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बुधवार, 8 अप्रैल 2015

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन--04)

मन माया है—(प्रवचन—चौथा) 

प्रश्न—सार:

1—ओशो,
इस देश में आपका सर्वाधिक विरोध आपके काम, सेक्‍स संबंधी विचारों के गिर्द खड़ा
हुआ है। पंडित—पुरोहित विरोध करें, यह बात समझ में आती है, लेकिन सच्‍चाई यह है कि आधुनिक मनोविज्ञान से सुपरिचित सुधीजन भी यह स्‍वीकारने में घबड़ाते भी यह स्‍वीकारने में घबडाते है कि काम और राम जुड़े है। क्‍या इस संदर्भ में हमें स्‍पष्‍ट दिशा—बोध देने की कृपा करेंगे।

2—ओशो,
गुरु और सदगुरू दो अलग शब्‍’ होने का क्‍य’ कारण है, जब कि गुरु ही सदगुरू है'?

 3—ओशो,
मैं बड़ा संदेहग्रस्‍त क्‍या इससे छूटकारे का कोई उपाय है?

4—ओशो,
संत कहते है कि संसार माया है, फिर भी इतने लोग क्‍यों संसार में ही उलझे रहते है?


पहला प्रश्न:
ओशो,
इस देश में आपका सर्वाधिक विरोध आपके काम, सेक्‍स संबंधी विचारों के गिर्द खड़ा हुआ है।  पंडित—पुरोहित विरोध करें, यह बात समझ में आती है, लेकिन सच्‍चाई यह है कि आधुनिक मनोविज्ञान से सुपरिचित सुधीजन भी यह स्‍वीकारने में घबड़ाते भी यह स्‍वीकारने में घबडाते है कि काम और राम जुड़े है।
क्‍या इस संदर्भ में हमें स्‍पष्‍ट दिशा—बोध देने की कृपा करेंगे।

नंद मैत्रेय, पहली बात : अतीत में पंडित—पुरोहित जो काम कर रहा था वही काम वर्तमान में तथाकथित मनोवैज्ञानिक कर रहा है। वह आधुनिक युग का पंडित—पुरोहित है। पंडित—पुरोहित धर्म की भाषा बोलते थे, मनोवैज्ञानिक विज्ञान की भाषा बोलता है। बस भाषा का भेद है। बोतल बदल गई है, शराब नहीं। और बोतल हजार बार बदल जाए, अगर शराब वही है तो कोई अंतर नहीं पड़ता।
धर्म के नाम पर पंडित—पुरोहितों ने सदियों तक मनुष्य का शोषण किया; अब मनोविज्ञान वही कर रहा है। मनोविज्ञान भाषा तो आधुनिक बोलता है, लेकिन उसके सोचने—समझने का ढंग, जीवन के संबंध में उसकी पकड़ बड़ी पुरानी है। दिखाई नया पड़ता है, लेकिन नया नहीं है। इसलिए मेरा विरोध पंडित—पुरोहित भी करेंगे और तथाकथित मनोवैज्ञानिक भी करेंगे। असल में मनोवैशानिक तो और भी ज्यादा विरोध करेंगे। क्योंकि पंडित—पुरोहित तो पिटी हुई हालत में हैं; वह तो मरणासन्न है। वह जो भी कह रहा है, सन्निपात है। मनोवैज्ञानिक की दुकान नई है। उसे खतरा ज्यादा है। जैसे मैं पंडित—पुरोहित के ग्राहक छीन रहा हूं वैसे ही मनोवैज्ञानिक के ग्राहक भी छीन रहा हूं। और स्वभावत:, नई दुकान जिसकी हो वह ज्यादा क्रुद्ध हो उठेगा। इसलिए मनोवैज्ञानिक भी क्रुद्ध हैं।
लेकिन वे मनोवैज्ञानिक भारतीय ही हैं, गैर— भारतीय मनोवैज्ञानिक मेरे विरोध में नहीं हैं। उसका भी कारण है। भारत हर चीज में पीछे घसिटता है। भारत में मनोविज्ञान का अर्थ अभी भी फ्रायड का मनोविज्ञान ही होता है। और पश्चिम में फ्रायड तो जा चुका, विदा हो चुका। उसके दिन लद गए; फ्रायड के ही दिन नहीं लद गए; एडलर, जुग, उनके भी दिन लद गए। पश्चिम में प्रभाव है अब असागोली का और नये मानवतावादी मनोवैज्ञानिको का— फोम, रोजर, फ्रिट्ज...। भारतीय मनोवैज्ञानिकों को तो इनसे अभी कोई संबंध ही नहीं है।
मैं विश्वविद्यालय में विद्यार्थी भी रहा हूं अध्यापक भी रहा हूं। मनोविज्ञान मेरा विषय था। मैं जानता हूं भारत के मनोवैज्ञानिकों को जिन्होंने किताबें लिखी हैं, विश्वविद्यालय में जिनकी किताबें पाठचक्रम में अंगीकृत हैं। उनसे मैं भलीभांति परिचित हूं। वे पचास साल पहले जैसा मनोविशान था वही बोल रहे हैं। और उसका भी कारण है. क्योंकि कभी तीस साल, चालीस साल, पचास साल पहले विश्वविद्यालय में उन्होंने जो शिक्षा पाई थी, उसी शिक्षा पर वे रुक गए हैं। विश्वविद्यालय छोड़ने के बाद इस देश में कोई कुछ पढ़ता थोड़े ही है। विश्वविद्यालय में रह कर भी कौन पढ़ता है; लोग कुंजियां पढ़ते हैं। फिर किसी तरह विश्वविद्यालय से निकल भागे, फिर तो कोई लौट कर किताब की तरफ नहीं देखता।
पश्चिम में मनोवैशानिक मेरे विरोध में नहीं हैं। मेरे संन्यासियों में जिस व्यवसाय से सर्वाधिक लोग आए हैं वह मनोविशान है। प्रतिष्ठित मनोवैज्ञानिक संन्यासी हुए हैं। लेकिन भारतीय मनोवैज्ञानिक तो फ्रायड की सड़ी—गली भाषा बोल रहा है। फ्रायड को समझोगे तो भारतीय मनोवैज्ञानिक का विरोध समझ में आ जाएगा। यह बात थोड़ी समझने जैसी है।
सदियों तक धर्मगुरुओं ने समझाया कि राम है, काम नही; आकाश है, पृथ्वी नहीं। पृथ्वी माया, आकाश सत्य। जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्य। शरीर झूठ है, आत्मा सत्य है। दृश्य, जो दिखाई पड़ता है, वह नहीं है; और अदृश्य, जो दिखाई नहीं पड़ता, वही है।
ऐसा उलटा पाठ चला— जीवन— अस्वीकार का, जीवन—निषेध का, जीवन—विरोध का। इसके दुष्परिणाम जो होने थे, हुए। क्योंकि कैसे झुठलाओगे जो है उसे! और झुठलाओगे तो एक ही उपाय है कि आंख बंद कर लो, शुतुरमुर्ग जैसी आंख बंद करके खड़े हो जाओ, न दिखाई पड़ेगा दुश्मन, समझ लेना मन में कि नहीं है।
तो पंडित—पुरोहितों ने काम, सेक्स के प्रति मनुष्य को अंधा बनाया। और जितना मनुष्य अंधा हुआ उतने ही काम के प्रभाव में हुआ। क्योंकि आंख वाला तो बच भी निकले, अंधा कैसे बचेगा? अंधे को तो सूझता ही नहीं है, बचे तो कैसे बचे! और फिर जिसको इनकार ही कर दिया उससे बचने का सवाल कहां है? जो माया है उससे बचने की जरूरत क्या है?
ऐसा माया कह कर तुमने जीवन के एक महत्वपूर्ण सत्य को ठुकराने की कोशिश की। उस सत्य ने बदला लिया। सारी मनुष्य—जाति काम—पीड़ित हो उठी। तुम्हारी कहानियां, तुम्हारी कविताएं, तुम्हारी फिल्में, तुम्हारे उपन्यास, तुम्हारे नाटक— और आधुनिक ही नहीं, प्राचीन से प्राचीन, फिर चाहे कालिदास हों चाहे भवभूति हों— इन सब की अभिव्यक्तियां कामवासना से भरी—पूरी हैं। कालिदास को भी वृक्षों में लटके हुए फलों को देख कर स्त्री के उरोजों का खयाल आता है और कुछ खयाल नहीं आता। तुम्हारे मंदिर, तुम्हारे पूजा—स्थल— जरा गौर से तो देखो— कामवासना की रुग्ण अभिव्यक्तियां हैं। तुम्हारे भगोड़े संन्यासी— कामवासना जैसे शीर्षासन कर रही हो!
यह होना था, क्योंकि किसी भी सत्य को कभी भी इनकारा नहीं जा सकता। सत्यों का रूपांतरण
हो सकता है, दमन नहीं। जो दबाएगा बहुत पछताएगा। क्योंकि जिसको तुम दबाओगे वह तुमसे बदला लेगा, बुरी तरह बदला लेगा। जो तुम दबाते हो वह तुम्हारे अचेतन में बैठ जाता है— बारूद की तरह, और कभी भी कोई चिंगारी पड़ जाएगी तो विस्फोट होगा।
सदियों—सदियों में पंडित—पुरोहितों की मूढ़ता के कारण ही मनुष्य—जाति कामवासना से मुक्त नहीं हो सकी है। कामवासना से मुक्त हुआ जा सकता हैं—कामवासना की छाती पर बैठ जाने से नहीं; कामवासना को समझने से; कामवासना पर ध्यान करने से; कामवासना को साक्षीभाव का अनुभव बनाने से, कामवासना को ऊर्ध्वगमन का मार्ग देने से। कामवासना ही एक दिन राम तक पहुंचाने का आधार बनती है।
तुम्हारे पास उर्जा ही एक है— जब नीचे की तरफ बहती है तो उसका नाम काम, जब ऊपर की तरफ बहती है तो उसका नाम राम। जब तुम्हारी काम—ऊर्जा से केवल बच्चों का ही जन्म होता है तो उसका नाम काम; और जब उससे तुम्हारा जन्म होने लगता है, तुम्हारी आत्मा का जन्म होने लगता है, तो उसी ऊर्जा का नाम राम।
पंडित—पुरोहितों ने इनकार किया—काम से, पृथ्वी से, पार्थिव से। इसके इतने दुष्परिणाम हुए कि फ्रायड ने दूसरी अति कर दी। इस सदी को जिन लोगों ने सर्वाधिक प्रभावित किया है, उनमें दो व्यक्ति हैं फ्रायड और मार्क्स और तीसरा व्यक्ति नीत्शे। इन तीनों ने ईश्वर को इनकार किया। इस सदी के तीन बड़े मनीषियों ने एक संबंध में सहमति प्रकट की कि तीनों ने ईश्वर को इनकार किया, राम को इनकार किया। फ्रायड ने इनकार किया राम को, क्योंकि राम के नाम पर मनुष्य की कामवासना का जो दमन किया गया उससे मनुष्य त्त्वा हुआ, विक्षिप्त हुआ। और फ्रायड तलाश कर रहा था कि मनुष्य स्वस्थ कैसे हो। तो उसने राम को इनकार कर दिया। पंडित—पुरोहितों ने काम को इनकार किया था राम को स्वीकार करने के लिए, फ्रायड ने काम को स्वीकार करने के लिए राम को इनकार कर दिया। बात वही रही, फिर दूसरी अति हो गई।
और यही किया मार्क्स ने। पंडित—पुरोहित ने लोगों को दीन और दरिद्र रखने के लिए कर्म के, भाग्य के न मालूम कैसे—कैसे सिद्धात गढ़े थे, जिनके आधार पर शोषण चलता रहा सदियों तक, कोई क्राति नहीं हो सकी। तो मार्क्स ने इसलिए इनकार कर दिया ईश्वर को, क्योंकि न होगा बांस न बजेगी बांसुरी। ईश्वर के आधार पर भाग्य—कर्म इत्यादि का यह जो जाल फैलाया था, जब केंद्र को ही तोड़ देंगे तो जाल टूट जाएगा— इस आशा में उसने ईश्वर को इनकार किया।
और नीत्शे ने ईश्वर को इनकार किया इस आशा में कि ईश्वर के कारण ही मनुष्य में एक तरह की दासता की वृत्ति पैदा हुई है, दास— भाव पैदा हुआ है—कि हम कुछ नहीं, तुम सब कुछ! और जिस मनुष्य में दास भाव पैदा हो जाए, वह कैसे आत्मा को उपलब्ध होगा?
इन तीनों मनीषियों ने अलग— अलग कारणों से ईश्वर को इनकार किया; मगर एक बात पर वे सहमत हैं कि ईश्वर असत्य, जगत सत्य। पुराना सूत्र था—जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्य। इन तीनों ने कहा ब्रह्म मिथ्या, जगत सत्य। लेकिन मेरे देखे, दोनों ही बातें अधूरी हैं। एक ने आकाश को स्वीकार किया था, पृथ्वी को इनकार कर दिया था; दूसरे ने आकाश को इनकार कर दिया, पृथ्वी को स्वीकार कर लिया। मगर आदमी आधा था सो आधा रहा।
आदमी बनता है आकाश और पृथ्वी के मिलन से, पार्थिव—अपार्थिव के मिलन से, आलिंगन से अदृश्य और दृश्य के। मनुष्य के आधे अंग को अस्वीकार करना हर हालत में उसे रुग्ण रखना है।
तो पुराना एक तरह का रोग था, वह तो बदला। फ्रायड ने हिम्मत करके उस पुराने रोग को तो बदला, लेकिन एक नया रोग पैदा हुआ। राम को अस्वीकार कर देने से मनुष्य के जीवन में अर्थहीनता छा गई, एक रिक्तता हो गई, मंदिर खाली हो गया।
ऐसा समझो कि पंडित—पुरोहित फूलों को स्वीकार करते थे, जड़ों को इनकार करते थे। जड़ों के बिना फूल नहीं हो सकते। और फ्रायड ने, मार्क्स ने, नीत्शे ने फूलों को इनकार कर दिया— पंडित—पुरोहितों के विरोध में, प्रतिक्रिया में— और जड़ों को स्वीकार कर लिया। लेकिन जड़ें अकेली, उनकी क्या सार्थकता है जब तक वे फूल न बनें? जड़ें तभी सार्थक हैं जब आकाश में फूल खिले और फूल तभी खिल सकते हैं जब पृथ्वी में जड़ें प्रवेश करें।
मैं जड़ों को भी स्वीकार करता हूं और आकाश के फूलों को भी। इसलिए मुझे दो तरफ से विरोध सहना पड़ेगा— पंडित—पुरोहित मेरा विरोध करेंगे, क्योंकि मैं जड़ों को स्वीकार करता हूं; और तथाकथित मनोवैज्ञानिक मेरा विरोध करेंगे। क्यों? क्योंकि मैं फूलों को स्वीकार करता हूं। इसलिए इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है।
लेकिन ये मनोवैज्ञानिक जो मेरा विरोध कर रहे हैं, वे भारतीय हैं। उनको मनोविज्ञान में जो नई— नई विधाएं, नई—नई उमंगें, नई—नई लहरें उठी हैं, उनका कुछ भी पता नहीं है। पश्चिम से तो मनोवैज्ञानिक मेरी तरफ खिंचा हुआ आ रहा है। सैकड़ों मनोवैज्ञानिक संन्यासी हुए हैं— प्रतिष्ठित, ख्यातिनाम। लेकिन भारतीय मनोवैज्ञानिक आखिर भारतीय मनोवैज्ञानिक है! उसका मनोवैज्ञानिक होना कुछ बहुत मूल्य का है भी नहीं। सब सड़ी—गली धारणाएं उसके भीतर भरी रहती हैं; ऊपर से वह मनोविज्ञान का पलस्तर कर लेता है।
ढ़ब्‍बू जी का नया छाता देख चंदूलाल बोले. मित्र, यह नया छाता कहां से पा गए? अभी तो अपना सीजन भी शुरू नहीं हुआ। अभी तो मंदिरों में भीड़— भाड़ भी नहीं रहती। ढ़ब्‍बू जी बोले. अरे चंद्र यह छाता नया नहीं। अरे यह तो बीस साल पुराना है। चंदूलाल ने आश्चर्य से पूछा. बीस साल! अरे, लेकिन यह तो बिलकुल नया लगता है। ढ़ब्‍बू जी बोले अरे बीसों बार तो इसे रिपेयर करवा चुका हूं और न जाने कितनी बार धोखे में मित्रों के छातों से बदल चुका हूं; मगर है यह बीस साल ही पुराना।
ऐसा ही भारतीय मन है। कितना ही रिपेयर करो, कितना ही अदलो—बदलो, ठोको—पीटो, मगर वह रहता है पुराना का पुराना, वह नया नहीं हो पाता। पुराना रहना हमारी आदत हो गई है, हमारा स्वभाव हो गया है। जरा—जीर्ण रहने से हमें प्रीति हो गई है। जितनी पुरानी बात हो, हम उसका उतना ज्यादा सम्मान करते हैं।
इसलिए हरेक धर्मगुरु इस देश में सिद्ध करने की कोशिश करता है—हमारा धर्म सबसे ज्यादा पुराना। हिंदू कहते हैं, वेद सबसे ज्यादा पुराने। पांच हजार साल पुराने तो निश्चित ही, क्योंकि इसको पश्चिम के इतिहासज्ञ भी मानते हैं कि पांच हजार साल पुराने हैं। लेकिन हिंदुओं का मन पांच हजार साल से नहीं भरता।
लोकमान्य तिलक ने सिद्ध करने की कोशिश की है कि नब्बे हजार साल पुराने कम से कम, ज्यादा की तो बात ही मत करो!
क्या जरूरत है इतना पीछे खींचने की? यहां प्रतिष्ठा है पुराने की, साख है पुराने की। और जैनों से पूछो तो वे कहते हैं कि वेद बहुत पुराने हैं, मगर जैन धर्म उससे भी ज्यादा पुराना है। क्योंकि ऋग्वेद में जैनों के पहले तीर्थंकर आदिनाथ के नाम का उल्लेख है, तो निश्चित ही आदिनाथ ऋग्वेद से पुराने हैं। और बड़े सम्मान से उल्लेख है। जीवित सदगुरुओं का इतने सम्मान से उल्लेख होता ही नहीं। इसलिए जैनों के कहने में बल है कि आदिनाथ को मरे कम से कम पांच सौ या हजार साल तो बीत ही चुके होंगे, जब उनका उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। क्योंकि इतने सम्मान से कोई समसामयिक लोगों का उल्लेख करता ही नहीं। समसामयिक को तो हम गाली देते हैं। हमारे कुछ अजीब रिवाज हैं! जिंदा को हम गाली देते हैं और मरते से ही उसकी प्रशंसा करने लगते हैं।
एक व्यक्ति में और रूसो में बड़ा विरोध था। दोनों जीवन भर दुश्मन रहे और एक—दूसरे को गाली देने के, आलोचना करने के सिवाय उन्होंने कभी कोई दूसरा काम नहीं किया। जानी दुश्मन। एक दिन सुबह—सुबह रूसी को एक आदमी ने आकर खबर दी कि तुम्हारा जो जानी दुश्मन था वह मर गया रात। तो रूसो ने कहा कि यदि यह खबर सच है तो मैं कह सकता हूं कि वह आदमी बहुत महान था— अगर यह खबर सच है, प्रोवाइडेड दैट ही इज रियली डेड, तो मैं कह सकता हूं कि वह आदमी महान था! और अगर अभी जिंदा हो तो मैं अपने शब्द वापस लेता हूं। जिंदा हो तो दुश्मनी चलेगी।
एक गांव में एक नेताजी मरे। सारा गांव उनसे परेशान था। कितनी बार मन ही मन में लोग प्रार्थना नहीं कर चुके थे कि नेताजी मर जाएं, छुटकारा मिले! गांव की जिंदगी को बुरी तरह बरबाद कर दिया था। गांव को चूस ही लिया था।

