अध्याय—14
सूत्र:
श्रीमद्भगवद्गली
अथ
चतर्दशोऽध्याय
—
श्रीभगवानवाच:
परं
भूय:
प्रवक्ष्यामि
ज्ञानानां
ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा
मुनय: सर्वे
परां
सिद्धिमितो
गता।। 1।।
हदं
ज्ञानमुपाश्चित्य
मम
साधर्म्यमागता:।
सगेंऽपि
नोयजायन्ते
प्रलये न
व्यथन्ति च।।
2।।
मम
योनिर्महद्रब्रह्म
तीस्मनार्भं
दधाथ्यहम्।
संभव:
सर्वभूतानां
ततो भवति भारत।।
3।।
इसके
उपरांत
श्रीकृष्ण
बोले हे
अर्जुन,
ज्ञानों में
भी अति उत्तम
परम ज्ञान को
मैं फिर भी
तेरे लिए कहूंगा?
कि जानकर जानकर
सब मुनिजन हम
संसार से मुक्ति
होकर परम
सिद्धि को
प्राप्त हो गए
हैं।
हे अर्जुन,
हम ज्ञान को
आश्रय करके
अर्थात धारण
करके मेरे
स्वरूप को
प्राप्त हुए
पुरुष सृष्टि के
आदि में पुन:
उत्पन्न
नहीं होते हैं
और प्रलयकाल
में भी
व्याकुल नहीं
होते हैं। है
अर्जुन,
मेरी महत
ब्रह्मरूप प्रकृति
अर्थात
त्रिगुणमयी
माया संपूर्ण
भूतों की योनि
है अर्थात गर्भाधान
का स्थान है
और मैं उस
योनि में
चेतनरूप बीज
को स्थापन
करता हूं। उस
जड़—चेतन के संयोग
से सब भूतों
की उत्पत्ति
होती है।
यूनान
में एक विचारक
हुआ,
पिरहो।
विचारक को
जैसा होना
चाहिए, जितने
संदेह से भरा
हुआ, उतने
संदेह—से भरा
हुआ विचारक
पिरहो था।
एक
दिन सांझ
पिरहो निकला
है अपने घर के
बाहर। वर्षा
के दिन हैं।
रास्ते के
किनारे एक
गड्डे में
उसका का गुरु गिर
पड़ा है और फंस
गया है। गले
तक कीचड़ में
डूबा हुआ गुरु; पिरहो
किनारे खड़ा
होकर सोचता है,
निकालूं या
न निकालूं!
क्योंकि
पिरहो का खयाल
है, तब तक
कोई कर्म करना
उचित नहीं, जब तक कि
उसके परिणाम
पूरी तरह
सुनिश्चित
रूप से शात न
हो जाएं। और
परिणाम शुभ
होंगे या अशुभ,
जब तक यह
साफ न हो, तब
तक कर्म में
उतरना
भ्रांति है।
गुरु
को बचाने से
शुभ होगा या
अशुभ; गुरु
बचकर जो भी
करेंगे जीवन
में, वह
शुभ होगा या
अशुभ, जब
तक यह साफ न हो
जाए, तब तक
पिरहो गुरु को
कीचड़ से
निकालने को
तैयार नहीं है।
क्योंकि कोई
भी कृत्य तभी
किया जा सकता
है, जब
उसके अंतिम फल
स्पष्ट हो
जाएं।
भला
हुआ कि और लोग
आ गए और
उन्होंने
डूबते हुए गुरु
को बचा लिया।
लेकिन पिरहो
किनारे पर ही
खड़ा रहा। और
जानकर आप
आश्चर्यचकित
होंगे कि जिन
दूसरे शिष्यों
ने गुरु को
बचाया, गुरु
ने कहा कि वे
ठीक—ठीक
विचारक नहीं
हैं, ठीक
विचारक पिरहो
ही है। इसलिए
मेरी गद्दी का
अधिकारी वही
है। क्योंकि
जिस कर्म का
फल तुम्हें
साफ नहीं, तुम
उसे कर कैसे
सकते हो?
पिरहो
पश्चिम में
संदेहवाद का
जन्मदाता है।
लेकिन अगर
कर्म का फल
स्पष्ट न हो, तो
कोई भी कर्म
किया नहीं जा
सकता।
क्योंकि किसी
कर्म का फल
स्पष्ट नहीं
है, और
स्पष्ट नहीं
हो सकता है।
क्योंकि कर्म
है अभी, और
फल है भविष्य
में। और
प्रत्येक
कर्म अनेक
फलों में ले
जा सकता है, वैकल्पिक फल
हैं। इसलिए
अगर कोई यही
तय कर ले कि जब
तक फल निर्णायक
रूप से
निश्चित न हो,
तब तक मैं
कर्म में हाथ
न डालूंगा, तो वैसा
व्यक्ति कोई
भी कर्म नहीं
कर सकता है।
पिरहो
खडा है—इसे
फिर से सोचें।
अगर मुझे वह
मिल जाए तो
उससे मैं
कहूंगा कि खड़े
रहने का फल ठीक
होगा या बचाने
का,
यह भी सोचना
जरूरी है।
क्योंकि खड़ा
होना कृत्य है।
तुम कुछ
निर्णय ले रहे
हो। गुरु को
बचाना ही
अकेला निर्णय
नहीं है। मैं
खड़ा रहूं या
बचाने में
उतरूं, यह
भी निर्णय है।
मैं इस समय
सोचूं या कर्म
करूं, यह
भी निर्णय है।
निर्णय
से बचने का
कोई उपाय नहीं
है। चाहे मैं
कुछ करूं और
चाहे न करूं, निर्णय
तो लेना ही
होगा। और करने
का भी फल होता
है, न करने
का भी फल होता
है। न करने से
गुरु मर भी
सकता था। तो न
करने का फल
नहीं होता, ऐसा मत
सोचना। फल तो
न करने का भी
होता है। कर्म
का भी फल होता
है, आलस्य
का भी फल होता
है।
हम
कुछ करें या न
करें, निर्णय
तो लेना ही
होगा। निर्णय
मजबूरी है।
इसलिए जो
सोचता हो कि
मैं निर्णय से
बच रहा हूं वह
बेईमान है।
क्योंकि बचना
भी अंततः
निर्णय है और
उसके भी फल
होंगे।
अर्जुन भी ऐसी
ही दुविधा में
है। वह कर्म
में उतरे, न
उतरे? युद्ध
में प्रवेश
करे, न करे?
क्या होगा
फल? शुभ
होगा कि अशुभ
होगा? इसके
पहले कि वह
कदम उठाए, भविष्य
को देख लेना
चाहता है। जो
कि संभव नहीं
है, जो कभी
भी संभव नहीं
हुआ और कभी भी
संभव नहीं
होगा।
क्योंकि
भविष्य का
अर्थ ही यह, जो न देखा जा
सके, जो
अभी नहीं है, जो अभी गर्भ
में है; होगा।
वर्तमान
देखा जा सकता
है। निर्णय
वर्तमान के
संबंध में लिए
जा सकते हैं।
भविष्य
अंधेरे में है, छिपा
है अज्ञात में।
अर्जुन चाहता
है, उसका
भी निर्णय ले
ले, तो ही
युद्ध में
उतरे।
और
ध्यान रहे, पिरहो
और अर्जुन की
हालत में बहुत
फर्क नहीं है।
अर्जुन की
हालत और भी
बुरी है। वहा
तो एक आदमी
डूबता और मरता
था, यहां
लाखों लोगों
के मरने और
बचने का सवाल
है। युद्ध की
आखिरी घड़ी में
उसके मन को
संदेह ने पकड़
लिया है।
वस्तुत:
जब भी आपको
कोई कर्म करने
का निर्णय लेना
होता है, तब आप
सभी अर्जुन की
अवस्था में
पहुंच जाते
हैं। इसलिए
अधिक लोग
निर्णय लेने
से बचते हैं।
कोई और उनके
लिए निर्णय ले
ले। पिता बेटे
से कह दे, ऐसा
करो। गुरु
शिष्य से कह
दे, ऐसा करो।
आप इसीलिए आशा
मानते हैं।
आज्ञा मानने
की मौलिक
आधारशिला खुद
निर्णय से
बचना है।
दुनिया
में लोग कहते
हैं कि लोगों
को स्वतंत्र
होना चाहिए।
लेकिन लोग
स्वतंत्र
नहीं हो सकते।
लोग आज्ञा
मानेंगे ही।
क्योंकि
आज्ञा मानने
में एक तरकीब
है,
उसमें
निर्णय कोई और
लेता है, आप
निर्णय की जो
दुविधा है, निर्णय का
जो कष्ट है, जो कठिनाई
है, उससे
बच जाते हैं।
इसलिए लोग
गुरु को खोजते
हैं, नेताओं
को खोजते हैं।
किसी के पीछे
चलना चाहते
हैं।
पीछे
चलने में एक
सुविधा है, जो
आगे चल रहा है,
वह निर्णय
लेगा। पीछे
चलने वाले को
निर्णय लेने
की जरूरत नहीं
है। यद्यपि यह
भी भ्रांति है।
क्योंकि किसी
के पीछे चलने
का निर्णय
लेना, सारे
निर्णयों की
जिम्मेवारी
आपके ऊपर आ गई।
चुन तो आपने
लिया है, लेकिन
अपने को धोखा
देने की
सुविधा है।
अर्जुन
जैसी कठिनाई
प्रत्येक
व्यक्ति को अनुभव
होगी। इसलिए
गीता का संदेश
बहुत शाश्वत
है। क्योंकि
प्रत्येक
मनुष्य के
जीवन में वही
कठिनाई है। हर
कदम पर, प्रतिपल,
एक पैर भी
उठाना है, तो
निर्णय लेना
है। क्योंकि
हर पैर उठाने
का परिणाम
होगा और जीवन
भिन्न होगा।
एक कदम भी बदल
देने से जीवन
भिन्न हो
जाएगा।
आज
आप यहां मुझे
सुनने आ गए
हैं। आपका
जीवन वही नहीं
हो सकता अब, जो
आप मुझे सुनने
न आए होते तो
होता। वही हो
ही नहीं सकता।
अब कोई उपाय
नहीं है। यह
बड़ा निर्णय है।
क्योंकि इस
समय में आप
कुछ करते।
किसी के प्रेम
में पड़ सकते
थे, विवाह
कर सकते थे।
किसी से झगड़
सकते थे, दुश्मनी
पैदा कर सकते
थे। इस समय
में कुछ न कुछ
आप करते, जो
जिंदगी को
कहीं ले जाता।
इस
समय मुझे सुन
रहे हैं। यह
भी कुछ कर रहे
हैं। यह भी
जिंदगी को कहीं
ले जाएगा।
क्योंकि एक—एक
शब्द आपको
भिन्न करेगा।
आप वही नहीं
हो सकते। चाहे
आप मैं जो
कहूं उसे
मानें या न
मानें, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। न मानें,
तो भी आप
वही नहीं
होंगे।
क्योंकि न
मानने का
निर्णय आपको
भिन्न जगह ले
जाएगा। मानें
तो भी, न
मानें तो भी!
एक
पलक भी झपकी, तो
हम बदल रहे
हैं। और एक
पलक का फासला
बड़ा फासला हो
सकता है।
मंजिल में
हजारों मील का
फर्क हो सकता
है।
इस
अर्जुन की
मनःस्थिति को
ठीक से समझ
लें,
तो फिर
कृष्ण का
प्रयास समझ
में आ सकता है
कि कृष्ण क्या
कर रहे हैं।
अर्जुन
उस दुविधा में
खड़ा है, जो
प्रत्येक मन
की दुविधा है।
और जब तक मन
रहेगा, दुविधा
रहेगी।
क्योंकि मन
कहता है, तुम
कुछ करने जा
रहे हो, इसका
परिणाम
तुम्हें
ज्ञात नहीं।
और जब तक
परिणाम ज्ञात
न हो, तुम
कैसे करने में
उतर रहे हो? मन प्रश्न
उठाता है और
उत्तर नहीं है।
अर्जुन
प्रश्न—चिह्न
बनकर खड़ा है।
उत्तर की तलाश
है। यह उत्तर
उधार भी मिल
सकता है। कोई
कह दे और
जिम्मेवारी
अपने ऊपर ले
ले। कोई कह दे
कि भविष्य ऐसा
है। भविष्य के
संबंध में कोई
निर्णायक
मंतव्य दे दे
और सारा
जिम्मा अपने
ऊपर ले ले, तो
अर्जुन युद्ध
में कूद जाए
या युद्ध से
रुक जाए। कोई
भी निष्कर्ष
अर्जुन ले
सकता है।
लेकिन तब
निर्णय उधार
होगा, किसी
और पर निर्भर
होगा।
कृष्ण
कोई उधार
वक्तव्य
अर्जुन को
नहीं देना चाहते।
इसलिए गीता एक
बड़ा गहन मनो—मंथन
है। एक शब्द
में भी कृष्ण
कह सकते थे कि
मुझे पता है
भविष्य। तू
युद्ध कर। पर
कृष्ण की
अनुकंपा यही
है कि उत्तर न
देकर, अर्जुन
के मन को
गिराने की वे
चेष्टा कर रहे
हैं। जहां से
संदेह उठते
हैं, उस
स्रोत को
मिटाने की
कोशिश कर रहे
हैं; न कि
संदेह के ऊपर
आस्था और
श्रद्धा का एक
पत्थर रखकर
उसको दबाने की।
अर्जुन
को किसी तरह
समझा—बुझा
देने की कोशिश
नहीं है।
अर्जुन को
रूपांतरित
करने की
चेष्टा है।
अर्जुन नया हो
जाए,
वह उस जगह
पहुंच जाए जहां
मन गिर जाता
है। जहां मन
गिरता है, वहां
संदेह गिर
जाता है।
क्योंकि कौन
करेगा संदेह?
