दिनांक
23 नवंबर, 1976;
रजनीश
आश्रम, पूना।
अष्टावक्र
उवाच।
यत्वं
पश्यसि
तत्रैकस्लमेव
प्रतिभाससे।
किं
पृथक भासते
स्वर्णात्कट
कांगदनुपरम्।।
139।।
अयं
सोउहमयं नाहं
विभागमिति
संत्यज।
सर्वमात्मेति
निश्चित्य नि:संकल्य
सुखी भव!! 140।।
तवैवाज्ञानतो
विश्व त्वमेक:
परमार्थत:।
त्वत्तोउन्यो
नास्ति संसारी
नासंसारी व
कश्चन।। 141।।
भ्रांतिमात्रमिदं
विश्व न
किचिदिति
निश्चयरई।
निर्वासन:
स्फर्तिमात्रो
न किचिदिवि
शाम्यति।। 142।।
एक
एव
भवाभोधावासीदस्ति
भविष्यति।
न
ते बंधोउस्ति मोक्षो
वा कृतकृत्य:
सुख चर।। 143।।
मा
संकल्यविकल्याथ्यां
चित्त क्षोभय
चिन्मय।
उपशाम्ब
सखं तिष्ठ
स्वात्ययानंदविग्रहे।।
144।।
त्यजैव
ध्यानं
सर्वत्र मा
किचियदि
धारय।
पहला
सूत्र:
अष्टावक्र
ने कहा, 'जिसको
तू देखता है
उसमें एक तू
ही भासता है।
क्या कंगना, बाजूबंद और
नूपुर सोने से
भिन्न भासते हैं?'
यत्वं
पश्यसि
तत्रैकस्लमेव
प्रतिभाससे।
जगत
जैसे दर्पण है; हम
अपने को ही
बार—बार देख
लेते हैं; अपनी
ही प्रतिछवि
बार—बार खोज
लेते हैं। जो
हम हैं, वही
हमें दिखाई पड़
जाता है।
साधारणत: हम
सोचते हैं, जो हमें
दिखाई पड़ रहा
है, बाहर
है। फूल में
सौंदर्य दिखा
तो सोचते हैं,
सुंदर होगा
फूल। नहीं, सौंदर्य
तुम्हारी आंखों
में हैं। वही
फूल दूसरे को
सुंदर न भी
हो। किसी
तीसरे को उस
फूल में न
सौंदर्य हो, न असौंदर्य
हो, कोई
तटस्थ भी हो।
किसी चौथे को
उपेक्षा हो।
जो तुम्हारे
भीतर है वही
झलक जाता है।
किसी बात में
तुम्हें रस आ जाता
है—रस तुम्हीं
उडेलते हो।
किसी दूसरे को
जरूरी नहीं कि
उसी में रस आ
जाये। तुम डोल
उठते हो किसी
गीत को सुनकर
और किसी दूसरे
प्राण की वीणा
जरा भी नहीं
बजती।
मनस्विद, तत्वविद,
दार्शनिक
सदियों से
चेष्टा करते
रहे हैं परिभाषा
करने की—सौदर्य
की, शिवम्
की, सत्यम्
की। परिभाषा
हो नहीं पाती।
पश्चिम के
बहुत बड़े
विचारक जी. ई
मूर ने एक
किताब लिखी है,
प्रिंसिपिया
इथिका। अनूठी
किताब है, बड़े
श्रम से लिखी
गई है। सदियों
में कभी ऐसी कोई
एक किताब लिखी
जाती है।
चेष्टा की है
शुभ की
परिभाषा करने
की कि शुभ
क्या है।
व्हाट इज गुड! दो
ढाई सौ
पृष्ठों में
बड़ी तीव्र
मेधा का प्रयोग
किया है। और
आखिरी
निष्कर्ष है
कि शुभ अपरिभाष्य
है। द गुड इज
इनडिफाइनेबल।
यह खूब निष्पत्ति
हुई!
सौदर्यशास्त्री
सदियों से
सौंदर्य की
परिभाषा करने
की चेष्टा
करते रहे हैं, सौंदर्य
क्या है? क्योंकि
परिभाषा ही न
हो तो शास्त्र
कैसे बनें!
लेकिन अब तक
कोई परिभाषा
कर नहीं पाया।
पूरब की
दृष्टि को
समझने की कोशिश
करो। पूरब
कहता है, परिभाषा
हो नहीं सकती।
क्योंकि
व्यक्ति—व्यक्ति
का सौंदर्य
अलग है। और
व्यक्ति—व्यक्ति
का शुभ भी अलग
है। व्यक्ति
वही देख लेता
है जो देखने
में समर्थ है।
व्यक्ति अपने
को ही देख
लेता है।
'जिसको
तू देखता है
उसमें एक तू
ही भासता है।’
कृष्णमूर्ति
का आधारभूत
विचार है : 'द
आब्जर्वर इज द
आब्जर्ब्द।’ वह जो दृश्य
है, द्रष्टा
ही है। पीछे
हमने
अष्टावक्र के
सूत्रों में
समझने की
कोशिश की कि
जो दृश्य है
वह द्रष्टा कभी
नहीं है। अब
एक कदम और आगे
है। इसमें
विरोधाभास
दिखेगा।
किसी
ने प्रश्न भी
पूछा है कि आप
कहते हैं, जो
दृश्य है वह
द्रष्टा कभी
नहीं; और
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, दृश्य
द्रष्टा ही
है। ये दोनों
बातें तो विरोधाभासी
हैं, कौन
सच है?
ये
बातें
विरोधाभासी
नहीं हैं—दो अलग
तलों पर हैं।
पहला तल है, पहले
शान की किरण
जब फूटती है
तो वह इसी
मार्ग से
फूटती है, जान
कर कि जो
दृश्य है वह
मुझसे अलग है।
समझने की
कोशिश करें।
तुम जो देखते
हो, निश्चित
ही तुम देखने
वाले उससे अलग
हो गये। जो भी
तुमने देख
लिया, तुम
उससे पार हो
गये। तुम, जो
दिखाई पड़ गया,
वह तो न
रहे। दृश्य तो
तुम न रहे।
दृश्य तो दूर पड़ा
रह गया। तुम
तो खड़े हो कर
देखने वाले हो
गये।
तुम
यहां मुझे देख
रहे हो तो
निश्चित ही
तुम मुझसे अलग
हो गये। तुम
मुझे सुन रहे
हो,
तुम मुझसे
अलग हो गये।
जो भी तुम देख
लेते, छू
लेते, सुन
लेते, स्पर्श
कर लेते, स्वाद
ले लेते, जिसका
तुम्हें
अनुभव होता है,
वह तुमसे
अलग हो जाता
है। यह ज्ञान
की पहली सीढ़ी
है।
जैसे
ही यह सीढ़ी
पूरी हो जाती
है और तुम दृश्य
से अपने
द्रष्टा को
मुक्त कर लेते
हो,
तब दूसरी
घटना घटती है।
पहला तुम्हें
करना होता है,
रूस अपने से
होता है।
दूसरी घटना
बड़ी अपूर्व
है। जैसे ही
तुमने दृश्य
से द्रष्टा को
अलग कर लिया, फिर द्रष्टा
द्रष्टा भी
नहीं रह जाता।
क्योंकि
द्रष्टा बिना
दृश्य के नहीं
रह सकता; वह
दृश्य के साथ
ही जुड़ा है।
जब दृश्य खो
गया तो
द्रष्टा भी खो
गया। तुम
द्रष्टा की
परिभाषा कैसे
करोगे? दृश्य
के बिना तो
कोई परिभाषा
नहीं हो सकती।
दृश्य को तो
लाना पड़ेगा।
और जिस
द्रष्टा की
परिभाषा में
दृश्य को लाना
पड़ता है वह
दृश्य से अलग
कहां रहा? वह
एक ही हो गया।
दृश्य के
गिरते ही
द्रष्टा भी
गिर जाता है।
पहले दृश्य को
गिरने दो, फिर
दूसरी घटना
अपने से घटेगी।
तुमने दृश्य
खींचा, अचानक
तुम पाओगे
द्रष्टा भी
गया। तब
तुम्हें कृष्णमूर्ति
का दूसरा वचन
समझ में
आयेगा. 'दि
आब्जर्वर इज
दि आब्जर्ब्द।’
वह जो दृश्य
है, द्रष्टा
ही है।
और
आज के सूत्र
में
अष्टावक्र भी
वही कह रहे हैं।
यह सूत्र थोड़ा
आगे का है, इसलिए
अष्टावक्र कम
से इसकी तरफ
बढ़े हैं। पहले
उन्होंने कहा,
दृश्य से
मुक्त कर लो, फिर द्रष्टा
से तो तुम
मुक्त हो ही
जाओगे। दृश्य
और द्रष्टा
दोनों एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
यत्वं
पश्यसि तत्र
एक?
त्वं एव
प्रतिभाससे।
'जिसको
तू देखता है
उसमें एक तू
ही भासता है।’
फिर
देखते हैं, पूर्णिमा
की रात चांद
निकला! हजार—हजार
प्रतिफलन
बनते हैं।
कहीं झील पर, कहीं सागर
के खारे जल
में, कहीं
सरोवर में, कहीं नदी—नाले
में, कहीं
पानी—पोखर में,
कहीं थाली
में पानी भर
कर रख दो तो
उसमें भी प्रतिबिंब
बनता है।
पूर्णिमा का
चांद एक, और
प्रतिबिंब
बनते हैं
अनेक। लेकिन
क्या तुम यह
कहोगे, गंदे
पानी में बना
हुआ चांद का
प्रतिबिंब और
स्वच्छ पानी
में बना चांद
का प्रतिबिंब
भिन्न—भिन्न
हैं? क्या
इसीलिए गंदे
पानी में बने
प्रतिबिंब को गंदा
कहोगे
क्योंकि पानी
गंदा है? क्या
पानी की गंदगी
से प्रतिबिंब
भी गंदा हो सकता
है? प्रतिबिंब
तो गंदा नहीं
हो सकता।
रवींद्रनाथ
ने एक स्मरण
लिखा है। जब
वे पहली—पहली
बार पश्चिम से
प्रसिद्ध हो
कर लौटे,
नोबल
प्राइज ले कर
लौटे, तो जगह—जगह
उनके स्वागत
हुए। लोगों ने
बड़ा सम्मान किया।
जब वे अपने घर
आये तो उनके
पड़ोस में एक
आदमी था, वह
उनको मिलने को
आया। उस आदमी
से वे पहले से
ही कुछ बेचैन
थे, कभी
मिलने आया भी
न था। लेकिन
उस आदमी की आंख
ही बेचैन करती
थी। उस आदमी
की आंख में
कुछ तलवार
जैसी धार थी
कि सीधे हृदय
में उतर जाये।
वह आया और गौर
से उनकी आंख
में आंख डाल
कर देखने लगा।
वे तो तिलमिला
गये। और उसने
उनके कंधे पकड़
लिये और जोर
से हिलाकर कहा,
तुझे सच में
ही ईश्वर का
अनुभव हुआ है?
क्योंकि
गीतांजलि, जिस
पर उन्हें
नोबल
पुरस्कार
मिला, प्रभु
के गीत हैं, उपनिषद जैसे
वचन हैं। उस
आदमी ने उनको
तिलमिला
दिया। कहा, सच में ही
तुझे ईश्वर का
दर्शन हुआ है?
क्रोध भी
उन्हें आया।
वह अपमानजनक
भी लगा। लेकिन
उस आदमी की आंखों
की धार कुछ
ऐसी थी कि झूठ
भी न बोल सके
और वह आदमी
हंसने लगा और
उसकी हंसी और
भी गहरे तक
घाव कर गई। और
वह आदमी कहने
लगा, तुझे
मुझमें ईश्वर
दिखाई पड़ता है
कि नहीं 2: यह और
मुश्किल बात
थी। उसमें तो
कतई नहीं दिखाई
पड़ता था, और
सब में दिखाई
पड़ भी जाता।
जो
फूलमालायें
ले कर आये थे, जिन्होंने
स्वागत किया
था, सम्मान
में गीत गाये
थे, नाटक
खेले थे, नृत्य
किये थे—उनमें
शायद दिख भी
जाता। वे बड़े
प्रीतिकर दर्पण
थे। यह आदमी!
वह आदमी
खिलखिलाता, उन्हें
छोड्कर लौट भी
गया।
रवींद्रनाथ
ने लिखा है, उस
रात मैं सो न
सका। मुझे
मेरे ही गाये
गये गीत झूठे
मालूम पड़ने
लगे। रात सपने
में भी उसकी आंख
मुझे छेदती
रही। वह मुझे
घेरे रहा।
दूसरे दिन
सुबह जल्दी ही
उठ आया। आकाश
में बादल घिरे
थे, रात
वर्षा भी हुई
थी। जगह—जगह
सड़क के किनारे
डबरे भर गये
थे। मैं
समुद्र की तरफ
गया—मन बहलाने
को। लौटता था,
तब सूरज
उगने लगा।
विराट सागर पर
उगते सूरज को
देखा। फिर राह
पर जब घर
वापिस आने लगा
तो राह के
किनारे गंदे
डबरों में, जिनमें
भैंसें लोट
रही थीं, लोगों
ने जिनके आस—पास
मलमूत्र किया
था, वहां
भी सूरज के
प्रतिबिंब को
देखा। अचानक आंख
खुल गई। मैं
ठिठक कर खड़ा
हो गया कि
क्या इन गंदे
डबरों में जो
प्रतिबिंब बन
रहा है सूरज
का, वह
गंदा हो गया? विराट सागर
में जो बन रहा
है, क्या
विराट हो गया?
क्षुद्र
डबरे में जो
बन रहा है, क्या
क्षुद्र हो
गया? प्रतिबिंब
तो एक के हैं।
रवींद्रनाथ
ने लिखा है, जैसे
सोये से कोई
जग जाये, जैसे
अंधेरे में
बिजली कौंध
जाये, ऐसा
मैं नाचता हुआ
उस आदमी के घर
पहुंचा। उसे गले
लगा लिया।
उसमें भी मुझे
प्रभु दिखाई
पड़ा।
प्रतिबिंब तो
उसका ही है।
चाहे तेज
तलवार की धार
क्यों न हो, वह धार तो
उसी की है।
चाहे फूल की
कोमलता क्यों
न हो, कोमलता
तो उसी की है।
वह
आदमी फिर मेरी
तरफ गौर से
देखा, लेकिन
आज मुझे उसमें
वैसी पैनी धार
न दिखाई पड़ी।
आज मैं बदल
गया था। और वह
आदमी कहने लगा,
तो निश्चित
तुझे अनुभव
हुआ है। अभी—अभी
हुआ है, कल
तक न हुआ था।
अभी—अभी तूने
कुछ जाना है, तू जागा है।
मैं तेरा
स्वागत करता
हूं। नोबल
पुरस्कार के कारण
नहीं, न
तेरे गीतों की
प्रसिद्धि के
कारण—अब तू शांता
बन कर लौटा है;
तुझे कुछ
स्वाद मिला, तूने कुछ
चखा है।
अष्टावक्र
कहते हैं 'क्या
कंगना, बाजूबंद,
नूपुर सोने
से भिन्न
भासते हैं?'
सोने
के कितने
आभूषण बन जाते
हैं,
ऐसे ही
परमात्मा के
कितने रूप
बनते! रावण भी
उसका
ही
रूप। अगर
रामकथा पढ़ी और
रावण में उसका
रूप न दिखा तो
रामकथा
व्यर्थ गयी।
अगर राम में
ही दिखा और
रावण में न
दिखा तो तुमने
व्यर्थ ही सिर
मारा। तो
द्वार न खुले।
रामकथा लोग
पढ़ते हैं, रामलीला
देखते हैं और
रावण को जलाये
जाते हैं।
समझे नहीं।
बात ही पकड़ में
नहीं आई, चूक
ही गए। अगर
राम में ही
राम दिखाई पड़े
तो तुम्हारे
पास आंखें
नहीं हैं। जिस
दिन रावण में
भी दिखाई पड़
जायें, उसी
दिन तुम्हारी आंखें
खुलीं। शुभ
में शुभ दिखाई
पड़े', यह
कोई बड़ा गुण
है। अशुभ में
भी शुभ दिखाई
पड़ जाये तब?.।
सब
आभूषण उस एक
के ही हैं।
कहीं राम हो
कर,
कहीं रावण
हो कर; कहीं
कृष्ण, कहीं
कंस कहीं जीसस,
कहीं जुदास;
कहीं
प्रीतिकर, कहीं
अप्रीतिकर; कहीं फूल, कहीं कांटा—लेकिन
कांटा भी उसका
ही रूप है। और
जब कांटा चुभे
तब भी उसे
स्मरण करना।
तो तुम धीरे—
धीरे पाओगे, एकरस होने
लगे। जो एक को
देखने लगता है
वह एकरस होने
लगता है। जो
एकरस होने
लगता है, उसे
फिर एक दिखाई
पड़ने लगता है।
मौन
तम के पार से
यह कौन मेरे
पास आया
मौत
में सोये हुए
संसार को
किसने जगाया
कर
गया है कौन
फिर भिनसार, वीणा
बोलती है
छू
गया है कौन मन
के तार, वीणा
बोलती है।
मृदु
मिट्टी के बने
हुए मधुघट
फूटा ही करते
हैं
लघु
जीवन ले कर
आये हैं
प्याले टूटा
ही करते हैं
फिर
भी मदिरालय के
अंदर मधु के
घट हैं, मधु
प्याले हैं।
जो
मादकता के
मारे हैं वे
मधु लूटा ही
करते हैं
वह
कच्चा पीने
वाला है जिसकी
ममता घट, प्यालों
पर
जो
सच्चे मधु से
जला हुआ, कब
रोता है
चिल्लाता है
जो
बीत गई सो बात
गई।
छू
गया है कौन मन
के तार, वीणा
बोलती है!
वह
कच्चा पीने
वाला है जिसकी
ममता घट, प्यालों
पर!
रूप
में जो उलझ
गया,
आकृति में
जो उलझ गया, अरूप को न
पहचाना, आकृति—
अतीत को न
पहचाना, वह
कच्चा पीने
वाला है।
जिसने राम में
देख लिया, रावण
में न देखा—वह
पक्षपाती है,
अंधा है।
अंधे के
पक्षपात होते
हैं; आंख
वाले के
पक्षपात नहीं
होते। आंख
वाला तो उसे
सब जगह देख
लेता है, हर
जगह देख लेता
है।
अट्ठारह
सौ सत्तावन की
गदर में एक
नग्न संन्यासी
को एक अंग्रेज
सैनिक ने छाती
में भाला भोंक
दिया। भूल से!
यह नंगा फकीर
गुजरता था।
रात का वक्त
था। यह अपनी मस्ती
में था।
सैनिकों की
शिविर के पास
से गुजरता था, पकड़
लिया गया।
लेकिन इसने
पंद्रह वर्ष
से मौन ले रखा
था। यह तो
उन्हें पता न
था। एक तो
नंगा, फिर
बोले न—लगा कि
जासूस है। लगा
कि कोई
उपद्रवी है।
बोले न, चुप
खड़ा
मुस्कुराये—तो
और भी क्रोध आ
गया। उसने कसम
ले रखी थी कि
मरते वक्त ही
बोलूंगा, बस
एक बार। तो
जिस अंग्रेज
सैनिक ने उसकी
छाती में भाला
भोंका, भाले
के भोंकने पर वह
बोला। उसने
कहा : 'तू
मुझे धोखा न
दे सकेगा। मैं
तुझे अब भी
देख रहा हूं।
तत्वमसि!' और
वह मर गया।’वह तू ही है!
तू मुझे धोखा
न दे सकेगा।
तू हत्यारे के
रूप में आया, आ, लेकिन
एक बार तुझे
पहचान चुका तो
अब तू किसी भी
रूप में आ, फर्क
नहीं पड़ता।’
उसे
अपने हत्यारे
में भी प्रभु
का दर्शन हो
सका। मुक्त हो
गया यह
व्यक्ति, इसी
क्षण हो गया।
इसकी मृत्यु न
आई—यह तो
मोक्ष आया। इस
भाले ने इसे
मारा नहीं; इस भाले ने
इसे जिलाया, शाश्वत जीवन
में जगाया।
किं
पृथक भासते
स्वर्णात्कटकांगदनूपुरम्।
अलग—
अलग दिखाई
पड़ते हैं
तुम्हें
स्वर्ण के
आभूषण, तो
फिर तुम अंधे
हो। सबके भीतर
एक ही सोना
है। ऊपर के
आकार से क्या
भेद पड़ता है।
तो
दो बातें इस
सूत्र में
हैं। एक, कि जो
तुम्हें
दिखाई पड़ता है,
तुम्हीं
हो। सारा जगत
दर्पण है और
सारे संबंध भी।
सारे अनुभव
दर्पण हैं और
सारी
परिस्थितियां
भी। तुम ही
अपने को झांक—झांक
लेते हो अनेक—
अनेक रूपों
में—पहली बात।
दूसरी बात. ये
जो अनेक— अनेक
रूप दिखाई पड़
रहे हैं, इन
सबके भीतर भी
एक ही व्याप्त
है। ये अनेक
रूप भी बस ऊपर—ऊपर
अनेक हैं।
जैसे सागर पर
लहरें हैं, कितनी लहरें
हैं, कितने—कितने
ढंग की लहरें
हैं—छोटी, बड़ी
विराट, लेकिन
सबके भीतर एक
ही सागर
तरंगित है! एक
ही सागर लहराया
है! ये सब एक ही
सागर के चादर
पर पड़ी हुई
सलवटें हैं!
इनमें जरा भी
भेद नहीं है।
इनके भीतर जो
छिपा है, एक
है। ये दोनों
सूत्र इस एक
सूत्र में
छिपे हैं।
दोनों अदभुत
हैं!
तुम
जरा—जरा रूप
को पार करना
सीखो, अरूप को
खोजो। चेहरे
को कम देखो; चेहरे के
भीतर जो छिपा हुआ
है, उसे
जरा ज्यादा
देखो। तन को
जरा कम देखो, तन के भीतर
जो छिपा है, उस पर जरा
ज्यादा ध्यान
दो। शब्द में
जो सुनाई पड़ता
है उसे जरा कम
सुनो, शब्द
के भीतर जो
शून्य का
भिनसार है, वह जो वीणा
शून्य की बज
रही, उसे
सुनो। ऐसे अगर
तुम शांत होते
गये.. शांत हो
ही जाओगे, क्योंकि
अशांति है
अनेक के कारण।
अशांति अनेक
की छाया है।
जब एक दिखाई
पड़ने लगता है
तो अशांत होने
की सुविधा
नहीं रह जाती।
एक ही है तो
अशांति कैसी!
और जब तुम्हीं
हो सब तरफ
झलकते, कोई
दूसरा नहीं, तो भय किसका!
जन्म भी
तुम्हीं हो, मृत्यु भी
तुम्हीं। सुख
भी तुम्हीं हो,
दुख भी
तुम्हीं। फिर
भय किसका! फिर
सर्व—स्वीकार
है। फिर उस
सर्व—स्वीकार
में ही शांति
का फूल खिलता
है—अपरिसीम
फूल खिलता, अम्लान
पारिजात! जो
कभी नहीं छुआ
गया, ऐसा
कोरा कुंवारा
फूल खिलता है।
कहो सहस्रार,
सहस्रदल
कमल! लेकिन
खिलता है
एकत्व की घटना
में—जब सब तरफ
तुम्हें एक
दिखाई पड़ने
लगता है। पहले
मैं और तू का
भेद नहीं रह
जाता, फिर
बाहर रूप के
भेद नहीं रूह
जाते।
खयाल
करना, अगर हम
दो शून्य
व्यक्तियों
को एक कमरे
में बिठा दें
तो क्या वहां
दो व्यक्ति
होंगे या एक? वहां दो तो
हो नहीं सकते।
इतना तो तय है
कि दो नहीं हो
सकते।
क्योंकि दो
शून्य मिलने
से दो नहीं
बनते, दो
शून्य मिलने
से एक ही बनता
है। एक भी हम
कहते हैं, क्योंकि
कहना पड़ता है।
वस्तुत: एक भी वहां
नहीं। इसलिए
भारत में हम
कहते हैं
अद्वैत बनता
है। दो नहीं
बनते, एक
की बात हम
करते नहीं।
क्योंकि एक के
लिए भी तो सीमा
चाहिए। तुम
तीन शून्य ले
आओ, चार शून्य
ले आओ, सब
खोते चले जाते
हैं।
ऐसा
हुआ,
बुद्ध के
समय में
अजातशत्रु
सम्राट बना।
उसके पिता तो
बुद्ध के भक्त
थे, लेकिन
वह तो पिता को
कारागृह में
डाल कर सम्राट
बना था। तो
बुद्ध के
विपरीत था।
स्वभावत: एक तो
बुद्ध के भक्त
थे उसके पिता,
फिर दूसरे
उसने जो किया
था वह इतना
अधार्मिक कृत्य
था कि बुद्ध
के पास जाये
तो कैसे जाये!
बड़ी अपराध की
भावना थी। फिर
बुद्ध उसकी
नगरी से गुजरे
तो उसके
आमात्यों ने,
उसके
मंत्रियों ने
कहा : 'यह
अशोभन होगा।
यह उचित न
होगा। यह
दुर्भाग्यपूर्ण
होगा। इसके
बड़े परिणाम
बुरे होंगे।
आप दर्शन को
चलें। आप एक
ही बार दर्शन
करके औपचारिक
ही लौट आना।
लेकिन बुद्ध
गांव में आयें
और सम्राट न
जाये, प्रजा
पर बुरा
परिणाम होगा।
पिता को
कारागृह में
डाल देने से
जितनी आपकी
बेइज्जती
नहीं हुई, उससे
भी ज्यादा बड़ी
बेइज्जती
होगी। क्योंकि
इस देश में
सदा ही सम्राट
फकीर के सामने
झुकता रहा है।
छोड़े, आप
चलें। सिर्फ
औपचारिक ही
सही।’
बात
तो समझ में
उसे आई; हिसाब
की थी। पिता
के साथ जो पाप
किया है वह भी पुंछ
जायेगा। लोग
कहेंगे कि
नहीं, ऐसा
बुरा नहीं; बुद्ध को
सुनने भी गया,
चरण भी छुए।
तो
वह चला। लेकिन
जो आदमी पाप
करता है, भयभीत
होता है। वह
अपने
आमात्यों से
भी डरा था। जो
दूसरे को
डराता है वह
डरता भी है।
जो दूसरे की
हत्या करता है
वह डरा भी
होता है कि
कोई उसकी
हत्या न कर
दे। जो दूसरे
को चोट
पहुंचाता है
उसे आयोजन भी
करने पड़ते हैं
कि कोई उसे
चोट न पहुंचा
दे। तो वह डरा
था। और जब
बुद्ध के पड़ाव
के पास
पहुंचने लगा—वृक्षों
की ओट में
पड़ाव है—तो
उसने अपने
आमात्यों को
कहा. 'सुनो,
तुम कहते थे
दस हजार
भिक्षु वहां
मौजूद हैं, आवाज जरा भी
सुनाई नहीं
पड़ती। कुछ
धोखा मालूम पड़ता
है, कोई
षड्यंत्र।’ उसने तलवार
खींच ली।
आमात्य हंसने
लगे।
उन्होंने कहा
: ' आप
नासमझी न
करें। आपको
बुद्ध का पता
नहीं। आपको
बुद्ध के पास
बैठे दस हजार
लोगों का भी
पता नहीं।
थोड़ा धैर्य
रखें। कोई
षड्यंत्र
नहीं है, आप
आयें।’
वह
नंगी तलवार
लिए ही चला।
जब तक उसने
वृक्षों के
पार जा कर देख
न लिया कि दस
हजार भिक्षु
मौजूद हैं तब
तक उसने तलवार
भीतर न रखी।
फिर बुद्ध से
उसने जो पहला
प्रश्न पूछा, वह
यही था कि मैं
तो बड़ा हैरान
हो रहा हूं।
दस हजार लोग
बैठे हैं, बाजार
मच जाता है, कीचड़ मच
जाती है, बड़ा
शोरगुल होता
है—ये चुप
क्यों बैठे
हैं?
तो
बुद्ध ने कहा 'एक
शून्य हो कि
दस हजार, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। शून्य
जुड़ते नहीं। शून्य
एक—दूसरे में
खो जाते हैं।
ये ध्यान कर
रहे हैं। ये
अभी शून्य की
दशा में बैठे
हैं। अभी ये
नहीं हैं।’
जिस
क्षण तुम नहीं
हो,
उसी क्षण
तुम्हें फिर
कोई भी दिखाई
नहीं पड़ता।
फिर तो तुम एक
ही रह जाते हो,
न कोई देखने
वाला, न
कोई दृश्य, न कोई
द्रष्टा।
दृश्य और
द्रष्टा खो
गये, ज्ञाता
और ज्ञेय खो
गये, जो बच
रहता है उसे
हम दर्शन कहते
हैं। इस बात को
खयाल में
लेना।
साधारण
भाषा में हम
दर्शन कहते
हैं द्रष्टा और
दृश्य के बीच
के संबंध को, शान
कहते हैं
ज्ञाता और
ज्ञेय के बीच
के संबंध को।
लेकिन यह तो
व्यावहांरिक
परिभाषा है।
पारमार्थिक
परिभाषा, आत्यंतिक
परिभाषा
बिलकुल उलटी
है. जहां द्रष्टा
और दृश्य नहीं
रह गये, सिर्फ
दर्शन बचा, शुद्ध दर्शन
बचा, चिन्मात्ररूपम्;
जहां
ज्ञाता और
ज्ञेय खो गये,
बस
ज्ञानमात्र
बचा। उसी को तो
बार—बार
अष्टावक्र
कहते हैं : इति
ज्ञान! फिर जो
बचता है, वही
ज्ञान है। और
फिर जो बचता
है, वही
मुक्ति है।
ज्ञान मुक्त
करता है।
तो
ज्ञान के पहले
चरण.. 'जिसको तू
देखता है
उसमें एक तू
ही भासता है।’
यह
कोई सिद्धात
नहीं है कि
तुम सुन लो और
मान लो। ये
कोई गणित की
परिभाषायें
भी नहीं हैं
कि सुन लीं और
मान लीं। ये
तो जीवंत
प्रयोग से ही
तुम्हें पता
चल सकते हैं।
तुम जरा
जिंदगी में
झांकना शुरू
करो इस तरह से, इस
नये कोण से, कि तुम्हीं
दिखाई पड़ रहे।
जब कोई
तुम्हें गाली
देता है और
तुम्हें
दिखाई पड़ता है
कि यह आदमी
दुष्ट है, तब
तुम जरा गौर
से देखना. 'इसकी
दुष्टता में
तुम्हारा ही
कुछ तो दिखाई
नहीं पड़ा है? तुम्हारा
अहंकार ही तो
नहीं इसको चोट
कर गया, तिलमिला
गया? यह
तुम्हारे
अहंकार की ही
लौटती हुई
प्रतिध्वनि
तो नहीं है?'
अगर
अहंकार न हो
तो तुम्हारा
कोई अपमान
नहीं कर सकता
है। अपमान का
उपाय ही नहीं
है। तुमने कभी
देखा, पैर में
चोट लग जाये
तो फिर दिन भर
उसी—उसी में
चोट लगती है!
देहरी से
निकले, देहरी
की लग जाती है;
दरवाजा
खोला, दरवाजा
लग जाता है; जूता पहनते,
जूता लग
जाता है। छोटा
बच्चा आ कर
उसी पर चढ़ जाता
है। तुम बड़े
हैरान होते हो
कि आज क्या
सबने कसम खा
ली है कि जहां
मुझे चोट लगी
है वहीं चोट
मारेंगे! नहीं,
किसी ने कसम
नहीं खा ली, किसी को पता
भी नहीं है।
लेकिन जहां
तुम्हें चोट
लगी है अगर कल
वहां किसी ने
पैर रखा होता
तो पता न चलता,
आज पता चल
जाता है, प्रतिध्वनि
होती है—क्योंकि
चोट है।
अहंकार
घाव की तरह
है। घाव
तुम्हीं लिए
चलते हो, जरा
धक्का लगा
किसी का और
चोट वहां
पहुंच जाती
है। कोई
तुम्हें चोट
पहुंचाने के
लिए आतुर भी
नहीं है, फुर्सत
किसको है! लोग
अपने ही जीवन
में इतने उलझे
हैं कि किसके
पास समय, किसके
पास सुविधा है
कि तुम्हारा
अपमान करें।
इसलिए कई बार
ऐसा होता है
कि तुम
अपमानित हो जाते
हो और जब तुम
कहते हो दूसरे
व्यक्ति को कि
तूने मेरा
अपमान किया, वह चौंकता
है। वह कहता
है, 'क्या
कह रहे हैं? मैंने तो
ऐसी कोई बात
नहीं की।’ और
यह दुश्मनों
की तो छोड़ दें,
जिसको हम
प्रियजन कहते
हैं, मित्र
कहते हैं, उनके
साथ रोज होता
है। पति कुछ
कहता है, पत्नी
कुछ सुन लेती
है। और पति
लाख समझाये कि
यह मैंने कहा
नहीं, तो
वह कहती है 'अब बदलो मत!
यही तुमने कहा
है।’ पत्नी
कुछ कहती है, पति कुछ
अर्थ लगा लेता
है। अर्थ तुम
अपने भीतर से
लगाते हो। जो
सुनते हो, वही
नहीं सुनते
हो। फिर जहां
चोट लगी हो, वहां चोट
पहुंचती है।
लेकिन
तुम्हारी चोट
के कारण ही
ऐसा होता है।
एक
छोटा बच्चा
डाक्टर से
अपने हाथ में
हुए फोड़े का
आपरेशन कराने
गया था।
आपरेशन करके
जब वह पट्टी
बांधने लगा तो
बायें हाथ का
आपरेशन किया
था,
उसने बायां
हाथ पीछे छिपा
लिया और दायां
हाथ आगे कर
दिया। उसने
कहा, पट्टी
इस पर बांधें।
डाक्टर ने कहा
: 'तू पागल
हुआ है बेटे!
स्कूल में
जाएगा, चोट
लग जाएगी। यह
पट्टी तो चोट
से बचाने के
लिए ही बांध
रहा हूं।’ उसने
कहा : 'आप
स्कूल के
बच्चों को
नहीं जानते
हैं; जहां
पट्टी बंधी हो,
वहीं चोट मारते
हैं। आप पट्टी
इस हाथ पर
बांध दो; उनका
उस पर ध्यान
ही न जाएगा।’
वह
बच्चा भी ठीक
कह रहा है, थोड़े—से
अनुभव से कह
रहा है।
क्योंकि जहां
पट्टी बंधी हो
वहीं चोट लगती
है; मारता
है कोई, ऐसी
बात नहीं। तो
वह कहता है, दूसरे हाथ
में बांध दो।
चोट इसमें
लगती रहेगी और
जिसमें चोट है
वह बचा रहेगा।
तुम
जीवन में गौर
से देखोगे तो
तुम पाओगे यही
हो रहा है—यही
होता है। जो
तुम्हें
दिखाई पड़ता है
वह तुम्हारी
छाया है। तुम
अपने को ही
देख कर उलझ
जाते हो।
और
ध्यान रखना कि
बाहर ये जो
इतने—इतने
अनेक रूप
दिखाई पड़ रहे
हैं,
एक ही
समुद्र में, एक ही
चैतन्य के
सागर में अलग—अलग
लहरें हैं।
तुम भी एक लहर
हो और ये भी सब
लहरें हैं और
जो लहराया है
वह लहरों के
भीतर छिपा है।
वह सभी का
आधार है।
'यह वह मैं
हूं और यह मैं
नहीं हूं ऐसे
विभाग को छोड़
दे। सब आत्मा
है, ऐसा
निश्चय करके
तू संकल्प—रहित
हो कर सुखी हो।’
यह
मैं हूं वह
मैं हूं; यह
मैं नहीं हूं, वह मैं नहीं
हूं —ऐसे
विभाग को छोड़
दे। हम जीवन
भर विभाग ही
बनाते हैं।
हमारे जीवन भर
की अथक चेष्टा
यही होती है
कि हम ठीक—ठीक
परिभाषा कर
दें कि मैं
कौन हूं।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं,
हमें यह पता
नहीं कि हम
कौन हैं। कोई
रास्ता बताये
कि हम जान लें
कि हम कौन
हैं।
क्या
जानना चाहते
हो?
तुम एक
परिभाषा
चाहते हो, सीमा
चाहते हो, जिसके
भीतर तुम कह
सको : यह मैं
हूं! यही हम
कोशिश भी कर
रहे हैं।
सांसारिक ढंग
से या धार्मिक
ढंग से, हमारी
चेष्टा एक ही
है कि साफ—साफ
प्रगट हो जाए
कि मैं कौन
हूं!
तुम
देखे, जरा
किसी को धक्का
लग जाए, वह
खड़े हो कर
कहता है. आपको
मालूम नहीं कि
मैं कौन हूं!
वह क्या कह
रहा है? वह
यह कह रहा है. 'धक्का मार
रहे हो? पता
नहीं, मैं
कौन हूं? महंगा
पड़ेगा यह
धक्का!
मुश्किल में
पड़ जाओगे। क्षमा
मांग लो।’
उसे
भी पता नहीं
कि वह कौन है।
किसको पता है!
नहीं पता है, इसलिए
झूठे—झूठे
हमने लेबल लगा
रखे हैं। कोई
कहता है, मैं
हिंदू हूं। यह
भी कोई होना
हुआ! पैदा हुए
थे तो हिंदू
की तरह पैदा न
हुए थे। गीता
साथ लेकर आए न
थे, न
कुरान लेकर आए
थे, न
बाइबिल लेकर
आए थे। खाली
हाथ चले आए
थे। सिर पर भी
कुछ लिखा न था
कि हिंदू हो, कि मुसलमान
हो, कि
ईसाई हो।
बिलकुल खाली,
निपट कोरे
कागज की तरह
आए थे। किसी
और ने लिख दिया
है कि हिंदू
हो। किसी और
ने लिख दिया
है कि मुसलमान
हो। किसी ने
किताब खराब कर
दी है तुम्हारी।
इस दूसरे की
लिखावट को तुम
अपना स्वभाव—स्वरूप
समझ रहे हो? और जिसने
लिख दिया है
हिंदू उसको भी
पता नहीं है
कि वह क्या कर
रहा है। उसके
बाप—दादे उस
पर लिख गये कि
हिंदू हो।
दूसरों की सुन
कर चल रहे हो? अपना अभी
कोई अनुभव
नहीं है।
फिर
कोई कहता है, मैं
सुंदर। यह भी
लिख दिया किसी
और ने। किसी
ने कहा, सुंदर!
पकड़ लिया
तुमने। अब
जिसने कहा
सुंदर, उसकी
धारणा है या
उसके अपने
कारण होंगे।
दुनिया
में सौंदर्य
की अलग—अलग
धारणाएं हैं।
चीन में एक
तरह का चेहरा
सुंदर समझा
जाता है, हिंदुस्तान
में कोई वैसे
चेहरे को
सुंदर न समझेगा।
अफ्रीका में
दूसरे ढंग का
चेहरा सुंदर
समझा जाता है;
वैसे चेहरे
को अमरीका में
कोई सुंदर न
समझेगा। और
जिसको
इंग्लैंड में
सुंदर समझते
हैं, अफ्रीका
में लोग उसको
बीमार समझते
हैं कि ये क्या
पीला—सा पड़
गया आदमी! पीत—मुख
कहते हैं। यह
भी कोई बात
हुई! यह कोई
सौंदर्य हुआ!
जरा—सी धूप
नहीं सह सकता है!
यह कोई
स्वास्थ्य
हुआ!
सौंदर्य
की बड़ी अलग
धारणाएं हैं।
कौन सुंदर है? किसकी
धारणा सच है? कौन कुरूप
है? फिर
तुम भी देखते
होओगे, तुम्हारा
कोई मित्र
किसी के प्रेम
में पड़ जाता
है, तुम
सिर ठोक लेते
हो. किस औरत के
पीछे दीवाने हो!
वहां कुछ भी
नहीं रखा है।
लेकिन वह
दीवाना है। वह
कहता है : 'मिल
गई मुझे मेरे
हृदय की
सुंदरी! जिसकी
तलाश थी
जन्मों —जन्मों
से, उसका
मिलन हो गया।
हम एक—दूसरे
के लिए ही बने
हैं। अब तो
जोड़ बैठ गया; अब मुझे कोई
खोज नहीं करनी,
आ गया पड़ाव
अंतिम।’
तुम
हैरान होते हो
कि 'तुम्हारी
बुद्धि खो गई,
पागल हो
गये। कुछ तो
अकल से काम लो!
कहां की साधारण
स्त्री को पकड़
बैठे हो!' लेकिन
तुम समझ नहीं
पा रहे। जो
तुम्हें
सुंदर दिखाई
पड़े वह दूसरे
को सुंदर हो, यह आवश्यक
तो नहीं। कोई
तुम्हें
सुंदर कह जाता
है, कोई
तुम्हें
बुद्धिमान कह
जाता है। और
हर मां—बाप
अपने बेटे को
समझते हैं कि
ऐसा बेटा कभी
दुनिया में
हुआ नहीं। तो
भ्रम पैदा हो
जाता है। बेटा
अकड़ से भर कर
घर के बाहर
आता है और
दुनिया में
पता चलता है, यहां कोई
फिक्र नहीं
करता
तुम्हारी।
बड़ी पीड़ा होती
है। हर मां—बाप
समझते हैं कि
बस परमात्मा
ने जो बेटा
उनके घर पैदा
किया है, ऐसा
कभी हुआ ही
नहीं; अद्वितीय!
तुम
देखो जरा, मां
—बापों की
बातें सुनो।
सब अपने बेटे —बच्चों
की चर्चा में
लगे हैं. बता
रहे हैं, प्रशंसा
कर रहे हैं।
अगर वे निंदा
भी कर रहे हों
तो तुम गौर से
सुनना, उसमें
प्रशंसा का
स्वर होगा कि
मेरा बेटा बड़ा
शैतान है। तब
भी तुम देखना
कि उन्हें रस
आ रहा है
बताने में कि
बड़ा शैतान है;
कोई साधारण
बेटा नहीं है;
बड़ा
उपद्रवी है!
उसमें भी
अस्मिता
तृप्त हो रही
है।
तो
कुछ मां—बाप
दे जाते हैं; कुछ
स्कूल, पढ़ाई—लिखाई,
कालेज—सर्टिफिकेट,
इनसे मिल
जाता है; कुछ
समाज से मिल
जाता है——इस सब
से तुम अपनी
परिभाषा बना
लेते हो कि
मैं यह हूं! फिर
कुछ जीवन के
अनुभव से
मिलता है।
शरीर
के साथ पैदा
हम हुए हैं।
जब आंख खोली
तो हमने अपने
को शरीर में
ही पाया है।
तो स्वभावत:
हम सोचते हैं, मैं
शरीर हूं। फिर
जैसे—जैसे बोध
थोड़ा बढ़ा—बोध
के बढ़ने का
मतलब है मन
पैदा हुआ—वैसे—वैसे
हमने पाया
अपने को मन
में। तो हम
कहते हैं : मैं
मन हूं!
यह
कोई भी हम
नहीं हैं।
हमारा होना इन
किन्हीं
परिभाषाओं
में चुकता
नहीं। हम
मुक्त आकाश की
भांति हैं, जिसकी
कोई सीमा नहीं
है।
तो
दूसरा सूत्र
है. 'यह वह मैं
हूं और यह मैं
नहीं हूं ऐसे
विभाग को छोड़
दे।’
विभाग
ही भटका रहा
है—अविभाग
चाहिए।
अयं
सोउहमयं नाहं
विभागमिति
संत्यज़
सर्वमात्येति
निश्चित्य
निसंकल्य
सुखी भव। 1
'इन
सबको
सम्यकरूपेण
त्याग कर दे।
संत्यज!'
'संत्यज' शब्द
बड़ा
महत्वपूर्ण
है। सिर्फ
त्याग नहीं, सम्यक
त्याग।
क्योंकि
त्याग तो कभी—कभी
कोई हठ में भी
कर देता है, जिद में भी
कर देता है।
कभी—कभी तो
अहंकार में भी
कर देता है।
तुम जाते हो न
किसी के पास
दान लेने तो
पहले उसके
अहंकार को खूब
फुसलाते हो कि
आप महादानी, आपके बिना
क्या संसार
में धर्म
रहेगा! खूब
हवा भरते हो।
जब देखते हो
कि फुग्गा
काफी फैल गया
है, तब तुम
बताते हो कि
एक मंदिर बन
रहा है, अब
आपकी सहायता
की जरूरत है।
वह जो आदमी
एक
रुपया देता, शायद
सौ रुपये दे।
तुमने खूब
फूला दिया है।
लेकिन दान आ
रहा है, वह
सम्यक त्याग
नहीं है। वह
तो अहंकार का
हिस्सा है।
अहंकार से
कहीं सम्यक
त्याग हो सकता
है?
मैंने
सुना है कि एक
राजनीतिज्ञ
अफ्रीका के एक
जंगल में
शिकार खेलने
गया और पकड़
लिया गया।
जिन्होंने
पकड़ लिया, वे
थे नरभक्षी
कबीले के लोग।
वे जल्दी
उत्सुक थे
उसको खा जाने
को। कढाए चढ़ा
दिए गये।
लेकिन वह जो
उनका प्रधान
था, वह
उसकी खूब
प्रशंसा कर
रहा है। और
देर हुई जा
रही है। ढोल
बजने लगे और
लोग तैयार हैं
कि अब भोजन का
मौका आया जा
रहा है। और
ऐसा सुस्वादु
भोजन बहुत दिन
से मिला नहीं था।
देर होने लगी
तो एक ने आ कर
कहा अपने
प्रधान को कि
इतनी देर
क्यों करवा
रहे हो? उसने
कहा कि तुम
ठहरो, यह
राजनीतिज्ञ
है, मैं जानता
हूं। पहले
इसको फूला
लेने दो, जरा
इसकी प्रशंसा
कर लेने दो, जरा फूल कर
कुप्पा हो जाए
तो ज्यादा
लोगों का पेट
भरेगा। नहीं
तो वह ऐसे ही
दुबला-पतला है।
ठहरो थोड़ा!
मैं जानता हूं
राजनीतिज्ञ
को। पहले उसके
दिमाग को खूब
फूला दो।
तुम्हारा
अहंकार
कभी-कभी त्याग
के लिए भी
तैयार हो जाता
है। तुमने
देखा न, कभी
अगर त्यागी की
शोभायात्रा
निकलती है कि
जैन मुनि आए, शोभायात्रा
निकल रही है, राह के
किनारे खड़े हो
कर तुम्हें भी
देख कर मन में
उठता है : ऐसा
सौभाग्य अपना
कब होगा जब
अपनी भी
शोभायात्रा
निकले! एक दफे
मन में सपना उठता
है कि हम भी
इसी तरह सब
छोड़-छाड़
कर-रखा भी क्या
है संसार
में-शोभायात्रा
निकलवा लें!
लोग उपवास कर
लेते हैं
आठ-आठ दस-दस
दिन के, क्योंकि
दस दिन के
उपवास के बाद
प्रशंसा होती है,
सम्मान
मिलता है, मित्र-प्रियजन,
पड़ोसी
पूछने आते हैं
सुख-दुख, सेवा
के लिए आते हैं।
बड़ा काम कर
लिया!
छोटे-छोटे
बच्चे भी अगर
घर में उपवास
की महिमा हो
तो उपवास करने
को तैयार हो
जाते हैं।
सम्मान मिलता
है।
अगर
अहंकार को
सम्मान मिल
रहा हो तो
त्याग सत्यता
नहीं है; फिर
वही पुराना
रोग जारी है।
कोई क्रांति
नहीं घटती।
क्रांति के
लिए भी हमारे
पास दो शब्द
हैं क्रांति
और संक्रांति।
तो जो क्रांति
जबर्दस्ती हो
जाए किसी
मूढ़तावश हो
जाए, आग्रहपूर्वक
हठपूर्वक हो
जाए, वह
क्रांति।
लेकिन जब कोई
क्रांति जीवन
के बोध से
निकलती है तो
संक्रांति।
सहज निकलती है
तो संक्रांति।
'संत्यज' का
अर्थ होता है.
सम्यकरूपेण
बोधपूर्वक
छोड़ दो। किसी
कारण से मत
छोड़ो। व्यर्थ
है, इसलिए
छोड़ दो। धन को
इसलिए मत छोड़ो
कि धन छोड़ने
से गौरव मिलेगा,
त्यागी की
महिमा होगी या
स्वर्ग
मिलेगा या पुण्य
मिलेगा और
पुण्य को भंजा
लेंगे भविष्य
में। तो फिर
सम्यक त्याग न
हुआ, असम्यक
हो गया। इसलिए
छोड़ दो कि देख
लिया कुछ भी
नहीं है।
तुम
एक पत्थर लिए
चलते थे सोच
कर कि हीरा है, फिर
मिल गया कोई
पारखी, उसने
कहा: 'पागल हो? यह
पत्थर है, हीरा
नहीं।'
एक
जौहरी मरा।
उसका बेटा
छोटा था। उसकी
पत्नी ने कहा
कि तू अपने
पिता के मित्र
एक दूसरे
जौहरी के पास
चला जा। हमारे
पास बहुत से
हीरे-जवाहरात
तिजोरी में रखे
हैं,
वह उनको
बिकवा देगा तो
हमारे लिए
पर्याप्त हैं।
वह
जौहरी बोला.
