दिनांक
9 जनवरी, 1975;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
योगसूत्र:
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां
सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां
भावनातश्चित्तप्रसादनम्।।
33।।
आनंदित
व्यक्ति के
प्रति मैत्री, दुखी
व्यक्ति के
प्रति करुणा,
पुण्यवान
के प्रति मुदिता
तथा पापी के
प्रति
उपेक्षा—इन
भावनाओं का
संवर्धन करने
से मन शांत हो
जाता है।
प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां
वा प्राणस्थ।।
34।।
बारी—बारी
से श्वास बाहर
छोडने और रोकने
से भी मन शांत होता
है।
विषयवती
वा
प्रवृत्तिरुत्पन्ना
मनस: स्थितिनिबधनी।।
35।।
जब
ध्यान से
अतींद्रिय
संवेदना उत्पन्न
होती है तो मन
आत्मविश्वास
प्राप्त करता है
और इसके कारण
साधना का
सातत्य बना
रहता है।
विशोका
वा ज्योतिष्मह।।।
36।।
उस
आंतरिक प्रकाश
पर भी ध्यान करो, जो
शांत है और सभी
दुखों के बाहर
है।
वीतरागविषय
वा चित्तम्।।
37।।
या, जो
वीतरागता को उपलब्ध
हो चुका हो उसका
ध्यान करो।
आनंदित
व्यक्ति के
प्रति मैत्री
दुखी व्यक्ति
के प्रति
करुणा
पुण्यवान के
प्रति मुदिता तथा
पापी के प्रति
उपेक्षा—इन
भावनाओं का सवर्धन
करने से मन शांत
हो जाता है।
इससे
पहले कि तुम
इस सूत्र को
समझो, बहुत
सारी चीजें
समझ लेनी है।
पहली, स्वाभाविक
मनोवृत्ति—जब
कभी तुम किसी
को प्रसन्न
देखते हो, तो
तुम अनुभव
करते हो
ईर्ष्या—प्रसन्नता
नहीं, प्रसन्नता
हरगिज नहीं।
तुम दुखी
अनुभव करते हो।
यह है
स्वाभाविक
मनोवृत्ति।
यह अभिवृत्ति
तुम्हारे पास
पहले से ही है।
और पतंजलि
कहते हैं मन
शांत हो जाता
है प्रसन्न के
प्रति
मित्रता का
भाव करने से।
यह बहुत कठिन
होता है। जो
प्रसन्न है
उसके साथ
मैत्रीपूर्ण
होना जीवन की
सर्वाधिक
कठिन बातों
में से एक है।
साधारणतया
तुम सोचते हो,
यह बहुत सरल
है। यह सरल
नहीं है। ठीक
इसके विपरीत
है अवस्था।
तुम ईर्ष्या
अनुभव करते हो,
तुम दुखी
अनुभव करते हो।
हो सकता है
तुम
प्रसन्नता
दर्शाओ, लेकिन
वह मात्र एक
ऊपरी बात होती
है; एक
दिखावा, एक
मुखौटा होती
है। कैसे
प्रसन्न हो
सकते हो तुम? कैसे हो
सकते हो तुम
शांत, मौन,
यदि
तुम्हारी ऐसी
भावावस्था हो
तो?
सारा
जीवन उत्सव है, सारे
संसार भर में
लाखों
प्रसन्नताएं
घटित हो रही
हैं, लेकिन
यदि तुम्हारी
मनोवृत्ति
ईर्ष्या की है
तो तुम दुखी
होओगे, तुम
सतत एक नरक
में होओगे। और
तुम ठीक नरक
में होओगे
क्योंकि सब ओर
स्वर्ग है।
तुम स्वयं के
लिए एक नरक
निर्मित कर
लोगे—स्व निजी
नरक—क्योंकि
सारा
अस्तित्व
उत्सव मना रहा
है।
रा।
र्युइrाउइ_द कोई
प्रसन्न होता
है तो सबसे
पहले
तुम्हारे मन
में क्या बात
आती है? ऐसा
होता है जैसे
कि प्रसन्नता
तुमसे ले ली
गयी हो, जैसे
कि वह जीत गया
और तुम हार
गये हो, जैसे
कि उसने
तुम्हें छल
लिया हो।
प्रसन्नता
कोई
प्रतियोगिता
नहीं है, अत:
चिंतित मत
होना। यदि कोई
प्रसन्न होता
है, इसका
यह अर्थ नहीं
है कि तुम
प्रसन्न नहीं
हो सकते, कि
उसने ले ली
तुम्हारी
प्रसन्नता
इसलिए अब तुम
प्रसन्न नहीं
हो सकते।
प्रसन्नता
कहीं एक जगह अस्तित्व
नहीं रखती।
अत: यह
प्रसन्न
व्यक्तियों
द्वारा खअ
नहीं की जा
सकती है।
तुम
क्यों अनुभव
करते हो
ईर्ष्या? यदि
कोई धनवान है,
हो सकता है
तुम्हारे लिए
धनवान होना
कठिन हो, क्योंकि
धन—दौलत
परिमाण में
विद्यमान
होती है। यदि
कोई व्यक्ति
भौतिक ढंग से
शक्तिशाली है,
तो शायद
तुम्हारे लिए
कठिन हो
शक्तिशाली
होना क्योंकि
शक्ति के लिए
प्रतियोगिता
होती है।
लेकिन
प्रसन्नता
कोई
प्रतिर्याप्ताता
नहीं है।
प्रसन्नता
अस्तित्व
रखती है
अपरिसीम
मात्रा में।
कोई व्यक्ति
कभी इसे
समाप्त करने
के योग्य नहीं
हुआ; कोई
प्रतियोगिता
बिलकुल ही
नहीं है। यदि
कोई व्यक्ति
प्रसन्न होता
है तो क्यों
तुम ईर्ष्या
अनुभव करते हो?
और ईर्ष्या
के साथ नरक
तुममें
प्रवेश करता
है।
पतंजलि
कहते है, जब
कोई व्यक्ति
प्रसन्न हो, तो
प्रसन्नता
अनुभव करो, मैत्रीपूर्ण
अनुभव करो। तब
तुम्हारे
स्वयं में तुम
भी द्वार
खोलते हो
प्रसन्नता की
ओर। जो
प्रसन्न होता
है उसके प्रति
तुम अगर मैत्रीपूर्ण
अनुभव कर सकते
हो, तो
सूक्ष्म ढंग
से तुरंत तुम
उसकी
प्रसन्नता में
हिस्सेदार
बनने लगते हो;
वह
तुम्हारी भी
हो जाती है। तत्क्षण
ही। और
प्रसन्नता
कोई ऐसी चीज
नहीं है कि
कोई उससे
चिपका रह सके।
तुम उसे बांट
सकते हो। जब
एक फूल खिलता
है, तो तुम
उसमें
हिस्सेदार बन
सकते हो। जब
कोई पक्षी
चहचहाता है, तुम उसमें
हिस्सा ले
सकते हो। जब
कोई व्यक्ति
प्रसन्न होता
है, तो तुम
उसमें हिस्सा
ले सकते हो।
और
इसका सौंदर्य
ऐसा है कि यह
उस व्यक्ति के
बांटने पर
निर्भर नहीं
करता है। यह
तुम्हारे
उसमें
सम्मिलित
होने पर
निर्भर है।
यदि
यह उसके
बांटने पर
निर्भर करता, इस
पर कि वह
बांटता है या
नहीं, तब
यह कोई बिलकुल
ही अलग बात
होती। हो सकता
है वह बांटना
पसंद न करे।
लेकिन इसका तो
बिलकुल कोई
सवाल ही नहीं;
यह उसके
बांटने पर
निर्भर नहीं
करता है। जब
प्रात:
सूयोंदय होता
है तो तुम
प्रसन्न हो सकते
हो, और
सूर्य इस विषय
में कुछ नहीं
कर सकता है।
वह तुम्हें
प्रसन्न होने
से रोक नहीं
सकता है। कोई
प्रसन्न है, तुम
मैत्रीपूर्ण
हो सकते हो।
यह समयरूपेण
तुम्हारा
अपना भाव है, और वह अपनी
प्रसन्नता न बांटकर
तुम्हें रोक
नहीं सकता है।
तुरंत तुम खोल
देते हो द्वार,
और उसकी
प्रसन्नता
तुम्हारी ओर
भी प्रवाहित होती
है।
तुम्हारे
चारों ओर
स्वर्ग
निर्मित कर
लेने का यही
राज है। और
केवल स्वर्ग
में तुम शांत
हो सकते हो।
नरक की ज्वाला
में कैसे तुम
शांत हो सकते
हो?
और कोई
दूसरा
निर्मित नहीं
कर रहा है उसे,
तुम कर रहे
हो उसे
निर्मित। अत: बुनियांदी
बात समझ लेनी
है कि जब कभी
दुख हो, नरक
हो, तुम्हीं
हो उसके कारण।
कभी किसी
दूसरे पर
जिम्मेदारी
मत फेंकना क्योंकि
वह
जिम्मेदारी
का फेंकना
आधारभूत सत्य से
भागना है।
यदि
तुम दुखी हो, तो
केवल तुम, नितांत
तुम ही
जिम्मेदार हो।
भीतर देखो और
उसका कारण
ढूंढो। और कोई
दुखी नहीं
होना चाहता है।
यदि तुम
तुम्हारे
स्वयं के भीतर
कारण खोज लो, तो तुम उसे
बाहर फेंक
सकते हो। कोई
तुम्हारे
रास्ते में
नहीं खड़ा है
तुम्हें
रोकने को। कोई
भी बाधा नहीं
है तुम्हें
प्रसन्न होने
से रोकने के
लिए।
प्रसन्न
व्यक्तियों
के प्रति
मैत्रीपूर्ण होने
से तुम
प्रसन्नता के
साथ अपना स्वर
साध लेते हो।
वे खिल रहे है
और तुम
मित्रता से भर
जाते हो। हो
सकता है वे न
हों
मैत्रीपूर्ण; इससे
तुम्हारा कुछ
लेना—देना
नहीं। हो सकता
है वे तुम्हें
जानते भी न
हों; इससे
कुछ नहीं होता।
लेकिन जहां
कहीं खिलाव है,
जहां आनंद
है, जहां
कोई खिल रहा
है, जब कोई
नाच रहा है और
खुश है और
मुस्करा रहा
है, जहां
कहीं उत्सव है,
तुम
स्नेहपूर्ण
हो जाओ, तुम
उसके हिस्से
बन जाओ। तब वह
तुम्हारे
भीतर
प्रवाहित
होने लगता है।
और कोई नहीं
रोक सकता उसे।
और जब
तुम्हारे
चारों ओर
प्रसन्नता
होती है, तुम
शांत अनुभव
करते हो।
प्रसन्न
व्यक्ति के
प्रति भावना
का संवर्धन करने
से मन शांत हो
जाता है:....।
प्रसन्न
व्यक्ति के
साथ तुम
ईर्ष्या
अनुभव करते हो—एक
सूक्ष्म
प्रतियोगिता
के रूप में।
प्रसन्न
लोगों के साथ
तुम स्वयं को
निम्न अनुभव
करते हो। तुम
आस—पास रहने
को उन लोगों
को चुन लेते
हो सदा जो अप्रसन्न
है। तुम
मित्रता
बनाते हो
अप्रसन्न
व्यक्तियों के
साथ क्योंकि
अप्रसन्न
व्यक्तियों
के साथ तुम
अपने को ऊंचा
अनुभव करते हो।
तुम हमेशा उस
किसी को चुन
लेते हो जो
तुमसे नीचे है।
तुम हमेशा
अधिक ऊंचे से
भयभीत हो जाते
हो;
तुम हमेशा
किसी निम्न को
चुन लेते हो।
और जितना तुम
ज्यादा निम्न
को चुनते हो, उतना नीचे
तुम गिरोगे।
तब फिर और
ज्यादा निम्न
व्यक्तियों
की आवश्यकता
होती है।
उनका
साथ खोजो जो
तुमसे ज्यादा
ऊंचे हों—विवेक
में ऊंचे, प्रसन्नता
में ऊंचे, शांति
में, मौन
में, एकजुट
होने में।
हमेशा ज्यादा
ऊंचे का साथ
खोज लेना
क्योंकि उसी
तरह ही तुम
ज्यादा ऊंचे
हो सकते हो।
तुम घाटियों
के पार हो
सकते हो और
ऊंचे शिखरों
तक पहुंच सकते
हो। यह बात
सीढ़ी बन जाती
है। सदा
ज्यादा ऊंचे
का साथ खोज
लेना, सुंदर
का, प्रसन्न
का साथ। जब
तुम ज्यादा
सुंदर हो
जाओगे; तुम
ज्यादा
प्रसन्न हो
जाओगे।
और
एक बार रहस्य
जान लिया जाता
है,
एक बार तुम
जान लेते हो
कि कैसे कोई
ज्यादा प्रसन्न
होता है, कि
कैसे तुम
दूसरों की
प्रसन्नता के
साथ अपने लिए
भी प्रसन्न
होने की
स्थिति
निर्मित कर सकते
हो, फिर
कोई अड़चन नहीं
रहती। तब तुम
जितना चाहो
उतना आगे बढ़
सकते हो। तुम
हो सकते हो भगवान
जिसके लिए कोई
अप्रसन्नता
अस्तित्व ही नहीं
रखती।
कौन
होता है भगवान? वह
होता है भगवान
जिसने कि जान
लिया है यह
रहस्य, कि
संपूर्ण
विश्व के साथ,
प्रत्येक
फूल के साथ और
प्रत्येक नदी
के साथ और
प्रत्येक
चट्टान के साथ
और प्रत्येक
तारे के साथ
किस प्रकार
प्रसन्न रहना
है। वह जो इस
सतत चिरंतन
उत्सव के साथ
एक हो गया है; जो उत्सव
मनाता है, जो
चिंता में
नहीं पड़ता कि
यह किसका
उत्सव है; जहां
कहीं होता है
उत्सव, वह
भाग लेता है।
प्रसन्नता
में भाग लेने
की यह कला
बुनियादी बातों
में से एक बात
है—यदि तुम
प्रसन्न होना
चाहते हो तो
इसी का अनुसरण
करना है।
तुम
बिलकुल
विपरीत बात
करते रहे हो।
यदि कोई
प्रसन्न होता
है,
तो तुरंत
तुम्हें झटका
लगता है कि यह
कैसे संभव है?
कैसे हुआ कि
तुम प्रसन्न
नहीं हो और वह
प्रसन्न हो
गया है? यह
तो अन्याय हुआ।
यह सारा संसार
तुम्हें धोखा
दे रहा है और
परमात्मा
कहीं है नहीं।
यदि परमात्मा
है तो यह कैसे
हुआ कि तुम
अप्रसन्न हो
और दूसरे
प्रसन्न हुए
जा रहे है? और
ये व्यक्ति जो
प्रसन्न हैं,
वे शोषक हैं,
चालाक है, धूर्त हैं।
वे तुम्हारे
रक्त पर पलते
हैं। वे
दूसरों की
प्रसन्नता
चूस रहे है।
कोई
किसी की
प्रसन्नता
नहीं चूस रहा
है।
प्रसन्नता एक
ऐसी घटना है
कि उसे चूसने
की कोई जरूरत
नहीं है। यह
एक आंतरिक
खिलना है; यह
बाहर से नहीं
आता है।
प्रसन्न
व्यक्तियों
के साथ
प्रसन्न होने
मात्र से तुम
वह स्थिति
निर्मित कर
लेते हो जिसमें
तुम्हारा
अपना
अंतर्पुष्प
खिलने लगता है।
मन
शांत होता है
मित्रता की
मनोवृत्ति का
संवर्धन करने
से:..। पर तुम
निर्मित कर
लेते हो
शत्रुता की
मनोवृत्ति।
तुम उदास
व्यक्ति के
साथ मित्रता
अनुभव करते हो, और
तुम सोचते यह
बहुत धार्मिक
बात है। तुम
उस किसी के
साथ मित्रता
अनुभव करते हो
जो निराश होता
है, दुख
में होता है।
और तुम सोचते
हो यह कोई
धार्मिक आचरण
है, कोई
नैतिकता जिसे
तुम संपन्न कर
रहे हो। लेकिन
तुम क्या कर
रहे हो, तुम्हें
पता नहीं।
जब
तुम मित्रता
अनुभव करते हो
उसके साथ जो
उदास होता है, निराश,
अप्रसन्न, दुखी होता
है तो तुम
स्वयं के लिए
दुख निर्मित
कर लेते हो।
पतंजलि का यह
विचार बहुत
अधार्मिक
मालूम पड़ता है।
ऐसा नहीं है, क्योंकि जब
तुम उनका
संपूर्ण
दृष्टिकोण
समझोगे तो तुम
उसे अनुभव
करोगे जो अर्थ
वे देते हैं।
वे अत्यंत
वैज्ञानिक
हैं। वे कोई
भावुक
व्यक्ति नहीं
हैं। और
भावुकता
तुम्हारी मदद
न करेगी।
तुम्हें
बहुत साफ, स्पष्ट
होना है '.. .दुखी
के प्रति
करुणा'…..।
मित्रता नहीं,
करुणा।
करुणा एक
भिन्न
गुणवत्ता है
और मित्रता एक
अलग ही
गुणवत्ता है।
मैत्रीपूर्ण
होने का अर्थ
है, तुम एक
स्थिति
निर्मित कर
रहे हो जिसमें
कि तुम वही
होना चाहोगे
जैसे दूसरा
व्यक्ति है।
तुम उसी भांति
होना चाहोगे
जैसा
तुम्हारा
मित्र है।
करुणा का अर्थ
है कि कोई
अपनी अवस्था
से गिर गया है।
तुम उसकी मदद
करना चाहते हो,
किंतु उसकी
भांति नहीं
होना चाहोगे।
तुम उसे हाथ
दे देना
चाहोगे, तुम
उसका ध्यान
रखना चाहोगे,
उसे
प्रसन्न करना
चाहोगे लेकिन
तुम उस भांति नहीं
होना चाहोगे
क्योंकि वह
कोई सहायता न
होगी।
कोई
रो रहा है और
बिलख रहा है, और
तुम निकट बैठ
जाते हो और
तुम रोना—चीखना
शुरू कर देते
हो—क्या तुम
उसकी मदद कर
रहे हो? किस
ढंग की है यह
मदद? यदि
कोई दुखी है
और तुम भी
दुखी हो जाओ, तो क्या तुम
उसकी मदद कर
रहे हो? तुम
तो उसका दुख
दुगुना कर रहे
होओगे। वह
अकेला ही दुखी
था; अब दो
व्यक्ति हो
गये हैं जो
दुखी है।
बल्कि दुखी के
प्रति
सहानुभूति
प्रकट करने से
तो तुम फिर एक
चालाकी चल रहे
होते हो। तुम
दुखी के प्रति
सहानुभूति
दिखाते हो, किंतु ध्यान
रहे, गहरे
में
सहानुभूति
कोई करुणा
नहीं है, सहानुभूति
मैत्रीपूर्ण
बात है। जब
तुम
सहानुभूति और
मित्रता
दिखाते हो
निराश, उदास,
दुखी
व्यक्ति के
प्रति, तो
गहरे तल पर
तुम
प्रसन्नता
अनुभव कर रहे
होते हो। वहां
हमेशा
प्रसन्नता की
अंतर्धारा
होती है। उसे
वहां होना ही
है क्योंकि यह
एक सीधा—साफ
गणित है—जब
कोई व्यक्ति
प्रसन्न होता
है, तुम
दुखी अनुभव
करते हो; अत:
जब कोई दुखी
होता है, गहरे
तल पर तुम
बहुत प्रसन्न
अनुभव करते हो।
लेकिन
तुम यह बात
दर्शाते नहीं।
यदि तुम गहराई
से
ध्यानपूर्वक
देखो, यदि
सहानुभूति
प्रकट करते हो
तो ऐसा पाया
जायेगा कि
तुम्हारी
सहानुभूति
में भी
प्रसन्नता की
सूक्ष्म धारा
है। तुम अच्छा
अनुभव करते हो
कि तुम
सहानुभूति दिखाने
की स्थिति में
हो। वस्तुत:
तुम प्रसन्न
अनुभव करते हो
कि यह तुम नहीं
हो जो
अप्रसन्न है।
तुम तो ज्यादा
ऊंचे हो, बेहतर
हो।
लोग
हमेशा अच्छा
अनुभव करते
हैं जब वे
दूसरों के प्रति
सहानुभूति
दिखाते हैं।
वे हमेशा इस
बात से खुश हो
जाते हैं।
गहरे तौर पर
वे अनुभव करते
हैं कि वे
बहुत दुखी
नहीं हैं, कृपा
है परमात्मा
की। जब कोई
मरता है, तो
तुरंत तुममें
एक अंत—प्रवाह
उमड़ आता है, जो कहता है
कि कृपा है
परमात्मा की
कि तुम अभी जिंदा
हो। और तुम
सहानुभूति
प्रकट कर सकते
हो। इसमें कोई
कीमत नहीं
लगती।
सहानुभूति
दिखाने में
तुम्हारा कुछ
खर्च नहीं
होता। लेकिन
करुणा एक अलग
बात है।
करुणा
का अर्थ है कि
तुम दूसरे
व्यक्ति की
मदद करना
चाहोगे। तुम
वह करना
चाहोगे जो कुछ
किया जा सकता
है। उसे उसके
दुख में से
बाहर लाने में
तुम उसकी मदद
करना चाहोगे।
तुम उसके कारण
प्रसन्न नहीं
हो,
किंतु तुम
दुखी भी नहीं
हो।
ठीक
इन दोनों के
बीच है करुणा।
बुद्ध
करुणामय हैं।
वे तुम्हारे
साथ दुखी
अनुभव नहीं
करेंगे क्योंकि
उससे किसी को
मदद नहीं
मिलने वाली।
और वे प्रसन्न
भी नहीं अनुभव
करेंगे।
क्योंकि
प्रसन्नता
अनुभव करने
में कोई तुक
नहीं है। जब
कोई दुखी ही न
हो,
तो वह कैसे
प्रसन्न
अनुभव कर सकता
है गु लेकिन
वे अप्रसन्न
भी अनुभव नहीं
कर सकते
क्योंकि उससे
मदद नहीं
मिलने वाली।
वे करुणा
अनुभव करेंगे।
करुणा है ठीक
इन दोनों के
बीच में। करुणा
का अर्थ है, तुम्हारे
दुख में से
तुम्हें बाहर
लाने में मदद
करना
चाहेंगे।
करुणा का अर्थ
है, वे
तुम्हारे लिए
हैं, लेकिन
विरुद्ध है
तुम्हारे दुख
के। वे तुम्हें
प्रेम करते है,
तुम्हारे
दुख को नहीं।
वे तुम पर
ध्यान देना चाहेंगे,
लेकिन
तुम्हारे साथ
लगे तुम्हारे
दुख पर नहीं।
जब
तुम
सहानुभूतिपूर्ण
होते हो, तब
तुम दुख को
प्यार करने
लगते हो, दुखी
को नहीं। और
यदि अकस्मात
वह व्यक्ति
प्रसन्न हो
जाता है और
कहता है, कोई
फिक्र नहीं, तो तुम्हें
झटक्रा
लगेगा।
क्योंकि वह
तुम्हें अब
अवसर नहीं
देता
सहानुभूतिपूर्ण
होने का और उसे
दिखा देने का
कि तुम कितने
ज्यादा ऊंचे,
बेहतर और
प्रसन्न
व्यक्ति हो।
जो
दुखी है उस
व्यक्ति के
साथ दुखी मत
हो जाना।
इसमें से बाहर
आने में मदद
देना उसे। दुख
को कभी प्रेम
का विषय मत
बनाना, दुख
को कोई स्नेह
मत देना।
क्योंकि यदि
तुम इसे स्नेह
देते हो और
इसे प्रेम का
विषय बनाते हो,
तो तुम इसके
लिए एक द्वार
खोल रहे होते
हो। देर—अबेर
तुम दुखी
होओगे। अलगाव
बनाये रहो।
करुणा का अर्थ
है, तटस्थ
बने रहो। हाथ
बढ़ा दो अपना, पर अलग बने
रहो। करो मदद,
लेकिन दुखी
अनुभव मत करना
और सुखी अनुभव
मत करना; क्योंकि
दोनों एक ही
है। जब सतही
तौर पर किसी
व्यक्ति के
दुख में तुम
दुखी अनुभव
करते हो, गहरे
तल पर सुखी
होने की धारा
दौड़ जाती है।
दोनों बातें
ही गिरा देनी
हैं। करुणा
तुम तक मन की
शांति ले
आयेगी।
बहुत
लोग आते हैं
मेरे पास जो
समाज—सुधारक
है,
क्रांतिकारी
है, राजनेता
है, आदर्शवादी
हैं। और वे
कहते है, 'कैसे
जब संसार में
इतना ज्यादा
दुख है तो आप लोगों
को ध्यान और
मौन सिखा सकते
हैं? वे
मुझसे कहते है,
'यह स्वार्थ
है। ' वे
चाहते है कि
मैं लोगों को
दुखियों के
साथ दुखी होने
की शिक्षा
दूं। वे नहीं
जानते कि वे क्या
कह रहे है।
लेकिन वे बहुत
अच्छा महसूस
करते है।
समाजसुधार का
कार्य करने से,
समाज—सेवा
करने से वे
बहुत अच्छा
अनुभव करते है।
और यदि
अकस्मात यह
संसार स्वर्ग
बन जाये, और
ईश्वर कहे, अब हर चीज
ठीक हो जायेगी',
तो तुम
समाज—सुधारकों
और
क्रांतिकारियों
को परम कष्ट
में पड़ा पाओगे,
क्योंकि
उनके पास करने
को कुछ नहीं
होगा!
खलील
जिब्रान ने एक
छोटी—सी कथा
लिखी है। एक शहर
में,
एक बड़े शहर
में, एक
कुत्ता था जो
उपदेशक और
मिशनरी था और
वह दूसरे
कुत्तों को
उपदेश दिया
करता था, ' भौंकना
बंद करो।
हमारी करीब
निन्यानबे
प्रतिशत
ऊर्जा हम
अनावश्यक रूप
से गंवा देते
हैं भौकने
में। इसलिए हम
विकसित नहीं
हो रहे। बेकार
भौंकना बंद
करो। '
लेकिन
यह भौंकना बंद
करना कठिन है
कुत्तों के लिए।
यह एक
स्वनिर्मित
प्रक्रिया
है। वस्तुत:
वे केवल तभी
सुखी अनुभव
करते है जब वे
भौंकते है, जब
वे भौंक चुके
होते है। फिर
भी उन्होंने
सुनी नेता की,
उस क्रांतिकारी
की, स्वप्नद्रष्टा
की जो देवताओं
के राज्य के
बारे में सोच
रहा था, या
कुत्तों के
राज्य के बारे
में—जो कहीं
आने वाला है
किसी भविष्य
में, जहां
हर कुत्ता
सुधर चुका
होगा और
धार्मिक बन गया
होगा; जहां
कहीं कोई
भौंकना
इत्यादि न
होगा, न
कोई लड़ाई होगी,
और हर चीज
शांत होगी। वह
मिशनरी जरूर
कोई शांतिवादी
रहा होगा!
लेकिन
कुत्ते
कुत्ते ही
हैं।
उन्होंने
सुनी उसकी और
वे बोले, 'तुम
एक महान जीव
हो, और जो
कुछ तुम कहते
हो सच है।
र्लोकेन हम
निस्सहाय है।
क्षुद्र
कुत्ते! हम
इतनी बड़ी
बातें नहीं
समझते। 'तो
सारे कुत्तों ने
स्वयं को
अपराधी अनुभव
किया क्योंकि
वे भौकना बंद
नहीं कर सकते
थे। और वे
नेता के संदेश
में विश्वास
रखते थे। और
वह सही था, तर्कसंगत
था, वे
अनुसरण कर
सकते थे।
लेकिन शरीरों
का क्या करें?
शरीर
अतर्क्य है।
जब कभी कोई
अवसर होता—कोई
संन्यासी पास
से जा रहा
होता, कोई
पुलिस का आदमी,
कोई डाकिया,
तो वे
भौंकते, क्योंकि
वे वर्दियों
के विरुद्ध
होते है!
यह
उनके लिए लगभग
असंभव था। और
उन्होंने यह
बात तय कर ली
थी कि वह
कुत्ता एक
महान प्राणी
है पर फिर भी
हम उसके पीछे
नहीं चल सकते।
वह अवतार की
भांति है।
दूसरे किनारे
का कोई जीव!
इसलिए हम उसे
पूजेंगे, पर
हम अनुसरण
कैसे कर सकते
है उसका?
और वह नेता
अपने वचनों के
प्रति सदा
सच्चा रहता
था। वह कभी
नहीं भौंका।
लेकिन एक दिन
पांसा पलट
गया। एक रात, एक अंधेरी
रात कुत्तों
ने निर्णय
लिया कि 'यह
महान नेता
हमेशा हमें
बदलने की
कोशिश में रहा
है, और
हमने इसकी कभी
नहीं सुनी।
वर्ष में कम
से कम एक बार
नेता के जन्म
दिवस पर हमें
पूर्ण उपवास
रखना चाहिए और
कोई भौकना
वगैरह नहीं
होगा—परम मौन
चाहे कितना ही
कठिन क्यों न
लगे। कम से कम
वर्ष में एक
बार हम ऐसा कर
ही सकते है। ' उन्होंने कर
लिया निश्चय।
और
उस रात एक भी
कुत्ता नहीं
भौंका। वह
नेता देखने को
जाता रहा, इस
कोने से उस
कोने तक, इस
गली से उस गली
तक, क्योंकि
जहां कुत्ते
भौंकते हों, वह उपदेश
देगा। वह बहुत
दुखी अनुभव
करने लगा क्योंकि
कोई नहीं भौंक
रहा था। सारी
रात वे पूरी
तरह चुप थे, जैसे कि कोई
कुत्ता रहा ही
न हो। वह बहुत
स्थानों पर
गया, देखता
रहा। और आधी
रात होने पर
बात उसके लिए
इतनी कठिन हो
गयी, वह एक
अंधेरे कोने
में सरक गया
और भौंकने
लगा।
जिस
घड़ी दूसरे
कुत्तों ने
सुना कि कोई
एक शांति भंग
कर चुका है, वे
बोले, अब
कोई समस्या न
रही। वे जानते
न थे कि नेता
ने ऐसा किया
था। उन्होंने
सोचा कि
उन्हीं में से
किसी एक ने
तोड़ दिया है
वचन। तो अब
उनके लिए
असंभव था
स्वयं को रोके
रखना। सारे
शहर में
भौंकने की
आवाज गज उठी!
वह नेता बाहर
आया और उसने
उपदेश देना
शुरू कर दिया।
यह
होगी हालत
तुम्हारे
सामाजिक
क्रांतिकारियों
की,
सुधारकों की,
गांधीवादियों
की, मार्क्सवादियों
की और भी
दूसरों
की—सारे वादों
की। यदि यह
संसार वास्तव
में ही बदल
जाये तो वे
बहुत कठिनाई
में पड़
जायेंगे। यदि
संसार वस्तुत:
उनके मन के
आदर्श लोक की
बातों को और
परिकल्पनाओं
को परिपूर्ण
कर दे, तो
वे आत्महत्या
कर लेंगे या
पागल हो
जायेंगे। या,
वे बिलकुल
उल्टी बात
सिखानी शुरू
कर देंगे, एकदम
विपरीत; ठीक
उसके उल्टी जो
कि वे अभी
सिखा रहे होते
हैं।
वे
मेरे पास आते
है और कहते है, 'कैसे
आप लोगों से
कह सकते हैं
शांत होने के
लिए जब कि
संसार इतने
दुख में है? क्या वे
सोचते हैं कि
पहले दुख मिटा
देना होता है
और फिर लोग
शांत होंगे? नहीं, यदि
लोग शांत होते
हैं तो ही दुख
मिटाया जा सकता
है, क्योंकि
केवल शांति ही
दुख मिटा सकती
है। दुख एक
दृष्टिकोण
है। इसका
संबंध भौतिक
अवस्थाओं से
कम होता है, ज्यादा
संबंध होता है
अंतर्मन से, अंतचेंतना
से। एक गरीब
आदमी भी
प्रसन्न हो
सकता है और तब
बहुत सारी चीजें
एक क्रम में
घटनी शुरू हो
जाती है।
जल्दी
ही वह दरिद्र
न रहेगा। कैसे
कोई दरिद्र हो
सकता है जब वह
खुश हो तो? जब
तुम प्रसन्न
होते हो, तो
सारा संसार
तुम्हारे साथ
सम्मिलित
होता है। जब
तुम अप्रसन्न
होते हो हर चीज
गलत हो जाती
है। तुम
तुम्हारे
चारों ओर ऐसी
स्थिति
निर्मित कर
लेते हो जो
तुम्हारी
अप्रसन्नता
को वहां बने
रहने देने में
मदद करती है।
यह मन का गति—विज्ञान
है। यह एक
स्वविनाशी
ढंग है। तुम
दुखी अनुभव
करते हो, तब
ज्यादा दुख
तुम्हारी ओर
खिंचा चला आता
है। जब ज्यादा
दुख खिंचा चला
आता है तो तुम
कहते हो, 'कैसे
मैं शांत हो
सकता हूं? इतना
दुख है! ' तब
और भी दुख
तुम्हारी ओर
खिंच जाता है।
तब तुम कहते
हो, ' अब यह
असंभव है। और
वे जो कहते है
कि वे आनंदित
है, जरूर
झूठ बोलते
होंगे। वे
बुद्ध, वे
कृष्ण—वे जरूर
झूठे होंगे।
क्योंकि जो वे
कहते है, वह
कैसे संभव हो
सकता है इतने
ज्यादा दुखों
के बीच मे '
तब
तुम एक स्व—पराजयी
व्यवस्था में
होते हो। तुम
दुख को
आकर्षित करते
हो और न केवल
तुम इसे आकर्षित
करते हो अपने
लिए बल्कि जब
एक व्यक्ति
दुखी होता है, तो
वह दूसरों की
भी मदद करता
है दुखी होने
में। क्योंकि
वे भी छू है
तुम्हारी
भांति ही।
तुम्हें दुख—तकलीफ
में देखकर, वे सहानुभुति
प्रकट करते है।
जब वे
सहानुभूति
प्रकट करते है,
तो वे खुले
हुए हो जाते
है। तो यह ठीक
ऐसा है जैसे
कि एक बीमार
व्यक्ति सारे
समूह को संदूषित
कर देता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन के
डॉक्टर ने उसे
बिल भेजा। वह
बहुत ज्यादा
था। उसका
बच्चा बीमार
था।
नसरुद्दीन का
छोटा बेटा
बीमार था।
उसने डॉक्टर
को फोन किया
और कहने लगा, 'यह
तो बहुत
ज्यादा हुआ।’
डॉक्टर
बोला, 'किंतु
मुझे नौ बार
आना पड़ा
तुम्हारे
बेटे को देखने
के लिए, इसलिए
उसका हिसाब भी
तो रखना है।’ नसरुद्दीन
बोला, ' और
यह मत भूलिए
कि मेरे बेटे
ने सारे गांव
में छूत फैला
दी, और आप
बहुत ज्यादा
कमाते रहे है।
वास्तव में
आपको मुझे
देना चाहिए
कुछ! '
जब
एक आदमी दुखी
होता है, तब वह
संक्रामक
होता है। जैसे
प्रसन्नता
संक्रामक है
ऐसे ही दुख
संक्रामक है।
और जैसे कि
तुम हो, तुम
दुख के प्रति
खुले हुए हो
क्योंकि तुम
अनजाने ही
हमेशा खोज रहे
हो इसे।
तुम्हारा मन
दुख खोजता है
क्योंकि दुख
के साथ तुम
सहानुभूति
अनुभव करते हो।
प्रसन्नता के
साथ तुम्हें
ईर्ष्या
अनुभव होती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी एक बार
मुझसे कहने
लगी,
'सर्दियां आ
रही है, इसलिए
अगर आप नयी
दिल्ली जा रहे
हों तो मेरे लिए
ड्रॉप—डेड कोट
लेते आयें।’ मैं चकित
हुआ। मैं नहीं
समझा, क्या
था उसका मतलब।
फिर भी मैंने
उससे कहा, 'मैं
कोट इत्यादि
के विषय में
ज्यादा जानता
नहीं तो भी
मैने ऐसे किसी
कोट के बारे में
तो कभी सुना
भी नहीं। कैसा
होता है यह 'ड्रॉप—डेड
कोट?' वह
बोली, 'आपने
कभी नहीं सुना
इसके बारे में?
' फिर उसने
हंसना शुरू कर
दिया और कहने
लगी, 'ड्रॉप—डेड
कोट वह कोट
होता है, जिसे
आप पहनते है, तो उसे
देखकर पड़ोसी
तत्क्षण मर कर
गिर जाते है।’
जब
तक कि दूसरे
मरने जैसी
हालत में न
हों,
तुम जीवित
अनुभव नहीं
करते। जब तक
दूसरे दुख में
न हों, तुम
प्रसन्न
अनुभव नहीं
करते। लेकिन
कैसे तुम
प्रसन्न
अनुभव कर सकते
हो जब दूसरे
अप्रसन्न हों?
और कैसे तुम
वास्तव में
जीवंत अनुभव कर
सकते हो जबकि
दूसरे मुरदा
हों? हम एक
साथ अस्तित्व
रखते है और कई
बार तुम कारण
बन सकते हो
बहुत लोगों के
दुख का। तब
तुम अर्जित कर
रहे होते हो
कोई कर्म फल।
हो सकता है
तुमने सीधे
कोई चोट न की
होगी उन्हें;
तुम उनके
प्रति
हिंसात्मक न
रहे होओगे।
सूक्ष्म है यह
नियम। जरूरी
नहीं कि तुम
हत्यारे ही हो,
लेकिन यदि
तुम अपने दुख
द्वारा मात्र
संक्रामक
होते हो लोगों
के प्रति, तो
तुम उसमें
सम्मिलित हो
रहे हो; तुम
दुख निर्मित
कर रहे हो। और
तुम इसके लिए
जिम्मेदार
होते हो। और
तुम्हें कीमत
चुकानी होगी
इसकी। बहुत
सूक्ष्म होती
है यह
प्रक्रिया।
अभी
दो या तीन दिन
पहले ही ऐसा
हुआ कि एक
संन्यासी ने
आक्रमण कर
दिया लक्ष्मी
पर। तुमने
शायद ध्यान भी
न दिया हो कि
तुम सब जिम्मेदार
हो इसके लिए।
क्योंकि
तुममें से
बहुत लोग
शत्रुता
अनुभव कर रहे
थे लक्ष्मी के
प्रति। वह
संन्यासी तो
मात्र
प्रभावित है, पीड़ित
है सिर्फ, एक
दुर्बलतम
क्ली है
तुम्हारे बीच
की। उसने
तुम्हारे
विरोध को ही
अभिव्यक्त कर
दिया है, बस।
वह सबसे
दुर्बल था। वह
प्रभावित हो
गया। और अब
तुम्हें
लगेगा कि वही
जिम्मेदार है।
यह सच नहीं है।
तुमने भी
इसमें हिस्सा
लिया है। सूक्ष्म
है नियम।
कैसे
लिया तुमने
हिस्सा? जब
कभी कोई
व्यवस्था
सम्हाल रहा
होता है—और
यहां की तमाम
चीजों की
व्यवस्था
लक्ष्मी सम्हाल
रही है। तो
बहुत सारी
स्थितियां
होंगी जिनसे
गहरे तल पर
तुम प्रतिरोध
अनुभव करोगे।
जिनके लिए उसे
तुम्हें 'नहीं'
कहना होगा;
जिनमें तुम
आहत अनुभव
करोगे कि
पर्याप्त
ध्यान नहीं दिया
जा रहा है
तुम्हारी ओर;
जिनमें तुम
अनुभव करोगे
कि तुम्हें
ऐसा समझा जा
रहा है जैसे
कि तुम कुछ
नहीं हो। इससे
बचा नहीं जा
सकता है। तब
तुम्हारा
अहंकार चोट
अनुभव करेगा
और तुम शत्रुता
अनुभव करोगे।
अगर
बहुत सारे लोग
किसी एक
व्यक्ति के
प्रति
शत्रुता
अनुभव करते
हैं,
तो उसमें से
सबसे दुर्बल
व्यक्ति
शिकार बन
जायेगा; वह
कुछ करेगा। वह
तुममें सर्वाधिक
पागल था, यह
ठीक है, लेकिन
केवल वह अकेला
ही जिम्मेदार
नहीं है। यदि
तुमने कभी भी
लक्ष्मी के
प्रति विरोध
अनुभव किया हो,
वह इस बात
का हिस्सा बना
और तुमने
अर्जित कर
लिया एक कर्म।
इसलिए जब तक
तुम बहुत
सूक्ष्म रूप
से जागरूक नहीं
हो जाते, तुम
संबोधि को
उपलब्ध नहीं
हो सकते।
चीजें बहुत
उलझी हुई हैं।.
अब
तो पश्चिम में
भी
मनोविश्लेषकों
ने जान लिया
है कि यदि एक
व्यक्ति पागल
हो जाता है तो
सारा परिवार
जिम्मेदार
होता है—समस्त
परिवार। अब वे
सोचते हैं कि
सारे परिवार
का इलाज करना होता
है,
किसी एक
व्यक्ति का
नहीं।
क्योंकि जब एक
व्यक्ति पागल
हो जाता है तो
इससे केवल यही
प्रकट होता है
कि सारे
परिवार में आंतरिक
तनाव है। यह
व्यक्ति उन
सबमें
सवांधिक दुर्बल
है, अत:
तुरत्त वह
सारी बात ही
प्रकट कर देता
है। वह सारे
परिवार की
अभिव्यक्ति
बन जाता है।
और अगर तुम
उसका इलाज
करते हो तो यह
बात मदद न देगी।
अस्पताल में
वह शायद ठीक
भी हो जाये, लेकिन घर
लौटने पर वह
फिर बीमार पड़
जायेगा क्योंकि
सारे परिवार
में आंतरिक
तनाव हैं और
वह सबसे
दुर्बल है।
बच्चे
बहुत ज्यादा
कष्ट पाते हैं
माता—पिता के
कारण। माता—पिता
लड़ते—झगड़ते
रहते हैं; घर
में वे हमेशा
चिंता तथा
तनाव ही बनाते
रहते हैं।
सारा घर
शांतिपूर्ण
समूह के रूप
में अस्तित्व
नहीं रखता, बल्कि आंतरिक
युद्ध और
संघर्ष का रूप
बना होता है।
बच्चा ज्यादा
नाजुक होता है।
वह अजीब—अजीब
तरीकों से
व्यवहार करना
शुरू कर देता
है। और अब
तुम्हारे पास
बहाना होता है
कि तुम तनावमुक्त
और चिंतित हो
बच्चे के ही
कारण। अब मां
और बाप दोनों
बच्चे को लेकर
चिंतित हो सकते
हैं। वे उसे
मनोविश्लेषक
के पास और
डॉक्टर के पास
ले
जायेंगे।
और इस तरह वे
अपना संघर्ष
भूल सकते हैं।
यह
बच्चा एक
जोड़ने वाली
शक्ति बन जाता
है। अगर वह
बीमार होता है, तो
उन्हें
ज्यादा ध्यान
देना होता है
उसकी ओर। और
अब उनके पास
एक बहाना है
इसके लिए कि
क्यों वे
चिंतित है और
तनावपूर्ण
हैं और व्यथित
हैं—क्योंकि
बच्चा बीमार
है। वे नहीं
जानते कि बात
ठीक उल्टी है।
वे चिंतित हैं,
तनावपूर्ण
हैं और
संघर्षरत है
इसलिए बच्चा बीमार
है। बच्चा
निर्दोष होता
है, सुकोमल।
वह तुरंत
प्रभावित हो
सकता है। उसके
चारों ओर उसके
पास अभी कोई
बचाव नहीं है।
और अगर बच्चा
वास्तव में
स्वस्थ हो
जाता है, तो
माता—पिता
ज्यादा
कठिनाई में पड़
जायेंगे।
क्योंकि तब
कहीं कोई
बहाना नहीं है।
यह
एक अंतरंग
समुदाय है।
तुम यहां एक
परिवार के रूप
में रहते हो।
बहुत सारे
तनाव होंगे ही, इसलिए
सजग रहना। उन
तनावों के
प्रति सचेत
रहना क्योंकि
तुम्हारे
तनाव एक शक्ति
निर्मित कर
सकते हैं। वे
संचित हो सकते
हैं और
अकस्मात ही जो
व्यक्ति
दुर्बल हो, भेद्य हो, सीधा—सरल, वह आश्रय—स्थल
बन सकता है
संचित शक्ति
के लिए। तब वह
किसी न किसी
ढंग से
प्रतिक्रिया
करेगा ही। और
तब तुम सब उस
पर
जिम्मेदारी
लाद सकते हो।
लेकिन ऐसा ठीक
नहीं है। अगर
तुमने कभी
प्रतिरोध
अनुभव किया हो,
तो तुम उसका
हिस्सा होते
हो। और यही
बात सच होती
है ज्यादा बड़े
संसार में भी।
गोडसे
ने गांधी की
हत्या कर दी, तो
भी मैं कभी
नहीं कहता कि
गोडसे
जिम्मेदार है।
वह दुर्बलतम
कड़ी था; यह
बात सच है। पर
सारा हिंदू
मानस था
जिम्मेदार।
गांधी के
विरुद्ध
धाराएं थीं
हिंदू
प्रतिरोध की।
यह भाव कि वे
मुसलमानों की
ओर हैं, संचित
हो रहा था। यह
एक वास्तविक
घटना है।
विरोध: संचित
हो जाता है।
बादल की भांति
यह मंडराता है।
और फिर कहीं
कोई कमजोर
हृदय, कोई
बहुत अरक्षित
व्यक्ति
शिकार बन जाता
है। बादल
उसमें एक आधार
पा लेते हैं
और फिर विस्फोट।
और तब हर कोई
मुक्त हो जाता
है। गोडसे
जिम्मेदार है
गांधी की
हत्या करने के
लिए अत: तुम
मार सकते हो
गोडसे को और
खत्म कर सकते
हो बात। तो
सारा देश एक
ही ढंग से चलता
है, और
हिंदू—मन वही
बना रहता है।
कोई परिवर्तन
नहीं।
सूक्ष्म है
नियम।
हमेशा
खोज लेना मन
के गति—वितान
को। केवल तभी
तुम्हारा
रूपांतरण
होगा; अन्यथा
नहीं।
'मन शांत
होता है
आनंदित के
प्रति
मित्रता, दुखी
के प्रति
करुणा, पुण्यवान
के प्रति मुदिता...।’
जरा ध्यान
दो। पतंजलि
सीढ़ियां बना
रहे हैं।
सुंदर और बहुत
सूक्ष्म
सीढ़ियां, लेकिन
एकदम
वैज्ञानिक।’पुण्यवान के
प्रति
प्रसन्नता, पापी के
प्रति
उपेक्षा।’ जब
तुम अनुभव
करते हो कि
कोई भला, धार्मिक
व्यक्ति है, प्रसन्नचित्त
है, तो
साधारण रवैया
यही होता है
कि वह जरूर
धोखा दे रहा
होगा। कैसे
कोई तुमसे
ज्यादा भला हो
सकता है? इसलिए
इतनी ज्यादा
आलोचना चलती
रहती है।
जब
कभी कोई ऐसा
व्यक्ति होता
है जो कि भला
और गुणवान
होता है, तुम
तुरंत आलोचना
करना शुरू कर
देते हो, तुम
उसकी
बुराइयां
खोजने में लग
जाते हो। किसी
न किसी तरह
तुम्हें उसे
नीचे लाना
होता है। वह
भला आदमी हो
नहीं सकता।
तुम यह मान
नहीं सकते।
पतंजलि कहते
हैं, 'पुण्यवान
के प्रति
प्रसन्नता', क्योंकि अगर
तुम पुण्यवान
व्यक्ति की
आलोचना करते
हो, तो
गहरे तल पर
तुम पुण्य की
आलोचना कर रहे
होते हो। अगर
तुम अच्छे
आदमी की
आलोचना कर रहे
हो, तो तुम
उस बिंदु तक
पहुंच रहे हो
जहां तुम मानोगे
कि इस संसार
में अच्छाई
असंभव है। तब
तुम निशित
अनुभव करोगे।
तब तुम अपने
दुष्ट तरीकों
द्वारा आसानी
से चलोगे।
क्योंकि
'कोई नहीं है
भला और नेक, हर कोई मेरी
भांति ही है, मुझसे भी
बदतर।’ इसीलिए
इतनी ज्यादा
निंदा चलती
रहती है—आलोचना
और निंदा।
यदि
कोई कह देता
है,
'वह फलां
व्यक्ति बहुत
सुंदर है', तो
तुरंत तुम कुछ
खोज लेते हो
आलोचना करने
को। इसे तुम
बरदाश्त नहीं
कर सकते।
क्योंकि अगर
कोई गुणवान है
और तुम गुणवान
नहीं हो, तो
तुम्हारा
अहंकार चकनाचूर
हो जाता है।
तब तुम्हें
लगने लगता है,
'मुझे अपने
को बदलना है
और यह तो एक
कठिन प्रयास
है।’ आसान
बात यही होती
है कि निंदा
करो; आसान
यही होता है
कि आलोचना करो।
आसान बात यही
है कि कहो, 'नहीं।
सिद्ध करो इसे।
क्या कह रहे
हो तुम? पहले
सिद्ध करो कि
वह कैसे पुण्यवान
है।’ और
पुण्य को
सिद्ध करना
कठिन होता है,
और किसी चीज
की निंदा कर
उसे अस्वीकार
करना बहुत
आसान होता है।
सिद्ध करना
बहुत कठिन है।
महान
रूसी कथा
लेखकों में से
एक है
तुर्गनेव।
उसने एक कहानी
लिखी है।
कहानी है कि
एक छोटे गांव
में एक
व्यक्ति को मूर्ख
समझा जाता था, और
वह था मूर्ख।
सारा शहर उस
पर हंसता था।
उसे समझा जाता
था मात्र एक
मूढ़, और
शहर का
प्रत्येक
व्यक्ति उसकी
मूर्खता का मजा
लेता। पर वह
अपनी मूर्खता
से थक गया था, इसलिए उसने
एक विद्वान
व्यक्ति से
पूछा, 'क्या
करूं मै?'
वह
बुद्धिमान
व्यक्ति बोला, कुछ
नहीं। बस यही
करो कि चाहे
कौई किसी की
प्रशंसा कर रहा
हो, तुम
उसकी निंदा
करो। यदि कोई
कह रहा हो।’वह पुरुष तो
संत है', तो
कह देना तुरंत,
'नहीं। मैं
अच्छी तरह से
जानता हूं कि
वह एक पापी है।’
यदि कोई कहे,
'यह पुस्तक
बड़ी महान है।’
तुरंत कह दो,
'मैंने पढ़ा
है इसे और
अध्ययन किया
है इसका।’ इसकी
चिंता में मत
पड़ना कि तुमने
इसे पढ़ा है या
नहीं। मात्र
कह देना, 'रही
है यह।’ यदि
कोई कह रहा हो,
'यह पेंटिंग
कला की
उत्कृष्ट
रचनाओं में से
एक है', तो
एकदम कह देना,
'लेकिन कैसी
है यह—मात्र
कैनवास और
रंग! एक बच्चा
बना सकता है
इसे।’ आलोचना
करो, नकारों,
प्रमाण
मांगो और सात
दिन बाद मेरे
पास आना।
सात
दिनों के भीतर
शहर ने अनुभव
करना शुरू कर दिया
कि यह आदमी तो
बड़ा
प्रतिभावान
था। वे कहने
लगे,
'हम कभी न
जानते थे उसकी
प्रतिभाओं के
बारे में। और
हर चीज की
इतनी प्रतिभा
उसमें है। तुम
उसे कोई पेंटिंग
दिखाओ और वह
दिखा देता है
उसके अवगुण।
तुम उसे कोई
बड़ी किताब
दिखाओ और वह
बता देता है
गलतियां।
उसके पास इतना
महान
विवेचनात्मक
मन है। एक
विश्लेषक है।
एक महान
प्रतिभावान।’
सातवें ?? वह उस
बुद्धिमान
व्यक्ति के
पास आया और वह
कहने लगा, ' अब
तुमसे सलाह
लेने की कोई
जरूरत न रही।
तुम नासमझ हो।’
सारा शहर उस
विद्वान
पंडित में
विश्वास रखता था,
और वे सभी
कहने लगे, 'हमारे
प्रतिभा
संपन्न
विशिष्ट
व्यक्ति ने कहा
है कि वह
नासमझ है, तो
वह ऐसा जरूर
होगा ही।’
लोग
हमेशा
नकारात्मक
में आसानी से
विश्वास कर
लेते है
क्योंकि 'नहीं'
को असिद्ध
करना बहुत
कठिन होता है।
कैसे तुम
सिद्ध कर सकते
हो कि जीसस
ईश्वर का बेटा
है? कैसे
करोगे तुम इसे
प्रमाणित? दो
हजार वर्ष हो
चले और ईसाई
धर्म—शाख
सिद्ध करता आ
रहा है इसे
बिना सिद्ध
किये हुए ही।
लेकिन कुछ ही
पलों के भीतर
यह सिद्ध हो
गया था कि वह
अपराधी है, आवारा आदमी,
और उन्हें
मार दिया गया—कुछ
ही पलों में।
कहा था किसी
ने, 'मैंने
इस आदमी को
वेश्या के घर
से बाहर आते
देखा था।’ बस
खत्म! किसी ने
यह जानने की परवाह
नहीं की थी कि
यह व्यक्ति जो
कह रहा है, 'मैने
देखा है', विश्वास
करने योग्य है
या नहीं? किसी
ने नहीं की
परवाह।
नकारात्मक
का सदा ही
सरलता से
विश्वास कर
लिया जाता है
क्योंकि वह
तुम्हारे
अहंकार को पोषित
कर रहा होता
है। विधायक पर
विश्वास नहीं
होता।
तुम
नकार सकते हो
जब कहीं
अच्छाई होती
है। पर तुम
अच्छे
व्यक्ति को
हानि नहीं
पहुंचा रहे हो, तुम
अपने को ही हानि
पहुंचा रहे
होते हो। तुम
आत्म—घातक हो।
तुम वस्तुत:
धीमी
आत्महत्या कर
रहे हो, स्वयं
को विषाक्त कर
रहे हो। जब
तुम कहते हो, 'यह आदमी
अच्छा नहीं है,
वह आदमी भला
नहीं है', तो
वस्तुत: तुम
क्या निर्मित
कर रहे होते
हो? तुम एक
वातावरण
निर्मित कर
रहे हो जिसमें
तुम विश्वास
कर पाओ कि
अच्छाई असंभव
ही है। और जब
अच्छाई असंभव
होती है, तो
कोई जरूरत
नहीं होती
उसके लिए
प्रयास करने की।
तब तुम नीचे
गिर जाते हो।
तब तुम वहीं
ठहर जाते हो
जहां तुम होते
हो। विकास
असंभव हो जाता
है। और तुम जड़
होना, ठहर
जाना चाहोगे,
लेकिन तब
तुम दुख में
विजड़ित होते
हो क्योंकि
तुम दुखी हो।
तुम
सब पूरी तरह
ठहर चुके हो।
यह ठहरना, यह
जड़ता तोड़नी है;
तुम्हें
अपनी जगह से
हिलना है।
जहां भी तुम
हो वहां से
तुम्हें
उखडूना होता है
और अधिक ऊंचे
तल पर पुनआrरोपित होना
होता है। और
यह तभी संभव
होता है जब
तुम गुणवान के
प्रति
प्रसन्नता
अनुभव करते हो।
पुण्यवान
के प्रति मुदिता
(प्रसन्नता)
और बुरे के प्रति
उपेक्षा।
निंदा
भी मत करना
बुराई की।
निंदा करने का
प्रलोभन तो
होगा। तुम
अच्छाई की भी
निंदा करना
चाहोगे।
लेकिन पतंजलि
कहते है बुराई
की निदामत
करना। क्यों? वे
मन के आंतरिक
गति—तंत्र को
जानते है कि
यदि तुम बुराई
की बहुत ज्यादा
निंदा करते हो,
तो तुम बहुत
ज्यादा ध्यान
देते हो बुराई
पर। और धीरे—धीरे
तुम ताल—मेल
बिठा लेते हो
उसके साथ, जिस
किसी पर तुम
ध्यान देते हो।
यदि तुम कहते
हो, 'यह गलत
है', वह गलत
है तो तुम गलत
पर बहुत
ज्यादा ध्यान
दे रहे हो।
तुम गलत के
साथ आसक्त हो
जाओगे। यदि
तुम किसी चीज
पर बहुत
ज्यादा ध्यान
देते हो, तो
तुम सम्मोहित
हो जाते हो।
और जिस किसी
चीज की तुम
निंदा कर रहे
हो, तुम
उसे करोगे।
क्योंकि वह
बात एक आकर्षण
बन जायेगी, एक गहन
आकर्षण।
अन्यथा क्यों
चिंता करनी? वे दुष्ट
हैं, पापी
है, लेकिन
तुम कौन होते
हो उनके बारे
में चिंता करने
वाले?
जीसस
कहते है, 'तुम
मूल्यांकन मत
करना।’ यह
अर्थ करते है
पतंजलि
उपेक्षा का—किसी
भी ढंग से
आलोचना मत
करना, तटस्थ
बने रहना। मत
कहना हां या
नहीं। मत करना
निंदा, मत
करना प्रशंसा।
बस इसे छोड़
देना दिव्यता
पर। इससे कुछ
लेना—देना
नहीं है
तुम्हारा। एक
आदमी चोर है, यह उसका काम
है। यह उसकी
और ईश्वर की
बात है।
उन्हें स्वयं
निर्णय करने
दो; तुम मत
पड़ो बीच में।
कौन कह रहा है
तुम्हें बीच
में पड़ने को? जीसस कहते
है, 'तुम
आलोचना मत करो।’
पतंजलि कहते
है, 'तुम
तटस्थ बने रहो।’
एमिल
कुए संसार के
सबसे बड़े
सम्मोहनविदों
में से एक था।
उसने एक नियम
खोजा—सम्मोहन
का एक नियम।
वह इसे कहता
है उल्टे
परिणाम का
नियम। अगर तुम
किसी चीज के
बहुत ज्यादा
विरुद्ध—होते
हो,
तो तुम उससे
प्रभावित हो
जाओगे। जरा
सड़क पर किसी
नये आदमी को
साइकिल चलाना
सीखते हुए
देखना। वह सड़क
शायद साठ फीट
चौड़ी होती हो
लेकिन मील का
पत्थर होता है
सड़क के किनारे।
भले ही तुम
बहुत अच्छे
साइकिल चलाने
वाले हो और
तुम पत्थर को
अपना निशाना
बना लेते हो।
तुम सोचते हो
कि मैं जाकर
टकरा जाऊंगा पत्थर
से। शायद कई
बार तुम चूक
जाओ लेकिन नया
सीखने वाला
नहीं चूकता।
कभी नहीं। वह
मील के पत्थर
को चूकता नहीं।
अनजाने तौर से,
उसकी
साइकिल पत्थर
की ओर ही बढ़ती
है। और वह सड़क
होती है साठ
फीट चौड़ी।
तुम्हारी आंखों
पर पट्टी भी
बंधी हो तो
तुम बढ सकते
हो बिना पत्थर
से टकराये।
चाहे कोई भी न
हो सड़क पर और
वह संपूर्ण
रूप से निर्जन
हो, और कोई
न चल—फिर रहा
हो।
क्या
घटता है इस
नौसिखिए को? एक
नियम काम कर
रहा होता है।
एमिल कुए इसे
कहता है, विपरीत
परिणाम का
नियम। अभी वह
सीख रहा है
इसलिए वह
घबड़ाया हुआ है;
इसलिए वह आस—पास
देखता है यह
देखने को कि
कहां है खतरे
का स्थल, वह
स्थल, जहां
वह भूल कर
सकता है। सारी
सड़क ठीक है, लेकिन यह
पत्थर, कोने
का यह लाल
पत्थर—यही
खतरनाक है। वह
ऐसा सोचता है,
'शायद मै
इससे टकरा
जाऊं।’ अब
एक जोड्ने
वाली बात
निर्मित हो
जाती है। अब
उसका ध्यान
पत्थर की ओर
लगा है; सारी
सड़क भूल जाती
है। और वह एक
नौसिखिया ही
होता है। उसके
हाथ कांपते
रहते हैं, और
वह देख रहा
होता है पत्थर
की ओर। धीरे—
धीरे वह अनुभव
करता है कि
साइकिल अपने
से चल रही है।
साइकिल
को तो
तुम्हारे मन
के ध्यान का
अनुसरण करना
है। साइकिल का
अपना कोई
संकल्प नहीं
है। यह
तुम्हारे
पीछे आती है—जहां
भी तुम जा रहे
होते हो। तुम
अपनी आंखों का
अनुसरण करते
हो और
तुम्हारी आंखें
एक सूक्ष्म
सम्मोहन का, एक
एकाग्रता का।
तुम देख रहे
हो पत्थर की
ओर, और हाथ
उसी तरफ सरकते
हैं। तुम और
ज्यादा भयभीत
होते जाते हो।
जितने ज्यादा
तुम भयभीत
होते हो, उतने
ज्यादा तुम
पक्क में आ
जाते हो, क्योंकि
अब पत्थर कोई
अनिष्टकारी
शक्ति मालूम
पड़ने लगता है।
जैसे कि पत्थर
तुम्हें खींच
रहा हो। सारी
सड़क भुलायी जा
चुकी है, साइकिल
भुला दी गयी
है, सीखने
वाला खो गया
है। केवल वह
पत्थर है वहां;
तुम
सम्मोहित हो
गये हो। तुम
जा टकराओगे
पत्थर से। अब
तुमने अपने मन
की बात पूरी
कर ली। अगली
बार तुम
ज्यादा भयभीत
होओगे। तो फिर
कैसे छुटकारा
पाओगे इस चक्र
से?
जाओ
मंदिर—मठों
में और सुनो
साधु—संतों को
कामवासना की
निंदा करते
हुए। कामवासना
मील का पत्थर
बन चुकी है।
चौबीसों घंटे
वे इसके बारे
में सोच रहे
हैं। इससे
बचने की कोशिश
करना है, इसके
बारे में
सोचते रहना है।
जितना ज्यादा
तुम इससे बचने
की कोशिश करते
हो उतने
ज्यादा तुम
सम्मोहित हो
जाते हो।
इसीलिए
पुराने
शास्त्रों
में यह बताया
है कि जब संत
एकाग्रता साध
रहा होता है, तो स्वर्ग
की अप्सराएं आ
पहुंचती हैं,
उसकी
मनोदशा को भंग
करने का
प्रयत्न करती
हैं। क्यों
आकृष्ट होंगी
सुंदर
अप्सराएं? अगर
कोई व्यक्ति आंखें
मूंदे वृक्ष
के तले बैठा
हुआ है तो
क्यों रुचि
लेंगी वे
सुंदरियां इस
आदमी में?
कोई
नहीं आता कहीं
से,
लेकिन
व्यक्ति ही
कामवासना के
इतना विरुद्ध होता
है कि यह बात
एक सम्मोहन बन
जाती है। वह
इतना ज्यादा
सम्मोहित
होता है कि अब
सपने सच्चे हो
जाते हैं। वह
अपनी आंखें
खोलता है और
देखता है कि
एक सुंदर नग्न
सी खड़ी हुई है
वहां।
तुम्हें
कामवासना से
भरी अश्लील
किताब चाहिए
होती है नग्न
सी देखने के
लिए। लेकिन
यदि तुम मंदिर—मठों
में जाओ तो
कामवासना से
भरी किताब की
जरूरत न रहेगी
तुम्हें।
चारों तरफ तुम
स्वयं
निर्मित कर
लेते हो तुम्हारी
नग्न
कामवासना। और
तब वह मुनि, वह व्यक्ति
जो एकाग्रता
साध रहा था, ज्यादा
भयभीत हो जाता
है। वह अपनी आंखें
बंद कर लेता
है और अपनी
मुट्ठियां
भींच लेता है।
अब वह सी भीतर
खड़ी हुई है।
और
तुम इतनी
सुंदर
स्त्रियां इस
धरती पर नहीं पा
सकते क्योंकि
वे स्वप्न की
निर्मितिया
हैं,
सम्मोहन
द्वारा उपजी
हैं। और जितना
ज्यादा वह
भयभीत होता है,
उतनी
ज्यादा वे
वहां होती हैं।
वे उसके शरीर
के साथ आ
सटेंगी, वे
उसके सिर का
स्पर्श
करेंगी। वे
उससे चिपक
जायेंगी और
उसे
आलिंगनबद्ध
करेंगी। वह तो
पूर्णतया
पागल हुआ है, पर ऐसा घटता
है। ऐसा
तुम्हें भी घट
रहा है।
मात्राओं का
भेद हो सकता
है, लेकिन
ऐसा ही है कुछ
जो घट रहा है।
जिस—किसी के
तुम विरुद्ध
होते हो, गहरे
तल पर उसके
साथ जुड़ जाओगे।
किसी
चीज के
विरुद्ध मत
होना। बुराई
के विरुद्ध
होना उसी का
शिकार हो जाना
है। तब तुम
बुराई के हाथ
पड़ रहे होते
हो। तटस्थता
बनाये रखना।
यदि तुम
तटस्थता का
अनुसरण करते
हो,
इसका अर्थ
हुआ कि जो कुछ
घट रहा है
उससे तुम्हारा
कोई संबंध
नहीं। कोई
चोरी कर रहा
है तो यह उसका
कर्म है। वह
समझ लेगा इसके
बारे में और
वह दुख भोगेगा
ही। इससे
तुम्हें जरा
भी लेना—देना
नहीं। तुम
इसके बारे में
कुछ मत सोचना
इस पर कोई
ध्यान मत देना।
यदि कोई
वेश्या है और
वह अपना शरीर
बेच रही है, तो वह उसकी
समस्या है।
तुम अपने भीतर
कोई निंदा मत
बना लेना; अन्यथा
तुम आकर्षित
हो जाओगे उसकी
ओर।
ऐसा
हुआ,
और यह बहुत
पुरानी कथा है
कि एक साधु और
एक वेश्या एक
साथ रहते थे।
वे पड़ोसी थे, और फिर वे मर
गये। वह साधु
बहुत
प्रसिद्ध था।
मृत्यु आ
पहुंची और
साधु को नरक
की ओर ले चलने का
प्रयत्न करने
लगी। वे दोनों
एक ही दिन मरे
थे। वह वेश्या
भी मर गयी थी।
साधु
तो चकित था
क्योंकि
वेश्या को
स्वर्ग के मार्ग
पर ले जाया
गया था। अत: वह
कहने लगा, 'यह
क्या है? कुछ
भूल हो गयी
मालूम पड़ती है।
असल में मुझे
ले जाया जाना
चाहिए था
स्वर्ग की ओर।
और यह तो एक
वेश्या है।’
'
श्रीमान यह
बात हम जानते
हैं', उससे
ऐसा कह दिया
गया।’लेकिन
अब, अगर आप
चाहें तो इसे
हम आपको समझा
सकते है। कोई
भूल नहीं हुई।
यही है आज्ञा,
कि वेश्या
को स्वर्ग ही
लाना है और
साधु को फेंक
देना है नरक
में।’ वह
साधु कहने लगा,
'लेकिन
क्यों?' वह
वेश्या भी इस
पर विश्वास न
कर सकती थी।
वह बोली, 'कोई
न कोई भूल
जरूर हुई है।
मुझे स्वर्ग
भेजना है? और
वे एक साधु
हैं, एक
महान साधु। हम
उन्हें पूजते
रहे हैं।
उन्हें ले जाओ
स्वर्ग।’
मृत्यु
बोली, 'नहीं, यह संभव
नहीं, क्योंकि
वह मात्र सतह
पर ही साधु था।
वह निरंतर सोच
रहा था
तुम्हारे
बारे में। जब
तुम रात्रि
में गाना गाती,
वह आता और
तुम्हें
सुनता। वह
बिलकुल अहाते
के निकट आ खड़ा
होता और तुम्हें
सुनता। लाखों
बार उसने चाहा
होगा जाकर
तुम्हें
देखना, तुम्हें
प्यार करना, लाखों बार
उसने
तुम्हारा
सपना देखा। वह
लगातार
तुम्हारे
बारे में सोच
रहा था। उसके
होठों पर तो
नाम रहता
भगवान का; उसके
हृदय में छबि
होती थी
तुम्हारी।’
और
यही बात ठीक
दूसरे छोर से
वेश्या के साथ
थी। वह अपना
शरीर बेच रही
होती, तो भी
हमेशा सोच रही
होती कि वह इस
साधु के समान
जीवन पाना
चाहेगी, जो
कि मंदिर में
रहता है।
कितना शुद्ध
है वह। वह यही
सोचती।
वह साधु का
सपना देखती, शुचिता
का, संतत्व
का, उस
अच्छाई कार
सपना देखती
जिसे कि वह
चूक रही थी।
और जब ग्राहक
जा चुके होते,
तब वह भगवान
से प्रार्थना
करती,।'!अगली बार
फिर मत बनाना
मुझे वेश्या।
मुझे पुजारी
बना देना; मुझे
ध्यानी बना
देना। मैं
मंदिर में
समर्पित हो
सेवा करना
चाहूंगी।’
और
बहुत बार उसने
मंदिर जाने की
बात सोची, लेकिन
उसे लगा कि वह
पाप में इतनी
फंसी हुई है कि
मंदिर में
प्रवेश करना
ठीक नहीं।
'वह स्थान
इतना पवित्र
है और मै इतनी
पापी हूं,, वह
ऐसा सोचती। और
बहुत बार उसने
चाहा साधु के
चरणों को छू
लेना, लेकिन
उसने सोचा कि
यह अच्छा न
होगा। मैं
इतनी योग्य
नहीं कि उनके
चरणों को
स्पर्श करूं,
वह सोचती
रहती। तो जब
साधु वहां से
गुजरता, वह
केवल धूल संजो
लेती उस मार्ग
की जहां उसके
चरण पड़े थे, और वह पूजा
करती उस चरणरज
की, उस धूल
की।
बाहर
से तुम क्या
हो इसका सवाल
नहीं। जो
तुम्हारा आंतरिक
सम्मोहन है वह
तुम्हारे
जीवन के भावी
क्रम को
निश्चित
करेगा। बुराई
के प्रति
तटस्थ रहना।
तटस्थता का, उपेक्षा
का अर्थ
भावशून्यता
नहीं है, इतना
ध्यान रहे। ये
सूक्ष्म भेद
हैं। तटस्थता
का अर्थ
भावशून्यता
नहीं है। इसका
अर्थ यह नहीं
कि तुम अपनी आंखें
मींच लो।
क्योंकि अगर
तुम उन्हें
मींचते भी हो
तो एक दृष्टिकोण
बना लेते हो, एक
मनोवृत्ति।
इसका अर्थ यह
नहीं होता कि
परवाह ही मत
करो, क्योंकि
वहां भी, एक
सूक्ष्म
निंदा उसमें
छुपी हुई होती
है। तटस्थता
इतना ही सूचित
करती है, 'तुम
कौन होते हो
निर्णय करने
वाले, मूल्यांकन
करने वाले?' तटस्थता के
साथ तुम सोचते
हो तुम्हारे
स्वयं के बारे
में, 'कौन
हो तुम? कैसे
बता सकते हो
तुम कि क्या
बुरा है और
क्या अच्छा है?
कौन जानता
है?'
जीवन
इतना
संश्लिष्ट है
कि बुराई
अच्छाई बन जाती
है और अच्छाई
बुराई बन जाती
है। वे
परिवर्तित
होती रहती है।
पापी को परम
सत्य तक
पहुंचते पाया
गया है; साधु—संतों
को नरक में
फेंक दिया
पाया गया है।
तो कौन जानता?
और तुम कौन हो?
कौन पूछ रहा
है तुमसे? तुम
अपने को ही
सम्हालो। यदि
तुम यह भी कर
सको तो तुमने
बहुत कर लिया।
तुम हो जाओ
अधिक सचेत और
जागरूक; तब
तटस्थता तुम
तक चली आती है
बिना किसी
पूर्वविचार के।
ऐसा
हुआ कि
विवेकानंद
अमरीका जाने
से पहले और संसार—प्रसिद्ध
व्यक्ति बनने
से पहले, जयपुर
के महाराजा के
महल में ठहरे
थे। वह
महाराजा भक्त
था विवेकानंद
और रामकृष्ण का।
जैसे कि
महाराजा करते
है, जब
विवेकानंद
उसके महल में
ठहरने आये, उसने इसी
बात पर बड़ा
उत्सव आयोजित
कर दिया। उसने
स्वागत—उत्सव
पर नाचने और
गाने के लिए
वेश्याओं को
भी बुला लिया।
अब जैसा
महाराजाओं का
चलन होता है; उनके अपने
ढंग के मन
होते हैं। वह
बिलकुल भूल ही
गया कि नाचने—गाने
वाली
वेश्याओं को
लेकर
संन्यासी का
स्वागत करना
उपयुक्त नहीं
है। पर कोई और
ढंग वह जान
सकता नहीं था।
उसने हमेशा
यही जाना था
कि जब तुम्हें
किसी का
स्वागत करना
हो, तो
शराब, नाच—गान,
यही सब चलना
चाहिए।
विवेकानंद
अभी परिपक्व न
हुए थे, वे अब
तक पूरे
संन्यासी न
हुए थे। यदि
वे पूरे
संन्यासी
होते, यदि
तटस्थता बनी
रहती, तो
फिर कोई
समस्या ही न
रहती; लेकिन
वे अभी भी
तटस्थ नहीं थे।
वे अब तक उतने
गहरे नहीं
उतरे थे
पतंजलि में।
युवा थे, और
बहुत
दमनात्मक
व्यक्ति थे।
अपनी
कामवासना और
हर चीज दबा
रहे थे। जब
उन्होंने
वेश्याओं को
देखा तो बस
उन्होंने
अपना कमरा बंद
कर लिया और
उससे बाहर आते
ही न थे।
महाराजा
आया और उसने
क्षमा चाही
उनसे। वह बोला, 'हम
जानते न थे।
इससे पहले
हमने किसी
संन्यासी के
लिए उत्सव आयोजित
नहीं किया। हम
हमेशा राजाओं
का अतिथि—सत्कार
करते हैं, इसलिए
हमें राजाओं
के ढंग ही
मालूम है।
हमें अफसोस है,
पर अब तो यह
बहुत
अपमानजनक बात
हो जायेगी, क्योंकि यह
सबसे बड़ी
वेश्या है इस
देश की, और
बहुत महंगी है।
और हमने इसे
इसका रुपया दे
दिया है। उसे
यहां से हटने
को और चले
जाने को कहना
तो अपमानजनक
होगा। और अगर
आप नहीं आते
तो वह बहुत
ज्यादा चोट
महसूस करेगी।
इसलिए बाहर
आयें।’
किंतु
विवेकानंद
भयभीत थे बाहर
आने में।
इसीलिए मैं
कहता हूं कि
वे तब तक
अप्रौढ़ थे, तब
तक भी पके
संन्यासी न
हुए थे। अभी
भी तटस्थता
मौजूद नहीं थी,
मात्र
निंदा थी। एक
वेश्या? —वे
बहुत क्रोध
में थे, और
वे बोले, 'नहीं।’
फिर वेश्या
ने गाना शुरू
कर दिया उनके
आये बिना ही।
और उसने गाया
एक संन्यासी
का गीत। गीत
बहुत सुंदर है।
गीत कहता है, 'मुझे मालूम
है कि मैं
तुम्हारे
योग्य नहीं, तो भी तुम तो
जरा ज्यादा
करुणामय हो
सकते थे। मैं
राह की धूल
सही; यह
मालूम है मुझे।
लेकिन
तुम्हें तो
मेरे प्रति
इतना
विरोधात्मक
नहीं होना
चाहिए। मैं
कुछ नहीं हूं
मैं अज्ञानी
हूं एक पापी।
पर तुम तो
पवित्र आत्मा
हो, तो
क्यों मुझसे
भयभीत हो तुम?'
कहते
हैं,
विवेकानंद
ने अपने कमरे
में सुना। वह
वेश्या रो रही
थी और गा रही
थी, और
उन्होंने
अनुभव किया—उस
पूरी स्थिति
को अनुभव किया
उन्होंने कि
वे क्या कर
रहे थे। बात
अप्रौढ़ थी, बचकानी थी।
क्यों हों वे
भयभीत? यदि
तुम आकर्षित
होते हो तो ही
भय होता है।
तुम केवल तभी
सी से भयभीत
होओगे यदि तुम
सी के आकर्षण
में बंधे हुए
हो। यदि तुम
आकर्षित नहीं
हो तो भय
तिरोहित हो जाता
है। भय है
क्या? तटस्थता
आती है बिना
किसी
विरोधात्यकता
के।
वे
स्वयं को रोक
न सके, इसलिए
उन्होंने खोल
दिये थे द्वार।
वे पराजित हुए
थे वेश्या के
द्वारा।
वेश्या विजयी
हुई थी; उन्हें
बाहर आना ही
पड़ा। वे आये
और बैठ गये।
बाद में
उन्होंने
अपनी डायरी
में लिखा, 'ईश्वर
द्वारा एक नया
प्रकाश दिया
गया मुझे।
भयभीत था मैं।
जरूर कोई
लालसा रही
होगी मेरे
भीतर, इसीलिए
भयभीत हुआ मैं।
किंतु उस सी
ने मुझे पूरी
तरह पराजित कर
दिया था, और
मैंने कभी
नहीं देखी ऐसी
विशुद्ध
आत्मा। वे
अश्रु इतने
निर्दोष थे और
वह नृत्य—गान
इतना पावन था
कि मैं चूक
गया होता। और
उसके समीप
बैठे हुए, पहली
बार मैं सजग
हो आया कि बात
उसकी नहीं जो
बाहर होता है।
महत्व उसी का
है कि भीतर
क्या है।’
उस
रात उन्होंने
लिखा अपनी
डायरी में, ' अब
मैं उस सी के
साथ बिस्तर
में सो भी
सकता था और
कोई भय न होता।’
वे उसके पार
जा चुके थे।
उस वेश्या ने
उन्हें मदद दी
पार जाने में।
यह एक अद्भुत
घटना थी।
रामकृष्ण न कर
सके मदद, लेकिन
एक वेश्या ने
कर दी मदद।
अत:
कोई नहीं
जानता कहां से
मदद आयेगी।
कोई नहीं
जानता, क्या
है बुरा और
क्या है अच्छा?
कौन कर सकता
है निश्चित? मन दुर्बल
है और
निस्सहाय है।
इसलिए कोई
दृष्टिकोण तय
मत कर लेना।
यही है अर्थ
तटस्थ होने का।
मन शांत
होता है बारी—बारी
से श्वास
छोड़ने और रोके
रखने से भी।
पतंजलि
देते हैं
दूसरे विकल्प
भी। अगर तुम
आनंदित
व्यक्ति के
साथ प्रसन्न
और मैत्रीपूर्ण
हो सको, दुखी
के प्रति
करुणा, पुण्यवान
के प्रति मुदिता
और पापी के
प्रति
उपेक्षा रख
सको—अगर यह
संभव हो तो मन परम
मन में
रूपांतरित
होना शुरू हो
गया है। यदि
तुम ऐसा नहीं
कर सकते— और यह
कठिन है, सरल
नहीं है—तो
दूसरे मार्ग
हैं। निराश मत
होना।
पतंजलि
कहते हैं, 'बारी—बारी
से श्वास
छोड़ने और रोके
रखने द्वारा
भी मन शांत
होता है।’ तब
तुम शरीर
वितान के
द्वारा
प्रवेश करते
हो। पहली बात
है मन के
द्वारा
प्रवेश, दूसरी
बात है शरीर—विज्ञान
के द्वारा
प्रवेश।
श्वास और
विचार गहरे
रूप से
संबंधित हैं,
जैसे कि वे
एक ही चीज के
दो छोर हों।
यदि तुम थोड़ा
भी ध्यान देते
हो तो कई बार
तुम भी जान
लेते हो, कि
जब कभी मन
परिवर्तित
होता है, श्वास
परिवर्तित हो
जाती है।
उदाहरण के लिए,
तुम
क्रोधित हो—तुरत
श्वसन—क्रिया
बदल जाती है; लय जा चुकी।
श्वास की अलग
गुणवत्ता है।
यह लयबद्ध
नहीं है।
जब
तुम
भावातिरेक
में होते, कामातुर
होते हो, जब
कामवासना
वशीभूत कर
लेती है, तब
श्वसन—क्रिया
बदल जाती है।
यह उत्तेजित हो
जाती है, विक्षिप्त।
जब तुम मौन
होते हो, कुछ
नहीं कर रहे
होते, बिलकुल
विश्राम
अनुभव कर रहे
होते हो, तो
श्वास की अलग
ही लय होती है।
यदि तुम गहराई
से ध्यान दो, तुम जान
सकते हो किस
प्रकार की
श्वास—लय किस
प्रकार के मन
को निर्मित
करती है। यदि
तुम
मैत्रीपूर्ण अनुभव
करते हो, तो
श्वसन—क्रिया
अलग होती है।
यदि तुम
प्रतिकूल, क्रोधित,
अनुभव करते
हो तो श्वास—क्रिया
अलग होती है।
इसलिए या तो
मन को बदलो और
श्वास—क्रिया
बदल जायेगी, या तुम इसके
विपरीत कर
सकते हो—श्वास—क्रिया
बदलो और मन
बदल जायेगा।
श्वास की लय
बदलो, और
मन तुरंत बदल
जायेगा।
जब
तुम अनुभव
करते हो
प्रसन्न, मौन,
आह्लादित, तो श्वास की
लय को ध्यान
में रखना।
अगली बार जब
क्रोध आये तो
श्वास को
बदलने मत देना।
जब तुम
प्रसन्न होते
हो तो जो लय
होती है उसी लय
को बनाये रखना।
तब क्रोध संभव
नहीं होता
क्योंकि
श्वास—क्रिया
स्थिति का
निर्माण कर
देती है।
श्वास—क्रिया
नियंत्रित
करती है शरीर
की उन पंथियों
को जो रक्त
में रसायन
छोड़ती हैं।
इसीलिए
तुम लाल हो
जाते हो जब
तुम क्रोध में
होते हो।
निश्चित
रसायन पहुंच
चुके होते हैं
रक्त में। और
ज्वरित
उत्तेजना से
भर जाते हो।
तुम्हारा
तापमान बढ़
जाता है। शरीर
तैयार होता है
संघर्ष करने
को या पलायन करने
को। शरीर
आपातस्थिति
में होता है।
श्वास की चोट
पड़ने से यह
परिवर्तन
घटता है।
श्वास
को मत बदलना।
बस बनाये रखना
श्वास की उसी
लय को जो मौन
में होती है।
श्वास—क्रिया
को तो मौन
ढांचे का
अनुसरण भर
करना है; तब
क्रोधित होना
असंभव हो
जायेगा। जब
तुम बहुत आवेश
अनुभव कर रहे
होते हो, कामातुर
होते हो, कामवासना
पकड़ लेती है
तब अपने श्वसन
में शांत होने
का प्रयत्न
करना और तुम
अनुभव करोगे
कि कामवासना
तिरोहित हो
गयी है।
पतंजलि
एक विधि का
सुझाव देते
हैं— 'बारी—बारी
से श्वास बाहर
निकालने और
रोकने द्वारा
भी मन शांत
होता है।’ जब
कभी तुम अनुभव
करते हो कि मन
शांत नहीं, वह
तनावपूर्ण है,
चिंतित है,
शोर से भरा
है, निरंतर
सपने देख रहा
है, तो एक
काम करना—पहले
गहरी सांस
छोड़ना। सदा
प्रारंभ करना
सांस छोड़ने
द्वारा ही।
जितना हो सके
उतनी गहराई से
सांस छोड़ना; वायु बाहर
फेंक देना।
वायु बाहर
फेंकने के साथ
ही मनोदशा
बाहर फेंकी
जायेगी, क्योंकि
श्वसन ही सब
कुछ है।
फिर
जितना संभव हो, श्वास
को बाहर निकाल
देना। पेट को
भीतर खींचना
और उसी तरह
बने रहना कुछ सेकेंड
के लिए, सांस
मत लेना। वायु
को बाहर होने
देना, और
कुछ सेकेंड के
लिए सांस मत
लेना। फिर
शरीर को सांस
लेने देना।
गहराई से सांस
भीतर लेना
जितना तुमसे
हो सके। फिर
दोबारा ठहर
जाना कुछ सेकेंड
के लिए। यह
अंतराल उतना
ही होना चाहिए
जितना बाहर
श्वास छोड़ने
के बाद तुम
बनाये रखते हो।
यदि तुम श्वास
छोड़ने को तीन
सेकेंड के लिए
बनाये रहते हो,
तो श्वास को
भीतर भी तीन
सेकेंड तक
बनाये रखना।
इसे बाहर
फेंको और रुके
रहो तीन
सेकेंड तक।
इसे भीतर लो
और रुके रहो
तीन सेकेंड तक।
लेकिन इसे
पूर्णतया
बाहर फेंक
देना होता है।
समग्रता से
सांस छोड़ो और
समग्रता से
सांस लो, और
एक लय बना लो।
सांस खींचने
के बाद रुके
रहना, सांस
छोड़ने के बाद
रुके रहना।
तुरंत तुम
अनुभव करोगे
कि एक
परिवर्तन
तुम्हारे
संपूर्ण
अस्तित्व में
उतर रहा है।
वह मनोदशा जा
चुकी होगी। एक
नयी आबोहवा
तुममें
प्रवेश कर
चुकी होगी।
क्या
घटता है? क्यों
ऐसा होता है? बहुत—से
कारण हैं—एक, जब तुम यह लय
निर्मित करने
लगते हो, तब
तुम्हारा मन
पूर्णतया उस
ओर मुड़ा हुआ
होता है। तुम
क्रोधित नहीं
हो सकते, क्योंकि
एक नयी बात
शुरू हो गयी।
और मन एक साथ
दो चीजें नहीं
कर सकता।
तुम्हारा मन
अब श्वास
छोड़ने, भीतर
लेने, रोकने,
लय निर्मित
करने से भरा
होता है। तुम
पूरी तरह डूब
चुके होते हो
इसमें, इसलिए
क्रोध के साथ
सहयोग टूट
जाता है—यह एक
बात हुई।
श्वास
छोड़ना और
श्वास भीतर
लिया जाना
शुद्ध करता है
सारे शरीर को।
जब तुम श्वास
बाहर छोड़ते हो
और तीन सेकेंड
तक या पांच सेकेंड
तक रोके रहते
हो—जितना
ज्यादा तुम
चाहते हो, जितना
ज्यादा तुमसे
हो सकता हो—तो
क्या घटता है
भीतर? सारा
शरीर उस सबको
फेंक देता है
जो—जो विषाक्त
होता है रक्त
में। वायु
बाहर हो गयी
और शरीर के
पास एक अंतराल
है। उस अंतराल
में ही सारे
विष बाहर फेंक
दिये जाते हैं।
अक्सर वे हृदय
तक आ पहुंचते
हैं; वे
वहां संचित हो
जाते हैं—नाइट्रोजन,
कार्बन डाइ—आक्साइड,
ये जहरीली
गैसें, ये
सब वहां एक
साथ एकत्रित
हो जाती हैं।
अक्सर
तुम उन्हें
अवसर नहीं
देते वहां एक
साथ एकत्रित
होने का। तुम
सांस बाहर—
भीतर किये
जाते हो बिना
किसी अंतराल
के या ठहराव
के। ठहराव के
साथ एक अंतराल
निर्मित हो
जाता है, एक
शून्यता
निर्मित हो
जाती है। उसी
शून्यता में,
हर चीज भीतर
प्रवाहित हो
जाती है और
उसे भर देती
है। फिर तुम
गहरी श्वास
भीतर लेते हो
और फिर तुम रोके
रहते हो। वे
सारी विषैली
गैसें श्वास
के साथ घुलमिल
जाती है; तब
तुम फिर सांस
बाहर छोड़ते और
उन्हें बाहर
निकाल देते।
फिर तुम विराम
देते।
विषाक्त
चीजों को
एकत्र होने दो।
यह एक तरीका
है चीजों को
बाहर फेंक
देने का।
मन
और श्वसन, दोनों
बहुत ज्यादा
संबंधित हैं।
उन्हें होना
होता है
क्योंकि
श्वास जीवन है।
एक आदमी बिना
मन के हो सकता
है, लेकिन
वह श्वास लिये
बिना नहीं रह
सकता। श्वास—क्रिया
ज्यादा गहरी
है मन से।
तुम्हारे
मस्तिष्क की
पूरी शल्य—क्रिया
हो सकती है; तुम जीवित
रहोगे अगर तुम
श्वास ले सको
तो। यदि श्वसन
बना रहे तो
तुम जीवित
रहोगे।
मस्तिष्क
पूरी तरह बाहर
निकाला जा
सकता है। तुम
निष्क्रिय
जीवन लिये पड़े
रहोगे, तो
भी तुम जीवित
रहोगे। तुम आंखें
नहीं खोल
पाओगे या बात
नहीं कर पाओगे
या कुछ नहीं
कर पाओगे, लेकिन
बिस्तर पर पड़े
हुए तुम जीवित
रह सकते हो और
जीवन बिता
सकते हो
वर्षोंतक।
लेकिन मन जीवित
नहीं रह सकता।
यदि श्वास थम
जाती है तो मन
तिरोहित हो
जाता है।
योग
ने खोज लिया
था यह आधारभूत
तथ्य—कि
श्वास—क्रिया
ज्यादा गहरी
होती है विचार
से। यदि तुम
श्वास
परिवर्तित
करते हो, तो
तुम सोचना
परिवर्तित कर
देते हो। और
एक बार तुम पा
लेते हो कुंजी
कि श्वास के
पास है कुंजी
तो फिर तुम जो
दशा चाहो बना
सकते हो—यह
तुम पर निर्भर
है। जैसे तुम
श्वास लेते हो,
यह उस ढंग
पर निर्भर है।
बस एक काम
करना—सात दिन
तक तुम केवल
विवरण लिख
लेना उन
विभिन्न प्रकार
की
श्वास—क्रियाओं
के जो अलग—अलग
मनोदशाओं के
साथ घटती हैं।
तुम क्रोधित
होते हो—एक
नोटबुक लेना
और तुम्हारी
श्वास को
गिनना—कितनी
तुम भीतर भरते
हो और कितनी
बाहर छोड़ते
हो। यदि पांच
की गिनती तक
श्वासें तुम
भीतर खींचते
हो और तीन गिनती
तक बाहर छोड़ते
हो, तो इसे
लिख लेना।
कई
बार तुम बहुत
सुंदर अनुभव
करते हो, अत:
लिख लेना कि
सांस लेने और
छोड़ने का
अनुपात कितना
है, क्या
वहां कोई
विराम है। लिख
लेना इसे और
सात दिन तक एक
डायरी ही बना
लेना अपनी
स्वयं की श्वास—क्रिया
अनुभव करने के
लिए, कि
कैसे यह
तुम्हारी
मनोदशाओं के
साथ संबंधित
होती है। तब
तुम इसे छांट
सकते हो। तब
जब कभी तुम
कोई मनोदशा
गिरा देना
चाहते हो, तो
ठीक इसका
विपरीत ढांचा
प्रयुक्त
करना। या, अगर
तुम किसी
मनोदशा को
उत्पन्न करना
चाहते हो, तो
इसके ही ढांचे
का प्रयोग
करना।
अभिनेता, जाने
या अनजाने, यह जान लेते
हैं क्योंकि
कई बार उन्हें
क्रोधित होना
होता है बिना
क्रोधित हुए
ही। तो क्या
करते होंगे वे?
उन्हें
उपयुक्त
श्वसन—ढांचा
निर्मित करना
होता है। शायद
उन्हें पता भी
न होता हो, पर
वे शुरू कर
देते है ऐसा
श्वास लेना
जैसे कि वे
क्रोधित हों।
तब जल्दी ही
रक्त तेजी से
दौड़ने लगता है
और विष
प्रवाहित हो
जाते हैं।
बिना उनके
क्रोधित हुए
ही उनकी आंखें
लाल हो जाती हैं,
और वे एक
सूक्ष्म
क्रोधावस्था
में होते हैं
बिना क्रोधित
हुए ही।
उन्हें प्रेम
करना होता है
बिना प्रेम
में पड़े ही; उन्हें
प्रेम प्रकट
करना पडता है
बिना प्रेम अनुभव
किये ही। यह
कैसे करते
होंगे वे? वे
एक निश्चित
रहस्य जानते
हैं योग का।
इसलिए
मैं हमेशा
कहता हूं कि
एक योगी
सर्वश्रेष्ठ
अभिनेता हो
सकता है। वह
होता ही है।
उसका मंच
विशाल है; बस
यही। वह अभिनय
कर रहा होता
है। किसी
रंगमंच पर
नहीं, बल्कि
संसार के
रंगमंच पर। वह
अभिनेता होता
है, वह
कर्ता नहीं
है। और भेद
यही है कि वह
एक विशाल नाटक
में भाग ले
रहा होता है
और वह उसका साक्षी
बन सकता है।
वह अलग बना रह
सकता है और निर्लिप्त
रह सकता है।
जब
ध्यान से
अतींद्रिय
संवेदना
उत्पन्न होती
है तो मन
आत्मविश्वास
प्राप्त करता
है और इसके
कारण साधना का
सातत्य बना
रहता है।
अपने
श्वसन—ढांचे
को जानो, और मन
के वातावरण को
किस प्रकार
परिवर्तित
किया जाता है,
मनोदशाओं
को कैसे बदला
जाता है इस
बात की कुंजियां
तुम पा जाओगे।
और यदि तुम
दोनों छोरों
से कार्य करते
हो, तो
ज्यादा बेहतर
होगा।
प्रसन्न के
प्रति मैत्रीपूर्ण
होने का
प्रयत्न करो,
बुरे के
प्रति तटस्थ
होने का, और
तुम्हारे
श्वसन—ढांचे
को भी बदलना
और रूपांतरित
करना जारी
रखो। तब चली
आयेगी अतींद्रिय
संवेदना।
यदि
तुमने एल एस
डी,
मारिजुआना,
हशीश लिया
हो, तो तुम
जान लेते हो
कि अतींद्रिय
संवेदना जगती
है। तुम
साधारण चीजों
की ओर देखते
हो, और वे
असाधारण हो
उठती हैं।
अल्डुअस
हक्सले अपने
संस्मरणों
में कहता है
कि जब उसने एल
एस डी पहली
बार ली थी, तब
वह एक साधारण
कुर्सी के
सामने बैठा
हुआ था। और जब
वह अधिकाधिक
जुड़ता गया नशे
के साथ, जब
उस पर चढ़ गया
नशा, तो
कुर्सी तुरंत
रंग बदलने लगी।
वह चमक उठी।
एक साधारण
कुर्सी जिस पर
कभी उसने कोई
ध्यान न दिया
था इतनी सुंदर
हो गयी, उसमें
से बहुत सारे
रंग फूटने लगे।
वह ऐसी हो गयी
थी जैसे वह
हीरों की बनी
हुई हो। इतने
सुंदर आकार और
सूक्ष्म
घटाएं थीं
वहां कि अपनी आंखों
पर विश्वास न
कर सका। वह उस
पर विश्वास न
कर सका जो घट
रहा था। बाद
में उसे ध्यान
आया कि यही
घटित हुआ होगा
वॉन गॉग को, क्योंकि
उसने एक
कुर्सी का
चित्र बनाया
था जो करीब—करीब
बिलकुल वैसा
ही था।
एक
कवि को कोई
जरूरत नहीं है
एल एस डी लेने
की। उसके पास
अंतर्निर्मित
व्यवस्था
होती है शरीर
में एल एस डी
उंडेलने की।
यही है भेद एक
कवि और एक
साधारण
व्यक्ति में।
इसीलिए कहा
जाता है कि कवि
जन्मजात होता
है,
बनाया नहीं
जाता।
क्योंकि उसके
पास असाधारण
शारीरिक
ढांचा होता है।
उसके शरीर के
रसायनों में
अलग ही परिमाण
और गुणवत्ता
होती है।
इसीलिए जहां
तुम्हें कोई
चीज दिखायी
नहीं पड़ती, वह अद्भुत
चमत्कार देख
लेता है। तुम
देखते हो एक
साधारण वृक्ष,
और वह देखता
है कुछ
अविश्वसनीय।
तुम देखते हो
साधारण बादल,
लेकिन एक
कवि, यदि
वह वास्तव में
ही कवि है, वह
कभी नहीं
देखता कोई
साधारण चीज।
हर चीज
असाधारण रूप
से सुंदर हो
उठती है।
यही
घटता है योगी
को। क्योंकि
जब तुम अपने
श्वसन को और
अपनी मनःस्थितियों
को बदलते हो, तो
तुम्हारे
शारीरिक
रसायन अपना
ढांचा बदलते हैं;
तुम
रासायनिक
रूपांतरण में
से गुजरते हो।
और तब
तुम्हारी आंखें
साफ हो जाती
है, एक नयी
संवेदनक्षमता
घटती है। वही
पुराना वृक्ष
एकदम नया हो
जाता है। तुम
कभी न जान
पाये थे इसकी
हरीतिमा। यह
आलोकित हो
जाता है।
तुम्हारे चारों
ओर का सारा
संसार नया
रूपाकार ले
लेता है। अब
यह एक स्वर्ग
हो जाता है; वही साधारण
पुराना रही
संसार नहीं
रहता।
तुम्हारे
चारों ओर के
लोग अब वही न
रहे।
तुम्हारी
साधारण पत्नी
सबसे सुंदर सी
हो जाती है।
तुम्हारी
अनुभूति की
स्पष्टता के
साथ ही हर चीज
बदल जाती है।
जब तुम्हारी
दृष्टि बदलती
है तो हर चीज
बदल जाती
पतंजलि
कहते हैं, 'जब
ध्यान
अतींद्रिय
संवेदना
जगाता है, तो
आत्मविश्वास
प्राप्त होता
है और यह बात
मदद देती है
साधना में
सातत्य बनाये
रखने में।’ तब तुम
आश्वस्त हो
जाते हो कि
तुम सम्यक
मार्ग पर हो।
संसार और—और
सुंदर हो रहा
है, असुंदरता
तिरोहित हो
रही है। संसार
अधिकाधिक एक
घर बन रहा
होता है; तुम
इसमें और
ज्यादा
निश्चित
अनुभव करते हो।
यह मित्रता से,
भरा होता है।
तुम्हारे और
ब्रह्मांड के
बीच एक प्रेम—क्रीड़ा
चलती है। तुम
ज्यादा
आश्वस्त, ज्यादा
आत्मविश्वासी
होते हो और
ज्यादा धैर्य
चला आता है
तुम्हारे
प्रयास में।
उस आंतरिक
प्रकाश पर भी
ध्यान करो जो
शांत है और
सभी दुखों से
बाहर है।
ऐसा
केवल तभी किया
जा सकता है जब
तुमने संवेदनक्षमता
की एक निश्चित
गुणवत्ता
प्राप्त कर ली
होती है। तब
आंखें बंद कर
सकते हो और पा
सकते हो उस
अग्रि
कों—हृदय के
पास की वह
सुंदर
अग्रिशिखा—एक
नीला प्रकाश।
लेकिन बिलकुल
अभी तो तुम उसे
नहीं देख
सकते। वह है
वहां; वह सदा
से ही है
वहां। जब तुम
मरते हो, तब
वह नीला
प्रकाश
तुम्हारे
शरीर से बाहर
चला जाता है।
लेकिन तुम उसे
नहीं देखते तब
क्योंकि जब
तुम जीवित थे
तब नहीं देख
सकते थे उसे।
और
दूसरे भी नहीं
देख पायेंगे
कि कोई चीज
बाहर जा रही
है,
लेकिन
सोवियत रूस
में किरलियान
ने बहुत संवेदनशील
फिल्म द्वारा
तस्वीरें
उतारी हैं। जब
कोई व्यक्ति
मरता है तब
कुछ घटता है
उसके चारों
ओर। कोई
जीवऊर्जा, कोई
प्रकाश जैसी
चीज छूट जाती
है, चली
जाती है और
तिरोहित हो
जाती है
ब्रह्मांड में।
प्रकाश सदा है
वहां; वह
तुम्हारे
अस्तित्व का
केंद्र बिंदु
है। यह हृदय
के समीप होता
है एक नीली
ज्योति के रूप
में।
जब
तुम्हारे पास
संवेदनशीलता
हो तब तुम देख
सकते हो
तुम्हारे
चारों ओर के
सुंदर संसार को—जब
तुम्हारी
आंखें साफ
होती हैं। फिर
तुम उन्हें
बंद कर लेते
हो और हृदय के
ज्यादा करीब बढ़ते
हो। तुम जानने
का प्रयत्न
करते हो, वहां
क्या है। पहले
तो तुम अंधकार
अनुभव करोगे।
यह ऐसा है
जैसे कि तुम
किसी गर्मी के
दिन बाहर के
तेज प्रकाश से
कमरे के भीतर
आ जाओ, और
तुम अनुभव करो
कि हर चीज
अंधकारमयी
है। लेकिन
प्रतीक्षा
करना। अंधकार
के साथ आंखों
को समायोजित
होने दो, और
जल्दी ही तुम
देखने लगोगे
घर की चीजों
को। तुम लाखों
जन्मों से
बाहर ही रहे
हुए हो। जब पहली
बार तुम भीतर
आते हो तो
वहां अंधकार
के और शून्यता
के सिवाय कुछ नहीं
होता। लेकिन
प्रतीक्षा
करना। थोड़ा
समय लगेगा
इसमें। कुछ
महीने भी लग
सकते हैं, लेकिन
प्रतीक्षा
करना। आंखें
बंद कर लेना
और भीतर
झांकना हृदय
में। अकस्मात
एक दिन यह घटता
है—तुम देख
लेते हो
प्रकाश को, उस ज्योति
को। तब
एकाग्रता
करना उस अग्रि
की ज्योति पर।
और
कुछ इससे
ज्यादा
आनंदमय नहीं।
और कुछ भी
ज्यादा
नृत्यपूर्ण
और गानपूर्ण
नहीं है। और
कुछ भी
तुम्हारे
हृदय के भीतर
के इस अंतर
प्रकाश से
ज्यादा
संगतिपूर्ण
या सुसंगत
नहीं होता है।
और जितने
ज्यादा तुम
एकाग्र होते
हो,
उतने
ज्यादा हो
जाते हो
शांतिमय, मौन,
प्रशांत, एकजुट। फिर
तुम्हारे लिए
कहीं कोई
अंधकार नहीं
रहता। जब
तुम्हारा
हृदय प्रकाश
से भरा होता है,
तो समस्त
लोक प्रकाश से
भरा होता है।
इसीलिए ' अंतस
के प्रकाश पर
भी ध्यान करो,
जो उज्जवल
और शांत है और
सभी दुखों के
बाहर।
या,
जो वीतरागता
को उपलब्ध हो
चुका है उसका
ध्यान करो।
यह भी!
सभी विकल्प
पतंजलि
तुम्हें दे रहे
हैं। वीतराग
वह है, जो सारी
आकांक्षाओं
के पार जा
चुका होता
है—उस पर भी
ध्यान करो।
महावीर, बुद्ध,
पतंजलि या
वह जो
तुम्हारी
पसंद
हो—जरथुस्र, मोहम्मद, क्राइस्ट या
कोई भी, जिसके
प्रति तुम
लगाव और प्रेम
अनुभव करते
हो। उस पर
ध्यान
केंद्रित करो,
जो
आकांक्षाओं—इच्छाओं
के पार जा
चुका हो। तुम्हारे
सद्गुरु पर
ध्यान
केंद्रित करो,
जो इच्छाओं
के पार जा
चुका है। यह
कैसे मदद देगा?
यह बात मदद
देती है, क्योंकि
जब तुम ध्यान
करते हो उसका
जो आकांक्षाओं
के पार जा
चुका होता है,
तो वह
तुम्हारे
भीतर एक
चुंबकीय
शक्ति बन जाता
है। तुम उसे
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
करने देते हो;
वह तुम्हें
तुम्हारे से
बाहर खींचता
है। यह बात
उसके प्रति
तुम्हारा
खुलापन बन
जाती है।
यदि
तुम ध्यान
करते हो उस पर
जो
आकांक्षाओं
के पार जा
चुका होता है, तो
तुम देर—अबेर
उसी की भांति
हो जाओगे।
क्योंकि
ध्यान
तुम्हें
ध्यान की
विषयवस्तु की
भांति ही बना
देता है। यदि
तुम ध्यान
लगाते हो धन
पर, तो तुम
धन की भांति
हो जाओगे। जाओ
और देखो किसी
कंजूस को—उसके
पास अब आत्मा
नहीं बची है।
उसके पास केवल
बैंक—बैलेंस
है; भीतर
कुछ नहीं है उसके।
यदि तुम ध्यान
से सुनो, तुम
सिर्फ सुनोगे
नोटों, रुपयों
की आवाज। तुम
न सुन पाओगे
हृदय की किसी
धड़कन को।
जिस
किसी पर तुम
अपना ध्यान
देते हो, उसी
की भांति हो
जाते हो। अत:
जागरूक रहना।
किसी ऐसी चीज
पर ध्यान मत
देना जिसकी
भांति तुम
होना ही न
चाहते हो।
केवल उसी चीज
पर ध्यान देना
जिसकी भांति
तुम होना
चाहते हो, क्योंकि
यही है
प्रारंभ। बीज
बो दिया गया
है, ध्यान
सहित, और
जल्दी ही वह
वृक्ष बन
जायेगा। तुम
नरक के बीज
बोते हो और जब
वे वृक्ष बन
जाते हैं तब
तुम पूछते हो,
'मैं इतना
दुखी क्यों
हूं? ' तुम
हमेशा गलत चीज
पर ध्यान
लगाते हो, तुम
हमेशा उसकी ओर
देखते हो जो
नकारात्मक है।
तुम हमेशा
ध्यान देते हो,
दोषों पर, तब तुम
दोषपूर्ण हो
जाते हो।
दोष
पर ध्यान मत
देना। सुंदर
पर देना ध्यान।
क्यों गिनना
कांटों को? क्यों
नहीं देखते
फूलों को? क्यों
गिनना रातों
को? क्यों
नहीं महत्व
देते दिनों को?
यदि तुम
केवल रातों को
ही गिनते हो, तब दो रातें
होती है, और
केवल एक ही
दिन होता है
इन दोनों के
बीच। यदि तुम
दिनों को
महत्व देकर
उनकी गणना
करते हो, तब
दो दिन होते
हैं और उन
दोनों के बीच
केवल एक ही
रात्रि होती
है।
और
इससे बहुत
अंतर पड़ता है।
यदि
तुम प्रकाश
होना चाहते हो
तो प्रकाश की
ओर देखना।
अंधेरे की ओर
देखना यदि
तुम्हें
अंधकार ही होना
हो तो।
पतंजलि
कहते हैं, 'उस
पर ध्यान
केंद्रित करो
जो वीतरागता
को उपलब्ध हो
चुका है।’
सद्गुरु
खोजना; सद्गुरु
को समर्पण
करना। उसके
प्रति एकाग्र
रहना। उसे
सुनना, देखना,
खाना और
पीना। उसे
प्रवेश करने
दो तुममें, अपने हृदय
को उससे
आपूरित होने
दो। जल्दी ही
तुम यात्रा पर
चल पड़ोगे, क्योंकि
तुम्हारे
ध्यान का विषय
अंततः तुम्हारे
जीवन का
लक्ष्य बन
जाता है। और
सजग दर्शन एक
रहस्यपूर्ण
संबंध है।
एकाग्र ध्यान
द्वारा तुम
तुम्हारे
ध्यान का विषय
बन जाते हो।
कृष्णमूर्ति
कहे जाते हैं, 'द्रष्टा
दृश्य बन जाता
है।’ वे
ठीक हैं। जो
कुछ तुम ध्यान
से देखते हो, तुम वही बन
जाओगे। इसलिए
सचेत रहना।
सजग रहना। कोई
ऐसी चीज मत
देखने लगना
ध्यान से, जो
तुम होना ही न
चाहते हो।
क्योंकि जो तुम
देखते हो वही
तुम्हारा
लक्ष्य होता
है। तुम बीज
बो रहे होते
हो।
वीतरागी
के निकट रहना, उस
व्यक्ति के जो
सारी
आकांक्षाओं
के पार जा चुका
है। उस
र्व्याक्ते
के सान्निध्य
में रहना
जिसके पास
यहां पूरा
करने को अब
कुछ नहीं रहा;
जो
परिपूर्ण हो
चुका। उसकी
वही पूर्णता
ही तुम्हें
आप्लावित कर
देगी, और
वह एक उद्येरक
बन जायेगा।
वह
कुछ भी नहीं
करेगा।
क्योंकि वह
व्यक्ति जो
आकांक्षातीत
है,
कुछ नहीं कर
सकता है। वह
तुम्हारी मदद
भी नहीं कर
सकता क्योंकि
मदद भी एक
आकांक्षा ही
है। उससे बहुत
ज्यादा मदद
मिलती है, फिर
भी वह नहीं करता
है तुम्हारी
मदद। उत्प्रेरक
बन जाता है
कुछ किये बिना
ही।
यदि
तुम उसे आने
देते हो, वह
तुम्हारे
हृदय में उतर
आता है। और
उसकी वही
मौजूदगी
तुम्हें जोड़
देती है, एक
बना देती है।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें