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शनिवार, 11 अप्रैल 2015

मैं कहता अांखन देखी--(प्रवचन--37)

संन्‍यास के फूल: संसार की भूमि में—(प्रवचन—सैंतीसवां)   

'नव—संन्यास क्या?':
चर्चा व प्रश्रोत्तर
जबलपुर प्रथम सप्ताह नवम्बर 1970

गवान श्री आपने कहा है कि बाहर से व्यक्तित्व व चेहरे आरोपित कर लेने में सूक्ष्म चोरी है तथा इससे पाखष्ड और अधर्म का जन्म होता है। लेकिन देखा जा रहा है कि आजकल आपके आसपास अनेक नये—नये संन्यासी इकट्ठे हो रहे हैं और बिना किसी विशेष तैयारी और परिपक्‍कता के आप उनके संन्यास को मान्यता दे रहे हैं। क्या इससे आप धर्म को भारी हानि नहीं पहुंचा रहे हैं? कृपया इसे समझाएं?
हली बात, अगर कोई व्यक्ति मेरे जैसा होने की कोशिश करे तो मैं उसे रोकूंगा। उसे मैं कहूंगा, कि मेरे जैसा होने की कोशिश आत्मघात है।
लेकिन अगर कोई व्यक्ति स्वयं जैसे होने की कोशिश की यात्रा पर निकले तो मेरी शुभकामनाएं उसे देने में मुझे कोई हर्ज नहीं है। जो संन्यासी चाहते हैं कि मैं परमात्मा के मार्ग पर उनकी यात्रा का गवाह बन जाऊं, विटनेस बन जाऊं तो उनका गवाह बनने में मुझे कोई एतराज नहीं है, लेकिन मैं गुरु किसी का भी नहीं हूं। मेरा कोई शिष्य नहीं है, मैं सिर्फ गवाह हूं। अगर कोई मेरे सामने संकल्प लेना चाहता है कि मैं संन्यास की यात्रा पर जा रहा हूं तो मुझे गवाह बन जाने में कोई एतराज नहीं है, लेकिन अगर कोई मेरा शिष्य बनने आए तो मुझे भारी एतराज है।
मैं किसी को शिष्य नहीं बना सकता हूं। क्योंकि मैं कोई गुरु नहीं हूं। अगर कोई मेरे पीछे चलने आए तो मैं उसे इनकार करूंगा, लेकिन कोई अगर अपनी यात्रा पर जाता हो और मुझसे शुभकामनाएं लेने आए तो शुभकामनाएं देने की भी कंजूसी करूं, ऐसा सम्भव नहीं है। फिर भी.. यह आपको दिखाई पड़ गया है—मैं गैरिक वस्त्र नहीं पहनता हूं मैंने कोई गले में माला नहीं डाली हुई है। फिर उनके द्वारा मेरी नकल का कोई कारण नहीं है!
फिर भी पूछते हैं आप कि किसी को भी बिना उसकी पात्रता का खयाल किए मैं उसके संन्यास को स्वीकार कर लेता हूं। जब परमात्मा ही हम सबको हमारी बिना किसी पात्रता के स्वीकार किए है तो मैं अस्वीकार करने वाला कौन हो सकता हूं! हम सबकी पात्रता क्या है जीवन में! और संन्यास के लिए एक ही पात्रता है कि आदमी अपनी अपात्रता को पूरी विनम्रता से स्वीकार करता है। इसके अतिरिक्त कोई पात्रता नहीं है।
अगर कोई आदमी कहता है कि मैं पात्र हूं मुझे संन्यास दें तो मैं हाथ जोड़ लूंगा, क्योंकि जो पात्र है उसको संन्यास की जरूरत ही नहीं। और जिसे यह खयाल है कि मैं पात्र हूं वह संन्यासी नहीं हो पाएगा, क्योंकि संन्यास विनम्रता, ह्यूमिलिटी का फूल है। वह विनम्रता में ही खिलता है। जो आदमी पात्रता के सर्टिफिकेट लेकर परमात्‍मा के पास जाएगा, शायद उसके लिए दरवाजे नहीं खुलेंगे। लेकिन जो दरवाजे पर अपने आंसू लेकर खड़ा हो जाएगा और कहेगा मैं अपात्र हूं मेरी कोई भी पात्रता नहीं है कि मैं द्वार खुलवाने के लिए कहूं; लेकिन फिर भी प्रयास है, आकांक्षा है; फिर भी लगन है, भूख है; फिर भी दर्शन की अभीप्सा है—दरवाजे उसके लिए खुलते हैं।
तो मेरे पास कोई आकर अगर संन्यास के लिए कहता है तो मैं कभी पात्रता नहीं पूछता। क्योंकि कोई संन्‍यासी होना ही चाहता है, इतनी इच्छा क्या काफी नहीं है? जो संन्यासी होना चाहता है, क्या उसकी प्यास, उसकी प्रार्थना —इतना ही काफी नहीं है? क्या इतनी लगन, अपने को दांव पर लगाने की इतनी हिम्मत काफी नहीं है? और पात्रता क्या होगी? प्यास के अतिरिक्त और प्रार्थना के अतिरिक्त आदमी कर क्या सकता है? अपने को छोड़ने के के अतिरिक्त, समर्पण, सरेडर के अतिरिक्त आदमी कर क्या सकता है? लेकिन, समर्पण के लिए भी कोई पात्रता चाहिए होती है? पात्र समर्पण नहीं कर पाएंगे, क्योंकि वे समझते हैं कि वे अधिकारी हैं। लेकिन जिसे अपनी अपात्रता का पूरा बोध है, वह समर्पण कर पाता हैं।
परमात्‍मा के द्वार पर जो असहाय है, अपात्र है, दीन है, अयोग्य है लेकिन फिर भी 'उसकी' प्रार्थना से भरा है—उसके लिए द्वार सदा ही खुला है। लेकिन जो पात्र हैं, सर्टिफाइड हैं, योग्य हैं, काशी से उपाधि ले आए हैं, शास्त्रों के शांता हैं, तपश्रर्या के धनी हैं, उपवासों की फेहरिश्त जिनके पास है कि उन्होंने इतने उपवास किए हैं, ऐसे व्यक्ति अपने अहंकार को ही भर लेते हैं। और अहंकार से बड़ी अपात्रता कुछ भी नहीं है। अपने को पात्र समझनेवाले सभी लोग अहंकार से भर जाते हैं। सिर्फ अपने को अपात्र समझनेवाले लोग ही निरहंकार की यात्रा पर निकल पाते हैं। इसलिए मैं उनसे उनकी पात्रता नहीं पूछ सकता हूं। फिर मैं उनका गुरु नहीं हूं जो मैं उनसे उनकी पात्रता पूछूं। वे मेरे पास सिर्फ इसलिए आए है कि मैं उनका गवाह बन जाऊं। इस संबंध में दो—तीन बातें और कहूं तो कल इस बाबत और भी आपसे बात करूंगा तो साफ हो सकेगी बात!
