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रविवार, 26 अप्रैल 2015

गीता दर्शन--(भाग--7) प्रवचन--179

प्‍यास और धैर्य(प्रवचनसातवां)

अध्‍याय—15
सूत्र—

            यो मामैवमसंमूढो जानति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वोविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।। 19।।
इति गुह्यतमं शास्त्रीमदमुक्‍तं मयानघ।
एतदबद्ध्वा बुद्धिमान्‍स्‍यत्‍कृतकृत्‍यश्‍च भारत।। 20।।

है भारत, हस प्रकार तत्व से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार मे निरंतर मुझ परमेश्वर को ही भजता है।
है निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्ययुक्‍त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, हमको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।


 पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : कल आपने कहा कि बिना शास्त्रों को पढे गुरु की तलाश नहीं करनी चाहिए, मगर मैंने कभी शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया और आपको पहली बार सुनकर ही गुरु मान लिया है। तो क्या मेरा रास्ता गलत है? कल से मुझे सूझ नहीं पड़ता; क्या मैं सदा ही भटकता रहूंगा?

 हुत—सी बातें समझनी जरूरी हैं। पहली बात, यह जन्म आपका पहला नहीं है। आप जमीन पर नए नहीं हैं। बहुत बार हुए हैं, बहुत बार खोजा है, बहुत बार शास्त्रों में भी खोजा है, बहुत बार गुरुओं के चरणों में भी बैठे हैं। सारे जन्मों का सार—संचित आपके साथ है।
यदि कभी ऐसा घटित होता हो कि किसी के निकट गुरु— भाव पैदा हो जाता हो, तो उसका केवल एक ही अर्थ है कि पिछले जन्मों की अनंत यात्रा में गुरु के प्रति समर्पित होने की पात्रता अर्जित की है। अगर वैसा न हो, तो गुरु— भाव पैदा होना संभव नहीं है।
जैसे फूल तो तभी लगेंगे वृक्ष पर, जब वृक्ष बड़ा हो गया हो, शाखाएं फैल गई हों, पत्ते लग गए हों, और फूल लगने का समय आ गया हो। बीज से सीधे फूल कभी नहीं लगते।
तो पहली बात तो यह खयाल रखनी चाहिए कि यदि सच में गुरु— भाव पैदा हुआ हो, तो शास्त्रों की खोज पूरी हो गई होगी। वह चाहे शांत न भी हो; चाहे आपके चेतन मन को उसका पता भी न हो।
और अगर गुरु—भाव भ्रांत हो, मिथ्या हो, सिर्फ खयाल हो, पैदा न हुआ हो, तो ज्यादा देर टिकेगा नहीं। उसका कोई बहुत मूल्य नहीं है। वह ऐसे ही है, जैसे फूल को किसी ने बीज के ऊपर रख दिया हो; बीज से निकला न हो।
यदि गुरु— भाव वस्तुत: पैदा हुआ है, तो जीवन बदलना शुरू हो जाएगा। वही लक्षण है कि गुरु— भाव वास्तविक है या नहीं। क्योंकि गुरु— भाव एक बड़ी क्रांतिकारी घटना है। किसी के प्रति समर्पण की भावना जीवन को आमूल बदलना शुरू कर देती है। समर्पित होते ही आप दूसरे होने शुरू हो जाते हैं। वह जो व्यक्ति समर्पित हुआ था, मर ही जाता है। नए व्यक्ति का ही उदभव हो जाता है।
अगर समर्पण की, शरण जाने की भावना वास्तविक हो—और वास्तविक का अर्थ यह है कि पिछले जन्मों के अनुभव से निकली हो—तो आपके जीवन में क्रांति शुरू हो गई। वह अनुभव आने लगेगी।
आपकी वृत्तियों में फर्क होगा, आपके लोभ में, क्रोध में, काम में फर्क होगा। आपकी करुणा गहन होगी, मैत्री बढेगी। सुख—दुख के प्रति उपेक्षा आनी शुरू होगी। भविष्य बहुत मूल्यवान नहीं मालूम होगा, वर्तमान ज्यादा मूल्यवान मालूम होगा। और जो दिखाई पड़ता है, उससे भी ज्यादा, जो नहीं दिखाई पड़ता है, उसकी तरफ आंखें उठनी शुरू हो जाएंगी। ऐसे जीवन में सब तरफ से फर्क पड़ने शुरू होंगे।
अगर गुरु— भाव, गुरु के प्रति समर्पण का भाव, अतीत के अनुभवों से निकला हो, तो पहचानने में अंतर नहीं पड़ेगा, कठिनाई नहीं पड़ेगी। लेकिन अगर ऐसे ही पैदा हो गया हों—ऐसे भी कभी पैदा हो जाता है—तब आपमें गुरु के प्रति भाव पैदा नहीं होता, गुरु के प्रभाव में आपके ऊपर फूल रख जाता है।
प्रभावशाली व्यक्ति हैं। उनके व्यक्तित्व में प्रभाव हो सकता है; उनकी वाणी में प्रभाव हो सकता है, उनके अस्तित्व में प्रभाव हो सकता है। उस प्रभाव की छाया में आपको लग सकता है कि आप समर्पित हो रहे हैं। लेकिन वह ज्यादा देर टिकेगा नहीं। वह सम्मोहन से ज्यादा नहीं है। जल्दी ही वर्षा, एक वर्षा भी उसे धुला देने के लिए काफी होगी।
तो यही कसौटी है कि अगर समर्पण आपको बदल रहा हो, टिकता हो और धीरे— धीरे स्थिर भाव बनता हो, तो समझना कि शास्त्रों की कोई जरूरत नहीं है, शास्त्रों का काम पूरा हो चुका होगा। अगर समर्पण— भाव कई बार आता हो, अनेक के प्रति आता हो, टिकता न हो; आता हो, चला जाता हो; जरा—सा पानी और सब बह जाता हो; तो समझना कि वह व्यक्तियों के प्रभाव में आपको लगता है कि समर्पण हो रहा है।
वह समर्पण आपका नहीं है। उससे कोई रद्दोबदल, कोई क्रांति कभी भी नहीं होगी। आप जैसे थे, आप वैसे ही रहेंगे। नुकसान भी हो सकता है। क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं बिना बदले प्रभावित हो जाता है, उसके जीवन की सारी व्यवस्था ऊपर—ऊपर, सतह पर होने लगती है। वह किसी से भी प्रभावित हो सकता है। वह जहां जाएगा, वहीं प्रभावित हो जाएगा। लेकिन प्रभाव होगा ऊपर लहरों पर, उसके प्राणों की गहराई में कुछ भी नहीं होगा।
प्राणों की गहराई में तो जो घटना घटती है, वह आपके ही अनुभव से घटती है। आपका अनुभव तैयार हो और गुरु का मिलन हो जाए तो समर्पण, शरणागति पैदा होती है।
आपका अनुभव भीतर न हो और गुरु का मिलना हो जाए, तो प्रभाव पैदा होता है। लेकिन प्रभाव क्षण में आता है, क्षण में चला जाता है, उसका कोई बहुत मूल्य नहीं है। वह वैसे ही है, जैसे आप चित्र देखने गए; फिल्म देखी और थोड़ी देर को प्रभावित हो गए हैं। और बाहर निकलते ही बात समाप्त हो गई है।
यह भी हो सकता है कि फिल्म देखते क्षण में करुणा उमड़ आई हो, आंख आंसुओ से भर गई हो। लेकिन जैसे ही परदे पर प्रकाश होता है, घंटी बजती है, स्मरण आ जाता है कि सिर्फ फिल्म थी, प्रकाश—छाया का खेल था; रोने जैसा कुछ भी न था; और आप हंसते हुए बाहर आ जाते हैं। हो सकता है अभी भी आंखें गीली हों, लेकिन वह सब ऊपर—ऊपर था; भीतर उसके कोई परिणाम नहीं है। मुझे सुनकर भी प्रभाव हो सकता है। मेरी बात अच्छी लग सकती है, तर्कयुक्त मालूम हो सकती है। मेरी बात का काव्य मन को पकड़ ले सकता है। लेकिन उसका बहुत मूल्य नहीं है; मनोरंजन से ज्यादा मूल्य नहीं है। बाहर आप जाएंगे, वह सब खो जाएगा; धुआं—धुआं उड़ जाएगा।
लेकिन अगर आपके भीतर अनुभव भी पका हो और फिर मेरी बात का उससे मेल हो जाए; बीज भी पड़ा हो जमीन में और वर्षा हो, तो अंकुरण होगा। बीज आपको अपने साथ लाना है।
कोई भी गुरु आपको अनुभव नहीं दे सकता। गुरु वर्षा बन सकता है। अनुभव का बीज भीतर हो, तो अंकुरित हो सकता है। गुरु की मौजूदगी माली का काम कर सकती है। लेकिन कोई भी गुरु बीज नहीं बन सकता आपके लिए। उसका कोई उपाय नहीं है।
      इसकी भी जांच निरंतर रखनी चाहिए कि हम केवल प्रभावों से तो नहीं जीते? अपने भीतर भी खोज करते रहना चाहिए कि हम सिर्फ सम्मोहित तो नहीं हैं? हमारे भीतर कुछ अंतर हो रहा है या नहीं? रोज लोग मंदिर में जाते हैं। मंदिर में उनके चेहरे देखें; भक्ति— भाव से भरे हुए मालूम पड़ते हैं! मंदिर से बाहर निकलते ही चेहरे बदल जाते हैं। उस मंदिर को वे जन्मों से जा रहे होंगे, लेकिन मंदिर कहीं भी उनको बदल नहीं पाता। वे वही के वही हैं। मंदिर में जाकर एक चेहरा ओढ़ लेते हैं। उसकी भी आदत हो गई है! तो मंदिर में प्रवेश करते ही से भक्ति का भाव धारण कर लेते हैं।
लेकिन धारण किए हुए भाव का कोई मूल्य नहीं है। भाव भीतर से आना चाहिए। और अगर भीतर से आएगा, तो मंदिर में ही क्यों, मंदिर के बाहर भी रहेगा, मंदिर के भीतर भी रहेगा।
तो जब आप मुझे सुनते हैं, तभी अगर ऐसा लगता हो कि समर्पण कर दें, उसका बहुत मूल्य नहीं है। जब मुझे सुनकर चले जाते हैं, और अगर वह भाव आपके भीतर गूंजता ही रहता हो, उठते—बैठते, सोते—जागते, उसकी धुन आपके भीतर बजती रहती हो, वह आपका पीछा करता हो, न केवल पीछा करता हो, बल्कि उसकी मौजूदगी के कारण आपके जीवन में फर्क पड़ता हो, कि आप किसी की जेब में हाथ डालकर रुपया निकालने ही वाले थे, कि वह जो भाव आपके भीतर उठा था, वह आपको रोक देता हो, कि गाली बस निकलने को ही थी मुंह से, कि वह जो भाव भीतर उठा है, बाधा बन जाता हो; कि कोई गिर पड़ा था, उसको उठाने के लिए हाथ बढ़ जाता हो, वह भाव कृत्य बनता हो; तो समझना कि वह आपके भीतर है।
अगर भाव कृत्य बनने लगे, तो उसका अर्थ है कि वह आचरण को बदलेगा। अगर भाव कृत्य न बने, तो आप तो वही रहेंगे। हो सकता है, बुद्धि में थोड़ी अच्छी बातें संगृहीत हो जाएं। अच्छी बातों का कोई भी मूल्य नहीं है। अच्छी बातें अच्छे सपनों जैसी हैं। सपना कितना ही अच्छा हो, तो भी सपना है। और सपने में आप सम्राट भी हो जाएं, तो सुबह आप पाते हैं कि आप भिखारी हैं। उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता।
तो मैं अगर कहूं कि आप स्वयं ब्रह्म हैं, और भीतर छिपा है अविनाशी अंतर्यामी; और मेरी बात सुनकर आपको लगे कि ठीक, और इससे जीवन में, कृत्य में कहीं कोई अंतर न पड़ता हो, तो इसका कोई भी मूल्य नहीं है; और इसे आप धोखा समझना। और इस धोखे से जितने जल्दी आप बाहर हो जाएं, उतना अच्छा है।
क्योंकि इस धोखे में आपने न मालूम कितना समय गंवाया होगा। लोग हैं, जो एक गुरु से दूसरे गुरु की यात्रा करते रहते हैं; एक आश्रम से दूसरे आश्रम में चलते रहते हैं। कोई आश्रम उनको बदल नहीं पाता। और तब वे क्या सोचते हैं, कि सभी आश्रम बेकार हैं; कहीं कोई सार नहीं है। कोई गुरु उनको नहीं बदल पाता। तब वे सोचते हैं कि सब गुरु बेकार हैं, सदगुरु कोई है ही नहीं।
कठिनाई सदगुरु की नहीं है, कठिनाई आपकी है। आप बदलने को तैयार हों, तो एक छोटा बच्चा भी आपको बदल दे सकता है। और आप बदलने को तैयार न हों; तो खुद कृष्ण भी आपके पास खड़े रहें, तो कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं।
इसे खयाल रखें। जो भी प्रभाव हो, वह आपका कृत्य बनने लगे, इसका स्मरण रखें। और मौका दें कि वह कृत्य बने। जहां भी अवसर मिले, तत्क्षण जो आपका भाव है, उसे कर्म में रूपांतरित होने दें। जब भी कोई भाव कर्म बनता है, तो उसकी लकीर आपके भीतर गहरी हो जाती है।
जो आप सोचते हैं, उसका बहुत मूल्य नहीं है। जो आप करते हैं, उसी का बहुत मूल्य है। क्योंकि जो आप करते हैं, वह आपके अस्तित्व से जुड़ता है। जो आप सोचते हैं, वह बुद्धि में भटकता रहता है।
बहुत लोग हैं जिनके पास अच्छे— अच्छे विचार हैं। उन अच्छे विचारों का कोई भी मूल्य नहीं है। समय पर काम नहीं आते। और जो वे करते हैं, उस करने से उनके विचारों का कोई संबंध नहीं जुड़ता।
मैं जो भी आपसे बोलता हूं, उसका प्रयोजन आपको प्रभावित करना नहीं है। बच्चों का खेल है प्रभावित करना। आप तो मदारी से प्रभावित हो जाते हैं, इसलिए उसका कोई मूल्य भी नहीं है। सड़क पर एक मदारी डमरू बजा रहा है। आप वहीं खड़े हो जाते हैं। तो आपको प्रभावित करने का कोई मूल्य नहीं है, न कोई अर्थ है। आप तो किसी से भी प्रभावित हो जाते हैं!
आपके भीतर जीवन का संचरण शुरू हो जाए! आपकी जीवन— धारा नई गति ले ले!
तो न शास्त्रों की फिक्र करें, न प्रभावों की फिक्र करें; फिक्र इस बात की करें कि आपके भीतर क्या घटित हो रहा है। इसका सतत निरीक्षण चाहिए। और आपके भीतर जो घटित होगा, वही संपदा बनेगी।
मरते क्षण में न तो आप शास्त्र ले जा सकेंगे, न गुरु को साथ ले जा सकेंगे; न गुरु के वचन काम आएंगे; न आपने जो प्रभाव इकट्ठे किए हैं, वे काम आएंगे। मरते क्षण में, आपने क्या किया जीवनभर, वही बस आपके साथ होगा। मरते क्षण में आपके कृत्यों का सार—निचोड़ आपके साथ यात्रा पर निकलेगा। मरते क्षण में सिर्फ आप ही बचेंगे; और आपके अपने सारे कृत्यों का संग्रह, जो—जो आपने किया, उसकी सब लकीरें आपके ऊपर हैं।
तो निरंतर यह सोचें कि आपके जीवन की धारा कैसी चल रही है। वही पहचान है।

