'नव—संन्यास
क्या?’
से
संकलित एक
प्रवचन
साधना—शिविर
मनाली (हिमाचल
प्रदेश),
दिनांक
28 सितम्बर 197० रात्रि
संन्यास
मेरे लिए त्याग
नही,
आनन्द है।
संन्यास निषेध
भी नहीं है, उपलब्धि है।
लेकिन आज तक पृथ्वी
पर संन्यास को
निषेधात्मक
अर्थों में ही
देखा गया है—त्याग
के अर्थों में,
छोड़ने के
अर्थों मे—पाने
के अर्थ में नहीं।
मैं सन्यास को
देखता हूं पाने
के अर्थ में। निश्चित
ही जब कोई हीरे—जवाहरात
पा लेता है तो कंकड़
—पत्थरों को
छोड देता है।
लेकिन कंकड—पत्थरों
को छोडने का
अर्थ इतना ही है
कि हीर—जवाहरातों
के लिए जगह बनानी
पड़ती है।
कंकड़—पत्थरों
का त्याग नहीं
किया जाता।
त्याग तो हम
उसी बात का
करते हैं
जिसका बहुत मूल्य
मालूम होता है।
कंकड़—पत्थर
तो ऐसे छोड़े
जाते है जैसे
घर से कचरा फेंक
दिया जाता है।
घर से फेंके
हुए कचरे का
हम हिसाब नहीं
रखते कि हमने
कितना कचरा
त्याग दिया।
संन्यास
अब तक लेखा—जोखा
रखता रहा है—उस
सबका, जो छोड़ा
जाता रहा है।
मैं संन्यास
को देखता हूं
उस भाषा में, उस लेखे—जोखे
में, जो
पाया जाता है।
निश्चित ही
इसमें बुनियादी
फर्क पड़ेगा।
यदि संन्यास
आनन्द है, यदि
संन्यास उपलब्धि
है, यदि
संन्यास पाना
है, विधायक
है, पाजिटिव
है तो संन्यास
का अर्थ विराग
नहीं हो सकता—तो
संन्यास का
अर्थ उदासी
नहीं हो सकता—तो
संन्यास का
अर्थ जीवन का
विरोध नहीं हो
सकता।
संन्यास का
अर्थ होगा, जीवन में
अहोभाव! तब तो
संन्यास का
अर्थ होगा, उदासी नहीं,
प्रफुल्लता!
तब तो संन्यास
का अर्थ होगा,
जीवन का
फैलाव, विस्तार,
गहराई, सिकुड़व
नहीं।
अभी
तक जिसे हम
संन्यासी
कहते है वह
अपने को सिकोड़ता
है,
सबसे तोडता
है, सब तरफ
से अपने को
बन्द करता है।
मैं उसे
संन्यासी
कहता हूं जो
सबसे अपने को
जोड़े, जो
अपने को बन्द
ही न करे, खुला
छोड़ दे।
निश्चित
ही इसके और भी
अर्थ होंगे।
जो संन्यास
सिकोड़नेवाला
है वह संन्यास
बन्धन बन
जायेगा, वह
संन्यास
कारागृह बन
जायेगा, वह
संन्यास
स्वतंत्रता
नहीं हो सकता।
और जो संन्यास
स्वतंत्रता
नहीं है वह
संन्यास कैसे
हो सकता है? संन्यास की
आत्मा तो परम
स्वतंत्रता
है। इसलिए
मेरे लिए
संन्यास की
कोई मर्यादा
नहीं, कोई
बन्धन नहीं।
मेरे लिए
संन्यास का
कोई नियम नहीं,
कोई
अनुशासन नहीं।
मेरे लिए
संन्यास की
कोई
डिसिप्लिन
नहीं है, कोई
अनुशासन नहीं
है। मेरे लिए
संन्यास
व्यक्ति की
परम विवेक में
परम
स्वतंत्रता
की सदभावना है।
उस
व्यक्ति को मै
संन्यासी
कहता हूं जो
परम स्वतंत्रता
में जीने का
साहस करता है।
नहीं कोई
बन्धन ओढता, नहीं
कोई व्यवस्था
ओढता, नहीं
कोई अनुशासन
ओढ़ता। लेकिन,
इसका मतलब
यह नहीं है कि
उच्छृंखल हो
जाता है। इसका
यह मतलब नहीं
कि वह
स्वच्छन्द हो
जाता है। असलियत
तो यह है कि जो
आदमी परतंत्र
है वही उच्छृंखल
हो सकता है।
और जो आदमी
परतंत्र है, बन्धन में
बंधा है वह
स्वच्छन्द हो
सकता है। जो
स्वतंत्र है
वह तो कभी
स्वच्छन्द
होता ही नहीं।
उसके
स्वच्छन्द
होने का उपाय
नहीं।
अतीत
के संन्यास से
मैं भविष्य के
संन्यास को भी
तोड़ता हूं। और
मैं समझता हूं
कि अतीत के
संन्यास की जो
आज तक
व्यवस्था थी
वह मरणशैया पर
पड़ी है—मर ही
गयी है। उसे
हम ढो रहे है, वह
भविष्य में बच
नहीं सकती।
लेकिन
संन्यास ऐसा
फूल है जो., खो
नहीं जाना
चाहिए। वह ऐसी
अदभुत
उपलब्धि है जो
विदा नहीं हो
जानी चाहिए। वह
बहुत अनूठा
फूल है जो कभी—कभी
खिलता रहा है।
ऐसा भी हो
सकता है कि हम
उसे भूल ही
जाएं खो ही दें।
पुरानी
व्यवस्था में
बंधा हुआ वह
मर सकता है।
इसलिए
संन्यास को
नये अर्थ, नये
उदभाव देने
जरूरी हो गए
है। संन्यास
तो बचना ही
चाहिए। वह तो
जीवन की गहरी
से गहरी सम्पदा
है। लेकिन अब
कैसे बचायी जा
सकेगी। उसे
बचाये जाने के
लिए कुछ मेरे
खयाल में है, मैं आपको
कहता हूं।
पहली
बात तो मैं
आपसे यह कहता
हूं कि बहुत
दिन हमने
संन्यासी को
संसार से
तोड़कर देख
लिया। इससे दोहरे
नुकसान हुए।
संन्यासी
संसार से
टूटता है तो
दरिद्र हो जाता
है,
बहुत गहरे
अर्थों में
दीख हो जाता
है। क्योंकि
जीवन के अनुभव
की सारी
सम्पदा संसार में
है। जीवन के सुख—दुख
का, जीवन
के संघर्ष, जीवन की
सारी महनताओं
का, जीवन
रसों का सारा
अनुभव तो
संसार से है
और जब हम किसी व्यक्ति
को संसार से तोड़
देते हैं तो
वह 'हाट
हाउस प्लान्ट'
हो जाता है।
खुले आकाश के
नीचे खिलने वाला
फूल नहीं रह
जाता। वह बन्द
कमरे में, कृत्रिम
हवाओं में, कृत्रिम गर्मी
में खिलने वाला
फूल हो जाता है—कांच
की दीवारों में
बन्द! उसे
मकान के बाहर
लाएं तो
मुर्झा जाएगा,
मर जाएगा।
संन्यासी
अब तक 'हाट
हाउस प्लांट'
हो गया है।
लेकिन
संन्यास भी कहीं
बन्द कमरों में
खिल सकता है? उसके लिए
खुला आकाश
चाहिए, रात
का अंधेरा
चाहिए, दिन
का उजाला
चाहिए, चांद
तारे चाहिए, पक्षी चाहिए,
खतरे चाहिए,
वह सब चाहिए।
संसार से
तोड़कर हमने
संन्यासी को
भारी नुकसान
पहुंचाया है।
संन्यासी की
आन्तरिक समृद्धि
क्षीण हो गयी है।
यह बडे मजे की बात
है कि साधारणतः
जिन्हें हम
अच्छे आदमी
कहते हैं उनकी
जिन्दगी बहुत
समृद्ध, रिच
नहीं होती, उनकी
जिन्दगी में
बहुत अनुभवों
का भण्डार नहीं
होता। इसलिए
उपन्यासकार
कहते हैं कि
अच्छे आदमी की
जिन्दगी पर
कोई कहानी
नहीं लिखी जा
सकती। कहानी
लिखनी हो तो
बुरे आदमी को
पात्र बनाना
पड़ता है। एक बुरे
आदमी की कहानी
होती है। अगर हम
बता सके कि एक
आदमी जन्म से
मरने तक बिलकुल
अच्छा है तो
इतनी ही कहानी
काफी है। और
कुछ बताने को नहीं
रह जाता।
संन्यासी को
संसार से
तोड़कर हम
अनुभव से तोड़ देते
हैं। अनुभव से
तोड़कर हम उसे एक
तरह की
सुरक्षा तो दे
देते हैं, लेकिन
एक तरह की दिखता
भी दे देते
हैं।
मैं
संन्यासी को
संसार से
जोड़ना चाहता
हूं। मैं ऐसे
संन्यासी
देखना चाहता
हूं जो दुकान
पर बैठे हों, दफ़र
में काम भी कर
रहे हों, खेत
पर मेहनत भी
कर रहे हों—जो
जिन्दगी की
पूरे सघनता
में खडे हों—हार
नहीं गए हों, भगोड़े न हों,
एस्केपिस्ट
न हों। पलायन
न किया हो, जिन्दगी
के पूरे सघन
बाजार में खडे
हों, भीड़ में,
शोरगुल में
खड़े हों और
फिर भी
संन्यासी हों।
तब उनके
संन्यास का
क्या मतलब
होगा? अगर
एक सी
संन्यासिनी
होती है और पत्नी
है तो अब तक
मतलब होता था
कि वह भाग जाए
जिन्दगी से—छोड़कर
बच्चों को, पति को। अगर
पति है तो छोड़
जाएगा घर को।
घर छोड़कर भाग
जाएगा।
मेरे
लिए ऐसे
संन्यास का
कोई अर्थ नहीं
है। मैं तो
मानता हूं कि
अगर एक पति
संन्यासी होता
है तो जहां है
वहीं हो, भागे
नहीं। संन्यास
उसके जीवन में
वहीं लिखे।
लेकिन तब क्या
करेगा वह? भागने
में तो रास्ता
दिखता था कि
भाग गए तो बच
गए। अब क्या
करेगा? अब
उसे करने को
क्या होगा? वह पति भी
होगा, बाप
भी होगा, दुकानदार
भी होगा, नौकर
भी होगा, मालिक
भी होगा, हजार
संबंधों में
होगा।
जिन्दगी का
मतलब ही
अर्न्तसंबंधों
का जाल है। वह
यहां क्या
करेगा? भाग
जाता था तो
बड़ी सहुलियत
थी क्योंकि वह
दुनियां ही हट
गयी जहां कुछ
करना पड़ता था।
वह बैठ जाता
था एक कोने
में—जंगल में,
एक गुफा में।
सूखता था वहां,
सिकुडता था
वहां। यहां
क्या करेगा? यहां
संन्यास का
क्या अर्थ
होगा?
एक
अभिनेता मेरे
पास आया था।
नया—नया
अभिनेता है।
अभी—अभी
फिल्मों में
आया है। वह
मुझसे पूछने
आया था कि
मुझे भी कोई
सूत्र मेरी
डायरी पर लिख
दें,
जो मेरे काम
आ जाए। तो उसे
मैंने लिखा कि
अभिनय स्पैक से
जैसे वह जीवन हो।
और जियो ऐसे जैसे
वह अभिनय हो।
संन्यासी का मेरे
लिए यही अर्थ है।
जीवन की सघनता
में खड़े होकर
अगर कोई
संन्यास के
फूल को खिलाना
चाहता है, तो
एक ही ढंग हो
सकता है कि वह
कर्ता न रह
जाए—भोक्ता न
रह जाए, अभिनेता
हो जाए।
साक्षी हो जाए,
देखे, करे,
लेकिन कहीं
भी बहुत गहरे
में बंधे न!
गुजरे नदी से,
लेकिन उसके
पांव को पानी
न छुए। नदी से
गुजरना तो
मुश्किल है कि
पांव को पानी न
छुए, लेकिन
संसार से ऐसे
गुजरना सम्भव
है कि संसार न
छुए।
अभिनय
को थोड़ा समझ
लेना जरूरी है।
और आश्चर्य
तो यह है कि
जितना अभिनय
हो जाए जीवन
उतना कुशल हो
जाता है, उतना
सहज हो जाता
है, उतना
चिन्तामुक्त
हो जाता है।
कोई मां, अगर
मां होने में
कर्ता न बन
जाए, साक्षी
रह सके और जान
सके इतनी छोटी—सी
बात कि जिस
बच्चे को वह
पाल रही है वह
बच्चा उससे
आया तो जरूर
है, लेकिन
उसका ही नहीं
है। उससे पैदा
तो हुआ है, लेकिन
उसी ने पैदा
नहीं किया है।
वह उसके लिए
द्वार से
ज्यादा नहीं
है और जहां से
वह आया है और
जिससे वह आया
है और जिसके
द्वारा वह जिएगा,
और जिसमें
वह लौट जाएगा,
उसका ही है।
तो मां को
कर्ता होने की
अब जरूरत नहीं
रह गयी। अब वह
साक्षी हो
सकती है। अब
वह मां होने
का अभिनय कर
सकती है।
कभी
एक छोटा—सा
प्रयोग करके
देखें—चौबीस
घण्टे के लिए
तय कर लें कि
चौबीस घण्टे अभिनय
करूंगा। जब
मुझे कोई गाली
देगा तो मैं
क्रोध न
करूंगा, क्रोध
का अभिनय
करूंगा। और जब
कोई मेरी
प्रशंसा
करेगा तो मैं
प्रसन्न न
होऊंगा, प्रसन्न
होने का अभिनय
करूंगा। एक
चौबीस घण्टे
का प्रयोग
आपकी जिन्दगी
में नए दरवाजे
खोल देगा। आप
हैरान हो
जाएंगे कि मैं
नाहक परेशान
हो रहा था। जो
काम अभिनय से
ही हो सकता था,
उसे मैं
नाहक कर्ता
बनकर दुख झेल
रहा था। और जब
सांझ आप दिनभर
के बाद सोएंगे
तो तत्काल गहरी
नींद में चले
जाएंगे।
क्योंकि जो
कर्ता नहीं
रहा है उसकी
कोई चिन्ता
नहीं है, उसका
कोई तनाव नहीं
है, उसका
कोई बोझ नहीं
है। सारा बोझ
कर्ता होने का
बोझ है।
संन्यास
को मैं घर—घर
पहुंचा देना
चाहता हूं तो
ही संन्यास
बचेगा। लाखों
संन्यासी
चाहिए। दो—चार
संन्यासियों
से काम नहीं
होगा। और जैसा
मैं कह रहा
हूं उसी आधार
पर लाखों
संन्यासी हो
सकते हैं।
संसार से
तोड़कर आप
ज्यादा
संन्यासी
नहीं जगत में
ला सकते, क्योंकि
कौन उसके लिए
काम करेगा, कौन उनके
लिए भोजन
जुटाएगा, कौन
उनके लिए कपड़े
जुटाएगा? एक
छोटी—सी दिखाऊ
संख्या पाली—पोसी
जा सकती है।
लेकिन बड़े
विराट पैमाने
पर संन्यास
संसार में नहीं
आ सकता। सिर्फ
दो—चार हजार
संन्यासी एक
मुल्क झेल
सकता है। ये
संन्यासी भी
दीन हो जाते
हैं, ये
संन्यासी भी
निर्भर हो
जाते हैं, ये
संन्यासी
परवश हो जाते
हैं और इनका
विराट, व्यापक
प्रभाव नहीं
हो सकता। अगर
जगत में बहुत
व्यापक
प्रभाव चाहिए
संन्यास का, जो कि जरूरी
है, उपयोगी
है, अर्थपूर्ण,
आनन्द पूर्ण
है तो हमें
धीरे— धीरे
ऐसे संन्यास
को जगह देनी
पड़ेगी जिसमें
से तोड़कर
भागना
अनिवार्यता न
हो, जिसमें
जो जहां है वह
वहीं
संन्यासी हो
सके। वहीं वह
अभिनय करे और
वहीं वह
साक्षी हो जाए,
जो हो रहा
है उसका
साक्षी हो जाए।
तो
एक तो संन्यास
को घर से, दुकान
से, बाजार
से जोड्ने का
मेरा खयाल है।
अदभुत और
मजेदार हो
सकेगी वह
दुनिया, अगर
हम बना सकें
जहां
दुकानदार
संन्यासी हो।
स्वभावत: वैसा
दुकानदार
बेईमान होने
में बड़ी कठिनाई
पाएगा। जब
अभिनय ही कोई
कर रहा हो तो
बेईमान होने
में बड़ी कठिनाई
पाएगा। और जब
कोई साक्षी
बना हो तो फिर
बेईमान होने में
बड़ी कठिनाई
पाएगा।
संन्यासी अगर
दफ़र में
क्लर्क हो,
चपरासी
हो,
डॉक्टर हो,
वकील हो तो
हम इस दुनिया
को बिलकुल बदल
डाल सकते हैं।
तो
एक तो संसार
से टूटकर
संन्यासी दीन
हो जाता है और
संसार का भारी
नुकसान होता
है,
संसार भी
दीन हो जाता
है। क्योंकि
उसके बीच जो
श्रेष्ठतम
फूल खिल सकते थे
वे हट जाते
हैं, वे
बगिया के बाहर
हो जाते हैं।
और बगिया उदास
हो जाती है।
इसलिए
संन्यास का एक
जगत व्यापी
आन्दोलन
जरूरी है।
जिसमें हम
धीरे— धीरे घर
में, द्वार—द्वार
में, बाजार
में, दुकान
में संन्यासी
को जन्म दे
सकें। वह मां
होगी, पति
होगा, पत्नी
होगी, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। वह जो
भी होगा वही
होगा। सिर्फ
उसके देखने की
दृष्टि बदल
जाएगी। उसके
लिए जिन्दगी
अभिनय और लीला
हो जाएगी, काम
नहीं रह जाएगा।
उसके लिए
जिन्दगी एक
उत्सव हो
जाएगी, और
उत्सव होते ही
सब बदल जाता
है।
दूसरी
एक मेरी और
दृष्टि है, वह
आपको कहूं। वह
मेरी दृष्टि
है.
पीरियाडिकल
रिनन्सिएशन की,
सावधिक
संन्यास की।
ऐसा मैं नहीं
मानता हूं कि
कोई आदमी
जिंदगीभर
संन्यासी
होने की कसम
ले। असल में
भविष्य के लिए
कोई भी कसम
खतरनाक है।
क्योंकि
भविष्य के हम
कभी भी नियंता
नहीं हो सकते।
वह भ्रम है।
भविष्य को आने
दें, वह जो
लाएगा हम
देखेंगे। जो
साक्षी है वह
भविष्य के लिए
निर्णय नहीं कर
सकता। निर्णय
सिर्फ
कर्त्ता कर
सकता है।
जिसको खयाल है
कि मैं
करनेवाला हूं
वह कह सकता है
कि मैं जिंदगी
भर संन्यासी
रहूंगा।
लेकिन सच में
जो साक्षी है
वह कहेगा, कल
का तो मुझे
कुछ पता नहीं,
कल जो होगा,
होगा! कल जो
होगा उसे
देखूंगा और जो
होगा, होगा!
कल के लिए कोई
निर्णय नहीं
ले सकता।
और
इसलिए
संन्यास की एक
और कठिनाई
अतीत में हुई, वह
थी जीवनभर के
संन्यास की, आजीवन
संन्यास की।
एक आदमी किसी
भाव—दशा में
संन्यासी हो
जाए और कल
किसी भाव—दशा
में जीवन में
वापस लौटना
चाहे, तो
हमने लौटने का
द्वार नहीं
छोड़ा है खुला।
संन्यास में
हमने एंट्रेस,
प्रवेश
द्वार तो रखा
है, लेकिन
एक्जिट, बाहर
के लिए द्वार
नहीं है।
उसमें भीतर जा
सकते हैं, बाहर
नहीं आ सकते।
और ऐसा स्वर्ग
भी नर्क हो
जाता है
जिसमें बाहर
लौटने का
दरवाजा न हों—परतंत्रता
बन जाता है, कारागृह हो
जाता है। आप
कहेंगे नहीं,
कोई
संन्यासी
लौटना चाहे तो
हम क्या
करेंगे, लौट
सकता है।
लेकिन आप उसकी
निंदा करते
हैं, अपमान
करते हैं—निंदा,
कंडमनेशन है
उसके पीछे।
और
इसलिए हमने एक
तरकीब बना रखी
है कि जब कोई संन्यास
लेता है तो
उसका भारी शोर—गुल
मचाते हैं। जब
कोई संन्यास
लेता है तो
बहुत बैंड बाजा
बजाते हैं। जब
कोई संन्यास
लेता है तो
बहुत फूल—मालाएं
पहनाकर बड़ी
प्रशंसा, बड़ा
सम्मान, बड़ा
आदर देते हैं।
जैसे कोई बहुत
बड़ी घटना घट
रही हो, ऐसा
हम उपद्रव
करते हैं। पर
इस उपद्रव का
दूसरा हिस्सा
है, वह उस
संन्यासी को
पता नहीं कि
अगर वह कल
लौटा तो जैसे
फूल—मालाएं
फेंकी गयीं, वैसे पत्थर
और जूते भी
फेंके
जायेंगे। और
वे ही लोग
होंगे
फेंकनेवाले, कोई दूसरा
आदमी नहीं
होगा। असल में
इन लोगों ने
फूल—मालाएं
पहनाकर उससे
कहा कि अब
सावधान, अब
लौटना मत। अब
जितना आदर
किया है उतना
ही अनादर
प्रतीक्षा
करेगा। यह बड़ी
खतरनाक बात है।
इसके कारण न
मालूम कितने
लोग जो
संन्यास का आनंद
ले सकते है, वह नहीं ले
पाते। वह कभी
निर्णय नहीं
कर पाते कि 'जीवनभर के
लिए'…….. जीवनभर
का निर्णय बड़ी
महंगी बात है,
मुश्किल
बात है! फिर
हकदार भी हम
नहीं हैं जीवनभर
के निर्णय के
लिए।
तो
मेरी दृष्टि
है,
कि संन्यास
सदा ही सावधिक
है— आप कभी भी
वापस लौट सकते
हैं। कौन बाधा
डालने वाला है?
संन्यास
आपने लिया था।
संन्यास आप
छोड़ दें। आपके
अतिरिक्त
इसमें कोई और
निर्णायक
नहीं है। आप
ही निर्णायक
हैं। आपका ही
निर्णय है।
इसमें दूसरे
की न कोई
स्वीकृति है,
न दूसरे का
कोई संबंध है।
संन्यास
निजता है, मेरा
निर्णय है।
मैं आज लेता
हूं कल वापस
लौटता हूं। न
तो लेते वक्त
आपकी अपेक्षा
है कि सम्मान
करें, न
छोड़ते वक्त
आपसे अपेक्षा
है कि आप इसके
लिए निंदा
करें। आपका
कोई संबंध
नहीं है।
संन्यास
को हमने बड़ा
गंभीर मामला
बनाया हुआ था, इसलिए
वह सिर्फ
रुग्ण और
गंभीर लोग ही
ले पाते हैं।
संन्यास को
बहुत गैर—गंभीर
खेल की घटना
बनाना जरूरी
है। आपकी मौज
है, संन्यास
ले लिया है।
आपकी मौज है, आप कल लौट जा
सकते हैं।
नहीं मौज है, नहीं लौटते
हैं! जीवनभर
रह जाते हैं, वह आपकी मौज
है। इससे किसी
का कोई लेना—देना
नहीं है। फिर
इसके साथ, यह
भी मेरा खयाल
है कि अगर
संन्यास की
ऐसी दृष्टि
फैलायी जा सके
तो कोई भी
आदमी जो वर्ष
में एकाध दो
महीने के लिए
संन्यास ले
सकता है वह एकाध
दो महीने के
लिए ले लेगा।
जरूरी क्या है
कि बारह महीने
के लिए ले। वह
दो महीने के
लिए संन्यासी
हो जाए, दो
महीने
संन्यास की
जिंदगी को
जिये, दो
महीने के बाद
वापस लौट जाए।
यह बड़ी अदभुत
बात होगी।
एक
फकीर हुआ, उस
फकीर के पास
एक सम्राट गया।
सूफी फकीर था।
उस सम्राट ने
कहा, मुझे
भी परमात्मा
से मिला दो।
मैं भी बड़ा
प्यासा हूं।
उस फकीर ने
कहा, तुम
एक काम करो।
कल सुबह आ जाओ।
सम्राट कल
सुबह आया। उस
फकीर ने कहा, तुम सात दिन
यहीं रुको। यह
भिक्षा का
पात्र हाथ में
लो और रोज
गांव में सात
दिन तक भीख
मांगकर लौट
आना, यहां
भोजन कर लेना,
यहीं
विश्राम कर
लेना। सात दिन
के बाद
परमात्मा के
संबंध में बात
करेंगे।
सम्राट
बहुत मुश्किल
में पड़ा। उसकी
ही राजधानी थी।
उसकी अपनी ही
राजधानी में
भिक्षा का
पात्र लेकर
भीख मांगना!
उसने कहा कि
अगर किसी दूसरे
गांव में चला
जाऊं तो! उस
फकीर ने कहा
नहीं, गांव तो
यही रहेगा।
अगर सात दिन
भीख न मांग
सकी तो वापस
लौट जाओ। फिर
परमात्मा की
बात मुझसे मत
करना। सम्राट
झिझका तो जरूर,
लेकिन रुका।
दूसरे दिन भीख
मांगने गया
बाजार में।
सड्कों पर, द्वारों पर
खड़े होकर उसने
भीख मांगी।
सात दिन उसने
भीख मांगी।
सात
दिन के बाद
फकीर ने उसे
बुलाया और कहा, अब
पूछो। उसने
कहा, मुझे
कुछ भी नहीं
पूछना है। मैं
तो सोच भी
नहीं सकता था
कि सात दिन
भिक्षा का
पात्र फैलाकर
मुझे परमात्मा
दिखाई पड़
जायेगा। फकीर
ने कहा, क्या
हुआ तुम्हें?
उसने कहा, कुछ भी नहीं
हुआ। सात दिन
भीख मांगने से
मेरा अहंकार
गल गया और पिघल
गया और बह गया।
मैंने तो कभी
सोचा भी नहीं
था कि जो
सम्राट होकर
नहीं पा सका, वह भिखारी
होकर मिल सकता
है। और जिस
क्षण
विनम्रता, ह्यूमिलिटी
का भीतर जन्म
होता है, उसी
क्षण द्वार
खुल जाते हैं।
अब
यह अदभुत
अनुभव की बात
होगी कि कोई
आदमी वर्ष में
दो महीने के
लिए,
एक महीने के
लिए संन्यासी
हो जाए, फिर
वापस लौट जाए,
अपनी दुनियां
में। इस दो
महीने में
संन्यास की
जिंदगी के
अनुभव उसकी
संपत्ति बन
जायेंगे। वे
उसके साथ चलने
लगेंगे। और
अगर एक आदमी
चालीस—पचास—साठ
साल की उम्र
तक दस—बीस बार
थोडे—थोडे
दिनों के लिए
संन्यासी होता
चला जाए तो
फिर उसे
संन्यासी होने
की जरूरत न रह
जाएगी। वह
जहां है वहीं
धीरे—धीरे
संन्यासी हो
जाएगा।
ऐसा
भी मैं सोचता
हूं कि हर
आदमी को मौका
मिलना चाहिए
कि वह कभी
संन्यासी हो
जाए। और दो
चार बातें, फिर
आपको कुछ इस
संबंध में
पूछना हो तो
आप पूछ सकते
हैं।
अब
तक जमीन पर
जितने
संन्यासी रहे
वह किसी धर्म
के थे। इससे
बहुत नुकसान
हुआ है।
संन्यासी भी
और 'किसी धर्म
का' होगा, यह बात ही
बेतुकी है। कम
से कम
संन्यासी तो 'सिर्फ धर्म
का' होना
चाहिये। वह न
तो जैन हो, न
ईसाई हो, न
हिंदू हो। वह
तो सिर्फ धर्म
का हो। वह तो
कम से कम 'सर्व
धर्मान
परित्यज्य', वह तो कम से
कम सर्व धर्म छोड़कर,
निपट धर्म
का हो जाए। यह
बड़े मजे की
बात होगी कि
हम इस पृथ्वी
पर एक ऐसे
संन्यास को
जन्म दे सकें
जो धर्म का
संन्यास हो—किसी
विशेष
संप्रदाय का
नहीं। वह
संन्यासी
मस्जिद में भी
रुक सके, वह
मंदिर में भी
रुक सके, वह
गुरुद्वारे
में भी ठहर
सके। उसके लिए
कोई पराया न
हो, सब
अपने हो जाएं।
साथ
ही ध्यान रहे, अब
तक संन्यास
सदा गुरु से
बंधा रहा। कोई
गुरु दीक्षा
देता है।
संन्यास कोई
ऐसी चीज नहीं
है जिसे कोई दे
सके। संन्यास
ऐसी चीज है जो
लेनी पड़ती है,
देता कोई भी
नहीं। या कहना
चाहिए कि
परमात्मा के
सिवाय और कौन
दे सकता है? अगर मेरे
पास कोई आता
है और कहता है
कि मुझे दीक्षा
दे दें, तो
मैं कहता हूं
कि मैं कैसे
दीक्षा दे
सकता हूं मैं
सिर्फ गवाह हो
सकता हूं
विटनेस हो
सकता हूं।
दीक्षा तो
परमात्मा से
ले लो, दीक्षा
तो परम सत्ता
से ले लो, मैं
गवाहभर हो
सकता हूं एक
विटनेस हो
सकता हूं कि
मैं मौजूद था,
मेरे सामने
यह घटना घटी।
इससे ज्यादा
कुछ अर्थ नहीं
होता।
गुरु
से बंधा हुआ
संन्यास
सांप्रदायिक
हो ही जायेगा।
गुरु से बंधा
हुआ संन्यास
मुक्ति नहीं
ला सकता, बंधन
ले आयेगा।
फिर
यह संन्यासी
करेगा क्या? ये
संन्यासी तीन
प्रकार के हो
सकते हैं। एक—वे
जिन्होंने
सावधिक
संन्यास लिया
है, जो एक
अवधि के लिए
संन्यास लेकर
आये हैं, जो
दो महीने, तीन
महीने
संन्यासी
होंगे, साधना
करेंगे।
एकांत में रह
सकते हैं, फिर
वापस जिंदगी
में लौट जाएं।
दूसरे—वे
संन्यासी हो
सकते हैं जो
जहां हैं, वहां
से इंचभर नहीं
हटते, क्षणभर
के लिए नहीं
हटते, वहीं
संन्यासी हो
जाते हैं। और
वहीं अभिनय और
साक्षी का
जीवन शुरू कर
देते हैं।
तीसरे—वे भी
संन्यासी
होंगे जो
संन्यास के
आनंद में इतने
डूब जाते हैं
कि न तो लौटने
का उन्हें
सवाल उठता, न ही उनके
ऊपर कोई
जिम्मेवारी
है कि जिसकी
वजह से उन्हें
किसी के घर
में बंधा हुआ
रहना पड़े। न
उन पर कोई
निर्भर है, न उनके यहां
वहां हट जाने
से कहीं भी
कोई पीड़ा और
कहीं भी कोई
दुख और कहीं
भी कोई अड़चन आती
है। ऐसा जो
तीसरा वर्ग
होगा
संन्यासियों
का, यह
तीसरा वर्ग
ध्यान में
जिये, ध्यान
की खबरें ले
जाए, ध्यान
को लोगों तक
पहुंचाए।
मुझे
ऐसा लगता है
कि इस समय
पृथ्वी पर
जितनी ध्यान
की जरूरत है
उतनी और किसी
चीज की नहीं
है। और अगर हम
पृथ्वी के एक
बड़े मनुष्यता
के हिस्से को
ध्यान में लीन
नहीं कर सके
तो शायद आदमी
ज्यादा दिन
जिंदा नहीं
रहेगा।
आदमियत
ज्यादा दिन बच
नहीं सकती।
आदमी समाप्त
हो सकता है।
इतना मानसिक
रोग है, इतने
पागलपन हैं, इतनी
विक्षिप्तता
है, इतनी
राजनैतिक
बीमारियां
हैं कि उन
सबके बीच आदमी
बचेगा इसकी
उम्मीद रोज कम
होती जाती है।
अगर इस बीच एक
बड़े व्यापक
पैमाने पर
लाखों लोग
ध्यान में
नहीं डूब जाते
तो शायद हम
मनुष्य को
नहीं बचा
सकेंगे। और या
हो सकता है, मनुष्य बच
भी जाए तो
सिर्फ यंत्र
की भांति बचे
क्योंकि
मनुष्यता का
जो भी श्रेष्ठ
है वह सब खो
जाएगा। इसलिए
एक ऐसा वर्ग
भी चाहिए
युवकों का, युवतियों का,
जिन पर कोई
जिम्मेवारी न
हो अभी—या
वृद्धों का
वर्ग जो
जिम्मेवारी
के बाहर जा चुके
हों, जिनकी
जिम्मेवारी
समाप्त हो गयी
हो, जो
जिम्मेवारी
पूरी कर चुके
हों। उन
युवकों का
जिन्होंने
अभी
जिम्मेवारी
नहीं ली है, उन वृद्धों
का, जिनकी
जिम्मेवारी
जा चुकी है—इनका
एक वर्ग चाहिए
जो विराट
पैमाने पर
पृथ्वी को
ध्यान में
डुबाने में
संलग्न हो जाए।
जिस
ध्यान के
प्रयोग की मैं
बात कर रहा
हूं वह इतना
आसान है, इतना
वैज्ञानिक है
कि अगर सौ लोग
करें तो सत्तर
प्रतिशत
लोगों को तो
होगा ही।
सिर्फ शर्त 'करने' की
है और किसी
पात्रता की
कोई अपेक्षा
नहीं है।
सत्तर
प्रतिशत
लोगों को तो
परिणाम होंगे
ही। फिर जिस
ध्यान की मैं
बात कर रहा
हूं उसके लिए किसी
धर्म की कोई
पूर्व
अपेक्षा नहीं
है। किसी
शास्त्र की
कोई पूर्व
अपेक्षा नहीं
है, किसी
श्रद्धा और
किसी विश्वास
की पूर्व
अपेक्षा नहीं
है। सीधे, जैसे
आप हैं वैसे
ही उस ध्यान
में आप उतर
सकते हैं।
सीधा वैज्ञानिक
प्रयोग है।
आपसे यह भी
अपेक्षा नहीं
है कि आप
श्रद्धा रखकर
उतरें। इतनी
ही अपेक्षा है
कि एक
हाईपोथेटिकल,
परिकल्पनात्मक,
जैसा एक
वैज्ञानिक
प्रयोग करता
है यह जानने के
लिए कि देखें
होता है, या
नहीं—इतना ही
प्रयोग का भाव
लेकर अगर आप
ध्यान में उतरें
तो भी हो
जाएगा।
और
मुझे ऐसा लगता
है कि एक चैन
रिक्ष्मान, एक
शृंखलाबद्ध
ध्यान की
प्रक्रिया
सारी पृथ्वी
पर फैलाई जा
सकती है। और
अगर एक
व्यक्ति
ध्यान को सीख
ले और तय कर ले कि
सात दिन न बीत
पाएंगे तब तक
वह एक व्यक्ति
को कम—से—कम
ध्यान
सिखाएगा तो हम
दस वर्ष में
इस पूरी पृथ्वी
को ध्यान में
डुबा देंगे।
इससे ज्यादा
बड़े श्रम की
जरूरत नहीं है।
मनुष्य
के जीवन में
जो भी श्रेष्ठ
खो गया है वह
सब वापस लौट
सकता है। और
कोई कारण नहीं
है कि कृष्ण
फिर पैदा
क्यों न हों, क्राइस्ट
फिर क्यों न
दिखाई पड़े, बुद्ध फिर
क्यों न हमारे
पास हमारे
निकट मौजूद हो
जाएं—वही
बुद्ध नहीं
लौटेंगे, वही
कृष्ण नहीं
लौटेंगे।
हमारे भीतर
सारी
क्षमताएं हैं,
वह फिर
प्रगट हो सकती
हैं। इसलिए
मैंने गवाह
होने का तय
किया है।
इन
तीन वर्गों
में जो मित्र
भी जाना
चाहेंगे उनके
लिए मैं गवाह
रहूंगा। उनका
गुरु नहीं
रहूंगा।
संन्यास उनका
और परमात्मा
के बीच का
संबंध होगा।
कोई उत्सव
नहीं किया
जाएगा
संन्यास देने
के लिए, नहीं
तो फिर छोड़ते
वक्त भी उल्टा
उत्सव करना पड़ता
है।
इसे
कोई गंभीर बात
नहीं समझा
जाएगा, यह
कोई 'सीरियस
अफेयर' नहीं
है। इसके लिए
इतना परेशान
और इतना
चिंतित होने
की जरूरत नहीं
है। यह बड़ी
सहज बात है।
एक आदमी सुबह
उठता है और
उसके मन में
आता है कि वह
संन्यासी हो
जाए, तो हो
जाए! कठिनाई
इसलिए नहीं है
कि 'कमिटमेंट'
कोई 'लाइफ
लांग' नहीं
है। कोई
जिंदगी भर की
बात नहीं है
कि उसने तय कर
लिया है तो अब
जिंदगी भर उसे
संन्यासी
रहना है। अगर
कल सुबह उसे
लगता है कि
नहीं, वापस
लौटना है तो
वह वापस लौट
जाए। इसमें
किसी दूसरे का
कोई लेना—देना
नहीं है।
ये
थोड़ी—सी बातें
मैंने कहीं।
इस संबंध में
कुछ भी आपको
सवाल हों तो
वह थोड़े से
सवाल पूछ लें
तो उनकी बात हो
जाएगी।
गैरिक
कपडे पहनने का
क्या मतलब
होता है?
कपड़े
पहनने से कोई
संन्यासी
नहीं होता, लेकिन
संन्यासी भी
अपने ढंग से
कपड़े पहनता है।
कपड़े पहनने से
कोई संन्यासी
नहीं होता
लेकिन संन्यासी
के अपने कपड़े
हो सकते हैं।
कपड़े बड़ी
साधारण चीज
हैं, लेकिन
एकदम व्यर्थ
चीज नहीं है।
आप
क्या पहनते
हैं,
इसके बहुत
से अर्थ हैं।
आप क्यों
पहनते हैं, इसके भी
बहुत से अर्थ
हैं। एक आदमी
ढीले—ढाले
कपड़े पहनता है।
ढीले—ढाले
कपड़े पहनने से
कुछ फर्क नहीं
पड़ता लेकिन एक
आदमी ढीले—ढाले
कपड़े क्यों
चुनता है? और
एक आदमी चुस्त
कपड़े क्यों
चुनता है? ये
उस आदमी के
सूचक होते
हैं! अगर आदमी
बहुत शांत है
तो चुस्त कपड़े
पसंद नहीं
करेगा। चुस्त
कपड़ों की
पसंदगी इस बात
की खबर देती
है कि आदमी
झगड़ालू हो
सकता है, अशांत
हो सकता है, उपद्रवी हो
सकता है, कामुक
हो सकता है।
लड़ने के लिए
ढीले कपड़े ठीक
नहीं पड़ते।
इसलिए सैनिक
को हम ढीले
कपड़े नहीं
पहना सकते।
सिर्फ साधु को
पहना सकते हैं।
सैनिक को
चुस्त कपड़े ही
पहनने चाहिए।
काम चुस्त
कपड़े का है।
जहां वह जा
रहा है वहां
कपड़े इतने कसे
होने चाहिए कि
उसे पूरे वक्त
लगता रहे कि
वह अपने शरीर
के बाहर छलांग
लगा सकता है।
पूरे वक्त
लगता रहे कि
वह जब चाहे तब
शरीर के बाहर
कूद सकता है।
कपड़े इतने
चुस्त होने
चाहिए। ये
कपड़े उसे लड़ने
में सहयोगी हो
जाते हैं।
गैरिक वस्रों
का भी उपयोग
है। ऐसा नहीं
कि गैरिक
वस्त्रों के
बिना कोई संन्यासी
नहीं हो सकता।
लेकिन गैरिक
वस्रों का
उपयोग है। और
जिन्होंने वह
खोजे थे उनके
पीछे बहुत
कारण थे।
पहला
कारण समझें।
हम कभी छोटे—मोटे
प्रयोग भी
नहीं करते, इसलिए
बड़ी कठिनाई
होती है। सात
रंगों की सात
बोतलें ले लें
और उनमें एक ही
नदी का पानी
भर दें। और
सातों को सूरज
की रोशनी में रख
दें और आप बड़े
हैरान हो
जाएंगे। सात
रंगों का कांच
सात रंग के
पानी पैदा कर
देते हैं।
पीले रंग की
बोतल का पानी
जल्दी सड़
जाएगा। वह
ताजा नहीं रह
सकता। लाल रंग
की बोतल का
पानी महीनेभर
तक स्वच्छ रह
जाएगा, सडेगा
नहीं। आप
कहेंगे, क्या
किया बोतल ने?
कांच का रंग
किरणों के आने—जाने
में फर्क डाल
रहा है। पीले
रंग की बोतल
पर और तरह की
किरणें भीतर
प्रवेश कर रही
हैं, लाल
रंग की बोतल
पर और तरह की
किरणें
प्रवेश कर रही
हैं, नीले
रंग की बोतल
पर और तरह की
किरणें
प्रवेश कर रही
हैं। वह जो
भीतर पानी है,
वह उन
किरणों को पी
रहा है, वह
उसका आहार बन
रहा है।
जिन
लोगों ने
संन्यास पर
बहुत प्रयोग
किए उन्होंने
हजारों साल के
लंबे प्रयोग
के बाद बहुत तरह
के कपड़ों में
से गैरिक वस्त्र
को चुना था।
कई अनुभव हैं
उसके पीछे। एक
तो बहुत अदभुत
अनुभव यह है, जो
लोग फिजिक्स
को थोड़ा समझते
हैं, उनको
खयाल में होगा
कि जिस रंग का
कपड़ा होता है,
उस रंग की
किरण हम से
वापस लौट जाती
है। आमतौर से
हम उल्टा
समझते हैं।
आमतौर से हम
समझते हैं कि
जो कपड़ा लाल
है, वह लाल
होगा। असलियत
यह नहीं है, असलियत
उल्टी है।
सूरज
की किरणों में
सात रंग छिपे
होते हैं और जब
सूरज की किरण
किसी चीज पर
पड़ती है, अगर
आपको कपड़ा
दिखाई पड़ रहा
है तो उसका
मतलब यह है कि
किरणों के छह
रंग तो वह
कपड़ा पी गया, केवल रंग को
उसने वापस
लौटा दिया।
आपको वही रंग
दिखाई पड़ता है
जो चीजें वापस
लौटा देती हैं।
नीले की चीज
का मतलब है कि
नीले रंग की
किरण वापस लौट
गई। उसे उस
चीज ने
एज्जार्ब
नहीं किया, उसने पिया नहीं।
वह वापस छोड़
दी गई। वह
किरण लौटकर
आपकी आख में
पड़ती है इसलिए
आपको चीज नीली
छ पड़ती है। और
मजे की बात यह
है कि वह चीज
नीले रंग को
पीती नहीं है।
वह उसको छोड़
देती है। जिस
रंग का कपडा
आप पहन रहे है,
उस रंग की
किरण आपके
भीतर प्रवेश
नहीं करेगी।
गैरिक
वस्त्र बहुत
सोचकर चुने गए।
लाल रंग की
किरण मनुष्य
के चित्त में
बहुत तरह की
कामुकताओं को
जन्म देती है।
वह बहुत हाइटेल
है। लाल रंग
की जो किरण है
वह शरीर के
भीतर प्रवेश करके
मनुष्य की
कामुकता, सेक्यूआलिटी
को उभारती है।
इसलिए गर्म
मुल्क के लोग
ज्यादा कामुक
होते हैं।
जितना गर्म
मुल्क होगा, उतने लोग
ज्यादा कामुक
होंगे। इसलिए
आप हैरान
होंगे यह
जानकर कि काम—सूत्र
के मुकाबले की
कोई किताब ठण्ड़े
मुल्कों में
पैदा नहीं हुई।’अरेबियन
नाइट' जैसी
किताब ठण्ड़े
मुल्कों में
पैदा नहीं हुई।
गर्म मुल्क
बहुत कामुक
होते हैं।
सूरज की तपती
हुई तेज
किरणें हैं वह
सब तपते हुए शरीर
में प्रवेश कर
जाती हैं।
संन्यास
पर जो लोग
बहुत तरह से
प्रवेश कर रहे
थे—हजारों
दिशाओं से, उनको
यह भी खयाल
आया कि अगर
लाल किरणें
शरीर से वापस
लौटाई जा सकें
तो वे कामुकता
को शांत करती
हैं। इसलिए
गैरिक वस्त्र
चुना गया। ठेठ
लाल भी चुना
जा सकता था, लेकिन थोड़ा—सा
फर्क किया गया—ऑकर,
गैरिक। ठेठ
लाल नहीं चुना।
उसमें एक बड़ी
अदभुत बात है।
लाल चुना जा
सकता था, बिलकुल
लाल रंग और भी
अच्छा होता, वह लाल किरण
को बिलकुल ही
वापस कर देता।
लेकिन अगर लाल
किरण बिलकुल
वापस हो जाए
तो शरीर के स्वास्थ्य
को नुकसान
पहुंचना शुरू
हो जाता है।
वह थोड़ी—सी तो
भीतर जानी
चाहिए।
और
भी एक कारण है
कि अगर लाल
किरण मेरे
कपड़ों से पूरी
तरह वापस लौटे
तो जिसकी भी
आख पर पड़ती है
उसको भी
नुकसान
पहुंचाती है।
अब बड़े मजे की
बात है कि
संन्यासी ने
इसकी भी
चिन्ता की कि
उसके कपड़े से
किसी को
नुकसान भी न
पहुंच जाए। आप
लाल रंग का
कपड़ा जरा बैल
के सामने कर
दें तो आपको
पता चलेगा कि
बैल भी कुछ
रंगों को
समझता है। बैल
भी छिड़कता है
लाल रंग के
कपड़े को देखकर।
उसकी आख पर
लाल रंग की
चोट गहरी पड़ती
है।
आप
जानकर हैरान
होंगे कि जो
लोग 'कलर
साइकोलॉजी' पर, रंग
के मनस
शास्त्र पर
काम करते हैं,
उनके बड़े
अदभुत अनुभव
हुए। आज तो पश्चिम
में रंग पर
बहुत काम चलता
है। क्योंकि
रंग के बहुत
उपयोग उनके
खयाल में आ गए
हैं। अभी एक
बहुत बड़े
दुकानदार ने,
एक सुपर
स्टोर के मालिक
ने अमेरिका
में एक रिसर्च,
शोध करवाई
कि हम अपनी
चीजें जिन
डिब्बों में रखते
हैं उन पर हम
किस तरह के
रंग लगाएं कि
बिक्री पर
उसका असर पड़े!
बड़ी हैरानी की
बात यह हुई कि
जो स्रियां
खरीदने आती
हैं उस सुपर
स्टोर में, उन पर
रिसर्च चलती
रहती है पूरे
वक्त कि जितनी
स्रियां वहां
आती हैं, पूरे
वक्त रिकार्ड
किया जाता है
कि उनकी आंखें
सबसे ज्यादा
किस रंग के
डिब्बे को
पकड़ती हैं। तो
यह पाया गया
कि वही डिब्बा
अगर पीले रंग
में पोता जाए
तो बीस
प्रतिशत
बिक्री होती
है और वही
डिब्बा लाल
रंग में पोत
दिया जाए तो
अस्सी
प्रतिशत बिक्री
होती है।
डिब्बा
वही,
चीज वही, नाम वही, सिर्फ
रंग डिब्बे का
बदल दिया जाए।
लाल रंग
स्रियों की आख
को बहुत जोर
से पकड़ लेता
है। इसलिए
सारी दुनियां
में
स्त्रियां
लाल रंग के
कपड़े सबसे
ज्यादा पहनती
हैं।
लाल
रंग न रखने के
भी कारण हैं।
लाल रंग का
थोड़ा—सा शेड हटाया, गैरिक
किया। यह जो
गैरिक, यह
जो ' आकर' कलर है
इसमें लाल के
सारे फायदे
हैं और लाल का कोई
भी नुकसान
नहीं है। एक
तो कामुकता को
यह बहुत क्षीण
करता है। और
दूसरी बात, बहुत—सी
बातें हैं, सारी बात तो
नहीं कह
सकूंगा
क्योंकि वह
बहुत लंबा
मामला है। अगर
रंग की सारी
बात समझनी हो
तो बहुत लंबी
बात है। लेकिन
थोड़ी—सी बातें
खयाल में ली
जा सकती हैं।
गैरिक
रंग सूर्य के
उगने का रंग
है—जब सुबह
सूर्य उग रहा
होता है, बस
फूट रही है पौ,
सूरज
निकलना शुरू
हुआ—उस वक्त
का रंग। ध्यान
में भी जब
प्रवेश होता
है तो जो पहले
प्रकाश का रंग
होता है वह
गैरिक है। और
जो प्रकाश का
अंतिम अनुभव
होता है वह
नील है। गैरिक
रंग का अनुभव
शुरू होता है,
भीतर
प्रकाश में और
नीले पर अंत
होता है, नीले
रंग पर पूरा
हो जाता है।
ध्यान
के पहले चरण
की सूचना
गैरिक रंग में
है। और जब
संन्यासी
ध्यान में
प्रवेश करता
है तो उसे वह
रंग दिखायी
पड़ना शुरू हो
जाता है। और
अगर वह दिनभर
भी,
खुली आख में
भी उस रंग को
बार—बार देख
लेता है तब
रिमेंबरिग
वापस लौट आती
है। और दोनों
के बीच एक
तालमेल, एसोसिएशन
हो जाता है।
एक अंतर—संबंध
हो जाता है।
जब भी वह अपने
गैरिक वस्त्र
को देखता है
तभी उसे ध्यान
का स्मरण आता
है। दिन में
पच्चीसों दफा
अकारण उसको
ध्यान का स्मरण
आ जाता है और
वह वापस डूब
जाता है।
आप
बाजार जाते
हैं,
कोई चीज
लानी है
खरीदकर, आप
कपड़े में गांठ
लगा लेते हैं।
गांठ से चीज
लाने का कोई
संबंध है? कोई
भी तो संबंध
नहीं है।
लेकिन बाजार
में अचानक
गांठ का खयाल
आता है और
फौरन याद आ
जाता है कि
फलां चीज ले
आनी है। गांठ
से एसोसिएशन,
अंतर्संबंध
हो गया। गांठ
से एक
कंडीशनिंग हो
गयी, एक
संस्कार हो
गया।
पावलोव
ने एक प्रयोग
किया। पावलोव
एक कुत्ते के
सामने रोटी
रखता है। साथ
में घंटी
बजाता है।
रोटी देखकर कुत्ते
के मुंह से
लार टपकती है।
फिर पंद्रह
दिन बाद रोटी
देना बंद कर
देता है, फिर
घंटी बजाता है।
लेकिन घंटी
सुनकर भी
कुत्ते के
मुंह से लार टपकने
लगती है। क्या
हो गया इस
कुत्ते को? घंटी और
रोटी में एक
अंतर्संबंध, एक एसोसिएशन
हो गया। एक
कंडीशन
रिफ्लेक्ट
पैदा हो गयी।
अब कुत्ते को
घंटी का बजना
तत्काल रोटी
की याद बन
जाती है। हम
पूरी जिंदगी
इसी तरह जी
रहे हैं। हम
पूरी जिंदगी
इसी तरह कर
रहे हैं, लेकिन
हमने सब तरह
के गलत कंडीशन्स,
गलत रिफ्लेक्सेज
पैदा किए हुए
हैं।
ध्यान
के पहले रंग
का जो अनुभव
है वह अगर
संन्यासी को दिन
में पच्चीस—पचास
बार याद आ जाए—जब
भी वह उठे, जब
भी वह बैठे, जब भी वह
सोये, जब
भी वह खान
करने जाए, जब
भी कपड़े उतारे,
जब भी कपड़े
निकाले तो बार—बार
उसे ध्यान की
सुध, स्मृति
लौट आती है।
वह गांठ हो
गयी उसके पास,
जो उसके काम
पड़ जाती है।
लेकिन इसका यह
मतलब नहीं है
कि कोई गैरिक
वस्त्र पहने
बिना
संन्यासी नहीं
हो सकता।
संन्यास इतनी
बड़ी चीज है कि
वस्त्रों से
उसे बांधा
नहीं जा सकता।
लेकिन, वस्त्र
एकदम व्यर्थ
नहीं हैं।
उनकी अपनी
अर्थवत्ता है।
इसलिए मैं
पसंद करूंगा
कि सारी
पृथ्वी पर लाखों
लोग गैरिक
वस्त्रों में
दिखायी पड़े।
भगवान
श्री साधक और
संन्यासी में
क्या फर्क है
और क्या बिना
संन्यासी हुए
कोई साधक नहीं
हो सकता?
संन्यासी
हुए बिना कोई
साधक नहीं हो
सकता। साधक
होने का मतलब
है,
संन्यास की
शुरुआत। असल
में साधक का
मतलब संन्यास
को साधने वाला
है—संन्यास
साधना है, और
साधक क्या
करेगा? उसे
जगत में धीरे—
धीरे समस्त
सुखों व दुखों
के पार होकर
आनंद को
उपलब्ध होना
है। उसे कर्ता
के पार होकर
साक्षी को
उपलब्ध होना
है, उसे
अहंकार के पार
होकर शून्य को
उपलब्ध होना है,
उसे पदार्थ
के पार होकर
परमात्मा को
उपलब्ध होना
है। इन सबका
इकट्ठा नाम
संन्यास है।
साधक का मतलब
है, संन्यास
शुरू हुआ।
सिद्ध का मतलब
है, संन्यास
पूरा हो गया।
दोनों के बीच
जो यात्रा है
वह संन्यास की
यात्रा है।
संन्यास के
लिए ही तो
साधना है।
तो
साधक का अर्थ
ही यह है कि वह
संन्यास की
खोज में निकला
है। लेकिन
मेरे संन्यास
का मतलब खयाल
में रखना आप।
मेरा संन्यास
उपलब्धि का है, पाने
का है, रोज
विराट, रोज
विराट को पाते
चले जाने का
है।
आपके
संन्यासी की
दिनचर्या
क्या होगी?
'मेरे' संन्यासी
की नहीं, क्योंकि
कोई मेरा
संन्यासी
कैसे होगा।
संन्यासी की
दिनचर्या की
बात करें। असल
में, दिनचर्या
जब भी हम
बनाते हैं तभी
नुकसान पहुंच
जाता है। एक
झेनफकीर से
किसी ने पूछा
कि आपकी
दिनचर्या
क्या है? उसने
कहा, जब
मुझे नींद आती
है तब मैं सो
जाता हूं और
जब मेरी नींद
खुलती है तब
मैं उठ आता
हूं। और जब
मुझे भूख लगती
है तब मैं
खाना खा लेता
हूं। और जब
मुझे भूख नहीं
लगती है तो
मैं खाना
बिलकुल नहीं
खाता।
ठीक
कही है उसने
बात।
संन्यासी का
मतलब यह है कि
जो थोप नहीं
रहा है कुछ, जीवन
को सहजता में
ले रहा है। हम सब
बड़े अजीब लोग हैं।
जब नींद आती
होती है तब हम जागते
रहते है, जब
नींद नहीं आती
होती है तब हम करवट
बदल कर सोने
का मंत्र पढते
हैं। जब भूख नहीं
होती है तब
खालेते है, जब भूख होती
है तब रुके
रहते हैं
क्योंकि अभी
समय नहीं हुआ।
हम पूरी
जिंदगी को
अस्त—व्यस्त
कर देते हैं।
और शरीर की जो
अपनी एक
अंतर्व्यवस्था
है उसको नष्ट
कर देते हैं।
संन्यासी
काम तलब है कि वह
जो विसडम आफदबाडी
है,
जो शरीर की
अपनी
अंतर्प्रज्ञा
है, उसके
अनुसार जिएगा।
वह सोएगा, जब
उसे नींद आ
जाती है—जागेगा,
जब नींद खुल
जाती है, ब्रह्ममुहूर्त
में नहीं
उठेगा! जब नींद
खुलती है, उसको
ब्रह्म मुहूर्त
कहेगा। वह कहेगा,
जब भगवान उठा
देता है तब मैं
उसे ब्रह्म मुहूर्त
कहता हूं। ऐसा
सब सहज होगा, इसलिए मैं
कोई चर्या
नहीं बता सकता।
और फिर जब भी
चर्या तय की
जाती है तभी
कठिनाइयां
शुरू होती हैं,
क्योंकि तय
मैं अपने
हिसाब से
करूंगा। और
मेरा हिसाब
आपका हिसाब
नहीं हो सकता।
अगर मैं कहूं
तीन बजे रात
उठना है तो हो
सकता है, मुझे
तीन बजे रात
उठना आनंदपूर्ण
पड़ता हो और
आपके लिए
बीमारी का
कारण हो जाए।
हर आदमी के
शरीर की अपनी
व्यवस्था है
जिसका हमको
खयाल नहीं
होता।
आमतौर
से लोग मुझे
कहते हैं, आजकल
की स्रियां
बहुत अलाल, आलसी हो गयी
हैं। पति को
उठकर चाय
बनानी पड़ती है
और पत्नी
सोयी रहती है।
लेकिन आपको
पता नहीं है, यह बिलकुल
उचित है।
स्रियों के
उठने की जो
अंतर्व्यवस्था
है वह पुरुषों
से दो घंटा
पिछड़ी हुई है,
पीछे है।
अगर पुरुष
पांच बजे उठ
सकता है तो सी
सात बजे उठ
सकती है। इस
पर बहुत काम
हुआ है।
नींद
पर जो खोज
चलती है सारी दुनियां
में उससे बड़ी
हैरानी के
अनुभव हुए हैं।
वह अनुभव यह
है कि चौबीस
घंटे में दो
घंटे के लिए
हर आदमी के
शरीर का
तापमान नीचे
गिर जाता है।
आपको अकसर
खयाल हुआ होगा
कि सुबह चार
बजे के करीब
सर्दी लगने
लगती है। वह
सर्दी बढ़ने के
कारण नहीं
लगती। आपके
शरीर का
तापमान गिर
गया होता है।
दो घंटे के
लिए चौबीस
घंटे में हर
आदमी के शरीर
का तापमान
गिरता है। और वे
जो दो घंटे
हैं सबके अलग—अलग
हैं। किसी का
दो बजे से चार
बजे के बीच
गिरता है, रात
में। किसी का
तीन से पांच
के बीच गिरता
है, किसी
का पांच से
सात के बीच
गिरता है।
वे
जो दो घंटे
हैं,
वही गहरी
नींद के घंटे
हैं, क्योंकि
जिस आदमी को
वह दो घंटे
नींद के नहीं मिले
वह दिन भर
परेशान रहेगा।
लेकिन वह सबके
अलग—अलग हैं।
कोई दस हजार
लोगों पर
अमेरिका में
पिछले पांच
वर्षों में
नींद पर
प्रयोग किए गए
हैं। और यह
पाया गया है
कि वह समय हर
आदमी का अलग
है। इसलिए अब
कोई निश्रय
नहीं किया जा
सकता कि आप कब
उठें? आप
पर ही छोड़ा
जाएगा कि आप
उठकर सब तरह
से देख लें—कुछ
दिन प्रयोग
करके और
जिसमें आप
दिनभर ताजे रहते
हों वही क्षण
आपके उठने का
है। और जिसमें
आप रातभर गहरे
सोते हों वही
क्षण आपके
सोने का है।
समय
की लंबाई तय
नहीं की जा
सकती है। कोई
आदमी पांच
घंटे में पूरी
नींद ले सकता
है,
कोई सात
घंटे में, किसी
को आठ घंटे भी
लग सकते हैं।
कोई तीन घंटे
में भी नींद
पूरी कर सकता
है। लेकिन जो
आदमी तीन घंटे
में कर लेता
है वह खतरनाक
हो जाता है।
वह दूसरों को
कहता है, अलाल
हो, तामसी
हो। पागल हो
गए हो? वह
तीन घंटे में
सो लिया इसलिए
वह बड़े अहंकार
से भर जाता है।
वह सोचता है
कि हम कोई बड़ा
सात्विक
कार्य कर रहे
हैं। बाकी —लोग
जो छह घंटे सो
रहे हैं, तामसी
हैं। वह उनकी
तरफ निंदा के
भाव से देखना
शुरू कर देता
है। और अगर
उसको किताब
वगैरह लिखना
आता हो तब तो बहुत
खतरा हो जाता
है। वह नियम
बना जाता है।
वह नियम बना
देता है सख्ती
से कि तीन बजे
रात उठना, नहीं
तो नर्क में
जाओगे। तीन
बजे आप उठे कि
आप नर्क में
जाने के पहले
नर्क में चले
जाओगे।
कितना
खाना, क्या
खाना, क्या
पहनना, कैसे
पहनना, कैसे
सोना, इस
सबकी बहुत ही
सामान्य
चर्चा की जा
सकती है, चर्या
नहीं बनायी जा
सकती। चर्या
तो आपको अपनी
सदा तय करनी
पड़ती है।
इनडिवीजुअल
टु
इनडिवीजुअल—एक—एक
व्यक्ति को
अपनी ही तय
करनी पड़ती है।
अपनी ही तय
करनी चाहिए भी।
इतनी तो
स्वतंत्रता
कम से कम रखिए?
संसारी
नहीं रख पाता।
संन्यासी तो
रख सकता है? संन्यासी को
तो रखनी ही
चाहिए। उसको
तो अवश्य ही
यह
स्वतंत्रता
रखनी चाहिए कि
उसके लिए जो
सुखद है, जो
शांतिपूर्ण
है, जो आनंदपूर्ण
है, वह
वैसे जिएगा।
एक ही बात
ध्यान में
रखने की है कि
उसके कारण किसी
को दुख, पीड़ा, परेशानी न
हों—किसी को
भी—ऐसे वह
जिएगा। इतनी
चर्या उसके
लिए पर्याप्त
होती है। यह
विस्तार में
मुझे आपसे बात
करनी पडे
क्योंकि
सामान्य बात
की जा सकती है
कि क्या खाना,
क्या नहीं
खाना, लेकिन
सख्त नहीं हुआ
जा सकता।
अब
हम देखते हैं
कि एक आदमी
सिगरेट पी रहा
है। अब सारी
दुनिया उसके
खिलाफ है, लेकिन
वह पिए चला जा
रहा है।
डाक्टर उसको
समझा रहे हैं
कि तुम बीमार
हो जाओगे। वह
कहता है, मानता
हूं बिलकुल सच
जंचता है, लेकिन
नहीं छूट सकता।
मामला क्या है?
कहीं ऐसा तो
नहीं है कि
सिगरेट उसके
लिए कोई बहुत
जरूरी हिस्सा
पूरा करती हो?
करती है!
मैक्सिको में
इधर एक
अन्वेषण
कार्य चलता था
तो पाया गया
कि जो लोग
सिगरेट पीने
में बड़े पागल
हो जाते है, इनके शरीर
में निकोटिन
की कमी हो गयी
होती है। उनको
निकोटिन किसी
न किसी तरह
पूरा करना
पड़ता है। वह
चाहे सिगरेट
से पूरा करें,
चाहे कोको
से, चाहे
तमाखू खायें,
इन सब में
निकोटिन है।
वह कहीं न कहीं
से निकोटिन
पूरा करेगा।
मगर बिचारे
बड़े फंस
जाएंगे, और
अनैतिक हो
जाएंगे।
अब
एक आदमी धुआं
भीतर ले आता
है,
बाहर
निकालता है, इसमें कोई
अनीति का काम
नहीं कर रहा
है। कर रहा है
तो ज्यादा से
ज्यादा
नासमझी का काम
कर रहा है—अनीति
का नहीं कर
रहा है। धुआं
भीतर ले जाने
और बाहर
निकालने में
कौन—सी अनीति
है? हां
दूसरे की नाक
पर न छोड़ता हो
तो काफी है।
दूसरे से पूछ
लेता हो कि आप
आज्ञा देते
हैं कि मैं
जरा धुआं बाहर—भीतर
कर सकूं। यह
आदमी धुआं
बाहर— भीतर
करता है, इसमें
अनीति किसी के
साथ कुछ करता
नहीं। एक
इनोसेंट
नॉनसेंस, एक
निर्दोष
बेवकूफी करता
है। धुआं भीतर
ले जाता है, बाहर ले
जाता है।
लेकिन हो सकता
है कि इसकी
जरूरत हो। अच्छा
तो यह हो कि यह
जाकर समझे
बुझे। लेकिन
शरीर के बाबत
हमारी
जानकारी बहुत
कम है। इतना
चिकित्सा
शास्त्र
विकसित हुआ, फिर भी
जानकारी बहुत
कम है। अभी भी
हम शरीर के
पूरे रहस्यों
को नहीं समझ
पाए कि शरीर
की क्या मांग
है, क्या
जरूरत है, क्या
मुसीबत है, क्या कठिनाई
है। लेकिन
शरीर अनजाने
रास्ते से
हमें पकड़कर
अपनी जरूरत
पूरी करवाता
है। वह कहता
है कि सिगरेट
पियो, कहता
है तमाखू खाओ।
फिर जब आदत
पकड़ लेती है
तो उसकी
तृप्ति होने
लगती है फिर
वह छोड़ता नहीं।
ऐसा नहीं है
कि जो लोग
सिगरेट पीते
है, उन सभी
के भीतर
निकोटिन की
कमी होगी। दस
में से नौ तो
दूसरे को
देखकर पीते
हैं। और जब
देखकर पीने
लगते हैं तो
फिर एक तरह की
यांत्रिक आदत,
एक तरह की
मैकेनिकल
हैबिट पकडनी
शुरू हो जाती
है। फिर वे
पीते चले जाते
हैं। फिर न
पिएं तो
मुसीबत होने
लगती है।
लेकिन
कुछ भी बात तय
नहीं की जा
सकती ऊपर से
और निश्रित
रूप से सबके
लिए कोई एक
योजना नहीं बनायी
जा सकती कि
आदमी ऐसा उठे, ऐसा
बैठे, ऐसा
सोए, ऐसा
खाए, ऐसा
पिए। हां, कुछ
मोटी बातें
कही जा सकती
है।
जो
भी करे जागकर
करे,
जो भी करे
होशपूर्वक
करे। जो भी
करे, अपने
सुख और दूसरे
का सुख ध्यान
रखकर करे। जो
भी करे उससे
स्वास्थ्य, शान्ति और
आनन्द बढ़ता हो,
उस दिशा में
करे—घटता हो, उस दिशा में
न करे। जो भी
खाए—पिए, वह
बोझ न बन जाता
हो, हल्का
करता हो, स्वस्थ
करता हो, ताजा
करता हो। जो
भी खाए—पिए, उससे अकारण,
अनावश्यक
हिंसा न होती
हो। अनावश्यक,
अकारण किसी
को चोट, दुःख
पीड़ा न होती
हो। जो भी
भोजन में ले, उसमें
स्वास्थ्य का
ध्यान
महत्वपूर्ण
हो। स्वाद
लेने की कला
सीखे। स्वाद
वस्तुओं पर कम
निर्भर रह जाए,
भोजन करने
की कला पर
ज्यादा
निर्भर हो जाए,
ऐसी मोटी
बातें की जा
सकती हैं। और
इन मोटी बातों
के आधार पर
अपने
व्यक्तित्व
को देखकर
निर्णय लेने
चाहिए।
न
किसी और तरह
की कोई
डिसिप्लिन है, न
कोई अनुशासन
है। प्रत्येक
व्यक्ति
आत्मनियन्ता
है। और
संन्यास का तो
मतलब ही है कि
हम अपने निर्णय
का अधिकार
घोषित करते
हैं कि अब हम
अपने को अपने
ही ढंग से
निर्धारित
करेंगे। आप
कहेंगे, इसमें
गलती करे! करे,
तो गलती का
दुख भोगेगा।
इसमें आपको
परेशान होने
की जरूरत नहीं।
गलती करे जैसे
गलती कोई करता
है उसका दुख
पाता है—पाएगा!
ठीक करेगा, सुख पाएगा।
दूसरे गलती न
करें, 'दूसरों
को बहुत
उत्सुकता
नहीं लेनी
चाहिए।
क्योंकि
दूसरों की यह
उत्सुकता
अनैतिक है। आप
दूसरों को
गलती तक न
करने देवे, तो आप कौन
हैं! दूसरों
को गलती करनी
है, करने
दें। उसी सीमा
पर उसे रोका
जा सकता है, जहां उसकी
गलती दूसरे के
लिए पीड़ादायी
बने, अन्यथा
नहीं रोका जा
सकता। वह अपनी
गलती करता रहे।
उसकी गलती अगर
दुख लाती है
तो उसको ले
आयेगी।
संन्यासी
का मतलब यह है
कि वह विवेक
से जी रहा है, वह
जांच रहा है
हर समय कि कौन—सी
चीज से दुख
आता है, कौन—सी
चीज से सुख
आता है। जिससे
सुख आता है
उसको वह
स्वीकार
करेगा, जिससे
दुख आता है, धीरे— धीरे
उसे छोड़ेगा, वह धीरे—
धीरे अपने
आनन्द की खोज
की यात्रा पर
निकला है। आप
उसके लिए
परेशान न हों,
लेकिन इधर
मैं बहुत
हैरान होता
हूं। यहां
संन्यासी
जितना
चिन्तित नहीं
होता, उसके
आस—पास जो लोग
इकट्ठे होते
हैं वे ज्यादा
चिन्तित होते
हैं कि कोई
गलती तो नहीं
कर रहा?
ये
जो सेल्फ
अपाइंटेड जज, स्व—नियुक्त
निर्णायक हैं,
इनको किसने
पट्टा लिखकर
दिया है कि
तुम इसकी फिक्र
मत करना कि
कोई गलती तो
नहीं कर रहा
है? कि
संन्यासी ठीक
वक्त सोया कि
नहीं, कि
यह
ब्रह्ममुहूर्त
में उठता है
कि नहीं दिन में
तो नहीं सो जाता
है। आप कौन
हैं, आप
क्यों पीछे
पड़े हैं किसी
के? नहीं, इसके पीछे
कारण हैं।
हमको बड़ा रस
आता है इसमें।
ये टार्चर
करने की
तरकीबें है, ये दूसरे
आदमी को सताने
के उपाय है।
और फिर हम
कहते हैं कि
हम आदर भी
देते हैं तो
इसी की वजह से
देते हैं कि
तुम गलती नहीं
करते। तो हम
सौदा भी तय कर
लेते हैं।
आदमी को हम
फंसा लेते हैं।
उसको आदर
चाहिए आपसे? ठीक है, वह
आपके नियम
मानकर चलता है
और या होशियार
हुआ तो ऊपर से
दिखाता है कि
नियम मानता है,
नीचे से
नियम तोड़ता
जाता है।
मैं
संन्यासी को
पाखण्डी नहीं
होने दे सकता
हूं। और एक ही
रास्ता है कि
संन्यासी पाखण्डी
होने से बचे
और वह है कि हम
उसकी फिक्र
छोड़ दें, उसे
अपनी फिक्र
करने दें।
नहीं तो वह पाखण्डी
हो ही जायेगा।
हमने सब
संन्यासियों
को पाखण्डी, हिपोक्रेट
कर दिया है।
लोगों को हमने
दिक्कत में
डाल दिया है।
अब एक साधुओं
का वर्ग है जो
खान नहीं कर
सकता। अब उसके
आस—पास के लोग
देखते रहते है
कि सान तो
नहीं कर लिया?