संन्यास मेरे लिए व्यक्ति और परमात्मा के बीच सीधे संबंध का नाम है। उसमें कोई बीच में गुरु नहीं हो सकता। संन्यास व्यक्ति का सीधा समर्पण है। उसमें बीच में किसी के मध्यस्थ होने की कोई भी जरूरत नहीं है और परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। .और एक आदमी उसके लिए समर्पित होना चाहे तो समर्पित हो सकता है। और फिर अपात्र समर्पण से पात्र बनना शुरू हो जाता है। और फिर अपात्र संकल्प, समर्पण, प्रार्थना से पात्र बनना शुरू हो जाता है।
संन्यासी सिद्ध नहीं है, संन्यासी तो सिर्फ संकल्प का नाम है कि वह सिद्ध होने की यात्रा पर निकला है। संन्यासी तो सिर्फ यात्रा का प्रारम्भ बिन्दु है, अन्त नहीं है। वह तो सिर्फ शुभारंभ है, वह मील का पहला पत्थर है, मंजिल नहीं है। लेकिन मील के पहले पत्थर पर खड़े आदमी से पूछें जिसने अभी पहला कदम भी नहीं उठाया है, उससे पूछें कि मंजिल पर पहुंच गए हो तो ही चल सकते हो, तो जो मंजिल पर पहुंच गया है वह चलेगा क्यों? और जो नहीं पहुंचा है वह कहां से दिखाए कि मैं मंजिल पर पहुंच गया हूं?
पहला कदम तो अपात्रता में ही उठेगा, लेकिन पहला कदम भी कोई उठाता है, यह भी बड़ी पात्रता है। और पहले कदम की ही कोई हिम्मत जुटाता है तो यह भी बड़ा संकल्प है।
संन्‍यास दृष्टि में बहुत और तरह की बात है। संन्यास मेरी दृष्टि में सिर्फ इस बात का स्मरण है कि मै अब स्वयं को परमात्मा के लिए समर्पित करता हूं। अब मैं स्वयं को सत्य की खोज के लिए समर्पित करता हूं। अब मै साहस करता हूं कि धार्मिक चित्त की तरह जीने की चेष्टा करूंगा।
ये संन्यासी गैरिक वस्त्रों में आपको दिखाई पड़ रहे हैं। वह उनके स्मरण के लिए है, 'रिमेम्बरिग' के लिए हैं कि उनको स्मरण बना रहे कि अब वे वही नहीं हैं जो कल तक थे। दूसरे भी उन्हें स्मरण दिलाते रहें कि अब वे वही नहीं है जो कल तक थे। वस्त्रों की बदलाहट से कोई संन्यासी नहीं होता, लेकिन संन्यासी अपने वस्त्र बदल सकता है।
गले में माला डाल लेने से कोई संन्यासी नहीं होता, लेकिन संन्यासी गले में माला डाल सकता है और माला का उपयोग कर सकता है। गले में डली माला उसके जीवन में आए रूपांतरण की निरंतर सूचना है। आप बाजार जाते है, कोई चीज लानी होती है तो कपड़े में गांठ बांध लेते हैं। जब भी गांठ याद पड़ती है, खयाल आ जाता है कि कोई चीज लाने को आया था। गांठ चीज नहीं है और जिसने गांठ बांध ली वह चीज ले ही आएगा यह भी पका नहीं है। क्योंकि जो चीज भूल सकता है वह गांठ भी भूल सकता है। लेकिन फिर भी जो चीज भूल सकता है, वह गांठ बांध लेता है और सौ में नब्बे मौकों पर गांठ की वजह से चीज ले आता है।
यह कपड़ा, माला—यह सारा बाहरी परिवर्तन संन्यास नहीं है। यह सिर्फ गांठ बांधना है कि मैं एक संन्यास की यात्रा पर निकला हूं। उसका स्मरण, उसका सतत स्मरण मेरी चेतना में बना रहे, वह स्मरण सहयोगी है।

 भगवान श्री आप कहते हैं कि पंच महाव्रत— अहिंसा अपरिग्रह, अचोर्य, अकाम और अप्रमाद की साधना फलीभूत हो सके तो व्यक्ति व समाज का सर्वांगीण विकास होगा। इसमें आपके द्वारा प्रस्तावित नई संन्यास दृष्टि का क्या अनुदान हो सकता है? कृपया इसे सविस्तार स्पष्ट करें।

हिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम और अप्रमाद संन्यास की कला के आधारभूत सूत्र हैं। और संन्यास एक कला है। समस्त जीवन ही एक कला है। और केवल वे ही लोग संन्यास को उपलब्ध हो पाते हैं जो जीवन की कला में पारंगत हैं। संन्यास जीवन के पार जानेवाली कला है। जो जीवन को उसकी पूर्णता में अनुभव कर पाते हैं, वे अनायास ही संन्यास में प्रवेश कर जाते हैं—करना ही होगा। वह जमीन का ही अगला कदम है। परमात्मा संसार की सीढ़ी पर चढ़कर पहुंचा गया मंदिर है।
तो पहली बात तो आपको यह स्पष्ट कर दूं कि संसार और संन्यास में कोई भी विरोध नहीं है। वे एक ही यात्रा— के दो पड़ाव है। संसार में ही संन्यास विकसित होता है और खिलता है। संन्यास संसार की शत्रुता नहीं है, बल्कि संन्यास संसार का प्रगाढ़ अनुभव है। जितना ही जो संसार को अनुभव कर पाएगा, वह पाएगा उसके पैर संन्यास की ओर बढ़ने शुरू हो गए हैं। जो जीवन को ही नहीं समझ पाते, जो संसार के अनुभव में ही गहरे नहीं उतर पाते वे ही केवल संन्यास से दूर रह जाते हैं। इसलिए पहली बात तो आपको स्पष्ट कर दूं!
मेरी दृष्टि में संन्यास का फूल संसार के बीच में ही खिलता है। उसकी संसार से शत्रुता नहीं, संसार का अतिक्रमण है संन्यास। उसके भी पार चले जाना है। सुख को खोजते—खोजते जब व्यक्ति पाता है कि सुख मिलता नहीं वरन जितना सुख को खोजता है उतने ही दुख में गिर जाता है; शांति को चाहते—चाहते जब व्यक्ति पाता है, कि शांति मिलती नहीं वरन शांति की चाह और भी गहरी अशांति को जन्म दे जाती है; धन को खोजते—खोजते पाता है कि निर्धनता भीतर की और घनीभूत हो जाती है, तब जीवन में संसार के पार आख उठनी शुरू होती है।
वह जो संसार के पार आंखों का उठना है उसका नाम संन्यास है। इसलिए यह जो पांच सूत्र जिनकी हम यहां चर्चा कर रहे हैं, ठीक से समझें तो संन्यास के ही सूत्र हैं। और जिसकी आंखें संसार के पार उठनी शुरू नहीं हुईं उसके किसी भी काम के नहीं हैं। मुझे बहुत से मित्रों ने आकर कहा कि बात कुछ गहरी है और हमारे सिर के ऊपर से निकल जाती है। तो मैंने उनसे कहा, कि अपने सिर को ऊंचा करो ताकि सिर के ऊपर से निकल न जाए।
