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गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

मन ही पूजा मन ही धूप--(प्रवचन--08)

सत्‍संग की मदिरा—(प्रवचन—आठवां)

प्रश्‍न—सार:

1—ओशो, सत्‍संग क्या है? मैं कैसे करूं सत्‍संग—अपके संग—ताकि इस बुझे दीये को भी लौ लगे?

 2—ओशो, आपका धर्म इतना  सरल क्यों है? इसी सरलता के कारण वह धर्म जैसा ना लग कम उत्सव मालूम होता है और अनेक लोगों को इसी कारण आप धार्मिक नहीं मालूम होते है। मैं स्‍वंय तो अपने से कहता हूं: उत्‍सव मुक्‍ति है, मुक्‍ति उत्‍सव है।

3—ओशो, मैं पहली बार पूना आया एवं आपके दर्शन किए। आनंद—विभोर हो गया। आश्रम का माहौल देख कर आंसू टपकने लगे। मैंने, सुना और महसूस किया: यह सूरज सारी धरा को प्रकाशवान कर रहा है। किंतु ओशो, पूना में अँधेरा पाया। कारण बताने की कृपा करें।


4—हर एक तृप्‍ति का दास यहां,
पर एक बात है खास यहां,
पीने से बढ़ती व्यास यहां,
ओशो, तृष्णा के मुक्त होने का सरल मार्ग दें!

 5—ओशो, आप विवाह का इतना मजाक क्यों उडाते हैं?

 6—ओशो, शास्‍त्र कहते हैं, स्‍त्री नरक का द्वार है। आप क्या कहते हैं?


पहला प्रश्न:

ओशो, सत्‍संग क्या है? मैं कैसे करूं सत्‍संग—अपके संग—ताकि इस बुझे दीये को भी लौ लगे?

शोक सत्यार्थी, यह भी खूब रही! सत्संग में बैठे हो और पूछते हो सत्संग क्या है!
कबीर ने बहुत से अचंभों की बात कही है, उनमें एक अचंभा यह भी कहा है कि मछली सागर में है और प्यासी है। निश्चित ही, सागर में मछली जल के लिए प्यासी नहीं होगी, मछलियां इतनी नासमझ नहीं। लेकिन एक और प्यास होगी, एक और जिज्ञासा होगी जानने की—यह सागर क्या है? मछली पूछती होगी अपने से, औरों से— क्या है सागर? कहां है सागर? कैसे हुआ जाता है सागर में? और सागर में ही जन्मी है, सागर में ही जीयी है, सागर में है। पर सागर और मछली के बीच फासला नहीं है। इतना नैकटच है, इतनी समीपता है— इसीलिए सागर का पता नहीं चलता।
ऐसी ही तुम्हारी दशा है, अशोक। यहां डूबे हो सागर में। जानना चाहते हो सत्संग क्या है, तो एक ही उपाय है— कुछ दिन के लिए पीठ कर लो मेरी तरफ, भाग जाओ जितनी दूर भाग सको। जैसे मछली को कोई निकाल कर डाल दे तट पर, भरी धूप में, दोहपरी में उत्तप्त रेत पर और तत्थण मछली को पता चल जाएगा कि सागर क्या है—ऐसा ही अबूझ है जीवन। जो चीज मिली होती है, उसका पता नहीं चलता; जो खो जाती है, उसका पता चलता है। आदमी सच में ही बेबूझ है। और कबीर ने जो अचंभे कहे ऐसे ही नहीं कहे। लोगों को तो लगा कि उलटबासिया हैं, कि बड़ी उलटी बातें कह रहे हैं।
कबीर कहते हैं कि मुझे बड़ी हंसी आती है— मछली और सागर में प्यासी है! लेकिन यही हो रहा है।
तुम पूछते हो ' सत्संग क्या है?'
सत्य ही तुम्हारा जीवन है। सत्य में ही तुम जन्मे हो, सत्य से ही जन्में हो। वेद के ऋषि कहते हैं. अमृतस्य पुत्र:! हे अमृत के पुत्रो!
उद्दालक ने अपने बेटे श्वेतकेतु को कहा है—तत्वमसि! श्वेतकेतु ने पूछा था, वह कौन है? वह जिसकी सब खोज करते हैं; वह जिसकी सब तलाश करते हैं, जिज्ञासा करते हैं। वह एक क्या है जिसे जानने से सब जान लिया जाता है?
उद्दालक ने ही कहा था श्वेतकेतु को कि खोज उस एक को जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। स्वभावत: श्वेतकेतु ने पूछा वह एक क्या है? कहां है? और ऋषि ने कहा अपने बेटे को— तत्वमसि! वह तू ही है।
इस जगत में हम अपने से अपरिचित क्यों रह जाते हैं? औरों से परिचित हो जाते हैं, अपने से अपरिचित! कारण? कारण इतना ही है कि अपने से हमारी कोई दूरी नहीं है। वहां कौन बने जानने वाला और कौन बने ज्ञान का विषय? कौन हो ज्ञाता, कौन हो ज्ञेय? कौन हो द्रष्टा, कौन हो दृश्य? वहां तो दोनों एक हैं। वहां द्रष्टा ही दृश्य है। और इसीलिए मुश्किल है।
तुम पूछते हो 'सत्संग क्या है?'
इस क्षण जो घट रहा है यह सत्संग है। इधर मेरा शून्य तुमसे बोल रहा है, उधर तुम्हारा शून्य मुझे सुन रहा है। बोलना तो बहाना है। इस निमित्त मेरा शून्य तुम्हारे शून्य से मिल रहा है। इस निमित्त तुम्हारा शून्य मेरे शून्य के साथ नाच रहा है, तरंगायित हो रहा है। बोलना तो एक खूंटी है; उस पर मैंने टांग दिया अपने शून्य को, तुमने टांग दिया अपने शून्य को— दो शून्य मिल कर जहां एक हो जाते हैं वहां सत्संग है। और दो शून्य पास आएं तो एक हो ही जाते हैं। दो शून्य मिल कर दो शून्य नहीं होते, एक शून्य होता है। हजार शून्य मिल कर भी एक ही शून्य होगा, हजार नहीं।
यहां इतने लोग बैठे हैं। जितने लोग मेरे साथ डूब गए हैं, उनकी गिनती गई, उनका आकड़ा नहीं बचा, उनका नाम— धाम, पता—ठिकाना गया। उतर गया नमक का पुतला सागर में, हो गया सागर के साथ एक। और एक हुए बिना जानने का कोई उपाय नहीं है।
लेकिन प्रश्न तुम्हारे मन में उठा है— इसीलिए कि हो तो सागर में, मगर अभी भी अपने को बचा रहे हो। छोड़ो बचाना! यह तो मिटने की कला है। यह तो मिटने वालों की जगह है। इसीलिए तो कहता हूं यह मंदिर नहीं, मैखाना है, मधुशाला है। पीओ और डूबो! ऐसे बेहोश हो जाओ कि फिर कभी होश आए ही न— और बस वही परम होश है! ऐसे मिटो कि फिर दुबारा बन न सको— वही मिटना महानिर्वाण है, समाधि है। लेकिन तुम अपने को बचा रहे हो। तुम किसी तरह अपने को छिपा रहे हो।
अशोक, तुमने एक प्रश्न और भी पूछा है, उससे जाहिर है कि अड़चन कहां हो रही होगी। उस प्रश्न में तुमने पूछा है कि 'आप सबके प्रश्नों के उत्तर देते हैं, मेरे प्रश्नों के उत्तर क्यों नहीं देते?'
तुम्हें न प्रश्नों से प्रयोजन है, न उत्तरों से। तुम्हें तो इस बात की फिकर पड़ी है कि मेरे प्रश्न का उत्तर! मेरे का सवाल है। तुम सुनना चाहते हो कि तुम्हारा नाम मैंने लिया। तुम्हारा रस उसमें है। अन्यथा मैं एक का उत्तर नहीं देता हूं एक के उत्तर में अनेक के प्रश्नों के उत्तर हैं। मैं वे ही प्रश्न चुनता हूं जो बहुतों के प्रश्न हैं। व्यक्तियों के हिसाब से नहीं चुनता, प्रश्नों के हिसाब से चुनता हूं। ऐसे प्रश्न जो पूछे किसी ने भी हों, मगर बहुतों के हृदय में उठ रहे हैं— उनके ही उत्तर देता हूं। किसने पूछा है यह तो गौण है, प्रश्न का महत्व है।
लेकिन तुम्हें फिकर नहीं है। तुम रोज प्रश्न भेजते जाते हो। तुम्हारी आशा एक ही है कि कभी न कभी तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूं। क्या उत्तर दूंगा, इसकी भी तुम्हें चिंता नहीं है; तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया जाएगा, उससे अहंकार तृप्त होगा। वही अहंकार तुम्हें सत्संग से बचा रहा है। वहीं तुम अटके हो। उतनी अस्मिता भी काफी है दूरी के लिए, फासला के बनाए रखने के लिए।
सत्संग में डूबना है तो क्या मैं, क्या तू! सत्संग में डूबना है तो क्या प्रश्न और क्या उत्तर! सत्संग में डूबना है तो तुम्हें एक और ही कला सीखनी होगी—मेरे साथ छंदबद्ध होने की! मेरे हृदय के साथ तुम्हारा हृदय धड़के, मेरी श्वासों के साथ तुम्हारी श्वासें चलें! मेरे भीतर जो दीया जला है, उस दीये के साथ फिर तुम्हारा दीया भी जल जाएगा। मेरे भीतर जो राग उठा है, वह तुम्हारे भीतर भी अनुगूजित होगा।
तुमने सुना होगा, कहानियां हैं पुराने संगीतज्ञों की, दीपक राग की—कि कोई संगीतज्ञ ऐसा गीत गाए, कि ऐसी धुन बजाए, कि ऐसा राग उठाए, कि बुझे दीये जल जाएं! मुझे पता नहीं, यह बात संगीतज्ञों के संबध में सच हो या न हो। मैं कोई संगीतज्ञ नहीं हूं। सच हो भी सकती है। ध्वनियों के एक खास आघात से ताप पैदा हो सकता है, अग्नि जल सकती है ध्वनियों की चोट से। अगर दो पत्थरों की रगड़ से आग पैदा हो सकती है, तो दो ध्वनियों की रगड़ से क्यों नहीं! संभावना है।
मगर मैं कोई संगीतज्ञ नहीं हूं इसलिए उस संबंध में मैं कुछ प्रामाणिक रूप से नहीं कह सकूंगा। मगर मेरे हिसाब में यह कहानी किन्हीं और संगीतज्ञों के संबंध में है। यह तानसेन और बैजू बावत के संबंध में नहीं; यह कहानी बुद्ध के संबंध में, कृष्ण के संबंध में, कबीर के संबंध में, रैदास के संबंध में, फरीद के संबंध में, नानक के संबंध में, मोहम्मद के संबंध में, जीसस केसंबंध में है। यह परम संगीतज्ञों के संबंध में सही है—एकदम सही है! उस संबंध में मैं गवाही दे सकता हूं। उसका मैं प्रत्यक्ष प्रमाण हूं। वह मेरी आंखों देखी बात है। और जो मेरी आंखों देखी नहीं है वह मैं तुमसे कहता नहीं। बस आंखन देखी ही कहता हूं।
ऐसा एक राग है— कालातीत, मनातीत! ऐसी एक धुन है कि अगर तुम, जिसके भीतर वैसा राग जगा है, उसके पास बैठने की कला सीख जाओ, अगर उसके पास तुम खुले मन होकर बैठ जाओ बिना किसी सुरक्षा के, सारा कवच सुरक्षा का उतार कर रख दो, बिना किसी संदेह के, बिना किसी प्रश्न के, सिर्फ बैठने का आनंद हो, किसी के पास बस बैठने का आनंद, केवल बैठने में ही रस हो और धीरे— धीरे दो व्यक्तियों की सीमाएं एक—दूसरे में लीन होने लगें—तो जिसके भीतर राग जगा है, उसका रण तुम्हारे भीतर भी राग को जगा देगा। और यह राग ही ज्योति का है। जिसके भीतर ज्योति जगी है, अगर तुम उसके पास सरकते आए, सरकते आए, सरकते आए, तो एक क्षण उसकी ज्योति से लपट उठेगी और तुम्हारा बुझा दीया भी जल जाएगा।
इसका नाम सत्संग है। सत्संग वहां है जहां जले दीयों के पास बुझे दीये सरकते—सरकते एक दिन जल उठते हैं। जहां एक दीये से हजारों दीये जल उठते हैं। जिस दीये से हजारों दीये जलते हैं, उस दीये का कुछ खोता नहीं; लेकिन जो जल जाते हैं, उन्हें इस जगत की सबसे बड़ी संपदा मिल जाती है। सत्सग का एक ही अर्थ है सदगुरु के पास बैठने की कला। बैठने की कला का अर्थ है. अहंकार छोड़ो, अपना नाम—पता—ठिकाना छोड़ो, अपने मन की शंका—कुशकाए छोड़ो। बहुत कर लिए ऊहापोह, पाया क्या?
बहुत सोचा विचारा, कमाया क्या? बहुत दौड़े— धापे, पहुंचे कहां? अब थोड़े निश्चित होकर बैठ जाओ मेरे पास—किसी उत्तर की तलाश में नहीं!
कोई गुलाब के फूल के पास बैठता है तो कोई उत्तर की तलाश होती है? कोई रात आकाश के तारों को देखता है तो उत्तर की तलाश होती है? कोई सुबह ऊगते सूरज का दर्शन करता है तो कोई उत्तर की तलाश होती है? ऐसा ही तो घटता है कभी किसी सदगुरु में— सारे आकाश के तारे उसमें उतर आते हैं! जो अपनी सीमाएं छोड़ देता है, जो अपना आगन तोड़ देता है, जो अपनी दीवालों से मुक्त हो जाता है— सारा आकाश उसका है। एक आगन क्या छोड़ा, सारा आकाश अपना हो जाता है। सारा आकाश अपना आगन हो जाता है!
और जिसके भीतर आत्मा का सूर्य उदय हुआ है, जहां प्रभात हो गई, और जिसके भीतर सुबह के पक्षी गीत गाने लगे, पर फड़फड़ाने लगे— बस उसके पास बैठो, रमो! न कुछ पूछने को है, न कुछ कहने को है। डूबने को है, मिटने को है जरूर! और तब तुम जान लोगे, सत्संग क्या है!