जहां मन गिरता
है, वहा
भविष्य गिर
जाता है, क्योंकि
कौन सोचेगा
भविष्य? मन
के गिरते ही
वर्तमान के
अतिरिक्त और
कोई अस्तित्व
नहीं है। मन
के गिरते ही
व्यक्ति कर्म
करता है, लेकिन
कर्ता नहीं
होता है।
क्योंकि वहां
कोई अहंकार
नहीं बचता
पीछे, जो
कहे, मैं।
मन ही कहता है,
मैं।
फिर
कर्म सहज और
सरल हो जाता
है। फिर वह
कर्म चाहे
युद्ध में
जाना हो, चाहे
युद्ध से हट
जाना हो, लेकिन
उस कर्म के
पीछे कर्ता
नहीं होगा।
सोच—विचारकर,
गणित, तर्क
से लिया गया
निष्कर्ष
नहीं होगा।
सहज होगा कर्म।
अस्तित्व जो
चाहेगा उस
क्षण में, वही
अर्जुन से हो
जाएगा। कृष्ण
की भाषा में, परमात्मा जो
चाहेगा
अर्जुन से वही
हो जाएगा।
अर्जुन
निमित्त हो
जाएगा।
अभी
अर्जुन कर्ता
होने की कोशिश
कर रहा है।
अभी वह चाहता
है,
मैं जो करूं,
उसकी
जिम्मेवारी
मेरी है। उसका
दायित्व मेरा
है। मेरे ऊपर
होगा, शुभ
या अशुभ। मैं
कर रहा हूं।
और
अगर आप कर रहे
हैं,
तो बड़ी
चिंता पकड़ेगी।
इसलिए जितना
ज्यादा मैं का
भाव होगा, उतनी
ज्यादा जीवन
में चिंता
होगी। जितना
मैं का भाव कम
होगा, उतनी
चिंता क्षीण
हो जाएगी। और
जिस व्यक्ति
को चिंता से
बिलकुल मुक्त
होना है, उसे
मैं से मुका
हो जाना पड़ेगा।
मैं ही चिंता
है।
लोग
मेरे पास आते
हैं। वे कहते
हैं,
हम कैसे
निश्चित हो
जाएं? मैं
उनसे कहता हूं
जब तक तुम हो, तब तक
निश्चित न हो
सकोगे।
क्योंकि तुम
चिंता के
स्रोत हो।
जैसे बीज से
अंकुर निकलते
हैं, ऐसे
तुमसे
चिंताओं के
अंकुर निकलते
हैं। तुम
चिंताओं को
पोषण कर रहे
हो। तुम आधार
हो। फिर तुम
परेशान हो कि
मैं कैसे
निश्चित हो जाऊं!
तब निश्चित
होना और एक नई
चिंता बन जाती
है। तब शात
होने की
चेष्टा एक नई अशांति
बन जाती है।
इसलिए
साधारण आदमी
उतना चिंतित
नहीं है, जितना
धार्मिक, असाधारण
आदमी चिंतित
होता है।
अपराधी उतना
चिंतित नहीं
है, जितना
साधु चिंतित
दिखाई पड़ता है।
जितना
ज्यादा चिंता
से हम छूटना
चाहते हैं, उतनी
नई चिंता हमें
पकड़ती है। एक
तो यह नई
चिंता पकड़
लेती है कि
चिंता से कैसे
छूटें! और कोई
उपाय नहीं
दिखाई पड़ता
छूटने का, तो
मन बड़े भयंकर
बोझ से दब
जाता है। जैसे
कोई छुटकारा
नहीं, कोई
मार्ग नहीं।
इस कारागृह के
बाहर जाने के
लिए कोई द्वार
खुला नहीं
दिखता, कोई
स्रोत नहीं दिखता,
कोई सूत्र
नहीं समझ में
आता कि कैसे
बाहर जाएं। एक
प्रकाश की
किरण भी दिखाई
नहीं पड़ती।
जो
उस अंधेरे में
मजे से रह रहा
है,
उसकी
चिंताएं
कारागृह के
भीतर की हैं।
जो कारागृह के
बाहर जाना
चाहता है, उसकी
तो नई चिंताएं
आ गईं, कि
कारागृह से
बाहर कैसे
निकलें? इसलिए
धार्मिक आदमी
गहन चिंता में
डूब जाता है।
यह स्वाभाविक
है। मैं चूंकि
चिंता का
केंद्र है।
कृष्ण
की पूरी
चेष्टा यही है
कि अर्जुन
कैसे मिट जाए।
गुरु का सारा
उपाय सदा ही
यही रहा है कि
शिष्य कैसे
मिट जाए।
यहां
जरा जटिलता है।
क्योंकि
शिष्य मिटने
नहीं आता। शिष्य
होने आता है।
शिष्य बनने
आता है, कुछ
पाने आता है।
सफलता, शाति,
सिद्धि, मोक्ष,
समृद्धि, स्वास्थ्य—कुछ
पाने आता है।
इसलिए गुरु और
शिष्य के बीच
एक आंतरिक
संघर्ष है।
दोनों की आकांक्षाएं
बिलकुल
विपरीत हैं।
शिष्य कुछ
पाने आया है
और गुरु कुछ
छीनने की कोशिश
करेगा। शिष्य
कुछ होने आया
है, गुरु
मिटाने की
कोशिश करेगा।
शिष्य कहीं
पहुंचने के
लिए उत्सुक है,
गुरु उसे
यहीं ठहराने
के लिए उत्सुक
है।
पूरी
गीता इसी
संघर्ष की कथा
है। अर्जुन
घूम—घूमकर वही
चाहता है, जो
प्रत्येक
शिष्य चाहता
है। कृष्ण घूम—घूमकर
वही करना चाह
रहे हैं, जो
प्रत्येक
गुरु करना
चाहता है। एक
दरवाजे से
कृष्ण हार
जाते लगते हैं,
क्योंकि
अज्ञान गहन है,
तो दूसरे
दरवाजे से
कृष्ण प्रवेश
की कोशिश करते
हैं। वहां भी
हारते दिखाई
पड़ते हैं, तो
तीसरे दरवाजे
से प्रवेश
करते हैं।
ध्यान
रहे,
शिष्य बहुत
बार जीतता है।
गुरु सिर्फ एक
बार जीतता है।
गुरु बहुत बार
हारता है
शिष्य के साथ।
लेकिन उसकी
कोई हार अंतिम
नहीं है। और
शिष्य की कोई
जीत अंतिम
नहीं है। बहुत
बार जीतकर भी
शिष्य अंततः
हारेगा।
क्योंकि उसकी
जीत उसे कहीं
नहीं ले जा
सकती। उसकी
जीत उसके दुख
के डबरे में
ही उसे डाले
रखेगी। और जब
तक गुरु न जीत
जाए, तब तक
वह दुख के
डबरे के बाहर
नहीं आ सकता
है। लेकिन
संघर्ष होगा।
बड़ा प्रीतिकर
संघर्ष है।
बड़ी मधुर लड़ाई
है।
शिष्य
की अड़चन यही
है कि वह कुछ
और चाह रहा है।
और इन दोनों
में कहीं मेल
सीधा नहीं
बैठता। इसलिए
गीता इतनी
लंबी होती
जाती है। एक
दरवाजे से
कृष्ण कोशिश
करते हैं, अर्जुन
वहा जीत जाता
है। जीत जाता
है मतलब, वहा
नहीं टूटता।
जीत जाता है
मतलब, वहा
नहीं मिटता।
चूक जाता है
उस अवसर को।
उसकी जीत उसकी
हार है।
क्योंकि
अंततः जिस दिन
वह हारेगा, उसी दिन
जीतेगा। उसकी
हार उसका
समर्पण बनेगी।
तो
कृष्ण दूसरे
दरवाजे पर हट
जाते हैं; दूसरे
मोर्चे से
संघर्ष शुरू
हो जाता है।
ये प्रत्येक
अध्याय अलग—
अलग मोर्चे
हैं। और इन
अलग— अलग
अध्यायों में
वे सब द्वार आ
गए हैं, जिनसे
कभी भी किसी
गुरु ने शिष्य
को मिटाने की
कोशिश की है।
अर्जुन मिटे
तो ही हल हो
सकता है। बिना
मिटे कोई हल
नहीं है।
शिष्य
की मृत्यु में
ही समाधान है।
क्योंकि वहीं
उसकी
बीमारियां
गिरेंगी।
वहीं उसकी
समस्याएं
गिरेंगी।
वहीं उसके
प्रश्न
गिरेंगे।
वहीं से उसके
भीतर उसका उदय
होगा, जिसके
लिए कोई
समस्याएं
नहीं हैं। वह
चेतना भीतर
छिपी है और
उसे मुक्त
करना है। और
जब तक यह
साधारण मन न
मर जाए, तब
तक कारागृह
नहीं टूटता, जंजीरें
नहीं गिरतीं,
भीतर छिपा
हुआ प्रकाश
मुक्त नहीं
होता।
प्रकाश
बंद है आप में, उसे
मुक्त करना है।
और आपके
अतिरिक्त कोई
बाधा नहीं डाल
रहा है। आप सब
तरह से कोशिश
करेंगे, क्योंकि
आप समझ रहे
हैं जिसे अपना
स्वरूप, जिस
अहंकार को, आप उसको
बचाने की
कोशिश करेंगे।
आप सोचते हैं,
आत्म—रक्षा
कर रहे हैं।
अर्जुन भी
आत्म—रक्षा
में संलग्न है।
लेकिन गुरु
अंततः जीतता
है। उसके
हारने का कोई
उपाय नहीं है।
बहुत बार
हारता है।
उसकी सब हार
झूठी है।
शिष्य बहुत
बार जीतता है।
उसकी सब जीत
झूठी है।
अंततः उसे हार
जाना होगा। अब
हम इस सूत्र
में प्रवेश
करें।
कृष्ण
बोले, हे
अर्जुन, ज्ञानों
में भी अति
उत्तम परम
ज्ञान को मैं
फिर भी तेरे
लिए कहूंगा कि
जिसको जानकर
सब मुनिजन इस
संसार से
मुक्त होकर
परम सिद्धि को
प्राप्त हो गए
हैं।
ज्ञानों
में भी अति
उत्तम परम
ज्ञान मैं फिर
तेरे लिए कहूंगा।
बहुत बार पहले
भी उन्होंने
कहा है। कहते
हैं,
फिर तेरे
लिए कहूंगा।
गुरु थकता ही
नहीं। जब तक
तुम सुन ही न
लोगे, तब
तक वह कहे ही
चला जाएगा।
पश्चिम
में बुद्ध के
वचनों पर बड़ी
खोज हुई है।
वे बड़े हैरान
हुए। हैरानी
की बात है।
क्योंकि
बुद्ध अस्सी
साल जीए। कोई
चालीस साल की
उम्र में
ज्ञान हुआ। वे
चालीस साल तुम
अलग कर दो।
फिर चालीस साल
बचते हैं। इन
चालीस साल में
एक तिहाई
हिस्सा तो
नींद में चला
गया होगा। कुछ
घंटे भोजन—भिक्षा
में चले गए
होंगे रोज।
कुछ घंटे रोज
यात्रा में
चले गए होंगे।
अगर आठ घंटे
नींद के गिन
लें,
चार घंटे
रोज यात्रा के
गिन लें, दो
घंटे स्नान—
भोजन—भिक्षा
के गिन लें, तो चालीस
साल में से
करीब तीस साल
ऐसे व्यय हो जाते
हैं। दस साल
बचते हैं।
लेकिन
पश्चिम की खोज
कहती है कि
बुद्ध के इतने
वचन उपलब्ध
हैं कि अगर बुद्ध
पैदा होने के
दिन से पूरे
सौ वर्ष
अहर्निश बोले
हों,
सुबह से
दूसरी सुबह तक,
न सोए हों, न उठे, न
बैठे हों, तो
भी शास्त्र
ज्यादा मालूम
पड़ते हैं। एक
व्यक्ति सौ
वर्ष निरंतर
बोलता रहे, बिना रुके, अविच्छिन्न,
जन्म के दिन
से मरने के
क्षण तक, न
सोए, न कुछ
और करे, तो
इतना बोल
पाएगा जितना
बुद्ध के वचन
उपलब्ध हैं।
स्वभावत:, खोज
करने वाले
कहते हैं कि
ये
प्रक्षिप्त
हैं। दूसरे
लोगों के वचन
इसमें मिल गए
हैं। एक आदमी
इतना बोल नहीं
सकता। दस साल
में इतना नहीं
बोला जा सकता,
जितना कि सौ
साल निरंतर
कोई बोले!
