दिनांक
8 जनवरी 1975;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
प्रश्नसार:
1—यह
मार्ग तो
शांति और
जागरूकता का
मार्ग है, फिर
आपके आस—पास
का हर व्यक्ति
और हर इतनी
अव्यवस्था
में क्यों है?
2—ओम् की
साधना करते
समय इसे मंत्र
की तरह दोहरायें
या एक आंतरिक
नाद की तरह
सुनें?
3—पहले आप
'हूं, के
मंत्र पर जोर
देते थे, अब
'ओम् पर
क्यों जोर दे
रहे हैं?
4—हमें
आपके पास कौन—सी
चीज ले आयी—शरीर
की आवश्यकता
या मन की
आकांक्षा?
5—क्या
योग और तंत्र
के बीच कोई
संश्लेषण
खोजना संभव है?
6—आपके
सान्निध्य
में ऊर्जा की
लहरों का
संप्रेषण और
हृदय—द्वार के
खुलने का
अनुभव—यह कैसे
घटता है? और
इसे बारंबार
कैसे घटने
दिया जाये?
पहला
प्रश्न:
यह
मार्ग तो जान
पडता है शांति
और जागरूकता
की ओर जाता
हुआ। लेकिन आपके
आस—पास का हर
व्यक्ति और हर
चीज इतनी अव्यवस्थित
है? अव्यवस्था में
क्यों है?
क्योंकि मैं एक
अव्यवस्था
हूं। और केवल
अव्यवस्था से
ही
सुव्यवस्था
जन्म लेती है; और कोई
मार्ग नहीं है?
तुम पुराने,
बहुत
पुराने, प्राचीन
भवनों की
भांति हो, तुम्हे
नया नहीं किया
जा सकता। लाखों
जन्मों से तुम
यही हो। पहले
तो तुम्हे पूर्णतया
मिटा देना
होता है, और
केवल तभी तुम
पुनर्निर्मित
हो सकते हो।
जीणोंद्धार
संभव है, लेकिन वह
बहुत समय तक
काम न देगा।
वह केवल सतह को
सज़ाना भर ही
होगा।
तुम्हारी गहन
बुनियादी
तहों में तुम
पुराने ही बने
रहोगे, और
सारा ढांचा
सदा अस्थिर ही
बना रहेगा। वह
किसी भी दिन
गिर सकता है।
नयी
बुनियादों की
जरूरत होती
है। हर चीज
नयी ही होनी
चाहिए।
तुम्हें सपूर्णतया
पुन र्जन्म
लेना होता है;
अन्यथा यह
एक बाह्य रूप
बदलना ही
होगा। तुम बाहर
से रंग दिये
जा सकते हो, लेकिन भीतर
को रंगने का
कोई उपाय नही।
भीतर वैसा ही
रहेगा—वही
पुरानी सडी
हुई चीज।
एक
गैर—सातत्य
की आवश्यकता
होती है।
तुम्हारे
सातत्य को बना
नहीं रहने
दिया जाना
चाहिए। एक
अंतराल की
आवश्यकता है।
पुराना तो बस
मर जाता है। और
उसमें से—उस
मृत्यु में से
बाहर आता है
नया। और एक
अंतराल होता
है नये और
पुराने के बीच,
अन्यथा
पुराना
निरंतर बना रह
सकता है। सारे
परिवर्तन
वस्तुत
पुराने को
बचाने के लिए
ही होते है, और मैं कोई
रूपांतरकार
नहीं हू। और
तुम्हारे लिए
अव्यवस्था ही
बनी रहेगी अगर
तुम प्रतिरोध
करते हो तो।
तब यह लंबा
समय लेती है।
यदि
तुम इसे घटित
होने दो, तो बात एक
क्षण में भी
घट सकती है।
यदि तुम इसे घटने
दो, तो
पुराना मिट
जाता है और
नयी स्व—सत्ता
आ जाती है
अस्तित्व
में। वह नया
अस्तित्व
ईश्वरीय होगा
क्योंकि वह
अतीत में से
नही आया होगा;
वह समय, काल
में से नहीं
आया होगा। वह
समय शून्य
होगा—कालातीत।
वह तुममें से
नहीं आयेगा; तुम उसके
जनक नहीं
होओगे। यह
अकस्मात ही
आसमान से फूट
पड़ेगा।
इसीलिए
बुद्ध जोर
देते है कि यह
सदा आता है शून्य
से। तुम कुछ
हो—यही
है दुख।
वस्तुत: तुम
हो क्या? मात्र
अतीत ही तो।
तुम संचित
किये चले जाते
हो अतीत को
इसीलिए तुम
खंडहरों की
भांति बन गये
हो—बहुत
प्राचीन
खंडहर। जरा
बात को देखो
और पुराने को
बनाये रखने की
कोशिश मत करो।
गिरा दो उसे।
इसीलिए
मेरे चारों ओर
सदा
अव्यवस्था ही
बनी रहने वाली
है क्योंकि
मैं लगातार
मिटाये जा रहा
हूं। मैं
विध्वंसात्मक
हूं क्योंकि
वही एकमात्र तरीका
है सृजनात्मक
होने का। मैं
हूं मृत्यु की
भांति
क्योंकि केवल
तभी तुम मेरे
द्वारा
पुनर्जीवित
हो सकते हो।
यह बात सही है—अव्यवस्था
तो है। यह
हमेशा बनी
रहेगी
क्योंकि नये
लोग आ रहे होंगे।
तुम मेरे आस—पास
ठहरी हुई व्यवस्था
कभी न पाओगे।
नये लोग आ
जायेंगे और
मैं उन्हें
मिटाता रहूंगा।
अव्यवस्था
तुम्हारे लिए
समाप्त हो
सकती है व्यक्तिगत
तौर पर। यदि
तुम मुझे
तुम्हें
संपूर्णतया
खत्म करने दो, तो
तुम्हारे लिए
अव्यवस्था
तिरोहित हो
जायेगी। तुम
बन जाओगे
सुव्यवस्था, एक आंतरिक
समस्वरता, एक
गहन व्यवस्था।
तुम्हारे लिए
तिरोहित हो
जायेगी
अव्यवस्था।
आस—पास तो यह
जारी रहेगी
क्योंकि नये
लोग आते होंगे।
ऐसा ही होता
है; यह इसी
तरह होता रहा
है सदा से।
यह
पहली बार नहीं
हुआ 'कि तुमने
मुझसे ऐसा
पूछा है। यही
पूछा गया था
बुद्ध से; यही
पूछा गया था लाओत्सु
से; यही
पूछा जायेगा
बार—बार
क्योंकि जब भी
सद्गुरु होता
है तो तुम्हारा
पुनर्जन्म हो
इसके लिए वह
मृत्यु का एक
विधि की भांति
प्रयोग करता
है। तुम्हें
मरना ही होगा;
केवल तभी
तुम
पुनर्जीवित
हो सकते हो।
अव्यवस्था
सुंदर है
क्योंकि यह
गर्भ है। और
तुम्हारी तथाकथित
व्यवस्था
असुंदर है
क्योंकि वह
बचाव करती है
केवल मृत का।
मृत्यु सुंदर
होती है; मृतक
सुंदर नहीं
होता; यह
भेद ध्यान में
रखना। मृत्यु
सुंदर है, मैं
फिर से कहता
हूं क्योंकि
मृत्यु एक
जीवंत शक्ति
है। मृतक
सुंदर नहीं
क्योंकि मृत
वह स्थान है
जहां से जीवन
जा ही चुका है।
वह तो मात्र
खंडहर है। मृत
व्यक्ति मत
बनो; अतीत
को मत ढोते
रहो। गिरा दो
उसे, और
गुजर जाओ
मृत्यु में से।
तुम भयभीत हो
मृत्यु से, लेकिन फिर
भी तुम मृतवत
होने से भयभीत
नहीं हो।
जीसस
ने दो मछुओं
को पुकारा, पीछे
चले आने को
कहा। और जिस
घड़ी वे शहर
छोड़ रहे थे एक
आदमी दौडता
हुआ आ पहुंचा।
वह मछुओं से
बोला, 'कहां
जा रहे हो तुम?
तुम्हारे
पिता मर गये
है। वापस चलो।’
उन्होंने
जीसस से पूछा,
'हमें कुछ
दिनों के लिए
रुकने दें, ताकि हम जा
सकें और जो
कुछ करना है
कर सकें।
हमारे पिता मर
गये हैं और
अंतिम
संस्कार करना
है।’ जीसस
बोले, 'मृतवत
लोगों को ही
संस्कार करने
दो उनके मृतक का।
तुम चिंता में
मत पड़ो। तुम
मेरे पीछे चले
आओ।’ क्या
कहते हैं जीसस?
वे कह रहे
हैं कि सारा
शहर मुरदा है,
तो उन्हें
ही ध्यान रखने
दो—मुरदों को
ही अंतिम—क्रिया
करने दो मुरदे
की। तुम मेरे
पीछे चले आओ।
यदि
तुम अतीत में
जीते हो तो
तुम मुरदा
होते हो। तुम
कोई जीवंत
शक्ति नहीं
होते। और केवल
एक ही तरीका
है जीवंत होने
का,
और वह है
अतीत के प्रति
मरना, मृत
के प्रति मरना।
और ऐसा अंतिम
रूप से नहीं
घटने वाला। एक
बार तुम रहस्य
जान लेते हो, तो हर क्षण
तुम्हें अतीत
के प्रति मरना
होता है, जिससे
कि तुम पर कोई
धूल न जमे। तब
मृत्यु बन
जाती है एक
सतत
पुनर्जीवन, एक सतत
पुनर्जन्म।
हमेशा
ध्यान रखना—अतीत
के प्रति मरना।
जो कुछ भी
गुजर गया, वह
गुजर गया है।
वह अब नहीं
रहा वह कहीं
नहीं रहा। वह
केवल
तुम्हारी
स्मृति से
चिपका हुआ है।
वह केवल
तुम्हारे मन
में है। मन
जमा रखने वाला
है उस सबको जो
मृत है।
इसीलिए मन
जीवन के
प्रवाहित
होने में
एकमात्र बाधा
है। मृत ढांचे
इकट्ठे होते
रहते है
प्रवाह के चारों
ओर; वह बन
जाती है जमी
हुई बाधा।
मैं
यहां जो कुछ
कर रहा हूं वह
इतना ही, कि
तुम्हें मरने
की कला सिखा
रहा हूं।
क्योंकि वह
पुनर्जन्म का
पहला पहलू है।
मृत्यु सुंदर
है क्योंकि
जीवन उसमें से
आता है—ओस
कणों की भांति,
एकदम ताजा।
इसलिए
अव्यवस्था का
उपयोग हो रहा
है, और तुम
इसका अनुभव
मेरे आस—पास
करोगे। और ऐसा
हमेशा ही
रहेगा
क्योंकि कहीं
न कहीं मैं
किसी को मिटा
रहा होता हूं।
हजारों
तरीकों से—जो
तुम्हें
ज्ञात है और
जो तुम्हें
जात नहीं हैं—मैं
तुम्हें मिटा
रहा हूं। मैं
तुम्हारी
मृत्यु में से
तुम्हें
झकझोर रहा हूं
तुम्हारे
अतीत में से तुम्हें
झकझोर रहा हूं
तुम्हें
ज्यादा जागरूक
और ज्यादा
जीवंत बनाने
की कोशिश कर
रहा हूं।
पुराने
प्राचीन
शास्त्रों
में ऐसा कहा
जाता है कि
गुरु मृत्यु
है। वे जानते
थे कि गुरु को
मृत्यु ही
होना है, क्योंकि
उसी मृत्यु
में से चली
आती है क्रांति,
उत्क्रांति,
रूपांतरण, अतिक्रमण।
मृत्यु एक
कीमिया है।
प्रकृति इसका
प्रयोग करती
है। जब कोई
बहुत वृद्ध और
पुराना हो
जाता है तो प्रकृति
उसे मार देती
है।
तुम
भयभीत हो
क्योंकि तुम
अतीत से
चिपकते हो।
अन्यथा तुम
प्रसन्न हो
जाओगे और
मृत्यु का स्वागत
करोगे। तुम
प्रकृति के
प्रति
अनुगृहीत
अनुभव करोगे क्योंकि
प्रकृति सदा
मार देती है
पुराने को, अतीत
को, मृत को,
और
तुम्हारा
जीवन एक नयी
देह में
प्रवेश कर जाता
है।
एक
वृद्ध
व्यक्ति एक
नवजात शिशु बन
जाता है—अतीत
से बिलकुल
अछूता।
इसीलिए
प्रकृति
तुम्हारी मदद
करती है अतीत
को याद न रखने
में। तुम्हें
बीते हुए को न
याद रखने देने
के लिए प्रकृति
तरीके
इस्तेमाल
करती है; वरना
जिस क्षण तुम
जन्मते हो उसी
क्षण बूढ़े हो
जाओगे। बूढ़ा
आदमी मरता है
और जन्म ले
लेता है नये
बच्चे के रूप
में। इसलिए
यदि वह अतीत
याद रख सकता
हो तो वह पहले
से ही बूढ़ा
होगा। सारा
प्रयोजन ही खो
जायेगा
प्रकृति
तुम्हारे लिए
अतीत को बंद
कर देती है, अत:
प्रत्येक
जन्म नया जन्म
जान पड़ता है।
लेकिन तुम फिर
संचित करने
लगते हो। जब
यह बहुत
ज्यादा हो
जाता है, प्रकृति
तुम्हें फिर
मार डालेगी।
कोई व्यक्ति
अपने पिछले
जन्मों को जानने
में सक्षम
होता है केवल
तभी, जब वह
अतीत के प्रति
मर चुका हो।
तब प्रकृति
द्वार खोल
देती है। तब
प्रकृति
जानती है कि
अब उसे तुमसे
छुपाने की
जरूरत न रही।
तुम सतत
नवीनता को, जीवन की
ताजगी को
उपलब्ध हो
चुके। अब तुम
जानते हो कि
कैसे मरा जाये।
प्रकृति को
तुम्हें
मारने की
आवश्यकता
नहीं।
एक
बार तुम जान
लेते हो कि
तुम अतीत नहीं
हो,
तुम भविष्य
नहीं हो बल्कि
चीजों की
सच्ची वर्तमानता
हो, तब सारी
प्रकृति अपने
रहस्यद्वारों
को खोल देती
है। तुम्हारा
संपूर्ण अतीत,
बहुत—बहुत
ढंग से जीये
हुए लाखों
जन्म, सब
उद्घाटित हो
जाते हैं। अब
यह अतीत
उद्घाटित हो
सकता है
क्योंकि तुम इसके
द्वारा बोझिल
नहीं होओगे।
अब कोई अतीत
तुम्हें बोझ
नहीं दे सकता।
और अगर तुमने
निरंतर नये
बने रहने की
कीमिया जान ली
है तो यह
तुम्हारा
अंतिम जन्म
होगा, क्योंकि
तब तुम्हें
मारने की और
पुनर्जन्म लेने
में तुम्हें
मदद देने की
कोई आवश्यकता
ही न रही। कोई
आवश्यकता
नहीं। तुम
स्वयं ही यह
कर रहे हो हर
क्षण।
बुद्ध
के मिटने और
फिर कभी वापस
न लौटने का, बुद्ध
पुरुष के फिर
कभी जन्म न
लेने का यही
है अर्थ; यही
है रहस्य। ऐसा
होता है
क्योंकि अब वह
मृत्यु को
जानता है, और
वह निरंतर
इसका उपयोग
करता है। हर
क्षण जो कुछ
गुजर गया, वह
गुजर गया और
मर चुका। और
वह उससे मुक्त
रहता है। हर
क्षण वह मरता
है अतीत के
प्रति और जन्म
लेता है पुन:।
यह बात एक
प्रवाह बन
जाती है; नदी
का ऐसा प्रवाह,
जो हर क्षण
ताजा जीवन पा
रहा है। तब
प्रकृति को
कोई आवश्यकता
नहीं रहती
सत्तर वर्षों की
मूढ़ता, सड़ांध
एकत्र करने की
और आदमी की इस
जर्जरता को
नष्ट करने की,
उसे फिर
जन्म लेने में
सहायता देने
की और उसे फिर
से उसी चक्र
में डालने की
कोई आवश्यकता
नहीं रहती। वह
फिर वही कूड़ा—करकट
एकत्र करेगा।
यह
एक दुश्चक्र
है। हिंदुओं
ने इसे कहा है 'संसार'। संसार का
अर्थ है चक्र।
वह चक्र फिर—फिर
उसी मार्ग पर
घूमता जाता है।
बुद्ध पुरुष
वही होता है
जो बाहर गिर
चुका है, बाहर
हो चुका है उस
चक्र से। वह
कहता है, ' अब
और नहीं।
प्रकृति को
मुझे मारने की
कोई आवश्यकता
नहीं क्योंकि
अब मैं हर
क्षण मारता
हूं स्वयं को।’
और
यदि तुम ताजे
होते हो, तो
प्रकृति को
तुम्हारे लिए
मृत्यु का
उपयोग करने की
आवश्यकता
नहीं होती।
लेकिन तब जन्म
पाने की भी
कोई भी
आवश्यकता नहीं
होती। तुम
निरंतर जन्म
का उपयोग कर
रहे हो। हर
क्षण तुम अतीत
के प्रति मरते
हो और वर्तमान
में जन्म लेते
हो। इसीलिए
तुम बुद्ध के
पास एक
सूक्ष्म
ताजगी का
अनुभव पाते हो,
जैसे कि
उन्होंने
बिलकुल अभी
खान किया हो।
तुम उनके निकट
आते हो और
तुम्हें एक
सुवास अनुभव
होती है—ताजेपन
की सुवास। तुम
उन्हीं बुद्ध
को फिर से
नहीं मिल सकते।
हर क्षण वे
नये होते हैं।
हिंदू
बहुत समझदार
हैं क्योंकि
हजारों वर्षों
से बुद्धों, जिनों—जीवन
के विजेताओं,
संबोधि को
उपलब्ध
व्यक्तियों, जाग्रत
प्रज्ञा
पुरुषों का
साक्षात्कार
करने के कारण
वे बहुत सारे
सत्य जान चुके
हैं। उनमें से
एक सत्य तुम
हर कहीं
देखोगे। कोई
बुद्ध वृद्ध
के रूप में
चित्रित नहीं
किया गया, कोई
महावीर
चित्रित नहीं
किया गया
वृद्ध के रूप
में। उनकी
वृद्धावस्था
की कोई मूर्ति
या तस्वीर अस्तित्व
नहीं रखती।
कृष्ण, राम,
बुद्ध, महावीर,
उनमें से
कोई वृद्ध की
भांति
चित्रित नहीं
हुआ।
ऐसा
नहीं है कि वे
कभी वृद्ध
नहीं हुए। वे
हुए वृद्ध।
बुद्ध हुए ही
थे वृद्ध जब
वे अस्सी वर्ष
के हुए। वे
उतने ही वृद्ध
थे जितना कि
कोई भी अस्सी
वर्ष का
व्यक्ति होगा।
लेकिन उनका
चित्रण वृद्ध
के रूप में
नहीं किया गया
है। कारण आंतरिक
है। क्योंकि
जब कभी कोई
उनके निकट
आयेगा, वह
उन्हें युवा
और ताजा ही
पायेगा। तो
पुरानापन
मात्र शरीर
में था, उनमें
नहीं था। और
मुझे तुम्हें
मिटाना पड़ता
है क्योंकि
तुम्हारा
शरीर युवा हो
सकता है, लेकिन
तुम्हारा आंतरिक
अचेतन बहुत—बहुत
पुराना और
प्राचीन है।
यह एक खंडहर
है—पर्सेपोलिस
के ग्रीक
खंडहरों और कई
दूसरे
खंडहरों की
भांति ही।
तुम्हारे
भीतर अचेतन का
एक खंडहर है।
इसे मिटाना ही
है। और मुझे
तुम्हारे लिए
एक अग्रि कुंड, एक
अग्रि, एक
मृत्यु होना
है। केवल इसी
भांति मैं मदद
कर सकता हूं
और तुम्हारे
भीतर एक
सुसंगति, एक
व्यवस्था ला
सकता हूं। और
मैं तुम पर
किसी सुव्यवस्था
को लादने का
कार्य नहीं कर
रहा हूं
क्योंकि वह
बात मदद न
करेगी। कोई
व्यवस्था जो
बाहर से थोपी
जाती है, मात्र
एक आधार होगी
पुराने—प्राचीन
खंडहर के लिए।
यह मदद न देगी।
मैं
आंतरिक
सुव्यवस्था
में विश्वास
करता हूं। वह
घटता है
तुम्हारी
अपनी
जागरूकता और
पुनर्जीवन के
साथ। वह आता
है भीतर से और
फैलता है बाहर
की ओर। एक फूल
की भांति यह
खिलता है और
पंखुडियां
फैलती है बाहर, केंद्र
से बाह्य सतह
की ओर। केवल
वह
सुव्यवस्था
ही वास्तविक
और सुंदर होती
है जो
तुम्हारे
भीतर खिलती है
और फैल जाती है
तुम्हारे सब
ओर। यदि
व्यवस्था, संगति
बाहर से लागू
की जाती है, यदि 'यह
करो और वह न
करो', का
अनुशासन
तुम्हें दे
दिया जाता है
और तुम कैदी
होने को बाध्य
होते हो, तो
यह बात मदद न
देगी क्योंकि
यह तुम्हें
बदलेगी नहीं।
बाहर
से कुछ नहीं
बदला जा सकता
है। क्रांति
केवल एक ही
होती है, और वह
वही होती है
जो भीतर से
आती है। लेकिन
इससे पहले कि
वह घटे, तुम्हें
पूरी तरह से
मिटना होगा।
केवल
तुम्हारी
कब्र पर ही
कुछ नया जन्म
लेगा। इसीलिए
मेरे आसपास एक
अव्यवस्था है—क्योंकि
मैं हूं एक
अव्यवस्था।
और मैं
अव्यवस्था का
एक विधि की
भांति उपयोग कर
रहा हूं।
दूसरा
प्रश्न:
ओम की
साधना करते
समय इसे मंत्र
की तरह
दोहराना अधिक
अच्छा होता है
या इसे आंतरिक
नाद की भांति
सुनने का
प्रयत्न करना
अच्छा है?
ओम— का
मंत्र तीन
अवस्थाओं में
करना होता है।
पहले तुम्हें
इसे बहुत जोर
से दोहराना
चाहिए। इसका
अर्थ है यह
शरीर से आना
चाहिए। पहले
शरीर से आना
चाहिए
क्योंकि शरीर
ही है मुख्य
द्वार। और
शरीर को पहले
इसमें सराबोर
होने दो, डूबने
दो।
अत:
इसे जोर से
दोहराओ।
मंदिर में चले
जाओ या
तुम्हारे
कमरे में, या
वहां कहीं
जहां तुम
जितना चाहो
उतने जोर से
इसे दोहरा सको।
पूरे शरीर का
उपयोग करो इसे
दोहराने में;
अनुभव करो
जैसे कि
हजारों लोग
तुम्हें सुन
रहे है
माइक्रोफोन
के बिना। और
तुम्हें बहुत
प्रबल होना
पड़ता है ताकि
सारा शरीर कंप
पाये, इसके
साथ हिल जाये।
और कुछ महीनों
के लिए, लगभग
तीन महीनों के
लिए तुम्हें
किसी दूसरी चीज
की फिक्र नहीं
लेनी चाहिए।
पहली अवस्था
बहुत
महत्वपूर्ण
होती है क्योंकि
यह दे देती है बुनियाद।
जोर से जप करो,
जैसे
तुम्हारे
शरीर का
प्रत्येक अणु
यही चिल्ला
रहा है और इसी
का जप कर रहा
है।
तीन
महीनों के बाद
जब तुम अनुभव
करते हो कि तुम्हारा
शरीर
संपूर्णतया
आपूरित हो गया
है,
तब गहन तल
पर यह शारीरिक
कोशाणुओं में
प्रवेश कर
चुका होगा। और
जब तुम इसे
जोर से कहते
हो, तो यह
केवल मुंह से
ही नहीं आता; सिर से लेकर
पांव तक, सारा
शरीर इसे
दोहरा रहा
होता है। यह
घटता है। यदि
तुम प्रतिदिन
कम से कम एक
घंटा निरंतर
दोहराते हो
इसे, तो
तीन महीनों के
भीतर तुम
अनुभव करोगे
कि मुंह ही
नहीं दोहरा
रहा है इसे; सारा शरीर
ही दोहरा रहा
है। ऐसा घटता
है। ऐसा बहुत
बार घटा है।
यदि
तुम वस्तुत:
ईमानदारी से
करते हो ऐसा, प्रामाणिक
रूप से, और
तुम स्वयं को
धोखा नहीं दे
रहे होते, यदि
यह शिथिल नहीं
होता बल्कि सौ
डिग्री की
घटना होता है,
तब दूसरे भी
सुन सकते है।
वे अपने कान
लगा सकते हैं
तुम्हारे
पांव की ओर, और जब तुम
इसे जोर से
कहते हो, वे
इसे तुम्हारी
हड्डियों से
आता हुआ सुन
लेंगे, क्योंकि
सारा शरीर
आत्मसात कर
सकता है नाद
को और सारा
शरीर निर्मित
कर सकता है नाद
को। कोई
समस्या नहीं
इसमें।
तुम्हारा
मुंह तो एक
हिस्सा ही है
शरीर का, एक
विशिष्ट
हिस्सा, बस
इतना ही। यदि
तुम प्रयास
करो, तो
तुम्हारा
सारा शरीर इसे
दोहरा सकता है।
ऐसा
हुआ कि एक
हिंदू
संन्यासी, स्वामी
राम, बहुत
वर्षों से जोर
से जपते थे
राम—राम। एक
बार वे अपने
एक मित्र के
साथ हिमालय के
किसी गांव में
ठहरे हुए थे।
मित्र था
सुप्रसिद्ध
सिख लेखक
सरदार पूर्णसिंह।
आधी रात को
अकस्मात
पूर्णसिंह ने
सुना 'राम—राम—राम'
का जप। वहां
और कोई नहीं
था—केवल थे
स्वामी राम, और वह स्वयं।
वे दोनों सो
रहे थे अपने
बिस्तरों पर,
और गांव था
बड़ी दूर—लगभग
दो या तीन मील
दूर। कोई न था
वहां।
पूर्णसिंह
उठा और झोपड़े
के चारों ओर
घूम आया, लेकिन
कोई न था वहां।
और जितना
ज्यादा वह
स्वामी राम से
दूर गया, कम
और कम होता
गया नाद। जब
वह वापस लौटा,
तो नाद फिर
से ज्यादा
सुनाई दिया।
फिर वह ज्यादा
निकट आ गया
राम के जो
गहरी नींद सोये
थे। जिस क्षण
वह ज्यादा
निकट आया, नाद
और भी ऊंचा हो
गया। फिर उसने
राम के शरीर
के एकदम निकट
रख दिया कान।
सारा शरीर
प्रकम्पित हो
रहा था राम के 'नाद' से।
ऐसा
होता है।
तुम्हारा
सारा शरीर
आपूरित हो
सकता है। यह तीन
महीने या छह
महीने का पहला
चरण है, किंतु
तुम्हें
आपूरित होने
का अनुभव करना
चाहिए। और यह
आपूरण उसी
भांति है जैसे
तुमने भोजन किया
हो भूखे रहने
के बाद, और
तुम अनुभव
करते हो इसे
जब पेट भरा
हुआ संतुष्ट
होता है। शरीर
संतुष्ट किया
जाना चाहिए
पहले। और यदि
तुम जारी रखते
हो इसे, तो
यह घट सकता है
तीन महीने या
छह महीने में।
तीन महीने एक
औसत सीमा है।
कुछ लोगों के
साथ ऐसा पहले
भी घटित हो
जाता है, कुछ
के साथ यह बात
थोडा ज्यादा
समय लेती है।
यदि
यह सारे शरीर
को आपूरित
करता है, तो
कामवासना
पूर्णतया
तिरोहित हो
जायेगी। सारा शरीर
इतना संतोषमय
होता है, यह
इतना शांत हो
जाता है
प्रदोलित नाद
के साथ, कि
ऊर्जा को बाहर
फेंकने की
आवश्यकता ही
नहीं रहती।
उसे विमुक्त
करने की जरूरत
नहीं रहती, और तुम बहुत—बहुत
शक्तिशाली
अनुभव करोगे।
लेकिन इस
शक्ति का
उपयोग मत करना।
क्योंकि तुम
इसका उपयोग कर
सकते हो, और
तमाम उपयोग
दुरुपयोग ही
सिद्ध होगा।
क्योंकि यह तो
एक पहला चरण
ही होता है।
ऊर्जा
को एकत्रित
होना ही होता
है जिससे तुम
दूसरा कदम उठा
सकी। तुम कर
सकते हो इसका
प्रयोग।
क्योंकि
शक्ति इतनी
ज्यादा होगी
कि तुम बहुत चीजें
करने योग्य हो
जाओगे। तुम
कुछ कह सकते
हो और वह सच हो
जायेगा। इस
अवस्था में
तुम्हारे लिए
सक्रिय होना
निषिद्ध है।
तुम्हें कुछ
नहीं कहना
चाहिए।
तुम्हें
क्रोध में
किसी से नहीं
कहना चाहिए, 'मर
जाओ।’ क्योंकि
यह घट सकता है।
तुम्हारा नाद
इतना
शक्तिशाली बन
सकता है कि जब
यह जुड़ जाता
है तुम्हारी
संपूर्ण देह—ऊर्जा
सहित तो यह
कहा जाता है
कि इस अवस्था
में कोई
नकारात्मक
बात नहीं कही
जानी चाहिए—अनजाने
में भी नहीं।
कोई
नकारात्यक
बात नहीं कहनी
चाहिए।
तुम
हैरान होओगे, पर
फिर भी तुमसे
कह देना उचित
होगा। हम इस
घर के पिछवाड़े
एक छत बना रहे
थे, और वह गिर
पड़ी। वह गिर
पडी तुममें से
बहुतों के
कारण। तुम
ध्यान में
जबरदस्त
प्रयास कर रहे
हो और कम से कम
बीस आदमी ऐसे
थे जो सोच रहे
थे कि वह गिर जायेगी।
उन्होंने मदद
की। उसे गिरने
में मदद की
उन्होंने। कम
से कम बीस
व्यक्ति
लगातार सोच
रहे थे कि यह गिर
जायेगी। जब वे
थे वहां, वे
उसकी ओर देखते
और वे सोचते
कि यह गिर
जायेगी, क्योंकि
उसका आकार ऐसा
था कि उनके
हिसाब से यह
बात असंभव थी
कि वह बनी रह
सकती।
वह
गिर गयी। और
जब वह गिरी, उन्होंने
सोचा, 'निस्संदेह,
हम सही थे।’
यह है दुष्चक्र।
तुम्हीं हो
कारण और तुम
सोचते हो तुम
सही थे। और
तुम सब बहुत
प्रयास कर रहे
हो ध्यान में।
जो कुछ तुम
सोचते हो, घट
सकता है। जब
तुम ध्यान कर
रहे हो तो
नकारात्मक
विचार पर कभी
मत विचारो।
उसका सच हो
जाना संभव है
क्योंकि
तुम्हें कुछ
शक्ति
प्राप्त है।
और फिर मुझे
कुछ लेना—देना
नहीं कि छत
गिर गयी। इसके
गिरने के कारण
तुममें से
बहुतों ने
शक्ति की एक निश्चित
मात्रा खो दी
है, और इसी
बात का ज्यादा
ध्यान है मुझे।
तुम्हारी शीत:
प्रयुक्त हुए
बिना कुछ नहीं
घटता।
जो
कह रहे थे कि
यह गिर जायेगी
उन्हीं के
कारण वह छत
गिर गयी। और
वे स्वयं देख
सकते हैं। कुछ
दिनों तक वे
बहुत अशक्त, उदास,
निराश रहे।
उन्होंने
अपनी शक्ति खो
दी। शायद वे
सोच रहे होंगे
कि वे उदास थे
क्योंकि छत
गिर गयी है, पर नहीं। वे
उदास थे
क्योंकि
उन्होंने
शक्ति की एक
निश्चित
मात्रा खो दी।
और जीवन है एक
ऊर्जात्मक
घटना।
जब
तुम ध्यान
नहीं करते, तो
कोई ज्यादा मुश्किल
नहीं होती।
तुम जो चाहो
कह सकते हो
क्योंकि तुम
अशक्त होते हो।
पर जब तुम
ध्यान करते हो,
तुम्हें
जागरूक होना
चाहिए उस एक—एक
शब्द के प्रति
जो तुम कहते
हो, क्योंकि
हर एक शब्द
कुछ निर्मित
कर सकता है तुम्हारे
चारों ओर।
पहला
चरण है सारे
शरीर को
आपूरित करने
का जिससे कि
सारा शरीर एक
नाद—शक्ति बन
जाता है। जब
तुम संतुष्ट
अनुभव करते हो, तब
दूसरा चरण
बढ़ाना। और कभी
प्रयोग मत
करना इस शक्ति
का क्योंकि यह
शक्ति
एकत्रित करनी
होती है और
प्रयुक्त करनी
होती है दूसरे
चरण के लिए।
दूसरा
चरण है अपने
मुंह को बंद
करो और दोहराओ
और मन ही मन जप
करो ओम् का—पहले
शारीरिक रूप
से और फिर
मानसिक रूप से।
अब शरीर का
उपयोग बिलकुल
नहीं होना
चाहिए। गला, जीभ,
होंठ, हर
चीज बंद रहनी
चाहिए। सारा
शरीर बंद होना
चाहिए और जप
होना चाहिए केवल
मन में ही।
लेकिन जितना
संभव हो उतना
जोर से ही।
वही प्रबलता
रहे जैसी तुम
शरीर के साथ
प्रयोग कर रहे
थे। अब मन को
जुड्ने दो
इसके साथ। फिर
तीन महीने के
लिए अब मन को
संपृक्त होने
दो इस नाद से।
उतना
ही समय मन
लेगा जितना
शरीर द्वारा
लिया जाता रहा।
यदि तुम शरीर
सहित एक महीने
के भीतर आपूरण
प्राप्त कर
सकते हो, तो
तुम मन सहित
भी एक महीने
के भीतर
प्राप्त कर
लोगे। यदि तुम
शरीर द्वारा
सात महीनों
में प्राप्त कर
सकते हो, तो
सात महीने ही
लगेंगे मन
द्वारा, क्योंकि
शरीर और मन
ठीक—ठीक दो
नहीं हैं
बल्कि वे हैं
एक
मनोशारीरिक, साइकोसोमैटिक
घटना। एक भाग
है शरीर, दूसरा
भाग है मन।
शरीर है प्रकट
मन, मन है
अप्रकट शरीर।
अत:
दूसरे हिस्से
को,
तुम्हारे
अस्तित्व के
सूक्ष्म
हिस्से को आपूरित
होने दो। भीतर
ओम् को जोर से
दोहराओ। जब मन
परिपूर्ण
होता है, और
भी शक्ति
खुलती है
तुम्हारे
भीतर। पहली
अवस्था के साथ
कामवासना
तिरोहित हो
जायेगी।
दूसरी के साथ,
प्रेम
तिरोहित हो
जायेगा। वह
प्रेम जो तुम
जानते हो। वह
प्रेम नहीं
जिसे बुद्ध
जानते हैं, सिर्फ
तुम्हारा
प्रेम
तिरोहित हो
जायेगा।
कामवासना
दैहिक अंश है
प्रेम का और
प्रेम है कामवासना
का मानसिक अंश।
जब प्रेम
तिरोहित होता
है,
तब और भी
खतरा है। तुम
बहुत—बहुत
घातक होते हो
दूसरों के
प्रति। यदि
तुम कुछ कहते
तो वह तुरंत
घट जायेगा।
इसीलिए दूसरी
अवस्था के लिए
समग्र मौन
लक्षित किया
गया है। जब
तुम दूसरी
अवस्था में
होते हो, संपूर्णतया
मौन हो जाओ।
और
प्रवृत्ति
होगी शक्ति का
प्रयोग करने
की,
क्योंकि
तुम बहुत
जिज्ञासु होओगे
इसके प्रति।
बचकाने भाव से
भरे हुए होओगे।
और तुम्हारे
पास इतनी
ज्यादा ऊर्जा
होगी कि तुम
जानना चाहोगे
कि क्या घट
सकता है। पर
इसका उपयोग मत
करना, और
बाल—उत्साह मत
बरतना, क्योंकि
तीसरा सोपान
अभी भी बाकी
है और ऊर्जा की
आवश्यकता है।
इसलिए
कामवासना
तिरोहित हो
जाती है।
क्योंकि
ऊर्जा को
संचित करना
होता है।
प्रेम
तिरोहित हो
जाता है, क्योंकि
ऊर्जा को
संचित करना
होता है।
अत:
तीसरा सोपान
मन को आपूरित
अनुभव करने के
बाद आता है।
और तुम इसे
जान लोगे जब
यह घटता है; पूछने
की जरूरत नहीं
है कि कोई इसे
कैसे अनुभव
करेगा? यह
है भोजन करने
की भांति। तुम
अनुभव करते हो
कि ' अब
पर्याप्त है।’
मन अनुभव कर
लेगा जब यह
पर्याप्त
होता है। तब
तुम तीसरे चरण
का प्रारंभ कर
सकते हो।
तीसरे में, न तो शरीर का
और न ही मन का
उपयोग करना
होता है। जैसे
शरीर को बंद
किया, अब
तुम मन को बंद
कर देते हो।
और
यह आसान होता
है। जब तुम
तीन या चार
महीनों से जप
कर रहे होते
हो,
तो यह बहुत
आसान होता है।
तुम शरीर को
ही बंद कर दो, और तुम
सुनोगे
तुम्हारे
अपने अंतरतम
से तुम तक आते
हुए उस नाद को।
ओम् होगा वहां
जैसे कि कोई
और जप कर रहा
है और तुम
मात्र सुनने
वाले हो। यह
होता है तीसरा
चरण। और यह
तीसरा चरण
तुम्हारे
समग्र
अस्तित्व को बदल
देगा। सारी
बाधाएं गिर
जायेंगी और
सारी अड़चनें
तिरोहित हो
जायेंगी। अत:
यह प्रक्रिया
औसत रूप से
लगभग नौ महीने
ले सकती है
यदि तुम
तुम्हारी
समग्र ऊर्जा
इसमें डाल देते
हो तो।
तीसरा
प्रश्न:
ओम्
की साधना करते
हुए इसे मंत्र
की भांति दोहराना
बेहतर है या अंतर्नाद
की भांति इसे सुनने
का प्रयत्न करना
बेहतर है?
बिलकुल
अभी तो तुम
इसे अंतर्नाद
की भांति नहीं
सुन सकते।
अंतर्नाद है
वहां, लेकिन
बहुत मौन है, बहुत
सूक्ष्म, और
तुम्हारे पास
वह कान नहीं
है इसे सुनने
के लिए। कान
को विकसित
करना होता है।
जब शरीर
आपूरित होता
है, और मन
आपूरित होता
है, केवल
तभी तुम्हारे
पास होगा वह
कान—अर्थात
तीसरा कान। तब
तुम सुन सकते
हो उस नाद को जो
सदा वहां होता
है।
यह
सर्वव्यापी
नाद है। यह
अंदर और बाहर
है। अपना कान
वृक्ष से लगा
दो और यह वहां
होता है; अपना
कान चट्टान से
लगा दो और यह
वहां होता है।
लेकिन पहले
तुम्हारे
शरीर और मन का
अतिक्रमण हो
जाना चाहिए और
तुम्हें
अधिकाधिक
ऊर्जा प्राप्त
कर लेनी चाहिए।
सूक्ष्म को
सुन पाने के
लिए विराट
ऊर्जा की आवश्यकता
पड़ेगी।
पहले
चरण के साथ
कामवासना
तिरोहित हो
जाती है, दूसरे
चरण के साथ
प्रेम
तिरोहित हो
जाता है और
तीसरे चरण के
साथ हर वह चीज
जिसे तुम
जानते हो, तिरोहित
हो जाती है।
यह ऐसा होता
है जैसे कि
तुम बचे ही
नहीं, मृत
हो, जा
चुके हो, समाप्त
हो गये हो। यह
एक मृत्यु की
घटना होती है।
ऐसा घटता है
यदि तुम पलायन
नहीं
करो
और घबड़ाओ
नहीं।
क्योंकि
तुममें हर
प्रवृत्ति
उठेगी पलायन
करने की।
क्योंकि यह
अगाध शून्य की
भांति लगता है, और
तुम इसमें गिर
रहे हो। और वह
अथाह—अतल है
जिसका कोई अंत
नहीं जान
पड़ता। तुम
अतल—अथाह में
पड़ते हुए एक
पंख की भांति
बन जाते
हो—गिर रहे हो
और गिर रहे हो,
और इसका कोई
अंत आता नहीं
जान पड़ता।
तुम
घबड़ा जाओगे।
तुम इससे भाग
जाना चाहोगे।
यदि तुम इससे
भागते हो, तो
सारा प्रयास
ही व्यर्थ हो
जायेगा। और यह
भागना ऐसा होगा
कि तुम फिर
ओम् के मंत्र
का जप करने
लगोगे। तुम
वहां से भागने
लगोगे तो पहली
बात जो तुम
करोगे वह यही
होगी—ओम् का
जप। क्योंकि
यदि तुम जप
करते हो तो
तुम मन में ही
लौट आते हो।
यदि तुम जोर
से जप करते हो
तुम शरीर में
लौट आते हो।
तो
जब कोई ओम् का
नाद सुनना शुरू
कर देता है तो
उसे जप नहीं
करना चाहिए, क्योंकि
वह जप करना एक
पलायन हो
जायेगा। मंत्र
का जप करना
होता है और
फिर उसे गिरा
देना होता है।
मंत्र केवल
तभी संपूर्ण
होता है जब
तुम उसे गिरा
सको। यदि तुम
उसका जप किये
ही जाते हो, तो तुम एक
आश्रय के रूप
में उससे
चिपके रहोगे।
तब जब कभी तुम
भयभीत होओगे
तुम फिर वापस
आओगे और इसका
जप करोगे।
इसीलिए
मैं कहता हूं
इसका जप इतनी
गहराई से करो
कि शरीर
आपूरित हो
जाये। तब फिर
से शरीर में इसका
जप करने की
कोई आवश्यकता
न रहेगी। यदि
मन आपूरित हो
जाता है, तो
इसका जप करने
की कोई
आवश्यकता नहीं
रहती। यदि यह
परिपूर्णता
से उमड़ रहा हो,
तो कोई जगह
नहीं बचती
इसमें ज्यादा
जप उड़ेलने की।
तो तुम पलायन
नहीं कर सकते।
केवल तभी उस अनाहत
नाद को सुनना
संभव होता है।
चौथा
प्रश्न:
एक
और मित्र ने
पूछा है— 'इससे
पहले आप 'हू'
के मंत्र के
बारे में बात
किया करते थे।
तो अब आप 'ओम्'
के मंत्र पर
क्यों जोर दे
रहे हैं?'
मैं जोर
नहीं दे रहा
हूं। मैं
मात्र तुम्हें
समझा रहा हूं
पतंजलि के
बारे में।
मेरा जोर तो 'हू
पर ही है। और
जो कुछ मैं
ओम्' को
लेकर कह रहा
हूं वही
प्रयुक्त
होता है 'हू
पर। लेकिन
मेरा जोर 'हू
पर ही है।
जैसा
कि मैंने
तुमसे कहा, पतंजलि
हुए पांच हजार
वर्ष पहले।
लोग सीधे—सरल
थे, बहुत
सीधे, निर्दोष।
वे सरलता से
आस्था कर सकते
थे; उनके
पास इतना उलझा
हुआ मन न था।
वे मस्तिष्कोन्मुखी
नहीं थे; वे
हृदयोमुखी
थे। ओम् एक
सौम्य नाद है,
शांत है, गैर—हिंसात्मक
है, अनाक्रमक
है। यदि तुम
ओम् का जप
करते हो, यह
कंठ से हृदय
तक जाता है, उससे नीचे
कभी नहीं। उन
दिनों में वे
हृदयपूर्ण
लोग होते थे।
ओम् उनके लिए
काफी होता था।
एक हल्की
खुराक, होम्योपैथिक
खुराक उनके
लिए पर्याप्त
होती थी।
तुम्हें
इससे ज्यादा
मदद न मिलेगी।
तुम्हारे लिए 'हू
ज्यादा सहायक
होगा। 'हू
एक सूफी मंत्र
है। उसी भांति
जैसे कि ओम् एक
हिंदू मंत्र
है, 'हू
सूफी मंत्र
है। 'हू
सूफियों
द्वारा
विकसित हुआ उस
देश और जाति के
लिए जो बहुत
आक्रामक, हिंसात्मक
थी—उन लोगों
के लिए जो
सीधे—सादे न
थे, निर्दोष
न थे, बल्कि
चालाक और
होशियार थे, जो योद्धा
थे। उनके लिए 'हू खोजा गया
था।
'हू’
अल्लाह का
अंतिम भाग है।
यदि तुम
लगातार दोहराते
हो ' अल्लाह—अल्लाह—अल्लाह',
तो धीरे—
धीरे यह रूप
ले लेता है ' अल्लाहू—अल्लाहू—अल्लाहूं
का। तब धीरे—धीरे
पहला भाग गिर
जाने देना
होता है। यह
बन जाता है 'लाहू—लाहू—लाहू।’
फिर 'लाहू
भी गिर जाने
देना है। यह
हो जाता है 'हू—हू—हू।’ यह बहुत
शक्तिशाली
होता है और यह
सीधे तुम्हारे
काम—केंद्र पर
चोट करता है।
यह तुम्हारे
हृदय पर चोट
नहीं करता है,
यह
तुम्हारे काम—केंद्र
पर चोट करता
है।
तुम्हारे
लिए 'हूं सहायक
होगा क्योंकि
अब तुम्हारा
हृदय लगभग
निष्कि्रय हो
गया है। प्रेम
तिरोहित हो
चुका है; केवल
वासना बच रही
है। तुम्हारा
काम—केंद्र
सक्रिय है, तुम्हारा
प्रेम—केंद्र
नहीं। तो ओम्
कोई ज्यादा
मदद न करेगा।’हूं ज्यादा
गहरी मदद देगा
क्योंकि अब तुम्हारी
ऊर्जा हृदय के
निकट नहीं है।
तुम्हारी
ऊर्जा निकट है
काम—केंद्र के,
और काम—केंद्र
पर सीधी चोट
पड़नी चाहिए
जिससे कि ऊर्जा
ऊपर उठे।
कुछ
समय तक 'हू, पर कार्य
करने के बाद
तुम अनुभव कर
सकते हो कि अब
तुम्हें उतनी
ज्यादा
मात्रा की
आवश्यकता नहीं
है। तब तुम ओम्
की ओर मुड़
सकते हो। जब
तुम अनुभव
करना शुरू कर
देते हो कि अब
तुम हृदय के
निकट रह रहे
हो, काम—केंद्र
के निकट नहीं,
केवल तभी
तुम प्रयोग कर
सकते हो ओम्
का, उसके
पहले नहीं।
लेकिन कोई
जरूरत नहीं।’हू सब कुछ
संपन्न कर
सकता है।
फिर
भी यदि तुम
ऐसा करना चाहो, तुम
इसे बदल सकते
हो। यदि तुम
अनुभव करते हो
कि अब कोई
जरूरत न रही और
तुम कामवासना
अनुभव नहीं
करते; कि
कामवासना
तुम्हारे लिए
चिंता का विषय
नहीं और तुम
उसके बारे में
नहीं सोचते; यह कोई
मस्तिष्कगत
कल्पना नहीं
है और इसके द्वारा
वशीभूत नहीं
हो। एक सुंदर
सी गुजर जाती है
और तुम मात्र
इतना ही देख
पाते हो कि 'हां, एक
सी गुजर गयी
है।’ लेकिन
तुम्हारे
भीतर कुछ उठता
नहीं; तुम्हारे
काम—केंद्र पर
चोट नहीं पड़ती
और कोई ऊर्जा
तुममें हलचल
नहीं करती; तब तुम ओम्
का आरंभ कर
सकते हो।
लेकिन
कोई आवश्यकता
नहीं। तुम
जारी रख सकते
हो 'हू को।’हू,
एक ज्यादा
सशक्त मात्रा
है। जब तुम 'हू, पर
कार्य करते हो,
तब तुम
तुरंत अनुभव
कर सकते हो कि
यह पेट में पहुंचता
है—हारा के
केंद्र पर और
फिर काम—केंद्र
पर। यह तुरंत
बाध्य करता है
काम—ऊर्जा को
ऊपर की ओर
पहुंचने के
लिए। यह काम—केंद्र
पर चोट करता
है।
लेकिन
तुम
मस्तिष्कोमुखी
ज्यादा हो।
ऐसा हमेशा
घटता है : लोग, देश,
सभ्यताएं
जो सिर की ओर
ज्यादा झुके
हैं, कामुक
होते हैं—हृदयोसुमुखी
व्यक्तियों
से कहीं
ज्यादा कामुक।
हृदयोसुखी
व्यक्ति
प्रेमपूर्ण
होते है।
कामवासना
प्रेम की छाया
की भांति आती
है; यह
स्वयं में महत्वपूर्ण
नहीं होती है।
हृदयोमुखी
लोग अधिक नहीं
सोचते।
क्योंकि
वस्तुत: यदि
तुम चौबीस
घंटे ध्यान दो,
तो तुम
देखोगे कि
तेईस घंटे तुम
कामवासना के विषय
में ही सोच
रहे हो।
हृदयोमुखी
लोग कामवासना
के विषय में
बिलकुल ही
नहीं सोचते।
जब यह घटित
होता है, तो
होता है। यह
मात्र
शारीरिक
आवश्यकता की
भांति होती है।
और यह प्रेम
की छाया के
रूप में पीछे
चली आती है।
यह सीधे तौर
पर कभी नहीं
घटती। वे मध्य
में रहते हैं।
हृदय, सिर
और काम—केंद्र
के बीच मध्य
में होता है।
तुम सिर में
और कामवासना
में रहते हो।
तुम इन्हीं दो
अतियों में घूमते
रहते हो; तुम
मध्य में कभी
नहीं रहते। जब
कामवासना
तृप्त हो जाती
है, तुम मन
की ओर बढ़ते हो।
जब कामवासना
की इच्छा उठती
है, तो तुम
काम—केंद्र की
ओर जा सकते हो;
लेकिन तुम
मध्य में कभी
नहीं ठहरते।
पेंडुलम
दायें—बायें
घूमता रहता है;
यह मध्य में
कभी नहीं ठहरता।
पतंजलि
ने ओम् के जप
की विधि
विकसित की थी
बहुत सीधे—सरल
लोगों के लिए—प्रकृति
के साथ रहने
वाले निर्दोष
ग्रामीणों के
लिए। तुम आजमा
सकते हो इसे।
यदि यह मदद
करता है तो
अच्छा है।
लेकिन
तुम्हारे
बारे में मेरी
समझ ऐसी है कि यह
तुममें से एक
प्रतिशत से
ज्यादा लोगों
की मदद न
करेगा।
निन्यानबे
प्रतिशत
सहायता
पायेंगे 'हू,
द्वारा। यह
तुम्हारे
ज्यादा निकट
है।
और
ध्यान रहे, जब
'हू सफल
होता है, जब
तुम सुनने के
बिंदु तक
पहुंचते हो, तब तुम
सुनोगे ओंकार
को, 'हू, को
नहीं। तुम ओम्
को सुनोगे।
परम घटना वही
होगी।’हू
की आवश्यकता
है केवल जब
तुम मार्ग पर
होते हो, क्योंकि
तुम लोग कठिन
हो। ज्यादा
बलवान मात्रा
की जरूरत है; बस इतना ही।
लेकिन परम
अवस्था में
तुम उसी घटना
को अनुभव करोगे।
मेरा
जोर रहता है 'हूं
पर क्योंकि
मेरा जोर तुम
पर निर्भर है—जो
तुम्हारी
जरूरत है उस
पर। मैं न तो
हिंदू हूं और
न ही मुसलमान।
मैं कोई नहीं,
अत: मैं
मुक्त हूं।
मैं कहीं से
किसी भी चीज
का उपयोग कर
सकता हूं। एक
हिंदूग्लानि
अनुभव करेगा
अल्लाह का
उपयोग करने
में; मुसलमान
अपराध अनुभव
करेगा ओम् का
उपयोग करने
में। लेकिन
मैं ऐसी बातों
को लेकर उलझता
नहीं हूं। यदि
अल्लाह से मदद
मिलती है तो
यह सुंदर है; यदि ओंकार
मदद करता है
तो यह सुंदर।
मैं तुम्हारी
आवश्यकता के
अनुसार तुम तक
हर विधि ले
आता हूं।
मेरे
देखे, सारे
धर्म एक ही ओर
ले जाते हैं, साध्य एक ही
है। और सारे
धर्म एक ही
चरम शिखर की
ओर ले जा रहे
मार्गों की
भांति हैं।
शिखर पर हर
चीज एक हो
जाती है। अब
यह तुम पर
निर्भर करता
है कि तुम
कहां हो। और
कौन—से मार्ग
के ज्यादा
निकट पड़ोगे।
ओम् बहुत दूर
होगा तुमसे, 'हू, बहुत
निकट है। यह
तुम्हारी
आवश्यकता है।
मेरा जोर
तुम्हारी
आवश्यकता पर
निर्भर करता है।
मेरा जोर कोई
सैद्धांतिक
बात नहीं है; यह
सांप्रदायिक
नहीं है। मेरा
जोर नितांत
रूप से
व्यक्तिगत है।
मैं तुम्हें
देखता हूं और
फिर निर्णय
करता हूं।
पांचवां
प्रश्न:
आपने
कहा कि
आवश्यकताएं
शरीर से जुड़ी
है और आकांक्षाएं
मन से। इन
दोनों में से
कौन—सी चीज
हमें आप तक ले
आयी?
इससे पहले
कि मैं इसका उत्तर
दूं एक बात और समझ
लेनी है; तब तुम्हारे
लिए इस प्रश्न
के उत्तर को समझना
संभव होगा।
तुम केवल शरीर
और मन ही नहीं हो,
तुम कुछ और
भी हो—आत्मा हो,
आत्म—तत्व हो।
तुम हो आत्मन।
शरीर की
आवश्यकताए हैं
आत्मा की भी
आवश्यकताएं
होती हैं। इन दोनो
के ठीक बीच मे मन
है जिसकी
आकांक्षाएं हैं।
शरीर की
आवश्यकताए है—भूख—प्यास
को परितृप्त करना।
सिर पर छत की जरूरत
है, भोजन
की आवश्यकता
है, पानी
की आवश्यकता
है। शरीर की
आवश्यकताएं
हैं लेकिन मन
के पास आकाक्षाएं
है। इसे किसी चीज
की जरूरत नहीं,
तो भी मन झूठी
आवश्यकताएं गढ
लेता है।
आकांक्षा
एक झूठी
आवश्यकता है ।
यदि तुम इसकी
ओर ध्यान नहीं
देते, तो तुम हताशा
अनुभव करते हो,
किसी असफल की
भांति ही। यदि
तुम इसकी ओर
ध्यान देते हो
तो कुछ प्राप्त
नहीं होता। क्योंकि
पहली बात,
वह कभी
आवश्यकता थी
ही नहीं।
आवश्यकता की
भांति कभी
अस्तित्व न था
उसका।
तुम
परिपूर्ण कर
सकते हो
आवश्यकता को; तुम
आकांक्षा को
पूर्ण नहीं कर
सकते।
आकांक्षा एक
सपना है। सपने
को परिपूर्ण
नहीं किया जा
सकता; इसकी
जड़ें नहीं है—न
धरती में, न
ही आकाश में।
इसकी जड़ें
नहीं है। मन
एक स्वप्नमयी
घटना है। तुम
प्रसिद्धि की,
मान—सम्मान
की मांग करते
हो। और यदि
तुम प्राप्त
कर भी लेते हो
तो तुम पाओगे
कुछ भी नहीं
क्योंकि
प्रसिद्धि
किसी आवश्यकता
को संतुष्ट न
कर पायेगी। यह
कोई आवश्यकता
नहीं है। तुम
हो सकते
प्रसिद्ध।
यदि सारा
संसार
तुम्हारे
बारे में जान
ले, तो
क्या—फिर क्या?
क्या घटेगा
तुम्हें? क्या
कर सकते हो
इसका? यह न
तो भोजन है और
न पानी। जब
सारा संसार
तुम्हें जान
लेता है, तब
तुम हताश
अनुभव करते हो।
क्या करोगे
इसका? यह
व्यर्थ है।
आत्मा
की भी
आवश्यकताएं
हैं। जैसे कि
शरीर को
आवश्यकता है
भोजन की, बिलकुल
उसी तरह आत्मा
को आवश्यकता
है भोजन की।
निस्संदेह तब
भोजन
परमात्मा है।
तुम्हें याद
होगा जीसस
बहुत बार अपने
शिष्यों से
कहते रहे, 'मुझे
खाओ। मैं हूं
तुम्हारा
भोजन। और मुझे
ही होने दो
तुम्हारा पेय।’
क्या मतलब
है उनका? यह
एक बिलकुल ही
भिन्न
आवश्यकता है।
जब तक कि यह संतुष्ट
न हो, जब तक
तुम परमात्मा
का भोजन न कर
सको, उसे
खाकर जब तक
तुम परमात्मा
ही न हो जाओ, उसे आत्मसात
न कर लो, जब
तक वह रक्त की
भांति
तुम्हारी
आत्मा में प्रवाहित
ही न होने लगे,
जब तक वह
तुम्हारी
चेतना ही न बन
जाये—तुम
असंतुष्ट ही
बने रहोगे।
आत्मा
की आवश्यकताएं
हैं;
धर्म उन
आवश्यकताओं
को परिपूर्ण
करता है। शरीर
की
आवश्यकताएं
हैं, विज्ञान
उन
आवश्यकताओं
को पूरा करता
है। मन की
आकांक्षाएं
हैं और वह
उन्हें पूरा
करने का
प्रयत्न करता
है, लेकिन
वह उन्हें
पूरा कर नहीं
सकता है। मन
तो मात्र
सीमास्थल है
जहां देह और
आत्मा का मिलन
होता है। जब
देह और आला
पृथक होते हैं,
तब मन
बिलकुल
तिरोहित हो
जाता है। उसका
अपना कोई
अस्तित्व
नहीं है।
छठवां
प्रश्न:
अब
इस प्रश्न को
ही लो— 'आपने
कहा कि
आवश्यकताएं
शरीर से जुड़ी
है और आकांक्षाएं
मन से। इन
दोनों में से
कौन—सी चीज
हमें आप तक ले
आयी?'
यहां
मेरे आस—पास
तीन प्रकार के
व्यक्ति है।
एक वे हैं जो
आये है उनकी
शारीरिक
आवश्यकताओं
के कारण। वे
कामवासना के
कारण हताश हैं, प्रेम
के कारण हताश
हैं, शरीर
के साथ दुखी
हैं। वे आते
है और उनकी
मदद की जा
सकती है। उनकी
समस्या
ईमानदार है।
और एक बार
उनकी शारीरिक
आवश्यकताएं
तिरोहित हो
जाती है, तो
आत्मिक
आवश्यकताएं
उठ खड़ी होंगी।
फिर
है दूसरा वर्ग, जो
आया है आत्मिक
आवश्यकताओं
के कारण। उनकी
मदद भी की जा
सकती है
क्योंकि उनके
पास वास्तविक
आवश्यकताएं
हैं। वे अपनी
कामवासना की
समस्याओं के
लिए नहीं पहुंचे
हैं, प्रेम
की समस्याओं
या शारीरिक
बेचैनियों या बीमारियों
के कारण नहीं
आये। वे इसके
लिए नहीं आये।
वे सत्य को
खोजने आये है।
वे जीवन के
रहस्य में
प्रवेश करने
को आये हैं, वे जानने को
आये है कि यह
अस्तित्व है
क्या। और फिर
है एक तीसरा
वर्ग, और
तीसरा ज्यादा
बड़ा है इन
दोनों से। वे
लोग आये है
अपने मन की आकांक्षाओं
के कारण। उनकी
मदद नहीं की
जा सकती है।
वे कुछ समय तक
मेरे आस—पास
बने रहेंगे और
फिर गायब हो
जायेंगे या, यदि वे
ज्यादा समय तक
मेरे पास बने
रहे तो मैं उन्हें
या तो शारीरिक
आवश्यकताओं
तक ला सकता हूं
या आत्मिक
आवश्यकताओं
तक, लेकिन
उनकी मनोगत
आवश्यकताओं
की पूर्ति नहीं
हो सकती।
क्योंकि पहली
बात तो यह है
कि वे
आवश्यकताएं हैं
ही नहीं।
कुछ
लोग जो यहां
हैं,
वे अहंकार
के कारण हैं।
संन्यास उनके
लिए एक अहंकार—यात्रा
है। वे
विशिष्ट बन
गये हैं।
असाधारण। वे
जीवन में असफल
हो चुके हैं।
वे राजनैतिक
शक्ति नहीं पा
सके; वे
सांसारिक
प्रसिद्धि तक
नहीं पहुंचे;
वे धन, सम्पति
और भौतिक
पदार्थ
प्राप्त नहीं
कर सके। वे
स्वयं को कुछ
नहीं अनुभव
करते, और
अब मै उन्हें
दे देता हूं
संन्यास।
अपनी ओर से
कुछ किये बिना
वे
महत्वपूर्ण
हो गये हैं, कुछ विशिष्ट।
मात्र गैरिक
वस्त्र धारण
करने से वे
सोचते हैं कि
अब वे साधारण
व्यक्ति न रहे।
वे कुछ चुनिंदा
हैं, दूसरे
लोगों से
भिन्न। वे
संसार में
जायेंगे और हर
किसी की निंदा
करेंगे। यह कह
कर कि 'तुम
मात्र
सांसारिक
प्राणी हो।
तुम सर्वथा
गलत हो। हम
उद्धारित
व्यक्ति हैं,
थोड़े—से
चुने हुओं में
से।’
ये
हैं मन की
आकांक्षाएं।
ध्यान रहे, किन्हीं
आकांक्षाओं
के कारण यहां
मत रहना।
अन्यथा तुम
बिलकुल
व्यर्थ कर रहे
हो तुम्हारा
समय; उन्हें
परिपूर्ण
नहीं किया जा
सकता। मैं
यहां हूं
तुम्हारे
सपनों में से
तुम्हें बाहर
ले आने के लिए।
मैं यहां
तुम्हारे
सपनों की
पूर्ति के लिए
नहीं हूं। ये
लोग रहा सब
प्रकार की
राजनीतिया ले
आते हैं
क्योंकि वे
अपनी अहंकार—यात्राओं
पर निकले हुए
है। वे सब
प्रकार के
संघर्ष ले
आयेंगे, वे
गुट निर्मित
करेंगे। वे एक
छोटा संसार
बना लेंगे
यहां, और
एक ऊंच—नीच का तंत्र
वे निर्मित
करेंगे। यह
कहेंगे कि 'मैं ज्यादा
ऊंचा हूं
तुमसे, ज्यादा
पवित्र हूं
तुमसे।’ वे
खेलेंगे सदा
ऊंचा दिखने के
खेल को।
लेकिन
वे छू हैं।
पहली बात तो
यह कि उन्हें
यहां होना ही
नहीं चाहिए।
उन्होंने
अपनी अहंकार
यात्राओं के
लिए गलत स्थान
चुन लिया है क्योंकि
मैं यहां हूं
उनके
अहंकारों को
संपूर्णतया
मार देने के
लिए,
उन्हें तोड़
देने के लिए।
इसीलिए तुम
मेरे आस—पास
इतनी ज्यादा
अव्यवस्था का
अनुभव करते हो।
ध्यान
रहे,
तुम ठीक
स्थान पर हो
सकते हो गलत
कारणों से। तब
तुम चूक जाते
हो, क्योंकि
सवाल जगह का
नहीं है। सवाल
है : तुम यहां
हो क्यों? यदि
तुम अपनी
शारीरिक
आवश्यकताओं
के कारण यहां
हो, तो कुछ
किया जा सकता
है, और जब
तुम्हारी
शारीरिक
आवश्यकताएं
पूरी हो जाती
हैं, तो
तुम्हारी आत्मिक
आवश्यकताएं
जाग्रत हो
जायेगी।
यदि
तुम यहां मन
की इच्छाओं के
कारण हो, तो
गिरा देना उन इच्छाओं
को। वे
आवश्यकताएं
नहीं हैं, वे
सपने है।
उन्हें जितनी
संपूर्णता से
गिराना संभव
हो, गिरा
देना। और मत
पूछना कि
उन्हें कैसे
गिराना है
क्योंकि
उन्हें गिरा
देने को कुछ
किया नहीं जा
सकता है।
मात्र इतनी
समझ कि वे मन
की
आकांक्षाएं
हैं, काफी
है; वे
स्वत: गिर
जाती है।
सातवां
प्रश्न:
क्या
योग और तंत्र
के बीच कोई
संश्लेषण
खोजना संभव है? क्या
एक मार्ग
दूसरे तक ले
जाता है?
नहीं, यह
असंभव है। यह
उतना ही असंभव
है जितना कि
सी और पुरुष
के बीच कोई
संश्लेषण
खोजने का प्रयत्न
करना। तब क्या
बनेगा
संश्लेषण? एक
तीसरा लिंग—स्व
नपुंसक
व्यक्ति होगा
संश्लेषण। और
वह न तो पुरुष
होगा न ही सी।
ऐसा व्यक्ति
जडविहीन होगा।
वह व्यक्ति
कहीं का न
होगा।
तंत्र
सर्वथा
विपरीत है योग
के—विपरीत
ध्रुव है। तुम
कोई संश्लेषण
निर्मित नहीं
कर सकते। और
ऐसी चीजों के
लिए कभी
प्रयत्न मत
करना क्योंकि
तुम अधिकाधिक
भ्रमित हो
जाओगे। एक ही
काफी है
तुम्हें
भ्रमित करने
को;
दो तो बहुत
ज्यादा होंगे।
और वे विभिन्न
दिशाओं की ओर
ले जाते हैं।
वे एक ही चोटी
तक पहुंचते
हैं।
संश्लेषण है
ऊंचाई पर, चरम
शिखर पर, लेकिन
पहला कदम जहां
पड़ता है उस
आधार पर जहां
यात्रा
प्रारंभ होती
है, वे
सर्वथा भिन्न
हैं। एक जाता
है पूर्व की
ओर, दूसरा
जाता है
पश्चिम की ओर।
वे एक—दूसरे
को विदा कह
देते हैं; परस्पर
पीठ किये हुए
हैं वे। वे
पुरुष और सी
की भांति हैं।
उनकी
मनोवृत्तियां
अलग हैं।
अपनी
भिन्नता में
वे सुंदर हैं।
यदि तुम
संश्लेषण
बनाते हो, तो
वह अस्त्र हो
जाता है। एक
सी, स्त्री
ही होती है—इतनी
ज्यादा सी कि
वह पुरुष के
लिए एक विपरीत
ध्रुव बन जाती
है,। अपनी
ध्रुवताओं
में वे सुंदर
हैं क्योंकि
अपनी
विपरीतताओं
में वे परस्पर
आकर्षित हुए
रहते हैं।
उनकी अपनी
ध्रुवताओं
में वे पूरक
होते हैं, लेकिन
तुम संश्लेषण
नहीं कर सकते।
संश्लेषण तो
मात्र दुर्बल
होगा, संश्लेषण
तो अशक्त ही
होगा। उसमें
कोई बल न होगा।
शिखर
पर वे मिलते
हैं,
और वह मिलन
है चरम सुख का
बिंदु। जब सी
और पुरुष
मिलते हैं, जब उनके
शरीर विलीन हो
जाते हैं, जब
वे दो नहीं
रहते, जब 'यिन' और 'यांग' एक
होते हैं, तो
ऊर्जा एक
वर्तुल का रूप
ले लेती है
क्षण भर को।
प्राण—ऊर्जा
की उस
पराकाष्ठा पर,
वे मिलते और
फिर से वे दूर
होते हैं।
यही
बात घटती है
तंत्र और योग
के साथ। तंत्र
स्त्रैण है, योग
पौरुषेय है।
तंत्र है
समर्पण, योग
है संकल्प।
तंत्र है
प्रयासविहीनता,
योग है
प्रयास, जबरदस्त
प्रयास।
तंत्र
निष्क्रिय है,
योग है
सक्रिय।
तंत्र है धरती
की भांति, योग
है आकाश की
भांति। वे
मिलते हैं पर
कोई संश्लेषण
नहीं है। शिखर
पर वे मिल
जाते हैं, लेकिन
आधारतल पर
जहां यात्रा
प्रारंभ होती
है, जहां
तुम सभी खड़े
हो, तुम्हें
मार्ग चुनना
पड़ता है।
मार्ग
संशिलष्ट
नहीं किये जा
सकते हैं। और
जो लोग इसके
लिए प्रयत्न
करते हैं, वे
मानवता को
भ्रमित कर
देते हैं। वे
दूसरों को
बहुत गहरे तौर
पर भ्रमित
करते हैं और
वे सहायक नहीं
होते। वे बहुत
हानिकारक
होते हैं।
मार्गों का
संश्लेषण
नहीं किया जा
सकता, केवल
अंत को
संश्लिष्ट
किया जा सकता
है। एक मार्ग
को दूसरे
मार्ग से अलग
होना ही होता है—पूर्णतया
अलग, अपने
पूरे भाव—रंग
में ही अलग, अपने
अस्तित्व में
अलग। जब तुम
तंत्र का
अनुसरण करते
हो, तो तुम
यौन के द्वार
से आगे बढ़ते
हो। वह है
तंत्र का
मार्ग। तुम
प्रकृति का
समग्र समर्पण
होने देते हो।
यह होने देना
है। तुम लड़ाई
नहीं करते; यह एक
योद्धा का
मार्ग नहीं है।
तुम संघर्ष
नहीं करते; तुम समर्पण
करते हो, भले
ही प्रकृति
तुम्हें कहीं
भी ले जाये।
यदि प्रकृति
काम—भाव में
ले जाती है, तुम काम—भाव
को समर्पण कर
देते हो। तुम
संपूर्णतया
इसमें उतरते
हो बिना किसी
अपराध—भाव के,
बिना पाप की
किसी धारणा के।
तंत्र
के पास पाप की
धारणा नहीं, कोई
अपराध—भाव
नहीं। तो
कामवासना में
उतरते हो।
मात्र सचेत
बने रहो, जो
घट रहा है
उसके प्रति जागरूक
बने रहो। सचेत,
जो हो रहा
है उसके प्रति
सावधान।
लेकिन उसे
नियंत्रित
करने का
प्रयत्न मत
करना; स्वयं
को रोकने की
कोशिश मत करना।
प्रवाह को चले
आने दो। सी
में
गति
करो और सी को
गति करने दो
तुम्हारे
भीतर; उन्हें
एक वर्तुल
बनने दो। और
तुम साक्षी
बने रहो। इसी देखने
और होने देने
द्वारा, तंत्र
रूपांतरण को
प्राप्त कर
लेता है। कामवासना
तिरोहित हो
जाती है। यह
एक तरीका है
प्रकृति के
पार जाने का
क्योंकि
कामवासना के
पार जाना
प्रकृति के
पार जाना है।
सारी
प्रकृति
कामयुक्त है।
फूल हैं
क्योंकि वे
कामभावमय है।
समस्त
सौंदर्य
विद्यमान है
किसी कामभाव
की घटना के
कारण। एक
निरंतर खेल चल
रहा है। पेडू
एक—दूसरों को
आकर्षित कर
रहे है, पक्षी
एक—दूसरे को
पुकार रहे
हैं। हर कहीं
कामक्रीड़ा चल
रही है।
प्रकृति काम
है, और
पुरुष—सी के
वर्तुल को
पाना काम के
पार जाना है।
लेकिन तंत्र
कहता है काम का
उपयोग सीढ़ी की
भांति करो।
उसके साथ
संघर्ष मत
करो। उसका
उपयोग करो और
उससे बाहर हो
जाओ। उसमें से
आगे बढ़ो, उसमें
से गुजरो, और
अनुभव द्वारा
रूपांतरण को
उपलब्ध हो
जाओ। ध्यानपूर्ण
अनुभव
रूपांतरण बन
जाता है।
योग
कहता है ऊर्जा
व्यर्थ मत
गंवाना। काम
से पूर्णतया दूर
हट कर बाहर
निकल जाना।
इसमें जाने की
कोई जरूरत
नहीं। तुम
एकदम इससे
कतरा कर निकल
सकते हो।
ऊर्जा को
सुरक्षित रखो, और
प्रकृति के
धोखे में मत
आओ। प्रकृति
के साथ संघर्ष
करो।
संकल्पशक्ति
ही बन आओ।
नियंत्रित
जीव हो जाओ जो
कहीं नहीं बह
रहा। योग की
सारी विधियां
इसलिए है कि
तुम्हें ऐसा
बनाया जाये
जिससे कि प्रकृति
में बहने की
जरूरत न हो।
योग कहता है प्रकृति
को अपने
रास्ते जाने
देने की कोई
जरूरत नहीं।
तुम इसके
मालिक हो जाओ
और तुम अपने
से चलो—प्रकृति
के विरुद्ध।
यह योद्धा का
मार्ग है— 'निर्दोष
योद्धा' जो
लगातार लड़ता है,
और लड़ने
द्वारा वह
रूपांतरित
होता है।
ये
समग्रतया
विभिन्न हैं।
दोनों एक ही
लक्ष्य की ओर
ले जाते है, अत:
एक को चुन
लेना।
संश्लेषण
करने का
प्रयत्न मत
करना। कैसे
तुम कर सकते
हो संश्लेषण?
यदि तुम
सेक्स द्वारा
बढ़ते हो, योग
गिरा दिया
जाता है।
संश्लेषण
कैसे कर सकते
हो तुम? यदि
तुम सेक्स को
छोड़ते हो तो
तंत्र गिर
जाता है। कैसे
तुम संश्लेषण
कर सकते हो? पर ध्यान
रहे, दोनों
एक ही लक्ष्य
की ओर ले जाते
हैं; वह
लक्ष्य
है—अतिक्रमण।
तुम्हें
कौन—सा मार्ग
चाहिए यह तुम
पर निर्भर करता
है—तुम्हारे
ढंग पर। क्या
तुम योद्धा के
ढंग के हो? वह
व्यक्ति हो जो
लगातार
संघर्ष करता
है? तब योग
है तुम्हारा
मार्ग। यदि
तुम योद्धा के
प्रकार के
नहीं हो, यदि
तुम
निष्क्रिय हो,
सूक्ष्म
तौर पर स्त्रैण,
यदि तुम
किसी के साथ
लड़ना पसंद न
करोगे, यदि
तुम वस्तुत:
अहिंसक हो, तब तंत्र है
मार्ग। और
चूंकि दोनों
एक ही लक्ष्य
की ओर ले जाते
है, इसलिए
संश्लेषण
करने की कोई
जरूरत नहीं।
मेरे
देखे, संश्लेषणकारी,
लगभग हमेशा
गलत होते हैं।
सारे गांधी
गलत हैं। जो
कोई संश्लेषण
करता है गलत
है। क्योंकि
यह एलोपैथी को
आयुर्वेद से
संश्लेषित
करना है, यह
होम्योपैथी
को एलोपैथी से
संश्लेषित
करना है; यह
हिंदू और
मुसलमान को
संश्लेषित
करना है, यह
बुद्ध और
पतंजलि को
संश्लेषित
करना है। संश्लेषण
करने की कोई
जरूरत नहीं।
हर मार्ग स्वयं
में पूर्ण है।
प्रत्येक
मार्ग स्वयं
में इतना
संपूर्ण है कि
इसमें कुछ
जोड़े जाने की
कोई जरूरत
नहीं है। और
कोई भी जोड़
खतरनाक हो
सकता है।
क्योंकि एक
हिस्सा जो
शायद एक खास
मशीन में
कार्य कर रहा
हो, दूसरी
में बाधा बन
सकता है।
तुम
इम्पाला कार
से एक हिस्सा
ले सकते हो जो
उसमें ठीक
कार्य कर रहा
था। लेकिन यदि
तुम इसे फोर्ड
में लगा सकते, तो
यह शायद
समस्याएं खड़ी
कर दे। एक
हिस्सा एक
ढांचे में
कार्य करता है।
हिस्सा ढांचे
पर निर्भर
करता है, संपूर्ण
पर। तुम एक
हिस्से मात्र
का उपयोग नहीं
कर सकते कहीं।
और ये
संश्लेषणकर्ता
क्या करते हैं?
वे एक ढांचे
से एक हिस्सा
उठा लेते हैं,
दूसरा
हिस्सा दूसरे
ढांचे से, और
वे सब घोल—मेल
बना देते हैं।
यदि तुम इन
व्यक्तियों
के पीछे चलते
हो, तो तुम
एक घोलमेल ही
बन जाओगे।
संश्लेषण
करने की कोई
जरूरत नहीं।
सिर्फ
तुम्हारा
ढांचा खोज
लेने का
प्रयत्न करो;
तुम्हारे
ढांचे को
अनुभव करो। और
कहीं कोई
जल्दी नहीं है।
ध्यान से अपने
ढांचे को
अनुभव करो।
क्या
तुम समर्पण कर
सकते हो? प्रकृति
को समर्पण कर
सकते हो? तो
कर देना
समर्पण। यदि
तुम अनुभव
करते हो ऐसा
असंभव है, कि
तुम समर्पण
नहीं कर सकते,
तो निराश मत
हो जाना
क्योंकि एक
दूसरा मार्ग है
जो इस ढंग से
समर्पण की
मांग नहीं
करता; जो
तुम्हें तमाम
अवसर देता है
संघर्ष करने
के। और दोनों
एक ही बिंदु
पर ले जाते
हैं शिखर पर।
जब तुम
गौरीशंकर पर
पहुंच चुके
होते हो, धीरे—धीरे
जैसे तुम शिखर
के और—और निकट
पहुंचते हो, तुम देखोगे
कि दूसरे भी
पहुंच रहे हैं
जो कि विभिन्न
मार्गों पर
यात्रा कर रहे
थे।
मनुष्यता
के पूरे
इतिहास में
रामकृष्ण ने
महानतम
प्रयोगों में
से एक प्रयोग
करने का
प्रयत्न किया।
उनके संबोधि
प्राप्त करने
के पश्चात, उनकी
संबोधि के
पश्चात, उन्होंने
बहुत सारे
मार्गों को
आजमाया। किसी
ने कभी ऐसा
नहीं किया
क्योंकि कोई
जरूरत नहीं है।
यदि तुमने
शिखर पा लिया
है, तो
क्यों फिक्र
लेनी कि दूसरे
मार्ग उस तक
पहुंचते हैं
या नहीं? किंतु
रामकृष्ण ने
मानवता पर बडा
उपकार किया।
वे फिर से
आधारतल तक
नीचे लौट आये
और दूसरे मार्गों
को आजमाया, देखने को कि
वे भी शिखर तक
पहुंचते हैं
या नहीं।
उन्होंने
बहुतों को
आजमाया, और
हर बार वे उसी
शिखर बिंदु तक
पहुंचे।
यह
उन्हीं की
उपमा है—कि
आधारतल पर
मार्ग अलग
होते हैं। वे
विभिन्न
दिशाओं की ओर
बढ़ते हैं और
विपरीत भी
लगते हैं, परस्पर
विरोधी भी, लेकिन शिखर
पर वे मिल
जाते हैं।
संश्लेषण
घटता है शिखर
पर। प्रारंभ
में
विविधताएं
होती हैं, बहुलताएं
होती है; अंत
में होता है एकत्व,
ऐक्य।
संश्लेषण
की परवाह मत
करना। तुम
सिर्फ
तुम्हारा
मार्ग चुन
लेना और उस पर बने
रहना। और
दूसरों
द्वारा
प्रलोभित मत
होओ,
जो अपने
मार्गों पर
तुम्हें बुला
रहे होंगे इस
कारण, कि
वह लक्ष्य तक
ले जाता है।
हिंदू पहुंचे
हैं, मुसलमान
पहुंचे हैं, यहूदी
पहुंचे हैं, ईसाई पहुंचे
हैं। और परम
सत्य की कोई
शर्त नहीं है
जो कहे कि यदि तुम
केवल हिंदू हो
तो ही
पहुंचोगे।
केवल
एक बात जो
चिंता करने की
है वह यह कि
तुम्हारे
प्रकार को, ढांचे
को पहचानना और
चुनाव करना।
मैं किसी बात
के विरुद्ध
नहीं हूं; मैं
हर बात के
पक्ष में हूं।
जो कुछ भी तुम
चुनो, मैं
उसी ढंग से
तुम्हारी मदद
कर सकता हूं।
लेकिन कोई
संश्लेषण
नहीं चाहिए।
संश्लेषण के
लिए प्रयत्न
मत करना।
आठवां
प्रश्न:
कई
बार जब आप
हमसे बातें
करते है,
तब ऊर्जा की
लहरें हम तक
उमड़ कर आती
है और हमारा
ह्रदय खोल
देती है। और
कृतज्ञता के
आंसू ले आती
है। आपने कहा
है कि आप हमें
भर देते है जब
हम खुले हों।
और कई बार यह
शक्ति पात
सदृश्य घटना
एक ही समय
बहुत लोगों को
घटती है। आप
हमें यक
अद्भुत अनुभव
अधिक बार क्यों
नहीं देते?
यह तुम पर
है। यह ऐसा नहीं
है कि मैं तुम्हे
कोई अनुभव दे रहा
हूं। यह तुम पर
है। तुम ग्रहण
कर सकते हो इसे।
यह कोई देना
नहीं है क्योंकि
मैं तो दे ही रहा
हूं हर समय।
यह तुम पर निर्भर
है कि खुले रहो
और ग्रहण करो।
और यह ठीक है, कि
ऐसा बहुत बार बहुत
लोगो को एक साथ
घटता है। तब तर्क
संगत मन कहता है
कि मैं ही कुछ कर
रहा होऊंगा, वरना क्यों ऐसा
एक साथ घट रहा है
बहुत लोगों को?
नहीं, मैं
कुछ नहीं कर रहा।
लेकिन जब कोई खुला
होता है, तो
वह किसी का खुलना
संक्रामक होता
है। दूसरे तुरंत
शुरू कर देते हैं
खुलना। यह ऐसा
है जैसे जब कोई
खासना शुरू करता
है, तो दूसरे
भी खांसना शुरू
कर देते हैं।
यह संक्रामक होता
है। एक खुलता है,
और तुम
अकस्मात
अनुभव करते हो
तुम्हारे चारों
और घट रहा है कुछ,
तो तुम भी खुले
हो जाते हो।
मैं
निरंतर मौजूद हूं।
जब कभी तुम खुले
होते हो, तुम मुझमें
शामिल हो सकते
हो, मुझे ग्रहण
कर सकते हो, जब तुम बंद होते
हो, तब तुम ग्रहण
नहीं कर सकते।
और यह मुझ पर ही
निर्भर नहीं करता,
यह तुम पर निर्भर
करता है कुछ करना।
निस्संदेह ऐसा
घटता है जब तुम
इकट्ठे होते हो
क्योंकि एक खोल
देता है दूसरो
को। और फिर यही
चलता जाता है।
और यह बात जल प्रवाह—सदृश
कोई घटना बन सकती
है।
इंडोनेशिया
में एक
विशिष्ट विधि
है जो जानी जाती
है 'लतिहान' के
नाम से। वे 'खुलना' शब्द
का उपयोग करते
हैं। वह जो
खुला है दूसरों
को खोल सकता
है। वह गुरु
अभी इस धरती
के उन बहुत—बहुत
महत्वपूर्ण
व्यक्तियो
में से एक है—लतिहान
का गुरु, वह
व्यक्ति है बापाक
सुबुद। उसने कुछ
लोगों को खोला,
और फिर उसने
उन लोगो से कह दिया
पृथ्वी भर घूमने
को और दूसरो को
खोलने को।
और
क्या करते हैं
वे?
बहुत सरल विधि
अपनाते हैं।
तुम समझ पाओगे
क्योंकि तुम उसी
तरह की रूपरेखा
की बहुत सारी
विधियां कर
रहे हो। बापाक
गुरू के
द्वारा जो खुल
गया है, वह
नये साधक के
साथ होता है—जिसे
खुलना है उसके
साथ, उस
शिष्य के साथ।
वे एक बंद
कमरे में खड़े
होते हैं। वह
जो पहले से ही
खुला है, वह
अपने हाथों को
आकाश की और उठा
देता है। वह स्वय
को खोलता है, और दूसरे सिर्फ
वहा खड़े रहते
हैं। कुछ पलों
के भीतर दूसरे
कंपित होने
लगते हैं। कुछ
घट रहा है। और
जब वह खुला
होता है, असीम
आकाश के प्रति
खुला, उस पार
की अपरिसीम ऊर्जा
के प्रति, तब
दूसरो को खोलने
की उसे अनुमति
दी जाती है।
और
कोई नहीं जानता
कि वे क्या कर रहे
होते है। स्वय
करने वाला भी कभी
नहीं जानता कि
वह क्या कर रहा
है। वह तो बस वहां
खड़ा रहता है
और दूसरा, नवागत
मात्र खड़ा रहता
है निकट। वे
नहीं जानते क्या
घट रहा है, अत:
वे बापाक सुबुद
को पूछते है, 'क्या है यह ?' वे करते हैं
यह घटता है।
किंतु बापाक सुबुद
कभी कोई व्याख्या
नहीं करता। वह
उस ढंग का
आदमी नहीं है।
वह कहता है, 'तुम सिर्फ ऐसा
करो। इसकी फिक्र
मत लेना कि ऐसा
क्यों घटता है।
बस यह घटता है।’
वही
कुछ यहां घटता
है। कोई एक खुलता
है। अकस्मात ऊर्जा
उसके चारो और गतिमान
हो उठती है, वह
एक वातावरण निर्मित
कर देती है।
तुम उसके निकट
हो, और अचानक
तुम ऊर्जा के एक
उमडाव को ऊपर उठता
अनुभव करते हो।
आंसू बहने लगते
हैं, तुम्हारा
हृदय भरा हुआ है।
तुम खुलते हो,
तब तुम दूसरे
को मदद देते
हो। यह बात एक शृंखला
बद्ध
प्रतिक्रिया
बन जाती है।
सारा संसार खुल
सकता है। और एक
बार तुम खुले हुए
हो जाते हो, तब तुम इसका
गुर जान लेते
हो। यह कोई
विधि न रही।
तुम इसका गुर
ही जान लेते
हो। तब तुम
अपने मन को
एकदम रख देते
हो एक निशित
स्थिति में; तुम रख देते
हो अपनी स्व—सत्ता
को एक निश्चित
ढंग में। यही
है जिसे मैं
कहता हूं
प्रार्थना।
मेरे
लिए
प्रार्थना कोई
शाब्दिक
संवाद नहीं है
ईश्वर के साथ।
कैसे तुम भाषा
को साथ लिये
संपर्क कर
सकते हो ईश्वर
के साथ? दिव्यता
की कोई भाषा
नहीं होती। और
जो कुछ भी
कहते हो तुम, वह समझ में
नहीं आयेगा।
तुम्हें भाषा
द्वारा नहीं
समझा जा सकता
है, बल्कि
तुम्हारे
अस्तित्व
द्वारा समझा जा
सकता है। अंतस
अस्तित्व ही
है एकमात्र
भाषा।
एक
छोटी
प्रार्थना—विधि
आजमाना।
रात्रि में, जब
तुम सोने जा
रहे होते हो, बस घुटने
टेक बैठ जाना
बिस्तर के
समीप। बिजली
बुझा देना, अपने दोनों
हाथ उठा लेना,
आंखें बंद
रहें, और
मात्र अनुभव
करना जैसे तुम
किसी झरने तले
हो, आकाश
से उतरती
ऊर्जात्मक
जलधार तले।
प्रारंभ में
यह बात एक
परिकल्पना
होती है। दो
या तीन दिनों
के भीतर तुम
अनुभव करने
लगोगे कि यह
एक वास्तविक
घटना है। जैसे
कि तुम वास्तव
में ही जलधार
तले हो; और
तुम्हारा
शरीर आंदोलित
होने लगता है।
तुम तेज हवा
के झोंके में
पड़े पत्ते की
भांति अनुभव
करते हो। और
वह जलधार इतनी
सशक्त और
प्रबल होती है
कि तुम उसे
भीतर सम्हाल
नहीं सकते। यह
तुम्हारे
रोएं—रोएं को
आपूरित करती
है, सिर से
लेकर पांव तक।
तो तुम एक
खाली पात्र ही
होते हो, और
वह तुम्हें
पूरी तरह से भरने
लगती है।
जब
तुम
कम्पन्नों को
अपने तक
पहुंचता
अनुभव करते हो, तो
उसके साथ
सहयोग देना।
कम्पन्नों को
ज्यादा होने
में मदद देना,
क्योंकि
जितने ज्यादा
तुम आंदोलित
होते हो, तुममें
असीम ऊर्जा
उतर आने की
उतनी ही
ज्यादा संभावना
होती है।
क्योंकि
तुम्हारी
अपनी अंतरऊर्जा
सक्रिय हो
जाती है। जब
तुम सक्रिय
होते हो, तुम
सक्रिय शक्ति
से मिल सकते
हो। जब तुम
गतिहीन होते
हो, तब तुम
सक्रिय शक्ति
से नहीं मिल
सकते।
जब
तुम आंदोलित
होते हो, तब
ऊर्जा
तुम्हारे
भीतर निर्मित
हो जाती है।
ऊर्जा अधिक
ऊर्जा को
खींचती है।
पात्र हो जाओ—शून्य
पात्र, और
फिर आपूरित हो
जाओ, पूरी
तरह आप्लावित।
जब तुम अनुभव
करते हो कि अब
यह बहुत हुआ, असह्य है, कि जलधार
बहुत ज्यादा
हुई और तुम और
ज्यादा इसे सह
नहीं सकते, तो धरती की
ओर झुक जाओ, धरती को चूम
लो और मौन हुए
रही जैसे कि
तुम धरती में
ऊर्जा उंडेल
रहे हो।
आकाश
से ग्रहण करो; वापस
दे दो धरती को।
तुम बीच में
केवल माध्यम
बन जाओ।
पूर्णतया झुक
जाओ, फिर
से खाली हो
जाओ। जब तुम
अनुभव करो कि
अब तुम खाली
हो, तो तुम
अनुभव करोगे—बहुत
मौन, बहुत
शांत, बहुत
सहज। फिर
दोबारा अपने
हाथ उठा लो।
ऊर्जा को
अनुभव करो।
नीचे झुको और चूम
लो जमीन को—ऊर्जा
को वापस धरती
को लौटा दो।
ऊर्जा
है आकाश, ऊर्जा
है धरती। वे
दो प्रकार की
ऊर्जाएं हैं।
आकाश सर्वदा
पुरुष—तत्व
कहलाता है
क्योंकि वह
देता है, और
धरती सर्वदा
स्त्री—तत्व
कहलाती है
क्योंकि वह
ग्रहण करती है।
वह है गर्भ की
भांति। अत:
ग्रहण करो
आकाश से और दे
दो धरती को।
और ऐसा सात
बार करना है, इससे कम
नहीं, क्योंकि
हर बार ऊर्जा
तुम्हारे
शरीर के किसी एक
चक्र में
आयेगी। और सात
चक्र होते हैं।
हर
बार ऊर्जा
तुममें
ज्यादा गहरे
चली जायेगी; तुम्हारे
भीतर वह
ज्यादा गहरे
तलों को अनुप्राणित
करेगी। सात बार
करना जरूरी है।
इससे कम नहीं;
क्योंकि
यदि तुम कम
बार करते हो
तो सो न पाओगे।
ऊर्जा वहां
होगी भीतर और
तुम बेचैनी
अनुभव करोगे।
इसे सात बार
दोहराना। तुम
अधिक भी कर
सकते हो।
ज्यादा करने
में कोई हानि
नहीं है, लेकिन
कम नहीं। ऐसा
सात बार या
इससे ज्यादा
बार करना।
और
जब तुम
पूर्णतया
खाली अनुभव
करो तब सो
जाना।
तुम्हारी
संपूर्ण
रात्रि एक
अंतस घटना बन
जायेगी। नींद
में तुम
अधिकाधिक
शांत हो जाओगे।
सपने समाप्त
हो जायेंगे।
सुबह, तुम
पूर्णतया नये
जीवन को उठता
हुआ अनुभव करोगे,
जैसे कि तुम
पुनजर्वित
हुए हो। तुम
अब वही पुराने
न रहे। अतीत
गिर चुका है; तुम ताजे और
युवा हो।
हर
रात ऐसा करना।
तीन महीने के
भीतर बहुत
सारी चीजें
संभव हो जायेंगी।
तुम खुले
होओगे। और तब
तुम दूसरों को
खोल सकते हो।
तीन महीने तक
खोलने की इस
घटना को
क्रियान्वित
करने के बाद
तुम किसी के
पास खड़े होने
और स्वयं को खोलने
के बिलकुल
योग्य हो
जाओगे। और
तुरंत तुम
अनुभव करोगे
कि दूसरा
कंपायमान हो
रहा है, आंदोलित
हो रहा है।
चाहे दूसरा
जानता भी न हो,
दूसरे के
जाने बिना भी
तुम किसी को
खोल सकते हो।
लेकिन ऐसा
करना मत
क्योंकि
दूसरा तो
सिर्फ घबड़ा ही
जायेगा। वह
सोचेगा कि कुछ
भयावह घट रहा
है।
एक
बार खुल जाते
हो,
तो तुम
दूसरों को खोल
सकते हो। यह
एक
संक्रामकता
है। और सुंदर
संक्रामकता
है; संक्रामकता
संपूर्ण
स्वास्थ्य की,
किसी रोग की
नहीं।
समग्रता की
संक्रामकता
है, पवित्रता
की
संक्रामकता, एक
संक्रामकता
पावनता की।
आज
इतना ही।
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