अध्याय—14
सूत्र—
समदुःखसुखः
स्वस्थ: समलोष्टाश्स्फाञ्जन:
तुल्याप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति:।।
24।।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मिप्रारियक्षयो:।
सर्वारम्भपरित्यागी
गुणातीत: स उच्यते।।
25।।
और जो
निरंतर आत्म—
भाव में स्थित
हुआ, दुख—
सुख को समान
सोचने वाला है
तथा मिट्टी पत्थर
और सुवर्ण में
समान भाव वाला
और धैर्यवान
है; तथा जो
प्रिय और
अप्रिय को
बराबर समझता
है और अपनी
निंदा— स्तुति
में भी समान
भाव वाला है।
तथा जो मान
और अपमान में
सम है एवं
मित्र और वैरी
के पक्ष में
भी सम है,
वह संपूर्ण आरंभों
में कर्तापन
के अभिमान से
रहित हुआ
पुरुष
गुणातीत कहा
जाता है।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न :
आमतौर
से समझा जाता
है कि ज्ञानोपलब्ध
व्यक्ति की
समस्त
वासनाएं
निर्जरा हो
जाती हैं और
वे सभी तरह की
प्रवृत्ति के
पार हो जाते
हैं। लेकिन
आपने कल—परसों
के प्रवचन में
कहा कि
ज्ञानार्जन
के बाद भी
उनकी प्रकृतिजन्य
प्रवृत्तियां
काम करती हैं।
यहां तक कि वे
काम, क्रोध
और हिंसा में
भी उतरते हैं,
यद्यपि वे
स्वयं उसकी ओर
मात्र साक्षी—
भाव रखते हैं।
इसे समझाएं।
इस
संबंध में कुछ
बहुत मूलभूत
बातें समझ
लेनी जरूरी
हैं।
पहली, साधारणत:
हम ऐसा मानते
रहे हैं, सुनते
रहे हैं कि जो
व्यक्ति वीतरागता
को, ज्ञान
की पूर्णता को
उपलब्ध हो
जाएगा, उसकी
समस्त
वृत्तियां
क्षीण हो
जाएंगी। यह ठीक
भी है और गलत
भी। ठीक तब है,
जब उस
व्यक्ति का
शरीर गिर जाए।
और यह अंतिम
शरीर होगा। वीतरागता
को उपलब्ध
व्यक्ति का यह
शरीर अंतिम
होगा। इसके
बाद नए शरीर
को ग्रहण करने
का कोई उपाय
नहीं है।
क्योंकि
वासनाओं के
बीज, मूल
बीज भस्म हो
गए। तो नया
जन्म तो नहीं
होगा।
इसलिए
यह बात ठीक है
कि वीतराग
पुरुष की समस्त
प्रवृत्तियां
शून्य हो जाती
हैं। लेकिन यह
बात किसी और
अर्थ में गलत
भी है। क्योंकि
वीतरागता
के बाद भी इस
देह में कुछ
दिन रहना
होगा। बुद्ध चालीस
वर्षों तक इस
देह में थे।
ज्ञान की उपलब्धि
के बाद भी
शरीर को भूख
लगेगी, प्यास
भी लगेगी।
शरीर विश्राम
भी होगा। शरीर
विश्राम भी
चाहेगा। शरीर
को आक्सीजन की
भी जरूरत
होगी। जब तक
शरीर है, तब
तक शरीर की
सारी अपनी
प्रकृति के
अनुकूल जरूरतें
होंगी।
और
ये जो तीन गुण
हैं,
सत्व, रज,
तम, ये
तीन भी शरीर
के गुण हैं।
जैसे भूख—प्यास
शरीर को लगेगी,
वैसे ही
सत्य, रज, तम की
प्रक्रियाएं
भी जारी
रहेंगी। फर्क
जो हो जाएगा, वह यह कि भूख
लगते समय भी
बुद्ध जानते
हैं कि यह भूख
मुझे नहीं लगी
है, यह भूख
शरीर को लगी
है। प्यास
लगते समय भी
जानते हैं कि
इस प्यास का
मैं साक्षी
हूं भोक्ता नहीं
हूं कर्ता
नहीं हूं।
लेकिन
शरीर को तो
प्यास लगेगी
ही। शरीर को
तो भूख लगेगी
ही। शरीर के
जो भी गुणधर्म
हैं,
वे जारी
रहेंगे।
शुद्धतम रूप
में जारी
रहेंगे।
उनमें चेतना
के जुड़ जाने
से जो
विक्षिप्तता
पैदा होती है,
वह खो
जाएगी। इसलिए
प्रवृत्ति
जारी रहेगी।
बुद्ध
भी चलते हैं, उठते
हैं, समझाते
हैं, बोलते
हैं, सोते
हैं, भोजन
करते हैं, जागते
हैं। सारी
क्रियाएं
जारी हैं।
लेकिन इन
क्रियाओं के
कारण वे बंधते
नहीं हैं, वह
चीज टूट गई
है। इन
क्रियाओं से
उनका कोई तादात्म्य
नहीं है। ये
क्रियाएं
उनके आस—पास
हो रही हैं; बीच का
केंद्र इनसे
मुक्त हो गया
है। चेतना इनसे
अस्पर्शित और
अछूती रह जाती
है।
इसलिए
जो जन्मों —जन्मों
में
व्यक्तित्व
के आधार बने
होंगे, वे
आधार काम
करेंगे। इस
शरीर के गिर
जाने तक शरीर
सक्रिय होगा।
लेकिन यह
सक्रियता
वैसी ही हो
जाएगी, जैसे
आप साइकिल चला
रहे हों और
पैडल चलाना
बंद कर दिया
हो, फिर
सिर्फ पुरानी
गति और मोमेंटम
के कारण
साइकिल थोड़ी
दूर चलती चली
जाए। बाहर से
देखने वाले को
तो ऐसा लगेगा
कि अगर आपने
साइकिल चलानी
बंद कर दी है, तो साइकिल
रुक क्यों
नहीं जाती है!
आप
पैडल चलाने
बंद कर दिए
हैं,
लेकिन आप
मीलों से
साइकिल चला
रहे हैं, तो
एक गति चकों
ने ले ली है, वह गति अपनी
निर्जरा
करेगी। अब आप
बिना पैडल
मारे भी बैठे
हैं साइकिल पर,
साइकिल
चलती चली
जाएगी। यह जो
चलना होगा, इसको आप
नहीं चला रहे
हैं। अब यह
साइकिल ही चल रही
है। इसमें आप
कर्ता नहीं
हैं। आप सिर्फ
साक्षी हैं।
आप साइकिल पर
बैठे
हैं और साइकिल
चल रही है। और
एक अनूठा
अनुभव होगा कि
मैं नहीं चला
रहा हूं साइकिल
चल रही है। और
साइकिल इसलिए
चल रही है कि
पीछे मैंने
उसे चलाया था।
तो
जन्मों—जन्मों
में आपने शरीर
को चलाया है।
और जन्मों—जन्मों
में आपने अपने
गुणों को गति
दी है। सब
गुणों का मोमेंटम
हो गया है, सब गुणों
ने अपनी गति
पकड़ ली है। अब
वे चलते
जाएंगे। जब तक
गति क्षीण न
हो जाए, तब
तक आपका शरीर
चलता रहेगा।
लेकिन यह चलना
वैसा ही है, जैसे बिना
पैडल चलाए
साइकिल चल रही
हो।
पर
बाहर से देखने
वाले को तो
यही लगेगा, साइकिल
चल रही है, इसलिए
आप चला रहे
होंगे। उसका
लगना भी ठीक
है। लेकिन आप
जानते हैं कि
अब आप चलाना
छोड़ दिए हैं।
अब आप सिर्फ
प्रतीक्षा कर
रहे हैं कि
साइकिल रुक
जाए।
यह जो
भीतर की भाव—दशा
है, इसे
हमें पहचानने
में कठिनाई
होती है, क्योंकि
हम हमेशा गति
दे रहे हैं।
और हमें खयाल
में भी नहीं
आता कि बिना
गति दिए जीवन
कैसे चलेगा।
लेकिन
जीवन चलता है।
थोड़े दिन चल
सकता है। उन
थोड़े दिन का
मजा ही और है।
आपने पतवार
उठाकर रख ली
है, और
नाव अपनी गति
से बही चली
जाती है। न
आपकी अब आकांक्षा
है कि नाव चले.......।
और
ध्यान रहे, आप यह भी
कह सकते हैं
कि अगर चलाना
बंद कर दिया है,
तो आप ब्रेक
भी लगाकर
साइकिल से उतर
सकते हैं! आप
छलांग लगाकर
कूद सकते हैं!
जब चलाना ही
बंद कर दिया
है, तो अब
साइकिल पर
बैठे रहने का
क्या प्रयोजन
है?
इसे थोडा समझ
लेना जरूरी है।
क्योंकि जब तक
किसी चीज को
रोकने की
आकांक्षा बनी
रहे, उसका
अर्थ है कि
चलाने की आकांक्षा
का विपरीत रूप
मौजूद है। जब आकांक्षा
पूरी ही जाती
है, तो न
चलाने का मन
रह जाता है, न रुकने का
मन रह जाता है।
क्योंकि
ब्रेक लगाने
का तो एक ही
अर्थ होगा कि
बुद्ध और
महावीर को
आत्महत्या कर
लेनी चाहिए।
और कोई अर्थ
नहीं हो सकता।
अब कोई
प्रयोजन तो
रहा नहीं शरीर
का, इससे
छलांग लगा
जानी चाहिए।
लेकिन जीवन
में ब्रेक
लगाने का तो
एक ही अर्थ है
कि आप
आत्महत्या कर
लें, आत्मघात
कर लें।
ध्यान
रहे, आत्मघात
करने वाला
व्यक्ति जीवन
से मुक्त नहीं
हुआ है। जीवन
से बंधे होने
के कारण लोग
आत्मघात करते हैं।
यह उलटा दिखाई
पड़ेगा। लेकिन
जो लोग
आत्मघात करते
हैं, उनका निरीक्षण
करें। उनके
आत्मघात का
कारण यह नहीं
है कि वे जीवन
से मुक्त हो
गए हैं। उनके
आत्मघात का
सदा ही यही
कारण है कि
जीवन से
उन्होंने जो
चाहा था, वह
जीवन उन्हें
नहीं दे पाया।
वे जीवन से
मुक्त नहीं
हुए हैं, जीवन
से निराश हो
गए हैं। और
निराश उसी
मात्रा में
होते हैं हम, जिस मात्रा
में हमने आशा
बांधी हो।
किसी ने सोचा
हो कि जीवन
में स्वर्ग
मिलने वाला है
और वह न मिले, तो दुख होता
है। और वैसा
व्यक्ति
आत्मघात कर
लेता है।
ज्ञानी
को न तो
आकांक्षा है
कि जीवन चले, न रुकने
का कोई सवाल
है। क्योंकि न
चलने से कुछ
मिलने की आशा
है, न
रुकने से कुछ
मिलने की आशा
है। न तो वह
सोचता है कि
जीवन में चलता
रहूं तो मुझे
कोई स्वर्ग
मिलने वाला है।
न वह सोचता है
कि रुक जाने
से कोई स्वर्ग
मिलने वाला है।
वह जानता है
कि स्वर्ग तो
मैं हूं। चलने
और रुकने से उसका
कोई भी संबंध
नहीं है।
तो अगर
वह कोशिश करके
ब्रेक भी लगाए, तो समझना
कि अभी पैडल
मार रहा है।
क्योंकि
ब्रेक लगाना
भी पैडल मारने
का ही हिस्सा
है। वह कुछ कर
रहा है। अभी
कर्तापन उसका
नहीं गया है।
साक्षी नहीं
हुआ। अभी
ब्रेक लगा रहा
है। कल पैडल
लगा रहा था, अब वह ब्रेक
लगा रहा है।
लेकिन अभी
साइकिल से
उसका कर्तापन
जुड़ा हुआ है।
और साक्षीपन
का अर्थ हुआ
कि अब वह कुछ
भी नहीं कर
रहा है। अब जो
हो रहा होगा, वह जानता