 दूसरा प्रश्न :

इतने दिन से आपको बड़ी उत्कंठा से सुनकर भी मैं अपने आपको वहीं या रहा हूं जहां मैं था! फिर मैं क्या आशा रख सकता हूं?

 किससे आप आशा रख रहे हैं, मुझसे या अपने से? प्रश्न से ऐसा लगता है कि मुझसे कुछ आशा रख रहे हैं। जैसे मुझे सुनकर आप वहीं के वहीं हैं, तो कसूर मेरा है! मैंने कहा कब आपको कि आप सुनकर कुछ और हो जाएंगे? काश, इतना आसान होता कि लोग सुनकर बदल जाते, तो इस दुनिया में बदलाहट कभी की हो गई होती!
लोग सुनकर नहीं बदलते हैं, यह तो साफ ही है। और सच तो यह है कि जितना ज्यादा सुनते हैं, उतना ही जड़ हो जाते हैं। क्योंकि सुनने की उनको आदत हो जाती है। तो पहली दफे सुनकर शायद थोड़ी—बहुत उनकी बुद्धि में गति भी आई हो, बार—बार सुनने से उतनी गति भी खो जाती है! फिर सुनने के आदी हो जाते हैं! फिर उनको लगता है, यह तो सब परिचित ही है। फिर सुनना भी एक नशा हो जाता है। तो उसकी तलब होती है।
अगर आप मुझे सुनते हैं उत्कंठा से और कोई फर्क नहीं हो रहा, तो आठ बजे कि आप चले। वह तलब है। वह जैसे किसी को

