दिनांक
2 मार्च, 1975;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार:
1—मैं
क्यों विरोध
अनुभव करता
हूं स्वच्छंद,
स्वाभाविक
होने तथा
जाग्रत होने
के बीच?
2—क्या दमन का
योग में कोई
विधायक उपयोग
है?
3—ध्यान के
दौरान शारीरिक
पीड़ा का
विक्षेप हो तो
क्या करें?
4—प्रेम संबंध
सदा दुःख क्यों
लाते है।
5—शिष्यत्व के
विकास के लिए
सदगुरू के
प्रेम में पड़ना
क्या शिष्य
के लिए जरूरी
ही है?
6—बच्चे की
ध्यान पूर्ण
निर्दोषता क्या
वास्तविक है?
7—(क) क्या
दिव्य—दर्शन
(विजन) भी स्वप्न
ही है?
(ख)
निद्रा और स्वप्न
में कैसे सचेत
रहा जाये?
(ग) क्या
आप मेरे सपनों
में आते है?
पहला
प्रश्न :
स्वच्छंद स्वाभाविक
होने और
जाग्रत होने
के बीच मैं विरोध
अनुभव क्यों
करता हूं?
विरोध
है नहीं, लेकिन
तुम निर्मित
कर सकते हो
विरोध। जहां
कोई विरोध, कोई संघर्ष
न भी हो तो मन
संघर्ष बना
लेता है।
क्योंकि
संघर्ष में
रहे बिना मन
जीवित ही नहीं
रह सकता।
स्वच्छंद और
स्वाभाविक
होना तुम्हें,
एक
सहजस्फूर्त
जागरूकता
देगा। कोई
जरूरत नहीं है
जागरूकता के
लिये प्रयास करने
की; वह
पीछे चली
आयेगी छाया की
भांति। यदि
तुम स्वच्छंद
और स्वाभाविक
रही तो वह आयेगी
ही। इसके लिये
अतिरिक्त
प्रयत्न करने
की जरा भी आवश्यकता
नहीं है, क्योंकि
स्वच्छंद और
स्वाभाविक
होना स्वत: विकसित
होगा जागरूक
हो जाने में।
या, यदि
तुम जागरूक हो,
तो तुम
स्वच्छंद और
स्वाभाविक हो
जाओगे। वे
दोनों बातें
साथ—साथ बनी
रहती हैं।
लेकिन यदि तुम
कोशिश करते हो
दोनों के लिये,
तो तुम
अंतर्विरोध
निर्मित कर
लोगे। दोनों
के लिये एक
साथ प्रयत्न
करने की कोई
जरूरत नहीं है।
जब
मैं कहता हूं
स्वच्छंद और
स्वाभाविक
होने को तो
क्या होता है
इसका अर्थ? इसका
अर्थ होता है :
मत करना कोई
प्रयास। जो
कुछ तुम हो बस
वही हो जाओ।
यदि तुम
अजाग्रत हो, तो होओ
अजाग्रत, क्योंकि
तुम वही हो
तुम्हारी
स्वच्छंद और
स्वाभाविक
अवस्था में।
अजाग्रत रही।
यदि तुम कोई
प्रयास करते
हो, तो
कैसे तुम
स्वच्छंद और
स्वाभाविक हो
सकते हो। बस
विश्रांत रहो;
जो कुछ
अवस्था है
स्वीकार करो,
और स्वीकार
करो अपनी
स्वीकृति को
भी। वहां से
मत सरको।
चीजों के शात
होते —होते
समय गुजरता
जायेगा। उस
संक्रमण काल
में, शायद
तुम्हें
स्पष्ट बोध न
भी हो, क्योंकि
चीजें
सुव्यवस्थित
हो रही हैं।
एक बार चीजें
सहज, शात
हो जाती हैं
और प्रवाह
स्वाभाविक
होता है, तो
तुम अचानक
विस्मित हो
जाओगे
अनपेक्षित रूप
से, एक
सुबह तुम
पाओगे कि तुम
जाग्रत हो।
कोई जरूरत
नहीं है कोई
प्रयास करने
की।
या, यदि
तुम काम कर
रहे होते हो
जागरूकता
द्वारा—और
दोनों
विधियां
भिन्न हैं, वे अलग— अलग
दृष्टिकोणों
से आरंभ होती
है—तो मत
सोचना
स्वच्छंद और
स्वाभाविक
होने की बात।
तुम तो इसे पा
लेना जागरूक
होने के अपने
प्रयास
द्वारा। बिना किसी
प्रयास की
आवश्यकता के
जागरूकता के
स्वाभाविक
बनने में लंबा
समय लगेगा और
जब तक वह स्थल
न आये जहां
प्रयास की
आवश्यकता
नहीं रहती, तब तक
जागरूकता
उपलब्ध नहीं
हुई होती। जब
तुम भूल सको
सारे
प्रयत्नों को
और सहज ही
जागरूक हो सको,
केवल तभी
तुमने उसे
उपलब्ध किया
होता है। तब, बिलकुल
युगपत ही, तुम
पा लोगे
स्वच्छंद और
स्वाभाविक
होने की घटना
को। वे साथ—साथ
आती हैं। वे
सदा एक साथ
घटती हैं। वे
दो पहलू हैं
एक ही घटना के,
तो भी तुम
एक साथ उन्हें
प्राप्त नहीं
कर सकते।
यह
तो ऐसा होता
है जैसे कि
कोई चढ़ रहा हो
पर्वत पर और वहां
बहुत सारे
मार्ग हों; वे
सब पहुंचते
हों शिखर पर
ही, वे सब
एक चरम बिंदु
तक पहुंच जाते
हों, शिखर
पर। लेकिन तुम
एक साथ दो
मार्गों पर तो
नहीं चल सकते
न। यदि तुम
कोशिश करो, तो तुम पागल
हो जाओगे और
तुम कभी न
पहुंचोगे शिखर
तक। कैसे तुम
दो मार्गों पर
एक साथ चल
सकते हो यह
अच्छी तरह
जानते हुए भी
कि वे सब एक ही
शिखर तक ले
जाते हैं? व्यक्ति
को केवल एक ही
मार्ग पर चलना
होता है।
अंततः जब कोई
पहुंचता है
शिखर पर, तो
वह पायेगा कि
सभी मार्ग वहां
चरम बिंदु तक
पहुंच गये हैं?। चलने के
लिये सदा एक
ही मार्ग
चुनना।
निस्संदेह जब
तुम पहुंचते
हो, तो तुम
पाओगे कि सारे
मार्ग
पहुंचेंगे एक
ही जगह, उसी
एक शिखर पर।
जागरूक
होना एक अलग
ही प्रकार की
प्रक्रिया होती
है। बुद्ध ने
इसी का अनुसरण
किया।
उन्होंने इसे
कहा सम्यक—सचेतनता।
इस युग में एक
दूसरे बुद्ध
ने,
जार्ज
गुरजिएफ ने
इसका अनुसरण
किया; उन्होंने
कहा इसे स्व—स्मरण।
एक और बुद्ध, कृष्णमूर्ति,
कहे चले
जाते हैं
जागरूकता की,
सचेत रहने
की बात। यह
होता है एक
मार्ग।
तिलोपा
संबंधित है
दूसरे मार्ग
से, स्वच्छंद
और स्वाभाविक
होने का मार्ग
और जागरूकता
की फिक्र तक न
लेने का मार्ग;
बस वही हो
जाना जो कुछ
तुम हो, किसी
संशोधन के
लिये कोई
प्रयास न करते
हुए। और मैं
कहता हूं
तुमसे, तिलोपा
का दृष्टिकोण
ज्यादा ऊंचा
है बुद्ध से, गुरजिएफ से
और
कृष्णमूर्ति
से, क्योंकि
वे कोई
अंतर्विरोध
निर्मित नहीं
करते हैं। वे
तो सहज ही
कहते हैं कि, 'बस, वही
हो जाओ जो कुछ
तुम हो। ' किसी
आध्यात्मिक
प्रयास की भी
जरूरत नहीं क्योंकि
वह भी अहंकार
का ही हिस्सा
है—कौन प्रयास
कर रहा होता
है सुधरने का?
कौन कर रहा
होता है
प्रयास
जागरूक होने
का? कौन
प्रयास कर रहा
होता है
संबोधि को
उपलब्ध होने
का? यह कौन
होता है
तुम्हारे
भीतर? यह
है फिर वही
अहंकार। वही
अहंकार जो
प्रयास कर रहा
था देश का
राष्ट्रपति
या प्रधान
मंत्री होने
के लिये, अब
वह प्रयास कर
रहा होता है
बुद्धत्व को
उपलब्ध होने
के लिये।
बुद्ध
ने स्वयं
संबोधि को कहा
है,
'अंतिम
दुखस्वप्न'। संबोधि
अंतिम
दुखस्वप्न है
क्योंकि फिर,
यह एक
स्वप्न ही है।
और न ही यह
केवल स्वप्न
है, बल्कि
एक दुखस्वप्न
है। क्योंकि
तुम इसके
द्वारा दुखी
होते हो।
तिलोपा का
दृष्टिकोण
परम
दृष्टिकोण है।
यदि तुम इसे
समझ सको, तो
किसी तरह के
किसी प्रयास
की जरूरत नहीं
होती। तुम तो
केवल
विश्रांत रही
और जीवंत रहो,
और हर चीज
अपने से ही
पीछे चली आती
है। व्यक्ति
को होना होता
है केवल
प्रयासहीन; बस शात रूप
से बैठना; बसंत
ऋतु आती है और
घास बढती है
स्वयं ही।
दूसरा
प्रश्न :
ऐसा
समझा गया है
अतीत में योग
की बहुत
प्रणालियां
मुख्य रूप से
दमन द्वारा ही
सिखाई गयी हैं
और बिलकुल
थोड़े लोग ही
इसके द्वारा
उपलब्ध भी हुए।
क्या यह संभव
नहीं कि आज भी
दमन की यह
विधि शायद एक
निश्चित
प्रकार के
व्यक्ति के
अनुकूल पड़ती
हो?
पहली
तो बात कि यह
बिलकुल ही गलत
है;
जो जानते
हैं उनमें से
किसी ने कभी
दमन नहीं सिखाया।
दूसरी
बात,
कोई कभी
इसके द्वारा
उपलब्ध नहीं
हुआ। लेकिन हर
कहीं खोटे
सिक्के
विद्यमान हैं।
स्वाभाविक
होने का मार्ग
बहुत सीधा—सरल
है। लेकिन
तुम्हें यह
कठिन दिखता है,
क्योंकि
अहंकार चाहता
है संघर्ष
करने के लिये,
चुनौती
पाने के लिये,
विजय पाने
के लिये कोई
कठिन बात।
अहंकार जीवित
रहता है
निरंतर
चुनौती
द्वारा। अगर
कोई चीज
बिलकुल सीधी
होती है, तो
अहंकार नीचे
गिर जाता है।
यदि तुम्हारे
पास करने को
कुछ नहीं होता
है सिवाय
चुपचाप और शात
बैठने के और
चीजों को होने
देने के, और
तुम्हारी ओर
से किसी
क्रिया के
बिना चीजों को
उस ओर बढ़ने
देने के जिधर
कि वे बढ़ रही
होती हैं, तो
कब तक और कैसे
जीवित रहेगा
अहंकार? कोई
संभावना नहीं
इसकी।
स्वच्छंद
और स्वाभाविक
होने में, अहंकार
संपूर्णतया
नीचे पटका
जाता है। वह
तुरंत
तिरोहित हो
जाता है।
क्योंकि
अहंकार को तो
चाहिये सतत
क्रिया।
अहंकार तो ऐसे
है जैसे
साइकिल चलाना—तुम्हें
निरंतर पैडल
चलाना होता है।
यदि तुम
साइकिल का
पैडल चलाना
बंद कर देते
हो, तो यह
कुछ फीट तक या
गज तक जा सकती
है पहले के गति—बल
के कारण, लेकिन
फिर इसे गिरना
ही है। साइकिल
और सवार दोनों
गिर जायेंगे।
साइकिल को
चाहिये होती
है पैडल की
लगातार गति।
चाहे तुम बहुत
धीरे भी चलाओ
पैडल, तुम
गिर जाओगे।
इसे एक
निश्चित
निरंतर ऊर्जा
का पोषण
चाहिये।
अहंकार
है बिलकुल
साइकिल चलाने
की भांति ही—तुम्हें
निरंतर इसे
पोषित करना
होता है? यह
चुनौती, वह
चुनौती, यह
क्रिया, वह
क्रिया—कुछ पा
कर रहना है!
एवरेस्ट की
चोटी जीतनी ही
है, तुम्हें
चांद तक तो
पहुंचना ही है—कुछ
न कुछ सदा
भविष्य में ही।
तो तुम्हें
चलाने ही हैं
पैडल, और
तभी अहंकार
जीवित रह सकता
है। अहंकार
अस्तित्व
रखता है
क्रिया की
हलचल में।
अक्रिया सहित
तो, एकदम
नीचे ही गिर
पड़ती है
साइकिल और
सवार भी।
ज्यों ही सारी
क्रिया
तिरोहित होती
है, उसके
साथ ही अहंकार
तिरोहित हो
जाता है।
इसीलिए
अहंकार को सरल
चीजें कठिन
जान पड़ती हैं, और
कठिन चीजें
जान पड़ती हैं
सरल। यदि मैं
तुमसे कहूं कि
मार्ग बहुत—बहुत
कठिन है, तो
तुरंत तुम
तैयार हो
जाओगे उस पर
चलने को। यदि
मैं कहूं कि
यह बहुत सीधा—सरल
है, यह
इतना सरल है
कि तुम्हें एक
कदम भी बढ़ाने
की जरूरत नहीं
है, यह
इतना सीधा है
कि तुम्हें
कहीं जाने की
जरूरत नहीं है,
बस बैठे
रहना अपने घर
में और वह
घटेगा, तो
तुम भूल ही
जाओगे मेरे
बारे में और
मैं जो कह रहा
हूं उसके बारे
में। तुम
मुझसे दूर ही
चले जाओगे
जैसे कि तुमने
बिलकुल सुना
ही न हो। तुम
चले जाओगे
किसी के पास
जो कह रहा
होता है कोई
नासमझी की बात
और निर्मित कर
रहा हो तुम्हारे
लिए कठिनाई।
इसीलिए दमन का
अस्तित्व आ
बना था, क्योंकि
इस संसार में
सर्वाधिक
कठिन चीज वही होती
है, दमन
करना। यह करीब—करीब
असंभव होता है,
क्योंकि यह
कभी सफल नहीं होता,
यह सदा असफल
ही होता है।
तुम
कैसे अपने
अस्तित्व के
एक हिस्से का
दमन कर सकते
हो किसी दूसरे
हिस्से
द्वारा? यह तो
ऐसा हुआ जैसे
कि तुम्हारे
बाएं हाथ को हराने
की कोशिश करना—तुम्हारे
दाएं हाथ
द्वारा विजयी
होने की कोशिश
करते हुए। तुम
दिखावा कर
सकते हो। थोड़ी
सी क्रिया के
बाद तुम
दिखावा कर
सकते हो कि दाया
ऊपर है और
बायां दब गया
है। पर तुम
क्या सोचते हो
यह दब गया है
या जीत लिया गया
है?
कैसे
तुम अपने
अस्तित्व के
एक हिस्से को
जीत सकते हो
दूसरे हिस्से
द्वारा? ये
मात्र झूठे
दावे हैं। यदि
तुम दबाते हो
कामवासना को,
तो
ब्रह्मचर्य
होगा एक
मिथ्याभिमान,
एक पाखंड।
यह तो बस वैसा
ही हुआ कि
दायां हाथ वहां
पड़ा है और
प्रतीक्षा कर
रहा है, दिखावा
करने में
तुम्हें मदद
दे रहा है।
किसी क्षण फिर
उलट सकती है
हर चीज। और
स्थिति
उलटेगी ही। वह
जिसे तुमने
जीत लिया हो
उसे जीतना
होता है फिर—फिर,
क्योंकि वह
हरगिज
वास्तविक जीत
नहीं होती।
अंत में तुम
पाओगे कि तुम
लड़ते रहे हो
अपने सारे
जीवन भर और
कुछ प्राप्त
नहीं हुआ है।
वस्तुत: तुम
केवल पराजित
ही होओगे और
कुछ नहीं।
तुम्हारा
संपूर्ण जीवन
पराजित होगा।
जो
गुरु जानता है, गुरु
जो संबोधि को
उपलब्ध होता
है वह कभी
नहीं उपदेश
देता रहा दमन
का। लेकिन
उनकी उपदेशना
रही है, कुछ
ऐसी, जो
दमन लग सकती
है उन लोगों
को जो नहीं
जानते, इसलिए
भेद साफ करने
दो मुझे। भेद
बहुत सूक्ष्म
है। उदाहरण के
लिए, बुद्ध
और महावीर
दोनों ने
सिखाया है
उपवास करना, दोनों ने
सिखाया है
ब्रह्मचर्य।
क्या वे सिखा
रहे हैं दमन? वे सिखा
नहीं सकते, और वे नहीं
सिखा रहे थे
ऐसा।
जब
बुद्ध कहते
हैं,
'उपवास करो'
तो क्या
अर्थ होता है
उनका? तुम्हारी
भूख को दबाओं?
—नहीं। वे
कहते हैं, 'देखो
अपनी भूख को। '
शरीर कहेगा,
'मैं भूखा
हूं?' तुम
सिर्फ बैठना
अपने भीतर और
देखना। कुछ मत
करना शरीर को
पोषित करने के
लिए और न ही कुछ
करना भूख को
दबाने के लिए।
तुम तो सिर्फ
देखना भूख को।
किसी क्रिया
की कोई जरूरत
नहीं
तुम्हारी तरफ से,
और दमन एक
क्रिया ही है।
जबकि तुम भूख
को दमन करो, तो क्या
करोगे तुम? तुम उसे देख
नहीं पाओगे।
वस्तुत:, केवल
वही बात होती
है जिससे तुम
बचोगे।
क्या
करेगा वह
व्यक्ति जो
भूख दबा देना
चाहता है और
जिसने कि
उपवास रखा है, जैसे
कि जैन करते
हैं हर साल? वह कोशिश
करेगा मन को
कहीं दूसरी
जगह बहलाने की
ताकि भूख का
अनुभव ही न हो।
वह जप करेगा
मंत्रों का, या वह चला
जाएगा अपने
धर्म—नेता के
पास उसे सुनने
ताकि मन उलझा
रहे। —तब उसे
कोई जरूरत
नहीं रहती उस
भूख पर ध्यान
देने की जो कि
उसमें होती है।
यह दमन है।
दमन का अर्थ
है : कुछ मौजूद
है और उसकी ओर
तुम देखते
नहीं, तुम
दिखावा करते
हो कि वह नहीँ
है वहां। यदि
तुम गहरे रूप
से व्यस्त
होते हो मन
में, तो
भूख नहीं बेध
सकती और अपनी
ओर नहीं ला
सकती तुम्हारा
ध्यान। भूख
खटखटाती
रहेगी द्वार,
लेकिन तुम
मंत्र का जप
कर रहे होते
हो इतनी जोर
से कि तुम
खटखटाहट
सुनते ही नहीं।
दमन का मतलब
है : अपने भीतर
की
वास्तविकता
से अलग करके
मन को कहीं
दूसरी ओर लगा
देना।
यदि
तुमने
प्रतिज्ञा की
है
ब्रह्मचर्य
की या तुमने
ब्रह्मचारी
का जीवन धारण
कर लिया है, तो
क्या करोगे
तुम जब
कामेच्छा
उठेगी और कोई
सुंदर स्त्री
पास से गुजर
जाएगी तो? क्या
तुम शुरू कर
दोगे मंत्र का
जप—राम, राम,
राम? तो
तुम अब कर रहे
हो बचाव। तुम
एक परदा डाल
रहे हो
तुम्हारी आंखों
पर। तुम दिखा
रहे हो कि वह
स्त्री वहां
नहीं है।
लेकिन स्त्री
तो है और
इसीलिए तुम
राम नाम का जप
कर रहे हो
इतनी जोर से।
भारत
में,
लोगों को
प्रात: स्नान
करना पड़ता है।
मेरे गांव में
एक बहुत सुंदर
झील है, नदी,
और लोग जाते
हैं प्रात:
स्नान करने को।
वहां, बचपन
में, पहली
बार मैं
जाग्रत हुआ
दमन की चालाकी
के बारे में।
नदी का पानी
बहुत ठंडा
होता था, खासकर
सर्दियों में
जब लोग जाते
थे स्नान करने
के लिए। मैं
उन्हें देखता
था गर्मियों
में स्नान
करते हुए भी, और वे नहीं
जप करते थे—हरे
राम, हरे
कृष्ण, हरे
कृष्ण।
सर्दियों में,
क्योंकि
नदी इतनी ठंडी
होती थी और वे
इतनी जोर से
जप करते थे कि
वे भूल जाते
थे नदी को। वे
एक डुबकी
लगाते और बाहर
आ जाते। उनका
मन संलग्न
होता था जप
करने में।
सुबह जितनी
ज्यादा ठंडी
होती, उतना
ही ज्यादा
तीव्र होता
ईश्वर का जप।
अपने
बचपन में, उन
लोगों को
देखते हुए
पहली बार मैं
सजग हुआ इस
चालाकी के
बारे में, कि
वे क्या कर
रहे होते थे
इस बारे में।
मैं देखता
उन्हीं लोगों
को गर्मियों
में स्नान
करते हुए और
वे फिक्र नहीं
लेते थे राम
की, हरि की,
कृष्ण की, या किसी की
भी। तो फिर
क्या
सर्दियों में
अकस्मात ही वे
बन गए होते थे
धार्मिक? वे
तथ्य से बचने
की चालाकी जान
गए थे, और वहां
तथ्य होता था
खटखटाता, आवाज
करता और जीता
जागता। वे
अपने मन को
मोड़ लेते थे
कहीं दूसरी ओर।
क्या
तुमने देखा है
रात को लोगों
को सुनसान सड़क
पर जाते हुए
जब कि अंधेरा
होता है? वे
गीत गाना शुरू
कर देते हैं, या कि सीटी
बजाना, या
कि गुनगुनाना।
क्या कर रहे
होते हैं वे? —वही चालाकी।
गुनगुनाते
हुए भूल जाते
हैं अंधकार को।
जोर से गाना
गाते हुए, वे
सुनते हैं
उनकी अपनी
आवाज और अनुभव
करते हैं कि
वे अकेले नहीं
हैं। आवाज एक
अनुभूति दे
देती है कि वे
अकेले नहीं हैं।
उनकी अपनी
आवाज से घिरने
पर, अंधकार
तिरोहित हो
जाता है उनके
लिए। अन्यथा,
यदि रात को
वे चुपचाप
चलते हैं
सुनसान सड़क पर,
तो उनकी
अपनी
पगध्वनियां
निर्मित करती
हैं भय, जैसे
कि कोई पीछा
कर रहा हो। यह
तो एक सीधी
तरकीब हुई।
महावीर
और बुद्ध नहीं
बता सकते और
नहीं सिखा सकते
ऐसे धोखे। वे
सिखाते हैं
उपवास के बारे
में,
लेकिन उनका
उपवास समग्र
रूप से, गुणात्मक
रूप से भिन्न
होता है। सतह पर,
दोनों
उपवास करने
वाले एक से ही
होंगे, लेकिन
गहरे— तल पर
भेद अस्तित्व
रखता है। गहरे
रूप से जो
व्यक्ति
बुद्ध या
महावीर का अनुसरण
कर रहा होता
है वह उपवास
करेगा और कोई
क्रियाकलाप
नहीं चलाएगा
मन में। वह
देखेगा और
पूरा ध्यान
देगा भूख पर।
और फिर उदित
होती है बहुत—बहुत
सुंदर घटना :
यदि तुम भूख
पर ध्यान दो
तो वह तिरोहित
हो जाती है।
बिना किसी
भोजन के वह
तिरोहित हो
जाती है।
क्यों? क्या
घटता है भूख
पर ध्यान देने
से?
जब
कामेच्छा
उभरती है, तब
तुम्हें पूरा
ध्यान देना है
उस पर—निर्णय
न लेते हुए, नहीं कहते
हुए कि ऐसा अच्छा
है या बुरा।
नहीं कहते हुए
कि यह पाप है, नहीं कहते
हुए कि यह
शैतान की
शैतानी है।
नहीं, कोई
मूल्यांकन
नहीं होना
चाहिए
क्योंकि सारे
मूल्यांकन मन
से संबंधित
होते हैं।
साक्षी
का मन से
संबंध नहीं।
अच्छा, बुरा—तमाम
भेद संबंधित
होते हैं मन
से, और
साक्षी होता है
अविभक्त, एक।
न अच्छा होता
है और न बुरा।
वह तो मात्र
होता है। यदि
कोई भूख पर
ध्यान देता है
या कि
कामेच्छा पर
पूरा ध्यान
देता है—और
समग्र ध्यान
एक ऐसी ऊर्जा
होती है, वह
अग्नि ही होती
है —कि भूख जल
ही जाती है, कामवासना की
इच्छा बिलकुल
जल जाती है।
क्या घटता है?
कौन सा रचना
—तंत्र होता
है भीतर?
तुम
भूख अनुभव
करते हो।
वस्तुत:, तुम
कभी भूखे नहीं
होते। शरीर
भूखा होता है,
तुम कभी
नहीं होते
भूखे। लेकिन
तुमने तादात्म्य
बनाया होता है
शरीर के साथ।
तुम अनुभव
करते हो, 'मैं
हूं शरीर।'
इसीलिए तुम
अनुभव करते कि
तुम भूखे हो।
जब तुम ध्यान
देते हो भूख
पर तो एक दूरी
निर्मित हो
जाती है, तादात्म्य
टूट कर गिर
पड़ता है। तुम
अब शरीर नहीं
रहते : शरीर
भूखा होता है
और तुम होते
हो द्रष्टा।
अचानक, एक
आनंदपूर्ण
स्वतंत्रता
तुममें उदित
होती है जहां
कि तुम अनुभव
करते हो, 'मैं
शरीर नहीं हूं
मैं कभी नहीं
रहा शरीर।
शरीर है भूखा,
पर मैं नहीं
हूं भूखा। ' सेतु टूट
जाता है—तुम
अलग हो जाते
हो। शरीर में
कामवासना के
लिए इच्छा है
क्योंकि शरीर
आया है
कामवासना में
से ही। शरीर
की इच्छा है
कामवासना के
लिए क्योंकि
शरीर का हर
कोशाणु
कामवासनामय
है। तुम्हारे
माता—पिता ने,
गहन कामुक
क्रिया में
निर्मित किया
है तुम्हारे
शरीर को।
तुम्हारे
शरीर के पहले
कोशाणु ही आये
थे गहन काममय
भावावेश
द्वारा; वे
उसी का
गुणधर्म वहन
किए रहते हैं।
वे कोशिकाएं
अपने को बढ़ाती
रही हैं, और
इसी भाति
तुम्हारा
सारा शरीर
निर्मित हुआ है।
तुम्हारा
सारा शरीर काम—आवेश
है। कामवासना
उठती है। शरीर
के लिए ऐसा
स्वाभाविक है,
कुछ गलत
नहीं है इसमें।
शरीर काम—ऊर्जा
है और कुछ
नहीं।
शरीर
के लिये तो
ब्रह्मचर्य
संभव नहीं।
कामवासना
स्वाभाविक है
शरीर के लिये।
कामवासना
शरीर के लिये
स्वाभाविक है, और
तुम्हारे
लिये केवल
ब्रह्मचर्य
है स्वाभाविक;
कामवासना
है
अस्वाभाविक
नितांत
अस्वाभाविक।
इसीलिये हम
इसे कहते हैं
ब्रह्मचर्य।
अंग्रेजी
शब्द 'सेलिबेसि'
बहुत ठीक
नहीं है। वह
बहुत साधारण
है, सस्ता
है।
ब्रह्मचर्य
का भाव नहीं
पहुंचा पाता
है।
ब्रह्मचर्य
प्राप्त किया
गया है 'ब्रह्म'
के मूल से।
ब्रह्मचर्य
शब्द का अर्थ
होता है कि
तुम आये हो
उपलब्ध होने
को, तुम
आये हो जानने
को कि तुम हो
ब्रह्म, परम,
दिव्य, कि
तुम हो स्वयं
परमात्मा।
जब
कोई अनुभव
करने लगता है
वह स्वयं
भगवान है, तब
उसमें होता है
वास्तविक
ब्रह्मचर्य।
तब कोई समस्या
नहीं होती। और
घटता क्या है,
अदभुत बात
तो यह होती है
कि जब तुम अलग
होते हो, जब
सेतु टूट जाता
है और शरीर से
तुम्हारा
तादात्म्य
नहीं बना रहता,
तो तुम नहीं
कहते, 'मैं
शरीर हूं। ' तुम कहते हो,
'मैं शरीर
में हूं तो भी
शरीर नहीं हूं।
मैं रहता हूं
इस घर में, पर
मैं घर नहीं
हूं। मैं इन
वस्त्रों में
हूं लेकिन
वस्त्र नहीं हूं
मैं। ' जब
तुम उपलब्ध कर
लेते हो इसे—और
मैं कहता हूं 'उपलब्ध' क्योंकि
बौद्धिक रूप
से तो तुम इसे
पहले से ही
जानते हो, बात
उसकी नहीं; तुमने इसका
संपूर्ण
अनुभव ही नहीं
किया है; जब
तुम पूरी तरह
समझते हो भूख
पर गहरा ध्यान
देते हुए, या
कि काम—वासना
पर ध्यान देते
हुए, या
किसी भी चीज
पर—जब तुम
करते हो
स्पष्ट अनुभव,
तो अचानक
शरीर और आत्मा
के बीच का वह
सेतु तिरोहित
हो जाता है।
जब वहां
अंतराल होता
है और तुम बन
चुके होते हो
साक्षी, तब
शरीर जीवित
रहता है
तुम्हारे
सहयोग द्वारा।
शरीर
नहीं जी सकता
बिना
तुम्हारे
सहयोग के। यही
तो घटता है जब
शरीर मरता है :
शरीर तो बिलकुल
वही होता है, केवल
अब तुम्हारा
सहयोग न रहा।
तुम चले गये
हो घर से बाहर
और इसीलिये
शरीर मर गया
है। अन्यथा, कोई कभी
मरता नहीं।
शरीर वही होता
है, पर
शरीर निर्भर
करता था
तुम्हारी
ऊर्जा पर।
निरंतर, तुम्हें
शरीर को ऊर्जा
का भोजन देना
होता है। यह
बना रहता है
तुम्हारे
सहयोग द्वारा
ही; इसकी
अपनी कोई
सत्ता नहीं।
ऐसा तुम्हारे
द्वारा ही हुआ
है कि यह साथ—साथ
है, वरना
तो यह अलग हो
गया होता। तुम
इसमें
केंद्रीय तथा
निश्चित ठोस
रूप देने वाले
कारक हो।
जब
भूख में, यदि
कोई ध्यान
देता है भूख
पर, तब
सहयोग नहीं
होता। यह एक
अस्थायी
मृत्यु होती
है। तुम शरीर
का पोषण कर
सहारा नहीं दे
रहे होते हो।
जब तुम नहीं
बढ़ावा दे रहे
होते हो शरीर
को, तो
शरीर कैसे भूख
अनुभव कर सकता
है? शरीर
कुछ अनुभव
नहीं कर सकता;
अनुभूति
होती है
तुम्हारे
अस्तित्व की।
हो सकता है कि
भूख वहां हो
शरीर में
लेकिन शरीर
अनुभव नहीं कर
सकता है, उसके
कोई
स्पर्शबोधक
नहीं होते।
अब, मात्र
कुछ दशकों के
भीतर ही, मस्तिष्क
के शल्य—चिकित्सक
एक बहुत
रहस्यमय घटना
के प्रति सजग हो
गये हैं कि
मस्तिष्क, जो
अनुभव करता है
हर चीज, स्वयं
में कोई
अनुभूति नहीं
होती उसकी।
तुम पूरी तरह
जानते हुए लेट
सकते हो ब्रेन—सर्जन
की मेज पर, तुम्हारा
सिर खोला जा
सकता है और वह
काट सकता है
तुम्हारे
मस्तिष्क की
अति सूक्ष्म
नसें, तो
भी तुम्हें
कुछ महसूस न
होगा। किसी
बेहोशी की कोई
जरूरत नहीं।
वह खिड़की बना
सकता है सिर
में, वह
सिर में एक
सुराख बना
सकता है, लेकिन
तुम सुराख
बनते जाने को
अनुभव करोगे
मात्र खोपड़ी पर।
एक बार वह
पहुंच जाता है
भीतर तो कोई
अनुभूति बिलकुल
नहीं होती वहां।
यदि वह
तुम्हारा
पूरा
मस्तिष्क भी
काट दे तो तुम्हें
पता नहीं
चलेगा, और
तुम होओगे
पूरी तरह जागे
हुए।
पश्चिम
में बहुत लोग
जी रहे हैं
मस्तिष्क के बहुत
सारे हिस्सों
को अलग करवा
कर,
और वे इसे
जानते नहीं।
बहुत लोग जी
रहे हैं अपने
मस्तिष्क में
निश्चित
इलेक्ट्रोड, विद्युत—उपकरण
जुड़वाए हुए और
उन्हें पता ही
नहीं होता। वे
अनुभव नहीं कर
सकते
इलेक्ट्रोड्स
को। एक पत्थर
तुम्हारे सिर
के भीतर रख
दिया जा सकता
है और तुम कभी
अनुभव नहीं
करोगे कि वह वहां
है, क्योंकि
मस्तिष्क में
कोई अनुभूति
ही नहीं। तो
कहां से आती
होगी अनुभूति?
मस्तिष्क
सूक्ष्मतम
भाग होता है
शरीर का, सबसे
ज्यादा नाजुक,
लेकिन उसकी
भी कोई
अनुभूति नहीं
होती।
अनुभूति आती
है तुम्हारे
अस्तित्व से।
यह उधार ली
जाती है शरीर
द्वारा। शरीर
की अपनी कोई
अनुभूति नहीं
होती। जब तुम
ध्यान से
देखते हो भूख
को, तब अगर
वह देखना
वास्तविक
होता है, प्रामाणिक
होता है, और
तुम बचते नहीं,
तो भूख
तिरोहित हो
जाती है।
महावीर
या बुद्ध का
उपवास
समग्रतया
भिन्न उपवास
होता है, जैनों
और बौद्धों के
उपवास से।
महावीर का
ब्रह्मचर्य
समग्र—रूपेण
भिन्न है जैन
मुनियों के
ब्रह्मचर्य से।
महावीर बच
नहीं रहे, वे
तो मात्र देख
रहे हैं।
ध्यान से
देखने पर, वह
तिरोहित हो
जाता है।
साक्षी बनो, तो वह वहां
मिलता नहीं।
बचाव करने से,
वह
तुम्हारे
पीछे चला आता
है। वस्तुत: न
ही केवल पीछे
आता है, वह
तुम्हें
आविष्ट करता
है।
योग
कोई दमन नहीं
सिखाता—वह
नहीं सिखा
सकता। लेकिन
योगी हैं जो
सिखाते हैं
दमन। वे
शिक्षक हैं; उन्होंने
अपने अंतरतम
के अस्तित्व
का बोध नहीं
पाया है।
इसलिये एक भी
ऐसा व्यक्ति
अस्तित्व
नहीं रखता है
जो दमन द्वारा
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
सकता हो। ऐसा
संभव नहीं है,
यह बिलकुल
ही संभव नहीं
है। कोई
जागरूकता
द्वारा
प्राप्त करता
है, दमन
द्वारा नहीं।
तीसरा
प्रश्न :
ध्यान
में अक्सर
शारीरिक पीड़ा
बनती है चित्तविक्षेप
जब पीड़ा हो
रही हो तो
क्या आप पीड़ा
पर भी ध्यान
करने के लिए
कहेंगे?
इसी
की तो बात कर
रहा था मैं।
यदि तुम पीड़ा
अनुभव करते हो
तो उसके प्रति
सजग,
ध्यानमय रहना,
कुछ करना मत।
ध्यान सबसे
बड़ी तलवार है—यह
हर चीज काट
देती है। तुम
बस ध्यान देना
पीड़ा पर।
उदाहरण
के लिए, तुम
ध्यान के
अंतिम चरण में
चुपचाप बैठे
हुए होते हो, बिना हिले—डुले,
और तुम शरीर
में बहुत—सी
समस्याएं
अनुभव करते हो।
तुम्हें लगता
है कि टल एकदम
सुन्न होती जा
रही है, हाथ
में कुछ खुजली
हो रही है, तुम्हें
लगता है शरीर
पर चींटियां
रेंग रही हैं।
बहुत बार देख
लिया तुमने और
वहां
चींटियां हैं
ही नहीं। वह
रेंगाहट भीतर
होती है, कहीं
बाहर नहीं। तो
तुम्हें करना
क्या होगा? तुम्हें तो
लगता है टांग
खत्म हो रही
है—ध्यानपूर्ण
हो जाओ, अपना
समग्र ध्यान
ही लगा दो उस
ओर। तुम्हें
खुजली हो रही
है? मत
खुजलाना।
उससे कोई मदद
न मिलेगी। तुम
केवल ध्यान दो।
अपनी आंखें तक
भी मत खोलना।
केवल अपना
ध्यान लगाना
भीतर की ओर और
मात्र प्रतीक्षा
करना और देखना।
कुछ पलों के
भीतर ही वह
खुजली मिट
चुकी होगी। जो
कुछ भी घटता
है—यदि
तुम्हें पीड़ा
भी होती है, पेट में या
सिर में होती
है तीव्र पीड़ा,
वह होती है
क्योंकि
ध्यान में
सारा शरीर
परिवर्तित
होता है। वह
बदलता है अपना
रसायन। नयी
चीजें घटनी
शुरू होती हैं
और शरीर एक
अराजकता में
होता है। कई
बार पेट पर
पड़ेगा प्रभाव,
क्योंकि
पेट में तुमने
दबायी होती
हैं बहुत भावनाएं,
और वे सब
झकझोर दी जाती
हैं। कई बार
तुम वमन कर
देना चाहोगे,
तुम अनुभव
करोगे
मिचलाहट; कई
बार तुम सिर
में तीव्र
पीड़ा अनुभव
करोगे।
क्योंकि
ध्यान
परिवर्तित कर
रहा होता है
तुम्हारे
मस्तिष्क के आंतरिक
ढाचे को।
ध्यान की राह
से गुजरते हुए
तुम वस्तुत:
ही एक अव्यवस्था
में होते हो।
जल्दी ही
चीजें
सुव्यवस्थित
हो जाएंगी।
लेकिन कुछ समय
के लिए, हर
चीज रहेगी
अस्थिर, अव्यवस्थित।
तो
तुम्हें करना
क्या होता है?
तुम सिर्फ
देखना सिर की
पीड़ा को, उसे
देखना। तुम हो
जाना द्रष्टा।
तुम बिलकुल
भूल ही जाना
कि तुम कर्ता
हो, और
धीरे — धीरे हर
चीज शात हो
जाएगी और इतनी
सुंदरता से, इतनी
लालित्य—पूर्ण
ढंग से शात
होगी कि
तुम्हें विश्वास
नहीं आ सकता
जब तक कि तुम
उसे जान ही नहीं
लेते। केवल
पीड़ा ही नहीं
मिटती है सिर
की—क्योंकि
यदि देखते हो
तो वह ऊर्जा
जो पीड़ा निर्मित
कर रही थी, तिरोहित
हो जाती है—वही
ऊर्जा बन जाती
है सुख। ऊर्जा
एक ही होती है।
पीड़ा या सुख
वह एक ही
ऊर्जा के दो
आयाम हैं। यदि
तुम मौन बैठे
रह सकते हो और
ध्यान दे सकते
हो ध्यान— भंग
होने की ओर, तो सारी
विभ्रांतिया
तिरोहित हो
जाती हैं। और
जब सारी
विभ्रांतिया
तिरोहित हो
जाती हैं, तो
तुम अकस्मात
सजग हो जाओगे
कि सारा शरीर
तिरोहित हो
चुका है।
वस्तुत:
क्या घट रहा
था ? क्यों घट
रही थीं ये
बातें रूम जब
तुम ध्यान
नहीं करते तो
ये नहीं घटतीं।
सारा दिन तुम
वैसे ही मौजूद
होते हो और
हाथ कभी नहीं
खुजलाता, सिर
में कोई दर्द
नहीं होता, पेट बिलकुल
ठीक—ठाक होता
है और टलें
ठीक रहती हैं।
हर चीज ठीक
होती है। वस्तुत:
क्या घट रहा
था ध्यान में? ध्यान में
ये चीजें
अचानक क्यों
घटने लगती हैं?
शरीर
मालिक बना रहा
है बहुत लंबे
समय से, और
ध्यान में तुम
शरीर को इसकी
मालकियत से
बाहर फेंक रहे
होते हो। तुम
उतार दे रहे
हो उसे
सिंहासन से।
वह चिपकता है;
वह हर तरह
से कोशिश करता
है मालिक बने
रहने की। वह
तुम्हें
विभ्रांत
करने को बहुत
चीजें निर्मित
करेगा जिससे
कि ध्यान खो
जाये। तुम
संतुलन से दूर
हट जाते हो और
शरीर फिर आ चढ़ता
है सिंहासन पर।
अब तक, शरीर
ही बना रहा है
मालिक और तुम
बने रहे हो गुलाम।
ध्यान द्वारा,
तुम बदल रहे
हो सारी चीज
को ही, यह
एक बड़ी क्रांति
है और
निस्संदेह
कोई शासक
सत्ता के बाहर
होना नहीं
चाहता। शरीर
राजनीतिया
चलाता है—यही
तो घट रहा है।
जब वह निर्मित
करता है
काल्पनिक
पीड़ा : खुजली, चींटियों
का रेंगना तो
शरीर कोशिश कर
रहा होता है
तुम्हारा
ध्यान भंग
करने की। ऐसा
स्वाभाविक है,
क्योंकि
इतने लंबे समय
से शरीर के
पास सत्ता बनी
रही है। बहुत
जन्मों से यह
बना रहा
सम्राट और तुम
बने रहे गुलाम।
अब तुम बदल
रहे हो—हर चीज
उलट—पुलट गयी
है। तुम अपने
सिंहासन को
वापस ले रहे
होते हो। ऐसा
स्वाभाविक है
कि तुम्हारी
शाति भंग करने
को जो कुछ
किया जा सकता
है वह कुछ
करना ही चाहिए
शरीर को। यदि
तुम अशात हो
जाते हो, तो
तुम भटक जाते
हो।
साधारणतया
लोग इन चीजों
को दबा देते
हैं। वे जप
करने लगेंगे
किसी मंत्र का।
वे नहीं ध्यान
देंगे शरीर पर।
मैं
तुम्हें किसी
प्रकार का दमन
नहीं सिखा रहा
हूं। मैं
सिखाता हूं
केवल जागरूकता।
तुम मात्र
देखो, ध्यान
दो। क्योंकि
वह झूठ है, तुरंत
तिरोहित हो
जायेगा वह। जब
सारी पीड़ाएं
और खुजलाहटें
और चींटियां
गायब हो चुकी
होती हैं और
शरीर गुलाम
होने के अपने
सही स्थान पर
जा बैठा होता
है, तो
अकस्मात इतना
आनंद उमगने
लगता है कि
तुम उसको अपने
में समा नहीं
सकते हो।
अचानक इतना
अधिक उत्सव
उमड़ने लगता है
तुम्हारे
भीतर कि तुम
उसे
अभिव्यक्त भी
नहीं कर सकते;
उमड़ने लगती
है कहीं पार
की समझ की
शाति, उमडूने
लगता है एक
आनंद जो कि इस
संसार का नहीं
होता।
चौथा
प्रश्न :
कल
प्रेम के बारे
में बोलते हुए
आपने कहा कि यह
एक आधारभूत
आवश्यकता है
जिसकी
परिपूर्ति करने
का प्रयत्न
हमें करना
चाहिए। आपने
यह भी बताया
कि यह फिर— फिर
दुख ले आता है
तो कैसे कोई
अर्थपूर्ण
ढंग से जी
सकता है यदि
प्रेम को
पूर्ण करने के
हमारे
प्रयत्नों का
अंत सदा दुख
पर ही होना
होता है?
तुम्हारे
सारे प्रयत्नों
का अंत सदा
दुख पर होता
है। केवल
प्रेम की ओर
किये गये
प्रयत्नों का
ही नहीं, बल्कि
तुम्हारे
सारे
प्रयत्नों का
ही अप्रतिबंध
रूप से अंत
होता है दुख
में, क्योंकि
सारे प्रयत्न
आते हैं
अहंकार से।
कोई प्रयत्न
सफल होने वाला
नहीं, क्योंकि
कर्ता ही सारे
दुखों का मूल
है। यदि तुम
प्रेम कर सकते
हो बिना
प्रेमी के वहां
मौजूद हुए तो
कहीं कोई दुख
न होगा।
बिना
प्रेमी की
मौजूदगी के
प्रेम में
होना बहुत—बहुत
कठिन जान पड़ता
है। प्रेम 'करने
वाला' उत्पन्न
करता है दुख
को, प्रेम
नहीं। प्रेमी
वे चीजें शुरू
करता है जो
समाप्त होती
हैं नरक में।
सारे प्रेमी
असफल होते हैं,
और मैं किसी
अपवाद की नहीं
कहता, केवल
प्रेम कभी
असफल नहीं
होता। इसलिए
तुम्हें समझ
लेना है कि
तुम्हारे
प्रेम में
तुम्हें वहां
मौजूद नहीं
होना चाहिए।
प्रेम मौजूद
होना चाहिए, लेकिन बिना
किसी अहंकार
के।
तुम
चलो,
तो चलने
वाला वहां न
हो। तुम करो
भोजन, लेकिन
भोजन करने
वाला न हो वहां।
जो कुछ जरूरी
है तुम्हें
करना होगा, लेकिन कोई
कर्ता न रहे वहां।
यही होता है
संपूर्ण
अनुशासन। यही
है धर्म का
एकमात्र
अनुशासन।
धार्मिक
व्यक्ति वह
नहीं होता जो
किसी एक धर्म
से संबंधित
होता है।
वस्तुत:
धार्मिक
व्यक्ति किसी
एक धर्म से
संबंध नहीं
रखता है।
धार्मिक
व्यक्ति वह
व्यक्ति है
जिसने गिरा दिया
है कर्ता को, जो जीता है
स्वाभाविक
रूप से, और
बस अस्तित्व
रखता है।
तब
प्रेम की एक
अलग ही
गुणवत्ता
होती है—वह
आधिपत्य
जमाने वाला
नहीं होता, वह
ईर्ष्यापूर्ण
नहीं होता। वह
मात्र देता है।
कोई सौदा नहीं
होता, तुम
उसमें अदला—बदली
नहीं करते। वह
कोई वस्तु
नहीं होता, वह एक छलकता
हुआ उमडाव
होता है
तुम्हारे
अस्तित्व का।
तुम बांटते हो
उसे। वस्तुत:,
अस्तित्व
की उस अवस्था
में जहां कि
अस्तित्व
प्रेम का होता
है, प्रेमी
का नहीं, तो
ऐसा नहीं होता
कि तुम किसी
एक के प्रेम
में पड़ते हो
और किसी दूसरे
के प्रेम में
नहीं होते, तुम प्रेम
मात्र में
होते हो। यह
विषय—वस्तुओं
का सवाल नहीं
होता।
यह
ऐसे है जैसे
श्वास लेना।
किसके साथ
श्वास लेते हो? तुम
तो मात्र
श्वास लेते हो।
कौन होता है
तुम्हारे साथ
बात इसकी नहीं।
यह तो बिलकुल
ऐसे होता है :
तुम किसके
प्रेम में
पड़ते हो यह
बात असंबंधित
हो जाती है, तुम बस
प्रेम में
होते हो—जो
कोई भी हो
तुम्हारे साथ।
या, चाहे
कोई भी न हो
तुम्हारे साथ।
शायद तुम खाली
घर में बैठे
हुए होओगे, तो भी प्रेम
प्रवाहित हो
रहा होता है।
अब प्रेम कोई
क्रिया नहीं,
यह
तुम्हारा
अस्तित्व है।
तुम उसे उतार—पहन
नहीं कर सकते
हो—यह तुम ही
होते हो। यही
है विरोधाभास।
जब
तुम तिरोहित
हो जाते हो तब
तुम होते हो
प्रेम; जब
तुम नहीं होते
हो, तब
केवल प्रेम
होता है।
अंततः, तुम
संपूर्णतया
भूल जाते हो
प्रेम को, क्योंकि
है कौन वहां
उसे याद करने
को? तो
प्रेम एक फूल
की भांति है
जो खिलता है, वह सूर्य है
जो उदित होता
है, सितारों
की भांति है
जो रात का
आकाश भर देते
है—वह तो बस
घटता है। यदि
तुम एक चट्टान
का भी स्पर्श
करते हो, तो
तुम प्रेम
पूर्वक
स्पर्श करते
हो उसे। वह बन
चुका होता है
तुम्हारा
अस्तित्व।
यही
अर्थ है जीसस
के इस कथन का, ' अपने
शत्रुओं से
प्रेम करो। ' सवाल
शत्रुओं से
प्रेम करने का
नहीं है, बात
है कि स्वयं
ही बन जाना
प्रेम। तब तुम
कुछ और कर
नहीं सकते।
चाहे शत्रु भी
आ जाये, तुम्हें
प्रेम ही करना
पड़ता है। कुछ
और करने को
होता नहीं है।
घृणा इतनी
मूढ़ता भरी बात
है कि वह
अस्तित्व रख
सकती है केवल
अहंकार के साथ।
घृणा एक मूढ़ता
होती है
क्योंकि तुम
दूसरे को नुकसान
पहुंचा रहे
होते हो। और
दूसरे से
ज्यादा
नुकसान तो
स्वयं अपने को
पहुंचा रहे
होते हो। यह
मूढ़ता है, क्योंकि
वह सारा
नुकसान जो तुम
पहुंचाते हो,
वापस आ
पहुंचेगा तुम
तक ही। और
बहुत बढ़ कर, वह वापस लौट
आएगा तुम तक।
तुम दब जाओगे
लुढ़कते बोझ
तले। यह मात्र
मूढ़ता है, जड़ता
है। सारे पाप
मूढ़ताएं हैं
और जड़ताएं
हैं।
इसीलिए
पूरब में हम
केवल एक ही
पाप जानते हैं, और
वह है अज्ञान।
और सब कुछ तो
मात्र उसमें
से आया
उत्पादन होता
है। जब मैं
बोलता हूं
प्रेम पर, तो
मैं बोलता हूं
उस प्रेम के
बारे में जहां
कि प्रेमी
मौजूद नहीं
रहता। और यदि
तुम्हारा
प्रेम तुम तक
दुख ला रहा
होता है, तो
खूब जान लेना
कि यह प्रेम
नहीं। यह
तुम्हारा अहंकार
है जो ले आता
है दुख।
अहंकार विषमय
बना देता है
हर चीज को, जो
कुछ भी तुम
छूते हो उसको।
वह किंग मिडास
की भांति है.
जो कुछ भी वह
छू लेता था वह
बन जाता सोना।
अहंकार है
किंग मिडास की
भांति ही—जो
कुछ भी छू
लेता है विष
बन जाता है।
और तुम जानते
ही हो कि किन कठिनाइयों
और मुसीबतों
में जा पड़ा था
मिडास। चीजें
परिवर्तित हो
रही थीं सोने
में और फिर भी
वह बन गया था
दुखी, इतना
दुखी जितना
दुखी कोई इस
पृथ्वी पर कभी
नहीं हुआ है।
उसने अपनी
बेटी को छू
लिया जिससे वह
प्रेम करता था
और वह बन गयी
सोना। उसने
छुआ अपनी
पत्नी को और वह
बन गयी सोना।
वह भोजन को
छूता और भोजन
बन जाता सोना।
वह पी नहीं
सकता था, वह
खा नहीं सकता
था, वह
प्रेम नहीं कर
सकता था, वह
चल—फिर नहीं
सकता था। उसके
अपने
रिश्तेदार
भाग गये। नौकर
चाकर भी बहुत
दूर खड़े रहते,
क्योंकि
यदि वे पास
आते और
संयोगवशात
कहीं वह उन्हें
छू लेता, तो
वे सोने के बन
जाते। किंग
मिडास तो जरूर
बिलकुल पागल
ही हो गया होगा।
तो
तुम्हारे साथ
क्या है? जो
कुछ तुम छूते
हो बन जाता है
विष। चाहे जब
हर चीज सोना
भी बन जाये तो
भी नरक निर्मित
हो जाता है।
तुम क्या करते
हो? तुम
छूते हो और
चीजें बन जाती
हैं विषमय।
तुम जीते हो
दुख में, लेकिन
तुम्हें ढूंढ
लेना है इसका
कारण।
तुम्हारे
भीतर ही है वह
कारण. वह
कर्ता, वह
अहंकार, वह
'मैं'।
लेकिन
तुम्हें
इसमें से गुजरना
होगा। मेरे
अनुभव से तुम
नहीं सीख सकते।
झेन
में कहते हैं
कि पानी गर्म
है या ठंडा, तुम
केवल तभी
जानते हो यदि
तुम उसे पीते
हो। मेरा कहना
कि 'अहंकार
हर चीज को विष
में बदल देता
है', बहुत
मदद नहीं देगा।
तुम्हें
देखना होता है
ध्यान से।
तुम्हें रहना
होता है खूब
सतर्क।
तुम्हें
अनुभव करना
पड़ता है और
समझना पड़ता है
तुम्हारे
अपने अहंकार
को—कि उसने
क्या कर दिया
होता है तुम्हारे
साथ।
लेकिन
अहंकार बहुत
चालबाज होता
है। जब कभी
तुम दुख में
होते हो वह
सदा यही कह
देता है कि
कोई दूसरा है
इसका कारण।
यही तो चालाकी
होती है जिस
तरह अहंकार
स्वयं को बचा
लेता hऐ। यदि
तुम दुख में
होते हो, तुम
कभी नहीं
सोचते कि कारण
तुम्हीं हो।
यह सदा कोई
दूसरा होता है।
पति दुख में
है क्योंकि
पत्नी
निर्मित कर
रही है दुख; पत्नी दुख
में है
क्योंकि पति
निर्मित कर
रहा है दुख; पिता दुख
में है बेटे
के कारण।
अहंकार सदा
जिम्मेदारी
फेंक देता है
दूसरे के ऊपर।
मैंने
देखे हैं लोग
जो दुख में
हैं क्योंकि
उनके बच्चे
हैं,
और मैंने
देखे हैं लोग
जो कि दुख में
हैं क्योंकि
उनके बच्चे
नहीं हैं। मैं
देखता हूं
लोगों को जो
प्रेम में पड़
गये हैं और
दुखी हैं—उनका
संबंध ही
उन्हें दे रहा
है बहुत तकलीफ,
घबड़ाहट, पीड़ा—और
मैं देखता हूं
लोगों को दुखी
जो प्रेम में नहीं
पडे हैं, क्योंकि
बिना प्रेम के
वे दुखी—पीड़ित
हैं। ऐसा
मालूम पड़ता है
कि तुमने तो
बिलकुल दृढ़ निश्चय
ही कर रखा है
दुखी रहने का।
जो कुछ भी
होती है
स्थिति, तुम
निर्मित करते
हो दुख। लेकिन
तुम भीतर कभी
नहीं झांकते।
कोई चीज भीतर
होती है जरूर
जो इसे बनाती
है—वह अहंकार,
कि तुम
सोचते हो तुम
हो, अहम्
की वह धारणा।
जितनी ज्यादा
बड़ी धारणा
होगी अहम् की,
उतना
ज्यादा बड़ा
होगा दुख।
बच्चे कम दुख
में होते हैं
क्योंकि उनका
अहंकार अभी
विकसित नहीं
हुआ है। फिर, जीवन भर लोग
सोचते जाते
हैं कि बचपन
में जीवन स्वर्ग
था। इसका
एकमात्र कारण
बस यही है कि
अहंकार को समय
चाहिए विकसित
होने के लिए।
बच्चों में
ज्यादा
अहंकार नहीं
होता है। यदि
तुम अपना अतीत
याद करने की
कोशिश करो तो
तुम कहीं एक
रुकाव पाओगे।
तीन वर्ष की
आयु पर या चार
वर्ष की आयु
पर, अकस्मात
स्मृति वहां
ठहर जाती है।
क्यों?
मनोविश्लेषक
गहराई से इस
रहस्य की जांच—पड़ताल
करते रहे हैं
और अब वे एक
निष्कर्ष पर आ
पहुंचे हैं।
वे कहते हैं
कि ऐसा होता
है क्योंकि
अहंकार मौजूद
नहीं था। कौन
संग्रह करेगा
स्मृतियों को? संग्रहकर्ता
वहां था ही
नहीं। चीजें
घटती थीं, अनुभव
घटता था, क्योंकि
कोई बच्चा तीन
वर्ष की आयु
तक कोरा कागज
ही तो नहीं
होता है।
लाखों चीजें
घट गयी होती
हैं। और बच्चे
को ज्यादा
चीजें घटती
हैं वृद्ध
व्यक्ति की
अपेक्षा, क्योंकि
बच्चा ज्यादा
जिज्ञासु
होता है।
प्रत्येक
छोटी बात उनके
लिए बड़ी बात
होती है।
लाखों चीजें
घट गयी होती
हैं उन तीन
वर्षों में, लेकिन क्योंकि
अहंकार वहां
नहीं था, तो
कोई चिह्न
अवशेष नहीं बच
रहता। यदि
बच्चा
सम्मोहन में
होता है, तो
वह कर सकता है
याद। वह रुकाव—अटकाव
के पार जा
सकता है।
बहुत
से प्रयोगों
में सम्मोहित
हुए व्यक्तियों
को केवल वही
चीजें ही याद
नहीं आयीं जो
जन्म के बाद
घटी थीं, बल्कि
वे चीजें भी
याद आ गयीं जो
जन्म के पहले
घटी थीं। जब
कि वे मा के
गर्भ में थे।
मां बीमार थी,
या कि उसे
तीव्र उदर—पीड़ा
थी, और
बच्चे ने पीड़ा
पायी थी। या, बच्चा मा के
गर्भ में था, सात या आठ
महीने का हो
गया था और मां
ने संभोग किया
था, बच्चा
याद करता है
उसे। क्योंकि
जब मां संभोग
करती है, तो
भीतर बच्चे का
दम घुटता है।
पूरब
में यह बात
पूर्णतया
वर्जित रही है।
जब मां
गर्भवती हो तो
उससे संभोग
नहीं किया जाना
चाहिए। कोई भी
कामवासना
युक्त किया
खतरनाक होती
है बच्चे के
लिए क्योंकि
बच्चा अपनी
श्वास—क्रिया
के लिए निर्भर
रहता है मां
पर। आक्सीजन
उपलब्ध होती
है मां के
द्वारा। जब
मां कामवासना
की क्रिया में
होती है, तो
उसके श्वास की
लय खो जाती है।
सतत लय जब
नहीं रहती वहां,
तो बच्चे का
दम घुटता है, न जानते हुए
कि क्या हो
रहा है।
कामवासना में
पड़ते हुए
ज्यादा
आक्सीजन सोख ली
जाती है मां
के द्वारा। अब
वह वैज्ञानिक
तथ्य है। जब
ज्यादा
आक्सीजन सोख
ली जाती है
मां के द्वारा,
तो बच्चा
नहीं पा सकता
आक्सीजन। कई
बार मृत्यु तक
भी संभव होती
है; बच्चा
मर सकता है।
बच्चे को याद
रहती हैं ये
सारी बातें।
तुम्हें भी
याद हैं ये सब
बातें, वे
मौजूद हैं।
लेकिन
क्योंकि
अहंकार नहीं
था वहां, वे
बातें तुम पर
बोझ नहीं बनी
हैं।
संबोधि
को उपलब्ध
व्यक्ति को
चीजें याद
रहती हैं इसी
भांति। याद
रखने को कोई
केंद्र नहीं
होता उसके पास।
उसने संचित कर
ली होती है
स्मृति, लेकिन
वह कोई बोझ
नहीं है। यदि
वह चाहता है, तो वह झांक
लेता है
स्मृति में और
चीजें ढूंढ
लेता है उसमें
से, लेकिन
वह बोझिल नहीं
हुआ होता।
स्मृतियां
अपने से ही उस
तक नहीं आ
पहुंचती हैं।
वह जांच सकता
है, वह
चीजें पता कर
सकता है, लेकिन
सामान्यतया
वह बना रहता
है खाली आकाश
की भांति। कोई
चीज स्वयं ही
नहीं आती।
तुम
प्रभावित किए
जाओगे
तुम्हारे
अपने अनुभव द्वारा, जो
मैं कहता हूं
उसके द्वारा
नहीं। दुख की
ओर देखना और
सदा प्रयत्न
करना कारण ढूंढने
का, और तुम
कारण पाओगे
तुम्हारे
स्वयं के भीतर।
जैसे ही तुम
जान लेते हो
कि कारण भीतर
है, तो
रूपांतरण का
बिंदु अपनी
परिपक्वता तक
पहुंच चुका
होता है। अब
तुम दिशा बदल
सकते हो, अब
तुम
परिवर्तित हो
सकते हो—तुम
तैयार होते हो।
जब तुम दूसरों
पर
जिम्मेदारी
फेंकते जाते
हो तो कोई
परिवर्तन
संभव नहीं
होता है। जब
तुम जान लेते
हो कि तुम
स्वयं
जिम्मेदार हो
उस तमाम दुख
के लिए जिसे
तुमने
निर्मित किया
है कि तुम
स्वयं हो अपने
नरक, तल्ला
ही बड़ी क्रांति
घटती है।
तुरंत, तुम
बन जाते हो
स्वयं अपने
स्वर्ग।
इसलिए
मैं कहता हूं
तुम से
संबंधों में
उतरने के लिए, संसार
में बढ़ने के
लिए; अनुभव
पाने के लिए
परिपक्व होने
के लिए, पकने
के लिए, मंजने
के लिए। केवल
तभी जो कुछ
मैं कह रहा
हूं वह
अर्थपूर्ण
होगा तुम्हारे
लिए। अन्यथा,
बौद्धिक
रूप से तुम
समझ लोगे
लेकिन
अस्तित्वगत
रूप से तुम
चूक जाओगे।
पांचवां
प्रश्न.
मुझे
नहीं लगता है
कि मैं आपको
प्रेमी के रूप
में अनुभव कर
सकूं इतना ही
लगता है कि आप
मेरे लिए ठीक
हैं क्या पुराने
अनुभव के कारण
पुरुषों के
प्रति बन गए मेरे
अनिश्चित
भावों के कारण
ऐसा है? क्या
उच्च स्तर के
संबंध के लिए
किसी पूर्व अपेक्षा
के रूप में
आपके साथ
प्रेम में
पडना होता है?
तुम
मुझे बिलकुल
ही नहीं समझे
हो। तुम
अपेक्षित
नहीं हो मेरे
प्रेमी बनने
के लिए—मैं
अपेक्षित
नहीं हूं
तुम्हारा
प्रेमी बनने के
लिए। लेकिन
तुम्हारी
तकलीफ मैं
समझता हूं।
तुम नहीं समझ
सकते कि प्रेम
कैसे संभव
होता है बिना
प्रेमी बने
हुए। तुम कर
सकते हो मुझे
प्रेम बिना
मेरे प्रेमी हुए
ही;
वह होता है
उच्चतम
प्रकार का
प्रेम, शुद्धतम
प्रेम।
इसे
समझ लेना है, क्योंकि
गुरु और शिष्य
के बीच का
संबंध इस संसार
का नहीं होता।
गुरु न तो
तुम्हारा
पिता होता है
और न तुम्हारा
भाई, न तो
तुम्हारा पति
होता है और न
पत्नी, और
न ही तुम्हारा
बच्चा। नहीं,
वे सारे
संबंध जो
संसार में
विद्यमान हैं,
असंगत होते
हैं गुरु और
शिष्य के बीच।
एक अर्थ में
वह यह सब कुछ
होता है, और
दूसरे अर्थ
में, इनमें
से कुछ नहीं
होता। एक खास
अर्थ में वह
पिता समान
होता है। एक
निश्चित अर्थ
में वह
तुम्हारे लिए
एक बच्चे की
भांति होता है।
जब मैं कहता
हूं निश्चित
अर्थ में तो
मेरा मतलब
होता है कि वह
तुम्हारे
प्रति पिता
समान होगा, यद्यपि वह
शायद उम्र में
तुमसे ज्यादा
बड़ा न भी हो।
वह बहुत युवा
हो सकता है, तो भी एक
निश्चित अर्थ
में वह पितृवत
होगा तुम्हारे
प्रति
क्योंकि वह
देता है और
तुम ग्रहण करते
हो और क्योंकि
वह ऊंचे शिखर
पर रहता है और
तुम घाटी में
रहते हो। आयु
की दृष्टि से
वह शायद तुमसे
वृद्ध न हो, लेकिन
शाश्वत रूप से
वह असीमित रूप
से ज्यादा बड़ा
होता है तुमसे।
और एक निश्चित
अर्थ में वह
बिलकुल एक
बच्चे की
भांति होगा
तुम्हारे लिए,
क्योंकि वह
फिर से बच्चा
हो गया है। वह
संबंध, बहुत
सारी चीजों से
भरा है। बहुत जटिल।
वह तुम्हारा
पति नहीं हो
सकता क्योंकि
वह तुम पर
नियंत्रण
नहीं रख सकता,
और वह
तुम्हारे
नियंत्रण में
हो नहीं सकता।
लेकिन एक खास
अर्थ में वह
पतिवत होता है।
तुम्हारा
मालिक होने की
जरा भी उसकी
कामना के बिना
तुम उससे
आविष्ट हो
जाते हो। उसकी
ओर से कोई
प्रयास हुए
बिना
तुम्हारा भाव
हो ही जाता है
प्रेमिका का।
क्योंकि गुरु
और शिष्य के
बीच ऐसा ही
संबंध होगा कि
शिष्य को
स्त्रैण होना
ही होता है, क्योंकि
शिष्य
ग्रहणकर्ता
होता है और
उसे रहना होता
है खुला।
वस्तुत: गुरु
के साथ उसे
गर्भधारी
होना होता है।
केवल तभी संभव
होगा
पुनर्जन्म।
एक
दूसरे
निश्चित अर्थ
में गुरु
पत्नी की भांति
होता है
क्योंकि इतना
मृदु, इतना
स्नेही होता
है वह। उसके
जीवन में सारे
नुकीले कोने
तिरोहित हो चुके
होते हैं। वह
बन गया होता
है अधिकाधिक
वर्तुल और
वर्तुल अपने
शरीर में भी, अपने
अस्तित्व में
भी, वह अधिक
स्त्रीत्वमय
होता है।
इसीलिए बुद्ध
ज्यादा
स्त्रीत्वपूर्ण
जान पड़ते हैं।
नीत्से
ने बुद्ध की
आलोचना केवल
इसी कारण की है
: कि वे
स्त्रैण
पुरुष थे।
नीत्से ने कहा
कि बुद्ध ने
निर्मित की थी
भारत की सारी
स्त्रैणता, क्योंकि
नीत्से के
विचार से, पुरुष
शक्तिपूर्ण तत्व
है और स्त्री
का अर्थ है
दुर्बलता। एक
खास अर्थ में
वह ठीक ही
कहता है।
बुद्ध
स्त्रैण हैं
पर वे दुर्बल
नहीं हैं। या
दुर्बलता की
एक अपनी शक्ति
होती है जो
किसी शक्ति
में कभी नहीं
हो सकती। एक
बच्चा दुर्बल
होता है, लेकिन
बच्चे में वह
शक्ति होती है,
जो किसी प्रौढ़
व्यक्ति में
नहीं हो सकती।
चट्टान
बहुत
शक्तिशाली
होती है।
चट्टान के
एकदम किनारे
ही कोई फूल
होता है—बहुत
कमजोर। लेकिन
फूल के पास एक
शक्ति होती है
जो किसी चट्टान
के पास कभी
नहीं हो सकती।
निश्चित रूप
से फूल कमजोर
होता है : सुबह
को वह खिलता
है,
आता है, शाम
तक वह जा चुका
होता है। इतना
अस्थायी होता
है वह! वह इतना
अल्पकालिक होता
है। इतना
क्षणिक।
लेकिन फूल में
एक अलग प्रकार
के आयाम की, एक अलग तरह
की गुणवत्ता
की शक्ति होती
है—वह होता
हैं बहुत
जीवंत।
वस्तुत:, वह
इतनी जल्दी
मरता है, क्योंकि
वह जीया होता
है बहुत प्रगाढ़ता
से। फूल में
रहने वाली
जीवन की वही
प्रगाढता उसे थका
देती है शाम
तक। चट्टान
जीए चली जाती
है क्योंकि वह
जीती है बड़े
कुनकुने ढंग
से। वहां जीवन
प्रगाढ़ नहीं
होता : बहुत
निस्तेज होता
है, ढीला—ढीला,
उनींदा।
चट्टान सोती
है, फूल
जीता है।
सद्गुरु
दुर्बल होता है
एक निश्चित
अर्थ में, क्योंकि
उसकी
दुर्बलता की
एक अपनी शक्ति
होती है। वह
स्त्रैण होता
है एक निश्चित
अर्थ में क्योंकि
सारी
आक्रामकता जा
चुकी है, सारी
हिंसा
तिरोहित हो
चुकी है। पिता
की भांति होने
की अपेक्षा वह
मां की भांति
अधिक है। बात
बहुत जटिल है,
किसी के लिए
जरूरी नहीं
प्रेमी होना,
लेकिन हर
किसी के लिए
जरूरी है
प्रेम में
होना।
'मुझे नहीं
लगता है कि
मैं आपको
प्रेमी के रूप
में अनुभव कर
सकूं। इतना ही
लगता है कि आप
मेरे लिए ठीक
हैं।'
कितना
ठंडापन, कितनी
भावशून्यता! 'मात्र ठीक?' 'मात्र ठीक' पर्याप्त
नहीं होता। जब
तक मैं ठीक से
कुछ ज्यादा
नहीं होता
तुम्हारे लिए
तब तक कुछ
नहीं घटेगा।
मात्र ठीक
होना तो बहुत
गणितीय हो
जाता है; मात्र
ठीक पर्याप्त
से कम है। 'मात्र
ठीक' का
अर्थ हुआ कि
मैं तुमसे
मिलता हूं
केवल बाह्य
सतह पर, केंद्र
पर नहीं। और
जब तुम कहते
हो कि ' आप
मेरे लिए ठीक
हैं', तो यह
हृदय का संबंध