जिनकी आंखें संसार के जरा भी ऊपर उठती हैं उनके सिर ऊंचे हो जाते हैं और तब ये बातें सिर के ऊपर से नहीं निकलेंगी, हृदय के गहरे में प्रवेश कर जाएंगी। यह बातें गहरी कम, ऊंची ज्यादा हैं। असल में ऊंचाई ही गहराई बन जाती है। और ऊंची अपने आप में नहीं हैं। हम बहुत नीचे संसार में गड़े हुए खड़े हैं इसलिए ऊंची मालूम पड़ती हैं। ऊंचाई सापेक्ष है, रिलेटिव है।
और एक बात ध्यान रहे कि संसार से थोड़ा ऊपर न उठें, संसार से थोड़ा ऊपर न देखें—रहें संसार में, हर्जा नहीं! जमीन पर खड़े होकर भी आकाश के तारे देखे जा सकते हैं। खड़े रहें संसार में, लेकिन आंखें थोड़ी ऊपर उठ जाएं तो यह सारी बातें बड़ी सरल दिखाई पड़नी शुरू होती हैं। वरन यही बातें तब सरल मालूम पड़ती हैं।
संसार की बातें रोज कठिन होती चली जाती हैं। कठिन होंगी ही, क्योंकि जिनका अंतिम फल सिवाय दुख के और जिनकी अंतिम परिणति सिवाय अज्ञान के और जिनका अंतिम निष्कर्ष सिवाय गहन अंधकार के कुछ भी न हो पाता हो वे बातें सरल नहीं हो सकतीं, वे जटिल हैं बहुत। दिखाई चीज कुछ पड़ती है, है कुछ और, धम कुछ पैदा होता है, सत्य कुछ और है। लेकिन हम संसार में इस भांति खोए होते हैं कि और कोई सत्य हो सकता है, इसकी कल्पना भी नहीं उठती।
मैंने सुना है कि एक फ्रेंच उपन्यासकार बालजाक के पास कोई व्यक्ति मिलने गया था। तो वह बालजाक से उसके उपन्यास के पात्रों के संबंध में बात कर रहा था। फिर बात उपन्यास के पात्रों पर चलते—चलते धीरे— धीरे राजनैतिक नेताओं पर और देश की राजनीति पर चली गई। थोड़ी देर बालजाक बात करता रहा और फिर उसने कहा, माफ करिए— 'लैट अस कम बैक टु द रियलिटी अगेन, अब हमें असली बातों पर फिर वापस लौट आना चाहिए'! और बालजाक ने अपने उपन्यास के पात्रों की बात फिर से शुरू कर दी। बालजाक के लिए उसके उपन्यास के पात्र रियलिटी है, यथार्थ है। और जिन्दगी के मंच पर सच में जो पात्र खड़े हैं वे अयथार्थ हैं।
बालजाक ने कहा, छोड़ो अयथार्थ बातों को, हमें अपनी यथार्थ बातों पर फिर से वापस लौट आना चाहिए। बालजाक उपन्यासकार है। उसके लिए उपन्यास के पात्र सत्य मालूम होते हैं, जीवन्त व्यक्तियों से भी ज्यादा। हम जिस संसार में इतने डूबे खडे हैं वहां हमें संसार के अतिरिक्त और कुछ भी सत्य दिखाई नहीं पड़ता है। यद्यपि जिन्होंने भी आंखें ऊपर उठाकर देखा है, उनके ऊपर आख उठाते ही संसार एक अयथार्थ हो जाता है, एक अनरियलिटी हो जाता है। संन्यास का अर्थ है संसार के ऊपर आख उठाना। संसार ही सब कुछ नहीं है, उसके पार भी कुछ है। उसकी तरफ खोज में गई आंखों का नाम संन्यास है। यह नव—संन्यास क्या है?. कुछ बातें आपको कहूं तो स्पष्ट हो सके।
ऐसा संन्यास करीब—करीब पृथ्वी से विदा होने के करीब है, क्योंकि अब तक संन्यासी संसार से टूटकर जिया है। और अब भविष्य में ऐसे संन्यास की कोई भी सम्भावना बाकी नहीं रह जाएगी जो संसार से टूटकर जी सके। इसलिए रूस से संन्यासी विदा हो गया, चीन से संन्यासी विदा किया जा रहा है। आधी दुनिया संन्यासी से खाली हो गई है। शेष आधी दुनियां कितने दिन तक संन्यासी के साथ रहेगी, कहना मुश्किल है। इस पूरी पृथ्वी पर यह हमारी सदी शायद संन्यासी की अंतिम सदी होगी यदि संन्यास को नये अर्थ और नये डायमेंशन, नये आयाम न दिए जा सकें।
यह संन्यास विदा क्यों हो रहा है? संसार से तोड़कर जिस चीज को हमने अब तक बचा रखा था वह 'हाट हाउस प्लान्ट' था, वह संसार के धक्कों को अब नहीं सह पा रहा है। और जिस समाज ने संन्यासी को संसार से तोड़कर जिन्दा रखा था वह समाज भी मिटने के करीब आ गया है। तो अब उस समाज के द्वारा निर्मित संन्यास की व्यवस्था और संस्था भी बच नहीं सकती। जब समाज ही पूरा रूपांतरित होता है, तो उसकी सारी विधाएं और उसके सारे आयाम टूट जाते हैं। जिस समाज में राजा थे, महाराजा थे, वह समाज मिट गया, राजा—महाराजा मिट गए। राजा—महाराजा के साथ उस समाज के दरबार में पला हुआ कवि मिट गया। जो समाज कल तक था, जिसने संन्यासी को पाला था वह समाज विदा हो रहा है, वह समाज बचनेवाला नहीं है। संन्यासी भी बच नहीं सकेगा, यदि संन्यासी भी नये रूप स्वीकार न कर सके।
तो एक बात जो मेरी दृष्टि में बहुत महत्वपूर्ण मालूम पड़ती है वह यह कि संन्यास को बचाना तो अत्यन्त जरूरी है, वह जीवन की गहरी से गहरी सुगंध है। वह जीवन का बड़ा से बड़ा सत्य है। उसे संसार से जोड़ना जरूरी है। अब संन्यासी संसार के बाहर नहीं जी सकेगा। अब उसे संसार के बीच—बाजार में, दुकान में, दफ़र में जीना होगा। तो ही बच सकता है। अब संन्यासी अनप्रोडक्टिव होकर, अनुवादक होकर नहीं जी सकेगा। अब उसे जीवन की उत्पादकता में भागीदार होना पड़ेगा। अब संन्यासी दूसरे पर निर्भर होकर नहीं जी सकेगा। अब उसे स्वनिर्भर ही होना पड़ेगा।
फिर मुझे समझ में नहीं आता कि कोई जरूरत भी नहीं है कि आदमी संसार को छोड़कर भाग जाए तभी संन्यास उसके जीवन में फल सके। यह अनिवार्य भी नहीं है। सच तो यह है कि जहां जीवन की सघनता है, वहीं संन्यास की कसौटी भी है। जहां जीवन का घना संघर्ष है, वहीं संन्यास के साक्षी—भाव का आनन्द भी है। जहां जीवन अपनी सारी दुर्गंधों में है, वहीं संन्यास का जब फूल खिलता है तभी उसके सुगंध की परीक्षा भी है। और संसार में बड़ी ही आसानी से संन्यास का फूल खिल सकता है। एक बार हमें खयाल आ जाए कि संन्यास क्या है तो घर से, परिवार से, पत्नि से, बच्चे से, दुकान से, दफ़र से भागने की कोई भी जरूरत नहीं रह जाती। और जो संन्यास भागकर ही बच सकता है वह बहुत कमजोर संन्यास है। वैसा संन्यास अब आगे नहीं बच सकेगा। अब हिम्मतवर, करेजियस, साहसी संन्यासी की जरूरत है जो जिन्दगी के बीच खड़ा होकर संन्यासी है।
