सूत्र:
भगती
ऐसी सुनहु रे
भाई। आई भगति
तब गई बड़ाई।।
कहा
भयो नाचे अरू
गाए, कहा
भयो तप कीन्हें।।
कहा
भयो जे चरन
पखारे, जौ
लौ तत्व न
चीन्हें।।
कहा
भयो जे मूंड
मुंडायो,
कहा तीर्थ
ब्रत कीन्हें।।
स्वामी
दास भगत अरू
सेवक,
परमतत्व
नहीं चीन्हें।।
कहि
रैदास तेरी
भगति दूरि है, भाग
बडे सो पावै।।
तजि
अभिमान मेटि
आपा पर, पिपिलक
ह्वै चुनि
खावै।।
अब
हम खूब वतन घर
पाया। ऊँचा
खेर सदा मेरे
भाया।।
बेगमपुर
सहर का नाम।
फिकर अंदेस
नहीं तेहि
ग्राम।।
नहीं
जहं सांसत
लानत मार। हैफ
न खता न तरस
जवाल।।
आव
न जान रहम
औजूद। जहां
गनी आप बसै
माबूद।।
जोई
सैलि करै सोई
भावै। महरम
महल में को
अटकावै।।
राम
मैं पूजा कहां
चढ़ाऊं। फल
अरू फूल अनूप
न पाऊं।।
थनहर
दूध जो बछरू
जुठारी।
पुहुप भँवर जल
मीन बिगारी।।
मलयागिरी
बेधियो
भुजंगा। विष
अम्रित दोऊ एकै
संगा।।
मन
ही पूजा मन ही
धूप। मन ही
सेऊं सहज
सरूप।।
पूजा
अरचा न जानूं
तेरी। कहि
रैदास कवन गति
मेरी।।
जो
तुम तोरौ राम
मैं नहीं
तोरौं। तुम
सों तोरि कवन
सों जोरौ।
तीरथ
भरत न करो
अंदेसा। तुम्हरे
चरन कमल का
भरोसा।।
जहं
जहं जावौं
तुम्हारी
पूजा। तुम—सा
देव और नहीं
दूजा।।
मैं
अपनौ मन हरि
सों जोर्यो।
हरि सों जोरि
सबन सों
तोरयो।।
सबही
पहर तुम्हारी
आसा। मन क्रम
वचन कहै
रैदासा।।
थोथे
जनि पछोरों रे
कोई। जोई रे
पछोरौ जा में
निज कन होई।।
थोथी
काया थोथी
माया। थोथी
हरि बिन जनम
गंवाया।।
थोथा
पंडित थोथी
बीना। थोथी
हरि बिन सबै
कहानी।।
थोथा
मंदिर भोग—विलासा।
थोथी आन देव
की आसा।।
सांचा
सुमिरन नाम—विसासा।
मन बच कर्म
कहै रैदासा।।
पतियां
हिली नहीं
पंखुरी
खिली नहीं
एक
अवधि बीत गई बोझिल
चुपचाप
कौन
दे गया ऐसा
शाप
बगुलों
की पांत नहीं,
नंगा आकाश
चूक
गए मौसम के
सारे विश्वास
मौन
दिशाएं सभी
सूनी
राहें सभी
झेल
रहा वक्त ओह, कैसा
संताप
कौन—सा
किया ऐसा पाप
बंद
है हवाएं भी, फीके
सब रंग
भूल
गए राग—फाग
चंग और मृदंग
रंग
चटकते कहां
कदम
अटकते कहां
सन्नाटे
का मारा समय
रहा कांप
सूंघ
गया कैसा यह
सांप
आदमी
को क्या हो
गया है?
रैदास खो गए, कबीर खो गए, नानक खो गए।
आदमी के इस
बगीचे में फूल
खिलने बंद हो
गए। मधुशास
जैसे अब आता
नहीं। जैसे
मनुष्य का
ह्रदय एक
रेगिस्तान
हो गया है, मरूद्यान
भी नहीं कोई।
हरे वृक्षों
की छाया भी न
रही। दूर के
पंछी बसेरा
करें, ऐसे
वृक्ष भी न
रहे। आकाश को
देखने वाली आंखें
भी नहीं।
अनाहत को
सुनने वाले
कान भी नहीं।
मनुष्य को
क्या हो गया
है?
एक
अवधि बीत गई
बोझिल चुपचाप
कौन
दे गया ऐसा
शाप
झेल
रहा वक्त ओह, कैसा
संताप
कौन—सा
किया ऐसा पाप
बंद
है हवाएं भी, फीके
सब रंग
भूल
गए राग—फाग
चंग और मृदंग
रंग
चटकते कहां
कदम
अटकते कहां
सन्नाटे
का मारा समय
रहा कांप
सूंघ
गया कैसा यह
सांप
एक
दुर्घटना घटी
है और उस
दुर्घटना के
प्रति सचेत हो
जाना जरूरी है, अन्यथा
अपनी खोज न हो
सकेगी। और
जिसने स्वयं
को न जाना
उसने कुछ भी न
जाना। वह जीया
भी और जीया भी
नहीं। वह जीया
नहीं, बस
मरा ही। उसके
जन्म और
मृत्यु के बीच
में कुछ भी न
घटा। अगर जन्म
और मृत्यु के
बीच में
परमात्मा न घटे
तो जानना कि
कुछ भी नहीं
घटा; खाली
आए खाली गए।
शायद कुछ गंवा
कर गए कमा कर
नहीं।
एक
दुर्घटना हुई
है। और वह
दुर्घटना है
मनुष्य की
चेतना
बहिर्मुखी हो
गई है। सदियों
में धीरे—
धीरे यह हुआ, शनैः—शनै:,
क्रमशः—क्रमश:।
मनुष्य की आंखें
बस बाहर थिर
हो गई हैं, भीतर
मुड़ना भूल गई
हैं। तो कभी
अगर धन से ऊब
भी जाता है— और
ऊबेगा ही कभी,
कभी पद से
भी आदमी ऊब जाता
है— ऊबना ही
पड़ेगा, सब
थोथा है! कब तक
भरमाओगे अपने
को? भ्रम
हैं तो
टूटेंगे।
छाया को कब तक
सत्य मानोगे?
माया का मोह
कब तक धोखे
देगा? सपनों
में कब तक
अटके रहोगे? एक न एक दिन
पता चलता है
सब व्यर्थ है।
लेकिन
तब भी एक
मुसीबत खड़ी हो
जाती है। वे
जो आंखें बाहर
ठहर गई हैं, वे
आंखें अब भी
बाहर ही खोजती
हैं। धन नहीं
खोजती, भगवान
खोजती हैं—
मगर बाहर ही।
पद नहीं खोजती,
मोक्ष
खोजती हैं—
लेकिन बाहर ही।
विषय बदल जाता
है, लेकिन
तुम्हारी
जीवन—दिशा
नहीं बदलती।
और
परमात्मा
भीतर है, वह
अंतर्यात्रा
है। जिसकी
भक्ति उसे
बाहर के भगवान
से जोड़े हुए
है उसकी भक्ति
भी धोखा है।
मन
ही पूजा मन ही
धूप।
चलना
है भीतर! मन है
मंदिर! उसी मन
के अंतर—गृह
में छिपा हुआ
बैठा है मालिक।
प्रश्नों
की आधी में
उजड़ रहे
व्यक्ति।
चेतन
को लील रही
अवचेतन शक्ति।।
सीमाएं
काट रहे
बहुताली स्वर।
विस्मय
से बांट रहे
लघुता का ज्वर।।
निर्णय
से दूर बहे
जाते हैं कूल।
यहां—वहां
डूब रहे मन के
मस्तूल।।
संशय के
कुहरे में
सिमट रहे
सूर्य।
परजीवी
लगते हैं
शब्दों के
तूर्य।।
लघुतम
आधारों पर
बंटे हुए दल।
उलटे
मुंह लटक रहा
पीढ़ी का बल।।
चौरहे
खांस रहा
चिंतक का दर्प।
आकृति
को डसे हुए
विकृति का
सर्प।।
भ्रम के
परिवृत्तों
में दबे हुए
क्षण।
बौने
से लगते हैं
बुनियादी
प्रण।।
तंत्रों
के चक्रव्यूह
मंत्रो के दंश।
अमृत
को खोज रहे
विषधर के वंश।।
आकाशी
मुस्काने
खंडित संदर्भ।
समय
की ढलानों पर
पिघल रहे गर्भ।।
रात के
उजाले में
बुझे हुए पक्ष।
आयातित
लगते हैं
अनुभव के पक्ष।।
आदमी
का जैसे
गर्भपात ही हो
जाता है, उसकी
आत्मा का जन्म
ही नहीं हो
पाता।
समय
की ढलानों पर
पिघल रहे गर्भ।
और
आदमी उलझा है
प्रश्नों की
आधी में!
प्रश्नों
की आधी में
उजड़ रहे
व्यक्ति।
चेतन
को लील रही
अवचेतन शक्ति।।
यह
दुर्घटना है।
मनुष्य ने
पहली बार इतने
प्रश्न पूछे
हैं और उत्तर
उसके पास एक
भी नहीं।
प्रश्नों की
झड़ी लगी है, प्रश्न
ही प्रश्न हो
गए हैं। जीवन
एक प्रश्न बन
कर खड़ा हो गया
है। परमात्मा
एक प्रश्न है,
प्रेम एक
प्रश्न है, प्रार्थना
एक प्रश्न है।
हर चीज को
प्रश्न में
बदल लेने की
हमने कला सीख
ली है। और
उत्तर? उत्तर
का हमें कुछ
पता नहीं रहा।
न दिशा का बोध
रहा। किस दिशा
में उत्तर
मिलेगा, इसकी
भी विस्मृति
हो गई है।
दसों दिशाओं
में भटक रहे
हैं हम।
हजारों
प्रश्न पूछ
रहे हैं हम।
और ग्यारहवीं
भी एक दिशा है।
अपने भीतर
जाने वाला भी
एक मार्ग है।
उसकी तरफ पीठ
किए खड़े हैं।
आदमी
ने अपनी तरफ
पीठ कर ली, यह
उसका
दुर्भाग्य है।
रैदास याद
दिलाते हैं.
मुड़ो, अपनी
और मुड़ो। मन
ही पूजा मन ही
धूप! छोड़ो
मंदिर, मस्जिद,
गिरजे, गुरुद्वारे।
वे सब तो आदमी
के बनाए हुए
हैं। खोजो
अपने भीतर के
चैतन्य में, क्योंकि वही
परमात्मा से
आया है। वही
एक किरण है
प्रकाश की, जो उस परम
सूर्य तक ले
जा सकती है।
क्योंकि वह उस
परम सूर्य से
आती है। वही
है सेतु।
रैदास
के सूत्र—
भगती ऐसी
सुनहु रे भाई।
आई भगति तब गई
बड़ाई।।
कहते
हैं. भक्ति का
पहला सूत्र
सुनो कि भक्ति
तो आए, भक्ति
तो आज आ जाए, बड़ाई खोने
की तैयारी है?
अहंकार
खोने के लिए
तत्परता है? क्योंकि
भक्ति आएगी तो
अहंकार जाएगा।
जैसे रोशनी
आएगी तो
अंधकार जाएगा।
दिया जलाने से
डरोगे तुम, अगर अंधेरे
से बहुत मोह
लगा लिया। अगर
अंधेरे में
तुम्हारे
सारे स्वार्थ
निहित हो गए
तो तुम बातें
तो दीये की करोगे,
मगर दीया
कभी जलाओगे
नहीं। यह भी
हो सकता है कि
दीयों की
तस्वीरें
टांग लो अपने
अंधेरे कक्ष
में, लेकिन
दीये की
तस्वीरों से
कोई रोशनी
नहीं मिलती।
मंजरे—तस्वीर
दर्दे—दिल
मिटा सकता
नहीं
आईना
पानी तो रखता
है पिला सकता
नहीं
किसी
चित्र को
कितना ही
देखते रहो!
मंजरे—तस्वीर
दर्दे—दिल
मिटा सकता
नहीं
अपनी
प्रेयसी के
चित्र को
टांगे रखो
छाती पर, अपने
प्रेमी की बड़ी
तस्वीर टांग
लो अपने घर में—
उससे क्या
होगा? उससे
दिल का दर्द न
मिटेगा। और
तुम्हारी
मूर्तियां
क्या हैं? उस
परम प्रेमी की
तस्वीरें हैं!