दूसरा प्रश्न:

ओशो, आपका धर्म इतना  सरल क्यों है? इसी सरलता के कारण वह धर्म जैसा ना लग कम उत्सव मालूम होता है और अनेक लोगों को इसी कारण आप धार्मिक नहीं मालूम होते है। मैं स्‍वंय तो अपने से कहता हूं: उत्‍सव मुक्‍ति है, मुक्‍ति उत्‍सव है।

मुकेश भारती, यह प्रश्न महत्वपूर्ण है।
मेरा धर्म सरल है, ऐसा नहीं— धर्म ही सरल है। और धर्म मेरा—तेरा थोड़े ही होता है। मेरा धर्म यानी क्या? मेरा प्रकाश यानी क्या? मेरी सुगंध यानी क्या? यह तो वही शाश्वत सुगंध है— सनातन। एस धम्मो सनंतनो! सदा—सदा से जिन्होंने जाना है, यही कहा है। भाषा अलग, मगर भाव अलग नहीं। शब्द अलग, मगर शब्दों का सार अलग नहीं। यही गीत गाया है— किसी ने वीणा पर गाया होगा और किसी ने बांसुरी से, किसी ने मृदंग बजाई होगी और किसी ने इकतारा। वाद्य अलग—अलग, राग नहीं है अलग— सरगम वही है।
तो पहली तो बात, मेरा धर्म, ऐसी कोई बात नहीं होती। मेरा—तेरा को धर्म तक खींच लाओगे? धर्म को तो बचने दो! मेरी दुकान ठीक, मेरा मकान ठीक, मेरा धन, मेरी पत्नी, मेरा पति— वहां तक मेरा सार्थक है। मगर कहीं तो एक सीमा आने दो मेरे की, जहां से मेरा और मैं दोनों विदा हो जाएं। उनको अलविदा कहो। कोई जगह तो हो जहां उन्हें छोड़ दो और तुम आगे बढ़ जाओ। जैसे सांप अपनी पुरानी केंचुल को छोड़ कर सरक जाता है, ऐसे कोई स्थल तो होना चाहिए जहां तुम मैं और तेरा और मेरा इसकी केंचुल से बाहर सरक जाओ।
यह स्थल मैं— मेरे से मुक्त होने के लिए है। और वही तो तीर्थ है जहां तुम मैं और मेरे से मुक्त हो जाओ। वही तो धर्म है। धर्म स्वभाव है, इसलिए किसी का नहीं हो सकता, किसी की बपौती नहीं हो सकती— न हिंदू का, न मुसलमान का, न ईसाई का, न जैन का, न सिक्स का, न पारसी का।
मगर हम ऐसे मूढ़ हैं, हम ऐसे अज्ञानी कि जहां मेरा मिट जाना चाहिए वहां भी मेरे के डंडे और मेरे के झंडे उठाए खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, तलवारें चलती हैं, खून खराबा होता है, मंदिर—मस्जिद जलते हैं। धर्म के नाम पर इतना पाप हुआ है जितना किसी और नाम पर नहीं। वह धर्म के कारण नहीं हुआ, मेरे—तेरे के कारण हुआ है।
मैं अमृतसर था। स्वर्ण—मंदिर के व्यवस्थापकों ने मुझे निमंत्रित किया तो मैं गया। जो व्यक्ति, दस— पंद्रह व्यक्ति व्यवस्थापक और प्रमुख, और जो खास—खास मंदिर के लोग थे, मुझे लेकर अंदर चले। सीढ़ियों पर ही उन्होंने कहा कि एक बात आपको बता देनी जरूरी है हमारा यह मंदिर ही एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां हम हिंदू—मुसलमान में भेद नहीं करते। मैंने उनसे कहा पूछा किसने? कहने की जरूरत क्यों आई? भेद करते हो; इसलिए नहीं भेद करते, इसकी अकड़ है!
मैंने कहा मेरी तरफ देखो, मैं हिंदू हूं कि मुसलमान? मैं न तो हिंदू हूं, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध। मैं तो आस्तिक और नास्तिक भी नहीं, मैं तो बस धार्मिक हूं। यह क्या बात कही— और बड़े गौरव से कही! यह भी अहंकार बन गया। इसके पीछे भी मैं खड़ा हो गया।
मैं बड़ा चालबाज है— हिंदू के पीछे खड़ा हो जाए, मुसलमान के पीछे खड़ा हो जाए, हिंदू—मुसलमान की एकता के पीछे खड़ा हो जाए! अल्लाह—ईश्वर तेरे नाम इसके पीछे खड़ा हो जाए! अहंकार इतना चालबाज है कि दिखाई ही नहीं पड़ता कि कब सरक कर आ जाता है और कहां से आ जाता है; उसके बड़े सूक्ष्म रास्ते हैं। बड़ी सजग आंखें हों तो ही उससे बचा जा सकता है।
उन्होंने कहा कि हम किसी क्रियाकांड में मानते नहीं—न हिंदू के, न मुसलमान के। नानक ने तो सभी क्रियाकाडों से मुक्त कर दिया। मैंने कहा यह बहुत अच्छा हुआ।
लेकिन मैंने देखा कि जैसे ही मैं भीतर चला, वे सब परेशान होने लगे। वे मुझसे कुछ कहना चाहते हैं यह मुझे लगे, लेकिन कह नहीं पाते। फिर आखिर उनमें से एक ने मुझे अलग ले जाकर कान में फुसफुसाया कि क्षमा करें, आप बिना टोपी के अंदर नहीं जा सकते।
मैंने उनसे कहा कि यह टोपी की झंझट तो बड़ी मुश्किल है। इस टोपी के कारण मुझे स्कूल में दिनों बाहर खड़े रहना पड़ा है। आखिर मेरे स्कूल के अध्यापक थक गए मुझे बाहर खड़ा कर—कर के। आखिर उन्होंने कहा कि भाड़ में जाए टोपी, अब हम तुमसे टोपी की बात नहीं करेंगे। मैं उनसे कहता कि मुझे इसकी वैज्ञानिकता बता दो।
अब टोपी की कोई वैज्ञानिकता है? मेरे जो हेड मास्टर थे, वे विज्ञान के एमएससी. थे, वे अपना सिर ठोक लें; वे कहें कि मैं एमएससी. हूं प्रथम श्रेणी का गोल्डमेडलिस्ट हूं— मगर टोपी की वैज्ञानिकता, तुम भी खूब सवाल...! मैंने कहा. इसका क्या रसायनशास्त्र है? इसका क्या गणित है? टोपी से क्या फायदा होगा? बुद्धि बढ़ेगी कि घटेगी? कुछ इसमें राज हो तो मैं जरूर लगाऊं; एक नहीं दो लगाऊं, दस लगाऊं, टोपी पर टोपी लगा लूं— अगर कोई विज्ञान हो!
मैंने कहा, यह तो बड़ी झंझट हो जाएगी। लगता है मुझे स्वर्ण—मंदिर के भी बाहर ही खड़ा रहना पड़ेगा। न मेरे शिक्षक समझा पाए, आखिर उन्होंने मुझसे क्षमा मांग ली कि तुम बिना टोपी के........हम ध्यान ही नहीं देंगे कि तुम टोपी लगाए हो कि नहीं। मगर कृपा करके औरों को मत बिगाड़ो, क्योंकि तुम बिना टोपी के अंदर आओगे तो दूसरे बिना टोपी के अंदर आएंगे।
और फिर मैंने उन मित्रों को कहा कि आप तो बड़े—बड़े साफे—पग्गड़ बांधे हुए हैं और सरदारों की बुद्धि का क्या हुआ, इसका कुछ पता है? इतनी कस कर बांध ली है खोपड़ी कि बुद्धि की बिलकुल क्षमता ही टूट गई। इतना कस कर बाधोगे तो... आखिर बुद्धि को भी थोड़ा खुलापन चाहिए, हवा आए— जाए, खिड़की—दरवाजे खुले रहें।
और अभी तो वैज्ञानिकों ने इस बात की खोज की तो मैंने उनसे कहा कि जो बच्चे पैदा होते समय मां के संकीर्ण गर्भ से गुजरते हैं—जिस मार्ग से बच्चों को पैदा होना पड़ता है, वह अगर बहुत संकीर्ण हो— तो उनकी बुद्धि को नुकसान होता है, उनके मस्तिष्क को नुकसान हो जाता है। अगर मार्ग संकीर्ण न हो तो उनकी बुद्धि को लाभ होता है, क्योंकि संकीर्ण मार्ग उनके मस्तिष्क को, कोमल मस्तिष्क को बिलकुल दबा देता है।
उन्होंने कहा : यह तो बड़ी मुसीबत हो गई। और आपको हम अंदर कैसे ले जाएं, कभी कोई बिना टोपी के नहीं गया, आप इतना तो कम से कम करो, हम पर दया करो, रूमाल बांध लो! मगर कुछ सिर पर हो। मैंने कहा सिर पर पूरा आसमान है, तुम्हें रूमाल की पड़ी है! और अभी तुम मुझसे कहते थे कि यहां कोई क्रियाकांड नहीं है, हम सब क्रियाकांड से मुक्त हैं! और यह क्रियाकांड शुरू हो गया।
आदमी एक तरफ से बचता है, दूसरी तरफ से पकड़ जाती है बात; क्योंकि आदमी की मौलिक मूढ़ता वही है, उसमें अंतर नही पड़ता। वह अपनी जड़ आदतों को दोहराए चला जाता है—यंत्रवत।
चंदूलाल को फिल्मी धुनों का बहुत शौक था, वह हमेशा फिल्मी धुनें ही गाता रहता था। दिन हो या रात, उसकी जबान पर फिल्मी धुनें ही रहती थीं। एक दिन वह साइकिल पर सवार हो अपने लंगोटिया यार ढब्यू से मिलने उसके घर जा रहा था। रात का समय था और उसकी साइकिल में रोशनी नहीं थी। साइकिल में रोशनी न देख कर एक यातायात—विभाग के पुलिस कर्मचारी ने उसे आवाज दी, ऐ चंदूलाल के बच्चे, रुक!
चंदूलाल ने कहा मुझको इस रात की तन्हाई में आवाज न दो, आवाज न दो!
पुलिस वाला बोला अबे सुनता क्यों नहीं? और साइकिल में रोशनी क्यों नहीं है?
चंदूलाल बोला रोशनी हो न सकी, दिल भी जलाया मैंने!
पुलिसवाला तो आग बबूला हो गया, बोला, अबे क्या पागल हो गया है? यह क्या बकवास लगा रखी है?
चंदूलाल बोला. मैं परेशान हूं तुम और परेशां न करो! आवाज न दो.. .मुझको इस रात की तन्हाई में आवाज न दो, आवाज न दो!
आदतें बंध जाती हैं। अहंकार एक आदत है— सदियों—सदियों पुरानी, जन्मों—जन्मों पुरानी। इसलिए मैं हर चीज पर बैठ जाता है। वह तुम्हारी धुन हो गई, अचेतन हो गई प्रक्रिया—मेरा धर्म, मेरा मंदिर, मेरा शास्त्र। नहीं तो कुरान किसी के बाप की है, कि वेद, कि उपनिषद? कम से कम इन्हें तो तुम छोड़ो बपौतियों से! कम से कम मोहम्मद और महावीर के तो ठेकेदार न बनो! कम से कम इन्हें तो क्षमा करो, इन्हें तो मत घसीटो अपनी क्षुद्रताओं में। मगर नहीं, हम तो हर चीज को अपने तल पर खींच लाते हैं, अपनी कीचड़ में गिरा लेते हैं।
तो पहली तो बात मुकेश, यह याद रखो, मत कहो आपका धर्म। मेरा इसमें क्या लेना—देना है? जो भी जागे हैं, सबने यही कहा है, ऐसा ही कहा है। जो भी आगे जागेंगे वे भी यही कहेंगे, ऐसा ही कहेंगे; इससे अन्यथा कभी नहीं होगा।
