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बुधवार, 26 मार्च 2014

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--2) प्रवचन--21

पतंजलि:  योग—सूत्र (भाग—2)
ओशो

(योग: दि अल्‍फा एंड दि ओगेगा शीर्षक से ओशो द्वारा अंग्रेजी में दिए गए सौ अमृत प्रवचनो में से द्वितीय बीस प्रवचनों  का हिंदी में अनुवाद।)

पतंजलि रहे है बड़ी अद्भुत मदद—अतलनीय। लाखों गुजर चुके है इस संसार से पंतजलि की सहायता से, क्‍योंकि वे अपनी समझ के अनुसार बात नहीं कहते; वे तुम्‍हारे साथ चलते है। और जैसे—जैसे तुम्‍हारी समझ विकसित होती है, वे ज्‍यादा गहरे और गहरे जाते है। पंतजलि पीछे हो लेते है शिष्‍य के। ......पतंजलि तुम तक आते है। .....पतंजलि तुम्‍हारा हाथ थाम लेते है और धीरे—धीरे वे तुम्‍हें (चेतना के) संभावित उच्‍चतम शिखर तक ले जाते है......।
पंतजलि बहुत युक्‍तियुक्‍त है—बहुत समझदार है।
वे बढ़ते है चरण—चरण; चे तुम्‍हें ले जाते है।
वहां से जहां तक कि तुम हो।
वे आते है घाटी तक; तुम्‍हारा हाथ थाम लेते है।
और कहते है—एक एक कदम उठाओ।....
पतंजलि की सुनना ठीक से। न ही केवल
सुनना,बल्‍कि कोशिश करना सारतत्‍व को
आत्‍मसात करने की।
बहुत कुछ संभव है उनके द्वारा।
वे इस पृथ्‍वी पर हुए अंतर्यात्रा के महानतम
वैज्ञानिकों में से एक है।
ओशो


निद्राकालीन जागरूकता—पहला प्रवचन 

दिनांक 1 मार्च, 1975;
श्री रजनीश आश्रम,पूना।

योगसूत्र—(समाधिपाद)

स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बन वा।। 38।।

उस बोध पर भी ध्यान करो, जो निद्रा के समय उतर आता है।

            यथाभिमतध्‍यानाद्वा।। 39।।

ध्‍यान करो किसी उस चीज पर भी, जो कि तुम्‍हें आकर्षित करती है।
           
परमाणुपरममहत्‍वान्‍तोउस्‍य वशीकार:।। 40।।

इस प्रकार योगी हो जाता है सब का मालिक—अति सूक्ष्‍म परमाणु से लेकर अपरिसीम तक का।


दमी अपनी जिंदगी का करीब एक तिहाई भाग, लगभग बीस वर्ष निद्रा में व्यतीत करता है। लेकिन निद्रा उपेक्षित की जाती रही है, भयंकर रूप से उपेक्षित हुई है। कोई इसके बारे में सोचता नहीं, कोई इस पर ध्यान नहीं देता। ऐसा हुआ है, क्योंकि आदमी ने चेतन मन की ओर बहुत ज्यादा ध्यान लगाया है। मन के तीन आयाम हैं। जैसे भौतिक पदार्थ के तीन आयाम हैं, मन के भी तीन आयाम हैं। मात्र एक आयाम ही चेतन है। दूसरा आयाम अचेतन है और फिर एक दूसरा आयाम भी मौजूद है, जो है अतिचेतन, परम चेतन। ये तीन आयाम होते हैं मन के। ऐसा बिलकुल भौतिक पदार्थ की भांति होता है, क्योंकि गहराई में मन भी भौतिक पदार्थ है। या तुम इसे दूसरे ढंग से कह सकते हो—पदार्थ ही मन है। ऐसा है, क्योंकि केवल एक सत्ता ही अस्तित्व रखती है।
मन सूक्ष्म पदार्थ है, पदार्थ स्थूल मन है। लेकिन साधारणतया आदमी केवल एक आयाम में रहता है, चेतन में। निद्रा संबंधित है अचेतन से; सपने संबंध रखते हैं अचेतन से; ध्यान और आनंद का संबंध है परमचेतन से; जागना और चिंतन करना संबंधित है चेतन से।
पहली बात जो ध्यान में ले लेनी है मन के विषय में वह यह है कि यह एक आइसबर्ग की तरह, बर्फ की चट्टान की तरह ही है—सबसे ऊंचा भाग होता है सतह पर। तुम देख सकते हो इसे, लेकिन यह मात्र एक दसवां हिस्सा होता है संपूर्ण का। दस के बाकी नौ भाग पानी के नीचे छिपे होते हैं। साधारणत: तुम इसे नहीं देख सकते, जब तक कि तुम गहराई में न जाओ। पर ये तो दो ही आयाम हुए। एक तीसरा आयाम है बिलकुल वैसा ही जब किसी आइसबर्ग का एक भाग वाष्प बन जाता है और आकाश में मंडराता एक छोटा बादल बन जाता है। कठिन है अचेतन तक पहुंचना। यह करीब—करीब असंभव है उस बादल तक पहुंच पाना। निस्संदेह यह उसी आइसबर्ग का हिस्सा है लेकिन वाष्प बना होता है।
इसलिए ध्यान इतना कठिन है, समाधि इतनी दुस्साध्य है। यह व्यक्ति की समग्र ऊर्जा ले लेती है। यह मांगती है व्यक्ति की समग्र प्रतिबद्धता। केवल तभी अतिचेतन की बादल सदृश घटना में कोई ऊर्ध्वगामी गति संभव हो पाती है। चेतन मन तो सहज क्रियाशील है। तुम चेतन के द्वारा सुन रहे हो मुझे। यदि तुम सोच रहे हो उस पर जो कि मैं कह रहा हूं यदि तुम भीतर ही भीतर संवाद बना रहे हो उसके साथ जो कुछ मैं कह रहा हूं यदि एक प्रकार की व्याख्या भीतर चल रही है, तो यह है चेतन मन।
लेकिन तुम मुझे सुन सकते हो बिना चिंतन—विचार किए—गहन प्रेम में, हृदय से हृदय तक, जो कुछ मैं कह रहा हूं उसके साथ किसी भी ढंग की शाब्दिक क्रिया न बनाते हुए, जो कुछ मैं कह रहा हूं उस पर निर्णय न देते हुए, उसे गलत या सही न सोचते हुए, किसी भी मूल्यांकन के बिना। नहीं; तुम बस सुनते हो गहन प्रेम में जैसे कि मन जा चुका हो और हृदय सुनता हौ और आनंद से स्पंदित हो—तब अचेतन सुन रहा होता है। तब जो कुछ मैं कहता हूं तुम्हारी जड़ों में बहुत गहरे उतरेगा।
लेकिन एक तीसरी संभावना है कि तुम परम चेतन द्वारा सुन सकते हो। तब प्रेम भी एक बेचैन उत्तेजना होता है—बहुत सूक्ष्म, लेकिन प्रेम भी एक उत्तेजना होता है। तब वहां कुछ नहीं होता, कोई विचार नहीं, कोई मनोभाव नहीं। तुम इस छोर से उस छोर तक खाली हो जाते हो, एक शून्यता बन जाते हो। तब जो कुछ मैं कहता हूं और जो कुछ मैं हूं,वह उसी शून्यता में उतरता है। तब तुम अतिचेतन द्वारा सुन रहे होते हो।
ये होते हैं तीन आयाम। जब तुम जागे होते हो, तो तुम चेतन मन में जीते हो; तुम काम करते हो, तुम सोचते हो, तुम यह—वह करते रहते हो। जब तुम सो जाते हो तो चेतन मन अब नहीं होता कार्य करने को, वह आराम कर रहा होता है। तब दूसरा आयाम क्रियाशील हो जाता है, अचेतन मन का आयाम। तब तुम सोच नहीं सकते, लेकिन तुम सपना देख सकते हो। सारी रात में करीब—करीब आठ आवर्तन होते हैं निरंतर आने वाले सपनों के। केवल कुछ क्षणों के लिए तुम सपना नहीं देख रहे होते, अन्यथा तो तुम सपना ही देख रहे होते हो।
पतंजलि कहते हैं :

      उस बोध पर भी ध्यान करो जो निद्रा के समय उतर आता है।

 तुम तो बस नींद में ऐसे जा पड़ते हो जैसे कि यह एक प्रकार से अनुपस्थित हो जाना हो। ऐसा नहीं है—इसकी अपनी मौजूदगी होती है। निद्रा जागने का अभाव मात्र ही नहीं है। यदि ऐसा होता, तो ध्यान करने को कुछ होता ही नहीं। निद्रा अहंकार की भांति या प्रकाश की अनुपस्थिति की भाति नहीं है। निद्रा की एक अपनी विधायकता होती है। यह अस्तित्व रखती है और इसका अस्तित्व होता है उतना ही जितना कि तुम्हारे जागने के समय का। जब तुम ध्यान करते हो और निद्रा के रहस्य तुम्हारे सामने उद्घाटित होते हैं, तब तुम देखोगे कि जागने और सोने के बीच कोई भेद नहीं है। दोनों पूर्णतया अस्तित्व रखते हैं। निद्रा जागने के बाद का विश्राम मात्र नहीं है, यह एक अलग प्रकार की क्रिया होती है, इसलिए होते हैं सपने।
सपना एक जबरदस्त क्रिया है—यह अधिक शक्तिशाली है तुम्हारे सोचने की अपेक्षा और अधिक अर्थपूर्ण भी, क्योंकि वे तुम्हारे सोचने—विचारने की अपेक्षा तुम्हारे ज्यादा गहरे अंश से संबंधित होते हैं। जब तुम निद्रा में उतरते हो, तब मन जो दिन भर काम कर रहा था, थका होता है, निढाल होता है। यह मन एक बहुत छोटा हिस्सा होता है, अचेतन की तुलना में दशांश ही। अचेतन नौ गुना ज्यादा बडा और ज्यादा विशाल और ज्यादा शक्तिशाली है। यदि तुम इसे तौलो अतिचेतन के साथ, तो तुलना संभव नहीं। अतिचेतन अपरिसीम है, परमचेतना होती है सर्वशक्तिमय, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ। परमचेतना वह है जो परमात्मा है। अचेतन की तुलना में चेतन मन बहुत छोटा है। यह थक जाता है, इसे चाहिए आराम पुन: आविष्ट होने के लिए। निद्रा में चेतन मन डूब जाता है और सपने की एक जोरदार क्रिया आरंभ हो जाती है।
क्यों होती रही है यह उपेक्षित? क्योंकि मन प्रशिक्षित होता रहा है चेतन से तादात्म्य बनाते रहने के लिए ही, अत: तुम सोचते हो कि तुम सोते समय 'नहीं' हो जाते हो। इसीलिए निद्रा जान पड़ती है एक छोटी—मोटी मृत्यु की भांति ही। तुम बिलकुल सोचते ही नहीं कभी—इस बारे में कि क्या हो रहा है।
पतंजलि कहते हैं, 'इस पर ध्यान करो और बहुत सारी चीजें अनावृत हो जाएंगी तुम्हारे अस्तित्व के भीतर। '
थोड़ा समय लगेगा निद्रा में जागरूकता सहित उतरने के लिये क्योंकि तुम तो तब भी जागरूक नहीं होते जबकि तुम जागे हुए होते हो। वास्तव में, तुम्हारे जागरण में भी तुम यूं चलते—फिरते हो जैसे कि तुम गहरे रूप से सोये हुए हो; नींद में चलने वाले हो, निद्राचारी हो। वास्तव में तुम कुछ बहुत जागे हुए नहीं हो। मात्र इसलिए कि आंखें खुली हुई हैं तो ऐसा मत सोच लेना कि तुम जागे हुए हो। जागने का तो मतलब होता है कि जो कुछ तुम कर रहे हो और जो कुछ क्षण—प्रतिक्षण घट रहा है तुम उसे पूरे होश सहित कर रहे हो। यदि मैं अपना हाथ भी उठाता हूं तुम्हारी ओर संकेत करने को, तो मैं उसे गति दे रहा होता हूं पूरे होश के साथ। ऐसा किया जा सकता है यांत्रिक पुतले की भांति, मशीनी ढंग से। तुम्हें होश नहीं होता कि हाथ को क्या घट रहा है। वस्तुत: तुमने इसे बिलकुल ही नहीं हिलाया—डुलाया होता। यह अपने से हिला—डुला है, यह अचेतन है। इसीलिए अपनी नींद को बेध कर उसे जानना बहुत कठिन है।
लेकिन यदि कोई प्रयत्न करता है तो पहला प्रयास यह होता है—कि जब तुम जागे हुए होते हो तो अधिक जागना। वहां से आरंभ करना होता है प्रयास का। सड़क पर चलते हुए होशपूर्वक चलना, जैसे कि तुम कोई बहुत महत्वपूर्ण बात कर रहे हो, बहुत अर्थपूर्ण बात। हर कदम पूरी जागरूकता सहित उठाना चाहिए। यदि तुम ऐसा कर सकते हो, केवल तभी तुम प्रवेश कर सकते हो निद्रा में। बिलकुल अभी तो तुम्हारे पास बड़ी धुंधली, बड़ी मद्धिम जागरूकता है। जिस क्षण तुम्हारा चेतन मन सो जाता है, वह धुंधली जागरूकता छोटी—सी तरंग की भांति तिरोहित हो जाती है। उसके पास कोई ऊर्जा नहीं रहती; यह बहुत धुंधली होती है, मात्र एक टिमटिमाहट, एक जीरो वोल्टेज घटना की भांति ही। तुम्हें ले आनी होती है इसमें अधिक ऊर्जा, इतनी अधिक ऊर्जा कि जब चेतन मन बुझ जाता हो तो जागरूकता अपने से ही जारी रहे—तुम सोओ जागरूकता सहित। ऐसा घट सकता है यदि तुम होशपूर्वक करते हो दूसरे कार्य. तुम्हारा चलना, भोजन करना, सोना, नहाना। सारे दिन जो कुछ भी तुम कर रहे होते हो वह मात्र एक बहाना बन जाता है सचेतपूर्ण होने के भीतरी प्रशिक्षण का। कार्य का स्थान दूसरा हो जाता है और कार्य द्वारा आयी जागरूकता प्राथमिक बात हो जाती है।
जब रात को तुम सारी क्रिया गिरा देते हो और तुम सोने लगते हो, तो वह जागरूकता जारी रहती है चाहे तुम सोये भी रही। जागरूकता एक साक्षी बन जाती है. ही, शरीर नींद में डूबता चला जाता है। धीरे— धीरे शरीर आराम में उतरता चला जाता है। ऐसा नहीं है. कि तुम भीतर ऐसा शब्दों में बोलते हो; तुम तो बस देखते हो. धीरे— धीरे, विचार तिरोहित हो रहे होते हैं। तुम अंतरालों को देखते हो—धीरे— धीरे संसार बहुत दूर होता जाता है। तुम उतर रहे होते हो अपने भीतरी तलघरे में, अचेतन में। यदि तुम जागरूकता सहित नींद में उतर सकते हो, केवल तभी रात्रि में भीतर होश की निरंतरता बनी रहेगी। यही अर्थ है पतंजलि का जब वे कहते हैं कि 'उस बोध पर ध्यान करो जो निद्रा द्वारा चला आता है। '
और निद्रा बहुत ज्ञान दे सेंकती है, क्योंकि वहां तुम्हारी अंतस—संपत्ति का भंडार है, बहुत से जन्मों का भंडार। तुम बहुत चीजें वहां संचित किये रहते हो।
सबसे पहले जागरूक होने का प्रयास करना जबकि तुम जागे हुए होते हो, जब तुम जाग्रत अवस्था में होते हो। जब, वह जागरूकता स्वयं ही इतनी शक्तिशाली हो जाती है कि इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता कि तुम कौन—सा कार्य कर रहे हो—वस्तुत चलना या सपने में चलना इनमें कोई भेद नहीं रहता। जब पहली बार तुम सोते हो जागरूकता सहित, तुम देखोगे कि गियर्स किस प्रकार बदलते हैं। जब सजगता तिरोहित होने लगती है, तुम्हें एक बदलाहट (क्लिक) का भी अनुभव होगा; चेतन मन जा चुका है और एक दूसरा ही क्षेत्र प्रारंभ हो रहा है। अंतससत्ता के गियर्स परिवर्तित हो गये हैं। इन दोनों गियर्स के बीच एक छोटा—सा अंतराल होता है, एक निष्‍क्रिय गियर का। जब कभी गियर परिवर्तित होता है, उसे बीच के निष्किय मार्ग में से गुजरना पड़ता है। धीरे — धीरे तुम केवल गियर्स के परिवर्तन के प्रति ही जाग्रत नहीं होओगे बल्कि दोनों के बीच के अंतराल के प्रति जाग्रत हो जाओगे। उस अंतराल के बीच तुम प्रथम झलक पाओगे अतिचेतन की।
जब चेतन मन अचेतन में परिवर्तित होता है, तो क्षण के बहुत सूक्ष्म भाग भर को ही तुम देख पाओगे अतिचेतन को। लेकिन वह तो बाद का अध्याय है कथा में। केवल प्रसंगवश ही मैंने इसका उल्लेख किया। पहले तो तुम अचेतन का बोध पाओगे। वह बात तुम्हारे जीवन में एक जबरदस्त। परिवर्तन ले आयेगी।
जब तुम अपने सपनों को देखना शुरू कर देते हो तो तुम पाओगे पांच प्रकार के स्वप्न। पहले प्रकार का स्वप्न तो मात्र कूड़ा करकट होता है। हजारों मनोविश्लेषक बस उसी कूड़े पर कार्य कर रहे हैं, यह बिलकुल व्यर्थ है। ऐसा होता है क्योंकि सारे दिन में, दिन भर काम करते हुए तुम बहुत कूड़ा—कचरा इकट्ठा कर लेते हो। बिलकुल ऐसे ही जैसे शरीर पर आ जमती है धूल और तुम्हें जरूरत होती है स्नान की, तुम्हें जरूरत होती है सफाई की, इसी ढंग से मन इकट्ठा कर लेता है धूल को। लेकिन मन को स्नान कराने का कोई उपाय नहीं। इसलिए मन के पास' होती है एक स्वचालित प्रक्रिया सारी धूल और कूड़े को बाहर फेंक देने की। पहली प्रकार का स्वप्न कुछ नहीं है सिवाय उस धूल को उठाने के जिसे मन फेंक रहा होता है। यह सपनों का सर्वाधिक बड़ा भाग होता है, लगभग नब्बे प्रतिशत। सभी सपनों का करीब—करीब नब्बे प्रतिशत तो फेंक दी गयी धूल मात्र होता है; मत देना ज्यादा ध्यान उनकी ओर। धीरे— धीरे जैसे—जैसे तुम्हारी जागरूकता विकसित होती जाती है तुम देख पाओगे कि धूल क्या होती है'
दूसरे प्रकार का स्वप्न एक प्रकार की इच्छा की परिपूर्ति है। बहुत—सी आवश्यकताएं होती हैं,. स्वाभाविक आवश्यकताएं, लेकिन पंडित—पुरोहितों ने और उन तथाकथित धार्मिक शिक्षकों ने तुम्हारे मन को विषैला बना दिया है। वे नहीं पूरी होने देंगे तुम्हारी आधारभूत आवश्यकताएं भी। उन्होंने पूरी तरह निंदा की है उनकी और वह निंदा तुममें प्रवेश कर गयी है, इसलिए तुम्हारी बहुत—सी आवश्यकताओं की भूख तुम्हें बनी रहती है। वे भूखी आवश्यकताएं परिपूर्ति की मांग करती हैं। दूसरी प्रकार का स्वप्न और कुछ नहीं है सिवाय आकांक्षापूर्ति के। पंडित—पुरोहितों और तुम्हारे मन को विषाक्त करने वालों के कारण जो कुछ भी तुमने अपने अस्तित्व के प्रति अस्वीकृत किया है, मन किसी न किसी ढंग से उसे सपनों द्वारा पूरा करने की कोशिश करता है।
अभी कल ही एक युवक आया था; बहुत समझदार, बहुत संवेदनशील। वह पूछने लगा मुझसे, 'मैं आया हूं एक बहुत महत्व का प्रश्न पूछने के लिए। मेरा सारा जीवन इस पर निर्भर करता है। मेरे माता—पिता मजबूर कर रहे हैं मुझे विवाह करने के लिए और मैं इसमें कोई अर्थ नहीं देखता। इसीलिए मैं आपसे पूछने आया हूं। विवाह अर्थपूर्ण होता है या नहीं? मुझे विवाह करना चाहिए या नहीं?' मैंने उससे कहा, 'जब तुम प्यास अनुभव करते हो तो क्या तुम पूछते हो कि पानी पीना अर्थपूर्ण है या नहीं? मुझे पानी पीना चाहिए या नहीं? अर्थ का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। सवाल तो इसका है कि तुम प्यासे हो या नहीं। हो सकता है कि पानी में कोई अर्थ न हो और कोई अर्थ न हो पीने में, पर वह तो असंबंधित बात हुई।' संबंधित बात तो यह होती है कि तुम प्यासे हो या नहीं। '
और मैं जानता हूं कि यदि तुम बार—बार भी पियो, तुम प्यासे ही बने रहोगे। मन कह सकता है, 'क्या है इसमें अर्थ, क्या है प्रयोजन फिर—फिर पानी पीने में और फिर से प्यासे होने में? यह तो यांत्रिक लीक सी जान पड़ती है। इसमें कोई अर्थ नहीं जान पड़ता। '
इसी तरह चेतन मन कोशिश करता रहा है तुम्हारे सारे अस्तित्व पर अधिकार करने की क्योंकि अर्थ संबंधरखते हैं चेतन मन के साथ। अचेतन किसी अर्थ को नहीं जानता है। यह जानता है भूख को, यह जानता है प्यास को, यह जानता है आवश्यकताओं को; पर यह नहीं जानता किसी अर्थ को। वस्तुत: जीवन का कोई अर्थ नहीं है। यदि तुम पूछते हो तो तुम आत्मघात की पूछ रहे हो। जीवन का कोई अर्थ नहीं है। यह तो बस अस्तित्व रखता है और बिना अर्थ के यह इतने सौंदर्यपूर्ण ढंग से अस्तित्व रखता है कि अर्थ की कोई आवश्यकता नहीं। क्या अर्थ है एक वृक्ष के विद्यमान होने में, या प्रात: हर दिन सूर्योदय होने में, या कि रात को चांद के होने में? जब एक वृक्ष फलने—फूलने लगता है तो क्या अर्थ होता है इसका? और क्या अर्थ होता है इसमें, जब प्रात: पक्षी चहचहाते हैं, जब नदी प्रवाहित होती जाती है और लहरें, वे बड़ी—बड़ी अद्भुत लहरें सागर की चट्टानों पर फिर—फिर और फिर—फिर बिछल चकनाचूर होती रहती हैं? क्या होता है अर्थ?
समग्रता का कोई अर्थ नहीं है। समग्रता बहुत सुंदरता से अस्तित्व रखती है बिना अर्थ के ही। वस्तुत: यदि कहीं कोई अर्थ होता तो समग्रता इतनी सुंदर न होती। क्योंकि अर्थ के साथ ही चली आती है विचारित गणना, अर्थ के साथ ही आ पहुंचती है चालाकी, अर्थ के साथ आता है तर्क, अर्थ के साथ चला आता है भेद : यह अर्थपूर्ण है, वह अर्थहीन है, यह अधिक अर्थपूर्ण है, यह कम अर्थपूर्ण है। समग्रता अस्तित्व रखती है बिना किन्हीं भेदों के। हर चीज परम सौदर्यवान होती है किसी अर्थ के कारण नहीं, बल्कि मात्र मौजूद होने से ही। कोई प्रयोजन नहीं होता।
तो मैंने कहा उस युवक से, 'यदि तुम अर्थ पूछते हो, तो तुम गलत सवाल पूछ रहे हो और यह तुम्हें गलत दिशाओं में भटकाएगा। इसी तरह पंडित—पुरोहित इतने शक्तिशाली बन गये हैं; तुमने पूछे हैं गलत सवाल और उन्होंने दे दिये गलत जवाब। तुम केवल अपने होने को ध्यान से देखो। स्वयं को तृप्त करने के लिए क्या तुम्हें एक स्त्री की जरूरत है? क्या तुम्हारे समस्त प्राण ललकते हैं प्रेम के लिए? क्योंकि प्रेम एक भूख है, एक प्यास है। जब तुम किसी सुंदर स्त्री को देखते हो पास से गुजरते हुए तब क्या तुम में अकस्मात् कुछ घटता है? —कोई तरंग, कोई अदृश्य बात, कोई परिवर्तन? या कुछ नहीं घटता है? क्या तुम उसी ढंग से चलते —फिरते रहते हो जैसे कि तुम तब चलते रहते यदि यह स्त्री पास से न गुजरी होती? यदि तुम सड़क पर चलते हो और कोई सुंदर स्त्री गुजर जाती है, और तुम उसी तरह से चलते जाते हो जैसे कि तुम उस स्त्री के आने से पहले चल रहे थे, कुछ घटित नहीं हुआ होता, कोई तरंग नहीं उठी तुम्हारे प्राणों में, एक छोटी—सी लहर तक भी नहीं, तब कोई आवश्यकता नहीं है विवाह की। लेकिन अर्थ के विषय में कुछ मत पूछना। यदि कुछ घटता है, यदि तुम थोड़ा ज्यादा तेज चलने लगते हो या तुम कोई धुन गुनगुनाने लगते हो या तुम उस सुंदर स्त्री की ओर देखने लगते हो या तुम उससे बचना शुरू कर देते हो; यदि कुछ घटता है उस ढंग से या इस ढंग से—मुझे इससे कुछ लेना—देना नहीं है कि किस ढंग से घटता है; तुम उसी दिशा में चलने लगते हो जिस ओर स्त्री जा रही होती है या कि तुम विपरीत दिशा की ओर भागने लगते हो, प्रासंगिकता इसकी नहीं है—यदि कुछ घटता है तो तुम्हारे पास आवश्यकता है और पूरी करनी होती है वह आवश्यकता। क्योंकि आवश्यकता विद्यमान होती है पूरी होने के लिए ही। कोई दिन आ सकता है जब तुम सड़क पर किसी स्त्री के पास से गुजरोगे और इससे कुछ अंतर नहीं पड़ेगा। वह अच्छा है, लेकिन यह भी अच्छा है। हर चीज पवित्र और पावन है। एक समय होता है प्रेम में पड़ने का और एक समय होता है इससे पार हो जाने का। एक समय होता है संबंध में जुड्ने का, संबंध द्वारा आनंदित होने का और समय आता है अकेले हो जाने का और अकेले होने के सौंदर्य से आनंदित होने का। और हर चीज सौंदर्यपूर्ण है।
लेकिन व्यक्ति को देखना चाहिए आवश्यकता की ओर, अर्थ की ओर नहीं। अर्थ, चेतन मन की बात है, आवश्यकता है अचेतन की बात। इसी भांति दूसरे प्रकार का स्वप्न अस्तित्व में आता है; तुम अपनी आवश्यकताएं काटते चले जाते हो, तब मन उन्हें पूरा करता है सपनों में। शायद तुम विवाह न करो क्योंकि तुमने महान पुस्तकें पढ़ ली हैं और तुम्हें विचारकों द्वारा विष दे दिया गया है। उन्होंने तुम्हारे मन को निश्चित नमूनों में ढाल दिया है। तुम स्वयं अस्तित्व के प्रति खुले नहीं हो; दर्शनशास्त्रों ने तुम्हें अंधा बना दिया है। तब तुम अपनी आवश्यकताओं को काटने लगोगे और वे आवश्यकताएं फूट पड़ेगी सपनों की सतह पर। अचेतन किसी दर्शन को नहीं जानता, अचेतन किसी अर्थ को नहीं जानता, किसी प्रयोजन को नहीं जानता। अचेतन तो केवल एक बात जानता है : जिसकी तुम्हारे अस्तित्व को आवश्यकता है उसे पूरा होना है।
फिर अचेतन अपने सपनों को लादता है। यह दूसरे प्रकार का स्वप्न होता है; समझने और ध्यान करने के लिए बहुत अर्थवान है। अचेतन प्रयत्न कर रहा है तुम्हें यह सूचित करने का कि 'मूर्ख मत बुनो! तुम इसके लिए दुख उठाओगे। और अपने अस्तित्व को भूखा मत रखो। आत्मघाती मत बनो। अपनी आवश्यकताओं को मारते हुए धीमा आत्मघात मत करते जाओ। '
ध्यान रहे इच्छाएं होती हैं चेतन मन की और आवश्यकताएं होती हैं अचेतन की। यह भेद बहुत अर्थवान है, बहुत महत्वपूर्ण है समझने के लिए।
इच्छाएं हैं चेतन मन की। अचेतन किन्हीं इच्छाओं को नहीं जानता है, इच्छाओं की फिक्र अचेतन को नहीं है। होती क्या है इच्छा? इच्छा फूटती है तुम्हारे सोचने—विचारने से, शिक्षा से, संस्कारों से। तुम देश के राष्ट्रपति होना चाहोगे; अचेतन को इस बात की फिक्र नहीं होती है। राष्ट्र के राष्ट्रपति हौ जाने में अचेतन की कोई रुचि नहीं है। अचेतन को तो मात्र इसमें रुचि है कि एक परितृप्त जीवंत समग्रता किस प्रकार हुआ जाए। लेकिन चेतन मन कहता है, 'राष्ट्रपति हो जाओ। और यदि राष्ट्रपति होने में तुम्हे तुम्हारी स्त्री को त्यागना पड़े तो त्याग देना उसे। यदि तुम्हारी देह की बलि देनी पड़े तो दे देना। यदि तुम्हें बाकी सुख चैन त्यागना पड़े तो कर देना उसका त्याग। पहले तो देश के राष्ट्रपति हो जाओ। 'या बहुत धन एकत्रित करना, वह भी चेतन मन की बात है। अचेतन तो किसी धन को जानता नहीं। अचेतन जानता है केवल स्वाभाविक को। यह समाज से अछूता होता है। अचेतन होता है पशुओं या पक्षियों की भांति, या वृक्षों की भांति। अचेतन समाज द्वारा, राजनेताओं द्वारा अनुकूलित नहीं होता रहा, संस्कारबद्ध नहीं होता रहा। वह अभी भी शुद्ध बना हुआ है।
दूसरे प्रकार के स्वप्न की सुनो और उस पर ध्यान करो। वह तुम्हें बतलाएगा कि तुम्हारी आवश्यकता क्या है। आवश्यकताओं को पूरा कर दो और इच्छाओं की फिक्र मत लेना। यदि वास्तव में ही तुम आनंद पूर्ण होना चाहते हो, तो आवश्यकताओं को पूरा करो और इच्छाओं की चिंता मत करो। यदि तुम दुखी होना चाहते हो तो आवश्यकताओं को काट दो और इच्छाओं का अनुसरण करो।
इसी भांति तुम बने हो दुखी। यह एक सीधी—साफ घटना है कि तुम दुखी हो या आनंदमय। साफ है घटना—वह व्यक्ति जो आवश्यकताओं की सुनता है और उनके पीछे चलता है, ठीक सागर की ओर प्रवाहित हो रही नदी की भांति है। नदी नहीं मान कर चलती है कि पूरब की ओर बहना है या पश्चिम की ओर बहना है। वह तो बस खोज लेती है मार्ग। पूरब या कि पश्चिम कोई भेद नहीं बनाती। सागर की ओर बहती नदी किन्हीं इच्छाओं से परिचित नहीं होती, वह केवल अपनी आवश्यकताओं को जानती— पहचानती है। इसलिए पशु इतने प्रसन्न दिखायी देते हैं—कुछ पास नहीं होता और इतने प्रसन्न! और तुम्हारे पास इतनी सारी चीजें हैं और तुम इतने दुखी हो। पशु भी अपने सौंदर्य में, अपने आनंद में तुमसे बढ़ कर श्रेष्ठ हैं। क्या घट रहा है? पशुओं के पास अचेतन को नियंत्रित करने को और चालाकी से चलाने को कोई चेतन मन नहीं होता है; वे अविभाजित बने रहते हैं।
दूसरे प्रकार के स्वप्न के पास तुम्हारे सम्मुख उद्घाटित करने को बहुत कुछ होता है। दूसरे प्रकार के साथ तुम परिवर्तित करने लगते हो अपनी चेतना को, तुम बदलने लगते हो अपने व्यवहांर को, तुम अपने जीवन का ढांचा बदलने लगते हो। अपनी आवश्यकताओं की सुनो, जो कुछ भी अचेतन कह रहा हो, उसे सुनो।
हमेशा याद रखना कि अचेतन सही होता है क्योंकि उसके पास युगों—युगों की बुद्धिमानी होती है। लाखों जन्मों से अस्तित्व रखते हो तुम। चेतन मन तो इसी जीवन से संबंध रखता है। यह प्रशिक्षित होता रहा है— 'विद्यालयों में और विश्वविद्यालयों में, परिवार और समाज में जहां तुम उत्पन्न हुए हो, संयोगवशात उत्पन्न हुए हो। लेकिन अचेतन साथ लिए रहता है तुम्हारे सारे जीवनों के अनुभव। यह वहन करता है उसका अनुभव जब तुम एक चट्टान थे, यह वहन करता है उसका अनुभव जब तुम एक वृक्ष थे, यह साथ बनाए रखता है उसका अनुभव जब तुम पशु थे—यह सारी बातें साथ लिए रहता है, सारा अतीत। अचेतन बहुत बुद्धिमान है और चेतन बहुत मूर्ख। ऐसा होता ही है क्योंकि चेतन मन तो मात्र इसी जीवन का होता है; बहुत छोटा, बहुत अनुभवहीन। यह बहुत बचकाना होता है। अचेतन है प्राचीन बोध। उसकी सुनो।
अब पश्चिम में सारा मनोविश्लेषण केवल यही कर रहा है और कुछ नहीं : दूसरे प्रकार के स्वप्न पर ध्यान दे रहा है और उसी के अनुसार तुम्हारे जीवन—ढांचे को बदल रहा है। और मनोविश्लेषण ने मदद की है बहुत लोगों की। इसकी कुछ अपनी सीमाएं हैं, तो भी इसने मदद दी है क्योंकि कम से कम यह बात, दूसरे प्रकार के स्वप्न को सुनना, तुम्हारे जीवन को बना देती है अधिक शात, कम तनावपूर्ण।
फिर होता है तीसरे प्रकार का स्वप्न। यह तीसरे प्रकार का स्वप्न अतिचेतन से आया संकेत है। दूसरे प्रकार का स्वप्न अचेतन से आया संप्रेषण है। तीसरे प्रकार का स्वप्न बहुत विरल होता है, क्योंकि हमने अतिचेतन के साथ सारा संपर्क खो दिया है। लेकिन फिर भी यह उतरता है क्योंकि अतिचेतन तुम्हारा है। हो सकता है कि यह बादल बन चुका हो और आकाश में बढ़ गया हो, विलीन हो गया हो, हो सकता है कि दूरी बहुत ज्यादा हो, लेकिन यह अब भी तुममें लंगर डाले हुए है।
अतिचेतन से आया संप्रेषण बहुत विरल होता है। जब तुम बहुत—बहुत जागरूक हो जाते हो केवल तभी तुम इसे अनुभव करने लगोगे। अन्यथा यह उस धूल में खो जाएगा जिसे मन फेंकता है सपनों में, और खो जाएगा उस आकांक्षापूर्ति में जिसके सपने मन बनाये चला जाता है; वे अधूरी दबी हुई चीजें। यह उनमें खो जाएगा। लेकिन जब तुम जागरूक होते हो तो यह बात हीरे के चमकने जैसी होती है—वे सारे कंकड़ जो चारों ओर हैं उनसे नितांत भिन्न।
जब तुम अनुभव कर सकते हो और वह स्वप्न पा सकते हो जो कि अतिचेतन से उतर रहा होता है तो उसे देखना, उस पर ध्यान करना; वही तुम्हारा मार्गदर्शन बन जाएगा, वह तुम्हें सद्गुरु तक ले जाएगा, वह तुम्हें ले जाएगा जीवन के उस ढंग तक जो कि तुम्हारे अनुकूल पड़ सकता है, जो तुम्हें ले जाएगा सम्यक् अनुशासन की ओर। वह सपना भीतर एक गहन मार्गदर्शक बन जाएगा। चेतन के साथ तुम ढूंढ़ सकते हो गुरु को, लेकिन वह गुरु और कुछ नहीं होगा सिवाय शिक्षक के। अचेतन के साथ तुम खोज सकते हो गुरु को, लेकिन गुरु एक प्रेमी से ज्यादा कुछ नहीं होगा—तुम एक निश्चित व्यक्तित्व के, एक निश्चित ढंग के प्रेम में पड़ जाओगे। केवल अतिचेतन तुम्हें सम्यक् गुरु तक ले जा सकता है। तब वह शिक्षक नहीं होता; जो वह कहता है उससे तुम सम्मोहित नहीं होते; जो वह है उसके साथ अंधे सम्मोहन में नहीं पड़ते हो तुम। बल्कि इसके विपरीत तुम निर्देशित होते हो तुम्हारे परमचेतन के द्वारा कि इस व्यक्ति से तुम्हारा तालमेल बैठेगा और विकसित होने के लिए इस व्यक्ति के साथ एक सही संभावना बनेगी तुम्हारे लिए, कि यह आदमी तुम्हारे लिए आधार भूमि बन सकता है।
फिर होते हैं. चौथे प्रकार के स्वप्न जो कि आते हैं पिछले जन्मों से। वे बहुत विरल नहीं होते। वे घटते हैं, बहुत बार आते हैं वे। लेकिन हर चीज तुम्हारे भीतर इतनी गड़बड़ी में है कि तुम कोई भेद नहीं कर पाते। तुम वहां होते नहीं भेद समझने को।
पूरब में हमने बहुत परिश्रम किया है इस चौथे प्रकार के स्वप्न पर। इसी स्वप्न के कारण हमें प्राप्त हो गयी पुनर्जन्म की धारणा। इस स्वप्न द्वारा धीरे— धीरे तुम जागरूक होते हो पिछले जन्मों के प्रति। तुम जाते हो पीछे और पीछे की ओर अतीतकाल में। तब बहुत सारी चीजें तुममें परिवर्तित होने लगती हैं, क्योंकि यदि तुम्हें स्मरण आ सकता है, सपने में भी कि तुम क्या थे तुम्हारे पिछले जन्म में, बहुत—सी नयी चीजें अर्थहीन हो जाएंगी। सारा ढांचा बदल जाएगा, तुम्हारा रंग—ढंग, गेस्टाल्ट बदल जायेगा।
यदि तुमने पिछले जन्म में बहुत—सारा धन एकत्रित किया था, यदि तुम देश के सबसे धनी व्यक्ति होकर मरे थे और गहरे में तुम भिखारी थे और फिर तुम वही कर रहे हो इस जीवन में, तो अकस्मात क्रिया—कलाप बदल जायेगा। यदि तुम याद रख सको कि तुमने क्या किया था और कैसे वह सब कुछ हो गया ना—कुछ; यदि तुम याद रख सको बहुत सारे जन्म कि कितनी बार तुम वही बात फिर—फिर कर

रहे हो—तुम, अटके हुए ग्रामोफोन रेकार्ड की भांति हो, एक दुश्चक्र; फिर तुम उसी तरह आरंभ करते हो और उसी तरह अंत करते हो। यदि तुम याद कर सको तुम्हारे थोड़े—से भी जन्म तो तुम एकदम आश्चर्यचकित हो जाओगे कि तुमने एक भी नयी बात नहीं की है। फिर—फिर तुमने धन एकत्रित किया; बार—बार तुम ज्ञानी बने; फिर—फिर तुम प्रेम में पड़े, और फिर—फिर चला आया वही दुख जिसे प्रेम ले आता है। जब तुम देख लेते हो यह दोहराव तो कैसे तुम वही बने रह सकते हो? तब यह जीवन अकस्मात रूपांतरित हो जाता है। तुम अब और नहीं रह सकते उसी पुरानी लीक में, उसी चक्र में।
इसीलिये पूरब में लोग पूछते आये हैं बार—बार कई शताब्दियों से, 'जीवन और मृत्यु के इस चक्र से कैसे बाहर आएं। ' यह जान पड़ता है वही चक्र। यह जान पड़ती है बार—बार की वही कथा—स्व दोहराव। यदि तुम इसे नहीं जान लेते तो तुम सोचते हो कि तुम नयी बातें कर रहे हो और तुम इतने उत्तेजित हो जाते हो। मैं देख सकता हूं कि तुम यही बातें करते रहे हो बार—बार।
कुछ नया नहीं है जीवन में; यह एक चक्र है। यह उसी मार्ग पर बढ़ता चला जाता है क्योंकि तुम अतीत के विषय में भूलते चले जाते हो। इसीलिये तुम इतनी अधिक उत्तेजना अनुभव करते हो। एक बार तुम्हें स्मृति आ जाती है, तो सारी उत्तेजना गिर जाती है। उसी स्मरण में संन्यास घटता है।
संन्यास एक प्रयास है संसार के चक्र में से बाहर होने का। यह प्रयास है चक्र के बाहर छलांग लगा देने का। यह है कह देना स्वयं से, 'बहुत हो गया अब मैं उस पुरानी नासमझी में भाग नहीं लेने वाला। मैं बाहर हो रहा हूं उससे। 'संन्यास है इस चक्र से संपूर्णतया बाहर हो जाना, न ही केवल समाज के बाहर बल्कि जीवन—मृत्यु के तुम्हारे भीतरी चक्र के बाहर। यह है चौथे प्रकार का स्वप्न।
और फिर होता है पांचवें प्रकार का और जो अंतिम प्रकार का स्वप्न है। चौथी प्रकार का जा रहा होता है पीछे तुम्हारे अतीत में, पांचवीं प्रकार का जा रहा होता है आगे भविष्य में। यह विरल होता है बहुत विरल। यह केवल कभी—कभी ही घटता है। जब तुम होते हो बहुत संवेदनशील, खुले, नमनीय तो अतीत देता है एक छाया और भविष्य भी देता है छाया; यह तुममें प्रतिबिंबित होता है। यदि तुम जागरूक बन सकते हो अपने सपनों के प्रति तो किसी दिन तुम जागरूक हो जाओगे इस संभावना के प्रति भी कि भविष्य तुममें झांकता है। एकदम अकस्मात ही द्वार खुल जाता है और भविष्य का तुममें संप्रेषण हो जाता है।
ये होते हैं पांच प्रकार के स्वप्न। आधुनिक मनोविज्ञान समझता है केवल दूसरे प्रकार को। रूसी मनोविज्ञान समझता है केवल पहले प्रकार को ही। तीन प्रकार—बाकी दूसरे तीनों प्रकार करीब—करीब अज्ञात ही हैं, लेकिन योग समझता है उन सभी प्रकारों को।
यदि तुम ध्यान करो और सपनों वाले तुम्हारे आंतरिक अस्तित्व के प्रति जागरूक हो जाओ तो और बहुत बातें घटेंगी। पहली बात तो यह है कि धीरे— धीरे, जितना अधिक तुम जागरूक होते जाओगे अपने सपनों के प्रति, उतने ही तुम कम और कम कायल होओगे अपने जागने के समय की वास्तविकता के प्रति। इसीलिए हिंदू कहते हैं कि संसार एक सपने की भांति है। अभी तो बिलकुल विपरीत है अवस्था। क्योंकि तुमने संसार की वास्तविकता को इतना स्वीकारा हुआ है अपने जागने के समय, कि जब तुम सपने देखते हो तो तुम सोचते हो वे सपने भी वास्तविक हैं। जब सपना आ रहा होता है, तो कोई अनुभव नहीं करता कि वह सपना अवास्तविक है। जब सपना आ रहा हो तो वह ठीक लगता है, वह बिलकुल वास्तविक लगता है। निस्संदेह सुबह तुम कह सकते हो कि यह तो बस एक सपना था, लेकिन बात इसकी नहीं क्योंकि अब एक दूसरा मन ही कार्य कर रहा होता है। यह मन साक्षी बिलकुल न था; इस मन ने तो केवल उड़ती खबर सुनी थी। यह चेतन मन जो सुबह जागता है और कहता है कि वह सब सपना था, यह मन तो बिलकुल साक्षी न था। कैसे यह मन कह सकता है कुछ? इसने तो बस एक खबर सुन ली है। यह ऐसा है जैसे कि तुम सोये हो और दो व्यक्ति बातें कर रहे हों और तुम नींद में यहां—वहां से कुछ शब्द सुन लेते हो क्योंकि वे इतनी जोर से बोल रहे होते हैं। मात्र मिला—जुला प्रभाव बचता है।
ऐसा घट रहा होता है—जब अचेतन निर्मित करता है सपने और जबरदस्त हलचल चल रही होती है, चेतन मन सोया हुआ होता है और केवल कोई खबर सुन लेता है। सुबह यह कह देता है, 'वह सब धोखा था। वह मात्र सपना था। 'अभी तो जब कभी तुम सपना देखते हो तब तुम अनुभव करते हो कि वह बिलकुल वास्तविक है। बेतुकी चीजें भी वास्तविक लगती हैं, अतर्कपूर्ण चीजें वास्तविक दिखायी पड़ती हैं, क्योंकि अचेतन किसी तर्क को नहीं जानता। तुम सड़क पर चल रहे होते हो सपने में, तुम देखते हो किसी घोड़े को आते, और अचानक वह घोड़ा घोड़ा नहीं होता, वह घोड़ा तुम्हारी पत्नी बन गया होता है। तुम्हारे मन को कुछ नहीं घटता। वह नहीं पूछता, 'यह कैसे संभव होता है? घोड़ा अचानक पत्नी कैसे बन गया है?' कोई समस्या नहीं उठती, कोई संदेह नहीं उठता। अचेतन नहीं जानता किसी संदेह को। इतनी बेतुकी बात पर भी विश्वास कर लिया जाता है; उसकी वास्तविकता के प्रति संदेह दूर हो जाता है तुम्हारा।
बिलकुल विपरीत घटता है जब तुम जागरूक हो जाते हो सपनों के प्रति। तुम अनुभव करते हो कि वे वस्तुत: सपने ही हैं। कोई चीज वास्तविक नहीं; वे मात्र मन का खेल हैं, एक मनोनाटक। तुम हो रंगमंच, तुम्हीं हो अभिनेता और तुम्हीं हो कथा लेखक, तुम्हीं हो निर्देशक, तुम्हीं हो निर्माता और तुम्हीं होते हो दर्शक—दूसरा कोई नहीं है वहां, बस मन का सृजन है। जब तुम इस बात के प्रति जागरूक हो जाते हो, तब तुम जाग रहे होते हो, तब यह सारा संसार अपनी गुणवत्ता बदल देगा। तब तुम देखोगे कि यहां भी वही अवस्था है, लेकिन ज्यादा लंबे—चौड़े रंगमंच पर। सपना वही है।
हिंदू इस संसार को कहते हैं माया, भ्रम, स्वप्न—सदृश, मन की चीजों का धोखा। क्या मतलब होता है उनका? क्या वे यह अर्थ करते हैं कि यह अवास्तविक है? नहीं, यह अवास्तविक नहीं है। लेकिन जब तुम्हारा मन इसमें घुल—मिल जाता है तो तुम अपना एक अवास्तविक संसार बना लेते हो। हम एक तरह के संसार में नहीं जीते; हर कोई अपने ही संसार में जीता है। उतने ही संसार हैं जितने कि मन हैं। जब हिंदू कहते हैं कि यह संसार माया है, तो उनका अर्थ होता है कि वास्तविकता और मन का जोड है माया। वास्तविकता, जो कि है, हम जानते नहीं हैं। वास्तविकता और मन का जोड़ है भ्रम, माया।_ जब कोई समग्र रूप से जाग जाता है, एक बुद्ध हो जाता है, तब वह जानता है मन से मुक्त हो गयी वास्तविकता को। तब यह होता है सत्य, ब्रह्म, परम।
वास्तविकता और मन का जोड़, और हर चीज सपना हो जाती है, क्योंकि मन है वह कच्चा माल जो निर्मित करता है सपनों को। मन से न जुड़ी हुई वास्तविकता—और कोई चीज सपना नहीं हो सकती, केवल वास्तविकता बनी रहती है। अपनी पारदर्शक शुद्धता में।
मन तो दर्पण की भांति होता है। दर्पण में संसार प्रतिबिंबित होता है। वह छाया वास्तविक नहीं हो सकती; वह छाया तो बस छाया ही रहती है। जब कोई दर्पण नहीं रहता, छाया तिरोहित हो जाती है। अब तुम देख सकते हो वास्तविक को।
पूर्णिमा की रात, झील शात होती है। चांद प्रतिबिंबित होता है झील में और तुम कोशिश करते हो चांद को पकड़ने की। यही सब है जो हर कोई कर रहा है बहुत जन्मों से, कोशिश कर रहा है झील के दर्पण में झलकते चांद को पकड़ने की। और निस्संदेह तुम कभी सफल नहीं हुए। तुम सफल हो नहीं सकते, ऐसा संभव नहीं। व्यक्ति को भूलना ही होता है झील को और देखना होता है ठीक विपरीत दिशा में। वहां है चांद।
मन है झील जिसमें संसार बन जाता है मायामय, अवास्तविक। तुम बंद आंखों से देखते हो सपना या कि खुली आंखों से इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। यदि मन है वहां, तो सब जो घटता है वह सपना है। यह होगा पहला बोध यदि तुम ध्यान करो स्वप्नों पर।
और दूसरा बोध होगा कि तुम साक्षी हो : सपना मौजूद है, पर तुम उसके हिस्से नहीं। तुम हिस्से नहीं अपने मन के, तुम हो एक अतिक्रमण। तुम हो मन में, पर तुम नहीं हो मन। तुम देखते हो मन के द्वारा, पर तुम नहीं हो मन। तुम प्रयोग करते हो मन का, पर तुम नहीं हो मन। अकस्मात तुम होते हो साक्षी—मन नहीं रहते। और यह साक्षी अंतिम होता है, परम बोध। फिर चाहे तुम सपना देखो जबकि सोये होते हो या कि फिर सपना देखो जबकि तुम जागे होते हो इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता; तुम साक्षी बने रहते हो। तुम बने रहते हो संसार में, लेकिन अब संसार तुममें प्रवेश नहीं कर सकता। चीजें हैं वहां, लेकिन मन नहीं होता चीजों में, और चीजें नहीं होती मन में। अकस्मात साक्षी उतर आता है और हर चीज बदल जाती है।
यह बहुत—बहुत सीधा है यदि एक बार तुम इसका राज जान लेते हो तो, अन्यथा यह लगता है बहुत—बहुत कठिन, लगभग असंभव ही कि कैसे जागो जब सपना चल रहा हो तो? यह लगता है असंभव, लेकिन है नहीं। इसमें लगेंगे तीन से नौ महीने तक यदि तुम हर रात सोने लगो और जब नींद आने लगे, तो तुम प्रयत्न करो सचेत होने का। लेकिन ध्यान रहे, सक्रिय ढंग से कोशिश मत करना सचेत होने की अन्यथा तुम सो ही न पाओगे। एक निफिय होश बन जाना—खुले, स्वाभाविक, विश्रांत, मात्र देखते हुए एक कोने से। इसके बारे में बहुत क्रियाशील नहीं, वरन मात्र निष्किय जागरूकता, बहुत संबंधित नहीं। किनारे बैठे हुए हो, साथ नदी बह रही है। और तुम केवल देख रहे हो। तीन से लेकर नौ महीने लगेंगे इसमें।
फिर किसी दिन, नींद तुम पर उतर रही होती है किसी धुंधले आवरण की भांति, काले परदे की भांति, जैसे कि सूर्य अस्त हो गया हो और रात उतर रही हो। यह तुम्हारे चारों ओर ठहर जाती है, लेकिन भीतर गहरे में एक लौ जलती रहती है। तुम देख रहे होते हो मौन, निष्कंप हुए। फिर सपनों का संसार प्रारंभ हो जाता है। तब बहुत नाटक घटते हैं, बहुत से मनोनाटक और तुम देखते चले जाते हो। धीरे— धीरे भेद अस्तित्व में आता है। अब तुम देख सकते हो कि कौन से प्रकार का सपना देख रहे हो तुम। फिर अचानक एक दिन तुम जान लेते हो कि यह वैसा ही है जैसा जागने के समय होता है। इनकी गुणवत्ता में कोई भेद नहीं। सारा संसार भ्रममय तो हो चुका होता है। और जब संसार भ्रममय होता है केवल तब साक्षी होता है वास्तविक। यही अर्थ होता पतंजलि का जब वे कहते हैं, 'उस ज्ञान पर भी ध्यान करो जो आता है निद्रा के समय'—और वह तुम्हें बना देगा बोधमय व्यक्ति।

 ध्यान करो किसी उस चीज पर भी जो कि तुम्हें आकर्षित करती हो।

ध्यान करो अपनी प्रेमिका के, अपने प्रेमी के चेहरे पर—ध्यान करो। यदि तुम प्रेम करते हो फूलों से तो ध्यान करना गुलाब का। ध्यान करना चांद का या जो भी तुम पसंद करते हो उसका। यदि तुम्हें प्रेम है भोजन से तो ध्यान करो भोजन पर। क्यों कहते हैं पतंजलि कि '... जो कुछ तुम्हें आकर्षित करता हो। ' क्योंकि ध्यान कोई जबरदस्ती का प्रयास नहीं होना चाहिए। यदि यह जबरदस्ती का होता है तो यह बेकार होता है। एकदम शुरू से ही। जबरदस्ती से लादी हुई बात तुम्हें कभी स्वाभाविक नहीं बनायेगी। बिलकुल शुरू से ही कोई ऐसी चीज ढूंढना जो तुम्हें आकर्षित करती हो। कोई जरूरत नहीं अनावश्यक संघर्ष निर्मित कर लेने की। यह बात समझ लेनी है, क्योंकि यदि तुम मन को वही विषय देते हो जो उसे आकर्षित करते हों तो मन के पास स्वाभाविक क्षमता होती है ध्यान करने की।
जैसे किसी छोटे से विद्यालय में, एक बच्चा वृक्षों पर चहचहाते पक्षियों को सुनता है। और वह एकदम सुन रहा होता है, वह सुनने में विभोर होता है, वह संपर्क में होता है। वह भूल चुका होता है शिक्षक को, वह भूल जाता है कक्षा को। वह अब वहां नहीं रहा; वह आनंदमग्न ध्यान में है। ध्यान घट गया है। और फिर शिक्षक कहता है, 'क्या कर रहे हो तुम? क्या तुम सोये हुए हो? यहां एकाग्रता लाओ बोर्ड पर। ' अब बच्चे को कोशिश करनी पड़ती है, प्रयास करना पड़ता है। उन पक्षियों ने तो बच्चे से कभी न कहा था कि 'देखो, हम यहां चहचहा रहे हैं। एकाग्र हो जाओ। ' यह तो बस घटता है। क्योंकि बच्चे के लिए इसमें एक गहन आकर्षण था। ब्लैकबोर्ड इतना असुंदर लगता है और शिक्षक लगता है हत्यारा। सारी बात ही जबरदस्ती की होती है। वह करेगा कोशिश लेकिन प्रयत्न द्वारा तो कोई नहीं कर सकता ध्यान। फिर—फिर सरकेगा मन। तो कमरे के बाहर बहुत सारी चीजें घटित हो रही होती हैं अचानक कोई कुत्ता भौंकने लगता है, या कि कोई भिखारी गुजर जाता है गाना गाते हुए या कोई बजा रहा होता है गिटार। बहुत सारी लाखों चीजें बाहर घटित हो रही होती हैं। लेकिन उसे बार—बार अपना ध्यान लाना पड़ता है ब्लैकबोर्ड पर ही, विद्यालय की कक्षा के असुंदर कमरे कीईं ओर ही।
हमने स्कूल बना दिये हैं कैदखानों की भांति ही। भारत में स्कूल की इमारतों और जेल की इमारतों का रंग एक ही होता है—लाल। स्कूलों के कमरे होते हैं असुंदर। कोई आकर्षक चीज नहीं होती वहां—कोई खिलौने नहीं, संगीत नहीं, वृक्ष नहीं, पक्षी नहीं—कुछ नहीं। स्कूल का कमरा होता है तुम्हारे ध्यान पर जबरदस्ती करने के लिये। तुम्हें सीखना पड़ता है एकाग्र होना।
और यही है भेद एकाग्रता और ध्यान के बीच—एकाग्रता एक जोर—जबरदस्ती की बात है, ध्यान स्वाभाविक होता है। पतंजलि कहते हैं, 'साथ ही किसी उस चीज पर ध्यान करना जो तुम्हें आकर्षित करती हो' —तब तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व सहज भाव से प्रवाहित होने लगता है। जरा अपनी प्रेमिका के चेहरे की ओर देखना। उसकी आंखों में देखना, ध्यान करना।
साधारणत: धार्मिक शिक्षक तो कहेंगे — 'क्या कर रहे हो तुम? क्या यह ध्यान हुआ?' वे तुम्‍हें सिखाते हैं कि जब तुम ध्यान कर रहे होते हो, तो अपनी प्रेमिका के विषय में मत सोचना। वे सोचते हैं : वह एक ध्यान भंग है। और यह एक सूक्ष्म बात है समझ लेने की—सृष्टि में विक्षेप कहीं नहीं होता। यदि तुम अस्वाभाविक प्रयास करते हो तब घटित होते हैं विक्षेप—तुम निर्मित करते हो उन्हें। तुम्हारा सारा अस्तित्व चाहेगा देखना तुम्हारी पत्नी को, पति को, बच्चे के चेहरे को और धार्मिक शिक्षक कहते हैं—'यह मोह है, यह विक्षेप है। तुम मंदिर जाओ और चर्च जाओ और ध्यान लगाओ क्रॉस पर। ' तुम ध्यान करते हो क्रॉस पर तो भी फिर—फिर ध्यान में आती है तुम्हारी प्रेमिका। अब प्रेमिका का चेहरा बन जाता है चित्त को आकर्षित करने वाला। ऐसा नहीं है कि वह चित्त को विचलित करने वाला होता है। क्रॉस पर ध्यान करने में कोई खास बात नहीं होती है; तुम बस मूढ़ मालूम होते हो। क्या जरूरत है जाकर क्रॉस पर ध्यान करने की! यदि ऐसा तुम्हें आकर्षित करता है तो यह अच्छा है लेकिन यह कोई आवश्यक नहीं है। क्रॉस में ही कोई खास गुण नहीं है।
वस्तुत: जहां भी ध्यान घटता है वहां विशिष्ट गुणवत्ता होती है। ध्यान ले आता है उस विशिष्ट गुणवत्ता को। यह गुणवत्ता नहीं होती है विषय—वस्तुओं में, यह होती है तुममें ही। जब तुम किसी चीज पर ध्यान करते हो, तुम उसे दे देते हो अपनी अंतस सत्ता। अकस्मात वह हो जाती है पावन, पवित्र। चीजें पावन नहीं होतीं, ध्यान उन्हें बना देता है पावन। तुम किसी चट्टान पर ध्यान कर सकते हो और सहसा वह चट्टान हो जाती है मंदिर। कोई बुद्ध इतना सौंदर्यपूर्ण नहीं होता जितनी कि वह चट्टान जबकि तुम उस पर ध्यान करते हो। ध्यान है क्या? यह है चट्टान को बौछारों से सराबोर करना तुम्हारी चेतना द्वारा। यह है चट्टान के चारों ओर गतिमान होना, इतना निमग्न होना, इतनी गहनता से संपर्कित होना कि एक सेतु वहां आ जुड़ता है तुम्हारे और चट्टान के बीच। अंतराल तिरोहित हो जाता है—तुम जुड़ जाते हो चट्टान के साथ। वास्तव में अभी तो तुम जानते ही नहीं कौन द्रष्टा है और कौन दृश्य। द्रष्टा ही बन जाता है दृश्य, दृश्य ही बन जाता है द्रष्टा। अब तुम नहीं जानते चट्टान क्या है, कौन है और ध्यानी कौन है। अचानक ऊर्जाएं मिलती हैं और सम्मिलित हो जाती हैं और वहां होता है मंदिर। अनावश्यक ही विक्षेपों को निर्मित मत करो, क्योंकि तब तुम बन जाते हो दुखी।
कोई यहां था और बहुत वर्षों से वह एक निश्चित प्रकार का मंत्र दोहराता था। वह बोला, ' ध्यान बार—बार भंग होता है। ' मैंने पूछा, 'विक्षेप किस बात से है?' उसकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी और वह उसे बहुत प्रेम करता था। मैं जानता था उस स्त्री को, वह सचमुच ही सुंदर व्यक्तित्व वाली थी। उसने फिर विवाह नहीं किया। वह वास्तव में ही प्रेम करता था उससे। किसी दूसरी स्त्री ने फिर उसे आकर्षित न किया। अब वह मर चुकी थी और रिक्तता आ बनी थी और वह अनुभव करता था अकेलापन। इसी अकेलेपन के कारण ही वह गया किसी शिक्षक के पास, यह जानने को कि कैसे छुटकारा पाये अपनी पत्नी की याद से, उसने दे दिया उसे कोई मंत्र। अब वह जप कर रहा है उस मंत्र का कम से कम तीन वर्षों से और बार—बार जब वह जप कर रहा होता है मंत्र का, एक रोबोट की भांति, तो पत्नी आ पहुंचती है, वह चेहरा सामने चला आता है। वह नहीं भूल पाया पत्नी को। वह मंत्र पर्याप्त शक्तिशाली सिद्ध नहीं हुआ। तो वह था यहां और था बहुत दुखी। वह कहता था, तीन साल गुजर गए हैं और मैं सदा आविष्ट रहता हूं उसकी स्मृति से। ऐसा जान पड़ता है कि मैं इससे बाहर नहीं आ सकता। इस मंत्र ने भी कोई मदद नहीं की। और तीन सालों से सचमुच मैं धार्मिकता से करता रहा हूं इसे। ' मैंने कहा, 'तुम मूढ़ हो। इस मंत्र का जप करने की कोई जरूरत नहीं। तुम्हारी पत्नी का नाम दोहराओ; उसे ही बना लो मंत्र। उसकी तस्वीर रख लो अपने सामने और देखो उस तस्वीर को। उसे परमात्मा की प्रतिच्छवि बना लो। 'वह कहने लगा, 'क्या कह रहे हैं आप? वही तो मेरे चित्त का विक्षेप है। ' तो मैंने कहा उससे, 'ध्यानभंग करने वाले को अपना ध्यान बना लो। क्यों खड़ा करना संघर्ष?'
विक्षेप के विषय को ही ध्यान का विषय बनाया जा सकता है। और यह विक्षेप होता है क्योंकि गहन तल पर कोई आकर्षण है, कोई समस्वरता है। इसीलिए मंत्र अशक्त, बेकार सिद्ध हुआ। मंत्र तो बस बाहर से आरोपित हुआ था। कोई कहता है कोई शब्द और तुम दोहरा देते हो उसे, लेकिन शब्द का तुम्हारे लिए कोई आकर्षण नहीं होता। पहले तुम्हारे लिए वह अस्तित्व ही न रखता था, उसकी कोई जड़ें नहीं उतरी हुई हैं तुममें। पत्नी बहुत गहरे उतरी हुई थी। प्रेम ज्यादा गहरा होता है किसी मंत्र से।
मैंने कहा, 'क्यों करते हो अपना समय खराब?' वह कहने लगा, 'मैं कोशिश करूंगा। ' बस थोड़े ही दिनों बाद उसने पत्र लिखा यह कहते हुए, 'यह बड़ी आश्चर्यजनक बात है! मैं बहुत मौन और बहुत शांतिपूर्ण अनुभव करता हूं और वास्तव में मेरी पत्नी बहुत सुंदर है, यह सोचने की कोई जरूरत नहीं है कि वह मेरा ध्यान भंग कर रही है। '
इसे खयाल में रखना, क्योंकि हो सकता है तुम इसी प्रकार की बहुत बातें कर रहे होओ। जब कभी तुम्हें अनुभव हो कि कोई चीज ध्यान भंग कर रही है तो वह केवल इतना ही बताती ही है कि तुम सहज रूप से उसके प्रति आकर्षित हो और कोई बात नहीं। क्यों खड़ा करना संघर्ष? उसी दिशा में बढ़ो; उसे ही विषय बना लो ध्यान का। स्वाभाविक बने रहो, दमनात्मक मत बनो और संघर्ष मत बनाओ और तुम ध्यान प्राप्त कर लोगे।
कोई उपलब्ध नहीं होता संघर्ष द्वारा। संघर्ष निर्मित कर देगा खंडित व्यक्तित्व। स्वाभाविक आकर्षण की ओर बढ़ो; तब तुम एक होते हो, तब तुम संपूर्ण हो जाते हो। तब तुम भीतर एक जुट होते हो। तब तुम एक संपूर्ण खंड होते हो, अखंड, न कि स्वयं के विरुद्ध बंटा हुआ भवन। और जब तुम संपूर्ण खंड के रूप में बढ़ते हो तो तुम्हारे पांवों में नृत्य थिरकता है और ऐसा कुछ नहीं होता जो कि दिव्य न हो। तुम तो शायद आश्चर्य करोगे।
ऐसा हुआ कि एक महान बौद्ध भिक्षु नागार्जुन एक छोटे से गांव में ठहरे हुए थे। कोई उनके पास आया क्योंकि वह उनके प्रति बहुत आकर्षित हो गया था। उस आदमी ने कहा, ' आपके जीवन का ढंग जिस तरह से भिखारी के वेश में आप सम्राट की तरह घूमते हैं, बहुत गहरे रूप से आकर्षित करता है। मैं भी बनना चाहूंगा धार्मिक व्यक्ति। लेकिन एक अड़चन है। मेरे पास एक गाय है और मैं उसे बहुत ज्यादा प्यार करता हूं और वह इतनी सुंदर है कि मैं उसे नहीं छोड़ सकता। ' उसके पास तो सिर्फ एक गाय थी। उसकी कोई पत्नी न थी, बच्चे न थे, उसका विवाह ही न हुआ था, वह प्रेम करता था केवल गाय से।' जब वह यह बात कह रहा था—उसने स्वयं को थोड़ा नासमझ भी अनुभव किया। वह बोला, 'मैं जानता हूं कि आप समझेंगे इसीलिए मैं यह कह रहा हूं। बस, केवल यही है मेरी सारी अड़चन. इतनी ज्यादा अनुरक्ति है इस गाय से। मैंने ही पाला पोसा है उसे और वह इतनी ज्यादा मेरे साथ एक हो गई है और वह मुझे प्रेम करती है। तो क्या करना होगा?' नागार्जुन बोले, 'कोई जरूरत नहीं है कहीं किसी जगह जाने की। यदि कोई किसी से प्रेम करता है इतनी गहराई से तो कोई जरूरत नहीं है कहीं जाने की, 'कुछ करने की। इसी प्रेम को बना लो अपना ध्यान। गाय पर करो ध्यान। '
कोई संघर्ष मत बनाओ। इसे जरा खयाल में ले लेना, यदि प्रेम और ध्यान का संघर्ष होता है तो ध्यान पराजित होगा। प्रेम विजयी होगा क्योंकि प्रेम बहुत सुंदर होता है। केवल प्रेम—पंखों पर चढ़कर ही विजयी हो सकता है ध्यान। प्रेम का वाहन की भांति प्रयोग करना।
यही अर्थ करते हैं पतंजलि जब वे कहते हैं, 'साथ ही किसी उस चीज पर ध्यान करो जो तुम्हें आकर्षित करती हो। ' जो कुछ भी है वह; मैं नहीं बनाता कोई भेद। कोई जरूरत नहीं किसी एक विषय—वस्तु से चिपक जाने की क्योंकि विषय बदल सकते हैं। इस सुबह तुम अनुभव कर सकते हो ऐसा कि तुम प्रेम करते हो अपने बच्चे से और कल शायद तुम ऐसा अनुभव न करो, तो मत निर्मित कर लेना कोई संघर्ष। सदा जान लेना उसे जहां तुम्हारा प्रेम प्रवाहित हो रहा हो और तैरते चले जाना प्रेम पर। आज वह कोई फूल होता है, कल हो सकता है कि कोई बच्चा हो, परसों वह होता है चांद—समस्या उसकी नहीं है। प्रत्येक चीज सुंदर है। जहां कहीं तुम्हारा आकर्षण स्वाभाविक रूप से प्रवाहित होता हो, उस पर चढ़ कर बहना; उस पर ध्यान करना। जोर है संपूर्ण रहने पर, अखंड रहने पर। तुम्हारे अखंड अस्तित्व में ध्यान खिलता है।