अब उसको
गन्दगी में
ढकेल रहे हैं
और वह गंदगी में
ढंका जा रहा
है लेकिन उसको
आदर दे रहे है,
पैर छू रहे
है, बदले
में। अब वह
सोचता है कि
नहाने की कीमत
पर पैर छूना मिल
रहा है, चलने
दो। लेकिन वह
एकांत में
मौका देखकर, पानी से
कपड़े को गीला
करके 'स्पंज
वाश' कर
लेता है, कुछ
थोड़ी—बहुत
सफाई कर लेता
है। मगर उसको
चोरी और गिल्ट,
अपराध—भाव
में ढकेल रहे
है, वह
नहाने के पीछे
उसको हम धक्का
दे रहे है।
अभी
एक सज्जन मेरे
पास आए, उन्होंने
कहा, फलां
साध्वी आपके
पास आती है।
हमने सुना है
कि वह
टूथपेस्ट
करती है।
मैंने कहा, तुम पागल हो
गए हो? संन्यासिनी
टूथपेस्ट
करती है कि
नहीं करती है—तुम
कोई टूथपेस्ट
का काम करते
हो? तुम्हें
इससे क्या
मतलब? उन्होंने
कहा, हमारे
समाज में
दातून करने की
तो मनाही है।’तो तुम मत
करो', मैंने
उनसे कहा। वह
मजे से
टूथपेस्ट कर
रहे हैं।
उन्होंने कहा,
'संन्यासी न
कर पाए।’ क्योंकि
उसका कारण वह
आदर भी देते
हैं, बदला
भी मांगते हैं।
तो
मैं अपने
संन्यासी को, जिसको
मैं संन्यासी
समझ रहा हूं
उसको कहूंगा,
आदर मत
मांगना
अन्यथा बन्धन
शुरू हो
जायेगा—मांगना
ही मत। नहीं
तो सब तरह के
बेईमान और सब
तरह के चोर
इकट्ठे हैं, वे सब फंसा
लेंगे। वे
कहेंगे, आदर
हम देते हैं, पैर हम छूते
हैं, लेकिन
हमारी भी
शर्ते हैं—इतना—इतना।
संन्यासी का
मतलब यह है कि
जो यह कहता है
कि हम तुम्हारे
समाज, तुम्हारी
शर्तों की कोई
चिन्ता नहीं
करते। हमने
अपनी चिन्ता
करनी शुरू कर
दी, अब आप
हमारी फिक्र न
करें।
व्यक्ति
का विवेक ही
उसका पथ
प्रदीप है।
संन्यासी
अगर व्यापार
करे तो क्या
ब्लैक
मार्केटिंग
कालाबाजारी
भी कर सकता है?
संन्यासी
दुकान पर
बैठकर
दुकानदार का
अभिनय करेगा, यह
तो ठीक? लेकिन
वह ब्लैक
मार्केटिंग
का भी अभिनय
कर सकता है।
करेगा, तो
उससे बहुत
नुकसान नहीं
होगा, क्योंकि
वह संन्यासी न
होता तो भी ब्लैक
मार्केट करता।
उससे कोई
नुकसान नहीं
होगा किसी को।
लेकिन मै
मानता हूं कि
जिस आदमी को
संन्यास का
खयाल आया है
और जो हिम्मत
जुटाकर, साहस
जुटाकर अपने
जीवन में एक
प्रयोग करने
चला है और जो
दुकानदार
होने का अभिनय
कर रहा है, वह
लैक
मार्केटिंग
का अभिनय नहीं
कर सकेगा।
क्योंकि ब्लैक
मार्केटिंग
करने के लिए
अभिनय
पर्याप्त नहीं
है, कर्ता
होना जरूरी है।
जितना
बुरा काम करना
हो उतना ही
कर्ता होना आवश्यक
होता चला जाता
है। बुरे काम
का आन्तरिक
दंश है, पीड़ा
है। उसके लिए 'इनवॉल्व' होना जरूरी
होता है, उसके
लिए 'कमिटेड'
होना जरूरी
होता है, उसके
लिए डूबना
जरूरी होता है।
मैं किसी आदमी
को अभिनय में
छुरा नहीं मार
सकता—मुश्किल
पड़ेगा।
क्योंकि
दूसरे आदमी की
जिन्दगी दांव
पर होगी और तब
अभिनय में
छुरा मारने का
कोई अर्थ नहीं
रह जाता।
अभिनय
की जो धारणा
है,
अगर ठीक से
खयाल में आए
तो पहले तो
मैं यह कहता हूं
कि अगर वह
करेगा लैक
माकेंटिंग तो
नुकसान किसी
का नहीं हो
रहा है, क्योंकि
जो संन्यासी
होकर ब्लैक
मार्केटिंग
कर रहा है वह
संन्यासी
नहीं होकर कर
ही रहा था सदा
ही, इसलिए
कहीं कोई
नुकसान नहीं
हो रहा है।
उसमें तो हमें
चिन्तित होने
की जरूरत नहीं
है। सम्भावना
यह भी है—और
मेरे लिए बहुत
सम्भावना है
कि वह जो
संन्यासी
होने के खयाल
से भरा है, वह
लैक
माकेंटिंग का
अभिनय करने
नहीं जाएगा—नहीं
जा सकता है।
संन्यासी
होने की जो
प्रज्ञा है, संन्यासी
होने का जो
विवेक है वही
बताएगा कि उसे
क्या करना, क्या नहीं
करना। अभिनय
वह वहीं करेगा
जहां बिलकुल
करणीय है—जो
उसका बिलकुल
कर्तव्य है।
जिसे छोड़कर
भागना पलायन
होगा। जिससे
हट जाना
जिम्मेवारी
से बचना होगा।
जिससे भाग
जाना किसी के
लिए दुख और
पीड़ा का इन्तजाम
बना जाना होगा—वहीं—वहीं
वह अभिनय
करेगा। अभिनय
तो हमेशा ही
अत्यन्त
करणीय का, अत्यन्त
आवश्यक हो
जाएगा।
अनावश्यक का
अभिनय करने की
जरूरत नहीं रह
जाएगी, ये
अपने आप कट
जाएंगे।
आप
गैरिक वस्त्र
पहनने के लिए
कहते हैं
लेकिन आप
स्वयं गैरिक वस्त्र
क्यों नहीं
पहनते?
जानकर
ही! एक तो, इसके
पहले कि मैं
गैरिक वस्त्र
पहनता, संन्यास
घट गया। इसके
पहले कि मुझे
पता चलता कि
गैरिक वस्त्र पहनूंगा
तो संन्यास
घटेगा, संन्यास
पहले ही घट
गया। पीछे
पहनने का कोई
अर्थ न रहा, कोई कारण न
रहा। दूसरा, मैं गैरिक
वस्त्र पहनूं
और फिर कहूं
कि गैरिक
वस्त्र का कोई
उपयोग है तो
शायद ही लगे
कि मुझे अपने
जैसे ही वस्त्र
दूसरों को भी
पहना देने की
आतुरता है।
नहीं, अपनी
शक्ल मैं किसी
को ओढाना नहीं
चाहता। इसलिए
जो भी मैं
पहनता हूं
जैसे भी मैं
उठता—बैठता हूं
जैसे भी मैं
जीता हूं उसको
किसी पर ओढ़
देने का, किसी
पर ढांक देने
का जरा भी मन
नहीं है।
गैरिक
वस्त्र पहनकर
गैरिक वस्त्र
के संबंध में
कुछ कहता तो
शायद लग सकता
था कि मैं
अपने वस्त्रों
की तारीफ करता
हूं। लेकिन
मैं बिना
गैरिक वस्त्र
का हूं इसलिए
गैरिक वस्त्रों
से मेरा कोई
निजी लगाव
नहीं है इतना
तो बहुत साफ
है। इसलिए अगर
गैरिक वस्त्र
की कोई तारीफ
करता हूं तो
सिवाय वैज्ञानिक
कारणों के और
कोई कारण नहीं
है। मैं खुद
तो पहनता नहीं
हूं मेरा खुद
का तो कोई लगाव
नहीं है, मैं
तो बिलकुल
बाहर हूं।
आपके
पहले
शंकराचार्य ने
भी आनन्द—केंद्रित
संन्यास की
धारणा दी थी?
मैं
नहीं मानता कि
शंकराचार्य
द्वारा
प्रतिपादित
संन्यास
आनन्द—केंद्रित
है। क्योंकि
शंकराचार्य
का जगत के
प्रति बड़ा निषेध
का भाव है।
निषेध इतना
गहरा है कि वह
जगत को माया
सिद्ध करने की
सतत चेष्टा
में लगे हुए
हैं। यह जगत
झूठा है, यह
जगत भ्रम है, यह जगत माया
है, यह जगत
है ही नहीं, इसे सिद्ध
करने का उनका
आग्रह इतना
प्रगाढ़ है कि
यह जगत उन्हें
चारों तरफ से
परेशान कर रहा
है, यह भी
साफ है। इस
जगत का होना
उन्हें इतना
गड़ रहा है कि
उसे इनकार किए
बिना, उसे
रूप बनाए बिना
वे छुटकारा
नहीं पा सकते।
शंकर का निषेध
बहुत गहरा है।
आनन्द
की बात शंकर
करते हैं।
लेकिन मेरे और
उनके आनन्द
में भी बड़ा बुनियादी
फर्क है। वे
उस आनन्द की
बात करते हैं
जो संसार के
त्याग से
उपलब्ध होता
है। वे उस
आनन्द की बात
करते हैं जो
माया को छोड़ने
से ब्रह्म—मिलन
से उपलब्ध
होता है। मै
उस आनन्द की
बात करता हूं
जो समस्त को, समग्र
को—माया को, ब्रह्म को, संसार को, प्रभु कों—सबको
स्वीकार करने
से उपलब्ध
होता है।
निषेध मेरे मन
में कहीं भी
नहीं है।
त्याग मेरे मन
में कहीं भी
नहीं है। शंकर
अगर आनन्द की
बात भी करते
हैं तो वह संसार
के त्याग में
ही छिपा है।
वह संसार को
छोड़ देने में
ही छिपा है।
मेरे लिए
आनन्द इतना
विराट है कि
संसार भी उसमें
समा जाता है, परमात्मा भी
उसमें समा
जाता है सब
उसमें समा जाता
है। आनन्द में
मेरे लिए किसी
बात का कोई भी
निषेध नहीं है।
और, आखिरी
बात मैंने कहा,
'अपने
संन्यासी'! —तो जीभ के
चूक जाने से
नहीं कहा। जीभ
मेरी अजीब है,
चूकती
मुश्किल से ही
है। पहली दफा
जिन मित्र ने
कहा था, 'आपके
संन्यासी' तो
मैंने इनकार
किया था कि 'मेरे' मत
कहिए। लेकिन
प्रयोजन मेरा
दूसरा था।
प्रयोजन मेरा
यह था कि
संन्यासी
मेरा कैसे हो
सकता है।
लेकिन जब
मैंने दुबारा
कहा तो जीभ
नहीं चूंकी।
मैंने कहा, अपने
संन्यासी! संन्यासी
मेरा नहीं हो
सकता, लेकिन
मैं तो
संन्यासियों
का हो सकता
हूं?
और
उस संन्यासी
की—उस आनन्द
के संन्यासी
की,
जिसकी मैं
बात कर रहा
हूं उससे लगाव
है। उससे लगाव
की अपेक्षा
नहीं है मेरे
प्रति। उससे
कोई अपेक्षा
नहीं है कि वह
मेरे प्रति किसी
तरह का संबंध
रखे। लेकिन
मेरा लगाव है।
और मेरा लगाव
इसमें है
क्योंकि मैं
देखता हूं कि
उस तरह के
संन्यासी में
ही भविष्य में
संन्यास के
बचने की
सम्भावना है,
आशा है।
आपने कहा
कि संन्यास की
दीक्षा व्यक्ति
और परमात्मा
के बीच की
सीधी बात है।
लेकिन तब
प्रश्न उठता
है कि दीक्षा
में आपको गवाह
व साक्षी के रूप
में बीच में
रखना क्या
संन्यास के
प्रति अविश्वास
हो जाएगा?
यह
बिलकुल ठीक
कहते हो कि
संन्यास
दीक्षा तुम्हारे
और परमात्मा
के बीच की बात
है,
अगर इतना
समझ में आ जाए
तो मेरे
साक्षी होने
की कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन तुम
यहां आए इसलिए
हो कि
तुम्हारे और परमात्मा
के बीच सीधा
संबंध नहीं
बनता। नहीं तो
तुम इधर
किसलिए भटकते,
इधर किसलिए
परेशान होते।
तब मैं साक्षी
हो जाऊंगा।
क्या
आपके आस—पास
फिर संप्रदाय
न बन जाएगा?
नहीं, संप्रदाय
नहीं बनेगा।
नहीं बनेगा
इसलिए कि
संप्रदाय
बनाने के लिए
कुछ जरूरतें
है अनिवार्य।
एक, गुरु
चाहिए, शास्त्र
चाहिए, सिद्धात
चाहिए, कोई
विशेषण चाहिए।
और इतना ही
नहीं, इसके
अतिरिक्त, इससे
भिन्न, इससे
अन्यथा जो है
वह पूर्ण रूप
से गलत है और यही
पूर्ण रूप से
सही है, ऐसा
आग्रह भी
चाहिए।
तो
एक तो उसे मैं
संन्यासी
कहता हूं
जिसका कोई
विशेषण नहीं।
बिना विशेषण
के संप्रदाय
बनाना
मुश्किल है।
बिना विशेषण
के संप्रदाय
बन नहीं सकता।
उसे संन्यासी
कह रहा हूं
जिसका कोई
धर्म नहीं, बिना
धर्म के
संप्रदाय
कैसे बनाइएगा।
उसे संन्यासी
कह रहा हूं
जिसका कोई
धर्मग्रंथ नहीं
है, जिसका
कोई धर्मगुरु
नहीं है, जिसका
कोई मन्दिर
नहीं है, मस्जिद
नहीं है, शिवालय
नहीं है, गुरुद्वारा
नहीं है।
संप्रदाय
बनना मुश्किल है।
कोशिश हमें करनी
चाहिए किस प्रदाय
न बने, क्योंकि
संप्रदाय ने
धर्म को जितना
नुकसान
पहुंचाया है
उतना किसी और
चीज ने नहीं
पहुंचाया है।
अधर्म ने नहीं
पहुंचाया है
इतना नुकसान
धर्म को, जितना
संप्रदायों
ने पहुंचाया
है। असल में
मिट्टी—पत्थर
नुकसान नहीं
पहुंचाते।
असली सिक्के
को कभी अगर नुकसान
पहुंचता है तो
सिर्फ नकली सिक्कों
से पहुंचता है।
नकली पत्थर से
नहीं पहुंचता।
धर्म के असली
सिक्के को कभी
भी नुकसान पहुंचता
है तो सप्रदाय
के नकली सिक्के
से पहुंचता है।
उसके लिए बहुत
सचेत होने की
जरूरत है।
वह
नहीं बन सकेगा, क्योंकि
न तो मेरा कोई
शिष्य है, न
मैं किसी का
गुरु हूं। और
जिन लोगों के
लिए मैं कह
रहा हूं मैं
गवाह हूं उनको
भी ऐसा सिर्फ इसीलिए
कह रहा हूं कि
अभी तुम सीधे नहीं
जुड़ पाते।
सीधे परमात्मा
से जुड जाओ तो
तुम मुझे परेशान
मत करना। मैं नाहक
परेशान होने को
तैयार भी नहीं
हूं। मेरा लेना
नहीं है कुछ।
मुझे कुछ
संबंध नहीं है।
अगर तुम सीधे
ही जुड़ जाओ तो
इससे बेहतर
कुछ भी नहीं
है। तब तो
साक्षी का भी
कोई सवाल नहीं,
गवाह का भी
कोई सवाल
नहीं!
नाम
बदलने का क्या
अर्थ है? गले
में माला
पहनने का क्या
अर्थ है?
हां, अर्थ
है, बहुत
है। संन्यासी
का नाम बदलने
का बड़ा अर्थ
है। वह सूचक
है। और हमारी
जिन्दगी में
सभी कुछ सूचक
है। एक नाम से
आप जीते रहे
हैं, स्वामी
से आपकी
आइडेंटिटी है।
एक नाम आपका
प्रतीक रहा है।
आपके
व्यक्तित्व
का उससे जोड़
हो गया। आप कल
तक जो थे उसके
साथ आपके नाम
का अन्त जोंड,
एसोसिएशन है।
उससे वह जुडा है।
सन्यासी का नाम
बदलने का अर्थ
यह है कि हम उसकी
पुरानी
आइडेंटिटी, तादाम्य से
उसे तोड़ते हैं।
हम कहते हैं, तुम वह नहीं
रहे जो तुम कल
तक थे। अब तुम
एक नयी यात्रा
पर जाते हो, नयी
आइडेंटिटी
लेकर जाते हो।
पुराने
दिनों में जब
दीक्षा दी
जाती थी तो एक छोटा—सा
प्रयोग करते
थे। वह प्रयोग
यह था कि जैसे
हम मुर्दे को
नहलाते है
अर्थी पर
चढ़ाने के पहले, वैसे
उसे नहलाते थे।
जैसे हम
मुर्दे के बाल
घोंट देते हैं,
सिर घोंट
देते हैं। ऐसा
उसका सिर घोंट
देते थे। फिर
जैसा मुर्दे
को अर्थी पर
चढ़ाते हैं
वैसा उसे
अर्थी पर चढ़ा
देते थे। फिर
अर्थी में आग
लगा देते थे।
और फिर आस—पास
खड़े वे सारे
लोग, जिनको
मैं साक्षी
कहूंगा, विटनेस
कहूंगा, वे
उससे कहते थे
कि अब जल जाने
दो उसे, जो
तुम कल तक थे।
और तब वे उसे
चिता से बाहर
खींचकर कहते
थे कि यह
तुम्हारा
पुनर्जन्म है।
अब तुम द्विज,
रि—बॉर्न
हुए, दूसरा
जन्म हुआ।
यह
सिर्फ
सिम्बालिक
रिचुअल था। अपने
आप में वह
दिखता है कि
इसे न करें तो
कोई हर्ज नहीं
है— नहीं है
कोई हर्ज। अगर
समझ बहुत हो
तब तो इस दुनियां
में किसी भी
रिचुअल का, किसी
भी बात का कोई
अर्थ नहीं है।
लेकिन उतनी
समझ कहां है? वह
आइडेंटिटी
तोड्ने में
सहयोगी हो
जाता है।
अचानक पता
चलता है कि अब
तुम वह नहीं
रहे।
बार—बार
जब भी खयाल
आएगा कि अब
मेरा वह नाम
नहीं है जो कल
तक था, मेरा
दूसरा नाम है—अब
रास्ते पर कोई
बुलाएगा तो उस
नाम से नहीं, जो कल तक
आपका था। नए
नाम से
बुलाएगा—तो आप
भी उतने ही
चौकेंगे।
अपने भीतर से
आइडेंटिटी, तादाम्य रोज—रोज
टूटेगा और पता
चलेगा कि वह
आदमी समाप्त
हो गया जो कल
तक था और एक
नयी यात्रा
शुरू हो गयी।
इसके स्मरण के
लिए नाम के
बदलने का
उपयोग है।
दूसरी
बात पूछी है
कि माला का
क्या अर्थ हो
सकता है? व्यर्थ
तो कुछ भी
नहीं होता कभी।
लम्बे चल—चलकर
व्यर्थ हो
जाता है, यह
दूसरी बात है।
सभी चीजें
चलते—चलते घिस
जाती हैं और
गन्दी हो जाती
हैं। माला में
एक सौ आठ
गुइरए देखे
होंगे। लेकिन
खयाल मे नहीं
आया होगा कि
वह क्या है? एक सौ आठ
ध्यान की
पद्धतियां
हैं, एक सौ
आठ मार्ग हैं
ध्यान के, एक
सौ आठ विधियों
से ध्यान की
सम्भावना है।
और आप और मेरा
संबंध बना रहा
तो धीरे— धीरे
एक सौ आठ
विधियां सभी
आपके खयाल में
ला देने की
हैं। वह एक सौ
आठ गुरिए एक
सौ आठ ध्यान
के प्रतीक हैं।
जब
कोई साक्षी
किसी को यह
माला देता था
तो वह याद
दिलाता था कि
तुझे मैंने
सिर्फ एक
रास्ता ही
समझाया और
बताया है। और
भी रास्ते हैं
एक सौ सात।
इसलिए किसी
दूसरे को गलत
कहने में बहुत
जल्दी मत करना
और सदा याद
रखना कि अनन्त
रास्ते हैं उसके।
और
एक सौ आठ गुरियों
के नीचे लटका
हुआ एक बड़ा
मनका देखा
होगा। वह इस
बात की खबर है
कि एक सौ आठ
में से किसी
से भी पहुंचो
एक पर अन्त
में आदमी
पहुंच जाता है।
कहीं से भी
चलो,
एक पर
पहुंचना हो
जाता है। एक
सौ आठ गुरिया
और एक मनका—ये
सब सिम्बालिक
हैं, पोएटिक
हैं, काव्यात्मक
हैं, अर्थपूर्ण
हैं।
एक
आदमी शादी
करके लाता है
घर सी को। फिर
हम उसका घर
में नाम बदलते
हैं। कभी पूछा
नहीं कि क्यों
बदलते हैं? आइडेंटिटी
तोड़ते हैं। वह
किसी और घर की
लड़की है। वह
कहीं और बड़ी
हुई है, किसी
और परिवार में
बड़ी हुई है, किन्हीं और
संस्कारों
में पत्नी है।
उसके नाम के
साथ उसका सारा
पुराना
व्यक्तित्व
जुड़ा है। घर
में लाकर हम
उसका नाम बदल
देते हैं।
उसकी नयी
यात्रा शुरू
हो जाती है।
हम उससे कहते
है भूल जा उस
घर को जहां तू
थी, भूल जा
उस संबंध को
जहां तू थी, भूल जा उन
संस्कारों को
जहां तू थी।
अब एक नया
परिवार, अब
एक नया घर, नयी
दुनियां शुरू
होती है, तेरे
नए नाम के आस—पास
अब एक नया
क्रिस्टलाइजेशन,
समग्रीकरण
होगा।
माला, नाम
और बहुत कुछ
है, उन
सबके अर्थ तो
बहुत हैं।
लेकिन वे सब
बातें धीरे—
धीरे चल—चलकर
व्यर्थ हो गयी
हैं। और अब वे
व्यर्थ हो गयी
हैं तो मैं
हजार बार उनके
खिलाफ बोलता
रहता हूं। मैं
उनकी
व्यर्थता के
खिलाफ बोलता
रहता हूं।
लेकिन मेरी
पीड़ा समझना
आपको बहुत
मुश्किल पड़ती
है। मेरी पीड़ा
यह है कि मैं
जानता हूं कि
कोई चीज
सार्थक है और
व्यर्थ हो गयी
है। मैं उसके
खिलाफ भी
बोलता रहूंगा
और उस के पक्ष
में भी कुछ
करता रहूंगा।
अब यह मेरी
मुश्किल है।
मै
कुछ चीजों के
खिलाफ बोलता
रहूंगा, क्योंकि
वे व्यर्थ हो
गयी हैं और
फिर भी किसी मार्ग
सै उन चीजों
के पक्ष में
कुछ करता
रहूंगा।
क्योंकि मैं
जानता हूं
मूलतः उनकी
सार्थकता थी।
और वह मूलत:
सार्थकता
नहीं खो जानी
चाहिए। यह
दोनों एक साथ
चलेगा। इसलिए
मैं कई तरह के
मित्रों को
दुश्मन बना लूंगा
और कई तरह के
साथियों को
खोऊंगा और रोज
यह चलेगा। और
यह चलता रहेगा,
उसमें कोई
उपाय नहीं है।
क्योंकि मैं
एक दिन माला
के खिलाफ
बोलूंगा जब
कोई मेरे पास
आ जाएगा और
माला की बात
करने लगेगा तो
मैं खिलाफ
बोलूंगा।
लेकिन, मैं
हैरान हुआ हूं
जानकर कि मैं
बड़े से बड़े संन्यासियों
के सामने माला
के खिलाफ बोला,
और वह माला
के पक्ष में
एक शब्द भी न कह
सके। मैं तो
सोचता था कि कोई
मुझसे माला के
पक्ष में कुछ
कहेगा। अब कोई
नहीं मिला तो
मुझे खुद ही
कहना पड़ेगा और
कोई उपाय नहीं
रहा।
'नव—संन्यास
क्या?’
से
संकलित एक
प्रवचन साधना—शिविर
मनाली (हिमाचल
प्रदेश),
दिनांक
28 सितम्बर 197० रात्रि
(मनाली
ही वह धरती है
जहां इसी
शिविर में
भगवान श्री
रजनीश के
साक्षित्व
में संन्यास
ने पुन: नये
शिखरों को
छूने के लिए
अंगड़ाई ली और
उन परम पावन
के साक्षित्व
में 'नव—संन्यास
अंतर्राष्ट्रीय'
आन्दोलन के
अंतर्गत
संन्यास—दीक्षा
का सूत्रपात
हुआ।)
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