इसका मतलब यह
हुआ कि अगर
बुद्ध दस गुना
जीते, तो
इतना बोल सकते
थे। या दस
बुद्ध होते, तो इतना बोल
सकते थे।
मैं
इसका कुछ और
ही अर्थ लेता
हूं। मैं इसका
इतना ही अर्थ
लेता हूं कि
जो बात इतनी
लंबी मालूम
पडती है, उसके
लंबे होने का
कारण शिष्यों
के साथ. अर्जुन
के साथ तो
कृष्ण का अकेला
संघर्ष है, एक शिष्य है।
बुद्ध के पास
दस हजार शिष्य
थे। यह संघर्ष
बड़ा है, विराट
है। इतने वचन
इसीलिए हैं, जैसे बुद्ध
दस मुंह से एक
साथ बोले हों।
ऐसी कोई जगह
नहीं छोड़ी है,
जहां से
शिष्य के ऊपर
हमला न किया
हो, आक्रमण
न किया हो।
गुरु
थकता नहीं।
फिर
से तेरे लिए
कहूंगा!
ज्ञानों में
भी अति उत्तम
ज्ञान को, परम
ज्ञान को मैं
फिर से तेरे
लिए कहूंगा कि
जिसको जानकर
सब मुनिजन इस
संसार से
मुक्त होकर परम
सिद्धि को
प्राप्त हो गए
हैं। अज्ञान
गैर—जानकारी
का नाम नहीं
है। अज्ञान
गलत जानकारी
का नाम है।
गैर—जानकारी
भोलापन भी हो सकती
है। अज्ञान
जटिल है, भोलापन
नहीं है।
अज्ञानी कुशल
होते हैं, चालाक
होते हैं, कुटिल
होते हैं।
अज्ञानी नहीं
जानता, ऐसा
नहीं है, गलत
जानता है। इसे
थोड़ा ठीक से
समझ लें।
न
जानने से हम
उलझन में नहीं
पड़े हैं।
हमारी उलझन
गलत जानने की
उलझन है। न
जानने से कोई
कैसे उलझेगा? गलत
जानने से कोई
उलझ सकता है।
उलझने के लिए
भी कुछ जानना
जरूरी है।
थोड़ी
देर को समझें, अर्जुन
की जगह अगर
कोई सच में ही
भोला— भाला
आदमी होता, जो कुछ नहीं
जानता, तो
वह युद्ध में
उतर जाता।
क्या अड़चन थी?
अर्जुन के
सिवाय किसी ने
सवाल नहीं
उठाया।
भीम
है,
उसे कोई
अड़चन नहीं है।
वह अपनी गदा
उठाए तैयार
खड़ा है। जब भी
युद्ध शुरू हो
जाएगा, वह
कूद पड़ेगा। वह
भी अज्ञानी है।
लेकिन अर्जुन
से भिन्न तरह
का अज्ञान है।
उसका अज्ञान
सिर्फ
जानकारी का
अभाव है। उसे
ये सवाल भी
नहीं उठते कि
क्या शुभ है, क्या अशुभ
है। मारूंगा,
तो पाप
लगेगा कि
पुण्य होगा, ये सब सवाल
भी नहीं उठते।
वह बच्चे की
तरह है।
अर्जुन
पंडित है।
अर्जुन जानता
है। अर्जुन
जानता है कि
यह बुरा है, यह
भला है, ऐसा
करना चाहिए, ऐसा नहीं
करना चाहिए।
धर्म — अधर्म
का उसे खयाल
है। उसकी
जानकारी ही
उसकी उलझन है।
अज्ञान
अगर सिर्फ गैर—जानकारी
हो,
तो मनुष्य
सरल होता है, निर्दोष
होता है, बच्चों
की भांति होता
है। उलझन नहीं
होती। मुक्त
नहीं हो जाता
उतने से, कारागृह
के बाहर भी
नहीं निकल
जाता, लेकिन
कारागृह में
ही प्रसन्न
होता है। उसे
कारागृह का
पता ही नहीं
होता।
जानकारी हो, अड़चन शुरू
हो जाती है।
अर्जुन
की कठिनाई यह
है कि उसे पता
है कि गलत क्या
है। लेकिन
इतना भर पता
होने से कि
गलत क्या है, वासना
नहीं मिट जाती।
वासनाएं तो
अपने ही मार्ग
पर चलती हैं।
और बुद्धि अलग
मार्ग पर चलने
लगती है, दुविधा
खड़ी होती है।
पूरी प्रकृति
शरीर की कुछ
कहती है करने
को, और
बुद्धि ऊपर से
खड़े होकर
सोचने लगती है।
व्यक्ति दो
हिस्सों में
बंट जाता है।
यह बंटाव, यह
खंडित हो जाना
व्यक्ति का, यह स्पिलट
पर्सनैलिटी, दो स्वर का
पैदा हो जाना,
इससे
दुविधा खड़ी
होती है। फिर
कोई निर्णय
नहीं लिया जा
सकता।
अर्जुन
युद्ध तो करना
ही चाहता है।
सच तो यह है कि
वही युद्ध की
इस स्थिति को
ले आया है।
कौन कहता था
युद्ध करो? युद्ध
की इस घड़ी तक
आने की भी कोई
जरूरत न थी।
वासनाएं तो
युद्ध के क्षण
तक ले आई हैं।
इस सारे युद्ध
की जड़ में
अर्जुन छिपा
है। इसे थोड़ा
समझ लेना
चाहिए, क्योंकि
उससे ही गीता
का अर्थ भी
स्पष्ट होगा।
यह
सारा युद्ध
शुरू होता है
द्रौपदी के
साथ। द्रौपदी
को अर्जुन ले
आया।
दुर्योधन भी
लाना चाहता था।
वह सुंदरतम
स्त्री रही
होगी। न केवल
सुंदरतम, बल्कि
तीखी से तीखी
स्त्रियों
में एक।
सौंदर्य जब
तीखा होता है,
तो और भी
प्रलोभित हो
जाता है।
द्रौपदी तेज,
अति तीव्र
धार वाली
स्त्री है।
उसने सभी को
आकर्षित किया
होगा।
दुर्योधन भी
उसे अपनी
पत्नी बनाकर
ले आना चाहता
था।
वासनाओं
का संघर्ष था।
अर्जुन उसे ले
आया।
संघर्ष
भारी रहा होगा।
क्योंकि
अर्जुन के भी
चार भाई उसे
लाना चाहते थे।
और स्त्री ऐसी
कुछ रही होगी
कि पांचों भाई
उसके कारण टूट
सकते थे और
मिट सकते थे।
इसलिए पांचों
ने बांट लिया
है। कहानी तो
सिर्फ ढांकने
का उपाय है।
कहानी
है कि मां ने
कहा कि तुम
पांचों बांट
लो,
क्योंकि
मां को कुछ
पता नहीं।
अर्जुन' ने
बाहर से इतना
ही कहा कि मां,
देखो, क्या
ले आया हूं!
उसने भीतर से
कहा कि तुम
पांचों बांट
लो। यह कहानी
तो सिर्फ
ढांकने का
उपाय है। असली
बात यह है कि
द्रौपदी पर
पांचों
भाइयों की नजर
है। और अगर
द्रौपदी नहीं
बंटती, तो
ये पांचों कट
जाएंगे, ये
पांचों बंट
जाएंगे। कु
इस
द्रौपदी से
सारा का सारा—अगर
ठीक से समझें, तो
काम से, वासना
से, इच्छा
से सारा
सूत्रपात है।
फिर उपद्रव
बढ़ते चले जाते
हैं। लेकिन
मूल में
द्रौपदी को
पाने की आकांक्षा
है। फिर धीरे—
धीरे एक—एक
बात जुड़ते—जुड़ते
यह युद्ध आ
गया।
आज
तक अर्जुन को
खयाल नहीं उठा; आखिरी
चरण में ही
स्मरण आया। अब
तक इतनी
सीढ़ियां चढ़कर
जहां पहुंचा
है, हर
सीढ़ी से इस
बात की सूचना
मिल सकती थी।
जब
भी आप कुछ
चाहते हैं, आप
युद्ध में उतर
रहे हैं।
क्योंकि आप
अकेले चाहने
वाले नहीं हैं,
और करोड़ों
लोग भी चाह
रहे हैं। चाह
का मतलब
प्रतियोगिता
है, चाह का
मतलब युद्ध है।
जैसे ही मैंने
चाहा, कि
मैं संघर्ष
में उतर गया।
इसलिए
ज्ञानियों ने
कहा है कि
संघर्ष के
बाहर केवल वही
हो सकता है, जिसकी
कोई चाह नहीं।
उसकी कोई
प्रतिस्पर्धा
नहीं है। वह
किसी की
दुश्मनी में
नहीं खड़ा है।
पर
अर्जुन को यह
खयाल कभी नहीं
आया। अब तक वह
ठीक शरीर के
एक हिस्से को
मानकर चलता
रहा। आज सारी
चीज अपनी
विकराल
स्थिति में
खड़ी हो गई है।
यह
थोड़ा समझने
जैसा है।
कामवासना
जन्म की
पर्यायवाची
है और युद्ध
मृत्यु का
पर्यायवाची
है। और सभी
कामवासना अंत
में मृत्यु पर
ले आती है।
ऐसा होगा ही।
इसलिए
ज्ञानियों ने
कहा है, जो
मृत्यु के पार
जाना चाहता हो,
उसे
कामवासना के
पार जाना होगा।
काम में हमारा
जन्म है और
काम में ही
हमारी मृत्यु
है।
यह
युद्ध तो
आखिरी क्षण है, जब
मृत्यु प्रकट
हो गई। लेकिन
इसका बीज तो
बो दिया गया
उस दिन, जिस
दिन द्रौपदी
पर कामवासना
फेंकी गई। उस
दिन इसका बीज
बो दिया गया।
दुर्योधन
भी चाहता था।
अर्जुन के खुद
दूसरे भाई भी
चाहते थे। और
चाह सभी की एक—सी
है। गलत और
सही चाह में
कुछ भी नहीं
होता। अर्जुन
द्रौपदी को पा
सका है, क्योंकि
धनुर्विद्या
में कुशल है।
तो द्रौपदी को
पाना किसी
कुशलता पर
निर्भर है, तो फिर
दुर्योधन ने
जुए में
कुशलता
दिखाने की कोशिश
किया है और
द्रौपदी को
छीन लेना चाहा
है। वह भी एक
कुशलता है।
कुशलता का
संघर्ष है।
और
महाभारत के एक—एक
पात्र में
उतरने जैसा है, क्योंकि
वे जीवन के
प्रतीक हैं।
द्रौपदी
की शादी के
बाद पांडवों
ने एक महल
बनाया, वह
उत्सव के लिए
था। और
दुर्योधन और
उसके भाइयों
को निमंत्रित
किया। महल ऐसा
बनाया था, उस
दिन की
श्रेष्ठतम
इंजीनियरिंग
की व्यवस्था
की थी, कि जहां
दरवाजे नहीं
थे, वहा
दरवाजे दिखाई
पड़ते थे, इस
भांति कांचों
का, दर्पणों
का जमाव किया।
जहां दीवार थी,
वहा दरवाजा
दिखाई पड़ता था,
भ्रामक था। जहां
दरवाजा था, वहा दीवार
मालूम होती थी।
दर्पणों के
आयोजन से ऐसा
किया जा सकता
है।
और
जब दुर्योधन
उन झूठे
दरवाजों में
टकरा गया जहां
दीवार थी, तो
द्रौपदी हंसी
और उसने कहा
कि अंधे के
लड़के हैं! यह
व्यंग्य भारी
पड़ गया। पांडव
हंसे।
उन्होंने मजा
लिया। अंधे के
बेटे तो जरूर
कौरव थे।
लेकिन कोई भी
अपने बाप को
अंधा नहीं
सुनना चाहता,
अंधा हो तो
भी। कोई भी
अपने को बुरा
नहीं देखना
चाहता। और
ध्यान रहे, गाली एक बार
क्षमा कर दी
जाए, व्यंग्य
क्षमा नहीं
किया जा सकता।
गाली उतनी चोट
नहीं करती, व्यंग्य
सूक्ष्मतम
गाली है। किसी
पर हंसना गहन
से गहन चोट है।
इसलिए ध्यान
रखना, आप
गाली देकर
दूसरों को
इतनी चोट नहीं
पहुंचाते; जब
कभी आप मजाक
करते हैं, तब
जैसी आप चोट
पहुंचाते हैं,
वैसी कोई
गाली नहीं
पहुंचा सकती।
महावीर
ने अपने वचनों
में कहा है कि
साधु किसी का व्यंग्य
न करे। इसको
हिंसा कहा है, बड़ी
से बड़ी हिंसा।
लेकिन
अर्जुन ने उस
दिन सवाल नहीं
उठाया कि हम
एक बड़ी हिंसा
कर रहे हैं। न, यह
सब वासना का
खेल चलता रहा।
अब यह उसकी
अंतिम परिणति
है। यह युद्ध
उस सब का जाल
है। यहां आकर
उसे पता चला।
यहां उसकी
बुद्धि ने जब
देखा चारों
तरफ नजर डालकर
कि क्या हमने
कर डाला है! और
हम कहां आकर खड़े
हो गए हैं!
ध्यान
रहे,
जब भी आप
किसी भ्रांति
में कदम उठाते
हैं, तो
पहले कदम पर
किसी को पता
नहीं चलता।
पहले कदम पर
पता चल जाए, तो इस
दुनिया में
भ्रांतियां
ही न हों। बस, अंतिम कदम
पर पता चलता
है, जब
पीछे लौटना
मुश्किल होता
है।
जब
आप में पहली
दफा क्रोध
उठता है, पहली
लहर, तब
आपको पता नहीं
चलता। जब आप
छुरा लेकर
किसी की छाती
में भोंकने को
ही हो जाते
हैं, जब कि
अपने ही हाथ
को रोकना
असंभव हो जाता
है, जब कि
हाथ इतना आगे
जा चुका कि अब
लौटाया नहीं जा
सकता, कि
आप लौटाना भी
चाहें, तो
अब मोमेंटम
हाथ का ऐसा है
कि अब लौट
नहीं सकता।
हाथ को जो गति
मिल गई है, वह
छुरा छाती में
घुसकर रहेगा।
अब एक ही उपाय
है, इतना
आप कर सकते
हैं कि चाहें
तो छुरे की
धार अपनी छाती
की तरफ कर लें
या दूसरे की
तरफ कर दें।
लेकिन हाथ चल
पडा। या तो
हत्या होगी या
आत्महत्या
होगी।
जीवन
में पहले कदम
पर ही कुछ
किया जा सकता
है। इस संबंध
में भी मनुष्य
के अंतस्तल की
एक यांत्रिक
व्यवस्था को
समझ लेना
जरूरी है।
मनुष्य
के
व्यक्तित्व
में दो तरह के
यंत्र हैं। एक, जो
स्वेच्छा से
चालित है। हम
इच्छा करते हैं,
तो चलते हैं।
दूसरे यंत्र
हैं, जो
स्वेच्छाचालित
नहीं हैं, जो
स्वचालित हैं।
जिनमें हमारी
इच्छा कुछ
नहीं कर सकती।
और जब पहले
यंत्र से हम
काम लेते हैं,
तो एक सीमा
आती है, जहां
से काम पहले
यंत्र के हाथ
से दूसरे
यंत्र के हाथ
में चला जाता
है।
समझें
कि आप कामवासना
से भर गए हैं।
एक सीमा है, जब
तक आप चाहें, तो रुक सकते
हैं। लेकिन एक
सीमा आएगी, जहां कि
शरीर का
स्वचालित
यंत्र
कामवासना को पकड़
लेगा। फिर आप
रुकना भी
चाहें, तो
नहीं रुक सकते।
फिर रुकना
असंभव है। सभी
वासनाएं
दोहरे ढंग से
काम करती हैं।
पहले हम
उन्हें इच्छा
से चलाते हैं।
फिर इच्छा
उन्हें आग की
तरह उत्तप्त
करती है, सौ
डिग्री पर
लाती है, फिर
वे भाप बन
जाती हैं। फिर
इच्छा के हाथ
के बाहर हो
जाती हैं। फिर
आपके भीतर
यंत्रवत घटना
घटती है।
इसलिए
बुद्ध ने कहा
है,
क्रोध पैदा
हो, उसके
पहले तुम जग
जाना। वासना
उठे, उसके पहले
तुम उठ जाना
और होश से भर
जाना।
क्योंकि पहला
कदम अगर उठ
गया, तो
तुम्हें
अंतिम कदम
उठाने की भी
मजबूरी हो जाएगी।
मध्य में
रुकना असंभव
है। चीजें चल
पड़ती हैं।
महावीर
का एक बहुत
प्रसिद्ध वचन
है कि जो आधा चल
पड़ा,
वह मंजिल पर
पहुंच ही गया।
क्योंकि बीच
से लौटना
मुश्किल है।
इसका कारण यही
है कि हमारे
भीतर दोहरे
यंत्र हैं। आप
अपनी किसी भी
वृत्ति में
इसका
निरीक्षण करें,
तो आपको पता
चल जाएगा कि
एक सीमा तक आप
चाहें, तो
वापस लौट सकते
हैं, हाथ
के भीतर है।
आप खुद ही वह
सीमा—रेखा
पहचान लेंगे। और
अगर अपने भीतर
आपने उस सीमा
को पकड़ लिया, जहां से
इच्छाएं हाथ
के बाहर हो
जाती हैं, तो
आप अपने मालिक
हो सकते हैं।
अर्जुन
आखिरी घड़ी में, जब
कि सब हो चुका,
बस आखिरी
परिणाम होने
को है, वहां
आकर डांवाडोल
हो गया है।
और
ध्यान रहे, सभी
लोग वहीं आकर
डांवाडोल
होते हैं।
क्योंकि जब
पूरी चीजें
प्रकट होती
हैं, तभी
हमें होश आता
है। पहले तो
चीजें छिपी—छिपी
चलती हैं।
बहुत धाराओं
में चलती हैं।
छोटे—छोटे
झरने बहते हैं।
फिर सब झरने
मिलकर जब बड़ा
विराट नद बन
जाता है, तब
हमें दिखाई
पड़ता है। फिर
हमें लगता है,
यह हमने
क्या कर लिया! फिर
हम भागना
चाहते हैं।
लेकिन अब घटना
हम से बड़ी हो
गई। और अब
भागने का कोई
उपाय नहीं है।
अब पीछे हटने
का कोई उपाय
नहीं है।
अर्जुन
उस घड़ी में
बात कर रहा है, जहां
कि चीजें
स्वचालित हो
गई हैं, जहां
कि युद्ध
अस्तित्व की
घटना बन गई है।
इसे थोड़ा समझ
लेना चाहिए।
जहां युद्ध से
अब लौटने का
कोई उपाय नहीं,
जहां युद्ध
होगा। पानी सौ
डिग्री तक गरम
हो चुका। अगर
हम नीचे से
अंगारे भी
निकाल लें, तो भी भाप
बनेगी। यह भाप
का बनना अब एक
नैसर्गिक
कृत्य हो गया
है। और इसी
घड़ी में आदमी
घबड़ाता है।
लेकिन उसकी
घबड़ाहट
व्यर्थ है।
रुकना था, पहले
रुक जाना था।
यह
जो अर्जुन
आखिरी क्षण
में डांवाडोल
हो रहा है।
सभी का मन
होता है। नियम
यह है कि या तो
पहले क्षण में
सजग हो जाएं और
वासना की
यात्रा पर न
निकलें। और
अगर कोई वासना
अंतिम क्षण
में पहुंच गई
हो,
तो घबडाएं
मत। अब
निमित्त होकर
उसे पूरा हो
जाने दें।
निमित्त होकर
पूरा हो जाने
दें!
पहले
क्षण में आप
मालिक हो सकते
हैं,
निमित्त
होने की जरूरत
न थी। यहीं
कृष्ण, महावीर
की साधनाओं का
भेद है। और
इसलिए लोगों
को लगता है कि
ये तो बड़ी
विपरीत बातें
हैं।
जैन
गीता को कोई
आदर नहीं दे
सकते, क्योंकि
पूरे पहलू अलग
हैं। गीता है
वासना के
आखिरी क्षण
में साधना।
महावीर की
साधना के सारे
सूत्र पहले
क्षण में हैं।
इसलिए महावीर
कहते हैं, अपने
मालिक बनो।
क्योंकि अगर
पहले क्षण में
कोई निमित्त
बन गया, तो
व्यर्थ बह
जाएगा वासना
में। पहले
क्षण में
मालिक बन सकता
है। ' जब तक
इच्छा के अंतर्गत
है सब, तब
तक हम उसका
त्याग कर सकते
हैं। पहले
क्षण में
निमित्त बनने
की कोई भी
जरूरत नहीं है।
और जो पहले
क्षण में
मालिक बन जाता
है, उसे
निमित्त बनने
की कभी भी
जरूरत नहीं
पड़ेगी। अंतिम
क्षण आएगा
नहीं।
इसलिए
महावीर की और
कृष्ण की
साधनाएं
बिलकुल विपरीत
मालूम पड़ेगी।
और जो नहीं
समझ सकते हैं, सिर्फ
शास्त्र पढ़ते
हैं, उनको
लगेगा कि वे
विरोधी हैं।
वे विरोधी
नहीं हैं।
जैसे
कि कोई आदमी
पानी गरम कर
रहा है, और
अभी उसने आग
जलाई ही है।
हम कहते हैं, अंगार बाहर
खींच लो। अभी
रुक सकती है
बात। अभी पानी
गरम भी नहीं
हुआ था। अभी
कुनकुना भी
नहीं हुआ था।
अभी भाप बनना
बहुत दूर था।
अभी आंच पकड़ी
ही नहीं थी
पानी को। अभी
पानी अपनी जगह
था, आपने
चूल्हा जलाया
ही था। अभी
अंगारे, ईंधन
वापस खींचा जा
सकता है।
महावीर कहते
हैं, पहले
क्षण में रुक
जाओ, आधे
के बाद रुकना
मुश्किल हो
जाएगा, चीजें
तुम्हारी
सामर्थ्य के
बाहर हो
जाएंगी। और
निश्चित ही, जो पहले
क्षण में नहीं
रुक सकता, वह
आधे में कैसे
रुकेगा? क्योंकि
पहले में
चीजें बहुत
कमजोर थीं, तब तुम न रुक
सके! आधी में
तो बहुत मजबूत
हो गईं, तब
तुम कैसे
रुकोगे? और
जब अंतिम, निन्यानबे
डिग्री पर
पानी पहुंच गया,
तब तो तुम
कैसे रुकोगे!
अगर
महावीर से
अर्जुन पूछता, तो
वे कहते, जिस
दिन तू
द्रौपदी को
स्वयंवर करने
चला गया था, उसी दिन लौट
आना था। वह
पहला क्षण था।
लेकिन कोई सोच
भी नहीं सकता
कि महाभारत का
यह महायुद्ध
द्रौपदी के
स्वयंवर से
शुरू होगा!
बीज
में वृक्ष
नहीं देखे जा
सकते। जो देख
ले,
वह
धन्यभागी है।
वह वहीं रुक
जाएगा। वह बीज
को बोएगा नहीं।
वृक्ष के फलों
का कोई सवाल
नहीं उठेगा।
लेकिन
कृष्ण के
सामने सवाल
बिलकुल
अन्यथा है।
अंतिम क्षण है।
घटना घटकर
रहेगी। चीजें
उस जगह पहुंच
गई हैं, जहां
से लौटाई नहीं
जा सकतीं।
चीजों ने अपनी
गति ले ली है।
स्वचालित हो
गई हैं। अब
युद्ध
अवश्यंभावी
है, भाग्य
है, अब वह
नियति है। इस
क्षण में क्या
करना?
इस
क्षण में
कृष्ण कहते
हैं,
तू निमित्त
बन जा। अब तू
कर्ता की तरह
सोच ही मत। अब
तू यह निर्णय
ही मत ले। अब
निर्णय
अस्तित्व के
हाथ छोड़ दे।
तू सिर्फ एक
उपकरण की तरह,
जो हो रहा
है उसे हो
जाने दे। तू
सिर्फ साक्षी
रह और उपकरण
बन।
जो
व्यक्ति पहले
क्षण में रुक
जाए,
उसे
निमित्त बनने
की कभी जरूरत
न पड़ेगी।
इसलिए महावीर
की साधना में
निमित्त शब्द
का उपाय ही
नहीं है, उपकरण
बनने की बात
ही फिजूल है।
जो व्यक्ति
किसी वासना के
अंतिम चरण में
साक्षी और
निमित्त बन
जाए, वह
दूसरी वासना
के प्रथम क्षण
में कभी कदम
नहीं उठाएगा।
जो पहले कदम
पर रुक जाए, उसे अंतिम
तक पहुंचने का
कोई कारण नहीं
है। जो अंतिम
पर निमित्त बन
जाए, उस
साक्षी भाव
में वह चीजों
को इतनी
प्रगाढ़ता में
देख लेगा कि
दूसरी कोई भी
वासना बीज की
तरह उसको धोखा
नहीं दे पाएगी।
अगर
अर्जुन इस
युद्ध में
निमित्त बनकर
गुजर जाए, तो
कोई दूसरी
द्रौपदी उसे
कभी नहीं लुभाएगी।
फिर कोई वासना
का बीज, जहां
से उपद्रव
शुरू होता है,
उसे पकड़ेगा
नहीं। वह आर—पार
देखने में
समर्थ हो
जाएगा, उसकी
दृष्टि
पारदर्शी हो
जाएगी।
अंतिम
क्षण में
निमित्त और
पहले क्षण में
मालिक, ये
साधना के
सूत्र हैं। और
दो में से एक
काफी है।
क्योंकि
दूसरे की
जरूरत नहीं
पड़ेगी।
गानों
में भी अति
उत्तम परम ज्ञान
को मैं फिर
तेरे लिए कहूंगा
कि जिसको
जानकर सब
मुनिजन इस
संसार से मुक्त
होकर परम
सिद्धि को
प्राप्त होते
हैं।
इस
संसार से
मुक्त होकर...।
संसार
को थोड़ा समझ
लेना जरूरी है।
संसार वह नहीं
है,
जो आपके
चारों तरफ
फैला हुआ
दिखाई पड़ता है।
संसार वह है, जो आपके मन
के चारों तरफ
आपने बो रखा
है। और अगर इस
बाहर के संसार
से आपका कोई
भी संबंध है, तो इस भीतर
के मन की
बुनावट के
कारण है।
इस
बाहर के संसार
को मिटाने, छोड़ने,
भागने का
कोई अर्थ नहीं
है। इस भीतर
मन की जड़ों को,
इस मन के
जाल को, जिससे
आप देखते हैं
चारों तरफ, जिससे
परमात्मा
आपको संसार
जैसा दिखाई
पड़ता है, इन
वासनाओं के
परदों को या
चश्मों को अलग
कर लेने की
बात है।
नहीं
तो परम ज्ञान
संसार से कैसे
मुक्त करेगा!