      एक नागरिक से
हमने प्रश्न किया,
आप नेताजी की तरह
सिर के बाल
कब मुंडा रहे हैं?
वह तुनक कर बोला,
भाई साहब,
आप हमारी हंसी
क्यों उड़ा रहे हैं?
वैसे ही
मंहगाई की जूतियों के
निरंतर प्रहार के बीच
बड़ी मुश्किल से
खोपड़ी पर
दों—चार बाल
उग पाते हैं......
जिन्‍हें
राजनीतिक गुर्गे
और उनके
पाले हुए मुर्गे
चुग जाते हैं।
उस पर भी
उनकी नजर बचा कर
अगर हम
अपनी खोपड़ी पर
कुछ बाल
बचा लेते हैं
तो वे
चुनाव खर्च का
उलटा उस्तरा चला कर
उन्हें भी
ठिकाने लगा देते हैं।
इसी कारण
इस खल्वाट खोपड़ी पर
एक भी बाल
नजर नहीं आता है!
हमारा तो
बिना मुंडन करवाए ही
मुंडन हो जाता है!

ऐसी उस गांव की दशा थी। नेताजी मरे तो गांव में खुशी की लहर दौड़ गई। ऐसे ऊपर से तो सब लोग उदास। मरघट पर पहुंचे। सारा गांव इकट्ठा हुआ। उस गांव का रिवाज था, करीब—करीब सभी जातियों में ऐसा रिवाज है—जब कोई मर जाए तो उसके संबंध में दो शब्द उसकी प्रशसा में, स्तुति में कहे जाएं। लेकिन नेताजी में ऐसा कोई गुण ही नहीं था। गांव के लोगों ने बहुत सिर पटका कि कौन से दो शब्द उनकी स्तुति में कहे जाएं। लोग एक—दूसरे की तरफ देखें। बड़े—बड़े बक्काडू थे गांव में, वे भी एक—दूसरे की तरफ देखें कि अब स्तुति में क्या कहें, कुछ हो तो कहें! कुछ था ही नहीं इस आदमी में स्तुति के योग्य तो।
आखिर मुल्ला नसरुद्दीन से उन्होंने प्रार्थना की कि आप ही मुल्ला कुछ बोलें। आप ही सूझ—बूझ के आदमी हैं इस गांव में, कुछ निकालें रास्ता। क्योंकि जब तक कोई व्याख्यान न दे स्तुति में, तब तक चिता में आग नहीं लगाई जाएगी। आखिर मुल्ला खड़ा हुआ और उसने कहा कि भाई, नेताजी के मर जाने से हमें बड़ा दुख है। वे जैसे थे वैसे थे, मगर मैं तुम्हें याद दिलाऊं कि वे अपने पीछे अपने पांच भाई छोड़ गए हैं, उनके मुकाबले वे देवता थे।
इस तरह नेताजी की प्रशंसा करनी पड़ी!
भारतीय मनोवैज्ञानिक मनोवैज्ञानिक नहीं है। हां, मनोविज्ञान का अध्यापक होगा, मनोविज्ञान का लेखक होगा, लेकिन मनोवैज्ञानिक नहीं है। अभी उन प्रक्रियाओं से नहीं गुजरा है भारतीय मन, जहां मनोविज्ञान का जन्म हो सके। भारतीय मन अत्यंत जरा—जीर्ण रूढ़ियों से ग्रस्त है। इसलिए मेरी बातों का तथाकथित भारतीय मनोवैज्ञानिक तो विरोध करेंगे। इस कारण भी विरोध करेंगे कि उन मनोवैज्ञानिकों के पास पश्चिम से कोई एक मनोवैज्ञानिक नहीं आ रहा है। वे ही दौड़े पश्चिम जाते हैं और पश्चिम के जाकर चरण दबाते हैं। वहां से कुछ भी, जो मिल जाते हैं रूखे—सूखे रोटी के टुकड़े टेबल से गिर गए, उनको बीन लाते हैं, उन्हीं पर जीते हैं। मेरे पास कतार बंधी है पश्चिम से मनोवैज्ञानिकों की, उससे उनके मन में ईर्ष्या भी पैदा हो रही है, बेचैनी भी हो रही है, हैरानी भी हो रही है। उनको भरोसा ही नहीं आता।
कम से कम दो सौ पीएचडी. मनोविज्ञान के मेरे संन्यासी हैं पश्चिम में। उनमें से कुछ तो यहां अभी मौजूद हैं। उनमें से कुछ तो आश्रमवासी हो गए हैं। उन्होंने किताबें लिखी हैं। उनका नाम है वहां, उनकी चर्चा है वहां। और यहां उनमें से कोई बगीचे में काम कर रहा है, गड्डा खोद रहा है, या कोई टॉयलेट साफ कर रहा है, या कोई बुहारी लगा रहा है। भारतीय मनोवैज्ञानिक को तो भरोसा ही नहीं आता कि यह क्या हो रहा है, क्यों इतने मनोवैज्ञानिक यहां आ रहे हैं और क्यों इस तरह से समर्पित हुए जा रहे हैं? उसे ईर्ष्या पकड़ रही है। उसे कठिनाई हो रही है।
अभी चार—छह दिन पहले ही एक प्रसिद्ध भारतीय लेखक श्री मुल्कराज आनंद आश्रम आए। सुंदर किताबें उन्होंने लिखी हैं। लक्ष्मी से उन्होंने कहा कि भगवान पहले व्यक्ति हैं जिनको मैं सुनने आया हूं, मैं कभी किसी को सुनने नहीं जाता। और सुनने इसीलिए आया हूं कि उनके विचार ठीक वही हैं जो मेरे विचार हैं। वे जैसे मेरी ही बातें कह रहे हैं।
लक्ष्मी ने उनसे कहा. उनकी बातों की तरंगें दुनिया के कोने—कोने तक पहुंची हैं। लाखों लोग आदोलित हुए हैं। अगर आप भी यही बातें कह रहे हैं और आप तो उम्र में उनसे बड़े हैं, आपके पास कितने लोग आए?
तब वे सिर झुका कर बैठ गए, क्योंकि एक आदमी कभी आया नहीं। स्वभावत: बेचैनी होगी। और यह आने का ढंग उलटा ही हो गया! वे मुझसे प्रभावित नहीं हैं, वे अपने से प्रभावित हैं। उनको लग रहा है कि मैं वही कह रहा हूं जो वे कह रहे हैं, इसलिए यहां आना हुआ है।
मैं वही नहीं कह रहा हूं। शायद उन्होंने पढ़ा भी नहीं होगा, सोचा भी नहीं है, समझा भी नहीं है। शायद उड़ती बातें उनके कानों में पड़ गई होंगी।
एक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक भारत के— श्री लालजी राम शुक्ल। मैं तो विद्यार्थी था। आज से कोई
तीस साल पहले की बात। वे काशी विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान विभाग के अध्यक्ष थे। मैं काशी विश्वविद्यालय में एक वाद—विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने गया था। लालजी राम शुक्ल के घर में एक युवक रहते थे, जिनसे मेरा परिचय था। उन्होंने लालजी राम को मेरे संबंध में कहा। तो उन्होंने कहा कि मुझे मिल कर खुशी होगी। तो दूसरे दिन सुबह, सर्द सुबह थी, छत पर धूप में वे बैठे थे। उनके दस— पच्चीस शिष्य वहां बैठे थे, सब इकट्ठे हो गए थे, क्योंकि मेरे और उनके बीच कुछ वार्ता होगी, क्या वार्ता होगी! और मैं तो अभी नया—नया विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था, वे बुजुर्ग प्रोफेसर थे, ख्यातिनाम थे बहुत किताबों के लेखक थे। शायद भारत में जितनी ख्याति उनकी थी मनोविशान की दृष्टि से, किसी और की नहीं। कुछ अध्यापक भी इकट्ठे हो गए थे। जिन्होंने मुझे सुना था वाद—विवाद में, उन्हें लगा था कि कुछ बात काम की हो सकती है।
ईश्वर की बात शुरू हुई। लाल जी राम शुक्ल ने कहा कि मुझे ईश्वर में भरोसा है। मैंने कहा भरोसा है या अनुभव? बस बात बिगड़ गई। बन ही नहीं पाई और बिगड़ गई। मैंने कहा. छाती पर हाथ रख कर, कसम खाकर ईश्वर की कहो कि भरोसा है या अनुभव? अगर भरोसा ही है और अनुभव नहीं है तो भरोसा गलत हो सकता है। भरोसा उधार है। भरोसे का क्या भरोसा न' अनुभव का ही भरोसा हो सकता है।
वे तो यहां—वहां देखने लगे। छाती पर हाथ रख कर ईश्वर की कसम खाकर कहने की हिम्मत भी उनकी नहीं थी। उन्होंने कहा कि नहीं, मुझे तो विश्वास है, अनुभव नहीं है। मैंने कहा अनुभव नहीं है तो विश्वास वैसा ही है जैसे अंधा आदमी विश्वास करे कि प्रकाश है। आपकी बात का मूल्य क्या? मैं कहता हूं मुझे अनुभव है। आप तखत से नीचे उतर आएं, अब मैं तखत पर बैठता हूं। इतना शिष्टाचार तो बरतें! बस वे तो एकदम आगबबूला हो गए। एकदम खड़े हो गए कि यह बात ही मुझे नहीं करनी। मैं इस चर्चा को एक शब्द और आगे नहीं बढ़ाना चाहता।
मैंने कहा ईश्वर की चर्चा, इसमें इतना आगबबूला होने की क्या बात है! इतने परेशान क्यों हुए जाते हैं? चलो बैठो, आप ही बैठो तखत पर, मैं नीचे ही बैठा रहूंगा, क्योंकि मैं जहां बैठा हूं वहीं तखत है। मगर एक बात साफ है कि मैं अनुभव से कह रहा हूं आप बस भरोसे से कह रहे हैं। इसलिए भरोसे की बात तो केवल संभावना मात्र हो सकती है— हो भी, न भी हो, शायद! मैं कहता हूं है! और मैं यह भी कह देना चाहता हूं कि ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है। अस्तित्व भगवत्ता से भरा हुआ है, भगवान कहीं भी नहीं है।
अध्यापक और विद्यार्थी जो इकट्ठे हुए थे, वे मुझ में उत्सुक हो गए। वे मेरी बातें सुनने लगे। जितनी वे गौर से मेरी बातें सुनने लगे, उतने लालजी राम उबलने लगे। उनकी सीमा के पार हो गई बात। आखिर उन्होंने एकदम खड़े होकर मुझे कहा कि इसी वक्त मेरे घर से निकल जाओ!
मैंने कहा आपने बुलाया था तो मैं आ गया; आप जाने को कहते हैं तो चला जाता हूं क्योंकि आपका घर है। आपने बुलाया तब मैंने कुछ भला नहीं माना, अब जब आप जाने को कहते हैं तो कुछ बुरा नहीं मानता। नमस्कार!
मैं उतरा उनकी सीढ़ियां। उनके विद्यार्थी और अध्यापक जो इकट्ठे हो गए थे, उन सबको इससे बड़ी पीड़ा हुई कि उन्होंने मेरे साथ दुर्व्यवहार किया है। एक तो मुझे निमंत्रित किया, फिर बातचीत में भी शालीनता न रखी और बातचीत में भी तर्कों का ठीक से जवाब न दे सके। और बजाय इसके कि स्वीकार करते, क्रोधित हो उठे, उद्धिग्न हो उठे—जों कि पराजय का लक्षण है। फिर मुझे घर से निकलने के लिए कह देना! बाकी सब पश्चात्ताप के कारण मेरे साथ नीचे उतरे। लालजी राम अकेले रह गए छत पर। इससे उनको बड़ा क्रोध आया। जब सब मुझे नीचे विदा दे रहे थे, तब उन्होंने ऊपर से छत पर से चिल्ला कर कहा कि उनके साथ ठीक तुम चले गए हो नीचे, वे तो कल चले जाएंगे, मैं यहां रहूंगा। और मेरे विद्यार्थी होकर मुझे दगा दिया, मुझे धोखा दिया, मेरे साथ तुमने गद्दारी की!
वे जिंदगी भर फिर मेरे दुश्मन रहे। दुबारा तो कोई मौका फिर आया ही नहीं, आ ही नहीं सकता था— असंभव हो गया आना। मगर दुश्मनी बन गई सो बन गई। और दुश्मनी बनी सीधी—सादी बात पर, जिस पर बनने का कोई सवाल न था।
भारतीय मनोवैशानिक की तो स्थिति तुम मत पूछो। और ऐसा एक के साथ नहीं हुआ, बहुतों के साथ हुआ है। उनकी नाराजगी के कारण हैं। उनकी आदतें बुद्धों से बातें करने की नहीं है। और बुद्धों के वचन समझने की उनकी सामर्थ्य भी नहीं है। फिर उनका भारतीय कूड़ा—करकट भी भीतर भरा है, वह भी छूटता नहीं है। फ्रायड की भी बात करते हैं और रामायण की चौपाइयां भी दोहराते हैं। कुछ खिचड़ी पकाते हैं। कहां फ्रायड और कहां तुलसीदास! इनका कहां तालमेल? लेकिन तुलसीदास की चौपाइयां तो रग—रग में भरी हैं और फ्रायड की शिक्षा ऊपर—ऊपर से पोत ली है। इन दोनों में जो घोलमेल पैदा हुआ है, उससे एक बड़ी विचित्र दशा भारतीय मनोवैशानिक की है। उसकी परंपरा, उसके वेद, उसके उपनिषद, उसकी गीता, उसकी रामायण, वे सब मौजूद हैं और साथ ही फ्रायड भी जुड़ गए, जिनमें की बुनियादी विरोध है। उस बुनियादी विरोध को भी वह नहीं देखता। उसको वह झुठलाता है; उसको आंख से ओझल करता है। मैं किसी चीज को आंख से ओझल नहीं करना चाहता और किसी चीज को झुठलाना नहीं चाहता। तथ्य जैसे हैं वैसे ही कह देना चाहता हूं।
सत्य को सुनने की हमारी आदत ही छूट गई है। सदियां हो गईं, हमने सत्य सुनने की आदत छोड़ दी है। हमें सुहावने झूठ चाहिए, सांत्वना देने वाले झूठ चाहिए। हमारी छाती में इतने घाव हैं कि हम मलहम—पट्टी की तलाश में रहते हैं; क्रांति का हमें आकांक्षा नहीं है। हम मुर्दा हैं और हम किसी तरह जिंदगी ढो लें तो बस बहुत कर पाए, बहुत पा लिया!
इसलिए आनंद मैत्रेय, जिनको तुम आधुनिक मनोविशान के सुपरिचित सुधीजन कह रहे हो, न तो वे सुपरिचित हैं आधुनिक मनोविशान से और न सुधीजन हैं। अभी सुधि नहीं आई, अपनी ही सुध नहीं है, क्या खाक सुधीजन होंगे!
आधुनिक मनोविशान फ्रायड से बहुत आगे जा चुका। आधुनिक मनोविशान धर्म के बहुत करीब आने लगा है। आधुनिक मनोविज्ञान पुन: सोचने लगा है कि मन पर ही आदमी समाप्त नहीं होता, इसके पार भी कुछ है, आत्मा भी कुछ है और कौन जाने परमात्मा भी कुछ हो! इसकी पहली झलकें मनोविशान को मिलने लगी हैं। और आधुनिक मनोविशान नई—नई दिशाओं में विकास कर रहा है।