है कि प्रकृति
से हो रहा है।
वही कृष्ण कह
रहे हैं।
कृष्ण
कह रहे हैं कि
जिस दिन कोई
जान लेता है कि
गुण ही गुण
में बर्त
रहे हैं, मैं पृथक हूं, मैं कुछ भी
नहीं कर रहा
हूं? मैं
करने वाला ही
नहीं हूं,
जिस दिन ऐसा
द्रष्टा— भाव
गहन हो जाता
है, उसी
दिन व्यक्ति
गुणातीत
अवस्था को
उपलब्ध हो
जाता है। उसी
दिन वह सच्चिदानंदघन
हो जाता है, उसी क्षण।
रुकने
की वासना भी
चलने की वासना
का हिस्सा है।
रुकना भी चलने
का एक ढंग है, क्योंकि
रुकना भी एक
क्रिया है। तो
ऐसा व्यक्ति
जिसकी
प्रवृत्ति खो
गई है।
ध्यान
रहे, हम
तो हमेशा
विपरीत में
सोचते हैं, इसलिए
कठिनाई होती
है। हम सोचते
हैं, जिसकी
प्रवृत्ति खो
गई है, वह
निवृत्ति को साधेगा।
निवृत्ति भी
प्रवृत्ति का
एक रूप है।
कुछ करना भी
कर्ता— भाव है;
और कुछ न
करने का आग्रह
करना भी कर्ता—
भाव है। अगर
मैं कहता हूं
कि यह मैं न
करूंगा, तो
इसका अर्थ यह
हुआ कि मैं
मानता हूं कि
यह मैं कर
सकता था। यह
भी मैं मानता
हूं कि यह
मेरा
कर्तृत्व है;
चाहूं तो
करूं, और
चाहूं तो न
करूं।
लेकिन
साक्षी का
अर्थ है कि न
तो मैं कर
सकता हूं, और न न
कर सकता हूं।
न तो
प्रवृत्ति
मेरी है, न
निवृत्ति
मेरी है।
प्रवृत्ति भी
गुणों की है
और निवृत्ति
भी गुणों की
है। गुण ही बर्त
रहे हैं। वे
ही चल रहे हैं;
वे ही रुक
जाएंगे। तो जब
तक चल रहे हैं,
मैं उन्हें
चलता हुआ
देखूंगा। और
जब रुक जाएंगे,
तब मैं
उन्हें रुका
हुआ देखूंगा।
जब तक जीवन है,
तब तक मैं
जीवन का
साक्षी; और
जब मृत्यु
होगी, तब
मैं मृत्यु का
साक्षी
रहूंगा।
कर्ता मैं न बनूंगा।
इसलिए
निवृत्ति को
आप मत सोचना
कि वह वास्तविक
निवृत्ति है।
अगर उसमें
कर्ता का भाव
है, तो
वह प्रवृत्ति
का ही
शीर्षासन
करता हुआ रूप है।
वह उसका ही
उलटा रूप है।
कोई दौड़ रहा
था कर्ता— भाव
से, कोई
खड़ा है कर्ता —
भाव से; लेकिन
कर्ता— भाव
मौजूद है।
बुद्ध
ने कहीं कहा
है कि न तो मैं
प्रवृत्त हूं
अब और न
निवृत्त; न तो मैं
गृहस्थ हूं अब
और न संन्यस्त,
न तो मैं
कुछ पकड़े
हूं और न मैं
कुछ छोड़ता हूं।
इसे
ठीक से खयाल
में ले लें, क्योंकि
जीवन के बहुत
पहलुओं पर यही
अड़चन है।
हम
सोचते हैं कि
कुछ कर रहे
हैं, इसको
न करें। हमारा
ध्यान क्रिया
पर लगा है, हमारा
ध्यान कर्ता
पर नहीं है।
क्योंकि करने
में भी मैं
कर्ता हूं न
करने में भी
मैं कर्ता हूं।
सारी
चेष्टा
द्रष्टा
पुरुषों की यह
है कि कर्ता
का भाव मिट
जाए। मैं होने
दूं र करूं न।
जो हो रहा है, उसे होने
दूं; उसमें
कुछ छेड़छाड़ भी
न करूं। जहां
कर्म जा रहे
हों, जहां
गुण जा रहे
हों, उन्हें
जाने दूं। मैं
उन पर सारी
पकड़ छोड़ दूं।
इसीलिए
संतत्व अति
कठिन हो जाता
है। साधुता
कठिन नहीं है।
क्योंकि
साधुता
निवृत्ति
साधती है। वह
प्रवृत्ति के
विपरीत है। वह
गृहस्थ के
विपरीत है।
वहां कुछ करने
को शेष है, विपरीत
करने को शेष
है। कोई हिंसा
कर रहा है, आप
अहिंसा कर रहे
हैं। कोई धन
इकट्ठा कर रहा
है, आप
त्याग कर रहे
हैं। कोई महल
बना रहा है, आप झोपड़े
की तरफ जा रहे
हैं। कोई शहर
की तरफ आ रहा
है, आप
जंगल की तरफ
जा रहे हैं।
वहां कुछ काम
शेष है।
मन को
काम चाहिए।
अगर धन इकट्ठा
करना बंद कर
दें, तो
मन कहेगा, बांटना
शुरू करो।
लेकिन कुछ करो।
करते रहो, तो
मन जिंदा
रहेगा। इसलिए
मन तत्काल ही
विपरीत
क्रियाएं
पकड़ा देता है।
स्त्रियों
के पीछे भागो।
अगर इससे
रुकना है, तो मन
कहता है, स्त्रियों
से भागो।
मगर भागते रहो।
क्योंकि मन का
संबंध स्त्री
से नहीं है, भागने से है।
या तो स्त्री
की तरफ भागो,
या स्त्री
की तरफ पीठ
करके भागो,
लेकिन
भागों। अगर
भागते रहे, तो कर्तापन
बना रहेगा।
अगर भागना
रुका, तो
कर्तापन रुक
जाएगा।
तो मन
ऐसे समय तक भी दौड़ाता
रहता है, जब कि दौड़ने
में कोई अर्थ
भी नहीं रह
जाता है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला नसरुद्दीन
अपने
चिकित्सक के
पास गया। तब
वह बहुत का हो
गया था। नब्बे
वर्ष उसकी
उम्र थी।
जीर्ण—शीर्ण
उसका शरीर हो
गया था। आंखों
से ठीक दिखाई
भी नहीं पड़ता
था। हाथ से
लकड़ी टेक—टेक
बामुश्किल चल
पाता था।
अपने
चिकित्सक से
उसने कहा कि
मैं बड़ी
दुविधा में और
बड़ी मुश्किल में
पड़ा हूं। कुछ
करें।
चिकित्सक ने
पूछा कि तकलीफ
क्या है? नसरुद्दीन ने कहा कि
संकोच होता है
कहते, लेकिन
अपने
चिकित्सक को
तो बात कहनी
ही पड़ेगी। मैं
अभी भी
स्त्रियों का
पीछा करता हूं।
इतना का हो
गया हूं अब यह
कब रुकेगा? मैं अभी भी
स्त्रियों का
पीछा कर रहा
हूं। आंखों से
दिखाई नहीं
पड़ता, पैरों
से चल नहीं
सकता, लेकिन
स्त्रियों का
पीछा करता
हूं!
उसके
चिकित्सक ने
कहा, नसरुद्दीन,
चिंता मत
करो। यह कोई
बीमारी नहीं
है। यह
तुम्हारे
स्वस्थ होने
का प्रतीक है
कि अभी भी तुम
जिंदा हो
नब्बे साल
में! इससे
तुम्हें दुखी
नहीं होना
चाहिए। नसरुद्दीन
ने कहा कि वह
मेरा दुख भी
नहीं है। तुम
फिर गलत समझे।
तकलीफ यह है
कि मैं
स्त्रियों का
पीछा तो करता
हूं लेकिन यह
भूल गया हूं
कि पीछा क्यों
कर रहा हूं।
आई चेज वीमेन, बट
आई काट रिमेंबर
व्हाय।
तकलीफ मेरी यह
है कि मुझे अब
याद नहीं पड़ता
कि मैं किसलिए
पीछा कर रहा
हूं। और अगर
स्त्री को पकड़
भी लिया, तो
करूंगा क्या!
यह मुझे याद
नहीं रहा है।
जिंदगी
में आपकी बहुत—सी
क्रियाएं एक न
एक दिन इसी
जगह पहुंच जाती
हैं, जब
आप करते रहते
हैं, और
अर्थ भी खो
जाता है, स्मृति
भी खो जाती है
कि क्यों कर
रहे हैं।
लेकिन पुराना मोमेंटम
है, गति है।
पहले दौड़ता
रहा है, दौड़ता रहा है। अब
दौड़ने का अर्थ
खो गया; मंजिल
भी खो गई; अब
प्रयोजन भी न
रहा। लेकिन
पुरानी आदत है,
दौड़े चला जा
रहा है।
शरीर
के साथ, शरीर के
गुणों के साथ
यही घटना घटती
है। रस्सी जल
भी जाती है, तो उसकी अकड़
शेष रह जाती
है। जली हुई, राख पड़ी हुई
लकड़ी में भी
उसकी पुरानी
अकड़ का ढंग तो बना
ही रहता है।
अब आप
जाग भी जाते
हैं, होश
से भी भर जाते
हैं, तो भी
गुणों की
पुरानी रेखाएं
चारों तरफ बनी
रहती हैं। और
उनमें पुरानी
गति का वेग है,
वे चलती
रहती हैं।
फर्क यह पड़
जाता है कि अब
आप उनको नया
वेग नहीं देते।
यह क्रांतिकारी
मामला है। यह
छोटी घटना
नहीं है।
आप
उनको नया वेग
नहीं देते। आप
उनमें नया रस
नहीं लेते। अब
वे चलती भी
हैं, तो अपने
अतीत के कारण।
और अतीत की
शक्ति की सीमा
है। अगर आप
रोज वेग न दें,
तो आज नहीं
कल पुरानी
शक्ति चुक
जाएगी। अगर आप
रोज शक्ति न
दें......,।
आप
पेट्रोल भरकर
गाड़ी को चला
रहे हैं।
जितना
पेट्रोल भरा
है, उतना
चुक जाएगा और
गाड़ी रुक
जाएगी। रोज
पेट्रोल
डालते चले जाते
हैं, तो
फिर चुकने का
कोई अंत नहीं
आता। आपने तय
भी कर लिया कि
अब पेट्रोल
नहीं डालेंगे,
तो पुराना
पेट्रोल थोड़ी
दूर काम देगा;
सौ—पचास मील
आप चल सकते
हैं।
बुद्ध
को चालीस वर्ष
में ज्ञान हो
गया, लेकिन
जन्मों —जन्मों
में जो ईंधन
इकट्ठा किया
है, वह
चालीस वर्ष तक
शरीर को और
चला गया। उस
चालीस वर्ष
में शरीर अपने
गुणों में बतेंगा,
बुद्ध
सिर्फ देखने
वाले हैं
द्रष्टा
और भोक्ता, द्रष्टा
और कर्ता, इसके
भेद को खयाल
में ले लें, तो अड़चन
नहीं रह जाएगी।
अगर आप कर्ता
हो जाते हैं, भोक्ता हो
जाते हैं, तो
आप नया वेग दे
रहे हैं। आपने
ईंधन डालना
शुरू कर दिया।
अगर आप सिर्फ
द्रष्टा रहते
हैं, तो
नया वेग नहीं
दे रहे हैं।
पुराने वेग की
सीमा है, वह
कट जाएगी। और
जिस दिन
पुराना वेग
चुक जाएगा, शरीर गिर
जाएगा; गुण
वापस प्रकृति
में मिल
जाएंगे, और
आप सच्चिदानंदघनरूप
परमात्मा में।
दूसरा
प्रश्न :
जड़ त्रिगुणों
से चैतन्य
साक्षी का तदात्मय
कैसे संभव हो
पाता है, यह समझ
में नहीं आता!
दर्पण में आप
अपना चेहरा
देखते हैं।
दर्पण जड़ है, लेकिन
आपके चेहरे का
प्रतिबिंब
बनाता है।
चेहरा देखकर
आप खुश होते
हैं और आप
कहते हैं, यह
मैं हूं। वह
जो दर्पण में
आपको दिखाई पड़
रहा है, उसे
देखकर आप कहते
हैं, यह
मैं हूं!
कितना सुंदर
हूं! कितना
स्वस्थ हूं!
