दिनांक
3मार्च 1975;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
योगसूत्र:
(समाधिपाद)
श्रीणवृत्तेरभिजातस्येव
मणेर्ग्रहीतृहणग्राह्मेषु
तत्स्थतदन्जनता
समापत्ति:।।
41।।
जब
मन की क्रिया
नियंत्रण में
होती है, तब मन
बन जाता है।
शुद्ध स्फटिक
की भांति। फिर
वह समान रूप
से प्रतिबिंबित
करता है
बोधकर्ता को, बोध को और
बोध के विषय
को।
तत्र
शब्दार्थ
ज्ञान विकल्पै:
संकीर्णा
सिवतर्का
समापत्ति:।।
42।।
सवितर्क
समाधि वि
समाधि है,
जहां योगी अभी
भी वह भेद
करने के योग्य
नहीं रहता है, जो सच्चे
ज्ञान के तथा
शब्दो पर
आधारित ज्ञान, और तर्क या
इंद्रिय—बोध
पर आधारित
ज्ञान के बीच
होता है—जो सब
मिश्रित अवस्था
में मन में
बना रहाता है।
मन
क्या है? मन
कोई वस्तु
नहीं है, बल्कि
एक घटना है।
वस्तु में
अपना एक तत्व
होता है, घटना
तो मात्र एक
प्रक्रिया है।
वस्तु चट्टान
की भांति होती
है, घटना
लहर की भांति
होती है : उसका
अस्तित्व
होता है, तो
भी वह वस्तु
नहीं होती।
लहर मात्र एक
घटना होती है
हवा और सागर
के बीच की; एक
प्रक्रिया, एक घटना।
यह
पहली बात है
समझ लेने की :
कि मन एक
प्रक्रिया है, लहर
की भांति है
या कि एक नदी
की भांति है, लेकिन इसमें
कोई पदार्थ
नहीं होता, यदि इसमें
पदार्थ होता,
तो यह विलीन
नहीं हो सकता
था। यदि इसमें
कोई पदार्थ
नहीं होता तो
वह तिरोहित हो
सकता है एक भी
चिह्न छोड़े
बिना। जब लहर
खो जाती है
सागर में, तो
क्या बच रहता
है पीछे? कुछ
नहीं, एक
चिह्न तक नहीं।
इसीलिए
जिन्होंने
जाना है वे
कहते हैं कि
मन आकाश में
उड़ते पक्षी की
भांति होता है—कोई
एक चिह्न पीछे
नहीं बचता, एक निशान भी
नहीं। पक्षी
उड़ता है पर
पीछे कोई राह
नहीं छोड़ता, कोई चिह्न
नहीं छोड़ता।
मन
मात्र एक
प्रक्रिया है।
वस्तुत: मन
अस्तित्व
नहीं रखता, केवल
विचार ही
विचार होते
हैं, विचार
इतनी तेजी से
सरकते हैं कि
तुम सोचते और
अनुभव करते हो
कि वहां कुछ
निरंतर
अस्तित्व
रखता है। एक
विचार आता है,
दूसरा
विचार आता है,
फिर दूसरा
और वे आते
जाते हैं।
उनके बीच का
अंतराल इतना
छोटा होता है
कि तुम एक
विचार और
दूसरे विचार
के बीच के
अंतराल को नहीं
देख सकते। दो
विचारों के
बीच के अंतराल
को नहीं देख
सकते। दो
विचार जुड़
जाते हैं, वे
एक सातत्य बन
जाते हैं। उसी
सातत्य के
कारण तुम
सोचते हो कि
मन है।
विचार
होते हैं, पर
कोई मन नहीं
होता, ऐसे
जैसे कि
इलेक्ट्रॉन्स
हों लेकिन
भौतिक वस्तु न
हो। विचार मन
का
इलेक्ट्रॉन
होता है। वह
भीड़ की भांति
होता है। एक
अर्थ में
अस्तित्व
रखता है और
दूसरे अर्थों में
अस्तित्व
नहीं रखता।
केवल व्यक्ति
अस्तित्व
रखता है।
लेकिन एक साथ
बहुत सारे
व्यक्ति
अनुभूति देते
हैं एक होने
की। एक
राष्ट्र
अस्तित्व
रखता है और
अस्तित्व नहीं
भी रखता है; केवल
व्यक्ति होते
हैं वहां।
व्यक्ति इलेक्ट्रॉन
होते हैं
राष्ट्र के, समुदाय के, भीड़ के।
विचारों
का अस्तित्व
होता है, मन का
अस्तित्व
नहीं होता। मन
तो मात्र एक
प्रतीति है।
और जब तुम
ज्यादा गहरे
झांकते हो मन
में तो वह तिरोहित
हो जाता है।
फिर होते हैं
विचार, लेकिन
जब मन तिरोहित
हो जाता है और
एक—एक अकेले
विचार
अस्तित्व
रखते हैं, तो
बहुत सारी
चीजें तुरंत
सुलझ जाती हैं।
पहली बात तो
यह होती है कि
तुम तुरंत जान
जाते हो कि
विचार बादलों
की भांति होते
हैं —वे आते
हैं और चले
जाते हैं—और
तुम होते हो
आकाश। जब कोई
मन नहीं बचता,
तो तुरंत यह
बोध उतर आता
है कि तुम अब
विचारों में
उलझे हुए नहीं
हो। विचार
होते हैं वहां,
तुममें से
गुजर रहे होते
हैं जैसे कि
बादल गुजर रहे
हों आकाश से, या कि हवा
गुजर रही हो
वृक्षों से, विचार तुम
में से गुजर
रहे होते हैं;
और वे गुजर
सकते हैं, क्योंकि
तुम एक विशाल
शून्यता हो।
कोई अवरोध
नहीं है, कोई
बाधा नहीं है।
उन्हें रोकने
को कोई दीवार
नहीं बनी हुई
है।
तुम
दीवारों से
घिरी कोई घटना
नहीं हो।
तुम्हारा
आकाश अपरिसीम
रूप से खुला
है;
विचार आते
और चले जाते
हैं। और एक
बार तुम्हें
लगने लगे कि
विचार आते हैं
और चले जाते
हैं तो तुम हो
जाते हो
द्रष्टा, साक्षी;
मन
नियंत्रण के
भीतर होता है।
मन
नियंत्रित
नहीं किया जा
सकता है। पहली
तो बात :
क्योंकि वह
होता ही नहीं, तो
कैसे तुम उसे
नियंत्रित कर
सकते हो? दूसरी
बात : कौन
करेगा मन को
नियंत्रित? मन के पार
कोई नहीं रहता।
और जब मैं
कहता हूं कि
कोई नहीं रहता,
तो मेरा मतलब
होता है कि मन
के पार रहता
है ना—कुछ—एक
कुछ—नहीं—पन।
कौन करेगा मन
को नियंत्रित?
यदि कोई कर
रहा होता है
मन को
नियंत्रित, तो वह एक
हिस्सा भर
होगा, मन
का एक अंश ही
मन के दूसरे
अंश को
नियंत्रित कर
रहा होगा। यही
होता है
अहंकार।
मन
उस ढंग से
नियंत्रित
नहीं किया जा
सकता। मन होता
ही नहीं, औरे
कोई है नहीं
उसे
नियंत्रित
करने को।
आतंरिक
शून्यता देख
सकती है, पर
नियंत्रण
नहीं कर सकती।
लेकिन देखना
ही नियंत्रण
है। देखने की,
साक्षी की
वह घटना ही बन
जाती है
नियंत्रण, क्योंकि
मन तिरोहित हो
जाता है। यह
ऐसे है जैसे
किसी अंधेरी
रात को, तुम
बहुत तेज दौड़
रहे होते हो
क्योंकि तुम
डर गए हो कि
कोई तुम्हारे
पीछे आ रहा है,
और वह कोई
और नहीं सिवाय
तुम्हारी
अपनी छाया के।
जितना तुम
भागते हो, छाया
उतनी ही
ज्यादा निकट
होती है
तुम्हारे।
चाहे जितना
तेज तुम भागो,
कोई अंतर
नहीं पड़ता, छाया वहां
मौजूद होती है।
जब कभी तुम
पीछे देखते हो,
छाया को
पाते हो। यह
कोई तरीका
नहीं उससे
बचने का और यह
नहीं है तरीका
उसे
नियंत्रित
करने का।
तुम्हें
ज्यादा गहरे
देखना होगा
छाया में।
निष्कंप खड़े
रहो और छाया
में गहरे झांको
और छाया
तिरोहित हो
जाती है। छाया
होती नहीं; वह तो मात्र
अनुपस्थिति
है प्रकाश की।
मन कुछ नहीं
है सिवाय
तुम्हारी
मौजूदगी के अभाव
के। जब तुम
चुपचाप बैठे
होते हो, जब
तुम मन में
गहरे देखते हो,
तो मन
बिलकुल
तिरोहित हो
जाता है।
विचार बने
रहेंगे, वे
अस्तित्वगत
होते हैं, लेकिन
मन कहीं नहीं
होगा।
और
जब मन जा चुका
होता है तो
दूसरा बोध
संभव होता है; तुम
देख सकते हो
कि विचार
तुम्हारे
नहीं होते।
निस्संदेह, वे चले आते
हैं; कई
बार वे थोड़ी
देर आराम करते
हैं तुममें र
और फिर वे चले
जाते हैं। तुम
ठहरने का
विश्राम—स्थल
हो सकते हो, लेकिन वे
तुममें से
नहीं उमगते।
क्या तुमने
कभी ध्यान
दिया है कि एक
भी विचार
तुम्हारे
अस्तित्व में
से नहीं आया
होता। वे सदा
बाहर से आते
हैं। वे तुमसे
संबंधित नहीं
होते।
जडविहीन, गृहविहीन,
वे मंडराते
रहते हैं। कई
बार वे तुममें
ठहर जाते हैं
विश्राम करने को,
बस इतना ही।
बादल की भांति
पहाड़ की चोटी पर
विश्राम करते
हुए वे
सरकेंगे अपने
से ही।
तुम्हें कुछ
करने की जरूरत
नहीं है। यदि
तुम केवल
देखते हो, तो
नियंत्रण
उपलब्ध हो
जाता है।
'नियंत्रण' शब्द कोई
बहुत ठीक नहीं।
क्योंकि शब्द
हो नहीं सकते
बहुत ठीक।
शब्दों का
संबंध मन से
होता है, विचारों
के संसार से
होता है। शब्द
बहुत—बहुत
सूक्ष्म, गहरे
उतरने वाले हो
नहीं सकते; वे उथले
होते हैं।
नियंत्रण
शब्द ठीक नहीं
क्योंकि कोई
नहीं होता
नियंत्रण
करने को और
कोई नहीं होता
नियंत्रित
होने को।
लेकिन
प्रारंभिक
रूप में, यह
मदद करता है
उन कुछ
निश्चित
चीजों को
समझने में जो
कि घटती हैं।
जब तुम गहराई
से देखते हो, तो मन
नियंत्रित
होता है।
अचानक तुम
मालिक बन गये
हो। विचार
होते हैं वहां,
पर वे
तुम्हारे
मालिक नहीं
होते। वे कुछ
कर नहीं सकते
तुम्हारे
प्रति, वे
केवल आते हैं,
और चले जाते
हैं। तुम
अनछुए ही रहते
हो बरसते जल
में कमल की
भांति : जल की
बूंदें
पंखुड़ियों पर
गिरती हैं, लेकिन वे
फिसलती जाती
हैं, वे
छूती भी नहीं।
कमल अनछुआ ही
बना रहता है।
इसीलिए
पूरब में कमल
इतना ज्यादा
अर्थपूर्ण बन
गया है, इतना
अधिक
प्रतीकात्मक।
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
प्रतीक जो
पूरब से आया है
वह कमल ही है।
वह समाए हुए
है पूरब की
चेतना का
संपूर्ण अर्थ।
पूरब कहता है,
'कमल की
भांति हो जाओ,
इतना भर ही।
अनछुए बने रही
और तुम हो
जाते हो
नियंत्रण में।
अनछुए बने रहो
और तुम हो
जाते हो मालिक।'
इससे
पहले कि हम
पतंजलि के
सूत्रों में
प्रवेश करें, मन
के संबंध में
थोड़ी और बातें
समझ लेनी हैं!
एक दृष्टि से
तो, मन
लहरों की
भांति है—एक
अशांति! सागर
होता है शात
और मौन, अनुत्तेजित;
लहरें वहां
नहीं हैं या
सागर अशांत
होता है ज्वार
से या तेज हवा
से, जब
प्रबल लहरें
उठती हैं और
सारी सतह
बिखरती हुई
एकदम अराजक हो
उठती है।
ये
सारे रूपक, सारे
प्रतीक मात्र
यह समझने में
तुम्हें मदद
देने को हैं कि
भीतर एक
सुनिश्चित
गुणवत्ता है,
स्वभाव है
जिसे शब्दों
द्वारा नहीं
बतलाया जा
सकता। रूपक या
प्रतीक
काव्यमय होते
हैं। यदि तुम
सहानुभूति
द्वारा
उन्हें समझने
की कोशिश करते
हो, तो तुम
समझ प्राप्त
कर लोगे।
लेकिन यदि तुम
तार्किक ढंग
से उन्हें
समझने की
कोशिश करते हो,
तो तुम सार
ही चूक जाओगे।
वे प्रतीक हैं।
मन
चेतना की अशांति
है,
जैसे कि
लहरों से सागर
हो जाता है
अशात। कोई
बाहरी चीज
प्रवेश कर
जाती है—हवा।
कुछ बाहर का
घट गया होता
है सागर को, या कि घट गया
होता है चेतना
को—विचार होते
हैं या कि हवा,
और वहां चली
आती है बेचैन
अराजकता।
लेकिन
अराजकता सदा
होती है सतह
पर ही। लहरें
होती हैं सदा
सतह पर ही।
गहराई में
लहरें कहीं
नहीं होतीं। वहां
हो नहीं सकतीं
क्योंकि
गहराई में हवा
प्रवेश नहीं
कर सकती। तो
हर चीज केवल
सतह पर ही
होती है। यदि
तुम भीतर की
ओर बढ़ते हो, तो नियंत्रण
उपलब्ध हो
जाता है। यदि
तुम सतह से
भीतर की ओर
बढ़ते हो, तो
जा पहुंचते हो
केंद्र तक।
अकस्मात, सतह
हो जाती होगी
अशात, लेकिन
तुम नहीं होते
अशात।
सारा
योग कुछ नहीं
है सिवाय
केंद्रस्थ
होने के, केंद्र
की ओर बढ़ने के,
वहां बद्धमूल
हो जाने के, वहीं
अवस्थित हो
जाने के। और वहां
से, सारा
परिप्रेक्ष्य
बदल जाता है।
हो सकता है
लहरें वहां अब
भी हों, लेकिन
वे पहुंचती
नहीं हैं तुम
तक। और अब तुम
देख सकते हो
कि वे तुमसे
संबंधित नहीं
हैं; वह तो
केवल सतह पर
का संघर्ष
होता है किसी
बाहरी वस्तु के
साथ। और जब
तुम देखते हो
केंद्र की ओर
से तो धीरे— धीरे,
तुम
विश्राम करने
लगते हो। धीरे—धीरे
तुम स्वीकार
लेते हो कि
बेशक तेज हवा
ही है, लहरें
तो उठेंगी, लेकिन
तुम्हें
चिंता नहीं
रहती।
और
जब तुम चिंतित
नहीं होते तो
लहरों पर भी
आनंदित हुआ जा
सकता है। कुछ
गलत नहीं है उनमें।
समस्या उभरती
है क्योंकि
तुम भी सतह पर
ही होते हो।
तुम सतह पर एक
छोटी—सी नाव
पर सवार होते
हो;
तेज हवाएं
चली आती हैं, और होता है
ऊंचे ज्वार का
बहाव; और
सारा सागर
उन्मत्त हो
जाता है।
निस्संदेह, तुम चिंतित
हो जाते हो, भय के मारे
मृत्यु दिखने
लगती है
तुम्हें। तुम
खतरे में होते
हो। किसी क्षण
लहरें
तुम्हारी
छोटी—सी नाव
को फेंक सकती
हैं। किसी
क्षण मृत्यु
घटित हो सकती
है। अपनी छोटी—सी
नाव को लिए
क्या कर सकते
हो तुम ?
कैसे रख सकते
हो तुम
नियंत्रण ग्र
यदि तुम लड़ना
शुरू कर देते
हो लहरों के
साथ तो तुम हार
जाओगे। लड़ना
मदद न देगा।
तुम्हें
स्वीकार करना
होगा लहरों को।
वस्तुत: यदि
तुम लहरों को
स्वीकार कर
सको और तुम्हारी
नाव को, चाहे
कितनी ही छोटी
हो, उनके
साथ बढ़ने दो
और उनके
विरुद्ध नहीं,
तो कोई खतरा
नहीं।
तिलोपा
के 'निर्मुक्त
और स्वाभाविक'
का अर्थ यही
है। लहरें
होती हैं वहां;
तुम बस आने
देते हो
उन्हें। तुम
तो बस बढ़ने
देते हो स्वयं
को उनके साथ, उनके
विरुद्ध नहीं।
तुम उन्हीं का
हिस्सा बन
जाते हो। तब
बहुत बड़ी
प्रसन्नता
घटती है। यही
है 'सर्फिंग'
की सारी कला
: लहरों के साथ
बढ़ना; उनके
विरुद्ध नहीं;
इतना अधिक
बहना—बढ़ना
उनके साथ—साथ
कि तुम उनसे
अलग नहीं रहते।
'सर्फिंग'
एक बड़ा
ध्यान बन सकती
है। यह
तुम्हें
अंतरतम की झलक
दे सकती है
क्योंकि यह
कोई संघर्ष
नहीं, यह
होने देना है,
एक प्रवाह
है। तुम यह भी
जान जाते हो
कि लहरों पर
भी आनंदित हुआ
जा सकता है—जब
तुम सारी घटना
को केंद्र से
देखते हो।
यह
तो ऐसे होता
है जैसे तुम
कोई यात्री हो
और बादल घिर
आए हों, बहुत
बिजली कड़क रही
हो, और तुम
भूल गए हो कि
तुम कहौ जा
रहे हो; तुम
भूल चुके हो
मार्ग और
तुम्हें घर
जाने की जल्दी
हो। यही घट
रहा है सतह पर :
एक खोया हुआ
यात्री, बहुत
सारे बादल
घिरे होते है,
बिजली
कड़कती हुई।
जल्दी ही
भयंकर बारिश
होने लगेगी।
तुम घर खोज
रहे हो, घर
की सुरक्षा
खोज रहे हो।
फिर अचानक तुम
पहुंच जाते हो
घर। अब तुम
बैठे हो घर के
भीतर, अब
तुम
प्रतीक्षा
करते हो बारिश
की, अब तुम
उससे आनंदित
हो सकते हो।
अब बिजली
चमकने का अपना
सौंदर्य होता
है। जब तुम
बाहर थे, जंगल
में खो गए थे
तो वह ऐसा
नहीं था।
लेकिन अब घर
के भीतर बैठे
हुए सारी घटना
बडी सौंदर्यपूर्ण
हो जाती है।
अब बारिश पड़ती
है और तुम
आनंद मनाते हो।
अब बिजली चमक
रही होती है
और तुम आनंदित
होते हो उससे।
बादलों में
बड़ी गर्जन
होती है और
तुम उसका
उत्सव मनाते
हो, क्योंकि
अब भीतर तुम
सुरक्षित हो।
एक
बार जब तुम
केंद्र तक
पहुंच जाते हो, तो
जो कुछ भी
घटता है सतह
पर उससे तुम
आनंदित ही
होते हो। सारी
बात यह होती
है कि सतह पर
संघर्ष नहीं
करना है बल्कि
उल्टे केंद्र
में सरक आना
है। तब वहां
नियंत्रण हो
जाता है, और
वह नियंत्रण
जो आरोपित
नहीं हुआ होता,
वह
नियंत्रण जो
सहज रूप से
घटता है जब
तुम केंद्र
में होते हो।
चेतना
में केंद्रित
हो जाना ही मन
का नियंत्रण
है। इसीलिए मत
कोशिश करना मन
पर नियंत्रण
करने की। भाषा
तुम्हें भटका
सकती है। कोई
नहीं कर सकता
नियंत्रण, और
जो कोशिश करते
हैं नियंत्रण
करने की, वे
पागल हो
जाएंगे। वे तो
एकदम पागल ही
हो जाएंगे।
क्योंकि मन पर
नियंत्रण
करने की कोशिश
और कुछ नहीं
हैं सिवाय कि
मन का एक
हिस्सा मन के
दूसरे हिस्से
को नियंत्रित
करने की कोशिश
कर रहा होता
है।
तुम
होते कौन हो
जो नियंत्रण
करने की कोशिश
कर रहे होते
हो?
तुम भी लहर
हो, निस्संदेह
धार्मिक
लहर हो, नियंत्रण
करने की कोशिश
कर रहे होते
हो। और होती
हैं अधार्मिक
लहरें।
कामवासना है,
क्रोध है, ईर्ष्या है,
अधिकार
जमाने का भाव
है और है घृणा।
लाखों लहरें
अधार्मिक हैं।
और फिर होती
हैं धार्मिक
लहरें, ध्यान,
प्रेम, करुणा।
लेकिन ये सब
होती हैं सतह
की सतह पर। और
सतह पर
धार्मिक हों
कि अधार्मिक
उसमें कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
धर्म
केंद्र में
होता है और उस
परिप्रेक्ष्य
में होता है
जो कि घटता है
केंद्र
द्वारा। अपने
घर के भीतर
बैठे हुए, तुम
देखते हो तुम्हारी
अपनी सतह की
ओर। हर चीज
बदल जाती है, क्योंकि
तुम्हारा
परिप्रेक्ष्य
नया होता है।
अकस्मात तुम
नियंत्रण में
होते हो।
वस्तुत: तुम
इतने ज्यादा
नियंत्रण में
होते हो कि
तुम सतह को
अनियंत्रित
छोड़ सकते हो।
यह सूक्ष्म
होता है। तुम
इतने ज्यादा
नियंत्रण में
होते हो, इतने
ज्यादा
बद्धमूल, सतह
के बारे में
निश्चित, कि
वास्तव में
तुम पसंद ही
करोगे लहरों
को और ज्वार
को और तूफान
को। वह सब
सौंदर्यपूर्ण
होता है; वह
ऊर्जादायक
होता है। वह
एक शक्ति होता
है। कुछ है
नहीं चिंता
करने को। केवल
दुर्बल
व्यक्तियों
को चिंता रहती
है विचारों की।
केवल दुर्बल
व्यक्ति
चिंता करते
हैं मन की।
सशक्त
व्यक्ति तो
बिलकुल
आत्मसात ही कर
लेते हैं
संपूर्ण को, और इससे
ज्यादा
समृद्ध होते
हैं वे। सशक्त
लोग तो
अस्वीकार
कर्ते ही नहीं
किसी चीज को।
अस्वीकार
किया जाता है
कमजोरी के
कारण। तुम
भयभीत हो।
सशक्त व्यक्ति
हर उस चीज को
आत्मसात कर
लेना चाहेगा जो
कुछ जीवन देता
है। धार्मिक
या कि
अधार्मिक, नैतिक
या कि अनैतिक,
दिव्यता या
कि शैतान रूपी
कोई चीज; उससे
कुछ भेद नहीं
पड़ता।
व्यक्ति हर उस
चीज आत्मसात
कर लेता है, और वह
ज्यादा
समृद्ध हो
जाता है उससे।
उसके पास होती
है एक बिलकुल
ही भिन्न
गहराई।
साधारण
धार्मिक
व्यक्ति उसे
पा नहीं सकते
हैं; वे तो
दरिद्र हैं और
सतही हैं।
जरा
साधारण
धार्मिक
व्यक्तियों
को मंदिर जाते
और मस्जिद और
चर्च जाते हुए
देखना। वहां
तुम सदा पाओगे
बिना गहराई के
बहुत—बहुत
सतही
व्यक्तियों
को ही।
क्योंकि वे
अस्वीकृत कर
चुके हैं अपने
हिस्सों को, वे
अपंग हो गए
हैं। एक खास
ढंग से तो वे
लकवा खा गये
हैं।
कुछ
गलत नहीं है
मन के साथ, और
कुछ गलत नहीं
है विचारों के
साथ। यदि कुछ
गलत है, तो
वह है सतह पर
बने रहना, क्योंकि
तब तुम
संपूर्ण को
जानते नहीं और
तुम अनावश्यक
रूप से पीड़ा
भोगते हो एक
अंश के कारण, अंश के बोध
के कारण।
संपूर्ण बोध
की जरूरत होती
है। वह केवल
केंद्र
द्वारा संभव
होता है, क्योंकि
केंद्र से तुम
देख सकते हो
चारों ओर सभी
आयामों में, सभी दिशाओं
में—तब तुम
देख सकते हो
अपने
अस्तित्व की
संपूर्ण परिधि
को। और वह विशाल
होती है।
वस्तुत: वह
वैसी ही होती
है जैसी की
संपूर्ण अस्तित्व
की परिधि होती
है। जब तुम
केंद्रस्थ हो
जाते हो, तो
धीरे— धीरे
तुम ज्यादा और
ज्यादा
व्यापक हो
जाओगे और
ज्यादा से
ज्यादा बड़े हो
जाओगे। और
समाप्ति होती
है तुम्हारे
ब्रह्म होने
पर ही, उससे
कम पर नहीं।
दूसरी
दृष्टि से मन
होता है उस
धूल की भांति
जिसे कोई
यात्री अपने
कपड़ों पर
एकत्रित कर
लेता है। तुम
हजारों —लाखों
जन्मों से
यात्रा और
यात्रा कर रहे
हो और स्नान
कभी किया नहीं।
स्वभावतया
बहुत धूल
इकट्ठी हो
चुकी है। कुछ
गलत नहीं है
इसमें; ऐसा
होना ही है।
धूल की परतें
हैं और तुम
सोचते हो कि
वे परतें तुम्हारा
व्यक्तित्व
हैं।
तुम्हारा
इतना
तादात्म्य हो
गया है उनके
साथ, इतने
दिनों तक तुम
जी लिए उन धूल
की परतों के साथ
कि वह
तुम्हारी
त्वचा की
भांति लगती
हैं।
तुम्हारा तादात्म्य
हो चुका होता
है।
मन
है अतीत, स्मृति,
धूल। हर कोई
उसे एकत्रित
कर लेता है।
यदि तुम
यात्रा करते
हो तो तुम
एकत्रित कर ही
लोगे धूल।
लेकिन उसके
साथ तादात्म्य
बनाने की कोई
जरूरत नहीं है।
यदि तुम एक हो
जाते हो उसके
साथ, तो
तुम मुश्किल
में पड़ोगे
क्योंकि तुम
धूल नहीं हो, तुम चेतना
हो। उमर खैयाम
कहता है, 'धूल
से धूल तक। 'जब आदमी मर
जाता है, तो
क्या होता है?
—धूल लौट
जाती है धूल
में। यदि तुम
धूल मात्र हो,
तो हर चीज
वापस मिल
जाएगी धूल में,
कोई चीज
पीछे नहीं
छूटेगी।
लेकिन क्या
तुम मात्र धूल
हो, धूल की
परतें हो, या
कि ऐसा कुछ
तुम्हारे
भीतर है जो कि
धूल हरगिज
नहीं है, पृथ्वी
का बिलकुल
नहीं है? वह
है तुम्हारी
चेतना, तुम्हारी
जागरूकता।
जागरूकता
तुम्हारी
सत्ता है, चेतना
तुम्हारा
होना है, और
वह धूल जिसे
जागरूकता
स्वयं के
चारों ओर एकत्रित
करती है
तुम्हारा मन
है। धूल के
साथ व्यवहांर
करने के दो
ढंग हैं।
साधारण धार्मिक
ढंग है कपड़ों
को साफ करना, तुम्हारे
शरीर को मल—मल
कर साफ करना।
लेकिन वे
विधिया कुछ
ज्यादा मदद
नहीं कर सकतीं।
चाहे किसी भी
तरह तुम साफ
कर लो
तुम्हारे कपड़ों
को, कपड़े
इतने गंदे हो
चुके होते हैं
कि वे फिर से ठीक
होने के परे
होते हैं। तुम
साफ नहीं कर
सकते उन्हें।
इसके विपरीत
जो कुछ भी तुम
करते हो वह
उन्हें ज्यादा
गंदा बना देगा।
ऐसा
हुआ : मुल्ला
नसरुद्दीन एक
बार आया मेरे
पास,
और वह एक
शराबी था।
उसके हाथ खाना
खाते समय, या
चाय पीते समय
कांपते रहते।
हर चीज गिर
जाती उस पर, इसलिए उसके
सारे कपड़ों पर
चाय और पान के,
और भी ऐसी
ही चीजों के
दाग लगे हुए
थे। तो मैंने
कहा
नसरुद्दीन से,
'तुम
केमिस्ट के
पास जाकर कुछ
ले क्यों नहीं
लेते? ऐसे
सोल्यूशन
हैं जिनसे कि
ये दाग धोए जा
सकते हैं। '
तो
चला गया वह, और
सात दिन के
बाद वह वापस
आया मेरे पास।
उसके कपड़े
बुरी हालत में
थे, पहले से
ज्यादा बुरी
हालत में।
मैंने पूछा, 'क्या बात है?
क्या
केमिस्ट के
पास नहीं गये
थे?' वह
बोला, 'मैं
गया था। और वह
केमिकल, सोल्यूशन
तो अद्भुत है! —काम
करता है वह।
चाय और पान के
दाग चले गये
हैं' पर
मुझे अब एक
दूसरे सोल्यूशन
की जरूरत है
क्योंकि उस
सोल्यूशन ने
कुछ अपने दाग
छोड़ दिए हैं!'