जहां है व्यक्ति वहीं रूपांतरित हो सकता है। रूपांतरण परिस्थिति का नहीं है, रूपांतरण मनःस्थिति का है। रूपांतरण बाहर का नहीं है, रूपांतरण भीतर का है। रूपांतरण संबंधों का नहीं है, रूपांतरण उस व्यक्तित्व का है जो संबंधित होता है।
आरते गावाय गासिट ने एक छोटी—सी घटना लिखी है। लिखा है कि एक घर में एक व्यक्ति मरणासन्न पड़ा है। वह मर रहा है। उसकी पत्नी छाती पीटकर रो रही है। पास में डाक्टर खड़ा है। आदमी प्रतिष्ठित है, सम्मानित है, अखबार का रिपोर्टर आकर खड़ा है मरने की खबर अखबार में देने के लिए। रिपोर्टर के साथ अखबार का एक चित्रकार भी आ गया है। वह आदमी को मरते हुए देखना चाहता है। उसे मृत्यु की एक पेंटिंग बनानी है, चित्र बनाना है। पत्‍नी छाती पीटकर रो रही है। डाक्टर खड़ा हुआ उदास मालूम पड़ रहा है—हारा हुआ, पराजित। प्रोफेशनल हार हो गयी है उसकी। जिसे बचाना था उसे नहीं बचा पा रहा है। पत्रकार अपनी डायरी, कलम लिए खड़ा है कि जैसे ही वह मरे, टाइम लिख ले और दफ़र भागे। चित्रकार खड़ा होकर गौर से देख रहा है। एक ही घटना घट रही है, उस कमरे में। एक आदमी का मरना हो रहा है। लेकिन पत्नी को, डाक्टर को, पत्रकार को, चित्रकार को एक घटना नहीं घट रही है। चार घटनाएं घट रही हैं।
पत्‍नी के लिए सिर्फ कोई मर रहा है—ऐसा नहीं, पत्नी खुद भी मर रही है। यह पत्‍नी के लिए कोई दृश्य नहीं है जो बाहर घटित हो रहा है, यह उसके प्राणों के प्राण में घटित हो रहा है। यह कोई और नहीं मर रहा, वह स्वयं मर रही है। अब वह दोबारा वही नहीं हो सकेगी जो इस पति के साथ थी। उसका कुछ मर ही जाएगा सदा के लिए, जिसमें अब शायद फिर कभी अंकुर नहीं फूट सकेंगे। यह पति नहीं मर रहा है, उसके हृदय का एक कोना ही मर रहा है। पत्नी इन्वोल्‍व्ड है। पत्नी पूरी की पूरी इस दृश्य के भीतर है। इस पत्नी और इस पति के बीच फासला बहुत ही कम है, डाक्टर के लिए भीतर कोई भी नहीं मर रहा है, बाहर कोई मर रहा है।
लेकिन डाक्टर भी उदास है, दुखी नहीं। क्योंकि जिसे बचाने का काम था उसे वह बचा नहीं सका है। पत्नी के लिए हृदय में कुछ मर रहा है, डाक्टर के लिए बुद्धि में कुछ मरने की क्रिया हो रही है। वह सोच रहा है कि क्या और दवाएं दे सकता था तो मरीज बच सकता था। क्या इंजेक्यान जो दिए थे वे ठीक नहीं थे? क्या मेरी डायग्रोसिस निदान में कहीं कोई भूल हो गयी है, निदान में कहीं चूक गया है? अब दोबारा कोई मरीज इस बीमारी से मरता होगा तो उसे क्या करना है? डाक्टर के हृदय से उस मरीज के मरने का कोई भी संबंध नहीं है। उसके मस्तिष्क में जरूर बहुत कुछ चल रहा है।
पत्रकार में तो इतना भी नहीं चल रहा है। वह बार—बार घड़ी देख रहा है कि वह आदमी मर जाए तो टाइम नोट कर ले और जाकर दफ़र में खबर कर दे। उसके मस्तिष्क में भी कुछ नहीं चल रहा है। वह एक काम कर रहा है। वह बाहर खड़ा है, दूर, लेकिन थोड़ा सा संबंध है उसका कि इस आदमी के मरने की खबर दे देनी है उसे जाकर और वह देकर किसी कैफे में बैठकर चाय पियेगा। खबर देकर किसी थियेटर में सिनेमा देखेगा। बात समाप्त हो जाएगी। इस आदमी से उसका इतना संबंध है कि वह कब मरता है, किस वक्त मरता है। मरने की वह भी प्रतीक्षा कर रहा है।
चित्रकार के लिए आदमी मर रहा है, कि नहीं मर रहा है इससे कोई संबंध ही नहीं है। वह उस आदमी के चेहरे पर आ गयी कालिमा का अध्ययन कर रहा है। उस आदमी के चेहरे पर मृत्यु के क्षण में जीवन की जो अंतिम ज्योति झलकेगी उसे देख रहा है। वह कमरे में घिरते हुए अंधेरे को देख रहा है। वह चारों तरफ से जिस मौत के साये ने उस कमरे को पकड़ लिया है, उसे देख रहा है। उसके लिए आदमी के मरने की वह घटना रंगों का एक खेल है। वह रंगों को पकड़ रहा है, क्योंकि उसे एक मृत्यु का चित्र बनाना है। वह आदमी बिलकुल आउट साइडर है। उसे कोई भी लेना—देना नहीं। यह आदमी मरे कि दूसरा आदमी मरे कि तीसरा आदमी मरे—उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। कि वह पत्नी मरे, वह डाक्टर मरे, वह पत्रकार मरे, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है। ए बी सी डी कोई भी मरे, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है। मृत्यु का रंगों में क्या रूप है, वह उसे पकड़ने में लगा है। मृत्यु से उसका कोई भी संबंध नहीं है। परिस्थिति एक है लेकिन मनःस्थिति चार हैं—चार हजार भी हो सकती हैं।
जीवन वही है संसारी का भी, संन्यासी का भी, लेकिन मनःस्थिति भिन्न है। वही सब घटेगा जो घट रहा है। वही दुकान चलेगी, वही पत्‍नी होगी, वही बेटे होंगे, वही पति होगा, लेकिन संन्यासी की मनःस्थिति और है। वह जिन्दगी को किन्हीं और दृष्टिकोणों से देखने की कोशिश कर रहा है। संसारी की मनःस्थिति और है।
संसार और संन्यास मनःस्थितिया, मेन्टल एटिट्यूडस हैं। इसलिए परिस्थितियों से भागने की कोई भी जरूरत नहीं है। परिस्थितियों को बदलने की कोई भी जरूरत नहीं है और बड़े आश्रर्य की बात है कि जब मनःस्थिति बदलती है तो परिस्थिति वही नहीं रह जाती। क्योंकि परिस्थिति वैसी ही दिखाई पड़ने लगती है, जैसी मनःस्थिति होती है। जो आदमी संसार छोड़कर, भागकर संन्यासी हो रहा है वह अभी भी संसारी है। क्योंकि उसका भी विश्वास परिस्थिति पर है। वह भी सोचता है कि परिस्थिति बदल लूंगा तो सब बदल जाएगा। वह अभी संसारी है। संन्यासी वह है जो कहता है कि मनःस्थिति बदलेगी तो सब बदल जाएगा।
मनःस्थिति बदलेगी तो सब बदल जाएगा, ऐसा जिसका भरोसा है, ऐसी जिसकी समझ है वह आदमी संन्यासी है। और जो सोचता है कि परिस्थिति बदल जाएगी तो सब बदल जाएगा ऐसी मनःस्थिति संसारी की है, ऐसा आदमी संसारी है। मेरा जोर परिस्थिति पर बिलकुल नहीं है, मनःस्थिति पर है। एक ऐसा संन्यास ही बच सकता है और मैं कहना चाहता हूं कि संन्यास बचाने जैसी चीज है।
