बिना
विचारे कुछ
करने की
प्रवृत्ति
पहली चीज है
जिसको तोड़
डालना है।
विचार करने की
प्रवृत्ति
पैदा करनी है
और बिना विचार
किए मान लेने
की प्रवृत्ति
तोड़ देनी है।
मेरे
प्रिय आत्मन्!
एक
मित्र ने पूछा
है कि मृत्यु
से बड़ा कोई
सत्य नहीं ऐसा
मैने कभी कहा
है;
और फिर यह
भी कभी कहा है
कि मृत्यु
जैसी कोई चीज
ही नहीं है।
इन दोनों में
वे पूछते हैं
कि कौन— सी बात
सच है?
इन
दोनों में ये
दोनों ही
बातें सच हैं।
जब मैंने यह
कहा कि मृत्यु
से बड़ा कोई
सत्य नहीं, तो
मैं इस बात की
तरफ ध्यान
दिला रहा हूं
कि इस जीवन
में, जिसे
हम जीवन कहते
हैं, जिसे
हम जीवन समझते
हैं; और इस
व्यक्तित्व
में जिसे मैं 'मैं' कहता
हू इस
व्यक्तित्व
में और इस
जीवन में मरने
की घटना बहुत
बड़ा सत्य है।
यह
व्यक्तित्व
भी मरेगा, यह
जीवन, जिसे
हम जीवन कहते
हैं, यह
जीवन भी
मरेगा।
मृत्यु, होगी
ही। आप तो
मरेंगे ही, मैं तो
मरूंगा ही। और
जिसे मैं जीवन
कह रहा हूं वह
भी मिटेगा, नष्ट होगा, धूल में
गिरेगा।
तो
जब मैं यह
कहता हूं कि
मृत्यु से बड़ा
कोई सत्य नहीं, तो
मैं इस बात की याद
दिलाना चाहता
हूं कि मैं, आप, हम सब
मरेंगे। और जब
मैं यह कहता
हूं कि मृत्यु
बिलकुल ही
असत्य है, तो
मैं यह याद
दिलाना चाहता
हूं कि 'मैं'
के भीतर कोई
और भी है जो
नहीं मरेगा, आपके भीतर
कोई और भी है
जो नहीं
मरेगा। और
जिसे आप जीवन
समझ रहे हैं, उससे भिन्न
कोई जीवन भी
है जिसमें कोई
मृत्यु नहीं।
ये दोनों ही
बातें सच हैं,
एक ही साथ
सच हैं। और
इनमें से अगर
एक को सच माना,
तो पूरे
सत्य का बोध न
हो पाएगा।
समझें!
अगर कोई कहे
कि छाया एक
सत्य है, अगर
कोई कहे कि
अंधकार एक
सत्य है, तो
वह झूठ नहीं
कहता। अंधकार
है, छाया
है। फिर कोई
कहे कि अंधकार
है ही नहीं, तब भी गलत
नहीं कहता। तब
वह यह कह रहा
है कि अंधकार
का कोई
पॉजिटिव
एक्सिस्टेंस,
कोई विधायक
अस्तित्व
नहीं है। अगर
मैं आपसे कहूं
कि दो पोटली
अंधकार बाहर से
ले आएं, तो
आप ला न
सकेंगे। और
अगर आपसे कहूं
कि एक कमरे
में अंधेरा
भरा है, इसे
निकाल कर बाहर
फेंक दें, तो
आप फेंक न
सकेंगे। और
फिर मैं आपसे
पूछूं कि अगर
अंधकार है तो
कृपा करके इसे
बाहर ले जाइए!
तो आप कहेंगे
कि अंधकार को
बाहर नहीं ले
जाया जा सकता।
क्यों? क्योंकि
अंधकार
विधायक नहीं
है, निगेटिव
है। अंधकार
केवल प्रकाश
की अनुपस्थिति
का नाम है।
अंधकार
है,
दिखाई पड़
रहा है, और
फिर भी अंधकार
सिर्फ प्रकाश
की अनुपस्थिति
है, एबसेंस
है। इसलिए
अंधकार को अगर
कोई कहे कि
बिलकुल नहीं
है, तो भी
ठीक कहता है।
प्रकाश है और
प्रकाश का न
होना है, अंधकार
जैसी कोई चीज
नहीं है।
इसलिए
हम प्रकाश के
साथ कुछ भी कर
सकते हैं, अंधकार
के साथ कुछ भी
नहीं कर सकते।
अगर अंधकार को
हटाना हो, तो
प्रकाश को
जलाना पड़े। और
अगर अंधकार को
लाना हो, तो
प्रकाश को
बुझाना पड़े।
अंधकार के साथ
सीधा कुछ भी
नहीं किया जा
सकता है।
दौड़ते
हैं रास्ते पर, पीछे
छाया बनती है।
छाया है। कौन
कहेगा नहीं है!
दिखाई पड़ती है,
है। पीछे
दौड़ती है, भागती
है। और फिर भी
कहा जा सकता
है, छाया
नहीं है।
क्योंकि छाया
का कोई
अस्तित्व नहीं
है। छाया का
मतलब केवल
इतना है कि हम
प्रकाश को रोक
लेते हैं, तो
जितना प्रकाश
हम रोक लेते
हैं उतने
प्रकाश का
पीछे अभाव हो
जाता है।
इसलिए सूरज जब
सिर पर आ जाता
है, तो
छाया बननी बंद
हो जाती है।
क्योंकि
प्रकाश रुकता
नहीं। अगर हम
एक काच का
आदमी बनाएं, तो उसकी
छाया न बनेगी।
क्योंकि उससे
प्रकाश आर—पार
निकल जाएगा।
प्रकाश
अवरुद्ध हो
जाता है, तो
छाया दिखाई
पड़ती है। छाया
केवल प्रकाश
का अभाव है, अनुपस्थिति
है।
तो
कोई अगर कहे
कि छाया है, तो
गलत नहीं
कहता। लेकिन
आधा है यह
सत्य, साथ
में उसे यह भी
कहना चाहिए, छाया है भी
नहीं, तब
सत्य पूरा हो
जाता है। इसका
मतलब हुआ कि
छाया कुछ ऐसी
है कि नहीं भी
है। इसका मतलब
यह हुआ। लेकिन
हम जिस तरह
सोचते हैं, वहां हम
चीजों को
बिलकुल दो
हिस्सों में
तोड़ कर देखते
हैं।
एक
बार ऐसा हुआ, एक
अदालत में एक
मुकदमा चला।
एक आदमी ने
किसी की हत्या
कर दी है। आंखों
देखे गवाहों
ने अदालत में
गवाही दी। एक
गवाह ने कहा
कि यह हत्या
खुले आकाश के
नीचे हुई और
जिस समय हत्या
हुई, उस
समय आकाश में
तारे थे।
मैंने तारे भी
देखे और यह
हत्या होते
हुए भी देखी।
उसके ठीक बाद
दूसरे आंख
देखे गवाह ने
कहा कि यह
हत्या घर के भीतर
हुई है, दरवाजे
के पास, दीवाल
के निकट।
दीवाल पर खून
के छींटों के
दाग भी हैं।
और मैं दीवाल
से सटकर खड़ा
था, मेरे
ऊपर तक खून के
दाग आए हैं।
यह हत्या घर
के भीतर हुई।
उस
न्यायाधीश ने
कहा,
बड़ी
मुश्किल है, तुम दोनों
कैसे सच हो
सकोगे? तुम
दोनों में से
एक कोई जरूर
ही झूठ बोल
रहा है। वह जो
हत्यारा था, वह हंसने
लगा।
न्यायाधीश ने
पूछा, तुम
क्यों हंसते
हो? उसने
कहा कि मैं
आपको कहे देता
हूं ये दोनों
ही ठीक कहते
हैं। मकान
अधबना था, अभी
छप्पर न पड़ा
था। ऊपर तारे
दिखाई पड़ रहे
थे। खुले आकाश
के नीचे हत्या
हुई और दीवाल
के पास हुई है
—दरवाजे के
पास। और दीवाल
पर खून के
धब्बे भी पड़े हैं।
मकान उठ गया
था, दीवालें
उठ चुकी थीं, सिर्फ छप्पर
पड़ने को रह
गया था। ये
दोनों ही ठीक
कहते हैं।
जिंदगी
इतनी जटिल है
कि वहां जो
बातें हमें विरोधी
दिखाई पड़ती
हैं,
वे भी ठीक
हो जाती हैं।
जिंदगी बहुत
जटिल है। जिंदगी
वैसी नहीं है,
जैसा हम
सोचते हैं।
जिंदगी में
बहुत विरोध
समाहित है। जिंदगी
बहुत बड़ी है।
तो
मृत्यु एक
अर्थ में सबसे
बड़ा सत्य है, क्योंकि
जैसा हम जी
रहे हैं वह
मरेगा, जो
हम हैं वह भी
मरेगा, जो
हमने ढांचा
बनाया है वह
भी मरेगा, जिसे
हमने सब कुछ
समझ रखा है वह
सब मरेगा—पत्नी
मरेगी, पति
मरेगा, बेटा
मरेगा, बाप
मरेगा, मित्र
मरेगा, सब
मरेंगे। और
फिर भी मृत्यु
एक असत्य है, क्योंकि
बेटे के भीतर
कोई है जो
बेटा नहीं है,
वह नहीं
मरेगा; और
बाप के भीतर
कोई है जो बाप
नहीं है, वह
नहीं मरेगा।
बाप मर जायेगा
और कोई भीतर
और भी है बाप
के अतिरिक्त,
बाप से
भिन्न, संबंध
से दूर, वह मरेगा।
शरीर मरेगा और
कोई है शरीर
के भीतर जो नहीं
मरता है। ये
दोनों बातें
एक ही साथ सत्य
हैं। इसलिए
मृत्यु को
समझने में ये
दोनों ही
बातें स्मरण
रखनी उचित है।
एक
और मित्र
पूछते हैं कि आपकी
बातों से तो जिन
चीजों को हम मिटा
देना चाहते है,
जिन—जिन चीजों
को वहम की
सुपरस्टीशन
की
अंधविश्वास
की जिन जंजीरों
को तोड़ देना चाहते
हैं वे और
मजबूत हो जाती
है। आपकी
बातों से
पुनर्जन्म
मालूम होता है
प्रेत मालूम
होते हैं देव
मालूम होते हैं
आत्मा का
आवागमन मालूम
होता है। तो
फिर जिन
अंधविश्वासों
को मिटाना है
वे तो और
मजबूत हो जाएंगे।
इसमें
दो बातें
समझनी चाहिए।
पहली तो यह कि
अगर बिना किसी
बात की
खोज—बीन किए
ही उसे अंधविश्वास
मान लिया है, तो
यह
अंधविश्वास
से भी बडा
अंधविश्वास
है। यह तो
बहुत
सुपरस्टीशस
माइंड हुआ।
जिसने बिना खोज—बीन
किए.।
एक
आदमी मानता है
कि भूत —प्रेत
हैं,
हम उसे कहते
हैं
अंधविश्वासी
है। और हम मान
लेते हैं कि
नहीं हैं, और
हम बड़े ज्ञानी
हो जाते हैं।
लेकिन पूछना
यह है कि
अंधविश्वास
का मतलब क्या
होता है! जो कहता
है कि
भूत—प्रेत हैं,
अगर उसने
बिना खोजे मान
लिया हो, तो
वह
अंधविश्वास
है। और जो
कहता है, नहीं
हैं, उसने
भी अगर बिना
खोजे मान लिया
हो, तो वह
भी
अंधविश्वास
है।
अंधविश्वास
का मतलब है, जो हम नहीं
जानते उसको
मान लेना।
अंधविश्वास का
यह मतलब नहीं
होता कि जो
हमसे विपरीत
है, वह
अंधविश्वासी
है।
ईश्वर
को मानने वाला
भी
अंधविश्वासी
हो सकता है, ईश्वर
को न मानने
वाला भी उतना
ही
अंधविश्वासी,
उतना ही
सुपरस्टीशस
हो सकता है।
अंधविश्वास की
परिभाषा समझ
लेनी चाहिए।
अंधविश्वास
का मतलब है, बिना जाने
अंधे की तरह
जिसने मान
लिया हो। रूस
के लोग
अंधविश्वासी
नास्तिक हैं,
हिंदुस्तान
के लोग
अंधविश्वासी
आस्तिक हैं।
दोनों
अंधविश्वासी
हैं। न तो रूस
के लोगों ने
पता लगा लिया
है कि ईश्वर
नहीं है और तब
माना हो, और
न हमने पता
लगा लिया है
कि ईश्वर है
और तब माना
हो। तो
अंधविश्वास
सिर्फ आस्तिक
का होता है, इस भूल में
मत पड़ना।
नास्तिक के भी
अंधविश्वास
होते हैं। बड़ा
मजा तो यह है
कि साइंटिफिक
सुपरस्टीशन
जैसी चीज भी
होती है, वैज्ञानिक
अंधविश्वास
जैसी चीज भी
होती है। जो
कि बड़ा उलटा
मालूम पड़ता है
कि वैज्ञानिक
अंधविश्वास
कैसे होगा!
