अध्याय—16
सूत्र—
त्रिविधं
नरकस्येदं
द्वारं
नाशनमात्मन:।
काम:
क्रोधस्तथा
लौभस्तस्मादैतन्त्रयं
त्यजेत्।। 21।।
एतैर्विमुक्त:
कौन्तेय
तमद्धोरैस्प्रिभिर्नर:।
आचरत्यक्ष्मन:
श्रेयस्स्ततो
यति परां गतिम्।।
22।।
यः
शास्त्रविश्वैमुत्सृज्य
वर्तते कामकारत:।
न स
सिद्धिमावाप्नोतिप्त
न सुखं न परां
गतिम्।। 23।।
तस्माच्छात्रं
प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा
शास्त्रविधानोक्तं
कर्म कर्तुमिहार्हसि।।
24।।
और हे
अर्जुन,
काम, क्रोध
तथा लोभ,
ये तीन प्रकार
के नरक के
द्वार आत्मा
का नाश करने
वाले हैं
अर्थात अधोगति
में ले जाने वाले
है, इससे इन
तीनों को
त्याग देना
चाहिए।
क्योंकि है
अर्जुन, इन
तीनों नरक के
द्वारों से मुक्त
हुआ पुरूष अपने
कल्याण का
आचरण करता है।
इससे
वह परम गति को
जाता है अर्थात
मेरे को
प्राप्त होता
है।
और जो पुरुष
शास्त्र की विधि
को त्यागकर अपनी
इच्छा से
बर्तता है,
वह न तो सिद्धि
को प्राप्त
होता है और न
परम गति को तथा
न सुख को ही
प्राप्त होता
है।
इसलिए तेरे
लिए हम
कर्तव्य और
अकर्तव्य की
व्यवस्था में
शास्त्र ही
प्रमाण है, ऐसा
जानकर तू
शास्त्र— विधि
से नियत किए
हुए कर्म को
ही करने के लिए
योग्य है।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न :
ईश्वर और धर्म
यदि परम नियम
के ही नाम हैं, उससे
अन्यथा कुछ भी
नहीं, तो
प्रार्थना, भक्ति, आराधना,
सब व्यर्थ
हो जाते हैं।
तब तो धर्म
विज्ञान का
पर्याय हो
जाता है और उस
परम नियम की
खोज में निकलना
मात्र धर्म रह
जाता है। इस
पर कुछ और
प्रकाश डालें।
ऐसा
प्रश्न मन में
उठेगा। यदि
धर्म मात्र
नियम है, तो
स्वभावत: धर्म
वितान ही हो
गया। फिर
प्रार्थना
कैसी? किससे?
आराधना
कैसी और किसकी?
पूजा, भक्ति
सब व्यर्थ हो
जाते हैं।
क्योंकि
हमने अब तक
ऐसा ही समझा
है कि
प्रार्थना
तभी हो सकती
है,
जब
व्यक्तिगत
रूप से ईश्वर
मौजूद हो।
हमने अब तक
ऐसा ही सुना
और समझा है कि
पूजा तभी हो
सकती है, जब
पूजा लेने
वाला मौजूद हो।
आराधना और
भक्ति तभी
सार्थक है, जब भगवान हो,
कोई
व्यक्ति की
तरह मौजूद हो,
जो स्वीकार
करे, अस्वीकार
करे, स्तुति
से प्रसन्न हो,
निंदा से
नाराज हो। कोई
प्रतिक्रिया
करने वाला
मौजूद हो, तो
ही हमारे
प्रेम की
पुकार का कोई
अर्थ है, कोई
जबाब दे! हमने
अब तक ऐसा ही
समझा है, इसलिए
प्रश्न उठता
है।
लेकिन
हमारी समझ
भ्रांत है, हमारी
समझ में भूल
है।
प्रार्थना
की उपादेयता
परमेश्वर है, इससे
जरा भी नहीं
है।
प्रार्थना
करने का सारा
का सारा
विज्ञान प्रार्थना
करने वाले से
संबंधित है।
भगवान हो या न
हो, व्यक्ति
की तरह कोई
आकाश में
बैठकर जीवन को
चलाता हो या न
चलाता हो, भक्ति
का उससे कुछ
लेना—देना
नहीं है।
भक्ति तो भक्त
की अंतर्दशा
है।
भक्त
को कठिन होगा
बिना भगवान के
भक्तिपूर्ण होना, इसलिए
सभी धर्मों ने
भगवान की
धारणा को
पोषित किया है।
यह सिर्फ भक्त
को सहारा देने
के लिए है।
लेकिन अगर समझ
हो, तो
भक्ति अपने आप
में पूरी है, भगवान की
कोई भी जरूरत
नहीं।
प्रार्थना
अपने आप में
पूरी है, कोई
उसे सुनता हो
कि न सुनता हो;
सुनने वाला
आवश्यक नहीं।
आराधना
पर्याप्त है,
आराध्य जरा
भी आवश्यक
नहीं है।
जब
मैं यह कहता
हूं तो क्या
मेरा अर्थ
होगा! क्योंकि
बात कठिन
लगेगी।
आराधना हमारे
लिए तभी समझ
में आती है, जब
आराध्य हो, पूजा तभी
समझ में आती
है, जब कोई
पूज्य हो।
लेकिन मैं
आपको कहना
चाहूंगा कि
पूजा चित्त की
एक दशा है।
बुद्ध किसी
भगवान को
मानते नहीं, फिर भी उनकी
आराधना में
रत्तीभर कमी
नहीं है। किसी
परमेश्वर की
उनके मन में
कोई धारणा
नहीं है, लेकिन
बुद्ध से
ज्यादा
प्रार्थनापूर्ण
हृदय आप खोज
पाइएगा? एच
.जी वेल्स ने
लिखा है कि
बुद्ध जैसा
ईश्वररहित और
ईश्वर जैसा व्यक्ति
खोजना कठिन है—सो
गॉडलेस एंड सो
गॉड लाइक।
इसे
हम थोड़ा—सा
अंतर्मुखी
हों,
तो खयाल में
आ सकेगा।
क्या
आप
प्रेमपूर्ण
हो सकते हैं
बिना प्रेमी के
हुए?
क्या
प्रेमपूर्ण
होना आपके
जीवन का ढंग
और शैली हो
सकती है? क्या
प्रेमपूर्ण
होना आपकी भाव—दशा
हो सकती है?
तो
फिर आप उठेंगे
भी तो प्रेम
से,
बैठेंगे भी
तो प्रेम से, भोजन करेंगे
तो भी प्रेम
से, सोने
जाएंगे तो भी
प्रेम से। कोई
प्रेमी नहीं होगा,
लेकिन आप
प्रेमपूर्ण
होंगे। फिर जो
भी आपके मार्ग
पर आ जाएगा, वही आपको
प्रेमी जैसा
मालूम पड़ेगा।
एक पक्षी भी
उड़ जाएगा आपके
अपान से और आप
प्रेमपूर्ण
होंगे, तो
पक्षी प्रेमी
हो जाएगा। कोई
भी न होगा, सूना
आकाश होगा
आपके आगन का
और आपका हृदय
प्रेमपूर्ण
होगा, तो
सूना आकाश भी
व्यक्तित्व
ले लेगा।
व्यक्ति
की जरूरत नहीं
है,
हृदय
प्रेमपूर्ण
हो, तो
प्रेमपूर्ण
हृदय जिस तरफ
भी प्रकाश
डालता है, वहीं
व्यक्तित्व
निर्मित हो
जाता है।
भगवान नहीं है,
भक्त है। और
भक्त का हृदय जहां
भी देखता है, वहीं भगवान
प्रकट हो जाता
है।
इसे
थोड़ा समझने की
जरूरत है।
यह
भक्त के हृदय
की सृजनकला है
कि वह जहां भी आंख
डालता है, वहा
भगवान पैदा हो
जाता है। वह
वृक्ष में
देखेगा, तो
वृक्ष में
भगवान प्रकट
हो जाएगा। यह
आपकी आंख पर
निर्भर है कि
आप क्या पैदा
कर लेते हैं।
भगवान भक्त का
सृजन है।
धर्म
तो नियम है।
धर्म कोई
व्यक्ति नहीं
है,
धर्म तो
शक्ति है।
इसलिए भगवान
शब्द ठीक नहीं
है, भगवत्ता!
डीइटी नहीं, डिविनिटी!
कोई व्यक्ति
की तरह बैठा
हुआ पुरुष नहीं
है ऊपर, जो
चला रहा हो।
लेकिन यह सारा
जगत चल रहा है।
चलने की घटना
घट रही है; कोई
चलाने वाला
नहीं है। यह
जो चलने का
विराट उपक्रम
चल रहा है, यह
जो चलने की
महान ऊर्जा है,
यह जो शक्ति
है, यह
शक्ति ही
भगवान हो जाती
है, अगर
हृदय में
भक्ति हो। यह
शक्ति ही
प्रकृति
मालूम पड़ती है,
अगर हृदय
में भक्ति न
हो।
प्रकृति
और परमात्मा
दो तरह के
हृदय की व्याख्याएं
हैं। जिसके
हृदय में कोई
भक्ति नहीं, उसे
चारों तरफ
प्रकृति
दिखाई पड़ती है,
पदार्थ
दिखाई पड़ता है।
जिसके हृदय
में भक्ति है,
उसे चारों
तरफ परमात्मा
दिखाई पड़ता है,
परमेश्वर
दिखाई पड़ता है।
परमेश्वर और
प्रकृति एक ही
विराट घटना की
व्याख्याएं
हैं। और आपके
हृदय पर
निर्भर है कि
व्याख्या आप
कैसी करेंगे।
आप वही देख
लेंगे, जो
आपके हृदय में
आविर्भूत हुआ
है।
प्रार्थना, पूजा,
आराधना
भगवान के कारण
नहीं हैं।
लेकिन
प्रार्थना, पूजा, आराधना
के कारण जगत
भगवान जैसा
दिखाई पड़ना शुरू
हो जाता है।
भगवान है और
इसलिए हम
प्रार्थना
करते हैं, ऐसा
नहीं। हम
प्रार्थना
करते हैं, इसलिए
भगवान हो जाता
है।
लोग
कहते हैं, भगवान
ने आपको बनाया,
और मैं आपको
कहता हूं कि
आपकी भक्ति
भगवान को सृजित
करती है। जहां
आपकी भक्ति
होगी, वहां
भगवान प्रकट
हो जाता है। जहां
से आपकी भक्ति
विदा हो जाएगी,
वहीं भगवान
विदा हो जाएगा।
भगवान आपकी आंखों
के देखने का
ढंग है।
धर्म
तो नियम है।
लेकिन उस नियम
में उतरना, आपको
अपने को बदलना
पड़े, तभी
हो सकता है।
प्रार्थना
आपको बदलने के
लिए है। आमतौर
से हम
प्रार्थना
करते हैं
परमात्मा को बदलने
के लिए। आप
बीमार हैं, तो
आप प्रार्थना
करते हैं कि
मुझे ठीक करो।
परमात्मा का
इरादा बदलने
की चेष्टा है
हमारी प्रार्थना।
अगर आप बीमार
हैं और सच में
ही भक्त हैं, तो आपको
स्वीकार करना
चाहिए कि
परमात्मा चाहता
है कि मैं
बीमार होऊं, इसलिए मैं
बीमार हूं।
परमात्मा
का दृष्टिकोण
बदलने की
चेष्टा हम करते
हैं कि मुझे
स्वस्थ कर; कि
मैं गरीब हूं?
मुझे अमीर
कर; कि मैं
दुखी हूं मुझे
सुखी कर, अपनी
दृष्टि बदल।
हम परमात्मा
का ध्यान
आकर्षित करते
हैं कि बदलो, जो चल रहा है,
वह ठीक नहीं;
मैं उससे
राजी नहीं हूं।
और
हम उसकी
खुशामद करते
हैं। क्योंकि
हमने जीवन में
सीखा है कि
मनुष्य को हम
खुशामद से
प्रभावित कर
सकते हैं, इसलिए
हम सोचते हैं,
जिस ढंग से आदमी
प्रभावित
होता है, उसी
ढंग से
परमात्मा भी
प्रभावित
होगा। तो हम
स्तुति करते
हैं; हम
उसका गुणगान
करते हैं। हम
कहते हैं, तुम
बहुत महान हो।
लेकिन हमारी इस
सारी चेष्टा में
छिपा क्या? मन की आकांक्षा
क्या?
यही
कि तुम जो कर
रहे हो, वह
ठीक नहीं। और
हमारी इस स्तुति
में एक तरह की
धमकी है कि
अगर तुम यह
बंद नहीं
करोगे, तो
यह स्तुति बंद
हो जाएगी, तो
यह प्रार्थना
समाप्त हो
जाएगी; फिर
तुम्हें कोई
पूजने वाला
नहीं है। अगर
पूजा जारी
रखवानी है, तो हमारी
मरजी के
अनुसार थोड़ा
कुछ करो।
हमारी
सारी
प्रार्थनाएं
मांगें हैं, हम
कुछ मांगते
हैं। और हमारी
मौलिक मांग यह
है कि हम ठीक
हैं और तुम
गलत हो।
एक
बहुत बड़े
विचारक
अल्डुअस
हक्सले ने
लिखा है कि
परमात्मा से
हम जब भी
प्रार्थना
करते हैं, हम
चाहते हैं कि
दो और दो चार न
हों।
हमारी
सारी
प्रार्थनाओं
का रूप यही है
कि दो और दो
चार न हों।
हमने पाप किए
हैं,
उसके कारण
हम दुख भोगते
हैं। वह दो और
दो चार हो रहे
हैं। हम चाहते
हैं, दुख
हमें न मिले।
पाप हमने किए
हैं, क्षमा
तुम कर दो।
जो
भी हम भोग रहे
हैं,
वह हमारे
कृत्यों का
जोड़ है। लेकिन
उसमें तुम
बदलाहट कर दो।
दो और दो तो
चार होते हैं,
लेकिन हम
चाहते हैं, या तो तुम
पांच करो या
तुम तीन करो, चार भर न हो
पाएं। हमारी
सारी
प्रार्थनाएं
गणित को
डगमगाने के लिए
हैं, नियम
को तोड्ने के
लिए हैं।
अन्यथा
प्रार्थना का
हमारा क्या
प्रयोजन है?
