श्री
रमण महर्षि
बीसवीं सदी के
प्रारंभ में
तमिलनाडु के
एक पर्वत
अरुणाचल पर
रहते थे। परम
ज्ञान को
उपलब्ध रमण
महर्षि भगवान
कहलाते थे।
अत्यंत
साधारण जीवन
शैली को अपनाकर
वे सादगी से
जीवन बिताते
थे। उनका
दर्शन केवल
तीन शब्दों
में समाहित हो
सकता है : 'मैं
कौन हूं?' यही
उनकी पूरी खोज
थी, यही
यात्रा और यही
मंजिल।
अधिकतर मौन
रहनेवाले रमण
महर्षि के
बहुत थोड़े से
बोल शिष्यों
के साथ संवाद
के रूप में
उपलब्ध हैं।
ऐसी तीन छोटी—छोटी
पुस्तिकाओं
का इकट्ठा
संकलन है : 'दि
स्पिरिचुअल
टीचिंग ऑफ रमण
महर्षि।'
इस
किताब की भूमिका
लिखी है
विख्यात
मनोवैज्ञानिक
कार्ल गुस्ताव
जुंग ने। यह
भूमिका
वस्तुत: जूंग
ने भगवान रमण
महर्षि की
जीवनी के लिए
लिखी थी। इस
जीवनी के लेखक
थे डा. झिमर।
उस लंबी
भूमिका का एक
अंश इस पुस्तक
के आमुख में
लिया गया है।
जूंग के
वक्तव्य का
सार—निचोड़
यही है कि पश्चिम
का
मनोविज्ञान
अभी अपने बचपन
में है और
श्री रमण जैसे
प्रबुद्ध पुरूषों
की चेतना से
बहुत दूर, बहुत
छोटे उसके कदम
हैं। जुग को
स्वयं तो आत्मज्ञान
नहीं था लेकिन
उसे
मनोविज्ञान
की सीमाओं का
और श्री रमण
में प्रस्कृटित
असीम का अहसास
था। उसकी भूइमका
का शीर्षक है : 'श्री रमण और
आधुनिक मानव
के लिए उनका
संदेश। 'श्री
रमण के बारे
में जुग लिखता
है : 'श्री
रमण भारत श्रम
के सच्चे
सुपुत्र हैं।
उनकी देशना और जीवन में हमें भारत का विशुद्धतम अर्क मिलता है। यह युगों—युगों का मंत्र है। भारत में वे रुपहले आकाश में एक धवल बिंदु हैं। भारत का पवित्रतम श्री रमण के जीवन और देशना में पाया जाता है।
उनकी देशना और जीवन में हमें भारत का विशुद्धतम अर्क मिलता है। यह युगों—युगों का मंत्र है। भारत में वे रुपहले आकाश में एक धवल बिंदु हैं। भारत का पवित्रतम श्री रमण के जीवन और देशना में पाया जाता है।
आत्मा
और परमात्मा
का मिलन युरोपीय
लोगों के लिए
बहुत धक्कादायी
सिद्ध होगा।
यह खास
पूर्वीय
दृष्टिकोण
है। मनोवैज्ञानिक
इसमें कोई
योगदान नहीं
दे सकता क्योंकि
वह उसके दायरे
के बहुत पार
है।'
जुंग
ने मनुष्य
जाति को आगाह
किया है कि ' पश्चिम
का भौतिकवाद
अब पूरब पर
फैलने लगा है
और शीघ्र ही
इसके परिणाम
दिखाई देंगे
जो कि नजरअंदाज
नहीं किये जा
सकते। साफ—सुथरे
सुविधापूर्ण
मकान में रहना
निश्चय ही आरामदेह
है लेकिन उससे
यह जवाब नहीं
मिलेगा कि
मकान में रहने
वाला कौन है।
'मनुष्य के
बाह्य जीवन
में बहुत
तरक्की और सौंदर्य
की गुंजाइश है
लेकिन वह भूल
जाता है कि बाहर
कितना ही
विकास हो, उसकी
'और' की
भूख बढ़ती ही
चली जाती है।
'जब तक आंतरिक
मनुष्य
विकसित नहीं
होता तब तक
भौतिक वस्तुएं
उसे संतोष
नहीं देंगी।
बाह्य पर बहुत
ज्यादा ध्यान
मनुष्य को एक
अजीब से आंतरिक
दुख से भर
देता है और
उसे समझ में
नहीं आता कि
उसके दुख का
कारण उसका
अपना मन है।
इसीलिए पूरब
की प्रज्ञा और
रहस्यवाद के
पास हमें देने
के लिए बहुत
कुछ है।'
किताब
की झलक:
शिष्य:
क्या संन्यासी
के लिए एकांत
जरूरी है?