धर्म तो धर्म है। धर्म का अर्थ है स्वभाव। जिस दिन तुम जाग कर अपने को पहचान लेते हो, उसी दिन धर्म घटता है। हिंदू घर मे पैदा होने से हिंदू नहीं होते, ईसाई घर में पैदा होने से ईसाई नहीं होते, न हो सकते हो। ये धोखे हैं। जन्म से धर्म का कोई संबंध नहीं है। जन्म से और धर्म मिल जाता तो बड़ी सस्ती बात होती—मुफ्त ही मिल जाता, पैदाइश के साथ ही मिल जाता।
धर्म तलाशना होता है, खोजना होता है, अन्वेषण करना होता है, अंतरात्मा में गहरी डुबकी मारनी होती है। जब तुम अपने जीवन के केंद्र को अनुभव कर लेते हो, जब तुम अपने भीतर जीवन के मूल को पकड़ लेते हो, तब तुम्हें पता चलता है कि धर्म क्या है। और तभी तुम जान पाओगे कि धर्म सरल है; क्योंकि स्वभाव है, इसलिए सरल ही हो सकता है। विभाव कठिन होता है। स्वभाव कैसे कठिन होगा?
गुलाब खिला है। तुम कहोगे गुलाब की झाड़ी से कि बड़ी कठिनाई होती होगी ऐसे सुंदर गुलाब खिलाने में! और कांटों के बीच कैसे यह गुलाब खिला पाती है झाड़ी! कितनी कठिनाइयों से न गुजरती होगी!
कोई कठिनाई नहीं होती। गुलाब की झाड़ी में फूल वैसे ही खिलते हैं— सहजता से। जैसे आग जलाती है, ऐसे गुलाब की झाड़ी में फूल लगते हैं। जैसे आग की लपटें ऊपर की तरफ जाती हैं और पानी की धार नीचे की तरफ जाती है— सहज—स्वाभाविक— वैसा ही धर्म है।
लेकिन इतना जो सरल है उसको पंडित—पुरोहितों ने बहुत कठिन बनाने की कोशिश की है, अथक चेष्टा की है। उनकी चेष्टा का भी कारण है और कारण समझ लेना चाहिए, क्योंकि समझ जाओ तो पंडित— पुरोहितों के जाल के बाहर हो जाओ। पंडित—पुरोहित जी ही तभी सकता है जब वह धर्म को कठिन बताए, नहीं तो उसके जीने का कोई आधार नहीं रह जाता। अगर धर्म सरल है, स्वभाव है और प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर उतर कर उसे पा सकता है, तो फिर पंडित—पुरोहितों का प्रयोजन क्या? फिर मध्यस्थों की जरूरत क्या? फिर परमात्मा और तुम्हारे बीच के दलाल, उनका क्या होगा? उनकी दलाली का क्या होगा?
तो दलालों पर दलाल हैं। दलालों की इतनी लंबी कतार है! उस सारी कतार का धंधा इसलिए चलता है कि उसने धर्म को बहुत कठिन बना दिया है। उसने इतना कठिन बना दिया है कि उसके बिना तुम समझ ही न पाओगे कि धर्म क्या है। उसकी जरूरत है। वह व्याख्या करेगा तो तुम समझोगे। वह परिभाषा देगा तो तुम समझोगे। वह मार्ग—दर्शन देगा तो तुम समझोगे।
और मजा ऐसा है कि खुद अंधा है। अभी खुद भी उसे धर्म का कोई पता नहीं है। और तुम्हें मार्ग— दर्शन दे रहा है! अंधे अंधों को चला रहे हैं, और अगर सारी दुनिया गड्डे में गिर गई है तो कोई आश्चर्य तो नहीं। स्वाभाविक है।
आश्चर्य तो तब होता कि अंधे अंधों को चलाते—चलाते मंजिल तक पहुंचा देते। तब असली आश्चर्य होता, चमत्कार घटता! अंधों का हाथ पकड़ कर चलोगे, गिरोगे ही, यह तो बिलकुल सुनिश्चित
है। खाई में नहीं गिरोगे तो खड्डे में गिरोगे, खड्डे में नहीं गिरोगे तो कुएं में गिरोगे, कहीं न कहीं गिरोगे। और चारों तरफ खाई—खड्डे हैं।
और सारे पंडित—पुरोहित तुम्हें बाहर की तरफ ले जाते हैं, वे कहते हैं, जाओ काशी, जाओ काबा। वे कहते हैं पढ़ो कुरान, पढ़ो वेद। इसमें छिपा है धर्म। और सदगुरु कहते हैं? मुक्त हो जाओ शास्त्रों से, क्योंकि स्वयं मे छिपा है धर्म। छोड़ो शब्द। कितने ही प्यारे हों शब्द, फिर भी शब्द कोरे हैं, खाली हैं, चले हुए कारतूस हैं, उनको मत ढोए फिरो। उनका कोई उपयोग नहीं है। छिलके मात्र हैं। उनके भीतर का गदा तो कभी का खो गया है। खोलें रह गई हैं। और खोलों को तुम ढो रहे हो।
पंडित—पुरोहित की पूरी चेष्टा होती है कि धर्म को जितना जटिल बना सके बना दे। और उसने बहुत जटिल बना दिया है। इसलिए पंडित—पुरोहित संस्कृत को नहीं छोड़ना चाहते, क्योंकि संस्कृत छूटते ही उनके धंधे का नब्बे प्रतिशत एकदम नष्ट हो जाएगा। अगर तुम्हारा पंडित संस्कृत छोड़ कर सीधी—सीधी भाषा में, जो तुम समझते हो, मंत्रों को पढ़े तो तुम भी कहोगे कि क्या पढ़ रहे हो, इन मंत्रों में कुछ है ही नहीं! मंत्र तो बेबूझ होने चाहिए, तो ही तुम प्रभावित होते हो। अगर तुम्हारा पंडित सीधी—सीधी कुरान पढ़े—तुम्हारी ही भाषा में, अरबी में नहीं—तो तुम भी थोड़े चौंकोगे कि ये बातें और कुरान में!
मुझे बहुत बार कहा गया कि वेद पर बोलूं और मैंने बहुत बार सोचा कि वेद पर बोलु पर जब भी वेद को उलटता हूं फिर रख देता हूं सरका कर, क्योंकि कूड़ा—करकट बहुत है। हीरे कुछ हैं, छांटने पड़ेंगे। इससे तो ये सीधे—साधे व्यक्ति रैदास जैसे लोग ज्यादा हीरों से भरे हैं। क्योंकि रैदास कूड़ा—करकट बोलते तो कोई भी पकड़ लेता कि क्या बकवास लगा रखी है! रैदास तो लोक भाषा में बोल रहे हैं, कोई भी गर्दन दबा देता कि बस बंद करो। यह तुमने क्या लगा रखा है? सन्निपात में तो नहीं हो? कुछ होश की बातें करो!
तो रैदास को तो वही कहना पड़ेगा जो कहने योग्य है। लेकिन संस्कृत जो तुम नहीं जानते, अरबी जो तुम नहीं जानते, लैटिन और ग्रीक जो तुम नहीं जानते, हिलू जो तुम नहीं जानते—उसमें पंडित क्या कह रहा है, तुम बड़े श्रद्धाभाव से सुनते हो, चाहे वह बिलकुल व्यर्थ की बातें कह रहा हो। और व्यर्थ की बातें ही हैं। और मजा यह है कि शायद उसको भी ठीक—ठीक पता न हो कि वह क्या कह रहा है, शायद उसने भी कंठस्थ कर लिया हो।
इसलिए पंडित चाहते हैं कि पुरानी भाषाएं, मर गई भाषाएं— खो न जाएं। उनका सार—सूत्र पंडित के हाथ में बना रहे। जीवंत भाषाओं में तो सिर्फ सदगुरु बोलते हैं।
इसलिए मैं कहता हूं कि महावीर और बुद्ध ने इस देश में बड़ी से बड़ी क्रांति की, क्योंकि वे पहले सदगुरु थे जो संस्कृत में नहीं बोले। बुद्ध ने पाली में बोला, महावीर ने प्राकृत में—जो लोकभाषाएं थीं, जिनको लोग समझते थे। इसलिए महावीर और बुद्ध के वचनों में हीरों की खदानें हैं। एक—एक वचन कोहिनूर है।
जीसस ने हिबू में नहीं बोला, लोकभाषा में बोला, अरैमेक में बोला, जिसे लोग समझते थे। मगर ईसाइयों ने जल्दी ही अरैमेक से अनुवाद कर लिया हिबू में, जिसको लोग नहीं समझते। फिर हिबू से अनुवाद कर लिया ग्रीक में। और बात दूर से दूर होती चली गई। और फिर ग्रीक से लैटिन में। बात इतनी दूर हो गई कि किसी की समझ में न आए। समझ में आनी नहीं चाहिए, तो रहस्यपूर्ण मालूम होती है। समझ में आ जाए तो बड़ी मुश्किल हो जाती है।
इसलिए तुम्हारे पंडित बड़े—बड़े शब्दों का उपयोग करते हैं, भारी शब्दों का उपयोग करते हैं; बोलचाल के शब्द नहीं, भाषा के, लोगों की भाषा के शब्द नहीं। उनके प्रवचन में, उनके उद्धरणों में इतने—इतने बड़े शब्द होते हैं कि तुम्हें मुश्किल हो जाए।
डॉक्टर रघुवीर ने इस तरह की कोशिश इस देश में की, उसकी वजह से हिंदी की जान ले ली, हिंदी के प्राण ले लिए। यह मैंने डॉक्टर रघुवीर को कहा था कि तुम शायद सोचते हो कि तुम हिंदी के उन्नायक हो, मगर यह भ्रांति है। और चूंकि मैंने उनसे ऐसा कहा था, वे मुझे कभी माफ नहीं कर सके। मैंने कहा, तुम हत्यारे सिद्ध होओगे। तुम सीधी—सादी लोकभाषा को उलटा कर रहे हो।
लोग ठीक से समझते हैं रेलगाड़ी का क्या मतलब है। लेकिन रघुवीर, उनको रेलगाड़ी नहीं जंचती। रेलगाड़ी में क्या खराबी है? लोहपथ गामिनी! रेलगाड़ी को समझा जाता है हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक। इसकी कोई हिंदी की बपौती नहीं है रेलगाड़ी पर। रेलगाड़ी सबकी है। उसमें तमिल बैठे, तेलगू बैठे, मलयालम बैठे, बंगाली बैठे— रेलगाड़ी सबकी है। हिंदी का क्या है। लेकिन लोहपथ गामिनी! उसमें तो शायद काशी के पंडित बैठें तो बैठें, और तो कोई न बैठे। बाकी तो डरें कि यह है क्या चीज! इसमें बैठना कि नहीं बैठना!
उन्होंने सारे शब्द खराब कर दिए। वे सोच रहे थे कि बहुत बड़ी... उन्होंने मेहनत की, ऐसे पूरी जिंदगी उन्होंने अपनी खराब की और अनेकों की और जिंदगी खराब कर गए, क्योंकि उनके साथ और न मालूम कितने पंडित इस काम में लगे थे। एक भारी कत्था इस काम में लगा था कि सारे शब्दों को कैसे शुद्ध संस्कृत में लाया जाए।
भाषा काम के लिए है, संस्कृत से क्या लेना देना है! लोग जो बोलते हैं वही सार्थक है। इसलिए तो मैं तो कहता हूं जब भी भाषा पर ध्यान रखना हो, लोग क्या बोलते हैं, उस पर ध्यान रखो। जो सीधे—सादे लोग बोलते हों वही सम्यक भाषा है। वह चाहे शुद्ध न हो, शुद्ध से करना क्या है? सार्थक होनी चाहिए। जैसे गांव के लोग रिपोर्ट नहीं बोलते, बोलते हैं रपट! मैं राजी हूं इससे। रपट लिखा दी। यह साफ—सुथरी बात हो गई, यह सीधी—सादी बात है।
काश, रघुवीर जैसे लोगों के हाथ में यह उपद्रव न पड़ा होता तो पूरा भारत एकभाषी हो जाता। और एकभाषी होता तो एक सौंदर्य पैदा होता है, एक एकता पैदा होती! और धीरे— धीरे भाषा अगर सरल होती जाए तो एक न एक दिन सारी दुनिया की एक भाषा हो सकती है। लेकिन जितनी कठिन होती जाती है उतनी ही पंडितों के हाथ के नीचे शिकंजे में जकड़ जाती है।
धर्म तो सरल है, लेकिन पंडित सरल नहीं होने देते। धर्म तो सरल होगा ही। धर्म और कठिन हो, यह कैसे हो सकता है!
इसलिए मुकेश, मैं जो कह रहा हूं उसको निश्चित ही पंडित और पुजारी नहीं मानेंगे कि धर्म है। अधर्म कहेंगे वे। उन्हें कहना ही पड़ेगा। उनके स्वार्थों के विपरीत है।
अभी मेरे एक संन्यासी हरिद्वार गए! तो उन्हें किसी संन्यास—आश्रम में नहीं ठहरने को जगह मिली, क्योंकि वे कहें : यह भ्रष्ट संन्यासी है! मेरा संन्यासी यानी भ्रष्ट संन्यासी! और उनके हिसाब से ठीक है। उनके हिसाब से मैं जो काम कर रहा हूं अगर वह सफल होता है तो उनकी दीवालें हिल जाएंगी, उनकी बुनियादें हिल जाएंगी। मेरी संन्यासी उन्हे भ्रष्ट लगेगा ही, क्योंकि मेरा संन्यासी मस्ती में जी रहा है और उनका संन्यासी उदास बैठा है। मेरा संन्यासी गीत गुनगुना रहा है, उनका संन्यासी, उसका चेहरा देखो तो ऐसा लगता है जैसे कभी का मर चुका हो!
मैंने सुना है, अमरीकी कहानी है। अभी भारत में तो नहीं हो सकती यह कहानी संभव। एक सत्तर साल की बूढी स्त्री एक अस्सी साल के के आदमी के प्रेम में पड़ गई। प्रेम इतना आगे बढ़ा कि विवाह कर बैठे। मित्रों ने समझाया, डॉक्टरों ने सलाह दी कि अब क्या विवाह करना! मगर प्रेम तो अंधा होता है, चाहे चालीस साल के आदमी का हो, चाहे बीस साल के आदमी का हो, चाहे अस्सी साल के आदमी का हो। प्रेम तो अंधा ही होता है। अस्सी साल में और ज्यादा अंधा हो जाता है, स्वभावत: जवानी में तो थोड़ी आंखें तेज होती हैं, चश्मा भी नहीं लगता, अस्सी साल में तो चश्मा भी लग जाता है। दिखता ही नहीं, सूझता ही नहीं; और भी चीजें नहीं सूझती तो फिर प्रेम तो क्या सूझेगा! फिर गए सुहागरात मनाने पहाड़ पर।
फिर वहां से लौटे तो बुढ़िया से किसी ने पूछा कैसी रही सुहागरात? कहा और तो सब ठीक रहा, लेकिन के को मुझे दो बार चांटा मारना पड़ा। पूछने वालों ने पूछा कि चांटा किसलिए मारना पड़ा? क्या उनको नींद आ गई थी? नहीं, उन्होंने कहा कि मुझे यह जानने के लिए कि जिंदा हैं कि मर गए! चांटा मारूं तब थोड़ी सी उनमें चहल—पहल हो, तो मुझे लगे कि जिंदा हैं।
इस तरह के मुर्दे संन्यासी समझे जाते रहे हैं, जिनको चांटा मारो तो थोड़ी चहल—पहल हो! नहीं तो वे बैठे हैं अपना धूनी रमाए और भभूत लगाए, भूत बने— जिंदा! जीते—जी सड़ रहे हैं, गल रहे हैं, सता रहे हैं अपने को। अपने को जो जितना सताए उसे हम उतना ही बड़ा महात्मा मानते रहे हैं।
मेरा संन्यासी दुखवादी नहीं है। न खुद को सताता है, न किसी और को सताता है। खुद भी आनंदमग्न हो जीना चाहता है और चाहता है कि दूसरे भी आनंदमग्न हो जीएं। मगर यही अड़चन है। उसका आनंद— भाव ही उसे भ्रष्ट बना देगा। जिन्होंने उदासी को, उदासीनता को, हताशा को, निराशा को, जड़ता को, मुदेंपन को, जिन्होंने जीवन को मरघट बना डाला हो इन सारी प्रक्रियाओं से, उनको मेरा संन्यासी तो उलटा ही लगेगा, क्योंकि मेरा संन्यासी मरघट नहीं है, उपवन है। उसमें फूल खिलेंगे, पक्षी गीत गाएंगे, वीणा बजेगी।
मेरा संन्यास, मेरा धर्म—मेरा नहीं है, स्वाभाविक है। स्वाभाविक है, इसलिए सरल है। सरल है, इसलिए औरों को कठिनाई हो रही है। तुम्हें तो मैं एक सरल जीवन जीने की शैली दे रहा हूं। लेकिन औरों को कठिनाई हो रही है, क्योंकि उनकी महात्मागिरी और उनका संतत्व संदिग्ध होता जा रहा है। जैसे—जैसे मेरी गैरिक आग फैलती जाएगी, जैसे—जैसे यह उत्सव का रंग लोगों पर चढ़ेगा.. .यह वसंत का रंग है गैरिक रंग! यह फूलों का रंग है! यह सुबह की प्रभात का रंग है! यह प्राची का रंग है जब सूरज उगने—उगने को होता है! ऐसे ही भीतर जब ध्यान का और प्रेम का सूरज उगने—उगने को होता है, उसका प्रतीक है।
और मैं संन्यास को संसार से नहीं तोड़ा हूं। इसलिए उनको लगता है, मैंने बहुत सरल कर दिया। बात बिलकुल और है। संसार से भाग जाना आसान मामला है। भगोड़े होने में कठिनाई नहीं है कोई। यहां सभी कायर भगोड़े होते हैं मगर हम होशियार लोग हैं, हम भगाड़ों को भी अच्छे नाम दे देते हैं। देखते हो न गांव—गांव में जगह—जगह मंदिर हैं जिनका नाम है— श्री रणछोडदास जी का मंदिर। रणछोडदास का मतलब समझते हो? जो युद्ध के मैदान से भाग खड़े हुए—रणछोड़दास! जिन्होंने पीठ दिखा दी मैदान में! मगर कितना प्यारा नाम दे दिया— रणछोड़दास जी!
एक वैष्णव साधु मेरे पास आते थे, उनका नाम ही था— महंत रणछोड़दास जी। मैंने उनसे पूछा. आपको आपके नाम का पता है? इसका मतलब तो हुआ कायर। इसका मतलब हुआ भगोड़ा। उन्होंने कहा अब आप कहते हैं तो मुझे खयाल आता है, बात तो सच है। मगर मैंने यह कभी सोचा ही नहीं। पचास साल से मेरे गुरु ने यह नाम मुझे दिया हुआ है। अब मैं सत्तर साल का हो रहा हूं यह मुझे कभी खयाल ही नहीं आया कि रणछोड़दास जी का ठीक—ठीक अर्थ तो यही होगा। मगर आपने अब एक झंझट डाल दी। अब जब भी मुझसे कोई कहेगा रणछोड़दास जी, तो मुझे याद आएगी कि यह नाम नहीं, यह तो एक तरह की गाली है।
मगर गाली को भी क्या फूल लगा दिए, गजरे पहना दिए— गाली पर गजरे पहना दिए! सुगंध छिड़क दी! और गाली भी प्यारी मालूम होने लगी!
मैं नहीं चाहता कि तुम संसार छोड़ो। इसलिए लोग कहते हैं कि मैंने संन्यास को बहुत सरल बना दिया। बात ठीक उलटी है। संसार को छोड़ कर भागना सुगम है, कौन नहीं भागना चाहता! संसार में है क्या? कष्ट ही कष्ट है, उपद्रव ही उपद्रव है। जीवन दुविधाओं से घिरा है, संकटों से घिरा है— चिंताएं, विषाद, संताप! जीना है वह कहां? गर्दनें कसी हुई हैं। लोग मर जाने के लिए उत्सुक दिखाई पड़ते हैं। एक आदमी को फांसी की सजा हुई। बरसात के दिन, बड़ा अंधड़—तूफान और पानी गिर रहा है धुआंधार आकाश से। और जेलखाने से जहां फांसी लगनी थी, कोई पांच मील का रास्ता पैदल चल कर सफर करना। तो सिपाही और कप्तान और जल्लाद और सारे लोग, जज, लेकर चले जंगल की तरफ और वह आदमी गीत गुनगुनाता चला। आखिर मजिस्ट्रेट से न रहा गया। उसने कहा कि सुन भाई, और सब तकलीफ हम सह लेंगे, पानी गिर रहा है, बिजली चमक रही है, ठिठुर रहे हैं ठंड में, भीग गए हैं बिलकुल, घर जाकर फ्लू चढ़ेगा कि डेंगू बुखार चढ़ेगा कि एनच्छंजा हो जाएगा— क्या होगा पता नहीं! और ऊपर से तू गाना गा रहा है!
उसने कहा गाना मैं क्यों न गाऊं! क्योंकि मुझे तो सिर्फ वहीं तक जाना है, तुम्हें लौट कर भी आना पड़ेगा। याद रखो बच मेरा पलड़ा भारी है! हम तो गए और खत्म हुए। अपनी सोचो।
यहां जिंदगी में रखा क्या है? उस कैदी ने कहा : हमें ऐसा कौन सा सुख मिल रहा था जिसके लिए हम रोएं? अरे जंजीरों में पड़े थे, कालकोठरी में पड़े थे, कम से कम खुले आकाश के नीचे तो हैं! और फिर डर क्या, जब मौत ही आ रही तो अब डर क्या? अब न हमें डेंगू का डर है, न क्यू का डर है, किसी का डर ही नहीं है। अब इस मौके पर तो हम गाना गा लें।
जो भाग रहा है जिंदगी से, वह लगता है बहुत कठिन काम कर रहा है— ऐसा तुम्हें समझाया गया है कि वह बड़ा दुर्लभ काम कर रहा है! वह कोई दुर्लभ काम नहीं कर रहा है, सिर्फ कमजोर है, कायर है, भीरु है।
मैं तुमसे कह रहा हूं जिंदगी की चुनौतियों से भागना नहीं है—जीना है— यहीं बाजार में, दुकान में; काम करते हुए, पत्नी, बच्चे, पति...। और यहीं इस ढंग से जीना है जैसे जल में कमल।
तो एक अर्थ में मैं जो कह रहा हूं बहुत सरल है और एक अर्थ में जो मैं कह रहा हूं वह बहुत चुनौतीपूर्ण है। यह तो आसान है कि दुनिया छोड़ कर चले गए, न कोइ गाली देगा, न तुम जवाब दोगे। जवाब किसको दोगे, जब कोई गाली ही नहीं देगा! मजा तो तब है जब गालियां बरसती हों और तुम्हारे भीतर गाली न उठे। चारों तरफ लोभ का, क्रोध का वातावरण हो उकसावा हो— और तुम्हारे भीतर तुम अछूते रहो, कुंआरे रहो! चारों तरफ दुर्गंध भरी हो और तुम फिर भी सुगंधित रहो, मजा तब है। जिंदगी को जीने का पूरा रहस्य तब प्रकट होता है।
तो एक अर्थ में तो धर्म सरल है और एक अर्थ में धर्म चुनौती है। मैं तो धर्म को निश्चित ही उत्सव मानता हूं।
स्वामी कृष्णानंद भारती ने यह गीत भेजा है, उससे मेरी बात साफ होगी—

