'नव—संन्यास
क्या?':
से
संकलित
प्रवचनांश
गीता—ज्ञान—यज्ञ
पूना।
दिनांक
26 नवम्बर 1971
क्या
संन्यास
ध्यान की गति
बढ़ाने में सहायक
होता है?
संन्यास
का अAर्थ ही
यही है कि मैं
निर्णय लेता हूं
कि अब से मेरे
जीवन का
केंद्र ध्यान
होगा। और कोई
अर्थ ही नहीं
है संन्यास का।
जीवन का
केंद्र धन
नहीं होगा, यश
नहीं होगा, संसार नहीं
होगा। जीवन का
केंद्र ध्यान होगा,
धर्म होगा,
परमात्मा होगा—ऐसे
निर्णय का नाम
ही संन्यास है।
जीवन के केंद्र
को बदलने की
प्रक्रिया
संन्यास है।
वह जो जीवन के
मंदिर में
हमने
प्रतिष्ठा कर
रखी है—इंद्रियों
की, वासनाओं
की, इच्छाओं
की, उनकी
जगह शइक्त की,
मोक्ष की, निर्वाण की,
प्रभु—मिलन
की, मूर्ति
की प्रतिष्ठा
ध्यान है।
तो
जो व्यक्ति
ध्यान को जीवन
के और कामों
में एक काम की
तरह करता है।
चौबीस घंटों
में बहुत कुछ
करता है, घंटेभर
ध्यान भी कर
लेता है—निश्रित
ही उस व्यक्ति
के बजाय जो
व्यक्ति अपने
चौबीस घंटे के
जीवन को ध्यान
को समर्पित करता
है, चाहे
दुकान पर
बैठेगा तो
ध्यानपूर्वक,
चाहे भोजन
करेगा तो
ध्यानपूर्वक,
चाहे बात
करेगा किसी के
साथ तो
ध्यानपूर्वक,
रास्ते पर
चलेगा तो ध्यानपूर्वक,
रात सोने
जाएगा तो
ध्यानपूर्वक,
सुबह में
बिस्तर से
उठेगा तो
ध्यानपूर्वक—ऐसे
व्यक्ति का
अर्थ है
संन्यासी—जो
ध्यान को अपने
चौबीस घंटों
पर फैलाने की
आकांक्षा से
भर गया है।
निश्चित
ही संन्यास
ध्यान के लिए
गति देगा। और
ध्यान
संन्यास के
लिए गति देता
है। ये
संयुक्त
घटनाएं हैं।
और मनुष्य के
मन का नियम है
कि निर्णय
लेते ही मन
बदलना शुरू हो
जाता है। आपने
भीतर एक
निर्णय किया
कि आपके मन
में परिवर्तन
होना शुरू हो
जाता है। वह
निर्णय ही
परिवर्तन के
लिए 'क्रिस्टलाइजेशन',
समग्रीकरण
बन जाता है।
कभी
बैठे—बैठे
इतना ही सोचें
कि चोरी करनी
है तो तत्काल
आप दूसरे आदमी
हो जाते हैं—तत्काल!
चोरी करनी है
इसका निर्णय
आपने लिया कि
चोरी के लिए
जो मददरूप है.
वह मन आपको
देना शुरू कर
देता है—सुझाव
कि क्या करें, क्या
न करें, कैसे
कानून से बचें,
क्या होगा,
क्या नहीं
होगा! एक
निर्णय मन में
बना कि मन
उसके पीछे काम
करना शुरू कर
देता है। मन
आपका गुलाम है।
आप जो निर्णय
ले लेते हैं, मन उसके लिए सुविधा
शुरू कर देता
है कि अब जब
चोरी करनी ही
है तो कब करें,
किस प्रकार
करें कि फंस न
जाएं मन इसका
इंतजाम जुटा
देता है।
जैसे
ही किसी ने
निर्णय लिया
कि मैं
संन्यास लेता
हूं कि मन
संन्यास के
लिए भी सहायता
पहुंचाना
शुरू कर देता
है। असल में
निर्णय न
लेनेवाला
आदमी ही मन के
चक्कर में
पड़ता है। जो
आदमी निर्णय
लेने की कला
सीख जाता है, मन
उसका गुलाम हो
जाता है। वह
जो
अनिर्णयात्मक
स्थिति है वही
मन है— 'इनडिसीसिवनेस
इज माइंड'।
निर्णय की
क्षमता, डिसीसिवनेस,
ही मन से मुक्ति
हो जाती है।
वह जो निर्णय
है, संकल्प
है, बीच
में खड़ा हो
जाता है, मन
उसके पीछे
चलेगा। लेकिन
जिसके पास कोई
निर्णय नहीं
है, संकल्प
नहीं है, उसके
पास सिर्फ मन
होता है। और
उस मन से हम
बहुत पीड़ित और
परेशान होते
हैं। संन्यास
का निर्णय
लेते ही जीवन
का रूपांतरण शुरू
हो जाता है, संन्यास के
बाद तो होगा
ही—निर्णय
लेते ही जीवन
का रूपांतरण
शुरू हो जाता
है।
और
ध्यान रहे, आदमी
बहुत अनूठा है।
उसका अनूठापन
ऐसा है कि कोई
अगर आपसे कहे
कि दो हजार, या दो करोड़
या अरब तारे है
तो आप बिलकुल
मान लेते हैं।
लेकिन अगर
किसी दीवार पर
नया पेंट किया
गया हो और
लिखा हो कि
ताजा पेंट है,
छूना मत, तो छूकर
देखते ही हैं
कि है भी ताजा
कि नहीं! जब तक
उंगली खराब न
हो जाए तब तक
मन नहीं मानता।
सूरज को बिना
सोचे मान लेते
हैं और दीवार
पर पेंट नया हो
तो छूकर देखने
का मन होता है।
जितनी दूर की
बात हो उतनी
बिना दिक्कत
के आदमी मान
लेता है।
जितनी निकट की
बात हो उतनी
दिक्कत खड़ी
होती है।
संन्यास
आपके सर्वाधिक
निकट की बात
है। उससे निकट
की और कोई बात
नहीं है। अगर
जो विवाह करेंगे
तो वह भी दूर
की बात है।
क्योंकि
उसमें दूसरा
सम्मिलित है, इनव्हॉल्क
है। आप अकेले
नहीं हैं।
संन्यास
अकेली घटना है
जिसमें आप
अकेले ही हैं,
कोई दूसरा
सम्मिलित
नहीं है। बहुत
निकट की बात
है। उसमें आप
बड़ी परेशानी
में हैं। उस
निर्णय को
लेकर बड़ी
कठिनाई होती
है मन को।
जितनी
बड़ी भीड़ हो हम
उतना जल्दी
निर्णय ले लेते
हैं। अगर दस
हजार आदमी एक
मस्जिद को
जलाने जा रहे
हैं तो हम
बिलकुल मजे से
उसमें चले
जाते हैं। यदि
दस हजार आदमी
मंदिर में आग
लगा रहे हैं
तो हम बराबर
सम्मिलित हो
जाते हैं। दस
हजार लोग हैं, रिस्पासिबिलिटी,
जिम्मेवारी,
फैली हुई है,
आप अकेले
जिम्मेवार
नहीं हैं—दस
हजार आदमी साथ
हैं। अगर कल
बात हुई तो आप
कहेंगे कि
इतनी बडी भीड़
थी, मेरा
होना, न
होना, बराबर
था। नहीं भी
होता मैं तो
भी मंदिर
जलनेवाला ही
था। मैं तो
खड़ा था, चला
गया।
जिम्मेवारी
मालूम नहीं
पडती।
लेकिन
संन्यास ऐसी
घटना है
जिसमें सिर्फ
तुम ही
जिम्मेवार हो, और
कोई नहीं, ओनली
यू आर रिस्पांसिबल,
नो वन ऐल्स।
इसलिए निर्णय
करने में बड़ी
मुश्किल होती
है। अकेले ही
हैं, किसी
दूसरे पर
जिम्मेवारी
डाली नहीं जा
सकती। किसी से
आप यह नहीं कह
सकते कि भीड़
की वजह से, तुम्हारी
वजह से मैं
लेता हूं।
इसलिए निर्णय
को हम टालते
चले जाते हैं।
अकेला आदमी
जिस दिन
निर्णय लेने
में समर्थ हो
जाता है उसी
दिन आत्मा की
शक्ति जागनी
शुरू होती है,
भीड़ के साथ
चलने से कभी
कोई आत्मा की
शक्ति नहीं
जगती।
दूसरी
मजे की बात है
कि लोग मेरे
पास आते हैं, वे
कहते हैं कि
नब्बे
प्रतिशत तो
मेरा मन तैयार
है संन्यास
लेने के लिए, दस प्रतिशत
नहीं है, तो
जब पूरा हो
जाएगा मेरा सौ
प्रतिशत मन तब
मैं संन्यास
ले लूंगा।
लेकिन इस आदमी
ने कभी विवाह
करते समय नहीं
सोचा कि सौ
प्रतिशत मन
तैयार है!
चोरी करते
वक्त नहीं
सोचा कि सौ
प्रतिशत मन
तैयार है!
क्रोध करते
वक्त नहीं
सोचा कि सौ प्रतिशत
मन तैयार है!
गाली देते समय
नहीं सोचा कि
सौ प्रतिशत मन
तैयार है!
सिर्फ
संन्यास के समय
यह कहता है कि
सौ प्रतिशत मन
तैयार होगा तब!
यह अपने को
धोखा दे रहा
है। यह भली—
भांति जानता
है कि सौ
प्रतिशत मन
कभी तैयार
नहीं होगा
इसलिए बचाव की
सुविधा बनाता
है। अगर यही
धारणा है कि
सौ प्रतिशत मन
जब तैयार होगा
तभी कुछ
करेंगे, तो
ध्यान रखना, आपका सब
करना आपको बंद
करना पड़ेगा।
सौ प्रतिशत मन
आपका कभी किसी
चीज में तैयार
नहीं होता है।
लेकिन बाकी सब
काम आदमी जारी
रखता है।
और
यह भी मजे की
बात है कि जब
आप तय करते
हैं कि नब्बे प्रतिशत
मन तो कहता है, दस
प्रतिशत अभी
नहीं कहता है;
तो आप को
पता नहीं है
कि आप संन्यास
नहीं ले रहे
हैं तो आप दस
प्रतिशत के
पक्ष में
निर्णय लेते
हैं, नब्बे
प्रतिशत को
इनकार करते
हैं। असल में
न लेने में
ऐसा लगता है
कि जैसे कोई
बात ही नहीं
हुई। संन्यास
न लेना भी
निर्णय है। दस
प्रतिशत के
पक्ष में
निर्णय लेते
हैं, नब्बे
प्रतिशत को
छोड़ देते हैं
तो आपकी
जिंदगी बहुत दुविधा
में भरी
जिंदगी हो
जाएगी। अगर
निर्णय लेना
है तो इक्यावन
प्रतिशत भी हो
तो निर्णय ले
लेना चाहिए, उनचास
प्रतिशत को
छोड़ देना
चाहिए। लेकिन
हम ऐसे हैं कि
अगर हमें एक
प्रतिशत भी गलत
कोई बात मन
कहता है तो
निन्यान्नबे
को छोड़कर एक
प्रतिशत वाला
काम कर लेते
हैं और
निन्यान्नबे
प्रतिशत भी
कोई ठीक बात
मन कहता हो तो
एक प्रतिशत
वाली बात पर
निर्णय लेते
हैं।
ऐसा
मालूम पड़ता है
कि शायद आदमी
आनंद चाहता ही
नहीं। कहता
जरूर है कि
आनंद चाहते
हैं,
शांति चाहते
है, लेकिन
शायद आदमी
आनंद चाहता ही
नहीं।
क्योंकि
बातें वह आनंद
के चाहने की
करता है, लेकिन
जो कुछ भी वह
करता है उससे
दुख ही मिलता
है, उस
सबसे दुख ही
मिलता है।
उपाय सब दुख
के करता है, बातें आनंद
की करता है।
और कभी गौर से
नहीं देखता है
कि मेरा दुख, मैं जो कर
रहा हूं
उन्हीं
उपायों पर
निर्भर है।
संन्यास
आनंद का
निर्णय है। अब
मैं आनंद
चाहता हूं—इतना
ही नहीं, आनंद
को पाने के
लिए कुछ
करूंगा भी।
संन्यास इस
बात का निर्णय
है कि अब मैं
सिर्फ आनंद की
चाह ही नहीं
करूंगा, उस
चाह को पूरा
करने के लिए
जीवन दांव पर
भी लगाऊंगा।
संन्यास इस
बात की भी
अपने
प्रत्यक्ष, अपने सामने
घोषणा है कि
अब मैं दुख से
बचने की कोशिश
ही नहीं
करूंगा, दुख
जिन—जिन चीजों
से पैदा होता
है उनको छोड़ने
का सामर्थ्य
और साहस भी
जुटाऊंगा।
यह
निर्णय लेते
ही आपकी
जिंदगी नये
केंद्र पर रूपांतरित
होती है और
स्वभावत:
ध्यान फैलना शुरू
हो जाता है।
क्योंकि
ध्यान तो
सिर्फ एक विधि
है। जिसने भी
धर्म की ओर
जाना शुरू
किया, उसे
ध्यान की विधि
के अतिरिक्त
और कोई उपाय
नहीं रह जाता
है। लेकिन हम
ऐसे लोग हैं
कि दौड़ते है
हम धन की तरफ और
ध्यान की विधि
का उपाय करना
चाहते है।
बहुत मुश्किल
होगा।
क्योंकि धन को
पाने के लिए
ध्यान बाधा बन
सकता है, सहयोगी
नहीं।
क्योंकि धन के
पाने के लिए
जो—जो भी करना
पड़ता है, ध्यान
जैसे गहरा
होगा, उस
सब में अड़चनें
पड़ने लगेंगी,
मुश्किल
पड़ने लगेगा।
मुझसे
कोई पूछता है
कि क्या हम
ध्यान कर सकते
है और रिश्वत
भी ले सकते है? मैं
उनसे कहता हूं
कि मजे से
रिश्वत लो और
ध्यान किए जाओ।
क्योंकि जैसे
ही ध्यान का
बीज थोड़ा—सा
भी टूटेगा, रिश्वत लेना
मुश्किल हो
जाएगा, कठिन
होता जाएगा और
एक घड़ी आएगी
कि पांच रुपए लेते
वक्त अमूल्य
ध्यान को
छोड़ने की
क्षमता न रह
जाएगी, मुश्किल
हो जाएगा।
संन्यास
इस बात की
घोषणा है जगत
के प्रति, और
अपने प्रति भी,
कि मैं अब
परमात्मा की
तरफ जाने का
सचेतन निर्णय
लेता हूं। निश्रित
ही उस निर्णय
को लेने के
बाद उस यात्रा
में जाने के
लिए जो साधन
है उसको करना
आसान हो जाता
है। इधर मैंने
देखा है सैकंड़ों
व्यक्तियों
को कि संन्यास
लेते ही उनमें
रूपांतरण हो
जाता है। जब
कुछ करेंगे तब
की तो बात अलग,
निर्णय
लेते ही बहुत
कुछ बदल जाता
है। लेकिन यह
लेना भी बहुत
कुछ करना है।
एक निर्णय पर
पहुंचना, एक
दाव लगाना, एक साहस
जुटाना, एक
छलांग की
तैयारी भी
छलांग है। आधी
छलांग तो
तैयारी में ही
लग जाती है।
तो
निश्रित ही
ध्यान की
गहराई बढ़ेगी
संन्यास से।
संन्यास की
गहराई बढ़ती है
ध्यान से। वे
अन्योन्याश्रित
है।
'नव—संन्यास
क्या?':
से
संकलित
प्रवचनांश
गीता—ज्ञान—यज्ञ
पूना।
दिनांक
26 नवम्बर 1971
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