महर्षि:
एकांत मनुष्य
के मन में
होता है।
व्यक्ति बीच
बाजार होकर भी
मन की पूरी
शांति को
बनाये रख सकता
है। ऐसा
व्यक्ति
हमेशा एकांत
में रहता है।
दूसरा
व्यक्ति जंगल
में रहकर भी
अपने मन को काबू
में नहीं रख
सकता। उसे
एकांत में
होना नहीं कहा
जा सकता।
एकांत मन का
रुख है। जो
आदमी जीवन में
वस्तुओं को पकड़ता है
वह एकांत में
नहीं हो सकता—फिर
वह कहीं भी
रहे। असंग
व्यक्ति
हमेशा एकांत
में होता है।
शिष्य:
मौन क्या है?
महर्षि: वह
अवस्था जो
वाणी और विचार
का अतिक्रमण
करती है वह
मौन है। वह
ऐसा ध्यान है
जिसमें
मानसिक
गतिविधि नहीं
है। मन पर
मालकियत करना
ध्यान है।
गहरा ध्यान
शाश्वत वाणी
है। मौन
निरंतर बोलना
है। वह ‘भाषा'
का अनवरत
प्रवाह है। वह
बोलने के
द्वारा टूटता
है क्योंकि
शब्द इस
निःशब्द भाषा
में बाधा डालते
हैं। भाषण
लोगों में कोई
सुधार किये
बगैर घंटों
में उनका
मनोरंजन कर
सकते है। इसके
विपरीत मौन
स्थायी है, पूरी मनुष्य
जाति का लाभ
करता है। यहां
मौन का अर्थ
मुखरता है।
मौखिक भाषण
इतने मुखर
नहीं होते
जितना कि मौन
है। मौन अनवरत
बोलना है। वह सर्वोत्तम
भाषा है। एक
अवस्था आती है
जब शब्द विलीन
होते हैं और
मौन छा जाता
है।
शिष्य
: फिर
हम अपने
विचारों को एक—दूसरे
तक कैसे पहुंचाये?
महर्षि
:
जरूरत तभी
होती है जब
द्वंद्व की
प्रतीति होती
है।
शिष्य
:
भगवान, घूम—घूम
कर जनता को
सत्य की
शिक्षा क्यों
नहीं देते?
महर्षि
:
क्या तुम्हें
पता है कि मैं
यह नहीं कर
रहा हूं? क्या
शिक्षा का
मतलब एक मंचपर
चढ़कर
इर्द—गिर्द
इकट्ठे हुए
लोगों पर
बौछार करना
होता है? सिखाना
नौन का
संप्रेषण
होता है, और
वह मौन में ही
होता है।
शिष्य
:
आत्मा को कैसे
जानें?
महर्षि
:
किसकी आत्मा? खोजो।
शिष्य
:
मेरी, लेकिन
मैं कौन हूं?
महर्षि :
स्वयं खोज लो।
शिष्य
:
मैं नहीं
जानता, कैसे।
महर्षि
:
जरा इस प्रश्न
पर विचार करो—कौन
है जो कहता है : 'मैं
नहीं जनता?' तुम्हारे
वक्तव्य में
यह 'मैं' कौन है? तुम
क्या नहीं
जानते?
शिष्य : शायद
कोई,
या कुछ ऐसा जो
मुझमें है।
महर्षि
:
यह 'कोई' कौन है?
किसमें है।
शिष्य
: शायद कोई शक्ति।
महर्षि
: खोजो।
शिष्य
: मैं क्यों पैदा
हुआ?
महर्षि : कौन
पैदा हुआ? तुम्हारे
सभी प्रश्नों का
एक ही उत्तर है।
शिष्य : तो
फिर मैं कौन हूं?
महर्षि : तुम
मुझे परखने आये
हो?
तुम्हें कहना
चाहिए कि तुम कौन
हो।–
शिष्य : मैं
कितनी ही कोशिश
करूं, यह 'मैं'
मेरी पकड में
नहीं आता। वह
साफ—साफ
पता भी नहीं
चलता।
महर्षि
:
कौन है जो
कहता है कि 'मैं'
का पता नहीं
चलता। क्या
तुम्हारे
भीतर दो मैं
हैं कि एक को
दूसरे का पता
नहीं चलता?
शिष्य
:
अपने आपसे यह
पूछने की बजाय
कि मैं कौन
हूं क्या मैं
अपने आपसे यह
पूछ सकता हूं
कि आप कौन हैं? उससे
मेरा मन आपके
ऊपर केंद्रित
होगा और आपको
मैं गुरु के
रूप में ईश्वर
मानता हूं। हो
सकता है उससे
मैं अपनी खोज
के करीब आ
सकूंगा।
महर्षि :
तुम्हारी खोज
जो भी रूप ले, तुम्हें
अंततः एक ही 'मैं' पर
आना है, आत्मा
पर। ये सारे
भेद जो 'मैं'
और 'तुम'
के बीच, गुरु
और शिष्य के
बीच हैं वे
अज्ञानवश
हैं। परम अहम
ही वास्तव में
है। इससे
अन्यथा सोचना
भ्रांति है।
ओशो
का नजरिया:
रमण
महर्षि की
किताब को
किताब कहना
उचित नहीं
होगा, यह छोटी—सी
पुस्तिका है
: मैं कौन हूं?
रमण
न तो विद्वान
थे,
न ज्याद्य
पढ़े—लिखे
थे। उन्होंने सत्रह
याद। की आयु
में घर छोड़
दिया और कभी
वापस नहीं गये।
जब असली घर
मिल जाये तो साधारण
धर में कौन रहता
है? उनकी
विधि तुम्हारे
अंतरतम
केंद्र में एक
सरल—सी खोज है—पूछते
जाओ, 'मैं
कौन हूं?'
कभी
मैं ऐसी किताबों
का जिक्र करता
हूं जो बहुत अच्छी
हैं लेकिन
उनके लेखक सामान्य
है,
क्षुद्र
हैं। अब मैं ऐसे
आदमी का जिक्र
कर रहा हूं जो
सचमुच बहुत
महान है लेकिन
जिसने बहुत छोटी—सी
किताब लिखी, एक पुस्तिका
जैसी। नहीं तो
हमेशा वे मौन
रहते। वे बहुत
कम बोलते थे, कभी—कभार।
यदि खलील
जिब्रान रमण
के पास जाता
तो उसे बहुत लाभ
होता। फिर वह
वाकई मास्टर
की आवाज
सुनता। ('दि
वाइस ऑफ दि
आफ्टर' जिब्रान
की एक किताब
है) महर्षि
रमण को भी
जिब्रान ये
मिलकर बहुत फायद्य
होता।
जिब्रान जैसे
लिखता था वैसे
कोई नहीं लिख
रुकता था।
रमण
कमजोर लेखक थे, जिब्रान
अच्छा लेखक था
लेकिन कमजोर
आदमी था। वे दोनों
मिलते तो संसार
के लिए एक
आशीष जिन
होते।
दि
बुक्स आय हैव
लव
ओशो
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