      चरण पर चढ़ कर जला ले,
भक्ति की तू आरती।
प्रार्थना के गीत झरने दे,
हृदय से भारती।

      प्रेम के ये फूल सारे,
भेंट कर दे चरण पर।
रात भर जलती रहो,
बन तू पिया की आरती।

पलकों में काट लूंगी,
रात पिय के प्‍यार की।
आज मधुबन में रचेगी,
राम कृष्‍ण भारती।

तुम ह्रदय में बीन छोड़ो,
झूम कर गांऊ पिया।
प्राण में पीयूस भर दो,
झूम कर पीयूं पिया।

कविता की दृष्टि से चाहे यह बहुत महत्वपूर्ण न हो, क्योंकि कृष्णानंद भारती कोई कवि नहीं हैं मगर भाव भर दिए हैं। गीत उठा है!
तुम हृदय में बीन छेड़ो,
झूम कर गाऊं पिया!
प्राण में पीयूष भर दो,
झूम कर पीयूं पिया!

 यह तो प्रीति का मार्ग है धर्म। यह तो प्रेम की पराकाष्ठा है!

      आज मंदिर में तुम्हारी
मैं स्वयं प्रतिमा बनूंगी।
प्रेम के दीपक जला कर,
आरती तेरी करूंगी।

      तुम हृदय के देवता हो,
प्राण के श्रृंगार हो तुम।
अश्रु चरणों पर चढ़ा कर,
नमन मैं तेरा करूंगी।

      तुम मिलो तो जिंदगी
छक कर नहाए, गीत गाए।
प्यार के माणिक, पिया!
अनुराग उर के पद धरूंगी।

      मैं बसाऊंगी तुझे दिल में,
जला कर प्रेम— बाती।
कल्पना के पंख लेकर
अब पिया मैं क्या करूंगी?

      आस में रो—रो गंवाई,
प्यास बढ़ती जा रही है।
जिंदगी प्रभु! सौंप पद पर,
वरण मैं तेरा करूंगी।

      शून्य मंदिर में पिया!
प्रतिमा तुम्हारी मैं बनूंगी।
अता ही पूणा अता ही धूप

      प्रेम के सिंदूर से प्रिय।
मांग अपनी मैं भरूंगी।

 यह तो विवाह है परमात्मा से! यह तो सगाई है! यह तो नाचने और मस्त होने का क्षण है। जीवन उत्सव है, क्योंकि परमात्मा की भेंट है। जीवन उत्सव है, क्योंकि परमात्मा को पाने का अवसर है। जीवन उत्सव है, क्योंकि कितना दिया है उसने और कितना दे रहा है रोज!
जीवन नृत्य बने, गीत बने, तुम्हारी हृदयतंत्री बजे, झनझनाए—तो ही तुम जानना कि सच्चे धर्म के रास्ते पर हो। सब उदास हो जाए और सब राख हो जाए और फूल मुरझा जाएं—तो समझना कि गलत रास्ता ले लिया है, तुमने प्रभु की तरफ पीठ कर ली है; तुम भाग रहे हो; तुम अवसर गंवा रहे हो। तुम्हें बार—बार पैदा होना पड़ेगा। जब तक तुम उत्सवपूर्वक नहीं जीओगे और उत्सवपूर्वक नहीं मरोगे, तुम्हें बार—बार लौटना पड़ेगा, लौटना ही पड़ेगा, क्योंकि तुमने पाठ ही नहीं सीखा! जब तक पाठ न सीख लोगे इस पाठशाला का, तुम्हारा यहां वापस आना अनिवार्य है। जो यहां उत्तीर्ण होता है, जो यहां जीवन का पाठ सीख कर जाता है, फिर वापस नहीं लौटता है। और धर्म कला है वापस न लौटने की।
जीवन बहुत प्यारा है, लेकिन जीवन के पार एक महाजीवन भी है, जो इससे भी ज्यादा प्यारा है। क्योंकि इस जीवन में प्रीति तो है, लेकिन अमिश्रित नहीं है। गीत तो है, लेकिन खंड—खंड है। फूल तो खिलते हैं यहां, लेकिन कांटे भी लगते हैं। दिन तो है, लेकिन रातों के साथ है। जीवन तो है, लेकिन मृत्यु की छाया सदा उसका पीछा करती है। एक महाजीवन भी है, जहां जीवन ही जीवन है और मृत्यु की छाया नहीं! जहां गुलाब के फूल ही फूल खिलते हैं और कांटे जहां असंभव हैं! जहां जीवन है, लेकिन जन्म नहीं, मृत्यु नहीं, जरा नहीं! उस शाश्वत जीवन का नाम ही मोक्ष है, या परमात्मा, या जो नाम तुम्हें प्रिय हो— निर्वाण, समाधि। या कोई भी नाम न दो, चुप ही रहो, सिर्फ इशारे समझो।
इस जीवन से पार जाना है, लेकिन इस जीवन से भाग कर कोई कभी पार नहीं गया है। इस जीवन को जो सीढ़ी बनाता है वही पार जाता है।

 तीसरा प्रश्‍न:

 ओशो, मैं पहली बार पूना आया एवं आपके दर्शन किए। आनंद—विभोर हो गया। आश्रम का माहौल देख कर आंसू टपकने लगे। मैंने, सुना और महसूस किया: यह सूरज सारी धरा को प्रकाशवान कर रहा है। किंतु ओशो, पूना में अँधेरा पाया। कारण बताने की कृपा करें।

गोकुल शर्मा, पुरानी कहावत याद करो—दीये तले अँधेरा।

चौथा प्रश्‍न:

हर एक तृप्‍ति का दास यहां,
पर एक बात है खास यहां,
पीने से बढ़ती व्यास यहां,
ओशो, तृष्णा के मुक्त होने का सरल मार्ग दें!