 इस प्रकार योगी हो जाता है सब का मालिक अति सूक्ष्म परमायु से लेकर अपरिसीम तक का।

 लघुतम से लेकर विशालतम तक सब का मालिक बन जाता है वह। ध्यान द्वार है अपरिसीम शक्ति का। ध्यान द्वार है अतिचेतन का।
तुम हो चेतन। बढ़ो अचेतन की गहराइयों में। यह होता है उतरना तुम्हारे अस्तित्व के तलघर में। अधिकाधिक जागरूकता एकत्रित करो ताकि तुम बढ़ सको निद्रा में, सपनों में। आरंभ करना अपने जागने के समय जागरूकता एकत्रित करने से; वह अचेतन में बढ़ने के लिए मदद देगी। ऊर्जा की जरूरत होगी। बिलकुल अभी तो तुम्हारी ऊर्जा एक टिमटिमाहट की भांति है—पर्याप्त नहीं है। जागरूकता द्वारा ज्यादा ऊर्जा निर्मित करना।
यह वैसा ही होता है जैसे कि जब तुम पानी गरम करते हो, या कि तुम बर्फ गरम करते हो। यदि तुम गरम करते हो बर्फ को तो वह पिघलती है। गरमी की एक निश्चित डिग्री पर वह पानी बन जाती है। फिर तुम्हें उसे ज्यादा गरम करना होता है यदि तुम चाहते हो कि वह वाष्पित हो जाये। तुम उसे गरम किये जाते हो और एक निश्चित तापमान पर, सौ डिग्री पर अचानक वह छलांग लगाती है और भाप बन जाती है। परिमाणात्मकता बदल जाती है गुणात्मकता में। परिमाणात्मक परिवर्तन बन जाता है गुणात्मक। एक निश्चित तापमान के नीचे वह होता है बर्फ, उस तापमान के पार हो वह बन जाता है पानी, उस तापमान से नीचे हो वह फिर बन जाता है पानी, उस तापमान के पार हो वह वाष्पीभूत हो जाता है, भाप बन जाती है। जब वह बर्फ होता है, जो वह करीब—करीब मरा हुआ होता है और बंद होता है।. वह होता है ठंडा, जीवंत होने को पर्याप्त ऊष्ण नहीं। जब वह पानी होता है, तो ज्यादा प्रवाहमान, ज्यादा जीवंत होता है, बंद नहीं। जब वह पिघल गया होता है, तब वह ज्यादा ऊष्ण होता है। लेकिन पानी तो नीचे की ओर बढ़ता है। जब वह वाष्पीभूत हो जाता है तो दिशा बदल चुकी होती है। वह अब और सपाट न रहा, वह ऊर्ध्वगामी बन जाता है; वह ऊपर की ओर बढता है।
पहले तो अधिकाधिक सचेत हो जाना जागने के समय। वह बात तुम तक ले आएगी ऊष्णता की एक निश्चित मात्रा। वह वास्तव में आंतरिक ऊष्णता की एक निश्चित डिग्री ही होती है, तुम्हारी चेतना का एक निश्चित तापमान जो कि तुम्हारी मदद करेगा अचेतन में बढने के लिए। तो, अधिकाधिक बोधपूर्ण हो जाना अचेतन में। ज्यादा प्रयास की जरूरत होगी, ज्यादा ऊर्जा निर्मित की जायेगी। तब अचानक एक दिन तुम पाओगे कि तुम ऊपर की ओर बढ़ रहे हो। तुम भारविहीन हो गये हो और अब गुरुत्वाकर्षण तुम्हें प्रभावित नहीं करता। तुम बन रहे हो अतिचेतन।
अतिचेतन के पास सारी शक्ति होती है : वह होता है सर्वशक्तिमान, वह होता है सर्वज्ञ, वह होता है सर्वव्यापी। अतिचेतन है सब जगह। अतिचेतन के पास वह हर एक शक्ति है जो संभव होती है, और अतिचेतन देखता है प्रत्येक चीज को। वह बन गया होता है दृष्टि की परम स्पष्टता।
यही अर्थ करते हैं पतंजलि जब वे कहते हैं, 'इस प्रकार योगी हो जाता है, सब का मालिक, अतिसूक्ष्म परमाणु से लेकर अपरिसीम तक का।'

आज इतना ही।






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