संसार तो
रहेगा ज्ञानी
के लिए भी।
कृष्ण के लिए
भी संसार है।
बुद्ध के लिए
भी संसार है।
आपके लिए भी
संसार है।
संसार तो
ज्ञानी के लिए
भी है। लेकिन
ज्ञानी के पास
मन नहीं है, इसलिए
इसी संसार को
वह किसी और
ढंग से देखने
में समर्थ हो
जाता है। यह
संसार तब उसे
ब्रह्म—स्वरूप
दिखाई पड़ता है।
इस संसार में
तब उसे वह
सारा उपद्रव,
वह सारा
युद्ध, वह
सारा विग्रह
नहीं दिखाई
पड़ता, जो
हमें दिखाई
पड़ता है। यह
सारा जो प्रपंच
का जाल हमें
दिखाई पड़ता है।
यह हमारे मन
का विभाजन है।
ऐसा
समझें कि एक प्रिज्म
में से कोई
सूरज की किरण
को निकालता है।
जैसे ही सूरज
की किरण प्रिज्म
को पार करती
है कि सात
हिस्सों में
टूट जाती है, सात
रंगों में टूट
जाती है, इंद्रधनुष
पैदा हो जाता
है। इंद्रधनुष
इसी तरह बनता
है। हवा में
अटके हुए पानी
के कण प्रिज्म
का काम करते
हैं। उन पानी
के कणों से
जैसे ही सूरज
की किरण गुजरती
है, वह सात
हिस्सों में
टूट जाती है।
इंद्रधनुष
निर्मित हो
जाता है। सूरज
की किरण में
कोई भी रंग
नहीं है, टूटकर
सात रंग हो
जाते हैं।
सूरज की किरण
रंगहीन है, टूटकर
इंद्रधनुष बन
जाती है।
जगत
में कोई भेद
नहीं, कोई
प्रकार नहीं,
कोई रंग
नहीं। लेकिन
मन के प्रिज्म
से दिखाई पड़ने
पर बहुत रंगीन
हो जाता है, इंद्रधनुष
की तरह हो
जाता है। जगत
हमारे मन से
देखा गया
ब्रह्म है। और
जब मन से जगत
देखा जाता है,
अस्तित्व
देखा जाता है,
तो संसार
निर्मित हो
जाता है।
संसार टूटा
हुआ
इंद्रधनुष है।
किसी भी भाति प्रिज्म
बीच से हट जाए
तो इंद्रधनुष
खो जाएगा और
बिना रंग की
शुद्ध किरण
शेष रह जाएगी,
रूप—रंगहीन।
अदृश्य किरण
शेष रह जाएगी।
संसार
अर्थात मन। इस
शब्द के कारण बड़ी
भांति हुई।
क्योंकि
निरंतर
ज्ञानीजन
कहते रहे, संसार
से ऊपर उठो।
और अज्ञानीजन
समझते रहे कि
बाहर जो संसार
फैला है, इससे
भागो। इससे
ऊपर उठो, मतलब
हिमालय चले
जाओ। कोई ऊंची
जगह खोज लो, जहां संसार
से ऊपर उठ गए।
दूर हट जाओ
इससे।
और
इंद्रधनुष से
जो भागता है, उससे
ज्यादा पागल
और कौन है!
इंद्रधनुष न
दिखाई पड़े, ऐसी दृष्टि
चाहिए। यह
दृष्टि भीतरी
घटना है।
इसलिए
कृष्ण कह सकते
हैं,
ज्ञानों
में भी अति
उत्तम परम
ज्ञान मैं
तुझसे फिर से
कहूंगा कि
जिसको जानकर
सब मुनिजन संसार
से मुक्त होकर
परम सिद्धि को
प्राप्त हो गए
हैं।
संसार
से मुक्त होना
अर्थात मन से
मुक्त होना।
और मन से जो
मुक्त हुआ, वह
परम सिद्धि को
प्राप्त हो
जाता है।
क्योंकि वह भीतर
छिपी है
सिद्धि। वह
स्वभाव, वह
परम निर्वाण
या मोक्ष भीतर
छिपा है।
जैसे
ही मन नहीं, कि
हमें अपने
होने का पता
चल जाता है कि
हम कौन हैं।
इस मन के कारण
न तो हमें
अस्तित्व की
वास्तविकता
दिखाई पड़ती है
और न अपनी। यह
प्रिज्म
दोहरा है। यह
संसार को
तोड़ता है, बाहर
अस्तित्व को
तोड़ता है और
भीतर स्वयं को
तोडता है। तो
भीतर हमें
सिवाय
विचारों के, वासनाओं के
और कुछ भी
दिखाई नहीं पडता।
धम
ने कहा है कि
जब भी मैं
अपने भीतर
जाता हूं,
तो मुझे सिवाय
वासनाओं के, विचारों के,
कामनाओं के,
कल्पनाओं
के, स्वभों
के और कुछ भी
नहीं मिलता।
और लोग कहते
हैं, भीतर
जाओ तो आत्मा
मिलेगी। झूम
ने कहा है कि
अनुभव से मैं
कहता हूं कि
भीतर बहुत बार
जाकर देखा, आत्मा कभी
नहीं मिलती।
और हजार चीजें
मिलती हैं।
आप
भी प्रयोग
करेंगे, तो
झुम से राजी
होंगे।
प्रयोग नहीं
करते, इसलिए
आप सोचते हैं,
भीतर आत्मा
छिपी है। भीतर
जाते ही नहीं,
इसलिए कभी
मौका ही नहीं
आता कि आप समझ
सकें कि भीतर
आपको क्या
मिलेगा। आप भी
भीतर जाएंगे
तो अम से राजी
होंगे।
क्योंकि जब तक
मन से छुटकारा
न हो, तब तक
भीतर भी
इंद्रधनुष
मिलेगा, सात
रंग मिलेंगे,
वास्तविक
किरण नहीं
मिलेगी, मौलिक
किरण नहीं
मिलेगी।
यह
प्रिज्म
दोहरा है।
बाहर तोड़ता है, अस्तित्व
संसार हो जाता
है। भीतर
तोड़ता है, अस्तित्व
विचारों में
बंट जाता है।
भीतर प्रतिपल
विचार चल रहे
हैं।
यह
संसार शब्द और
भी सोचने जैसा
है। संसार
शब्द का मतलब
होता है, चाक, दि व्हील।
संसार का मतलब
होता है, जो
घूमता रहता है
गाड़ी के चाक
की तरह।
कभी
आपने अपने मन
के संबंध में
सोचा कि मन
बिलकुल गाड़ी
के चाक की तरह
घूमता है। वही—वही
विचार बार—बार
घूमते रहते
हैं। आप एक
दिन की डायरी
बनाकर देखें।
सुबह से उठकर
लिखना शुरू
करें शाम तक।
आप बडे चकित
हो जाएंगे कि
आपके पास बड़ी
दरिद्रता है, विचार
की भी
दरिद्रता है।
वही विचार फिर
घड़ी, आधा
घड़ी बाद आ
जाता है।
और
अगर आप एक दो—चार
महीने की डायरी
ईमानदारी से
रखें, तो आप
पाएंगे कि इन
विचारों के
बीच वैसी ही
श्रृंखला है,
जैसी गाड़ी
में लगे हुए
आरों की होती
है। वही स्पोक
फिर आ जाता है,
फिर आ जाता
है, फिर आ
जाता है।
रिकरेंस, पुनरावृत्ति
भीतर होती
रहती है।
एक
बहुत बडा
वैज्ञानिक इस
संबंध में
अध्ययन कर रहा
था,
तो बहुत
हैरान हुआ।
क्योंकि अगर
हम सोच लें कि
एक विचार एक
सेकेंड लेता
हो, क्योंकि
विचार ज्यादा
वक्त नहीं
लेता, एक
सेकेंड में
झलक आ जाती है,
तो आप एक
मिनट में कम
से कम साठ
विचार करते
हैं। फिर इस
साठ में आप और
साठ का गुणा
करें, तो
एक घंटे में
इतने विचार।
फिर इसमें आप
चौबीस का गुणा
करें, तो
एक दिन में
इतने विचार।
कई लाख विचार!
बड़े से बड़ा
विचारक भी कई
लाख विचार एक
दिन में दावा
नहीं कर सकता।
तो
आप भीतर बड़ी
दरिद्रता
पाएंगे। वे ही
विचार! फिर तो
आपको खुद भी
हंसी आएगी कि
मैं कर क्या
रहा हूं! जिस
बात को मैं हजार
दफा सोच चुका
हूं उसको फिर
सोच रहा हूं।
वे ही शब्द
हैं,
वे ही भीतर
भाव हैं, वे
ही मुद्राएं
हैं। फिर वही
दोहर रहा है
यंत्रवत।
बाहर
संसार भी दौड़
रहा है। वर्षा
आएगी, सर्दी
आएगी, गरमी
आएगी, मौसम
घूम रहे हैं।
सूरज निकलेगा,
डूबेगा; चांद
बडा होगा, छोटा
होगा। वर्तुल
है। सारी
चीजें वर्तुल
में घूम रही
हैं, बाहर
भी और भीतर भी।
व्हील्स
विदिन
व्हील्स, चाको
के भीतर छोटे
चाक घूम रहे
हैं। उनके
भीतर और छोटे
चाक घूम रहे
हैं।
अपनी
घड़ी खोलकर
भीतर देखें, उसमें
जैसी हालत है,
वैसी आपके
मन की है। चाक
हैं। बहुत—से
चाक हैं। और
एक चाक दूसरे
को घुमा रहा
है, दूसरा
तीसरे को घुमा
रहा है, सब
घूम रहे हैं।
लेकिन कुछ
बंधे हुए
विचार हैं, वे ही दौड
रहे हैं बार—बार।
इसलिए भारत
कहता रहा है
कि बाहर भी
संसार है, भीतर
भी संसार है।
क्योंकि
वर्तुलाकार
गति है। और जब
तक इन चाको से
आप मुक्त न हो
जाएं, तब
तक सिद्ध न
होंगे।
सिद्ध
का अर्थ है, जो
घूमने के बाहर
हो गया।
प्रदर्शनियां
लगती हैं, मेले
भरते हैं, तो
बच्चों के लिए
घूमने के झूले
होते है। घोडे
है, हाथी है, शेर है—झूलों
में। बच्चे उन
पर बैठे हैं
और झूले चक्कर'
काट रहे, हैं। और
बच्चे बड़ा
आनंद लेते हैं,
जितने जोर
से चक्कर चलता
है। और बच्चों
को ऐसा लगता
है, कहीं
पहुंच रहे हैं।
यात्रा बहुत
होती है, पहुंचते
कहीं भी नहीं
हैं। वह अपनी
जगह पर घूम
रहा है। शेर, हाथी, घोड़े,
उन पर बैठने
का मजा; फिर
इतनी तेज गति;
कहीं
पहुंचने का
खयाल बड़ा रस
देता है।
करीब—करीब
हम सब वैसी ही
बच्चों की
हालत मे हैं।
थोड़ा हमारा
झूला बड़ा है
और वहां भी
हाथी, घोड़े
हैं।
अभी
आप देखते हैं, पेट्रोल
की कमी है, तो
इंदिरा तांगे
पर बैठकर..। इस
मुल्क में अकल
कभी आ नहीं
सकती। अटल ' बिहारी
बाजपेयी
बैलगाड़ी पर
बैठे हैं।
पीलू मोदी ने
कहा कि वे
हाथी पर
पहुंचेंगे।
और मैं सोचता
रहा कि गधे पर
किसी को जरूर।
क्योंकि वह
राष्ट्रीय
पशु है। वह
चरित्र का
प्रतीक है।
हमारी
सब जीवन की
व्यवस्था ऐसी
ही है, बचकानी
है। छोटे पद
हैं, बड़े
पद हैं, धन
है, महल है,
प्रतिष्ठाएं
हैं; पद्य—
भूषण हैं, भारतरत्न
हैं, सब
बैठे हैं, कोई
अपने घोडे पर,
कोई हाथी पर;
चक्कर चल
रहे हैं। जब
तक कि कोई
आपको उतार ही
न दे! बच्चे भी
बड़ी दिक्कत
देते हैं झूले
से उतरने में।
जब तक कि मां —बाप
उनको उतार ही
न दें। रोते —चीखते
वे बैठे हैं।
जब तक इनको भी
कोई उतार ही न
ले इन घोड़ों
पर से, तब
तक वे अपनी
तरफ से नहीं
उतरते।
यह
सारा का सारा।
और पहुंचना
कहीं भी नहीं
है। यात्रा
बहुत है। तेज
गति है। भाव
जरूर है कि
कहीं पहुंच
जाएंगे।
सिद्धि
का अर्थ है
ऐसी जगह, जहां
से कहीं और
जाने का भाव न
उठे। जब तक
कहीं जाने का
भाव उठता है, तब तक संसार।
सिद्धि का
अर्थ है, जहां
आप हैं, वही
परम स्थान।
उसके
अतिरिक्त
कहीं जाने का
कोई भाव नहीं
है। कोई मोक्ष
भी सामने लाकर
रख दे, तो
आप आख बंद कर
लें कि अपन
पहले ही मोक्ष
में बैठे हैं।
नान—इन
के संबंध में
कथा है—एक झेन
फकीर। एक पहाड
की तलहटी पर, जहां
पहाड़ पर ऊपर
एक तीर्थ था
और हजारों यात्री
वर्ष में
यात्रा करते
थे पैदल पहाड़
पर, नान—इन
पहाड़ की तलहटी
में एक झाड़ के
नीचे लेटा रहता
था। अनेक साधु—भिक्षु
भी यात्रा पर
जाते थे।
अज्ञानियों
का कोई
गृहस्थों से
संबंध नहीं है।
साधु —संन्यासी
भी वैसे ही
अज्ञान में
हैं। भिक्षु
भी, संन्यासी
भी, वे भी
पहाड़ पर
यात्रा करने
जाते हैं।
जैसे वहा कुछ
हो! नान—इन
झाडू के नीचे
पडा रहता था।
एक
दिन कुछ
भिक्षुओं ने
उसे देखा। वे
भी विश्राम
करने उसके
वृक्ष के पास
रुके थे।
उन्होंने कहा, नान—इन,
हम हर वर्ष
यात्रा पर।
आते हैं। तुम
इस झाडू के
नीचे कब तक
पड़े रहोगे? यात्रा नहीं
करनी है? हमने
तुम्हें कभी
तीर्थ के उस
मंदिर में
नहीं देखा, पहाड़ की
चोटी पर नहीं
देखा!
नान—इन
ने कहा कि तुम
जाओ। हम वहीं
हैं,
जहां तीर्थ
है। हम उस जगह
बहुत पहले
पहुंच गए हैं।
जहां तुम पहाड़
पर खोज रहे हो
जिस जगह को, उस जगह तो हम
बहुत पहले
पहुंच गए हैं।
हम तीर्थ में
हैं। और नान—इन
जहां होता है,
वहीं तीर्थ
होता है।
समझा
उन्होंने कि
यह आदमी पक्का
नास्तिक मालूम
होता है, अहंकारी
मालूम होता है।
क्योंकि नान—इन
ने कहा, नान—इन
जहां होता है,
वहीं तीर्थ
है। तीर्थ
हमारे साथ
चलता है।
तीर्थ हमारी
हवा है। हम
तीर्थ में
नहीं जाते।
लेकिन
यह नान—इन ठीक
कह रहा है। एक
सिद्ध पुरुष
के वचन हैं।
जिस
दिन कहीं जाने
को कुछ शेष न
रह जाए! कब
होगा ऐसा? ऐसा
तभी होगा, जब
कोई वासना न
रह जाएगी। जब
तक कोई वासना
है, तब तक
कहीं जाने का
मन बना ही
रहेगा।
वासनाग्रस्त
आदमी कहीं न
कहीं जा रहा
है,
जाने की सोच
रहा है; योजना
बना रहा है, मगर जा रहा
है। वस्तुत: न
जा रहा हो, तो
कल्पना में जा
रहा है। लेकिन
वासनाग्रस्त
आदमी कहीं न
कहीं जा रहा है।
एक बात पक्की
है, वासनाग्रस्त
आदमी वहां
नहीं मिलेगा,
जहां वह है।
वहा आप उसको
नहीं खोज सकते।
अपने घर में
वह कभी नहीं
ठहरता। वह
हमेशा कहीं और
अतिथि है।
सिद्ध
पुरुष का अर्थ
है,
जो अपने घर
में आ गया, जो
अब वहीं है, जहां है।
उससे अन्यथा
जाने का कोई
भाव नहीं।
उससे अन्यथा
जाने की कहीं
कोई वृत्ति
नहीं। उससे
अन्यथा होने
की कोई कामना
नहीं। जो है, जहां है, जैसा
है, राजी है।
और यह राजीपन
पूरा है। इस
संसार से
मुक्त होकर
ज्ञानीजन जिस ज्ञान
को पाकर परम
सिद्धि को
प्राप्त हो गए
हैं, वह
मैं फिर से
तेरे लिए
कहूंगा। हे
अर्जुन, इस
ज्ञान को
आश्रय करके
अर्थात धारण
करके मेरे
स्वरूप को
प्राप्त हुए
पुरुष सृष्टि
के आदि में
पुन: उत्पन्न
नहीं होते और
प्रलयकाल में
भी व्याकुल
नहीं होते हैं।
इस
ज्ञान को
आश्रय करके, धारण करके
मेरे स्वरूप
को प्राप्त !
हुए पुरुष
सृष्टि के आदि
में पुन:
उत्पन्न नहीं
होते और प्रलयकाल
में व्याकुल
नहीं होते।
जो
व्यक्ति अपने
स्वभाव में
ठहर गया, ज्ञान
में ठहर गया, जिसे। कुछ
जानने को शेष
न रहा और जिसे
पहुंचने को
कोई जगह न रही,
जो विश्राम
को उपलब्ध हो
गया, जो
सिद्ध हो गया,
कृष्ण कह
रहे हैं, ऐसा
पुरुष फिर न
तो पैदा होता
है और न
वस्तुत: मरता
है।
सृष्टियां
पैदा होती
रहेंगी, लेकिन
सृष्टि का जाल
फिर उसे अपने
चक्र में न खींच
पाएगा। चक्र
घूमते रहेंगे
सृष्टि के, लेकिन
सृष्टि का कोई
भी आरा फिर उस
पुरुष को अपनी
ओर आकर्षित न
कर पाएगा।
क्योंकि
जिसको जाने की
कहीं वासना न
रही, वह
सृष्टि में भी
नहीं जाएगा।
सृष्टि
में हम जाते
इसीलिए हैं, पैदा
हम इसीलिए
होते हैं, कि
हमें कहीं
पहुंचना है।
यह हमारा पैदा
होना भी वाहन
है। यह शरीर
भी हमारी
यात्रा का
वाहन है। इसे
हमने चुना है
किन्हीं
वासनाओं के ' कारण। कुछ
हम करना चाहते
हैं, बिना
शरीर के वह न
हो सकेगा। जो
लोग
प्रेतात्माओं
का अध्ययन
करते हैं, वे
कहते हैं कि
प्रेतात्माओं
की एक ही पीड़ा
है कि उनके
पास वासनाएं
तो वही हैं, जो आपके पास
हैं, लेकिन
वासनाओं को
पूरा करवा सके,
ऐसा कोई
उपकरण नहीं है।
क्रोध उनको भी
आता है, लेकिन
चांटा मारना
मुश्किल है, क्योंकि हाथ
नहीं हैं।
कामवासना
उनको भी जगती
है, लेकिन
कामवासना का
कोई यंत्र
उनके पास नहीं
है कि संभोग
कर सकें।
इसलिए
प्रेतात्मविद
कहते हैं कि
ऐसी आत्माएं
निरंतर कोशिश
में होती हैं
कि किसी घर
में मेहमान हो
जाएं, किसी
व्यक्ति के
शरीर में
मेहमान हो
जाएं। और अगर
आप थोड़े कमजोर
हैं, संकल्प
से थोड़े हीन
हैं.......।
संकल्पहीन
आदमी का मतलब
होता है, जो
सिकुड़ा हुआ है,
जिसके भीतर
खाली जगह है।
संकल्पवान
आदमी का अर्थ
होता है, जो
फैला हुआ है, जिसके भीतर
कोई जगह नहीं
है। सच में जो
अपने शरीर से
बाहर भी जी
रहा है। भीतर
की तो बात ही
अलग। जो फैलकर
जी रहा है।
ऐसे व्यक्ति
में
प्रेतात्माएं
प्रवेश नहीं कर
पाती हैं।
लेकिन
जो सिकुड़कर जी
रहा है, डरा
हुआ। डरे हुए
का मतलब, सिकुड़ा
हुआ। जो अपने
ही घर में एक
कोने में छिपा
है, बाकी
घर जिसने खाली
छोड़ रखा है।
जिसका शरीर भी
बहुत—सा खाली
पड़ा है। उसमें
कोई
प्रेतात्मा
प्रवेश कर
जाएगी।
क्योंकि
प्रेतात्मा
कोशिश में है,
शरीर मिल
जाए तो
वासनाएं पूरी
हो सकें।
आप
भी शरीर में
इसीलिए
प्रविष्ट हुए
हैं,
गर्भ में
इसीलिए
प्रविष्ट हुए
हैं कि कुछ
वासनाएं हैं,
जो अधूरी रह
गई हैं। पिछले
मरते क्षण में
कुछ वासनाएं
थीं, जो
आपके मन में
अधूरी रह गई
हैं, वे
आपको खींच लाई
हैं। मरते
क्षण में आदमी
की जो वासना
होती है, वही
वासना उसके नए
जन्म का कारण
बनती है। या
मरते क्षण में
उसके जीवनभर
का जो सार—निचोड़
होता है उसकी
आकांक्षाओं
का, वही
उसे धक्का
देता है नए
गर्भ में
प्रविष्ट हो
जाने का।
कृष्ण
कहते हैं, जो
सिद्ध पुरुष
है। वह साधारण
जन्म—मरण में
तो फंसेगा ही
नहीं, साधारण
गर्भ में तो
प्रवेश ही
नहीं करेगा।
क्योंकि
जिसको कहीं
जाना नहीं, वह
ट्रेन में
किसलिए सवार
हो! वह किसलिए
टिकट खरीदेगा
जाकर क्यू में
खड़े होकर!
किसलिए धक्के
खाएगा! कोई
कारण नहीं है।
उसे कहीं जाना
नहीं है।
शरीर
एक यात्रा—वाहन
है। और गर्भ
के द्वार पर
वैसा ही क्यू
है,
! जैसा किसी
भी यात्रा—वाहन
पर लगा हो ' वहां
भी उतनी ही !
धक्का—मुक्की
है। वहां भी
गर्भ में
प्रवेश करने
के लिए उतना
ही संघर्ष है।
क्या
आपको पता है, एक
संभोग में कोई
एक करोड़ जीव—कोष
गर्भ में
प्रवेश करते
हैं! उनमें से
एक, वह भी
कभी—कभी, शरीर
ग्रहण कर पाता
है।
बायोलाजिस्ट
कहते हैं कि
दौड़ संघर्ष की
वहीं शुरू हो
जाती है, संभोग
के क्षण में।
जैसे ही पुरुष
का वीर्य
प्रवेश करता
है स्त्री में,
एक करोड़ कम
से कम, ज्यादा
से ज्यादा दस
करोड़, एक
संभोग के क्षण
में इतने जीव—कण
स्त्री में
छिपे हुए अंडे
की तरफ दौड़ना
शुरू करते हैं।
यह
दौड़ बड़ी लंबी
है;
उनके हिसाब
से बहुत लंबी
है। क्योंकि
जीव—क्या बहुत
छोटा है; खाली
आख से दिखाई
नहीं पड़ सकता।
उतने छोटे जीव—क्या
के लिए कोई
थोड़े से इंचों
की दौड़ उतनी
ही है कि अगर
जीव को आपके
बराबर कर दिया
जाए अनुपात
में, तो दो मील
का फासला है।
उस अनुपात में
वीर्य—कण को
करीब—करीब दो
मील का फासला
पार करना पड़
रहा है, स्त्री
के अंडे तक
पहुंचने में।
अगर वीर्य—कण
आपके बराबर
हों, तो
फासला दो मील
के बराबर होगा।
छ:
घंटे के बीच
उस छोटे—से
जीवाणु को.।
और भयंकर
संघर्ष है, क्योंकि
एक करोड़ जीवाणु
भी भाग रहे
हैं। आपकी सड़क
पर ट्रैफिक
में वैसा जाम
नहीं है। वे
सभी एक करोड़
जीव—कोष उतनी
ही कोशिश कर
रहे हैं कि
अंडे तक पहुंच
जाएं।
क्योंकि उस
अंडे में छिपा
है शरीर, जहां
से व्यक्ति
पैदा होगा और
यंत्र उपलब्ध
हो जाएगा।
बायोलाजिस्ट
कहते हैं कि
इस दुनिया में
जो
प्रतियोगिता
दिखाई पड़ रही
है,
वह कुछ भी
नहीं है।
जिसको बाजार
में गलाघोंट
प्रतियोगिता
कहते हैं, थोट
कट कांपिटीशन,
वह कुछ भी
नहीं है।
क्योंकि एक
करोड़ में से
एक पहुंच
पाएगा अंडे तक।
जो पहले पहुंच
जाएगा, वह
प्रवेश कर
लेगा। और अंडा
कुछ इस भांति
का है कि जैसे
ही एक जीव—कोष
प्रवेश करता
है, अंडे
के द्वार बंद
हो जाते हैं।
फिर दूसरा
प्रवेश नहीं
कर सकता।
इसीलिए
कभी—कभी दो
बच्चे एक साथ
पैदा हो जाते
हैं,
अगर दो जीव—कोष
बिलकुल एक साथ
पहुंच जाएं
अंडे के द्वार
पर, तो
दोनों प्रवेश
कर जाते हैं।
लेकिन ऐसा
मुश्किल से
होता है।
दोनों बिलकुल
एक साथ, युगपत—स्व
क्षण के
हजारवें
हिस्से का भी
फासला न हो—तो
दो; या तीन
भी कभी हो
जाते हैं, चार
भी कभी हो
जाते हैं।
एक
व्यक्ति जीवन
में कोई चार
हजार संभोग
करता है। चार
हजार संभोग
में,
कोई अगर
पुराने ढंग का
भारतीय हो, तो ज्यादा
से ज्यादा बीस
बच्चे पैदा कर
सकता है। चार
हजार संभोग
में बीस मौके
हैं कुल, और
प्रत्येक
संभोग में कोई
एक करोड़ से दस
करोड़ तक
जीवाणु
यात्रा
करेंगे।
जितने
लोग इस समय
पृथ्वी पर हैं, कोई
चार अरब, एक—एक
व्यक्ति के
भीतर चार अरब
जीव—कोष हैं।
एक व्यक्ति
इतनी पूरी
पृथ्वी को
पैदा कर सकता
है। लेकिन
पैदा होंगे दस
बच्चे, बीस
बच्चे ज्यादा
से ज्यादा। दो—चार
बच्चे
सामान्यतया।
इतना
भयंकर संघर्ष
है। इतना
भयंकर युद्ध
है। वहा भी
क्यू है! इतनी
आत्माएं
दौड़ती हैं, एक
शरीर को पकड़ने
को। बड़ी वासना
होगी।
बायोलाजिस्ट
चकित हैं कि
छोटा—सा जीव—क्या
इतनी स्पर्धा
से दौड़ता है, इतनी
त्वरा से
दौडता है, इतनी
तेजी से दौड़ता
है। सब तरह से
कोशिश करता है
कि दूसरों को
पीछे छोड़ दे
और आगे निकल
जाए। उससे पता
लगता है कि
आत्माएं
कितने जोर से
शरीर को पकड़ने
की चेष्टाएं
कर रही होंगी।
कितनी विराट
वासना भीतर
धक्के नहीं दे
रही होगी!
साधारणत:
सिद्ध पुरुष
इस गर्भ में
पैदा होना, जन्म
को लेना और
मृत्यु से तो
छूट ही जाता
है।
लेकिन
जब पूरी
सृष्टि भी इसी
भांति विलीन
होती है, जैसे
हर व्यक्ति
मरता है..। हर
वस्तु मरती है,
ऐसा पूरी सृष्टि
भी मरती है।
क्योंकि पूरी
सृष्टि का
प्रारंभ होता
है, तो अंत
भी होता है।
पूरी सृष्टि
के प्रारंभ
में और अंत के
क्षण में भी, जब सब
जन्मता है फिर
से, सब
ताजा होता है
फिर से, तब
भी सिद्ध
पुरुष डांवाडोल
नहीं होता।
क्योंकि यहा
भी कुछ पाने
को नहीं है।
पूरी
सृष्टि फिर से
बन रही है, फिर
से जीवन जग
रहा है, फिर
सूरज और चांद—तारे
पैदा हो रहे
हैं; फिर
पृथ्वियां
बसेंगी, फिर
सारे खेल का
विस्तार होगा।
इस विराट
सृष्टि के कम
में भी वह दूर
खड़ा रह जाता
है, अपनी
जगह तृप्त। यह
विराट आयोजन
भी उसे बुला
नहीं सकता, इसका भी कोई
निमंत्रण
कारगर नहीं है।
उसे अब कोई नहीं
हिला सकता।
और
जब पूरी
सृष्टि भी
नष्ट होगी, प्रलय
होगा और भयंकर
पीड़ा होगी...।
क्योंकि एक—एक
व्यक्ति के
मरने पर हम
समझते हैं, कितनी पीड़ा
और कितना दुख
और कितना
संताप है। जब
पूरी सृष्टि
अंतिम क्षण
में प्रलय में
लीन होती है, भयंकर
हाहाकार; उससे
बड़े हाहाकार
की हम कोई
कल्पना नहीं
कर सकते। दुख
अपनी चरम
अवस्था पर
होगा। उस क्षण
में भी, कृष्ण
कहते हैं, प्रलयकाल
में भी सिद्ध
पुरुष
व्याकुल नहीं
होता है।
जिसकी
कोई वासना
नहीं है, उसकी
कोई पीड़ा भी
नहीं है।
जिसकी कोई
वासना नहीं है,
दूसरे की भी
पीड़ा देखकर
उसको दया आ
सकती है, व्याकुलता
नहीं होती। इस
फर्क को समझ
लेना चाहिए।
अगर
बुद्ध के
सामने आप मर
रहे हों, तो
बुद्ध
व्याकुल नहीं
होते। दया आ
सकती है। दया
आपकी मूढ़ता पर
आती है।
क्योंकि दुख
आपका सृजित
किया हुआ है।
ऐसे जैसे एक
बच्चा रो रहा
है, क्योंकि
उसकी गुडिया
की टांग टूट
गई है। रोने
में कोई भेद
नहीं है। रोना
वास्तविक है। टांग
चाहे गुड़िया
की हो, चाहे
पत्नी की हो।
टल असली हो कि
नकली हो, यह
दूसरी बात है,
लेकिन
बच्चे के
आसुरों में तो
कोई झूठ नहीं
है।
एक
बच्चे की
गुड़िया की टल
टूट गई है, बच्चा
रो रहा है
आपके सामने।
आप दुखी होते
हैं या दया से
भरते हैं? आप
व्याकुल होते
हैं या करुणा
से भरते हैं? या आपको
बच्चे पर दया
आती है कि
बेचारा! इसे
कुछ पता नहीं
है कि यह
गुड़िया मरी ही
हुई है। इसमें
कुछ टूटने का
मामला नहीं है।
यह टल टूटी ही
हुई थी।
इस
बच्चे को आप
खिलाते हैं, हंसाते
हैं; डुलाते
हैं, दूसरी
गुड़िया
पकड़ाते हैं।
लेकिन आप
गंभीर नहीं
हैं। यह एक
खेल था, जिसको
बच्चे ने
ज्यादा
गंभीरता से ले
लिया, इसलिए
दुखी हो रहा
है। बच्चा
गुड़िया के
कारण दुखी
नहीं हो रहा
है, अपनी
गंभीरता और
मूढूता के
कारण दुखी हो
रहा है।
बुद्ध
जब आपको पीड़ा
में देखते हैं, तब
वे जानते हैं
कि आपकी पीड़ा
भी बचकानी है।
किसी
का घर जल गया
है,
जो उसका था
ही नहीं। किसी
की पत्नी मर
गई है। कौन
किसका हो सकता
है? किसी
का पति खो गया
है। जो कभी
अपना नहीं था,
वह खो कैसे
सकता है? किसी
का धन चोरी
चला गया है। इस
जगत में कोई
मालकियत सच
नहीं है, चोरी
कैसे हो सकती
है? यहां
मालिक झूठे
हैं, चोर
झूठे हैं। चोर
इसलिए हैं कि
मालिक हैं। एक
झूठ दूसरे झूठ
को पैदा करता
है। तो बुद्ध
दया कर सकते
हैं। और अगर
आप बहुत ही
रोएं—गाएं, तो वे आपको
समझा—बुझा भी
सकते हैं।
लेकिन वह
समझाना—बुझाना
सिर्फ दयावश
है। इसमें कोई
व्याकुलता
नहीं है। ' जिस
दिन पूरी
सृष्टि भी
विनष्ट हो रही
हो, उस दिन
भी सिद्ध
पुरुष, कृष्ण
कहते हैं, व्याकुल
नहीं होता। और
अर्जुन
व्याकुल हो
रहा है, जरा—सा
युद्ध खड़ा है
उससे। पूरी
सृष्टि के हिसाब
से वह युद्ध
ना—कुछ है।
गुड़ियों का
खेल है। बड़ा
व्याकुल हो
रहा है।
कृष्ण
कहते हैं, मैं
तुझे वह ज्ञान
कहूंगा, फिर
से कहूंगा, जिससे
प्रलयकाल में
भी सिद्ध
पुरुष
व्याकुल नहीं
होते। यह
युद्ध तो
बिलकुल खेल है।
हे
अर्जुन, मेरी
महत
ब्रह्मरूप
प्रकृति
अर्थात त्रिगुणमयी
माया संपूर्ण
भूतों की योनि
है अर्थात
गर्भाधान का
स्थान है। और
मैं उस योनि
में
चैतन्यरूप
बीज को स्थापन
करता हूं। उस
जडु—चेतन के
संयोग से सब
भूतों की
उत्पत्ति
होती है।
त्रिगुणमयी
माया संपूर्ण
भूतों की योनि
है।
कृष्ण
कहते हैं कि
सारा जगत एक
गहन स्वप्न से
पैदा होता है।
जिस जगत को हम
देखते हैं, वह
वास्तविक कम,
स्वप्नमय
ज्यादा है। वह
पदार्थ से कम
बना है और
वासना से
ज्यादा बना है।
उसका निर्माण
इच्छाओं के
सघनभूत रूप से
हुआ है।
इसलिए
भारत ने एक
शब्द चुना है, जो
है माया। यह
माया शब्द
बहुत अदभुत है।
और ऐसा शब्द
दुनिया की
किसी भाषा में
खोजना आसान
नहीं है।
क्योंकि ऐसी
दृष्टि, ऐसे
तत्व के संबंध
में खोज किसी
और संस्कृति में
पैदा नहीं हुई।
पश्चिम में जो
शब्द है मैटर,
पदार्थ, वह
माया का ही एक
विकृत रूप है।
मूल धातु
संस्कृत की ' वही है मैटर
की भी, मात्र,
जो माया की
है।
लेकिन
पश्चिम का
विज्ञान कहता
है कि जगत
मैटर से, पदार्थ
से बना है।
लेकिन अब
पदार्थ की खोज
जैसे—जैसे
गहरी हुई, वैसे—वैसे
उनको पता चला,
पदार्थ तो
है ही नहीं, बिलकुल माया
है पदार्थ।
जैसे ही खोज
करके वे
इलेक्ट्रास
पर पहुंचे, वैसे उनको
पता चला कि
वहां तो
पदार्थ है ही
नहीं। सिर्फ
दिखता था, है
नहीं। मौलिक
जो आधारभूत
तत्व है
विद्युत, वह
तो अदृश्य है।
उसे अब तक
किसी ने देखा
नहीं। उसे कोई
कभी देख भी
नहीं सकेगा।
वह है भी या
नहीं, इसको
हम निश्चित
रूप से नहीं
कह सकते।
पदार्थ दिखाई
पड़ता है। और
पदार्थ नहीं
है, उसका आण्विक
रूप, अदृश्य,
वही है।
पश्चिम
में मैटर का
भी अर्थ अब
माया ही करना
चाहिए। अब कोई
फर्क नहीं रहा।
मूल धातु वही
है। लेकिन अब
तो मैटर शब्द
का अर्थ भी
माया ही हो गया
है। माया का
अर्थ है, जो
दिखाई पड़ती है
और है नहीं।
जो सब भांति
प्रतीत होती
है कि है, और
है नहीं। तो
ध्यान रहे, भारतीय
मनीषा की खोज
तीन हैं।
एक, सत्य—जो
है और दिखाई
नहीं पड़ता।
उसे हम ब्रह्म
कहें, ईश्वर
कहें, परमात्मा
कहें, जो
भी नाम देना
चाहें। परम
सत्य, जो
है और दिखाई
नहीं पड़ता।
दूसरा, परम
असत्य—जो नहीं
है। और नहीं
है इसलिए
दिखाई पड़ने का
कोई कारण ही
नहीं है।
और
दोनों के मध्य
में,
माया—जो
दिखाई पड़ती है
और नहीं है। , ये तीन तल
हैं। माया
मध्यवर्ती तल
है। माया
दिखाई पड़ती है
ऐसे, जैसे
ब्रह्म दिखाई
पड़ना चाहिए, जो है, वास्तविक।
और माया नहीं
है वैसे, जैसे
कि असत्य, जो
कि है ही नहीं।
माया
मध्यवर्ती तत्व
है। भास, एपियरेंस, सिर्फ प्रतीति।
आपकी
वासनाएं
प्रतीतिया
हैं। हैं नहीं; सिर्फ
भाव हैं; सिर्फ
स्वप्न हैं।
और जब तक आप
उनको सत्य
मानते हैं, तब तक बड़े
सत्य मालूम
होते हैं।
जैसे ही आप
जागते हैं, सब असत्य हो
जाते हैं।
जिब्रान
की एक छोटी—सी
कहानी है। एक
आदमी एक अजनबी
देश में आया।
वह उस देश की
भाषा नहीं
जानता है। एक
बड़े महल में
उसने लोगों को
आते—जाते देखा, तो
वह भी भीतर
प्रविष्ट हो
गया।
द्वारपालों
ने झुक—झुककर
नमस्कार किया,
तो उसने
समझा कि कोई
महाभोज है।
वह
एक बहुत बड़ी
होटल थी। लोग
खा रहे थे। आ
रहे थे, जा
रहे थे, पी
रहे थे।
टेबलें भरी
थीं। वह भी एक
खाली टेबल पर
जाकर बैठ गया।
एक बैरा आया, सामने उसने
भोजन रखा। वह
बहुत चकित हुआ।
उसने सोचा कि
कोई महाभोज है।
वह बहुत खुश
भी हुआ। उसने
सोचा कि यह
गांव बड़ा
अतिथियों का
प्रेमी है।
मैं अजनबी, अनजान आदमी,
भाषा नहीं
जानता, मेरा
इतना स्वागत
किया जा रहा
है!