जो इस आश्रम में हो रहा है वह भारत के किसी आश्रम में नहीं हो रहा है। यहां कोई साठ मनोवैशानिक थेरेपी ग्रुप चल रहे हैं। इस देश के ही आश्रम की बात छोड़ दो, दुनिया के किसी भी केंद्र पर, मनोविज्ञान के भी किसी केंद्र पर, साठ चिकित्सा के यूप नहीं चल रहे हैं। धीरे— धीरे, शनैः—शनै:, बिना शोरगुल मचाए यह आश्रम दुनिया का सबसे बड़ा मनोवैज्ञानिक केंद्र हो गया है। इससे ईर्ष्या होती है, इससे बेचैनी होती है, इससे तकलीफ होती है।
ऐसा नहीं है कि पश्चिम में कुछ मनोवैज्ञानिक मेरा विरोध नहीं कर रहे हैं। कुछ मत्राईशा।त्रक मेरा विरोध पश्चिम में भी कर रहे हैं— दस प्रतिशत। वह कोई बड़ा प्रतिशत नहीं है। विरोध करने वाले वे लोग हैं जिनको डर पैदा हो रहा है कि मैं उनके ग्राहक लिए ले रहा हूं। जिन बीमारों को वे वर्षों में ठीक नहीं कर पाए हैं, वे यहां आकर ध्यान से महीनों में ठीक हो गए हैं।
हालैंड के एक बहुत प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक और लेखक देव अमृतो, स्वयं भी मनोवैज्ञानिक, स्वयं भी पीएचडी. हैं मनोविज्ञान के, और फिर बड़े से बड़े मनोवैज्ञानिकों से उन्होंने चिकित्सा ली और जीवन का कोई समाधान न मिला। और यहां आकर ध्यान में डूबे कि सारी समस्याएं ऐसे बह गई जैसे बाढ़ में नदी के तट का कूड़ा—करकट बह जाता है। लौट कर उन्होंने किताब लिखी। हालैंड के घर—घर में वह किताब पहुंच गई है। तीन सप्ताह में साठ हजार प्रतियां किताब की बिकी। सारे रिकॉर्ड टूट गए! स्वभावत: बेचैनी पैदा हुई, क्योंकि बहुत से मरीज बहुत से मनोवैज्ञानिकों को छोड़ कर पूना की तरफ यात्रा शरू कर दिए। जिन—जिन मनोवैज्ञानिकों को उनके मरीजों ने छोड़ दिया है, उनके धंधे को मुझसे— बिना मेरे चाहे— नुकसान पहुंचा, चोट पहुंची।
तो मनोवैज्ञानिको के एक गिरोह ने एक स्त्री को यहां भेजा, मनोवैज्ञानिक वह भी, मेरे खिलाफ किताब लिखने को, ताकि अमृतो की किताब के विपरीत कोई किताब होनी चाहिए जो लोगों के प्रवाह को भारत जाने से रोके। क्योंकि हालैंड के घर—घर में नाम पहुंच गया है। आज यहां हालैंड से जितने लोग हैं, उतने किसी देश से नहीं हैं। और कारण है अमृतो और उसका आनद। उसको लोगों न पहले भी देखा है और अब भी देखा है।
वह महिला यहां आई। कब आई कब गई, न उसने किसी को खबर दी, न किसी थेरेपी ग्रुप में सम्मिलित हुई, न कोई ध्यान किया। ऐसे ही चक्कर मार कर आश्रम देखा होगा। फिर वहां लौट कर मुझे पत्र लिखा कि यद्यपि मैं आई थी, आपको मिल भी नहीं सकी, आश्रम का ज्यादा हाल भी नहीं देख सकी क्योंकि मैं तो ज्यू डायमंड में बैठी आश्रम के संबंध में किताब लिखने में संलग्न रही, मुझे समय नहीं मिला।
इस तरह कोई किताब लिखी जाएगी आश्रम के संबंध में! आश्रम आने का समय नहीं मिला और आश्रम के संबंध में किताब चू डायमंड के कमरे में बैठ कर वह लिखती रही! अब उसकी किताब इस महीने छप रही है, जो उसने मेरे विरोध में लिखी है। यह विरोध किस बल का होगा? इस विरोध की क्या कीमत होगी? उसको भेजा गया। भेजना तो सिर्फ बहाना है। वह पक्षपात लेकर ही आई। जब किताब प्ल डायमंड में बैठ कर ही लिखी जा सकती थी तो हालैंड में ही लिखी जा सकती थी, यहां आने की जरूरत क्या थी? वह सिर्फ दिखावा है, ताकि कहने को हो कि वह देख कर आई है। लेकिन ऐसे देखना नहीं हो सकता। विपस्सना नहीं किया, झाझेन नहीं किया, सूफी नृत्य नहीं किया, नाची नहीं, गाई नहीं। यहां गैरिक जो मदिरालय है इसमें एक घूंट भी न पीआ। मेरे खिलाफ किताब लिखने का क्या प्रयोजन होगा? उस किताब में कितना बल होगा? नपुंसक होगी वह किताब।
अमृतो अभी—अभी वापस लौटा हालैंड, तो अमृतों से लोगों ने पूछा कि तुम इस किताब के संबंध में क्या कहते हो जो खिलाफ में लिखी गई है? अमृतो ने कहा कि बहुत किताबें पक्ष में लिखी जाएंगी और बहुत खिलाफत में लिखी जाएंगी। यह एक ऐसा आदमी है जो सारी दुनिया को दो हिस्सों में विभाजित करके रहेगा—पक्ष या विपक्ष।
अमृतो ने ठीक कहा। अमृतो ने यह भी कहा कि आगे और— और उपद्रव आने वाले हैं।
तटस्थ तो हम किसी को छोड़ ही नहीं सकते— या तो मेरे पक्ष में या मेरे विपक्ष में, इसमें से निर्णय करना होगा। दोनों हालत में तुम मुझसे जुडोगे। और जब जुड़ना ही हो तो पक्ष में जुड़ना, क्या विपक्ष में जुड्ने से पाओगे?
भारतीय मनोवैज्ञानिक तो अभी भी बैलगाड़ी की दुनिया में जी रहा है। या अगर बैलगाड़ी से बहुत ऊपर भी उठा तो समझ लो कि भारतीय बस!
मुल्ला नसरुद्दीन पहली बार हवाई जहाज से यात्रा कर रहा था। जहाज अभी रवाना नहीं हुआ था। मुल्ला बार—बार एअर होस्टेस को बुला—बुला कर पूछ रहा था, सब कल—पुर्जे ठीक हैं न? पेट्रोल पूरा डाल लिया है न? इंजन ठीक काम कर रहा है न? एअर होस्टेस परेशान हो गई, बार—बार.. .उसने कहा आप इतने परेशान क्यों हो रहे हैं? सब ठीक—ठाक है। आपको कल—पुर्जों और पेट्रोल और इंजन, इन सबकी चिंता करने की जरूरत नहीं। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि मैं इसलिए कह रहा हूं कि अभी पहले ही सारी देख— भाल कर लेना उचित है, वरना ऊपर जाकर तुम मुझसे धक्का लगाने को मत कहना। क्योंकि कई बार बसों में मैं बैठ कर देख चुका हूं कि बीच में खड़ी कर देते हैं, फिर कहते हैं धक्का लगाओ।
भारतीय मनोवैज्ञानिक को मैं कोई बहुत मूल्य नहीं देता। अभी तक मैंने भारतीय मनोवैज्ञानिक जैसा व्यक्ति देखा भी नहीं। हां, अध्यापक हैं मनोविज्ञान के, मगर अध्यापक और मनोवैज्ञानिक में भेद है। दर्शनशास्त्र का अध्यापक होना और दार्शनिक होना बड़ी और बातें हैं। धर्मशास्त्र का अध्यापक होना और धार्मिक होना बड़ी और बातें हैं। काव्यशास्त्र का अध्यापक होना और कवि होना बड़ी और बातें हैं।
और जो कुछ थोड़े—बहुत लोग बंबई और दिल्ली जैसी जगहों में मनोचिकित्सा का काम करते हैं, उनके पास भी बड़ी पिटी—पिटाई तीस—चालीस साल पुरानी धारणाएं हैं, जिनका पश्चिम में कोई मूल्य नहीं रह गया है। पश्चिम उनसे कभी का छुटकारा पा चुका। वहां उनकी अब कोई स्थिति नहीं है। लेकिन हमारा दुर्भाग्य ऐसा है कि हम हर चीज में पीछे घसिटते हैं। जो चीज पश्चिम में बेकार हो जाती है, जब तक वह वहां बेकार होती है, तब तक हमें उसकी खबर मिलती है। हमारे और उनके बीच कम से कम तीस साल का फासला है—हर काम में। जो वहां कचरे में फेंक दी जाती है, उसकी हम पूजा करते हैं। उनकी गति तीव्रता से आगे बढ़ती जाती है। और हम जहां रुक गए वहीं रुक गए!
मुझे कालेजों से निकाल दिया गया, जब मैं विद्यार्थी था, विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया। कारण? क्योंकि मेरे अध्यापक कहते कि मैं झंझटें खड़ी करता हूं। और झंझटें क्या थीं? झंझटें नहीं थीं; अगर अध्यापक होते तो सम्मान देते जो मैं कह रहा था। मैं सिर्फ यही कह रहा था कि आप जो कह रहे हैं वह तीस—चालीस साल पहले ठीक समझा जाता था। उसको जमाने गुजर गए। आपको कुछ नई किताबें देखनी चाहिए। मैं नई किताबें लेकर उपस्थित होता था कि ये नई किताबें हैं, ये नये उल्लेख हैं। मगर कोई यह मानने को तो राजी होता नहीं कि वह अशानी है, कि उसे पता नहीं है। और अध्यापक तो मान कर चलता है कि उसे सब पता है।
एक कालेज से मुझे निकाल दिया गया, क्योंकि कालेज के जो प्रोफेसर थे, वे थम और लाक और बर्कले— इंग्लैंड के तीन पुराने विचारक— उन पर उन्होंने थीसिस लिखी थी कोई चालीस साल पहले जब वे विश्वद्यिालय में पढ़ते रहे होंगे, वे वही पढ़ाए चले जाते। मैंने उनसे कहा कि झूम की हालत वही हो गई है जो झूम पाईप की है। अब कौन झूम से लेना—देना है! और जबलपुर में मैं पढ़ता था तो वहां झूम पाईप की फैक्ट्री थी। तो मैंने कहा कि आपको धूम, झूम, धूम... आप अम पाईप की फैक्ट्री आप क्यों नहीं खोल लेते! अब पश्चिम विचार कर रहा है विट्गिन्सटीन पर, जेस्पर्स पर, हाइडेगर पर, ज्या पाल सार्त्र पर, मार्सेल पर, बर्दिएव पर। उन्होंने ये नाम भी नहीं सुने थे। उन्होंने कहा तुम ये कहां के नाम.. .तुम अपने मन से ही ईजाद कर लाते हो!
इस देश के बड़े दुर्भाग्यों में एक दुर्भाग्य यह है कि हम जगत के साथ पैर मिला कर नहीं चल पा रहें हैं। पश्चिम का विज्ञान चांद पर चल रहा है और हमारी दशा? हमारी दशा कोई तीन हजार साल पुरानी है। चांद पर चलना तो दूर, जमीन पर ही ठीक से रहना मुश्किल हुआ जा रहा है। वही मनोविज्ञान में हो रहा है। बड़ी उड़ान भरी जा रही है पश्चिम में। बड़े नये और क्रांतिकारी विचार पश्चिम का मनोवैज्ञानिक प्रस्तावित कर रहा है।
रोनी लैंग इस समय पश्चिम में शिखर पर है। लैंग मुझसे प्रभावित है। संन्यासियों को मिला है, लंदन के संन्यासी सेंटर पर आया है। लैंग ने अपनी किताबें मुझे भेजी हैं कि मैं उनकी किताबें देख जाऊं। कभी आना चाहता है। लेकिन जिसको तुम भारतीय मनोवैज्ञानिक कहते हो, उसको शायद लैंग का नाम भी पता न हो।
ऐसी असुविधा है। इस असुविधा के कारण पंडित और पुरोहित तो विरोध में हैं ही, तथाकथित मनोवैज्ञानिक भी विरोध में हैं। और विरोध का मूल आधार पुन: दोहरा दूं : मैं जीवन को उसकी समग्रता में स्वीकार करता हूं — जड़ों से लेकर फूलों तक, काम से लेकर राम तक, पदार्थ से लेकर परमात्मा तक। जो पदार्थवादी हैं वे मेरा विरोध करते हैं, क्योंकि मैं परमात्मा को क्यों बीच में लाता हूं; और जो परमात्मवादी हैं वे मेरा विरोध करते हैं, वे कहते हैं मैं पदार्थ को क्यों बीच में लाता हूं। मैं क्या करूं? पदार्थ है और परमात्मा है। पदार्थ और परमात्मा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; उनमें से एक को भी छोड़ा नहीं जा सकता। और जो उनमें से एक को भी छोड़ेगा, वह अधूरा रह जाएगा। और अधूरा आदमी रुग्ण होता है। पूरा आदमी चाहिए, समग्र आदमी चाहिए। समग्र मनुष्य ही संन्यासी है। समग्रता को ही मैं पवित्रता कहता हूं।
इसलिए मेरा विरोध बहुत तरह से होगा। आस्तिक मेरा विरोध करेंगे, क्योंकि उनको बहुत सी बातें मेरी नास्तिक जैसी लगेंगी। और नास्तिक मेरा विरोध करेंगे, क्योंकि मेरी बहुत सी बातें आस्तिक जैसी लगेंगी। मेरे साथ तो केवल वही खड़ा हो सकता है जो आस्तिकता और नास्तिकता के ऊपर देख सके; जो दोनों का अतिक्रमण कर सके, जो द्वंद्वातीत हो सके। जो द्वंद्व से घिरे हैं वे मुझे नहीं समझ पाएंगे। जो द्वंद्व से घिरे हैं वे मुझे केवल गलत ही समझ सकते हैं। और उन्हें मुझ में वही दिखाई पड़ेगा जो वे देखना चाहते हैं।
चंदूलाल एक बार पेंटिंग्स की प्रदर्शनी देखने गए। उस प्रदर्शनी में अनेक प्रसिद्ध पेंटिंग्स रखी हुई थीं जिन्हें कि ख्यातिनाम चित्रकारों ने बनाया था। चंदूलाल ने जब उन पेंटिंग्स को देखा तो उसे तो वे सारी की सारी पेंटिंग्स बिलकुल फूहड़ लगी। उन्हें देख कर ऐसा लगता था जैसे किसी बच्चे ने कागज पर रंग फैला दिए हों। वह जैसे—जैसे आगे बढ़ता गया, उन चित्रकारों की मूढ़ता पर उसे मन ही मन बड़ा क्रोध आया जिन्होंने ऐसे बेहूदे चित्र बनाए थे। जब वह प्रदर्शनी के अंतिम कोने पर पहुंचा तो एक गंजे व्यक्ति के चित्र को देख कर तो उसके क्रोध की सीमा न रही। उसने प्रदर्शनी के संचालक को बुलाया और उससे कहा कि महानुभाव, भला इस गंजे और खूसट व्यक्ति की पेंटिंग यहां लगाने की क्या जरूरत थी? भला यह भी कोई लगाने जैसी पेंटिंग है?
संचालक बोला : श्रीमान जी, आप दर्पण के सामने खड़े हैं। यह पेंटिंग नहीं, दर्पण है।

