ओशो
(ओशो
द्वारा अष्टावक्र—संहिता
के 152 से 196
सूत्रों पर
प्रश्नोत्तर
सहित दिनांक 26
नवंबंर से 10
दिसंबर 1976 तक
ओशो कम्यून
इंटरनेशनल,
पूना में दिए
गए पंद्रह
अमृत
प्रवचनों का
संकलन।)
अष्टावक्र कह रहे है: तुम शरीर से तो छूट ही जाओ, परमात्मा से भी छूटो। संसार की तो भाग—दौड़ छोड़ ही दो, मोक्ष की दौड़ भी मन में मत रखो। तृष्णा के समस्त रूपों को छोड़ दो। तृष्णा—मुक्त हो कर खड़े हो जाओ।
इसी
क्षण परम आनंद बरसेगा। बरस ही रहा है। तुम तृष्णा की छतरी लगाये खड़े हो तो तुम
नहीं भीग पाते। संत वही है जिसका संबंध ही गया। भोग तो व्यर्थ हुआ ही हुआ। त्याग
भी व्यर्थ हुआ। भोग के साथ ही त्याग भी व्यर्थ हो जाये। तो तुम्हारे जीवन में
क्रांति घटित होती है। अनिति के साथ ही साथ निति भी व्यर्थ हो जाती है। आशुभ के साथ
ही शुभ भी व्यर्थ हो जायेगा। क्योंकि वे दोनों एक सिक्के के दो पहलू है। उसमें भेद
नहीं।
ओशो
खुदी को मिटा, खुदा देखते है—प्रवचन—एक
दिनांक
26 नवंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार:
पहला
प्रश्न :
बोध
की यात्रा में
रस,
विरस एवं
स्व—रस क्या
मात्र पड़ाव
हैं? कृपा
करके समझायें।
रस
पड़ाव नहीं
है। रस तो
गंतव्य है।
इसके लिए
उपनिषद कहते
है। रसो वै सः!
उस प्रभु का
नाम रस है। रस—रूप!
रस में तल्लीन
हो जाना परम
अवस्था है।
पूछने
वाले ने पूछा
है : रस, विरस और
स्व—रस...। शायद
जहां रस कहा
है, पूछा
है, वहा
कहना चाहिए पर—रस।
पर—रस पड़ाव है।
फिर पर—रस से
जब ऊब पैदा हो
जाती है, तो
विरस। विरस भी
पड़ाव है।
लेकिन विरस तो
नकारात्मक
स्थिति है; पर—रस की
प्रतिक्रिया
है। तो कोई
विरस में रुक
नहीं सकता, वैराग्य में
कोई ठहर नहीं
सकता। जब राग
में ही न ठहर
सके तो
वैराग्य में
कैसे ठहरेंगे!
विधायक में न
ठहर सके तो
नकारात्मक में
कैसे ठहरेंगे!
भोग में न रुक
सके तो योग
कैसे रोकेगा!
पर—रस से जब ऊब
पैदा हो जाती
है, अनुभव
में आता है कि
नहीं, दूसरे
से सुख मिलता
ही नहीं, अनुभव
में आता है कि
दूसरे से दुख
ही मिलता है, तो जुगुप्सा
पैदा होती है।
विरक्ति पैदा
होती है, विरस
आ जाता है।
मुंह में
कडुवा स्वाद
फैल जाता है।
किसी चीज में
रस नहीं मालूम
होता। विरस
पड़ाव है—अंधेरी
रात जैसा, नकारात्मक,
रिक्त।
जब
कोई विरस में
धीरे — धीरे
धीरे— धीरे
डूबता है तो
स्व—रस पैदा
होता है। स्व—रस
पर—रस से
बेहतर है।
अपने में रस
लेना ज्यादा
मुक्तिदायी
है। कम से कम
दूसरे की
परतंत्रता तो
न रही। पर न
रहा तो
परतंत्रता न
रही। स्व आया
तो
स्वतंत्रता
आई। इतनी
मुक्ति तो
मिली। लेकिन
अभी भी पड़ाव
है। अब स्व भी
खो जाये और रस
ही बचे तो
अंतिम उपलब्धि
हो गई, मंजिल आ
गई। क्योंकि
जब तक स्व है
तब तक कहीं
पास किनारे पर
'पर' भी
खड़ा होगा, क्योंकि
'मैं' 'तू
के बिना नहीं
रहता। स्व का
बोध ही बता
रहा है कि पर
का बोध अभी कायम
है। स्व की
परिभाषा पर के
बिना बनती
नहीं। जब तक
ऐसा लग रहा है
मैं हूं तब तक
स्वभावत: लग रहा
है कि और भी है,
अन्य भी है।
तो यह तो पर की
ही छाया है।
स्व
और पर एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं—साथ
रहते, साथ
जाते। तो पहले
तो स्व—रस बड़ा
आनंद देता है।
पर—रस में तो
सिर्फ सुख की
आशा थी, मिला
नहीं। विरस तो
प्रतिक्रिया
थी। पर—रस में
मिला नहीं था,
इसलिए
क्रोध में
विपरीत चल पड़े
थे, नाराज
हो गये थे। वह
तो नाराजगी थी।
वह
तो
क्रोध था। वह
कोई टिकने
वाली भाव—दशा
न थी,
नकारात्मक
दशा थी।
स्व—रस
में रस की कुछ
झलक मिलती है।
परमात्मा के
मंदिर के करीब
आ गये; करीब—करीब
सीढ़ियों पर
खड़े हो गये।
पर —रस ऐसा है, परमात्मा की
तरफ पीठ किये
खड़े हैं। विरस
ऐसा है कि
परमात्मा की
तरफ पीठ करने
में क्रोध आ
गया; मुंह
करने की
चेष्टा कर रहे
हैं परमात्मा
की तरफ; सम्मुख
होने की
चेष्टा शुरू
हुई। स्व—रस
ऐसा है, सीढ़ियों
पर आ गये।
लेकिन स्व को
सीढ़ियों पर ही
छोड़ आना पड़ेगा,
जहां जूते
छोड़ आते हैं।
बस वहीं। तो
भीतर प्रवेश
है। तो मंदिर
में प्रवेश है।
मंदिर का नाम
है. रसों वै सः!
मंदिर का नाम
है. रस! वहा न
स्व है न पर है;
वह। एक ही
है। वहा दो
नहीं हैं।
इस
अवस्था को ही
अष्टावक्र ने
स्वच्छंद कहा
है। यह पर से
भी मुक्त है, स्व
से भी मुक्त
है। यह छंद ही
और है। यह
अलौकिक बात है।
भाषा में कहना
पड़ता है तो
कुछ शब्दों का
उपयोग करना
पड़ेगा। इसलिए
बुद्ध ने इसे
निर्वाण कहा
है, कुछ भी
न बचा। जो भी
तुम जानते थे,
कुछ न बचा।
तुम्हारा
जाना हुआ सब
गया; अज्ञात
के द्वार खुले।
तुम्हारी
भाषा काम नहीं
आती। इसलिए
बुद्ध
निर्वाण के
संबंध में चुप
रह जाते हैं, कुछ कहते
नहीं।
एक, ईसाई
मिशनरी 'स्टेनली
जोन्स' काफी
प्रसिद्ध, विश्वप्रसिद्ध
ईसाई मिशनरी
थे। वे रमण
महर्षि को
मिलने गये थे।
वर्षों बाद
मेरा भी उनसे
मिलना हुआ।
रमण महर्षि से
उन्होंने बात
की।
बुद्धिमान
आदमी हैं
स्टेनली
जोन्स। बहुत
किताबें लिखी
हैं। और ईसाई
जगत में बड़ा
नाम है। लेकिन
वह नाम
बुद्धिमत्ता
का ही है; वह
किसी आत्म—
अनुभव का नहीं
है। रमण
महर्षि से वे
इस तरह के
प्रश्न पूछने
लगे जो कि नहीं
पूछने चाहिए।
और रमण महर्षि
जो उत्तर देते
वह उनकी पकड़
में न आता।
जैसे उन्होने
पूछा कि क्या
आप पहुंच गये
हैं? रमण
महर्षि ने कहा
: 'कहां
पहुंचना, कहा
आना, कहां
जाना!' स्टेनली
जोन्स ने फिर
पूछा. 'मेरे
प्रश्न का
उत्तर दें!
क्या आप पहुंच
गये हैं? क्या
आपने पा लिया?'
रमण महर्षि
ने फिर कहा : 'कौन पाये, किसको पाये!
वही है। न
पाने वाला है
कोई, न
पाये जाने
वाला है कोई।’
स्टेनली
जोन्स ने कहा
कि देखिए आप
मेरे प्रश्न
से बच रहे हैं।
मैं आपसे कहता
हूं कि मैंने
पा लिया है, जबसे
मैंने जीसस को
पाया। मैंने
पा लिया। आप
सीधी बात कहें।
तो
रमण महर्षि ने
कहा : 'अगर पा लिया
तो खो जायेगा,
क्योंकि जो
भी पाया जाता
है, खो
जाता है।
जिससे मिलन
होता है, उससे
बिछुड्न।
जिससे शादी
होती है उससे
तलाक। जन्म के
साथ मौत है।
अगर पाया है
तो कभी खो
बैठोगे। उसको
पाओ जो पाया
नहीं जाता।
स्टेनली
जोन्स ने समझा
कि यह तो सब
बकवास है। यह
कोई बात हुई—उसको
पाओ जिसको
पाया नहीं
जाता! तो फिर
पाने का क्या
अर्थ? फिर तो
उसने रमण
महर्षि को ही
उपदेश देना
शुरू कर दिया।
बहुत
वर्षों बाद
मेरा भी मिलन
हो गया। एक
परिवार, एक
ईसाई परिवार
मुझमें
उत्सुक था, स्टेनली
जोन्स उनके घर
मेहमान हुए।
तो उन्होंने
आयोजन किया कि
हम दोनों का
मिलना हो जाये।
बडे संयोग की
बात कि
स्टेनली
जोन्स ने फिर
वही पूछा : 'आपने
पा लिया है?' मैंने कहा : 'यह झंझट हुई।
मैं फिर वही
उत्तर दूंगा।’उन्होंने
कहा : 'कौन —सा
उत्तर? 'क्योंकि वे
तो भूल— भाल
चुके थे। मैंने
कहा : 'कैसा
पाना, किसका
पाना, कौन
पाये!' तब
उन्हें याद
आया, हंसने
लगे और कहा कि : 'तो क्या आप
भी उसी तरह की
बातचीत करते
हैं जो रमण
महर्षि करते
थे। मैं गया
था मिलने, लेकिन
कुछ सार न हुआ।
व्यर्थ समय
खराब हुआ।
इससे तो बेहतर
था मिलना
महात्मा
गांधी से, बात
साफ—सुथरी थी।
इससे बेहतर था
मिलना श्री
अरविंद से, बात साफ—सुथरी
थी।’
कुछ
बात है जो साफ—सुथरी
हो ही नहीं
सकती। वही बात
है जो साफ—सुथरी
नहीं हो सकती।
जो साफ—सुथरी
है,
वह कुछ करने
जैसी नहीं है।
जो बूद्धि की
समझ में आ
जाये वह समझने
योग्य ही नहीं
है। जो बुद्धि
के पार रह
जाता है, वही।
पर—रस
भी समझ में
आता है, विरस
भी समझ में
आता है, स्व—रस
भी समझ में
आता है, क्योंकि
ये तीनों ही
बुद्धि के
नीचे हैं। स्व—रस
सीमांत पर है,
वहा से
बुद्धि के पार
उड़ान लगती है।
विरस परिधि के
पास है; पर—रस
बहुत दूर है।
लेकिन तीनों
एक ही घेरे
में हैं, बुद्धि
के घेरे में
हैं। रस
अतिक्रमण है।
रस में फिर
कोई नहीं बचता।
ऐसी
कभी—कभी घड़ी
तुम्हारे
जीवन में आती
है —प्रेम के
क्षणों में या
प्रार्थना के
क्षणों में या
ध्यान के
क्षणों में।
किसी से अगर
तुम्हारा
गहरा प्रेम है
तो कभी—कभी
ऐसा उड़ा शिखर
भीतर पैदा
होता है जब न
तो प्रेमी रह
जाता न
प्रेयसी रह
जाती है। तब
रस फलता है।
तब रस झरता है।
वह रस
परमात्मा का
रस है। इसलिए
प्रेम में
परमात्मा के
अनुभव की पहली
किरण उतरती है, या
ध्यान की किसी
गहरी
तल्लीनता में
जहां स्व—पर
का भेद मिट
जाता है, अभेद
का आकाश खुलता
है, वहा भी
परमात्मा
झरता है।
तो
पूछने वाले ने
प्रश्न तो ठीक
पूछा है, लेकिन
रस.. पूछा रस, विरस, स्व—रस
क्या मात्र
पड़ाव हैं? रस
पड़ाव नहीं है।
रस तो स्रोत
है और अंतिम
मंजिल भी।
क्योंकि
अंतिम मंजिल
वही हो सकता
है, जो
स्रोत भी रहा
हो। हम अंततः
स्रोत पर ही
वापिस पहुंच
जाते हैं।
जीवन का
वर्तुल पूरा
हो जाता है।
जहां से चले
थे, वहीं आ
जाते हैं। या
अगर तुम समझ
सको तो जहां
से कभी नहीं
चले, वहीं
आ जाते हैं। जहां
से कभी नहीं
हटे, वहीं
पहुंच जाते
हैं। जो हैं, वही हो जाते
हैं।
मैं
तमोमय, ज्योति
की पर प्यास
मुझको
है
प्रणय की
शक्ति पर
विश्वास
मुझको
स्नेह
की दो बूंद भी
तो तुम गिराओ
आज
फिर से तुम
बुझा दीपक
जलाओ
कल
तिमिर को भेद
मैं आगे बढूगा
कल
प्रलय की
आधियों से मैं
लडूंगा
किंतु
मुझको आज आंचल
से बचाओ
आज
फिर से तुम
बुझा दीपक
जलाओ
दीपक
बुझा नहीं, कभी
बुझा नहीं और
दीपक
सुरक्षित है।
परमात्मा का आंचल
उसे बचाये ही
हुए है।
तुम्हारा
स्नेह भी, तुम्हारा
तेल भी कभी
चुका नहीं।
वही तो
तुम्हारी
जीवंतता है, वही तो
तुम्हारा
स्नेह है।
तुम्हारा
दीया भरा—पूरा
है। न तो
ज्योति जलानी
है, न दीये
में तेल भरना
है, सिर्फ
तुम अपनी ही
ज्योति की तरफ
पीठ किए खड़े
हो। जो है वही
दिखाई नहीं पड़
रहा है। या, तुम आंख बंद
किए
बैठे
हो और जो
रोशनी सब तरफ
झर रही है, उससे
तुम्हारा
संपर्क नहीं
हो पा रहा है।
पलक उठाने की
बात है।
बुद्ध
से किसी ने
पूछा कि
ज्ञानी और अज्ञानी
में फर्क क्या
है?
तो बुद्ध ने
कहा, पलक
मात्र का।
सुनते हो! पलक
मात्र का! पलक
झपक गई—अज्ञानी।
पलक खुल गई—शानी।
इतना ही फर्क
है। अंतस्तल
पर जाग गये—सब
जैसा होना
चाहिए वैसा ही
है।
तुम
तमोमय नहीं हो, ज्योतिर्मय
हो! रस से तुम
भरे ही हो। रस
के सागर हो।
गागर भी नहीं।
गागर तो तुम
शरीर के कारण
अपने को मान
बैठे हो। रस के
सागर हौ।
जिसकी कोई
सीमा नहीं, जो दूर अनंत
तक फैलता चला
गया है—वही
ब्रह्म हो
तुम! तत्वमसि!
रसो वै सः!
दूसरा
प्रश्न :
आपने
कहीं कहा है
कि अत्यंत
संवेदनशील
होने के कारण
आत्मज्ञानी
को शारीरिक
पीड़ा का अनुभव
तीव्रता से
होता है; लेकिन
वह स्वयं को
उससे पृथक
देखता है।
क्या ऐसे ही
आत्मज्ञानी
को किसी
मानसिक दुख का
अनुभव भी होता
है? कृपया
समझायें!
तिब्बत
का महासंत
मिलारेपा मरण—
शय्या पर पडा
था। शरीर में
बडी पीड़ा थी।
और किसी
जिज्ञासु ने
पूछा : 'महाप्रभु!
क्या आपको दुख
हो रहा है, पीड़ा
हो रही है?' मिलारेपा
ने आंख खोली
और कहा. 'नहीं,
लेकिन दुख
है।’समझे?
मिलारेपा
ने कहा कि
नहीं, दुख
नहीं हो रहा
है, लेकिन
दुख है। दुख
नहीं है, ऐसा
भी नहीं। दुख
हो रहा है, ऐसा
भी नहीं। दुख
खड़ा है, चारों
तरफ घेर कर
खड़ा है और हो
नहीं रहा है।
भीतर कोई
अछूता, पार,
दूर जाग कर
देख रहा है।
ज्ञानी
को दुख छेदता
नहीं। होता तो
है। दुख की
मौजूदगी होती
है तो होती है।
पैर में काटा
गड़ेगा तो
बुद्ध को भी
पता चलता है।
बुद्ध कोई
बेहोश थोड़े ही
हैं। तुमसे
ज्यादा पता
चलता है, क्योंकि
बुद्ध तो
बिलकुल सजग
हैं। वहां तो
ऐसा सन्नाटा
है कि सुई भी
गिरेगी तो सुनाई
पड़ जायेगी।
तुम्हारे
बाजार में
शायद सुई गिरे
तो पता भी न
चले। तुम भागे
जा रहे हो
दूकान की तरफ,
काटा गड़
जाये, पता
न चले—यह हो
सकता है।
बुद्ध तो कहीं
भागे नहीं जा
रहे हैं। कोई
दूकान नहीं है।
काटा गड़ेगा तो
तुमसे ज्यादा
स्पष्ट पता
चलेगा। कोरे
कागज पर खींची
गई लकीर!
तुम्हारा
कागज तो बहुत
गुदा, गंदगी
से भरा है; उसमें
लकीर खींच दो,
पता न चलेगी;
हजार
लकीरें तो
पहले से ही
खिंची हैं।
शुभ्र
सफेद
कपड़े पर जरा—सा
दाग भी दिखाई
पड़ता है, काले
कपड़े पर तो
नहीं दिखाई
पड़ता है। दाग
तो काले पर भी
पड़ता है, लेकिन
दिखाई नहीं
पड़ता।
तुम्हारे
जीवन में तो
इतना दुख ही
दुख है कि तुम
काले हो गये
हो दुख से।
छोटे—मोटे दुख
तो तुम्हें
पता ही नहीं
चलते। तुमने
एक बात अनुभव
की?
अगर छोटे
दुख से मुक्त
होना हो तो
बड़ा दुख पैदा
कर लो, छोटा
पता नहीं चलता।
जैसे
तुम्हारे सिर
में दर्द हो
रहा है और कोई कह
दे कि 'क्या
बैठे, सिरदर्द
लिए बैठे हो? अरे, दूकान
में आग लग गई।’
भागे, भूल
गये दर्द—वर्द।
सिर का दर्द
गया! एको की
जरूरत न पड़ी।
दूकान में आग
लग गई, यह
कोई वक्त है
सिरदर्द करने
का! भूल ही
जाओगे।
बर्नार्ड
शा ने लिखा है
कि उसको हार्ट
अटैक का हृदय
पर दौरा पड़ा, ऐसा
खयाल हुआ तो
घबरा गया।
डाक्टर को तत्क्षण
फोन किया और
लेट गया
बिस्तर पर।
डाक्टर आया, सीढिया चढ़
कर हाफता और आ
कर कुर्सी पर
बैठ कर उसने
एकदम अपना
हृदय पकड़ लिया।
डाक्टर!
डाक्टर ने और
कहा कि मरे, मरे, गये!
घबड़ा कर
बर्नार्ड शा
उठ आया बिस्तर
से। वह भूल ही
गया वह जो खुद
का हृदय का
दौरा इत्यादि
पड़ रहा था।
भागा, पानी
लाया, पंखा
किया, पसीना
पोंछा। वह भूल
ही गया। पांच—सात
मिनट के बाद
जब डाक्टर
स्वस्थ हुआ तो
डाक्टर ने कहा,
मेरी फीस।
तो बर्नार्ड
शा ने कहा, फीस
मैं आपसे मांग
कि आप मुझसे!
डाक्टर ने कहा,
यह
तुम्हारा
इलाज था।
मैंने एक उलझन
तुम्हारे लिए
खड़ी कर दी, तुम
भूल गये
तुम्हारा दिल
का दौरा
इत्यादि। यह
कुछ मामला न
था; यह
नाटक था, यह
मजाक की थी
डाक्टर ने और
ठीक की।
बर्नार्ड
शा बहुत लोगों
से जिंदगी में
मजाक करता रहा।
इस डाक्टर ने
ठीक मजाक की।
बर्नार्ड शा
बैठ कर हंसने
लगा। उसने कहा
: यह भी खूब रही।
सच बात है कि
मैं भूल गया।
ये पाच—सात
मिनट मुझे याद
ही न रही। वह
कल्पना ही रही
होगी।
बड़ा
दुख पैदा हो
जाये तो छोटा
भूल जाता है।
ऐसी घटनायें
हैं,
उल्लेख, रिकार्ड
पर, वैज्ञानिक
परीक्षणों के
आधार पर, कि
कोई आदमी दस
साल से लकवे
से ग्रस्त पड़ा
था और घर में
आग लग गई, भाग
कर बाहर निकल
आया। और दस
साल से उठा भी
न था बिस्तर
से। जब बाहर आ
गया निकल कर
और लोगों ने
देखा तो लोगों
ने कहा कि 'अरे,
यह क्या! यह
हो नहीं सकता!
तुम दस साल से
लकवे से परेशान
हो।’ यह
सुनते ही वह
आदमी फिर नीचे
गिर पड़ा।
लेकिन चल कर
तो आ गया था।
तो लकवा भूल
गया।
तुम्हारी
अधिक
बीमारियां तो
सिर्फ इसीलिए
बीमारियां
हैं कि
तुम्हें
व्यस्त करने
को और कुछ
नहीं। छोटी—मोटी
बीमारियां तो
तुम्हारे
खयाल में नहीं
आती;
बड़ी बीमारी
व्यस्त कर
लेती है। घर
में आग लगी है
तो लकवा भूल
जाता है। कुछ
और बड़ी बीमारी
आ जाये तो घर
में लगी आग भी
भूल जाये।
बुद्धपुरुष
को तो कोई
उलझन नहीं है,
कोई
व्यस्तता
नहीं है—कोरा
चैतन्य है।
जरा—सी भी सुई
गिरेगी तो ऐसी
आवाज होगी
जैसे बैंड—बाजे
बजे। संवेदना
इतनी प्रखर है,
उस संवेदना
के अनुपात में
ही बोध होगा!
लेकिन फिर भी
बुद्धपुरुष
दुखी नहीं
होता। दुख
होता है, लेकिन
दुखी नहीं
होता। दुखी तो
हम तब होते
हैं जब दुख के
साथ तादात्म्य
कर लेते हैं।
सिरदर्द हो
रहा है, यह
तो बुद्ध को
भी पता चलता
है, लेकिन
मेरे सिर में
दर्द हो रहा
है, यह
तुमको पता
चलता है। सिर
में दर्द हो
रहा
है, यह
तो बुद्ध को
भी पता चलता
है; क्योंकि
सिर सिर है, तुम्हारा हो
कि बुद्ध का
हो। और सिर
में पीड़ा होगी
तो तुम्हें हो
या बुद्ध को
हो, दोनों
को पता चलती
है। लेकिन तुम
तत्क्षण
तादात्म्य कर
लेते हो। तुम
कहते हो, मेरा
सिर! बुद्ध का 'मेरा' जैसा
कुछ भी नहीं
है। यह देह
मैं हूं ऐसा
नहीं है। तो
देह में पीड़ा
होती है तो
पता चलता है।
पूछा
है कि जैसे
शरीर की पीड़ा
का
बुद्धपुरुषों
को,
ज्ञानियों
को, समाधिस्थ
पुरुषों को
तादात्म्य
मिट जाता है, मन के संबंध
में क्या है
रे क्या कोई
मानसिक पीड़ा
उन्हें होती
है?
यह
थोड़ा समझने का
है।
शरीर
सत्य है और
आत्मा सत्य है; मन
तो भ्रांति है।
शरीर की पीड़ा
का बुद्ध को
पता चलता है, क्योंकि
शरीर सत्य है।
और आत्मा की
तो कोई पीड़ा
होती ही नहीं;
आत्मा तो
शाश्वत सुख
में है, सच्चिदानंद
है। मन तो
धोखा है। मन
किस बात से
पैदा होता है?
मन
तादात्म्य से
पैदा होता है।
तुमने कहा, यह मेरा
शरीर, तो
मन पैदा हुआ।
तुमने कहा, यह मेरा
मकान, तो
मन पैदा हुआ।
तुमने' कहा,
यह मेरी
पत्नी, तो
मन पैदा हुआ।
तुमने कहा, यह मेरा धन, तो मन पैदा
हुआ। मन तो
मेरे से पैदा
होता है। मन
तो मेरे का
संग्रह है।
इसलिए तो
महावीर, बुद्ध,
कृष्ण, क्राइस्ट,
सभी के
उपदेशों में
एक बात
अनिवार्य है :
परिग्रह से' मुक्त हो
जाओ।’मेरे'
से मुक्त हो
जाओ। क्योंकि
जब तक तुम 'मेरे'
से नहीं
मुक्त हुए तब
तक मन से
मुक्त न हो
सकोगे।’मेरे'
को हटा लो
तो बुनियाद
गिर गई, भवन
मन का गिर
जायेगा।
तुमने
देखा, जितना 'मेरा' उतना
बड़ा मन।’मेरा'
क्षीण हो
जाता है, मन
क्षीण हो जाता
है। तुम जब
राजसिंहासन
पर बैठ जाते
हो तो तुम्हारे
पास बड़ा भारी
मन होता है।
राजसिंहासन
से उतर जाते
हो, मन
सिकुड़ जाता है,
छोटा हो
जाता है।
इसलिए तो इतना
बुरा लगता है—पद
खो जाये, धन
खो जाये—क्योंकि
सिकुड़ना पड़ता
है। सिकुड़ना
किसको अच्छा
लगता है! छोटे
होना पडता है;
छोटे होने
में अपमान
मालूम होता है,
निंदा
मालूम होती है,
दीनता—दरिद्रता
मालूम होती है।
तुम्हारी जेब
में जब धन
होता है तो
तुम फैले होते
हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन और
उसका साथी एक
जंगल से गुजर
रहे थे। साथी
ने छलांग लगाई, एक
नाले को पार
करना था, वह
बीच में ही
गिर गया।
मुल्ला छलांग
लगा गया और उस
पार पहुंच गया।
साथी चकित हुआ।
मुल्ला की
उम्र भी
ज्यादा, का
हो रहा—कैसी
छलांग लगाई!
उसने पूछा कि
तुम्हारा राज
क्या है? क्या
तुम ओलंपिक
इत्यादि में
छलांग लगाते
रहे हो 2: कोई
अभ्यास किया
है? यह
बिना अभ्यास
के नहीं हो
सकता।
मुल्ला
ने अपना खीसा
बजाया! उसमें
कलदार थे, रुपये
थे, खनाखन
हुए। उसने
कहा. 'मैं
समझा नहीं
मतलब।’ मुल्ला
ने कहा कि अगर
छलांग जोर से
लगानी हो तो
खीसे में
गर्मी चाहिए।
फोकट नहीं
लगती छलांग।
तुम्हारा
खीसा बताओ।
खीसा खाली है,
गर्मी ही
नहीं है, तो
छलांग क्या
खाक लगाओगे!
छलांग
के लिए गर्मी
चाहिए। और धन
बड़ा गर्मी
देता है।
तुमने
खयाल किया, खीसे
में रुपये हों
तो सर्दी में
भी कोट की जरूरत
नहीं पड़ती। एक
गर्मी रहती
है! फिर टटोल
कर खीसे में
हाथ डाल कर
देख लेते हो, जानते हो कि
है, कोई
फिक्र नहीं; चाहो
तो
अभी कोट खरीद
लो। लेकिन अगर
खीसे में
रुपये न हों
तो जरूरत भी न हो
अभी कोट की तो
भी खलता है—लगता
दीनता, दस्यिता,
छोटापन, सामर्थ्य
की हीनता; मन
टूटा—टूटा
मालूम होता है।
तुम जरा गौर
से देखना. मन, तुम्हारी
जितनी ज्यादा
परिग्रह की
सीमा होती है,
उतना ही बड़ा
होता है।’मेरे'
को त्याग दो,
मन गया। मन
कोई वस्तु
नहीं है। मन
तो शरीर और
आत्मा के एक—दूसरे
से मिल जाने
से जो भ्रांति
पैदा होती है
उसका नाम है।
मन तो
प्रतिबिंब है।
ऐसा
समझो कि तुम
दर्पण के
सामने खड़े हुए।
दर्पण सच है, तुम
भी सच हो, लेकिन
दर्पण में जो
प्रतिबिंब बन
रहा है वह सच
नहीं है।
आत्मा और शरीर
का
साक्षात्कार
हो रहा है।
शरीर का जो
प्रतिबिंब बन
रहा है आत्मा
में, उसको
अगर तुमने सच
मान लिया तो
मन; अगर
तुमने जाना कि
केवल शरीर का
प्रतिबिंब है,
न तो मैं
शरीर हूं तो
शरीर का
प्रतिबिंब तो
मैं कैसे हो
सकता हूं तो
फिर कोई मन
नहीं।
बुद्धपुरुष
के पास कोई मन
नहीं होता। अ—मन
की स्थिति का
नाम ही तो
बुद्धत्व है।
इसलिए कबीर
कहते हैं, अ—मनी
दशा; स्टेट
आफ नो माइंड।
अ—मनी दशा!
उन्मनी दशा!
बे—मनी दशा!
जहां मन न रह
जाये!
मन
केवल भ्रांति
है,
धारणा है, ऐसी ही झूठ
है जैसे यह
मकान और तुम
कहो 'मेरा'!
मकान सच है,
तुम सच हो; मगर यह 'मेरा'
बिलकुल झूठ
है; क्योंकि
तुम नहीं थे
तब भी मकान था
और तुम कल नहीं
हो जाओगे तब
भी मकान रहेगा।
और ध्यान रखना,
जब तुम
मरोगे तब मकान
रोयेगा नहीं
कि मालिक मर
गया। मकान को
पता ही नहीं
है कि बीच में
आप नाहक ही
मालिक होने का
शोरगुल मचा
दिए थे। मकान
ने सुना ही
नहीं है। तुम
नहीं थे, धन
यहीं था। तुम
नहीं रहोगे, धन यहीं रह
जायेगा। सब
ठाठ पड़ा रह
जायेगा जब लाद
चलेगा बनजारा!
तो जो पड़ा
जायेगा, उस
पर तुम्हारा
दावा झूठ है।
इसलिए तो
हिंदू कहते
हैं : सबै भूमि गोपाल
की! वह जो सब है,
परमात्मा
का है; मेरा
कुछ भी नहीं।
जिसने ऐसा
जाना कि सब
परमात्मा का
है, मेरा
कुछ भी नहीं, उसका मन चला
गया। मन
बीमारी है। मन
अस्तित्वगत
नहीं है। मन
केवल भ्रांति
है। तुमने राह
पर पड़ी रस्सी
देखी और समझ
लिया सांप और
भागने लगे; कोई दीया ले
आया और रस्सी
रस्सी दिखाई
पड़ गई और तुम
हंसने लगे—बस
मन ऐसा है।
दीये से देख
लो जरा—मन
नहीं है। जैसे
रस्सी में
सांप दिख जाये,
ऐसी मन की
भ्रांति है।
मन मान्यता है।
तो
बुद्धपुरुषो
को मन तो होता
नहीं, इसलिए
मानसिक दुख का
तो कोई सवाल
ही नहीं उठता।
मानसिक दुख तो
उन्हीं को
होता है जिनके
पास जितना बड़ा
मन होता है।
तुम
देखो इसे, समझो।
गरीब देशों
में मानसिक
बीमारी नहीं
होती। गरीब
देश में मनोवैज्ञानिक
का कोई
अस्तित्व ही
नहीं है।
जितना अमीर
देश हो उतनी
ही ज्यादा
मनोवैज्ञानिकों
की जरूरत है, मनोचिकित्सकों
की जरूरत है।
अमरीका में तो
शरीर का
डाक्टर धीरे—
धीरे कम पड़ता
जा रहा है और
मन का डाक्टर
बढ़ता जा रहा
है।
स्वाभाविक!
क्योंकि मन
बड़ा हो गया है।
धन फैल गया।’मेरे' का
भाव फैल गया।
आज अमरीका में
जैसी समृद्धि
है वैसी कभी
जमीन पर किसी
देश में नहीं
थी। उस
समृद्धि के
कारण मन बड़ा
हो गया है। मन
बड़ा हो गया है
तो मन की
बीमारी बड़ी हो
गई है। तो आज
तो हालत ऐसी
है कि करीब
चार में से
तीन आदमी
मानसिक रूप से
किसी न किसी
प्रकार से
रुग्ण हैं।
चौथा भी
संदिग्ध है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
तीन का तो
पक्का है कि
चार में से
तीन थोड़े
अस्तव्यस्त
हैं; चौथा
भी संदिग्ध है,
पक्का नहीं।
सच तो यह है कि
मनोवैज्ञानिक
का भी कोई
पक्का नहीं है
कि वह खुद भी.।
मैं जानता हूं
अनुभव से, क्योंकि
मेरे पास
जितने
मनोवैज्ञानिक
संन्यासी हुए
हैं उतना कोई
दूसरा नहीं
हुआ है। मेरे
पास जिस
व्यवसाय से
अधिकतम लोग
आये हैं संन्यास
लेने, वह
मनोवैज्ञानिकों
का है—थिरैपिस्ट
का, मनोविद,
मनोचिकित्सकों
का। और उनको
मैं जानता हूं।
उनकी तकलीफ है,
भारी तकलीफ
है। वे दूसरे
की सहायता
करने की कोशिश
कर रहे हैं।
डूबता डूबते
को बचाने की
कोशिश कर रहा
है। वह शायद
अपने — आप बच भी
जाता, इन
सज्जन के
सत्संग में और
डूबेगा। ऐसा
कभी—कभी हो
जाता है। कभी—कभी
करुणा भी बड़ी
महंगी पड़ जाती
है।
मैं
एक नदी के
किनारे बैठा
था। सांझ का वक्त
था और एक आदमी
वहा कुछ चने
खा रहा था
मछलियों को।
हम दोनों ही
थे और एक लड़का
किनारे पर ही
तैर रहा था।
वह जरा दूर
निकल गया और
चिल्लाया कि
मरा,
डूबने लगा!
तो वह जो आदमी
चने खा रहा था,
एकदम छलांग
लगा कर कूद
गया। इसके
पहले कि मैं
कूदू वह कूद
गया। मैंने
कहा, जब वह
कूद गया तब
ठीक है। मगर
कूद कर ही वह
चिल्लाने लगा
कि बचाओ —बचाओ!
तो मैं बड़ा
हैरान हुआ।
मैंने कहा, मामला क्या
है? उसने
कहा कि मुझे
तैरना आता ही
नहीं। और एक
झंझट खड़ी हो
गई—उन दो को
बचाना पड़ा। अब
यह सज्जन अगर
उस बच्चे को
बचाने. जब मैं
निकाल कर उनको
किसी तरह बाहर
ले आया तो
मैंने पूछा कि
कुछ होश से
चलते हो, जब
तुम्हें
तैरना ही नहीं
आता..! तो
उन्होंने कहा,
याद ही न
रही। जब वह
बच्चा डूबने
लगा तो यह मैं
भूल ही गया कि
मुझे तैरना
नहीं आता। यह
मामला इतनी
जल्दी हो गया।
डूबते देख कर
कूद पड़ा बस।
पर
कूदने के पहले
यह तो सोच
लेना चाहिए कि
तुम्हें
तैरना आता है!
पश्चिम
में मन
विक्षिप्त
हुआ जा रहा है।
जरूरत! बहुत—से
लोग डूब रहे
हैं,
मन की
बीमारी में
डूब रहे हैं।
बहुत—से लोग
उन्हें बचाने
की कोशिश कर
रहे हैं। मैं
बड़े से बड़े
मनोवैज्ञानिकों
का जीवन बहुत गौर
से देखता रहा हूं, मैं बहुत
हैरान हुआ
हूं! खुद
सिग्मंड
फ्रायड मानसिक
रूप से रुग्ण
मालूम होता है,
स्वस्थ
नहीं मालूम
होता।
जन्मदाता
मनोविज्ञान
का! कुछ चीजों
से तो वह इतना
घबडाता था कि
अगर कोई किसी
की मौत की बात
कर दे तो वह कैंपने
लगता था। यह
कोई बात हुई!
अगर कोई कह दे
कि कोई मर गया..
उसने कई दफा
चेष्टा करके
अपने को
सम्हालने की
कोशिश की, मगर
नहीं, दो
दफे तो वह
बेहोश हो गया।
यह बात ही कि
कोई मर गया कि
वह घबड़ा जाये!
मौत इतना
डराये तो मन
बड़ा रुग्ण है।
सच
तो यह है कि यह
कहना कि मन
रुग्ण है, ठीक
नहीं; मन
ही रोग है।
फिर जितना मन
फैलता है। आज
अमरीका में मन
का खूब फैलाव
है। धन के साथ
मन फैलता है।
इसलिए तो मन
धन चाहता है।
धन फैलाव का
ढंग है। धन मन
की माग है कि
मुझे फैलाओ, मुझे बड़ा
करो, गुब्बारा
बनाओ मेरा, भरे जाओ हवा,
बड़े से बड़ा
करो! फिर बड़ा
करने से जैसे
गुब्बारा एक
सीमा पर जा कर
टूटता है, वैसा
मन भी टूटता
है। वही
विक्षिप्तता
है। तुम बड़ा
किए चले जाते
हो, बड़ा
किए चले जाते
हो, एक घड़ी
आती है कि
गुब्बारा
टूटता है।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि बहुत धनिक
समाज ही
धार्मिक हो
सकते हैं। जब
गुब्बारा
टूटने लगता
है, तब
आदमी सोचता है
कि कहीं कुछ
और सत्य होगा,
जिसे हमने
सत्य माना था
वह तो फूट गया,
कि वह तो
पानी का
बुलबुला
सिद्ध हुआ।
बुद्धपुरुष
के पास तो कोई
मन नहीं है, क्योंकि
बुद्धपुरुष
के पास 'मेरा'
नहीं, 'तेरा'
नहीं, 'मैं'
नहीं, 'तू
नहीं। रस ही
बचा। द्वंद्व
तो गया।
द्वंद्व के
साथ ही भीतर
बटाव—कटाव भी
चला गया।
मनोवैज्ञानिक
सीजोफ्रेनिया
की बात करते
हैं—मनुष्य के
भीतर दो खंड
हो जाते हैं; जैसे
दो व्यक्ति हो
गये एक ही
आदमी के भीतर।
तुमने भी
अनुभव किया होगा।
अधिक लोग
सीजोफ्रेनिक
हैं दुनिया
में। तुमने कई
दफे अनुभव
किया होगा।
तुम्हारी
पत्नी बिलकुल
ठीक से बात कर
रही थी, सब
मामला ठीक था,
जरा तुमने
कुछ कह दिया—कुछ
ऐसा जो उसे न
जंचा—बस बात
बदल गई। अभी
क्षण भर पहले
तक बिलकुल
लक्ष्मी थी, अब एकदम
दुर्गा का रूप
ले लिया, महाकाली
हो गई! अब वह
चाहती है कि
तुम्हारी छाती
पर नाचे; जैसे
कि शिव की
छाती पर
महाकाली नाच
रही है! तुम
चौंकते हो कि
जरा—सी बात थी,
इतनी जल्दी
कैसे
रूपांतरण हुआ!
यह महाकाली भी
छिपी है। यह
दूसरा हिस्सा
है।
मित्र
से सब ठीक चल
रहा है, जरा—सी
कोई बात हो जाये
कि सब मैत्री
दो कौड़ी में
गई। जन्म—जन्म
की मेहनत
व्यर्थ गई।
जरा—सी बात और
दुश्मनी हो गई।
जो तुम्हारे
लिए मरने को
राजी था, वह
तुम्हें
मारने को राजी
हो जाता है।
यह
सीजोफ्रेनिया
है। आदमी का
कोई भरोसा
नहीं, क्योंकि
आदमी एक आदमी
नहीं है; भीतर
कई आदमी भरे
पड़े हैं, भीड़
है।
मन
तो एक भीड़ है।
तुम बहुत आदमी
हो। इस भीड़ का
कोई भरोसा
नहीं। सुबह
तुम कहते हो, आपसे
मुझे बड़ा
प्रेम है।
भरोसा मत करना।
शाम को ये ही
सज्जन जूता
मारने आ
जायें! भरोसा मत
करना। और ऐसा
नहीं कि अभी
जो ये कह रहे
हैं तो धोखा
दे रहे हैं, अभी भी पूरे
मन से कह रहे
हैं और सांझ
भी जूता
मारेंगे तो
पूरे मन से
मारेंगे।
तुम
जिसको प्रेम
करते हो उसी
को घृणा करते
हो। और तुमने
कभी खयाल नहीं
किया कि यह
मामला क्या
है! जिस पत्नी
के बिना तुम
जी नहीं सकते, उसके
साथ जी रहे हो!
उसके बिना भी
नहीं जी सकते हो,
मायके चली
जाती है तो
बड़े सपने आने
लगते हैं!
एकदम सुंदर
पत्र लिखने
लगते हो। पति
ऐसे पत्र
लिखते हैं
मायके गई
पत्नी को कि उसको
भी धोखा आ
जाता है; सोचने
लगती है कि
यही आदमी है
जिसके साथ मैं
रहती हूं! लौट
कर धोखा
टूटेगा। लौट
कर आयेगी तो
बस पता चलेगा
कि ये तो वही
के वही सज्जन हैं
जिनको छोड़ कर
गई थी। ये
एकदम कवि हो
गये थे, रूमानी
हो गये थे, आकाश
में उडे जा
रहे थे! और ऐसा
नहीं कि ये
कोई झूठ लिख
रहे थे, पत्र
जब लिख रहे थे
तो सच ही लिख
रहे थे। वह भी
मन का एक
हिस्सा था।
पत्नी के आते
ही से वह
हिस्सा विदा
हो जायेगा, दूसरे
हिस्से प्रगट
हो जायेंगे।
जिससे
प्रेम है उसी
से घृणा भी चल
रही है। जिससे
मित्रता है
उसी से
शत्रुता भी
बनी है। ऐसा
द्वंद्व है।
इस द्वंद्व
में आदमी दुखी
है। और इन
द्वंद्वों को
समेट कर चलने
में बड़ी मुसीबत
है। इसीलिए तो
तुम इतने
परेशान हो।
ऐसा कचरा—कूड़ा
सब सम्हाल कर
चलना पड़ रहा
है। एक घोड़ा
इस तरफ जा रहा
है,
एक घोड़ा उस
तरफ जा रहा है।
कोई पीछे खींच
रहा है, कोई
आगे खींच रहा
है। कोई टांग
खींच रहा है, कोई हाथ
खींच रहा है।
बड़ी फजीहत है।
इस बीच तुम
कैसे अपने को
सम्हाले चले
जा रहे हो, यही
आश्चर्य है!
सिग्मंड
फ्रायड ने
लिखा है कि आदमी, सभी
आदमी, पागल
क्यों नहीं
हैं—यह
आश्चर्य है!
होने चाहिए
सभी पागल। अगर
देखें आदमी के
मन की हालत तो
होने चाहिए सभी
पागल। कुछ लोग
कैसे अपने को
सम्हाले हैं
और पागल नहीं
हैं; यह
चमत्कार है।
बुद्धपुरुषों
के पास कोई मन
नहीं है, इसलिए
मानसिक पीड़ा
का कोई कारण नहीं।
तीसरा
प्रश्न :
परमहंस
रामकृष्ण के
जीवन में दो
उल्लेखनीय प्रसंग
हैं। एक कि वे
एक हाथ में
बालू और दूसरे
में चांदी के
सिक्के रख कर
दोनों को एक
साथ गंगा नदी
में गिरा देते
थे। और दूसरा
कि जब स्वामी
विवेकानंद ने
उनके बिस्तर
के नीचे चांदी
का सिक्का
छिपा दिया तो
परमहंस देव
बिस्तर पर
लेटते ही पीड़ा
से चीख उठे थे।
महागीता के
वीतरागता के
सूत्र के
संदर्भ में इन
दो प्रसंगों
पर हमें कुछ
समझाने की
अनकंपा करें।
रामकृष्ण
के जीवन के ये
दोनों प्रसंग
अब तक ठीक से
समझे भी नहीं
गये हैं; क्योंकि
जिन्होंने
इनकी
व्याख्या की
है, उन्हें
परमहंस दशा का
कुछ भी पता
नहीं है। इनकी
व्याख्या
साधारण रूप
में की गई है।
रामकृष्ण एक
हाथ में चांदी
और एक हाथ में
रेत को रख कर
गंगा में गिरा
देते हैं, तो
हम समझते हैं
कि रामकृष्ण
के लिए चांदी
और मिट्टी
बराबर है।
स्वभावत:, यह
सीधा अर्थ हो
जाता है।
लेकिन अगर यही
सच है कि
रामकृष्ण के
लिए सोना और
मिट्टी, चांदी
और मिट्टी
बराबर है, तो
दोनों हाथों
में मिट्टी रख
कर क्यों नहीं
गिरा देते? एक हाथ में
चांदी रख कर
क्यों गिराते
हैं? कुछ
फर्क होगा।
कुछ थोड़ा भेद
होगा। नहीं, यह व्याख्या
ठीक नहीं है।
रामकृष्ण
के लिए तो कुछ
भी भेद नहीं
है। और यह
गिराना भी
रामकृष्ण के
लिए अर्थहीन
है। रामकृष्ण
विरागी नहीं
हैं,
वीतरागी
हैं। यह
विरागी के लिए
तो ठीक है कि
विरागी कहता
है मिट्टी—चांदी
सब बराबर, सब
मेरे लिए
बराबर है, यह
सोना भी
मिट्टी है। यह
विरागी की
भाषा है।
रामकृष्ण वीतरागी
हैं। यह
परमहंस की
भाषा हो नहीं
सकती। फिर
रामकृष्ण ऐसा
क्यों कर रहे
हैं? यह
उनके लिए कर
रहे होंगे जो
उनके आसपास थे।
यह उनके लिए
संदेश है। जो
राग में पड़ा
है, उसे
पहले विराग
सिखाना पड़ता
है। जो विराग
में आ गया, उसे
फिर वीतरागता
सिखानी पड़ती
है। कदम—कदम चलना
होता है। और
रामकृष्ण
कहते थे, हर
अनुभव से गुजर
जाना जरूरी है।
तुम
बहुत चकित
होओगे, मैं
तुम्हें उनके
जीवन का एक
उल्लेख बताऊं।
शायद तुमने
कभी सुना भी न
हो, क्योंकि
उनके भक्त
उसकी बहुत
चर्चा नहीं
करते। जरा
उलझन भरा है।
रामकृष्ण
ने एक दिन
मथुरानाथ को—उनके
एक भक्त को—कहा
कि सुन मथुरा, किसी
को बताना मत, मेरे मन में
रात एक सपना
उठा कि सुंदर
बहुमूल्य
सिल्क के कपड़े
पहने हुए हूं
गद्दा—तकिया
लगा कर बैठा
हूं और हुक्का
गुड़गुड़ा रहा हूं।
और हुक्का
गुड़गुड़ाते
मैंने देखा कि
मेरे हाथ पर
जो अंगूठी
सोने की बड़ी
शानदार है, उसमें हीरा
जड़ा है। अब
तुझे इंतजाम
करना पड़ेगा, क्योंकि
जरूर यह सपना
उठा तो जरूर
यह वासना मेरे
भीतर होगी।
इसको पूरा
करना पड़ेगा, नहीं तो यह
वासना मुझे
भटकायेगी।
अगली जिंदगी
में आना पड़ेगा,
हुक्का
गुड़गुडाना
पड़ेगा। तो तू
इंतजाम कर दे,
किसी को
बताना मत। लोग
तो समझेंगे
नहीं।
तो
मथुरा तो उनका
बिलकुल पागल
भक्त था। उसने
कहा कि ठीक।
वह गया। वह
चोरी—छिपे सब
इंतजाम कर
लाया।
बहुमूल्य
हीरे की
अंगूठी खरीद
लाया। शानदार
हुक्का लखनवी!
बहुमूल्य से
बहुमूल्य रेशमी
वस्त्र। और
आश्रम के पीछे
गंगा के तट पर
उसने गद्दा—तकिया
लगा दिया और रामकृष्ण
बैठे शान से
गद्दा—तकिया
लगा कर अंगुली
में अंगूठी
डाल कर हुक्का
बगल में ले कर
गुड़गुड़ाना
शुरू किया। वह
पीछे छिपा
झाडू के देख
रहा है कि
मामला अब क्या
होता है! वे
अंगूठी देखते
जाते हैं और
कहते हैं कि 'ठीक,
बिलकुल वही
है। देख ले
रामकृष्ण, ठीक
से देख ले। और
खूब मजा ले ले
प्यारे, नहीं
तो फिर आना
पड़ेगा।’कपड़ा
भी छू कर
देखते हैं कि
ठीक बड़ा
गुदगुदा है।
कहते हैं, 'रामकृष्ण,
ठीक से देख
ले, नहीं
तो फिर इसी
कपड़े के पीछे
आना पड़ेगा।
भोग ले!' हुक्का
गुड़गुड़ाते
हैं और कहते
हैं, 'रामकृष्ण,
ठीक से
गुड़गुड़ा ले!' बस स्व—दों—तीन—चार
मिनट यह चला, पांच मिनट
चला होगा। फिर
खिलखिला कर
खड़े हो गये, अंगूठी गंगा
में फेंक दी, हुक्का तोड़
कर उस पर यूका
और उसके ऊपर
कूदे और कपड़े
फाड़ कर.। तो
मथुरा घबड़ाया
कि अब ये कग
पागल हो रहे
हैं। एक तो
पहले ही यह
पागलपन था—यह
हुक्का
गुडुगुड़ाना।
किसी को पता
चल जाये तो
कोई माने भी न!
अगर मैं
हुक्का गुड़गुडाऊं
तो लोग मान भी
लें कि चलो
गुड़गुड़ा रहे
होंगे, इनका
कुछ भरोसा
नहीं। लेकिन
रामकृष्ण
हुक्का
गुड़गुड़ायें, मथुरा भी
किसी को कहेगा
तो कोई मानने
वाला नहीं है।
और अब यह क्या
हो रहा है! और
उन्होंने
गद्दे —तकिए
भी उठा कर
गंगा में फेंक
दिए। नंग—
धड़ंग हो गये, सब कपड़े फाड़
डाले और मथुरा
को बुलाये कि
खतम! अब आगे
आने की कोई
जरूरत न रही।
देख लिया, कुछ
सार नहीं है।
रामकृष्ण
का कहना यह था
कि जो भी भाव
उठे,
उसे पूरा कर
ही लेना।
रामकृष्ण
भगोड़ापन नहीं
सिखाते थे।
विराग उनकी
शिक्षा न थी।
वे कहते थे, राग में हो
तो राग को ठीक
से भोग लो, लेकिन
जानते रहना :
राग से कभी
कोई तृप्त
नहीं हुआ।
तो
यह जो संस्मरण
है कि चांदी
और मिट्टी को
एक साथ में ले
कर और गंगा
में डाल देते
थे,
यह जिसके
सामने डाली
होगी, उस
आदमी के लिए
इसमें कुछ
इशारा होगा।
इससे
रामकृष्ण की
चित्त की दशा
का पता नहीं
चलता। यह
उपदेश है। और
जब भी तुम
महापुरुषों
के, परमज्ञानियो
के उपदेश सुनो,
तो इस बात
का ध्यान रखना
कि किसको दिए
गये! क्योंकि
देने वाले से
कम संबंध है, जिसको दिए
गये उससे
ज्यादा संबंध
है। यह किसी
धनलोलुप के
लिए कही गई बात
होगी। कोई
धनलोलुप पास
में खड़ा होगा।
उसको यह बोध
देने के लिए
किया होगा।
रामकृष्ण की
चित्त दशा में
तो क्या
मिट्टी, क्या
सोना! इतना भी
भेद नहीं है
कि अब एक हाथ
में सोना और
एक हाथ में
रेत ले कर याद
दिलायें। और
अगर
विवेकानंद ने
उनके तकिए के
नीचे चांदी के
सिक्के रख दिए
और वे पीड़ा से
कराह उठे तो
विवेकानंद के
लिए कुछ
शिक्षा होगी।
कुछ शिक्षा
होगी कि
सावधान रहना।
कुछ शिक्षा
होगी कि तू जा
रहा है पश्चिम,
वहा धन ही
धन की दौड़ है, कहीं खो मत
जाना, भटक
मत जाना! यह जो
पीड़ा से कराह
उठे हैं, यह
तो सिर्फ
विवेकानंद पर
एक गहन
संस्कार छोड़
देने का उपाय
है, ताकि
उसे याद बनी
रहे, यह
बात भूले न, यह एक चांटे
की तरह उस पर
पड़ गई बात कि
रामकृष्ण को
चादी छू कर
ऐसी पीड़ा हो
गई थी। तो
चांदी जहर है।
कहने से यह
बात शायद इतनी
गहरे न जाती।
कहते तो वे
रोज थे। सुनने
से शायद यह
बात न मन में
प्रविष्ट
होती, न
प्रवेश करती;
लेकिन यह
घटना तो जलते
अंगारे की तरह
छाती पर बैठ
गई होगी
विवेकानंद के।
यह विवेकानंद
के लिए संदेश
था इसमें।
सदगुरुओं के
संदेश बड़े
अनूठे होते
हैं।
ऐसा
उल्लेख है कि
विवेकानंद—रामकृष्ण
तो चले गये
देह को छोड़ कर—विवेकानद
पश्चिम जाने
की तैयारी कर
रहे हैं। तो
वे एक दिन
शारदा, रामकृष्ण
की पत्नी को
मिलने गये।
आशा लेने, आशीर्वाद
मांगने। तो वह
चौके में खाना
बना रही थी।
रामकृष्ण के
चले जाने के
बाद भी शारदा
सदा उनके लिए
खाना बनाती
रही, क्योंकि
रामकृष्ण ने
मरते वक्त कहा
आंख खोल कर कि
मैं जाऊंगा कहां,
यहीं
रहूंगा।
जिनके पास
प्रेम की आंख
है, वे
मुझे देख
लेंगे। तू
रोना मत शारदा,
क्योंकि तू
विधवा नहीं हो
रही है, क्योंकि
मैं मर नहीं
रहा हूं; मैं
तो हूं जैसा
हूं वैसे ही
रहूंगा। देह
जाती है, देह
से थोड़े ही तू
ब्याही गई थी!
तो
सिर्फ भारत
में एक ही
विधवा हुई है
शारदा, जिसने
चूड़ियां नहीं
तोड़ी, क्योंकि
तोड्ने का कोई
कारण न रहा।
और शारदा रोई
भी नहीं। वह
वैसे ही सब
चलाती रही।
अदभुत स्त्री
थी। आ कर ठीक
समय पर जैसा
रामकृष्ण का
समय होता भोजन
का, वह आ कर
कहती कि 'परमहंस
देव, भोजन
तैयार है, थाली
लग गई है, आप
चलें।’ फिर
थाली पर बैठ
कर पंखा झलती।
फिर बिस्तर
लगा देती, मसहरी
डाल देती और
कहती, 'अब
आप सो जायें।
फिर दोपहर में
सत्संगी आते
होंगे।’ ऐसा
जारी रहा कम।
तो
वह परमहंस के
लिए—परमहंस तो
जा चुके—भोजन
बना रही थी।
विवेकानंद
गये और
उन्होंने कहा
कि 'मां, मैं
पश्चिम जाना
चाहता हूं
परमहंस देव का
संदेश फैलाने।
आज्ञा है? आशीर्वाद
है गु: ' तो
शारदा ने कहा
कि 'विवेकानंद,
वह जो छुरी
पड़ी है, उठा
कर मुझे दे दे।’
सब्जी
काटने की
छुरी!
साधारणत: कोई
भी छुरी उठा
कर देता है तो
मूठ अपने हाथ
में रखता है, लेकिन
विवेकानंद ने
फल तो अपने
हाथ में पकड़ा
और मूठ शारदा
की तरफ करके
दी। शारदा ने
कहा. 'कोई
जरूरत नहीं, रख दे वहीं।
यह तो सिर्फ
एक इशारा था
जानने के लिए।
तू जा सकता है।’
विवेकानंद
ने कहा. 'मैं
कुछ समझा नहीं।’
शारदा ने
कहा. ' आशीर्वाद
है मेरा, तू
जा सकता है।
यह तो मैं
जानने के लिए
देखती थी कि
तेरे मन में
महाकरुणा है
या नहीं।
साधारणत: तो
आदमी मूठ अपने
हाथ में रखता
है कि हाथ न कट
जाये और छुरे
की धार दूसरे
की तरफ करता
है कि पकड़ लो, तुम कटो तो
कटो, हमें
क्या
लेना—देना!
लेकिन तूने
धार तो खुद
पकड़ी और मूठ
मेरी तरफ की, बस
बात हो गई। तू
जा। तुझ
आशीर्वाद है।
तुझसे किसी की
कभी कोई हानि
न होगी, लाभ
होगा।’
याद
रखना, जब गुरु
बोले तो शिष्य
पर ध्यान रखना,
क्योंकि
गुरु शिष्य के
लिए बोलता है।
ये दोनों
घटनाएं
शिष्यों के
लिए हैं।
रामकृष्ण के
तल पर तो क्या
अंतर पड़ता है!
न मिट्टी
मिट्टी है, न सोना सोना
है। मिट्टी भी
मिट्टी है, सोना भी
मिट्टी है, मिट्टी भी
सोना है। सब
बराबर है। जहां
एक रस का उदय
हुआ, जहां
सब भेद खो गये,
जहां एक ही
परमात्मा
दिखाई पड़ने
लगा—फिर सभी
उसके ही बनाये
गये आभूषण हैं।
रामकृष्ण
परम वीतराग
दशा में हैं।
विरागी नहीं
हैं,
न रागी हैं—दोनों
के पार हैं।
अष्टावक्र
जिस सूत्र की
बात कर रहे है—सरक्त—विरक्त
के पार—वहीं
हैं रामकृष्ण।
चौथा
प्रश्न :
आप
कहते हैं कि 'भागो
मत, जागो!
साक्षी बनो!' लेकिन नौकरी
के बीच रिश्वत
से और
रिश्तेदारों
के बीच मांस—मदिरा
से भागने का
मन होता है।
साक्षी बने
बिना कोयले की
खान में रहने
से कालिख तो लगेगी
ही। हमें
समझाने की
मेहरबानी
करें!
जब
मैं तुमसे
कहता हूं? साक्षी
बनो, तो
इसका अर्थ यह
नहीं है कि
मैं तुमसे
कहता हूं कि
तुम जैसे हो
वैसे ही बने
रहोगे।
साक्षी में
रूपांतरण है।
मैं तुमसे यह
नहीं कह रहा
हूं कि साक्षी
बनोगे तो तुम
बदलोगे नहीं।
साक्षी तो
बदलने का
सूत्र है। तुम
साक्षी बनोगे
तो बदलाहट तो
होने ही वाली है।
लेकिन वह
बदलाहट भगोड़े
की न होगी, जागरूक
व्यक्ति की
होगी।
समझो।
तुम डर कर
रिश्वत छोड़ दो, क्योंकि
धर्मशास्त्र
कहते हैं : 'नरक
में सडोगे अगर
रिश्वत ली।
स्वर्ग के मजे
न मिलेंगे अगर
रिश्वत ली।
चूकोगे अगर
रिश्वत ली।’ इस भय और लोभ
के कारण तुम
रिश्वत छोड़
देते हो—यह
भगोड़ापन है।
और जिस कारण
से तुम रिश्वत
छोड़ रहे हो, वह कुछ
रिश्वत से बड़ा
नहीं है। वह
भी रिश्वत है।
वह तुम स्वर्ग
में जाने की
रिश्वत दे रहे
हो कि चलो, यहां
छोड़े देते हैं,
वहां प्रवेश
दिलवा देना।
तुम परमात्मा
से कह रहे हो
कि देखो
तुम्हारे लिए यहां
हमने इतना
किया, तुम
हमारा खयाल
रखना। रिश्वत
का और क्या
मतलब है?... कि
हम तुम्हारी
प्रार्थना
करते हैं।
तुमने
देखा, भक्त
जाता है मंदिर
में, स्तुति
करता स्तुति
यानी रिश्वत।’स्तुति' शब्द
भी बड़ा
महत्वपूर्ण
है। इसका मतलब
होता है.
खुशामद।
स्तुति करता
है कि तुम
महान हो और हम
तो दीन—हीन, और तुम
पतितपावन और
हम तो पापी!
अपने को छोटा
करके दिखाता
है, उनको
बड़ा करके
दिखाता है। यह
तुम किसको
धोखा दे रहे
हो? यही तो
ढंग है खुशामद
का। इसी तरह
तो तुम
राजनेता के
पास जाते हो
और उसको
फुलाते हो कि 'तुम महान हो,
कि आपके बाद
देश का क्या
होगा! अंधकार
ही अंधकार है!'
पहले उसे
फुलाते हो और
अपने को कहते
हो, 'हम तो
चरण—रज हैं, आपके सेवक
हैं।’ जब
वह खूब फूल
जाता है, तब
तुम अपना
निवेदन
प्रस्तुत
करते हो। फिर
वह इनकार नहीं
कर सकता, क्योंकि
इतने महान
व्यक्ति से
इनकार निकले,
यह बात
जंचती नहीं।
मजबूरी में
उसे स्वीकार
करना पड़ता है।
तुम सीधे जा
कर मांग खड़ी
कर देते, निकलवा
देता दरवाजे
के बाहर।
खुशामद राजी
कर लेती है।
तुम परमात्मा
के साथ भी वही
कर रहे हो।
नहीं, यह
कुछ रिश्वत से
बेहतर नहीं है।
यह रिश्वत ही
है। यह एक बड़े
पैमाने पर
रिश्वत है।
यह
तो मेरा आदेश
नहीं। मैं
तुमसे कहता
हूं जागो! मैं
तुमसे यह नहीं
कहता कि
रिश्वत लेने
से नरक में
पड़ोगे, क्योंकि
कुछ पक्का
नहीं है। अगर
रिश्वत चलती
है तो वहा भी
चलती होगी।
अगर ठीक से
रिश्वत दे
पाये तो वहां
भी बच जाओगे।
अगर शैतान की
जेब गरम कर दी
तो तुम पर जरा
नजर रखेगा; जरा कम जलते
कढाए में
डालेगा। या
तुम्हें कुछ
ऐसे काम में
लगा देगा कि
तुम. .कढाए में
डालने के लिए
भी तो लोगों
की जरूरत पड़ती
होगी..
तुम्हें
स्वयं सेवक
बना देगा कि
तुम चलो, यह
काम करो। और पक्का
नहीं है कुछ, स्वर्ग के
दरवाजे पर भी
कोई नहीं
जानता कि रिश्वत
चलती हो।
क्योंकि जो यहां
है सो वहा है।
जैसा यहां है
वैसा वहां है।
इजिप्त
का पुराना
सूत्र है. 'एज
अबव सो बिलो।’
जैसा ऊपर
वैसा नीचे।
मैं कहता हूं.
जैसा नीचे
वैसा ऊपर।
क्योंकि एक ही
तो अस्तित्व
है। यह एक ही
अस्तित्व का
फैलाव है। तो
मैं तुमसे
नहीं कहता कि
तुम रिश्वत
इसीलिए छोड़ दो
कि नरक में न
जाओ। अगर नरक
में न ही जाना
हो तो मैं
मानता हूं कि
तुम रिश्वत का
अभ्यास जारी
रखो, काम
पड़ेगा। अगर
स्वर्ग में
जाने का पक्का
ही कर लिया हो
तो खूब पुण्य
के सिक्के
इकट्ठे कर लो,
वे काम
पड़ेंगे।
और
तुम्हारे
देवी—देवता
कुछ बहुत
अच्छी हालत
में मालूम
नहीं होते।
तुम अपने
पुराण पढ़ कर
देख लो, तो
इनसे कुछ ऐसी
तुम आशा करते
हो कि ये कोई
साधु—महात्मा
हैं, ऐसा
मालूम नहीं
पड़ता। तुम
देखते हो, जरा
कोई महात्मा
महात्मापन
में बढ़ने लगता
है, इंद्र
का सिंहासन
कैपने लगता
है! यह भी बड़े
मजे की बात है।
यह इंद्र को
इतनी घबड़ाहट
होने लगती है।
यहां भी
प्रतिस्पर्धा
है। यहां भी
डर है कि
दूसरा
प्रतियोगी आ
रहा है, कि
ये चले आ रहे
हैं जयप्रकाश
नारायण, घबड़ाहट
है! उपद्रव है!
जैसा यहां है
वैसा वहां मालूम
पड़ता है।
तपस्वी ध्यान
कर रहे हैं, इंद्र घबड़ा
रहे हैं। और
देवताओं के
बीच बड़े
उपद्रव हैं।
कोई किसी की
पत्नी ले कर
भाग जाता है, कोई किसी को
धोखा दे देता
है। यहां तक
कि देवता आ कर
जमीन पर
दूसरों की
पत्नियों के
साथ संभोग कर
जाते हैं; ऋषि—मुनियों
की पत्नियों को
दगा दे जाते
हैं। वे
बेचारे ध्यान
इत्यादि कर
रहे हैं, अपनी
माला जप रहे
हैं। इन पर तो
दया करो! इनका
तो कुछ खयाल
करो। मगर नहीं,
कोई इसकी
चिंता नहीं है।
तुम
अपने पुराण
पढ़ो तो तुम
पाओगे तुमसे
भिन्न तुम्हारे
देवता नहीं
हैं।
तुम्हारा ही
विस्तार हैं। तुम्हीं
को जैसे और
बड़े रूप में
पैदा किया गया
हो। तुम्हारी
जितनी
वृत्तियां
हैं,
सब मौजूद
हैं। कोई
वृत्ति कम
नहीं हो गई है।
धन के लिए
लोलुप हैं, पद के लिए
लोलुप हैं, वासनाओं से
भरे है—अब और
क्या चाहिए!
और क्या फर्क
होने वाला है!
तो
अगर तुम डर कर
ही भाग रहे हो
तो मैं कहता
हूं तुम बड़ी
मुश्किल में
पड़ोगे। तुम यहां
भी चूकोगे, वहा
भी चूकोगे। डर
कर भागने को
मैं नहीं कहता।
मैं तो तुमसे
कहता हूं :
रिश्वत में
दुख है। फर्क
समझ लेना। नरक
मिलेगा, ऐसा
नहीं—नरक
मिलता है अभी,
यहीं। चोरी
में दुख है।
मैं यह नहीं
कहता कि चोरी
के फल में दुख
मिलेगा। चोरी
में दुख है।
वह चोर हो
जाने में ही
पीड़ा है, आत्मग्लानि
है, कष्ट
है, अग्नि
है। कहीं कढ़ाए
कोई जल रहे
हैं, जिनमें
तुम्हें
फेंका जायेगा—ऐसा
नहीं। चोरी
करने में ही तुम
अपना कढ़ाहा
खुद जला लेते
हो। अपनी ही
चोरी की आग
में खुद जलते
हो। झूठ बोलते
हो, तुम्हीं
पीड़ा पाते हो।
तुमने
खयाल नहीं
किया कि जब
सत्य बोलते हो
तो फूल जैसे
खिल जाते हो!
जब झूठ बोलते
हो तो कैसी कालकोठरी
में बंद हो
जाते हो! एक
झूठ बोलो तो दस
बोलने पड़ते
हैं। फिर एक
को बचाने के
लिए दूसरा, दूसरे
को बचाने के
लिए तीसरा—एक
सिलसिला है, जिसका फिर
कोई अंत नहीं
होता।
सच
के साथ एक मजा
है। सत्य बांझ
है,
उसकी संतति
नहीं होती।
सत्य पहले से
ही
बर्थकंट्रोल
कर रहा है। एक
दफा बोल दिया,
मामला खत्म।
उनकी कोई
पैदाइश नहीं
है कि फिर
उनके बच्चे और
उनके बच्चे!
झूठ बिलकुल
हिंदुस्तानी
है, लाइन
लगा देता है
बच्चों की! और
बाप पैदा कर
रहा है और
उनके बेटे भी
पैदा करने
लगते हैं और
उनके बेटे भी
पैदा करने
लगते हैं—और
एक संयुक्त
परिवार है झूठ
का, उसमें
काफी लोग रहते
हैं। और एक
झूठ दूसरे झूठ
को ले आता है।
तुम जब झूठ से
घिरते हो तो
निकलना
मुश्किल हो जाता
है।
तुम
खयाल करना, देखना,
एक झूठ
दूसरे में ले
जाता है। और
पहला झूठ छोटा
होता है, दूसरा
और बड़ा चाहिए;
क्योंकि
बचाने के लिए
बड़ा झूठ चाहिए।
फिर झूठ बड़ा
होता जाता है।
तुम दबते जाते
हो झूठ के
पहाड़ के नीचे।
तुम सड़ने लगते
हो।
तुम
क्रोध करके
देखो। जब तुम
प्रेम करते हो
तब तुम्हारे
भीतर एक सुवास
उठती है, एक
संगीत! कोई
पायल बज उठती
है! क्षण भर को
तुम स्वर्ग
में होते हो।
जब तुम क्रोध
करते हो, तुम
नर्क में गिर
जाते हो।
मैं
तुमसे कहता
हूं कि स्वर्ग
और नर्क कहीं
भौगोलिक
अवस्थाएं
नहीं हैं।
स्वर्ग और
नर्क
तुम्हारे
चित्त की
दशायें हैं।
प्रतिक्षण
तुम स्वर्ग और
नर्क के बीच
डोलते हो, जैसे
घड़ी का
पेंडुलम
डोलता है। मैं
कहता हूं
साक्षी बनो, भगोड़े नहीं।
भगोड़े में तो
लोभ, मोह, भय। भगोड़ा
यानी भय से जो
भागा। साक्षी
का मतलब है : जो
बोध में जागा।
तुम जाग कर
देखो। फिर जो
जाग कर देखने
में सुंदर, सत्य, शिवम,
जो
प्रीतिकर, आह्लादकारी,
रसपूर्ण
लगे—स्वभावत:
तुम उसे
भोगोगे। और जो
काटा चुभाये,
दुख लाये, नर्क लाये, स्वभावत:
तुम्हारे हाथ
से गिरने
लगेगा।
तुम
पूछते हो कि 'आप
कहते हैं भागो
मत, जागो।
साक्षी बनो।
लेकिन नौकरी
के बीच रिश्वत
से और
रिश्तेदारों
के बीच मांस—मदिरा
से भागने का
मन होता है।’
भागने
से क्या होगा? रिश्तेदार
तुम्हारे हैं।
तुम दूसरी जगह
जा कर
रिश्तेदार
खोज लोगे।
जाओगे कहां? तुम सोचते
हो, तुम्हारे
गांव में ही
शराबी हैं!
जिस गांव में
जाओगे वहां
शराबी हैं। एक
नौकरी छोड़ोगे,
दूसरी
नौकरी पर
जाओगे, वहां
रिश्वत चल रही
है। तुम
भागोगे कहां?
भागने से
कुछ भी न होगा।
जागो! कौन
तुम्हें
जबर्दस्ती
शराब पिला रहा
है? तुम
जाग जाओ, तुम
पीयोगे नहीं।
तुम कभी नहीं
कहते कि फलां
आदमी नहीं
माना, इसलिए
जहर पी लिया।
कि नहीं, वह
बहुत आग्रह कर
रहा था, इसलिए
पी लिया। तुम
जहर को जानते
हो तो पीते
नहीं। कोई
कितने ही
आग्रह करे, कोई कितनी
ही खुशामद करे,
तुम कहोगे : 'बंद करो
बकवास! यह भी
कोई बात हुई!
जहर!' शराब
अगर तुम्हें
जागरण में जहर
दिखाई पड़ गई तो
कौन पीता है, कौन पिलाता
है? शायद
तुम्हारी
मौजूदगी
दूसरों के
पीने में भी
बाधा बन जाये।
कोई तुम्हें
पिला नहीं
सकता। कोई
उपाय नहीं है।
इस
जगत में तुम
जो हो, दूसरों
पर
जिम्मेदारी
मत डालो। वह
तरकीब है बचने
की. 'क्या
करें, रिश्तेदार
मांस—मदिरा
खाते हैं।’ नहीं, तुम
खाना चाहते हो,
रिश्तेदारों
पर टाल रहे हो।
तुम जागना
नहीं चाहते; तुम कहते हो,
मजबूरी है,
करना पड़ता
है!
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं. इस
दुनिया में
कोई चीज तुम
मजबूरी से
नहीं कर रहे
हो। तुम करना
चाहते हो, इसलिए
कर रहे हो।
मजबूरी तो
तरकीब है। वह
तो तुम्हारा
रैशनालाइजेशन
है। वह तो तुम
कहते हो : 'ऐसी
स्थिति है, नहीं करेंगे
तो कैसे
चलेगा!' न
चले, क्या
करेंगे
रिश्तेदार? तुम्हें
निमंत्रण पर
नहीं
बुलायेंगे।
अच्छा है। तुम
सौभाग्यशाली!
धन्यवाद दे
देना कि बड़ी
कृपा आपकी कि
अब नहीं
बुलाते।
रिश्वत
न लोगे— थोड़ी
गरीबी होगी, थोड़ी
मुश्किल होगी—ठीक
है। मैं तुमसे
कह भी नहीं
रहा कि तुम
ईमानदार रहोगे
तो छप्पर खोल
कर परमात्मा
तुम्हारे घर
में धन बरसा
देगा। और जो
तुमसे ऐसा
कहते हैं वे
झूठे हैं। और
वे तुम्हें
धोखा देते हैं।
और उनके कारण
दुनिया में
बड़ी बेईमानी
है। मेरे पास
लोग आते हैं।
वे कहते हैं. 'हम ईमानदार
हैं, लेकिन
बेईमान मजा कर
रहे हैं!' मैंने
कहा : तुमसे
कहा किसने कि
ईमानदार मजा
करेंगे? जिन्होंने
कहा, उन्होंने
तुम्हें धोखा
दे दिया। वह
मजे की बात ही
तो बेईमान
बनने का सूत्र
है। बेईमान
मजे कर रहे
हैं! और तुम
ईमानदार हो, तुम मजा
नहीं कर रहे!
मजा क्या है?
वे
कहते हैं 'बेईमानों
ने बड़ा मकान
बना लिया।’ तो अगर बड़ा
मकान बनाना है
तो तुम बड़ा
उपाय कर रहे
हो। तुम
बेईमानी की
तकलीफ भी नहीं
भोगना चाहते
और बड़ा मकान
भी बनाना
चाहते हो —ईमानदार
रह कर!
ईमानदार हो तो
मकान छोटा ही
रहेगा।
लेकिन
छोटे मकान के
भी सुख हैं!
बड़े मकान में
ही सुख होते, यह
तुमसे कहा
किसने? तुमने
बड़े मकान में
रहते आदमी को
सुखी देखा है?
मुश्किल से
देखोगे। बहुत
धन में सुख
होता है, ऐसा
तुमसे कहा
किसने? बड़े
से बड़े सम्राट
को सुख की
नींद आती है? बड़े से बड़े
धनी को शाति
है? चैन है?
नहीं, लेकिन
तुम बाहर का
रख—रखाव देखते
हो। तुम्हारा
दिल भी तो
इन्हीं चीजों
पर है कि 'मकान
तो हमारे पास भी
बड़ा हो, कार
हमारे पास भी
बड़ी हो, धन
का अंबार लगे—और
लग जाये
ईमानदारी से
और रिश्वत
लेना न पड़े! और
हम अपनी माला
जपते, ध्यान
भी करते रहें
और ये सब
चीजें भी साथ
आ जायें!' तुम
असंभव की मांग
कर रहे हो। तो
फिर बेईमान के
साथ अन्याय हो
जायेगा।
बेचारा
बेईमानी भी करे,
बेईमानी की
तकलीफ भी भोगे,
बेईमानी का
नरक भी झेले
और बड़ा मकान
भी न बना पाये!
तुम ईमानदारी
का भी मजा लो
और बड़े मकान
का भी—दोनों
हाथ लट्टू! एक
हाथ उसको भी
लेने दो। वह
काफी तकलीफ
झेल रहा है।
और जितनी
तकलीफ झेल रहा
है उतना उसको
मिल नहीं रहा
है, इतना
मैं तुमसे कहे
देता हूं। जो
मिल रहा है वह
कूड़ा—कर्कट है;
तकलीफ वह
बहुत बड़ी झेल
रहा है; आत्मा
बेच रहा है और
कचरा इकट्ठा
कर रहा है।
लेकिन
तुम्हारी नजर
भी कचरे पर
लगी है। तुम
कहते हो, 'देखो,
उसके पास
कचरे का कितना
ढेर लग गया है!
हमारे पास
बिलकुल नहीं
है। यहां कोई
कचरा डालता ही
नहीं है! हम
बैठे रहते हैं
सड़क के किनारे,
यहां कोई
कचरा डालता
नहीं।
बेईमानों के
पास लोग कचरा
डाल रहे हैं।’
नहीं, तुम्हारी
नजर खराब है।
तुम बेईमान हो।
और कायर हो!
तुम बेईमानी
की हिम्मत भी
नहीं करना
चाहते और तुम,
बेईमान को
जो मिलता है
बेईमानी से, वह भी पाना
चाहते हो। तुम
बिना दौड़े
प्रतियोगिता
में प्रथम आना
चाहते हो। तुम
कहते हो. 'देखो,
हम तो बैठे
हैं, फिर
भी प्रथम नहीं
आ रहे! और ये
लोग दौड़ रहे
हैं और प्रथम
आ रहे हैं!' तो
जो दौड़ेंगे, वे प्रथम
आयेंगे, लेकिन
दौड़ने की
तकलीफ, दौड़ने
की परेशानी, दौड़ने का पसीना,
जद्दोजहद—वे
झेलते हैं।
तुम बैठे—बैठे
प्रथम आना
चाहते हो। तुम
चाहते हो कि
परमात्मा कोई
चमत्कार करे।
क्यों? क्योंकि
तुमने रिश्वत
नहीं ली है।
रिश्वत लेना
पाप हो, न
लेना कोई
पुण्य नहीं है।
चोरी करना पाप
हो, न करना
कोई पुण्य
नहीं है। इसको
खयाल में रखो।
इतने से कुछ
नहीं होगा कि
तुमने चोरी
नहीं की। चोरी
नहीं की तो
ठीक है, तुम
चोरी करने की
तकलीफ से बच
गये। और चोरी
करने की तकलीफ
से जो थोड़े —बहुत
सुख का
प्रलोभन
मिलता है, आशा
बंधती है, उससे
भी तुम बच गये।
तुम झंझट के
बाहर रहे। बस
इतना क्या कम
है पु इतना फल
क्या थोड़ा है?
मैं
जब तुमसे कहता
हूं जागो, तो
मेरा मतलब यह
है कि तुम
जीवन की सारी
स्थिति को आंख
भर कर देखो।
फिर उस देखने
से ही क्रांति
घटनी शुरू
होती है। तुम
देखते हो कि
जो व्यर्थ है
वह दुख देता
है। अभी देता
है, यहीं
देता है, तत्क्षण
देता है। धीरे—
धीरे उस दुख
से तुम्हारा
छुटकारा होने
लगता है। और
जब तुम्हारे
जीवन के सारे
दुख खो जाते
हैं तो सुख का
सितार बजता है।
सुख का सितार
तो तुम्हारे
भीतर बज ही
रहा है। ये जो
दुख के नगाड़े
तुम बजा रहे
हो, इनकी
वजह से सितार
सुनाई नहीं
पड़ता; उसकी
आवाज धीमी, बारीक है।
सूक्ष्म रस तो
बह ही रहा है, लेकिन
तुम्हारे
आसपास दुख के
इत्ने परनाले
बह रहे हैं, ऐसी बाढ़ आई
है दुख की, कि
वह जो रस की
क्षीण धार है
उसका पता नहीं
चलता। वह जो
एक किरण है
परमात्मा की
तुम्हारे
भीतर, तुम्हारे
कृत्य के
अंधकार में खो
गई है; तुम्हारे
अहंकार की
अंधेरी रात
में दब गई है।
तुम
जरा जागो तो
तुम्हारे
जीवन में क्रांति
अपने— आप आ
जायेगी।
रिश्तेदार न
छोड़ने पडेंगे
और न नौकरी से
भागना पड़ेगा।
यह तो मैं
पहली बात कहता
हूं। लेकिन
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
तुम्हारे जीवन
में रूपांतरण
न होगा। हो
सकता है, साक्षी—
भाव में जागने
पर ऐसी स्थिति
आ जाये कि
तुम्हारा
सारा प्राणपण से
जंगल जाने का
भाव उठे। वह
भगोड़ापन नहीं
है फिर।
मैं
कहता हूं : सब
भगोड़े जंगल
पहुंच जाते
हैं,
लेकिन सब
जंगल पहुंचने
वाले भगोड़े
नहीं हैं। कभी—कभी
तो कोई सहज
स्वभाव से
जंगल जाता है।
एक सहज आकांक्षा,
कोई
भगोड़ापन नहीं
है।
जिंदगी
से ऊब कर नहीं, डर
कर नहीं, किसी
पुण्य
पुरस्कार के
लिए नहीं—जंगल
का आवाहन! वह
जंगल की
हरियाली किसी
को बुलाती है!
जंगल का रस
किसी को
खींचता है।
'कृष्ण
मोहम्मद' यहां
पीछे बैठे हैं।
वे मिलानो में
थे, बड़ी
नौकरी पर थे, छोड़ कर आ गये।
भगोड़े नहीं
हैं, जीवन
से भागे नहीं
हैं। तो जब
यहां आये तो
जंगल जा रहे
थे, इरादा
था कि कहीं
पंचगनी में
दूर जा कर
कुटी बना कर
बैठ जायेंगे।
इधर बीच में
उन्हें मैं
मिल गया तो
मैंने कहा. 'कहां जाते
हो?' तो वे
राजी हो गये।
भगोड़े होते तो
राजी न होते।
उन्होंने कहा.
'ठीक है, आप आज्ञा
देते हैं तो
यहीं रह
जाऊंगा।’ भगोड़े
में तो जिद्द
होती है।
शांति की तलाश
थी। मैंने
कहा. 'पंचगनी
पर क्या होगा?
मैं यहां
मौजूद हूं
इससे बड़ा पहाड़
तुम्हें मिलना
मुश्किल है!
तुम यहीं रुक
जाओ! तुम्हारी
कुटिया यहीं
बना लो।’ एक
बार भी 'ना'
न कहा।’ही'
भर दी कि
ठीक, यहीं
रुक जाते हैं।
भागे नहीं हैं,
लेकिन
शांति की तरफ
एक बुलावा आ
गया है, एक
निमंत्रण आ
गया है—शात
होना है!
तो
मैं यह नहीं
कहता कि तुम
अगर शात हो
जाओ,
साक्षी बन
जाओ, आनंद
से भर जाओ तो
जरूरी नहीं कह
रहा हूं कि तुम
रहोगे ही घर
में। हो सकता
है तुम चले
जाओ; लेकिन
उस जाने का
गुणधर्म अलग
होगा। तब तुम
कहीं भाग नहीं
रहे हो, कहीं
जा रहे हो।
फर्क समझ लो।
भगोड़ा कहीं से
भागता है।
उसकी नजर, कहां
जा रहा है, इस
पर नहीं होती;
कहां से जा
रहा है, इस
पर होती है।
घर, परिवार,
पत्नी, बच्चे—यह
भगोड़ा है।
लेकिन अगर तुम
साक्षी हो तो
कभी हिमालय की
पुकार आती है।
तब तुम हिमालय
की तरफ जा रहे
हो। तब एक
अदम्य पुकार
है, जिसे
रोकना असंभव
है। तब कोई
खींचे लिए जा
रहा है, तुम
भाग नहीं रहे,
कोई खींचे
लिए जा रहा है।
कोई सेतु जुड़
गया है। पुकार
आ गई। स्वभाव
से अगर तुम
जाओ तो
सौभाग्यशाली
हो। भाग कर गये
तो दुख पाओगे।
मैं
तुमसे कहता
हूं : अगर तुम
कभी भाग जाओ
और जंगल में
बैठ जाओ झाडू
के नीचे, तुम
रास्ता
देखोगे कि कोई
आता ही नहीं।
रिश्वत का
रास्ता नहीं
देखोगे; अब
रास्ता
देखोगे कि कोई
भक्त आ जाये, पैर पर कुछ
चढ़ा जाये। वह
मतलब वही है।
चढ़ौतरी कहो कि
रिश्वत कहो।
राह देखोगे कि
कोई भक्त आ
जाये, कोई
मित्र आ जाये,
कोई शिष्य
बन जाये तो
छप्पर डाल दे।
अब वर्षा करीब
आ रही है, अब
यहां झाडू के
नीचे कैसे
बैठेंगे। तुम
यही सब चिंता—फिक्र
में रहोगे। और
देर न लगेगी, कोई न कोई
बोतल लिए आ
जायेगा।
क्योंकि जो
मांगो इस जगत
में, मिल
जाता है। यही
तो मुश्किल है।
एक दिन तुम
देखोगे चले आ
रहे हैं कोई
बोतल लिए, क्योंकि
शराब—बंदी हुई
जा रही है तो
जिनको भी
बोतलें भरनी हैं
वे भी जंगल की
तरफ जा रहे
हैं। वहीं
जंगल में
बनेगी अब शराब।
अब तुम कहोगे,
यह भी बड़ी
मुसीबत हो गई,
अब ये आ गये
एक सज्जन ले
कर बोतल, अब
न पीयो तो भी
नहीं बनता, शिष्टाचारवश
पीनी पड़ती है!
साधु—संन्यासी
आ जायेंगे
गांजा— भांग
लिए, तुम
वह पीने लगोगे।
अब साधु कहे
तो इनकार भी
तो करते नहीं
बनता। और कोई
हो तो इनकार
भी कर दो; अब
साधु ने चिलम
ही भर कर रख दी,
अब वह कहता
है ' अब एक
कश तो लगा ही
लो! और बड़ा
आनंद आता है।
यह तो
ब्रह्मानंद
है! और भगवान
ने ये चीजें
बनाईं क्यों?
और फिर शिव
जी से ले कर अब
तक सभी भक्त
इनका उपयोग
करते रहे हैं।
तुम क्या शिव
जी से भी अपने
को बड़ा समझ
रहे हो?' तो
मन हो जाता है।
तुम
भाग कर न भाग
सकोगे—जागोगे
तो ही..। जाग कर
अगर न गये तो
भी गये, गये
तो
भी
ठीक,
न गये तो भी
ठीक। मगर तब
जीवन में एक
सहज स्फुरणा
होती है।
और
मैं तुमसे
कहता हूं : अगर
तुम जागे रहो
तो कालिख से
भरी कोठरी से
भी निकल जाओगे
और कालिख तुम्हें
न लगेगी।
क्योंकि
कालिख शरीर को
ही लग सकती है
और शरीर तुम
नहीं हो, वस्त्रों
को लग सकती है,
वस्त्र तुम
नहीं हो। तुम
तो कुछ ऐसे हो
जिस पर कालिख
लग ही नहीं
सकती।
तुम्हारा तो
स्वभाव ही
निर्दोष है।
तुम तो सदा से
शुद्ध—बुद्ध
चिन्मय—मात्र,
चैतन्यरूप
निराकार हो!
कूटस्थ
रहने से कुछ
नहीं बनेगा, न
तटस्थ रहने से
समष्टि
को जीने से, सहने
से, जीता
है आदमी
अकेला
तो सूरज भी
नहीं है
उससे
ज्यादा
अकेलापन तुम
चाहोगे?
मृत्यु
तक तटस्थता
निभाओगे?
सिमट
कर बहते हुए
जीवन में उतरो
घाट
से हाट तक,
हाट
से घाट तक
आओ —जाओ
तूफान
के बीच गाओ
मत
बैठो ऐसे
चुपचाप तट पर
तटस्थ
हो या कूटस्थ
हो,
इससे फर्क
नहीं पड़ता।
सिमट
कर बहते हुए
जीवन में उतरो
घाट
से हाट तक,
हाट
से घाट तक
आओ—जाओ
तूफान
के बीच गाओ
मत
बैठो ऐसे
चुपचाप तट पर!
परमात्मा
इतने गीत गा
रहा है, तुम
भी सम्मिलित
होओ। यह
परमात्मा का
उत्सव जो चल
रहा जगत में, यह जो
सृष्टि का
महायान चल रहा
है, यह
महोत्सव जो चल
रहा है—इसमें
तुम दूर—दूर
मत खड़े रहो, नाचो, गुनगुनाओ,
भागीदार
बनो! और
भागीदार बन कर
भी द्रष्टा
बने रहो, यही
मेरी शिक्षा
है। क्योंकि
द्रष्टा में
कुछ भेद नहीं
पड़ता है। तुम
किनारे पर बैठ
कर ही द्रष्टा
बनोगे तो यह द्रष्टा
बड़ा कमजोर हुआ।
नदी की धार
में और तूफान
से खेलते हुए
द्रष्टा बनने
में क्या अड़चन
है? द्रष्टा
ही बनना है न—पहाडू
पर बनोगे, बाजार
में नहीं बन
सकते? जब
द्रष्टा ही
बनना है तो
बाजार का भय
कैसा? देखना
ही है और इतना
ही जानना है
कि मैं देखने वाला
हूं तो तुम
पहाड़ देखो कि
वृक्ष देखो कि
नदी—झरने देखो
कि लोग देखो, दूकानें
देखो—क्या
फर्क पड़ता है?
द्रष्टा तो
द्रष्टा है, कुछ भी देखे।
और जो भी तुम
देखो, अगर
जानते रहो
सपना है—तो
फिर क्या अड़चन
है?
ऐसा
हुआ,
रमण महर्षि
को अरुणाचल की
पहाड़ी से बड़ा
लगाव था। वे
दिन में कई
दफा उठ—उठ कर
चले जाते थे
पहाड़ी पर। कई
दफा! नाश्ता
किया और गये!
भोजन किया और
गये! सो कर उठे
और
गये। बीच में
सत्संग चल रहा
और वे कहेंगे, बस!
गये पहाड़ी पर!
दिन में कई
दफा चले जाते
थे। फिर भी
पहाड़ी तो बड़ी
थी, तो
पूरी पहाड़ी पर
कई हिस्से थे
जहां तक नहीं
पहुंच पाते थे।
तो
एक दिन अपने
भक्तों को कहा
कि 'कल तो मैं
उपवास करूंगा
ताकि लौटना न
पड़े। कैल तो
दिन भर भूखा
रहूंगा और
सांझ तक खोज
करूंगा, कई
जगह खाली रह
गई हैं जहां
मैं नहीं
पहुंचा इस
पहाड़ी पर। दूर
से कहीं कोई
झरना दिखाई
पड़ता है, उसके
पास नहीं जा
पाया। तो कल
तो मैं भोजन
नहीं करूंगा।’
तो
भक्तों ने
कहा. 'यह बड़ी झंझट
की बात है।’ तो रात को
खूब उनको भोजन
करवा दिया, खूब करवा
दिया!
उन्होंने
बहुत रोका कि
भई, बस अब
रुको; कल
मुझे पहाड़ पर
जाना है और
तुम इतना
करवाये दे रहे
हो कि चलना
मुश्किल हो
जायेगा।
लेकिन भक्त न
माने, तो
उन्होंने कर
लिया। साक्षी—
भाव वाले आदमी
की ऐसी दशा है।
ठीक, पहले
इनकार करते
हैं, फिर
कोई नहीं
मानता तो वे
कहते हैं, चलो
ठीक। सुबह उठ
कर गये तो एक
भक्त को मन
में भाव रहा
कि ये जा तो
रहे हैं, लेकिन
दिन भर भूखे
रहेंगे, तो
वह कुछ नाश्ता
बना कर दूर
जरा रास्ते के
बैठ गया था।
सुबह जब
ब्रह्ममुहूर्त
में वे वहा से
जाने लगे तो
उसने पैर पकड़
लिए। उसने कहा
कि नाश्ता ले
आया हूं।
उन्होंने कहा.
'हद हो गई!
अरे, मुझे
घूमने जाना है,
अब तुम देर
करवा दोगे!' तो उसने कहा
कि जल्दी से
कर लें आप! वे
नाश्ता करके
चले कि थोड़ी
दूर पहुंचे थे
कि पांच—सात
स्त्रियां
चली आ रही हैं।
वे कहें कि ये
रहे हमारे
स्वामी।
उन्होंने कहा.
'क्या
मामला?' उन्होंने
कहा. 'हम
भोजन बना कर
ले आये।’ उन्होंने
कहा : 'यह तो
हद हो गई! अब
इनको दुखी
करना भी ठीक
नहीं, ये न
मालूम कितनी
रात से आ कर यहां
बैठी हैं!' भोजन
कर लिया।
स्त्रियों ने
कहा : 'आप
घबराना मत। हम
दोपहर में फिर
आयेंगे, दोपहर
का भोजन ले कर।’
उन्होंने
कहा. 'तुम
आना मत, क्योंकि
मैं दूर निकल
जाऊंगा। तुम
खोज न पाओगे।’
उन्होंने
कहा. ' आप
फिक्र न करो।
एक स्त्री
आपके पीछे लगी
रहेगी।’ वह
एक स्त्री
पीछे लगी रही।
उन्होंने कहा.
'यह भी
मुसीबत हुई!' और दोपहर को
वे आ गईं खोज—खाज
कर, उनको
फिर भोजन करवा
दिया। अब तो
उनकी ऐसी हालत
हो गई कि
लौटें कैसे!
लौट
कर किसी तरह
आये। वहां तक
भी न पहुंच
पाये जहां रोज
पहुंच जाते थे।
किसी तरह लौट
कर आये तो
भक्तों ने खूब
भोजन तैयार कर
रखा था कि लौट
कर प्रभु
आयेंगे। तो
उन्होंने कहा
: 'कसम खाई अब
कभी उपवास न
करूंगा। यह तो
बड़ा.. उपवास तो
बड़ा महंगा पड़
गया!' फिर
कहते हैं, रमण
ने कभी उपवास
नहीं किया।
उन्होंने कहा
: 'कसम खा ली,
यह उपवास
बड़ा महंगा है।
इससे तो हम जो
रोज भोजन करते
रहते थे, वही
ठीक था।’
एक
साक्षी की दशा
है. जो होता है
होता है।
उपवास किया तो
भी जिद्द नहीं
है। तुमने अगर
उपवास किया
होता तो तुम
कहते : 'क्या
समझा है तुमने?
मेरा उपवास
तोड्ने आये!
ये मालूम होती
हैं, स्त्रियां
नहीं हैं, इंद्र
की भेजी
अप्सरायें
हैं। तुम अकड़
कर खड़े हो गये
होते, शीर्षासन
लगा लिया होता,
आंख बंद कर
ली होती कि
छूना मत मुझे,
दूर रहना, उपवास किया
है! यह भ्रष्ट
करने का उपाय
है! लेकिन रमण
ने कहा.
बेचारी
स्त्रियां
हैं, इतनी
रात आई हैं, अब चलो ठीक
है।
एक
साक्षी की दशा
है,
जो देखता
चला जाता है।
रमण के हाथ
में कैंसर हो
गया। जो आश्रम
का डाक्टर था,
कुछ बहुत
समझदार नहीं
था। आश्रम के
ही डाक्टर!
उसने उनको
बाथरूम में ले
जा कर आपरेशन
ही कर दिया।
उन्होंने कहा
भी कि भई तू
कुछ खोज—खबर
तो कर ले, कि
मामला क्या
है! उसने कहा. 'कुछ नहीं, जरा—सी गांठ
है।’ उसने
भी सोचा नहीं
कि कैंसर होगा
कि कुछ होगा।
गांठ ऊपर—ऊपर
थी, उसने
निकाल दी, लेकिन
फिर और बड़ी
गांठ पैदा हो
गई। सैप्टिक
हुआ अलग, बड़ी
गांठ हो गई
अलग। फिर गांव
के—और वह गांव
भी छोटा—मोटा—गांव
के डाक्टर ने
आ कर आपरेशन
कर दिया। फिर
मद्रास के
डाक्टर आये, ऐसे धीरे—
धीरे...
कलकत्ते के
डाक्टर आये।
आपरेशन साल भर
चले। कोई चार—पांच
दफा आपरेशन
हुए। और वे बार—बार
कहते कि तुम
प्रकृति को
अपनी
प्रक्रिया पूरी
करने दो, तुम
क्यों पीछे
पड़े हो? मगर
उनकी कौन
सुनता! उनसे
लोग कहते : 'तुम
चुप रही!
भगवान, तुम
चुप रहो! तुम
बीच में न
बोलो। ये
डाक्टर जानते
हैं।’ वे
कहते, ठीक
है। साल भर
में उनको करीब—करीब
मार डाला। साल
भर के बाद जब
डाक्टर थक गये
और उन्होंने
कहा, हमारे
किए कुछ न
होगा। तो रमण
हंसने लगे।
उन्होंने कहा.
मैं तुमसे
पहले कहता था,
तुम नाहक
परेशान हो रहे
हो। जो होना
है होने दो।
अब साल भर के
बाद इतने
आपरेशन करके
मेरे मुझे बिस्तर
पर भी लगा
दिया, सब
तरफ से काटपीट
भी कर दी—अब
तुम कहते हो, हमारे किए
कुछ भी न होगा!
मैं तुमसे तभी
कहता था, आदमी
के किए कहीं
कुछ होता है!
जो होता है
होता है। होने
दो!
मरने
के क्षण भर
पहले किसी ने
पूछा कि आप
फिर लौटेंगे? तो
रमण ने कहा. 'जाऊंगा कहां?
आया कब? तो
जाऊंगा कैसे?
और फिर आने
की बात उठा रहे
हो! और जिंदगी
भर मैंने
तुम्हें यही
समझाया कि न
आत्मा आती और
न आत्मा जाती।’
साक्षी—
भाव में किसी
कृत्य का कोई
मूल्य नहीं है।
ऐसा भी हो
सकता है कि
साक्षी— भाव
में कोई शराब
भी पी ले तो भी
कोई अंतर नहीं
पड़ता। मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि तुम
पीना, मैं
तुमसे यह कह
रहा हूं कि
आत्यंतिक
अर्थों में
शराब भी कोई
पी ले साक्षी—
भाव में तो भी
कोई अंतर नहीं
पड़ता। लेकिन
साक्षी— भाव
पर ध्यान रखना।
नहीं तो तुम
सोचो, चलो
ठीक, हम तो
साक्षी हो गये,
पी लें
शराब! पीने की
जब तक कामना
रहे तब तक तुम साक्षी
नहीं हुए।
साक्षी का
इतना ही अर्थ
होता है : जो
होता है, उसे
हम होने देते
हैं और देखते
हैं। हम देखने
वाले हैं, कर्ता
नहीं हैं।
भगोडा कर्ता
हो जाता है।
चांदनी
फैली गगन में, चाह
मन में
दिवस
में सबके लिए
बस एक जग है
रात
में हरेक की
दुनिया अलग है
कल्पना
करने लगी अब
राह मन में
चांदनी
फैली गगन में, चाह
मन में
मैं
बताऊं शक्ति
है कितनी पगों
में
मैं
बताऊं नाप
क्या सकता
डगों में
पंथ
में कुछ ध्येय
मेरे तुम धरो
तो!
आज आंखों
में
प्रतीक्षा
फिर भरो तो!
चीर
वन घन भेद मरु
जलहीन आऊं
सात
सागर सामने
हों,
तैर जाऊं
तुम
तनिक संकेत
नयनों से करो तो!
आज आंखों
में
प्रतीक्षा
फिर भरो तो!
राह
अपनी मैं
स्वयं
पहच्चान
लूंगा
लालिमा
उठती किधर से, ज्यान
लूंगा
कालिमा
मेरे दृगों की
तुम हरी तो!
आज आंखों
में
प्रतीक्षा
फिर भरी तो!
थोड़ी—सी
आंख की कालिख
हट जाये तो
तुम साक्षी दो
गये।
तुम
तनिक संकेत
नयनों से करो
तो!
आज आंखों
में
प्रतीक्षा
फिर भरो तो!
प्रभु
की जरा
प्रतीक्षा
शुरू हो जाये
तो तुम साक्षी
हो गये।
जब
तक तुम वासना
कर रहे हो
वस्तुओं की, तब
तक कर्ता
रहोगे। जब तुम
प्रभु की
प्रतीक्षा
करने लगोगे, वस्तुओं की
कामना नहीं, तब तुम
साक्षी होने
लगोगे। आंख
में जरा
प्रतीक्षा आ
जाये तो तुम
शांत होने
लगोगे।
कालिमा
मेरे दृगों की
तुम हरो तो!
आज आंखों
में
प्रतीक्षा
फिर भरो तो!
जरा—सी
आंख की कालिख
अलग करनी है!
कर्ता से मत
उलझो। दृष्टि
को सुधार लो, साफ
कर लो।
ऐसा
ही समझो कि
तुम्हारे आंख
में एक
किरकिरी पड गई
है,
जरा—सा तिनका
पड़ गया है। और
उसके कारण कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता।
किरकिरी अलग
हो जाये आंख
से, दृष्टि
फिर साफ हो
जाती है, सब
दिखाई पड़ने
लगता है।
हिमालय जैसी
बड़ी चीज भी आंख
में जरा—सा
रेत का कण पड़
जाये तो
हिमालय भी छिप
जाता है। रेत
का कण हिमालय
को छिपा लेता
है। रेत का कण
हट जाये, हिमालय
फिर प्रगट हो
गया।
विराट
को छिपा लिया
है जरा—सी बात
ने कि तुम
साक्षी नहीं
रह गये। इसे
तुम जगाना
शुरू करो।
जैसे—जैसे तुम
जागोगे, तुम्हारे
भीतर सब मौजूद
है, सब
प्ले कर ही
आये हो, उसका
स्वाद फैलने
लगेगा।
तुम्हें कुछ
पाना नहीं है।
अष्टावक्र
का परम सूत्र
यही है कि तुम
जैसे हो ऐसे
ही परिपूर्ण
हो। जैसे तुम यहां
बैठे हो इस
क्षण, परमात्मा
तुम्हारे
भीतर
विराजमान है,
अपनी
परिपूर्ण लीलाओं
में मौजूद है।
श्री
रमण को किसी
ने पूछा कि
क्या आप दावा
करते हैं कि
अवतार हैं? तो
श्री रमण ने
कहा. 'अवतार
तो आशिक होता
है, ज्ञानी
पूर्ण होता है।
अवतार का तो
मतलब थोड़ा —सा
परमात्मा
उतरा! ज्ञानी
तो पूरा
परमात्मा होता
है। क्योंकि
ज्ञानी जानता
है परमात्मा
के अतिरिक्त
कोई भी नहीं
है।’
पूछने
वाला तो शायद
यही पूछने आया
था कि शायद रमण
दावा करें कि
मैं अवतार हूं।
वह तो विवाद
करने आया था, पंडित
था! और रमण ने
कहा : 'अवतार!
छोटी—मोटी बात
क्या उठानी!
अवतार नहीं
हूं? पूर्ण
ही हूं!'
मैं
तुमसे कहता
हूं. तुम भी
पूर्ण हो।
प्रत्येक
पूर्ण है। पूर्ण
से पूर्ण ही
पैदा होता है।
हम परमात्मा
से
पैदा हुए हैं, अपूर्ण
हो भी कैसे
सकते हैं!
उपनिषद
कहते हैं :
पूर्ण से
पूर्ण को
निकाल लो, फिर
भी पीछे पूर्ण
शेष रह जाता
है। पूर्ण को
पूर्ण में डाल
दो, फिर भी
पूर्ण उतना का
ही उतना है।
हम
सब पूर्ण हैं
और पूर्ण से
ही निकले हैं—और
निकल कर भी
पूर्ण हैं। इस
बोध के अनुभव
का नाम
ब्रह्मज्ञान, बुद्धत्व,
कैवल्य या
जो तुम चाहो।
पर
ध्यान रखना, लड़ने—झगड़ने
में मत उलझ
जाना। यह
छोड़ना, यह
त्यागना, इससे
भागना, इससे
बचना.. तुम
मरोगे, फांसी
लग जायेगी!
फिर तो जीवन
में बहुत
झंझटें हैं।
फिर झंझटें
बहुत विराट हो
जायेंगी। इधर
से छूटोगे, उधर फंसा
पाओगे। उधर से
छूटोगे, इधर
फंसा पाओगे।
तुम तो जहां
खड़े हो, एक
ही बात कर लो, शाति से
देखने लगो जो
हो रहा है।
बच्चे, पत्नी,
मित्र, प्रियजन,
कामधाम, दूकान,
बाजार, सबके
बीच तुम शात
होने लगो और
देखते रहो। जो
होता है होने
दो। जैसा होता
है वैसा ही
होने दो।
अन्यथा की
मांग न करो।
प्रभु जो
दिखाये देखो।
प्रभु जो
कराये करो।
अष्टावक्र
कहते हैं.
धन्यभागी है
वह,
जो इस भांति
सब छोड़ कर
समर्पित हो
जाता है। छोटी—छोटी
चीजों से शुरू
करो। बड़ी—बड़ी
चीजों को शुरू
मत करना। मन
बड़ा उपद्रवी
है। मन कहता
है. बड़ी चीज पर
प्रयोग करो।
मैं कहता हूं.
साक्षी बनो।
तुम कहते हो.
अच्छा चलो, साक्षी बनेंगे—कामवासना
के साक्षी
बनेंगे। अब तू_मने एक बड़ी
झंझट उठा ली
शुरू से। यह
तो ऐसा हुआ कि
जैसे पहाड़
चढ़ने गये तो
सीधे एवरेस्ट
पर चढ़ने पहुंच
गये। थोड़ा
पहाड़ चढ़ने का
अभ्यास पूना
की पहाड़ियों पर
करो। फिर धीरे—
धीरे जाना।
एवरेस्ट भी
चढ़ा जाता है, आदमी चढ़ा तो
तुम भी चढ़
सकोगे। जहां
आदमी पहुंचा
वहा तुम भी
पहुंच सकोगे।
एक पहुंच गया
तो सारी
मनुष्यता
पहुंच गई।
इसलिए तुमने
देखा, जब
एडमंड हिलेरी
पहुंच गया
एवरेस्ट पर तो
सारी दुनिया
प्रसन्न हुई।
प्रसन्नता का
कारण? तुम
तो नहीं
पहुंचे। तुम
तो जहां थे
वहीं के वहीं
थे। लेकिन जब
एक मनुष्य
पहुंच गया तो
भीतर सारी
मनुष्यता
पहुंच गई।
इसलिए तो जब
कोई बुद्ध हो
जाता है तो
जिनके पास भी आंखें
हैं वे
आह्लादित हो
जाते हैं—नहीं
कि वे पहुंच
गये, मगर
एक पहुंच गया
तो हम भी
पहुंच सकते
हैं, इसका
भरोसा हो गया।
अब बात कल्पना
की न रही, सपना
न रही—सत्य हो
गई।
छोटी—छोटी
चीजों से शुरू
करना। राह पर
चलते हो, साक्षी
बन जाओ चलने
के। इसमें कुछ
बड़ा दाव नहीं
है। कोई झंझट
भी नहीं है।
घूमने गए हो
सुबह, साक्षी—
भाव से घूमो।
शरीर चलता है,
ऐसा देखो।
तुम देखते हो,
ऐसा देखो।
भोजन कर रहे
हो, साक्षी
बन जाओ।
बिस्तर पर पड़े
हो, अब
इसमें तो कुछ
अड़चन नहीं है,
कोई झंझट
नहीं है। आंख
बंद करके
तकिये पर पड़े
हो, नींद
नहीं आ रही, साक्षी बन
जाओ। पड़े रहो,
देखते रहो
जो हो रहा है।
बाहर राह पर
आवाज होती है,
कार गुजरती
है, हवाई जहाज
निकलता है, बच्चा रोता
है—कुछ हो रहा
है, होने
दो; तुम
सिर्फ साक्षी
बने रहो। ऐसी
छोटी—छोटी
पहाड़ियां चढ़ो।
फिर धीरे —
धीरे बड़ी
पहाड़ियों पर
प्रयोग करना।
जैसे—जैसे हाथ
में बल आता
जायेगा, तुम
पाओगे, फिर
क्रोध, लोभ,
मोह, माया,
काम, सब
पर प्रयोग हो
जायेगा।
लेकिन मैं
देखता हूं लोग
क्या करते हैं।
उल्टा ही करते
हैं। साक्षी
की बात मैंने
कही। वे जा कर
एकदम बड़े पहाड़
से जूझ जाते
हैं। हारते
हैं! हारते
हैं तो फिर
साक्षी का भाव
उठा कर रख
देते हैं।
कहते हैं, यह
अपने बस का
नहीं! यह
तुम्हारे मन
ने तुम्हें
धोखा दे दिया।
मन तुमसे
हमेशा कहता है:
'लड़ जाओ जा कर
दारासिह से।’
कुछ थोड़ा अभ्यास
करो। नाहक हाथ—पैर
तुड़वाने में
कुछ सार नहीं।
और सीधे
दारासिह से लड़
गये जा कर तो
फिर लड़ने की
बात ही छोड़
दोगे जिंदगी
भर के लिए।
फिर कहोगे, यह बड़ा झंझट
का है, इसमें
हाथ—पैर टूट
जाते हैं और
मुसीबत होती
है। हड्डी—पसली
टूट गई, फ्रैक्चर
हो गया—अब यह
करना ही नहीं।
मन तुमसे कहता
है. एकदम कर लो
बड़ा! मन बड़ा
लोभी है। वह
कहता है :
अच्छा साक्षी
में आनंद है, तो फिर चलो
कामवासना से
छुटकारा कर
लें। वह तुमसे
न होगा अभी।
अभी तुम इतनी
बड़ी छलांग मत
भरो। अभी कोई
छोटी—सी बात
चुनो, बड़ी
छोटी—सी बात
चुनो। इतना
बड़ा नहीं।
सिगरेट
पीते हो, वह
चुन लो। धुंआ
बाहर— भीतर
करते हो, साक्षी—
भाव से करो।
बैठे, सिगरेट
निकाली—साक्षी—
भाव से निकालो।
आमतौर से
सिगरेट पीने
वाला बिलकुल
बेहोशी में
निकालता है।
तुम देखो
सिगरेट
निकालने वाले
को, निकालेगा,
डब्बी पर
बजायेगा, माचिस
निकालेगा, जलायेगा।
जरा देखते रहो,
वह सब
आटोमेटिक है,
वह सब
यंत्रवत हो
रहा है। उसे
कुछ होश नहीं
है। ऐसा सदा
उसने किया है,
इसलिए कर
रहा है। इस
सबको तुम
होशपूर्वक
करो। मैं नहीं
कहता, एकदम
से सिगरेट
पीना छोड़ दो।
होशपूर्वक
करो। डब्बी को
आहिस्ता से
निकालो।
जितनी जल्दी
से निकाल लेते
थे, उतनी
जल्दी नहीं; थोड़ा समय लो।
और तुम चकित
होओगे : जितने
तुम धीरे से
निकालोगे
उतने ही तुम
पाओगे, धूम्रपान
करने की इच्छा
क्षीण हो गई।
एक दफा ठोंकते
हो सिगरेट को,
सात दफा
ठोंको। धीरे—
धीरे ठोंको, ताकि ठीक से
देख लो। क्या
कर रहे हो!
तुम्हें खुद
ही मूढ़ता
मालूम पड़ेगी
कि यह भी क्या
कर रहा हूं!
आहिस्ता से जलाओ
माचिस को।
धीरे— धीरे धुंआ
भीतर ले जाओ, धीरे— धीरे
बाहर लाओ। इस
पूरी
प्रक्रिया को
गौर से देखो
कि यह तुम क्या
कर रहे हो। धुंआ
भीतर ले गये, खांसे, फिर
धुआ बाहर लाये,
फिर खीसे—इसमें
पैसा भी खर्च
किया। डाक्टर
कहते हैं, कैंसर
का भी खतरा है,
तकलीफ भी
होती है, फेफड़े
भी खराब हो
रहे हैं! जरा
गौर से देखो, सुख कहां
मिल रहा है।
फिर धुएं को
भीतर ले जाओ, फिर धुएं को
बाहर लाओ। और
गौर से देखो
कि सुख कहां
है! है कहीं?
मैं
तुमसे नहीं कह
रहा हूं कि
नहीं है। यही
मुझमें और
तुम्हारे
दूसरे साधु—संतों
में फर्क है।
वे कहते हैं, नहीं
है। और बड़ा
मजा यह है कि
उन्होंने खुद
भी पी कर नहीं
देखा है। उनसे
पूछो कि 'महाराज,
आपने
सिगरेट पी? तुम्हें
कैसा पता चला
कि नहीं है?' मैं तुमसे
यह कह ही नहीं
रहा कि नहीं
है। मैं तो
कहता हूं. हो
सकता है हो, और तुम्हें
पता चल जाये
तो मुझे बता
देना। मगर तुम
गौर से देखो
पहले—है या
नहीं? पहले
से निर्णय मत
करो। गौर से
देखोगे तो तुम
हैरान हो
जाओगे कि तुम
कैसा
मूढ़तापूर्ण
कृत्य कर रहे
हो! यह तुम कर
क्या रहे हो? हाथ रुक
जायेगा। ठिठक
जाओगे। इसी
ठिठकाव में क्रांति
है। इसी अंतराल
में से क्रांति
की किरण उतरती
है।
ऐसा
छोटे—छोटे
कृत्यों को
करो। जाग कर
करो। जल्दी
रोकने की मत
करना, पहले तो
जाग कर करने
की करना। फिर
रुकना अपने से
होता है।
रुकना परिणाम
है। तुम्हारे
करने की बात
नहीं; जैसे—जैसे
बोध सघन होता
है, चीजें
बदलती हैं।
जहां
से खुद को
जुदा देखते
हैं
खुदी
को मिटा कर
खुदा देखते
हैं
फटी
चिदिया पहने
भूखे भिखारी
फकत
जानते हैं
तेरी इतजारी
बिलखते
हुए भी अलख जग
रहा है
चिदानंद
का ध्यान—सा
लग रहा है
तेरी
बाट देखूं चने
तो का जा
हैं
फैले हुए पर, उन्हें
कर लगा जा
मैं
तेरा ही हूं
इसकी साखी दिला
जा
जरा
चुहचुहाहट तो
सुनने को आ जा
जो
यूं तू
इछुडूने —बिछुड़ने
लगेगा
तो
पिंजरे का
पंछी भी उड़ने
लगेगा
जरा—जरा.......!
अभी पिंजरे के
एकदम बाहर
होने की जरूरत
भी नहीं है।
जरा पिंजरे
में ही
तडुफड़ाने लगो।
जो
यूं तू इछुड़ने—बिछुड़ने
लगेगा
तो
पिंजरे का
पंछी भी उड़ने
लगेगा
हैं
फैले हुए पर, उन्हें
कर लगा जा
मैं
तेरा ही हूं
इसकी साखी
दिला जा
धीरे
— धीरे साक्षी—
भाव से
तुम्हें
परमात्मा की
यह आवाज सुनाई
पड़ने लगेगी कि
तुम मेरे हो, कि
मैं ही तुममें
समाया हूं कि
तुम मेरे ही
फैलाव, मेरे
ही विस्तार, कि मैं सागर
और तुम मेरी
लहर! साक्षी—
भाव से
परमात्मा
तुम्हारा
गवाह होने
लगेगा। और
वहीं है जीवन—रूपांतरण
का सूत्र, वहीं
है अमृत की
धार—जहां से
मृत्यु विदा
हो जाती है, जहां से देह
से संबंध छूट
जाते हैं; जहां
सपना
विसर्जित हो
जाता है और उस
परम चैतन्य में
अलख जग जाती
है; उस परम
चैतन्य के साथ
सदा के लिए
संबंध जुड़
जाता है!
आखिरी
प्रश्न :
बात
भी आपके आगे न
जबां से निकली
लीजिए आई हूं
सोच के क्या—क्या
दिल में मेरे
कहने से न आ, मेरे
बुलाने से न आ
लेकिन इन
अश्कों की तो
तौहीन न कर।
क्योंकि मैं
तो रजनीश की
दुलहनियां!
जिसने
पूछा है, भाव
से पूछा है। प्रश्न
दो तरह के
होते हैं—एक
तो बुद्धि के
और एक हृदय के।
बुद्धि के
प्रश्नों का
तो कोई मूल्य
नहीं है—दो
कौड़ी के हैं; खुजलाहट
जैसे हैं।
जैसे खाज
खुजलाने का मन
होता है ऐसे
ही बुद्धि को
भी खुजलाने का
मन होता है।
लेकिन हृदय के
प्रश्नों का
बड़ा मूल्य है।
क्योंकि वे
भाव के हैं और
आत्मा के
ज्यादा करीब
हैं। विचार
आत्मा से बहुत
दूर; कर्म
और भी दूर।
कर्म
सर्वाधिक दूर,
विचार उससे
कम दूर, भाव
उससे कम दूर—और
फिर भाव के
बाद तो स्वयं
का होना है।
तो भाव निकटतम
है।
जिसने
पूछा है, बड़े
प्रार्थना के
भाव से पूछा
है।
'बात
भी आपके आगे न
जुबा से निकली।’
जिसने
पूछा है, मिलने
को आया था।
पूछा मैंने. 'कुछ कहना है?'
नहीं कुछ कह
सके। आंख से आंसू
भर बहे। बस
कहना हो गया।
जो कहना था, कह दिया।
शब्दों से ही
थोड़े कहा जाता
है; और भी
तो कहने के
ढंग हैं; और
भी तो कहने के
महिमापूर्ण
ढंग हैं। शब्द
तो सबसे सस्ते
ढंग हैं। आंसुओ
से कह दी!
'बात
भी आपके आगे न
जुबां से
निकली
लीजिए
आई हूं सोच के
क्या—क्या दिल
में!'
पूछा
तो है पुरुष
ने,
लेकिन
पंक्तियों से
शायद तुम्हें
लगे किसी स्त्री
का प्रश्न है।
लेकिन भाव
स्त्रैण है।
भाव सदा
स्त्रैण है।
पुरुष का भाव
भी स्त्रैण
होता है और
स्त्री की
बुद्धि भी पुरुष
की होती है।
तर्क पुरुष का,
भाव स्त्री
का। तो जब कभी
कोई पुरुष भी
भाव से भरता
है तो भी स्त्रैणता
गहन हो जाती
है।
इसलिए
तो भक्तों ने
कहा कि
परमेश्वर ही
एकमात्र
पुरुष है. हम
तो सब उसकी
सखियां हैं।’बात
भी आपके आगे न
जुबां से
निकली
लीजिए
आई हूं सोच के
क्या—क्या दिल
में!'
भक्त
हजार बातें
सोच कर आता है, हजार—हजार
ढंग से सोच कर
आता है—'ऐसा
कह देंगे, ऐसा
कह देंगे!' प्रेमी
हजार बातें
सोचता है कि
ऐसा कह देंगे,
ऐसा कह
देंगे। और
प्रेमी के
सामने खड़े हो
कर जुबान बंद
हो जाती है।
यही तो प्रेम
का लक्षण है।
तुमने जो
रिहर्सल कर
रखे थे, अगर
प्रेमी के
सामने खड़े हो
कर तुम सबको
पूरा करने में
सफल हो जाओ तो
असफल हो गये।
तो व्यर्थ गया
सब मामला। तो
तुम नाटक में
ही रहे। फिर
तुम अपना
रिहर्सल
दुहरा लिए; तुम जो—जो
याद करके आये
थे, पाठ
पूरा कर दिया।
इसलिए
तो मैं देखता
हूं कि
अभिनेता
अच्छे प्रेमी
नहीं हो पाते।
उनको अभिनय
करने में इतनी
कुशलता
आ जाती है—इसीलिए।
अभिनेता
प्रेमी हो ही
नहीं पाते। और
तुम चकित
होओगे, क्योंकि
प्रेम का ही
धंधा करते हैं,
प्रेम का ही
अभिनय करते
हैं, चौबीस
घंटे प्रेम की
ही बात करते
हैं, लेकिन
डायलाग इतने
याद हो जाते
हैं कि अपनी
प्रेयसी के
सामने खड़े हो
कर वे अपने
दिल की कह रहे
हैं कि डायलाग
ही बोल रहे
हैं, कुछ
पक्का नहीं
होता।
अभिनेता
प्रेम में
बिलकुल असफल
हो जाते हैं, क्योंकि
प्रेम की बात
में बड़े सफल
हो जाते हैं।
ढंग सीख लेते
हैं, आत्मा
मर जाती है।
यह तो सदा
होता है। अगर
सच में
तुम्हारा
प्रेम है तो
अचानक तुम सब
सोच कर आये, वह कचरा
जैसा हो
जायेगा।
प्रेमी की आंख
में आंख डालते
ही तुम पाओगे,
सोचा—समझा
सब बेकार हो
गया। नहीं, वह काम नहीं
आता; कंकड़—पत्थर
हो गये। अब
उनकी बात भी
उठाना ठीक
नहीं है। शब्द
छोटे पड़ जाते
हैं, प्रेम
बड़ा है। इसलिए
प्रेम मौन से
ही प्रगट होता
है।
'बात
भी आपके आगे न
जुबां से
निकली
लीजिए
आई हूं सोच के
क्या —क्या
दिल में!
मेरे
कहने से न आ, मेरे
बुलाने से न आ
लेकिन
इन अश्कों की
तौहीन तो न कर!'
आंसुओ
की तौहीन कभी
होती ही नहीं।
आंसुओ का
निमंत्रण तो
सदा स्वीकार
ही हो जाता है।
जिन्होंने
रोना सीख लिया
उन्होंने तो
पा लिया। आंसू
से बहुमूल्य
आदमी के पास
कुछ भी नहीं
है। तुम प्रभु
के मंदिर में
जा कर अगर दो आंसू
चढ़ा आये तो
तुमने सारे
संसार के फूल
चढ़ा दिए। और
तुम्हारे
आसुरों की राह
से ही
परमात्मा
तुममें
प्रवेश कर
जायेगा।
जान
कर अनजान बन
जा
पूछ
मत आराध्य
कैसा
जबकि
पूजा— भाव
उमड़ा
मृत्तिका
के पिंड से कह
दे
कि
तू भगवान बन
जा!
जान
कर अनजान बन
जा!
तुम
किसी भक्त को
देखते हो, बैठा
है झाडू के
किनारे, पत्थर
के एक पिंड से
प्रार्थना कर
रहा है!
तुम्हें हंसी
आती है। तुम
समझे नहीं।
तुम बाहर हो
उसके
अंतर्जगत के।
यह सवाल नहीं
है। उसके लिए
पत्थर पत्थर
नहीं है।
पूछ
मत आराध्य
कैसा
जबकि
पूजा— भाव
उमड़ा
मृत्तिका
के पिंड से कह
दे
कि
तू भगवान बन
जा!
भक्त
का भाव जहां
आरोपित हो
जाता है, वहा
भगवान पैदा हो
जाता है।
भगवान तो सब
जगह है; भाव
के आरोपित
होते ही प्रगट
हो जाता है।
तो
अगर तुम्हारी आंखों
में आंसू आ
गये हैं तो
ज्यादा देर न
लगेगी।
तुम्हारी आंखें
आसुरों से धुल
जाने दो।
उन्हीं धुली आंखों
में,
उन्हीं
नहाई हुई आंखों
में, सद्यस्नात
आंखों में, जिसे तुमने
पुकारा है
उसका प्रवेश
हो जायेगा।
तुम्हारी आंखें
ही द्वार बन
जायेंगी।
रोओ, मन
भर कूर रोओ!
खयाल
रखना, जिसका
यह प्रश्न है
उसके लिए
अष्टावक्र की
गीता सहयोगी न
होगी। उसके
लिए तो नारद
के सूत्र हैं।
अष्टावक्र की
गीता तो आंख
से आंसुओ को
विदा कर देती
है, आंखें
बिलकुल सूख
जाती हैं आंसुओ
से।
अष्टावक्र की
गीता में भाव
को कोई जगह
नहीं है।
अष्टावक्र की
गीता में
भक्ति को, प्रेम
को, आराध्य
को, पूजा
को कोई जगह
नहीं है।
तो
जिसका प्रश्न
है,
उससे मैं
कहता हूं. जो
भी मैं कह रहा
हूं अष्टावक्र
के संबंध में,
तुम्हारे
लिए नहीं है।
तुम्हारी राह
और भी दूसरी
है। तुम्हारी
राह फूलों—
भरी है।
तुम्हारी राह
पर खूब
हरियाली है और
पक्षियों के
गीत हैं।
अष्टावक्र की
राह तो
रेगिस्तान की
है।
रेगिस्तान का
भी अपना
सौंदर्य है।
विराट शांति!
दूर तक
सन्नाटा!
लेकिन
अष्टावक्र के
मार्ग पर वैसी
हरियाली नहीं
है जैसी भक्त
के मार्ग पर।
वहां कृष्ण की
बांसुरी नहीं
बजती।
जिसका
प्रश्न है, उसके
लिए राह नारद
के सूत्रों
में है, मीरा
के भजनों में
है, कबीर
की
उलटबासियों
में है।
'लेकिन
इन अश्कों की
तौहीन तो न कर
क्योंकि
मैं तो रजनीश
की दुलहनिया!'
यह
जो प्रेम का
वचन है, यह
तुम्हें बहुत
कुछ देगा।
लेकिन इसके
लिए तुम एक
बात खयाल रखना,
इस वचन को
पूरा करने के
लिए तुम्हें
बिलकुल मिट
जाना पड़ेगा।
यही फर्क है
भक्ति में और
शान में।
ज्ञानी 'तू
को बिलकुल भूल
जाता है और 'तू के भूलते
ही 'मैं' मिट जाता है।
भक्त 'मैं'
को भूल जाता
है और 'मैं'
के मिटते ही
'तू' मिट
जाता है।
दोनों एक ही
परम शून्य को
उपलब्ध हो
जाते हैं या
परम पुण्य को।
लेकिन
दोनों की
राहें अलग हैं।
भक्त अपने 'मैं'
को
परमात्मा के
चरणों में
समर्पित करते—करते
शून्य हो जाता
है। ज्ञानी
परमात्मा को
भी भूल जाता
है; पर को
ही भूल जाता
है तो परमात्मा
की जगह कहां!
इसलिए तो
बुद्ध और महावीर
की भाषा में
परमात्मा के
लिए कोई जगह
नहीं है।
परमात्मा
यानी पर, दूसरा,
अन्य। अन्य
तो कोई भी
नहीं है।
ज्ञानी तो
आत्मा में
डूबता है और
परमात्मा को
छोड़ता चला
जाता है।
लेकिन
आत्यंतिक घड़ी
में दोनों
रास्ते एक ही
जगह पहुंच
जाते हैं। या
तो तुम इतने 'मैं'
हो जाओ कि 'तू, न बचे,
तो पहुंच
गये। या 'तू
को इतना कर लो
कि 'मैं' न बचे, तो
पहुंच गये। दो
में से कोई एक
बचे तो पहुंच
गये।
जिसका
प्रश्न है
उससे मेरा
कहना है :
अष्टावक्र पर
बहुत ध्यान मत
देना। उससे
अड़चन हो सकती
है। पीड़ा भी
होगी। लेकिन
भक्त के मार्ग
पर पीड़ा भी
मधुर है।
तृप्ति
क्या होगी अधर
के रस—कणों से
खींच
लो तुम प्राण
ही इन चुंबनों
से
प्यार
के क्षण में
मरण भी तो
मधुर है
प्यार
के पल में जलन
भी तो मधुर है।
फिर
विकल हैं
प्राण मेरे!
तोड़ दो
यह क्षितिज, मैं
भी देख लूं उस ओर
क्या है?
जा
रहे जिस पंथ
से युग—कल्प, उसका
छोर क्या है?
फिर
विकल हैं
प्राण मेरे!
भक्त
तो विकल होगा, रोयेगा,
विरह की
अग्नि में
जलेगा, आंसुओ
से भरेगा, क्षार—
क्षार हो
जायेगा, खंड—खंड
हो कर बिखर
जायेगा।
लेकिन इस पीड़ा
में बड़ा मधुर
रस है। यह
पीड़ा दुख नहीं
है, यह
पीड़ा सौभाग्य
है। और अगर
तुम राजी रहे
तो एक दिन
वसंत भी आता
है। अगर तुम
चलते ही रहे
तो पतझड़ से
गुजर कर एक
दिन वसंत भी
आता है।
जब
मैंने मरकत
पत्रों को
पीराते
मुरझाते देखा
जब
मैंने पतझर को
बरबस मधुबन
में धंस जाते
देखा
तब
अपनी सूखी
लतिका पर
पछताते मुझको
लाज लगी
जब
मैंने तरु—कंकालों
को अपने से भय
खाते देखा
पर
ऐसी एक बयार
बही,
कुछ ऐसा
जादू—सा उतरा
जिससे
विरवों में
पात लगे, जिससे
अंतर में आह
जगी
सहसा
विरवों में
पात लगे, सहसा
विरही की आग
लगी
पर
ऐसी एक बयार
बही,
कुछ ऐसा
जादू—सा उतरा
एक
बार तुम उतर
जाओ इस पीड़ा
की अग्नि में, भक्ति
की अग्नि में,
जल जाओ, दग्ध
हो जाओ—आता है
वसंत, निश्चित
आता है। इस
पीड़ा को
सौभाग्य
समझना।
धन्यभागी हैं
वे जो प्रेम
में मिट जाने
की सामर्थ्य
रखते हैं।
परमात्मा
उनसे बहुत दूर
नहीं है। वे
परमात्मा के
मंदिर बनने के
लिए प्रतिपल
तैयार हैं।
द्वार खुले और
परमात्मा
प्रवेश कर
जाता है।
नहीं, तुम्हारे
आंसुओ की कभी
भी तौहीन न
होगी—कभी हुई
नहीं—कभी भी
नहीं हुई है।
शब्द चाहे
व्यर्थ चले
गये हों, आंसू
कभी व्यर्थ
नहीं गये हैं।
और जो
परमात्मा के
चरणों में आंसू
ले कर पहुंचा
है, खाली
नहीं लौटा है।
क्योंकि आंसू ले
कर जो गया, वह
खाली गया और
भर कर लौटा है।
जल्दी ही बयार
चलेगी, फिर
पत्ते लगेंगे,
फिर फूल
खिलेंगे! वसंत
निश्चित आता
है!
हरि
ओंम तत्सत्!
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