'नव— संन्यास
क्या?':
चर्चा
एवं
प्रश्रोत्तर
दिनांक
20 अक्टूबर 1970
संसार
को छोड़कर
भागने का कोई
उपाय ही नहीं है, कारण
हम जहां भी जाएंगे
वह होगा ही, शक्लें बदल
सकती हैं। इस तरह
के त्याग को मैं
संन्यास नहीं कहता।
संन्यास मैं उसे
कहूंगा कि हम जहां
भी हों वहा
होते हुए भी
संसार हमारे
मन में न हो।
अगर तुम
परिवार में भी
हो तो परिवार
तुम्हारे
भीतर बहुत
प्रवेश नहीं
करेगा।
परिवार में रहकर
भी तुम अकेले हो
सकते हो और ठेठ
भीड़ में खडे होकर
भी अकेले हो सकते
हो।
इससे
उल्टा भी हो
सकता है कि एक
आदमी अकेला जंगल
में बैठा हो
लेकिन मन में
पूरी भीड़ घिरी
हो और ठेठ
बाजार में
बैठकर भी एक
आदमी अकेला हो
सकता है।
संन्यास
की जो अब तक व्यवस्था
रही है उसमें
गलत त्याग पर
ही जोर रहा है।
उसके दूसरे
पहलू पर कोई
जोर नहीं है।
एक आदमी के
पास पैसा न हो
तो भी उसके मन
में पैसे का
राग चल सकता
है। इससे
उल्टा भी हो
सकता है कि
किसी के पास
पैसा हो और
पैसे का कोई
लगाव उसके मन
में न हो।
बल्कि ज्यादा
संभावना
दूसरे की ही
है,
पैसा बिलकुल
न हो तो पैसे
में लगाव की
संभावना ज्यादा
है। पैसा हो
तो पैसे से
लगाव छूटना
ज्यादा आसान है।
जो भी चीज
तुम्हारे पास
है उससे तुम
आसानी से मुक्त
हो सकते हो।
असल में तुम
मुक्त हो ही
जाते हो।
सिर्फ गरीब
आदमी को ही
पैसे की याद
आती है। अगर
किसी अमीर को
भी आती है तो
उसका कुल मतलब
इतना है कि
अभी भी वह
अमीर नहीं हो
पाया है। तो
मैं अमीर की
परिभाषा यही
करता हूं कि
जिसे अब पैसे
की याद ही न आए
और गरीब मैं
उसको कहता हूं
कि जिसे पैसे
की याद बनी
रहे।
भूखे
आदमी को भोजन
की याद आती है
और भरे पेटवाले
आदमी को भोजन
की याद नहीं
आती है, जब तक
कि भूखा आदमी
भोजन के लिए
पागल और विक्षिप्त
न हो। अगर 'मैनिया'
हो, तो
बात अलग, नहीं
तो भरा पेट
आदमी भोजन को
भूल जाता है।
जब तुम नंगे
खड़े होगे तब
तुम्हें कपड़े
की याद आएगी, जब तुम कपड़े
पहने रहते हो
तब तुम्हें
कपड़े की बिलकुल
याद नहीं आती
है और नहीं
आनी चाहिए।
कोई आवश्यकता
ही नहीं है।
मन
का नियम ही
यही है। जो
नहीं है उसकी
वह तुम्हें
चेतावनी देता
है,
उसकी वह खबर
कर देता है कि
तुम नंगे हो, कपड़े नहीं
है। तुम्हें
सर्दी लग रही
है या तुम
भूखे बैठे हो।
पेट में भूख
दौड़ रही है। और
भोजन नहीं है।
मन का काम ही ‘रेडार' की
तरह है कि वह
तुम्हें खबर
दे कि क्या हो
रहा है और
क्या नहीं हो
रहा है। जो
चीज तुम्हारे
पास है उसे
भूलना आसान है
और जो
तुम्हारे पास
नहीं है उसे
भूलना जरा
कठिन है।
अब
तक संन्यास का
अर्थ बिलकुल
त्याग समझा
जाता रहा है।
इसका मतलब हुआ
कि जो आदमी छोड़कर
चला जाता है, वह
संन्यासी है।
मेरे विचार से
वह आदमी
त्यागी होगा,
संन्यासी
नहीं।
संन्यास
त्याग पर एक
और शर्त लगा
देता है। वह
शर्त यह है कि
त्याग ठीक भी
हो। अब ठीक
त्याग क्या होगा।
ठीक त्याग
मेरी दृष्टि
में वह है कि
तुम कुछ भी छोड़कर
नहीं जाते, लेकिन
तुम्हारे
भीतर से सब
छूटना आरंभ हो
जाता है।
पत्नी से
मुक्त होने के
लिए पत्नी को छोड़कर
जाने का कोई
अर्थ नहीं, उसके साथ
रहते हुए भी
तुम पत्नी के
भाव से मुक्त
हो सकते हो।
बेटे को छोड़कर
भागने की कोई
आवश्यकता
नहीं है, लेकिन
उसके पास रहते
हुए तुम पिता
का जो
आग्रहपूर्ण
रुख है, उससे
मुक्त हो सकते
हो। तो संसार
ही संन्यास बन
सकता है। ऐसी
मेरी दृष्टि
है।
जिस
संन्यास की
मैं चर्चा कर
रहा हूं उसको
संसार से
विपरीत और
भिन्न और अलग
नहीं रखना है।
उसे रखना है
ठीक संसार में।
और यह केवल
अगर शाब्दिक
या दार्शनिक
स्तर पर होता
तो मैं इसकी
बहुत ज्यादा
चिंता न करता।
इसके व्यापक
परिणामों में
फर्क पड़ेगा।
जब संन्यासी
को संसार से
तोड़ लेते हैं
तो हम दुनियां
को दो भागों
में बांट देते
हैं। एक ओर
संन्यासी हो
जाते है, एक ओर
संसारी हो
जाते है।
संसारी जाने
अनजाने अपने
मन में यह मान
लेता है कि
मुझे तो बुरा
होने की सुविधा
है, क्योंकि
मै संसारी हूं।
वह चोरी करे, काला बाजारी
करे, वह
झूठ बोले तो
उसको
जस्टिफिकेशन
(संगति) होता
है। अपने मन
में वह कहता
है कि संसारी हूं
ये मुझे करने
ही पड़ेंगे। और
अगर संन्यासी
कहे कि यह गलत
है, तो वह
कहता है कि
अगर आप संसार
में रहेंगे तो
आपको भी करना
पड़ेगा। आप
नहीं कर रहे
हो, क्योंकि
आप सब छोड़कर
चले गए हो।
मुझे तो करना
ही पड़ेगा।
क्योंकि उसके
बिना यहां
जिया नहीं जा
सकता है।
जब
हम संसार को
छोड़ देते हैं
तब हम संसारी
के अच्छे होने
में बाधा
डालते है। और उसके
बुरे होने के
लिए संगति
जुटाते हैं, जस्टिफिकेशन
जुटाते है।
उसको लगता है
कि यहां बुरा
होना ही पड़ेगा
क्योंकि वह कह
भी सकता है कि
अगर यहां बुरा
होना अनिवार्य
नहीं है तो
संन्यासी छोड़कर
क्यों भाग गया
है। वह यहीं
अच्छा हो जाए।
तो संसार में
होना और बुरा
होना
पर्यायवाची
हो जाता है।
यह बड़ी खतरनाक
बात है।
खतरनाक इसलिए
है कि दुनिया
में अनेक लोग
संन्यासी
होंगे और जो
संन्यासी
होंगे वे भी
संसारियों पर
ही निर्भर
होंगे। अगर
चालीस करोड़ का
देश संन्यासी
हो जाए तो एक दिन
एक भी
संन्यासी
जीवित नहीं रह
सकता। जबकि
करोड़ों लोग संसारी
हों तब ही हम
दस—पंद्रह, सौ—दो सौ
संन्यासियों
को पाल सकते
है।
तो
जो संन्यासी
अपने जीवन के
लिए संसारी पर
आधारित होता
हो तो उसका
संसार से
मुक्त होना
बिलकुल ना—समझी
की बात है। वह
मुक्त नहीं है।
वह विरोध करता
है कि काला
बाजारी बुरी
है और काला
बाजारी पर ही
उसका आश्रम भी
होगा। और कोई
उपाय नहीं। वह
विरोध करता हो
जिन चीजों का, उन्हीं
चीजों को
करनेवाले पर
उसका जीवन
निर्भर होगा।
यहां वह विरोध
भी करता रहेगा,
लेकिन वह
आश्रित होगा।
और जो
संन्यासी
किसी पर
आश्रित हो, वह स्वतंत्र
नहीं हो सकता
है। ऊपर से
उसकी
स्वतंत्रता
दिखाऊ होगी, वह गहरे में
फंसा हुआ होगा,
अगर वह जैन
संन्यासी है
तो वह जैनियों
का गुलाम होगा,
हिंदू
संन्यासी है
तो हिंदुओं का
गुलाम होगा, मुसलमान
संन्यासी है
तो मुसलमानों
का गुलाम होगा।
क्योंकि
जिनके कारण वह
जी रहा है
उनकी धारणाएं
उनके नियम, उनकी
मर्यादाएं
उसे स्वीकार
करनी पड़ेगी।
वह इंचभर यहां—वहां
हिल नहीं सकता
और संन्यासी
गुलाम हो जाएगा।
अगर
संन्यासी
गुलाम हो गया
तो वह
संन्यासी नहीं
रहा।
स्वतंत्रता
तो उसका मूल
आधार है। और
इस प्रकार
संसारी अपनी
बुराई में निश्चित
हो जाएगा। उसे
लगेगा कि उसे
बुरा होना ही
पड़ेगा, इससे
बचने का कोई
रास्ता नहीं।
वह कभी
संन्यासी हो
जाएगा तो ही
बुराई के बाहर
हो पाएगा।
लेकिन सारा
जगत संन्यासी