 दूसरा प्रश्न :

ओशो, 'गुरू' और 'सदगुरू' हो अलग शब्‍द होने का क्‍या कारण है, जब कि गुरु ही सदगुरू है?

मुकेश भारती, 'गुरु' तो तटस्थ शब्द है। गुरु असदगुरु भी हो सकता है, सदगुरु भी हो सकता है। गुरू मिथ्या भी हो सकता है, सच्चा भी हो सकता है। इसलिए गुरु शब्द से काम नहीं चलता। सदगुरु का अर्थ है सच्चा गुरु।
क्या भेद है मिथ्या गुरु में और सदगुरु में? मिथ्या गुरु वह है जो बातें तो सुंदर कर रहा है, लेकिन बातें सब उधार हैं— अपनी नहीं, निज की नहीं, स्वानुभव की नहीं। मिथ्या गुरु वह है जो हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है; कुरान दोहरा रहा है, बाइबिल दोहरा रहा है, वेद दोहरा रहा है। मिथ्या गुरु वह है जो किसी परंपरा को पीट रहा है। सदगुरु वह है जो अपने अंतःकरण से बोल रहा है, जिसकी अंतस—चेतना आविर्भूत हुई है, फूली है, जिसके अंतर्तम में वसंत आया है, जो किसी वेद का या किसी धम्मपद का या किसी कुरान का उद्धरण नहीं दे रहा है; जो जो भी कह रहा है अपने बलबूते पर कह रहा है, जो स्वयं अपनी बातों का प्रमाण है, गवाह है।
लिखालिखी की है नहीं, देखा—देखी बात— कबीर के इस वचन को स्मरण करो। जो देखा—देखी कह रहा है, लिखा—लिखी की नहीं। जिसने अपनी आंखों से स्वयं का साक्षात्कार किया है; जो उतरा है अपने अंतरतम की सीढ़ियों पर, जिसने अपने भीतर छिपे हुए जीवन का स्वाद लिया है— वह सदगुरु है। जिसके भीतर का दीया जला है।
असदगुरु वह है जो हाथ में एक जले हुए दीये की तस्वीर लिए है और सदगुरु वह है जिसके हाथ में जला हुआ दीया है। और कभी—कभी ऐसा हो सकता है कि दोनों एक जैसे लगते हों। और यह भी हो सकता है कभी—कभी कि तस्वीर जले हुए दीये की, जले हुए दीये से भी खूबसूरत लगती हो, उसमें खूब रंग भरे गए हों। कभी—कभी तस्वीर असली को मात करे, ऐसी हो सकती है। श्री डाइमेन्शनल हो सकती है, तीन आयामी हो सकती है।
जब पहली दफे तीन आयामी फिल्में आईं और लंदन में उनका पहली दफा प्रदर्शन हुआ, तो बड़ी हैरानी हुई। क्योंकि तीन आयामी जो फिल्म होती है— साधारण फिल्म में तो तस्वीरें दिखाई पड़ती हैं तस्वीरों की भांति— तीन आयामी फिल्म में तस्वीरें दिखाई पड़ती है व्यक्तियों की भांति। उनमें लंबाई होती है, चौड़ाई होती है, मोटाई होती है, गहराई होती है। जैसा व्यक्ति होता है वैसी। जब पहली दफा तीन आयामी फिल्म लंदन में दिखाई गई तो दूसरे दिन जो खबरें अखबारों में छपीं वे हैरानी की थीं। उस फिल्म में एक घुड़सवार एक भाला लिए हुए दौड़ता हुआ आता है। सारे लोग जो फिल्म के कक्ष में बैठे हैं एकदम से सिर झुका लेते हैं, क्योंकि वह जो भाला फेंकता है, कि अपनी खोपड़ी में न लग जाए। और बीच में से बिलकुल एक रास्ता बन जाता है— कुछ लोग इस तरफ झुक जाते है और कुछ लोग उस तरफ क्योंकि घोड़ा एकदम चला ही आ रहा है, तो वह निकल जाए बीच से! है सिर्फ फिल्म, लेकिन इतनी सजीव मालूम होती है।
तस्वीरें जिनके हाथ में हैं, वे असदगुरु हैं। सदगुरु के हाथ में दीया है। फिर दीया चाहे मिट्टी का ही क्यों न हो और तस्वीर चाहे सोने की ही क्यों न हो, तो भी मिट्टी के दीये से रोशनी मिलेगी, तस्वीर से नहीं।
सम्राट सोलोमन की परीक्षा लेने एक महारानी आई, उसने अपने एक हाथ में झूठे फूलों का गुलदस्ता ले रखा था और एक हाथ में असली फूलों का। सम्राट सोलोमन के संबंध में कहा जाता था कि वह दुनिया का सबसे प्रतिभाशाली व्यक्ति है। उस महारानी ने बहुत सी परीक्षाएं लीं, उनमें एक परीक्षा यह भी थी कि वह महल में प्रविष्ट हुई, दरबार में गई। उसने कहा, महाराज, आपकी बुद्धिमला की बहुत कहानियां सुनी हैं। क्या आप बता सकते हैं, इन फूलों में कौन असली हैं कौन नकली?
सोलोमन भी थोड़ा झंझट में पड़ा। फूल बिलकुल एक से लगते थे—बिलकुल एक से लगते थे। सोलोमन ने कहा कि मैं का हो गया, आंखों से मुझे थोड़ा धुंधला दिखाई पड़ता है। थोड़ी करीब आओ। करीब भी महिला आ गई, तब भी तय करना मुश्किल था कि कौन असली हैं, कौन नकली हैं? तब सम्राट ने कहा, ऐसा करो द्वार—दरवाजे, खिड़कियां सब खोल दो, क्योंकि मुझे ठीक से दिखाई नहीं पड़ता। थोड़ा यहां अंधेरा है। द्वार—दरवाजे, खिड़कियां खोल दी गई। और दो मिनट में ही सम्राट ने कह दिया कि तेरे बाएं हाथ में असली फूल है।
महिला तो दंग रह गई। बहुत बड़े चित्रकार से उसने फूल बनवाए थे और फूल ऐसे थे कि वह खुद ही भूल जाती थी कि किस हाथ में मैं असली लिए हूं और किस में नकली लिए हूं। उसने अपने हाथ पर लिख छोड़ा था— इसमें असली, इसमें नकली— कि मैं खुद ही न भूल जाऊं, नहीं तो फिर तय कैसे होगा! कैसे सम्राट पहचान गया?
उसने सोलोमन से कहा क्या मुझे राज बताएंगे, कैसे आपने पहचाना?
उसने कहा राज सीधा—सादा है। इसलिए खिड़की—दरवाजे खुलवाए, एक मधुमक्खी भीतर आ गई उड़ती हुई बगीचे से। वह जिस फूल पर बैठ गई तेरे हाथ में, वह असली। आदमी को धोखा दिया जा सकता है, मधुमक्खी को थोड़े ही धोखा दे सकते हो। मधुमक्खी तो असली को पहचान ही लेगी जिसमें रस होगा, झूठे में रस तो नहीं हो सकता।
सदगुरु वह है, जिसके हाथ में असली फूलों का गुलदस्ता है। असदगुरुओं के हाथ में झूठे फूलों के गुलदस्ते हैं, यद्यपि असदगुरुओं के हाथ में परपंरा से पूजित गुलदस्ते हैं, सदियों से सम्मानित गुलदस्ते हैं। और तुम सब परंपरा—पूजक हो, इसलिए स्वभावत: तुम्हें नकली गुरुओं के चक्कर में पड़ जाना आसान पड़ता है। सदगुरु से संबंध जोड्ने के लिए बड़ा साहस चाहिए, बड़ी हिम्मत चाहिए, क्योंकि हो सकता है वह जो बातें कहे वे परंपरा के विपरीत जाएं। जाएंगी ही! क्योंकि वह परंपरा का सहारा लेकर तुम्हारा शोषण नहीं करना चाहता। उसकी बातें औपचारिक नहीं हैं। उसकी बातें तात्विक हैं। वह सत्य का उदघाटन करना चाहता है। वह केवल शिष्टाचार नहीं निभाना चाहता।
तुम्हारे पंडित—पुरोहित असदगुरु हैं, शिष्टाचार निभा रहे हैं। मंदिर में घंटी भी बजा आते हैं, पूजा का थाल भी उतार लेते हैं— न हृदय में कोई पूजा है, न प्राणों में कोई भाव है। या हो सकता है, भाव भी हो तो ठीक उलटा हो पूजा से।
भरी हुई बस में एक युवती भारी सूटकेस के साथ चढ़ी और सूटकेस को सीटों के ऊपर बनी सामान रखने की जगह पर रख दिया। इसके बाद वह बीच में खड़ी हो गई। इतने में सीट से एक युवक उठा और वह बहुत विनम्रता से युवती से बोला, आप यहां बैठ जाइए। थोड़ा सा ना—नुकुर करने के बाद युवती बैठ गई और एक मादक मुस्कान के साथ पूछा, आप मुझ पर इतनी मेहरबानी क्यों कर रहे हैं। बात यह है कि आपने इस सीट के ऊपर जो सूटकेस रखा है, बस चलने पर मुझे उसके गिरने की आशंका है—युवक ने स्पष्ट किया।
ऊपर से जो दिखाई पड़ रही हो बात, वही जरूरी नहीं है कि भीतर हो। युवती को जगह देने के लिए वे सज्जन उठे नहीं हैं। वह सूटकेस गिरे नहीं, इस डर से उठे हैं।
मुकेश, सदगुरु का अर्थ होता है— सत्य को अनुभूत, प्रबुद्ध, जाग्रत, जो जिन हो गया, जिसने अपने को जीता, जो बुद्ध हो गया, जिसने अपने को पहचाना। असदगुरु का अर्थ होता है— शास्त्रीय, पाखंडी, औपचारिक। उसके पास कोई संपदा नहीं है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दोपहर बैंक से निकल रहा था। एकदम से उसने आवाज लगाई, किसी के नोटों की गड्डी तो नहीं गिर गई? कोई दस—पच्चीस आदमी एकदम दौड़ पड़े, उन्होंने कहा. हमारी गिरी! हमारी गिरी! उसने कहा भाई, इतने परेशान न होओ, मुझे तो अभी गड्डी को बांधने का धागा ही मिला है, अभी गड्डी नहीं मिली।
असदगुरु, बस धागा ही है हाथ में। गड्डी वगैरह कहां गिर गई है, किसके हाथ लग गई है—कुछ पता नहीं है। संपदा अपनी नहीं है— बासी है, उधार है।
इसलिए दोनों शब्दों की सार्थकता है।
असदगुरु ने स्वयं अनुभव नहीं किया है, लेकिन एक बात उसकी समझ में आ गई है कि सत्य की लोगों में प्यास है और सत्य का व्यवसाय किया जा सकता है। और असदगुरु सस्ते में सत्य देने को राजी हो जाता है।
एक गांव में मेला भरा। दो छोटे बच्चे शरबत बेच रहे हैं। दोनों जुड़वां भाई लगते हैं। एक एक आना गिलास बेच रहा है और दूसरा दो पैसे गिलास, और शरबत एक जैसा। स्वभावत:, दो पैसे गिलास वाले की बिक्री खूब हो रही है, डट कर हो रही है, भीड़ वहीं लगी हुई है। आखिर एक आदमी ने पूछा, जो एक आना गिलास बेच रहा था, कि बात क्या है! तुम दोनों जुड़वां भाई हो; यह शरबत भी एक जैसा है, तुम्हारी दुकान पर भीड़ बिलकुल नहीं, उस दुकान पर इतनी भीड़ लगी है। तुम एक आना गिलास क्यों बेच रहे हो, वह दो पैसा गिलास क्यों बेच रहा है?
उसने कहा. अब आपसे क्या बताना, उसके शरबत में रात एक चूहा गिर गया था, सो वह सस्ता बेच रहा है। अब उसका शरबत किसी काम का नहीं है। मेरा शरबत तो हम घर में भी पी लेंगे।
लोग सस्ते की तरफ जाते हैं। सस्ते में एक आकर्षण है। असदगुरु सस्ता बेचता है— मुफ्त करीब— करीब। हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए। कुछ खर्च तुम्हें करना नहीं पड़ता। लेकिन सदगुरु के पास जाओगे तो जीवन दांव पर लगाना होगा। जुआरियों के लिए है सदगुरु, व्यवसायियों के लिए नहीं।
दरवाजे पर बैठे हुए एक खूंखार अल्सेशियन को देख कर ढ़ब्‍बू जी द्वार के बाहर ही ठिठक कर खड़े हो गए। आ जाओ, आ जाओ ढष्कृ डरो मत— चंदूलाल ने अपने मित्र ढ़ब्‍बू जी को साहस बंधाते हुए कहा।
ढ़ब्‍बू जी : क्या यह कुत्ता काटता नहीं?
चंदूलाल : अरे मित्र, यही देखने के लिए तो तुम्हें बुला रहा हूं कि देखें कैसा कुत्ता है! कल ही मैंने खरीदा है।
तुम्हारे पंडित—पुरोहित तुम पर जिन मंत्रों—तंत्रों—यंत्रों के प्रयोग कर रहे हैं, तुम्हें सिर्फ परीक्षण स्थल बनाया हुआ है। उन्हें खुद भी अनुभव नहीं है। सोच रहे हैं, शायद तुम पर काम कर जाए तो फिर कभी अपने पर भी काम करके देख लेंगे। जब तुम पर ही काम नहीं किया तो किसी काम न रहा होगा, बेकाम होगा।
सदगुरु वह है जिसने स्वयं अनुभव किया है और अब अपने अनुभव की संपदा को बांट रहा है। लेकिन उसकी संपदा लेने के लिए कुछ तैयारी दिखानी पड़ती है, उसी तैयारी को मैं संन्यास कहता हूं। कुछ पात्रता दिखानी पड़ती है, उसी पात्रता को मैं संन्यास कहता हूं।
संन्यास का इतना ही अर्थ है कि तुम राजी हो झुकने को। असदगुरु तुम्हें झुकाता नहीं, असदगुरु तो तुम्हारे पैर दबा दे, वह खुद ही झुके, वह तुम्हारी खुद खुशामद करे। सदगुरु तुम्हें मिटाने को तत्पर है, क्योंकि तुम मिटो तो परमात्मा प्रकट हो। यह अंहकार जाए, सिंहासन खाली हो, तो परमात्मा आए।
दोनों शब्दों का अर्थ है। अकारण नहीं है, मुकेश, गुरु और सदगुरु शब्द का प्रयोग। गुरु तटस्थ है; उससे कुछ पक्का पता नहीं चलता— मिथ्या भी हो सकता है, सच्चा भी हो सकता है। सदगुरु से सुनिश्चित घोषणा है।

