दिनांक
4 मार्च, 1975;
श्री
रजनीश आश्रम पूना।
प्रश्नसार:
1—प्रकृति
विरोध करती है
अव्यवस्था का
और अव्यवस्था
स्वयं ही
व्यवस्थित हो
जाती है
यथासमय तो
क्यों दुनिया
हमेशा
अराजकता और
अव्यवस्था
में रहती रही
है?
2—कैसे
पता चले कि
कोई व्यक्ति
रेचन की ध्यान
विधियों से
गुजर कर
अराजकता के
पार चला गया
है?
3—मन
को अपने से
शांत हो जाने
देना है,
तो योग की
सैकड़ों
विधियों की क्या
अवश्यक्ता
है?
4—आप
प्रेम में
डूबने पर जोर
देते है लेकिन
मेरी मूल समस्या
भय है। प्रेम
और भय क्या
संबंधित है?
5—कुछ
न करना,मात्र
बैठना है,
तो ध्यान की
विधियों में
इतना प्रयास
क्यों करें?
पहला
प्रश्न : आपने
कहा कि
प्रकृति
विरोध करती है
अव्यवस्था का
और अव्यवस्था
स्वयं ही व्यवस्थित
हो जाती है
यथासमय तो
क्यों दुनिया
हमेशा
अराजकता और अव्यवस्था
में रहती रही
है?
दुनिया
कभी नहीं रही
अराजकता और
अव्यवस्था
में,
केवल मन रहा
है। संसार तो
परम रूप से
व्यवस्थित है।
वह कोई
अव्यवस्था
नहीं, वह
सुव्यवस्था
है। केवल मन
ही सदा
अव्यवस्था
में रहता है, और सदा रहेगा
अव्यवस्था
में ही।
कुछ
बातें समझ
लेनी होंगी :
मन की प्रकृति
ही होती है
अराजकता में
होने की।
क्योंकि वह एक
अस्थायी
अवस्था है। मन
तो मात्र एक
संक्रमण है
स्वभाव से परम
स्वभाव तक का।
कोई अस्थायी
अवस्था नहीं
हो सकती है
सुव्यवस्थित।
कैसे हो सकती
है वह
सुव्यवस्था
में?
जब तुम बढ़ते
हो एक अवस्था
से दूसरी
अवस्था तक, तो बीच की
स्थिति
अव्यवस्था
में, अराजकता
में रहेगी ही।
कोई
उपाय नहीं है
मन को
सुव्यवस्थित
कर देने का।
जब तुम स्वभाव
के पार हो रहे
होते हो और
परम स्वभाव
में बढ़ रहे
होते हो, बाह्य
से अंतस में
परिवर्तित हो
रहे होते हो, भौतिक से
अध्यात्म में
परिवर्तित हो
रहे होते हो, तो दोनों
में एक अंतराल
बनेगा ही जब
कि तुम कहीं
नहीं हो, जब
कि तुम इस
संसार से
संबंध नहीं
रखते और अभी भी
तुम दूसरे से
संबंधित नहीं
होते हो। यही
है अराजकता—यह
संसार छूट गया
है, और
मृत्यु अभी भी
नहीं मिली।
मध्य में तो, हर चीज एक
अव्यवस्था
होती है। और
यदि तुम बने
रहते हो मध्य
में, तो
तुम सदा ही
अराजकता में
रहोगे। मन के
पार होना ही
होगा। मन कुछ
ऐसा नहीं है
जिसके साथ रहा
जाए।
मन
एक सेतु की
भांति है : इसे
पार करना है; दूसरे
किनारे को
प्राप्त करना
ही है। और
तुमने तो सेतु
पर ही घर बना
लिया है।
तुमने सेतु पर
रहना शुरू कर
दिया है। तुम
मन के साथ जुड़
गए हो। तुम
पड़े हो जाल
में क्योंकि
तुम कहीं नहीं
हो। और कैसे
तुम कहीं न
होने वाली
जमीन पर
व्यवस्थित हो
सकते हो? अतीत
तुम्हें
निमंत्रित करता
ही जाएगा : 'वापस
आओ, वापस
लौट आओ उस
किनारे पर
जिसे कि तुम
छोड़ चुके हो। '
और वापस
लौटना होता
नहीं, क्योंकि
तुम समय में
पीछे की ओर बढ़
नहीं सकते।
बढ़ना केवल एक
ही है, और
वह है आगे की
ओर—आगे। अतीत
तुम पर गहरा
प्रभाव बनाये
रहता है; क्योंकि
तुम होते हो
सेतु पर। और
अतीत भी सेतु
पर होने से तो
बेहतर ही लगता
है। एक छोटी
झोपड़ी भी
ज्यादा ठीक
होती सेतु पर
होने की
अपेक्षा। कम
से कम वह एक घर
तो है; तुम
सड़क पर नहीं
होते।
मानव
प्राणियों का
अतीत, वह
पशुत्व, उसमें
सतत आकर्षण
होता है। वह
कहता, 'लौट
आओ पीछे। ' वह
कहता है, 'कहीं
कोई जाना, बढ़ना
नहीं है। ' तुम्हारे
भीतर का पशु
तुम्हें
पुकारे चला जाता
है, 'वापस आ
जाओ। ' और
इसमें आकर्षण
होता है, क्योंकि
सेतु की तुलना
में बेहतर है
यह। तो भी तुम
नहीं जा सकते
वापस। एक बार
कोई कदम उठा
लिया जाता है
तो उसे अनकिया
नहीं किया जा
सकता। एक बार
जब तुम बढ़
जाते हो आगे, तो तुम वापस
नहीं जा सकते।
तुम स्वप्न
संजोए रख सकते
हो, और तुम
व्यर्थ गंवा
सकते हो अपनी
ऊर्जा, वही
ऊर्जा जो
तुम्हें ले
गयी होती आगे।
लेकिन
वापस जाना
संभव नहीं।
कैसे एक युवा
व्यक्ति फिर
से बच्चा बन
सकता है? और
कैसे एक वृद्ध
फिर से युवा
व्यक्ति हो
सकता है? —ऐसा
संभव हो भी
जाए कि
विज्ञान करता
हो मदद तुम्हारी
देह के फिर से
युवा होने में।
वैसा संभव है,
क्योंकि
आदमी बहुत
चालाक है, और
वह देह के
कोशाणुओ को
धोखा दे सकता
है। और वह
तुम्हें नया
कार्यक्रम दे
सकता है और वे
लौट सकते हैं
पीछे। लेकिन
तुम्हारा मन
पुराना बना
रहेगा।
तुम्हारी देह
युवा हो सकती
है, लेकिन
तुम कैसे हो
सकते हो युवा?
वह सब जिसका
अनुभव तुमने
किया है
तुम्हारे साथ
रहेगा। उसे
वापस नहीं
फेंका जा सकता।
कोई
नहीं लौट सकता
पीछे। वह
किनारा जो छूट
जाता है सदा
के लिए ही छूट
जाता है। तुम
फिर से पशु
नहीं हो सकते।
बेहतर है वापस
जाने के उस
आकर्षण को और
उस सम्मोह—आसक्ति
को गिरा देना।
जितनी जल्दी
तुम गिरा दो
उसे,
उतना
ज्यादा अच्छा
है।
व्यक्ति
उन चीजों से
आनंदित होता
है जो उसे अनुभूति
दे जाती हैं
अतीत की, प्राणी—जगत
की। इसीलिए
इतना ज्यादा
आकर्षण होता
है कामवासना
का। इसीलिए
लोग खाने के
प्रति आसक्त
होते हैं, खाये
चले जाते हैं,
भोजन के
वशीभूत हो
जाते हैं।
इसीलिए एक
आकर्षण होता
है लालच, क्रोध,
ईर्ष्या, और घृणा में।
वे सब बातें
संबंध रखती
हैं पशुता के
राज्य से : वह
किनारा है
जिसे तुम छोड़
चुके, पशु—राज्य
का किनारा। और
है एक दूसरा
किनारा जिस तक
कि तुम अभी
पहुंचे नहीं
हो, तुम्हारे
सपनों में भी
नहीं—वह है
प्रभु का
राज्य। और इन
दोनों के बीच
तुम टिके हुए
हो मन में।
तुम
नहीं जा सकते
वापस। कठिन
होता है आगे
बढ़ना, क्योंकि
अतीत तुम्हें
खींचे चला
जाता है और भविष्य
बना रहता है
अज्ञात, धुंधला—सा,
धुंध की
भांति। तुम
देख नहीं सकते
दूसरा किनारा,
वह प्रकट
नहीं होता—ऐसा
नहीं कि वह
बहुत ज्यादा
दूर होता है।
वह किनारा
जिसे तुमने
छोड़ दिया, वह
दीखता है। वह
दूसरा किनारा
जिसकी ओर तुम
पहुंच रहे हो,
वह अदृश्य
होता है अपनी
प्रकृति के
कारण ही। ऐसा
नहीं कि वह
बहुत ज्यादा
दूरी पर है, इसलिए वह
अदृश्य है। जब
तुमने उसे
प्राप्त भी कर
लिया होता है,
तब भी वह
अदृश्य बना
रहेगा। वही
उसका स्वभाव
है, प्रकृति
है।
पशु
बहुत ज्यादा
प्रकट है। कहा
है परमात्मा? क्या
किसी ने कभी
देखा है
परमात्मा को?
—नहीं देखा
किसी ने।
क्योंकि सवाल
तुम्हारे
देखने का या न
देखने का नहीं
है। परमात्मा
है अदृश्यता,
पूर्ण
अज्ञात, सच्ची
अबोधगम्यता।
जिन्होंने
पाया है वे भी
कहते कि
उन्होंने देखा
नहीं, और
वे हुए हैं
उपलब्ध।
परमात्मा कोई
विषय—वस्तु
नहीं हो सकता।
वह तुम्हारे
अपने
अस्तित्व की
गहनतम गहराई
है। कैसे तुम
देख सकते हो
उसे? वह
किनारा जो कि
तुम छोड़ चुके
बाहरी संसार
में होता है, और वह
किनारा जिसकी
ओर तुम पहुंच
रहे हो वह अंतर्जगत
है। जो किनारा
तुम छोड़ चुके,
वह है
वस्तुपरक; और
जिस किनारे की
ओर तुम बढ़ रहे
हो, वह
आत्मपरक है।
यह तुम्हारी
स्व—सत्ता की
ही आत्मपरकता
है। तुम उसे
विषय—वस्तु
नहीं बना सकते।
तुम नहीं देख
सकते हो उसे।
वह ऐसा कुछ
नहीं जिसे कि
बदला जा सके
विषय—वस्तु
में, जिसे
कि तुम देख
सकी। वह
द्रष्टा है, दृश्य नहीं।
वह ज्ञाता है,
ज्ञात नहीं
है। वह तुम हो
अपनी सत्ता के
गहनतम अंतरतम
में।
मन
वापस नहीं जा
सकता, और नहीं
समझ सकता कि
आगे कहां जाए।
वह अराजकता
में रहता है, सदा उखड़ा
हुआ, सदा
सरकता हुआ न
जानते कि कहां
सरक रहा है; हमेशा आगे
चलता हुआ। मन
है एक तलाश।
जब लक्ष्य की
प्राप्ति हो
जाती है, केवल
तभी तिरोहित
होती है तलाश।
जब
तुम संसार को
देखते हो तो
जरा ध्यान
रखना, कि वह एक
सुव्यवस्था
है। प्रतिदिन
सुबह सूरज
उगता है बिना
किसी भूल के, अचूक। दिन
के पीछे रात
आती है और फिर
दिन आता है
रात के पीछे।
और रात्रि के
आकाश में, लाखों,
करोड़ों
सितारे अपने
मार्ग पर बढ़ते
रहते हैं।
मौसम एक दूसरे
के पीछे आते
रहते हैं। यदि
आदमी न होता
यहां, तो
कहां होती
अस्त—व्यस्तता?
हर चीज ऐसी
है जैसी कि
होनी चाहिए।
सागर लहराता
रहेगा और आकाश
फिर—फिर भरता
रहेगा
सितारों से।
वर्षा आएगी, और शीत और
ग्रीष्म, और
हर चीज चलती
रहती है
संपूर्ण चक्र
में। कहीं कोई
अस्त—व्यस्तता
नहीं है सिवाय
तुम्हारे
भीतर के।
प्रकृति
सुस्थिर है
जहां कहीं भी
वह है।
प्रकृति कहीं
उन्नत नहीं हो
रही है।
प्रकृति में
कोई विकास
नहीं होता है।
परमात्मा में
भी कोई विकास
नहीं है।
प्रकृति
प्रसन्न है
अपनी अचेतना
में, और
परमात्मा
आनंदमय है
अपनी चेतना
में।
दोनों
के बीच तुम
होते हो
मुसीबत में।
तुम होते हो
तनावपूर्ण। न
तो तुम होते
हो अचेतन, और
न ही तुम होते
हो चेतन। तुम
तो बस मंडरा
रहे होते हो
प्रेत की
भांति। तुम
किसी किनारे
से नहीं जुड़े
होते। बिना
किन्हीं
आधारों के, बिना किसी
घर के, मन
कैसे आराम से
रह सकता है? वह खोजता है,
ढूंढता
रहता है—कुछ
नहीं ढूंढ
पाता। तब तुम
ज्यादा और
ज्यादा थके, निराश और
चिड़चिड़े हो
जाते हो। क्या
घट रहा होता
है तुम्हें? तुम एक ही
लीक में पड़े
होते हो। ऐसा
चलता रहेगा जब
तक कि तुम ऐसा
कुछ न सीख जाओ जो
कि तुम्हें
निर्विचार कर
सकता हो, जो
मन को खाली कर
सकता हो।
इसी
सब को अपने
अंतर्गत लेता
है ध्यान।
ध्यान एक उपाय
है—तुम्हारे
अंतस को
निर्विचार कर
देने का, मन को
गिरा देने का,
सेतु पर से
सरकने का, अज्ञात
में बढ़ने का
और रहस्य में छलांग
लगा देने का।
इसलिए मैं
कहता हूं :
हिसाब—किताब
मत लगाना, क्योंकि
वह मन की चीज
है। इसीलिए
मैं कहता .हूं
कि
आध्यात्मिक
खोज सीढ़ी दर
सीडी नहीं
होती, आध्यात्मिक
खोज है—एक
अचानक छलांग।
वह साहस है, वह कोई
हिसाब—किताब
नहीं। वह
बुद्धि की चीज
नहीं, क्योंकि
बुद्धि है मन
का हिस्सा। वह
हृदय की अधिक
है।
लेकिन
तुम ज्यादा
गहरे जाओ, तो
तुम ज्यादा
अनुभव करोगे
कि वह हृदय से
भी पार की है।
वह न तो विचार
की है और न ही
भाव की है। वह
ज्यादा गहरी
है, उन
दोनों से अधिक
समग्र, अधिक
अस्तित्वगत।
एक बार तुम इस
पर कार्य करना
शुरू कर देते
हो कि अ—मन को
कैसे पाया जाए,
केवल तभी, धीरे — धीरे
शांति तुम पर
आ उतरेगी।
धीरे—धीरे, मौन आ
उतरेगा, और
संगीत सुनाई
पड़ने लगेगा —अज्ञात
का संगीत, अकथित
का संगीत। तब
हर चीज फिर से
व्यवस्था में
आ जाती है।
अराजकता है
मार्ग मन का।
ऐसा होना ही
है उसे, क्योंकि
तुम गिरा देते
हो अतीत को
जहां कि तुम
ठहरे थे और बद्धमूल
थे और तुम
बढ़ते हो नए
भविष्य में
जहां तुम फिर
ठहर जाओगे और
बद्धमूल हो
जाओगे।
लेकिन
मध्य में है
आदमी। आदमी एक
होना, एक
अस्तित्व
नहीं है; आदमी
है एक मार्ग।
आदमी कुछ है
नहीं; आदमी
है मात्र एक
यात्रा, एक
रस्सी खिंची
है प्रकृति और
परम प्रकृति
के बीच। इसीलिए
वह होता है
तनावपूर्ण।
यदि तुम
मनुष्य बने
रहते हो, तो
तुम रहोगे
तनावपूर्ण।
या तो तुम्हें
गिरना होता है
मनुष्य तल के
नीचे, या
तुम्हें
स्वयं को
उठाना होता है
मनुष्य—अतीत
तल तक।
केवल
मनुष्य है
अराजकता में।
जरा प्रकृति
की ओर देखना—कौवे
कांव—कांव
करते, चिड़िया
चहचहाती, और
हर चीज
संपूर्ण होती
है। प्रकृति
में कहीं कोई
समस्या नहीं।
समस्या का
अस्तित्व
बनता है
मनुष्य के मन
द्वारा ही, और समस्या
विसर्जित हो
जाती जब मानव
मन विसर्जित
हो जाता है।
इसलिए जीवन की
समस्याओं को
स्वयं मन के
द्वारा ही
सुलझाने की
कोशिश मत करना।
ऐसा हो नहीं
सकता। वह सब
से ज्यादा
मूढ़ता की बात
होती है जो कि
कोई कर सकता
है। ठीक से
समझ लो कि मन
है सेतु—उसे
देखना भर है।
वह शाश्वत
नहीं, वह
है अस्थायी।
वह
ऐसा है; जब
तुम मकान
बदलते हो तो
पुराना मकान
व्यवस्थित था;
हर चीज अपनी
जगह पर ठीक
बैठी थी। फिर
तुम बदल लेते
हो मकान, फिर
फर्नीचर, फिर
कपड़े, फिर
और दूसरी
चीजें। हर चीज
जो व्यवस्थित
थी
अव्यवस्थित
हो जाती है, और तुम चले
आते हो नए
मकान में। हर
चीज एक
अव्यवस्था हो
जाती है।
तुम्हें उसे
फिर से जमाना
होता है। जब
तुम बदल रहे
होते हो मकान,
तुमने छोड़
दिया होता है
वह मकान
जिसमें कि तुम
सदा रहते रहे
हो, और
दूसरे मकान तक
तुम पहुंचे
नहीं हो। तुम
तुम्हारे
सारे सामान
सहित गाड़ी में
हो रास्ते पर
ही।
यही
है जो है मन : वह
कोई मकान नहीं
है,
यह मात्र एक
मार्ग है गुजर
जाने को। और
एक बार तुम
समझ लेते हो
इसे, तो उस
पार का कुछ
उतर चुका होता
है तुम में।
समझ कुछ पार
की चीज है; वह
मन की चीज
नहीं है।
ज्ञान मन का
होता है। समझ
मन की नहीं
होती। ध्यान
दो कि क्यों
तुम अराजकता
में हो और एक समझ
तुम पर प्रकट
होने लगेगी।
दूसरा
प्रश्न :
कुछ
वर्षों तक
रेचक विधियों
पर कार्य करने
के बाद मैं
अनुभव करता
हूं कि मुझमें
एक गहन आंतरिक
सुव्यवस्था
संतुलन और
केद्रण घट रहा
है। लेकिन
आपने कहा कि
समाधि की
अंतिम अवस्था
में जाने से
पहले व्यक्ति
एक बड़ी
अराजकता में
से गुजरता है।
मुझे कैसे पता
चले कि मैने
अराजक अवस्था
पार कर ली है
या नहीं?
पहली
बात : हजारों
जन्मों से तुम
अराजकता में
रहते रहे हो।
यह कोई नयी
बात नहीं है।
यह बहुत
पुरानी बात है।
दूसरी बात :
ध्यान की
सक्रिय
विधियां
जिनका कि आधार
रेचन है, तुम्हारे
भीतर की तमाम
अराजकता को
बाहर निकल आने
देती हैं। यही
सौंदर्य है इन
विधियों का।
तुम चुपचाप
नहीं बैठ सकते,
तो भी तुम
सक्रिय या
अव्यवस्थित
ध्यान कर सकते
हो बहुत आसानी
से। एक बार
अराजकता बाहर
निकाल दी जाती
है, तो
तुममें एक मौन
घटना शुरू
होता है। फिर
तुम बैठ सकते
हो मौनपूर्ण
ढंग से। यदि
ठीक से की गयी
हों, निरंतर
की गई हों, तो
ध्यान की रेचक
विधियां
तुम्हारी
अराजकता को
एकदम
विसर्जित कर
देंगी बाहरी
आकाश में।
तुम्हें पागल
अवस्था में से
गुजरने की
जरूरत न रहेगी।
यही तो
सौंदर्य होता
है इन विधियों
का। पागलपन तो
पहले से ही
बाहर फेंका जा
रहा होता है।
वह अंतर्गठित
होता है विधि
में ही।
जैसे
पतंजलि
सुझाके, तुम
वैसे शांत
नहीं बैठ सकते।
पतंजलि के पास
कोई रेचक विधि
नहीं है। ऐसा
लगता है उसकी
कोई जरूरत ही
न थी, उनके
समय में। लोग
स्वभावतया ही
बहुत मौन थे, शांत थे, आदिम
थे। मन अभी भी
बहुत ज्यादा
क्रियाशील
नहीं हुआ था।
लोग ठीक से सोते
थे, पशुओं
की भांति जीते
थे। वे बहुत
सोच—विचार
वाले, तार्किक,
बौद्धिक न
थे; वे
हृदेय में
केंद्रस्थ थे,
जैसे कि अभी
भी असभ्य लोग
होते हैं। और
जीवन ऐसा था
कि वह बहुत
सारे रेचन
स्वचालित रूप
से घटने देता
था।
उदाहरण
के लिए, एक
लकड़हारे को
किसी रेचन की
कोई जरूरत
नहीं होती।
क्योंकि
लकड़ियां
काटने भर से
ही, उसकी
सारी हत्यारी
प्रवृत्तियां
बाहर निकल जाती
हैं। लकड़ी
काटना पेडू की
हत्या करने
जैसा ही है।
पत्थर तोड्ने
वाले को कोई
जरूरत नहीं
होती रेचनपूर्ण
ध्यान करने की।
सारा दिन वह
यही कर रहा
होता है।
लेकिन आधुनिक
व्यक्ति के
लिए चीजें बदल
गयी हैं। अब
तुम इतनी सुख—सुविधा
में रहते हो
कि किसी रेचन
की कहीं कोई संभावना
नहीं है
तुम्हारे
जीवन में, सिवाय
इसके कि तुम
पागल ढंग से
ड्राइव कर सको।
इसीलिए
पश्चिम में हर
साल किसी और
चीज की अपेक्षा
कार
दुर्घटनाओं
द्वारा
ज्यादा लोग
मरते हैं। वही
है सबसे बड़ा
रोग। न तो
कैंसर, न ही
तपेदिक और न
ही कोई और रोग
इतनी मृत्यु
देता है
जिंदगियों को
जितना कि कार
चलाना। दूसरे
विश्वयुद्ध
में, एक
वर्ष में
लाखों
व्यक्ति मर गए
थे। सारी
पृथ्वी पर हर
साल ज्यादा
लोग मरते हैं
पागल कार
ड्राइवरों
द्वारा ही।
यदि
तुम कार चलाते
हो तो तुमने
ध्यान दिया
होगा कि जब
तुम क्रोधित
होते हो तब
तुम कार स्पीड
से चलाते हो।
तुम
एक्सेलेरेटर
को दबाते जाते
हो,
तुम बिलकुल
भूल ही जाते
हो ब्रेक के
बारे में। जब
तुम बहुत घृणा
में होते, चिढ़े
हुए होते तब
कार एक माध्यम
बन जाती है अभिव्यक्ति
का। अन्यथा
तुम इतने आराम
में रहते हो.
किसी चीज के
लिए शरीर
द्वारा कम से
कम काम लेते
हो, मन में
ही ज्यादा और
ज्यादा रहते
हो।
वे
जो मस्तिष्क
के ज्यादा
गहरे
केंद्रों के बारे
में जानते हैं, कहते
हैं कि जो लोग
अपने हाथों
द्वारा कार्य
करते हैं
उनमें कम
चिंता होती है,
कम तनाव
होता है। तब
तुम ठीक से
सोते हो
क्योंकि
तुम्हारे हाथ संबंधित
हैं, गहनतम
मन से, मस्तिष्क
के गहनतम
केंद्र से।
तुम्हारा
दायां हाथ
संबंधित है
बायें मस्तिष्क
से, तुम्हारा
बायां हाथ
संबंधित है
दाएं मस्तिष्क
से। जब तुम
काम करते हो
हाथों द्वारा,
तब ऊर्जा
मस्तिष्क से
हाथों तक बह
रही होती है
और निर्मुक्त
हो रही होती
है। लोग जो
अपने हाथों
द्वारा कार्य
करते हैं उन्हें
रेचन की जरूरत
नहीं होती है।
लेकिन जो लोग
मस्तिष्क
द्वारा कार्य
करते हैं, उन्हें
जरूरत होती है
ज्यादा रेचन
की। क्योंकि
वे इकट्ठी कर
लेते हैं
ज्यादा ऊर्जा
और उनके
शरीरों में
कोई मार्ग नहीं
होता, उसके
बाहर जाने के
लिए कोई द्वार
नहीं होता। वह
मन के भीतर ही
चलती चली जाती
है। मन पागल
हो जाता है।
लेकिन
हमारी
संस्कृति और
समाज में—आफिस
में,
फैक्टरी
में, बाजार
में लोग जो
सिर के द्वारा
यानी 'हेड'
के द्वारा
कार्य करते
हैं 'हेड्स'
कहलाते हैं
: हेड—क्लर्क, या हेड—सुपरिन्टैंडेंट;
और लोग जो
हाथों द्वारा
कार्य करते
हैं, हैड्स
द्वारा वे
कहलाते हैं 'हैड्स'।
यह बात
निंदात्मक हो
जाती है। यह 'हैड्स' शब्द
ही बन गया है
निंदात्मक।
जब
पतंजलि कार्य
कर रहे थे इन
सूत्रों पर, तो
संसार
पूर्णतया अलग
था। लोग थे 'हैड्स'।
विशेष रूप से
रेचन की कोई
जरूरत नहीं थी।
जीवन स्वयं ही
एक रेचन था।
तब, वे बड़ी
आसानी से बैठ
सकते थे शात
होकर। लेकिन
तुम नहीं बैठ
सकते। इसीलिए
मैं आविष्कार
करता रहा हूं
रेचक विधियों
का। केवल
उन्हीं के बाद
तुम शाति से
बैठ सकते हो, उससे पहले
नहीं।
कुछ
वर्षों तक
रेचक विधियों
पर कार्य करने
के बाद मैं
अनुभव करता
हूं कि एक गहन आंतरिक
सुव्यवस्था
संतुलन और
केद्रण मुझ
में घट रहा है
अब झंझट
मत खड़ी कर
लेना; इसे
होने देना। अब
वही मन अपनी
टाग अड़ा रहा
है। मन कहता
है, 'ऐसा
कैसे घट सकता
है? पहले
मेरा अराजकता
से गुजरना
जरूरी है। ' यह विचार
निर्मित कर
सकता है
अराजकता का।
यही मेरे
देखने में आता
रहा है : लोग
ललकते रहते
हैं शाति के
लिए, और जब
वह घटने लगती
है, तो वे
विश्वास नहीं
कर सकते उस पर।
यह इतना अच्छा
होता है कि इस
पर विश्वास ही
नहीं आता। खास
करके वे लोग
जिन्होंने
सदा निंदा की
होती है अपनी,
वे विश्वास
नहीं कर सकते
कि वह सब घटित
हो रहा है
उन्हें। ' असंभव!
ऐसा घटा होगा
बुद्ध को या
कि जीसस को, लेकिन मुझको?
नहीं, यह
तो संभव नहीं
है। ' वे
शाति द्वारा,
मौन द्वारा,
वैसा घटने
पर अशात होकर
मेरे पास चले
आते हैं। 'यह
सच है, या
कि मैं कल्पना
कर रहा हूं
इसकी?' क्यों
चिंता करनी? यदि यह
कल्पना भी है,
तो क्रोध के
बारे में
कल्पना करने
से यह बेहतर
है; यह
कामवासना के
बारे में
कल्पना करने
से तो बेहतर
है।
और
मैं कहता हूं
तुमसे, कोई
कल्पना नहीं
कर सकता शाति
की। कल्पना को
जरूरत रहती है
किसी रूपाकार
की, मौन के
पास कोई आकार
नहीं होता।
कल्पना का
अर्थ होता है
बिंब में
सोचना, और
मौन का कोई
प्रतिबिंब
नहीं होता।
तुम कल्पना
नहीं कर सकते
संबोधि की, सतोरी की, समाधि की, मौन की।
नहीं। कल्पना
को चाहिए कोई
आधार, कोई
आकार, और
मौन होता है
आकारविहीन, अनिर्वचनीय।
किसी ने कभी
नहीं बनाया
इसका कोई
चित्र; कोई
नहीं बना सकता।
किसी ने नहीं
गढ़ी इसकी कोई
मूरत; कोई
कर नहीं सकता
ऐसा।
तुम
मौन की कल्पना
नहीं कर सकते।
मन चल रहा है
चालाकियां।
मन तो कहेगा, 'यह
जरूर कल्पना
ही होगी। ऐसा
संभव कैसे हो
सकता है
तुम्हारे लिए?
तुम्हारे
जैसा इतना मूढ़
व्यक्ति और
मौन घट रहा है
तुमको? जरूर
यही होगा कि
तुम कल्पना कर
रहे हो। ' या,
'इस आदमी
रजनीश ने
सम्मोहित कर
दिया है
तुम्हें।
कहीं कुछ
तुम्हें धोखा
हो रहा होगा। '
मत खड़ी कर
लेना ऐसी
समस्याएं।
ऐसे ही जीवन
में काफी
समस्याएं हैं।
जब मौन घट रहा
हो, तो
उसमें आनंदित
होना, उसका
उत्सव मनाना।
इसका अर्थ हुआ
कि अराजक
शक्तियां
बाहर निकाली
जा चुकी हैं।
मन खेल रहा है
अपना अंतिम
खेल। वह खेलता
है बिलकुल अंत
तक; सर्वथा,
पूर्णतया
अंत तक वह
खेलता ही जाता
है, अंतिम
घड़ी में जब
संबोधि घटने
को ही होती है,
तब भी मन
चलता है अंतिम
चालाकी। यह
अंतिम लड़ाई
होती है।
मत
चिंता करना कि
यह वास्तविक
है या
अवास्तविक है, या
कि इसके बाद
अराजकता आएगी
या नहीं। इस
ढंग से सोचने
द्वारा
अराजकता तो
तुम ले ही आए
हो। यह
तुम्हारा
विचार होता है
जो कि निर्मित
कर सकता है
अराजकता। और
जब वह निर्मित
हो जाती है, तो मन कहेगा,
' अब सोच लो, मैंने तो
ऐसा पहले ही
कह दिया था
तुमसे। '
मन
बहुत स्वत:
आपूरक होता है।
पहले यह
तुम्हें दे देता
है बीज, और जब
वह
प्रस्फुटित
होता है तो मन
कहता है, 'देख
लिया, मैंने
तो तुमसे पहले
ही कह दिया था
कि तुम्हें
धोखा हुआ है। '
अराजकता
पहुंच चुकी और
यह लायी गयी
है विचार द्वारा।
तो क्यों
चिंता करनी इस
बारे में कि
भविष्य में
अभी अराजकता
आने को है या
नहीं? कि
वह गुजर गई है
या नहीं? बिलकुल
इसी घड़ी तुम
मौन हो, क्यों
नहीं उत्सव
मनाते इस बात
पर? और मैं
कहता हूं
तुमसे, यदि
तुम मनाते हो
उत्सव, तो
वह बढ़ता है।
चेतना
के इस संसार
में और कुछ
इतना सहायक
नहीं है जितना
कि उत्सव।
उत्सव है
पौधों को पानी
देने जैसी बात।
चिंता ठीक
विपरीत है
उत्सव के; यह
है जड़ों को
काट देने जैसी
बात। प्रसन्नता
अनुभव करो!
नृत्य करो
तुम्हारे मौन
के साथ। इस
क्षण वह मौजूद
है—पर्याप्त
है। क्यों
मांग करनी
ज्यादा की? कल अपनी
फिक्र अपने आप
लेगा। यह क्षण
ही बहुत काफी
है; क्यों
नहीं जी लेते
इसे! क्यों नहीं
इसका उत्सव
मनाते, इसे
बांटते, इससे
आनंदित होते?
इसे बनने दो
एक गान, एक
नृत्य, एक
कविता। इसे
बनने दो
सृजनात्मक।
तुम्हारे मौन
को होने दो
सृजनात्मक; कुछ न कुछ
करो इसका।
लाखों
चीजें संभव
होती हैं, क्योंकि
मौन से ज्यादा
सृजनात्मक तो
कुछ और नहीं
होता है। कोई
जरूरत नहीं
बहुत बड़ा
चित्रकार
बनने की, पिकासो
की भांति
संसार
प्रसिद्ध
होने की। कोई
जरूरत नहीं
हेनरी मूर
बनने की; कोई
जरूरत नहीं
महान कवि बनने
की। महान बनने
की वे
महत्वाकांक्षाएं
मन की होती हैं,
मौन की नहीं।
अपने
ढंग से चित्र
बनाना, चाहे
कितना ही
मामूली हो।
तुम्हारे
अपने ढंग से
हाइकू रचना, चाहे वह
कितना ही
साधारण हो।
कितना ही
सामान्य हो—तुम्हारे
अपने ढंग से
गीत गाना, थोड़ा
नृत्य करना
उत्सव मनाना।
तुम पाओगे कि
अगला ही क्षण
ले आता है
ज्यादा मौन।
तुम जान जाओगे
कि जितना
ज्यादा मनाते
हो तुम उत्सव,
उतना
ज्यादा दिया
जाता है
तुम्हें; जितना
ज्यादा तुम
बांटते हो, उतने ज्यादा
तुम सक्षम हो
जाते हो ग्रहण
करने में। हर
क्षण वह बढ़ता
है, बढ़ता
ही चला जाता
है।
और
अगला क्षण सदा
ही उत्पन्न
होता है इस
क्षण से, तो
क्यों फिक्र
करनी उसकी!
यदि यह
वर्तमान क्षण
शांतिपूर्ण
है, तो
कैसे अगला
क्षण अराजक हो
सकता है? कहां
से आएगा वह? उसे इसी
क्षण से ही
उत्पन्न होना
होता है। यदि
मैं प्रसन्न
हूं इस क्षण, तो कैसे मैं
अप्रसन्न हो
सकता हूं अगले
क्षण में?
यदि
तुम चाहते हो
कि अगला क्षण
अप्रसन्नता
वाला हो, तो
तुम्हें इसी
क्षण
अप्रसन्न
होना होगा, क्योंकि
अप्रसन्नता
में से ही
अप्रसन्नता
उत्पन्न होती
है। और
प्रसन्नता
में से
उत्पन्न होती
है प्रसन्नता।
जो कुछ तुम
प्राप्त करना
चाहते हो अगले
क्षण में, तुम्हें
उसे बोना होगा
बिलकुल अभी।
एक बार चिंता
को आने दिया
जाता है और
तुम सोचने
लगते कि
अराजकता आएगी,
तो वह आएगी
ही। तुम उसे
ले ही आए हो।
अब तुम्हें
पास रखना ही
होगा उसे; वह
आ ही पहुंची
है! अगली घड़ी
की प्रतीक्षा
करने की कोई
जरूरत नहीं; वह पहले से वहां
है ही।
इसे
जरा खयाल में
ले लेना, और यह
सचमुच ही कुछ
अजीब बात है :
जब तुम उदास
होते हो तो
तुम कभी नहीं
सोचते कि यह
बात काल्पनिक
हो सकती है।
कभी मैंने ऐसा
आदमी नहीं
देखा जो कि
उदास हो और
कहता हो मुझसे
कि शायद यह
बात काल्पनिक
ही है। उदासी
संपूर्णतया
वास्तविक
होती है!
लेकिन
प्रसन्नता? —तुरंत कुछ
गलत हो जाता
है और तुम
सोचने लगते हो,
'शायद यह
बात काल्पनिक
ही है। ' जब
कभी तुम
तनावपूर्ण
होते, तो
तुम कभी नहीं
सोचते कि यह
काल्पनिक बात
है। यदि तुम
सोच सकते हो
कि तुम्हारा
तनाव और पीड़ा
काल्पनिक है,
तो वह
तिरोहित हो
जाएगी। और यदि
तुम सोचते हो
कि तुम्हारी
शाति और प्रसन्नता
काल्पनिक हैं,
तो वे
तिरोहित हो
जाएंगी।
जो
कुछ धारण किया
जाता है
वास्तविकता
के रूप में, वह
वास्तविक हो
जाता है। जो
कुछ धारण किया
जाता है
अवास्तविकता
के रूप में, वह हो जाता
है अवास्तविक।
तुम्हीं हो
निर्माता
तुम्हारे
चारों ओर के सारे
संसार के, इस
बात को खयाल
में ले लेना।
प्रसन्नता की,
आनंद की घड़ी
को पा लेना
बहुत दुर्लभ
होता है। इसे
मत गंवा देना
सोचने—विचारने
में ही। लेकिन
यदि तुम कुछ
नहीं करते, तो चिंता के
आने की
संभावना है।
यदि तुम कुछ
नहीं करते—यदि
तुम नृत्य
नहीं करते, यदि तुम गीत
नहीं गाते, यदि तुम
बांटते नहीं,
तो वैसी
संभावना होती
है। वही ऊर्जा
जो हो सकती है
सृजनात्मक, वह सृजन कर
देगी चिंता का।
वह भीतर नए
तनाव बनाना
शुरू कर देगी।
ऊर्जा
को होना है
सृजनात्मक।
यदि तुम उसका
उपयोग
प्रसन्नता के
लिए नहीं करते, तो
वही ऊर्जा
प्रयुक्त हो
जाएगी
अप्रसन्नता के
लिए। और
अप्रसन्नता
के लिए
तुम्हारे पास
इतने गहरे रूप
से बद्धमूल
हुई आदतें हैं
कि उसके लिए
ऊर्जा—प्रवाह
बहुत मुक्त और
स्वाभाविक
होता है।
प्रसन्नता
लाने के लिए
यह एक
श्रमसाध्य
कार्य होता है।
तो
पहले कुछ दिन
तुम्हें
निरंतर रूप से
जागरूक रहना
होगा। जब कभी
कोई
प्रसन्नता की
घड़ी आए, होने
दो उसकी पकड़
तुम पर, करने
दो तुम्हें वशीभूत।
इतनी समग्रता
से उसका आनंद
मनाओ कि अगली
घड़ी कुछ अलग
तरह की न हो
सके। कहां से
होगी वह अलग? कहौ से आएगी
वह?
तुम्हारा
समय निर्मित
होता है
तुम्हारे भीतर।
तुम्हारा समय
मेरा समय नहीं
है। उतने ही
समानांतर समय
अस्तित्व
रखते हैं जितने
कि मन होते
हैं। कोई एक समय
नहीं है। यदि
एक समय होता, तो
कठिनाई हो गया
होती। तब सारी
दुखी मानव—जाति
के बीच, कोई
बुद्ध नहीं हो
सकता था, क्योंकि
हम संबंधित
होते एक ही
समय से। नहीं,
वह एक ही
नहीं होता है।
मेरा समय आता
है मुझसे—वह
मेरा सृजन है।
यदि यह क्षण
सुंदर है, तो
अगला क्षण
जन्मता है
ज्यादा सुंदर—यह
है मेरा समय।
यदि यह क्षण
उदास होता है
तुम्हारे लिए,
तो और
ज्यादा उदास
क्षण जन्मता
है तुममें से—वह
है तुम्हारा
समय।
समय
की लाखों
समानांतर
रेखाएं
अस्तित्व रखती
हैं। और कुछ
लोग हैं जो
अस्तित्व
रखते हैं बिना
समय के, वे
जिन्होंने पा
लिया है अ—मन।
उनके पास कोई
समय नहीं, क्योंकि
वे नहीं सोचते
हैं अतीत के
बारे में, अतीत
तो जा चुका; केवल मूढ़
सोचते हैं
उसके विषय में।
जब कोई चीज जा
चुकी होती है,
तो वह जा
चुकी होती है।
एक
बौद्ध मंत्र
है : 'गते, गते,
परा गते, परा संगते—बोधि
स्वाहा!' 'जा
चुका, जा चुका,
परम रूप से
जा चुका; उसे
अग्नि में
स्वाहा हो
जाने दो। ' अतीत
जा चुका है, भविष्य अभी
आया नहीं है।
क्यों चिंता
करनी उसकी 1: जब
आएगा वह, हम
देख लेंगे।
तुम होओगे
मौजूद उसका
सामना करने को,
क्यों
चिंता करनी
उसकी? जो
चला गया वह
चला गया है, नहीं आया
हुआ अभी तक
आया नहीं।
केवल यही क्षण
बचा हुआ है, शुद्ध
प्रगाढ़ ऊर्जा
सहित।
जीयो
इसे! यदि यह
शांतिपूर्ण
है,
तो
अनुगृहीत होओ।
यदि यह आनंदपूर्ण
है, तो
धन्यवाद दो
परमात्मा
को,
आस्था रखो
इस पर और यदि
तुम आस्था रख
सकते हो, तो
यह विकसित
होगी। यदि तुम
रखते हो
अनास्था, तो
तुमने पहले से
ही विषाक्त कर
दिया इसे।
तीसरा
प्रश्न :
आपने
कहा कि हमारी
ओर से की गयी
सब क्रियाएं ज्यादा
समस्याएं खड़ी
कर देंगी और
हमें देखना चाहिए
और प्रतीक्षा
करनी चाहिए और
विश्रांत होना
चाहिए और
चीजों को अपने
से ही शांत
होने देना
चाहिए तो ऐसा
किस प्रकार
हुआ कि योग
सैकड़ों
तरकीबों और
अभ्यासों
साधनाओं से
भरा हुआ है।
तुम्हारे
कारण! ऐसा
पतंजलि के
कारण नहीं हुआ
है,
ऐसा हुआ है
तुम्हारे
कारण। तुम
नहीं विश्वास
कर सकते कि
तुम्हारे
बिना कुछ किए
ही परम सत्य
घट सकता है
तुमको—तुम
नहीं विश्वास
कर सकते।
तुम्हें कुछ
चाहिए करने को।
जैसे कि
बच्चों को
चाहिए खिलौने
खेलने के लिए
तुम्हें
तरकीबें
चाहिए खेलने
के लिए। और
क्योंकि तुम
विश्वास नहीं
कर सकते कि
परमात्मा
इतना सरल है
और इतने
निकटतम रूप से
संभव है, अत:
तरकीबें खोज
ली गयी हैं।
वे तरकीबें
तुम्हारी मदद
न करेंगी परम
सत्य तक
पहुंचने में।
तो क्या
करेंगी वे? —वे तो मात्र
दर्शा देंगी
तुम्हें
तुम्हारी मूढ़ता।
एक दिन अचानक
बोध होने पर
कि क्या कर
रहे हो तुम, तरकीबें गिर
जाती हैं, और
परमात्मा उतर
आता है।
परमात्मा तो
सदा से ही है।
तरकीबें हैं
तुम्हारे
कारण; तुम
मांग करते हो
उनकी।
लोग
मेरे पास आते, और
यदि मैं कहता
हूं उनसे कि
कोई जरूरत
नहीं कुछ करने
की, तो वे
कहते हैं 'फिर
भी कुछ दीजिए।
कम से कम कोई
मंत्र ही दे
दीजिए आप ताकि
हम उसका जप ही
कर सकें। 'वे
कहते कि मात्र
शाति से बैठ
जाना असंभव है—'हमें कुछ
करना है। ' तो
क्या करूं मैं
इन लोगों का? यदि मैं
कहता हूं उनसे,
'शांत होकर
बैठो', तो
वे बैठ नहीं
सकते। तब
कामचलाऊ रूप
की कोई चीज
निर्मित कर
लेनी होती है।
मैं दे देता
हूं उन्हें
कुछ करने को।
उसे करते हुए,
कम से कम वे
कुछ घंटे
व्यस्त तो
रहेंगे। वे
बैठे रहेंगे
जपते हुए, कम
से कम इस
मंत्र की
सहायता से, वे किसी का
कुछ बुरा तो
नहीं करेंगे।
वे बैठे ही
रहेंगे : वे
बुरा कर नहीं
सकते। और
निरंतर राम, राम, राम—जपते
हुए किसी दिन
वे जान लेंगे
कि वे क्या कर रहे
हैं।
एक
झेन गुरु अपने
शिष्य के पास
गया। शिष्य
सच्चा
प्रामाणिक
खोजी था। वह
निरंतर ध्यान
कर रहा था और
उसे उपलब्ध हो
गया था वह
अंतिम स्थल
जहां गिरा ही
देना होता है
ध्यान; सारी
तरकीबें गिरा
देनी होती हैं।
वे मात्र
खिलौने हैं, क्योंकि
बिना खिलौनों
के तुम रह
नहीं सकते। वे
इस आशा में
दिए जाते हैं
कि किसी दिन
तुम जान जाओगे
कि वे मात्र
खिलौने हैं।
तुम स्वयं ही
फेंक दोगे
उन्हें और
शांत होकर बैठ
जाओगे।
गुरु
गया क्योंकि
अब सही घड़ी आ
पहुंची थी, और
शिष्य फिर भी
जारी रखे हुए
था अपने मंत्र
का जप। वह हो
गया था आदी।
अब वह वशीभूत
हो गया था। वह
छोड़ नहीं सकता
था उसे। यह
ऐसा ही है कि
जैसे जब कई बार
तुम पाते हो
कि गाने की
कोई निश्चित
पंक्ति मन में
चलती ही जाती
है। यदि तुम
चाहते भी हो
तो भी तुम
गिरा नहीं सक थे
उसे। वह लगी
रहती है
तुम्हारे
भीतर, फिर—फिर
आ पहुंचती है वह।
यह कुछ ऐसी
बात नहीं है
जिसे कि तुम
नहीं जानते।
जब
कोई व्यक्ति
बरसों तक एक
मंत्र दोहराता
चला जाता है, तो
करीब—करीब
असंभव होता है
उसे गिरा देना।
वह उसकी मांस—मज्जा
ही बन जाता है।
वह अपनी नींद
में भी नहीं
गिरा सकता है
उसे। जब वह
नींद में होता
है तो तुम
उसके होंठों
को देख सकते
हो कहते हुए, 'राम, राम,
राम। ' यह
बात एक
अंतर्धारा बन
जाती है।
निस्संदेह यह
एक खिलौना
होता है, एक
भालू—खा, लेकिन
इतना ज्यादा
निकट का बन
जाता है कि
बच्चा सो नहीं
सकता इसके
बिना।
गुरु
गया और एकदम
बैठ गया शिष्य
के सम्मुख। वह
बैठा हुआ था
बुद्ध की
भांति, जप कर
रहा था, अपने
मंत्र का।
गुरु ले गया
था अपने साथ
एक ईंट और
शुरू कर दिया
था उसने ईंट
को पत्थर पर
रगड़ना : घर्र, घर्र, घर्र।
वह करता गया
ऐसा बिलकुल
मंत्र की
भांति ही।
पहले तो शिष्य
ने यह देखने
के प्रलोभन को
कि 'कौन
शाति भंग कर
रहा है', रोके
रखा; लेकिन
फिर वह चीज
चलती ही चली
गई; घंटों
गुजर गये।
शिष्य ने अपनी
आंखें खोल लीं
और बोला, 'क्या
कर रहे हैं आप?'
गुरु ने कहा,
'मैं इस ईंट
को चमकाने की
कोशिश कर रहा
हूं इसका
दर्पण बना
देने के लिए। '
शिष्य बोला,
'आप नासमझ
हो। मैंने कभी
नहीं सोचा था
कि आप, जिनकी
प्रतिष्ठा
बुद्ध—पुरुष
के रूप में है,
वेश्तनी
मूढ़ बात कर
सकते हैं। ईंट
कभी न बनेगी
दर्पण, चाहे
कितनी ही जोर
से आप इसे लड़
लें पत्थर पर।
यह पूरी तरह
मिट तो सकती
है, लेकिन
यह दर्पण न
बनेगी। आप बंद
कीजिए यह
बेतुकी बात। '
गुरु हंस
पड़ा और बोला 'तुम भी करो
बंद, क्योंकि
चाहे कितना ही
क्यों न रगड़ी
तुम मन की ईंट
को, वह कभी
न बनेगी
अंतरतम आत्मा।
वह चमकती
जाएगी और
चमकती जाएगी
और चमकती जाएगी,
पर फिर भी
वह न बनेगी
तुम्हारी आंतरिक
वास्तविकता। '
मन
को गिरा देना
है। ध्यान की
विधियां, तरकीबें,
उस गिराने
में मदद देने
की चालाकियां
हैं लेकिन तब
ध्यान भी तो
गिरा देना है।
अन्यथा, वही
बन जाता है
तुम्हारा मन।
यह
ऐसा है जैसे
जब तुम्हारे
पैर में कांटा
चुभा हो, और
तुम दूसरा
कांटा पा लो, उस पहले
काटे को
तुम्हारे पैर
में से हटा
देने को, दूसरा
कांटा मदद
करता है, लेकिन
तो भी दूसरा
कांटा भी पहले
की भांति कांटा
ही है। दूसरा
कांटा कोई फूल
नहीं होता। जब
पहला निकाला
जा चुका होता
है दूसरे की
मदद से तो क्या
करोगे तुम? क्या तुम
दूसरे को घाव
में रख दोगे
क्योंकि उसने
बहुत ज्यादा
मदद की और
काटा इतना
महान था कि
तुम्हें पूजा
करनी पड़ी
उसकी! क्या
तुम पूजा करोगे
दूसरे काटे की?
नहीं, तुम
दोनों को ही
एक साथ फेंक
दोगे।
इस
बात को खयाल
में ले लेना
है : मन एक काटा
है,
और सारी
तरकीबें
कांटा हैं, पहले काटे
को बाहर
निकालने की।
ध्यान भी एक
काटा है। जब
पहला काटा
बाहर हो जाता
है, तब
दोनों को साथ—साथ
ही फेंक देना
होता है। यदि
तुम एक घड़ी भी
गंवा देते हो,
तब पहले
काटे के स्थान
पर होगा दूसरा
कांटा। तुम
उसी मुसीबत
में पड़े होंगे।
इसीलिए
जरूरत होती है
सद्गुरु की जो
कह सकता हो
तुम से, 'अब
आयी है ठीक
घड़ी। गिरा दो
इस ध्यान को
और इस मूढ़
कार्यकलाप को।
' जब तक
ध्यान
तिरोहित ही न
हो जाए ध्यान
उपलब्ध नहीं
हुआ होता है।
जब ध्यान
व्यर्थ पड़
जाता है, केवल
तभी पहली बार
तुम हो जाते
हो ध्यानी।
तरकीबें
तुम्हारे लिए
आविष्कृत की
जाती रही हैं,
क्योंकि
तुम्हारे पास
पहले से ही
काटा होता है।
कांटा वहां है
पहले से ही।
किसी उपाय की
जरूरत है उसे
बाहर ले आने
के लिए। लेकिन
सदा ध्यान रहे,
भूलो मत कभी
: कि दूसरा
काटा भी काटा
है पहले की
भांति, और
दोनों को ही
फेंक देना है।
क्योंकि
तुम तो जान
नहीं पाओगे, इसीलिए
इतना महत्व
दिया जाता है
गुरु को, गुरु
के सत्संग को।
जब मन गिर
जाता है, तो
तुरंत ध्यान
बन जाता है मन
और फिर से
अधिकृत कर लिए
जाते हो तुम।
अनाधिकृत
अवस्था में जब
न तो कहीं मन
होता है और न
ही ध्यान, उस
समग्ररूपेण
अनाधिकृत मन
की अवस्था में,
परम सत्य
घटता है—उसके
पहले कभी नहीं।
ऐसा
हुआ कि एक बड़ा
झेन गुरु, जब
वह संबोधि को
उपलब्ध नहीं
हुआ था और अभी
झेन गुरु नहीं
हुआ था और खोज
रहा था और
ढूंढ रहा था, अपने गुरु
के पास गया।
गुरु सदा से
कहता आ रहा था
लोगों से, 'ज्यादा
ध्यान करो। ' जो कोई भी
आया उसने पायी
वही सलाह, 'ज्यादा
ध्यान करो, ज्यादा
ऊर्जा ले आओ
उसमें। ' इस
शिष्य ने किया
जो कुछ भी वह
कर सकता था।
वह वस्तुत:
उतने ही समग्र
रूप से कर रहा
था ध्यान
जितना कि कोई
मानव प्राणी
कर सकता है।
वह गया गुरु
के दर्शन को, और उसे देख
गुरु ने खास
ध्यान नहीं
दिया। चेहरे
से खुश न
दिखाई पड़ा वह।
शिष्य पूछने
लगा, 'बात
क्या है? यदि
आप ज्यादा कुछ
करने को कहें,
तो करूंगा
मैं कोशिश।
लेकिन आप मेरी
ओर इतनी उदास
दृष्टि से
क्यों देख रहे
हैं? क्या
अनुभव करते
हैं कि मैं एक
निराशाजनक
व्यक्तित्व
हूं?' गुरु
ने कहा, 'नहीं,
ठीक उलटी है
बात—तुम बहुत
कुछ कर रहे हो।
थोड़ा कम करो।
तुम सब मिला
कर ध्यान और
झेन से बहुत
ज्यादा भर गए
हो। थोड़ा—सा
कम ही काम दे
देगा। '
कोई
वशीभूत हो
सकता है ध्यान
द्वारा, और
वशीभूत होना
एक समस्या है।
पहले तुम धन
द्वारा
सम्मोहित हुए,
अब तुम
सम्मोहित हो
गए ध्यान
द्वारा। धन
नहीं है
समस्या, आविष्ट
होना, वशीभूत
होना समस्या
है। तुम बाजार
से वशीभूत थे,
अब वशीभूत
हुए परमात्मा
द्वारा।
बाजार कोई
समस्या नहीं
है, बल्कि
वशीभूत होना
समस्या हौं
व्यक्ति को स्वाभाविक
और मुक्त होना
चाहिए और किसी
चीज द्वारा
सम्मोहित
नहीं होना
चाहिए; न
तो मन द्वारा
और न ही ध्यान
द्वारा। केवल
तभी खाली होने
पर, सम्मोहन
रहित होने पर,
जब तुम एकदम
उमग रहे होते,
प्रवाहमान
होते, परम
सत्य घटता है
तुम में।
चौथा
प्रश्न :
आप
प्रेम के विषय
में बताते हैं
और यह कि उस पर
ध्यान करना कितना
ठीक है लेकिन
मेरी
वास्तविकता
ज्यादा जुड़ी
है भय से।
क्या आप हमें
बताएंगे भय के
विषय में और
हमारा क्या
दृष्टिकोण
होना चाहिए
इसके प्रति?
पहली
बात तो यह है
कि भय प्रेम
का दूसरा पहलू
है। यदि तुम
प्रेम में
होते हो, तो भय
तिरोहित हो
जाता है। यदि
तुम प्रेम में
नहीं होते, तो भय उठ खड़ा
होता है, बड़ा
प्रबल भय।
केवल प्रेमी
होते हैं
निर्भय। केवल
प्रेम के गहन
क्षण में, कोई
भय नहीं रहता।
प्रेम के गहन
क्षण में, अस्तित्व
बन जाता है एक
घर—तुम अजनबी
नहीं रहते, तुम बाहरी
व्यक्ति नहीं
रहते, तुम
स्वीकृत हो
जाते हो। यदि
एक भी मनुष्य
द्वारा तुम
स्वीकृत हो
जाते हो, तो
गहरे में कुछ
खिल जाता है—फूल
खिलने जैसा
कुछ घट जाता
है अंतरतम
अस्तित्व में।
तुम स्वीकृत
हो जाते हो
किसी के
द्वारा, तुम
मूल्यवान
माने जाते हो;
तुम व्यर्थ ही
नहीं रहते।
तुम्हारी
सार्थकता
होती है; कुछ
अर्थ हो जाता
है। यदि
तुम्हारे
जीवन में कोई
प्रेम न रहे, तो तुम
भयभीत हो
जाओगे। तब हर
कहीं भय होगा
क्योंकि हर
कहीं शत्रु हैं,
मित्र हैं
नहीं। सारा
अस्तित्व
पराया जान
पड़ता है। तुम
लगने लगते हो
सांयोगिक—गहरे
में उतरे नहीं,
बद्धमूल
नहीं, घर
में नहीं।
प्रेम में कोई
एक मनुष्य भी
तुम्हें दे
सकता है इतना
गहरा सुख—चैन
तो जरा उसकी
तो सोचो जब
कोई व्यक्ति
प्रार्थना को
उपलब्ध हो
जाता है।
प्रार्थना
उच्चतम प्रेम
है—समग्र के, संपूर्ण
के संग प्रेम।
और जिन्होंने
प्रेम नहीं
किया वे
प्रार्थना को
नहीं उपलब्ध
हो सकते।
प्रेम पहला
सोपान है और
प्रार्थना
अंतिम।
प्रार्थना का
अर्थ हुआ कि
तुम संपूर्ण
से प्रेम करते
हो और संपूर्ण
तुम्हें
प्रेम करता है।
जब किसी एक
व्यक्ति के
कारण भी इतना
गहरा खिलाव
तुम्हारे
भीतर घट सकता
है तो जरा
उसकी सोचो जब
अनुभव होता है
कि संपूर्ण के
साथ प्रेम में
हो? प्रार्थना
होती है जब
तुम प्रेम
करते हो परमात्मा
से और
परमात्मा
प्रेम करता है
तुमसे। और यदि
प्रेम और
प्रार्थना
तुम्हारे
जीवन में नहीं,
तो वहां
होता है केवल
भय।
अत:
भय वास्तव में
प्रेम का अभाव
ही है। और यदि
भय है
तुम्हारी
समस्या, तो वह
यही दिखाती है
मुझे कि तुम
देख रहे हो गलत
पहलू की ओर।
समस्या प्रेम
की होनी चाहिए
भय की नहीं।
यदि भय है
समस्या, तो
उसका अर्थ हुआ
तुम्हें खोज
करनी चाहिए
प्रेम की। यदि
भय है समस्या,
तो समस्या
वस्तुत: यही
है कि तुम्हें
ज्यादा
प्रेमपूर्ण
होना चाहिए, ताकि दूसूरा
कोई तुम्हारे
प्रति ज्यादा
प्रेमपूर्ण
हो सके।
तुम्हें
ज्यादा खुला
होना चाहिए
प्रेम के प्रति।
लेकिन
यही है अड़चन :
जब तुम्हें भय
होता है तो तुम
बंद हो जाते
हो। तुम इतना
भय अनुभव करने
लगते हो कि
तुम दूसरे मनुष्य
की ओर बढ़ना
बंद कर देते
हो। तुम एकाकी
हो जाना चाहते
हो। जब कभी
कोई आ जाता है, तुम
घबड़ाहट अनुभव
करते हो, क्योंकि
दूसरा लगता है
शत्रु की
भांति। और यदि
तुम इतने जकड़े
गए होते हो भय
द्वारा तो यह
हो जाता है एक
दुश्चक्र।
प्रेम का अभाव
तुम में भय
निर्मित कर देता
है, और अब
भय के कारण ही
तुम हो जाते
हो बंद। तुम
बिना
खिड़कियों
वाली बंद
कोठरी की
भांति हो जाते
हो। जब तुम
भयभीत होते हो,
तो कोई भी आ
सकता है
खिड़कियों
द्वारा, और
चारों ओर होते
हैं शत्रु।
तुम्हें
द्वार खोलने
में भय होता
है क्योंकि जब
तुम खोल देते
हो द्वार, तब
कुछ भी संभव
होता है। अत:
प्रेम भी जिस
समय खटखटाता
है तुम्हारा
द्वार, तो
तुम भरोसा
नहीं करते।
कोई
पुरुष या कोई
स्त्री जो
बहुत गहरे रूप
से बद्धमूल हो
भय में, उसे
हमेशा प्रेम
में पड़ने से
डर लगता है।
तब हृदय के
द्वार खुल
जाएंगे और
दूसरा तुम में
प्रवेश कर
जाएगा, और
दूसरा तो है
शत्रु।
सार्त्र कहता
है, 'दूसरा
है नरक। '
प्रेमियों
ने एक दूसरी
वास्तविकता
जानी है, दूसरा
है स्वर्ग, पूरा स्वर्ग।
सार्त्र जरूर
गहरे भय में
पीड़ा में, चिंता
में जी रहा है।
और सार्त्र
बहुत, बहुत
प्रभावकारी
हो गया है
पश्चिम में।
वस्तुत: उससे
बचना चाहिए
रोग की भांति,
एक खतरनाक
रोग की भांति।
लेकिन वह
आकर्षित करता
है क्योंकि जो
कुछ भी वह कह
रहा है, बहुत
लोग वही कुछ
तो अनुभव करते
हैं अपने जीवन
में। यही है
उसका आकर्षण।
निराशा, उदासी,
पीड़ा, भय
: ये ही हैं
सार्त्र के
मूल विषय, अस्तित्ववाद
के संपूर्ण आंदोलन
के विषय। और
लोग अनुभव
करते कि ये
उनकी
समस्याएं हैं।
इसीलिए जब मैं
बात करता हूं
प्रेम की
निस्संदेह
तुम अनुभव
करते कि वह
तुम्हारी
समस्या है ही
नहीं।
तुम्हारी
समस्या तो भय
की है। लेकिन
मैं कहना
चाहूंगा
तुमसे कि
प्रेम है
तुम्हारी
समस्या, भय
नहीं।
यह
ऐसा है : जैसे
कि घर में
अंधेरा हो और
मैं बात करूं
प्रकाश की।
तुम कहते, 'आप
प्रकाश की ही
बात करते जाते
हैं। बेहतर
होता यदि आप
बोलते अंधकार
के बारे में, क्योंकि
हमारी समस्या
तो अंधकार की
है। घर भरा
हुआ है अंधकार
से। प्रकाश
नहीं है हमारी
समस्या। ' लेकिन
क्या तुम्हें
बात समझ में
आती है कि तुम
क्या कह रहे
हो? यदि
अंधकार है
तुम्हारी
समस्या, तो
अंधकार के
बारे में
बातें करना
मदद न देगा।
तुम कहते हो
कि अंधकार है
तुम्हारी
समस्या, लेकिन
सीधे तौर पर
कुछ किया नहीं
जा सकता है
अंधकार के
बोरे में। तुम
उसे बाहर
निकाल फेंक
नहीं सकते, तुम उसे
बाहर धकेल
नहीं सकते, तुम उसे
उतार दूर नहीं
कर सकते।
अंधकार
एक अभाव है।
सीधे—सीधे
उसके बारे में
कुछ किया नहीं
जा सकता है।
यदि तुम्हें
कुछ करना हो, तो
तुम्हें कुछ
करना होगा
प्रकाश के साथ,
अंधकार के
साथ नहीं।
ज्यादा
ध्यान देना
प्रकाश पर—कि
कैसे ढूंढो
प्रकाश को, कैसे
निर्माण करो
प्रकाश का, कैसे घर में
प्रज्वलित कर
लो दीया? और
तब अचानक, कहीं
कोई अंधकार
नहीं रहता।
ध्यान
रहे कि समस्या
प्रेम की होती
है,
भय की नहीं।
तुम देख रहे
हो असद् पक्ष
की ओर। तुम
जन्मों—जन्मों
तक देख सकते
हो असद् पक्ष
की तरफ और तुम
उसे सुलझा न
पाओगे।
सदा
स्मरण रखना कि
अनुपस्थिति
को नहीं बना
लेना होता है
समस्या, क्योंकि
कुछ नहीं किया
जा सकता है उस
विषय में।
केवल
उपस्थिति को
बनाना है
समस्या, क्योंकि
तभी किया जा
सकता है कुछ; उसे सुलझाया
जा सकता है।
यदि
भय अनुभव होता
हो,
तो समस्या
प्रेम की है।
ज्यादा
प्रेममय हो
जाओ। दूसरे की
ओर कुछ कदम
बढ़ाओ।
क्योंकि भय हर
किसी मेँ है, केवल
तुम्हीं में
नहीं। तुम
प्रतीक्षा
करते हो कि
कोई आए तुम तक
और प्रेम करे
तुम्हें। तुम
सदा ही
प्रतीक्षा
करते रह सकते
हो, क्योंकि
वह दूसरा भी
भयभीत होता है।
और लोग जो
भयभीत हैं, एक बात के
प्रति तो
बिलकुल ही
भयभीत हो जाते
हैं, और वह
है : अस्वीकृत
होने का भय।
यदि
मैं जाऊं और
खटखटाऊं
तुम्हारे
द्वार, तो
संभावना यही
होती है कि
तुम शायद
अस्वीकार ही
कर दोगे। वह
अस्वीकृति बन
जाएगी एक घाव,
इसलिए तुम
अनुभव करते हो
कि न जाना ही
बेहतर है।
अकेले बने
रहना ही बेहतर
है। बेहतर है
तुम्हारा
अपने से ही
बढ़ते रहना और
दूसरे के साथ
अंतरंग न होना
क्योंकि
दूसरा अस्वीकृत
कर सकता है।
जिस घड़ी तुम
समीप जाते और
प्रेम में पहल
करते हो, तो
पहला भय जो
आता है वह यह
कि दूसरा
तुम्हें स्वीकार
करेगा या
अस्वीकार कर
देगा। वह
स्त्री हो या
पुरुष, संभावना
तो होती है कि
करेगा तो शायद
अस्वीकार ही।
इसीलिए
स्त्रियां
कभी पहल नहीं
करतीं, वे
ज्यादा भयभीत
होती हैं। वे
सदा
प्रतीक्षा
करती हैं
पुरुष के आने
की। वे
अस्वीकार
करने या
स्वीकार करने
की संभावना
सदा अपने पास
ही रखती हैं।
दूसरे को कभी
संभावना नहीं
देतीं, क्योंकि
वे पुरुषों की
अपेक्षा अधिक
भयभीत होती
हैं। तो बहुत—सी
स्त्रियां
उम्र भर
इंतजार ही
करती रहती हैं।
कोई नही आता
उनका द्वार
खटखटाने को, क्योंकि वह
व्यक्ति जो
भयभीत होता है,
एक खास तरह
से, इतना
बंद हो जाता
है कि वह
लोगों को दूर
करता है। जरा
पहुंच जाओ
ज्यादा निकट,
और भयभीत
आदमी ऐसी
तरंगें
फेंकता है
चारों ओर कि
कोई जो निकट आ
रहा होता है, दूर कर दिया
जाता है। भयभीत
आदमी दूर
सरकने लगता; उस गतिविधि
में भी भय
होता है।
तुम
बात करते हो
किसी स्त्री
से—यदि तुम
उसके लिए किसी
प्रकार का
प्रेम या स्नेह
अनुभव कर रहे
होते हो, तो
तुम और— और
निकट होना
चाहोगे।
लेकिन देखना
स्त्री के
शरीर को, क्योंकि
शरीर की अपनी
भाषा होती है।
स्त्री, अनजाने
में ही, पीछे
की ओर झुक रही
होगी। या वह
पीछे ही हटने
लगेगी। तुम
निकट हो रहे
हो, तुम
ज्यादा निकट
पहुंच रहे हो
और वह पीछे हट
रही होती है।
यदि कोई
संभावना नहीं
होती पीछे
हटने की, यदि
कोई दीवार वहां
होती है, तो
वह दीवार के
सहारे टेका
लगा लेगी। आगे
न झुकते हुए, वह दिखा रही
होती है, 'चले
जाओ। ' वह
कह रही होती
है, 'मत आओ
मेरे निकट। '
जरा
देखना लोगों
को बैठे हुए, चलते
हुए। ऐसे लोग
हैं जो बस हर
किसी को दूर
कर देते हैं।
यदि कोई
ज्यादा निकट
आता है, तो
वे भयभीत हो
जाते हैं। और
भय प्रेम की
तरह की ऊर्जा है,
एक
निषेधात्मक
ऊर्जा। वह
व्यक्ति जो
प्रेम अनुभव
कर रहा होता
है विधायक
ऊर्जा से भरा—पूरा
होता है। जब
तुम ज्यादा
निकट आते हो, तो ऐसा लगता
है जैसे कि
कोई चुंबक
तुम्हें खींच
रहा हो। तुम
इस व्यक्ति के
साथ हो जाना
चाहोगे।
यदि
तुम्हारी
समस्या भय की
है,
तब सोचना
तुम्हारे
व्यक्तित्व
के बारे में, ध्यान देना
उस पर। तुमने
जरूर अपने
द्वार बंद कर
दिए हैं प्रेम
के प्रति, बस
इतनी ही बात
है। खोल दो उन
द्वार—दरवाजों
को।
निस्संदेह
संभावना होती
है अस्वीकृत
हो जाने की।
लेकिन क्यों
होना भयभीत? दूसरा केवल 'नहीं' ही
कह सकता है। 'नहीं' की
पचास प्रतिशत
संभावना वहां
है, लेकिन 'नहीं' की
इस पचास
प्रतिशत
संभावना के
कारण ही, तुम
सौ प्रतिशत
अप्रेम का
जीवन चुन लेते
हो।
संभावना
है,
तो क्यों
करनी चिंता? बहुत सारे
लोग हैं। यदि
एक कह देता है
नहीं, तो
उसे चोट की
भाति मत जान
लेना, उसे
घाव की भांति
मत धारण कर
लेना। बस ऐसे
मान लेना—प्रेम
घटित नहीं हुआ
था। बिलकुल
यही समझ लेना—दूसरे
व्यक्ति ने
तुम्हारे साथ
बढ़ने जैसा अनुभव
नहीं किया।
तुम्हारा एक
दूसरे से मेल
नहीं बैठा।
तुम अलग— अलग
प्रकार के हो।
वस्तुत: पुरुष
ने या कि
स्त्री ने
तुम्हें 'न'
नहीं कही; यह कोई
व्यक्तिगत
बात नहीं है।
तुम अनुरूप
नहीं बैठे; आगे बढ़ जाओ।
और यह अच्छा
है कि उस
व्यक्ति ने 'न' कर दी, क्योंकि यदि
तुम उस
व्यक्ति के
अनुरूप नहीं होते
और वह व्यक्ति
'ही' कह
देता है, तो
तुम पड़ जाओगे
वास्तविक
अड़चन में। तुम
जानते नही—हो
सकता है दूसरे
ने तुम्हें
मुसीबत की एक
पूरी जिंदगी
से बचा लिया
हो। उसे
धन्यवाद देना,
और आगे बढ़
जाना, क्योंकि
सभी उपयुक्त
नहीं बैठते
सभी को।
प्रत्येक
व्यक्ति इतना
बेजोड़ होता है
कि यह वास्तव
में ही कठिन
होता है
तुम्हारे साथ
उपयुक्त
बैठने वाला
सही व्यक्ति
खोज पाना।
किसी बेहतर दुनिया
में,
कहीं कभी
भविष्य में, लोगों में
ज्यादा
गतिमयता होगी,
जिससे कि
लोग कोशिश कर
सकें और पा
सकें अपने लिए
ठीक स्त्री और
ठीक पुरुष।
गलतियां
करने से डरना
मत,
क्योंकि
यदि तुम्हें
गलतियां करने
का डर होता है
तो तुम बिलकुल
ही न चलोगे, और तुम पूरी
जिंदगी चूक
जाओगे। न करने
से बेहतर है
गलती करना।
अस्वीकृत
होना बेहतर है
मात्र स्वयं
तक ही, भयभीत
बने रहने से, कुछ आरंभ न
करने सें—क्योंकि
अस्वीकार ले
आता है
स्वीकार की
संभावना। वह
है स्वीकार का
दूसरा पहलू।
यदि
कोई अस्वीकर
करता है, तो
कोई स्वीकार
करेगा।
व्यक्ति को
चलते जाना
होता है और
ढूंढ लेना
होता है सही
व्यक्ति। जब
सही व्यक्ति
मिल जाता है, तो कोई चीज
खट से कौंध
जाती है। वे
एक दूसरे के
लिए ही बने
होते हैं। वे
साथ—साथ ठीक
बैठते हैं।
ऐसा नहीं है
कि वहां कोई
संघर्ष न होगा,
कि गुस्से
और झगडे के
क्षण न आएंगे;
नहीं। यदि
प्रेम जीवंत
होता है तो
संघर्ष भी
होगा वहां। कई
बार क्रोध के
क्षण भी
.आएंगे। यह
बात इतना ही
दर्शाती है कि
प्रेम एक
जीवंत घटना है।
कई बार चली
आती है उदासी,
क्योंकि
जहां कहीं
प्रसन्नता
अस्तित्व रखती
है, उदासी
तो वहां होगी
ही।
केवल
विवाह में कोई
उदासी नहीं
होती, क्योंकि
कोई
प्रसन्नता
नहीं होती।
व्यक्ति केवल
बरदाश्त करता
है—यह एक
समझौता होता
है, यह एक
नियंत्रित की
हुई घटना होती
है। जब तुम
सचमुच ही जीवन
में उतरते हो,
तो क्रोध भी
होता है वहां।
तो जब तुम
प्रेम करते हो
किसी व्यक्ति
को, तो तुम
स्वीकार कर
लेते हो क्रोध
को। जब तुम
प्रेम करते हो
किसी व्यक्ति
को तुम उसकी
उदासी को भी
स्वीकार कर
लेते हो।
कई
बार तुम दूर
चले जाते हो
मात्र फिर से
ज्यादा निकट
आने को ही।
वस्तुत: एक
गहरी
प्रक्रिया है
: प्रेमी लड़ते
हैं फिर—फिर
प्रेम में
पड़ने को ही, ताकि
वे फिर और फिर
और फिर हनीमून
मना सकें।
प्रेम से
भयभीत मत हो
जाना। चीज तो
केवल एक ही है
जिससे कि किसी
को भयभीत होना
चाहिए, और
वह है भय। भय
से भयभीत होना
और कभी भयभीत
मत होना किसी
दूसरी चीज से,
क्योंकि भय
अपंग कर देता
है। वह विषमय
होता है, वह
आत्मघाती
होता है। बढ़ो!
उसके बाहर कूद
जाओ! जो कुछ
तुम चाहते हो
वही करो, लेकिन
भय को लेकर ही
मत ठहर जाना
क्योंकि वह नकारात्मक
अवस्था होती
है। और यदि
तुम चूक जाते
हो प्रेम को...।
मेरे
देखे, प्रेम
कोई बड़ी
समस्या नहीं
है, क्योंकि
मैं तुमसे और
आगे दूर देखता
हूं। यदि तुम
प्रेम को
चूकते हो, तो
तुम चूक जाओगे
प्रार्थना को,
और मेरे लिए
वही है
वास्तविक
समस्या।
तुम्हारे लिए
शायद अभी भी
यह कोई समस्या
न होगी। यदि
भय है समस्या,
तो प्रेम भी
तुम्हारे लिए
कोई समस्या
नहीं है अभी, तो कैसे तुम
सोच सकते हो
प्रार्थना के
बारे में? लेकिन
मुझे दिखाई
पड़ता है कि
किस प्रकार
जिंदगी का
पूरा सिलसिला
चलता है। यदि
प्रेम चूक
जाता है तो
तुम कभी
प्रार्थना नहीं
कर सकते, क्योंकि
प्रार्थना है
ब्रह्मांड का
प्रेम। तुम
प्रेम से कतरा
कर नहीं पहुंच
सकते प्रार्थना
तक। बहुत
लोगों ने की
है कोशिश; वे
मृत पड़े हैं
मठों में।
संसार भर में
बहुत लोग कर
चुके हैं
कोशिश। भय के
कारण, उन्होंने
पूरी तरह
प्रेम से बचने
की कोशिश की है।
वे ढूंढने की
कोशिश करते
रहे हैं जल्दी
पहुंचा देने
वाला कोई
रास्ता, प्रेम
के भय से बच कर
सीधे
प्रार्थना तक
जाता हुआ।
यही
कुछ है जो
साधु—मुनि
करते आ रहे
हैं सदियों—सदियों
से। ईसाई और
हिंदू और
बौद्ध—सभी
साधु—मुनि यही
करते रहे हैं।
वे कोशिश करते
रहे हैं प्रेम
से पूरी तरह
कतराने की।
उनकी
प्रार्थना
झूठी होगी।
उनकी
प्रार्थना
में कोई जीवन
नहीं होगा।
उनकी
प्रार्थना
कहीं नहीं
सुनी जाएगी, और
ब्रह्मांड
उनकी
प्रार्थना का
उत्तर नहीं देने
वाला है। वे
सारे
ब्रह्मांड को
धोखा देने की
कोशिश कर रहे
हैं।
नहीं, व्यक्ति
को प्रेम में
से गुजरना ही
होता है। भय
से हट कर
प्रेम में
सरको। प्रेम
से, तुम
उतरोगे
प्रार्थना
में। प्रेम के
साथ चली आती
है निर्भयता।
और परम
निर्भयता
होती है
प्रार्थना
में, क्योंकि
तब मृत्यु का
भी बिलकुल भय
नहीं रहता।
क्योंकि तब
कोई मृत्यु
होती ही नहीं।
अस्तित्व के
साथ ही इतने
गहरे रूप से
तार जुड़ा होता
है तुम्हारा —कि
भय का
अस्तित्व
कैसे बना रह
सकता है?
इसलिए
जरा कृपा करना, भय
से आविष्ट मत
हो जाना। उससे
बाहर कूद पड़ना,
और प्रेम की
ओर बढ़ने लगना।
प्रतीक्षा मत
करो, क्योंकि
किसी को रुचि
नहीं है तुम
में। यदि तुम
प्रतीक्षा कर
रहे हो तो तुम
प्रतीक्षा
किए चले जा
सकते हो। मेरे
देखे, तो
ऐसा है : तुम
प्रेम से बच
कर नहीं निकल
सकते, अन्यथा
तुम आत्मघात
करने लगोगे।
लेकिन प्रेम
बच कर निकल
सकता है तुमसे,
यदि तुम
केवल
प्रतीक्षा ही
करते रहते हो।
बढ़ो! प्रेम एक
भावावेश होना
चाहिए। वह
होना चाहिए
भावपूर्ण, जीवंत,
प्राणवान।
केवल तभी तुम
किसी को
आकर्षित कर
सकते हो, तुम्हारी
ओर झुकने के
लिए। मुरदा हो,
तो कौन
परवाह करता है
तुम्हारी? मुरदा
होते हो, तो
लोग छुटकारा पा
लेना चाहेंगे
तुमसे। मुरदा
हो, तो तुम
हो जाते हो एक
उबाऊ घटना, एक ऊब।
तुम्हारे
चारों ओर, तुम
बनाए रहते हो
ऊब की ऐसी धूल—गर्द,
कि कोई जो
तुमसे मिल
जाता हो वह
अनुभव करेगा कि
यह एक विपत्ति
है।
प्रेममय
रहना, सक्रिय
रहना, निर्भय
रहना—और बढ़
जाना। जिंदगी
के पास
तुम्हें देने
को बहुत कुछ
है यदि तुम
निर्भय रहो तो।
और जिंदगी
जितना दे सकती
है उससे कहीं
ज्यादा है
प्रेम के पास
तुम्हें देने
को, क्योंकि
प्रेम सच्चा
केंद्र है इस
जीवन का। उसी
केंद्र को पार
कर तुम जा
सकते हो दूसरे
किनारे तक।
मैं
इन्हें तीन
चरण कहता हूं :
जीवन, प्रेम
और प्रकाश।
जीवन तो पहले
से ही वहां है।
प्रेम
तुम्हें
उपलब्ध करना
है। तुम इसे
चूक सकते हो
क्योंकि इसे
दिया नहीं जाता
है। व्यक्ति
को निर्मित
करना होता है
इसे। जीवन एक
सौंपी हुई
घटना है; तुम
जीवंत हो ही। वहां
ठहर जाता है
स्वाभाविक
विकास। प्रेम
तुम्हें खोज
लेना है।
निस्संदेह
इसमें खतरे
हैं, बाधाएं
हैं, लेकिन
वे सभी सुंदर
बना देते हैं
इसे।
तो
तुम्हें खोज
लेना होता है
प्रेम को। और
जब तुम खोज
लेते हो प्रेम, केवल
तभी तुम पा
सकते हो
प्रकाश। तब
प्रार्थना
उदित होती है।
वस्तुत: प्रेम
में गहरे उतरने
पर, वे
व्यक्ति, वे
प्रेमी धीरे—
धीरे, अचेतन
रूप से बढ़ने
लगते हैं
प्रार्थना की
ओर। क्योंकि
प्रेम के
उच्चतम क्षण
ही निम्नतम क्षण
होते हैं
प्रार्थना के।
सीमा बिंदु के
बिलकुल करीब
होती है
प्रार्थना।
ऐसा
घटा है बहुत
प्रेमियों को।
लेकिन वे
प्रेमी जो
अकस्मात शुरू
कर देते हैं
प्रार्थना, जब
वे गहन प्रेम
में हों—वे
बहुत विरल
होते हैं। मौन
में एक दूसरे
के साथ बैठे
हुए ही, एक—दूसरे
का हाथ थामे
हुए, या कि
समुद्र के
किनारे साथ—साथ
लेटे हुए, अनायास
वे अनुभव कर
लेते हैं एक
अंतर्आवेग, पार उतरने
की एक अंत:
प्रेरणा।
इसीलिए
भय पर बहुत
ज्यादा ध्यान
मत देना, क्योंकि
वह खतरनाक है।
यदि तुम बहुत
ज्यादा ध्यान
देते हो भय पर,
तो तुम पोषण
कर रहे होते
हो उसका, और
वह विकसित
होगा। भय की
ओर पीठ फेर लो
और बढो प्रेम
की तरफ।
पांचवां
प्रश्न :
यदि
हमें खड़े रहना
है और हमें
पानी को अपने
से ही ठहरने
देना है फिर
क्यों हैं ये
सारे सक्रिय
ध्यान?
यदि तुम
बैठ सकते, तो
कोई जरूरत न
होती किसी
ध्यान की।
जापान में
ध्यान के लिए
उनके पास एक
शब्द है— 'झा—झेन'। इसका अर्थ
होता है, 'मात्र
बैठना, कुछ
नहीं करना। ' यदि तुम बैठ
सको, कुछ न
करते हुए तो
यही ध्यान का
परम सत्य है।
किसी दूसरी
चीज की कोई
जरूरत नहीं है।
लेकिन
क्या तुम बैठ
सकते हो? सारी
समस्या का
मर्म यही है।
क्या तुम बैठ
सकते हो? क्या
तुम बैठ भर
सकते हो कुछ न
करते हुए? यदि
ऐसा संभव होता,
केवल बैठ
जाना और कुछ न
करना, तो
हर चीज ठहर
गयी होती अपने
से ही, हर
चीज बहने लगती
अपने से ही।
तुम्हें
आवश्यकता
नहीं है कुछ
करने की।
लेकिन समस्या
यही है— क्या
तुम बैठ सकते
हो?
ऐसा
हुआ कि एक
गांव के निकट
एक छोटी—सी
पहाड़ी पर एक
आदमी खड़ा था।
सुबह हुई ही
थी और सूर्य
उदित हो चुका
था। तीन आदमी
चले ही थे
सुबह की सैर
के लिए और
उन्होंने
देखा था उस
आदमी की ओर।
और जैसे कि मन
चलते हैं, वे
बातें करने
लगे इस बारे
में कि यह
आदमी वहां कर
क्या रहा है।
एक आदमी ने
सुझाया कि वह वहां
जरूर अपनी गाय
खोज रहा होगा।
'कई बार
उसकी गाय खो
जाती है। तब
वह पहाड़ी की
चोटी पर जा
पहुंचता है और
उसे ढूंढता है,
वहां से वह
देखता है सब
ओर। ' दूसरा
आदमी कहने लगा,
'लेकिन वह
सब ओर नहीं
देख रहा है।
वह तो बस खडा
हुआ है, इसलिए
यह कारण नहीं
हो सकता है।
मुझे लगता है
वह जरूर सुबह
की सैर के लिए
आया होगा किसी
मित्र के साथ,
और मित्र
पीछे छूट गया है,
अत: वह
प्रतीक्षा कर
रहा है उसकी। '
तीसरे आदमी
ने कहा, 'सही
बात यह नहीं
है। क्योंकि
यदि तुम
प्रतीक्षा कर
रहे होते हो
किसी की, तो
कई बार तुम
देखते हो पीछे
की तरफ। वह तो
बिलकुल देख ही
नहीं रहा है
पीछे। मेरा
विचार है कि
वह ध्यान कर
रहा है। और
जरा देखो तो
उसके कपड़ों की
ओर, वह
संन्यासी है।
वह जरूर ध्यान
कर रहा है। ' उनकी बहस
इतनी
उत्तेजित हो
गयी कि वे कह
उठे, ' अब
हमें जाना ही
होगा पहाड़ी की
चोटी तक और
इसी आदमी से
ही पूछना होगा
कि वह कर क्या
रहा है वहां। '
मीलों
चलकर वे पहाड़
की चोटी तक
पहुंचे। पहले
आदमी ने पूछा, 'क्या
कर रहे हो तुम
यहां? मैं
सोचता हूं
तुमने अपनी
गाय खो दी है
और तुम खोज
रहे हो उसे। ' उस व्यक्ति
ने अपनी आंखें
खोलीं और वह
बोला, 'नहीं।
' दूसरा
व्यक्ति एक
कदम आगे आया
और पूछने लगा,
'तो जरूर
मैं सही
होऊंगा। क्या
तुम उस किसी
का इंतजार कर
रहे हो जो
पीछे रह गया
है?' वह
बोला, 'नहीं।
' तब तीसरा
खुश हो गया।
वह कहने जगा, 'तो मैं
बिलकुल सही था।
क्या तुम
ध्यान कर रहे
हो?' वह
आदमी बोला, 'नहीं। ' तीनों
के तीनों
हैरान थे। वे
कुछ नहीं समझ
पाए थे। तीनों
ही बोले, 'तुम
कह क्या रहे
हो? तुम हर
चीज के लिए कह
देते हो नहीं।
तो फिर तुम कर
क्या रहे हो?' वह आदमी
बोला, 'मैं
सिर्फ यहां
खड़ा हुआ हूं
कर कुछ नहीं
रहा। '
यदि
ऐसा संभव हो, तो
यह होता है
ध्यान का परम
सत्य। यदि ऐसा
संभव न हो, तो
तुम्हें
प्रयुक्त
करनी होंगी
विधियां, क्योंकि
केवल विधियों
द्वारा ऐसा
संभव होगा।
विधियों
द्वारा, एक
दिन तुम जान
लोगे पूरी
निरर्थकता को।
ध्यान की सारी
कार्य
प्रणालियां
स्वयं को अपने
जूतों के
फीतों द्वारा
ही खींचने
जैसी हैं। ध्यान
की
प्रणालियां
बेतुकी हैं, लेकिन
व्यक्ति को
इसे जानना
होता है। यह
एक बड़ा बोध है।
जब कोई बोध पा
लेता है कि
उसका ध्यान
बेतुका है, तो वह
बिलकुल गिर ही
जाता है।
महर्षि
महेश योगी हैं
विधियों के
उन्मुख, जैसे
कि विधियां ही
सब कुछ हों।
कृष्णमूर्ति
हैं, विधियों
के एकदम विरूद्ध।
और यहां मैं
हूं—विधियों
के हक में, और
विरुद्ध भी।
कोई प्रणाली,
कोई विधि
तुम्हें एक बिंदु
तक ले जाती है
जहां कि तुम
उसे गिरा सकते
हो। महर्षि
महेश योगी
खतरनाक हैं।
वे बहुत
लोगों
को चला देंगे
इस मार्ग पर, लेकिन
वे कभी न
पहुंचेंगे
लक्ष्य तक।
क्योंकि
मार्ग इतना
महत्वपूर्ण
मान लिया गया
है। वे लाखों
लोगों की
शुरुआत कर
देंगे
विधियों पर, और फिर विधियां
इतनी
महत्वपूर्ण
हो जातीं हैं
कि कोई रास्ता
नहीं बचता
उन्हें गिरा
देने का।
फिर
हैं
कृष्णमूर्ति—हानिरहित, लेकिन
व्यर्थ भी। वे
कभी किसी को
नुकसान नहीं
पहुंचा सकते।
कैसे वे
पहुंचा सकते
हैं नुकसान? वे कभी किसी
को मार्ग पर
चलाते ही नहीं।
वे बात करते
हैं लक्ष्य की,
और तुम बहुत
ज्यादा दूर
होते हो
लक्ष्य से।
तुम महर्षि
महेश योगी के
जाल में पड़
जाओगे। हो
सकता है
कृष्णमूर्ति
तुम्हें
बौद्धिक रूप
से आकर्षित
करते हों, लेकिन
कोई मदद नहीं
दे पाएंगे। वे
नुकसान नहीं
पहुंचा सकते।
वे संसार के
सर्वाधिक
हानिरहित
आदमी हैं।
और
फिर हूं मैं।
मैं तुम्हें
मार्ग देता
हूं—उसे वापस
ले लेने को ही।
मैं तुम्हें
विधियां देता
हूं —एक विधि
नहीं, बहुत
सारी विधियां—खेलने
के खिलौनों की
भांति। और
प्रतीक्षा
करता हूं उस
घड़ी की जब तुम
सारी विधियों
के प्रति
कहोगे, 'स्वाहा,
अग्नि की
भेंट चढ़ जाओ!'
आज
इतना ही।
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