अध्याय—16
सूत्र—
(श्रीमद्भगवद्गीता)
श्रीभगवानवाच:
अभयं
सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति:।
दानं
दमश्च यज्ञश्च
स्वाध्यायस्तप
आर्जवम्।। 1।।
उसके
उपरांत
श्रीकृष्ण
भगवान फिर
बोले कि हे
अर्जुन, दैवी
संपदा जिन
पुरूषों को
प्राप्त है
तथा जिनको
आसुरी संपदा प्राप्त
है, उनके
लक्षण पृथक—पृथक
कहता हूं।
दैवी संपदा को
प्राप्त हुए पुरूष
के लक्षण हैं :
अभय, अंतःकरण
की अच्छी
प्रकार से शुद्धी,
ज्ञान— योग
में निरंतर दृढ़
स्थिति और दान
तथा इंद्रियों
का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय
तथा तय एवं
शरीर और इंद्रियों
के सहित
अंतःकरण की
सरलता।
मनुष्य
एक दुविधा है, एक द्वैत।
मनुष्य के पास
इकहरा
व्यक्तित्व
नहीं है, जो
भी है, बंटा
हुआ और
द्वंद्व में
है। जैसे
प्रकाश और
अंधेरा साथ—साथ
मनुष्य में
जुड़े हों। पशु
और परमात्मा
मनुष्य में
साथ—साथ मौजूद
हैं। मनुष्य
जैसे एक सीढ़ी
है, एक छोर
नरक में और
दूसरा छोर
स्वर्ग में है;
और यात्रा
दोनों ओर हो
सकती है। और
प्रत्येक के
हाथ में है कि
यात्रा कहां
होगी, कैसे
होगी, क्या
अंतिम परिणाम
होगा।
यात्रा
के रुख को
किसी भी क्षण
बदला भी जा
सकता है, क्योंकि
सिर्फ रुख
बदलने की बात
है, दिशा बदलने
की बात है।
नरक जाने में
जो शक्ति लगती
है, वही
शक्ति स्वर्ग
जाने के लिए
कारण बन जाती
है। बुरे होने
में जितना
श्रम उठाना
पड़ता है, उतने
ही श्रम से
भलाई भी फलित
हो जाती है।
शैतान होना
जितना आसान या
कठिन, उतना
ही संत होना
भी आसान या
कठिन है।
और एक
बात ठीक से
समझ लें, एक ही ऊर्जा
दोनों दिशाओं
में यात्रा
करती है। ऐसा
मत सोचें कि
बुरा आदमी
तपश्चर्या
नहीं करता।
बुरे आदमी की
भी तपश्चर्या
है, उसकी
भी बड़ी साधना
है; उसे भी
बड़ा श्रम
उठाना पड़ता है।
शायद भले आदमी
की साधना से
उसकी साधना
ज्यादा
दुस्तर है, क्योंकि
मार्ग में
दोनों को कष्ट
मिलते हैं।
भले आदमी को
अंत में आनंद
भी मिलता है, जो बुरे
आदमी को अंत
में नहीं
मिलता। मार्ग
दोनों बराबर
चलते हैं; भला
कहीं पहुंचता
है, बुरा
कहीं पहुंच भी
नहीं पाता।
एक
अर्थ में बुरे
आदमी की साधना
और भी कठिन है।
जितनी बड़ी
बुराई हो, उतना ही
ज्यादा दुख है।
ऊर्जा
एक, यात्रा
की लंबाई एक, समय और जीवन
का व्यय एक
जैसा; फिर
अंतर क्या है?
अंतर केवल
दिशा का है।
इस जगह तक आने
के लिए भी आप
उसी रास्ते को
चुनकर आए हैं,
लौटते समय
भी उसी रास्ते
से लौटेंगे।
उतना ही फासला
होगा, सिर्फ
आपकी दिशा
बदली होगी।
यहां आते समय
मुंह मेरी तरफ
था, जाते
समय पीठ मेरी
तरफ होगी। बस,
इतना ही
फर्क होगा।
यात्रा वही की
वही है।
जिसे
हम शुभ कहते
हैं, वह
परमात्मा की
तरफ मुंह करके
चलने वाली
यात्रा है।
जिसे हम अशुभ
कहते हैं, वह
परमात्मा की
तरफ पीठ करके
चलने वाली
यात्रा है। वे
ही पैर चलते
हैं, वे ही
प्राण चलते
हैं; जरा
भी यात्रा में
भेद नहीं है।
और
यात्रा के ये
जो दो पथ हैं, ये अगर
आपके बाहर
होते, तो
बहुत आसानी हो
जाती। ये
दोनों पथ आपके
भीतर हैं।
चलने वाले भी
आप हैं, जिस
रास्ते से
चलेंगे, वह
भी आप हैं, और
जिस मंजिल पर
पहुंचेंगे, वह भी आप हैं।
आपके
भीतर मूर्ति
को बनाने वाला, मूर्ति
बनने वाला
पत्थर, मूर्ति
को निखारने
वाली छेनी, सभी कुछ आप
हैं। इसलिए
दायित्व भी
बहुत गहन है।
और दोष किसी
और को दिया
नहीं जा सकता।
जो भी फल होगा,
सिवाय आपके
अकेले के कोई
और उसके लिए
जिम्मेवार
नहीं है।
इसके पहले
कि हम कृष्ण
के सूत्र में
प्रवेश करें, दो—तीन
बातें खयाल
में ले लें।
पहली
बात, जिन
नरकों की
चर्चा है
शास्त्रों
में, जिन
स्वर्गों का
उल्लेख है, वे दो
भौगोलिक
स्थितियां
नहीं हैं, मानसिक
दशाएं हैं।
नरक भी प्रतीक
है, स्वर्ग
भी प्रतीक है।
शास्त्रों
में भगवान और
शैतान की जो
चर्चा है, वे केवल
आपके ही दो
छोर हैं। न तो
शैतान कहीं
खोजने से
मिलेगा और न
भगवान कहीं
खोजने से
मिलेगा।
भगवान आपसे
अलग होता, तो
खोजने से मिल
सकता था।
शैतान भी अलग
होता, तो
खोजने से मिल
जाता। वे
दोनों ही आपकी
संभावनाएं
हैं। चाहें तो
शैतान हो सकते
हैं, कोई
भी रुकावट
नहीं है; और
चाहें तो
भगवान हो सकते
हैं, कोई
भी रुकावट
नहीं है। और
जिस दिन आप
शैतान हो
जाएंगे, तो
कोई शैतान
आपको नहीं
मिलेगा, आप
ही अपने को
मिलेंगे।
जिस
दिन आप भगवान
हो जाएंगे, तो भी कोई
साक्षात्कार नहीं
समग्रता से ही
डूबना
जरूरीहै। जब
तक कोई ऐसा न
घुल जाए कि गए
होंगे।
शैतान
और भगवान आपकी
संभावनाएं
हैं। और जो
बुरे से बुरा
आदमी है, उसके भीतर
परमात्मा की
संभावना उतनी
ही सतेज है, जितनी भले
से भले आदमी
के भीतर शैतान
होने की संभावना
है। परम साधु
एक क्षण में
परम असाधु हो
सकता है।
विपरीत भी सही
है, परम
असाधु के लिए
क्षणभर में क्रांति
घटित हो सकती
है। क्योंकि
दोनों बातें
दूर नहीं हैं,
हमारे भीतर
मौजूद हैं।
जैसे
हमारे दो हाथ
हैं और जैसे
हमारी दो आंखें
हैं, ऐसे
ही हमारे दो
यात्रा—पथ हैं।
और उन दोनों
के बीच हम हैं,
हमारा
फैलाव है।
दूसरी बात, शास्त्र को
समझते समय
ध्यान रखना
जरूरी है कि शास्त्र
कोई विज्ञान
नहीं है, शास्त्र
तो काव्य है।
वहां गणित
नहीं है, वहा
प्रतीक हैं, उपमाएं हैं।
और अगर आप
गणित की तरह
शास्त्र को
पकड़ लेंगे, तो आति होगी,
भटकेंगे।
काव्य की तरह
समझने की
कोशिश करें।
इसलिए
इस ग्रंथ को
श्रीमद्भगवद्गीता
कहा है। यह एक
गीत है भगवान
का, यह
एक काव्य है।
टीकाकारों ने
उसे विज्ञान
समझकर टीकाएं
की हैं।
कविता
और विज्ञान
में कुछ
बुनियादी
फर्क है।
विज्ञान में
तथ्यों की
चर्चा होती है, शब्द
बहुत
महत्वपूर्ण
नहीं होते; शब्द के
पीछे तथ्य
महत्वपूर्ण
होता है।
काव्य में
तथ्यों की
चर्चा नहीं
होती; काव्य
में
अनुभूतियों
की चर्चा होती
है।
अनुभूतियां
हाथ में पकड़ी
नहीं जा सकतीं,
तराजू पर
तौली नहीं जा
सकतीं, कसौटी
पर कसी नहीं
जा सकतीं।
विज्ञान
के तथ्य तो
प्रयोगशाला
में पकड़े जा सकते
हैं। कोई कहे, आग जलाती
है, तो हाथ
डालकर देखा जा
सकता है।
लेकिन
प्रार्थना
परमात्मा तक
पहुंचा देती है;
क्या करें?
इस तथ्य को
कैसे पकड़े? प्रार्थना
को हाथ में
पकड़ने का उपाय
नहीं, जांचने
का उपाय नहीं,
कोई कसौटी
नहीं।
लेकिन
प्रार्थना है।
प्रार्थना
काव्य का सत्य
है, अनुभूति
का सत्य है।
अनुभूति के
सत्य के संबंध
में कुछ बातें
समझ लेनी
जरूरी हैं।
एक, जब तक
आपको अनुभव न
हो, तब तक
बात हवा में
रहेगी; तब
तक कोई लाख
सिर पटके और
समझाए, आपकी
समझ में आएगी
नहीं। स्वाद
मिले, तो
ही कुछ बने; और स्वाद
अकेली बुद्धि
की बात नहीं
है। स्वाद के
लिए तो हृदय
से, वरन
अपनी प्रार्थना
न हो जाएं, तब
तक प्रार्थना
समझ में न
आएगी।
प्रार्थना
कोई कृत्य
नहीं है कि
आपने कर लिया और
मुक्त हुए।
प्रार्थना तो
एक जीवन की
शैली है। एक
बार जो
प्रार्थना
में गया, वह गया; फिर
लौटने का कोई
मार्ग नहीं है।
और गहरे तो
जाना हो सकता
है, लौटने
की कोई सुविधा
नहीं है।
और जिस
दिन
प्रार्थना
पूरी होगी, जिस दिन
भक्ति
परिपूर्ण
होगी, उस
दिन आप भक्त
नहीं होंगे, आप भक्ति
होंगे। उस दिन
आप प्रार्थी
नहीं होंगे, आप
प्रार्थना ही
होंगे। उस दिन
आप ध्यानी
नहीं होंगे, आप ध्यान हो
गए होंगे। उस
दिन आपको योगी
कहने का कोई
अर्थ नहीं है,
क्योंकि
योग कोई किया
नहीं है, आप
योग हो गए
होंगे। योग एक
अनुभव है। और
अनुभव ऐसा, जहां
अनुभोक्ता खो
जाता है और एक
हो जाता है।
गीता
काव्य है।
इसलिए एक—एक
शब्द को, जैसे काव्य
को हम समझते
हैं वैसे
समझना होगा।
कठोरता से
नहीं, काट—पीट
से नहीं, बड़ी
श्रद्धा और
बड़ी
सहानुभूति से।
एक दुश्मन की
तरह नहीं, एक
प्रेमी की तरह।
तो ही रहस्य
खुलेगा और तो
ही आप उस
रहस्य के साथ
आत्मसात हो
पाएंगे।
जो भी
कहा है, वे केवल
प्रतीक हैं।
उन प्रतीकों
के पीछे बड़े
लंबे अनुभव का
रहस्य है। प्रतीक
को आप याद कर
ले सकते हैं, गीता कंठस्थ
हो सकती है।
पर जो कंठ में
है, उसका
कोई भी मूल्य
नहीं।
क्योंकि कंठ
शरीर का ही
हिस्सा है। जब
तक आत्मस्थ न
हो जाए। जब तक
ऐसा न हो जाए
कि आप गीता के
अध्येता न रह
जाएं, गीता
कृष्ण का वचन
न रहे, बल्कि
आपका वचन हो
जाए। जब तक
आपको ऐसा न
लगने लगे कि
कृष्ण मैं हो
गया हूं और जो
बोला जा रहा
है, वह
मेरी अंतर—अनुभूति
की ध्वनि है; वह मैं ही
हूं वह मेरा
ही फैलाव है।
तब तक गीता
पराई रहेगी, तब तक दूरी
रहेगी, द्वैत
बना रहेगा। और
जो भी समझ
होगी गीता की,
वह बौद्धिक
होगी। उससे आप
पंडित तो हो
सकते हैं, लेकिन
प्रज्ञावान
नहीं। अब इस
सूत्र को
समझने की
कोशिश करें।
उसके
उपरात
श्रीकृष्ण
फिर बोले कि
हे अर्जुन, दैवी
संपदा जिन
पुरुषों को
प्राप्त है
तथा जिनको
आसुरी संपदा
प्राप्त है, उनके लक्षण
पृथक—पृथक
कहता हूं।
दैवी
संपदा को
प्राप्त हुए
पुरुष के लक्षण
हैं : अभय, अंतःकरण की
अच्छे प्रकार
से शुद्धि, ज्ञान—योग
में निरंतर
दृढ़ स्थिति और
दान तथा
इंद्रियों का
दमन, यश, स्वाध्याय
तथा तप एवं
शरीर और
इंद्रियों के
सहित अंतःकरण
की सरलता।
कृष्ण
दो संपदाओं की
बात करते हैं, दो तरह के
धन मनुष्य के
पास हैं। धन
का, संपदा
का अर्थ होता
है, शक्ति।
धन का अर्थ
होता है, जिसे
हम उपयोग में
ला सकें, जिससे
हम कुछ खरीद
सकें, जिससे
हम कुछ पा
सकें। धन का
अर्थ है, विनिमय.
का माध्यम, मीडियम आफ
एक्सचेंज।
आपके
खीसे में एक
नोट पडा है।
नोट एक प्रतीक
है। नोट को न
तो आप खा सकते
हैं, न पी
सकते हैं।
लेकिन नोट से
विनिमय हो
सकता है। नोट
से खाने की
चीज खरीदी जा
सकती है, पीने
की चीज खरीदी
जा सकती है।
नोट भोजन बन
सकता है, नोट
जहर बन सकता
है। नोट से
कुछ खरीदा जा
सकता है। नोट
एक शक्ति है विनिमय
की।
कृष्ण
कहते हैं, मनुष्य
के पास दो तरह
की संपदाएं
हैं, विनिमय
के दो माध्यम
हैं। एक से
आदमी खरीद
सकता है और
शैतान हो सकता
है। और एक से
आदमी खरीद
सकता है और
परमात्मा हो
सकता है।
और जब
तक उन दोनों
संपदाओं को हम
ठीक से न समझ लें, तब तक बड़ी
आति रहेगी।
क्योंकि बहुत
बार ऐसा होता
है, जिस
संपदा से केवल
शैतान खरीदा
जा सकता है, उससे हम
परमात्मा को
खरीदने निकल
पड़ते हैं। तब
हम धोखा
खाएंगे। तब जो
भी हम खरीदकर
लाएंगे, वह
शैतान ही होगा।
जैसे, जिस धन से
हम संसार में
सब कुछ खरीदते—बेचते
हैं, उसी
धन से हम धर्म
को भी खरीदने
चल पड़ते हैं।
तो कोई सोचता
है, एक बड़ा
मंदिर बनाए, धर्मशाला
बनाए, दान
कर दे, तो
धर्म उपलब्ध
हो जाएगा।
लेकिन
संसार जिससे
खरीदा जाता है, उससे
अध्यात्म के
खरीदने का कोई
उपाय नहीं।
उनके मार्ग ही
अलग हैं, बाजार
अलग हैं। जो
धन संसार में
चलता है, वह
धन अध्यात्म
में नहीं चलता;
उस जगत से
उसका कोई संबंध
नहीं है।
कृष्ण
कहते हैं, दो
संपदाएं हैं।
एक को वे कहते
हैं, आसुरी
संपदा; और
एक को वे कहते
हैं, दैवी
संपदा। दैवी
संपदा से अर्थ
है, जिससे
दिव्यता
खरीदी जा सके।
तो ठीक
से पहचान लेना
जरूरी है कि
मैं जिस संपदा
का उपयोग कर
रहा हूं र
उससे दिव्यता
खरीदी भी जा सकती
है? नहीं
तो मैं श्रम
भी करूंगा, भटकूंगा भी,
समय भी व्यय
होगा और कहीं
पहुंचूंगा भी
नहीं।
इन
दोनों का
विभाजन बहुत
जरूरी है।
बहुत बार आप
आसुरी संपदा
से दिव्यता को
खरीदने
निकलते हैं।
और न केवल
आपको भांति हो
सकती है, आपको देखने
वालों तक को भ्रांति
हो सकती है।
इधर
मेरा अनुभव है
कि अगर कोई
क्रोधी
व्यक्ति है, तो उसके
क्रोध का
उपयोग बडी
शीघ्रता से
साधना में
किया जा सकता
है। क्रोधी
व्यक्ति
जल्दी से साधक
हो जाता है।
क्योंकि
क्रोध का
लक्षण है, नष्ट
करना, तोडना,
कब्जा करना,
मालकियत
जमाना। क्रोध
दूसरे पर
निकलता है, अपने पर भी
निकल सकता है;
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। आप
दूसरे का सिर
तोड़ सकते हैं,
अपना सिर भी
दीवार में मार
सकते हैं।
क्रोधी
व्यक्ति खुद
को सताने में
लग जाता है।
उसे वह साधना
समझता है।
तो कांटो
पर सोए हुए
लोग हैं, धूप में खड़े
हुए लोग हैं; उपवास करके
भूख से मरते
हुए लोग हैं।
और आपको भी
लगेगा कि बड़ी
तपश्चर्या हो
रही है।
तपश्चर्या
निश्चित हो
रही है, लेकिन
जानना जरूरी
है कि
तपश्चर्या के
पीछे संपदा
कौन—सी है? नहीं
तो हम जानते
हैं दुर्वासा
और उस तरह के ऋषियों
को। उनकी
तपश्चर्या
बड़ी थी, फिर
भी तपश्चर्या
की मौलिक संपदा
आसुरी रही
होगी। तप के
पीछे जो अग्नि
है, वह
आसुरी रही
होगी। इसलिए
तप अभिशाप बन
गया, तप
हिंसा बन गया।
अक्सर
दिखाई पड़ेगा
तपस्वी की आंखों
में एक तरह का
अहंकार।
तपस्वी में एक
तरह की अकड़, न झुकने
का भाव, स्वयं
को कुछ समझने
की वृत्ति। तप
तो विनम्र
करेगा, तप
तो मिटा देगा,
तप तो सारी
अकड़ को जला
देगा। लेकिन
दिखाई पड़ता है
कि तपस्वी की
अकड़ बढ़ती है, तो निश्चित
ही संपदा
आसुरी उपयोग
की जा रही है।
एक
आदमी धन
इकट्ठा करता
है, तो
पागल की तरह
इकट्ठा करता
है, जैसे
जीवन बस धन
इकट्ठा करने
को है। फिर यह
भी हो सकता है
कि धन के इस
लोभी को किसी
दिन त्याग का
खयाल आ जाए।
त्याग के खयाल
का एक ही अर्थ
होगा कि इसको
त्याग का लोभ
पकड़ जाए। यह
कहीं शास्त्र
में पढ़ ले, किसी
गुरु से सुन
ले कि जब तक धन
न छोड़ेगा तब
तक स्वर्ग न
मिलेगा। तो यह
सौदा कर सकता
है, यह धन
छोड़ सकता है।
लेकिन छोड़ेगा
लोभ के कारण
ही।
तो यह
सारे धन को
लात मारकर सडक
पर नग्न भिखारी
की तरह खडा हो
जाए, लेकिन
अगर धन इसने
लोभ के लिए
छोड़ा है, स्वर्ग
पाने को छोड़ा
है, तो जिस
संपदा का यह
उपयोग कर रहा
है, वह
आसुरी है।
आसुरी संपदा
से स्वर्ग का
कोई संबंध
नहीं है। इसे
ठीक से समझ
लें। क्योंकि
आपकी अच्छी से
अच्छी चर्या
के पीछे भी
आसुरी संपदा
हो सकती है, तो सब विकृत
हो जाएगा। तो
आप महल तो
बनाएंगे, लेकिन
रेत पर उसकी
नींव होगी। और
वह महल गिरेगा
और आपको भी
गिराएगा और
डुबाएगा।
मेरा
निरंतर अनुभव
है कि गलत तरह
का आदमी बड़ी शीघ्रता
से अच्छे काम
करने में लग
सकता है। जो
पागलपन गलत के
करने में था, वही
अच्छे में लग
सकता है।
लेकिन उसकी
मौलिक संपदा
नहीं बदलती।
उसका क्रोध, उसका लोभ, उसका मान
नहीं बदलता, नया नियोजन
हो जाता है।
मौलिक स्वर
पुराना ही
रहता है।
इसलिए
इसके पहले कि
साधक यात्रा
पर निकले, उसे ठीक
से पहचान लेना
जरूरी है कि
क्या आसुरी है,
क्या दैवी
है। स्पष्ट
विभाजन भीतर
साफ हो, तो
यात्रा बड़ी
सुगम हो जाती
है। क्योंकि
गलत साधन से
ठीक साध्य तक
पहुंचने का
कोई उपाय नहीं
है। अकेली
आपकी मरजी
काफी नहीं है,
आकाक्षा
काफी नहीं है,
प्रार्थना
काफी नहीं है,
ठीक साधन ही
ठीक साध्य तक
पहुंचाएगा।
और ठीक साधन
का अर्थ है, दैवी संपदा
का उपयोग।
दोनों
संपदाएं
प्रत्येक के
पास हैं।
उन्हें कमाना
नहीं पड़ता, उन्हें
हम लेकर ही
पैदा होते हैं।
जन्म के साथ
ही हम दोनों
संपदाएं लेकर
पैदा होते हैं।
और प्रत्येक
व्यक्ति
बराबर लेकर
पैदा होता है।
उस अर्थ में
बिलकुल
साम्यवाद है,
उस अर्थ में
जरा भी भेद
नहीं है। गरीब
से गरीब, अमीर
से अमीर, बुद्धिमान
या मूढ़, बराबर
लेकर पैदा
होते हैं।
प्रकृति सबको
समान देती है।
और अगर इस जगत
में इतने भेद
दिखाई पड़ते
हैं, तो हम
उनका कैसा
उपयोग करते
हैं, इस पर
निर्भर करते
हैं।
अगर इस
जगत में साधु
दिखाई पड़ता
है और दुष्ट
दिखाई पड़ता
है, तो
प्रकृति किसी
को साधु नहीं
बनाती और
दुष्ट नहीं
बनाती।
परमात्मा
बिलकुल कोरा
चेक ही आपको
देता है, उस
पर कुछ आंकड़े
लिखे नहीं
होते। लिखना
हम करते हैं; और जो हम
लिखते हैं, वह हम बन
जाते हैं।
ध्यान
रहे, प्रत्येक
व्यक्ति
बराबर संपदा
लेकर पैदा होता
है और दोनों
संपदाएं
बराबर लेकर
पैदा होता है।
इसलिए बच्चे
इतने भोले
मालूम पड़ते
हैं। बच्चे के
भोलेपन का राज
यही है कि वह
दोनों संपदाएं
बराबर लेकर
पैदा होता है।
बराबर होने के
कारण न तो वह साधु
होता है, न
असाधु होता है।
दोनों
संतुलित होती
हैं। इसलिए
बच्चा भोला
होता है।
बच्चे
के भोलेपन में
और साधु के
भोलेपन में बड़ा
फर्क है।
बच्चे का
भोलापन
अज्ञान से भरा
हुआ है, साधु का
भोलापन ज्ञान
से भरा हुआ है।
साधु का
भोलापन दैवी
संपदा का पूरा
उपयोग है।
बच्चे का
भोलापन
अनुपयोग है, अभी उसने
कुछ उपयोग
किया नहीं, अभी स्लेट
खाली है। पर
दोनों अक्षर
लिखे जा सकते
हैं, दोनों
की क्षमता
लेकर वह पैदा
हुआ है।
इसलिए
परम साधु की आंखें
बच्चों जैसी
हो जाती हैं।
एक पुनर्जन्म
हो जाता है।
फिर से सब सरल
हो जाता है।
लेकिन यह
सरलता बड़ी
गहरी है, बच्चे की
सरलता बड़ी
उथली है।
बच्चे
की सरलता दो
विपरीत
शक्तियों का
संतुलन है, दोनों
बराबर मात्रा
में हैं और
अभी यात्रा नहीं
हुई है। जल्दी
ही यात्रा
शुरू होगी, और बच्चा एक
तरफ झुकना
शुरू हो जाएगा।
जैसे—जैसे
झुकेगा, वैसे—वैसे
जटिलता बढ़ेगी।
जैसे—जैसे
झुकेगा, वैसे—वैसे
भीतर कलह
स्वभावत:
टूटेगा, निर्मित
होगा, दो
हिस्से होने
शुरू हो
जाएंगे। और जो
भी फिर बच्चा
करेगा, दो
आवाजें होंगी।
चोरी करेगा, तो दो
आवाजें होंगी;
किसी को दान
देगा, तो
दो आवाजें
होंगी। दोनों
संपदाएं
पुकारेंगी।
हर
क्षण, जब
भी आप कुछ
निर्णय लेते
हैं, दोनों
शक्तियां
आवाज देती हैं,
कि मेरी तरफ।
चोरी करने
जाएं, तो
कोई भीतर से
कहता है, बुरा
है; मत करो।
और प्रार्थना
करने जाएं, तो कोई भीतर
से कहता है, क्यों फिजूल
समय खराब कर
रहे हो! इतनी
देर में कुछ
कमा लेते!