इस
प्रार्थना की
अगर आप धारणा
रखते हैं, तब
तो बिना परमात्मा
के प्रार्थना
व्यर्थ हो
जाएगी।
क्योंकि अगर
वहां कोई है
ही नहीं, सिंहासन
खाली है, तो
आप सिर पटकते
रहो, बेकार
है। आप तभी तक
सिर पटक सकते
हो, जब तक
भरोसा रहे कि
सिंहासन पर
कोई है, तो
शायद हमारे
सिर पटकने से
बदलेगा।
और
हम अपने मन को
समझा लेते हैं, अगर
कभी बदलाहट हो
जाती है।
हमारी
प्रार्थनाओं
के कारण कोई
बदलाहट नहीं होती,
न कोई
परमात्मा
बदलाहट करने
वाला है।
लेकिन जीवन के
अनंत संयोगों
में कभी—कभी
हमारी
प्रार्थना
संयोगों से
मेल खाती है बदलाहट
हो जाती है, तो हम उसे
धन्यवाद देते
हैं। अगर
बदलाहट नहीं
होती, तो
हम नाराजगी
जाहिर करते
हैं।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं
कि हम तो
छोड़ने की
स्थिति में आ
गए थे, कि
यह धर्म—वर्म
सब व्यर्थ है।
लेकिन
प्रार्थना
पूरी हो गई, तब से आस्था
बढ़ गई। मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं, हम
थक गए
प्रार्थना कर—करके,
कभी कोई फल
न आया; आस्था
उठ गई।
आस्था
किसी की भी
नहीं है।
प्रार्थना
पूरी हो जाए, तो
आस्था जमती है।
प्रार्थना न
पूरी हो, तो
आस्था उखड़
जाती है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन
रोज सुबह प्रार्थना
करता था काफी
जोर से।
परमात्मा
सुनता था कि
नहीं, पड़ोस के
लोग सुन लेते
थे कि सौ रुपए से
कम न लूंगा; निन्यानबे
भी देगा, नहीं
लूंगा। जब भी
दे, सौ
पूरे देना।
आखिर
पड़ोसी सुनते—सुनते
परेशान हो गए।
एक पड़ोसी ने
तय किया कि
इसको एक दफा
निन्यानबे
रुपए देकर
देखें भी तो
सही। वह कहता
है कि
निन्यानबे
कभी न लूंगा, सौ
ही लूंगा।
उसने एक दिन
सुबह जैसे ही
मुल्ला
प्रार्थना कर
रहा था, एक
निन्यानबे की
थैली उसके
झोपड़े के आगन
में फेंक दी।
मुल्ला
ने पहला काम
रुपए गिनने का
किया। वह आधी
प्रार्थना
आधी रह गई; वह
पूरी नहीं कर
पाया, नमाज
पूरी नहीं हो
सकी। उसने
जल्दी से पहले
गिनती की।
निन्यानबे
पाकर उसने कहा,
वाह रे
परमात्मा, एक
रुपया थैली का
तूने काट
लिया!
उसने
निन्यानबे
स्वीकार कर
लिए।
हमारी
बनाई हुई
प्रार्थना; हमारी
प्रार्थना; और हम हिसाब
लगा रहे हैं।
वहां कोई है
या नहीं, इससे
बहुत प्रयोजन
नहीं है।
इसलिए अगर
आपको पक्का हो
जाए कि
परमात्मा नहीं
है, तो
आपकी प्रार्थना
टूट' जाएगी,
यह मैं
जानता हूं।
इसलिए प्रश्न
सार्थक है।
लेकिन जो
प्रार्थना
परमात्मा के न
होने से टूट
जाती है, वह
प्रार्थना थी
ही नहीं।
प्रार्थना का
कोई भी संबंध
परमात्मा को
बदलने से नहीं
है, प्रार्थना
आपको बदलने की
कीमिया है। जब
आप प्रार्थना
करते हैं, तो
वहां आकाश में
बैठा हुआ
परमात्मा
नहीं रूपांतरित
होता। जब आप
प्रार्थना
करते हैं, तो
उस प्रार्थना
करने में आप
बदलते हैं।
तो
प्रार्थना एक
प्रयोग है, जिस
प्रयोग से आप
अपने अहंकार
को तोड़ते हैं,
अपने को
झुकाते हैं।
वहां कोई नहीं
बैठा है, जिसके
आगे आप अपने को
झुकाते हैं।
झुकने की घटना
का परिणाम है।
आप झुकते हैं।
आपको कठिन है
बिना
परमात्मा के,
इसलिए कोई
हर्जा नहीं।
आप मानते रहें
कि परमात्मा
है, लेकिन
असली जो घटना
घटती है, वह
आपके झुकने से
घटती है।
आप
झुकना सीखते
हैं,
किसी के
सामने
समर्पित होना
सीखते हैं।
कहीं आपका
माथा झुकता है,
जो सदा अकड़ा
हुआ है, वह
कहीं जाकर
झुकता है।
कहीं आप घुटने
के बल छोटे
बच्चे की तरह
हो जाते हैं; कहीं आप
रोने लगते हैं,
आंखों से आंसू
बहने लगते हैं,
हलके हो
जाते हैं। और
मैं कर सकता
हूं यह धारणा
प्रार्थना से
टूटती है। तू
करेगा! तू
करेगा सवाल
नहीं है; मैं
कर सकता हूं, यह धारणा
टूटती है। मैं
नहीं कर
सकूंगा, तभी
हम प्रार्थना
करते हैं।
मुझसे नहीं हो
सकेगा।
अगर
इसके गहरे
अर्थ को समझें, तो
इसका अर्थ है,
जहां भी
आपको समझ में
आ जाता है कि
कर्ता मैं नहीं
हूं वहीं
प्रार्थना
शुरू हो जाती
है। यह कर्तृत्व
को खोने की
तरकीब है। वह
जो कर्तृत्व
है कि मैं
करता हूं,
वह जो अहंकार
है, वह जो
मेरी अस्मिता
है कि करने
वाला मैं हूं
उसके टूटने का
नाम
प्रार्थना है।
जब
आप घुटने टेक
देते हैं, सिर
झुका देते हैं
और कहते हैं, मुझसे कुछ
भी न होगा, अब
तू ही कर, मेरे
बस के बाहर है।
तू ही उठा; अब
मुझसे नहीं
चलना हो सकेगा,
तू ही चला।
यह उससे इसका
कोई संबंध
नहीं है, वहा
कोई है भी
नहीं, जो
इसको सुन रहा
है। लेकिन यह
कहने वाला
हृदय अपने
अहंकार को
विसर्जित कर रहा
है। और जो
आनंद इस प्रार्थना
से घटित होगा,
वह किसी का
दिया हुआ नहीं
है; वह
आपके ही
अहंकार छोड़ने
से आपको मिलता
है।
धर्म
तो एक नियम है।
जो झुकता है, उसकी
समृद्धि बढती
चली जाती है, जो अकड़ता है,
उसकी
समृद्धि
टूटती चली
जाती है। जो
जितना अकड़
जाता है, उतना
मुर्दा हो
जाता है। जो
जितना झुक
जाता है, जितना
लोचपूर्ण हो
जाता है, फ्लेक्सिबल
हो जाता है, उतना ही
जीवंत हो जाता
है।
बच्चे
में और के में
वही फर्क है।
के की हड्डी—हड्डी
अकड़ गई है। अब
वह झुक नहीं
सकता। बच्चा
लोचपूर्ण है।
प्रार्थना
आपको लोच देती
है,
फ्लेक्सिबिलिटी
देती है, आपको
झुकना सिखाती
है। जो
प्रार्थना
नहीं करता, वह अकड़ जाता
है, असमय
में का हो
जाता है, असमय
में मृत हो
जाता है, जीते
जी मुर्दा हो
जाता है। और
जो प्रार्थना
करना जानता है,
उसे मृत्यु
भी नहीं मिटा
पाती। मृत्यु
के क्षण में
भी वह
लोचपूर्ण
होता है, मृत्यु
के क्षण में
भी वह बच्चे
जैसा जीवंत
होता है।
जो
व्यक्ति
प्रार्थना की
कला सीख लेता
है,
उसे
परमात्मा से
कोई संबंध
नहीं।
परमात्मा
सिर्फ बहाना
है, ताकि
प्रार्थना हो
सके।
परमात्मा
सिर्फ खूंटी
है, जिस पर
हम प्रार्थना
के कोट को टांग
सकें। असली
बात
प्रार्थना है।
इसलिए
बुद्ध और
महावीर जैसे
महाज्ञानियों
ने परमात्मा
को बिलकुल इनकार
ही कर दिया।
लेकिन
प्रार्थना को
इनकार नहीं कर
सके,
प्रार्थना
जारी रही।
पूजा को इनकार
नहीं कर सके, पूजा जारी
रही। समर्पण
को इनकार नहीं
कर सके, समर्पण
जारी रहा।
इसलिए जैन
धर्म बहुत
ज्यादा जनता
तक नहीं पहुंच
सका, क्योंकि
यह बात ही समझ
में नहीं आती।
अगर भगवान ही
नहीं है, तो
फिर कैसी
आराधना? जब
परमात्मा
नहीं है, तो
पूजा किसकी?
तो
जैन विचार
बहुत थोड़े
लोगों की पकड़
में आया, ज्यादा
लोग उसके साथ
नहीं चल सके।
और जो थोड़े—से
लोग भी प्रथम
दिन चले थे, वे ही
समझदार थे।
पीछे तो उनकी
संतान सिर्फ
अंधेपन के
कारण चलती है।
क्योंकि उनके
मां—बाप जैन
थे, वे भी
जैन हैं।
लेकिन उनकी भी
समझ में नहीं
आता।
और
इसलिए
उन्होंने फिर
नए उपाय कर
लिए। बिना
परमात्मा के
तो पूजा हो
नहीं सकती, तो
फिर महावीर को
ही परमात्मा
की जगह बिठा
दिया; फिर
पूजा जारी हो
गई! अब कोई
फर्क नहीं है
जैन और हिंदू
में। हिंदू
प्रार्थना कर
रहा है, राम
से, कृष्ण
से। जैन
प्रार्थना कर
रहा है, महावीर
से, ऋषभ से,
नेमीनाथ से।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता।
लेकिन
परमात्मा के
बिना
प्रार्थना
करना बड़ा कठिन
है;
जो कर पाए, उसके जीवन
में बड़े फूलों
की वर्षा हो
जाती है।
लेकिन आप न कर
पाते हों, तो
परमात्मा से
शुरू करें; कोई हर्जा
नहीं है।
परमात्मा
सिर्फ खिलौना
है, असली
चीज
प्रार्थना घट
जाए। जिस दिन
प्रार्थना घट
जाएगी, उस
दिन तो आप खुद
समझ जाएंगे कि
परमात्मा के होने
न होने का
सवाल नहीं है।
धर्म
नियम है, इसलिए
मैंने कहा। और
जो भी घटता है
जीवन में, वह
एक आत्यंतिक
नियम के कारण
घटता है। आपकी
प्रार्थनाओं
के कारण कुछ
भी नहीं घटता।
आपकी पूजा के
कारण कुछ भी
नहीं घटता। ही,
अगर पूजा
आपकी, प्रार्थना
आपकी आपको बदल
देती हो, तो
आप नियम के
अनुकूल बहने
लगते हैं। उस
नियम के
अनुकूल बहने
से घटना घटती
है।
हम
जीवन में करीब—करीब
उन्हीं—उन्हीं
भूलों को बार—बार
दोहराते हैं।
पिछले जन्म
में भी आपने
वही भूलें कीं, उसके
पिछले जन्म
में भी वही
भूलें कीं, आज भी वही कर
रहे हैं। और
डर यह है कि
शायद कल और
आने वाले जन्म
में भी वही
भूलें करेंगे।
हर पीढ़ी
उन्हीं को
दोहराती है; हर आदमी
उन्हीं को
दोहराता है।
बड़ी
से बड़ी भूल जो
है,
वह यह है कि
हम अंतरस्थ
भावों को भी
बिना आब्जेक्टिफाइ
किए, बिना
उनको वस्तु
में रूपांतरित
किए स्वीकार
नहीं कर पाते।
भाव तो भीतरी
है, लेकिन
उस भाव को भी
सम्हालने के
लिए हमें बाहर
के सहारे की
जरूरत पड़ती है।
यह बुनियादी
भूलों में से
एक है।
अगर
आप प्रसन्न
हैं और कोई
आपसे पूछे कि
आप क्यों
प्रसन्न हैं, तो
आप यह नहीं कह
सकते कि मैं
बस, प्रसन्न
हूं। क्यों का
क्या सवाल है?
आप कारण
बताएंगे कि
मैं इसलिए
प्रसन्न हूं
कि आज मित्र
घर आया। इसलिए
प्रसन्न हूं
कि धन मिला।
इसलिए
प्रसन्न हूं
कि लाटरी जीत
गया। आप कोई
कारण बताएंगे।
आप इतनी
हिम्मत नहीं
कर सकते कि कह
सकें कि मैं
प्रसन्न हूं
क्योंकि
प्रसन्न होने
में प्रसन्नता
है।
और
मूढ़ हैं, जो
कारण खोजते
हैं। क्योंकि
कारण खोजने
वाला बहुत
ज्यादा प्रसन्न
नहीं हो सकता।
कितने कारण
खोजिएगा? रोज
कारण नहीं मिल
सकते। और आज
कारण मिल
जाएगा, घड़ीभर
बाद कारण चुक
जाएगा। लाटरी
मिल गई, एक
धक्का लगा, खुशी आ गई।
फिर? मित्र
आज घर आ गया, कल कोई और
घटना घट गई, अगर जिंदगी
में कारण से
प्रसन्नता
आती हो, तो
बहुत थोड़ी प्रसन्नता
आएगी।
इसीलिए
लोगों के जीवन
में सुख बहुत
कम है, दुख
बहुत ज्यादा
है। क्योंकि
कारण से जब
सुख मिलेगा, तब सुख; अन्यथा
दुख ही दुख है।
दुख अकारण
हमने स्वीकार
किया है, सुख
के लिए हम
कारण खोजते
हैं।
और
अगर आप
प्रसन्न हैं
बिना कारण के, तो
लोग समझेंगे,
आप पागल हैं।
बिना कारण के
प्रसन्न हैं!
कोई कारण तो
चाहिए। अगर आप
प्रसन्न हो
रहे हैं, मुस्कुरा
रहे हैं, नाच
रहे हैं, बिना
किसी कारण के,
न लाटरी
मिली, न
पत्नी मायके
गई, कोई
खुशी का कारण
नहीं है, और
आप प्रसन्न हो
रहे हैं, तो
लोग समझेंगे
कि आप पागल
हैं।
ये
जो,
जिनको हमने
संत कहा है, उनके जीवन
का रहस्य यही
है कि
उन्होंने
बिना कारण
प्रसन्न होने
का रास्ता खोज
लिया। संत और
संसारी में
यही भेद है।
संसारी कारण
खोजता है पहले।
पहले सब
प्रमाण मिल
जाएं, तब
वह प्रसन्न
होगा। संत
प्रसन्न होता
है, प्रमाण
का कोई आधार
नहीं खोजता।
क्या फर्क हुआ?
संत
अंतरस्थ भाव
में जीता है।
बाहर
आब्जेक्टिफिकेशन
नहीं खोजता, बाहर
वस्तु रूप में
प्रमाण नहीं
चाहता। तो संत
कहता है, प्रार्थना
काफी है, परमात्मा
हो या न हो। हो
तो ठीक, न
हो तो भी उतना
ही ठीक। इससे
संत की
प्रार्थना
में कोई फर्क
नहीं पड़ता।
संत प्रेम
करता है, प्रेमी
की तलाश नहीं
करता। प्रेम
में ही इतना
आनंद है कि अब
प्रेमी का उपद्रव
लेने की कोई
जरूरत नहीं है।
संत ध्यान
करता है, लेकिन
ध्यान के लिए
कोई विषय नहीं
खोजता। विषय
से मुक्ति हो,
वस्तु से
मुक्ति हो, पदार्थ से
मुक्ति हो और
अंतर्भाव में
रमण हो, तो
जीवन की परम
समाधि अपने आप
सध जाती है।
लेकिन
हमें सब जगह
बाहर कुछ
चाहिए। अगर
बाहर हमें कुछ
न मिले, तो हम
बिलकुल खाली
हो जाते हैं।
क्योंकि भीतर
हमने कभी
फिक्र नहीं की।
और हमने भीतर
की जड़ें नहीं
खोजी, जिनसे
सारे जीवन के
फूल खिल सकते
हैं, बाहर
की कोई भी जरूरत
नहीं है। जब
तक ऐसा समझ
में न आए, तब
तक बाहर का
सहारा लेकर
चलें। लेकिन
ध्यान रखें कि
वह सहारा
सिर्फ सहारा
है, वहां
कोई है नहीं।
इसका क्या
अर्थ हुआ? इसका
क्या यह अर्थ
हुआ कि मैं कह
रहा हूं परमात्मा
नहीं है?
नहीं, मैं
सिर्फ इतना ही
कह रहा हूं
जिस परमात्मा
को आप सोचते हैं,
वह नहीं है।
जो परमात्मा
आप निर्मित
किए हैं, वह
नहीं है।
परमात्मा का
तो एक ही अर्थ
है, यह
समग्र
अस्तित्व, यह
टोटेलिटी, यह
जो पूर्णता है।
ये जो वृक्ष
हैं, पौधे
हैं, पत्थर
हैं, जमीन
है, चांद—तारे
हैं, मनुष्य
हैं, पशु—पक्षी
हैं, यह जो
सारा फैलाव है,
यह जो
ब्रह्म है, यह जो
विस्तार है, यह सब कुछ
परमात्मा है।
और जिस दिन
आपको अपने में
झुकने की कला
आ जाएगी, आपका
मस्तक झुक
सकेगा, लोचपूर्ण
होगा, हृदय
आनंदित, प्रफुल्लित
होगा, प्रार्थना
के स्वर वहा
गूंजते होंगे,
पैरों में
धुन होगी
आराधना की, भक्त का भाव
होगा, तब
आप पाएंगे कि
यह सब
परमात्मा है।
उस दिन आप
देखेंगे, जीवन
नियम से चल
रहा है। और
धर्म भी विज्ञान
है। वस्तुत:
धर्म परम
विज्ञान है, सुप्रीम
साइंस है।
इस
प्रश्न का
दूसरा हिस्सा
भी समझने जैसा
है तब तो धर्म
विज्ञान का
पर्याय हो
जाता है और उस
परम नियम की
खोज में
निकलना मात्र
धर्म रह जाता
है।
निश्चित
ही,
उस परम नियम
की खोज में
निकलना ही
धर्म है।
लेकिन वह परम
नियम अगर बाहर
आप खोजते हैं,
तो आप
वैज्ञानिक हो
जाते हैं। और
अगर उस परम
नियम को आप
भीतर खोजते
हैं, तो
धार्मिक हो
जाते हैं।
वैज्ञानिक
भी धर्म ही
खोज रहा है, लेकिन
पदार्थ में
खोज रहा है, बाहर खोज
रहा है। और
अगर आप भी
धर्म को मंदिर
में खोजते हैं,
मस्जिद में
खोजते हैं, तो आप भी
बाहर खोज रहे
हैं। आप में
और वैज्ञानिक
में बहुत फर्क
नहीं है।
धार्मिक
उसी नियम को
भीतर खोजता है।
क्योंकि
धार्मिक
व्यक्ति की यह
प्रतीति है, जिसे
मैं भीतर न पा
सकूंगा, उसे
मैं बाहर कैसे
पा सकूंगा।
क्योंकि भीतर
मेरा निकटतम
है, जब
भीतर ही मेरे
हाथ नहीं
पहुंच पाते, तो बाहर
मेरे हाथ कहां
पहुंच पाएंगे?
हाथ बड़े
छोटे हैं।
अपने
ही भीतर नहीं
छू पाता उसे, तो
फिर मैं आकाश
में उसे कैसे
छू पाऊंगा? और जो मेरे
हृदय के भी
पास है, और
जो मेरे प्राणों
से भी निकट है,
जो मेरी
धड़कन— धड़कन
में समाया है,
वहां नहीं
सुन पाता उसे,
तो बादलों
की गड़गड़ाहट
में कैसे सुन
पाऊंगा? बहुत
दूर हैं बादल।
और जो ज्योति
मेरे भीतर जल
रही है, वहां
उससे मेरा
मिलन नहीं
होता, तो
सूरज, चांद,
तारों की
ज्योति में
मैं उसे नहीं
पहचान पाऊंगा।
जब
सत्य इतना
निकट हो और हम
उसे वहां चूक
जाते हों, तो
हमारी दूर की
सब यात्रा
व्यर्थ है।
भीतर मुझे वह
दिखाई पड़ जाए, तो सब जगह
मैं उसे पहचान
लूंगा। निकट
पहचान हो जाए
तो दूर भी वह
मुझे दिखाई
पडने लगेगा।
क्योंकि जिसे
हम दूरी कहते
हैं, वह भी
निकटता का ही
फैलाव है। पर
पहली घटना, पहली क्रांति
भीतर घटेगी।
वैज्ञानिक
दृष्टि का
मतलब है, सदा
बाहर।
धार्मिक
दृष्टि का
अर्थ है, सदा
भीतर।
वैज्ञानिक
दूर से शुरू
करता है और
निकट आने की
कोशिश करता है।
यह कभी भी
नहीं हो पाएगा, क्योंकि
वह दूरी अनंत
है; जीवन
बहुत छोटा है।
अनेक— अनेक
जन्म खोते
जाएंगे, तो
भी वह दूरी
बनी रहेगी।
धार्मिक
उसे भीतर से
शुरू करता है
और फिर बाहर
की तरफ जाता
है। और भीतर
जिसने उसे छू
लिया, वह तरंग
पर सवार हो
गया, उसने
लहर पकड़ ली; उसके हाथ
में नाव आ गई।
अब कोई जल्दी
भी नहीं है।
वह दूसरा
किनारा न भी
मिले, तो
भी कुछ खोता
नहीं है। वह
दूसरा किनारा
कभी भी मिल
जाएगा, अनंत
में कभी भी
मिल जाएगा, तो भी कोई
प्रयोजन नहीं
है। कोई डर भी
नहीं है उसके
खोने का। मिले
तो ठीक, न
मिले तो ठीक।
लेकिन आप ठीक
नाव पर सवार
हो गए।
जिसने
अंतस में
पहचान लिया, उसकी
यात्रा कभी भी
मंजिल पर
पहुंचे या न
पहुंचे, मंजिल
पर पहुंच गई।
वह बीच नदी
में डूबकर मर
जाए, तो भी
कोई चिंता की
बात नहीं है।
अब उसके मिटने
का कोई उपाय
नहीं है। अब
नदी का मध्य
भी उसके लिए
किनारा है।
धार्मिक
व्यक्ति भीतर
से बाहर की
तरफ फैलता है।
और जीवन का
सभी विस्तार
भीतर से बाहर
की तरफ है। आप
एक पत्थर
फेंकते हैं
पानी में; छोटी—सी
लहर उठती है
पत्थर के
किनारे, फिर
फैलना शुरू
होती है। भीतर
से उठी लहर
पत्थर के पास,
फिर दूर की
तरफ जाती है।
आपने कभी इससे
उलटा देखा कि
लहर किनारों
की तरफ पैदा
होती हो और
फिर सिकुड़कर
भीतर की तरफ आती
हो!
एक
बीज को आप बो
देते हैं। फिर
वह फैलना शुरू
हो जाता है, फिर
वह फैलता जाता
है, फिर एक
विराट वृक्ष
पैदा होता है।
और उस विराट
वृक्ष में एक
बीज की जगह
करोड़ों बीज
लगते हैं। फिर
वे बीज भी
गिरते हैं।
फिर फूटते हैं,
फिर फैलते
हैं।
हमेशा
जीवन की गति
बाहर से भीतर
की तरफ नहीं है।
जीवन की गति
भीतर से बाहर
की तरफ है। यहां
बूंद सागर
बनती देखी
जाती है, यहां
बीज वृक्ष
बनते देखा
जाता है। धर्म
इस सूत्र को पहचानता
है। और आपके भीतर
जहां लहर उठ
रही है हृदय
की, वहीं
से पहचानने की
जरूरत है। और
वहीं से जो
पहचानेगा, वही
पहचान पाएगा।
लेकिन
जैसा मैंने
कहा कि हम
नियमित रूप से
बंधी—बधाई
भूलें
दोहराते हैं।
आदमी बड़ा
अमौलिक है। हम
भूल तक
ओरिजिनल नहीं
करते, वह भी हम
पुरानी पिटी—पिटाई
करते हैं।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी उस पर
नाराज थी। बात
ज्यादा बढ़ गई
और पत्नी ने
चाबियों का
गुच्छा फेंका
और कहा कि मैं
जाती हूं। अब
बहुत हो गया
और सहने के
बाहर है। मैं
अपनी मां के
घर जाती हूं
और कभी लौटकर
न आऊंगी।
नसरुद्दीन
ने गौर से
पत्नी को देखा
और कहा कि अब
जा ही रही हो, तो
एक खुशखबरी
सुनती जाओ। कल
ही तुम्हारी
मां तुम्हारे
पिता से लड़कर
अपनी मां के
घर चली गई है।
और जहां तक
मैं समझता हूं
वहां वह अपनी
मां को शायद
ही पाए।
एक
वर्तुल है
भूलों का। वह
एक—सा चलता
जाता है। एक
बंधी हुई लकीर
है,
जिसमें हम घूमते
चले जाते हैं।
हर पीढ़ी वही
भूल करती है, हर आदमी वही
भूल करता है, हर जन्म में
वही भूल करता
है। भूलें बड़ी
सीमित हैं।
धर्म
की खोज की
दृष्टि से यह
बुनियादी भूल
है कि हम बाहर
से भीतर की
तरफ चलना शुरू
करते हैं।
क्योंकि यह
जीवन के
विपरीत
प्रवाह है, इसमें
सफलता कभी भी
मिल नहीं सकती।
सफलता उसी को
मिल सकती है, जो जीवन के
ठीक प्रवाह को
समझता है और
भीतर से बाहर
की तरफ जाता
है।
दूसरा
प्रश्न :
आप
कहते हैं कि
सभी द्वैत से
ऊपर उठकर परम
मुक्ति को
उपलब्ध होने
के लिए समस्त
जीवेषणा की निर्जरा
अनिवार्य है।
आज के समय के अनुकूल
मृत्यु—साधना
की कोई सम्यक
विधि बताएं?
जीवेषणा, लस्ट
फार लाइफ का
अर्थ ठीक से
समझ लें। हम
जीना चाहते
हैं। लेकिन यह
जीने की आकांक्षा
बिलकुल अंधी
है। कोई आपसे
पूछे, क्यों
जीना चाहते
हैं, तो
उत्तर नहीं है।
और इस अंधी
दौड़ में हम
पौधे, पक्षियों,
पशुओं से भिन्न
नहीं हैं।
पौधे भी जीना
चाहते हैं, पौधे भी
जीवन
की
तलाश करते हैं।
मेरे
गांव में मेरे
मकान से कोई
चार सौ कदम की
दूरी पर एक वृक्ष
है। चार सौ
कदम काफी
फासला है। और
मकान में जो
नल का पाइप
आता है, वह
अचानक एक दिन
फूट पड़ा, तो
जमीन खोदकर
पाइप की
खोजबीन करनी
पड़ी कि क्या
हुआ! चार सौ
कदम दूर जो
वृक्ष है, उसकी
जड़ें उस पाइप
की तलाश करती
हुई पाइप के
अंदर घुस गई
थीं, पानी
की खोज में।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
वृक्ष बड़े
हिसाब से अपनी
जडें
पहुंचाते हैं—कहां
पानी होगा? चार
सौ कदम काफी
फासला है और
वह भी लोहे के
पाइप के अंदर
पानी बह रहा
है। लेकिन
वृक्ष को कुछ
पकड़ है। उसने
उतने दूर से
अपनी जड़ें
पहुंचाईं। और
ठीक उन जड़ों
ने आकर अपना
काम पूरा कर
लिया, कसते—कसते
उन्होंने
पाइप को तोड़
दिया लोहे के।
वे अंदर
प्रवेश कर गईं
और वहां से
पानी पी रही थीं;
वर्षों से
वे उपयोग कर
रही होंगी।
वृक्ष
को भी पता
नहीं कि वह
क्यों जीना
चाहता है।
अफ्रीका के
जंगल में
वृक्ष काफी
ऊंचे जाते हैं।
उन्हीं
वृक्षों को आप
यहां लगाएं, उतने
ऊंचे नहीं
जाते। ऊंचे
जाने की यहां
कोई जरूरत
नहीं है।
अफ्रीका में
जंगल इतने घने
हैं कि
वैज्ञानिक कहते
हैं, जिस
वृक्ष को बचना
हो, उसको
ऊंचाई बढ़ानी
पड़ती है।
क्योंकि वह
ऊंचा हो जाए, तो ही सूरज
की रोशनी
मिलेगी। अगर
वह नीचा रह
गया, तो मर
जाएगा।
वही
वृक्ष
अफ्रीका में
ऊंचाई लेगा
तीन सौ फीट की।
वही वृक्ष
भारत में सौ
फीट पर रुक
जाएगा।
जीवेषणा में
यहां संघर्ष
उतना नहीं है।
वैज्ञानिक
कहते हैं, जेब्रा
है, ऊंट है,
उनकी जो
गर्दनें इतनी
लंबी हो गई
हैं, वह
रेगिस्तानों
के कारण हो गई
हैं। जितनी
ऊंची गर्दन
होगी, उतना
ही जानवर जी
सकता है, क्योंकि
इतने ऊपर
वृक्ष की पत्तियों
को वह तोड़
सकता।
सुरक्षा है
जीवन में, तो
गर्दन बड़ी
होती चली गई
है।
चारों
तरफ जीवन का
बचाव चल रहा
है। छोटी—सी
चींटी भी अपने
को बचाने में, खुद
को बचाने में
लगी है। बड़े
से बड़ा हाथी
भी अपने को
बचाने में लगा
है। हम भी उसी
दौड़ में हैं।
और
सवाल यह है—और
यहीं मनुष्य
और पशुओं का
फर्क शुरू
होता है कि
हमारे मन में
सवाल उठता है—कि
हम जीना क्यों
चाहते हैं? आखिर
जीवन से मिल
क्या रहा है
जिसके लिए आप
जीना चाहते
हैं?