फिर
बैरा ने उसको, जब
भोजन पूरा हो
गया, तो
उसका बिल लाकर
दिया। तो वह
सोचा कि गजब
के लोग हैं! न
केवल भोजन
देते हैं, बल्कि
लिखित
धन्यवाद भी
देते हैं। तब
अडूचन शुरू
हुई, क्योंकि
बैरा उससे
कहने लगा कि
वह पैसे चुकाए
और वह झुक—झुककर
धन्यवाद करने
लगा। वे दोनों
एक—दूसरे की
भाषा समझने
में असमर्थ
हैं।
आखिर
बैरा उसे
मैनेजर के पास
ले आया। उसने
कहा,
धन्य मेरे
भाग। न केवल
महल के नौकर—चाकर
सेवा करते हैं,
मालिक खुद!
वह झुक—झुककर
नमस्कार करता,
बहुत—बहुत
धन्यवाद देता।
और मैनेजर ने
कहा कि या तो
आदमी पागल है
और या हद
दर्जे का धूर्त
है। इसे अदालत
ले जाओ।
उसे
एक गाड़ी में
बैठाकर अदालत
ले जाने लगे।
उसने सोचा कि
ऐसा लगता है
कि ये सब इतने
प्रसन्न हो गए
हैं कि मुझे
नगर का जो
सम्राट है, उसके
पास ले जा रहे
हैं। और अदालत
बड़ा भवन था, और
मजिस्ट्रेट
सजा— धजा बैठा
हुआ था। बड़ी
शानदार रौनक
थी। तो वह
जाकर झुक—झुककर
नमस्कार किया।
उसने बहुत
धन्यवाद दिए।
मजिस्ट्रेट
ने कहा कि यह
आदमी कुछ समझ
में नहीं आता।
इसको कुछ भी
कहो,
सुनता भी
नहीं। वह अपनी
ही लगाए हुए
है। क्या कह
रहा है, इसका
भी कुछ पता
नहीं चलता।
लेकिन इस तरह
की घटना
दुबारा नहीं
घटनी चाहिए।
तो उस गांव का
रिवाज था, तो
उस आदमी को
दंड दिया गया
कि उसे गधे पर
उलटा बैठा
दिया जाए और
उसकी छाती पर
एक तख्ती लटका
दी जाए कि यह
आदमी धूर्त है।
इससे सावधान!
नगर में कोई
इसका भरोसा न
करे।
जब
वह गधे पर
बैठाया गया
उलटा और उसके
गले में तख्ती
टांगी गई, तब
तो उसकी
प्रसन्नता की
कोई सीमा न
रही। उसने कहा,
न केवल वे
प्रसन्न हैं,
बल्कि पूरे
गांव में
घुमाकर लोगों
को दिखाना चाहते
हैं कि देखो, कैसा अतिथि
हमारे गाव में
आया है। अभी
तक पता भी
नहीं था।
वह
बड़ा प्रसन्न
था। वह बिलकुल
अकड़कर बैठा
हुआ था। उसकी
अकडू, उसकी
प्रसन्नता
में जरा भी
असत्य नहीं है।
जो हो रहा है, उसका उसे
कुछ पता नहीं
है। लेकिन जो
वह सोच रहा है,
उसका उसे
पक्का भरोसा
है। वह बहुत
खुश है। और
उसकी खुशी का
कोई अंत नहीं
था।
लेकिन
एक ही पीड़ा थी
कि काश, उसके
गांव के लोग
भी उसकी यह
शान—शौकत—एक
भी आदमी देख
लेता, उसके
घर तक खबर
पहुंच जाती कि
किस तरह.।
जिसके गाव के
लोगों ने कभी
चिंता न की
जिसकी, आज
उसका कैसा
विराट भव्य
स्वागत—समारंभ
हो रहा है!
तभी
उसे भीड़ में..।
बच्चे दौड़ रहे
हैं,
लोग चल रहे
हैं; आस—पास
भीड़ इकट्ठी हो
गई है, लोग
मजा ले रहे
हैं। लोग खुश
हैं। वह भी
बड़ा खुश है और
बड़ा प्रसन्न
है। तभी उसे
एक आदमी दिखाई
पड़ा, जो
उसके गांव का
रहने वाला है,
जिसने बहुत
साल पहले गांव
को छोड़ दिया
था। उसे देखकर
उसकी छाती फूल
गई। उसने कहा,
देखो, मेरे
भाई.।
लेकिन
वह आदमी नीचे
सिर झुकाकर
भीड़ में सरक गया।
क्योंकि वह
भाषा समझता था।
वह अनेक दिन
से वहां था।
उसने देखा कि
यह कैसा अपमान
हो रहा है।
लेकिन गधे पर
बैठे हुए आदमी
ने सोचा, आश्चर्य;
ईर्ष्या की
भी सीमा होती
है! ईर्ष्यावश,
कि उसका
स्वागत नहीं
हुआ और मेरा
स्वागत हुआ।
तो यह सिर
झुकाकर भीड़
में नदारद हो
गया।
वह
आदमी आनंदित
ही घर लौटा।
उसने यह कहानी
अपने गांव में
सब लोगों को
कही। जहां तक
इसके भीतर के
सोचने का
संबंध है, सभी
कुछ सही जैसा
है। लेकिन जहां
तक सत्य से
संबंध है, कोई
भी संबंध नहीं
है।
आप
जिस जगत में
रह रहे हैं, कृष्ण
उसको माया
कहते हैं। और
वे कहते हैं, सारा जन्म
इस माया से
होता है। माया
को वे कहते
हैं कि
प्रकृति
अर्थात त्रिगुणमयी
माया संपूर्ण
भूतों की योनि
है, समस्त
भूतों का
गर्भस्थल है।
वहा से सब
पैदा होते हैं।
उसी स्वप्न
में, उसी
वासना में, उसी इच्छा
में, कुछ
होने, कुछ
पाने की दौड
में एक विराट
स्वप्न का
जन्म होता है।
मैं
उस योनि में
चेतनरूप बीज
को स्थापन
करता हूं। उस
जड—चेतन के
संयोग से सब
भूतों की
उत्पत्ति
होती है।
माया
तो जड़ है, वासना
का जगत तो जड़
है। वह पदार्थ
है। मेरा अंश
उसमें चेतन
रूप से
प्रविष्ट
होता है और
जीवन की
उत्पत्ति
होती है।
इसे
हम विस्तार से
धीरे— धीरे
समझेंगे।
इसमें
दो बातें खयाल
में ले लेनी
चाहिए। हमारा
शरीर दो
तत्वों का जोड़
है। एक माया, जिसको
हम पदार्थ
कहें। और एक
चेतन, जिसको
हम परमात्मा
कहें। मनुष्य
दो चीजों का
जोड़ है।
मनुष्य एक
संयोग है, पदार्थ
का और
परमात्मा का।
मृत्यु
में पदार्थ और
परमात्मा अलग
होते हैं। न
तो कोई मरता, न
कोई विनष्ट
होता।
क्योंकि
पदार्थ मरा ही
हुआ है, उसके
मरने का कोई
उपाय नहीं।
परमात्मा
अमृत है, उसके
मरने का कोई
उपाय नहीं।
सिर्फ संयोग
टूटता है।
कृष्ण
यह कह रहे हैं, वासना
के माध्यम से
पदार्थ और
चेतना में
संयोग जुड़ता
है—माया के
माध्यम से। और
ज्ञान के
माध्यम से
संयोग स्पष्ट
हो जाता है कि
संयोग है।
मृत्यु में
संयोग टूटता
है।
जन्म
में जुड़ता है, मृत्यु
में टूटता है।
अज्ञान में
लगता है कि
मैं शरीर हूं;
ज्ञान में
लगता है, मैं
पृथक हूं।
जैसे
ही यह बोध
किसी व्यक्ति
को हो जाता है
कि मैं पृथक
हूं और शरीर
पृथक है; चैतन्य
और जड़ अलग—अलग
हैं, माया
और ब्रह्म अलग—अलग
हैं, जैसे
ही यह बोध साफ
हो जाता है, इस सारे जगत
का खेल सिर्फ
आभास रह जाता
है। युद्धों
का होना, लोगों
का पैदा होना
या मरना, महामारियां,
जीवन या
मृत्यु, सब
एक बड़े नाटक
के हिस्से हो
जाते हैं।
क्योंकि
मृत्यु असंभव
है। केवल
संयोग टूटते
हैं, कुछ
मरता नहीं।
कुछ मर सकता
नहीं।
कृष्ण
अर्जुन को एक
ही बात का बोध
दिलाने की कोशिश
कर रहे हैं।
वह मृत्यु को
देखकर भयभीत
है। वह सोच
रहा है, मृत्यु
होगी। कृष्ण
कहते हैं, मृत्यु
एक असत्य है, वह माया का
एक आभास है।
जन्म भी एक
असत्य है; वह
भी सिर्फ माया
का आभास है।
लेकिन
जब तक हम माया
में होते हैं, तब
तक हमें सत्य
मालूम होता है।
ठीक जैसे रात
सपना देखते
हैं। सपने के
क्षण में तो
सपना बिलकुल
ही सच मालूम होता
है—।
यह
जगत एक
विराटतर सपना
है। कहें कि
यह ईश्वर के
चित्त में चल
रहा सपना है।
हमारे सपने
निजी होते हैं, यह
सपना विराट है।
जैसे हम अपने
सपने से सुबह
जागते हैं और
सपना फिजूल हो
जाता है, ऐसे
ही ज्ञानी
पुरुष इस सपने
से जाग जाता
है, इस
विराट सपने से,
और यह सपना
व्यर्थ हो
जाता है।
सुबह
जागकर आप रोते
नहीं हैं कि
रात मैंने एक
आदमी की हत्या
कर दी। न सुबह
जागकर आप गाव
में ढिढोरी
पीटते हैं कि रात
मैंने एक भूखे
आदमी को सपने
में रोटी खिला
दी। सुबह आप
जानते हैं कि
सपना सपना था।
न तो सपने की
हत्या सच थी, और
न सपने की
सेवा सच थी। न
तो पाप का भाव
पैदा होता है
सुबह, न
पुण्य का।
सपने को जानते
ही कि सपना है,
सब भाव खो
जाते हैं।
ज्ञानी
पुरुष इस
विराट सपने से
भी जाग जाता
है। एक और
जागरण है। उस
जागरण का नाम
ही ध्यान है, समाधि
है। उस जागरण
में ज्ञानी
पुरुष जानता
है कि वह जो उसने
देखा था—युद्ध
थे, शांतिया
थीं; प्रेम
था, घृणा
थी; मित्र
थे, शत्रु
थे—वे सब
स्वभवत खो गए।
कृष्ण
कहते हैं, वह
ज्ञान मैं
तुझे फिर से
कहूंगा, वह
परम ज्ञान, जिसे जानकर
व्यक्ति परम
सिद्धि को
उपलब्ध हो जाता
है।
आज
इतना ही।
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