अध्याय—14
सूत्र:
रजो
रागत्मकं
विद्धि
तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्न्िबघ्नति
कौन्तेय
कर्मसङ्गेन
देहिनम्।। 7।।
तमस्थ्यानजं
विद्धि मोहन
सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति
भारत।। 8।।
सत्यं
सुखे संजयीत
रज: कर्मणि
भारत।
ज्ञानमावृत्य
तु तम:
प्रमादे
संजयन्वत।। 9।।
हे अर्जुन,
रागरूय रजोगुण
को कामना और
आसक्ति से उत्पन्न
हुआ जान। वह
हम जीवात्मा
को कर्मों की
और उनके फल की
आसक्ति से
बांधता है।
और हे
अर्जुन, सर्व
देहाभिमानियों
के मोहने वाले
तमोगुण को अज्ञान
से उत्पन्न
हुआ जान। वह
हस जीवात्मा
को प्रमाद,
आलस्य और निद्रा
के द्वारा बांधता
है।
क्योंकि
हे अर्जुन,
सत्वगुण सुख
में लगाता है
और रजोगुण
कर्म में लगाता
है तथा तमोगुण
तो ज्ञान को आच्छादन
करके अर्थात
ढंककर प्रमाद
में भी लगाता
है।
सूत्र
के पहले थोड़े
प्रश्न।
पहला
प्रश्न : परम
जीवन और परम
आनंद की बात
जो आप बार—बार
करते हैं, उसका
तो कोई अनुभव
मुझे हुआ नहीं
है, लेकिन
इस मार्ग पर
चलने में भी
आनंद आता है।
तो क्या मंजिल
तक पहुंचने के
पहले यात्रा
में भी आनंद
हो सकता है?
हमारी
आदत है सभी
चीजों को
बांटकर देखने
की,
इसलिए हम
मार्ग और
मंजिल को भी
बांट लेते हैं।
बिना बांटे हमारा
मन मानता नहीं।
मन सभी चीजों
को तोड़ता है।
और वस्तुत:
कुछ भी टूटा
हुआ नहीं है।
मार्ग का ही
अंतिम हिस्सा
मंजिल है। और
मंजिल का पहला
चरण मार्ग है।
ऐसी कोई जगह
नहीं, जहां
मार्ग समाप्त
होता हो और
मंजिल शुरू
होती हो।
मार्ग
और मंजिल दो
नहीं हैं, वे
एक ही हैं। अगर
वे दो होते, तो मार्ग से
चलकर आप मंजिल
तक पहुंचते
कैसे? अगर
उनके बीच
रत्तीभर भी
फासला होता, तो आप मार्ग
पर ही रह जाते,
मंजिल पर
कैसे पहुंचते?
मार्ग
मंजिल से जुड़ा
है। इसलिए
मार्ग मंजिल
में ले जाता
है। साधन और
साध्य भिन्न
नहीं हैं। और
जो उन्हें
भिन्न मानता
है,
बड़ी भूल
करता है।
क्योंकि जैसे
ही हमें यह
खयाल आ गया कि
साधन और साध्य
भिन्न हैं, मार्ग और
मंजिल अलग हैं,
वैसे ही हम
मंजिल की तो
चिंता करते
हैं और मार्ग
से बचने की
कोशिश शुरू हो
जाती है। फिर
हमारा मन कहता
है, अगर
बिना मार्ग के
भी मंजिल
मिलती हो, तो
हम मार्ग को
छोड़ दें और
मंजिल पर
पहुंच जाएं।
शार्टकट की
खोज बेईमानी
का हिस्सा है।
फिर
हम सोचते हैं, मार्ग
जितना कम हो
जाए; क्योंकि
मार्ग कोई
मंजिल तो नहीं
है। और किसी
चालाकी से, किसी तरकीब
से अगर हम
बिना मार्ग पर
चले मंजिल तक
पहुंच जाएं, तो हम जरूर
पहुंचना
चाहेंगे।
हमारी दृष्टि
फिर भविष्य
में हो जाती
है। और
वर्तमान से जो
बचता है, उसका
भविष्य
बिलकुल
अंधकारपूर्ण
है। क्योंकि
सभी भविष्य
वर्तमान से ही
पैदा होगा; कल आज से
पैदा होगा।
मार्ग
तो आज है; मंजिल
कल है। और जो
आज से बचेगा, वह कल से
वंचित रह
जाएगा।
क्योंकि कल जो
भी होने वाला
है, वह आज
से ही जन्मेगा;
आज के ही
गर्भ में छिपा
है।
ऐसा
समझ लें कि
मार्ग है गर्भ
और मंजिल है
जन्म। बांटें
मत। और तब यह
बात समझ में आ
जाएगी।
परम
आनंद तो मंजिल
पर मिलेगा।
मंजिल का मतलब
है,
मार्ग जहां
पूरा हो जाएगा,
जहां मार्ग
पूर्णता पर पहुंच
जाएगा। जहां
जाने के लिए
और कोई आगे
जगह न रहेगी, परम आनंद तो
वहां मिलेगा।
लेकिन आनंद की
पहली घटना तो
पहले कदम पर
ही घट जाएगी।
मार्ग पर चलने
का खयाल भी
आनंद से भर
देगा। चलना तो
दूर, सिर्फ
यह संकल्प कि
मैं मार्ग पर
चलूंगा, खोजूंगा,
इस संकल्प
से भी मन एक नई
झलक आनंद की
ले लेगा।
एक
कदम भी जो
रखेगा, एक
कदम के योग्य
मंजिल तो मिल
ही गई। समझें
कि अगर मंजिल
हजार कदमों पर
मिलेगी, तो
एक बटा हजार
मंजिल तो पहले
कदम पर ही मिल
गई। उतने आनंद
के हम हकदार
हो गए।
और
ध्यान रहे, यह
आनंद ऐसा नहीं
है कुछ जो अंत
में मिलेगा फल
की तरह, यह
प्रतिपल
बढ़ेगा; यह
जीवन है।
प्रतिपल
मिलेगा और
प्रतिपल बढ़ता
रहेगा।
मार्ग
पर जो चलता है, वह
मंजिल पर
पहुंचने ही
लगा। मार्ग पर
जो खड़ा हो गया,
उसने दूर
सही, लेकिन
मंजिल पर हाथ
रख लिया।
झलकें आनी
शुरू हो
जाएंगी।
निर्णय लेते
ही चलने का, पहला कदम
उठाते ही मन
हल्का होने
लगेगा, शात
होने लगेगा, प्रसन्न
होने लगेगा।
जैसे
बगीचा कितनी
ही दूर हो, हम
उसकी तरफ चलने
लगें, ठंडी
हवाएं आनी
शुरू हो
जाएंगी। जैसे—जैसे
हम करीब
पहुंचेंगे, फूलों की
सुगंध भी
हवाओं में आने
लगेगी।
शीतलता बढ़ेगी।
हवा ताजी होने
लगेगी। मन
प्रफुल्लित
और नाचने को
होने लगेगा।
एक वसंत हमारे
भीतर भी खिलने
लगेगा। ठीक
ऐसा ही होगा।
और
ध्यान रखें, मंजिल
की फिक्र छोड़
दें। मार्ग की
ही फिक्र करें।
जिसने मार्ग
को सम्हाल
लिया, उसे
मंजिल तो मिल
ही जाती है।
मंजिल को
बिलकुल भी भूल
जाएं, तो
कुछ हर्ज नहीं।
मार्ग को पूरा
सम्हाल लें।
क्योंकि
जितना मन आपका
मंजिल में
लगता है, उतना
ही मन मार्ग
में लगने से
छूट जाता है।
सारा
मन मार्ग पर
लगा दें। जिस
क्षण आपका
सारा मन मार्ग
पर लग जाएगा, उसी
क्षण मार्ग
मंजिल हो जाता
है। यह दूरी
कोई स्थान की
दूरी नहीं है।
यह दूरी
इंटेंसिटी की,
तीव्रता की
दूरी है। अगर
पूरा मन मेरा
इसी क्षण
मार्ग पर लग
जाए, तो
इसी क्षण
मंजिल घट
जाएगी। जितना
कम मन लगता है,
उतनी मंजिल
दूर है। जितना
मेरा मन अधूरा—
अधूरा है, उतना
ही ज्यादा
फासला है।
और
फासला कोई
चलकर पूरा
होने वाला
नहीं है।
संकल्प से ही
पूरा हो जाता
है। चलना तो
सिर्फ संकल्प
को बढ़ाने का
बहाना है। जो
जानते हैं, वे
बिना इंचभर
चले मंजिल पर
पहुंच जाते
हैं। जो नहीं
जानते, वे
बहुत चलते हैं,
बहुत भटकते
हैं, और
कहीं भी नहीं
पहुंचते हैं।
ध्यान
रखें, मंजिल
को तो छोड़ दें।
मंजिल की तो बात
मत उठाएं।
क्योंकि
मंजिल की बात
उठाने का मतलब
है, फल की
इच्छा हो गई।
मंजिल का
विचार करने का
मतलब है, हम
छलांग लगाने
लगे
आगे;
आज को भूलने
लगे, कल को
याद करने लगे।
और श्रम करना
है आज।
आज
में जीएं, अभी
और यहीं। और
जो भी घट सकता
है, वह सब
घट जाएगा। इसी
क्षण में घट
सकता है। आप
पूरी तीव्रता
से, अपने
पूरे प्राणों
से, सारी
श्वासों को
समर्पित कर के
साधना में लग
जाएं, चलने
में लग जाएं।
और
उचित ही है कि
आनंद अभी मिल
रहा हो, उसे
पूरा जीएं।
उसका पूरा रस
निचोड़ लें।
क्योंकि
ध्यान रहे, जितना आप
आनंद को लेने
में समर्थ हो
जाएंगे, उतने
ही ज्यादा
आनंद के द्वार
आपके लिए
खुलने लगेंगे।
प्रकृति
की गहरी
व्यवस्था है।
आपको वही मिल
सकता है, जिसे
आप झेल सकते
हैं। आप यह मत
सोचना कि परम
आनंद आपको मिल
जाए, तो आप
झेल लेंगे।
अगर आप आनंद
के आदी नहीं
हो गए हैं, तो
परम आनंद घातक
हो जाएगा, मृत्यु
हो जाएगी।
उतने बड़े
विस्फोट को आप
न झेल पाएंगे।
जैसे
कोई अंधेरे से
अचानक सूर्य
के सामने आ जाए, तो
आंखें बंद हो
जाएंगी, चौंधिया
जाएंगी।
अंधकार ही हो
जाएगा। आंखें
सूर्य को देख
ही न पाएंगी।
सूर्य को
देखने के लिए आंखों
को धीरे— धीरे
तैयार करना
होगा। मिट्टी
का दीया भी
सूरज का ही
हिस्सा है।
उसे देखने से
तैयारी करें।
नहीं तो आंखें
अंधी हो जाती
हैं। तो
प्रकृति की
व्यवस्था है।
उसी को मिलता
है, जो झेल
सकता है।
साधना सिर्फ
पाने की ही
खोज नहीं है, झेलने की
तैयारी भी है।
अगर आप पर
एकदम आकाश टूट
पड़े, तो आप
मिट जाएंगे, विक्षिप्त
हो जाएंगे। आप
फिर लौटकर
भूलकर भी उस
रास्ते पर
नहीं जाएंगे।
आप आनंद चाहते
हैं, इससे
आप यह मत
सोचना कि आप
आनंद को झेलने
के लिए तैयार
भी हैं।
छोटा—सा
दुख कठिनाई
देता है, छोटा—सा
सुख कठिनाई
देता है। छोटा—सा
सुख आ जाए, तो
रात नींद नहीं
आती। सुख उत्तेजित
कर देता है, दुख
उत्तेजित कर
देता है। आनंद
तो बहुत
विचलित कर देगा।
रत्ती—रत्ती
उसका अभ्यास
करना होगा।
बूंद—बूंद
पीकर तैयार
होना पडेगा।
और बूंद—बूंद
पीकर कोई
तैयार हो—चाहे
दुख भी बूंद—बूंद
पीकर कोई
तैयार हो, तो
नरक से भी
गुजर सकता है
बिना विचलित
हुए।
आपने
सुना होगा, पुराने
दिनों में
भारत के
सम्राट
विषकन्याएं
तैयार करते थे।
सुंदर
युवतियां, बचपन
से ही रोज
थोडा— थोड़ा
जहर पिलाकर
तैयार की जाती
थीं। जहर की
मात्रा इतनी
कम होती थी
रोज कि युवती
मर नहीं पाती
थी। और धीरे—धीरे
जहर उसके रोएं—रोएं,
रग—रग में
प्रवेश कर
जाता था। जवान
होते—होते, सोलह—अठारह
वर्ष की होते—होते
उसका पूरा खून
जहर हो जाता
था।
तब
ऐसी सुंदर
युवतियों को
शत्रुओं के
पास भेज दिया
जाता था। एक
चुंबन जो भी
उनका लेगा, वह
तत्क्षण मर
जाएगा। उनका
चुंबन
विषाक्त हो
जाता था। उनसे
जो संभोग
करेगा, जिंदा
नहीं बचेगा; संभोग से
जिंदा नहीं
लौटेगा। उनका
पूरा शरीर जहर
था। इस तरह की
कन्याओं को
विषकन्याएं
कहा गया।
लेकिन
बड़े आश्चर्य
की बात है कि
जिनके चुंबन से
दूसरा मर
जाएगा, वे
जिंदा हैं!
धीरे— धीरे एक—एक
बूंद जहर की
देकर उन्हें तैयार
किया गया है।
उन्हें सांप
काट ले, तो
सांप मर जाएगा।
उन्हें बेहोश
करने का कोई
उपाय नहीं है।
कोई शराब
उन्हें बेहोश
न कर सकेगी।
बूंद—बूंद
दुख की आप
झेलते रहें, तो
आप नरक से भी
बिना विचलित
हुए गुजर
जाएंगे।
तपश्चर्या का
यही अर्थ है, दुख को
झेलने की
तैयारी।
लेकिन जो दुख
के संबंध में
सच है, वही
सुख के संबंध
में भी सच है।
वह भी बूंद—बूंद
ही झेला जा
सकता है। और
आनंद तो बड़ी
घटना है। वह
महासुख है।
अगर
मंजिल आपको
मिल भी जाए, तो
पहली तो बात
आप उसे पहचान
न सकेंगे।
आपकी आंखें
बहुत छोटी हैं
और मंजिल बहुत
बड़ी होगी। उसे
आपकी आंखें
नहीं देख
पाएंगी।
मंजिल सामने
भी हो—सामने
है ही—तो भी आप
पहचान न
पाएंगे।
क्योंकि उसको
पहचानने के
लिए आंखों का
एक प्रशिक्षण
चाहिए। और
दुर्भाग्य से
अगर मंजिल
आपको मिल भी
जाए, आप
पहचान भी लें,
तो का वरदान
सिद्ध नहीं
होगी, अभिशाप
सिद्ध होगी।
क्योंकि उतना
आनंद आप झेल न
पाएंगे। वह
आनंद महाघातक
होगा।
तो
साधना बहुत—सी
तैयारियों का
नाम है। मंजिल
तक पहुंचना है।
मंजिल को देख
सकें, इसके
लिए आंखों को
प्रशिक्षित
करना है।
मंजिल को
अनुभव कर सकें,
इसलिए आनंद
की एक—एक लहर
को धीरे—धीरे
आत्मसात करना
है। मंजिल को
झेल सकें, वह
महाआनद जब
बरसे तब आप
विक्षिप्त न
हो जाएं, होश
में रहें, मूर्च्छित
न हो जाएं, गिर
न पड़े, मिट
न जाएं, उसके
लिए भी हृदय
के पात्र को
तैयार करना
जरूरी है।
मंजिल
को छोड़ ही दें।
मंजिल की बात
ही मत उठाएं।
मार्ग की
फिक्र करें।
और एक—एक इंच
मार्ग को
मंजिल ही समझकर
चलें। बहुत
आनंद मिलेगा।
बहुत आनंद
बढ़ेगा। और एक
दिन अचानक
किसी भी क्षण
वह घटना घट
सकती है। जिस
क्षण भी
टयूनिंग पूरी
हो जाएगी, जिस
क्षण भी हृदय
की वीणा बजने
को बिलकुल
तैयार होगी, उसी क्षण
मंजिल सामने
होगी।
और
तब आप हंसेंगे, क्योंकि
तब आप यह भी
पाएंगे कि यह
मंजिल सदा से
सामने थी। मैं
ही तैयार नहीं
था, मंजिल
सदा तैयार थी।
मैं द्वार पर
ही खड़ा था, शायद
पीठ किए था।
शायद मुड़ने भर
की जरूरत थी।
थोड़ा—सा ध्यान
मोडने की
जरूरत थी। और
जिसे मैं तलाश
रहा था, वह
बिलकुल पास था।
उपनिषद
कहते हैं, वह
परम सत्य दूर
से दूर और पास
से भी पास है।
दूर से दूर, आपके कारण; पास से पास, उसके कारण। आप
जैसे हैं, उस
हिसाब से बहुत
दूर। वह जैसा
है, उस
हिसाब से
बिलकुल पास।
परमात्मा
की तरफ हमें
चलना पड़ता है, इसलिए
नहीं कि
परमात्मा दूर
है। परमात्मा
की तरफ हमें
चलना पड़ता है,
क्योंकि हम
अयोग्य हैं।
हमारी
अयोग्यता ही
उसकी दूरी बन
गई है।
उचित
है,
मार्ग पर
आनंद मिलता हो;
आह्लादित
हों, अनुगृहीत
अनुभव करें।
गहरे अहोभाव
से भरें और उस
आनंद को भोगें।
जैसे—जैसे
भोगेंगे, वैसे—वैसे
आपकी भोगने की
क्षमता बढ़ती
जाएगी।
परमात्मा परम
भोग है। उसके
लिए तैयार
होना होगा।
उसके लिए
विराट आकाश
जैसा हृदय
चाहिए। विराट
को हम बुलाते
हैं क्षुद्र
में, यह
असंभव है।
जिसे हम
बुलाते हैं, उसके योग्य
हमारे पास
स्थान भी
चाहिए।
परमात्मा
को बहुत लोग
पुकारते हैं, बिना
इसकी फिक्र
किए कि कहां
है वह घर, जहां
उसे ठहराएंगे?
कहां है वह
आसन, जहां उसे
बिठाएंगे? आतिथ्य
का सामान कहा
है? किन
फूलों से
करेंगे उसकी
पूजा? वह
मस्तक कहां, जो उसके
चरणों में
रखेंगे? और
अचानक वह
सामने आ जाए, तो बड़ी
बिगचन हो
जाएगी, बड़ी
अड़चन हो जाएगी।
हम पागल होकर
दौड़ेंगे, कुछ
भी न मिलेगा
कि क्या करें,
क्या न करें।
शायद हम ऐसी अड़चन
में न पड़े, इसलिए
परमात्मा तब
तक प्रतीक्षा
करता है।
दूसरा
प्रश्न :
कृष्ण अर्जुन
को पिछले तेरह
अध्यायों में
समझा चुके हैं।
फिर भी अर्जुन
के मन में
प्रश्न, शंकाएं
और संशय उठते
ही चले जाते
हैं। आप भी
हमें अनेक
वर्षों से
लगातार समझा
रहे हैं, लेकिन
फिर भी हमारे
मन में प्रश्न,
शंकाएं और
अविश्वास
उठते ही चले
जाते हैं।
इसके क्या
कारण हैं और
इसका क्या
समाधान है?
कृष्ण
के समझाने से
अर्जुन नहीं
समझेगा।
अर्जुन के
समझने से ही
समझेगा। अगर
कृष्ण के हाथ
में यह बात
होती कि
अर्जुन उनके
समझाने से
समझता होता, तो
पृथ्वी पर कोई
अज्ञानी अब तक
न बचता। बहुत
कृष्ण हो चुके;
अर्जुन
बाकी हैं।
अर्जुन
के समझने से
घटना घटेगी।
कृष्ण जो
मेहनत कर रहे
हैं,
वह समझाने
के लिए नहीं
कर रहे हैं।
अगर ठीक से
समझें, तो
वे ऐसी
परिस्थिति
पैदा कर रहे
हैं, जहां
अर्जुन समझने
के लिए तैयार
हो जाए जहां
अर्जुन समझ
सके। वे
अर्जुन को
धक्का दे रहे
हैं। किसी तरफ
इशारा कर रहे
हैं। आंख तो
अर्जुन को ही
उठानी पड़ेगी।
और अगर अर्जुन
आंख उठाने को
राजी न हो, तो
कृष्ण के
जीतने का कोई
भी उपाय नहीं
है।
लेकिन
कृष्ण आयोजन
कर रहे हैं
पूरा। इन तेरह
अध्यायों में
अलग—अलग मोर्चों
से कृष्ण
अर्जुन पर
हमला कर रहे
हैं। कई तरफ
से चोट कर रहे
हैं। शायद
किसी चोट में
अर्जुन सजग हो
जाए। लेकिन यह
बात शायद है।
इसमें अर्जुन
का सहयोग
जरूरी है। और
अगर अर्जुन
सहयोग न दे, तो
कृष्ण की कोई
सामर्थ्य
नहीं है।
इसे
थोड़ा ठीक से
समझ लें।
क्योंकि हम में
से बहुतों को
यह खयाल रहता
है,
गुरु—कृपा
से हो जाएगा।
अगर गुरु—कृपा
से होता, तो
इतनी बड़ी गीता
बिलकुल फिजूल
है। कृष्ण
नासमझ नहीं
हैं। अगर यह
घटना कृपा से
घटनी होती, तो कृष्ण
जैसा कृपा
करने वाला और
अर्जुन जैसा कृपा
को पाने वाले
पात्र को
दुबारा खोजने
की कहां
सुविधा है!
दोनों मौजूद
थे।
कृष्ण
कृपा कर सकते
थे और अर्जुन
कृपा का आकांक्षी
था और पात्र
था। और क्या
पात्रता
चाहिए? इतनी
आत्मीयता थी,
इतनी
निकटता थी कि
जो बात कृपा
से हो सकती, उसके लिए
कृष्ण क्यों
इतनी लंबी
गीता में जाते!
इतने लंबे
आयोजन की कोई
भी जरूरत नहीं
थी।
नहीं; वह
घटना कृपा से
नहीं होने
वाली। कृपा भी
तभी घट सकती
है, जब
अर्जुन खुला
हो, राजी
हो, तैयार
हो, सहयोग
करे। यह कृपा
ही है कि
कृष्ण उसे
समझा रहे हैं,
यह जानते
हुए भी कि
समझाने से ही
कोई समझ नहीं जाता।
यह कृपा का
हिस्सा है।
लेकिन इस
चेष्टा से
संभावना है कि
अर्जुन बच न
पाए।
अर्जुन
सारी कोशिश
करेगा बचने की।
अर्जुन सवाल
उठाएगा, समस्याएं
खड़ी करेगा।
संशय—संदेह, ये सब
चेष्टाएं हैं
आत्मरक्षा की।
अर्जुन कोशिश
कर रहा है
अपने को बचाने
की। अर्जुन
कोशिश कर रहा
है कि तुम
दिखा रहे हो, लेकिन हम न
देखेंगे।
इसको थोड़ा
समझें।
अर्जुन
की ये सारी
शंकाएं, ये
सारे संदेह इस
बात की कोशिश
है कि तुम
दिखा रहे हो, वह ठीक, लेकिन
हम न देखेंगे।
हम और सवाल
उठाते हैं। हम
और धुंआ पैदा
करते हैं। तुम
जिस तरफ इशारा
करते हो, हम
उसको धुंधला
कर देते हैं।
यह आत्मरक्षा
है गहरी। जैसे
हम अपने शरीर
को बचाना
चाहते हैं, वैसे ही
अपने मन को भी
बचाना चाहते
हैं।
जैसे
कोई आपके शरीर
पर हमला करे, तो
आप आत्मरक्षा
के लिए कुछ
आयोजन करेंगे।
गुरु का हमला
और भी गहरा है।
वह आपके मन को
मिटाने के लिए
तत्पर हो गया
है। शरीर को
जो मिटाते हैं,
उनका
मिटाना बहुत
गहरा नहीं है।
क्योंकि
वासना आपकी
मौजूद है। आप
फिर शरीर
ग्रहण कर
लेंगे। वे
आपसे वस्त्र
छीन रहे हैं।
लेकिन जो मन
को मिटाने की
कोशिश कर रहा
है, वह
आपसे सब कुछ
छीन रहा है।
फिर आप चाहें
तो भी शरीर
ग्रहण न कर
सकेंगे। अगर
मन समाप्त हो
गया, तो
जन्म की सारी
व्यवस्था खो
गई। मृत्यु
परम हो गई।
इसलिए
ध्यान
महासमाधि है।
महासमाधि
शब्द का उपयोग
हम मृत्यु के
लिए भी करते
हैं। वह ठीक
है। क्योंकि
समाधि एक
भीतरी मृत्यु
है। आप
वस्तुत: मर
जाएंगे।
तो
जैसे कोई शरीर
पर हमला करे
तलवार से, और
आप अपनी ढाल
से रक्षा करें,
ऐसा जब भी
कोई गुरु आपके
मन को तोड्ने
के लिए हमला
करेगा, तब
शंकाओं से, संदेहों से,
सवालों से
आप अपनी रक्षा
करेंगे। वे
ढाल हैं। वह
आप बचा रहे
हैं। आप कह
रहे हैं, करो
कोशिश। शायद
यह सचेतन नहीं
है, यह
अचेतन है।
यह
वैसा ही अचेतन
है,
जैसा आपकी आंख
के सामने कोई
जोर से हाथ
करे, तो
आपको सोचना भी
नहीं पड़ता आंख
झपकने के लिए,
आंख झपक
जाती है। आंख
झपकती है
अचेतन से।
आपको सोचना
नहीं पड़ता।
मैं आपकी आंख
के सामने हाथ
करूं, तो
ऐसा नहीं कि
आप पहले सोचते
हैं कि हाथ आ
रहा है, अब
मैं अपने को
बचाऊं, तो आंख
बंद कर लूं।
इतना सोचने
में तो आंख
फूट जाएगी। इतना
समय नहीं है।
और विचार में
समय लगता है।
इसलिए
मनुष्य के मन
की दोहरी
व्यवस्था है।
जिन चीजों में
समय की सुविधा
है,
उनमें हम
विचार करते
हैं। और
जिनमें समय की
सुविधा नहीं
है, उनमें
हम अचेतन से
प्रतिकार
करते हैं। आंख
पर कोई हमला
करे, तो तत्क्षण
आंख बंद हो
जाती है। इसकी
अनकांशस, अचेतन
व्यवस्था है।
नींद में भी
कीड़ा आपके पैर
पर चले, तो
पैर आप झटक
देते हैं।
उसके लिए होश
की जरूरत नहीं
है।
ठीक
ऐसे ही मन भी
अपनी आंतरिक
रक्षा करता है।
और गुरु के
पास मन जितना
परेशान हो
जाता है, उतना
कहीं और नहीं
होता।
क्योंकि वहा
मौत निकट है।
अगर ज्यादा
गुरु के आस—पास
रहे, तो
मरना ही पड़ेगा।
उससे बचने के
लिए आप अपने
चारों तरफ सुरक्षा
की दीवार खड़ी
करते हैं। वह
कवच है।
अर्जुन
यह कह रहा है
कि समझाओ।
लेकिन मुझे
समझ में ही
नहीं आ रहा है।
जब समझ में ही
नहीं आ रहा है, तो
बदलने की कोई
जरूरत नहीं है।
मैं जैसा हूं
वैसा ही
रहूंगा। जब तक
समझ में न आ
जाए, जब तक
मेरी सब
शंकाएं न मिट
जाएं, तब
तक मैं जैसा
हूं? वैसा
ही रहूंगा। और
इसमें दोष
मेरा नहीं है।
तुम नहीं समझा
पा रहे हो, तो
दोष तुम्हारा
है।
इस
भीतरी मन की
कुशलता को अगर
समझ लेंगे, तो
दोनों बातें
खयाल में आ
जाएंगी कि
क्यों अर्जुन
सवाल उठाए चला
जा रहा है और
क्यों कृष्ण जवाब
दिए जा रहे
हैं।
यह
एक खेल है।
जिस खेल में
अर्जुन अपनी
व्यवस्था कर
रहा है और
कृष्ण अपनी
व्यवस्था कर
रहे हैं। एक
जगह अर्जुन
ढाल रख लेता
है,
कृष्ण
दूसरी तरफ से
हमला करते हैं,
जहां उसने
अभी ढाल नहीं
रखी। वे उसे
थका ही
डालेंगे। वह
ढाल रखते—रखते
थक जाएगा। न
केवल थक जाएगा,
बल्कि ढाल
रखते—रखते उसे
समझ में भी आ
जाएगा कि मैं
क्या कर रहा
हूं? मैं
किससे बच रहा
हूं? जो
मुझे महाजीवन
दे सकता है, उससे मैं
बचने की कोशिश
कर रहा हूं!
मैं किसके
संबंध में
संदेह उठा रहा
हूं? किसलिए
उठा रहा हूं? यह उसे धीरे—
धीरे खयाल में
आएगा। और यह
वर्षों में भी
खयाल आ जाए, तो भी जल्दी
है। जन्मों
में भी खयाल आ
जाए, तो भी
जल्दी है।
इसलिए
कृष्ण कितना
समझाते हैं, यह
बड़ा सवाल नहीं
है। कितना ही
समझाएं, थोड़ा
ही है। और
अर्जुन कितनी
ही देर लगाए, तो भी जल्दी
है। क्योंकि
मन सब तरह के
आयोजन कर लेगा,
थकेगा। जब
बिलकुल
क्लांत हो
जाएगा, जब
सब संदेह उठा
चुकेगा और
संदेह उठाना
भी व्यर्थ
मालूम पड़ने
लगेगा, और
जब संदेह भी
बासे और उधार
मालूम पड़ने
लगेंगे, कि
यह मैं उठा
चुका, उठा
चुका, बहुत
बार कह चुका, इनसे कुछ हल
नहीं होता, तभी शायद वह
किरण ध्यान की
उस तरफ जाएगी
जहां कृष्ण ले
जाना चाह रहे
हैं।
यह
सदा ऐसा ही
हुआ है। इससे
निराश होने की
कोई भी जरूरत
नहीं है। इस
श्रम में लगे
ही रहना है।
और
ध्यान रहे, उचित
यही है कि आप
अपनी सारी
शंकाएं और
सारे संदेह
सामने ले आएं,
क्योंकि
सामने आ
जाएंगे, तो
मिटने की
सुविधा है।
भीतर छिपे
रहेंगे, तो
उनके मिटने का
कोई उपाय नहीं
है। अर्जुन
ईमानदार है।
उतना ही
ईमानदार होना
जरूरी है। वह सवाल
उठाए ही चला
जा रहा है।
बेशर्मी से
उठाए चला जा
रहा है। उसमें
जरा भी संकोच
नहीं कर रहा
है। किसी को
भी संकोच आने
लगता कि अब
ठहर जाऊं।
लेकिन वह
संकोच खतरनाक
होगा। भीतर
उठते चले
जाएंगे, अगर
बाहर ठहर गए।
तो फिर कृष्ण
नहीं जीत सकते
हैं।
उठाए
ही चले जाएं।
वह घड़ी जल्दी
ही आ जाएगी, जब
संदेह उठने
बंद हो जाएंगे।
हर चीज की
सीमा है।
इस
जगत में
परमात्मा को
छोड्कर और कुछ
भी असीम नहीं
है। आपका मन
तो निश्चित ही
असीम नहीं है।
आप उठाए चले
जाएं, किनारा
जल्दी ही आ
जाएगा।
किनारा आता
नहीं दिखाई
पड़ता, क्योंकि
आप बेईमान हैं।
ठीक से उठाते
ही नहीं। जिस
दिन किनारा आ
जाएगा, उसी
दिन छलांग लग
सकती है।
तीसरा
प्रश्न :
अर्जुन को अभी
गीता कही जा
रही है। वह
अभी ज्ञान को
उपलब्ध नहीं
हुआ। फिर भी
कृष्ण उसे
संबोधित करते
हैं, हे
निष्पाप! ऐसा
क्यों?
क्योंकि
कृष्ण उस
अर्जुन को
संबोधित नहीं
करते, जो प्रश्न
उठा रहा है।
कृष्ण उस
अर्जुन को
संबोधित करते
हैं, जो
प्रश्नों के
पीछे खड़ा है।
कृष्ण उस
अर्जुन को
संबोधित नहीं
करते हैं, जो
सामने दिख रहा
है हड्डी, मांस,
मज्जा का
बना हुआ।
कृष्ण उस
अर्जुन को
संबोधित करते
हैं, जो
इसके पीछे
छिपा हुआ
चिन्मय, जो
परम चैतन्य है।
वह निष्पाप है।
और
कृष्ण क्यों
कहते हैं बार—बार, हे
निष्पाप! ताकि
अर्जुन का
ध्यान उस तरफ
जा सके कि वह
जहां से सवाल
उठा रहा है, कृष्ण वहां
जवाब नहीं दे
रहे हैं।
कृष्ण कहीं और
गहरे में जवाब
ले जा रहे हैं।
यह
तो अर्जुन को
भी साफ होगा
कि निष्पाप वह
नहीं है। इसे
बताने की कोई
जरूरत नहीं, यह
तो वह भी
जानता है।
लेकिन कृष्ण
उससे बार—बार
कह रहे हैं, हे निष्पाप!
वे चोट कर रहे
हैं बार—बार
इस बात पर कि
तेरे भीतर जो
छिपा है, वहां
कोई पाप कभी
प्रवेश नहीं
किया और न
प्रवेश कर
सकता है। सब
पाप ऊपर—ऊपर
हैं, सब
पुण्य भी ऊपर—ऊपर
हैं।
आप
निष्पाप का
मतलब यह मत
समझाना कि हे
पुण्यधर्मा!
निष्पाप का
अर्थ है, जहां
कोई विकार
नहीं। न पुण्य
का कोई विकार
है, न पाप
का कोई विकार
है। हे
निर्विकार।
जहां कुछ भी
नहीं पहुंचता
है। जहां तेरा
शुद्ध होना है।
जहां बाहर से
आए हुए कोई भी
संस्कार गति
नहीं करते। सब
परिधि पर
इकट्ठे हो
जाते हैं, भीतर
तो कुछ जाता
नहीं। उस भीतर
का जो केंद्र
है, वह सदा
निष्पाप है।
वह सदा शुद्ध
है। वह सदा
निर्दोष, कुंवारा
है।
उस
कुंवारेपन
में कभी आंच
नहीं लगती। आप
कितने ही पाप
करें और कितने
ही पुण्य करें, उस
कुंवारेपन पर
कभी भी कोई
बासापन नहीं आता।
वह कुंवारापन
हमारा स्वभाव
है।
अर्जुन
को जगाने की
चेष्टा है उस
शब्द में भी।
सदगुरु एक
शब्द भी
व्यर्थ नहीं
बोलते हैं। वे
जो भी बोलते
हैं,
कोई गहरा
कारण है। आप
भी निष्पाप
हैं।
अस्तित्व सदा
निष्पाप है।
और अगर पाप और
पुण्य आपके
ऊपर हैं, तो
वैसे ही जैसे
कोई यात्री
राह से गुजरे
और धूल इकट्ठी
हो जाए, ऊपर—ऊपर।
एक डुबकी लगा
ले नदी में, धूल बह जाए।
हमने
तीर्थ बनाए थे, वे
प्रतीक थे।
फिर लेकिन
प्रतीक सब गलत
हो जाते हैं
गलत आदमियों
के हाथों में।
हमारे प्रतीक
थे तीर्थ कि
हम कहते थे, वहां जाकर
स्नान कर लो, सब पाप से छुटकारा
हो जाता है।
कोई तीर्थ में
जाकर स्नान
करने से पाप
का छुटकारा
नहीं होता।
इतना आसान
होता, तो
जितने तीर्थ
हमारे मुल्क
में हैं और
जितने पापी
स्नान कर रहे
हैं, इस
मुल्क में पाप
होता ही नहीं।
तीर्थ
में स्नान
करने से पाप
से कोई
छुटकारा नहीं
होता। लेकिन
बात बड़े मूल्य
की है। बात
असल में यह है
कि पाप और
पुण्य धूल से
ज्यादा नहीं
हैं। और जैसे
धूल स्नान
करने से बह
जाती है और
धूल कोई आपकी
आत्मा में
नहीं चली जाती
है,
बस आपकी
परिधि पर होती
है, ऐसे
पुण्य और पाप
हैं। जो जान
ले तरकीब
स्नान करने की,
वह इनसे भी
ऐसे ही मुक्त
हो जाएगा, जैसे
धूल से मुक्त
हो जाता है।
तो
तीर्थ प्रतीक
थे।
रामकृष्ण
से कोई पूछा
है कि मैं
गंगा जा रहा हूं।
कहते हैं कि
गंगा में
स्नान करने से
पाप धुल जाएंगे।
रामकृष्ण
थोड़ी अड़चन में
पड़े।
रामकृष्ण को
लगा कि कहूं
कि ऐसा ठीक
नहीं है, तो
गलत होगा। यह
ठीक है कि कोई
स्नान करने की
कला जान ले और
गंगा को खोज
ले, तो पाप
धुल जाते हैं।
इस बात में
कहीं भूल—चूक
नहीं है।
लेकिन गंगा यह
नहीं है, जो
बाहर बहती
दिखाई पड़ती है।
और स्नान की
कला शरीर पर
पानी डालने की
नहीं है, मन
पर ध्यान
डालने की है।
तो
बात तो ठीक ही
है। प्रतीक
काव्यात्मक
है,
लेकिन बात
ठीक है। और
कठिन बातें
कविता में ही
कही जा सकती
हैं। उनके लिए
गणित के
फार्मूले
नहीं हो सकते।
क्योंकि बड़े
सूक्ष्म और
नाजुक इशारे
हैं। पत्थर
जैसे नहीं हैं,
फूल जैसे
हैं। उन्हें
बहुत
सम्हालकर
काव्य में
संजोकर ही बचाया
जा सकता है।
तो
बात तो ठीक है।
लेकिन फिर भी
गलत हो गई।
क्योंकि लोग
गंगा में
स्नान करके घर
लौट आते हैं, इस
खयाल से कि
बात खतम हो गई,
फिर से पाप
शुरू करो। और
दिक्कत क्या
है? कितने
ही पाप करो, वापस गंगा
में जाकर
स्नान से धुल
सकते हैं।
तो
रामकृष्ण ने
कहा,
तू जा जरूर,
लेकिन तुझे
पता है, गंगा
के किनारे बड़े
वृक्ष लगे हैं,
वे किसलिए
लगे हैं? उस
आदमी ने कहा, यह तो कहीं
शास्त्रों
में इसका कोई
उल्लेख नहीं
है। तो
उन्होंने कहा
कि वही असली
महत्वपूर्ण
बात है। जब तू
गंगा में
डूबेगा, तो
गंगा में पाप
बाहर निकल
जाते हैं।
क्योंकि गंगा
पवित्र है। पर
वे जो बड़े
वृक्ष हैं, पाप उन पर
बैठ जाते हैं।
तो तू डूबा
रहेगा कि
लौटेगा? लौटेगा
कि वे पाप फिर
झाड़ों से
उतरकर तेरे
सिर पर सवार
हो जाएंगे। तो
गंगा तो धो
देगी, लेकिन
तू इस भ्रम
में मत पड़ना
कि खाली होकर
लौट आया। वे
झाड़ इसीलिए
खड़े हैं!
सारे
प्रतीक व्यर्थ
हो जाते हैं।
व्यर्थ इसलिए
हो जाते हैं
कि हम
प्रतीकों की गरदन
दबा लेते हैं।
उनका निचोड़
देते हैं
प्राण ही बाहर।
पाप बाहर हैं, धूल
से ज्यादा
नहीं। झड़ाए जा
सकते हैं। कोई
आदमी ठीक से
निर्णय भी कर
ले झड़ाने का, तो झड जाते
हैं। क्योंकि
आपके ही
निर्णय से वे
पकडे गए हैं।
सच तो यह है कि
उन्होंने
आपको पकड़ा है,
यह कहना ही
गलत है। आप
उनको पकड़े हैं
और सम्हाले
हैं। जिस दिन
आप छोड़ देंगे,
वे गिर
जाएंगे। और वह
जो पकड़े हुए
है, वह सदा
निष्पाप है।
मनुष्य
की अंतरात्मा
पापी नहीं हो
सकती। और अगर
अंतरात्मा
पापी हो जाए, तो
फिर उसे शुद्ध
करने का कोई
भी उपाय नहीं
है। फिर उसे
कैसे शुद्ध
करिएगा? फिर
कौन उसे शुद्ध
करेगा? फिर
आत्मा से भी
शुद्ध तत्व
कोई हो, तो
ही शुद्ध कर
पाएगा।
एक
स्कूल में एक
शिक्षक अपने
बच्चों को
विज्ञान पढा
रहा है। और
उसने कहा कि
एक नई खोज हो
रही है। एक
ऐसा रासायनिक
द्रव्य खोजा
जा रहा है, जिसमें
हर चीज गल
जाती है। एक
छोटे—से बच्चे
ने कहा, उसको
रखिएगा कहां?
शिक्षक भी
सिर खुजलाने लगा।
उसने कहा, उसकी
भी खोज की जा
रही है। उस
छोटे बच्चे ने
कहा, पहले
उसकी खोज कर
लेना चाहिए, पीछे इस
रासायनिक
द्रव्य की।
अगर खोज लिया
इसे पहले, तो
रखिएगा कहां?
आत्मा
अगर अशुद्ध हो
जाए,
तो फिर उसे
शुद्ध करने का
कोई भी उपाय
नहीं है। उसे
फिर किस चीज
से शुद्ध
करिएगा? और
जिससे भी
शुद्ध करिएगा,
उसे तो कम
से कम शुद्ध
रहना ही चाहिए;
उसके
अशुद्ध होने
का उपाय नहीं
होना चाहिए।
एक
तत्व इस जगत
में चाहिए, जिसके
अशुद्ध होने
का उपाय न हो, क्योंकि
उसके ही
माध्यम से सब
शुद्ध हो सकता
है। अगर सभी
चीजें अशुद्ध
हो जाती हों, तो फिर
शुद्धि का कोई
उपाय नहीं, फिर मोक्ष
की कोई
संभावना नहीं
है।
हम
उसी तत्व को
आत्मा कहते
हैं,
जिसके
अशुद्ध होने
का कोई उपाय
नहीं है, जो
सदा शुद्ध है।
इसलिए आत्मा
को शुद्ध नहीं
करना होता, सिर्फ आत्मा
को पहचानना
काफी है।
पहचानते ही
पता चलता है
कि मैं सदा से
शुद्ध—बुद्ध
हूं। वहां
क्षणभर को भी
कोई कालिमा
प्रविष्ट
नहीं हुई है।
इस
महत तत्व की
ओर इशारा करने
के लिए अर्जुन
को बार—बार कृष्ण
कहे जा रहे
हैं,
हे निष्पाप!
चौथा
प्रश्न : जब यह
सारा जगत परुष
और प्रकृति का
खेल है, तो हम
कहां भागीदार
हैं, जो
इतना दुख झेल
रहे हैं?
इसीलिए
दुख झेल रहे
हैं कि आपको
भांति है कि
आप भागीदार
हैं। आप
भागीदार न रह
जाएं, दुख
समाप्त हो
जाएगा। दुख
इसलिए नहीं है
कि दुख है।
दुख इसलिए है
कि आप भागीदार
हैं। आप सोचते
हैं, मैं
कुछ कर रहा
हूं। मैं
हिस्सा बंटा
रहा हूं। मैं
उत्तरदायी हूं, यह अस्मिता
ही आपके दुख
का कारण है। जहां
भी आप भागीदार
हो जाएंगे, वहीं दुख
पैदा हो जाता
है।
लेकिन
ध्यान रहे, वह
दुख हम इसीलिए
पैदा करते हैं
कि वही तरकीब
सुख पैदा करने
की भी है।
जहां भी आप
भागीदार होते
हैं, वहा
सुख पैदा हो
जाता है।
चूंकि हम सुख
चाहते हैं, इसलिए हम
भागीदार होते
हैं।
समझें
कि एक फिल्म
आप देख रहे
हैं। अगर आप
बिलकुल तटस्थ
रहें, तो
फिल्म से आपको
कोई सुख न मिल
सकेगा। सिर्फ
थककर आप वापस
लौटेंगे।
फिजूल मेहनत
लगेगी। आंखें
थकेंगी। सुख
मिल सकता है, अगर आप भूल
जाएं अपने को
और भागीदार हो
जाएं।
भागीदार होने
का मतलब है, अपने को भूल
जाना, विस्मृत
कर देना।
द्रष्टा न रह
जाए। और आप भी
जैसे एक पात्र
हो गए हैं
फिल्म की कथा में।
और
हर व्यक्ति
फिल्म की कथा
में पात्र हो
जाता है। किसी
पात्र के साथ
अपना
तादात्म्य कर
लेता है। फिर
उस पर जो
बीतता है, इस
पर बीतने लगता
है। फिर जब वह
कष्ट में होता
है, तो यह
अपनी रीढ़ सीधी
उठाकर कुर्सी
पर बैठ जाता
है। जब वह
आराम में होता
है, तो यह
भी अपनी
कुर्सी पर
विश्राम करता
है। इससे सुख
उपलब्ध होता
है। लेकिन
इससे दुख भी
उपलब्ध होता
है।
लोग
दुखांत
फिल्मों में आंसू
पोंछ—पोंछकर
थक जाते हैं।
वह तो भला है
कि अंधेरा
होता है, इसलिए
कोई किसी
दूसरे को देख
नहीं सकता। सब
अपने—अपने
रूमालों को
भीगा करते हैं।
टाल्सटाय
ने लिखा है कि
मेरी मां नाटक
देखने की
शौकीन थी। बड़े
शाही परिवार
के लोग थे, जार
परिवार से
संबंध था। तो
मास्को में
ऐसा कोई नाटक
नहीं था, जिसमें
उसकी मां न
जाती हो।
और
टाल्सटाय ने
लिखा है कि वह
इतना रोती थी, वह
इतनी दयालु
महिला थी कि
जरा—सा दुख
नाटक में कुछ
हो रहा हो, तो
बस, वह जार—जार
हो जाती थी।
लेकिन अक्सर
यह होता था कि
बर्फ पड़ती
रहती मास्को
में और बाहर
जो कोचवान
उसकी गाड़ी पर
बैठा रहता, वह बर्फ के
कारण सिकुड़कर
मर जाता। जब
हम नाटक देखकर
बाहर निकलते,
तो कोचवान
मरा हुआ होता।
उसे उठाकर सड़क
के किनारे
फेंककर दूसरा
कोचवान गाडी
लेकर घर की
तरफ जाता। और
मां अभी भी आंसू
पोंछती रहती
नाटक के कारण!
इस कोचवान से
कोई संबंध
नहीं था।
लेकिन नाटक
में संबंध
जुड़ता था।
टाल्सटाय
ने लिखा है कि
मेरी समझ के
बाहर था कि यह
क्या हो रहा
है! एक जिंदा
आदमी मर गया, उसकी
फिर बात ही
नहीं उठती थी।
वह सड़क के
किनारे फेंक
दिया गया।
उसका कोई
मूल्य नहीं था,
उसकी कोई
कीमत नहीं थी।
वह जैसे आदमी
था ही नहीं; एक यंत्र का
हिस्सा था। एक
दूसरा यंत्र
बिठा दिया गया।
और मां घर तक
रोती रहती। वह
नाटक उसका
पीछा करता।
आप
भी जितने दुखी
हो जाते हैं
फिल्म में, उतना
जिंदगी में वही
घटना देखकर
दुखी नहीं
होते।
क्योंकि
जिंदगी में आप
बहुत सोच—समझकर
संयुक्त होते
हैं। नाटक में
संयुक्त होने
में कोई खतरा
नहीं है, कुछ
हर्जा नहीं है,
कुछ खर्च भी
नहीं है। थोड़ी
देर में नाटक
के बाहर हो
जाएंगे; अपने
घर आ जाएंगे।
लेकिन
जहां भी
तादात्म्य हो
जाता है, वहीं
सुख—दुख मिलना
शुरू हो जाता
है। और जहां
भी तादात्म्य
टूट जाता है, वहां सुख—दुख
दोनों
प्रक्रियाएं
बंद हो जाती
हैं।
साक्षीभाव
का इतना ही
अर्थ है कि
मैं कहीं भी तादात्म्य
न बनाऊं। जो
भी हो रहा हो, वह
नाटक से
ज्यादा न हो।
विराट
नाटक चल रहा
है,
उसे मिटाने
की कोई जरूरत
भी नहीं है।
उसे मिटाना
अर्थपूर्ण भी
नहीं है। पर
उसमें
भागीदार होने
में भूल है।
उसमें आप एक
अभिनेता से
ज्यादा न रहें।
अभिनेता भी
शायद भागीदार
हो जाए।
क्योंकि
अभिनय जब जोश
में आता है, तो अभिनेता
भी भूल जाता
है कि वह
अभिनय कर रहा
है। वह कर्ता
हो जाता है।
उसका कर्तापन
कभी—कभी टूटता
है। नहीं तो
वह कर्ता ही
हो जाता है।
असल
में अभिनेता
को अगर ठीक से
अभिनय करना हो, तो
उसे भूल जाना
चाहिए कि वह
अभिनय कर रहा
है, उसे
कर्ता हो जाना
चाहिए। तो
उसके आंसू
ज्यादा
वास्तविक
होंगे, उसका
प्रेम ज्यादा
वास्तविक
दिखाई पड़ेगा।
उसके कृत्य, उसकी भाव—
भंगिमाओं में
सचाई आ जाएगी।
इसलिए
कुशल अभिनेता
भूलना जानता
है कि वह अभिनेता
है और वह
कर्ता हो जाता
है। लेकिन तब
चीजें उसे
छूने लगती हैं।
छूने के कारण
ही वास्तविक
हो जाती हैं।
संसार
में अभिनेता
और द्रष्टा
दोनों अगर आपके
जीवन में
प्रविष्ट हो
जाएं..।
क्योंकि यहां
सिर्फ आप
द्रष्टा नहीं
हो सकते, क्योंकि
आपको बहुत कुछ
करना भी पड़
रहा है। आप
हाल में नहीं
बैठे हैं, मंच
पर खड़े हुए
हैं। यहां हाल
है ही नहीं, मंच ही मंच
है। यहां जहां
भी आप खड़े हैं,
आप मंच पर
हैं।
जापान
में एक नाटक
होता है, नो—ड्रामा।
उसमें कोई मंच
नहीं होता।
उसमें
अभिनेता ठीक
हाल में ही
काम करते हैं।
और नया आदमी
खड़ा हो तो
उसको समझना
मुश्किल हो जाता
है, कौन
दर्शक है और
कौन अभिनेता
है!
यह
नो—ड्रामा झेन
फकीरों की
ईजाद है। और
इसमें पूरी
पांडुलिपि
तैयार नहीं
होती; सिर्फ
इशारे होते
हैं। और
इशारों पर भी
कोई जिद नहीं
होती कि घटना
वैसी ही बहनी
चाहिए।
स्पाटेनियस, सहज
होने
की सुविधा
होती है। और
कोई बैठा हुआ
दर्शक अगर जोश
में आ जाए और
भाग लेने लगे, तो
उसको भी मनाही
नहीं है। और
कोई अभिनेता
पात्र करते—करते
अपना सारा ढंग
बदल दे, तो
पीछे से
प्रांप्ट
करने का कोई
उपाय नहीं है,
कोई सुविधा
भी नहीं है।
नाटक बहता है,
जैसे
जिंदगी बहती
है, अनजान
में। क्या
घटना होगी, पक्का नहीं
है। निष्कर्ष
पहले से तय
नहीं है। बहुत
रोमांचक है।
और ठीक जिंदगी
जैसा है।
ठीक
यह पूरी
जिंदगी एक बड़ा
नो—ड्रामा है।
यहां कहीं कोई
दर्शक नहीं है, यहां
सभी अभिनेता
हैं। और लिखी
हुई
पांडुलिपि
हाथ में नहीं
है। परदे के
पीछे से कोई
कह नहीं रहा
है कि यह बोलो।
कुछ भी
निश्चित नहीं
है। प्रत्येक
चीज सांयोगिक
होती जा रही
है। कहानी कहा
खतम होगी, कहना
कठिन है। सच
पूछो तो कहीं
कहानी खतम
नहीं होती।
पात्र आते हैं,
चले जाते
हैं, कहानी
चलती रहती है।
आप
कहानी की
शुरुआत में
थोड़े ही आए; मध्य
में आए हैं।
और अंत में
थोड़े ही विदा
होंगे; बीच
में विदा हो
जाएंगे।
कहानी आपके
पहले से चलती
थी, कहानी
आपके बाद भी
चलती रहेगी।
इस पूरे लंबे
कथानक में अगर
आप अभिनेता भी
हों और
द्रष्टा भी
हों, तो आप
भागीदार नहीं
रहे। फिर कोई
दुख नहीं है।
फिर कोई सुख
भी नहीं है।
जब
तक सुख है, तब
तक दुख भी
होगा। वे
दोनों एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। एक
गिरेगा, दूसरा
भी गिर जाएगा।
और जब दोनों
गिर जाते हैं,
तब जो घटित
होता है, उसको
हमने आनंद कहा
है। जब
भागीदार मिट
जाता है और
सिर्फ साक्षी
रह जाता है, तो जो
अनुभूति
जन्मती है, उसका नाम
आनंद है।
अब
हम सूत्र को
लें।
हे
अर्जुन, रागरूप
रजोगुण को
कामना और
आसक्ति से
उत्पन्न हुआ
जान। वह इस
जीवात्मा को
कर्मों की और
उनके फल की
आसक्ति से
बांधता है।
इनमें
तीनों गुणों
की,
जो कि
बांधने वाले
तत्व हैं..।
संस्कृत
में गुण शब्द
का एक अर्थ
रस्सी भी है, जिससे
बांधा जाए।
इनको गुण
इसलिए भी कहा
जाता है कि ये
बांधते हैं।
इसलिए हम
परमात्मा को
निर्गुण कहते
हैं।
निर्गुण
का यह मतलब
नहीं कि उसमें
कोई गुण नहीं
हैं। निर्गुण
का यह मतलब है
कि उस पर कोई
बंधन नहीं हैं।
वह कहीं बंधा
हुआ नहीं है।
ये तीन गुण
उसमें नहीं
हैं,
जो बांध
सकते हैं। वह
इन तीन के
बंधन के बाहर
है। उसकी
निर्गुणता का
अर्थ है, वह
परम स्वतंत्र
है। और आपके
भीतर जो छिपा
है, वह भी
परम स्वतंत्र
है। लेकिन
उसके चारों
तरफ बंधन है।
बंधन से आपकी
स्वतंत्रता
नष्ट नहीं हो
गई है, सिर्फ
अवरुद्ध हो गई
है।
कोई
बंधन
स्वतंत्रता
को नष्ट नहीं
करता। मेरे
हाथों में कोई
हथकड़ियां डाल
दे,
इससे मेरी
स्वतंत्रता
नष्ट नहीं
होती, सिर्फ
अवरुद्ध हो
जाती है। मैं
अपनी
स्वतंत्रता
का प्रयोग
नहीं कर सकता।
लेकिन मेरी
स्वतंत्रता
नष्ट नहीं
होती। कल मेरी
जंजीरें टूट
जाएं; मेरी
स्वतंत्रता
मेरे पास थी, सिर्फ अवरोध
हट गया।
तो
कोई भी चेतना
किसी भी
स्थिति में
स्वतंत्रता
तो नहीं खोती
है,
लेकिन
अवरोध खडे हो
जाते हैं। और
अगर अवरोधों
से हमारा लगाव
हो जाए, तब
बड़ी कठिनाई हो
जाती है। वही
कठिनाई है।
हमारे हाथ में
जंजीरें नहीं
हैं। और अगर
जंजीरें हैं,
तो हम उनको
आभूषण समझे
हुए हैं। और
हमने उनमें
हीरे, चांदी,
सोना जड़
लिया है। हमने
उनमें रंग—बिरंगे
चित्र बना लिए
हैं। अब अगर
कोई हमारी
जंजीर तोड़ना
भी चाहे, तो
हम उसको
समझेंगे, यह
दुश्मन है, हमारे
सौंदर्य को, हमारे आभूषण
को नष्ट कर
रहा है।
और
जब भी कोई
व्यक्ति अपनी
जंजीर को
आभूषण समझ ले, तो
उसकी
स्वतंत्रता
बहुत मुश्किल
हो गई। अगर
कोई कारागृह
को अपना घर
समझ ले और
सजावट करने
लगे, तब
फिर उसके
छुटकारे का
कोई उपाय न
रहा। छुटकारे
के लिए पहली
बात तो जान
लेनी जरूरी है
कि मैं
कारागृह में
हूं। और इसे
सजाना नहीं है,
इसे तोड़ना
है। और जो
मुझे बांधे
हुए हैं, वे
आभूषण नहीं
हैं, जंजीरें
हैं। उनसे
गौरवान्वित
नहीं होना है,
उनसे
छुटकारा पाना
है।
हे
अर्जुन, रागरूप
रजोगुण को
कामना और
आसक्ति से
उत्पन्न हुआ
जान। वह इस
जीवात्मा को
कर्मों की और
उनके फल की आसक्ति
से बांधता है।
सत्वगुण
को कृष्ण ने
कहा कि वह सुख
की आसक्ति और
ज्ञान का अभिमान, इससे
बांधता है।
जिसको
हम पांडित्य
कहें, वह सत्व
से बंधा हुआ
व्यक्तित्व
है। जिसको हम
साधुत्व कहें,
वह भी सत्व
से बंधा हुआ
व्यक्तित्व
है। उसकी दो
आकांक्षाएं
हैं। एक
आकांक्षा है
कि उसे सुख
मिले। इसलिए
वह स्वर्ग को
खोजता है।
स्वर्ग का
मतलब है, जहां
दुख बिलकुल न
हो, सिर्फ
सुख हो। वह
स्वर्ग की खोज
के लिए सब कुछ
करने को तैयार
है। तप करेगा,
पूजा, यज्ञ,
सब करेगा, लेकिन
स्वर्ग मिले।
ऐसी जगह मिल
जाए, जहां
सुख ही सुख हो;
शुद्ध सुख
हो और दुख न हो।
सत्व ऐसे
लोगों को बांध
लेता है।
स्वर्ग
भी बंधन है।
देवता मुक्त
नहीं हैं।
बुद्ध
के जीवन में
कथा है कि जब
बुद्ध को परम
ज्ञान हुआ, तो
ब्रह्मा और
अनेक देवताओं
ने आकर उनके
चरणों में
निवेदन किया
कि हमें उपदेश
दें।
हिंदुओं
को इस कहानी
से बड़ी चोट
पहुंची। उनको
लगा,
हमारे
देवता और
बुद्ध के
चरणों में
क्यों प्रार्थना
करने जाएं? लेकिन बात
बड़ी कीमती है।
देवता किसी के
भी हों, बुद्ध
के चरणों में
नमस्कार करने
जाना ही होगा।
बुद्ध किसी के
भी नहीं हैं।
देवता किसी के
भी हों! लेकिन
जब भी
बुद्धत्व घटित
होता है, तो
देवता को भी
चरणों में
नमस्कार करने
और मार्ग
खोजने जाना
होगा।
ब्रह्मा
ने कहा कि
हमें उपदेश
दें,
क्योंकि हम
भी बंधे हैं।
तुम सुख से भी
मुक्त हो गए; हम सुख से
बंधे हैं। सुख
ही सुख है
हमारे जीवन
में, लेकिन
दुख का डर
मौजूद है।
क्योंकि जो भी
है, उसके
खोने का डर
होता है।
धनी
के पास कितना
ही धन हो, धन के
खोने का डर तो
दुख देता ही
है। इसलिए हम
कंपते रहते
हैं कि कब
हमारा सुख छिन
जाए। और सुख
हमने कमाया है
पुण्यों से, उसकी एक
मात्रा है।
पुण्य चुक
जाएंगे, सुख
चुक जाएगा। तब
हम वापस दुख
में फेंक दिए
जाएंगे। तो हम
कंपित हैं। हम
डरे हुए हैं।
हम घबड़ाए हुए
हैं। हमें
आश्वस्त करें।
आप सुख से भी
मुक्त हो गए
हैं। अब आपको
कोई भय न रहा।
अब आपको कोई
कंपा नहीं
सकता; क्योंकि
आपसे अब कोई
कुछ छीन नहीं
सकता। आपके
पास कुछ है ही
नहीं जो छीना
जा सके। आप
सिर्फ आप हैं,
जिसको
छीनने का कोई
उपाय नहीं है,
चुराने का
कोई उपाय नहीं
है, मिटाने
का कोई उपाय
नहीं है। आप
उस परम मुक्त
अवस्था को
उपलब्ध हो गए
हैं, जिसके
लिए देवता भी
तरसते हैं, हम तरसते
हैं।
सत्व
देवत्व तक ले
जा सकता है।
वह शुद्धतम
जंजीर है, सुंदरतम
जंजीर है। तो
जिनके मन में
सुख की गहरी
आकांक्षा है—सुख
की, शाति
की या आनंद की—जिनके
मन में गहरी आकांक्षा
है सुख की, आनंद
की, शांति
की, वे
सत्व से मुक्त
न हो पाएंगे।
क्योंकि सत्व
सुख देता है।
और जो सुख
देता है, उससे
हम बंध जाएंगे।
जिनके
मन में आसक्ति
है,
लगाव है, जो किसी
दूसरे
व्यक्ति के
ऊपर निर्भर
होते हैं अपने
सुख लिए......। पति
है, वह
कहता है, पत्नी
के बिना मैं
नहीं जी सकता।
या पत्नी है, वह कहती है, पति मरेंगे
तो मैं सती हो
जाऊंगी, उनकी
चिता पर जल
जाऊंगी। उनके
बिना नहीं जी
सकती।
सती
आसक्ति का
गहनतम प्रतीक
है। मेरा जीवन
किसी और के
जीवन पर पूरी
तरह निर्भर है, उसके
बिना कोई अर्थ
नहीं है, कोई
सार नहीं है।
फिर मर जाना
उचित है। फिर
मृत्यु भी
हितकर मालूम
होती है बजाय
जीवन के।
तो
जब कोई
व्यक्ति
आसक्ति से
किसी से बंधता
है,
तो ऐसी
आसक्ति और
कामना से जो
उत्पन्न होता
है, वह
रजोगुण है। या
इस जीवात्मा
के कर्मों की
और उनके फल की
आसक्ति जो है,
उससे
रजोगुण
उत्पन्न होता
है।
एक
तो आसक्ति है, किसी
से बंध जाना। ऐसा
बंध जाना कि
लगे कि मेरे
प्राण मेरे
भीतर नहीं, उसके भीतर
हैं। यह
व्यक्ति के
साथ भी हो
सकता है, वस्तु
के साथ भी हो
सकता है। कुछ
लोग हैं कि
उनके प्राण
उनकी तिजोरी
में हैं। आप
उनको मारो, वे न मरेंगे।
तिजोरी को मार
दो, वे मर
जाएंगे।
नसरुद्दीन
एक अंधेरी गली
से गुजर रहा
है। और एक
आदमी ने
पिस्तौल उसकी
छाती पर रख दी।
उसने कहा, नसरुद्दीन,
धन देते हो
या जीवन? नसरुद्दीन
ने कहा, थोड़ा
सोचने दो। फिर
सोचकर उसने
कहा कि जीवन।
उस आदमी ने
कहा, क्या
मतलब? नसरुद्दीन
ने कहा, धन
तो बुढ़ापे के
लिए इकट्ठा
किया है। जीवन
तुम ले सकते
हो। धन देकर
मैं क्या
करूंगा? फिर
कहा बचूंगा? पुरानी
कहानियां हैं,
बच्चों की
कहानियां हैं
परियों की, राजाओं की।
जिनमें कोई
राजा होता है,
जिसके
प्राण किसी
तोते में बंद
हैं। राजा को
मारो, आप
नहीं मार सकते।
तोते को मारना
पड़े। पता
लगाना पड़े कि
राजा के प्राण
कहा कैद हैं।
वे कहानियां
बड़ी
अर्थपूर्ण
हैं; वे हम
सबकी
कहानियां हैं।
आपको
मारने में कोई
सार नहीं है।
पहले पक्का
पता लगाना पड़े, किस
तोते में आपके
प्राण बंद हैं।
बस, वहा
मार दो, आप
मर गए। आसक्त
व्यक्ति का
अर्थ है कि
उसके प्राण
उसके अपने
भीतर नहीं, कहीं और हैं।
ऐसा व्यक्ति
तो गहन
परतंत्रता
में होगा, जिसके
प्राण भी अपने
नहीं। यह तो
पूरा कारागृह
है।
रजोगुण
ऐसी आसक्ति से
बढ़ता है, निर्मित
होता है। और
ऐसा व्यक्ति
सदा ही फलों
की आसक्ति से
बंधा होता है।
क्या मिलेगा
अंत में? वह
उसकी नजर में
होता है। वह
हमेशा फल को
देखता है।
वृक्ष की उसे
चिंता नहीं
होती। वह सब
कर सकता है, लेकिन फल!
नजर में, आंख
में, प्राण
में एक ही बात
गूंजती रहती
है, फल! ऐसा
व्यक्ति सदा
दुखी होगा।
दुखी इसलिए
होगा कि वह जो
भी करेगा, उसमें
तो उसे कोई रस
नहीं है। रस
तो फल में है।
फल सदा भविष्य
में है।
और
ऐसे व्यक्ति
की धीरे— धीरे
एक व्यवस्था
हो जाती है मन
की कि वह वर्तमान
में देख ही
नहीं सकता। और
जब फल भी आएगा, तब
भी वह फल को
नहीं देख
पाएगा, क्योंकि
फल तब वर्तमान
हो जाएगा और
उसकी आंखें
फिर भविष्य
में देखेंगी।
तो
ऐसा व्यक्ति
फल के द्वारा
फिर किसी और
फल को खोजने
लगता है। पहले
वह धन कमाता
है। धन उसकी आकांक्षा
होती है। फिर
जब धन मिल
जाता है, तो उस
धन से वह और धन
कमाने लगता है।
फिर यही चलता
है।
उसकी
हालत ऐसी है
कि एक रास्ते
का उपयोग
दूसरे रास्ते
तक पहुंचने के
लिए करता है।
फिर दूसरे
रास्ते का
उपयोग तीसरे
रास्ते तक
पहुंचने के
लिए करता है।
जिंदगीभर वह
रास्तों पर
चलता है और
मंजिल कभी
नहीं आती।
आएगी नहीं।
क्योंकि हर
साधन का उपयोग
वह फिर किसी
दूसरे साधन तक
पहुंचने के
लिए करता है।
साध्य का कोई
सवाल नहीं है।
और
ऐसे व्यक्ति
की नजर सदा
साध्य पर लगी
होती है। उसको
दिखता है
हमेशा फल।
इसके पहले कि
वह कुछ करे, वह
अंत में देख
लेता है। और
अंत को देखकर
ही चलता है।
इसमें
बड़ी
कठिनाइयां
हैं। अगर
वस्तुत: उसे
अंत मिल भी
जाए,
तो भी उसकी
आगे देखने की
आदत उसे अंत
का सुख न लेने
देगी। और अंत
मिलना इतना
आसान भी नहीं
है। क्योंकि
फल आपके हाथ
में नहीं है।
फल हजारों
कारणों के
समूह पर
निर्भर है। और
कोई भी
व्यक्ति इतना
समर्थ नहीं है
कि जगत के
सारे कारणों
को नियोजित कर
सके।
आप
धन कमा रहे
हैं। धन कमा
लेंगे, यह आप
पर ही निर्भर
नहीं है। यह
करोडों
कारणों पर
निर्भर है, यह मल्टी
काजल है।
समझ
लें,
एक क्रांति
हो जाए; धन
किसी का रह ही
न जाए, सामूहिक
संपत्ति हो
जाए। संपत्ति
का वितरण हो
जाए। आप जब तक
धन कमा पाएं, तब तक
महंगाई इतनी
बढ़ जाए कि धन
का कोई मूल्य
न रह जाए।
पिछले
महायुद्ध मे
चीन में ऐसी
हालत थी कि एक माचिस
खरीदनी हो, तो
एक थैली भरकर
नोट ले जाने पड़ते
थे। वह हालत
यहां कभी भी आ
सकती है।
एक
बड़ी प्रसिद्ध
घटना चीन में
घटी पिछले
महायुद्ध में।
दो भाई थे। जब
बाप मरा तो
आधी—आधी
संपत्ति कर
गया। काफी
संपत्ति थी।
कई लाख रुपए
दोनों को मिले।
एक भाई उन
लाखों रुपयों
को लगाकर धंधे
में लग गया, कमाने
में। दूसरे
भाई ने उन सब
लाखों रुपयों
की शराब पी डाली।
उस दूसरे भाई
ने शराब पी
डाली, लेकिन
उसे शौक था एक,
शराब की
बोतलें
इकट्ठी करने
का। उसने
लाखों शराब की
बोतलें
इकट्ठी कर लीं।
फिर
महंगाई बढ़ते—बढते
उस जगह पहुंची
कि उसने
बोतलें अपनी
बेच लीं।
जितने की उसने
शराब पी थी, उससे
कई गुना रुपया
उसे बोतलों के
बेचने से मिल
गया। और वह जो
भाई धंधे में
था, वह मर
गया, वह
डूब गया।
लोगों के पास
पैसे न रहे
खरीदने को
उसकी चीजें।
चीजें थीं; लेकिन पैसे
नहीं थे लोगों
के पास।
जिंदगी
बड़ी जटिल है।
यहां आप अकेले
नहीं हैं।
यहां अरबों
लोग हैं।
अरबों कारण
काम कर रहे
हैं। आप सब
कुछ कर लें और
माओ का दिमाग
खराब हो जाए या
निक्सन का, और
वे एक एटम बम
गिरा दें।
आपने यहां सब
कुछ करके
इंतजाम कर
लिया था, बिलकुल
बस, बैंक
से रुपया
उठाने ही जा
रहे थे। सब
समाप्त हो गया।
हिरोशिमा
पर जब एटम
गिरा, एक लाख
बीस हजार लोग
मरे। पांच
मिनट में सब
समाप्त हो गया।
उसमें आप ही
जैसे लोग थे, जिनकी बड़ी
योजनाएं थीं।
फलाकांक्षी
बड़ी कठिनाई
में है। पहले
तो वह फल मिल
भी जाए—जो कि
असंभव जैसा है—जो
फल वह चाहता
है,
वह मिल भी
जाए, तो वह
उसको भोग न
सकेगा। उसकी
आदत गलत है।
पहले मिलना ही
मुश्किल है, क्योंकि फल
आपके हाथ में
नहीं है। और
जब आप तय करते
हैं कुछ पाने
का, तब
इतने कारण काम
कर रहे हैं कि
आप उन पर कोई
कब्जा नहीं कर
सकते।
अगर
इस स्थिति को
हम ठीक से
समझें, तो
इसी को कृष्ण
ने कहा है कि
फल भगवान के
हाथ में है।
करोड़ों ये जो
कारण हैं, अनंत
जो कारण हैं, यह अनंत
कारणों का ही
इकट्ठा नाम
भगवान है।
भगवान कहीं
कोई ऊपर बैठा
हुआ आदमी नहीं
है, जिसके
हाथ में है।
ऐसा
अगर हो, तब तो
हम कोई तरकीब
निकाल ही लें
उसको प्रभावित
करने की। हम
उसकी स्तुति
कर सकते हैं, खुशामद कर
सकते हैं। उस
पर काम न चले, तो उसकी
पत्नी होगी, उसको
प्रभावित कर
सकते हैं।
उसके लड़के—बच्चे
होंगे, कोई
नाता—रिश्ता
खोज सकते हैं,
कोई रास्ता
बन ही सकता है।
अगर कहीं
भगवान है व्यक्ति
की तरह, तो
हम से बच नहीं
सकता। हम फल
को नियोजित कर
सकते हैं।
उसके माध्यम
से हम कुछ तय
कर सकते हैं।
लेकिन
ऐसा भगवान
नहीं है।
भगवान का कुल
अर्थ है, इस
जगत का जो
अनंत विस्तार
है अनंत
कारणों का, इन अनंत
कारणों के जोड़
का नाम भाग्य
या भगवान है—जो
भी आपको पसंद
हो। जब हम
कहते हैं, फल
भाग्य के हाथ
में है, तो
इसका मतलब
इतना है कि
मैं अकेला
नहीं हूं,
अरबों कारण
काम कर रहे
हैं।
आप
अपने घर से
निकले। आप बड़ी
योजनाएं बनाए
चले जा रहे
हैं। दूसरा
आदमी अपनी कार
लेकर निकला।
वे शराब पी गए
हैं। आपको
उनका बिलकुल
पता नहीं है
कि वे चले आ
रहे हैं तेजी
से आपकी तरफ
कार भगाते हुए।
वे कब आपको
पटक देंगे सड़क
पर आपकी
योजनाओं के
साथ,
आपको कुछ
पता नहीं है।
उनका आपने कुछ
बिगाड़ा नहीं
दिखाई पड़ता
ऊपर से। शराब
आपने उन्हें
पिलाई नहीं।
मगर वह सारी
जिंदगी का नक्शा
बदल दे सकते
हैं। प्रतिपल
हजारों काम
आपके आस—पास
चल रहे हैं।
आप असहाय हैं।
आप कर क्या
सकते हैं? लेकिन
जो आदमी फल पर
बहुत आकांक्षा
बांध लेता है,
वह बड़ी
मुश्किल में
पड़ता है, क्योंकि
फल पूरे नहीं
हो पाते। जब
पूरे नहीं हो
पाते, तो
विषाद से भर
जाता है।
कृष्ण
कहते हैं कि
यह जो फल की
आसक्ति है, यह
रजोगुण का
स्वभाव है!
और
हे अर्जुन, सर्व
देह—अभिमानियो
के मोहने वाले
तमोगुण को
अज्ञान से
उत्पन्न हुआ
जान। वह इस
जीवात्मा को
प्रमाद, आलस्य
और निद्रा के
द्वारा
बांधता है।
सत्व, ज्ञान
और सुख के
द्वारा, रज,
आसक्ति और
फल की आकांक्षा
के द्वारा; और तम, अज्ञान,
मूर्च्छा, प्रमाद, आलस्य
के द्वारा है।
प्रमाद
शब्द को ठीक
से समझ लेना
चाहिए। उसमें
सारा रस तम का
छिपा हुआ है।
प्रमाद का
अर्थ है, मूर्च्छा
का एक भाव, बेहोश,
अजागरूक।
चले जा रहे
हैं, किए
जा रहे हैं, लेकिन कोई
सावधानी नहीं
है। जो भी कर
रहे हैं, ऐसे
कर रहे हैं, जैसे नींद
में हों।
क्यों कर रहे
हैं, इसका
पक्का पता
नहीं। करें या
न करें, इसका
कोई बोध नहीं।
क्या कर रहे
हैं, इस
ठीक करते हुए
क्षण में
चेतना का
ध्यान, चेतना
का प्रवाह उस
कम की तरफ
नहीं।
खाना
खा रहे हैं।
हाथ खाना खाए
जा रहे हैं, यंत्रवत,
क्योंकि
उनकी आदत हो
गई है। मन
कहीं भागा हुआ
है। मन न
मालूम किन लोकों
की यात्राएं
कर रहा है! न
मालूम मन किस
काम में
संलग्न है। तो
आप यहां नहीं
हैं। आप यहां
बेहोश हैं।
बुद्ध
कहते हैं, बस
एक ही है
साधना, कि
तुम जहां हो, वहां
तुम्हारी
चेतना भी हो।
तुम्हारा पैर
उठे रास्ते पर,
तो
तुम्हारी
चेतना भी पैर
के साथ उठे।
तुम
होशपूर्वक हो
जाओ। तुम पानी
पीओ, तो वह
पीना यंत्रवत
न हो।
तुम्हारा
पूरा होश पानी
के साथ
तुम्हारे भीतर
जाए।
बुद्ध
ने कहा है, तुम्हारी
श्वास बाहर
जाए, तो
होशपूर्वक; तुम्हारी
श्वास भीतर आए,
तो
होशपूर्वक।
बुद्ध की सारी
प्रक्रिया इस
अनापानसती—योग
पर निर्भर है।
बड़ा
अनूठा प्रयोग
है अनापानसती—योग
का,
बड़ा सरल, कि श्वास का
मुझे बोध बना
रहे। जब श्वास
नाक को छुए, भीतर जाती
श्वास, तो
मुझे पता रहे
कि उसने
स्पर्श किया
नाक का। फिर
नाक के भीतरी
अंतस हिस्सों
का स्पर्श किया,
फिर श्वास
भीतर गई, फेफड़ों
में भरी, पेट
ऊपर उठा, फिर
श्वास वापस
लौटने लगी।
उसका आने का
मार्ग, जाने
का मार्ग, दोनों
का बोध हो।
बर्मा
में इसे वे
विपस्सना
कहते हैं।
विपस्सना का
मतलब है, देखना।
देखते रहना, ध्यानपूर्वक
देखते रहना।
कोई
भी एक क्रिया
को
ध्यानपूर्वक
देखते रहने का
परिणाम परम
बोध हो सकता
है। और कोई
व्यक्ति अगर
अपने दिनभर की
सारी क्रियाओं
को देखता रहे, तो
उसका प्रमाद
टूट जाएगा। जब
प्रमाद टूट
जाता है, तो
तम का बंधन
गिर जाता है।
लेकिन
हम सब बेहोश
जीते हैं। हम
जो भी करते
हैं,
वह ऐसा करते
हैं, जैसे
हिम्नोटाइब्द
हैं। कुछ होश
नहीं; चले
जा रहे हैं, किए जा रहे
हैं, यंत्रवत।
यह
यंत्रवतता, आलस्य,
प्रमाद, निद्रा,
ये तम की
आधारशिलाए
हैं। इसलिए
कृष्ण गीता
में कहते हैं
कि योगी, जब
आप सोते हैं, तब भी सोता
नहीं।
आप
तो जब जागते
हैं,
तब भी सोते
ही हैं। आपका
जागना भी
जागना नहीं है,
सिर्फ
नाममात्र
जागना है। आप
खुद भी कोशिश
करें, तो
कई बार दिन
में अपने को सोया
हुआ पकड़ लेंगे।
जरा ही
चौंकाएं अपने
को.।
गुरजिएफ
कहता था, एक
झटका देकर खड़े
हो जाएं कहीं
पर, तो आप
अचानक पाएंगे
कि अभी तक
सोया था। पर
वह एक झटके ही
में थोडी—सी
झलक आएगी, जैसे
किसी ने नींद
में हिला दिया
हो। फिर नींद
पकड़ लेगी।
योगी, कृष्ण
कहते हैं, सोता
है तब भी सोता
नहीं। उसका
कुल मतलब इतना
है कि उसके तम
का जो बंधन है,
वह टूट गया।
प्रमाद नहीं
है। विश्राम
करता है।
लेकिन भीतर
उसके कोई जागा
ही रहता है, जागा ही
रहता है। कोई
दीया जलता ही
रहता है। वहा
कोई पहरेदार
सदा बना ही
रहता है। ऐसा
कभी नहीं कि
घर खाली हो और
पहरेदार सोया
हो। वहा कोई
पहरे पर बैठा
ही रहता है।
इस
पहरेदार को
संतों ने—कबीर
ने,
दादू ने, नानक ने—सुरति
कहा है। सुरति
का अर्थ है, कोई
स्मरणपूर्वक
जगा रहे।
स्मृति का ही
रूप है सुरति।
शब्द बुद्ध का
है, स्मृति।
फिर बिगड़ते—बिगड़ते,
कबीर तक आते—आते
वह लोकवाणी
में सुरति हो
गया।
कबीर
कहते हैं, जैसे
कोई कुलवधू
कोई गाव की
वधू कुएं से
पानी भरकर घर
लौटती है, तो
सिर पर तीन—तीन
मटकियां रख
लेती है। हाथ
से पकड़ती भी
नहीं। पास की
सहेलियों से
गपशप भी करती
है, हंसी—मजाक
भी करती है, गीत भी गाती
है और रास्ते
पर चलती है। लेकिन
उसकी सुरति
वहीं लगी रहती
है ऊपर, कि
वे घड़े गिर न
जाएं! उसने
हाथ भी नहीं
लगाया हुआ है।
सिर्फ सुरति
के सहारे ही
सम्हाला हुआ
है। वह सब बात
करती रहेगी, हंसती रहेगी,
रास्ते पर
चलती रहेगी, कोई घड़ा
गिरने को होगा,
तो तत्काल
उसका हाथ
पहुंच जाएगा।
उसकी स्मृति का
धागा पीछे
बंधा हुआ है।
उसका ध्यान
वहीं लगा हुआ
है।
आपकी
क्रियाएं
ध्यानपूर्वक
हो जाएं, तो
अप्रमाद फलित
होता है। और
आपकी
क्रियाएं गैर—
ध्यानपूर्वक
हों, तो
प्रमाद होता
है। हे अर्जुन,
सब
देहाभिमानियों
को मोहने वाले
तमोगुण को अज्ञान
से उत्पन्न
हुआ जान।
और
अज्ञान का
अर्थ यहां
जानकारी की
कमी नहीं है।
अज्ञान का
अर्थ है, आत्म—अज्ञान,
अपने को न
जानना।
जो
अपने को नहीं
जानता, वह
जागेगा भी
कैसे? वह
किसको जगाए? कौन जगाए? और जो जागा
हुआ नहीं है, वह अपने को
कभी जानेगा
कैसे? वे
दोनों एक—दूसरे
पर निर्भर
बातें हैं। जो
जितना ही
जागता है, उतना
ही स्वयं को
पहचानता है।
जो जितना
स्वयं को
पहचानता है, उतना ही
जागता चला
जाता है। परम
जागरण
आत्मज्ञान बन
जाता है।
तमोगुण
अज्ञान है।
रजोगुण
आसक्ति है।
सत्वगुण
सूक्ष्म
अभिमान है, शुद्ध
अभिमान है। ये
तीन बंधन हैं।
क्योंकि
हे अर्जुन, सत्वगुण
सुख में लगाता
है, रजोगुण
कर्म में
लगाता है, तमोगुण
तो ज्ञान को
आच्छादन करके,
ढंककर
प्रमाद में
लगाता है।
और
तीन ही तरह के
व्यक्ति हैं
इस जगत में।
तीनों गुण सभी
के भीतर हैं।
लेकिन सभी के
भीतर तीनों
गुण समान
मात्राओं में
नहीं हैं।
किसी के भीतर
सत्वगुण
प्रमुख है, तो
सत्वगुण दो को
दबा देता है।
इसको ठीक से
समझ लें।
जिस
व्यक्ति के
भीतर सत्वगुण
प्रमुख है, जिसे
शांति, सुख,
ज्ञान की
तलाश है, उस
व्यक्ति का
रजोगुण, उस
व्यक्ति का
तमोगुण भी इसी
तलाश में
संलग्न हो
जाता है। उस
व्यक्ति के
पास जितनी
कर्मठता है, जितनी शक्ति
है, जितनी
ऊर्जा है रज
की, वह सारी
ऊर्जा वह
ज्ञान की तलाश
में लगा देता
है। वह सारी
ऊर्जा, वह
सारा कर्म सुख
की खोज में लग
जाता है। और
उस व्यक्ति के
भीतर जितना तम
है, जितना
आलस्य है, वह
सब भी ज्ञान
की तलाश में, सुख की तलाश
में, विश्राम
की जो जरूरत
पड़ेगी, उसमें
लग जाता है।
अगर
किसी व्यक्ति
में तम प्रमुख
है,
तो उसके पास
छोटी—मोटी
बुद्धि अगर हो,
थोड़ी—बहुत
समझ हो, तो
वह समझ को भी
अपने आलस्य को
सिद्ध करने
में लगाता है।
वह अपनी समझ
को भी इस तरह
उपयोग करता है
कि आलस्य का
रेशनलाइजेशन
हो जाए, वह
बुद्धियुक्त
मालूम होने
लगे। वह कहेगा,
करने से
क्या सार है? करके क्या
कर लोगे? करने
से क्या मिलने
वाला है?
उसके
पास जो भी
रजोगुण है, जो
भी ऊर्जा है, शक्ति है, वह इस शक्ति
को भी इस
भांति
नियोजित
करेगा कि वह
कर्म न बन पाए।
वह क्रियाएं
तो करेगा, लेकिन
क्रियाएं ऐसी
होंगी, जो
उसे और आलस्य
में ले जाएं।
वह आदमी चलेगा,
तो चलकर
शराबघर पहुंच
जाएगा। उसकी
क्रिया चलने
में लगेगी, लेकिन जाएगा
वह शराबघर।
अगर उसको शराब
खरीदनी हो, तो वह दिन
में मेहनत भी
करेगा। लेकिन
मेहनत करके
खरीदेगा शराब।
अगर
किसी व्यक्ति
में रजोगुण प्रमुख
हो,
तो वह अपनी
सारी चेतना को,
सारी
शक्तियों को
भाग—दौड़ में
लगा देगा।
क्रिया
प्रमुख हो
जाएगी। करना
ही जैसे
लक्ष्य हो
जाएगा। कुछ
करके दिखाना
है। वह अपना
सुख भी छोड़
सकता है उसके
लिए, अपना
विश्राम भी
छोड़ सकता है।
लेकिन कुछ
करके दिखाना
है।
इतिहास
ऐसे ही लोग
बनाते हैं, जिनमें
रजोगुण
प्रमुख है।
राजनेता
रजोगुणी है।
कुछ करके
दिखाना है।
नाम छोड़ जाना
है। इतिहास के
पृष्ठों पर
लिखा जाए।
और
ध्यान रहे, तायनबी
ने, एक
बहुत बड़े
इतिहासज्ञ ने,
एक बहुत
मधुर बात कही
है। उसने कहा
है, इतिहास
बनाना ज्यादा
आसान है बजाय
इतिहास लिखने
के। क्योंकि
इतिहास तो गधे
भी बना सकते
हैं।
इतिहास
बनाने में
क्या लगता है? गोडसे
बनने में क्या
दिक्कत है? एक पिस्तौल
चाहिए एक छुरा
चाहिए, एक
हथगोला काफी
है। कुछ भी
उपद्रव तो कर
ही सकते हैं।
इतिहास
निर्मित होना
शुरू हो जाता
है। अब जब तक
गांधी की याददाश्त
रहेगी, तब
तक गोडसे को भूलने
का कोई उपाय
नहीं। गोडसे
ने किया क्या
है? करने
के नाम पर
बहुत ज्यादा
नहीं है।
उपद्रव किया
जा सकता है।
जिनमें
भी रजोगुण
भारी है, वे
किसी न किसी
तरह के उपद्रव
में, किसी
तरह की मिस्चीफ
में संलग्न
होते हैं। अगर
वे बुरे हो
जाएं, तो
डाकू हो
जाएंगे। अगर
बुरे न हों, भाग्य से
ठीक शिक्षा—संस्कार
मिल जाए, तो
राजनेता हो
जाएंगे।
डाकुओं को
थोड़ी अकल हो
जाए, तो
राजनेता हो
जाएंगे।
राजनेताओं की
थोड़ी अकल खो
जाए, तो
डाकू हो
जाएंगे।
उनमें
परिवर्तन जरा
भी दिक्कत का
नहीं है। वे
करीब ही खड़े
हैं। वे सगे, मौसेरे भाई—
भाई हैं।
अगर
छोटा—मोटा
हत्यारा हो, तो
हत्यारा रह
जाएगा। अगर
बड़ा हत्यारा
हो, तो
तैमूर, चंगेज
और हिटलर के
साथ जुड़ जाएगा।
अगर छोटी—मोटी
किसी की
संपत्ति पर
कब्जा करे, तो चोर समझा
जाएगा। अगर
बडे
साम्राज्यों
पर कब्जा कर
ले, तो
सम्राट हो
जाएगा। और
साधु उसका
गुणगान
करेंगे, प्रशस्ति
लिखेंगे।
रजोगुणी
अपनी सारी
शक्ति को लगा
देता है, सारी
समझ को, सारे
विश्राम को, एक ही काम
में कि कुछ
करना है। वह
करना कहां ले
जाएगा, उस
करने का क्या
अर्थ होगा, करने का कोई
परिणाम शुभ
होगा, अशुभ
होगा, इसका
बहुत प्रयोजन
नहीं है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
हिटलर बचपन
में चित्रकार
होना चाहता था, पेंटर
होने की
आकांक्षा थी।
और बैठकर बड़े
चित्र बनाता
रहता था।
लेकिन कई
एकेडमी में
गया वह, लेकिन
सभी जगह से
उसको निराश
वापस लौटना
पड़ा। वह कुशल
चित्रकार
नहीं हो सकता
था।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
काश, उसको
किसी एकेडमी
ने जगह दे दी
होती, तो
वह कागज रंगने
में समय बिता
देता, दुनिया
का इतना
उपद्रव नहीं
होता। हो सकता
था लाल रंग से
कागज रंगता, लेकिन इतने
खून से जमीन न
रंगता।
लेकिन
वह चित्रकार
नहीं हो सका।
वह बेचैनी
उसको रह गई।
उसके कुछ कर
के दिखाना था।
उसे कुछ बड़ा
होना था। और
वह बेचैनी
धीरे— धीरे
राजनीति की
तरफ मुड़ गई।
फिर वह खतरनाक
आदमी
साबित हुआ।
हालांकि
चित्रकला से
उसका प्रेम
कभी नहीं खोया।
अपने कमरे में
खूबसूरत
चित्र उसने
लगा रखे थे और
चित्रों का
पारखी था।
संगीत में उसे
रस था और
पुराने
शास्त्रीय
संगीत के रिकार्ड
सुनता था। वह
एक चित्रकार
हो सकता था।
लेकिन उसकी
सारी, रजोगुण
की सारी शक्ति,
जो
चित्रकार
बनने के
दरवाजे से लौट
गई, वह
राजनीति में
नियोजित हो गई।
इंग्लैंड
अकेला मुल्क
है आज, जहां
विद्यार्थियों
का बहुत
उपद्रव नहीं
है। सारी जमीन
पर उपद्रव है।
और कुल कारण
इतना है कि
इंग्लैंड
अकेला ही मुल्क
है, जहां
विद्यार्थियों
को अभी भी दो —तीन
घंटे खेल के
मैदान पर
खेलना पड़ता है।
रजोगुण
नियोजित हो
जाता है।
तीन
घंटे जो बच्चा
फुटबाल या
वालीबाल
खेलकर लौटा है, उससे
आप कहो कि
पत्थर मारो, कांच तोड़ो
लोगों के मकान
के, वह
कहेगा, घर
जाने दो। जो
बच्चा छ: घंटे
बैठा रहा है
कुर्सी पर और
हिलने भी नहीं
दिया गया। और
शिक्षक कहता
है, बिलकुल
बुद्धवत बैठे
रहना।
पत्थरों को
छुपाकर रखे है।
यह लडका कुछ
तोड़ना चाहेगा,
फेंकना
चाहेगा।
फुटबाल
या वालीबाल
सिर्फ फेंकने, मिटाने,
तोड्ने के
व्यवस्थित
उपाय हैं, कुछ
और नहीं है।
आखिर कर क्या
रहा है, हाकी
खेल रहा है एक
लड़का। हाकी
में नहीं
मारने दोगे
इसको लट्ठ, तो यह किसी
के सिर पर
मारेगा। यह जो
गेंद है, यह
सिर का काम कर
रही है। इसका
निकला जा रहा
है रजोगुण।
दुनिया
में विश्वविद्यालय
जलाए जा रहे
हैं,
स्कूल तोड़े
जा रहे हैं।
वह तब तक जारी
रहेगा, जब
तक कि युवकों
का रजोगुण
नियोजित नहीं
होता। और खतरे
इसलिए बढ़ गए
हैं। रजोगुण
तो पहले भी था,
लेकिन
रजोगुण
नियोजित हो
जाता था।
हम
अपने मुल्क
में बाल—विवाह
कर देते थे।
रजोगुण को
मौका नहीं
रहता था कि
जाकर काच तोड़े, आग
लगाए, बसें
जलाए, कुछ
उपद्रव करे।
इसके पहले कि
होश सम्हले एक
पत्नी बांध
देते थे। वह
इतना बड़ा वजन
है कि उससे
बड़ा वजन कोई
है ही नहीं।
उसको ही ढोओ।
उसमें सारा
रजोगुण
नियोजित हो
जाता है। इसके
पहले कि अकल
में थोड़े—बहुत
अंकुर आएं, बच्चे पैदा
हो जाएंगे। अब
लड़ने—झगड़ने का
इनके पास कहीं
कोई उपाय नहीं।
ये बड़े शांतमूर्ति
मालूम पड़ेंगे!
इस
भारत में ऐसे
ही लोग थे बड़ी
संख्या में
उसका कारण और
कुछ नहीं था।
यह नहीं कि
लोग धार्मिक
थे। कुल कारण
इतना था कि
रजोगुण को
सुविधा नहीं
थी। लोग इसके
पहले कि
उपद्रव कर
पाएं, उपद्रव
की शक्ति किसी
दिशा में
संलग्न हो जाती
थी।
अब
सारी दुनिया
में बच्चे
जवान हो जाते
हैं,
न तो
विवाहित किए
जा रहे हैं, न उनके ऊपर
कोई
जिम्मेवारी
है। मां—बाप
सुख संपन्न
हैं। उनके पास
सुविधा है। तो
लड़के पच्चीस
और तीस साल तक
आवारागर्दी
कर सकते हैं।
यह खतरनाक
वक्त है।
क्योंकि
वैज्ञानिक
कहते हैं, अठारह
साल में वीर्य
की ऊर्जा अपने
शिखर को छू
लेती है। इतनी
शक्ति फिर
जीवन में
दुबारा नहीं
होगी, जितनी
अठारह साल में
होगी।
अठारह
साल,
जब कि शक्ति
अपने पूरे
तूफान में है,
उसका कोई
नियोजन नहीं
है। उसको कोई
दिशा नहीं है
बहने के लिए।
केतली के नीचे
आग जल रही है
पूरी ऊर्जा से
और ढक्कन बंद
है। और
निकालने का हम
जो रास्ता
बताते हैं, वह कोई
रास्ता नहीं
है, कि हम
उनको कहते हैं,
युनिवर्सिटी
में पढ़ो—लिखो
किताब! किताब
से कोई ऊर्जा
नहीं निकलती।
उसमें थोड़े से
जो सत्वगुण
प्रधान युवक
हैं, उनके
लिए तो ठीक है।
लेकिन बाकी का
क्या हो?
पिछले
जमाने में तो
जो सत्वगुण
प्रधान थे, वे
ही
विश्वविद्यालय
तक पहुंचते थे,
बाकी
जिंदगी में लग
जाते थे। अब
सभी को
विश्वविद्यालय
पहुंचाने की
सुविधा हो गई
है। सौ में
कोई पाच
सत्वगुण
प्रधान होंगे,
बाकी जो
पंचानबे हैं,
उनके साथ
बड़ा खतरा है।
उस पंचानबे
में आधे के
करीब रजोगुण
प्रधान हैं, जिनकी शक्ति
का कोई उपयोग
नहीं हो रहा
है। किताब
जिनकी शक्ति
को नहीं पी
सकती, परीक्षाएं
जिनकी शक्ति
को नहीं पी
सकतीं। तो वे
परीक्षा और
किताब के
माध्यम से भी
उपद्रव खड़ा कर
देंगे। हर
परीक्षा के
वक्त उपद्रव
खड़ा हो जाएगा।
यह
उपद्रव जो कर
रहा है, वह
रजोगुण
प्रधान है। और
बाकी जो आधे
बचे तमोगुण
प्रधान, वे
आलसी हैं। वे
कुछ भी न
करेंगे। अगर
युनिवर्सिटी
में आग लग रही
है, तो
बुझाने वे
जाने वाले
नहीं; वे
खडे देखते
रहेंगे। न वे
लगाने वाले को
रोकने वाले
हैं, न
लगने वाली आग
को रोकने वाले
हैं।
आज
विश्वविद्यालय
में तीन तरह
के वर्ग हैं।
एक छोटा—सा
वर्ग है, जो
पीड़ित है। वह
सत्वगुण
प्रधान है। वह
पीड़ित है सबसे
ज्यादा, क्योंकि
उसको काम ही
करने, वह
जो करना चाहता
है, कि
अध्ययन करे, कि शोध करे, वह कोई करने
नहीं दे रहा
उसको। पर वह
बहुत कमजोर है।
क्योंकि वह
रजोगुण
प्रधान नहीं
है कि लड़ सके, उपद्रव कर
सके। इसके
बहुत पहले कि
लड़ने की हालत
आए, उसकी
आंख पर चश्मा
लग जाता है, उसकी कमर
झुक जाती है।
वह अपना अपनी
पुस्तक में, अपने अध्ययन
में लगा हुआ
है। उसको इस
सबका मौका
नहीं है।
बड़ा
वर्ग है, जो
उपद्रव करना
चाहता है।
क्योंकि उसके
पास शक्ति है
और शक्ति को
बहने के लिए
रास्ता चाहिए।
फिर
तीसरा वर्ग है, जो
आलसी है। जो
सिर्फ देखता
है। जो
तमाशबीन हो
सकता है
ज्यादा से
ज्यादा। जो
कोई पक्ष नहीं
लेता। कुछ भी
हो रहा हो, वह
देखता रहता है।
व्यक्ति
में जो भी
तत्व प्रमुख
होगा, बाकी दो
तत्व उसके
पीछे संलग्न
हो जाते हैं।
सत्वगुण
सुख में लगाता
है,
रजोगुण
कर्म में और
तमोगुण
प्रमाद में
डुबा देता है।
इन
तीनों गुणों
से मुक्ति
चाहिए। कैसे
तीनों गुणों
से मुक्ति हो
सकती है, उसकी
साधना—विधि
नें हम आगे
प्रवेश
करेंगे।
और
जब भी कोई
व्यक्ति
तीनों गुणों
के बाहर हो जाता
है,
उसे हमने
गुणातीत
अवस्था कहा है।
वह परम सिद्धि
है। इसलिए
कृष्ण शुरू
में कहते हैं
कि हे अर्जुन,
जिस परम
ज्ञान से
सिद्धि
उपलब्ध होती
है, अंतिम
गंतव्य
उपलब्ध होता
है, वह मैं
तुझे फिर से
कहूंगा।
आज
इतना ही।
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