जैसे
ही पूछेंगे कि
मिल क्या रहा
है,
तो हाथ खाली
मालूम पड़ते
हैं। मिल कुछ
भी नहीं रहा
है। इसलिए कोई
भी विचारशील
व्यक्ति उदास
हो जाता है, मिल कुछ भी
नहीं रहा है।
रोज
सुबह उठ आते
हैं,
रोज काम कर
लेते हैं; खा
लेते हैं; पी
लेते हैं; सो
जाते हैं। फिर
सुबह हो जाती
है। ऐसे पचास
वर्ष बीते, और पचास
वर्ष बीत
जाएंगे। अगर
सौ वर्ष का भी
जीवन हो, तो
बस यही कम
दौड़ता रहेगा।
और अभी तक कुछ
नहीं मिला, कल क्या मिल
जाएगा?
और
मिलने जैसा
कुछ लगता भी
नहीं है।
मिलेगा भी
क्या, इसकी
कोई आशा भी
बांधनी
मुश्किल है।
धन मिल जाए, तो क्या
मिलेगा? पद
मिल जाए, तो
क्या मिलेगा?
जीवन रिक्त
ही रहेगा।
जीवेषणा अंधी
है, पहली
बात तो यह समझ
लेनी जरूरी है।
और इसलिए
जीवेषणा से
उठने का जो
पहला प्रयोग है,
वह आंखों के
खोलने का
प्रयोग है कि
मैं अपने जीवन
को देखूं कि
मिल क्या रहा
है! और अगर कुछ
भी नहीं मिल
रहा है, यह
प्रतीति साफ
हो जाए, तो
जीवेषणा
क्षीण होने
लगेगी।
मैं
जीना इसलिए
चाहता हूं कि
कुछ मिलने की
आशा है। अगर
यह स्पष्ट हो
जाए कि कुछ
मिलने वाला
नहीं है, कुछ
मिल नहीं रहा
है, तो
जीने की आकांक्षा
से छुटकारा हो
जाएगा, उसकी
निर्जरा हो
जाएगी।
'पहली बात, आंख खोलकर
देखना जरूरी
है, सजग
होना जरूरी है
कि जीवन क्या
दे रहा है!
फिर
दूसरी बात, देखना
जरूरी है कि
मिल तो कुछ भी
नहीं रहा और जीवन
रोज मौत में
उतरता जा रहा
है। और आज
नहीं कल मैं
मरूंगा।
हालांकि
कोई इसको
सुनने के लिए
राजी नहीं होता।
हम सब यही
सोचते हैं कि
सदा दूसरे ही
मरते हैं, मैं
तो कभी मरता
ही नहीं। !, जब
भी कोई मरता
है, और कोई
मरता है, मैं
तो कभी मरता
नहीं। इसलिए
भांति बनी
रहती है कि
मैं नहीं
मरूंगा।
चीन
का एक बहुत
बड़ा कथाकार
हुआ,
स्लम। उसने
एक छोटी—सी
कहानी लिखी है।
उसमें लिखा है
कि एक युवक एक
ज्योतिषी के
पास ज्योतिष
सीखता था।
उसने अपने
गुरु से एक
दिन पूछा कि
अगर मैं लोगों
को सत्य—सत्य
कह देता हूं
उनकी हाथ की
रेखाएं पढ़कर,
तो पिटाई की
नौबत आ जाती
है। झूठ मैं
कहना नहीं चाहता।
झूठ कहता हूं
तो लोग बड़े
प्रसन्न होते
हैं।
एक
घर में बच्चे
का जन्म हुआ।
लोगों ने मुझे
बुलाया। तो
मैंने देखकर
उनको बताया, झूठ
बोला, कि
महायशस्वी
होगा। सभी मां—बाप
को भरोसा होता
है; सभी
बच्चे
प्रतिभाशाली
की तरह पैदा
होते हैं। सभी
मां—बाप को
भरोसा होता है
कि इसका तो
कोई मुकाबला नहीं।
महायशस्वी
होगा, बड़ा
प्रतिभाशाली
है। धन्यभाग
हैं तुम्हारे।
वे लोग बड़े
खुश हुए, उन्होंने
काफी भेंट दी,
शाल ओढ़ाई, भोजन कराया,
सेवा की।
मगर
मैं झूठ बोला
था,
तो उससे
मेरे मन में
चोट पड़ती रही।
दूसरे घर में
बच्चा पैदा
हुआ, तो
मैंने सत्य ही
कह दिया कि
बाकी तो और
कुछ पक्का
नहीं है, लेकिन
यह एक दिन
मरेगा, इतना
भर पक्का है।
तो मेरी वहां
पिटाई हुई।
लोगों ने मुझे
मारा और कहा
कि तुम
ज्योतिष तो दूर,
तुम्हें
शिष्टाचार का
भी पता नहीं!
तो
उसने अपने गुरु
से पूछा कि आप
मुझे कुछ
रास्ता बताएं।
झूठ भी मुझे न
बोलना पड़े और
पिटाई की नौबत
भी न आए।
क्योंकि अब यह
धंधा मैंने
स्वीकार कर
लिया है
ज्योतिष का।
तो
उसके गुरु ने
कहा,
अगर ऐसा
अवसर आ जाए तो
मैं तुम्हें
अपना सार बता
देता हूं
जीवनभर का, जो मैं करता
हूं। अगर झूठ
भी न बोलना हो
और पिटना भी न
हो, तो तुम
कहना, वाह—वाह,
क्या बच्चा
है! ही—ही—ही।
तुम कुछ
वक्तव्य मत
देना, तो
तुम झूठ बोलने
से भी बचोगे
और पिटाई भी
नहीं होगी।
सभी
होशियार
ज्योतिषी
आपको देखकर
यही करते हैं।
जीवेषणा
की तरफ अगर
थोड़ी—सी भी
ध्यान की
प्रक्रिया लौटे, थोड़ा—सा
आपका होश बढ़े,
तो दूसरा
सवाल साफ ही
हो जाएगा कि
यह जीवन कहीं
नहीं ले जा
रहा है सिवाय
मौत के। यह
कहीं नहीं जा
रहा है सिवाय
मौत के। जैसे
सभी नदियां
सागर में जा
रही हैं, सभी
जीवन मौत में
जा रहे हैं।
तब
दूसरा बोध
स्पष्ट होना
चाहिए कि जो
जीवन मौत में
ले जाता है, जो
अनिवार्यरूपेण
मौत में ले
जाता है, अपरिहार्य
जिसमें
मृत्यु है, मृत्यु से
बचने का
जिसमें कोई
उपाय नहीं, वह आकांक्षा
के योग्य नहीं
है, वह
एषणा के योग्य
नहीं है, वह
कामना के
योग्य नहीं है।
ये
दो बातें अगर
गहन होने लगें
आपके भीतर, इनकी
सघनता बढ़ने
लगे, तो
जीवेषणा की
निर्जरा हो
जाती है। और
जिस दिन
व्यक्ति जीने
की आकांक्षा
से मुक्त होता
है, उसी
दिन जीवन का
द्वार खुलता
है। क्योंकि
जब तक हम जीवन
की इच्छा से
भरे रहते हैं,
तब तक हम इस
बुरी तरह उलझे
रहते हैं जीवन
में कि जीवन
का द्वार
हमारे लिए बंद
ही रह जाता है,
खुल नहीं
पाता।
हम
इतने व्यस्त
होते हैं
जीवित होने
में,
जीवित बने
रहने में, कि
जीवन क्या है,
उससे
परिचित होने
का हमें न समय
होता है, न
सुविधा होती
है। उस मंदिर
के द्वार अटके
ही रह जाते
हैं, बंद
ही रह जाते
हैं।
जिन्होंने
जीवेषणा छोड़
दी,
उन्होंने
जीवन का राज
जाना। वे ही
परम बुद्धत्व
को प्राप्त
हुए। और
जिन्होंने
जीवेषणा छोड़
दी, उन्होंने
अमृत को पकड़
लिया, अमृत
को पा लिया।
जिन्होंने
जीवेषणा पकड़ी,
वे मौत पर
पहुंचे।
इतना
तो तय है कि जो
जीवेषणा से
चलता है, वह
मृत्यु पर
पहुंचता है।
इससे उलटा भी
सच है—लेकिन
वह कभी आपका
अनुभव बने तभी—कि
जो जीवेषणा
छोड़ता है, वह
अमृत पर
पहुंचता है।
इसको हम
निरपवाद नियम
कह सकते हैं।
अब तक इस जगत
में जितने
लोगों ने
जीवेषणा की तरफ
से दौड़ की, वे
मृत्यु पर
पहुंचते हैं।
कुछ थोड़े—से
लोग जीवेषणा
को छोड्कर चले,
वे अमृत पर
पहुंचे हैं।
उपनिषद, गीता,
कुरान, बाइबिल,
धम्मपद, वे
उन्हीं
व्यक्तियों की
घोषणाएं हैं
जिन्होंने
जीवेषणा
छोड्कर अमृत
को उपलब्ध
किया है।
मृत्यु
के पार जाना
हो,
तो जीवन की
इच्छा को छोड़
देना जरूरी है।
यह बड़ा उलटा
लगेगा। जीवन
बड़ा जटिल है।
जीवन निश्चित
ही काफी जटिल
है और विरोधाभासी
है, पैराडाक्सिकल
है।
इसका
मतलब यह हुआ
कि जो जीवन को
पकड़ता है, वह
मृत्यु को
पाता है। इसका
यह अर्थ हुआ
कि जो जीवन को
छोड़ता है, वह
महाजीवन को
पाता है। यह
बिलकुल
विरोधाभासी
लगता है, लेकिन
ऐसा है। यह
विरोधाभास ही
जीवन का गहनतम
स्वरूप है।
आप
करके देखें।
धन को पकड़े और
आप दरिद्र रह
जाएंगे।
कितना ही धन
हो,
दखि रह
जाएंगे। धन को
छोड्कर देखें।
और आप भिखमंगे
भी हो जाएं, तो भी
सम्राट आपके
सामने फीके
होंगे। आप
शरीर को जोर
से पकड़े। और
शरीर से सिर्फ
दुख के आप कुछ
भी न पाएंगे।
और शरीर से आप
तादाक्य तोड़
दें, शरीर
को पकड़ना छोड़
दें। और आप
अचानक पाएंगे
कि शरीर को
पकड़ने की वजह
से आप सीमा
में बंधे थे, अब असीम हो
गए।
यहां
जो छीनने चलता
है,
उसका छिन
जाता है। यहां
जो देने चल
पड़ता है, उससे
छीनने का कोई
उपाय नहीं। यह
जो विरोधाभास
है, यह जो
जीवन का
पैराडाक्स है,
यह जो पहेली
है, इसको
हल करने की
व्यवस्था ही
साधना है।
दो
काम करें।
जीवन ने क्या
दिया है, इसकी
परख रखें।
क्या मिला है
जीवन से, क्या
मिल सकता है, इसका हिसाब
रखें। पाएंगे
कि सब हाथ
खाली हैं। आशा
भी टूट जाएगी
कि कल भी कुछ
मिल सकता है।
क्योंकि जो
अतीत में नहीं
हुआ, वह
भविष्य में भी
नहीं होगा। जो
कभी नहीं हुआ,
वह आगे भी
कभी नहीं होगा।
और फिर देखें
कि सब जीवन
मृत्यु के
सागर में उंडलते
चले जाते हैं।
कोई आज, कोई
कल। हम सब
क्यू में खड़े
हैं। आज नहीं
कल, बारी आ
जाती है और
मृत्यु में
उतर जाते हैं।
तो
यह सारा जीवन
मृत्यु में
पूरा होता है, निश्चित
ही यह मृत्यु
का ही छिपा
हुआ रूप है।
क्योंकि अंत
में वही प्रकट
होता है, जो
प्रथम से ही
छिपा रहा हो।
तो जिसे हम
जीवन कहते हैं,
वह मौत है।
और जीवेषणा को
छोड़ेंगे, तो
ही यह मौत
छूटेगी। तब
हमें उस जीवन
का अनुभव होना
शुरू होगा, जिसका मिटना
कभी भी नहीं
होता है।
उस
जीवन को ही
परमात्मा
कहें, उस जीवन
को मोक्ष कहें,
उस जीवन को
आत्मा कहें, उस जीवन को
जो भी नाम
देना हो, वह
हम दे सकते
हैं।
अब
हम सूत्र को
लें।
और हे
अर्जुन, काम,
क्रोध तथा
लोभ, ये
तीन प्रकार के
नरक के द्वार
आत्मा का नाश
करने वाले हैं
अर्थात
अधोगति में ले
जाने वाले हैं,
इससे इन
तीनों को
त्याग देना
चाहिए।
क्योंकि
हे अर्जुन, इन
तीनों नरक के
द्वारों से
मुक्त हुआ
पुरुष अपने
कल्याण का
आचरण करता है,
इससे वह परम
गति को जाता
है अर्थात
मेरे को प्राप्त
होता है।
और जो
पुरुष शास्त्र
की विधि को
त्यागकर अपनी
इच्छा से बर्तता
है, वह न तो
सिद्धि को
प्राप्त होता
है और न परम गति
को तथा न सुख
को ही प्राप्त
होता है।
इससे तेरे
लिए इस
कर्तव्य और
अकर्तव्य की
व्यवस्था में
शास्त्र ही
प्रमाण है, ऐसा
जानकर तू
शास्त्र—विधि
से नियत किए
हुए कर्म को
ही करने के
लिए योग्य है।
एक—एक
शब्द को समझने
की कोशिश करें।
तीन शब्दों को
कृष्ण नरक का
द्वार कह रहे
हैं : काम, क्रोध
और लोभ। जिसको
मैंने
जीवेषणा कहा,
वह इन तीन
हिस्सों में
टूट जाती है।
जीवेषणा
का मूल भाव
काम है, यौन
है, कामवासना
है।
वैज्ञानिक, जीवशास्त्री
कहते हैं कि
आदमी में दो
वासनाएं
प्रबलतम हैं,
एक भूख और
दूसरा यौन।
भूख
इसलिए
प्रबलतम है कि
अगर भूख का
होश आपको न हो, तो
आप मर जाएंगे,
जी न सकेंगे।
एक बच्चा पैदा
हो और उसे भूख
का पता न चलता
हो, तो वह
जी नहीं सकेगा।
भूख उसके शरीर
को बचाने के
लिए एकदम जरूरी
है। भूख इस
बात की खबर है
कि शरीर आपसे
कहता है, अब
मैं बच नहीं
सकूंगा, शीघ्र
मुझे कुछ दो, मेरी शक्ति
खोती है।
तो
भूख बचाती है
स्वयं के शरीर
को। लेकिन अगर
भूख ही अकेली
हो,
तो भी आप
कभी के खो गए
होते, आप
पैदा ही न
होते।
क्योंकि भूख
आपको बचा लेगी,
लेकिन आपके
बच्चों को
नहीं बचा
सकेगी। और
बच्चों को
पैदा करने का
कोई भाव नहीं
पैदा होगा।
भूख में वह
कोई शक्ति
नहीं है।
इसलिए एक
दूसरी भूख है,
वह है यौन।
पेट
की भूख से आप
बचते हैं, यौन
की भूख से
समाज बचता है।
ये दो भूखे
हैं। और जैसे
ही व्यक्ति का
पेट भर जाता
है, दूसरा
जो खयाल आता
है, वह
सेक्स का है।
भूखे आदमी को
खयाल चाहे न
आए। क्योंकि
भूखा आदमी
पहले अपने को
बचाए, तब
समाज को बचाने
का सवाल उठता
है, तब
संतति को
बचाने को सवाल
उठता है। खुद
ही न बचे, तो
संतति कैसे
बचेगी?
इसलिए
धार्मिक
लोगों ने सोचा
कि उपवास करने
से कामवासना
से मुक्ति हो
जाएगी। वह
तरकीब सीधी है, बायोलाजिकल
है। क्योंकि
जब आदमी भूखा
हो, तो वह
खुद को बचाने
की सोचेगा।
भूखे आदमी को
कामवासना
पैदा नहीं
होती। इसलिए
अगर आप लंबा
उपवास करें, तो कामवासना
मर जाती है।
मरती
नहीं, सिर्फ
छिप जाती है।
जब फिर पेट
भरेगा, तब
फिर कामवासना
वापस आ जाएगी।
इसलिए वह
तरकीब धोखे की
है, उससे
कुछ हल नहीं
होता। जैसे ही
समाज समृद्ध
होता है, वैसे
ही कामवासना
तीव्र हो जाती
है।
लोग
सोचते हैं, अमेरिका
में बहुत
सेक्यूअलिटी
है। ऐसा कुछ
भी नहीं है।
अमेरिका का
पेट भरा है, आपका पेट
खाली है। जहां
भी पेट भर
जाएगा, वहां
भूख का तो
सवाल खत्म हो
गया। इसलिए
पूरे जीवन की
ऊर्जा सिर्फ
सेक्स में दौड़ने
लगती है। आपकी
दो में दौड़ती
है, भूख
में और सेक्स
में। फिर अगर
पेट बिलकुल ही
भूखा हो, तो
सेक्स में
दौड़ना बंद हो
जाती है, फिर
भूख में ही
दौड़ती है, क्योंकि
भूख पहली जरूरत
है। आप बचें, तो फिर आपके
बच्चे बच सकते
हैं। जैसे ही
पेट भरा कि जो
दूसरा खयाल
उठता है, वह
कामवासना का
है।
जीवेषणा
दो पहलुओं से
चलती है, व्यक्ति
बचे और संतति
बचे। इसलिए
कामवासना
बहुत गहरे में
पड़ी है। और
उससे छुटकारा
इतना आसान
नहीं, जितना
साधु—संत
समझते हैं।
उससे छुटकारा
बड़ी आंतरिक वैज्ञानिक
प्रक्रिया के
द्वारा होता
है, बच्चों
का खेल नहीं
है। नियम और
व्रत लेने से
कुछ हल नहीं
होता, कसमें
खाने से कोई
फर्क नहीं
पड़ता। जब तक
कि जीवन का रोआं—रोआं
रूपांतरित न
हो जाए, जब
तक बोध इतना
प्रगाढ़ न हो
कि आप शरीर से
अपने को बिलकुल
अलग देखने में
समर्थ न हो
जाएं, तब
तक कामवासना
पकड़ती ही रहती
है।
यह
जो कामवासना
है,
अगर आप इसके
साथ चलें, इसके
पीछे दौड़े, तो जो एक नई
वृत्ति पैदा
होती है, उसका
नाम लोभ है।
लोभ कामवासना
के फैलाव का
नाम है। एक
स्त्री से हल
नहीं होता, हजार
स्त्रिया
चाहिए! तो भी
हल नहीं होगा।
सार्त्र
ने अपने एक
उपन्यास में
उसके एक पात्र
से कहलवाया है
कि जब तक इस
जमीन की सारी
स्त्रियां
मुझे न मिल
जाएं, तब तक
मेरी कोई
तृप्ति नहीं।
आप
भोग न सकेंगे
सारी
स्त्रियों को, वह
सवाल नहीं है;
लेकिन मन की
कामना इतनी
विक्षिप्त है।
जब
तक सारे जगत
का धन न मिल
जाए,
तब तक
तृप्ति नहीं
है। धन की भी
खोज आदमी
इसीलिए करता
है। क्योंकि
धन से
कामवासना
खरीदी जा सकती
है; धन से
सुविधाएं
खरीदी जा सकती
हैं, सुविधाएं
कामवासना में
सहयोगी हो
जाती हैं।
लोभ
कामवासना का
फैलाव है।
इसलिए लोभी
व्यक्ति
कामवासना से
कभी मुक्त नहीं
होता। यह भी
हो सकता है कि
वह लोभ में
इतना पड़ गया
हो कि
कामवासना तक
का त्याग कर
दे। एक आदमी
धन के पीछे
पड़ा हो, तो हो
सकता है कि
वर्षों तक
स्त्रियों की
उसे याद भी न
आए। लेकिन
गहरे में वह
धन इसीलिए खोज
रहा है कि जब
धन उसके पास
होगा, तब
स्त्रियों को
तो आवाज देकर
बुलाया जा
सकता है।
उसमें कुछ
अड़चन नहीं।
यह
भी हो सकता है
कि जीवनभर
उसको ख्याल ही
न आए वह धन की
दौड़ में लगा
रहे। लेकिन धन
की दौड़ में
गहरे में
कामवासना है।
सब
लोभ काम का
विस्तार है।
इस काम के
विस्तार में, इस
लोभ में जो भी
बाधा देता है,
उस पर क्रोध
आता है।
कामवासना है
फैलता लोभ, और जब उसमें
कोई रुकावट
डालता है, तो
क्रोध आता है।
काम, लोभ,
क्रोध एक ही
नदी की धाराएं
हैं। जब भी आप
जो चाहते हैं,
उसमें कोई
रुकावट डाल
देता है, तभी
आप में आग जल
उठती है, आप
क्रोधित हो
जाते हैं। जो
भी सहयोग देता
है, उस पर
आपको बड़ा
स्नेह आता है,
बड़ा प्रेम
आता है। जो भी
बाधा डालता है,
उस पर क्रोध
आता है। मित्र
आप उनको कहते
हैं, जो
आपकी वासनाओं
में सहयोगी
हैं। शत्रु आप
उनको कहते हैं,
जो आपकी
वासनाओं में
बाधा हैं।
लोभ
और क्रोध से
तभी छुटकारा
होगा, जब काम
से छुटकारा हो।
और जो व्यक्ति
सोचता हो कि
हम लोभ और
क्रोध छोड़ दें
काम को बिना
छोड़े, वह
जीवन के गणित
से अपरिचित है।
यह कभी भी
होने वाला
नहीं है।
इसलिए
समस्त धर्मों
की खोज का एक
जो मौलिक बिंदु
है,
वह यह है कि
कैसे अकाम
पैदा हो। उस अकाम
को हमने
ब्रह्मचर्य
कहा है।
ब्रह्मचर्य
का अर्थ है, कैसे मेरे
जीवन के भीतर
वह जो दौड़ है
एक विक्षिप्त
और जीवन को
पैदा करने की,
उससे कैसे
छुटकारा हो।
कृष्ण कहते
हैं, ये
तीन नरक के
द्वार हैं।
हमें
तो ये तीन ही
जीवन मालूम
पड़ते हैं। तो
जिसे हम जीवन
कहते हैं, कृष्ण
उसे नरक का
द्वार कह रहे
हैं।
आप
इन तीन को हटा
दें,
आपको लगेगा
फिर जीवन में
कुछ बचता ही
नहीं। काम हटा
दें, तो जड़
कट गई। लोभ
हटा दें, फिर
क्या करने को
बचा!
महत्वाकांक्षा
कट गई। क्रोध
हटा दें, फिर
कुछ खटपट करने
का उपाय भी
नहीं बचा। तो
जीवन का सब
उपक्रम शून्य
हुआ, सब
व्यवहार बंद
हुए।
अगर
लोभ नहीं है, तो
मित्र नहीं
बनाएंगे आप।
अगर क्रोध
नहीं है, तो
शत्रु नहीं
बनाएंगे। तो न
अपने बचे, न
पराए बचे, आप
अकेले रह गए।
आप अचानक
पाएंगे, ऐसा
जीवन तो बहुत
घबड़ाने वाला
हो जाएगा। वह
तो नारकीय
होगा। और
कृष्ण कहते
हैं कि ये तीन
नरक के द्वार
हैं! और हम इन
तीनों को जीवन
समझे हुए हैं।
हमें
खयाल भी नहीं
आता कि हम
चौबीस घंटे
काम से भरे
हुए हैं। उठते—बैठते, सोते—चलते,
सब तरफ
हमारी नजर का
जो फैलाव है, वह कामवासना
का है।
अगर
अभी एक हवाई जहाज
गिर पड़े, आप
उसके टूटे
अस्थिपंजर के
पास जाएं।
उसमें जो
यात्री मरे
हुए पड़े होंगे,
उन मरे हुए
यात्रियों
में भी आपको
सबसे पहले जो
चीज दिखाई
पड़ेगी, वह
यह कि कौन
स्त्री है, कौन पुरुष।
आप
सब चीजें भूल
जाते हैं। दस
साल पहले कोई
आपको मिला था।
नाम भूल गया, शक्ल
भूल गई, कुछ
भी याद नहीं
रहा। लेकिन यह
आप कभी नहीं
भूलते कि वह
स्त्री थी कि
पुरुष—यह कभी
नहीं भूलते।
आपको याद है
कि आपको कभी
ऐसा शक पैदा
हुआ हो कि बीस
साल पहले एक
आदमी, एक
व्यक्ति मिला
था, वह
स्त्री थी या
पुरुष? यह
शक आपको हो ही
नहीं सकता।
इसका मतलब
क्या है?
इसका
मतलब यह है कि
आपके ऊपर गहरे
से गहरा जो
संस्कार पड़ता
है,
वह स्त्री
और पुरुष होने
का पड़ता है।
उसका चेहरा
कैसा था; भूल
गया। उसका नाम
क्या था, भूल
गया। उसकी
जाति क्या थी;
भूल गई। वह
लंबा था कि
ठिगना था, सब
भूल गया।
लेकिन उसका
सेक्स, वह
आपको याद है।
इसका मतलब यह
है कि सबसे
गहरी आपकी
स्मृति इस बात
को पकड़ती है।
सबसे ज्यादा
चेतना इसके आस—पास
घूमती है।
यह
जो हमारा काम
है,
यह कोई क्षण
दो क्षण की
बात नहीं कि
कभी—कभी आपको
पकड़ता है। यह
चौबीस घंटे
आपको घेरे हुए
है, ऐसा
कहना भी ठीक
नहीं है। शायद
चौबीस घंटे आप
काम हैं। फिर
इसमें जहां—जहां
सहयोग मिलता
है, वहां—वहा
लोभ पैदा होता
है। वह इस काम
की धारा में
ही लोभ का
वर्तुल है।
जैसे
नदी बहती है, और
उसमें छोटे—छोटे
भंवर पैदा हो
जाते हैं। तो
आपकी काम की
जो नदी बहती
है, जिस—जिस
से सहारा
मिलता है, वह
आपके लोभ का
भंवर हो जाता
है। और जिस—जिस
से बाधा मिलती
है, वह
आपके क्रोध का
भंवर हो जाता
है। फिर उन
दोनों की
परतें हमारे
ऊपर बैठ जाती
हैं।
उठते—बैठते, चलते—फिरते,
आप खयाल
लेते हों, न
लेते हों, व्यवहार
करते, आपका
लोभ और क्रोध
काम करता है।
आप रास्ते पर
चलते आदमी से
नमस्कार भी
तभी करते हैं,
जब कुछ लोभ
उससे जुड़ा हो।
कोई लोभ—अतीत
में, आज या
भविष्य में—कहीं
न कहीं उससे
कुछ लाभ मिल
सकता होगा, तो ही आप
नमस्कार करते
हैं। नहीं तो
आप नमस्कार
करने वाले भी
नहीं। हाथ
जोड्ने तक का
श्रम आप
उठाएंगे नहीं।
और
आपकी नजर जहां
भी जाती है, वहां
तत्क्षण
मित्र और
शत्रु को
पहचानती है।
जिससे भी थोड़ी—सी
भी विरोध की
संभावना है, या थोड़ी—सी
भी बाधा पड़
सकती, थोड़ी
प्रतियोगिता
हो सकती है, उसके प्रति
आपका क्रोध
जलता ही रहता
है। भभक सकता
है, किसी
भी क्षण मौका
मिल जाए तो।
यह
जो हमारा
क्रोध, लोभ
और मोह है, इन्हें
आप सिद्धातों
की तरह तो समझ
ले सकते हैं, लेकिन जीवन
व्यवहार में
इनके स्वरूप
को पहचानना
असली सवाल है।
और हम उसमें
इतने लिप्त
होते हैं कि
उसे अपने जीवन
में पहचानना
अक्सर कठिन
होता है।
मैंने
सुना है कि एक
कंजूस आदमी ने
अपने बेटे को
चश्मा
दिलवाया।
दूसरे दिन
सुबह ही बेटा
बाहर बैठा है
अपनी किताबें
वगैरह लिए।
उसके बाप ने
भीतर के कमरे
से पूछा कि
बेटे, क्या
कुछ पढ़ रहे हो?
उस लड़के ने
कहा कि नहीं।
तो बाप ने
पूछा, तो
क्या कुछ लिख
रहे हो? उसके
लड़के ने कहा, नहीं। तो
बाप ने कहा, तो फिर
चश्मा उतारकर
क्यों नहीं रख
देते! लगता है,
तुम्हें
फिजूलखर्ची की
आदत पड़ गई है।
वह
जो चश्मा आंख
पर रखा है, जब
लिख भी नहीं
रहे, पढ़ भी
नहीं रहे, तो
उसका
फिजूलखर्च हो
रहा है, चश्मे
का।
यह
हमें हंसने
योग्य लग सकता
है। लेकिन
लोभी आदमी की
यह दृष्टि है।
वह सब जगह बचा
रहा है। और कई
दफे ऐसा हो
जाता है कि हम
लोभ के नाम पर
जो बचाते हैं, उसको
भी हम अच्छे
सिद्धात बता
देते हैं।
फ्रायड
ने एक बहुत
अनूठी बात कही
है,
उसने कहा है
कि आमतौर से
जो लोग
ब्रह्मचर्य
में उत्सुक
होते हैं, वे
लोभी होते हैं,
ग्रीडी
होते हैं।
वीर्य खो न
जाए, इसकी
कंजूसी उनको
ब्रह्मचारी
बना देती है।
यह
बड़ी सोचने
जैसी बात है।
और इधर जैसा
मैंने अनेक
लोगों को
अनुभव किया है, अक्सर
यह बात सच है।
सौ प्रतिशत सच
नहीं है, क्योंकि
ब्रह्मचर्य
की दिशा में
जाने वाला एक
प्रतिशत वह
आदमी भी होता
है, जो
कामवासना से
मुक्त होकर
ब्रह्मचर्य
की तरफ जाता
है। सौ में
निन्यानबे तो
वे लोग होते हैं,
जो सिर्फ
लोभ के कारण
ब्रह्मचर्य
की तरफ जाते हैं
कि कहीं शक्ति
खर्च न हो जाए।
आपने
शायद इस दिशा
से कभी सोचा न
हो। और अक्सर
आपके साधु—संन्यासी
जो आपको
समझाते हैं, वे
समझाते हैं कि
बचाओ अपनी
शक्ति को।
वीर्य का एक
बिंदु खोने का
मतलब है, न
मालूम कितना
सेर खून खो
गया। वीर्य का
एक बिंदु खो
गया, तो न
मालूम कितना
नुकसान हो गया।
वे जो समझा
रहे हैं आपको,
आपको डरवा
रहे हैं; वे
आपके लोभ को
जगा रहे हैं, वे यह कह रहे
हैं कि शक्ति
खो न जाए।
इसलिए
अक्सर जो
मुल्क कंजूस
होते हैं, वे
ब्रह्मचर्य
की बहुत चर्चा
करते हैं। और
जो जातियां
निपट कंजूस
होती हैं, वे
ब्रह्मचर्य को
बड़े जोर से
पकड़ लेती हैं।
ये
जो
ब्रह्मचर्य
की इस तरह की
बात करने वाले
निन्यानबे
प्रतिशत लोग
हैं,
इनमें से
अधिक लोग
कब्जियत के
शिकार होंगे।
क्योंकि जैसा
वे वीर्य को
बचाना चाहते
हैं, ऐसा
वे सब चीजों
को बचाना
चाहते हैं। वे
मल तक को
इकट्ठा करना
सीख जाते हैं।
अभी
आधुनिक
विज्ञान बड़ी
महत्वपूर्ण
बातें कहता है।
वह कहता है, जो
व्यक्ति भी
कब्जियत का
शिकार है, वह
यह बता रहा है
कि वह मल को भी
छोड़ने को राजी
नहीं है। उसकी
चित्त की दशा
सब चीजों को
पकड़ लेने की
है।
मनोवैज्ञानिक
कई अनूठे
नतीजों पर
पहुंचे हैं, जो
धर्म को और
धर्म की खोज
में जाने वाले
लोगों को ठीक
से समझ लेना
चाहिए।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
सब चीजें
प्रतीकात्मक
हैं। और एक
बड़ी अनूठी बात
है, जो
एकदम से समझ
में नहीं आती,
लेकिन सही
हो सकती है।
वे कहते हैं, मल का जो रंग
है, पीला
रंग, वही
सोने का रंग
है। और सोने
को जो लोग
पकड़ते हैं, वे लोग
कब्जियत के
शिकार हो जाते
हैं। वे मल को
भी नहीं छोड़
सकते। और धन
हाथ का मल ही
है, वह मैल
ही है, उससे
ज्यादा है भी
नहीं। लेकिन
हर चीज को पकड़
लेना है, रोक
लेना, कुछ
भी छोड़ते नहीं
बनता उनसे।
जीवन उनका
महारोग हो
जाता है।
काम
विक्षिप्तता
लाता है। लोभ
उस
विक्षिप्तता
को बढ़ाने के
लिए दूसरों का
सहारा मलता है, फैलाव
मांगता है।
क्रोध उस
विक्षिप्तता
में कोई भी
बाधा डाले, उसको नष्ट
करने को तैयार
हो जाता है।
ये
तीनों नरक के
द्वार हैं। और
हम जीवन में
जितने दुख खड़े
करते हैं, वह
इनके द्वारा
ही खड़े करते
हैं। नरक कहीं
कोई स्थान
नहीं है, जहां
द्वारों पर
लिखा है कि
काम, क्रोध,
लोभ, कि यहां
से भीतर मत
जाइए। जहां—जहां
ये तीन हैं, वहां—वहां
नरक है, वहा—वहां
जीवन दुख और
संताप से भर
जाता है। वहां—वहा
जीवन की
प्रफुल्लता
कुम्हला जाती
है, जीवन
के फूल वहां
नहीं लगते।
आपने
कभी कंजूस
आदमी को
प्रसन्न देखा
है?
कंजूस
प्रसन्न हो ही
नहीं सकता।
प्रसन्नता
में भी उसे
लगेगा, कुछ
खर्च हो रहा
है, कुछ
नुकसान हुआ जा
रहा है। वह
प्रसन्नता तक
को रोके रखता
है। वह
हृदयपूर्वक
हंस नहीं सकता;
वह कठिन है,
मुश्किल है;
वह उसके
व्यक्तित्व
का ढंग नहीं
है। वह किसी
चीज में शेयर
नहीं कर सकता,
भागीदार
नहीं बना सकता।
इसलिए
कंजूस कभी
प्रेम नहीं कर
सकता, किसी को
प्रेम नहीं कर
सकता।
क्योंकि
प्रेम में उसे
डर लगता है कि
जिससे प्रेम
किया 1
उसको कुछ
बांटना पड़ेगा,
कुछ
साझेदारी
करनी पड़ेगी।
कंजूस
किसी चीज में
बंटाव नहीं कर
सकता। कंजूस
अकेला जीता है, आइसोलेटेड।
अपने में बंद
हो जाता है, और उसके
चारों तरह
कारागृह खड़ा
हो जाता है।
और अपने चारों
तरफ कारागृह
खड़ा हो जाए; हम किसी चीज में
साझेदारी न कर
सकें, मुस्कुरा
भी न सकें, बांट
भी न सकें......।
जीवन
के सब आनंद
बंटने से जुड़े
हुए हैं। जो
आदमी जितना
बांट सकता है, जो
जितना अपने को
फैला सकता है,
जो जितना
अपने को
दूसरों को दे
सकता है, उतना
ही
प्रफुल्लित
होता है, उतना
ही आनंदित
होता है।
अगर
परमात्मा परम
आनंद है, तो
उसका इतना ही
अर्थ है कि
परमात्मा ने
अपने को पूरा
का पूरा इस
जगत को दे
दिया है, इस
पूरे
अस्तित्व को
अपने को दे
दिया है। वह
सब तरफ फैल
गया है। उसे
आप कहीं भी
खोज नहीं सकते।
आप अंगुली
करके इशारा
नहीं कर सकते
कि यह रहा परमात्मा।
क्योंकि वह एक
जगह होता, तो
कंजूस होता, कृपण होता, बंधा होता।
वह सब जगह है।
इसलिए
आप जहां भी
कहें, वहां वह
है। और जहां
भी आप इशारा
करें, वहीं
आप पाएंगे कि
मुश्किल है, वह सब जगह है।
उसने अपने को
सब तरह फैला
दिया है। वह
पूरा बंट गया
है कि अब उसके
पास कुछ भी
नहीं बचा है, अपने जैसा
कुछ भी नहीं
बचा है, इसलिए
परम आनंद है, इसलिए
सच्चिदानंद
है।
मैंने
सुना है कि
नानक एक गांव
में ठहरे।
गांव बड़े भले
लोगों का था, बड़े
साधुओं का था,
बड़े संत—सज्जन
पुरुष थे।
नानक के शब्द—शब्द
को उन्होंने
सुना, चरणों
का पानी धोकर
पीया। नानक को
परमात्मा की
तरह पूजा। और
जब नानक उस गांव
से विदा होने
लगे, तो वे
सब मीलों तक
रोते हुए उनके
पीछे आए और उन्होंने
कहा, हमें
कुछ आशीर्वाद
दें। तो नानक
ने कहा, एक
ही मेरा
आशीर्वाद है
कि तुम उजड़
जाओ।
सदमा
लगा। नानक के
शिष्य तो बहुत
हैरान हुए, कि
यह क्या बात
कही! इतना भला गांव।
लेकिन अब बात
हो गई और एकदम
पूछना भी ठीक
न लगा।
सोचेंगे, विचार
करेंगे, फिर
पूछ लेंगे।
फिर दूसरे
गांव में पड़ाव
हुआ। वह
दुष्टों का गांव
था। सब
उपद्रवी जमीन
के वहा इकट्ठे
थे। उन्होंने
न केवल अपमान
किया, तिरस्कार
किया, पत्थर
फेंके, गालियां
दीं, मार—पीट
की नौबत खड़ी
हो गई; रात
रुकने भी न
दिया।
जब
गांव से नानक
चलने लगे, तो
वे तो
आशीर्वाद
मांगने वाले
थे ही नहीं।
शोरगुल मचाते,
गालियां
बकते नानक के
पीछे गांव के
बाहर तक आए थे।
गांव के बाहर
आकर नानक ने
अपनी तरफ से
आशीर्वाद
दिया कि सदा
यहीं आबाद रहो।
तब
शिष्यों को
मुश्किल हो
गया।
उन्होंने कहा
कि अब तो
पूछना ही
पड़ेगा। यह तो
हद हो गई। कुछ
भूल हो गई
आपसे। पिछले
गांव में भले
लोग थे, उनसे
कहा, बरबाद
हो जाओ! उजड़
जाओ! और इन
गुंडे—बदमाशों
को कहा कि सदा
आबाद रहो, खुश
रहो, सदा
बसे रहो!
नानक
ने कहा कि भला
आदमी उजड़ जाए, तो
बंट जाता है।
वह जहां भी
जाएगा, भलेपन
को ले जाएगा।
वह फैल जाए
सारी दुनिया
पर। और ये
बुरे आदमी, ये इसी गांव
में रहें, कहीं
न जाएं।
क्योंकि ये जहां
जाएंगे, बुराई
ले जाएंगे।
लेकिन
बंटना बुरे
आदमी का
स्वभाव ही
नहीं होता, अच्छा
है यह। वह
सिकुड़ता है, यह बड़ी कृपा
है। भला आदमी
बटता है।
बांटना उसका
स्वभाव है।
दान उसके जीवन
की व्यवस्था
है। यह सवाल
नहीं कि वह
कुछ देता है
कि नहीं देता
है; यह
उसके रहने—होने
का ढंग है कि
वह साझेदारी
करता है, वह
शेयर करता है।
ये जो तीन हैं,
काम, क्रोध,
लोभ, ये
सिकोड़ देते
हैं। और
सिकुड़ा हुआ
आदमी नरक बन
जाता है।
ये
अधोगति में ले
जाने वाले हैं, इन
तीनों को
त्याग देना
चाहिए।
क्योंकि हे
अर्जुन, इन
तीनों नरक के
द्वारों से
मुक्त हुआ
पुरुष अपने
कल्याण का
आचरण करता है,
इससे वह परम
गति को जाता
है अर्थात
मुझको प्राप्त
होता है।
इन
तीन से जो
मुक्त हुआ
पुरुष है, वही
केवल कल्याण
का आचरण करता
है। कल्याण का
अर्थ है, जिससे
हित हो, मंगल
हो; जिससे
आनंद बढ़े, फैले।
लेकिन
जो आदमी
कामवासना से
भरा है, लोभ
और क्रोध से
भरा है, उसका
आचरण कल्याण
का नहीं हो
सकता। उसका
आचरण अहंकार—केंद्रित
होगा। वह अपने
लिए सबको
मिटाने की
कोशिश करेगा।
वह चारों तरफ
विध्वंस
फैलाएगा।
उसकी
आकांक्षा यही
है किं सब मिट
जाएं, मैं
अकेला रहूं।
क्योंकि जब तक
दूसरा है, तब
तक मैं चाहे
बांटू या न
बांटू वह इस
जगत की संपत्ति
में से बंटाव
तो कर ही रहा
है। जब तक
दूसरा है, कम
से कम श्वास
तो ले ही रहा
है। तो इतनी
आक्सीजन जिस
पर मैं कब्जा
कर सकता था, वह कब्जा कर
रहा है। तब तक
सूरज की रोशनी
तो पी ही रहा
है, सूरज
पूरा का पूरा
मेरा हो सकता
था, उसमें
वह बंटाव कर
रहा है। तब तक
आकाश में
पूर्णिमा का
चांद निकलता
है, तो वह
भी प्रसन्न
होता है। उतनी
मेरी प्रसन्नता
खो रही है।
वह
जो आदमी काम, क्रोध,
लोभ से भरा
हुआ है, उसका
मौलिक आधार
जीवन का यह है
कि मैं अकेला
रहूं और सब
मिट जाएं। वह
नहीं मिटा
पाता, यह
दूसरी बात है।
कोशिश पूरी कर
रहा है।
हजारों दफे
उसने प्रयोग
किए हैं कि वह
सबको पोंछकर
समाप्त कर दे,
अकेला रहे।
कल्याण तो
उससे हो ही
नहीं सकता।
कल्याण
तो उसी
व्यक्ति से हो
सकता है, सब
रहें, चाहे
मैं मिट जाऊं।
मैं चाहे खो
जाऊं, चाहे
मेरी कोई जगह
न रह जाए, लेकिन
शेष सब रहे।
फूल और जोर से
खिले, चांद
और जोर से
निकले, लोग
और आनंदित हों,
जीवन की
बांसुरी बजती
रहे, मेरे
होने न होने
से कोई फर्क
नहीं पड़ता है।
अगर मैं बाधा
बनता हूं तो
हट जाऊं। अगर
सहयोग बन सकता
हूं तो ही
रहूं।
लेकिन
ये तीन द्वार
जब बंद हो
जाएं, तभी
कल्याण का
जीवन शुरू
होता है।
यह
जो शब्द
कल्याण है, मंगल
है, यह बड़ा
समझने जैसा है।
इसका अर्थ
दूसरे का सुख
है। और दूसरे
के सुख को अगर
आप सोचना भी
शुरू कर दें.....।
हम
तो कंसीडर भी
नहीं करते।
दूसरा है, यह
भी विचार नहीं
करते। दूसरे
के जीवन में
भी सुख की कोई
संभावना हो सकती
है, दूसरे
को भी सुख
मिलना चाहिए,
यह तो हमारे
मन में कभी
कौंधता ही
नहीं।
महावीर
ने कहा है, जैसे
तुम जीना
चाहते हो, वैसे
ही सभी जीना
चाहते हैं।
जैसे तुम सुख
पाना चाहते हो,
वैसे सभी
सुख पाना
चाहते हैं। तो
जो तुम अपने
लिए चाहते हो,
वह सबके लिए
चाहो। जीसस ने
कहा है, जो
तू न चाहता हो
कि लोग तेरे
प्रति करें, वह तू कभी
भूलकर भी
दूसरे के
प्रति मत करना।
यह कल्याण का सूत्र
हुआ। और जो तू
चाहता हो कि
लोग तेरे
प्रति करें, वही तू उनके
प्रति करना।
क्योंकि जो
तेरे भीतर
जीवन की छिपी
चाह है, वही
दूसरों के
भीतर भी जीवन
की छिपी चाह
है। और तेरे
भीतर जो जीवन
है और दूसरे
के भीतर जो जीवन
है, वह एक
ही का विस्तार
है।
कल्याण
का अर्थ है कि
मेरे भीतर और
आपके भीतर जो
है,
वह एक ही
चेतना का
फैलाव है। और
अगर मैं आपका
सुख चाहता हूं
तो वस्तुत:
यही मैं अपने
सुख का आधार
रख रहा हूं।
और अगर मैं
आपका दुख
चाहता हूं तो
मैं अपने ही हाथ—पैर
तोड़ रहा हूं, क्योंकि आप
मेरे ही फैले
हुए रूप हैं।
अगर आपको मैं
दुखी करता हूं
तो मैं अपने
ही दुख का
इंतजाम कर रहा
हूं। देर—अबेर
यह दुख मुझे
पकड़ लेगा।
आपको सुख दे
रहा हूं तो
देर—अबेर यह
सुख मेरे पास
आ जाएगा।
एक
बार जिस आदमी
को यह समझ में
आ गया कि इस
जगत में अलग—अलग
कटे —कटे लोग
नहीं हैं; हम
अलग—अलग
आयलैंड नहीं
हैं, द्वीप
नहीं हैं, हम
एक महाद्वीप
हैं। और अगर
हमारे बीच में
फासला दिख रहा
है, तो वह
फासला भी बीच
में आ गए पानी
की दीवार का है।
नीचे हम जुड़े
हैं, नीचे
जमीन एक है।
और उस पानी की
दीवार का कोई
बहुत मूल्य
नहीं है। पानी
की भी कोई
दीवार होती है?
