दिनांक
25 नवंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूूूत्र::
आचक्ष्व
श्रृणु वा तात
नानाशास्त्रोण्यनेकश:।
तथापि
न तव स्वास्थ्यं
सर्वविस्मरणाद्वते।।
146।।
भोगं
कर्म समाधिं
वा कुरु विज्ञ
तथापि ते।
चित्तं
निरस्तसर्वाशमत्यर्थं
रोचयिष्यति।।
147।।
आयासत्सकलो
दु:खी नैनं
जानाति
कश्चन।
अनेनैवोयदेशेन
धन्य:
प्राम्मोति
निर्वृतिम्।।
148।।
व्यापारेखिद्यते
यस्तु
निमेषोत्मेषयोरपि।
तस्यालस्यधुरीणस्थ
सुख नान्यस्य
कस्यचित्।। 149।।
हदं
कृतमिदं नेति
द्वंद्वैर्मुक्तं
यदा मन:।
धर्मार्श्रकाममोक्षेषु
निरयेक्ष तदा
भवेत।। 150।!
विरक्तो
विषयद्वेष्टा
रागी
विषयलोलय।
आचक्ष्व
श्रृयु वा तात
नानाशास्त्रोण्यनेकश:।
तथापि
न तव
स्वास्थ्य
सर्वविस्मरणादृते
।।
अनेक
शास्त्रों को
अनेक प्रकार
से तू कह अथवा सुन, लेकिन
सबके विस्मरण
के बिना तुझे शांति
न मिलेगी, स्वास्थ्य
न मिलेगा।’
एक
जर्मन विचारक
महर्षि रमण के
दर्शन को उगया।
दूर से आया था, बड़ी
आशायें ले कर
आया था। उसने
रमण के सामने
निवेदन किया
कि बहुत कुछ आशायें
ले कर आया हूं।
सत्य की
शिक्षा दें
मुझे।
सिखायें, सत्य
क्या है?
रमण
हंसने लगे।
उन्होंने कहा.
फिर तू गलत
जगह आ गया।
अगर सीखना हो
तो कहीं और जा।
यहां तो भूलना
हो तो हम
सहयोगी हो
सकते हैं।
विस्मरण करना
हो तो हम
सहयोगी हो
सकते हैं।
स्कूल है, कालेज
है, विश्वविद्यालय
है, समाज, सभ्यता, संस्कृति—सभी
का जोर सिखाने
पर है—सीखो!
संस्कार पर।
धर्म तो आग है।
जला दो सब!
भस्मीभूत हो
जाने दो सब जो
सीखा!
शिक्षा
और धर्म में
एक मौलिक विरोध
है। शिक्षा
भरती है
संस्कारों से; धर्म
करता है शून्य।
शिक्षा भरती
है स्मृति को;
धर्म करता
है स्मृति से
मुक्त। जब तक
कुछ याद है तब
तक कांटा गड़ा
है। चित्त ऐसा
चाहिए कि
जिसमें कोई
काटा गड़ा न रह जाये।
इसका यह अर्थ
नहीं कि
ज्ञानी को कुछ
याद नहीं रहता,
कि उसे अपने
घर का पता भूल
जाता है या
अपना नाम—ठिकाना
भूल जाता है; या लौट कर
आयेगा तो
पहचान न सकेगा
कि यह मेरी
पत्नी है, यह
मेरा बेटा है।
स्मृति होती
है, लेकिन
स्मृति मालिक
नहीं रह जाती।
स्मृति
यंत्रवत होती
है।
साधारणत:
हालत उल्टी है, स्मृति
मालिक हो गई
है। स्मृति के
अतिरिक्त
तुम्हारे पास
कोई खुला आकाश
नहीं। स्मृति
के बादलों ने
सब ढांक लिया
है। तुम गुलाब
के .फूल को
देखते हो, देख
भी नहीं पाते
कि तुम्हारी
स्मृति
सक्रिय हो
जाती है; कहती
है : गुलाब का
फूल है, सुंदर
है, पहले
भी देखे थे, इससे भी
सुंदर देखे
हैं। स्मृति
ने पर्दे डाल
दिये; जो
सामने था, चूक
गये। यह जो
सामने मौजूद
था गुलाब का
फूल, यह जो
उपस्थिति थी
परमात्मा की
गुलाब के फूल
में, इससे
संबंध न बन
पाया, बीच
में बहुत—सी
स्मृतियां आ
गईं।
कल
किसी ने
तुम्हें गाली
दी थी, आज तुम
उसे मिलने गये,
राह पर मिल
गया या तुम्हारे
घर मिलने
स्वयं आ गया।
कल की गाली
अगर बीच में
खड़ी हो जाये
तो स्मृति के
तुम गुलाम हो
गये। हो सकता
है, यह
आदमी क्षमा
मांगने आया हो।
लेकिन
तुम्हारी कल
की गाली, इसने
कल गाली दी थी,
वैसी याद
तुम्हें
तव्यण बंद कर
देगी; तुम
इस मनुष्य के
प्रति मुक्त न
रह जाओगे, खुले
न रह जाओगे।
इसकी क्षमा
में भी
तुम्हें
क्षमा न दिखाई
पड़ेगी, कुछ
और दिखाई
पड़ेगा. 'शायद
धोखा देने आया।
शायद डर गया, इसलिए आया।
शायद मैं कहीं
बदला न लूं
इसलिए आया।’ कल की गाली
अगर बीच में
खड़ी है तो इस
आदमी के भीतर
जो क्षमा
मांगने का भाव
जगा है, वह
तुम न देख
पाओगे, वह
विकृत हो
जायेगा। तुम
गाली की ओट से
देखोगे न, गाली
की छाया पड़
जायेगी! कल
गाली दे गया
था, ऐसा तो
ज्ञानी को भी
होता है, लेकिन
कल की गाली आज
बीच में नहीं
आती। बस इतना
ही फर्क होता
है।
शास्त्र
पढ़ो,
सुनो, लेकिन
शास्त्र सत्य
के और
तुम्हारे बीच में
न आये। बीच 'में आ गया तो
स्वास्थ्य तो
मिलेगा ही
नहीं, तुम
और अस्वस्थ हो
जाओगे। पंडित
और अस्वस्थ हो
जाता' है; भर जाती है
बुद्धि बहुत—से
शब्दों—सिद्धातों
से, लेकिन
भीतर सब कोरा
का कोरा रह
जाता है।
प्राण खाली रह
जाते, खोपड़ी
भर जाती है।
खोपड़ी वजनी हो
जाती है।
प्राण में कुछ
भी नहीं होता—राख
ही राख!
अष्टावक्र के
सूत्र अपूर्व
हैं! ऐसे दग्ध
अंगारों की
भांति कहीं और
दूसरे सूत्र
नहीं हैं।
जितनी बार यह
दोहराया जाये
कि अष्टावक्र
के सूत्र महाक्रांतिकारी
हैं, उतना
ही कम है। सात
बार कहो, सतत्तर
बार, सात
सौ सतत्तर बार,
तो भी
अतिशयोक्ति न
होगी।
इस
सूत्र को गहरे
से समझें।
'अनेक
शास्त्रों को
अनेक प्रकार
से तू कह अथवा सुन,
लेकिन सबके
विस्मरण के
बिना तुझे
शांति नहीं, स्वास्थ्य
नहीं।’
जब
तक स्मृति मन
पर डोल रही है, मन
का आकाश
विचारों से
भरा है, तब
तक शांति
कहां! विचार
ही तो अशांति
है! किन्हीं
के मन में
संसार के
विचार हैं और
किन्हीं के मन
में परमात्मा
के—इससे भेद
नहीं पड़ता।
किन्हीं के मन
में हिंदू
विचार हैं, किन्हीं के
मन में ईसाइयत
के—इससे भेद
नहीं पड़ता।
किसी ने
धम्मपद पढ़ा है,
किसी ने
कुरान—इससे
भेद नहीं पड़ता।
आकाश में बादल
हैं तो सूरज
छिपा रहेगा।
बादल न तो
हिंदू होते
हैं न मुसलमान;
न सांसारिक
न असांसारिक—बादल
तो बस बादल
हैं, छिपा
लेते हैं, आच्छादित
कर लेते हैं।
विचार
जब बहुत सघन
घिरे हों मन
में तो तुम
स्वयं को न
जान पाओगे।
स्वयं को जाने
बिना
स्वास्थ्य
कहां है!
स्वास्थ्य का
अर्थ समझ लेना।
स्वास्थ्य का
अर्थ है जो
स्वयं में
स्थित हो जाये; जो
अपने घर आ
जाये, जो
अपने केंद्र
में रम जाये।
स्वयं में रमण
है स्वास्थ्य।
स्व में ठहर
जाना है
स्वास्थ्य।
और अष्टावक्र
कहते हैं, तभी
शांति है।
शांति
स्वास्थ्य की
छाया है। अपने
से डिगा, अपने
से स्मृत कभी शांत
न हो पायेगा, डांवांडोल
रहेगा।
डांवांडोल
यानी अशांत
रहेगा!
और
हर विचार
तुम्हें
स्मृत करता है।
हर विचार
तुम्हें अपनी
धुरी से खींच
लेता है।
इसे
देखो। बैठे हो
शांत, कोई
विचार नहीं मन
में, तुम
कहां हो फिर? जब कोई
विचार नहीं तो
तुम वहीं हो जहां
होना चाहिए।
तुम स्वयं में
हो। विचार आया,
पास से एक
स्त्री निकल
गई और स्त्री
अपने पीछे
धुएं की एक
लकीर
तुम्हारे मन
में छोड़ गई।
नहीं कि
स्त्री को पता
है कि तुम इधर
बैठे हो, शायद
देखा भी न हो।
तुम्हारे लिए
निकली भी नहीं
है। सजी भी
होगी तो किसी
और के लिए सजी
होगी; तुमसे
कुछ संबंध भी
नहीं है।
लेकिन
तुम्हारे मन
में एक विचार
सघनीभूत हो गया—सुंदर
है, भोग्य
है! पाने की
चाह उठी। तुम
स्मृत हो गये।
तुम चल पड़े।
यह विचार
तुम्हें ले
चला कहीं—स्त्री
का पीछा करने
लगा। मन में
गति हो गई।
क्रिया पैदा
हो गई। तरंग
उठ गई। जैसे शांत
झील में किसी
ने कंकड़ फेंक
दिया! अब तक
शांत थी, क्षण
भर पहले तक
शांत थी, अब
कोई शांति न
रही। कंकड़ ने
तरंगें उठा
दीं। एक तरंग
दूसरे को
उठाती है, दूसरी
तीसरी को
उठाती है—तरंगें
फैलती चली
जाती हैं; दूर
के तटों तक
तरंगें ही
तरंगें!
एक
छोटा सा कंकड़
विराट तरंगों
का जाल पैदा
कर देता है।
यह स्त्री पास
से गुजर गई।
जरा—सी तरंग
थी,
जरा—सा कंकड़
था। लेकिन जिन
स्त्रियों को
तुमने अतीत
में जाना उनकी
स्मृतियां
उठने लगीं।
जिन
स्त्रियों को
तुमने चाहा
उनकी
याददाश्त आने
लगी। अभी क्षण
भर पहले झील
बिलकुल शांत
थी, कोई
कंकड़ न पड़ा था.
तुम बिलकुल
मौन बैठे थे, थिर, जरा
भी लहर न थी।
लहर उठ गई।
लेकिन
ध्यान रखना, यह
लहर स्त्री के
कारण ही उठती
हो, ऐसा
नहीं है। कोई
परमहंस पास से
निकल गया, सिद्ध
पुरुष, उसकी
छाया पड़ गई, और मन में एक
आकांक्षा उठ
गई कि हम भी
ऐसे सिद्ध
पुरुष कब हो
पायेंगे। बस
हो गया काम।
कंकड़ फिर पड़
गया। कंकड़
परमहंस का पड़ा
कि पर—स्त्री
का पड़ा, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। फिर चल
पड़े। फिर
यात्रा शुरू
हो गई। मन फिर
डोलने लगा।’कब मिलेगा
मोक्ष! कब ऐसी
सिद्धि फलित
होगी!' वासना
उठी, दौड़
शुरू हुई। दौड़
शुरू हुई, अपने
से तुम चूके।
जैसे
ही मन में एक
विचार भी
तरंगायित
होता है वैसे
ही तुम अपनी
धुरी पर नहीं
रह जाते; तुम
इधर—उधर हो
जाते हो। फिर
जितना प्रबल
विचार होता है
उतने ही दूर निकल
जाते हो।
निर्विचार
चित्त में ही
कोई स्वस्थ
होता है।
इसलिए
निर्विचार
होना ही ध्यान
है।
निर्विचार
होना ही समाधि
है।
निर्विचार
होना ही मोक्ष
की दशा है।
क्योंकि
स्वयं में बैठ
गये,
कहीं कोई
जाना— आना न
रहा!