नहीं हो सकता।
इमाइल
कुरू का एक
बहुत अदभुत
नियम है कि जो
नियम
सार्वभौम न
बनाया जा सके, वह
नियम नैतिक
नहीं कहा जा
सकता। इसे समझ
लें कि नियम
सार्वभौम
बनाने से अपने
आप टूट जाता
है। जैसे झूठ
बोलना है। अगर
सारी दुनिया
झूठ बोलने लगे,
तो झूठ
बोलना बिलकुल
बेकार हो
जाएगा। झूठ
बोलना तभी तक
ठीक चल सकता
है कि जब कुछ
लोग सच बोलते
है और सच
बोलने में
भरोसा रखते है।
झूठ
बोलनेवाला भी
सच बोलनेवाले
पर जिंदा रहता
है, नहीं
तो जिंदा नहीं
रह सकता है।
अगर
इस बार हम
सारे लोग झूठ
बोलने लगें तो
झूठ बिलकुल ही
बेमानी हो
जाएगा। उसका
कोई मतलब ही
नहीं रह जाएगा, क्योंकि
मैं बोलूंगा
और आप जानते
हैं कि मै झूठ
बोल रहा हूं
और मैं बोल
रहा हूं तब
मैं जानता हूं
दुनियां
जानती है कि
झूठ बोला जा
रहा है। तब
उसका कोई मतलब
ही नहीं रहा।
मेरे झूठ का
लाभ तब तक है, जब तक मैं
दिखा पाऊं कि
मैं सच बोल
रहा हूं और दूसरा
भी भरोसा करता
है कि नहीं, सच भी बोला
जाता है। तब
ही झूठ रहेगा।
अगर सब लोग
चोर हो जाएं
तो चोरी बेकार
हो जाएगी।
चोरी तभी तक
चलती है जब तक
कुछ लोग चोर
नहीं हैं।
इसलिए
यह एक खयाल
बहुत उचित है
कि जो नियम
सार्वभौम
नहीं बन सकता
वह नैतिक नहीं
बन सकता। अगर
सारे लोग सत्य
बोलें तो कोई
बाधा नहीं आ सकती।
इससे कोई
नुकसान नहीं
होगा। लेकिन
सारे लोग झूठ
बोलें तो नहीं
चलेगा, अगर
सारे लोग
संसारी हों तो
बाधा नहीं आती,
लेकिन सारे
लोग संन्यासी
हों तो नियम
समाप्त हो
जाएगा। इसलिए
मैं इस तरह के
संन्यास को जो
जीवन को छोड़कर
भागता है, झूठ
और चोरी के
साथ ही गिनता
हूं। मै फर्क
नहीं करता, क्योंकि वह
अनैतिक नियम
है। उसके होने
के लिए संसारी
पर निर्भर
होना जरूरी है,
जबकि संसारी
के लिए
संन्यासी पर
निर्भर होना
जरूरी नहीं।
अगर कल
संन्यासी न हो
तो संसार अपने
रास्ते पर
चलता रहेगा।
कोई बाधा नहीं
पड़ेगी।
किन्तु
संसारी न हो
तो संन्यासी
एक क्षण भी नहीं
चलेगा, वह
तत्काल टूट
जाएगा। उसको
एक इंच भी
चलने का उपाय
नहीं होगा।
इसके
भी घातक परिणाम
हुए और यदि
अच्छा आदमी
जंगल में चला
जाए या संसार
छोड़ दे तो दुनियां
को बुरा बनाने
का साधन बनता
है। दुनियां
तो चलेगी। उसे
बुरे लोग
चलाएंगे, साथ
अच्छे लोग भाग
जाएंगे।
इसलिए मैं
कहता हूं कि
अच्छे आदमी के
अच्छे होने का
एक कर्तव्य और
हिस्सा यह भी
है कि वह उन
जगहों पर जहां
बुरे आदमी है
वहां से भागे
न। सब अच्छे
आदमी भाग जाएं
तो इस संसार
के इतने बुरे
होने का
जिम्मेवार
कौन है? इसका
जिम्मेवार
बुरा आदमी कम
है, इसके
जिम्मेवार
भागे हुए
अच्छे आदमी
ज्यादा हैं।
इसलिए
भी मैं मानता
हूं कि
संन्यास जो है
वह संसार के
बीच फलित होना
चाहिए। उसका
फूल यहीं
खिलना चाहिए—दुकान
में,
दफ्तर में,
बाजार में,
घर में उसका
फूल खिलना
चाहिए। इसमें
भागने की
आवश्यकता
नहीं। फिर
मेरी समझ है
कि जो जीवन
इतना
शक्तिशाली है
वह पलायनवादी
नहीं होना
चाहिए। यदि
कहते है कि
संन्यास बड़ी
अदभुत
शक्तिशाली चीज
है तो संसार
से भयभीत नहीं
होना चाहिए, क्योंकि
भयभीत सिर्फ
कमजोर लोग
होते हैं।
संन्यासी
भयभीत है पूरे
वक्त कि वह
यदि संसार में
खड़ा हो गया तो
बिगड़ जाएगा।
मतलब यह हुआ
कि संसार में
बिगाड़नेवाली
शक्तियां
ज्यादा प्रबल
हैं और अच्छे
आदमी की शक्तियां
नपुंसक है।
यह
बड़े मजे की
बात है कि हम
बहुधा कहते है, बुरे
आदमी की संगति
में तुम बिगड़
जाओगे। लेकिन
हम कभी यह
नहीं सोचते कि
जब एक अच्छा
आदमी बुरे
आदमी की संगत
करता है तो
उसमें एक बुरा
आदमी भी तो
अच्छे आदमी की
संगत करता है।
लेकिन बिगड़ता
हमेशा अच्छा
आदमी है। हम
कभी यह नहीं
कहते कि यह
अच्छे आदमी की
संगत बुरे
आदमी से हो रही
है तो बुरा
आदमी सुधर
जाएगा। हम
हमेशा यही
कहते हैं कि
अच्छा आदमी
बिगड़ जाएगा।
जिस दुनियां
में अच्छाई
कमजोर हो उस दुनियां
में अच्छाई
बहुत दिन तक
नहीं रह सकती
है, सिर्फ
धोखा हो सकता
है।
मेरा
मानना यह है
कि अच्छाई को
प्रमाण देना
चाहिए कि वह
भी प्रबल है, शक्तिशाली
है। लेकिन वह
प्रमाण कहां
दें? जंगल
में कोई
प्रमाण नहीं
और जीवन की
सारी प्रामाणिकता
संबंधों में
है—वह
अंतर्संबंधों
में है। यदि
मैं जंगल में
बैठकर यह कहूं
कि मैं सच बोलता
हूं तो कोई
अर्थ नहीं
रखता, क्योंकि
सत्य बोलना
सदैव किसी से
संबंधित है।
मै अकेले में
झूठ बोलता हूं
या सच बोलता
हूं यह कोई
मतलब नहीं
रखता।
जब
तक कि कोई
अन्य व्यक्ति
वहां प्रमाण
के लिए न हो, और
अगर दूसरा भी
वहां मौजूद न
हो और मैं सच
बोलता हूं तो
मेरे किसी
स्वार्थ को
हानि नहीं पहुंचेगी,
क्योंकि मैं
सब स्वार्थ को
छोड़कर भाग
आया हूं। तब
भी सच बोलने
का कोई मतलब
नहीं, न
मेरे पुत्र को
हानि पहुंचती
है, न मेरा
घर नीलाम होता
है, न मेरी
दुकान बंद
होती है। अब
मेरे पास न
पुत्र है, न
घर है, न
मेरे पास
दुकान है। अब
मैं सच बोल
सकता हूं। ऐसे
तो कोई भी सच
बोल सकता है।
सच जो बोल रहा
है उसमें बाधा
नहीं है कि सच
उसके स्वार्थ
को हानि
पहुंचाता है।
और संन्यासी
जो सब छोड़कर
चला गया, तो
अब सच बोल
सकता है।
मेरा
अपना मानना यह
है कि ऐसे सच
का कोई भी मूल्य
नहीं और इसको
जरूरत भी नहीं
पड़ती, क्योंकि
जहां जरूरत थी
वह उस अवसर को छोड़कर
चला आया है।
इस
प्रक्रिया
में संन्यासी
कमजोर हुआ है
और संसारी
बुरा। इससे जो
संयोग पैदा हो
रहा है और जो
समाज पैदा हुआ
वह अच्छा समाज
नहीं है।
जो
पहला कहना
मेरा यह है कि
जो संसारी है
उसे वहीं
संन्यासी हो
जाना है। उसे
कुछ भी छोड़ने
की आवश्यकता
नहीं, सिर्फ
उसे अपने में
परिवर्तन
लाना है।
परिवर्तन के
लिए दो उपाय
हैं। एक तो
परिस्थिति को
बदल दो या मन
की स्थिति को।
और जो आदमी
परिस्थिति
बदलने पर जोर
देता है, मैं
यह मानता हूं
कि वह
आध्यात्मिक
नहीं है। वह
भौतिकवादी है।
क्योंकि
परिस्थितियां
सब भौतिक है।
मैं
कहता हूं कि
अगर मुझे इस
घर के बाहर
जंगल में रहने
को मिल जाए तो
मन बड़ा पवित्र
रहेगा। इसका
अर्थ यह हुआ
कि घर मुझे और
मेरे मन को
अपवित्र करता
है और जंगल
मुझे पवित्र
करता है। जोर
मेरा मकान पर
है,
मन पर नहीं।
संसारी कहता
है कि जब तक
मेरे पास लाख
रुपये न हों, तब तक मुझे
अशांति रहती
है और अगर दस
लाख हो जाएं
तो शांति होती
है। मतलब यह
कि भौतिक
परिस्थिति
में फर्क हो
जाए तो मेरा
मन बड़ा शांत
हो जाएगा।
वह
भी परिस्थिति
को बदलने की
बात कर रहा है।
उसका कहना है
कि छोटे पद पर
हूं तो तकलीफ
है और बड़े पद
पर आ जाऊंगा
तो सब ठीक हो
जाएगा।
संसारी की
भाषा भी
परिस्थिति को
बदलने की है और
संन्यासी की
भी,
तो फर्क
कहां है!