धार्मिक
लोग तुम्हें
साबुन और
केमिकल सोल्यूशन
दे देते हैं
धूल पोंछने को, साफ
करने को ही, लेकिन फिर
वे सोल्यूशन
कुछ अपने दाग
छोड़ देते हैं।
इसलिए एक
अनैतिक
व्यक्ति बन
सकता है नैतिक,
पर बना रहता
है मलिन; अब
नैतिक ढंग से
होता है ऐसा, पर बना रहता
है मलिन। कई
बार स्थिति
पहले की
अपेक्षा बुरी
भी हो जाती है।
एक
अनैतिक
व्यक्ति कई
तरह से
निर्दोष होता
है,
कम अहंकारी
होता है। एक
नैतिक
व्यक्ति के मन
में बहुत
अनैतिकता होती
है। जो नयी
चीजें उसने
इकट्ठी कर ली
होती हैं वे हैं
: नैतिक, शुद्धतावादी,
अहंकारयुक्त
दृष्टिकोण।
वह अधिक उच्च
अनुभव करता है।
वह अनुभव करता
है विशेष रूप
से चुना हुआ
है और दूसरा
हर कोई नर्क
जाने योग्य है।
केवल वही जा
रहा है स्वर्ग
की ओर! और सारी
अनैतिकता
भीतर बनी रहती
है, क्योंकि
तुम बाहर से
नियंत्रित
नहीं कर सकते मन
को। कोई उपाय
नहीं है। उस
ढंग से यह बात
होती ही नहीं
है। मात्र एक
नियंत्रण
अस्तित्व
रखता है, और
वह होता है
केंद्र से आया
बोध।
मन
वह धूल है जो
लाखों—लाखों
यात्राओं
द्वारा
इकट्ठी हो
चुकी है।
सामान्य नियम
के विरुद्ध
वास्तविक
दृष्टिकोण, परम
धार्मिक
दृष्टिकोण है
वस्त्रों को
ही फेंक देना।
उन्हें धोने
की फिक्र मत
लेना; उन्हें
नहीं धोया जा
सकता है। जैसे
सांप अपनी
पुरानी
केंचुली के
बाहर हो जाता
है, बस उसी
भांति ही सरक
जाना और पीछे
मुड़कर भी नहीं
देखना। ठीक
ऐसा ही होता
है योग; कि
किस प्रकार
तुम्हारे
व्यक्तित्व
से छुटकारा हो।
वे
व्यक्तित्व
ही होते हैं
कपड़े।
यह
शब्द 'व्यक्तित्व',
'पर्सनैलिटी'
बहुत
दिलचस्प है।
यह आता है
ग्रीक मूल 'पर्सोना' से। इसका
अर्थ होता है
वह मुखौटा, अभिनेता
जिनका प्रयोग
प्राचीन
ग्रीक नाटक में
अपने चेहरे
छुपाने के लिए
किया करते थे।
वही मुखौटा
कहलाता है
पर्सोना, और
इसके द्वारा
तुम्हारे पास
व्यक्तित्व
आता है।
व्यक्तित्व
होता है
मुखौटा, तुम
नहीं।
व्यक्तित्व
दूसरों को
दिखलाने वाला
एक नकली चेहरा
है। और बहुत—बहुत
जन्मों
द्वारा और
बहुत—बहुत
अनुभवों के
द्वारा तुमने
बहुत से व्यक्तित्व
निर्मित कर
लिए हैं। वे
सब गंदे हो चुके
हैं। तुमने
बहुत ज्यादा
प्रयोग कर
लिया है उनका,
और उन्हीं
के कारण अपना
मौलिक चेहरा
एकदम खो दिया
है।
तुम
नहीं जानते कि
तुम्हारा
मौलिक चेहरा
कौन—सा है।
तुम दूसरों को
धोखा दे रहे
हो और तुम
अपने ही धोखे
के शिकार हो
गए हो। सारे
व्यक्तित्व
गिराओ, क्योंकि
यदि तुम
व्यक्तित्व
से चिपकते हो
तो तुम सतह पर
ही बने रहोगे।
सारे
व्यक्तित्व
गिरा दो, और
बस स्वाभाविक
हो जाओ। तब
तुम बह सकते
हो केंद्र की
ओर। और एक बार
जब तुम देखने
लगते हो
केंद्र से तो
कोई मन नहीं
बना रहता।
प्रारंभ में
विचार जारी
रहते हैं, लेकिन
धीरे — धीरे तुम्हारे
सहयोग के बिना,
वे कम और कम
होते जाते हैं।
जब तुम्हारा
सारा सहयोग खो
जाता है, जब
तुम उनके साथ
बिलकुल ही
सहयोग नहीं
करते, तब
वे तुम्हारे
पास आना बंद
कर देते हैं।
ऐसा नहीं है
कि वे अब होते
ही नहीं; वे
मौजूद होते
हैं वहां, लेकिन
वे तुम तक
नहीं पहुंचते।
विचार
आते हैं, केवल
आमंत्रित
मेहमानों की
भांति ही। वे
बिन बुलाए हुए
कभी नहीं आते,
यह बात जरा
ध्यान में रख
लेना। कई बार
तुम सोचते हो,
'मैंने तो
कभी नहीं
बुलाया था इस
विचार को', लेकिन
जरूर गलत
होओगे तुम।
किसी ढंग से, कभी—तुम
शायद उसके
बारे में पूरी
तरह भूल चुके
हो—तुमने ही
बुलाया होगा
उसे। बिना
बुलाए कभी
नहीं आते
विचार। पहले
तुम बुलाते हो
उन्हें, केवल
तभी आते हैं
वे। जब तुम
नहीं बुलाते,
तो कई बार
मात्र पुरानी
आदत के कारण
ही—क्योंकि
तुम पुराने
मित्र रहे हो—वे
खटखटा सकते
हैं तुम्हारा
द्वार। लेकिन
यदि तुम सहयोग
नहीं देते तो
धीरे— धीरे वे
भूल जाते हैं
तुम्हारे
बारे में, वे
नहीं आते तुम
तक। और जब
विचार अपने से
आने बंद हो
जाते हैं, तो
वह होता है
नियंत्रण।
ऐसा नहीं है
कि तुम
नियंत्रित
करते हो
विचारों को, तुम तो केवल
अपनी सत्ता के
आंतरिक मंदिर
तक पहुंच जाते
हो, और विचार
अपने से
नियंत्रित
होते हैं।
फिर
भी एक और
दृष्टिकोण से, मन
है अतीत, एक
अर्थ में है, स्मृति, एकत्रित
हुए संचित
अनुभव : वह सब
जो तुमने किया
है, वह सब
जो तुमने सोचा
है, वह सब
जिसकी तुमने आकांक्षा
की है, वह
सब जिसका
तुमने सपना
देखा है—हर
चीज, तुम्हारा
समग्र अतीत, तुम्हारी
स्मृति।
स्मृति है मन।
और जब तक तुम
स्मृति से
छुटकारा नहीं
पा लेते हो, तुम मन को
नियंत्रित
करने के योग्य
न रहोगे।
स्मृति
से कैसे
छुटकारा हो? वह
हमेशा वहां
होती हैं
तुम्हारे
पीछे—पीछे आती
हुई। वस्तुत:
तुम ही हो स्मृति,
तो कैसे
छुटकारा हो
उससे? तुम
अपनी
स्मृतियों के
अतिरिक्त हो
क्या? जब
मैं पूछता हूं
'कौन हो
तुम?' तुम
मुझे बताते हो
तुम्हारा नाम।
यह है
तुम्हारी
स्मृति। कुछ
समय पहले
तुम्हारे
माता—पिता ने
तुम्हें दिया
था वह नाम।
मैं तुमसे
पूछता हूं 'कौन हो तुम?' और तुम मुझे
बताते हो
तुम्हारे
परिवार के
बारे में, तुम्हारे
माता—पिता के
बारे में। यह
है स्मृति।
मैं पूछता हूं
तुमसे, 'कौन
हो तुम?' और
तुम बढ़ाते हो
मुझे
तुम्हारी
शिक्षा के बारे
में, तुम्हारी
डिग्रियों के
बारे में कि
तुमने एम. ए.
किया, या
कि तुम्हारे
पास पी एच. डी.
है या कि तुम
इंजीनियर हो
या कि तुम
आर्किटेक्ट
हो। यह है
स्मृति।
जब
मैं पूछता हूं
तुमसे कि कौन
हो तुम, तो
यदि तुम सचमुच
ही भीतर
झांकते हो, तो तुम्हारा
एकमात्र
उत्तर यही हो
सकता है कि 'मैं नहीं
जानता। ' जो
कुछ भी कहते
हो तुम, वह
होगी स्मृति,
तुम नहीं।
वास्तविक
प्रामाणिक
उत्तर तो केवल
एक ही हो सकता
है कि 'मैं
नहीं जानता', क्योंकि
स्वयं को
जानना अंतिम
बात ही है।
मैं दे सकता
हूं उत्तर कि
कौन हूं मैं, तो भी मैं
दूंगा नहीं
उत्तर। तुम
इसका उत्तर
नहीं दे सकते
कि तुम कौन हो,
लेकिन तुम
तैयार रहते हो
उत्तर सहित।
जो
जानते हैं वे
इस बारे में
चुप रहते हैं।
क्योंकि यदि
सारी स्मृति
निकाल फेंक दी
जाए,
और सारी
भाषा निकाल, हटा दी जाए, तो नहीं
बताया जा सकता
कि मैं कौन
हूं। मैं देख
सकता हूं तुम
में, मैं
दे सकता हूं
तुम्हें
संकेत; मैं
इसे दे सकता
हूं तुम्हें
अपने समग्र
अस्तित्व
सहित—यही होता
है मेरा उत्तर।
उत्तर शब्दों
में नहीं दिया
जा सकता है, क्योंकि जो
शब्दों में
दिया जाता है
वह स्मृति का,
मन का ही
हिस्सा होगा,
चेतना का
नहीं।
कैसे
छुटकारा हो
स्मृतियों से?—उन्हें
देखना, उनका
साक्षी बनना।
और हमेशा याद
रखना इसे : यह
तुम्हें घटा
है, पर यह
तुम नहीं हो।
निस्संदेह
तुम किसी
परिवार में
उत्पन्न हुए,
लेकिन यही
नहीं हो तुम; ऐसा तुम्हें
घटित हुआ है।
यह तुम्हारे
बाहर की घटना
है। बेशक, तुम्हें
किसी ने कोई
एक नाम दे
दिया है। इसकी
अपनी
उपयोगिता है
तो भी नाम
नहीं हो तुम।
निस्संदेह, तुम्हारा एक
आकार है, तो
भी आकार नहीं
हो तुम। रूप
तो मात्र एक
घर है जिसमें
कि तुम्हारा
होना घटित हुआ
है। और आकार
तो एक देह भर
है जिसमें
तुम्हारा होना
घटित हुआ है।
और देह
तुम्हें दी
गयी है
तुम्हारे
माता—पिता
द्वारा। वह एक
उपहार है, पर
वह तुम नही हो।
देखना
और भेद जानना।
यही है जिसे
पूरब में कहते
हैं विवेक और
विवेचन : तुम
विवेचन करते
हो निरंतर।
विवेचन करते
जाना और एक
घड़ी आएगी जब
तुमने वह सब
मिटा दिया
होगा जो तुम
नहीं हो।
अकस्मात, उस
अवस्था में, पहली बार
तुम अपना
सामना करते हो,
तुम
साक्षात्कार
करते हो
तुम्हारी
अपनी सत्ता का।
सारे तादात्म्य
काटते चले जाओ
जो तुम नहीं
हो : परिवार, देह, मन।
उस शून्यता
में, जब हर
वह चीज जो तुम
नहीं हो, फेंक
दी जाती है, तो अचानक
तुम्हारी
सत्ता उभर आती
है। पहली बार
तुम स्वयं का
साक्षात्कार
करते हो, और
वह
साक्षात्कार
बन जाता है
नियंत्रण।
यह
शब्द 'नियंत्रण'
वस्तुत: ही
असुंदर होता
है। मैं नहीं
चाहूंगा इसका
प्रयोग करना।
लेकिन मैं कुछ
नहीं कर सकता,
क्योंकि
पतंजलि
प्रयोग करते
हैं इसका। इस
शब्द से ही
ऐसा जान पड़ता
है कि कोई
किसी दूसरे को
नियंत्रित कर
रहा है।
पतंजलि
जानते हैं, और
बाद में वे
कहेंगे कि तुम
उपलब्ध होते
हो वास्तविक
समाधि को तभी
जब कोई
नियंत्रण और
नियंत्रण
करने वाला नहीं
होता है।
अब
हमें सूत्रों
में प्रवेश
करना चाहिए।
जब मन की
क्रिया
नियंत्रण में
होती है तब मन
बन जाता है
शुद्ध स्फटिक
की भांति फिर
वह समान रूप
से
प्रतिबिंबित
करता है
बोधकर्ता को
बोध को और बोध
के विषय को।
'जब मन
की क्रिया
नियंत्रण में
होती है...।' अब
तुम समझे कि 'नियंत्रण
में' से
क्या अर्थ है
मेरा—तुम होते
हो केंद्र में
और वहां से
तुम देखते हो
मन की ओर। तुम
बैठे हुए होते
हो केंद्र में
और वहां से
तुम देखते हो
मन की ओर। तुम
बैठे हुए होते
हो घर में और
तुम देखते हो
बादलों की तरफ,
और गर्जन की
तरफ, और
बिजली और वहां
से आती बारिश
की तरफ। तुमने
गिरा दिए हैं
अपने सारे
कपड़े—धूल भरे
कपड़े और गंदे
कपड़े। वस्तुत:
कपड़े हैं ही
नहीं, मात्र
तहें हैं
गंदगी की।
इसलिए तुम साफ
नहीं कर सकते
उन्हें।
तुमने पा लिया
है उन्हें और
दूर फेंक दिया
है उन्हें।
तुम बिलकुल
नग्न हो, अपनी
अस्तित्वगत
नग्नता में या
तुमने वह सब हटा
दिया है जिसके
साथ तुम तादात्म्य
बना चुके हो।
अब तुम नहीं
कहते कि तुम
कौन हो। रूप, नाम, परिवार,
देह, मन;
हर चीज दूर
हट गयी है।
केवल वही
मौजूद रहा है वहां
जो हट नहीं
सकता।
यह
विधि है
उपनिषदों की।
वे इसे कहते
हैं नेति—नेति।
वे कहते हैं, 'मैं
न यह हूं न वह
हूं।' वे
कहे जाते हैं
और कहे जाते
हैं, और एक
घड़ी आती है जब
केवल साक्षी
बचता है, और
साक्षी को
अस्वीकार
नहीं किया जा
सकता। वह है
तुम्हारे
अस्तित्व का
चरम स्रोत, उसकी असली आंतरिकता
ही। तुम इसे
अस्वीकार
नहीं कर सकते
क्योंकि कौन अस्वीकार
करेगा इसे? अब दो
अस्तित्व
नहीं रखते, केवल एक ही
होता है। तब
होता है
नियंत्रण। तब
मन की क्रिया
नियंत्रण में
रहती है।
तो
यह ऐसा नहीं
है जैसे कि
छोटे बच्चे को
जबद्रस्ती
माता—पिता
द्वारा कोने
में धकेल दिया
गया हो और
उससे कह दिया
हो,
'जाओ वहां
चुपचाप बैठ
जाओ। ' वह
लगता है
नियंत्रण में
है, पर वह
होता नहीं।
लगता है कि वह
नियंत्रण में
है, पर वह
होता है बेचैन,
अवश—भीतर
होती है बड़ी
हलचल।
एक
छोटे बच्चे पर
मां ने
जबद्रस्ती की।
वह खूब दौड़
रहा था चारों
तरफ। उसे तीन
बार मां ने
चुपचाप बैठ
जाने को कहा।
फिर चौथी बार
वह बोली, ' अब
तुम चुप बैठते
हो या कि मैं
आऊं और पीटूं
तुम्हें।' और
बच्चे समझते
हैं कि कब मां
का सचमुच ही
ऐसा मतलब होता
है। वह समझ
गया। वह बैठ
गया, लेंकिन
वह कहने लगा
मां से, 'मैं
बाहर चुपचाप
बैठा हूं
लेकिन भीतर
मैं अब भी दौड़
रहा हूं। ' तुम
बाहरी तौर पर
शांत हो जाने
के लिए मन पर
जबद्रस्ती कर
सकते हो; भीतर
तो वह दौड़ता
ही चला जाएगा।
वस्तुत: वह
ज्यादा तेज
दौड़ेगा
क्योंकि मन
विरोध करता है
नियंत्रण का।
हर कोई विरोध
करता है
नियंत्रण का।
नहीं, यह
नहीं है कोई
ढंग। इस ढंग
से तुम स्वयं
को मार तो
सकते हो लेकिन
तुम शाश्वत
जीवन को
उपलब्ध नहीं
हो सकते। यह
तो एक प्रकार
की अपंगता हुई।
जब बुद्ध मौन
बैठे होते हैं
तो कोई भीतर
दौड़ नहीं होती,
नहीं।
वस्तुत: भीतर
वे मौन हो
चुके होते हैं,
और वह मौन
उमड़ कर
प्रवाहित हो
आया है उनके
बाहर। विपरीत
नहीं।
तुम
बाहरी तौर पर
मौन होने के
लिये स्वयं पर
जबद्रस्ती
करते हो, और
तुम सोचते हो
कि बाहर मौन
करने से, भीतर
मौन हो जाएगा।
तुम समझते ही
नहीं मौन का
विज्ञान। यदि
तुम भीतर मौन
होते हो,
तो बाहर सब
उससे
आप्लावित हो
जाएगा। वह तो
बस भीतर के
पीछे चलता है।
परिधि अनुसरण
करती है
केंद्र का, लेकिन
केंद्र को
परिधि का
अनुसरण करने
वाला नहीं बना
सकते—यह असंभव
होता है। तो
सदा याद रखना
कि सारी
धार्मिक खोज
भीतर से बाहर
की ओर होती है,
इससे उल्टी
नहीं।
जब मन की
क्रिया
नियंत्रण में
होती है तब मन
बन जाता है
शुद्ध स्फटिक
की भांति।
जब
संपूर्ण मौन
होता है, तो
तुम भीतर
बद्धमूल और
केंद्रित
होते हो; जो
कुछ घट रहा
होता है, बस
उसे देख रहे
होते हो।
पक्षी चहचहा
रहे हैं, उनका
कलरव सुनायी
देगा; यातायात
सड़क पर होता
है, शोर
सुनाई पड़ेगा।
और बिलकुल उसी
तरह, मन का आंतरिक
यातायात होता है—शब्द
होते, विचार
होते, आंतरिक
वार्ता होती।
यातायात की
ध्वनियां
सुनाई पड़ेगी।
लेकिन चुपचाप
बैठे रहते हो,
कुछ न करते
हुए—होते हो
एक सूक्ष्म
तटस्थता। तुम
केवल देखते हो
तटस्थ रूप से।
तुम इसकी ??? नहीं
करते कि यह इस
ढंग से है या
उस ढंग से।
विचार आते हैं
या कि नहीं
आते हैं, तुम्हारे
लिए एक ही बात
होती है। न तो
तुम उसके
प्रति रुचि
रखते हो और न
ही विरोध। तुम
सिर्फ बैठे
रहते हो और मन
का यातायात
चलता रहता है।
तुम बैठ सकते
हो तटस्थ रूप
से, पर ऐसा
कठिन होगा, इसमें समय
लगेगा। लेकिन
तुम जान जाओगे
तटस्थ होने का
ढंग। यह कोई
विधि नहीं, यह एक गुर
(नैक) होता है।
विधि सीखी जा
सकती है, गुर
नहीं सीखा जा
सकता।
तुम्हें बस
बैठ जाना होता
है और अनुभव
करना होता है
उसे। विधि
सिखायी जा
सकती है, गुर
नहीं सिखाया
जा सकता; तुम्हें
सिर्फ बैठना
होता है और
अनुभव करना होता
है। किसी दिन
किसी ठीक घड़ी
में जब तुम
मौन होते हो, तो अचानक
तुम जानोगे कि
यह कैसे घट
गया, किस
प्रकार तुम
तटस्थ हो गए।
यदि एक क्षण
को भी जब भीड़ वहां
होती है और
तुम तटस्थ
रहते हो, तो
सहसा
तुम्हारे और
तुम्हारे मन
के बीच की दूरी
बहुत बड़ी हो
जाती है। मन
संसार के
दूसरे छोर पर
है। वह दूरी
दर्शा देती है
कि उस क्षण
तुम केंद्र में
होते हो। यदि
तुम आए हो गुर
का अनुभव करने
को, तो
किसी समय, कहीं,
तुम एकदम
केंद्र की तरफ
सरक सकते हो।
तुम थम सकते
हो और तुरंत, एक तटस्थता,
एक बड़ी
तटस्थता
तुम्हें घेर
लेती है। उस
तटस्थता में
तुम मन द्वारा
अछूते बने
रहते हो। तुम
हो जाते हो
मालिक।
तटस्थता
एक तरीका है
मालिक हो जाने
का;
मन
नियंत्रित
होता है तो
फिर क्या घटता
है? जब
केंद्र में
होते हो, तब
मन का भ्रम
तिरोहित हो
जाता है। भ्रम
है, क्योंकि
तुम हो परिधि
पर। वस्तुत:
मन नहीं है
भ्रम। मन और
तुम जुड़ते हो
परिधि पर तो
वही है भ्रम।
जब तुम भीतर
की ओर सरकते
हो, तो
धीरे— धीरे
तुम देखोगे कि
मन अपना
विभ्रम खो रहा
होता है।
चीजें स्थिर
हो रही होती
हैं। चीजें एक
सुव्यवस्था
में पड़ रही
होती हैं। एक
निश्चित
सुव्यवस्था
उतर रही होती
है।
मन बन
जाता है शुद्ध
स्फटिक की
भांति।
सारी
अशांति, भ्रम,
उल्टी—सीधी
विचारधाराएं,
वह सब कुछ
थम जाता है।
यह बहुत कठिन
होता है समझना
कि सारा
विभ्रम होता
है तुम्हारे
परिधि पर होने
के कारण ही।
और तुम, अपनी
बुद्धिमानी
के कारण, भ्रम
को ठहराने की
कोशिश कर रहे
हो, वहीं
परिधि पर बने
रहने से।
मैं
बहुत बार एक
छोटी—सी कथा
कहता रहा हूं :
बुद्ध सड़क पर
जा रहे हैं और
दोपहर का समय
है। बहुत
गर्मी है। और
उन्हें प्यास
लगती है। वे
कहते हैं अपने
शिष्य आनंद से, 'तुम
वापस जाओ। अभी
दो या तीन मील
पीछे ही हमने
एक छोटी—सी
नदी पार की थी।
तुम मेरे लिए
थोड़ा पानी ले
आओ। ' तो
बुद्ध वृक्ष
के नींचे
विश्राम करते
हैं और आनंद चला
जाता है नदी
पर। लेकिन अब
यह कठिन है, क्योंकि
जैसे ही वह
उसके नजदीक
पहुंचता है, तो कुछ
बैलगाड़ियां
नदी पर से
गुजर जाती हैं।
नदी बहुत उथली
और छोटी है।
बैलगाड़ी
गुजरने के
कारण वह बहुत
गंदी हो गयी है।
वह सारी धूल
जो नीचे बैठ
गयी थी, सतह
पर आ गयी है—पुराने
सूखे पत्ते और
हर प्रकार का
कूड़ा—कचरा वहां
है। पानी पीने
योग्य नहीं।
आनंद वही कुछ
करने की कोशिश
करता है, जो
कि तुम करोगे—वह
नदी में
प्रवेश करता
है और चीजों
को ठहराने की
कोशिश करता है,
जिससे कि
पानी फिर से
स्वच्छ हो जाए।
वह उसे और
ज्यादा गंदा
कर देता है।
करना क्या
होगा? वह
वापस चला आता
है और वह कहता
है, 'पानी
पीने के योग्य
नहीं। मैं आगे
की एक खास नदी
जानता हूं।
मैं जाऊंगा और
वहां से पानी
ले आऊंगा। ' लेकिन बुद्ध
जोर देते हैं।
वे कहते हैं, 'तुम वापस
जाओ। मुझे उसी
नदी का पानी
चाहिए। ' जब
बुद्ध जोर
देते हैं, तो
क्या कर सकता
है आनंद? बेमन
से वह फिर
वापस चला जाता
है। अचानक वह
सार को समझ
लेता है, क्योंकि
जब तक वह
पहुंचता है, आधी गंदगी
फिर से बैठ
चुकी होती है।
किसी के
द्वारा उसे
ठहराने की
कोशिश किए
बिना, वह
अपने से ही
नीचे बैठ चुकी
है। वह समझ
गया बात।
तो
फिर वह बैठ
गया वृक्ष के
नीचे और वह
देखता था नदी
को बहते हुए, क्योंकि
आधी मिट्टी
अभी भी बाकी
थी वहां, कुछ
सूखे पत्ते
अभी भी सतह पर
बचे थे। उसने
प्रतीक्षा की।
वह करता रहा
प्रतीक्षा और
देखता रहा और
कुछ नहीं किया
उसने। जल्दी
ही, पानी
स्फटिक जैसा
हो गया था। झर
गए मुर्दा
पत्ते जा चुके
थे और मिट्टी
फिर से तल पर
जम चुकी थी।
वह दौड़ता हुआ
और नाचता हुआ
वापस लौटा। वह
गिर पड़ा बुद्ध
के चरणों पर
और वह बोला, 'मैं अब
समझता हूं और
यही गलती तो
मैं अपने मन के
साथ करता रहा
अपनी जिंदगी—
भर। अब बस मैं बैठ
जाऊंगा वृक्ष
के नीचे और
गुजरने दूंगा
मन के प्रवाह
को, इसे
स्वयं ही ठहर
जाने दूंगा।
अब मैं
कूदूंगा नहीं
नदी में और
नहीं कोशिश करूंगा
चीजों को
जमाने की, कोई
क्रमबद्धता
लाने की। '
कोई
नहीं ला सकता
मन में
क्रमबद्धता।
व्यवस्था, क्रमबद्धता
लाना ही
अराजकता निर्मित
कर देता है।
यदि तुम देख
सको और
प्रतीक्षा कर
सकी, और
तुम देख सकते
हो तटस्थ रूप
से, तो
चीजें अपने से
ठहर जाती हैं।
एक निश्चित
नियम होता है;
चीजें बहुत
समय तक अस्थिर
नहीं बनी रह
सकतीं, क्योंकि
अस्थिर
अवस्था
स्वाभाविक
नहीं होती। वह
अस्वाभाविक
होती है। चीजों
की स्थिर
अवस्था
स्वाभाविक
होती है; चीजों
की अस्थिर
अवस्था नहीं
होती है
स्वाभाविक।
इसलिए
अस्वाभाविक
बात घट सकती
है कुछ समय तक तो,
तो भी वह
सदा बनी नहीं
रह सकती है।
तुम्हारी
जल्दबाजी में,
तुम्हारी
अधीरता में
तुम चीजों को
ज्यादा गलत
बना सकते हो।
जापान
में,
झेन मठों
में, उनके
पास एक
निश्चित विधि
होती है पागल
लोगों का
उपचार करने की।
पश्चिम में वे
अभी तक नहीं
ढूंढ पाए हैं
कोई ऐसी चीज, ऐसी विधि।
वे अभी तक
अंधेरे में
भटक रहे हैं।
साधारण पागल
व्यक्ति
सहायता देने
के पार के लगते
हैं। और
मनोविश्लेषक
लगा देते हैं
तीन वर्ष, पाच
वर्ष, सात
वर्ष। और फिर
भी, कुछ
ज्यादा हासिल
नहीं होता
इससे। तुमने
सारा हिमालय
छान मारा और
इससे निकलता एक
चूहा भी नहीं
ढूंढ पाए तुम।
इसीलिए केवल
बड़े धनपति
इसका खर्च उठा
सकते हैं, एक
ऐश्वर्य की
भांति।
मनोविश्लेषण
एक ऐश्वर्य है।
लोग बड़े खुश
होते हैं जब
उनका
मनोविश्लेषण
किसी बड़े
मनोविश्लेषक
द्वारा किया
जाता है, जैसे
कि यह कोई बड़ी
उपलब्धि की
बात है। और
घटता कुछ नहीं
है। लोग एक
मनोविश्लेषक
से दूसरे तक
चलते चले जाते
हैं।
जापान
में उनके पास
एक बहुत सीधी—सी
विधि है। यदि
कोई पागल हो
जाता है तो
उसे लाया जाता
है मठ में।
उनके पास मठ
से अलग, एक
कोने. में एक
बहुत छोटी—सी
कुटिया होती
है। व्यक्ति
को वहां छोड़
दिया जाता है।
कोई उसमें
ज्यादा
दिलचस्पी
नहीं लेता है।
किसी पागल
आदमी में कभी
मत लेना
ज्यादा दिलचस्पी,
क्योंकि
दिलचस्पी बन
जाती है भोजन।
एक
पागल आदमी
सारे संसार का
ध्यान पाना
चाहता है; इसीलिए
होता है वह
पागल। पहली
बात तो यह
होती है कि वह
पागल है, क्योंकि
मांगता है
ध्यान। यही
बात उसे ले
गयी है पागलपन
में।
इसलिए
कोई ज्यादा
ध्यान नहीं
देता उसकी ओर।
वे खयाल रखते
हैं,
पर वे ध्यान
नहीं देते। वे
उसे भोजन देते
हैं, और वे
उसे
सुविधापूर्ण
बना देते हैं,
पर कोई नहीं
जाता उससे बात
करने को। जो
लोग भोजन लाते
और दूसरी
जरूरत की
चीजें लाते, वे भी बात न
करेंगे उससे।
उससे बात नहीं
करने दी जाती,
क्योंकि
पागल आदमी
पसंद करते हैं
बात करना।
वस्तुत: बहुत
ज्यादा बात
करना उन्हें
ले गया है इस
अवस्था की ओर।
मनोविश्लेषण
के साथ बात
ठीक उल्टी है—मनोविश्लेषक
बातें किए चले
जाते हैं और
घंटों बातें
करने देते हैं
रोगी को। पागल
व्यक्ति इसका
बहुत आनंद
उठाते हैं, और
कोई आदमी
सुनता हो इतने
ध्यानपूर्वक,
तो बहुत
सुंदर बात
होती है यह।
झेन
मठ में कोई
नहीं बात करता
है पागल आदमी
से। कोई नहीं
देता ध्यान, कोई
खास ध्यान। एक
सूक्ष्म
तटस्थ ढंग से
वे ध्यान रखते
हैं, बस
इतना ही। वह
विश्राम करता
है, बैठता
है या चुपचाप
बिस्तर पर
लेटा रहता हैं,
और कुछ नहीं
करता। वस्तुत:
कोई उपचार
होता ही नहीं।
और वह तीन
सप्ताह के
भीतर संपूर्णतया
ठीक हो जाता
है।
अब
पश्चिमी
मनोविश्लेषक
दिलचस्पी
लेने लगे हैं, क्योंकि
उन्हें लगता
है कि यह
असंभव है—कि
पागल आदमी को
उसी के हाल पर
ही छोड़ देना!
पर यह होती है
बौद्ध—दृष्टि,
यही होती है
योगियों की
दृष्टि : कि
छोड देना चीजों
को, क्योंकि
कोई चीज बहुत
देर तक स्थिर
नहीं रह सकती,
यदि तुम उसे
उस पर ही छोड़
देते हो। यदि
तुम उसे नहीं
छोडते, तो
वह लंबे समय
तक
अव्यवस्थित
रह सकती है, क्योंकि तुम
उसे निरंतर
फिर—फिर हिला—डुला
रहे होओगे।
प्रकृति
घृणा करती है
अव्यवस्था से।
प्रकृति
प्रेम करती है
सुव्यवस्था
को। प्रकृति
संपूर्णतया
सुव्यवस्थागत
है,
अत:
अव्यवस्था
केवल एक
अस्थायी
अवस्था हो सकती
है। यदि तुम
समझ सको इसे, तो मन के साथ
कुछ मत करना।
पागल मन को उस
पर ही छोड़
देना। तुम बस
देखना, ज्यादा
ध्यान मत देना।
इसे खयाल में
रख लेना :
देखने और
ध्यान देने में
भेद होता है।
जब तुम ध्यान
देते हो, तुम
बहुत ज्यादा
आकर्षित होते
हो। जब तुम
केवल देखते हो,
साक्षी
मात्र होते हो
तो तुम तटस्थ
होते हो।
बुद्ध
इसे कहते हैं
उपेक्षा, परम
और समग्र
उपेक्षा।
मात्र एक ओर
बैठे रहना, नदी बहती
रहती है। और
चीजें ठहरती
जाती हैं; कूड़ा—करकट
नीचे तल पर
बैठ जाता है
और सूखे पत्ते
बह चुके होते
हैं अकस्मात,
नदी
स्फटिकवत
स्वच्छ होती
है।
इसीलिए
पतंजलि कहते
हैं,
'जब मन की
क्रिया
नियंत्रण में
होती है, तो
मन शुद्ध
स्फटिक बन
जाता है, और
जब मन शुद्ध
स्फटिक बन
जाता है, तो
तीन चीजें
प्रतिबिंबित
होती हैं
उसमें। '
फिर वह
समान रूप से
प्रतिबिंबित
करता है
बोधकर्ता को
बोध को और बोध
के विषय को।
जब मन
संपूर्णतया
साफ होता है, एक
सुव्यवस्था
बन गया होता
है, तो
भ्रम नहीं
रहता और चीजें
थम चुकी होती
हैं, तब
तीन चीजें
प्रतिबिंबित
होती हैं
उसमें; वह
दर्पण बन जाता
है, तीन
आयामों का दर्पण।
बाहर का संसार,
विषय—वस्तुओं
का संसार
प्रतिबिंबित
होता है। भीतर
का संसार, आत्मपरक
चेतना का
संसार
प्रतिबिंबित
होता है।
दोनों के बीच
का संबंध, वह
बोध
प्रतिबिंबित
होता है और
होता है बिना
किसी विकार के।
मन
के साथ
तुम्हारे
बहुत ज्यादा
घुल—मिल जाने
से ही ऐसा
होता है कि
विकार चला आता
है। क्या होता
है विकार? मन
एक सीधी यंत्र—क्रिया
है। यह आंखों
की भांति है; तुम आंखों
द्वारा देखते
हो और संसार
प्रतिबिंबित
हो जाता है।
लेकिन आंखों
के पास तो
केवल एक आयाम
है : वे तो केवल
संसार को प्रतिबिंबित
कर सकती हैं, वे तुम्हें
प्रतिबिंबित
नहीं कर सकतीं।
मन त्रिआयामी
घटना है, बड़ी
गहरी। वह सब
कुछ
प्रतिबिंबित
कर सकता है, और बिना
किसी विकार के।
साधारणतया तो
वह विकृत ही
करता है। जब
कभी तुम देखते
हो किसी चीज
को यदि तुम मन
से अलग नहीं
होते, तो
चीज बिगड
जाएगी। तुम
कुछ और देखोगे।
तुम इसमें
अपना ज्ञान
मिला दोगे, अपने भाव
मिला दोगे।
तुम इसे
दृष्टि की
शुद्धता सहित
नहीं देखोगे।
तुम देखोगे
धारणाओं सहित,
और धारणाएं
प्रक्षेपित
होंगी उस पर।
यदि
तुम उत्पन्न
होते हो किसी
अफ्रीकी जाति
में,
तो तुम
सोचते हो पतले
होंठ सुंदर
नहीं होते, मोटे होंठ
सुंदर होते
हैं। बहुत—सी
अफ्रीकी
जनजातियों
में वे अपने
होंठ मोटे और
ज्यादा मोटे
बनाए चले जाते
हैं। वे सब
प्रकार के
उपाय करते हैं
होंठों को ज्यादा
और ज्यादा
मोटे करने के
लिए, विशेषकर
स्त्रियां
क्योंकि मोटे
होंठ सुंदर
होते हैं; ऐसी
ही धारणा है।
प्रजाति के
सारे इतिहास
में इस बात को
कायम रखा है
उन्होंने।
यदि कोई लड़की
पैदा होती है
पतले होंठ
लेकर, तो
वह निम्न
अनुभव करती है।
भारत
में प्रेम
करते हैं पतले
होंठों से।
यदि वे थोड़े
से ज्यादा
मोटे होते हैं, तो
तुम असुंदर
माने जाते हो।
ये विचार मन
के भीतर चलते
हैं और ये
विचार इतनी
गहरी जड़ में
उतर जाते हैं
कि वे
तुम्हारी दृष्टि
धुंधली कर
देते हैं। न
पतले होंठ और
न ही मोटे
होंठ, न तो
सुंदर होते
हैं और न ही
असुंदर।
वस्तुत: सुंदर
और असुंदर
विकृत
अवधारणाएं हैं।
वे तुम्हारी
विचारधाराएं
हैं, और
फिर तुम
उन्हें मिला
देते हो
वास्तविकता के
साथ।
ऐसी
जनजातियां
अस्तित्व
रखती रही हैं
जो सोने को
बिलकुल ही कोई
मूल्य नहीं
देतीं। जब वे
बिलकुल कोई
मूल्य नहीं
करतीं सोने का, तो
वे सोने के
वशीभूत नहीं
रहती। सारा
संसार ऐसा है,
सोने द्वारा
वशीभूत।
मात्र एक
निश्चित
विचार, और
सोना बहुत
मूल्यवान हो
जाता है।
वस्तुओं
के संसार में, वास्तव
में, कोई
चीज ज्यादा
मूल्यवान या
कम मूल्यवान
नहीं होती है।
मूल्यांकन
लाया जाता है
मन के द्वारा,
तुम्हारे
द्वारा। कोई
चीज सुंदर
नहीं, कोई
चीज असुंदर
नहीं। चीजें
होती हैं जैसी
वे हैं। उनकी
अपनी तथाता
में वे
अस्तित्व
रखती हैं।
लेकिन जब तुम
सतह पर होते
हो और विचारों
के साथ सम्मिलित
हो जाते हो, तो तुम कहने
लगते हो, 'यह
मेरी धारणा है
सौंदर्य की।
यह मेरी धारणा
है सत्य की। ' तब हर चीज
मुड़—तुड़
जाती है।
जब
तुम केंद्र की
ओर बढ़ते हो और
मन अकेला छूट
जाता है, और उस
केंद्र से तुम
देखते हो मन
को, तो
तुम्हारा
तादात्म्य
फिर उसके साथ
नहीं रहता।
धीरे— धीरे
सारे विचार
तिरोहित हो
जाते हैं। मन
स्फटिक की
भांति साफ हो
जाता है। और
उस दर्पण में,
मन के त्रि—आयामी
दर्पण में, संपूर्ण
प्रतिबिंबित
हो जाता है :
विषय, व्यक्ति,
ज्ञान; बोधकर्ता,
बोध और बोध
का विषय।
'सवितर्क
समाधि, वह
समाधि है, जहां
योगी अभी भी
वह भेद करने
के योग्य नहीं
रहता है, जो
सच्चे ज्ञान
के और शब्दों
पर आधारित
ज्ञान, तर्क
या इंद्रिय—बोध
पर आधारित
ज्ञान के बीच
होता है—जो सब
मिश्रित
अवस्था में मन
में बना रहता
है।'
दो
प्रकार की
समाधि होती
है. एक को
पतंजलि कहते
हैं,
'सवितर्क' दूसरी को वे
कहते 'निर्विकल्प'
या 'निर्वितर्क'। ये होती
हैं दो
अवस्थाएं।
पहले तो कोई
उपलब्ध होता
है सवितर्क
समाधि को; जिसमें
कि तर्कसंगत
मन अभी भी चल
रहा होता है।
यह है समाधि, लेकिन फिर
भी बौद्धिक
दृष्टिकोण पर
आधारित होती
है। तर्क अभी
भी काम कर रहा
है, तुम
भेद बना रहे
होते हो। यह
उच्चतम समाधि
नहीं होती है,
मात्र पहला
कदम है। लेकिन
यह भी बहुत—बहुत
कठिन है, क्योंकि
इसमें भी
जरूरत पड़ेगी
केंद्र की ओर
थोड़ा बहुत
जाने की।
उदाहरण
के लिए : परिधि
है वहां, जहां
कि तुम बिलकुल
अभी खड़े हो, और केंद्र
है वहां, जहां
कि मैं हूं
बिलकुल अभी और
दोनों के बीच,
ठीक मध्य
में, सवितर्क
समाधि है।
इसका मतलब हुआ
कि तुम सतह पर
से सरक आए हो; तो भी तुम
केंद्र तक
नहीं पहुंचे
हो अभी तक।
तुम सरक आए हो
परिधि से पर
अभी भी बहुत
दूर है केंद्र।
तुम ठीक मध्य
में हो। अभी
तक कुछ पुराना
कार्य कर रहा
है, और कुछ
नया आधे
रास्ते तक
प्रवेश कर
चुका है। और
चेतना की इस
बीच की अवस्था
की परिस्थिति
क्या होगी?
सवितर्क
समाधि वह
समाधि है जहां
योगी अभी भी वह
भेद करने के
योग्य नहीं
होता है जो
सच्चे ज्ञान
के.......।
क्या
सत्य है, यह भेद
वह अभी भी
नहीं कर पाएगा,
क्योंकि
सत्य जाना जा
सकता है केवल
केंद्र द्वारा
ही। उसे जानने
का दूसरा कोई
उपाय नहीं। वह
नहीं जान सकता
सच्चा ज्ञान
क्या है। कोई
सत्य बूंद—बूंद
टपक रहा होता
है भीतर, क्योंकि
वह सरक आया है
परिधि से, ज्यादा
निकट आ पहुंचा
है केंद्र के।
वह अभी
केंद्रस्थ
नहीं हुआ, तो
भी ज्यादा
निकट आ पहुंचा
है। केंद्र की
कोई चीज भीतर
झर रही है—कुछ—कुछ
प्रत्यक्ष
बोध, केंद्र
की कुछ
झलकियां, लेकिन
पुराना मन फिर
भी है वहां, पूरी तरह
नहीं चला गया।
एक वहां,. पुराना
मन अभी भी
कार्य करता जा
रहा है। योगी
अभी भी अयोग्य
है भेद
करने में कि
क्या है सच्चा
ज्ञान।
सच्चा
ज्ञान वह शान
है जो घटता है
जब मन किसी विकार
से बिलकुल
ग्रस्त नहीं
होता। एक तरह
से मन जब
संपूर्णतया
तिरोहित हो
गया होता है, वह
इतना
पारदर्शी हो
चुका है कि वह वहां
है या नहीं, इससे कुछ
अंतर नहीं
पड़ता।
इस
मध्य अवस्था
में योगी पड़ा
होता है बहुत
गहन विभ्रम
में।
भ्रम
होता है, क्योंकि
कोई सत्य होता
है और होता है
वह ज्ञान, जो
उसने अतीत में
एकत्रित किया
: उन शब्दों का,
शास्त्रों
का, शिक्षकों
का; वह भी वहां
होता है। अपना
कुछ तर्क कि
क्या गलत है
और क्या सही; क्या सत्य
है और क्या
असत्य; और
उसके इंद्रिय—बोध
की—आख, कान,
नाक की कोई
चीज—हर चीज वहां
होती, घुली—मिली
हुई।
यह
होती है वह
अवस्था, जहां
योगी पागल हो
सकता है। यदि
इस अवस्था में
कोई ध्यान
रखने वाला
नहीं होता, तो पागल हो
सकता है योगी,
क्योंकि
इतने सारे
आयाम मिल रहे होते
हैं। इतना बड़ा
भ्रम होता है
और होती है
अराजकता। यह
ज्यादा बड़ी
अराजकता होती
है उससे जितनी
कि कभी पहले
थी, जब कि
वह सतह पर था, क्योंकि कुछ
नया आ पहुंचा
होता है।
केंद्र
से अब थोड़ी
झलकें आ रही
होती हैं उस
तक। वह नहीं
जान सकता कि
क्या यह उस
ज्ञान से आ
रही होती हैं, जिसे
उसने इकट्ठा
कर लिया है
शास्त्रों से।
कई बार अचानक
उसे लगता है, 'अहं
ब्रह्मास्मि',
मैं ब्रह्म
हूं। अब वह
भेद करने
योग्य नहीं
होता कि यह
उपनषिद से आ
रहा है, जिसे
वह पढ़ता रहा
है, या कि
उसके स्वयं से।
यह एक बौद्धिक
निर्णय होता
है। 'मैं
संपूर्ण का
अंश हूं।
संपूर्ण है
परमात्मा, तो
निस्संदेह
मैं हूं
परमात्मा। ' वह नहीं बता
सकता कि यह एक
तर्कसंगत
शास्त्रीय
सूत्र है या
यह आ रहा है
इंद्रिय—बोध
से।
क्योंकि
कई बार जब तुम
बहुत शात होते
हो और इंद्रियों
के द्वार बहुत
साफ होते हैं, तो
उदित हो जाती
है परमात्मा
होने की
अनुभूइत।
संगीत सुनते—सुनते,
अचानक तुम
फिर मानव—प्राणी
ही नहीं रह
जाते। यदि
तुम्हारे कान
तैयार होते
हैं और यदि
तुम्हारे पास
संगीत—बोध
होता है, तो
अकस्मात तुम
उठ जाते हो एक
अलग ही तल तक।
जिस स्त्री को
तुम प्रेम
करते हो, उससे
संभोग करते
हुए अचानक आर्गाज्म
के चरम पर, तुम
अनुभव करते कि
तुम ईश्वर हो
गए। ऐसा घट
सकता है तर्क
के द्वारा। यह
आ रहा हो सकता
है उपनिषदों
से, शास्त्रों
से, जिन्हें
तुम पढ़ते रहे
हो, या यह आ
रहा होता है
केंद्र से। और
वह व्यक्ति जो
मध्य में है, वह नहीं
जानता कि यह
कहां से आ रहा
है। सभी
दिशाओं से घट
रही होती हैं
लाखों चीजें—अनूठी,
अज्ञात, ज्ञात।
व्यक्ति पड़
सकता है
वास्तविक
गड़बड़ में।
इसीलिए
जरूरत होती है
साधक—समुदाय
की,
जहां कि
बहुत लोग काम
कर रहे होते
हैं। क्योंकि
केवल ये ही
तीन स्थल नहीं
हैं। परिधि और
केंद्र के बीच
में, बहुत
सारे स्थल
होते हैं।
रहस्य—साधनालय
वह होता है, जहां कई तरह
के वर्गों के
कई लोग साथ —साथ
रहते हैं। और
शिक्षालय की
ही भांति, प्रथम
श्रेणी के लोग
होते हैं वहां,
द्वितीय
श्रेणी के लोग
होते हैं, तृतीय
श्रेणी के लोग
होते हैं; प्राथमिकशाला
माध्यमिकशाला,
उच्चशाला
और फिर विश्वविद्यालय।
एक संपूर्ण
रहस्य—विद्यालय
होता है : बाल
विद्यालय से
लेकर विश्वविद्यालय
तक। कोई
अस्तित्व
रखता है वहां
एकदम चरम पर, केंद्र पर, जो कि
केंद्र बन
जाता है, रहस्य—विद्यालय
का।
और
बहुत सारे लोग
होते हैं, क्योंकि
वे सहायक हो
सकते हैं। तुम
मदद कर सकते
हो किसी की जो
एकदम पीछे हो
तुम्हारे।
उच्च
विद्यालय का
व्यक्ति आ
सकता है
प्राथमिक
विद्यालय में
और सिखा सकता
है। प्राथमिक
व्रिद्यालय
का एक छोटा
लड़का जा सकता
है के. जी. मे—किडर—गाटेंन
में और कर
सकता है मदद।
परिधि
से लेकर
केंद्र तक, बहुत
सारी
अवस्थाएं हैं,
बहुत सारे
स्थल हैं।
रहस्य—विद्यालय
का अर्थ होता
है. जहां सब
प्रकार के लोग
एक गहरी
लयबद्धता में
बने रहते हैं,
एक परिवार
के रूप में
रहते हैं :
बिलकुल प्रथम से
लेकर बिलकुल
अंतिम तक, प्रारंभ
से लेकर
समाप्ति तक, आरंभ से
लेकर अंत तक।
बहुत सहायता
संभव हो जाती
है इस ढंग से, क्योंकि तुम
उसकी मदद कर
सकते हो जो
पीछे होता है
तुमसे। तुम कह
सकते हो उससे,
'मत चिंतित
होओ। बस, बढ़ते
रहो। ऐसा घटता
है और शांत हो
जाता है अपने
से ही। इसके
साथ ज्यादा मत
जुड़ जाना। अलग—
थलग बने रहना।
यह आता है और
चला जाता है। '
किसी की
जरूरत होती है,
जो हाथ
बढ़ाकर
तुम्हारी मदद
करे। और
सद्गुरु की
जरूरत होती है,
जो ध्यान रख
सके सारी
अवस्थाओं का;
शिखर से
लेकर एकदम
घाटी तक का, जो समग्र
बोध पा सकता
हो सारी
संभावनाओं का।
अन्यथा, सवितर्क
समाधि की इस
अवस्था में, बहुत से
पागल हो जाते
हैं। या, बहुत
से इतने घबड़ा
जाते हैं कि
वे दूर भाग
आते हैं
केंद्र से और
चिपकने लगते
हैं परिधि से,
क्योंकि वहां,
कम से कम
किसी एक
प्रकार की
सुव्यवस्था
तो होती है।
कम से कम कुछ
अज्ञात तो
प्रवेश नहीं
करता है वहां,
अपरिचित
नहीं आ
पहुंचता वहां।
तुम परिचित
होते हो; अजनबी
दस्तक नहीं
देते तुम्हारे
द्वार पर।
लेकिन
जो सवितर्क
समाधि तक
पहुंच गया है
यदि वह परिधि
तक वापस चला
जाता है, तो
कुछ सुलझेगा
नहीं। वह फिर
वही कभी नहीं
हो सकता। अब
वह कभी भी
पूरी तरह
परिधि का नहीं
हो सकता।
इसलिए वह बात
कुछ काम की
नहीं। वह
परिधि का
हिस्सा कभी
नहीं हो पाएगा।
और वह वहां पर
होगा, ज्यादा
और ज्यादा
भ्रमित। एक
बार तुमने जान
लिया है किसी
चीज को, तो
तुम कैसे मदद
कर सकते हो
स्वयं की, उस
बोध से अनजान
बन कर? एक
बार जान लिया
तुमने, तो
जान लिया है
तुमने। तुम
दूर हो सकते
हो उससे, तुम
बंद कर सकते
हो अपनी आंखें,
लेकिन तो भी
वह होता तो है वहां
पर और वह
तुम्हारे
पीछे पड़ा
रहेगा
तुम्हारी जिंदगी
भर।
यदि
रहस्यविद्यालय
नहीं होता और
सद्गुरु नहीं
होता, तो तुम
बन जाओगे बहुत
जटिल व्यक्ति।
संसार से तुम
जुड़ नहीं सकते,
बाजार का
तुम्हारे लिए
कुछ अर्थ नहीं
रहता; और
संसार के पार
जाने से तुम
डरते रहते हो।
सवितर्क
समाधि वह
समाधि है जहां
योगी अभी भी वह
भेद करने के
योग्य नहीं
रहता है जो
सच्चे ज्ञान
के और शब्दों
पर आधारित
ज्ञान और तर्क
या इंद्रिय—
बोध पर आधारित
ज्ञान के बीच
होता है जो सब
मिश्रित
अवस्था में मन
में बना रहता
है।
निर्वितर्क
समाधि है केंद्र
तक पहुंच जाना
: तर्क
तिरोहित हो
जाता है, शास्त्र
अब अर्थपूर्ण
नहीं रहते, इंद्रिय—संवेदनाएं
धोखा नहीं दे
सकतीं
तुम्हें। जब
तुम होते हो
केंद्र पर, तो अचानक हर
चीज
स्वतःसिद्ध सत्य
हो जाती है।
ये शब्द ठीक
से समझ लेने
हैं—'स्वतःसिद्ध
सत्य। 'सत्य
होते हैं वहां
परिधि पर, लेकिन
वे स्वत:
प्रमाणित
हरगिज नहीं
होते। किसी
प्रमाण की
जरूरत होती है,
किसी
तर्कणा की
जरूरत होती है।
यदि तुम कहते
हो कुछ तो
तुम्हें
प्रमाणित करना
होता है उसे।
यदि परिधि पर
कहते हो, 'परमात्मा
है', तो
तुम्हें उसे
प्रमाणित
करना होगा, स्वयं के
सामने, दूसरों
के सामने।
केंद्र पर
परमात्मा है,
स्वत:
प्रमाणित, तुम्हें
जरूरत नहीं
रहती किसी
प्रमाण की।
कौन—से प्रमाण
की जरूरत होती
है, जब
तुम्हारी आंखें
खुली होती हैं
और तुम देख
सकते हो सूरज
को उगते हुए।
लेकिन उस आदमी
के लिए जो कि
अंधा होता है
प्रमाण की
जरूरत होती है।
क्या प्रमाण
की जरूरत होती
है, जब तुम
प्रेम में
होते हो? तुम्हें
पता होता है
कि वह है; वह
स्वत: स्पष्ट
है। दूसरे तो
मांग कर सकते
हैं प्रमाण की।
कैसे तुम
उन्हें दे
सकते हो कोई
प्रमाण?
केंद्र
पर पहुंचा
व्यक्ति
स्वयं ही
प्रमाण बन
जाता है; वह
देता नहीं है
कोई प्रमाण।
जो कुछ वह
जानता है वह
स्वत:
प्रमाणित
होता है। ऐसा
ही है। वह
किसी बौद्धिक
निर्णय के रूप
में नहीं पहुंचा
है ? उस तक।
वह कोई
शास्त्रीय—सूत्र
नहीं होता; वह किसी
निष्कर्ष के
रूप में नहीं
आया है, वह
बस वैसा है ही।
उसने जान लिया
है। इसलिए
उपनिषदों में
कहीं कोई
प्रमाण नहीं
है। पतंजलि के
यहां कोई
प्रमाण नहीं
है। पतंजलि तो
मात्र
व्याख्या कर
देते हैं, लेकिन
कोई प्रमाण
नहीं देते।
यही है भेद : जब
कोई जानता है
तो वह वर्णन
ही करता है; जब कोई नहीं
जानता है, तो
पहले वह
प्रमाणित
करता है कि यह
ऐसा—ऐसा है।
जिन्होंने
जाना है वे
मात्र वर्णन
कर देते हैं
उस अज्ञात का।
वे कोई प्रमाण
नहीं देते।
पश्चिम
में,
ईसाई संतों
ने परमात्मा
के प्रमाण दिए
हैं। पूरब में,
हम हंसते
हैं इस पर, क्योंकि
यह बेतुकी बात
है। परमात्मा
को प्रमाणित
करता हुआ आदमी
बेतुका है।
कैसे तुम
प्रमाणित कर
सकते हो उसे? और जब तुम
प्रमाणित
करते हो
परमात्मा
जैसे किसी रूप
को तो तुम उसे
झूठा
प्रमाणित
करने को ही
निमंत्रित कर
लेते हो लोगों
को। और इन्हीं
ईसाई संतों के
कारण ही जो कि
परमात्मा को
प्रमाणित
करने की कोशिश
करते हैं, सारा
पश्चिम, धीरे—
धीरे, परमात्मा
विरोधी हो गया
है, क्योंकि
लोग सदा ही कर
सकते हैं खंडन।
तर्क एक दो—
धारी तलवार
होती है : यह
काटती है
दोनों ओर से।
यदि तुम
प्रमाणित
करते हो कोई
चीज, तो वह
झूठी
प्रमाणित भी
हो सकती है।
तर्क
प्रस्तुत
किया जा सकता
उसके विरुद्ध।
ईसाई
संतों के कारण, जो
कि परमात्मा
को प्रमाणित
करने की कोशिश
करते रहे हैं,
सारा
पश्चिम
नास्तिक' हो
गया है। पूरब
में हमने कभी
ऐसी कोशिश
नहीं की; हमने
कभी कोई
प्रमाण नहीं
दिया। जरा
उपनिषदों में
झांको—स्व भी
प्रमाण
अस्तित्व
नहीं रखता। वे
इतना ही कहते
हैं, 'परमात्मा
है। ' यदि
तुम जानना
चाहते हो, तुम
जान सकते हो।
यदि तुम नहीं
जानना चाहते
तो वह
तुम्हारा चुनाव
है। लेकिन
इसके लिए कोई
प्रमाण नहीं
है।
वह
अवस्था होती
है
निर्वितर्क
समाधि की, वह
समाधि जो होती
है बिना तर्क
की। वह समाधि
पहली बार
अस्तित्वगत
होती है।
लेकिन वह भी
अंतिम नहीं।
एक और अंतिम
सोपान अस्तित्व
रखता है। उसकी
चर्चा हम आगे
बाद में
करेंगे।
आज
इतना ही।
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