 सिगरेट पीने की तलब है, कि आठ बजे और सिगरेट न पीए, तो उसको तकलीफ होती है। तो यह एक व्यसन हुआ, नशा हुआ। नशे का एक मजा है। करो, तो कुछ मिलता नहीं; न करो, तो तकलीफ होती है। जाओ सुनने, कुछ फायदा नहीं; न जाओ, तो बेचैनी होती है! जब भी ऐसा हो, तो समझना कि यह व्यसन हो गया। यह रोग है। इस रोग से कुछ उपलब्धि होने वाली नहीं है।
पर निराश किससे होना है? यह सोचकर सुनना बंद कर दें, तो भी कुछ फर्क नहीं हो जाएगा। सुनने से नहीं हुआ, तो सुनना बंद करने से कैसे होगा! फर्क करने को कुछ आपको अपनी तरफ। सोचना पड़ेगा। सुनने में बड़ी सुगमता है, क्योंकि आपको कुछ करना ही नहीं है, सिर्फ बैठे हैं!
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि आपकी किताब पढ़ने से तो आपको सुनने में ज्यादा आनंद आता है! क्योंकि पढ़ने में कम से कम आपको थोड़ी मेहनत करनी पड़ती है, पढ़ना पड़ता है, उतना कष्ट! सुनने में वह भी कष्ट नहीं है। और सुनने में मन लीन हो जाता है, तो उतनी देर को आपको शांति भी मिलती है। उतनी देर को कम से कम दूसरे उपद्रव आप नहीं कर पाते। कम से कम उतनी देर को आपका मन व्यस्त हो जाता है। तो मन की जो निरंतर की चलती धारा है, वह नहीं चल पाती।
यह सब ठीक है, लेकिन इससे आप बदल नहीं जाएंगे। और अगर कोई सोचता हो कि सुनने से बदल जाएंगे, तो गलती सोचता है। वह तो कभी बदलेगा ही नहीं। अगर बदलना है, तो सुनने से सूत्र खोजे जा सकते हैं, जो बदलने के काम आ जाएं। सिर्फ सुनने से कोई नहीं बदलेगा।
वह करीब—करीब बात, पुरानी कहावत है, कि आप घोड़े को जाकर पानी दिखा सकते हैं, पिला नहीं सकते। घोड़े को ले जाकर नदी के किनारे खड़ा कर सकते हैं। पिलाके कैसे? पानी तो घोड़े को ही पीना पड़ेगा। वही मैं कर सकता हूं घोड़े को नदी के किनारे खड़ा कर सकता हूं; पिला नहीं सकता।
अब आप कहें कि घोड़े की तरह मैं खड़ा हूं इतने दिन से और प्यास मेरी अभी तक नहीं बुझी!
नदी बह रही है, घोड़ा खड़ा है। अब क्या करना है? और करना किसको है? वह जो घोड़े को नदी तक ले आया है, उसको कुछ करना है कि घोड़े को कुछ करना है?
जन्मों तक खड़े रहें। नदी बहती रहेगी। नदी हर पल बह रही है। लेकिन थोड़ा झुकना पड़ेगा घोड़े को। थोड़ी गर्दन झुकाकर पानी। तक मुंह को ले जाना पड़ेगा।
तो मैं जब बोल रहा हूं कुछ कह रहा हूं, तो नदी आपके पास बह रही है। आप बैठे रहें किनारे पर। कितने ही दिन तक बैठे रहें। नदी को देखने का मजा लेते रहें! नदी के बहने की ध्वनि आ रही है, उसका संगीत सुनते रहें। नदी पर सूरज की किरणें बिछी हैं, नदी सुंदर है, उसके सौंदर्य को देखते रहें। नदी के पास पक्षी उड़ रहे हैं, वृक्ष खड़े हैं, उनको देखते रहें। लेकिन प्यास न बुझेगी।
और नदी कुछ भी नहीं कर सकती आपकी प्यास बुझाने को। आप झुकें, चुल्ल से पानी भरें और पीए। और आपकी तैयारी हो, तो पीने की क्या बात है, नदी में डूब सकते हैं, नदी के साथ एक हो सकते हैं। लेकिन सिर्फ नदी की मौजूदगी से यह नहीं हो जाएगा; आपको कुछ करना पड़ेगा।
आप कहते हैं. यहां सुनते हैं, उत्कंठा से सुनते हैं।
यह कुछ करना नहीं है। इस नदी की धारा में से कुछ चुनना पड़ेगा, जो आप पीए। कोई विचार जो आपको लगता है सार्थक है, तो उसको सार्थक ही मत लगने दें, उसको सार्थक बनाएं। कोई विचार आपको लगता है कीमती है, तो सिर्फ ऐसा सोचते ही मत रहें कि कीमती है। अगर कीमती है, तो उसका उपयोग करें, उसको चर्खे, उसका स्वाद लें। उसको पी जाएं; कि वह आपके खून में बहने लगे, आपकी हड्डियों के साथ एक हो जाए।
अगर विचार इतना प्रीतिकर लगता है, तो जिस दिन वह आपका अंतस बन जाएगा, उस दिन कितनी मधुरिमा पैदा होगी, इसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। जो मैं कह रहा हूं अगर वह प्रीतिकर लगता है, तो जहां से वह कहना निकलता है, उस स्रोत पर जब आप डूब जाएंगे, एक हो जाएंगे, तो आपके जीवन में प्रकाश ही प्रकाश हो जाएगा।
लेकिन खतरा यही है कि बात अच्छी लगे, तो हम उसे स्मरण कर लेते हैं, वह हमारी बुद्धि में समा जाता है। उसका हम उपयोग भी करते हैं, तो एक ही उपयोग, किसी और से बात करने के लिए उपयोग कर सकते हैं। किसी और को बता देंगे, किसी और को समझा देंगे, बस इतना ही उपयोग है।
तो जो सुना है, उसे आप ज्यादा से ज्यादा अगर कुछ करेंगे, तो वाणी बना लेंगे। वह आपका जीवन नहीं बनेगा। और जीवन न बने, तो सुनने का कोई सार नहीं। वह व्यर्थ ही गया।
तो अगर आपको लगता हो कि सुनते हैं और कहीं जा नहीं रहे—कैसे जाएंगे? जाना आपको पड़ेगा। जाना शुरू करें।
और एक कदम भी उठाएं, तो भी बड़ा है। क्योंकि पहला कदम उठ जाए, तो दूसरे के उठने में आसानी हो जाती है। और एक कदम से ज्यादा तो एक समय में कोई उठा नहीं सकता। एक कदम उठा लिया, तो पूरी मंजिल भी एक अर्थ में हल हो गई। क्योंकि एक—एक ही कदम उठाकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। लेकिन कदम उठाएं।
इसे नियम बना लें कि जो प्रीतिकर लगे, उसके अनुभव की कोशिश करें। जो मन को आच्छादित कर ले, उसके अनुभव की कोशिश करें। फिक्र करें कि इसे मैं भी जानने की कोशिश करूं, क्या!
मेरे पास एक युवक आते थे। ध्यान पर बड़ी उत्सुकता रखते थे। ध्यान के शिविरों में भी आते थे। लेकिन कभी मैंने उनको ध्यान करते नहीं देखा। दो—चार शिविर में देखा, अनेक बार मुझसे मिलने आए; अनेक प्रश्न लेकर आए। प्रश्न भी अच्छे लाते थे। सुनते भी बड़ी उत्सुकता से थे।
मैंने पूछा कि कर क्या रहे हो? उन्होंने कहा, मैं ध्यान पर शोध कर रहा हूं, रिसर्च कर रहा हूं। एक थीसिस लिखनी है।
तो यह व्यक्ति ध्यान को समझने की बड़ी चेष्टा कर रहा है, लेकिन ध्यान से इसे कोई प्रयोजन नहीं है। ध्यान से इसका निजी कोई संबंध नहीं है। थीसिस लिखकर बात समाप्त हो जाएगी। कोई युनिवर्सिटी इसको डिग्री दे देगी। बात खतम हो गई! ध्यान एक विषय है, जिस पर एक बौद्धिक व्यायाम करना है। लेकिन प्रयोग नहीं करना है।
यह करीब—करीब ऐसी हालत है, जैसे कहीं अमृत का सरोवर भरा हो, और कोई आदमी उस सरोवर के आस—पास खोज—बीन करता रहे कि अमृत पर उसको एक थीसिस लिखनी है और उसे पीए न! तो उस आदमी को हम महामूढ़ कहेंगे। क्योंकि थीसिस लिखने का काम तो पीकर भी हो सकता था; और पीकर ज्यादा ढंग से होता। क्योंकि जिसे खुद नहीं जाना, उसके संबंध में हम क्या कहेंगे! जो भी कहेंगे, वह उधार होगा। और जो भी कहेंगे, वह बासा और बाहर—बाहर का होगा। वह भीतर की प्रतीति नहीं है।
एक वैज्ञानिक हुआ मैक्स प्लांक, उसने अपना एक संस्मरण लिखा है। उसने लिखा है कि वह जीवशास्त्र का अध्ययन कर रहा था और मनोविज्ञान का भी अध्ययन कर रहा था, और कोशिश कर रहा था कि मनोविज्ञान में और जीवशास्त्र में क्या भीतरी संबंध है। और 'जब मन प्रभावित होता है, तो शरीर कैसा प्रभावित होता है।
एक युवती से उसका प्रेम था। लेकिन एक दिन युवती एकदम झटके के साथ खड़ी हो गई। उसके पास बैठी थी, चांद था आकाश में, वे दोनों बड़े प्रेम की बातें कर रहे थे। अचानक वह झटके से खड़ी हो गई। और उसने कहा कि क्षमा करो; यह बात खतम; अब मुझसे दुबारा मत मिलना। मैक्स प्लांक ने कहा, बात क्या है? उसने कहा कि मैं कई दिन से अनुभव कर रही हूं कि जब भी तुम मुझसे प्रेम की बातें करते हो, तो तुम अपना हाथ मेरी नाड़ी पर रखते हो।
वह जांच करता था कि जब मैं प्रेम की बात करता हूं तो उसकी नाड़ी में कोई फर्क पड़ता है कि नहीं! प्रेम भी थीसिस की बात थी! उसे कुछ प्रेम में उतरने का कोई कारण नहीं था, सिर्फ जांच रहा था कि जब मन प्रभावित होता है, तो शरीर प्रभावित होता है कि नहीं!
होता तो जरूर है। क्योंकि जब आप गहरे प्रेम में हों, तो आपकी नाड़ी तेजी से चलेगी। जिसको आप प्रेम करते हैं, जब आप उसके पास होते हैं, तो आपका पूरा शरीर ज्यादा ज्वलंत हो जाता है। खून तेजी से बहता है। नाड़ी तेजी से चलती है। हृदय तेजी से धड़कता है। आप जीवित हो जाते हैं। और जब आपका प्रेमी आपसे दूर हटता है, तो आप मुर्दा हो जाते हैं, कुम्हला जाते हैं; सब चीजें शिथिल हो जाती हैं।
यह तो ठीक है। लेकिन उस लड़की ने ठीक ही किया। उसने कहा, यह बात खतम हो गई। क्योंकि प्रेम कोई वैज्ञानिक जिज्ञासा की बात नहीं है। और उसने कहा कि शक तो मुझे कई बार होता था। क्योंकि तुम बात करते—करते कुछ और भी कर रहे हो। लेकिन आज मैंने बिलकुल साफ देख लिया कि तुम मेरी नाड़ी पकड़े बैठे हो। पहले वह लड़की समझती रही होगी कि मेरा हाथ प्रेम से पकड़े हुए है, और वह उसकी नाड़ी की जांच कर रहा है!
अब यह आदमी जरूर ही खोज लेगा संबंध मन के और शरीर के, लेकिन एक अनूठे अनुभव से वंचित रह जा सकता है। प्रेम से वंचित रह जा सकता है।
आप ध्यान में उत्सुक हो सकते हैं, एक बौद्धिक ऊहापोह की तरह। तब आप छिलके लेकर लौट आए जहां कि आपको फल मिल सकते थे।
मेरी बात जब आप सुनते हैं और आपको अच्छी लगती है, और प्रीतिकर लगती है, और उत्कंठा जगती है; इतना काफी नहीं है। इतना जरूरी तो है, क्योंकि इसके बाद कुछ और हो सकता है; लेकिन इतना काफी नहीं है। यह केवल प्राथमिक है। दूसरा कदम उठाएं। विचार से अनुभव की तरफ चलें।
विचार पर मत ठहर जाएं। नहीं तो आप सोचते ही रहेंगे, सोचते ही रहेंगे और समाप्त हो जाएंगे। और सोचने पर जो समाप्त हो गया, उसने जीवन को जाना ही नहीं। एक अपूर्व संपदा पास थी, वह उसे खो दिया अपने ही हाथों से। और विधि आपके पास भी रखी रही, तो भी आप उपयोग न कर सके!
एक रात मुल्ला नसरुद्दीन अपने घर वापस लौटा, बदहवास, पसीने से तरबतर, घबड़ाया हुआ। जल्दी से भीतर घुसकर दरवाजा बंद कर लिया।
पत्नी ने कहा, इतने घबडाए हुए हो! बात क्या है? कहां से आ रहे हो? उसने कहा कि दुकान से ही लौट रहा हूं। लेकिन एक बदमाश मिल गया। उसने मेरा चश्मा भी छीन लिया; फाउंटेन पेन भी खीसे से निकाल ली, रुपए भी खीसे से ले लिए; कोट भी उतार लिया। यहां तक कि मेरे जूते उतार लिए।
उसकी पत्नी ने कहा, और तुम तो पिस्तौल रखे हुए हो! तो नसरुद्दीन ने कहा, वह तो भाग्य की बात कहो कि बदमाश की नजर पिस्तौल पर नहीं पड़ी; नहीं तो क्या वह छोड़ देता!
अब पिस्तौल किस लिए रखे हुए है वह!
आपको ध्यान की विधि पता है। वह रखी रह जाएगी ऐसे ही जैसे पिस्तौल रखी है। उसको भी बचाने में लग जाएंगे और उसका उपयोग तो कभी कर ही न पाएंगे। आप क्या जानते हैं इसका मूल्य नहीं है, क्योंकि जाना हुआ तो पड़ा रह जाएगा। जिस—जिस ज्ञान को आपने जीवन बना लिया, वही बस आपके हाथ है।
मैंने सुना है, एक बहुत पुरानी यहूदी कथा है, कि परमात्मा ने जब संसार बनाया, तो उसने हिंदुओं के नेता से पूछा—शायद कृष्ण से पूछा हो—कि कुछ नियम हैं मेरे पास। ये उपयोगी होंगे। अगर तुम चाहो, तो मैं तुम्हें नियम दे दूं। तो कृष्ण ने, या हिंदुओं के नेता ने पूछा कि जरा नमूने के लिए; कौन से नियम हैं? तो उसने कहा कि जैसे, व्यभिचार पाप है। तो हिंदुओं के नेता ने कहा, यह बात तो ठीक होगी, लेकिन संसार से सब रस चला जाएगा। कोई उत्सुकता न दिखाई नियम लेने की।
मुसलमानों के नेता से पूछा—शायद मोहम्मद से पूछा होगा—उन्होंने भी कहा, लेकिन पहले मैं जान लूं कि कौन से नियम हैं, फिर लूं। तो ईश्वर ने यह सोचकर कि पहला नियम तो पसंद नहीं किया गया, तो उसने दूसरा नियम बताया कि हत्या मत करो। तो मोहम्मद ने कहा, यह बात तो बिलकुल ठीक है। लेकिन अगर हत्या बिलकुल न की जाए, तो दूसरे हमारी हत्या कर देंगे। और दुष्टों के हाथ में संसार चला जाएगा। और फिर बिना युद्ध के शांति कैसे स्थापित हो सकती है?
ऐसा ईश्वर घूमता रहा। आखिर में वह मूसा को मिला, यहूदियों के नेता को मिला। और जैसे कि यहूदी होते हैं, व्यापारी; ईश्वर भी चौंका। क्योंकि उसने और लोगों से पूछा था, सब ने नमूने मागे। मूसा ने पूछा, हाऊ मच इट कॉस्ट्स, इसकी कीमत कितनी है? वह जो नियम आप देते हो, उसका मूल्य कितना है?
ईश्वर भी चौंका; क्योंकि वह यह पूछ ही नहीं रहा है कि नियम क्या है! वह कहता है, मूल्य कितना है! तो ईश्वर ने कहा, मूल्य तो बिलकुल नहीं है; मुफ्त दे रहे हैं! तो उसने कहा, देन आई विल टेक टेन। मूसा ने कहा, तो फिर हम दस ले लेंगे। जब मुफ्त ही दे रहे हैं, तो क्या दिक्कत है। इसलिए टेन कमाडमेंट्स, दस आशाएं ईश्वर की! मगर वे किताब में रखी हैं।
आप भी मुक्त कुछ मिल रहा हो, तो एक की जगह दस ले लेंगे। कुछ करना न पड़ रहा हो, कुछ आपके जीवन में रूपांतरण न होता हो, कोई क्रांति न होती हो, बैठे—ठाले कुछ मिल जाता हो, तो एक की जगह दस ले लेंगे। लेकिन वह किताब में रखा रह जाएगा; उसका कोई मूल्य नहीं है।
आप यहां बैठकर सुन रहे हैं। आपको कुछ करना नहीं पड़ रहा है। बल्कि घंटे, डेढ़ घंटे के लिए कुछ करना पड़ता, उससे भी आप बच गए। राहत है! सुख लगता है।
इस सुख को आप व्यसन मत बना लें। अगर सुख लगता है बातों में, तो जहां से बातें आती हों, उस दिशा में यात्रा शुरू करें। और जो मैं कह रहा हूं वह अगर आपको भी किसी दिन दिखाई पड़ सके, तभी रुके, तभी समझें कि मंजिल आई। उसके पहले रुकना उचित नहीं है। और यह मैं न कर सकूंगा; यह आपको खुद ही करना पड़ेगा।
कोई दूसरा आपके लिए नहीं चल सकता। कोई दूसरा आपके लिए देख नहीं सकता। कोई दूसरा आपके लिए अनुभव नहीं कर सकता। और अच्छा ही है कि कोई दूसरा नहीं कर सकता। अन्यथा आप सदा के लिए वंचित रह जाते, आप पंगु रह जाते।
अगर दूसरा आपके लिए चले, तो आपके पैर नष्ट हो जाएंगे। और दूसरा आपके लिए अनुभव करे, तो आपका हृदय नष्ट हो जाएगा। और दूसरा आपके लिए देख सके, तो आपकी आंखों की कोई जरूरत नहीं। और दूसरा अगर आपके लिए आत्म— अनुभव कर सके, तो आपकी आत्मा सदा के लिए खो जाएगी।
इसलिए परमात्मा के गहरे नियमों में से एक नियम यह है कि दूसरा आपके लिए, जो भी मूल्यवान है, वह नहीं कर सकता। वह आपको ही करना पड़ेगा। क्योंकि करने से ही विकास होता है। करने से ही आप निर्मित होते हैं। करने से ही आपका वास्तविक जीवन और जन्म होता है।

तीसरा प्रश्न :

आपने कहा कि प्राण यदि प्रभु के लिए समग्ररूपेण आतुर हो जाएं, तो एक क्षण में मिलन घटित हो सकता है। और आप यह भी कहते हैं कि इस मिलन के लिए अनंत धैर्य अपेक्षित है। ये दोनों अति स्थितियां हैं!

 हीं; ये दोनों एक ही स्थिति के दो रूप हैं। या एक ही स्थिति के दो चरण हैं।
समझें! निरंतर मैं कहता हूं कि उसे पाने के लिए अनंत धैर्य चाहिए। और निरंतर यह भी कहता हूं कि उसे एक क्षण में पाया जा सकता है। दोनों बातें विपरीत मालूम पड़ती हैं। क्योंकि अगर उसे एक ही क्षण में पाया जा सकता है, तो अनंत धैर्य की जरूरत क्या? तब तो क्षणभर भी धैर्य रखने की जरूरत नहीं है। जिसे एक क्षण में ही पाया जा सकता है, उसे हम अभी ही पा ले।
और जब मैं कहता हूं कि उसको अनंत धैर्य रखो, तो पा सकेंगे, तब आपको लगता है कि अनंत धैर्य रखने का मतलब ही यह हुआ कि एक क्षण में पाना तो संभव नहीं, अनंत जन्म में भी पा लें, तो जल्दी पाया।
दोनों बातें विपरीत लगती हैं, पर ये दोनों बातें विपरीत नहीं हैं। और जीवन का गणित पहेली जैसा है। ये दोनों बातें परिपूरक हैं। समझने की कोशिश करें!
उसे एक क्षण में पाया जा सकता है, अगर आप में अनंत धैर्य हो। और अगर आप में धैर्य की कमी हो, तो उसे अनंत काल में भी नहीं पाया जा सकता। क्योंकि आपका धैर्य ही उसे पाने की योग्यता है। तो जितना धैर्य हो, उतने जल्दी वह घटित होता है।
अनंत धैर्य का अर्थ है, एक ही क्षण में घटित हो जाएगा। क्योंकि कोई कमी नहीं रही; आप पूरा धैर्य रखे हुए हैं। अनंत धैर्य का अर्थ है कि अगर वह कभी भी न घटे, तो भी मैं धीरज खोने वाला नहीं हूं। अनंत धैर्य का मतलब यह है कि वह कभी भी न घटे—कभी भी—तो भी मैं प्रतीक्षा करूंगा। ऐसा जिसका मन हो, उसके लिए इसी क्षण घट जाएगा। क्योंकि इसको अब प्रतीक्षा कराने का कोई प्रयोजन ही न रहा। बात ही खतम हो गई। यह तैयार है।
और जो इतने धैर्य के लिए तैयार है, क्या वह अशांत होगा? क्योंकि अशांत तो अधैर्य के साथ जुड़ा है। इतना धैर्य वाला व्यक्ति तो परिपूर्ण शांत होगा, तभी इतना धैर्य रख सकेगा। और जो इतने
धैर्य के लिए राजी है, क्या वह दुखी होगा? क्योंकि दुखी तो अधीर होता है।
दुखी जल्दी में होता है। सिर्फ जो आनंद में है, वह धीरे चलता है। सम्राट जब चलता है, तो तेजी से नहीं चलता। सम्राट अगर तेजी से चले, तो उससे पता चलता है कि सम्राट होने की कला उसे नहीं आती।
तेजी से तो वह भागता है, जिसको कुछ पाना है। जिसके पास सब है, वह क्यों भागे? भाग—दौड़ कमी की खबर देती है। अनंत धैर्य का अर्थ है कि मेरे पास सब है, जल्दी कुछ भी नहीं है। अगर प्रभु भी मिलेगा, तो वह अतिरिक्त है। इसे थोडा समझ लें।
मेरे पास सब था और अगर प्रभु मिलेगा, तो वह अतिरिक्त है। वह न मिलता तो कोई कमी न थी। वह मिल गया, तो मैं पूरे से भी ज्यादा पूरा हो जाऊंगा। लेकिन पूरा मैं था, क्योंकि मुझे कोई जल्दी न थी, न कोई प्रयोजन था; न कोई भाग—दौड़ थी।
पूरे धैर्य का अर्थ यह होता है कि आप जैसे हैं, उससे राजी हैं। वह तथाता की घड़ी है। आप पूरी तरह राजी हैं कि ठीक, सब ठीक है। और यह सब ठीक किसी सांत्वना के लिए नहीं कि अपने को समझाने के लिए। ठीक तो कुछ भी नहीं है, लेकिन अपने को समझा रहे हैं कि सब ठीक है। जानते हैं, ठीक कुछ भी नहीं है। लेकिन कह रहे हैं कि सब ठीक है, ताकि मन माना रहे।
नहीं, वैसा सब ठीक नहीं। कुछ भी गैर—ठीक मालूम नहीं होता। सब ठीक है। कहीं कोई असंतोष नहीं है। और कुछ पाने की दौड भी नहीं है। और प्रभु जब मिले, तब उसकी मरजी पर हम छोड़ सकते हैं समय को। हमारी तरफ से समय हम देते नहीं। आज न मिले, तो हम सांझ को पश्चात्ताप न करेंगे, रोके न, धोएंगे न, चिल्लाएंगे न, कि दिन निकल गया और आज तक। एक दिन खराब हुआ।
कल फिर राह देखेंगे। उस राह में कहीं भी धूमिलता न आएगी, उस प्रतीक्षा में हम कहीं भी चाह को न जुड़ने देंगे, जल्दबाजी न जुड्ने देंगे, अधैर्य न जुड्ने देंगे। ऐसा अनंत धैर्य हो, तो परमात्मा क्षणभर में मिल जाता है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, आप कहते हैं क्षणभर में मिल जाता है, लेकिन मिलता क्यों नहीं?
उनका जो कहना है, मिलता क्यों नहीं? वही बाधा है। अगर क्षणभर में मिल जाता है, तो अभी मिलना चाहिए! और जो इतनी जल्दी में है कि अभी मिलना चाहिए, उसका मन इतने तनाव से भरा है, वह इतने दुख से भरा है, वह इतने असंतोष से भरा है, इतनी अशांति से भरा है कि परमात्मा से मिलना हो कैसे सके?
और जो कहता है, अभी मिलना चाहिए, वह परमात्मा को बहुत मूल्य भी नहीं दे रहा है। वह कह रहा है, मिलना हो तो अभी मिल जाओ, नहीं तो दूसरे काम हजार पड़े हैं; और अगर देरी हो, तो पहले हम उनको निपटा लें। परमात्मा उसके लिए कोई बहुत मूल्य की बात नहीं कि वह उसके लिए समय देने को तैयार हो!
जितनी मूल्यवान चीज हो, आप उतना ज्यादा समय देने को तैयार होते हैं। मौसमी फूल हम लगाते हैं, तो वे महीनेभर में आ जाते हैं, लेकिन महीनेभर में समाप्त भी हो जाते हैं।
अगर आकाश को छूने वाले वृक्ष हमें लगाने हैं, तो प्रतीक्षा करनी पड़ती है वर्षों तक। एक पीढ़ी लगाती है, दूसरी पीढ़ी उनके फल पाती है। अगले जन्म में आपको फल मिलेगा, इस जन्म में नहीं मिल सकता। बड़ा वृक्ष है!
परमात्मा का जिनकी नजर में मूल्य है, वे तो कभी भूलकर भी यह न कहेंगे कि अभी मिल जाए। क्योंकि वे जानते हैं, यह बात ही बेहूदी है। यह बात ही मुंह से निकालनी अधार्मिक है। यह सोचना भी कि अभी मिल जाए अधार्मिक है।
इतनी बड़ी घटना, इतना विराट विस्फोट, प्रतीक्षा से होगा। और जब इतनी बड़ी घटना है, तो जब भी घटेगी, मानना कि वह जल्दी घटी, क्योंकि देर का तो कोई कारण नहीं है। जब भी घटे, तभी भक्त कहेगा कि जल्दी घट गई; अभी मेरी पात्रता न थी और घट गई। इतनी बड़ी घटना, इतनी जल्दी घट गई! अपात्र कहता है, अभी घटे। और अभी नहीं घटती, तो फिर छोड़ो।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, शाम की ट्रेन से हम जा रहे हैं। कुछ ऐसा बता दें कि बस, जीवन बदल जाए।
पता नहीं जीवन का क्या मूल्य समझते हैं! कोई मूल्य भी है जीवन का या नहीं है! भागे हुए हैं! और ऐसा पूरा जीवन खो जाएगा, कुछ भी उनको मिलेगा नहीं।
बुद्ध के पास कोई आता, तो बुद्ध कहते थे, एक साल तो बिना पूछे मेरे पास बैठ जाओ। एक साल बाद तुम पूछना शुरू करना। जो जल्दी में होता, वह कहता, तो फिर मैं एक साल बाद ही आ जाऊं! बुद्ध कहते, तब तुझे दो साल बिठाऊंगा। क्योंकि एक साल तो यह जो तूने गंवाया, और एक तो बाकी रहा ही।
झेन फकीर रिंझाई के पास कोई आया। और उसने कहा कि मेरा पिता बूढ़ा है; और ज्यादा समय मेरे पास नहीं है। मैं अकेला ही बेटा हूं और बाप बूढ़ा है; उसकी सेवा करनी जरूरी है। लेकिन ध्यान मुझे सीखना है। रिंझाई ने कहा कि कोई तीस साल लगेंगे, क्योंकि तुम इतनी जल्दी में हो! वह युवक कुछ समझ नहीं पाया। उसने कहा, जल्दी में हूं तो जल्दी करवाइए, कि तीस साल! मेरे पिता चल ही बसे होंगे।
उस युवक ने कहा कि अगर मैं दुगुनी मेहनत करूं, तो क्या होगा? रिंझाई ने कहा, तब साठ साल लग जाएंगे। क्योंकि मैं तो यह मानता था कि तू पहले ही पूरी मेहनत करने को तैयार है। तू कह रहा है, दुगुनी करूंगा, मतलब तूने आधी पहले ही बचा रखी थी। तू आदमी भी बेईमान है। वह तीस तो मैंने सोचकर बताए थे कि तू अगर पूरी मेहनत करे। तू कहता है, अगर मैं दुगुनी मेहनत करूं। साठ लग जाएंगे।
उस युवक ने कहा कि अब मैं आगे नहीं पूछता। क्योंकि यही ठीक है, साठ ही ठीक है। पता नहीं, तुम एक सौ बीस कर दो! और वह युवक रुक गया। तीन वर्ष तक वह रिंझाई के पास था। रिंझाई ने उससे फिर पूछा ही नहीं कि तुम कैसे आए? क्या सीखना है?
कई दफा उस युवक को भी खयाल उठा कि क्या करना? क्या नहीं करना? साल निकले जा रहे हैं! बाप बूढ़ा हुआ जा रहा है। और अभी तो कुछ शुरू भी नहीं हुआ! पर उसने कहा कि पूछना खतरनाक है। यह आदमी तो बड़ा उपद्रवी है! अगर पूछा और कहीं यह कहने लगे कि सौ साल लगेंगे! इसलिए उसने कहा कि चुप ही रहो। देखें, क्या होता है।
तीन साल बाद उसने कहा, अब तेरा पहला पाठ शुरू होता है—रिंझाई ने कहा—और तू योग्य है। अगर तू तीन साल में पूछता, तो मैंने तेरे एक सौ बीस साल कर दिए थे। फिर मुझसे यह काम पूरा होने वाला नहीं था। क्योंकि मैं भी बूढ़ा हो रहा हूं। आधा ही मैं करता, आधा मेरे शिष्य करते। लेकिन तूने तीन साल नहीं पूछा; अब मैं काम शुरू करता हूं।
पांचवें वर्ष रिंझाई का शिष्य समाधि को उपलब्ध हो गया। जब वह समाधि को उपलब्ध हुआ, तो उसने रिंझाई को कहा, इतने जल्दी! मैं तो सोच भी नहीं सकता था! रिंझाई ने कहा, चूंकि तू साठ के लिए राजी हो गया। वह तेरा राजीपन साठ साल के लिए, तेरी प्रतीक्षा की तैयारी थी।
साठ साल का मतलब होता है, पूरा जीवन गंवाने की तैयारी। वह युवक कम से कम पच्चीस साल का था, जब आया था। साठ साल का मतलब है कि मरेगा अब, अब लौटने का कोई उपाय नहीं है।
साठ साल के लिए तेरी तैयारी......।
अनंत प्रतीक्षा का अर्थ ही यह होता है कि हमारी तैयारी इतनी है कि कभी भी न घटे, तो भी हम शिकायत न करेंगे। भक्त का अर्थ ही यह होता है, जो शिकायत न करे। और जिसकी शिकायत है, वह भक्त नहीं है।
पर आप हैरान होंगे, नास्तिक तो मिल जाएंगे आपको जिनकी कोई शिकायत नहीं है, आस्तिक खोजना मुश्किल है बिना शिकायत के। और आस्तिक का लक्षण यह है कि उसकी कोई शिकायत न हो।
तो दुनिया में दो तरह के नास्तिक हैं। एक तो नास्तिक हैं, जो घोषणा किए हैं कि ईश्वर नहीं है। इसलिए शिकायत करने का उपाय भी नहीं है, किससे शिकायत करें? इसलिए जो है, ठीक है। दूसरे नास्तिक वे हैं, जो माने हुए हैं कि ईश्वर है। लेकिन माने सिर्फ इसीलिए हैं, ताकि शिकायत करने को कोई हो। बस, उनका ईश्वर सिर्फ शिकायत के लिए है, कि वे कह सकें कि देखो यह नहीं हो रहा, यह नहीं हो रहा, यह करो, यह क्यों नहीं किया? इतनी देर क्यों हो रही है? बिना ईश्वर के किससे शिकायत करिएगा?
आपका ईश्वर सिर्फ आपकी शिकायतों का पुंजीभूत रूप है। और भक्त का शिकायत से कोई संबंध नहीं है।
यह जो मैं कहता हूं अनंत प्रतीक्षा, यह शिकायत—शून्य, शर्तरहित धैर्य है। इसे जरा सोचें। अगर ऐसी आपके पास चित्त की दशा हो, तो कोई कारण नहीं है कि अभी क्यों घटना न घट जाए। अनंत धैर्य खुले आकाश की तरह हो जाता है। फिर हृदय के कहीं कोई द्वार, सीमाएं कुछ भी न रहीं। सब खुला है, कुछ बंद न रहा। अब और ज्यादा परमात्मा को उतरने के लिए चाहिए भी क्या? इतना ही चाहिए।
इसलिए इन दोनों में कोई विरोध नहीं है, पहली बात। ये दोनों एक ही साधना के हिस्से हैं।
रह गई दूसरी बात, निश्चित ही ये दोनों अतियां हैं, एक्सट्रीम्स हैं। लेकिन एक ही रेखा की दो अतियां हैं। और इस जगत में कोई भी रेखा रेखा नहीं है सीधी। सभी रेखाएं वर्तुलाकार हैं। सभी रेखाएं बड़े वर्तुल का हिस्सा हैं।
यूक्लिड कहता था, जिसने ज्यामिति खोजी, कि सीधी रेखा होती है। लेकिन फिर आइंस्टीन और बाद के खोजियों ने सिद्ध किया कि सीधी रेखा होती नहीं, स्ट्रेट लाइन होती ही नहीं। क्योंकि जिस

