दिनांक
27 नवंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
अष्टावक्र
उवाच।
हेयोयादेयता
तावत्संसार
विटपांकर:।
स्पृहा
जीवति
यावद्वै
निर्विचार
दशास्थदम्।।
152।।
प्रवृत्तौ
जायते रागो
निवृत्तौ
द्वेष एव हि।
निर्द्वद्वो
बालबद्धीमानेवमेव
व्यवस्थित:।।
153।।
हातुमिच्छति
संसार रागी
दुखजिहासयर।
वीतरागो
हि
निर्कुखस्तस्मिब्रपि
न खिद्यते।। 154।।
यस्याभिमानो
मोक्षेऽयि
देहेउयि ममता
तथा।
न
न ज्ञानी न वा
योगी केवलं
दुःखभागसौ।।
155।।
हरो
यद्युयदेष्टा
ले हरि:
कमलजोउयि वा।
हेयोपादेयता
तावत्संसार
विटपांकुर
स्पृहा
जीवति
यावद्वै
निर्विचार
दशास्पदम्।।
'जब तक
तृष्णा जीवित है—जो
कि अविवेक की
दशा है—तब तक
हेय और उपादेय,
त्याग और
ग्रहण भी
जीवित हैं, जो कि
संसाररूपी
वृक्ष का
अंकुर हैं।’
तृष्णा
मनुष्य की
उलझन की मूल
भित्ति है।
तृष्णा को ठीक
से समझ लिया
तो सारे
धर्मों का अर्थ
समझ में आ गया।
तृष्णा को समझ
लिया तो दुख
का कारण समझ में
आ गया। और
जिसे दुख का
कारण समझ में
आ जाये, उसे
दुख से मुक्त
होते क्षण भर
भी नहीं लगता।
दुख से नहीं
मुक्त हो पाते
हैं—सिर्फ
इसीलिए कि
कारण समझ में
नहीं आता। और
कारण समझ में
न आये तो हम
लाख उपाय करें,
हम दुख को
बढ़ाये चले
जायेंगे।
अंधेरे में
तीर चला रहे
हैं; निशाना
लगेगा, संभव
नहीं है।
रोशनी चाहिए।
और रोशनी कारण
को समझने से तत्क्षण
पैदा हो जाती
है। इस बात को
खयाल में लें।
शरीर
में कोई
बीमारी हो तो
पहले हम निदान
की फिक्र करते
हैं। निदान हो
गया तो आधा
इलाज हो गया।
अगर निदान ही
गलत हुआ तो
इलाज खतरनाक
है,
इलाज करना
ही मत।
क्योंकि
दवाएं लाभ
पहुंचा सकती
हैं, नुकसान
भी। जो दवाएं
लाभ पहुंचा
सकती हैं वे
ही नुकसान भी
पहुंचा सकती
हैं। निदान
ठीक न हो, बीमारी
पकड़ में न आई
हो तो इलाज
बीमारी से भी
महंगा पड़ सकता
है। बीमारी से
तो शायद
चुपचाप बैठे
रहते तो प्राकृतिक
रूप से भी छूट
जाते, लेकिन
अगर गलत औषधि
शरीर में पड़
गई तो प्राकृतिक
रूप से
छुटकारा न हो
सकेगा। इसलिए
पहले हम चिंता
करते हैं
निदान की।
शरीर
के संबंध में
यह सच है कि
ठीक निदान हो
तो पचास
प्रतिशत इलाज
हो गया; लेकिन
मन के संबंध
में तो और
अदभुत बात है,
वहा तो
निदान ही सौ
प्रतिशत इलाज
है। शरीर के
संबंध में
पचास प्रतिशत,
मन के संबंध
में सौ
प्रतिशत।
क्योंकि मन की
बीमारियां तो
भांति की
बीमारियां
हैं, जैसे
किसी ने दो और
दो पांच गिन
लिया, फिर
सारा हिसाब
गलत हो जाता
है। मन की
बीमारी कोई
वास्तविक
बीमारी नहीं
है; भ्रांति
है, भूल है।
समझ में आ गया
कि दो और दो
चार होते हैं,
उसी क्षण सब
भ्रांति मिट
गई।
मन
की बीमारी तो
ऐसी है जैसे
मरुस्थल में
किसी को सरोवर
दिखाई पड़ गया।
वह धोखा है।
वह
तुम्हारी
प्यास से ही
पैदा हुआ है।
वह तुम्हारी
प्यास का ही
देखा गया सपना
है। तुम इतने
प्यासे थे कि
मान लिया। तुम
इतने घबराये
थे पानी के
लिए कि जरा—सा
सहारा मिल गया
कि तुमने पानी
की कल्पना कर ली।
भूखा आदमी, कहते
हैं, अगर
पूर्णिमा के
चाद को भी
देखे तो उसे
लगता है रोटी
आकाश में तैर
रही है। भूख
प्रक्षेपित
होती है।
मन
की बीमारियां
प्रक्षेपण
हैं,
प्रोजेक्यान
हैं। शरीर की
बीमारी का तो
आधार है; मन
की बीमारी
निराधार है।
एक बार
तुम्हें ठीक—ठीक
गणित दिखाई पड़
गया तो फिर
ऐसा नहीं है
कि मन की
बीमारी का
निदान होने के
बाद तुम
पूछोगे, अब
औषधि क्या? निदान ही
औषधि है।
सुकरात
का बड़ा
प्रसिद्ध वचन
है. ज्ञान ही
मुक्ति है।
जीसस
की भी बड़ी
प्रसिद्ध
घोषणा है सत्य
को जान लो और सत्य
तुम्हें
मुक्त कर देगा।
फिर ऐसा नहीं
कि सत्य को
जानने के बाद
तुम्हें
मुक्ति के लिए
कोई उपाय करना
पड़ेगा; जानते
ही सत्य को, मुक्ति हो
जाती है।
इसलिए
तो महावीर ने
यहां तक कहा
है कि अगर तुम सत्य
को जानने वाले
की बात ठीक से
सुन लो तो
श्रवण से ही
मुक्ति हो जाती
है। इसलिए एक
तीर्थ का नाम—श्रावक।
सुन कर ही जो
मुक्त हो जाता
है,
वह श्रावक
है। जो सुन कर
मुक्त नहीं
होता और जिसे
कुछ करना पड़ता
है, वह
साधु। मेरे
हिसाब में
साधु श्रावक
से नीची
स्थिति में है;
ऊंची
स्थिति में नहीं।
सुन कर ही
मुक्त न हो
सका, कुछ
करना भी पड़ा।
उसका बोध
प्रगाढ़ नहीं
है। सुन कर ही
न समझ सका, कुछ
करना पड़ा, तब
समझ में आया।
समझ बहुत गहरी
नहीं है। समझ
गहरी होती तो
सुन कर समझ
लेता। समझ
गहरी होती तो
महावीर को देख
कर समझ लेता।
देखना काफी था।
आंख खोल कर
महावीर को देख
ले, आंख
खोल कर बुद्ध
को देख ले या आंख
खोल कर कृष्ण
को देख ले—क्या
बाकी रह जाता
है? खुली आंख
कि सब साफ हो
जाता है।
तो
पहला सूत्र है
: 'जब तक
तृष्णा जीवित
है—जो कि
अविवेक की दशा
है—तब तक हेय
और उपादेय, त्याग और
ग्रहण भी
जीवित हैं, जो कि
संसाररूपी
वृक्ष का
अंकुर हैं।’
तुम
संसार से न
छूट सकोगे जब
तक तृष्णा है।
तृष्णा संसार
है।
अब
बड़ा मजा होता
है,
बिना समझे
लोग संसार से
छूटना चाहते
हैं! संसार से
भी छूटना
चाहते हैं, उसके पीछे
भी कारण
तृष्णा ही है—स्वर्ग
का सुख मिलेगा,
कि मोक्ष का
परम आनंद
बरसेगा, कि
समाधि की गहन शांति
की दशा में
प्रवेश होगा!
यह सब तृष्णा
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते
हैं. 'शांत
होना है।
ध्यान की कोई
विधि बता दें
कि हम शांत हो
जायें।’ उनसे
मैं कहता हूं
शांत होना हो
तो तृष्णा को जानो।
ध्यान की विधि
से तुम शांत न
हो सकोगे।
क्योंकि
ध्यान की विधि
भी करने तुम
तृष्णा के
कारण ही आये
हो। शांत होना
है—यह लोभ
तुम्हें ले
आया है। लोभ
के कारण तुम
ध्यान करोगे
कैसे? जहां
तृष्णा का
अभाव, वहां
ध्यान। फिर
ध्यान करना
नहीं पड़ता, ध्यान हो
जाता है। जो
करना पड़े, वह
ध्यान ही नहीं।
जो हो जाये, वही ध्यान
है। जहां तृष्णा
न रही, मन
की तरंगें
अपने— आप शांत
हो जाती हैं।
ऐसा
समझो कि हवा
के झकोरों में, हवा
के झोंकों में
झील की लहर
उठती है, झील
की छाती पर
लहरें उठती
हैं, तुम
चेष्टा करते
हो एक—एक लहर
को शांत करने
की, तुम
पागल हो जाओगे।
हवा रुक जाये
तो एक—एक लहर
को शांत न
करना पड़ेगा, हवा के
रुकते ही
लहरें अपने से
शांत हो
जायेंगी। अब
मजा यह है कि
हवा दिखाई
नहीं पड़ती। जो
नहीं दिखाई
पड़ता, उसको
हम भूल जाते
हैं। तृष्णा
भी दिखाई नहीं
पड़ती, हवा
जैसी है। है, बहुत गहन है,
लेकिन
अदृश्य है, हाथ में पकड़
में नहीं आती।
तो
जब तुम झील की
छाती पर लहरों
का तूफान
देखते हो तो
तुम सोचते हो, लहरों
को कैसे शांत
करें। और जो
मूल कारण है
वह अदृश्य है।
तुम एक—एक लहर
को शांत करने
बैठ जाना, एक—एक
लहर को लोरी
सुनाना कि सो
जा, कि
प्यारी
बिटिया सो जा,
मंत्र पढ़ना
राम—राम, अल्लाह—अल्लाह
या नमोकार और
बीच—बीच में आंख
खोल कर देखना
कि मंत्र का
असर हो रहा कि
नहीं—लहरें
तुम्हारे
मंत्रों को
सुनने वाली
नहीं हैं।
लहरें इसलिए
नहीं उठी हैं
कि मंत्र का
अभाव है। अगर
मंत्र के अभाव
के कारण उठी
होतीं तो मंत्र
के बोलते ही
चुप हो जातीं,
बैठ जातीं।
लहरें इसलिए
उठी हैं कि
उनकी छाती पर
एक अदृश्य हवा
चल रही है, जो
हवा उन्हें
कंपा रही है।
अब पानी कोई
पत्थर थोड़े ही
है। पत्थर पर
लहरें नहीं
उठती, पानी
पर लहरें उठती
हैं। पानी तरल
है, तरंगित
होता है।
अदृश्य हवा के
झोंके भी उसे
हिला जाते हैं।
तुम्हारे
मन में जो
तरंगें उठ रही
हैं,
वे तृष्णा
की हवा से उठ
रही हैं। अब
बहुत लोग हैं
जो मन को शांत
करना चाहते
हैं। एक—एक
विचार को शांत
करना चाहते
हैं। किसी को
क्रोध का
विचार आता है,
वह कहता है,
किस तरह शांत
हो जाये? किसी
को कामवासना
उठती है, कहता
है, कैसे शांत
हो जाये? किसी
को लोभ है, किसी
को मोह है —सबको
शांत करने में
लगे हैं। इससे
कभी तुम शांत
न हो पाओगे।
संभावना यही
है कि विमुक्त
तो न हो, विक्षिप्त
हो जाओ।
मेरे
देखे
सांसारिक
आदमी ही
ज्यादा शांत
होता है
तुम्हारे
तथाकथित
धार्मिक
आदमियों की
बजाय। तो मेरी
बात को जरा
गौर से सुनना
और जरा फिर से जाकर
तुम अपने साधु—संन्यासियों
को देखना।
तुम्हें शायद
बाजार में कुछ
लोग शांत मिल
जायें, तुम्हारे
साधु—संन्यासी
शांत नहीं हैं।
क्योंकि
बाजार में तो
आदमी को एक ही अशांति
है, क्योंकि
संसार की ही
लहर उसके ऊपर
बह रही है, यह
जो मंदिर में
बैठा है, यह
जो आश्रम में
बैठा है, यह
जो साधु है, महात्मा है—इस
पर एक और अशांति
सवार हो गई है,
शांत होने
की तृष्णा जाग
गई, मोक्ष
पाने की
तृष्णा!
सांसारिक
तो ऐसी चीजों
के पीछे दौड़
रहा है जो ठीक—से
कोशिश करो तो
मिल भी जायें।
जिसको तुम
धार्मिक कहते
हो,
ऐसी चीजों
के पीछे दौड़
रहा है जो
दौड़ने से मिलती
ही नहीं; दौड़ना
ही जहां बाधा
है; जो
रुकने से
मिलती हैं। धन
के पीछे अगर
ठीक—से दौड़ोगे
तो धन मिल
जायेगा; ऐसी
कुछ अड़चन नहीं
है। तुमसे भी
ज्यादा
बुद्धओं को
मिल गया तो
तुम्हें
क्यों न मिल
जायेगा! ठीक
से मेहनत
करोगे तो संसार
के विजेता हो
सकते हो, सिकंदर
हो गया है तो
तुम क्यों न
हो जाओगे!
दौड़ते ही रहे
पागल की तरह
तो कुछ न कुछ
पा ही लोगे, कहीं न कहीं
बैंक में
बैलेंस हो ही
जायेगा; कोई
न कोई बड़ा
मकान बना ही
लोगे।
लेकिन
परमात्मा तो
दौड़ने से
मिलता ही नहीं
और सत्य तो
दौड़ने से
मिलता नहीं। शांति
तो दौड़ने से
मिलती नहीं।
क्योंकि
दौडने में ही अशांति
है। समझो!
दौड़ने में ही अशांति
है। जैसे ही
कोई नहीं
दौड़ता, तृष्णा
चुप हो गई।
तृष्णा यानी
दौड़। तृष्णा
यानी कहीं और
है सुख, यहां
नहीं, अभी
नहीं,
कल
है,
परसों है, अगले जन्म
में है, स्वर्ग
में है, कहीं
और है! 'कहीं
और है सुख'—यही
धारणा तृष्णा
है। जब यहां
नहीं है, कहीं
और है—तो कहीं
दौड़ना पड़ेगा।
यहां तो है
नहीं, बैठने
से क्या होगा!
दौड़ो, भागों!
आपाधापी करो!
श्रम करो!
नहीं दौड़े तो
हार जाओगे। आज
को कुर्बान
करो कल के लिए।
आज को बलिदान
करो भविष्य के
लिए। आज तो है
नहीं।
तुम
जैसे हो, ऐसे
तो सुखी हो
नहीं सकते, तो कुछ और
बनने की कोशिश
करो। ज्यादा
धन हो पास, बड़ा
मकान हो पास, प्रतिष्ठा
हो या पुण्य
हो, चरित्र
हो, शील हो,
ध्यान हों—कुछ
करो!
तृष्णा
का अर्थ है.
तुम जैसे हो
वैसे संतोष नहीं
मिल रहा। और
तृष्णा छोड़ने
का इतना ही
अर्थ है कि
अभी,
यहीं, तुम
जैसे हो ऐसे ही
आनंदित हो
जाओ! तृष्णा
छोड़ने का अर्थ
है. आनंदित
अभी होने की
कला! तुम
जानते हो
आनंदित कभी
होने की वासना,
अभी नहीं!
अभी तो कैसे
हो सकता है!
अष्टावक्र की
सारी घोषणा
यही है। यह
महा क्रांतिकारी
उदघोषणा है कि
तुम अभी जैसे
हो ऐसे ही आनंद
को उपलब्ध हो
सकते हो, क्योंकि
आनंद
तुम्हारा
स्वभाव है।
इसे तुमने
क्षण भर को
खोया नहीं है।
इससे तुम
स्मृत नहीं
हुए हो। ये
लहरें अभी शांत
हो सकती हैं—यहीं!
लहर के प्राण
अदृश्य हवा
में हैं; वह
जो अदृश्य हवा
दौड़ रही है
छाती पर, उसमें
हैं।
तुम्हारी
छाती पर कौन—सी
अदृश्य हवा
दौड़ रही है? उसी
से तुम कैप
रहे हो। वह
हवा रुक जाये...
और हवा
तुम्हीं चला
रहे हो।
तुम्हीं उस
हवा को प्राण
दे रहे हो, गति
दे रहे हो।
तृष्णा
का अर्थ है.
असंतोष।
तृष्णा का
अर्थ है.
अतृप्ति।
तृष्णा का
अर्थ है
भविष्य, वर्तमान
नहीं। जिसके
जीवन से
भविष्य विदा
हो जाता है
उसके जीवन से
तृष्णा विदा
हो जाती है।
तृष्णा को
फैलने के लिए
भविष्य चाहिए।
देखो
इस सत्य को!
मैं जो कह रहा हूं,
यह कोई
सिद्धात नहीं
है—सीधा तथ्य
है।
भविष्य
का कोई
अस्तित्व
नहीं है। जो
अभी आया नहीं
है,
हो कैसे
सकता है!
आयेगा, तब
होगा। जब होगा,
तब होगा, अभी तो नहीं
है। अतीत जा
चुका है, भविष्य
आया नहीं—इन
दोनों के बीच
में जो छोटा—सा
क्षण है
वर्तमान का, वही
अस्तित्ववान
है। उसके
अतिरिक्त सब
कल्पना है।
अतीत है
स्मृति, भविष्य
है सपना। जो
है अभी इस
क्षण, वर्तमान
का जो छोटा—सा
क्षण, जो
झरोखा खुलता
है—वही है।
तुम इसमें ही
तल्लीन हो
जाओ! इसमें ही
डुबकी लगा लो।
वही डुबकी
तुम्हारी
परमात्मा में
डुबकी बन जाती
है। शांत हो
जाते हो—कुछ
बिना किए!
प्रसादरूप!
ऐसे
ही मैं शांत
हुआ,
जैसा मैं
तुमसे कह रहा
हूं। ऐसे ही
तुम शांत हो
सकते हो।
लेकिन भविष्य
की आकांक्षा
मत करो।
भविष्य की आकांक्षा
से तनाव पैदा
होता है, खिंचाव
पैदा होता है।
आज तो दुखी
रहते हो, कल
की आशा खींचे
रखती है। कल
भी जब आयेगा
आज की तरह
आयेगा। कल तो
कभी आता नहीं।
जब आता है आज
आता है। और
तुमने एक गलत
आदत सीख ली—आज
दुखी होने की
आदत सीख ली।
तुम सदा ही
दुखी रहोगे।
क्योंकि जब भी
आयेगा, आज
आयेगा। और आज
से तो
तुम्हारे
संबंध—नाते ही
गलत हो गये—दुख
के। जो नहीं
आयेगा वह कल
है—और कल तुम
सुखी होना
चाहते हो! और
जो आता है वह आज
है—और आज तुम
दुखी होने का
अभ्यास कर रहे
हो!
तृष्णा
का अर्थ है : कल
में होना; भविष्य
में होना, जहां
हो वहां न
होना, कहीं
और होना। और दुखी
तो होओगे ही।
यह जो तनाव
पैदा होगा, यह जो
बेचैनी पैदा
होगी, ये
जो तरंगें उठेगी—ये
तुम्हारे
प्राण को छेद
जायेगी।
तुम्हारे
जीवन से नृत्य
और संगीत खो
जाये तो आश्चर्य
क्या!
तुम्हारी आंखों
में शांति न
हो और
तुम्हारे
हृदय में
परमात्मा का
सितार न बजे
तो आश्चर्य
क्या!
तुम्हारे रग—रोये
में, हृदय
की धड़कन में, यह जो विराट
महोत्सव चल
रहा है, इसके
साथ सब संबंध
छूट जाये, इसका
पता—ठिकाना ही
भूल जाये—तो
आश्चर्य क्या!
वृक्ष
अभी सुखी हैं—इसी
क्षण! और
पक्षी अभी गीत
गा रहे हैं; कल
के लिए स्थगित
नहीं किया है।
सूरज अभी
निकला है, कल
नहीं निकलेगा।
और आकाश अभी
फैला है; कल
का आकाश को
कुछ पता ही
नहीं। यह सारा
जगत मनुष्य को
छोड़ कर अभी है,
और मनुष्य
कभी है—कभी, कहीं और। बस
इस अभी और कभी
के बीच जो
तनाव है, वहां
तृष्णा है।
तृष्णा
अशांति लाती
है। फिर जितनी
बड़ी तृष्णा हो
उसी मात्रा
में अशांति
होती है।
इसलिए
मैं तुमसे
कहता हूं.
सांसारिक
आदमी की अशांति
धार्मिक आदमी
से ज्यादा बड़ी
नहीं, कम है।
उसकी तृष्णा
ही छोटी चीजों
की है, क्षुद्र
चीजों की है।
एक कार खरीदनी
है—यह भी कोई
बड़ी तृष्णा
है! थोड़ा—बहुत
अशांत होगा।
एक बड़ा मकान
बनाना है—यह
भी कोई बड़ी
बात है! इतने
बड़े मकान हैं
ही, बनते
ही रहे हैं, बनते —गिरते
रहे—यह कोई नई
बात नहीं, कुछ
बड़ी विशेष बात
नहीं। इसकी
तृष्णा तो बड़ी
छोटी है, क्षणभंगुर
है। इसकी
तृष्णा का
तनाव भी भारी
नहीं होने
वाला है।
लेकिन किसी को
मोक्ष जाना है,
इसकी तृष्णा
बड़ी कठिन है।
तुमने
कभी किसी को
मोक्ष जाते
देखा? बड़े
मकान बनाते
लोग तुमने
देखे, संसार
को जीत लेने
वाले लोग देखे,
धन की
राशियां लगा
देने वाले लोग
देखे—तुमने
कभी किसी को
मोक्ष जाते
देखा? असल
में मोक्ष
जाने की भाषा
ही अज्ञानी की
भाषा है।
अष्टावक्र
कहते हैं :
आत्मा न कहीं
जाती न आती।
जाना कैसा!
जाओगे कहां!
रमण
मरने लगे तो
किसी ने पूछा
कि अब आप जा
रहे हैं!
उन्होंने आंख
खोली, कहा : 'जाऊंगा
कहां! आना—जाना
कैसा!' फिर आंख
बंद कर ली।
पता नहीं
सुनने वाले ने
समझा कि नहीं।
जाना— आना
कैसा! जाना —
आना होता ही
नहीं। आकाश
कहीं जाता—
आता?
अष्टावक्र
ने कहा कि तुम
मिट्टी का घड़ा
ले आते हो, तो
मिट्टी का घड़ा
आता—जाता है; मिट्टी के
घड़े के भीतर
का जो आकाश है
वह कहीं आता—जाता?
तुम चलते हो,
तुम्हारी
आत्मा थोड़े ही
चलती है!
संसार
चलता है, परमात्मा
ठहरा हुआ है।
परमात्मा कील
है संसार के
चाक की। सब
चलता रहता है,
परमात्मा
ठहरा हुआ है।
मोक्ष जाना
नहीं पड़ता।
मोक्ष तो
अनुभव है इस
बात का कि मैं
जहां हूं वहीं
मोक्ष है, मैं
जैसा हूं ऐसे
ही मोक्ष है।
तुम्हें
बड़ी अजीब
धारणाएं
लोगों ने सिखा
दी हैं और
जिन्होंने
सिखाई हैं वे
तृष्णातुर
लोग हैं। निश्चित
ही उन्होंने
तृष्णा का पाठ
पढ़ा दिया है।
ऐसे ही तुम
पागल थे, पागलपन
को उन्होंने
और सजावट दे
दी है, और
व्याख्या—परिभाषा
दे दी है। तुम
पागल थे धन
पाने को, उन्होंने
कहा. 'इस धन
के पीछे क्या
पड़े हो, अरे
परम धन को पाओ!'
मगर पाने की
भाषा जारी है।
तुम स्त्रियों
के पीछे दौड़
रहे थे, उन्होंने
कहा 'इन
स्त्रियों
में क्या रखा
है, आज नहीं
कल सूख कर
अस्थिपंजर रह
जायेगी!'
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
स्त्री के
प्रेम में था।
उस स्त्री ने
कहा कि विवाह
के पहले मैं
तुमसे एक बात
पूछ लेना
चाहती हूं।
अभी तो मैं
जवान हूं
सुंदर हूं जब
मैं चालीस
वर्ष की हो
जाऊंगी और
मेरे गाल पिचक
जायेंगे और
बाल सफेद होने
लगेंगे और चेहरे
पर झुर्रियों
के पहले दर्शन
होने लगेंगे और
मैं बूढ़ी होने
लगंगी, तब भी
तुम मुझे
प्रेम करोगे?
मुल्ला
ने कहा : 'अरे
तो चालीस वर्ष
में तुम्हारा
ऐसा होने का इरादा
है? तो वह
बात ही खत्म
करो! इस झंझट
में पड़े ही
क्यों! अगर
चालीस वर्ष
में तुम्हारे
ऐसे इरादे हैं—इस
चेहरे पर
झुर्रियां
डाल देने के
और बाल सफेद
कर लेने के और
गाल पिचक जाने
के, तो
क्षमा करो!
अच्छा किया, पहले ही बता
दिया शादी के
पहले, नहीं
तो अभी शादी
में उलझ जाते
तो और झंझट
होती। यह बात
ही भूल जाओ।’
तुम्हारा
धार्मिक आदमी
तुमसे क्या कह
रहा है? वह कह
रहा है : कहां
अस्थिपंजरों
के पीछे पड़े
हो! स्वर्ग
में अप्सरायें
हैं, स्वर्ण
की उनकी काया
है, उन्हें
खोजो! पद के
पीछे पड़े हो!
ये दिर्ल्लियां
बनती—बिगड़ती
रहती हैं! तुम
इस झंझट में न
पड़ो। ऊपर एक
बड़ी दिल्ली है;
वहां जो
पहुंच गया, पहुंच गया।
यहां की
दिल्ली का तो
कुछ भरोसा नही—आज
तख्त पर, कल
नीचे! जो तख्त
पर है वह
गिरता ही है।
दिल्ली पहुंच—पहुंच
कर होता क्या
है—राजघाट पर
कब्र बन जाती
है! आखिरी
परिणाम हाथ में
क्या लगता है?
एक और दिल्ली
है ऊपर—परमपद!
वहां पहुंचो।
यह
तुम्हारी
तृष्णा को
फैलाने की बात
हो रही है।
तुमसे कहा
जाता है
क्षणभंगुर को
छोड़ो, शाश्वत
को खोजो! मगर
बात वही है, भाषा वही है,
दौड़ वही है,
तृष्णा वही
है। और बड़े
अंधड़ चढ़ेंगे
तुम्हारी
छाती पर, और
बड़ी लहरें
उठेंगी! तुम
और अशांत हो
जाओगे।
मेरे
पास जब कोई
साधु—संन्यासी
आ जाता है तो
उसे मैं जितना
कंपते और
परेशान देखता
हूं उतना
सांसारिक
आदमी को कंपते
परेशान नहीं
देखता।
क्योंकि तुम
तो शक्य की
खोज में लगे
हो,
वह तो अशक्य
की खोज में
लगा है। तुम
तो संभव के
पीछे पड़े हो, वह असंभव के
पीछे पड़ा है।
तुम्हारी
घटना तो घट
सकती है, इसके
हजार प्रमाण
हैं; उसकी
घटना तो कभी
घटी, इसका
एक भी प्रमाण
नहीं है। कौन
ने किसको
मोक्ष जाते
देखा? मैं
तुमसे कहता
हूं. कोई कभी
मोक्ष गया ही
नहीं। महावीर
मुक्त हुए, मोक्ष थोड़े
ही गये।
महावीर मोक्ष
थोड़े ही गये—जाना
कि मुक्त हैं,
पहचाना कि
मुक्त हैं। इस
क्षण में, इस
वर्तमान में,
इस
अस्तित्व के
स्वाद में डूब
कर पाया कि
कैसे पागल थे!
उसे खोजते थे
जो मिला ही
हुआ है!
बुद्ध
को जब ज्ञान
हुआ और किसी
ने पूछा : 'क्या
पाया?' तो
उन्होंने कहा.
'मत पूछो!
पूछो ही मत।
क्योंकि जो
पाया, वह
मिला ही हुआ
था। भूल गये
थे, विस्मरण
हो गया था, याद
न रही थी।
अपनी जेब में
ही पड़ा था और
याददाश्त खो
गई थी।’
यह
विस्मरण हुआ
है,
पाना थोड़े
ही है! पाया तो
हुआ ही है।
जानो न जानो, मोक्ष
तुम्हारा
स्वभाव है।
जानो न जानो, तुम
परमेश्वर हो,
परमात्मा
हो!
तो
तृष्णा के
कारण बाधा पड़
रही है। रुको
तो अपने से
मिलन हो जाये।
तुम भागे—
भागे हो, अपने
से मिलना नहीं
हो पाता। और
सबसे मिलना हो
जाता है, बस
अपने से चूकते
चले जाते हो।
हेयोपादेयता
तावत्संसार
विटपांकुर:।
और
तृष्णा में
बीज है संसार
का। फिर जहां
तृष्णा है
वहां स्वभावत:
चुनाव पैदा
होता है—क्या
करें, क्या
न करें!
क्योंकि
तृष्णा जिसको
करने से भर
जाये, वही
करें।
स्वभावत: भेद
पैदा होता है।
वही करें, जिससे
तृष्णा पूरी
हो, वह न
करें, जिससे
पूरी न हो, उस
रास्ते पर
चलें, जिससे
पहुंच
जायेंगे
भविष्य की
मंजिल पर; उस
रास्ते पर न चलें
जिससे भटक
जायेंगे।
और
यहाँ कोई
मार्ग नहीं है।
अष्टावक्र
कोई मार्ग
प्रस्तावित
ही नहीं करते।
अष्टावक्र तो
कहते हैं कि
तुम जरा भीतर आंख
खोलो, तुम जहां
हो, मंजिल
पर हो!
रिंझाई, एक
झेन फकीर, जापान
के एक तीर्थ—पहाड़
पर तीर्थ था—उसके
नीचे ही राह
के किनारे विश्राम
कर रहा था। एक
दिन, दो
दिन, वर्षों
हो गये।
यात्री आते—जाते।
फिर तो लोग
पहचानने लगे,
जानने भी
लगे कि वह
वहीं पड़ा रहता
है वृक्ष के नीचे।
लोग उससे
पूछते कि
रिंझाई, तुम
पहाड़ पर ऊपर
नहीं जाते
तीर्थयात्रा
को पू रिंझाई
हंसता और वह
कहता : ' आये
तो हम भी
तीर्थयात्रा
को थे, लेकिन
इस झाडू के
नीचे बैठे—बैठे
पता चला कि
तीर्थ भीतर है,
फिर हम यहीं
रुक गये, अब
कहीं जाने को
न रहा।’ लोग
कहते कि चलो
हम तुम्हें ले
चलें वहा।
लोगों को दया
आती कि कहीं
ऐसा तो नहीं
कि का हो गया
फकीर, पहाड़
चढ़ नहीं सकता।
लोग कहते 'कांवर
कर दें? कंधे
पर उठा ले?' प्यारा
आदमी था, लेकिन
वह कहता कि
नहीं, तुम्हीं
जाओ, क्योंकि
हम तो वहां
हैं ही। तुम
जहां जा रहे
हो, हम
वहीं हैं। और
तुम जा कर
वहां कभी न
पहुंचोगे।
अगर तुम्हें
भी पहुंचना हो
तो कभी लौट कर
आ जाना, यहीं
बैठ जाना।
तीर्थ
भीतर है। सत्य
भीतर है, क्योंकि
सत्य स्वभाव
है। इस बात को
जितनी बार
दोहराया जाये,
उतना कम है।
क्योंकि
तृष्णा का
अर्थ है. सत्य
मिला नहीं है,
पाना है। और
जिन्होंने
पाया उनकी
घोषणा है.
सत्य तुम्हारा
स्वभाव है; पाना नहीं
है, मिला
हुआ है। बस
इसकी
प्रत्यभिज्ञा,
रिकग्नीशन,
इसकी पहचान
पर्याप्त है।
स्पृहा
जीवति
यावद्वै
निर्विचार
दशास्पदम्।
और
जब तक तृष्णा
रहती है, स्पृहा
रहती है, वासना
रहती है, तब
तक निश्चित ही
मनुष्य में
विवेक पैदा
नहीं होता, बोध पैदा
नहीं होता।
अविवेक की दशा
रहती है।
'अविवेक' शब्द
को भी समझ लो।
अविवेक का
अर्थ है चंचल
मन, आंदोलित
मन; लहरों
से भरा हुआ
चित्त; झील
पर लहरें और
तरंगें। चंचल
अवस्था
अविवेक है।
अचंचल दशा—लहर
खो गई, शांत
हो गई, हवा
न चली, मौन
हो गया, झील
दर्पण बन गई—बोध
की दशा है, बुद्धत्व
की दशा है।
बुद्ध
ने कहा है. जिस
दिन तुम दर्पण
की भांति हो
जाओ,
कुछ कंपे न,
तो फिर जो
है वही तुम
में झलकने
लगेगा, फिर
जो है, वही
तुम्हारी
प्रतीति में
आने लगेगा।
अभी तो तुम
इतने कैप रहे
हो कि जो है वह
कुछ पकड़ में
आता नहीं, कुछ
का कुछ पकड़
में आ जाता है।
ऐसा
ही समझो कि
कोई आदमी
कैमरा ले कर
दौड़ता चले और
चित्र उतारता
चले। फिर जब
चित्र निकाले
जायें, देखे
जायें, तो
कुछ पकड़ में न
आये, सब
चीजें गडु—बड्ड
हों, कुछ
साफ न हो—ऐसी
हमारी दशा है।
हम दौड़ते हुए,
भागते हुए,
जीवन को
देखने की
कोशिश कर रहे
हैं। रुको, ठहरो। दौड़ो—
भागो मत! ऐसे
रुक जाओ कि
क्षण भर को सब
रुक जाये, सब
गति ठहर जाये,
अगति का क्षण
आ जाये। तो
उसी क्षण जो
है तुम्हें
दिखाई पड़
जायेगा।
संसार
की परिभाषा है
: भागते — भागते
परमात्मा को
देखा—संसार।
रुक कर संसार
को देखा—परमात्मा।
ठीक—ठीक चित्र
बन जाये, जो है
उसका, तो
परमात्मा।
गलत—सलत चित्र
बन जाये, तो
संसार।
संसार
और परमात्मा
दो नहीं हैं।
संसार
परमात्मा है, परमात्मा
संसार है।
तुम्हारे
देखने के दो
ढंग हैं। एक
भागते हुए
आदमी ने देखा,
तृष्णा के
पीछे दौड़ते
आदमी ने देखा—ठीक
से देखा नहीं,
देखने की
फुरसत भी न थी,
उपाय भी न
था, अवकाश
भी न था। और एक
किसी ने शांत
बोधिवृक्ष के
नीचे बैठ कर देखा,
बिलकुल ठहर
कर देखा।
तुम
देखते हो
बुद्धों की
प्रतिमा हमने
बनाई है, तीर्थंकरों
की प्रतिमा
बनाई हैं!
तुमने किसी की
चलती हुई
प्रतिमा देखी
है, चलते
हुए? किसी
की बैठी बनाई
है, किसी
की खड़ी बनाई
है; लेकिन
एक बात तय है :
सब रुके हैं।
जाओ जैन
मंदिरों में,
बौद्ध
मंदिरों में,
खोजो—सब
रुके हैं।
ठहरे हैं। इस
ठहराव में ही
सत्य का अनुभव
है।
'प्रवृत्ति
में राग, निवृत्ति
में द्वेष
पैदा होता है।
इसलिए
बुद्धिमान
पुरुष
द्वंद्वमुक्त
बालक के समान
जैसा है वैसा
ही रहता है।’
सुनो
इस अदभुत वचन
को!
प्रवृत्तौ
जायते रागो
निवृत्तौ
द्वेष एव हि।
निर्द्वदो
बालबद्धीमानेवमेव
व्यवस्थित:।
अब
अगर तुम्हारे
मन में तृष्णा
है तो दो
बातें पैदा
होंगी।
यावत्
स्पृहा यावत्
निर्विचार
दशास्पदम्।
जहां
चित्त में
तरंगें हैं
वहां
तुम्हारी बोध
की दशा खो गई, तुम
गहन अंधकार
में भर गये; जो है वह
दिखाई नहीं
पड़ता; तुम्हारी
आंखें
सुस्पष्ट न
रहीं; स्वच्छता
खो गई; आंखों
का कुंवारापन
खो गया; आंखें
दूषित हो गईं।
तुम्हारी आंख
पर विकृति का
चश्मा लग गया।
तुम्हारी आंखें
अब वही नहीं
दिखलाती जो है,
या तो वह
दिखलाती हैं
जो तुम चाहते
हो, या दौड़
के कारण जो
विकृति छलकती
है वह दिखलाती
हैं। छाया
दिखाई पड़ती है,
अब सत्य
दिखलाई नहीं
पड़ता।
परछाइयां
घूमती हैं अब,
प्रतिबिंब
उठते हैं; लेकिन
इन
प्रतिबिंबों
से सत्य का
कोई भी पता लगाना
संभव नहीं है।
शोरगुल पैदा
होता है, लेकिन
संगीत खो गया।
संगीत
और शोरगुल में
तुमने कोई
बहुत फर्क देखा? इतना
ही फर्क है कि
शोरगुल में
व्यवस्था
नहीं है और
संगीत में
व्यवस्था है।
शोरगुल में
व्यवस्था आ
जाये तो संगीत
हो जाता है; संगीत की
व्यवस्था खो
जाये तो
शोरगुल हो
जाता है।
संगीत का इतना
ही अर्थ है कि
स्वर लयबद्ध
हो गये, सब
स्वरों के बीच
एक सामंजस्य आ
गया, एक
समवेतता आ गई।
अगर सभी स्वर
अनर्गल हों, असंगत हों, एक—दूसरे के
विपरीत हों, एक द्वंद्व
चला रहे, एक
कोलाहल पैदा
हों—तो संगीत
पैदा नहीं
होगा; सिर
खाने की
अवस्था हो
जायेगी; विक्षिप्त
करने लगेगा, पागल कर
देगा।
परमात्मा
इस जगत के
शोरगुल में
संगीत की खोज
है;
उसे जान
लेना है जो इस
सबके बीच
समस्वर है, जो एक स्वर
सारे स्वरों
के बीच
व्याप्त है।
यावत्
स्पृहा यावत्
निर्विचार
दशास्पदम्।
और
जहां—जहां जब
तक तृष्णा है
तब तक अविवेक
रहेगा।
तावत्
जीवीत च
हेयोपादेयता
संसार
विटपांकुर।
और
तब तक वह जो
संसार का
मूलबीज है, अंकुर
जिससे पैदा होता
है, वह भेद
करने की
बुद्धि भी
रहेगी कि यह
ठीक और यह गलत।
नीति
और धर्म का
यही भेद है।
नीति कहती है :
यह ठीक, यह
गलत। और धर्म
कहता है : जो है
सो है; न
कुछ गलत न कुछ
ठीक।
अक्सर
तुम नैतिक
आदमी को
धार्मिक आदमी
समझ लेते हो
और बड़ी भूल
में पड़ जाते
हो। नैतिक
आदमी सज्जन है, संत
नहीं। सज्जन
का अर्थ है जो
ठीक ठीक है, वही करता है।
संत का अर्थ
है जिसे अब
ठीक और गलत
कुछ भी न रहा; जो होता है, वही होने
देता है। अब
कुछ करता नहीं।
सज्जन तो
कर्ता है, संत
अकर्ता है।
अक्सर सज्जन
को ही संत
समझने की भूल
हो जाती है।
इसलिए तुम सज्जनों
को महात्मा
कहने लगते हो।
महात्मा बड़ी
और बात है।
पश्चिम
का एक बहुत
बड़ा विचारक
लेन्हा
देलवास्तो
पूरब आया—गुरु
की खोज में।
सुनी थी उसने
खबर रमण
महर्षि की तो
वहा गया, लेकिन
वहां कुछ उसे
बात जंची नहीं।
उसने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि मैं वहां
गया, लेकिन
वहां मुझे कुछ
बात जंची नहीं।
क्योंकि वहा
कुछ भेद ही न
मालूम पड़ा कि
अच्छा क्या है,
बुरा क्या
है; क्या
होना चाहिए, क्या नहीं
होना चाहिए।
रमण से उसने
पूछा भी कि
मैं क्या करूं,
क्या न करूं—तो
रमण ने यह कहा : 'देखो करने
में मत पड़ो, साक्षी बनो!'
साक्षी! फिर
—फिर उसने
पूछा कि मुझे
कुछ ठीक—ठीक
दिशा—निर्देश
दें कि मैं
चरित्र को
कैसे निर्माण
करूं, शुभ
वृत्ति कैसे
बढ़े? क्योंकि
शुभ हुए बिना
तो कोई कभी
परमात्मा तक पहुंच
नहीं सकता। और
रमण ने कहा :
परमात्मा की
बात ही छोड़ो।
वहा तुम
पहुंचे ही हुए
हो। शुभ भी
पहुंचा हुआ है,
अशुभ भी
पहुंचा हुआ है।
सब वहीं
पहुंचे हुए
हैं; क्योंकि
अशुभ भी उसके
बिना जी नहीं
सकता; शुभ
भी उसके बिना
जी नहीं सकता।
बुरे में भी
वही बैठा है।
रावण में भी
वही और राम
में भी वही।
तो तुम तो
साक्षी बनो और
कर्ता छोडो।
उसने
लिखा कि आदमी
तो भले लगे, लेकिन
जमे नहीं।
वहां से वह
गया वर्धा, वहा महात्मा
गांधी उसे जमे।
उसने लिखा कि
यह है गुरु कि
एक—एक बात को
कहता है कि
चाय न पीयो, कि सिगरेट न
पीयो, कि
कितने बजे उठो,
कि कितने
बजे बैठो, कि
कितने कपड़े
पहनो और कितने
कपड़े न पहनो, कैसा भोजन
करो, कैसा
भोजन न करो—छोटी—छोटी
चीज से ले कर, चटनी से ले
कर ब्रह्म तक
सारा विचार!
चटनी भी नीम
की खाना, गांधी
जी कहते थे, ताकि स्वाद
मरे। यह बात
जंची। भोजन
में स्वाद मत
लेना, रस
मत लेना।
इसलिए किसी
चीज में सुख
मत लेना। तो
बिना नमक की
खा लेना। अगर
उसमें भी थोड़ा
स्वाद आता हो
तो नीम की चटनी
मिला लेना।...
ये जंचे। गुरु
बना लिया
गांधी को।
रमण
को छोड़ कर
गांधी को गुरु
बना लिया! तो
आश्चर्य मत
करना, तुम्हारी
भी संभावना
यही है। लेन्झा
देलवास्तो ने
ही कुछ ऐसा
नहीं कर लिया;
तुम्हारे
भी मन की समझ
इतनी ही है।
तुम भी रमण को
न पहचान सकोगे।
रमण की
तस्वीरें कितने
घरों में लगी
हैं? रमण
की कौन चिंता
करता है!
गांधी
की तस्वीरें
कितने घरों
में हैं? घर—घर
में हैं, दफ्तर—दफ्तर
में हैं!
गांधी
महात्मा हैं!
तुम
तो चकित होओगे
यह जान कर कि
एक आदमी ने जहां
रमण बैठे रहते
थे वहां भी
उनके पीछे
गांधी की तस्वीर
टांग दी थी।
रमण तो उनमें
से थे कि
उन्होंने यह
भी न कहा कि यह
क्या कर रहे
हो! उन्होंने
कहा,
ठीक है, टांग
रहे हो तो टांग
दो। रमण के
पीछे भी गांधी
की तस्वीर
टंगी थी! सज्जन
हमें पहचान
में आ जाता है।
वह हमारी भाषा
बोलता है।
तुम्हें भोजन
में रस है, वह
विरस की भाषा
बोलता है—एकदम
समझ में आ
जाता है।
तुम्हें
स्त्री में रस
है, वह
ब्रह्मचर्य
की बात करता
है—एकदम समझ
में आ जाता है।
तुम्हें धन की
पकड़ है, वह
त्याग की बात
करता है—एकदम
समझ में आ
जाता है। भाषा
वही है, जरा
भी भेद नहीं
है। तुम्हारी
और सज्जन की
भाषा में जरा
भेद नहीं है।
तुम्हारी
दुर्जन की
भाषा; उसकी
सज्जन की। तुम
इधर को जा रहे
हो, वह
तुमसे विपरीत
जा रहा है; लेकिन
रास्ता एक ही
है। तुम सीडी
पर नीचे की
तरफ जा रहे हो,
वह सीढ़ी पर
ऊपर की तरफ जा
रहा है; लेकिन
सीढ़ी एक ही है।
संत तुम्हें
बिलकुल समझ
में नहीं आता।
संत बेबूझ है
ओं
प्रवृत्तौ
जायते रागो......।
पहले
तो लोग
प्रवृत्ति
में राग रखते
हैं—यह कर लें, यह
कर लें, यह
कर लें! फिर जब
बार—बार करके
पाते हैं कि
सुख नहीं
मिलता तो
सोचने लगते
हैं, निवृत्ति
कर लें। वह भी
प्रवृत्ति की
आखिरी सरणी है।
पहले सोचते
हैं, भोग
लें; और जब भोग
में कुछ नहीं
मिलता तो
सोचते हैं, चलो अब
त्याग कर लें,
अब त्याग को
भोग लें! देख
लिया संसार
में, कुछ न
पाया; अब
संन्यासी हो
जायें, अब
त्यागी हो
जायें; स्त्रियों
के पीछे दौड़
कर देख लिया, अब
स्त्रियों के
विपरीत दौड़ कर
देख लें; शायद
सुख वहा हो।
भोजन की खूब—खूब
आकांक्षा
करके देख ली, कुछ भी न
मिला, देह
जीर्ण—जर्जर
हो गई, अब
उपवास करके
देख लें!
'प्रवृत्ति
में राग और
निवृत्ति में
द्वेष...।’
जिस—जिससे
राग था
प्रवृत्ति
में,
जहां —जहां
हार हो गई, विषाद
आया, जीवन
का स्वाद खराब
हुआ—वहां —वहां
द्वेष पैदा हो
गया।
तो
तुम देखो, तुम्हारा
साधु स्त्री
को गाली देता
रहता है, स्वाद
को गाली देता
रहता है, भोग
को गाली देता
रहता है। यह
हुआ क्या? यह
द्वेष हो गया।
जहां राग था, वहां द्वेष
हो गया। पहले
आग में हाथ
डालने का मन
होता था; डाल
कर देख लिया, हाथ जल गये—अब
आग से दुश्मनी
हो गई। पहले
आकर्षण था, अब विकर्षण हो
गया। लेकिन
संबंध जुड़ा है,
संबंध नहीं
जाता।
संत
वही है जिसका
संबंध ही गया।
भोग तो व्यर्थ
हुआ ही हुआ, त्याग
भी व्यर्थ हुआ।
भोग के साथ ही
त्याग भी
व्यर्थ हो
जाये तो तुम्हारे
जीवन में क्रांति
घटित होती है।
अनीति के साथ
ही साथ नीति
भी व्यर्थ हो
जाये और अशुभ
के साथ साथ
शुभ भी व्यर्थ
हो जाये, क्योंकि
वे दोनों एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं, उनमें भेद
नहीं है।
दुर्जन और
सज्जन एक—दूसरे
के साथ खड़े
हैं। दुर्जन
और सज्जन
सहयोगी हैं, एक ही दुकान
में पार्टनर
हैं।
तुम
जरा एक ऐसी
दुनिया की
कल्पना करो जिसमें
कोई दुर्जन न
हो,
क्या वहां
सज्जन होंगे?
एक ऐसी
दुनिया की
कल्पना करो कि
जहां राम ही राम
हों और रावण न
हों—राम
बचेंगे? राम
के बचने के
लिए रावण का
होना एकदम
जरूरी है।
रावण के बिना
राम हो नहीं
सकते। यह भी
क्या राम होना
हुआ! यह तो बड़ी
मजबूरी हुई।
यह तुम थोड़ा
सोचो। यह तो
राम रावण पर
निर्भर है।
रावण भी न हो
सकेगा राम के
बिना। ये
दोनों ही
पात्र
रामलीला में
जरूरी हैं।
तुम
जरा रामलीला
खेल कर दिखा
दो बिना रावण
के! लीला
चलेगी नहीं, इंच
भर आगे न
चलेगी। कथा
पहले से ही
गिर जायेगी।
और जनता पहले
से उठ जायेगी
कि फिजूल की
बकवास है, जब
रावण ही नहीं
है तो रामलीला
होगी कैसे!
सीता चुराई
जानी चाहिए, युद्ध होना
चाहिए—यह कुछ
भी नहीं होने
वाला है।
रामचंद्र जी
बैठे हैं वहा,
थोड़ी देर
भक्त बैठे
रहेंगे, राह
देखेंगे कि
कुछ हो; कुछ
भी नहीं होगा,
क्योंकि
होने के लिए
द्वंद्व
चाहिए।
शुभ
और अशुभ एक
साथ हैं।
रामलीला में
दोनों सहयोगी
हैं। और
तुम्हें अगर
ठीक—ठीक देखना
हो तो कभी—कभी
रामलीला देख
कर रामलीला के
पीछे भी जा कर देखना—पदें
के पीछे—तुम
राम—रावण को, दोनों
को चाय पीते
पाओगे, गपशप
करते। इधर लड़
रहे थे पर्दे
के इस पार, पीछे
गपशप कर रहे
हैं। ये सब एक
ही नाटक—मंडली
के सदस्य हैं।
अष्टावक्र
का सूत्र यह
कह रहा है कि
तुम्हें अगर
नाटक के
बिलकुल बाहर
होना है तो
तुम्हें सदस्यता
छोड़नी पड़ेगी, तुम्हें
यह मंडली ही
छोड़ देनी
पड़ेगी—न राम न
रावण।
तुम्हें
दोनों के
द्वंद्व के
पार होना
पड़ेगा।
प्रवृत्तौ
जायते रागो......।
प्रवृत्ति
तो है राग।
निवृत्तौ
द्वेष एव ही......।
और
निवृत्ति है
द्वेष। मगर
द्वेष भी तो
बंधन है। जिस
चीज से द्वेष
होता है उससे
हम बंधे रह
जाते, अटके रह
जाते हैं। एक
खटक बनी रह
जाती है। यह
कोई मुक्ति तो
न हुई।
निर्द्वद्वो
बालबद्धीमानेवमेव
व्यवस्थित:।
यह
सूत्र अदभुत
है,
स्वर्णसूत्र
है।
'बुद्धिमान
पुरुष
द्वंद्वमुक्त
बालक के समान
है, जैसा
है वैसा ही है।’
कुछ
बनने की
चेष्टा नहीं
है। बालक का
अर्थ होता है
जो जैसा है
वैसा है। जब
उसे क्रोध आ
जाता है तो
बालक यह नहीं
सोचता, करूं
कि न करूं! जब
उसे प्रेम आ
जाता है तो भी
यह नहीं सोचता
कि प्रगट करना
उचित कि नहीं।
वह हिसाब नहीं
लगाता।
एक
अंग्रेज साधक
चाडविक ने रमण
के संस्मरणों में
लिखा है कि वह
बड़ा हैरान हुआ।
एक दिंने ऐसा
हुआ कि एक
संन्यासी, पुराणपंथी
संन्यासी, विवाद
करने आ गया।
रमण ने उसे, जो वह पूछता
था बार—बार, कहा। लेकिन
वह तो सुनने
को राजी न था, वह तो अपनी
बुद्धि से भरा
था, अपने
शास्त्र से
भरा था। वह तो
बड़े उल्लेख, शास्त्रों
के उदाहरण दे
रहा था और बड़ी
तर्क —वितण्डा
फैला रहा था।
रमण सीधे —साधे!
वे उसे सुनते,
आधा घंटा
उसे सुनते, फिर कहते कि
साक्षी— भाव
रखो! विवाद
में उतरे नहीं।
वह संन्यासी
और जलने लगा, और क्रोध से
भरने लगा। वह
खींचना चाहता
था विवाद में!
शिष्य थोड़े परेशान
हुए कि यह
व्यर्थ की बात
हो रही है, व्यर्थ
का समय खराब
हो रहा है और
व्यर्थ को महर्षि
को परेशान
किया जा रहा
है। लेकिन
करें क्या! वह
अपने तकिए से
टिके महर्षि
उसे सुनते। जब
बहुत देर हो
गई, उन्होंने
उसे बार—बार
कहा कि मेरी
बात थोड़ी—सी
है, वह
मैंने तुमसे कह
दी। जब वह न
हुआ सुनने को
राजी तो
उन्होंने उठा
लिया अपना
डंडा, भागे
उसके पीछे! वह
तो घबड़ा कर
बाहर निकल गया।
उसने सोचा कि
यह तो मारपीट
की नौबत..।
उसने सोचा न
था कि शानी
पुरुष ऐसा
करेगा! लौट कर,
डंडा रख कर
वह फिर अपना
लेट गये। और
कोई दूसरे
भक्त ने कुछ
पूछा, उसका
उत्तर देने
लगे।
चाडविक
ने लिखा है : उस
दिन उनका रूप
देख कर मन मोह
गया! बालवत!
छोटे बच्चे
जैसे! यह भी न
सोचा कि लोग
क्या कहेंगे, कि
आप और क्रोधित!
क्रोधित हुए
भी नहीं, क्योंकि
क्रोध अगर हो
जाये तुम्हें,
तो सरकता है।
घटना तो बीत
जाती है, लेकिन
क्रोध का धुआं
एकदम से थोड़े
ही चला जाता
है; घड़ियों
रहता है, दिनों
रहता है, कभी
तो वर्षों
रहता है। डंडा
ले कर दौड़ भी
गये, वापिस
आ कर फिर बैठ
गये। वह आदमी
चला भी गया।
वे फिर वैसी
बात करने लगे
जैसी बात चल
रही थी, जैसे
कुछ हुआ ही
नहीं है।
गुरजिएफ
के संबंध में
ऐसे बहुत—से
उल्लेख हैं, जब
वह बिलकुल
पागल हो जाता
और एक क्षण
में ऐसा ठंडा
हो जाता कि
भरोसा ही नहीं
आता लोगों को
कि एक क्षण
में कोई इतना
उत्तप्त हो
सकता है और
इतना ठंडा हो
सकता है! छोटे
बच्चे की
भांति!
जीसस
का बड़ा
प्रसिद्ध
उल्लेख है। वे
तो कहते थे कि
सभी को क्षमा
करो,
किसी का
निर्णय न करो,
दुश्मन को
भी प्रेम करो।
यही उन्होंने
अपने शिष्यों
को समझाया था।
और एक दिन
उन्होंने
अचानक कोड़ा
उठा लिया मंदिर
में और मंदिर
में जो लोग
रुपये—पैसे
ब्याज पर देने
का धंधा करते
थे उनके तख्ते
उलट दिये। और
अकेले आदमी, ऐसे पागल की
तरह हो गये कि
भीड़ की भीड़ को
बाहर खदेड़
दिया—एक आदमी
ने! शिष्य तो
बड़े हैरान हुए,
क्योंकि वे
तो सुनते रहे
थे. 'दुश्मन
को प्रेम करो
और जो
तुम्हारे गाल
पर एक चांटा
मारे, दूसरा
उसके सामने कर
देना!' यह
जीसस को हो
क्या गया! और
जब इन सबको
खदेड़ कर जीसस
मंदिर के बाहर
वृक्ष के नीचे
आ कर बैठ गये तो
वे वैसे के
वैसे थे, जैसे
कोई रेखा नहीं
खिंची। ईसाई
इसको समझा
नहीं पाये।
ईसाइयों को
बड़ी अड़चन रही
है इस घटना को
समझाने में; क्योंकि अगर
यह सच है तो
फिर ईसा के
वचनों का क्या
हो? अगर
वचन सच हैं तो
फिर ईसा के इस
व्यवहार का क्या
हो?
एक
वृक्ष के नीचे
ईसा रुके।
भूखे थे।
वृक्ष पर देखा
कि शायद फल
लगे हों; वृक्ष
पर फल नहीं थे।
तो ईसा ने कहा
कि देख, हम
आये और तूने
फल न दिये तो
तू सदा—सदा के
लिए बे—फल
रहेगा, अब
तुममें फल
पैदा न होंगे।
बर्ट्रेड
रसेल ने लिखा
है जीसस के
खिलाफ, कि
यह आदमी बातें
तो करता है शांति
की, लेकिन
वृक्ष पर
नाराज हो गया!
अब वृक्ष का
क्या कसूर है?
अगर फल नहीं
लगे तो वृक्ष
का कोई कसूर
है? इसमें
नाराज हो जाना
और इतना नाराज
हो जाना कि
सदा के लिए कह
देना अभिशाप
कि कभी तुझ पर
फल न लगेंगे!
यह तो बात ठीक
नहीं मालूम
पड़ती।
रसेल
का तर्क भी
ठीक है। रसेल
ने एक किताब
लिखी है. 'व्हाय
आइ एम नाट ए
क्रिश्चियन? मैं ईसाई
क्यों नहीं?' उसमें जो
दलीलें गिनाई
हैं, उनमें
एक दलील यह भी
है कि जीसस का व्यवहार
उच्छृंखल है
और जीसस के
व्यवहार में शांति
नहीं है, अशांति
है। निश्चित
ही ऐसे उल्लेख
हैं जो कि
कहते हैं कि अशांति
मालूम होती है।
इसमें तो
नाराजगी क्या
होनी?
लेकिन
अगर तुम पूरब
के मनीषियों
से पूछो तो वे
कहेंगे. वृक्ष
पर नाराज कोई
बच्चा ही हो
सकता है। थोड़ा
सोचना। छोटे
बच्चे को देखो, टेबल
से धक्का लग
जाता है तो
टेबल को एक
चांटा लगा
देता है कि
अपनी जगह रह, अगर ज्यादा
गड़बड़ किया तो
बहुत पिटाई हो
जायेगी! दीवाल
से सिर टकरा
जाता है तो
दीवाल को
मारने लगता है।
यह छोटे बच्चे
का व्यवहार है।
रसेल
की बात बड़ी विचारपूर्ण
है,
लेकिन रसेल
को कोई पता
नहीं है कि एक
ऐसी भी दशा है
परम मुक्ति की,
एक ऐसी दशा
है परम कैवल्य
की जहां
व्यक्ति पुन:
बच्चे की
भांति हो जाता
है। और जीसस
का तो
प्रसिद्ध वचन
है कि जो छोटे
बच्चों की
भांति होंगे,
वे ही मेरे
प्रभु के
राज्य में
प्रवेश कर सकेंगे,
दूसरे नहीं।
बहुत कठिन है
यह बात
स्वीकार करनी,
क्योंकि हम
संत से तो
बहुत संयोजित
व्यवहार की
आशा रखते हैं।
संत से तो हम
आशा रखते हैं
कि उसके
व्यवहार में
कोई कमी—खामी
न होगी, कोई
त्रुटि न होगी।
संत से तो हम
पूर्ण होने की
आशा रखते हैं।
क्योंकि संत
तो हमारे लिये
आदर्श हैं, उसका तो हम
अनुकरण
करेंगे।
लेकिन
तुम सुनो, अष्टावक्र
कहते हैं कि
परम संत वही
है जो बालवत
है। पूर्ण
नहीं है, समग्र
है। पूर्ण और
समग्र के भेद
को समझ लेना।
बच्चा सदा
समग्र होता है,
पूर्ण कभी
नहीं होता। एक
समग्रता होती
है। बच्चा जब
क्रोध करता है
तो क्रोध हो
जाता है। फिर
कुछ नहीं बचता
है उसमें, वह
आग होता है।
इसलिए बच्चे
को क्रोधित
देखो तो एक
सौंदर्य होता
है बच्चे में।
तुमने न देखा
हो, गौर
करके देखना।
तुम अपने छोटे—मोटे
और दूसरे
विचार एक तरफ
रख देना। जब
एक छोटा बच्चा
नाराज होता है
तो छोटा—सा प्राण,
लेकिन ऐसा
लगता है सारी
दुनिया को
हिला देगा।
पैर पटकता है
पृथ्वी पर जोर
से। उसकी
नाराजगी में
एक बल है, एक
सौंदर्य है, एक कौमार्य
है, एक
कोमलता— और
फिर भी एक
महाशक्ति! और
क्षण भर बाद
भूल गया। क्षण
भर पहले तुम
पर क्रोधित
हुआ था और
कहता था : 'अब
कभी तुम्हारी
शक्ल न
देखेंगे, दोस्ती
खत्म!' कट्टी
कर ली थी।
क्षण भर बाद
तुम्हारी गोद
में बैठा है।
याद ही न रही।
बडा असंगत
व्यवहार है
बच्चे का!
लेकिन समग्र है।
जब क्रोध में
था तो पूरा
क्रोध में था,
जब प्रेम
में है तो
पूरा प्रेम
में है। उसके
प्रेम को ड़सका
क्रोध आ कर
खराब नहीं
करता और उसके
क्रोध को उसका
प्रेम आ कर
खराब नहीं
करता; जब
होता है तब
समग्र होता है,
पूरा—पूरा
होता है। जो
होता है वही
होता है; उससे
अन्यथा नहीं
होता। उसके
जीवन में एक
प्रामाणिकता
है।
बच्चा
बिलकुल
चरित्रहीन
होता है; उसका
कोई चरित्र
नहीं होता।
चरित्र होने
के लिए तो बड़ी
चालाकी चाहिए।
चरित्र होने
के लिए तो
आयोजन चाहिए,
व्यवस्था
चाहिए।
चरित्र होने
के लिए तो बड़ी
कुशलता चाहिए,
होशियारी
चाहिए, तर्क
चाहिए, गणित
चाहिए।
चरित्र का तो
अर्थ होता है :
सम्हल—सम्हल
कर चलो।
चरित्र का तो
अर्थ होता है :
देख—देख कर करो;
जो करना हो
वही करो जो न
करना हो वह मत
करो। सोच कर
करो कि कल
इसका क्या
परिणाम होगा?
परसों क्या
परिणाम होगा?
आज तुम ऐसा
कहोगे तो क्या
प्रतिक्रिया
होगी? आज
तुम ऐसा करोगे
तो क्या
प्रतिक्रिया
होगी?
तो
चरित्रवान
व्यक्ति कभी
समग्र नहीं
होता; हिसाबी
होता है, किताबी
होता है। उसके
बही—खाते होते
हैं। छोटा
बच्चा
चरित्रहीन है।’चरित्र—मुक्त'
कहना चाहिए;
'हीन' कहना
ठीक नहीं, चरित्र—मुक्त।
अभी चरित्र
पैदा ही नहीं
हुआ। अभी
समग्र है। अभी
तो जो भीतर की
सचाई है वही
बाहर प्रगट
होती है। अगर
भीतर क्रोध है
तो बाहर क्रोध
है। अगर भीतर
प्रेम है तो
बाहर प्रेम है।
अभी भीतर और
बाहर
में
द्वंद्व पैदा
नहीं हुआ। अभी
भीतर और बाहर
में एकरसता है।
संत
पुन: बच्चे की
भांति हो जाता
है। अब फिर
बाहर और भीतर
में एकरसता है।
संत का कोई
चरित्र नहीं
होता। चौंकना
मत जब मैं ऐसा
कहता हूं! संत
का कोई चरित्र
हो ही नहीं
सकता। सज्जन
का चरित्र
होता है, दुर्जन
में
दुश्चरित्रता
होती है। संत
तो चरित्र के
पार होता है—चरित्रातीत।
'बुद्धिमान
पुरुष
द्वंद्वमुक्त
है।’
उसके
पास दो का भाव
नहीं रह जाता।
यह ठीक और यह
सही,
यह हेय, यह
उपादेय; यह
शुभ, यह
अशुभ, यह
माया, यह
ब्रह्म—ऐसा
कुछ नहीं रह
जाता। जो है, है।
'.
……द्वंद्व
मुक्त बालक के
समान जैसा है
वैसा ही रहता
है।’
संत
होना सहज होना
है।
तुमने
तीन शब्द सुने
हैं—सविकल्प
समाधि; निर्विकल्प
समाधि, सहज
समाधि।
सस्त्रिकल्प
समाधि में
विचार रहता है।
निर्विकल्प
समाधि में
विचार चला
जाता है; लेकिन
विचार चला गया
है, इसका
बोध रहता है।
सहज समाधि में
वह बोध भी चला
जाता है, न
विचार रहता, न निर्विचार
रहता। सहज
समाधि का अर्थ
है : आ गये अपने
घर, हो गये
स्वाभाविक; अब जैसा है
वैसा है; जो
है वैसा है; उससे अन्यथा
की न कोई चाह
है न कोई मांग
है। इस 'जैसे
हो वैसे ही' के साथ राजी
हो जाने में
ही तृष्णा का
पूर्ण विसर्जन
है। फिर
तृष्णा कैसी!
फिर तृष्णा
नहीं बच सकती
है।
निर्द्वद्वो
बालवत धीमान्
एवं एव
व्यवस्थित:।
वही
है बुद्धिमान
जो
निर्द्वंद्व
बालक की भांति
हो गया। वही
है धीमान, उसी
के पास
प्रतिभा है।
जैसा है वैसा
ही उसमें ही
स्थित, अन्यथा
की कोई मांग
नहीं, जरा
भी तरंग नहीं
उठती अन्यथा
की! बहुत कठिन
है यह बात
समझनी। है तो
बहुत सरल, लेकिन
समझनी कठिन है।
क्योंकि हमें
जो समझाया गया
है वह इसके
बिलकुल
विपरीत पड़ता
है। हमें तो
समझाया गया है
चोरी छोड़ो, अचोर बनी; झूठ छोड़ो, सच बोलो। यह
सच के ऊपर जा
रही है बात।
कबीर
के जीवन में
ऐसा उल्लेख है, कि
वे रोज उनके
घर भजन करने
लोग इकट्ठे
होते थे। कबीर
तो सहज समाधि
में थे, बालवत
थे। जब लोग
इकट्ठे हो
जाते और भोजन
का समय होता
तो वे उनसे
कहते 'चलो
भोजन करके
जाना! अब कहां
जाते हो, भोजन
कर जाओ!' पति
तो ऐसा कहे, लेकिन पत्नी
बड़ी मुश्किल
में पड़ गई। अब
यह कहां से
रोज—रोज भोजन
लाओ! इतना
भोजन! कबीर तो
गरीब आदमी थे,
कपड़ा बुन कर
बेच लेते थे
जो थोड़ा—बहुत,
वह भी जो
भजन इत्यादि
से समय बच
जाता कभी तो
बुन लेते—उसी
में काम चलाना
था। तो पत्नी
ने कहा कि मैं
तो न कह
सकूंगी, क्योंकि
मैं कैसे कहूं
कि घर में कुछ
भी नहीं है, मैं कैसे
खिलाऊं, कहां
से लाऊं!
उधारी बढ़ती
जाती है। बेटे
को कहा—कमाल
को—कि तू अपने
बाप को समझा
कि अब यह कहना
बंद कर दो, हमारे
पास सुविधा
नहीं है। लोग
भजन करें, जायें,
तो जाने दो,
उनको रोको
मत। हाथ पकड़—पकड़
कर रोकते हो
कि बैठो, भोजन
करके जाना, कहां जाते
हो! लोग जाना
भी चाहते हैं,
क्योंकि
लोगों को पता
है कि घर में
भोजन की सुविधा
नहीं है।
तो
कमाल ने कबीर
से कहा, एक
दफा कहा, दो
दफा कहा, तीन
दफा कहा, चौथी
दफा कमाल
नाराज हो गया।
कमाल भी कमाल
का ही बेटा था।
उसने कहा अब
बंद करते हो
कि नहीं गुम
क्या
हम
चोरी करने
लगें? उधारी
चढ़ गई सिर पर, चुकती नहीं।
अब तो एक ही
उपाय बचा है।
अगर तुमने यह
जारी रखा तो
हम चोरी करने
लगेंगे।
कबीर
तो खिल गये
जैसे कमल खिल
जाये। कबीर ने
कहा अरे पागल
तो पहले क्यों
न सोचा! इतने
दिन खुद
परेशान, तू
परेशान, तेरी
मां परेशान!
और इतने दिन
मुझे भी
परेशान कर रहे
हो! तो पहले
क्यों न सोचा?
कमाल
तो चौंका।
उसने कहा : हद
हो गई! इसका
क्या अर्थ
हुआ! क्या चोरी
के लिए भी
स्वीकृति!
लेकिन कमाल भी
कमाल था। उसने
कहा. 'तो ठीक। तो
आज चोरी करने
जायेंगे।
लेकिन आपको
मेरे साथ चलना
पड़ेगा।’ उसने
सोचा कि यह
मजाक ही होगी;
जब बात
मुद्दे की
आयेगी और चोरी
करने की बात उठेगी
तो शायद इनकार
कर जायेंगे।
लेकिन कबीर ने
कहा 'हा—हां,
चलूंगा।’ कमाल भी
कमाल ही था!
रात आ गया उठ
कर आधी रात, कहा कि चलो।
अभी भी सोचता
था कि आखिरी
वक्त में वे
नट जायेंगे कि
चोरी और कबीर!
बात कुछ मेल
खाती नहीं।
लेकिन कबीर उठ
गये, हाथ—मुंह
धो कर चल पड़े।
कहने लगे : 'कहां
चलना है, चल।’
मगर कमाल भी
कमाल ही था।
उसने जाकर
सेंध लगा दी
एक मकान में।
उसने कहा, हो
सकता है अब
रुक जायें। वह
भी आखिरी दम
तक देखना
चाहता था कि
मामला कहां तक
जाता है। सेंध
भी खुद गई।
उसने कहा. 'तो
मैं अंदर चला
जाऊं?' कबीर
ने कहा : ' अब
इधर आये
किसलिए! तो
पागल, आधी
रात नींद वैसे
ही खराब की! तो
जल्दी कर, क्योंकि
ब्रह्म—मुहूर्त
हुआ जाता है
और थोड़ी देर
में भजन करने
वाले लोग आते होंगे!'
बड़ी
अनूठी कहानी
है। अनूठी, क्योंकि
उसके फिर
मुकाबले में
कोई कहानी पूरे
संत—साहित्य
में नहीं है।
तो कमाल भीतर
चला गया। कमाल
भी कमाल ही था।
उसने कहा कि
ठीक है, शायद
जब मैं ले
आऊंगा धन तब
वे इनकार कर
देंगे। वह भी
आखिरी दम तक
देख लेना
चाहता था। बाप
का ही बेटा था।
कबीर का ही
बेटा था। कहा
कि तुम अगर
आखिरी दम तक
कस रहे हो तो
मैं भी..। वह ले
आया खींच कर
अशर्फियों से
भरी एक बोरी।
बोरी बाहर
निकाल रहा था,
तभी कबीर ने
कहा कि 'सुन,
घर के लोगों
को जगा दिया
कि नहीं, बता
दिया कि नहीं?'
तो उसने कहा
: 'क्या
मतलब?' कहा. 'घर के लोगों
को बता तो दे
भाई कम से कम।
सुबह भटकेंगे,
यहां—वहां
खोजेंगे, उनको
पता तो होना
चाहिए, कौन
ले गया!
शोरगुल कर दे!'
तो कमाल तो
कमाल ही था, उसने शोरगुल
कर दिया।और जब
कबीर कह रहे
हैं तो कर दो
शोरगुल!
शोरगुल कर
दिया तो पकड़
लिया गया।
सेंध में से
निकल रहा था, घर के लोगों
ने पीछे से
पैर पकड़ लिए।
तो उसने पूछा
कबीर से. 'अब
क्या करना? लोगों ने
पैर पकड़ लिए
हैं।’ तो
कबीर ने कहा : 'पकड़े रहने
दे पैर। पैर
का करना भी
क्या है! सिर
मैं तेरा लिए
जाता हूं।’ कहते हैं
सिर काट लिया,
सिर ले गये।
घर के लोगों
ने पीछे खींच
लिया कमाल को।
बिना सिर का
था तो पहचानना
मुश्किल हो
गया कि कौन है,
क्या है।
लेकिन कुछ रंग—ढंग
से लगता था कि
अपूर्व
व्यक्ति है!
गंध कुछ ऐसी
थी, हाथ—पैर
का सौंदर्य
ऐसा था, शरीर
का अनुपात ऐसा
था, कोमलता
ऐसी थी, प्रसाद
ऐसा था! बिना
सिर के भी था
तो भी!
किसी
ने कहा कि
हमें तो ऐसा
लगता है कि
कबीर का बेटा
कमाल है, तो
इसे बाहर खंभे
पर लटका दें, पहचान हो
जायेगी।
क्योंकि थोड़ी
ही देर में
कबीर की मंडली
निकलेगी भजन
करते, कोई
न
कोई पहचान
लेगा। तो
उन्होंने
खंभे पर लटका
दिया बाहर।
थोड़ी देर बाद
मंडली निकली
कबीर की भजन
करते। पकड़े
गये,
क्योंकि
कमाल का शरीर
वहां लटका था।
रोज की आदत, पुरानी आदत,
ऐसी जल्दी
तो छूटती नहीं—जब
लोगों को भजन
करते देखा तो
वह ताली बजाने
लगा! वह जो लाश
लटकी थी, वह
ताली बजाने
लगी।
कहानी
तो कहानी ही
है;
सच होनी
चाहिए, ऐसा
नहीं है।
लेकिन बड़ी
प्रतीकात्मक
है कि कबीर
चोरी को भी
राजी हो गये; बेटे का सिर
काटने को भी
राजी हो गये; न चोरी से
डरे न हिंसा
से डरे। ऐसा
हुआ है, ऐसा
मैं कह नहीं
रहा, लेकिन
ऐसा भी हो तो
भी आश्चर्य
नहीं है।
क्योंकि
हमारे जो
द्वंद्व हैं—चोरी
बुरी और अचोरी
अच्छी, और
हिंसा बुरी और
अहिंसा अच्छी—ये
हमारे चंचल
चित्त की
लहरों से उठी
हुई धारणायें
हैं।
हेयोपादेय! यह
अच्छा, यह
बुरा; यह
शुभ, यह
अशुभ! कहीं तो
कोई एक दशा
होगी, न जहां
कुछ शुभ रह
जाता, न
अशुभ। कहीं तो
कोई एक दशा
होगी
निर्द्वंद्व!
कहीं तो एक
सरलपन होगा, जहां भेद
नहीं रह जाता!
कहीं तो कोई
एक स्थान होना
चाहिए, एक
स्थिति होनी
चाहिए—जहां सब
द्वंद्व खो
जाते हैं, द्वैत
लीन हो जाता
है, अद्वैत
का जन्म होता
है! उसी
अद्वैत की बात
है।
निर्द्वद्वो
बालवत धीमान्
एवं एव
व्यवस्थित:।
हो
जाये जो बच्चे
जैसा
निर्द्वंद्व, द्वंद्व
के पार..।
एक
बात और यहां समझ
लेना। बच्चे
जैसा कहा है; बच्चा
ही नहीं कहा
है। क्योंकि
अगर ऐसा हो तो
सभी बच्चे
संतत्व को उपलब्ध
हो गये। लेकिन
बच्चे संतत्व
को उपलब्ध
नहीं हैं।
बच्चे तो अभी
भटकेंगे।
बच्चे तो
भटकने की पहली
दशा में हैं, भटकने के
पूर्व। संत है
भटकने के बाद।
वर्तुल पूरा
हो जाता है।
जहां से चले
थे, वहीं आ
जाते हैं। अगर
तुम्हारा
जीवन ठीक—ठीक
विकासमान हो,
ठीक—ठीक
वर्द्धमान हो,
अगर
तुम्हारा
जीवन ठीक से
चले—तों जब
तुम पैदा हुए,
जैसे तुम
बच्चे थे वैसे
ही मरते वक्त
पुन: तुम्हें
बच्चे हो जाना
चाहिए। तो
वर्तुल पूरा
हो गया। जहां
से चले थे
वहीं वापस आ
गये; मूलस्रोत
उपलब्ध हो गया।
यह
अंतिम बालपन
की बात हो रही
है। बच्चों
जैसे का अर्थ
है. बच्चे
नहीं; जो गुजर
चुके जीवन के
सारे अनुभवों
से और फिर भी
बच्चे जैसी
सरलता को
उपलब्ध हो गये
हैं! बच्चे तो
बिगड़ेंगे, बच्चे
तो बिगड़ने को
बने हैं।
बच्चे तो अभी
तैयार हो रहे
हैं बिगड़ने के
लिए। अभी
निकाले
जायेंगे
बहिश्त के
बाहर। अभी
स्वर्ग
खोयेगा। अभी
उनकी जो
निर्दोषता है,
वह कोई
उपलब्धि नहीं
है, वह
प्रकृति की
भेंट है। सभी
बच्चे सुंदर,
सभी बच्चे शांत,
सभी बच्चे
समग्र पैदा
होते हैं। फिर
धीरे— धीरे
विसंगतियां
पैदा होती हैं,
विरोध पैदा
होते हैं।
धीरे— धीरे
बच्चे का बचपन
खोता चला जाता
है। पाप पैदा
होता है। पाप
का इतना ही
अर्थ है : भेद
शुरू हो गया।
कपट पैदा होता
है। कपट का
इतना ही अर्थ
है. हिसाब आ
गया। सरलता
चली गई। जैसे
थे वैसे न रहे।
जैसे नहीं हैं,
वैसा
बतलामें लगे।
राजनीति आ गई।
कूटनीति आ गई।
बच्चा
तो भटकेगा।
बच्चे को भटकना
ही पड़ेगा, क्योंकि
बिना भटके जगत
के अनुभव से
गुजरने का कोई
उपाय नहीं। इस
जगत् के बीहड़
बन में भटकना
पड़ेगा। संत वह
है जो इस बीहड़
बन से गुजर
गया; इस
सबको देख लिया—अच्छे
को भी, बुरे
को भी—और
दोनों को असार
पाया।
जिन्होंने
बुरे
में सार देखा, वे
दुर्जन; जिन्होंने
अच्छे में सार
देखा, वे
सज्जन; जिन्होंने
दोनों में सार
नहीं देखा, वे संत। जो
दोनों के पार
हो गये, जिन्होंने
दोनों को देख
लिया, दोनों
को देखा, खूब
देख लिया, भरपूर
देख
लिया—और दोनों
को थोथा पाया......!
मैंने
ऐसी दुनिया
जानी।
इस
जगती के
रंगमंच पर
आऊं
मैं कैसे क्या
बन कर
जाऊं
मैं कैसे क्या
बन कर
सोचा, यत्न
किया जी भरकर
किंतु
कराती नियति—नटी
है
मुझसे
बस मनमानी।
मैंने
ऐसी दुनिया
जानी।
आज
मिले दो, यही
प्रणय है
दो
देहों में यही
हृदय है
एक
प्राण है एक
श्वास है
भूल
गया मैं यह
अभिनय है
सबसे
बढ़ कर मेरे
जीवन
की
थी यह नादानी।
मैंने
ऐसी दुनिया
जानी।
देखा
बुरा, भूल गये
कि नाटक है।
देखा भला, भूल
गये कि नाटक
है। बुरे में
जो भटक गया, हो गया रावण।
भले में जो
भटक गया, हो
गया राम।
जिसने बुरे को
ओढ़ लिया, हो
गया पापी।
जिसने भले को
ओढ़ लिया, हो
गया
पुण्यात्मा।
जिसने बुरे
में जड़ें जमा
लीं, हो
गया हीनात्मा।
और जिसने भले
में जड़ें जमा
लीं, हो
गया महात्मा।
लेकिन जिसने
दोनों में
जाना—
सोचा, यत्न
किया जी भरकर
किंतु
कराती नियति—नटी
है
मुझसे
बस मनमानी।
मैंने
ऐसी दुनिया
जानी।
भूल
गया मैं यह अभिनय
है
सबसे
बढ़ कर मेरे
जीवन
की
थी यह नादानी।
मैंने
ऐसी दुनिया
जानी।
और
जिसने देखा कि
सब नाटक है—बुरा
भी,
भला भी; रावण
भी रामलीला के
पात्र, राम
भी! जिसने
जीवन को अभिनय
जाना; जो
साक्षी हो कर
पार खड़ा हो
गया; जिसने
कहा, न मैं
रावण हूं न
मैं राम हूं—वह
पार हो गया!
मेरे
पास बहुत
मित्र पत्र
लिख कर भेज
देते हैं कि
आप कृष्ण पर
बोले, बुद्ध
पर बोले, जीसस
पर
बोले, कबीर, नानक, दादू
सहजो, फरीद,
सूफियों पर
बोले, झेन
फकीरों पर
बोले; राम
को क्यों छोड़
जाते हैं? तुलसी
की रामायण को
क्यों छोड़
जाते हैं? तुलसीदास
पर क्यों नहीं
बोलते? राम
पर क्यों नहीं
बोलते?
कारण
है। सज्जन में
मेरी बहुत
रुचि नहीं है।
संत में मेरी
रुचि है। राम
मर्यादापुरुषोत्तम
हैं। मर्यादा
के जो पार है, उसमें
मेरी रुचि है।
कृष्ण में
मेरी रुचि है,
क्योंकि
कृष्ण
मर्यादा—शून्य
हैं। कृष्ण से
ज्यादा
चरित्रहीन
व्यक्ति
पाओगे संसार
में! कृष्ण से
ज्यादा गैर—
भरोसे योग्य
व्यक्ति
पाओगे कहीं!
किसी बात का
पक्का नहीं है।
छोटे बच्चे
जैसा व्यवहार
है। कसम खा ली
थी कि शस्त्र
न उठाऊंगा, फिर उठा
लिया! कसमों
का कोई हिसाब
रखे! किसको याद
रहे कसम! छोटे
बच्चे जैसा
व्यवहार है!
मुझसे
लोग पूछते हैं
कि कृष्ण के
इस व्यवहार
में आप क्या
देखते हैं? कुछ
भी नहीं देखता
हूं —यह सीधा—सरल
व्यवहार है।
खा ली थी कसम
किसी क्षण में;
अब वह क्षण
गया, नया
क्षण आ गया।
अब इस नये
क्षण की नई
स्थिति है। इस
नये क्षण का
नया संवेग है!
इस नये क्षण
के लिए नया
उत्तर चाहिए!
पुरानी कसम से
बंधे रहते तो
मर्यादा होती।
बंधे न रहे।
अस्तित्व के
नये ढंग के
साथ नये हो
लिए।
तुमने
कृष्ण का एक
नाम सुना
रणछोड़दास जी!
भगोड़ादास जी!
भाग खड़े हुए!
किसी मौके पर
देखा कि भागने
में ही सार है
तो फिर ऐसा
नहीं कि जिद
की तरह अड़े
रहेंगे कि
चाहे जान रहे
कि जाये, झंडा
ऊंचा रहे
हमारा! भाग
गये, कि
देखा कि
परिस्थिति
भागने की है, तो इसमें
अकड़ न रखी।
उनके भक्तों
ने भी खूब नाम
बना लिया—रणछोड़दास
जी!
कृष्ण
में एक
मर्यादा—पार
की प्रभा है।
कृष्ण को
समझना थोड़ा
कठिन है। राम
सीधे —साफ हैं।
राम में कुछ
विशिष्ट नहीं।
महिमापूर्ण
हैं,
मगर
विशिष्ट नहीं।
महात्मा हैं,
लेकिन संत
नहीं। इसलिए
जान कर छोड़ता
रहा हूं। जब
परम की ही बात
करनी हो तो
राम वहां नहीं
आते। और इसी
की सूचना
हिंदुओं ने भी
दी। उन्होंने
भी राम को
अंशावतार कहा;
पूर्णावतार
कहने की
हिम्मत नहीं
की, क्योंकि
बात गलत हो
जायेगी।
कृष्ण को
पूर्णावतार
कहा। कहा कि
यह पूरा—पूरा
परमात्मा।
पूरा—पूरा
परमात्मा का
अर्थ हुआ : अब
मर्यादा भी नहीं।
मर्यादा भी
आदमी की होती
है। सीमा आदमी
की होती है।
तो ठीक है राम
के लिए
मर्यादापुरुषोत्तम
नाम, कि
पुरुषों में
उत्तम
मर्यादा वाले,
सबसे बड़ी
मर्यादा वाले।
लकीर के
बिलकुल फकीर
हैं। यह किसी
धोबी ने कह
दिया अपनी
पत्नी से कि 'तू रात भर
कहां रही? तू
मुझे राम समझी
है कि वर्षों
रह गई सीता
रावण के घर और
फिर ले आये? छोड़ ये
बातें, निकल
घर से।’ बस
यह बात काफी
हो गई कि यह तो
मर्यादा
टूटती है। तो
मर्यादा
टूटती है, सीता
की अग्नि—परीक्षा
भी ले ली, सब
तरह उसे कोरा,
उसको पूरा
पक्का—खरा
पाया, फिर
भी उसे जंगल
छुड़वा दिया।
मर्यादा
टूटती है!
कृष्ण
बड़े और ढंग के
हैं। कोई
मर्यादा नहीं
है। मर्यादा
मात्र शून्य
है। इसलिए
कृष्ण को
पूर्णावतार
कहा है; परमात्मा
जैसे पूरा—पूरा
उतरा!
परमात्मा संत
में पूरा—पूरा
उतरता है, महात्मा
में बंधा—बंधा
उतरता है। और
दुर्जन में तो
पड़ गया गड्डे
में, कीचड—कबाड़
में। जैसे
शराबी पड़ा
होता है नाली
में, ऐसा
दुर्जन में
परमात्मा
नाली में पड़
जाता है, सज्जन
में खड़ा हो
जाता है, संत
में उड़ने लगता
है। संत की ही
बात मैंने की
है अब तक—इस
आशा में कि जहां
जाना है, जो
होना है, उसकी
ही बात करनी उचित
है; बीच के
पड़ावों की
क्या बात
करनी!
राम
एक सराय हैं, मंजिल
नहीं। रुक
जाना रात भर, अगर कृष्ण
समझ में न आते
हों तो राम पर
रुक जाना, बिलकुल
ठीक है। बाहर
पड़े रहने की
बजाय खुले
आकाश के नीचे,
धर्मशाला
में ठहर जाना,
लेकिन
धर्मशाला
मंजिल नहीं है।
इसलिए तुलसी
का मेरे मन
में कोई बहुत
मूल्य नहीं है।
स्थिति—स्थापक
हैं। कबीर की
बात और! कबीर क्रांति
हैं! तुलसी—परंपरा।
पिटा—पिटाया
है। कुछ नया
नहीं। कोई
मौलिक नहीं।
कोई क्रांति
का स्वर नहीं
है। क्रांति
के स्वर सुनने
हों तो कबीर
में सुनो या
नानक में सुनो
या फरीद में
या अष्टावक्र
में सुनो।
अष्टावक्र तो
महास्रोत हैं क्रांति
के। जगत में
जितने भी
आध्यात्मिक क्रांतिकारी
हुए, सब की
मूल सूचनायें
अष्टावक्र
में मिल जायेंगी।
अष्टावक्र जैसे
मूल स्रोत हैं,
हिमालय हैं,
जहां से
सारी क्रांति
की गंगायें
निकलीं।
'रागवान
पुरुष दुख से
बचने के लिए
संसार को त्यागना
चाहता है, लेकिन
वीतराग दुख—मुक्त
हो कर संसार
के बीच भी खेद
को प्राप्त नहीं
होता है।’
'रागवान
पुरुष दुख से
बचने के लिए
संसार को त्यागना
चाहता है!'
हातुमिच्छति
संसार रागी दु:खजिहासया।
पहले
तो रागी
व्यक्ति दुख
से बचने के
लिए संसार को
पकड़ता है; धन
को पकड़ता है
ताकि दुख से
बच जाये, मित्र
को पकड़ता है, दुख से बच
जाये, परिवार
को पकड़ता है, दुख से बच
जाये। पहले तो
कोशिश करता है
संसार की
चीजों को पकड़ कर
दुख से बचने
की; फिर
पाता है कि यह
पकड़ से तो दुख
ही पैदा हो
रहा है, दुख
से बचना नहीं
हो रहा—तो फिर
संसार की
चीजों को
त्यागने लगता
है, लेकिन
कामना पुरानी
अब भी वही है
कि दुख से बच जाऊं।
पहले पकड़ता था,
अब त्यागता
है; लेकिन
दुख से बचने
की वासना वही
की वही है।
'रागवान
पुरुष दुख से
बचने के लिए
संसार को त्यागना
चाहता है, लेकिन
वीतराग पुरुष
दुख—मुक्त हो
कर संसार के
बीच में भी
रहे तो भी खेद को
उपलब्ध नहीं
होता।’
रागी
दुख से ही
भागता रहता है—संसार
में भागे तो, मंदिर
जाये तो, दुकान
जाये तो, मस्जिद
जाये तो—दुख
से ही भागता
रहता है।
वीतरागी जाग
कर दुख से
मुक्त हो जाता
है; साक्षी
बन कर दुख से
मुक्त हो जाता
है। दुख से
भागता नहीं; दुख को देख
लेता है भर आंख
और दुख खो
जाता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन को
उसके मालिक ने
एक दिन कहा कि
जरा बाहर जा
कर देख, सूरज
निकला कि नहीं?
वह बाहर गया,
फिर भीतर
आया और कुछ
करने लगा जा
कर कमरे में।
मालिक ने पूछा
'क्या हुआ?
सूरज निकला
कि नहीं?' उसने
कहा 'मैं
लालटेन जला
रहा हूं। बाहर
बहुत अंधेरा
है, दिखाई
कुछ पड़ता
नहीं।’
अब
सूरज को देखने
के लिए कोई
लालटेन जलानी
पड़ती है! और
जो सूरज
लालटेन जला कर
दिखाई पड़े, वह
सूरज होगा पृ
जैसे
ही व्यक्ति को
दुख को देखने
की क्षमता आ जाती
है,
दुख खो जाता
है। सूरज उगा,
रात गई, अंधेरा
गया। साक्षी
जागा, दुख
गया। दुख पैदा
ही इसलिए हो
रहा है कि हम
तादात्म्य के
अंधकार में खो
गये हैं।
सोचते हैं—मैं
शरीर, मैं
मन, मैं यह,
मैं वह—इस वजह
से सारी तकलीफ
है। जैसे
ही
साक्षी जागा, मैं
न देह रहा, न
मैं मन रहा, मैं तो
चिन्मात्र हो
गया, चैतन्यमात्र
हो गया। उसी
क्षण दुख गया।
'वीतराग दुख—मुक्त
हो कर संसार
के बीच बना
रहता है और
किसी खेद को
प्राप्त नहीं
होता है।’
वीतरागो
हि
निर्दु:खस्तस्मिन्नपि
न खिद्यते।
फिर
कहीं भी रहे
वीतराग पुरुष, संसार
में कि संसार
के बाहर... और
संसार के बाहर
कहां जाओगे!
जहां है, वहां
संसार ही है।
आश्रम में भी
संसार है, मंदिर
में भी संसार
है, हिमालय
पर भी संसार
है—संसार से
जाओगे कहां!
जो है, संसार
है। इसलिए
भागने से तो
कोई राह नहीं
है। तुम जहां
हो वहीं जागने
से राह है।
'जिसका मोक्ष
के प्रति
अहंकार है और
वैसा ही शरीर
के प्रति ममता
है, वह न तो
ज्ञानी है और
न योगी है। वह
केवल दुख का
भागी है।’
यस्याभिमानो
मोक्षेउपि
देहेउपि ममता
तथा।
जिसकी
ममता लगी है
देह में वह
दुख पायेगा।
यस्याभिमानो
मोक्षेउपि......।
और
जिसका अहंकार
मोक्ष से जुड़
गया,
वह भी दुख
पायेगा।
देहेउपि
ममता तथा.......।
और
जो शरीर से
जुड़ा वह भी
दुख पायेगा।
धन को तुमने
समझा मेरा है, तो
दुख पाओगे।
धर्म को समझा
कि मेरा है, तो दुख
पाओगे। संसार
को कहा कि जीत
लूंगा, तो
दुख पाओगे।
कहा कि परमात्मा
को पा कर
रहूंगा, तो
दुख पाओगे।
तुम हो तो दुख
है। तुम दुख
के साकार रूप
हो। अहंकार
दुख की गांठ
है। अहंकार
कैंसर है; गड़ता
रहेगा, चुभता
रहेगा, सडता
रहेगा।
न च
योगी न वा
ज्ञानी केवलं
दुःख भागसौ।
ऐसा
व्यक्ति
जिसका शरीर से
मोह लगा है या
मोक्ष से मोह
लग गया, संसार
से लगा मोह या
परमात्मा से—ऐसा
व्यक्ति न तो
योगी है, न
ज्ञानी है, केवल दुख का
भागी है।
अष्टावक्र
कह रहे हैं :
तुम शरीर से
तो छूट ही जाओ, परमात्मा
से भी छूटो।
संसार की तो
भाग—दौड़ छोड़
ही दो, मोक्ष
की दौड़ भी मन
में मत रखो।
तृष्णा के
समस्त रूपों
को छोड़ दो।
तृष्णा मात्र
को गिर जाने
दो। तुम
तृष्णा—मुक्त
हो कर खडे हो
जाओ। इसी क्षण
परम आनंद बरस
जायेगा। बरस
ही रहा है; तुम
तृष्णा की
छतरी लगाये
खड़े हो तो तुम
नहीं भीग पाते।
'यदि तेरा
उपदेशक शिव है,
विष्णु है
अथवा ब्रह्मा
है, तो भी
सबके विस्मरण
के बिना तुझे
स्वास्थ्य
नहीं होगा।’
सुनते
हो इस क्रांतिकारी
वचन को! छोटे—मोटे
गुरुओं की तो
बात छोड़ो, स्वयं
अगर शिव भी
उपदेश कर रहे
हों और
ब्रह्मा और
विष्णु, तो
भी कुछ न होगा—जब
तक तुम जागोगे
नहीं। स्वयं
परमात्मा भी
खड़े हो कर
तुम्हें
समझाये तो भी
तुम समझोगे
नहीं, क्योंकि
बाहर से समझ
आती ही नहीं।
समझ का तो
भीतर अंकुरण
होना चाहिए।
कोई दूसरा
थोड़े ही
तुम्हें जगा
सकता है! जागोगे
तो तुम जागोगे।
तुम्हारी
हालत ऐसी है
जैसे जागा हुआ
आदमी बन कर
पड़ा है कि सो
रहा है; अब
उसको तुम
हिलाओ—डुलाओ, वह
करवट बदल लेता
है। सोया होता
तो शायद जाग
भी जाता; मगर
वह जागा हुआ
पड़ा है, आंख
बंद किए हुए
पड़ा है, उठना
नहीं चाहता है,
उठने की
आकांक्षा
नहीं है—तो
तुम कैसे
जगाओगे? जो
सोने का धोखा
दे रहा है वह
कैसे जागेगा?
और तुम सोने
का धोखा दे
रहे हो।
तुम्हारे
भीतर का जो
आत्यंतिक
केंद्र है वह
जागा ही हुआ
है; वह कभी
सोया नहीं; सोना वहां
घटता नहीं, घट नहीं
सकता; उसका
स्वभाव जागना
है। चैतन्य का
अर्थ जागना है।
तो तुम सोने
का बहाना कर
रहे हो। अब
बहाने कर रहे
हो, तुम्हारी
मर्जी!
अष्टावक्र
कहते हैं:
हरो
यहपदेष्टा ते
हरि: कमलजोउपि
वा।
तथापि
न तव
स्वास्थ्य
सर्वविस्मरणादृते।।
जब
तक तू सब न भूल
जाये जो बाहर
से सीखा, तब तक
स्वास्थ्य, शांति, सत्य
का अनुभव न
होगा।
शिव
का अर्थ है :
जिनके हाथ में
जगत के
विध्वंस की
क्षमता है।
विष्णु का
अर्थ है :
जिनके हाथ में
जगत को चलाने
की क्षमता है।
ब्रह्मा का
अर्थ है :
जिनके हाथ में
जगत को बनाने
की क्षमता है।
जिसने जगत
बनाया वह भी
सत्य को नहीं
बना सकता तुम्हारे
लिए। जगत तो
माया है, सपना
है—सपना बना
लिया ब्रह्मा
ने, लेकिन
सत्य न बना
सकेंगे। और जो
इस सपने को
चला रहा है
सम्हाले हुए
है, साधे
हुए है, विष्णु,
इस विराट
लीला को जो
चला रहा है—वह
भी सत्य को
जगाने में
समर्थ न हो
सकेगा। इतना
विस्तार
जिसके वश में
है, तुम्हारे
ऊपर उसका कोई
वश नहीं। तुम
उसके पार हो।
और जो सारे
जगत को नष्ट
कर सकता है, वह भी
तुम्हारे
अज्ञान को
नष्ट नहीं कर
सकता—शिव भी
तुम्हारे
अज्ञान को
नष्ट नहीं कर
सकता।
अष्टावक्र यह
कह रहे हैं कि
तुम्हें बाहर
से सब भाति
मुक्त हो जाना
पड़ेगा।
सदगुरु
वही है जो
तुम्हें बाहर
से मुक्त कर
दे;
जो तुम्हें
तुम्हारे ऊपर
फेंक दे; जो
तुम्हें
तुम्हारे ऊपर
छोड़ दे; जो
तुमसे कहे, भूल जाओ जो
बाहर से सीखा,
छोड़ दो
शास्त्र जो
बाहर के हैं, छोड़ दो
सिद्धात जो
बाहर के हैं, न रहो हिंदू
न मुसलमान न
ईसाई न जैन न
बौद्ध। तुम तो
भीतर उतर जाओ,
जहां कोई
सिद्धात नहीं,
कोई
शास्त्र नहीं,
कोई शब्द
नहीं। तुम तो
उस निर्विचार
में डूब जाओ।
तुम तो वहां
जागो जहां
तुम्हारी
आत्यंतिक प्रज्ञा
का दीया जल
रहा है। वहीं
से—केवल वहीं
से और केवल
वहीं से—रूपांतरण
संभव है '
यह
सुनते हैं!
इसलिए मैं
कहता हूं बार—बार
कि
कृष्णमूर्ति
जो आज कह रहे
हैं वह अष्टावक्र
की
प्रतिध्वनि
है। कृष्णमूर्ति
कहते हैं : कोई
गुरु नहीं!
अनेक लोगों को
लगता है कि यह
तो बड़ी
शास्त्र—विपरीत
बात है! कहां
शास्त्र—विपरीत
बात है? शास्त्रों
का शास्त्र कह
रहा है. 'कोई
गुरु नहीं!
ब्रह्मा, विष्णु,
महेश भी
नहीं।’
लेकिन
इसका यह अर्थ
मत समझ लेना
कि अष्टावक्र की
गीता का कोई
उपयोग नहीं।
यही उपयोग है।
शास्त्र वही
जो तुम्हें
शास्त्र से भी
मुक्त करा दे।
गुरु वही जो
तुम्हें गुरु
से भी मुक्त
करा दे।
फ्रेडरिक
नीत्शे के
महाग्रंथ 'दस
स्पेक
जरथुस्त्रा' में, जब
जरथुस्त्र
अपने शिष्यों
से विदा होने
लगा तो उसने
कहा : 'आखिरी
संदेश! जो
मुझे कहना था
कह चुका, जो
तुम्हें
समझाना था
समझा चुका।
आखिरी बात याद
रखना। इस
महामंत्र को
कभी मत भूलना।
जो मैंने कहा
उसे भूल जाना,
मगर इसे मत
भूलना।’
वे
सब चौंक कर
खड़े हो गये।
उन्होंने कहा
: 'क्या शेष
रहा है बताने
को?' तो
उसने कहा 'एक
बात—बिवेयर आफ
जरथुस्त्रा!
मैं जा रहा हूं, मुझसे
सावधान!' यह
सदगुरु का
लक्षण है। जो
भी मैंने
तुमसे कहा, भूल जाना, कोई चिंता
नहीं, लेकिन
यह बात कभी
भूल कर मत
भूलना कि खतरा
है कहीं
जरथुस्त्र से
मोह—आसक्ति न
बन जाये; नहीं
तो तुम फिर
बाहर से उलझ
गये। कोई बाहर
की स्त्री से
उलझा, कोई
बाहर के धन से
उलझा, कोई
बाहर के
परमात्मा से
उलझा, कोई
बाहर के g)रु
से उलझ गया—उलझन
जारी रही।
मुक्ति
है भीतर।
मुक्ति है स्वयं
में।
तुम्हारा
स्वभाव
मुक्ति है।
हरो
यहपदेष्टा ते
हरि: कमलजोउपि
वा ।
ब्रह्मा, विष्णु,
महेश जैसे
गुरु भी मिल
जायें तो भी.
तथापि
न तव
स्वास्थ्य
सर्वविस्मरणादृते।
तो
भी जब तक सब न
भूल जाये जो
सीखा, शब्द न
भूल जाये, सिद्धात
न भूल जाये, विचार न भूल
जाये; जब
तक निर्विचार
निःशब्द मौन
में
प्रतिष्ठा न हो
जाये—तब तक
स्वास्थ्य की
उपलब्धि नहीं
है।
स्वास्थ्य
यानी मोक्ष।
स्वास्थ्य
यानी निर्वाण
या कहो
परमात्मा, परात्पर
ब्रह्म, मोक्ष,
मुक्ति—जों
भी नाम देना
चाहो। नाम का
कोई मूल्य
नहीं है।
लेकिन जो है
तुम्हारे
भीतर है और
बाहर से दबा
है। बाहर को
हटा दो तो
भीतर का जो
दबा हुआ फूल
है, प्रगट
हो जाये। बाहर
की कीचड़ में
दबा तुम्हारा
कमल है। कीचड़
को हटा दो तो
कमल खिल जाये।
उस खिलने में
ही तृप्ति है,
संतोष है, महातोष है।
उसके बिना
असंतोष है।
हरि ओंम
तत्सत्!
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