संन्यासी
उस दिन फर्क
शुरू करता है, जब
वह कहता है कि
मैं अब
परिस्थितियों
की चिंता
छोड़ता हूं मैं
अपने को बदलता
हूं मन की
स्थिति को
बदलता हूं।
परिस्थिति
कैसी होगी, यह गौण है, मैं अपने मन
को बदलता हूं
मन की स्थिति
को बदलता हूं।
और मन: स्थिति
को बदलना हो
तो प्रतिकूल
परिस्थिति
में बदलने में
राज एवं रहस्य
है। क्योंकि
वहां संघर्ष
है, चुनौती
है।
अगर
एक आदमी बाजार
में ईमानदार
होने की धारणा
करता है, तो
ईमानदारी बड़ी
बलवान पैदा
होगी, लेकिन
पैदा होने में
कठिनाई होगी।
संकल्प बड़ा
श्रम लेगा। उस
आदमी को बड़ी
तकलीफें
झेलनी पड़ेगी।
लेकिन
धर्म सस्ता
नहीं है, उसके
लिए बड़ा मूल्य
चुकाना पड़ेगा।
जिसको हम
संन्यासी कह
रहे है वह
सस्ते धर्म में
जी रहा है, वह
मूल्य चुका
नहीं सकता। और
जहां मूल्य
चुकाना पड़ता
है, जहां
चुनौती होती
है, वहां
वह भाग जाता
है।
एक
तो,
मैं
संन्यासी को
खड़ा करना
चाहता हूं इसी
संसार में।
इसका और भी
कारण है। मेरे
देखने में ये बातें
निरंतर साफ
होती गई हैं।
अब
दुनिया में
ऐसा संन्यासी
नहीं टिक
सकेगा जो
प्रोडक्टिव, उत्पादक
नहीं है। तो
रूस में संन्यासी
समाप्त हो गया,
क्योंकि
लोगों ने
निर्णय कर
लिया कि जो
पैदा करेगा वह
खायेगा। बीस
करोड़ का देश
है रूस। वहां
सैकड़ों—हजारों
संन्यासी थे,
ईसाई फकीर
थे, वे सब
खत्म हो गए
हैं। चीन में
बौद्ध, ईसाई,
मुसलमान
फकीर सब खत्म
हो रहे हैं।
वे अब नहीं बच
सकते हैं।
जहां—जहां
समाजवादी
चिंतन बढ़ेगा
और जहां—जहां
यह विचार आएगा
कि जो आदमी
पैदा नहीं
करता वह खाने
का हकदार नहीं
है,
वहां
संन्यासी
दुश्मन मालूम
होंगे। आज भी
आधे जगत में
संन्यासी
खत्म हो गये
हैं, बाकी
आधे जगत में
अधिक दिन तक
नहीं चल सकते
हैं, क्योंकि
जिसको हम
संन्यासी कहते
थे अब उसको
चीन में, रूस
में विदा किया
जा रहा है, क्योंकि
वह कुछ करता
नहीं। कहते
हैं कि भजन—कीर्तन
करता है तो
उसका अपना
स्वार्थ है।
उसके लिए
दूसरे क्यों
मेहनत करें!
थाइलैंड
जैसे देश में
चार करोड़
आबादी है और
बीस लाख
संन्यासी हैं।
चार करोड़ में
बीस लाख संन्यासी
हैं,
यह शोचनीय
है। अब
थाइलैंड
इनकार करेगा,
बल्कि
इनकार कर रहा
है। थाइलैंड
की असेम्बली
में यह प्रश्न
था कि अब जो
कोई भी
संन्यासी
होना चाहेगा
वह पहले जब तक
सरकार से
आज्ञा न ले तब
तक उसे संन्यासी
नहीं होने
देना चाहिए।
क्योंकि अब इन
संन्यासियों
को कौन पालेगा,
ये क्या
खायेंगे, क्या
पियेंगे, कैसे
जियेंगे? इस
देश में
आनेवाले बीस
साल में वह
सवाल उठेगा, ज्यादा समय
नहीं है।
मैं
मानता हूं कि
संन्यास इतनी
अदभुत चीज है, वह
नष्ट नहीं
होनी चाहिए।
अब उसको बचाने
का एक ही उपाय
है। हम नॉन—प्रोडक्टिव
दुनियां से
प्रोडक्टिव दुनियां
में संन्यास
को लायें, उसे
अनुवादक से उत्पादक
बनायें। और
मेरी दृष्टि
से संसारी पर
संन्यासी
निर्भर न हो, वह
स्वावलंबी हो
और उत्पादक
हो तब ही उसका
भविष्य है, अन्यथा कोई
भविष्य नहीं।
तीसरी
बात : अभी तक यह
स्वीकार रहा
कि संन्यास जिन
लोगों ने लिया
है,
उनको आनंद
मिला।
संदिग्ध है यह
बात। लेकिन
जिनको छोड़कर
वे भाग गये, उनको दुख
मिला, यह
असंदिग्ध है।
लेकिन हम
हिसाब कभी
लगाते नहीं।
यदि हम हिसाब
लगायें और
सिर्फ भारत का
ही हिसाब
लगायें तो पता
लग्लो कि
करोड़ों
परिवारों ने
इन
संन्यासियों
की वजह से दुख
झेला है, जितना
कि डाकुओं की
वजह से नहीं
झेला। जितना
दुख चोरों की
वजह से नहीं
झेला, जितना
बड़े—बड़े
हत्यारों ने
नुकसान नहीं
पहुंचाया
उतना संन्यासियों
ने पहुंचा
दिया। लेकिन
यह धार्मिक
तरह का दुख है।
और देनेवालों
को हम कभी
कहते नहीं कि
तुम दुख दे
रहे हो।
महावीर
के समय में
पचास हजार
संन्यासी थे, ये
पचास हजार
परिवारों को छोड़कर
आये हुए लोग
ही नहीं, बल्कि
उनके बच्चे भी
हैं, उनकी
पत्नियां भी
है तथा किसी
के बूढ़े मां
एवं बाप भी
हैं। वे सब के
सब आज विदा हो
गए। इसको भी
झेला गया, क्योंकि
हमारी यह
मान्यता है कि
यह महान कार्य
है, इसलिए
हम कष्ट झेले।
मजे की बात यह
है कि जो छोड़कर
आया है, उसे
भी आनंद मिला
कि नहीं, पका
नहीं होता।
किंतु
जिन्हें वह छोड़कर
आया है उन्हें
वह भारी दुख
पहुंचाता है।
और ऐसा
संन्यास
जिससे कहीं भी
दुख पैदा होता
है या किसी भी
कारण से दुख
पैदा होता हो
तो मैं नहीं मानता
कि वह धार्मिक
है।
वास्तव
में धर्म का
मतलब यह है कि
जिसके कारण किसी
को भी दुख न हो, न्यूनतम
दुख की
संभावना पैदा
हो। अब ऐसा सन्यासी
कहता हो कि मैं
अहिंसक हूं तो
मैं नहीं मांनूगा,
क्योंकि हिंसा
बडी गहरी है।
अगर छोटे—'छोटे
बच्चों को छोड़कर
आया है और साथ ही
पत्नी को छोड़कर
आया है तो
उनके साथ जो
हिंसा हुई है,
यह
जिम्मेवारी
उसकी है। मैं
ऐसे संन्यास
के भी खिलाफ
हूं जिससे
हिसा और दुख
पैदा होता है।
मेरी
पहली धारणा यह
है कि जो
संन्यास अभी
प्रारंभ किया
है,
उसमें पहली
बात तो यह है
कि जो जहां है
वहीं घोषणा
करे, वह कपड़े
भी बदले और
नाम भी बदले।
बदलने से उसकी
पूरी
व्यवस्था में
पृथकता पैदा
हो जाती है।
एक, नाम
बदलने से उसका
जो पुराना तादात्म्य
था उसके
व्यक्तित्व
से वह टूट
जाएगा। कपड़े
बदलने से उसे
चौबीस घंटे
याद रहता है
और दूसरे भी
उसे चौबीस
घंटे याद
दिलायेंगे कि
वह संन्यासी
है। यह स्मरण प्राथमिक
रूप में बड़ा फायदे
का है। नहीं तो
वह भूल ही जाता
है। लोग कहते है
कि हम तो अंदर
से ठीक हैं।
लेकिन अंदर का
स्मरण नहीं रह
पाता है। और जो
कपड़े बदलने
में डर रहा है वह
अपने को बदल
पाएगा? इतनी
हिम्मत कर
पाएगा, इसकी
संभावना बहुत
कम है!
