सावधिक संन्यास की धारणा—(प्रवचन—चालीसवां)
'नव—संन्यास क्या?':
से संकलित प्रवचनांश
साधना—शिविर, लोनावाला (महाराष्ट्र)
दिनांक 24 दिसम्बर 1976
मेरे मन में इधर बहुत दिन से एक बात निरंत्तर खयाल में आती है और वह यह है कि सारी दुनियां से आनेवाले दिनों में संन्यासी के समाप्त हो जाने की संभावना है। संन्यासी आनेवाले पचास वर्षों के बाद पृथ्वी पर नहीं बच सकेगा, वह संस्था विलीन हो जाएगी। उस संस्था की नीचे की ईंटें तो खिसका दी गयी हैं और अब उसका मकान भी गिर जाएगा। लेकिन संन्यास इतनी बहुमूल्य चीज है कि जिस दिन दुनियां से विलीन हो जाएगा उस दिन दुनियां का बहुत अहित हो जाएगा।
मेरे देखे पुराना संन्यासी तो चला जाना चाहिए पर संन्यास बच जाना चाहिए और इसके लिए सावधिक संन्यास का, पीरियाडिकल रिनन्सिएशन का मेरे मन में खयाल है। ऐसा कोई आदमी नहीं होना चाहिए जो वर्ष में एक महीने के लिए संन्यासी न हो।
जीवन में तो कोई भी ऐसा आदमी नहीं होना चाहिए जो दो—चार बार संन्यासी न हो गया हो। स्थायी संन्यास खतरनाक सिद्ध हुआ है। कोई आदमी पूरे जीवन के लिए संन्यासी हो जाए, उसके दो खतरे है।
जीवन में तो कोई भी ऐसा आदमी नहीं होना चाहिए जो दो—चार बार संन्यासी न हो गया हो। स्थायी संन्यास खतरनाक सिद्ध हुआ है। कोई आदमी पूरे जीवन के लिए संन्यासी हो जाए, उसके दो खतरे है।
एक खतरा तो यह है कि वह आदमी जीवन से दूर हट जाता है, और परमात्मा के प्रेम की, और आनन्द की जो भी उपलब्धियां है वे जीवन के घनीभूत अनुभव में हैं, जीवन के बाहर नहीं। दूसरी बात यह होती है कि जो आदमी जीवन से हट जाता है उसकी जो शान्ति, उसका जो आनन्द है वह जीवन में बिखरने से बच जाता है, जीवन उसका साझीदार नहीं हो पाता। तीसरी बात यह है कि लोगों को यह खयाल पैदा हो जाता है कि गृहस्थ अलग है और संन्यासी अलग है। तो गलत काम करने पर हमें यह खयाल रहता है कि हम तो गृहस्थ हैं, यह तो करना हमारी मजबूरी है, संन्यासी हो जाएंगे तो हम नहीं करेंगे। तो धर्म और जीवन के बीच का एक फासला पैदा हो जाता है।
मेरी दृष्टि में संन्यास जीवन का अंग होना चाहिए। संन्यास जीवन को समझने और पहचानने की विधि होनी चाहिए। ऐसे आदमी का जीवन अधूरा और उसकी शिक्षा अधूरी माननी चाहिए—जो आदमी वर्ष में थोड़े दिनों के लिए संन्यासी न हो जाता हो! अगर बारह महीने में, एक—दो महीने कोई व्यक्ति परिपूर्ण संन्यासी का जीवन जीता हो तो उसके जीवन में आनन्द के इतने द्वार खुल जाएंगे जिसकी उसे कल्पना भी नहीं हो सकती। इस दो महीने में वह संन्यासी रहेगा। फिर वह पूरी तरह ही संन्यासी रहेगा दो महीने। इन दो महीनों में उसका इस दुनियां से कोई भी संबंध नहीं है। संन्यासी का भी जितना संबंध होता है दुनियां से उतना भी उसका दो महीने में संबंध नहीं है।
और यह जानकर आपको हैरानी होगी कि जो आदमी पूरे जीवन के लिए संन्यासी हो जाता है वह गृहस्थियों के ऊपर निर्भर हो जाता है। इसलिए वह दिखता तो है संसार से दूर, लेकिन संसार के पास ही उसे रहना पड़ता है। लेकिन जो आदमी बारह महीनों में सिर्फ दो महीने के लिए संन्यासी होगा वह किसी के ऊपर निर्भर नहीं होगा। वह अपने ही दस महीने के गृहस्थ जीवन पर निर्भर होगा, वह संसार के ऊपर आश्रित नहीं होगा। इसलिए किसी से भयभीत भी नहीं होगा, वह किसी से संबंधित भी नहीं होगा।
अगर एक आदमी पूरे जीवन के लिए संन्यासी होगा तो वह किसी का आश्रित होगा ही। वह बच भी नहीं सकता और अन्तिम परिणाम यह होता है कि संन्यासी दिखाई तो पड़ते हैं कि हमारे नेता हैं लेकिन वे अनुयायी के भी अनुयायी हो जाते हैं। वे उनके भी पीछे चलते हैं।
संन्यासी को आज्ञा देते है गृहस्थ कि तुम ऐसा करो और वैसा मत करो। गृहस्थ उनका मालिक हो जाता है क्योंकि वह उनको रोटी देता है।
संन्यासी गुलाम हो गया है। संन्यासी की गुलामी टूट सकती है एक ही रास्ते से कि वह कभी—कभी संन्यासी हो। वर्ष में ग्यारह महीने वह गृहस्थ हो और एक महीने संन्यासी, तो वह किसी के ऊपर निर्भर नहीं होगा। वह अपनी ग्यारह महीने की कमाई पर निर्भर होगा। फिर उसे किसी से लेना—देना नहीं है। वह इस एक महीने की पूरी फ्रीडम, पूरी स्वतंत्रता का उपयोग कर सकता है, बिना किसी के आश्रय के। वह इस एक महीने में अपने को परिपूर्ण संन्यासी अनुभव करेगा जो कभी कोई संन्यासी नहीं कर पाता। तब वह पूरी मुक्ति से जी सकेगा।
इस एक महीने वह जिस विधि से जिएगा और जिस आनन्द को, जिस शान्ति को अनुभव करेगा, जिस स्वतंत्रता में वह प्रवेश करेगा, उसी को लेकर वापस लौटेगा गृहस्थ जीवन में। और जिन्दगी के घनेपन में प्रयोग करेगा जो उसने एकांत में सीखा था। और परखेगा कि क्या भीड़ में उसका उपयोग कर सकता है? क्योंकि एकांत में शिक्षा होती है और भीड़ में परीक्षा होती है।
जो भीड से बच जाता है वह परीक्षा से बच जाता है। उसकी शिक्षा अधूरी है। जो तुमने अकेले में जाना है अगर उसका भीड़ में उपयोग नहीं कर सकते तो जानना कि वह गलत है। वह बहुत मूल्य का नहीं है। वहां कसौटी है, क्योंकि वहां विरोध है, वहां परिस्थितियां अनुकूल नहीं हैं। जहां सब कुछ प्रतिकूल है वहां भी मैं शांत रह सकता हूं या नहीं? वहां भी मैंने जो एक महीने संन्यास साधा था, आनन्द पाया था—क्या मैं घर के भीतर, दुकान पर बैठकर भी संन्यास को साध सकता हूं या नहीं? इसका ही बाकी ग्यारह महीने निरीक्षण करना है! वर्ष भर बाद उसे फिर महीनेभर के लिए लौट आना है ताकि आनेवाले वर्षभर की परीक्षा के लिए वह तैयार हो सके। नयी सीढ़ियां पार कर सके।
अगर एक आदमी बीस साल की उम्र के बाद सत्तर साल तक जिए और पचास वर्षों में पचास महीने के लिए वह संन्यासी हो सके तो इस जगत में ऐसा कोई सत्य नहीं है जिनसे वह अपरिचित रह जाए, ऐसी कोई अनुभूति नहीं है जिससे वह अनजाना रह जाए। और यह जो संन्यास होगा वह पीरियाडिकल—एक अवधि भर के लिए लिया गया संन्यास होगा। यह उसे जीवन से नहीं तोड़ेगा।
अन्यथा हमारा जो संन्यासी है वह जीवन विरोधी हो गया है। पत्नी और बच्चे उससे भयभीत हैं, मां—बाप उससे भयभीत हैं, क्योंकि वह जीवन को उजाडकर चला जाता है। यह जो कभी—कभी संन्यासी होना है, इसमें भयभीत होने की कोई जरूरत नहीं है। बल्कि जब वह लौटेगा तब उसकी पत्नी पाएगी कि वह और भी प्यारा पति होकर लौटा है। उसकी मां पाएगी कि वह ज्यादा श्रद्धा, ज्यादा प्रेम, ज्यादा आदर भरा हुआ बेटा होकर लौटा है। और इस एक महीने के बाद ग्यारह महीने घर में जिएगा तो जो सुगन्ध उसने पायी है वह सब तरफ बिखरेगी उससे और प्रेमपूर्ण दुनियां बनेगी।
अब तक के संन्यासी ने दुनिया को उजाडा है, बिगाड़ा है—उसने बनाया नहीं है। जीवन को निर्मित करने में, सृजन करने में वह सहयोगी और मित्र नहीं रहा है। मेरे मन में एक अवधि के लिए लिया संन्यास अनिवार्य है, वह मेरे खयाल में है। अब तक जैसे संन्यासी हुए हैं वे दुनियां से समाप्त हो जाएं तो कोई डर नहीं है, संन्यास बचा रहना चाहिए। और इस भांति जो संन्यास व्यापक रूप से डिसूज हो जायेगा बड़े पैमाने पर—क्योंकि हर आदमी को हक हो जाएगा फिर संन्यासी होने का— अभी हर आदमी को हक नहीं हो सकता। क्योंकि अभी हर आदमी संन्यासी हो जाए तो जीवन एक मरघट बन जाए, मृत्यु बन जाए। सावधिक संन्यास में हर आदमी को सुविधा हो जाएगी, संन्यासी होने की। अभी तक हर आदमी को संन्यासी होने का हक पुराने संन्यास में नहीं हो सकता था क्योंकि अगर आदमी संन्यासी हो जाए तो जीवन एक मरघट बन जाएगा, मृत्यु बन जाएगा। जो काम हर आदमी न कर सकता हो, उस काम में निश्रित ही कोई भूल है। जो काम हर आदमी का अधिकार न बन सकता हो, उसमें जरूर कोई भूल है।
अगर सारे लोग आजीवन संन्यासी हो जाएं तो जीवन आज उजड़ जाए, इसी क्षण। आजीवन संन्यास प्रांत है, गलत है। तो जो संन्यासी है उसको भी वापस लौट आना पड़ेगा जीवन में। और संन्यास बच सके दुनियां में इसके लिए बड़ा प्रयोग करना जरूरी है।
'नव—संन्यास क्या?':
से संकलित प्रवचनांश साधना—शिविर लोनावला (महाराष्ट्र),
दिनांक 24 दिसम्बर 1967
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