आपके
शरीर में जो
प्रकृति काम
कर रही है, वह जड़ है,
लेकिन
दर्पण की तरह
है। उसमें आप
अपना
प्रतिबिंब पकड़ते हैं।
और दर्पण में
तो आपको पता
चलता है कि
प्रतिबिंब है,
लेकिन अगर
दर्पण सदा ही
आपके साथ जुड़ा
रहे, उठें,
बैठें,
कुछ भी करें,
दर्पण साथ
ही हो; सोए,
कहीं भी
जाएं, दर्पण
साथ ही हो, तो
आपको यह भूल
जाएगा कि
दर्पण में जो
दिखाई पड रहा
है, वह
मेरा
प्रतिबिंब है।
आपको लगने
लगेगा, वह
मैं हूं।
यही
घटना घट रही
है। आप अपने
प्रकृति के
गुणों में
अपने
प्रतिबिंब को
पा रहे हैं।
और प्रतिबिंब
को सदा पा रहे
हैं। एक क्षण
को भी वह
प्रतिबिंब
हटता नहीं
वहां से।
निरंतर उस
प्रतिबिंब को
पाने के कारण
एक भी क्षण
उसका अभाव
नहीं होता। इस
सतत चोट के
कारण यह भाव
निर्मित होता
है कि यह मैं
हूं। यह भाव
इसलिए हो पाता
है कि चेतना
समर्थ है सत्य
को जानने में।
चेतना चूंकि
समर्थ है सत्य
को जानने में, इसलिए
चेतना समर्थ
है भ्रांत
होने में।
हमारे
सभी सामर्थ्य
दोहरे होते
हैं। आप जिंदा
हैं, क्योंकि
आप मरने में
समर्थ हैं। आप
स्वस्थ हैं, क्योंकि आप
बीमार होने
में समर्थ हैं।
आपसे ठीक हो
सकता है, क्योंकि
आप गलत करने
में समर्थ हैं।
इसे ठीक से
समझ लें।
हमारी
सारी
सामर्थ्य
दोहरी है। अगर
विपरीत हम न
कर सकते हों, तो
सामर्थ्य है
ही नहीं। जैसे
किसी आदमी को
हम कहें कि
तुम ठीक करने
के हकदार हो, लेकिन गलत
करने की तुम्हें
स्वतंत्रता
नहीं है।
तुम्हें
सिर्फ ठीक
करने की
स्वतंत्रता
है। तो
स्वतंत्रता
समाप्त हो गई।
स्वतंत्रता
का अर्थ ही यह
है कि गलत
करने की भी
स्वतंत्रता
है। तभी ठीक
करने की
स्वतंत्रता
का कोई अर्थ
है।
चेतना
स्वतंत्र है।
स्वतंत्रता
चेतना का गुण
है। वह उसका
स्वभाव है।
स्वतंत्रता
का अर्थ है कि
दोनों तरफ
जाने का उपाय
है। मैं भांति
भी कर सकता
हूं। मैं गलत
भी कर सकता
हूं। और गलत
कर सकता हूं, इसीलिए
ठीक को खोजने
की सुविधा है।
ये दो
उपाय हैं, या तो मैं
अपने को जान लूं, जो मैं हूं; यह सत्य का
जानना होगा।
और या मैं
अपने को उससे
जोड़ लूं,
जो मैं नहीं
हूं; यह
असत्य के साथ
एक हो जाने का
मार्ग होगा।
ये दोनों
मार्ग खुले
हैं।
सभी का
मन होता है कि
यह
स्वतंत्रता
खतरनाक है। यह
न होती, तो अच्छा था।
लेकिन आपको
पता नहीं कि
आप क्या सोच
रहे हैं। आपको
पता नहीं है, आप क्या मांग
रहे हैं।
हर
आदमी सोचता है
कि मैं सदा ही
स्वस्थ होता और
कभी बीमार न
होता, तो
बहुत अच्छा।
लेकिन आपको
पता नहीं। आप
जो मांग रहे
हैं, वह
नासमझी से भरा
हुआ है। अगर
आप कभी भी
बीमार न होते,
तो आपको
स्वास्थ्य का
कोई पता ही
नहीं चलता। और
अगर आप दुखी न
हो सकते होते,
तो सुख की
कोई प्रतीति
नहीं हो सकती।
कैसे होती सुख
की प्रतीति? और सत्य अगर
आपको मिला ही
होता हाथ में
और असत्य की
तरफ जाने का
कोई मार्ग न
होता, तो
वह सत्य दो कौड़ी
का होता, उसका
कोई मूल्य
आपको कभी पता
नहीं चलता।
सत्य का मूल्य
है, क्योंकि
हम उसे खो
सकते हैं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
जगत में प्रेम
की संभावना है, क्योंकि
प्रेम खो सकता
है। और
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
जिस दिन हम
आदमी को अमर
कर लेंगे और
आदमी की
मृत्यु बंद हो
जाएगी, उसी
दिन जीवन में
जो भी
महत्वपूर्ण
है, सब खो
जाएगा। सब
महत्वपूर्ण
मृत्यु पर
टिका है।
आप
प्रेम कर पाते
हैं, क्योंकि
जिसे आप प्रेम
करते हैं, वह
कल मर सकता है।
अगर आपको पता
हो कि शाश्वत
है सब, न
कोई मर रहा है,
न कोई मरने
का सवाल है, प्रेम
तिरोहित हो
जाएगा।
मृत्यु के
बिना प्रेम का
कोई उपाय नहीं।
मृत्यु के
बिना मित्रता
व्यर्थ हो
जाएगी।
मृत्यु है, इसलिए
मित्रता में
इतनी
सार्थकता है।
मृत्यु न होगी,
तो जीवन की
सारी जिन
चीजों को हम
मूल्य दे रहे हैं,
कोई मूल्य
नहीं है।
विपरीत से
मूल्य पैदा
होता है।
इसलिए
सुबह जब फूल
खिलता है, उसका
सौंदर्य
सिर्फ खिलने
में ही नहीं
है, इस बात
में भी छिपा
है कि सांझ वह
मुरझा जाएगा।
और अगर फूल
कभी न मुर्झाए,
तो वह
प्लास्टिक का
फूल हो जाए।
और अगर बिलकुल
ही—वह
प्लास्टिक का
फूल भी नष्ट
होता है—अगर
फूल सदा के
लिए हो जाए, तो उसकी तरफ
देखने का भी
कोई अर्थ नहीं
रह जाएगा।
जीवन
की सारी
रहस्यमयता
विपरीत पर
निर्भर है।
सत्य का मूल्य
है, क्योंकि
असत्य में
उतरने का उपाय
है। और
परमात्मा में
जाने का रस है,
क्योंकि
संसार में आने
का दुख है।
लोग
मुझसे पूछते
हैं, आखिर
परमात्मा
संसार बना ही
क्यों रहा है?
संसार है ही
क्यों?
अगर
संसार न हो, तो
परमात्मा का
कोई भी रस नहीं
है। परमात्मा
अपने से
विपरीत को
पैदा कर रहा
है, ताकि
आप उसे खो
सकें और पा
सकें। और जिसे
हम खो सकते
हैं, उसे
पाने का आनंद है।
जिसे हम खो ही
नहीं सकते, वह हमारे
सिर पर बोझ हो
जाएगा।
अगर
परमात्मा कुछ
ऐसा हो कि
जिसे आप खो ही
न सकें, तो आप जितने
परमात्मा से
ऊब जाएंगे, उतने किसी
चीज से नहीं।
परमात्मा से
ऊबने का कोई
उपाय नहीं है,
क्योंकि
क्षण में आप
उसे खो सकते
हैं। और जिस
दिन आप संसार
से ऊब जाएं, उसी क्षण
परमात्मा में
लीन वापस हो
सकते हैं।
अगर इस
बात को ठीक से
समझ लें, तो जीवन की
बहुत—सी
समस्याएं साफ
हो जाएंगी।
पहला
बुनियादी
सिद्धात है कि
मनुष्य की
आत्मा
स्वतंत्रता
है, परम स्वातंत्र्य
है, टोटल फ्रीडम।
यह जो परम स्वातंत्रय
है चेतना का, इसको ही
हमने मोक्ष
कहा है। जो
इसे जान लेता
है, वह
मुक्त है। जो
इसे नहीं
जानता, वह
बंधा हुआ है।
लेकिन
वह बंधा
इसीलिए है कि
वह बंधना
चाहता है। और
तब तक बंधा
रहेगा, जब तक बंधन
इतना दुख न
देने लगे कि
उसे तोड्ने
का भाव न आ जाए,
उससे छूटने
का भाव न आ जाए,
उससे उठने
का भाव न आ जाए।
और इस
जगत में कोई
भी घटना असमय
नहीं घटती; अपने समय
पर घटेगी। समय
का मतलब यह है
कि जब आप पक
जाएंगे, तब
घटेगी। जब फल
पक जाएगा, तो
गिर जाएगा। जब
तक कच्चा है, तब तक लटका
रहेगा। जिस
दिन आपका दुख
भी पक जाएगा
संसार के साथ,
उस दिन आप
तत्त्व। टूट
जाएंगे और
परमात्मा में
गिर जाएंगे।
अगर आप
अटके हैं, तो इसलिए
नहीं कि आपकी
साधना में कोई
कमी है। आप
अटके हैं
इसलिए कि आप
दुख को भी
पूरा नहीं भोग
रहे हैं। आप
पकने के भी
पूरे उपाय
नहीं होने दे
रहे हैं।
समझ
लें कि एक फल
जो धूप में
पकता हो, वह फल अपने
को छाया में
छिपाए हुए है
कि धूप न लग
जाए। और फिर
वह सोच रहा है,
मैं कच्चा
क्यों हूं! आप
ऐसे ही फल हैं,
जो सब तरफ
से अपने को
छिपा भी रहे
हैं, बचा
भी रहे हैं।
उससे ही आप
बचा रहे हैं, जिसकी पीडा
के कारण ही आप
मुक्त हो
सकेंगे।
इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं
संसार में
पूरे जाओ, ताकि तुम
संसार के बाहर
आ सको। बाहर
जाने का एक ही
उपाय है कि
तुम पूरे भीतर
चले जाओ; वहां
कुछ और जानने
को शेष न रह
जाए। दुख से
छूटने की एक
ही व्यवस्था
है, एक ही
विधि है। बाकी
सब विधियां
बहाने हैं। और
वह विधि यह है
कि तुम दुख को
पूरा भोग लो।
तुम उसमें पक
जाओ। तुम अपने
ही आप गिर
जाओगे।
कृष्ण
यही कह रहे
हैं कि अर्जुन, तू
व्यर्थ ही
परेशान हो रहा
है। गुण अपनी
गति से चल रहे
हैं। गुण अपनी
गति से पक रहे
हैं। और जहां
से तू भागना
चाहता है, वहां
से भागकर तू
कभी मुक्त न
हो सकेगा।
क्योंकि तू
छाया खोज रहा
है। इस युद्ध
से भागकर तू
बचा लेगा अपने
को उस महापीड़ा
से गुजरने से,
जो कि
मुक्ति का
कारण बन जाएगी।
तू इस युद्ध
से गुजर जा।
तू इस युद्ध
को हो जाने दे।
तू रोक मत। तू
डर भी मत। तू
संकोच भी मत
ले। तू निर्भय
भाव से इसमें
प्रवेश कर जा।
और जो घटना
तेरे चारों
तरफ इकट्ठी हो
गई है, उसको
उसकी पूर्णता
में तेरे भीतर
बिंध
जाने दे। यह
आग पूरी जल
उठे। तू इसमें
पूरी तरह राख
हो जा। उस राख
से ही तेरे नए
जीवन का
अंकुरण होगा।
उस राख से ही
तू अमृत को
जानने में
समर्थ हो पाएगा।
जो भी, जो भी
जीवन में है, वह अकारण
नहीं है। दुख
है, संसार
है, बंधन
हैं, वे
अकारण नहीं
हैं। उसकी
उपादेयता है।
और बड़ी
उपादेयता यह
है कि वह अपने
से विपरीत की
तरफ इशारा
करता है।
आपकी
चेतना बंध
सकती है, क्योंकि
आपकी चेतना
स्वतंत्र हो
सकती है। और
यह आपके हाथ
में है। और जब
मैं कहता हूं
आपके हाथ में
है, तब
आपको ऐसा लगता
है, तो फिर
मैं इसी वक्त
स्वतंत्र
क्यों नहीं हो
जाता? आप
सोचते ही हैं
कि आप इसी
वक्त
स्वतंत्र
क्यों नहीं हो
जाते! लेकिन
उपाय आप सब कर
रहे हैं कि आप
बंधे रहें।
एक
मित्र मेरे
पास आए। कहते
थे, मन
बड़ा अशांत है;
शांति का
कोई उपाय
बताएं। मैंने
उनसे पूछा कि शांति
की फिक्र ही न
करें, पहले
मुझे यह बताएं
कि अशांत
क्यों हैं? क्योंकि मैं
शांति का उपाय
बताऊं और
आप अशांति का
आयोजन किए चले
जाएं, तो
कुछ हल न होगा।
और उससे और
असुविधा होगी।
वैसी हालत हो
जाएगी कि एक
आदमी कार में एक्सीलरेटर
भी दबा रहा है
और ब्रेक भी
लगा रहा है।
इसीलिए
कार में
इंतजाम करना
पड़ा—क्योंकि
आदमी का
स्वभाव
परिचित है
हमें—कि उसी
पैर से एक्सीलरेटर
दबाएं और उसी
से ब्रेक।
क्योंकि आपसे
डर है कि आप
दोनों काम एक
साथ कर सकते
हैं। आप एक
साथ दोनों काम
कर सकते हैं, एक्सीलरेटर भी दबा दें
और ब्रेक भी
दबा दें। तो
कठिनाई खड़ी हो
जाए। तो ब्रेक
दबाने के लिए एक्सीलरेटर
से पैर हट आए।
लेकिन
मन के साथ हम
ऐसा नहीं कर
पा रहे हैं। मन
के साथ हमारी
हालत ऐसी है
कि हम दोनों
काम एक साथ
करना चाहते
हैं।
उन
मित्र से
मैंने पूछा कि
तकलीफ क्या है? किस वजह
से अशांत हैं?