नाम
बदल देना है, ताकि
चौबीस घंटे उसे
स्मरण रहे।
उसे कपड़े बदल लेने
हैं, यह उसके
संकल्प की घोषणा
भी है। समाज
के प्रति वह
कहेगा कि मैं
रहता तो यहीं
हूं लेकिन अब
अपने जीवन को
परमात्मा को
समर्पित किया।
काम जो करता
था वही करूंगा,
क्योंकि मैं
किसी को दुःख नहीं
देना चाहता हू।
लेकिन अब काम करने
की मेरी निजी
आकांक्षा थी,
वह विदा हो गई।
अब काम इसलिए कर
रहा हूं कि उस काम
के न करने से किसी
को कोई दुख न
पैदा हो।
नौकरी
कर रहे हैं तो
नौकरी करेंगे
लेकिन नौकरी
का मूल आधार
बदल गया है।
अब नौकरी मेरी
महत्वाकांक्षा
और मेरे अहंकार
का कोई हिस्सा
नहीं है। अब
इसका मूल आधार
इतना रहा है
कि वह किसी की
जीवन
व्यवस्था के
दुख का कारण न
बने। अब कारण
बिलकुल बदल
गया है और
जैसे—जैसे यह
समझ बढ़ेगी
वैसे—वैसे
लगेगा कि काम
जो मैं कर रहा
हूं वह परमात्मा
का काम है अब।
मैं अपने बेटे
को पाल रहा
हूं वह भाव
छोड़ देना
पड़ेगा। अब मैं
परमात्मा के
बेटे को पाल
रहा हूं। अब
मैं एक साधन
हूं।
इस
संन्यास में साधन—मात्र
होने की धारणा
सब से गहरी होगी।
वह मेरा काम नहीं
है,
लेकिन मैं जिस
स्थिति में
हूं उस स्थिति
में वह काम
अनिवार्य है।
इससे बहुत फर्क
पड़ेगा। जब तुम
खुद कर रहे हो
उस काम को तब
और अब साधन—मात्र
हो तब बहुत
फर्क पड़ जाएगा।
जैसे
ही तुमने समझा
कि तुम साधन—मात्र
हो वैसे साक्षी
होना संभव हो
जायेगा। तुम
अपने काम में साक्षी
रह सकोगे। और जैसे
ही समझा कि तुम
साक्षी हो तो
उस काम में होने
वाली चोरी, बेईमानी
तुम्हें
आकर्षित नही
करेगी।
क्योंकि अब तुम
मालिक नहीं हो।
उस काम में तुम
केवल मालिक नहीं
हो अब, तुमने
जगत व्यवस्था
पर सब छोड़ दिया
है। अब तुम उसके
बीच के केंद्र
नहीं हो, यह
धारणा गहरी होगी।
साथ में ध्यान
का प्रयोग
चलेगा जो कि
संन्यासी की
मूल साधना
होगी।
संन्यास लेने
का मतलब ही यह
है कि ध्यान
में गहराई बढ़े।
ध्यान जारी हो
और ध्यान से ही
तुम्हारा संन्यास
आना चाहिए कि तुम्हें
लगे कि मैं अब इस
जगह आ गया हूं
कि जहां मैं
साधन—मात्र हो
गया हूं।
ध्यान
जितना बढ़ेगा, साधन
का भाव जितना
बढ़ेगा, साक्षी
भाव जितना
बढ़ेगा, उतना
काम इस जगत
में अभिनय की
तरह हो जाएगा।
करोगे काम, उठोगे, आओगे,
जाओगे, न
ही कहीं
दौड़ोगे, न
किसी को दुख
पहुंचाओगे, न
ही तुम्हारी
वजह से कहीं
किसी को पीड़ा
होगी। लेकिन
लगेगा
तुम्हें जैसे
कि सारा संसार
एक बड़ा स्वप्न
हो गया है और स्वप्न
में तुम एक
अभिनेता
मात्र रह गए
हो। इसके गहरे
परिणाम होंगे।
रोज
परिस्थितियां
आएंगी जो
प्रतिकूल
होंगी। रोज उन
परिस्थितियों
में तुम्हें
अपने संकल्प
को, अपने
साक्षीत्व को
प्रगाढ़ और
प्रखर करना
होगा। उससे
तुम्हारा बल
बढ़ेगा, आत्मा
पैदा होगी। तो
एक तो संन्यास
का यह रूप है।
संन्यास
को मैने तीन
हिस्सों में
विभाजित किया
है। यह काम
चलाऊ विभाजन
है। संन्यास
की मूल धारणा
तो यही होगी
जो मैंने कही।
कुछ लोग ऐसे
होंगे जिन पर
वास्तव में
कोई जिम्मेवारी
नहीं है।
अवकाश
प्राप्त
लोगों के पास
अब कोई काम भी
नहीं, अब उनके
पास कोई दुकान
भी नहीं, अब
इन पर कोई ऐसी
जिम्मेवारी
भी नहीं, जिसके
कारण इनके लिए
यहीं खड़ा होना
आवश्यक है।
बल्कि यहां से
हट जाएं यह
इनके लिए
हितकर होगा।
जैसे
एक बूढ़ा आदमी
है,
अगर वह हट
जाए तो घर के
लिए भी सुविधापूर्ण
होगा और उसके
लिए भी सुविधापूर्ण
होगा। कई क्षण
ऐसे आ जाते
हैं, जबकि
हम व्यर्थ ही
वहां होते हैं,
जहां हमारा
होना कष्ट
देता है। वहां
से चुपचाप उसे
हट जाना चाहिए।
जब तक हमारे
होने से वहां
सुख हो रहा है,
तब तक हम
साधन—मात्र
रहें। एक समय
आ जाता है कि
घर में सत्तर
वर्ष का बूढ़ा आदमी
और घर में
सारे लोग अपने
काम में लग गए
हैं। अब वह
साठ—सत्तर साल
के बूढ़े आदमी
में और तीस
साल के लड़के
में कोई मेल भी
नहीं बैठता, बुद्धि का, विचार का भी,
सोच का, समझ
का भी। उनकी
यात्रा ही मेल
नहीं खाती। अब
इन दोनों के
बीच अकारण
उपद्रव होता
है। इसमें कोई
अर्थ नहीं।
इसमें कोई
प्रेम फलित
नहीं होगा।
ऐसे वृद्ध हैं
जिन पर कोई
जिम्मेवारी
नहीं। ऐसे
युवक भी हो
सकते हैं
जिनके ऊपर कोई
जिम्मेवारी
नहीं। ऐसे
व्यक्तियों
के लिए आश्रम
बनाना चाहता
हूं।
वह
आश्रम भी
उत्पादक
होंगे, यह भी
अनुत्पादक
नहीं होंगे।
उन आश्रमों को
अपनी खेती
होगी, अपना
छोटा उद्योग
होगा। कुछ भी
हो, पैदा
करेंगे। वे
किसी पर
निर्भर नहीं
होंगे। जहां
भी भागना होगा,
वह भी दुनियां
का एक हिस्सा
होनेवाला है—वहा
सामूहिक जीवन होगा।
जो
भी वहां पैदा
होगा, उसके
लिए
संन्यासियों
को कम से कम
तीन घंटे काम
करना होगा, वह जो काम कर
सके। यदि
वृद्ध है और
पढ़ा सकता है
तो तीन घंटे
पढा दे। जो
जिस प्रकार का
काम कर सकता
है, वह तीन
घंटे का काम
करे। बाकी समय
का उपयोग
अध्ययन, साधना
व भजन—चिंतन
में होगा। तीन
घंटे काम करने
पर
संन्यासियों
को किसी पर
निर्भर न होना
होगा। वे अपने
लिए पैदा कर
लेंगे।
इस
सामूहिक जीवन
में कोई न
ऊंचा होगा और
न कोई नीचा।
अगर वहां अस्पताल
होगा तो वहां
डॉक्टर, नर्स
और चपरासी में
कोई अंतर नहीं
होगा। उनको
खान—पान एक—सा
मिलेगा। रहन—सहन
एक—सा होगा।
कपड़े एवं अन्य
सुविधाएं एक—सी
होंगी। उनकी
पद—प्रतिष्ठा
में कोई अंतर
नहीं होगा।
सिर्फ उनके
काम में फर्क
पड़ेगा। फर्क
ऐसा होगा कि
यदि कोई
डॉक्टर है तो
वह अपना
डाक्टरी काम
करेगा।
चपरासी अपना
काम करेगा।
आश्रम में