वैज्ञानिक
अंधविश्वास भी
होता है।
अगर
आपने युक्लिड
की
ज्यामेट्री
के बाबत कुछ पढ़ा
है,
तो आप
पड़ेंगे —बच्चे
स्कूल में
पढ़ते हैं
ज्यामेट्री
तो युक्लिड
कहता है—रेखा
उस चीज का नाम
है जिसमें
लंबाई हो, चौड़ाई
नहीं। इससे
ज्यादा
अंधविश्वास
की क्या बात
हो सकती है? ऐसी कोई
रेखा ही नहीं
होती, जिसमें
चौड़ाई न हो।
बच्चे पढ़ते
हैं कि बिंदु
उसको कहते हैं
जिसमें लंबाई
—चौड़ाई दोनों
न हों। और बड़े
से बड़ा
वैज्ञानिक भी
इसको मानकर
चलता है कि
बिंदु उसे
कहते हैं
जिसमें लंबाई
—चौड़ाई न हो।
जिसमें
लंबाई—चौड़ाई न
हो, वह
बिंदु हो सकता
है?
हम
सब जानते हैं
कि एक से नौ तक
की गिनती होती
है,
नौ डिजिट
होते हैं, नौ
अंक होते' हैं
गणित के। कोई
पूछे कि यह
अंधविश्वास
से ज्यादा है?
नौ ही क्यों?
कोई
वैज्ञानिक
दुनिया में
नहीं बता सकता
कि नौ ही
क्यों? सात
क्यों नहीं? सात से क्या
काम में अड़चन
आती है? तीन
क्यों नहीं? ऐसे गणितज्ञ
हुए हैं।
लिबनीत्स एक
गणितज्ञ हुआ
है जिसने तीन
से ही काम चला
लिया। है।, उसका ऐसा है
कि एक, दो, तीन, फिर
आता है दस, ग्यारह,
बारह, तेरह,
फिर आता है
बीस, इक्कीस,
बाईस, तेईस।
बस, ऐसी
उसकी संख्या
चलती है। काम
चल जाता है, कौन सी अड़चन
होती है! वह भी
गिनती कर लेगा
यहां बैठे
लोगों की। और
वह कहता है कि
मेरी गिनती गलत,
तुम्हारी
सही, कैसे
तुम कहते हो २:
हम तीन से ही
काम चला लेते हैं।
वह कहता है, नौ की जरूरत
क्या है? नौ
कौन कहता है? आइंस्टीन ने
बाद में कहा
कि तीन भी
फिजूल है, दो
ही से काम चल
जाता है।
सिर्फ एक से
नहीं चल सकता,
बहुत
मुश्किल
होगी। दो से
भी चल सकता
है। नाइन
डिजिट, नौ
आकड़े होने चाहिए
गणित में, यह
एक वैज्ञानिक
अंधविश्वास
है। लेकिन
गणितज्ञ भी
पकडे हुए बैठा
है कि इतने ही
हो सकते हैं
आकड़े। उससे
कहो कि सात से
काम चलेगा, तो वह भी
मुश्किल में
पड़ जाएगा। यह
भी मान्यता है,
इसमें कुछ
और ज्यादा
मतलब नहीं है।
हजारों
चीजें
वैज्ञानिक
रूप से हम
मानते हैं कि
ठीक हैं, वे
अंधविश्वास
ही होती हैं।
तो वैज्ञानिक
अंधविश्वास
भी होते हैं।
इस युग में तो
धार्मिक
अंधविश्वास
क्षीण होते जा
रहे हैं, वैज्ञानिक
अंधविश्वास
मजबूत होते
चले जा रहे
हैं। फर्क
इतना होता है
कि अगर
धार्मिक आदमी
से पूछो कि
भगवान का
तुम्हें कैसे
पता चला? तो
वह कहेगा कि
गीता में लिखा
है। और अगर
उससे यह पूछो
कि तुम यह कह
रहे हो कि गणित
में नौ आकड़े
होते हैं, यह
तुम्हें कैसे
पता चला है? तो वह कहेगा
कि फलां
गणितज्ञ की
किताब में लिखा
हुआ है। फर्क
क्या हुआ इन
दोनों में? एक गीता बता
देता है, एक
कुरान बता
देता है, एक
गणित की किताब
बता देता है।
फर्क क्या है?
मैं
अंधविश्वास
के एकदम विरोध
में हूं। सब
तरह के
अंधविश्वास
टूटने चाहिए।
लेकिन इसका
मतलब यह नहीं
है कि मैं
तोड्ने के लिए
अंधविश्वासी
हूं कि किसी
भी चीज को
तोडना चाहिए तो
फिर बिना
फिकिर उसको
तोड्ने में लग
जाने की जरूरत
है। वह ठीक है
या गलत, इसकी
फिक्र छोड़ो, तोड़ो पहले, तोडना जरूरी
है। फिर यह
तोडना भी एक
अंधविश्वास
हो जाएगा।
इसका
मतलब यह हुआ
कि हमें समझ
लेना चाहिए कि
अंधविश्वास, सुपरस्टीशन
का मतलब क्या
है।
सुपरस्टीशन
का मतलब है कि
जिसे हम बिना
जाने मान लेते
हैं। और हम
बहुत—सी चीजें
मान लेते हैं।
और बहुत —सी
चीजें बिना
जाने इनकार कर
देते हैं, यह
भी
अंधविश्वास
है।
अब
समझ लें कि
गांव में एक
आदमी को भूत
लग गया हो, तो
उस गांव के
सभी पढ़े — लिखे
लोग कहेंगे कि
अंधविश्वास
है, सुपरस्टीशन
है। गैर पढे
—लिखे लोग तो
अंधविश्वासी
हैं ही, इसको
मान कर ही चला
जाता है।
इसलिए मान कर
चला जाता है
कि हमने उन पर
थोप ही दिया
है कि वे
अंधविश्वासी
हैं। क्योंकि
वै बेचारे गैर
पढ़े —लिखे
होने की वजह
से, जो भी
मानते हैं
उसके लिए दलील
देने में
असमर्थ हैं।
पढ़े —लिखे
सारे गांव के
लोग कहते हैं
कि यह जो
प्रेत लगा हुआ
है, यह
बिलकुल झूठी
बात है।
लेकिन
उनको पता नहीं
है कि अमरीका
में हारवर्ड
युनिवर्सिटी
जैसे
विश्वविद्यालय
में एक विभाग
है,
जो
भूत—प्रेत का
ही अध्ययन
करता है। और
उस विभाग ने
भूत—प्रेतों
के चित्र भी
लेकर
प्रस्तावित
कर दिए हैं।
हमें पता नहीं
है कि इस समय
दुनिया के कुछ
बड़े वैज्ञानिक
भूत —प्रेत की
खोज में इतने
तल्लीन हैं और
इतने नतीजों
पर पहुंचे हैं
कि आपको आज नहीं
कल पता चलेगा
कि पढ़ा—लिखा
आदमी
अंधविश्वासी
था। और वह जो
अंधविश्वासी
था, वह
जानता तो नहीं
था, लेकिन
वह जो कह रहा
था, ठीक ही
कह रहा था।
अगर
आप राइन या
ओलीवर लाज की
किताबें पढ़ें
तो आप दंग रह
जाएंगे।
ओलिवर लाज नोबुल
प्राइज विनर
वैज्ञानिक था
और जिंदगी भर
भूत —प्रेतों
में संलग्न
रहा। और मरते
वक्त
दस्तावेज कर—
गया कि
विज्ञान के भी
सत्य जो मैंने
खोजे हैं, वे
उतने सत्य
नहीं हैं
जितने
भूत—प्रेत
सत्य हैं।
लेकिन
हमें उनका कुछ
पता नहीं है।
क्योंकि हम
पढ़ा—लिखा
अंधविश्वास
हैं। वह कभी
यह फिक्र ही
नहीं करता कि
क्या हो —रहा
है दुनिया में, कहां,
क्या खोज हो
रही है।
अगर
यहां कोई आदमी
कहेगा कि
मैंने किसी
दूसरे आदमी के
मन की बात जान
ली,
तो हम
कहेंगे कि यह
अंधविश्वास
है। सोवियत
रूस में, जहां
कि वे पक्के
वैज्ञानिक
अपने को मानते
हैं, कच्चे
भी नहीं, वहा
एक आदमी है
फयादेव। वह
वैज्ञानिक है
रूस का बड़ा।
उसने मास्को
में बैठकर एक
हजार मील दूर
बैठे हुए आदमी
के दिमाग में
विचार
संप्रेषित कर
दिया। और उसके
वैज्ञानिक
परीक्षण हो गए
और वह सही
पाया गया। एक
हजार मील दूर
तिफलिस में एक
आदमी के दिमाग
में उसने
मास्को में
बैठकर खयाल
पहुंचा दिये,
बिना किसी
माध्यम के।
और
वे इसलिए खोज
—बीन में लगे
हैं कि आज
नहीं कल अंतरिक्ष
की यात्रा में
इसकी जरूरत
पड़ेगी। क्योंकि
अंतरिक्ष की
यात्रा में
अगर यंत्र बिगड़
गए— और
यंत्रों का बिगड़ना
सदा ही
संभावित है—तो
यान सदा के
लिए खो जाएगा, फिर
वह कभी नहीं
लौट सकेगा, उस यान के
यात्री फिर
कभी भी न मिल
सकेंगे। तो किसी
भूल—चूक में
अगर यत्र जबाब
दे जायें, तो
बिना यंत्रों
के भी यान के
यात्रियों से
संबंध
स्थापित किया
जा सके, इसकी
चिंता में वे
टेलीपैथी की
खोज में रूस
में जोर से
लगे हुए हैं।
और इन नतीजों
पर पहुंचे हैं
जो हैरान करने
वाले हैं।
फयादेव
ने जो प्रयोग
किया है
मास्को में
बैठकर। एक
हजार मील दूर
तिफलिस में एक
आदमी..... फयादेव
के मित्र एक
झाड़ी में छिपे
बैठे हैं। वायरलेस
हाथ में लिये
हुए हैं। पूरे
वक्त खबरें हो
रही हैं। फिर
वे मित्र झाड़ी
में छिपे हुए, फयादेव
को कहते हैं
कि दस नंबर की
बेंच पर—एक बगीचे
में यह प्रयोग
हो रहा है—दस
नंबर की बेंच पर
एक आदमी आकर
बैठा है। आप
कृपा करके तीन
मिनट के भीतर
उसे सो जाने
का संदेश
भेजें कि वह
सो जाए। वह
आदमी मजे से
गुनगुना रहा
है, सिगरेट
पी रहा है, उसके
सोने की कोई
उम्मीद नहीं
है।
फयादेव
ने तीन मिनट
तक सुझाव भेजे
उस आदमी को—जैसा
मैं आपसे कहता
हूं, शिथिल हो
रहे हैं, शिथिल
हो रहे
हैं—फयादेव ने
एक हजार मील
दृr से
भावना की कि
सो जाओ, सो
जाओ। और विचार
में दस नंबर
की बेंच की
तरफ ध्यान
किया और सो
जाओ, सो
जाओ के विचार
भेजे। तीन
मिनट, ठीक
तीन मिनट में
वह आदमी सो
गया। उसके हाथ
की सिगरेट
नीचे गिर गई।
लेकिन संयोग
हो सकता है। कोई
आदमी थका—मादा
दस नंबर की
बेंच पर बैठा
हो, सो गया
हो। यह कोई
इतनी जल्दी
मान लेने की
बात नहीं है।
तो मित्रों ने
खबर दी कि सो
तो गया है, लेकिन
क्या पता, संयोग
से सो गया हो।
तो ठीक सात
मिनट के भीतर
उसे वापस उठा
दो।
तो
फयादेव उसे
सुझाव भेजता
है। ठीक सात
मिनट पर वह
आदमी आंख
खोलकर उठकर
बैठ जाता है।
उसको कुछ भी
पता नहीं है
कि क्या हो
रहा है। वह तो
अपरिचित आदमी
है जो बेंच पर
आकर बैठ गया
है।
वे
मित्र उसको
घेर लेते हैं
और उससे पूछते
हैं कि आपको
कुछ मालूम तो
नहीं पड़ा।
उसने कहा, मालूम
जरूर पड़ा। मैं
बडा हैरान
हुआ। मैं तो
किसी की
प्रतीक्षा के
लिए यहां आकर
बैठा हूं। और
अचानक मुझे
ऐसा लगा कि
जैसे सारा
शरीर सोया जा
रहा है, मेरे
वश के ही बाहर
हो गया, मैं
सो गया। और
फिर ऐसा लगा
कि जैसे कोई
जोर से कह रहा
है, उठ आओ, उठ आओ, ठीक
सात मिनट में
उठ आओ। मैं
कुछ हैरान हूं
कि क्या हुआ
है यह।
अब
इस आदमी को
कुछ भी पता
नहीं है।
विचार—संप्रेषण, बिना
किसी माध्यम
के, वैज्ञानिक
सत्य बन गया
है। लेकिन
हमारा
पढ़ा—लिखा आदमी
कहेगा कि कहां
के अंधविश्वास
की आप बात कर
रहे हैं। यानी
यह हो सकता है
कि दूसरे गांव
में आदमी
बीमार हो और
इस गाव से
उसको ठीक किया
जा सके, इसमें
बहुत कठिनाई
नहीं है। यह
हो सकता है कि किसी
दूसरे गांव
में सांप ने
कांटा हो और
हजार मील दूर
से उसे झाड़ा
जा सके, इसमें
कोई बहुत
कठिनाई नहीं
है।
लेकिन
अंधविश्वास
बहुत तरह के
हैं। और ध्यान
रहे कि गैर
पढ़े —लिखे
अंधविश्वास
से पढ़ा—लिखा अंधविश्वास
हमेशा खतरनाक
होता है।
क्योंकि पढ़ा—लिखा
अंधविश्वास
अपने
अंधविश्वास
को अंधविश्वास
नहीं मानता।
वह कहता है, यह
तो हमारी बड़े
विचार की बात
है।
अब
वह मित्र कहते
हैं कि हमें
कुछ जंजीरें
तोड़नी हैं।
पहले
पक्का पता लगा
लें कि
जंजीरें हैं!
नहीं तो नाहक
तोड्ने में
हाथ—पैर न तोड़
डालना आदमी के।
जंजीरें हों
तो टूट सकती
हैं,
जंजीरें न
हों तो? और
यह भी ध्यान
रहे कि कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि जिसे आप
जंजीर समझकर
तोड रहे हैं, वह आभूषण हो,
और कल फिर
बनाना पड़े। इस
सबकी बहुत
सोच—समझ की जरूरत
है।
मैं
अंधविश्वास
के एकदम विरोध
में हूं। सब
तरह के
अंधविश्वास
टूटने चाहिए।
लेकिन इसका मतलब
यह नहीं है कि
मैं तोड्ने के
लिए
अंधविश्वासी
हूं कि किसी
भी चीज को
तोड़ना चाहिए
तो फिर बिना
फिकिर उसको
तोड्ने में लग
जाने की जरूरत
है। वह ठीक है या
गलत,
इसकी फिक्र
छोड़ो, तोड़ो
पहले, तोड़ना
जरूरी है। फिर
यह तोड़ना भी
एक अंधविश्वास
हो जाएगा।
हर
युग के अपने
अंधविश्वास
होते हैं।
अंधविश्वास
का भी फैशन
होता है।
ध्यान रहे, अंधविश्वास
का फैशन होता
है। हर युग
में अंधविश्वास
नए तरह के हो
जाते हैं।
पुराने
अंधविश्वास
से आदमी छूटता
है और नए को
पकड़ लेता है।
लेकिन
अंधविश्वास
से कभी नहीं
छूट पाता है।
बदलाहट कर
लेता है, फर्क
कर लेता है, लेकिन हमें
खयाल में नहीं
आता।
समझ
लें कि अगर एक
जमाने में
अंधविश्वास
था कि सिर पर
टीका लगाने
वाला आदमी
धार्मिक है।
हालांकि सिर
पर टीका लगाने
का धार्मिक
होने से क्या
संबंध? लेकिन
अगर यह खयाल
था, तो
आदमी टीका
लगाता था और
समझता था कि
धार्मिक है।
और जो नहीं
लगाता था, उसे
समझता था कि
वह अधार्मिक
है। यह पुराना
अंधविश्वास
है, यह चला
गया। अब नए
तरह के
अंधविश्वास
हैं। उनमें
कोई फर्क नहीं
है। अगर एक
आदमी टाई
बांधता है, तो हम समझते
हैं कि
प्रतिष्ठित
आदमी है। और
नहीं बांधता
है, तो
समझते हैं
अप्रतिष्ठित
आदमी है। वही
का वही मामला
है, इसमें
कोई फर्क नहीं
है
तिलक
की जगह टाई आ
गई है और आदमी
वही का वही
है। इसमें कोई
फर्क नहीं है।
क्या फर्क है? टाई
तिलक से बेहतर
तो नहीं है, बदतर हो भी
सकती है। तिलक
का कोई अर्थ
भी हो सकता था,
टाई का तो
बिलकुल ही
अर्थ नहीं है।
इस मुल्क में
तो बिलकुल ही
नहीं है, किसी
मुल्क में हो
भी सकता है।
किसी ठंडे
मुल्क में टाई
का कोई अर्थ
हो सकता है कि
सब गले को
बांध लो।
निश्चित ही उस
मुल्क में जो
आदमी अपने गले
को नहीं बांध
पाता है, वह
गरीब आदमी है।
निश्चित ही जो
आदमी इतनी सुरक्षा
नहीं जुटा
पाता है कि
अपने गले को
बांधकर सर्दी
जाने से रोक
ले, वह
आदमी गरीब है।
जो
सुविधा—संपन्न
है, वह
अपने गले को
बांधकर सर्दी
से बच जाता
है। लेकिन
गर्म मुल्क
में भी आदमी
टाई बांधे
बैठा हुआ है, तब जरा
खतरनाक मालूम
पड़ता है कि यह
आदमी या तो पागल
है, सुविधा—संपन्न
है या पागल है!
सुविधा—संपन्न
होने का मतलब
यह तो नहीं है
कि गर्मी सहो, गले
में बांध लो, फांसी लगा
लो। वैसे टाई
का मतलब फांसी
ही होता है, टाई का मतलब
होता है गांठ।
ठंडे मुल्क
में तो कुछ
मतलब भी हो
सकता है, गर्म
मुल्क में
बिलकुल मतलब
नहीं है।
लेकिन प्रतिष्ठा
का खयाल वाला
आदमी फांसी
लगाए हुए खड़ा
है।
मजिस्ट्रेट
है, फांसी
लगाए हुए खडा
है। वकील है, फांसी लगाए
हुए खड़ा है।
नेता है, वह
फांसी लगाए
हुए खड़ा है।
और उससे पूछो
तो वह कहेगा
कि यह सब
टीका—तिलक
लगाने वाले सब
अंधविश्वासी
हैं। उससे
पूछो कि यह
तुम टाई कैसे
बांधे हुए हो!
यह
अंधविश्वास
नहीं है? यह
तुमने कौन—सी
वैज्ञानिक
व्यवस्था से
यह टाई बांध
ली है?
लेकिन
टाई इस युग का
अंधविश्वास
है,
इसलिए
चलेगा। टीका
पुराने युग का
अंधविश्वास
है, इसलिए
नहीं चलेगा।
जैसा मैंने
कहा कि ठंडे
मुल्क में
अर्थ भी हो
सकता है टाई
का, और कुछ
लोगों को टीका
लगाने का भी
अर्थ हो सकता
है। इसको बिना
खोजे अगर हमने
एकदम से
अंधविश्वास
कह दिया, तो
खतरनाक है, गलत बात है।
अब
आपने कभी सोचा
भी नहीं. होगा
कि टीका लगाने
का क्या मतलब
है। अधिक लोग
तो
अंधविश्वास
की तरह ही
लगाते रहे
हैं। लेकिन
जिन्होंने
पहली दफा
लगाया होगा, उसमें
कुछ साइंस थी,
कुछ विज्ञान
था। असल में
जहां टीका लगाया
जाता है, वहां
आशा —चक्र है।
और जो लोग भी
थोड़ा ध्यान करते
हैं, वह
स्थल गर्म हो
जाता है। और
उस पर अगर
चंदन लगा दिया
जाए तो वह
ठंडा हो जाता
है। और चंदन
उस पर लगाना
बहुत
वैज्ञानिक
प्रक्रिया
है। लेकिन वह
बात गई, उसके
विज्ञान से
कोई मतलब नहीं
है। कोई भी
चंदन लगाए हुए
चला जा रहा
है। जिसे
आशा—चक्र का न
कोई पता है, न जिसने कभी
कोई ध्यान
किया है।
वह
टाई बांधे हुए
हैं गर्म
मुल्क में।
टाई वैज्ञानिक
हो सकती है
ठंडे मुल्कों
में। आशा—चक्र
पर काम करने
वाले आदमी को
चंदन का टीका
भी वैज्ञानिक
हो सकता है, क्योंकि
चंदन उसे ठंडक
देता है। और
जब कोई ध्यान
की प्रक्रिया करता
है आशा—चक्र
पर, तो
वहां
उत्तेजना और
गर्मी पैदा हो
जाती है। उसको
ठंडा करना
जरूरी है, अन्यथा
मस्तिष्क को
नुकसान
पहुंचेगा।
लेकिन
अब अगर हम
पक्का कर लें
कि नहीं, टीका
मिटा डालना
है। तो जो
व्यर्थ लगाए
हुए हैं उनका
तो मिटाएंगे
ही हम, लेकिन
जो बेचारा
अपने किसी काम
से लगाए हुए
है, उसका
भी पोंछ
डालेंगे। वह
नहीं पोंछेगा,
तो कहेंगे
अंधविश्वासी
है।
मैं
यह कह रहा हूं
कि
अंधविश्वास
कोई ऐसी सुनिश्चित
चीज नहीं है
कि आपने पक्का
कर लिया है कि
यह रहा
अंधविश्वास।
असल में एक ही
चीज किसी
स्थिति में
अंधविश्वास
हो सकती है और किसी
स्थिति में
वैज्ञानिक हो
सकती है। और
एक ही चीज
किसी स्थिति
में
वैज्ञानिक
मालूम पड़े, ठीक
दूसरी स्थिति
में
अवैज्ञानिक
हो सकती है।
अब
जैसे कि
तिब्बत है, तिब्बत
में वर्ष में
एक दिन नहाने
का नियम है और
बिलकुल वैज्ञानिक
है। वर्ष में
एक दिन नहाना
तिब्बत में बिलकुल
वैज्ञानिक
है। क्योंकि
तिब्बत में न
तो धूल होती
है और न पसीना
होता, जिसकी
वजह से नहाने
की जरूरत पड़ती
है। पसीना ही
नहीं होता, धूल भी नहीं
होती। रोज
नहाना सिर्फ
नुकसान पहुंचाना
है शरीर को।
क्योंकि
नहाने से शरीर
की इतनी गर्मी
निकल जाती है
कि तिब्बत
जैसे मुल्क
में उतनी
गर्मी शरीर से
खोना महंगा
है। उसको पूरा
कहां से करोगे?
उतनी गर्मी
लाओगे कहां से
फिर? तिब्बत
में उघाड़े
रहना बहुत
महंगा है। अगर
एक आदमी उघाडा
रहे दिन भर, तो उसे
चालीस
प्रतिशत
ज्यादा भोजन
की जरूरत पड़ती
है। क्योंकि
उतनी गर्मी, उतनी कैलोरी
गर्मी उसके
शरीर से निकल
जाती है।
तो
हिंदुस्तान
जैसे मुल्क
में कोई आदमी
उघाड़ा रहे, तो
त्यागी मालूम
पड़ता है।
महावीर
समझदार आदमी
हैं, उघाड़े
रहते हैं।
क्योंकि
हिंदुस्तान
जैसे गर्म देश
में जितनी
गर्मी शरीर से
बाहर निकल जाए,
उतना शीतल
हो जाता है
भीतर। लेकिन
अगर कोई महावीर
का अनुयायी
जाकर तिब्बत
में नंगा खड़ा
हो जाए, तो
निपट
पागलखाने में
भर्ती करने के
योग्य है।
क्योंकि वहां
वह बात बिलकुल
अवैज्ञानिक
हो गई, मूढ़तापूर्ण
हो गई। लेकिन
ऐसा ही होता
है।
तिब्बती
लामा
हिंदुस्तान
आता है, तो
यहां भी नहीं
नहाता। मैं
तिब्बती
लामाओं के पास
बोध—गया में
ठहरा था। वे
इतनी बदबू
देते हैं कि
बड़ी घबराने
वाली बात है।
मैंने उनसे
पूछा कि यह कर
क्या रहे हैं?
तो
उन्होंने कहा,
हमारा तो एक
ही दफे नहाने
का नियम है।
मैं यही कहता
हूं कि क्या
अंधविश्वास
है, क्या विज्ञान
है। तिब्बत
में विज्ञान
है, यहां
अंधविश्वास
है। अब वह
यहां बदबू छोड़
रहे हैं, क्योंकि
उन्हें पता
नहीं कि यहां
तो इतना पसीना
आ रहा है, इतनी
धूल आ रही है।
हमें
खयाल ही नहीं
होता कि कुछ
मुल्क हैं
जहां धूल होती
ही नहीं।
खुश्चेव जब
पहली दफा
हिंदुस्तान
आया और जब
आगरा ताजमहल
देखने गया, तो
बीच सड़क पर
कार रुकवा ली
उसने, क्योंकि
जोर से
गुब्बारा उड़
रहा था धूल
का। और वह
नीचे उतर कर
धूल में खड़ा
हो गया और
उसने कहा, धन्य
हैं मेरे
भाग्य, मैंने
ऐसा अनुभव कभी
भी नहीं किया
था। अब धूल में
हम ऐसा कभी
अनुभव न
करेंगे कि
धन्य हैं मेरे
भाग्य। लेकिन
जहां से वह
आता है, वहां
बर्फ जमी होती
है, वहां
धूल नहीं होती
है। उसके लिए
यह बड़ा अदभुत
अनुभव है, जैसा
हमें बर्फ में
हो जाता है।
जब हम हिमालय पर
जाते हैं, तो
बर्फ पर चलने
में कैसा
अदभुत आनंद
मालूम होता
है।
तो
युग है, परिस्थिति
है, प्रयोजन
हैं, उन
सबकी खोज—बीन
किए बिना किसी
चीज को जंजीर
मानकर तोड्ने
में मत लग
जाना। और
वैज्ञानिक बुद्धि
मैं उसको कहता
हूं जो हमेशा
हेजीटेट करता
है।
वैज्ञानिक
बुद्धि का
आदमी बहुत
जल्दी निर्णय
नहीं लेता कि
यह गलत है, यह
सही है। इतने
जल्दी निर्णय
नहीं लेता। वह
हमेशा यह कहता
है, शायद
यह सही भी हो
सकता है, मैं
और खोजूं र
मैं और खोजूं
मैं और खोजूं।
और वह अंतिम
क्षण तक भी
आखिरी निर्णय
नहीं लेता कि
वह फाइनली कह
दे, अंतिम
निर्णय कह दे
कि यह गलत है, इसको तोड़
डालो।
क्योंकि जीवन
इतना
रहस्यपूर्ण
है कि कुछ भी
नहीं कहा जा सकता।
हम
इतना ही कह
सकते हैं कि
इतना हम अभी
तक जानते हैं, उसकी
वजह से यह
हमें अभी गलत
मालूम पड़ता है,
इतना ही।
वैज्ञानिक
बुद्धि का
आदमी यह कहेगा
कि जो अब तक
जानकारी है, उसको देखते
हुए यह बात
ठीक मालूम
नहीं पडती है।
लेकिन
जानकारी कल बढ़
जाए तो यह ठीक
भी हो सकती
है। जो आज ठीक
है वह कल गलत
हो सकता है।
वैज्ञानिक
बुद्धि का
आदमी जल्दी से
निर्णय नहीं
लेता कि यह
गलत है और यह
सही है। वह
हमेशा जिज्ञासु,
विनम्र, हबल
और खोज में
संलग्न होता
है।
लेकिन
अंधविश्वास
पकड़ने में भी
एक मजा आता है, और
अंधविश्वास
तोड्ने में भी
एक मजा आता
है।
अंधविश्वास
पकड़ने में यह
मजा आता है कि
हम सोचने से
बच जाते हैं, झंझट से बच
जाते हैं। जो
सभी मानते हैं,
हम भी मान
लेते हैं। हम
पूछना भी नहीं
चाहते कि क्या
कारण है, क्यों
है? कौन
परेशानी में
पड़े! जहां भीड़
चलती है, हम
भी चलते चले
जाते हैं।
अंधविश्वास सुविधापूर्ण
है, कन्वीनिएंट
है।
फिर
कुछ लोग
अंधविश्वास
को तोड्ने में
लग जाते हैं, वह
भी बड़ा
सुविधापूर्ण
है। क्योंकि
जो तोड़ता है, वह विचारवान
मालूम पड़ने
लगता है—बिना
विचारवान
हुए।
विचारवान
होना इतना
सस्ता मामला
नहीं है।
विचारवान
होना बहुत
मुश्किल
मामला है और
विचारवान की
बड़ी मौत है।
मौत इस अर्थ
में है कि वह
चीजों को इतने
गौर से खोजता
है कि बड़ी मुश्किल
में पड़ जाता
है। तय करना
मुश्किल हो
जाता है उसे
कि क्या कहे!
और जब भी वह
कहता है, तो
उसका कहना
हमेशा
कंडीशनल होता
है, उसके
कहने में
हमेशा एक शर्त
होगी। वह यह
कहेगा कि ऐसी
स्थिति में
तिब्बत में
ऐसा नहाना वैज्ञानिक
है, ऐसी
स्थिति में
भारत में न
नहाना बिलकुल
अंधविश्वासपूर्ण
है। तो वह इस
भाषा में
बोलेगा।
लेकिन
समाज—सुधारक
को भाषा की
फिक्र नहीं होती
है, उसे
तोड्ने की
फिक्र होती है
कि कुछ चीजें
तोड डालनी
हैं।
तो
मैं आपसे
निवेदन करता
हूं कि जरूर
तोड़े, बहुत
चीजें तोड़
डालनी हैं।
लेकिन पहली
चीज जो तोड़
डालनी है, वह
है अविचार।
बिना विचारे
कुछ करने की
प्रवृत्ति, पहली चीज है
जिसको तोड़
डालना है।
यानी अगर बिना
विचार किए तोड़
डाला, तो
इस तोड्ने का
कोई मूल्य
नहीं है।
विचार करने की
प्रवृत्ति
पैदा करनी है
और बिना विचार
किए मान लेने
की प्रवृत्ति
तोड़ देनी है।
लेकिन इसके
बड़े दूसरे
संदर्भ होंगे,
इसका बड़ा और
अर्थ होगा। तब
हम बहुत
खोजबीन करेंगे,
सोचेंगे, विचारेगे।
हम देखेंगे कि
क्या हो सकता
है।
अब
पश्चिम में
साइकोअनालिसिस
जोर से चलती
है,
मनोविश्लेषण
जोर से चलता
है। और मजा यह
है कि मनोविश्लेषण
वही काम कर
रहा है, जो
पुराना ओझा, पुराना गांव
का झाड़ने
वाला कर रहा
था। अब इस समय
फ्रांस में
कुवे का एक
पंथ है। और
कुवे वही काम
करता है, जो
ताबीज बांधने
वाला करता था।
लेकिन कुवे वैज्ञानिक
है! सिर्फ
शब्दावली
उनका
वैज्ञानिक है,
बाकी वही की
वही बात है, उसमें कोई
फर्क नहीं है।
यह
जानकर आप
हैरान होंगे
कि एक गाव का
साधु, एक
साधारण सा गाव
का आदमी, जो
कुछ भी नहीं
जानता, भगवान
के नाम पर
उठाकर राख दे
देता है। और
आप कहेंगे
निपट
अंधविश्वास
है। लेकिन
आदमी उससे भी
उतने ही ठीक
होते हैं, उसी
मात्रा में, जिस मात्रा
में एलोपैथी
के इलाज से
ठीक होते हैं।
यह बड़े मजे की
बात है।
अनुपात वही
है। अभी इस पर
प्रयोग चलते
थे।
एक
बहुत बड़े
अस्पताल में
लंदन में एक
वैज्ञानिक
प्रयोग किया
गया। एक ही
बीमारी के सौ
मरीजों पर
प्रयोग किया
गया। पचास
मरीज एक तरफ, पचास
मरीज दूसरी
तरफ। पचास
मरीजों को
दवाओं के इंजेक्शन
दिए गये, पचास
को निपट पानी
के।
और
हैरानी की बात
यह है कि ठीक
होने वालों का
प्रतिशत
बराबर रहा। उस
बीमारी से
पानी का जिनको
इंजेक्शन
दिया गया था, वे
भी उसी मात्रा
में ठीक हो गए
जिस मात्रा में
जिनको दवा दी
गई थी। तब बड़ा
प्रश्न उठ गया
कि मामला क्या
है!
तो
सोचना पड़ेगा, यह
विचार करना
पडेगा कि यह
हुआ क्या। और
तब यह समझ में
आया कि दवा कम
काम करती है, दवा दी जा
रही है, यह
बात ज्यादा
काम करती है।
दवा उतना काम
नहीं करती है,
जितना दवा
दी जा रही है.।
और दवा भी
उतना काम नहीं
करती, दवा
दिया जाना भी
उतना काम नहीं
करता, कितनी
महंगी दी जा
रही है और
कितना बड़ा
डाक्टर दे रहा
है, वह काम
कर रहा है।
छोटे डाक्टर
से बड़ी
मुश्किल है, उससे इलाज
नहीं हो पाता।
उसका कारण यह
नहीं है कि वह
नहीं जानता।
उसका कारण यह
है कि बेचारा
छोटा डाक्टर
है। बड़ा
डाक्टर एकदम
प्रभावी हो
जाता है। यानी
आप पर असर
इसका बहुत कम
पड़ता है कि वह
जो दे रहा है, वह समझकर दे
रहा है। उसकी
वेशभूषा, उसका
रोब—दाब, उसकी
फीस, उसकी
बड़ी कार, उसका
बामुश्किल से
मिलना, पंद्रह
दिन के बाद का
अप्याइंटमेंट,
भीड़— भाड़, लाइन में
खड़े रहना—आप
इस बीच काफी
प्रभावित हो गये
होते हैं। सच
बात यह है कि
अच्छा डाक्टर
बनने के लिए
अच्छी
चिकित्सा का
शान बिलकुल
जरूरी नहीं
है। अच्छा
डाक्टर बनने
के लिए अच्छा
एडवरटाइजिंग
का ज्ञान
आवश्यक है।
कितने अच्छे ढंग
से विज्ञापन
किया जा सकता
है, यह सवाल
है। वह
विज्ञापन
ज्यादा फायदा
करता है।
अभी
फ्रांस में
उन्होंने
हिसाब लगाया
तो करीब अस्सी
हजार डाक्टर
हैं और करीब
एक लाख साठ
हजार—दुगने—क्वेक
डाक्टर हैं, जो
डाक्टर हैं ही
नहीं। लेकिन
जब मरीज दवा
करने वाले
डाक्टरों से
थक जाता है, तो उनसे ठीक
हो जाता है, जो कुछ
जानते ही नहीं,
लेकिन दवा
करने की तरकीब
जानते हैं।
इसीलिए
तो सब तरह की
पैथी चलती है।
कभी आपने सोचा
है?
कभी
विज्ञान हो तो
सब तरह की
पैथी चल सकती
है? नेचरोपैथी
भी काम करती
है। पेट पर
पट्टी बांध दो
मिट्टी की, वह भी काम
करती है। पानी
का एनीमा दे
दो, वह भी काम
करता है।
झाड़ना, ताबीज
बांधना भी काम
करता है।
होमियोपैथी
भी काम करती
है, जो
सिर्फ शक्कर
की गोलियां
हैं, वह भी
काम करती है।
सब काम करता
है। एलोपैथी भी
काम करती है।
और इसलिए बड़ी
कठिनाई की बात
है कि मरीज
कैसे ठीक होता
है।
तो
अब अगर गांव
में एक आदमी
धूल की पुड़िया
बांधकर दे
देता हो, तो इस
अंधविश्वास
को तोड़ना या
नहीं तोडना इस
पर विचार करना
पड़ेगा। इस पर
फिक्र करनी
पड़ेगी कि इसको
तोड़ देना कि
नहीं।
क्योंकि वह जो
आदमी गले में
स्टेथिस्कोप
टांगकर और कार
पर आकर खड़ा
हुआ है, वह
आदमी भी
विज्ञान से कम
ठीक कर पा रहा
है, वह भी
मैजिकल
प्रभाव है
—उसकी कार का, स्टेथिस्कोप
का।
मैं
एक डाक्टर को
जानता हूं,
एक क्वेक
डाक्टर को।
जिनको बिलकुल
भी किसी
विश्वविद्यालय
से उनको कोई
डिग्री नहीं
मिली है। लेकिन
मैंने कई
मरीजों को, जिनको मैंने
उनके पास भेजा
निश्चित ठीक
होते पाया, जब कि कोई
डाक्टर उनको
ठीक नहीं कर
पाया।
क्योंकि वह
आदमी बहुत
कुशल है। वह
आदमी को समझने
में बहुत कुशल
है। और असली
डाक्टरी वही
है। अगर आप
उसके अस्पताल
में चिकित्सा
के लिए जाएंगे,
तो आपका
निदान, आपकी
डायग्नोसिस
इस ढंग से की
जाएगी कि पहले
तो निदान में
ही आप आधे ठीक
हो जाएंगे।
वह
स्टेथिस्कोप
से जांच नहीं
करता है आदमी
की छाती की।
वह डाक्टर
बहुत होशियार
है। वह स्टेथिस्कोप
से जांच नहीं
करता, उससे तो
कोई भी डाक्टर
करता है। उसने
स्टेथिस्कोप
की जगह एक बड़ी
टेबल बना रखी
है। बड़ा ' गंभीर
कमरा है, उस
गंभीर कमरे
में टेबल पर
लिटाता है। और
स्टेथिस्कोप
जैसी एक चीज
उसने लगा रखी
है। और उसके
ऊपर दो नलियों
में, बड़ी
लंबी नलियों
में रंग भरा
पानी लगा रखा
है। जब यहां
हृदय की छाती
धड़कती है, तो
उन नलियों में
पानी छलांग
लगाता है। और
वह मरीज उसको
देखता रहता है
और वह समझता
है कि किसी
बड़े डाक्टर के
पास आना हुआ
है। ऐसा
डाक्टर अभी तक
नहीं देखा।
स्टेथिस्कोप
ही है वह, लेकिन
वह उसको ऐसे
कान में लगाकर
जांच नहीं
करता। वह
नलियों में
उसके पानी के
उचकने को
देखता है। और
तब वह मरीज
जानता है कि
कोई साधारण
आदमी नहीं है।
आपको
पता है, एलोपैथी
का डाक्टर
दवाइयों का
नाम इस तरह
घसीटकर लिखता
है कि आप पढ़ न
पाएं। उसका
कारण है। अगर
आप पढ़ लें तो
शायद आप समझें
कि इसमें तो
कुछ भी नहीं
है, यह तो
दो पैसे की
चीज है, इसे
तो हम भी खरीद
लेते। इसलिए
उसको इस ढंग
से लिखना पड़ता
है। लिखने की
तरकीब बतानी
पड़ती है कि
कोई समझ न
पाए। सच तो यह
है कि जिस
डाक्टर से आप
लिखवाकर लाए
हैं, अगर
दोबारा
चिट्ठी उसके
पास ले जाएं, तो वह भी ठीक
से पढ़ नहीं
सकता कि उसने
लिखा क्या है।
और
दूसरी मजे की
बात यह है कि
जितनी भी
दवाइयों के
नाम हैं, वे
लैटिन और
ग्रीक में
रखने पड़ते
हैं। उसका कारण
यह है कि अगर
वह लिख दे
साधारण अंग्रेजी
में या हिंदी
में या
गुजराती में,
तो आप कभी
भी दस रुपए का,
पंद्रह
रुपए का इंजेक्शन
लगवाने को
राजी नहीं
होंगे।
क्योंकि
उसमें लिखा
हुआ है, अजवाइन।
तो आप कहेंगे
कि अजवाइन का इंजेक्शन
दस रुपए का? आप कह क्या
रहे हैं!
लेकिन लिखा है
लैटिन और ग्रीक
में, जिससे
आप कुछ भी
नहीं समझते कि
मामला क्या
है।
ये
सब मैजिकल
तरकीबें हैं।
यह सब वही बात
है जो वह गांव
का आदमी राख
दे रहा है।
लेकिन अगर गांव
का आदमी राख
देते वक्त
साधारण आदमी
है,
तो असर नहीं
करेगा। अगर
उसने गेरुए
वस्त्र पहने
रखे हैं तो
ज्यादा असर
करेगा। गेरुए
वस्त्र असर
ज्यादा
करेगा। अगर वह
आदमी ईमानदार
है, सच्चरित्र
है, उसके
बाबत हमें पता
है कि सीधा है,
सादा है, सच्चा है, तो और असर
करेगा। अगर
हमको यह भी
पता चले कि वह आदमी
पैसा नहीं
लेता है, पैसा
छूता ही नहीं,
तो और भी
ज्यादा असर
करेगा। यह राख
असर नहीं कर
रही है, दूसरी
चीजें असर कर
रही हैं। और
इन असरों को
मिटाना है कि
नहीं, यह
सोचने जैसी
बात है।
क्योंकि इसको
एक तरफ से
मिटाओ तो
दूसरी तरफ से
फिर
व्यवस्थित
करना पड़ता है,
यह मिटता
नहीं।
तो
आदमी को
विचारपूर्ण
बनाने की
जरूरत है, ताकि
वह अविचार से
बीमार ही न
हो। वह ऐसी
बीमारियां न
बुलाए, जो
झूठी हैं। जब
तक झूठी
बीमारियां
आती रहेंगी, तब तक झूठे
डाक्टरों को
पैदा होना
पड़ेगा। पुराने
को मिटाओगे, नए पैदा
होंगे; नए
को मिटाओगे, और नए को
पैदा होना
पड़ेगा। इतनी
तरह की चिकित्साए
हैं दुनिया
में, लेकिन
कोई निर्णय
नहीं हो पाता
है कि कौन ठीक
है। क्योंकि
वे सभी ठीक
करती हैं। और
सब दावेदार
हैं कि हम ठीक
करते हैं। और
उनके दावे में
गलती नहीं है,
वे सब ठीक
करती ही हैं।
जितना
मनुष्य के मन
को समझने की
कोशिश की जाती
है,
उतना पता
चलता है कि
मनुष्य के मन
में कहीं रोग
है। और जब तक
मनुष्य के मन
में रोग है, तब तक उसके
आस—पास उस रोग
को मिटाने के
लिए उतने ही
झूठे उपाय भी
जारी रहेंगे।
इसलिए
मेरा ध्यान
उपाय तोड्ने
पर कम है, मेरा
ध्यान आदमी के
मन का रोग
विलीन हो जाए
इस पर ज्यादा
है। अगर आदमी
का रोग विलीन
हो जाए मन का, अगर वहां वह
जाग जाए, विवेकपूर्ण
हो जाए, तो
जो चारों तरफ
उपद्रव घिर
जाता है, वह
घिरेगा नहीं।
ऐसा नहीं है
कि गाव में
कोई आदमी राख
बाटता है, इसलिए
आरा लेने जाते
हैं। नहीं, ऐसा है कि आप
राख लेने को
उत्सुक हैं, इसलिए किसी
आदमी को
बांटनी पड़ती
है।
यह
सवाल ऐसा नहीं
है। इसको इस
तरह से मत
लेना आप। ऐसा
नहीं है कि
कोई आदमी आपका
नेता बन जाता
है। नहीं, आप
बिना नेता के
एक क्षण नहीं
रह सकते, इसलिए
किसी को नेता
बन जाना पड़ता
है। और एक
नेता को हटाओ
तो आप दूसरे
को बना लोगे, दूसरे को
हटाओ तो तीसरे
को बना लोगे।
असल में जब आप
एक को हटाओगे,
तो पहले
पक्का कर लोगे
कि दूसरा
किसको बनाना
है।
और
इसलिए दुनिया
भर के नेता इस
बात को जानते
हैं कि विरोधी
पार्टियां
बनाकर खड़े
रहो। जब एक नेता
से जनता ऊब
जाएगी तब
दूसरे को वह
अपने आप बनाएगी, जब
दूसरे से ऊब
जाएगी तो फिर
पहले को
बनाएगी। इसलिए
सारी दुनिया
में दो
पार्टियों की
चालबाजी चलती
है। वह सब
चालबाजी है, वे सब एक
जैसे लोग हैं।
पिछले
चुनाव में मैं
रायपुर गया।
एक मित्र हार
गए थे चुनाव।
वे पहले एम. पी.
थे। मेरे एक
दूसरे मित्र
जीत गए। वे
बिलकुल नए—नए
रायपुर गए थे।
मैंने अपने
पुराने मित्र
से पूछा कि
बड़े आश्चर्य
की बात है, तुम
तो जन्मों से
यहां रह रहे
हो और तुम
पिछले दो —तीन
बार से यहां
एम. पी थे, तुम
हार क्यों गए?
और एक
बिलकुल
अपरिचित आदमी
गांव में आकर
जीत कैसे गया!
उन्होंने कहा
कि मामला
बिलकुल साफ है,
लोग मुझसे
परिचित हो गए
हैं, उससे
परिचित नहीं
हैं। परिचित
हो जाने दो, घबराइए मत, वह भी हारेगा।
और तब तक हमको
प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी।
तब तक हम फिर
अपरिचित हो
जाएंगे, हम
फिर हावी हो
जाएंगे।
तो
सवाल बहुत
गहरे में यह
नहीं है कि इस
नेता को हटाए, उस
नेता को हटाए।
इस
अंधविश्वास
को मिटाएं, उस
अंधविश्वास
को मिटाएं, यह सवाल
नहीं है।
बुनियादी
आदमी को बदलने
का सवाल है।
इसलिए
वैज्ञानिक
बुद्धि अंधविश्वास
पर बहुत फिक्र
नहीं करेगी।
वह तो चलेगा, जब तक आदमी
अंधेपन के लिए
राजी है। अगर
कोई आदमी आंख
खोलने को राजी
नहीं है, तो
अंधापन चलेगा
ही। और हममें
से कौन आदमी
आंख खोलने को
राजी है, मैं
पूछता हूं।
हममें से कोई
भी आंख खोलकर
देखने को राजी
नहीं है।
क्योंकि आंख
खोलकर ऐसे
सत्य दिखाई
पड़ते हैं, जो
हम देखना नहीं
चाहते। इसलिए
आंख बंद करके
जो हम देखना
चाहते हैं, उसकी कल्पना
कर लेते हैं।
कभी
आपने गौर से
देखा है आंख
खोलकर जिंदगी
को कि जिंदगी
कैसी है? अपने
को कभी आंख
खोलकर देखा है?
वह आप देखना
ही नहीं चाहते,
क्योंकि तब
वहां ऐसा —ऐसा
दिखाई पड़ेगा
जो कि घबराने
वाला है।
एक
आदमी अपने को
बिलकुल
पवित्र मानता
है,
महात्मा
मानता है। वह
अगर आंख खोल
कर गौर से देखे,
तो अपने
भीतर बड़े से
बड़े पापी को
छिपा हुआ पाएगा।
अब वह उसको
देखना नहीं
चाहता, क्योंकि
उसको देखे तो
फिर महात्मा
रहना मुश्किल
हो जाएगा
उसका। वह उसको
देखता ही नहीं,
वह उसकी तरफ
आंख बंद कर
लेता है। उसकी
तरफ आंख बंद
करने में वह
फिर उन सब
लोगों का
उपयोग करता है
जो उसकी आंख
बंद करवा सकते
हैं। तो जो —जो
उसको आकर कहते
हैं कि आप
बहुत बड़े महात्मा
हैं, वह
उन—उनको अपने
पास इकट्ठा
करता चला जाता
है, शिष्यों
को इकट्ठा
करता चला जाता
है। जो उसको अंधा
बनाने में
सहयोगी होते
हैं, वह
उनको इकट्ठा
करता चला जाता
है।
इकट्ठा
करने की भी
बहुत अदभुत
तरकीबें हैं।
उसका भी धोखा
चलता है। और
धोखा इतना
अदभुत है कि
अगर लोगों को
इकट्ठा करना
हो,
तो उसमें एक
तरकीब यह भी
है कि
चिल्ला—चिल्ला
कर कहो कि
मेरे पास कोई
न आये, मैं
किसी को
इकट्ठा नहीं
करना चाहता।
यह भी एक
तरकीब है। और
लोग इससे बड़े
प्रभावित
होते हैं। वे
कहते हैं, चलो।
डंडे मारो, गालियां दो,
तो लोग
आएंगे। वे
कहेंगे, महात्मा
साधारण नहीं
है, असाधारण
है। क्योंकि
साधारण
महात्मा होता
तो कहता, आइए,
बैठिए। वह
तो डंडा मारता
है, उसको
तो किसी से
मतलब ही नहीं
है।
मैंने
सुना है, कैलिफोर्निया
के बीच पर, समुद्र—तट
पर एक आदमी था
बहुत दिन से।
वह आदमी एक
खेल बन गया
था। जो भी
आदमी समुद्र—तट
पर घूमने जाते
— और हजारों
लोग अमरीका में
जाते है—तो
वहा खबर थी कि
वह आदमी इतना
सरल है, इतना
सीधा है कि
जिसका हिसाब
नहीं। और उसकी
परीक्षा यह है
कि उसके सामने
तुम दस रुपए
का नोट करो और
दस पैसे का
सिक्का करो, तो वह खुशी
से, जल्दी
से दस पैसे का
सिक्का ले
लेता है, दस
का नोट छोड़
देता है। वइ
इतना सरल आदमी
है।
एक
आदमी पांच —छह
दफे वहां गया
था,
उस बीच पर।
और उसने देखा
कि उस आदमी के
पास दिन भर
भीड़ लगी रहती
है। लोग यही
खेल करते रहते
हैं। लोग उससे
कहते हैं, बाबा,
क्या चाहिए,
यह लेते हो
कि यह? वह
जल्दी से दस
का पैसा ले
लेता है। वह
कहता है कि यह
बहुत अच्छा है,
यह चमकदार
है। तो लोग
उसको बड़ा सीधा
आदमी मानते
हैं। उस आदमी
ने कहा, बीस
साल हो गए इस
आदमी को यही
काम करते हुए,
अब तक यह
पहचान न पाया
होगा दस का
नोट! हद हो गई, इतनी सरलता
भी मुश्किल
मालूम होती
है।
तो
सांझ को जब
कोई न रहा, तो
उसके पास गया
और उसने उससे
पूछा कि
आश्चर्य, मैं
बीस साल से
देख रहा हूं
आपको, यह
खेल चल रहा है,
और अभी तक
दस का नोट
नहीं पहचान
पाए! उसने कहा,
वह हम पहले
ही दिन से
पहचानते हैं,
लेकिन उसको
पहचाना कि खेल
बंद। और उसको
न पहचानने से
हमने कई हजार
दस रुपये
इकट्ठे कर
लिये दस—दस
पैसे से। और
एक दिन हमने
पहचान लिया कि
खेल खतम। वह
एक ही नोट हमारे
हाथ में रह
जाने वाला है,
फिर नोट
हमारे हाथ में
नहीं आएगा।
इसलिए
नोट इकट्ठे
करने हों, तो
धन को लात
मारो, नोट
चले आएंगे। तो
उसने कहा, हम
समझ गए हैं, हमारा काम
बहुत अच्छा चल
रहा है। दिन
भर में हम दो
चार पांच सौ रुपए
तक भीड़ के दिन
इकट्ठे कर
लेते हैं, उसकी
कोई चिंता
नहीं, लेकिन
वह चलेगा खेल।
तो महात्मा भी
जानता है। अगर
उससे धन की
बात करो, तो
वह कहेगा नहीं,
नहीं, हम
छूते भी नहीं।
तब महात्मा
बड़ा हो
जायेगा। तब
उसका शिष्य पास
में से रुपया
लेकर खीसे में
रख लेगा।
महात्माजी तो
पैसे छूते
नहीं, जो
तुमने बात कही,
वह गलत है।
आदमी
अंधा होने को
राजी है, तो
कोई क्या
करेगा? कौन
बेवकूफ है? जो जाकर
जांच करवा रहे
हैं। दस पैसा
और दस रुपये
का नोट रख कर
जो जांच करवा
रहे हैं। वह
आदमी नहीं है
उपद्रव।
उपद्रव ये
आदमी हैं। और
इनके उपद्रव की
वजह से उस
बेचारे को यह
काम करना पड़
रहा है। मैं
यह कहता हूं
कि वह नहीं
करेगा तो कोई
दूसरा करेगा।
ये मूढ़ हैं, ये कहीं न
कहीं जाकर यह
काम करने वाले
हैं। इनसे कोई
पैसा छीने, यह इनकी
आकाक्षा है।
यह जारी रहेगी,
इसमें कोई
बचाव नहीं है।
यह तभी टूट
सकती है, जब
मनुष्य की
मूढ़ता को हम
तोड़ना शुरू
करें।
इसलिए
अंधविश्वास
की जंजीर
तोड्ने की
उतनी फिक्र मत
करना।
क्योंकि जिस
आदमी ने जंजीर
बांधी है, अगर
वह वही रहा, तो वह नई
जंजीर बना
लेगा।
क्योंकि बिना
जंजीर के वह
रह नहीं सकता
है। वह जिस
प्रकार का
आदमी है, वह
जंजीर
निर्माण कर
लेगा।
इसलिए
सारे धर्म
जंजीरें
तोड्ने की
कोशिश करते
हैं और हर
धर्म नई जंजीर
बना देता है, कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। क्या
फर्क पड़ता है?
इतने धर्म
दुनिया में आए,
वे सब
सुधारक की तरह
आते हैं, और
वे कहते हैं
कि हम सब
अंधविश्वास
मिटा डालना
चाहते हैं।
मिटाइये! सारे
अंधविश्वास
मिटाने में
सिर्फ इतना ही
होता है कि
कुछ मिटता
नहीं है। ही, कुछ लोग जो
पुराने
अंधविश्वास
से ऊब गए होते
हैं, वे
बदल कर लेते
हैं, वे
नया
अंधविश्वास
पकड़ लेते हैं।
वे इसको पकड़ लेते
हैं। और बड़े
खुश हो जाते
हैं कि हमने
बदलाहट कर ली,
क्योंकि
नया
अंधविश्वास
पकड़ लिया।
असल
में जो आदमी
विचारवान है, वह
पकड़ता ही नहीं
है, अंधविश्वास
क्या वह
विश्वास भी
नहीं पकडता। जो
आदमी
बुद्धिमान है,
वह पकड़ता ही
नहीं, वह
बुद्धिपूर्वक
जीता है, वह
कुछ भी नहीं
पकड़ता है। वह
जंजीर—निर्माण
नहीं करता है,
क्योंकि वह
जानता है कि
स्वतंत्र
रहने का आनंद
है। जंजीर
निर्मित मत
करो।
तो
प्रत्येक
आदमी के भीतर
इतनी चेतना
जगाने का सवाल
है कि
स्वतंत्र
होने की, विचारवान
होने की, आत्मवान
होने की, चेतनावान
होने की
आकांक्षा
उसमें पैदा हो
जाए। अनुयायी
होने की, पीछे
चलने की, किसी
को मानने की, अंधे होने
की प्रवृत्ति
कम हो जाए, तो
दुनिया से
अंधविश्वास
टूटेंगे।
लेकिन तब ऐसा
नहीं कि इस
तरह के
अंधविश्वास
टूटेंगे और उस
तरह के बच
जाएंगे। सब
टूटेंगे, एक
साथ विदा
होंगे, नहीं
तो कभी विदा
नहीं होंगे।
अंधविश्वास
बदलती रही है
अब तक
मनुष्यता। और
बदलने का करण
यह है कि कोई भी
आए वह एक बात
कहता है, वह
कहता है कि यह
बात गलत है।
अब अगर मैं
कहूं किसी को
कि गेरुआ
वस्त्र पहनना
गलत है.......।
मैं
एक गांव में
था,
तो उस गांव
का कलेक्टर
मेरे पास आया
और उसने आकर
मुझे कहा कि
मैं प्राइवेट,
अकेले में
कुछ मिलना
चाहता हूं। तो
ठीक है। द्वार
बंद करके उसने
मुझसे कहा कि
अगर मैं आप
जैसे वस्त्र
पहनने लग तो
इससे कुछ लाभ
होगा?
क्या
मतलब रहा! अब
अगर मैं कहूं
कि गेरुआ मत
पहनो तो वह
मुझसे पूछेगा
कि ऐसा पहनें? यह
भी गेरुआ बन
जाएगा। इससे
क्या फर्क
पड़ने वाला है।
असल में यह
समझाना पड़ेगा
कि वस्त्र की
बदलाहट से कुछ
भी नहीं होता।
कोई भी पहनो, जो भी पहनना
हो। जो मौज
में आये पहनो।
किसी को गेरुआ
पहनने की मौज
है, तो
उसको क्यों
रोको, क्या
जरूरत है
रोकने की! और
किसी को काला
पहनने की मौज
है तो काला
पहनने दो।
लेकिन यह खयाल
जग जाना चाहिए
कि वस्त्रों
की बदलाहट
जीवन की बदलाहट
नहीं है। तब
वस्त्रों को
छुड़वाने की भी
कोई जरूरत
नहीं है।
क्योंकि जो
आदमी वस्त्र छुड़वाका,
वह नया
वस्त्र फौरन
पकड़ाका।
क्योंकि उसकी
बुद्धि भी
वस्त्र वाली
ही है। छुड़ाने
वाली है माना,
लेकिन
वस्त्र वाली
ही है। तो वह
करेगा क्या!
उससे वे आदमी
पूछेंगे कि
फिर नया
वस्त्र
बतलाइये।
गांधीजी
के पास एक
संन्यासी
मिलने गए।
संन्यासी गेरुआ
वस्त्र पहने
हुए थे। तो
गांधीजी से
उन्होंने
जाकर कहा कि
मैं कुछ सेवा
करना चाहता हूं।
मुझे कुछ सेवा
करनी है। आपकी
बातें मुझे कुछ
ठीक लगती हैं।
गांधीजी ने एक
बड़े मार्के की
बात उससे कही
कि यह तो ठीक
है,
लेकिन पहले
गेरुवे वस्त्र
छोड़ दो। अगर
सेवा करनी है,
तो गेरुवे
वस्त्र सेवा न
करने देंगे।
क्योंकि लोग
गेरुवे
वस्त्र की
सेवा करते हैं,
उससे
करवाते नहीं
हैं। तो तुम
गेरुवे
वस्त्र छोड़
दो।
यह
बात बिलकुल ठीक
मालूम पडी।
लेकिन गेरुवे
वस्त्र छुड़वा
कर उन्होंने
उसको खादी
पहना दी। अब
खादी वाले वही
कर रहे हैं जो
गेरुआ वस्त्र
वालों ने कभी
भी नहीं किया
था। तो मैं यह
पूछ रहा हूं
कि क्या फर्क
पड़ गया? अब
खादी वाले
सेवा ले रहे
हैं। और गेरुआ
वस्त्र वाले
ने बेचारे ने
इतनी सेवा कभी
भी नहीं ली थी,
जितनी खादी
वाले ले रहे
हैं। अब यह उस
से महंगा पड़
गया। छुड़वा
दिया गेरुआ, अब यह खादी
पकड़ा दी उसको।
अब वे
संन्यासी
बहुत प्रसन्न
हुए कि एक
अंधविश्वास
छूट गया हमारा
गेरुआ वस्त्र
का। अब वे
खद्दर पहने
हुए हैं। अब
खद्दर का
अंधविश्वास
पकड गया है
उसे। क्या
फर्क पड़ने
वाला है?
सवाल
यह नहीं है कि
यह छुडाओ और
दूसरा पकड़ा दो।
सवाल यह है कि
वह जो पकड़ने
वाली बुद्धि
है,
उसकी समझ
बढ़ाओ। तो
गांधीजी ने
उसकी कोई
बुद्धि तो
बढ़ाई नहीं, वह आदमी
बुद्ध का
बुद्ध रहा।
सिर्फ कपड़े
उसके बदल दिए।
और वह बहुत
खुश हुआ कपड़े
बदल कर। पर
उससे क्या
फर्क पड़ता है।
हमेशा
यह हुआ है।
सारी दुनिया
में पिछले
पांच हजार
वर्षों की
कहानी यह है
हमारे
दुर्भाग्य की
कि एक
अंधविश्वास
को तोड्ने की
कोशिश में हम
आदमी को तो
बदलते नहीं
हैं,
सिर्फ
अंधविश्वास
को तोड़ते हैं।
वह नया अंधविश्वास
बना लेता है।
हम उसे जो
पकड़ाते हैं, वह उसे पकड़
लेता है।
अच्छा, चलो
यह सही, उसको
छोड़ते हैं, इसको पकडते
हैं। हम बड़े
खुश होते हैं।
क्योंकि
हमारा
अंधविश्वास
पकड रहा है, तो हमको बड़ी
प्रसन्नता
होती है।
अब
युवक मेरे पास
आता था। वह
दिन—रात
शास्त्रों की
बात करता था।
उपनिषद, गीता,
वेद कंठस्थ
किए हुए था।
मैंने कहा, यह बकवास
बंद करो, इससे
तुम्हें कुछ
होगा नहीं। ये
सब कंठस्थ कर—करके
कुछ भी फायदा
नहीं है। वह
बहुत नाराज
हुआ, लेकिन
आता रहा। जो
आदमी नाराज हो,
वह आता जरूर
रहता है।
क्योंकि
नाराजगी भी एक
संबंध है। वह
नाराज तो मुझ
पर हो गया, लेकिन
आता रहा, आता
रहा, आता
रहा।
फिर
धीरे — धीरे
बात सुनते
—सुनते उसको
बात जम गई। एक
दिन आकर उसने
मुझसे कहा कि
मैंने सब गीता
और उपनिषद और
वेद,
सब पोथियां
बांधकर कुएं
में फेंक दी
हैं। मैंने
कहा, यह
मैंने तुमसे
कब कहा था? उसने
कहा, आला
मुझे खाली
करना पडा, आपकी
किताबें
मैंने उसमें
रख दीं। अब
मैं आपकी
किताबों से
बिलकुल राजी
हो गया हूं।
मैंने कहा, यह तो और
मुश्किल हो
गई। इसमें कोई
फर्क न पड़ा।
मैं तो तुमसे
यह कह रहा था
कि किताब से
राजी मत होना,
यह थोड़े ही
कह रहा था कि
उस किताब को
छोड़ देना और
मेरी किताब को
पकड़ लेना। तो
क्या फर्क पड़ा
इससे?
लेकिन
गुरु बड़े
प्रसन्न होते
हैं,
उनके
मार्के का अगर
अंधविश्वास
पकड़ा जाए तो वह
प्रसन्न हो
जाते हैं।
इसलिए
अंधविश्वास
बदलते जाते
हैं, आदमी
अंधविश्वासी
ही बना रहता
है।
तो
मैंने उससे
कहा,
इन किताबों
को भी फेंक आओ
उसी कुएं में।
उसने कहा, यह
कैसे हो सकता
है? यह कभी
नहीं हो सकता।
फिर, मैंने
कहा, बात
वही की वही हो
गई। अब यह
तुम्हारी
गीता बन गई।
तो कृष्ण
बेचारे की
गीता क्या
खराब थी। पकड़ना
ही था, तो
अच्छी थी, काम
देती थी। मेरी
किताब से तो
ज्यादा ही
मोटी थी, अच्छा
वजन भी देती
थी छाती पर, सिर पर भी
ज्यादा बोझ देती
थी। क्या फर्क
पड़ गया अब? कृष्ण
का क्या कसूर
था? मैंने
कब यह कहा था
कि कृष्ण का
कोई कसर है?
यह
निरंतर हुआ है, यह
निरंतर जारी
है। होता
सिर्फ इतना ही
है कि आदमी
वही का वही रह
जाता है, सिर्फ
उसके हाथ के
खिलौने बदल
जाते हैं। ही,
मेरा खिलौना
कोई पकड़ ले, तो मुझे बड़ी
खुशी हो जाती
है। मैं बड़ा
प्रसन्न हो
गया कि चलो, अच्छा हुआ, कम से कम
मेरी बात तो
पकड़ ली। मेरे
अहंकार को बड़ी
तृप्ति हो गई
कि कृष्ण से
ज्यादा मुझको
मानने लगा।
लेकिन इससे
कोई मनुष्यता
बदलने वाली नहीं
है। इससे
मनुष्यता का
कोई हित नहीं
होता, कोई
हित हो ही
नहीं सकता है।
हमें तो
मनुष्य के
भीतर से उसकी
पकड टूट जाए, उसकी
क्लिगिंग टूट
जाए, वह
अंधापन टूट
जाए, उसकी
ब्लाइंडनेस
टूट जाए, इसकी
फिक्र करनी
चाहिए।
तो
मैं उन मित्र
से निवेदन
करूंगा कि
अंधविश्वास
मत तोड्ने
जाइए, अंधविश्वासी
चित्त, वह
जो
सुपरस्टीशस
माइंड है
—सुपरस्टीशस
नहीं, सुपरस्टीशस
माइंड—वह जो
चित्त है
जिससे अंध— विश्वास
पैदा होते हैं,
उस चित्त को
बदलने का
प्रयोग करिए,
तो अच्छा
आदमी पैदा हो
सकता है।
लेकिन
उसके लिए बड़ी
मेहनत करनी
पड़ेगी। वह सस्ता
काम नहीं है, साधारण
काम नहीं है।
उसके लिए बड़ा
वैज्ञानिक
विचार चाहिए।
उसके लिए इतनी
जल्दी से
इनकार मत कर
देना कि भूत
नहीं हैं, प्रेत
नहीं हैं।
जितने आप हैं,
उससे कहीं
ज्यादा
सत्यतर वे
हैं। उनके
होने में कोई
असत्य नहीं है,
लेकिन
खोजना पड़ेगा।
और कई बार ऐसा
भी होता है कि
भूत से
डरनेवाले लोग
भी कहने लगते
हैं कि नहीं
हैं, भूत
नहीं हैं।
इसका कारण कुछ
ऐसा नहीं होता
कि वे कोई बड़े
ज्ञान को
उपलब्ध हो गए
हैं। इसका कुल
कारण इतना
होता है कि यह
उनका विश
फुलफिलमेंट
है, वे
चाहते नहीं
हैं कि भूत
हों। क्योंकि
अगर भूत हैं, तो बड़ी
मुश्किल हो
जाएगी। फिर
अंधेरी गली से
निकलना एक
मुश्किल बात
हो जाएगी। तो
वह दोहरा रहे
हैं, चिल्ला
रहे हैं कि
बिलकुल नहीं
है, अंधविश्वास
है, हम
इसको तोड़
डालेंगे
अंधविश्वास
को। असल में वह
यह कह रहे हैं
कि हम बहुत
डरते हैं। अगर
भूत है, तो
बड़ी मुश्किल
हो जाएगी।
होने नहीं
चाहिए। हो
नहीं सकते हैं,
इसका मतलब
होने नहीं
चाहिए। तो वह
इस चित्त से
थोड़े ही टूट
जाएगा।
अगर
भूत हैं, तो
हैं। चाहे कोई
माने, और
चाहे कोई न
माने, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। जो है, वह है। और जो
है, उचित
है कि उसकी
खोज कर ली
जाए। क्योंकि
जो है, उससे
हमारा कोई न
कोई संबंध है।
उससे हम
संबंधित हैं
ही, उससे
हमारा संबंध
होगा ही। तो
उचित है कि हम
समझ लें, पहचान
लें, खोज
लें, और
उससे संबंध के
रास्ते खोज
लें, और
उससे व्यवहार
का उपाय खोज
लें कि क्या
करें। यह इतना
सरल नहीं है
मामला।
यह
जो खाली जगह
दिखाई पड़ती है
आपके बीच में, जरूरी
नहीं है कि खाली
हो। कोई बैठा
हो सकता है।
आपको न दिखाई
पड़े, यह
दूसरी बात है।
लेकिन डर लग
सकता है कि
खाली जगह में
कोई बैठा तो
नहीं है।
इसलिए तो खाली
जगह नहीं
छोड़ते, बिलकुल
सटकर बैठते
हैं। खाली जगह
का हमेशा डर होता
है। इसलिए
कमरे को
फर्नीचर से भर
लेते हैं, सब
तरफ से कैलेंडर,
फोटो, भगवान,
सबसे भर
लेते हैं।
खाली न रह जाए,
खाली जगह
में डर लगता
है, खाली
मकान में डर
लगता है।
आदमियों से
भरते हैं, आदमियों
के सामान से
भरते हैं, सब
तरह से भर
लेते हैं कि
कहीं खाली जगह
न रह जाए।
लेकिन फिर भी
बहुत खाली जगह
है। और वह
खाली जगह एकदम
खाली नहीं है।
और उसका अपना
विज्ञान है।
अगर उस दिशा
में काम करना
हो तो काम उस
दिशा में किया
जा सकता है।
उसका अपना
विज्ञान है, उसके अपने
सूत्र हैं, उस पर काम
करने की अपनी
साइंस है, उस
पर बराबर काम
किया जा सकता
है।
लेकिन
काम करने के
पहले न तो यह
कहना कि हैं
और न यह कहना
कि नहीं हैं।
यह कहना ही
मत। अच्छा है
अपने जजमेंट
को सस्पेंड
रखना। अपने
निर्णय को अभी
ठहरे रहने
देना, कहना कि
भाई मुझे पता
नहीं है। यह
तो वैज्ञानिक
बुद्धि का
लक्षण होगा कि
आपसे कोई पूछे
कि प्रेत हैं,
तो आप कह
सकें कि मुझे
पता नहीं है।
क्योंकि मैं इस
खोज में अभी
नहीं गया। और
अभी मैं अपनी
खोज नहीं कर
पा रहा हूं, प्रेतों की
खोज कैसे
करूं! अभी
अपना ही पता
नहीं चल पाता
है। लेकिन
जल्दी से जवाब
मत दे देना कि
ही या ना। जो
आदमी जल्दी से
जवाब देता है,
वह
अंधविश्वासी
होता है।
सोचना, खोजना।
असल में
विचारवान आदमी
बहुत मुश्किल
से जवाब देगा।
आइंस्टीन
से किसी ने
पूछा था एक
बार कि एक वैज्ञानिक
और एक
अंधविश्वासी
आदमी में आप
क्या फर्क
मानते हैं? तो
आइंस्टीन ने
कहा कि अगर सौ
सवाल
अंधविश्वासी
से पूछो, तो
वह एक सौ एक
जवाब देने की
तैयारी
दिखलाएगा। और
वैज्ञानिक से
अगर सौ सवाल
पूछो तो वह
अट्ठानबे के
लिए तो कह
देगा कि मैं
बिलकुल नहीं
जानता। दो के
लिए कहेगा कि
थोड़ा—सा जानता
हूं लेकिन वह
जानना अंतिम
नहीं है, अल्टीमेट
नहीं है। वह
कल बदल सकता
है।
ध्यान
रहे,
वैज्ञानिक
चित्त ही
एकमात्र सरल
चित्त है। अंधविश्वासी
चित्त सरल
नहीं है। दिखाई
उलटा पड़ता है।
दिखाई ऐसा
पड़ता है कि
अंधविश्वासी
बड़ा सरल है।
बहुत जटिल है
और बहुत चालाक
है, सरल
नहीं है। बड़ी
चालाकी तो वह
यह कर रहा है
कि जिन चीजों
का उसे पता ही
नहीं है, उनके
संबंध में हौ
भर रहा है।
दरवाजे के
सामने पड़े हुए
पत्थर का पता
नहीं है कि यह
क्या है और
परमात्मा के
संबंध में
छुरेबाजी कर देगा
कि हमारा
परमात्मा ठीक
है, तुम्हारा
गलत है। और
अभी पत्थर
क्या है, यह
भी बता नहीं
सकता। और जब
यह सिद्ध नहीं
कर सकता कि
पत्थर भी
मुसलमान और
हिंदू हो सकता
है, तो ऐसे
कैसे सिद्ध कर
लेगा इतनी
आसानी से कि परमात्मा
हिंदू और
मुसलमान हो
सकता है? लेकिन
उसमें
छुरेबाजी कर
देगा। और
ध्यान रहे, जिन चीजों
में हम
छुरेबाजी
करते हैं, उससे
खबर मिलती है
कि वे चीजें
अंधविश्वास
की होंगी।
ज्ञान
की बात में
छुरेबाजी कभी
भी नहीं होती
है,
न हो सकती
है। जहां
—जहां झगड़ा
होता है, वहां
—वहां समझ
लेना
अंधविश्वास
है। क्योंकि
अंधविश्वासी
झगड़े से सिद्ध
करना चाहता है
कि मैं ठीक हूं।
और उसके पास
कोई उपाय ही
नहीं है ठीक
करने का। अब
एक आदमी मेरी
छाती पर तलवार
लेकर खड़ा हो
जाए और कहे कि
मैं ठीक हूं, कहो, नहीं
तो गर्दन काट
दूंगा। तो वह
गर्दन काट सकता
है, लेकिन
ठीक नहीं हो
जाता है।
गर्दन काटने
से कोई कभी
ठीक नहीं हुआ
है। चाहे सभी
मुसलमान मिलकर
सभी हिंदुओं
को काट दें, तो ठीक नहीं
हो जाएंगे। और
चाहे सभी
हिंदू मिलकर
सभी
मुसलमानों को
काट दें, तो
ठीक नहीं हो
जाएंगे।
सिर्फ गंवार
सिद्ध होंगे
और कुछ सिद्ध
नहीं होने
वाला है।
क्योंकि
तलवार से कहीं
सिद्ध होना है
कि क्या ठीक
है! लेकिन
अंधविश्वासी
के पास और कोई
उपाय नहीं है।
उसके पास कोई
विचार तो है
नहीं, कोई
प्रयोग तो है
नहीं, कोई
प्रमाण तो है
नहीं, कोई
आथेंटिक दिशा
तो है नहीं
उसके पास कि
वह कह सके कि
यह ठीक है।
उसके पास तो
एक बात है कि
किसका लट्ठ
मजबूत है। कौन
किसकी खोपड़ी
तोड़ सकता है, वह ठीक है।
अभी
तक सब यही कर
रहे हैं। सारी
दुनिया में यह
हो रहा है।
ऐसा मत समझना
कि मैं कह रहा
हूं कि धर्मगुरु
ऐसा कर रहे
हैं। राजनेता
भी ऐसा ही कर
रहे हैं। रूस
ठीक है कि
अमरीका ठीक है, यह
हाइड्रोजन बम
से तय होगा।
और तो तय करने
का कोई उपाय
नहीं है। यह
भी वही की वही
नासमझी है। कौन
ठीक है, यह
इससे तय होगा?
मार्क्स
ठीक है कि
नहीं ठीक है, यह कैसे तय
होगा? तलवार
से तय होगा? हाइड्रोजन
बम से तय होगा?
किससे तय
होगा? यह
तय विचार से
होना चाहिए, लेकिन विचार
के लिए आदमी
मुक्त नहीं हो
पाया है, वह
अंधविश्वास
से घिरा है।
तो
ध्यान रहे, मेरा
जोर
अंधविश्वास
की जंजीरें
तोड्ने में नहीं
है, मेरा
जोर
अंधविश्वासी
चित्त को
तोड्ने में है,
जो इन
जंजीरों को
पैदा करता है।
अगर वह चित्त बना
रहा तो तुम
जंजीरें तोड़ो,
कितना ही
तोड़ो, वह
नई जंजीरें
बना लेगा। और
ध्यान रहे, पुरानी
जंजीरों से नई
जंजीरें
हमेशा ज्यादा मोहक,
ज्यादा
प्रीतिकर, ज्यादा
जोर से पकड़ने
जैसी होती
हैं। और यह भी ध्यान
रहे कि पुरानी
जंजीर से नई
जंजीर सदा मजबूत
होती है, क्योंकि
तब तक जंजीर
बनाने का
विज्ञान भी तो
विकसित हो गया
होता है। उसका
विकास हो गया
होता है। तो
पुरानी जंजीर
उतनी मजबूत
नहीं होती, जरा—जीर्ण
हो जाती है।
नयी जंजीर
मजबूत हो जाती
है। कई बार
मैं ऐसा सोचता
हूं कि जो लोग
अंधविश्वास
तोड्ने का
धंधा करते हैं,
वे लोग
सिर्फ
जरा—जीर्ण
अंधविश्वासों
की जगह मजबूत
अंधविश्वासों
को परिपूरक, सब्स्टीट्यूट
कर पाते हैं, और कुछ भी
नहीं कर पाते
हैं।
मेरा
फर्क, मैं
समझता हूं
आपको खयाल में
आ गया होगा।
अंधविश्वासी
चित्त को
तोड़ना है।
अंधविश्वासी
न होने पर जोर
देना होगा। यह
उसकी जड़
बनेगी। विचारवान
बनें और
बनाएं।
विचारवान
बनने का मतलब
है सोचें, खोजें,
जिज्ञासा
करें। और जो
ठीक अनुभव में
आए, तो
कहें। और फिर
भी यह कहें कि
जरूरी नहीं है
कि मेरा अनुभव
ठीक ही हो। कल
अनुभव और हो
सकते हैं, मुझे
ही और हो सकते
हैं। और फिर
यह भी पक्का
नहीं है कि
मेरा अनुभव
भ्रम न् हो।
तो जब तक और पच्चीस
अनुभव इसको सही
न कर दें, तब
तक कुछ भी
कहना उचित
नहीं है।
इसलिए
वैज्ञानिक एक
प्रयोग करता
है,
हजार
प्रयोग करता
है, हजार
लोगों से
प्रयोग
करवाता है, तब कहीं
किसी नतीजे पर
पहुंचता है।
फिर भी अंतिम
नतीजे पर कभी
नहीं पहुंचता
है। जिस आदमी
को अंतिम
नतीजे पर
जल्दी
पहुंचना है, वह आदमी कभी
विचार नहीं कर
सकता है।
अंतिम नतीजे
पर पहुंचने की
जल्दी दिखाने
वाला आदमी अंधविश्वास
से भर ही जाता
है। और हम सब
जल्दी से भरे
हुए हैं।
अब
एक मित्र ने
प्रश्न पूछा
है। एक ही
प्रश्न में
सब—कुछ पूछ
लेते हैं, जो
कि पूरी
मनुष्यता खोज
रही है और पता
नहीं चल पाया
है। वे पूछते
हैं कि ईश्वर
है कि नहीं? जीवात्मा
क्या है? मोक्ष
कहां है? स्वर्ग
किसने बनाया?
नरक है कि
नहीं? आदमी
क्यों आया है
दुनिया में? जीवन का
लक्ष्य क्या
है? एक ही
कागज पर......!
वे
इतनी जल्दी
में हैं कि यह 'सब
उनको तुरंत
पता चल जाना
चाहिए। इतनी
जल्दी में हैं
तो यह आदमी, इस तरह की
जल्दी वाला
आदमी तो
अंधविश्वासी
हो ही जाएगा।
धैर्य भी नहीं
है! खोज के लिए
बड़ा पेशंस, बहुत धीरज
चाहिए, अत्यंत
धैर्य चाहिए।
कोई फिक्र
नहीं है, जन्म
बीत जाएगा, नहीं पा
सकेंगे, कोई
फिकिर नहीं है,
खोजेंगे
लेकिन।
असल
में पाना
महत्वपूर्ण
नहीं है
विचारवान के
लिए,
खोजना
महत्वपूर्ण
है।
अंधविश्वासी
के लिए पाना
महत्वपूर्ण
है, खोजना
महत्वपूर्ण
बिलकुल ही
नहीं है।
अंधविश्वासी
उत्सुक है
पाने के लिए
कि जल्दी मिल
जाए। ईश्वर
कहां है? वह
इसके लिए बहुत
फिक्र में
नहीं है कि है
भी कि नहीं, इसको मैं
खोजूं। खोज की
सुविधा उसे
नहीं है। वह
कहता है, आप
खोज लें और
मुझे बता दें।
तो इसलिए वह
गुरु की तलाश
में है।
जो
भी आदमी गुरु
की तलाश में
है,
वह आदमी
अंधविश्वासी
बनकर रहेगा, वह रुक नहीं
सकता। असल में
गुरु की तलाश
का मतलब ही यह
है कि तुमने
खोज लिया! ठीक,
हमें बता
दो। अब जब
तुमने खोज ही
लिया, तो
हमें खोजने की
क्या जरूरत है?
हम आपके पैर
पकड़ लेते हैं,
आप कृपा
करके हमको दे
दो।
तो
लोग शक्तिपात
करवा रहे हैं
कि कोई दूसरा
उनकी खोपड़ी पर
हाथ रख दे, उनको
ईश्वर का शान
करा दे। मंत्र
लेते फिर रहे
हैं, कान
फुंकवा रहे
हैं, फीस
चुका रहे हैं,
चरण दाब रहे
हैं, सेवा
कर रहे हैं, इस आशा में
कि किसी का
मिला हुआ मेरा
मिला हुआ बन
जाए। यह कभी
भी नहीं हो
सकता है। यह
अंधविश्वासी
चित्त की पकड़
है।
किसी
का मिला हुआ, आपका
मिला हुआ नहीं
हो सकता। उसने
बेचारे ने खोजा
है, आप
मुफ्त में
कब्जा करना
चाहते हैं। और
ध्यान रहे, अगर उसने
खोजा है, तो
उसे भी यह पता
चल गया होगा
खोजने में कि
खोजने से
मिलता है, मांगने
से नहीं मिलता
है। इसलिए वह
शिष्य भी नहीं
बनाएगा।
शिष्य भी वे
ही बना रहे
हैं, जिन्हें
खुद भी नहीं
मिला है। किसी
और गुरु को
ऊपर वे पकड़े
हुए हैं। ऐसी
लंबी
श्रृंखला है गुरुओं
की। और वे सब
इस आशा में
हैं कि दूसरा
दे दे, दूसरा
दे दे, दूसरा
दे दे। और कई
गुरु तो मर
चुके हैं, उनकी
टांगें पकड़े
हुए हैं कि वे
दे दें। और उन मरे
—मरे हुए
गुरुओं की
लंबी
श्रृंखला है
हजारों —लाखों
साल की, और
वे एक—दूसरे
के पैर पकडे
हुए हैं कि
कोई दे दे।
अंधविश्वासी
चित्त की यह
लक्षणा है।
खोजी
चित्त की, विचारवान
चित्त की यह
लक्षणा है कि
अगर है, तो
मैं खोजूंगा।
अगर मिलेगा तो
मेरी पात्रता और
अधिकार से
मिलेगा। अगर
मिलेगा तो
मेरे जीवन—दान
से मिलेगा।
अगर मिलेगा तो
मेरे तप, मेरे
ध्यान से
मिलेगा। अगर
मिलेगा तो
मेरे श्रम का
फल होगा।
और
ध्यान रहे, विचारवान
व्यक्ति अगर
मुफ्त में
मिलता भी हो
परमात्मा, तो
ठुकरा देगा।
वह कहेगा कि
जो अपने श्रम
से नहीं मिला,
उसे लेना
उचित भी नहीं
है। वह कहेगा,
मैं अपने
श्रम से
पाऊंगा। और
ध्यान रहे, कुछ चीजें
हैं, जो
अपने ही श्रम
से पाई जा
सकती हैं।
परमात्मा उन
चीजों में से
नहीं है, जो
बाजार में
बिकती हों, मिल जाती
हों। सत्य उन
चीजों में से
नहीं है, जिसकी
कोई दुकान हो,
जहां से आप
सत्य खरीद
लायें।
लेकिन
दुकानें खुली
हुई हैं।
दूकानें हैं, बाजार
हैं, जहां
लिखा हुआ है, असली सत्य
यहीं मिलता
है। सत्य में
भी असली और
नकली होता है!
सदगुरु यहीं
निवास करते
हैं, बाकी
सब असदगुरु
हैं जो और जगह
निवास करते
हैं। यह दुकान
पक्की है, यहां
से ले जाओ। और
एक बार सेवा
का अवसर दें।
यह सब दुकानों
पर लिखा हुआ
है। और जिस
दुकान में
प्रवेश कर गए,
उसका मालिक
उस दुकान में
से बाहर जल्दी
नहीं निकलने
देना चाहता।
यह
जो हमारा
अंधविश्वासी
चित्त है, यह
पैदा कर रहा
है सारे
उपद्रव।
तो
मैं आपसे कहना
चाहता हूं,
खोज पर निर्भर
होना, भिक्षा
पर नहीं।
मांगने से
नहीं मिलेगा,
जानने से
मिलेगा। और
विश्वास मत
करना। किसी को
मिला होगा, जरूर मिला
होगा।
अविश्वास भी
मत करना, क्योंकि
वह भी
अंधविश्वास
है। विश्वास
मत करना, अविश्वास
मत करना। कोई
कहे कि मुझे
ईश्वर मिल गया
है, तो
कहना, बड़ी
कृपा है आप पर
भगवान की कि
आपको मिल गया।
लेकिन कृपा
करके मुझ को न
बताएं, मुझे
भी खोजने दें,
नहीं तो मैं
लंगड़ा रह
जाऊंगा।
दूसरे के
द्वारा चली गई
मंजिल पर अगर
आप पहुंचा दिए
जाएं तो आप
लंगड़े ही
पहुंचेंगे, क्योंकि पैर
तो चलने से
मजबूत होते
हैं। और मंजिल
पर पहुंचना
उतना
महत्वपूर्ण
नहीं है, जितना
यात्री का
मजबूत होता
जाना
महत्वपूर्ण
है। कुछ पा
लेना उतना
महत्वपूर्ण
नहीं है, जितना
पाने वाले का
रूपांतरण
महत्वपूर्ण
है। यह ईश्वर
या मोक्ष या
ज्ञान कोई
रेडीमेड चीजें
नहीं हैं, सिलीसिलाई
उपलब्ध नहीं
होती हैं। ये
कोई ऐसी चीजें
नहीं हैं कि
तैयार मिल
जाएं। ये तो
पूरे जीवन की
आहुति और पूरे
जीवन के श्रम
और साधना का
फल बनती हैं।
यह तो अंतिम
फूल है, जो
आता है।
लेकिन
बाजार में फूल
लेने गए, तो
कागज के फूल
मिल जाते हैं।
टिकते भी
ज्यादा हैं।
रोज धूल झाडू
दो, तो बने
भी रहते हैं।
और धोखा भी
देते हैं। लेकिन
किसको? दूसरे
को धोखा दे
सकते हैं कागज
के फूल। वह जो सड़क
से गुजरता है,
उसे धोखा हो
सकता है कि
आपकी खिड़की
में जो फूल खिले
हैं, वे
कागज के हैं
या असली हैं।
लेकिन आपको तो
धोखा नहीं हो
सकता है जो कि
खुद ही खरीद
कर ले आए हैं।
आप तो
भलीभांति
जानते हैं कि
फूल कागज का है।
असली फूल के
लिए बीज बोने
पड़ते हैं, मेहनत
करनी पड़ती है,
पौधा बड़ा
करना पड़ता है,
फिर फूल आते
हैं। लाने
नहीं पड़ते
हैं। फिर फूल
अपने से आते
हैं।
परमात्मा
का अनुभव फूल
की तरह है, साधना
पौधे की तरह
है। पौधे को
संभालें, फूल
तो अपने आप आ
जाएगा। लेकिन
हम जल्दी में
हैं, हम
कहते हैं पौधे
की फिक्र छोड़ो,
आप तो फूल
दे दें। छोटे बच्चे
होते हैं न, जब स्कूल
में परीक्षा
देने जाते हैं,
तो गणित तो
हल नहीं करते,
गणित की
किताब के पीछे
उत्तर लिखे
होते हैं, उनको
उलटा कर देख
लेते हैं और
लिख देते हैं।
उत्तर बिलकुल
सही है, लेकिन
बिलकुल गलत।
क्योंकि जो
विधि से न
गुजरा हो, उसका
उत्तर सही
कैसे हो सकता
है। उसने
उत्तर तो
बिलकुल सही ही
लिखा है—पांच
ही लिखा है; और
जिन्होंने
विधि करके
लिखा है, उन्होंने
भी पांच ही
लिखा है।
लेकिन आप फर्क
समझ रहे हैं
कि जिन्होंने
विधि करके
लिखा है, उनके
पांच में और
जिसने किताब
के पीछे से
चुरा कर लिखा
है—चाहे वह
गीता के पीछे
से लिखा हो, चाहे कुरान
के पीछे से, इससे क्या
फर्क पड़ता है
—उन दोनों के
उत्तर बिलकुल
एक जैसे होते
हुए भी एक
जैसे नहीं
हैं। बुनियादी
फर्क है।
क्योंकि असली
सवाल उत्तर का
नहीं है कि आप
पांच के उत्तर
पर पहुंच जाएं,
असली सवाल
यह है कि आपको
जोड़ना आ जाए।
और वह उसको
नहीं आया, जिसने
किताब के पीछे
से पांच देख
लिया। उसे गणित
न आया, सिर्फ
उत्तर आ गया।
तो
अगर कहीं से
सीखा, कहीं से
पाया, किसी
से सुना और
पकडा तो
परमात्मा
किताब के पीछे
से चुराया गया
होगा—मुर्दा,
मरा हुआ, बेकार, किसी
काम का नहीं, जिंदा नहीं।
जिंदा धर्म तो
जीने से आता
है। किसी
किताब के पीछे
लिखे हुए
उत्तर से
नहीं।
लेकिन
हम सब चोर
हैं। छोटे
बच्चे को हम
डाटते हैं कि
चोरी मत करना।
शिक्षक भी
समझाता है उसको
कि देखो, किताब
के पीछे मत
देखना। कोई
कागज—पत्तर पर
कोई उत्तर
लिखकर तो नहीं
लाए हो? खीसे
में से
निकालकर बाहर
रख लेता है।
लेकिन अगर खुद
अपने से पूछे
कि अपने सब उत्तर
चुराये हुए तो
नहीं हैं? तो
सब उत्तर
चुराए हुए
मालूम
पड़ेंगे। गुरु
चोर, शिष्य
चोर, शिक्षक
चोर। जिंदगी
के सब उत्तर
चुराए हुए हैं।
तो उन चुराए
हुए उत्तरों
से न तो शाति
मिल सकती है, न आनंद।
क्योंकि आनंद
मिलता है उस
प्रक्रिया से
गुजरने से, जिसमें
उत्तर के फूल
लगते हैं, लगाए
नहीं जाते।
कुछ
और प्रश्न रह
गए हैं, वह कल
सुबह हम बात
करेंगे।
अब
हम रात के
ध्यान के लिए
बैठेंगे। जिन
मित्रों को
ध्यान में
बैठना हो वे
दूर—दूर हट
जाएं, थोड़ी
जगह कर लें।
जिनको न बैठना
हो वे बहुत चुपचाप
चले जाएं और
किसी तरह की
बातचीत न
करें। और जो
भी यहां रुकता
है, उसे
दर्शक की
भांति नहीं
रुकना है, उसे
प्रयोगकर्ता
की भांति ही
रुकना है।
बातचीत
न करें।
चुपचाप फासले पर
हट जाए।
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