और तुम्हारे
मंदिर क्या
हैं?
आईना
पानी तो रखता
है पिला सकता
नहीं
आईना
पानी तो रखता
है,
पानीदार
होता है; मगर
उससे प्यास न
बुझेगी।
और
तुम्हारे
शास्त्र क्या
हैं?
आईने हैं, जिनमें पानी
की चर्चा है।
तस्वीरें हैं—
और प्यारी
तस्वारँ हैं।
मगर उन
तस्वीरों से
क्या होगा? शायद दिल को
बहला लो। शायद
थोड़ी देर अपने
को समझा लो, भूल जाओ उन
तस्वीरों में,
उन रंगो में।
मगर फिर—फिर
याद आएगी कि
तस्वीर
तस्वीर है।
भगती ऐसी
सुनहु रे भाई।
आई भगति तब गई
बड़ाई।।
और
तस्वीरें
क्यों टांगी
हैं तुमने? इतने
मंदिर क्यों
पृथ्वी पर बन
गए? इतने
तीर्थ क्यों
हैं?
आदमी
की बेईमानी के
कारण, चालबाजी
के कारण, पाखंड
के कारण। आदमी
अपने को धोखा
देना चाहता है—
और बड़ा
सूक्ष्म और
नाजुक धोखा।
आदमी यह धोखा
देना चाहता है
कि मैं
धार्मिक हूं बिना
धार्मिक हुए।
इसलिए गीता
पढ़ेगा, कुरान
पड़ेगा, बाइबिल
पड़ेगा।
मोहम्मद से
बचेगा, कृण
से बचेगा, जीसस
से बचेगा।
जीसस जैसे
व्यक्ति
ज्यादा पीछे
पड़ जाएंगे तो सूली
पर लटकाएगा और
फिर बाद में
सदियों तक बाइबिल
पड़ेगा और जीसस
के वचनों को
टांगेगा।
कृष्ण को नहीं
सुनेगा।
अर्जुन
भी बामुश्किल
सुना। और शक
है,
सुना भी कि
नहीं सुना।
उठाता ही चला
गया प्रश्न।
तुम क्या
सुनोगे, अर्जुन
ने भी नहीं
सुना! कृष्ण
सामने होंगे
तो तुम बचोगे।
तुम बड़ा बवंडर
खड़ा कर लोगे
प्रश्नों का—दार्शनिक—
आध्यात्मिक
प्रश्नों का।
इतनी धूल उड़ा
दोगे
प्रश्नों की
अपने चारों तरफ
कि कृष्ण का
चेहरा
तुम्हें
दिखाई पड़ना
बंद हो जाए।
विचार का ऐसा धुआं
उठाओगे— और
तुम आसानी से धुआं
उठा सकते हो।
गीली लकड़ी हो,
तुमसे
लपटें तो उठ
ही नहीं सकतीं,
धुआं ही उठ
सकता है। तुम
सुलग नहीं
सकते ठीक से, धुधुआं सकते
हो।
जानते
हो,
लकड़ी से धुआं
क्यों उठता है?
लकड़ी के
कारण नहीं, लकड़ी में
छिपे पानी के
कारण। लकड़ी
बिलकुल सूखी
हो तो धुआं
उठे ही नहीं।
अगर सौ
प्रतिशत सूखी
हो तो धुआं
असंभव है—
सिर्फ लपट उठे।
हमारे
चित्त वासना
से गीले हैं, इसलिए
धुधुआंते हैं,
उनमें
रोशनी नहीं
उठती। हम बाहर
की चीजों के
लिए दीवाने
हैं। वही
दीवानगी
हमारे जीवन को
अंधेरे से भरे
है। हम डरते
भी हैं कि
कहीं रोशनी हो
ही न जाए। अगर
कभी कोई रोशन
व्यक्ति हमें
मिल भी जाता है
तो हम पीठ कर
लेते हैं। हम
अपनी आंख बंद
कर लेते हैं।
और
एक बड़ा डर हैं—सबसे
बड़ा डर— कि
जिसने भी
परमात्मा को
निमंत्रण
दिया, उसे
मिटने की
तैयारी करनी
पडी है।
फना में
बकें—सोजा का
असर पैदा कर
ऐं बुलबुल
ये
आहें कोई आहें
हैं,
ये नाले कोई
नाले हैं
हयाते—जाविदा
आई है जां—बाजों
के हिस्से में
हमेंशा
जीने वाले हैं
ये जितने मरने
वाले हैं
मोहब्बत में
गिरां—पा हो न
इतना खौफे—रहजन
से
जो
इस रास्ते में
लुट जाएं बड़ी
तकदीर वाले
हैं
यह जो
प्रेम का
रास्ता है, यह
जो भक्ति है—
इस रास्ते पर
लुटेरों से
डरना मत।
मोहब्बत में
गिरां—पा हो न
इतना खौफे—रहजन
से
ऐसे
घबड़ाओ मत
लुटेरों से।
यह प्रेम के
रास्ते पर
लुटे बिना कोई
रास्ता नहीं
है। मोहब्बत
में गिरा—पा
हो न इतना
खौफे—रहजन से
जो
इस रास्ते में
लुट जाएं बड़ी
तकदीर वाले
हैं
यहां
तो बड़ी
मुश्किल से
कोई लुटेरा
मिलता है।
सदगुरु
लुटेरा है।
इसीलिए तो
हमने
परमात्मा को
नाम दिया—हरि।
हरि यानी
लुटेरा, लूट
ले जो, हरण
कर ले जो।
तुम्हारे पास
कुछ है नहीं, थोथे खयाल
हैं, झूठी
कल्पनाएं हैं।
मगर उनको भी
लूटना पड़ेगा।
इसलिए ठीक है—
जो
इस रास्ते पर
लुट जाएं बड़ी
तकदीर वाले
हैं
हयाते—जाविंदा
आई है
अमर
जीवन मिला है, अमृत
बरसा है।
हयाते—जाविदा
आई है जां—बाजों
के हिस्से में
लेकिन
उनके ही
हिस्से में
आया है अमर
जीवन, जिन्होंने
जीवन को— इस
जीवन को, इस
क्षणभंगुर
जीवन को— दांव
पर लगा दिया
है। यह जुआ
खेलने जैसा है
क्षणभंगुर
दांव पर लगता
है, शाश्वत
मिलता है। यह
बाजी लगाने
जैसी है।
हयाते—जाविदा
आई है जां—बाजों
के हिस्से में
हमेशा
जीने वाले हैं
ये जितने मरने
वाले हैं
ये
जो मरना जानते
हैं,
ये शाश्वत
जीवन को
उपलब्ध हो
जाते हैं, ये
हमेशा जीते
हैं। यह सबसे
बड़ा डर है कि
कहीं
परमात्मा आए
और मैं मिट न
जाऊं। और यह
डर स्वाभाविक
है। सागर आएगा
तो बूंद बचेगी
कैसे? अगर
बूंद को अपनी
अकड़ में जीना
है तो सागर से
दूर ही दूर
रहना होगा।
बूंद तो बूंद,
अगर नदियों
को भी बचना है
और अपने
अहंकार को बचाना
है और अपने
किनारों की
सीमा में
आबद्ध रहना है
और अपनी
पताकाएं
उड़ानी हैं, तो सागर से
दूर रहना होगा।
सागर के तो जो
पास आएगा वही
मिट जाएगा।
लेकिन
वह मिटना
मिटना नहीं है; वह
मिटना पाना है।
और बूंद रह कर
बच भी गए तो वह
बचना कोई बचना
नहीं है; वह
सागर को खोना
है, क्योंकि
बूंद जब सागर
में अपने को
खो देती है तो
सागर हो जाती
है।
भगती ऐसी
सुनहु रे भाई।
आई भगति तब गई
बड़ाई।।
सारा
बड़प्पन चला
जाएगा। पहले
से ही सचेत कर
देते हैं रैदास
कि इतनी
तैयारी हो तो
ही कदम रखना
इस रास्ते पर।
कहा
भयो ताचे अक
शाए।
बिना
इस तैयारी के
कितने ही नाचो
और कितने ही गाओ, कुछ
भी न होगा।
असल में
नाचोगे ही
कैसे? अहंकार
और नाच सकता
है! अहंकार तो
ऐसे है जैसे पक्षाघात,
पैरालिसिस।
अहंकारी नाच
कैसे सकता है?
वह तो अकड़ा
है। नाचने के
लिए लोच चाहिए।
अकड़ में लोच
कहां? नाचने
में तरलता
चाहिए, अंहकार
में तरलता
कहां? नाचने
में मिटने की
कला चाहिए।
नृत्य ही रह
जाए, नर्तक
खो जाए तब नाच
पूरा होता है।
लेकिन अगर
नर्तक अकड़ा
हुआ खड़ा है तो
उसकी उछल—कूद
को नाच मत समझ
लेना। और
कितने ही गाओ,
अगर
तुम्हारे
भीतर अहंकार
है तो
तुम्हारा अहंकार
तुम्हारे
सारे गीतों को
जहरीला कर
देगा।
तुम्हारे
पात्र में ही
अगर जहर भरा
है तो उसमें
तुम कितने ही
फूल तैराओ, वे सब मर
जाएंगे।
कहा भयो
नाचे अरू गाए,
कहा भयो तप
कीन्हें।।
कितना
ही तप करो, कुछ
भी न होगा।
अगर बुनियादी
शर्त पूरी
नहीं हुई, तो
न नाचने से
कुछ होगा, न
गाने से कुछ
होगा, न तप
से, न व्रत
से। और
बुनियादी
शर्त एक ही है
कि अहंकार को
जाने दो।
बीज बो
गया कोई
पेडू
तो उगाए हम
मरु
की नीरसता को
तोड कर
खंड—खंड
बिखरी
सौंदर्य
की झलकियों को
छविगृह
में एकजुट
सजाएं हम
शिवजी
के मस्तक की
गंगधार, जन—जन
तक
भगीरथ
बन कर
पहुंचाएं हम
बोल
दे गया कोई
गीत
गुनगुनाए हम
सुर—गंगा
सागर तक छोड़
कर
गांव की
जुन्हाई को
प्रेम
की पुकारों से
रीझ—रीझ
शहर तक बुलाएं
हम
धूप
की लुनाई को
रंग
की बुनाई को
संध
भरे मन तक
पहुंचाएं हम
नींव
भर गया कोई
मंजिलें
उठाएं हम
जीवन
की ईंट—ईंट
जोड़ कर
बीज तो
दिए गए हैं।
सारे मनुष्य
का अतीत
बुद्धों के
दान से जगमग है।
दीये ही दीये
जलाए गए हैं, मगर
हम आंख बंद
किए बैठे हैं।
बीज हमें दिए
गए हैं, मगर
हम उन्हें
प्राणों तक
पहुंचने नहीं
देते, प्राणों
की भूमि तक
पहुंचने नहीं
देते। गीताए—कुरान
हमारी खोपड़ी
में अटकी रह
जाती हैं, हमारे
हृदय को नहीं
छू पातीं। अगर
कुरान हृदय को
छू ले तो
मुसलमान न रह
जाओगे। और अगर
गीता हृदय को
छू ले, तुम
हिंदू न रह
जाओगे। गीता
हृदय को छू ले
और फिर भी तुम
हिंदू रहो, तो यह तो ऐसा
हुआ कि गंगा
सागर में
पहुंच जाए और
किनारे भी बने
रहें। यह
असंभव है।
दुनिया
पर धार्मिक
आदमी का अवतरण
नही हो पा रहा
है;
क्योंकि
यहां हिंदू
हैं, मुसलमान
हैं ईसाई हैं,
जैन हैं, बौद्ध हैं, सिक्स हैं।
ये बाधाएं हैं।
ये सब
परिभाषाएं
हैं, सीमाएं
हैं।
और
जहां बहुत
सीमाएं होती
हैं वहां असीम
उतरे तो कैसे
उतरे? आयन में
आकाश को कैसे
उतारोगे? दीवारें
तोड़ो!
खंड—खंड
बिखरी
सौंदर्य
की झलकियों को
छविगृह
में एकजुट
सजाएं हम
शिवजी
के मस्तक की
गंगधार, जन—जन
तक
भगीरथ
बन कर पहुंचाएं
हम
मगर
पहले
तुम्हारे ऊपर
तो गंगा उतरे, तो
फिर तुम जन—जन
तक पहुंचा
सकते हो!