पश्‍चिम ने विज्ञान दिया है। वह पश्‍चिम का कंट्रिब्यूशन, योगदान है मनुष्य के लिए। पूरब ने संन्यास दिया है, वह पूरब का कंट्रिब्यूशन, योगदान है संसार के लिए। जगत को पूरब ने जो श्रेष्ठतम दिया है वह संन्यास है। जो श्रेष्ठतम व्यक्ति दिए हैं वे बुद्ध हैं, महावीर हैं, कृष्ण हैं, क्राइस्ट हैं, मुहम्मद हैं। ये सब पूरब के लोग हैं। क्राइस्ट भी पश्चिम के आदमी नहीं हैं। ये सब एशिया से आए हुए लोग हैं।
शायद आपको पता न हो, यह एशिया शब्द कहां से आ गया है। बहुत पुराना शब्द है, कोई आज से छह हजार साल पुराना शब्द है। और बेबीलोन में पहली दफा इस शब्द का जन्म हुआ। बेबीलोनियन भाषा में एक शब्द है 'असू’, असू से एशिया बना। असू का मतलब होता है सूर्य का उगता हुआ देश। जो जापान का अर्थ है वही एशिया का अर्थ भी है—जहां से सूरज उगता है, जिस जगह से सूर्य उगा है वहीं से जगत को सारे संन्यासी मिले। यूरोप शब्द का ठीक उल्टा मतलब है।
यूरोप शब्द भी अशीरियन भाषा का शब्द है। वह जिस, अरेश शब्द से बना है, उस शब्द का मतलब है सूरज के डूबने का देश—संध्या का, अंधेरे का, जहां सूर्यास्त होता है। वह जो सूर्यास्त के देश हैं उनसे विज्ञान मिला है, वैज्ञानिक मिला है। जो पूर्वोदय के देश हैं, सुबह के, उनसे संन्यास मिला है।
इस जगत को अब तक जो दो बड़ी से बडी देन मिली हैं, दोनों छोरों से वह एक विज्ञान की है। स्वभावत: विज्ञान वहीं मिल सकता है जहां भौतिक की खोज हो। स्वभावत: संन्यास वहीं मिल सकता है जहां अभौतिक की खोज हो। वितान वहीं मिल सकता है जहां पदार्थ की गहराइयों में उतरने की चेष्टा हो और संन्यास वहीं मिल सकता है जहां परमात्‍मा की गहराइयों में उतरने की चेष्टा हो। जो अंधेरे से लड़ेंगे वे विज्ञान को जन्म दे देंगे। और जो सुबह के प्रकाश को प्रेम करेंगे वे परमात्मा की खोज पर निकल जाते हैं।
यह जो पूरब से संन्यास मिला है यह संन्यास खो सकता है भविष्य में। क्योंकि संन्यास की अब तक जो व्यवस्था थी उस व्यवस्था के मूल आधार टूट गए हैं। इसीलिए मैं देखता हूं इस संन्यास को बचाया जाना जरूरी है। और यह बचाया जायेगा अब आश्रमों में नहीं, वनों में नहीं, हिमालय पर नहीं। वह तिब्बत का संन्यासी नष्ट हो गया है, शायद गहरे से गहरा संन्यासी तिब्बत के पास था, लेकिन वह विदा हो रहा है, वह विदा हो जाएगा, वह बच नहीं सकता है। अब संन्यासी बचेगा फैक्टरी में, दुकान में, बाजार में, स्कूल में, यूनिवर्सिटी में। जिंदगी जहां है, अब संन्यासी को वहीं खड़ा हो जाना पड़ेगा। और संन्यासी जगह बदल ले इसमें बहुत अड़चन नहीं है। संन्यास नहीं मिटना चाहिए।
इसीलिए मै जिन्दगी को भीतर से संन्यास देने के पक्ष में हूं। जो जहां है वहीं संन्यासी हो जाए सिर्फ रुख बदले, मनःस्थिति बदले। हिंसा की जगह अहिंसा उसकी मनःस्थिति बने, परिग्रह की जगह अपरिग्रह उसकी समझ बने, चोरी की जगह अचौर्य उसका आनन्द हो, काम की जगह अकाम पर उसकी दृष्टि बढ़ती चली जाए, प्रमाद की जगह अप्रमाद उसकी साधना बने तो व्यक्ति जहां है, जिस जगह है वहीं मनःस्थिति बदल जायेगी और सब बदल जाता है। इसलिए मैं जिन्हें संन्यासी कह रहा हूं वे जगत से भागे हुए लोग नहीं हैं। वे जहां हैं, वहीं रहेंगे। और यह बड़े मजे की बात है!
आज तो जगत से भागना ज्यादा आसान है, आज जगत में खड़े होकर संन्यास लेना बहुत कठिन है। भाग जाने में तो अड़चन नहीं है, लेकिन एक आदमी जूते की दुकान करता है और वहीं संन्यासी हो गया है तो बड़ी अड़चनें हैं। क्योंकि दुकान वहीं रहेगी, ग्राहक वही रहेंगे, जूता वही रहेगा। बेचना वही है, बेचनेवाला, लेनेवाला, सब वही हैं। और एक आदमी अपनी पूरी मनःस्थिति बदलकर वहां जी रहा है। सब पुराना है। सिर्फ एक मन बदलने की आकांक्षा से भरा है। इस सब पुराने के बीच इस मन को बदलने में बड़ी दुरूहता होगी, यही तपश्‍चर्या है। इस तपश्‍चर्या से गुजरना अदभुत अनुभव है। और ध्यान रहे, जितना सस्ता संन्यास मिल जाए उतना ही गहरा नहीं हो पाता, जितना महंगा मिले उतना ही गहरा हो जाता है। संसार में खड़े होकर संन्यासी होना बड़ी तपश्चर्या की बात है।
दूसरी बात, अब तक संन्यास एक इंस्टिखूशनलाइब्द, एक संस्थागत व्यवस्था हो गयी थी। और संन्यासी कभी भी इंस्टिखूशन, संस्था नहीं बन सकता। और जब भी संन्यास संस्था बनेगा तब संन्यास की जो खूबी हैं, जो रस है, जो उसका रहस्य है वह सब विदा हो जाएगा। संन्यास को जैसे ही संस्था बनाया जाता है वैसे ही संन्यास मर जाता है। संन्यास व्यक्तिगत अनुभूति है। संन्यास एक—एक व्यक्ति के भीतर खिलता है, जैसे प्रेम खिलता है। अब प्रेम को कोई संस्था नहीं बना सकता। प्रेम एक—एक व्यक्ति के जीवन में खिलता है और फैलता है। ऐसे ही संन्यास परमात्मा का प्रेम है, वह भी एक—एक व्यक्ति के जीवन में खिलता है और फैलता है।
इसलिए संन्यासियों की संस्थाओं की कोई भी जरूरत नहीं है। संस्थागत संन्यासी, संन्यासी नहीं रह जाता। असल में संस्था हम बनाते ही इसलिए हैं, सुरक्षा के लिए, सिक्योरिटी के लिए। और संन्यासी वह है जिसने असुरक्षा में, खतरे में जीने का प्रण लिया है; जो खतरे में, असुरक्षा में जीने की हिम्मत जुटा रहा है। इसलिए आगे संन्यास संस्था से बंधा हुआ नहीं हो सकता है—व्यक्तिगत होगा, व्यक्तिगत मौज होगी।