तो
उन्होंने कहा,
अशांति का
कारण यह है कि
मेरा लड़का
मेरी मानता
नहीं।
किसका
लड़का किसकी
मानता है? इसमें
लडका कारण
नहीं है। इसमें
आप मनाना
क्यों चाहते
हैं? लड़का
अपना जीवन जीएगा।
मैंने उनसे
पूछा, आपने
अपने बाप की
मानी थी?
कौन
अपने बाप की
मानता है? लड़का और
रास्तों पर
चलेगा, जिन
पर बाप कभी
नहीं चला।
लड़का और दूसरी
दुनिया में जीएगा, जिसमें
बाप कभी नहीं
जीया। लड़के और
बाप के समय
में भेद है, उनके
मार्गों में
भेद होगा।
उनकी
परिस्थितियों
में भेद है, उनके
विचारों में
भेद होगा।
लड़का अगर
जिंदा है, तो
बाप से भिन्न
चलेगा। लड़का
अगर मुर्दा है,
तो बाप की
मानकर चलेगा।
अब बाप
का दुख यह है
कि लड़का अगर
मुर्दा है, तो वह
परेशान है।
अगर लड़का
जिंदा है, तो
वह परेशान है।
लड़का मुर्दा
है, तो वह
समझता है कि न
होने के बराबर
है।
आपको
खयाल में नहीं
है, अगर
लड़का बिलकुल
आप जैसा कहें,
वैसा ही करे,
तो भी आप
दुखी हो
जाएंगे। आप
कहें बैठो, तो वह बैठ
जाए। आप कहें
उठो, तो उठ
जाए। आप कहें
बाएं घूमो,
तो बाएं घूम
जाए। आप जो
कहें उसको
रत्ती—रत्ती
वैसा ही करे, तो आप सिर
पीट लेंगे। आप
कहेंगे, यह
लड़का क्या हुआ, एक
व्यर्थता है।
इससे तो होता
न होता बराबर
है। इसके होने
का कोई अर्थ
ही नहीं है।
होने का पता
ही भिन्नता से
चलता है।
तो आप
इसलिए दुखी
नहीं हैं, मैंने
उनसे कहा कि
लड़का मानता
नहीं है। आप
मनाना क्यों
चाहते हैं कि
माने? आपका
दुख आपके कारण
आ रहा है। आप
अपने अहंकार
को थोपना
चाहते हैं। और
मेरे पास आप
शांति की तलाश
करने आए हैं।
लड़के को अपने
मार्ग पर चलने
दें, अशांति
फिर कहां है?
तब
उनका घाव छू
गया। तब उन्होंने
कहा, आप
क्या कह रहे
हैं! अगर उसको
मार्ग पर चलने
दें, तो सब
बर्बाद कर
देगा। सब धन
मिटा डालेगा।
मैंने
उनको पूछा, आप कब तक
धन की सुरक्षा
करिएगा? कल
आप समाप्त हो
जाएंगे और धन
मिटेगा। आपका
लड़का मिटाए, कोई और
मिटाए; धन
मिटेगा। धन
मिटने को है।
तो आपका दुख लड़के
से नहीं आ रहा
है। आपका दुख
धन पर जो आपकी
पकड है, उससे
आ रहा है। आप
मरेंगे दुखी।
क्योंकि मरते
वक्त आपको
लगेगा, अब
धन का क्या
होगा! कोई न
कोई मिटाएगा।
इसलिए
धनी न सुख से
जी पाता है, न सुख से
मर पाता है।
मरते वक्त यह
भय लगता है कि
मैंने जिंदगीभर
कमाया, अब
इसको कोई मिटा
देगा। और कोई
न कोई मिटाएगा
आखिर।
इस जगत
में जो भी
बनाया जाता है, वह मिटता
है। इस जगत
में कोई भी
ऐसी चीज नहीं,
जो न मिटे।
आपका धन अपवाद
नहीं हो सकता।
तो आप दुखी
इसलिए हो रहे
हैं कि आपका
धन कोई न मिटा
दे, अशांत
इसलिए हो रहे
हैं। और शांति
की कोई तरकीब
खोजते हैं।
मान
लें कि धन तो
मिटने वाली
चीज है, मिटेगी। और
लड़के अपने
मार्गों पर
जाएंगे। और
पिता लड़कों को
पैदा करता है,
इसलिए उनके
जीवन का मालिक
नहीं है। फिर
मुझे कहें कि
दुख कहां है।
अशांति
के कारण खो
जाएं, तो
आदमी शांत हो
जाता है। शांति
के कारण खोजने
की जरूरत ही
नहीं है। शांति
मनुष्य का
स्वभाव है। अशांति
अर्जित करनी
पड़ती है। हम अशांति
अर्जित करते
चले जाते हैं
और शांति की
पूछताछ शुरू
कर देते हैं।
अशांति
के साथ जो इनवेस्टमेंट
है, वह
भी हम छोड़ना
नहीं चाहते।
जो लाभ है, वह
भी हम लेना
चाहते हैं। और
शांति के साथ
जो लाभ मिल
सकता है, वह
भी हम लेना
चाहते हैं। और
दोनों हाथ लड्डूओं
का कोई भी
उपाय नहीं है।
यह
संसार के साथ
हमारा जोड़ है, गुणों के
साथ, शरीर
के साथ, हमारा
तादात्म्य है,
उसमें भी
हमें लाभ
दिखाई पड़ता है,
इसलिए है।
हमने जानकर वह
बनाया हुआ है।
हम अपने को
समझाए हुए हैं
कि ऐसा है।
फिर संतों की
बातें सुनते
हैं, उससे
भी लोभ जगता
है कि हमको भी
यह गुणातीत अवस्था
कैसे पैदा हो
जाए! तो हम
पूछना शुरू
करते हैं, क्या
करें? कैसे
इससे छूटें?
मजा करीब—करीब
ऐसा है कि
जिसको आप पकड़े
हुए हैं, आप
पूछते हैं, इससे कैसे छूटें? आप
पकड़े हुए
हैं, यह
खयाल में आ
जाए, तो
छूटने के लिए
कुछ भी न करना
होगा, सिर्फ
पकड़ छोड़ देनी
होगी।
इस
शरीर के साथ
आप अपने को एक
मान लेते हैं।
आप पकड़े
हुए हैं। आप
इस शरीर को
सुंदर मानते
हैं। इस शरीर
के साथ भोग की
आशा है। इस
शरीर से आपको
सुख मिलते हैं, चाहे वे
कोई भी सुख
हों—चाहे
संभोग का सुख
हो, चाहे
स्वादिष्ट
भोजन का सुख
हो, चाहे
संगीत का सुख
हो—इस शरीर के
माध्यम से
आपको मिलते
हैं। वे सब
सुख हैं। अगर
वे सुख आपको
अभी भी सुख
दिखाई
पड़ रहे हैं, तो शरीर
के साथ आप पकड़
कैसे छोड़ सकत्ए।
हैं! क्योंकि
इसके द्वारा
ही वे मिलते
हैं। अंत तक पकड़े रहते
हैं।
एक बड़ी
महत्वपूर्ण
कहानी है।
अमेरिकी
अभिनेत्री मर्लिन मनरो मरी, तो एक
कहानी
प्रचलित हो गई
कि जब वह
स्वर्ग के द्वार
पर पहुंची, तो सेंट
पीटर, जो
स्वर्ग के
द्वारपाल हैं,
ईसाइयों के
स्वर्ग के
द्वारपाल हैं,
उन्होंने मनरो को
देखा। वह अति
सुंदर उसकी
काया। सेंट
पीटर ने कहा, एक नियम है
स्वर्ग में
प्रवेश का।
स्वर्ग के
द्वार के बाहर
एक छोटा—सा
पुल है, उस
पुल पर से
गुजरना पडता
है। उस पुल के
नीचे अनंत खाई
है। उस खाई की
ही गहराई में
नरक है। उस
पुल पर से
गुजरते समय
अगर एक भी बुरा
विचार आ जाए—बुरे
विचार का मतलब,
शरीर से
बंधा हुआ
विचार आ जाए—तों तत्क्षण
व्यक्ति पुल
से नीचे गिर
जाता है और
नरक में प्रवेश
हो जाता है।
मनरो और सेंट
पीटर दोनों उस
पुल से चले।
और घटना यह
घटी कि दो—तीन
कदम के बाद
सेंट पीटर
नीचे गिर गए। मनरो जैसी
सुंदर स्त्री
को चलते देखकर
कुछ खयाल सेंट
पीटर को आ गया
होगा! स्वर्ग
के द्वार पर
खड़े होकर भी
अगर शरीर से
सुख लेने का
जरा—सा भी
खयाल आ जाए, तो
तादात्म्य हो
गया। जिस चीज
से हमें सुख
लेने का खयाल
होता है, उसी
से तादात्म्य
हो जाता है।
शरीर से सुख
मिल सकता है, जब तक यह खयाल
है, तब तक
आप जुड़े
रहेंगे। जिस
दिन आपको यह
समझ में आ
जाएगा कि शरीर
से मिलने वाला
हर सुख केवल
दुख का ही एक
रूप है, जिस
दिन आप यह खोज
लेंगे कि शरीर
से मिलने वाले
हर सुख के
पीछे दुख ही
छिपा है, सुख
केवल ऊपर की
पर्त है, सिर्फ
कड्वी
जहर की गोली
के ऊपर लगाई गई
शक्कर से
ज्यादा नहीं,
उसी दिन
तादात्म्य
टूटना शुरू हो
जाएगा।
यह
पूछना कि कैसे
जड़ त्रिगुणों
से चैतन्य का
तादात्म्य
संभव हो पाता
है?
इसीलिए
संभव हो पाता
है कि आप
स्वतंत्र हैं।
चाहें तो
तादात्म्य
बना सकते हैं, चाहें तो
हटा सकते हैं।
जब तक आप
सोचते हैं कि सुख
बाहर से मिल
सकता है, तब
तक यह
तादात्म्य
नहीं छूटेगा।
जिस दिन आप
जानेंगे, सुख
मेरे भीतर है,
मेरा
स्वभाव है, उस दिन यह
तादात्म्य
छूट जाएगा।
अभी तो
हम परमात्मा
की भी खोज
करें, तो
भी शरीर से ही
करनी पड़ती है।
अभी तो हम
पूछते हैं, परमात्मा को
भी खोजें, तो
कैसा आसन
लगाएं? किस
भांति खड़े हों?
कैसे पूजा
करें? कैसे
पाठ
करें? कहां
जाएं—हिमालय
जाएं, कि
मक्का, कि
मदीना, कि
काशी, कि जेरुसलम—कहां
जाएं? कैसा
भोजन करें? कैसे बैठें?
कैसे उठें?
ताकि
परमात्मा को
पा लें!
हमारी
शरीर के साथ
जोड़ की स्थिति
इतनी गहन हो गई
है कि हम
परमात्मा को
भी शरीर से ही
खोजना चाहते
हैं। हमें
खयाल ही नहीं
है कि शरीर के
अतिरिक्त भी हमारा
कोई होना है।
और यह खयाल भी
तभी आएगा, जब शरीर
से हमें सब
तरफ दुख दिखाई
देने लगें।
बुद्ध
ने निरंतर, सुबह से
सांझ, एक
ही बात कही है
अपने
भिक्षुओं को
कि जीवन दुख
है। और सिर्फ
इसलिए कही है,
ताकि तुम
परम जीवन को
जान सको। जब
तुम्हें यहां
दुख ही दुख
दिखाई देने
लगे, तो इस
दुख से छूटने
में जरा भी
बाधा नहीं रह
जाएगी। जहां
दुख है, वहा
से मन हटने
लगता है। और जहां
सुख है, वहां
मन की सहज गति
है।
तीसरा
प्रश्न :
कृष्ण
ने कई जगह सच्चिदानंदघन
परमात्मा
शब्द को
दोहराया है।
यह सच्चिदानंदघन
परमात्मा
क्या है?
