अध्याय—15
सूत्र—
द्वाविमौ
पुरूषौ लोके
क्षरश्चाक्षर
एव च।
क्षर:
सर्वाणि भूतानि
कूटस्थोऽक्षर
उच्यते।। 16।।
उत्तम:
पुरूषस्त्वन्य:
परमात्मेत्युदाह्वत:।
यो
लस्केत्रयमाविश्य
बिभर्त्सव्यय
ईश्वर:।। 17।।
यस्मात्क्षरमर्तोतोऽहमक्षरादीप
चोत्तम:।
अतोऽस्मि
लोके वेदे च
प्रथित: पुरुषोत्तम:।।
18।।
हे
अर्जुन, हम संसार
में क्षर
अर्थात
नाशवान और
अक्षर अर्थात
अविनाशी, ये
दो प्रकार के
पुरुष हैं।
उनमें संपूर्ण
भूत
प्राणियों के
शरीर तो क्षर
अर्थात
नाशवान और
कूटस्थ
जीवात्मा
अक्षर अर्थात
अविनाशी कहा
जाता है।
तथा
उन दोनों से
उत्तम पुरुष
तो अन्य ही है
कि जो तीनों
लोकों में
प्रवेश करके
सबका धारण—पोषण
करता है, एवं
अविनाशी
ईश्वर और
परमात्मा, ऐसे कहा गया
है।
क्योंकि
मैं नाशवान
जड़वर्ग
क्षेत्र से तो
सर्वथा अतीत
हूं और माया
में स्थित
अक्षर, अविनाशी
जीवात्मा से
भी उत्तम हूं
इसलिए लम्बे
में और वेद
में पुरूषोत्तम
नाम मे
प्रसिद्ध हूं।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न :
कल
एकाग्रता का
आपने भारी
मूल्य बताया
है, पर
आप अपने ध्यान
प्रयोगों में
एकाग्रता की अपेक्षा
साक्षी— भाव
पर अधिक जोर
देते हैं। ऐसा
किस कारण है?
एकाग्रता
शक्ति को
उपलब्ध करने
की विधि है।
साक्षी— भाव शांति
को उपलब्ध
करने की विधि
है। शक्ति
उपलब्ध करने
से जरूरी नहीं
है कि शांति
उपलब्ध हो।
लेकिन शांति
उपलब्ध करने
से शक्ति
अनिवार्यरूपेण
उपलब्ध हो
जाती है।
जो
व्यक्ति
शक्ति की खोज
में हैं, उनका रस
एकाग्रता में
होगा। जैसे
सूरज की
किरणें
इकट्ठी हो
जाएं, तो
अग्नि पैदा हो
जाती है। वैसे
ही मन के सारे
विचार इकट्ठे
हो जाएं, तो
शक्ति पैदा हो
जाती है। थोड़े
से प्रयोग
करें, तो
समझ में आ
सकेगा।
जब भी
मन एकजुट हो
जाता है, तब आपके
जीवन की पूरी
ऊर्जा एक दिशा
में बहने लगती
है। और जितना
संकीर्ण
प्रवाह हो, उतनी ही
शक्तिशाली हो
जाती है।
जितने विचार
बिखरे हों, ऊर्जा उतने
अनेक मार्गों
से बहती है; तब क्षुद्र
शक्ति हाथ में
रह जाती है।
जिस विचार के
प्रति भी आप
एकाग्र हो
जाते हैं, वह
विचार शीघ्र
ही यथार्थ में
परिणत हो
जाएगा। जिस
विचार में मन
डांवाडोल
होता है, उसके
यथार्थ में
परिणत होने की
कोई संभावना नहीं
है।
एकाग्रता
तो सांसारिक
मनुष्य भी चाहता
है। और
सांसारिक
मनुष्य को भी
अगर कहीं
सफलता मिलती
है, तो
एकाग्रता के
कारण ही मिलती
है।
वैज्ञानिक भी
एकाग्रता के माध्यम
से ही खोज कर
पाता है।
संगीतज्ञ भी
एकाग्रता के माध्यम
से ही संगीत
की गहरी
कुशलता को
उपलब्ध होता
है। लेकिन
साक्षी— भाव
में केवल
धार्मिक
व्यक्ति
उत्सुक होता
है।
सांसारिक
व्यक्ति की
साक्षी— भाव
में कोई भी
उत्सुकता
नहीं होती। और
अगर साक्षी—
भाव उसे कहीं
रास्ते पर पड़ा
हुआ भी मिल
जाए, तो
भी वह उसे
चुनना पसंद न
करेगा।
क्योंकि
साक्षी— भाव
का परिणाम शांति
है। और साक्षी—
भाव का परिणाम
शून्य हो जाना
है। साक्षी—
भाव का परिणाम
मिट जाना है।
वह महामृत्यु
जैसा है।
एकाग्रता से
तो आपका ही मन
मजबूत होता है
और अहंकार
प्रबल होगा।
साक्षी— भाव
से मन शांत
होता है, समाप्त
होता है, अंततः
मिट जाता है
और अहंकार
विलीन हो जाता
है। साक्षी—
भाव मन के
पीछे छिपी
आत्मा की अनुभूति
है। और
एकाग्रता मन
की ही बिखरी
शक्तियों को
इकट्ठा कर
लेना है।
इसलिए
एकाग्रता को
उपलब्ध
व्यक्ति
जरूरी नहीं है
कि धार्मिक हो
जाए। लेकिन
साक्षी— भाव
को उपलब्ध
व्यक्ति
अनिवार्यरूपेण
धार्मिक हो
जाता है।
एकाग्रता
परमात्मा तक
नहीं ले जाएगी।
और अगर आप परमात्मा
की खोज
एकाग्रता के माध्यम
से कर रहे हों, तो एक न
एक दिन आपको
एकाग्रता भी
छोड़ देनी पड़ेगी।
क्योंकि परमात्मा
तभी मिलता है,
जब आप ही
बचे। इसे थोड़ा
समझ लें।
अगर दो
मौजूद हों, आप और
आपका परमात्मा,
तो परमात्मा
की उपलब्धि
नहीं होने
वाली है। जब
आप ही बचे, तब
ही परमात्मा
की उपलब्धि
होने वाली है।
या परमात्मा
ही बचे, आप
न बचें, तो
उसकी उपलब्धि
हो सकती है।
एकाग्रता
में तो सदा दो
बने रहते हैं।
एक आप, जो
एकाग्र हो रहा
है; और एक
वह, जिसके
ऊपर एकाग्र हो
रहा है।
एकाग्रता में
द्वैत नहीं
नष्ट होता; दुई 'तो
बनी ही रहती
है। साक्षी—
भाव में द्वैत
नष्ट होता है,
अद्वैत की
उपलब्धि होती
है।
इसलिए
मेरा जोर तो
साक्षी— भाव
पर ही है। और
अगर कोई
व्यक्ति
एकाग्रता में
उत्सुकता भी
रखता है, तो भी मैं
उसे साक्षी—
भाव की तरफ ही
ले जाने की
कोशिश करता
हूं।
एकाग्रता
के माध्यम से
भी साक्षी—
भाव की तरफ
जाया जा सकता
है। क्योंकि
जिसका मन
बिखरा है, उसे
साक्षी— भाव
भी साधना कठिन
होगा। जिसका
मन एकजुट है, उसे साक्षी—
भाव भी साधना
आसान हो जाएगा।
इसलिए कुछ
धर्मों ने भी
एकाग्रता का
उपयोग साक्षी—
भाव की पहली
सीढ़ी की तरह
किया है।
लेकिन वह सीढ़ी
ही है, साधन
ही है, साध्य
नहीं है।
और
ध्यान रहे, साक्षी—
भाव साधन भी
है और साध्य
भी। साक्षी—
भाव साधना भी
है और साक्षी—
भाव पाना भी
है। साक्षी—
भाव के पार
कुछ भी नहीं
है। इसलिए
साक्षी— भाव
की साधना पहले
चरण से ही
मंजिल की
शुरुआत है।
एकाग्रता
मंजिल की
शुरुआत नहीं
है। वह एक
साधन है, एक रास्ता
है। वह रास्ता
वहां तक
पहुंचा देगा,
जहां से
असली रास्ता
शुरू होता है।
और वह भी तभी
पहुंचाएगा, जब आपको
ध्यान में हो।
अन्यथा खतरा
है। एकाग्रता
में भटक जाने
की पूरी
सुविधा है।
ऐसा हुआ, विवेकानंद
एकाग्रता की
साधना करते थे।
शक्तिशाली व्यक्ति
थे और मन को
इकट्ठा कर
लेना
शक्तिशाली व्यक्तियों
के लिए बड़ा
आसान है।
सिर्फ कमजोरी
के कारण ही हम
मन को इकट्ठा
नहीं कर पाते
हैं। कमजोरी
के कारण ही मन यहां
—वह। भागता है,
हम उसे खींच
नहीं पाते।
हाथ कमजोर हैं,
लगाम कमजोर
है, घोड़े
कहीं भी भागते
हैं। और इसलिए
कमजोरी में
हमसे सब भूलें
होती हैं।
एक
आदमी पर मुकदमा
चल रहा था।
उसने पहले एक
आदमी को मारा, फिर
दूसरे आदमी को
धक्का देकर छत
से नीचे गिरा
दिया और तीसरे
आदमी की हत्या
कर दी। एक
पंद्रह मिनट
के भीतर तीन
काम उसने किए।
जज
उससे पूछ रहा
था कि तू इतने
भयंकर काम पंद्रह
मिनट में कैसे
कर पाया? उस आदमी ने
कहा, क्षमा
करें, कमजोरी
के क्षण में
ऐसा हो गया।
कमजोरी के
क्षण में, मोमेंट्स
आफ वीकनेस। आप
जिनको कमजोरी
के क्षण कहते
हैं, वहीं
आपकी ताकत
दिखाई पड़ती है।
आपकी ताकत गलत
में ही दिखाई
पड़ती है। और
गलत में इसलिए
दिखाई पड़ती है
कि वहां आपको
ताकत दिखानी
नहीं पड़ती, मन ही आपको
खींचकर ले
जाता है। मन
के विपरीत जहां
भी आपको ताकत
दिखानी पड़े, वहीं आप
कमजोर हो जाते
हैं। वहीं फिर
आपसे कुछ बनता
नहीं।
अगर
आपसे कोई कहे
कि पांच मिनट शांत
होकर बैठ जाएं, तो बड़ी
कठिन हो जाती
है बात। पचास
साल अशांत रह
सकते हैं; उसमें
जरा भी अड़चन
नहीं है। पाच
क्षण शांत
होना कठिन है।
जन्मों—जन्मों
तक विचारों की
भीड़ चलती रहे,
आपको कोई
कठिनाई नहीं
है। लेकिन एक
विचार पर मन
को क्षणभर को
लाना हो, तो
बस कठिनाई हो
जाती है।
पर
विवेकानंद
शक्तिशाली
व्यक्ति थे।
एकाग्रता के प्रयोग
करते थे।
एकाग्रता सध
भी गई। जैसे
ही एकाग्रता
सधी, जो
खतरा होना
चाहिए, वह
हुआ। क्योंकि
एकाग्रता के
सधते ही आपको
लगता है कि
मैं
महाशक्तिशाली
हो गया।
रूस
में एक महिला
है, जो
पांच मिनट तक
अपने को
एकाग्र कर
लेती है, तो
फिर आस—पास की
वस्तुओं को
प्रभावित कर
सकती है। बीस
फीट के घेरे
में पत्थर पड़ा
हो, तो वह
उसको अपने पास
खींच ले सकती
है, सिर्फ
विचार से।
टेबल रखी हो, तो सिर्फ
विचार से हटा
दे सकती है।
टेबल पर सामान
रखा हो, तो
सिर्फ विचार
से नीचे गिरा
दे सकती है।
रूस
में उसके बड़े
वैज्ञानिक
परीक्षण हुए
हैं। और उन्होंने
अनुभव किया कि
जब विचार
बिलकुल
एकाग्र हो
जाता है, तो जैसे
विद्युत के
धक्के लगते
हैं वस्तुओं को,
ऐसे ही
विचार के
धक्के भी
लगने
शुरू हो जाते
हैं। उसके
फोटोग्राफ भी
लिए गए हैं, और उसके
वैज्ञानिक
प्रयोग भी किए
गए हैं। और
सभी प्रयोगों
से यह सिद्ध
हुआ कि उस
स्त्री से कोई
वैद्युतिक
शक्ति
प्रवाहित होती
है, जो
वस्तुओं को
हटा देती है
या पास खींच
लेती है।
पंद्रह
मिनट के
प्रयोग में उस
स्त्री का तीन
पाउंड वजन कम
हो जाता है।
इतनी शक्ति
प्रवाहित
होती है कि
उसका तीन पाउंड
शरीर से वजन
नीचे गिर जाता
है।
तो
दिखाई न पड़ती हो, लेकिन
फिर भी शक्ति
भौतिक है।
नहीं तो तीन
पाउंड वजन कम
होने का कोई
कारण नहीं है।
अदृश्य हो, लेकिन
मैटीरियल है,
पदार्थगत
है। इसलिए तीन
पाउंड शरीर का
वजन नीचे गिर
जाता है। और
वह स्त्री कोई
एक सप्ताह तक
अस्वस्थ
अनुभव करती है।
एक सप्ताह के
बाद फिर
प्रयोग कर
सकती है, उसके
पहले नहीं।
जब भी
कोई चित्त को
एकाग्र करता
है, तो
बड़ी शक्ति
प्रकट होती है।
अगर उसका
उपयोग किया
जाए, शक्ति
क्षीण हो जाती
है। अगर उसका
उपयोग न किया
जाए और सिर्फ
उसका साक्षी
रहा जाए, तो
वह शक्ति
स्वयं में लीन
हो जाती है।
और वह जो
स्वयं में
शक्ति की
लीनता है, वह
साक्षी का
आधार बनने
लगती है।
विवेकानंद
ने एकाग्रता
साधी और जैसा
सभी को होगा, उनको भी
हुआ, लगा
कि मैं परम
शक्तिशाली हो
गया हूं। और
कोई भी काम
करना चाहूं, तो केवल
विचार से हो
सकता है।
रामकृष्ण
के आश्रम में
एक बहुत सीधा—सादा
आदमी था। कालू
उसका नाम था, कालीचरण।
वह भक्त आदमी
था। अपने छोटे—से
कमरे में उसने
कम से कम नहीं
तो सौ—पचास
देवी—देवता रख
छोडे थे। सब
तरह के देवी—देवताओं
को नमस्कार
करना...! उसको
कोई तीन घंटे से
लेकर छ: घंटे
तक पूजा में
लग जाते।
क्योंकि सभी
को थोड़ा— थोड़ा
राजी करना
पड़ता। इतने देवी—देवता
थे।
और
विवेकानंद
उससे अक्सर
कहते थे, क्योंकि
विवेकानंद का
मन वस्तुत:
नास्तिक का मन
था। शुरुआत से
ही विचार और
तर्क उनकी पकड़
थी। तो उस पर
वे हंसते थे
और उससे कहते
थे, कालीचरण,
फेंक। यह
क्या कचरा
इकट्ठा कर रखा
है! और इन
पत्थरों के
पीछे तू तीन—तीन,
छ: —छ: घंटे
खराब करता है!
जैसे
ही उनको
एकाग्रता का
पहला अनुभव
हुआ, उनको
खयाल आया
कालीचरण का, कि वह पूजा
कर रहा है बगल
के कमरे में।
तो उन्होंने
अपने मन में
ही सोचा कि
कालीचरण, बस,
अब बहुत हो
गया। सारे
देवी—देवताओं
को एक कपड़े
में बांध और
गंगा में फेंक
आ।
कालीचरण
पूजा कर रहा
था; अचानक
उसे भाव आया
कि सब बेकार
है। सारे देवी—देवता
उसने कपड़े में
बांधे और गंगा
की तरफ चला।
रामकृष्ण
अपने कमरे में
बैठे थे।
उन्होंने
कालीचरण को
बुलाया कि कहां
जा रहे हो? उसने कहा,
सब व्यर्थ
है; कर
चुके पूजा—पाठ
बहुत; इससे
कुछ होता नहीं।
ये सब देवी—देवताओं
को गंगा में
फेंकने जा रहा
हूं। कालीचरण
को रामकृष्ण
ने कहा, एक
दो मिनट रुक।
और आदमी भेजा
कि विवेकानंद
को उनकी कोठरी
से निकालकर
बाहर ले आओ।
कालीचरण को
कहा कि यह तू
नहीं जा रहा
है।
विवेकानंद
घबडाए हुए आए।
रामकृष्ण ने
कहा कि देख, यह तूने
क्या किया! और
अगर यही करना
है एकाग्रता
से, तो
तेरी कुंजी
सदा के लिए
मैं रखे लेता
हूं। अब मरने
के तीन दिन
पहले ही तुझे
कुंजी वापस मिलेगी।
विवेकानंद
मरने के तीन
दिन पहले तक
फिर एकाग्रता
न साध सके।
विवेकानंद
जैसा व्यक्ति
भी अगर शक्ति
का ऐसा क्षुद्र
उपयोग करने को
तैयार हो जाए, तो किसी
दूसरे
व्यक्ति के
लिए तो बिलकुल
स्वाभाविक है।
इसलिए
एकाग्रता पर
मेरा जरा भी
जोर नहीं है।
पहले आपको
एकाग्रता
सधवाई जाए, फिर चाबी
रखी जाए, इस
सब अड़चन में
पड़ने की कोई
जरूरत नहीं है।
साक्षी—
भाव सहज मार्ग
है। और चूंकि
शक्ति सीधी
उपलब्ध नहीं
होती, बल्कि
शांति उपलब्ध
होती है। जैसे—जैसे
साक्षी सधता
है, वैसे—वैसे
आप परम शांत
होते जाते हैं।
उस परम शांति
के कारण ऐसे
उपद्रवी खयाल
आपमें उठेंगे
ही नहीं। और
दूसरे को कुछ
करके दिखाना
है, दूसरे
के साथ कुछ
करना है अपनी
शक्ति से, ऐसी
वासना नहीं
जगेगी।
अन्यथा
सभी तरह की
शक्तियां
भटकाव बन जाती
हैं। धन की
शक्ति से ही
लोग बिगड़ते
हैं, ऐसा
मत सोचना आप, सभी तरह की
शक्ति से
बिगड़ते हैं।
पद की शक्ति
से लोग बिगड़ते
हैं, ऐसा
आप मत सोचना, सभी तरह की
शक्ति से
बिगड़ते हैं।
सचाई तो यह है
कि बिगड़ने की
तो आपकी
मनोदशा सदा ही
है, सिर्फ
आप कमजोर हैं
और बिगड़ने के
लायक आपके पास
शक्ति नहीं है।
मेरे पास
अक्सर लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, फला
आदमी इतना भला
था, सेवक
था, भूदान
में काम करता
था; गरीबों
के चरण दबाता
था; मरीजों
का इलाज करता
था, विधवाओं
के लिए आश्रम
खोलता था। वह
जब से राजपद
पर चला गया है,
कि
मिनिस्टर हो
गया है, तब
से बिलकुल बदल
गया है! शक्ति
ने उसे खराब
कर दिया।
शक्ति
क्यों खराब
करेगी? उस आदमी के
भीतर खराबी के
सारे मार्ग थे,
लेकिन उन पर
बहने की
हिम्मत न थी, और कोई उपाय
न था। जैसे ही
हिम्मत मिली,
उपाय मिला,
साधन जुटे,
वह आदमी बिगड़
गया।
लोग
कहते हैं, फलां
आदमी कितना
भला था जब
गरीब था। जब
से उसके पास
पैसा आया है, तब से वह
पागलपन कर रहा
है। पागलपन
सभी करना
चाहते हैं, लेकिन
पागलपन करने
को भी तो
सुविधा चाहिए।
पाप सभी करना
चाहते हैं, लेकिन पाप
करने के लिए
भी तो सुगमता
चाहिए। बुरा
सभी करना
चाहते हैं, लेकिन आपकी
सामर्थ्य भी
तो बुरा करने
की होनी चाहिए।
जब भी
सामर्थ्य
मिलती है, बुराई
तत्क्षण पकड़
लेती है।
पर मैं
आपसे कहता हूं
कि धन और पद की
ही शक्तियां
नहीं, एकाग्रता
की शक्ति भी
बुराई के
रास्ते पर ले
जाएगी।
क्योंकि बुरे
तो आप होना ही
चाहते हैं। वे
बीज वहा पड़े
हैं, वर्षा
की जरूरत है।
शक्ति की
वर्षा हो जाए,
अंकुर फूट
आएंगे। और जो
बीज आप में
छिपे हैं, वे
प्रकट होने
लगेंगे। और हम
सब जहर के बीज
लिए चल रहे
हैं।
इसलिए
मेरी पूरी
चेष्टा रहती
है निरंतर कि
आपको शक्ति की
दिशा में जाने
का खयाल ही न
पकड़े। आप मौन, शांति और
शून्यता की
दिशा में जाएं।
क्योंकि जैसे—जैसे
आप शांत होंगे,
वे जो जहर
के बीज आपके
भीतर पड़े हैं,
उनके
अंकुरित होने
का कोई उपाय न
रहेगा। आपके शांत
होते—होते वे
बीज दग्ध होने
लगेंगे, जल
जाएंगे।
शक्ति आपको भी
उपलब्ध होगी,
लेकिन वह
तभी उपलब्ध होगी,
जब शांति
इतनी घनी हो
जाएगी कि सारे
रोग के बीज जल
चुके होंगे, तब आपको
शक्ति उपलब्ध
होगी। लेकिन
उसका फिर कोई
दुरुपयोग
नहीं हो सकता
है।
और उस
शक्ति का, सच पूछिए
तो, आप
उपयोग भी नहीं
करेंगे। और जब
कोई व्यक्ति
शक्तिशाली हो
जाता है और उपयोग
नहीं करता, तब परमात्मा
उस शक्ति का
उपयोग करता है।
इस कीमिया को
ठीक से समझ
लें।
जब तक
आप उपयोग करने
वाले हैं, तब तक परमात्मा
आपका उपयोग
नहीं करता। जब
तक आप कर्ता
हैं, तब तक परमात्मा
के लिए आप
उपकरण नहीं
बनते, निमित्त
नहीं बनते।
जैसे ही आपको
खयाल ही मिट
जाता है कि
कुछ करना है
और शक्ति आपके
पास होती है, उस शक्ति का
उपयोग परमात्मा
के हाथ में
चला जाता है।
कृष्ण का पूरा
जोर गीता में
अर्जुन से यही
है कि तू
कर्तापन छोड़
दे। और जैसे
ही तेरा
कर्तापन छूट
जाएगा, वैसे
ही परमात्मा
तेरे भीतर से
प्रवाहित
होने लगेगा, तब तू
निमित्त—मात्र
है।
तो
साक्षी का मार्ग
और एकाग्रता
का मार्ग बड़े
भिन्न—भिन्न
हैं। पर आपकी आकांक्षा
क्या है? अगर आप अपने
अहंकार को और
बड़ा करना
चाहते हैं, उसको और महिमाशाली
करना चाहते
हैं, तो
साक्षी की बात
आपको न जमेगी।
तब आप चाहेंगे
कि एकाग्रता,
कनसनट्रेशन,
सिद्धियां,
शक्तियां
आपको उपलब्ध
हो जाएं। पर
ध्यान रहे, वैसी खोज
धार्मिक नहीं
है। जहां भी
आपको यह खयाल
होता है कि
मैं कुछ हो
जाऊं, आप
धर्म से हट
रहे हैं। इस
बात को आप
कसौटी बना लें।
यह
भावना आपकी
रोज गहरी होती
जाए कि मैं
मिट रहा हूं; मैं ना—कुछ
हो रहा हूं।
और अंततः मुझे
उस जगह जाना
है, जहां
मैं खो जाऊंगा,
जहां बूंद
को खोजने से
भी न खोजा जा
सकेगा, बूंद
पूरी सागर में
एक हो गई होगी।
तो मुझे शक्ति
की जरूरत भी
क्या है? शक्ति
परमात्मा की
है और मैं परमात्मा
में खो जाऊंगा,
तो सारा परमात्मा
मेरा है। मुझे
अलग से शक्ति
की खोज की
जरूरत क्या
है! अलग से
शक्ति की खोज
का अर्थ है, आप अपने
अहंकार को
बचाने में लगे
हैं। और
अहंकार ही
संसार है।
दूसरा
प्रश्न :
सबको
शास्त्र पढ़कर
गुरु की खोज
में निकलना पड़ता
है। क्या
शास्त्रों को
पढ़ने की कष्ट—साध्य
प्रक्रिया से
गुजरना
अनिवार्य है? क्या
सीधे ही गुरु
की खोज में
नहीं निकला जा
सकता है?
संभव है; क्योंकि
गुरु की खोज
शास्त्र की
असफलता से शुरू
होती है। जब
आप शास्त्र
में खोजते हैं,
खोजते हैं,
खोजते हैं
और नहीं पाते
हैं, तभी
गुरु की खोज
शुरू होती है।
जहां बाइबिल,
कुरान, गीता
और वेद हार
जाते हैं, वहीं
से गुरु की
खोज शुरू होती
है। क्यों? और सीधे
गुरु की तलाश
में जाना
क्यों असंभव
है?
पहली
बात, शास्त्र
मुर्दा है।
उससे आपके
अहंकार को चोट
नहीं लगती।
गीता को सिर
पर रखना
बिलकुल आसान
है। कुरान पर
सिर झुकाना
बिलकुल आसान
है। लेकिन
किसी जीवित
व्यक्ति को
सिर पर रखना
बहुत कठिन है;
और किसी
जीवित
व्यक्ति के
चरणों में सिर
रखना बहुत
मुश्किल है।
किताब
तो मुर्दा है।
मरे हुए से
आपके अहंकार
को कोई खतरा
नहीं है। एक
जिंदा
व्यक्ति
खतरनाक है। और
उसके चरणों
में सिर
झुकाते वक्त
पीड़ा होती है।
आपका अहंकार
बल मारता है।
इसलिए पहले
व्यक्ति शास्त्र
से खोज करता
है कि अगर
किताब से मिल
जाए, तो
क्यों झंझट
में पड़ना!
फिर
किताब आप खरीद
सकते हैं, गुरु आप
खरीद नहीं
सकते। किताब
दुकान—दुकान
पर मिल जाती
है। गुरु को
बेचने वाली
कोई दुकानें
नहीं हैं।
किताब के अर्थ
आप अपने मतलब
से निकालेंगे।
किताब की
व्याख्या
करने के आप ही मालिक
होंगे, क्या
मतलब निकालते
हैं, यह आप
पर ही निर्भर
होगा। और हमारा
जो अचेतन है, वह अपने ही
हिसाब से अर्थ
निकालता है।
इसलिए
कोई किताब
आपको बदल नहीं
सकती। कोई
किताब आपको
रूपांतरित
नहीं कर सकती।
क्योंकि
किताब का अर्थ
कौन करेगा? आप गीता
पढ़ेंगे, माना;
लेकिन उस
गीता से जो
मतलब
निकालेंगे, वे आपके ही
होंगे, वह
आपका ही
अहंकार होगा;
उसका ही
प्रक्षेपण
होगा।
और हम
किताब से वही
निकाल लेते
हैं, उस
पर ही हमारा
ध्यान जाता है,
जो हमारी
चित्त—दशा
होती है।
मैंने
एक घटना सुनी
है। पता नहीं
सच है या झूठ।
बंगला देश में
याह्या खान ने
अपनी सारी
ताकतें लगा दीं।
और रोज—रोज
सूर्यास्त
होने लगा। तो
वह बहुत
घबड़ाया हुआ था।
और उसने
अमेरिकी
राजदूत को
बुलाया कि
हमें और
शस्त्रास्त्रों
की जरूरत
पडेगी। इसके
पहले कि
अमेरिकी
राजदूत आए, उसने
बाइबिल पलटनी
शुरू की इस
खयाल से कि
कुछ बाइबिल से
दों—चार वचन
याद कर ले, तो
अमेरिकी
राजदूत को
बाइबिल के
आधार पर प्रभावित
करना आसान
होगा।
उसने
किताब पलटी।
जिस वाक्य पर
पहली उसकी नजर
पड़ी, तो
वह थोड़ा धक्का
खाया। पहला
वचन जो उसने
देखा, वह
था, और
जुदास ने अपने
आपको फांसी
लगा ली। उसकी
हालत उस वक्त
वही थी, फांसी
लगाने जैसी।
तो वह थोड़ा
डरा। उसने
जल्दी से
पन्ना पलटा।
दूसरे
पन्ने पर उसकी
नजर पड़ी, एक वचन था कि
और तुम भी उसी
का अनुसरण करो।
तब तो वह बहुत
घबड़ा गया।
उसने जल्दी से
तीसरा पन्ना
उलटा, उसकी
नजर पड़ी कि
समय क्यों
खराब कर रहे
हो? देर
क्या है? सोच—विचार
क्या है? इस
पर शीघ्र अमल
करो। उसने
घबड़ाकर
बाइबिल बंद कर
दी।
इस
आधार पर कि
आपका अचेतन
काम करता है, चीन में
एक किताब है, आई चिंग। यह
दुनिया की
अनूठी से
अनूठी किताब
है। और लाखों
लोग हजारों
वर्षों से इस
किताब का उपयोग
कर रहे हैं।
आई चिंग
ज्योतिष की
अनूठी किताब
है। और आपका
कोई भी प्रश्न
हो, आई
चिंग में उसके
उत्तर हैं। बस,
आप अपना
प्रश्न तैयार
कर लें और आई
चिंग को उलटे।
और उसके उलटने
के हिसाब हैं।
पासे फेंकने
का हिसाब है, उससे उसका
पन्ना उलट लें।
और आपको उत्तर
मिल जाएगा।
आई
चिंग बड़ी
अदभुत किताब
है। क्योंकि
एक तो चीनी
भाषा में है।
उसका अनुवाद
भी हुआ है, तो भी
चीनी भाषा
अनूठी है, उसमें
एक शब्द के
अनेक अर्थ
होते हैं।
क्योंकि शब्द
होता नहीं,
सिर्फ चित्र
होते हैं। और
आई चिंग ऐसी
रहस्यपूर्ण
किताब है कि
कोई भी वचन
साफ नहीं है।
किसी वचन का
कोई साफ मतलब
नहीं है; धुंधला—
धुंधला है।
ऐसे ही
जैसे कि आप
आकाश में
देखें, बादल घिरे
हैं; और
बादलों में जो
भी चित्र आप
देखना चाहें,
देख लें।
आपको घोड़ा
बनाना हो, तो
घोड़ा बन जाए; हाथी बनाना
हो, तो
हाथी बन जाए।
जो भी आपको
बनाना हो।
क्योंकि बादल
तो—न वहां
हाथी है, न
वहां घोड़ा है—सिर्फ
धुआं है उड़ता
हुआ। रेखाएं
प्रतिपल बदल
रही हैं। आप
उनमें कोई भी
कल्पना कर लें,
वह आपको
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाएगा।
चांद
पर बच्चे
देखते हैं कि
बुढ़िया चरखा
चला रही है।
वह उनको दिखाई
पड़ने लगता है।
एक बार खयाल
में आ जाए, फिर
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाता
है।
आई
चिंग को लोग पढ़ते
हैं; उनका
जो अपना
प्रश्न है, उसके हिसाब
से वे उत्तर
निकाल लेते
हैं। उत्तर
उसमें मिल
जाते हैं। लोग
सोचते हैं, बड़ी अनूठी
किताब है।
अनूठी सिर्फ
इसलिए है कि
जिसने भी रची,
वह आदमी
मिस्टिफिकेशन
में, चीजों
को धुंधला
करने में महान
कारीगर रहा होगा।
कोई भी चीज का
साफ रेखा में
उत्तर नहीं है।
इतना धुंधला
है उत्तर कि
आप जो भी मतलब
निकालना
चाहें, निकल
सकता है। तो
हर आदमी अपने
मतलब का मतलब
निकाल लेता है।
सभी
शास्त्र
धुंधले हैं।
उसका कारण है।
इसलिए नहीं कि
धुंधले लोगों
ने रखे हैं।
लेकिन जिस
सत्य की चर्चा
है, शब्दों
में आकर वह
सत्य धुंधला
हो जाता है।
सत्य को शब्द
के माध्यम में
डालते ही
धुंधलापन
पैदा हो जाता
है।
फिर
शास्त्र से
अर्थ आप अपना
निकालते हैं।
तो जो आदमी
पढ़ता है, वही आदमी
अपने को ही
शास्त्र के माध्यम
से पढ़ रहा है।
इसलिए कोई
शास्त्र आपको
आपके ऊपर नहीं
ले जा सकते, आपके भीतर
ही रखेंगे।
आपसे ज्यादा
कोई शास्त्र
आपको नहीं दे
सकता।
शास्त्र की
हालत वैसी है,
मैंने सुना
है, एक
आदमी, का
आदमी, गाव
का ग्रामीण, आंख के
डाक्टर के पास
गया। आंखों से
उसको दिखना
करीब—करीब बंद
हो गया था। तो
डाक्टर ने कहा,
लेकिन आंखों
में कोई
मूलभूत खराबी
नहीं है, चश्मा
लगाने से सब
ठीक हो जाएगा।
तो उस
के आदमी ने
कहा, क्या
आंखें इतनी
ठीक हो जाएंगी
कि मैं लिख—पढ़
भी सकूं? डाक्टर
ने कहा, बिलकुल।
तुम लिख सकोगे,
पढ़ सकोगे।
तो उसने कहा, तब तो जल्दी
करो, क्योंकि
लिखना—पढ़ना
मुझे आता नहीं।
अब
जिसको लिखना—पढ़ना
नहीं आता, वह चश्मा
लगाने से भी
लिख—पढ़ नहीं
सकेगा।
क्योंकि
चश्मा उतना ही
बता सकता है, जितना आपको
आता हो, उससे
ज्यादा नहीं।
शास्त्र
में आप वह
कैसे पढ़ सकते
हैं, जो
आपको आता ही
नहीं। आप वही
पढ़ सकते हैं, जो आपको आता
है। इसलिए
शास्त्र
व्यर्थ हैं।
शास्त्र आपको
आपसे ज्यादा
में नहीं ले
जा सकता है, कोई आत्म—
अतिक्रमण
नहीं हो सकता
है।
पर
शास्त्र
सुविधापूर्ण
है। आप जो भी
मतलब निकालना
चाहें, निकालें।
शास्त्र झगड़ा
भी नहीं करता।
वह यह भी नहीं
कह सकता कि आप
गलत अर्थ
निकाल रहे हैं,
कि यह मेरा
भाव नहीं है, कि ऐसा
मैंने कभी कहा
नहीं है।
शास्त्र कोई
आज्ञा भी नहीं
देता। सब आप
पर निर्भर है।
इसलिए
पहले अहंकार
शास्त्र में
खोजने की कोशिश
करता है। और
जब नहीं पाता.।
और अभागे हैं
वे लोग, जो सोचते
हैं कि उनको
शास्त्र में
मिल गया।
सौभाग्यशाली
हैं वे लोग, जिनमें कम
से कम इतनी
बुद्धि है कि
वे पहचान लेते
हैं कि
शास्त्र में
हमें नहीं मिला।
यह बुद्धिमान
का लक्षण है।
अनेक
तो बुद्धिहीन
सोच लेते हैं
कि उन्हें मिल
ही गया।
शास्त्र के
शब्द कंठस्थ
कर लेते हैं, और सोचते
हैं, बात
पूरी हो गई।
शास्त्र
से जो असफल हो
जाता है, उसकी नजर
व्यक्तियों
की तलाश में
जाती है।
क्योंकि अब
अहंकार एक
पराजय झेल
चुका। और अब
वह जीवित
व्यक्ति में
तलाश करेगा।
जीवित
व्यक्ति के
साथ अड़चनें
हैं। पहली तो
अड़चन यह है कि
उसके सामने
झुकना कठिन है।
और बिना झुके
सीखने का कोई
उपाय नहीं है।
दूसरी
अड़चन यह है कि
आप अपना अर्थ
न निकाल सकेंगे।
वह जीवित
व्यक्ति अपना
ही अर्थ, अपने ही
अर्थ पर आपको
चलाने की
कोशिश करेगा।
जीवित आदमी को
धोखा नहीं
दिया जा सकता।
अपनी मरजी उस
पर थोपी नहीं
जा सकती। और
वह जीवित आदमी
आपको आपके
बाहर और आपसे
ऊपर ले जाने
में समर्थ है।
शास्त्र
के द्वारा
आत्म—क्रांति
करने की कोशिश
ऐसे है, जैसे कोई
अपने जूते के
बंधों को
पकड़कर खुद को उठाने
की कोशिश करे।
आप ही पढ़ रहे
हैं; आप ही
अर्थ निकाल
रहे हैं; आप
ही साधना कर
रहे हैं! अपने
ही जूते के
बंध पकड़े हैं
और उठाने की
कोशिश कर रहे
हैं। इससे कुछ
परिणाम नहीं
है। लेकिन एक
परिणाम हो
सकता है कि
इससे थक जाएं
और गुरु की
तलाश शुरू हो
जाए। इसलिए
शास्त्रों की
एक ही
उपयोगिता है
कि वे गुरु तक
आपको पहुंचा
दें। मृत
जीवित तक आपको
पहुंचा दे, तो काफी काम
है। और आप
सोचते हों कि
शास्त्र से
बचकर हम गुरु
तक पहुंच जाएं,
तो बहुत
कठिन है।
क्योंकि वह
असफलता जरूरी
है। वह
शास्त्र में
भटकने की
चेष्टा जरूरी
है। वहां
विषाद से, दुख
से भर जाना
जरूरी है।
दोनों
तरह के लोग
मेरे पास आ
जाते हैं। ऐसा
व्यक्ति भी
आता है, जो शास्त्र
से थक गया है।
तो मैं पाता
हूं उसके साथ
काम बहुत आसान
है। क्योंकि
वह व्यर्थ से
ऊब चुका है।
अब उसकी
व्यर्थ में
बहुत
उत्सुकता
नहीं है। अब
वह सार की ही
बात जानना
चाहता है, जो
की जा सके। अब
वह
व्यावहारिक
है। अब वह
शास्त्रीय
नहीं है। अब
उसकी बौद्धिक
चिंता नहीं है
बहुत। अब उसकी
साधनागत
चिंता है।
शास्त्र से वह
छूट चुका। अब
साधना की
प्यास उसमें
जगी है।
जो लोग
बिना शास्त्र
को जाने आ
जाते हैं, उनकी
जिज्ञासा
शास्त्रीय
होती है। वे
पूछते हैं, ईश्वर है या
नहीं? संसार
किसने बनाया?
यह काम तो
शास्त्र ही
निपटा देता, इनके लिए
मेरे पास आने
की जरूरत नहीं
है। आत्मा
कहां से आई? ब्रह्म कहां
है? यह सब
बकवास तो
शास्त्र ही
निपटा देता।
इस सबके लिए
किसी जीवित
आदमी की कोई
जरूरत नहीं है।
और कोई जीवित
गुरु इस तरह
की व्यर्थ की
बातों में
पड़ेगा भी नहीं,
क्योंकि
समय खराब करने
को नहीं है।
तो जो
लोग शास्त्र
से नहीं गुजरे
हैं, उनके
साथ तकलीफ यह
होती है कि
उनकी
जिज्ञासाएं
शास्त्रीय
होती हैं और
वे व्यर्थ समय
जाया करते हैं।
शास्त्र
से गुजर जाना
अच्छा है।
आपकी जो बचपनी, बच्चों
जैसी
जिज्ञासाएं
हैं, उनका
या तो हल हो
जाएगा या आपको
समझ में आ
जाएगा कि वे
व्यर्थ हैं; उनका कोई
मूल्य नहीं है।
और आप जीवन
में बदलाहट
कैसे हो सके, इसकी प्यास
से भर जाएंगे।
यह प्यास बड़ी
अलग है।
और
शास्त्रों को
आपने समझा हो, तो गुरु
को समझना आसान
हो जाएगा।
क्योंकि जो—जो
शास्त्र में
छूट गया है, वही—वही
गुरु में है।
गुरु परिपूरक
है। जहां—जहां
इशारे थे, थोड़ी
दूर तक यात्रा
थी और फिर मार्ग
छूट जाता था, वहीं से
गुरु शुरू होता
है। वह
परिपूरक है।
क्योंकि जहां
तक शब्द ले जा
सकते हैं, उसके
आगे ही गुरु
का काम है।
महावीर
के जीवन में
उल्लेख है, बड़ी
हैरानी का
उल्लेख है।
बुद्ध के जीवन
में भी वही
उल्लेख है। और
सांयोगिक
नहीं मालूम
होता। महावीर
के जो बड़े
शिष्य थे
ग्यारह, वे
ग्यारह के ग्यारह
महापंडित
ब्राह्मण थे।
महावीर
ब्राह्मणों
के शत्रु हैं, एक लिहाज
से। क्योंकि
वे एक नए धर्म
की उदभावना कर
रहे थे, जो
ब्राह्मण और
पुरोहित के
विरोध में थी।
वे मंदिर, पुराने
शास्त्र, वेद,
उन सब का
खंडन कर रहे
थे। ईश्वर, उसका इनकार
कर रहे थे।
खुद क्षत्रिय
थे, लेकिन
उनके जो
ग्यारह गणधर
हैं, जो
उनके ग्यारह
विशेष शिष्य,
जिनके आधार
पर सारा जैन
धर्म खड़ा हुआ,
वे सब के सब
महापंडित
ब्राह्मण हैं।
यह जरा हैरानी
की बात है।
बुद्ध
के साथ भी ठीक
यही हुआ।
बुद्ध
क्षत्रिय हैं।
उनके जो भी
महाशिष्य हैं, वे सभी
ब्राह्मण हैं।
और साधारण
ब्राह्मण
नहीं, असाधारण
पंडित हैं।
जब
सारिपुत्त
बुद्ध के पास
आया, तो
पांच सौ
ब्राह्मण
उसके शिष्य थे,
उसके साथ आए
थे। जब
मौदगल्यायन
बुद्ध के पास
आया, तो
उसके साथ पाच
हजार उसके
शिष्य थे। वह
पाच हजार
शिष्यों का तो
स्वयं गुरु था।
ठीक
ऐसा ही महावीर
के जीवन में
उल्लेख है।
गौतम जब आया, सुधर्मा
जब आया, तो
ये सब बड़े—बड़े
पंडित थे। और
इनके साथ बड़े
शिष्यों का
समूह था।
महावीर
जिंदा गुरु
हैं। ये
ग्यारह जो
उनके गणधर हैं, ये सब
शास्त्र जान
चुके थे। ये
सब वेद के
ज्ञाता थे।
पारंगत
विद्वान थे।
ये महावीर को
समझ सके तत्क्षण,
क्योंकि जो—जो
शास्त्र में
छूट रहा था, वह—वह
महावीर में
मौजूद था।
इनको पकड़ फौरन
आ गई। ये
महाकाश्यप, सारिपुत्त,
मौदगल्यायन,
ये सब के सब
महापंडित थे।
इन्होंने सब
शास्त्र तलाश
लिए थे।
शास्त्र में
कहीं भी कुछ
नहीं बचा था, जो इन्होंने
न खोजा हो।
फिर भी सब जगह बात
अधूरी थी।
बुद्ध को
देखते ही सब
बातें पूरी हो
गईं। इस आदमी
की मौजूदगी से
शास्त्र में
जो कमी थी, वह
तत्काल भर गई।
जहां—जहां
शास्त्र का
पात्र अधूरा
था, वहां—वहा
बुद्ध को
देखकर पूरा हो
गया। जिस तरफ
शास्त्रों ने
इशारा किया था,
यह वही आदमी
था।
तो
अपने से विपरीत
के प्रति भी
समर्पण में
कठिनाई नहीं
आई। ये ग्यारह
पंडित महावीर
के चरणों में
सिर रख दिए।
इन्होंने
अपने
शास्त्रों
में आग लगा दी।
इन्होंने कहा, अब उनकी
कोई जरूरत
नहीं।
क्योंकि
जिंदा आदमी
मिल गया, जिसकी
हम तलाश करते
थे।
नक्शो
की तभी तक
जरूरत है, जब तक घर
न मिल गया हो
जिसकी आप खोज
कर रहे हैं।
फिर आप नक्शो
को फेंक देते
हैं। फिर आप
कहते हैं, मिल
गई वह जगह, जिसकी
ओर नक्शो में
इशारा था, जहां
हम चल रहे थे।
तो
महावीर ने जब
इन गणधरों से
कहा कि छोड़ दो
वेद।
उन्होंने कहा, आपको
देखकर ही छूट
गए; छोड़ने
को अब कुछ बचा
नहीं है।
जब
बुद्ध ने कहा
महाकाश्यप को
कि छोड़ दो स्ब—कोई
शास्त्र, कोई वेद, कोई
ईश्वर। तो
उसने कहा, छूट
गया! आपको
देखते से ही
छूट गया। आपकी
मौजूदगी काफी
है। आप उस सब
के सिद्ध प्रमाण
हैं, जिसको
हम खोजते थे।
अब तक पकड़ा था
उसको, क्योंकि
उसके सहारे
खोज चलती थी।
अब खोज पूरी
हो गई, अब
उसकी हमें कोई
जरूरत नहीं।
तो आप
जानकर चकित
होंगे कि
शास्त्र अगर
ठीक से समझा
जाए, तो
उसे छोड़ने में
जरा भी कठिनाई
नहीं आती।
जिन्होंने
ठीक से नहीं
समझा है, उन्हीं
को कठिनाई आती
है। जिनको
शास्त्र पचता
नहीं है, उन्हीं
की कठिनाई है।
वे उसे पकड़े
रहते हैं।
जिनको
शास्त्र पच
जाता है, उन्हें
छोड़ने में
क्या अड़चन है!
छूट ही गया, पचने में ही समाप्त
हो गया।
शास्त्र का
काम पूरा हो
गया। और जहां
शास्त्र पूरा
होता है, वहां
गुरु की तरफ आंख
उठनी शुरू
होती है। और
गुरु के बिना
कोई उपाय नहीं
है। शास्त्र
से तो कुछ
होने वाला
नहीं है। इतना
ही हो जाए तो
काफी है। इतना
हो सकता है, पर वह भी
आपकी
बुद्धिमत्ता
पर निर्भर है।
आप अगर अपने
अर्थ निकालते
रहें, तो
शायद यह भी न
हो पाए।
मुल्ला
नसरुद्दीन
गुजर रहा था
एक मंदिर के
पास से। अपने
बैलों को लिए
जा रहा था।
मंदिर में
पूजा हो रही
थी; आरती
चल रही थी; ढोल
बज रहे थे, घंटे
का नाद हो रहा
था। बैल बिचक
गए। मुल्ला
बहुत नाराज
हुआ। वह अंदर
पहुंचा। और
उसने कहा, यहां
क्या हो रहा
है? यह
क्या कर रहे
हो? तो
लोगों ने कहा,
हम आरती
उतार रहे हैं।
तो नसरुद्दीन
ने कहा, चढ़ाई
ही क्यों, जब
उतारना नहीं
आता?
यह
अर्थ उसने
निकाला! अर्थ
तो बिलकुल साफ
है कि जब
उतारना ही
नहीं आता, इतना धूम—धड़ाका
कर रहे हो, उपद्रव
कर रहे हो, उतर
नहीं रही, तो
चढ़ाई किसलिए?
पहले
उतारना सीख लो,
फिर चढ़ाओ।
आप
शास्त्र
पड़ेंगे, क्या अर्थ
निकालेंगे, वह अर्थ
आपके भीतर से
आएगा।
नसरुद्दीन को
पता ही नहीं
था कि आरती
चढ़ाना क्या है,
आरती
उतारना क्या
है। का समझा, कोई चीज चढ़ा
दी, चढ़ गई
है, अब उतर
नहीं रही है।
अब ये इतना
शोरगुल मचा
रहे हैं, कूद—फांद
रहे हैं, और
इनसे उतर नहीं
रही है।
शब्द
कभी भी पूरा
नहीं हो सकता।
क्योंकि शब्द
कोई वस्तु तो
नहीं है। शब्द
तो सिर्फ
संकेत है।
संकेत पूरा
नहीं हो सकता।
संकेत का अर्थ
ही है कि वह
सिर्फ इशारा
है। वहां कुछ
है नहीं, वहां सिर्फ
तीर जाते' हैं।
सड़क के
किनारे पत्थर
लगा हुआ है, दिल्ली
की तरफ। उस पर
लिखा है
दिल्ली और एक
तीर लगा है।
वहां दिल्ली
नहीं है।
नसरुद्दीन
वहीं ठहर सकते
हैं, कि आ
गई दिल्ली; पत्थर पर
लिखा हुआ है।
आप भी
अगर शास्त्र
को देखकर
समझते हों, आ गई दिल्ली,
तो भूल में
पड़ रहे हैं।
वह सिर्फ
पत्थर है, जहां
एक तीर लगा
हुआ है कि
यात्रा आगे की
तरफ चलती है।
अभी और आगे
जाना है।
जब
दिल्ली सच में
आएगी, तो
पत्थर पर
शून्य बना
होगा, वहां
तीर नहीं होगा,
जीरो होगा।
और जिस दिन
आपके भीतर भी
जीरो आ जाए, शून्य आ जाए,
समझना कि
दिल्ली आ गई!
उस दिन आप
पहुंच गए; मुकाम
आ गया। शून्य
के पहले मुकाम
नहीं है।
शास्त्र
में खोजें।
अगर समझ हो, तो
शास्त्र बड़े
प्यारे हैं।
क्योंकि
जिनसे वे
निकले हैं, वे अनूठे
लोग थे। उनमें
उनकी थोड़ी
सुवास तो है
ही। जिस शब्द
का उपयोग
बुद्ध ने कर
लिया, उसमें
बुद्ध की थोड़ी
सुवास तो आ ही
गई। जो उनके
होंठों पर रह
लिया, जो
इस योग्य समझा
गया कि बुद्ध
ने उसका अपनी
वाणी से उपयोग
कर लिया, उसमें
बुद्ध थोड़े समा
तो गए ही।
अगर आप
में थोड़ी समझ
हो, तो
उतनी झलक उस
शब्द से आपको
आ सकती है।
लेकिन उसके
लिए बड़ा हल्का,
बड़ा शांत और
बुद्धिमत्तापूर्ण
हृदय चाहिए।
अत्यंत
सहानुभूति से
भरा हुआ हृदय
चाहिए। तब उस
शब्द में से
थोड़ी—सी गंध
आपको पता
चलेगी। अगर
जोर से झपट्टा
मारकर शब्द को
पकड़ लिया और
कंठस्थ कर
लिया, तो
वह मर गया।
शब्द
बहुत कमजोर
हैं। उनकी
गर्दन पकड़ने
की जरूरत नहीं
है। फूल की तरह
हैं। तो जैसा
कवि शब्दों का
उपयोग करता है, वैसा ही
जब कोई
शास्त्र को
पढ़ने वाला
शब्दों का उपयोग
करने लगता है;
आहिस्ते
चलता है, धीमे
से स्पर्श
करता है, शब्द
को फुसलाता है,
ताकि उससे
अर्थ निकल आए।
शब्द को
निचोड़ता नहीं,
पकड़कर उसकी
गर्दन ही नहीं
दबा देता कि
इसकी जान
निकालकर देख
लें।
बहुत
लोग वैसे ही
हैं। आपने
कहानी सुनी
होगी, पुरानी
यूरोप में
प्रचलित कथा
है। ईसप की
कहानियों में
एक है। कि एक
आदमी के घर
में एक मुर्गी
थी, जो रोज
एक सोने का
अंडा दे देती
थी। फिर लोभ
पकड़ा। पति—पत्नी
ने विचार किया
कि ऐसे हम कब
तक जिंदगीभर,
एक—एक अंडा
रोज मिलता है।
और जब अंडा
एक—एक
रोज मिलता है, तो इस
मुर्गी के
भीतर अंडे भरे
हैं। तो हम एक
दफा इकट्ठे ही
निकाल लें। यह
रोज की चिंता,
फिक्र, आशा,
सपना, फिर
बाजार जाओ, फिर बेचो—क्या
फायदा?
उन्होंने
मुर्गी मार
डाली। एक भी
अंडा न निकला
उससे। तब बहुत
पछताए, रोएं— धोए; लेकिन फिर
कोई अर्थ न था।
क्योंकि
मुर्गी में
कोई अंडे
इकट्ठे नहीं
हैं। मुर्गी
अगर जीवित हो,
तो एक—एक
अंडा निकल
सकता है। अंडा
रोज बनता है।
शास्त्रों
में जो शब्द
हैं, वे
भी आपकी
सहानुभूति से
जीवित हो सकते
हैं। और उनमें
अर्थ भरा हुआ
नहीं है कि
आपने निचोड़ लिया
और पी गए। वह
कोई फलों का
रस नहीं है कि
आपने निचोड़ा
और पीया! शब्द
से अर्थ निकल
सकता है, अगर
सहानुभूति और
प्रेम से आपने
शब्द को समझा,
शब्द को
फुसलाया, राजी
किया।
इसलिए
हिंदुस्तान
में हम
शास्त्रों का
अध्ययन नहीं
करते, पाठ
करते हैं। पाठ
और अध्ययन में
यही फर्क है।
अध्ययन का
मतलब होता है,
निचोड़ो; तर्क
से, विश्लेषण
से अर्थ निकाल
लो। पाठ का
अर्थ होता, सिर्फ गाओ; भजो। गीत की
तरह उपयोग करो,
जल्दी नहीं
है कुछ अर्थ
की। शब्दों को
भीतर उतरने दो,
डूबने दो, तुम्हारे
खून में मिल
जाएं, तुम्हारे
अचेतन में उतर
जाएं। तुम
उनके साथ
एकात्म हो जाओ।
तब शायद
मुर्गी अंडा
देने लगे।
अति
सहानुभूति से, सिम्पैथी
से शास्त्र का
थोड़ा—सा अर्थ
आपको मिल सकता
है। और वह
अर्थ आपको
गुरु की तरफ
ले जाने में
सहयोगी होगा।
क्योंकि वह
अर्थ यह कहेगा
कि यह तो
शास्त्र है; जिनसे
शास्त्र
निकला है, अब
उनकी खोज करो।
क्योंकि जब
शास्त्र में
इतना है, तो
जिनसे निकला
होगा, उनमें
कितना न होगा!
बुद्ध
के वचन पढ़े, धम्मपद
पढ़ा। तो
धम्मपद बड़ा
प्यारा है, लेकिन कितना
ही प्यारा हो,
इससे बुद्ध
की क्या तुलना
है! इससे बुद्ध
का अनुमान भी
नहीं लगता कि
बुद्ध क्या
रहे होंगे!
धम्मपद
प्यारा है, तो अब बुद्ध
की खोज करो।
और
बुद्ध कोई ऐसी
बात थोड़े ही
हैं कि एक दफा
होकर नष्ट हो
गए। रोज बुद्ध
होते रहते हैं।
अनेक लोगों
में बुद्धत्व
की घटना घटती
है। इसलिए कभी
पृथ्वी खाली
नहीं होती।
बुद्ध सदा
मौजूद होते
हैं। तो जरूरत
नहीं है कि
पच्चीस सौ साल
पीछे अब जाओ, तब कहीं
बुद्ध
मिलेंगे।
धम्मपद वाले
बुद्ध न मिलें,
तो कोई और
बुद्ध मिल
जाएगा। उसी को
हम गुरु कहते
हैं।
धम्मपद
पढ़ा; गीता
पढ़ी। गीता
पढ़कर रस आया, तो अब कृष्ण
की तलाश करो।
कृष्ण सदा
मौजूद हैं।
वही गुरु का
अर्थ है।
गुरु
का अर्थ है, अब हम
उसको खोजेंगे,
जिनसे ऐसे
शास्त्र
निकले हैं। अब
हम, जो
निकला है, उससे
राजी नहीं
रहेंगे। अब हम
गंगोत्री की
तलाश करेंगे,
जहां से
गंगा निकलती
है।
लोग
गंगोत्री की
यात्रा पर
जाते हैं।
पूरी गंगा का
चक्कर लगाकर
गंगोत्री तक
पहुंचते हैं।
ऐसे ही
शास्त्रों की
पूरी यात्रा
करके गुरु तक
पहुंचना होता
है।
गुरु
का अर्थ है, जहां से
शास्त्र
निकलते हैं।
गुरु का अर्थ
है, जिसने
जाना, जिसने
जीया सत्य को,
और अब जिससे
सत्य बहता है।
और
गुरु से कभी
पृथ्वी खाली
नहीं होती।
कहीं न कहीं
कोई न कोई
बुद्ध है ही।
कहीं न कहीं
कोई न कोई
कृष्ण है ही।
कहीं न कहीं
कोई न कोई
क्राइस्ट है
ही।
तकलीफ हमारी
यह है कि आप
पुराने लेबल
से जीते हैं, कि उस पर
कृष्ण लिखा
हुआ हो। वह
नहीं मिलेगा।
कि उस पर
महावीर लिखा
हो, तो हम मानेंगे।
महावीर जिस पर
लिखा था, वह
एक दफा हो
चुका। अब गुरु
तो मिल सकता
है, लेकिन
पुराने नाम से
नहीं मिलेगा।
नाम भर
मिटते हैं।
नाम बदलते चले
जाते हैं। और
अगर शास्त्र
को सहानुभूति
से समझा हो, उसकी
कविता को भीतर
पच जाने दिया
हो, उसका
गीत आपमें
गंजने लगा हो,
तो आप समझ
जाएंगे कि
नामों का कोई
मूल्य नहीं है।
तो फिर क्या
को पकड़ लेना
कहीं भी आसान
है।
और
गीता अगर
कृष्ण तक न ले
जाए, तो
गीता का कोई
भी सार नहीं
है। इसीलिए
सदियों—सदियों
तक गीता की, वेद की, कुरान
की, बाइबिल
की हम चर्चा
करते हैं। वह
चर्चा इसीलिए
है। वह एक तरह
का जाल है।
मुझसे
लोग पूछते हैं
कि आप क्यों
गीता पर बोल रहे
हैं?
वह एक
तरह का जाल है।
जो मैं गीता
पर बोल रहा हूं, वह सीधे
ही बोल सकता
हूं क्योंकि
मैं ही बोल रहा
हूं, गीता
सिर्फ बहाना
है। आखिर गीता
का बहाना लेने
की जरूरत भी
क्या है?
तुम्हारी
वजह से वह
मुसीबत उठानी
पड़ रही है। वह
मैं सीधे ही
बोल सकता हूं।
लेकिन
तुम्हें
पुराने नाम का
मोह है; कृष्ण का
मोह है। अगर
कृष्ण मार्का
लगा हो, तो
तुम को लगेगा
कि ठीक है।
बात ठीक होनी
चाहिए।
जो मैं
कह रहा हूं वह
मैं कह रहा
हूं। कृष्ण को
किनारे रखकर
कह सकता हूं।
क्या अड़चन है!
कृष्ण को भी
बीच में लूं, तो भी जो
मुझे कहना है,
वही मैं
कहूंगा।
कृष्ण उसमें
कुछ उपद्रव
खड़ा नहीं कर
सकते। पर उनके
नाम का उपयोग
तुम्हारी वजह
से है।
तुम्हें
पुराने जालों
का मोह है; और
मुझे मछलियों
से मतलब है।
तुम पुराने
में फंसते हो
कि नए में, इससे
क्या!
तुम्हारा अगर
पुराने जाल से
ही मोह है, तो
ठीक है।
गीता
पर, कुरान
पर, बाइबिल
पर, ताओ
तेह किंग पर, जो हजारों
वर्ष तक चर्चा
चलती है, उसका
प्रयोजन यही
है कि लोग
पुराने के मोह
में हैं। ठीक
है। उनको कष्ट
भी न हो और
धीरे—धीरे
उनको जब समझ
में आ जाएगा, तो पुराने
का मोह भी छूट
जाएगा।
शास्त्र से
गुरु, और
गुरु से स्वयं—ऐसी
यात्रा है।
शास्त्र ले
जाएगा गुरु तक,
और गुरु
पहुंचा देगा
स्वयं तक। और
जब तक स्वयं
का शून्य न आ
जाए, तब तक
समझना कि अभी
मंजिल नहीं आई।
अब हम
सूत्र को लें।
हे
अर्जुन, इस संसार
में क्षर
अर्थात
नाशवान और
अक्षर अर्थात
अविनाशी, ये
दो प्रकार के
पुरुष हैं।
उनमें
संपूर्ण भूत
प्राणियों के
शरीर तो क्षर
अर्थात
नाशवान और
कूटस्थ
जीवात्मा
अक्षर अर्थात
अविनाशी कहा
जाता है। तथा
उन दोनों से
उत्तम पुरुष
तो अन्य ही है,
जो तीनों
लोकों में
प्रवेश करके
सब का धारण—पोषण
करता है एवं
अविनाशी
ईश्वर और परमात्मा,
ऐसा कहा गया
है।
क्योंकि
मैं नाशवान
जड्वर्ग
क्षेत्र से तो
सर्वथा अतीत
हूं और माया
में स्थित
अक्षर
अविनाशी
जीवात्मा से
भी उत्तम हूं, इसलिए लोक
में और वेद
में
पुरुषोत्तम
नाम से
प्रसिद्ध हूं।
यह
सूत्र
पुरुषोत्तम
की व्याख्या
है।
पुरुषोत्तम
शब्द हमें
परिचित है।
लेकिन कृष्ण
का अर्थ खयाल
में लेने जैसा
है।
कृष्ण
कह रहे हैं कि
तीन
स्थितियां
हैं। एक
विनाशशील जगत है।
उस विनाशशील
जगत के भीतर
छिपा हुआ एक
अविनाशी तत्व
है। और इस
अविनाशी और
विनाशी दोनों
के पार, दोनों को
अतिक्रमण
करने वाला एक
तीसरा तत्व है।
इसे हम
ऐसा कहें शरीर, संसार, आत्मा और परमात्मा।
शरीर क्षर है,
प्रतिपल
विनष्ट हो रहा
है, प्रतिपल
बह रहा है, परिवर्तन
है। शरीर के
भीतर छिपी हुई
आत्मा
अविनाशी है।
इन दोनों के
पार क्या कहते
हैं, मैं
हूं; जो
पुरुषोत्तम
है। ये दो
पुरुष, एक
क्षर और एक
अक्षर, और
दोनों के पार
मैं हूं।
जो लोग
भी दार्शनिक
चिंतन करते
हैं, उनको
सवाल उठता है
कि दोनों से
काम हो जाता
है, तीसरे
की क्या जरूरत
है? जैनों
की यही मान्यता
है। वे कहते
हैं, संसार
है और आत्मा
है। बात खतम
हो गई। जीव है
और अजीव है।
क्षर है और
अक्षर है। यह
तीसरे की क्या
जरूरत है! इन
दो से काम हो
जाता है।
दोनों अनुभव
के हिस्से हैं।
इसलिए जैन
विचार द्वैत
पर पूरा हो
जाता है।
लेकिन कृष्ण
कहते हैं, मैं
तीसरा हूं।
जैन विचार में
इसलिए परमात्मा
की कोई जगह
नहीं है, क्योंकि
तीसरे की कोई
जगह नहीं है।
कृष्ण
का यह जोर
तीसरे के लिए
क्यों है, यह समझना
जरूरी है।
क्योंकि अगर
दो ही हैं, तो
दोनों बराबर
मूल्य के हो
जाते हैं।
दोनों का
संतुलन हो
जाता है। जैसे
एक तराजू है, उस पर दो
पलवे लगे हैं।
और अगर एक
तीसरा काटा
नहीं, जो
दोनों का
अतिक्रमण
करता हो, तो
तराजू बिलकुल
व्यर्थ हो
जाता है।
एक
कांटा चाहिए
जो दोनों का
अतिक्रमण
करता है। और
चूंकि दोनों
के पार है, इसलिए
हिसाब भी बता
सकता है कि
किस तरफ बोझ
ज्यादा है और
किस तरफ बोझ
कम है। तौल
संभव हो सकती
है।
अगर
पदार्थ है और
आत्मा है, और इन
दोनों के पार
कुछ भी नहीं
है, तब बडी
अड़चन है।
क्योंकि तब
पदार्थ और
आत्मा के बीच
न तो कोई जोड्ने
वाला है, न
कोई तोड्ने
वाला है।
पदार्थ और
आत्मा के बीच
जो संघर्ष है,
उससे पार
जाने का भी
उपाय नहीं है।
इसलिए जैन
चिंतन में एक
पहेली सुलझती
नहीं। जैन
विचारकों से
पूछा जाता रहा
है कि आत्मा इस
संसार में
उलझी क्यों? तो उनकी बड़ी
कठिनाई है। वे
कैसे बताएं कि
उलझी। अगर वे
कहें कि
पदार्थ ने
खींच ली, तो
पदार्थ
ज्यादा
शक्तिशाली हो
जाता है। और
अगर पदार्थ
ज्यादा शक्तिशाली
है, तो तुम
मुक्त कैसे
होओगे?
अगर वे
कहते हैं, आत्मा
खुद ही खिंच
आई अपनी मरजी
से, तो
सवाल यह उठता
है कि कल हम
मुक्त भी हो
गए, फिर भी आत्मा
खिंच आए, तो
क्या करेंगे?
क्योंकि
कभी आत्मा
अपने आप खिंच
आई बिना किसी कारण
के, तो
मुक्ति फिर
शाश्वत नहीं
हो सकती।
मोक्ष में भी
पहुंचकर क्या
भरोसा, दस—पाच
दिन में ऊब
जाएं और आत्मा
फिर खिंच आए!
इतनी मेहनत
करें—तप, उपवास,
तपश्चर्या,
ध्यान, साधना—मोक्ष
में जाकर
पंद्रह दिन
में ऊब जाएं, और आत्मा
फिर पदार्थ
में खिंच आए।
फिर
पूछा जाता है, इन दोनों
के बीच नियम
क्या है? किस
नियम से दोनों
का मिलना और
हटना चलता है?
तीसरे
को चूंकि वे
स्वीकार नहीं
करते, इसलिए
बड़ी अड़चन है।
और ध्यान रहे,
गणित या
तर्क की कोई
भी चीज उलझ
जाएगी, अगर
दो के बीच तीसरी
न हो। इसलिए
हिंदू ईसाई, मुसलमान, दो की जगह
त्रैत में
विश्वास करते
हैं, ट्रिनिटी
में, त्रिमूर्ति
में।
जहां
दो हैं वहा
तीसरा भी
मौजूद रहेगा।
क्योंकि दो को
जोड़ना हो, तो तीसरे
की जरूरत है; दो को तोड़ना
हो तो, तीसरे
की जरूरत है।
दो के पार
जाना हो, तो
तीसरे की
जरूरत है। दो
के बीच जो
नियम है, जो
शाश्वत
व्यवस्था चल
रही है, उसके
लिए भी तीसरे
की जरूरत है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, मैं
तीसरा हूं। और
गहरे अनुभव से
भी यही सिद्ध
होता है।
एक तो
शरीर है, जो दिखाई
पड़ता है हमें।
एक हमारा मन
है, हमारी
तथाकथित
चेतना है, जो
हमने अभी तक
नहीं देखी।
लेकिन अगर हम
थोड़ा भीतर
पीछे हटें और शांत
हों, तो
हमें मन भी
दिखाई पड़ने
लगेगा। और जब
मन भी दिखाई
पड़ेगा, तब
हम तीसरे हो
जाएंगे। तब एक
तो शरीर होगा
पदार्थ से
निर्मित, और
एक मन होगा
चेतन कणों से
निर्मित, और
एक हम होंगे।
और यह हमारा
होना सिर्फ
साक्षी का भाव
होगा, द्रष्टा
का भाव होगा।
हम सिर्फ
देखने वाले
होंगे। ये
दोनों का खेल
चल रहा होगा, हम सिर्फ
देखने वाले
होंगे।
यह जो
तीसरा है, यह
पुरुषोत्तम
है। यह
पुरुषोत्तम
प्रत्येक में
छिपा है। पर्त
शरीर की ऊपर
है, फिर
पर्त मन की
ऊपर है। इन
दोनों परतों
को हम तोड़ दें,
तो यह
पुरुषोत्तम
हमें उपलब्ध
हो सकता है।
अब हम कृष्ण
के सूत्र को
खयाल में लें।
इस
संसार में
क्षर अर्थात
नाशवान और
अक्षर अर्थात
अविनाशी, ये दो
प्रकार के
पुरुष हैं।
उनमें
संपूर्ण भूत
प्राणियों के
शरीर तो क्षर
अर्थात
नाशवान और
कूटस्थ
जीवात्मा
अक्षर अर्थात
अविनाशी कहा
जाता है। तथा
उन दोनों से
उत्तम पुरुष
तो अन्य ही है,
जो कि तीनों
लोकों में
प्रवेश करके
सबका धारण—पोषण
करता है एवं
अविनाशी
ईश्वर और परमात्मा,
ऐसा कहा गया
है।
क्योंकि
मैं नाशवान
जडवर्ग
क्षेत्र से तो
सर्वथा अतीत
हूं और माया
में स्थित
अक्षर
अविनाशी
जीवात्मा से
भी उत्तम हूं
इसलिए लोक में
और वेद में
पुरुषोत्तम
नाम से
प्रसिद्ध हूं।
ये तीन
परतें
दार्शनिक
सिद्धात नहीं
हैं। ये तीन
परतें आपके
भीतर अनुभव की
परतें हैं।
जैसे—जैसे आप
भीतर जाएंगे, वैसे—वैसे
पर्त उघड़नी
शुरू हो जाएगी।
अधिक
लोग पहली पर्त
पर ही रुके
हैं, जो
अपने को मान
लेते हैं कि
मैं शरीर हूं।
जिस व्यक्ति
ने अपने को मान
लिया कि मैं
शरीर हूं,
वह अपने भीतरी
खजानों से
अपने ही हाथ
से वंचित रह
जाता है। उसका
तर्क ही गलत
नहीं है, उसका
पूरा जीवन ही
अधूरा अधकचरा
हो जाएगा।
क्योंकि जो वह
हो सकता था, जो उसके
बिलकुल हाथ के
भीतर था, वह
उसने ही द्वार
बंद कर दिए।
जैसे अपने ही
घर के बाहर आप
बैठे हैं ताला
लगाकर, और
कहते हैं कि
यही घर है।
बाहर की जो
छपरी है, उसको
घर समझे हुए
हैं। पोर्च
में जी रहे
हैं, उसको
घर समझे हुए
हैं।
नास्तिक
की, शरीरवादी
की भूल
तार्किक नहीं
है, जीवनगत
है, एक्सिस्टेंशियल
है। और एक दफा
आप पक्का जड़
पकड़ लें कि
यही मेरा घर
है, तो खोज
बंद हो जाती
है। फिर आप
डरते हैं, फिर
आप आंख भी
नहीं उठाते, फिर प्रयत्न
भी नहीं करते।
आस्तिक
के साथ
संभावना
खुलती है।
क्योंकि
आस्तिक कहता
है, तुम जहां
हो, उतना
ही सब कुछ
नहीं है और
भीतर जाया जा
सकता है।
इसलिए
नास्तिक बंद
हो जाता है।
आस्तिक सदा
खुला है। और
खुला होना शुभ
है।
अगर
आस्तिक गलत भी
हो, तो
भी खुला होना
शुभ है, क्योंकि
खोज हो सकती
है। जो छिपा
है, उसको
हम प्रकट कर
सकते हैं।
नास्तिक अगर
ठीक भी हो, तो
भी गलत है, क्योंकि
खोज ही बंद हो
गई, आदमी
जड़ हो गया।
उसने मान लिया
कि जो मैं हूं
बस, यह बात समाप्त
हो गई।
जैसे
एक बीज समझ ले
कि बस, बीज
ही सब कुछ है, तो फिर
अंकुरण होने
का कोई कारण
नहीं है। फिर
अंकुरित हो, जमीन की
पर्त को तोड़े,
कष्ट उठाए,
आकाश की तरफ
उठे, सूरज
की यात्रा करे—यह
सब बंद हो गया।
बीज ने मान
लिया कि मैं
बीज हूं। जो
व्यक्ति मान
ले कि मैं
शरीर हूं उसने
अपने ही हाथ
से अपने पैर
काट लिए।
पोर्च भी हमारा
है, लेकिन
घर के और भी
कक्ष हैं। और
जितने भीतर हम
प्रवेश करते
हैं, उतने
ही सुख, उतनी
ही शांति, उतने
ही आनंद में
प्रवेश होता
है। क्योंकि
उतने ही हम घर
में प्रवेश
होते हैं।
उतने ही
विश्राम में
हम प्रवेश
होते हैं।
कृष्ण
कहते हैं, शरीर, वह
क्षर; आत्मा,
वह अविनाशी,
शरीर के साथ
जुड़ा हुआ; और
इन दोनों के
पार साक्षी—
आत्मा है, दोनों
से मुक्त।
आत्मा
और साक्षी—
आत्मा में
इतना ही फर्क
है। वे दो
नहीं हैं। एक
ही चेतना की
दो अवस्थाएं
हैं।
आत्मा
का अर्थ है, शरीर से
जुड़ी हुई।
आत्मा का अर्थ
है, जिसे
खयाल है मैं
का। आत्मा
शब्द का भी
अर्थ होता है,
मैं, अस्मिता।
जिस आत्मा को
खयाल है शरीर
से जुड़े होने
का, उसको
खयाल होता है
मैं का।
शरीर
से मैं भिन्न हूं, तो मैं भी
खो जाता है।
और मैं के
खोते ही सिर्फ
शुद्ध चैतन्य
रह जाता है।
वहा यह भी
खयाल नहीं है
कि मैं हूं।
उस शुद्ध
चैतन्य का नाम
पुरुषोत्तम
है।
ये
आपके ही जीवन
की तीन परतें
हैं। और पहली
पर्त से तीसरी
पर्त तक
यात्रा करनी ही
सारी
आध्यात्मिक
खोज और साधना
है। और तीसरी
का लक्षण है
कि वह दोनों
के पार है। न
तो वह देह है, न वह मन
है। न वह
पदार्थ है, न अपदार्थ
है। वह दो से
भिन्न, तीसरा
है।
आप
अपने भीतर कभी—कभी
उसकी झलक पाते
हैं। और
चेष्टा करें, तो कभी—कभी
उसकी झलक
आयोजन से भी
पा सकते हैं।
भोजन कर रहे
हैं, तब एक
क्षण को देखने
की कोशिश करें।
भोजन शरीर में
जा रहा है, भोजन
क्षर है और
क्षर में जा
रहा है। लेकिन
जो उसे शरीर
में पहुंचा
रहा है, वह
आत्मा है। और
आत्मा मौजूद न
हो, तो
शरीर भोजन न
तो कर सकेगा, न पचा सकेगा।
भूख शरीर में
लगती है, लेकिन
जिसको पता
चलता है, वह
आत्मा है।
आत्मा न हो, तो शरीर को
भूख लगेगी
नहीं, पता
भी नहीं चलेगी।
भूख शरीर में
पैदा होती है,
लेकिन
जिसको एहसास
होता है, वह
आत्मा है।
भूख, भूख की
प्रतीति, ये
दो हुए तल।
क्या आप तीसरे
को भी खोज
सकते हैं, जो
देख रहा है
दोनों को कि
शरीर में भूख
लगी और आत्मा
को भूख का पता
चला और मैं
दोनों को देख
रहा हूं। इस
तीसरे की थोड़ी—
थोड़ी झलक
पकड़ने की
कोशिश करनी
चाहिए।
कोई भी
अनुभव हो, उसमें
तीनों मौजूद
रहते हैं। इन
तीन के बिना
कोई भी अनुभव
निर्मित नहीं
होता। लेकिन
तीसरा छिपा है
पीछे। इसलिए
अगर आप बहुत
संवेदनशील न
हों, तो
आपको उसका पता
नहीं चलेगा।
वह गुप्ततम है।
वह जो
पुरुषोत्तम
है, वह
गुप्ततम भी है।
जितनी
संवेदना आपकी
बढ़ेगी, धीरे—
धीरे उसकी
प्रतीति होनी
शुरू होगी।
कोई
आदमी आपको
गाली दे रहा
है। तत्क्षण
गाली देने
वाला और आप
गाली सुनने
वाले, गाली
और आप, दो
हो गए। अगर
थोड़ी संवेदना
को जगाए, तो
आपको वह भी
भीतर दिखाई पड़
जाएगा जो
दोनों को देख
रहा है। गाली
दी गई, तो
गाली भौतिक है;
कान पर चोट
पड़ी, मस्तिष्क
में शब्द घूमे,
मस्तिष्क
ने व्याख्या
की; यह सब
भौतिक है।
मस्तिष्क ने
कहा, यह
गाली बुरी है।
मुल्ला
नसरुद्दीन को
उसका पड़ोसी एक
दिन कह रहा था
कि तुम्हारा
लड़का जो है
फजलू बहुत
भद्दी और गंदी
गालियां बकता
है।
नसरुद्दीन ने
कहा, बड़े
मियां, कोई
फिक्र न करो; छोटा है, बच्चा
है, नासमझ
है। जरा बड़ा
होने दो, अच्छी—
अच्छी गालियां
भी बकने लगेगा।
व्याख्या
की बात है।
कभी—कभी गाली
अच्छी भी लगती
है, जब
मित्र देता है।
सच में
मित्रता की
कसौटी यह है
कि गाली अच्छी
लगे। अगर
मित्र एक—दूसरे
को गाली न दें,
तो समझते हो
कि कोई
मित्रता में
कमी है, मिठास
नहीं है।
शत्रु
भी गाली देते
हैं, वही
गाली; मित्र
भी गाली देते
हैं, वही
गाली, शत्रु
के मुंह से
सुनकर बुरी
लगती है, मित्र
के मुंह से
सुनकर भली
लगती है, प्यारी
लगती है। तो
नसरुद्दीन
एकदम गलत नहीं
कह रहा है।
अच्छी
गालियां भी
हैं ही।
व्याख्या पर
निर्भर है।
शरीर
पर चोट पड़ती
है, कान
पर झंकार जाती
है, मस्तिष्क
व्याख्या
करता है। यह
सब भौतिक घटना
है। व्याख्या
जो करता है, वह चेतना है।
इसलिए वझई
गाली भली भी
लग सकती है
कभी, वही
गाली बुरी भी
लग सकती है
कभी। वह जो
व्याख्या
करने वाली है,
वह चेतना है।
क्या
आपके पास कोई
तीसरा तत्व भी
है, जो
दोनों को देख
सके? इस
घटना को भी
देखे, इस
बड़े यंत्र की
प्रक्रिया को—गाली,
कान में
जाना, मस्तिष्क
में चक्कर, शब्दों का
व्याघात, ऊहापोह;
फिर आत्मा
का अर्थ
निकालना। और
क्या इनके
पीछे दोनों को
देख रहा हो
कोई, ऐसी
कभी आपको
प्रतीति होती
है? तो वही
पुरुषोत्तम
है। न प्रतीति
होती हो, तो
उसकी तलाश
करनी चाहिए।
और हर अनुभव
में क्षणभर
रुककर उसकी
तरफ खयाल करना
चाहिए।
लेकिन हमारी
मुसीबत यह है
कि जब भी कोई
अनुभव होता है, हम बाहर
दौड़ पड़ते हैं।
किसी ने गाली
दी; व्याख्या
की, हम
बाहर गए। उस
आदमी पर नजर
पड़ जाती है, जिसने गाली
दी। क्यों दी
गाली? या
उसको कैसे हम
बदला चुकाएं?
तो जब हमें
भीतर जाना था
और तीसरे को
खोजना था, तब
हम बाहर चले
गए। वह क्षणभर
का मौका था, खो गया। रोज
ऐसे अवसर खो
जाते हैं।
तो जब
भी आपके भीतर
कोई घटना घटे, बाहर न
दौड़कर भीतर
दौड़ने की
फिक्र करें। तत्क्षण!