जब भी संन्यास संस्था बनेगा तो संन्यास में एक बहुत ही बेहूदी बात जुड़ जायेगी। और वह यह होगी कि संन्यास में एन्ट्रेस प्रवेश—द्वार तो होगा, एजिक्ट, निकास—द्वार नहीं होगा। संन्यास के मंदिर में प्रवेश तो होगा लेकिन बाहर निकलने का कोई द्वार नहीं होगा। और जिस जगह पर भी प्रवेश हो और बाहर निकलने का द्वार न हो वह चाहे मंदिर ही क्यों न हो, वह बहुत थोड़े दिनों में कारागृह हो जाता है। क्योंकि वहां परतंत्रता निश्रित हो जाती है।
इसलिए मैं संन्यासी को उसके व्यक्तिगत निर्णय पर छोड़ता हूं। वह उसकी मौज है कि वह संन्यासी होने का निर्णय लेता है। वह कल वापस लौट जाना चाहता है अपनी सहज परिस्थिति, अपनी सहज मनःस्थिति में तो इस जगत में कोई भी उसकी निंदा करने को नहीं होना चाहिए। निंदा का कोई कारण नहीं है। यह उसकी व्यक्तिगत बात थी। उसने निर्णय लिया था, वह वापस लौट जाएगा। इसके दोहरे परिणाम होंगे। बहुत ज्यादा लोग संन्यास ले सकते हैं, अगर उन्हें यह निर्णय हो कि कल अगर उन्हें ठीक न पड़े तो अपनी मनःस्थिति के निर्णय को वापस लौटा सकते हैं। परसों उन्हें फिर लगे कि हिम्मत अब ज्यादा है, अब हम फिर प्रयोग कर सकते हैं तो फिर वापस लौट सकते हैं।
संन्यास संस्थाबद्ध हो तो फिर दुराग्रह शुरू होता है कि कोई संन्यासी वापस नहीं लौट सकता। और जब संन्यासी वापस नहीं लौट सकता तो सब संन्यासियों की संस्थाएं कारागृह बन जाती हैं। क्योंकि जाते वक्त व्यक्ति को बहुत कुछ पता नहीं होता। बहुत कुछ तो जाकर ही पता चलता है भीतर से कि क्या है, और जब भीतर से पता चलता है तो वह वापस लौटने की स्वतंत्रता खो चुका होता है।
मैं सैकड़ों संन्यासियों को जानता हूं जो दुखी हैं, क्योंकि वे वापस नहीं लौट सकते। और संन्यास कोई कारागृह नहीं होना चाहिए। इसलिए दूसरा सूत्र जो इस नये संन्यास की धारणा में मै जोड़ना चाहता हूं वह यह है कि संन्यास व्यक्तिगत निर्णय है। उसके ऊपर न किसी दूसरे का कोई दबाव है, न किसी दूसरे से उसका कोई संबंध है। यह एक व्यक्ति की अपनी सूझ है, यह एक व्यक्ति की अपनी अंतर्दृष्टि है, वह जाए, लौटे।
इसी के साथ एक और बात 'पीरियाडिकल रिनन्सिएशन, सावधिक संन्यास के संबंध में कहना चाहता हूं। मैं मानता हूं प्रत्येक व्यक्ति को आजीवन संन्यास का आग्रह नहीं लेना चाहिए। असल में आजीवन के लिए आज कोई निर्णय लिया भी नहीं जा सकता। कल का क्या भरोसा! कल के लिए मै क्या कह सकता हूं! आज जो मुझे ठीक लगता है, कल गलत लग सकता है। और अगर मैं पूरे जीवन का निर्णय लेता हूं तो इसका मतलब यह हुआ कि कम अनुभवी आदमी ने ज्यादा अनुभवी आदमी के लिए निर्णय लिया। मैं बीस साल बाद ज्यादा अनुभवी हो जाऊंगा। बीस साल पहले का मेरा निर्णय बीस साल बाद के ज्यादा अनुभवी आदमी की छाती पर पत्थर बन जाएगा। बच्चे के निर्णय बूढ़े के लिए लागू नहीं होने चाहिए। लेकिन दस साल का बच्चा संन्यास ले सकता है और सत्तर साल का बूढ़ा फिर जिन्दगीभर पछता सकता है, क्योंकि वह संन्यास आजीवन है। नहीं, कोई संन्यास आजीवन नहीं हो सकता।
इस जीवन में सभी चीजें सावधिक हैं, पीरियाडिकल हैं, और संन्यास जैसी कीमती चीज तो सिर्फ अवधिगत होनी चाहिए। एक व्यक्ति लेता है जानने के लिए, जिज्ञासा के लिए, खोज के लिए। अगर संन्यास में कुछ रस है तो संन्यास रोक लेगा, यह दूसरी बात है, लेकिन आप अपने निर्णय से जबर्दस्ती रुकेंगे तो संन्यास के रस पर आपका भरोसा नहीं है।
और मैं तो मानता हूं कि जो व्यक्ति संन्यास में एक बार जाएगा वह लौटेगा नहीं, लेकिन यह संन्यास के अनुभव में सामर्थ्य होना चाहिए कि वह न लौटे। यह सिर्फ कसम और नियम, लॉ और कानून नहीं होना चाहिए। लेकिन व्यक्ति को इसी भाव से संन्यास में प्रवेश करना चाहिए कि मैं मुक्त प्रवेश करता हूं। कल मुझे अगर लगे कि प्रवेश गलत हुआ, निर्णय में भूल थी तो मैं वापस लौट सकता हूं। हर आदमी को अपनी भूल से सीखने का हक होना चाहिए, और भूल से ही सीख मिलती है। इस दुनियां में सीखने का और कोई उपाय भी नहीं है। लेकिन जहां भूल परमानेन्ट करनी पड़ती हो कि हम उससे सीख ही न सकें तो फिर वहां जिंदगी में ज्ञान की जगह अज्ञान आरोपित हो जाता है। इसलिए आजीवन संन्यास ने संन्यासी को ज्ञानी कम अज्ञानी बनाने में ज्यादा सहयोग दिया है।
दो मुल्क है पृथ्वी पर जहां पीरियाडिकल रिनन्सिएशन की अलग व्यवस्था है। आजीवन संन्यास की व्यवस्था भी है बर्मा में, थाईलैष्ठ में, और सावधिक संन्यास की व्यवस्था भी है। कोई व्यक्ति साल में तीन महीने के लिए संन्यासी हो जाता है। इसलिए बर्मा में लाखों लोग मिल जाएंगे जो संन्यासी रह चुके हैं—कोई तीन महीने को कोई छह महीने को, कोई सालभर को। सिर्फ दो—चार वर्ष में सुविधा होती है तो वह आदमी फिर तीन—चार महीने के लिए संन्यासी की दुनिया में चला जाता है। एक आदमी अगर अपने चालीस साल के अनुभव की जिंदगी में दस बार महीने—महीनेभर के लिए भी संन्यासी हो जाए तो मरते वक्त वह वही आदमी नहीं होगा, जो वह आदमी होगा जिसने कभी संन्यास की जिंदगी में प्रवेश नहीं किया।
साल में अगर एक महीने के लिए भी कोई संन्यासी हो जाए तो आदमी वही नहीं लौटेगा जो था। बाकी आनेवाले ग्यारह महीने, वर्ष के, दूसरे हो जानेवाले हैं। सारी जिंदगी तो व्यक्ति के भीतर से निकलती है। तो मैं तो मानता हूं कि आजीवन संन्यास लेने की जरूरत ही नहीं है, आजीवन हो जाए यह सौभाग्य है, आजीवन फैल जाए, यह परमात्मा की कृपा है। लेकिन अपनी तरफ से तो एक पल का निर्णय भी बहुत है, आज का निर्णय काफी है।
तीसरी बात, अब तक जगत में जितने भी संन्यास के रूप हुए हैं वे सभी संप्रदायों से बंधे हुए थे, इसलिए संन्यासी कभी भी मुक्त नहीं हो पाया। कोई संन्यासी हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई बौद्ध है, कोई ईसाई है। कम—से—कम संन्यासी तो 'सिर्फ धार्मिक' होना चाहिए। इसका यह अर्थ नहीं कि वह मस्जिद न जाए, वह मंदिर न जाए, यह उसकी मौज है, वह कुरान पड़े या गीता पढ़े, यह उसकी पसंद है। वह जीसस को प्रेम करे कि बुद्ध को प्रेम करे, यह उसकी अपनी बात है। लेकिन संन्यासी होते ही वह व्यक्ति किसी संप्रदाय का नहीं रह जाना चाहिए, क्योंकि जैसे ही कोई व्यक्ति संन्यासी हुआ, अब कोई धर्म उसका अपना नहीं, क्योंकि सभी धर्म अब उसके अपने हो गये।
इसलिए संन्यास में एक तीसरी बात भी मैं जोड़ना चाहता हूं वह है—गैर—साप्रदायिकता। संप्रदाय के पार संन्यासी को होना चाहिए। और अगर इस पृथ्वी पर हम ऐसे संन्यासी पैदा कर सकें जो ईसाई नहीं है, हिंदू नहीं है, जैन नहीं है, बौद्ध नहीं है तो हम इस जगत को धार्मिक बनाने के रास्ते पर आसानी से ले जा सकेंगे। और अगर संन्यासी हिदू, बौद्ध और जैन न रह जाए तो आदमी—आदमी को लड़ाने के बहुत से आधार गिर जाएंगे और आदमी—आदमी को जोड्ने के बहुत से सेतु फैल जाएंगे। इसलिए संन्यासी को मैं सिर्फ धार्मिक कहता हूं—रिलिजस माइल्ड। उसका किसी धर्म विशेष से कोई लेना—देना नहीं है, क्योंकि सारे धर्म उसके अपने हैं। यह दूसरी बात है कि उसे गीता से प्रेम है और गीता पढ़ता है, यह दूसरी बात है कि उसे कृष्ण से प्रेम है और वह कृष्ण के गीत गाता है। यह दूसरी बात है कि उसे जीसस से मुहब्बत है और वह जीसस के चर्च में जाता है। ये बिलकुल दूसरी बातें हैं, ये उसकी व्यक्तिगत बातें हैं।
लेकिन अब वह ईसाई नहीं है, जैन नहीं है, हिंदू नहीं है, बौद्ध नहीं है। और कल अगर उसे किसी गांव का मंदिर बुलाता है तो मंदिर में रुकता है, मस्जिद बुलाती है तो मस्जिद में रुक जाता है, चर्च आमंत्रण देता है तो चर्च का मेहमान हो जाता है। अगर हम पृथ्वी पर लाख दो लाख संन्यासी भी धर्मों के पार निर्मित कर सकें तो हम दुनिया में आदमी आदमी के बीच के वैमनस्य को गिराने के लिए सबसे बड़ा कदम उठा सकते हैं।
इस तरह संन्यास को मैं तीन हिस्सों में बांट देना पसंद करता हूं तो आपको समझने में आसान हो जाएगा। वे लोग जो अपनी जिंदगी को जैसा चला रहे हैं वैसा ही चलाकर संन्यासी होना चाहते हैं, वे वैसे ही संन्यासी हो जाएं। सिर्फ संन्यास की घोषणा अपने और जगत के प्रति कर दें, संन्यास का निर्णय अपने और जगत के प्रति ले लें, लेकिन जहां हैं, उसमें रत्तीभर फर्क न करें। जो हैं, उसमें फर्क करना शुरू कर दें।
लेकिन बहुत लोग हैं—ढेर वृद्ध मुझे मिलते हैं जो घरों में तकलीफ में पड़ गए हैं, क्योंकि घरों में अब उनका कोई संबंध नहीं है। आनेवाली पीढ़ियों को उनमें कोई रस नहीं है, सारे सेतु उनके बीच टूट गए हैं, वृद्धों को तो निश्‍चित ही आश्रमों में पहुंच जाना चाहिए। इस मुल्क में एक व्यवस्था थी, उस व्यवस्था के टूट जाने के बाद शायद जिसको हम जनरेशन गैप कहते हैं वह पैदा हुआ, सारी दुनिया में पैदा हुआ। उसे हम पीढ़ियों का फासला कहते हैं।
इस मुल्क की एक व्यवस्था थी कि पच्चीस साल तक के विद्यार्थी को हम जंगल में रखते थे और पचहत्तर साल के बाद जो बूढे थे, संन्यासी थे उनको जंगल में रखते थे। वह पचहत्तर साल के जो के संन्यासी थे वे जंगल में गुरु का, शिक्षक का काम देते। और वह जो पच्चीस साल के युवा, पच्चीस साल से छोटे बच्चे पढ़ने आते जंगलों में, वे विद्यार्थी का काम कर देते। हम पहली पीढ़ी की आखिरी पीढ़ी से मुलाकात करवा देते थे, उन दोनों के बीच डायलॉग हो जाता था, उन दोनों के बीच संबंध हो जाता था। सत्तर साल, पचहत्तर साल का बूढ़ा पांच और दस साल के बच्चों से मुलाकात ले लेता था.. सत्तर—पचहत्तर साल में जो उसने जिंदगी से जाना और सीखा!
और बहुत कुछ चीजें हैं जो युनिवर्सिटीज में नहीं सीखी जातीं, सिर्फ जिंदगी के अनुभव में सीखी जाती हैं। जिस दिन से हमें यह खयाल पैदा हो गया कि सारा ज्ञान विश्वविद्यालय से मिल सकता है, उस दिन से दुनियां में जान तो बहुत है लेकिन विजडम, प्रज्ञा बहुत कम होती चली गई है। युनिवर्सिटीज में भला जान मिल जाए, पता, विजडम नहीं मिलती है। विजडम तो जिंदगी की ठोकरों और टक्करों और संघर्षों में ही मिलती है, वह तो जिंदगी से गुजरकर ही मिलती है।
तो हम सबसे ज्यादा बूढ़े व्यक्ति को अपने सबसे ज्यादा छोटे बच्चे से मिला देते थे ताकि दोनों पीढ़ियां मिल जाती, ताकि विदा होती पीढ़ी, डूबता हुआ सूरज उगते हुए सूरज से मुलाकात ले जाए और जो बारह घंटे की यात्रा पर उसने पाया है वह उगते हुए सूरज को दे जाए। वह संबंध टूट गया है।
उसके खतरनाक परिणाम हुए हैं। पीढ़ियों के बीच फासला बढ़ गया है। बूढ़े और बच्चों के बीच कोई डायलॉग नहीं है, बूढे और बच्चों के बीच कोई बातचीत नहीं है। बूढ़े की भाषा न बच्चे समझते हैं, न बच्चे की भाषा बूढ़े समझ पाते हैं। के बच्चों पर नाराज हैं, बच्चे को पर हंस रहे हैं, वह उनकी नाराजगी का ढंग है। अगर जीवन में एक तारतम्य न रह जाए और जीवन में पीढ़ियां इस तरह दुश्मन की तरह खड़ी हो जाएं तो जिंदगी एक अराजकता बन जाती है। उस जिंदगी से सारा संगीत खो जाता है।
तो मेरी दृष्टि में है कि एक तो संन्यासी जो अपने घरों में अपनी जिम्मेवारियों के बीच में संन्यासी होंगे, लेकिन कल उनमें से बहुत लोग जिम्मेवारियों से बाहर हो जाएंगे। बहुत से लोग आज जिम्मेवारियों के बाहर हैं, जिन पर कोई जिम्मेवारी नहीं है वे घरों में बोझ भी हो जाते हैं क्योंकि जो सदा से काम से भरे रहे हैं, खाली होना उन्हें बहुत मुश्किल होता है। तब वे बेकार के काम करने लगते हैं जिनसे दूसरों के काम में बाधा पड़नी शुरू हो जाती है। उन्हें जिंदगी की भीड़ और बाजार को छोड़कर जरूर आश्रम की दुनियां में चले जाना चाहिए। वहां वे साधना भी करें, ध्यान भी करें, परमात्मा को भी खोजें और उन्हें जो मिल जाए वह बच्चों को बांटें। और गांवों के जो बच्चे उनके पास कभी महीने दो महीने के लिए आकर बैठते रहें, ज्यादा देर भी रह सकते हैं क्योंकि मैं तो मानता ही यह हूं, कि ऐसे आश्रम ही युनिवर्सिटीज बन जाने चाहिए। इन बच्चों को वे अपना सारा. सब कुछ दे जाएं जो उन्होंने जाना है।