आप! आपकी तरफ
इशारा कर रहे
हैं कृष्ण। वह
जो चैतन्य है
आपका, जहां
से आप मुझे
सुन रहे हैं, जहां से आप
मुझे देख रहे
हैं; वह जो
आपके भीतर
बैठी हुई जगह
है, खाली
जगह है, शून्य
है।
एक तो
मैं हूं यहां, बोल रहा
हूं। और एक आप
हैं, जो
सुन रहे हैं।
आपके कान नहीं
सुन रहे हैं।
कान तो केवल
शब्दों को
वहां तक ले जा
रहे हैं, जहां
आप सुन रहे
हैं। एक तो
मैं हूं,
जो यहां बैठा
हूं। और आप
मुझे देख रहे
हैं। आपकी आंखें
मुझे नहीं देख
रही हैं। आंखें
तो केवल मेरे
प्रतिबिंब को
वहां तक ले जा
रही हैं, भीतर
आपके, जहां
आप देख रहे
हैं।
वह जो
भीतर छिपा है
सारी
इंद्रियों के
बीच में, वह जो
केंद्र है
सारी
इंद्रियों के
बीच में; जो
स्वयं कोई
इंद्रिय नहीं
है। वह जो
चेतना का
केंद्र है
भीतर, जहां
से सारा होश
है, जिसके
कारण इंद्रिया
चारों तरफ देख
रही हैं, पहचान
रही हैं, उसकी
तरफ इशारा है।
वह सच्चिदानंदघन
परमात्मा है।
यह
शब्द समझ लेने
जैसा है।
सच्चिदानंद, सत चित
आनंद, तीन
बड़े
महत्वपूर्ण
शब्दों से बना
है।
सत का
अर्थ होता है, जिसकी ही
एकमात्र
सत्ता है।
बाकी सब चीजें
स्वभवत
हैं। वस्तुत:
जो सत्य है, जिसका एक्सिस्टेंस
है, वह सत।
बाकी आप जो
चारों तरफ देख
रहे हैं, वह
कोई भी
वास्तविक
नहीं है। सब
बहता हुआ
प्रवाह है; स्वप्न की
लंबी एक धारा
है। कल्पना से
ज्यादा उसका
मूल्य नहीं है।
और आप देख भी
नहीं पाते कि
वहा चीजें बदल
जा रही हैं।
वहां किसी चीज
की सत्ता नहीं
है। परिवर्तन
ही वहां सब
कुछ है। जिसकी
वास्तविक
सत्ता है, वह
कभी
रूपांतरित
नहीं होगा।
भारतीय
मनीषियों का
सत्य का एक
लक्षण है, और वह यह
कि जो कभी
रूपांतरित न
हो, जो सदा
वही रहे, जो
है। जो कभी
बदले न, जिसके
स्वभाव में
कोई परिवर्तन
न हो, जिसके
स्वभाव में
थिरता हो, अनंत
थिरता हो, वही
सत्य है। बाकी
सब चीजें जो
बदल जाती हैं,
वे सत्य
नहीं हैं।
बदलने का मतलब
ही यह है कि
उनके भीतर कोई
सब्स्टेंस,
कोई सत्व
नहीं है। ऊपर—ऊपर
की चीजें हैं,
बदलती चली
जाती हैं।
जो सदा अपरिवर्तित
खड़ा है! आपके
भीतर एक ऐसा
केंद्र है, जो सदा
अपरिवर्तित
खड़ा है। आप
बच्चे थे, तब
भी वह वैसा ही
था। आप जवान
हो गए, तब
भी वह वैसा ही
है। वह जवान
नहीं हुआ, आपकी
देह ही जवान
हुई। यह जवानी
गुणों का
वर्तन है। कल
आप के हो
जाएंगे, तब
भी वह का नहीं
होगा। यह बुढ़ापा
भी आपके शरीर
के गुणों का
वर्तन होगा।
एक दिन
आप पैदा हुए, तब वह
पैदा नहीं हुआ।
और एक दिन आप
मरेंगे, तब
वह मरेगा नहीं।
वह सदा वही है।
वह जन्म के
पहले भी ऐसा
ही था, और
मृत्यु के बाद
भी ऐसा ही
होगा। वह आधार
है। उस पर सब
चीजें आती और
जाती हैं।
लेकिन वह
स्वयं निरंतर
वैसा का वैसा
बना है।
उस मूल
आधार को कहते
हैं सत।
दूसरा
शब्द है, चित। वह मूल
आधार केवल है
ही नहीं, बल्कि
चेतन है, होश
से भरा है।
होश उसका
लक्षण है। उसे
कुछ भी उपाय
करके बेहोश
नहीं किया जा
सकता। जब आप
बेहोश हो जाते
हैं, तब भी
वह बेहोश नहीं
होता। सिर्फ
आपके गुण
बेहोश हो जाते
हैं। जब आपको
कोई शराब पिला
देता है, तो
चित में तो
शराब डाली
नहीं जा सकती।
शराब तो शरीर
में ही डाली
जाती है। जब
आपको मार्फिया
दिया जा रहा
है, तब भी; क्लोरोफार्म
सुंघाया जा रहा
है, तब भी, जो भी हो रहा
है, वह
शरीर में हो
रहा है; शरीर
के गुणधर्मों
में हो रहा है।
वह जो भीतर
चित है, उसको
बेहोश करने का
कोई उपाय नहीं
है।
तांत्रिकों
में तो बड़ी
पुरानी
साधनाएं हैं, जिनमें
जहर का, शराब
का. सब तरह के
नशे—गांजा, भाग, अफीम—सबका
उपयोग किया
जाता है। और
उपयोग इसलिए
किया जाता है,
ताकि इस बात
की परख आ जाए
कि कैसे ही
नशे का तत्व
हो, कैसा
ही मादक
द्रव्य हो, वह केवल
शरीर को छूता
है, मुझे
नहीं। और तब
तक तांत्रिक
नहीं मानता कि
आप स्थितप्रज्ञ
हुए, गुणातीत
हुए, जब तक
कि आपको सब
तरह के जहर न
दे दिए जाएं, और आप होश
में न बने
रहें। अगर आप
होश खो दें, तो वह मानता
है, अभी आप
गुणातीत नहीं
हुए। होश बना
ही रहे, भीतर
के होश की
धारा न टूटे।
आपके
भीतर के होश
की धारा भी
नहीं टूटती।
किसी के भीतर
की धारा नहीं
टूटती। लेकिन
आप भीतर की
धारा से
परिचित ही
नहीं हैं।
भीतर तो कोई
जागा ही रहता
है। वह उसका
स्वभाव है। चितता, कांशसनेस,
उसका
स्वभाव है।
लेकिन
आप अपने को
माने हुए हैं
शरीर। इसलिए
जब शरीर बेहोश
होता है, तो आप समझते
हैं, आप
बेहोश हो गए।
यह आपकी
मान्यता है।
इस मान्यता के
कारण आप समझ
लेते हैं कि
बेहोश हो गए।
आप बेहोश होते
नहीं।
अगर आप हिम्नोसिस
से परिचित हैं, तो आपको
पता होगा कि हिम्नोसिस
का सारा खेल
इतना ही है कि हिम्नोटाइजर
जो आपसे कहे, आप उसको मान
लें। अगर आप
मान लें, तो
वैसा ही होना
शुरू हो जाएगा।
मान्यता तथ्य
बन जाती है।
अगर हिप्नोटिस्ट
कहता है कि
आपके हाथ में
उसने एक
अंगारा रख दिया
है......। आप आंख
बंद किए पड़े
हैं और आपके
हाथ में उठाकर
एक रुपए का सिक्का
रख देता है।
कहता है, अंगारा रख
दिया जलता हुआ।
आप घबडाकर
फेंक देंगे
रुपया, क्योंकि
आप मान लेते
हैं कि अंगारा
है। बड़े
आश्चर्य की
बात तो यह है
कि आप न केवल
फेंक देते हैं,
बल्कि आपके
हाथ में फफोला
भी आ जाता है, जब कि वहा
कोई अंगारा
नहीं था। आपके
हाथ ने बिलकुल
वही व्यवहार
किया, जो
आपने मान लिया।
हिप्नोसिस
पर बड़ा काम
पश्चिम में हो
रहा है। और
उससे एक बात
पता चलती है
कि आदमी की
चेतना मान
लेने से
ग्रसित हो
जाती है। आपको
पानी पिलाया
जाए सम्मोहित
अवस्था में और
कहा जाए, शराब है। आप
बेहोश हो
जाएंगे, नशा
आ जाएगा।
अभी
कुछ प्रयोग तो
ऐसे हुए हैं, जो कि
बिलकुल
अविश्वसनीय
हैं। जिन पर
कि आदमी के बस
की बात ही समझ
में नहीं आती।
हारवर्ड
यूनिवर्सिटी
में एक मरीज
पर वे हिप्नोसिस
का प्रयोग कर
रहे थे। उसे
बेहोश करके
कहा गया कि
उसके खून में
ब्लड शुगर बढ़
रही है—सम्मोहित
करके। जब उसे
सम्मोहित
किया गया, तो उसका
खून लिया गया।
उसकी जांच की
गई। उसकी नार्मल
ब्लड शुगर है।
ब्लड
शुगर बड़ा
मामला है। जब
तक उसको बहुत
शक्कर न खिलाई
जाए, ग्लूकोज
का इंजेक्शन
न दिया जाए, तब तक उसके
ब्लड में शुगर
जा नहीं सकती।
न उसे ग्लूकोज
दिया जा रहा
है, न
शक्कर दी जा
रही है, न
कुछ। सिर्फ सजेशन
दिया जा रहा
है, सुझाव,
कि तेरे खून
में शुगर बढ़
रही है।
और
उसके खून में
शुगर बढ़ी। और
थोड़ी—बहुत
नहीं, पांच
सौ तक उसके
खून में शुगर
बढ़ी। सिर्फ
सुझाव से! खून
में कुछ डाला
नहीं गया है।
जैसे—जैसे
सुझाव गहन
होने लगा, वैसे—वैसे
खून में शुगर
की मात्रा
बढ़ती चली गई।
इस
चैतन्य की एक
क्षमता है कि
यह जो भी मान
ले, वैसी
घटना घटनी
शुरू हो जाएगी।
यह हमारी
मान्यता है कि
मैं शरीर हूं
इसलिए हम शरीर
हो गए हैं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
जिन बच्चों को
बचपन से कहा
जाए, तुम मूढ़ हो, वे
मूढ हो
जाएंगे। न
मालूम सैकड़ों
बच्चों को हम
अपने हाथ से मूढ़ बना
देते हैं।
लाखों बच्चे
इसलिए मूढ़
रह जाते हैं
कि घर में मां—बाप
उनको मूढ़
कह रहे हैं, स्कूल में
शिक्षक उनको मूढ़ कह रहे
हैं। उनको बार—बार
यह सुझाव
मिलता है, और
उनको बात जंच
जाती है। जब
सभी कह रहे
हैं, तो
बात ठीक होगी
ही। यह एक तरह
का सम्मोहन है।
फिर वे मूढ़
ही रह जाते
हैं।
जिन
बच्चों को
बचपन से खयाल
मिलता है कि
वे बड़े
प्रतिभाशाली
हैं, टैलेंटेड हैं, गुणवान
हैं, उनमें
वैसी वृत्ति
पैदा होने
लगती है। वे
जो मानने लगते
हैं, वैसे
हो जाते हैं।
मान्यता आपका
जीवन बन जाती
है।
तो
आपको खयाल है
कि रात आप सो
जाते हैं, इसलिए
आपको लगता है,
आप सोए।
सिर्फ शरीर
सोता है, आप
कभी नहीं सोते।
यह सिर्फ
धारणा है आपकी
और बचपन से
समझाया जा रहा
है, इसलिए
आप सो जाते
हैं। आपको
लगेगा कि
सिर्फ धारणा ऐसे
कैसे हो सकती
है!
अमेजान में अभी
तक
आदिवासियों
में जब भी
स्त्री को बच्चा
होगा, तो
पति भी रोएगा,
छाती पीटेगा,
चिल्लाका। एक खाट पर
पत्नी, एक
खाट पर पति!
प्रसव—पीड़ा
दोनों को होती
है।
हजारों
साल से यह
होता रहा। और
जब पहली दफा
ईसाई मिशनरी अमेजान
पहुंचे, तो उनको
विश्वास भी
नहीं आया कि
यह क्या
पागलपन है। यह
आदमी जरूर बन
रहा होगा।
क्योंकि हमें
खयाल ही नहीं
है कि जब
स्त्री को
बच्चा पैदा हो
रहा है, इससे
पति को प्रसव—पीड़ा
का क्या संबंध
है!
लेकिन
जब जांच—पड़ताल
की गई, तो
वे बड़े चकित
हुए कि
वस्तुत: पीड़ा
होती है। पति
को पीड़ा होती
है। क्योंकि अमेजान
में यह
विश्वास है कि
बच्चा पति और
पत्नी दोनों
का कृत्य है।
इसलिए अकेली
पत्नी को
क्यों पीड़ा
हो! दोनों का
हाथ है उसमें,
आधा—आधा
दोनों का
बच्चा है, इसलिए
दोनों कष्ट
पाएंगे जब
प्रसव होगा।
और जांच से
पता चला है कि
शरीर में वास्तविक
पीड़ा होती है।
जैसे स्त्री
के शरीर में
सारा खिंचाव
और तनाव होता
है, वैसे
ही पुरुष के
शरीर में
खिंचाव—तनाव
होता है।
अब यह
सिर्फ
मान्यता की
बात है।
क्योंकि उनकी
धारणा है, इसलिए
होता है।
जितने
सभ्य मुल्क
हैं, वहां
स्त्रियों को
बच्चा पैदा
करने में कष्ट
होता है।
सिर्फ सभ्य
मुल्कों में!