 तीसरा प्रश्न:

ओशो, मैं बड़ा संदेहग्रस्‍त व्‍यक्‍ति हूं। क्‍या इससे छुटकारे का कोई उपाय है?

 कृष्‍णराज, मैं जो भी कहूंगा उस पर भी तुम संदेह करोगे, या कि नहीं? अगर सच में ही संदेहग्रस्त हो तो मैं जो भी कहूंगा उस पर भी संदेह आएगा ही आएगा। मेरे कहने से क्या होगा? सलाहें तो तुम्हें पहले भी बहुत दी गईं होंगी। सदवचन तो तुमने पहले भी बहुत सुने होंगे। मेरे पास तुम पहली दफे तो नहीं आए हो, और— और न मालूम किन—किन के पास गए होओगे। जन्मों—जन्मों की लंबी यात्रा है।
इसलिए पहली बात तुमसे मैं यह कहना चाहता हूं कि अगर संदेहग्रस्त हो तो उस से छूटने का कोई उपाय न करो, नहीं छूट सकोगे। क्योंकि छूटने का जो भी उपाय तुम्हें दिया जाएगा, संदेह उसी पर अड्डा जमा लेगा। संदेह बड़ी जटिल प्रक्रिया है और बड़ी सूक्ष्म।
इसलिए मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा कि ऐसा करो वैसा करो, इससे तुम संदेह से मुक्त हो जाओगे। पहले तो तुम यही सोचोगे कि इससे होऊंगा कि नहीं? इससे कैसे होऊंगा? हजार संदेह उठेंगे। मैं तो तुमसे यह कहना चाहूंगा कि तुम संदेह को ही श्रद्धा खोजने का उपाय बनाओ। यही रास्ता है। संदेह से छुटकारा नहीं पाना है। संदेह का इतना उपयोग कर लेना है कि संदेह ही तुम्हें श्रद्धा तक ले आए।
डर क्या है? ईश्वर पर संदेह है? बेफिकरी से संदेह करो। स्वर्ग पर संदेह है? जरूर संदेह करो। नरक पर संदेह है? खूब करो। तुम्हारे संदेह से न तो स्वर्ग बनता है न मिटता है। तुम्हारे संदेह से न तो ईश्वर होता है, न न होता है। इसलिए डर क्या है? कोई ऐसा थोड़े ही है कि तुम संदेह करोगे तो ईश्वर की सांसें अटक जाएंगी या ईश्वर मर जाएगा। तुम्हारा संदेह इतना कारगर नहीं है। जो है वह तो है, जो नहीं है वह नहीं है। न तुम्हारे विश्वास करने से होगा न तुम्हारे संदेह करने से कुछ मिटेगा।
लेकिन संदेह का एक प्रक्रिया की तरह उपयोग किया जा सकता है। तुम संदेह करो, जिन चीजों पर संदेह कर सकते हो। करते ही जाओ। सिर्फ एक चीज ऐसी है जिस पर तुम पाओगे एक दिन कि संदेह नहीं कर सकते— वही तुम स्वयं हो। अपने पर संदेह नहीं किया जा सकता।
मुल्ला नसरुद्दीन होटल में बैठा था। जरा ज्यादा पी गया और ज्यादा पी गया तो ज्यादा हांकने लगा। बात बढ़ते—बढ़ते यहां तक पहुंच गई कि मुल्ला ने कहा कि मुझसे ज्यादा सहृदय आदमी, उदार आदमी इस नगर में दूसरा नहीं है। लोगों ने कहा प यह तो हद हो गई! तुम किस तरह के सहृदय, कैसे उदार! अरे कभी घर, इतने दिन हो गए, चाय—पानी के लिए भी नहीं बुलाया। वर्षों हो गए, कभी मित्रों को भोजन के लिए भी निमंत्रित किया होता! और कितनी बार हमारे घर भोजन कर गए हो? उसके उत्तर में भी कभी जवाब नहीं दिया।
मुल्ला ने कहा? तो आज ही हो जाए। पीए था तो होश तो पक्के थे नहीं। कहा कि चलो, सब चलो, आज भोजन मेरे घर!
तीस—पैंतीस का जत्था, पूरी मधुशाला चल पड़ी। जैसे—जैसे घर करीब आने लगा, होश भी आने लगा। क्योंकि पतियों को होश आता है, पत्नियां जैसे ही करीब आती हैं। जैसे ही पत्नी की याद आनी शुरू हुई, कि अब झंझट खड़ी होगी, अब फंसे बुरे! तीस—पैंतीस आदमियों को लेकर जा रहा हूं और दिन भर से नदारद हूं। तब याद आया कि अरे, सुबह भिंडी लेने बाजार भेजा गया था और भिंडी तो खरीदी नहीं। घर ही लौटे नहीं! पत्नी तो बैठी होगी लिए मूसल। और देख कर पैंतीस मुस्तंडों को... आज आई मुसीबत! और इन पैंतीस के सामने भद्द होगी। और यह तो मैं किस मुंह से कहूंगा कि इनको भोजन करवाओ! यह तो सवाल ही नहीं उठता। वह मुझे मारे न, पीटे न इनके सामने, यही बहुत है। कोई रास्ता तो निकालना पड़ेगा।
दरवाजे पर जाकर उसने मित्रों से कहा तुम चुपचाप खड़े रहो। भई तुम भी सब शादीशुदा हो, सो ज्यादा कुछ कहना नहीं है। कहा कम ज्यादा समझना। तुम चुपचाप यहीं खड़े रही। मैं भीतर जाकर पहले जरा पत्नी को राजी कर लूं।
लोगों ने कहा? यह हम समझते हैं। वही तो हम भी सोच रहे थे कि पैंतीस को लेकर जा रहे हो, तुम्हारे साथ हम तक की झंझट न हो। तुम्हारी पत्नी को हम जानते हैं।
उनको बाहर कहा कि बिलकुल चुपचाप रहना, शोरगुल करना ही मत, आवाज भर नहीं करना, शांत रहना। और भीतर गया सो गया। उनको कह गया चुप रहना, शांत, तो वे आवाज भी न कर सकें, दस्तक भी न दे सकें। और अपनी पत्नी से जाकर कहा कि आज बड़ी मुश्किल में पड़ गया, माफ कर मुझे। पैर पर पड़ गया एकदम, कि वह भिंडी तो मैं भूल ही गया और इन दुष्टों के संग में पड़ गया, तो ज्यादा पी गया। पीने में अल्ल—बल्ल बक गया। इनको साथ लिवा लाया, भोजन का निमंत्रण दे दिया। पत्नी ने कहा : भोजन! भोजन तो अपने दो के लिए भी घर में नहीं है। तुम्हें भेजा ही किसलिए था? सब्जी नहीं आटा नहीं, घी नहीं। दो के लिए भोजन नहीं, पैंतीस के लिए भोजन कहां होगा?
मुल्ला ने कहा कोई फिकर ही मत कर। मैंने तो उनको कह दिया है कि बिलकुल चुपचाप खड़े रहो। आखिर कब तक खड़े रहेंगे! आवाज भर की कि नियम तोड़ दिया।
घंटा बीत गया, मगर पैंतीस भी पीए थे, वे भी खड़े रहे। दो घंटे बीत गए, आधी रात होने के करीब होने लगी। आखिर उन्होंने कहा कि कब तक खड़े रहेंगे, ऐसे तो सुबह ही हो जाएगी। दस्तक दी। मुल्ला ने पत्नी को भेजा और कहा कि कह दो कि मुल्ला घर पर नहीं हैं। पत्नी ने आकर कह दिया कि मुल्ला घर पर नहीं हैं।
उन्होंने कहा यह तो हद हो गई! और हम यहां तीन घंटे से खड़े हैं और वह हमारे सामने दरवाजे के भीतर गया है। और पैंतीस आदमी की आंखें धोखा नहीं खा सकतीं, ये गवाह हैं सब। वह घर के भीतर है, कहीं छिपा होगा। हमें घर के भीतर आने दो, हम उसे निकाल बाहर करेंगे।
पत्नी ने कहा कि नहीं है भाई, वे सुबह से ही गए हुए हैं भिंडी खरीदने तो लौटे ही नहीं। मैं खुद ही परेशान होकर बैठी हूं। मगर वे भी जिद किए हुए रहे कि हम तो अंदर आकर देखेंगे। अब पैंतीस आदमी घर में घुसे तो मुल्ला फंस ही जाए। विवाद करने लगे तो मुल्ला को भी जोश आ गया। उसने ऊपर की एक खिड़की खोली, दूसरी मंजिल से बोला कि सुनो जी, आधी रात को किसी की स्त्री से विवाद करते शरम नहीं आती? और मैंने तुमसे कहा था, चुप रहना। और फिर यह भी तो हो सकता है कि मुल्ला तुम्हारे साथ आया हो, मकान के भीतर गया हो और पीछे के दरवाजे से कहीं निकल गया हो।
खुद ही मुल्ला कह रहा है।
यह सूफियों की एक प्यारी कहानी है। सूफी इसका बहुत उल्लेख करते हैं, क्योंकि महत्वपूर्ण है। तुम घर में रह कर यह नहीं कह सकते कि मैं घर में नहीं हूं। कैसे कहोगे? तुम्हारा वक्तव्य कि मैं घर में नहीं हूं, सिद्ध करेगा कि तुम घर में हो। यह वक्तव्य नहीं दिया जा सकता कि मैं नहीं हूं क्योंकि यह वक्तव्य देने के लिए भी तुम्हारा होना जरूरी है।
तो सिर्फ एक सत्य है जो संदेहशील व्यक्ति को हराता है और वह सत्य है—स्वयं का होना। मैं तुमसे कहता नहीं कि आत्मा पर विश्वास करो। मैं तो कहता हूं तुम कोशिश करो संदेह करने की। मगर तुम संदेह नहीं कर पाओगे। एक ही असंदिग्ध तथ्य है— आत्मा। मैं हूं इस पर संदेह नहीं किया जा सकता। संदेह करो तो भी यही सिद्ध होता है कि मैं हूं— कम से कम संदेह करने वाला तो चाहिए संदेह करने को! अगर कोई भी नहीं है तो संदेह कौन करेगा?
इसलिए कृष्णराज, मत पूछो कि संदेह से छुटकारा कैसे हो। छुटकारे की चेष्टा ही छोड़ दो। जितना छूटना चाहोगे उतने उलझ जाओगे। जो भी विधि दी जाएगी उसी विधि पर संदेह खड़ा हो जाएगा। अच्छा तो यही हो, संदेह की सीढ़ी बना लो।
और मेरे लेखे, मेरे देखे. संदेह और श्रद्धा विपरीत नहीं हैं। चौंकना मत। शास्त्रों में यही लिखा है कि संदेह और श्रद्धा विपरीत हैं और तुम्हारे तथाकथित गुरु तुमसे यही कहते हैं कि संदेह और श्रद्धा विपरीत हैं। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि संदेह श्रद्धा की सीढ़ी है। संदेह कर—कर ही, संदेह करते—करते ही, प्रगाढ़ रूप से संदेह करते—करते ही एक दिन वह सूत्र हाथ लगता है, जिस पर संदेह नहीं हो सकता। तब श्रद्धा का जन्म होता है। जहां संदेह असंभव हो जाता है वहां श्रद्धा का आविर्भाव होता है।
नहीं, मैं तुम्हें कोई विधि नहीं दे सकता। विधि काम नहीं पड़ेगी।
मुल्ला नसरुद्दीन बड़ा शक्की स्वभाव का था। जब उसने नई—नई कार खरीदी तो यार—दोस्तों ने समझाया कि नसरुद्दीन, ड्राइवर जरा सोच—समझ कर रखना, बड़े बदमाश होते हैं ये लोग। मौका पाते ही आंखों में धूल झोंक कर नई गाड़ी के सामान बदल लेते हैं और कबाड़खाने से खरीद कर पुराने कल—पुर्जे डाल देते हैं।
नसरुद्दीन ने कहा बिलकुल ठीक, मैं ड्राइवर की बराबर निगरानी रखूंगा।
पास ही के मुहल्ले में रहने वाले और ईमानदार समझे जाने वाले मियां महमूद को नसरुद्दीन ने ड्राइवर रखा। पहला ही दिन था, सुबह—सुबह मुल्ला शहर घूमने निकला। घर से चलने के पहले महमूद बोला मालिक एक स्कू—ड्राइवर भी साथ रख लीजिए, वक्त—बेवक्त कहीं काम आ सकता है। नसरुद्दीन ने गरज कर कहा. बड़े मियां, कमाल है! वक्त पर स्कू—ड्राइवर ही काम आना है तो मैने तुम्हें किसलिए ड्राइवर रखा है? यह भी खूब रही, ड्राइवर भी रखूं? ऊपर से स्कू—ड्राइवर भी रखूं! तुमने अभी गाड़ी को हाथ नहीं लगाया और धोखा देना शुरू किया!
बेचारे मियां महमूद ने बामुश्किल नसरुद्दीन को समझाया कि स्कू—ड्राइवर कोई ड्राइवर नहीं होता, यह तो पेचकस का नाम है। मुल्ला का संदेह विश्वास में परिणत हो उठा कि जरूर यह चालबाज नवजवान उसकी नई कार के बेशकीमती कल— पुर्जे बदलने की फिराक में है, वरना पेंचकस की क्या जरूरत आ पड़ी अभी—अभी, शुरू—शुरू, पहले ही दिन! खैर, मन ही मन अपने संदेह को दबाए वह घर से निकला और मियां महमूद की एक—एक हरकत को शरलक होम्स की जासूसी निगाहों से नसरुद्दीन देख रहा था। जब महमूद ने खटाक से कुछ किया तो इंजन की आवाज तेज हो उठी।
मुल्ला ने सीट से उचक कर पूछा मियां, क्या किया तुमने? यह आवाज कैसी हुई? जवाब मिला, हुजूर, मैंने अभी— अभी गेयर बदला, इसी कारण यह आवाज हुई। मेरे दोस्तों ने सच कहा था— मुल्ला नसरुद्दीन ने गरीब ड्राइवर की गर्दन पकड़ कर कहा— मगर तुम्हारा भी जवाब नहीं बड़े मियां! अरे जब दिन—दहाड़े मेरी आंखों के सामने ही गेयर बदल रहे हो तो न जाने मेरी पीठ पीछे क्या— क्या न करोगे!
थोड़ी दूर जाकर घरघराहट की आवाज के साथ कार खड़ी हो गई। महमूद बोला, मालिक, गाड़ी में पेट्रोल खत्म। अब गाड़ी आगे नहीं जा सकती। नसरुद्दीन ने मन ही मन सोचा, जरूर इस बदमाश ने ही कुछ गड़बड़ की है। कल से मैं दूसरा आदमी रख लूंगा। मगर प्रकट में वह बोला, पेट्रोल नहीं है तो न रहे और यदि गाड़ी आगे नहीं जा सकती तो सुनो मियां, गाड़ी पलटाओ और वापस घर चलो।
संदेह करने वाला व्यक्ति तो किसी भी चीज पर संदेह करेगा। अगर तुम्हारा सच में ही संदेहशील मन है तो मैं नहीं कहूंगा कि तुम संदेह से इस तरह मुक्त हो सकते हो। मैं तो यही कहूंगा जल्दी न करो, संदेह का उपयोग करो, संदेह का साधन बनाओ। संदेह करो। घबड़ाहट क्या है? डर क्या है? संदेह से इतने भयभीत क्यों हो?
सच तो यह है, जो आदमी कभी नास्तिक नहीं हुआ ठीक अर्थों में वह कभी ठीक अर्थों में आस्तिक नहीं हो सकता है। और जिस आदमी में नहीं कहने की हिम्मत नहीं है उसकी हां नपुंसक होती है, लचर होती है, उसमें कोई बल नहीं होता। मैं तो कहता हूं : नहीं कहना सीखो। क्योंकि जो नहीं कह सकता है, अगर कभी हां कहेगा तो प्राणपण से कहेगा।
मैं तो कहता हूं संदेह करो, जी भर कर करो, समग्रता से करो, क्योंकि जरूर अस्तित्व में कुछ है जो संदेहातीत है। संदेह करते ही करते एक दिन तुम उस पर पहुंच जाओगे जिस पर संदेह नहीं किया जा सकता। फिर तुम क्या करोगे? संदेह किया ही नहीं जा सकता तो फिर तुम क्या करोगे? संदेह आत्मघात कर लेगा। और श्रद्धा का तभी जन्म होता है जब संदेह अपना आत्मघात कर लेता है।
संदेह को दबा मत लेना। यही लोग करते हैं— संदेह को दबा लेते हैं। ऊपर—ऊपर आस्तिक, भीतर— भीतर नास्तिक। जरा कुरेदो और नास्तिकता निकल आए। ऊपर—ऊपर मंदिर जाते हैं, भीतर— भीतर सोचते हैं पता नहीं, भगवान है या नहीं। लोग कहते हैं तो होगा ही। और न भी हुआ तो क्या हर्ज, अपना क्या बिगड़ जाएगा! एक नारियल गया और क्या हर्जा है? अगर हुआ तो कहने को बात रह जाएगी कि याद करो, नारियल चढ़ाया था! अब स्वर्ग में जगह चाहिए!
मेरे एक मित्र हैं— कृष्णमूर्ति के पुराने भक्त, ईश्वर—विरोधी। कोई ईश्वर नहीं, कोई विश्वास की जरूरत नहीं, कोई ध्यान नहीं, कोई पूजा नहीं, कोई पाठ नहीं, कोई विधि नहीं, कोई विधान नहीं— जैसा कृष्णमूर्ति कहते हैं— सब विधि—विधान छोड़ दो, सबसे मुक्त हो जाओ, तो तुम्हारे भीतर ही चैतन्य का आविष्कार होगा।
मैंने उनसे पूछा कि ठीक है, आधी तो बात तुमने कर दी— कोई विधि—विधान नहीं, कोई ध्यान
नहीं, कोई पूजा नहीं, कोई प्रार्थना नहीं— चैतन्य का आविष्कार हुआ या नहीं? उन्होंने कहा वह तो नहीं हुआ। तो फिर मैंने कहा कि कुछ कमी है। फिर तुम्हारे इनकार करने में कुछ कमी है। उन्होंने कहा कि नहीं, मेरा इनकार पूरा है। तो फिर मैंने कहा कि कृष्णमूर्ति में कोई गलती होगी। अगर तुम्हारा इनकार पूरा है तो चैतन्य का आविष्कार होना चाहिए। अगर तुम्हारा संदेह पूरा है तो मैं कहता हूं कि श्रद्धा का जन्म होना ही होना चाहिए, बचा ही नहीं जा सकता। और या फिर कृष्णमूर्ति से जाकर कहना कि मेरा संदेह तो पूरा है, मेरा अस्वीकार पूरा है, मैंने निषेध कर दिया, नेति—नेति पूरी कर दी।
नेति—नेति की विधि यही है— यह भी नहीं, यह भी नहीं— कहते जाओ, कहते जाओ। आखिर में वही बच रहेगा; सिर्फ कहने वाला बच रहेगा, नेति—नेति कहने वाला बच रहेगा, सब छूट जाएगा। और वही तो है— कहो आत्मा, कहो परमात्मा, कहो निर्वाण, समाधि।
मगर वे नहीं माने। उन्होंने कहा कि नहीं, मेरा विधि—विधानों से तो पूरा का पूरा छुटकारा हो गया है, मगर चैतन्य का आविर्भाव नहीं हुआ।
एक दिन उनका बेटा भागा हुआ आया और उसने कहा कि आप चलें, मेरे पिता की हालत बहुत खराब है। हालत जरूरत से ज्यादा खराब होनी चाहिए। मैंने पूछा क्यों? उसने कहा कि वे लेटे हैं बिस्तर पर और राम—राम, राम—राम, राम—राम जप रहे हैं! हृदय का दौरा पड़ गया था। मैं गया तो वे राम—राम, राम—राम जप रहे हैं। मैंने उनका सिर हिलाया। मैंने कहा आंख खोलो! यह क्या कर रहे? यह मरते वक्त यह क्या कर रहे? अरे आखिरी वक्त सब डुबाए दे रहे? बंद करो यह राम—राम! न कोई विधि है, न कोई मंत्र है, न कोई साधन—छोड़ो यह सब! यह क्या कर रहे हो? यही तो मैं तुमसे कहता था कि कुछ न कुछ अटका होगा।
उन्होंने कहा, अब आप यह बात न करें। अब मरते वक्त क्या पता राम हो ही। अपना बिगड़ता भी क्या है!
देखते हैं बनिया का मन— अपना बिगड़ता भी क्या है! अरे राम—राम कहने से अपना बिगड़ता क्या है! नहीं हुआ तो अपना कुछ बिगड़ नहीं गया। थोड़ी देर समझो मेहनत ही हुई, कवायद ही हुई। सो वैसे ही पड़े थे बिस्तर पर, कोई दूसरा काम कर भी नहीं सकते हैं। और अगर हुआ तो कहने को बात रह जाएगी कि देखो, मरते वक्त राम—राम किया।
अजामिल की याद करो। मरते वक्त..... उसके बेटे का नाम नारायण था। अजामिल तो हत्यारा था, चोर—डकैत। उसने तो कभी नारायण की कोई खबर ही नहीं ली थी। मरते वक्त उसने अपने बेटे को बुलाया कि नारायण, नारायण! शायद बताना चाहता होगा कुछ राज कि धन कहां गड़ा रखा है— चोरी का, डकैती का; या शायद कहना चाहता हो कि कुछ दुश्मन मेरे छूट गए हैं, जब मैं चला जाऊं तो इनका खात्मा कर देना। कुछ इस तरह की बातें बताना चाहता होगा, जिंदगी भर की कहानी उसकी यही थी। लेकिन कहानी कहती है कि ऊपर जो नारायण हैं आकाश में बैठे, वे धोखा खा गए। उन्होंने समझा मुझे बुला रहा है। अजामिल तो मर गया नारायण पुकारते—पुकारते, बेटा तो आया नहीं। अजामिल का ही बेटा था, वह भी किसी उलझन में उलझा होगा। मगर अजामिल स्वर्ग गया, क्योंकि उसने मरते वक्त नारायण को पुकारा।
जिन बेईमानों ने ये कहानियां गढ़ी हैं, उनसे जरा सावधान रहना। वे ही मिथ्या गुरु हैं। वे तुम्हें धोखा दे रहे हैं। वे तुम्हें आश्वासन दे रहे हैं कि घबड़ाओ मत, मरते वक्त अगर एक दफे नारायण भी कह दिया तो काम चल जाएगा। मरते वक्त गंगाजल मुहं में डाल देना। मरते वक्त अगर तुम न कह सको तो पंडित तुम्हारे कान में राम—राम कह देगा। मंत्र फूंक देगा, गायत्री पढ़ देगा, काम हो जाएगा।
इतना सस्ता! नहीं, अगर तुम्हारे भीतर संदेह की कहीं भी कोर भी रह गई, एक रेखा भी रह गई, तो वह रेखा काफी है, श्रद्धा निर्मित नहीं हो पाएगी। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि संदेह का उपयोग करो, दबा मत लेना। संदेह को धार दो, संदेह की तलवार बनाओ। डरो मत। संदेह उसी को काट सकता है जो नहीं है। जो है, संदेह उसे नहीं काट सकता। इसलिए तो उपनिषद के ऋषि नेति—नेति की बात कह सके।
नेति—नेति का अर्थ है परम नास्तिकता। नेति—नेति का अर्थ है संदेह की पराकाष्ठा। यह भी नहीं है, यह भी नहीं है— कहते ही जाओ। जो भी सामने आए, इनकार करते जाओ। आखिर में कुछ भी सामने न रह जाएगा। आखिर में तुम ही बचोगे— कोरे दर्पण! वह कोरा दर्पण, चैतन्य का वह कोरा दर्पण, कोरा आकाश— वही है! फिर श्रद्धा उमगेगी। फिर श्रद्धा के कमल खिलेंगे उस निर्मल झील में।

 आखिरी प्रश्‍न:

ओशो, संत कहते हैं कि संसार माया है, फिर भी इतने लोग क्‍यों संसार में ही उलझे रहते हैं?

 रामपाल, संत लाख कहें संसार माया है, सौ में से निन्यानबे संत तो खुद ही माया में उलझे रहते हैं। लोग भी कुछ अंधे नहीं हैं। लोग भी देखते हैं कि महाराज हमें तो समझा रहे हैं कि संसार माया है और खुद? खुद माया में ही जी रहे हैं।
संसार माया है भी नहीं, संसार तो सत्य है। झूठी बात कहोगे, उसके परिणाम कैसे होंगे? झूठी बात में कहीं सत्य की सुगंध उठ सकती है? सदियों से संत दोहरा रहे हैं कि संसार माया है। दोहराते रहो। लोग भी दोहराना सीख गए हैं, वे भी दोहराते हैं कि संसार माया है। मगर यह दोहराने की बात एक, जीने की बात और; कहने की बात एक, होने की बात और। दिखाने के दांत और, खाने के दांत और।
कैसे मानते हो कि संसार माया है? संसार माया नहीं है, संसार वास्तविक है। वास्तविक परमात्मा से वास्तविक संसार ही पैदा हो सकता है। वास्तविक से अवास्तविक कैसे पैदा होगा, थोड़ा सोचो तो! अगर ब्रह्म सत्य है तो जगत मिथ्या कैसे हो सकता है? क्योंकि ब्रह्म का ही तो अवतरण है जगत, उसी की तो तरंगें हैं। उसी ने तो रूप धरा, उसी ने तो रंग लिया। वही निर्गुण तो सगुण बना। वही तो निराकार आकार में उतरा। उसने देह धरी। अगर परमात्मा ही असत्य हो तो संसार असत्य हो सकता है।
लेकिन न परमात्मा असत्य है न संसार असत्य है; दोनों सत्य के दो पहलू हैं—एक दृश्य, एक अदृश्य। माया फिर क्या है? मन माया है। मुझसे पूछो तो मैं संसार को माया नहीं कहता, मन को माया कहता हूं। मन है एक झूठ, क्योंकि मन है जाल— वासनाओं का, कामनाओं का, कल्पनाओं का, स्मृतियों का। मन माया है।
काश, हमने लोगो को समझाया होता कि संसार माया नहीं, मन माया है, तो यह दुनिया आज कुछ और होती! इस दुनिया का सौंदर्य कुछ और होता! इस दुनिया का उल्लास कुछ और होता! इस दुनिया में धार्मिकता होती!
संसार माया है, तो लोग संसार को छोड़ कर भागने लगे। संसार को छोड़ कर कहां जाओगे? जहां जाओगे वहीं संसार है।
एक आदमी भाग गया— क्रोधी था। किसी साधु से सत्संग किया, साधु ने कहा : संसार तो माया है। इसमें रहोगे तो ये क्रोध, माया, लोभ, मोह, काम, कुत्सा, ये सब घेरेंगे। छोड़ दो संसार। यहां तो क्रोध स्वाभाविक है। मैं भी क्रोधी था जब संसार में था। जब से संसार छोड़ा, क्रोध आता ही नहीं। हट ही गए वहां से तो क्या क्रोध!
उस आदमी ने कहा ठीक है। वह जंगल में जाकर एक झाडू के नीचे बैठ गया। एक कौए ने उसके ऊपर बीट कर दी। अब कौए को क्या पता कि महाराज यहां नीचे बैठे ध्यान कर रहे हैं। कौए तो कौए, धार्मिक—अधार्मिक में भेद भी उनको क्या! साधु—संत में फर्क भी क्या करें! संसारी है कि संन्यासी है, इतना हिसाब भी उनको कहां! रहा होगा कोई नास्तिक कौआ। उसने एकदम बीट कर दी! उनके ऊपर बीट गिरी, उठा लिया डंडा कि हद हो गई, संसार इसीलिए तो छोड़ कर आया। इस दुष्ट कौए को अगर पाठ नहीं पढ़ाया तो जिंदगी मेरी अकारथ है।
अब कौआ उड़ा फिरे और वह आदमी भागा फिरे। पत्थर मारे, डंडा फेंके।
संसार से भाग जाओगे, क्या होगा? आखिर उसने कहा यह जंगल भी किसी काम का नहीं। झाडू के नीचे बैठना ठीक नहीं, क्योंकि झाड़ पर कौआ बीट कर सकता है। नदी के किनारे जहां झाडू वगैरह नहीं थे, वह रेत में जाकर बैठ गया। इतना उदास हो गया था, इतना हताश हो गया था, अपने क्रोध से ऐसा जल चुका था— उसने सोचा यह जीवन अकारण है, अकारथ है। और जब संसार माया ही है तो क्या जीना, जीना कहां? तो उसने लकड़ियां इकट्ठी करके चिता बनानी शुरू की, कि चिता बना कर उस पर चढ़ जाऊंगा, खत्म करूं, मामला ही खत्म कर दूं। जैसे ही चिता में आग लगाने को था कि मोहल्ले के लोग, आस—पास के लोग आ गए। उन्होंने कहा महाराज, आप कहीं और यह कृत्य करें तो अच्छा, नहीं तो पुलिस हमें सताएगी। और फिर आप जलेंगे तो बास भी हमें आएगी। और जिंदा आदमी को जलते देखें, हम पर भी पाप पड़ेगा। आप कहीं और जाएं महाराज! अगर कहें तो हम ये लकड़ियां ढोकर आपकी और कहीं पहुंचा दें, जहां आपको जाना हो।
उस आदमी के क्रोध की सीमा न रही। उसने कहा हद हो गई! अरे न जीने देते हो न मरने देते हो! सिर खोल दूंगा एक—एक का!
भागोगे कहां? यहां जीना भी मुश्किल, मरना भी मुश्किल। संसार से भाग नहीं सकते हो। लेकिन संसार माया है, इस धारणा ने लोगों को गलत संन्यास का रूप दे दिया। मैं कहता हूं संसार माया नहीं है, संसार तो परमात्मा का व्यक्त रूप है। यह तो परमात्मा का मंदिर है। यह तो उसका प्रसाद है। ये फूल उसी के सौंदर्य की कथा कहते हैं! ये पक्षी उसी की प्रीति के गीत गाते हैं! ये तारे उसी की आंखों की जगमगाहट हैं! यह सारा अस्तित्व उससे भरपूर है, लबालब है!
लेकिन फिर भी मैं जानता हूं एक चीज माया है— वह है मन। इसलिए मन से छूट जाना संन्यास है। मन से मुक्त हो जाना संन्यास है। इसके लिए कहीं पहाड़ों में, आश्रमों में, गुफाओं में जाने की कोई जरूरत नहीं है। दुकान पर, बाजार में, घर में— जहां हो वहीं मन से छूटा जा सकता है।
मन से छूटने की सीधी सी विधि है अतीत में मन को न जाने दो। जब भी जाए, वापस लौटा लाओ कि भैया, वापस। अतीत में नहीं जाते। जो गया गया। जो हो गया हो गया, अब पीछे नहीं लौटते। जब भविष्य में जाने लगे तो कहना, भइया उधर नहीं। अभी आया नहीं, जाकर क्या करोगे? यहीं, अभी और यहीं रहो, यह क्षण तुम्हारा सर्वस्व हो। बस, सब माया मिट गई, सब मोह मिट गया। मन मिटा तो सब जंजाल मिटा।
और जैसे ही मन मिटता है, अंधकार चला जाता है, रोशनी हो जाती है। क्योंकि अतीत और भविष्य दोनों ही अभाव हैं, उनका अस्तित्व नहीं है। वे अंधकार जैसे हैं, जैसे अंधकार का कोई अस्तित्व नहीं है। वर्तमान ज्यातिर्मय है!
जिन ऋषियों ने कहा है हे प्रभु! हमें तमस से ज्योति की ओर ले चलो—तमसो मा ज्योतिर्गमय— वे यही कह रहे हैं। वे उस अंधेरे की बात नहीं कर रहे हैं जो रात अमावस को घेर लेता है। वे उस अंधेरे की बात कर रहे हैं जो तुम्हारे अतीत और भविष्य में डोलने के कारण तुम्हारे भीतर घिरा है। और वे किस ज्योतिर्मय लोक की बात कर रहे हैं? वर्तमान में ठहर जाओ, ध्यान में रुक जाओ, समाधि का दीया जल जाए— अभी रोशनी हो जाए। और तुम्हारे भीतर रोशनी हो, तब तुम जो देखोगे वही सत्य है।
रात के दो बजे मुल्ला नसरुद्दीन घर वापस लौट रहा था। उसने देखा कि एक मोटा—तगड़ा आदमी सड़क के किनारे एक पेडू के नीचे खड़ा किसी स्त्री को प्रेम कर रहा है। यद्यपि अंधेरा बहुत था, फिर भी नसरुद्दीन की तेज निगाहों को यह समझने में देर न लगी कि वह इनसान कोई और नहीं, उसी का मित्र मटकानाथ ब्रह्मचारी है।
मुल्ला थोड़ी देर तक तो छिपा—छिपा यह रासलीला देखता रहा। जब उसे पक्का भरोसा हो गया कि यह मटकानाथ ही है, तो उसने जोर से आवाज लगाई, क्यों रे पाखंडी! खुलेआम सड़क पर रास रचा रहा है। ठहर बेटा, पूरे गांव में खबर कर दूंगा कल सुबह।
ऐसा सुनते ही मटकानाथ ब्रह्मचारी अपनी दुम दबा कर पास की गली में अदृश्य हो गया। अब वहां सिर्फ वह स्त्री बची और नसरुद्दीन। जो होना था सो हुआ। मुल्ला ने देखा कि स्त्री अत्यंत सुंदर और मोहक है। वैसे तो अंधेरा था, मगर फिर भी नसरुद्दीन ठहरा सौंदर्य का पारखी! दूर से ही पहचान गया। पास गया तो स्त्री के कपड़ों में लगे इत्र की सुगंध से मदहोश हो गया। स्त्री भी राजी हो गई। मुल्ला ने उसे अपने आलिंगन में ले लिया। ऐसी अदभुत, कामोत्तेजक और मनमोहक स्त्री मुल्ला ने कभी देखना तो दूर, सोची भी न थी। उसे लगा कि जरूर मटकानाथ की साधना को भ्रष्ट करने के लिए स्वर्ग से इंद्र ने किसी अप्सरा को भेजा है।
जब प्रेम—क्रीड़ा करते—करते करीब पंद्रह मिनट बीत गए तब एक दुष्ट पुलिस का सिपाही न जाने कहां से कबाब में हड्डी बन कर आ टपका। उसने जोर से आवाज लगाई, कौन है? इतनी रात को यहां क्या हो रहा है? मुल्ला ने डरते—डरते कहा अरे हवलदार जी, मुझे नहीं पहचानते! मैं हूं मुल्ला नसरुद्दीन, यहीं पास के ही मकान में रहता हूं।
अरे, आप हैं भाईजान! पुलिसमैन ने टार्च की रोशनी में उसे पहचानते हुए कहा, मगर इतनी रात को आप यहां क्या कर रहे हैं?
कुछ न पूछो दोस्त, जरा रोमांस का दिल हो आया तो अपनी बीवी को प्यार कर रहा हूं।
अरे माफ करना भाईजान, मुझे क्या पता कि आप अपनी बीवी को प्यार कर रहे हैं! क्षमा करना मुल्ला।
क्षमा मांगने की कोई बात नहीं भाई— नसरुद्दीन बोला— जब तक तुमने टार्च की रोशनी नहीं डाली थी तब तक तो मुझे ही कहां पता था कि मैं अपनी ही बीवी से प्यार कर रहा हूं।

 आज इतना ही।

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