ऐसे युवक भी हो सकते हैं जिनके व्यक्तित्व की दिशा ऐसी है कि वे नहीं जाना चाहते संसार में तो उन्हें जरूरी भेजना... आवश्यक नहीं है। ढेरों लोग हैं जिनके पिछले जन्मों की यात्रा उस जगह उन्हें ले आयी है कि उनके विवाह का कोई अर्थ नहीं होगा। उनके लिए अब जगत में बहुत अर्थ नहीं होगा। अगर ऐसे लोग हैं तो उन्हें जबर्दस्ती जगत में डालना वैसा ही पागलपन है जैसे किसी आदमी को, जिसे अभी विवाह करना था, जबर्दस्ती दीक्षा दे देना पागलपन है।
नहीं, जिनकी जिंदगी में सहज ही सुगंध है और जो घर छोड़कर इस घेरे के बाहर जीना चाहते हैं वे जरूर आश्रमों में जियें यद्यपि उनके आश्रम प्रोडक्टिव, उत्‍पादक होने चाहिए। वहां वे खेती भी करें, बगीचे भी लगाएं फैक्टरी भी चलाएं स्कूल भी चलाएं अस्पताल भी चलाएं वे वहां भी पैदा करें और उस पैदावार पर ही जियें। ये तीनों दिशाओं में. और जो लोग इन तीनों में से कुछ भी नहीं कर सकते वे इतना तो कर सकते हैं कि वर्ष में पंद्रह दिन हाली—डे पर चले जाएं।
अंग्रेजी का यह हाली—डे शब्द बहुत अच्छा है।हाली—डे' का मतलब छुट्टी का दिन नहीं होता। हाली—डे का मतलब है, पवित्र दिन। वह जो रविवार है वह अंगेजों के लिए, पश्चिम में हाली—डे है, पवित्र दिन है, क्योंकि उस दिन परमात्‍मा ने भी काम छोड दिया था दुनियां बनाकर। उस दिन उसने आराम किया था। छह दिन उसने दुनियां बनायी, सातवें दिन वह भी संन्यासी हो गया। सातवें दिन उसने आराम किया। जो छह दिन काम कर रहे हैं सातवें दिन उनको भी आराम चाहिए। जो सालभर काम कर रहे हैं वह भी महीनेभर के लिए हाली—डे पर चले जाएं पवित्र दिनों में चले जाएं! छोड दें, भूल जाएं इस दुनिया को एक महीने के लिए, डूब जाएं किसी और यात्रा में।
एक महीने संन्यासी की तरह किसी आश्रम में जीकर लौटें। तब आप दूसरे आदमी होकर लौटेंगे, आप कुछ आत्मिक होकर लौटेंगे, आंतरिक होकर लौटेंगे। दुनिया यही होगी लेकिन आपका दृष्टिकोण बदला हुआ होगा। मेरे लिए संन्यास का ऐसा अर्थ है। और यह व्यक्तिगत निर्णय और चुनाव है।
और ऐसा संन्यास अगर पृथ्वी पर फैलाया जा सका तो हम पृथ्वी से संन्यास को मिटने से रोक सकते हैं अन्यथा अब बहुत कठिन मामला है कि संन्यास बच सके। साम्यवाद की हवा जितनी जोर से फैलेगी, संन्यास की हत्या उतनी ही व्यवस्था से होती चली जाएगी। आज चीन में, जहां कल बुद्ध की प्रतिमा रखी थी वह प्रतिमा तो तोड़ डाली गई और माओ का फोटो लटका दिया गया है। आज चीन में बच्चों के स्कूल की दीवारों पर जो वचन लिखे हैं वे बहुत हैरानी के हैं। एक स्कूल की दीवार पर चीन में लिखा हुआ है कि जो बच्चा माओ की किताब एक दिन नहीं पढ़ता उसकी भूख मर जाती, जो बच्चा माओ की किताब दो दिन नहीं पढ़ता उसकी नींद चली जाती, जो बच्चा माओ की किताब तीन दिन नहीं पड़ता वह बीमार पड़ जाता, जो बच्चा माओ की किताब चार दिन नहीं पढ़ता उसकी जिंदगी अंधकारपूर्ण हो जाती है। माओ की किताब में ऐसा कुछ भी नहीं है कि कोई भी बच्चा दुनियां में कहीं भी उसे पढ़े, लेकिन स्कूल के बच्चों को ऐसा समझाया जा रहा है!
एक यात्री चीन गया था तो एक मनिस्ट्री के पास से गुजर रहा था, एक पहाड़ पर बने हुए आश्रम के पास से। तो उसने अपने गाइड से पूछा कि ऊपर जो आश्रम दिखाई पड़ता है पर्वत पर वहां साधु रहते होगे? तो उस गाइड ने कहा, माफ करिए, आप बड़े पुरानी बुद्धि के आदमी मालूम पड़ते हैं, वहां कम्‍युनिस्ट पार्टी का दफ्तर है। साधु अब वहां नहीं रहते, पहले रहते थे। लेकिन शोषक दिन समाप्त हुए, अब उन शोषकों की जगह नहीं है चीन में, अब वहां कम्युनिस्ट पार्टी का दफ़र है।
बुद्ध की जगह माओ को बिठा दिया जाएगा, आश्रमों की जगह कम्‍युनिस्ट पार्टी के दफ़र हो जाएंगे। कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के दफ़रों में ऐसा कुछ बुरा नहीं है, माओ की तस्वीर में ऐसा कुछ बुरा नहीं है, लेकिन जिस जगह उसे रखा जा रहा है उसमें जगत बहुत कुछ खो देगा। कहां बुद्ध, कहां माओ? कहां बुद्ध के जीवन का आनंद, कहां बुद्ध के जीवन का प्रेम, और करुणा, कहां बुद्ध की ऊंचाइयां, कहां बुद्ध के चित्त पर उतरा हुआ निर्वाण, कहां बुद्ध के एक—एक वचन का अमृत, और कहां माओ! उससे कोई भी तुलना नहीं... उससे कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन यह हो रहा है, यह सारी दुनियां में होगा।
यह कलकत्ते में हो रहा है, यह बम्बई में होगा। कलकत्ते की दीवारों पर लिखा हुआ है जगह—जगह कि चीन के अध्यक्ष माओ हमारे भी अध्यक्ष हैं। कलकत्ता और बम्बई में कुछ ज्यादा फासला नहीं है। और जो हाथ कलकत्ते की दीवार पर लिख रहे हैं उन हाथों में और बम्बई के हाथों में बहुत फर्क मुझे नहीं दिखायी पड़ता। इस जगत में धर्म का फूल तिरोहित हो जाए—अगर कोई ऐसा चाहता हो तो संन्यास की पुरानी धारणा से चिपके रहना चाहिए और इस जगत में धर्म के फूल को बचाना हो तो संन्यास की नयी धारणा को जन्म देना जरूरी


 'नव—संन्यास क्या?'
से संकलित प्रवचनांश
क्रॉस मैदान बम्बई दिनांक 1314 नवम्बर 1970


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