मैं खुद आता
हूं। वह आया।
उसने तिजोरी
खोली, एक नजर
डाली। उसने
कहा, तिजोरी
बंद रखो, अभी
बाजार- भाव
ठीक नहीं।
जैसे ही
बाजार- भाव
ठीक होंगे, बेच देंगे।
और
तब तक कृपा
करके बेटे को
मेरे पास भेज
दो ताकि वह
थोड़ा जौहरी का
काम सीखने
लगे।
वर्ष
बीता, दो वर्ष
बीते, बार—बार
स्त्री ने
पुछवाया कि
बाजार— भाव कब
ठीक होंगे।
उसने कहा, जरा
ठहरो। तीन
वर्ष बीत जाने
पर उसने कहा
कि ठीक, अब
मैं आता हूं, बाजार— भाव
ठीक हैं। तीन
वर्ष में उसने
बेटे को तैयार
कर दिया, परख
आ गई बेटे को।
वे दोनों आए
तिजोरी खोली।
बेटे ने अंदर
झांक कर देखा।
हंसा। उठा कर
पोटली को बाहर
कचरे—घर में
फेंक आया। मां
चिल्लाने लगी
कि पागल, यह
क्या कर रहा
है त्र: तेरा
होश तो नहीं
खो गया?
उसने
कहा कि होश
नहीं, अब मैं
समझता हूं कि
मेरे पिता के
मित्र ने क्या
किया। अगर उस
दिन वे इनको
कहते कि ये
कंकड़—पत्थर
हैं तो हम
भरोसा नहीं कर
सकते थे। हम
सोचते कि शायद
यह आदमी धोखा
दे रहा है। अब
तो मैं खुद ही
जानता हूं कि
ये कंकड़—पत्थर
हैं। इन तीन
साल के अनुभव
ने मुझे सिखा
दिया कि हीरा
क्या है। ये
हीरे नहीं
हैं। हम धोखे
में पड़े थे।
यह
सम्यक त्याग
हुआ,
बोधपूर्वक
हुआ।
जब
तक तुम त्याग
किसी चीज को
पाने के लिए
करते हो, वह
त्याग नहीं, सौदा है, सम्यक
त्याग नहीं।
सम्यक त्याग
तभी है जब किसी
चीज की व्यर्थता
दिखाई पड़ गई।
अब तुम किसी
के लिए थोड़े
ही छोड़ते हो।
सुबह तुम घर
का कचरा झाड़—बुहार
कर कचरे—घर
में फेंक आते
हो तो अखबार
में खबर थोड़े
ही करवाते हो
कि आज फिर
कचरे का त्याग
कर दिया! वह सम्यक
त्याग है। जिस
दिन कचरे की
तरह चीजें तुम
छोड़ देते हो
उस दिन सम्यक
त्याग, बोधपूर्वक,
जान कर कि
ऐसा है ही
नहीं...।
एक
आदमी है जो
मानता है, मैं
शरीर हूं। और
एक दूसरा आदमी
है जो रोज सुबह
बैठ कर मंत्र
पढ़ता है कि
मैं शरीर नहीं
हूं मैं आत्मा
हूं। इन दोनों
में भेद नहीं
है। यह दोहराना
कि मैं शरीर
नहीं हूं इसी
बात का प्रमाण
है कि तुम्हें
अब भी एहसास
हो रहा है कि
तुम शरीर हो।
जिस आदमी को
समझ में आ गया
कि मैं शरीर
नहीं हूं,
बात खत्म हो
गई। अब
दोहराना क्या
है? दोहराने
से कहीं झूठ
को सत्य थोड़े
ही बनाया जा
सकता है। ही, झूठ सत्य
जैसा लग सकता
है, लेकिन
सत्य कभी
बनेगा नहीं।’यह वह मैं
हूं और यह मैं
नहीं हूं ऐसे
विभाग को छोड़
दे।’
और
छोड़ने में
खयाल रखना, सम्यक
त्याग हो, संत्यज,
बोधपूर्वक
छोड़ना। किसी
की मान कर मत
छोड़ देना। खुद
ही पारखी बनना,
जौहरी बनना,
तभी छोड़ना।
खुद के बोध से
जो छूटता है, बस वही
छूटता है; शेष
सब छूटता नहीं,
किसी नये
द्वार से, किसी
पीछे के द्वार
से वापस लौट
आता है। और
ऐसे सब विभाग
को..
विभागमिति
संत्यज!
मन
की एक
व्यवस्था है
कि वह हर चीज
में विभाग करता
है। देखते हैं, पश्चिम
में आज से दो
हजार साल पहले
सिर्फ एक विज्ञान
था जिसको वे
फिलासफी कहते
थे! फिर विभाग
हुए; फिर
साइंस अलग
टूटी, फिलासफी
और साइंस अलग
हो गईं; फिर
साइंस अलग
टूटी, फिजिक्स
और
केमिस्ट्री
और
बायोकेमिस्ट्री
और बायोलाजी
अलग हो गईं, मेडिकल
साइंस अलग हो
गई, इंजिनीयरिंग
अलग हो गई।
फिर उनमें भी
टूट होने लगी,
तो
आर्गेनिक
केमिस्ट्री, इनागेंनिक
केमिस्ट्री
अलग हो गईं।
फिर मेडिकल साइंस
हजार टुकड़ों
में टूट गई।
जल्दी ही ऐसा
वक्त आ जाएगा
कि बाईं आंख
का डाक्टर अलग,
दाईं आंख का
डाक्टर अलग।
विभाजन होते
चले जाते हैं।
हर चीज का
स्पेशियलाईजेशन
हो जाता है।
फिर उसमें भी
शाखाएं—प्रशाखाएं
निकल आती हैं।
वे
पुराने दिन
गये जब तुम
किसी डाक्टर
के पास चले
जाते थे, कोई
भी बीमारी हो
तो वह तुम्हें
सहायता दे देता
था। वे पुराने
दिन गये। अब
पूरे आदमी का
डाक्टर कोई भी
नहीं। अब तो
खंड—खंड के
डाक्टर हैं।
कान खराब तो
एक डाक्टर, आंख खराब तो
दूसरा डाक्टर,
गला खराब तो
तीसरा, पेट
में कुछ खराबी
तो चौथा। और
मजा यह है कि
तुम एक हो; तुम्हारी
आंख, गला, पेट सब जुड़ा
है—और डाक्टर
सब अलग हैं!
इसलिए
कभी—कभी ऐसा
हो जाता है, पेट
का इलाज करवा
कर आ गये, आंख
खराब हो गई। आंख
ठीक करवा ली, कान बिगड़ गए_। कान ठीक हो
गये, टासिल
में खराबी आ
गई। टासिल
निकलवा लिया,
अपेन्दिक्स
खड़ी हो गई!
जो
लोग आज
चिकित्साशास्त्र
पर गहरा विचार
करते हैं, वे
कहते हैं, कि
यह तो बड़ा
खतरा हो गया।
आदमी इकट्ठा
है तो चिकित्साशास्त्र
भी इकट्ठा
होना चाहिए।
यह तो खंडों
का इलाज हो
रहा है। और एक
खंड वाले को दूसरे
खंडों का कोई
पता नहीं है।
तो एक खंड वाला
जो कर रहा है
उसके क्या
परिणाम दूसरे
खंड पर होंगे,
इससे कुछ
संबंध नहीं रह
गया है। पूरे
को जानने वाला
कोई बचा नहीं।
अब बीमारियों
का इलाज हो रहा
है, बीमार
की कोई चिंता
ही नहीं कर
रहा है।
व्यक्ति की
कोई पकड़ नहीं
रह गई—अखंड
व्यक्ति की।
खंड—खंड! और ये
खंड बढ़ते जाते
हैं। और इनके
बीच कोई जोड़
नहीं है।
फिजिक्स
एक तरफ जा रही
है,
केमिस्ट्री
दूसरी तरफ जा
रही है। और
दोनों के जो
आत्यंतिक
परिणाम हैं
उनका
संश्लेषण
करने वाला भी
कोई नहीं है, सिंथीसिस
करने वाला भी
कोई नहीं है।
कोई नहीं जानता
कि सब
विज्ञानों का
अंतिम जोड़
क्या है। जोड़
का पता ही नहीं
है। सब अपनी—अपनी
शाखा—प्रशाखा
पर चलते जाते
हैं; उसमें
से और नई
फुनगियां
निकलती आती
हैं, उन पर
चलते चले जाते
हैं। छोटी—से
छोटी चीज को
जानने में
पूरा जीवन
व्यतीत हो रहा
है और समग्र
चूका जा रहा
है। धर्म की
यात्रा
बिलकुल
विपरीत है।
धर्म और
विज्ञान में
यही फर्क है। विज्ञान
खंड करता है, खंडों के
उपखंड करता है,
उपखंडों के
भी उपखंड करता
है, और खंड
करता चला जाता
है। तो
विज्ञान
पहुंच जाता है
परमाणु पर।
खंड करते—करते—करते
वहां पहुंच
जाता है जहां
और खंड न हो
सकें; या
अभी न हो सकें,
कल हो
सकेंगे तो कल
की कल
देखेंगे।
धर्म की यात्रा
बिलकुल दूसरी
है। धर्म दो
खंडों को जोड़ता—जोड़ता
चला जाता है—अखंड
की तरफ। फिर
ब्रह्म बचता
है, एक
बचता है। कहो
आत्मा, कहो
सत्य, निर्वाण,
मोक्ष—जो
मर्जी।
ऐसा
समझो कि
विज्ञान चढ़ता
है वृक्ष की
पीड़ से और
विभाजन हो जाते
हैं—शाखाएं, प्रशाखाएं,
पत्तों —पत्तों
पर, डाल—डाल,
पात—पात फैल
जाता है। एक
पत्ते पर बैठे
वैज्ञानिक को
दूसरे पत्ते
पर बैठे
वैज्ञानिक का
कोई भी पता
नहीं। है भी
दूसरा, इसका
भी पता नहीं।
क्या कह रहा
है, यह भी
कुछ पता नहीं।
धर्म चलता है
दूसरी यात्रा
पर—पत्तों से
प्रशाखाएं, प्रशाखाओं
से शाखाएं, शाखाओं से
पीड़ की तरफ—स्व
की तरफ।
विज्ञान
पहुंचता
क्षुद्र पर, धर्म
पहुंचता
विराट पर।
विज्ञान
पहुंच जाता है
अनेक पर, धर्म
पहुंच जाता है
एक पर।
इसलिए
इस सूत्र को
खयाल रखना।
विभागमिति
संत्यज.....।
तू
विभाग करना
छोड़। तू
बांटना छोड़।
तू उसे देख जो
अविभाजित खड़ा
है। अविभाज्य
को देख। उस एक
को देख जिसके
सब रूप हैं।
तू रूपों में
मत उलझ।
और
जब भी हम कहते
हैं,
मैं यह हूं
तभी हम कोई एक
विभाग पकड़
लेते हैं। कोई
कहता है, मैं
ब्राह्मण
हूं। तो
निश्चित ही
ब्राह्मण पूरा
मनुष्य तो
नहीं हो सकता।
कोई कहता है, मैं शूद्र
हूं। तो वह भी
पूरा मनुष्य
नहीं हो सकता।
जिसने कहा, मैं
ब्राह्मण हूं
उसने शूद्र को
वर्जित किया।
उसने अखंडता
तोड़ी। जिसने
कहा, मैं
शूद्र हूं
उसने
ब्राह्मण को
वर्जित किया,
उसने भी
अखंडता तोड़ी।
जिसने कहा, मैं हिंदू
हूं वह
मुसलमान तो
नहीं है
निश्चित ही, नहीं तो
क्यों कहता कि
हिंदू हूं! और
जिसने कहा, मैं मुसलमान
हूं वह भी
टूटा, ईसाई
भी टूटा। ऐसे
हम टूटते चले
जाते हैं। फिर
उनमें भी छोटे—छोटे
खंड हैं।
खंडों में खंड
हैं। आदमी ऐसा
बटता चला जाता
है।
तुम
जब भी कहते हो, यह
मैं हूं तभी
तुम एक छोटा—सा
घेरा बना लेते
हो। सच तो यह
है कि यह कहना
कि मैं मनुष्य
हूं यह भी
छोटा घेरा है।
मनुष्य की
हैसियत क्या
है? संख्या
कितनी है? इस
छोटी—सी
पृथ्वी पर है
और यह विराट
फैलाव है, इसमें
मनुष्य है
क्या! क्या—मात्र!
क्यों तुम
मनुष्य से
जोड़ते अपने को?
क्यों नहीं
कहते मैं जीवन
हूं? तो
पौधे भी
सम्मिलित हो
जाएंगे, पक्षी
भी सम्मिलित
हो जाएंगे।
फिर ऐसा ही
क्यों कहते हो
कि मैं जीवन
हूं ऐसा क्यों
नहीं कहते कि
मैं अस्तित्व
हूं? तो सब
सम्मिलित हो
जाएगा।
'अहं
ब्रह्मास्मि'
का यही अर्थ
होता है कि
मैं अस्तित्व
हूं मैं
ब्रह्म हूं।
सब कुछ जो है, उसके साथ
मैं एक हूं वह
मेरे साथ एक
है। ऐसे विभागों
को छोड़ते जाने
वाला व्यक्ति
सागर की अतल
गहराई को
अनुभव करता
है। सागर की
सतह पर लहरें
हैं, गहराई
में एक का
निवास है।
चट
जग जाता हूं
चिराग
को जलता हूं
हो
सजग तुम्हें
मैं देख पाता
हूं
कि
बैठे हो
पास
नहीं आते हो
पुकार
मचवाते हो
तकसीर
बतलाओ,
क्यों
यह बदन उमेठे
हो?
दरस
दीवाना
जिसे
नाम का ही
बाना
उसे
शरण विलोकते
भी
देव—देव
ऐंठे हो!
सींखचों
में घूमता हूं
चरणों
को अता हूं
सोचता
हूं मेरे
इष्टदेव पास
बैठे हो!
पास
कहना भी ठीक
नहीं, क्योंकि
पास में भी
दूरी आ गई।
इष्टदेव भीतर
बैठे हैं। पास
कहना भी ठीक
नहीं।
सींखचों
में घूमता हूं
चरणों
को अता हूं
सोचता
हूं _
मेरे
इष्टदेव पास
बैठे हो!
चट
जग जाता हूं
चिराग
को जलाता हूं
हो
सजग तुम्हें
मैं देख पाता
हूं बैठे हो!
परमात्मा
पास है, ऐसा
कहना भी ठीक
नहीं। दूर है,
यह तो
बिलकुल ही
भ्रांत है।
तुमने जब भी
हाथ उठा कर
आकाश में
परमात्मा को
प्रणाम किया
है तभी तुमने
परमात्मा को
बहुत दूर कर
दिया है—बहुत
दूर! अपने हाथ
से दूरी खड़ी
कर ली है और
विलग हो गये, पृथक हो गये!
देखते
हो,
इस देश में
पुरानी प्रथा
है. किसी को, अजनबी को भी
तुम गांव में
से गुजरते हो
तो अजनबी कहता
है : 'जय राम
जी!' मतलब
समझे? पश्चिम
में लोग कहते
हैं, गुड
मार्निंग!
लेकिन यह उतना
मधुर नहीं है।
ठीक है, सुंदर
सुबह है! बात
मौसम की है, कुछ ज्यादा
गहरी नहीं।
प्रकृति के
पार नहीं जाती।
इस देश में हम
कहते हैं. जय राम
जी! हम कहते
हैं : राम की जय
हो! अजनबी को
देख कर भी...।
शहरों में तो
अजनबी को कोई
अब जय राम जी नहीं
करता है। अब
तो हम जय राम
जी में भी
हिसाब रखते
हैं—किससे
करनी और किससे
नहीं करनी!
जिससे मतलब हो,
उससे करनी;
जिससे मतलब
न हो, उससे
न करनी। जिससे
कुछ लेना—देना
हो उससे खूब
करनी, दिन
में दस—पांच
बार करनी।
जिससे कुछ न
लेना—देना हो,
या जिससे डर
हो कि कहीं
तुमसे कुछ न
ले—ले उससे तो
बचना, जय
राम जी भूल कर
न करनी।
'जय राम जी' जैसा सरल
मंत्र भी
व्यावसायिक
हो गया है।
लेकिन देहात
में, गांव
में अब भी
अजनबी भी
गुजरे तो सारा
गांव, जिसके
पास से
गुजरेगा
कहेगा : 'जय
राम जी! जय हो
राम की!' वह
तुमसे यह कह
रहा है कि तुम
अजनबी भला हो
लेकिन
तुम्हारा राम
तो हमसे अजनबी
नहीं। तुम ऊपर—ऊपर
कितने ही
भिन्न हो, हम
राम को देखते
हैं। वह जो
कहने वाला है
चाहे समझता भी
न हो लेकिन इस
परंपरा के
भीतर कुछ राज
तो है। लोग
प्रकाश को
जलाते हैं और
लोग हाथ जोड़
लेते हैं; दीया
जलाया, हाथ
जोड़ लेते हैं।
हम सोचते हैं,
गांव के
गंवार हैं।
शहर में भी आ
जाए गांव का प्राणी,
तुम बिजली
की बत्ती जलाओ
तो वह हाथ
जोड़ता है। तो
तुम हंसते हो।
तुम सोचते हो. 'पागल! अरे यह
बिजली की
बत्ती है, इसमें
अपने हाथ से
जलाई—बुझाई, इसमें क्या
हाथ जोड़ना है!'
लेकिन वह यह
कह रहा है.
जहां प्रकाश
है वहां परमात्मा
है। पास है, प्रकाश जैसा
पास है।
चट
जग जाता हूं
चिराग
को जलाता हूं
हो
सजग तुम्हें
मैं देख पाता
हूं कि बैठे
हो
सींखचों
में घूमता हूं
चरणों
को अता हूं
सोचता
हूं?
मेरे
इष्टदेव पास
बैठे हो!
सींखचों
में घूमता
हूं! इसीलिए 'पास'
मालूम होता
है। सींखचों
का फासला रह
गया है।
तुमने
देखा, अपने
बेटे को छाती
से भी लगा
लेते हो, फिर
भी सींखचे बीच
में हैं! अपनी
पत्नी को हृदय
से लगा लेते
हो, फिर भी
सींखचे बीच
में हैं।
मित्र को गले
से मिला लेते
हो, फिर भी
सींखचे बीच
में हैं।
पास
नहीं है
परमात्मा।
दूर तो है ही
नहीं, पास भी
नहीं है।
परमात्मा ही
है—दूर और पास
की भाषा ही
गलत है। वही
बाहर, वही
भीतर। वही
यहां, वही
वहां। वही आज,
वही कल, वही
फिर भी आगे
आने वाले कल।
वही है। एक ही
है।
सूर्योदय!
एक
अंजुली फूल
जल
से जलधि तक
अभिराम
माध्यम
शब्द
अद्धोंच्चारित
जीवन
धन्य है
आभार
फिर
आभार
इस
अपरिमित में
अपरिमित
शांति की
अनुभूति
अक्षम
प्यार का आभास
समर्पित
मत हो त्वचा
को
स्पर्श
गहरे मात्र
इससे
भी श्रेष्ठतर
मूर्धन्य सुख
जल
बेड़ियों के
ऊपर कहीं
कहीं
गहरे ठहर कर
आधार, मूलाधार
जीवन
हर नये दिन की
निकटता
आत्मा
विस्तार
सूर्योदय!
एक
अंजुली फूल
जल
से जलधि तक
अभिराम!
एक
ही फैला है।
छोटी—सी बूंद
में भी वही है, बड़े—से
सागर में भी
वही है। छोटे—से
दीये में भी
वही है, बड़े—से
सूरज में भी
वही है। कहे
गये शब्दों
में भी वही है,
अनकहे गये
शब्दों में भी
वही है। आधे
उच्चारित
शब्दों में भी
वही है।
मंत्र
का यही अर्थ
है :
अद्धोंच्चारित
शब्द। पूरा
उच्चार नहीं
कर पाते, क्योंकि
वह इतना बड़ा
है, शब्द
में समाता
नहीं। बिना
उच्चार किए भी
नहीं रह पाते,
क्योंकि वह
इतना
प्रीतिकर है—बार—बार
मन
उच्चार करने
का होता है।
इसका नाम
मंत्र। मंत्र
का अर्थ है :
बिना बुलाए
नहीं रहा जाता; हालांकि
शब्दों से
तुम्हें
बुलाया भी
नहीं जाता।
अपनी
असमर्थता है,
इसलिए
मंत्र।
माध्यम
शब्द
अद्धोंच्चारित
जीवन
धन्य है
आभार, फिर
आभार!
एक
को देखो तो
आभार ही आभार
फैल जाएगा।
अनेक को देखो
तो अशांति ही
अशांति। तुम
धार्मिक आदमी
की कसौटी यह
बना लो : जिस आदमी
के जीवन में
आभार हो, वह
आदमी
धार्मिक।
जिसके जीवन
में शिकायत हो,
वह
अधार्मिक। तब
तुम जरा
मुश्किल में
पड़ोगे। अगर
मंदिर में
जाकर खड़े हो कर
देखोगे आते
आराधकों को तो
अधिक को तो
तुम शिकायत
करते पाओगे; धन्यवाद
देने तो शायद
ही कोई आता
है। कोई कहता
है, बच्चे
को नौकरी नहीं
लगी; कोई
कहता है, पत्नी
बीमार है, कोई
कहता है कि
बेईमान तो बढ़े
जा रहे हैं, हम
ईमानदारों का
क्या? तुम
जरा लोगों के
भीतर झांक कर
देखना, सब
शिकायत करते
चले आ रहे
हैं। सब
मांगते चले आ
रहे हैं।
और
यह अधार्मिक
आदमी का लक्षण
है : असंतोष।
शिकायत, मांग—अधार्मिक
आदमी का लक्षण
है। स्वभावत:
अधार्मिक अशांत
भी होगा।
आभार
ही आभार! फिर—फिर
आभार! तुम्हें
जितना मिला है, तुम्हें
प्रतिपल इतना
मिल रहा है, द्वार—द्वार
रंध्र —रंध्र
से फूट कर
इतना प्रकाश आ
रहा है, सब
तरफ से
परमात्मा ने
तुम्हें घेरा
है—और क्या
चाहते हो? सूरज
की किरणें उसे
लातीं, हवाओं
के झोंके उसे
लाते, फूलों
की गंध उसे
लाती, पक्षियों
की पुकार उसे
लाती—स्ब तरफ
से उसने
तुम्हें घेरा
है, सब तरफ
से तुम पर बरस
रहा है! सब तरफ
से वही तुम्हें
स्पर्श कर रहा
है।
जीवन
धन्य है।
आभार, फिर
आभार!
इस
' आभार' को
ही मैं
प्रार्थना
कहता हूं।
प्रार्थना शब्द
अच्छा नहीं, उसमें
मांगने का भाव
है। शायद लोग
मांगते रहे, इसलिए हमने
धीरे— धीरे
प्रभु की
आराधना को
प्रार्थना
कहना शुरू कर
दिया, क्योंकि
प्रार्थी वहां
पहुंचते, मांगने
वाले भिखमंगे
वहां
पहुंचते।
प्रभु की
प्रार्थना
वस्तुत:
धन्यवाद है :
इतना दिया है,
अकारण दिया
है!
इस
अपरिमित में
अपरिमित
शांति की
अनुभूति!
और
जैसे ही तुमने
मांगना छोड़ा, आभार
तो अपरिमित
है। उसका कोई
ओर—छोर नहीं।
धन्यवाद की
कोई सीमा थोड़े
ही है! धन्यवाद
कंजूस थोड़े ही
होता है।
धन्यवाद ही दे
रहे हो तो
उसमें भी कोई
शर्त थोड़े ही
बांधनी पड़ती
है। धन्यवाद
तो बेशर्त है।
अपरिमित
शांति की
अनुभूति
अक्षय
प्यार का आभास
और
तुमने आभार
दिया और उधर
परमात्मा का
प्यार तुम्हें
अनुभव होना
शुरू हुआ। बह
तो सदा से रहा
था,
बिना आभार
के तुम अनुभव
न कर पाते थे।
आभार प्यार को
अनुभव कर पाता
है। आभार पात्रता
है प्यार को
अनुभव करने
की।
समर्पित
मत हो त्वचा
को!
ऊपर—ऊपर
चमड़ी—चमड़ी पर
मत जा। रूप—रंग
में मत उलझ।
स्पर्श कर
गहरा।
स्पर्श
गहरे मात्र
इससे
भी श्रेष्ठतर
मूर्धन्य सुख
जल
बेड़ियों से
कहीं ऊपर
यह
जो त्वचा का
सुख है, यह जो
ऊपर—ऊपर थोड़े—से
सुख की अनुभूति
मिल रही है, इसमें उलझ
मत जा। यह तौ
खिलौना है। यह
तो केवल खबर
है कि और पीछे
छिपा है, और
गहरा छिपा है।
ये तो कंकड़—पत्थर
हैं, हीरे
जल्दी आने को
हैं। इन कंकड़—पत्थरों
में भी थोड़ी—सी
आभास, थोड़ी—सी
झलक है। तो उस
पूर्ण सुख का
तो क्या कहना!
अगर तू बढ़ा
जाए, चला
जाए...।
कहीं
गहरे ठहर कर
आधार, मूलाधार!
गहरे
उतर,
त्वचा में
मत ठहर। परिधि
पर मत रुक, केंद्र
की तरफ चल।
जीवन
हर नये दिन की
निकटता
आत्मा
विस्तार।
और
इस विस्तार को
अनुभव कर लेना
ब्रह्म को अनुभव
कर लेना है।’ब्रह्म'
शब्द का
अर्थ ही
विस्तार होता
है—जो फैला
हुआ, विस्तीर्ण;
जो फैलता ही
चला जाता है।
अलबर्ट
आइंस्टीन ने
तो अभी इस
सदीं में आकर
यह कहा कि
विश्व फैलता
चला जाता है—
एक्सपैंडिंग
यूनिवर्स! इसके
पहले सिर्फ
हिंदुओं को यह
बोध था, किसी
को यह बोध
नहीं रहा।
सारे जगत के
दर्शनशास्त्र
र सारे जगत के
धर्म ऐसा ही
मान कर चले हैं
कि विश्व जैसा
है वैसा ही है,
बड़ा कैसे
होगा और 2: बड़ा
है, लेकिन
और बड़ा कैसे
होगा? पूर्ण
है, तो और
पूर्ण कैसे
होगा? अपनी
जगह है। अलबर्ट
आइंस्टीन ने
इस सदी में
घोषणा की कि
जगत रुका नहीं
है। बढ़ रहा है,
फैल रहा है,
फैलता चला
जा रहा है।
अनंत गति से
फैलता चला जा
रहा है। बढ़ता
ही जा रहा है।
हिंदुओं
के 'ब्रह्म' शब्द
में वह बात
है। ब्रह्म का
अर्थ है : जो
फैलता चला
जाता है; विस्तीर्ण
होता चला जाता
है, जिस पर
कभी कोई सीमा
नहीं आती; जिसके
फैलाव का कोई
अंत नहीं, अंतहीन
फैलाव!
'सब आत्मा है,
ऐसा निश्चय
करके तू
संकल्प—रहित
हो कर सुखी हो।’
अयं
स अहं अस्मि
अयं अहं न इति
विभाग
संत्यज़।
'यह मैं, यह
मैं नहीं—ऐसे
विभाग को छोड़
दे, बोधपूर्वक
छोड़ दे।’
सर्वम्
आत्मा—स्व ही
आत्मा है, एक
ही विस्तार, एक ही
व्यापक!
इति
निश्चित्य—ऐसा
निश्चयपूर्वक
जान!
त्वं
निसंकल्प
सुखी भव—और तब
तेरे सुख में
कोई बाधा न
पड़ेगी।
क्योंकि
जब कुछ और है
ही नहीं, तृ_ ही है, तो
शत्रु कहां, मृत्यु
कहां! जब कुछ
भी नहीं, तू
ही है, तो
फिर और आकांक्षा
क्या! फिर
पाने को क्या
बचता है! फिर
भविष्य नहीं
है। फिर अतीत
नहीं है। फिर
तू सुखी हो
सकता है।
सुख
उस घड़ी का नाम
है जब तुमने
अपने को सबके
साथ एक जान
लिया। दुख उस
घड़ी का नाम है
जब तुम अपने
को सबसे भिन्न
जानते हो। इसे
अगर तुम जीवन
की छोटी—छोटी
घटनाओं में
परखोगे तो
पहचान लोगे।
जहां मिलन है
वहां सुख है।
साधारण जीवन
में भी। मित्र
आ गया अनेक
वर्षों बाद, गले
मिल गये—सुख
का अनुभव है।
फिर मित्र
जाने लगा, फिर
दुख घिर आया।
तुमने गौर
किया? जहां
मिलन है वहां
सुख की थोड़ी
प्रतीति है और
जहां बिछुड़न
है वहां दुख
की। मिलन में
एक होने की
थोड़ी—सी झलक
आती है; बिछुड़न
में फिर हम दो
हो जाते हैं।
जिसे तुम प्रेम
करते थे, वह
पति या पत्नी
या मित्र मर
गया—दुखी हो
जाते हो। नाचे—नाचे
फिरते थे, प्रिय
तुम्हारे पास
था; आज
प्रिय मृत्यु
में खो गया, आज तुम छाती
पीटते हो, मरने
का भाव उठने
लगता। लेकिन
गौर किया, मामला
क्या है? मिलन
में सुख था, विरह में
दुख है।
लेकिन
ये छोटे—छोटे
मिलन—विरह तो
होते रहेंगे, एक
ऐसा महामिलन
भी है, फिर
जिसका कोई
विरह नहीं।
उसी को हम
परमात्मा से
मिलन कहते
हैं।
सब
आत्मा है। फिर
कोई बिछुड्न
नहीं हो सकती।
फिर विरह नहीं
हो सकता। फिर
मिलन शाश्वत
हुआ,
फिर सदा के
लिए हुआ। और
जो सदा के
मिलन को उपलब्ध
हो गये, धन्यभागी
हैं। सुखी भव!
अष्टावक्र
कहते हैं, फिर
सुख ही सुख
है। फिर तू
सुख है। सुखी
भव!
'तेरे ही
अज्ञान से
विश्व है।
परमार्थत: तू
एक है। तेरे
अतिरिक्त कोई
दूसरा नहीं है—न
संसारी और न
असंसारी।’
'तेरे
ही अज्ञान से
विश्व है।’
अज्ञान
यानी भेद।
ज्ञान यानी
अभेद।
अज्ञानी यानी
अपने को अलग
मानना। अपने
को अलग मानने
में ही सारा
उपद्रव खड़ा हो
जाता है।
ज्ञान यानी अपने
को एक जान
लेना, पहचान
लेना कि मैं
एक हूं।
तवैवाज्ञानतो
विश्व त्वमेक:
परमार्थत:
और
वस्तुत: हम एक
हैं,
इसलिए एक
होने में सुख
मिलता है।
क्योंकि जो स्वाभाविक
है, वह सुख
देता है। हम
अनेक नहीं हैं,
इसलिए अनेक
होने में दुख
मिलता है।
क्योंकि जो
स्वभाव के
विपरीत है, वह दुख देता
है। दुख बोधक
है केवल, सूचक
है कि कहीं
तुम स्वभाव के
विपरीत जा रहे
हो। सुख
संकेतक है कि
तुम चलने लगे
स्वभाव के
अनुकूल। जहां
स्वभाव से
संगीत बैठ
जाता है, वहीं
सुख है। जिस
व्यक्ति से
तुम्हारा
स्वभाव मेल खा
जाता है, उसी
के साथ सुख
मिलने लगता
है। जिस घड़ी
में किसी भी
कारण से किसी
भी परिस्थिति
में तुम जगत के
साथ बहने लगते
हो, जगत की
धारा में एक
हो जाते हो, वहीं सुख
मिल जाता है।
सुख
तुम्हारे हाथ
की बात नहीं
है। सुख कभी—कभी
अनायास भी
मिलता है। राह
पर तुम चले जा
रहे थे, सुबह
घूमने निकले
थे और अचानक
एक घड़ी आ जाती
है, एक
झरोखा खुल
जाता है, एक
गवाक्ष, एक
क्षण को तुम
पाते हो
महासुख। फिर
खो जाता है, तुम्हारी
समझ में नहीं
आता हुआ क्या!
शायद आकस्मिक
रूप से, अकारण,
तुम्हारी
बिना किसी
चेष्टा के, तुम ऐसी जगह
थे, चित्त
की ऐसी दशा
में थे जहां
जगत से मेल हो
गया, तुम
जगत की धारा
के साथ बहने
लगे। चलते थे;
विचार
न था,
सूरज निकला था,
पक्षी गीत
गाते थे, सुबह
की हवा सुगंध
ले आई थी, नासापुट
सुगंध से भरे
थे, प्राण
उत्कुल्ल थे,
सुबह की
ताजगी थी, तुम
नाचे —नाचे
थें—स्व क्षण
को मेल खा गया,
अस्तित्व
से मेल खा गया,
अस्तित्व
के साथ तुम
लयबद्ध हो
गये! तुम्हारे
किए न था, अन्यथा
तुम सदा
लयबद्ध रहो।
आकस्मिक हुआ
था, इसलिए
खो गया। फिर
तुम उतर गये।
फिर पटरी से गाड़ी
नीचे हो गई।
उसी
व्यक्ति को हम
ज्ञानी कहते
हैं,
जिसने इसे
बोधपूर्वक
पहचान लिया और
अब जिसकी पटरी
नीचे नहीं
उतरती। अब तुम
लाख धक्का दो,
ऐसा—वैसा
करो!
तुमने
एक जापानी
खिलौना देखा? दारुमा
गुड्डी
कहलाती है।’दारुमा' शब्द
आता है
बोधिधर्म से।
एक भारतीय
बौद्ध भिक्षु
कोई चौदह सौ
वर्ष पहले चीन
गया। वह बड़ा अनूठा
व्यक्ति था, जिसकी मैं
बात कर रहा
हूं ऐसा
व्यक्ति था।
जीवन से उसका
मेल शाश्वत हो
गया था, छंदबद्ध
था। तुम उसे
धक्का नहीं दे
सकते थे। तुम
उसे गिरा नहीं
सकते थे। तुम
उसकी
लयबद्धता को
क्षीण नहीं कर
सकते थे। वह
हर हालत में
अपनी
लयबद्धता को
पा लेता था।
कैसी भी दशा
हो, बुरी
हो भली हो, रात
हो दिन हो, सुख
हो दुख हो, सफलता—
असफलता हो, इससे कोई
फर्क न पड़ता
था। उसके भीतर
का संगीत अहर्निश
बहता रहता था।
बोधिधर्म
का जापानी नाम
है दारुमा। और
उन्होंने एक
गुड़िया बना ली
है। तुमने
गुड़िया देखी
भी होगी। उस
गुड़िया की एक
खूबी है : उसे
तुम कैसा ही
फेंको, वह
पालथी मार कर
बैठ जाती है।
उसकी पालथी
बजनी है. भीतर
लोहे का टुकड़ा
रखा है, या
शीशा भरा है
और सारा शरीर
पोला है। तो
तुम कैसा भी
फेंको, तुम
चाहो कि सिर
के बल गिर
जाये दारुमा,
वह नहीं
गिरता। तुम
धक्का मारो, ऐसा करो, वैसा
करो, वह
फिर अपनी जगह
बैठ जाता है।
यह गुडिया बड़ी
अदभुत है
बच्चों को
शिक्षण देने
के लिए कि
तुम्हारा
जीवन भी ऐसा
हो जाए—दारुमा
जैसा हो जाए।
कुछ तुम्हें
गिरा न पाये।
तुम्हारी
पालथी लगी
रहे।
तुम्हारा
सिद्धासन
कायम रहे।
तुम्हारी
छंदबद्धता
बनी रहे। इसी
को अष्टावक्र
स्वच्छंदता
कहते हैं।
स्वच्छंदता
का अर्थ
उच्छृंखलता
मत समझ लेना।
स्वच्छंदता
का अर्थ है :
स्वयं के छंद
को उपलब्ध हो
गये;
स्वभाव के
साथ एक हो गये;
छंदबद्ध हो गये
अपनी भीतर की
आत्मा से। और
जो भीतर है
वही बाहर है, तो छंद पूरा
हो गया।
लयबद्ध हो गए,
तुम्हारा
सितार बजने
लगा। तुमने
अस्तित्व के
हाथों में दे
दिया अपना
सितार; अस्तित्व
की अंगुलियां
तुम्हारे
सितार पर फिरने
लगीं, गीत
उठने लगा।
'तेरे ही अज्ञान
से विश्व है।
परमार्थत: तू
एक है। तेरे
अतिरिक्त कोई
दूसरा नहीं है—न
संसारी और न
असंसारी।’
तो
कोई भेद मत
करना। यह मत
कहना कि यह
संसारी है और
यह संन्यासी
है। इसलिए तुम
देखते हो, मैंने
सारा भेद छोड़
दिया है।
लोग
मेरे पास आते
हैं। वे कहते
हैं,
संन्यास
लेना है; लेकिन
हम तो अभी संन्यासी
होने के योग्य
नहीं हैं; अभी
घर में हैं, पत्नी—बच्चे
हैं। मैं कहता
हूं : तुम
फिक्र छोड़ो।
संन्यासी और
संसारी में
कोई भेद थोड़े
ही है—एक ही
है। इतना ही
फर्क है कि
संसारी अभी
जिद किए है
सोने की और
संन्यासी
जागने
की चेष्टा
करने लगा है।
भेद थोड़े ही
हैं। दोनों एक
से ही हैं।
संसारी सिर के
बल खड़ा है, संन्यासी
अपने पैर के
बल खड़ा हो गया;
मगर दोनों
में कुछ फर्क
थोड़े ही है।
दोनों के भीतर
एक ही
परमात्मा, एक
ही स्फूर्ति!
तन
के तट पर मिले
हम कई बार पर
द्वार
मन का अभी तक
खुला ही नहीं।
जिंदगी
की बिछी सर्प—सी
धार पर
अश्रु
के साथ ही
कहकहे बह गये।
ओंठ
ऐसे सिये शर्म
की डोर से
बोल
दो थे, मगर
अनकहे रह गये।
सैर
करके चमन की
मिला क्या
हमें?
रंग
कलियों का अब
तक घुला ही
नहीं।
पूरी
जिंदगी गुजर
जाती है और
कलियों का रंग
भी नहीं घुल
पाता। पूरी
जिंदगी गुजर
जाती है, कली
खिल ही नहीं
पाती। पूरी
जिंदगी गुजर
जाती है और
तार छिड़ते ही
नहीं वीणा के।
सैर
करके चमन की
मिला क्या
हमें?
रंग
कलियों का अब
तक घुला ही
नहीं।
तन
के तट पर मिले
हम कई बार पर
द्वार
मन का अभी तक
खुला ही नहीं।
तो
हम मिलते भी
हैं,
तो भी मिलते
नहीं। अहंकार
अकड़ाये रखता
है। झुकते हैं
तो भी झुकते
नहीं। सिर झुक
जाता है, अहंकार
अकड़ा खड़ा रहता
है।
तुम
जरा गौर से
देखना, जब
तुम झुकते हो,
सच में
झुकते हो? जब
हाथ जोड़ते हो,
सच में हाथ
जोड़ते हो? या
कि सब धोखा है?
या कि
विनम्रता भी
औपचारिकता है?
या कि सब
सामाजिक व्यवहांर
है? कुछ
सत्य है या सब
झूठ ही झूठ है?
तुम किसी से
कहते हो, मुझे
तुमसे प्रेम
है; लेकिन
यह तुम सच में
मानते हो? है
ऐसा? या
किसी
प्रयोजनवश कह
रहे हो?
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी उससे कह
रही है कि अब
तुम्हें
मुझसे पहले
जैसा प्रेम न
रहा। अब तुम
घर उस उमंग से
नहीं आते जैसे
पहले आते थे।
अब तुम मुझे
देख कर खिल
नहीं जाते, जैसे
पहले खिल जाते
थे।
मुल्ला
अपना अखबार पढ़
रहा है। उसके
सिर पर सलवटें
पड़ती जाती
हैं। और पत्नी
कहे चली जा
रही है, बुहारी
लगाये जा रही
है और कहे चली
जा रही है। फिर
वह कहती है कि
नहीं, तुम्हें
मुझसे बिलकुल
प्रेम नहीं रहा;
सब प्रेम
खत्म हो गया।
मुल्ला ने कहा
कि है तुझसे, प्रेम मुझे
तुझसे ही है
और पूरा प्रेम
है। अब सिर
खाना बंद कर
और अखबार पढ़ने
दे!
कहे
चले जाते हैं
हम,
जो कहना
चाहिए। और
जीवन कुछ और
कहे चला जाता
है। ओंठ कुछ
कहते, आंख
कुछ कहती है।
ओंठ कुछ कहते
हैं, पूरा
व्यक्तित्व
कुछ और कहता
है। तुम जरा
लोगों की आंखों
पर खयाल करना,
जब वे तुमसे
कहते हैं हमें
प्रेम है, तो
उनकी आंख में
कोई दीये नहीं
जलते। सूनी
पथराई आंखें!
जब तुम्हें वे
नमस्कार करते
हैं और कहते
हैं कि
धन्यभाग कि
आपके दर्शन हो
गये, तब
उनके चेहरे पर
कोई पुलक नहीं
आती। कोरे
शब्द, थोथे
शब्द! सब झूठा
हो गया है। इस
झूठ से जागने का
नाम ही
संन्यास है।
कहीं भागने का
नाम संन्यास
नहीं है। यहीं
तुम सच होना
शुरू हो जाओ, प्रामाणिक
होना शुरू हो
जाओ, और
तुम पाओगे कि
जैसे—जैसे तुम
प्रामाणिक
होते हो, वैसे
—वैसे जीवन
में स्वर, संगीत,
सुगंध, सौरभ
खिलता है।
सत्य की बड़ी
गहरी सुगंध
है! तुम मिले
तो प्रणय पर
छटा छा गई
चुंबनों
सांवली—सी घटा
छा गई।
एक
युग,
एक दिन, एक
पल, एक
क्षण
पर
गगन से उतर
चंचला आ गई।
प्राण
का दान दे, दान
में प्राण ले
अर्चना
की अधर चांदनी
छा गई।
तुम
मिले, प्राण
में रागिनी छा
गई।
थोड़ा
सत्य की झलक
आनी शुरू हो
जाए,
थोड़ा उस परम
प्रियतम से
मिलना शुरू हो
जाए थोड़ा ही
उसका आचल हाथ
में आने लगे..।
तुम
मिले तो प्रणय
पर छटा छा गई!
तुम
मिले, प्राण
में रागिनी आ
गई!
धार्मिक
व्यक्ति कोई
उदास, थका—हारा,
मुर्दा
व्यक्ति नहीं
है—जीवत, उल्लास
से भरा, नाचता
हुआ! धार्मिक
व्यक्ति है
मुस्कुराता हुआ।
जिसको इस बात
का अहसास होने
लगा कि परमात्मा
ने सब तरफ से
मुझे घेरा है,
वह उदास
रहेगा? जिसके
भीतर यह
प्रतीति होने
लगी कि वही
परमात्मा
मेरे घर में
भी विराजमान
है, इस
मेरी
अस्थिपंजर की
देह को भी
उसने पवित्र
किया है, इस
मिट्टी की देह
में भी उसी का
मंदिर है—वह
फिर उदास
रहेगा? फिर
तुम उसे थका—हारा
देखोगे? उसमें
तुम एक उमंग
के दर्शन
पाओगे। बस
उतना ही फर्क
है। लेकिन
चाहे तुम उमंग
से नाचो और
चाहे थके, उदास,
हारे बैठे
रहो, मूलत:,
परमार्थत:
कोई फर्क नहीं
है—न संसारी
में न असंसारी
में।
परमार्थत:
त्वं एक:!
वस्तुत:
तो तुम एक ही
हो। उदास भी
वही है। हंसता
हुआ भी वही
है। स्वस्थ भी
वही,
बीमार भी
वही। अंधेरे
में खड़ा भी
वही, रोशनी
में खड़ा भी
वही। फर्क
इतना ही है कि
एक ने आंख खोल
ली है, एक
ने आंख बंद
रखी है। फर्क
कुछ बहुत नहीं।
पलक, जरा—सी
पलक का फर्क
है। आंख खुल
गई—संन्यासी। आंख
बंद रही—संसारी।
'यह विश्व
भ्रांति
मात्र है और
कुछ नहीं है, ऐसा
निश्चयपूर्वक
जानने वाला
वासना—रहित और
चैतन्य—मात्र
है। वह ऐसे शांति
को प्राप्त
होता है मानो
कुछ नहीं है।’
जरा
इस भाव में
जीयो! जरा इस
भाव में पगो!
जरा इस भाव
में डूबो!
'यह
विश्व भांति
मात्र है।’
यह
ध्यान की एक
प्रक्रिया
है। यह कोई
दार्शनिक
सिद्धात नहीं; जैसा
कि हिंदू समझ
बैठे हैं कि
यह इनका
दार्शनिक
सिद्धात है कि
यह जगत माया
है, भ्रांति
है, इसको
सिद्ध करना
है। यह कोई
तर्क की
प्रक्रिया
नहीं है।
शंकराचार्य
के अत्यंत
तार्किक होने
के कारण एक
बड़ी गलत दिशा
मिल गई।
शंकराचार्य
ने बात को कुछ
ऐसे सिद्ध
करने की कोशिश
की है जैसे यह
कोई तार्किक
सिद्धात है कि
जगत माया है।
उसके कारण
दूसरे सिद्ध
करने लगे कि
जगत माया नहीं
है। और सच तो
यह है कि किसी
भी तर्क से
सिद्ध नहीं
किया जा सकता
कि जगत माया है।
कोई उपाय नहीं
है। इसलिए
उपाय नहीं है
कि जब तुम
सिद्ध करने
जाते हो कि
जगत माया है, तब
भी तुम्हें
इतना तो मानना
ही पड़ता है कि
जगत है; नहीं
तो सिद्ध
किसको कर रहे
हो कि माया है?
जब तुम
सिद्ध करने
जाते हो किसी
के सामने कि
जगत माया है
तो तुम इतना
मानते हो कि जिसके
सामने तुम
सिद्ध कर रहे
हो, वह है।
इतना तो मानते
हो कि किसी की
बुद्धि तुम्हें
सुधारनी है, रास्ते पर
लानी है; कोई
गलत चला गया
है, ठीक
लाना है।
लेकिन यह तो
मान्यता हो गई
संसार की। यह
तो तुमने मान
लिया कि दूसरा
है।
शंकराचार्य
किसको समझा
रहे हैं? किससे
तर्क कर रहे
हैं?
नहीं, यह
तर्क की बात
ही नहीं। मेरा
कोण कुछ और
है। मैं मानता
हूं यह ध्यान
की एक
प्रक्रिया
है। यह सिर्फ
ध्यान की एक
विधि, एक
उपाय है। इसका
तुम प्रयोग
करके देखो
ध्यान के उपाय
की तरह और तुम
चकित हो जाओगे।
'यह विश्व
भ्रांति
मात्र है।’
तुम
ऐसा मान कर एक
सप्ताह चलो कि
जगत सपना है। कुछ
फर्क नहीं
करना है; जैसा
होता है वैसे
ही होने देना
है। सपना है तो
फर्क क्या
करना है? सपना
है तो फर्क
करोगे भी कैसे?
होता तो कुछ
फर्क भी कर
लेते। सपना है
तो बदलोगे
कैसे? बदलना
हो भी कैसे
सकता है? यथार्थ
बदला जा सकता
है, सपना
तो बदला नहीं
जा सकता।
सिर्फ दृष्टि—
भेद है। दफ्तर
जाना, इतना
ही जानना कि
सपना है।
दफ्तर का काम
भी करना, यह
मत कहना कि अब
फाइलें हटा कर
बगल में रख
दीं, जैसा
कि भारत में
लोग किए हैं, फाइलें रखीं
हैं, वे
टेबल पर पैर
पसारे बैठे
हैं—जगत सपना
है! करना भी
क्या है!
फाइलों में
धरा क्या है!
दो
कवि एक कवि—सम्मेलन
में गये थे, एक
साथ ठहरे थे।
जो जवान कवि
था, वह कुछ
कविताएं लिख
रहा था। के ने
उसको उपदेश दिया।
के ने कहा. 'लिखने
में क्या धरा
है! अरे पागल, लिखने में
क्या धरा है!
परमात्मा
बाहर खड़ा है।’
जवान
ने सुन तो
लिया, लेकिन
उसे बात अच्छी
न लगी। थोड़ी
देर बाद बूढ़े
ने कहा. 'बेटा,
सेरीडान
बुलवाओ, सिर
में दर्द हुआ
है।’ तो उस
जवान कवि ने
कहा. 'सेरीडान!
सेरीडान!!
सेरीडान में
क्या धरा है? परमात्मा
बाहर खड़ा है।
और जब सिर में
दर्द उठे, बहाना
करो, न—न— —। न—न
करो! सब
भ्रांति है
गुरुदेव!
सिरदर्द
इत्यादि में
रखा क्या है!
जब दर्द उठे, बहाना करो, न—न—न। न—न—न
करो। इनकार कर
दो, बस
खत्म हो गई
बात।’
न
तो इनकार करने
से सिरदर्द
जाता और न
फाइलें सरकाने
से कुछ हल
होता। नहीं, यह
तो प्रयोग
ध्यान का है।
दफ्तर जाओ, फाइल पर काम
भी करो—सपना
ही है, बस
इतना जान कर
करो। घर आओ, पत्नी से भी
मिलो, बच्चों
के साथ खेलो
भी—सपना ही है,
ऐसा ही मान
कर चलो। एक
सात दिन तुम
एक अभिनेता हो,
कर्ता
नहीं। बस कोई
फर्क न पड़ेगा,
किसी को
कानोंकान खबर
भी न होगी।
कोई जान भी न पाएगा
और तुम्हारे
भीतर एक क्रांति
हो जाएगी। तुम
अचानक देखोगे,
कर
तुम
वही रहे हो, लेकिन
अब बोझ न रहा।
कर तुम वही
रहे हो, लेकिन
अब अशांति
नहीं। कर तुम
वही रहे हो, लेकिन अब
तुम अलिप्त, दूर कमल
जैसे; पानी
में और फिर भी
पानी छूता
नहीं।
'यह विश्व
भांति मात्र है
और कुछ नहीं
है, ऐसा
निश्चियपूर्वक
जानने वाला
वासना—रहित और
चैतन्य मात्र
हो जाता है।’
तुम
करके देखो।
तुम पाओगे कि
वासना गिरने
लगती है। काम
जारी रहता है, कामना
गिरने लगती
है। कृत्य
जारी रहता है,
कर्ता विदा
हो जाता है।
सब चलता है, जैसा चलता
था; लेकिन
भीतर आपाधापी
नहीं रह जाती,
तनाव नहीं
रह जाता। तुम
उपकरण—मात्र
हो जाते हो, निमित्त
मात्र! और तब
तुम्हें
अनुभव होता है
कि तुम तो
सिर्फ चैतन्य
हो, साक्षी—मात्र
हो।
यह
प्रयोग ध्यान
का है। अगर
जगत सपना है
तो कर्ता होने
का तो कोई
उपाय न रहा।
जब यथार्थ है
ही नहीं, तो कर्ता
हो कैसे सकते
हो? रात
तुम सपना
देखते हो, उसमें
कर्ता तो नहीं
हो सकते! सुबह
जाग कर तुम पाते
हो साक्षी थे,
कर्ता
नहीं। देखा, तुम सुबह उठ
कर ऐसा तो
नहीं कहते कि
सपने में ऐसा—ऐसा
किया; तुम
कहते हो, रात
सपना देखा।
तुम जरा भाषा
पर खयाल करना।
तुम यह नहीं
कहते हो सुबह
उठ कर कि रात
सपने में चोरी
की। तुम कहते
हो, रात
देखा, सपना
आया कि चोरी
हो रही है
मुझसे। रात
देखा, सपना
आया कि मैं
हत्यारा हो
रहा हूं। तुम
कहते हो, मैंने
देखा। सपना
देखा जाता है;
किया थोड़े
ही जाता है।
बस इस भेद को
समझो। सपने के
साथ करना
जुड़ता नहीं है,
सिर्फ
देखना जुड़ता
है।
तो
अगर तुम जगत
को सपना मात्र
मान कर प्रयोग
करो तो अचानक
तुम पाओगे, तुम
चैतन्य मात्र
रह गये, द्रष्टा—मात्र,
साक्षी—मात्र!
'और ऐसा
व्यक्ति ऐसी शांति
को प्राप्त हो
जाता है मानो
कुछ है ही
नहीं।’
अशांत
होने का उपाय
ही नहीं बचता।
भ्रांतिमात्रमिद
विश्व न
किचिदिति
निश्चयी
निर्वासन:
स्फूर्तिमात्रो
न किचिदिव
शाम्यति
सब
सपने
भूमिकायें
हैं
उस
अनदेखे सपने
की
जो
एक ही बार
आएगा
सत्य
की भीख मांगने
आंख
के द्वार पर।
सब
सपने भूमिकायें
हैं!
यह
सारा जगत, तुम
देखने की कला
सीख लो, इसकी
ही पाठशाला
है। ये इतने
दृश्य, ये
इतने कथापट, इतने नाटक, सिर्फ एक
छोटी—सी बात
की तैयारी हैं
कि तुम
द्रष्टा बन
जाओ।
सब
सपने
भूमिकायें
हैं
उस
अनदेखे सपने
की
जो
एक ही बार
आएगा
सत्य
की भीख मांगने
आंख
के द्वार पर।
तुम
संसार के
देखने वाले बन
जाओ,
एक दिन
अचानक
परमात्मा
तुम्हारे
द्वार पर खड़ा
हो जाएगा। उसी
परम दर्शन के
लिए सारी
तैयारी चल रही
है। यह तो आंखों
पर काजल आजना
है—यह संसार
जो है। यह तो आंखों
को साफ करना
है—यह संसार
जो है। आंखें
स्वच्छ हो
जाएं, देखने
की कला आ जाए, स्फूर्ति आ
जाए, बोध आ
जाए, फिर
द्वार पर
परमात्मा खड़ा
है। और एक बार
द्वार पर खड़ा
हो गया कि सदा
के लिए हो
गया।
जो
एक ही बार
आएगा
सत्य
की भीख मांगने
आंख
के द्वार पर।
आंखें
शून्य हो जाएं
तो सत्य मिल
जाए! मन मौन हो
जाए तो प्रभु
की वाणी प्रगट
हो उठे। तुम
मिट जाओ, तो परमात्मा
इसी क्षण
जाहिर हो उठे।
मात्र
है राजमार्ग
अभिव्यक्ति
का,
शब्द, छंद,
मात्रा,
होती
है शुरू मौन
के बीहड़ से
अनुभूति
की यात्रा।
जब
तुम चुप हो
जाते हो—सब
अर्थों में! आंख
जब चुप हो
जाती है, तब
तुम वही देखते
हो जो है। जब
तक आंख बोलती
रहती है, तुम
वही देखते हो
जो तुम्हारी
वासना
दिखलाना
चाहती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
राह से जा रहा
है। अचानक झपटा।
कोई चीज उठाई।
फिर बड़े क्रोध
से फेंकी और
गालियां दीं।
मैंने उससे
पूछा : 'नसरुद्दीन!'
मैं उसके
पीछे—पीछे ही
था।’यह
मामला क्या
हुआ। झपटे बड़ी
तेजी से, कुछ
उठाया भी, कुछ
फेंका भी!'
उसने
कहा : कुछ ऐसे
दुष्ट हैं कि
अठन्नी जैसी खखार
यूकते हैं।
अठन्नी
जैसी खखार! वह
उनको गाली दे
रहा है। जैसे
उसके लिए किसी
ने अठन्नी
जैसी खखार
यूंकी। वे
खखार को उठा
लिए। नाराज हो
रहे हैं।
आदमी
वही देखता है, जो
देखना चाहता
है, जो
उसकी वासना
दिखलाना चाहती
है।
तुमने
भी कई बार
खखार उठा लिया
होगा अठन्नी
के भ्रम में।
वह दिखाई नहीं
पड़ता जो है। आंख
के पास अपने
प्रक्षेपण
हैं। आंख वही
दिखलाना
चाहती है।
तुम
कभी ऐसा भी
देखो। तुम रोज
जिस बाजार में
जाते हो, उसमें
जब तुम जाते
हो अलग—अलग
भावनाएं ले कर
तुम्हें अलग—अलग
चीजें दिखाई
पड़ती हैं। अगर
तुम भूखे जाओ,
तुम्हें
होटल, रेस्तरा
इसी तरह की
चीजें दिखाई
पड़ेगी; जूते
की दूकान
बिलकुल दिखाई
न पड़ेगी। अगर
तुम्हारा
दिमाग खराब हो
तो बात अलग है;
नहीं तो
जूते की दूकान
नहीं दिखाई
पड़ेगी। उपवास
करके बाजार
में जाना, सब
तरफ से
तुम्हें. बाकी
सब चीजें फीकी
पड़ जाएंगी, हट जाएंगी, उनका महत्व
न रहा। लेकिन
जब तुम भरे
पेट जाते हो, तब बात अलग
हो जाती है।
तुम देखने
वाले हो। तुम
चुनाव कर रहे
हो।
इस
घड़ी की कल्पना
करो,
जब तुम सारे
जगत को स्वप्नवत
मान लेते हो।
तब तुम्हें
बड़ी हैरानी
होती है। वही
दिखाई पड़ने
लगता है जो
है। और जो है
वह एक है, अनेक
नहीं।
'यह विश्व भ्रांति
मात्र है और
कुछ नहीं, ऐसा
निश्चयपूर्वक
जानने वाला
वासना—रहित
चैतन्य मात्र
है। वह ऐसी शांति
को प्राप्त
होता है मानो
कुछ नहीं है।’
जब
तुम्हारे
भीतर कोई मांग
नहीं तो बाहर
कुछ नहीं बचता
है—एक विराट
शून्य फैल
जाता है, एक
मौन, एक
निस्तब्धता!
उस
निस्तब्धता
में ही प्रभु
के चरण पहली
बार सुने जाते
हैं।
'संसाररूपी
समुद्र में एक
ही था, है, और होगा।
तेरा बंध और
मोक्ष नहीं
है। तू कृतकृत्य
होकर
सुखपूर्वक
विचर!'
देखते
हैं इन वचनों
की मुक्ति! इन
वचनों की उदघोषणा!
एक
एव
भवांभोधावासीदस्ति
भविष्यति
एक
ही है, एक ही था,
एक ही
रहेगा। इससे
अन्यथा जो भी
देखा हो, सपना
है, झूठा
है, मनगढ़ंत
है।
न
ते बंधोउस्ति
मोक्षो वा
कृतकृत्य:
सुखं चर।
और
न कहीं कोई
बंध है, न कोई
मोक्ष है। अगर
ऐसा तू देख ले
तो न कोई बंध है
न कोई मोक्ष।
तू मुक्त, मुक्त
तेरा स्वभाव
है।
न
ते बंधोऽस्ति
मोक्षो वा
कृतकृत्य:
सुखं चर
और
फिर तू
कृतार्थ हुआ।
फिर प्रतिपल
तेरा धन्य
हुआ। फिर तू
सुख से विचर।
'हे चिन्मय, तू चित्त को
संकल्पों और
विकल्पों से
क्षोभित मत कर,
शांत होकर
आनंदशइरत
अपने स्वरूप
में सुखपूर्वक
स्थित हो।’
बैठा
है कीचड़ पर जल
चौंका
मत!
घट
भर और चल
बनाया
जा सकता है
अंधेरा पालतू
पर
मर जाती है
बंद करते ही
धूप
मुक्ति
का द्वार
अभिन्न अंग है
कारा का
बलि
वासनाओं की दो
नारियल
कुंठा का तोड़ो
चंदन
अहं का घिसो
बन
जाएगा
तुम्हारा पशु
ही प्रभु
बैठा
है कीचड़ पर जल
चौंका
मत!
घट
भर और चल!
वासनाएं
हैं,
उन वासनाओं
को जगाने, प्रज्वलित
करने की कोई
जरूरत नहीं।
अपना घड़ा भरो
और चलो। जल के
नीचे बैठी है
मिट्टी, बैठी
रहने दो।
लेकिन हम घड़ा
तो भरते नहीं,
जीवन के रस
से तो घड़ा
भरते नहीं; वह जो तलहटी
में बैठी
मिट्टी है.
वासनाओं की, उसी की
उधेड़बुन में
पड़ जाते हैं।
और उसके कारण
सारा जल
अस्वच्छ हो
जाता है।
तो
अगर जल भरना
हो किसी झरने
से तो उतर मत
जाना झरने में; झरने
के बाहर से
चुपचाप
आहिस्ता से
अपना घड़ा भर
लेना। झरने
में उतर गये, जल पीने
योग्य न रह
जाएगा। अभी—अभी
कैसा स्वच्छ
था, स्फटिक
मणि जैसा! उतर
गये, उपद्रव
हो गया। कर्ता
बन गये—उतर
गये। साक्षी
रहे कि किनारे
रहे। भर लो
घड़ा।
बैठा
है कीचड़ पर जल
चौंका
मत!
घट
भर और चल।
कृतकृत्य
हो जा!
बनाया
जा सकता है
अंधेरा
पालतू।
यह
तुमने देखा, अंधेरे
को तुम बंद कर
सकते हो कमरे
में, लेकिन
धूप को नहीं!
बनाया
जा सकता है
अंधेरा पालतू
पर
मर जाती है
बंद करते ही
धूप।
जीवन
में जो भी
श्रेष्ठ है, जो
भी सुंदर है, जो भी सत्य
है, वह
मुक्त ही होता
है। उसे बांधा
नहीं जा सकता।
शास्त्र में
बांधा, मर
जाता है सत्य।
सिद्धात में
पिरोया, निकल
जाते हैं
प्राण। तर्क
में डाला, हो
गया व्यर्थ।
तर्क तो कब है
सत्य की। शब्द
तो लाश है
सत्य की।
बनाया
जा सकता है
अंधेरा पालतू
पर
मर जाती है
बंद करते ही
धूप।
शब्दों
में बंद करने
की चेष्टा न
करो;
मौन में
उघाड़ो!
विचारों में
मत उलझो; शून्य
में जागो! आंखों
में अगर सपने
भरे हुए हो
तुम, तो तुम
कारागृह में
ही रहोगे। आंखों
को खाली करो।
मुक्ति
का द्वार
अभिन्न अंग है
कारा का!
यह
बड़े मजे की
बात है। संसार
में ही मुक्ति
का द्वार है।
होना ही
चाहिए।
जेलखाने से जब
कोई निकलता है
तो जिस द्वार
से निकलता है
वह जेलखाने का
ही द्वार होता
है।
मुक्ति
का द्वार अभिन्न
अंग है कारा
का।
वह
द्वार मुक्ति
का कारा से
अलग थोड़े ही
है। मोक्ष
कहीं संसार से
अलग थोड़े ही
है। मोक्ष संसार
में ही एक
द्वार है। तुम
साक्षी हो जाओ, द्वार
खुल जाता है।
तुम कर्ता बने
रहो, तुम्हें
द्वार दिखाई
नहीं पड़ता।
तुम दौड़— धूप
आपाधापी में
लगे रहते हो।
'संसाररूपी
समुद्र में एक
ही था, एक
ही है, एक
ही होगा। तेरा
बंध और मोक्ष
नहीं। तू
कृतकृत्य हो
कर सुखपूर्वक
विचर।’
ते
बंध: वा मोक्ष
न त्वं सुखं
चर!
कृतकृत्य
हो कर! यह बड़े
मजे का शब्द
है। कर्ता होने
से बचते ही
आदमी
कृतकृत्य हो
जाता है। और
हम सोचते हैं.
बिना कर्ता
बने कैसे
कृतकृत्य
होंगे; जब
करेंगे तभी तो
कृतकृत्य
होंगे! और
करने वाले कभी
कृतकृत्य
नहीं होते।
देखते हो
नेपोलियन, सिकंदर!
उनकी पराजय
देखते हो!
संसार जीत
लेते हैं और
फिर भी पराजय
हाथ लगती है।
धन भर जाता है
और हाथ खाली
रह जाते हैं।
प्रशंसा मिल
जाती है और
प्राण सूखे रह
जाते हैं।
अष्टावक्र
कहते हैं :
कृतकृत्य
होना है, कर
लेना है जो
करने योग्य है—तो
कर्ता मत बन!
तो साक्षी बन!
साक्षी बनते
ही तत्क्षण
परमात्मा
तेरे लिए कर
देता है जो
करने योग्य है।
तू नाहक ही
परेशान हो रहा
है। तू व्यर्थ
की दौड़— धूप कर
रहा है।
'हे चिन्मय, तू चित्त को
संकल्पों और
विकल्पों से
क्षोभित मत
कर। शांत हो
कर
आनंदपूर्वक
अपने स्वरूप
में सुखपूर्वक
स्थित हो।’
मा
संकल्पविकल्पाभ्यां
चित्तं
क्षोभय चिन्मय
उपशाम्य
सुखं तिष्ठ
स्वात्मयानदविग्रहे
'हे चिन्मय!
हे चैतन्य! तू
चित्त को
संकल्पों—विकल्पों
से क्षोभित मत
कर।’
यह
मत सोच : क्या
करूं क्या न
करूं; क्या
मानूं क्या न
मानूं; कहां
जाऊं कहां न
जाऊं! इन
संकल्प—विकल्पों
में मत पड़। तू
तो जहां है
वहीं शांत हो
जा। जैसा है
वैसा ही शांत
हो जा। क्या
करूं क्या न
करूं कि शांति
मिले, अगर
इस विकल्प में
पड़ा तो तू अशांत
ही होता चला
जाएगा।
शांति
के नाम पर भी
लोग अशांत
होते हैं। शांत
होना है, यही
बात अशांति का
कारण बन जाती
है। ऐसे लोग
मेरे पास रोज
आ जाते हैं।
वे कहते हैं, शांत होना
है; अब
चाहे कुछ भी
हो जाए, शांत
हो कर रहेंगे।
उनको यह बात
दिखाई नहीं
पड़ती कि उनके
ही कर्तापन के
कारण अशांत
हुए; अब
कर्तापन को शांति
पर लगा रहे
हैं। अब वे
कहते हैं, शांत
होकर रहेंगे!
अभी भी जिद
कायम है। अभी
भी टूटी नहीं
जिद। अहंकार
मिटा नहीं, कर्ता गिरा
नहीं। रस्सी
जल गई, लेकिन
रस्सी की अकड़न
नहीं गई। अब शांत
होना है। अब
यह नया
कर्तृत्व पैदा
हुआ।
इतना
ही तुम जान लो
कि तुम्हारे
किए कुछ भी नहीं
होता है। फिर
कैसी अशांति!
इतना ही जान
लो,
तुम्हारे
किए क्या कब
हुआ! कितना तो
किया, कभी
कुछ हुआ? कभी
तो कुछ न हुआ।
आशा बंधी और
सदा टूटी।
निराश ही तो
हुए हो।
जन्मों—जन्मों
में निराशा के
अतिरिक्त
तुम्हारी संपत्ति
क्या है? इसको
देख कर जो
व्यक्ति कह
देता है, अब
मेरे किए कुछ
न होगा—ऐसे
भाव में कि अब
मेरे किए कुछ
भी न होगा, तो
मैं देखूंगा
जो होता है, देखूंगा और
तो करने को
कुछ बचा नहीं;
देखूंगा
चुपचाप बैठ
कर...!
मेरे
दादा, मेरे
पिता के पिता,
बूढ़े हो गए
थे। तो उनके
पैरों में
लकवा लग गया।
वे चल भी नहीं
सकते थे।
लेकिन उनकी
पुरानी आदत!
तो घसिट कर भी
वे दूकान पर
पहुंच जाते, मकान के
भीतर से दूकान
पर आ जाते। अब
उनकी कोई जरूरत
भी न थी दूकान
पर। उनके कारण
अड़चन भी होती।
लेकिन वे फिर
भी.......।
मैं
एक बार गांव
गया था।
विश्वविद्यालय
में पढ़ता था, लौटा
था। उनको
मैंने देखा तो
मैंने उनको
कहा कि अब
तुम्हारा
करना सब खतम
हो गया, अब
तुम्हारे पैर
भी जाते रहे, अब चलना—उठना
भी नहीं होता,
अब कोई
जरूरत भी नहीं
है, तुम्हारे
बेटे अच्छी
तरह कर भी रहे
हैं, अब
तुम्हें कुछ
अड़चन भी नहीं
है, अब तुम शांत
क्यों नहीं
बैठ जाते?
वे
बोले, शांत तो
मैं बैठना
चाहता हूं। तो
मैंने कहा : अब
और क्या बाकी
है? अब तुम
शांत बैठ ही
जाओ। तुम मेरी
मानो—मैंने
उनसे कहा—चौबीस
घंटे आज तुम
दूकान पर मत
जाओ।
तुम्हारी वहां
कोई जरूरत भी
नहीं है। सच
तो यह है कि
तुम्हारे
बेटे परेशान
होते हैं
तुम्हारी वजह
से। काम में
बाधा पड़ती है।
जमाना बदल गया
है। जब तुम
दूकान चलाते
थे, वह और
दुनिया थी; अब दूकान
किसी और ढंग
से चल रही है।
वे
पुराने ढंग के
आदमी थे। दस
रुपये की चीज
बीस रुपये में
बताएंगे। फिर
खींचतान होगी, फिर
ग्राहक
मांगेगा, फिर
वे समझायेगे—बुझायेगे,
फिर चल—फिर
कर वह दस पर तय
होने वाला है।
लेकिन आधा घंटा
खराब करेंगे,
घंटा भर
खराब करेंगे।
अब दूकान की
हालत बदल गई
थी। अब दस की
चीज है तो दस
की बता दी, अब
बात तय हो गई।
उनको यह
बिलकुल जंचता
ही नहीं। वे
कहते. 'यह
भी कोई मजा
रहा! अरे चार बात
होती हैं, ग्राहक
कहता कुछ, कुछ
तुम कहते; कुछ
जद्दोजहद
होती, बुद्धि
की टक्कर होती।’
और वे कहते,
'बिगड़ता
क्या है? दस
से कम में तो
देना नहीं है,
तो कर लेने
दो उसको दौड़—
धूप। उसको भी
मजा आ जाता
है। वह भी
सोचता, खूब
ठगा! कोई अपन
तो ठगे जाते
नहीं।’ वह
उनका पुराना
दिमाग था, वे
वैसे ही चलते
थे। वे दूकान
पर पहुंच जाते
तो वे गड़बड़
करते। मैंने
उनसे कहा कि
तुमसे सिर्फ
गड़बड़ होती है।
और फिर अब, कब
मौत करीब आती
है.. ...अब तुम ऐसा
करो, कर्तापन
छोड़ दो, साक्षी
हो जाओ।
मेरी
वे सदा सुनते
थे कि कुछ
कहूंगा तो
शायद पते की
हो। तो उन्होंने
कहा,
अच्छा आज
चौबीस घंटे
प्रयोग करके
देखता हूं। अगर
मुझे शांति
मिली तो ठीक, नहीं मिली
तो फिर मैं
नहीं झंझट में
पडूंगा। मुझे
जैसा करना है
करने दो, कम
से कम व्यस्त
तो रहता हूं।
वे
चौबीस घंटे
अपने बिस्तर
पर पड़े रहे।
दूसरे दिन
सुबह जब मैं
गया,
मैंने ऐसा
उनका चेहरा, ऐसा सुंदर
भाव कभी देखा
ही न था। वे
कहने लगे. हद
हो गई! मैंने
इस पर कभी
ध्यान ही न
दिया। पैर भी
टूट गए, फिर
भी मैं दौड़ा
जा रहा, मन
दौड़ा जा रहा।
अब कुछ करने
को भी मुझे
नहीं बचा, सब
ठीक चल रहा है
मेरे बिना, और भी अच्छा
चल रहा है; फिर
भी मैं पहुंच
जाता हूं सरक
कर। परमात्मा
ने मौका दिया
कि पैर भी तोड़
दिए, फिर
भी अकल मुझे
नहीं आती।
तुमने ठीक
किया। ये
चौबीस घंटे!
पहले तो चार—छ:
घंटे बड़ी
बेचैनी में
गुजरे, कई
बार उठ—उठ आया;
फिर याद आ
गई, कम से
कम चौबीस घंटे
में क्या
बिगड़ता है!
फिर लेट गया।
कोई दस—बारह घंटे
के बाद कुछ—कुछ
क्षण सुख के
मालूम होने
लगे। अब कुछ
करने को नहीं
बचा। सांझ
होते—होते जब
सूरज ढलता था
और मैंने
खिड़की से सूरज
को ढलते देखा,
तब कुछ मेरे
भीतर भी ढल
गया। कुछ हुआ
है! रात बहुत
दिनों बाद मैं
ठीक से सोया
हूं और सपने
नहीं आये।
फिर
उस दिन के बाद
वे दूकान नहीं
गये। फिर दों—चार
साल जीये, जब
भी मैं घर
जाता तो मैं
पहली बात
पूछता कि वे दूकान
तो नहीं गये
हैं। उनके
बेटे भी
परेशान हुए—मेरे
पिता, मेरे
काका वे सब
परेशान हुए कि
मामला क्या है,
तुमने किया
क्या! तो
मैंने कहा : मै,
कुछ किया
नहीं हूं जो
अपने से होना
था, सिर्फ
एक निमित्त
बना। उनको याद
दिला दी कि अब
पैर भी टूट
गये, अब
क्यों
आपाधापी! अब
सब हार भी गये,
बात खतम भी
हो गई, अब
प्राण जाने का
क्षण आ गया, श्वास आखिरी
आ गई, अब
थोड़े साक्षी
बन कर देख लो!
आखिरी
दिन उनके परम शांति
के दिन थे।
मरते वक्त मैं
घर पर नहीं था
जब वे मरे, लेकिन
दो दिन बाद जब
मुझे खबर मिली
और मैं पहुंचा
तो सबने कहा
कि वे
तुम्हारी याद
करते मरे। और
उनसे पूछा कि
क्यों उसकी
याद कर रहे हो;
और सब तो
मौजूद हैं, उसी की
क्यों याद कर
रहे? तो
उन्होंने कहा,
उसकी याद
करनी है, उसे
धन्यवाद देना
था! उसने जो
मुझे कहा कि
अब कर्ता न
रहो, मैं
कृतकृत्य हो
गया! धन्यवाद
देना था। मैं
तो न दे
सकूंगा, लेकिन
जब वह आये तो
मेरी तरफ से
धन्यवाद दे देना
कि मैं साक्षी—
भाव में मरा
हूं और जीवन
में जो नहीं
मिला था वह
मरने के इन
क्षणों में
मुझे मिल गया
है। पृ।
'हे चिन्मय, तू चित्त को
संकल्पों और
विकल्पों से
क्षोभित मत
कर। शांत होकर
आनंदपूर्वक
अपने स्वभाव
में, अपने
स्वरूप में
स्थित हो।’
'सर्वत्र ही
ध्यान को
त्याग कर हृदय
में कुछ भी
धारण मत कर।
तू आत्मा, मुक्त
ही है, तू
विमर्श करके
क्या करेगा?'
ये
सुनते हैं
सूत्र!
'सर्वत्र
ही ध्यान को
त्याग कर हृदय
में कुछ भी मत
धारण कर!'
धन
पर ध्यान है, उसको
भी त्याग दे!
प्रतिमा पर
ध्यान है, उसको
भी त्याग दे।
वासना पर
ध्यान है, उसको
भी त्याग दे।
स्वर्ग पर
ध्यान है, उसको
भी त्याग दे।
कहीं ध्यान ही
मत धर। हृदय को
कोरा कर ले, सूना कर ले।
त्यजैव
ध्यानं
सर्वत्र मा
किचिद्धृदि
धारय
आत्मा
त्वं मुक्त
एवासि किं
विमृश्य
करिष्यसि
और
सोच—विचार
करने को क्या
है?
विमर्श
करने को क्या
है? तू एक, तू आत्मा, तू मुक्त!
छोड़ सोच—विचार,
बस इतना ही
कर ले कि
ध्यान को सब
जगह से खींच
ले!
कृष्ण
का सूत्र है
गीता में. 'सर्व
धर्मान्
परित्यज्य, मामेकं शरणं
व्रज! सब धर्म
छोड़ कर तू
मेरी शरण में
आ जा!' यह
मेरी शरण
कृष्ण की शरण
नहीं है। यह
मेरी शरण तो
तुम्हारे
भीतर छिपे हुए
परमात्मा की
शरण है। वही
कृष्ण हैं।
वही
इस सूत्र का
अर्थ है :
त्यजैव
ध्यानं सर्वत्र!
'सर्वत्र
ध्यान को
त्याग कर दे
और हृदय में
कुछ भी मत
धारण कर।’
यह
सूत्र कृष्ण
के सूत्र से
भी थोड़ा आगे
आता है, क्योंकि
कृष्ण के
सूत्र में एक
खतरा है कि
तुम सब छोड़ कर
कृष्ण के
चरणों में
ध्यान लगा लो।
वह खतरा है।
वह तो हो गया
कृष्ण— भक्तों
को। उन्होंने
सब तरफ से
ध्यान हटा लिया,
कृष्ण के
चरण पकड़ लिए।
मगर ध्यान
कहीं है।
समाधि
तब फलित होती
है जब ध्यान
कहीं भी नहीं रह
जाता। ध्यान
जब शून्य होता
है,
तब समाधि।
जब तुम्हारे
ध्यान में कुछ
भी नहीं रह
जाता, कोरा
प्रकाश रह
जाता है, कहीं
पड़ता नहीं, किसी चीज पर
पड़ता नहीं, कहीं जाता
नहीं, बस
तुम कोरे
प्रकाश रह
जाते हो!
ऐसा
समझो कि
साधारणत: आदमी
का ध्यान
टार्च की तरह
है,
किसी चीज पर
पड़ता है, एक
दिशा में पड़ता
है और दिशाओं
में नहीं
पड़ता। फिर
दीये की तरह
भी ध्यान होता
है, सब
दिशाओं में
पड़ता है, किसी
चीज पर विशेष
रूप से नहीं
पड़ता। कोई चीज
हो या न हो, इससे
कोई संबंध
नहीं है; अगर
कमरा सूना हो
तो सूने कमरे
पर पड़ता है, भरा हो तो
भरी चीजों पर
पड़ता है। सब
हटा लो तो दीये
का प्रकाश
शून्य में
पड़ता रहेगा।
जिस दिन तुम्हारा
चैतन्य ऐसा हो
जाता है कि
शून्य में प्रकाश
होता है, उसी
घड़ी तू मुक्त
है, तू
आत्मा है! जिस
दिन विचार
करने को कुछ
शेष नहीं रह
जाता, उस दिन
तुम तो शांत
होओगे ही, दूसरे
भी देख कर
प्रफुल्लित
हो जाएंगे, भरोसा न कर
सकेंगे।
नहीं
गत,
आगत, अनागत
निर्वधि
जिसकी
उपलब्धि
वह
तथागत।
गया
गया,
आने वाला भी
छूटा। कोई पकड़
न रही। उसको
हम कहते हैं
तथागत की
अवस्था। गया
भी गया, आने
वाला भी न रहा;
जो है बस
वही बचा, वही
प्रकाशित हो
रहा है।
चंदा
की छांव पड़ी
सागर के मन
में
शायद
मुख देखा है
तुमने दर्पण
में।
अधरों
के ओर—छोर, टेसू
का पहरा
आंखों
में बदरी का
रंग हुआ गहरा
केसरिया
गीलापन, वन
में उपवन में
शायद
मुख धोया है
तुमने जल—कण
में।
और
तुम्हीं को
नहीं अहसास
होगा, जिस दिन
यह घड़ी घटती
है, तुम्हारे
आसपास के लोग
भी देखेंगे!
तुम एक अपूर्व
स्वच्छता से,
एक
कुंवारेपन से
भर गये! तुमसे
एक सौरभ उठ
रहा नया—नया!
धो
लिया है चेहरा
तुमने प्रभु
के चरणों में!
यह
अमर निशानी
किसकी है!
बाहर
से जी, जी से
बाहर तक
आनी
जानी किसकी
है!
दिल
से आंखों से
गालों तक
यह
तरल कहानी
किसकी है!
यह
अमर निशानी
किसकी है!
रोते—रोते
भी आंखें मुंद
जाएं
सूरत
दिख जाती है
मेरे
आंसू में मुसक
मिलाने
की
नादानी किसकी
है!
यह
अमर निशानी
किसकी है!
सूखी
अस्थि, रक्त
भी सूखा
सूखे
दृग के झरने
तो
भी जीवन हरा
कहो
मधुभरी जवानी
किसकी है!
यह
अमर निशानी
किसकी है!
रैन
अंधेरी, बीहड़
पथ है
यादें
थकीं अकेली
आंखें
मुंदी जाती
हैं
चरणों
की बानी किसकी
है!
यह
अमर निशानी
किसकी है!
जैसे
ही तुम शांत
हुए,
तुम पाओगे
वही आता है
श्वास में
भीतर, वही
जाता श्वास
में बाहर! वही
आता, वही
जाता। वही है,
वही था, वही
होगा! एक ही है!
हरि ओंम
तत्सत्!
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