तुम्हारी
प्यास बुझे तो
तुम न मालूम
कितनों की
प्यास बुझा
सकते हो! तुम्हारी
ज्योति जले तो
तुम न मालूम
कितनों की ज्योति
जला सकते हो!
ज्योति से
ज्योति जले!
बोल
दे गया कोई
गीत
गुनगुनाए हम
सुर—गंगा
सागर तक छोड़
कर
तुम
मिटो तो
परमात्मा
तुम्हें गीत
दे। तुम हटो
तो तुम्हारी
शून्यता को
उसकी पूर्णता
भर दे। फिर
गुनगुनाओ।
फिर
गुनगुनाने
में मजा है।
गीत तुम्हारे
नहीं होने
चाहिए। गीत
उसके, गुनगुनाना
तुम्हारा।
गंगा उसकी, प्राण
तुम्हारे।
नाचो तुम, लेकिन
नाचे वस्तुत:
वही। इतना कर
सको तो भक्ति
का पहला कदम
पूरा होता है।
और यह न हो सके
तो जीवन
व्यर्थ है।
कान
वो कान है, जिसने
तेरी आवाज
सुनी
आंख
वो आंख है, जिसने
तेरा जल्वा
देखा
याद
रखना, अंधे हो,
अगर
परमात्मा
नहीं देखा तो।
बहरे हो, अगर
परमात्मा
नहीं सुना तो।
लंगड़े हो, लूले
हो, अगर वह
तुम में नहीं
नाचा। मुर्दा
हो, अगर वह
तुम में नहीं
जीआ।
कान
वो कान हैं, जिसने
तेरी आवाज
सुनी
आंख
वो आंख है, जिसने
तेरा जल्वा
देखा
इस
दुनिया में
देखने योग्य
और क्या है—उसका
जल्वा! और
जल्वा ही
जल्वा है!
चारों तरफ उसका
उत्सव है! गीत
पर गीत
गुनगुनाए जा
रहे हैं! फूल पर
फूल खिले जा
रहे हैं!
तारों पर तारे
ऊगते आ रहे
हैं! मगर तुम
अंधे।
तुम्हारी आंखों
पर पत्थर रखा
है अहंकार का।
हटाओ इस पत्थर
को!
कहा भयो
नाचे अरू गाए,
कहा भयो तप
कीन्हें।।
कहा भयो जे
चरन पखारे,
जौ लौ तत्व न
चीन्हें।।
जब
तक तुमने अपने
अंतर्तम में
छिपे तत्व को
नहीं चीन्हा
है,
नहीं
पहचाना है, तब तक किसके
चरण पखार रहे
हो? पत्थरों
की मूर्तियों
के! क्या होगा
इन चरणों को
पखारने से? ये पंडित—पुजारियों
की ईजादें हैं।
ये शोषण के
ढंग हैं। ऐसे
तुम्हारी गर्दनें
सदियों तक
काटी जाती रही
हैं, और
तुम आज भी
काटे जा रहे
हो, और तुम
आगे भी काटे
जाओगे।
और
यहीं पास में
मिल जाते हैं
लोग। बुद्धों
को खोजने तो
जाना पड़ेगा, क्योंकि
सदियों में
कभी— कभी वह
अभूतपूर्व
घटना घटती है—जहां
आकाश पृथ्वी
से मिलता है, जहां आकाश
और पृथ्वी
आलिंगन में
आबद्ध होते
हैं! बुद्धत्व
तो कभी—कभी
घटता है, लेकिन
पंडित—पुजारी
तो गली—गली
मिल जाएंगे।
तुम उन्हें न
खोजो तो वे
तुम्हें
खोजते हुए आ जाएंगे।
एक ढूंढो, हजार
मिलते हैं। और
सच तो यह है कि
तुम बिलकुल भी
न ढूंढो तो
हजार तुम्हें
ढूंढते हैं।
और जो पास मिल
जाता है, हम
उसी से राजी
हो जाते हैं।
हमारे भीतर
खोज की
अभीप्सा ही
नहीं है, किसी
बड़े अभियान पर
निकलने की
आकांक्षा
नहीं है।
जाहिद
के कस्रे—जुहद
की बुनियाद है
यही
मस्जिद
बहुत करीब थी
मैखाना दूर था
कई
लोग इसीलिए
मस्जिद में
बैठे हैं।
कारण कुल इतना
ही है!
जाहिद
के कस्रे—जुहद
की बुनियाद है
यही
कई
विरागी बने
बैठे हैं
मंदिरों में, त्यागी
बने बैठे हैं
मंदिरों में,
व्रत—उपवास
किए बैठे हैं।
और कुल कारण
क्या है? कुल
कारण इतना है—
जाहिद
के कस्रे—जुहद
की बुनियाद है
यही
मस्जिद
बहुत करीब थी
मैखाना दूर था
मस्जिद
बगल में थी और
मैखाना तो
खोजना पड़ता है।
मैखाने के लिए
पहचानने की भी
आंखें चाहिए।
मैखाने से
आदोलित होने
के लिए
दीवानापन
चाहिए।
मैखानों
को तो पियक्कड़
ही पहचान सकते
हैं।
जिन्होंने
थोड़ी चखी है, जिन्हें
थोड़ा स्वाद
आया है। फिर
वह स्वाद चाहे
कहीं से भी
आया हो— चाहे
सुबह उगते हुए
सूरज को देख
कर वह स्वाद आया
हो, चाहे
रात को आकाश
तारों से भरा
हो और वह
स्वाद आया हो,
चाहे किसी
की प्रीति में,
चाहे संगीत
में, सौंदर्य
में; चाहे
कहीं से भी उस
स्वाद की झलक
मिली हो—
लेकिन थोड़ा सा
जिन्होंने
चखा हो, वे
ही बुद्धों को
पहचान पाएंगे।
जिसने
कविता में
डुबकी मारी हो, वह
बुद्ध को
पहचानने से
नहीं बच सकेगा,
क्योंकि
बुद्ध में उसे
काव्य जीवंत
मिलेगा। जो
कविता में बस
झलका—झलका था,
वह बुद्ध
में जीता हुआ
मिलेगा।
जिसने वीणा के
मधुर स्वरों
मे कभी अपने
को खो दिया हो,
वह बुद्ध के
पास आकर लौट नहीं
सकेगा, क्योंकि
वहां वीणा—
ऐसी वीणा
जिसमें न तार
हैं, ऐसी
वीणा जो न
दिखाई पड़ती है,
न दिखाई पड़
सकती है—उसे
बजते हुए
सुनेगा। उसने
जो वीणा सुनी
थी वह तो आहत
नाद था, बुद्धों
के पास अनाहत
नाद सुनेगा।
बुद्धों
के ओंठ तो चुप
हैं,
लेकिन उनके
प्राणों से
ओंकार उठ रहा
है। जो कभी
नाद में डूबा
है, वह
बुद्धों के
पास से वापस
नहीं लौट सकता।
जिसने
वृक्षों में
सौंदर्य देखा
है, उनकी
हरियाली में
प्राण का बहाव
देखा है, उनके
फूलों में
परमात्मा के
रंग देखे हैं,
जिसने
इंद्रधनुष को
देख कर अपने
को ठगा हुआ पाया
है, लुटा
हुआ पाया है—
वह बुद्धों से
नहीं बच सकेगा,
क्योंकि वे
भी इंद्रधनुष
हैं चैतन्य
के! सातों रंग,
सभी रंग! वे
भी संगीत हैं,
सरगम हैं—सातों
स्वर! लेकिन
इसके लिए थोड़ी
दीवानगी चाहिए।
कौन
जाने, कौन
समझे, चाकदामानी
का राज
तुममें
ऐ अहले बसीरत!
कोई दीवाना भी
है
पंडितों
से पूछ रहा है
कवि।
कौन
जाने, कौन
समझे, चाकदामानी
का राज
मेरे
फटे हुए कपड़ों
का,
मेरी
दीवानगी का, मेरे पागलपन
का कौन रहस्य
समझेगा?
तुममें
ऐ अहले बसीरत!
ऐं
ज्ञानियो, ऐं
पंडितो!
तुममें
ऐ अहले बसीरत!
कोई दीवाना भी
है
अगर
तुममें कोई
दीवाना हो तो
उससे मैं कुछ
कहूं, तो उससे
कुछ बात बने, तो वह कुछ
सुने और समझे।
पंडित
नहीं बुद्धों
को पहचान पाते, सरल—चित्त
लोग पहचान
लेते हैं।
सीधे—सादे लोग
पहचान लेते
हैं। ज्ञानी
वंचित रह जाते
हैं, अज्ञानी
पहचान लेते
हैं।
पुण्यात्मा
वंचित रह जाते
हैं, पापी
पहचान लेते
हैं, कारण?
पुण्यात्मा
के पास अहंकार
होता है, पापी
के पास तो सिर
झुका है। वह
तो अपने पाप
से दबा है। वह
तो अपने को
असहाय पा रहा
है। वह तो
अपने को
गुनहगार पाता
है। वह तो
आकांक्षा
करता है कि
प्रभु उसे
क्षमा करे।
उसकी भूलें
इतनी हैं कि
किस बलबूते पर
अभिमान करे? किस बलबूते
पर अहंकार करे?
लेकिन
पुण्यात्मा
है— जिसने
व्रत किए, उपवास
किए, मंदिर
बनाया, तीर्थ
गया, गंगा—स्नान
किया—उसके पास
तो अहंकार है
आभूषणों में
सजा, चमकता—दमकता!
वह नहीं समझ
पाएगा।
कहा भयो जे
चरन पखारे,
जौ लौ तत्व न
चीन्हें।।
कहा भयो जे
मूंड मुंडायो,
कहा तीर्थ
ब्रत कीन्हें।।
नहीं
होगा इन सब
बातों से कुछ।
मूल कारण
खोजना होगा।
ये ऊपर—ऊपर के
इलाज हैं। ये
ऊपर—ऊपर की
मलहम—पट्टियां
हैं,
घाव
तुम्हारे
भीतर है।
तुम्हारे
प्राण रुग्ण
हैं, तुम्हारी
आत्मा
मूर्च्छित
पड़ी है। और ये
बातें ऊपर—ऊपर
की हैं, इनसे
भीतर के इलाज
नहीं हो सकते।
बढ़ती ही
जाती है बस्ती
की भीड़,
बौने
हो जाते
इरादों के चीड़,
कमरे
में टैग जातीं
रातें अधनंगी,
उम्र
की जटाओं में
उलझन बेढंगी,
ऐसा
क्यों होता है
रोज—रोज?
करनी
ही होगी अब
कारण की खोज।
मितलाई
सुबह और
पितलाई सांझ,
सन्निपाती
पिक और अमराई
बांझ,
मुक्ति
की आकांक्षा
में नुची हुई
पांखें,
हवाएं
टटोलती
धृतराष्ट्री आंखें?
कहां
गया जीवन का
ओज?
करनी
ही होगी अब
खोज।
मनुष्य
ने गरिमा कहां
खो दी है? यह
मनुष्य का ओज
कहां गया? इसके
मूल कारण की
खोज करनी ही
होगी। और मूल
कारण कठिन
नहीं है समझ
लेना। जरा
अपने ही भीतर
खोदने की बात
है और जड़ें
मिल जाएंगी
समस्या की। एक
ही जड़ है कि हम
अपने से
वियुक्त हो गए
हैं; अपने
से ही टूट गए
हैं, अपने
से ही अजनबी
हो गये हैं!
और
जो अपने से
अजनबी है, वह
सबसे अजनबी हो
जाता है। अपने
को जिसने
पहचान लिया, उसकी सबसे
पहचान हो जाती
है। उसके लिए
अजनबी भी
अजनबी नहीं रह
जाते, क्योंकि
उसे दिखाई
पड़ता है. भीतर
एक ही तरंग, एक ही
चैतन्य, एक
ही ज्योति!
दीये होंगे
अलग, दीयों
के ढंग होंगे
अलग, आकृति—रंग
होंगे अलग, मगर ज्योति
तो एक है।
लेकिन
जिसने अपनी ही
ज्योति नहीं
देखी, वह
किसके भीतर ज्योति
को देखेगा!