चपरासी छोटा
नहीं होगा, और न डॉक्टर
बड़ा होगा।
इसलिए इस समूह—जीवन,
कम्यून
में
आध्यात्मिक
साम्यवाद का
प्रयोग होगा।
मेरा
मानना यह है
कि जब तक दुनियां
को
आध्यात्मिक
साम्यवाद के
प्रयोग नहीं
मिलते है तब
तक साम्यवाद
से बचा नहीं
जा सकता है।
अब यह बड़े मजे
की बात है कि
भौतिकवाद ने
तो दुनियां को
साम्यवाद
जैसी धारणा दे
दी और
अध्यात्म अभी
तक साम्यवाद
की धारणा नहीं
दे सका।
भौतिकवाद ने
तो दिखा दिया
कि हम सारी दुनियां
को एक करके
दिखाए देते
हैं। लेकिन
भौतिकवादी साम्यवाद
से बड़ा नुकसान
हो रहा है। अत:
इस आश्रम में
आध्यात्मिक
साम्यवाद का
प्रयोग होगा।
यह एक ऐसी जगह
होगी जहां
बिना किसी भेद
के सारे लोग
बराबर होंगे
और फिर भी
जिसको जो काम
करना है वह
करता है।
बुहारी
लगानेवाला
बुहारी लगाता
है,
प्राचार्य,
प्रिंसिपल
का काम करनेवाला
प्राचार्य का
काम करता है।
वहां
स्कूल होगा, कॉलेज
होगा, इंडस्ट्री
होगी और एक
छोटा नगर होगा।
यह
संन्यासियों
का नगर होगा।
संन्यासियों
के इस नगर को
हम संन्यास और
ध्यान की
साधना के
प्रचार का
केंद्र बना
देंगे। जो
घरों में
संन्यास लिए
लोग हैं वे भी
वर्ष में
महीने—दों
महीने के लिए
इस सहजीवन में
आकर रहेंगे।
यहां से साधना
की गहराई लेकर
वापस लौट
जाएंगे। यह
दूसरे प्रकार
का संन्यास
होगा।
तीसरे
प्रकार का
संन्यास उनके
लिए है जो लोग
इतना साहस और
समझ नहीं जुटा
पाते कि घर
में ही रहकर
संन्यासी हो
जाएं। तो
मैंने उनके लिए
सामयिक
संन्यास की
कल्पना की है।
वे कम्यून, आश्रम
में आ जाएं और
महीनेभर के
लिए संन्यासी हो
जाएं। जैसे
जिंदगी चलती
थी वैसी चलाएं।
लेकिन इस
महीनेभर की
साधना, और कम्यून,
आश्रम में
रहना, इन
सब का अनुभव
उसके भीतर
प्रवेश कर
जाएगा। अभी
हिम्मत नहीं
जुटाते है। सालभर
बाद, दो
बार कम्यून
में आने के
बाद महीनेभर
में वे हिम्मत
जुटा लेंगे।
तो उनके लिए
सामयिक
संन्यास की
व्यवस्था करनी
होगी कि वे
कभी आश्रम में
आकर संन्यास
ले लें। पर
जितने दिन के
लिए वे
संन्यास
लेंगे इस बीच वे
संन्यासी की
तरह रहेंगे।
फिर लौटकर
अपने घर में
चुपचाप
सम्मिलित हो
जाएंगे।
ऐसी
कुछ व्यवस्था
बर्मा में है
जहां कोई भी
आदमी संन्यास
ले सकता है
कुछ महीने के
लिए। बर्मा
में ऐसा आदमी
मुश्किल से
मिलेगा जिसने जिंदगी
में एक—दो बार
संन्यास न
लिया हो।
बर्मा के
अनुभव की
गहराई बढ़ी है।
हर आदमी को
संन्यास का रस
प्राप्त है।
इन
तीनों तरह के
संन्यास को
मैं आजीवन
संन्यास नहीं
कहता। मैं
कहता हूं कि
यह अपने
निर्णय की बात
है। कल किसी
को लगता है कि
नहीं, हमें
वापस लौट आना
है, अपनी
पुरानी
व्यवस्था में,
तो हम उसे
मना करेंगे
नहीं, न
उसकी निंदा
करेंगे। अपनी
मौज से आया था,
अपनी मौज से
लौट जाएगा।
नहीं तो
संन्यास
पाखंड हो जाता
है। संन्यास
में अभी हमारे
प्रवेश द्वार
है, लेकिन
निकलने का
द्वार नहीं है।
एक बार आदमी
संन्यासी हो
तो हम उसे
निकलने नहीं
देते। हम इतना
अपमान, इतनी
निंदा करते है,
भागे हुए
संन्यासी की,
निकले हुए
की, कि
उसकी जिंदगी
हम मुश्किल
में डाल देते
हैं। उसको फिर
दो ही रास्ते
रह जाते हैं।
कल उसे
संन्यास
आनंदपूर्ण न
मालूम पड़े तो
फिर वह पाखंडी
हो जाता है।
ऊपर से वह
संन्यासी बना
रहता है और
पीछे से उसे
जो करना है, शुरू कर
देता है।
इसलिए सारा
संन्यास
हिपोक्रेसी, पाखंड हो
गया। उसमें सब
पाखंड चले। वह
धन की निंदा
करता रहेगा, लेकिन धन
इकट्ठा करता
रहेगा। वही
काम करेगा
जिसकी वह
निंदा करेगा।
तो
मेरा मानना यह
है कि जिस दिन किसी
को लगे कि नही
भाई,
इसमे हमें कुछ
रस नही आया, तो स्वतंत्रता
है तुम्हारी,
तुम वापस
चले आओ और हम
निंदा नही
करते। इसलिए
पाखंडी होने
की कोई जरूरत
नहीं है।
जितने स्वागत
से संन्यास
देंगे, उतने
स्वागत से
विदा कर देंगे।
और तुम महीने
बाद आओगे तो फिर
वापस ले लेंगे।
इसको हम व्यक्तिगत
निर्णय बनाते है।
हम सामूहिक प्रतिज्ञा
नहीं बनाते।
यह तुम्हारा संकल्प
है। तुमने
लिया तुम छोडोगे,
तुम फिर
लेना चाहोगे
तो तुम
जिम्मेवार हो
और किसी के
प्रति कोई
जिम्मेवारी
नहीं।
इसमें
दो तीन बातें
और नई जोड़ी
हैं। पहली
बात. मेरी दृष्टि
में सदा से है
कि संन्यासी
किसी धर्म में
बंधा हुआ नहीं
होना चाहिए।
नहीं तो वह
संन्यासी ही
क्या! तो चाहे
वह हिंदू हो, चाहे
मुसलमान हो, या जैन, या
बौद्ध हो—जैसे
ही वह
संन्यासी होता
है, वह
सारी
मनुष्यता का
हो जाता है।
और सब धर्म
उसके अपने
होते है और वह
किसी विशेष
धर्म का नहीं
रह जाता है।
फिर भी उसे
मौज है कि उसे
कुरान पढ़ना
पसंद है, उसे
मस्जिद में
जाकर नमाज
पढ़नी है तो
पढ़ता रहे। उसे
बुद्ध से
प्रेम है तो
वह जारी रखे।
किंतु किसी
समुदाय का
सदस्य न रहे।
यह उसकी
व्यक्तिगत
आनंद की बात
है।
स्वाभाविक है
कि किसी को
कुरान पसंद
पड़ती है और
किसी को गीता।
किंतु गीता
पढ़ने वाला
संन्यासी
अपने को हिंदू
नहीं कहेगा।
उसे गीता से
प्रेम है।
कुरान पढने वाला
संन्यासी
अपने को
मुसलमान नहीं
कहेगा। तो दुनियां
में एक ऐसा
संन्यासी
चाहिए जो किसी
समुदाय का न
हो, तब हम
दुनिया को ऐसी
धार्मिकता दे
सकेंगे जो गैर—सांप्रदायिक
हो, नहीं
तो नहीं दे
सकेंगे, यह
असंभव होगा
देना।
दूसरी
बात : यह जो सन्यासी
इन तीन हिस्सों
में बंटे हुए होंगे, ये
तीनों हिस्से
भी कोई 'एयरटाइटकम्पार्टमेंट'
नहीं हैं।
इसमें से एक
दूसरे में
यात्रा हो
सकती है, जिस
आदमी ने