अष्टावक्र
कहते हैं. न
आत्मा जाती, न आती; बस
मन आता—जाता
है। तुम अगर
मन के साथ
अपना संबंध
जोड़ लेते हो
तो तुम्हारे
भीतर भी आने—जाने
की भ्रांति
पैदा हो जाती
है। तुम तो
वहीं बैठे हो
जिस वृक्ष के
नीचे बैठे थे।
स्त्री नहीं गुजरी
थी, परमहंस
का दर्शन नहीं
हुआ था—तब तुम
जहां बैठे थे
अब भी वहीं
बैठे हो। शरीर
वहीं बैठा है,
आत्मा भी
वहीं है जहां
थी; लेकिन
मन डांवांडोल
हो गया। और मन
से अगर
तुम्हारा
लगाव है तो
तुम चल पड़े। न
चल कर भी चल
पड़े। कहीं न
गये और बड़ी
यात्रा होने
लगी।
कोई
अपने स्वभाव
से कहीं गया
नहीं है। हमने
सिर्फ स्वप्न
देखे हैं अशांत
होने के, हम
अशांत हुए
नहीं हैं।
अशांत हम हो
नहीं सकते। शांति
हमारा स्वभाव
है। लेकिन अशांति
के सपने हम
देख सकते हैं।
अशांत होने की
धारणा हम बना
सकते हैं।
अशांत होने का
पागलपन हम
पैदा कर सकते
हैं। फिर एक
पागलपन के
पीछे दूसरा
पागलपन चला
आता है। फिर
कतार लग जाती
.है।
'अनेक
शास्त्रों को
अनेक प्रकार
से तू कह अथवा सुन.।’
शास्त्र
को कहने और
सुनने से भी
क्या होगा? नये—नये
विचार, नई—नई
तरंगें उठेगी।
नये —नये भाव
उठेंगे। उन
नये —नये
भावों को
प्राप्त करने
की आकांक्षा,
अभीप्सा
उठेगी।
उन्हें पूरा
करने की जिज्ञासा,
मुमुक्षा
होगी। नये
स्वर्ग, नये
मोक्ष की
कल्पना सजग हो
जाएगी। दौड
पैदा होगी। और
सत्य तो यहां
है, वहां
नहीं।
इसलिए
कहीं जाने की
कोई बात नहीं
है। तुम जब
कहीं नहीं
जाते, तभी तुम
सत्य में होते
हो। तो
अष्टावक्र
कहते हैं. 'लेकिन
सबके विस्मरण
के बिना शांति
नहीं।’
तो
स्मरण से शांति
नहीं होगी, विस्मरण
से होगी। जो
जाना है, उसे
भूलने से होगी।
जानने से कोई
नहीं जान पाता,
मूलने से
जान पाता है।
और जब भी तुम
ऐसी विस्मरण
की दशा में
होते हो कि
कोई विचार
नहीं, बिलकुल
भूले, बिलकुल
खोये, लुप्त,
लीन, तल्लीन—वहीं,
उसी क्षण
प्रकाश की
किरण उतरने
लगती है।
कल
संध्या ही एक
संन्यासी से
मैं बात कर
रहा था।
संन्यासी
जार्ज
गुरजिएफ के
विचारों से
प्रभावित रहे
हैं। पश्चिम
से उनका आना
हुआ है और
गुरजिएफ की
साधना—पद्धति
से उन्होंने
प्रयोग भी
किया है वर्षों
से। गुरजिएफ
की साधना—पद्धति
में एक शब्द
है : 'सेल्फ—रिमेंबरिंग,
आत्मॅस्मरण।’
बड़ा कीमती
शब्द है। उसका
अर्थ वही होता
है जो ध्यान
का अर्थ होता है।
उसका वही अर्थ
होता है जो
कबीर, नानक
और दादू की
भाषा में
सुरति का होता
है। स्वयं की
स्मृति यानी
सुरति। लेकिन
शब्द में खतरा
भी है, क्योंकि
हम जिन लोगों
से बात कर रहे
हैं उनसे अगर
कहो स्वयं की
स्मृति सेल्फ—रिमेंबरिंग
तो खतरा है, क्योंकि
उन्हें स्वयं
का तो कोई पता
नहीं है, वे
स्वयं की
स्मृति कैसे
करेंगे? वे
तो उसी स्वयं
की स्मृति कर
लेंगे, जिसको
वे जानते हैं।
उनका 'स्वयं'
तो उनका
अहंकार है। तो
सेल्फ—रिमेंबरिंग,
आत्मस्मरण,
आत्मस्मरण
तो न बनेगा, अहंकार की
पुष्टि हो
जाएगी।
तो
मैंने उस
संन्यासी को
कहा कि तुम
कुछ दिन के
लिए यह बात ही
भूल जाओ। मैं
तो तुमसे कहता
हूं
आत्मविस्मरण।
कुछ दिनों के
लिए तो तुम
अपने को भूलना
शुरू करो। यह
याद करने की
बात ठीक नहीं
है। जब एक बार
भी तुम अपने
को बिलकुल भूल
जाओगे, कोई
सुध—बुध न
रहेगी, ऐसी
मस्ती में आ
जाओगे, उसी
क्षण किरण
उतरेगी और
आत्मस्मरण
जागेगा।
आत्मस्मरण
तुम्हारे किए
नहीं होगा।
आत्मा की
स्मृति तो
उठेगी तब, जब
तुम सब
विस्मरण कर
दोगे।
यह
बात बड़ी
विरोधाभासी
मालूम पड़ती है
और आगे के
सूत्र और भी
विरोधाभासी
हैं,
इसलिए
विरोधाभास को
समझ लेना।
जीवन में एक
बड़ा गहरा नियम
है, और वह
नियम यह है कि
बहुत ऐसी
घटनाएं हैं कि
जब तुम जो
चाहते हो उसका
उल्टा परिणाम
होता है।
जैसे
एक आदमी रात
सोना चाहता है
और सोने के लिए
बहुत चेष्टा
करता है, उसकी
हर चेष्टा
सोने में बाधा
बन जाती है।
करता तो कोशिश
सोने की है, लेकिन जितनी
कोशिश करता है
उतनी ही नींद
मुश्किल हो
जाती है।
क्योंकि नींद
के लिए सब प्रयास
छूट जाना
चाहिए, तभी
नींद आती है।
नींद लाने का
प्रयास भी
नींद के आने
में बाधा है।
तो
अक्सर ऐसा हो
जाता है कि
जिन लोगों को
नींद नहीं आती, उनका
असली उपद्रव
यही है कि वे
नींद लाने की
बड़ी कोशिश
करते हैं।
भेड़ें गिनते
हैं, मंत्र
पढ़ते हैं, न
मालूम क्या—क्या
उपाय करते हैं;
जो जो बता
देता है, उसका
उपाय करते हैं।
लेकिन जितने
उपाय करते हैं,
उतने ही
जागे हो जाते
हैं, क्योंकि
हर उपाय जगाता
है। चेष्टा तो
श्रम है। श्रम
तो कैसे विराम
में जाने देगा?
मेरे
पास कोई आ
जाता है, जिसे
नींद नहीं आती।
और जब मैं उसे
पहली दफा सलाह
देता हूं तो वह
चौंक कर कहता
है : 'आप कह
क्या रहे हैं?
मैं वैसे ही
मरा जा रहा
हूं और आपकी
बात मान लूंगा
तो और झंझट हो
जायेगी।’ मैं
उससे कहता हूं
: 'नींद
नहीं आती तो
चार मील का
चक्कर लगाओ, दौड़ो।’ वह
कहता है. 'आप
कह क्या रहे
हैं, वैसे
ही तो मैं
परेशान हूं, दौड़ से तो और
मुश्किल हो
जायेगी। थोड़ी—बहुत
जो आ भी रही थी,
वह भी चली
जायेगी; मैं
और ताजा हो
जाऊंगा।’ मैं
उससे कहता हूं:
'तुम
प्रयोग करके
देखो।’
जीवन
में कई नियम
विरोधाभासी
हैं। तुम दौड़
कर जब थके—मांदे
आओगे, नींद आ
जायेगी।
इसलिए तो जो
दिन भर में थक
गया है, उसे
रात नींद आ
जाती है। जो
दिन भर
विश्राम करता
रहा, उसे
नींद नहीं आती।
अगर जिंदगी
तर्क से चलती
होती हो जो
दिन भर अपनी
आराम कुर्सी
पर रहा है, बिस्तर
पर लेटा रहा, उसको गहरी
नींद आनी
चाहिए रात में,
क्योंकि
दिन भर अभ्यास
किया है नींद
का तो रात में
नींद गहरी हो
जानी चाहिए।
लेकिन जीवन
गणित नहीं है।
जीवन बड़ा
विरोधाभासी
है। जो दिन भर
मिट्टी खोदता
रहा, पत्थर
तोड़ता रहा, वह रात
घर्राटे ले कर
सोता है। और
जिसने दिन भर
विश्राम किया,
वह रात भर
जागा रहता है,
नींद आती
नहीं। मगर इस
विरोधाभास
में बात सीधी
है। जब तुमने
दिन भर
विश्राम कर
लिया तो
विश्राम की
जरूरत न रही।
जिसने दिन भर
विश्राम नहीं
किया, उसने
विश्राम की
जरूरत पैदा कर
ली। जीवन
उल्टे से चलता
है।
तो
अगर स्वयं की
स्मृति लानी
हो तो स्वयं
को स्मरण करने
का प्रयास भर
मत करना, अन्यथा
भटक हो जायेगी,
भूल हो
जायेगी, बड़ी
भ्रांति होगी।
तुम तो
विस्मरण करना।
डूब जाना
कीर्तन में, कि नृत्य
में, कि
गान में, कि
संगीत में।
तुम भूल ही
जाना अपने को,
बिलकुल भूल
जाना, विस्मरण
कर देना। यह
भी भूल जाना, कौन हो तुम, क्या
तुम्हारा पता—ठिकाना,
जानते नहीं
जानते, पंडित—
अपडित, पुण्यात्मा—पापी—सब
भूल जाना। ऐसे
छंदबद्ध हो
जाना किसी घड़ी
में कि कुछ भी
याद न रहे। सब
पांडित्य भूल
जाये, सब
पुण्य एक तरफ
रख देना—जहां
जूते उतार आये
वहीं पुण्य भी,
वहीं
पांडित्य भी,
वहीं छोड़
आना सारी
अस्मिता और
अहंकार को और
डूब जाना।
अचानक तुम पाओगे,
उसी डुबकी
में से कोई
चीज उभरने लगी।
तुम्हारे
भीतर एक नया
प्रकाश आने
लगा। बादल छंट
गये, सूरज
दिखाई पड़ने
लगा।
आत्मस्मरण
हुआ।
विस्मरण
की प्रक्रिया
से होता है
आत्मस्मरण।
और शान की भी
प्रक्रिया
वही है। जो
याद करने में
लगे रहते हैं, वे
भूल जाते हैं।
जो जितनी
ज्यादा याद
करने की
चेष्टा करते
हैं उतनी ही
भूल हो जाती
है। जो भूल
जाते, उन्हें
याद आ जाता है।
यह
धर्म की
आधारशिला है—यह
विरोधाभासी
जीवन की
प्रक्रिया।
इसलिए धर्म के
सारे सूत्र
पैराडाक्सिकल, विरोधाभासी
हैं। और धर्म
में तुम तर्क
मत खोजना, नहीं
तो चूक हो जायेगी।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन सुबह—सुबह
अपने डाक्टर
के घर गया, खांसता—खखारता
भीतर प्रवेश
किया। डाक्टर
ने कहा : ' आज
तो खांसी कुछ
ठीक मालूम
होती है।’ उसने
कहा 'होगी
क्यों नहीं, सात दिन से
अभ्यास जो कर
रहा हूं! ठीक
मालूम क्यों न
होगी? रात
भर अभ्यास
किया है।’ तुम
जो अभ्यास कर
रहे हो, तुम्हारे
अभ्यास से
तुम्हीं तो
मजबूत होओगे न!
रात भर अगर
खांसी का
अभ्यास किया
है तो खांसी
मजबूत हो गई।
अगर तुमने
आत्मस्मरण का
अभ्यास किया
तो तुम जिससे
आत्मस्मरण का
अर्थ लेते हो,
वही तो
मजबूत हो
जायेगा।
तुम्हारा तो
अहंकार ही तुम
समझते हो
आत्मा है।
तुम्हारा तो अज्ञान
ही तुम समझते
हो आत्मा है।
वही और मजबूत
हो कर बैठ गया।
तो जितना तुम
आत्मस्मरण का
अभ्यास करने
लगे, वस्तुत:
उतना ही
वास्तविक
आत्मा का
विस्मरण हो
गया।
तुम्हारा यह
झूठा स्मरण
हटे, यह
झूठे का
विस्मरण हो, तो सत्य का
स्मरण हो जाये।
झूठ हटे तो
सत्य अपने से
प्रगट हो जाये।
सूरज तो मौजूद
है, बादल
हटने चाहिए।
बादल हट गये
कि सूरज प्रगट
हो गया। सूरज
को प्रगट थोड़े
ही करना है, सूरज प्रगट
ही है।
अष्टावक्र
कहते हैं कि
ज्ञान तो
मनुष्य का स्वभाव
है,
इसलिए
शास्त्र में
कहां खोजता
है! शास्त्र
से अगर सीख
लेगा कुछ तो
पर्तें बन
जायेंगी
स्मृति की और
उन्हीं के
नीचे वह तेरा
जो स्वाभाविक
था वह दब
जायेगा।
स्वभाव को
प्रगट होने दे।
बाहर से मत ला,
भीतर से आने
दे।
ज्ञान, जिसको
हम कहते हैं, वह तो बाहर
से आता है।
समझो कि मैं
तुमसे कुछ कह
रहा हूं या
तुम अष्टावक्र
की गीता ही
पढ़ो, तो भी
बाहर से कुछ आ
रहा है। मैंने
तुमसे कुछ कहा,
बाहर से कुछ
आया। इसे
तुमने इकट्ठा
कर लिया। यह
तुम्हारा
स्वभाव तो
नहीं है। यह
तो बाहर से
आयो, विजातीय
है। यह
विजातीय अगर
बहुत इकट्ठा
हो गया तो
तुम्हारे
भीतर जो पड़ा
हुआ था उसके
प्रगट होने
में अड़चन हो
जायेगी। यह
बाधा बन
जायेगा।
जैसे
हम कुआ खोदते
हैं तो पानी
तो है ही, पानी
थोड़े ही हमें
लाना पड़ता है
कहीं से। पानी
तो जमीन के
नीचे बह ही
रहा है। उसके
झरने भरे हैं।
हम इतना ही
करते हैं कि
बीच की मिट्टी
की पर्तों को
अलग कर देते
हैं, पानी
प्रगट हो जाता
है।
अष्टावक्र
कहते हैं, ज्ञान
तो स्वभाव है।
उसके तो झरने
तुम्हारे
भीतर हैं ही।
तुम बस जो बीच
में मिट्टी की
पर्तें जम गई
हैं, उन्हें
अलग कर दो। और
मिट्टी की बड़ी
से बड़ी पर्तें
जम गई हैं ज्ञान
के कारण। किसी
की पर्त वैद
से बनी, किसी
की कुरान से, किसी कि
बाइबिल से, किसी ने
कहीं से सुन
कर इकट्ठा
किया, किसी
ने कहीं से
सुन कर इकट्ठा
किया। बिना
जाने तुमने
सुन—सुन कर जो
इकट्ठा कर
लिया है, उसे
भूलो।
तथापि
न तव
स्वास्थ्य
सर्वविस्मरणादृते।
'जब तक तू सब न
भूल जाये तब
तक तुझे
स्वास्थ्य उपलब्ध
न होगा।’
लेकिन
हमारा तो शब्द
पर बड़ा भरोसा
है और हमें
शब्द के माधुर्य
में बड़ी
प्रीति है।
शब्द मधुर
होते भी हैं।
शब्द का भी
संगीत है और
शब्द का भी
अपना रस है।
इसलिए तो
काव्य
निर्मित होता
है। इसलिए
शब्द की जरा—सी
ठीक व्यवस्था
से संगीत—निर्माण
हो जाता है।
फिर शब्द में
हमें रस है क्योंकि
शब्द में बडे
तर्क छिपे है।
और तर्क हमारे
मन को बड़ी
तृप्ति देता
है। अंधेरे
में हम भटकते
हैं,
वहां तर्क
से हमें सहारा
मिल जाता' लगता
है कि चलो कुछ
नहीं जानते; लेकिन कुछ
तो हिसाब
बंधने लगा, कुछ तो' बात
पकड में आने
लगी, एक
धागा तो हाथ
में आया, तो
धीरे— धीरे
इसी धागे के
सहारे और भी
पा लेंगे। और
हमारा छपे हुए
शब्द पर तो
बड़ा ही आग्रह
है।
एक
मित्र मुझे
मिलने आये। वे
कहने लगे. 'आपने
जो बात कही, वह किस
शास्त्र में
लिखी है?' मैंने
कहा 'किसी
शास्त्र में
लिखी हो तो
सही हो जायेगी?
सिर्फ लिखे
होने से सही
हो जायेगी? अगर सही है
तो लिखी न हो
शास्त्र में
तो भी सही है
और गलत है तो
सभी
शास्त्रों
में लिखी हो
तो गलत है।
बात को सीधी
क्यों नहीं
तौलते?' वे
कहने लगे : 'वह
तो ठीक है, लेकिन
फिर भी आप यह बतलाये
कि किस
शास्त्र में
लिखी है?' तो
मैंने उसे कहा
कि मुल्ला
नसरुद्दीन की
दुर्घटना हो
गई, कार
टकरा गई एक
ट्रक से, बड़ी
चोट लगी।
अस्पताल में
भर्ती हुआ।
डाक्टर ने
मरहम—पट्टी की
और कहा कि 'घबरा
मत नसरुद्दीन,
कल सुबह तक
बिलकुल ठीक हो
जाओगे। बड़े
मियां, सुबह
तशरीफ ले जाना।’
लेकिन
दूसरे दिन
सुबह डाक्टर
भागा हुआ अंदर
आया और बोला
कि बड़े मियां,
रुको—रुको,
कहां जा रहे
हो? अभी—
अभी अखबार में
मैंने पढ़ा है
कि आपका
जबर्दस्त
ऐक्सीडेन्ट
हुआ है, मुझे
दुबारा देखना
पड़ेगा।
अखबार
में जब पढ़ा तब
बात और हो गई!
रामकृष्ण
कहते थे कि
उनका एक शिष्य
था,
वह सुबह
अखबार पढ़ रहा
था। उसकी
पत्नी बोली. 'क्या अखबार पढ़
रहे हो! अरे
रात पडोस में
आग लग गई!' उसने
कहा. 'अखबार
में तो खबर ही
नहीं है, बात
झूठ होगी।’ पड़ोस में आग
लगी, मगर
वह आदमी अखबार
में देख रहा
है!
हमें
छपी बात पर
बड़ा भरोसा है।
इसलिए तो बात
को छाप कर
धोखा देने का
उपाय बड़ा आसान
है। इसलिए तो
विज्ञापन
इतना प्रभावी
हो गया है
दुनिया में।
छपा हुआ
विज्ञापन
एकदम प्रभाव
लाता है। बड़े —बड़े
अक्षरों में
लिखी हुई बात
एकदम छाती में
प्रवेश कर
जाती है। बड़े
अक्षर को
इंकार कैसे
करो! जब इतना
छपा हुआ है तो
ठीक ही होगा।
छपी बात कहीं
गलत होती है!
और अगर बड़े —बड़े
लोग,
प्रतिष्ठा
है जिनकी, साख
है जिनकी, बात
को कह रहे हों
तब तो फिर गलत
होती ही नहीं।
लेकिन
सत्य का छपे
होने से क्या
संबंध है? शब्द
से हमारा मोह
थोड़ा क्षीण
होना चाहिए।
सत्य का संबंध
शून्य से
ज्यादा है, निःशब्द से
ज्यादा है।
परमात्मा की
कोई भाषा तो
नहीं, लेकिन
सब दुनिया के
धर्म दावा
करते हैं।
हिंदू कहते
हैं 'संस्कृत
देववाणी है।
वह परमात्मा
की भाषा है।’ यहूदी कहते
हैं 'हिलू
परमात्मा की
भाषा है।’ मुसलमानों
से पूछो तो
कहेंगे : ' अरबी।’
जैनों से
पूछो तो
कहेंगे 'प्राकृत।’
बौद्धों से
पूछो तो
कहेंगे 'पाली।’
दूसरे
महायुद्ध में
एक जर्मन और
एक अंग्रेज
जनरल की बात
हो रही थी
युद्ध के समाप्त
हो जाने के
बाद। वह जर्मन
जनरल पूछ रहा
था कि मामला
क्या है, हम
हारते क्यों
चले गये? हमारे
पास तुमसे
बेहतर युद्ध
की साधन—सामग्री
है, ज्यादा
वैज्ञानिक।
तकनीकी
दृष्टि से हम
तुमसे ज्यादा
विकसित हैं, तो फिर हम
हारे क्यों?
तो
उस अंग्रेज ने
कहा. हार का
कारण और है।
हम युद्ध के
पहले
परमात्मा से
प्रार्थना
करते हैं।
जर्मन
बोला: यह भी
कोई बात हुई!
प्रार्थना तो
हम भी करते हैं।
वह
अंग्रेज
हंसने लगा।
उसने कहा कि
करते होओगे, लेकिन
कभी सुना
तुमने कि
परमात्मा को
जर्मन भाषा
आती है? अंग्रेजी
में की थी
प्रार्थना?
हर
भाषा का बोलने
वाला सोचता है
कि उसकी भाषा परमात्मा
की भाषा है, देववाणी!
इलहाम की
भाषा!
कोई
भाषा
परमात्मा की
नहीं है। सब
भाषायें आदमी
की हैं।
परमात्मा की
भाषा तो मौन
है। तो
परमात्मा—रचित
कोई भी
शास्त्र तो हो
नहीं सकता। सब
शास्त्र
मनुष्य के
रचित हैं।
हिंदू कहते
हैं,
वेद
अपौरुषेय हैं,
पुरुष ने
नहीं बनाये।
मुसलमान कहते
हैं, कुरान
उतरी, बनाई
नहीं गई। सीधी
उतरी आकाश से!
मुहम्मद ने
झेली, यह
बात और; मगर
बनाई नहीं।
इलहाम हुआ, वाणी का
अवतरण हुआ।
इस
तरह के दावे
सभी करते हैं।
इन दावों के
पीछे एक
आकांक्षा है
कि अगर हम यह दावा
कर दें कि
हमारा
शास्त्र
परमात्मा का
है तो लोग
ज्यादा भरोसा
करेंगे।
परमात्मा का
है तो भरोसे
योग्य हो
जायेगा। फिर
ये सारे
दावेदार
स्वभावत: यह
भी दावा करते
हैं कि दूसरे
का शास्त्र
परमात्मा का
नहीं है, क्योंकि
अगर सभी
शास्त्र
परमात्मा के
हैं तो फिर
दावे का कोई
मूल्य नहीं रह
जाता। तो
कुरान वेद के
खंडन में लगा
रहता है; वेद
कुरान के खंडन
में लगे रहते
हैं। हिंदू
मुसलमान से
विवाद करते
रहते हैं, ईसाई
हिंदू से
विवाद करते
रहते हैं। यह
विवाद चलता
रहता है।
शास्त्र
से विवाद पैदा
हुआ है, सत्य
तो पैदा नहीं
हुआ। और
शास्त्र से
संघर्ष पैदा
हुआ है, संप्रदाय
पैदा हुए हैं,
लोग बंटे और
कटे और हिंसा
और हत्या हुई
है।
परमात्मा
की भाषा मौन
है। इसका यह
अर्थ नहीं है
कि शब्द कोई
शैतान की भाषा
है। इसका इतना
ही अर्थ है कि
सत्य तो तभी अनुभव
होता है जब
कोई मनुष्य
परिपूर्ण मौन
को उपलब्ध
होता है।
लेकिन जब
मनुष्य कहना
चाहता है तो
उसे माध्यम का
सहारा लेना
पड़ता है। तब
जो उसने जाना
है वह उसे
शब्द में रखता
है;
बस रखने में
ही अधिक तो
समाप्त हो
जाता है।
ऐसा
ही समझो कि
तुम गये
समुद्र के तट
पर और तुमने
उगजे सूरज को
देखा, फैली
देखी लाली
तुमने सारे
सागर पर, पक्षियों
के गीत, सुबह
की ताजी हवा, मदमस्त तुम
हो गये! तुमने
चाहा कि घर आओ,
अपनी पत्नी—बच्चों
को भी यह खबर
दो। तो तुमने
एक कागज पर
चित्र बनाया
सूरज के उगने
का, पानी
की लहरों का, वृक्ष हवा
में झुके—झुके
जा रहे हैं! वह
चित्र ले कर
तुम घर आये।
क्या
तुम्हारा
चित्र वही खबर
लायेगा जो
तुम्हें
अनुभव हुआ था?
तुम्हारा
चित्र तो मर
गया; यद्यपि
तुम्हारा
चित्र
तुम्हारे
अनुभव से पैदा
हुआ, तुमने
सागर देखा, सुबह का
उगता सूरज
देखा। लेकिन
जैसे ही तुमने
इस अनुभव को
कागज पर उतारा,
यह तो
मुर्दा हो गया।
या कि तुम एक
संदूक में बंद
करके ला सकते
हो? सागर
की हवा, सूरज
की किरणें, एक संदूक
में बंद कर
लेना, घर
ले आना ताला
लगा कर—जब घर आ
कर खोलोगे तो
संदूक खाली
मिलेगी। न तो
ताजी हवा होगी
और न धूप की
किरणें होंगी।
अंधेरे
को तो पालतू बना
भी लो, धूप को
तो बंद नहीं
किया जाता।
धूप तो बंद
होते ही मर
जाती है।
सौंदर्य को
कैसे बांध कर
लाओगे? कविता
लिखोगे? गीत
बनाओगे?