यह
जो मेरे और
आपके बीच में
दीवार है, यह
पानी की भी
नहीं, हवा
की ही दीवार
है। इस दीवार
के दोनों तरफ
जिस हवा से आप
श्वास ले रहे
हैं, उसी
हवा से मैं
श्वास ले रहा
हूं हम दोनों
जुड़े हैं। हम
सब जुड़े हैं।
इस संयुक्तता
का बोध आ जाए, तो जीवन में
कल्याण का भाव
आता है।
और
जो काम, क्रोध,
लोभ से भरा
है, उसे यह
संयुक्तता का
भाव नहीं आ
सकता। उसके
लिए सब दुश्मन
हैं, सब
प्रतियोगी
हैं। जो चीजें
वह छीनना चाह
रहा है, वही
दूसरे छीनना
चाह रहे हैं।
इसलिए दूसरों
का सुख वह
कैसे चाह सकता
है! दूसरों के
लिए आशीर्वाद
उससे नहीं बह
सकता। अभिशाप
ही दूसरों के
लिए उसके पास
है।
और
जो पुरुष
शास्त्र की
विधि को
त्यागकर अपनी इच्छा
से बर्तता है, वह
न तो सिद्धि
को प्राप्त
होता है और न
परम गति को और
न सुख को ही
प्राप्त होता
है।
इस
बात को समझना
बड़ा जरूरी है
और गहरा है।
जो
व्यक्ति
शास्त्र की
विधि को
त्यागकर.....।
शास्त्र
की विधि क्या
है न: शास्त्र
क्या है? इसे
समझें।
शास्त्र
का अर्थ है, सदियों—सदियों
में, सनातन
से जिन्होंने
जाना है, उनका
सार निचोड़।
जिन्होंने
जीवन के आनंद
को अनुभव किया
है, जीवन
के वरदान की
वर्षा जिन पर
हुई है, उन्होंने
जो कहा है, उसका
जोड़।
आज
कठिन हो गई है
यह बात। ऐसी
कठिन उस दिन
बात न थी, जब
कृष्ण ने यह
कहा था। उस
दिन हर कोई
शास्त्र नहीं
लिखता था। कोई
सोच ही नहीं
सकता था कि
बिना जाने मैं
लिखूं। वह
सोचने के बाहर
था। क्योंकि
बिना जाने
लिखने में कोई
अर्थ
भी नहीं
था।
शास्त्रों पर
किसी के नाम
भी नहीं थे।
वह कोई
व्यक्तियों
की संपदा भी
नहीं थी। अनंत—
अनंत काल में, अनंत—अनंत
लोगों ने जो
जाना है, उस
जानने को लोग
निखारते गए।
शास्त्र
संपदा थी सबके
अनुभव की।
वेद
हैं,
वे किसी एक
व्यक्ति के
वचन नहीं हैं।
अनंत—अनंत
ऋषियों ने जो
जाना है, वह
सब संगृहीत है।
उपनिषद हैं, वे किसी एक
व्यक्ति के
लिखे हुए
विचार नहीं हैं।
वह अनंत— अनंत
लोगों ने जाना
है, उनका
सारभूत है।
कुछ पक्का पता
लगाना भी
मुश्किल है कि
किसने जाना है।
व्यक्ति खो गए
हैं, सिर्फ
सत्य रह गए
हैं। कृष्ण ने
जब यह बात कही,
तब शास्त्र
का अर्थ था, जाने हुए
लोगों के वचन।
इन वचनों को
त्यागकर जो
अपनी इच्छा से
बर्तता है, वह सिद्धि
को प्राप्त
नहीं होता।
क्योंकि एक
व्यक्ति का
अनुभव ही
कितना है! एक व्यक्ति
की छोटी—सी
बुद्धि कितनी
है! वह ऐसे ही
है, जैसे
सूरज निकला हो,
और हम अपना
टिमटिमाता
दीया लेकर
रास्ता खोज
रहे हैं।
एक
व्यक्ति का
अनुभव बहुत
छोटा है। एक
व्यक्ति का
होश बहुत छोटा
है। अपने ही
अनुभव से जो
चलने की कोशिश
करेगा, वह
अनंत काल लगा
देगा भटकने
में। लेकिन
जाने हुए
पुरुषों का, जागे हुए
पुरुषों का जो
वचन है, उसका
सहारा लेकर जो
चलेगा, वह
व्यर्थ के
भटकाव से बच
जाएगा।
रास्ता
छोटा हो सकता
है,
अगर थोड़ा—सा
नक्यग़ भी
हमारे पास हो।
शास्त्रों का
अर्थ है, नक्यो।
शास्त्रों को
सिर पर रखकर
बैठ जाने से
कोई मंजिल पर
नहीं पहुंचता।
लेकिन वे
नक्यो हैं, उन नक्यग़ें
का अगर ठीक से
उपयोग करना
समझ में आ जाए,
तो आप बहुत—सी
भटकन से बच
सकते हैं। जहां
जो भूल—चूक
जिन लोगों ने
पहले की, उसको
आपको करने की
जरूरत नहीं है।
शास्त्र
कोई बंधे—बंधाए
उत्तर नहीं
हैं;
शास्त्र तो
केवल मार्ग को
खोजने के
इशारे हैं। और
उन इशारों को
जो ठीक से समझ
लेता है और
उनके अनुसार
चलता है, वह
सिद्धि को
प्राप्त हो
जाता है। और
जो उनको त्याग
देता है, वह
न तो सिद्धि
को प्राप्त
होता है, न
परम गति को, औयन सुख को
ही प्राप्त
होता है। वह
भटकता है।
यह
आज के युग में
बात और कठिन
हो गई, क्योंकि
आज शास्त्र
बहुत हैं। कोई
पांच हजार
शास्त्र
प्रति सप्ताह
लिखे जाते हैं।
पुस्तकें
बढ़ती चली जाती
हैं। और कुछ
पक्का पता
लगाना
मुश्किल है, कौन लिख रहा
है, कौन
नहीं लिख रहा
है। पागल भी
लिख रहे हैं।
उनको राहत
मिलती है, केथार्सिस
हो जाती है।
उनका पागलपन
निकल जाता है,
किताब में
रेचन हो जाता
है। फिर उन पागलों
की लिखी
किताबों को
दूसरे पागल पढ़
रहे हैं। उनका
तो रेचन हो
जाता है, इनकी
खोपड़ी भारी हो
जाती है। अब
तय करना
मुश्किल है।
क्योंकि बहुत—से
सूत्र खो गए।
पहला
सूत्र तो यह
खो गया कि
बिना जागे कोई
व्यक्ति न
लिखे; बिना
जागे कोई
व्यक्ति न
बोले, बिना
जाग्रत हुए कोई
किसी दूसरे को
सलाह न दे। यह
पुराने समय
में सोचना ही
असंभव था कि
कोई बिना जागे
हुए किसी को
सलाह दे देगा।
लेकिन
आज कठिन है।
आज तो सोए आप
कितने ही हों, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता, आप
सलाह दे सकते
हैं। सोया हुआ
आदमी और भी
उत्सुकता से
सलाह देता है।
वह चाहे अपने
सपने में
बड़बड़ा रहा हो,
लेकिन उसको
अनुयायी मिल
जाते हैं। लोग
उसके पीछे
चलने लगते हैं।
जितने जोर से
कोई चिल्ला
सकता हो, उतना
ज्यादा पीछे
अनुसरण करने
वाले मिल जाते
हैं।
आज
कठिन है।
लेकिन आज भी
व्यक्ति अपनी
ही खोजबीन से
चले,
तो बहुत समय
व्यय होगा, बहुत जन्म खो
जाएंगे। आज भी
व्यक्ति को
शास्त्र की
खोज करनी
चाहिए। लेकिन
आज की कठिनाई
को ध्यान में
रखकर मैं कहूंगा
कि आज शास्त्र
से ज्यादा
सदगुरु..।
कृष्ण
ने जब कहा, तब
शास्त्र
सदगुरु का काम
करता था, क्योंकि
सिर्फ
सदगुरुओं के
वचन ही
लिपिबद्ध थे।
आज मुश्किल है।
छापेखाने ने
पागलखाने के
द्वार खोल दिए
हैं। कोई भी
लिख सकता है, कोई भी
किताबों का
प्रचार कर
सकता है, कुछ
अड़चन नहीं है
अब। आज
शास्त्र उतना
सहयोगी नहीं
हो सकता। आज
शास्त्र को भी
पहचानना हो, तो भी
सदगुरु के ही
माध्यम से
पहचाना जा
सकता है।
एक
बहुत पुरानी
कहावत है, सतयुग
में शास्त्र,
कलियुग में
गुरु। उसमें
बड़ा अर्थ है।
क्योंकि
कलियुग में
इतने शास्त्र
हो जाएंगे कि
यही तय करना
मुश्किल हो
जाएगा, कौन—सा
शास्त्र है और
कौन—सा
शास्त्र नहीं
है! और कौन
आपको कहे? अब
तो कोई निजी
आत्मीय संबंध
बन जाए आपका
किसी जाग्रत
पुरुष से, तो
ही रास्ता बन
सकता है।
क्योंकि उसके
माध्यम से
शास्त्र भी
मिल सकेगा। और
जीवित पुरुष
मिल जाए, तो
शास्त्र की
जरूरत भी नहीं
रह जाती।
लेकिन
शास्त्र का
मतलब ही इतना
है,
जागे हुए
पुरुषों के
वचन, चाहे
वे जिंदा हों,
चाहे जिंदा
न हों। अगर
आपको जीवन की बहुत—सी
अड़चन, भटकन,
व्यर्थ
खोजबीन से
बचना हो, भूल—चूक
में बहुत समय
खराब न करना
हो, तो
जरूरी है कि
जिसने जाना हो,
उसकी बात
समझें; जिसने
पहचाना हो, उसकी बात
समझें।
और
आप कैसे
पहचानेंगे
किसी व्यक्ति
को कि उसने
जान लिया, पहचान
लिया? एक
ही कसौटी है
कि जिस
व्यक्ति को आप
देखें कि उसकी
कोई खोज नहीं
अब, उसका
कोई प्रश्न
नहीं अब। अब
उसको पाने का
कुछ, आपको
दिखाई में न
पड़ता हो। कोई
व्यक्ति लगता
हो कि ऐसे जी
रहा है, जैसे
उसने सब पा
लिया। जो सब
तरफ से तृप्त
हो, जिसकी
तृप्ति का
वर्तुल बंद हो
गया हो, जो।
कहीं से खुलता
न हो अब। तो
ऐसे व्यक्ति
की सन्निधि
खोजना जरूरी
है। आपके लिए
वही शास्त्र
होगा। उसके
माध्यम से
आपको वेद, उपनिषद,
कुरान और
बाइबिल के
द्वार भी खुल
जाएंगे।
इससे
तेरे लिए उस
कर्तव्य और
अकर्तव्य की
व्यवस्था में
शास्त्र ही
प्रमाण है, ऐसा
जानकर तू
शास्त्र—विधि
से नियत किए
हुए कर्म को ही
करने के लिए
योग्य है।
अर्जुन
क्षत्रिय है, योद्धा
है। कृष्ण
शास्त्र की
बात कह रहे
हैं, क्योंकि
शास्त्र उस
दिन तय किया
था, समाज
चार हिस्सों
में विभाजित
था। बड़ी
कुशलता से
विभाजित किया
था। कुशलता
अनूठी है।
हिंदुओं की
खोज बड़ी गहरी
है।
आज
पाच हजार साल
हो गए। पांच
हजार साल में
दुनिया में
बहुत तरह के
लोगों ने
मनुष्यों को
बांटने की
कोशिश की है, कि
कितने प्रकार
के मनुष्य हैं?