पीरियाडिकल
संन्यास लिया
है, हो
सकता है, कल
वह कहे कि इस को
मैं लंबाना चाहता
हू तो लंबाकर सकता
है, जो
आदमी हाल में सन्यासी
हुआ, कल स्थितियां
बदल जाएं और वह
कहे कि अब मेरा
घर में रहना बिलकुल
अनावश्यक है,
कही कोई तकलीफ
होती नहीं
उसमें, तो
वह आश्रम में
जा सकता है।
एक संन्यासी
आश्रम में रह
रहा है, युवक
ही है—कल उस पर
कोई
जिम्मेवारी
नहीं थी, आज
उसका किसी से
प्रेम हो जाए
और विवाह करना
चाहे, तो
वह गृहस्थ हो
सकता है। इनको
हम कही भी टाइट,
बदन ही करते
है, इनके बीच
एक प्रवाह होगा।
चूंकि हम इसको
व्यक्ति—गतनिर्णय
मानते हैं
इसलिए समूह को
इस संबंध में
चिंता की कोई
जरूरत नहीं है।
तीसरी
बात : ये जो
सारे
संन्यासी है, इनके
पास इनके विवेक
के अतिरिक्त कोई
नियम मैं नहीं
दूंगा। इनका
विवेक जगे
इसके लिए
ध्यान की प्रक्रिया
करे और अपने विवेक
से जिए। ऊपर से
थोपे हुए नियम
उन पर नहीं
होंगे।
क्योंकि जब भी
हम ऊपर से
नियम थोपते है
व्यक्ति पर तब
विवेक जगने
में भी बाधा
पड़ती है। और
व्यक्ति को
धोखा देने के
कारण बनते है।
तो हम नहीं
कहेंगे कि
पांच बजे सुबह
उठना अनिवार्य
है। हां, हम
इतना जरूर
कहेंगे कि यदि
ध्यान गहरा
होता चला जाता
है तो नींद का
समय कम होता
चला जाएगा क्योंकि
नींद गहरी हो
जाएगी। पर फिर
भी हम नहीं
कहेंगे कि सब पाँच
बजे ही उठें, किसब तीन
बजे ही उठें।
इस तरह की जोर
जबर्दस्ती हम
नहीं थोपेंगे।
वरना नियम जो
है वह
काराग्रह बन
जाएगा। यह
प्रत्येक की
मौज एवं विवेक
पर निर्भर
होना चाहिए।
और
सच बात भी यह है
कि हर आदमी के उठने
का वक्त अलग—अलग
ही होगा
क्योंकि सब
आदमियों की नींद
की गहराई का
वक्त अलग—अलग
है। कोई आदमी
दो और चार और
छह बजे के बीच
गहरी नींद
लेता है। जिस
आदमी ने दो और चार
के बीच में गहरी
नींद ली तो चार
बजे वह उठ जाए तो
उसको दिन में तकलीफ
नहीं होगी। और
उसको जिसकी
नींद चार और छह
बजे के बीच में
गहरी होती है, वह
दिन में परेशान
रहेगा। इसलिए
प्रत्येक को
तय करने की
बात है कि विवेक
कैसे जगे। यह
चिंता की बात
होगी। ध्यान
कैसे गहरा हो
यह चिंता की
बात है। बाकी
छोटी—छोटी
जिंदगी की
मर्यादाएं
प्रत्येक
अपनी सोचेगा।
चौथी
बात : इसमें
कोई गुरु नहीं
होगा, क्योंकि
जहां गुरु
होगा वहां
अनिवार्य रूप
से संप्रदाय खडे
हो जाते हैं।
सब संप्रदाय
गुरुओं के आस—पास
खड़े होते जाते
हैं। बिना
गुरु के
संप्रदाय खड़ा
नहीं हो सकता
है। चाहे वह मुहम्मद
के पास खड़ा हो,
महावीर के पास
खड़ा हो और चाहे
राम के पास
खड़ा हो—जहां
भी संप्रदाय खड़ा
होगा, वहाँ
एक गुरु होगा।
स्वभावत: पूछा
जा सकता है कि मैंने
दिया है संन्यास
तो मैं गुरु नहीं
हो जाता।
मैंने
एक और नई बात
जोड़ी है इसमें, वह
यह है कि मैं सिर्फ
एक साक्षी हूं
तुम्हारे सन्यास
का गवाही हूं, पर मैं
तुम्हारा
गुरु नहीं हूं।
इसलिए तुम भी
किसी के
संन्यास के
साक्षी हो, लेकिन गुरु
नहीं। कम्यून,
आश्रम में
अगर सौ सन्यासी
रहते हैं और एक
नया संन्यासी
आता है तो वे सब
साक्षी बनेंगे
उसके। वह संन्यास
लेगा, सौ
संन्यासी
उसके गवाह होगे।
गवाह से ज्यादा
कोई आदमी नहीं
होगा। कोई गुरु
नहीं होगा, इसलिए मैं संन्यास
देने वाला
नहीं हूं
तुमने सन्यास लिया
इसका गवाह हूं
और किसी व्यक्ति
विशेष पर इसे केंद्रित
नहीं करना है।
इन
तीन वर्गों में
बड़े लोग उत्सुक
हैं और बड़े
पैमाने पर यह संन्यास
फैल सकता है। क्योंकि
इसमें सब की
सुविधा है और
सब तरह के
लोगों के लिए
व्यवस्था है।
मैं तो आशा
करता हूं कि
दो साल में
पूरे देश में
हर गांव में
संन्यासी को
खड़ा कर सकेंगे
और यह
संन्यासी
वहां धर्म के
लिए एक केंद्र
बन जाएगा और
वहां काम
करेगा। वह न हिन्दू
होगा, न मुसलमान,
न ईसाई। वह मस्जिद
में भी जाएगा,
मन्दिर में
भी जाएगा, मुसलमानों
को ध्यान
सिखाएगा, हिन्दू
को भी सिखाएगा।
उससे जिसके
लिए बन पड़ेगा
करेगा, और
इसी तरह के
छोटे—छोटे आश्रम
भी जगह—जगह
खड़े करने हैं,
जहां ये कम्यून
बन जाएं।
मेरी
दृष्टि से
भौतिकवाद से
अगर कोई भी
लड़ाई लेनी हो
तो भौतिकवाद
से ज्यादा
श्रेष्ठ
विकल्प देना
होगा, तब लड़ाई
होगी। नहीं तो,
तो मजा यह
है कि लड़ाई तो
हम लेना चाहते
हैं, लेकिन
हमारे पास
श्रेष्ठ
विकल्प नहीं
होता है इसलिए
सारी दुनियां
को कम्युनिज्म
हड़प ही जाएगा।
उससे बचना मुश्किल
है। क्योंकि वह
गरीब को रोटी
देता है, नंगे
को कपड़ा देता है,
अशिक्षित को
शिक्षा देता है।
जिसके पास मकान
नहीं है, उसको
मकान देगा।
अध्यात्म के
पास देने को
कुछ भी नहीं
है। वह सिर्फ
ईश्वर की
बातचीत दे सकता
है। उससे लोग
ऊब गए हैं।
हमें
ऐसे कम्यून चाहिए
जो आदर्श बन जाएगे।
क्योंकि उस तरह
की व्यवस्थाए और
भी फैल जाएगी।
और धीरे—धीरे
कोई वजह नहीं
कि पूरा गांव कम्यून
क्यों न हो जाए, लेकिन
उसके आधार
आध्यात्मिक होंगे।
इससे संन्यास
की पूरी धारणा
में आमूल फर्क
हो जाएगा और
क्रांति हो
जाएगी।
उस
आश्रम में
क्या विवाहित
पुरुष भी रह
सकेगा? क्या
वहां आचरण के
नियम नहीं
होने?
हां, उस
आश्रम में
विवाहित
व्यक्ति भी रह
सकेगा, क्योंकि
मैंने कहा न
कि मैं कोई
नियम थोपता नहीं
हूं यह सब
व्यक्ति के
ऊपर निर्भर है।
हम उससे
कहनेवाले भी
नहीं कि तुम
यह क्या कर रहे
हो? यह सब
उसकी चेतना पर
ही निर्भर है,
बस यह सब
उसी का निर्णय
है। क्योंकि
मैं यह मानता
हूं कि अगर
तुम डगमगाते
हो तो तुम
गिरोगे। इससे
दूसरे को
चिंता क्यों?
तुम गलती
करते हो तो
तुम दुख
भोगोगे। इसके
लिए मैं और
दूसरे क्यों
चिंतित हों।
हम कितनी
मुसीबत उठा
रहे हैं इन
सबके पीछे कि कोई
डगमगा न जाए।
इसके लिए
दूसरे परेशान
हैं। वह
डगमगाएगा तो
अपने डगमगाने
का जो दुख है
वह झेलेगा, इसमें किसी
को परेशान
होने की
आवश्यकता
नहीं। वह नहीं
डगमगाता तो हम
उसको आदर
देनेवाले नहीं।
मेरी
दृष्टि में यह
है कि व्यक्ति
के ऊपर जो
समाज की बहुत
ज्यादा आख
रहती है उसको
हटाना है। यह
एकदम गलत है, किसी
को हक नहीं है
कि किसी पर
इतने जोर से
आख गड़ाए, नहीं
तो व्यक्ति की
हत्या होगी।
तुम्हारे पान
और सिगरेट से
भी सारा समाज
चिंतित है।
इससे कोई लेना—देना
नहीं होना
चाहिए किसी का।
यदि तुम
सिगरेट पीते
हो तो इससे
उम्र कम होगी तो
तुम्हारी
होगी। इसमें
दूसरों को
क्यों चिंता
है। मैं मानता
हूं समाज को
उस समय तक बीच
में नहीं आना
चाहिए, जब
तक कि कोई
व्यक्ति किसी
दूसरे को
नुकसान न पहुंचाने
लगा हो।
हमारे
आश्रम में
सिर्फ इतनी
फिक्र होगी कि
तुम अपने को
अगर नुकसान
पहुंचाते हो
तो पहुंचा
सकते हो लेकिन
दूसरे को
तुम्हें
नुकसान
पहुंचाने का
कोई हक नहीं।
यानी तुम
सिगरेट पीते
हो तो हमें
कोई फिक्र नहीं, उसका
तुम्हें दुख
मिलनेवाला है।
तुम
फ्रस्ट्रेट, पीड़ित
होनेवाले हो
लेकिन तुम
दूसरे के मुंह
में सिगरेट
लगाने जाओ तो
गलती शुरू
होती है, उसके
पहले कोई गलती
नहीं है। और
मेरा मानना यह
है कि जैसे
ध्यान गहरा
होता है तो जो
हमारी
नासमझियां है
वह अपने से
गिरनी चाहिए।
अगर उसको
गिराना पड़े तो
इसका मतलब यह
है कि ध्यान
में गहराई
नहीं बढ़ रही
है।
अब
एक आदमी ध्यान
करते हुए
सिगरेट नहीं
पी सकता
क्योंकि सिगरेट
पीने के लिए
चित्त की
बेचैनी जरूरी
है। असल में
बेचैन चित्त
ही पीता है और
बेचैन चित्त
धुएं को बाहर—भीतर
कर अपनी
बेचैनी को
निकालने का
उपाय खोज लेता
है। इसलिए मै
नहीं कहता हूं
कि शान्त आदमी
सिगरेट नहीं
पिएगा। मैं
कहता हूं कि
वह पी नहीं
सकता, उसके
पीने की बात
ही असम्भव है
और अगर पी रहा
है तो हमें
मानना चाहिए
कि वह शान्त
नहीं है। उसको
शान्त होने की
दिशा देनी
चाहिए बजाय
इसके कि हम
उसकी सिगरेट
छीने। एक
विधायक
दृष्टि वहां
होगी कि अगर
एक आदमी सिगरेट
पीता है तो हम
समझेंगे कि वह
आदमी ध्यान
में गहरा नहीं
जा रहा है।
नहीं तो यह
बेचैनी खत्म
हो जाती थी।
अगर एक
संन्यासी
सिनेमा देखने
जाता है तो
मतलब यह है कि
चित्त अपने को
भुलाने में
लगा है, उसके
ध्यान की
गहराई नहीं बढ़
रही है।
हमें
ध्यान की
फिक्र जरूर
करनी है। उसके
लिए ध्यान को बढ़ाने
की कम्यून, आश्रम
फिक्र करे।
लेकिन हम उसके
आचरण की फिक्र
नहीं करेंगे,
पर हां इसको
हम लक्षण
मानेंगे। जब
ध्यान की
गहराई बढ़
जाएगी तो ये
लक्षण गिर जाएंगे।
अगर एक आदमी
मांस खा रहा
है और
मांसाहारी है
तो उसका कुल
मतलब इतना है
कि अभी उसके
ध्यान में
वैसी निर्मलता
नहीं आयी है
कि इतनी भी
पीड़ा देना
किसी को
कष्टपूर्ण हो
जाए। इसलिए हम
न कहेंगे कि
तुम मांस मत
खाओ, क्योंकि
यह हो सकता है
कि वह मांस
खाना बन्द कर
दे लेकिन उसका
चित्त न बदले।
क्योंकि जो
नहीं खा रहे
हैं वे कोमल व
निर्मल हो गए
हैं, ऐसा
नहीं दिखाई
पड़ता। किन्तु
कई बार ऐसा
दिखाई पड़ता है
कि मांसाहारी
से गैर—मांसाहारी
अधिक कठोर है,
क्योंकि
मांसाहारी का
मांस वगैरह
खाने में बहुत—सा
क्रोध और बहुत—सा
दुख देने का
भाव निकल जाता
है और उनका
नहीं निकल
पाता।
अकसर
ऐसा होता है
कि शिकारी
अच्छे आदमी
होते है। अगर
शिकारी के साथ
रहने का मौका
मिले तो आपको
पता चले कि
इतना बढ़िया
आदमी, इतना
मिलनसार आदमी
मिलना
मुश्किल है।
और इसका कुल
इतना कारण
होता है कि
उसकी हिंसा तो
जंगल में निकल
गई होती है, चित्त वहां
खाली हो गया
होता है।
इसलिए जिनको
हम आमतौर पर
साधु कहते हैं
वे बढ़िया आदमी
नहीं होते।
उनका कुछ भी
नहीं निकल
पाता, सब
भरा रहता है।
वे तरकीब से
निकालते रहते
है।
इसलिए
मेरा किसी
बाहरी
परिवर्तन पर
जोर नहीं है, जोर
भीतरी
परिवर्तन पर
है। बहुत
साधारण और
ऊपरी जोर है
कि नाम बदल
डालो तो
तुम्हारा
पुराना
व्यक्तित्व
बदल जाएगा, तुम्हें खुद
ही रोज—रोज यह
खयाल रहने
लगेगा कि तुम
अब वह नहीं हो
जो कल तक थे।
और कपड़े बदल
डालो ताकि
तुम्हें
स्मरण रहे पूरे
समय। यह
प्राथमिक रूप
से सही होगा, बाद में कोई
मूल्य नहीं।
तुम्हें
स्मरण रहने
लगे कि तुमने
जिन्दगी में
एक क्रांति का
निर्णय किया
है और वह
क्रांति
तुम्हें पूरी
करनी है। बाकी
ऊपर से कुछ और
नहीं थोपना है।
अभी बीस लोगों
ने संन्यास का
निर्णय किया
है मनाली में,
उनके लिए कम्यून,
आश्रम
बनाना है—एक
आश्रम बनाया
है आजोल में।
भगवान
श्री,
व्यक्ति
या सामाजिक स्तर
पर इसके क्या
परिणाम होंगे?
बहुत
परिणाम होंगे।
व्यक्तिगत स्तर
पर परिणाम
शुरू होंगे ही
और धीरे—धीरे
सामाजिक स्तर
पर भी अशान्ति
विदा होगी, चिन्ता
विदा होगी, वह जो चित्त
का पागलपन है
वह विदा होगा।
तुम हल्के हो
जाओगे और जीवन
में परमात्मा
का प्रवेश
होना शुरू हो
जाएगा। और तुम
इस जगत में
सिर्फ खाने—पीने,
कपड़े पहनने,
मकान बनाने
को ही बड़ा काम
नहीं समझोगे,
बल्कि
आत्मा के
विकास की भी
सम्मावना बना
पाओगे। और जो
चीजें
तुम्हें कल तक
बहुत
महत्वपूर्ण थीं
वे एकदम गैर—महत्वपूर्ण
हो जाएंगी और
जो कल तक
तुमने सोचा ही
नहीं था वह
बहुत
महत्वपूर्ण
हो जाएगा।
व्यक्तिगत
जीवन में तो
आमूल क्रांति
हो जाएगी। वह
हल्का—फुल्का
हो जाएगा कि
वह उड़ सके।
उसका भारीपन
विदा हो जाएगा,
उसकी
गम्भीरता और
उदासी चली
जाएगी। उसका
मानसिक रोग
असम्भव हो
जाएगा।
और
ध्यान में
जैसे—जैसे
गहराई बढ़ती
जाएगी वैसे—वैसे
वह आनन्द से
भरता जाएगा।
जितनी गहराई
बढ़ेगी उतना
सत्य का अनुभव
होने लगेगा।
समाज पर भी
व्यापक
परिणाम होंगे।
लेकिन वे बाद
में होंगे, क्योंकि
समाज
व्यक्तियों
के जोड़ के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। जो भी आज
हमें समाज
दिखाई पड़ रहा
है, वह
हमारा ही
योगदान, कंट्रीब्यूशन
है। हम जैसे
है, वैसा
हमारा समाज है।
अगर इसमें एक
भी व्यक्ति
बदल जाए तो
उसके आसपास
बदलाहट का
क्रम शुरू हो
जाएगा। यदि
पति बदलेगा तो
उसकी पत्नी
वही नहीं रह सकती
जो थी, उसको
भी बदलना ही
पड़ेगा। बच्चे
वही नहीं रह
सकते जो कल तक
थे अगर बाप बदलेगा
अगर
शिक्षक
बदलेगा तो
विद्यार्थी
वही नहीं रह
सकते जो उसके
पास पहले थे।
उनमें बदलाहट
अनिवार्य हो
जाएगी। एक
व्यक्ति एक ही
व्यक्ति नहीं
क्योंकि उसके अनेक
संबंध है। वह
अनेक जगह जुड़ा
है,
उसकी जहां
बदलाहट हुई, वह सब जगह
जहां—जहां
जुड़ा है, वहां—वहां
बदलाहट होगी।
अगर
हम थोड़े से
व्यक्तियों
को एक गांव
में बदलने को
तैयार हो जाएं
तो पूरे गांव
को प्रभावित
करेंगे। वह
बदलाहट होने
ही वाली है।
अभी जिन लोगों
ने संन्यास
लिया, उनमें
एक लड़की भी है
और एक दफ्तर
में क्लर्क है।
और उस दफ्तर
में भारी
हंगामा मच गया,
संन्यासी
होकर वह पहुंच
गई आफिस। वह
लड़की
टायपिस्ट है।
किसी ने अच्छा
कहा और किसी
ने बुरा कहा।
किसी ने मजाक
उड़ाई और वह
चर्चा का
केंद्र हो गई।
उसको
मैंने कहा था
कि वह सब होगा
और उसे देखना है
कि यह सब हो
रहा है, एक
नाटक हो रहा
है। वह देखती
रही एक दिन, दो दिन, तीसरे
दिन.....! फिर
लोगों ने उससे
पूछना शुरू
किया कि तुम
बदल गई हों—बिलकुल
बदल गई हो! तुम
पर हमारी बात
का कोई असर
नहीं है। उसके
मैनेजर ने उसे
बुलाया और कहा
कि इतनी शीघ्रता
से इतनी
बदलाहट कैसे
हुई! क्योंकि
उसे सदा ही
गम्भीर और
परेशान देखा
था....... और इतने
उपद्रव में भी
तुम प्रसन्न
हो और हंस रही
हो! —उसने
मुझसे कहा था
कि कपड़े बदलने
से क्या होगा?
बिना कपड़े
के मैं मन से
ही बदलने की
कोशिश करूं!
तीन
दिन बाद उसने
आकर मुझसे कहा
कि बिना कपड़े बदले
घटना नहीं
घटती।
संन्यासी सडक
पर निकले तो, घर
में जाए तो, दफ्तर में
जाए तो चौबीस
घण्टे उसको
शांत रहना ही
पड़ता। कोई न
कोई सडक पर
हंसेगा, कोई
इशारा करेगा
कि क्या मामला
है। दफ्तर में
तो और भी
दिक्कत होगी,
दफ्तर में
लोग भी आएंगे,
काम भी करना
पड़ेगा।
मैनेजर आज्ञा
भी देगा। उन
सब चुनौतियों
से कोई फर्क
नहीं पड़ा उसके
संन्यास के
निश्रय में।
उसके दफ्तर से
दो लोग और आए, अभी कोई
पंद्रह दिन
बाद ही
उन्होंने कहा
कि हम भी
उसमें शामिल
होने की
हिम्मत कर रहे
है। समाज में
धीरे—धीरे
अन्तर आते हैं।
व्यक्ति हम
बदलें तो उसके
आस—पास फर्क
पड़ना शुरू
होगा। एक बार
तुम्हें खयाल
भी आ जाए तो वह
तुम्हारे विचार
की बात है।
हमारी
पूरी जिन्दगी
हमारा खयाल है।
एक आदमी है, उसे
तुम कह दो कि
लाख रुपए की
लाटरी मिल गई
है। फिर देखो
उस आदमी की
चाल बदल जाएगी,
कुछ मिल
नहीं गया उसको
लाख रुपया, फिर भी इसकी
चाल बदल गई।
इसका ढंग बदल
गया, उसके
आख की रौनक
बदल गई। उसका
सब बदल गया, क्योंकि
उसके दिल में
लाख रुपए की
लाटरी का खयाल
आ गया। यह जो
तुम्हें खयाल
आ गया कि तुम
संन्यासी हो
गए, इससे
तुम्हारा सब
बदल जाएगा।
तुम कल्पना
नहीं कर सकते
कि क्या—क्या
बदल जाएगा। वह
खयाल इतना
अदभुत है कि
एक बार
तुम्हें खयाल
में आ गया कि
तुम संन्यासी
हो गए हो तो
तुम्हारा
बोलना बदल
जाएगा, तुम्हारा
देखना बदल
जाएगा।
तुम
कल जैसे देखते
थे वैसे नहीं
देख सकोगे।
क्योंकि तुम
संन्यासी हो।
हमें दिखाई
नहीं पड़ता ऊपर
से। वह घटना
जब घटती है
तभी खयाल में
आएगा। कल तुम
जिस आदमी पर
नाराज होते थे, आज
नहीं हो सकोगे।
एक आदमी जब
मंत्री होता
है तब देखो!
मंत्री होता
है तो क्या है?
और जब
मंत्री नहीं
रहेगा तब तुम
उसको देखो! आदमी
वही है, लेकिन
उसका सब चेहरा
गया, वह
रौनक गई, जो
उसके मंत्रि होने
मे थी। वह सब
उसके मन में
थी। वह सब
उसके मन में
एक खयाल से
निर्मित होता
है।
न्यूक्लिअस, केंद्र
जो है हमारे
व्यक्तित्व
का वह हमारा विचार
है। जो विचार
हमारे भीतर
होता है, उसके
आसपास ही
हमारा व्यक्तित्व
निर्मित होता
है। जब
तुम्हें खयाल
होता है कि
तुम सफल हो
रहे हो तो बात
और होती है, जब तुम्हें
खयाल होता है
कि तुम असफल
हो रहे हो तब
तुम्हारी
हालत और हो
जाती है।
संन्यास तो एक
बहुत अदभुत
घटना है। वह
खयाल बैठ गया
एक बार मन में
गहरे और बैठेगा
तब ही तुम बदलोगे।
नहीं तो तुम
कपड़े भी बदलने
को कैसे राजी
हो सकते हो।
उसकी तुम हिम्मत
नहीं जुटा सकते।
तुमने हिम्मत
जुटाई इसका
मतलब है कि
तुम्हारे
भीतर संन्यास
का खयाल गहराई
में आ गया है।
और जब खयाल
आया तो
तुम्हें बदल
डालेगा। और
महीने भर में
पाओगे कि
तुम्हारे
भीतर सारा
व्यक्तित्व
ही बदल गया।
तुम दूसरे ही
आदमी हो गए!
भगवान
श्री कपड़े का
रंग क्या चुना
है?
भगवा
रंग ही चुना, गैरिक
रंग ही चुना
है। और उसका
नमूना एक—सा
ही रखा है—खी
पुरुष का, ताकि
स्री—पुरुष का
फासला भी कम
हो—एक कमीज
लम्बी और नीचे
लुंगी। नमूना
दोनों के लिए
एक—सा रखा है।
गैरिक रंग को
चुना है। ऊपर
से यदि सर्दी
है तो गरम
कपड़ा डाल सकते
हो। इससे कोई
दिक्कत नहीं।
आश्रम
में आर्थिक
व्यवस्था
कैसी होगी?
सिर्फ
तुम्हारे
खाने का ही
खर्च रहेगा, आश्रम
में और कोई
खर्च नहीं
होगा जो अभी
सावधिक, पीरियाडिकल
संन्यासी
होगा उसे अपने
लिए खर्च की
व्यवस्था
करनी पड़ेगी।
जो वहां
स्थायी रूप से
रहेगा उसकी तो
व्यवस्था
आश्रम में ही
होगी। सारे
लोग मिलकर
उसकी
व्यवस्था
करेंगे। जो
माहभर के लिए
जाएगा, उसको
अपनी
व्यवस्था
करनी होगी
क्योंकि माह भर
तो वह साधना
ही करेगा। उसे
किसी उत्पादक
काम में
सम्मिलित
नहीं किया जा
सकता। एक माह
में कुछ भी
नहीं हो सकता
उससे, तो
वह अपनी
व्यवस्था
करेगा। हमारे
पास बगीचे, खेत इत्यादि
हो जाएंगे, तो यह भी
माहभर काम कर
सकेगा।
मैं यदि
अपने कपड़े न
बदलू तो
संन्यास का
भाव—मात्र
क्या काफी न
होगा?
तो मैं
मना नहीं करता।
तुम अभी भी
कपड़े पहने हो
तो मैं क्या
कह सकता हूं!
तुम कुछ भी
पहन सकते हो।
लेकिन उससे
कुछ भी लाभ न
होगा। यह
तुम्हें खयाल नहीं
है। जैसे स्रियों
ने मुझसे कहा कि
आप हमें भगवा
रंग की साडी पहनने
को कह दें।
लेकिन साड़ी
पहनने में कोई
दिक्कत नहीं
है क्योंकि साड़ी
पहनी जाती है, इसमें
कोई याद
दिलाने वाला
नहीं है। जैसे
अभी पेंट पहन
रहे है, पेंट
के बदले भले
ही लुंगी पहन
लें। लेकिन
लुंगी कोई
कठिन मामला
नहीं है। सारा
दक्षिण लुंगी
पहन रहा है।
तुम्हारे
संन्यासी
होने का खयाल
यदि तुम्हें न
आए, तुम्हें
दूसरे याद न दिलाये
तब तक उसका कोई
मूल्य नहीं।
तो फिर तुम यही
पहने रहो, कोई
फर्क नहीं।
जोर के कारण
और है। मैं कह
रहा हूं कि
कपड़े पहनने से
जब तुम्हारे चारों
तरफ का
वातावरण 'मोल्ड'
हो जाएगा, तो तुम फर्क
देख सकोगे।
तुमसाधारणत:
सफेद लुंगी
लगा लो, ठीक।
लेकिन गेरुआ
कपड़ा पहनकर
तुम निकल न सकोगे
एक जगह से
जहां तुम बिना
पूछेरह जाओ।
उससे
संन्यासी की
धारणा पैदा
होती है।
और
युनिफार्मिटी, एक—सा
रंग चाहता हूं
इसलिए कि
तुम्हारा कम्यून
बनाना है। अब
समझें आजोल
में आश्रम
बनाया गया। दो
सौ लोग एक ढंग के
कपड़े पहनेंगे,
उससे एक तरह
का वातावरण निर्मित
होगा। यदि दो सौ
लोग एक से दिखे
तो एक तरह का वातावरण
होगा और जब नया
आदमी आएगा तथा
इन दो सौ
आदमियों को एक
कपड़े में
पाएगा तो उसे
एक हवा का रुख
उसमें दिखाई
देगा।
यह
प्रश्न कि
क्या दूसरे
ढंग के कपड़े
हो सकते है, इसका
मनोवैज्ञानिक
कारण है। जो
सवाल उठता है
न कि 'ऐसा भी
कर लें', वह
डर के कारण है,
वह भी डर की
वजह से ही है!
'नव—संन्यास
क्या?':
चर्चा
व प्रश्रोत्तर
जबलपुर
प्रथम सप्ताह
नवम्बर 1970
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