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बुधवार, 15 अप्रैल 2015

गीता दर्शन--(भाग--7) प्रवचन--172

अव्‍यभिचारी भक्‍ति(प्रवचनदसवां)

अध्‍याय—14
सूत्र—

            मां च योऽव्‍यभिचारैण भक्तियोगेन सेवते
गुणान्समतींत्‍यैतान्‍ब्रह्मभयाय कल्पते।। 26।।
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्यधर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।। 27।।

और जो पुरुष अव्यभिचरीं भक्तिरूप योग के द्वारा मेरे को निरंतर भजता है, वह इन तीनों गुणों को अच्‍छी प्रकार उल्लंघन करके सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव होने के लिए योग्य होता है।
तथा हे अर्जुन, उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखंड एकरस आनंद का मैं ही आश्रय हूं।

पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : ऐसा लगता है कि चेतना या बोध का विस्तार समस्त धर्म—साधना का मूल है, तब क्या ज्ञान व भक्ति, योग व तंत्र, कर्म व अकर्म आदि अनेकानेक मार्गों से इसी बुनियादी तत्व की खोज की जाती है? और यदि इसी सुई को खोजना है, तो उसके इर्द—गिर्द सिद्धांतों का इतना भारी जंगल क्यों खड़ा किया जाता है?

 त्‍य तो अत्यल्प है, अति छोटा है। एक क्षण में भी समा जाए, एक शब्द में भी। पर वैसे सत्य को आप समझ न पाएंगे। उस अणु को आप देख न पाएंगे। वह सूक्ष्म है, इसी कारण आप उससे चूक जाएंगे। उस छोटे—से सत्य को दिखाने के लिए आपकी बुद्धि बहुत—सी मांग करती है।
सिद्धांतों के जाल सत्य को इंगित करने के लिए नहीं खड़े किए जाते, आपकी बुद्धि की तृप्ति के लिए खड़े किए जाते हैं। और बिना तृप्त हुए आप खोज में संलग्न नहीं हो सकते।
आपके सभी प्रश्न व्यर्थ हैं। अर्जुन जो कृष्ण से पूछ रहा है, सभी व्यर्थ है। आनंद जो बुद्ध से पूछ रहा है, सभी व्यर्थ है। लेकिन वह पूछ रहा है, और जब तक उसे उत्तर न मिल जाएं, तब तक उसकी यात्रा प्रारंभ न होगी।
आप व्यर्थ ही पूछ रहे हों, तो भी सदगुरु को इसके उत्तर देने पड़ेंगे। इतना भर कह देने से कि वह व्यर्थ है, आपकी कोई तृप्ति नहीं होगी। इतना भर कह देने से कि असंगत है, पूछने में कोई सार नहीं है, आपकी तृप्ति नहीं होगी।
उत्तर देने का यह अर्थ नहीं है कि जो आप पूछ रहे हैं, वह सार्थक है। उत्तर देने का इतना ही अर्थ है, ताकि आपकी जिज्ञासा घिस—घिसकर शांत हो जाए। आप पूछ—पूछकर थक जाएं। गुरु नहीं थकेगा, उत्तर देता जाएगा। वह आपको थका रहा है। एक ऐसी घड़ी आ जाए, जहां आप खुद ही कहने लगें, अब पूछना नहीं है; अब कुछ करना है। और जब आप कहेंगे, अब कुछ पूछना नहीं, कुछ करना है, तब बात बहुत छोटी है।
जैसे छोटे बच्‍चे को कुछ समझाना हो, तो कहानी का जाल खड़ा करना पड़ता है। और बुद्धिमान बच्चों को कुछ समझाना हो, तो सिद्धांतों के जाल खड़े करने पडते हैं। ये सिद्धांतों के जाल उतने ही बड़े खड़े करने पड़ेंगे, जितनी आपकी बुद्धिमत्ता प्रश्न उठाती चली जाएगी।
झेन फकीर हुआ, रिंझाई। उससे एक सम्राट ने आकर पूछा कि जो भी जानने योग्य है, जो भी पाने योग्य है, आप एक शब्द में मुझे कह दे। रिंझाई ने कहा, जरूर कहूंगा। जो भी पूछने योग्य है, आप एक शब्द में मुझसे पूछ लें। अगर आप एक शब्द में उसे पूछ लेंगे, तो मैं एक शब्द में उसे कह दूंगा। और अगर आप मौन में पूछने में समर्थ हों, तो एक शब्द की भी कोई जरूरत नहीं। आप मौन में ही पूछ लें, मैं मौन में ही कह दूंगा।
आप कितना लंबा करके पूछते हैं, इस पर निर्भर करेगा कि गुरु कितना लंबा शब्दों का जाल खड़ा करे। आपका प्रश्न कितना ही छोटा लगता हो, बहुत बड़ा होता है। उसके सारे पहलू छू लेने जरूरी हैं। अगर उसका एक भी पहलू आपके भीतर अनछुआ रह जाए, तो वह आपको कचोटता रहेगा, परेशान करता होगा। उसका मूल्य कुछ भी नहीं है। लेकिन आपको मूल्यवान लगता है।
अर्जुन जो भी पूछ रहा है, उसका कुछ भी मूल्य नहीं है। और कृष्ण सीधा ही कह सकते हैं कि व्यर्थ है यह प्रश्न, मत पूछ। जो मैं कहता हूं, वह कर। लेकिन अर्जुन को अगर ऐसा कहा जाए कि जो वह पूछ रहा है, वह व्यर्थ है, और कृष्ण जो कहते हैं, वह वह करे। करना मुश्किल होगा! क्योंकि अर्जुन तिरस्कृत हो गया। और जिस अर्जुन का इतना भी मूल्य नहीं है कृष्ण की आंखों में कि उसके प्रश्नों का उत्तर दें, वह अर्जुन कृष्ण पर श्रद्धा भी नहीं कर सकेगा। वह अर्जुन कृष्ण की मानकर भी नहीं चल सकेगा।
उसकी बुद्धि की खुजली थोड़ी तृप्त होनी जरूरी है। यद्यपि उस खुजली से कुछ हल होने वाला नहीं है। खुजली खुजलाने से और बढ़ती है। न केवल बढ़ती है, बल्कि लहूलुहान भी कर सकती है; दुख और पीड़ा भी ला सकती है। लेकिन उस सीमा तक जाना ही होगा।
गुरु को अनंत धैर्य चाहिए। अगर अधीर गुरु हो, तो आपके साथ एक क्षण गति नहीं हो सकती। उसको इतना धैर्य तो चाहिए ही, जितना धैर्य आपमें पूछने का है। इससे थोड़ा ज्यादा चाहिए। आप जब पूछकर चुक जाएं, तब भी वह जवाब देने को तैयार है। ये जवाब आपकी जिज्ञासाओं के मूल्य के कारण नहीं दिए जाते हैं। आपकी जिज्ञासाएं समाप्त हो जाएं, गिर जाएं......। ये उत्तर प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं, प्रश्नों को गिराने की योजना है। और मन की एक क्षमता है, उस क्षमता के बाद मन गिर जाता है। और खुद ही आप कहने लगते हैं कि अब पूछना नहीं, अब कुछ जानना नहीं; अब कुछ करना है, अब कुछ होना है। उस घड़ी की तलाश है।
और जब तक आप न पूछें, तब तक गुरु कहे कि कुछ करो, व्यर्थ है। क्योंकि करना आपको है। और जब तक आपके भीतर यह भाव सजग न हो जाए, तब तक इस भाव को पैदा नहीं किया जा सकता।
इसलिए बुद्ध जीवनभर बोलते हैं, सुबह से सांझ तक बोल रहे हैं। वे ही प्रश्न लोग फिर—फिर पूछते हैं, बुद्ध फिर—फिर उत्तर दे रहे हैं। सिर्फ इस धैर्य में कि आप थकोगे
पूछने वाला अनंत नहीं है, और जवाब देने वाला अनंत है। वह जो शिष्य खोज रहा है, उसकी खोज की सीमा है। और जिस कृष्ण या बुद्ध के पास खोज रहा है, उसके सागर की कोई सीमा नहीं। वह आपको थका ही डालेगा।
गुरु से जीतने का उपाय नहीं है। उससे हारना ही होगा। वही हार आपकी विजय भी होगी। क्योंकि उसी दिन आप शब्दों के ऊपर उठेंगे।
इसे ऐसा समझें, एक कांटा लग जाए, तो दूसरे कांटे से उस कांटे को निकालना पड़ता है। आपके पैर में कांटा लगा है, कोई कृष्ण, कोई बुद्ध, उसे दूसरे कांटे से बाहर निकालते हैं। आप कह सकते हैं कि मैं एक ही कांटे से परेशान हूं; तुम दूसरा कांटा मेरे पास क्यों ला रहे हो? एक कांटा मेरे पैर में चुभा है, उससे ही पीड़ा पा रहा हूं। तुम और दूसरा चुभा रहे हो! ऊपर से ऐसा ही दिखेगा। दूसरा कांटा भी चुभाना होगा, क्योंकि दूसरा कांटा पहले कांटे को बाहर निकाल सकता है। दोनों कांटे हैं। दोनों में चुभन है। और जब कांटा बाहर निकल आएगा पहला दूसरे कांटे से, तो दोनों फेंक दिए जाएंगे।
आपको शब्दों के कीटों की चुभन है। शब्दों के ही काटो से उन्हें निकालना होगा। और जब निकल आएगी आपकी शब्दों की चुभन, प्रश्न बाहर हो जाएंगे, तो दोनों फेंक दिए जाएंगे।
जब अर्जुन ठीक सन्स की हालत में आएगा, तो जो उसने पूछा था, वह तो व्यर्थ है ही, जो कृष्ण ने कहा था, वह भी उतना ही व्यर्थ है। उस दिन वह गीता को आग लगा दे सकता है। और जब तक शिष्य गीता को आग लगाने में समर्थ न हो जाए, तब तक जानना अभी चुभन मिटी नहीं है। अभी पहला कांटा गड़ा है, दूसरे से निकालने की कोशिश चल रही है। जब दोनों ही कांटे बाहर हो गए, तो दोनों ही फेंकने जैसे हैं।
इसलिए सभी शास्त्र व्यर्थ हो जाते हैं। और एक घड़ी जरूर आती है, जब आप शास्त्र की तरफ पीठ कर लेते हैं। और जब तक यह घड़ी न आ जाए, तब तक समझना कि जीवन में अभी वास्तविक क्षण नहीं आया। जब तक शास्त्र व्यर्थ न हो जाए, तब तक समझना, बुद्धि अभी सता रही है, अभी विचार परेशान कर रहे हैं; अभी मन घूम रहा है, भटक रहा है, प्रश्न उठा रहा है। अभी संदेह बाकी है।
जब तक शास्त्र आपको मूल्यवान दिखे, तब तक समझना कि संदेह बाकी है। जिस दिन संदेह मिटेगा, उस दिन शास्त्र की कोई भी जरूरत नहीं, क्योंकि शास्त्र संदेह मिटाने के लिए ही उपयोगी है। ऐसे ही जैसे एक बीमार आदमी है। दवा की बोतल लिए घूमता है। फिर जब वह स्वस्थ हो जाएगा, तो बीमारी ही नहीं छूटेगी, दवा की बोतल भी छूट जाएगी।
शास्त्र औषधि से ज्यादा नहीं हैं। उनका अपने में कोई भी मूल्य नहीं है। औषधि का क्या मूल्य है अपने में? अगर आप बीमार नहीं हैं, तो औषधि का कोई भी मूल्य नहीं है। आप बीमार हैं, तो बड़ा मूल्य है। शास्त्र का अपने में कोई मूल्य नहीं है। बीमार मन के लिए शास्त्र की औषधि सार्थक है। पर इस घड़ी को लाने के लिए भी दूसरे कांटे का उपयोग करना होगा।
तो कृष्ण कुछ सत्य नहीं दे रहे हैं अर्जुन को। सत्य तो दिया नहीं जा सकता। असत्य छीना जा सकता है, सत्य दिया नहीं जा सकता। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
स्वास्थ्य दिया नहीं जा सकता, बीमारी हटाई जा सकती है। स्वास्थ्य भीतरी भाव है। इसलिए दुनिया में कोई दवा नहीं, जो स्वास्थ्य दे सके। दवा तो सिर्फ बीमारी को काटती है। बीमारी कट जाती है, स्वास्थ्य आपके भीतर उत्पन्न होता है। स्वास्थ्य दवा से भीतर नहीं जाता। दवा तो बीमारी को काटती है। बीमारी भी एक जहर है, और दवा भी एक जहर है। और जहर से जहर कट जाता है। और आपके भीतर स्वस्थ होने की क्षमता तो छिपी है, बीमारी के हटते ही वह प्रकट होनी शुरू हो जाती है।
सत्य आपके भीतर छिपा है। कोई कृष्ण, कोई बुद्ध सत्य नहीं दे सकते। कोई कभी किसी को सत्य नहीं दिया है। सिर्फ आपका असत्य कांटा जा सकता है।
ये सिद्धांतों के जाल आपके असत्य को काटने के लिए हैं। और आपने असत्य को इतनी मजबूती से जमाया है कि उसको इतनी ही मजबूती से कोई कांटे, तो ही काट पाएगा।
अर्जुन काफी पैर जमाकर खड़ा है। वह अपने संदेह को छोड़ता नहीं है। वह अपनी शंकाओं को हटाता नहीं है। वह अपनी समस्या को नए रूपों में खड़ा करता जाता है। जितने नए रूपों में वह खड़ा करेगा, कृष्ण उतने नए रूपों से हमला करेंगे। इस बीमारी के लिए औषधि खोजनी होगी।
जिस क्षण अर्जुन संदेह से मुक्त हो जाएगा, उसी क्षण कृष्ण चुप और मौन हो जाएंगे। उसी दिन शास्त्र व्यर्थ हो जाएगा। फिर शास्त्र की कोई भी जरूरत नहीं है।
इतने सिद्धांतों का जाल इसलिए है कि आपने संदेहों का जाल खड़ा कर रखा है। यह तो सिर्फ एंटीडोट है। सिद्धात संदेह का एंटीडोट है।
जितने संदेहशील लोग होंगे, उतने ज्यादा शास्त्रों की जरूरत पड़ जाएगी। जब लोग बिलकुल संदेहशील नहीं होंगे, शास्त्र तिरोहित हो जाएंगे। जिस गांव में कोई बीमार न होगा, वहां से डाक्टर धीरे— धीरे विदा हो जाएगा; औषधियां विलुप्त हो जाएंगी।
असत्य के कारण इतने शास्त्र हैं। असत्य के लिए इतने शास्त्र हैं। संदेह के कारण इतने सिद्धात हैं। अगर सिद्धात कम करने हों, तो सिद्धात कम करने से न होंगे; संदेह कम करें, सिद्धात कम हो जाएंगे। आप असंदिग्ध खड़े हो जाएं, आपके लिए एक भी सिद्धात नहीं है।
अगर अर्जुन असंदिग्ध खड़ा होता कृष्ण के सामने, तो कृष्ण एक शब्द भी नहीं बोलते। बोलने का कोई प्रयोजन नहीं था। बीमारी ही न हो, तो औषधि का कोई अर्थ नहीं है।

दूसरा प्रश्न :

कल आपने जो कहा, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि गुरु जो साधना करवाता है और शिष्य जो साधना करता है, उसकी मात्र उपादेयता, करने की व्यर्थता को जान लेना है। क्या करने की व्यर्थता को जान लेना साधक के लिए अनिवार्य है? और क्या विभिन्न साधनाओं का अपने आप में मूल्य नहीं है?

 ही मूल्य है। इतना ही मूल्य है। इससे ज्यादा मूल्य नहीं है। समस्त प्रक्रियाओं का इतना ही मूल्य है कि आपको पता चल जाए कि करने से कुछ भी न होगा। कर—करके आप थक जाएं और उस जगह आ जाएं, जहां करने की वासना ही न उठे। जहां लगे, करने से कुछ होगा ही नहीं। जिस क्षण भी करने की वासना न उठेगी, उसी क्षण आप कर्ता से मुक्त हो गए उसी क्षण अहंकार शून्य हो गया।
करने में सार्थकता दिखती है, क्योंकि करने वाले में सार्थकता है। आप कुछ कर—करके क्या सिद्ध कर रहे हैं? कि मैं करने वाला हूं! आप अपने कर्ता को सिद्ध कर रहे हैं।
कोई धन इकट्ठा करके सिद्ध कर रहा है कि मैं बड़ा कर्ता हूं। कोई ज्ञान इकट्ठा करके सिद्ध कर रहा है कि मैं बड़ा कर्ता हूं। कोई त्याग करके सिद्ध कर रहा है कि मैं बड़ा कर्ता हूं। लेकिन सभी की मूल बात एक है कि मैं हूं। सब अपने अहंकार को सिद्ध कर रहे हैं। और अहंकार जब तक न मिटे, तब तक परमात्मा से कोई संबंध नहीं है। तो एक ही उपाय है कि आपका सब करना व्यर्थ हो जाए, आप सब जगह असफल हो जाएं, आपको कहीं भी सफलता न मिल पाए। जिस दिन आपकी असफलता पूर्ण होगी, जिस दिन आपको रंचमात्र भी आशा न रह जाएगी कि मैं सफल हो सकता हूं, उसी दिन आपका मैं गिरेगा। और मैं के गिरते ही परम सफलता मिल जाएगी। क्योंकि मैं के गिर जाने का अर्थ ही यह है, अब कुछ खोजने को न रहा। दीवार गिर गई। द्वार खुल गए।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने गांव में ज्योतिषी का काम भी करता था। बैठा था बाजार में अपनी दुकान खोलकर, कि गांव का एक राजनेता जो कि चुनाव अभी—अभी हार गया था, वहां से निकला। नसरुद्दीन ने कहा कि ठहरो, अपना भविष्य नहीं जानना चाहते? उस राजनेता ने कहा, छोड़ो भविष्य अब; अब मैं हार चुका, अब कोई भविष्य नहीं है। मैं आत्महत्या करने जा रहा हूं। मेरे लिए तुम्हारे ज्योतिष का कोई मूल्य नहीं है। नसरुद्दीन ने कहा, रुको। यह तो जान लो कि आत्महत्या में सफल होओगे या नहीं!
जब तक आप कुछ भी करने जा रहे हैं, आत्महत्या भी करने जा रहे हैं, तब तक भी कर्ता पीछे खड़ा है। जब तक आपको लग रहा है, आप कुछ कर सकते हैं, तब तक आपका अहंकार जागा हुआ है।
फ्रांस के एक बहुत बड़े विचारक अल्वेयर कामू ने एक कीमती वक्तव्य दिया है। और वह वक्तव्य यह है कि आदमी चाहे कुछ और न कर सकता हो, चाहे सभी जगह आदमी असफल, असमर्थ मालूम पड़ता हो, लेकिन आत्मघात एक ऐसी बात है, जिससे सिद्ध हो जाता है कि हम भी हैं।
ध्यान रहे, जो लोग आत्मघात करते हैं, अक्सर अहंकारी लोग होते हैं। जो जीवन में सफल नहीं हो सके, लेकिन जो स्वीकार नहीं कर सकते हैं कि हम कुछ भी नहीं हैं, वे आत्मघात करके अपने को बता देते हैं कि कुछ तो मैं कर ही सकता हूं। इतना तो कर ही सकता हूं कि अपने को समाप्त कर लूं।
दोस्तोवस्की का प्रसिद्ध उपन्यास है, ब्रदर्स कर्माझोव। उसमें एक पात्र कहता है आकाश की तरफ हाथ उठाकर कि हे परमात्मा, अगर तू कहीं भी है और मुझे मिल जाए, तो मैं सिर्फ एक काम करना चाहता हूं। मैं तुझे वह टिकट वापस करना चाहता हूं जो तूने मुझे संसार में भेजने के लिए दी है। और तुझसे कह देना चाहता हूं यह संसार बेकार है।
आत्महत्या करने वाला यही कर रहा है। वह कह रहा है परमात्मा से कि सम्हालो अपना यह संसार। इतना करने को तो कम से कम मैं स्वतंत्र हूं। इसमें तुम मुझे न रोक सकोगे।
इसलिए आत्मघात अक्सर अहंकार की आखिरी परिणति है। विनम्र मनुष्य कभी आत्मघात नहीं कर सकता। निरहंकारी तो सोच भी नहीं सकता। क्योंकि निरहंकारी का मतलब ही यह है कि मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है। जीवन भी मेरे हाथ में नहीं है; मृत्यु भी मेरे हाथ में नहीं है। मैं इस विराट की लीला में सिर्फ एक अंग हूं। उस अंग की कोई अपनी, सारे अस्तित्व से टूटी हुई, अस्मिता नहीं है। उसका कोई अपना अहं नहीं है।
मैं इस विराट का एक हिस्सा हूं जैसे लहर सागर का हिस्सा है। सागर जहां ले जाए, वहां लहर चली जाएगी। लहर अपना मार्ग नहीं चुन सकती। लहर यह नहीं कह सकती कि मुझे पूरब जाना है। जाए पूरा सागर पश्चिम, लेकिन मुझे पूरब जाना है!
अहंकारी मनुष्य अपने को मिटाने की तत्परता में लगा है। और जितना अहंकारी होगा, उतना ही जल्दी उसे लगेगा कि खत्म कर लूं। क्योंकि जितना अहंकार होगा ज्यादा, उतनी ही जीवन में विफलता मिलेगी। हर जगह अहंकार टूटेगा।
साधक का तो एक ही अथ है कि अब वह अहंकार तोड्ने के लिए तैयार है। और अहंकार तभी टूटेगा, जब कर्ता का भाव मिटे। कर्ता का भाव तब टूटेगा, जब सभी कर्म तुम्हारे असफल हो जाएं। तुम्हारी सारी विधियां, तुम्हारी सारी क्रियाएं, तुम्हारे सारे मार्ग व्यर्थ हो जाएं। तुम एक ऐसी जगह पहुंच जाओ, जहां तुम कह सको कि मेरे किए कुछ भी नहीं होता, मेरे किए कुछ भी नहीं होगा।
ऐसी जो परम विफलता है, इस परम विफलता में ही मनुष्य को पता चलता है कि मैं असहाय हूं। इस परम विफलता में ही उसे पता चलता है कि मेरे भीतर कोई अहंकार का केंद्र नहीं है। मैं सिर्फ एक लहर हूं सागर पर।
एक तरफ से देखने पर यह विफलता है। और दूसरी तरफ से देखने पर यही जीवन में धर्म का जन्म है। बडी से बड़ी सफलता है। एक कोने से, संसार की तरफ से देखने पर, यह सबसे बड़ी हार है। परमात्मा की तरफ से देखने पर यह सबसे बड़ी विजय है। जो इस हार के लिए राजी नहीं है, वह परमात्मा के जगत में कभी विजय उपलब्ध नहीं करेगा।
इसलिए गुरु की सारी चेष्टा यह है...। तुम पूछते हो, क्या करें? गुरु यह कहे, कुछ न करो, उससे तुम्हें तृप्ति न मिलेगी। तुम पूछते हो, क्या करें? गुरु तुम्हें देता है कि कुछ करो। कर—करके वह तुम्हें उस जगह लाएगा, जहां तुम खुद ही कहने लगोगे, करने से कुछ भी नहीं होता। वह तुम्हें न करने की अवस्था में ला रहा है।
हालांकि तुम करने से न करने की अवस्था में न जाओगे। तुम कुछ रास्ते निकालोगे। तुम कहोगे कि मुझे प्रकाश दिखाई पड़ने लगा। तुम कुछ करके पा रहे हो, यह तुम बताओगे गुरु को जा—जाकर। तुम कहोगे कि अब मुझे लाल—नीले रंग दिखाई पड़ रहे हैं। तुम कहोगे, अब मुझे ओंकार का नाद सुनाई पड़ने लगा। तुम कहोगे, मेरी कुंडलिनी जाग्रत हो रही है। तुम हजार तरकीबें निकालोगे यह सिद्ध करने की कि जो मैं कर रहा हूँ वह विफल नहीं हो रहा है, वह सफल हो रहा है।
तुम अपने अहंकार को बचाने के सब उपाय करोगे। लेकिन अगर तुम्हें सौभाग्य से सदगुरु मिल गया हो, तो वह तुम्हारे एक उपाय चलने न देगा। वह कहेगा, यह कुंडलिनी, यह सब बकवास
है। यह सब तुम्हें वहम है। तुम सपना देख रहे हो। बंद करो यह बात। ये रंग—बिरंगे चित्र, जो तुम्हें दिखाई पड़ रहे हैं, ये स्वप्न से ज्यादा नहीं हैं। यह तुम्हें जो प्रकाश दिखाई पड़ रहा है, यह तुम्हारी कल्पना है।
सदगुरु तो तुम्हें टिकने नहीं देगा। तुम कितनी ही सफलता की खबरें लाओ, वह तुम्हें विफल करता रहेगा। और अगर तुम भाग ही न गए उसके पास से, तो वह तुम्हें जरूर उस जगह ले आएगा धीरे— धीरे—तुम्हारी सामर्थ्य के अनुसार ही लाएगा—उस जगह ले आएगा, जहां तुम कहोगे कि करने से कुछ भी नहीं होता।
और जिस दिन तुम समझोगे, करने से कुछ नहीं होता, उसी दिन कर्तापन विलीन हो जाएगा। और उस कर्तापन के विलीन होने के क्षण में ही तुम्हारी बूंद में पूरा सागर उतर आएगा। उसी क्षण सब कुछ हो जाएगा। जब तुम मिट जाओगे, तो सब कुछ हो जाएगा। जब तक तुम हो, तब तक कुछ भी न होगा।
और तुम्हारी पूरी कोशिश यह है कि तुम बने रहो। तो तुम न मालूम क्या—क्या व्यर्थ की बातें खोज लाते हो कि यह उपलब्धि हो रही है। और इस वजह से तुम्हें व्यर्थ के गुरु भी मिल जाते हैं।
सौ गुरुओं में कभी कोई एक सदगुरु होगा। निन्यानबे जो गुरु हैं, वे तुमने पैदा किए हैं। वे तुम्हारी तृप्ति के लिए, तुम्हारी सांत्वना के लिए हैं। तुम कहते हो, कुंडलिनी जग रही है। वे कहते हैं, बिलकुल जग रही है। तुम कहते हो, रंग—बिरंगे सपने दिखाई पड़ रहे हैं। वे कहते हैं, ये सपने नहीं हैं, ये बड़ी कीमती बातें हैं। इनका बड़ा मूल्य है। तुम बड़ी ऊंचाई पर पहुंच रहे हो। सिद्धावस्था तुम्हारी बिलकुल करीब है।
तुम्हारी मूढ़ता के कारण, तुम्हारे अहंकार के कारण गुरुओं का इतना बड़ा जाल चलता है। लेकिन सदगुरु तुम्हें कभी भी सफल नहीं होने देगा। इसे जरा खयाल रखें।
सदगुरु तुम्हें सफल नहीं होने देगा। तुम कितने ही उपाय करो, वह तरकीबें निकालेगा, तुम्हारी टाग खींचकर तुम्हें वापस गिरा देगा। वह तुम्हें उस जगह ला रहा है, जहां बिलकुल ही साफ तुम्हें हो जाए कि तुम्हारे किए कुछ भी नहीं हो सकता।
इसलिए गुरु की बड़ी कठिनाई है। क्योंकि तुम चाहते हो, कुछ हो जाए। और तुम्हें समझाने—बुझाने के लिए —वह तुम्हारा सिर थपथपाता रहता है कि ही, ठहरो, कल होगा; परसों होगा, रुको। और जब भी कुछ होता है, तब उसकी चेष्टा होती है कि तुम इसको मूल्य मत दो। और वह कहता है, रुको, कल होगा। क्योंकि कल तक तुम्हें रोकना भी जरूरी है। तुम भाग जा सकते हो। तुम्हें भविष्य की आशा देनी जरूरी है।
तुम्हारे अतीत को मिटाना है, तुम्हारे भविष्य को भी मिटाना है। लेकिन तुम रुकोगे, तभी यह हो सकता है। तो वह तुम्हें आशा देता है कि ठहरो। एक दिन, अगर तुम रुके ही रहे, और अगर तुमने साहसपूर्वक प्रयत्न किया, और सब प्रयत्न तुम्हारे असफल हो गए...।
जब मैं कह रहा हूं सब प्रयत्न, तो मेरा मतलब समझ लें, सब प्रयत्न। कुछ बाकी न रहा करने को। सारी आशा तिरोहित हो गई। कोई किरण न रही आशा की। उस गहन अंधकार में ही महासूर्य का जन्म है। उस दिन तुम खाली हो जाओगे। उस दिन तुम कहोगे, अब कुछ करने को भी नहीं बचा। अब वासना को दौड़ाने के लिए कोई मार्ग नहीं है, अब कोई भविष्य नहीं है। और अब अहंकार को सम्हालने के लिए कोई उपाय नहीं है। सब बैसाखियाँ गिर गईं। अब तुम बच नहीं सकते।
इस घड़ी में ही गुरु के सहारे की जरूरत हो जाती है। क्योंकि इस घड़ी में तुम भाग जा सकते हो, और यही क्षण था, जब खजाना मिलने के करीब था। इस वक्त भी वह तुम्हें कहेगा कि ठहरो, कुछ मत करो, रुको, सब होगा।
उसका आश्वासन तुम्हारे धैर्य को बढ़ाने के लिए है। होगा सब तुम्हारे भीतर, कोई गुरु कुछ भी नहीं करता है। और जो गुरु करता है, समझना कि वह गुरु नहीं है। क्योंकि सत्य को दिया नहीं जा सकता। सत्य को खींचकर पैदा नहीं किया जा सकता। सिर्फ तुम्हारी व्यर्थ दौड़—धूप को मिटाना है।
तुम वहीं खड़े हो, जहां सत्य है। लेकिन तुम्हें खड़े होने की आदत नहीं है। तुम भाग रहे हो। तुम दौड़ रहे हो। तुम्हारी दौड़ गिरानी है। कर्म तुम्हारी दौड़ है।
और तुम्हें सदा आसानी है। एक कर्म छोड्कर तुम दूसरा पकड़ सकते हो। तुम एक गुरु को छोड्कर दूसरा पकड़ लोगे। कोई तुम्हारे चक्र जगाएगा। कोई तुम्हारी कुंडलिनी को सहारा देगा। कोई कुछ और सिखाएगा। तुम गुरु बदलते रहोगे। तुम विधि बदलते रहोगे। लेकिन तुम अपने को मजबूती से पकड़े रहोगे।
सदगुरु की छाया में तुम्हें मिटना पड़ेगा। और जिनकी मिटने की तैयारी हो, वे ही केवल सत्य को पा सकते हैं।
तो निश्चित ही, सारी विधियों की एक ही उपादेयता है, वह है करने की व्यर्थता को जान लेना। करने की व्यर्थता जान ली कि होने की सार्थकता समझ में आ जाती है। और होना और करना बिलकुल विपरीत है। करना बाहर है, होना भीतर है। जब करना बिलकुल बंद हो जाता है, तो होने का सूर्य प्रकट होता है, फूल खिलता है। किसी भी भांति प्रयत्न से तुम्हें छुटकारा चाहिए।
लेकिन अगर तुमसे सीधा कह दिया जाए कि तुम सब करना छोड़ दो, तो तुम्हें बात समझ में ही न आएगी। तुम्हें इंच—इंच तैयार करना पड़ेगा। एक—एक मार्ग से तुम्हें ले जाना पड़ेगा। और एक—एक मार्ग व्यर्थ होने लगे और तुम्हें दिखाई पड़ने लगे कि करने से कुछ होने वाला नहीं है। क्योंकि जो है, वह मेरे बिना किए हुए मेरे भीतर मौजूद है। अगर मैं एक क्षण को भी कर्म को छोड़ दूं कर्म की चंचलता हट जाए, तो उस अचंचल स्थिति में वह प्रकट हो जाए।
लेकिन हम अपने को धोखा देने में कुशल हैं। मनुष्य की बड़ी से बड़ी कुशलता है, सेल्फ डिसेप्शन, आत्मवंचना। और हम इस तरकीब से धोखा देते हैं कि हम खुद ही नहीं पहचान पाते कि हमने अपने को धोखा दिया।
मुल्ला नसरुद्दीन एक बाजार से गुजर रहा है। एक आम वाले का ठेला खड़ा है और आम वाला उस तरफ मुंह करके किसी से बात कर रहा है। तो उसने एक आम उठाकर अपने झोले में डाल लिया। फिर उसकी आत्मा कचोटने लगी। फिर उसे लगा कि चोरी करना तो ठीक नहीं। और बेचारे आम वाले को धोखा दे दिया। गरीब आदमी है; और गरीब को धोखा देना उचित नहीं है। यह मैंने पाप किया।
तो वह वापस गया। झोले से आम निकाला और आम वाले से कहा कि आम बदल दो। आम वाले ने समझा कि खरीदा होगा इसने, तो उसने बेचारे ने बदल दिया। तब वह प्रसन्नता से घर लौटा। उसने कहा, पहला तो मैंने चुराया था, दूसरा उसने खुद ही दिया है। अब आत्मा में कोई कांटा नहीं चुभ रहा है। अब वह बिलकुल प्रसन्न घर जा रहा है; क्योंकि दूसरा उसने खुद दिया है। अब कोई सवाल ही नहीं है।
करीब—करीब आप यही कर रहे हैं। जरा—सा हेर—फेर कर लेते हैं और सोचते हैं, सब हल हो गया। ऐसे हल नहीं होगा। यह धोखा चल नहीं सकता। आपको समझना ही होगा कि मूल समस्या क्या है।
मूल समस्या इतनी है कि जो आपको मिला ही हुआ है; उसको आप पाने की कोशिश कर रहे हैं। जैसे एक मछली सागर में सागर को खोजने की कोशिश कर रही हो। बड़ी कठिनाई है। गुरु क्या कर सकता है इस मछली के लिए!
एक ही उपाय है कि किसी भांति इस मछली को पानी के बाहर खींच ले, ताकि यह तड़फने लगे। और यह तड़फ जाए रेत पर दो क्षण, वापस इसको सागर में डाल दे, तो यह फौरन पहचान जाएगी कि मैं सागर में सदा से थी। लेकिन जब तक यह सागर से अलग नहीं हुई, तब तक इसको पता भी नहीं चल रहा है।
आप परमात्मा में हैं, जैसे मछली सागर में है। जैसे मछली सागर के बिना नहीं हो सकती, आप परमात्मा के बिना नहीं हो सकते हैं। वह आपके होने का ढंग है। वह आपके होने का आधार है।
तो गुरु क्या करे? आप उससे पूछते हैं, मैं क्या करूं परमात्मा को पाने के लिए? और वह देख रहा है कि मछली पानी में तैर रही है। और पूछती है, पानी को पाने के लिए क्या करूं? तो आपको कुछ विधि बताता है। वे विधिया सब ऐसी हैं कि जिनसे आप तड़फ जाएं; जिनसे आप क्षणभर के लिए उस बेचैनी से भर जाएंगे, जो आपको सागर से अलग कर दे एक क्षण को भी। और जैसे ही वह अलग होने की व्यर्थता और पीड़ा आपको पता चलेगी, आप वापस सागर में गिर जाएंगे। वह सागर में गिरना ही परमात्मा से मिलना हो जाएगा।
सारी खोज की दुविधा, समस्या, उलझाव यही है कि हम उसे खोज रहे हैं जो मिला ही हुआ है। और गुरु को आपको वही दिखाना है, जो आप देख ही रहे हैं। क्या किया जाए?
मैं एक कहानी कहता रहा हूं। एक आदमी ने शराब पी ली। शराब पीकर रात वह अपने घर लौटा, आदतवश।
घर आने के लिए कोई होश की जरूरत तो किसी को भी नहीं होती। अपने घर तो आदमी यंत्र की तरह चला आता है। कब मुड़ना है बाएं, कब दाएं; किस गली से जाना है, कहां से आना है। अपने घर आने के लिए कोई होश की जरूरत किसी को भी नहीं होती है। आप भी बेहोश ही अपने घर आते हैं। साइकिल का हैंडल मुड़ जाता है, गाड़ी का व्हील मुड जाता है, पैर घूम जाते हैं। आप अपने घर आ जाते हैं।
वह बेहोश तो था, अपने घर पहुंच गया। लेकिन घर के सामने जाकर उसको खयाल आया कि यह मेरा घर है या नहीं! आंखों में धुंध थी; भीतर नशा था। कुछ ठीक साफ समझ नहीं। चीजें घूमती मालूम पड़ रही थीं। तो बैठ गया अपनी सीढ़ियों पर और आस—पास से गुजरने वाले लोगों से पूछने लगा कि कोई मुझे मेरे घर का पता बता दो।
कोई हंसा। किसी ने कहा, अरे मूर्ख, तू अपने घर के सामने बैठा है। तू अपने घर की सीढ़ी पर ही बैठा हुआ है। उसने कहा, तुमने मुझे इतना नासमझ समझा हुआ है कि अपने घर की सीढ़ी पर बैठकर मैं तुमसे पूछूंगा?
जिसने भी उसे बताने की कोशिश की कि तू अपने घर की सीढ़ी पर बैठा है, उसने समझा कि वह उसे धोखा देने की कोशिश कर रहा है। अगर मैं अपने घर की सीढ़ी पर बैठा हूं तो मैं पूछूंगा क्यों? भीड़ इकट्ठी हो गई। उसकी मां, की मां, शोरगुल सुनकर मकान के बाहर आई। आधी रात, देखा उसका बेटा रो रहा है और भीड़ खड़ी है। और वह पूछ रहा है, मेरा घर कहां है? तो उसकी मां ने उसके सिर पर हाथ रखा और कहा कि बेटा, तू पागल हो गया! यह तेरा घर है।
उसने उसको देखा। वह पहचाना तो नहीं। देखा, कोई स्त्री खड़ी है। उसने पैर पकड़ लिए और कहा, माई, तू कृपा कर और मुझे मेरे घर का पता बता दे।
तभी पड़ोस का एक आदमी, जो खुद भी नशे में था, वह अपनी बैलगाड़ी जोतकर आ गया। उसने कहा कि बैठ, तू मानता ही नहीं, तो मैं तुझे पहुंचा दूंगा।
उसकी मां रोती है। वह कहती है, इसकी बैलगाड़ी में मत बैठना, नहीं तो यह न मालूम तुझे कहां ले जाए। तू घर पर है ही। अगर तू कहीं भी गया, तो दूर निकल जाएगा।
तो करीब—करीब हालत हमारी ऐसी ही है। अगर कोई कहे कि जिसको आप खोज रहे हैं, वह आपके भीतर है, तो आप कहते हैं, तो क्या मैं इतना मूढ़ हूं कि मुझे पता नहीं! तो आपके लिए बैलगाड़ी जोतनी पड़ती है। उसमें आपको बैठाना पड़ता है कि चलिए विराजिए। आपको पहुंचा देंगे आपके घर तक।
इसमें जो गुरु है, वह तुम्हें बैलगाड़ी पर बिठा—बिठाकर थकाएगा। और घुमा—फिराकर उसी जगह ले आएगा, जहां से बैलगाड़ी की यात्रा शुरू हुई थी। लेकिन इस बीच बैलगाड़ी में तुम्हें इतने दचके देगा कि तुम्हारा होश आ जाए, तुम्हारी बेहोशी टूट जाए, नींद टूट जाए।
तुम्हारी मंजिल दूर नहीं है। तुम्हारा होश कायम नहीं है। जो पाना है, वह तो यहां है। लेकिन जिसे पाना है, वह बेहोश है। और उससे सीधा यह कह देना कि तुम वहीं खड़े हो, जहां पाना है, वह तुम्हारी मानेगा नहीं। अगर उसको यही समझ में आ जाता, तो वह तुमसे पूछता ही नहीं।
शिष्य गुरु के पास इसलिए आ रहा है कि वह जानता है कि जहां वह है, वहां कुछ भी नहीं है। और जहां सब कुछ है, वह बहुत दूर है मंजिल। बड़ी कठिन है वहां पहुंचने की यात्रा। किसी से पूछना पड़ेगा, कोई गाइड चाहिए। इसीलिए तुम्हारे पास आया है। और अगर तुम उससे सीधा—सीधा कह दो, यहां आने का कोई सवाल नहीं है, क्योंकि तुम वहां हो ही, मंजिल में ही तुम रह रहे हो, तब वह कोई दूसरा गुरु खोजेगा, जो उसे ले जाए।
तो सदगुरु को तुम्हारी नासमझी के साथ योजना बनानी पडती है। वह बैलगाड़ी जोतता है, ताकि तुम्हें भरोसा आ जाए कि ठीक है। वह तुम्हें बिठाता है। वह गाड़ी चलाता है। वह तुम्हें काफी चक्कर लगाता है। और उसी जगह तुम्हें ले आना है, जहां तुम थे, जहां से तुम्हें यात्रा पर शुरू किया गया था।
समस्त गुरुओं का एक ही उपाय है कि तुम्हें कर्म की व्यर्थता, विधि की व्यर्थता बोध में आ जाए। प्रयत्न व्यर्थ है। निष्प्रयत्न उसकी उपलब्धि है। पर यह आने के लिए काफी भटकना जरूरी है। और अपने ही घर को पहचानने के लिए न मालूम कितने घरों, कितने द्वारों की तलाश करनी पड़ती है। जहां तुम हो, वहां आने के लिए तुम्हें करीब—करीब पूरे संसार का चक्कर लगा लेना होता है।

 तीसरा प्रश्न :

गुणातीत में जाने के लिए आपने साक्षी—भाव का प्रयोग बताया। लगता है, आपकी सारी शिक्षा का केंद्रीय तत्व साक्षीत्व है। वर्षों से मैं आपको सुनता हूं और संभवत: साक्षीत्व का प्रयोग भी करता हूं। लेकिन क्षितिज की तरह वह मुझसे जहां का तहां खड़ा मालूम होता है। कृपा करके बताएं कि मेरी भूल क्या है?

 स इतनी ही भूल है कि यह साक्षी— भाव को भी आप क्रिया बना लिए हैं। आप सोचते हैं, आप साक्षी— भाव साधते हैं। साक्षी— भाव भी आपको कुछ करने जैसा मालूम होता है। एक भूल।
साक्षी— भाव कृत्य नहीं है, समस्त कृत्यों के प्रति बोध का भाव है। इसलिए साक्षी— भाव स्वयं कृत्य नहीं है। साक्षी— भाव के लिए कुछ करना नहीं पड़ता। जो भी आप करते हैं, उसको देखना है।
और साक्षी— भाव को अगर आप कर्म बना लेंगे, तब तो फिर आपको इसको भी देखना पड़ेगा। इसके पीछे फिर आपको पुन: साक्षी होना पड़ेगा। साक्षी अंतिम है, उसके पीछे जाने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए आप साक्षी— भाव को कर्म मत बनाएं, उसे सहज रहने दें।
जरा कठिन है, क्योंकि हम सब चीज को कर्म बना लेते हैं। हम साक्षी— भाव को भी साधने लगते हैं।
यह वैसा ही है, जैसे किसी आदमी को मैं कहूं कि नींद को लाने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता। और उसको नींद नहीं आती। वह मुझसे पूछेगा, यही तो मेरी समस्या है कि मुझे नींद नहीं आती। मैं पूछता हूं कि क्या करूं कि नींद आ जाए? और आप कहते हैं, नींद लाने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता। तो इसका मतलब हुआ कि मुझे नींद कभी आएगी ही नहीं। मुझे आती नहीं।
वह कोई विधि मांगता है। वह कहता है, मैं कुछ करूं, जिससे नींद आ जाए। तो आप उसे बता सकते हैं कि तू एक से लेकर सौ तक गिनती कर। फिर सौ से उलटा लौट—निन्यानबे, अट्ठानबे, सत्तानबे—एक तक आ। फिर एक से जा।
मगर उसके खतरे हैं। खतरा यह है कि जब तक आप गिनती पढ़ते रहेंगे, तब तक तो नींद आ ही नहीं सकती। क्योंकि कोई भी कर्म नींद में बाधा डालेगा। कोई भी कर्म विश्राम में बाधा डालेगा। आप कुछ भी करें, जब तक आप कर रहे हैं, तब तक नींद नहीं आएगी। करना तो बंद होना चाहिए तभी नींद आएगी।
नींद नहीं आती, उसका मतलब ही इतना है कि आपके मन में करना जारी रहता है। इतना ही हो सकता है कि एक से सौ तक गिनती, सौ से फिर वापस एक तक गिनती, फिर एक से सौ तक गिनती आपको उबा दे, थका दे। और आप कर—करके ऊब जाएं, थक जाएं। और उस थकान की वजह से संख्या पढ़ना भूल जाएं। और उस भूले क्षण में नींद आ जाए। यह हो सकता है। लेकिन नींद तो तभी आएगी, जब करना छूट जाएगा। जब तक करना जारी रहेगा, तब तक नींद नहीं आएगी। करने में और नींद में विपरीतता है।
ठीक ऐसे ही साक्षी— भाव की दशा है। आप कुछ भी करें, साक्षी— भाव नहीं हो पाएगा। क्योंकि जो भी आप करेंगे, उसमें कर्ता हो गए। साक्षी का मतलब ही यह है कि मैं कर्ता नहीं बनूंगा, मैं सिर्फ देखूंगा। मैं किसी तरह का कर्ता— भाव पैदा नहीं होने दूंगा। लेकिन आप कहते हैं कि मैं सिर्फ देखूंगा, तो मैं देखने का कर्म करूंगा। तो आप अकड़ जाएंगे और अकड़कर देखेंगे, वह कर्तृत्व हो गया, साक्षी— भाव खो गया।
साक्षी— भाव तो सहज है। उसके लिए अकड़ नहीं चाहिए। उसके लिए कोई करने की बात नहीं चाहिए। करने का कोई सवाल ही नहीं है।
मगर क्या करें आप! साक्षी— भाव पास में नहीं है, तो आप तो करेंगे ही। जब तक आप करेंगे, तब तक साक्षी— भाव नहीं सधेगा। इसीलिए आप कहते हैं, संभवत: साक्षीत्व का प्रयोग कर रहा हूं। नहीं तो संभवत: का खयाल नहीं आएगा। अगर साक्षी का प्रयोग हो रहा है, तो हो रहा है। संभव की क्या बात है?
आप कभी नहीं कहते कि संभवत: मैं जिंदा हूं! आप जिंदा हैं, तो आप जानते हैं, जिंदा हैं। मर गए तो बात खत्म हो गई। संभवत: कहने वाला भी नहीं रहा।
साक्षी— भाव अगर होगा, तो होगा। नहीं होगा, तो नहीं होगा। संभव का अर्थ ही यह हुआ कि आप साक्षी— भाव को एक क्रिया बना लिए हैं। आप कोशिश कर रहे हैं। कोशिश से ही तो साक्षी— भाव मिट जाएगा।
आप कोशिश मत करें। जो भी होता है, उसे देखें। कभी साक्षी— भाव हो जाए, तो ठीक, न हो, तो ठीक। लेकिन कोशिश मत करें। साक्षी— भाव को छोड़ दें अपने पर। एक क्षण को भी आ जाए चौबीस घंटे में, तो काफी है। बस, उतनी देर देख लें। जब न आए, फिक्र न करें। जब साक्षी— भाव आए, तो उसे देख लें। और जब न आए, तो उसके न आने को देखते रहें। जब द्रष्टा सध जाए, तो उसको देख लें। जब द्रष्टा खो जाए, तो उसको देख लें।
गुरजिएफ इस संबंध में बहुत कीमती है। गुरजिएफ से आस्पेंस्की ने पूछा है कि मैं...। क्योंकि गुरजिएफ की साधना थी सेल्फ रिमेंबरिंग की। उसको साक्षी— भाव कहें। स्वयं का स्मरण बनाए रखना। कभी—कभी भूल जाएगा। कभी—कभी खो जाएगा।
तो आस्पेंस्की गुरजिएफ से पूछ रहा है, उसका शिष्य, कि कभी—कभी जब खो जाए, तब मैं क्या करूं? कभी तो ध्यान सधता है और कभी बेध्यान हो जाता हूं। तो गुरजिएफ कहता है, जब ध्यान सधे, तो जानो कि ध्यान सधा। और जब बेध्यान हो जाओ, तो जानो कि अब बेध्यान है। लेकिन इसमें कुछ कलह खड़ी मत करो। बी अटेंटिव आफ योर इनअटेंशन। वह जब बेध्यान हो जाए तब उसका भी ध्यान रखो। जब होश रहे तो ठीक, होश के प्रति होश रखो। और जब बेहोशी आ जाए तो ठीक, बेहोशी के प्रति होश रखो।
बड़े मजे की बात है। क्योंकि जब आप बेहोशी के प्रति होश रखेंगे, तो बेहोशी टिक नहीं सकती।
सहज होश को रखो। उठते—बैठते, चलते—सोते, जो भी हो रहा हो। कभी—कभी सपना मन को पकड़ लेगा, तो पकड़ लेने दो। कभी—कभी भूल जाएंगे, तो भूल जाओ। इससे अड़चन खड़ी मत करो, इससे तनाव मत बनाओ। साक्षी— भाव के सहज सूत्र को स्फुरित होने दो।
धीरे— धीरे, एक—एक, दो—दो क्षण करके वह झरना फूटेगा। और अगर सहज रहे, तो वह झरना बंद नहीं होगा; बड़ा होता जाएगा। और अगर झपट्टा मारकर उसको पकड़ा, तो वे जो दो बूंद आ रही थीं, वे भी बंद हो जाएंगी।
कुछ चीजें हैं, जिनको झपट्टे से नहीं पकड़ा जा सकता। उसमें वे मर जाती हैं। वे बहुत कोमल हैं। अति कोमल हैं। बहुत डेलिकेट हैं, नाजुक हैं। उनको पत्थर की तरह हाथ में नहीं लिया जा सकता। लेकिन हमारी आदत हर चीज को पत्थर की तरह हाथ में लेने की है। इसलिए जब फूल पर भी हमारा हाथ पड़ता है, तो हम पत्थर की तरह ही हाथ में ले लेते हैं। उसमें ही फूल मर जाता है।
और साक्षी— भाव सबसे नाजुक फूल है। उससे ज्यादा नाजुक इस जगत में कोई भी चीज नहीं है। वह सर्वाधिक नाजुक है। उससे ज्यादा कोमल फिर कुछ भी नहीं है। इसलिए उसको आप झपट्टा मारकर नहीं पकड़ सकते। उसको आपको सहजता से आने देना होगा। आपको चुपचाप प्रतीक्षा करनी होगी। और अगर वह न आए, जैसा पूछा है, कि अभी भी दूर खड़ा मालूम पड़ता है, तो कृपा करके बताएं कि मेरी भूल क्या है? उसे दूर खड़ा रहने दें और देखते रहें। उसको पास लाने की फिक्र मत करें। सिर्फ देखने की फिक्र करें कि वह दूर खड़ा है। देखते रहें। उसको पास लाने की कोशिश में कर्ता— भाव आ जाएगा और साक्षी— भाव खो जाएगा। क्योंकि आप कर्म की फिर जिज्ञासा करने लगे।
अनंत जीवन तक भी वह खड़ा रहे साक्षी— भाव क्षितिज की तरह और आपको न मिले, तो भी जल्दी मत करें। और जिस दिन आप अपनी जगह खड़े रहेंगे और वह अपनी जगह खड़ा रहेगा और कोई भाग—दौड़ नहीं होगी, अचानक आप पाएंगे कि वह आपके भीतर खड़ा है, दूरी मिट गई। लेकिन दूरी मिटाई नहीं जा सकती। आप दौड़कर नहीं मिटा सकेंगे। क्योंकि दौड़ने का मतलब है, कर्ता आ गया।
यह कर्ता और साक्षी शब्दों का फासला ठीक से समझ लें। जब भी आप कुछ करने लगे, तो कर्ता आ गया। और जो भी हो रहा है, उसे आप देखते रहे, तो साक्षी रहा।
जो भी हो रहा है, होने दें। ऐसा समझें कि जैसे किसी और को हो रहा है। आप जैसे किसी नाटक को देख रहे हैं। किसी और पर कहानी बीत रही है। दूरी! उसमें इतने ज्यादा डूबे मत। उसकी वासना न बनाएं। नहीं तो हम सोचते हैं पहले कि जैसे और चीजें मिल जानी चाहिए, साक्षी— भाव भी मिल जाना चाहिए। उसकी वासना बनाते हैं। जितने जोर से हम वासना बनाते हैं, उतनी ही दूरी हो जाती है।
साक्षी— भाव आपके लाने से नहीं आएगा। आपके मिट जाने से आएगा। और मिटने की सुगमतम कला एक ही है कि आप करने के साथ अपने को मत जोड़े; सिर्फ देखने के साथ जोड़े।
इसलिए हमने परम साधना के सूत्र को इस मुल्क में दर्शन कहा है। दर्शन का मतलब है, सिर्फ देखने की कला। जरा भी कुछ न करें।

 अंतिम प्रश्न :

कामवासना के पार जाने के लिए अविवाहित रहने की सहज इच्छा रखने वाला साधक साक्षी— भाव को साधे या वासना में उतरकर उसकी व्यर्थता या सार्थकता को जान ले? अविवाहित रहने की सहज इच्छा क्या इस तथ्य को इंगित नहीं करती कि इसकी व्यर्थता को उसने अपने पिछले जन्मों की यात्रा में बहुत दूर तक जान लिया है? क्या साक्षी— भाव बिना उसकी पूर्ण व्यर्थता जाने नहीं साधा जा सकता?

 हली बात, अविवाहित होने की सहज इच्छा और अकाम, एक ही बात नहीं हैं। अगर वासना ही न उठती हो, तब तो कोई सवाल नहीं है। तब तो यह सवाल भी नहीं उठेगा। वासना ही न उठती हो, तो यह सवाल ही कहां उठता है!
अविवाहित रहने की इच्छा और वासना का न उठना अलग बातें हैं। अविवाहित तो बहुत— से लोग रहना चाहते हैं। वस्तुत: तो जो ठीक वासना से भरे हैं, वे विवाह से बचना चाहेंगे, क्योंकि विवाह उपद्रव है वासना से भरे आदमी के लिए। विवाह का मतलब है, एक स्त्री, एक पुरुष से बंध गए। और वासना बंधना नहीं चाहती; वासना उन्मूक्त रहना चाहती है।
तो विवाह न करने की इच्छा जरूरी नहीं है कि ब्रह्मचर्य की इच्छा हो। विवाह न करने की इच्छा बहुत गहरे में अब्रह्मचर्य की इच्छा भी हो सकती है।
फिर विवाह न करने की इच्छा के पीछे हजार कारण होते '। विवाह एक जिम्मेवारी है, एक उत्तरदायित्व है। सभी लोग उठाना भी नहीं चाहते। बहुत चालाक हैं, वे बिलकुल नहीं उठाना चाहेंगे। कौन उस झंझट में पड़े!
लेकिन वासना का न होना दूसरी बात है। विवाह का वासना से कोई लेना—देना नहीं है। बिना वासना के आदमी विवाह कर सकता है, किन्हीं और कारणों से।
एक नौकरानी रखना भी महंगा है घर में। एक पत्नी से ज्यादा सस्ता कोई भी उपाय नहीं है। बिना वासना के आदमी विवाह कर सकता है। और वासना से भरा हुआ आदमी विवाह से बच सकता है। इसलिए विवाह और वासना को पर्यायवाची न समझें।
चारों तरफ विवाह का दुख दिखाई पड़ता है। जिसमें थोड़ी भी बुद्धि है, वह विवाह से बचना चाहेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे पूछ रही है कि क्या नसरुद्दीन, कभी तुम्हारे मन में ऐसा भी खयाल उठता है कि मुझसे तुमने विवाह न किया होता तो अच्छा होता? या ऐसा खयाल उठता है कभी कि मैंने—नसरुद्दीन की पत्नी ने—किसी और से विवाह कर लिया होता, तो अच्छा था न:
नसरुद्दीन ने कहा कि मैं किसी दूसरे का बुरा क्यों चाहने लगा! एक भावना जरूर मन में उठती है कि तू अगर सदा कुंआरी तो अच्छा था।
तो चारों तरफ विवाह आप देख रहे हैं। वहां जो दुख फैला हुआ है। हर बच्चे को उसके घर में दिखाई पड़ रहा है, उसके मां —बाप का दुख, बड़े भाइयों, उनकी पत्नियों का दुख। विवाह एक नरक है, चारों तरफ फैला हुआ है। बडी गहरी वासना है, इसलिए हम फिर भी विवाह में उतरते हैं। नहीं तो बहुत मुश्किल हो जाएगा। अंधे हैं बिलकुल, शायद इसलिए। बिलकुल समझ से नहीं चलते। या हर आदमी को एक खयाल है भीतर कि मैं अपवाद हूं। इसलिए ये सब लोग दुख भोग रहे हैं, मैं थोडे ही भोगूंगा। हर आदमी को यह खयाल है।
अरब में कहावत है कि परमात्मा हर आदमी को बनाकर उसके कान में एक बात कह देता है कि तुझे मैंने अपवाद बनाया है। तेरे जैसा मैंने कोई बनाया ही नहीं। तू नियम नहीं है, तू एक्सेप्शन है। और हर आदमी इसी वहम में जीता है।
आप अपने जैसे पचास आदमियों को मरते देखें उसी गट्टे में। आप अकड़ से चलते जाएंगे कि मैं थोड़े ही! मैं बात ही अलग हूं। इस अपवाद के कारण आप विवाह में उतरते हैं। नहीं तो आंख खोलने वाली है, विवाह की घटना चारों तरफ घटी हुई है। उसमें कहीं कोई छिपा हुआ नहीं है मामला।
तो जरा भी समझ होगी, तो आपमें विवाह की सहज इच्छा न।? पैदा होगी। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं हुआ कि आपमें ब्रह्मचर्य की इच्छा पैदा हो रही है। ब्रह्मचर्य बड़ी दूसरी बात है। अकाम बड़ी दूसरी बात है।
यह जो अकाम है, अगर वह सहज है, तो यह प्रश्न ही नहीं उठेगा। फिर कहीं जाने का कोई सवाल नहीं है, किसी अनुभव में उतरने की जरूरत नहीं है। जिस बात की मन में वासना नहीं उठ। रही, उसके अनुभव में उतरने का प्रयोजन क्या है? और अनुभव में उतरूं या न उतरूं, यह भी खयाल क्यों उठेगा?
साफ है कि वासना भीतर मौजूद है। विवाह की जिम्मेवारी लेने का मन नहीं है। मन चालाक है और वह होशियारी की बातें कर रहा है।
तो मैं कहूंगा कि अगर मन में वासना हो, तो वासना में उतरना . ही उचित है। उतरने का मतलब यह नहीं है कि आप साक्षी— भाव खो दें। उतरें और साक्षी— भाव कायम रखें। उतरेंगे, तभी साक्षी— भाव को कसौटी भी है। और अगर नहीं उतरे, तो। साक्षी— भाव तो साधना मुश्किल है। और वासना सघन होती जाएगी, और मन में चक्कर कांटेगी, और मन को अनेक तरह की विकृतियों में, परवरशंस में ले जाएगी।
जिनको हम साधु —संत कहते हैं, आमतौर से विकृत मनों की अवस्था में पहुंच जाते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन मरा। उसके बहुत शिष्य भी थे। इस दुनिया में शिष्य खोजना जरा भी कठिन मामला नहीं है। अनेक लोग उसे मानते भी थे। कुछ दिनों बाद उसका एक शिष्य भी मरा। तो जाकर उसने पहला काम स्वर्ग में तलाश का किया कि नसरुद्दीन कहां है। पूछा—तांछा तो किसी ने खबर दी कि नसरुद्दीन वह सामने जो एक सफेद बदली है, उस पर मिलेगा।
भागा हुआ शिष्य अपने गुरु के पास पहुंचा। वहा जाकर उसने देखा, तो बहुत चकित रह गया। का नसरुद्दीन एक अति सुंदर स्त्री को अपनी गोद में बिठाए हुए है। उसने मन में सोचा कि मेरा गुरु! और यह तो सदा विपरीत बोलता था स्त्रियों के; और ब्रह्मचर्य के बड़े पक्ष में समझाता था। यह क्या हो गया! लेकिन तब उसे तत्‍क्षण खयाल आया उसके अचेतन से कि नहीं—नहीं, यह परमात्मा का दिया गया पुरस्कार होगा, यह जो स्त्री है। मेरे गुरु ने इतनी साधना की और इतनी तपश्चर्या करता था और इतना ज्ञानी था कि जरूर उसको पुरस्कार में यह सुंदरतम स्त्री मिली है।
तो वह भागा हुआ गया। उसने कहा, धन्यभाग, और परमात्मा का अनुग्रह, प्रभु की कृपा; कैसा पुरस्कार तुम्हें मिला! नसरुद्दीन ने कहा, पुरस्कार? यह मेरा पुरस्कार नहीं है, इस स्त्री को मैं दंड की तरह मिला हूं। शी इज नाट माई प्राइज; आई एम हर पनिशमेंट। लेकिन उस शिष्य के मन में, अचेतन में, यह खयाल आ जाना कि यह पुरस्कार मिला होगा, इस बात की खबर है कि वासना कायम है और इसको पुरस्कार मानती है।
इसलिए ऋषि—मुनि भी स्वर्ग में किस पुरस्कार की आशा कर रहे हैं? अप्सराएं, शराब के चश्मे, कल्पवृक्ष, उनके नीचे ऋषि—मुनि बैठे हैं और भोग रहे हैं!
तो जो आप छोड़ रहे हैं, वह छोड़ नहीं रहे हैं। वह कुछ सौदा है गहरा और उसमें पुरस्कार की आशा कायम है। यह इस बात की सूचना है कि ये मन विकृत हैं। ये स्वस्थ मन नहीं हैं।
जिन—जिन के स्वर्ग में अप्सराओं की व्यवस्था है, उन—उन का ब्रह्मचर्य परवटेंड है, विकृत है। और जिन्होंने स्वर्ग में शराब के चश्मे बहाए हैं, उनके शराब का त्याग बेईमानी है, झूठा है। जो वे यहां नहीं पा सकते या यहां जिसको छोड़ने को कहते हैं, वहां उसको पाने का इंतजाम कर लेते हैं। यह मन की दौड़ साफ है। यह गणित सीधा है।
तो मैं तो कहूंगा कि बजाय वासना को दबाने, विकृत करने के साक्षी— भाव से उसमें उतर जाना उचित है। संसार एक अवसर है। यहां जो भी है, अगर उसका जरा भी मन में रस है, तो उसमें उतर जाएं, भागें मत। नहीं तो वह स्वर्ग तक आपका पीछा करेगा। आखिरी क्षण तक आपका पीछा करेगा। उसमें उतर ही जाएं। उसका अनुभव ले ही लें।
अनुभव मुक्तिदायी है, अगर होश कायम रखें। नहीं तो अनुभव पुनरुक्ति बन जाता है और नए चक्कर में ले जाता है।
इसलिए मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मात्र अनुभव से आप मुक्त हो जाएंगे। अनुभव और साक्षी का भाव संयुक्त हो, तो आप मुक। हो जाएंगे। अकेला अनुभव हो, तो आपकी आदत और गहरी होती जाएगी। और फिर आदत के वश आप दौड़ते रहेंगे। और अकेला साक्षी— भाव हो और अनुभव से बचने का डर हो, तो वह साक्षी— भाव कमजोर और झूठा है। क्योंकि साक्षी— भाव को कोई भय नहीं है। न किसी चीज के करने का भय है, और न करने का भय है।
साक्षी— भाव को कर्म का प्रयोजन ही नहीं है। जो भी हो रहा है, उसे देखता रहेगा। तो साक्षी मंदिर में बैठा हो कि वेश्यालय में, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि साक्षी का काम सिर्फ देखने का है।
कथा है बौद्ध साहित्य में, आनंद एक गांव से गुजर रहा है—बुद्ध का शिष्य। और कथा है कि एक वेश्या ने आनंद को देखा। आनंद सुंदर था। संन्यस्त व्यक्ति अक्सर सुंदर हो जाते हैं। और संन्यस्त व्यक्तियों में अक्सर एक आकर्षण आ जाता है, जो गृहस्थ में नहीं होता। एक व्यक्तित्व में आभा आ जाती है।
वह वेश्या मोहित हो गई। और कथा यह है कि उसने कुछ तंत्र—मंत्र किया। बुद्ध देख रहे हैं दूर अपने वन में वृक्ष के नीचे बैठे। दूर घटना घट रही है, आनंद बहुत दूर है, लेकिन कथा यह है कि बुद्ध देख रहे हैं। बुद्ध देख सकते हैं। वे देख रहे हैं। बुद्ध के पास सारिपुत्त, उनका शिष्य भी बैठा हुआ है। वह भी देख रहा है।
सारिपुत्त बुद्ध से कहता है, आप आनंद को बचाएं। वह किसी मुश्किल में न पड़ जाए। क्योंकि स्त्री बड़ी रूपवान है और उसने बडा गहरा तंत्र—मंत्र फेंका है। और आनंद कहीं ठगा न जाए। लेकिन बुद्ध देखते रहते हैं।
अचानक बुद्ध उठकर खड़े हो जाते हैं और सारिपुत्त से कहते हैं, अब कुछ करना होगा। सारिपुत्त कहता है, अब क्या हो गया जो आप करने के लिए कहते हैं? अब तक मैं आपसे कह रहा था, कुछ करें। आप चुप बैठे रहे। जो बीमारी शुरू हुई, उसे पहले ही रोक देना उचित है!
बुद्ध ने कहा, बीमारी अब तक शुरू नहीं हुई थी; अब शुरू हुई है। आनंद मूर्च्छित हो गया, साक्षी— भाव खो गया। अभी तक कोई डर नहीं था। वेश्या हो, सुंदर हो, कुछ भी हो, अभी तक कोई भय न था। और आनंद उसके घर में चला जाए; रात वहा टिके, कोई भय की बात नहीं थी। अब भय खड़ा हो गया है।
लेकिन सारिपुत्त बडा चकित है, क्योंकि आनंद अब भाग रहा है। वेश्या बहुत दूर रह गई है। जब बुद्ध कहते हैं, भय हो गया है, तब आनंद वेश्या से दूर निकल गया है भागकर और उसने पीठ कर ली है। वह लौटकर भी नहीं देख रहा है। लेकिन बुद्ध खड़े हैं। और वे कहते हैं, इस समय आनंद को सहायता की जरूरत है।
सारिपुत्त कहता है, आप भी अनूठी बातें करते हैं! जब वेश्या सामने खड़ी थी और आनंद उसको देख रहा— था और डर था कि वह लोभित हो जाए, मोहित हो जाए, तब आप चुपचाप बैठे रहे। और अब जब कि आनंद भाग रहा है, और वेश्या दूर रह गई है, और उसके मंत्र—तंत्र पीछे पडे रह गए हैं, और उसके प्रभाव का क्षेत्र पार कर गया है आनंद, और आनंद लौटकर भी नहीं देख रहा है, तो अब आपके खड़े होने की क्या जरूरत है?
बुद्ध ने कहा, वह भाग ही इसलिए रहा है कि साक्षी— भाव खो गया। अब वह कर्ता— भाव में आ गया है। और कर्ता की वजह से डरा हुआ है। और अब वह डर रहा है। जब तक साक्षी था, तब तक खड़ा था, डर के कोई कारण भी न थे। अब उसको सहायता की जरूरत है।
एक ही बात करने जैसी है कि आपके भीतर साक्षी— भाव बना रहे। फिर आप कुछ भी करें, विवाह करें, न करें, कुछ भी करें, साक्षी— भाव आपके अनुभव में जुड़ा रहे, तो आप आज नहीं कल अपनी मुक्ति की सीढ़ियां पूरी कर लेंगे।
लेकिन ध्यान रहे, अधूरे और कच्चे अनुभवों को रोकने का परिणाम विषाक्त होता है। भागें मत, डरें मत, साक्षी को ही सम्हाले। मेरा सारा जोर इस बात पर है कि आप जागे, बजाय भागने के। भागकर कहं। जाएंगे? विवाह न करें, यह हो सकता है। लेकिन कितने लोग विवाह न करने से कुछ कहीं पहुंच नहीं जाते। विवाह न करने का परिणाम चित्त में और वासनाओं का जाल होता है।
अगर एक विवाहित और एक अविवाहित आदमी की जांच की जाए बैठकर, तो अविवाहित आदमी के मन में ज्यादा वासना मिलेगी। स्वाभाविक है। जैसे एक भूखे आदमी की और भोजन किए आदमी की जांच की जाए, तो भूखे आदमी के मन में भोजन का ज्यादा खयाल मिलेगा। जिसका पेट भरा है, उसके मन में भोजन का खयाल क्यों होगा!
तो जब तक आपको भीतर का साक्षी ही न जगने लगे, तब तक जीवन के किसी अनुभव से अकारण अधूरे में, अधकचरे में भागना उचित नहीं है। उस भय से कोई किसी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता है। सारा जीवन अनुभव के लिए है। यह ऐसा ही है, जैसे हम किसी विद्यार्थी को विश्वविद्यालय भेज दें और वह वहा परीक्षाओं से बचने लगे। यह संसार परीक्षालय है। वहां आपकी चेतना इसीलिए
है, ताकि अनुभवों से गुजरकर परिपक्व हो जाए।
तो मैं तो कहूंगा, सब अनुभव भोग लें, बुरे को भी। अगर जरा भी रस हो बुरे में, तो उसको भी भोग लें। बस इतना ही खयाल रखें कि भोगते समय में भी होश बना रहे, तो आप मुक्त हो जाएंगे। और अगर आप डरे, जिम्मेवारी से बचना चाहा, तो वासनाएं विकृत हो जाएंगी और भीतर मन में घूमती रहेंगी।
उन विकृत वासनाओं के परिणाम कभी भी मुक्तिदायी नहीं हैं। स्वास्थ्य से तो कोई मुक्त हो सकता है, विकृति से कोई मुक्त नहीं हो सकता।
तो सहज हों, स्वाभाविक हों। और जो भी मन में उठता हो, उसको उठने दें, उसको पूरा भी होने दें। सिर्फ एक ही बात खयाल रखें कि पीछे एक देखने वाला भी खडा रहे और देखता रहे। आपकी पूरी जिंदगी एक नाटक हो जाए और आप उसको देखते रहें। यह देखना ही सारी जिंदगी को बदल देगा। यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है, देखने के द्वारा पूरी जिंदगी को बदल लेना।
भागने के द्वारा कोई कभी नहीं बदलता। भागने से सिर्फ कमजोरी जाहिर होती है। और भागे हुए आदमी की वासनाएं पीछा करती हैं। वह जहां भी चला जाए, वासनाएं उसके पीछे होंगी।
अब हम सूत्र को लें।
और जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तिरूप योग के द्वारा मेरे को निरंतर भजता है, वह इन तीनों गुणों को अच्छी प्रकार उल्लंघन करके सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव होने के लिए योग्य होता है।
तथा हे अर्जुन, उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखंड एकरस आनंद का मैं ही आश्रय हूं।
पहली बात, जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तिरूप योग के द्वारा......।
व्यभिचार का अर्थ है, जहां मन में बहुत दिशाएं हों, जहां मन में बहुत प्रेम—पात्र हों, जहां मन में बहुत खंड हों। विभाजित मन व्यभिचारी मन है। अव्यभिचारी भक्तिरूप का अर्थ है कि मन एकजुट हो, इकट्ठा हो। एक ही धारा में बहे, एक ही दिशा की तरफ प्रवाहित हो, तो अव्यभिचारी है।
संसार में हमारा मन बहुत तरफ बह रहा है। संसार में हम सभी व्यभिचारी हैं। मन का एक हिस्सा धन के लिए दौड रहा है। मन का दूसरा हिस्सा पद के लिए दौड़ रहा है। मन का तीसरा हिस्सा यश के लिए दौड रहा है। मन का चौथा हिस्सा धर्म के लिए दौड़ रहा है। पांचवां हिस्सा कुछ और, छठवां कुछ और। आपके भीतर एक भीड़ है। और सभी अलग— अलग भागे जा रहे हैं।
इसलिए बड़ा द्वंद्व है और बडी कलह है। क्योंकि एक ही व्यक्ति को इतनी दिशाओं में भागना पड़ रहा है। जैसे एक ही बैलगाड़ी में हमने सब तरफ बैल जोत दिए हैं। आठों दिशाओं में बैल जा रहे हैं। बैलगाड़ी कहौ जाए? तो जब भी कोई बैल जरा ताकत ज्यादा लगा देता है या दूसरा बैल थोडा ढीला और शिथिल होता है या विश्राम कर रहा होता है या ज्यादा ताकत पहले लगा चुका होता है और अब ताकत नहीं बचती, तो बैलगाड़ी को थोड़ी देर कोई पूरब की तरफ खींच लेता है।
लेकिन यह थोड़ी देर हो सकता है। क्योंकि जो पूरब की तरफ खींच रहा है, वह थक जाएगा खींचने में। और पश्चिम की तरफ जो बैल बंधा हुआ है, जो कि इस खिंचने में जा रहा है, वह थकेगा नहीं। वह थोड़ा ढील दे रहा है, विश्राम कर रहा है। जब उसकी ताकत इकट्ठी हो जाएगी और पूरब की तरफ ले जाने वाला बैल थक जाएगा, तब वह पश्चिम की तरफ बैलगाड़ी को खींचेगा।
ऐसे आप जिंदगीभर खिचेंगे बहुत, पहुंचेंगे कहीं भी नहीं। बैलगाड़ी आखिर में वहीं अस्थिपंजर टूटे हुए पड़ी मिलेगी, जहां शुरू में खड़ी थी।
ऐसा हमारा मन है, व्यभिचारी मन है। इसमें कभी एक बात ठीक लगती है, कभी उससे विपरीत बात ठीक लगती है। अभी धन कमा रहे हैं, और तभी कोई आ जाता है कि आप! आप जैसा यशस्वी पुरुष! आपके नाम से तो एक धर्मशाला बननी ही चाहिए।
अभी धन इकट्ठा कर रहे थे, अब यह नाम का भी मोह पकड़ता है कि एक धर्मशाला तो कम से कम होनी ही चाहिए, जिस पर एक पट्टी तो लगी हो। एक मंदिर बनवा दूं। बिरला का मंदिर है, मेरा क्यों न हो! अभी धन पकड़े था, अब यह धन खर्चा करने का काम है। यह आपके मन के विपरीत है मामला। लेकिन इससे यश मिलता है, नाम मिलता है।
अब ये मंदिर बनाएंगे। मंदिर बनाते -बनाते यह बैल थक जाएगा। और मंदिर बन भी नहीं पाएगा, उसके पहले ही आप ब्लैक मार्केटिंग और जोर से करने लगेंगे। क्योंकि वह जितना पैसा खर्च हो गया, उसको पैदा करना है। तो इधर मंदिर बन नहीं पाता कि वह आदमी जोर से और जेब काटने लगेगा; चोरी और करने लगा; स्मगलिंग करेगा। कुछ उपाय करेगा जल्दी से, ताकि यह जो मंदिर में लग गया है, इससे दस गुना पैदा कर ले।
यह चल रहा है। यह पूरे वक्त आपके मन को पकड़े हुए है। यह विभिन्न दिशाओं में दौड़ता हुआ मन व्यभिचारी मन है। और व्यभिचारी को कोई शाति नहीं। हो नहीं सकती। अव्यभिचारी इसीलिए बड़ी मूल्यवान बात है।
कृष्ण कहते हैं, जब तक कोई अव्यभिचारी- भाव से सत्य की ओर, स्वयं 'की ओर, सच्चिदानंदघन परमात्मा की ओर न बहे, तब तक कोई उपलब्धि नहीं है।
और ध्यान रहे, अगर आप अव्यभिचारी है, तो एक ही क्षण में भी उपलब्धि हो सकती है। क्योंकि जब सारी शक्ति एक दिशा में बहती है, तो सब बाधाएं टूट जाती हैं।
बाधाएं हैं ही नहीं। बाधाएं खड़ी हैं, क्योंकि आप बहुत दिशाओं में बह रहे हैं। इसलिए आपकी शक्ति ही इकट्ठी नहीं हो पाती, जो किसी भी दिशा में बह सके।
जैसे हम गंगा को हजार हिस्सों में बांट दें और गंगा का कोई भी हिस्सा फिर सागर तक न पहुंच पाए। सारी गंगा रेगिस्तानों में खो जाए। गंगा के लिए कोई बाधा नहीं है। लेकिन अविभाज्य धारा चाहिए। गंगा इकट्ठी हो, तो ही सागर तक पहुंच सकती है। और आप भी इकट्ठे हों, तो ही परमात्मा तक पहुंच सकते हैं।
लेकिन जैसा हमारा मन है, उसमें बड़ी तकलीफ है। उसकी पहली तकलीफ तो यह है कि वह इकट्ठा कभी भी नहीं है, एकजुट कभी भी नहीं है; खंड-खंड है, टूटा-टूटा है। और जब एक खंड कहता है, यह करो, तभी दूसरा खंड कुछ और कह रहा है कि यह मत करो। तो हम जो भी करें, उसी से पछतावा हाथ लगता है। और ! जो भी हम न करें, उसका भी पछतावा रह जाता है कि वह हमने क्यों न कर लिया।
हम दुख ही इकट्ठा करते हैं, करें तो, न करें तो। आप धन कमाए, तो दुखी होंगे। क्योंकि आप धन कमाकर पाएंगे कि इससे तो अच्छा था, मैंने ज्ञानार्जन किया होता, तो कुछ सुख तो मिलता। या इससे तो अच्छा था कि मैं किसी बड़े पद पर हो गया होता; सारी ताकत उस तरफ लगा दी होती। एक राजनेता हो गया होता। कुछ सुख तो मिलता।
राजनेता हो जाते, तो सोचते, इससे तो बेहतर था, कुछ धन ही कमा लेते। यह तो व्यर्थ की दौड़- धूप है। शान इकट्ठा कर लेते, तो कहते, क्या हुआ! शब्द ही शब्द हाथ में लग गए। कुछ मजबूत हाथ में नहीं है। कुछ सब्‍स्‍टेंशियल, कुछ सारभूत नहीं दिखता।
सभी रोते हुए दिखाई पड़ते हैं। वह जो शान इकट्ठा कर लेते हैं, वे रो रहे हैं। धन इकट्ठा कर लेते हैं, वे रो रहे हैं। पद इकट्ठा कर लेते हैं, वे रो रहे हैं। हंसता हुआ आदमी ही नहीं दिखता। जो भी
दिखता है, रोता हुआ दिखता है। फिर भी, जो आप हैं, उसके लिए आप ज्यादा रोते हैं। जो आप नहीं हैं, उसका आपको अनुभव नहीं है। आप सोचते हैं, सारा जगत सुख भोग रहा है, मेरे सिवाय। मैं दुख भोग रहा हूं।
जहां भी आप हैं, वहा आप असंतुष्ट होंगे, यह व्यभिचारी मन का लक्षण होगा ही। क्योंकि कोई भी काम आप टोटल, समग्र चेतना से नहीं कर पाते हैं। और जो काम समग्र चेतना से होता है, उसी का फल आनंद है।
अगर आप गड्डा भी खोद पाएं जमीन में समग्र चेतना से, उस गड्डा खोदते वक्त आपके पूरे प्राण कुदाली बन गए हों, और मन कहीं भी न जा रहा हो, सारा मन कुदाली में प्रविष्ट कर गया हो; गड्डा खोदना ही एक क्रिया रह जाए और कहीं भी कोई दौड़ न हो, उस क्षण में आपको जो परम अनुभव होगा, वह आपको बड़ी से बड़ी प्रार्थना और पूजा और यज्ञ में नहीं हो सकता। क्योंकि आप जब प्रार्थना कर रहे हैं, तब मन हजार तरफ जा रहा है। तो वह कुदाली से जमीन खोदना प्रार्थना हो जाएगी।
प्रार्थना का एक ही अर्थ है, अव्यभिचारी चित्त की धारा। वह किसी भी तरफ जा रही हो, पर इकट्ठी जा रही हो।
जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तिरूप योग के द्वारा, अव्यभिचारी प्रेम के द्वारा मुझको निरंतर भजता है।
जिसके मन में निरंतर अंतिम की खोज का स्वर बजता रहता है।
भजने का अर्थ यह नहीं कि आप बैठकर राम-राम, राम-राम कर रहे हैं। क्योंकि आपके राम-राम करने का कोई मूल्य नहीं है। जब आप राम-राम कर रहे होते हैं, तब भीतर आप और दूसरी चीजें भी कर रहे होते हैं। धीरे- धीरे अभ्यास हो जाता है। राम-राम करते रहते हैं, और दूसरे हिसाब भी लगाते रहते हैं। राम-राम ऊपर-ऊपर चलता रहता है, जैसे कि कोई और कर रहा हो। और भीतर सब हिसाब चलते रहते हैं। तो उसका कोई मूल्य नहीं है।
भजने का अर्थ है- भजन बड़ी गहरी प्रक्रिया है-उसका अर्थ है, मेरे रोएं-रोएं में रस की तरह कोई चीज डोलती रहे। उठुं, बैठुं, चलूं, बाकी एक स्मृति सजग ही रहे कि उस परम को उपलब्ध करना है, सत्य को खोज लेना है, मुक्ति को खोज लेना है। ये कोई शब्द बनें, यह आवश्यक नहीं है। इनको कोई ऊपर के शब्दों में छिपाने की जरूरत नहीं है। यह भीतर का भाव रहे। इसलिए इसे भक्ति कहेंगे। भक्ति का अर्थ है, भाव। यह भाव बना रहे।
जैसे मां घर में काम कर रही हो, वह चौके में काम कर रही है और उसका छोटा बच्चा घूम रहा है कमरे में। वह सब काम करती रहती है, लेकिन उसका भाव बच्चे की तरफ लगा रहता है। वह कहां जा रहा है? वह क्या कर रहा है? वह गिर तो नहीं जाएगा? वह कोई गलत चीज तो नहीं खा लेगा? वह कोई चीज गिरा तो नहीं लेगा अपने ऊपर? वह सब काम करती रहेगी, लेकिन उसका अचेतन प्रवाहित रहेगा बच्चे की तरफ।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तूफान भी आ जाए, आंधिया बह रही हों, मां की नींद नहीं खुलती। लेकिन उसका बच्चा जरा-सी आवाज कर दे रात, उसकी नींद खुल जाती है। तूफान चल रहा है, उससे उसकी नींद नहीं टूटती। लेकिन बच्चे की जरा-सी आवाज, कि उसकी नींद टूट जाती है। जरूर कोई भाव गहरे में, नींद में भी सरक रहा है।
मनोवैज्ञानिकों ने बहुत-से अध्ययन किए हैं। उसमें एक अध्ययन बडा कीमती है। अभी स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में वे एक प्रयोग करते हैं। और उस प्रयोग से भारत की बड़ी पुरानी खोज सिद्ध होती है। मुझसे भी लोग पूछते हैं, तो मैं वही प्रयोग उनको स्मरण दिलाता हूं।
मुझसे लोग पूछते हैं, आप अपने संन्यासी को कहते हैं स्वामी और अपनी संन्यासिनी को कहते हैं मां, ऐसा क्यों? संन्यासिनी को मां क्यों और संन्यासी को स्वामी क्यों? या तो उसको भी स्वामिनी जैसा कोई शब्द दें; या संन्यासी को भी पिता क्यों नहीं?
स्टैनफोर्ड में अभी-अभी एक प्रयोग हुआ, जो बड़ा सोचने जैसा है। वह प्रयोग यह है कि जिस चीज में आपका रस होता है, उस रस के कारण आपकी आंख की जो पुतली है, वह बड़ी हो जाती है। अगर आप कोई किताब पढ़ रहे हैं, जिसमें आप बहुत ज्यादा रस पा रहे हैं, तो कमरे में बिलकुल भी कम से कम प्रकाश हो, तो भी आप पढ पाएंगे। क्योंकि आपकी आंख की पुतली बड़ी हो जाती है, आपकी जिज्ञासा के कारण, आपके रस के कारण। और अगर आपको किताब में रस नहीं है, तो कमरे में प्रकाश भी पूरा हो, तो भी आपको धुंधला- धुंधला दिखाई पड़ेगा। क्योंकि रस नहीं होता, तो आंख की पुतली छोटी हो जाती है।
आंख की पुतली चौबीस घंटे छोटी-बडी होती है। जब आप बाहर जाते हैं धूप में, तो पुतली छोटी हो जाती है, क्योंकि उतनी धूप को भीतर ले जाने की जरूरत नहीं है। कम से काम चल जाता है। जब आप बाहर से भीतर आते हैं, तो पुतली बड़ी होती है, क्योंकि अब ज्यादा रोशनी भीतर जानी चाहिए।
इसीलिए एकदम धूप से आने पर आपको कमरे में अंधेरा मालूम पड़ता है, क्योंकि पुतली छोटी रहती है। थोड़ी देर लगेगी, तब पुतली बड़ी होगी। फिर कमरे में प्रकाश हौ जाएगा। आपकी पुतली बिलकुल छोटी—बड़ी होकर प्रकाश को कम—ज्यादा भीतर ले जाती है।
स्टैनफोर्ड में उन्होंने एक प्रयोग किया कि अगर पुरुषों को कोई भी चीज सबसे ज्यादा आकर्षित करती है, तो नग्न स्त्री के चित्र। नग्न स्त्री का चित्र सामने आए, तो उनकी आंख की पुतली एकदम बड़ी हो जाती है।
वह उनके बस में नहीं है। आप कोशिश करके धोखा नहीं दे सकते। क्योंकि आप पुतली को कुछ नहीं कर सकते, न छोटी कर सकते हैं, न बड़ी कर सकते हैं। नंगा चित्र स्त्री का सामने आते ही पुतली एकदम बड़ी हो जाती है।
लेकिन बड़े मजे की बात है कि नंगे पुरुष का चित्र देखकर स्त्री की पुतली बड़ी नहीं होती। लेकिन एक छोटे बच्चे का चित्र देखकर एकदम बडी हो जाती है। छोटा बच्चा, और स्त्री की पुतली एकदम बड़ी हो जाती है। जैसे मां होना उसकी सहज गति है।
पुरुष की सहज गति पिता होना नहीं है, पति होना, स्वामी होना सहज गति है। तो कोई पुरुष किसी स्त्री को इसलिए विवाह नहीं करता कि पिता बनेगा। सोचता ही नहीं है। बनना पड़ता है, यह दूसरी बात है। न बने, तब तक पूरी चेष्टा करता है।
लेकिन स्त्री जब भी सोचती है, तो वह पत्नी बनने के लिए नहीं सोचती, वह मां बनने के लिए सोचती है। और जब वह किसी से प्रेम भी करती है, तो उसको जो पहला खयाल होता है वह यही होता कि इससे जो बच्चा पैदा होगा, वह कैसा होगा! उसकी जो गहरी आकांक्षा है, वह मां की है।
इसलिए मैं अपनी संन्यासिनियों को मां कहता हूं, क्योंकि वह उनकी पूर्णता का अंतिम शब्द है। और पुरुष को स्वामी कहता हूं क्योंकि पति, मालिक होना उसकी आखिरी खोज है। वह अपना जिस दिन मालिक हो जाएगा, उसकी खोज पूरी होगी। और स्त्री की खोज उसी दिन पूरी होगी, जिस दिन सारा जगत उसे बेटे की तरह मालूम पड़ने लगे, सारा अस्तित्व उसे बेटे की तरह मालूम पड़ने लगे; सारे अस्तित्व से उसमें मातृत्व जग जाए।
भाव का अर्थ है, जिस दिशा में आपकी अचेतन धारा सहज बहती है। मां, स्त्री का भाव है। स्वामित्व, पुरुष का भाव है। वह कुछ भी करे, वह चाहे धन इकट्ठा करे, तो स्वामी होना चाहता है।
बड़े पद की तलाश करे, तो स्वामी होना चाहता है। त्याग करे, तो स्वामी होना चाहता है। वह कुछ भी करे, उसकी खोज एक है कि वह मालिक हो जाए, चीजों पर उसका कब्जा हो। वह अपनी भी खोज में निकले, तो भी स्वामी होना चाहता है।
भाव हम उसको कहते हैं, जिसको आपको सोचने की जरूरत नहीं पड़ती। जो आपके अचेतन में एक पर्त की तरह सदा बना हुआ है। आप कुछ भी करें, वह मौजूद है।
अव्यभिचारी— भाव का अर्थ है, परमात्मा का खयाल, स्मृति, वह खोज की धुन आपके भीतर बजती रहे। आप कुछ भी करें, करना ऊपर—ऊपर हो, वह धुन भीतर बजती ही रहे। तो आपका सारा करना उसका भजन हो जाएगा।
और आप उसका भजन करते रहें और भीतर कोई और धुन बजती रहे, वह बेकार है। उसका कोई भी मूल्य नहीं है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक रईस के घर नौकर हुआ, लखनऊ में। तो जैसा कि लखनऊ के रईसों का रिवाज था, पहले ही दिन नसरुद्दीन को कहा गया—महफिल बैठी रात, दस—बीस रईस इकट्ठे थे—कि नसरुद्दीन हुक्का भर ला।
नसरुद्दीन हुक्का भर लाया। लेकिन एक के सामने रखे। वह कहे, किबला आप ही शुरू करें। दूसरे के सामने रखे। वह कहे, किबला आप शुरू करें।
तीन दफा वह भर— भरके लाया। हुक्का बुझ जाए। और किसी ने एक निवाली भी न ली। चौथी दफा वह भरकर लाया। बीच में बैठकर उसने हुक्का गुडगुडाना शुरू कर दिया।
तो जो मालिक था, वह एकदम क्रोध से भर गया। उसने कहा, कोई है? इस बदतमीज को पच्चीस जूते लगाओ! नसरुद्दीन ने कहा, किबला आप ही शुरू करें। आपसे ही शुरू करें। वहीं से शुरू करें। मैं नियम समझ गया।
आपको आपके मन में नियम को ठीक से समझ लेना चाहिए। क्या नियम है? नियम यह है कि जो ऊपर चल रहा है, वह सार्थक नहीं है। जो भीतर चल रहा है, वह सार्थक है। इसलिए परमात्मा को अगर ऊपर जोड़ दें आप, कोई मूल्य का नहीं है। भीतर जुड़ना चाहिए। एक।
दूसरा नियम यह है कि आप व्यभिचारी हैं, आप हजार चीजें खोज रहे हैं। इस हजार में परमात्मा भी हजार और एक हो जाए, तो बेकार है। क्योंकि फिर वह व्यभिचार और बढ़ा, कम नहीं हुआ। एक हजार चीजें पहले खोज रहे थे, उस लिस्ट में एक परमात्मा और जोड़ दिया!
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि परमात्मा को तुम अपने व्यभिचार की लिस्ट में न जोड़ सकोगे। तुम्हें सारी यह लिस्ट एक तरफ रख देनी पड़ेगी। और इस सारी लिस्ट की तरफ तुम्हारा जो प्राण दौड़ रहा है, वह अकेला परमात्मा की तरफ ही दौड़े।
तुम कुछ भी करो, लेकिन सब करना तुम्हारा भजन बन जाए। तुम भोजन भी करो, तो तुम्हें यह खयाल रहे कि जैसे तुम्हारे भीतर छिपा परमात्मा भोग ले रहा है। तुम स्नान करो, तो तुम्हें खयाल रहे कि तुम्हारे भीतर छिपा परमात्मा स्नान कर रहा है। तुम उठो—बैठो, तो तुम्हें खयाल रहे कि परमात्मा उठता है और बैठता है। यह धुन इतनी गहरी हो जाए कि यह अव्यभिचारी हो जाए। इसमें दूसरे का खयाल न रहे। तो ही!
इसी रईस के संबंध में मुझे एक घटना और खयाल आती है।
नया—नया रईस था। नव—रईस जिसको कहते हैं। और नसरुद्दीन को नौकरी पर लगाया था। तो उसने कहा कि नसरुद्दीन, एक बात खयाल रखना। यह रईस का घर है। और यहां सब चीजें दिखावे की हैं। यहां वास्तविक होने की जरूरत नहीं है। लेकिन दिखावा भरपूर होना चाहिए। तो अगर मैं कहूं कि नसरुद्दीन, शर्बत ले आ! तो तू पहले पूछना, हुजूर, कौन—सा? गुलाब, कि अनानास, कि बादाम, केवड़ा, खस, कौन—सा हुजूर? तो जितने नाम हों, पहले सब कह देना। हालांकि अपने घर में एक ही है। और जो है, वही मैं तुझे कहूंगा कि ले आ नसरुद्दीन, यह ले आ।
दूसरे दिन ही कुछ मित्र आ गए और रईस ने कहा कि नसरुद्दीन, पान ले आ। नसरुद्दीन ने कहा, हुजूर कौन—सा? कपूरी, बनारसी, महोबा, कौन—सा?
पान बुलाया गया, जो पान घर में था। मित्रों ने लिया। मित्र बड़े अनुगृहीत हुए। चलते वक्त कहने लगे रईस से कि बहुत दिन बाद आए हैं, आपके पिताजी के दर्शन नहीं हुए। उनको बुलाएं
रईस ने कहा कि नसरुद्दीन, पिताजी को बुला ला। नसरुद्दीन ने कहा, कौन से पिताजी? इंग्लैंड वाले, अमेरिका वाले, जर्मनी वाले, कि घरेलू स्वदेशी?
वह नियम समझ गया! आदमी की दोहरी परतें हैं। एक पर्त, वह जो दिखाने के लिए निर्मित किया है, और एक वह जो है।
जो आपकी दिखाने वाली पर्त है, उससे परमात्मा को मत जोड़ना। उससे कोई सार नहीं है। उसमें वह भी हो जाएगा, कौन—सा परमात्मा? वह जो न दिखाने वाली पर्त है, जो आंतरिक है और वास्तविक है, जहां एक ही पिता होता है, जहां बहुत पिता नहीं हो सकते, उस भीतर की धारा से उसे जोड़ना।
और जहां एक ही हो सकता है, केंद्र पर एक ही हो सकता है, परिधि पर अनेक हो सकते हैं। जैसे—जैसे चित्त अव्यभिचारी होता है, वह केंद्र पर घिर हो जाता है।
अव्यभिचार के लिए इतना जोर है, क्योंकि अव्यभिचार के माध्यम से ही तुम्हारी चेतना एक जगह बहेगी। और एक जगह बह जाए कि तुम अनंत शक्तिशाली हो—तुम ही। और अनेक जगह बह जाए, तो तुम नपुंसक हो, तुम व्यर्थ हो। तुम्हारी सब धाराएं मरुस्थल में खो जाएंगी और सागर से कभी मिलना न हो पाएगा। वह इन तीन गुणों को अच्छी प्रकार उल्लंघन करके—जो अव्यभिचारी— भाव से निरंतर परमात्मा को भजता है—वह इन तीन गुणों को अच्छी प्रकार से उल्लंघन करके सच्चिदानदघनरूप ब्रह्म में एकीभाव के योग्य हो जाता है।
तथा हे अर्जुन, उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखंड एकरस आनंद का मैं ही आश्रय हूं।
वह जो परम आनंद है, अमृत है, परब्रह्म है, धर्म है—जो भी हम उसे नाम दें—कृष्ण कहते हैं, उन सब का मैं ही आश्रय हूं।
यह जो मैं है, इसका कृष्ण की अस्मिता से कोई संबंध नहीं है। यह कृष्ण नाम के व्यक्ति के लिए उपयोग नहीं किया गया है, यह मैं।
उस सब का आश्रय मैं हूं........।
यह आप सबके भीतर जो छिपा हुआ अंतिम मैं है, उसके लिए उपयोग किया गया है। जो—जो भी कह सकता है मैं, उस मैं की जो अंतिम धारा है, उस अंतिम धारा के लिए उपयोग किया गया है। यह कृष्ण के मैं से इसका संबंध नहीं। यह समस्त चेतनाओं में जो गहरा आत्म — भाव है, वह जो मेरे का बोध है कि मैं हूं, उस होने का नाम है।
उस होने को ही सच्चिदानंदघन ब्रह्म, अमृत, आनंद या जो भी नाम हम चुनें —मुक्ति, परमेश्वर, प्रभु का राज्य, निर्वाण, कैवल्य—जो भी नाम हम चुनें, उसका अंतिम आश्रय है, आपके भीतर वह जो मैं की आखिरी शुद्धतम अवस्था है, होना, वही छिपी है।
लेकिन उसे पाने के लिए आपको अव्यभिचारी चेतना की धारा चाहिए; ध्यान चाहिए एकजुट, एक बहाव, और एक दिशा चाहिए।
और जो भी व्यक्ति ऐसी एक धारा को उपलब्ध हो जाता है, वह तीनों गुणों के पार गुणातीत परब्रह्म के साथ एकीभाव हो जाता है। वह योग्य हो जाता है।

आज इतना ही।

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