अब
हमारे पास और
भी बेहतर साधन
हैं,
सुंदर से
सुंदर और
बहुमूल्य से
बहुमूल्य कैमरा
ले जा सकते हो।
रंगीन चित्र
ले आ सकते हो।
फिर भी चित्र
मरा हुआ होगा।
चित्र में कोई
प्राण तो न
होंगे। वह जो
सूरज वहां उगा
था, बढ़ रहा
था, उठा जा
रहा था आकाश
की तरफ।
तुम्हारे
चित्र का सूरज
तो रुका हुआ
होगा, वह
तो फिर बढेगा
नहीं। वह जो
सूरज तुमने
सागर पर देखा
था, वह
थोड़ी देर बाद,
दोपहर का
सूरज हो
जायेगा, थोड़ी
देर बाद सांझ
का हो जायेगा,
डूबेगा, अस्त
हो कर अंधेरे
में खो जायेगा,
विराट
अंधकार छा
जायेगा।
तुम्हारा
चित्र तो अटका
रह गया। वह तो
फिर दोपहर
नहीं होगी, सांझ नहीं
होगी, अंधेरा
नहीं घिरेगा।
तुम्हारा
चित्र तो मरा
हुआ है। वह तो
एक क्षण की
खबर है। जो
तुमने देखा था,
वह जीवंत था।
उस जीवंत को
तुमने सिकोड़
लिया एक
मुर्दा फोटोग्राफ
में और बंद कर
लिया। वह एक
क्षण की खबर
है! वह
वास्तविक
नहीं।
तुम्हें
कई बार यह
अनुभव हुआ
होगा—अनेक
लोगों को
अनुभव होता है।
फोटोग्राफर आ
कर तुम्हारा
फोटो उतारता
है और तुम
कहते हो. नहीं, जंचता
नहीं। अब
फोटोग्राफ
झूठा तो हो ही
नहीं सकता, एक बात।
क्योंकि
कैमरे को कुछ
तुमसे
दुश्मनी नहीं
है। कैमरा तो
वही कहेगा जो
था। फिर भी
तुम कहते हो, मन भरता
नहीं; नहीं,
यह मेरे
चेहरे जैसा
चेहरा लगता
नहीं, बात
क्या है? बात
इतनी ही है कि
तुमने अपने
चेहरे को जब
भी दर्पण में
देखा है तो वह
जीवित था।
तुम्हारी जो
भी याददाश्त
है, वह
जीवित चेहरे
की है और यह
फोटोग्राफ तो
मरा हुआ है।
इससे जीवित और
मुर्दे में
मेल नहीं
बैठता।
जो
शून्य में
जाना है, जब
शब्द में कहा
जाता है तो बस
इतना ही अंतर
हो जाता है।
अंतर बड़ा है।
यद्यपि
निश्चित ही यह
चित्र
तुम्हारा ही
है, तुम्हारे
ही चेहरे की
खबर देता है, तुम्हारे ही
नाक—नक्या की
खबर देता है, किसी और का
चित्र नहीं है,
बिलकुल
तुम्हारा है,
फिर भी
तुम्हारा
नहीं है; क्योंकि
तुम जीवित हो
और यह चित्र
मुर्दा है। तो
शब्द भी ऐसे
तो अनुभव से ही
आते हैं, लेकिन
शब्द के
माध्यम से जब
सत्य गुजरता
है तो कुछ
विकृत हो जाता
है।
तुमने
देखा, एक सीधे
डंडे को पानी
में डालो, पानी
में जाते ही
तिरछा मालूम
होने लगता है।
पानी का
माध्यम, सूरज
की किरणों का
अलग ढंग से
गुजरना, सीधा
डंडा तिरछा
मालूम होने
लगता है पानी
में। बाहर
खींचो, सीधा
का सीधा! फिर
पानी में डालो,
फिर तिरछा।
वैज्ञानिक से
पूछो। वह कहता
है, किरणों
के नियम से
ऐसा होता है।
किसी नियम से
होता हो, लेकिन
एक बात पक्की
है कि सीधा
डंडा पानी में
डालने पर
तिरछा दिखाई
पड़ने लगता है,
झुक जाता है।
सत्य
को जैसे ही शब्द
में डाला, तिरछा
हो जाता है, सीधा नहीं
रह जाता; हिंदू
बन जाता, मुसलमान
बन जाता, ईसाई
बन जाता, जैन
बन जाता, सत्य
नहीं रह जाता
है। सत्य को
जैसे ही शब्द
में डालो, संप्रदाय
बन जाता है, सिद्धात बन
जाता है, सत्य
नहीं रह जाता।
और फिर उसको
तुम याद कर लो
तो अड़चन होती
है।
शब्द
भी परमात्मा
के हैं, इससे
कोई इंकार
नहीं। शब्द भी
उसी के हैं, क्योंकि सभी
उसी का है।
लेकिन फिर भी
शब्द से जिसने
परमात्मा की
तरफ जाने की
कोशिश की वह
मुश्किल में
पड़ेगा।
ऐसा
ही समझो कि
तुम राह से गुजर
रहे हो, राह
पर तुम्हारे
पीछे
तुम्हारी
छाया बन रही
है—छाया
निश्चित ही
तुम्हारी है;
लेकिन अगर
मैं तुम्हारी
छाया को पकडूं
तो तुम्हें
कभी न पकड़
पाऊंगा। फिर
भी मैं यह
नहीं कह सकता
कि छाया
तुम्हारी नहीं
है। छाया
तुम्हारी ही
है। तो भी
छाया को पकड़ने
से तुम्हें न
पकड़ पाऊंगा।
ही, उल्टी
बात हो सकती
है. तुम्हें
पकड़ लूं तो
तुम्हारी
छाया पकड़ में
आ जाये।
रामतीर्थ
एक घर के
सामने से
निकलते थे और
एक छोटा बच्चा—सर्दी
की सुबह होगी, धूप
निकली थी और
धूप में धूप
ले रहा था—उसको
अपनी छाया
दिखाई पड़ रही
थी, उसको
पकड़ने को वह
बढ़ रहा था और
पकड़ नहीं पा
रहा था तो बैठ
कर रो रहा था।
उसकी मां उसे
समझाने की
कोशिश कर रही
थी कि पागल...
रामतीर्थ खड़े
हो कर देखने
लगे। लाहौर की
घटना है। खड़े
हो कर देखने
लगे। देखा कि
बच्चे की
चेष्टा, मां
का समझाना—लेकिन
बच्चे की समझ
में नहीं आ
रहा है। आये
अंदर आगन में
और उस बच्चे
का हाथ पकड़ कर
बच्चे के सिर
पर रखवा दिया।
जैसा ही बच्चे
ने अपने सिर
पर हाथ रखा, उसने देखा
छाया में भी
उसका हाथ सिर
पर पड़ गया है।
वह खिलखिला कर
हंसने लगा।
रामतीर्थ ने
कहा. तेरे
माध्यम से
मुझे भी शिक्षा
मिल गई। छाया
को पकड़ो तो
पकड़ में नहीं
आती; मूल
को पकड़ लो तो
छाया पकड़ में
आ जाती है।
छाया को पकड़ने
से मूल पकड़
में
नहीं
आता।
अगर
निःशब्द समझ
में आ जाये तो
सब शब्द समझ
में आ जाते
हैं। अगर
निःशब्द का
अनुभव हो जाये
तो सभी
शास्त्रों की
व्याख्या हो
जाती है; सभी
शास्त्र सत्य
सिद्ध हो जाते
हैं। लेकिन
शास्त्र को
पकड़ने से मूल
की पकड़ नहीं आती।
शब्द
तुमने रचे
जैसे
मेंहदी रची
जैसे
बैंदी रखी
शब्द
तुमने रचे
प्रेम
अक्षर थे ये
दो अनर्थ के
अर्थ
तुमने दिया
मैं, यह
जो ध्वनि थी
अंध
बर्बर गुफाओं
की
अपने
को भर कर
उसे
नूतन
अस्तित्व
दिया
बाहों
के घेरे
ज्यों
मंडप के फेरे
ममता
के स्वर
जैसे
वेदी के मंत्र
गुंजरित
मुंह अंधेरे
शब्द
तुमने रचे
जैसे
प्रलयंकर
लहरों पर
अक्षयवट
का एक पत्ता
बचे
शब्द
तुमने रचे।
शब्द
भी आते तो उसी
मूल स्रोत से
हैं जहां से मौन
आता है।
शब्द
तुमने रचे
वे
भी प्रभु के
हैं। शास्त्र
भी उसके हैं।
लेकिन ध्यान
रहे,
शास्त्र से
उसकी तरफ जाने
का मार्ग नहीं
है। उसकी तरफ
से आओ तो
शास्त्र को
समझने की
सुविधा है।
इसलिए
मैं एक बात
तुमसे कहना
चाहूंगा :
शास्त्र को पढ़
कर किसी ने
कभी सत्य नहीं
जाना; लेकिन
जिसने सत्य
जाना उसने सब
शास्त्र जान लिए।
शास्त्र को
पढ़ने का मजा
सत्य को जानने
के बाद है, यह
तुम्हें
अनूठा लगेगा। क्योंकि
तुम कहोगे, फिर पढ़ने का
सार क्या!
लेकिन मैं
तुमसे फिर कहता
हूं शास्त्र
को पढ़ने का
मजा सत्य को
जानने के बाद
है। एक बार
तुमने सत्य को
जान लिया थोड़ा
स्वाद मिल गया;
फिर
तुम्हें जगह—जगह
उसकी ही झलक
मिलेगी। फिर
छाया पकड़ में
आने लगेगी।
फिर तुम पढ़ो
गीता को, पढ़ो
कुरान को, पढ़ो
धम्मपद को—अचानक
तुम पाओगे. 'अरे वही! ठीक!'
तुम्हारे
प्राणों से
अचानक
स्वीकार का
भाव उठेगा कि
ठीक यही, यही
तो मैंने भी
जाना!
सब
शास्त्र
तुम्हारे
गवाही हो
जायेंगे।
शास्त्र
साक्षी हैं।
और
जिन
महामुनियों
ने शास्त्रों
को रचा, उन्होंने
इसलिए नहीं
रचा है कि तुम
कंठस्थ करके
ज्ञानी हो जाओ।
उन्होंने
इसलिए रचा है
कि जब तुम्हें
स्वाद लगे तब
तुम्हें
गवाहियां मिल
जायें। तुम
अकेले न रहो
रास्ते पर।
ऐसा न हो कि
तुम घबरा जाओ
कि यह क्या हो
रहा है! यह
किसी को हुआ
पहले कि नहीं
हुआ? जो
मुझे हो रहा
है, वह
कल्पना तो
नहीं है? जो
मुझे हो रहा
है, वह कोई
मन— का जाल ही
तो नहीं है? जो मुझे .हो
रहा है, वह
मैं ठीक
रास्ते पर चल
रहा हूं या
भटक गया हूं?
शास्त्र
तुम्हारी
गवाहियां हैं।
जब तुम अनुभव
करने लगोगे तो
शास्त्र
तुम्हें
सहारा देने
लगेंगे। और
शास्त्र
तुम्हें
हिम्मत देंगे, पीठ
थपथपायेंगे
कि तुम ठीक हो,
ठीक रास्ते
पर हो, ऐसा
ही हुआ है,. ऐसा
ही सदा होता
रहा है—और आगे
बढ़े चलो! जैसे—जैसे
तुम आगे बढ़ोगे
सत्य की तरफ, वैसे—वैसे
तुम्हें शब्द
में भी उसी की
छाया और झलक मिलने
लगेगी।
ऐसा
समझो, अगर मैं
तुम्हें
जानता हूं तो
तुम्हारे
फोटोग्राफ को
भी पहचान
लूंगा। इससे
उल्टी बात
जरूरी नहीं है।
तुम्हारे
फोटोग्राफ को
पहचानने से
तुम्हें जान
लूंगा, यह
पक्का नहीं है।
क्योंकि
फोटोग्राफ तो
थिर है।
तुम्हारे
बचपन का चित्र
आज तुम्हारे
चेहरे से कोई
संबंध नहीं
रखता। तुम तो
जा चुके आगे, बढ़ चुके आगे।
और एक ही आदमी
के चित्र अलग—
अलग ढंग से
लिए जायें, अलग— अलग कोण
से लिए जायें,
तो ऐसा
मालूम होने
लगता है कि
अनेक आदमियों
के चित्र हैं।
ऐसा
हुआ,
स्टेलिन के
जमाने की घटना
है। एक आदमी
ने चोरी की और
उसके दस चित्र—उसी
एक आदमी के दस
चित्र— एक
बांये से, एक
दाये से, एक
पीछे से, एक
सामने से, एक
इधर से, एक
उधर से, दस
चित्र उसके
भेजे गये
पुलिस स्टेशन
में कि इस
आदमी का पता
लगाओ। सात दिन
बाद जब पूछताछ
की गई कि पता
लगा? तो
उन्होंने कहा
कि दसों आदमी
बंद कर लिए
गये। दसों! वे
एक आदमी के
चित्र थे।
उन्होंने कहा
कि अब बहुत
देर हो चुकी, क्योंकि
दसों ने
स्वीकार भी कर
लिया है अपराध।
तो रूस की तो
हालत ऐसी है
कि जो चाहो
स्वीकार करवा
लो। अब तो देर
हो चुकी है, उन्होंने
कहा, कि वे
दस स्वीकार भी
कर चुके, दस्तखत
भी कर चुके कि
ही, उन्होंने
ही चोरी की है।
दस आदमी पकड़
लिए एक आदमी
के चित्र से!
यह संभव है।
इसमें अड़चन
नहीं है।
तुम्हीं
कभी अपने अलबम
को उठा कर
देखो। अगर गौर
से देखोगे तो
तुम्हीं
कहोगे, तुम
कितने बदलते
जा रहे हो!
कितने बदलते
जा रहे हो! दो—चार—दस
साल के बाद
तुम्हें
मित्र मिल
जाता है तो पहचान
में नहीं आता।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
पुल पर से
गुजर रहा था।
उसने सामने एक
आदमी को देखा।
जा कर जोर से
उसकी पीठ पर
धप्पा मारा और
कहा. '
अरे प्यारे,
बहुत दिन
बाद दिखे, कई
साल बाद दिखे!'
वह आदमी
बहुत चौंका भी,
गिरते—गिरते
बचा भी। यह
कौन प्रेमी
मिल गया! उसने लौट
कर देखा, कुछ
पहचान में भी
नहीं आया। तो
उसने कहा कि
क्षमा करिए, शायद आप
किसी और आदमी
के धोखे में हैं।
'अरे', मुल्ला
ने कहा, 'तुम
मुझे मत चराओ!
हालांकि यह
मैं देख रहा
हूं कि तुम
बड़े मोटे—तगड़े
थे, एकदम
दुबले हो गये।
इतना ही नहीं,
तुम छ: फीट
लंबे थे, एकदम
पांच फीट के
हो गये! मगर
तुम मुझे धोखा
न दे सकोगे।
तुम वही हो न
अब्दुल रहमान?'
उस
आदमी ने कहा : ' क्षमा
करिए, मेरा
नाम फरीद है।’
उसने कहा : 'हद हो गई, नाम
भी बदल लिया!