असभ्य
मुल्कों में नहीं
होता। ठेठ
आदिवासियों
में बिलकुल
नहीं होता।
बर्मा
में ऐसी
जातियां हैं, स्त्रियां
काम करती
रहेंगी खेत
में, बच्चा
हो जाएगा। कोई
दूसरा भी नहीं
है। दाई, और
नर्स, और
अस्पताल का तो
कोई सवाल ही
नहीं है।
बच्चा हो
जाएगा, उसको
उठाकर वे
टोकरी में रख
देंगी और वापस
काम पर लग
जाएगी। सांझ
को अपने बच्चे
को लेकर घर आ
जाएंगी।
बर्मा के उन
जंगलों में
खयाल ही नहीं
है कि स्त्री
को पीड़ा होती
है। इसलिए
पीड़ा नहीं
होती।
आप जो
कुछ भोग रहे
हैं, उसमें
अधिक तो आपकी
मान्यताएं
हैं। यह जो
भीतर छिपा हुआ
परमात्मा है,
इसका दूसरा
लक्षण है चित।
यह कभी बेहोश
नहीं हुआ है, और कभी सोया
नहीं है। वह
उसका स्वभाव नहीं
है। इसलिए अगर
आप अपने को
बेहोश मानते
हैं, नींद
में मानते हैं,
सम्मोहित
मानते हैं, तो वह आपकी
मान्यता है।
मान्यता के
अनुसार काम
जारी रहेगा।
धर्म
की पूरी खोज
इतनी ही है कि
मान्यताएं सब टूट
जाएं और जो
सत्य है, वह प्रकट हो
जाए। जैसा है
वैसा प्रकट हो
जाए, और जो
हमने मान रखा
है, वह हट
जाए।
तीसरा
तत्व है, आनंद। सत
चित आनंद। यह
तीसरी बात भी
ज्ञानियों की
अनुभूत खोज है
कि वह जो भीतर
छिपा हुआ तत्व
है, वह सत
भी है, चित
भी है, और
वह परम आनंद
भी है। सुख
पाने की कोई
जरूरत नहीं है
उसको; वह
स्वयं आनंद है।
और अगर आप
दुखी हो रहे
हैं और सुख की
तलाश कर रहे
हैं, तो वह
आपकी भाति है।
मनुष्य
का स्वभाव
आनंद है।
इसलिए जिस दिन
हम अपने
स्वभाव से
परिचित हो जाएंगे, सच्चिदानंद
से मिलना हो
जाएगा।
और इस
सच्चिदानंद
को परमात्मा
कहा है।
परमात्मा
कहीं कोई बैठा
हुआ व्यक्ति
नहीं है, जो जगत को
बना रहा है।
परमात्मा
आपके भीतर
छिपा हुआ तत्व
है, जो
आपके भीतर खेल
रहा है, आपके
जीवन को फैला
रहा है। और यह
आपका ही हाइड
एंड सीक है, लुका—छिपौव्वल
है। जिस दिन
आप सजग हो
जाएंगे, जिस
दिन आप बाहर
की दौड़ से थक
जाएंगे, ऊब
जाएंगे, कहेंगे,
बंद करो खेल।
जैसे
बच्चे नदी की
रेत में घर
बनाते हैं, लड़ते हैं,
झगड़ते हैं। बुद्ध
बहुत बार इस दृष्टात
को लेते रहे
हैं कि नदी के
किनारे बच्चे
घर बना रहे
हैं। रेत के
घर हैं, वे
कभी भी गिर
जाते हैं। कोई
बच्चे की लात
लग जाती है; कोई बच्चा
जोर से खड़ा हो
जाता है; वे
मकान गिर जाते
हैं। तो बड़ा झगड़ा हो
जाता है। मार—पीट
भी हो जाती है
कि तूने मेरा
मकान गिरा
दिया! इतनी
मेहनत से
मैंने बनाया
था।
फिर
सांझ होने
लगती है, सूरज ढलने
लगता है। कोई
नदी के किनारे
से चिल्लाता
है कि बच्चो, घर जाओ।
तुम्हारी
माताएं
तुम्हें याद
कर रही हैं।
वे बच्चे, जिनके
घर को जरा चोट
लग गई थी, किनारा
झड़ गया था, रेत
बिखर गई थी, लड़ने को
तैयार हो गए
थे, वे
अपने ही घरों
पर कूदकर, घरों
को मिटाकर
असली घरों की
तरफ भाग जाते
हैं। सांझ
होने लगी, सूरज
ढलने लगा, मा
की आवाज आ गई।
जिन घरों के
लिए लड़े थे, मार—पीट की
थी, उन
घरों को खुद
ही कूदकर मिटा
देते हैं।
बस, ऐसा ही है,
बुद्ध कहते
थे कि जो भी हम
बना रहे हैं
अपने चारों
तरफ, रेत
के घर हैं; हमारा
खेल है।
कोई
हर्ज भी नहीं
है। आप रस ले
रहे हैं, बना रहे हैं।
आपकी तकलीफ यह
है कि आप पूरा
रस भी नहीं ले
पाते। पूरा
बना भी नहीं
पाते। पूरा
बना लें, तो
मिटाने का भी
मजा आ जाए।
सांझ को जब
मिटाएंगे, तो
कुछ मिटाने को
भी तो चाहिए।
कुछ बना हुआ
होगा, तो
मिटा भी लेंगे।
लेकिन कभी बना
ही नहीं पाते
पूरा और सांझ
कभी आ नहीं
पाती; दोपहर
ही बनी रहती
है। अधूरा ही
अधूरा बना
रहता है।
संसार
में पूरी तरह
उतर जाएं; जो भी खेल
खेलना है, पूरी
तरह खेल लें।
खेल खेलते—खेलते
ही यह होश आ
जाएगा कि अब
बहुत हो गया।
आपको
भी कई दफा
दिखाई पड़ता है
कि अब बहुत हो
गया। आपको भी
बहुत दफा खयाल
में आने लगता
है कि यह मैं
क्या कर रहा
हूं! यह कब तक
जारी रखूंगा!
फिर आप अपने
को भुला लेते
हैं। यह तो
खेल छोड़ने की
बातें ठीक
नहीं हैं। खेल
मिटाने का
मामला हो
जाएगा। और जिंदगी
एक व्यवस्था
से चल रही है, उसे
क्यों तोड़ना!
फिर आप चलाने
लगते हैं।
ये जो
झलकें आपको
आती हैं, वे झलकें
इसी बात की
हैं कि यह खेल
वस्तुत: खेल है।
और वास्तविक
घर कहीं और
छिपा है। जब
यह बिलकुल ही
व्यर्थ दिखाई
पड़ने लगेगा, ऊब और दुख
इसमें घने हो
जाएंगे, तब
आप अपने पीछे
झांक सकेंगे।
वह जो
पीछे छिपा है, कृष्ण
बार—बार उसी
को सच्चिदानंदघन
परमात्मा कह
रहे हैं। आपकी
तरफ ही इशारा
है। वह सबके
भीतर छिपा है।
सबका वही
केंद्र है।
अब हम
सूत्र को लें।
और जो
निरंतर आत्म—
भाव में स्थित
हुआ, दुख—सुख
को समान समझने
वाला है; तथा
मिट्टी, पत्थर
और स्वर्ण में
समान भाव वाला
और धैर्यवान
है; तथा जो
प्रिय और
अप्रिय को
बराबर समझता
है और अपनी
निंदा—स्तुति
में भी समान
भाव वाला है, तथा जो मान
और अपमान में
सम है एवं जो
मित्र और वैरी
के पक्ष में
भी सम है, वह
संपूर्ण आरंभों
में कर्तापन
के अभिमान से
रहित हुआ
पुरुष
गुणातीत कहा
जाता है।
एक—एक
शब्द को समझें।
जो
निरंतर आत्म—
भाव में स्थित
हुआ........।
जो
निरंतर एक ही
बात स्मरण
रखता है कि
मैं हूं अपने
भीतर। जो अपनी
छवियों के साथ
तादात्म्य
नहीं जोड़ता; जो
दर्पणों में
दिखाई पड़ने
वाले
प्रतिबिंबों
से अपने को
नहीं जोड़ता; बल्कि जो
सदा खयाल रखता
है उस होश का, जो भीतर है।
और जो सदा याद
रखता है कि यह
होश ही मैं
हूं; मैं
हूं यह चैतन्य,
और इस
चैतन्य को
किसी और चीज
से नहीं जोड़ता,
ऐसी भाव—दशा
का नाम आत्म—
भाव है।
मैं
सिर्फ चेतना
हूं। और यह
चेतना किसी भी
चीज को कितना ही
प्रतिफलित
करे, उससे
मैं संबंध न
जोडू—गा। यह
चेतना कितनी
ही किसी चीज
में दिखाई
पड़े......।
रात
चांद निकलता
है; झील
में भी दिखाई
पड़ता है। आप
झील में देखकर
अगर उसको चांद
समझ लें, तो
मुश्किल में
पड़ेंगे। अगर
डुबकी लगाने
लगें पानी में
चांद की तलाश में,
तो भटक ही
जाएंगे। और
दुख तो
निश्चित होने
वाला है; क्योंकि
थोड़ी ही हवा
की लहर आएगी
और चांद टुकडे—टुकड़े
हो जाएगा।
तो जहां
भी हम जिंदगी
को देखते हैं, वहा हर
चीज टूट—फूट
जाती है।
क्योंकि हम
प्रतिबिंब
में देख रहे
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक रात एक
कुएं के पास
से गुजर रहा
है। रमजान
के दिन हैं।
और उसने नीचे
कुएं में झांककर
देखा। वहां
चांद का
प्रतिबिंब
दिखाई पड़ा।
गहरा कुआ
है। हवा की
कोई लहर भी
वहा नहीं है, तो चांद
बिलकुल साफ
दिखाई पड़ रहा
है।
अकेला
था। मरुस्थल
का रास्ता था।
आस—पास कोई
दिखाई भी नहीं
पड़ता था। नसरुद्दीन
ने कहा, यह तो बड़ी
मुसीबत हो गई।
यह चांद यहां
कुएं में उलझा
है। और जब तक
यह आकाश में
दिखाई न पड़े, लोग मर
जाएंगे भूखे
रह—रहकर। रमजान
का महीना है।
इसे बाहर
निकालना एकदम
जरूरी है। यहां
कोई दिखाई भी
नहीं पड़ता जो
सहायता करे।
तो
बेचारे ने ढूंढ—ढांढ्कर रस्सी
कहीं से लाया।
रस्सी का फंदा
बनाकर नीचे
डाला। कुएं
में चांद को
फंसाने की
रस्सी में
कोशिश की। चांद
तो नहीं फंसा, कुएं के
किनारे पर कोई
चट्टान का
टुकड़ा होगा, वह फंस गया।
उसने बड़ी ताकत
लगाई। खींच
रहा है। बड़ी
मुश्किल में
पड़ा है। और
अकेला है।
कहता है, कोई
और है भी नहीं
कि कोई साथ भी
दे दे। और
चांद वजनी
मालूम पड़ता है।
और चाद भी हइ कर रहा
है कि बिलकुल
रस्सी को पकड़े
हुए है और उठ
भी नहीं रहा
है।
बड़ी
ताकत लगाने से
रस्सी टूट गई।
मुल्ला भड़ाम
से कुएं के
नीचे गिरा।
सिर में चोट
भी आई। एक
क्षण को आंख
भी बंद हो गई।
फिर आंख खुली, तो देखा,
चांद आकाश
में है।
मुल्ला ने कहा,
चलो भला हुआ।
निकल तो आए।
अब लोग नाहक रमजान में
भूखे तो न
रहेंगे। सिर
में थोड़ी चोट
लग गई; कोई
हर्ज नहीं।
रस्सी भी टूट
गई; कोई
हर्ज नहीं।
लेकिन चांद को
कुएं से मुक्त
कर लिया।
जिस
दिन आप आत्म—
भाव में स्थित
होंगे, उस दिन आपको
भी ऐसा ही
लगेगा कि जहां
से हम अब तक
अपने को खोज
रहे थे, वहां
तो हम थे भी
नहीं। जहां से
हम रस्सियां
बांधकर, योजनाएं
करके, साधनाएं
साधकर और
आत्मा को पाने
की कोशिश कर
रहे थे, वहां
तो हम थे भी
नहीं। चांद तो
सदा आकाश में
है। वह किसी
कुएं में उलझा
नहीं है।
लेकिन कुओं
में दिखाई
पड़ता है।
आत्म—
भाव का अर्थ
है कि हम चांद
को आकाश में
ही देखें, कुओं में
नहीं। आत्म—
भाव का अर्थ
है कि मेरी
चेतना मेरे
भीतर है। और
किसी और वस्तु
से बंधी नहीं
है, कहीं
भी छिपी नहीं
है। मैं कहीं
और नहीं हूं
मुझमें ही हूं।
इसलिए सब तलाश
कहीं और की
व्यर्थ है। और
सब तलाश दुख
में ले जाएगी;
विफलता
परिणाम होगा।
क्योंकि वहां
वह मिलने वाली
नहीं है।
या
इसको अगर आप
सफलता कहते
हों कि रस्सियां
बांधकर, चांद को
खींचकर और जब
सिर फूटे और
ऊपर आपको आकाश
में दिखाई पड़
जाए अगर आप
समझते हों कि
आपने चांद को
मुक्त कर लिया,
तो ऐसी ही
स्थिति बुद्ध
को हुई होगी।
बुद्ध
से कोई पूछता
है, जब
उनको ज्ञान हो
गया, कि
आपको क्या
मिला? तो
बुद्ध कहते
हैं, मिला
कुछ भी नहीं।
इतना ही पता
चला कि कभी
खोया ही नहीं
था।
नसरुद्दीन कहता है, चांद को
निकाल लिया; मुक्त कर
दिया आकाश में।
बुद्ध कहते
हैं, कुछ
भी मिला नहीं,
क्योंकि
कभी खोया नहीं
था। और जो
मैंने जाना है,
वह सदा से
मेरे भीतर था।
सिर्फ मेरी
नजरें बाहर
भटक रही थीं, इसलिए उसे
मैं पहचान
नहीं पा रहा
था। अगर तुम
पूछते ही हो, तो मैंने
कुछ खोया जरूर
है, अज्ञान
खोया है।
लेकिन पाया
कुछ भी नहीं
है। क्योंकि
ज्ञान तो सदा
से ही था। वह
मेरा स्वभाव
है।
आत्म—
भाव में स्थित
हुआ, दुख—सुख
को समान समझने
वाला......।
जो भी
आत्म— भाव में
स्थित होगा, उसे दुख—सुख
समान हो
जाएंगे, समता
उसकी छाया हो
जाएगी।
हमें
दुख और सुख
अलग—अलग क्यों
मालूम पड़ते
हैं? इसलिए
अलग—अलग मालूम
पड़ते हैं कि
जो हम पाना
चाहते हैं, वह हमें सुख
मालूम पड़ता है।
और जिससे हम
बचना चाहते
हैं, वह
दुख मालूम
पड़ता है।
हालांकि
हमारे सुख दुख
हो जाते हैं
और दुख सुख हो
जाते हैं, फिर
भी हमें बोध
नहीं आता। जिस
चीज को आप आज
पाना चाहते
हैं, सुख
मालूम पड़ती है।
और कल पा लेने
के बाद छूटना
चाहते हैं और
दुख मालूम
पड़ती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक चर्च के
पास से गुजर
रहा है। उसकी
पत्नी भी साथ
है। उस चर्च
में बड़ी तैयारियां
हो रही हैं।
बड़े फूल लगाए
गए हैं। और
बड़े दीए जलाए
गए हैं। और
द्वार पर लाल
दरी बिछाई गई
है। कोई
स्वागत—समारंभ
का इंतजाम हो
रहा है। तो
पत्नी पूछती
है कि नसरुद्दीन, इस चर्च
में? क्या
होने वाला है?
उस
चर्च में एक
विवाह की
तैयारी हो रही
है। नसरुद्दीन
कहता है, इस चर्च में?
एक तलाक की
तैयारी हो रही
है। एक तलाक
का प्रारंभ!
विवाह
तलाक का ही
प्रारंभ है।
सब सुख दुख के
प्रारंभ हैं।
लेकिन दुख
थोड़ी देर में
पता चलेगा, पहले सब
सुख मालूम
होगा। जिसको
हम पकड़ना
चाहेंगे, उसमें
सुख दिखाई
पड़ेगा। और
जिसको हम
छोड़ना
चाहेंगे, उसमें
दुख दिखाई
पड़ेगा।
आत्म—
भाव में स्थित
व्यक्ति को न
तो कुछ पकड़ने
की आकांक्षा
रह जाती है, न कुछ
छोड़ने की, इसलिए
सुख—दुख समान
हो जाते हैं।
इसलिए सुख—दुख
के बीच जो भेद
है, वह कम
हो जाता है, गिर जाता है।
सुख और दुख
में उसका कोई
चुनाव नहीं रह
जाता।
समान
का अर्थ है, कोई
चुनाव नहीं रह
जाता। दुख आता
है, तो
स्वीकार कर
लेता है। सुख
आता है, तो
स्वीकार कर
लेता है। दुख
आता है, तो
पागल नहीं
होता। सुख आता
है, तो भी
पागल नहीं
होता। न उसे
सुख उद्विग्न
करता है, न
दुख उद्विग्न
करता है। जैसे
सुबह आती है, सांझ आती है;
ऐसे सुख आते—जाते
रहते हैं, दुख
आते—जाते रहते
हैं। वह दूर
खड़ा, अछूता,
अस्पर्शित
बना रहता है।
आत्म— भाव में
स्थित हुआ, दुख—सुख को
समान समझने
वाला है।
मिट्टी, पत्थर
और स्वर्ण में
समान भाव वाला
है। धैर्यवान
है। तथा जो
प्रिय और
अप्रिय को
बराबर समझता
है। निंदा—स्तुति
में समान भाव
वाला है।
सभी
द्वंद्व
जिसके लिए
समान हो गए
हैं। चाहे
प्रेम के, अप्रेम
के; चाहे
स्वर्ण के, मिट्टी के; चाहे मित्र
के, शत्रु
के; स्तुति
के, निंदा
के; जिसके
लिए सभी भाव
समान हो गए
हैं। जो
विपरीत को
विपरीत की तरह
नहीं देखता।
जो पहचान लिया
है कि .सुख दुख
का ही छोर है, और जो समझ
लिया है कि
स्तुति में
निंदा छिपी है।
आज स्तुति है,
कल निंदा
होगी। आज
निंदा है, कल
स्तुति हो
जाएगी।
मित्रता और
शत्रुता के
बीच जिसको
फासला नहीं दिखाई
पड़ता; जिसे
दोनों एक ही
चीज की डिग्रीज
मालूम पड़ती
हैं।
यह उसी
को होगा, जो आत्म— भाव
में स्थित हुआ
है। उसे यह
द्वंद्व साफ
दिखाई पड़ने
लगेगा, द्वंद्व
नहीं है। यह
मेरे ही चुनाव
के कारण
द्वंद्व पैदा
हुआ है।
बुद्ध
ने कहा है, मैं कोई
मित्र नहीं
बनाता हूं
क्योंकि मैं
शत्रु नहीं
बनाना चाहता
हूं।
मित्र बनाएंगे, तो शत्रु
बनना निश्चित
है। आधा नहीं
चुना जा सकता।
और हम आधे को
ही चुनने की
कोशिश करते
हैं। इससे हम
कष्ट में पड़े
हैं। अगर
मित्र को
चुनते हैं, तो शत्रु को
स्वीकार कर
लें। सुख को
चुनते हैं, तो दुख को भी
स्वीकार कर
लें।
पर यह
स्वीकृति, यह तथाता
उसी को संभव
है, जो
अपने में
स्थित हुआ हो,
जो भीतर खड़े
होकर देख सके—दुख
को, सुख को,
दोनों कों—निष्पक्ष
भाव से। भीतर
खड़ा हुआ
व्यक्ति देख
पाता है
निष्पक्ष भाव
से। भीतर खड़ा
हुआ व्यक्ति
तराजू की
भांति हो जाता
है, जिसके
दोनों पलड़े
एक सम स्थिति
में आ गए; जिसका
कांटा आत्म—
भाव में थिर
हो गया।
तथा जो
मान—अपमान में
सम है। मित्र
और वैरी के
पक्ष में भी
सम है।
संपूर्ण आरंभों
में कर्तापन
के अभिमान से
रहित हुआ
पुरुष गुणातीत
कहा जाता है।
कुंजी
है, आत्म—
भाव में स्थित
होना। जो आत्म—
भाव में स्थित
है, द्वंद्व
में सम हो
जाएगा। जो
आत्म— भाव में
स्थित है, वह
कर्तापन से
मुक्त हो
जाएगा। उसे
ऐसा नहीं
लगेगा कि मैं
कुछ कर रहा
हूं। भूख
लगेगी, पर
वह भूखा नहीं
होगा।
बड़ी
मीठी कथा है
कृष्ण के जीवन
में। जैन
शास्त्रों
में उस कथा का
उल्लेख है।
कृष्ण
की पत्नी ने, रुक्मिणी
ने कृष्ण से
पूछा कि एक
परम वैरागी
नदी के उस पार
ठहरा है।
वर्षा के दिन
हैं, नदी
में पूर है।
और कोई भोजन
नहीं पहुंचा
पा रहा है। आप
कुछ करें। तो
कृष्ण ने कहा,
तू ऐसा कर
कि जा और नदी
के किनारे नदी
से यह प्रार्थना
करना—कथा बड़ी
मीठी है—नदी
से यह
प्रार्थना
करना कि अगर
वह वैरागी, जो उस पार
ठहरा है, वह
संन्यस्त
वीतराग पुरुष
सदा का उपवास।
हो, तो नदी
मार्ग दे दे।
रुक्मिणी
को भरोसा तो न
आया, लेकिन
कृष्ण कहते
हैं, तो कर
लेने जैसी बात
लगी। और हर्ज
क्या है; देख
लें। और शायद
यह हो भी जाए, तो एक बड़ा
चमत्कार हो।
तो वह सखियों को
लेकर बहुत—से
मिष्ठान्न और
भोजन लेकर नदी
के पास गई।
उसने नदी से
प्रार्थना की।
भरोसा तो नहीं
था। लेकिन
चमत्कार हुआ
कि नदी ने
रास्ता दे
दिया। कहा
इतना ही कि उस
पार जो ठहरा
संन्यस्त
व्यक्ति है, अगर वह
जीवनभर का उपवासा
है, तो
मार्ग दे दो।
नदी कट
गई। अविश्वास
से भरी
रुक्मिणी, आंखों पर
भरोसा नहीं, अपनी
सहेलियों को
लेकर उस पार
पहुंच गई। उस
वीतराग पुरुष
के लिए भोजन
वह इतना लाई
थी कि पचास
लोग कर लेते।
वह अकेला
संन्यासी ही
उतना भोजन कर
गया।
भोजन
के बाद यह
खयाल आया कि
हम कृष्ण से
यह तो पूछना
भूल ही गए कि
लौटते वक्त
क्या करेंगे।
क्योंकि नदी
अब फिर बह रही
थी। और अब
पुरानी कुंजी
तो काम नहीं
आएगी।
क्योंकि यह
आदमी आंख के
सामने भोजन कर
चुका। और थोड़ा—बहुत
भोजन नहीं कर
चुका।
निश्चित ही, जीवनभर
का उपवासा
रहा होगा।
पचास आदमियों
का भोजन उसने
कर लिया!
लेकिन अब पुरानी
कुंजी तो काम
नहीं आएगी। और
अब कृष्ण से
पूछने का कोई
उपाय नहीं। तो
एक ही उपाय है,
इस वीतराग
पुरुष से ही
पूछ लो कि कोई
कुंजी है वापस
जाने की!
तो
उसने कहा कि
तुम किस कुंजी
से यहां तक आई
हो? तो
उन्होंने कहा
कि कृष्ण ने
ऐसा कहा था, लेकिन वह तो
अब बात बेकार
हो गई। उस
संन्यासी ने
कहा कि वह बात
बेकार होने
वाली नहीं है।
कुंजी काम
करेगी। तुम
नदी से कहो कि
अगर यह
संन्यासी
जीवनभर का उपवासा
हो, तो
मार्ग दे दे।
पहले
ही भरोसा नहीं
आया था। अब तो
भरोसे का कोई
कारण भी नहीं
था। अब तो
स्पष्ट
अविश्वास था।
लेकिन कोई
दूसरा उपाय भी
नहीं था।
इसलिए नदी से
प्रार्थना
करनी पड़ी। और
नदी ने मार्ग
दिया।
करीब—करीब
होश खोई हुई
हालत में
रुक्मिणी कृष्ण
के पास पहुंची।
और उसने कहा, यह हद हो
गई। यह बिलकुल
भरोसे की बात
नहीं है।
क्योंकि हमने
अपनी आंख से
देखा है
संन्यासी को
भोजन करते हुए।
उसके जीवनभर
के उपवासे
होने का कोई
सवाल नहीं रहा।
कृष्ण
ने कहा कि वही
तुम नहीं समझ
पा रही हो।
भूख शरीर को
लगती है, ऐसा जो जान
लेता है, फिर
भोजन भी शरीर
में ही जाता
है। ऐसा जो
जान लेता है, उसका उपवास
कभी भी खंडित
नहीं होता।
जिसको भूख ही
न लगी हो, उसको
भोजन करने का
सवाल नहीं है।
हम भोजन करते
हैं, करते
मालूम पड़ते
हैं। कर्तापन
आता है, क्योंकि
भूख हमें लगती
है, हमारी
है।
इस प्रयोग
को थोड़ा करके
देखें। कल से
स्मरण रखें कि
भूख लगे, तो वह शरीर
की है। प्यास
लगे, तो
शरीर की है।
पानी पीए, तो
शरीर में जा
रहा है। प्यास
बुझ रही, तो
शरीर की बुझ
रही है।
भूख मिट
रही, तो
शरीर की मिट
रही है। भोजन
करते समय, भूख
के समय, प्यास
के समय, पानी
पीते समय, स्मरण
रखें।
अगर इस
स्मरण को आप
थोड़े दिन भी
रख पाएं, तो आपको एक
अनूठा अनुभव
होगा। और वह
अनुभव यह होगा
कि आपको साफ
दिखाई पड़ने लगेगा
कि मैं सदा का उपवासा
हूं। वहा कभी
कोई भूख नहीं
लगी। कोई भूख
पहुंच नहीं
सकती वहा।
चेतना में भूख
का कोई उपाय
नहीं है।
अमेरिका
में एक
व्यक्ति बड़ी
अनूठी खोज में
लगा हुआ है।
उसकी खोज
भरोसे योग्य
नहीं है, लेकिन खोज
के परिणाम बड़े
साफ हैं। और
उस व्यक्ति का
कहना यह है कि
एक समय था
मनुष्य जाति
के इतिहास में
जब कोई भोजन
नहीं करता था।
जैन
शास्त्रों
में ऐसे समय
का उल्लेख है।
जैनों के जो
पहले
तीर्थंकर हैं
आदिनाथ, उन्होंने ही
भोजन और कृषि
और अन्न की
खोज की। उसके
पहले कोई भोजन
नहीं करता था।
लोग भूखे नहीं
होते थे।
यह बात
कहानी की
मालूम पड़ती है।
लेकिन जो आदमी
अमेरिका में
खोज कर रहा है, उसके बड़े
वैज्ञानिक
आधार हैं। और
वह कहता है कि
भोजन सिर्फ एक
लंबी आदत है।
और वह यह कहता
है कि भोजन से
शरीर को शक्ति
नहीं मिलती।
भोजन से
ज्यादा से
ज्यादा शरीर
में जो शक्ति पड़ी
है, उसको
गति मिलती है।
ऐसे ही जैसे
कि पनचक्की
चलती थीं। तो
पानी चक्की के
पंखे पर से
गिरता था, पंखा
घूमता था।
पंखा तो मौजूद
है, सिर्फ
गिरता हुआ
पानी पंखे को
घुमा देता था।
इस
वैज्ञानिक का
कहना है कि
शरीर में
शक्ति मौजूद
है। सिर्फ यह
भोजन का शरीर
में जाना और
शरीर के बाहर
मल होकर
निकलना, यह सिर्फ
शरीर के भीतर
जो पंखे बिना
चले पड़े हैं, उनको चलाता
है। इससे कोई
शक्ति मिलती
नहीं। और आदमी
बिना भोजन के
रह सकता है।
और ऐसी
घटनाएं हैं, जहां कुछ
लोग बिना भोजन
के रहे हैं
चालीस—पचास
साल तक भी।
उनका वजन भी
नहीं गिरा।
उनके शरीर में
कोई रोग भी
नहीं आया।
बल्कि वे बहुत
स्वस्थ लोग
रहे हैं।
अभी बवेरिया
में एक स्त्री
है, थेरेसा न्यूमेन।
उसने तीस साल
से भोजन नहीं
किया है।
रत्तीभर वजन
नीचे नहीं
गिरा है। और
तीस साल से वह
कभी बीमार
नहीं पड़ी। न
कोई मल—मूत्र
का सवाल है।
उसकी सारी अंतड़ियां
सिकुड़ गई हैं।
पेट ने सारा
काम बंद कर
दिया है।
लेकिन उसका
शरीर
परिपूर्ण
स्वस्थ है। और
जितनी उसकी
उम्र है, उससे
कम उम्र मालूम
होती है। क्या
कारण होगा? इस बात की
संभावना है कि
हो सकता है
भोजन मनुष्य
जाति की सिर्फ
एक गलत आदत हो।
और किसी दिन
आदमी भोजन से
मुक्त किया जा
सके।
एक बात
निश्चित है कि
शरीर को भला
जरूरत हो या आदत
हो, लेकिन
भीतर जो चेतना
है, उसको न
तो जरूरत है
और न आदत है।
वह भीतर की
चेतना परम
ऊर्जा से भरी
है। उसकी
ऊर्जा का
स्रोत शाश्वत
है। उसको
ऊर्जा रोज—रोज
ग्रहण नहीं
करनी पड़ती।
इसलिए
हम उसे सच्चिदानंदघन
परमात्मा कह
रहे हैं। उसकी
ऊर्जा मूल
स्रोत से जुड़ी
है। वह स्रोत
शाश्वत है। वह
कभी समाप्त
नहीं होता।
इसलिए उसमें
रोज ईंधन
डालने की
जरूरत भी नहीं
है। चेतना के
लिए भोजन की
कोई भी जरूरत
नहीं है। शरीर
के लिए हो या न
हो, यह
बात विवाद की
हो सकती है।
समय, भविष्य
तय करेगा।
लेकिन चेतना
के लिए तो कोई
भी जरूरत नहीं
है। वह चेतना
उपवासी है।
ऐसा
भाव अगर बनने
लगे, निर्मित
होने लगे, तो
आप में से
कर्तापन धीरे—
धीरे अपने आप
गिर जाएगा। और
जब भी आप किसी
चीज का आरंभ
करेंगे, किसी
भी चीज की पहल
करेंगे, तो
आप जानेंगे यह
शरीर के गुण
इसकी पहल कर
रहे हैं, मैं
इसकी पहल नहीं
कर रहा हूं।
शरीर
को जितनी
जरूरत होगी, आप दे
देंगे।
ज्यादा भी नहीं
देंगे, कम
भी नहीं देंगे।
अभी हम दो ही
काम करते हैं,
या तो कम
देते हैं या
ज्यादा देते
हैं। क्योंकि
ठीक कितना
देना, इसका
हमें पता ही
नहीं चल पाता।
हम इतने जुड़े
हैं, हमारा
संबंध इतना
जुड़ गया है
शरीर से कि हम
निष्पक्ष
नहीं हो ?पाते।
हम से ज्यादा
निष्पक्ष तो
जानवर हैं।
अगर
कुत्ते को पेट
में खराबी हो, तो वह
भोजन नहीं
करेगा, आप
लाख उपाय करें।
लेकिन आपको
कितनी ही
बीमारी हो, कितनी ही
खराबी हो, आप
भोजन करेंगे।
शायद बीमारी
में और ज्यादा
कर लें, कि
जरा ताकत की
जरूरत है। कोई
जानवर यह भूल
नहीं करेगा।
क्योंकि
जानवर जानता
है कि बीमारी
में भोजन करने
का मतलब है कि
शरीर को और
काम देना।
शरीर पर
बीमारी का काम
है। उतना ही
काम काफी है।
उसको नया काम
देना खतरनाक
है।
शरीर
को भोजन न
दिया जाए, तो
बीमारी जल्दी
समाप्त हो
जाती है।
क्योंकि शरीर
खुद बीमारी को
निकालने में
लग जाता है।
शरीर की पूरी
ताकत एक तरफ
बहने लगती है,
बीमारी खतम
करने में। आप
भोजन देकर
ताकत पचाने
में लगा देते
हैं। तो भोजन
बीमारी को बढ़ाएगा,
कम नहीं कर
सकता।
कोई
जानवर राजी
नहीं होगा।
साधारण—सा
कुत्ता, जिसको हम
बहुत समझदार
नहीं कहते, वह भी भोजन
नहीं करेगा।
भोजन तो करेगा
ही नहीं, घास—पात
खाकर वमन कर
देगा। जो पेट
में पड़ा है, उसको भी
निकाल देगा।
ताकि खाली हो
जाए; ताकि
शरीर की पूरी
ऊर्जा पचाने
में नष्ट न हो,
बीमारी से
लड़ने में लग
जाए।
और
शरीर के पास
नैसर्गिक
व्यवस्था है
बीमारियों से
लड़ने की। वह
सब बीमारियों
के पार उठ
सकता है। और
अगर आधुनिक
आदमी नहीं उठ
पाता, तो
उसका कारण यह
है कि वह शरीर
की ऊर्जा को
तो भोजन में
ही लगाए रखता
है।
हम
निष्पक्ष
नहीं हो पाते, बीमारी
में ज्यादा खा
लेते हैं।
हमें कभी पता
भी नहीं चलता,
ठीक हमारा,
जिसको पता
चलने का बोध
कहना चाहिए, वह भी क्षीण
हो गया है।
हमें पता ही
नहीं चलता कि
कितना खाना, कब खाना, कब
नहीं खाना, उसका हमें
कोई बोध नहीं
रहा है। कोई
नैसर्गिक
हमारी
प्रतीति नहीं
रही है कि कितना
खाना, कितना
नहीं खाना; कब कुछ करना
और कब नहीं
करना, कहा
रुक जाना।
उस
सबका कारण
इतना है कि हम
इतने ज्यादा
जुड़ गए हैं
शरीर के साथ
कि दूर खड़े
होने से, दूर से
देखने पर जो
निष्पक्षता
होती है, वह
नष्ट हो गई है।
साक्षी— भाव
उस
निष्पक्षता
को ले आएगा।
आत्म— भाव उस
निष्पक्षता
को ले आएगा।
आप दूर खड़े
होकर देख
सकेंगे।
और
ध्यान रहे, बहुत—सी
समस्याएं
सिर्फ इसलिए
नहीं हल हो
पातीं कि आप
दूर नहीं हो
पाते।
आपके
पास कोई दूसरा
आदमी आए और
अपनी कोई
समस्या कहे, तो आप जो
सुझाव देते
हैं, वह
हमेशा सही
होता है। वह
दूसरे की
समस्या है। आप
दूर से खड़े
होकर देखते
हैं। वही
समस्या आप पर
आ जाए, फिर
आपकी बुद्धि
काम नहीं करती।
जो दूसरे को
सलाह देने में
काम कर रही है,
वह खुद को
सलाह देने में
काम नहीं कर
पाती। वैसे ही
जैसे एक सर्जन
अपनी पत्नी का
आपरेशन कर रहा
हो। सर्जन
अपनी पत्नी का
आपरेशन करने
को राजी नहीं
होगा। जब तक
कि मार डालने
की इच्छा न
रखता हो।
क्योंकि वह
जानता है, पत्नी
से इतनी
निकटता है, हाथ कंपेगा।
वह निष्पक्ष
नहीं हो पाएगा।
तो सर्जन अपने
मित्र को
कहेगा कि तू
आपरेशन कर।
निष्पक्षता न
हो, तो सब
चीजें कंप
जाती हैं।
निष्पक्षता
हो, तो हम
अडिग बने रहते
हैं; बोध
साफ होता है; चीजें
स्पष्ट दिखाई
पड़ती हैं; धुआं
नहीं होता।
जितना
आत्म— भाव
बढ़ेगा, जितना आप
अपने को शरीर
से अलग और
चेतना के साथ एक
मानेंगे, देखेंगे,
समझेंगे, ठहरेंगे,
उतना ही आप
पाएंगे कि
चीजें उतनी ही
होती हैं, जितनी
जरूरी हैं।
जरूरत
पर रुक जाना, जरूरत से
आगे इंचभर
न जाना। तो
फिर आपके लिए
कोई बंधन नहीं
है। क्योंकि
तब शरीर के
चलने योग्य
शरीर को देते रहेंगे
आप। शरीर अपनी
गतिविधि पूरी
कर लेगा और
समाप्त हो
जाएगा। जिस
दिन शरीर की
गतिविधि पूरी
हो जाएगी, जैसे
दीए का तेल
चुक गया, वैसे
ही दीया बुझ
जाएगा। और इस
शरीर के दीए
के बुझते ही
आपके जीवन में
महासूर्य
का उदय होगा।
इस दीए पर आंखें
बंधी हैं, इसलिए
सूरज को देखना
मुश्किल है।
कृष्ण
कहते हैं, आत्म— भाव
में स्थित हुआ,
संपूर्ण आरंभों
में कर्तापन
के अभिमान से
रहित हुआ
पुरुष गुणातीत
कहा जाता है।
ऐसा जो
व्यक्ति है, ऐसी जो
चेतना है, वह
गुणों के अतीत
है। और
गुणातीत हो
जाना परम
सिद्धि है।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें