दिनांक
10 जनवरी; 1975
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
प्रश्नसार:
1—जिस
तरह
नकारात्मक
विचार
दुर्घटनाओं
के रूप में
मूर्त हो जाते
हैं उसी तरह
क्या विधायक
विचार भी शुभ
घटनाएं बन
सकते हैं?
2—जिसे
आध्यात्मिक
सिद्धि
प्राप्त हुई
हो ऐसे व्यक्ति
में और
बुद्धपुरुष
में
विकासात्मक अंतर
क्या होता हे?
3—आप एक
साथ हम सब
शिष्यों पर
कैसे काम कर
सकते हैं?
4—अधिकतम
लोग प्रेम की
मूलभूत
आवश्यकता
पूरी क्यों
नहीं कर सकते?
पहला
प्रश्न:
आपने
कहा कि
नकारात्मक
विचार खतरनाक
होते हैं
क्योंकि वे
घटनाओं के घटने
को कार्यान्वित
कर सकते है।
क्या विधायक
विचार भी
वास्तविक
घटनाओं का मूर्त
रूप ले सकते
हैं? उदाहरण
के लिए यदि
कोई संबोधि की
अभिलाषा करता
है तो क्या
यही
परिणामस्वरूप
घट सकती है?
यह
तो विधायक
विचारों से
बहुत ज्यादा
मांग करने की
बात हो गयी
क्योंकि
संबोधि
द्वंद्वातीत है।
यह न तो निषेधात्मक
है और न ही
विधायक। जब
दोनों
ध्रुवताएं
गिर जाती हैं, तो
यह घटती है।
विधायक
विचारों के
साथ बहुत सारी
बातें संभव
हैं, लेकिन
संबोधि नहीं।
तुम प्रसन्न
हो सकते हो, पर आनंदित
नहीं।
प्रसन्नता
आती और चली
जाती है; विपरीत
इसके साथ
हमेशा
अस्तित्व
रखता है। जब
तुम प्रसन्न
होते हो, तो
प्रसन्नता के
ठीक साथ ही
अप्रसन्नता
प्रतीक्षा
में खड़ी होती
है। वह पंक्ति
में खड़ी होती
है। जब तुम
प्रेम करते हो,
वह विधायक
बात है, लेकिन
घृणा
प्रतीक्षा कर
रही होती है
अपने समय की।
विधायक
द्वैत के पार
नहीं जा सकता।
यह अच्छा है
जहां तक बन
पड़े,
लेकिन इससे
संबोधि की
मांग करना तो
बहुत ज्यादा
हुआ। कभी
अपेक्षा मत
करना इसकी।
नकारात्मक को
गिरा देना
होता है
विधायक को
पाने के लिए।
विधायक को भी
गिरा देना है
अनंत को, पार
के उस असीम को
पाने के लिए।
पहले गिरा देना
निषेधात्मक
को, फिर
गिरा देना
विधायक को। तब
कुछ नहीं बचा
रहता। वह 'कुछ
नहीं' ही
संबोधि है। तब
कोई मन बचता
नहीं।
मन
या तो
नकारात्मक
होता है या
स्वीकारात्मक, प्रसन्न
होता है या
अप्रसन्न, प्रेममय
होता है या
घृणापूर्ण, क्रोधी होता
है या करुणामय;
जकड़ा हुआ
होता है रात
और दिन से, जीवन
और मृत्यु से।
सारी चीजें
संबंधित होती
है मन से
लेकिन फिर भी
तुम नहीं हो
संबंधित मन
से। तुम उसके
पास होते हो।
मन के खोल में
होते हो, लेकिन
उसके पार होते
हो।
संबोधि
मन की नहीं
होती। वह
तुम्हारी
होती है। यह
शान कि 'मैं
मन नहीं हूं, —संबोधि ही
है। यदि तुम
नकारात्मक
बने रहते हो
तो तुम मन के
खाई वाले
हिस्से में
होते हो। यदि
तुम विधायक
होते हो, तो
तुम मन के
शिखर अंश को
प्राप्त कर
लेते हो। लेकिन
इन दोनों में
से कोई भी
तुम्हारे
अस्तित्व के
मानसिक तल को
पार नहीं कर
सकता। दोनों को
गिरा दो।
विधायक
को गिराना
कठिन होता है।
नकारात्मक को
गिराना सरल
होता है
क्योंकि
नकारात्मक
तुम्हें पीड़ा
और कष्ट देता
है। यह एक नरक
होता है, इसलिए
तुम गिरा सकते
हो इसे। लेकिन
जरा देखो तो
दुर्भाग्य, तुमने उसे
भी नहीं
गिराया है।
तुम
नकारात्मक से
भी चिपके रहते
हो। तुम दुख
से भी ऐसे
चिपके रहते हो,
जैसे कि वह कोई
खजाना हो! तुम
चिपकते हो
तुम्हारी
अप्रसन्नता
से मात्र
इसलिए
क्योंकि यह एक
पुरानी आदत हो
गयी है। और
तुम्हें कुछ न
कुछ चाहिए
चिपकने को।
कोई चीज न
पाकर, तुम
चिपक जाते हो
तुम्हारे नरक
से ही। लेकिन
ध्यान रहे, नकारात्मक
को गिराना
आसान है, चाहे
यह कितना ही
कठिन क्यों न
जान पड़ता हो।
विधायक को
गिराने की तुलना
में यह बहुत
आसान है
क्योंकि वह
दुख है, पीड़ा
है।
विधायक
को गिराने का
अर्थ है
प्रसन्नता को
गिरा देना; विधायक
को गिराने का
अर्थ हुआ कि
उस सबको गिरा
देना जो फूलों
की भांति जान
पड़ता है, वह
सब जो सुंदर
होता है। नकारात्मक
असुंदर होता
है; विधायक
सुंदर।
नकारात्मक है
मृसुर विधायक
है जीवन।
लेकिन यदि तुम
नकारात्मक को
गिरा सकते हो,
तो पहला कदम
बढ़ाना। पहले
दुख का अनुभव
पाओ। कितना
दुख दिया जाता
है तुम्हें
तुम्हारी
नकारात्मकता
द्वारा। जरा
ध्यान दो कि
कैसे दुख उभरता
है इसमें से।
मात्र देखो और
अनुभव करो।
वही अनुभूति
कि नकारात्मक
बात दुख
निर्मित कर
रही है एक
अलगाव, एक
गिराव बन
जायेगी।
लेकिन
मन के पास एक
बहुत गहन
चालाकी है। जब
कभी तुम दुखी
होते हो, तो यह
हमेशा कहता है
कि कोई दूसरा
है जिम्मेदार।
सावधान रहना,
क्योंकि
यदि इस चालाकी
के शिकार हो
जाते हो तो
फिर नकारात्मक
को कभी नहीं
गिराया जा
सकता। इसी
भांति ही नकारात्मक
स्वयं को छिपा
रहा होता है।
तुम क्रोधित
होते हो तो मन
कहता है कि
किसी ने तुम्हारा
अपमान कर दिया
इसलिए क्रोध
में हो। यह
बात सही नहीं
है। किसी ने
किया होगा
तुम्हारा
अपमान लेकिन
वह तो मात्र
बहाना हुआ।
तुम पहले से
ही क्रोधित
होने की प्रतीक्षा
में थे। क्रोध
तुम्हारे
भीतर संचित हो
रहा था। वरना,
कोई
तुम्हारा
अपमान कर देगा
और क्रोध नहीं
आयेगा।
अपमान
इसका एक
स्पष्ट कारण
दिख सकता है, लेकिन
वास्तव में
यही नहीं होता
कारण। तुम
भीतर उबल रहे
होते हो।
वस्तुत: वह
व्यक्ति जो
तुम्हारा
अपमान करता है,
तुम्हें
मदद पहुंचाता
है। वह
तुम्हें मदद
पहुंचाता है
तुम्हारे
भीतर की
अशांति को
बाहर ले आने
में और उसे
समाप्त करने
में। तुम इतनी
बुरी अवस्था
में हो कि
अपमान भी मदद
पहुंचाता है।
शत्रु
तुम्हारी मदद
करता है
क्योंकि वह सारी
नकारात्मकता
को बाहर ले
आने में
तुम्हें मदद
देता है। कम
से कम तुम कुछ
समय के लिए तो
निबोंझ हो ही
जाते हो।
मन
के पास सदा से
यह चालाकी
है—तुम्हारी
चेतना को
दूसरे की ओर
मोड़ देना।
जैसे ही कुछ
गलत होता है
और तुम खोजना
शुरू कर देते
हो यह जानने
को कि किसने
किया है ऐसा।
तो उसी खोजने
में ही चूक
जाते हो, और
वास्तविक
अपराधी कहीं
पीछे छुपा हुआ
होता है।
इसे
एक परम नियम
बना लेना कि
जब कभी कुछ
गलत हो तो
तुरंत अपनी
आंखें बंद कर
लेना और
वास्तविक अपराधी
की खोज करना।
और तुम उसे देख
पाओगे
क्योंकि वह एक
सत्य है। वह
एक वास्तविकता
है। यह सच है
कि तुम क्रोध
संचित कर लेते
हो और इसीलिए
तुम क्रोधित
हो जाते हो।
यह सत्य है कि
तुम घृणा
संचित करते हो
और इसीलिए तुम
घृणा अनुभव
करते हो। कोई
दूसरा नहीं है
वास्तविक
कारण।
संस्कृत में
दो शब्द है।
एक शब्द है
कारण—वास्तविक
कारण, और
दूसरा शब्द है
निमित्त—अवास्तविक
कारण। और यह
निमित्त, अवास्तविक
कारण जो कारण
की भांति जान
पड़ता है लेकिन
फिर भी कारण
नहीं होता है,
तुम्हें ठग
लेता है। यह
तुम्हें ठग
रहा होता है
बहुत—बहुत
जन्मों से।
जब
कभी तुम अनुभव
करो कि कुछ दुखदायक
घट रहा है तो
तुरंत अपनी आंखें
बंद कर लेना
और भीतर जा
पहुंचना, क्योंकि
वही होती है
असली घड़ी
अपराधी को
रंगे हाथों
पकड़ने की।
अन्यथा तुम
नहीं पकड़
पाओगे उसे। जब
क्रोध
तिरोहित हों
जाता है, तुम
अपनी आंखें
बंद करो। तुम
कुछ नहीं
पाओगे वहां।
किसी अत्यंत
क्षुब्ध
स्थिति में, यह बात मत
चूकना। इसे
ध्यान बना
लेना।
और
हो सकता है
तुम अनुभव
करने लगो कि
नकारात्मक को
गिराने के लिए
किसी विधि की
कोई जरूरत नहीं
है।
नकारात्मक
इतना असुंदर
होता है और एक
ऐसा रोग होता
है कि आश्चर्य
तो यह है कि
कैसे तुम वहन
करते हो इसे।
इसे गिराना तो
कुछ भी नहीं
है;
इसे वहन
करना
आश्चर्यजनक
है। कैसे इसे
तुम वहन किये
रहते हो, यही
बात पहेली बनी
रही है सारे
बुद्ध—पुरुषों
के लिए। और
क्यों तुम
अपनी सारी
बीमारियों को
इतने प्रेमपूर्वक
ढोये फिरते हो?
तुम उनकी
इतनी फिक्र
लेते हो; तुम
बचाये रहते हो
उस सबको जो
गलत है। बचाव
पाकर सुरक्षा
पाकर, वह
नकारात्मक
ज्यादा और
ज्यादा गहरी
जड़ें मजबूत कर
लेता है
तुममें।
एक
बार तुम जान
लेते हो कि यह
तुम्हारी
अपनी नकारात्मकता
है जो कि
समस्या खड़ी
करती है, तो यह
अपने से गिर
जाती है। और
जब नकारात्मक
मन अपने से
गिरता है तो
वहां सौंदर्य
होता है। यदि
तुम उसे
गिराने की
कोशिश करो तो
वह चिपकेगा।
क्योंकि उसे
गिराने का
प्रयास ही बता
देता है कि
तुम्हारी समझ
प्रौढ़ नहीं है।
सारे त्याग
अप्रौढ़ताएं
हैं। तुम उसके
लिए पके नहीं,
तैयार नहीं
हुए। इसीलिए
प्रयास की
जरूरत है इसे
गिराने को। यदि
तुम कूड़ा—करकट
ढो रहे हो, तो
क्या उसे गिरा
देने को
तुम्हें किसी
प्रयास की
जरूरत होती है,
या मात्र इस
समझ की कि यह
कूड़ा है? यदि
तुम्हें
प्रयास चाहिए
इसे गिरा देने
के लिए, तो
इसका मतलब यह
हुआ कि तुम
अपनी समझ बढ़ा
रहे हो प्रयास
सहित। समझ
अपने में काफी
नहीं है; इसीलिए
प्रयास की
जरूरत आ पड़ती
है।
जिन्होंने
जाना है, वे सब
कहते हैं कि
प्रयास की
जरूरत है
क्योंकि
तुम्हारी समझ
मौजूद नहीं है।
वह एक बौद्धिक
चीज रही होगी,
लेकिन
तुमने वस्तुत:
अनुभव नहीं
किया है स्थिति
को; वरना
तो तुम एकदम
ही गिरा देते
नकारात्मकता
को। एक सांप
गुजर जाता है
रास्ते से, तो तुम
घबड़ाकर एकदम
उछल पड़ते हो।
उस उछलने में
कोई प्रयास
नहीं होता।
तुम उछलने के
लिए निर्णय
नहीं लेते, तुम
तुम्हारे
भीतर कोई
तार्किक नियम
नहीं बनाते— 'सांप है
वहां, और
जहां कहीं
सांप है वहां
खतरा है; इसलिए
मुझे उछलकर
दूर होना ही
चाहिए।’ तुम
कोई धीरे—धीरे
बनाया जाने
वाला
तर्कपूर्ण
नियम नहीं बना
लेते हो।
अरस्तू भी
उछलेगा। बाद
में वह बना
सकता है कोई
तर्क—सरणी, पर बिलकुल
अभी, जब
सांप होता है
वहां, सांप
फिक्र नहीं
करता
तुम्हारे
तर्क की। सारी
स्थिति इतनी
खतरनाक होती
है कि यह समझ ही
कि वह स्थिति
खतरनाक है, काफी होती
है।
नकारात्मक
को गिराने के
लिए,
किसी
प्रयास की
जरूरत नहीं, मात्र समझ
की जरूरत है।
तब वास्तविक
समस्या उठ खड़ी
होती है—विधायक
को कैसे
गिराये? और
यह इतना सुंदर
होता है! और
तुम्हारे लिए
जिसने कि पार
का सत्य जाना
नहीं है, यही
है प्रसन्नता
का चरम बिंदु।
यह तुम्हें
इतना ज्यादा
आनंद देता जान
पड़ता है। जरा
प्रेम में पड़े
प्रेमियों को
देखो। उनकी आंखों
को देखो। जिस
ढंग से वे हाथ
में हाथ लिये
चलते हैं, वे
प्रसन्न होते
हैं। उनसे
कहना इस
विधायक मन को
गिरा देने को
और वे सोचेंगे,
'क्या तुम पागल
हुए हो?' इसी
की तो
प्रतीक्षा
करते रहे है
वे और अब यह घटित
हुआ। और कोई
बुद्ध आते हैं
और वे कह देते
है, 'गिरा
दो इसे।’
जब
कोई सफलता पा
रहा होता है, ज्यादा
और ज्यादा
ऊंचे पहुंच
रहा होता है
सीढ़ी पर, उसे
गिरा देने की
बात कहने की
कोशिश करना।
वही तो है उसका
उद्देश्य, उसकी
दृष्टि में।
और यदि वह
सोचता भी है
इसे गिराने की,
तो वह जानता
है वह जा
पड़ेगा दुख में,
क्योंकि
विधायक से
हटकर कहां
बढ़ेगा वह?
तुम
जानते हो केवल
दो संभावनाएं—विधायक
या नकारात्मक।
यदि तुम
गिराते हो
विधायक को, तो
तुम सरकते हो
नकारात्मक
की ओर। इसीलिए
तो नकारात्मक
को पहले गिरा
देना है।
नकारात्मक से
कहीं और सरकने
को तुम्हारे
पास और कुछ
नहीं रहता।
अन्यथा यदि
तुम
सकारात्मक को
गिरा देते हो,
तो तुरंत
नकारात्मक
प्रवेश कर
जाता है। यदि
तुम प्रसन्न
नहीं होते तो
क्या होओगे
तुम? अप्रसन्न।
यदि तुम मौन
नहीं होते हो,
तो क्या
होओगे तुम? बातूनी।
इसलिए
पहले तो
नकारात्मक को
गिरा देना
जिससे एक
विकल्प, एक
द्वार तो बंद
हो जाये। तुम
उस रास्ते पर
अब गतिमान हो
नहीं सकते।
अन्यथा ऊर्जा
की वही बंधी—बंधायी
गति होती है—विधायक
से नकारात्मक
की ओर, नकारात्मक
से विधायक की
ओर। यदि
नकारात्मक का
अस्तित्व
होता है, तो
हर संभावना
रहती है कि
जिस क्षण तुम
विधायक को
गिराओ, तुम
नकारात्मक
हो जाओगे।
जब
तुम प्रसन्न
नहीं होते, तब
तुम होओगे
अप्रसन्न।
तुम नहीं
जानते कि एक
तीसरी
संभावना भी
होती है। वह
तीसरी
संभावना
खुलती है केवल
तब जब नकारात्मक
तो गिराया जा
चुका होता है
और जब तुमने
विधायक भी
गिरा दिया
होता है। कुछ
देर को वह
ठहराव होगा।
ऊर्जा कहीं
नहीं जा सकती;
वह नहीं
जानती कि कहां
प्रवेश करना
है। नकारात्मक
द्वार बंद हो
चुका, विधायक
बंद हो चुका
है। क्षण भर
के लिए तुम
मध्य में
होओगे और वह
क्षण जान
पड़ेगा शाश्वत
की भांति। वह
जान पडेगा
बहुत—बहुत
लंबा, अनंत।
क्षण
भर को तुम ठीक
मध्य में
होओगे, न
जानते हुए कि
क्या करना है,
कहां जाना
है। यह क्षण
विक्षिप्तता
की भांति
लगेगा। यदि
तुम न विधायक
हो और न ही
नकारात्मक, तो क्या हो
तुम? क्या
है तुम्हारी
पहचान? तुम्हारा
व्यक्तित्व, नाम और रूप
गिरा जाता है
विधायक और
नकारात्मक के
साथ ही।
अकस्मात तुम
ऐसे कोई नहीं
होते जिसे कि
तुम पहचान सको—मात्र
एक ऊर्जा—घटना
होते हो। और
तुम नहीं कह
सकते कैसा
अनुभव कर रहे
होते हो तुम।
कोई अनुभूति
होती नहीं।
यदि तुम इसे
बरदाश्त कर
सको, यदि
तुम सह सकते
हो इस क्षण को,
तो यही सबसे
बड़ा त्याग है,
सबसे बड़ी
तपश्चर्या है।
और संपूर्ण
योग तुम्हें
तैयार करता है
इसी घड़ी के
लिए। अन्यथा
प्रवृत्ति
होगी कहीं न
कहीं जाने की,
लेकिन इस
शून्य में
नहीं रहने की।
वह होगी
विधायक या
नकारात्मक
होने को अनुभव
करने की, पर
इस शून्य में
होने की नहीं।
तुम कुछ नहीं
हो। यह ऐसा है
जैसे कि तुम
तिरोहित हो
रहे हो। एक
विराट शून्य
खुल गया है, और तुम
उसमें गिरते
जा रहे हो।
इसी
घड़ी में गुरु
की आवश्यकता
होती है जो कह
सकता हो, 'प्रतीक्षा
करो। भयभीत मत
होना। मैं हूं
यहां।’ यह
तो एक झूठ ही
होता है, लेकिन
फिर भी
तुम्हें
जरूरत रहती है
इसकी। कोई
नहीं है वहां।
कोई गुरु भी
नहीं हो सकता
है वहां, क्योंकि
जब तुम्हारा
मन समाप्त
होता है तो गुरु
भी समाप्त हो
जाता है। अब
तुम नितांत
अकेले होते हो,
लेकिन
अकेले होना
इतना भयंकर
होता है, इतना
डरावना, इतना
मृत्यु की
भांति, कि
कोई चाहिए
तुम्हें साहस
देने को। यह
मात्र एक क्षण
की ही बात
होती है, और
झूठ मदद कर
देता है।
और
मैं कहता हूं
तुमसे, सारे
बुद्ध झूठ
कहते रहे हैं
मात्र
तुम्हारे प्रति
करुणा होने के
कारण ही। गुरु
कहता है,
'मैं हूं यहां।
तुम मत करना
चिंता; तुम
आओ आगे।’ तब
आश्वासन मिल
जाता है
तुम्हें और
तुम लगा देते
हो छलांग। यह
क्षण भर की
बात होती है
और हर चीज
वहीं लटक रही
होती है। सारा
अस्तित्व आ
टिका होता है
वहीं; वह
पार होने की
सीमा रेखा है,
उबाल आने का
स्थल। यदि तुम
कदम उठा लेते
हो, तो तुम
हमेशा के लिए
खो जाते हो मन
के प्रति। फिर
कभी न कुछ
विधायक होगा,
न नकारात्मक
होगा।
तुम
भयभीत हो सकते
हो। तुम फिर
से वापस लौट
सकते हो और
प्रवेश कर सकते
हो नकारात्मक
में या विधायक
में जो कि
सुखद होता है, आरामदेह
होता है, जाना—पहचाना
होता है।
तुम्हें अज्ञात
में प्रवेश
करना होता है—यही
होती है
समस्या। पहले
तो समस्या
होती कि
नकारात्मक को
कैसे गिराये,
जो कि सरलतम
बात है—एक पकी
हुई समझ की
जरूरत होती है।
और तुम वह भी
नहीं कर पाये
हो।
फिर
समस्या होती
है कि
सकारात्मक को कैसे
गिराये जो
इतना सुंदर
होता है और जो
तुम्हें इतनी
प्रसन्नता
देता है।
लेकिन यदि तुम
नकारात्मक को
गिरा देते हो, यदि
तुम उतने
ज्यादा
परिपक्व हो
जाते हो, तो
तुम दूसरी समझ
भी पा लोगे, दूसरा
रूपांतरण, जहां
तुम देख पाओगे
कि यदि तुम
विधायक को
नहीं गिराते
तो नकारात्मक
लौट आयेगा।
तब
विधायक अपनी
सारी
विधायकता खो
देता है। यह
विधायक था
केवल
नकारात्मकता
की तुलना में ही।
एक बार
नकारात्मक
फेंक दिया
जाता है, तो
विधायक भी हो
जाता है
नकारात्मक
क्योंकि अब
तुम देख सकते
हो कि यह सारी
प्रसन्नता
क्षणिक होती
है। और जब यह
क्षण खो जाता
है, तो
कहां होओगे
तुम?
नकारात्मक
फिर से प्रवेश
करेगा। इससे
पहले कि
नकारात्मक
प्रवेश करे
उसे गिरा देना।
नरक सदा
पहुंचता है
स्वर्ग के
द्वार से ही।
स्वर्ग तो
मात्र द्वार
होता है, वास्तविक
स्थान तो नरक
है। स्वर्ग
द्वारा और
स्वर्ग की आस
द्वारा तुम प्रवेश
करते हो नरक
में।
वास्तविक
स्थान नरक है;
स्वर्ग तो
मात्र द्वार
है। कैसे तुम
सदा के लिए
द्वार पर ही
टिके रह सकते हो?
देर—अबेर
तुम्हें
प्रवेश करना
ही है। विधायक
से हटकर तुम
और जाओगे कहां?
एक
बार
नकारात्मक
गिर जाता है, तो
तुम देख सकते
हो कि विधायक
उसका दूसरा
पहलू मात्र ही
है—वस्तुत
विरोधी नहीं
है, न ही
विपरीत, बल्कि
दोनों एक
गठबंधन में
होते हैं। वे
दोनों ही जुड़े
होते हैं किसी
संधि से; वे
इकट्ठे ही
होते है। जब
यह समझ जाग
उठती है कि
विधायक
नकारात्मक
बन जाता है तब
तुम गिरा सकते
हो इसे।
वास्तव
में यह कहना
ठीक नहीं कि
तुम इसे गिरा
सकते हो, यह
गिर ही जाता
है। यह भी
नकारात्मक बन
जाता है—तब
तुम जान लेते
हो कि इस जीवन
में
प्रसन्नता जैसा
कुछ है ही
नहीं।
प्रसन्नता एक
चालबाजी है
अप्रसन्नता
की ही। यह
अंडे और
मुर्गी के
संबंध की
भांति ही है।
मुर्गी होती
क्या है? यह
मार्ग है अंडे
को लाने का।
और अंडा क्या
है? यह एक
मार्ग है
मुर्गी को ले
आने का।
विधायक
और नकारात्मक
वास्तविक
विपरीतताए
नहीं हैं। वे
अंडे और
मुर्गी की
भांति ही हैं; मां
और बच्चा। वे
एक दूसरे की
सहायता करते
अहै एक—दूसरे
से आते हैं।
लेकिन यह समझ
केवल तभी संभव
होती है जब
नकारात्मक
गिरा दिया
जाता है। तब
तुम गिरा सकते
हो विधायक को
भी। और तब तुम
ठहर सकते हो
उस संक्रमण के
क्षण में, जो
कि महानतम
क्षण होता है
अस्तित्व में!
तुम और कोई
क्षण नहीं
अनुभव करोगे
जो इतना लंबा
हो। यह ऐसा
होता है जैसे
कि वर्ष गुजर
रहे हों—खालीपन
के कारण। तुम
सारे अर्थ, सारे पहलू
खो देते हो; सारा अतीत
खो जाता है।
अचानक हर चीज
खाली हो जाती
है। तुम नहीं
जानते—तुम
कहां होते हो,
तुम कौन
होते हो, क्या
घट रहा होता
है।
यह
पागलपन की घड़ी
होती है। यदि
तुम इस घड़ी पर
पहुंचकर लौट
आने का
प्रयत्न करते
हो,
तो तुम सदा
पागल रहोगे।
बहुत लोग पागल
हो जाते हैं
ध्यान के
द्वारा। इसी
घड़ी से वे
पीछे हटने
लगते हैं। और
अब कुछ नहीं
होता हट कर
सहारा लेने को
क्योंकि
विधायक और
नकारात्मक
गिरा दिये गये
होते हैं। वे
अब विद्यमान
नहीं रहते; 'घर' अब
नहीं रहा
वहां। एक बार
तुम 'घर' छोड़ देते हो
तो वह तिरोहित
हो जाता है।
वह तुम पर
निर्भर करता
था; वह कोई
पृथक तत्व
नहीं होता है।
मन
एक पृथक तत्व
नहीं है। वह
तुम पर निर्भर
करता है। एक
बार तुम छोड़
देते हो उसे, वह
वहां नहीं
रहता। तुम लौट
नहीं सकते या
उसका सहारा
नहीं ले सकते।
यह पागलपन की
दशा होती है। तुम्हें
अतिक्रमण
उपलब्ध नहीं
हुआ है, फिर
भी तुम वापस आ
जाते हो और मन
को खोजते हो
और तुम पाते
हो वह बचा ही
नहीं है। 'घर'
तिरोहित हो
चुका है।
इस
अवस्था में
होना बहुत ही
कष्टदायक है।
पहली बार
वास्तविक
व्यथा घटती
है। इसलिए तो
गुरु की जरूरत
होती है; सद्गुरु
की, जो
तुम्हें वापस
न लौटने दे, जो तुम्हें
बाध्य कर दे
आगे जाने को
ही, क्योंकि
एक बार तुम
वापस मुड़ जाते
हो तो फिर से
तुम्हें उस
जगह लाने में
बहुत ज्यादा
प्रयास की
जरूरत पड़ेगी।
हो सकता है
उसे तुम बहुत
जन्मों तक
चूकते रहो
क्योंकि अब
समझने को भी
कोई मन वहां
नहीं है।
सूफीवाद
में यह भावदशा
कहलाती है 'मस्त'
की
भावदशा—पागल
की दशा। यह
दशा वास्तव
में ही कठिन
होती है समझने
के लिए
क्योंकि
व्यक्ति होता
है और नहीं भी
होता—दोनों ही
बातें होती हैं।
वह एक साथ
हंसता और रोता;
वह खो देता
है सारी
निधारित
स्थितियां।
वह नहीं जानता
रोना क्या
होता है और
हंसना क्या
होता है। क्या
कहीं कोई
असंगति भी है?
वह मारता है
स्वयं को और
आनंद मनाता
है। वह उत्सव
मनाता है, स्वयं
को मारते हुए।
वह नहीं जानता
क्या कर रहा
है वह, कि
वह बात
हानिकारक है
या नहीं है।
वह पूर्णतया
आश्रित हो
जाता है। वह
एक छोटे बच्चे
की भांति हो
जाता है, उसका
खयाल रखना
पड़ता है।
बिना
सद्गुरु के
यदि कोई ध्यान
में उतरता है
तो यही हो
सकता है उसका
परिणाम।
सद्गुरु के
साथ,
सद्गुरु
अवरोध बनकर
तुम्हें
रोकेगा। वह
खड़ा होगा
बिलकुल
तुम्हारे
पीछे ही और वह
तुम्हें वापस
नहीं जाने
देगा। वह एक
चट्टान बन
जायेगा। और
वापस लौटने का
कोई रास्ता न
पाकर, तुम्हें
छलांग लगा ही
देनी होगी।
तुम्हारी जगह
कोई दूसरा
नहीं लगा सकता
यह छलांग। उस
क्षण
तुम्हारे साथ
कोई नहीं हो
सकता। लेकिन
एक बार यह
छलांग तुम लगा
जाते हो तो
तुम सभी द्वैत
पार कर जाते
हो।
नकारात्मक और
विधायक दोनों
चले जाते हैं,
और यही है
संबोधि।
मैं
बात करता हूं
विधायक की, ताकि
तुम
नकारात्मक को
गिरा सको। एक
बार तुम गिरा
देते हो
नकारात्मक
को तो तुम
फंदे में आ
जाते हो। तब
विधायक गिराना
ही होता है।
एक चरण दूसरे
चरण की ओर इस
ढंग से ले
जाता है कि
यदि तुम पहला चरण
पा लेते हो तो
दूसरा आ ही
पहुंचेगा। यह
एक श्रृंखला
होती है।
वस्तुत: पहला
चरण ही पाना होता
है। फिर सारी
दूसरी बातें
पीछे चली आती
हैं। यदि तुम
समझ जाओ, तो
पहला ही होता
है, अंतिम।
आरंभ ही है
समाप्ति; प्रथम
ही है अंतिम।
दूसरा
प्रश्न:
ऐसा
आध्यात्मिक
व्यक्ति
जिसने कि उच्च
जागरूकता की
एक निश्चित
मात्रा
उपलब्ध कर ली
होती है
विशिष्ट
मानसिक सिद्धियां
और योग्यता भी
प्राप्त कर ली
होती है; और
एक संबोधि—प्राप्त
व्यक्ति एक
जीवंत बुद्ध—
कृपया बतायें
कि इन दोनों
के बीच विकास की
दृष्टि से
क्या अंतर
होता है?
यही है भेद—वह
व्यक्ति जो
बिलकुल
विधायक बन
चुका होता है आध्यात्मिक
उपलब्धि का
व्यक्ति होता
है। वह
व्यक्ति जो
नितांत
नकारात्मक हो
गया है सबसे
अधिक अवनत
व्यक्ति होता
है। जब मैं
कहता हूं
नकारात्मक, मेरा
मतलब होता है
निन्यानबे
प्रतिशत
नकारात्मक, क्योंकि परम
नकारात्मकता
संभव नहीं
होती। न ही
संभव होती है
परम विधायकता।
दूसरे की
जरूरत रहती है।
परिमाण बदल
सकता है, मात्राएं
तो भेद रखती
ही हैं। जो
व्यक्ति
निन्यानबे
प्रतिशत
निषेधात्मक हो
और एक प्रतिशत
विधायक, वह
सर्वााधक
अवनत व्यक्ति
होता है, जिसे
ईसाई कहते हैं
पापी। वह केवल
एक प्रतिशत ही
विधायक होता
है। उसकी भी
जरूरत होती है।
उसकी
निन्यानबे
प्रतिशत
नकारात्मकता
को मदद देने
के लिए ही। वह
हर चीज में
नकारात्मक
होता है। जो
कुछ भी तुम
कहते हो, केवल
नकार में ही
होती है
प्रतिक्रिया।
अस्तित्व कुछ
भी पूछे, उसका
उत्तर केवल 'नहीं' ही
होता है। वह
वैसा ही
नास्तिक होता
है जो किसी
चीज के प्रति
हां नहीं कह
सकता; जो
हां कहने में
अक्षम हो चुका
है; जो
आस्था नहीं रख
सकता। यह आदमी
नारकीय दुख
उठाता है। और
क्योंकि वह हर
चीज के प्रति 'नहीं ' कहता
है, वह एक
नकार ही बन
जाता है। एक
मुंह फाडती
नकार—क्रोध की,
हिंसा की, दमन की, उदासी
की—सब एक साथ।
वह बन जाता है
एक साकार नरक।
ऐसा
व्यक्ति
खोजना कठिन
होता है
क्योंकि ऐसा व्यक्ति
होना कठिन है।
बहुत कठिन है
निन्यानबे
प्रतिशत नरक
में रहना।
लेकिन
तुम्हें
समझाने भर को
ही मैं बता
रहा हूं यह।
यह एक गणित के
हिसाब से संभावना
है। व्यक्ति
ऐसा बन सकता
है यदि वह ऐसी
कोशिश करता है
तो। तुम ऐसा
व्यक्ति कहीं
नहीं पाओगे।
हिटलर भी इतना
विध्वंसक
नहीं है। सारी
ऊर्जा
ध्वंसात्मक
बन जाती है।
केवल दूसरों
की ही नहीं, बल्कि
स्वयं की भी।
संपूर्ण
अभिवृत्ति ही
आत्मघाती
होती है। जब
एक व्यक्ति आत्महत्या
करता है तो वह
क्या कर रहा
होता है? वह
अपनी मृत्यु
द्वारा जीवन
को नकार रहा
है। वह 'नहीं'
कह रहा है
परमात्मा के
प्रति। वह कह
रहा है, 'तुम
निर्मित नहीं
कर सकते मुझे।
मैं नष्ट कर
दूंगा स्वयं
को।’
सार्त्र—इस
युग के महान
विचारकों में
से स्व—उसने
कहा था कि
आत्महत्या
एकमात्र
स्वतंत्रता
है—ईश्वर से
स्वतंत्रता।
ईश्वर से
स्वतंत्रता
किसलिए? क्योंकि
तब कोई
स्वतंत्रता
नहीं होती।
तुम्हारे पास
कोई
स्वतंत्रता
नहीं होती तुम्हारा
अपना निर्माण
करने की। जब
भी तुम होते
हो, तुम
स्वयं को पहले
से ही निर्मित
हुआ पाते हो।
जन्म तुम नहीं
ले सकते। वह
तुम्हारी
स्वतंत्रता
नहीं है।
सार्त्र कहता
है, 'फिर भी
मृत्यु तुम ला
ही सकते हो; वह तो
तुम्हारी
स्वतंत्रता
है।’ तब
तुम निश्रित
रूप से कम से
कम एक बात तो
कहते हो ईश्वर
से कि 'मैं
स्वतंत्र हूं।’
यह आदमी जो
सदा आत्मघात
के महागर्त के
समीप जीता है,
सबसे निम्न
है, सबसे
बडा पापी है।
अस्तित्ववाद
में,
जिसका कि
उपदेश देता है
सार्त्र, ये
शब्द बड़े
अर्थपूर्ण हो
गये हैं—संत्रास,
ऊब, उदासी।
उन्हें होना
ही है
अर्थपूर्ण
क्योंकि ऐसा
आदमी तीव्र
पीड़ा में, ऊब
में रहेगा ही।
एक प्रतिशत
विधायकता की
जरूरत रहती है।
वह हां कहेगा
ऊब को, आत्मघात
को, पीड़ा
को। केवल
इन्हीं बातों
के लिए ही उसे
हां कहने की जरूरत
पड़ती है। ऐसा
है आधुनिक
आदमी जो अंतिम
किनारे के और—और
निकट आ रहा है।
दूसरे शिखर पर
अस्तित्व
होता है
आध्यात्मिक व्यक्ति
का। पहला, प्रथम
छोर पर पहुंच
रहा व्यक्ति
पापी है, पतित
है। दूसरा
शिखर है—निन्यानबे
प्रतिशत
विधायक तत्व,
एक प्रतिशत
निषेधात्मकता।
वही है
आध्यात्मिक
व्यक्ति। वह
हां कहता है
हर चीज को।
उसके पास केवल
एक 'नहीं' होती है और
वह नहीं होती 'नहीं ' के
विरुद्ध ही; बस इतना ही
नकार। वरना वह
एक हां है।
लेकिन
क्योंकि
समग्र 'हां'
का
अस्तित्व हो
ही नहीं सकता,
तो उसे
जरूरत पड़ती है
नहीं कहने की।
ऐसा
आदमी बहुत
चीजें
प्राप्त कर
लेता है क्योंकि
विधायक मन
तुम्हें
लाखों चीजें
दे सकता है—यह
आदमी प्रसन्न
रहेगा, अकंप,
सहज, शांत
और मौन रहेगा
और इन्हीं
बातों के कारण
मन खिलेगा और
अपनी सारी
विधायक
गुणवत्ताएं
दे देगा उसे।
उसके पास
विशिष्ट
शक्तियां हो
जायेंगी। वह
तुम्हारे
विचारों को पढ़
सकता है, वह
तुम्हें
स्वास्थ्य दे
सकता है। उसका
आशीष एक शक्ति
बन जायेगा।
उसके निकट
होने मात्र से
ही तुम्हें
लाभ पहुंचेगा।
सूक्ष्म
उपायों से वह
आशीष दे रहा
होता है।
सारी
सिद्धिया—वे
सारी
शक्तियां
जिनकी बात योग
करता है, और
आगे पतंजलि
बात करेंगे
जिनके बारे
में—वे उसे
आसानी से
उपलब्ध होंगी।
वह चमत्कारों
से भरा
व्यक्ति होगा;
उसका
स्पर्श
चमत्कारिक
होगा। कोई भी
चीज संभव होगी
क्योंकि उसके
पास निन्यानबे
प्रतिशत
विधायक मन
होता है।
विधायकता एक
सामर्थ्य है,
एक शक्ति।
वह बहुत
शक्तिशाली
होगा। लेकिन
फिर भी वह
संबोधि को
उपलब्ध तो
नहीं है। और
वास्तविक
बुद्ध की
अपेक्षा इस
व्यक्ति को तुम
आसानी से
बुद्ध कहना
चाहोगे। क्योंकि
संबोधि को
उपलब्ध
व्यक्ति तो
तुम्हारे पार
ही चला जाता
है। तुम नहीं
समझ सकते उसे;
वह अगम्य हो
जाता है।
वस्तुत:
संबोधि को
उपलब्ध
व्यक्ति के
पास कोई शक्ति
नहीं होती
क्योंकि कोई
मन नहीं होता
उसके पास। वह
चमत्कारी
नहीं होता।
उसका कोई मन
नहीं, वह कुछ
कर नहीं सकता।
वह गैर—क्रियात्मक
होने का शिखर
है। चमत्कार
घट सकते हैं
उसके पास।
लेकिन वे घटते
हैं तुम्हारे
मन के कारण ही,
उसके कारण
नहीं; और
यही भेद होता
है। एक
आध्यात्मिक
व्यक्ति
चमत्कार कर
सकता है; एक
प्रज्ञा—पुरुष
ऐसा नहीं कर
सकता।
चमत्कार संभव
होते हैं; लेकिन
वे घटेंगे
तुम्हारे ही
कारण, उसके
कारण नहीं।
तुम्हारी
श्रद्धा, तुम्हारी
आस्था करेगी
चमत्कार।
क्योंकि उस
घड़ी तुम हो
जाते हो एक
विधायक मन।
एक
स्त्री ने
जीसस के चोगे
को छू लिया था।
वे चल रहे थे
भीड़ में, और वह
सी गरीब थी और
इतनी बूढ़ी कि
वह विश्वास न कर
सकती थी कि
जीसस उसे आशीष
देंगे। इसलिए
उसने सोचा, जब जीसस
गुजरें वहां
से, तो
उनका चोगा
छूने के लिए
भीड़ में रहना
ही अच्छा होगा।
उसने सोचा, यह उनका
चोगा है, और
वह स्पर्श ही
पर्याप्त है।
और मैं इतनी
गरीब हूं और
इतनी बूढ़ी, कौन ध्यान
देगा मुझ पर, कौन परवाह
करेगा? बहुत
सारे लोग
होंगे वहां, और जीसस
उन्हीं की ओर
ध्यान देंगे।
इसलिए उसने बस
छू भर लिया
चोगे को।
जीसस
ने पीछे देखा, और
वह बोली, 'मैं
स्वस्थ हो गयी।’
जीसस बोले,
'यह
तुम्हारी
आस्था के कारण
हुआ है। मैंने
कुछ नहीं किया
है, तुमने
यह स्वयं ही
किया है।’
बहुत
सारे चमत्कार
घट सकते हैं, लेकिन
जो संबोधि को
उपलब्ध होता
है वह व्यक्ति
कुछ नहीं कर
सकता है। मन
ही है कर्ता—सब
चीजों का
कर्ता। जब मन
नहीं होता तो
घटनाएं होती
हैं लेकिन कोई
क्रिया नहीं
होती। संबोधि
को उपलब्ध
व्यक्ति, वस्तुत:
अब होता ही
नहीं है। वह
अनस्तित्व के
रूप में जीवित
होता है—शून्यता
की भांति। वह
एक खाली
गर्भगृह होता
है। तुम उसमें
प्रवेश कर
सकते हो, लेकिन
तुम उससे
मिलोगे नहीं।
वह ध्रुवताओं
के पार जा
चुका होता है,
वह बड़ा
विराट
अपरिसीम है।
तुम खो जाओगे
उसमें, पर
उसे तुम पा
नहीं सकते।
आध्यात्मिक
शक्ति से भरा
व्यक्ति अभी
भी संसार में
है। वह
ध्रुवीय तौर
पर तुम्हारे
विपरीत होता
है। तुम
निस्सहाय
अनुभव करते हो; वह
शक्तिशाली
अनुभव करता है।
तुम अस्वस्थ
अनुभव करते हो,
वह तुम्हें
स्वस्थ कर
सकता है। ऐसा
होगा ही। तुम
निन्यानबे
प्रतिशत
निषेधात्मक
हो; वह निन्यानबे
प्रतिशत
विधायक होता
है। वह मिलन
ही होता है
असमर्थता और
सामर्थ्य के बीच।
और तुम बहुत
ज्यादा
प्रभावित हो
जाओगे ऐसे आदमी
से। और यही
बात एक खतरा
बन जाती है
उसके लिए।
जितने ज्यादा
तुम प्रभावित
होते हो उसके
द्वारा, उतना
ज्यादा
अहंकार मजबूत
होता है। नकारात्मक
व्यक्ति के
साथ, अहंकार
बहुत ज्यादा
नहीं बना रह
सकता क्योंकि
अहंकार को
चाहिए होती है
विधायक शक्ति।
इसीलिए
पापियों में
तुम बहुत
विनम्र
व्यक्ति पा
सकते हो, लेकिन
साधु—महात्माओं
में कभी नहीं
पा सकते। साधु—महात्मा
तो हमेशा ही
बड़े अहंकारी
होते है। वे 'कुछ' होते
हैं—शक्तिशाली,
चुइंनदा, सर्वोत्कृष्ट,
ईश्वर के
संदेशवाहक, पैगम्बर। वे
कुछ खास होते
है। पापी तो
विनम्र होता
है—स्वयं से
ही भयभीत। वह
सावधानीपूर्वक
बढ़ता है जैसे
वह जानता हो कि
वह क्या है।
ऐसा बहुत बार
हुआ कि पापी
ने सीधी छलांग
ले ली और
संबोधि को
उपलब्ध हो गया,
लेकिन
आध्यात्मिक
शक्ति वाले
व्यक्ति के लिए
यह बात कभी
सरल नहीं रही
क्योंकि वह
शक्ति ही बाधा
बन जाती है।
पतंजलि
इस बारे में
बहुत कुछ
बतायेंगे।
उनके पास
संपूर्ण
अध्याय है 'विभूतिपाद'
—शक्ति के
इस आयाम को
समर्पित
सूत्रों का।
और उन्होंने
यह सारा खंड लिया
है तुम्हें
खतरे से
सावधान करने
के लिए ही।
क्योंकि
अहंकार बहुत
सूक्ष्म होता
है। यह एक बड़ी
सूक्ष्म घटना
है और अत्यंत
वंचक शक्ति है।
और जहां कहीं
शक्ति होती है
यह उसे सोख
लेती है। यह
अहंकार एक
सोखने की घटना
है। इसलिए
संसार में, अहंकार खोज
लेता है
राजनीति, सम्मान,
शक्ति, धन—सम्पत्ति।
तब यह किसी को
भरता है। तब
तुम किसी देश
के
राष्ट्रपति
होते हो या प्रधानमंत्री।
तब तुम कुछ
होते हो या
तुम्हारे पास
लाखों रुपये
होते है तो
तुम कुछ होते
हो। अहंकार
मजबूत हो जाता
है।
खेल
वही चलता रहता
है क्योंकि
विधायक तत्व
इस संसार से
बाहर नहीं है।
विधायक संसार
के ही भीतर है।
यह
निषेधात्मक
तत्व से बेहतर
है,
लेकिन फिर
खतरा भी
ज्यादा है। एक
व्यक्ति जो
स्वयं को बहुत
महान मानता है,
इस कारण
क्योंकि वह
प्रधानमंत्री
है या राष्ट्रपति
है या कि बहुत
धनवान है, तो
यह भी जानता
है कि वह यह धन—दौलत
मृत्यु के पार
नहीं ले जा
सकता है।
लेकिन वह
व्यक्ति जो
शक्तिशाली
अनुभव करता है
मानसिक
शक्तियों के
कारण—अतींद्रिय
संवेदनक्षमता,
विचार पढ़
लेना, अतींद्रिय
दर्शन, अतींद्रिय
श्रवण, सूक्ष्म
शरीर से
यात्रा करना
और दूसरों को
स्वस्थ कर
देने के कारण—ज्यादा
अहंकारी
अनुभव करता है।
वह जानता है
कि ये
शक्तियां
मृत्यु के पार
ले जा सकता है।
और हां, वे
ले जायी जा
सकती हैं, क्योंकि
यह मन ही होता
है जो
पुनजग़ॅवत
होता है, और
ये शक्तियां
मन से ही
संबंधित होती
है।
धन
संबंध रखता है
शरीर से, मन से
नहीं। तुम इसे
अपने साथ नहीं
बनाये रख सकते।
राजनैतिक
शक्ति शरीर से
संबंधित होती
है। जब तुम मर
जाते हो, तब
तुम कुछ नहीं
रहते। लेकिन
ये शक्तियां,
ये
आध्यात्मिक
शक्तियां, मन
से संबंध रखती
हैं, और मन
एक शरीर से
दूसरे शरीर
में प्रवेश
करता है। यह
वहन किया जाता
है। अगले जन्म
में बिलकुल
प्रारंभ से ही
चमत्कारी
बच्चे के रूप
में पैदा
होओगे। एक
करिश्मा!
तुम्हारे पास
होगी एक
चुंबकीय शक्ति।
इसलिए ज्यादा
आकर्षण होता
है, और
ज्यादा खतरा
भी।
ध्यान
रहे,
आध्यात्मिक
होने का
प्रयास मत
करना।
आध्यात्मिक
है भौतिक के
विपरीत; जैसे
कि नकारात्मक
होता है
विधायक के विपरीत।
वस्तुत: वे
विपरीत हैं
नहीं। दोनों
की गुणवत्ता
एक ही होती है।
एक श्रेष्ठ और
सूक्ष्म है; दूसरा स्थूल
और निम्न है।
लेकिन दोनों
हैं एक ही।
आध्यात्मिक
शक्तियों
द्वारा धोखे
में मत आना।
और जब कभी
आध्यात्मिक
शक्तियां
तुममें उदित होने
लगती हैं, तो
तुम्हें हमेशा
से ज्यादा
सचेत हो जाना
पड़ता है। और
वे उदित होंगी।
जितना ज्यादा
तुम ध्यान
करते हो, उतना
ज्यादा मन
सूक्ष्म हो
जायेगा। और जब
मन सूक्ष्म हो
जाता है, तो
जो बीज तुम
हमेशा अपने
भीतर लिये हो
वे अंकुराने
लगते हैं। अब
भूइम तैयार है
और मौसम आ गया
है। और वे फूल
सुंदर होते
हैं।
जब
तुम किसी को
छूकर तुरंत
स्वस्थ कर
सकते हो उसे, तो
कठिन होता है
उस प्रलोभन को
रोक लेना। जब
तुम लोगों का
बहुत भला कर
सकते हो, जब
तुम महान सेवा
कर सकते हो, तो इस बात के
आकर्षण को रोक
लेना बहुत
कठिन होता है।
और प्रलोभन
तुरंत उठ खड़ा
होता है। और
तुम तर्क बिठा
लेते हो और
कहते हो कि यह
तो मात्र
लोगों की सेवा
के लिए तुम
ऐसा कर रहे हो।
लेकिन भीतर
झांक लेना—लोगों
की सेवा करने
से अहंकार उठ
रहा होता है, और अब सबसे
बड़ी बाधा खड़ी
हो जायेगी।
भौतिकता
कोई उतनी बड़ी
बाधा नहीं है।
यह तो ठीक
नकारात्मक मन
की भांति है।
गिराने की
दृष्टि से कोई
बड़ी बाधा नहीं।
यह दुख है।
कठिन है
विधायक को
गिराना, आध्यात्यिकता
को गिराना
कठिन है। तुम
शरीर को सरलता
से गिरा सकते
हो, लेकिन
मन को गिराना
वास्तविक
समस्या है।
लेकिन जब तक
तुम भौतिक और
आध्यात्मिक दोनों
को ही नहीं
गिरा देते, जब तक न तो एक
रहता है न ही
दूसरा, जब
तक तुम दोनों
के पार नहीं
चले जाते, तुम
संबोधि को
उपलब्ध न हुए।
वह
व्यक्ति जो
संबोधि को
उपलब्ध है, बहुत
साधारण हो
जाता है। उसके
पास कुछ
विशिष्ट नहीं
है। और यही
होती है
विशिष्टता।
वह इतना
साधारण होता
है कि सडक पर
तुम उसके पास
से गुजर सकते
हो। तुम
आध्यात्मिक
व्यक्ति के
पास से यूं ही
गुजर नहीं
सकते। वह अपने
चारों ओर एक
लहराती तरंग
ले आयेगा, वह
तरंगायित
ऊर्जा होगा।
यदि वह सड़क पर
तुम्हारे पास
से गुजर जाये
तो तुम एकदम
स्थान कर लोगे
उससे चली आयी
बौछारों
द्वारा। वह
आकर्षित करता
है चुंबक की
भांति।
लेकिन
तुम बुद्ध के
पास से यूं ही
गुजर सकते हो।
यदि तुम नहीं
जानते हो कि
वे बुद्ध हैं, तो
तुम नहीं ही
जान पाओगे।
लेकिन तुम
रास्पूतिन से
नहीं बच सकते।
और रास्पूतिन
कोई बुरा
व्यक्ति नहीं—रास्पूतिन
एक
आध्यात्मिक व्यक्ति
है। तुम रास्पूतिन
से बचकर नहीं
निकल सकते।
जिस घड़ी तुम
देखते हो उसे,
तुम
चुंबकीय
आकर्षण में
बंध जाते हो।
तुम उसी के
पीछे चलोगे
सारी जिंदगी।
ऐसा घटित हुआ
जार को। एक
बार उसने देखा
रास्पूतिन को
तो वह तो
गुलाम हो गया
उसका। उसके
पास जबरदस्त
शक्ति थी। वह
हवा के तेज
झोंके की भांति
आता होगा; कठिन
था उसके
आकर्षण से
बचना।
बुद्ध
के प्रति
आकर्षित होना
कठिन था। बहुत
बार तुम उनसे
किनारा काट कर
निकल सकते हो।
वे इतने सीधे—सरल
और इतने
साधारण थे! और
यही तो होती
है असाधारणता।
क्योंकि अब
नकारात्मक और
विधायक दोनों
खो जाते हैं।
वह व्यक्ति अब
विद्युत—
क्षेत्र के
अंतर्गत नहीं
रहता। वह बस
है। वह होता
है चट्टान की
भांति, वृक्ष
की भांति। वह
होता है आकाश
की भांति। वह
तुममें
प्रवेश कर
सकता है, यदि
तुम उसे ऐसा
करने दो। वह
तुम्हारे
द्वार तक नहीं
खटखटायेगा—नहीं।
वह उतना भी
सक्रिय नहीं
होगा। वह एक
बहुत ही मौन
घटना के रूप
में होता है—वह
'नाकुछ' है।
लेकिन
वह एक महान
बात है उपलब्ध
करने की क्योंकि
केवल वही
जानता है कि
क्या होता है
अस्तित्व।
केवल वही
जानता है, क्या
है परम तत्व।
विधायक और
नकारात्मक के
साथ तो तुम मन
को ही जानते
हो।
नकारात्मक
दुर्बल है, विधायक होता
है शक्तिशाली।
आध्यात्मिक
होने का
प्रयास कभी मत
करना। वह तो
अपने से ही
घटेगा।
तुम्हें उसके
लिए प्रयास
करने की जरूरत
नहीं। और जब
ऐसा हो जाये
तो उससे अलग
हो जाना। बहुत—सी
कहानियां
प्रचलित हैं
प्राचीनकाल
से। बुद्ध का
एक चचेरा भाई
था—देवदत्त।
उसने बुद्ध से
दीक्षा ली। वह
चचेरा भाई था
और निस्संदेह,
गहरे में
ईर्ष्या थी
उसे। और वह
बहुत
शक्तिशाली
व्यक्ति था
रासतिन की भांति
ही। जल्दी ही
उसने एकत्र
करना शुरू कर
दिया अपना शिष्य—समुदाय,
और वह कहने
लगा लोगों से,
'मैं बहुत
कुछ कर सकता
हूं और ये
बुद्ध कुछ
नहीं कर सकते।’
अनुयायी
बार—बार आते
बुद्ध के पास
और कहते, 'यह
देवदत्त एक
अलग पंथ
निर्मित करने
का प्रयत्न कर
रहा है और वह
कहता है कि वह
ज्यादा शक्तिशाली
है।’ और वह
ठीक कहता था, पर उसकी
शक्ति
संबंधित थी
विधायक मन से।
उसने बहुत—सी
बातों के लिए प्रयत्न
किये। बुद्ध
को मारने के
बहुत से
प्रयत्न कर
डाले। उसने
मस्त हाथी
बनाया। जब मैं
कहता हूं उसने
मस्त हाथी
बनाया, तो
मेरा मतलब
होता है कि
उसने अपनी
विधायक शक्ति
का प्रयोग
किया और यह
इतनी
शक्तिशाली
घटना थी कि
हाथी मदमस्त
हो गया। वह
पागल हुआ
दौड़ने लगा; उसने बहुत
वृक्ष गिरा
दिये।
देवदत्त बहुत
प्रसन्न हुआ
क्योंकि उन
वृक्षों के
बिलकुल पीछे
ही तो बुद्ध
बैठे हुए थे, और वह हाथी
पागल हुआ जा
रहा था। वह तो
एक बिलकुल
पागल ऊर्जा थी।
लेकिन जब हाथी
बुद्ध के निकट
आया, तो
उसने बुद्ध को
देखा और शांत
होकर बैठ गया
गहरे ध्यान
में। देवदत्त
तो उलझन में
पड़ गया।
क्या
घट गया था? जब
शून्यता होती
है तो हर चीज
अवशोषित हो
जाती है।
शून्यता की
कोई सीमा नहीं
होती। पागलपन
सोख लिया गया
था। ऐसा नहीं
था कि बुद्ध
ने कुछ कर
दिया था।
उन्होंने कुछ
नहीं किया था—वे
मात्र शून्य
थे। हाथी आया
और खो दी अपनी
ऊर्जा उसने।
वह शांत हो
गया। वह इतना
शांत हो गया
कि ऐसा कहा
जाता है कि
देवदत्त ने
बहुत बार
कोशिश की, लेकिन
फिर वह पागल
नहीं बना सका
हाथी को।
संबोधि
को उपलब्ध
व्यक्ति कोई
व्यक्ति ही नहीं
होता—यह है एक
बात। और दूसरी
बात—वह है ही
नहीं। लगता है
कि वह है, पर वह
है नहीं।
जितना ज्यादा
तुम उसे खोजते
हो उतनी ही कम
संभावना होती
है उसे पाने
की। उस खोज
में ही तुम खो
जाओगे। वह
ब्रह्मांड बन
चुका होता है।
आध्यात्मिक
व्यक्ति फिर
भी एक व्यक्ति
ही होता है।
तो
ध्यान रखना, तुम्हारा
मन
आध्यात्मिक
होने की कोशिश
करेगा। तुम्हारे
मन में ललक
रहती है और
ज्यादा
शक्तिशाली
होने की।’ना
कुछ' लोगों
के इस संसार
में कुछ हो
जाने की ललक।
इस बात के
प्रति सचेत
रहना। यदि
इसके द्वारा
बहुत लाभ भी
पहुंचा सकते
हो, तो भी
यह खतरनाक है।
लाभ होता है
केवल सतह पर
ही। गहरे में
तो तुम मार
रहे होते हो स्वयं
को। और जल्दी
ही वह बात खो
जायेगी, और
तुम फिर से जा
पड़ोगे
नकारात्मक
में ही। वह एक
खास ऊर्जा है।
तुम उसे खो
सकते हो। तुम
उपयोग कर सकते
हो उसका, फिर
वह चली जाती
है।
हिदुओं
के पास अत्यंत
वैज्ञानिक
वर्गीकरण है; अन्यत्र
कहीं भी वैसा
वर्गीकरण
नहीं है।
पश्चिम में वे
नरक और स्वर्ग
की शब्दावली
में सोचते हैं—मात्र
दो चीजें ही।
हिंदू सोचते
हैं तीन
वर्गों की बात—नरक,
स्वर्ग और
मोक्ष। तीसरे
शब्द को
पश्चिमी
भाषाओं में
अनुवादित करना
कठिन है
क्योंकि कोई
और वर्ग
अस्तित्व नहीं
रखता। तुम
कहते हो उसे 'लिबरेशन', पर यह वह भी
नहीं है। यह
एक भाव देती
है उसकी एक
सुगंध मात्र
देती है लेकिन
तो भी यह ठीक—ठीक
वही नहीं है।
नरक
और स्वर्ग
होते है वहां।
तीसरी अवस्था
वहां है ही
नहीं।
नकाराअक मन
अपनी
पराकाष्ठा
में एक नरक ही
है;
स्वर्ग
यानी परम
विधायक मन।
लेकिन पार की
बात कहां है? भारत में वे
कहते हैं कि
यदि तुम
अध्याअवादी
हो, तो जब
तुम मरोगे तो
तुम स्वर्ग
में उत्पन्न
होओगे। तुम
लाखों वर्ष
वहां
सुखपूर्वक
रहोगे, परम
सुख भोगोगे हर
चीज का। लेकिन
फिर तुम्हें
वापस आना
पड़ेगा फिर से
इसी धरती पर।
ऊर्जा खो जाने
पर तुम्हें
वापस आना ही
पड़ेगा। तुमने
एक विशिष्ट
ऊर्जा अर्जित
की थी, फिर
तुमने उसका
उपयोग कर लिया।
तुम फिर से आ
पड़ोगे उसी
परिस्थिति
में।
इसीलिए
भारतीय कहते
हैं कि मत
खोजना स्वर्ग
को। यदि लाखों
वर्ष तक भी
तुम सुखी रहो, तो
वह सुख सदा के
लिए टिकने
वाला नहीं
होता। तुम
गंवा दोगे उसे;
तुम वापस
कुक आओगे। वह
प्रयास योग्य
नहीं है। ये
वही हैं
जिन्हें हिदू 'देवता' कहते
हैं। वे जो
स्वर्ग में
रहते हैं, वे
लोग जो स्वर्ग
में निवास
करते है।
वे
मुक्त नहीं
हैं,
संबोधि को
उपलब्ध नहीं
हैं। लेकिन वे
विधायक है। वे
पहुंच चुके
हैं अपनी
विधायक ऊर्जा
के शिखर तक, मनस—ऊर्जा
के शिखर तक।
वे उड़ान भर
सकते हैं आकाश
में; वे
आकाश के एक
स्थल से दूसरे
स्थल तक तुरंत
जा सकते हैं
समय के किसी
अंतराल के
बिना ही। जिस
क्षण वे किसी
बात की
आकांक्षा
करते है; तुरंत
वह पूरी हो
जाती है समय
के किसी
अंतराल के
बिना ही। यहां
तुम करते हो
आकांक्षा और वहां
अगले क्षण वह
पूर्ण हो जाती
है। उनके पास
सुंदर, नित्य
युवा देह होती
है। वे कभी
वृद्ध नहीं
होते। उनके
शरीर
स्वर्णमय
होते हैं। वे
स्वर्णनगरियों
में युवा
स्रियों के
साथ रहते हैं;
मदिरा, स्त्रियां
और नृत्य। और
वे निरंतर
सुखी रहते हैं।
वस्तुत: केवल
एक ही मुसीबत
होती है वहां,
और वह है ऊब।
वे ऊब जाते
हैं। केवल वही
होती है
नकारात्मक
बात। एक
प्रतिशत
नकारात्मक और
निन्यानबे
प्रतिशत सुख—चैन।
वे बिलकुल ऊब
जाते है, और
कई बार वे
कोशिश भी करते
है पृथ्वी पर
आने की। वे आ
सकते हैं, और
वे आते ही है।
और ऊब से बचने
के लिए ही वे
कोशिश करते
हैं मानव—प्राणियों
के साथ मिलने—जुलने
की।
लेकिन
अंतत: वे वापस
आ गिरते हैं।
यह ऐसा होता
है जैसे कि
आखिरकार तुम
सपने से, सुंदर
सपने से बाहर
आ जाते हो, वह
खत्म हो जाती
है बात।
हिंदुओं के
अनुसार
स्वर्ग एक
सपना है—एक
सुंदर सपना।
नरक भी सपना
है—एक दुःस्वप्र।
लेकिन दोनों
है सपने ही
क्योंकि
दोनों मन से ही
संबंधित हैं।
इस परिभाषा को
खयाल में रखना—वह
सब जो मन से
संबंधित है, सपना ही है।
विधायक, निषेधात्मक
कुछ भी हो, मन
सपना है। सपने
के पार जाना, जाग जाना, बुद्ध हो
जाना है।
कठिन
होता है बुद्ध
पुरुष के विषय
में कुछ भी
कहना, क्योंकि
उसे परिभाषित
नहीं किया जा
सकता।
परिभाषा संभव
होती अगर वहां
कोई सीमा हो।
वह अपार है
आकाश जैसा; परिभाषा
संभव नहीं है।
संबोधि को
उपलब्ध
व्यक्ति को
जानने का
एकमात्र
तरीका है, संबोधि
को उपलब्ध
व्यक्ति हो
जाना।
आध्यात्मिक
व्यक्ति की व्याख्या
की जा सकती है।
उसकी अपनी
सीमाएं है। वह
है मन के भीतर
ही, उसकी
परिभाषा करने
में कोई
कठिनाई नहीं।
जब
हम विभूतिपाद
तक आयेंगे—सिद्धियों, शक्तियों
के विषय में
कहे गये
पतंजलि के
सूत्रों तक, तो हम
जानेंगे कि वे
पूर्णतया
व्याख्यायित
किये जा सकते
हैं। और
पश्र्चिम में
वैज्ञानिक
खोज चल रही है।
जिसे कि वे
कहते हैं
साइकिक, परामनोवैज्ञानिक
अनुसंधान।
परामनोवैज्ञानिक
संस्थाएं
संसार भर में
विद्यमान हैं।
बहुत—से
विश्वविद्यालयों
में अब
परामनोवैज्ञानिक
अनुसंधान की
प्रयोगशालाएं
है। जो पतंजलि
कहते है, वह
कभी न कभी वैज्ञानिक
रूप से
वर्गीकृत हो
ही जायेगा और
सिद्ध हो
जायेगा।
एक
तरह से यह
अच्छा ही है।
यह अच्छा है
क्योंकि तब
तुम जान पाओगे
कि यह मन की ही
बात होती है
जिसका
परीक्षण किया
जा सकता है
यांत्रिक
साधनों
द्वारा भी। जो
कोटिबद्ध और
प्रमाणित की
जा सकती है।
किसी यांत्रिक
साधन द्वारा
तुम्हें
संबोधि की झलक
नहीं मिल सकती।
यह शरीर की या
मन की घटना
नहीं है। यह
बहुत दुर्बोध
है,
बहुत
रहस्यपूर्ण
है।
एक
बात खयाल में
ले लेना—कभी
प्रयत्न मत
करना किन्हीं
आध्यात्मिक
शक्तियों को
पाने का। चाहे
वे तुम्हारे
मार्ग पर
स्वयं भी चली
आयें तो जितनी
जल्दी संभव हो
गिरा देना
उन्हें। उनके
संग—साथ मत
बढ़ना और उनकी
चालबाजियों
को मत सुनना।
आध्यात्मिक
व्यक्ति तो
कहेंगे, 'इसमें
गलत क्या है? तुम दूसरों
की मदद कर
सकते हो; तुम
एक महान
उपकारक बन
सकते हो।’ वह
मत बनना। यही
कह देना, 'मैं
शक्ति की खोज
में नहीं हूं
और कोई किसी
की मदद नहीं
कर सकता है।’ तुम एक
मनोरंजन भरा
तमाशा बन सकते
हो शक्ति के
द्वारा, लेकिन
तुम किसी की
मदद नहीं कर
सकते।
और
कैसे तुम मदद
कर सकते हो
किसी की? हर
कोई चलता है
उसके अपने
कर्मों के
अनुसार ही।
वस्तुत: यदि
कोई
आध्यात्मिक
शक्तिसंपन्न
व्यक्ति
तुम्हें छू
लेता है और
रोग मिट जाता
है, तो
घटता क्या है? किसी न किसी
ढंग से गहरे
में तिरोहित
होना ही था
तुम्हारे रोग
को; तुम्हारे
कर्म पूरे हो
गये थे। यह तो
मात्र एक
बहाना है कि
रोग तिरोहित
हुआ आध्यात्मिक
व्यक्ति के
स्पर्श
द्वारा। किसी
भी तरह उसे तो
तिरोहित होना
ही था।
क्योंकि
तुमने कुछ
किया था, इसीलिए
रोग था। फिर
वह समय आ गया
उसके मिट जाने
का।
तुम
किसी ढंग से
किसी की मदद
नहीं कर सकते।
केवल एक ही
होती है मदद, और
वह है
तुम्हारा वही
हो जाना जैसा
कि तुम चाहते
हो हर कोई हो
जाये। तुम बस
वही हो जाओ।
तुम्हारी मौजूदगी
सहायक होगी, न कि
तुम्हारा कुछ
करना।
बुद्ध
क्या करते हैं? वे
सिर्फ वहां
हैं, मौजूद
है प्रवाह की
भांति, नदी
की भांति। वे
जो प्यासे
होते हैं, वे
आते है। नदी
चाहे
तुम्हारी
प्यास तृप्त
करना भी, तो
यह असंभव ही
होता है यदि
तुम तैयार न
हो। यदि तुम
अपना मुंह नहीं
खोलते, यदि
तुम झुकते
नहीं पानी
लेने के लिए, तो चाहे नदी
बहती भी हो, तुम रह सकते
हो प्यासे ही।
और यही है जो
घट रहा है।
नदी बह रही है
और तुम प्यासे
ही बैठे हो
किनारे पर।
अहंकार तो
हमेशा प्यासा
रहेगा, भले
ही वह जो भी
प्राप्त कर ले।
अहंकार है
प्यास। परितृप्ति
आत्मा की होती
है, अहंकार
की नहीं।
तीसरा
प्रश्न:
आप एक
ही समय में हम
इतने सारे
व्यक्तियों
पर कार्य कर
लेते हैं क्या
है इसका रहस्य?
क्योंकि
मैं कार्य
करता ही नहीं!
मैं तो बस
होता हूं।
इससे कुछ फर्क
नहीं पड़ता कि
मेरे पास
कितने लोग
हैं। यदि मैं कार्य
कर रहा होता, तो
निस्संदेह
किस प्रकार एक
ही समय में
इतने लोगों पर
कार्य कर सकता?
मेरे कार्य
की गुणवत्ता
भिन्न है।
वस्तुत: यह कार्य
नहीं है। मुझे
इन शब्दों का
उपयोग करना पड़ता
है तुम्हारे
कारण। मैं तो
मात्र हूं यहां;
चीजें
घटेंगी अगर
तुम भी हो
यहीं। मैं
सुलभता से
मौजूद हूं यदि
तुम भी सुलभ
हो, तो
चीजें अपने से
ही घटेंगी; कुछ करने की
जरूरत नहीं
है।
दो
प्राप्यताओं
के,
दो
मौजूदगियो के
मिलन की
आवश्यकता
होती है; तब
बातें घटती
हैं अपने से
ही। जब तुम
बीज बोते हो
धरती में तो
तुम क्या करते
हो? क्या
करते हो तुम? वहां तो बीज
और धरती का
मिलन ही होता
है, और
चीजें अपने से
घटती हैं। बस
ऐसे ही।
मैं
यहां हूं। यदि
तुम भी यहां
हो तो कुछ
घटता है।
लेकिन यही है
समस्पा—शायद
ऐसा लगता हो
कि तुम यहा हो
और तुम यहां
नहीं होते हो।
तब कुछ नहीं
घटता। मैं
यहां हूं। यदि
तुम भी होते
हो यहां, तो
चीजें अपने से
घटती हैं। बस
ऐसा ही होता
है, मैं
नहीं कर रहा
होता कुछ। यदि
इससे भिन्न
कुछ होता, तो
मैं तुमसे थक
गया होता, लेकिन
मैं कभी नहीं
थकता क्योंकि
मै कुछ नहीं कर
रहा। तुम मुझे
नहीं थका सकते;
मैं ऊबा हुआ
नहीं हूं। यदि
इससे अन्यथा
कुछ होता तो
मैं थक गया
होता। तुम
स्वयं से भी
ऊबे हुए
हो—तुममें से
बहुत ऊबे हुए
है।
ऐसा
हुआ,
यहूदी
संप्रदाय में
कि एक रबाई ने
चले जाने की
धमकी दे दी।
पवित्र दिवस
करीब आ रहे थे
और ट्रस्टी
लोग चिंतित थे
इस बारे में
कि क्या करना चाहिए।
अभी यह कठिन
था, तत्काल
ही किसी रबाई
को खोज लेना, नये रबाई को
खोजना। और वह
पुराना वाला
तो अपनी बात
पर अटल .बना
हुआ था।
उन्होंने उसे
राजी कराने का
प्रयत्न
किया।
उन्होंने तीन
ट्रस्टियों
का एक
प्रतिनिधि
मंडल भेजा, और उन्होंने
ट्रस्टियों
से कहा कि
उससे कहें, 'यदि वह
ज्यादा वेतन
चाहता है, तो
स्वीकार कर
लेना। या उससे
कहना कि वह कम
से कम कुछ
सप्ताह ही रुक
जाये। फिर वह
जा सकता है।
फिर हम किसी
और को ढूंढ
पायेंगे। ' तो गये वे, और उन्होंने
रुकने के लिए
राजी किया और
उन्होंने हर
ढंग से कोशिश
की। वे कहते
रहे, 'हम
प्रेम करते
हैं आपसे और
सम्मान करते
हैं आपका। क्यों
छोड्कर जा रहे
है आप?' पर
रबाई बोला, 'यदि आपकी
तरह के पांच
व्यक्ति यहां
होते, तो
मैं यहीं
रहता।'
उन्होंने
बड़ा सम्मानित
अनुभव किया
क्योंकि उसने
कह दिया था, 'यदि
आपकी तरह के
पांच व्यक्ति
यहीं होते, तो मैं यहीं
रहता। ' उन्होंने
बहुत अच्छा
अनुभव किया और
वे बोले, 'तो
ऐसा कोई बहुत
मुश्किल तो
नहीं होगा। हम
तीन तो यहां
हैं ही। दो और
खोजे जा सकते
हैं। ' वह
रबाई बोला, 'यह मुश्किल
नहीं है; यही
तो अड़चन है।
आपकी तरह के
दो सौ व्यक्ति
यहां हैं, और
यह बहुत
ज्यादा है।’
तुम
स्वयं से ही
ऊबे हुए हो।
जरा देख लेना
दर्पण में—तुम
ऊबे हुए हो
अपने चेहरे से।
और तुम कितने
सारे हो यहां!
फिर मुझे तो
भयंकर रूप से
ऊब जाना चाहिए।
और तुम रोज
मेरे पास वही—वही
समस्याएं
लिये चले आते
हो। लेकिन मैं
कभी नहीं ऊबता
क्योंकि मैं
कार्य नहीं कर
रहा हूं। यह
कोई कृत्य जरा
भी नहीं है।
तुम इसे प्रेम
कह सकते हो, लेकिन
कार्य नहीं।
प्रेम कभी
नहीं ऊबता है।
हजार बार तुम
मेरे पास फिर—फिर
वही समस्याएं
ला सकते हो।
बहुत
समस्याएं
होती ही नहीं
हैं।
मैं
हजारों लोगों
को देखता रहा
हूं। वही
समस्याएं बार—बार
दोहराते रहते
हैं।
तुम्हारी
समस्याएं
सप्ताह के सात
दिनों की भांति
ही हैं—उससे
कुछ ज्यादा
नहीं। फिर
सोमवार आता है, फिर
से मंगलवार
आता है—ऐसा ही
चलता चला जाता।
लेकिन मैं जरा
भी ऊबा हुआ
नहीं हूं
क्योंकि मैं
कार्य नहीं कर
रहा हूं। यदि
कोई कार्य कर
रहा हो, तो
निस्संदेह यह
बहुत कठिन
होता है। तो
इसलिए मैं कर
सकता हूं काम—क्योंकि
मैं कुछ कर
नहीं रहा।
तो
तुम सब लोगों
से,
तुमसे ही
कुछ अपेक्षित
है, मुझसे
नहीं। तो तुम
ऊब सकते हो
किसी दिन
मुझसे; वैसी
संभावना है।
तुम शायद
मुझसे भागना
चाहो; यह
संभव हो सकता
है। केवल एक
चीज अपेक्षित
है तुमसे। यदि
तुम वह कर सको,
तब कुछ करने
की जरूरत नहीं—न
तो मेरी तरफ
से और न ही
तुम्हारी तरफ
से। वह चीज है
तुम्हारी
सुलभ मौजूदगी।
तुम अभी और
यहीं बने रहो।
और फिर इससे
कुछ अंतर नहीं
पडता कि तुम
यहां इस शहर
में हो, इस
आश्रम में हो,
या कि संसार
के किसी दूसरे
कोने में हो।
यदि
तुम्हारी
मौजूदगी सुलभ
हो,
तो बीज अंकुरित
होंगे ही। मैं
हर कहीं मौजूद
हूं। कहीं
होने की बात
नहीं है। चाहे
मैं इस शरीर
में भी नहीं
रहूं मैं
प्राप्य
होऊंगा।
लेकिन तब
तुम्हारे लिए
अधिकाधिक
कठिन होगा, क्योंकि तुम
तो अभी मौजूद
नहीं हो जब
मैं यहां और
अभी इस शरीर
में हूं और
तुमसे बातें
कर रहा हूं।
तुम ध्यान
देकर नहीं सुन
रहे हो।
निस्संदेह
तुम सुन रहे
हो, पर
ध्यान नहीं दे
रहे हो। तुम
मेरी ओर देख
रहे हो, पर 'मुझे' नहीं
देख रहे हो।
मुझे देखो।
यह
कोई कार्य
नहीं है। यह
मात्र एक सुलभ
प्रेम है, और
प्रेम द्वारा
हर चीज संभव
होती है, हर
रूपांतरण
संभव होता है।
चौथा
प्रश्न:
आपने
बताया कि
प्रेम एक
आवश्यकता है।
छत लोगों के
लिए यह मुख्य
आवश्यकता
पूरी करनी
इतनी कठिन
क्यों होती है?
बहुत सारी
बातें संबंधित
है। पहली एक बात
है—समाज प्रेम
के विरुद्ध है
क्योंकि प्रेम
सबसे बड़ा संबंध
है,
और प्रेम तुम्हें
अलग कर देता है
समाज से। दो प्रेमी
स्वयं में ही एक
संसार बन जाते
है; वे किसी
और की परवाह
नहीं करते।
इसीलिए समाज
प्रेम के
विरुद्ध है।
समाज नहीं चाहता
कि तुम प्रेम करो।
विवाह अनुमत है,
पर प्रेम
नहीं।
क्योंकि जब तुम
किसी से प्रेम
करते हो तो
तुम स्वयं में
ही एक संसार बन
जाते हो—अलग।
तुम चिता नहीं
करते कि संसार
में दूसरों को
क्या घट रहा है।
तुम तो उन्हें
भूल ही जाते हो।
तुम निर्मित कर
लेते हो तुम्हारा
अपना ही एक
निजी संसार।
प्रेम
एक ऐसी
सृजनात्मक
शक्ति है कि
वह एक संपूर्ण
विश्व बन जाती
है। तब तुम
अपने केंद्र
के चारों ओर
ही घूमने लगते
हो। और यह बात
समाज बरदाश्त
नहीं कर सकता
है। तुम्हारे
माता—पिता, तुम्हारा
प्रेम
बरदाश्त नहीं
कर सकते क्योंकि
यदि तुम प्रेम
में पड़ते हो
तो तुम उन्हें
बिलकुल ही भूल
जाते हो, जैसे
कि वे कभी थे
ही नहीं। तब
वे सीमांत पर
रहते है, कहीं
बहुत दूर।
कैसे वे करने
दे सकते हैं
तुम्हें
प्रेम? वे
तुम्हारे
विवाह का
इंतजाम कर
देंगे। वह
इंतजाम उनका
ही होगा। तब
तुम जीयोगे उस
परिवार के एक
हिस्से के रूप
में।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
सी के प्रेम
में पड़ गया।
वह बहुत खुश—खुश
घर आया, और जब
परिवार के लोग
रात्रि का
भोजन ले रहे
थे, वह
कहने लगा उनसे,
'मैंने तय
कर लिया है।’ पिता तुरंत
बोले, 'यह
संभव नहीं। यह
तो असंभव है।
मै ऐसा नहीं
होने दे सकता
क्योंकि लडकी
के परिवार ने
उसके लिए एक
पैसा भी नहीं
छोड़ा है। वह
दिवालिया है।
बेहतर
लड़कियां मिल
रही है बेहतर
दहेज के साथ।
नासमझ मत बन।’
मां
बोली, 'वह लड़की?
हम कभी सोच
भी न सकते थे
कि तुम इतने
नासमझ हो सकते
हो। वह
ऊटपटांग
उपन्यासों को
पढ़ने के सिवाय
कभी कुछ नहीं
करती। वह किसी
काम की नहीं।
वह खाना नहीं
पका सकती, वह
घर साफ नहीं
कर सकती। जरा
देखो तो कितने
गंदे घर में
वह रहती है! '
और
इसी भांति और
आगे बातचीत
चलती गयी।
अपनी—अपनी
धारणाओं के
अनुसार हर सदख
ने उसे अस्वीकार
कर दिया। छोटा
भाई बोला, 'मैं
नहीं सहमत
उसकी नाक के
कारण। नाक
इतनी भद्दी है।’
हर किसी की
अपनी राय थी।
तब
नसरुद्दीन
बोला, 'पर उस
लड़की के पास
एक चीज है जो
हमारे पास
नहीं है।’ वे
सब इकट्ठे
समवेत स्वरों
में ही पूछने
लगे, 'क्या
है वह? ' वह
बोला, 'परिवार!
उसके पास
परिवार नहीं।
उसके साथ वह
एक सुंदर बात
माता—पिता
प्रेम के
विरुद्ध
होंगे। वे
एकदम प्रारंभ
से ही तुम्हें
प्रशिक्षित करेंगे।
ऐसे ढंग से
प्रशिक्षित
करेंगे
तुम्हें कि तुम
प्रेम में पड़ो
ही मत।
क्योंकि
प्रेम विपरीत
पड़ेगा परिवार
के। और समाज
कुछ नहीं है
सिवाय एक
ज्यादा बड़े
परिवार के।
प्रेम समाज के, सभ्यता
के, धर्म
के, पंडित—पुरोहितों
के विपरीत पड़ता
है। प्रेम एक
ऐसी
अंतर्प्रस्तता
है, एक ऐसी
समग्र
प्रतिबद्धता
है कि यह हर
किसी के
विपरीत पड़ता
है। और हर
किसी की तुमसे
अपेक्षाएं
जुड़ी है।
नहीं, यह
बात नहीं होने
दी जा सकती।
तुम्हें
प्रेम न करना
सिखाया जाता
रहा है। और
यही है कठिनाई,
यही है अड़चन।
यह कठिनाई चली
आती है समाज
से, संस्कृति
से, सभ्यता
से—उस सबसे जो
कि तुम्हारे
आसपास है।
लेकिन यही
सबसे बड़ी
कठिनाई नहीं
है। इससे भी
बड़ी एक कठिनाई
है जो तुमसे
ही आती है और
वह है कि
प्रेम को
चाहिए समर्पण।
प्रेम की मांग
है कि तुम्हें
अहंकार गिरा
देना चाहिए।
और
तुम भी प्रेम
के विरोध में
हो। तुम चाहते
हो प्रेम, तुम्हारे
अहंकार का ही
एक उत्सव बन
जाये; तुम
चाहोगे प्रेम
तुम्हारा
अहंकार सजाने
का एक आभूषण
बन जाये। तुम
चाहोगे प्रेम
कुत्ते की
भांति
तुम्हारे पीछे
चले, लेकिन
प्रेम कभी
किसी के पीछे
कुत्ते की
भांति नहीं
चलता। प्रेम
तुमसे चाहता
है संपूर्ण
समर्पण। ऐसा
नहीं है कि सी
समर्पण करती
है पुरुष को
या कि पुरुष
समर्पण करता
है खी को—नहीं।
दोनों समर्पण
करते है प्रेम
को। प्रेम परमात्मा
है। वास्तव
में प्रेम ही
एकमात्र
परमात्मा है।
और यह
तुम्हारी
मांग करता है,
दोनों
प्रेमियों की,
वे इसके
प्रति
संपूर्णतया
समर्पित हो
जायें।
लेकिन
प्रेमी—क्या
कर रहे है वे? पति
कोशिश करता है
कि पत्नी को
उसे समर्पण
करना चाहिए और
पली की कोशिश
रहती है कि
पति को उसके
प्रति समर्पण
कर देना चाहिए।
तो प्रेम कैसे
संभव है? प्रेम
कुछ और ही बात
है। उसके
प्रति दोनों
को ही समर्पण
करना चाहिए।
और दोनों को
उसमें विलीन
हो जाना चाहिए।
यही
बात सबसे बड़ी
बाधा बन जाती
है। तुम प्रेम
नहीं कर सकते
तुम्हारे ही
कारण। इस
भांति दो
अहंकारों के
साथ होने से, प्रेम
असंभव हो जाता
है। और यदि
प्रेम असंभव
हो जाता है तो
प्रार्थना असंभव
हो जाती है।
यदि प्रेम
असंभव हो जाता
है तो
परमात्मा
असंभव हो जाता
है। वह सब जो
सुंदर है, प्रेम
द्वारा ही
उपजता है।
प्रेम की
आधारभूमि तो
चाहिए ही; अन्यथा
तुम अपंग रह
जाओगे। और तब
तुम इसकी
पूर्ति करने
की और पूरी
करने की कोशिश
करते हो दूसरे
तरीकों से, लेकिन कोई
चीज इसका अभाव
पूरा नहीं कर
सकती। कोई
प्रतिस्थापन
अस्तित्व
नहीं रखता।
तुम
प्रार्थना
किये जा सकते
हो,
लेकिन
तुम्हारी
प्रार्थना
में कमी होगी
उस प्रसाद की,
जो तभी आता
है जब कोई
प्रेम का
अनुभवी हो।
कैसे कर सकते
हो तुम
प्रार्थना? तुम्हारी
प्रार्थना तो मात्र
कुड़ा—करकट ही
होगी—एक
शाब्दिक घटना।
तुम भगवान से
कुछ कहोगे और
उससे बोलोगे
कुछ, और सो
जाओगे, लेकिन
इसमें कमी
रहेगी किसी
आवश्यक
गुणवत्ता की।
कैसे कर सकते
हो तुम
प्रार्थना जब
तुमने प्रेम
ही न किया हो
तो? प्रार्थना
आती है हृदय
से। और
तुम्हारा
हृदय रहा है
बंद, इसलिए
तुम्हारी
प्रार्थना
आती है सिर से।
सिर नहीं बन
सकता है हृदय।
इसलिए
तो संसार भर
में लोग
प्रार्थनाएं
किये जा रहे
है। वे मात्र
कुछ शारीरिक
भंगिमाएं कर
रहे होते है, मौलिक
तत्व वहां
होता ही नहीं।
जडविहीन
प्रार्थना
होती है वह।
प्रेम भूमि
तैयार करता है।
वह आधार तैयार
करता है
प्रार्थना के
अंकुरित होने
के लिए।
प्रार्थना और
कुछ नहीं
सिवाय ऊंचे
प्रेम के। वह
प्रेम जो
व्यक्तियों
के पार जाता
है, वह
प्रेम जो
व्यक्ति का
अतिक्रमण कर
जाता है; वह
प्रेम जो
विकसित होता
है समष्टि
होने के लिए
ही। वह कोई एक
अंश नहीं। तो
भी तुम्हें
जरूरत है अंश
के साथ ही
सीखने की।
तुम
एकदम छलांग
नहीं लगा सकते
समुद्र में।
तैरना तालाब
में ही सीखना।
प्रेम एक
तालाब है जहां
तुम सुरक्षित
होते हो। वहां
तुम सीख सकते
हो,
तब तुम जा
सकते हो
सागरों तक, उछलती लहरों
वाले विराट
सागरों तक।
तुम सीधे ही
तो छलांग नहीं
लगा सकते
विराट सागरों
में। यदि तुम
ऐसा करते हो, तो तुम खतरे
में पड़ोगे।
वैसा संभव
नहीं है।
प्रेम एक छोटा
तालाब है; वहां
केवल दो
व्यक्ति है।
सारा संसार
बहुत छोटा हो
जाता है। दो
के लिए एक
दूसरे में
प्रवेश करना
संभव होता है।
वहां
भी तुम भयभीत
होते हो।
तालाब में भी
तुम डरे हुए
हो कि तुम
कहीं खो न जाओ, डूब
न जाओ। तो फिर
समुद्र की तो
बात ही क्या
करनी? प्रेम
प्रथम आधार—स्थल
है। पहली
तैयारी है
ज्यादा बड़ी
छलांग लगाने
की। मैं
तुम्हें
सिखाता हूं
प्रेम। और मैं
कहता हूं
तुमसे कि जो
कुछ लगता हो
दांव पर उसकी
परवाह मत करना।
उसे त्याग
देना, चाहे
वह कुछ भी हो।
सम्मान, धन,
परिवार, समाज,
संस्कृति, कुछ भी लगता
हो दांव पर, उसकी चिंता
मत करना।
जुआरी हो जाओ
क्योंकि
प्रेम की
भांति और कुछ नहीं
है। यदि तुम
हर चीज गंवा
दो तो भी तुम
कुछ नहीं
गंवाते यदि
तुम प्रेम पा
लेते हो तो। यदि
तुम प्रेम को
खो देते हो, तो तुम कुछ
भी प्राप्त कर
लो, तुम
कुछ भी
प्राप्त नहीं
करते। इन
दोनों बातों
से सावधान
रहना।
समाज
तुम्हारी मदद
नहीं करेगा, वह
प्रेम का
विरोधी है।
प्रेम एक समाज
विरोधी शक्ति
है। और समाज
प्रेम का दमन
करने का प्रयत्न
करता है। फिर
तुम्हारा
उपयोग बहुत
तरीकों से
किया जा सकता
है। उदाहरण के
लिाग्र यदि
तुम वास्तव
में ही प्रेम में
पड़ते हो, तो
तुम्हें
सिपाही नहीं
बनाया जा सकता
है, तुम्हें
युद्ध पर नहीं
भेजा जा सकता।
वैसा असंभव है
क्योंकि
तुम्हें इन
चीजों की
परवाह ही नहीं
रहती। तुम
कहते, 'देश क्या?
देश—भक्ति
क्या? मूढ़ताएं
हैं। ' प्रेम
इतना सुंदर
फूल है कि
जिसने इसे जान
लिया, उसे
देशभक्ति, राष्ट्रीयवाद,
देश और झंडा,
ये तमाम
बातें
मूढ़ताएं
दिखने लगती
हैं। वास्तविक
बात तो तुम
चूक ही गये
हो।
समाज
प्रेम को किसी
दूसरी दिशा
में मोडने की
कोशिश करता
है। वास्तविक
चीज का तो
स्वाद ही नहीं
लेने दिया जाता।
तब तुम ललकते
हो प्रेम के
लिए,
और
तुम्हारा
प्रेम किसी
दिशा की ओर
मोड़ा जा सकता
है। वह
देशभक्ति बन
सकता है; तब
तुम हो सकते
हो शहीद। तुम
छू हो, क्योंकि
तुम व्यर्थ
गंवा रहे हो
स्वयं को। तुम
जा सकते हो और
मर सकते हो, क्योंकि
तुम्हारा
प्रेम दूसरे
मार्ग पर ले जाया
जा चुका है।
यदि तुम प्रेम
नहीं करते तो
तुम्हारा
प्रेम धन का
प्रेम बन सकता
है। तब तुम एक
संचयकर्ता, एक जमाखोर
बन जाते हो।
तब तुम्हारा
परिवार प्रसन्न
रहता है
क्योंकि तुम
सुंदर ढंग से
चल रहे हो।
तुम
तो सीधे आत्मघात
ही कर रहे हो, और
परिवार
प्रसन्न रहता
है क्योंकि
तुम इतना ज्यादा
धन इकट्ठा कर
रहे हो।
उन्होंने
अपने जीवन
गंवा दिये, अब वे
तुम्हें विवश
कर रहे हैं
तुम्हारा
जीवन गंवा
देने के लिए।
और वे ऐसा
इतने प्रेममय
ढंग से करते
हैं कि तुम ना
भी नहीं कर
सकते। वे तुम्हें
अपराधी अनुभव
करवा देते
हैं। यदि तुम
धन इकट्ठा
करते हो तो वे
प्रसन्न होते
हैं। लेकिन वह
व्यक्ति धन
कैसे जमा कर
सकता है, जो
कि प्रेम करता
है? यह
कठिन है।
प्रेमी
जमाखोर कभी
नहीं होता। प्रेमी
तो बांटता है,
वितरित
करता है, दिये
चला जाता है।
एक प्रेमी जमा
कर ही नहीं
सकता।
जब
प्रेम नहीं
रहता तो तुम
कृपण बन जाते
हो क्योंकि
तुम भयभीत
होते हो।
तुम्हारे पास
प्रेम का
आश्रय नहीं
होता, इसलिए
तुम्हें
जरूरत रहती है
किसी और की।
धन एक अभाव
पूर्ति बन
जाता है। समाज
भी चाहता है तुम
जमा करके रखो,
क्योंकि धन
किस प्रकार
बनाया जाता है?
यदि हर कोई
प्रेमी बन गया
होता, तो
समाज
बहुत—बहुत
समृद्ध हो
जाता, लेकिन
समृद्ध होता
संपूर्णतया
अलग ढंग से। वह
भौतिक रूप से
दखि हो सकता
है, लेकिन
आध्यात्मिक
रूप से वह
समृद्ध ही
होगा।
फिर
भी,
वह समृद्धि
दिखाई नहीं
देती। समाज को
चाहिए आखों से
दिखने वाला
धन। तो सारे
संसार में, धर्म, समाज,
संस्कृति
एक साजिश में
हैं क्योंकि
तुम्हारे पास
तो होती है
केवल एक ही
ऊर्जा—वह है
प्रेम—ऊर्जा।
यदि यह ठीक
तरह प्रेम में
बहती है तो इसे
विवश नहीं
किया जा सकता
कहीं और बहने
के लिए। यदि
तुम प्रेम
नहीं करते, तो तुम्हारे
प्रेम का अभाव
ही वितान का
कोई अनुसंधान
बन सकता है।
फ्रायड
ने सत्य की
बहुत—सी
झलकियां
पायीं। वह वस्तुत:
ही एक अनूठा
व्यक्ति था, इसलिए
बहुत सारी
अंतर्दृष्टियां
घटित हुईं उसे।
उसने कहा था
कि जब कभी तुम
किसी चीज में
गहरे उतरते हो,
तो वह होता
है सी में
गहरे उतरना ही।
और यदि सी न
मिले, तो
तुम किसी और
चीज में गहरे
रूप से उतरने
की कोशिश
करोगे।
तुम
शायद देश के
प्रधानमंत्री
बनने की ओर
बढ़ने लगो।
तुम
राजनेताओं को
प्रेमी के रूप
में कभी नहीं पाओगे।
वे हमेशा
प्रेम का
बलिदान कर
देंगे अपनी
सत्ता—शक्ति
की खातिर।
वैज्ञानिक
कभी न होंगे
प्रेमी, क्योंकि
यदि वे प्रेमी
हो जायें तो
वे विश्रांत
रहें। उन्हें
चाहिए होता है
तनाव, एक
निरंतर आवेश।
प्रेम
विश्रांति
अनुभव करता है,
निरंतर
आवेश संभव
नहीं होता। वे
पागलों की तरह
जुटे रहते हैं
अपनी
प्रयोगशालओ
में। वे आविष्ट
होते हैं, काम
द्वारा अभिभूत
होते हैं।
रात—दिन वे
काम करते रहते
है।
इतिहास
जानता है कि
जब किसी देश
की प्रेम—आवश्यकता
परिपूर्ण हो
जाती है, तो
देश कमजोर हो
जाता है। तब
वह पराजित
किया जा सकता
है। इसलिए
प्रेम की चाह
परिपूर्ण
नहीं होनी
चाहिए। तब देश
खतरनाक हो
जाता है
क्योंकि हर
कोई पगलाया
हुआ होता है
और लड़ने को
तैयार रहता
है। जरा—सा
कारण पाकर ही
हर कोई तैयार
हो जाता है लड़ने
के लिए। यदि
प्रेम की
आवश्यकता
पूरी हो जाती
है तो किसे
परवाह रहती है?
जरा सोचना,
यदि वास्तव
में ही सारा
देश प्रेम में
पड़ गया हो और
कोई आक्रमण कर
दे। तो उस देश
के लोग उससे
कहेंगे ठीक है,
तुम भी आ
जाओ और रह जाओ
यहीं। क्यों
परेशानी उठा
रहे हो! हम
इतने सुखी हैं,
तो तुम भी आ
जाओ। देश बहुत
विशाल है, तो
तुम भी आ जाओ
यहां और सुखी
बनो। और यदि
तुम शासक ही
होना चाहते हो
तो हो जाओ
शासक। कुछ गलत
नहीं, यह
ठीक है ही।
तुम ले लो जिम्मेदारी।
यह अच्छा है।
लेकिन
जब प्रेम की
आवश्यकता
परिपूर्ण
नहीं होती है, तब
तुम हमेशा
लड़ने को ही
तैयार रहते
हो। तुम जरा
खयाल में लेना
यह बात। अपने
मन को ही
देखने का
प्रयत्न
करना। यदि
तुमने कुछ दिन
अपनी सी से
प्रेम नहीं
किया होता, तो तुम
निरंतर
चिड़चिड़े रहते हो।
यदि तुम प्रेम
करते हो, तो
तुम
विश्रांति
में होते हो।
चिड़चिड़ाहट चली
जाती है। और
तुम इतना ठीक
अनुभव करते हो
कि तुम क्षमा
कर सकते हो।
प्रेमी हर बात
के लिए क्षमा
कर सकता है।
प्रेम एक गहन
आशीष बना है
उसके लिए। तो
वह सब क्षमा
कर सकता है जो
गलत है।
नहीं, नेता
तुम्हें
प्रेम नहीं
करने देंगे
क्योंकि फिर सिपाही
निर्मित नहीं
किये जा सकते।
तब तुम कहां
पाओगे
युद्धखोरों
को, विक्षिप्त
लोगों को, पागल
लोगों को जो
कि विध्वंस ही
करना चाहेंगे?
प्रेम सृजन
है। यदि प्रेम
की आवश्यकता
परिपूर्ण हो
जाती है, तो
तुम सृजन करना
चाहोगे, विध्वंस
नहीं। तब सारा
राजनैतिक
ढांचा ही ढह जायेगा।
यदि तुम प्रेम
करते हो, तो
फिर सारा
पारिवारिक
ढांचा समग्र
रूप से अलग
होगा। यदि तुम
प्रेम करते हो
तो
अर्थव्यवस्था
और
अर्थशास्त्र
अलग होंगे।
वस्तुत: यदि
प्रेम आने
दिया जाये, तो सारा
संसार
समग्रतया अलग
ही रूप ले
लेगा। लेकिन
उसे आने नहीं
दिया जा सकता
क्योंकि इस
ढांचे के अपने
न्यस्त
स्वार्थ हैं।
हर ढांचा
स्वयं को आगे
की ओर धकेलता
है, और यदि
तुम कुचले
जाते हो तो वह
परवाह नहीं करता।
सारी
मानवता कुचली
गयी है, और
सभ्यता का रथ
चलता चला जाता
है। इसे समझो,
इसे देखो, जागरूक हो
जाओ इसके
प्रति। और फिर
प्रेम इतना सीधा—साफ
होता है। कुछ
और ज्यादा
सीधा नहीं होता
उससे। सारी
सामाजिक
आवश्यकताएं
गिरा देना—सिर्फ
तुम्हारी
आंतरिक
आवश्यकताओं
का ध्यान रखो।
यह कोई समाज
के विरुद्ध हो
जाना नहीं है।
तुम तो बस
तुम्हारे
अपने जीवन को
समृद्ध करने
की कोशिश ही
कर रहे हो।
तुम यहां किसी
दूसरे की
अपेक्षाएं
पूरी करने को
नहीं हो। तुम
यहां हो
तुम्हारे
अपने लिए, तुम्हारी
अपनी
परिपूर्णता
के लिए।
प्रेम
को प्रथम चीज लेना, मौलिक
आधार और दूसरी
चीजों की परवाह
मत करना। पागल
लोग तुम्हारे चारों
ओर है। वे तुम्हें
पागलपन की तरफ
धकेलेंगे।
समाज के विरुद्ध
हो जाने की कोई
जरूरत नहीं है।
मात्र बहार आ जाना
इसकी
अपेक्षाओं से,
बस इतना ही।
विद्रोही
होने की, क्रांतिकारी
होने की तुम्हें
कोई जरूरत नही,
क्योंकि वैसा
करना फिर से उसी
जगह आ जाना है।
यदि तुम्हारा प्रेम
परिपूर्ण
नहीं होता है तो
तुम क्रांतिकारी
हो जाओगे, क्यों
कि वह भी छिपे रूप
में एकविध्वंस
ही होता है।
और फिर आती है
वास्तविक
समस्या—तुम्हारे
अपने अहंकार
को गिरा देने
की। प्रेम
चाहता है
संपूर्ण समर्पण।
इसे
होने देना, क्योंकि
कुछ और नहीं
है जो तुम्हें
घट सकता हो।
यदि तुम इसे नहीं
घटने देते हो तो
तुम्हारा
जीना व्यर्थ है।
और यदि तुम इसे
घटने देते हो,
तो और बहुत—सी
चीजे संभव हो जाती
हैं। एक बात दूसरी
बात तक ले जाती
है। प्रेम सदा
प्रार्थना की और
ले जाता है।
इसीलिए जीसस जोर
देते है कि परमात्मा
प्रेम है।
आज
इतना ही
पहला भाग समाप्त।
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