 जमीन पर आप बैठे हैं, वह गोल है, आप उस पर कोई भी रेखा खींचें, अगर उसको बढ़ाए चले जाएं, तो वह पूरी जमीन को घेर लेगी, बड़े वर्तुल का हिस्सा हो जाएगी।
तो सभी रेखाएं किसी बहुत बड़े वर्तुल का हिस्सा हैं। इसलिए कोई रेखा सीधी नहीं है। सभी रेखाएं तिरछी हैं, घूमती हुई हैं, वर्तुल का अंग हैं। सीधी रेखा जैसी कोई चीज है ही नहीं जगत में।
इसलिए सभी चीजें गोल घूमती हैं। चांद, पृथ्वी, तारे, सूरज, मौसम, आदमी का जीवन, सब वर्तुलाकार घूमता है। और जब दो अतियां एक रेखा की करीब आती हैं, तो वर्तुल पूरा होता है। किसी भी रेखा को, उसकी अतियों को पास ले आएं; जहां दोनों अतियां मिलती हैं, वहीं वर्तुल पूरा होता है।
अनंत धैर्य रेखा का एक कोना है। और क्षण में घट सकती है घटना, सडेन, यह रेखा का दूसरा कोना है। जहां ये दोनों कोने मिलते हैं, वहा वर्तुल पूरा होता है। और इन दोनों के बीच जरा—सा भी फासला नहीं है। ये अतियां जरूर हैं, लेकिन अतियां मिलती हुई अतियां हैं।
और यह भी ध्यान रहे कि जीवन में जो भी छलांग लगती है, वह हमेशा अति से लगती है, मध्य से नहीं लगती। इस कमरे के बाहर जाना हो, तो या तो इस तरफ की खिड़की खोजनी पड़े या उस तरफ की खिड़की खोजनी पड़े। लेकिन यहां कमरे के मध्य में खडे होकर बाहर जाने का कोई उपाय नहीं है। मध्य से कोई द्वार जाता ही नहीं। मध्य का मतलब ही यह हुआ कि द्वार से दूरी है। परिधि पर जाना पड़ेगा। अति को पकड़ना पड़ेगा।
इसलिए दुनिया की सभी साधना—पद्धतियां अतियां हैं। अति का मतलब है, आखिरी छोर। वहा से छलांग लग सकती है। मध्य से कहां कूदिएगा? कमरे में ही उछलते रहेंगे। किनारे पर जाना पड़े। एक अति है कि क्षण में घटना घट सकती है। सडेन एनलाइटेनमेंट को मानने वाला वर्ग है। विशेषकर जापान में झेन फकीर, तत्‍क्षण मानते हैं कि घटना घट सकती है, एक क्षण में घट सकती है। और इसी के लिए तैयार करते हैं साधक को कि वह एक क्षण के लिए तैयार हो। तैयारी में वर्षों लगते हैं। घटना एक ही क्षण में घटती है, लेकिन तैयारी में वर्षों लगते हैं; कभी—कभी जन्म भी लगते हैं।
ऐसे ही जैसे हम पानी को गरम करते हैं, तो पानी भाप तो एक क्षण में बन जाता है, सौ डिग्री पर पहुंचा कि भाप बनना शुरू हुआ। लेकिन सौ डिग्री तक पहुंचने में घंटों लग जाते हैं। और इस पर
निर्भर करता है कि कितना ताप नीचे है, कितनी आग नीचे है।
अगर आप राख रखे बैठे हों, तो कभी नहीं पहुंचेगा। अंगारे हों, लेकिन राख से ढंके हों, तो बड़ी देर लगेगी। ज्वलित अग्नि हो, भभकती हुई लपटें हों, तो जल्दी घटना घट जाएगी।
तो कितनी त्वरा है भीतर, कितनी अभीप्सा है, कितनी आग है घटना को घटाने की, उतने जल्दी घट जाएगी। लेकिन घटना एक ही क्षण में घटेगी।
पानी गरम होता रहेगा, गरम होता रहेगा, निन्यानबे डिग्री पर भी पानी—पानी ही है। अभी भाप नहीं बना। एक सेकेंड में सौ डिग्री, पानी छलांग लगा लेगा। छलांग कीमती है। जब तक पानी था, पानी नीचे की तरफ बहता है। जैसे ही भाप बना, ऊपर की तरफ उठना शुरू हो जाता है। सारी दिशा बदल जाती है।
जब तक पानी था, तब तक दिखाई पड़ता था, पदार्थ था। जैसे ही छलांग लगती है, अदृश्य हो जाता है, वायवीय हो जाता है, आकाश में खो जाता है। जब तक दिखाई पड़ता था, जमीन उसको नीचे की तरफ खींच सकती थी। गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव था। जैसे ही भाप बना, गुरुत्वाकर्षण के बाहर हो जाता है; आकाश की तरफ उठने लगता है। कोई दूसरे जगत के नियम काम करने शुरू कर देते हैं। एक क्षण में घटना घटती है, लेकिन तो भी झेन फकीरों को जन्मों—जन्मों तक और एक जीवन में भी वर्षों तक गरमी पैदा करने के उपाय करने पड़ते हैं।
दूसरे फकीर हैं, सूफियों का एक समूह है इस्लाम में, वे अनंत प्रतीक्षा में मानते हैं। वे क्षण की बात ही नहीं करते हैं। वे कहते हैं, अनंत प्रतीक्षा करनी है। बैठे रहो, प्रतीक्षा करो। जागते रहो, प्रतीक्षा करो। कभी अनंत जन्म में घटेगी।
अब यह बड़े मजे की बात है। ये दोनों बिलकुल विपरीत साधना—पद्धतियां हैं, अतिया हैं। लेकिन झेन फकीर भी पहुंच जाता है और सूफी फकीर भी पहुंच जाता है। और मजे की बात यह है कि झेन फकीर जब पहुंचता है, तो उसको भी वर्षों तक श्रम करके क्षणभर की घटना पर पहुंचना पड़ता है। और जब सूफी फकीर पहुंचता है, तो वह भी अनंत प्रतीक्षा करके क्षणभर की घटना पर पहुंचता है। घटना तो वही है।
तो दो बातें हो गईं। पानी को हम गरम करते हैं, सौ डिग्री पर पानी भाप बन जाता है; एक। और पानी को गरम करना पड़ता है; दो। इनमें से जिस पर आप जोर देना चाहें।
अगर आपको गरमी पर जोर देना है, तो आप कह सकते हैं, लंबी यात्रा है। बड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। पानी गरम होगा, गरम होगा, गरम होगा; कभी अंत में भाप बनेगा। प्रोसेस, प्रक्रिया पर जोर दें। और अगर अंत पर जोर देना हो, तो कहें कि पानी कभी भी भाप बने, कितनी ही देर लगे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, भाप तो क्षणभर में बन जाती है। पानी छलांग लगा लेता है।
पर ये दोनों एक ही प्रक्रिया के हिस्से हैं। इसलिए मैं दोनों को जोड़कर इकट्ठा कहता हूं। अनंत हो प्रतीक्षा, तो क्षणभर में घट जाता है। क्षण में घटाना हो, तो अनंत की तैयारी चाहिए। और इनमें विरोध नहीं है।

 चौथा प्रश्न :

क्या गुरु के जाल में फंसना, तड़पना, मर जाना, रूपांतरण की प्रक्रिया के अनिवार्य अंग हैं?

 निश्चित ही। फंसना पड़े, तड़पना भी पड़े और मरना भी पड़े। लेकिन जिस अर्थ में आपने— पूछा है, उस अर्थ में नहीं। पूछने वाले को तो ऐसा लगता है, बेचैनी है, भय है; फंसने से भय है, डर है।
डर किस बात का है? डर किसको है? वह जो अहंकार है हमारे भीतर, सदा डरता है कि कहीं फंस न जाएं। और यह जो अहंकार है, कहीं भी नहीं फंसने देता। लेकिन तब हम पूरे जीवन से वंचित रह जाते हैं।
एक युवक ने मुझे आकर कहा कि प्रेम तो मुझे करना है, लेकिन फंसना नहीं है। कोई झंझट में नहीं पड़ना चाहता हूं।
प्रेम करना हो, तो फंसना ही पड़े। क्योंकि वह प्रेम घटेगा ही तब, जब आप डूबेंगे। आप ऐसे दूर अपने को सम्हालकर खड़े रहे संतरी की तरह, तो वह घटना ही घटने वाली नहीं है।
और बचेगा भी क्या! बचाने को है भी क्या आपके पास? यह जो बचने की तलाश चल रही है, यह कौन है जो बचना चाहता है? यह जो इतना डरा हुआ प्राण है, इसको बचाकर भी क्या करिएगा? इसको स्वतंत्र रखकर भी क्या प्रयोजन है? और जो स्वतंत्रता इतनी भयभीत हो, वह स्वतंत्रता है भी नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात देर से घर लौटा। पत्नी ने शोरगुल शुरू कर दिया। और उसने कहा कि फिर देर से आए? और हजार बार कह दिया कि देर से आना बंद हो!
कहां थे? तो नसरुद्दीन ने कहा कि समझदार पत्नियां इस तरह के प्रश्न नहीं पूछतीं।
पत्नी आगबबूला थी, उसने कहा, और समझदार पति.......।
वह आगे कुछ कहे, उसके पहले ही नसरुद्दीन बोला कि ठहर! समझदार पति सदा कुंआरे रहते हैं।
वह जो डरा हुआ है, वह कितना ही समझदार मालूम पड़ता हो, लेकिन जीवन के अनुभव से वंचित रह जाएगा।
प्रेम एक अनुभव है। और उसमें उतरने से ही पता चलता है। और उसका फंसना उपयोगी है। क्योंकि उस फंसने के भीतर भी अगर तुम बिना फंसे रह सको, तो तुम्हारे जीवन में अमृत बरस जाएगा। उस कारागृह में प्रवेश करके भी तुम्हारी मुक्ति नष्ट न हो, तुम्हारी भीतरी मुक्ति तुम कायम रख सको, वही कला है।
तो एक तो प्रेम है जीवन में। गुरु और शिष्य का संबंध भी प्रेम का आखिरी संबंध है। वह और भी बड़ा फंसाव है। क्योंकि पत्नी के साथ रहकर स्वतंत्र रहना आसान है, गुरु के साथ रहकर स्वतंत्र रहना और भी मुश्किल है, और भी जटिल है, क्योंकि उसका जाल और भी बड़ा है। वह हृदय तक ही नहीं जाता, उसका जाल आत्मा तक चला जाता है। पर वहां भी स्वतंत्र रहने की संभावना है। और मजा यही है कि वहा जितने पूरे मन से कोई अपने को छोड़ देगा, उतना ही स्वतंत्र रहेगा।
परतंत्रता पैदा इसलिए होती है कि तुम छोड़ नहीं पाते। अगर तुम छोड़ दो, तो परतंत्र रहने का कोई अर्थ ही नहीं है। जेलखाना जेलखाना मालूम पड़ता है, क्योंकि तुम जेलखाने में रहना नहीं चाहते। और अगर तुम जेलखाने में रहना ही चाहते हो, तब? तब जेलखाना समाप्त हो गया। फिर अगर जेल के लोग तुम्हें बाहर निकालने लगें, तो वह परतंत्रता होगी। जिस बात से हमारा प्रतिरोध है, विरोध है, रेसिस्टेंस है, वहीं फंसना मालूम होता है।
अगर एक युवक एक युवती को सच में ही प्रेम करता है, तो फंसना मालूम होता ही नहीं। युवती अगर सच में प्रेम करती है, तो फंसना मालूम नहीं होता; तब प्रेम मुक्ति मालूम होता है। और अगर प्रेम न हो, डर हो, भय हो, बचाव की चेष्टा हो, तो फंसना मालूम होता है, तो बंधन और कारागृह मालूम होता है।
मैं यह कह रहा हूं आपसे कि वहीं आपको बंधन मालूम होता है, जहां आप लड़ते हैं।
भूमिदान आंदोलन असफल हुआ, तो सारे मुल्क में भूमि हथियाओ आंदोलन चला। तो मैंने एक घटना सुनी है कि उसकी नकल पर एक गांव में—निश्चित ही गांव गुजरात में रहा

 होगा—पत्नियां हथियाओ आंदोलन लोगों ने चला दिया। और उन्होंने कहा कि समाजवाद में जब कि सभी के पास एक—एक पत्नी नहीं है, तो कुछ लोगों के पास दो—दो हैं, यह नहीं हो सकता। यह बर्दाश्त के बाहर है।
तो जिन युवकों के पास पत्नियां नहीं थीं, उन्होंने एक जुलूस निकाला और कहा कि पत्नियां हथियाओ। जिनके पास दो हैं, उनसे

 एक छीनो, और उनको दो जिनके पास एक भी नहीं है। और यह समाजवाद के लिए बिलकुल जरूरी है।
मुल्ला नसरुद्दीन बाहर गया था; उसकी दो पत्नियां थीं। वह घर पहुंचा, तो हाय—तोबा मची थी। जुलूस उसकी एक पत्नी को लेकर आगे बढ़ गया था। मुल्ला भाग।; जाकर नेता के हाथ पकड़ लिए और कहा कि अन्याय मत करो। उस नेता ने कहा, अन्याय कौन कर रहा है? तुम अन्याय कर रहे हो जनता पर कि हम? जब कि गाव में सौ आदमी मौजूद हैं जिनके पास एक भी पत्नी नहीं, और तुम दो—दो पर कब्जा जमाए बैठे हो? तुम दो—दो का सुख ले रहे हो? और ज्यादा हमारे पास समय नहीं। अभी हमें और कोई पचास पत्नियां हथियानी हैं। उसने घड़ी देखी, उसने कहा, हटो रास्ते से। नसरुद्दीन ने फिर भी हाथ पकड़ लिया और बिलकुल कंपने लगा और कहा कि नहीं, ऐसा अन्याय मत करो। भीड को भी दया आ गई और नेता ने कहा, मर्द जैसे मर्द होकर भी इस तरह रिरिया रहे हो औरतों की तरह! ले जा अपनी पत्नी को! नसरुद्दीन एकदम जमीन पर गिर पड़ा और पैर पकड़ लिए और कहा कि आप समझे नहीं; दूसरी को भी लेते जाइए।
बंधन! जहां प्रेम समाप्त हुआ, वहा विवाह बंधन बन जाता है, परतंत्रता बन जाता है। जहां श्रद्धा खो गई, वहां गुरु जेलखना हो जाता है।
श्रद्धा हो, तो गुरु मुक्ति है। प्रेम हो, तो प्रेम का संबंध स्वतंत्रता है। और प्रेमी एक—दूसरे को और स्वतंत्र कर देते हैं, जितने अकेले होकर वे कभी भी नहीं हो सकते थे। क्योंकि दो स्वतंत्रताएं मिलती
और गुरु तो परम मुक्त है। उसके मोक्ष से जब आपका मिलना होता है या उसके जाल में जब आप फंसते हैं, तो अगर आपका विरोध न हो तो आप परम मुक्त हो जाएंगे। और अगर विरोध हो, तो ही आपको लगेगा कि जाल में फंसे हैं। जाल में फंसा हुआ होना जाल के कारण नहीं लगता; मुझे फंसना नहीं है, इसलिए लगता है। नदी में एक आदमी तैर रहा है, तो उसको लगता है, नदी मेरे खिलाफ बह रही है! क्योंकि वह नदी से उलटा जाने की कोशिश कर रहा है। उसको लगता है, नदी मेरी दुश्मन है। और एक आदमी नदी में बह रहा है, जहां नदी जा रही है, उसी में बह रहा है। उसको लगता है, नदी मेरी मित्र है, नदी मेरी नाव है। और नदी मुझे ले जा रही है, जरा भी श्रम नहीं करना पड़ रहा है।
अगर गुरु के साथ आप उलटी धारा में बह रहे हों, तो फंसना लगेगा। और अगर गुरु के साथ बह रहे हों, तो मुक्ति अनुभव होगी। आप पर निर्भर है, शिष्य पर निर्भर है कि गुरु परतंत्रता बन जाएगा कि स्वतंत्रता।
तड़पना भी पड़ेगा। क्योंकि यह खोज बड़ी है और यह खोज गहन है। और मिलने के पहले बहुत पीड़ा है। पानी मिले, उसके पहले गहन प्यास से गुजरना होगा। और जैसे ही आप किसी गुरु के पास पहुंचेंगे, आपकी तड़प बढ़ेगी, घटेगी नहीं। अगर घट जाए, तो समझना कि यह गुरु आपके काम का नहीं है। क्योंकि घटने का मतलब यह हुआ कि आग ठंडी हो रही है।
गुरु के पास पहले पहुंचकर तो प्यास बढ़ेगी, क्योंकि गुरु को देखकर आपको पहली दफा पता चलेगा कि पानी पीए हुए लोग किस आनंद में हैं! पहली दफा तुलना पैदा होगी, तकलीफ पैदा होगी। पहली दफा तृषा गहन होगी। पहली दफा लगेगा कि ऐसा मैं भी कब हो जाऊं? कैसे हो जाऊं? यह मुझे भी कब हो?
आनंद की पहली झलक आपके दुख को बहुत गहन कर जाएगी। ऐसे ही जैसे रास्ते से आप गुजर रहे हों, अंधेरे रास्ते से, लेकिन अंधेरे में ही गुजर रहे हों, तो अंधेरे में भी दिखने लगता है। फिर एक कार गुजर जाए तेज प्रकाश को करती हुई, तो कार के गुजरने के बाद रास्ता और भी भयंकर अंधकार मालूम होता है। तुलना पैदा होगी।
गुरु के पास आकर पहली दफा तुलना पैदा होगी। पहली दफा आपको लगेगा, आप कहां हैं! किस नरक में हैं! किस पीड़ा में हैं! तो तड़प तो पैदा होगी। और गुरु की कोशिश होगी कि और जोर से तड़पाए। क्योंकि जितने जोर से आप तड़पें, उतनी ही आग पैदा होगी, उतना ही उबलने का बिंदु करीब आएगा। और जितने आप तड्पें, उतनी ही खोज जारी होगी, सरोवर के निकट पहुंचना आसान होगा। अगर आप पूरी तरह तड़प उठें, तो सरोवर उसी क्षण प्रकट हो जाता है।
इसलिए तड़पना भी होगा और मरना भी होगा। क्योंकि वह आखिरी है। गुरु का काम ही वही है। गुरु यानी मृत्यु। जो आपको मार न सके, वह गुरु नहीं; जो आपको मिटा न सके, वह गुरु नहीं। वह आपको काटेगा ही। और जब आप बिलकुल समाप्त हो जाएंगे, तभी आपको छोड़ेगा कि बस, अब काम पूरा हुआ। बिना

 मिटे परमात्मा को पाने की कोई व्यवस्था नहीं है। बिना खोए उसकी खोज पूरी नहीं होती।
इसलिए पुराने सूत्रों में कहा है कि आचार्य, गुरु मृत्यु है। और वह जो कठोपनिषद में नचिकेता को भेजा है यम के पास, वह गुरु के पास भेजा है। यम गुरु का प्रतीक है। वहा जाकर आप मर जाएंगे। इसलिए गुरु से लोग बचते हैं। पच्चीस तरह की युक्तियां खोजते हैं कि कैसे बच जाएं; रेशनलाइजेशन खोजते हैं कि कैसे बच जाएं। गुरु को सुन भी लेते हैं, तो कहते हैं, बात अच्छी है, लेकिन अभी अपना समय नहीं आया! करेंगे कभी जब समय आएगा! हजार तरकीब आदमी करता है अपने को बचाने की।
जैसे आप मृत्यु से बचते हैं, वैसे ही आप गुरु से बचते हैं। और जिस दिन आप ठीक से समझ लेंगे। गुरु के पास जाने का मतलब ही यह है कि मैं गलत हूं और गलत को जला डालना है। और मैं भ्रांत हूं और भ्रांत को मिटा देना है। और मैं जैसा अभी हूं मरणधर्मा हूं; इस मरणधर्मा को मर जाने देना है, ताकि अमृत का उदय हो सके।
मृत्यु द्वार है अमृत का। और जो मिटने को राजी है, वह उसको उपलब्ध हो जाता है, जो कभी नहीं मिटता है। एक तरफ गुरु मारेगा और दूसरी तरफ जिलाएगा। वह मृत्यु भी है और पुनर्जन्म भी, नव—जीवन भी।
क्या गुरु के जाल में फंसना, तड़पना, मर जाना, रूपांतरण की प्रक्रिया के अनिवार्य अंग हैं?
बिलकुल अनिवार्य अंग हैं। और इसके पहले कि फंसो या तो भाग खड़े होना चाहिए; फिर लौटकर नहीं देखना चाहिए। गुरु खतरनाक है। जरा भी रुके, तो डर है कि फंस जाओगे। और फंस गए, फिर तड़पना पड़ेगा। तड़पे, कि फिर मरना पड़ेगा। वे एक ही मार्ग की सीढ़ियां हैं।
लेकिन जो व्यक्ति स्वयं का रूपांतरण चाहता है, वह चाहता क्या है? वह चाहता यही है कि मैं गलत हूं जैसा हूं। जो मुझे होना चाहिए, वह मैं नहीं हूं। और जो मुझे नहीं होना चाहिए, वह मैं हूं। तो वह मिटने के लिए तैयार है, वह बिखरने के लिए तैयार है, वह शून्य होने को राजी है। और जो व्यक्ति शून्य होने को राजी है, उसी का गुरु से मिलन हो पाता है।

अब हम सूत्र को लें।
हे भारत, इस प्रकार तत्व से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरंतर मुझ परमेश्वर को ही भजता है।
हे निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।
एक—एक शब्द समझें।
इस प्रकार से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरंतर मुझ परमेश्वर को ही भजता है। जिसको भी यह स्मरण आ गया कि परिधि पर शरीर है, मध्य में चेतना है और अंत में केंद्र पर अंतर्यामी पुरुषोत्तम है, जिसको भी यह स्मरण आ गया कि केंद्र परमात्मा है, फिर उसकी परिधि भी परमात्मा के ही गुणगान करने लगती है। फिर उसकी परिधि पर भी परमात्मा का ही स्वर गूंजने लगता है। फिर उसके बाहर भी वही प्रकट होने लगता है, जो भीतर है। फिर वह उठता भी है, तो परमात्मा में, बैठता भी है, तो परमात्मा में। फिर परमात्मा उसके लिए कुछ पृथक नहीं रह जाता, उसके अपने होने का अभिन्न अंग हो जाता है। फिर वह जो भी करता है, वह सब परमात्मा में ही घटित होता है। जैसे मछली सागर में होती है, ऐसा फिर वह परमात्मा में होता है। भजने का यही अर्थ है।
भजने का यह अर्थ नहीं कि आप बैठे हैं, कभी—कभी राम—राम, राम—राम कर लिया। भजने का यह अर्थ है कि आपके जीवन की कोई भी गतिविधि परमात्मा से शून्य न हो। आप जो भी करें, जो भी न करें, सब में परमात्मा का स्मरण सतत भीतर बना रहे। आपके जीवन के कृत्य माला के मनके हो जाएं और परमात्मा आपके भीतर का धागा हो जाए। हर मनके में दिखाई पड़े या न दिखाई पड़े, वह धागा भीतर समाया रहे। सभी मनके उसी धागे से बंध जाएं, भजन का यह अर्थ है।
पर हम तो हर चीज को विकृत कर लेते हैं। तो हम काम करते जाते हैं और सोचते हैं, भीतर राम—राम करते जाओ। लोग अभ्यास कर लेते हैं उसका। तो वे कार ड्राइव करते रहेंगे और भीतर राम—राम करते रहेंगे! वह अभ्यस्त हो जाता है।
मन जो है, आटोमैटिक किया जा सकता है। तो मन स्वचालित यंत्र बन जाता है। आप अपना काम करते रहें, वहां राम—राम, राम—राम, राम—राम चलता रहे। उसका कोई मूल्य नहीं है। वह मन का एक कोना दोहराता रहता है।
भजन का अर्थ है, अपने जीवन में डूब जाए स्मृति परमात्मा की। कैसे यह हो?
किसी मित्र की आंख में झांकें, तब आपको मित्र तो दिखाई पडे, वह परिधि रहे, लेकिन उसमें पुरुषोत्तम भी दिखाई पड़े, तो वह भजन हो जाएगा। फूल को देखें, फूल तो परिधि रहे और फूल में जो सौंदर्य प्रकट हुआ है, वह जो खिलावट, वह जो जीवन की अभिव्यक्ति हुई है, वह जो पुरुषोत्तम वहां मौजूद है, उसका स्मरण आ जाए। चाहे फूल देखें, चाहे आंख देखें, चाहे आकाश देखें, जो भी देखें वहां आपको पुरुषोत्तम की स्मृति बनी रहे।
ऐसा नहीं कि फूल देखें, तो भीतर राम—राम, राम—राम करने लगें। उसमें तो फूल भी चूक जाएगा। राम—राम करने की शाब्दिक बात नहीं है। फूल के अनुभव में पुरुषोत्तम का अनुभव मौजूद रहे। भोजन करें, पुरुषोत्तम का अनुभव मौजूद रहे। स्नान करें, पुरुषोत्तम का अनुभव मौजूद रहे।
लोग नदी में स्नान करने जाते हैं। मेरे गांव में नियम से लोग सुबह नदी में स्नान करने जाते हैं। सर्दी के दिनों में भी जाते हैं। सर्दी के दिनों में वे ज्यादा भजन करते हैं। और राम—राम, जय शिव शंकर.......!
पानी में ठंड लगती है, भुलाने के लिए वे जोर से भगवान का नाम लेते हैं। इधर मन भगवान के नाम में लग जाता है, एक डुबकी लगाई और बाहर निकल आए। फिर वे भगवान का नाम नहीं लेते। जैसे ही बाहर हुए, वे भूले। तो वे जब भगवान का नाम ले रहे हैं, ऐसा लगेगा सुबह नदी के किनारे कि बड़े भक्त आए हुए हैं। वह सिर्फ ठंड से बचने का उपाय है।
वह वैसे ही जैसे आप अकेले गली में जा रहे हों, तो जोर से सीटी बजाने लगें, उससे ऐसा लगता है कि अकेले नहीं हैं। सीटी सुनाई पड़ती है, अपनी ही सीटी! जो नहीं हैं धार्मिक, वे फिल्मी गाना गाकर भी स्नान कर लेते हैं। उसमें भी फर्क नहीं पड़ता।
भजन का अर्थ कोई शब्दों से राम की स्मृति नहीं है। क्योंकि वह धोखा भी हो सकती है; दुख से बचने का उपाय हो सकती है; ठंड से बचने का उपाय हो सकती है, अकेलेपन से बचने का उपाय हो सकती है। वह एक तरह की व्यस्तता हो सकती है।
नहीं, भगवान को अनुभव में जानना है, अनुभव से पलायन करके नहीं। उससे बचना नहीं, उससे भागना नहीं। जैसा भी जीवन है, जहां भी जीवन ले जाए, वहां मेरी आंख परिधि पर ही न रहे, केंद्र पर सदा पहुंचती रहे। जो भी मैं देखूं, उसमें मुझे केंद्र की प्रतीति बनी रहे, वह धारा भीतर बहती रहे कि पुरुषोत्तम मौजूद है। ऐसी अगर प्रतीति हो जाए, तो आपका पूरा जीवन भजन हो जाएगा। वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरंतर मुझ परमेश्वर को भजता है। तभी निरंतर भजन हो सकता है। अगर राम—राम जपेंगे, तो निरंतर तो हो ही नहीं सकता। क्योंकि दो राम के बीच में भी जगह छूट जाएगी। एक दफा कहा राम, दूसरी दफा कहा राम, बीच में खाली जगह छूट गई, तो निरंतर तो हो ही नहीं पाया।
फिर कब तक कहिए! जब तक होश रहेगा कहिए, रात नींद लग जाएगी, वह चूक जाएगा। कोई डंडा सिर पर मार देगा, क्रोध आ जाएगा; वह निरंतर का चूक जाएगा, निरंतर नहीं रह पाएगा। कितनी ही तेजी से कोई राम—राम जपे, तो भी दो राम के बीच में जगह छूटती रहेगी, उतनी खाली जगह में परमात्मा चूक गया। निरंतर तो तभी हो सकता है कि जो भी हो रहा हो, उसी में परमात्मा हो। जो डंडा मार रहा है सिर पर, अगर उसमें भी पुरुषोत्तम दिखे, तो भजन निरंतर हो सकता है। और जो राम—राम के बीच में खाली जगह छूट जाती है, उस खाली जगह में भी पुरुषोत्तम दिखे, तभी पुरुषोत्तम निरंतर हो सकता है।
और जब तक भजन निरंतर न हो जाए, सतत न हो जाए, तब तक ऊपर—ऊपर है, तब तक चेष्टित है, तब तक वह हमारी सहज आत्मा नहीं बनी है।
हे निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्यमय—रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।
कृष्ण निरंतर अर्जुन को निष्पाप कहते हैं। कहे चले जाते हैं, निष्पाप! क्योंकि यह हिंदू धारणा है और बड़ी मूल्यवान है कि निष्पापता हमारा स्वभाव है। उससे वंचित होने का उपाय नहीं है। पाप करके भी आपके निष्पाप होने में कोई फर्क नहीं पड़ता। यह हिंदू विचार की बड़ी गहन धारणा है।
पश्चिम, विशेषकर ईसाइयत इसको समझने में बिलकुल असमर्थ होती है। क्योंकि जब पाप किया, तो निष्पाप कैसे रहे? पाप किया, तो पापी हो गए।
यहीं हिंदू चिंतन बड़ा कीमती है। हिंदू चिंतन कहता है, क्या तुम करते हो, यह ऊपर ही ऊपर रह जाता है। जो तुम हो, उसे तुम्हारा कोई भी करना नष्ट नहीं कर पाता। तुम्हारी निर्दोषता तुम्हारा स्वभाव है। तो जिस दिन भी तुम यह समझ लोगे कि कृत्य से मैं दूर हूं? उसी दिन तुम पुन: अपनी निष्पाप स्थिति को उपलब्ध हो जाओगे। उसे तुमने कभी खोया नहीं है, चाहे तुम भूल गए हो।
तो ज्यादा से ज्यादा संसार एक विस्मरण है। ज्यादा से ज्यादा पाप अपनी निष्पाप दशा का विस्मरण है। हमने उसे खोया नहीं है; हम उसे खो भी नहीं सकते। हमारी निर्दोषता, हमारी जो इनोसेंस है, वह हमारी सहज अवस्था है, वह सांयोगिक नहीं है। उसे नष्ट करने का उपाय नहीं है।
जैसे आग गरम है, ऐसे हम निष्पाप हैं। चेतना का निष्पाप होना धर्म है। अर्जुन को इसीलिए कृष्ण निष्पाप कहते हैं। हे निष्पाप अर्जुन!
अर्जुन को स्मरण नहीं है इस निष्पाप स्थिति का, इसलिए वह भयभीत है। वह डरा हुआ है कि पाप हो जाएगा। युद्ध मैं लडूंगा, काटूंगा, मारूंगा—पाप हो जाएगा। फिर इस पाप के पीछे भटकूगा अनंत जन्मों तक। और कृष्ण कह रहे हैं, तू निष्पाप है।
जैसे ही कोई व्यक्ति पहली पर्त से पीछे हटेगा, वैसे ही निष्पापता की धारा शुरू हो जाती है। और तीसरी पर्त पर सब निष्पाप है।
इसे मैं ऐसा समझ पाता हूं। पहली पर्त पर सभी पाप है। शरीर के पर्त पर सभी पाप है। वह शरीर का स्वभाव है। पुरुषोत्तम के पर्त पर सभी निष्पाप है। वह पुरुषोत्तम का स्वभाव है, केंद्र का स्वभाव है। और दोनों के बीच में हमारा जो मन है, वहा सब मिश्रित है, पाप, निष्पाप, सब वहां मिश्रित है। इसलिए मन सदा डांवाडोल है। वह सोचता है, यह करूं न करूं? पाप होगा कि पुण्य होगा? अच्छा होगा कि बुरा होगा?
अर्जुन वहीं खड़ा है, दूसरे बिंदु पर। कृष्ण तीसरे बिंदु से बात कर रहे हैं। अर्जुन दूसरे बिंदु पर खड़ा है। भीम और दूसरे, पहले बिंदु पर खड़े हैं। उनको सवाल भी नहीं है।
उस महाभारत के युद्ध में तीन तरह के लोग मौजूद हैं। पहली पर्त पर सभी लोग खड़े हैं। वह पूरे युद्ध में जो सैनिक जुटे हैं, योद्धा इकट्ठे हुए हैं, वे पहली पर्त में हैं। उनको सवाल ही नहीं है कि क्या ' गलत और क्या सही! इतना भी उनको विचार नहीं है कि जो हम कर रहे हैं, वह ठीक है या गलत है! वह शरीर के तल पर कोई विचार होता भी नहीं। शरीर मूर्च्छित है, वहा सभी पाप है।
अर्जुन बीच में अटका है। उसके मन में संदेह उठा है। उसके मन में चितना जग गई है; विमर्ष पैदा हुआ है। वह सोच रहा है। सोचने से दुविधा में पड़ गया है। वे जो पहली पर्त में खड़े लोग हैं, उनकी कोई दुविधा नहीं है, स्मरण रखें। वे निसंदिग्ध लड़ने को खड़े हैं।
उनके मन में कोई संदेह, कोई सवाल नहीं है। लड़ने आए हैं, लड़ना उनका धर्म है, लड़ना नियति है, उसमें कोई विचार नहीं है।
अर्जुन दुविधा में पड़ा है। उसकी बुद्धि अड़चन में है। बुद्धि सदा अड़चन में होगी, क्योंकि वह मध्य में खड़ी है। वह पाप के जगत की तरफ भी जा सकती है और निष्पाप के जगत की ओर भी जा सकती है। वह दोनों की तरफ देख रहा है। और पीछे कृष्ण हैं, वे पुरुषोत्तम हैं, वहां सभी निष्पाप है।
एक बात मजे की है कि जो पाप के तल पर खड़े हैं, उन्हें भी कोई संदेह नहीं। जो निष्पाप के तल पर खड़ा है, उसे भी कोई संदेह नहीं। क्योंकि वहा सभी निष्पाप है। कुछ पाप हो ही नहीं सकता। जो पाप के तल पर खड़े हैं, उसे निष्पाप का कोई पता ही नहीं है, इसलिए तुलना का कोई उपाय नहीं है। अर्जुन मध्य में खड़ा है।
अर्जुन शब्द का अर्थ भी बड़ा कीमती है। अर्जुन शब्द बनता है ऋजु से। ऋजु का अर्थ होता है, सीधा। अऋजु का अर्थ होता है, तिरछा, डांवाडोल, कंपता हुआ। अर्जुन का अर्थ है, कंपता हुआ, लहरों की तरह डांवाडोल, इरछा—तिरछा। कुछ भी सीधा नहीं है। और दोनों तरफ उसके कंपन हैं। वह तय नहीं कर पा रहा है।
कृष्ण निष्पाप पुरुषोत्तम हैं। वहा कोई कंपन नहीं है। इसलिए अर्जुन कृष्ण से पूछ सकता है और इसलिए कृष्ण अर्जुन को उत्तर दे सकते हैं। कृष्ण की पूरी चेष्टा यह है कि अर्जुन पीछे सरक आए, निष्पाप की जगह खड़ा हो जाए; वहां से युद्ध करे। यही गीता का पूरा का पूरा सार है। कैसे अर्जुन सरक आए निष्पाप की दशा में और वहा से युद्ध करे!
दो हालतों में युद्ध हो सकता है। एक तो अर्जुन सरक जाए शरीर के तल पर, जहां भीम और दुर्योधन खड़े हैं, वहा; वहां युद्ध हो सकता है। और या वह कृष्ण के तल पर सरक आए, तो युद्ध हो सकता है।
पहले तल पर सरक जाए, तो युद्ध साधारण होगा। जैसा रोज होता रहता है। तीसरे तल पर सरक जाए तो युद्ध असाधारण होगा। असाधारण होगा, जैसा कभी—कभी होता है, सदियों में कभी कोई एक आदमी तीसरे तल पर खड़े होकर युद्ध में उतरता है। और अगर वह बीच में खड़ा रहे, तो वह कुछ भी न कर पाएगा; युद्ध होगा ही नहीं। वह सिर्फ दुविधा में नष्ट हो जाएगा। वह संदेह में डूबेगा और समाप्त हो जाएगा। अधिक लोग संदेह में ही डूबते—उतराते रहते हैं।
हे निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।
सुनकर नहीं; क्योंकि सुन तो अर्जुन ने लिया। अगर सुनकर ही होता होता, तो अर्जुन कहता कि बात खतम हो गई, कृतार्थ हो गया। सुन आपने भी लिया......।
तत्व से जानकर! ऐसा जो कृष्ण ने कहा है, जब अर्जुन ऐसा स्वयं जान ले; जब यह उसकी अनुभूति बन जाए; जब उसकी प्रतीति हो जाए; जब वह कह सके, ही, पुरुषोत्तम मैं हूं तो कृतार्थ हो जाता है। तो फिर जीवन में अर्थ आ जाता है। फिर प्रत्येक किया अर्थवान हो जाती है। फिर व्यक्ति जो भी करता है, सभी में फल और फूल लग जाते हैं। फिर व्यक्ति जो भी, जिस भांति भी जीता है, सभी तरह के जीवन से सुगंध आनी शुरू हो जाती है। उस व्यक्ति में पुरुषोत्तम के फल लगने शुरू हो जाते हैं, पुरुषोत्तम के फूल आने शुरू हो जाते हैं।
और कृष्ण कहते हैं, इस रहस्यमय गोपनीय शास्त्र को मैंने तुझसे कहा।
यह रहस्यमय तो बहुत है, और गोपनीय भी है। रहस्यमय इसलिए है कि जब तक आपने नहीं जाना, इससे बड़ी कोई पहेली नहीं हो सकती कि पाप करते हुए कैसे निष्पाप! संसार में खड़े हुए कैसे पुरुषोत्तम! दुख में पड़े हुए कैसे अमृत का धाम! इससे ज्यादा पहेली और क्या होगी? स्पष्ट उलझन है। इसलिए रहस्यमय।
और गोपनीय इसलिए कि इस बात को, कि तुम पुरुषोत्तम हो, कि तुम निष्पाप हो, अत्यंत गोपनीय ढंग से ही कहा जाता रहा है। क्योंकि पापी भी इसको सुन सकता है। और पापी यह मान ले सकता है कि जब निष्पाप हैं ही, तो फिर पाप करने में हर्ज क्या है? और जब पाप करने से निष्पाप होने में कोई अंतर ही नहीं पड़ता, तो किए चले जाओ।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, गोपनीय भी, गुप्त रखने योग्य भी। हम सब इसी तरह के लोग हैं। हम अपने मतलब का अर्थ निकाल ले सकते हैं। हम सोच सकते हैं, जब निष्पाप हैं, तो बात खत्म हो गई। अब हम चोरी करें, बेईमानी करें, डाका डालें, हत्या करें, कोई हर्ज नहीं। क्योंकि भीतर का निष्पाप तो निष्पाप ही बना रहता है; पुरुषोत्तम को तो कोई अंतर पड़ता नहीं है!
इसलिए बात गोपनीय है। उन्हीं से कहने योग्य है, जो सोचने को, बदलने को तैयार हुए हों। उन्हीं को समझाने योग्य है, जो उसे ठीक से समझेंगे; जो उसे सम्यकरूपेण समझेंगे; जो उसका
विपरीत अर्थ निकालकर अपने को नष्ट न कर लेंगे। क्योंकि सभी कुंजिया ज्ञान की खतरनाक हैं। उनसे आप नष्ट भी हो सकते हैं। जरा—सा गलत उपयोग, और जो अग्नि आपके जीवन को बदलती, वही अग्नि आपको भस्मीभूत भी कर दे सकती है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह गोपनीय है शास्त्र, रहस्यमय है। क्योंकि जब तक तू अनुभव न कर ले, तब तक यह पहेली बना रहेगा। और इसको तत्व से जानकर ही मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।
सुनकर नहीं, समझकर नहीं; अनुभव करके।
आपने भी सुना। उसमें से थोड़ा कुछ सोचना, पकड़ना, थोड़ा—सा, एक रंचमात्र। और उस रंचमात्र के आस—पास जीवन को ढालने की कोशिश करना। एक छोटा—सा बिंदु भी इसमें से पकड़कर अगर आपने जीवन को बसाने की कोशिश की, तो वह छोटा—सा बिंदु आपके पूरे जीवन को बदल देगा।
छोटी—सी चिंगारी पूरे पर्वत को जला डालती है। चिंगारी असली हो, चिंगारी जीवंत हो। चिंगारी शब्द नहीं जंगल को नहीं जला देगा, चिंगारी जलाएगी।
बहुत—सी चिंगारियां कृष्ण ने अर्जुन को दी हैं। अगर मनपूर्वक सहानुभूति से समझा हो, तो उसमें से कोई चिंगारी आपके मन में भी बैठ सकती है, आग बन सकती है।
लेकिन सिर्फ मुझे सुन लेने से यह नहीं होगा। करने का खयाल मन में जगाए।
जल्दी परिणाम न आएं, घबडाएं मत। आपने शुरू किया, इतना ही काफी है। परिणाम आएंगे; परिणाम सदा ही आते हैं। परमात्मा की तरफ उठाया गया कोई भी कदम व्यर्थ नहीं जाता।

आज इतना ही।

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