—सा
हीरा छांडिकै,
करै आन की आस।
ते
नर जमपुर
जाहिंगे,
सम भाषै
रैदास।
रैदास
कहते हैं सच
कहता हूं
तुमसे। अनुभव
से कहता हूं
तुमसे।
साक्षात्कार
करके कहता हूं
तुमसे।
साक्षी हूं जो
मैं कह रहा
हूं उसका। इसे
यूं ही उपदेश
मत समझ लेना।
तुम मृत्यु के
चंगुल में
फंसे हो, नरकों
में भटकोगे, नरकों में
भटक ही रहे हो।
अंतरगति
रांचै नहीं,
बाहर कथै
उदास।।
और
जब तक
तुम्हारा
अंतर्तम
प्रेम से न
भीग जाए
परमात्मा के, तब
तक बाहर से
कितने ही उदास
बने बैठे रहो,
उदासीन बने
बैठे रहो, विरागी
बने बैठे रहो—कुछ
काम नहीं आएगा।
ते ते
नर जमपुर
जाहिंगे,
सत भाषै
रैदास।।
रैदास
फिर—फिर कहता
हैं कि मृत्यु
तुम्हें
लूटेगी, मृत्यु
तुम्हारे सब
धोखे तोड़ देगी—
अगर तुमने
उदासी ऊपर—ऊपर
थोप रखी है; अगर
तुम्हारा
प्रेम प्रभु—रस
में नहीं पगा
है; अगर
तुम्हारे
प्राण प्रभु—रस
में नहीं डूबे
हैं।
हजारों
तरह अपना दर्द
हम उनको
सुनाते हैं
मगर
तस्वीर को हर
हाल में
तस्वीर पाते
हैं
मंदिर—मस्जिदों
में क्या है? तस्वीरें
हैं, सुनाओ
अपने हाल!
तस्वीरों से
क्या पाओगे? भीतर पुकारो
उसे! भीतर
सोया है वह, भीतर जगाओ
उसे! हीरा
भीतर पड़ा है, खोदो वहां!
उम्मीदे—अम्न
क्या हो
याराने—गुलिस्ता
से
दीवाने
खेलते हैं
अपने ही आशिया
से
बिजली
कहा किसी ने, कोई
शरार समझा
इक
लौ निकल गई थी, दागे—गमे—निहा
से
नाकूस
बनके मैंने
चौंका दिया
हरम को
पत्थर
सनमकदे के
जागे मेरी
अजां से
मदारे—हर—अमले—नेको—बद
है नीयत पर
अगर
गुनाह की नीयत
न हो गुनाह
नहीं
नकाब
उलट दिया मूसा
ने तूर पर
उनका
अगर
गुनाह सलीके
से हो, गुनाह
नहीं
सच्चा
परमात्मा मिल
सकता है, उसका
घूंघट भी
उठाया जा सकता
है— उठाने की
तरकीब आनी
चाहिए।
नाकूस
बनके मैंने
चौंका दिया
हरम को
शंख
का नाद कर
दिया मैंने
काबा में।
काबा में
शंखनाद नही
किया जाता।
नाकूस
बनके मैंने
चौंका दिया
हरम को
काबे
में जाकर
मैंने शंख बजा
दिया और काबे
के पत्थर को
चौंका दिया।
पत्थर
सनमकदे के
जागे मेरी
अजां से
और
मैंने
मंदिरों में
जहां पत्थरों
की मूर्तियां
थीं,
अजान पढ़ी, नमाज पढ़ी और
मुर्दा
मूर्तियों
में प्राण डाल
दिए।
असल
में तुम्हारे
भीतर प्राण
हों तो तुम
जहां हो वहीं
तीर्थ है। तुम
काबे में बैठ
जाओ तो काबा
तीर्थ है। और
तुम कहीं और
बैठ जाओ तो
वहीं काबा आ
जाए। काबा
वहां है जहां
प्रेम से भरा
हुआ हृदय है, परमात्मा
के प्रति
समर्पित है।
अदब—
आमोज है
मैखाने का
जर्रा—जरी
सैकड़ों
तरह से आ जाता
है सिब्दा
करना
इश्क
पाबंदे—वफा है, न
कि पाबंदे—रसूम
सर
झुकाने को
नहीं कहते हैं
सिब्दा करना
सिर
झुकाने मात्र
को सिब्दा
करना नहीं
कहते, प्रार्थना
करना नहीं
कहते।
इश्क
पाबंदे—वफा
है........
इश्क
में एक
श्रद्धा तो है।
…….न
कि पाबंदे—रसूम
लेकिन
किसी परंपरा
और लीक में
नहीं बंधा है
प्रेम। प्रेम
तो लीक से
मुक्त है, परंपरा
से मुक्त है।
प्रेम तो
स्वतंत्रता
है, परतंत्रता
नहीं।
अदब—आमोज
है मैखाने का
जरी—जर्रा
पीना
आता हो, पियक्कड़
होना आता हो—
तो फिर मैखाने
का जर्रा—जर्रा
भी अदब सिखाने
वाला है, विनय
सिखाने वाला
है।
अदब—आमोज
है मैखाने का
जर्रा—जर्रा
सैकड़ों
तरह से आ जाता
है सिब्दा
करना
जरा
प्रेम की
मदिरा पीओ!
किसी सदगुरु
के मदिरालय
में बैठो!
हृदय को खोलो!
उसकी शराब में
डूबो! और
सिब्दा करना आ
जाएगा।
सैकड़ों
तरह से आ जाता
है सिब्दा
करना
इसकी
कोई बंधी—बधाई
व्यवस्थाएं
नहीं है।
प्रार्थना
कोई बंधा—बंधाया
सूत्र नहीं है।
मुक्ति
किन्हीं
बंधे—बंधाए
सूत्रों से
मिल भी नहीं
सकती।
अदब—
आमोज है
मैखाने का
जर्रा—जर्रा
सैकड़ों
तरह से आ जाता
है सिब्दा
करना
इश्क
पाबंदे—वफा है, न
कि पाबंदे—रसूम
सर
झुकाने को
नहीं कहते हैं
सिब्दा करना
आज इतना
ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं