दिनांक
6 जनवरी, 1975;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
प्रश्नसार:
1—क्या
आप किसी
गुरुओं के
गुरु द्वारा
निर्देश
ग्रहण करते
हैं?
2—गुरुओं
को किसी
प्रधान गुरु
द्वारा
निर्देश पाने
की क्या
आवश्यकता
होती है?
3—हम
अपनी
स्तुइर्च्छत
और
अहंकारग्रस्त
अवस्था में
हमेशा गुरु के
संपर्क में
नहीं होते लेकिन
क्या गुरु
हमेशा हमारे
संपर्क में
होता है?
4—इच्छाओं
का दमन किये
बगैर उन्हें
कैसे काटा जा
सकता है?
पहला
प्रश्न:
क्या
आप किसी
गुरुओं के
गुरु द्वारा
निर्देश ग्रहण
करते हैं?
मैं किसी
प्राचीन
मार्ग पर नहीं
हूं अत: कुछ
बातें समझ
लेनी हैं। मैं
महावीर की
भांति नहीं
हूं जो चौबीस
तीर्थंकरों
के लंबे क्रम
के अंतिम छोर
थे। वे
चौबीसवें थे।
अतीत में, पिछले
तेईस में से
प्रत्येक
तीर्थंकर
गुरुओं का
गुरु हो गया
था, भगवान
हो गया था, उसी
मार्ग पर, उसी
विधि से उसी
जीवन-क्रम से,
उसी उपाय से।
प्रथम
तीर्थंकर थे
ऋषभ और अंतिम
थे महावीर।
ऋषभ के पास
निर्देश लेने
को अतीत में
कोई न था। मैं
महावीर की
भांति नहीं, ऋषभ
की ही भांति
हूं। मैं एक
परंपरा का
आरंभ हूं अंत
नहीं। बहुत आ
रहे होंगे इसी
मार्ग पर।
इसलिए मैं
निर्देशों के
लिए किसी की
प्रतीक्षा
नहीं कर सकता;
ऐसा होना संभव
नहीं। एक
परंपरा
जन्मती है और
फिर वह परंपरा
मर जाती है, बिलकुल ऐसे
ही जैसे
व्यक्ति जन्म
लेते हैं और मर
जाते हैं। मैं
आरंभ हूं अंत
नहीं। जब कोई
श्रृंखला के
मध्य में होता
है या अंत में
होता है, तो
वह गुरुओं के
मूल गुरु से
निर्देश
प्राप्त करता
है।
मैं
किसी मार्ग पर
नहीं हूं इसका
कारण यह है कि
मैंने बहुत
सारे गुरुओं
के साथ कार्य
किया है, लेकिन
मैं शिष्य कभी
नहीं रहा। मैं
एक घुमक्कड़, एक यायावर
था। बहुत सारी
जिंदगियों
में से भ्रमण
करता रहा, बहुत
परंपराओं को
आड़े-तिरछे ढंग
से पार करता रहा,
बहुत
समुदायों के
साथ, संप्रदायों
के साथ, विधियों
के साथ रहा
लेकिन किसी के
साथ संबंधित
कभी नहीं हुआ।
मुझे प्रेम
सहित
स्वीकारा गया,
लेकिन मैं
हिस्सा कभी न
बना। ज्यादा
से ज्यादा मैं
एक मेहमान था,
रात भर
ठहरने वाला!
इसीलिए मैंने
इतना ज्यादा
सीख लिया। तुम
एक मार्ग पर
इतना ज्यादा
नहीं सीख सकते;
यह बात
असंभव है।
यदि
तुम एक मार्ग
पर बढ़ते हो, तो
तुम उसके बारे
में सब कुछ
जानते होते हो
लेकिन किसी और
चीज के बारे
में कुछ नहीं
जानते।
तुम्हारा
सारा
अस्तित्व
इनमें
समाविष्ट हो जाता
है। मेरा ढंग
ऐसा नहीं रहा।
मैं एक फूल की
भांति एक फूल
से दूसरे तक
जाता रहा दूं
बहुत
सुरभियां
एकत्रित करता
रहा हूं।
इसीलिए मैं
झेन के साथ एक
लय में हूं
मोहम्मद के
साथ एक लय में
हूं जीसस के
साथ एक लय में
हूं यहुदियों
के साथ एक लय
में हूं
पतंजलि के साथ
एक लय में
हूं-भिन्न
मार्गों के
साथ जो कई बार
बिलकुल ही
विपरीत होते
हैं।
लेकिन
मेरे लिए, एक
छिपी हुई
स्वरसंगति
बनी रहती है।
इसीलिए वे लोग
जो किसी एक
मार्ग का
अनुसरण करते
हैं, मुझे
समझने में
असमर्थ हैं।
वे एकदम चकरा
जाते हैं, हक्के-बक्के
रह जाते हैं।
वे किसी एक
विशिष्ट तर्क
को जानते हैं,
एक विशिष्ट
ढांचे को। यदि
बात उनके
ढांचे में ठीक
बैठती है, तो
वह ठीक होती
है यदि वह ठीक
नहीं बैठती तो
वह गलत होती
है। उनके पास
सीमित-संकुचित
कसौटी होती है।
मेरे लिए कोई
कसौटी
अस्तित्व
नहीं रखती।
क्योंकि मैं
बहुत से
ढांचों के साथ
रहता रहा हूं।
मैं कहीं भी
निश्रित रह
सकता हूं। कोई
मेरे लिए
पराया नहीं है
और मैं किसी
के लिए अजनबी
नहीं। लेकिन
यह बात एक
समस्या बना
देती है। मैं
किसी के लिए
अजनबी नहीं
हूं लेकिन हर
कोई मेरे
प्रति अजनबी
बन जाता है; ऐसा ही होना
होता है।
यदि
तुम एक
विशिष्ट पंथ
से संबंधित
नहीं होते तो
हर कोई
तुम्हारे
बारे में यूं
सोचता है जैसे
कि तुम कोई
शत्रु हो।
हिंदू मेरे
विरुद्ध
होंगे, ईसाई
मेरे विरुद्ध
होंगे, यहूदी
मेरे विरुद्ध
होंगे, जैन
मेरे विरुद्ध
होंगे, और
मैं किसी के
विरुद्ध नहीं।
क्योंकि वे
अपना ढांचा
मुझमें नहीं
पा सकते, वे
मेरे विरुद्ध
हो जायेंगे।
और
मैं किसी एक
ढांचे की बात
नहीं कर रहा, बल्कि
मैं ज्यादा
गहरे ढांचे के
बारे में कह रहा
हूं जो सारे
ढांचों को
पकड़े रखता है।
एक ढांचा होता
है, दूसरा
ढांचा होता है,
फिर दूसरा
ढांचा-ऐसे
लाखों ढांचे
हैं। फिर सारे
ढांचे किसी
छिपी हुई चीज
द्वारा पकड़
लिये जाते हैं
जो कि ढांचों
का मूल ढांचा
होती है-जो है छिपी
हुई समस्वरता।
वे इसे देख
नहीं सकते, लेकिन वे
गलत भी नहीं
हैं। जब तुम
एक निश्चित
परंपरा के साथ
जीते हो, एक
निश्चित-दर्शन
के साथ, चीजों
को देखने के
एक निश्चित
ढंग के साथ, तो तुम उसके
साथ समस्वर
में होते हो।
एक
ढंग से, मैं
कभी किसी के
साथ मिला हुआ
नहीं था; इतना
ज्यादा नहीं
कि मैं उनके
ढांचे का एक
हिस्सा बन
सकता। एक अर्थ
में यह
दुर्भाग्य
है, लेकिन
दूसरे अर्थ
में यह बात
वरदान साबित
हुई।
जिन्होंने
मेरे साथ
कार्य किया
उनमें से कईयों
ने मुक्ति
प्राप्त कर ली
मुझसे पहले ही।
मेरे लिए यह
दुर्भाग्य था।
मैं पीछे देर
लगाता रहा और
देर लगाता रहा,
इस कारण कि
कभी समग्र रूप
से किसी के
साथ कार्य
नहीं किया, बढ़ता रहा एक
जगह से दूसरी
जगह।
जिन्होंने
आरंभ किया
मेरे साथ
उनमें से बहुत
उपलब्ध हो गये।
जिन्होंने
मेरे बाद आरंभ
किया उनमें से
भी कुछ मुझसे
पहले ही पा
गये। यह
दुर्भाग्य था, लेकिन
एक दूसरे अर्थ
में यह बात
वरदान रही क्योंकि
मैं हर घर की
जानता हूं। हो
सकता है मैं
किसी घर से
संबंधित न
होऊं, लेकिन
मैं परिचित
हूं हर किसी
से।
इसलिए
मेरे लिए कोई
गुरुओं का
प्रधान गुरु
नहीं। मैं कभी
शिष्य न था।
गुरुओं के
गुरु से
निर्देशित
होने के लिए, तुम्हें
किसी निश्चित
गुरु का शिष्य
होना होता है।
तब तुम
निर्देशित
किये जा सकते
हो। तब तुम
जान लेते हो
उस भाषा को।
अत: मैं किसी
के द्वारा
निर्देशित
नहीं किया
जाता हूं
बल्कि बहुतों
द्वारा मदद
पाता हूं। इस
भेद को समझ
लेना है। मैं
निर्देशित
नहीं होता।
मैं ग्रहण
नहीं करता इस
प्रकार की
आशाएं- 'यह
करो या कि वह
मत करो।’ बल्कि
मैं बहुतों
द्वारा मदद
पाता हूं।
शायद
जैन यह महसूस
न करते हों कि मैं
उनसे संबंधित
हूं लेकिन
महावीर इसे
अनुभव करते
हैं। क्योंकि
कम से कम वे
देख सकते हैं
ढांचों के मूल
ढांचे को।
जीसस के
अनुयायी शायद
मुझे समझने के
योग्य न हों, लेकिन
जीसस समझ सकते
हैं। तो मैं
बहुतों से
पाता रहा हूं
मदद। इसीलिए
बहुत लोग
विभिन्न
स्रोतों से आ रहे
हैं मेरे पास।
इस समय तुम
खोजियो का ऐसा
समूह इस
पृथ्वी पर कहीं
और नहीं पा
सकते। यहूदी
हैं, ईसाई
हैं, मुसलमान,
हिंदू जैन,
बौद्ध, सभी
है, संसार
भर से आये
हुए। और भी
बहुत ज्यादा
जल्दी ही आते
होंगे।
बहुत
सारे गुरुओं
से मिलने वाली
मदद है यह। वे
जानते हैं कि मैं
उनके शिष्यों
के लिए सहायक
हो सकता हूं
और वे भेज रहे
होंगे और भी
बहुतों को।
लेकिन निर्देश
कोई नहीं, क्योंकि
मैंने शिष्य
के रूप में
किसी गुरु से कोई
निर्देश कभी
नहीं पाये। अब
कोई जरूरत भी
नहीं। वे तो
बस मदद भेज
देते हैं। और
वह बेहतर है।
मैं ज्यादा
स्वतंत्र
अनुभव करता
हूं। कोई इतना
स्वतंत्र
नहीं हो सकता
जितना कि मैं।
यदि
तुम महावीर से
निर्देश
ग्रहण करते हो, तो
तुम इतने
स्वतंत्र
नहीं हो सकते
जितना कि मैं
हूं। एक जैन
को जैन ही
रहना पड़ता है।
उसे बौद्धत्व
के विरुद्ध, हिंदुत्व के
विरुद्ध
बोलते जाना
होता है। उसे
ऐसा करना पड़ता
है, क्योंकि
बहुत सारे
ढांचों और
परंपराओं का
एक संघर्ष
होता है। और
परंपराओं को
संघर्ष करना होता
है यदि वे
जीवित रहना
चाहती हैं तो।
शिष्यों के
लिए उन्हें
विवादप्रिय
होना होता है।
उन्हें कहना
ही होता है कि
वह गलत है, क्योंकि
केवल तभी एक
शिष्य अनुभव
कर सकता है, यह ठीक है।
गलत के
विरुद्ध, शिष्य
अनुभव कर लेता
है कि क्या
सही है।
मेरे
साथ तुम
असमंजस में पड़
जाओगे। यदि
तुम मात्र
यहां हो
तुम्हारी
बुद्धि के साथ, तो
तुम दुविधा
भरे हो जाओगे।
तुम पागल हो
जाओगे
क्योंकि इस
क्षण मैं कुछ
कहता हूं और
अगले क्षण मैं
इसके विपरीत
कह देता हूं।
क्योंकि इस
क्षण मैं एक
परंपरा की बात
कर रहा था, और
दूसरे क्षण
में दूसरे के
बारे में कह
रहा होता हूं।
और कई बार मैं
किसी परंपरा
के बारे में
नहीं कह रहा
होता हूं; मैं
अपने बारे में
कह रहा होता
हूं। तब तुम
इसे नहीं पा
सकते कहीं किसी
शास्त्र में।
लेकिन
मैं मदद पा
लेता हूं। और
यह मदद सुंदर
होती है
क्योंकि इसका
अनुसरण करने
की मुझसे अपेक्षा
नहीं की जाती
है। मैं इसके
पीछे चलने को
बाध्य नहीं
हूं। यह मुझ
पर है। मदद
बिना शर्त दी
जाती है। यदि
मैं इसे लेने
जैसा अनुभव
करता हूं तो
ले लूंगा इसे; यदि
मैं ऐसा अनुभव
नहीं करता, तो मैं नहीं
लूंगा इसे।
किसी के प्रति
मेरा कोई आबंध
नहीं है।
लेकिन
यदि तुम किसी
दिन संबोधि को
उपलब्ध हो जाते
हो,
तो तुम
निर्देश
प्राप्त कर
सकते हो। यदि
मैं देह में न
रहूं तब तुम
मुझसे
निर्देश
प्राप्त कर
सकते हो। ऐसा
सदा घटता है
पहले व्यक्ति
के साथ, जब
परंपरा
प्रारंभ होती
है। यह एक
प्रारंभ होता
है, एक
जन्म। और तुम
जन्मने की
प्रक्रिया के
निकट होते हो।
और यह सुंदरतम
बात होती है
जब कोई चीज
जन्म लेती है
क्योंकि तब यह
सवाधिक जीवंत
होती है।
धीरे—धीरे
जैसे कि बच्चा
बढ़ता है, तो
वह बच्चा मृत्यु
के और—और निकट
पहुंच रहा
होता है। परंपरा
सबसे ज्यादा
ताजी होती है
जब वह जन्मती
है। इसका एक
अपना ही
सौंदर्य होता
है जो अतुलनीय
होता है, बेजोड़
होता है।
जो
लोग ऋषभ को
सुनते थे, प्रथम
जैन तीर्थंकर
को, उनकी
गुणवत्ता अलग
थी। जब लोगों
ने महावीर को सुना,
परंपरा
हजारों वर्ष
पुरानी हो गयी
थी। वह तो बस मरने
के किनारे पर
ही थी। महावीर
के साथ ही वह मर
गयी।
जब
किसी परंपरा
में और गुरु
उत्पन्न
नहीं होते, तब
वह मृत हो
जाती है। इसका
अर्थ होता है
कि परंपरा अब
और नहीं बढ़
रही। जैनों ने
इस बंद कर दिया।
चौबीसवें के
बाद वे बोले, ' अब और गुरु
नहीं, और
तीर्थंकर
नहीं। 'नानक
के साथ होना
सुंदर था
क्योंकि कुछ
नया बाहर आ
रहा था गर्भ
से—ब्रह्मांड
के गर्भ से।
यह बच्चे को
पैदा होते
देखने जैसा ही
था। यह रहस्य
है-अशात का
ज्ञात में
अवतरित होना,
अमूर्त का
मूर्त रूप में
आना। यह ओस
कणों के समान
ताजा है।
जल्दी ही हर
चीज ढंक
जायेगी धूल से।
जल्दी ही, जैसे-जैसे
समय गुजरता है,
चीजें
पुरानी पड़ती
चली जायेंगी।
लेकिन
सिखों के
दसवें गुरु के
समय तक, दसवें
गुरु तक चीजें
मृत हो गयीं।
तब उन्होंने
श्रृंखला बंद
होने की घोषणा
की और वे बोले,
'अब और गुरु
नहीं। अब
धर्मग्रंथ
स्वयं ही होगा
गुरु।’ इसीलिए
सिख अपने
धर्मग्रंथ को
कहते हैं, 'गुरु
ग्रंथ।’ अब
और व्यक्ति
वहां नहीं
होंगे; अब
तो बस मरा हुआ
शास्त्र ही
गुरु होगा। और
जब कोई
शास्त्र मृत
हो जाता है, तब वह
व्यर्थ हो
जाता है। न ही
केवल व्यर्थ
होता है, वह
विषैला होता
है। किसी मरी
हुई चीज को
अपने में मत
आने दो। यह
विष उत्पन्न
करेगी; यह
तुम्हारी
समस्त
व्यवस्था को
विनष्ट कर देगी।
यहां
कुछ नया जन्मा
है;
यह एक
प्रारंभ है।
यह ताजा है
लेकिन इसीलिए
बहुत कठिन भी
है इसे समझना।
यदि तुम
गंगोत्री पर
जाते हो गंगा
के स्रोत तक, यह इतना
छोटा होता है
वहां-ताजा
होता है निस्संदेह;
फिर कभी
गंगा इतनी
ताजी नहीं
होगी क्योंकि
जब यह बहती है
तो बहुत सारी
चीजें
एकत्रित कर
लेती है, संचित
कर लेती है, और-और अधिक
गंदी होती
जाती है। काशी
में यह सबसे
अधिक गंदी
होती है, लेकिन
वहां तुम इसे
कहते हो 'पवित्र
गंगा' क्योंकि
अब यह इतनी
बड़ी होती है।
यह इतनी अधिक
बढ़ती जाती है।
अब एक अंधा
आदमी भी देख
सकता है इसे।
गंगोत्री पर,
प्रारंभ पर,
स्रोत पर
तुम्हें बहुत
संवेदनशील
होने की जरूरत
होती है। केवल
तभी तुम इसे
देख सकते हो, वरना तो यह
टपकती बूंदों
की क्षीण धारा
ही होती है।
तुम विश्वास
भी नहीं कर
सकते कि
बूंदों से बनी
यह क्षीण धारा
गंगा हो जाने
वाली है। यह
बात
अविश्वसनीय
होती है।
बिलकुल
अभी यह देख
पाना कठिन है
कि क्या घट रहा
है क्योंकि यह
बहुत ही छोटी
धारा है, बच्चे
की भांति ही।
लोग चूक गये
ऋषभ के साथ, उन प्रथम जैन
तीर्थंकर के
साथ, लेकिन
वे पहचान सकते
थे महावीर
को-समझे न? पहले
के-ऋषभ के
प्रति जैनों
के मन में कोई
बहुत श्रद्धा
नहीं है।
वस्तुत: वे
अपनी सारी
श्रद्धांजलि
देते हैं महावीर
को। तथ्य यह
है कि पश्चिमी
मन के अनुसार,
महावीर
प्रवर्तक हैं
जैन धर्म के।
क्योंकि भारत
में महावीर पर
इतनी श्रद्धा
रखी जाती है, तो कैसे
दूसरे अनुभव
कर सकते हैं
कि कोई और है प्रवर्तक?
ऋषभ
विस्मृत हो
गये हैं, कोई
दंतकथा हो गये
हैं, भुलाये
जा चुके हैं।
शायद वे हुए
हों, शायद
न हुए हों। वे
ऐतिहासिक
नहीं प्रतीत
होते। वे
धुंधले अतीत
के हैं, और
तुम उनके बारे
में ज्यादा
कुछ जानते
नहीं। महावीर
ऐतिहासिक हैं
और वे हैं
गंगा की भांति,
बनारस के
निकट की गंगा-जो
बहुत विस्तृत
होती है।
ध्यान
रहे कि
प्रारंभ छोटा
होता है, लेकिन
फिर कभी रहस्य
इतना गहन न
होगा जितना कि
शुरू में होता
है। प्रारंभ
जीवन है और
अंत में मृत्यु।
महावीर के साथ
जैन परंपरा
में मृत्यु
प्रविष्ट हो
जाती है। ऋषभ
के साथ जीवन
प्रविष्ट
होता है, ऊंचे
हिमालय से उतर
आता है पृथ्वी
तक।
मेरे
पास कोई नहीं
जिसके प्रति
मैं उत्तरदायी
बनूं कोई नहीं
है जिससे कि
निर्देश पाऊं, लेकिन
बहुत मदद
उपलब्ध है। और
यदि इसे तुम
इसकी समग्रता
में लेते हो, तब यह उससे
कहीं बहुत
ज्यादा है जो
कि कोई एक गुरु
बता सकता है।
जब मैं पतंजलि
के विषय में
बोल रहा होता
हूं तो पतंजलि
सहायक होते
हैं। मैं ठीक
उसी तरह बोल
सकता हूं जैसे
कि वे यहां बोल
रहे होते।
वस्तुत:, मैं
नहीं बोल रहा
हूं; ये कोई
व्याख्याएं
नहीं हैं। यह
तो वे स्वयं
मेरा उपयोग
माध्यम की
भांति कर रहे
हैं। जब मैं
हेराक्लतु के
विषय में बोल
रहा होता हूं
वे होते हैं वहां,
लेकिन
सिर्फ एक मदद
के रूप में।
यह बात
तुम्हें समझ
लेनी है, और
तुम्हें अधिक
संवेदित हो
जाना है ताकि
तुम प्रारंभ
को देख-समझ
सको।
जब
कोई परंपरा
बहुत बड़ी
शक्ति बन जाती
है तो उसमें
बढ़ना कोई
ज्यादा
सूक्ष्म
दृष्टि और संवेदनशीलता
की मांग नहीं
करता है। उस
समय आना कठिन
है जब चीजें
प्रारंभ हो
रही हों, एकदम
प्रभातकालीन
हों। सांझ
होने तक बहुत
आ जाते हैं।
लेकिन तब वे
आते हैं
क्योंकि चीज
बहुत बड़ी और
शक्तिशाली बन
चुकी होती है।
सुबह में केवल
थोड़े-से
चुनिंदा लोग आ
जाते हैं
जिनके पास यह
अनुभव करने की
संवेदना होती
है कि कोई
महान चीज उत्पन्न
हो रही है।
तुम बिलकुल
अभी इसे
प्रमाणित
नहीं कर सकते।
समय प्रमाणित
करेगा इसे।
क्या-क्या जनम
ले रहा था इसे
प्रमाणित
होने में
हजारों साल
लगेंगे, लेकिन
यहां होने में
तुम
सौभाग्यशाली
हो। और अवसर
को, सुयोग
को खोना मत।
क्योंकि यह एक
सबसे ज्यादा
ताजी बात है
और सर्वाधिक
रहस्यमय।
यदि
तुम इसे अनुभव
कर सको, यदि
तुम इसे अपने
में गहरे
उतरने दो, तो
बहुत सारी
चीजें संभव हो
जायेंगी बहुत
थोड़े समय में
ही। यह अभी
प्रतिष्ठा की
बात नहीं है
मेरे साथ होना;
यह कोई
प्रतिष्ठापूर्ण
नहीं है।
वस्तुत: केवल
जुआरी मेरे
साथ हो सकते
हैं जो परवाह
नहीं करते और
इसकी फिक्र
नहीं लेते कि
दूसरे क्या
कहते हैं। जो
लोग कुइनया
में सम्मानित
हैं वे नहीं आ
सकते। कुछ
वर्षों
पश्चात, जब
परंपरा धीरे-
धीरे मृत हो
जाती है, तो
वह
प्रतिष्ठित
हो जाती है; तब वे
आयेंगे-
अहंकार के
कारण।
तुम
यहां अहंकार
के कारण नहीं
हो;
बल्कि मेरे
साथ इसलिए हो
क्योंकि कम से
कम अहंकार के
लिए प्राप्त
करने को तो कुछ
नहीं है। तुम
गंवाओगे। ऋषभ
के साथ केवल
वही व्यक्ति
बहे थे जो
जीवंत थे और
साहसी थे और
निर्भीक थे और
जीवट थे।
महावीर के साथ
थे, मृत
व्यापारी-जुआरी
नहीं। इसलिए
जैन लोग
व्यापारी
समुदाय बन
चुके हैं।
उनका सारा
समाज
व्यापारी
समाज है, वे
और कुछ नहीं
करते सिवाय व्यापार
के। व्यापार
संसार की सबसे
कम साहसिक बात
है। इसीलिए
व्यापारी लोग
कायर बन जाते
हैं। पहले से
ही वे कायर थे;
इसीलिए वे
व्यापारी बने।
एक
किसान ज्यादा
साहसी होता है, क्योंकि
वह अशात के
साथ जीता है।
वह नहीं जानता,
क्या घटने
जा रहा है।
बारिश होगी या
नहीं होगी, कोई नहीं
जानता। और
कैसे तुम
बादलों पर
विश्वास कर
सकते हो? तुम
विश्वास कर
सकते हो
बैंकों पर, लेकिन तुम
बादलों पर
विश्वास नहीं
कर सकते। कोई
नहीं जानता, क्या घटित
होने जा रहा
है; वह
अशात पर
निर्भर रहता
है। लेकिन वह
ज्यादा साहसी
जीवन जीता
है-एक योद्धा
की भांति।
महावीर
स्वयं एक
योद्धा थे।
जैनों के
चौबीसों
तीर्थंकर
योद्धा थे। और
कैसा
दुर्भाग्य
घटा,
क्या हुआ कि
सारे अनुयायी
व्यापारी बन
गये? महावीर
के साथ वे
व्यापारी हो
गये क्योंकि
वे केवल
महावीर के साथ
ही आये थे-जब
परंपरा ख्याति
पा गयी थी, जब
पहले से ही
उसके पास एक
पौराणिक अतीत
था उसके बाद
आये; जबकि
वह पहले से ही
एक दंतकथा
जैसी बन चुकी
थी और उसके
साथ होना
प्रतिष्ठादायक
था।
मृत
व्यक्ति केवल
तभी आते हैं
जब कोई चीज
मृत हो जाती
है। जीवंत
व्यक्ति केवल
तब आते हैं जब
कोई चीज जीवंत
होती है। युवा
व्यक्ति
ज्यादा
आयेंगे मेरे
पास। यदि कोई
वृद्ध मेरे
पास आता भी है
तो वह हृदय से
युवा ही होता
है। ज्यादा
उम्र के लोग
तलाश करते हैं
प्रतिष्ठा की, सम्मान
की। वे
जायेंगे
मुरदा चर्च और
मंदिरों की
तरफ, जहां
कुछ नहीं है
सिवाय
रिक्तता के और
बीते हुए अतीत
के। अतीत है
क्या? एक
रिक्तता ही
तो!
कोई
चीज जो जीवंत
है वह यहीं और
अभी है। और जो
चीज जीवंत है
उसका भविष्य
होता है।
भविष्य उसमें
से उपजता है।
जिस क्षण तुम
अतीत की तरफ
देखना
प्रारंभ करते
हो,
कोई विकास
नहीं हो सकता।
क्या
आप किसी गुरुओं
के गुरु से निर्देश
ग्रहण करते है?
नहीं।
फिर भी मैं ग्रहण
करता हूं मदद, जो
ज्यादा सुंदर
है। और मैं
रहा हूं एकाकी,
एक बिना घर
का
बंजारा-सीखता,
आगे बढ़ता, घूमता कहीं
एक स्थान पर न
रुकता। अत:
मेरे ऊपर कोई
नहीं जिससे
मैं आदेश पाऊं।
यदि मुझे कुछ
खोजना होता, तो मुझे
स्वयं ही
खोजना पड़ता।
बहुत मदद
मौजूद थी, लेकिन
मुझे स्वयं
श्रमपूर्वक
उसका हल निकालना
पड़ता था। और
एक तरह से वही
बड़ी मदद बन
जाने वाली है
क्योंकि तब
मैं निर्भर
नहीं करता
किसी
नियमावली पर।
मैं शिष्यों
पर ध्यान देता
हूं। कोई नहीं
है मेरा गुरु
जिस पर मैं
निर्भर रहूं।
मुझे शिष्य की
ओर ज्यादा
गहराई से
देखना पड़ता है
कोई सूत्र पा
लेने को।
कौन-सी चीज
मदद देगी
तुम्हें, इसके
लिए मुझे
तुममें
झांकना पड़ता
है।
इसीलिए
मेरी उपदेशना, मेरी
विधियां, हर
शिष्य के साथ
अलग हैं। मेरे
पास कोई
सार्वभौमिक, सार्वकालिक
फार्मूला
नहीं है। मेरे
पास हो नहीं
सकता। कोई
बिना किसी
मूलाधार के
मुझे ही उत्तर
देना पड़ता है।
मेरे पास पहले
से ही तैयार
बना-बनाया कोई
अनुशासन नहीं
है। बल्कि एक
विकसित होने
वाली घटना है।
प्रत्येक
शिष्य इसमें
कुछ जोड़ देता
है। जब मैं
नये शिष्य के
साथ कार्य
करना शुरू करता
हूं तो मुझे
उसमें झांकना
पड़ता है, खोजना
पड़ता है, पता
लगाना होता है
कौन-सी चीज
उसे मदद देगी,
कैसे वह
विकसित हो
सकता है। और
हर बार हर
शिष्य के साथ,
एक नयी
नियमावली उत्पन्न
हो जाती है।
तुम
सचमुच बड़ी
उलझन में पड़ने
वाले हो मेरे
जाने के
बाद-क्योंकि
हर शिष्य की
ओर से इतनी
ज्यादा कहानियां
होंगी और तुम
कोई ताल-मेल
नहीं बना पाओगे, कोई
ओर-छोर इसमें
से नहीं बना
पाओगे।
क्योंकि मैं
हर व्यक्ति से
बोल रहा हूं
एक व्यक्ति के
रूप में।
पद्धति उसके
द्वारा ही
निर्मित हो
रही है। और यह
विकसित हो रही
है बहुत-बहुत
दिशाओं में।
यह एक विशाल
वुक्ष है। बहुत
सारी शाखाएं
हैं, जो
समस्त दिशाओं
में जा रही ?
मैं
कोई निर्देश
गुरुओं
द्वारा ग्रहण
नहीं करता।
मैं निर्देश
ग्रहण करता
हूं तुमसे ही।
जब मैं तुममें
झांकता हूं
तुम्हारे
अचेतन में, तुम्हारी
गहराई में, मैं वहां से
निर्देश पाता
हूं और मैं
इसे
कार्यवन्तित
करता हूं
तुम्हारे लिए।
यह सदा ही नया
उत्तर होता है।
दूसरा
प्रश्न:
गुरुओं
को किसी
प्रधान गुरु
द्वारा
निर्देश पाने
की आवश्यकता
क्यों होती है? जब
वे संबोधि
प्राप्त कर
लेते हैं तो
क्या वे स्वयं
में काफी नहीं
होते? क्या
सम्बोधि की भी
अवस्थाएं
होती हैं?
नहीं, वस्तुत:
अवस्थाएं
नहीं होतीं, लेकिन जब
गुरु देह में
होता है, और
जब गुरु देह
छोड़ देता है
और देहविहीन
हो जाता है, तो इन दो
बातों में भेद
होता है-लेकिन
ये वास्तव में
अवस्थाएं
नहीं हैं। यह
तो ऐसा है
जैसे तुम
वृक्ष के नीचे
सड़क के किनारे
खड़े हुए हो—तो
तुम देख सकते
हो सड़क का एक
टुकड़ा, लेकिन
तुम उस टुकड़े
के पार नहीं
देख सकते। फिर
तुम वृक्ष पर
चढ़ते हो। तुम
वही रहते हो, तुममें या
तुम्हारी
चेतना में कुछ
नहीं घट रहा।
लेकिन तुम चढ़े
हो वृक्ष पर, और वृक्ष से
तुम अब मीलों
तक इस ओर से
देख सकते हो
और मीलों तक
उस ओर से देख सकते
हो।
फिर
तुम हवाई जहाज
में उड़ान भरते
हो। कुछ नहीं
घटा है, तुममें;
तुम्हारी
चेतना वैसी ही
बनी रहती है।
लेकिन अब तुम
हजारों मील तक
देख सकते हो।
देह में तुम सड़क
पर हो—सड़क के
किनारे होने
जैसे हो—देह
से सीमित। देह
अस्तित्व का
निम्नतम
बिन्दु है क्योंकि
इसका अर्थ
होता है
पदार्थ के साथ
ही प्रतिबद्ध
होना। शरीर और
पदार्थ है
सबसे नीचे का
बिन्दु और
परमात्मा है
उच्चतम
बिन्दु।
जब
कोई गुरु देह
में रहते हुए
सम्बोधि को
उपलब्ध होता
है,
तो देह को
परिपूर्ति
करनी होती है
अपने कर्मों
की, पिछले
संस्कारों
की। हर खाता
बन्द करना
पड़ता है, केवल
तभी देह को
छोड़ा जा सकता
है। यह इस
प्रकार होता
है—तुम्हारा
हवाई जहाज आ
पहुंचा है, लेकिन
तुम्हारे पास
बहुत सारे काम
पडे हैं समाप्त
करने को। सारे
लेनदार वहां
मौजूद है, और
तुम्हारे चले
जाने से पहले
वे खाता बन्द
करने की मांग
कर रहे हैं।
और लेनदार
बहुत हैं, क्योंकि
बहुत जन्मों
से तुम वचन दे
रहे हौ, कई
चीजें कर रहे
हो—कर्म कर
रहे हो और
व्यवहार कर
रहे हो—कई बार
अच्छा, कई
बार बुरा; कई
बार पापी की
भांति और कई
बार संत की
भांति। तुमने
बहुत कुछ
एकत्रित कर
लिया है। इससे
पहले कि तुम
चले जाओ, सारा
अस्तित्व मांग
करता है कि
तुम हर चीज
समुर्ण कर दो।
जब
तुम सम्बोधि
प्राप्त कर
लेते हो तो
तुम जानते हो
कि तुम देह
नहीं हो, लेकिन
तुम देह के और
भौतिक संसार
की बहुत चीजों
के ऋणी होते
हो। समय की
आवश्यकता
होती है। बुद्ध
सम्बोधि को
उपलब्ध होने
के पक्ष्चात
चालीस वर्ष तक
जीवित रहे, महावीर भी
लगभग चालीस
वर्ष ही जीवित
रहे, चुकाने
को ही—वह हर
चीज चुका देने
को जिसके वह देनदार
होते थे; वह
हर चक्र पूरा
कर देने को जो
उन्होंने
शुरू किया था।
कोई नया कर्म
नहीं है, लेकिन
पुरानी लटकने
वाली चीजें
समाप्त करनी ही
होती है; पुराना
मंडराता हुआ
प्रभाव
समाप्त करना
ही पड़ता है।
जब सारे खाते
बन्द हो जाते
हैं, तो अब
तुम तुम्हारे
हवाई जहाज पर
चढ़ सकते हो।
अब
तक पदार्थ
सहित, तुम
क्षैतिजिक
गति से बढ़ रहे
थे—बैलगाड़ी
में ही थे
जैसे। अब तुम
ऊर्ध्व गति से
बढ़ सकते हो। अब
तुम ऊपर की ओर
जा सकते हो।
इसके पहले, तुम हमेशा
आगे जा रहे थे
या पीछे जा
रहे थे; कोई
ऊर्ध्व गति
नहीं थी। परमात्मा
या गुरुओं का
गुरु वह
उच्चतम
बिन्दु है
जहां से बोध
समग्र होता
है। चेतना वही
है; कुछ
नहीं बदला है।
सम्बोधि को
उपलब्ध हुए
व्यक्ति की
वही चेतना है
जैसे कि परम
अवस्था की चेतना
की होती है—जैसे
कि एक भगवान
की होती है।
चेतना का कोई
भेद नहीं
लेकिन बोध, बोध का
क्षेत्र, वह
भिन्न होता
है। अब वह
चारों ओर देख
सकता है।
बुद्ध
और महावीर के
समय में एक
बड़ा विवाद हुआ
था,
इस प्रश्न
के लिए इस
बिन्दु पर उसे
समझ लेना उपयोगी
होगा। एक
विवाद हुआ
था—महावीर के अनुयायी
कहा करते थे
कि महावीर
सर्वशक्तिमान
हैं, सर्वज्ञ
हैं, सर्वव्यापी
हैं, सब
कुछ जानते
हैं। एक तरह
से वे सही
हैं। क्योंकि
एक बार तुम
पदार्थ और देह
से मुक्त हो
जाते हो तो
तुम भगवान हो
जाते हो।
लेकिन एक तरह
से वे गलत थे, क्योंकि देह
से तो तुम
शायद मुक्त हो
सकते हो, लेकिन
तुमने अभी भी
इसे छोड़ा नहीं
है। तादात्म्य
टूट चुका है; तुम जानते
हो कि तुम देह
नहीं हो। पर
फिर भी तुम हो
तो उसी में।
यह
ऐसा है जैसे
कि तुम किसी
घर में रहते
हो;
फिर अचानक
तुम जान जाते
हो कि यह जो घर
है, तुम्हारा
नहीं है। यह
किसी और का घर
है और तुम तो
बस इसमें रह
रहे थे। लेकिन
फिर भी, घर
छोड़ने के लिए
तुम्हें
व्यवस्थाएं
तो करनी पड़ेगी,
तुम्हें
कुछ चीजें
हटानी पडेगी।
और इसमें समय
लगेगा। तुम
जानते हो यह
घर तुम्हारा
नहीं, इसलिए
तुम्हारा भाव
बदल गया है।
अब तुम्हें इस
घर की चिन्ता
नहीं, इसकी
चिन्ता नहीं
कि इसका क्या
होगा। यदि
अगले दिन यह
ग़ीर जाता है
और खण्डहर हो
जाता है, तो
तुम्हें इससे
कुछ नहीं होता।
यदि अगले दिन
तुम्हें इसे
छोड़ना है और
आग लग जाती है,
तो इससे
तुम्हें कुछ
नहीं होता। यह
किसी और का है।
कुछ देर पहले
ही तुम्हारा
घर के साथ
तादात्म्य
बना हुआ था; वह तुम्हारा
घर था। यदि आग
लगती, यदि
मकान गिर जाता,
तुम चिंतित
हो जाते। अब
वह तादात्म्य
टूट गया है।
एक
अर्थ में
महावीर के
अनुयायी सही
हैं,
क्योंकि जब
तुम स्वयं को
जान लेते हो, तो तुम
सर्वज्ञ बन
चुके होते हो।
लेकिन बुद्ध
के अनुयायी
कहा करते थे
कि यह बात सही
नहीं है।
बुद्ध जान
सकते हैं यदि
वे चाहते ही
हों कुछ जानना,
लेकिन तो भी
वे सर्वज्ञ
नहीं हैं। वे
कहा करते थे
कि यदि बुद्ध
चाहें, वे
अपना ध्यान
किसी भी दिशा
में
केन्द्रित कर सकते
हैं। और जहां
कहीं वे अपना
ध्यान
केन्द्रित
करते हैं, वे
जानने में
सक्षम होंगे।
वे सर्वत्रता
पाने में
सक्षम हैं, लेकिन वे
सर्वज्ञ नहीं
हैं। भेद
सूक्ष्म है, नाजुक है, मगर सुन्दर
है। वे कहते
थे कि यदि
बुद्ध हर बात
और सारी चीजें
निरंतर रूप से
जानते, तो
वे पगला ही
जाते। यह शरीर
इतना ज्यादा
बरदाश्त नहीं
कर सकता
वे
भी ठीक हैं।
देहधारी
बुद्ध कोई भी
चीज जान सकता
है यदि वह उसे
जानना चाहे तो।
उनका चैतन्य
देह के कारण
एक टॉर्च की
भांति होता है।
तुम टॉर्च
लेकर अंधेरे
में जाते हो, तुम
कुछ भी जान
सकते हो यदि
उसे कहीं तुम
फोकस कर दो, केन्द्रीभूत
कर दो; प्रकाश
तुम्हारे साथ है।
लेकिन एक
टॉर्च टॉर्च
ही है, वह
कोई ज्योति
नहीं है।
ज्योति तमाम
दिशाओं में
प्रकाश
पहुंचायेगी, टॉर्च एक
विशिष्ट दिशा
में
केन्द्रित
होती है-जहां
कहीं तुम चाहो
वहीं। एक
टाँर्च का कोई
चुनाव नहीं
होता। तुम उसे
उत्तर की ओर
केन्द्रित कर
सकते हो, और
तब यह उत्तर
को उद्घाटित
कर देगी। तुम
इसे दक्षिण की
ओर केन्द्रित
कर सकते हो, और तब यह
दक्षिण को
उद्घाटित कर
देगी। लेकिन
चारों की
चारों दिशाएं
एक साथ
उद्घाटित
नहीं होती हैं।
यदि तुम टॉर्च
को दक्षिण की
ओर घुमा दो, तब उत्तर
बंद हो जाता
है। यह प्रकाश
का एक सीमित
प्रवाह होता
है।
यह
बुद्ध के
अनुयायियों
का दृष्टिकोण
था। महावीर के
अनुयायी कहा
करते थे कि वे
टॉर्च की
भांति नहीं
हैं,
वे दीपक की
भांति हैं; सारी दिशाएं
उद्घाटित हो
जाती हैं।
लेकिन मैं
पसन्द करता
हूं बुद्ध के
अनुयायियों
के दृष्टिकोण
को। जब देह
होती है तो
तुम संकुचित हो
जाते हो। देह
सीमित होती है।
तुम टाँर्च की
भांति बन जाते
हो क्योंकि
तुम हाथों से
तो देख नहीं
सकते, तुम
केवल आंखों से
देख सकते हो।
यदि तुम केवल
आंखों से देख
सकते हो, तो
तुम तुम्हारी
पीठ से नहीं
देख सकते
क्योंकि वहां
तुम्हारी कोई आंखें
नहीं होती हैं।
तुम्हें अपना
सिर घुमाना ही
पड़ता है।
शरीर
के साथ तो हर
चीज
केन्द्रित हो
जाती है और
सीमित हो जाती
है। चेतना तो
अकेन्द्रित
होती है और सब दिशाओं
में बह रही
होती है।
लेकिन यह
माध्यम, यह
शरीर, सभी
दिशाओं में
प्रवाहित
नहीं हो रहा।
यह हमेशा
केन्द्रित
होता है, अत:
तुम्हारी
चेतना भी इसकी
ओर अधोगामी
होकर संकुचित
हो जाती है।
लेकिन जब देह
नहीं बच रहती,
जब बुद्ध
देह छोड़ चुके
होते हैं, तब
कोई समस्या
नहीं रहती।
सारी दिशाएं
एक साथ
उद्घाटित हो
जाती हैं।
यही
सारी बातें
हैं समझने की।
इसीलिए
संबोधि को
उपलब्ध
व्यक्ति भी
निर्देशित
किया जा सकता
है,
क्योंकि वह
संबोधि को
उपलब्ध
व्यक्ति अभी
तक देह की
खूंटी से बंधा
है, देह
में ही लंगर
डाले हुए है, सीमित है
देह में ही।
और एक देहरहित
भगवान अनबंधा
होता है, उच्चतम
आकाश में
तैरता हुआ, प्रवाहित
होता हुआ।
वहां से वह
सारी दिशाओं
को देख सकता
है। वहां से
वह अतीत देख
सकता है, भविष्य
देख सकता है, वर्तमान देख
सकता है। वहां
उसकी दृष्टि
साफ होती है, धुंधली नहीं
होती। इसीलिए
वह मदद कर
सकता है।
देह
से आयी
तुम्हारी
दृष्टि, चाहे
तुम संबोधि को
उपलब्ध हो भी
जाओ, धुंधले
आवरण से घिरी
ही होती है।
देह तुम्हारे चारों
ओर बनी है।
चेतना की
स्थिति वैसी
ही होती है, चेतना का
अंतरतम
यथार्थ वही
होता है, प्रकाश
की गुणवत्ता
वही होती है।
लेकिन एक
प्रकाश देह से
बंध जाता है
और सीमित-संकुचित
हो चुका होता
है, और एक
प्रकाश है जो
किसी चीज से
बिलकुल ही नहीं
बंधा हुआ होता
है। यह मात्र
तैरता हुआ
प्रकाश होता
है। उच्चतम
खुले आकाश में
मार्ग-निर्देशन
संभव होता है।
'गुरुओं
को क्यों
आवश्यकता
होती है किसी
प्रधान गुरु
के निर्देशन
की? ' यही है कारण।’क्या वे
स्वयं में
काफी नहीं
होते, जब
वे संबोधि को
उपलब्ध हो
चुके हों; या
संबोधि की भी
अवस्थाएं
होती हैं? '
वे
बहुत काफी हैं।
वे काफी हैं
शिष्यों का
मार्ग-निर्देशन
करने को; वे
पर्याप्त है
शिष्यों की
मदद करने को।
किसी चीज की
जरूरत नहीं है।
लेकिन फिर भी
वे बंधे होते
हैं। और जो
अनबंधा होता
है वह सदा ही
एक अच्छी मदद
होता है। तुम
नहीं देख सकते
सारी दिशाओं
में, लेकिन
वह देख सकता
है।
गुरु
भी कार्यवाही
कर सकता है और
देख सकता है, तो
भी यह करना
पड़ता है। यही
तो कर रहा हूं
मैं-कोई
निर्देशक ऊपर
नहीं; मुझे
निर्देश देने
को कोई नहीं
है; मुझे
निरंतर कार्य
में बढ़ते रहना
पड़ता है। इस
और उस दिशा से
देख रहा हूं
इस दिशा से और
उस दिशा से
ध्यान दे रहा
हूं।
तुम्हारी ओर
देख रहा हूं
बहुत सारे
दृष्टिकोणों
से जिससे
तुम्हारी
समग्रता देखी
जा सके। मैं
तुम्हारे
आर-पार देख
सकता हूं
लेकिन मुझे
तुम्हारे
चारों ओर
गतिमान होना
पड़ता है।
मात्र एक झलक,
एक सरसरी
दृष्टि मदद न
देगी क्योंकि
वह झलक देह
द्वारा सीमित
हो जायेगी। मै
टॉर्च लिये
हुए हूं और
तुम्हारे
चारों ओर घूम
कर देख रहा
हूं हर संभव
दृष्टिकोण से
देख रहा हूं।
एक
तरह से यह
कठिन है
क्योंकि मुझे
ज्यादा कार्य
करना पड़ता है।
एक तरह से यह
बहुत सुंदर है
कि मुझे
ज्यादा कार्य
करना पड़ता है
और यह कि मुझे
प्रत्येक
संभव
दृष्टिकोण से
देखना पड़ता है।
मैं बहुत सारी
चीजों को जान
लेता हूं
जिन्हें
बने-बनाये
तैयार आदेश
अपने में नहीं
समा सकते हैं।
और जब गुरुओं
के गुरु, जो
पतंजलि की
विचारधारा
में भगवान
हैं-अनुदेश
देते हैं, तो
वे कोई
व्याख्या, कोई
स्पष्टीकरण
नहीं देते; वे तो मात्र
अनुदेश दे
देते है। वे
केवल कह देते
हैं, 'यह
करो; वह मत
करो।’
जो
इन अनुदेशों
के पीछे चलते
हैं,
वे ऐसे
लगेंगे जैसे
कि वे
बने-बनाये
तैयार हों।
ऐसा होगा ही
क्योंकि वे
कहेंगे, 'ऐसा
करो।’ उनके
पास
स्पष्टीकरण
नहीं होगा। और
बहुत
सांकेतिक
अनुदेश दिये
जाते है।
स्पष्टीकरण बहुत
कठिन होता है।
और उसकी कोई
जरूरत भी नहीं
होती, क्योंकि
जब अनुदेश
दिये जाते हैं
उच्चतर दृष्टिकोण
से तो वे ठीक
ही होते हैं।
मात्र
आज्ञाकारी ही
होना होता है।
गुरु
आदेशग्राही
होता है
गुरुओं के
गुरु के प्रति, और
तुम्हें गुरु
के आदेश का
पालन करना
होता है।
आज्ञापालन
पीछे चला ही
आता है। यह
सेना-तंत्र की
भांति है; बहुत
ज्यादा
स्वतंत्रता
नहीं होती।
ज्यादा की
अनुमति नहीं
दी जाती। आशा
तो आज्ञा है।
यदि तुम
स्पष्टीकरण
की मांग करते
हो, तो तुम
विद्रोही
होते हो और
यही है समस्या,
बड़ी
समस्याओं में
से एक है
जिसका सामना
अब मानवता को
करना है। अब
मनुष्य
आज्ञाकारी
नहीं हो सकता
उस तरह, जैसे
कि अतीत में
था। कोई एकदम
ही नहीं कह
सकता, 'यह
मत करो।’ स्पष्टीकरण
की आवश्यकता
होती है। और
कोई साधारण
स्पष्टीकरण
काम न देगा।
बड़ी
प्रामाणिक
स्पष्टता की
जरूरत होती है
क्योंकि
मानवता का मन
ही आज्ञाकारी
नहीं रहा है।
अब
विद्रोहात्मकता
भीतर ही
निर्मित हुई
होती है; अब
एक बच्चा
जन्मजात
विद्रोही
होता है।
बुद्ध
और महावीर के
समय में यह
समपरूपेण
विभिन्न बात
थी। अब हर एक
को सिखाया
जाता है व्यक्ति
होना, स्वयं
अपने बल पर
होना, स्वयं
में विश्वास
करना। आस्था
कठिन बात हो
गयी है।
आज्ञापरायणता
संभव नहीं रही।
यदि कोई बिना
पूछे अनुसरण
कर लेता है, तो तुम
समझते हो, वह
अधानुयायी है।
वह निदिंत हो
जाता है। तो
अब केवल वह
गुरु ही जिसके
पास सारी
व्याख्याएं हैं-जितनी
तुम्हें
चाहिए उससे
ज्यादा, जो
तुम्हें पूरी
तरह थका सके, तुम्हारी
मदद कर सकता
है। तुम पूछते
चले जाओ-वह
दिये जा सकता
है उत्तर। एक
घड़ी आती है जब
तुम पूछने से
थक जाते हो, और तुम कहते
हो, 'ठीक, मैं अनुसरण
करूंगा।’
पहले
कभी ऐसा न था।
बात सीधी-सरल
थी। जब महावीर
ने कहा था, 'यह
करो', हर एक
ने किया था।
लेकिन अब यह
संभव नहीं
क्योंकि आदमी
ही इतना अलग
हो गया है।
आधुनिक मन
विद्रोही मन
है, और तुम
इसे बदल नहीं
सकते। विकास
क्रम ने इसे
इसी तरह का
बना दिया है
और कुछ गलत
नहीं है इसमें।
इसीलिए
पुराने गुरु
मार्ग से अलग
पड़ रहे हैं।
कोई नहीं
सुनता उनकी।
तुम जाओ उनके
पास। उनके पास
आदेश हैं
सुंदर आदेश, लेकिन वे
कोई व्याख्या
देते नहीं हैं,
और पहली चीज
ही व्याख्या
होती है।
अनुदेश तो
तर्कसरणी के
साथ ही पीछे
आना चाहिए।
पहले सारा
स्पष्टीकरण, सारी व्याख्याएं
दे दी जानी
चाहिए, और
तब गुरु कह
सकता है, 'इसीलिए
यह करना है।’
यह
लम्बी
प्रक्रिया है, लेकिन
ऐसी ही है।
कुछ नहीं किया
जा सकता। और
एक अर्थ में
यह सुंदर
विकास है, क्योंकि
जब तुम मात्र
आस्था रखते हो,
तो
तुम्हारी
आस्था में कोई
त्वरा नहीं
होती, कोई
तीव्रता नहीं
होती।
तुम्हारी
आस्था में कोई
तीखापन नहीं
होता। वह एक
मिली-जुली
खिचडीनुमा
चीज होती है-
आकारविहीन।
किसी रंगरूप
का विन्यास
नहीं होता; इसमें कोई
रंग नहीं होता।
यह मात्र
धुंधली होती
है। लेकिन जब
तुम संदेह कर
सको, जब
तुम तर्क कर
सको, और
सोच-विचार कर
सको और गुरु
तुम्हारे
सारे तर्कों
को, विवादों
को और संदेहों
को संतुष्ट कर
सकता हो, तब
उदित होती है
आस्था जिसका
कि अपना एक
सौदर्य होता
है क्योंकि
इसे उपलब्ध
किया गया है
संदेह की
पृष्ठभूमि से।
सारे
संदेहों के
विपरीत इसे
उपलब्ध किया
है,
सारी
चुनौतियों के
विरुद्ध इसे
पाया गया है।
यह बात एक
संघर्ष बनी
रही है। यह
कोई सीधी या
सस्ती बात
नहीं थी; यह
मूल्यवान बात
बनी रही है।
और जब तुम कुछ
प्राप्त करते हो
लंबे संघर्ष
के बाद, तो
उसका एक अपना
ही अर्थ होता
है। यदि तुम
इसे सड़क पर ही
पा लेते हो, जब यह वहां
पड़ा ही होता
है और तुम इसे
घर ले जाते हो,
तो इसका कोई
सौदर्य नहीं
होता। यदि
कोहिनूर
संसार भर में
पड़े होते, तो
कौन फिक्र
करता उन्हें
घर ले जाने की?
यदि
कोहिनूर
मात्र एक
साधारण पत्थर
होता कहीं भी
पड़ा हुआ, तो
कौन करता
परवाह?
पुराने
समय में आस्था
उन कंकड़-पत्थरों
की भांति थी
जो सारी
पृथ्वी पर पड़े
रहते हैं। अब
यह होती है एक
कोहिनूर। अब
इसे होना होता
है कोई कीमती
उपलब्धि।
आदेश काम न
देंगे। गुरु
को अपने
स्पष्टीकरण
में,
व्याख्या
में इतने गहरे
जाना होता है
कि वह तुम्हें
थका देता है।
इसलिए मैं
तुमसे कभी
नहीं कहता कि
मत पूछो।
वस्तुत: विपरीत
है अवस्था।
मैं तुमसे
कहता हूं पूछो
और तुम्हें
प्रश्न मिलते
नहीं हैं।
मैं
तुम्हारे
अचेतन से सारे
संभव प्रश्न
ले जाऊंगा
बाहरी तल तक, और
मै उन्हें
सुलझा दूंगा।
कोई तुमसे न
कह पायेगा कि
तुम
अधानुगामी हो।
और मैं
तुम्हें एक भी
अनुदेश नहीं
दूंगा, तुम्हारे
तर्क को, बुद्धि
को पूरी तरह
संतुष्ट किये
बिना-नहीं; क्योंकि वह
बात किसी तरह
तुम्हें मदद
नहीं देने
वाली।
निर्देश
दिये जाते है
गुरुओं के
गुरु द्वारा, लेकिन
वे होते है
मात्र उद्धृत
शब्द-सूत्र : 'यह करो, वह
मत करो।’ नये
युग में यह
बात काम न
देगी। आदमी अब
इतना बुद्धिवादी
हो गया है कि
चाहे तुम
अतर्कमयता ही
सिखा रहे हो
तो भी तुम्हें
इसके बारे में
तर्कयुक्त
होना होता है।
यही कर रहा
हूं
मैं-तुम्हें
सिखा रहा हूं
असंगत, अतार्किक,
तुम्हें
सिखा रहा हूं
कुछ गढ़ बात-और
तर्क द्वारा।
तुम्हारे
तर्क का, बुद्धि
का इतना
ज्यादा प्रयोग
कर लेना है कि
तुम स्वयं
जागरूक हो जाओ
कि यह व्यर्थ
है, तो तुम
फेंक दो इसे।
तुम्हारे
तर्क के बारे
में तुमसे
इतना ज्यादा
कहना होता है
कि तुम इसके
साथ थककर चूर
हो जाते हो।
तुम गिरा देते
हो इसे स्वयं
ही; किसी
निर्देश
द्वारा नहीं।
निर्देश
दिये जा सकते
है,
लेकिन तुम
चिपक जाओगे।
वे काम न
देंगे। मैं
तुमसे नहीं
कहने वाला कि,
'केवल आस्था
रखो मुझ पर।’ मैं संपूर्ण
स्थिति का
निर्माण कर
रहा हूं जिसमें
कि तुम कुछ और
कर ही न सको।
तुम्हें रखनी
ही होगी आस्था।
इसमें समय
लगेगा। थोड़ा
ज्यादा समय; तब चली
आयेगी
सीधी-सरल आज्ञापरायणता।
लेकिन यह
मूल्यवान
होगी।
तीसरा
प्रश्न:
हम अपनी
मूर्च्छित और
अहंकारप्रस्त
अवस्था में
हमेशा गुरु के
संपर्क में
नहीं होते
लेकिन क्या
गुरु हमेशा
हमारे साथ
संपर्क में
होता है?
हां, क्योंकि
गुरु
तुम्हारी
चारों परतों
के साथ संपर्क
रखता है।
तुम्हारी
चेतन परत
मात्र एक है
चार परतों में
से। लेकिन यह
तभी संभव है
जब तुमने
समर्पण कर दिया
हो और उसे
अपने गुरु के
रूप में
स्वीकार कर लिया
हो, उससे
पहले यह संभव
नहीं। यदि तुम
मात्र एक
विद्यार्थी
होते हो, सीख
रहे होते हो, तब जब तुम
संपर्क में
होते हो तभी गुरु
संपर्क में
होता है; जब
तुम संपर्क
में नहीं होते
तब वह भी
संपर्क में
नहीं होता।
इस
घटना को समझ
लेना है।
तुम्हारे चार
मन होते है-वह
परम मन जो
भविष्य की
संभावना है
जिसके तुम
केवल बीज लिये
हुए हो। कुछ
प्रस्कृटित
नहीं हुआ; केवल
बीज होते हैं,
मात्र
क्षमता होती
है। फिर होता
है चेतन मन-एक बहुत
छोटा टुकड़ा जिसके
द्वारा तुम विचार
करते हो, सोचते
हो, निर्णय
करते हो, तर्क
करते हो, संदेह
करते हो, आस्था
करते हो। यह चेतन
मन गुरु के साथ
संपर्क में होता
है जिसे तुमने
समर्पण नहीं किया
है। तो जब भी यह
संपर्क में
होता है, गुरु
संपर्क में होता
है। अगर यह संपर्क
में नही, तो
गुरु सपर्क में
नही। तुम एक
विद्यार्थी हो,
और तुमने गुरु
को गुरु के रूप
में नही धारण किया
है। तुम अब भी एक
शिक्षक के रूप
में ही उसके
बारे में सोचते
हो।
शिक्षक
और विद्यार्थी
चेतन मन में
अस्तित्व रखते
हैं। कुछ नहीं
किया जा सकता
क्योंकि तुम खुले
हुए नही हो।
तुम्हारे दूसरे
तीनों द्वार बन्द
है। परम चेतना
मात्र एक बीज होती
है। तुम इसके द्वार
नहीं खोल सकते।
उपचेतन
जरा ही नीचे है
चेतन से। वह द्वार
खुलना संभव है
यदि तुम प्रेम
करो। यदि तुम
यहाँ मेरे साथ
हो केवल तुम्हारी
तर्कणा के कारण, तो
तुम्हारा
चेतन द्वार
खुला हुआ है।
जब कभी तुम खोलते
हो इसे, तो मैं
वहा होता हूं।
यदि तुम इसे नहीं
खोलते, तो मैं
बाहर होता हू।
मैं प्रवेश नहीं
कर सकता। चेतन
के नीचे ही उपचेतन
है। यदि तुम मेरे
प्रेम में हो,
यदि यह मात्र
शिक्षक और विद्याथीं
का सबंध नहीं है
बल्कि कुछ ज्यादा
आत्मीयता का संबंध
है, यदि यह प्रेम-जैसी
घटना है, तो
उपचेतनीय द्वार
खुला होता है।
बहुत बार चेतन
द्वार तुम्हारे
द्वारा बंद हो
जायेगा। तुम
मेरे विरुद्ध
तर्क करोगे; कई बार तुम
नकाराअत्म
हो जाओगे; कई
बार तुम मेरे विरुद्ध
हो जाओगे।
लेकिन वह बात महत्व
नहीं रखती।
प्रेम का उपचेतनीय
द्वार खुला होता
है, और मैं सदा
रह सकता हूं
तुम्हारे सपर्क
में।
लेकिन
वह भी एक संपूर्ण
श्रेष्ठ द्वार
नहीं है
क्योंकि कई बार
तुम मुझ से घृणा
कर सकते हो।
यदि तुम मुझे घृणा
करते हो, तो
तुमने वह द्वार
भी बंद कर
दिया है।
प्रेम है वहां,
लेकिन वह
विपरीत बात घृणा
भी वहा है। यह
हमेशा होती है
प्रेम के साथ।
द्वितीय
द्वार ज्यादा
खुला होगा
प्रथम से, क्योंकि
पहला तो अपनी मनोदशा
इतनी तेजी से बदलता
है कि तुम जानते
ही नहीं कि क्या
घट सकता है।
किसी भी क्षण यह
बदल सकता है।
एक क्षण पहले यह
मौजूद था यहां
अगले क्षण यह यहां
नहीं होता।
क्षण मात्र की
घटना होती है।
प्रेम
थोड़ी ज्यादा देर
बना रहता है।
यह भी अपनी भाव
दशाएं बदलता है, लेकिन
इसकी मनोदशाओ की
थोड़ी ज्यादा लंबी
तरंगे होती है।
कई बार तुम मुझे
घृणा करोगे।
तीस दिनो में करीब
आठ दिन ऐसे रहते
होगे-कम से कम एक
सप्ताह तो होता
ही होगा-जिसके
दौरान तुम मुझे
घृणा करोगे।
लेकिन तीन सप्ताह
के लिए तो वह
द्वार खुला होता
है। बुद्धि के
साथ एक सप्ताह
बहुत लंबा है।
यह एक अनंतकाल
होता है।
बुद्धि के साथ
एक क्षण तुम यहां
होते हो, दूसरे
क्षण तुम विरुद्ध
होते हो। पक्ष
में होते हो, फिर विरुद्ध,
और यही चलता
जाता है। यदि दूसरा
द्वार खुला होता
है और तुम प्रेम
में होते हो, चाहे तर्क का
द्वार बंद भी हो,
तो मैं संपर्क
में बना रह सकता
हूं।
तीसरा
द्वार उपचेतन
के नीचे होता
है-जो है अचेतन।
तर्क प्रथम
द्वार खोल
देता है-यदि तुम
मेरे साथ कायल
होने का अनुभव
करो। प्रेम द्वितीय
द्वार खोल देता
है जो पहले से ज्यादा
बड़ा होता है।
यदि तुम मेरे प्रेम
में होते हो-कायल
नही,
बल्कि प्रेम
में होते हो, एक घनिष्ठ संबंध
अनुभव करते हो,
एक समस्वरता,
एक स्नेही
भाव अनुभव करते
हो।
तीसरा
द्वार खुलता है
समर्पण द्वारा।
यदि तुम मेरे द्वारा
संन्यस्त हुए हो, यदि
तुम संन्यास
में छलांग लगा
चुके हो, यदि
तुमने छलांग
लगा दी है और
मुझसे कह दिया
है, ' अब— अब
तुम होओ मेरे
मन। अब 'तुम
थाम लो मेरी
बागडोर। अब
तुम मेरा
मार्ग—निर्देशन
करो और मैं
पीछे चलूंगा। '
ऐसा नहीं है
कि तुम इसे
हमेशा ही कर
पाओगे, लेकिन
मात्र यह
चेष्टा ही कि
तुमने समर्पण
किया, तीसरा
द्वार खोल
देता है।
तीसरा
द्वार खुला
रहता है। हो
सकता है
तार्किक रूप
से तुम मेरे
विरुद्ध होओ।
इससे कुछ फर्क
नहीं पड़ता; मैं
संपर्क में
होता हूं। हो
सकता है तुम
मुझे घृणा
करो। इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता; मै
संपर्क में
होता हूं।
क्योंकि
तीसरा द्वार
सदा खुला रहता
है। तुमने
समर्पण कर
दिया है। और
तीसरे द्वार
को बंद करना
बहुत कठिन
होता है, बहुत—बहुत
कठिन। खोलना
कठिन है, बंद
करना भी कठिन
है। खोलना
कठिन होता है,
पर इतना
कठिन नहीं
जितना कि इसे
बंद करना। लेकिन
वह भी बंद
किया जा सकता
है क्योंकि
तुमने इसे
खोला है। वह
भी किया जा
सकता है बंद।
किसी दिन तुम
निर्णय कर
सकते हो
तुम्हारे
समर्पण को लौटा
लेने का। या
तुम जा सकते
हो और स्वयं
का समर्पण
किसी दूसरे के
प्रति कर सकते
हो। लेकिन ऐसा
कभी नहीं, करीब—करीब
कभी नहीं घटता
है। क्योंकि
इन तीनों
द्वारों सहित
गुरु चौथे
द्वार को
खोलने का कार्य
कर रहा होता
है।
अत:
लगभग असंभव
संभावना होती
है कि तुम
तुम्हारा
समर्पण वापस
लौटा लोगे।
इससे पहले कि
तुमने इसे
लौटा लिया हो, गुरु
अवश्य चौथा
द्वार खोल
चुका होता है,
जो
तुम्हारे
बाहर होता है।
तुम इसे खोल
नहीं सकते, तुम इसे बंद
नहीं कर सकते।
जो द्वार तुम
खोलते हो, इसके
तुम मालिक
रहते हो और
तुम उसे बंद
भी कर सकते
हो। लेकिन
चौथे को तुमसे
कुछ लेना—देना
नहीं होता है।
वह है परम
चेतना। इन
तीनों
द्वारों को
खोलना आवश्यक
है। जिससे कि
गुरु चौथे
द्वार के लिए
चाबी गढ़ सके, क्योंकि
तुम्हारे पास
नहीं है चाबी।
अन्यथा तुम
स्वयं उसे
खोलने के
योग्य हो
जाते। गुरु को
इसे गढ़ना होता
है। यह एक
जालसाजी, एक
फोर्जरी है
क्योंकि
स्वयं मालिक
के पास चाबी
नहीं है।
गुरु
का सारा
प्रयास यही है
कि इन तीनों
द्वारों से
चौथे में
प्रवेश करना
और चाबी गढ़ना
और इसे खोलना, इसके
लिए उसे
पर्याप्त समय
मिले। एक बार
यह खुल जाता
है, तो तुम
नहीं रहते। अब
तुम कुछ नहीं
कर सकते। तुम
तीनों के
द्वार बंद कर
सकते हो, लेकिन
उसके पास चाबी
है चौथे की और
वह हमेशा संपर्क
में है। तब
चाहे तुम मर
भी जाओ, इससे
कुछ नहीं
होता। यदि तुम
पृथ्वी के
बिलकुल अंत तक
चले जाओ, यदि
तुम चांद पर
चले जाओ, इससे
कोई अंतर नहीं
पड़ता; उसके
पास चौथे की
चाबी है। और
वस्तुत: सच्चा
गुरु कभी भी
चाबी रखता
नहीं। वह
सिर्फ खोल देता
है चौथे को और
चाबी फेंक
देता है
समुद्र में।
अत: कोई
संभावना नहीं
होती इसे
चुराने की या
कुछ करने की।
कुछ नहीं किया
जा सकता।
मैंने
तुममें से
बहुतों के
चौथे द्वार की
चाबी गढ़ ली और
फेंक दी है।
अत: स्वयं को
नाहक परेशान
मत करो; यह
व्यर्थ है। अब
कुछ नहीं किया
जा सकता। एक बार
चौथा द्वार
खुल जाता है
तो कोई समस्या
नहीं रहती।
सारी
समस्याएं
इससे पहले की
ही होती है।
ठीक अंतिम
क्षण गुरु
तैयार कर रहा
होता है चाबी
क्योंकि चाबी
कठिन होती है।
लाखों
जन्मों से
द्वार बंद रहा
है,
इसने तमाम
तरह की जंग
इकट्ठी कर ली
है। यह दीवार
की भांति लगता
है, द्वार
की भांति
नहीं। ताला
कहां है, इसे
खोजना कठिन
होता है। और
हर किसी के
पास अलग ताला
है। अत: कहीं
कोई मास्टर—की,
कोई परम
कुंजी नहीं
है। एक चाबी
काम न देगी क्योंकि
हर कोई उतना
ही अनूठा है
जितना कि
तुम्हारे
अंगूठे का
चिह्न। कोई
दूसरा वह
चिह्न कहीं
नहीं पा
सकता-न तो अतीत
में, न ही
भविष्य में।
तुम्हारे
अंगूठे का
चिह्न तो बस
तुम्हारा होगा,
एकमेव घटना।
यह कभी दोहराई
नहीं जाती है।
तुम्हारे
अंतर-कोष्ठ का
ताला भी
तुम्हारे अंगूठे
के चिह्न की
भांति ही होता
है। यह नितांत
वैयक्तिक
होता है। कोई
परम कुंजी मदद
नहीं कर सकती।
इसीलिए गुरु
की जरूरत होती
है,
क्योंकि
परम कुंजी
खरीदी नहीं जा
सकती है। वरना
एक बार चाबी
तैयार हो जाये,
तो हर किसी
का द्वार खोला
जा सकता है।
नहीं, प्रत्येक
व्यक्ति के
पास अलग ढंग
का द्वार है, अलग प्रकार
का ताला है।
उस ताले के
बंद होने, खुलने
का अपना ढंग
होता है। गुरु
को ध्यान देना
है और खोजना
है और चाबी गढनी
है-कोई
विशिष्ट चाबी।
एक
बार तुम्हारा
चौथा द्वार
खुल जाता है, तब
गुरु सतत
तुम्हारे साथ
गहन संपर्क
में होता है।
तुम चाहे उसे
बिलकुल ही भूल
जाओ; इससे
कोई अंतर नहीं
पड़ता है। तुम
उसे याद न करो,
इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। गुरु
देह छोड़ दे, इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। जहां
कहीं वह हो, जहां कहीं
तुम हो, द्वार
खुला ही होता
है। और यह
द्वार
समय-स्थान के
पार रहता है।
इसीलिए यह परम
मन है, यह
परम चेतन है।
'हम
अपनी मूर्च्छित
और अहंकारी
अवस्था में
सदा ही गुरु
के संपर्क में
नहीं होते
लेकिन गुरु
क्या सदा
हमारे संपर्क
में होता है? '-हां,
लेकिन
सिर्फ तभी, जब चौथा
द्वार खुला हो।
अन्यथा तीसरे
द्वार पर, वह
कुछ अंश तक
संपर्क में
होता है।
दूसरे द्वार
पर करीब आधे
समय वह संपर्क
में होता है।
पहले द्वार पर,
वह केवल
क्षणमात्र
संपर्क में
होता है।
अत:
मुझे
तुम्हारा
चौथा द्वार
खोलने दो। और
चौथा द्वार एक
निश्रित घड़ी
में ही खुलता
है। वह घड़ी
आती है जब
तुम्हारे
तीनों द्वार
ही खुले हों।
यदि एक भी
द्वार बंद हो, तो
चौथा द्वार
नहीं खुल सकता
है। यह एक
गणित भरी
पहेली है। और
ऐसी अवस्था की
जरूरत होती
है-कि
तुम्हारा पहला-वह
चेतन द्वार
खुला रहना
चाहिए। फिर
तुम्हारा
दूसरा द्वार
खुला होना
चाहिए-तुम्हारा
उपचेतन, तुम्हारा
प्रेम। यदि
तुमने समर्पण
कर दिया है, यदि तुमने
दीक्षा में
कदम रख लिया
है, तब तुम्हारा
तीसरा, अचेतन
द्वार खुला
होता है।
जब
तीनों द्वार
खुले होते हैं, जब
तीनों के
तीनों द्वार
खुले होते हैं
तो एक निश्रित
घड़ी में चौथा
द्वार खोला जा
सकता है। तो
ऐसा घटता है
कि जब तुम
जागे हुए होते
हो, चौथा
द्वार कठिन है
खोलना। जब तुम
सोये हुए होते
हो, केवल
तभी। अत: मेरा
वास्तविक
कार्य दिन में
नहीं होता। यह
रात्रि में होता
है जब तुम
गहरी नींद में
खराटे भर रहे
होते हो, क्योंकि
तब तुम कोई
मुश्किल नहीं
खड़ी करते। तुम
गहरी नींद में
सोये होते हो,
इसीलिए तुम
उल्टे तर्क
नहीं करते।
तुम तर्क करने
की बात भूल
चुके होते हो।
गहरी
नींद में
तुम्हारा
हृदय ठीक
कार्य करता है।
तुम इस समय
ज्यादा
प्रेममय होते
हो उसकी अपेक्षा, जिस
समय कि तुम
जागे हुए हो।
क्योंकि जब
तुम जागे हुए
होते हो, बहुत
सारे भय
तुम्हें घेर
लेते हैं। और
भय के कारण ही
प्रेम संभव
नहीं हो पाता।
जब तुम गहरी
नींद में सोये
हुए होते हो, भय तिरोहित
हो जाते हैं, प्रेम खिलता
है। प्रेम एक
रात्रि-पुष्प
है। तुमने
देखा होगा रात
की रानी को-वह
फूल जो रात्रि
में खिलता है।
प्रेम रात की
रानी है। यह
रात में खिलता
है-तुम्हारे
कारण ही; और
कोई दूसरा
कारण नहीं। यह
खिल सकता है
दिन में, लेकिन
तब तुम्हें
स्वयं को
बदलना होता है।
इससे पहले कि
प्रेम दिन में
खिल सके, भारी
परिवर्तन की
आवश्यकता
होती है।
इसीलिए
तुम देख सकते
हो कि जब लोग
नशे की मस्ती
में होते हैं
तो वे ज्यादा
प्रेममय होते
हैं। चले जाओ
किसी मधुशाला
में जहां
लोगों ने बहुत
ज्यादा पी रखी
हो;
वे लगभग सदा
ही प्रेममय
होते हैं।
देखना दो
शराबियों को
सड़क पर चलते
हुए एक-दूसरे
के कंधों पर
झूलते
हुए-इतने
प्रेममय-जैसे
कि एक हों। वे
सोये हुए हैं।
जब
तुम भयभीत
नहीं होते, तब
प्रेम खिलता
है। भय है विष।
और जब तुम
नींद में गहरे
उतरे होते हो
तो तुम पहले
से ही समर्पित
हो ही, क्योंकि
निद्रा है ही
समर्पण। और
यदि तुमने
गुरु को
समर्पण कर
दिया है, तो
वह तुम्हारी
निद्रा में
प्रवेश कर
सकता है। तुम
सुन भी न
पाओगे उसकी
पगध्वनि। वह
चुपचाप
प्रवेश कर
सकता है और
कार्य कर सकता
है। यह एक
कूट-रचना, एक
फोर्जरी है, बिलकुल वैसी
है जैसे कि
चोर उस समय
रात में प्रवेश
करे, जबकि
तुम सोये होते
हो। गुरु एक
चोर है। जब
तुम गहरी
निद्रा में
होते हो और
तुम नहीं जानते
कि क्या घट
रहा है, वह
प्रवेश करता
है तुममें, और चौथा
द्वार खोल
देता है।
एक
बार चौथा
द्वार खुल
जाता है, तो
कोई समस्या
नहीं रहती। हर
कोशिश और हर
मुसीबत जो तुम
बना सकते हो, तुम उसे
निर्मित कर
सकते हो केवल
चौथे के खुलने
से पहले ही।
वह चौथा द्वार
ना-वापसी है।
एक बार चौथा
खुल जाता है, तो गुरु
चौबीसों घंटे
तुम्हारे साथ
रह सकता है।
तब कोई मुश्किल
नहीं है।
प्रश्न
चौथा:
कोई इच्छाओ
को दबाये बिना
उन्हे कैसे काट
सकता है?
इच्छाएं
सपने हैं, वे
वास्तविकताएं
नहीं हैं। तुम
उन्हें
परिपूर्ण
नहीं कर सकते
और तुम उन्हें
दबा नहीं सकते,
क्योंकि
तुम्हारे
किसी निश्रित
चीज को परिपूर्ण
करने के लिए
उसके
वास्तविक
होने की जरूरत
होती है।
तुम्हारे
किसी निशित
चीज को दबाने
के लिए भी
उसके वास्तविक
होने की
आवश्यकता
होती है।
आवश्यकताएं
परिपूर्ण की
जा सकती हैं
और आवश्यकताएं
दबायी जा सकती
हैं। इच्छाएं
न तो परिपूर्ण
की जा सकती
हैं और न ही ये
दबायी जा सकती
हैं। इसे
समझने की
कोशिश करना
क्योंकि यह
बात बहुत जटिल
होती है।
इच्छा
एक सपना है।
यदि तुम इसे
समझ लो, तो यह
तिरोहित हो
जाती है। इसका
दमन करने की
कोई जरूरत
नहीं होगी।
इच्छा का दमन
करने की क्या
जरूरत है? तुम
बहुत
प्रसिद्ध
होना चाहते
हो-यह एक सपना
है, इच्छा
है, क्योंकि
शरीर को परवाह
नहीं रहती
प्रसिद्ध होने
की। वस्तुत:
शरीर बहुत
ज्यादा दुख
उठाता है जब
तुम प्रसिद्ध
हो जाते हो।
तुम्हें पता
नहीं शरीर किस
तरह दुख पाता
है जब तुम
प्रसिद्ध हो
जाते हो। तब
कहीं कोई
शांति नहीं।
तब निरंतर
दूसरों
द्वारा तुम
परेशान किये
जाते हो, पीड़ित
किये जाते हो
क्योंकि इतने
प्रसिद्ध हो
तुम।
वोलेयर
ने कहीं लिखा
है,
जब मैं
प्रसिद्ध
नहीं था, तो
मैं हर रात
ईश्वर से
प्रार्थना
किया करता था
कि 'मुझे
प्रसिद्ध बना
दो। मैं
ना-कुछ हूं अत:
मुझे 'कुछ'
बना दो। और
फिर मैं
प्रसिद्ध हो
गया। फिर
मैंने
प्रार्थना
करनी शुरू कर
दी, बस, बहुत
हो गया। अब
मुझे फिर से
ना-कुछ बना दो
क्योंकि इससे
पहले, जब
मैं पेरिस की
सड्कों पर
जाया करता था,
कोई मेरी ओर
नहीं देखता और
मुझे इतना
बुरा लगता था।
कोई मेरी ओर
जरा भी ध्यान
नहीं देता था,
जैसे कि मैं
बिलकुल कोई
अस्तित्व
नहीं रखता था।
मैं
रेस्तराओं
में
घूमता-फिरता
रहता और बाहर चला
आता। कोई नहीं,
बैरे तक
मेरी ओर ध्यान
नहीं देते थे।’
फिर
राजाओं की तो
बात ही क्या? उन्हें
पता ही नहीं
था कि वोलेयर
विद्यमान था।’फिर मैं
प्रसिद्ध हो
गया', लिखता
है वह, 'तब
सड्कों पर
घूमना र्का१3एन हो गया था
क्योंकि लोग
इकट्ठे हो
जाते। कहीं भी
जाना कठिन था।
कठिन था
रेस्तरां में
जाना, और
आराम से खाना
खा लेना। भीड़
इकट्ठी हो
जाती।’
एक
घड़ी आयी जब
उसके लिए घर
से बाहर
निकलना लगभग
असंभव हो गया
क्योंकि उन
दिनों पेरिस
में,
फ्रांस में
एक
अंधविश्वास
चलता था कि
यदि तुम किसी
बहुत
प्रसिद्ध
व्यक्ति के
कपड़े का टुकड़ा
ले सको और
उसका लॉकिट
बना लो, तो
यह अच्छी
किस्मत होती
थी। तो
जहां-कहीं से
वह चला जाता, वह लौटता
वस्रविहीन
होकर क्योंकि
लोग उसके कपड़े
फाड़ देते! और
वे उसके शरीर
को भी हानि
पहुंचा देते।
जब वह कहीं
जाता या किसी
दूसरे शहर से
वापस लौटता
पेरिस, पुलिस
की जरूरत पड़ती
उसे घर वापस
लाने को।
अत:
वह प्रार्थना
किया करता था, 'मैं
गलत था। बस
मुझे फिर से
ना-कुछ बना दो,
क्योंकि
मैं जा नहीं
सकता और नदी
को देख नहीं सकता।
मैं बाहर नहीं
जा सकता और
सूर्योदय
नहीं देख सकता।
मैं पहाड़ों पर
नहीं जा सकता;
मैं घूम-फिर
नहीं सकता।
मैं एक कैदी
बन गया हूं।’
जो
प्रसिद्ध हैं
वे हमेशा कैदी
ही होते हैं।
शरीर को जरूरत
नहीं है
प्रसिद्ध
होने की। शरीर
इतनी पूरी तरह
से ठीक है, उसे
इस प्रकार की
किन्हीं
निरर्थक
चीजों की जरूरत
नहीं होती है।
उसे भोजन जैसी
सीधी-सादी
चीजों की
आवश्यकता होती
है। उसे जरूरत
होती है पीने
के पानी की।
इसे मकान की
जरूरत होती है
जब बाहर बहुत
ज्यादा गरमी
होती है। इसकी
जरूरतें बहुत,
बहुत सीधी
होती हैं।
संसार
पागल है
इच्छाओं के
कारण ही, आवश्यकताओं
के कारण नहीं।
और लोग पागल
हो जाते हैं।
वे अपनी
आवश्यकताएं
काटते चले
जाते हैं, और
अपनी इच्छाएं
उपजाये और
बढ़ाये चले
जाते हैं। ऐसे
लोग हैं जो हर
दिन का, एक
समय का भोजन
छोड़ देना पसंद
करेंगे, पर
वे अपना अखबार
नहीं छोड सकते।
सिनेमा देखने
जाना नहीं बंद
कर सकते; वे
सिगरेट पीना
नहीं छोड़ सकते।
वे किसी तरह
भोजन छोड़ देते
हैं। उनकी
आवश्यकताएं
गिरायी जा
सकती हैं, उनकी
इच्छाएं नहीं।
उनका मन
तानाशाह बन
चुका है।
शरीर
हमेशा सुंदर
होता है-इसे
ध्यान में
रखना। यह
आधारभूत
नियमों में एक
है जिसे मैं
तुम्हें देता
हूं-वह नियम
जो बेशर्त रूप
से सत्य है, परम
रूप से सत्य
है, निरपेक्ष
रूप से सत्य
है-शरीर तो
हमेशा सुंदर
होता है, मन
है असुंदर। वह
शरीर नहीं है
जिसे कि बदलना
है। इसमें
बदलने को कुछ
नहीं है। यह
तो मन है, जिसे
बदलना है। और
मन का अर्थ है
इच्छाएं।
शरीर
आवश्यकता की
मांग रखता है,
लेकिन
शारीरिक
आवश्यकताएं
वास्तविक
आवश्यकताएं
होती हैं।
यदि
तुम जीना
चाहते हो, तो
तुम्हें भोजन
चाहिए।
प्रसिद्धि की
जरूरत नहीं
होती है जीने
के लिए, इज्जत
की जरूरत नहीं
है जीवित रहने
के लिए।
तुम्हें
जरूरत नहीं
होती बहुत बड़ा
आदमी होने की
या कोई बड़ा
चित्रकार
होने
की-प्रसिद्ध
होने की, जो
सारे संसार
में जाना जाता
है। जीने के
लिए तुम्हें
नोबेल
पुरस्कार
विजेता होने
की जरूरत नहीं
है, क्योंकि
नोबेल
पुरस्कार
शरीर की किसी
जरूरत की
परिपूर्ति
नहीं करता है।
यदि
तुम
आवश्यकताओं
को गिराना
चाहते हो, तो
तुम्हें उनका
दमन करना
होगा-क्योंकि
वे वास्तविक
होती हैं। यदि
तुम उपवास
करते हो, तो
तुम्हें भूख
का दमन करना
पड़ता है। तब
दमन होता है।
और हर दमन गलत
है क्योंकि
दमन एक भीतरी
लड़ाई है। तुम
शरीर को मारना
चाहते हो, और
शरीर
तुम्हारा
लंगर होता है,
तुम्हारा
जहाज जो
तुम्हें
दूसरे किनारे
तक ले जायेगा।
शरीर खजाना
सम्हाले रखता
है, तुम्हारे
भीतर ईश्वर के
बीज को सुरक्षित
रखता है। भोजन
की आवश्यकता
होती है उस
संरक्षण के
लिए, पानी
की आवश्यकता
होती है, मकान
की आवश्यकता
होती है, आराम
की आवश्यकता
होती है-शरीर
के लिए। मन को
किसी आराम की
जरूरत नहीं
होती है।
जरा
आधुनिक
फर्नीचर को
देखो; यह
बिलकुल
आरामदेह नहीं
होता। लेकिन
मन कहता है, 'यह आधुनिक
है और तुम यह
क्या कर रहे
हो, पुरानी
कुर्सी पर
बैठे हो? जमाना
बदल गया है और
नया फर्नीचर आ
गया है।’ आधुनिक
फर्नीचर
सचमुच ही
भयंकर
(वीयर्ड) होता
है। तुम उस पर
बैठे बेचैनी
महसूस करते हो;
तुम बहुत
देर उस पर
नहीं बैठ सकते।
पर फिर भी यह आधुनिक
तो होता है।
मन कहता है आधुनिक
को तो वहां
होना ही चाहिए
क्योंकि कैसे
तुम पुराने हो
सकते हो? आधुनिक
होना है!
आधुनिक
पोशाकें असुविधा
भरी होती हैं, लेकिन
तो भी वे
आधुनिक हैं, और मन कहता
है कि तुम्हें
तो फैशन के
साथ ही चलना
है। और आदमी
बहुत सारी
भद्दी चीजें
कर चुका है फैशन
के ही कारण।
शरीर कुछ नहीं
चाहता; ये
मन की मांगें
हैं और तुम
उन्हें पूरा
नहीं कर
सकते-कभी नहीं,
क्योंकि वे
अवास्तविक
होती हैं।
केवल
अवास्तविकता
ही परिपूर्ण
नहीं की जा सकती।
कैसे तुम
अवास्तविक
आवश्यकता को
परिपूर्ण कर
सकते हो जो कि
वस्तुत: वहां
हो ही नहीं?
प्रसिद्धि
की क्या
आवश्यकता है? जरा
ध्यान करना इस
बात पर। आंखें
बंद करो और
देखो। शरीर
में इसकी
आवश्यकता
कहां पड़ती है?
यदि तुम
प्रसिद्ध हो
तो क्या तुम
ज्यादा स्वस्थ
हो जाओगे? क्या
तुम ज्यादा
शांतिपूर्ण, ज्यादा मौन
हो जाओगे, यदि
प्रसिद्ध हो
जाओ तो? क्या
मिलेगा
तुम्हें इस
बात से?
सदा
शरीर को बनाना
कसौटी। जब कभी
मन कुछ कहे, शरीर
से पूछ लेना, 'क्या कहते
हो तुम?' और
यदि शरीर कहे,
'यह मूढ़ता
है', तो उस
बात को छोड़
देना। और
इसमें दमन
जैसा कुछ नहीं
है क्योंकि यह
एक अवास्तविक
बात है। कैसे
तुम
अवास्तविक
बात का दमन कर
सकते हो?
सुबह
तुम बिस्तर से
उठते हो और
तुम याद करते
हो कोई सपना।
क्या तुम्हें
इसका दमन करना
होता है या कि
तुम्हें इसे
परिपूर्ण
करना होता है? उस
सपने में
तुमने देखा कि
सारे संसार के
सम्राट हो गये
हो। अब क्या
करोगे? क्या
तुम्हें इसे
एक यथार्थ बना
देने की कोशिश
करनी होगी? वरना प्रश्न
उठता है, यदि
हम कोशिश नहीं
करते, तो
यह दमन हो
जाता है।
लेकिन सपना तो
सपना होता है।
कैसे तुम सपने
का दमन कर
सकते हो मे
सपना तो स्वयं
ही तिरोहित हो
जाता है।
तुम्हें तो
केवल सजग रहना
है। तुम्हें
केवल जानना है
कि यह एक सपना
था। जब सपना
एक सपना हो और
उसी रूप में
जाना जाता हो,
तो यह
तिरोहित हो
जाता है।
खोजने
का प्रयत्न
करो कि इच्छा
क्या होती है
और आवश्यकता
क्या होती है।
आवश्यकता
देहोन्मुखी
है,
इच्छा की
अवस्थिति देह
में नहीं होती
है। इसकी कोई
जड़ें नहीं
होतीं। यह मन
में तैरता
विचार-मात्र
है। और लगभग
हमेशा ही
तुम्हारी
शारीरिक
आवश्यकताएं
तुम्हारे
शरीर से आती
हैं और
तुम्हारी मानसिक
आवश्यकताएं
दूसरों से आती
हैं। कोई एक
सुंदर कार
खरीदता है।
किसी दूसरे ने
एक सुंदर कार
खरीद ली है, एक
इंपोर्टेड
कार, और अब
तुम्हारी
मानसिक
आवश्यकता उठ
खड़ी होती है।
कैसे तुम इसे
बरदाश्त कर
सकते हो?
मुल्ला
नसरुद्दीन
कार चला रहा
था और मैं
उसके साथ बैठा
हुआ था। बहुत
गर्मी का दिन
था वह। जिस
घड़ी वह पड़ोस
में दाखिल हुआ, उसने
तुरंत कार की
सारी
खिड़कियां बंद
कर दीं। मैंने
कहा, 'क्या
कर रहे हो?
वह
बोला, आपका
मतलब क्या है?
क्या मैं
अपने
पड़ोसियों को
पता चलने दूं
कि मेरे पास
एअरकंडीशंड
कार नहीं है? '
वह
पसीने से
तरबतर था, और
मैं भी उसके
साथ—साथ पसीना
बहा रहा था।
भट्टी की
भांति थी जगह
एकदम गर्म, लेकिन फिर
भी पड़ोसियों
को यह कैसे
जानने दिया जाये
कि तुम्हारे
पास
एअर—कंडीशंड
कार नहीं है ' यह होती है
मन की जरूरत।
शरीर तो कहता
है, 'गिरा
दो इसे। क्या
तुम पागल हुए
हो? 'इसे
पसीना आ रहा
है, यह कह
रहा है, 'नहीं।
शरीर की सुनो;
मत सुनो मन
की। 'मन की
जरूरतें दूसरों
द्वारा
निर्मित होती
हैं जो कि
तुम्हारे
चारों ओर होते
हैं। वे मूर्ख
हैं, छू
हैं, जड़बुद्धि
हैं।
शरीर
की
आवश्यकताएं
सुंदर होती
हैं,
सीधी—सरल।
शरीर की
जरूरतें पूरी
करना, उनका
दमन मत करना।
यदि तुम उनका
दमन करते हो, तो तुम
अधिकाधिक
रुग्ण और
अस्वस्थ हो जाओगे।
एक बार तुम
जान लो कि कुछ
बातें मन की जरूरतें
हैं, तो मन
की
आवश्यकताओं
की परवाह मत
करना। और जानने
में क्या कोई
बहुत ज्यादा
कठिनाई होती
है? कठिनाई
क्या है? यह
इतना सुगम है
जानना कि कोई
बात मन की
जरूरत ही है।
शरीर से पूछ
भर लेना; शरीर
में
जांच—पड़ताल कर
लेना; जाओ
और ढूंढ लो जड़
को। क्या वहां
कोई जड़ है इसकी?
तुम
नामसमझ मालूम
पड़ोगे।
तुम्हारे
सारे राजा और
सम्राट नासमझ
हैं। जोकर
हैं—जरा
देखना! हजारों
पदकों से, तमगों
से सजे हुए, वे छू जान
पड़ते हैं!
क्या कर रहे
हैं वे? और
इसके लिए
उन्होंने
बहुत लंबा दुख
उठाया है। इसे
प्राप्त करने
को वे बहुत
तकलीफों से गुजरते
रहे हैं और
फिर भी वे
तकलीफ में ही
हैं। उन्हें
होना ही होता
है दुखी। मन
है नरक का द्वार,
और द्वार
कुछ नहीं है
सिवाय इच्छा
के। मार दो इच्छाओं
को। तुम उनसे
कोई रक्त
रिसता हुआ नहीं
पाओगे
क्योंकि वे
रक्तविहीन होती
हैं।
लेकिन
आवश्यकता को
मारते हो तो
रक्तपात होगा।
आवश्यकता को
मार दो, और
तुम्हारा कोई
हिस्सा मर
जायेगा।
इच्छा को मार
दो, और तुम
नहीं मरोगे।
बल्कि इसके
विपरीत, तुम
ज्यादा मुक्त
हो जाओगे।
इच्छाओं को
गिराने से
ज्यादा
स्वतंत्रता
चली आयेगी।
यदि तुम इच्छाओं
से शून्य और
आवश्यकता
युक्त बन सकते
हो, तो तुम
मार्ग पर आ ही
चुके हो। और
तब स्वर्ग बहुत
दूर नहीं है।
आज
इतना ही।
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