अभी
अत्याधुनिक
कार्ल
गुस्ताव वा की
कोशिश है, पश्चिम
के बड़े
मनोवैज्ञानिक
की। वह भी
मनुष्यों को
चार हिस्सों
में ही बांट पाता
है। इन पांच
हजार सालों
में दुनिया के
कोने—कोने में
अलग—अलग
जातियों ने, अलग—अलग
विचारकों ने
खोज की है कि
आदमी कितने
प्रकार के हैं।
वह हमेशा चार
के ही आकड़े पर
आ जाते हैं।
हिंदुओं
ने बड़ी पुरानी
खोज की थी कि व्यक्ति
चार तरह के
हैं। और उन
चार तरह के
व्यक्तियों
को बांट दिया
था। और न केवल
ऊपर से बांट
दिया था, बल्कि
ऐसे समाज की
संरचना की थी
कि आप मर भी जाएं
आज, तो कल
आपकी आत्मा
अपने ही टाइप
की जाति को
खोज ले। वह
बड़ी गहरे
व्यूह की रचना
थी।
ब्राह्मण
मरकर
ब्राह्मण घर
में जन्म ले
सके और अनंत
जन्मों में
ब्राह्मण
घरों में तैर
सके, तो उसका
ब्राह्मणत्व
सिद्ध होता
चला जाएगा। और
किसी भी जन्म
में, शास्त्र
ने ब्राह्मण
के लिए जो कहा है,
वह उसका
मार्ग होगा।
अर्जुन
क्षत्रिय है।
आज के
क्षत्रिय को
तय करना
मुश्किल है। —
आज कौन
क्षत्रिय है, तय
करना मुश्किल
है। क्योंकि
शास्त्र की वह
व्यवस्था टूट
गई। और समाज
का वह जो ढंग
था, चार
विभाजन
स्पष्ट कर दिए
थे, जिनमें
कोई लेन—देन
नहीं था एक
तरह का, जिनमें
आत्माएं एक—दूसरे
में प्रवेश
नहीं कर पाती
थीं, वह आज
संभव नहीं है।
आज सब
अस्तव्यस्त
हो गया है। और
समाज—सुधार के
नाम पर नासमझ
लोगों ने बड़ी
उपद्रव की
बातें खड़ी कर
दी हैं।
उन्हें कुछ
पता भी नहीं
है कि वे क्या
कर रहे हैं।
लेकिन
उस दिन जिस
दिन अर्जुन से
कृष्ण ने यह बात
कही,
सब स्थिति
साफ थी।
अर्जुन
क्या कह रहा
है?
अर्जुन
ब्राह्मण की
माग कर रहा है।
वह इस ढंग का
व्यवहार कर
रहा है, जो
ब्राह्मण को
करना चाहिए।
वह जो प्रश्न
उठा रहा है, वे ब्राह्मण
के हैं। यह
हिंसा होगी, लोग मर
जाएंगे, इस
राज्य को पाकर
क्या करूंगा;
किसके लिए
पाऊं; इससे
तो बेहतर है, मैं सब छोड़
दूं और
संन्यस्त हो
जाऊं। वह
प्रश्न उठा
रहा है, जो
ब्राह्मण—चरित्र
के व्यक्ति के
लिए उचित है।
और अगर अर्जुन
ब्राह्मण
होता, तो
कृष्ण ने यह
गीता उससे
नहीं कही होती।
कृष्ण
यह गीता कहने
को मजबूर हुए
क्योंकि अर्जुन
का जो टाइप था, उसके
जो
व्यक्तित्व
का ढांचा था, वह क्षत्रिय
का था। और वह
कोई एक जन्म
की बात न थी।
अर्जुन अनंत
जन्मों से
क्षत्रिय था।
बहुत—बहुत बार
क्षत्रिय रह
चुका था।
क्षत्रिय
होना उसका
गहरा संस्कार
था। वह उसके
रोएं—रोएं में
समाया था।
उसकी आत्मा
क्षत्रिय की
थी।
इसलिए
यह अगर
ब्राह्मण भी
बन जाए, तो
इसका
ब्राह्मण
होना ऊपर—ऊपर
होगा, धोखा
होगा, पाखंड
होगा। यह जनेऊ
वगैरह पहन ले
और चंदन—तिलक
लगा ले और बैठ
जाए तो भी यह
जंचेगा नहीं।
इसके भीतर जो
ढंग है, वह
योद्धा का है।
यह ब्राह्मण
होने के योग्य
नहीं है। यह
ब्राह्मण हो
भी नहीं सकता।
क्योंकि
ब्राह्मण
होना कोई एक
क्षण की बात
नहीं है। इसके
अनंत जन्मों
के संस्कार
साफ करने
होंगे, तब
यह ब्राह्मण
हो सकता है।
यह कोई एक
क्षण का
निर्णय नहीं
है कि हमने तय
किया और हम हो
गए।
जैसे
आज आप तय कर
लें कि स्त्री
होना है, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ेगा आपके तय
करने से। आप
स्त्री के
कपड़े पहन सकते
हैं, चाल—ढाल
थोड़ी सीख सकते
हैं। लेकिन
स्त्रियां भी
आप पर हसेंगी।
रहेंगे आप
पुरुष ही। वह
स्त्री होना
ऊपर का पाखंड
हो जाएगा और
सिर्फ हंसी
योग्य हो
जाएंगे।
कृष्ण
अर्जुन को
समझा रहे हैं
कि तू शास्त्र
की तरफ देख, क्षत्रिय
के लिए
शास्त्र ने
क्या कहा है!
तू उससे यहां—वहा
मत हट, क्योंकि
वही तेरी
सिद्धि है।
क्षत्रिय
होकर ही और
क्षत्रिय के
धर्म का ठीक—ठीक
अनुसरण करके
ही तेरा मोक्ष
तुझे मिलेगा।
तो
क्षत्रिय की
क्या सिद्धि
होगी? और क्या
उसका मार्ग
होगा?
कृष्ण
कह रहे हैं, क्षत्रिय
सोचता ही नहीं
कि कोई मरता
है; क्षत्रिय
सोचता ही नहीं
कि भविष्य में
क्या होगा।
क्षत्रिय
सोचता ही नहीं।
क्षत्रिय
लड़ना जानता है।
लड़ना उसका
ध्यान है। वह
युद्ध में
ध्यानस्थ हो
जाता है। वह न
यह जानता है
कि मैं मर रहा
हूं कि दूसरा
मर रहा है; वह
युद्ध में
निर्भय हो
जाता है।
युद्ध के क्षण
में उसकी
चित्त की दशा
न तो मारने के,
न तो मरने
के विचार से
डोलती। वह
निश्चित खड़ा हो
जाता है। कौन
मरता है, यह
गौण है। युद्ध
उसके लिए एक
खेल है, वह
अभिनय है, वह
उसके लिए कोई
बहुत गंभीरता
का प्रश्न
नहीं है। वह
दोपहर लड़ेगा,
सांझ तक
लड़ेगा, सांझ
बात भी नहीं
करेगा कि
युद्ध में
क्या हुआ। रात
विश्राम
करेगा। रात
उसकी नींद में
खलल भी नहीं
पड़ेगी कि
दिनभर इतना
युद्ध हुआ, इतने लोग
कटे। वह रात
मजे से सोएगा।
सुबह उठकर फिर
युद्ध की तरफ
चल पड़ेगा।
युद्ध उसके
लिए एक खेल और
अभिनय है।
कृष्ण
कह रहे हैं कि
तू इस पूरे
युद्ध को एक
नाटक से
ज्यादा मत जान।
और तेरी जो
शिक्षा है, तेरी
जो दीक्षा है,
तेरा जो
संस्कार है, शास्त्र जो
कहता है, तू
उसके हिसाब से
चुपचाप चल। तू
अपना कर्तव्य
पूरा कर। तू
चिंता में मत
पड़। यह चिंता
तुझे शोभा
नहीं देती।
अगर इस चिंता
में—यह करूं
या वह करूं; हं। या न, अच्छा
या बुरा—तू
उलझ गया, तो
तू अपने धर्म
से च्यूत हो
जाएगा। और तब
तुझे अनंत
जन्म लग
जाएंगे। और
यहां इस युद्ध
के क्षण में
इसी क्षण तू
मुक्त हो सकता
है। बस इतना
ही तुझे करना
है कि तू अपने
कर्ता का भाव
छोड़ दे।
क्षत्रिय
वही है, जो
कर्ता नहीं है।
जापान
में
क्षत्रियों
का एक समूह है, समुराई।
वह अब भी
क्षत्रिय है।
और अनेक
पीढ़ियों से
समुराई तैयार
किए गए हैं।
क्योंकि हर
कोई समुराई
नहीं हो सकता,
बाप समुराई
रहा हो, तो
ही बेटा
समुराई हो
सकता है।
हम, जैसा
कि फलों की
फसल तैयार
करते हैं, तो
अच्छे फलों का
बीज चुनते हैं।
फिर और उनमें
से अच्छे फल, फिर उनमें
से अच्छे फल।
फिर फल बड़ा
होता जाता है,
सुस्वादु
होता चला जाता
है।
तो
अनेक पीढ़ियों
में समुराई
चुने गए हैं।
वह
क्षत्रियों
की जाति है।
समुराई का एक
ही लक्ष्य है
कि जब मैं
युद्ध में
लडूं? तो
युद्ध तो हो, मैं न रहूं।
मेरी तलवार तो
चले, लेकिन
चलाने वाला न
हो। तलवार
जैसे परमात्मा
के हाथ में आ
जाए, वही
चलाए; मैं
सिर्फ
निमित्त हो
जाऊं।
इसलिए
कहते हैं कि
अगर दो समुराई
युद्ध में उतर
जाएं, तो बड़ा
मुश्किल हो
जाता है कि
कौन जीते, कौन
हारे।
क्योंकि
दोनों ही अपने
को मिटाकर
लड़ते हैं।
दोनों की
तलवारें चलती
हैं; लेकिन
दोनों की
तलवारें
परमात्मा के
हाथ में होती
हैं। कौन हारे,
कौन जीते।
समुराई—सूत्र
है कि वही
आदमी हार जाता
है,
जो थक जाता
है जल्दी और
वापस अपने
अहंकार को लौट
जाता है।
जिसको भाव आ
जाता है मैं
का, वह हार
जाता है। जो
आदमी
धैर्यपूर्वक
परमात्मा पर
छोड्कर चलता
जाता है, उसके
हारने का कोई भी
उपाय नहीं है।
कृष्ण कह रहे
हैं, तेरे
लिए इस
कर्तव्य और
अकर्तव्य की
व्यवस्था में
शास्त्र ही
प्रमाण है, ऐसा जानकर
तू शास्त्र—विधि
से नियत किए
हुए कर्म को
ही करने के
लिए योग्य है।
यह
कर्तव्य और
अकर्तव्य की
व्याख्या
कृष्ण ने की।
क्या करने
योग्य है, क्या
करने योग्य
नहीं है! क्या
त्याग देना है,
और क्या
जीवन में बचा
लेना है! कौन—से
नरक के द्वार
हैं, वे
बंद हो जाएं, तो कैसे
मोक्ष का
द्वार खुल
जाता है!
ये
सारी बातें
आपने सुनीं।
ये बातें
अर्जुन को कही
गई हैं। इन पर
आप सोचना। अगर
आपकी चित्त—दशा
अर्जुन जैसी
हो,
तो ये बातें
आपके लिए
बिलकुल सीधा
मार्ग बन
जाएंगी। अगर
आपकी चित्त—दशा
अर्जुन जैसी न
हो, और आप
कोई संबंध ही
न जोड़ पाते
हों अपने और
अर्जुन में, तो आप इन
बातों को अपने
पर ओढ़ने की
कोशिश मत करना।
क्योंकि वह
भूल हो जाएगी
वही, जो
अर्जुन कर रहा
था।
इन
बातों को
समझना, सोचना,
इनके साथ—साथ
अपने स्वभाव
को समझना और
सोचना। दोनों
को समानांतर
रखना। अगर
उनमें कोई मेल
उठता हो, अगर
दोनों में एक—सी
धुन बजती हो, अगर दोनों
में संयोग
बनता हो, तो
ये सूत्र आपके
काम आ सकते
हैं।
लेकिन
गीता में करीब—करीब
कृष्ण ने वे
सारे सूत्र कह
दिए हैं, जितने
प्रकार के
मनुष्य हैं।
वे सारे सूत्र
कह दिए हैं।
इसलिए गीता
इतनी लंबी चली।
अर्जुन के
बहाने कृष्ण
ने पूरी
मनुष्य जाति को
उदबोधित किया
है।
तो
चाहे इस
अध्याय में, चाहे
किसी और
अध्याय में, आपके लिए भी
कहे गए वचन
हैं। इतनी
थोड़ी—सी मेहनत
आपको करनी
पड़ेगी कि अपने
को थोड़ा समझें
और अपने योग्य,
अपने
अनुकूल वचनों
को थोड़ा
पहचानें। और
उचित ही है कि
इतनी मेहनत आप
करें।
क्योंकि
बिलकुल चबाया
हुआ भोजन मिल
जाए, तो
आत्मघाती है।
थोड़ा आप चबाएं
और पचाएं। और
यहां उत्तर
बंधे हुए नहीं
हैं, उत्तर
खोजने पड़ेंगे।
मैंने
सुना है, एक
अदालत में
मुकदमा चला एक
आदमी पर, उसने
हत्या की थी।
और एक गवाह को
मौजूद किया
गया, गांव
के एक किसान
को। और उस
गवाह से वकील
ने पूछा कि जब
रामू ने पंडित
जी पर
कुल्हाड़ी से
हमला किया, तो तुम
कितनी दूर खड़े
थे? उसने
कहा कि छ: फीट
साढ़े छ: इंच; उस किसान ने
कहा। वकील भी
चौंका, अदालत
भी होश में आ
गई, मजिस्ट्रेट
भी चौंका। और
वकील ने कहा, तुमने तो इस
तरह बताया है
कि जैसे तुमने
पहले से ही सब
नाप—जोखकर रखा
हो। छ: फीट
साढ़े छ: इंच!
उस
किसान ने कहा, मुझे
पता था कि कोई
न कोई मूर्ख
आदमी यह सवाल
मुझसे यहां
जरूर पूछेगा;
तो यहां आने
के पहले पहला
काम मैंने यह
किया। बिलकुल
नापकर आया हूं।
इस
तरह बंधे हुए
सवाल और उत्तर
आपको गीता में
नहीं मिल सकते।
सब जवाब वहां
मौजूद हैं, सब
सवालों के
जवाब मौजूद
हैं। लेकिन
पहले एक तो
आपको अपना
सवाल पहचानना
पडेगा, फिर
अपने सवाल को
लेकर गीता में
खोजना पड़ेगा।
जवाब आपको मिल
जाएगा। और वह
जवाब जब तक न
मिले, तब
तक गीता को
ऊपर से ओढने
की कोशिश मत
करना, क्योंकि
वह खतरनाक हो
सकती है।
गीता
एक आदमी के
लिए कही गई है, लेकिन
एक आदमी के
बहाने सब
आदमियों से
कही गई है।
इसलिए उसमें
बहुउत्तर हैं,
अनंत उत्तर
हैं, आपका
उत्तर भी वहा
है। और आप
अपने को
पहचानते हों,
तो उस उत्तर
को खोज ले
सकते हैं। फिर
वही उत्तर
आपके जीवन की
साधना बन सकता
है।
आज
इतना ही।
(गीता
दर्शन—सातवां भाग
समाप्त)
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