उसे तो चलती—
फिरती लाशें
दिखाई पड़ती
हैं। वह खुद
भी मुर्दा है
और दूसरे भी
उसे मुर्दा ही
मालूम होते
हैं। वह
मुर्दों की
बस्ती में
जीता है।
स्वामी
दास भगत अरू
सेवक,
परमतत्व
नहीं चीन्हें।।
तुम
कितने ही
स्वामी और दास
बन जाओ, भगवान
के सामने सिर
पटको और कहो
कि मैं
तुम्हारा दास
हूं तुम मेरे
स्वामी हो, कि मैं
तुम्हारा
सेवक हूं और
तुम मेरे
मालिक हो— कुछ
भी न होगा।
अभी परमतत्व
की पहचान नहीं
हुई। क्यों? क्योंकि
जहां परमतत्व
की पहचान है, वहां मैं और
तू का भेद
नहीं है, वहां
कौन दास और
कौन मालिक? वहां कौन
सेवक, कौन
प्रभु? वहां
कौन भक्त कौन
भगवान?
राम
कृष्ण मंदिर
में पूजा करते
करते अपने को
ही भोग लगा
लेते थे। जब
यह खबर लोगों
को पता चली, तो
लोगों ने कहा
यह किस तरह का
पुजारी है! यह
तो पाप हो रहा
है! मंदिर के
ट्रस्टियों
की बैठक हुई।
उन्होंने
रामकृष्ण को
बुलाया कि
हमने यह सुना
है कि तुम
भगवान को भोग
लगाते—लगाते
अपने को भोग
लगा लेते हो!
माला उनको पहनाते—पहनाते
खुद को ही
पहना लेते हो!
यह किस ढंग की
पूजा है?
रामकृष्ण
ने कहा : पूजा
का भी कोई ढंग
होता है! यह भी
खूब बात रही!
अरे पूजा तो
बेढंगी ही
होती है।
इसमें ढंग
होता ही नहीं।
यह तो प्रीति
है। प्रीति की
कोई रीति होती
है?
यह तो मौज
है! जब मेरे
भीतर और उसके
भीतर मुझे एक
ही दिखाई पड़ने
लगता है तो
कौन पहना रहा
है माला और
कौन पहन रहा
है, कौन
रखे हिसाब? वही है
पहनने वाला, वही है
पहनाने वाला।
वही है भोग
लगाने वाला, वही है भोग
स्वीकार कर
लेने वाला।
मैं कोई दूसरा
थोड़े ही हूं
कोई अन्य थोड़े
ही हूं।
मगर
कौन समझेगा
इसे?
कोई दीवाना
हो तो समझे।
किसी ने प्रेम
का यह पागलपन
जाना हो तो
समझे। इतना
ऐक्य सध जाए
तो भक्ति।
कहि रैदास
तेरी भगति
दूरि है, भाग
बडे सो पावै।।
ऐसे
करता रहे तू
सेवा और बना
रहे दास, पखारता
रहे चरण, मगर
कहे देता हूं
तुझे तेरी
भगति
दूरि
है! बहुत दूर
है अभी मंजिल।
अभी तूने पहले
कदम भी नहीं
उठाए। अभी
तूने तुतलाना
भी नहीं सीखा।
अभी यात्रा की
शुरुआत भी
नहीं हुई है।
डाग
बडे ओं पावै।
बड़े
भाग्यवान भक्ति
को उपलब्ध हो
पाते हैं।
लेकिन जिसका
अहंकार गिर
गया,
उसे देर
नहीं लगती।
अहंकार के
गिरने का अर्थ
होता है न अब
कोई मैं है, न अब कोई तू
है।
पश्चिम
के बहुत बड़े
विचारक
मार्टिन बूबर
ने एक अति
प्रसिद्ध
पुस्तक लिखी
है मैं और तू।
मार्टिन बूबर
इस सदी के
यहूदी चिंतकों
में सबसे बड़े
चिंतक थे और
यह किताब अपने
किस्म की
अनूठी है। इस
सदी में लिखी
गई थोड़े सी
किताबें उस
कोटि में आती
हैं जिस कोटि
में यह किताब
आती है। मगर
फिर भी इस
किताब में
बुनियादी भूल
है,
क्योंकि
मार्टिन बूबर
का खयाल है—
प्रार्थना
मैं और तू के
बीच संवाद है।
वहीं भूल है।
मार्टिन
बूबर बड़े
विचारक हैं, लेकिन
भक्त नहीं।
अगर ऐसी बात
रैदास से कही
होती, रैदास
बहुत हंसे
होते कि मैं
और तू के बीच
संवाद— भक्ति,
प्रार्थना?
वहां कहां
मैं, कहां
तू? वहां
कोई मैं—तू
नहीं रह जाता,
संवाद का तो
सवाल ही नहीं
उठता। और जहां
संवाद है वहां
विवाद हो सकता
है, खयाल
रखना। और जहां
मैं—तू है, वहां
मैं—तू हो
सकती है, किसी
भी वक्त हो
सकती है। जब
तक मैं और तू
मौजूद हैं, तब तक मैं—तू
की संभावना
मौजूद है, तू—तू
मैं—मैं भी हो
सकती है। और
संवाद कब
विवाद में बदल
जाए, क्या
देर लगती है? संवाद और
विवाद कुछ
बहुत भिन्न
नहीं हैं; एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
नहीं; रैदास
कहीं मार्टिन
बूबर से
ज्यादा गहराई
और सच्चाई की
बात कह रहे
हैं।
कहि रैदास
तेरी भगति
दूरि है, भाग
बडे सो पावै।।
तजि
अभिमान मेटि
आपा पर,
छोड़
दे अभिमान, छोड़
दे मैं। मेटि
आपा पर! मैं और
तू को मिटा दे।
आपा यानी मैं,
पर यानी तू।
यह तो मार्टिन
बूबर के
सैकड़ों वर्ष
पहले रैदास ने
कह दिया कि
अपनापन और
दूसरा जब तक
मौजूद हैं, तब तक भक्ति
नहीं, तब
तक तू बड़भागी
नहीं।
तजि
अभिमान मेटि
आपा पर, पिपिलक
ह्वै चुनि
खावै।।
देखा
है चींटी, इतनी
छोटी! मगर रेत
में शक्कर
मिला दो तो
हाथी नहीं
छांट पाएगा।
हाथी के सामने
रेत और शक्कर
मिला कर रख दो
तो हाथी बुद्ध
की तरह खड़ा रह
जाएगा। अब
क्या करे!
लेकिन चींटी
शक्कर और रेत
को छांट लेगी,
अलग—अलग कर
लेगी। चींटी
का राज यह है
कि वह छोटी है,
इतनी छोटी
है! उसका छोटा
होना उसे
सूक्ष्म को
देखने की क्षमता
दे देता है।
उसके छोटे
होने में
सूक्ष्म को
पहचानने की पात्रता
आ जाती है।
जहां
अहंकार गया
वहां हम ना—कुछ
हो जाते हैं, चींटी
तो फिर भी कुछ
है। चींटी तो
है ही न! चींटी
तो फिर भी कुछ
है, भक्त
उतना भी नहीं
रह जाता। और
इसलिए भक्त के
पास यह क्षमता
आती है कि वह सार
और असार को
छांट लेता है;
सार्थक और
व्यर्थ को
छांट लेता है;
तत्व को, अतत्व को
छांट लेता है।
नई
राहें बताता
है,
नये रास्ते
दिखाता है
नहीं
मालूम जालिम
इश्क रहजन है
कि रहबर है
मगर
सवाल खड़ा होता
है भक्त के
सामने कि जिस
प्रेम के
रास्ते पर मैं
चला हूं यह
लुटेरा है या
पथ—प्रदर्शक
है?
कभी लगता है
लुटेरा है, क्योंकि
लूटे लिए जा
रहा है। जो—जो
मेरी संपदा थी,
जिस— जिस को
मैंने समझा था
मेरा, जो—जो
मैंने समझा था
मैं— उसे लूटे
लिए जा रहा है।
और कभी लगता
है पथ—प्रदर्शक
भी है, क्योंकि
जहां—जहां मैं
हट जाता है
वहां—वहां कुछ
अनिर्वचनीय
उतर आता है!
नई
राहें बताता
है,
नये रास्ते
दिखाता है
नहीं
मालूम जालिम
इश्क रहजन है
कि रहबर है
शुरू—शुरू
में यह दुविधा
रहेगी। यह
स्वाभाविक है।
लेकिन अगर
थोड़े से कदम
हिम्मत के साथ, प्रेम
के साथ उठा लिए
तो तुम जानोगे
कि उसका
लुटेरा होना
ही उसका पथ—प्रदर्शक
होना है। वह
रहजन है, इसीलिए
रहबर है।
तजि
अभिमान मेटि
आपा पर, पिपिलक
ह्वै चुनि
खावै।।
छोटे
हो जाओ, परमात्मा
तुम्हारे लिए
है। बिलकुल
मिट जाओ, परमात्मा
पूरा का पूरा
तुम्हारा है।
अब हअ नबूब
वतता धन पाया।
रैदास
कहते हैं. ऐसे
हम मिटे, तब
हमें घर मिला!
अपना घर मिला।
खूब घर मिला!
घर—जो फिर
नहीं छिनेगा!
घर— जो मिला सो
मिला! जो
अनादि है और
अनंत है!
अब हम खूब
वतन घर पाया।
इसके
पहले जिन—जिन
स्थानों को
हमने घर समझा
था वे सराय थे।
और जिन
भूमियों को
हमने
मातृभूमि समझा
था वे सब
राजनीतिया थी।
वह अपना वतन न
था। वह अपना
देश न था।
न
तो तुम्हारा
देश भारत है, न
तुम्हारा देश
चीन है, न
तुम्हारा देश
रूस है।
तुम्हारा अगर
कोई देश है तो
वह परमात्मा
है। हंसा, उड़
चल वा देस!
अब हम खूब
वतन घर पाया।
ऊँचा खेर सदा
मेरे भाया।।
विरोधाभासी
लगेगी यह बात, लेकिन
सत्य है। सत्य
विरोधाभासी
ही होता है।
पहले तो रैदास
ने कहा बिलकुल
मिट जाओ। अगर
मिट जाओ तो इस
जगत में जो
सबसे ऊंची जगह
है वह तुम्हें
मिल जाए।
ऊँचा खेर
सदा मेरे
भाया।।
वह
जो ऊंचे से
ऊंचा गांव है
वही मेरे मन
को सदा से
भाया है। जो
गौरीशंकर का
शिखर है जीवन
में,
वह जो
चैतन्य की
सबसे बड़ी
ऊंचाई है—
जिसके ऊपर और
कुछ भी नहीं—
वह मेरे मन को
सदा से भायी
है। लेकिन उसे
पाने का
रास्ता यह है
कि तुम ऐसे मिटो,
ऐसे मिटो कि
तुम्हारा
नामोनिशान न
रह जाए। तुम
इतने नीचे हो
जाओ कि उससे
नीचे कुछ न बचे,
तो तुम इतने
ऊंचे हो जाओगे
कि उसके ऊपर
और कुछ भी
नहीं है।
बेगमपुर
सहर का नाम।
कहते
हैं जो जगह
मुझे मिल गई, जो
गांव मुझे मिल
गया, जो
मेरा घर मैंने
पा लिया— उस
गांव का नाम
है बेगमपुर—जहां
कोई गम नहीं, जहां कोई
दुख नहीं, जहां
आनंद ही आनंद
है!
फिकर
अंदेस नहीं
तेहि ग्राम।।
उस
गांव में, उस
परमात्मा में,
न तो कोई
फिकर है, न
कोई चिंता है,
न कोई अंदेस
है, न कोई डर
है। डर किसका?
वहां मौत ही
नहीं है। सब
डर मौत से
बंधे हैं। और
चिंता क्या? सारी चिंता
असुरक्षा में
है— पता नहीं
जो मेरे पास
आज है, वह
कल होगा कि
नहीं होगा! या
जो मेरे पास
नहीं है वह कल
मुझे मिलेगा या
नहीं! इससे
चिंता पैदा
होती है।
लेकिन जिसने
परमात्मा में
प्रवेश पा
लिया अब तो सब
पा लिया! और इस
तरह पा लिया
कि उसे तुम
खोना भी चाहो
तो खो नहीं
सकते।
परमात्मा
एकमात्र तत्व
है जो पा लिया
जाए तो खोया
नहीं जा सकता।
इसलिए अब कैसी
फिकर, कैसा
फांटा, कैसी
चिंता, कैसा
डर?
नहीं जहं
सांसत लानत
मार।
अब
वहां कोई पीड़ा
नहीं है, पीड़ा
की कोई मार
नहीं है।
हैफ न खता न
तरस जवाल।।
न कोई
अफसोस है, न
कोई भूल—चूक
होती है अब।
हैफ न खता न
तरस जवाल।।
न
तो किसी चीज
के लिए तरसता
है मन, न कोई नई—नई
झंझटें खड़ी
होती हैं। गए
वे दिन—
झंझटों के, तरसने के, रोने के, भीख
मांगने के।
उससे
मिल कर तुम
सम्राट हो गए
अस्तित्व के!
मिटे क्या, सब
पा लिया!
शून्य क्या
हुए, पूर्ण
होने के
अधिकारी हो
गए!
आव न जान
रहम औजूद।
वहां
न तो आना है न
जाना। वहां न
जन्म है न
मृत्यु।
आव न जान
रहम औजूद। जहां
गनी आप बसै
माबूद।।
वहां
वह परमात्मा
खुद बसा हुआ
है। अब वहां न
कोई आना है न
जाना है।
अस्तित्व
वहां अपनी
परिपूर्णता
में प्रकट हो
रहा है।
अस्तित्व का
अनंत फूल वहां
खिला है। बस
वहां आनंद की
सतत फु हार
पड़ती रहती है—
निशिबासर, अहर्निश!
जोई सैलि
करै सोई भावै।
और
अब परमात्मा
जो करवाता है
वही भाता है।
और तुम जो
करते हो, वह सब
परमात्मा ही
करवाता है। अब
तुम में और
उसमें कुछ भेद
नहीं रहा। वह
करवाता है, तुम करते हो;
तुम करते हो,
वह करवाता
है।
जोई सैलि
करै सोई भावै।
और
जो भी होता है, वही
मन को भाता है।
कभी ऐसा होता
ही नहीं कि
ऐसा न होता, कि वैसा
होता तो अच्छा
होता। जो भी
होता है मन को
भाता है।
महरम महल
में को
अटकावै।।
अब तुम
उस महल के
मालिक हो।
तुम्हें कोई
अटकाने वाला
नहीं।
पहरेदार
रोकते नहीं कि
कहां जा रहे
हो।
कहि रैदास
खलास चमारा।
रैदास
कहते हैं और
देखो, मैं तो
खालिस चमार था,
मुझे यह हो
गया, तो
तुम्हें तो हो
ही सकता
है।
मुझ गरीब को
यह हो गया—
जिसका कुल
धंधा चमड़े के
जूते बनाना था, मरे
जानवरों को
गांव से ढो
लाना था, मरे
जानवरों की
खाल उतारना
था!
कहि रैदास
खलास चमारा।
जा उस सहर सो
मीत हमारा।।
मैं
तो खालिस
चमार! मुझसे
और ओछा कौन, मुझसे
और छोटा कौन!
आखिरी धंधा
मैं कर रहा था।
मेरे हाथ भी
परमात्मा का
घर लग गया, तो
तुम तो भरोसा
रखो कि
तुम्हें मिल
ही जाएगा।
राम मैं
पूजा कहां
चढ़ाऊं।
लेकिन
जो भी उस शहर
में प्रवेश कर
जाता है उसे
प्यारा मिल
जाता है। उस
शहर में
प्रवेश के
वक्त यह नहीं
पूछा जाता कि
तुम ब्राह्मण
हो कि शुद्र
हो। सिर्फ एक
ही बात पूछी
जाती है उस
प्रवेश के समय
कि तुम हो या
नहीं? तुमने
कहा हूं कि
गिर गए। तुमने
अगर इतना भी
कहा कि नहीं
हूं तो भी गिर
गए। क्योंकि
इतना कहने के लिए
भी कि नहीं
हूं होना
जरूरी है। तुम
अगर चुप रह गए,
तुम अगर मौन
रह गए; कहने
वाला ही कोई
नहीं है; प्रश्न
उठाया गया, लेकिन उत्तर
देने वाला कोई
नहीं—तुम्हारे
लिए द्वार खुल
जाएंगे।
फल अरू फूल
अनूप न पाऊं।।
रैदास
कहते हैं अब
मैं क्या करूं? अब
मैं पूजा कहां
चढ़ाऊं? कौन
है पूज्य और
कौन है पूजक? फासले न रहे,
दूरियां न
रहीं, भेद
न रहे, द्वैत
न रहा, दुई
न रही।
राम मैं
पूजा कहां
चढ़ाऊं।
कि
अब राम तुम ही
बता दो कि यह
पूजा कहां
चढ़ानी है!
फल अरू फूल
अनूप न पाऊं।।
और अगर
पूजा करना भी
चाहूं तो कहां
से वैसे फूल
लाऊं जो तुम्हारे
योग्य हों? ऐसे
अद्वितीय फूल
कहां से लाऊं?
फल अरू फूल
अनूप न पाऊं।।
जिसने
शून्य होकर
पूर्ण के जगत
में प्रवेश कर
लिया, उसकी ये
अड़चनें हैं।
ये बहुत आगे
की बातें हैं,
लेकिन समझ
रखना अच्छा है,
कभी न कभी
काम पड़ेगी, गांठ बांध
लेना।
वही
है बेखुदे—नाकाम
तुम समझ लेना
शराबखाने
से जो होशियार
आएगा
शराबखाने
से जो होशियार
आ जाए, वही
नासमझ है। वह
बेकाम आदमी है,
काम का ही
नहीं है। वही
है बेखुदे—नाकाम
तुम समझ लेना
शराबखाने
से जो होशियार
आएगा
वहां
से तो पीकर ही
आना चाहिए, डूब
कर ही आना
चहिए, तरबतर
होकर आना
चाहिए!
हम
उसे देखा किए
जब तक हमें
गफलत रही
पड़
गया आंखों पे
पर्दा होश आ
जाने के बाद
उसे
देखना है तो
एक गफलत सीखनी
होगी, एक
मस्ती सीखनी
होगी।
हम
उसे देखा किए
जब तक हमें
गफलत रही
पड़
गया आंखों पे
पर्दा होश आ
जाने के बाद
होश
आते ही अहंकार
आ जाता है।
जैसे ही मैं
आया,
वह विदा हो
गया। जब तक
मैं नही है तब
तक वही है, केवल
वही है।
रैदास
कहते हैं मुझे
बड़ी मुश्किल
में डाल दिया
है। तुम क्या
मिले, अब पूजा
कहां चढ़ाऊं? जीवन भर
पूजा चढ़ाई थी!
मन मानता नहीं
बिना चढ़ाए।
पहले तो कहीं
से भी फूल तोड़
कर चढ़ा देता
था। पता ही
नहीं था कि
तुम्हारे
योग्य कोई फूल
नहीं है। पता
ही नहीं था कि
फूल तो
वृक्षों पर भी
तुम्हारे लिए
ही चढ़े हुए
हैं, इनको
तोड़ कर और
क्यों
तुम्हारे
चरणों में रखना!
तुम्हारे ही
फूल और
तुम्हीं को
चढ़ाता था। अब
कैसे कहां से
फूल लाऊं?
थनहर दूध
जो बछरू
जुठारी।
पहले
चढ़ा देता था
दूध,
खीर बना कर
चढ़ा देता था।
अब बड़ी
मुश्किल हो गई
कि बछड़े का
जूठा दूध तुम्हें
चढ़ाऊं?
वे
यह कह रहे हैं
कि जूठी बातें
अब क्या! पहले
वेद के मंत्र
दोहरा देता था, वे
सब जूठे हैं; गीता दोहरा
देता था, वह
भी जूठी। और
अपने भीतर तो
कुछ उठता नहीं—
सन्नाटा ही
सन्नाटा है।
मंत्र सीखे थे—
गायत्री और
नमोकार; अब
वे तुम्हें
कैसे चढ़ाऊं? वह तो सब
सिखावन थी; औरों ने दे
दिए थे, जूठे
थे, बासे
थे। यह बासा
भोजन तुम्हें
कैसे चढ़ाऊं? ताजा चाहिए!
और ताजा कहां
से लाऊं? तुम
ही एक ताजे हो,
और तो सब
बासा है।
पुहुप
भँवर.....
फूल
को भवरे जूठा
कर गए हैं।
...जल मीन
बिगारी।।
और
मछलियां जल को
खराब कर रही
हैं,
मल—मूत्र
त्याग रही हैं,
जल में ही।
गंगाजल ही हो
तो भी क्या है?
और मछलियां
तो उसको बिगाड़
ही रही हैं।
अब गंगाजल भी
कैसे तुमको
चढ़ाऊं? फूल
कैसे चढ़ाऊं? भवरे उनको
पहले ही बिगाड़
गए हैं। कोई
चीज ऐसी मिलती
नहीं जो जूठी
न हो।
मलयागिरी
बेधियो
भुजंगा।
और
मलयागिरि को
तो सांपों ने
घेर रखा है।
वहां से जो
हवा भी आती है, मलय—पवन,
वह भी
विषाक्त है।
विष
अम्रित दोऊ
एकै संगा।।
और
जहां—जहां
अमृत देखता
हूं वहां—वहां
विष जुड़ा हुआ
है। दोनों साथ—साथ
हैं। चंदन
कैसे घिसूं
तुम्हारे लिए, उस
पर सांप चढ़े
रहे!
मन ही पूजा
मन ही धूप।
इसलिए
अब तो एक ही
बात समझ में
आती है मन ही
पूजा मन ही
धूप! अब न तो
फूल चढ़ाऊंगा, न
जल, न दूध।
अब तो मन ही
पूजा है, मन
ही धूप है! अब
तो सब भीतर है,
अब बाहर
नहीं।
मन ही पूजा
मन ही धूप। मन
ही सेऊं सहज
सरूप।।
अब
तो भीतर ही
भीतर
तुम्हारी
सेवा कर लूंगा, क्योंकि
तुम मेरे
स्वरूप हो, तुम मुझसे
अन्य कहां!
पूजा अरचा
न जानूं तेरी।
भूल
गई सब
प्रार्थना, भूल
गईं सब अर्चना
की विधियां।
पूजा अरचा
न जानूं तेरी।
कहि रैदास कवन
गति मेरी।।
यह
भी तूने मुझे खूब
उलझाया— रैदास
कहते हैं— यह
कौन मेरी गति
कर दी! पुराना
भक्त हूं पूजा
करता था, पाठ
करता था, मंदिर
जाता था, फूल
चढ़ाता था, आरती
उतारता था, यह मेरी कौन
गति कर दी
तूने! यह बड़े
प्यार का उलाहना
है। यह बड़ी
प्रीतिपूर्ण
बात है।
कहि रैदास
कवन गति
मेरी।।
यह मेरी
क्या दशा कर
दी—एक अर्थ।
और दूसरा कि
मेरी कौन गति
होगी, क्योंकि
सब पूजा
इत्यादि बंद
हो चुकी।
मुझसे
आकर लोग पूछते
है कभी—कभी. आप
कौन सा ध्यान
करते हैं? तो
मैं दिल ही
दिल में सोचता
हूं कौन गति
होगी मेरी? ध्यान तो
करता ही नहीं,
वह तो कब का
गया! किसका
करूं ध्यान? किस विधि से
करूं?
कहि रैदास
कवन गति
मेरी।।
तो
मैं रैदास की
बात समझता हूं।
लोग पूछते
होंगे कि
रैदास जी, आपकी
पूजा, आपकी
अर्चना..
.दिखाई नहीं
पड़ता, आप
मंदिर नहीं
जाते!
ऐसा
है सूफी फकीर
बायजीद के
जीवन में
उल्लेख कि
जीवन भर
मस्जिद जाता
रहा—पांचों
बार नमाज पढ़ने!
बीमार हो तो
भी जाए। बुखार
चढ़ा हो तो भी
जाए। ऐसा किसी
ने कभी देखा
ही नहीं कि
उसने पांच नमाज
में से एक भी
छोड़ी हो। वह
अपने गांव से
बाहर नहीं गया, क्योंकि
गांव से बाहर
जाए, पता
नहीं मस्जिद
हो या न हो! और
एक दिन सुबह—सुबह
जब गांव के
लोग मस्जिद
पहुंचे, बायजीद
नहीं आया। एक
ही सीधा सा
सवाल उठा कि
लगता है रात
मर गया। बूढ़ा
भी था। जल्दी
से नमाज कर—करा
कर गांव का
गांव भागा
बायजीद की तरफ।
वह अपने झाडू
के नीचे बैठा—
वृक्ष के नीचे—
खंजड़ी बजा रहा
था। उससे
पूछा. बायजीद,
अब इस उमर
में बिगड़ रहे
हो! जिंदगी भर
पूजा—पाठ किया,
अब यह क्या
कर रहे हो?
बायजीद
ने कहा. यही तो
मैं सोचता हूं
कि अब यह हो
क्या रहा है!
अब यह वह क्या
करवा रहा है!
अब मस्जिद
जाता हूं तो
वह हंसता है।
वह कहता है, फिर
चले? अभी
भी जाते हो!
मैं तो यहां
हूं तुम्हारे
भीतर, तुम
कहां चले? अब
नमाज पढ़ता हूं
तो वह भीतर
खिलखिला कर
हंसता है। जब
तक उससे पहचान
न थी, मस्जिद
आता रहा। अब
उससे पहचान हो
गई है, अब
आना—जाना कहीं
नहीं। अब तो
जहां बैठे
वहीं वह है।
जो किया वही
पूजा है। अब
यह जो तुम
खंजड़ी बजाते
सुन रहे हो न, यह नमाज है!
गांव
के लोगों ने
कहा हो गया
काफिर। खंजड़ी
बजाने को नमाज
बता रहा है!
खंजड़ी बजाने
को कह रहा है
यही कुरान की
आयतें हैं! हो
गया भ्रष्ट।
सठिया गया
मालूम होता है।
बड़े
दुखी—उदास
गांव के लोग, कि
बेचारा! और
बायजीद हंस
रहा होगा कि
बेचारे ये हैं
या बेचारा मैं
हूं? इनको
कब होश आएगा? कब बाहर के
मंदिर—मस्जिदों
से इनकी
मुक्ति होगी?
तो
यह बड़ा
प्रीतिपूर्ण
वक्तव्य है
पूजा अरचा
न जानूं तेरी।
कहि रैदास कवन
गति मेरी।।
क्या
मेरी गति
होगी!
हस्ताक्षर
करने हैं समय
के गुलाबों पर
चाहे
यह मौसम का
शीशमहल टूट
जाए
कब तक हम
शब्दों की
अल्पना
रचाएंगे
परिवर्तित
धारा में सब
कुछ बह जाएंगे
ध्वनियों
के आर—पार
दूधिया उजाले
में
शंखों
के टुकड़ों से
कितने दिन
गाएंगे
संस्कृतियां
लिखनी हैं उन
सूने पत्रों
पर,
चाहे
अधुनातन की
परिभाषा बदल
जाए।
विवशता
दिखाने से, उम्र
नहीं बढ़ती है
भीतर
की सतहों पर
धूप नहीं चढ़ती
है
मोम—जड़ी
दीवारें हाथ
में अरधनी ले
भटक
रही भीड़ कहीं
कील नहीं गड़ती
है
बेनकाब
करना है सूरज
के पुत्रों को,
चाहे
इन चित्रों का
रंगबोध पिघल
जाए।
रुग्ण
हुए शब्दों का
अर्थ कौन
जानेगा
अवतारी
पीढ़ी की बात
कौन मानेगा
विष—बुझी
हवाओं में
निर्णय के
चक्रों से
दृष्टि
के भेद बदल
युद्ध कौन
ठानेगा
नामकरण
करना है नये
सुर्ख सपनों
का,
चाहे
यह भावलोक और
कहीं चला जाए।
ध्वनियों
के आर—पार
दूधिया उजाले
में
शंखो
के टुकड़ों से
कितने दिन
गाएंगे
बेनकाब
करना है सूरज
के पुत्रों को,
चाहे
इन चित्रों का
रंगबोध पिघल
जाए।
कब
तक शंख फूंकते
रहोगे? कब तक
आदमी के गढ़े
गीत गाते
रहोगे? कब
तक शास्त्रों
को दोहराते
रहोगे? सब
बासा है! और
ताजा
तुम्हारे
भीतर सतत
प्रवाहित है।
चैतन्य की
धारा
तुम्हारे
भीतर है।
तुम्हारे
भीतर गंगा बह
रही है। तुम
भगीरथ हो!
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा
मौजूद है!
रैदास
कहते हैं :
जो तुम
तोरौ राम मैं
नहीं तोरौं।
वे
कहते हैं :
मुझे पूजा
नहीं आती, अर्चना
नहीं आती।
होना हो जो
मेरी गति सो
हो, मगर एक
बात तुम्हें
कह देता हूं :
जो तुम तोरी राम
मैं नहिं
तोरी! तुम
चाहे तोड़ भी
देना नाता, क्योंकि न
आती पूजा इसको—
खालिस चमार है—
न अर्चना आती,
न ध्यान, न तप, न
तपश्चर्या।
तुम अगर चाहो
तो तोड़ भी
देना मुझसे
संबंध।
जो तुम
तोरौ राम मैं
नहीं तोरौं।
लेकिन
मैं बताए देता
हूं कि मैं
तोड्ने वाला नहीं
हूं। और मेरे
बिना तोड़े तुम
कैसे तोड़ोगे? न
तो तुमने जोड़ा
है, न तुम
तोड़ सकते हो—
वे यह कह रहे
हैं। कह रहे
हैं जोड़ा
मैंने, जब
तक मैं ही न
तोडूं, तुम
नहीं तोड़
सकोगे।
तुम सों
तोरि कवन सों
जोरौ।
और
अगर तुम मुझे
समझाओ—बुझाओ
भी तो मैं
तुमसे तोड़ कर
किससे जोडूगा
अब संबंध? अब
बचा कौन? अब
जहां देखता
हूं तुम ही
दिखाई आते हो।
कुछ और
पूछिए यह
हकीकत न पूछिए
क्यों
आपसे है मुझको
मोहब्बत न
पूछिए
वो अगर
याद करें हमको
तो भूलें
किसको
हम
अगर उनको
भुलाए तो किसे
याद करें
रैदास
ठीक कह रहे
हैं कि
तुम्हें तोड़ना
हो तो तोड़
लेना, क्योंकि
तुम्हें
झंझटें बहुत
होंगी। कोई
अकेला रैदास
ही तो नहीं है,
और भी तो
दासों के दास
हुए हैं! अनंत
श्रृंखला हुई
संतों की, तुम
किस—किस को
याद करोगे!
वो
अगर याद करें
हमको तो भूलें
किसको
हम
अगर उनको
भुलाए तो किसे
याद करें
लेकिन
रैदास कहते
हैं : तुम चाहो
भूलना तो भूला
देना, क्योंकि
तुम्हें बहुत
याद रखना पड़ता
होगा, कहां
मुझ गरीब का
नाम याद
रखोगे! मगर
मेरे लिए तो
तुम अकेले हो।
तुम अगर मुझे
याद रखोगे तो
किसको भूलोगे?
और मैं अगर
तुम्हें
भुलाऊं तो
किसको याद
करूं? तुम्हारे
अतिरिक्त
मेरे लिए कोई
भी बचा नहीं।
जो तुम
तोरौ राम मैं
नहीं तोरौं।
तुम सों तोरि
कवन सों जोरौ।
तीरथ भरत न
करो अंदेसा।
बताए
देता हूं साफ
कि न तो तीर्थ
करूंगा, न
व्रत करूंगा।
इन पंचायतों
में मुझे मत
डालना।
तुम्हरे
चरन कमल का
भरोसा।।
अब
मेरा और कोई
भरोसा ही नहीं
है। अब मैं यह
नहीं सोचता
हूं कि तीर्थ
करने से तुम
मिलोगे, कि
व्रत करने से
तुम मिलोगे, कि तप करने
से तुम मिलोगे।
मुझे तो
श्रद्धा एक है,
वह
तुम्हारे
चरणों की। या
रहें इसमें
अपने घर की
तरह
या
मेरे दिल में
आप घर न करें
भक्त
सीधी बातें कह
देता है भगवान
को,
कुछ लाग—लगाव
नहीं रखता, कुछ छिपाता
भी नहीं। या
रहें इसमें
अपने घर की
तरह
या
मेरे दिल में
आप घर न करें
मगर
अब तो बहुत
देर हो चुकी।
घर तो आप कर ही
चुके। अब तो
रहना ही होगा।
और मैं पूजा
करूंगा नहीं; और
व्रत रखूंगा
नहीं; यह
सब पंचायत
मुझसे हो भी न
सकेगी।
रैदास
यह कह रहे हैं; मैं
सीधा—सादा
आदमी हूं यह
साधु—संत
इत्यादि का
गोरखधंधा मुझसे
होने वाला
नहीं है। मैं
तो ये जूते
सीता रहूंगा
और बेचता
रहूंगा, और
तुम्हारे चरण—कमलों
का भरोसा है।
जहं जहं
जावौं तुम्हारी
पूजा।
अब
तो तुम ऐसा
समझ लेना— अगर
तुम्हारे लिए
मन में यही
खटका लगा रहे
कि यह पूजा
नहीं करता— तो
जहां—जहां मैं
जाऊं उसको तुम
समझ लेना कि
तुम्हारी
परिक्रमा कर
रहा हूं।
जहं जहं
जावौं तुम्हारी
पूजा। तुम—सा
देव और नहीं
दूजा।।
इतना
जानता हूं कि
तुम ही
एकमात्र हो, तुम
ही देवता हो, तुम ही
दिव्यता हो, तुम ही इस
अस्तित्व में
व्याप्त
प्राण हो! बस इतना
जानता हूं।
इसलिए जहां—जहां
जाता हूं—तुम्हारी
ही पूजा!
मैं अपनौ
मन हरि सों
जोर्यो।
मैंने
तो तुम लुटेरे
के साथ अपना
मन जोड़ दिया है।
हरि सों
जोरि सबन सों
तोरयो।।
और
जिस दिन तुमसे
मन जुड़ा उस
दिन सबसे टूट
गया;
क्योंकि सब
बचे ही नहीं, तुम ही बचे।
जबहीं पहम
तुग्ढशि आका।
अता क्रम बचता
कहै नैशका।।
कहते
हैं समग्रता
से कहता हूं
कि चौबीस घंटे
बस तुम्हारी
ही धुन बज रही
है। नहीं कि
तुम्हें याद
कर रहा हूं— बस
याद आ रही है!
बस
रुखे—यार से
उठता हुआ
पर्दा देखा
फिर
खबर ही न रही, क्या
कहें फिर क्या
देखा
बस
अब तुम ही
दिखाई पड़ते हो।
जब से
तुम्हारा
घूंघट उठ गया
है तब से पाया
कि तुम सारा
अस्तित्व हो।
बस
रुखे—यार से
उठता हुआ
पर्दा देखा
बस
इतना ही याद
है कि रुखे—यार
से,
कि प्रेमी
या प्रेयसी के
मुख से घूंघट
को हटते देखा।
इतनी भर याद
रह गई है। बस
यह आखिरी बात
है जो याद है।
बस
रुखे—यार से उठता
हुआ पर्दा
देखा
फिर
खबर ही न रही, क्या
कहें फिर क्या
देखा
फिर
खबर न रही, होश
न रहा— मैं ही न
रहा! फिर क्या
देखा यह नहीं
कहा जा सकता।
इतना ही कह
सकता हूं.
चौबीस घंटे
तुम ही मुझे घेरे
हुए हो; बाहर
भी तुम हो, भीतर
भी तुम हो! तुम
जैसे सागर हो
और मैं मछली।
थोथे जनि
पछोरों रे
कोई। जोई रे
पछोरौ जा में निज
कन होई।।
थोथी काया
थोथी माया।
थोथी हरि बिन
जनम गंवाया।।
थोथा
पंडित थोथी
बीना। थोथी
हरि बिन सबै
कहानी।।
कहते
हैं जो—जो
थोथा है उसे
पछोर दो, फटक
दो।
स्त्रियां
फटकती हैं न!
चावल को फटकती
हैं, तो
चावल—चावल बच
जाता है, चावल
की खोल फटक
जाती है।
थोथे जनि
पछोरों रे
कोई।
वे
कहते हैं कोई
तो समझो, कोई
एकाध तो समझो
कि जो—जो थोथा
है, उसे
पछोर कर निकाल
दो।
जोई रे
पछोरौ जा में
निज कन होई।।
व्यर्थ
को जाने दो, भीतर
के कन को बचा
लो। भीतर की
आत्मा को बचा
लो। हिंदू
जाने दो, मुसलमान
जाने दो, ईसाई
जाने दो, लेकिन
धर्म की आत्मा
को बचा लो।
गीता जाने दो,
कुरान जाने
दो, बाइबिल
जाने दो, मगर
अंतःकरण की
आवाज को बचा
लो। स्व—बोध
को बचा लो।
थोथी काया
थोथी माया।
यहां
थोथा बहुत है।
यहां शरीर भी
थोथा है— अभी
है,
अभी गया।
अभी राख हो
जाएगा। मत
पकड़ो इसे।
थोथे को पकड़ा
तो तुम थोथे
रह जाओगे। जो
पकड़ोगे वही हो
जाओगे।
थोथी काया
थोथी माया।
और
जितना तुमने
मोह का, सपनों
का जाल बिछा
रखा है, सब
थोथा है। इधर
आई मौत, उधर
सब पड़ा रह
जाएगा। कितना
हिसाब लगाया
था, कितनी
आपा— धापी की
थी, कितने
लड़े—झगड़े थे—
और सब यहीं
पड़ा रह जाएगा!
मैं
एक सज्जन को
जानता हूं।
उनकी जिंदगी
भर अदालत में
बीती। धीरे—
धीरे अदालत ही
उनका घर जैसी
हो गई। उनको
खोजना हो, अदालत
चले जाओ। उनसे
कुछ काम हो, वे अदालत
में मिलेंगे।
मुकदमे ही
मुकदमे! फिर
तो धीरे— धीरे
मुकदमा उनकी
आदत हो गई।
अगर न भी
मुकदमे हों तो
भी वे दूसरों
के मुकदमे
सुनने जाने
लगे— अदालत
में आज क्या
हो रहा है? कौन
सा मुकदमा चल
रहा है? क्या
निर्णय लिया
जा रहा है? उन्होंने
इतनी अदालत की
कि वे वकीलों
से ज्यादा
कानून जानने
लगे थे। वे
वकीलों को बता
देते थे कि यह
बात गलत है।
ठीक इस धारा
के अनुसार...।
कंठस्थ हो गईं
उन्हें
धाराएं। फिर
वे बीमार पड़े,
हृदय का
दौरा पड़ा। मैं
उन्हें देखने
गया। मैंने
उनसे कहा एक
बात तो बताओ, मर जाओगे, फिर अदालत
का क्या होगा?
उन्होंने
कहा : आप भी
अजीब सी बात
पूछते हैं! मैंने
कहा. तुम भूत—प्रेत
बन कर अदालत
आओगे या नहीं?
अदालत कैसे
छोड़ोगे? और
जिंदगी भर
अदालत में
गंवाई, साथ
क्या ले जा
रहे हो? मैंने
कहा : मैं यह
पूछने आया हूं
कि तुम साथ क्या
ले जा रहे हो?
उनकी
आंख से दो आंसू
टपक गए।
उन्होंने कहा
कि पहले क्यों
नहीं कहा? मैंने
कहा. पहले मैं
कहता था, पहले
भी कहता था, मगर तुम
सुने नहीं। और
कोई मैं अकेले
कहने वाला हूं
न मालूम कितने
कहने वाले हुए,
मगर तुमने
किसकी सुनी? तुमने सुनी
नहीं और मुझसे
कहते हो, कही
क्यों नहीं? और अब तुम
नाराजगी दिखा
रहे हो कि अब
कहने आए हो जब
कि वक्त जा
चुका।
और
मैंने कहा
तुम्हारी
हालत ऐसी थी..।
उनके बाबत यह
प्रसिद्धि थी
कि लोग उनसे
जयरामजी तक
करने में डरते
थे,
क्योंकि
अगर तुमने
किसी दिन उनसे
जयरामजी की तो
हो सकता है वे
अदालत में
किसी मामले
में तुम्हें
खड़ा करें
गवाही की तरह
कि फलाने दिन
सुबह तुमसे
जयरामजी हुई
थी कि नहीं? मतलब मैं उस
दिन गांव में
था, गांव
के बाहर नहीं
गया था, कोई
झगड़ा—फसाद...।
लोग उनसे
जयरामजी करने
में डरते थे
कि जयरामजी की,
पता नहीं
किस दिन अदालत
में गवाही में
खड़ा करवा दें
कि हां, ये
गवाह हैं
हमारे कि हम
गांव में ही
थे, गांव
के बाहर नहीं
गए थे।
तुमसे
लोग इतने डरते
थे,
मैंने उनसे
कहा, मैं
भी अगर आकर
तुमसे कहता कि
छोड़ो यह
अदालतबाजी और
छोड़ो यह
मुकदमे, इनसे
कुछ सार नहीं,
तुम अपनी
जिंदगी बरबाद
कर रहे हो, औरों
का समय खराब
कर रहे हो, हर
छोटी—मोटी बात
पर तुम मुकदमा
खड़ा कर लेते
हो— तुम मेरी
सुनते? बहुत
संभावना तो यह
है कि अदालत
में तुम मुझे
भी किसी गवाही
में खड़ा कर
देते।
थोथी काया
थोथी माया।
थोथी हरि बिन
जनम गंवाया।।
याद
रखना, अगर
जीवन में हरि
से संबंध नहीं
जुड़ा है, अगर
राम से नाता
नहीं बना है, तो जीवन
व्यर्थ गया है।
और तुम कुछ भी
पा लो, कितना
ही पद, कितनी
ही प्रतिष्ठा,
कितना ही धन—सब
पड़ा रह जाएगा,
सब बिलकुल
पड़ा रह जाएगा!
गरीब हो कि
अमीर हो, दोनों
की मौत एक—सी।
अमीर की मौत
में कुछ अमीरी
नही होती और
गरीब की मौत
में कुछ गरीबी
नहीं होती, दोनों खाली
हाथ जाते हैं।
चार दिन की इस
जिंदगी में
व्यर्थ को
छांटो!
थोथे जनि
पछोरों रे
कोई।
रैदास
बड़ी पीड़ा से
कह रहे हैं कि
कम से कम कोई
तो सुने! कोई तो
ऐसा करो कि
व्यर्थ को
छांट दो और कन—कन
बचा लो।
थोथा
पंडित थोथी
बीना।
और
यहां साधारण
सांसारिक लोग
ही थोथे हैं, ऐसा
नहीं, थोथे
पंडित हैं, थोथी वाणी
है।
कोई
मुझसे पूछ रहा
था कि आप मुनि
नथमल को मुनि थोधूमल
क्यों कहते
हैं?
मैं
क्या करूं, यह
रैदास जी से
पूछो! यह
थोधूमल मैंने
रैदास के ही
वचनों से खोजा
है। जो थोथे
में जिंदगी
गुजारे वह
थोधूमल। फिर
वह मुनि भी हो
जाए तो कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। वह वहां
भी वही
गोरखधंधा
जारी रखेगा।
थोथा
पंडित थोथी
बीना।
यहां
पंडित हैं जो थोथे
हैं। उनका
पांडित्य
क्या है? ग्रामोफोन
के रिकॉर्ड
हैं! और
ग्रामोफोन के
भी रिकॉर्ड
ऐसे जो बिलकुल
घिस गए हैं, कि सुई जगह—जगह
अटक जाती है।
मैंने
सुना है, पहली
बार बिना
पायलट के हवाई
जहांज बना
जिसमें कोई
पायलट नहीं
होगा, कोई एअर
होस्टेसेस
नहीं होंगी, सब आटोमैटिक
होगा, सब
स्वचालित
होगा। बड़े—बड़े
रईसों ने दाम
ज्यादा दे—दे
कर टिकटें
खरीदीं, क्योंकि
पहला अनुभव
स्वचालित
हवाई जहांज पर
उड़ने का! हवाई जहांज
उठा। पायलट के
कमरे से, जहां
अब कोई नहीं
था, माइक्रोफोन
पर आवाज आई कि
आप निश्चित हो
जाएं। पेट पर
बंधी हुई
बेल्टें खोल
लें, चिंता
न करें। इस भय
में न रहें कि
कोई पायलट
नहीं है। कोई
गलती नहीं हो
सकती है, कोई
गलती नहीं हो
सकती है, कोई
गलती नहीं हो
सकती है..।
वहीं अटक गई
सुई। तुम सोच
सकते हो लोगों
की हालत क्या
हो गई कि गलती
यहीं हो गई।
आकाश में अटके
हैं अब। अब
किसी से
शिकायत करने
का भी कोई
उपाय नहीं है।
वह सुई है कि
वहीं अटक गई
है।
ऐसे
तुम्हारे
पंडित हैं।
कोई अटक गया
है तुलसीदास
की चौपाई पर
तो वहीं अटका
है,
वह उसी को
दोहराए चला
जाता है।
ग्रामोफोन के
रिकॉर्ड, वे
भी घिसे—पिटे!
और तुमने देखा,
एचएमवी. के
रिकॉर्ड पर जो
तस्वीर बनी
रहती है, कि
भोंपू के
सामने कुत्ता
बैठा है! वह भी
खूब तस्वीर
खोजी
उन्होंने! हिज
मास्टर्स
वाइस! यही तुम्हारे
पंडित हैं—हिज
मास्टर्स
वाइस! एचएमवी.
के रिकॉर्ड।
मास्टर तो पता
नहीं कहां गए,
कब गए, कहां
क्या हुआ! मगर
उनकी वाइस रह
गई है। कोई
वेद दोहरा रहा
है, कोई
गीता, कोई
कुरान दोहरा
रहा है।
इन्हें पता
नहीं ये क्या
कह रहे हैं।
इन्हें साफ—साफ
बोध नहीं है
ये क्यों कह
रहे हैं।
इन्होंने सीख
लिया है।
इन्हें
कंठस्थ हो गया
है। ये शब्दशः
दोहरा देते
हैं।
इनको
ही थोथा कह
रहे हैं रैदास।
थोथे का अर्थ
है— स्वानुभव
के बिना जो
शान कि बातें
कर रहा हो वे
सब बातें
बकवास हैं।
थोथा
पंडित थोथी
बीना। थोथी
हरि बिन सबै
कहानी।।
राम
के बिना तुम
कुछ भी करो और
कुछ भी कहो, सब
थोथा ही थोथा
है।
सबकी
रचना में जीवन
का अर्थ बहुत
धुंधला है
इसीलिए
हम असली—नकली
सब के अनुयायी
हैं
जीवित
शब्दों में
कहने की आदत
छूट चुकी है
अंतर
मन के संवादों
की संज्ञा टूट
चुकी है
जैसे—तैसे
सह लेने में
समय गुजर जाता
है
मन
की सारी
भाषाओं को
दुनिया लूट
चुकी है
सबकी
छवियों में
धरती का रूप
बहुत बदला है
इसीलिए
हम पूरब—पश्चिम
सब के अनुयायी
हैं
धारा के
तट बांधू अब
तो ऐसी प्यास
नहीं है
यदा—कदा
प्रतिवेदन
देने में
विश्वास नहीं
है
इधर—उधर
की कह लेने
में समय गुजर
जाता है
मन
की मैली चादर
का कोई इतिहास
नहीं है
सबकी
प्रतिभा पर
आरोपित
प्रश्न बहुत
छिछला है
इसीलिए हम आते—जाते
सबके अनुयायी
हैं
तुम
जरा पूछो तो
कि तुमने
किसकी बातें
मान रखी हैं!
सबकी
रचना में जीवन
का अर्थ बहुत
धुंधला है
इसीलिए
हम असली—नकली
सबके अनुयायी
हैं
जो
मिल जाए, जो
समझा दे। हमें
भेद भी कहां
असली—नकली का!
भेद करने वाली
हमारे पास अभी
जागृति कहां!