 ष्णानंद, तृष्णा में ही मार्ग छिपा है। तृष्णा का ही रहस्य समझ जाओ तो तृष्णा के पार हो गए। तृष्णा को समझ लो तो तृष्णा गई।
तृष्णा में और समझ में वही संबंध है जो रोशनी में और अंधेरे में। दीया जला लो और अचानक तुम्हारे कक्ष से अंधेरा समाप्त हो गया! ऐसे ही! तृष्णा से बचने का कोई और मार्ग नहीं है, तृष्णा को समझ लो—तृष्णा क्या है? क्यों है?
तुम कहते हो:
'हर एक तृप्ति का दास यहां
पर एक बात है खास यहां
पीने से बढ़ती प्यास यहां!'
इतना ही तुम्हें समझ में आ जाए तो मार्ग हाथ लग गया, उसका पहला सूत्र हाथ लग गया— पीने से बढ़ती प्यास यहां! जितना ही तृष्णा को पूरा करने चलोगे उतना ही पाओगे— तृष्णा दुम्र है। तृष्णा का स्वभाव ही दुप्यूर होना है। उसे भरा जा सकता नहीं।
एक सूफी फकीर के पास एक युवक आया और उस युवक ने कहा कि क्या आप मुझे जीवन का राज समझाएंगे? मैं बहुत—बहुत गुरुओं के पास गया हूं बहुत ठोकरें खाई हैं दर—दर की, बहुत धूल फांकी है राहों की; मगर कोई मुझे जीवन का राज नहीं समझा सका। और जिसने जो कहा वही मैंने किया। किसी ने कहा उलटे खड़े होओ तो उलटा खड़ा हुआ। किसी ने कहा यह मत खाओ तो वह नहीं खाया। किसी ने कहा ऐसे सोओ तो ऐसे सोया। पता नहीं कितनी—कितनी कवायदें करके आया हूं थक गया हूं! आपका किसी ने पता दिया तो आपके पास आ गया। जीवन का राज आप मुझे बताएंगे?
उस फकीर ने युवक को गौर से देखा और कहा बताऊंगा, लेकिन एक शर्त है। पहले मैं कुएं से पानी भरूंगा। युवक थोड़ा हैरान हुआ कि यह भी कोई... कुएं से पानी पहले भरूंगा, तुम भी साथ रहना और जब तक मैं पानी न भर लूं र तुम बीच में बोलना मत— यह शर्त है। जब मैं पानी भर चुकूं, फिर तुम बोल सकते हो। युवक ने कहा : यह भी कोई कठिन बात है, आप मजे से पानी भरो! मगर उसे थोड़ा शक हुआ कि यह आदमी पागल मालूम होता है। हम जीवन का राज पूछ रहे हैं! हम इतना महान प्रश्न और यह कहां की शर्त लगा रहा है! सामने ही कुआ है फकीर के। मजे से भरो पानी, हम बोलेंगे क्यों! हमें बोलने की जरूरत क्या है! तुमने न भी शर्त लगाई होती तो भी हम न बोलते। कोई कुएं से पानी भर रहा हो, इसमें बोलने का सवाल क्या है, भर लो!
युवक ने कहा? बिलकुल तैयार हूं आप कुएं से पानी भर लें। लेकिन थोड़ा शक तो हुआ ही कि यहां जीवन का राज मिलेगा कि कुछ.. यह आदमी कुएं में धक्का—वक्का न मार दे। यह अजीब सा आदमी मालूम होता है। और जब उस फकीर ने बाल्टी उठाई और रस्सी, तब तो उस युवक ने समझ लिया कि गए काम से, यह भी यात्रा बेकार हुई! और जरा कुएं से दूर ही खड़े रहना ठीक है, क्योंकि जो बाल्टी उसने देखी उसमें पेंदी थी ही नहीं। उसने कहा मारे गए! यह कब पानी भरेगा! यह तो इस जिंदगी क्या अनेक जिंदगी भी बीत जाएं...। यह मैं कहां की शर्त में हां भर दिया!
मगर सोचा कि चलो थोड़ी देर तो देखो, आना—जाना बेकार तो हो ही गया, अब इतनी दूर आ ही गए हैं, थोड़ी देर देखो, आखिर यह करता क्या है! दूर जरा खड़ा हो गया कुएं से, क्योंकि पास में कहीं हम देखने लगें और यह धक्का मार दे! और जीवन का राज तो एक तरफ रहे, जीवन भी जाए हाथ से! भंगेड़ी है, गंजेड़ी है, या क्या मामला है? यह भी नहीं देख रहा है कि बाल्टी में पेंदी है ही नहीं, पानी भरने चले! और फकीर चला पानी भरने। रस्सी बांधी, कुएं में बाल्टी लटकाई। युवक खड़ा देखता रहा, चुप रहा, बड़ा संयम रखना पड़ा उसको। मन तो बार—बार हो रहा था कि कह दे कि भैया, तुम क्या हमें खाक जीवन का राज बताओगे, हम तुम्हें कम से कम पानी भरने का राज बता दें, जो हमें मालूम है! तुम कम से कम पानी भरना तो सीख लो, बाकी छोड़ो। मगर याद करके कि शर्त है, जरा चुप रहना ठीक है।
बड़ा संयम रखना पड़ा होगा। तुम सोचते हो ऐसी स्थिति में कैसा संयम रखना पड़ता है। बिलकुल अपने को बांधे खड़ा रहा। जबान और मुंह को बिलकुल जकड़े रहा कि निकल ही न जाए बात। जरा देख तो लूं कि यह करता क्या है। उसने खूब बाल्टी खड़खडाई कुएं में, नीचे झांक कर देखा, बाल्टी भरी दिखाई पड़ी, क्योंकि पानी में डूबी थी। फिर खींची। खाली की खाली बाल्टी ऊपर आई। फिर दुबारा डाली, फिर तिबारा डाली। बस जब तीसरी बार डाली तो उस युवक ने कहा कि जय राम जी! अब हम चले! यह तो पूरी जिंदगी में भी पानी भरेगा नहीं।
उस फकीर ने कहा कि तुम बीच में ही बोल गए। और राज मैंने बताने का पक्का कर लिया था। तुम्हारी मर्जी। रास्ता लगो।
रात भर युवक सो नहीं पाया, क्योंकि जिस ढंग से उस फकीर ने कहा कि तुम्हारी मर्जी, रास्ता लगो। वैसे हमने तय किया था कि जीवन का राज बता ही देंगे। हमारी तरफ से हम जो कर सकते थे हमने किया, भूमिका बना ली थी, मगर तुम बीच में बोल गए, शर्त तुमने तोड़ दी। तुम इतना संयम भी न रख सके, तो जाओ। जिस ढंग से उसने कहा था और उसकी आंखों में जो चमक थी, उसको भूल न सका रात भर सो न सका। करवटें बदलता रहा कि मैं थोड़ी देर और चुप रह जाता तो मेरा क्या बिगड़ता था! ऐसे भी जिंदगी खराब की, अगर वह दो—चार घंटे खराब भी करवाता तो क्या हर्जा था! हो सकता है इसमें कोई परीक्षा हो, पात्रता की परीक्षा हो, धैर्य की परीक्षा हो, प्रतीक्षा की परीक्षा हो! मैं चूक गया। और उसकी आंखें कहती हैं कि उसे कुछ पता है। उसकी आंखों के जलते दीये कहते हैं। उसके चेहरे पर कुछ बात है, जो मैंने कहीं और नहीं पाई!
सुबह ही सुबह भागा हुआ आया, पैरों पर गिर पड़ा! कहा, मुझे माफ करो, फिर कुएं पर चलो। और जितना भरना हो भरो, मै बैठा ही रहूंगा।
उस फकीर ने कहा कि सच बात तो यह है कि कुएं से पानी भरने में जो राज था वह मैंने तुमसे कह ही दिया है, अब बचा नहीं कुछ कहने को। अगर तुम बाल्टी में और उसकी पेंदी में ज्यादा न उलझे होते तो बात तुम्हारी समझ में आ गई होती। तृष्णा बेपेंदी की बाल्टी है। भरो, खड़खडाओ कुएं में खूब, खींचो, जिंदगी नहीं, अनेक जिंदगी खींचते रहो—खाली के खाली रहोगे! जब भी बाल्टी आएगी, खाली हाथ आएगी। कुएं बदल लो, इस कुएं से उस कुएं पर जाओ, उस कुएं से उस कुएं पर जाओ...। यही लोग कर रहे हैं। मगर कुओं का क्या कसूर? बाल्टी वही की वही। तू देख सका कि बाल्टी में पेंदी नहीं है, इसलिए पानी नहीं भरता है; पर तूने देखा कि तृष्णा में पेंदी है? अब जा, इस पर विचार कर। तृष्णा में भी पेंदी नहीं है।
इसीलिए— पीने से बढ़ती प्यास यहां! पेंदी ही नहीं है, बल्कि उलटी बात है जैसे कोई घी डाले आग में आग बुझाने को! जितनी तुम तृष्णा करते हो, जितनी तुम वासना करते हो, जितनी तुम कामना करते हो, उतनी ही कामना और प्रज्वलित होती है, वासना में और आग पकड़ती है, तृष्णा में और नया ईंधन गिर जाता है। इसी को समझ लो बस, और राज समझ गए जीवन के।
कृष्णानंद, फिर तुम्हें तृष्णा की व्यर्थता दिखाई पड़ गई तो तृष्णा हाथ से छूट जाएगी। और जहां तृष्णा हाथ से छूट गई, जहां कामना हाथ से छूट गई, वासना हाथ से छूट गई, वहां जो शेष रह जाता है वही आत्मा है। तुम ही बचे। एक सन्नाटा बचा!
शोरगुल क्या है तुम्हारे भीतर? वासनाओं का ही शोरगुल है। यह कर लूं वह कर लूं यह हो जाऊं वह हो जाऊं, यह पा लूं वह पा लूं—यही सब तो शोरगुल है तुम्हारे भीतर, यही तो बाजार भरा है! इसी बाजार के कारण तो तुम अपने को भी नहीं देख पा रहे हो। और अपने को ही नहीं देख पा रहे हो, इसलिए किसी को भी नहीं देख पा रहे हो। इसीलिए तो तुम अंधे हो। तुम्हारी आंखों पर धूल ही तुम्हारी तृष्णा की है। कितना दौड़ते हो, कुछ तो मिलता नहीं! अब रुको! अब यह कुएं से पानी भरना बंद करो! यह बाल्टी फेंको!
इस बाल्टी के फेंक देने का नाम ही ध्यान है। तृष्णारहित चैतन्य का नाम ध्यान है। क्योंकि जहां वासना नहीं है वहां विचार का जन्म ही नहीं होता। वासना के बीज में ही विचार के अंकुर निकलते हैं। विचार तो वासना का सहयोगी है, उसका साथ देने आता है।
इसलिए जब तुम्हें कोई वासना पकड़ लेती है तभी बहुत विचार तुम्हारे मन में उठने लगते हैं— अंधड़ की तरह! जब वासना कम होती है तो विचार भी कम होते हैं। और जब वासना बिलकुल नहीं होती तो विचार भी बिलकुल नहीं होते। लोग मुझसे पूछते हैं, विचारों से कैसे छूटें? वे प्रश्न ही गलत पूछ रहे हैं। विचार तो पत्तों की तरह हैं। पूछो, वासना से कैसे छूटें?
इसलिए कृष्णानंद, तुम्हारा प्रश्न महत्वपूर्ण है। तुम पूछ रहे हो ' ओशो, तृष्णा से मुक्त होने का मार्ग?'
तृष्णा में ही छिपा है। तृष्णा को देखो, समझो, पहचानो। तृष्णा के बाहर कोई मार्ग नहीं है। और चूंकि बाहर के मार्ग बताए गए हैं, इससे बड़ी उलझन बढ गई है। तुम पूछते हो तृष्णा से बाहर जाने का मार्ग, कोई कहता है राम—राम जपो। बस अब तुम फंसे। अब एक नई तृष्णा में फंसे। उसने एक नई बाल्टी पकड़ा दी— फिर बिना पेंदी की। नया मॉडल सही, अभी—अभी आया फैक्ट्री से, ताजा है, चमकदार है, मगर वही का वही! अब तुम राम—राम जप रहे हो। क्यों जप रहे हो अगर कोई पूछे, क्यों राम—राम जप रहे हो, तो तुम यही कहोगे न कि राम—राम जप रहा हूं ताकि तृष्णा से छूट जाऊं! यह तृष्णा का नया रूप हुआ या नहीं? यह तृष्णा ही है— नया परिधान पहन कर आ गई। पहले धन पाने में लगे थे कि धन पा लूं तो सुख मिलेगा, अब सोचते हो कि राम—राम जप लूं तृष्णा से छूट जाऊं, तो सुख मिलेगा। दौड़ वही की वही है— वही सुख पाना है।
नहीं; इसलिए परम बुद्धों ने अलग से मार्ग नहीं दिए हैं।
कोई कहता है जाओ गंगा—स्नान कर आओ। कोई कहता है मंदिर में दान कर आओ। कोई कहता है ब्राह्मणों को भोजन करा दो। कोई कहता है कन्याओं को भोजन करा दो। न मालूम कितनी—कितनी तरकीबें लोगों ने निकाल ली हैं। तरकीबों पर तरकीबें हैं। और तुम तरकीबों में फंस जाते हो। तुम यह भी नहीं सोचते कि तृष्णा जैसी चीज सात कन्याओं को भोजन कराने से छूट जाएगी? कि तृष्णा जैसी चीज गंगा में डुबकी लगाने से छूट जाएगी?
तो गंगा के किनारे जो रहते हैं और रोज डुबकी लगाते हैं, उनमें तो तृष्णा होगी ही नहीं। मगर वे भी तृष्णा से उतने ही आतुर हैं। गंगा में ही रहने लगो बिलकुल तो भी तृष्णा से नहीं छूट जाओगे। कोई कहता है हज हो आओ। मगर जो मक्का में रहते हैं, जो मदीना में रहते हैं, उनकी तृष्णा छूट गई है? उनकी नहीं छूटी तो तुम हाजी हो जाओगे, इससे तुम्हारी कैसे छूट जाएगी?
थोड़ी आंख खोल कर तो देखो! ये सस्ते उपाय तुम्हारी तृष्णा के नये परिधान बन जाएंगे, बस। अब तुम्हारी तृष्णा यह है कि तृष्णा कैसे छूट जाए। इसलिए कोई भी सस्ता उपाय बता देगा और तुम उसमें लग जाओगे। जब तक उससे ऊबोगे तब तक कोई दूसरा मिल जाएगा, जो तुम्हें दूसरा उपाय बता देगा। लोग एक गुरु से दूसरे गुरु के पास, एक धर्म से दूसरे धर्म में जाते हैं। बस चल रही है खोज! एक आश्रम से दूसरे आश्रम— तृष्णा कैसे छूटे? और जगह—जगह लोग बैठे हैं जो बता रहे हैं कि ऐसे छूटेगी और दावे से कह रहे हैं कि छूटेगी।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं. तृष्णा छोड़ने का और कोई उपाय नहीं है। तृष्णा को ही समझ लो तृष्णा की व्यर्थता को देख लो, आर—पार देख लो, कि तृष्णा कभी भरी ही नहीं जा सकती।
बुद्ध का वचन है तृष्णा दुम्र है। इस सत्य को तुम अपनी आंखों से देख लो, बस। उस देखने में ही तृष्णा गिर जाती है। उस देखने में ही तुम्हारे हाथ से बाल्टी छूट जाएगी। नई बाल्टी नहीं पकड़ानी है तुम्हें; पुरानी बाल्टी छूट जाए, तुम्हारे हाथ खाली रह जाएं। और तुम चकित होकर पाओगे जैसे ही तृष्णा छूट जाती है और नई तृष्णा नहीं पकड़ती, ध्यान फल गया, समाधि की सुगंध उड़ने लगी। आनंद की वर्षा तत्थण शुरू हो जाती है, आकाश से फूल बरसने लगते हैं।


 पांचवां प्रश्न:

ओशो, आप विवाह का इतना मजाक क्यों उडाते हैं?

 नारायण, मालूम होता है तुम अनुभवी नहीं। पक्का है कि तुम विवाहित नहीं। विवाहित होते तो ऐसा प्रश्न न पूछते। और लगता है कहीं विवाहित होने की आकांक्षा है अभी।
तुम्हारी मर्जी। समझदार दूसरों को देख कर समझ जाते हैं, नासमझ हजार बार गडुाएं में गिरते हैं, फिर भी नहीं समझते।
चंदूलाल और ढब्यू जी एक ही साथ मरे, क्योंकि एक ही साइकिल पर सवार थे। और बस से टकरा गई साइकिल और गिर गई नाले में। चंदूलाल आगे बैठे थे, साइकिल चला रहे थे और डब्बू जी पीछे। सो चंदूलाल एक—दो मिनट पहले पहुंचे स्वर्ग के दरवाजे पर, ढब्यू जी भी भागते हुए एक—दो मिनट पीछे। ढब्यू जी ने सुन लिया जो हुआ। दरवाजा खुला और द्वारपाल ने पूछा चंदूलाल से, विवाहित या अविवाहित? चंदूलाल ने कहा विवाहित। द्वारपाल ने कहा : भीतर आ जाओ, नरक तुम भोग चुके। अब तुम्हें स्वर्ग मिलेगा।
ढब्यू जी ने सुन लिया सब, चले आ रहे थे भागे पीछे—पीछे। फिर द्वार खुला जब ढब्यू जी ने दस्तक दी। द्वारपाल ने फिर पूछा विवाहित या अविवाहित? ढब्यू जी ने कहा. चार बार विवाहित! इस आशा में कि चंदूलाल को हराऊं। इस आशा में कि बच्चू को अगर मिला होगा पहले नंबर का स्वर्ग तो मुझे मिलेगा कम से कम चार मंजिल ऊपर। लेकिन द्वारपाल ने दरवाजा बंद कर लिया और उसने कहा कि दुखी लोगों के लिए तो यहां जगह है, पागलों के लिए नहीं। एक बार माफ किया जा सकता है कि भाई चलो, जानते नहीं थे, तो भूल हो गई। मगर चार बार!
नारायण, विवाह मजाक ही हो गया है। सदियों—सदियों में ऐसा विकृत हुआ है...। सबसे सड़ी—गली संस्था अगर हमारे पास कोई है तो विवाह है। मगर हम ढोए चले जाते हैं। क्योंकि हममें साहस भी नहीं है कि हम कुछ नये प्रयोग कर सकें। हममें साहस भी नहीं है कि पुराने ढर्रे और रवैए से मुक्त हो सकें या विवाह को कोई नया रूप, कोई नया रंग दे सकें। पीटे जाते हैं लकीरें जो सदियों से पीटी गई हैं। हममें नया करने की क्षमता खो गई है। नये के लिए साहस चाहिए।
और विवाह निश्चित ही मजाक हो गया है। क्योंकि आशाएं बड़ी और परिणाम बिलकुल विपरीत। विवाह से हम बड़ी आशाएं बंधाते हैं लोगों को और जितनी आशाएं बंधाते हैं उतना ही विषाद हाथ लगता है। हमने जिंदगी को एक लंबा धोखा बनाया है। बच्चों को कहते हैं कि पहले पढ़—लिख जाओ, फिर सुख मिलेगा। फिर वे पढ़—लिख गए, फिर उनसे कहते हैं, अब विवाहित हो जाओ तब सुख मिलेगा। फिर जब वे विवाहित हो गए तो उनसे कहते हैं, अब धंधा करो, नौकरी करो, कमाओ, तब सुख मिलेगा। जब तक वे धंधा करते हैं, नौकरी करते हैं, कमाते हैं, तब तक जिंदगी हाथ से गुजर जाती है। उनके बच्चे उनसे पूछने लगते हैं कि सुख कब मिलेगा? वे कहते हैं, पहले पढ़ो—लिखो तब सुख मिलेगा। फिर विवाह करो तब सुख मिलेगा। फिर नौकरी— धंधा करो, कुछ कमाओ जगत में, कुछ यश—प्रतिष्ठा करो, तब सुख मिलेगा।
बस यह सिलसिला जारी है। यहां कोई किसी से नहीं कहता कि न तो पढ़ने—लिखने से सुख का कोई संबंध है क्योंकि कभी—कभी गैर पढ़े—लिखो को मिल गया—यह रैदास को मिल गया! रैदास चमारा! कहते हैं कि रैदास चमार, मुझको मिल गया! यह कबीर को मिल गया! जो कहते हैं, मसि—कागद छुयो नहीं! कभी कागज ख्युा ही नहीं, स्याही जानी ही नहीं! इनको मिल गया! पढ़े—लिखे होने से कुछ सुख का संबंध नहीं है। मगर हम टालते हैं। यह बहाने हैं हमारे— कल पर टालो, अभी तो फिलहाल टालो, फिर कल की कल देखी जाएगी। और टालते—टालते ऐसी घड़ी आ जाती है कि फिर आगे टालने को कुछ बचता ही नहीं, मौत सामने खड़ी हो जाती है। तो फिर हम कहते हैं कि अब अगले जन्म में मिलेगा— या परलोक में। संसार में कहां सुख, परलोक में मिलता है! तो भैया पहले ही क्यों नहीं कहा? जब स्कूल धक्का दे—दे कर भेज रहे थे, तभी बता देते कि परलोक में मिलता है। मगर टालना, स्थगित करते जाना...।
और फिर एक घड़ी आ जाती है कि तुम्हें अपने बच्चों को जवाब देना पड़ता है। अब बच्चों के सामने यह कहना कि हमने जिंदगी यूं ही गवाई, हम कोरे के कोरे रहे, खाली आए खाली जा रहे है—तो अहंकार के विपरीत पड़ता है। तो बच्चों के सामने तो अकड़ बतानी पड़ती है कि अरे मैंने इतना पाया! कि अरे मैंने यह कर दिखाया! कि दुनिया को मैंने ऐसे चमत्कार दिखा दिए! जो बच गए हैं, बेटा तू दिखलाना! ऐसा यश—नाम मैंने कमाया! छोड़े जा रहा हूं याददाश्त। दुनिया से उठ जाऊंगा, सदियों तक जगह खाली रहेगी! हालांकि दो दिन कोई याद करता नहीं, इधर तुम उठे कि जगह भरी। लोग तैयार ही बैठे हैं। लोग असल में प्रतीक्षा ही करते हैं कि भइया उठो, अब तुम काफी बैठ लिए, अब दूसरों को भी बैठने दो!
विवाह तो अत्यंत सड़ी—गली संस्था हो गया है। उसका कारण भी है, क्योंकि हमने विवाह को झुठला दिया है। हम कहते हैं. विवाह पहले, फिर प्रेम। यह विवाह को झुठलाने का उपाय है। प्रेम पहले फिर विवाह— तो सम्यक होता। हालांकि मैं यह नहीं कहता हूं कि उससे सुख मिल जाता है, लेकिन सम्यक होता, इससे ज्यादा सम्यक होता!
सुख बाहर की किसी चीज से मिलता नहीं। सुख तो आतरिक दशा है। लेकिन फिर भी बाहर हम ऐसी व्यवस्था कर सकते हैं। कमरे में तुम इस ढंग से भी फर्नीचर जमा सकते हो कि जब भी निकलो तभी गिरो, कि कोई मेहमान आ जाए तो बिना अस्पताल जाए रहे ही नहीं। और ऐसे भी फर्नीचर जमा कर सकते हो कि उस पर बैठा जा सके, आराम किया जा सके। फर्नीचर वही, लेकिन फर्नीचर जमाने की थोड़ी कुशलता हो।
जीवन को व्यवस्थित किया जा सकता है— बस इतना ही कि उसमें चोट कम से कम लगे, कि व्यर्थ चोटें न लगें, कि नाहक फ्रैक्चर न हों, कि व्यर्थ अस्पतालों में न पड़ा रहना पड़े।
विवाह से सुख तो नहीं मिल सकता, लेकिन कम से कम दुख मिले, ऐसा किया जा सकता है। मेरी बात को खयाल में रखना. सुख तो नहीं मिल सकता। सुख तो उनको मिलता है जो भीतर ध्यान में जाते हैं, विवाह का क्या लेना—देना उससे! विवाहित को भी मिल सकता है, अविवाहित को भी मिल सकता है— भीतर जाने से। लेकिन विवाह को इस ढंग से व्यवस्थित किया जा सकता है— यह केवल फर्नीचर कि बात है कि पत्नी कहां बैठे, पति कहा बैठे, कि ऐसा न हो कि चौबीस घंटे मुठभेड़ ही होती रहे।
मगर जैसी हमने व्यवस्था दी है, वह व्यवस्था कम, अव्यवस्था ज्यादा है। चौबीस घंटे मुठभेड़ है। पति—पत्नी— जैसे जानी दुश्मन! जैसे एक—दूसरे के पीछे पड़े हैं! एक मल्लयुद्ध चल रहा है!
अरे मुल्ला, आज तुम इतने गुमसुम क्यों बैठे हो? चंदूलाल ने मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा।
मेरी प्रेमिका ने शीघ्र ही शादी करने को कहा है, नसरुद्दीन ने उदास स्वर में कहा।
चंदूलाल बोला अरे, तो इसमें चिंता और उदासी कि क्या बात है?
अरे जनाब, चिंता की ही तो बात है—मुल्ला नसरुद्दीन बोला— अगर मैंने शादी कर ली तो फिर मैं प्रेम किस से करूंगा?
शादी और प्रेम में कोई संबंध दिखाई ही नहीं पड़ता। वहां तो झगड़ा, एक—दूसरे पर कब्जा करने की चेष्टा— राजनीति है वहां। बहुत सूक्ष्म राजनीति है। उस राजनीति ने विवाह को सड़ा दिया है।
गुलजान मैं वादा करती हूं कि मुझे तुम्हारे दुखों में साथ देते हुए बड़ी खुशी होगी।
मुल्ला नसरुद्दीन लेकिन मुझे तो कोई दुख नहीं है।
गुलजान अरे मियां, मैं अभी की बात थोड़े ही कर रही हूं मैं तो शादी के बाद की बात कर रही हूं। एक युवक ने अपनी मां को आकर कहा कि मुझे एक युवती से प्रेम हो गया है, मैं विवाह करना चाहता हू। लेकिन वह युवती नास्तिक है। नरक में भी नहीं मानती!
उस युवक की मां ने कहा बेटा, तू घबड़ा मत। पहले विवाह कर। और मेरे—तेरे बीच में उसको हम ऐसा पाठ चखाके कि नरक में तो उसे भरोसा करना ही पड़ेगा। मेरे—तेरे रहते और तेरी पत्नी नरक में भरोसा न करे, यह नहीं हो सकता!
ढब्यू जी अपनी सुंदर पत्नी गुलाबो से बोले, पता नहीं भगवान ने गुलाबो तुम्हें मूर्ख क्यों बनाया! और मूर्ख बनाया यह तो ठीक, लेकिन फिर इतना सौंदर्य देने की क्या जरूरत थी?
गुलाबो ने कहा सुंदर इसलिए बनाया ताकि तुम मुझसे शादी कर सको और मूर्ख इसलिए ताकि मैं तुमसे शादी कर सकूं।
नारायण, थोड़ी सावधानी से चलना। विवाह भी करना तो सचेत कि यह सब होगा। तैयारी से करना। अपने कवच वगैरह सब लगा लेना। देखा, रामचंद्र जी कैसा धनुषबाण लेकर चलते थे! वह तुम समझ रहे हो किसके लिए? सीता मैया! और तो कोई दिखाई नहीं पड़ता वहां।
विवाह पुरानी संस्था है, काफी पुरानी संस्था है। और जितनी पुरानी है उतनी ही सड़ गई है। विवाह भविष्य में बच नहीं सकता; इसके दिन लद गए। इसकी जगह हमें कुछ नये विकल्प खोजने पड़ेंगे। विकल्पों की तलाश भी शुरू हो गई है। लेकिन अभी जो भी विकल्पों की तलाश हो रही है, उसमें एक भ्रांति है। वह भ्रांति यह है कि वे सब सोचते हैं कि विवाह में दुख था और इस विकल्प में दुख नहीं होगा। वह भ्रांति है। हां विकल्पों में कम—ज्यादा दुख हो सकता है, मगर दुख तो होगा ही— जब तक कि तुम अपने में थिर न हो जाओ।
असल में विवाह की जरूरत ही इसलिए उठती है कि तुम सोचते हो दूसरे से सुख मिल सकता है— और वहीं मूल जड़ है सारे अज्ञान की। दूसरे से सुख नहीं मिल सकता। और जो चाहता है, और सोचता है कि दूसरे से सुख मिल सकता है, वह दुख पाएगा। वह जगह—जगह विफल होगा, हारेगा, टूटेगा, विक्षिप्त होगा।
दूसरे से सुख नहीं मिलता; सुख स्वयं में छिपा है, वहां खोजना है। और तुम्हारे पास सुख हो तो तुम दूसरों को भी बांट सकते हो। अगर मेरा वश चले तो मैं किन्हीं भी व्यक्तियों को विवाह करने के पहले ध्यान को अनिवार्य बना दूं; और कोई शर्त पूरी हो या न हो, जन्म—कुंडली मिले कि न मिले, क्योंकि जिससे तुम जन्म—कुंडली मिलवाने जाते हो, कभी छिप कर उसकी और उसकी पत्नी की हालत तो देखो। और इस देश में तो कम से कम सभी की जन्म—कुंडलियां मिली हुई हैं। जन्म—कुंडलियां तो मिल जाती हैं। वह तो रुपये, दो रुपये में कोई भी पंडित मिला देता है।
मगर जन्म—कुंडलियां मिलने से क्या होता है! वह कोई अनिवार्य शर्त नहीं। न ही और ऊपरी बातें अनिवार्य हैं। स्त्री सुशिक्षित हो, पुरुष सुशिक्षित हो, कुलीन घर से आते हों— ये सब बातें गौण हैं। मौलिक बात एक है कि दो विवाहित होने वाले व्यक्ति ध्यान की गहराइयों मे गए हैं या नहीं? विवाह के पूर्व वर्ष, दो वर्ष गहन ध्यान की प्रक्रिया से गुजरना जरूरी है। फिर इसके बाद विवाह भी एक अपूर्व अवसर बन जाएगा विकास का।
ध्यान से प्रेम की संभावना प्रकट होती है। ध्यान का दीया जलता है तो प्रेम का प्रकाश फैलता है। और दो व्यक्तियों के भीतर ध्यान का दीया जला हो तो विवाह में एक आनंद है। वह आनंद भी ध्यान से आ रहा है, विवाह से नहीं आ रहा है— यह खयाल रखना। और जब तक ऐसा न हो तब तक विवाह एक मजाक है— और बडा कठोर मजाक।



 आखिरी प्रश्न:

ओशो, शास्‍त्र कहते हैं स्‍त्री नरक का द्वार है। आप क्या कहते हैं?

शोभना, एक छोटी सी कहानी कहता हूं।
ढब्यू जी की पत्नी धन्नो एक दिन उदास स्वर में अपनी सहेली गुलाबो से कह रही थी, बहन मैं तो परेशान हो गई हूं अपने पति से, वे मुझे हमेशा ही रामायण की यह चौपाई कि—
ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड्न के अधिकारी।
कह—कह कर प्रताड़ित करते रहते हैं। मैं तो तंग आ गई यह सुन—सुन कर।
गुलाबो बोली. अरे, इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है! मैंने कुछ ही दिन पहले एक नई चौपाई बनाई है, तू इसे गाया कर—
ढोल गंवार पुरुष और घोड़ा, जितना पीटो उतना थोड़ा।
इसमें क्या चिंता लेनी है! स्त्रियों को अपनी चौपाइयां बना लेनी चाहिए। अपने शास्त्र बनाओ। शास्त्रों पर किसी की बपौती है? किसी का ठेका है? चौपाई लिखने की कला कोई बाबा तुलसीदास पर खत्म हो गई है? याद कर लो इस चौपाई को—
ढोल गंवार पुरुष और घोड़ा, जितना पीटो उतना थोड़ा।

 आज इतना ही।



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