अच्छा करें, तो भीतर से कोई
कहता है, रुको।
बुरा करें, तो भीतर से
कोई कहता है, रुको। भीतर
दो आवाजें हैं।
बच्चे
की दोनों
आवाजें अभी
शांत हैं। अभी
बच्चे ने
चुनाव नहीं
किया है।
इसलिए बच्चा
निर्दोष है।
लेकिन यह
निर्दोषता
टिकेगी नहीं; टूटेगी
ही। क्योंकि
आज नहीं कल ये
आवाजें
उठेंगी। आज नहीं
कल बच्चा
संसार में
जाएगा, विकल्प
खड़े होंगे, चुनाव करना
पड़ेगा। इसलिए
बच्चा तो
विकृत होगा।
साधु
या परम साधु
का अर्थ यह है
कि वह सारी
विकृतियों को
पार करके
संतुलन को
उपलब्ध हुआ है।
यह संतुलन
किसी अज्ञान
के कारण नहीं
है; यह
संतुलन
परिपूर्ण
जानकारी और
परिपूर्ण होश
में साधा गया
है।
बच्चा
भोला है, बिना अपने
कारण। यह
भोलापन कोई
उपलब्धि नहीं
है। इसलिए सभी
बच्चे भोले
हैं। यह जानकर
हैरानी होगी
कि सभी बच्चे
प्यारे लगते
हैं; कुरूप
बच्चा वस्तुत:
होता ही नहीं।
जो भी बच्चा
है, प्यारा
लगता है।
लेकिन
सारे प्यारे
बच्चे फिर
कहां खो जाते
हैं! मुश्किल
से कोई सुंदर आदमी
बाद में बचता
है। सभी बच्चे
सुंदर पैदा
होते हैं; बच्चों
को देखकर सभी
को सौंदर्य का
भाव होता है।
लेकिन फिर यही
सारे बच्चे
बड़े होते हैं,
फिर बड़ी
कुरूपता
प्रकट होती है।
शायद ही कभी
कोई बच पाता
है, जो बाद
में भी सुंदर
होता है। कहा
खो जाती हैं
सारी बातें?
बच्चे
का सौंदर्य भी
उसी संतुलन के
कारण था। जैसे
ही चुनाव हुआ, सौंदर्य
खोना शुरू हो
जाता है।
फिर
परम संत को एक
सौंदर्य
उपलब्ध होता
है, जिसके
खोने का कोई
उपाय नहीं।
क्योंकि वह
उपलब्धि है, वह स्वयं
पाई गई बात है।
वह प्रकृति का
दान नहीं, अपनी
अर्जित
क्षमता है। और
जो आपने कमाया
है, वही
केवल आपका है;
जो आपको
मिला है, वह
आपका नहीं है।
ये
दोनों
संपदाएं
बराबर
प्रत्येक
व्यक्ति के
भीतर हैं।
उसके
उपरात कृष्ण
बोले कि हे
अर्जुन, दैवी संपदा
जिन पुरुषों
को प्राप्त है
तथा जिनको आसुरी
संपदा
प्राप्त है, उनके लक्षण
पृथक—पृथक
कहता हूं।
लक्षण
इसीलिए ताकि
आप पहचान सकें, ताकि
अर्जुन पहचान
सके। और यह
पहचान अत्यंत
बुनियादी है।
दैवी
संपदा को
प्राप्त हुए
पुरुष के
लक्षण : अभय, फियरलेसनेस।
अभय शब्द
सुनते ही हमें
जो खयाल उठता
है, वह
उठता है निर्भयता
का। लेकिन अभय
निर्भयता
नहीं है, क्योंकि
निर्भय तो
आसुरी संपदा
वाले लोग भी होते
हैं; अक्सर
ज्यादा
निर्भय होते
हैं। अपराधी
हैं, निर्भय
हैं, नहीं
तो अपराध करना
मुश्किल था।
और एक दफा जेल
से लौटते हैं,
तो भी भयभीत
नहीं होते; दुबारा और
तैयारी करके
अपराध में
उतरते हैं।
मनोवैज्ञानिकों
का कहना है कि
कारागृह से तो
किसी अपराधी
को कभी ठीक
किया ही नहीं
जा सकता, क्योंकि
उसकी
निर्भयता और
बढ़ती है। उसने
यह भी देख
लिया, वह
इससे भी गुजर
गया; यह
तकलीफ भी बहुत
ज्यादा नहीं
है। यह भी सही
जा सकती है।
इसलिए जो आदमी
एक बार कारागृह
जाता है, वह
फिर बार—बार
जाता है।
दुनिया में
जितने
कारागृह बढ़ते
हैं, उतने
अपराधी बढ़ते
चले जाते हैं।
जितनी ज्यादा
हम सजा देते
हैं, उतना
अपराधी
निर्भय होता
है। यह थोड़ा
समझ लेने जैसा
है।
बहुत—से
लोग इसीलिए
अपराधी नहीं
हैं, क्योंकि
उनमें निर्भयता
की कमी है; और
कोई कारण नहीं
है। अपराध तो
वे भी करना
चाहते हैं; भयभीत हैं।
चोरी आप भी
करना चाहते
हैं, लेकिन
भय पकड़ता है।
चोरी के लोभ
से ज्यादा
चोरी का जो
परिणाम हो सकता
है—कारागृह हो
सकता है, बदनामी
होगी, प्रतिष्ठा
खो जाएगी, पकड़े
जाएंगे—वह भय
ज्यादा मजबूत
है। लोभ से भय
बड़ा है; वही
आप पर अंकुश
है। हत्या आप
भी करना चाहते
हैं, कई
बार मन में
सोचते हैं, सपने देखते
हैं; कई
बार तो हत्या
मन में कर ही
देते हैं। ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है, जिसने जीवन
में दो—चार
बार मन में
किसी की हत्या
न कर दी हो।
मनसविद
कहते हैं कि
हर आदमी अपने
लंबे जीवन में, अगर वह सौ
साल जीए तो कम
से कम दस बार
खुद की आत्महत्या
करने का विचार
करता है, औसत।
करते नहीं हैं
आप, उसका
कारण यह नहीं
है कि आप करना
नहीं चाहते हैं।
उसका कारण
सिर्फ इतना है
कि उतना
निर्भय भाव नहीं
जुटा पाते हैं।
भय पकड़े रहता
है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन
बड़ा नाराज था
पत्नी से, और कलह
कुछ ज्यादा ही
बढ़ गई, तो
आधी रात उठा
और उसने कहा, बहुत हो
चुका; जितना
सह सकता था, सह लिया। हर
चीज की सीमा
आती है; और
सीमा आ गई।
मैं मरने जा
रहा हूं इसी
समय, झील
में डूबकर।
दरवाजा खोलकर
बाहर निकलता
था, पत्नी
ने कहा, लेकिन
नसरुद्दीन, तैरना तो
तुम जानते ही
नहीं! तो वह
वापस लौट आया,
उदास बैठ
गया। उसने कहा,
तो फिर मुझे
कोई और उपाय
सोचना पड़ेगा।
वे
मरने जा रहे
थे झील में, लेकिन
तैरना नहीं
आता तो कोई और
उपाय सोचना पड़ेगा!
करना
आप भी वही
चाहते हैं, जो अपराधी
करता है, लेकिन
फर्क शायद
निर्भयता का
है।
कृष्ण
अभय को दैवी
संपदा का पहला
लक्षण गिनाते
हैं। और सिर्फ
कृष्ण नहीं, महावीर
भी अभय को
बुनियादी
आधार बनाते
हैं; बुद्ध
भी। महावीर ने
कहा है कि
अहिंसक तो कोई
हो ही नहीं सकता,
जब तक अभय न
हो, क्योंकि
भय से हिंसा पैदा
होती है।
लेकिन ध्यान
रहे, हिंसक
निर्भय हो
सकता है, होता
है। आखिर
युद्ध के
मैदान में
जाता हुआ
सिपाही निर्भय
तो होता ही है,
लेकिन
हिंसक होता है।
और महावीर
कहते हैं, अभय
का अंतिम
परिणाम
अहिंसा है। तो
हमें
निर्भयता और
अभय में थोड़ा
फर्क समझ लेना
चाहिए।
निर्भय
का अर्थ है, जिसके
भीतर भय तो है,
लेकिन उस भय
से जो भयभीत
नहीं होता और
टिका रहता है।
कायर वह है, उसके भीतर
भी भय है, लेकिन
वह भय से
प्रभावित
होकर भाग खड़ा
होता है। कायर
में और बहादुर
में फर्क भय
का नहीं है, भय दोनों
में है।
बहादुर भय के
बावजूद भी खड़ा
रहता है। कायर
भय के पकड़ते
ही भाग खड़ा
होता है। भय
दोनों के भीतर
है, लेकिन
कायर भय को
स्वीकार कर
लेता है और
जिसको हम
बहादुर कहते
हैं, वह
अस्वीकार
करता है।
लेकिन भय भीतर
मौजूद है।
निर्भयता
का अर्थ है, भय तो
भीतर है, लेकिन
हम उसे स्वीकार
नहीं करते, हम उसके
विपरीत खड़े
हैं। अभय का
अर्थ है, जिसके
भीतर भय नहीं।
इसलिए अभय को
उपलब्ध
व्यक्ति न तो
कायर होता है
और न बहादुर
होता है, वह
दोनों नहीं हो
सकता। दोनों
के लिए भय का
होना एकदम
जरूरी है। भय
हो, तो आप
कायर हो सकते
हैं या बहादुर
हो सकते हैं।
भय न हो, तो
आप अभय को
उपलब्ध होते
हैं।
अभय को
कृष्ण कहते
हैं पहला
लक्षण दैवी
संपदा का।
क्यों? अगर अभय
दैवी संपदा का
पहला लक्षण है,
तो भय आसुरी
संपदा का पहला
लक्षण हो गया।
भय किस
बात का है? और जब आप
निर्भयता भी
दिखाते हैं, तो किस बात
की दिखाते हैं?
थोड़ा—सा ही
सोचेंगे तो
पता चल जाएगा
कि मृत्यु का
भय है। बहाना
कोई भी हो, ऊपर
से कुछ भी हो, लेकिन भीतर
मृत्यु का भय
है। मैं मिट न
जाऊं, मैं
समाप्त न हो
जाऊं। दूसरी
चीजों में भी,
जिनमें
मृत्यु
प्रत्यक्ष
नहीं है, वहा
भी गहरे में
मृत्यु ही
होती है।
आपका
धन कोई छीन ले, तो भय
पकड़ता है।
मकान जल जाए, तो भय पकड़ता
है। पद छिन
जाए, तो भय
पकड़ता है।
लेकिन वह भय
भी मृत्यु के
कारण है; क्योंकि
पद के कारण
जीवित होने
में सुविधा थी;
पद सहारा था।
धन पास में था,
तो सुरक्षा
थी। धन पास
में नहीं, तो
असुरक्षा हो
गई। मकान था, तो साया था; मकान जल गया,
तो खुले
आकाश के नीचे
खडे हो गए।
जिन—जिन
चीजों के
छिनने से भय
होता है, उन—उन चीजों
के छिनने से
मौत करीब
मालूम पड़ती है।
और जिन—जिन
चीजों को हम
पकड़ रखना
चाहते हैं, वे वे ही
चीजें हैं, जिनके कारण
मौत और हमारे
बीच में परदा
हो जाता है।
धन का ढेर लगा
हो, तो
हमारी आंखों
में धन दिखाई
पड़ता है, मौत
उस पार छूट
जाती है।
प्रतिष्ठा
हो, पद
हो, तो
शक्ति होती है
पास में, हम
लड़ सकते हैं।
बीमारी आए, मौत आए, तो
कुछ उपाय किया
जा सकता है।
पास कुछ ची न्
ले, ते कोई
उपाय नहीं है,
हम
असुरक्षित
मौत के हाथ
में पड़ जाते
हैं।
भय तो
मृत्यु का है, सभी भय
मृत्यु से
उदभूत होता है।
इसलिए उसको हम
बहादुर कहते
हैं, जो
मौत के सामने
भी अकड़कर खड़ा
रहता है। कोई
बंदूक लेकर
आपकी छाती पर
खड़ा हो, भाग
खड़े हुए, तो
लोग कायर कहते
हैं; पीठ
दिखा दी!
पश्चिम
में युवकों का
आंदोलन है, हिप्पी।
हिप्पी शब्द
बहुत
महत्वपूर्ण
है। हिप्पी
शब्द का वही
मतलब होता है,
जो
रणछोड़दास का
होता है, जिसने
हिप दिखा दिया,
जिसने पीठ
दिखा दी, जो
भाग खड़ा हुआ।
जो युवक
हिप्पी कहे जा
रहे हैं
पश्चिम में, लेकिन उनका
फलसफा है, उनका
एक दर्शन है।
वे कहते हैं, लड़ना फिजूल
है। और लड़ना
किसलिए? और
लड़ने से मिलता
क्या है? इसलिए
पीठ दिखाई है
जान—बूझकर।
ये जो
बहादुर और
कायर हैं, इन दोनों
की समस्या एक
है। कायर पीठ
दिखाकर भाग
जाता है।
बहादुर पीठ
नहीं दिखाता,
खड़ा रहता है,
चाहे मिट
जाए। लेकिन
दोनों के भीतर
भय है।
अभय उस
व्यक्ति को हम
कहेंगे, जिसके भीतर
भय नहीं है।
लेकिन यह तभी
हो सकता है, जब मृत्यु
के संबंध में
हमारी समस्या
हल हो गई हो।
जब हमें किसी
भांति यह
प्रतीति हो गई
हो कि मृत्यु
है ही नहीं; जब हमने
किसी अनुभव से
यह रस पहचान
लिया हो कि भीतर
अमृत छिपा है,
कि मैं
मरणधर्मा
नहीं हूं।
आत्मभाव
जगा हो, तो अभय पैदा
होगा। इसलिए
अभय आत्मा का
नाम है। जिसने
आत्मा को जरा—सा
भी पहचाना, उसके जीवन
में अभय हो
जाएगा।
इसे
कृष्ण पहला
आधार बना देते
हैं। क्यों? सत्य की
यात्रा पर, ब्रह्म की
यात्रा पर, दिव्यता के
आरोहण में अभय
पहला आधार
क्यों?
अभय की
संभावना बनती
है, अमृत
की थोड़ी—सी
प्रतीति हो तो।
और अमृत की
प्रतीति हो, तो आदमी छलांग
ले सकता है
ब्रह्म में; नहीं तो छलांग
नहीं ले सकता।
अगर भीतर डर
समाया हो कि
मैं मिट तो न
जाऊंगा, तो
ब्रह्म तो
मृत्यु से भी
ज्यादा भयानक
है। क्योंकि
मृत्यु में तो
शायद शरीर ही
मिटता होगा, आत्मा बच
जाती होगी।
ब्रह्म में
आत्मा भी नहीं
बचेगी।
महामृत्यु है।
उस विराट में
तो मैं ऐसे खो
जाऊंगा, जैसे
बूंद सागर में
खो जाती है, कोई नाम—रूप
नहीं बचेगा।
तो
जिसको हम
मृत्यु कहते
हैं, यह
तो अधूरी
मृत्यु है।
आत्मा बच
जाएगी, नए
शरीर ग्रहण
करेगी, नई यात्राओं
पर निकलेगी।
लेकिन जो
व्यक्ति
ब्रह्म—ज्ञान
को उपलब्ध हुआ,
फिर उसकी
कोई यात्रा
नहीं है, फिर
वह महाशून्य
में खो गया।
इसलिए हम कहते
हैं, परम
ज्ञानी वापस
नहीं आता।
बुद्ध
से लोग बार—बार
पूछते हैं, कि
मृत्यु के बाद
बुद्धत्व को
प्राप्त
व्यक्ति का
क्या होता है?
तो बुद्ध
कहते हैं, जैसे
दीए की ज्योति
को कोई फूंककर
बुझा दे, तो
फिर तुम पूछते
हो या नहीं कि
दीए की ज्योति
का क्या हुआ, कहां गई? ऐसा
ही बुद्ध
पुरुष खो जाता
है; जैसे
दीए को कोई
फूंककर बुझा
दे, ऐसे ही
बुद्ध पुरुष
खो जाता है।
तो
बुद्धत्व तो
महामृत्यु
हुई। हमारी
ज्योति तो
थोड़ी—बहुत
बचेगी, नए दीए में
जलेगी, और
नए दीए खोजेगी;
नए घर, नए
शरीर ग्रहण
करेगी। लेकिन
बुद्ध की
ज्योति? दीया
भी मिट गया, ज्योति भी
खो गई।
कृष्ण
अभय को पहला
आधार बनाते
हैं दैवी
संपदा का।
क्योंकि
दिव्यता में
जिसे भी
प्रवेश करना
हो, उसे
अपने को पूरी
तरह मिटाने का
साहस चाहिए।
कौन अपने को
पूरा मिटा
सकता है? वही
जिसको पूरा
भरोसा है कि
मिटने का कोई
उपाय नहीं। यह
बात विपरीत
मालूम पड़ेगी,
विरोधाभासी
लगेगी।
वही
व्यक्ति अपने
को मिटा सकता
है, जिसे
भरोसा है कि
मिटने का कोई
उपाय नहीं है;
वह सहजता से
छलांग ले सकता
है। वह अग्नि
में उतर सकता
है, क्योंकि
वह जानता है
कि अग्नि जलाएगी
नहीं। वह
शस्त्रों से
छिद सकता है, क्योंकि वह
जानता है कि
शस्त्र
छेदेंगे नहीं।
इस आस्था पर
ही अभय विकसित
होगा।
अभय, अंतःकरण
की अच्छी
प्रकार से
शुद्धि।
अंतःकरण
के साथ बड़ी
भ्रांतियां
जुड़ी हैं।
समाज ने
अंतःकरण का
बड़ा उपयोग
किया है। समाज
की पूरी धारणा
ही अंतःकरण के
शोषण पर निर्भर
है। समाज सिखा
देता है बचपन
से ही हर
बच्चे को, क्या
करने योग्य है,
क्या करने
योग्य नहीं है।
और इस बात को
इतने जोर से
स्थापित करता
है, हृदय
में इस बात को
इतनी बार पुनरुक्त
किया जाता है
कि कंडीशनिंग,
संस्कारबद्ध
धारणा बैठ
जाती है। फिर
जब भी आप उसके
विपरीत जाने
लगते हैं, कि
समाज का
सिखाया हुआ
अंतःकरण फौरन
विरोध खड़ा
करता है।
इसलिए हर समाज
के पास अलग—अलग
तरह के
अंतःकरण हैं।
अगर आप एक
शाकाहारी घर
में पैदा हुए
हैं, तो उस
घर ने आपको
शाकाहारी का
अंतःकरण दिया।
अगर मांस आपके
सामने आ जाए, तो आप सिर्फ
ग्लानि से
भरेंगे। आपकी
जीभ से पानी
और रस नहीं
बहेगा, सिर्फ
ग्लानि; वमन
हो सकता है, उल्टी आ
सकती है।
यही
मांस किसी
दूसरे के
सामने, जो
मांसाहारी घर
में पैदा हुआ
है, बड़े स्वाद
को जगा सकता
है। इसी मांस
को देखकर उसकी
सोई हुई भूख
जग सकती है; भूख न भी हो, तो भी भूख लग
सकती है। एक
दूसरे
शाकाहारी घर
में पैदा
व्यक्ति को इसी
मांस को देखकर
बड़ी जुगुप्सा,
बड़ी घृणा
पैदा होती है।
निश्चित
ही, यह
अंतःकरण असली
अंतःकरण नहीं
है। यह
अंतःकरण सिखाया
हुआ, शिक्षित
अंतःकरण है।
यह समाज ने
उपयोग किया
हुआ है। गलत
और सही का
सवाल नहीं है।
समाज को एक
बात समझ में आ
गई है कि अगर
व्यक्तियों
को नियंत्रण
में रखना हो, व्यवस्था
में रखना हो, तो इसके
पहले कि उनका
वास्तविक
अंतःकरण बोलना
शुरू हो, हमें
जो—जो धारणाएं
डालनी हों, उनमें डाल
देनी चाहिए।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
सात वर्ष की
उम्र तक आपका
आधा मस्तिष्क
निर्मित हो
जाता है। आधा, पचास
प्रतिशत, सात
वर्ष में! फिर
पूरी जिंदगी
में शेष पचास
प्रतिशत
निर्मित होता
है। और यह जो
पचास प्रतिशत
सात वर्ष में
निर्मित होता
है, यह
आधार है। इसके
विपरीत जाना
कठिन है। फिर
पूरी जिंदगी
इसके अनुकूल
ही ले जाना
आसान है। और
अगर इसके
विपरीत आप ले
गए, तो बड़ी
दुविधा और बड़ी
कलह में
जिंदगी
बीतेगी।
इसलिए
सभी तथाकथित
धार्मिक
संप्रदाय
बच्चों का
शीघ्रता से
शोषण करने को
उत्सुक होते
हैं। जो धर्म
भी अपने
बच्चों को
धार्मिक
शिक्षा नहीं
देता, फिर
बाद में आशा
नहीं रख सकता।
सात वर्ष के
पहले ही
धारणाएं
प्रविष्ट हो
जानी चाहिए।
धारणाएं
मजबूत भीतर
बैठ जाएं, तो
वास्तविक
अंतःकरण की
आवाज सुनाई ही
नहीं पड़ती; समाज के
द्वारा दिया
गया अंतःकरण
ही बीच में बोलता
रहता है।
कृष्ण
जब कहते हैं, अंतःकरण
की अच्छे
प्रकार से
शुद्धि, तो
वे यही कह रहे
हैं कि समाज
ने जो धारणाएं
दी हैं, उनसे
जब तक छुटकारा
न हो अंतःकरण
का, तब तक
वास्तविक
आपकी आत्मा
बोल न पाएगी।
हिंदू बोल
सकता है भीतर
से, मुसलमान
बोलेगा, जैन
बोलेगा, ईसाई
बोलेगा, आस्तिक—नास्तिक
बोलेगा।
लेकिन आप जो
लेकर पैदा हुए
हैं, वह जो
दैवी स्वर
आपके भीतर है,
वह
छिपा
रहेगा। उसके
प्रकट होने के
लिए अंतःकरण
की सारी परतें
अलग हो जानी
चाहिए।
क्यों
कृष्ण अर्जुन
से ऐसा कह रहे
हैं? क्योंकि
अर्जुन जो
ज्ञान की
बातें कर रहा
है, वे
उसके अंतःकरण
से नहीं आ रही
हैं; वे
सामाजिक
धारणाएं हैं।
वह कह रहा है, ये मेरे
गुरु हैं, तो
जिस गुरु के
मैंने चरण छुए,
उसकी मैं
हत्या कैसे
करूं! कि ये
मेरे सगे भाई हैं,
कि मेरे
बंधु—बांधव
हैं, ये
मेरे मित्र, प्रियजन हैं।
ये जो उस तरफ
खड़े हैं युद्ध
में, इसमें
अनेक मेरे
संबंधियों के
संबंधी या संबंधी
हैं। भीष्म
पितामह उस तरफ
हैं, वे
मेरे आदर
योग्य हैं। इन
सबके साथ मैं
कैसे युद्ध
करूं? ये
मेरे अपने हैं,
ये सगे—संबंधी
हैं।
कौन
आपका अपना है?
जीसस
एक भीड़ में
खड़े थे। और
उन्होंने एक
बड़ा कठोर वचन
उपयोग किया है, जिसकी
निरंतर
आलोचना की गई
है। क्योंकि
जीसस जैसे
व्यक्ति से
ऐसे शब्द की
आशा नहीं थी।
किसी ने भीड
में आवाज दी
कि जीसस, तुम्हारी
मां मरियम
तुमसे मिलने
बाहर आई है।
तो जीसस ने
कहा, मेरी
न कोई मां है, न मेरा कोई
पिता है।
कठोर
वचन है। और
जीसस जैसे
अत्यंत
करुणावान, महा
करुणावान
व्यक्ति से
ऐसी बात की
आशा नहीं है।
निश्चित ही, उनका
प्रयोजन कुछ
भिन्न है।
जीसस
यह कह रहे हैं
कि कौन मां है!
कौन पिता है! जहां
तक शुद्ध
अंतःकरण का
सवाल है, न कोई पिता
है, न कोई
माता है। न
कोई भाई है, न कोई बंधु
है। जहां तक
समाज के
द्वारा दिए गए
अंतःकरण का
संबंध है, मां
है, पिता
है, भाई—बंधु
हैं। ये सब
सिखावन हैं, से सब
संस्कार हैं।
अर्जुन
कह रहा है, यह बुरा
है। और कृष्ण
यह कह रहे हैं
कि यह तेरे
अंतःकरण की आवाज
नहीं; तुझे
जो—जो बुरा
बताया गया है,
उसे—उसे तू
बुरा कह रहा
है। यह तेरी
अपनी प्रतीति
नहीं है, तेरी
अंतःप्रज्ञा
नहीं है, तेरा
बोध नहीं है।
यह तू नहीं कह
रहा है, तेरे
भीतर से समाज
की धारणाएं
बोल रही हैं।
और जब
तक समाज की
धारणाओं को हम
हटा न सकें, तब तक
शुद्ध
अंतःकरण का
कोई पता नहीं
चलता। शुद्ध
अंतःकरण का
मतलब यह नहीं
है कि भले आदमी
का अंतःकरण। क्योंकि
जिसको हम भला
आदमी कहते हैं,
वह तो समाज
की ही
मान्यताओं को
मानकर चलने
वाला आदमी है;
उसको हम भला
कहते हैं।
बुरा हम उसको
कहते हैं, जो
समाज की
मान्यताएं
नहीं मानता।
मगर यह
धारणा रोज बदल
जाती है।
क्योंकि जीसस
जिस जमाने में
पैदा हुए, लोगों ने
उन्हें बुरा
कहा, क्योंकि
जिस यहूदी
समाज में वे
पैदा हुए, उसकी
मान्यताएं
उन्होंने
नहीं मानी। तो
जीसस को लोगों
ने आवारा, उपद्रवी,
अपराधी
समझा, इसलिए
यहूदियों ने
जीसस को सूली
लगाई। सूली
लगाते वक्त
उन्होंने
खयाल रखा कि
जीसस को
अपराधियों के
साथ सूली लगाई
जाए। तो दोनों
तरफ दो चोरों
को सूली पर
लटकाया, बीच
में जीसस को, ताकि समाज
समझ ले कि एक
अपराधी की तरह
हम जीसस को
सजा दे रहे
हैं। इस आदमी
ने समाज की
धारणाओं का
विरोध किया, यह बुरा
आदमी है।
लेकिन
फिर जीसस के
मानने वाले
लोगों का समाज
धीरे— धीरे
निर्मित हुआ
और जीसस उनके
लिए सबसे
अच्छे आदमी हो
गए। तो जीसस
से कोई अच्छा
आदमी हुआ ही
नहीं ईसाइयों
के लिए। बड़ी
कठिनाई है।
यहूदियों के
लिए यह आदमी
बुरा है, सूली लगाने
योग्य है।
ईसाइयों के
लिए यह आदमी
भला है, परमात्मा
का इकलौता
बेटा है, पूजने
योग्य है। यही
एकमात्र
सहारा है
मुक्ति का।
यही मार्ग है,
द्वार है; इसके बिना
कोई द्वार
नहीं है।
इतनी
भिन्न धारणा!
अंतःकरण
का सवाल नहीं
है। यहूदी के
पास एक
सामाजिक
धारणा है, उससे
तौलता है।
ईसाई के पास
दूसरी
सामाजिक
धारणा है, उससे
तौलता है।
इस
मुल्क में ऐसा
निरंतर हुआ है, हर मुल्क
में होगा, हर
मुल्क में होता
रहा है। जो आज
हमें बुरा
दिखाई पड़ता है,
कल भला हो
सकता है। समाज
की धारणा बदल
जाए, तो
मापदंड बदल
जाता है। जो
आज हमें अच्छा
लगता है, वह
कल बुरा हो
सकता है।
धारणा बदल जाए,
तराजू बदल
जाता है, तौलने
के उपाय बदल
जाते हैं।
अंतःकरण
की शुद्धि से
अर्थ अच्छे
आदमी का
अंतःकरण नहीं
है। अंतःकरण
की शुद्धि का
अर्थ है, शुद्ध
अंतःकरण।
शुद्ध
अंतःकरण का
अर्थ अच्छा
नहीं है।
शुद्ध
अंतःकरण का
अर्थ है, जिसमें
कुछ और मिलाया
हुआ नहीं है।
और
ध्यान रहे, दो शुद्ध
चीजें भी मिल
जाएं, तो
अशुद्धि पैदा
होती है।
शुद्ध पानी और
शुद्ध दूध को
मिला दें, तो
दोहरी शुद्धि
पैदा नहीं
होती। पानी भी
अशुद्ध हो
जाता है, दूध
भी अशुद्ध हो
जाता है।
अशुद्ध का
मतलब है, कुछ
अन्य मिला
दिया गया, कुछ
विजातीय मिला
दिया गया।
शुद्ध का अर्थ
है, कुछ भी
मिलाया नहीं,
खालिस, जैसा
था वैसा।
जैसा
अंतःकरण हम
लेकर पैदा हुए
हैं, जो
किसी ने हमें
दिया नहीं, समाज ने
जिसे निर्मित
नहीं किया, जो हमारी
भीतरी संपदा
है, उस
शुद्ध
अंतःकरण को, कृष्ण कहते
हैं, अगर
हम निखार लें,
समाज की
धारणाओं के
रूखे—सूखे
पत्ते अलग कर
दें, भीतर
छिपी पानी की
धार नजर में आ
जाए, तो
दैवी संपदा का
दूसरा लक्षण
है। फिर उसके
ही सहारे, उस
अंतःकरण के
सहारे
दिव्यता तक
पहुंचा जा सकता
है।
जिसको
आप अभी अच्छा
और बुरा कहते
हैं, वह
सिर्फ
सामाजिक
मान्यता है।
किसी दूसरे
समाज में
मान्यताएं
बदल जाती हैं,
तो दूसरी
मान्यताएं हो
जाती हैं।
जमीन पर कोई
हजारों तरह के
समाज हैं। ऐसी
कोई मान्यता
नहीं है, जो
किसी न किसी
समाज में
अच्छी न मानी
जाती हो, और
ऐसी भी कोई
मान्यता नहीं
है, जो
किसी न किसी
समाज में बुरी
न मानी जाती
हो। सब तरह की
बातें अच्छी
मानी जाती हैं,
सब तरह की
बातें बुरी
मानी जाती हैं।
ऐसे
समाज हैं, जहां सगी
बहन से विवाह
करना अच्छा
माना जाता है।
जहां पिता मर
जाए, तो
ऐसे समाज हैं,
जहां बड़े
बेटे को मां
से विवाह करना
अच्छा माना जाता
है। ऐसे समाज
हैं, जहां
पिता का हो
जाए, वृद्ध
हो जाए, तो
जीवित पिता को
अग्निसंस्कार
दे देना बड़े बेटे
का कर्तव्य
माना जाता है।
और इन सबकी
अपनी धारणाएं
हैं, और
अपनी धारणाओं
के तर्क हैं।
और अगर उनके
तर्क को सहानुभूति
से समझें, तो
उनकी बात भी
सही मालूम पड़
सकती है। जिन
समाजों में
भाई और बहन का
विवाह
प्रचलित है, अफ्रीका के
कुछ कबीले, उनका कहना
यह है कि भाई
और बहन ही पति
और पत्नी बन
सकते हैं।
क्योंकि
उनमें इतना
सामीप्य है, इतनी निकटता
है, उन
दोनों के पास
एक—सा स्वभाव
है। किसी भी
दूसरी स्त्री
से विवाह करना,
दो विपरीत
संस्कारों
में पले, दो
विपरीत
परिवारों में
पले
व्यक्तियों
को कठिनाई
होगी,. अड़चन
होगी, उपद्रव
होगा। और भाई
और बहन के बीच
एक स्वाभाविक
नैसर्गिक
प्रेम है, इसी
प्रेम को
रूपांतरित
किया जाए।
उनकी
बात में भी बल
मालूम पड़ता है।
जिन मुल्कों
में विरोध है, उनकी बात
में भी बल
मालूम पड़ता है।
क्योंकि वे
कहते हैं, अगर
भाई और बहन
में विवाह हो,
तो फिर भाई
और बहन के बीच
प्रारंभ से ही
कामुक
संबंधों को
रोकने का कोई
उपाय नहीं। तो
परिवार
प्राथमिक रूप
से ही कामुक
संबंधों में
उलझ जाएगा।
कामुक संबंध
अगर बचपन से
इस भांति खुले
छोड़ दिए जाएं,
तो जीवन
प्राथमिक
आधार से विलास
की ओर बढेगा और
प्रेम की एक
पवित्र धारणा
विकसित न हो
पाएगी। और
प्रेम का एक
पवित्र रूप भी
है, जहां
यौन का कोई
संबंध नहीं है।
अगर भाई—बहन
में वह विकसित
न हुआ, तो
फिर कहां
विकसित होगा?
उस पवित्र
प्रेम की लकीर
फिर सदा के
लिए खो जाएगी।
उनकी बात में
भी बल है।
कह मैं
यह रहा हूं कि
जिस समाज ने
भी जो धारणा मानी
है, उसके
कारण हैं, उसके
ऐतिहासिक
विकास में
आधार है; कुछ
वजह से मानी
है। उस धारणा
को ही मानकर
जो चलता है, वह अच्छा
आदमी तो हो
सकता है, बुरा
आदमी हो सकता
है। लेकिन
जिसको शुद्ध
अंतःकरण का
आदमी कहें, वह उन
धारणाओं को
मानकर कोई
नहीं हो सकता।
इसका
यह अर्थ नहीं
कि शुद्ध
अंतःकरण का
आदमी सारी धारणाओं
को तोड़ दे, समाज का
दुश्मन हो जाए।
यह अर्थ नहीं
कि समाज की
बगावत करे, उच्छृंखल हो
जाए। शुद्ध
अंतःकरण का
आदमी अपने
भीतर अंतःकरण
को धारणाओं से
मुक्त करने
में लग। और उस
बिंदु पर अपने
अंतःकरण को ले
आएगा, जहां
समाज की कोई
छाप नहीं है, जहां उसका
अंतःकरण
दर्पण की
भांति शुद्ध
है, जैसा
वह जन्म के
साथ लेकर पैदा
हुआ था, जब
समाज ने कुछ
भी लिखा नहीं
था, खाली, शून्य।
उस
अंतःकरण के
माध्यम से ही
दैवी संपदा को
खोजा जा सकता
है, दिव्यता
को खोजा जा
सकता है।
क्योंकि उस
अंतःकरण में
जो स्वर उठते
हैं, वे
दिव्यता के
स्वर हैं। जिस
अंतःकरण को हम
अंतःकरण
मानते हैं, उसमें जो
स्वर उठते हैं,
वे समाज के
स्वर हैं।
ज्ञान—योग में
निरंतर दृढ़
स्थिति.।
ज्ञान—योग
में निरंतर
दृढ़ स्थिति!
एक तो हमारा
जीवन है, जिसे हम
मूर्च्छा में
दृढ़ स्थिति कह
सकते हैं। जो
भी हम करते
हैं, सोए
हुए करते हैं।
हमें कुछ
पक्का पता
नहीं, हम
क्यों कर रहे
हैं; क्यों
हमने क्रोध
किया, क्यों
हमने प्रेम
किया, क्यों
हमने जीवन ऐसा
बिताया, जैसा
हमने बिताया,
कुछ साफ
नहीं है।
एक
अंधेरे में
शराब पीए हुए
जैसे कोई आदमी
चलता हो, और कहीं भी
पहुंच जाए; न रास्ते का
कुछ पता है, न दिशा का
कोई पता है; यह भी हो
सकता है कि
गोल घेरे में
चक्कर ही लगाता
रहे और सोचे
कि बड़ी यात्रा
हो रही है।
ऐसी हमारी दशा
है। मूर्च्छा
में हमारी दृढ़
स्थिति है।
ज्ञान—योग
में दृढ़
स्थिति का
अर्थ है, जागरूकता
में दृढ़
स्थिति, अवेयरनेस
में, होश
में। उठुं
बैठूं? चलूं
जो भी व्यवहार
हो, आचरण
हो, जो भी
परिणमन हो, वह मेरे
पूरे होश में
हो। मेरे ज्ञान
का दीया जलता
रहे। क्यों कर
रहा हूं? इसकी
मुझे पूरी
प्रतीति हो।
बिना गहरे
प्रत्यक्ष
होश के कुछ भी
मुझसे न निकले।
जिसको
कृष्णमूर्ति
अवेयरनेस कहते
हैं, महावीर
ने जिसको
सम्यक ज्ञान
कहा है, बुद्ध
ने जिसको
सम्यक स्मृति
कहा है, कबीर,
नानक, दादू
जिसको सुरति—योग
कहते हैं, ज्ञान—योग
में दृढ़
स्थिति का वही
अर्थ है।
मूर्च्छित न
हो व्यवहार; अचेतन
शक्तियां
मुझसे कुछ न
करवा लें; मेरा
कृत्य चेतन हो,
काशस हो।
किसी
आदमी ने आपको
धक्का दिया।
इधर धक्का
नहीं दिया कि
उधर से क्रोध
की लपट भभक
उठती है। यह
क्रोध का
भभकना वैसे ही
है, जैसे
किसी ने बटन
दबाई और बिजली
जली। बटन
दबाने के बाद
बिजली का बल्ब
सोचता नहीं कि
जलूं या न
जलूं। यह भी
नहीं सोचता कि
इस आदमी ने
जलाया, तो
मैं कोई परवश
तो नहीं हूं; चाहूं तो
जलूं? चाहूं
तो न जलूं! न, कोई उपाय
नहीं है।
यंत्रवत, यंत्र
ही है। तो
बिजली का बल्ब
जल जाता है।
जब कोई
आपको धक्का
देता है, तो क्रोध भी
आप में अगर
ऐसा ही पैदा
होता हो, जैसे
बटन दबाने से बल्ब
जलता है, तो
आप भी यंत्रवत
हो गए। तो जिस
आदमी ने आपको
धक्का दिया, उसने आपको
परिचालित कर
लिया, वह
आपका मालिक हो
गया, स्वामित्व
उसके हाथ में
चला गया, उसने
आप में क्रोध
पैदा करवा
लिया।
और
शायद आप कई
दफा कसमें खा
चुके हैं कि
अब क्रोध न
करूंगा, कई दफा
निर्णय लिया
है कि क्रोध
दुख देता है! शास्त्र
के शब्द स्मरण
हैं कि क्रोध
अग्नि है, जहर
है। वह सब है।
लेकिन किसी ने
धक्का दिया, तो वह सब
एकदम हट जाता
है। भीतर से
क्रोध उठ आता
है। यह क्रोध
भूच्छइrत
है।
बुद्ध
को कोई धक्का
दे, तो
क्रोध ऐसे ही
नहीं उठता, क्रोध उठता
ही नहीं।
बुद्ध धक्के
को देखते हैं
कि धक्का दिया
गया, और
अपने भीतर
देखते हैं कि
धक्के से क्या
हो रहा है, और
निर्णय करते
हैं कि मुझे
क्या करना है।
आपका धक्का
निर्णायक
नहीं है। आपके
धक्के के बाद
भी बुद्ध ही
निर्णायक हैं,
वे निर्णय
करते हैं कि
मुझे क्या
करना है।
आप जब
क्रोध करते
हैं, तो
निर्णय आपका
नहीं है।
दूसरा आपसे
निर्णय करवा
लेता है। एक
खुशामदी आ
जाता है और
आपकी प्रशंसा
करता है और
आपसे काम करवा
लेता है। आप
भी जानते हैं
कि यह खुशामदी
है और आप भी
जानते हैं कि
किसी की
स्तुति
में पड़ना ठीक
नहीं। लेकिन
बस, कोई
स्तुति करता
है, तो फिर
स्मरण नहीं
रहता; फिर
भीतर कुछ बल्ब
जल जाते हैं।
फिर भीतर कुछ
काम शुरू हो
जाता है, जो
दूसरे ने
चालित किया।
जो
व्यक्ति अपने
निर्णय से
प्रतिपल नहीं
जी रहा है, जिससे
दूसरे लोग
निर्णय करवा
रहे हैं, जिसे
दूसरे लोग
धक्के दे रहे
हैं, मैनिपुलेट
कर रहे हैं, जो दूसरों
से परिचालित
है, ऐसा
व्यक्ति
मूर्च्छा में
दृढ़ ठहरा हुआ
है।
होश
में ठहरे हुए
व्यक्ति का
लक्षण है कि
वह स्वयं चल
रहा है, स्वयं उठ
रहा है; और
जो भी कर रहा
है, वह
उसका अपना
निर्णय है, वह उसने
सचेतन रूप से
लिया है! कोई
अचेतन शक्तियों
ने उससे
निर्णय नहीं
करवाया है।
चौबीस
घंटे आपके
भीतर बड़ा
हिस्सा अचेतन
है, जिसको
फ्रायड ने बड़ी
कोशिश की
विश्लेषण
करने की।
फ्रायड के
हिसाब से, जैसे
हम बरफ के
टुकड़े को पानी
में डाल दें, तो नौ
हिस्सा पानी
में डूब जाता
है और एक हिस्सा
ऊपर होता है, ऐसा आपका एक
हिस्सा केवल
होशपूर्ण है,
नौ हिस्से
नीचे डूबे हुए
हैं पानी में
और उनका आपको
कुछ भी पता
नहीं है। और
वे नौ हिस्से
आपसे चौबीस
घंटे काम करवा
रहे हैं। वे
काम आपको करने
ही पड़ते हैं।
और आप निर्णय
भी ले लें कि
नहीं करूंगा,
तो भी कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
क्योंकि
निर्णय एक
हिस्सा लेता
है, उससे
नौ गुनी ताकत
के मन के विचार
भीतर दबे पड़े
हैं, वे
उसकी सुनते भी
नहीं।
आप तय
कर लेते हैं, सुनते
हैं
ब्रह्मचर्य
पर एक
व्याख्यान, पढ़ते हैं
कोई किताब, जंचती है
बात बुद्धि को,
वह जो एक
हिस्सा पानी
के ऊपर तैर
रहा है, आप
तय कर लेते
हैं। लेकिन वे
नौ हिस्से, जो पानी के
नीचे दबे हैं,
उनको आपकी
किताब का कोई
पता नहीं, ब्रह्मचर्य
का कोई पता
नहीं; उन्होंने
कोई यह बात
सुनी नहीं कभी,
वे अपनी
धारणा से चल
रहे हैं। वे
मिले हैं नौ
हिस्से आपको
जन्मों—जन्मों
की लंबी
यात्रा में।
अनंत
संस्कारों, पशुओं, पौधों,
वृक्षों से
गुजरकर उनको
आपने इकट्ठा
किया है। वे
अब भी वही हैं।
उनको कुछ पता
भी नहीं है।
वे अपने ही
ढंग से चलते
हैं; उनकी
ताकत नौ गुनी
ज्यादा है।
जब भी
कामना मन को
पकड़ेगी, तो वह जो एक
हिस्सा है, नपुंसक
सिद्ध होगा।
वे जो नौ गुने
ताकतवर हैं, वे
शक्तिशाली
सिद्ध होंगे
और वे आपको
मजबूर कर
लेंगे। और
उनकी मजबूरी
इतनी
शक्तिशाली है
कि वे आपके इस
एक हिस्से को
भी तर्क देंगे
और यह एक
हिस्सा भी
रेशनलाइज
करेगा। यह भी
कहेगा कि छोड़ो,
यह सब
ब्रह्मचर्य
वगैरह में कुछ
सार नहीं है।
और यह भी
कहेगा कि
ब्रह्मचर्य
साधना है, तो
जल्दी क्या है,
अभी जिंदगी
बहुत पड़ी है!
हजार
तर्क! वे नौ
हिस्से धक्के
देकर एक
हिस्से को
राजी करवा
लेंगे। जब वे
नौ हिस्से
अपना काम पूरा
करवा लेंगे, तब फिर एक
हिस्सा बातें
सोचने लगेगा
भली— भली। फिर
ब्रह्मचर्य
वापस लौटेगा।
लेकिन यह
हमेशा कमजोर
सिद्ध होगा नौ
के मुकाबले।
यह अड़चन है
प्रत्येक
मनुष्य की। जो
भी मनुष्य
थोड़ा जीवन को
बदलने की
कोशिश में लगा
है, उसकी
यह कठिनाई है
कि वह तय करता
है, लेकिन
पूरा नहीं हो
पाता।
कृष्ण
कहते हैं, दैवी
संपदा तभी
सक्रिय होगी,
जब कोई
व्यक्ति
ज्ञान—योग में
निरंतर दृढ़
स्थित हो।
होश
इतना सधा हुआ
हो...। जितना
ज्यादा होश सधता
है, उतना
ही पानी के
ऊपर बर्फ आना
शुरू हो जाता
है। जितना
ज्यादा आप होश
का प्रयोग
करते हैं, उतना
ज्यादा आपका
अचेतन कम होने
लगता है, चेतन
बढ़ने लगता है।
और एक ऐसी
स्थिति भी है
टोटल
अवेयरनेस की,
परिपूर्ण प्रज्ञा
की, जब
आपका पूरा का
पूरा मन
प्रकाशित
होता है, होश
से भरा होता
है।
उस
स्थिति में जो
भी निर्णय लिए
जाते हैं, उनका कोई
विरोध नहीं है।
उस स्थिति में
जो भी आप तय
करते हैं, वह
होगा ही, क्योंकि
उससे विपरीत
आपके भीतर कोई
स्वर नहीं है।
उस स्थिति में
जो भी जीवन है,
वह। कोई
पश्चात्ताप
नहीं है। उस
जीवन में सभी
कुछ आनंद है
और सभी कुछ
अद्वैत है।
सारी
साधना
प्रक्रियाएं
ज्ञान—योग में
दृढ़ स्थिति के
ही उपाय हैं।
सारे ध्यान, सारी
प्रार्थनाएं,
सारी
विधियां, कैसे
आप ज्यादा से
ज्यादा होश
में जीने लगें,
मूर्च्छा
टूटे, अमूर्च्छा
बढ़े.।
और दान
तथा
इंद्रियों का
दमन, यज्ञ,
स्वाध्याय
तथा तप एवं
शरीर और
इंद्रियों के
सहित अंतःकरण
की सरलता।
दान, देने का
भाव, बहुत
आधारभूत है।
आसुरी संपदा
है लेने का
भाव, छीनने
का भाव। जो
दूसरे के पास
है, वह
मेरा कैसे हो
जाए। सारा सब
मेरा कैसे हो
जाए पजेशन, सारी दुनिया
का मैं मालिक
कैसे हो जाऊं।
और दैवी संपदा
देने की भावना
है। जो भी
मेरे पास है, वह बंट जाए।
जो भी मैं हूं
उसे मैं
साझेदारी कर
लूं। जो मेरे
पास है, वह
दूसरा भी
उसमें रस ले
पाए वह दूसरे
का भी हो सके।
कृष्ण
यह नहीं कहते, क्या दान—कि
धन का दान, कि
संपत्ति का
दान, कि
भूमि का दान—यह
सवाल नहीं है।
सिर्फ दान!
भाव!
तो
महावीर अपने
ज्ञान को बाट
रहे हैं, कि बुद्ध
अपनी करुणा को
बांट रहे हैं,
कि जीसस
अपनी सेवा को।
यह सवाल नहीं
है कि क्या!
बहुत गहरे में
जो भी मैं हूं
वह मेरा न रहे,
वह सबका हो
जाए। जो भी
मैं हूं मैं
बिखर जाऊं और
सबमें चला जाऊं,
मेरा अपना
कुछ बचे न।
इसके
स्वाभाविक
बड़े गहरे
परिणाम होंगे।
जितना ही मैं
छीनने का
सोचता हूं
उतना ही मेरा
अहंकार बढ़ता
है। इसलिए
जितनी मेरे
पास संपदा
होगी, जितनी
मेरे पास
सुविधा—साधन
होंगे, उतना
अहंकार होगा।
जितना ही मैं
बटता हूं उतना
ही मैं पिघलता
हूं। जितनी ही
मैं साझेदारी
करता हूं
जितना ही मेरा
अस्तित्व
दूसरे के
अस्तित्व में
लीन होता है, उतना ही
मेरा अहंकार
शून्य होगा।
दैवी
संपदा के पास
अस्मिता नहीं
बचेगी, और आसुरी
संपदा के पास
सिर्फ
अस्मिता ही
बचेगी।
अहंकार शैतान
की आखिरी
उपलब्धि है।
निरअहंकारिता
परमात्म— भाव
है।
तो दान
का अर्थ है, देना, और
देने की
वृत्ति को
विकसित करना;
और उस घड़ी
की प्रतीक्षा
करना, जब
मेरे पास कुछ
भी न होगा
देने को। इसका
यह अर्थ नहीं
है कि आपके
पास कुछ भी न
होगा। सब कुछ
होगा; जितना
आप देंगे, उतना
बढ़ेगा। जितना
आप बाटेंगे, उतना ज्यादा
होगा। जितना
आप अपने को
शून्य करेंगे,
उलीचेंगे, उतना ही
पाएंगे कि
साम्राज्य
बड़ा होता जाता
है। देने का
अर्थ यह नहीं
है कि आपके
पास कुछ बचेगा
नहीं, लेकिन
देने का भाव
कि कुछ भी न
बचे।
दान, प्रेम का
सार है। छीनना,
घृणा का
आधार है। तो
अगर प्रेम में
भी आप दूसरे
से कुछ लेना
चाहते हैं, तो वह प्रेम
नहीं है। वहा
सिर्फ प्रेम
के नाम पर
शोषण है। जहां
मांग है, वहा
प्रेम की कोई
संभावना नहीं
है। प्रेम
निपट दान है, बेशर्त। वह
कुछ पाने की
आकाक्षा से
नहीं है, देना
ही आनंद है।
और जिसने लिया,
उसके प्रति
अनुग्रह है।
दान
तथा
इंद्रियों का
दमन।
दान और
इंद्रियों के
दमन को कृष्ण
ने एक साथ कहा।
यह भी थोड़ा
विचारणीय है।
क्योंकि
जितना ही आप
देंगे, उतनी ही
इंद्रियां
अपने आप
विसर्जित हो
जाती हैं।
जितना ही आप
लेंगे, इकट्ठा
करेंगे, उतनी
ही इंद्रियां
मजबूत होती
चली जाती हैं।
इंद्रियां
छीनना चाहती
हैं; और जो
देने को राजी
है, उसकी
इंद्रियां
धीरे—धीरे
शून्य हो जाती
हैं।
इंद्रियों का
दमन
इंद्रियों से
लड़कर नहीं उपलब्ध
होता है।
इंद्रियों का
दमन स्वयं की
निजता को पूरी
तरह बाट देने
से उपलब्ध
होता है। जो
अपने भीतर
अपने लिए
बचाता नहीं, उसकी
इंद्रियां
अपने आप शात
हो जाती हैं।
यह जो
इंद्रियों की
शांति है, जो दान से
या प्रेम से
फलित होती है,
इस शाति में
और इंद्रियों
को दबा लेने
में बड़ा फर्क
है, बुनियादी
विरोध है। कोई
व्यक्ति अगर
इंद्रियों को
जोर से दबा ले,
तो भीतर
अशांति पैदा
होगी, शाति
पैदा नहीं
होगी।
आप
किसी भी
इंद्रिय को
दबाकर देखें।
और आप पाएंगे
कि उस दबाने
से और अशांति
पैदा होती है, क्योंकि
इंद्रिय
निकलना चाहती
है, बाहर
आना चाहती है,
भोग में
जाना चाहती है।
इंद्रिय आपको
कहीं ले जाना
चाहती है।
जो
दबाएगा, वह तो और
अशात हो जाएगा।
लेकिन अगर कोई
अपने को
बांटने को
राजी है, तो
उसकी
इंद्रियां
अपने आप शात
होती चली जाएंगी।
इस
फर्क को आप
ऐसा समझें। आप
उपवास करें एक
दिन। तो क्या
करेंगे? उपवास
करेंगे, तो
दबाएंगे भूख
को। भूख रोज
लगी है, आज
भी लगेगी; उसे
दबाएंगे। दबाएंगे
तो भूख और
फैलेगी रोएं—रोएं
में भीतर। और
चौबीस घंटे
सिर्फ भोजन का
स्मरण आपका
स्मरण होगा।
लेकिन
घर में एक
मेहमान आया है।
और घर में
इतना ही भोजन
है कि या तो आप
कर लें या मेहमान
को करा दें।
और आप प्रसन्न
हैं कि मेहमान
घर में आया, और आप
आनंदित हैं।
तो आपने
मेहमान को
भोजन कराया।
यह उपवास बड़े
और ढंग का
होगा। इस
उपवास में एक
खुशी होगी, एक
प्रफुल्लता
होगी। भूख अब
भी लगी है, लेकिन
आपने भूख को
दबाया नहीं, आपने भोजन
को बांटा, आपने
दान किया।
इसलिए
मां, अगर
बेटा भूखा हो,
तो उसे खिला
देगी, खुद
भूखी सो जाएगी।
इस उपवास का
मजा और है। इस
उपवास में जो
आनंद है, वह
किसी साधारण
साधु के, संन्यासी
के उपवास में
नहीं हो सकता।
क्योंकि वह
केवल भूख को
दबा रहा है।
इसने भूख को
दबाया नहीं है,
भोजन को
बांटा है। यहा
बुनियादी
फर्क है। यहां
किसी और की
भूख को पूरा
किया है। और
उसकी भूख को
पूरा किया है,
जिसके
प्रति प्रेम
है।
दान, अगर जीवन
के सब पहलुओं
में समा जाए, तो सभी
इंद्रियां
अपने आप शात
हो जाती हैं।
और दान से ही
दमन आए, तो
दमन में एक
उत्सव है।
बिना दान के
दमन आए—लोभ से
भी दमन आता है—तब
एक तरह की
विकृति और
कुरूपता है।
यह
फर्क बारीक है, नाजुक है।
और इसको आप
प्रयोग
करेंगे, तो
ही खयाल में आ
सकता है। अपने
को वंचित करना
किसी को देने
के लिए, तब
उस वंचित करने
में एक सुख है।
और सिर्फ अपने
को वंचित.
करना बिना
किसी को देने
के खयाल से, उसमें कोई
रस नहीं है, कोई सुख
नहीं है।
उसमें पीड़ा
होगी।
तो आप
भूखे रह सकते
हैं, और
जो पैसा बचे, वह बैंक में
जमा कर सकते
हैं। उस भूख
में सिर्फ भूख
ही होगी।
भूखे
रहना
प्राथमिक न हो, किसी का
पेट भरना
प्राथमिक हो।
और अगर उसके
पीछे भूखे
रहना पड़े, तो
भूखे रहने की
स्वीकृति हो।
दान से
सारी
इंद्रियां
रूपांतरित हो
सकती हैं। आप
नग्न खड़े हो
जाएं सड़क पर, यह एक बात
है। यह नग्नता
अधूरी है, और
इस नग्नता में
अहंकार है।
लेकिन कोई
नग्न खड़ा हो
और अपने
वस्त्र उसको ओढ़ा
दें, उस
नग्नता का रस
और है। उस
नग्नता में न
अहंकार है, न तप का कोई
भाव है। उस
नग्नता की
पवित्रता और
पूर्णता और है।
उसका गुणधर्म
और है।
लेकिन
अक्सर यह हुआ
कि जो भी धर्म
दान के माध्यम
से जीवन को
रूपांतरित
करने को पैदा
हुए, दान
तो भूल गया, वह जो दान का
आधा हिस्सा था,
वह भीतर रह
गया। उस आधे
हिस्से का कोई
अर्थ नहीं है।
आप खूब
उपवास कर सकते
हैं, लेकिन
आपका उपवास
किसी के पेट
भरने का
हिस्सा होना
चाहिए। आप
बिलकुल
दरिद्र हो सकते
हैं, उसका
कोई मूल्य
नहीं है। आपकी
दरिद्रता
किसी को
समृद्ध करने
का हिस्सा
होना चाहिए, तब बात पूरी
होती है। और
तब जीवन में
इंद्रियों का
उत्पात जिस
भांति शांत
होता है, उस
भांति कोई भी
दमन करके कभी
उन्हें शात
नहीं कर पाया।
यज्ञ, स्वाध्याय,
तप, शरीर
और इंद्रियों
के सहित
अंतःकरण की
सरलता।
यज्ञ
एक वैज्ञानिक
प्रक्रिया का
नाम है। उसके
बाह्य रूप से
तो हम परिचित
हैं। लेकिन
बाह्य रूप तो
सिर्फ प्रतीक
है। बाहर के
प्रतीक से कुछ
भीतर की बात
कहने की कोशिश
की गई है।
यज्ञ एक तकनीक
है, एक
विधि है, कि
भीतर कैसे
अग्नि प्रज्वलित
हो, और उस
अग्नि में मैं
कैसे
भस्मीभूत हो
जाऊं।
सारा
जीवन अग्नि का
खेल है। आप भी
अग्नि के एक
रूप हैं। भोजन
पच रहा है, खून बन
रहा है, खून
दौड़ रहा है, हृदय गति
करता है, श्वास
चलती है, सब
अग्नि का खेल
है। शरीर से
अग्नि
खो जाए, सब खो
जाता है। आप
ठंडे हुए, कि
मौत आ गई। मौत
सदा ठंडी है।
जीवन सदा गर्म
है। जीवन एक
उष्णता है।
हिंदुओं ने इस
उष्णता के बड़े
गहरे प्रयोग
किए हैं। उन
गहरे
प्रयोगों का
नाम यज्ञ है।
यह जो
जीवन की
उष्णता है, जिससे
साधारण काम चल
रहा है, भोजन
पच रहा है। आप
सोच भी नहीं
सकते, वैज्ञानिक
भी अभी तक राज
को पूरा खोल
नहीं पाए। इस
छोटे—से शरीर
में बड़ा विराट
कार्य चल रहा
है। भोजन आप
करते हैं, पचता
है, खून
बनता है, मांस—मज्जा
बनती है।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर एक आदमी
के शरीर के
भीतर जितना
काम होता है—एक
रोटी को हम
डालते हैं, खून और
मांस—मज्जा बन
जाती है। अभी
तक रोटी को
मशीन में
डालकर खून, मांस—मज्जा
बनाने की कोई
हम व्यवस्था
नहीं खोज पाए हैं।
वैज्ञानिक
सोचते हैं कि
कभी यह संभव
होगा—पक्का
नहीं कहा जा
सकता कब, लेकिन
कभी संभव होगा—तो
एक आदमी का
शरीर जितना
काम करता है, इतना काम करने
के लिए कम से
कम चार वर्ग
मील की
यांत्रिक
व्यवस्था
करनी पड़ेगी।
इतनी बड़ी
फैक्टरी चार
वर्ग मील के
क्षेत्र पर
फैले, तब
हम आदमी के
शरीर के भीतर
जो काम चल रहा
है पूरा, इतना
काम उसमें कर
पाएंगे। बड़ा
अदभुत काम चल
रहा है, और
बड़े चुपचाप चल
रहा है।
लेकिन
सबके भीतर—जैसा
हिंदुओं की
धारणा, योग की
धारणा है—सबके
भीतर एक अग्नि
प्रज्वलित है,
अग्नि सारा
काम कर रही है।
प्रदीप्त
अग्नि है भीतर।
श्वास हम लेते
हैं, वह भी
अग्नि ही है।
दीया जलता है,
वह भी अग्नि
ही है।
वैज्ञानिक
उसको
आक्सीडाइजेशन
कहते हैं।
एक
दीया जल रहा
हो, और
जोर से हवा का
झोंका आए, आप
डर जाएंगे कि
कहीं बुझ न
जाए; बर्तन
से ढंक दें, कांच के
बर्तन से ढंक
दें। थोड़ी देर,
क्षणभर तो
जलता रहेगा, फिर बुझ
जाएगा। तूफान
शायद न बुझा
पाता, लेकिन
ढंके हुए
बर्तन में बुझ
जाएगा, क्योंकि
प्रतिपल जलने
के लिए
आक्सीजन
चाहिए। वह जितनी
आक्सीजन भीतर
है, उतनी
देर जल जाएगा,
फिर बुझ
जाएगा।
चौबीस
घंटे हम श्वास
ले रहे हैं, उससे
आक्सीजन भीतर
जा रही है, वह
अग्नि है, सूक्ष्म
अग्नि है।
श्वास बंद हुई
कि आदमी मरा।
श्वास ठीक से
न ली, तो
जीवन क्षीण हो
जाता है।
तो योग
की
प्रक्रियाओं
के द्वारा
भीतर की इस
अग्नि को धूं—
धूं करके
प्रज्वलित
करने की
प्रक्रियाएं
हैं। उनका नाम
यज्ञ है। और जब
यह धूं— धूं
करके भीतर की
अग्नि पूरी
जलती है, तो इससे
सिर्फ भोजन ही
नहीं पचता, शरीर ही
नहीं चलता, जीवन के
साधारण
दैनंदिन
कार्य ही नहीं
होते, धू—
फर जब अग्नि
जलती है, तो
उसमें हमारा
अहंकार जल
जाता है। और
उस अग्नि से
गुजरकर ही
हमें पहली दफा
पूरी दिव्यता
का अनुभव होता
है। और अहंकार
के जलते ही
कचरा जल जाता
है, स्वर्ण
निखरकर बाहर
आता है।
स्वाध्याय का
अर्थ है, अपना
सदा अध्ययन
करते रहना।
स्वाध्याय का
अर्थ गीता
पढ़ना नहीं है,
वह गौण अर्थ
है। वेद पढ़ना
नहीं है, वह
गौण अर्थ है।
स्वाध्याय का
अर्थ है, स्वयं
का निरंतर
अध्ययन, स्वयं
को निरंतर
देखते रहना।
एक—एक छोटी—छोटी
गतिविधि को
पहचानते रहना,
परखते रहना,
विश्लेषण
करते रहना।
क्या मैं कर
रहा हूं र
क्यों कर रहा
हूं क्या छिपे
कारण है—उन
सबकी पूरी
जांच—परख करते
रहना। स्वयं
को एक अध्ययन
की जीवंत
प्रक्रिया
बना लेना।
स्वप्न भी
भीतर पैदा हो,
तो उसका भी
अध्ययन करना
कि वह क्यों
घटा!
कोई
स्वप्न ऐसे ही
नहीं घटता। आप
रात स्वप्न
देखते हैं, किसी की
हत्या कर देते
हैं। ऐसे ही
हत्या नहीं
होती। स्वप्न
में भी ऐसे ही
नहीं होती।
कहीं कुछ छिपा
राज है, कुछ
होना चाहता है,
स्वप्न में
उसको
अभिव्यक्ति
मिली है।
स्वप्न से
लेकर कृत्यों
तक सभी कुछ
अध्ययन करते
रहना। स्वयं
को एक शास्त्र
बना लेना और
उससे सीखना कि
क्या हो रहा
है। लिए गए
परिणाम और
नतीजों पर आगे
उपयोग करने का
नाम तप है।
स्वाध्याय
तथा तप.......।
जो
स्वयं के
अध्ययन से
निष्कर्ष हों, उन
निष्कर्षों
के अनुसार
चलने का नाम
तप है। तप का
मतलब इतना
नहीं है कि
अपने को अकारण
सताना, परेशान
करना, कि
अपने को दुख
देना। तप का
अर्थ है, जो
मेरे अध्ययन
से नतीजे
निकले हैं, उन नतीजों
के अनुसार
जीवन को चलाना।
कठिन
होगा, और
दुख झेलना
पड़ेगा, संकल्प
का उपयोग करना
पड़ेगा।
क्योंकि
पुरानी आदतें
हैं, वे
सुगम हैं।
चाहे उनसे दुख
मिलता हो अंत
में, लेकिन
वे सुगम हैं।
उन्हें बदलना
दुर्गम होगा,
दुख उठाना
पड़ेगा। लेकिन
एक बार वे बदल
जाएं, तो
आनंद की मंजिल
उनसे उपलब्ध
होती है।
सम्यकरूप से
स्वयं के
निरीक्षण से
जो नतीजे हाथ
आए हों, उन
नतीजों को
लिखकर रख देना
नहीं, वरन
उनके अनुसार
जीवन को चलाना
तपश्चर्या है।
और
शरीर और
इंद्रियों के
सहित अंतःकरण
की सरलता।
और
जीवन के सब
पहलुओं पर
जटिलता की
बजाय सरलता को
जगह देना। जो
भी जटिल हो, उससे
बचने की कोशिश
करना। जो भी
सरल हो, उसको
स्थापित करना।
आमतौर
से हम उलटा
करते हैं। जो
भी जटिल हो, वह हमें
आकर्षित करता
है। अगर एक
पहेली सामने
रखी हो, जो
बहुत उलझन
वाली हो, तो
हम पच्चीस काम
छोड्कर उसको
हल करने में
लग जाते हैं।
जटिल हमें
आकर्षित करता
है। जटिल
क्यों
आकर्षित करता
है?
एवरेस्ट
है वहा, तो आदमी का
मन चढ़ने का
होता है।
एडमंड हिलेरी
से किसी ने
पूछा कि तुम
एवरेस्ट पर
चढ़ने के लिए
इतने पागलपन
से क्यों भरे
रहे? तो
उसने कहा, चूंकि
एवरेस्ट है, इसलिए चढ़ना
ही पड़ेगा; चुनौती
है।
तो
जितनी जटिल हो
चीज.......। अब चांद
पर जाने की
कोई जरूरत
नहीं है, पर जाना
पड़ेगा। मंगल
पर भी जाने की
कोई जरूरत
नहीं है, लेकिन
जाना पड़ेगा, क्योंकि
मंगल है और
हमारा मन
बेचैन है।
हालाकि आप
चांद पैर
पहुंच जाएं कि
मंगल पर, आप
ही रहेंगे! जो
उपद्रव आप
यहां कर रहे
हैं, वहा
करेंगे! मंगल
आप में कोई
फर्क ला नहीं
सकता। और यहा
दुखी हैं, तो
वहा दुखी
होंगे!
पहुंचकर कुछ
भी होगा नहीं।
लेकिन
जटिल आकर्षित
करता है, क्योंकि
जटिल में
चुनौती है।
चुनौती से
अहंकार भरता
है। तो जितना
कठिन काम हो, उतना करने
जैसा लगता है।
जितना सरल काम
हो, उतना
करने जैसा
नहीं लगता, क्योंकि
सरलता से कोई
अहंकार को
भरती नहीं मिलती।
कृष्ण कहते
हैं, शरीर,
इंद्रियों
और अंतःकरण की
सभी आयामों
में सरलता।
जो सरल
हो, उसको
चुनें। और
धीरे— धीरे आप
पाएंगे, आपका
अहंकार जाने
लगा। जो कठिन
है, उसको
चुनें। और आप
पाएंगे, आपका
अहंकार बढ़ने
लगा।
आदमी
खुद भी अपने
लिए
कठिनाइयां
पैदा करता है।
क्योंकि
कठिनाइयां
पैदा करके जब
उनको वह पार कर
लेता है, तो वह
दुनिया को कह
सकता है, देखो,
इतनी
कठिनाइयों को
मैंने पार
किया! सरलता
को आप किसको
बताने जाइएगा
कि पार किया!
उसमें पार करने
जैसा कुछ था
ही नहीं।
अगर आप
जीवन में
सरलता को नियम
बना लें और जब
भी कोई विकल्प
सामने हो, तो सरल को
चुनें.......। बहुत
कठिन है यह, सरल को
चुनना, क्योंकि
अहंकार को
इसमें कोई रस
नहीं आता।
सिर के
बल खड़े हो
जाएं रास्ते
पर, पचास
लोग भीड़ लगाकर
खड़े हो जाते
हैं। आप दोनों
पैर के बल खड़े
हों, फिर
कोई भीड़ लगाकर
खड़ा नहीं होता।
सिर के बल खड़े
होते से ही
भीड़ लग जाती
है, क्योंकि
आप कुछ कर रहे
हैं, जो
कठिन है।
हालांकि सिर
के बल खड़े
होने से कुछ
मिलता नहीं, लेकिन भीड़
इकट्ठी होती
है। और भीड़
इकट्ठी हो, तो हमें रस
आता है।
काफ्का, एक बहुत
प्रसिद्ध
कथाकार, उसने
एक छोटी—सी
कहानी लिखी है।
एक आदमी उपवास
करता था, उपवास
का प्रदर्शन
करता था। वह
चालीस दिन तक
उपवास कर लेता
था। लोग बड़े
प्रभावित
होते थे। गांव—गांव
वह जाता था और
चालीस दिन के
उपवास करता था।
फिर एक सरकस
गांव में थी जहां
वह उपवास कर
रहा था, तो
सरकस वाले
लोगों को जंच
गई बात, उन्होंने
उसको सरकस में
ले लिया। सरकस
में भी उसको
देखने बड़ी भीड़
इकट्ठी होती थी।
लेकिन यह धीरे—
धीरे.....।
अगर आप
रोज ही सिर के
बल खड़े रहें, तो फिर
भीड़ इकट्ठी
नहीं होगी।
फिर लोग कहते
हैं, वह
खड़ा ही रहता
है, ठीक है।
वह जो आदमी
उपवास करता था,
वह करता ही
था। तो पहले
तो लोगों को
कठिन लगा, चालीस
दिन! इधर करता,
तो कोई कठिन
भी नहीं लगता
हमको। हमारे
मुल्क में कई
लोग कर ही रहे
हैं। जर्मनी
में कर रहा था,
तो बहुत
कठिन बात थी; चालीस दिन
बहुत बड़ी बात
है। पर धीरे—
धीरे लोगों को
लगा, यह
करता ही है, अभ्यासी है।
लोगों ने उसकी
झोपड़ी का टिकट
लेना बंद कर
दिया। फिर
सरकस के लोगों
को लगा, अब
कोई ज्यादा
उसकी टिकट भी
नहीं खरीदता,
तो फिजूल
उसको क्यों
ढोना! तो
उन्होंने
उससे कहा कि
अब तुम जाओ।
पर उसने कहा
कि अब मैं जा
नहीं सकता, क्योंकि मैं
बिना उपवास किए
रह नहीं सकता।
मुझे रहने दो।
तो उन्होंने
सबसे पीछे जहां
जंगली
जानवरों के
कुछ कटघरे थे,
वहा उसका भी
एक कटघरा बना
दिया।
लोग
आते थे फिर भी, कोई शेर
को देखने आता,
कोई हाथी को
देखने आता, तो उसके
कटघरे से
निकलते थे। वह
इससे भी रस
लेता था। वह
अपने मन में
यह सोचता था
कि चलो, मुझे
देखने आते हैं।
हालाकि उसको
लगता था कि अब
यहां मुझे
देखने कोई आता
नहीं।
जब
चालीस दिन का
कोई परिणाम न
रहा, तो
उसने घोषणा की
कि अब मैं सदा
के लिए उपवास
कर रहा हूं।
कोई अस्सी दिन
वह टिक गया।
जब अस्सी दिन
की खबर पहुंची,
तो लोग आने
शुरू हुए।
नब्बे दिन के
करीब पहुंच
गया, तो एक
पत्रकार ने
उसके कान के
पास जाकर पूछा,
क्योंकि
उसकी आवाज अब
बिलकुल क्षीण
हो गई थी, कि
तू यह किसलिए
कर रहा है? तो
उसने बिलकुल
क्षीण आवाज
में कहा कि
मैं सब रिकार्ड
तोड़ देना
चाहता हूं; मर जाऊं भला,
मगर
रिकार्ड तोड़
देना है।
मुझसे ज्यादा
बड़ा उपवास
करने वाला
दुनिया में
कभी भी नहीं
हुआ!
जटिल
में एक रस है, रिकार्ड
तोड्ने का रस।
सरल में कोई
रिकार्ड ही
नहीं है, सभी
लोग उसको करते
ही रहे हैं।
कृष्ण
कहते हैं, दिव्यता
की तरफ जिसे
जाना है, उसे
सरलता का
चुनाव जीवन के
सब पहलुओं पर.......।
जब भी
चुनाव हो, तो सरल का,
सरलतम का।
और आप धीरे—
धीरे पाएंगे,
अहंकार बचा
ही नहीं जिसको
मिटाना है। और
अहंकार खो जाए,
तो आसुरी
संपदा की जड़
कट गई। निरअहंकारिता
आ जाए, तो
दैवी संपदा का
द्वार खुल गया।
आज
इतना ही।
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