दिनांक
7 जनवरी 1975;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
योगसूत्र:
व्याधिख्यानसंशयप्रमादालस्थाविरति
भ्रातिदर्शन
अलब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि
चित्तविक्षेपास्तेऽन्तराया:।।
30।।
रोग, निर्जीवता,
संशय
(संदेह), प्रमाद,
आलस्य, विषयासक्ति,
भांति, दुर्बलता
और अस्थिरता
वे हैं जो मन
में विक्षेप
लाती हैं
दु:खदौर्मनस्थांगमेजयत्वश्वासप्रश्वासा
विक्षेपसहभुव:।।
31।।
दुख, निराशा,
कंपकंपी और
अनियमित
श्वसन
विक्षेपयुक्त
मन के लक्षण
हैं।
तअतिषेधार्थमेकतत्वाथ्यास:।।
३२।।
इन
बाधाओ को दूर करने
के लिए एक तत्व
पर ध्यान करना।
पतंजलि
विश्वास करते
है-और केवल
विश्वास ही नहीं
करते, वे
जानते भी
है-कि ध्वनि
अस्तित्व का
आधारभूत तत्व
है। जिस
प्रकार
भौतिकीविद
कहते हैं कि
विद्युत है
आधारभूत तत्व,
योगी कहते
हैं कि ध्वनि
है, नाद है
आधारभूत तत्व।
सूक्ष्म तौर
पर वे परस्पर
सहमत होते हैं।
भौतिकीविद
कहते हैं, ध्वनि
और कुछ नहीं
है सिवाय
विद्युत के
रूपांतरण के।
और योगी कहते
हैं कि
विद्युत कुछ
नहीं है सिवाय
ध्वनि के
रूपांतरण के।
दोनों सही हैं।
ध्वनि और
विद्युत एक ही
घटना के दो
रूप हैं। और
मेरे देखे, वह घटना अभी
तक जानी नहीं
गयी है और कभी
जानी जायेगी
नहीं। जो कुछ
भी हम जानते
हैं, इसका
रूपांतरण
मात्र ही होगा।
चाहे तुम इसे
विद्युत कह लो,
चाहे तुम
इसे ध्वनि कह
लो।
हेराक्लतु की
भांति तुम कह
सकते हो इसे
अग्रि; तुम
इसे लाओत्सु
की भांति कह
सकते हो पानी।
वह तुम पर
निर्भर करता
है। लेकिन ये
सब रूपांतरण
ही हैं-अरूप
के रूप हैं।
वह अरूप, वह
निराकार सदा
अज्ञात ही बना
रहेगा।
कैसे
तुम जान सकते
हो निराकार को? ज्ञान
सम्भव होता है
केवल जब एक
रूप या आकार होता
है। जब कोई
चीज प्रकट हो
जाती है, तब
तुम जान सकते
हो उसे। तुम
अप्रकट को, अदृश्य को
ज्ञान का विषय
कैसे बना सकते
हो? अदृश्यता
का पूरा
स्वभाव ही यही
है कि इसे विषयगत
नहीं बनाया जा
सकता। जहां यह
होता है, जो
यह होता है, तुम इसका
ठीक-ठीक पता
नहीं लगा सकते।
केवल कोई
प्रकट हुई चीज
एक विषय बन
सकती
अत:
जब कभी कोई
चीज ज्ञात हो, तो
वह मात्र एक
रूपांतरण
होगी अज्ञात
का। अज्ञात
बना रहता है
अज्ञात ही। यह
अज्ञेय होता
है। तो जिस
नाम से तुम
इसे बुलाते हो,
तुम पर
निर्भर करता
है। और यह
निर्भर करता
है उस
उपयोगिता पर
जिसमें कि तुम
इसे रखने जा
रहे हो। योगी
के लिए
विद्युत
असंगत है, वह
अंतस की, स्व-सत्ता
की
प्रयोगशाला
में कार्य कर
रहा है। वहां
नाद का ज्यादा
महत्व है, क्योंकि
ध्वनि द्वारा
वह भीतर बहुत
घटनाएं बदल
सकता है और
ध्वनि द्वारा
वह आंतरिक
विद्युत भी
बदल सकता है।
योगी इसे कहते
हैं 'प्राण'
-आंतरिक
जीव-ऊर्जा या
प्राण-विद्युत।
ध्वनि द्वारा
वह तुरंत
परिवर्तित की
जा सकती है।
इसीलिए
जब शास्त्रीय
संगीत को सुन
रहे होते हो, तुम
अनुभव करते हो
एक निश्रित
मौन तुम्हें
घेरे हुए है; तुम्हारी आंतरिक
देह-ऊर्जा बदल
चुकी है। एक
पागल को सुनो
और तुम अनुभव
करोगे कि तुम
पागल हुए जा
रहे हो।
क्योंकि पागल
व्यक्ति
देह-ऊर्जा की
अव्यवस्था
में है और
उसके शब्द तथा
ध्वनियां उस
विद्युत को
तुम तक ले आते
है। किसी
बुद्ध पुरुष
के पास बैठो
और अचानक तुम अनुभव
करते कि
तुम्हारे
भीतर की हर
चीज एक लय में
डूब रही है।
अचानक तुम
अनुभव करते हो
ऊर्जा की एक
अलग ही गुणवत्ता
तुममें जाग
रही है।
इसीलिए
पतंजलि कहते
हैं कि ओम् का
दोहराया जाना
और इस पर
ध्यान किया
जाना सारी
बाधाओं को समाप्त
कर देता है।
बाधाएं होती
कौन-सी हैं? अब वे
प्रत्येक
बाधा की
व्याख्या
करते हैं, और
बताते हैं कि
कैसे वह
समाप्त की जा
सकती है ओम्
के नाद को
दोहराने
द्वारा और उस
पर ध्यान करने
द्वारा। हमें
उस पर विचार
करना होगा।
'रोग
निर्जीवता
संदेह प्रमाद
आलस्य
विषयासक्ति
भ्रांति
दुर्बलता और
अस्थिरता हैं वे
बाधाएं जो मन
में विक्षेप
लाती हैं'
प्रत्येक
पर विचार
करो-पहले है, रोग।
पतंजलि के लिए,
रोग का अर्थ
है आंतरिक
जीव-ऊर्जा का
गैर-लयात्मक
ढंग। तुम
बेचैनी अनुभव
करते हो। यदि
बेचैनी, यह
रोग, लगातार
जारी रहे तो
कभी न कभी यह
सब तुम्हारे शरीर
को प्रभावित
करेगा।
पतंजलि
अकुपंक्चर के
साथ पूर्णतया
सहमत होंगे और
सोवियत रूस में
किरलियान
नामक व्यक्ति
पतंजलि से
सहमत होगा
पूरी तरह से।
अकुपंक्चर का
संबोधि के साथ
कोई संबंध
नहीं है, अकुपंक्चर
का तो सिर्फ
संबंध है इसके
साथ कि किस
प्रकार शरीर
रोगग्रस्त हो
जाता है, कैसे
अस्वस्थता
घटित होती है।
और अकुपंक्चर
ने शरीर में
सात सौ बिन्दु
ऐसे खोज लिये
हैं जहां आंतरिक
प्राण-ऊर्जा
स्पर्श करती
है भौतिक शरीर
को। ये सात सौ
स्पर्श-बिंदु
शरीर में
सर्वत्र हैं।
जब
कभी विद्युत
वर्तुल में
प्रवाहित
नहीं हो रही
होती, इन सात
सौ बिंदुओं
में कुछ अंतराल
होते हैं, कुछ
बिंदु-स्थल
कार्य ही नहीं
कर रहे होते, कुछ स्थलों
द्वारा
विद्युत अब
गतिमान नहीं हो
रही होती, अवरुद्धता
आ जाती है
वहां।
विद्युत अलग
हो जाती है, वर्तुल नहीं
रहा यह-तब रोग
घटता है। अत: अकुपंक्चर
पांच हजार
वर्षों से
विश्वास करता
आया है कि बिना
किसी इलाज के,
यदि तुम
प्राण-ऊर्जा
के प्रवाह को
एक वर्तुल बनने
दो, तो रोग
तिरोहित हो
जाता है। अकुपंक्चर
लगभग उसी समय
के दौरान पैदा
हुआ जब पतंजलि
जीवित थे।
जैसा
कि मैंने कहा
था तुमसे, ढाई
हजार वर्षों
के बाद
मानव-चेतना का
शिखर आ पहुंचता
है। चीन में
ऐसा हुआ लाओत्सु
और
च्चांगत्सु
के साथ, कन्फ्यूसियस
के समय में; भारत में
बुद्ध, महावीर
तथा औरों के
साथ घटा; ग्रीस
में
हेराक्लतु के
साथ, ईरान
में
जरथुस्त्र के
साथ, शिखर-घटना
घटित हुई। जो
धर्म तुम अब
देखते हो
संसार में, वे उअन्न
हुए
मानव-चेतना के
उसी
महत्वपूर्ण घड़ी
में?। उस
शिखर से, हिमालय
से, सारे
धर्मों की
सारी नदियां
बहती आ रही
हैं इन्ही ढाई
हजार वर्षों
से।
इसी
प्रकार बुद्ध
से ढाई हजार
वर्ष पूर्व
शिखर-घटना घटी
थी। पतंजलि, ऋषभ-जैनवाद
के प्रवर्तक,
वेद, उपनिषद,
चीन में
अकुपंक्चर, भारत में
योग और तंत्र,
ये सब घटित
हुए। एक शिखर,
एक ऊंचाई थी।
फिर कभी उस
शिखर से ऊंचा
शिखर नहीं छुआ
गया। और उसी
सुदूर अतीत
द्वारा, पांच
हजार वर्ष
पहले, योग,
तंत्र अकुपंक्चर
बहते रहे हैं
नदियों की
भांति।
एक
निश्रित घटना
है जिसे जै ने
कहा है 'सिंक्रानिसिटी
', समकालिकता।
जब कोई
निश्रित
सिद्धांत
जन्म लेता है,
केवल एक
व्यक्ति ही
उसके प्रति
सजग नहीं होता,
बल्कि
पृथ्वी पर
बहुत से हो
जाते हैं
सचेत-जैसे कि
सारी पृथ्वी
तैयार होती है
इसे ग्रहण करने
को। सुना जाता
है कि
आइंस्टीन ने
कहा था, यदि
मैंने
सापेक्षता का
सिद्धांत न
खोजा होता, तो एक वर्ष
के भीतर ही
किसी और ने
इसे खोज लिया
होता। क्यों?
क्योंकि
सारी पृथ्वी
पर बहुत लोग
इसी दिशा में
कार्य कर रहे
थे।
जब
डार्विन ने
क्रम विकास का
सिद्धांत
खोजा, कि आदमी
बंदरों
द्वारा
विकसित हुआ है,
कि निरंतर
संघर्ष होता
है योग्यतम के
जीवित रहने के
लिए, एक
दूसरा
व्यक्ति-वैलेस
रसेल-उसने इसे
खोज लिया था।
वह
फिलिपाइन्स
में था, और
दोनों मित्र
थे। लेकिन
बहुत वर्षों
से एक-दूसरे
की खास खबर न थी।
डार्विन
लगातार बीस
वर्षों तक काम
करता रहा था, लेकिन वह एक
सुस्त किस्म
का आदमी था।
उसके पास बहुत
सारे अंश थे
और हर चीज
तैयार थी, लेकिन
वह इनके द्वारा
पुस्तक तैयार
नहीं करता था
और उन दिनों की
साइंटिफिक
सोसाइटी के
सामने वह इसे
प्रस्तुत
नहीं करता था।
मित्र
फिर-फिर
अनुरोध करते, करो
यह काम वरना
और कोई कर
लेगा इसे। और
तब एक दिन, फिलिपाइन्स
से एक पत्र
आया और सारा
सिद्धांत उस
पत्र में रसेल
द्वारा
प्रस्तुत कर
दिया गया था।
और वह मित्र
था, लेकिन
वे दोनों
अलग-अलग अपना
कार्य कर रहे
थे। वे बिलकुल
नहीं जानते थे
कि दोनों एक
ही चीज पर
कार्य कर रहे
थे। और फिर वह
भयभीत हो गया।
अब क्या करूं?
मित्र
आविष्कारक बन
जायेगा, और
बीस वर्षों से
वह जान चुका
था सिद्धांत।
वह तो तेजी से
जुट गया। किसी
प्रकार उसने
विवरण लिखने
की व्यवस्था की,
और उसने इसे
वैज्ञानिक
संघ के सामने
प्रस्तुत कर
दिया।
तीन
महीने पश्रात
हर कोई जान
गया कि रसेल
ने भी इसे खोज
लिया था। रसेल
वस्तुत: बहुत
अद्भुत
व्यक्ति था।
उसने घोषणा कर
दी कि
आविष्कार का
श्रेय डार्विन
को मिलना
चाहिए
क्योंकि बीस
वर्षों से वह
कार्य कर चुका
था इस पर, चाहे
उसने इसे
प्रस्तुत
किया या नहीं।
आविष्कारक तो
वही था।
और
ऐसा बहुत बार
घटा है।
अकस्मात कोई
विचार बहुत
प्रभावशाली
हो जाता है, जैसे
कि वह विचार
कहीं कोई
गर्भधारण
करने की कोशिश
कर रहा हो। और
जैसा कि
प्रकृति का
स्वभाव है, वह कभी जोखम
नहीं उठाती।
हो सकता है कि
एक आदमी चूक
जाये, तब
बहुत आदमियों
को करनी होती
है कोशिश।
प्रकृति कभी
खतरा नहीं
लेती। एक
वृक्ष लाखों
बीज गिरायेगा।
एक बीज चूक
सकता है; शायद
वह सही भूमि
पर न गिरे, शायद
वह नष्ट हो
जाये। लेकिन
लाखों बीज हों
तो कोई
संभावना नहीं
होती कि सारे
के सारे बीज
नष्ट ही हो
जायेंगे।
जब
स्री-पुरुष
संभोग करते
हैं,
तो एक
वीर्य-स्खलन
में पुरुष
द्वारा लाखों
बीज फेंके
जाते हैं।
उनमें से एक
पहुंचेगा सी
के डिम्बाणु
तक, पर फिर
भी थे तो
लाखों। एक
स्खलन में एक
आदमी त्याभग
उतने ही बीज
छोड़ देता है
जितने कि अभी पृथ्वी
पर आदमी है।
एक आदमी एक स्खलन
में संपूर्ण
पृथ्वी को
जन्म दे सकता
है, पृथ्वी
की सारी
जनसंख्या को
जन्म दे सकता
है। प्रकृति
कोई जोखम नहीं
उठाती है। यह
बहुत तरीके
आजमाती है। एक
चूक सकता है, दो चूक सकते
हैं, लाख
चूक सकते हैं,
लेकिन
लाखों में कम
से कम एक तो
पहुंचेगा और जीवंत
होगा।
जै
ने एक
सिद्धांत
खोजा जिसे
उसने कहा, 'सिंक्रानिसिटी'
-समकालिकता।
यह विरल चीज
है। हम एक सिद्धांत
जानते हैं
कारण और कार्य
का-कारण उअन्न
करता है कार्य
को।
समकालिकता
कहती है जब
कभी कोई चीज
घटती है, तो
इसके
समानांतर
बहुत-सी उसी
प्रकार की
चीजें घटती
हैं। हम जानते
नहीं क्यों
ऐसा घटता है, क्योंकि यह
कोई कारण और
कार्य की घटना
तो है नहीं।
वे परस्पर
संबंधित नहीं
है कारण और
कार्य द्वारा।
कैसे
तुम बुद्ध और
हेराक्लतु का
संबंध बैठा सकते
हो?
लेकिन सिद्धांत
वही है। बुद्ध
ने हेराक्लतु
के विषय में
कभी सुना नहीं;
हम कल्पना
तक नहीं कर
सकते कि
हेराक्लतु
कभी बुद्ध को
जानते भी थे।
वे अलग-अलग
संसारों में
जीते थे। कोई
संपर्क-संबंध
न था। लेकिन
दोनों ने
संसार को एक
ही सिद्धांत
दिया। जो था
गति का
सिद्धांत, नदी-समान
अस्तित्व का,
क्षणभंगुर
अस्तित्व का।
वे एक-दूसरे
को प्रेरित
नहीं कर रहे
थे। वे
समानांतर थे।
एक समकालिकता
अस्तित्व
रखती है; जैसे
कि उस क्षण
सारा
अस्तित्व ही
किसी निश्रित
सिद्धांत को
तैयार कर देना
चाहता हो और
उसे प्रकट कर
देना चाहता हो,
व्यक्त
करना चाहता हो।
अत: यह व्यक्त
हो जाता है।
और ऐसा केवल
बुद्ध पर या
केवल
हेराक्लतु पर
ही निर्भर
नहीं करेगा, सिद्धांत
बहुतों पर
आजमाइश करेगा।
और दूसरे भी
थे, जो
गुमनामी में
चले गये। वे
इतने
प्रतिष्ठित
नहीं थे।
बुद्ध और
हेराक्लतु
सबसे अधिक
प्रमुख बन गये।
वे सबसे अधिक
शक्तिशाली
गुरु थे।
पतंजलि
के समय में एक
सिद्धांत का
जन्म हुआ। तुम
इसे 'प्राण' का
सिद्धांत कह
सकते
हो-प्राण-ऊर्जा।
चीन में इसने
अकुपंक्चर का
रूप ले लिया, भारत में
इसने रूप ले
लिया योग की
संपूर्ण पद्धति
का। यह किस
प्रकार घटता
है कि
देह-ऊर्जा ठीक
प्रकार से नहीं
गतिमान हो रही
होती तो तुम
अशुविधा
अनुभव करते हो?
ऐसा है
क्योंकि
तुममें एक
अभाव
विद्यमान होता
है, एक
अनुपस्थिति।
और तुम अनुभव
करते हो कोई
चीज चूक रही
है। यह आरंभ
में
डिस-ईज-गैर-शुइवधा
अर्थात
अस्वस्थता
होती है। पहले
यह अनुभव किया
जायेगा मन में।
जैसा मैंने
तुमसे कहा था,
पहले यह
अनुभव किया
जायेगा अचेतन
में।
हो
सकता है
तुम्हें इसकी
खबर न हो, लेकिन
यह पहले
तुम्हारे
सपनों में चली
आयेगी।
तुम्हारे
सपनों में तुम
देखोगे
बीमारी, रोग,
किसी का
मरना, कुछ
गलत बात।
दुःस्वप्र
घटेगा
तुम्हारे
अचेतन में
क्योंकि
अचेतन देह के
निकटतम है और
प्रकृति के
निकटतम है।
अचेतन से यह आ
पहुंचेगा
उपचेतन तक; तब तुम
चिड़चिड़ाहट
अनुभव करोगे।
तुम अनुभव
करोगे कि
भाग्य कुछ साथ
नहीं दे रहा, कि जो कुछ
तुम करते हो
गलत हो जाता
है। तुम किसी
व्यक्ति से
प्रेम करना
चाहोगे और तुम
करते हो कोशिश
प्रेम करने की
लेकिन तुम
प्रेम नहीं कर
सकते। तुम
किसी की मदद
करना चाहते हो,
तो भी तुम
केवल बाधा ही
डालते हो। हर
चीज गलत पड़
जाती
तुम
सोचते हो यह
कोई दुअभाव है, दूर
ऊंचे आकाश के
किसी नक्षत्र
का प्रभाव, लेकिन नहीं,
यह उपचेतन
में ही कुछ
बेचैनी है
वहां। तुम
चिड़चिड़े हो
जाते हो, क्रोधित
हो जाते हो, और कारण
होता है कहीं
अचेतन में।
तुम कहीं और
ढूंढ रहे होते
हो कारण। फिर
कारण चेतन तक
आ पहुंचता है।
तब तुम अनुभव
करने लगते हो
कि तुम बीमार
हो, और फिर
यह शरीर तक
सरक आता है यह
सदा सरकता रहा
है शरीर तक, और अचानक
तुम बीमार
महसूस करते हो।
सोवियत
रूस में एक
फोटोग्राफर
है,
एक अनूठा
वैज्ञानिक है,
किरलियान
उसने
आविष्कार
किया है कि
इससे पहले कि
व्यक्ति
बीमार हो, छह
महीने पहले से
ही बीमारी का
चित्र लिया जा
सकता है। और
यह बीसवीं
शताब्दी के
संसार के
महानतम
आविष्कारों
में से एक आविष्कार
होने वाला है।
यह मनुष्य की
संपूर्ण
धारणा का रूप
परिवर्तित कर
देगा-रोग का, दवाइयों का,
हर चीज का
रूप
परिवर्तित
करेगा। यह एक
क्रांतिकारी
अवधारणा है।
और वह तीस
वर्षों से इस
पर काम करता
रहा है। उसने
लगभग सिद्ध ही
कर दिया है
वैज्ञानिक
रूप से कि जब
रोग शरीर तक आ
पहुंचता है, तो पहले यह
आता है शरीर
के चारों ओर
के
विद्युत-घेरे तक।
एक खाली जगह
बन जाती है।
शायद
ऐसा हो कि तुम्हारे
पेट में छह
महीने बाद टयूमर
होने वाला हो।
बिलकुल अभी
कोई आधार
विद्यमान
नहीं। कोई
वैज्ञानिक
तुम्हारे पेट
में कोई गडबड़ी
नहीं पा सकता।
हर चीज ठीक
होती है; कोई
समस्या नहीं
है। तुम पूरी
तरह से जांच
करवा सकते हो
और ऐसा पाया
जा सकता है कि
तुम पूरी तरह
से ठीक हो।
लेकिन
किरलियान
शरीर का चित्र
खींचता है बहुत
सूक्ष्म
प्लेट पर; उसने
विकसित की है
सवाधिक
संवेदनशील
सूक्ष्म
प्लेटें। उस
प्लेट पर केवल
तुम्हारे
शरीर का ही
चित्र नहीं
खिंचता, बल्कि
शरीर के चारों
ओर का
प्रकाश-वर्तुल
जिसे कि तुम
हमेशा. साथ
लिये रहते हो,
इसका भी
चित्र खिंच
जाता है। उस
प्रकाश
वर्तुल में
पेट के निकट, एक सूराख
होगा। यह
ठीक-ठीक तौर
पर भौतिक शरीर
में नहीं होता,
लेकिन कोई
चीज
अस्त-व्यस्त
हो जाती है।
अब वह कहता है
कि वह
भविष्यवाणी
कर सकता है कि
छह महीने के
भीतर वहां टयूम्बर
हो जायेगा। और
छह महीने
पक्षात, जब
टयूम्बर हो
जाता है शरीर
में, एक्सटरे
बता देगा वही
चित्र जो वह
खींच चुका था
छह महीने पहले।
अत: किरलियान
कहता है कि
अभी तुम बीमार
हुए भी नहीं
होते, कि
बीमारी की
भविष्यवाणी
की जा सकती है।
और यदि
दैहिक-ऊर्जा
वृत्त ज्यादा
संचारशील हो
जाता है, तो
यह दूर की जा
सकती है इससे
पहले कि यह
कभी शरीर तक
आये। वह नहीं
जानता कि यह
कैसे ठीक हो
सकती है, लेकिन
अकुपंक्चर
जानता है, पतंजलि
जानते हैं कि
कैसे यह ठीक
की जा सकती है।
पतंजलि
के विचार से
दैहिक-ऊर्जा
वृत्त में, प्राण
में, प्राण-ऊर्जा
में, शरीर-विद्युत
में किसी
गड़बडी का होना
ही रोग का
होना है।
इसलिए यह ठीक
हो सकता है
ओम् द्वारा।
कभी अकेले बैठ
जाओ किसी
मंदिर में।
किसी पुराने
मंदिर में
जाकर अनुभव
करो जहां कोई
नहीं जाता और
बैठ जाओ वहां
गुंम्बज के
नीचे।
वृत्ताकार गुंम्बज
ध्वनि को
परावर्तित
करने के लिए
ही होता है।
तो बैठ जाना
उसी के नीचे, जोर से
उच्चारण करना
ओम् का और
ध्यान करना उस
पर। ध्वनि को
वापस
परावर्तित
होने देना और
उसे बरसने
देना स्वयं पर
बरखा की भांति।
और कुछ क्षणों
बाद अकस्मात
तुम पाओगे कि
तुम्हारा
सारा शरीर
शांत, स्थिर,
मौन हो रहा
है; देह-ऊर्जा
स्थिर हो रही
पहली
बात है रोग।
यदि तुम बीमार
हो,
तुम्हारे
प्राणों में,
तुम्हारी
ऊर्जा में तो
तुम ज्यादा
दूर नहीं जा
सकते।
तुम्हारे
चारों ओर बादल
के समान लटकी
हुई बीमारी के
साथ, तुम ज्यादा
दूर कैसे जा
सकते हो? तुम
ज्यादा गहरे
आयामों में
प्रवेश नहीं
कर सकते। एक
निश्रित
स्वास्थ्य की
जरूरत होती है।
यह भारतीय
शब्द 'स्वास्थ्य'
बहुत
अर्थपूर्ण है।
इस शब्द का
अर्थ है स्व
में स्थित हो
जाना, केन्द्रित
हो जाना।
अंग्रेजी
शब्द 'हेल्थ'
भी सुंदर है।
यह आया है उसी
शब्द से, उसी
मूल से, जहां
से 'होली' या 'होल' आते हैं। जब
तुम 'होल' अर्थात
संपूर्ण होते
हो तो तुम 'हेल्दी'
होते हो और
जब तुम 'होल'
होते हो तो 'होली' अर्थात
पवित्र भी
होते हो।
शब्द
के मूल तक चले
जाना सदा
अच्छा होता है
क्योंकि वे
उभरते है
मानवता के
लंबे अनुभव से।
शब्द संयोगिक
रूप से नहीं
आये हैं। जब
कोई व्यक्ति
संपूर्ण
अनुभव करता है, तब
उसकी दैहिक
ऊर्जा वर्तुल
में गतिमान हो
रही होती है।
वर्तुल संसार
की सबसे
ज्यादा पूर्ण
चीज है। पूर्ण
वर्तुल
परमात्मा का
एक प्रतीक है।
ऊर्जा व्यर्थ
नहीं हो रही
यह चक्र में
घूमती है
बार-बार। यह
चक्र की भांति
स्वयं बनी
रहती है।
जब
तुम 'होल' होते
हो तो तुम
स्वस्थ होते
हो, और जब
तुम स्वस्थ
होते हो तो
पवित्र भी
होते हो।
क्योंकि वह
शब्द 'होली
' भी आता है 'होल' से।
एक
संपूर्णतया
स्वस्थ
व्यक्ति
पवित्र होता है।
लेकिन तब
समस्याएं खड़ी
होंगी। यदि
तुम चले जाओ
मठों में, वहां
तुम पाओगे सब
प्रकार के
बीमार
व्यक्ति।
स्वस्थ
व्यक्ति तो
पूछेगा कि उसे
किसी मदिर-मठ
में क्या करना
है! बीमार लोग
जाते हैं वहां,
अस्वाभाविक
लोग जाते है
वहां। बुनियादी
तौर से कुछ
गलत होता है
उनके साथ।
इसीलिए वे दुनियां
से पलायन करते
और वहां चले
जाते हैं।
पतंजलि
इसे पहला नियम
बना लेते हैं
कि तुम्हें
स्वस्थ होना
चाहिए, क्योंकि
अगर तुम
स्वस्थ नहीं
हो तो तुम
ज्यादा दूर
नहीं जा सकते।
तुम्हारी
बीमारी, तुम्हारी
बेचैनी, तुम्हारा
आंतरिक ऊर्जा
का टूटा हुआ
वर्तुल, तुम्हारे
गले को
घेरता-दबाता
हुआ एक पत्थर
होगा। जब तुम
ध्यान करते हो,
तुम अनुभव
करोगे अशांति,
बेचैनी। जब
तुम
प्रार्थना
करना चाहोगे,
तब तुम न कर
पाओगे
प्रार्थना।
तुम आराम करना
चाहोगे।
ऊर्जा का
निम्न-तल होगा
वहां। और किसी
ऊर्जा के न
रहते कैसे तुम
आगे जा सकते हो?
कैसे तुम
परमात्मा तक
पहुंच सकते हो?
और पतंजलि
के लिए
परमात्मा
दूरतम तत्व है।
ज्यादा ऊर्जा
की आवश्यकता
होती है।
स्वस्थ शरीर,
स्वस्थ मन,
स्वस्थ
स्व-सत्ता की
आवश्यकता
होती है। रोग 'डिसीज' है
डिस-ईज-देह-ऊर्जा
में असहजता।
ओम् मदद देगा
और दूसरी
चीजें भी। हम
उनकी चर्चा करेंगे।
लेकिन यहां
पतंजलि बात कर
रहे है इस
विषय में कि
ओम् की ध्वनि
किस प्रकार
भीतर तुम्हें
मदद देती है
संपूर्ण हो
जाने में।
पतंजलि
के लिए और
बहुतों के लिए
जिन्होंने गहरे
रूप से
मानव-ऊर्जा
में खोज की है, एक
तथ्य तो बहुत
सुनिश्रित हो
चुका है, और
तुम्हें इसके
बारे में जान
लेना चाहिए-वह
यह कि, जितने
ज्यादा तुम
बीमार होते हो,
उतने
ज्यादा तुम
विषयासक्त
होते हो। जब
तुम पूर्णतया
स्वस्थ होते
हो तो तुम
विषयासक्त
नहीं होते।
साधारणतया हम
एकदम विपरीत
सोचते है-कि
एक स्वस्थ
व्यक्ति को
विषयासक्त, कामुक और
बहुत कुछ होना
होता है। उसे
संसार और शरीर
में रस लेना
होता है। ऐसी
नहीं है
अवस्था। जब
तुम बीमार
होते हो, तब
ज्यादा
विषयासक्ति, ज्यादा
कामवासना
तुम्हें जकड़
लेती है। जब
तुम पूर्णतया
स्वस्थ होते
हो, तो
कामवासना और
विषयासक्ति
तिरोहित हो
जाती है।
क्यों
घटता है ऐसा? क्योंकि
जब तुम
संपूर्णतया
स्वस्थ होते
हो तुम स्वयं
के साथ ही
इतने प्रसन्न
होते हो कि
तुम्हें
दूसरे की
आवश्यकता
नहीं होती। जब
तुम बीमार
होते हो, तब
तुम इतने
अप्रसन्न
होते हो
तुम्हारे साथ
कि तुम्हें
दूसरा चाहिए
होता है। और
यही है
विरोधाभास; जब तुम
बीमार होते हो,
तुम्हें दूसरे
की आवश्यकता
होती है, और
दूसरे को भी
तुम्हारी
आवश्यकता
होती है जब वह
बीमार होता है
या वह बीमार
होती है। और
दो बीमार
व्यक्तियों
के मिलने पर
बीमारी दुगुनी
ही नहीं होती,
वह कई गुना
बढ़ जाती है।
ऐसा
ही विवाह में
घटता है-दो
बीमार
व्यक्तियों
का मिलन
बीमारी को कई
गुना बढ़ा देता
है और फिर
सारी बात ही
कुरूप हो जाती
है। और एक नरक
बन जाता है।
बीमार
व्यक्तियों
को दूसरों की
जरूरत होती है।
और वे ठीक वही
व्यक्ति हैं
जो मुसीबत खड़ी
कर देंगे जब
वे संबंधित हो
जायें तो। एक
स्वस्थ
व्यक्ति को
आवश्यकता नहीं
है। यदि
स्वस्थ व्यक्ति
प्रेम करता है, तो
यह कोई
आवश्यकता
नहीं होती है,
यह तो हुआ, परस्पर
बांटना। सारी
घटना बदल जाती
है। उसे किसी
की जरूरत नहीं
रहती। उसके
पास इतना
ज्यादा है कि
वह बांट सकता
एक
बीमार
व्यक्ति को
जरूरत होती है
कामवासना की, स्वस्थ
व्यक्ति तो
प्रेम करता है।
और प्रेम
समग्र रूपेण
अलग बात है।
और जब दो
स्वस्थ
व्यक्ति
मिलते हैं, तो स्वस्थता
कई गुना बढ़
जाती है। तब
वह परम सत्य
को पाने में
एक-दूसरे के
सहायक बन जाते
हैं। वह परम
सत्य के लिए
एक साथ मिलकर
कार्य कर सकते
हैं, परस्पर
सहायता करते
हुए। लेकिन
मांग समाप्त
हो जाती है, यह अब कोई
निर्भरता न
रही।
जब
कभी तुम्हें
कोई अशुविधाजनक
अनुभूति हो
स्वयं के साथ, तो
इसे कामवासना
में और
विषयासक्ति
में डुबोने की
कोशिश मत करना।
बल्कि और
ज्यादा
स्वस्थ होने
की कोशिश करना।
योगासन मदद
करेंगे। हम
बाद में उनकी
चर्चा करेंगे
जब पतंजलि
उनकी बात कहें।
अभी तो वे
कहते हैं, यदि
तुम ओम् का
जाप .और उसी का
ध्यान करो, तो रोग
तिरोहित हो
जायेगा। और वे
सही हैं। न ही
केवल रोग जो
कि वहां था
वही तिरोहित
हो जायेगा, बल्कि वह
रोग भी जो
भविष्य में
आने को था, वह
भी तिरोहित हो
जायेगा।
यदि
आदमी एक
संपूर्ण जाप
बन सकता है
जिससे कि जाप
करने वाला
पूर्णतया खो
जाये, यदि वह
केवल एक शुद्ध
चेतना बन सकता
है-प्रकाश की
एक अग्निशिखा-और
चारों ओर होता
है जाप ही जाप,
तो ऊर्जा एक
वर्तुल में
उतर रही होती
है। तो वह एक
वर्तुल ही बन
जाती है। और
तब तुम्हारे
पास होता है
जीवन का सबसे
अधिक सुखात्मक
क्षणों में से
एक क्षण। जब
ऊर्जा एक
वर्तुल में
उतर रही होती
है और एक आंतरिक
समस्वरता बन
जाती है तो
कोई विसंगति
नहीं रहती, कोई संघर्ष
नहीं होता।
तुम एक हो गये
होते हो।
लेकिन
साधारणतया भी,
रोग एक बाधा
बनेगा। यदि
तुम बीमार हो,
तो तुम्हें
इलाज की
आवश्यकता
होती है।
पतंजलि
की
योग-प्रणाली
और
चिकित्सा-शाख
की हिन्दू-प्रणाली, आयुर्वेद,
साथ-साथ
इकट्ठी
विकसित हुईं।
आयुर्वेद
समग्रतया
विभिन्न है
एलौपैथी से।
एलोपैथी रोग
के प्रति
दमनाअत्मक
होती है।
एलोपैथी
ईसाइयत के साथ
ही साथ विकसित
हुई; यह एक
उप-उअत्ति है।
और क्योंकि
ईसाइयत
दमनात्मक है,
यदि तुम
बीमार हो तो
एलोपैथी
तुरंत बीमारी
का दमन करती
है। तब बीमारी
कोई और कमजोर
स्थल आजमाती
है जहां से
उभर सके। फिर
किसी दूसरी
जगह से यह फूट
पड़ती है। तब
तुम इसे वहां
दबाते हो, तो
फिर यह किसी
और जगह से फूट
पड़ती है।
एलोपैथी के
साथ, तुम
एक बीमारी से
दूसरी बीमारी
तक पहुंचते
जाते हो, दूसरी
से तीसरी तक, और एक कभी न
खअ होने वाली
प्रक्रिया
होती है।
आयुर्वेद
की अवधारणा
पूर्णत: अलग
ही होती है।
अस्वस्थता को
दबाना नहीं
चाहिए, यह
मुक्त की जानी
चाहिए। रेचन
की जरूरत होती
है। बीमार
आदमी को आयुवेदिक
दवा दी जाती
है इसलिए कि
बीमारी बाहर आ
जाये और फेंकी
जाये। यह एक
रेचन होता है।
इसलिए हो सकता
है कि
प्रारंभिक
आयुर्वेद की खुराक
की मात्रा
तुम्हें और
ज्यादा बीमार
कर दे, और
इसमें बहुत
लंबा समय लग
जाता है
क्योंकि यह
कोई दमन नहीं
है। यह बिलकुल
अभी कार्य
नहीं कर सकती-यह
एक लंबी
प्रक्रिया
होती है।
बीमारी को
फेंक देना
होता है, और
तुम्हारी आंतरिक
ऊर्जा को एक
समस्वरता बन
जाना होता है
ताकि
स्वस्थता
भीतर से उमग
सके। दवाई
बीमारी को
बाहर फेंकेगी
और
स्वास्थदायिनी
शक्ति उसका
स्थान भरेगी
तुम्हारे
अपने अस्तित्व
से आयी
स्वस्थता
द्वारा।
आयुर्वेद
और योग एक साथ
विकसित हुए।
यदि तुम
योगासन करते
हो,
यदि तुम
पतंजलि का
अनुसरण करते
हो तो कभी मत जाना
एलोपैथिक
डॉक्टर के पास।
यदि तुम
पतंजलि का
अनुसरण नहीं
कर रहे, तब
कोई समस्या
नहीं है।
लेकिन यदि तुम
अनुसरण कर रहे
हो
योग-प्रणाली का
और तुम्हारी
देह-ऊर्जा की
बहुत सारी
चीजों पर
कार्य कर रहे
हो, तो कभी
मत जाना
एलोपैथी की ओर
क्योंकि
दोनों विपरीत
हैं। तब
ढूंढना किसी
आयुवेदिक
डॉक्टर को या
होम्योपैथी
या प्राकृतिक
चिकित्सा को
खोज लेना-कोई
ऐसी चीज जो
विरेचन में मदद
करे।
लेकिन
यदि बीमारी है
तो पहले उससे
जूझ लेना।
बीमारी के साथ
रहना मत। मेरी
विधियों के
साथ यह बहुत
सरल होता है
बीमारी से
छुटकारा पा
लेना। पतंजलि
की ओम् की
विधि, जाप
करने की और
ध्यान करने की,
वह बहुत
मृदु है, सौम्य
है। लेकिन उन
दिनों वह
पर्याप्त
सशक्त थी
क्योंकि लोग
सीधे-सच्चे थे।
वे प्रकृति के
साथ जीते।
अस्वस्थता
असामान्य बात
थी, स्वास्थ्य
सामान्य बात
थी। अब बिलकुल
विपरीत है
अवस्था-स्वस्थता
है असामान्य
और अस्वस्थता
है सामान्य।
और लोग हैं
बहुत जटिल, वे प्रकृति
के करीब नहीं
रहते।
लंदन
में एक सर्वेक्षण
हुआ। एक लाख
लड़के-लड़कियों
ने गाय नहीं
देखी थी।
उन्होंने
केवल
तस्वीरें ही
देखी हुई थीं
गाय की। धीरे-
धीरे, हम
मनुष्य
निर्मित
संसार के
चौखटे में बंध
जाते
हैं-कंकरीट की
इमारतें, तारकोल
की सड़के, टेक्यालॉजी,
बड़ी मशीनें,
कारें, सब
मनुष्य
निर्मित
चीजें हैं।
प्रकृति कहीं
अंधकार में
फेंक दी गयी
है। और प्रकृति
है एक
उपचार-शक्ति।
तो आदमी
अधिकाधिक
जटिल होता
जाता है। वह
अपने स्वभाव
की नहीं सुनता
है। वह सुनता
है सभ्यता की
मांगों की, समाज के
दावों की। वह
सर्वथा
संपर्करहित
हो जाता है
अपने स्वयं के
आंतरिक
अस्तित्व के
साथ।
तो
पतंजलि की
मृदुल
विधियां कुछ
ज्यादा मदद न देंगी; इसीलिए
हैं मेरी
सक्रिय, अराजक
विधियां।
क्योंकि तुम
तो लगभग पागल
हो, तुम्हें
चाहिए तीव्र
पागल विधियां
जो उस सबको
बाहर ला सकें
और बाहर फेंक
सकें जो कि
तुम्हारे
भीतर दबा हुआ
है। लेकिन
स्वास्थ्य एक
जरूरी बात है।
वह जो चल पड़ता
है लंबी
यात्रा पर उसे
देख लेना
चाहिए कि वह
स्वस्थ हो।
बीमार के लिए,
शय्यापस्त
के लिए आगे
बढ़ना कठिन
होता है।
दूसरी
बाधा है
निर्जीवता।
निर्जीवता
संकेत करती है
उस आदमी की ओर
जिसका कि बहुत
निम्न ऊर्जा
तल होता है।
वह ढूंढना और
खोजना चाहता
है लेकिन उसकी
बहुत निम्न
ऊर्जा
है-शिथिल। वह
विलीन हो जाना
चाहता है, लेकिन
यह बात संभव
नहीं होती।
ऐसा व्यक्ति
सदा बात करता
है ईश्वर की, मोक्ष की, योग की, इसकी
और उसकी, लेकिन
वह केवल बातें
ही करता है।
निम्न ऊर्जा
तल द्वारा तो
तुम केवल
बातें कर सकते
हो; उतना
भर ही तुम कर
सकते हो। यदि
तुम कुछ करना
चाहते हो, तो
तुम्हें
चाहिए होती है
इसके लिए अपार
ऊर्जा।
ऐसा
एक बार हुआ कि
मुल्ला
नसरुद्दीन
गया किसी शहर
में अपने घोड़े
और बग्घी को
साथ लेकर। वह
एक
ग्रीष्म-दिवस
था और मुल्ला
पसीने से तर था।
अकस्मात सड़क
पर घोड़ा रुक
गया,
पीछे
मुल्ला को
देखा और बोला,
'अरे
राम-राम, बहुत
गर्मी है।’ मुल्ला इस
पर विश्वास
नहीं कर सका।
उसने सोचा कि
वह पागल हो
गया है इस
गर्मी के कारण,
क्योंकि
घोड़ा कैसे कुछ
कह सकता है? घोडा कैसे
बोल सकता है?
उसने
चारों ओर देखा
यह जानने को
कि किसी और ने सुना
था क्या? लेकिन
कोई न था वहां
सिवाय उसके
कुत्ते के जो बग्घी
में बैठा हुआ
था। किसी को न
पाकर, बस
सिर्फ इस बात
से छुटकारा
पाने को, वह
कुत्ते से बोला,
'क्या तुमने
सुना जो वह
बोला?' कुत्ता
कहने लगा, ' ओह,
वह तो आम
आदमी की भांति
ही है-हमेशा
बातें करते
रहता है मौसम
की और करता
कुछ नहीं।’
यह
है निर्जीव
व्यक्ति-बात
कर रहा है
हमेशा ईश्वर
की और कर कुछ
नहीं रहा। वह
सदा बात करता
है महान
विषयों की। और
यह बातचीत
होती है जख्म
को छुपाने भर
के लिए ही। वह
बात करता है
जिससे कि वह
भूल सके यह
बात कि इस
बारे में वह
कुछ नहीं कर
रहा है। बातों
की धुंध में
से वह पलायन
कर जाता है।
फिर-फिर उसके
बारे में बात
करते हुए, वह
सोचता है कि
वह कुछ कर रहा
है। लेकिन
बातचीत कोई
कार्य नहीं है।
तुम किये चले
जा सकते हो
मौसम की बातें।
तुम ईश्वर के
बारे में
बातें किये जा
सकते हो।
लेकिन यदि तुम
कुछ करते नहीं,
तो तुम
मात्र अपनी
ऊर्जा व्यर्थ
गंवा रहे हो।
इस
प्रकार का
व्यक्ति
धर्मगुरु बन
सकता है, पादरी-पुरोहित,
पंडित बन
सकता है। वे
मंद ऊर्जा के
व्यक्ति हैं।
और वे बहुत
निपुण बन सकते
हैं बातों
में-इतने निपुण
कि वे धोखा दे
सकते हैं, क्योंकि
वे हमेशा
सुंदर और महान
चीजों के विषय
में बोलते हैं।
दूसरे उन्हें
सुनते हैं और
धोखे में आते
हैं। उदाहरण
के लिए
दार्शनिक
है-ये तमाम
लोग हैं निर्जीव,
शिथिल।
पतंजलि कोई
दार्शनिक
नहीं हैं। वे
स्वयं एक विज्ञानिक
हैं, और वे
चाहते हैं
दूसरे भी
वैज्ञानिक हो
जायें।
ज्यादा
प्रयास की
आवश्यकता है।
ओम्
के जप द्वारा
और उस पर
ध्यान करने
द्वारा, तुम्हारा
निम्न ऊर्जा
तल उच्च हो
जायेगा। कैसे
घटता है ऐसा? क्यों तुम
सदा मंद
ऊर्जा-तल पर
होते हो, हमेशा
निढाल अनुभव
करते हो, थके
हुए होते हो? सुबह को भी
जब तुम उठते
हो, तुम
थके होते हो।
क्या हो रहा
होता है
तुम्हें? कहीं
शरीर में
सुराख बना है;
तुम ऊर्जा
टपकाते रहते
हो। तुम्हें
होश नहीं, पर
तुम हो
सुराखोंवाली
बाल्टी की
भांति।
रोज-रोज तुम
बाल्टी भरते,
तो भी वह
खाली ही रहती,
खाली ही
होती जाती है।
यह टपकाव, यह
रिसाव बंद
करना ही पड़ता
है।
ऊर्जा
शरीर से कैसे
बाहर रिसती है, ये
गहरी
समस्याएं हैं
जीव-ऊर्जा
शास्त्रियों
के लिए। ऊर्जा
हमेशा रिसती
है हाथों की
उंगलियों से और
पैरों से, और
आंखों से।
ऊर्जा सिर से
बाहर नहीं
निकल सकती है।
यह तो
वर्तुलाकार
होता है। कोई
चीज जो
गोलाकार, वर्तुलाकार
है, शरीर
की ऊर्जा को
सुरक्षित
रखने में मदद
देती है।
इसीलिए योग की
ये मुद्राएं
तथा आसन, सिद्धासन,
पद्यासन-ये
सब शरीर को एक
वर्तुल बना
देते हैं।
वह
व्यक्ति जो
सिद्धासन में
बैठा होता है, अपने
दोनों हाथ
इकट्ठे जोड़ कर
रखता है
क्योंकि
देह-ऊर्जा
उंगलियों से
बाहर निकलती
है। यदि दोनों
हाथ एक-दूसरे
के ऊपर
साथ-साथ रखे
जायें, तो
ऊर्जा एक हाथ
से दूसरे हाथ
तक घूमती है।
यह एक वर्तुल
बन जाती है।
पैर की टांगें
भी एक-दूसरे
पर रखी जाती
हैं जिससे कि
ऊर्जा
तुम्हारे
अपने शरीर में
बहती रहती है
और रिसती नहीं
है।
आंखें
बंद रहती हैं
क्योंकि आंखें
बाहर छोड़ती
हैं तुम्हारी
प्राण-ऊर्जा
के लगभग अस्सी
प्रतिशत को।
इसीलिए यदि तुम
लगातार
यात्रा कर रहे
होते हो और
तुम कार या
रेलगाडी से
बाहर देखते
रहते हो, तो
तुम बहुत थका
हुआ अनुभव
करोगे। यदि
तुम आंखें बंद
रख यात्रा
करते हो, तो
तुम ज्यादा
थकान अनुभव
नहीं करोगे।
और तुम
अनावश्यक
चीजों की ओर
देखते जाते हो,
दीवारों के
विज्ञापनों
तक को पढ़ते हो!
तुम अपनी आंखें
बहुत ज्यादा
इस्तेमाल
करते हो, और
जब आंखें थकान
से भरी होती
हैं तो सारा
शरीर शका हुआ
होता है। आंखें
यह संकेत दे
देती हैं कि
अब यह बहुत
हुआ।
जितना
ज्यादा से
ज्यादा संभव
हो,
योगी आंखें
बंद किये रखने
की कोशिश करता
है। साथ ही
हाथों और टांगो
को परस्पर
मिलाये रहता
है, ताकि
इन हिस्सों से
ऊर्जा इकट्ठी
पहुंचे। वह
रीढ़ की हड्डी
सीधे किये
बैठा रहता है।
यदि रीढ़ सीधी
होती है और
तुम बैठे हुए
हो, तो तुम
ज्यादा ऊर्जा
बनाये रखोगे
किसी अन्य तरीके
की अपेक्षा।
क्योंकि जब
रीढ़ सीधी बनी
रहती है, तो
पृथ्वी का
गुरुत्वाकर्षण
तुममें से
बहुत ऊर्जा
नहीं ले सकता।
गुरुत्वाकर्षण
रीढ़ के आधार
पर केवल एक
स्थल का
स्पर्श करता
है। जब तुम
झुकी हुई
मुद्रा में
बैठे हुए होते
हो, अधलेटे
झुके हुए, तो
तुम सोचते हो,
तुम आराम कर
रहे हो। लेकिन
पतंजलि कहते
हैं, तुम
ऊर्जा बाहर
निकाल रहे हो,
क्योंकि
तुम्हारे
शरीर का
ज्यादा भाग तो
गुरुत्वाकर्षण
के प्रभाव में
होता है।
यह
बात मदद नहीं
देगी। सीधी
रीढु सहित, साथ
जुड़े हाथों और
टांगों सहित,
आंखें बंद
रखे हुए तुम
एक वर्तुल बन
चुके होते हो।
वह वर्तुल, वह चक्र
निरूपित होता
है शिवलिंग
द्वारा। तुमने
देखा है न
शिवलिंग-लिंग-प्रतीक,
जिस रूप का
वह पश्चिम में
जाना जाता है।
वस्तुत: वह है आंतरिक
प्राण-ऊर्जा
का घेरा, बिलकुल
अंडे के आकार
का।
जब
तुम्हारी
देह-ऊर्जा ठीक
प्रकार से
प्रवाहमान
होती है, तो यह
अंडाकार हो
जाती है। अंडे
की भांति ही
आकार होता है,
ठीक एकदम
अंडे की भांति।
वही प्रतीक के
रूप में उतरता
है शिवलिंग
में। तुम हो
जाते हो शिव।
जब ऊर्जा
बार-बार
तुममें
प्रवाहित
होती है, बाहर
नहीं जा रही
होती तब
निर्जीवता
तिरोहित हो
जाती है। यह
बातें करने से
नहीं होगी
तिरोहित, यह
शाख पढ़ने
द्वारा
तिरोहित नहीं
होगी, यह चिंतन-मनन
करने से
तिरोहित नहीं
होगी। यह केवल
तभी तिरोहित
होगी जब
तुम्हारी
ऊर्जा बाहर न
जा रही हो।
इसे
सुरक्षित
रखने की, संजोए
रखने की कोशिश
करना। जितना
ज्यादा तुम
इसे बनाये
रहते हो, उतना
ही अच्छा होता
है। लेकिन
पश्चिम में
बिलकुल
विपरीत बात ही
सिखायी जा रही
है-कि
कामवासना
द्वारा ऊर्जा
को निष्कासित
कर देना अच्छा
होता है। किसी
न किसी बात
द्वारा ऊर्जा
मुक्त कर देना।
ऐसा अच्छा
होता है यदि
तुम इसका किसी
दूसरे तरीके
से प्रयोग
नहीं कर रहे
होते; अन्यथा
तो तुम पागल
हो जाओगे। और
जब कभी बहुत
ज्यादा हो
जाती है ऊर्जा
तो उसे
कामवासना
द्वारा
निष्कासित कर
देना बेहतर ही
है। कामवासना
सरलतम विधि है
इसे मुक्त
करने की।
लेकिन
इसका उपयोग हो
सकता है। इसे
सृजनात्मक
बनाया जा सकता
है। यह
तुम्हें
पुनर्जन्म दे
सकती है, पुनर्जीवन
दे सकती है।
इसके द्वारा
तुम लाखों
सुखद
अवस्थाओं को
जान सकते हो; इसके द्वारा
तुम ज्यादा और
ज्यादा ऊंचे
उठ सकते हो।
यह सीढ़ी है
परमात्मा तक
पहुंचने की।
यदि तुम इसे
हर रोज
निष्कासित
किये जाते हो,
तो तुम कभी
परमात्मा की
ओर पहला कदम
बढाने के लिए
भी पर्याप्त
ऊर्जा का
निर्माण नहीं
कर पाओगे। इसे
संचित करो।
पतंजलि
कामवासना के
विपरीत है। और
यही भेद है
पतंजलि और
तंत्र में।
तंत्र
कामवासना का
प्रयोग एक
विधि की भांति
करता है; पतंजलि
चाहते हैं तुम
इससे कतरा कर
इसके बाजू से
आगे निकल आओ।
और ऐसे लोग
हैं, लगभग
पचास प्रतिशत
जिन्हें
तंत्र अनुकूल
पड़ेगा। और लोग
हैं वे भी
पचास प्रतिशत
हैं, जिनके
अनुकूल होगा
योग। व्यक्ति
को खोजना पड़ता
है कि उसके
क्या अनुकूल
पड़ेगा। दोनों
का ही प्रयोग
किया जा सकता
है और दोनों के
द्वारा लोग
पहुंचते हैं।
और न तो कोई
गलत है और न ही
कोई सही है।
यह तुम पर
निर्भर करता
है। एक
तुम्हारे लिए
ठीक होगा, और
कोई एक गलत
होगा
तुम्हारे
लिए—पर खयाल
रहे, तुम्हारे
लिए ही। यह
परम निरपेक्ष
कथन नहीं होता
है।
कोई
बात तुम्हारे
लिए सही हो
सकती है और
किसी के लिए
गलत। और दोनों
प्रणालियां—तंत्र
और योग, दोनों
एक साथ जन्मी
थीं। ठीक एक
समय पर ही। वे जुड़वां
प्रणालियां
हैं। यही है
समकालिकता। जैसे
खी और पुरुष
को एक—दूसरे
की आवश्यकता
होती है, तंत्र
और योग को
एक—दूसरे की
आवश्यकता है।
वे एक संपूर्ण
चीज बनते हैं।
यदि केवल योग
ही अस्तित्व
में आया होता,
तो केवल
पचास प्रतिशत
ही पहुंच सकते
थे। दूसरे
पचास प्रतिशत
तो तकलीफ में
पड़ जाते। यदि
केवल तंत्र ही
होता तो भी
केवल पचास
प्रतिशत
पहुंच सकते
थे। बाकी
दूसरे पचास
प्रतिशत
तकलीफ में पड़
गये होते। और
ऐसा घट चुका
है।
कभी
यदि तुम गुरु
के बिना चलते
हो न जानते
हुए कि तुम
कहां बढ़ रहे
हो,
तुम क्या कर
रहे हो, कौन
हो तुम और
क्या अनुकूल
होगा
तुम्हारे, तो
तुम मुश्किल
में पड़ जाओगे।
हो सकता है
तुम एक खी हो
पुरुष के रूप
में सजे हुए, और तुम
स्वयं को
सोचते हो एक
पुरुष; तब
तो मुश्किल
में पड़ोगे। हो
सकता है कि
तुम पुरुष हो
सी के वेश में
सजे हुए, और
तुम सोचते हो
स्वयं को सी; तुम मुश्किल
में पड़ोगे।
मुश्किल
खड़ी होता है
तब जब तुम
नहीं समझते कि
तुम हो कौन।
गुरु की जरूरत
होती है तुम्हें
एक सुस्पष्ट
दिशा देने को
ही कि क्या—क्या
है तुम्हारे
अनुरूप। तो
खयाल रहे, जब
कभी मैं कहता
हूं कि यह या
वह तुम्हारे
लिए है, तो
उसे दूसरे तक
मत फैलाना।
क्योंकि इसे
विशेष रूप से
कहा गया है
तुम्हें ही।
लोग तो
कुतूहलभरे
है। यदि तुम
उन्हें यह कह
देते हो, तो
वे इसे
आजमायेंगे।
हो सकता है यह
उनके लिए न
हो। यह
हानिकारक भी
हो सकता है।
और ध्यान रखना,
यदि यह
लाभकर नहीं तो
यह हानिकर ही
होनेवाला है।
दोनों के बीच
की कोई बात
नहीं होती है।
कोई चीज या तो
सहायक होती है
या गैर सहायक।
शिथिल
निर्जीवता
सबसे बड़ी
बाधाओं में से
एक है, लेकिन
यह तिरोहित हो
जाती है ओम्
के जप द्वारा।
ओम् तुम्हारे
भीतर निर्मित
करता है
शिवलिंग को, अंडाकार
ऊर्जा—वृत्त
को। अब
तुम्हारा बोध
सूक्ष्म हो
जाता है। तुम
इसे देख भी
सकते हो। यदि
कुछ मास तक
आंखें बंद करके
ओम् का जप
करते हो, ध्यान
करते हो, तो
तुम इसे
तुम्हारे
भीतर देख
पाओगे।
तुम्हारी देह
तिरोहित हो
चुकी होगी।
वहां होगी
मात्र
प्राण—ऊर्जा
ही, वह
विद्युत—घटना
ही। और वह
आकार होगा
शिवलिंग का
आकार।
जिस
घड़ी ऐसा
तुम्हें घटता
है,
तो शिथिल
निष्क्रियता
तिरोहित हो चुकी
होती है। अब
तुम एक उतुंग
ऊर्जा होते
हो। अब तुम
पर्वत—शिखरों
की ओर बढ़ सकते
हो। अब तुम अनुभव
करोगे कि
बातचीत काफी
नहीं है, कुछ
करना ही है।
और ऊर्जा का
स्तर इतना
ऊंचा है कि अब
कुछ किया जा
सकता है। लोग
मेरे पास आते हैं
और वे पूछते
है, क्या
करना होगा? मैं तो
सिर्फ उनकी ओर
देखता हूं और
मै देखता हूं :
वे ऊर्जा बहा
रहे हैं; वे
कुछ नहीं कर
सकते। पहली
बात है इस
बहाव को, रिसाव
को गिरा देना।
केवल तभी पूछो
कि क्या किया
जा सकता है, जब तुम्हारे
पास ऊर्जा हो।
'संशय' —संस्कृत
में बहुत सारे
शब्द हैं संशय
के लिए अंग्रेजी
में मात्र एक
शब्द है डाउट।
तो समझने की
कोशिश करना।
मैं इसकी
व्याख्या
करूंगा। एक
संदेह है जो
उठता है आस्था
के विरुद्ध।
संस्कृत में इसे
कहा जाता है 'शंका'।
यह एक युग्म
है—आस्था के
विरुद्ध
शंका। फिर एक
संदेह है जो
कहलाता है
संशय। अभी पतंजलि
संशय के विषय
में कह रहे
हैं-निश्चितता
के, दृढ़ता
के विरुद्ध है
संशय।
अनिश्चितता
से भरा
व्यक्ति, वह
व्यक्ति जो
दृढ़ नहीं होता,
संशय में
होता है। यह
आस्था के
विरुद्ध नहीं
क्योंकि
आस्था है किसी
में आस्था
रखना। यह एक
अलग ही बात है।
तो
जो कुछ भी तुम
करते हो, तुम
निश्चित नहीं
होते कि तुम
इसे करना
चाहते भी हो
या नहीं।
अनिश्चितता
होती है।
अनिश्चित मन
के साथ तुम
मार्ग पर
प्रवेश नहीं
कर सकते, पतंजलि
के मार्ग पर
तो बिलकुल ही
नहीं।
तुम्हें
निश्चित होना
होता है, निर्णायक
होना होता है।
तुम्हें
निर्णय लेना
ही पड़ता है।
यह कठिन होता
है क्योंकि
तुम्हारा एक
हिस्सा सदा
नहीं कहे चला
जाता है। तो
कैसे लोगे
निर्णय? इसके
बारे में
जितना सोच
सकते हो सोच
लेना; इसे
तुम जितना समय
दे सकते हो
देना। सारी
संभावनाओं पर
विचार कर लेना,
सारे
विकल्पों पर,
और फिर
निर्णय कर
लेना। और तब, एक बार जब
तुम निर्णय कर
लेते हो समस्त
संशय को गिरा
देना।
इससे
पहले इसका
प्रयोग कर
लो-संशय को
लेकर तुम जो
कुछ भी कर
सकते हो कर
लेना। सारी
संभावनाओं पर
विचार करना और
फिर चुन लेना।
निस्संदेह, यह
बात कोई समग्र
निर्णय नहीं
बनने वाली है,
आरंभ में
ऐसा संभव नहीं
होता। यह एक
बहुमत का
निर्णय होगा।
तुम्हारे मन
का बहुमत, अधिकांश
कहेगा हां, एक बार तुम
निर्णय ले लो,
तो कभी संशय
नहीं करना।
संशय उठायेगा
अपना सिर। तो
तुम कह भर
देना, 'मैने
निर्णय कर
लिया है।’ बात
खत्म हो गयी।
यह समग्र
निर्णय नहीं
होता; सारे
संशय फेंके
नहीं गये।
लेकिन जो कुछ
भी किया जा सकता
था, तुमने
कर लिया।
जितना संभव हो
सकता था तुमने
इसके बारे में
उतनी
संपूर्णता से
सोच लिया है
और तुमने
चुनाव कर लिया
है।
एक
बार चुन लेते
हो तुम तो फिर
संशय को कोई
सहयोग मत देना, क्योंकि
तुम्हारे
सहयोग द्वारा
संशय बना रहता
है तुममें।
तुम उसे ऊर्जा
दिये चले जाते
हो, और
फिर-फिर तुम
इसके बारे में
सोचने लगते हो।
तब एक
अनिश्चितता
निर्मित हो
जाती है।
अनिश्चितता
एक बहुत बिगडी
हुई अवस्था
होती है। तब
तुम बहुत
बिगड़े हुए
आकार में होते
हो। यदि तुम
किसी बात का
निर्णय नहीं
ले सकते, तो
कैसे तुम कुछ
कर सकते हो? किस प्रकार
तुम कार्य कर
सकते हो?
'
ओम्' -निनाद
और ध्यान-कैसे
देगा मदद 2: यह
देता है मदद, क्योंकि एक
बार तुम
निस्तरंग, मौन
हो जाते हो, तो निर्णय
लेना ज्यादा
आसान हो जाता
है। तब तुम एक
भीड़ न रहे, अब
कोई
अव्यवस्था न
रही। अब बिना
तुम्हारे
जाने कि
कौन-सी आवाज
तुम्हारी है,
बहुत सारी
आवाजें
इकट्ठी नहीं
बोलतीं। ओम्
सहित-उसका जप
करते हुए, उस
पर ध्यान करते
हुए-आवाजें
शांत, मौन
हो जाती हैं।
अब तुम समझ
सकते हो कि
सारी आवाजें
तुम्हारी नहीं
हैं।
तुम्हारी मां
बोल रही होती
है, तुम्हारे
पिता बोल रहे
होते हैं, तुम्हारे
भाई, तुम्हारे
शिक्षक बोल
रहे होते हैं।
आवाजें
तुम्हारी
नहीं हैं।
उन्हें तुम
आसानी से अलग
कर सकते हो
क्योंकि उन्हें
मनोयोग से
संभालने की
जरूरत नहीं
होती है।
जब
ओम् के जप तले
तुम शांत हो
जाते हो, तो
तुम आश्रय पा
जाते हो; शांत,
मौन, एकजुट
हो जाते हो।
उसी
स्वाभाविक
सुव्यवस्था में
तुम देख सकते
हो कि तुमसे आ
रही वह वास्तविक
आवाज कौन-सी
है, जो कि
प्रामाणिक है।
इसे ऐसा समझो
जैसे कि तुम
बाजार में खड़े
हुए हो, और
बहुत लोग
बातें कर रहे
हैं और बहुत
सारी चीजें चल
रही हैं वहां,
और तुम
निर्णय नहीं
ले सकते कि
क्या घट रहा
है। शेयर
मार्केट में
लोग चिल्लाते
रहते है।
उन्हें अपनी
भाषा का पता
रहता है, लेकिन
तुम नहीं समझ
सकते कि क्या
हो रहा है—कि वे
पागल हो गये
है या नहीं।
फिर
तुम जाते हो
हिमालय के
आश्रय की ओर।
तुम एक गुफा
में बैठ जाते
हो और बस जप
करते हो। तुम
मात्र शांत कर
लेते हो स्वयं
को और सारी
घबड़ाहट गायब
हो जाती है।
तुम एक हो
जाते हो। उस
क्षण में
निर्णय लेना
संभव होता है।
तब निर्णय
करना और फिर
वापस मुड़कर
नहीं देखना।
फिर भूल जाना।
निर्णय हो गया
है। अब वापस
लौटना नहीं
होगा। अब आगे
बढ़ जाना।
कई
बार संशय पीछे
आयेगा। यह एक
कुत्ते की
भांति ही भौं—
भौं करेगा तुम
पर। लेकिन यदि
तुम मत सुनो, यदि
तुम कोई ध्यान
न दो, तो
धीरे— धीरे यह
समाप्त हो
जाता है। इसे
मौका देना। जो
संभव है उन
तमाम
संभावनाओं पर
विचार कर लेना,
और एक बार
तुम निर्णय ले
लेते हो, तो
गिरा देना
संशय को। और
ओंकार, ओम्
का ध्यान
तुम्हारी मदद
करेगा
निश्चितता तक
आ पहुंचने
में। यहां
संशय का अर्थ
है
अनिश्चितता।
तीसरी
बाधा है
असावधानी।
संस्कृत शब्द
है प्रमाद।
प्रमाद का
अर्थ होता है, वह
अवस्था जो कि
ऐसी होती जैसे
कोई नींद में
चल रहा है।
असावधानी इसी
का हिस्सा है।
ठीक—ठीक बात
का ऐसा अर्थ
होगा, 'जीवित
शव मत बनो।
सम्मोहनावस्था
के अंतर्गत मत
चलो। '
लेकिन
तुम हिप्नासिस
में,
सम्मोहनावस्था
में जीते हो, इसे बिलकुल
न जानते हुए।
सारा समाज
तुम्हें सम्मोहित
करने का
प्रयत्न कर
रहा है कुछ
निश्चित
बातों के लिए,
और यह बात
प्रमाद
निर्मित करती
है। यह तुममें
एक
निद्रावस्था
निर्मित कर
देती है। क्या
होता होगा? तुम्हें होश
नहीं। अन्यथा
तुम एकदम चकित
हो जाओगे उस
पर जो कि घट
रहा है। यह
इतना
जाना—पहचाना
है। इसीलिए
तुम जाग्रत
नहीं होते।
तुम बहुत सारे
होशियारों
द्वारा चलाये
जा रहे होते हो।
और उनकी विधि
तुम्हें
चालाकी से
प्रभावित करने
की यह होती है
कि तुममें हिप्नासिस
को, सम्मोहन
को निर्मित कर
देते हैं।
उदाहरण
के लिए, हर
रेडियो पर, हर टीवी. पर, हर फिल्म
में, हर
अखबार और
पत्रिला में,
विज्ञापक
किसी निश्चित
चीज को
विज्ञापित किये
जाते
हैं—उदाहरण के
लिए 'लक्स
टॉयलेट
साबुन। तुम
सोचते हो तुम
प्रभावित
नहीं होते, लेकिन
प्रतिदिन तो
तुम सुनते हो,
'लक्स
टॉयलेट साबुन,
लक्स
टॉयलेट साबुन,
लक्स
टॉयलेट
साबुन। यही एक
निरंतर गान।
रात्रि में
सड्कों पर
नियॉन
बिजलियां
कहतीं— 'लक्स
टॉयलेट
साबुन। ' और
अब वे इस बात
का पता पा गये
है कि यदि तुम
बिजली को
झिलमिल करो तो
यह अधिक
प्रभावकारी
होती है। यदि
यह जलती—बुझती
रहती है, तो
यह और भी
प्रभावकारी
हो जाती है
क्योंकि तब
तुम्हें इसे
फिर पढ़ना होता
है— 'लक्स
टॉयलेट
साबुन। ' फिर
बिजली जाती और
फिर आ जाती, और तुम्हें
इसे फिर पढ़ना
पड़ता है— 'लक्स
टॉयलेट
साबुन।
तुम
जप करते हो
ओम् का। यह
तुम्हारे
उपचेतन में
ज्यादा गहरे उतर
रहा होता है।
तुम सोचते हो
तुम प्रभावित
नहीं हुए, तुम
सोचते हो तुम
इन लोगों
द्वारा
फुसलाये नहीं
गये—ये सब
सुंदर नग्र
स्रियां लक्स
टॉयलेट साबुन
के निकट खड़ी
हुई है और कह
रही है, 'मैं
सुंदर क्यों
हूं? मेरा
चेहरा इतना
सुंदर क्यों
है? लक्स
टॉयलेट साबुन
के कारण। तुम
सोचते हो कि तुम
सुंदर नहीं हो,
अत: तुम
प्रभावित हो
जाते हो।
अचानक, एक
दिन तुम बाजार
चले जाते हो, दुकान पर
जाते हो, और
तुम लक्स
टॉयलेट साबुन
के बाबत पूछते
हो। दुकानदार
पूछता है, 'कौन
सा साबुन?' तो
अकस्मात यह
बात बाहर फूट
पड़ती है, 'लक्स
टॉयलेट साबुन!
'
तुम
व्यापारियों, राजनेताओं,
शिक्षाविदों,
पंडित-पुरोहितों
द्वारा
सम्मोहित हो
रहे हो।
क्योंकि अगर
तुम सम्मोहित
हुए हो तो हर
किसी ने तुम
पर कोई घेरा
डाला है। तब
तुम इस्तेमाल
किये जा सकते
हो। राजनेता
कहे चले जाते हैं,
'यह
मातृभूमि है,
और अगर
मातृभूइम
कठिनाई में है
तो जाओ युद्ध
पर, बनो
शहीद।’
कैसी
नासमझी है!
सारी पृथ्वी
तुम्हारी
माता है। क्या
पृथ्वी भारत, पाकिस्तान,
जर्मनी, इंग्लैंड
में बंटी हुई
है, या यह
एक है? लेकिन
राजनेता
निरंतर
तुम्हारे मन
पर इसकी चोट
कर रहे हैं कि
पृथ्वी का
केवल यही
हिस्सा
तुम्हारी माता
है और तुम्हें
इसे बचाना ही
है। यदि
तुम्हारा
जीवन भी चला
जाये, तो
यह बहुत अच्छी
बात है। और वे
और-और कहते
जाते हैं- 'देश
की सेना, राष्ट्रीयवाद,
देशभक्ति'
-सारी
मूढ़ताभरी
परिभाषाएं।
लेकिन यदि वे
निरंतर
ठोक-पीट किये जाते
है, तो तुम
सम्मोहित हो
जाते हो। तब
तुम स्वयं का
बलिदान कर
सकते हो। तुम
सम्मोहनावस्था
में तुम्हारी
जिंदगी का बलिदान
कर रहे होते
हो नारों के
कारण ही। झंडा,
एक साधारण
टुकड़ा कपड़े का,
सम्मोहन
द्वारा इतना
ज्यादा
महत्वपूर्ण
हो जाता है।
यह हमारा
राष्ट्रीय
झंडा है, अत:
लाखों लोग मर
सकते है इसके
लिए। यदि
दूसरे ग्रहों
पर प्राणी है,
और यदि
उन्हें कभी
पृथ्वी पर
देखना होता हो,
तो वे सोचते
होंगे, 'ये
लोग तो एकदम
पागल हैं।’ कपड़े के
लिए-कपड़े के
एक टुक्के के
लिए-तुम मर सकते
हो क्योंकि
किसी ने हमारे
झंडे का अपमान
कर दिया है, और इसे
बरदाश्त नहीं
किया जा सकता।
फिर
धर्म तुम्हें
उपदेश दिये
चले जाते है
कि तुम ईसाई
हो,
हिंदू हो, कि मुसलमान
हो, कि यह
हो और वह हो।
वे तुम्हें
अनुभव करवा
देते कि तुम
ईसाई हो, और
फिर तुम
धर्मयुद्ध
में होते हो- 'उन दूसरे
लोगों को मार
दो जो ईसाई
नहीं है। यह
तुम्हारा
कर्तव्य है।’
वे तुम्हें
ऐसी बेतुकी
बातें सिखाते
है, लेकिन
तुम फिर भी
उनमें
विश्वास करते
हो क्योंकि वे
उन्हें कहे
जाते हैं।
एडॉल्फ हिटलर
ने कहा है
अपनी आत्मकथा
'मेन कैष्फ'
में, कि
यदि तुम
निरंतर किसी
झूठ को दोहराओ
तो वह सच बन
जाता है। और
वह जानता है।
कोई इस तरह
नहीं जानता
जिस तरह वह
जानता है क्योंकि
उसने स्वयं
दोहराया झूठ
को और एक
चमत्कृत करने
वाली घटना का
निर्माण कर
दिया।
प्रमाद
का अर्थ है
सम्मोहन की वह
अवस्था जिसमें
तुम चालाकी से
चलाये जाते हो, खोये
हुए जी रहे
होते हो। तब
असावधानी
आयेगी ही क्योंकि
तुम, तुम
नहीं होते। तब
तुम हर चीज
बिना किसी
सावधानी के
करते हो। तुम
जैसे ठोकर
खाते चलते हो।
चीजों के, व्यक्तियों
के संबंध में,
तुम निरंतर
ठोकर खा रहे
हो; तुम
कहीं नहीं
पहुंच रहे।
तुम तो बस
शराबी की
भांति हो।
लेकिन हर आदमी
तुम्हारी
भांति ही है, अत: तुम्हारे
पास अवसर नहीं
इसे अनुभव
करने का कि तुम
शराबी हो।
सचेत
रहना। ओम्
सचेत होने में
किस प्रकार
मदद करेगा
तुम्हारी? यह
तुम्हारा
सम्मोहन गिरा
देगा। वस्तुत:
यदि तुम मात्र
ओम् का जप
किये जाओ बिना
ध्यान किये, तो यह बात भी
एक सम्मोहन हो
जायेगी।
मंत्र का
साधारण जप
करने में और
पतंजलि के
मार्ग में
अंतर यही है।
इसका जप करो
और सचेत बने
रही।
यदि
तुम ओम् का जप
करते हो और
सचेत हुए रहते
हो,
तो यह ओम्
और इसका जप
सम्मोहन दूर
करने की शक्ति
बन जायेगा। यह
तोड़ देगा उन
तमाम
सम्मोहनावस्थाओं
को जो तुम्हारे
चोरों ओर बनी
रहती हैं; जो
तुममें
निर्मित होती
रही हैं समाज
द्वारा और
चालाकियों से
प्रभावित
करने वालों
द्वारा और
राजनेताओं
द्वारा। यह
होगा सम्मोहन
दूर करना।
एक
बार ऐसा पूछा
गया था अमरीका
में,
किसी ने
पूछा था
विवेकानंद से,
'साधारण
सम्मोहन और
तुम्हारे ओम्
के जप में क्या
अंतर है? ' वे बोले, ' ओम्
का जप सम्मोहन
को दूर करता
है। यह विपरीत
गियर में
सरकना है।’ प्रक्रिया
वैसी ही मालूम
पड़ती है, लेकिन
गियर विपरीत
होता है। और
कैसे यह उल्टा
हो जाता है? यदि तुम
ध्यान भी कर
रहे हो, तो
धीरे-धीरे तुम
इतने शांत हो
जाते हो और
इतने जाग्रत,
इतने सावधान
हो जाते हो, कि कोई
तुम्हें
सम्मोहित
नहीं कर सकता।
अब तुम इन
विषैले
पुरोहितों और
राजनेताओं की पहुंच
से परे होते
हो। अब पहली
बार तुम एक
व्यक्ति होते
हो, और तब
तुम सचेत, सावधान
हो जाते हो।
फिर तुम
सावधानी से
आगे बढ़ते हो; तुम हर कदम
सावधानी से
उठाते हो क्योंकि
तुम्हारे
चारों ओर
लाखों फंदे
होते हैं।
'आलस्य'।
बहुत आलस्य
तुममें
इकट्ठा हो
चुका है। यह
कुछ कारणवश
चला आता है।
क्योंकि तुम
कुछ करने की
कोई तुक नहीं
समझ पाते। और
यदि तुम कुछ
करते भी हो, तो कोई
प्राप्ति
नहीं होती।
यदि तुम नहीं
करते, तो
कुछ गंवाया
नहीं जाता। तब
आलस्य हृदय
में पैठ जाता
है। आलस्य का
मात्र इतना
अर्थ है कि
तुमने जीवन के
प्रति उत्साह
खो दिया है।
बच्चे
आलसी नहीं
होते हैं। वे
ऊर्जा से
लबालब भरे
होते है। सोने
के लिए
तुम्हें
उन्हें मजबूर
करना पड़ता है; तुम्हें
उन्हें मजबूर
करना पड़ता है
चुप रहने के लिए
तुम्हें
उन्हें विवश
करना पड़ता है
कि वे कुछ
मिनटों के लिए
शांत बैठ
जायें जिससे
कि वे आराम कर
लें; तुम्हें
लगता है कि वे
तनावपूर्ण
नहीं हैं। वे
ऊर्जा से भरे
हुए हैं। इतने
छोटे प्राणी
और इतनी
ज्यादा ऊर्जा!
कहां से आती
है यह ऊर्जा? वे अभी हताश
नहीं हैं। वे
नहीं जानते कि
इस जीवन में, चाहे जो भी
कर लो, तुम्हें
कुछ नहीं
प्राप्त होता
है। वे
अजाग्रत होते
हैं-आनंदपूर्ण
अजाग्रत इसीलिए
होती है इतनी
ज्यादा ऊर्जा।
और
तुम करते रहे
हो बहुत कुछ, और
कुछ भी
प्राप्त नहीं
हुआ है।
इसीलिए आलस्य
की परत जम
जाती है। मानो
तुममें धूल
इकट्ठी होती
है-तुम्हारी
सारी
असफलताओं और
हताशाओं की
धूल, हर उस
सपने की धूल
जो कीचड़ हो
गया। तो यह जम
जाता है। तब
तुम आलसी हो
जाते हो। सुबह
तुम सोचते हो,
'किसलिए उठे
फिर? आखिर
किसलिए?' कोई
उत्तर नहीं है।
तुम्हें उठना
होता है
क्योंकि किसी
भी तरह रोटी
तो पानी है और
फिर पली है, और बच्चे
हैं, और
तुम जाल की
पकड में आ गये
हो। किसी तरह
तुम आफिस की
ओर चलते हो, जैसे-तैसे
वापस लौटते हो।
कोई उत्साह
नहीं। तुम
धकेले जाते हो।
कोई बात करते
हुए तुम खुश
नहीं होते।
ओम्
का जप और उस पर
किया ध्यान
कैसे मदद
करेगा? यह
मदद देता है।
निश्रित ही यह
बात मदद करती
है क्योंकि जब
पहली बार तुम
ओम् का जप
करते और ध्यान
देते और ध्यान
करते, तुम्हारे
जीवन का यह
ऐसा प्रयास
होता है जो परिपूर्णता
लाता हुआ
मालूम पड़ता है।
इसका जप करते
हुए तुम इतनी
प्रसन्नता
अनुभव करते हो,
इसका जप
करते हुए तुम
इतना आनंदमय
अनुभव करते हो,
कि प्रथम
प्रयास सफल
हुआ है।
अब
नया उत्साह
उदित हुआ है।
धूल फेंक दी
गयी है। एक
नया साहस, एक
नया विश्वास
उपलब्ध हुआ है।
अब तुम सोचते
हो कि तुम भी
कुछ कर सकते
हो, तुम भी
कुछ उपलब्ध कर
सकते हो। हर
चीज असफलता ही
नहीं है। हो
सकता है बाहरी
यात्रा एक
असफलता हो, लेकिन भीतरी
यात्रा
असफलता नहीं
है। पहला चरण भी
बहुत सारे
फूलों को ले
आता है। अब
आशा उमग आती
है। भरोसा फिर
से आ बसता है।
तुम फिर से एक
बालक हो आंतरिक
संसार के। यह
एक नया जन्म
होता है। तुम
फिर से हंस
सकते हो, खेल
सकते हो। फिर
से हुआ है तुम्हारा
जन्म।
इसे
हिंदू कहते
हैं
द्विजन्मा-द्विज।
यह है अगला
जन्म, दूसरा
जन्म। एक
बाहरी संसार
में हुआ था, वह असफल
सिद्ध हुआ; इसीलिए तुम
इतना निर्जीव
अनुभव करते हो।
और जब तक कोई
चालीस की उम्र
तक पहुंचता है,
मृत्यु की
सोचने लगता
है-कैसे मरूं,
कैसे
समाप्त होऊं,
इसकी सोचने
लगता है।
यदि
लोग
आत्महत्या
नहीं करते, तो
ऐसा नहीं है
कि वे खुश हैं।
ऐसा मात्र
इसीलिए है कि
वे मृत्यु में
भी कोई आशा
नहीं देखते।
मृत्यु भी
आशारहित जान
पड़ती है। वे
आत्महत्या
नहीं कर रहे
तो इसलिए नहीं
कि वे बड़ा
प्रेम करते
हैं जीवन
से-नहीं। वे
इतने हताश है
कि वे जानते
है मृत्यु भी
कोई चीज देने
वाली नहीं। तो
क्यों
अनावश्यक तौर
से ही
आत्महत्या
करें? क्यों
मुसीबत
उठायें? तो
जैसा है, जो
है चलाते चलो।
'विषयासक्ति';
क्यों तुम
अनुभव करते हो
विषयासक्त, कामुक? तुम
कामयुक्त
अनुभव करते हो
क्योंकि तुम
संचित कर लेते
हो ऊर्जा, अप्रयुक्त
ऊर्जा; और
तुम जानते
नहीं कि क्या
करना है उसका।
अत: स्वभावतया
काम के पहले
केंद्र पर वह
इकट्ठी हो
जाती है। और
तुम्हें
किन्हीं
दूसरे
केंद्रों का
पता नहीं है।
और कैसे ऊर्जा
ऊपर की ओर
बहती है यह
तुम जानते नहीं।
यह
ऐसा है कि
जैसे तुम्हारे
पास हवाई जहाज
है,
लेकिन तुम
जानते नहीं कि
यह है क्या।
इसलिए तुम
उसकी जांच
करते हो। फिर
तुम सोचते हो,
'इसके पहिये
है, तो यह
किसी प्रकार
का वाहन ही
होगा।’ तब
तुम उसके साथ
घोड़े जोत देते
हो और उसका
प्रयोग करते
हो बैलगाड़ी की
भांति। इसका
प्रयोग हो
सकता है इस ढंग
से। फिर किसी
दिन
संयोगवशात, तुम खोज
लेते हो कि
बैलों की
जरूरत नहीं।
इसमें इसका एक
अपना इंजन है,
तो तुम इसका
प्रयोग कर
लेते हो
मोटरकार के
रूप में। फिर
तुम तुम्हारी
खोज में गहरे
और गहरे उतरते
जाते हो। फिर
तुम्हें
आश्रर्य होता
कि ये पंख हैं
क्यों? फिर
एक दिन तुम
इसका प्रयोग
वैसे ही करते
हो जैसे कि इसका
प्रयोग किया
जाना
चाहिए-हवाई
जहाज की भांति
ही।
जब
तुम भीतर
उतरते हो, तो
तुम बहुत
चीजें खोज
लेते हो।
लेकिन यदि तुम
नहीं उतरते, तो वहां
केवल
कामवासना ही
होती है। तुम
ऊर्जा इकट्ठी
कर लेते हो, फिर तुम
नहीं जानते कि
उसका करना
क्या है। तुम
बिलकुल ही
नहीं जानते कि
तुम ऊपर की ओर
उड़ान भर सकते
हो। तुम एक
छक्का, एक
बैलगाड़ी बन
जाते
हों-कामवासना
छक्के की भांति
व्यवहार कर
रही होती है।
तुम ऊर्जा
एकत्रित कर
लेते हो। तुम
भोजन करते हो,
तुम पानी
पीते हो और
ऊर्जा
निर्मित होती
है, ऊर्जा
इकट्ठी हो
जाती है। यदि
तुम उसका
उपयोग नहीं
करते तो तुम
पागल हो जाओगे।
तब ऊर्जा
तुम्हारे
भीतर तीव्रता
से घूमती है।
यह तुम्हें
पगला देती है।
तुम्हें कुछ
करना ही पड़ता
है। यदि तुम
कुछ नहीं करते,
तो तुम पागल
हो जाओगे, तुम
विस्फोटित हो
जाओगे।
कामवासना सबसे
आसान सेफ्टी
वाल्व है।
इसके द्वारा
ऊर्जा
प्रकृति में
लौट चलती है।
यह
छूता है
क्योंकि
ऊर्जा आती ही
है प्रकृति से।
तुम भोजन करते
हो;
यह है
प्रकृति को
खाना। तुम
पानी पीते
हो-यह प्रकृति
को ही पिया जा
रहा है। तुम
धूपस्रान
करते हो-यह है
सूर्य का भोजन।
निरंतर ही तुम
प्रकृति को खा
रहे हो और फिर
तुम ऊर्जा बाहर
फेंक देते हो
प्रकृति में।
स्की बात ही
असंगत, व्यर्थ,
अर्थशून्य लगती
है। क्या
उपयोग है इसका?
तो तुम आलसी
हो जाते हो।
ऊर्जा
को ज्यादा
ऊंचे जाना
चाहिए।
तुम्हें
रूपांतरकार
होना होगा।
तुम्हारे
द्वारा
प्रकृति को दिव्य
प्रकृति हो
जाना चाहिए
केवल तभी वहां
होता है कोई
अर्थ, कोई
सार्थकता।
तुम्हारे
द्वारा विषय
को मन बनना है;
मन को बनना
है उच्च मन।
तुम्हारे
द्वारा
स्वभाव को
पहुंचना
चाहिए परम
स्वभाव तक, निम्रतम को
बनना होगा
उच्चतम। केवल
तभी वहां कोई
महत्ता होती
है-एक अनुभवित
महत्ता।
तब
तुम्हारे
जीवन का कोई
गहरा, गहन
अर्थ होता है।
तुम व्यर्थ
नहीं रहते; तुम मैली
धूल की भांति
नहीं होते।
तुम एक ईश्वर
होते हो। जब
तुम्हारे
स्वयं के
द्वारा तुमने
स्वभाव को परम
स्वभाव तक
पहुंचा दिया
हो, तो तुम
भगवान हो गये
होते हो।
पतंजलि हैं
भगवान। तुम हो
जाते हो
गुरुओं के
गुरु।
लेकिन
साधारणतया
कामुकता का, विषयासक्ति
का अर्थ है
ऊर्जा का
एकत्रित हो जाना।
और तुम्हें
इसे बाहर फेंक
देना होता है।
तुम्हें
मालूम नहीं कि
क्या करना है
इसका। पहले
तुम इसे
इकट्ठा कर
लेते हो। पहले
तुम जाते हो
भोजन खोजने।
बहुत प्रयास
करते हो रोटी
की जुगाडू
करने में। फिर
तुम रोटी पचा
लेते हो और
ऊर्जा
निर्मित कर
लेते हो।
काम-ऊर्जा
सबसे
परिष्कृत
ऊर्जा होती है
तुम्हारे
शरीर की, सर्वाधिक
सूक्ष्म। और
तुम बाहर फेंक
देते हो इसे, और तब तुम
फिर से चक्र
में जा पड़ते
हो।
यह
एक दुष्चक्र
है। तुम बाहर
फेंक देते हो
ऊर्जा, और
शरीर को
आवश्यकता
होती है ऊर्जा
की। तुम खाते
हो, जमा
करते हो, फेंक
देते हो। कैसे
तुम अनुभव कर
सकते हो कि
तुम्हारे पास
कोई अर्थ है? तुम उस लीक
में पहुंच गये
जान पड़ते हो
जो कहीं नहीं
ले जा रही।
किस प्रकार
मदद देगा यह
ओम्? इस पर
ध्यान करना
कैसे मदद देगा?
एक बार जब
तुम ओम् का
ध्यान करने
लगते हो, दूसरे
केंद्र
क्रियान्वित
होने लगते हैं।
जब
ऊर्जा भीतर
बहती है, तो यह
एक वर्तुल बन
जाती है। तब
कामवासना का
केंद्र ही
एकमात्र ऐसा
केंद्र नहीं
होता जो
क्रियान्वित
होता है।
तुम्हारा
संपूर्ण शरीर एक
वर्तुल हो
जाता है।
काम-केंद्र से
ऊर्जा दूसरे
केंद्र की ओर
उठती है, तीसरे
की ओर, चौथे
की ओर, पांचवें
की ओर, छठे
की ओर, और
फिर सातवें
केंद्र की ओर।
दोबारा यह छठे
पर जाती, पांचवें
पर, चौथे
पर, फिर
तीसरे पर, दूसरे
पर, फिर
पहले पर। यह
एक आंतरिक
वर्तुल बन जाती
है और यह
दूसरे
केंद्रों से
गुजरती है।
ऊर्जा
संचित हो जाती
है इसीलिए यह
ऊंची उठती है-ऊर्जा
का स्तर ऊंचा
होता चला जाता
है। यह किसी
बांध की भांति
होता है। पानी
नदी से आता
जाता है, और
बांध इसे बाहर
नहीं जाने
देता। तब पानी
ऊंचा उठता है।
और दूसरे
केंद्र, तुम्हारे
शरीर के दूसरे
चक्र, खुलने
शुरू हो जाते
हैं। क्योंकि
जब ऊर्जा बहती
है तो वे
केंद्र सक्रिय
शक्तियां बन
जाते
हैं-डायनामो।
वे
क्रियान्वित
होने लगते हैं।
यह
ऐसा है जैसे
कि झरना और
डायनामो
कार्य करने
लगें। जब झरना
सूखा होता है, डायनामो
नहीं शुरू हो
सकता। जब ऊर्जा
ऊपर की ओर
बहती है, तुम्हारे
उच्चतम चक्र
कार्य करने
लगते है, क्रियान्वित
होने लगते हैं।
इसी प्रकार ही
मदद देता है
ओम्। यह
तुम्हें एक कर
देता है, शांत
बना देता है, प्रकृतिस्थ।
ऊर्जा ऊंची
उठती है; विषयासक्ति
तिरोहित हो
जाती है।
कामवासना
अर्थहीन हो
जाती है, बचकानी
हो जाती है।
यह अभी गयी
नहीं लेकिन यह
बचकानी बात
लगने लगती है।
तब तुम
विषयासक्त
हुआ अनुभव
नहीं करते; तुममें इसके
लिए कोई ललक
नहीं होती।
यह
अभी भी है
वहां। यदि तुम
सावधान नहीं
होते तो यह
तुम्हें फिर से
जकडु लेगी।
तुम गिर सकते
हो क्योंकि
यही परम घटना
नहीं है। तुम
अभी
केन्द्रीभूत
नहीं हुए हो, लेकिन
झलक घट चुकी
है और अब तुम
जानते हो कि
ऊर्जा
तुम्हें आंतरिक
आनंदपूर्ण
अवस्था दे
सकती है और
कामवासना
निम्नतम
आनंदोल्लास
है। उच्चतर
आनंद संभव है।
जब उच्चतर
संभव हो जाता
है, तो
निम्न अपने आप
ही तिरोहित हो
जाता है।
तुम्हें उसे
त्यागने की
आवश्यकता
नहीं पडती।
यदि तुम
त्यागते हो, तो तुम्हारी
ऊर्जा ऊंची
नहीं बढ़ रही।
यदि ऊर्जा
ऊंची बढ़ रही
है, तो कोई
जरूरत ही नहीं
होती त्यागने
की। यह बिलकुल
व्यर्थ हो
जाती है। यह
एकदम स्वयं ही
गिर जाती है।
यह निष्कि्रय
हो जाती है।
यह एक श्रम
होती है।
जैसे
कि तुम हो, यदि
तुम सपने
देखना बंद कर
दो तो
मनोविश्लेषक कहते
कि तब तुम
पागल हो जाओगे।
सपनों की
आवश्यकता
होती है।
भ्रांतियों
की, भ्रामकताओं
की, धर्मों
की, सपनों
की जरूरत है
क्योंकि तुम
सोये हुए हो।
और नींद में, सपने एक
आवश्यकता हैं।
वे
अमरीका में
प्रयोग करते
रहे हैं और
उन्होंने पाया
है कि यदि
तुम्हें सात
दिन तक सपने न
देखने दिये
जायें तो तुम
तुरंत श्रम
पूर्ण यात्रा
शुरू कर देते
हो। जो चीजें
हैं ही नहीं
वे तुम्हें
दिखाई पड़ने लगती
हैं। तुम पागल
हो जाते हो।
बस सात दिन
गुजरते हैं
बिना सपनों के, और
तुम भ्रमित हो
जाते हो।
भ्रांतियां
घटित होने
लगती हैं।
तुम्हारे
सपने एक रेचन
हैं; एक
अंतर्निर्मित
रेचन। तो हर
रात तुम स्वयं
को बहका लेते
हो। सुबह होने
तक तुम कुछ
शांत हो जाते
हो, लेकिन
शाम तक फिर
तुमने बहुत
ऊर्जा
एकत्रित कर ली
होती है। रात
को तुम्हें सपने
देखने ही होते
हैं और इस
ऊर्जा को बाहर
फेंकना ही
पड़ता है।
ऐसा
घटता है
ड्राइवरों के
साथ,
और इसी कारण
बहुत-सी
दुर्घटनाएं
होती हैं। रात
को चार बजे के
करीब
दुर्घटनाएं
घटती हैं-सुबह
चार बजे, क्योंकि
ड्राइवर सारी
रात गाड़ी
चलाता रहा है।
वह सपना नहीं
देख सका, अब
स्वप्न-ऊर्जा
संचित होती है।
वह गाड़ी चला
रहा है और
खुली आंखों से
भ्रांतियां
देखने लगता है।’सड़क सीधी है',
वह कहता है,
'कोई नहीं
है, कोई
ट्रक नहीं आ
रहा।’ खुली
आंखें लिये ही
वह किसी ट्रक
से जा भिड़ता
है। या, वह
देखता है किसी
ट्रक को आते
हुए और केवल
उससे बचने को
ही-और कोई
ट्रक था नहीं
वहां-केवल
उससे बचने को
वह अपनी कार
की टक्कर लगवा
लेता है पेडू
के साथ।
बहुत
खोज की गयी है
इस पर कि
क्यों चार बजे
के करीब इतनी
सारी
दुर्घटनाएं
होती हैं।
वस्तुत: चार
बजे के करीब
तुम बहुत सपने
देखते हो। चार
से लेकर पांच
या छह बजे तक, तुम
ज्यादा सपने
देखते हो, यह
होता है
स्वप्न-काल।
तुम अच्छी तरह
सो चुके हो; अब नींद की
कोई आवश्यकता
नहीं, तो
तुम सपने देख
सकते हो। सुबह
तुम सपने
देखते हो। और
यदि उस समय
तुम सपने नहीं
देखते या
तुम्हें सपने
नहीं देखने
दिये जाते तो
तुम भ्रम निर्मित
कर लोगे। तुम
खुली आंखों से
सपने देखने
लगोगे।
भ्रम
का अर्थ होता
है-खुली आंखों
का सपना।
लेकिन हर कोई
इसी ढंग से
सपने देख रहा
है। तुम एक सी
को देखते और
तुम सोचते हो
कि वह परम सुंदरी
है। हो सकता
है ऐसी बात न
हो। तुम शायद
भ्रम को उस पर
प्रक्षेपित
कर रहे हो। हो
सकता है कामवासना
के कारण तुम
भूखे हो। तब
ऊर्जा होती है
और तुम मोहित
होते हो। दो
दिन के बाद, तीन
दिन के बाद सी
साधारण दिखने
लगती है। तुम
सोचते हो
तुम्हें धोखा
दिया गया है।
कोई नहीं दे
रहा है
तुम्हें धोखा
सिवाय तुम्हारे
स्वयं के। तुम
सम्मोहित हो
गये थे।
प्रेमी
एक-दूसरे को
मोहित करते हैं।
वे सपने देखते
हैं खुली आंखों
से और फिर वे
हताश हो जाते
हैं। किसी का
दोष नहीं होता।
ऐसी तुम्हारी
अवस्था ही है।
पतंजलि
कहते हैं भ्रम
तिरोहित हो
जायेगा यदि तुम
ध्यानपूर्वक
ओम् का जप करो।
कैसे घटेगा यह? भ्रम
का अर्थ होता
है स्वप्नमयी
अवस्था-वह
अवस्था जहां
तुम खो जाते
हो। तुम अब
होते ही नहीं,
केवल सपना
होता है वहां।
यदि तुम ओम्
का ध्यान करो,
तो तुम ओम्
का नाद
निर्मित कर
लेते हो और
तुम होते हो
एक साक्षी।
तुम हो वहां।
तुम्हारी
मौजूदगी किसी
सपने को घटित
नहीं होने दे
सकती। जब कभी
तुम मौजूद हो,
कोई सपना
नहीं होता। जब
कभी सपना
मौजूद होता है,
तुम नहीं
होते हो।
दोनों साथ-साथ
नहीं हो सकते।
यदि तुम होते
हो वहां तो
सपना तिरोहित
हो जायेगा या
तुम्हें
तिरोहित होना
होगा। तुम और
सपना, दोनों
एक साथ नहीं
बने रह सकते।
स्वप्र और
जागरूकता कभी
नहीं मिलते।
इसीलिए श्रम
तिरोहित हो
जाता है ओम्
के नाद का
साक्षी बनकर।
असमर्थता-असमर्थता, दुर्बलता
भी निरंतर
अनुभव की जाती
है। तुम स्वयं
को निस्सहाय
अनुभव करते
हों-यही है
असमर्थता।
तुम अनुभव
करते हो कि
तुम कुछ नहीं
कर सकते, कि
तुम व्यर्थ हो,
किसी काम के
नहीं। तुम
दिखावा करते होओगे
कि तुम कुछ हो,
लेकिन
तुम्हारा
दिखावा भी
दिखाता है कि
गहरे में तुम
उस ना-कुछपन
को महसूस करते
हो। तुम शायद
दिखावा करो कि
तुम बहुत
शक्तिशाली हो,
लेकिन
तुम्हारा
दिखावा और कुछ
नहीं है सिवाय
एक छुपाव के।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
शराबखाने में
दाखिल हुआ
अपने हाथ में
एक कागज लिये
हुए और घोषणा
कर दी, 'ये रहे
उन लोगों के
नाम जिन्हें
मैं पीट सकता हूं।’
कोई सौ नाम
थे वहां। एक
आदमी खड़ा हो
गया, वह
छोटा-सा आदमी
था; मुल्ला
उसे पीट सकता
था। लेकिन उस
आदमी के पास
उसकी पेटी के
इर्द-गिर्द दो
पिस्तौलें
थीं। वह अपने
हाथ में
पिस्तौल लिये
निकट आया और
कहने लगा, 'क्या
मेरा नाम भी
है वहां? '
मुल्ला
ने उसकी ओर
देखा और बोला, 'हां।’
वह आदमी
कहने लगा, 'तुम
मुझे पीट नहीं
सकते।’ मुल्ला
बोला, 'तुम्हें
पका विश्वास
है? 'वह
आदमी बोला, 'बिलकुल पका
विश्वास है
जरा देखो तो।’
और उसने
पिस्तौल दिखा
दी। मुल्ला
बोला, 'तो
ठीक है। मैं
इस सूची में
से तुम्हारा
नाम काट दूंगा।’
तुउइrमु?
दिखावा कर
सकते हो कि
तुम बहुत
शक्तिशाली हो,
लेकिन जब
कभी तुम्हें
सामना करना
पड़ता है तब तुम
अनुभव करने
लगते हो
निस्सहायता
और शक्तिविहीनता।
आदमी दुर्बल
है क्योंकि
केवल संपूर्ण
ही शक्तिशाली
हो सकता है, आदमी नहीं।
कोई अंश
शक्तिशाली
नहीं हो सकता।
केवल
परमात्मा है
शक्तिशाली; आदमी होता
है दुर्बल।
जब
तुम ओंकार का
जप करते हो, ओम्
के नाद का, तो
पहली बार तुम
अनुभव करते हो
कि तुम अब कोई
द्वीप न रहे।
तुम संपूर्ण
सर्वव्यापक
नाद का एक
हिस्सा बन जाते
हो। पहली बार
तुम स्वयं को
शक्तिमय
अनुभव करते हो,
लेकिन अब इस
शक्तिमयता को
हिंसाअक होने
की आवश्यकता
नहीं होती, आक्रामक
होने की
आवश्यकता
नहीं होती।
वस्तुत: एक
शक्तिशाली
आदमी कभी भी
आक्रामक नहीं
होता-केवल
दुर्बल
व्यक्ति
आक्रामक हो
जाते हैं अपने
को सिद्ध करने
के लिए-यह
दिखाने के लिए
कि वे
शक्तिशाली
हैं।
'..
....और
अस्थिरता है
उन्हीं
बाधाओं में से
एक जो मन में
विक्षेप लाती
हैं।’
तुम
एक चीज आरम्भ
करते हो और
फिर छोड़ देते
हो। तुम आगे
बढ़ते और हटते
हो। तुम फिर
से प्रारंभ करते
और फिर छोड़
देते हो। कोई
चीज संभव नहीं
होती इस
अस्थिरता के
साथ। व्यक्ति
को सतत प्रयास
करना होता है, निरंतर
उसे एक ही
स्थान पर
गड्डा खोदते
चले जाना होता
है। यदि तुम
अपना प्रयास
छोड़ देते हो, तो तुम्हारा
मन ऐसा है कि
कुछ दिनों बाद
तुम्हें फिर
से क, ख, ग,
से प्रारंभ
करना होगा। मन
स्वयं को उलटा
चला लेता है, वह फिर से
लौट जाता है।
थोड़े दिनों तक
तुम कुछ करते
हो, फिर
तुम इसे छोड़
देते हो। तुम
वापस फेंक
दिये जाओगे
कार्य के
तुम्हारे
पहले दिन पर
ही—फिर से क,ख,ग से
शुरू करना
होगा। या तुम
बहुत कुछ
करोगे बिना
कोई चीज प्राप्त
किये ही। ओम्
तुम्हें कुछ
अलग ही चीज का
स्वाद देगा।
क्यों
तुम आरंभ करते
और रुक जाते
हो?
लोग मेरे
पास आते हैं
और कहते हैं
कि उन्होंने
एक वर्ष तक
ध्यान किया, फिर
उन्होंने बंद
कर दिया। और
मैं पूछता हूं
उनसे, 'कैसा
अनुभव कर रहे
थे तुम? 'हम
बहुत—बहुत
अच्छा अनुभव
कर रहे थे।
मैं पूछता हूं
उनसे, 'तो
फिर भी तुमने
क्यों बंद कर
दिया? कोई
बंद नहीं करता
जब कोई बहुत
अच्छा अनुभव
कर रहा हो तो! 'वे कहते
हैं, 'हम
बहुत खुश थे; फिर हमने
बंद कर दिया। '
मैं उनसे
कहता हूं 'यह
असंभव है। यदि
तुम प्रसन्न
थे, तो
कैसे कर सकते
हो तुम बंद? 'तब वे कह
देते हैं, 'एकदम
प्रसन्न तो
नहीं।'
तो
वे मुश्किल
में पड़े होते
है। वे दिखावा
भी कर लेते
हैं कि वे
प्रसन्न हैं।
यदि तुम किसी निश्रित
बात में
प्रसन्न होते
हो,
तो तुम उसे
बनाये रहते
हो। तुम केवल
तभी बंद करते
हो जब वह
उंबाऊ बात
होती है, एक
ऊब, एक
अप्रसन्नता
होती है।
पतंजलि कहते
हैं, ओम्
के द्वारा तुम
पहला स्वाद
पाओगे, संपूर्ण
समष्टि में
समा जाने का।
वही स्वाद तुम्हारी
प्रसन्नता बन
जायेगा और
अस्थिरता चली
जायेगी।
इसीलिए वे
कहते हैं कि
ओम् का जप करने
से, उसका
साक्षी बनने
से सारी
बाधाएं गिर
जाती हैं।
दुख
निराशा
कंपकंपी और
अनियमित श्वसन
विक्षेपयुक्त
मन के लक्षण
हैं।
ये होते
हैं लक्षण।
दुख का अर्थ
ही होता है कि
तुम सदा तनाव
से भरे होते
हो,
चिंताग्रस्त
होते हो, सदा
बंटे—बिखरे
होते हो।
हमेशा चिंतित
मन लिये, हमेशा
उदास, निराश—भाव
में होते हो।
तब सूक्ष्म
कंपकंपी होती
है देह—ऊर्जा
में, क्योकि
जब देह—ऊर्जा
एक वर्तुल में
नहीं चल रही
होती; तुममें
होता है
सूक्ष्म कंपन,
कंपकंपी, और अनियमित
श्वसन। तब
तुम्हारा
श्वसन लयबद्ध
नहीं हो सकता।
यह एक अनियमित
श्वासोच्छूवास
होता
ये
लक्षण है
विक्षेपयुक्त
मन के। और
इसके विपरीत
लक्षण होते है
उस मन के जो
केन्द्रीभूत
होता है। ओम्
का जप तुम्हें
केन्द्रित
बनायेगा।
तुम्हारा
श्वसन लयबद्ध
हो जायेगा।
तुम्हारी
शारीरिक
कपकंपाहटें
तिरोहित हो
जायेंगी, तुम
घबड़ाये हुए
नहीं रहोगे।
उदासी का
स्थान एक
प्रसन्न
अनुभूति ले
लेगी। एक
प्रसन्नता। तुम्हारे
चेहरे पर एक
सुकोमल
आनंदमयता
होगी, बिना
किसी कारण के
ही। तुम बस
प्रसन्न होते
हो। तुम्हारे
होने मात्र से
तुम प्रसन्न
होते हो; मात्र
सांस लेते हुए
ही तुम
प्रसन्न होते
हो। तुम कुछ
बहुत ज्यादा
की मांग नहीं
करते। तब संताप,
मनोव्यथा
की जगह आनंद
होगा।
इन
बाधाओं को दूर
करने के लिए
एक तत्व पर
ध्यान करना।
विक्षेपयुक्त
मन के ये
लक्षण हटाये जा
सकते है एक
सिद्धांत पर
ध्यान करने
द्वारा। वह एक
सिद्धांत है-प्रणव, ओम्
वह
सर्वव्यापी
नाद।
आज
इतना ही।
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