नहीं हो सकता।
यह तो केवल
बुद्धि का हुआ—मतलबी,
होशियार, चालाक, बचाव
बनाये हुए, किनारे—किनारे,
हृदय के
खतरनाक संबंध
में न बढ़ता
हुआ, वरन
सिर्फ बाहर—बाहर
बना हुआ, हमेशा
भागने को
तैयार। यही है
'मात्र ठीक'
का अर्थ। और
'मात्र ठीक'
के पास कोई
ऊर्जा नहीं
होती। वह बात
होती है
नितांत ठंडी।
तो
यदि तुम इसमें
से बाहर आकर
विकसित नहीं
हो सकते, तो
बेहतर है कि
मुझे छोड़ देना,
क्योंकि
कुछ नहीं
घटेगा।
तुम्हारे पास
पर्याप्त
ऊर्जा नहीं
होती और यदि
तुम मेरी ओर
त्वरा से नहीं
बढ़ रहे होते
हो तो मैं
तुम्हारी ओर
नहीं बढ़ सकता।
यह संभव नहीं;
तुम्हें
बढ़ना होता है।
गुरु
और शिष्य के
बीच का संबंध
कोई हिसाब—किताब
लगा कर बनाया
संबंध नहीं
होता है। जब
सद्गुरु हो
जाता है
तुम्हारे लिए
केवल एक मात्र
सद्गुरु... ऐसा
नहीं होता कि
केवल वही है सद्गुरु, बहुत
से हैं, लेकिन
सवाल इसका
नहीं.. .जब
शिष्य के लिए
सद्गुरु हो
जाता है एक
मात्र
सद्गुरु, जब
सारा इतिहास,
अतीत और
भविष्य फीका
पड़ जाता है इस
व्यक्ति के
सम्मुख, हर
चीज मद्धिम पड़
जाती है और
केवल यही
व्यक्ति बना
होता है
तुम्हारे
हृदय में, केवल
तभी कुछ संभव
होता है।
इसी
कारण बहुत
सारी
समस्याएं उठ
खड़ी होती हैं।
कोई पड़ जाता
है बुद्ध के
प्रेम में। तब
वह कहता है कि 'बुद्ध
ही हैं
एकमात्र
बुद्ध पुरुष। '
तब वह कहता
है, 'ठीक है—जीसस
हैं, कृष्ण
हैं, तो भी
बुद्ध की
भांति नहीं
हैं। ' तब
जीसस और कृष्ण
बाहर कर दिये
गये परिधि पर।
केंद्र पर, मंदिर के
हृदय में ही, या हृदय के
मंदिर में, केवल बुद्ध
रहते हैं।
शिष्य के लिए
यह बात पूर्ण
रूप से सत्य
होती है। यदि
कोई जीसस के
प्रेम में
पड़ता है तो
जीसस आ जाते
हैं केंद्र
में, बुद्ध,
महावीर और
मोहम्मद—सभी
परिधि पर होते
हैं। जब
सद्गुरु हो
जाता है सूर्य
की भांति और
तुम उसके
चारों ओर
घूमते हो
पृथ्वी की
भांति, नक्षत्र
की भांति, वह
बन जाता है
तुम्हारा
केंद्र, तुम्हारे
जीवन का सच्चा
केंद्र। केवल
तभी संभव होता
है कुछ, उससे
पहले बिलकुल
नहीं।
'मात्र ठीक' बिलकुल ठीक
नहीं। 'मात्र
ठीक' का तो
मतलब हुआ लगभग
गलत। 'मात्र
ठीक' के
जाल से निकल
आने की कोशिश
करना। यदि तुम
मेरे पास आते
हो उमड़ाव के
पूरे अतिरेक
से, केवल
तभी तुम पाओगे
मुझे। यदि तुम
मेरे पास आते
हो स्वरा से, जितनी तेजी
से दौड़ सकते
हो उतनी तेजी
से दौड़ते हुए,
केवल तभी
तुम पाओगे
मुझे। यदि तुम
पूरी तेजी से,
बिना आगे
पीछे देखे
मुझमें कूद
पड़ते हो, केवल
तभी तुम पाओगे
मुझे। यह तो
बहुत
व्यापारिक
रंग—ढंग हो
जाता है, जब
तुम कहते हो, 'मात्र ठीक!' या तो इससे
बाहर हो, इससे
आगे बढ़ो या
मुझसे दूर चले
जाओ। शायद
कहीं किसी और
के प्रेम में
तुम पड़ सको।
क्योंकि सवाल
इसका नहीं कि
तुम ' अ' नामक
सद्गुरु के या
'ब' नामक
सद्गुरु के या
'स' नामक
सद्गुरु के
प्रेम में
पड़ते हो—बात
यह नहीं होती।
बात यह होती
है कि तुम
प्रेम में
पड़ते हो। जहां
कहीं यह घटता
हो, वहीं
चले जाओ। यदि
संबंध है 'मात्र
ठीक' तब
मैं नहीं हूं
तुम्हारा सद्गुरु,
तब तुम नहीं
हो मेरे शिष्य।
'क्या, पुराने
अनुभव के कारण,
पुरुषों के
विषय में बन
गए मेरे
अनिश्चित भावों
के कारण ऐसा
है?' नहीं, पुरुषों के
लिए तुम्हारे
अनिश्चित
भावों के कारण
ही ऐसा नहीं
है। यह
तुम्हारे
कारण ही है, तुम्हारे
अहंकार के
कारण।
पुरुषों के
लिए तुम्हारी
अनिश्चितताए
भी तुम्हारे
अहंकार के
कारण हैं। वे
भी हैं तो इसी
कारण। यदि कोई
स्त्री किसी
पुरुष के
प्रति समर्पण
नहीं कर सकती
है, तो ऐसा
इसलिए नहीं
होता कि
पुरुषों की
कमी होती है
या कि मिलते
ही नहीं। ऐसा
केवल इस कारण
होता है कि
स्त्री
विकसित नहीं
हुई होती।
केवल विकसित
व्यक्ति
समर्पण कर
सकता है, क्योंकि
विकसित ही
इतना साहसी हो
सकता है कि समर्पण
कर सके।
स्त्री
बचकानी बनी
रही हो, अवरुद्ध
रही हो, तो
हर पुरुष के
साथ समस्या ही
आ बनेगी।
और
यदि तुम प्रेम
में समर्पण
नहीं कर सकते, तो
तुम्हारे लिए
बहुत कठिन होगा
किसी भी अन्य
तल पर समर्पण
करना।
सद्गुरु के
प्रति भी
समर्पण होता
है और कोई पुरुष
या कोई स्त्री
कभी जितने की
मांग कर सकते
हैं उससे कहीं
ज्यादा बड़ा
समर्पण होता
है। पुरुष
मांग करता है
तुम्हारे
शरीर के
समर्पण की, यदि वह
तुमसे
संबंधित होता
है केवल
कामवासना के
कारण। यदि वह
तुमसे प्रेम
भी करता है, तब वह मांग
करता है
तुम्हारे मन
के समर्पण की।
लेकिन
सद्गुरु मांग
करता है
तुम्हारी ही—मन,
शरीर, आत्मा—तुम्हारे
समग्र
अस्तित्व की।
उससे कम से
काम न बनेगा।
तीन
संभावनाएं
होती हैं। जब
कभी तुम
सद्गुरु के
पास आते हो, तो
पहली संभावना
होती है
बौद्धिक रूप
से उसके साथ
संबंधित होने
की, सिर के
द्वारा। वह
कुछ ज्यादा
नहीं।
तुम्हें उसके
विचार पसंद आ
सकते हैं, फिर
भी इसका अर्थ
यह नहीं होता
कि तुम 'उसे'
पसंद करते
हो। विचार
पसंद करना, उसकी
धारणाएं पसंद
करना, 'उसे
ही' पसंद
करना नहीं है।
विचार तुम अलग
रूप से ग्रहण
कर सकते हो।
सद्गुरु के
साथ किसी
संबंध में
जुड्ने की कोई
जरूरत नहीं
होती। यही घट
रहा है
प्रश्नकर्ता
को। संबंध
भौतिक है; इसीलिए
यह 'मात्र
ठीक' है।
एक
दूसरी
संभावना होती
है। तुम
हार्दिक रूप
से प्रेम में
पड़ते हो, तब
इसका कोई सवाल
नहीं होता किं
वह क्या कहता
है; सवाल
उसका स्वयं का
ही होता है।
यदि तुम
बौद्धिक रूप
से मुझसे
संबंधित होते
हो, तो कभी
न कभी तुम्हें
दूर जाना ही
होगा।
क्योंकि मैं
स्वयं का खंडन
करता चला
जाऊंगा। हो
सकता है एक
विचार
तुम्हें
अनुकूल पड़े, दूसरा न
अनुकूल पड़ता
हो। यह विचार
तुम पसंद करो,
वह विचार
तुम पसंद न
करो, और
मैं करता
जाऊंगा स्वयं
का खंडन।
और
मैं स्वयं का
खंडन करता हूं
एक खास
उद्देश्य से :
मैं केवल
उन्हीं लोगों
को अपने चारों
ओर चाहता हूं
जो प्रेम में
होते हों—उन्हें
नहीं जो कि
बौद्धिक रूप
से कायल होते
हैं मेरे।
उन्हें दूर
फेंक देने को
मुझे निरंतर
विरोधाभासी
बने रहना होता
है।
यह
एक छंटाई होती
है,
एक बहुत
सूक्ष्म
छंटाई। मैं
कभी नहीं कहता
तुमसे, 'चले
जाओ। ' तुम
अपने से ही
चले जाते हो।
और तुम ठीक
अनुभव करते हो
कि 'यह
आदमी
विरोधाभासी
था, इसलिए
मैं छोड्कर
चला आया। ' केवल
वही जो कि
हृदय से
संबंधित होते
हैं मुझसे, विरोधाभासों
की फिक्र नहीं
लेंगे। वे
इसकी चिंता
नहीं करेंगे
कि क्या कहता
हूं मैं। वे
देखते हैं
सीधे मेरी ओर।
वे जानते हैं
मुझे—कि मैं
धोखा नहीं दे
सकता हूं
उन्हें। वे
जानते हैं
मुझे
प्रत्यक्ष
रूप से—जो मैं
कहता हूं उसके
द्वारा नहीं।
जो मैं कहता
हूं वह ज्यादा
महत्वपूर्ण
नहीं है।
जरा
भेद पर ध्यान
देना. वह
व्यक्ति जो
कायल होता है
मेरे विचारों
का,
मुझसे
संबंधित होता
है विचारों
द्वारा; वह
व्यक्ति जो
प्रेम में
पड़ता है मेरे,
विचारों से
संबंधित हो
सकता है, लेकिन
'मेरे' द्वारा
ही। बड़ा अंतर
पड़ता है इस
बात से।
फिर
होता है तीसरे
प्रकार का
संबंध जो कि
संभव होता है
केवल तभी, जब
दूसरे प्रकार
का संबंध घट
चुका होता है।
जब तुम वास्तव
में ही प्रेम
में पड़ते हो, तो प्रेम
इतना
स्वाभाविक हो
जाता है कि
तिरोहित हो
जाता है। जब
मैं कहता हूं 'तिरोहित' तो मेरा यह
मतलब नहीं
होता कि वह
तिरोहित हो जाता
है, मैं
केवल इतना ही
कहता हूं कि
तुम अब जागरूक
न रहे इसके
प्रति कि वह वहां
है। क्या तुम
जागरूक होते
हो श्वास के
प्रति? जब
कुछ गलत घटता
है, ही, तभी
ही, जब तुम
तेज दौड़ रहे
होते हो, श्वास
दुष्कर हो जाती
है। और
तुम्हारी
श्वास
अवरुद्ध हो
जाती है। पर
जब तुम अपनी
कुर्सी पर पड़े
आराम कर रहे
होते हो और हर
चीज ठीक होती
है, तो
क्या तुम
श्वास के
प्रति सजग
होते हो? नहीं;
इसकी कोई
जरूरत नहीं
होती। जब सिर
में दर्द होता
है केवल तभी
तुम सिर के प्रति
सजग होते हो; कुछ गलत हो
गया होता है।
जब सिर बिलकुल
स्वस्थ होता
है, तो तुम
सिरविहीन
होते हो। यही
है स्वास्थ्य
की परिभाषा.
जब शरीर
संपूर्णतया
स्वस्थ होता
है, तुम
उसे जानते ही
नहीं। यह ऐसे
होता है जैसे
कि वह वहां है
नहीं; तुम
देहविहीन हो
जाते हो। यही
परिभाषा है
श्रेष्ठ प्रेम
की भी। प्रेम
परम है, उच्चतम
स्वास्थ्य है,
क्योंकि
प्रेम
व्यक्ति को
बनाता है
संपूर्ण। जब
तुम सद्गुरु
से प्रेम करते
हो, तो
धीरे— धीरे, तुम
संपूर्णतया
भूल जाते हो
प्रेम को। वह
इतना
स्वभाविक हो
जाता है, श्वास
की भांति।
तीसरे
प्रकार का
संबंध आत्मा
में उतर आता
है,
जो कि न सिर
का होता है और
न हृदय का, बल्कि
स्वयं आत्मा
का ही होता है।
हृदय और सिर
दो तहें हैं; उनके पीछे
छिपा होता है
तुम्हारे
अस्तित्व का
केंद्र। इसे
तुम कह सकते
हो आत्मा, आत्मन,
'स्व' या
जो कुछ भी तुम
कहना चाहो।
क्योंकि, वहां
शब्दों का कोई
भेद
अर्थपूर्ण
नहीं रहता।
तुम इसे कह
सकते हो
अनात्म—वह भी
काम देगा।
सिर
तो प्रारंभ है; वहीं
अटक मत जाना।
हृदय है मार्ग—उससे
गुजर जाना, लेकिन वहां
भी घर मत बना
लेना।
अस्तित्व से
अस्तित्व, बीईंग
से बीईंग, फिर
कोई सीमाएं
नहीं रहती।
वस्तुत: तब, शिष्य और
सद्गुरु दो
नहीं रहते। वे
दो की भांति
अस्तित्व
रखते हैं, लेकिन
चेतना एक
प्रवाहित
होती है—एक
किनारे से
दूसरे किनारे
तक।
छठवां
प्रश्न :
आपने
कहा कि स्कूल
का बच्चा
खिड़की से बाहर
झांकता है तब
वह ध्यान में
होता है। जब
मैं ऐसा करता
था तो मैं हमेशा
सोचता था कि
दिन में
स्वप्न देखता
हूं और बहुत
दूर होता हूं
ध्यान से क्या
मैं इस सारे
समय ध्यान में
रहता हूं—
बिना इसे जाने
ही?
हां, बच्चा
ध्यान में
होता है।
लेकिन यह
ध्यान होता है
अज्ञान के
कारण; उसे
चले ही जाना
है। वह जिसे
तुमने अर्जित
नहीं किया है
तुम्हारे साथ
नहीं बना रह
सकता है। केवल
वही जो तुमने
अर्जित किया
है, तुम्हारा
होता है।
बच्चा
ध्यानपूर्ण
होता है
क्योंकि वह
अज्ञानी है।
उसके पास बहुत
विचार नहीं
होते बेचैन
करने को।
बच्चा
ध्यानपूर्ण
होता है
क्योंकि
स्वभावतया, जहां कहीं
मन सुख पा
लेता है, वह
मन को वहीं
सरकने देता है।
वस्तुत:
बच्चा अभी
समाज का
हिस्सा नहीं
हुआ होता।
बच्चा अभी भी
आदिम होता है, एक
पशु की भांति।
लेकिन बीज
विकसित हो रहा
होता है। देर—अबेर
वह हो ही
जाएगा समाज का।
और फिर, सारा
ध्यान खो
जाएगा, बचपन
की वह
निर्दोषता खो
जायेगी।
बच्चा होता है
ईदन के बगीचे
में आदम और
हब्बा की
भांति ही। उसे
गिरना ही होगा।
उसे पाप करना
ही होगा। वह
फेंक ही दिया
जाएगा संसार
में, क्योंकि
केवल संसार के
अनुभव द्वारा
ही वह ध्यान
उदित होता है
जो पका हुआ
होता है, जो
खो नहीं सकता।
तो
दो प्रकार की
निर्दोषता
होती है : एक
होती है अज्ञान
के कारण, दूसरी
होती है
जागरूकता के
कारण। बुद्ध
हैं बच्चे की
भांति, और
सब बच्चे हैं
बुद्ध की भाति,
लेकिन एक
विशाल अंतर
बना रहता है।
सारे बच्चे खो
जाएंगे संसार
में। उन्हें
चाहिए अनुभव,
उन्हें
जरूरत होती है
संसार में
फेंक दिये
जाने की। और
यदि अपने
अनुभव द्वारा
वे ध्यान को
उपलब्ध होते
हैं, फिर
प्राप्त कर
लेते हैं
निर्दोषता और
बचपन, तो
फिर कोई नहीं
फेंक सकता
उन्हें। अब वह
आया हुआ होता
है अनुभव में
से, उन्होंने
सीखा होता है
उसे। अब यह
उनका अपना
खजाना होता है।
यदि
हर चीज ठीक
रहती है, तो
तुम फिर बच्चे
बन जाओगे अपने
जीवन के अंत में।
और यही है
सारे धर्मों
का लक्ष्य। और
यही है
पुनर्जन्म का
अर्थ, यही
होता है अर्थ
ईसाइयों के
पुनजग़ॅवत
होने का।
पुनर्जीवन
शरीर का नहीं
होता, यह
तो आत्मा का
होता है, फिर
से व्यक्ति हो
जाता है बच्चे
की भांति। फिर
वह व्यक्ति हो
जाता है
निर्दोष, लेकिन
यह निर्दोषता
आधारित होती
है अनुभव में।
यदि तुम मर
जाते हो फिर
से बच्चा बने
बिना, तो
तुमने अपने
जीवन को जीया
होता है
व्यर्थ ढंग से;
तुम जीये
होते हो व्यर्थता
से; तुमने
बिलकुल गंवा
दिया है अवसर।
और तुम्हें
आना होगा फिर
से, समष्टि
तुम्हें फिर—फिर
वापस फेंकती
जाएगी।
यही
है पुनर्जन्म
का सार
सिद्धात. जब
तक कि तुम
स्वयं ही न
सीखो, समष्टि
संतुष्ट नहीं
होती है तुमसे।
जब तक कि तुम
अपनी ओर से
बच्चे नहीं बन
जाते—तुम्हारे
शरीर के कारण
नहीं, बल्कि
तुम्हारी
बीइंग के कारण—यदि
निर्दोषता
तुम्हारे
द्वारा
प्राप्त की जाती
है, और
निर्दोषता
प्राप्त की
जाती है, सारे
विक्षेपों के
बावजूद, उस
सबके बावजूद
जो वहां है
उसे नष्ट कर
देने को—अन्यथा
तो तुम फेंक
दिए जाओगे फिर
बार—बार।
जीवन
है एक सीखना, यह
एक अनुशासन है।
इसलिए केवल
तुम्हीं नहीं,
बल्कि
प्रत्येक
बच्चा
ध्यानपूर्ण
रहा है और फिर
वह भटक गया।
बच्चा नहीं
भटकता दूसरों
के कारण; एक
मूलभूत
आवश्यकता
होती है। उसे
खो देनी पड़ती
है वह
निर्दोषता।
वह पर्याप्त
रूप से गहरी
नहीं होती, वह बाधाओं
में से नहीं
गुजर सकती। वह
उथली होती है।
तुम
जरा सोचना इस
बारे में : एक
बच्चा निदोंष
होता है, पर
बहुत उथला
होता है।
उसमें कोई
गहराई नहीं
होती। उसकी
सारी भावनाएं
सतही होती हैं।
इस क्षण वह
क्रोध में
होता है, अगले
क्षण वह
क्षमापूर्ण
हो जाता है; बिलकुल भूल
ही गया होता
है। वह जीता
है बहुत उथला
जीवन, उखड़ा
हुआ जीवन।
उसमें कोई
गहराई नहीं
होती। अज्ञान
के पास
निर्दोषता हो
सकती है, पर
गहराई नहीं हो
सकती। गहराई
आती है अनुभव
से।
बुद्ध
में गहराई है, अपरिसीम
गहराई। सतह पर
तो वे बिलकुल
एक बच्चे की
भांति हैं, लेकिन अपने
अस्तित्व की
गहराई में वे
बच्चे की भांति
बिलकुल नहीं
हैं। जन्मों—जन्मों
के सारे अनुभव
ने उन्हें पका
दिया है। कोई
चीज व्याकुल
नहीं कर सकती
उन्हें, कोई
चीज उनकी
निर्दोषता को
नष्ट नहीं कर
सकती—कोई चीज
नहीं, कोई
भी चीज नहीं।
अब उनकी
निर्दोषता
इतनी गहरे में
जुड़ गयी होती
है कि आधी—तूफान
आ सकता है—वस्तुत
उसका स्वागत
होता है—और
वृक्ष उखड़ेगा
नहीं। वह
तूफान के आगमन
पर आनंद
मनाएगा। उसे
उखाड़ने के
तूफान के इस
प्रयत्न पर भी
वह आनंद ही
मनाता है। और
जब तूफान गुजर
जाता है, वह
ज्यादा
शक्तिशाली हो
जाएगा उससे, दुर्बल नहीं।
यही
है भेद : बचपन
की निर्दोषता
एक भेंट होती
है प्रकृति की; निदोंषता
जो तुम
प्राप्त करते
हो तुम्हारे अपने
प्रयास
द्वारा, वह
प्रकृति की दी
हुई भेंट नहीं
होती, तुमने
अर्जित किया
होता है उसे।
और सदा याद
रखना कि जो
कुछ तुमने
अर्जित किया होता
है वह
तुम्हारा
होता है। कोई
चोरी, कोई
डकैती संभव
नहीं अस्तित्व
में। और तुम
उसे उधार नहीं
ले सकते किसी
दूसरे से।
सातवां
प्रश्न :
सपनों
के विषय में
बहुत प्रश्न
पूछे जाते रहे
हैं। किसी ने
पूछा है 'क्या
दिव्य— दर्शन
भी स्वप्न
होते हैं?' 'निद्रा
और स्वप्न में
कैसे सचेत रहा
जाए?' 'कई
बार मुझे लगता
है कि आप मेरे सपनों
में आते हैं।
ऐसे सपनों के
बारे में मुझे
क्या सोचना
होगा?'
हां, दिव्य
— दर्शन वाले
सपने होते हैं
—इस संसार के
नहीं, बल्कि
दूसरे संसार
के। कई बार
तुम्हें
मिलती हैं
दिव्य
झलकियां और यदि
तुम ध्यान
करते हो, तो
तुम्हें
अधिकाधिक
घटेंगी ये।
कुछ समय के
लिए वे बन
जाएंगी बहुत
साधारण घटनाएं।
वे ज्यादा
ऊंचे सपने हैं।
वे चीजों से
संबंधित नहीं
होते, बल्कि
संबंधित होते
हैं तुम्हारी
अंतर्घटना से।
लेकिन फिर भी
वे सपने ही
होते हैं, इसलिए
चिपक मत जाना
उनसे। उनके भी
पार जाना होता
है। यदि तुम
बुद्ध को देखते
हो तुम्हारे
दिव्य—स्वप्न
में, तो
ध्यान रहे कि
यह बुद्ध भी
स्वप्न का ही
भाग है।
निस्संदेह, यह बात
सुंदर होती है,
आध्यात्मिक
होती है, तुम्हारी
खोज में बहुत—बहुत
सहायक होती है,
लेकिन तो भी
चिपक मत जाना
इससे।
झेन
सद्गुरु
सदियों से कह
रहे हैं कि
यदि ध्यान के
समय तुम्हें
बुद्ध मिल
जाएं तो तुरंत
मार देना
उन्हें। एक
क्षण की भी
प्रतीक्षा मत
करना। यदि तुम
नहीं मारते हो
उन्हें, तो वे
मार देंगे
तुम्हें। और
वे ठीक कहते
हैं।
दिव्य—स्वप्न
सुंदर होते
हैं,
लेकिन यदि
तुम उनसे बहुत
ज्यादा
आनंदित होने लगते
हो तो वे
खतरनाक हो
सकते हैं। तब
तुम फिर रुक
जाते हो किसी
अनुभव के साथ
ही। और जब तुम
देखते हो
बुद्ध को तो
यह बात
वस्तुत: ही
सुंदर होती है।
यह वास्तविक
की अपेक्षा
ज्यादा
वास्तविक लगती
है, और
बहुत प्रसाद
होता है
.इसमें। दिव्य—दर्शन
को देखने
मात्र से ही
तुम भीतर गहन
मौन और गहन
शांति अनुभव
करते हो। जब
तुम कृष्ण को
देखते हो उनकी
बांसुरी सहित,
गीत गाते
हुए, तो
कौन साथ नहीं
बने रहना
चाहेगा? साथ
रहना ही
चाहोगे। फिर—फिर
यह दर्शन
दोहराया जाए,
यही चाहोगे।
तब बुद्ध ने
ही मार दिया
होता है
तुम्हें।
जरा
खयाल रखना, यही
है कसौटी : जो
कुछ दिखाई
देता है उसे
स्वप्न की
भांति समझना
है; केवल
देखने वाला ही
वास्तविक
होता है। वह
सब जो दिखायी
देता है, स्वप्न
है—अच्छा, बुरा,
धार्मिक, अधार्मिक, कामुक, आध्यात्मिक—इससे
कुछ भेद नहीं
पड़ता। सपनों
में
कामवासनामयी
अश्लील—लीला
होती है, और
सपनों में ही
आध्यात्मिक
लीला भी होती
है, लेकिन
दोनों लीलाएं
ही हैं।
व्यक्ति को सब
कुछ गिरा देना
होता है। सभी
अनुभव सपना
हैं; केवल
अनुभवकर्ता
है सत्य।
तुम्हें उस
स्थल तक
पहुंचना होता
है, जहां
कुछ भी नहीं
होता देखने को,
कुछ नहीं
होता सुनने को,
कुछ नहीं
होता सूंघने
को, कुछ
नहीं होता
छूने को—केवल
होता है विशाल
आकाश और अकेले
तुम। केवल
द्रष्टा बच
रहता है। सारे
अतिथि चले
जाते हैं, मेहमान
जा चुके होते
हैं, केवल
मेजबान बना
रहता है। जब
यह क्षण आता
है, केवल
तभी घटती है
वास्तविक
घटना। इसके
पहले, दूसरा
सब कुछ सपना
ही है।
दूसरा
प्रश्न पूछा
गया है : 'निद्रा
और स्वप्न में
सचेत कैसे
रहें?