मगर तुम मुझे
धोखा न दे
सकोगे।’
दस
साल के बाद
मित्र को भी
पहचानना
मुश्किल हो
जाता है। दस
साल के बाद
अपने बेटे को
भी पहचानना
मुश्किल हो
जाता है। दस
साल अगर देखो
न..। रोज—रोज
देखते रहते हो, इसलिए
आसानी है; क्योंकि
रोज—रोज धीरे —
धीरे
परिवर्तन
होता रहता है
और तुम धीरे —
धीरे
परिवर्तन से
राजी होते
जाते हो।
नहीं, चित्र
से पता लगाना
संभव नहीं। ही,
असली आदमी
पता हो तो
चित्रों में
उसकी झलक तुम
खोज ले सकते
हो। असली से
छाया का सदा
पता मिल जाता
है।
इस
सूत्र का इतना
ही अर्थ है कि
तुम शब्दों में
मत खो जाना, निःशब्द
की तलाश करना।
और निःशब्द की
तलाश करना हो
तो शास्त्र को,
सिद्धात को,
फिलासफी को
विस्मरण करना।
'हे विश, भोग,
कर्म अथवा
समाधि को भला
साधे, तो
भी तेरा चित्त
उस स्वभाव के
लिए जिसमें सब
आशायें लय
होती हैं, अत्यंत
लोभायमान
रहेगा।’
यह
सूत्र बड़ा
बहुमूल्य है।
अष्टावक्र
कहते हैं कि
तू चाहे
शास्त्र को पढ़
कर कितना ही
ज्ञानी हो जा, विज्ञ
बन जा, महाज्ञानी
हो जा; तू
शास्त्र को पढ़
कर कितना ही
भोग कर ले, कर्म
कर ले; इतना
ही नहीं, समाधि
को भी साध ले
शास्त्र को पढ़
कर—तो भी तू
पायेगा कि
तेरे भीतर
स्वास्थ्य को
पाने की आकांक्षा
अभी बुझी नहीं;
स्वयं होने
की आकांक्षा
अभी
प्रज्वलित है।
क्योंकि
समाधि को भी
तू पा ले
शास्त्र को पढ़
कर, सम्हाल
ले अपने को, शांत भी बना
ले, जर्बदस्ती
ठोकपीट कर बैठ
जा बुद्ध की
तरह आसन में, शरीर को, मन
को समझा—बुझा
कर, बाध—बांध
कर व्यवस्था
में, अनुशासन
में किसी तरह
चुप भी कर ले—तो
भी तू स्वस्थ
न हो पायेगा।
भोग
कर्म समाधि वा
कुरु विज्ञ
तथापि ते
चाहे
तू भोग कर, कर्म
कर, चाहे
तू समाधि को
साध ले, शास्त्रीय
ज्ञान के आधार
पर...।
चित्तं
निरस्तसर्वाशमत्यर्थ
रोचयिष्यति।
फिर
भी तेरे भीतर
तू जानता ही
रहेगा कि अभी
मूल से मिलन
नहीं हुआ; कुछ
चूका—चूका है;
कुछ खाली—खाली
है।
इसलिए
पतंजलि भी
समाधि के दो
विभाग करते हैं।
एक को कहते
हैं : सविकल्प
समाधि।
सविकल्प
समाधि ऐसी है
कि अभी स्मरण
समाप्त नहीं
हुआ;
शास्त्र
अभी पुंछे
नहीं। मन शांत
हो गया है।
तुलनात्मक
ढंग से मन अब
पहले जैसा
अशांत नहीं है।
घर के करीब आ
गये हैं। शायद
सीढ़ी पर खड़े
हैं। लेकिन
अभी भी द्वार
के बाहर हैं।
सविकल्प
समाधि का अर्थ
है. अभी विचार
शेष है; विकल्प
मौजूद है। अभी
शास्त्र से
छुटकारा नहीं
हुआ। अभी
सिद्धातों की
जकड़ है। अभी
हिंदू हिंदू
है, मुसलमान
मुसलमान है।
अभी ब्राह्मण
ब्राह्मण है।
शूद्र शूद्र
है। अभी
मान्यताओं का
घेरा उखड़ा
नहीं। तो
पतंजलि भी
कहते हैं, जब
तक
निर्विकल्प
समाधि न हो
जाये, विचार—शून्यता
न आ जाये, सब
न खो जाये, आत्यंतिक
रूप से सारे
विचार विदा न
हो जायें, तब
तक अंतर्गृह
में प्रवेश न
होगा।
इसे
समझो! आदमी
चेष्टा करके
बहुत कुछ साध
सकता है। धोखे
देने के बड़े
उपाय हैं।
समझो, ब्रह्मचर्य
साधना है, उपवास
करने लगो।
धीरे— धीरे
भोजन कम होगा
शरीर में, वीर्य—ऊर्जा
कम पैदा
होगी।
वीर्य—ऊर्जा
कम पैदा होगी, वासना
कम मालूम
पड़ेगी। मगर यह
तुम धोखा दे
रहे हो। यह
वास्तविक
ब्रह्मचर्य न
हुआ।
स्त्रियों से
दूर हट जाओ, जंगल में
चले जाओ, उपवास
करो, रूखा—सूखा
भोजन करो, पुष्ट
भोजन न लो, शरीर
में ऊर्जा न
बने, शक्ति
न बने, स्त्रियों
से दूर रहे, कोई स्मरण न
आये, कोई
दिखाई न पड़े, कोई
उत्तेजना न
मिले— थोड़े
दिन में
तुम्हें
लगेगा कि
ब्रह्मचर्य सध
गया। वह
ब्रह्मचर्य
नहीं है। फिर
भोजन करो, फिर
लौट आओ बाजार
में—अचानक
ऊर्जा पैदा होगी,
फिर स्त्री
दिखाई पड़ेगी,
फिर वासना
पैदा हो
जायेगी।
यह
तो ऐसे ही हुआ
जैसे कि सूखे
दिनों में, गर्मी
के दिनों में
नदी का पानी
सूख जाता है, सिर्फ पाट
पड़ा रह जाता
है—सूखा पाट, रेत ही रेत!
फिर वर्षा
होगी, फिर
पानी भरेगा, फिर नदी पूर
से आ जायेगी।
गर्मी की नदी को
देख कर यह मत
सोच लेना कि
नदी मिट गई।
इतना ही जानना
कि पानी सूख
गया। वर्षा
होगी, फिर
पानी भर
जायेगा।
इसलिए
तुम्हारे
साधु—संन्यासी
डरे—डरे भोजन
करते हैं। एक
बार भोजन करते
हैं। उसमें भी
नियम बांधते—यह
न खायेंगे, वह
न खायेंगे; यह न
पीयेंगे, वह
न पीयेंगे। रूखा—सूखा
ताकि किसी तरह
शरीर में
ऊर्जा पैदा न
हो। ऊर्जा
पैदा होती है
तो अनिवार्य
रूप से शारीरिक—प्रक्रिया
से वीर्य
निर्मित होता
है। वीर्य
निर्मित होता
है तो भीतर
वासना पैदा होती
है। फिर
तुम्हारा
संन्यासी
भागा— भागा
फिरता है, छिपा—छिपा
रहता है। आंखें
नीची रखता है—स्त्री
दिखाई न पड़
जाये, कहीं
सौंदर्य का
पता न चल जाये।
यह डर, यह
भय, यह
भोजन की कमी, यह एक जगह
रहना, छिप
कर रहना, दूर
रहना समाज से—ये
सब नदी को
सुखा तो देते
हैं, मिटाते
नहीं।
तुम्हारे
संन्यासी को
कहो कि एक
महीने भर के लिए
ठीक से भोजन
करो,
ठीक से
विश्राम करो
ठीक से सोओ, आ कर समाज
में रहो—फिर
देखेंगे!
वर्षा होगी
नदी में, फिर
पूर आ जायेगा!
यह कोई
ब्रह्मचर्य न
हुआ, यह
ब्रह्मचर्य
का धोखा हुआ।
यह शास्त्र के
आधार पर
ब्रह्मचर्य
हुआ, सत्य
के अनुभव पर
नहीं। सत्य का
अनुभव बड़ा और
है। तब कोई इस
तरह के आयोजन
नहीं करने
पड़ते हैं।
तुम्हारा बोध
ही इतना
प्रगाढ़ हो
जाता है कि उस
बोध के प्रकाश
में वासना
क्षीण हो जाती
है। फिर
स्त्री से दूर
रहो कि पास, कोई फर्क
नहीं पड़ता है।
फिर यह भोजन
करो कि वह
भोजन करो, कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
लेकिन
घबराहट बनी
रहती है।
महात्मा
गांधी भैंस का
दूध नहीं पी
सकते थे।
घबराहट थी
ब्रह्मचर्य
खंडित हो जाने
की। फिर तो
गाय से भी
डरने लगे। फिर
तो बकरी का
दूध पीने लगे।
फिर तो बकरी
की साथ ले कर
चलने लगे।
कारण—बकरी के
दूध में वीर्य
को उत्पन्न
करने की क्षमता
बहुत कम है न
के बराबर है।
मगर यह कोई
बात हुई? यह तो
कोई बात न हुई।
यह तो भय हुआ।
और इस भांति
जो
ब्रह्मचर्य
ऊपर से थोप भी
लिया, वह
भीतर से तो
नहीं आ जायेगा।
भीतर तो मौजूद
रहेंगे बीज; वर्षा हो
जायेगी, फिर
अंकुरित होने
लगेंगे।
इसी
तरह तुम ध्यान
भी कर सकते हो।
अष्टावक्र
कहते हैं, समाधि
भी साध लो।
समाधि साधने
के कई ऊपरी
उपाय हैं।
जैसे
प्राणायाम को
अगर कोई ठीक
से साधे और धीरे—
धीरे श्वास पर
नियंत्रण कर
ले और श्वास
को रोकना सीख
जाये तो श्वास
के रुकते ही
विचार भी रुक
जाते हैं, क्योंकि
बिना श्वास के
विचार तो चल
ही नहीं सकते।
अब यह झूठी
तरकीब है। तुम
बैठ गये श्वास
को रोक कर
तो
जितनी देर
श्वास रुकी
रहेगी, उतनी
देर विचार भी
रुक जायेंगे।
क्योंकि
श्वास रुक गई
तो मन शरीर
दोनों ही निर्जीववत
पड़े रह जाते
हैं। लेकिन कब
तक श्वास को
रोके रहोगे? श्वास
लौटेगी लेनी
पड़ेगी। जैसे
ही श्वास को
लोगे, फिर
सारे विचार
पुनरुज्जीवित
हो जायेंगे।
तो आदमी श्वास
लेने से डरने
लगेगा। यह भी
सच है कि इस
भांति से एक
तरह की शांति
भी आ जायेगी; जब विचार
नहीं होंगे तो
शांति आ
जायेगी।
लेकिन यह शांति
जड़ता की होगी।
इसलिए
जिन्होंने
जाना है, उन्होंने
समाधि के दो
रूप कहे। एक
रूप को 'जड़
समाधि' कहा
है।’जड़
समाधि' का
अर्थ होता है
जो समाधि है
नहीं, सिर्फ
जड़ता है। और
जड़ता के कारण
समाधि मालूम
पड़ती है।
तुमने
देखा, मूढ़
व्यक्ति
चिंतित नहीं
होता! चिंता
होने के लिए
भी तो खोपड़ी
में कुछ
बुद्धि होनी
चाहिए न! मूढ़
हैं तो कोई
चिंता का सवाल
ही नहीं है।
तो मूड बैठा
रहता है।
दुनिया में
कुछ भी होता
रहे, उसे
कोई चिंता
नहीं है। घर
में आग लग
जाये तो वह
शांति से बैठा
हुआ है। देखो
उनकी
निर्विकल्प
समाधि! उनको
कोई विकल्प ही
नहीं उठ रहा
है।
मगर
मूढ़ता समाधि
नहीं है, जड़ता
समाधि नहीं है।
तुम अनेक साधु—संन्यासियों
की आंखों में
जड़ता पाओगे, चैतन्य का
प्रकाश नहीं,
आंखों में
विभा नहीं; एक तरह की
सुस्ती पाओगे,
एक तरह की
उदासी पाओगे।
उन्होंने
जीवन— धारा को
क्षीण कर लिया
है। श्वास कम
ले रहे हैं।
यां श्वास पर
नियंत्रण कर
लिया है।
शरीर
के ऐसे आसन
हैं जिन आसनों
को ठीक से
साधने पर
विचार की
प्रक्रिया
मंद हो जाती
है। तुमने
देखा, जब कभी
तुम उलझ जाते
हो तो सिर
खुजलाने लगते
हो। एक विशेष
मुद्रा में
चिंता प्रगट
होती है।
एक
बहुत बड़े वकील
को आदत थी कि
जब वह उलझ
जाता तो अपने
कोट का बटन
घुमाने लगता
अदालत में
विवाद करते
वक्त। विरोधी
इसको देखते
रहे। एक बड़ा
मामला था
प्रीवी
कौंसिल में।
जयपुर स्टेट
का कोई मुकदमा
था। तो विरोधी
ने तरकीब की।
मिला लिया
वकील के शोफर
को और उससे
कहा कि जब गाड़ी
में कोट रखा
हो तो तू ऊपर
का बटन तोड़
देना, फिर हम
निपट लेंगे।
वकील तो अपना
कोट ले कर
अंदर आ गये, कोट पहन कर
अपना काम शुरू
कर दिया। जब
उलझन का मौका
आया और
उन्होंने बटन
पर हाथ रखा, अचानक सब
विचार बंद हो
गये, पाया
कि बटन नहीं
है, घबरा
गये! वह धक्का
ऐसा लगा—पुरानी
आदत, सदा
की आदत—एकदम
विचार रुक
गये!
