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गुरुवार, 20 मार्च 2014

पंतजलि: योगसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--15

गुरूओं का गुरु—प्रवचन—पंद्रहवां

दिनांक 5 जनवरी, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योगसूत्र:

            पूवेंषामपिगुरु कालेनानवच्छेदात्।। 26।।

समय की सीमाओं के बाहर होने के कारण वह गुरुओं का गुरु है।

            तस्य वाचक: प्रणव:.।। 27।।

उसे ओम् के रूप में जाना जाता है।

            तजपस्तदर्थभावनमू।। 28।।

ओम को दोहराओ और इस पर ध्यान करो।


 ततः प्रत्यक्येतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्र।। 29।।

ओम् को दोहराना और उस पर ध्यान करना सारी बाधाओं का विलीनीकरण और एक नवचेतना का जागरण लाता है।

तंजलि परमात्मा की घटना के बारे में कह रहे है। परमात्मा स्रष्टा नहीं है। पतंजलि के लिए परमात्‍मा है अ? वैयक्तिक चेतना का परम रूप से खिलना। हर कोई और हर चीज परमात्मा होने के मार्ग पर है। न केवल तुम्हीं, बल्कि पत्थर, चट्टानें, अस्तित्व की प्रत्येक इकाई परमात्मा होने के मार्ग पर है। कई हो ही चुके है; कई हो रहे हैं; कई होंगे।
परमात्मा स्रष्टा नहीं है, बल्कि परमोत्कर्ष है, अस्तित्व का परम शिखर। वह आरम्भ में नहीं है, वह अन्त में है। और निस्संदेह एक अर्थ में वह आरम्भ में भी है, क्योंकि अन्त में केवल वही खिल सकता है जो वहां एकदम आरम्भ से ही बीज रूप में सदा रहा है। परमात्मा है एक अंतस संभावना, एक प्रच्छन्न सम्भावना। इस बात को ध्यान में रख लेना है। अत: पतंजलि के लिए एक ईश्वर नहीं है; अनन्त ईश्वर हैं। सारा अस्तित्व भरा हुआ है ईश्वरों
पतंजलि की ईश्वर की अवधारणा को तुम एक बार समझ लेते हो, तो ईश्वर वस्तुत: पूजा करने के लिए ही नहीं होता। तुम्हें वही होना होता है; वही होती है एकमात्र पूजा। यदि तुम ईश्वर की पूजा किये चले जाते हो, तो यह बात मदद न देगी। वस्तुत: यह नासमझी होती है। पूजा, वास्तविक पूजा तो तुम्हारे स्वयं के ईश्वर हो जाने से होती है। सारा प्रयास होना चाहिए तुम्हारी क्षमता को उस बिंदु तक ले आने का जहां यह वास्तविकता में विस्फोटित होती है, जहां बीज प्रक्तटित होता है और जो अनन्त काल से वहां छिपा हुआ था, वह प्रकट हो जाता है। तुम अव्यक्त परमात्‍मा हो। और अव्यक्त को व्यक्त के स्तर तक ले आने का प्रयास होता है—इसे अभिव्यक्ति के तल तक ले आने का।

 समय की सीमाओं के बाहर होने के कारण वह गुरुओं का गुरु है।

 पतंजलि अपनी परमात्‍मा की अवधारणा के विषय में कह रहे है। जब कोई पूरी तरह खिल जाता है, जब किसी का अस्तित्व खिला हुआ कमल बन जाता है, तब उसे बहुत चीजें घटती हैं और उसके द्वारा बहुत चीजें अस्तित्व में घटनी शुरू हो जाती हैं। वह व्यक्ति एक विशाल शक्ति बन जाता है, अपरिसीम शक्ति; और उसके द्वारा बहुत ढंग से, अपने सच्चे रूप से ईश्वर होने में दूसरे मदद पाते हैं।
'समय की सीमाओं के बाहर होने के कारण वह गुरुओं का गुरु है।

तीन प्रकार के गुरु होते हैं। एक जो है वह गुरु नहीं होता; बल्कि वह शिक्षक होता है। शिक्षक वह है जो शिक्षा देता है, जो चीजों को जानने में लोगों की मदद करता है, स्वयं उन्हें समझे बिना। कई बार शिक्षक हजारों लोगों को आकर्षित कर सकते हैं। केवल एक बात की आवश्यकता होती है कि उन्हें अच्छा शिक्षक होना चाहिए। हो सकता है उन्होंने स्वयं न जाना हो, लेकिन वे बतला सकते है, वे तर्क दे सकते हैं, वे उपदेश दे सकते है, और बहुत लोग उनके वचनों द्वारा, उनके धमोंपदेशों द्वारा, उनके प्रवचनों द्वारा आकर्षित हो जाते हैं। निरंतर परमात्‍मा की बातें करते हुए शायद वे स्वयं को मूर्ख बना रहे है। हो सकता है धीरे-धीरे वे अनुभव करने लगते हों कि वे जानते हैं।
जब तुम किसी चीज की बात करते हो, तो सबसे बड़ा खतरा होता है कि शायद तुम यकीन ही करने लगो कि तुम जानते हो। शिक्षा देने का आकर्षण है क्योंकि यह बात बहुत अहंकार को भरती है। जब कोई बहुत एकाग्रता से तुम्हें सुनता है, कहीं बहुत गहरे में वह तुम्हारे अहंकार की परिशुइrत करता है क्योंकि तुम अनुभव करते हो कि तुम जानते हो और वह नहीं जानता है। तुम ज्ञानी हो और वह अज्ञानी है।
ऐसा हुआ कि एक पादरी को, बड़े पादरी को पागलखाने में बुलाया गया वहां रहने वालों से कुछ शब्द कहने को। पादरी ज्यादा अपेक्षा न करता था, बल्कि वह तो हैरान हो गया। एक पागल आदमी इतनी एकाग्रता से उसे सुन रहा था, और उसने किसी व्यक्ति को न देखा था उसे इतनी एकाग्रता से सुनते हुए। वह बिलकुल आगे झुका हुआ था। वह हर शब्द को हृदय में बैठा रहा था। आदमी पलक तक न झपका रहा था। वह इतना एकाग्र था कि वह जैसे सम्मोहनावस्था में हो।
जब पादरी ने अपना प्रवचन समाप्त किया, उसने देखा कि वह आदमी सुपरिटेंडेंट के पास गया है और उससे कुछ कहा है उसने। पादरी को जिज्ञासा हुई। जैसे ही सम्भव हुआ, उसने सुपरिटेंडेंट से पूछा, 'वह आदमी आप से क्या कह रहा था! क्या वह मेरे प्रवचन के बारे में कुछ कह रहा था? ' ुपरिटेंडेंट बोला, 'हां।पादरी ने पूछा, 'क्या आप मुझे बता सकेंगे जो उसने कहा?' सुपरिटेंडेंट थोड़ा-सा हिचकिचाया, लेकिन फिर वह बोला, 'ही, उस आदमी ने कहा था, जरा देखो तो, मैं यहां भीतर हूं और वे बाहर हैं।
शिक्षक ठीक उसी स्थान पर है, उसी नाव में सवार है, जिस पर तुम हो। वह भी पागलखाने का अंतेवासी है। उसके पास तुमसे कुछ ज्यादा नहीं है-बस थोड़ी-सी ही ज्यादा जानकारी है। जानकारी का कोई अर्थ नहीं है। तुम भी इसे इकट्ठा कर सकते हो। साधारणतया, औसत बुद्धिमानी की आवश्यकता होती है जानकारी एकत्रित करने के लिए, बहुत विशिष्ट होने की जरूरत नहीं है, बहुत प्रतिभाशाली होने की जरूरत नहीं है। मात्र औसत बुद्धिमानी काफी है। तुम सूचनाएं एकत्रित कर सकते हो। तुम किये चले जा सकते हो एकत्रित; तुम बन सकते हो शिक्षक।
शिक्षक वह है जो बिना जाने जानता है। यदि वह अच्छा वक्ता है, अच्छा लेखक है, यदि उसके पास व्यक्तित्व है, यदि उसके पास उसका निश्रित जादू भरा आकर्षण है, चुम्बकीय आंखें है, ओजस्वी शरीर है, तो वह लोगों को आकर्षित कर सकता है। और धीरे- धीरे वह अधिकाधिक कुशल बन जाता है। लेकिन उसके आस-पास के लोग शिष्य नहीं हो सकते। वे विद्यार्थी रहेंगे। चाहे वह दावा करता भी रहे कि वह गुरु है, वह तुम्हें शिष्य नहीं बना सकता। अधिक से अधिक वह तुम्हें एक विद्यार्थी बना सकता है। विद्यार्थी वह है जो और ज्यादा जानकारी की तलाश में है, और शिक्षक वह है जो ज्यादा जानकारी इकट्ठी कर चुका है। यह पहली प्रकार का गुरु होता है, जो बिलकुल गुरु नहीं होता।
फिर होता है एक दूसरी प्रकार का गुरु-वह जिसने स्वयं को जान लिया है। जो कुछ वह कहता है, वह हेराक्लतु की भांति कह सकता है- 'मैंने खोज लिया।या बुद्ध की भांति कह सकता है वह 'मैंने पा लिया।हेराक्लतु ज्यादा विनम्र हैं। वे उन लोगों से बोल रहे थे जो नहीं समझ सकते थे यदि वे बुद्ध की भांति बोले होते, कि मैंने पा लिया। बुद्ध कहते हैं अब तक जितने बुद्धपुरुष हुए हैं उनमें मैं सबसे अधिक संपूर्ण बुद्धपुरुष हूं। यह अहंकारपूर्ण मालूम पड़ता है, तो भी है नहीं। वे अपने शिष्यों से बोल रहे थे, जो समझ सकते थे कि कोई अहंकार बिलकुल नहीं है। हेराक्लतु उन लोगों से बोल रहे थे जो शिष्य नहीं थे, मात्र साधारण मनुष्य थे। वे नहीं समझते होंगे। विनम्रतापूर्वक वे कहते, 'मैंने खोजा है', और यह शेष भाग- 'मैंने पा लिया है', वे छोड़ देते हैं तुम्हारी कल्पनाशक्ति पर। बुद्ध कभी नहीं कहते, 'मैंने खोजा है।वे कहते हैं, 'मैंने पा लिया। और ऐसी सम्बोधि पहले कभी नहीं घटी। यह पूर्णरूपेण चरम है।
जिसने पा लिया है वह गुरु है। वह शिष्यों को ग्रहण करेगा। विद्यार्थी रोक दिये जाते हैं; विद्यार्थी अपने आप वहां नहीं जा सकते। यदि वे बेमतलब आ जायें और किसी तरह पहुंच भी जायें तो जितनी जल्दी सम्भव हो वे चल देंगे क्योंकि वह अधिक ज्ञान एकत्रित करने में तुम्हारी मदद न कर रहा होगा। वह तुम्हें रूपांतरित करने की कोशिश करेगा। वह तुम्हें देगा तुम्हारी अंतस सत्ता, बीइंग, न कि ज्ञान। वह तुम्हें देगा अधिक अस्तित्व, न कि अधिक ज्ञान। वह तुम्हें केन्द्र में अवस्थित करेगा। और केन्द्र है कहीं नाभि के निकट, सिर में नहीं है।
जो कुछ सिर में रहता है वह एकसेंट्रिक होता है, विकेंद्रित होता है। यह शब्द सुन्दर है: अंग्रेजी के शब्द एकसेंट्रिक का अर्थ है, केन्द्र से दूर। वस्तुत: जो कोई मस्तिष्क में रहता है पागल होता है। मस्तिष्क बाहर की चीज है। तुम रह सकते हो तुम्हारे पैरों में या तुम रह सकते हो तुम्हारे सिर में। केन्द्र से बनी दूरी वही होती है। केन्द्र है कहीं नाभि के निकट।
एक शिक्षक मस्तिष्क में बद्धमूल होने में तुम्हारी मदद करता है; गुरु तुम्हारे सिर से तुम्हें उखाड़ देगा और तुम्हें पुनरापित करेगा। यह यथार्थत: पुनरोंपण ही है। इसमें बहुत अधिक पीड़ा होती है। यह होनी ही है। पीड़ा है, व्यथा है, क्योंकि जब तुम पुनरोंपण करते हो, तो पौधे को जमीन से उखाड़ना ही होता है। हमेशा ऐसा ही होता रहा है। और तब फिर से इसे नयी मिट्टी में रोपना होता है। इसमें समय लगेगा। पुराने पत्ते गिर जायेंगे। सारा पौधा एक पीड़ा में से, अनिश्रितता में से गुजरेगा, न जानते हुए कि वह बचने वाला है या नहीं। यह पुनर्जन्म होता है। शिक्षक के साथ कोई पुनर्जन्म नहीं; गुरु के साथ पुनर्जन्म होता है।
सुकरात ठीक है। वह कहता है, 'मैं हूं मिडवाइफ, एक दाई।हां, गुरु दाई होता है। पुनजार्वित होने में वह तुम्हें मदद देता है। पर इसका अर्थ होता है तुम्हें मरना होगा-केवल तभी तुम पुनजग़ॅवत हो सकते हो। अत: गुरु केवल दाई ही नहीं होता; सुकरात केवल आधी बात कहता है। गुरु मार डालने वाला भी होता है-एक वधिक और एक दाई का जोड़। पहले वह तुम्हें मारेगा-तुम जिस रूप में हो, और केवल तभी नया बाहर आ सकता है तुममें से। तुम्हारी मृत्यु में से होता है पुनर्जन्म।
एक शिक्षक तुम्हें कभी नहीं बदलता। जो कुछ तुम होते हो, जो कोई तुम होते हो, वह सिर्फ तुम्हें और अधिक सूचनाएं दे देता है। वह तुममें कुछ जोड़ देता है; वह उसी सातत्य को बनाये रखता है। हो सकता है वह तुम्हें किंचित परिवर्तित कर दे। वह तुम्हारा परिष्कार कर सकता है। शायद तुम ज्यादा सुसंस्कृत हो जाओ, ज्यादा परिष्कृत। लेकिन तुम वही रहोगे; आधार वही रहेगा।
गुरु के साथ एक अंतराल घटता है। तुम्हारा अतीत यूं हो जाता है जैसे कि वह कभी तुम्हारा न था; जैसे वह किसी और से सम्बन्धित था, जैसे तुमने इसका सपना देखा था। यह वास्तविक नहीं था; यह एक दुःखस्‍पन था। निरंतरता टूटती है। एक अंतराल होता है। पुराना गिर जाता है और नया आ जाता है, और बीच में होती है खाली जगह, एक अंतराल। वही अंतराल है समस्या; उस अंतराल को गुजरने देना है। उस अंतराल में बहुत लोग घबड़ा ही जाते हैं और वापस चले जाते हैं। वे शीघ्रता से दौड़ते हैं और पुराने अतीत से जा चिपकते हैं।
इस अंतराल को पार करने में गुरु तुम्हारी मदद करता है, लेकिन शिक्षक के लिए ऐसा कुछ नहीं होता है; कोई समस्या नहीं होती। शिक्षक तुम्हें मदद देता है ज्यादा सीखने में, जबकि गुरु का पहला काम है अनसीखा होने में तुम्हारी मदद करना। यही है भेद।
किसी ने रमण महर्षि से पूछा, 'मैं बहुत दूर से आया हूं आपसे सीखने। मुझे शिक्षा दीजिए।रमण हंस दिये और बोले, 'यदि तुम सीखने आये, तो किसी दूसरी जगह जाओ क्योंकि हम यहां सीखे को अनसीखा करते हैं। हम यहां सिखाते नहीं। तुम बहुत ज्यादा जानते ही हो। यही है तुम्हारी समस्या। ज्यादा सीखने से ज्यादा समस्थाएं बढेगी। हम सिखाते है कैसे अनसीखा हुआ जाये, कैसे शांत हुआ जाये।
गुरु आकर्षित करता है शिष्यों को, शिक्षक आकर्षित करता है विद्यार्थियों को। शिष्य क्या होता है? हर चीज सूक्ष्म रूप से समझ लेनी है; केवल तब तुम समझ पाओगे पतंजलि को। कौन होता है शिष्य? एक विद्यार्थी और एक शिष्य के बीच भेद क्या हैं? विद्यार्थी ज्ञान की खोज में होता है, शिष्य होता है रूपांतरण की, अंतस क्रांति की खोज में। वह स्वयं के साथ हताश हो चुका होता है। वह उस स्थल तक पहुंच चुका है जहां वह जान लेता है, 'जैसा मैं हूं मैं बेकार हूं धूल हूं कुछ और नहीं। जैसा मैं हूं किसी मूल्य का नहीं हूं।
वह आया है नया जन्म पाने को, नयी अंतस सत्ता पाने को। वह तैयार है सूली से गुजरने के लिए, मृत्यु और पुनर्जन्म की टोस और पीड़ाओं से गुजरने के लिए इसलिए, यह शब्द आया शिष्य, 'डिसाइपल।’ 'डिसाइपल' शब्द आया है डिसिप्लिन से-वह तैयार होता है किसी डिसिप्लिन, किसी अनुशासन से गुजर जाने के लिए। जो कुछ गुरु कहता है, वह उसका अनुकरण करने के लिए तैयार रहता है। अब तक वह अपने मन के पीछे चलता रहा है बहुत जन्मों से और वह पहुंचा कहीं नहीं। उसने अपने मन की ही सुनी और वह अधिकाधिक मुसीबत में पड़ता रहा है। अब वह जगह आ गयी जहां वह अनुभव करता है, 'यह बहुत हुआ।
तब वह आता है गुरु के पास और समर्पण कर देता है। यह है अनुशासन, पहला सोपान। वह कहता है, 'अब मैं आपकी सुनूंगा। मैंने अपने मन की बहुत सुन ली है। मैं अनुयायी रहा मन का, उसका शिष्य रहा, और यह बात कहीं नहीं ले जाती। मैंने यह जान लिया है। अब आप मेरे गुरु हैं। इसका अर्थ है, अब आप मेरे मन हैं। आप जो कुछ कहते हैं, मैं सुनूंगा। जहां कहीं आप ले जाते हैं, मैं जाऊंगा। मैं आपसे पूछूंगा नहीं क्योंकि वह पूछना आयेगा मेरे मन से।
शिष्य वह है जिसने जीवन से एक बात सीख ली है, कि मन है गड़बड़ी मचाने वाला; मन है उसके दुखों का मूल कारण। मन हमेशा कह देता है, मेरे दुखों का कारण कोई दूसरा है, मैं नहीं हूं। 'शिष्य वह है जो जान चुका है कि यह तो एक चालाकी, है, यह मन का एक जाल है। यह हमेशा कहता है, कोई और है जिम्मेवार; मैं जिम्मेवार नहीं हूं। इस तरह यह स्वयं का बचाव करता है, संरक्षण करता है, स्वयं को सुरक्षित बनाये रहता है। शिष्य वह है जो समझ गया है कि यह गलत है, कि यह चालाकी है मन की। वह अनुभव करने लगा है मन के इस सारे पागलपन को।
यह तुम्हें आकांक्षाओं की ओर ले जाता है; आकांक्षाएं तुम्हें ले जाती हैं हताशा की ओर। यह तुम्हें ले जाता सफलता की ओर; प्रत्येक सफलता बन जाती है विफलता। यह तुम्हें आकर्षित करता है सुन्दरता की ओर; प्रत्येक सुन्दरता सिद्ध होती है असुन्दरता। यह तुम्हें आगे ही आगे ले जाता है, यह कोई वादा पूरा नहीं करता। यह तुम्हें आशा दिलाता है, लेकिन नहीं, एक भी आशा पूरी नहीं होती। यह तुम्हें संदेह देता है। संदेह हृदय में बन जाता है एक कीड़ा—एकदम विषैला। यह तुम्हें आस्था रखने नहीं देता, और बिना आस्था के कोई विकास नहीं होता। जब तुम समझ लेते हो यह सारी बात, केवल तभी तुम शिष्य हो सकते हो।
जब तुम गुरु के पास आते हो, तो प्रतीकात्‍मक—रूप से तुम अपना सिर उसके चरणों पर रख देते हो। यह होता है तुम्हारे सिर का गिरना। तुम्हारा सिर उसके चरणों पर रख देने का यही है अर्थ। तुम कहते हो, ' अब मैं सिरविहीन बना रहूंगा। अब जो कुछ तुम कहते हो वही मेरा जीवन होगा। 'यह होता है समर्पण। गुरु के शिष्य होते हैं जो मरने के लिए और पुन: जन्मने के लिए तैयार रहते हैं।
फिर आती है तीसरी कोटि—गुरुओं का प्रधान गुरु। पहली कोटि; विद्यार्थियों का शिक्षक; दूसरी—शिष्यों का गुरु होता है; और फिर तीसरी, गुरुओं का गुरु होता है। पतंजलि कहते हैं कि जब गुरु भगवान हो जाता है—और भगवान होने का अर्थ होता है समय के बाहर होना; वह हो जाना जिसके लिए समय अस्तित्व नहीं रखता है, जिसके लिए समय कुछ है नहीं; वह हो जाना जो समयातीतता को समझ चुका है; अनंतता को समझ चुका है, जो केवल बदला ही नहीं और जो केवल भगवान ही नहीं हुआ, जो केवल परिवर्तित और जाग्रत ही नहीं हुआ, बल्कि जो समय के बाहर जा चुका है, वह गुरुओं का गुरु हो जाता है। अब वह भगवान हो जाता है।
तो करता क्या होगा वह गुरुओं का गुरु? यह अवस्था केवल तभी आती है जब गुरु देह छोड़ता है, उसके पहले कभी नहीं। देह में तुम जाग्रत हो सकते हो, देह में रह तुम जान सकते हो कि समय नहीं है। लेकिन देह के पास जैविक घड़ी है। वह भूख अनुभव करता है, और समय के अंतराल के बाद फिर अनुभव करता है भूख—परितृप्ति और भूख; नींद, रोग, स्वास्थ्य। रात में देह को निद्रा में चले जाना होता है, सुबह इसे जगाना होता है। देह की जैविक घड़ी होती है। अत: तीसरे प्रकार का गुरु केवल तभी घटता है जब गुरु सदा के लिए देह छोड़ देता है; जब उसे फिर से देह में नहीं लौटना होता।
बुद्ध के पास दो शब्द हैं। पहला है निर्वाण, सम्बोधि। जब बुद्ध सम्बोधि को उपलब्ध हुए, तो भी देह में बने रहे। यह थी सम्बोधि, निर्वाण। फिर चालीस वर्ष के पश्चात उन्होंने देह छोड़ दी। इसे वे कहते है परम निर्वाण— 'महापरिनिर्वाण'। फिर वे हो गये गुरुओं के गुरु, और वे बने रहे हैं गुरुओं के गुरु।
प्रत्येक गुरु, जब वह स्थायी रूप से देह छोड़ देता है, जब उसे फिर नही लौटना होता, तब वह गुरुओं का गुरु हो जाता है। मोहम्मद, जीसस, महावीर, बुद्ध, पतंजलि, वे प्रत्येक गुरुओं के गुरु हुए और वे निरंतर रूप से गुरुओं को निर्देशित करते रहे हैं न कि शिष्यों को।
जब कोई पतंजलि के मार्ग पर जाता हुआ गुरु हो जाता है, तो फौरन पतंजलि के साथ एक सम्पर्क सध जाता है। उनकी आत्मा असीम में तैरती रहती है उस वैयक्तिक चेतना के साथ, जिसे कि भगवान कहा जाता है। जब कभी कोई व्यक्ति पतंजलि के मार्ग का अनुसरण करता हुआ गुरु हो जाता है, संबोधि को उपलब्ध हो जाता है, तो तुरंत उस आदिगुरु के साथ जो कि अब भगवान है, एक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।
जब कभी कोई बुद्ध का अनुसरण करते हुए सम्बोधि को उपलब्ध होता है, तो कुल एक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है; अकस्मात वह बुद्ध के साथ जुड़ जाता है। बुद्ध के साथ जो अब देह में नहीं रहे, जो समय में नहीं रहे और काल में नहीं रहे, लेकिन जो अब भी हैं; उन बुद्ध के साथ जुड़ जाता है जो समग्र समष्टि के साथ एक हो चुके हैं, लेकिन जो अब भी हैं।
यह बहुत विरोधाभासी है और समझना बहुत कठिन है क्योंकि हम वह कोई चीज नहीं समझ सकते जो समय के बाहर की होती है। हमारी सारी समझ समय के भीतर होती है; हमारी सारी समझ स्थान से जुड़ी होती है। जब कोई कहता है कि बुद्ध समयातीत और स्थानातीत हैं, तो यह बात हमारी समझ में नहीं आती।
जब तुम कहते हो कि बुद्ध समयातीत हैं, इसका अर्थ होता है कि वे कहीं विशेष स्थान में अस्तित्व नहीं रखते। और कैसे कोई अस्तित्व रख सकता है बिना किसी कहीं विशेष स्थान में अस्तित्व रखे हुए? वे विद्यमान रहते है; वे मात्र अस्तित्व रखते है। तुम दिखा नहीं सकते कि कहां; तुम नहीं बता सकते कि वे कहां होते हैं। इस अर्थ में वे कहीं नहीं हैं और एक अर्थ में वे सभी जगह है। मन समय में रहता है अत: उसके लिए समय के पार की किसी चीज को समझना बहुत कठिन है। लेकिन जो बुद्ध की विधियों के पीछे चलता है और गुरु हो जाता है, कुल उसका एक सम्पर्क हो जाता है। बुद्ध अब भी उन लोगों को मार्ग दिखाते रहते है जो उनके मार्ग पर चलते हैं। जीसस अब तक उन लोगों का पथ-प्रदर्शन करते रहते हैं जो उनके मार्ग का अनुसरण करते हैं।
तिब्बत में कैलाश पर एक स्थान है, जहां प्रत्येक वर्ष जिस दिन बुद्ध ने संसार त्यागा, वैशाख की पूर्णिमा की रात्रि, पांच सौ गुरु एक साथ एकत्रित होते हैं। जब पांच सौ गुरु इस जगह हर वर्ष इकट्ठे होते हैं, तो उन्हें बुद्ध फिर से अवतरित होते हुए दिखते हैं। बुद्ध फिर से दृश्य रूप ग्रहण करते हैं।
यह एक पुराना अभिवचन है, और बुद्ध अब तक इसे पूरा करते हैं। पांच सौ गुरुओं को आना होता है वहां। एक भी कम नहीं होना चाहिए, क्योंकि तब यह बात सम्भव न होगी। ये पांच सौ गुरु बुद्ध के अवतरण के लिए मदद देते हैं वजन की भांति, लंगर की भांति। एक भी गुरु की कमी हो, तो घटना घटती ही नहीं-क्योंकि कई बार ऐसी अवस्था हुई कि वहां पांच सौ गुरु मौजूद नहीं थे। तब उस वर्ष कोई सम्पर्क नहीं घटा, कोई प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं हुआ।
लेकिन तिब्बत में बहुत गुरु हैं, अत: यह कोई कठिनाई न थी। तिब्बत सर्वोधिक प्रज्ञावान देश है; अब तक यह ऐसा ही बना रहा। भविष्य में यह ऐसा नहीं रहेगा-माओ की कृपा के कारण! उसने उस सारे सूक्ष्म ढांचे को नष्ट कर दिया है जिसे तिब्बत ने निर्मित किया था। सारा देश एक ध्यान का मठ था। दूसरे देशों में आश्रमों का अस्तित्व होता है, लेकिन पूरा तिब्बत ही आश्रम था।
ऐसा नियम था कि हर परिवार में से एक व्यक्ति को संन्यस्त हो जाना होता और लामा होना होता। और ऐसा नियम बनाया गया था जिससे कि हर साल कम से कम पांच सौ लामा सदा मौजूद रहते। जब पांच सौ गुरु एक साथ कैलाश पर मध्यरात्रि को इकट्ठे होते बारह बजे, तो बुद्ध फिर प्रकट होते। वे समय और स्थान में उतर आते।
वे मार्ग दिखाते रहे हैं। प्रत्येक गुरु मार्ग-निर्देशन करता रहा है। एक बार तुम गुरु के निकट हो लेते हो-शिक्षक के निकट नहीं-तो तुम श्रद्धा रख सकते हो। चाहे तुम इस जीवन में सम्बोधि न भी पाओ, सूक्ष्म मार्ग-दर्शन सदा निरंत्तर रूप से रहेगा तुम्हारे लिए-चाहे तुम जानो भी नहीं कि तुम निर्देशित किये जा रहे हो। गुरजिएफ से सम्बन्धित बहुत लोग मेरे पास आ गये है। उन्हें आना ही है क्योंकि गुरजिएफ उन्हें मेरी ओर फेंकता रहा है। कोई और है नहीं जिसकी तरफ गुरजिएफ उन्हें फेंक सकता या धकेल सकता। और यह खेदजनक है, लेकिन ऐसा है कि अब गुरजिएफ की पद्धति में कोई गुरु नहीं है, अत: वह सम्पर्क नहीं बना सकता। गुरजिएफ के बहुत लोग कभी न कभी आयेंगे ही और वे सचेत रूप से नहीं आते, क्योंकि वे नहीं समझ सकते क्या घट रहा है। वे सोचते हैं कि यह तो मात्र संयोगिक है।
यदि गुरु समय और स्थान में एक निश्रित मार्ग पर विद्यमान होता है, तब आदिगुरु आदेश भेजता रह सकता है। और इसी तरह धर्म सदा जीवंत रहे हैं। एक बार श्रृंखला टूट जाती है, तो धर्म मुरदा हो जाता है। उदाहरण के लिए जैन धर्म मुरदा हो गया है क्योंकि एक भी ऐसा गुरु नहीं है जिसके पास महावीर नये निर्देश भेज सकते हों। क्योंकि हर युग के साथ चीजें बदल जाती हैं; मन बदल जाते हैं, इसलिए विधियों को बदलना ही होता है, विधियां आविष्कृत की ही जानी होती है, नयी चीजों को जोड़ना ही होता है, पुरानी चीजों को काट देना होता है। हर युग में बहुत-सा कार्य आवश्यक है।
किसी भी परम्परा में यदि गुरु होता है, तब आदिगुरु जो अब भगवान है, सतत आगे बढ़ा सकता है। लेकिन यदि गुरु ही नहीं होता पृथ्वी पर, तब श्रृंखला टूट जाती है और धर्म मुरदा हो जाता है और ऐसा बहुत बार होता है। उदाहरण के लिए जीसस ने कभी नया धर्म निर्मित नहीं करना चाहा था, उन्होंने इसके बारे में कभी सोचा भी नहीं। वे यहूदी थे, और उन्हें सीधे निर्देश मिल रहे थे पुराने यहूदी गुरुओं से, जों-भगवान हो गये थे, लेकिन यहूदी नये निर्देश को सुन नहीं सकते थे। वे कह देते, 'ऐसा तो धर्मशास्त्रों में लिखा नहीं। तुम किसकी बात कह रहे हो? ' शास्त्रों में तो यह लिखा है कि यदि कोई तुम्हें ईंट मारे तो तुम्हें उस पर चट्टान फेंक देनी चाहिए-आख के बदले आख, जीवन के बदले जीवन। और जीसस ने कहना शुरू कर दिया कि ' अपने शत्रु से प्रेम करो। और यदि वह एक गाल पर मारे तो दूसरा उसकी ओर कर दो।
ऐसा यहूदी धर्मग्रन्थों में नहीं लिखा हुआ था, लेकिन यह नया शिक्षण था क्योंकि युग बदल चुका था। चीजों को कार्यान्वित करने की यह नयी विधि थी, और जीसस सीधे भगवानों से निर्देश ग्रहण कर रहे थे-पतंजलि के अनुसार जो भगवान हैं उनसे; पुराने पैगम्बरों से। लेकिन जो उन्होंने सिखाया वह धर्मग्रन्धों में नहीं लिखा हुआ था। यहुदियों ने उन्हें मार दिया, न जानते हुए कि वे क्या कर रहे थे। इसलिए अन्तिम क्षणों में जीसस ने कहा था, जब वे सूली पर चढ़े हुए थे, 'परमात्मा, इन लोगों को क्षमा करो, क्योंकि वे नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं। वे आत्महत्या कर रहे है। वे मार रहे है स्वयं को क्योंकि वे स्वयं अपने गुरुओं से सम्बन्ध तोड़ रहे हैं।
और यही हुआ। जीसस की हत्या यहूदियों के लिए सबसे बड़ी दुर्घटना बनी और दो हजार वर्षो से उन्होंने दुःख झेला है क्योंकि उनके पास कोई सम्पर्क नहीं है। वे जीते है धर्मशास्त्रों को साथ चिपकाये; वे इस पृथ्वी पर सर्वोधिक शाखोसुखी लोग हैं। वे शाखों के साथ जीते हैं-तालमुद के, तोरा के साथ, और जब कभी समय-स्थान के पार के ऊंचे स्रोतो से प्रयत्न किया गया, वे सुनते नहीं।
ऐसा बहुत बार हुआ है। इसी प्रकार नये धर्म उत्‍पन्न होते हैं। यह अनावश्यक है। इसकी कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन लोग सुनेंगे नही। वे पूछेंगे, 'कहा लिखा है ऐसा?' नहीं लिखा है यह। नयी देशनाएं है ये, एक नया धर्मशास्त्र। और यदि तुम नये शाख को नहीं सुनते, तो नयी देशनाएं नया धर्म बन जायेंगी। और तुम देख सकते हो कि नया धर्म सदा ज्यादा शक्ति शाली लगता है पुराने से। क्योंकि इसके पास नवीनतम अनुदेश होते है, यह व्यक्ति की ज्यादा मदद कर सकता है।
यहूदी वैसे ही रहे। ईसाइयत आधी पृथ्वी पर फैल गयी। अब आधा संसार ईसाई है। भारत में जैन एक बहुत छोटा अल्पसंख्यक वर्ग बन चुके हैं क्योंकि वे सुनेगे नही। और उनके पास कोई जीवत गुरु नहीं है। उनके यहां बहुत साधु हैं, मुनि हैं बहुत हैं, क्योंकि वह उनकी सामर्थ्य है। वे एक समृद्ध जमात हैं। लेकिन वहाँ एक भी जीवत गुरु नहीं है। कोई अनुदेश उन्हें उच्चतर स्रोत द्वारा नहीं दिया जा सकता है। इस युग में, सारे संसार भर में-भारत की थियोसॉफी के सबसे बडे रहस्योद्घाटनों में से एक यह था कि गुरु सतत निर्देश दिये चला जाता है। पंतजलि कहते हैं, यह गुरुओं की तीसरी कोटि होती है-गुरुओ के गुरु की। यही अर्थ वे भगवान का करते ?

 समय की सीमाओं के बाहर होने के कारण वह गुरुओं का गुरु है।

 क्या है समय और कैसे कोई समय के पार चला जाता है? इसे समझने की कोशिश करना। समय इच्छा है क्योंकि इच्छा के लिए समय की जरूरत होती है। समय इच्छा का निर्माण है। यदि तुम्हारे पास समय न हो, तो कैसे तुम इच्छा कर सकते हो? इच्छा के सरकने के लिए कोई जगह ही नहीं होती है। इच्छा को आवश्यकता होती है भविष्य की। इसलिए वे लोग जो लाखों इच्छाओं में जीते हैं हमेशा मृत्यु से भयभीत होते हैं। क्यों होते हैं वे मृत्यु से भयभीत मे क्योंकि मृत्यु तुरत्त समय को काट डालती है। कोई समय रहता नहीं। और तुम्हारी लाखों इच्छाएं हैं, और मृत्यु सदा द्वार पर खड़ी है।
मृत्यु का अर्थ है : अब कोई भविष्य न रहा। मृत्यु का अर्थ है : अब और समय न रहा। घड़ी भले ही टिकटिक करती धड़कती रहे, लेकिन तुम्हारी धड़कन नहीं टिकटिक कर रही होगी। और इच्छा की परिपूर्ति के लिए चाहिए समय, भविष्य। तुम वर्तमान में रह कर इच्छा में नहीं जी सकते; वर्तमान में इच्छाओं का अस्तित्व नहीं होता। क्या तुम किसी चीज की इच्छा कर सकते हो वर्तमान में रह कर? कैसे करोगे तुम इसकी इच्छा? यदि तुम इच्छा करते हो, तो फौरन भविष्य प्रवेश कर चुका होता है। कल भीतर आ पहुंचा या अगला पल आ गया। तुम इस पल में यहीं और अभी कैसे कर सकते हो इच्छा?
समय के बगैर इच्छा असम्भव होती है। समय भी असम्भव है इच्छा के बगैर। एक साथ वे एक घटना हैं। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब कोई इच्छाविहीन हो जाता है, तो समयविहीन हो जाता है। भविष्य थम जाता है, अतीत बंद हो जाता है। केवल वर्तमान होता है वहां। जब इच्छाएं थम जाती हैं तो यह बात उस घड़ी की भांति होती है, जिसके कांटे निकालने के बाद, वह टिकटिक किये जाती है। जरा उस घड़ी की कल्पना कर लेना जो बिना सुइयों के टिकटिक किये जाती है। तुम नहीं बता सकते कि कितना समय है।
बिना इच्छाओं के व्यक्ति वह घड़ी है जो बिना सुइयों के टिकटिक किये चला जा रहा है। ऐसी होती है बुद्ध की अवस्था। वे शरीर में जीते हैं; 'घड़ी' धड़कती जाती है-क्योंकि शरीर की अपनी जैविक प्रक्रिया होती है जारी रहने को। यह भूखा होगा और यह भोजन मांगेगा। यह प्यासा होगा और यह पेय की मांग करेगा। यह निद्रा अनुभव करेगा और यह सो जायेगा। शरीर की मांग होगी, अत: यह धड़के जा रहा है। लेकिन अन्तरतम अस्तित्व के पास समय नहीं; घड़ी बिना कांटे की है।
लेकिन उस शरीर के कारण ही तुम अटके हुए होते हो, संसार में लंगर डाले हुए होते हो-समय के संसार में। तुम्हारे शरीर का वजन है, और उसी वजन के कारण गुरुत्वाकर्षण अब भी तुम पर कार्य करता है। जब देह छोड दी जाती है, जब कोई बुद्ध अपनी देह छोड़ता है, तब टिकटिक स्वयं बंद हो जाती है। तब वह शुद्ध चेतना होता है। कोई शरीर नहीं, कोई भूख नहीं और कोई तृप्ति नहीं; शरीर नहीं तो प्यास नहीं, शरीर नहीं तो मांग नहीं।
इन दो शब्दों को खयाल में लेना-इच्छा और आवश्यकता। इच्छा होती है मन की; आवश्यकता होती है शरीर की। इच्छा रहित, तुम बिना सुइयों की घड़ी हो। और जब आवश्यकता भी गिर जाती है, तब तुम समय के पार हो जाते हो। यह होती है शाश्वतता। समयातीत है शाश्वतता।
उदाहरण के लिए, यदि मैं घड़ी की ओर नहीं देखता, तो मैं नहीं जानता कि कितना समय है। समय जानते रहने के लिए, मुझे सारा दिन लगातार देखना पड़ता है। यदि मैंने पांच मिनट फ्टले देखा भी हो, तो मुझे फिर देखना होता है क्योंकि मैं एकदम ठीक समय नहीं जानता। क्योंकि भीतर कोई समय नहीं; केवल शरीर टिकटिक कर रहा है।
चेतना के पास कोई समय नहीं। समय निर्मित होता है जब चेतना की कोई इच्छा होती है। तब यह कुल निर्मित हो जाता है। अस्तित्व में कोई समय नहीं। यदि मनुष्य यहां इस धरती पर न होता, तो समय तुरन्त तिरोहित हो गया होता। वृक्ष टिकटिक करते, चट्टानें टिकटिक करतीं। सूर्य उदित होता और चन्द्रमा विकास पाता और चीजें जैसी हैं वैसी बनी रहतीं, लेकिन समय नहीं होता। क्योंकि समय वर्तमान के साथ नहीं आता; यह आता है अतीत की स्मृति से और भविष्य की कल्पना से।
बुद्ध का कोई अतीत नहीं। उनके लिए खत्म हो गया यह; वे इसे नहीं ढो रहे है। बुद्ध का कोई भविष्य नहीं। उनके लिए वह भी समाप्त हो गया क्योंकि उनकी कोई इच्छा नहीं। लेकिन आवश्यकताएं हैं क्योंकि शरीर है। थोड़े और कर्मों को पूरा करना है। थोड़े और दिनों के लिए शरीर धड़कता जायेगा। बस पुराना संवेग जारी रहेगा। तुम्हें घड़ी को चाबी देनी होती है। चाहे तुम चाबी भरना बंद कर भी दो, यह कुछ घंटों या कुछ दिनों के लिए टिकटिक करती ही रहेगी। पुरानी गति का बल जारी रहेगा

 समय की सीमाओं के पार होने के कारण वह गुरुओं का गुरु है।

जब आवश्यकता और इच्छा दोनों तिरोहित हो जाते हैं तो समय तिरोहित हो जाता है। और इच्छा तथा आवश्यकता के बीच भेद कर लेने की बात ध्यान में रखना; अन्यथा तुम बहुत गहरी झंझट में पड़ सकते हो। आवश्यकताओं को गिराने की कोशिश कभी मत करना। कोई नहीं गिरा सकता उन्हें, जब तक कि शरीर ही न गिर जाये। और इन दोनों को एक मत मान लेना। हमेशा खयाल में रखना कि आवश्यकता क्या है और इच्छा क्या है।
आवश्यकता आती है शरीर से और इच्छा आती है मन से। आवश्यकता होती है पशु की, इच्छा होती है मानवीय। निःसंदेह, जब तुम भूख अनुभव करते हो तो तुम्हें भोजन की आवश्यकता होती है। रुक जाते हो, जब आवशाकता खत्म हो जाती है। तुम्हारा पेट कुरु कह देता है, बस करो लेकिन मन कहता है, 'थोड़ा-सा और। यह इतना स्वादिष्ट है।यह है इच्छा। तुम्हारा शरीर कहता है, 'मैं प्यासा हूं।लेकिन शरीर कोकाकोला के लिए ही तो कभी नहीं कहता है! शरीर कहता है, 'प्यासा हूं,, तो तुम पी लेते हो। जितने की आवश्यकता होती है तुम उससे ज्यादा पानी नहीं पी सकते। लेकिन कोकाकोला तुम ज्यादा पी सकते हो। यह मन की घटना है।
कोकाकोला एकमात्र सार्वभौमिक चीज है इस युग में, सोवियत रूस तक में भी है। दूसरी किसी चीज ने वहां प्रवेश नहीं किया है, लेकिन कोकाकोला प्रवेश कर चुका है। लोहे के परदे से भी कुछ फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मानवीय मन तो मानवीय मन ही है।
हमेशा ध्यान रखना कि कहां आवश्यकता समाप्त होती है और कहां इच्छा आरम्भ होती है। इसे निरंतर एक सजगता बनाये रहना। यदि तुम भेद कर सकते हो, तो तुमने कुछ पा लिया है, एक सूत्र अस्तित्व का पा लिया है। आवश्यकता सुन्दर होती है, इच्छा असुन्दर होती है। लेकिन ऐसे लोग हैं जो इच्छा किये चले जाते हैं, और वे अपनी आवश्यकताएं काटते चले जाते हैं। वे छू हैं, नासमझ हैं। तुम उनसे ज्यादा बडे मूढ़ नहीं पा सकते दूनिया में, क्योंकि वे बिलकुल विपरीत बात कर रहे हैं।
ऐसे लोग हैं जो कई दिनों का उपवास करेंगे और इच्छा करेंगे स्वर्ग की। उपवास करना आवश्यकता को काटना है और स्वर्ग की इच्छा करना इच्छाओं को बढ़ावा देना है! उनके पास तुम्हारी अपेक्षा कहीं ज्यादा समय है क्योंकि उन्हें स्वर्ग की सोचनी होती है। उनके पास बड़ी राशि होती है समय की। स्वर्ग शामिल होता है इसमें। तुम्हारा समय मृत्यु पर समाप्त हो जाता है। वे तुम्हें कहेंगे, 'तुम पदार्थवादी हो।वे अध्यात्मवादी हैं क्योंकि उनका समय और-और आगे बढ़ता जाता है। यह स्वर्ग को शामिल करता है-और केवल एक नहीं, सातों स्वर्ग। और मोक्ष भी, अंतिम मुक्ति-वह भी है उनकी सीमाओं के भीतर। उनके पास बड़ी मात्रा होती है समय की, और तुम हो पदार्थवादी क्योंकि तुम्हारा समय समाप्त होता है मृत्यु पर।
ध्यान रहे, आवश्यकताओं को गिराना आसान है। क्योंकि शरीर इतना मौन है, तुम इसे उयीडित कर सकते हो। और शरीर इतना अधिक लचीला होता है कि यदि तुम इसे सताते हो बहुत लम्बे समय के लिए तो यह तुम्हारे उत्यीड़न के, सताने के प्रति समायोजित हो जाता है। और यह गुंगा होता है। यह कुछ कह नहीं सकता। यदि तुम उपवास करते हो, तो दो या तीन दिन तक यह कहेगा, 'मैं भूखा हूं मैं भूखा हूं।लेकिन तुम्हारा मन सोच रहा है स्वर्ग की बात, और भूखे रहे बिना तुम प्रवेश नहीं कर सकते। ऐसा शास्त्रों में लिखा है कि उपवास करो। तो तुम शरीर की सुनते नहीं। यह भी लिखा है शास्त्रों में, 'मत सुनो शरीर की, शरीर शत्रु है।
और शरीर एक गूंगा जानवर है। तुम इसे सताये चले जा सकते हो। कुछ दिन यह कुछ नहीं कहेगा। यदि तुम लम्बा उपवास शुरू कर दो, अधिक से अधिक यह होगा कि पहले हफ्ते या पांच या छह दिन शरीर कुछ नहीं कहेगा। शरीर चुप हो जाता है क्योंकि कोई नहीं सुन रहा होता इसकी। फिर शरीर अपनी ही व्यवस्थाएं बिठाना शुरू कर देता है। इसके पास भोजन संग्रहित है नब्बे दिनों का। प्रत्येक स्वस्थ शरीर के पास नब्बे दिनों की चरबी का संग्रह होता है किसी आपात स्थिति के लिए—उपवास करने के लिए नहीं।
कई बार शायद तुम किसी जंगल में खो जाओ, भोजन नहीं पा सको। कई बार अकाल पड़ सकता है और तुम भोजन नहीं पा सकोगे। शरीर के पास नब्बे दिनों का संग्रह होता है। यह स्वयं पर चलेगा। यह स्वयं को ही खाता है। और इसकी दो गियर की व्यवस्था होती है। साधारणतया यह भोजन की मांग करता है। यदि तुम भोजन प्रदान करते हो, तो वह भीतर का खजाना, संचय अक्षुण्ण बना रहता है। यदि तुम भोजन प्रदान नहीं करते तो दो या तीन दिन यह मांग किये ही जाता है। अगर तुम फिर भी प्रदान नहीं करते, तो यह गियर ही बदल देता' है। गियर बदल जाता है; तब यह स्वयं को ही खाने लगता है।
इसलिए उपवास करने से तुम प्रतिदिन एक किलो वजन खो देते हो। कहां जा रहा होता है यह वजन? यह वजन खो रहा होता है क्योंकि तुम अपनी चरबी खा रहे होते हो, तुम्हारा अपना मांस खा रहे होते हो। तुम नरमांस भक्षक बन गये हो, एक नरभक्षी। उपवास करना नरभक्षण है। नब्बे दिन। के भीतर तुम सूख कर हड्डियों का ढांचा हो जाओगे, सब संचित चरबी समाप्त हो गयी। तब तुम्हें मरना पड़ता है।
शरीर के प्रति हिंसात्‍माक होना सरल होता है। यह इतना गूंगा है। लेकिन मन के साथ ऐसा करना कठिन है क्योंकि मन बहुत बोलने वाला है। यह सुनेगा नहीं। और वास्तविक बात है मन को आज्ञाकारी बनाना तथा इच्छाओं को काट देना। स्वर्ग और स्वर्गिक परलोक की मत पूछना।
जापान के नये धर्मों के बारे में एक पुस्तक मै इधर पढ़ता था। जैसा कि तुम जानते हो, जापानी तकनीकी तौर पर बहुत निपुण लोग होते है। उन्होंने जापान में दो स्वर्ग निर्मित कर लिये हैं, मात्र तुम्हें झलक दे देने को। उन्होंने पहाड़ी स्थान पर एक छोटा स्वर्ग निर्मित कर लिया है रु हे दिखाने के लिए कि वहां वास्तविक स्वर्ग में कैसा क्या है। बस, तुम चले जाओ और झलक पा लो। इतनी सुन्दर जगह उन्होंने बना ली है और वे इसे बिलकुल साफ—सुथरा रखते है। वहां फूल ही फूल है और वृक्ष है और रंगछटा है, छाया है, और सुन्दर छोटे बंगले हैं। और वे तुम्हें दे देते हैं स्वर्ग की झलक ताकि तुम आकांक्षा करना शुरू कर दो।
कहीं कोई स्वर्ग नहीं होता है। स्वर्ग मन की निर्मिति है। और कोई नरक नहीं है। वह भी मन की ही निर्मिति है। नरक और कुछ नहीं है सिवाय स्वर्ग के अभाव के; बस इतना ही। पहले तुम इसे रचते हो, और फिर तुम इसे गंवा देते हो क्योंकि यह वहा है नहीं। और ये लोग, ये पंडित—पुरोहित, विषदायी हैं, वे हमेशा तुम्हें मदद देते हैं इच्छा करने में। पहले वे इच्छा का निर्माण करते हैं। फिर पीछे चला आता है नरक, फिर वे चले आते हैं तुम्हें बचाने को!
एक बार मैं एक बड़ी कच्ची सड़क पर से गुजर रहा था। गर्मियों के दिन थे और अचानक मैं सड़क के इतने कीचड़ भरे खंड पर आ पहुंचा कि मैं विश्वास नहीं कर सकता था कि कैसे यह सड़क ऐसी बन गयी! बारिश बिलकुल नहीं हुई थी। जमीन का वह टुकड़ा कोई आधा मील लम्बा था, लेकिन मैंने सोचा कि यह बहुत गहरा नहीं हो सकता इसलिए मैं कार चलाता गया। मैं चला गया इसी में, फिर फंस गया। वह केवल कीचड़ से ही नहीं भरा था, उसमें बहुत सारे गडुए थे। फिर मैंने प्रतीक्षा की किसी के द्वारा मदद पाने की, कोई ट्रक ही आ जाये।
एक किसान ट्रक लिये आ पहुंचा। जब मैंने उसे मेरी मदद करने को कहा, वह बोला, वह बीस रुपये लेगा। तो मैंने कहा, 'ठीक है। तुम ले लो बीस रुपये, पर मुझे इसमें से बाहर तो निकालो। जब मैं बाहर आया, तो मैंने कहा उस किसान से, 'इस कीमत पर तो तुम दिन—रात काम कर रहे होओगे। 'वह बोला, 'नहीं, रात में नहीं। क्योंकि तब मुझे इस सड़क के लिए नदी से पानी लाना होता है। आप क्या सोचते हैं कि यहां कीचड़ किसने बना दिया? और फिर मुझे थोड़ी नींद भी लेनी पड़ती है क्योकि एकदम सुबह यह व्यापार शुरू हो जाता है!'
तो ऐसे पंडित—पुरोहित हैं। वे पहले कीचड़ बनाते हैं; वे दूर—दराज की नदी से पानी ढोकर लाते हैं। और तब तुम दलदल में फंस जाते हो, और फिर वे तुम्हारी मदद करते हैं। कहीं कोई स्वर्ग नहीं है और कोई नरक नहीं है। न स्वर्ग है और न नरक; तुम्हारा शोषण हो रहा है। और तुम शोषित किये जाओगे, जब तक कि तुम इच्छा करना समाप्त न कर दो।
वह व्यक्ति जो इच्छा नहीं करता, शोषित नहीं किया जा सकता। फिर कोई पुरोहित—पादरी शोषण नहीं कर सकता, फिर कोई मंदिर—चर्च उसका शोषण नहीं कर सकता। शोषण घटता है क्योंकि तुम इच्छा करते हो। तब तुम शोषित होने की सम्भावना निर्मित कर लेते हो। जितना बन सके, अपनी इच्छाओं को अलग कर दो क्योंकि वे अस्वभाविक हैं। अपनी आवश्यकताओं को कभी मत मारना क्योंकि वे सहज—स्वाभाविक हैं। अपनी आवश्यकताओं की परिपूर्ति कर लेना।
और इस सारी बात पर ध्यान दो। आवश्यकताएं बहुत नहीं हैं; बिलकुल ही ज्यादा नहीं है। और वे इतनी सीधी—सरल है। क्या चाहिए तुम्हें ' भोजन, पानी, मकान का आश्रय, कोई जो तुम्हें प्रेम करे और जिसे तुम प्रेम कर सको। और क्या चाहिए तुम्हें? प्रेम, भोजन, घर—ये सीधी—साफ आवश्यकताएं हैं। और धर्म इन्हीं सारी आवश्यकताओं के विरुद्ध हो जाते हैं। प्रेम के विरुद्ध, वे कहते हैं ब्रह्मचर्य साधो। भोजन के विरुद्ध वे कहते है, उपवास रखा करो। घर की शरण के विरुद्ध वे कहते है, मुइन बन जाओ और घूमो—फिरो, भ्रमण करने वाले हो जाओ—अगृही। वे आवश्यकताओं के विरुद्ध है। इसीलिए वे नरक का निर्माण करते हैं। और तुम अधिकाधिक दुख में पड़ते हो। और ज्यादा और ज्यादा तुम उनके हाथों में पड़ते जाते हो। फिर तुम सहायता की मांग करते हो, और सारी घटना एक स्वरचित स्वांग है।
आवश्यकताओं के विरुद्ध कभी मत जाना, और इच्छाओं को हमेशा अलग करने की याद रखना। इच्छाएं व्यर्थ होती हैं। इच्छा है क्या? मकान का आश्रय चाहिए, यह इच्छा नहीं है। बेहतर मकान चाहिए यह इच्छा है। इच्छा सापेक्ष होती है। आवश्यकता सीधी—सरल होती है—तुम्हें एक रहने का स्थान चाहिए। इच्छा चाहती है महल। आवश्यकता बहुत सीधी—सादी होती है। तुम्हें प्रेम करने को सी या पुरुष चाहिए। लेकिन इच्छा? इच्छा को तो चाहिए क्लियोपेट्रा। इच्छा तो बस असम्भव के लिए होती है। आवश्यकता होती है सम्भव के लिए और यदि सम्भव की परिपूर्ति हो जाती है., तुम निश्रित होते हो। एक बुद्ध को भी उसकी जरूरत होती है।
इच्छाएं बेवकूफियां है। इच्छाओं को काट दो और जाग्रत हो जाओ। तब तुम समय के बाहर हो जाओगे। इच्छाएं समय का निर्माण करती हैं, लेकिन यदि तुम इच्छाओं को मार देते हो तो तुम समयातीत हो जाओगे। जब तक शरीर है, तब तक शारीरिक आवश्यकताएंबनी रहेंगी। लेकिन यदि इच्छाएं तिरोहित होजातीहै, तबयह तुम्हारा अंतिम या, अधिक से अधिक तुम्हारा शेष दो जन्म ही होगा। जल्दी ही तुम भीतिरोहितहो जाओगे। जिसनेइच्छाविहीनताप्राप्तकरलीहैवहदेर—अबेर आवश्यकताओकेपार भीहोजायेगाक्योकितबशरीरकी आवश्यकता नहीं रहती है। शरीर वाहन है मन का। यदि मन नहीं रहा, शरीर की फिर और जरूरत नहीं रह सकती।

            उसे ओम के रूप में जाना जाता है।

 यह परमात्मा, यह सम्पूर्ण विकास, ओम् के रूप में जाना जाता है।
ओम् सर्वव्यापक नाद का प्रतीक है। स्वयं में तुम सुनते हो विचारों को, शब्दों को, लेकिन तुम्हारे अस्तित्व की ध्वनि को, नाद को कभी नहीं सुनते। जब कहीं कोई इच्छा नहीं होती, आवश्यकता नहीं होती, जब शरीर गिर चुका होता है, जब मन तिरोहित हो जाता है, तो क्या घटेगा? तब स्वयं ब्रह्मांड का वास्तविक नाद सुनाई पड़ता है, जो है ओम्।
और सारे संसार भर में इस ओम् का अनुभव किया गया है। मुसलमान, ईसाई, यहूदी इसे कहते हैं आमीन। यह है ओम्। जरथुस्र के अनुयायी, पारसी, इसे कहते हैं, ' आहुरमाजदा '। वह अ और म है ओम्— आह्य' है अ से और माजदा है म से। यह होता है ओम्। उन्होंने इसे देवता बना लिया है।
वह नाद सर्वव्यापी है। जब तुम थम जाते हो, तुम इसे सुन सकते हो। अभी तो तुम इतनी ज्यादा बातचीत कर रहे हो, भीतर इतने ज्यादा बडबडा रहे हो कि तुम इसे सुन नहीं सकते। यह है मौन ध्वनि। यह इतनी मौन होती है कि जब तक तुम पूरी तरह रुक नहीं जाते, तुम इसे सुन नहीं पाओगे। हिन्दुओं ने अपने देवताओं को प्रतीकाअक नाम से बुलाया है— ओम्। पतंजलि कहते हैं, 'वह ओम् के रूप में जाना जाता है। ' और यदि तुम गुरु को खोजना चाहते हो, गुरुओं के गुरु को, तो तुम्हें ' ओम्' की ध्वनि से अधिकाधिक तालमेल बैठाना होगा।

            ओम को दोहराओ और इस पर ध्यान करो।

 पतंजलि इतने वैतानिक ढंग से अवस्थित हैं कि वे एक भी आवश्यक शब्द नहीं छोड़ेंगे, और न ही वे कोई अतिरिक्त शब्द प्रयुक्त करेंगे। 'दोहराओ और ध्यान करो' —जब कभी वे कहते, ' ओम् को दोहराओ', वे सदा जोड़ देते ' ध्यान करो। ' भेद को समझ लेना है। 'दोहराओ और ध्यान करो ओम् पर। '
ओम को दोहराना और उस पर ध्यान करना सारी बाधाओं का विलीनीकरण और एक नवचेतना का जागरण लाता है

 यदि तुम दोहराओ और ध्यान मत करो, तो यह बात हो जायेगी महर्षि महेश योगी का भावातीत ध्यान, ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन-टी एम। यदि तुम दोहराते हो और ध्यान नहीं करते, तो यह बात एक हिप्राटिक चाल हो जाती है। तब तुम्हें नींद आ जाती है। यह अच्छा है क्योंकि निद्रा में उतर जाना सुंदर होता है। यह बात स्वस्थ है। तुम अधिक शांत होकर निकलोगे इसमें से। तुम कहीं अधिक स्वस्थता अनुभव करोगे, अधिक ऊर्जा, अधिक जोश अनुभव करोगे। लेकिन यह ध्यान नहीं।
यह एक साथ शामक दवा और पेप-पिल लेने की भांति है। यह तुम्हें अच्छी नींद देगी, और फिर तुम सुबह बहुत अच्छा अनुभव करते हो। ज्यादा ऊर्जा मौजूद होती है। लेकिन यह ध्यान नहीं है। और यह बात खतरनाक भी हो सकती है यदि तुम इसका उपयोग लम्बे समय तक करते हो। तुम्हें उसकी लत पड़ जाती है। और जितना ज्यादा तुम उपयोग करते हो इसका, उतना ज्यादा तुम समझ जाओगे कि एक स्थल ऐसा आ जाता है जहां तुम अटक जाते हो। अब यदि तुम इसे नहीं करते, तो तुम अनुभव करते हो कि तुम कुछ चूक रहे हो। यदि तुम इसे करते हो, तो कुछ घटता नहीं।
इस बात के सार-निचोड़ को खयाल में ले लेना है- ध्यान में, जब कभी तुम अनुभव करते हो कि अगर तुम इसे नहीं करते तो तुम इसे चूक रहे होते हो और यदि करते हो इसे तो कुछ घटता नहीं, तो तुम अटके हुए होते हो। तब तुरंत कुछ करने की जरूरत होती है। यह बात एक आदत हो गयी है-वैसे ही जैसे कि सिगरेट पीना। यदि तुम सिगरेट नहीं पीते, तो तुम अनुभव करते हो कि कुछ चूक रहा है। तुम निरंतर अनुभव करते हो कि कुछ किया जाना चाहिए तुम बेचैन अनुभव करते हो। और यदि तुम सिगरेट पीते हो, तो कुछ प्राप्त नहीं होता है। आदत की परिभाषा यही है। यदि कुछ प्राप्त होता है तो ठीक; लेकिन कुछ प्राप्त नहीं होता। यह एक आदत हो गयी है। यदि तुम इसे नहीं करते, तो तुम दुखी अनुभव करते हो। यदि तुम इसे करते हो, तो कोई आनन्द नहीं आता इससे।
दोहराओ और ध्यान करो। दोहराओ ' ओम् ओम् ओम्' और इस दोहराव से अलग खड़े रहो।ओम् ओम् ओम्' -यह ध्वनि तुम्हारे चारों ओर है और तुम सचेत हो, ध्यान दे रहे हो, साक्षी बने हुए हो। यह ध्यान करना होता है। ध्वनि को अपने भीतर निर्मित कर लो और फिर भी शिखर पर खड़े द्रष्टा बने रहो। घाटी में, ध्वनि सरक रही है- ' ओम् ओम् ओम्' -और तुम ऊपर खड़े हो और देख रहे हो साक्षी बने हुए हो। यदि तुम साक्षी नहीं होते, तो तुम सो जाओगे। यह सम्मोहक निद्रा होगी। और पश्रिम में भावातीत ध्यान लोगों को आकर्षित कर रहा है क्योंकि उन्होंने ठीक से सोने की क्षमता गंवा दी है।
भारत में कोई परवाह नहीं करता महर्षि महेश योगी की क्योंकि लोग इतनी गहरी नींद सोये हुए हैं, खरटे भर रहे है! उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं। लेकिन जब कोई देश अमीर हो जाता है और लोग कोई शारीरिक श्रम नहीं कर रहे होते, तो निद्रा विलीन हो जाती है। तब या तो तुम ट्रैकिलाइजर ले सकते हो या टी एम! और टी एम, निस्संदेह बेहतर है क्योंकि यह बहुत रासायनिक नहीं होता है। लेकिन फिर भी यह बहुत गहरी सम्मोहक चाल होती है।
सम्मोहन का कुछ निश्रित अवस्थाओं में प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन इसे आदत ही नहीं बना लेना चाहिए, क्योंकि अंततः यह तुम्हें सोया हुआ अस्तित्व देगा। तुम ऐसे जीयोगे जैसे हिप्रासिस में हो। तुम जादू द्वारा संचालित शव (झोम्बी) की भांति लगोगे। तुम जागरूक और सचेत नहीं होओगे। और ओम् की ध्वनि एक ऐसी लोरी होती है, क्योंकि यह सम्पूर्ण ध्वनि है। यदि तुम इसे दोहराते जाते हो, तुम इसके द्वारा पूर्णरूपेण मादक हो जाते हो, मदहोश हो जाते हो। और फिर खतरा है, क्योंकि वास्तविक बात है मदहोश न होना। वास्तविक बात है अधिकाधिक जागरूक होना। अत: दो सम्भावनाएं होती हैं इसकी कि कैसे तुम तुम्हारी चिंताओं से अलग हो सकते हो।
मनसविद मन को तीन परतों में बांटते हैं। पहली को वे कहते हैं चेतन, दूसरी को वे कहते हैं उपचेतन और तीसरी को वे कहते हैं अचेतन। चौथी से वे अभी भी परिचित नहीं हुए। पतंजलि इसे कहते हैं परम चैतन्य। यदि तुम ज्यादा सचेत हो जाते हो, तुम चेतन से आगे बढ़ जाते हो और परम चैतन्य तक पहुंच जाते हो। यह होती है एक भगवान की अवस्था-परम चैतन्य, परम जागरूक।
लेकिन यदि तुम मंत्र का जाप करते हो बिना ध्यान किये, तो तुम उपचेतन में जा पड़ते हो। यदि तुम चले जाते हो उपचेतन में तो यह तुम्हें अच्छी नींद देगा, अच्छी तन्दरुस्ती, अच्छा स्वास्थ्य। लेकिन यदि तुम इसी तरह जप जारी रखते हो, तो तुम अचेतन में जा पडोगे। तब तुम सम्मोहन-संचालित मूढ़, झोम्बी बन जाओगे, और यह बहुत ही बुरी बात है। यह बात ठीक नहीं होती।
मंत्र का प्रयतो किया जा सकता है सम्मोहन विद्या की भांति। यदि तुम्हारा ऑपरेशन किया जा रहा है अस्पताल में तो यह ठीक है। क्लोरोफार्म लेने की अपेक्षा, सम्मोहित हो जाना अच्छा होता है। यह कम बुराई है। यदि तुम निद्रालु अनुभव नहीं करते, तो यह जप करना बेहतर है ट्रैकिलाइजर लेने की अपेक्षा। यह कम खतरनाक होता है, कम हानिकारक होता है। लेकिन यह ध्यान नहीं है।
अत: पतंजलि निरंत्तर जोर देते हैं, 'दोहराओ और ध्यान करो ओम् पर।दोहराओ और अपने चारों तरफ ओम् की ध्वनि निर्मित कर लो लेकिन इसी में खो मत जाना। यह इतनी मीठी ध्वनि होती है, तुम खो सकते हो। सचेत बने रहो। अधिकाधिक जागरूक बने रहो। ध्वनि जितनी ज्यादा गहरे में जाती है, उतने ही और अधिक तुम जाग्रत होते जाते हो। तब ध्वनि तनावहीन कर देती है तुम्हारे स्रायु-तंत्र को, लेकिन तुम्हें नहीं। ध्वनि तुम्हारे शरीर को हलका कर देती है, लेकिन तुम्हें नहीं। ध्वनि तुम्हारे सारे शरीर को और शारीरिक व्यवस्था को निद्रा में भेज देती है, लेकिन तुम्हें नहीं।
तब दोहरी प्रक्रिया शुरू हो जाती है- ध्वनि तुम्हारे शरीर को शान्त अवस्था में गिरा देती है और जागरूकता तुम्हारी मदद करती है परम चेतना की ओर उठने में। शरीर अचेतन की ओर बढ़ता है, बेजान बन जाता है, गहरी निद्रा में होता है, और तुम परम चेतन अस्तित्व हो जाते हो। तब तुम्हारा शरीर तल में पहुंच जाता है और तुम शिखर तक पहुंच जाते हो। तुम्हारा शरीर बन जाता है घाटी और तुम बन जाते हो शिखर। और यही बात है समझने की।

 दोहराओ और ध्यान करो। ओम को दोहराना और ओम पर ध्यान करना सारी बाधाओं का विलीनीकरण ले आता है और एक नयी चेतना का जागरण होता है।

 नवचेतना ही चौथी चेतना है-वह परम चेतना-तुरीय। लेकिन ध्यान रहे, मात्र दोहराना ठीक नहीं। दोहराना तो बस तुम्हें मदद देता है ध्यान करने में। दोहराव निर्मित करता है विषय को और सबसे अधिक सूक्ष्म विषय होता है ओम् की ध्‍वनि। और यदि तुम सबसे अधिक सूक्ष्म के प्रति जागरूक हो सकते हो, तो तुम्हारी जागरूकता भी सूक्ष्म हो जाती है।
जब तुम स्थूल वस्तु पर ध्यान देते रहते हो, तुम्हारी जागरूकता स्कूल होती है। जब तुम एक कामवासनायुक्त देह को देखते 'हो, तो तुम्हारी जागरूकता काम बन जाती है। जब तुम किसी ऐसी चीज को देखते, उस पर ध्यान देते हो जो लोभ की वस्तु होती है तो तुम्हारी जागरूकता लोभ बन जाती है। जो कुछ तुम देखते रहते हो, तुम वही हो जाते हो। निरीक्षण करने वाला निरीक्षित बन जाता है-इसे खयाल में ले लेना।
कृष्णमूर्ति फिर-फिर जोर देते हैं कि निरीक्षक निरीक्षित बन जाता है। जिस पर तुम ध्यान देते हो, तुम वही हो जाते हो। अत: यदि तुम ओम् की ध्वनि पर ध्यान करते हो, वह ध्वनि जो गहनतम ध्वनि है, जो परम संगीत है, जो अनाहत है, वह नाद जो अस्तित्व का ही स्वभाव है, यदि तुम इसके प्रति जागरूक हो जाते हो, तो तुम यही हो जाते हो-तुम परम नाद बन जाते हो। तब दोनों ही, विषय और विषयी मिलते हैं और घुल-मिल जाते हैं और एक हो जाते हैं। यह होती है परम चेतना, जहां विषय और विषयी विलीन हो चुके होते हैं; जहां ज्ञाता और ज्ञेय नहीं रहे। केवल एक बना रहता है, विषयी और विषय किसी सेतु से बंध गये हैं। यह एकाक्यता योग है।
यह शब्द योग आया है 'युज' धातु से। इसका अर्थ है मिलना, एक साथ जुड़ना। ऐसा घटता है जब विषयी और विषय वस्तु एक साथ आ जुड़ते हैं। अंग्रेजी शब्द 'योक' भी आता है 'क्यू' से, उसी मूल से जहां से योग आया। जब विषयी और विषय वस्तु साथ जुड़ जाते हैं, एक साथ सी दिये जाते हैं जिससे कि वे फिर अलग नहीं रहते, बंध जाते हैं, अंतराल मिट जाता है। तुम परम चेतना को उपलब्ध होते हो।
यही अर्थ है पतंजलि का जब वे कहते, हैं. 'ओम् को दोहराना और ओम् पर ध्यान करना सारी बाधाओं का विलीनीकरण और एक नवचेतना का जागरण लाता है।


आज इतना ही।

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