'नव— संन्यास
क्या?':
से
संकलित 'संन्यास:
मेरी दृष्टि
में' :
रेडिओ—वार्ता
आकाशवाणी
बम्बई से
प्रसारित
दिनांक
3 जुलाई 1971
मनुष्य
है एक बीज—अनन्त
सम्भावनाओं
से भरा हुआ।
बहुत फूल खिल
सकते हैं
मनुष्य में, अलग—अलग
प्रकार के।
बुद्धि
विकसित हो
मनुष्य की तो
विज्ञान का फूल
खिल सकता है
और हृदय
विकसित हो तो
काव्य का और
पूरा मनुष्य
ही विकसित हो
जाए तो
संन्यास का।
संन्यास
है,
समग्र
मनुष्य का
विकास। और
पूरब की
प्रतिभा ने
पूरी
मनुष्यता को
जो सबसे बड़ा
दान दिया—वह
है संन्यास।
संन्यास
का अर्थ है, जीवन
को एक काम की
भांति नहीं
वरन एक खेल की
भांति जीना।
जीवन नाटक से
ज्यादा न रह
जाए, बन
जाए एक अभिनय।
जीवन में कुछ
भी इतना
महत्वपूर्ण न
रह जाए कि चिन्ता
को जन्म दे
सके।
दुख हो
या सुख, पीड़ा
हो या संताप, जन्म हो या
मृत्यु
संन्यास का
अर्थ है इतनी
समता में जीना—हर
स्थिति में—ताकि
भीतर कोई चोट
न पहुंचे।
अन्तरतम में
कोई झंकार भी
पैदा न हो।
अंतरतम ऐसा
अछूता रह जाए
जीवन की सारी
यात्रा में, जैसे कमल के
पत्ते पानी
में रहकर भी
पानी से अछूते
रह जाते हैं।
ऐसे
अस्पर्शित, ऐसे असंग, ऐसे जीवन से
गुजरते हुए भी
जीवन से बाहर
रहने की कला
का नाम
संन्यास है।
यह
कला विकृत भी
हुई। जो भी इस
जगत में
विकसित होता
है,
उसकी
सम्भावना
विकृत होने की
भी होती है।
संन्यास
विकृत हुआ, संसार के
विरुद्ध खड़े
हो जाने के
कारण—संसार की
निंदा, संसार
की शत्रुता के
कारण।
संन्यास खिल
सकता है वापस,
फिर मनुष्य
के लिए आनन्द
का मार्ग बन
सकता है, संसार
के साथ
संयुक्त होकर,
संसार को
स्वीकृत करके।
संसार का
विरोध
करनेवाला, संसार
की निन्दा और
संसार को
शत्रुता के
भाव से
देखनेवाला
संन्यास अब
आगे सम्भव
नहीं होगा। अब
उसका कोई
भविष्य नहीं
है। है भी
रुग्ण वैसी
दृष्टि।
यदि
परमात्मा है
तो यह संसार
उसकी ही
अभिव्यक्ति
है। इसे छोड़कर, इसे
त्यागकर
परमात्मा को
पाने की बात
ही ना—समझी है।
इस संसार में
रहकर ही इस
संसार से
अछूते रह जाने
की जो
सामर्थ्य
विकसित होती
है, वही इस
संसार का पाठ
है, वही इस
संसार की
सिखावन है। और
तब संसार एक
शत्रु नहीं
वरन एक
विद्यालय हो
जाता है और तब
कुछ भी त्याग
करके—सचेष्ट
रूप से त्याग
करके, छोड़कर
भागने की
पलायन—वृत्ति
को
प्रोत्साहन
नहीं मिलता
वरन जीवन को
उसकी समग्रता
में, स्वीकार
में, आनन्दपूर्वक,
प्रभु का
अनुग्रह
मानकर जीने की
दृष्टि विकसित
होती है।
भविष्य
के लिए मैं
ऐसे ही
संन्यास की
सम्भावना
देखता हूं जो
परमात्मा और
संसार के बीच
विरोध नहीं
मानता, कोई
खाई नहीं
मानता वरन
संसार को
परमात्मा का प्रगट
रूप मानता है।
परमात्मा को
संसार का
अप्रगट छिपा
हुआ प्राण मानता
है। संन्यास
को ऐसा
देखेंगे तो वह
जीवन को दीन—हीन
करने की बात
नहीं, जीवन
को और समृद्धि
और सम्पदा से
भर देने की बात
है।
वास्तव
में जब भी कोई
व्यक्ति जीवन
को बहुत जोर
से पकड़ लेता
है तब ही जीवन
कुरूप हो जाता
है। इस जगत
में जो भी हम
जोर से पकड़ेंगे, वही
कुरूप हो
जाएगा। और
जिसे भी हम
मुक्त रख सकते
हैं, स्वतंत्र
रख सकते हैं, मुट्ठी
बांधे बिना रख
सकते हैं, वही
इस जगत में
सौंदर्य को, श्रेष्ठता
को शिवत्व को
उपलब्ध हो
जाता है।
जीवन
के सब रहस्य
ऐसे हैं, जैसे
कोई मुट्ठी
में हवा को
बांधना चाहे।
जितने जोर से
बांधी जाती है
मुट्ठी, हवा
मुट्ठी के
उतने ही बाहर
हो जाती है।
खुली मुट्ठी
रखने की
सामर्थ्य हो
तो मुट्ठी हवा
से भरी रहती
है और बंधी
मुट्ठी ही हवा
से खाली हो
जाती है।
उल्टी दिखाई
पड़नेवाली, उलट—बासी
सी यह बात कि
मुट्ठी खुली
हो तो हवा भरी
रहती है और
बंद की गई हो, बंद करने की
आकांक्षा हो
तो मुट्ठी
खाली हो जाती
है, जीवन
के समस्त
रहस्यों पर यह
बात लागू होती
है।
कोई
अगर प्रेम को
पकड़ेगा, बांधेगा
तो प्रेम नष्ट
हो जाएगा। कोई
अगर आनंद को
पकड़ेगा, बांधेगा
तो आनंद नष्ट
हो जाएगा और
अगर कोई जीवन
को भी पकड़ना
चाहे, बांधना
चाहे तो जीवन
भी नष्ट हो
जाता है।
संन्यास
का अर्थ है :
खुली हुई
मुट्ठीवाला
जीवन, जहां हम
कुछ भी बांधना
नहीं चाहते, जहां जीवन
एक प्रवाह है
और सतत नये की
स्वीकृति और
कल जो दिखाएगा
उसके लिए भी
परमात्मा को धन्यवाद
का भाव।
बीते
हुए कल को भूल
जाना है, क्योंकि
बीता हुआ कल
अब स्मृति के
अतिरिक्त और
कहीं नहीं है।
जो हाथ में है,
उसे भी
छोड़ने की
तैयारी रखनी
है, क्योंकि
इस जीवन में
सब कुछ
क्षणभंगुर है।
जो अभी हाथ
में है, क्षणभर
बाद हाथ के
बाहर हो जाएगा।
जो सांस अभी
भीतर है, क्षणभर
बाद बाहर होगी।
ऐसा प्रवाह है
जीवन। इसमें
जिसने भी
रोकने की
कोशिश की, वह
वही गृहस्थ है
और जिसने जीवन
के प्रवाह में
बहने की
सामर्थ्य साध
ली, जो
प्रवाह के साथ
बहने लगा—सरलता
से, सहजता
से, असुरक्षा
में, अनजान
में, अज्ञान
में—वही
संन्यासी है।
संन्यास
के तीन बुनियादी
सूत्र खयाल
में ले लेने
जैसे हैं।
पहला—जीवन
एक प्रवाह है।
उसमें रुक
नहीं जाना, ठहर
नहीं जाना, वहां कहीं
घर नहीं बना
लेना है। एक
यात्रा है
जीवन। पड़ाव है
बहुत, लेकिन
मंजिल कहीं भी
नहीं। मंजिल
जीवन के पार
परमात्मा में
है।
दूसरा
सूत्र—जीवन
जो भी दे उसके
साथ पूर्ण
संतुइष्ट और
पूर्ण
अनुग्रह, क्योंकि
जहां
असंतुष्ट हुए
हम तो जीवन जो
देता है, उसे
भी छीन लेता
है और जहां
संतुष्ट
हुएहम कि जीवन
जो नहीं देता,
उसके भी
द्वार खुल
जाते हैं।
और
तीसरा सूत्र—जीवन
में सुरक्षा
का मोह न रखना।
सुरक्षा संभव
नहीं है। तथ्य
ही असंभावना
का है।
असुरक्षा ही
जीवन है। सच
तो यह है कि
सिर्फ मृत्यु
ही सुरक्षित
हो सकती है।
जीवन तो
असुरीक्षत
होगा ही।
इसलिए जितना
जीवंत
व्यक्तित्व
होगा, उतना
असुरक्षित
होगा और जितना
मरा हुआ व्यक्तित्व
होगा, उतना
सुरक्षित
होगा।
सुना
है मैंने, एक
सूफी फकीर
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
अपने मरते वक्त
वसीयत की थी
कि मेरी कब्र
पर दरवाजा बना
देना और उस
दरवाजे पर
कीमती से
कीमती, वजनी
से वजनी, मजबूत
से मजबूत ताला
लगा देना, लेकिन
एक बात ध्यान
रखना, दरवाजा
ही बनाना, मेरी
कब्र की चारों
तरफ दीवार मत
बनाना। आज भी
नसरुद्दीन की
कब्र पर
दरवाजा खड़ा है,
बिना
दीवारों के, ताले लगे
हैं—जोर से, मजबूत। चाबी
समुद्र में
फेंक दी गई, ताकि कोई
खोज न ले।
नसरुद्दीन की
मरते वक्त यह
आखिरी मजाक थी—संन्यासी
की मजाक, संसारियों
के प्रति। हम
भी जीवन में
कितने ही ताले
डालें, सिर्फ
ताले ही रह
जाते हैं।
चारों तरफ
जीवन
असुरक्षित है
सदा, कहीं
कोई दीवार
नहीं है।
जो
इस तथ्य को
स्वीकार करके
जीना शुरू कर
देता है—कि
जीवन में कोई
सुरक्षा नहीं
है,
असुरक्षा
के लिए राजी
हूं मेरी
पूर्ण सहमति
है, वही
संन्यासी है
और जो
असुरक्षित
होने को तैयार
हो गया—निराधार
होने को—उसे
परमात्मा का
आधार उपलब्ध
हो जाता है।
'नव—
संन्यास क्या?':
से
संकलित 'संन्यास:
मेरी दृष्टि
में' :
रेडिओ—वार्ता
आकाशवाणी
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3 जुलाई 1971
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