इसलिए हजार—हजार
तरह के पाखंड
चलते हैं और
आसानी से लोग
फंसते हैं।
असल में लोग
फंसते हैं, इसलिए पाखंड
चलते हैं। लोग
चलवाते हैं।
जिम्मेवारी
लोगों की है।
तुमने
कभी सोचा कि
जिस पंडित के
तुम वचन सुन रहे
हो उसके जीवन
से उनका कोई
भी संबंध है? तुमने
कभी उसके जीवन
में झांका कि
जो वह कह रहा
है, कहीं
भी उसने अनुभव
किया है? यह
अनुभवसिक्त
वाणी है या
उधार? इतना
भी अगर तुम
देखते रहो तो—
थोथे जनि
पछोरों रे
कोई। जोई रे
पछोरौ जा में
निज कन होई।।
थोथी काया
थोथी माया।
थोथी हरि बिन
जनम गंवाया।।
और
तुम जो भीतर
का है वह बचा
लोगे।
अभी
हालत ऐसी हो
गई है कि सौ
में
निन्यानबे समझाने
वालों को खुद
ही कोई समझ
नहीं है।
लेकिन समझाने
में वे कुशल
हैं।
एक
जैन मुनि मेरे
पास चर्चा के
लिए आए थे।
मुझसे कहने
लगे,
आप भी गजब
करते हैं! आप
रोज बोलते
हैं! मेरे पास तो
चार
व्याख्यान
तैयार हैं— एक
दस मिनट का, एक बीस मिनट
का, एक तीस
मिनट का, एक
चालीस मिनट का।
जहां जैसा
जितना समय हुआ,
वही
व्याख्यान
फिट कर देता
हूं। और एक
गांव में मैं
चार दिन से
ज्यादा रुकता
भी नहीं।
मैंने
कहा यह अब
पक्का पता चला
कि क्यों
महावीर कह गए
कि मुनि एक
जगह चार दिन
से ज्यादा न
रुके। अभी तक
इस सूत्र का
मुझे कोई ठीक—ठीक
अर्थ नहीं हो
रहा था, आज
तुमने इसकी
जीवंत
व्याख्या कर
दी। तुम्हारे
जैसे दीन—दरिद्रों
को देख कर ही
उन्होंने कहा
होगा कि चार
दिन से ज्यादा
न रुके।
क्योंकि फिर
वही
व्याख्यान
अगर दुबारा
दोगे तो गांव
के लोग कहेंगे,
यह क्या
मामला है? फिर
दूसरे गांव हट
जाना जरूरी है।
मैंने
उनसे कहा कि
व्याख्यान
तुम्हारे अगर
अनुभव से
निःसृत होते हैं, तो
कुछ दस मिनट
और बीस मिनट
और तीस मिनट
और चालीस मिनट,
ऐसी कोई
तैयारी करने
की जरूरत है? सुनने वाले
का हृदय मौजूद
है, बोलने
वाले का अनुभव
मौजूद है; दोनों
का मिलन होगा,
कुछ घटेगा।
मैंने
उनसे कहा मैं
नहीं बोलता
हूं। मैं
अकेला
जिम्मेवार
नहीं हूं।
मेरे बोलने
में आधा ही
मेरा हाथ है, आधा
सुनने वाले का
हाथ है; हम
दोनों
साझीदार हैं।
और
इसीलिए मैंने
धीरे— धीरे
यात्राएं बंद
कर दीं; क्योंकि
रोज नये लोग—
जिनको कोई सूझ
नहीं, कोई
समझ नहीं; जिन्होंने
कभी सोचा नहीं,
विचारा
नहीं, ध्यान
नहीं किया—
उनके साथ बात
करना मुझे मुश्किल
होने लगा।
उनके साथ बात
करनी हो तो
उनके तल पर
उतर कर ही की
जा सकती है।
इसलिए मैंने
तय किया कि एक
ही जगह बैठ
जाऊंगा। धीरे—
धीरे मेरे
सुनने वाले भी
वहीं बैठ
रहेंगे। फिर
बात बनेगी।
फिर बोलने
वाले सुनने
वाले दोनों
मिट जाएंगे और
उस मिटने में
से कुछ वाणी
उठेगी, उस
मौन में से
कुछ शब्द की
कोंपलें
फूटेंगी।
तब!
ऐसे ही तो
उपनिषदों का
जन्म होता है, ऐसे
ही तो वेदों
का, कुरानों
का जन्म होता
है! ये कोई
व्याख्यान नहीं
हैं। उपनिषद
किन्हीं थोथे
पंडितों की
वाणी नहीं हैं—
न कुरान, न
बाइबिल, न
धम्मपद। यह
उन्होंने कहा
है जिन्होंने
जाना है। और
वैसा ही कहा
है जैसा जाना
है। लेकिन
चूंकि सुनने
वाले बदल जाते
हैं... बुद्ध
जिनसे बोल रहे
थे वे लोग अब
कहां! इसलिए
धम्मपद अब
तुम्हारे
बहुत काम का
नहीं है। उसकी
नई व्याख्या
करनी होगी, उसे नये
वस्त्र
पहनाने होंगे,
उसे नये
परिधान देने
होंगे, उसे
नई काया देनी
होगी। तो तुम
समझ पाओगे, नहीं तो
नहीं समझ
पाओगे।
जीसस
को गए दो हजार
साल हो गए। जो
उन्होंने
बोला, वह उनके
सुनने वालों
और उनके बीच
घटी हुई अभूतपूर्व
घटना थी। इसको
पुनरुज्जीवित
करना हो तो
फिर कैसे उसी
बात को
दोहराया जा
सकता है? नहीं।
फिर से वैसी
ही परिस्थिति
पैदा करनी
होगी कि कोई
हो जीसस जैसा
और कोई हो फिर
जीसस के सुनने
वालों जैसा, तब फिर
बाइबिल का
जन्म हो जाएगा—
पुनर्जन्म।
यद्यपि भाषा
और होगी अब, प्रतीक और
होंगे, संकेत
और होंगे, इशारे
और होंगे— मगर
जिसकी तरफ
इशारे हैं, वह तो वही है,
वह तो सदा
वही है!
थोथा
मंदिर भोग—विलासा।
थोथी आन देव
की आसा।।
सांचा
सुमिरन नाम—विसासा।
मन बच कर्म
कहै रैदासा।।
रैदास
कहते हैं थोथे
हैं मंदिर, थोथे
हैं मस्जिद, थोथे हैं
तुम्हारे भोग—विलास,
थोथी हैं
तुम्हारी
आशाएं जो तुम
मंदिरों में जाकर
बांधते हो।
जिस मंदिर में
जितनी अफवाह
उड़ा दी जाती
है कि तुम्हारी
आशाएं पूरी
होंगी उसमें
उतनी ही
चढ़ौतरी बढ़
जाती है।
दक्षिण
में तिरुपति
का मंदिर है।
उस मंदिर ने
काशी के
मंदिरों को
हरा दिया।
प्रयागराज
फीके पड़ गए।
पुरी कोई नहीं
जाता। कारण? क्योंकि
तिरुपति के
मंदिर ने ठीक
तुम्हारे मनोविज्ञान
को समझ लिया।
तिरुपति के
मंदिर का दावा
है कि वहां तुम
जो भी मांगोगे
मिलेगा। और एक
अनूठा दावा
किया है। वह
दावा यह है कि
काशी के मंदिर
में भी मिलेगा,
विश्वनाथ
के मंदिर में
भी मिलेगा, लेकिन परलोक
में; और
तिरुपति के
मंदिर में
मांगोगे तो
इसी लोक में!
अब
परलोक की
किसको पड़ी है!
परलोक में
मिला कि नहीं
मिला, क्या पता!
और फिर मिलेगा
भी परलोक में,
इतनी देर
कौन ठहर सकता
है! लोग चाहते
है— अभी, यहां,
नगद!
तिरुपति के
मंदिर ने
होशियारी की।
उनका
विज्ञापन
बढ़िया है।
उनका
विज्ञापन यह
है कि यहां, अभी मिलेगा।
इसलिए
तिरुपति के
मंदिर पर
जितनी चढ़ौतरी
चढ़ती है, दुनिया
में किसी
मंदिर में
नहीं चढ़ती।
ढाई लाख रुपया
रोज औसत।
क्यों लोग
दीवाने हैं? फिर
उन्होंने नई—नई
तरकीबें
निकाल लीं। एक
दफा सूत्र हाथ
आ गया धंधे का,
फिर
उन्होंने नई—नई
तरकीबें
निकाल लीं।
फिर तिरुपति
के मंदिर के
बाहर जो सिर
घुटवाएगा, उसका
बड़ा पुण्य—लाभ
है, उसका
मोक्ष
निश्चित है!
तो
कुछ ऐसा ही
नहीं कि इसी
जगत में
मिलेगा! इस जगत
का इंतजाम
करना है तो इस
जगत के नगद
सिक्के देने
पड़ेंगे—
स्वाभाविक।
इस जगत में जो
सिक्के चलते
हैं,
वही दोगे तो
ही इस जगत के
सिक्कों में
पाओगे। उस जगत
के लिए कुछ
करना है तो
कुछ और ढंग से
करना पड़ेगा
सिर घुटवा लो।
लेकिन तुम
जानते हो, तिरुपति
के मंदिर में
पुरुष भी सिर
घुटवा लेते
हैं, स्त्रियां
भी, वे सब
बाल बेचे जाते
हैं, उनके
दाम करोड़ों
रुपये हैं
प्रतिवर्ष।
यह बाल बेचने
का धंधा है।
ये बुद्ध बने,
सिर घुटा कर
घर आ गए; इनको
पता नहीं कि
बाल इनके बिक
गए, क्योंकि
पश्चिम में
बालों की बहुत
मांग है। विग
बनाए जाते हैं।
लोग बुढ़ापे तक
चाहते हैं कि
बाल काले ही
दिखाई पड़ते
रहें, बड़े
ही बने रहें; किसी को पता
न चले कि
बुढ़ापा आ गया।
स्त्रियां
लंबे बाल
चाहती हैं। तो
उन सब बालों
के लिए करोड़ों
रुपये के बाल
तिरुपति से
बिकते हैं।
फिर
जिनको परलोक
में लड्ड पाने
हैं,
उनके लिए
तिरुपति में
लड्ड बिकते
हैं— तीन
रुपये का एक
लड्ड! तीन आने
का लड्ड तीन
रुपये में
बिकता है और
वह भी
बामुश्किल से
मिलता है! और
वह लड्ड जाकर
चढ़ा दो
तिरुपति पर, फिर पहुंच
जाता है दुकान
पर और कहां
जाएगा! फिर
वहां दुकान से
फिर बिकता है।
एक—एक लड्ड
लाखों बार
बिकता है।
हर
मंदिर के
सामने सड़े—गले
नारियलों की
दुकान होती है।
सड़े—गले इसलिए
कि वे बड़े
प्राचीन
नारियल हैं।
लोग रोज चढ़ाते
हैं,
रोज रात
वापस दुकान पर
आ जाते हैं।
इसलिए दुनिया
भर में
नारियलों के
दाम बढ़ गए, लेकिन
मंदिरों के
सामने जो
दुकाने हैं
उनके नारियल
के दाम पांच
आने ही चल रहे
हैं। सब चीजें
आसमान को छू
रही हैं, आकाश
पर भाव बढ़े जा
रहे हैं, एकदम
पंख लग गये
हैं, लेकिन
सड़े—गले
नारियल हैं, उनमें भीतर
कुछ है ही
नहीं, वे
कब के चढ़ रहे
हैं! उनका काम
ही केवल इतना
है कि सुबह चढ़
जाना, रात
वापस दुकान पर
आ जाना, सुबह
फिर चढ़ जाना, फिर रात
वापस आ जाना...।
कब
तक इन थोथी
बातों में
उलझे रहोगे और
कब तक इन
आशाओं को करते
रहोगे!
तुम्हारी
आशाएं कोई देवता
पूरी नहीं
करेगा— न
तिरुपति का, न
पूरी का, न
काशी का। असल
में आशा ही तो
संसार है।
तुम्हारी आशा
के कारण ये
सांसारिक
देवता खड़े हो
गए हैं। आशा
छोड़ो। आशा से
मुक्त होना
मोक्ष है। आशा
से वही मोक्ष
पा सकता है
छोड़ कर, जो
अहंकार छोड़े,
क्योंकि
अहंकार की
छाया है— आशा, आकांक्षा, वासना।
रैदास
के सूत्र
प्रीतिकर हैं।
एक ही काम
करने जैसा है—
सांचा सुमिरन
नाम—विसासा!
सच्ची बात तो
एक है, बाकी सब
खोटी बातें
हैं— परमात्मा
का स्मरण। वही
सच्ची
श्रद्धा है!
मन से, वचन
से और कर्म से
तुम उसे स्मरण
करो— ऐसा
रैदास कहते
हैं, ऐसा
ही मैं भी
कहता हूं!
आज इतना
ही।
thank you guruji
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