तुमने
देखा, चिंतित
हो जाते हो, सिगरेट पीने
लगते हो! राहत
मिलती है, धुआ
बाहर— भीतर
करने लगे।
पुरानी आदत है।
उससे राहत
मिलने का
संबंध हो गया
है। कम से कम
मन दूसरी जगह
उलझ गया।
चिंतित आदमी
से कहो, सिगरेट
मत पीओ, सिगरेट
पीना छोड़ दो—वह
बड़ी मुश्किल
में पड़ जाता
है। क्योंकि
सिगरेट पीना
तो छोड़ दे _ लेकिन
जब चिंता
पकड़ती है तब
क्या करे!
शरीर
और मन जुड़े
हैं। तो योग में
बहुत— सी
प्रक्रियाएं
खोजी गई हैं
कि विशेष आसन
में बैठने से
मन में विचार
कम हो जाते
हैं।
तुम
देखो, अगर तुम
लेट कर पुस्तक
पढ़ो तो
तुम्हें याद न
रहेगी, क्योंकि
लेट कर पढ़ने
से जब तुम लेट
कर पढ़ते हो तो
खून की धारा
मस्तिष्क में
तीव्र होती है,
तो जो भी स्मृति
बनती है वह
पुंछ जाती है।
इसलिए लेट कर
पढ़ने वाला याद
नहीं कर
पायेगा, भूल—
भूल जायेगा।
बैठ कर पढ़ोगे,
ज्यादा याद
रहेगा। अगर
रीढ़ बिलकुल
सीधी रख कर
बैठ कर पढ़ा तो
ज्यादा याद
रहेगा, बहुत
ज्यादा याद
रहेगा।
इसलिए
जब भी तुम्हें
कोई चीज याद
रखनी होती है, तुम्हारी
रीढ़ तत्क्षण
सीधी हो जाती
है। अनजाने!
अगर कोई
महत्वपूर्ण
बात कही जा
रही है, तुम
रीढ़ सीधी करके
सुनते हो। कोई
साधारण बात
कही जाती है, तुम फिर
अपनी कुर्सी
से टिक गये कि
ठीक है। रही
याद तो ठीक, न रही याद तो
ठीक।
महत्वपूर्ण
बात को तुम
अचानक रीढ़
सीधी करके सुनते
हो, क्योंकि
शरीर की विशेष
स्थितियों
में मन की विशेष
दशायें
निर्मित होती
हैं।
तो
योग ने बड़ी
प्रक्रियायें
खोजी। एक
विशेष आसन में
बैठ जाओ, पद्यासन
में, तो
शरीर की
विद्युत धारा
वर्तुलाकार
घूमने लगती है।
रीढ़ बिलकुल
सीधी हो तो
शरीर पर
गुरुत्वाकर्षण
का प्रभाव कम हो
जाता है।
श्वास बिलकुल शांत
और धीमी हो तो
विचार क्षीण
हो जाते हैं। आंख
नाक के
नासाग्र पर
अटकी हो तो आस—पास
से कोई चीज निम्न
नहीं देती।
कोई गुजरे, निकले—कुछ
पता नहीं चलता।
ऐसी दशा का
अगर निरंतर
अभ्यास किया
जाये तो धीरे —
धीरे तुम
पाओगे, एक
तरह की जड़
समाधि पैदा हो
गई। शरीर के
माध्यम से
तुमने मन पर
एक तरह का
कब्जा कर लिया।
बाहर से तुमने
भीतर को दबा
दिया।
अष्टावक्र
कहते हैं. यह
सच्ची समाधि
नहीं है। यह
चेष्टा से
पैदा हुई
समाधि है।
भोग
कर्म समाधि वा
कुरु विज्ञ
तथापि ते।
तू
चाहे भोग कर, चाहे
कर्म कर, चाहे
समाधि लगा.।
चित्तं
निरस्तसर्वाशमत्यर्थं
रोचयिष्यति।
फिर
भी तेरे गहन
चित्त में एक
बात बनी ही
रहेगी कि जो
मिलना चाहिए
अभी मिला नहीं।
ऊपर—ऊपर सब शांत
हो जाये, भीतर—
भीतर आग का
दावानल बहेगा।
ऊपर—ऊपर सब
मौन मालूम
होने लगे, भीतर
ज्वालामुखी
जलेगा। उस
स्वभाव के लिए
मन में बार—बार
तरंग उठेगी, जिसमें सब
आशायें लय हो
जाती हैं।
यह
समाधि भी एक
वासना ही है, जो
जबर्दस्ती
साध ली गई। यह
चेष्टा से जो
आ गई है, यह
वास्तविक
नहीं है। इससे
कुछ हल न होगा।
अब
सुनना आगे का
सूत्र! एक के
बाद एक सूत्र
और अदभुत होता
जाता है!
'प्रयास से
सब लोग दुखी
हैं!'
सुना
तुमने कभी
किसी शास्त्र
को यह कहते?
'प्रयास से
सब लोग दुखी
हैं, इसको
कोई नहीं
जानता! इसी
उपदेश से
भाग्यवान निर्वाण
को प्राप्त
होते हैं।’
'प्रयास से
सब लोग दुखी
हैं!'
तुम्हारी
चेष्टा के
कारण तुम दुखी
हो। इसलिए
तुम्हारी
चेष्टा से तो
तुम कभी सुखी
न हो सकोगे।
तुम्हारी
चेष्टा यानी
तुम्हारा
अहंकार।
तुम्हारी
चेष्टा यानी
तुम्हारा यह
दावा कि मैं
यह करके दिखा
दूंगा, धन
कमा लूंगा, पद कमा
लूंगा, समाधि
लगा लूंगा, परमात्मा को
भी मुट्ठी में
ले कर दिखा
दूंगा! तुम्हारी
चेष्टा यानी
तुम्हारी
अहंकार की घोषणा
कि मैं कर्ता
हूं!
आयासत्सकलो
दुःखी नैनं
जानाति कश्चन।
आयास
से,
प्रयास से,
चेष्टा से
दुख पैदा हो
रहा है—इसे
बहुत. शायद ही
कोई विरला
जानता हो। जो
जान लेता है
वह धन्यभागी
है।
अनेनैवोपदेशेन
धन्य:।
जो
ऐसा जान ले, इस
उपदेश को
पहचान ले, वह
धन्यभागी है,
वह भाग्यशाली
है। क्योंकि
निर्वाण उसका
है। फिर उसे
कोई निर्वाण
से रोक नहीं
सकता।
इसका
अर्थ समझो।
निर्वाण
का अर्थ है.
सहज समाधि।
निर्वाण का
अर्थ है : जो
समाधि अपने से
लग जाये, तुम्हारे
लगाने से नहीं;
जो प्रसाद—रूप
मिले, प्रयास—रूप
नहीं। तुम जो
भी कमा लाओगे
वह तुमसे छोटा
होगा। कृत्य
कर्ता से बड़ा
नहीं हो सकता।
तुमने अगर
कविता लिखी तो
तुमसे छोटी
होगी; कविता
कवि से बड़ी
नहीं हो सकती।
और तुमने अगर
चित्र बनाया
है तो तुमसे
छोटा होगा; चित्र
चित्रकार से
बड़ा नहीं हो
सकता। तुम अगर
नाचे तो
तुम्हारा
नृत्य
तुम्हारी सीमा
से छोटा होगा,
क्योंकि
नृत्य नर्तक
से बड़ा नहीं
हो सकता। तो
तुम्हारी
समाधि, तुम्हारी
ही समाधि होगी,
विराट नहीं
हो सकती। तुम
क्षुद्र हो, तुम्हारी
समाधि तुमसे
भी ज्यादा
क्षुद्र होगी।
विराट को
बुलाना हो तो
चेष्टा से
नहीं, समर्पण
से, प्रयास
से नहीं, सब
उसके, अनंत
के चरणों में
छोड़ देने से।
अष्टावक्र
का मार्ग
संकल्प का
मार्ग नहीं है।
इसलिए महावीर, पतंजलि
को जो लोग
जानते हैं, वे
अष्टावक्र को
न समझ पायेंगे।
अष्टावक्र का
मार्ग है
समर्पण का।
अष्टावक्र
कहते हैं : तुम
जरा कर्ता न
रहो तो परमात्मा
अभी कर दे।
तुम जरा हटो
तो परमात्मा अभी
कर दे। तुम
बीच—बीच में न
आओ तो अभी हो
जाये।
तुम्हारे आने
से बाधा पड़
रही है।
तुम्हारी
चेष्टा
तुम्हें तनाव
से भर देती है, अशांत
कर देती है।
स्वीकार कर लो;
जो है, उसे
वैसा ही
स्वीकार कर लो।
तुम समस्त के
साथ संघर्ष न
करो, बहने
लगो इस धार
में। और नदी जहां
ले जाये, वहीं
चल पड़ो। नदी
से विपरीत मत
तैसे। उल्टे
जाने की
चेष्टा मत करो।
उसी उल्टे
जाने में अशांति
पैदा होती है।
उसी लड़ने में
तुम हारते, पराजित होते,
विषाद
उत्पन्न होता
है और चित्त
में संताप घिरता
है।
'प्रयास से
सब लोग दुखी
हैं, इसको
कोई नहीं
जानता। इसी
उपदेश से
भाग्यवान
निर्वाण को
प्राप्त होते
हैं।’
आयासात्
सकला दुःखी।
सब
दुखी हैं
प्रयास के
कारण। यह बड़ी
अनूठी बात है।
तुम तो सोचते
हो,
हम प्रयास
पूरा नहीं कर
रहे हैं, इसलिए
दुखी हैं; चेष्टा
पूरी नहीं हो
रही, नहीं
तो सफल हो
जाते। जो पूरी
चेष्टा करते
हैं, वे सफल
हो जाते हैं।
जो दौड़ते हैं,
वे पहुंच
जाते हैं।
अष्टावक्र
कह रहे हैं :
आयासात् सकला
दुःखी। सब
दुखी हैं
प्रयास के
कारण। दौड़े कि
भटके। रुक जाओ
तो पहुंच जाओ।
लाओत्सु
से यह वचन मेल
खाता है।
अष्टावक्र और
लाओत्सु की
प्रक्रिया
बिलकुल एक है।
लाओत्सु कहता
है लड़े कि
हारे। हार जाओ
कि जीत गये।
जो हारने को
राजी है, उसे
फिर कोई हरा न
सकेगा।
तुम्हें लोग
हरा पाते हैं
क्योंकि तुम
जीतने को आतुर
हो। तो संघर्ष
पैदा होता है।
एनं
कश्चन न
जानाति।
इस
महत्वपूर्ण
सूत्र को कोई
भी जानता हुआ
नहीं मालूम
पड़ता।
अनेन
एव उपदेशेन धन्य
निवृत्तिम्।
और
इसे जान ले, वह
धन्यभागी है।
वह निवृत्त हो
गया। उसे
प्राप्ति हो
जाती है।
तुमने
मलूकदास का
वचन सुना
होगा.
अजगर
करे न चाकरी
पंछी करे न
काम।
दास
मक्का कह गये
सबके दाता राम।।
वह
पूरी
व्याख्या है
अष्टावक्र की
महागीता की।
वह महासूत्र
है।
प्रभु
सब कर रहा है।
तुम सिर्फ उसे
करने दो, बाधा
न दो।
परमात्मा चल
ही रहा है, तुम्हारे
अलग चलने से
कुछ भी होने
वाला नहीं। यह
धारा बही जा
रही है। तुम
इसके साथ लीन
हो जाओ, तुम
तैसे भी मत।
इसके
आगे का सूत्र
तुम्हें और भी
घबडायेगा—
'जो आंख के
ढंकने और
खोलने के
व्यापार से
दुखी होता है,
उस आलसी
शिरोमणि का ही
सुख है, दूसरे
किसी का नहीं।’
अजगर
करे न चाकरी
पंछी करे न
काम।
दास
मज्जा कह गये
सबके दाता राम।।
अष्टावक्र
कहते हैं : जो आंख
के पलक झपने
में भी सोचता
है कौन पंचायत
करे;
जो इतना
कर्ता— भाव भी
नहीं लेता है
कि अपनी आंख
भी झपकुं वह
भी परमात्मा
पर ही छोड़
देता है कि तेरी
मर्जी तो खोल,
तेरी मर्जी
तो न खोल, जो
अपना सारा
कर्तृत्व— भाव
समर्पित कर
देता है..।
व्यापारेखिद्यते
यस्तु
निमेषोत्मेषयोरपि।
तस्य
आलस्य
धुरीणस्य
सुखं...।।
उसका
ही सुख है—उस
धुरीण का, जो
आलस्य में
आत्यंतिक है।
अभी
पश्चिम में एक
किताब छपी है।
उस किताब के
लिखने वाले को
अष्टावक्र की
गीता का कोई
पता नहीं, अन्यथा
वह बड़ा
प्रसन्न होता।
लेकिन किताब
जिसने लिखी है,
अनुभव से
लिखी है।
किताब का नाम
है. 'ए लेजी
मैन्स गाइड टू
एनलाइटेनमेन्ट।’
आलसियों के
लिए
मार्गदर्शिका
निर्वाण की!
उसे कुछ पता
नहीं है
अष्टावक्र का,
लेकिन उसकी
अनुभूति भी
करीब—करीब वही
है।
अष्टावक्र
कहते हैं : जो आंख
ढंकने और
खोलने के
व्यापार में
भी पंचायत अनुभव
करता है कि
कौन करे, मैं
हूं कौन करने
वाला.!
और
तुम जरा गौर
करो,
तुम आंख
झपते हो? यह
तुम्हारा
कृत्य है? आंख
अपने से झपक
रही है। अगर
तुम्हें
झपकनी और
खोलनी पड़े, बुरी तरह थक
जाओ, दिन
भर में थक जाओ,
करोड़ों बार
झपकती है। यह
तो अपने से हो
रहा है। एक
मक्खी आंख की
तरफ भागी आती
है तो तुम
झपते थोड़े ही
हो, झपक
जाती है।
क्योंकि अगर
तुम झेपो तो
देर लग जाये, उतनी देर
में तो मक्खी
टकरा जाये।
इसको तो
वैज्ञानिक
कहता है.
रिफ्लैक्स है।
यह अपने से हो
रहा है।
वैज्ञानिक
इसको
रिफ्लैक्स
कहता है। यह
अपने से हो
रहा है। यह
तुम कर नहीं
रहे हो।
धार्मिक इसको
कहता है प्रभु
कर रहा है।
श्वास तुम
थोड़े ही ले
रहे हो, चल
रही है। इसलिए
तो तुम सो
जाते हो, तब
भी चलती रहती
है, नहीं
तो किसी दिन
भूल गये नींद
में तो बस..
सुबह फिर न
उठे। यह तुम
पर छोड़ा ही
नहीं है। तुम
बेहोश भी पड़े
रहो तो भी
श्वास चलती
रहती है, प्रभु
लेता रहता है।
जीवन
का जो भी
महत्वपूर्ण
है,
तुम पर कहां
छोड़ा है! जन्म
तुमसे पूछा था
कि लेना चाहते
हो? जवानी
तुमसे पूछी थी
कि अब जवान
होने की इच्छा
है या नहीं न:
जन्म हुआ, बचपन
हुआ, जवानी
आई, हजार—हजार
वासनाएं उठीं—तुमसे
किसी ने पूछा
नहीं कि चाहते
भी हो कि नहीं?
सब हुआ।
बुढ़ापा आ गया,
मौत आने लगी,
मौत भी आ
जायेगी। सब हो
रहा है। इस
होने में काश
तुम अपने को
बीच में न
डालो तो कैसी
अपूर्व शांति
न फल जाये! इस
होने में तुम
कर्ता बनते हो,
इससे अशांत
हो जाते हो।
तुम जितना ही
सोचते हो, मुझे
करना है, उतनी
उलझन बढ़ती है,
क्योंकि
करने को इतना
है!
अब
तुम जरा सोचो, तुम
भोजन कर लेते
हो, फिर
अगर तुम्हें
पचाना भी हो.।
गले के नीचे
उतरा कि तुम
भूले। और
जिसको नहीं
भूलता उसका
पेट खराब हो
जाता है। तुम
एक दिन प्रयोग
करके देखो, चौबीस घंटे
कोशिश करो।
भोजन कर लिया,
अब याद रखो
कि पच रहा है
कि नहीं, पक्वाशय
में पहुंचा कि
आमाशय में
पहुंचा कि कहां
गया, क्या
हो रहा है
भीतर! जरा
खयाल रखो, पगला
जाओगे और पेट
खराब हो
जायेगा अलग।
दूसरे दिन तुम
पाओगे गड़बड़ी
हो गई, डायरिया
हो गया कि
कब्जियत हो गई,
कि पेट में
दर्द उठ आया।
तुम
तो जान कर
हैरान होओगे
कि जब उनादमी
मर जाता है, तब
भी पेट पचाने
का काम चौबीस
घंटे तक करता
रहता है।
चौबीस घंटे का
मौका मान कर
चलता है कि
शायद लौट आये,
क्या पता!
चौबीस घंटा
पेट का काम
जारी रहता है।
सांस बंद हो
जाती है।
मस्तिष्क तो
चार मिनिट के
बाद समाप्त हो
जाता है। इधर
श्वास बंद हुई
उधर मस्तिष्क
चार मिनिट के
भीतर समाप्त
हो गया। फिर
उसको लौटाया
नहीं जा सकता।
इसलिए जो लोग
अचानक हृदय के
धक्के से मरते
हैं, अगर
चार मिनिट के
भीतर जिला लिए
जायें तो ही जिलाये
जा सकते हैं, अन्यथा गये
तो गये।
क्योंकि फिर
तब तक चार
मिनिट के बाद
मस्तिष्क की
स्मृति
डावांडोल हो
गई; मस्तिष्क
के तंतु बहुत
छोटे हैं, वे
टूट गये।
मस्तिष्क
बहुत कमजोर है।
लेकिन
पेट की बड़ी
हिम्मत है।
चौबीस घंटे
बाद भी पेट
अपना काम जारी
रखता है, पचाता
रहता है, रस
पहुंचाता
रहता है, कि
क्या पता! तुम
रात सो जाते
हो, तब भी
पेट पचाता
रहता है। कोमा
में पड़े हुए
आदमी महीनों
पड़े रहते
बेहोशी में, तब भी पेट
पचाता रहता है।
मर जाने पर भी
चौबीस घंटे तक
पचाता है। तुम
पर नहीं छोड़ा
है। कोई विराट
हाथ सब
सम्हाले हुए
है।
तुम
जरा देखो, इन
हाथों को जरा
पहचानो! कोई
विराट हाथ
तुम्हारे
पीछे खड़े हैं!
तुम नाहक
परेशान हुए जा
रहे हो।
तुम्हारी
हालत वैसी है
जैसे कि एक
छोटा बच्चा
अपने बाप के
साथ जा रहा है और
परेशान हो रहा
है। उसे
परेशान होने
की कोई जरूरत
ही नहीं। बाप
साथ है, परेशानी
का कोई कारण
नहीं।
बर्नार्ड
शा के पिता की
मृत्यु हुई तो
बर्नार्ड शा
ने अपने
मित्रों को
कहा कि आज मैं
बहुत डरा—डरा
हुआ हो गया
हूं। तब तो
उसकी उम्र भी
साठ के पार हो
चुकी थी। उन्होंने
कहा. 'डरे—डरे हो
गये, मतलब
क्या?' उन्होंने
कहा ' आज
पिता साथ नहीं,
यद्यपि
वर्षों से हम
साथ न थे, पिता
अपने गांव पर
थे, मैं यहां
था। लेकिन फिर
भी पिता थे तो
मैं बच्चा था,
एक भरोसा था
कि कोई आगे है।
आज पिता चल
बसे, आज
मैं अकेला रह
गया। आज डर
लगता है। आज
कुछ भी करूंगा
तो मेरा ही
जुम्मा है। आज
कुछ भी करूंगा
तो भूल—चूक
मेरी है। आज
कोई डांटने—डपटने
वाला न रहा।
आज कोई चिंता
करने वाला न
रहा। आज
बिलकुल अकेला
हो गया हूं।’
नास्तिक
अशांत हो जाता
है,
क्योंकि
कोई परमात्मा
नहीं! तुम
नास्तिक की पीड़ा
समझो, उसकी
तपश्चर्या
बड़ी है! वह नरक
भोग लेता है।
क्योंकि कोई
नहीं है, खुद
ही को सब
सम्हालना है।
और इतना विराट
सब जाल है और
इस विराट जाल
में अकेला पड
जाता है। और
सब तरफ संघर्ष
ही संघर्ष है,
काटे ही
कांटे हैं, उलझनें ही
उलझनें हैं और
कुछ सुलझाये
नहीं सुलझता।
बात इतनी बड़ी है,
हमारे
सुलझाये
सुलझेगा भी
कैसे!
आस्तिक
परम
सौभाग्यशाली
है। वह कहता
है तुम बनाये, तुम
जानो, तुम
चलाओ। तुमने
मुझे बनाया, तुम्हीं
मुझे उठा लोगे
एक दिन।
तुम्हीं मेरी
सांसों में, तुम्हीं
मेरी धड़कन में।
मैं क्यों
चिंता करूं? 'जो आंख के
ढंकने और
खोलने के व्यापार
से दुखी होता
है, उस
आलसी—शिरोमणि
का ही सुख है।’
आलस्य
की ऐसी महिमा!
अर्थ समझ लेना।
तुम्हारे
आलस्य की बात
नहीं हो रही
है। तुम तो
अपने आलस्य
में भी सिर्फ
जी चुराते हो, समर्पण
थोड़े ही है।
तुम्हारे
आलस्य में
कर्ता— भाव
थोड़े ही मिटता
है। यह इसलिए
शिरोमणि शब्द
का उपयोग किया।
आलसियों में
शिरोमणि वह है
जिसने कर्म
नहीं छोड़ा, कर्ता भी
छोड़ दिया। अगर
कर्म ही छोड़ा
तो सिर्फ आलसी,
वह शिरोमणि
नहीं। कर्म तो
छोड़ कर कई लोग
बैठ जाते हैं।
पत्नी कमाती
है तो पति घर
में बैठ गये, आलसी हो गये।
मगर चिंतायें
हजार तरह की
करते रहते हैं
बैठै—बैठे—ऐसा
होगा, वैसा
होगा, होगा
कि नहीं होगा!
सच तो यह है कि
काम न करने वाले
लोग ज्यादा
चिंता करते
हैं काम करने
वालों की बजाय,
क्योंकि
काम करने वाला
तो उलझा है।
फुरसत कहां!
आलसी तो बैठा
है, कोई
काम नहीं! तो
वह चिंता ही
करता है।
बुढ़े
देखे, बहुत
चिंतित हो
जाते हैं! अब
कोई काम नहीं
है उन पर। काम
था तब तक तो
निश्चित थे, लगे थे, जुटे
थे, जुते
थे बैलगाड़ी
में, फुरसत
कहा थी! अब
खाली बैठे
हैं!
रस्किन
ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि मैंने
जितने आदमी
सुखी देखे, वे
वे ही लोग थे
जो इतनी बुरी
तरह उलझे थे
काम में कि
उन्हें फुरसत
ही न थी जानने
की कि सुखी
हैं कि दुखी
हैँ।
उलझा
रहता है आदमी
तो पता ही
नहीं चलता कि
सुखी हैं कि
दुखी! किसी
तरह पिटे —कुटे
घर लौटे, रात
सो गये, फिर
सुबह दौड़े; फुरसत कहां
है कि पता
लगायें कि कौन
सुर्ख।, कौन
दुखी, हम
सुखी कि दुखी
हैं! इतना समय कहां!
लेकिन रिटायर
हो गये, अब
बैठे—ठाले, कुछ काम
नहीं है, बस
यही सोच रहे
हैं कि सुखी
कि दुखी! और
हजार चिंतायें
घेर रही हैं
कि दुनिया में
ऐसा होगा कि
नहीं होगा।
सारा संसार
इनके लिए
समस्या बन
जाता है।
आलसी
शिरोमणि का
अर्थ है. ऐसा
व्यक्ति, जिसने
कर्म नहीं, कर्ता भी
छोड़ दिया।
कर्ता के
छोड़ते
ही सारी चिंता
भी छूट जाती
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दफ्तर में काम
करता है।
मालिक ने उससे
कहा कि
नसरुद्दीन, तुमने
सुना, अब
दुनिया में
ऐसी—ऐसी
मशीनें बन गई
हैं जो एक साथ
दस आदमियों का
काम कर सकती
हैं! क्या
तुम्हें यह
सुन कर डर
नहीं लगता? नसरुद्दीन
ने कहा : 'बिलकुल
नहीं सरकार!
क्योंकि आज तक
कोई मशीन ऐसी
नहीं बनी जो
कुछ न करती हो।
आदमी का कोई
मुकाबला ही
नहीं है। जो
कुछ न करती हो,
ऐसी कोई
मशीन बनी ही
नहीं है।’
नसरुद्दीन
से मैंने एक
दिन कहा कि तू
कभी छुट्टी पर
नहीं जाता, क्या
दफ्तर में
तेरी इतनी
जरूरत है? उसने
कहा कि अब सच
बात आपसे क्या
छिपानी।
दफ्तर में
मेरी जरूरत
बिलकुल नहीं
है, इसीलिए
तो छुट्टी पर
नहीं जाता, छुट्टी पर
गया तो उनको
पता चल जायेगा
कि इसके बिना
सब ठीक चल रहा
है, कोई
जरूरत ही नहीं
है। मैं
छुट्टी पर जा
ही नहीं सकता,
तो ही भ्रम
बना रहता है
कि मेरी वहां
जरूरत है।
आदमी
कर्म छोड़ दे
तो आलसी; और
कर्तापन छोड़
दे तो आलसी—शिरोमणि।
तस्यालस्य
धुरीणस्य......।
तब
तो वह धुरीण
हो गया, शिखर
हो गया आलस्य
का। क्योंकि
सब परमात्मा
पर छोड़ दिया; अब वह जो
करवाये
करवाये, जो
न करवाये न
करवाये। अब अपनी
कोई आकांक्षा
बीच में न रखी।
अब उसकी जो
मर्जी!
'यह किया गया
और यह नहीं
किया गया, ऐसे
द्वंद्व से मन
जब मुक्त हो, तब वह धर्म, अर्थ, काम
और मोक्ष के
प्रति उदासीन
हो जाता है।’
ये
आखिरी चरण हैं।
आदमी धर्म, अर्थ,
काम, मोक्ष
सबसे मुक्त हो
जाता है, क्योंकि
फिर कोई बात
ही न रही, करने
को कुछ रहा ही
नहीं। किसी को
धन कमाना है, किसी को
पुण्य कमाना
है। किसी को
वासना तृप्त
करनी है और
किसी को स्वर्ग
का सुख लेना
है। और किसी
को मुक्ति का
सुख लेना है।
मगर इन सबके
पीछे हमारा
कर्ता का भाव
तो बना ही
रहता है कि
मुझे कुछ करना
है, मेरे
बिना किए कुछ
भी न होगा।
अष्टावक्र
कहते हैं.
जिसे यह बात
ही भूल गई कि यह
किया गया, यह
नहीं किया गया,
सब बराबर हो
गया, हो तो
ठीक, न हो
तो ठीक; हो
गया तो ठीक, न हुआ तो भी
उतना ही ठीक—ऐसी
जिसकी सरल
चित्त—दशा हो
गई, उसका
सबके प्रति
उदासीन भाव हो
जाता है। अब
मोक्ष भी
सामने पड़ा हो
तो भी उसे आकांक्षा
नहीं होती। और
की तो बात ही
क्या, स्वर्ग
भी उसे
निमंत्रण
नहीं देता अब।
और जिसके लिए
कोई वासना का
निमंत्रण
नहीं है, वही
मुक्त है, वही
मोक्ष को
उपलब्ध है।’विषय का
द्वेषी
विरक्त है।
विषय का लोभी
रागी है। और
जो ग्रहण और
त्याग दोनों
से रहित है, वह न विरक्त
है न रागवान
है।’
इर्द
कृतमिद नेति
द्वंद्वैर्मुक्तं
यदा मन:।
धर्मार्थकाममोक्षेगु
निरपेक्ष
तदाभवेत।।
और
जो धर्म, अर्थ,
काम, मोक्ष
सभी से शांत
और मुक्त हो
गया, वही
वीतराग है।
यहां तीन शब्द
समझ लेने
चाहिए। एक है
भोगी, दूसरा
है योगी और
तीसरा है
दोनों के पार।
एक है आसक्त,
एक
है विरक्त, और
एक है दोनों
के पार।
विरक्तो
विषयद्वेष्टा—वह
जो विरक्त है, उसकी
विषयों में
घृणा हो गई है।
रागी
विषयलोलुप—और
वह जो रागी है, भोगी
है, वह
लोलुप है विषय
के लिए।
ग्रहमोक्षविहीनस्तु
न विरक्तो न
रागवान्।
लेकिन
परमदशा तो वही
है जहां न राग
रह गया न विराग; न
तो प्रेम रहा
वस्तुओं के
प्रति, न
घृणा। ऐसी
वीतराग दशा
परम अवस्था है।
वही परमहंस
दशा है। परम
समाधि!
इसे
हम समझें।
किसी का धन
में मोह है; वह
पागल है धन के
लिए, इकट्ठा
करता जाता है
बिना फिक्र किए
कि किसलिए
इकट्ठा कर रहा
है, क्या
इसका होगा! यह
सब चिंता भी
नहीं है उसे।
बस धन इकट्ठा
कर रहा है। एक
पागलपन है।
फिर एक दिन
जागा, लगा
कि यह तो जीवन
गंवाया; इससे
तो कुछ पाया
नहीं; धन
तो इकट्ठा हो
गया, मैं
तो निर्धन का
निर्धन रह गया।
छोड़ दिया धन।
भागने लगा छोड़
कर। अब उसने
दूसरी उल्टी
दिशा पकड़ ली।
अब अगर उसके
हाथ में पैसा
रखो तो वह ऐसे
छोड़ कर खड़ा हो
जाता है
चिल्ला कर कि
जैसे बिच्छू
रख दिया। अब
वह पैसे की
तरफ देखता
नहीं। अब वह
कहता है : ' धन,
धन तो पाप
है! बचो, कामिनी—कांचन
से बचो! भागते
रहो!' अब
उसने दूसरी
दौड़ शुरू कर
दी। यह विरक्त
तो हो गया, आसक्त
न रहा। जो
संबंध प्रेम
का था, वह
घृणा में बदल
लिया। लेकिन
संबंध जारी है।
घृणा
का भी संबंध
होता है।
प्रेम का भी
संबंध होता है।
जिसके तुम
मित्र हो, उससे
तो तुम जुड़े
ही हो; जिससे
तुम शत्रुता
रखते हो, उससे
भी जुड़े हो।
अष्टावक्र
कहते हैं : ये
दोनों बंधे
हैं। एक पाप
से बंधा होगा,
एक पुण्य से
बंधा है; मगर
बंधे हैं। एक
की जंजीरें
लोहे की हैं, एक की सोने
की हैं। मगर
जंजीरें
दोनों के ऊपर
हैं। और ध्यान
रखना कभी—कभी
सोने की
जंजीरें
ज्यादा
खतरनाक सिद्ध
होती हैं; क्योंकि
लोहे की जंजीरों
से तो कोई
छूटना भो
चाहता है, सोने
की जंजीरों से
कोई छूटना
नहीं चाहता।
सोने की
जंजीरें तो
आभूषण मालूम
होती हैं।
लगता है, छाती
पर सम्हाल कर
रख लो। अगर
कारागृह गंदा
हो तो हम
निकलना भी
चाहते हैं; लेकिन
कारागृह
स्वच्छ, साफ—सुथरा,
सजा, सुंदर
हो तो कौन
निकलना चाहता
है! जा कर भी
क्या सार है!
जाओगे कहां!
यहीं बेहतर है।
पाप
तो बांधता है, पुण्य
और भी गहरे
रूप से बांध
लेता है। और
भोग तो बांधता
ही है, योग
भी बांध लेता
है।
अष्टावक्र
कहते हैं :
विरक्त और
सरक्त, इन
दोनों से जो
विलक्षण है, वही उपलब्ध
है, वही
वीतराग पुरुष
है। राग का
अर्थ होता है :
रंग। रागी का
अर्थ होता है :
जो इंद्रियों
के रंग में
रंग गया।
विरागी का
अर्थ होता है :
जो इंद्रियों
के विरोधी रंग
में रंग गया; जो उल्टा हो
गया। रागी खड़ा
है पैर के बल; विरागी
शीर्षासन
करने लगा, उल्टा
हो गया, लेकिन
दौड़ जारी रही।
कोई स्त्री के
पीछे भागता था,
कोई स्त्री
से भागने लगा;
लेकिन दौड़
जारी रही।
दोनों
से जो विलक्षण
है,
विरक्त—सरक्त
से विलक्षण, उस वीतराग
पुरुष को ही
सत्य का अनुभव
हुआ है। और
ऐसे सत्य के
अनुभव के लिए
शास्त्रों की
कोई जरूरत
नहीं। किसी से
पूछने का कोई
सवाल ही नहीं
है। यह सत्य
तुम्हारी
संपदा है। यह
तुम्हें मिला
ही हुआ है।
तुम
शास्त्रों
में खोज रहे
हो, उतना
ही समय गंवा
रहे हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
बार घर लौटा
यात्रा से।
उसकी पत्नी ने
पूछा, सफर
कैसा कटा? मुल्ला
ने कहा; सफर
में बेहद
तकलीफ रही।
ट्रेन में ऊपर
वाली बर्थ पर
जगह मिली थी
और पेट खराब
होने के कारण
बार—बार नीचे
उतरना पड़ता था।
तो
श्रीमती ने
कहा. 'तो आप नीचे
वाले यात्री
से कह कर बर्थ
क्यों न बदल
लिए?'
उसने
कहा : 'सोचा तो
मैंने भी था, पर नीचे
वाली बर्थ पर
कोई था ही
नहीं, पूछता
किससे?' कुछ
लोग हैं जो
सदा पूछने को
उत्सुक हैं—किसी
से पूछ लें।
और अगर कोई
नहीं है तो
बड़ी मुश्किल!
भीतर से कुछ
बोध जैसे उठता
ही नहीं!
शास्त्र में
खोज ले, स्वयं
में खोजने की
आकांक्षा ही
नहीं उठती है।
और
जो है, स्वयं
में है। ये
शास्त्र जो
निकले हैं, ये भी उनसे
निकले हैं
जिन्होंने
स्वयं में खोजा।
यह कृष्ण की
गीता किन्हीं
और वेदों को
पढ़ कर नहीं
निकली है। यह
कृष्ण की गीता
कृष्ण के
अनुभव से
निकली है।
इसका यह अर्श
नहीं है कि
वेद पढ़ना
व्यर्थ है।
इसका इतना ही
अर्थ है वेद
कौ पढ़ो
साहित्य की तरह,
बहुमूल्य
साहित्य की
तरह! लेकिन
शब्दों को सत्य
मत मान लेना।
वेद को पढ़ो
महत्वपूर्ण
परंपरा की तरह।
मनीषियों के
वचन हैं—सत्कार
से पढ़ो, सम्मान
से पढ़ो! मगर उन
पर ही रुक मत
जाना।
उन
पर रुकना ऐसा
होगा जैसे कोई
पाकशास्त्र
की किताब को
रख कर बैठ गया
और भोजन बनाया
ही नहीं। और
भोजन बिना
बनाये तो पेट
भरेगा नहीं, भूख
मिटेगी नहीं,
क्षुधा
तृप्त न होगी।
पढ़ो! रस लो! वेद
अदभुत
साहित्य हैं!
उपनिषद अदभुत
साहित्य हैं!
कुरान—बाइबिल
अनूठी
किताबें हैं!
पढ़ो! मगर पढ़ने
से सत्य मिल
जायेगा, इस
भांति में मत
पड़ना। पढ़ने से
तो प्यास मिल
जाये तो काफी
है; सत्य
को खोजने की आकांक्षा
बलवती हो जाये
तो काफी है।
सदगुरुओं
का सत्संग करो।
उससे सत्य
नहीं मिल
जायेगा, लेकिन
सदगुरुओं के
सत्संग में
शायद सत्य को
खोजने की
आकांक्षा
प्रबल हो जाये,
प्रज्वलित
हो जाये, लपट
बन जाये। सत्य
तो भीतर ही
मिलेगा।
सदगुरु
वही है जो
तुम्हें
तुम्हारे
भीतर पहुंचा
दे 1 और
शास्त्र वही है
जो तुम्हें
तुमसे ही जुड़ा
दे।’विषय का
द्वेषी
विरक्त, विषय
का लोभी रागी;
पर जो ग्रहण
और त्याग
दोनों से रहित
है, वह न
विरक्त है और
न रागवान है।’
वही
है सत्य को
उपलब्ध। वही
वीतराग है।
इन
प्रवचनों पर
खूब मनन करना, ध्यान
करना। इन
वचनों का सार
कबीर के इस
वचन में है:
जाको
राखे साइयां, मार
सके न कोय।
बाल
न बांका कर
सके जो जग
वैरी होय।।
छोड़
दो सब
परमात्मा पर!
जाको राखे
साइयां! तुमने
जब नहीं छोड़ा
है,
तब भी वही
रखवाला है, तुम छोड़ दो, तब भी वही
रखवाला है।
फर्क इतना ही
पड़ेगा कि तुम
छोड़ दोगे तो
तुम्हारी
चिंता मिट
जायेगी। तुम
तो पलक भी न
झंपो अपनी तरफ
से। तुम
सुरक्षा भी न
करो। तुम
आयोजन भी मत
करो। तुम तो
वह जो करवाये,
करो। इसका
यह मतलब नहीं
कि तुम चादर
ओढ़ कर लेट जाओ।
अगर वह चादर
ओढ़ कर लेटने
को कहे तो ठीक।
तुम अपनी तरफ
से यह मत करना
कि तुम कहो
कि
फिर करना
क्या!
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं,
समझ गये
अष्टावक्र को
तो अब करने को
तो कुछ भी नहीं
है! अगर तुम
समझ गये तो
करने को तो
बहुत है, कर्ता
होने को कुछ
भी नहीं है।
अगर नहीं समझे
तो तुम ऐसा
पूछोगे आ कर
कि ' अब
करने को तो
कुछ भी नहीं
है, तब हम
विश्राम करें!
तब ध्यान इत्यादि
करने से क्या
सार है।’ तो
तुम करने से
बचने लगे, तो
तुम आलसी हो
जाओगे।
ये
सूत्र
शिरोमणियो के
लिए हैं। ये
सूत्र उनके
लिए हैं जो
कहते हैं : अब
हम कर्ता न
रहे।
परमात्मा
तुमसे बहुत
कुछ करवायेगा
जब तुम कर्ता
न रह जाओगे।
फिर करने का
मजा और, रस और।
फिर करने में
एक उत्सव है, एक नृत्य है।
फिर करना ऐसा
है जैसा कबीर
ने कहा कि मैं
तो बांस की
पोंगरी हूं!
तू गीत गाता
है तो मेरे से
ग।त गुजर जाता
है; तू चुप
हो जाता है तो
चुप्पी प्रगट
होती है! अब तो
मैं बांस की
पोगरी हूं
खाली पोंगरी!
तू जो करवाये!
यही
कृष्ण अर्जुन
को समझा रहे
हैं गीता में
कि तू बांस की
पोगरी हो जा!
निमित्त—मात्र!
अर्जुन चाहता
है,
कर्म छोड़ दे
और भाग जाये
जंगल में, वह
आलसी होना
चाहता है। और
कृष्ण कहते
हैं, तू
आलसियों का
शिरोमणि हो जा,
कर्ता— भाव
छोड़ दे और
कर्म तो
परमात्मा
करवाये तो होने
दे। वही तुझे
वृद्ध के
मैदान पर ले
आया। अगर वही
युद्ध करना
चाहता है तो
होने दे। तू न
भी करेगा तो
कोई और करेगा।
तू न मारेगा
तो कोई और
मारेगा। ये
हाथ तेरे न
उठायेंगे
गांडीव को, तो किसी .और
के उठायेंगे।
तू कर्म छोड़
कर मत भाग; सिर्फ
कर्ता मत रह
जा। कर्ता—
भाव छूटते ही
जीवन स्वस्थ
हो जाता है, शांत हो
जाता है।
हरि
ओंम तत्सत्!
भाग—3
समाप्त
समाप्त
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