जिस
व्यक्ति ने यह
पूछा है, कहता
है कि वह जब
कभी कोशिश
करता है सजग
होने की, तो
वह सो नहीं
सकता। या, यदि
नींद आ रही
होती है और
अचानक उसे याद
आता है कि उसे
सजग रहना है, तो नींद टूट
जाती है। तब
वह नहीं सो
सकता है—ऐसा
कठिन होता है।
निद्रा
में जागरूकता
का अभ्यास
सीधे—सीधे
नहीं किया जा
सकता है। पहले
तुम्हें
कार्य करना
होता है
जाग्रत अवस्था
पर। सीधे
निद्रा पर ऐसा
करने का
प्रयत्न मत
करना अन्यथा
तुम्हारी
नींद खराब हो जाएगी।
तुम्हारा
सारा दिन
उत्तेजनापूर्ण
हो जाएगा और
तुम अनुभव
करोगे उदास, सुस्त,
उनींदा।
ऐसा मत करना।
सदा
याद रखना कि
एक शृंखला
होती है और
सीढ़ी—दर—सीढ़ी
बढ़ना होता है।
पहली सीडी है
कि सजग रहना, जबकि
जाग रहे होते
हो। निद्रा की
बात तो बिलकुल
ही मत सोचना।
पहले तो तुम जागे
रहना जबकि दिन
में जागे हुए
होते हो। और
जब तुमने
जागरूकता की
पर्याप्त
ऊर्जा एकत्रित
कर ली होती है,
केवल तभी
दूसरा कदम
उठाया जा सकता
है, तब
वस्तुत: कोई
प्रयास होगा
ही नहीं। वही
ऊर्जा जिसे
तुमने दिन में
इकट्ठा कर
लिया होता है
भीतर वह सजग
बनी रहेगी।
किसी प्रयास
की जरूरत न
रहेगी। यदि
प्रयास की
जरूरत होती है,
तो निद्रा
बाधित होगी, क्योंकि
प्रयास
निद्रा के
विरुद्ध होता
.है।
ऐसा
संसार भर में
घटता है :
लाखों लोग
अनिद्रा से
पीड़ित हैं। सौ
में से
निन्यानबे
रोगी ऐसे हैं
कि वे पीड़ित
हो रहे हैं
क्योंकि वे
नींद लाने का
कुछ प्रयास
करते हैं।
प्रयास नींद
का विरोधी है।
वे बहुत से
तरीके आजमाते
हैं नींद लाने
के और वह
प्रयास ही
नींद के
विरुद्ध हो
जाता है।
प्रयास
तुम्हें सजग
बना देता है, प्रयास
बना देता है
तुम्हें
तनावपूर्ण, और नींद तो
है प्रयासहीन
घटना। तुम
एकदम चले जाते
हो नींद में।
तुम्हें कुछ
करने की जरूरत
नहीं होती है।
यदि तुम करते
हो, तो
नींद संभव न
होगी। तुम तो
बस अपना सिर
रख देना तकिए
पर और बिलकुल कुछ
मत करना, प्रतीक्षा
भी मत करना
नींद की।
क्योंकि यदि
तुम
प्रतीक्षा कर
रहे हो नींद
की तो तुम कुछ
कर ही रहे
होते हो—प्रतीक्षा
कर रहे होते
हो। तुम मात्र
लेट जाना
बिस्तर पर, बत्ती बुझा
देना, अपनी
आंखें बंद कर
लेना और नींद
आ जाती है।
तुम इसे ला
नहीं सकते, यह घटती है।
यह कोई कर्म
नहीं होता।
और
नींद के
स्वभाव को
समझना बहुत—सी
चीजों को
समझना है।
समाधि भी उसी
भांति होती है।
इसीलिए आगे चल
कर पतंजलि
कहेंगे कि
निद्रा और
समाधि में कुछ
समानता होती
है। यही है
उनकी समानता :
निद्रा उतरती
है,
और 'सतोरी'
भी और समाधि
भी उतरती है, लेकिन इसे
ले आने के लिए
तुम कुछ नहीं
कर सकते। यदि
तुम करते हो
कोशिश, तो
तुम चूक जाते
हो। यंदि तुम
चूकना नहीं
चाहते, तो
तुम केवल ठहर
जाओ और यह
उतरती है।
इसलिए
मत करना सजग
रहने का कोई
प्रयास, जबकि
तुम्हें नींद
आ रही हो तो।
तुम बिगाड़
लोगे अपनी
नींद और तुम न
पाओगे जागरूकता।
तुम इसका
अभ्यास करना
केवल दिन में।
जब दिन में
तुम अधिकाधिक
सजग हो जाते
हो, तो सजगता
की वही तरंग
ही, अपनी
स्वयं की
ऊर्जा द्वारा,
वह आती है
निद्रा में।
तुम सो जाते
हो फिर भी तुम
अनुभव करते हो
अपने भीतर एक
केंद्र, जो
देख रहा है।
एक प्रकाश, प्रारंभ में
एक छोटा—सा
प्रकाश ही, प्रदीप्त हो
रहा होता है
भीतर, और
तुम देख सकते
हो। पर
प्रारंभ मत
करना इसे ही।
तुम ऐसा करना
जबकि जाग रहे
होते हो, और
ऐसा घटेगा जब
तुम नींद में
होते हो।
'बहुत
लोगों को कई
बार अनुभव
होता है कि आप
उनके सपनों
में आते हैं
तो क्या सोचें
ऐसे सपनों के
बारे में?
वे एक
जैसे नहीं
होते। यह तुम
पर निर्भर है।
कई बार यह
होता होगा
मात्र पहले
प्रकार का स्वप्न; जिसे
मैं कहता हूं
कूड़ा—करकट, क्योंकि तुम
मुझे इतने
ध्यानपूर्वक
सुनते हो कि
एक छाप छूट
जाती मन पर।
और तुम मुझे
सुनते हो
निरंतर, प्रतिदिन,
तुम करते हो
ध्यान, एक
छाप मन पर छूट
जाती है। वह
भारी हो सकती
है। कई बार मन
को निर्मुक्त
करना होता है
उसे; वह
कूड़ा होता है।
लेकिन
स्वप्न दूसरे
प्रकार का भी
हो सकता है : तुम
मुझे ज्यादा
नजदीक चाहोगे।
और मैंने इतनी
सारी बाधाएं
निर्मित की
हुई हैं, तुम्हें
ज्यादा पास
नहीं आने दिया
जाता है। सुबह
तुम देख सकते
हो मुझे; वह
भी दूर से।
शाम को तुम आ
सकते हो, और
वह भी बहुत
कठिनाई से।
इसलिए
तुम्हें
दबाना पड़ता है।
वही दमन
उत्पन्न कर
सकता है दूसरे
प्रकार के स्वप्न
को। तुम्हें
सपना आ सकता
है कि मैं आया
हूं तुम्हारे
पास, या कि
तुम आये हो
मेरे पास, और
बातें कर रहे
हो मुझसे।
यह
हो सकता है
तीसरे प्रकार
का : यह अचेतन
से आया
संप्रेषण हो
सकता है। यदि
यह होता है
तीसरे प्रकार
का,
तब यह होता
है अर्थपूर्ण।
यह तुम्हें
इतना ही
दर्शाता है कि
तुम मुझसे भागने
का प्रयत्न कर
रहे हो।
ज्यादा निकट
आओ। अचेतन यही
कह रहा है, ' भागने
की कोशिश मत
करो और बाहर—बाहर
मत बने रहो; ज्यादा करीब
आओ।'
यह
हो सकता है
चौथे प्रकार
का : तुम्हारे
पिछले जन्म की
कोई बात।
क्योंकि
तुममें से
बहुत मेरे साथ
रह चुके हैं; तो
यह हो सकता है
अतीत का कोई
अंश।
तुम्हारा मन
अतीत पथ पर
सरक रहा होता
है।
यह
पांचवीं
प्रकार का भी
हो सकता है :
भविष्य की कोई
संभावना।
सारे प्रकार
संभव होते हैं।
ये हैं पाच
प्रकार के
स्वप्न। यह हो
सकता है दिव्य—दर्शन, जो
कि एक प्रकार
का स्वप्न ही
होता है। मैं
इसके बारे में
बोला नहीं, क्योंकि
इसकी अलग
गुणवत्ता
होती है
जागरूकता की
गुणवत्ता; वह
भी स्वप्न ही
है। जाग्रत
जीवन भी एक विशाल
स्वप्न होता
है। लेकिन
दिव्य—दर्शन
में गुणवत्ता
होती है
जाग्रत जीवन
की। कई बार
मैं आता हूं
तुम्हारे पास,
पर बहुत कम,
क्योंकि
तुम्हें
अर्जित करना
होता है इसे।
यदि तुम मुझे
देखते हो सौ
बार, तो
निन्यानबे
बार यह उन
पांच प्रकार
के सपनों की
ही कोई बात
होगी। लेकिन
सौवीं बार मैं
आता हूं
तुम्हारे पास
जब तुमने
अर्जित किया
होता है उसे।
तब वह होता है
दर्शन ही।
लेकिन
धीरे— धीरे
तुम्हें सचेत
हो जाना होगा
कि कौन—सी चीज
क्या होती है।
बिलकुल अभी तो
मैं तुम्हें
कसौटी नहीं दे
सकता यह आकने
की,
कि कौन चीज
क्या है।
तुम्हें स्वयं
ही स्वाद लेना
पड़ेगा उनका।
तो
पहले जब
जागरूक हो
जाना, जबकि
तुम जागे हुए
होते हो, दिन
में।
जागरूकता
जबकि तुम जागे
हुए. होते हो, दिन में।
जागरूकता की
अधिकाधिक
ऊर्जा
एकत्रित करना।
इसे इतनी
उमड़ती हुई
धारा बना लेना
कि जब तुम सोते
हो तो
तुम्हारा
शरीर सोता है,
तुम्हारा
मन सोता है, तो भी वह
ऊर्जा, जागरूकता
की वह धार
इतनी
शक्तिशाली
रहे कि वह जारी
रहे। तब तुम
भेद समझ पाओगे।
और जब कोई
सपनों के भेद
समझने योग्य
हो जाता है, तो वह एक बड़ी
उपलब्धि होती
है।
फिर, धीरे—
धीरे, कूड़ा—करकट
छंट जाता है।
पहली प्रकार
के स्वप्न
तिरोहित हो
जाते हैं, क्योंकि
जागरूक
व्यक्ति दिन
में इतनी
संपूर्णता से
जीता है कि वह
कूड़ा एकत्रित
नहीं करता है।
कूड़ा—करकट एक
अधूरा अनुभव
होता है। तुम
खा रहे थे, भोजन
स्वादिष्ट था,
लेकिन तुम
बहुत ज्यादा न
खा सके
क्योंकि तुम
मेहमान थे।
क्या सोचते
होंगे लोग? अधूरा अनुभव
अब कूड़ा हो
गया। अब रात
तुम फिर खाओगे।
तुम्हें
अनुभव को
संपूर्ण करना
ही होगा, अन्यथा
मन और आगे — आगे
चलता चलेगा।
मन
किसी अधूरी
चीज को पसंद
नहीं करता। मन
पूर्णतावादी
होता है : कोई
अधूरी चीज उसे
पसंद नहीं।
यदि एक दात
गिर जाता है
तो जीभ फिर—फिर
वहीं जाती है
क्योंकि कोई
चीज अधूरी
होती है। अब
मन निरंतर
वहीं रहेगा।
यह बेतुकी बात
है क्योंकि
मात्र जीभ से
छू लेने
द्वारा, कुछ
घटने वाला
नहीं, लेकिन
मन कोशिश
करेगा बार—बार।
पहले ऐसी
कोशिश कभी न
की गयी थी जब
कि दात वहां
था, लेकिन
अब कुछ अधूरा
हो जाता है।
मनसविद
कहते हैं, बंदर
तक भी—क्योंकि
उनके भी
तुम्हारी तरह
के ही मन होते
हैं—यदि तुम
आधावर्तुल
बनाते हो और
चाक वहीं छोड़
देते हो, तो
वे वर्तुल को
पूरा कर देंगे।
बंदर! क्योंकि
वे बरदाश्त
नहीं कर सकते
अधूरे वर्तुल
को, वे उसे
तुरंत पूरा कर
देंगे।
मन
सदा कोशिश कर
रहा होता है
चीजों को पूरा
करने की। जब
तुम जागरूक हो
जाते हो तो
पहली प्रकार
का स्वप्न
तिरोहित हो
जाता है। तुम
जीवन को इतने
संपूर्ण रूप
से जीते हो कि
कोई जरूरत
नहीं रहती
उसकी। और फिर, धीरे—
धीरे दूसरे
प्रकार का
स्वप्न
तिरोहित हो
जाता है, क्योंकि
तुम इच्छाओं
में नहीं जीते।
वह आदमी जो
जागरूक होता
है, आवश्यकताओं
में जीता है, इच्छाओं में
नहीं। इसलिए
कोई जरूरत
नहीं होती
किसी आकांक्षापूर्ति
की। उसके पास
कुछ होता नहीं,
अत: वह
स्वप्न में
किसी देश का
राष्ट्रपति
कभी नहीं बनता
है। उसकी कोई
इच्छा नहीं, कोई आकांक्षा
नहीं। वह बहुत
साधारण ढंग से
जीता है। जीवन
का स्वाभाविक
प्रवाह ही
पर्याप्त
होता है। भोजन
करते हुए
परितृप्त
अनुभव करता है;
पानी पीता
है, परितृप्त
अनुभव करता है;
अच्छी नींद
सोता है—तो
उतना
पर्याप्त
होता है; ज्यादा
की मांग नहीं
की जाती है।
फिर
तीसरे प्रकार
का स्वप्न
तिरोहित हो
जाता है। पहले
दो प्रकारों
के तिरोहित
होने से चेतन
और अचेतन इतने
ज्यादा निकट आ
जाते हैं कि
स्वप्न में
कुछ
संप्रेषित
करने की कोई
जरूरत नहीं रहती।
वस्तुत: अचेतन
संपर्कित
होने लगता है
जब तुम पूरी
तरह जागरूक
होते हो। तब
चीजें सीधी—साफ
हो जाती हैं; संप्रेषण
सही हो जाता
है। तब चौथे
प्रकार का
स्वप्न
तिरोहित हो
जाता है। जब
तुम अपने जीवन
में, इतने
चैन से भर
जाते हो, जाग्रत
हो जाते हो, संपूर्णतया
परितृप्त हो
जाते हो, तो
अतीत पूरी तरह
गिर जाता है।
तुम्हें अतीत
में जाने की
कोई जरूरत
नहीं रहती।
तुम इसी क्षण
में जीते हो; अतीत
तिरोहित हो
जाता है, और
तब पांचवीं
प्रकार का
स्वप्न
तिरोहित हो जाता
है। तुम इतनी
समग्रता से
इसी क्षण में
जीते हो, तुम
इतने जाग्रत
होते हो, इतने
पूर्णरूप से
जाग्रत कि
तुम्हारे लिए
कोई भविष्य
नहीं बचता।
और
जब सभी पांचों
प्रकार के
स्वप्न
तिरोहित हो
जाते हैं; तो
अवास्तविकता
मिट चुकी होती
है, भ्रम
तिरोहित हो
चुके होते हैं।
अब पहली बार
तुम उपलब्ध
करते हो
वास्तविक के बोध
को, ब्रह्म
को।
आज
इतना ही।
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