ध्यान बाहर न
जाए, भीतर
चला जाए। और
भीतर अगर
ध्यान जाए, तो आप
पाएंगे
साक्षी को खड़ा
हुआ। और अगर
साक्षी आपके
खयाल में आ जाए,
तो पूरी
स्थिति बदल
जाएगी, पूरी
स्थिति का
अर्थ बदल
जाएगा।
किसी
ने गाली दी हो, आत्मा
व्याख्या
करती है कि
बुरा है या
भला है, कोई
प्रतिक्रिया
करती है। अगर
उसी वक्त
तीसरा भी
दिखाई पड़ जाए,
तो भी आत्मा
फिर व्याख्या
करेगी। अब यह
तीसरे की
व्याख्या
करेगी जो भीतर
छिपा है। और
हो सकता है, आपको हंसी आ
जाए। शायद आप
खिलखिलाकर
हंस पड़े।
वह जो
बाहर गाली आई
थी, वह
भी मस्तिष्क
में आई, उसकी
व्याख्या
आत्मा ने की।
फिर आपने पीछे
लौटकर देखा और
साक्षी का
अनुभव हुआ, यह भी अनुभव
मस्तिष्क में
आएगा और आत्मा
इसकी भी
व्याख्या
करेगी।
अगर
आपको साक्षी
दिखाई पड़ जाए, तो आपकी
मुस्कुराहट
धीरे— धीरे
सतत हो जाएगी।
हर अनुभव में
आप हंस सकेंगे।
क्योंकि हर
अनुभव लीला मालूम
पड़ेगा। और हर
अनुभव एक गहरी
मजाक भी मालूम
पड़ेगी कि यह
क्या चल रहा
है! क्या हो
रहा है! और इतनी
क्षुद्र
बातों को मैं
इतना मूल्य
क्यों दे रहा
हूं! मैंने
सुना है कि एक
स्त्री ने अपने
घर के भीतर
झांककर अपने
पति को कहा कि
बाहर एक आदमी
पड़ा है। पागल मालूम
होता है।
सामने सड़क पर
लेटा है। पति
ने भीतर से ही
पूछा, लेकिन
उसे पागल कहने
का क्या कारण
है? पत्नी
ने कहा, पागल
कहने का कारण
यह है कि एक केले
के छिलके पर
फिसलकर वह गिर
पड़ा है। उठ
नहीं रहा है, केले को पड़ा—पड़ा
गाली दे रहा
है।
कोई भी सामान्य
आदमी होता, तो पहला
काम वह यह
करता है कि
किसी ने देख
तो नहीं लिया!
कपड़े झाड़कर, जैसे कुछ भी
नहीं हुआ।
केले को गाली
भी देगा, तो
भीतर और बाद
में।
पत्नी
ने कहा, आदमी बिलकुल
पागल मालूम
होता है। लेटा
है वहीं, जहां
गिर गया है; और सामने
केले का छिलका
पड़ा है, उसको
गाली दे रहा
है!
पति ने
कहा, एक
बात तय है, पागल
हो या न हो, सामान्य
नहीं है। मैं
आया। वह बाहर
जाकर देख रहा
है। वह आदमी
गाली भी दे
रहा है, मुस्कुरा
भी रहा है। तो
उसने आदमी को
पूछा कि यह
क्या कर रहे
हो? उसने
कहा, बाधा
मत दो।
वह एक
सूफी फकीर था।
वह केले पर से
गिर पड़ा है।
एक घटना घटी, एक भौतिक
घटना। उसके
मस्तिष्क में
खबर पहुंची, जो सामान्य
आदमी के सभी
के पहुंचेगी।
और जो केले पर
नाराजगी आएगी,
वह भी आई।
लेकिन वहां से
भागा नहीं वह।
क्योंकि वह
चूक जाएगा
क्षण। वह वहीं
लेट गया।
क्योंकि यह
मौका खो देने
जैसा नहीं है।
एक
केले का छिलका
क्या कर रहा
है? भीतर
क्या हो रहा
है? तो
मस्तिष्क जो
भी करना चाहता
है, वह
गाली भी दे
रहा है। लेकिन
एक तीसरी घटना
वहा घट रही है।
वह इन दोनों
को देख भी रहा
है, अपनी
इस पागलपन की
अवस्था को, इस पड़े हुए
छिलके को। इस
पूरी घटना में
वह पीछे है, और धीमे—धीमे
मुस्कुरा भी
रहा है। इसलिए
अक्सर संत
पागल भी मालूम
पड़ सकते हैं।
एक बात तो
पक्की है कि
वे सामान्य
नहीं हैं।
एबनार्मल तो
हैं ही।
असाधारण तो
हैं ही।
क्योंकि आप यह
नहीं कर
सकेंगे। मगर
अगर कर सकें, तो जो हंसी
आएगी भीतर से........।
आप कभी
एक बात को
सोचते हैं कि
जब दूसरा आदमी
कुछ करता है, उसमें
आपको हंसी आती
है। जैसे एक
आदमी केले के
छिलके से
फिसला और गिर
पड़ा। ऐसा आदमी
खोजना कठिन है,
जिसको
देखकर हंसी न
आ जाए। अगर
दूसरे को
देखकर आपको
इतनी हंसी आती
है, कभी
आपने खुद
फिसलकर गिरकर
और फिर हंसकर
देखा? तब
आपको तीसरे
तत्व का थोड़ा—सा
अनुभव होगा।
क्योंकि उस
वक्त गिरने
वाले आप होंगे,
गिरने वाले
की जो
प्रतिक्रिया
है, वह भी
आप होंगे, और
देखने वाले भी
आप होंगे।
दूसरे को
गिरते देखकर
आप हंसते हैं,
क्योंकि
स्थिति पूरी
की पूरी मजाक
जैसी मालूम
पड़ती है। पर
कभी आपने इस
पर विचार किया
है कि ऐसा
होता क्यों है?
आखिर केले
में, उसके
छिलके पर से
गिर जाने में
ऐसा क्या कारण
है जिससे हंसी
आती है? इसमें
हंसने योग्य क्या
है?
मनोवैज्ञानिक
बड़ी खोज करते
हैं। क्योंकि
इसमें हंसी
सभी को आती है, सारी
दुनिया में
आती है। इसका
कारण क्या है?
इसमें ऐसी
कौन—सी बात है
जिसको देखकर
हंसी आती है?
मेरी
जो दृष्टि है, मुझे जो
कारण दिखाई
पड़ता है, वह
यह है कि आदमी
के अहंकार को
केले का छिलका
भी गिरा देता
है, उसे
देखकर हंसी
आती है।
वह
आदमी अकड़कर
चला जा रहा था, हैट—वैट
लगाए था, टाई
वगैरह सब। ऐसा
बिलकुल
शक्तिशाली
आदमी, अचानक
एक केले का
छिलका उसको
जमीन पर चारों
खाने चित्त कर
देता है। उसकी
सब सामर्थ्य
खो जाती है।
अकड़ खो जाती
है। क्षणभर
में पाता है
कि दीन है, सड़क
पर पड़ा है। इस
दीनता से एकदम
हंसी आती है।
आदमी की इस
असहाय अवस्था
पर। उसके
अकड़पन की
स्थिति और फिर
एकदम जमीन पर
पड़े होने में
इतना अंतराल
है, इतना
फर्क है, कि
यह आप पहचान
ही नहीं सकते
थे कि यह आदमी
केले के छिलके
से गिरने वाला
है। गिरने
वाला नहीं है।
यह सम्राट हो
सकता है।
इसलिए
आप खयाल रखें, अगर एक
भिखारी
गिरेगा, कम
हंसी आएगी।
अगर एक सम्राट
गिरेगा, ज्यादा
हंसी आएगी। आप
सोचें, एक
भिखारी गिर
पड़े, आप
कहेंगे, ठीक
है। एक छोटा
बच्चा गिरेगा,
तो शायद
हंसी न भी आए।
क्योंकि
बच्चे को हम
समझते हैं, बच्चा ही है,
इसकी अकड़ ही
क्या है अभी!
लेकिन अगर एक
सम्राट गिरेगा,
तो आप
बिलकुल पागल
हो जाएंगे हंस—हंसकर।
जिस—जिस
स्थिति में
हंसी आती है
आपको देखकर, कभी—कभी
उस स्थिति में
अपने को देखें।
तब भी एक हंसी
आएगी; और
वह हंसी ध्यान
बन जाएगी; और
उस हंसी से
आपको साक्षी
की झलक मिलेगी।
कोई भी
अनुभव हो, तीसरे को
पकड़ने की
कोशिश करें।
पुरुषोत्तम
की तलाश जारी
रखें। और हर
अनुभव में वह
मौजूद है।
इसलिए न मिले,
तो समझना कि
अपनी ही कोई
भूल—चूक है।
मिलना चाहिए
ही। क्षुद्र
अनुभव हो कि
बड़ा अनुभव हो,
कैसा भी
अनुभव हो, पुरुषोत्तम
भीतर खड़ा है।
स्वामी
राम को कुछ
लोगों ने गाली
दी, तो
वे हंसते हुए
वापस लौटे।
लोगों ने कहा,
इसमें
हंसने की क्या
बात है? लोगों
ने अपमान किया
है! राम ने कहा
कि मैं देख
रहा था। और जब
राम को गाली
पड़ने लगीं, और राम भीतर—
भीतर
कुनमुनाने
लगा, तो
मुझे हंसी आने
लगी। मैं भीतर
कहने लगा कि
ठीक हुआ, अब
भुगतो राम! अब
भोगो फल!
यह जो
भीतर से अपने
को भी दूर खड़े
होकर देखना है, यही
पुरुषोत्तम
तत्व है। और
जिस व्यक्ति
को यह धीरे—धीरे
सध जाए, उसकी
मा ने आंख बंद
कर लीं। उसके
चेहरे पर एक समाधि
का भाव आ गया।
उसने कहा, बेटे,
अगर सोलह
साल की हो
जाऊं, तो
फिर कुछ चाहने
को बचता भी
नहीं है। उतना
काफी है। उतना
बहुत है, फिर
कुछ चाहने को
बचता नहीं है।
जैसे
ही किसी को
भीतर के
पुरुषोत्तम
का स्वर सुनाई
पड़ता है, फिर कुछ
चाहने को बचता
नहीं है। वह
पा लेना सब पा
लेना है।
लेकिन उसकी
तलाश करनी
होगी। पास ही
है बहुत, फिर
भी खोदना
पड़ेगा। और
जितनी त्वरा
से खोदेंगे, जितनी
तीव्रता से, उतना ही
निकट उसे
पाएंगे। अगर
तीव्रता
परिपूर्ण हो,
सौ प्रतिशत
हो, तो
बिना खोदे भी
मिल सकता है।
धीरे—
धीरे बेमन से
खोदेगे, तो बहुत दूर
है। ऐसे ही
खोदेंगे कि
चलो देख लें, शायद हो, कभी
न मिलेगा।
क्योंकि
खोदने की
भावना क्या है,
इस पर सब
निर्भर है।
अगर कोई
तीव्रता से, पूर्ण
तीव्रता से
चाहे, तो
किसी भी क्षण
उसके द्वार
खुल जाते हैं।
और
हमें अगर
जन्मों—जन्मों
से नहीं मिला
पुरुषोत्तम, तो उसका
कारण यह नहीं
है कि वह दूर
है। उसका एक
कारण है कि एक
तो हमने खोजा
ही नहीं। कभी
खोजा भी, तो
बेमन से खोजा।
कभी गहरी
प्यास से न
पुकारा। कभी
पुकारा भी, तो ऐसा कि
लोगों को
दिखाने के लिए
पुकारा।
प्रार्थना भी
की, तो वह
हार्दिक न थी;
ऊपर—ऊपर थी,
शब्दों की
थी।
अगर
इतना स्मरण
रहे, तो
उसे किसी भी
क्षण पाया जा
सकता है। हाथ
बढ़ाने भर की
बात है।
आज
इतना ही।
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