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शुक्रवार, 15 मई 2015

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं--(प्रवचन--08)

विचार नहीं, वरन् मृत्‍यु के तथ्‍य का दर्शन—(प्रवचन—आठवां)

मृत्यु के तथ्य का दर्शन करना है विचार नहीं।
मृत्यु अज्ञान का अनुभव है अमरत्व ज्ञान का अनुभव है।

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि मृत्यु के संबंध में हम सोचें ही क्यों? जीवन मिला है उसे जीएं। वर्तमान में जो है उसमें रहें। मृत्यु के विचार को ही हम क्यों बीच में आने दें?

 उन्होंने ठीक बात पूछी है। लेकिन अगर इतना भी सोचा कि मृत्यु के विचार को क्यों बीच में आने दें? तो भी मृत्यु का विचार आ ही गया। और अगर इतना भी सोचा कि हम जीएं ही, हम मरने के संबंध में सोचें ही न, तो भी सोचना शुरू हो गया। मृत्यु इतना बड़ा तथ्य है कि उससे आंखें नहीं चुराई जा सकतीं। यद्यपि हम जीवन भर यही कोशिश करते हैं कि मृत्यु के संबंध में न सोचें, इसलिए नहीं कि मृत्यु न सोचने जैसी चीज है, बल्कि इसलिए कि सोचने से भी भय लगता है। यह विचार भी प्राणों को कंपा जाता है कि मैं मरूंगा।
जब मरूंगा, तब तो कंपाएगा ही। यह विचार भी, बिना मरे ही यह विचार भी यदि मन को पकड़े कि मैं मरूंगा, तो सारे प्राण जड़ों से कैप जाते हैं।
आदमी निरंतर कोशिश करता रहा है कि मृत्यु को भुलाए, सोचे न। हमने सारी व्यवस्था ऐसी की है जीवन की कि मृत्यु न दिखाई पड़े। उसको झुठलाने की पूरी कोशिश की है। और आदमी ने जो इंतजाम किये हैं, वे सफल होते हुए दिखाई पड़े, लेकिन सफल होते नहीं हैं। क्योंकि मृत्यु है, उससे कैसे भागेंगे? कब तक भागेंगे? कहां भागेंगे? और भागते— भागते उसमें ही पहुंच जाना है। कहीं भी भागें, किसी भी दिशा में भागें, वहीं पहुंच जाएंगे। और वह रोज करीब आती चली जाती है, सोचें या न सोचें, भागें या बचें। लेकिन किसी भी तथ्य से भागा नहीं जा सकता है।
और मृत्यु कोई ऐसी बात नहीं है कि भविष्य में घटित होगी, इसलिए हम उसको क्यों सोचें। यह भी भ्रांति है। मृत्यु भविष्य में घटित नहीं होगी, मृत्यु प्रतिपल घटित हो रही है। पूर्ण होगी भविष्य में, घटित तो प्रतिपल हो रही है। यानी इस वक्त भी हम मर रहे हैं। यहां घंटे भर हम बैठेंगे तो घंटे भर मर जाएंगे। सत्तर साल लगेंगे पूरा मरने में, लेकिन उसमें यह एक घंटा भी सम्मिलित रहेगा। यह घंटा भर भी हम मरेंगे। ऐसा नहीं है कि अचानक कोई एक दिन सत्तर साल में मर जाता है। अचानक मौत नहीं आती है, मौत कोई आकस्मिक घटना नहीं है। ग्रोथ है, एक विकास है, जो जन्म के दिन से ही शुरू हो जाती है। असल में जन्म मृत्यु का पहला छोर है और मृत्यु अंतिम छोर है। यह यात्रा उसी दिन शुरू हो जाती है। जिसको हम जन्म दिन कहते हैं, वह मरने के दिन का पहला दिन है। यात्रा में जरा वक्त लगेगा, लेकिन चल पड़े।
जैसे कोई आदमी द्वारका से चल पड़े कलकत्ते के लिए, तो जो पहला कदम उठाएगा, वह भी कलकत्ते के लिए ही उठाया जा रहा है, अंतिम कदम उठाएगा, वह भी कलकत्ते के लिए ही उठाया जा रहा है। और अंतिम कदम जितना कलकत्ता में पहुंचाएगा, उतना ही पहला कदम भी पहुंचा रहा है। और अगर पहला नहीं पहुंचाएगा, तो अंतिम कभी पहुंचा नहीं सकता है। यानी जब मैंने द्वारका से कलकत्ता चलने के लिए पहला कदम उठाया, तभी मैं कलकत्ता पहुंचने लगा। कलकत्ता एक कदम पास आ गया और एक—एक कदम पास आता चला जाता है। हालांकि हो सकता है कि छह महीने बाद आप कहें कि अब कलकत्ता आया। लेकिन वह छह महीने पहले ही आना शुरू हो गया था, इसलिए छह महीने बाद आ सका।
इसलिए दूसरी बात यह कहना चाहता हूं कि मृत्यु भविष्य में है, ऐसा मत सोचना आप। मृत्यु प्रतिपल है। और भविष्य क्या है? हमारे सारे वर्तमान का जोड़ है। हम जोड़ते चले जा रहे हैं, जोड़ते चले जा रहे हैं, जोड़ते चले जा रहे हैं। पानी को कोई गर्म कर रहा है। पहली डिग्री पर पानी गर्म हो गया है, लेकिन अभी भाप नहीं बन गया है। दो डिग्री पर पानी गर्म हो गया है, अभी भाप नहीं बन गया है। भाप तो सौ डिग्री पर बनेगा। लेकिन पहली डिग्री पर भी भाप बनने के करीब पहुंचने लगा। दूसरी डिग्री पर, तीसरी डिग्री पर, निन्यानबे डिग्री पर भी पानी भाप नहीं बन गया है, सौ डिग्री पर ही भाप बनेगा। लेकिन क्या आपने खयाल किया है कि सौवीं डिग्री एक ही डिग्री है और पहली डिग्री भी एक ही डिग्री है। निन्यानबे से सौ तक जो यात्रा करनी पड़ी है, वही यात्रा एक से दो तक करनी पड़ी है। उसमें कोई फर्क नहीं है। इसलिए जो जानता है, वह पहली डिग्री पर ही कहेगा कि सावधान, पानी भाप बन जाएगा, हालाकि कहीं पानी भाप बनता हुआ दिखाई नहीं पड़ रहा है। हम कहेंगे, सिर्फ पानी गरम हो रहा है, भाप कहा बनता है? निन्यानबे डिग्री तक हम अपने को धोखा दे सकते हैं कि पानी अभी भाप नहीं बन रहा है। लेकिन सौवीं डिग्री पर पानी भाप बनेगा। और हर डिग्री सौवीं डिग्री को करीब लाती चली जाएगी।
इसलिए मृत्यु भविष्य में है, ऐसा कहकर बचने की, पोस्टपोन करने की कोशिश करनी व्यर्थ है। मृत्यु प्रतिपल है। हम रोज ही मर रहे हैं। असल में जिसको हम जीना कह रहे हैं, उसमें और मरने में कोई फर्क नहीं है। हम जिसको जीना कह रहे हैं, वह धीरे — धीरे मरने का नाम है। मैं नहीं कहता कि भविष्य के लिए सोचें। लेकिन जो हो ही रहा है, उसे देखें। और सोचने के लिए भी नहीं कहता।
उन मित्र ने पूछा है कि मृत्यु के संबंध में क्यों सोचें?
मैं नहीं कहता कि सोचें। सोचकर आप कुछ जान भी न पाएंगे। यह ध्यान रहे कि सोचने से किसी भी तथ्य को कभी नहीं जाना जा सकता है। असल में सोचने की तरकीब तथ्यों को झुठलाने की तरकीब है। अगर एक फूल खिला है और आप फूल के संबंध में सोचें, तो आप फूल को नहीं जान पाएंगे। क्योंकि जितना आप सोचने में चले जाएंगे, उतना ही फूल दूर छूट जाएगा। आप सोचने में आगे निकल जाएंगे, फूल वहीं पड़ा रह जाएगा। फूल को सोचने से क्या मतलब है! फूल एक तथ्य है। अगर फूल को जानना है तो सोचें मत, फूल को देखें।
देखने और सोचने में फर्क है। और यह फर्क महत्वपूर्ण है। पश्चिम सोचने पर बड़ा जोर देता है। इसलिए उन्होंने अपने विचारशास्त्र को फिलासफी का नाम दिया है। फिलासफी का मतलब है, विचार। हमने अपने सोचने के शास्त्र को दर्शन का नाम दिया है। दर्शन का अर्थ है, देखना। दर्शन का अर्थ सोचना नहीं है। जरा समझने जैसी बात है कि हमने दर्शन कहा है, उन्होंने फिलासफी कहा है। इसमें बुनियादी फर्क है। और जो लोग फिलासफी और दर्शन को पर्यायवाची कहते हैं, उन्हें कुछ भी पता नहीं है। ये दोनों पर्यायवाची नहीं हैं। इसीलिए इंडियन फिलासफी जैसी कोई चीज ही नहीं है और पाश्चात्य दर्शन जैसी कोई चीज नहीं है। पश्चिम में जो है, वह विचार शास्त्र है, मीमांसा है, तर्क है, विश्लेषण है। पूरब ने एक और ही फिक्र की है। पूरब ने यह अनुभव किया है कि कुछ तथ्यों को सोचने से जाना ही नहीं जा सकता। तथ्यों को देखना पड़ेगा, जीना पड़ेगा। सोचने और देखने में बड़ा फर्क है।
एक आदमी प्रेम के संबंध में सोचता है। तो हो सकता है, प्रेम के ऊपर शास्त्र लिख सके। लेकिन प्रेमी प्रेम को जीता है, देखता है। हो सकता है, शास्त्र न लिख सके। और प्रेमी से अगर कोई पूछने जाए कि प्रेम के संबंध में कुछ कहो, तो शायद आंखें उसकी बंद हो जाएं, आंसू बहने लगें। और वह कहे, मत कहो, मत कहो, कैसे कह सकता हूं! मत पूछो। प्रेम के संबंध में क्या कह सकता हूं! और जिसने प्रेम पर सोचा है, वह प्रेम पर घंटों समझाएगा, लेकिन प्रेम के कण भर का उसे पता न होगा। सोचना और देखना दो विभिन्न प्रक्रियाएं हैं।
तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मृत्यु के संबंध में सोचें। सोचेंगे तो आप मृत्यु को कभी न जान सकेंगे। देखना पड़ेगा। मैं यह कह रहा हूं कि मृत्यु तो यह खड़ी है, आपके भीतर खड़ी है, इसे देखना पड़ेगा। यह जिसे मैं 'मैं' कह रहा हूं, यह मर रहा है पूरे वक्त। इस मरने की घटना को देखना पड़ेगा इस मरने की घटना को जीना पड़ेगा, इस मरने की घटना को स्वीकार करना पड़ेगा कि मैं मर रहा हूं मैं मर रहा हूं मैं मर रहा हूं। झुठलाने की हम बहुत कोशिश करते हैं, हजार तरकीबें हमने निकाली हैं झुठलाने की। सफेद हो गए बाल को खिजाब लगा सकते हैं, लेकिन उससे मौत कुछ झुठला नहीं जाती, वह तो आती है। खिजाब लगे हुए बाल के भीतर भी बाल सफेद ही हैं। वह मौत आनी शुरू हो गई है। वह आएगी ही। उसे हम कैसे झुठलाके? उसे हम कितना ही झुठलाते चले जाएं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसकी गति चल रही है। ही, इतना ही फर्क पड़ सकता है कि हम उसे जानने से वंचित रह जाएँ।
और मैं यह कह रहा हूं कि जो अभी मृत्यु को ही न जान पाया, वह जीवन को कैसे जानेगा? मैं यह कह रहा हूं कि मृत्यु तो परिधि पर है, जीवन केंद्र पर है। अगर परिधि को ही न जाना, तो केंद्र को हम कैसे जानेंगे? और अगर परिधि से ही भाग खड़े हुए, तो केंद्र के पास तो कभी पहुंच ही न पाएंगे। क्योंकि जिस घर की बाहर की बाउंड्री की दीवाल से मैं डर गया और भाग खड़ा हुआ, उस घर के भीतर के भवन में कैसे प्रवेश करूंगा! मृत्यु है बाहर का घेरा और जीवन है मृत्यु के केंद्र में स्थापित मंदिर। उस बाहर के घेरे से हम भाग रहे हैं, तो हम जीवन से भी भाग जाते हैं। जो मृत्यु को जानेगा जानेगा, जानेगा, वह धीरे — धीरे, धीरे— धीरे मृत्यु के वस्त्रों को हटाकर जीवन को भी जानने लगेगा। मृत्यु द्वार है जीवन को जानने का। मृत्यु से बचे कि जीवन से भी बचे।
तो जब मैं कहता हूं कि मृत्यु को जानें, तथ्य को पहचानें, तो सोचने के लिए नहीं कह रहा हूं। और एक मजे की बात समझ लेनी चाहिए।
सोचने का मतलब है कि जिसे हम जानते हैं, उसको दोहराना। सोचना कभी भी मौलिक नहीं होता। आमतौर से हम कहते हैं कि फलां व्यक्ति के विचार बहुत मौलिक, बहुत ओरिजनल हैं। कोई विचार कभी मौलिक नहीं होता। विचार मौलिक हो ही नहीं सकते। दर्शन मौलिक हो सकता है। विचार तो सदा बासे होते हैं।
अगर आपसे मैं कहूं कि गुलाब के इस फूल के संबंध में सोचिए। आप क्या सोचेंगे? जो आपने गुलाब के संबंध में जाना हुआ है, पहचाना हुआ है, उसी को दोहराएंगे। करेंगे क्या? सोचने में कर क्या सकते हैं आप? क्या गुलाब के फूल के संबंध में एकाध भी अज्ञात, मौलिक दृष्टि आपके सोचने में आ सकती है? कैसे आएगी! सोचना तो विचार का दोहराना है। आप कहेंगे, बड़ा सुंदर है। यह कितनी बार नहीं सुना है, यह कितनी बार नहीं पढ़ा है। कहेंगे कि बिलकुल प्रेयसी के मुख की भांति है। यह भी कितनी बार नहीं सुना है, कितनी बार नहीं पढ़ा है। कहेंगे, बड़ा ताजा है, बड़ा आनंददायी है। लेकिन यह भी कितनी बार नहीं पढ़ा है, कितनी बार नहीं सुना है। क्या आप करेंगे विचार कर? विचार से आप कहां गुलाब के उस फूल में प्रवेश कर पाएंगे? विचार से आप गुलाब के फूल के संबंध में जो स्मृति में बैठा है, उसमें ही प्रवेश कर सकेंगे। अपने ही बासे को आप उघाडकर देखते रहेंगे। इसलिए विचार कभी भी मौलिक नहीं होता। मौलिक विचार जगत में होता ही नहीं। द्रष्टा मौलिक होते हैं।
अगर कोई व्यक्ति गुलाब के फूल को देखे, तो देखने का मतलब है पहली शर्त तो यह है कि विचार न करे। विचार को हटा दे, स्मृति को हटा दे, खाली हो जाए और गुलाब के फूल के साथ जीये। इधर हो गुलाब का फूल, उधर हो वह, बीच में कोई भी न हो। सुना हुआ, पढ़ा हुआ, जाना हुआ, कुछ भी बीच में न हो, अनुभव किया हुआ, कोई भी बीच में न हो। ज्ञात, नोन बीच में न हो। इधर रहूं मैं, उधर हो गुलाब। तब जो अननोन है, वह जो अशांत गुलाब के भीतर बैठा है, वह मेरे प्राणों में प्रवेश करने लगेगा। बीच में कोई बाधा न पाकर वह प्रवेश कर जाएगा। और तब ऐसा नहीं होगा कि ऐसा पता चलेगा कि गुलाब यह है, ऐसा पता चलेगा कि मैं और गुलाब अलग कहां! तब हम भीतर से गुलाब को जान पाएंगे। द्रष्टा भीतर प्रवेश कर जाता है, विचारक बाहर घूमता रहता है। इसलिए विचारक की कोई उपलब्धि नहीं है। जो उपलब्धि है वह द्रष्टा की है। द्रष्टा भीतर प्रवेश कर जाता है, क्योंकि उसके और उसके सामने जो है, उसके बीच कोई दीवाल नहीं रहती। दीवाल टूट जाती, दीवाल मिट जाती।
कबीर ने एक दिन अपने बेटे कमाल को कहा कि वह जाए और गाय— भैंस के लिए जंगल से थोड़ा घास काट लाए। तो कमाल घास काटने जंगल में गया। सुबह का निकला है, दोपहर होने लगी और वह नहीं लौटा। कबीर चिंतित हुए हैं। फिर दोपहर भी ढलने लगी और वह नहीं लौटा। बड़ी चिंता बढ़ गई। फिर सांझ होने लगी, सूरज ढलने के करीब आ गया, तो कबीर और उनके कुछ भक्त ढूँढने निकले कि कमाल गया कहां। जाकर देखते हैं कि जंगल में घनी घास के बीच में कमाल खड़ा है। आंखें बंद हैं और डोल रहा है। हवा के झोंके में जैसे घास डोल रही है वैसे ही कमाल भी डोल रहा है। जाकर उसको हिलाया और पूछा, यह क्या कर रहे हो? उसने आंख खोली और कहा, अरे! बड़ी भूल हो गई।
कबीर ने कहा, कितनी देर लगा दी, यह कर क्या रहे हो? उसने कहा, जब मैं यहां आया, तो बड़ी भूल हो गई। क्या भूल हो गई? उसने कहा कि मैं घास काटना छोड्कर घास को देखने लगा और देखते —देखते कब मैं घास हो गया, मुझे पता ही न रहा। फिर सांझ हो गई। और मुझे पता ही न था कि मैं हूं कमाल, जो घास काटने आया है। मैं तो घास ही हो गया। इतना आनंद था उस घास हो जाने में कि कमाल होने में कभी भी न पाया था। और तुम आ गए तो ठीक किया, अन्यथा पता नहीं. अब तो लौटना न हो पाता क्योंकि मुझे पता ही न था। हवाएं घास को नहीं हिला रही थीं, वे मुझे हिला रही थीं। और यह तो बात ही खतम हो गई थी, काटने वाला और कटने वाला समाप्त हो गया था। यह कमाल ने कहा कि बडी भूल हो गयी, मैं देखने में लग गया।
यह बड़ी भूल नहीं हो गयी, यह बड़ी अदभुत बात हो गयी। और जब भी कोई देखने में लग जाएतो बात एकदम बदल जाती है। हम कुछ भी नहीं देखते! कभी आपने अपनी पत्नी को देखा है? कभी अपने बेटे को देखा है? जिनके साथ आप बरसों से जी रहे हैं, कभी उन्हें देखा है? सोचा है सदा कि कल इस पत्नी ने क्या—क्या किया था, वह बीच में खड़ा रहा। सुबह दफ्तर जाते वक्त उसने कैसा झगड़ा किया था, वह बीच में खड़ा हुआ है। खाना खाते वक्त उसने क्या कहा था, वह बीच में खड़ा हुआ है। सोचा है सदा, देखा कभी भी नहीं। और इसलिए कोई भी संबंध नहीं है पति और पत्नी के बीच, बाप और बेटे के बीच कोई संबंध नहीं है, मां और बेटे के बीच कोई संबंध नहीं है। संबंध तो वहां होता है, जहां विचार विलीन होता है और दर्शन शुरू होता है। तब संबंध होता है, क्योंकि तब बीच में तोड्ने वाला कोई भी नहीं रह जाता।
ध्यान रहे, संबंध का मतलब ऐसा नहीं है कि दो को जोड्ने वाला कोई हो। जब तक जोड्ने वाला बीच में कोई होगा, तब तक तोड्ने वाला मौजूद है। क्योंकि जो जोड़ता है वह तोड़ता है। जिस दिन जोड्ने वाला भी बीच में कोई मौजूद नहीं रह जाता, दो ही रह जाते हैं, बीच में कोई नहीं रह जाता, उस दिन एक ही रह जाता है, उस दिन दो नहीं रह जाते। संबंध का मतलब ऐसा नहीं है कि जिससे हम जुड़े हैं। संबंध का मतलब यह है कि जिसके और हमारे बीच कुछ भी नहीं है, कोई है ही नहीं बीच में, जोड्ने तक को कोई नहीं है। वहां धाराएं विलीन हो जाती हैं और एक दूसरे में लीन हो जाती हैं। इसका नाम प्रेम है। दर्शन प्रेम में ले जाता है। प्रेम का सूत्र है दर्शन। और जिसने प्रेम नहीं किया उसने कभी कुछ नहीं जाना। चाहे किसी भी चीज को जानने गया हो, तो प्रेम से ही जाना है।
अब जब मैं कहता हूं कि मृत्यु को जानना है, तो मृत्यु से भी प्रेम करना पडेगा, मृत्यु का भी दर्शन करना पड़ेगा। और वह जो भयभीत है, वह भागा हुआ है, वह प्रेम कैसे करे? वह दर्शन कैसे करे? वह मृत्यु को देखे कैसे? मृत्यु सामने खड़ी हो जाए, तो वह पीठ फेरकर खड़ा हो जाता है। वह आंख बंद कर लेता है, वह —मृत्यु को कभी सामने नहीं आने देता है। वह भयभीत है, वह डरा हुआ है। इसलिए वह मृत्यु को कभी न देख पाता है, न प्रेम कर पाता है। और जो अभी मृत्यु को ही प्रेम न कर पाया, वह जीवन को कैसे प्रेम करेगा। क्योंकि मृत्यु तो बड़ी ऊपर की घटना है, जीवन बड़ी गहरे की घटना है। जो कुएं की पहली सीडी से लौट आया, वह कुएं के जल तक कैसे पहुंचेगा।
इसलिए मृत्यु को तो जीना पड़ेगा, जानना पड़ेगा, देखना पड़ेगा, प्रेम करना पडेगा, उसके साथ आंख मिलानी पड़ेगी। और जैसे ही कोई आंख मृत्यु से मिलाता है, जैसे ही कोई खड़े होकर उसे देखने लगता है, जैसे ही कोई उसमें प्रवेश कर जाता है, वह हैरान होता है। कितना बड़ा रहस्य छिपा है मृत्यु में कि जिसे हम मृत्यु जानकर भागते थे, उसके भीतर परम जीवन का स्रोत छिपा है। इसलिए मैं कहता हूं, मरें स्वेच्छा से, ताकि जीवन को पहुंच सकें।
जीसस का एक अदभुत वचन है। जीसस ने कहा है कि जो अपने को बचाएगा, वह मिट जाएगा; और जो अपने को मिटाएगा, उसको मिटाने वाला कोई भी नहीं है। जो अपने को खो देगा, वह पा लेगा, और जो अपने को बचाएगा, वह खो जाएगा।
एक बीज अगर अपने को बचाने में लग जाए, तो सिर्फ सडेगा और क्या होगा! और एक बीज अगर अपने को मिटा दे जमीन में और खो जाए, तो वृक्ष बन जाएगा। बीज की मृत्यु वृक्ष का जीवन बन जाती है। और बीज अगर अपने को बचाने लगे और कहे कि मैं डरता हूं, मैं मर नहीं सकता हू मैं खो नहीं सकता हूं मैं अपने को क्यों खोऊं? तो फिर बीज सडे—गा। फिर बीज भी न रह जाएगा वृक्ष होना तो बहुत दूर है। हम डरकर सिकुड़ जाते हैं, मौत से डर कर हम सिकुड़ जाते हैं।




मैं यहां एक बात और कहना चाहता हूं जो आपके खयाल में कभी न आई होगी। सिर्फ मृत्यु से डरे हुए आदमी में अहंकार होता है। क्योंकि अहंकार है सिकुड़ा हुआ व्यक्तित्व—ठोस गांठ। जो मौत से डरा, वह सिकुड़ जाता है, क्योंकि जो डरता है उसे सिकुड़ना पड़ता है, जो सिकुड़ता है वह गांठ बन जाता है भीतर, एक कांप्लेक्स बन जाता है। मैं का जो भाव है, वह मौत से डरे हुए आदमी का भाव है। और जो आदमी मौत में उतर जाता है, जो उससे डरता नहीं है, भागता नहीं है, उसको जीने लगता है, उसका मैं विलीन हो जाता है, उसका अहंकार विलीन हो जाता है। और जब अहंकार विलीन हो जाता है, तो जीवन ही रह जाता है, जीवन ही रह जाता है। इसे हम ऐसा भी कह सकते हैं कि सिर्फ अहंकार ही मरता है, आत्मा नहीं मरती है। और हम चूंकि अहंकार ही बने रहते हैं, इसलिए बड़ी मुश्किल हो जाती है। अहंकार ही मर सकता है, उसकी ही मृत्यु है, क्योंकि वह झूठ है। उसे मरना ही पड़ेगा। और हम उसी को पकड़े हुए हैं।
जैसे समझ लें कि सागर में एक लहर उठ रही है अभी। अभी पीछे सागर लहरें ले रहा है, उसमें एक लहर उठी। अगर लहर लहर की तरह बचना चाहे, तब तो नहीं बच सकती, मरेगी ही। लहर लहर की तरह कैसे बच सकती है! मरेगी ही। ही, एक रास्ता है कि बर्फ बन जाए, फ्रोजन हो जाए, सिकुड़ जाए, ठोस हो जाए, तो बच सकती है। अगर लहर बर्फ हो जाए तो बच सकती है, लेकिन उस बचने में भी लहर गई, बर्फ रह गई—बंद, टूटा हुआ।
ध्यान रहे, लहर टूटी नहीं है, सागर से एक है; लेकिन बर्फ टूट जाती है सागर से, वह अलग हो गई। बर्फ सख्त हो गयी, फ्रोजन हो गयी, सिकुड़ गयी, जम गयी। तो लहर तो सागर के साथ एक थी, लेकिन बर्फ का टुकड़ा अगर हो जाए, तो बच तो जाएगी, लेकिन सागर से टूट जाएगी। और कितनी देर बची रहेगी? जो जमा है, वह पिघलेगा। गरीब लहर जरा जल्दी पिघल जाएगी, अमीर लहर जरा देर से पिघलेगी और क्या फर्क होगा? जरा बडी लहर होगी, तो देर लगेगी सूरज की रोशनी को उसे पिघलाने में, छोटी लहर होगी, जल्दी पिघल जाएगी। इतना ही फर्क होगा। समय का ही फर्क हो सकता है। पिघलेगी, पिघलेगी। और रोकी, चिल्लाकी, क्योंकि जैसे ही पिघलेगी वैसे ही मिटेगी। लेकिन लहर अगर लहर की तरह अपने को खो ही दे और नीचे उतर कर जान ले कि सागर ही है, तो फिर लहर को मिटने का सवाल ही मिट जाता है.। फिर वह मिटे तो है, न मिटे तो है। क्योंकि वह जानती है कि मैं लहर नहीं हूँ? तब वह जानती है .कि मैं सागर हूं। जब सब लहर खो जाती हैं, तब भी वह है, तब वह विश्राम में है। और जब लहर उठती है, तब वह श्रम में है। और श्रम से विश्राम कम सुखद नहीं है। ज्यादा ही सुखद है।
एक श्रम का होना है, एक विश्राम का होना है। जिसे हम संसार कहते हैं, वह श्रम का होना है; और जिसे हम मोक्ष कहते हैं? वह विश्रामपूर्ण होना है। ऐसे ही जैसे लहर है, हवाओं से लड़ती है, टकराती है, परेशान है। और फिर लहर सो गई है। अब भी है —जो था, वह अब भी है—अब भी वह सागर में है, लेकिन विश्राम में है। लेकिन अगर कोई लहर—लहर की तरह अपने को मान ले, तो अंहकार से भर गई; और तब वह सागर से अपने को तोड़ना चाहेगी, क्योंकि जिसको ऐसा खयाल हो जाए कि मैं हूं, वह सबके साथ मिला हुआ कैसे रहे। मिला हुआ रहे, तो फिर मैं का पता नहीं चलता। इसलिए मैं कहता है) तोड़ लो सबसे अपने को। और कितना मजा है कि तोड़कर बड़ा दुःख होते है। इसलिए फिर मैं कहता है, जोड़ो सबसे अपने को। इतना चक्कर है मैं का। पहले वह कहता है तोड़ो सबसे अपने को, आइसोलेट करो, क्योंकि तुम अलग हो। तुम सबसे कैसे जुड़े रह सकते हो! तो मैं अपने को तोड़ लेता है। फिर तोड़ कर वह परेशानी में पड़ जाता है, क्योंकि टूटते ही दुख शुरू हो जाता है, क्योंकि टूटते ही मौत शुरू हो जाती है। लहर ने जैसे ही अपने को जाना कि सागर से अलग हूं उसका मरना शुरू हुआ, मौत आई। अब मौत से बचना पड़ेगा, अब वह संघर्ष में पड़ जाएगी। जब तक वह सागर से एक थी, मौत थी ही नहीं, क्योंकि सागर नहीं मरता है।
ध्यान रहे, सागर बिना लहर के भी हो सकता है, लहर बिना सागर के नहीं हो सकती है। आप लहर नहीं ला सकते हैं बिना सागर के। सागर आ ही जाएगा लहर में। लेकिन सागर बिना लहर के हो सकता है। सब लहरें शाति में हैं, विश्राम में हैं। लहर ने जैसे ही चाहा कि मैं बचाऊं अपने को अलग, वैसे ही कठिनाई शुरू हो गई और वह सागर से टूट गई और मौत शुरू हो गई।
और इसलिए मरने वाला प्रेम करना चाहता है। हम सब मरने वाले प्रेम के लिए इसीलिए इतने आतुर हैं कि प्रेम फिर जोड्ने का उपाय बनता है। इसलिए हम में से कोई भी बिना प्रेम के जीने में बड़े दुख में है। प्रेम चाहिए, कोई प्रेम ले, कोई प्रेम दे। और जिस व्यक्ति को प्रेम न मिले, उसकी बडी मुश्किल हो जाती है। मगर हमने कभी सोचा कि प्रेम का मतलब क्या है? यानी प्रेम का मतलब यह है कि वह जो हमने विराट से तोड़ दिया है नाता, अब उसको हम फिर टुकड़े—टुकड़े में जोड्ने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए एक प्रेम तो वह है जिसमें हम टुकड़े—टुकड़े से जोडने की कोशिश कर रहे हैं, उसका नाम प्रेम है। और एक प्रेम वह है, जहां हमने तोड्ने की कोशिश बंद कर दी है, उसका नाम प्रार्थना है।
इसलिए प्रार्थना जो है पूर्ण प्रेम का नाम है। उसका मतलब बहुत भिन्न है। उसका मतलब यह नहीं है कि हम एक—एक टुकड़े से जोड्ने की कोशिश कर रहे हैं। उसका मतलब है, हमने तोडना बंद कर दिया है। लहर ने कहा कि मैं सागर हूं, अब वह हर लहर से अपने को जोड्ने की कोशिश नहीं कर रही है। और ध्यान रहे, लहर खुद ही मरी जा रही है, पड़ोस की लहरें भी मरी जा रही हैं। अगर लहर ने लहर से संबंध जोड्ने की कोशिश की, तो मुश्किल में पड़ जाने वाली है।
इसलिए जिसको हम प्रेम कहते हैं, वह अत्यंत दुखदायी है, क्योंकि लहर लहर से संबंधित होने की कोशिश कर रही है। यह लहर भी मर रही है, वह लहर भी मर रही है। दोनों लहरें मर रही हैं। और दोनों लहरें इस आशा में दूसरे से जुड़ रही हैं कि शायद जुड़ने से हम बच जाएं। इसलिए प्रेम को हम सुरक्षा बना रहे हैं। इसलिए कोई अकेला रहने में डरता है। पत्नी चाहिए, पति चाहिए, बेटा चाहिए, मां चाहिए, भाई चाहिए, मित्र चाहिए, समाज चाहिए, संगठन चाहिए, राष्ट्र चाहिए। ये सब अहंकार की चेष्टाएं हैं। जिसने तोड़ लिया है, फिर वह जोड्ने की कोशिश में लगा हुआ है।
लेकिन सब जोड्ने की कोशिश मौत ला रही है। क्योंकि जिससे हम जुड़ रहे हैं, वह भी उतना ही मरण से घिरा हुआ है, उतना ही अहंकार से घिरा हुआ है। और मजे की बात यह है कि वह हमसे जुड़कर अमर होना चाहता है, हम उससे जुड़कर अमर होना चाहते हैं। और दोनों मरणधर्मा हैं, कैसे अमर हो सकते हैं? मौत दुगुनी हो सकती है, अमृत बिलकुल नहीं हो सकती है।
इसलिए दो प्रेमी कितनी आशा करते हैं कि प्रेम अमर हो जाए, दिन रात गीत गाते हैं, अनंतकाल से कविताएं लिख' रहे हैं कि प्रेम अमर हो जाए। वह अमर होने की आकांक्षा दो मरणधर्मा मिलकर कैसे कर सकते हैं? दो मरणधर्मा मिलेंगे, तो सिर्फ मौत दुगुनी होती है और कुछ भी नहीं होता है। कैसे कुछ और हो सकता है? और दोनों पिघलते जा रहे हैं, और दोनों गिरते जा रहे हैं, और दोनों मिटते जा रहे हैं। इसलिए दोनों भयभीत हैं, चिंतित हैं।
लहरें अपने संगठन बनाए हुए हैं। वे कहती हैं, हमें बचना है। राष्ट्र बनाए हुए हैं, हिंदू— मुसलमान संप्रदाय बनाए हुए हैं। लहरें अपने संगठन बनाए हुए हैं। और सब संगठन मिट जाने वाले हैं, क्योंकि नीचे सागर ही एकमात्र संगठन है। और सागर का संगठन बिलकुल और बात है। उसका मतलब यह नहीं है कि लहर अपने ' से सागर को जोड़ लेती है, उसका यह मतलब है कि लहर जानती है कि मैं अलग ही नहीं हूं। इसलिए मैं कहता हूं कि धार्मिक व्यक्ति का कोई संगठन नहीं होता, न कोई परिवार होता है, न उसका कोई मित्र होता है, न उसका कोई पिता है, न कोई भाई है।
जीसस ने कुछ बड़े कठोर शब्द कहे हैं। असल में इतने कठोर शब्द भी केवल वे ही लोग कह सकते हैं, जो प्रेम को उपलब्ध हो गए हैं। जिनका प्रेम कमजोर है, वे कठोर शब्द भी तो नहीं कह सकते। एक दिन बाजार में जीसस के पास बहुत लोग भीड लगाए हुए खडे हैं और जीसस की मां मरियम उनसे मिलने आई है। तो भीड़ में लोग उसे रास्ता दे रहे हैं। और कोई चिल्ला रहा है, रास्ता दो, जीसस की मा आ रही है! रास्ता दो, जीसस की मां को भीतर आने दो। तो जीसस भीतर से चिल्लाते हैं कि अगर जीसस की मां को रास्ता दे रहे हो, तो देना ही मत, क्योंकि जीसस की कोई मां नहीं है। मरियम एकदम चौंक कर खडी हो गई। और जीसस घिरे हुए लोगों से कहते हैं कि जब तक तुम मां —बाप को न मिटा पाओ, तब तक मेरे पास न आ सकोगे। जब तक तुम्हारी मां है, जब तक तुम्हारे पिता हैं, जब तक तुम्हारे भाई हैं, तुम्हारी पत्नी है, तब तक तुम मेरे पास न आ सकोगे।
बड़ा कठोर है। हम सोच भी नहीं सकते कि जीसस जैसा प्रेम से भरा हुआ आदमी यह कहेगा कि कोई मेरी मां नहीं है, कौन मेरी मां है? मरियम चौंक कर खड़ी हो गई। और जीसस कहते हैं कि क्या तुम इस स्त्री को मेरी मां कहते हो? कोई मेरी मां नहीं है! और ध्यान रहे, अगर तुम्हारी मां हो अभी, तो तुम मेरे पास न आ सकोगे।
क्या मामला है! असल में जो लहर लहर से संगठित हो रही है, वह सागर के पास न जा सकेगी। असल में सागर से बचने के लिए ही लहर—लहर आपस में संगठन बनाती हैं। अकेली लहर को ज्यादा डर मालूम पड़ता है कि खो न जाऊं, खो न जाऊं। खो ही रही है लहर। तो दस—पांच लहरें इकट्ठी हो जाएं, तो थोड़ी हिम्मत बंधती है। थोडा संगठन हो गया, तो थोड़ी भीड़ हो गई।
इसलिए आदमी क्राउड में, भीड़ में जीना पसंद करता है, अकेले में घबड़ाता है। क्योंकि अकेले में बिलकुल अकेली लहर रह जाती है, जो दोनों तरफ से फिसल रही है, गिर रही है, मिट रही है, मिटने के करीब पहुंच रही है। इसलिए संगठन बनाता है, इसलिए श्रृंखला बनाता है। बाप कहता है कि मैं मिट जाऊंगा, कोई फिक्र नहीं, बेटे को छोड़ जाऊंगा। लहर कहती है, मैं मिट जाऊंगी, लेकिन मैं एक छोटी लहर उठाए जाती हूं। वह तो जारिगी, मेरी श्रृंखला रहेगी, मेरा नाम रहेगा। इसलिए बाप को बेटा न हो तो बड़ा दुख होता है, क्योंकि वह अमरत्व का कोई इंतजाम नहीं कर पाया। वह तो मिटेगा, लेकिन वह एक दूसरी लहर को पैदा न कर पाया जो आगे चलती चली जाए, जो कम से कम इतना तो कहे कि उस लहर से पैदा हुई थी। वह लहर मिट गई, कोई बात नहीं, लेकिन एक लहर पीछे छोड़ गई है।
इसलिए आपने ध्यान कभी दिया हो न दिया हो, जिन लोगों के जीवन में कोई सृजनात्मक गतिविधि होती है —जैसे कोई पेंटर, कोई चित्र बनाने वाला, कोई संगीतज्ञ, कोई कवि, कोई लेखक—उनको बेटा पैदा करने की उतनी फिक्र नहीं होती। इसका कुल कारण इतना है कि वे बेटे की सब्‍स्‍टीट्यूट को पा जाते हैं। उनकी पेंटिंग जिंदा रहेगी, उनकी कविता जिंदा रहेगी, उनकी मूर्ति जिंदा रहेगी, उनको बेटे की कोई फिक्र नहीं। इसलिए वैज्ञानिक, चित्रकार, मूर्तिकार, लेखक, कवि, उतनी फिक्र नहीं करते बेटे वगैरह की। उसका और कोई कारण नहीं है, उन्होंने एक दूसरा बेटा पा लिया है। उन्होंने एक लहर पैदा कर दी, जो जिंदा रहेगी। और आपसे ज्यादा देर तक टिकने वाला बेटा पा लिया है। क्योंकि जब आपके बेटे खो जाएंगे, तब भी उनकी किताब रहेगी।
इसलिए साहित्यकार बहुत फिक्र में नहीं रहता कि उसको बेटा हो जाए, उसको संतति हो जाए, उसकी चिंता नहीं है उसे। इसका मतलब यह नहीं है कि वह निश्चित है। इसका कुल मतलब इतना है कि उसको थोड़ी लंबी देर तक टिकने वाली लहर मिल गयी है। अब वह फिक्र छोड़ता है छोटी लहरों की। इसलिए परिवार में वह उत्सुक नहीं है। उसने और तरह का परिवार बना लिया है। वह भी उतनी ही अमरता की चेष्टा में लगा हुआ है। इसलिए साहित्यकार कहेगा कि धन खो जाएगा, संपत्ति खो जाएगी, लेकिन शास्त्र रहेगा। उसकी वही आकांक्षा है।
शास्त्र भी खो जाते हैं। कोई शास्त्र नहीं रह जाता। ही, थोड़ी ज्यादा देर तक रहता है। कितने शास्त्र खो गए, कितने शास्त्र रोज खोते चले जाएंगे। सब खो जायेगा। असल में लहरों की दुनिया में कितनी ही लंबी कोई लहर चली जाए, खोएगी ही। लहर होने का मतलब खोना है, लंबाई का कोई फर्क नहीं पड़ता।
इसलिए लहर हूं मैं, अगर ऐसा जाना, तो मौत से बचने की इच्छा रहेगी, डर रहेगा, घबड़ाहट रहेगी। मैं कह रहा हूं कि मौत को देखें, न बचें, न घबराएं, न भागें। देखें, और देखने से आपको लगेगा कि जो इस तरफ से मौत थी, वह थोड़े भीतर जाने से पता चलता है कि वही जीवन है। तब लहर सागर हो जाती है। तब मिटने का भय मिट जाता है। तब वह सख्त, फ्रोजन होकर बर्फ नहीं बनना चाहती। तब वह जितनी देर आकाश में नाचती है, सूरज की रोशनी में खुश है। और जब विश्राम करती है, तब विश्राम में खुश है। इसलिए वह जीवन में खुश है, और मृत्यु में खुश है। क्योंकि वह जानती है कि जो है, वह न तो जन्मता है, और न मरता है; जो है, वह है। रूप बदलते रहते हैं, रूप बदलते चले जाते हैं।
हम सब भी चेतना के सागर पर उठी हुई लहरें हैं। हममें से कुछ बर्फ हो गए हैं, अधिक बर्फ हो गए हैं। अहंकार बर्फ है, सख्त पत्थर की तरह। कितना आश्चर्य है कि पानी जैसी तरल चीज बर्फ जैसी, पत्थर जैसी कठोर हो सकती है! पानी जैसी तरल चीज पत्थर जैसी कठोर हो सकती है, अगर जमने की आकांक्षा पैदा हो जाए। तो चेतना जैसी सरल चीज, तरल चीज जमकर अहंकार, ईगो बन जाती है, अगर जमने की इच्छा पैदा हो जाए। और हम सब जमने की इच्छा से भरे हुए हैं, इसलिए हम बहुत तरह के उपाय करते हैं कि हम कैसे जम जाएं।
पानी के बर्फ बनने के नियम हैं। आदमी के अहंकार बनने के भी नियम हैं। पानी को बर्फ बनना पड़े, तो ठंडा होना पड़ता है। समझ रहे हैं आप, पानी को बर्फ बनना पड़े तो ठंडा होना पड़ता है, उष्णता खोनी पड़ती है, ठंडा, ठंडा, ठंडा हो जाना पड़ता है। जितना ही ठंडा हो जाता है, उतना ही सख्त होता चला जाता है। जिस आदमी को अहंकार बनना हो, उसको भी ठंडा होना पड़ता है, वार्म्‍थ खोनी पड़ती है, गर्मी खोनी पड़ती है। इसलिए आपने देखा कि हम कहते हैं हाट वेल्कम, गरम स्वागत। इसका मतलब आप समझते हैं! स्वागत हमेशा ही गरम होता है। कोल्ड वेल्कम का कोई मतलब ही नहीं होता है, ठंडे स्वागत का कोई मतलब नहीं होता है।
प्रेम का अर्थ ही गर्मी है, ठंडे प्रेम का कोई अर्थ नहीं होता। प्रेम ठंडा होता ही नहीं, उष्णता है उसमें। असल में जीवन में उष्णता है, मौत ठंडी है। इस फर्क को समझ लेना चाहिए। मौत बिलकुल ठंडी है। जीरो के नीचे, बर्फ उसके भीतर जमा हुआ है, जिंदगी सदा गरम है। इसलिए सूरज जीवन का प्रतीक है, वह गर्मी का प्रतीक है। सुबह वह उगता है, तो मौत बिदा हो जाती है। सब गर्म, उष्ण हो जाता है। फूल खिल जाते हैं, पक्षी गीत गाने लगते हैं। उष्णता जीवन का प्रतीक है, ठंडक मौत का।
तो जिसको अहंकार बनना हो, उसको ठंडा होना पड़ता है। और ठंडा होने के लिए वे सब चीजें खोनी पड़ती हैं, जो गर्म करती हैं। जो व्यक्तित्व को उष्मा देती हैं, उन सबको खोना पड़ता है। जैसे प्रेम ऊर्जा देता है, घृणा ठंडक देती है। तो प्रेम छोड़ना पड़ता है, घृणा पकड़नी पड़ती है। दया, सहानुभूति गर्मी लाती हैं, कठोरता, निर्दयता ठंडक लाती हैं।
जैसे पानी के जमने के नियम हैं, वैसे मनुष्य के मन के जमने के नियम हैं। नियम वही है कि ठंडे होते चले जाएं। हम कहते हैं न कभी किसी आदमी को कि बिलकुल ठंडा आदमी है। कोई उसमें गर्मी नहीं है। पत्थर की तरह हो जाता है वह।
ध्यान रहे कि जितना गर्म होता है, उतना तरल होता है, लिक्यीडिटी होती है, बहाव होता है जीवन में। तब वह दूसरों में भी प्रवेश कर जाता है, दूसरे उसमें प्रवेश कर जाते हैं। लेकिन ठंडा तो सख्त हो जाता है, फिर किसी में प्रवेश नहीं हो पाता, सब तरफ से क्लोजिंग हो जाती है, सब तरफ से बंद हो जाता है। न उसमें कोई प्रवेश कर सकता है, न उसका किसी में प्रवेश हो सकता है। अहंकार जमी हुई बर्फ है और प्रेम पिघल गया पानी, बह गया पानी है। मौत से जो डरेगा, मौत से जो भागेगा, यह बड़े मजे की बात है कि मौत से जो डरेगा और भागेगा, वह ठंडा होता चला जाएगा। क्योंकि यह डर कि मैं कहीं मर न जाऊं, कहीं टूट न जाऊं, मिट न जाऊं, सिकोडेगा, सख्त हो जाएगा, मजबूत हो जाएगा।
मैं एक मित्र के घर में कुछ दिन तक रहता था। वह बड़े धन वाले हैं, बहुत संपदा है। लेकिन एक बात जानकर मैं हैरान हुआ। वे कभी किसी से सीधे न बोलेंगे। ऐसे आदमी अच्छे हैं। जब मैं उनके घर रहा तो मैं बहुत हैरान हुआ कि भीतर से वे बहुत तरल हैं, बाहर से बहुत ठोस हैं। नौकर उनके सामने थरथराका, उनका बेटा उनके सामने कांपेगा, उनकी पत्नी उनके सामने डरेगी। कोई उनके घर जाने में दस दफे सोचेगा कि जाना कि नहीं जाना। द्वार पर भी खड़े होकर डर कर —ही घंटी बजाएगा कि भीतर प्रवेश करना कि नहीं।
जब मैं उनके करीब रहा और उन्हें निकट से जाना, तो मैंने कहा, यह क्या मामला है! आप आदमी तो बड़े तरल हैं। तो उन्होंने कहा, मुझे बड़ा डर लगता है। किसी से भी संबंध बनाना खतरनाक है, क्योंकि संबंध बनाओ कि आज नहीं कल, वह पैसा मांगना शुरू कर देता है। अगर पत्नी के सामने विनम्र रहो, प्रेमपूर्ण रहो, तो खर्च बढ़ जाता है। अगर बेटे के सामने अकड़े न रहो, तो उसका जेब—खर्च बढ़ता चला जाता है। अगर नौकर से ठीक से बोलो, तो वह भी मालिक बनने की कोशिश शुरू कर देता है। तो एक ठोस दीवाल चारों तरफ खड़ी करनी पड़ती है कोल्डनेस की, ठंडेपन की, जिससे पत्नी भी डरे, बेटा भी बाप के सामने जाने से डरे।
और कितने बाप ऐसा नहीं किए हुए हैं? सच तो यह है कि शायद ही किसी घर में ऐसा हो कि बाप और बेटे कभी बैठकर प्रेम से मिलते हों, शायद ही। बेटे को जब रुपए चाहिए तब वह बाप के पास जाता है, और बाप को जब कोई उपेदश देना हो तब वह बेटे को मिलता है, अन्यथा कोई मिलना नहीं होता। मिलन ही नहीं होता। बाप और बेटे के बीच कोई मिलन ही नहीं है। क्योंकि बाप डरा हुआ है, वह ठोस दीवाल खड़ी किए हुए है। बेटा भी भयभीत है। वह भी बचकर निकलता रहता है। कहीं कोई ताल—मेल नहीं होता। जितना जो व्यक्ति डरेगा, उतना वह ठोस हो जाएगा। जिसने सुरक्षा की, सिक्योरिटी की फिक्र की, वह ठोस हो जाएगा। क्योंकि तरल में बहुत डर है, इनसिक्योरिटी है।
इसलिए हम प्रेम करने में भी बड़ा डरते हैं। और बड़ा पक्का जांच —पड़ताल कर लेते हैं तब प्रेम करते हैं। यानी जिस आदमी से कोई डर नहीं, फिर उससे हम प्रेम करते हैं। इसीलिए तो हमने विवाह ईजाद किया कि पहले विवाह कर लो, पहले सब इंतजाम कर लो, फिर प्रेम करेंगे। क्योंकि प्रेम खतरनाक है। प्रेम तरल चीज है, कोई भी व्यक्ति में प्रवेश हो सकता है। राह चलते आदमी से प्रेम करना खतरनाक है, क्योंकि हो सकता है रात में सब सामान उठाकर ले जाए। इसलिए पहले पक्का पता लगा लो कि यह आदमी कौन है, क्या है, इसके मां —बाप कहां के हैं, इसका चरित्र कैसा है, इसमें गुण क्या हैं? सब इंतजाम कर लो, पूरी सामाजिक सुरक्षा कर लो, फिर घर में लाओ।
हम डरे हुए लोग, पहले सुरक्षा कर लेंगे। और जितनी हम सुरक्षा करते हैं, उतनी सख्त ठंडी दीवाल बर्फ की चारों तरफ खड़ी हो जाती है और वह सारे व्यक्तित्व को सिकोड़ देती है। हमारा परमात्मा से और कहीं संबंध—विच्छेद नहीं हुआ है। हम तरल नहीं हैं, लिक्विड नहीं हैं, सालिड हो गए हैं, बस इतना ही विच्छेद है। हम तरल नहीं हैं, ठोस हो गए हैं, हम पानी नहीं हैं, हम बर्फ हो गए हैं, इतना ही विच्छेद है। हम तरल हो जाएं, विच्छेद विलीन हो जाएगा।
लेकिन हम तरल तभी होंगे, जब हम मौत को देखने और जीने के लिए राजी हो जाएं। और हम स्वीकार कर लें कि मौत है। हम देख लें, पहचान लें कि मौत है, फिर क्या भय रह जाएगा। जब मौत ही है, जब लहर को यह पता ही है कि मिटना ही है, जब लहर को यह पता चल गया कि बनने में ही मिटना छिपा है, जब लहर को यह पता चल गया कि जब मैं बनी थी, तभी मिटना शुरू हो गया था, तो बात खतम हो गई। अब बर्फ बनने की क्या जरूरत है! जितनी देर लहर हूं लहर हूं, जितनी देर सागर हूं सागर हूं। बात समाप्त हो गई। तब सब स्वीकृत है। तो उस एक्सेप्टिबिलिटी से, उस स्वीकार से लहर सागर हो जाती है। तब सब चिंता मिट जाती है मिटने की, क्योंकि तब लहर जानती है कि मिटने के पहले भी मैं थी और मिटने के बाद भी मैं हूं। मैं की तरह नहीं, असीम सागर की तरह।
और लाओत्से ने कहा है मरते समय.....किसी ने लाओत्से से पूछा कि आप अपने जीवन के कुछ रहस्य बता दें। लाओत्से ने कहा कि पहला रहस्य तो यह है कि मुझे जिंदगी में कोई कभी हरा नहीं सका। शिष्य बड़े उत्सुक हो गए। उन्होंने कहा, यह तो आपने हमें कभी बताया नहीं। जीतना तो हम भी चाहते हैं। हमें तरकीब बताइए। लाओत्से ने कहा, तुम भूल कर गए। मैंने कुछ और कहा। मैंने कहा कि मुझे कोई हरा न सका, और तुम पूछते हो जीतना तो हमें भी है। ये दोनों बातें बिलकुल उलटी हैं। स्व—सी लगती हैं भाषाकोश में, शब्द की दुनिया में इनका एक ही अर्थ है कि जो नहीं हारा, मतबल जीता। लाओत्से ने कहा, तुम गलत समझ गए। मैंने इतना ही कहा कि मुझे कोई हरा नहीं सका। और तुम कहते हो कि जीतना हमें भी है। तुम भाग जाओ, तुम मेरी बात नहीं समझ सकोगे। शिष्यों ने कहा, फिर भी हमें समझाएं। तरकीब तो हमें बता दें, क्या तरकीब थी कि आप नहीं हारे? लाओत्से ने कहा, मुझे कोई हरा न सका, क्योंकि मैं सदा हारा हुआ था। हराने का उपाय ही न था, मुझे कोई हरा कैसे सकता था। लाओत्से ने कहा, मुझे कोई हरा न सका, क्योंकि मैंने कभी जीतना ही न चाहा। असल में मेरी लड़ाई ही खड़ी न हो सकी। मुझसे कोई लड़ने भी आया, तो मैं हारा ही हुआ था। उस आदमी को भी हराने में कोई मजा न आया, क्योंकि हराने में उसी को मजा आता है जो जीतना चाहता हो। जो जीतना ही नहीं चाहता, उसको हराने में क्या मजा आएगा!
असल में किसी के दूसरे के अहंकार को मिटाने में मजा आता है, क्योंकि उसको मिटाने में हमारा अहंकार मजबूत होता है। लेकिन अगर कोई मिटा ही हुआ है, तो उसको मिटाने में क्या मजा आएगा। हमारे अहंकार को उससे कोई स्‍फूर्ति नहीं मिलती। दूसरे के अहंकार को जितना हम तोड़ पाते हैं, उतना हमारा अहंकार मजबूत होता है। दूसरे का टूटा हुआ अहंकार हमारे अहंकार की मजबूती, स्ट्रेन्ध बनता है। लेकिन अब एक आदमी टूटा ही हुआ है। अगर समझ लें कि किसी को मैं हराने जाऊं, उसे गिराऊं उसके पहले वह लेट जाए। इसके पहले मैं उसको छाती पर बैठूं? वह मुझे बुलाकर बिठा ले। तब क्या हालत हो जाए? तब यह हालत हो जाए कि वहा से भागना पड़े। अब क्या किया जाएगा? और वह आदमी हंसने लगे और वह कहे कि बैठो, आराम से बैठो, कहां भागे जा रहे हो? तो मूढ़ कौन हो जाएगा! मूढ़ वह हो जाए जो छाती पर बैठ गया है और वह आदमी हंसता रहे और उसकी हंसी जिंदगी भर गूंजती रहे।
तो लाओत्से ने कहा, जब मुझे कोई हराने आया, मैं फौरन गिर गया और मैंने कहा, आओ, मेरे ऊपर बैठ जाओ। ऊपर ही बैठने आए हो न! तकलीफ न करो, परेशान मत होओ, मेहनत मत उठाओ, आओ ऊपर बैठ जाओ।
उसने अपने शिष्यों से कहा कि लेकिन तुम दूसरी बात पूछते हो, तुम पूछते हो कि ऐसी कोई तरकीब बताओ जिससे हम जीत जाएं। अगर तुमने जीतने की सोची, तो तुम हारोगे। जीतने की सोचने वाला हारता ही है। असल में जीतने की सोचने में ही हार शुरू हो गई।
और लाओत्से ने कहा, मेरा कभी कोई अपमान नहीं कर सका। तो एक शिष्य ने पूछा, इसका भी राज बताइए, क्योंकि अपमान हमें भी बहुत तकलीफ देता है। लाओत्से ने कहा, फिर भूल हुई जा रही है। मेरा कोई अपमान न कर सका, क्योंकि मैंने मान की कोई आकांक्षा न की। और तुम्हारा अपमान होता ही रहेगा, क्योंकि तुम मान की आकांक्षा से भरे हो।
लाओत्से ने कहा, मुझे कभी किसी जगह से निकाला नहीं जा सका। क्योंकि मैं हमेशा दरवाजे के बाहर, जहां लोग जूते उतारते हैं, वहीं बैठ जाता। मुझे कभी कहीं से नहीं हटाया गया, क्योंकि मैं आखिरी जगह ही खड़ा था, जहां से और आगे हटने का उपाय ही न था। तो लाओत्से नै कहा, हम बड़े आनंद में रहे, क्योंकि हम आखिर में खड़े रहे, किसी झंझट में ही नहीं पड़े। क्योंकि हमें तो न किसी ने हटाया, न किसी ने धक्का मारा, न किसी ने कहा कि हटो यहां से जगह खाली करो, क्योंकि वह आखिरी जगह थी। उसके आगे कोई जगह ही नहीं थी। उस जगह कोई आना ही नहीं चाहता था। हम अपनी जगह के बडे मालिक थे। लाओत्से ने कहा, हम अपनी जगह के सदा मालिक रहे। जहां हम खड़े थे, वहां से कभी कोई धक्का देने ही नहीं आया। क्योंकि हम उसी जगह खड़े थे जहां कोई आता ही न था, वह अंतिम थी।
जीसस ने भी कहा है, धन्य है वे लोग जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं। इसका मतलब क्या है? जैसे जीसस कहते हैं कि कोई आदमी तुम्हारे एक गाल पर एक चांटा मारे, तो तुम दूसरा उसके सामने कर देना। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि उसे इतनी तकलीफ भी मत देना कि तुम्हारे दूसरे गाल को सामने करने की मेहनत उसे उठानी पड़े, तुम्हीं कर देना। जीसस यह कहते हैं कि वह तुम्हें हराने आए, तो तुम हार जाना जल्दी से। और वह एक बाजी हराए, तो तुम दो बाजी हार जाना। और जीसस कहते हैं कि कोई तुम्हारा कोट छीने, तो तुम जल्दी से कमीज भी दे देना। क्यों? क्योंकि हो सकता है, संकोच में वह कमीज छीनने में संकोच कर जाए। और कोई तुमसे एक मील बोझ ढोने को कहे, तो तुम मील भर बाद पूछ लेना कि और आगे तो नहीं ले चलना है। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि जीवन के जो तथ्य हैं असुरक्षा के, हार के, पराजय के और अंत में मृत्यु के, क्योंकि यह सब मृत्यु की ही दिशा में ले जाने वाले तथ्य हैं। अंततः मृत्यु पूर्ण पराजय है। यानी बड़ी से बड़ी पराजय में भी मैं तो बच ही जाता हूं —हारा हुआ, लेकिन बच जाता हूं। लेकिन मृत्यु में मैं भी नहीं बचता हूं। मृत्यु सबसे बड़ी पराजय है। इसीलिए तो हम दुश्मन को मार डालना चाहते हैं। और कोई कारण नहीं है, मार डालने में कोई अर्थ नहीं है। दुश्मन को हम मार डालना चाहते हैं, क्योंकि मृत्यु अंतिम पराजय है। इसके बाद दुश्मन के जीतने का कोई सवाल ही नहीं उठता। दुश्मन को मार डालने की इच्छा, उसकी अंतिम, अल्टीमेट पराजय कर देने की इच्छा है कि अब इसके बाद उपाय ही नहीं उसके जीतने का, क्योंकि वह बचा ही नहीं है।
मृत्यु अंतिम पराजय है और हम सब उससे भागना चाहते हैं। और यह भी ध्यान रहे, जो अपनी मृत्यु से भागेगा, वह दूसरे की मृत्यु के लिए चेष्टा करता रहेगा। क्योंकि वह जितना दूसरों को मार सकेगा, उतना अपने जीवित होने का अनुभव कर सकेगा। इसलिए दुनिया में जो हिंसा पैदा होती है, जो वायलेंस है, उस हिंसा का कारण बहुत दूसरा है। उस हिंसा का कारण यह नहीं है जैसा कि लोग समझते हैं कि वह पानी छानकर नहीं पीता है, रात खाना खा लेता है, फला —ढिका, इससे हिंसक है, ऐसा नहीं है। हिंसा का मौलिक कारण यह है कि आदमी अपनी मृत्यु को भुलाने के लिए दूसरे को मारना चाहता है। दूसरे को मारने में उसे यह पता चलता है कि मुझे अब कोई भी न मार सकेगा। मैं तो खुद ही मार सकता हूं।
हिटलर या चंगेज या कोई भी इस तरह के लोग लाखों लोगों को मारकर आश्वस्त होना चाहते हैं कि पक्का हो गया कि मुझे कोई न मार सकेगा। मैं तो खुद ही लाखों को मार डालता हूं। दूसरे को मार कर हम अपनी मृत्यु से मुक्त हो रहे हैं, यह पक्का कर लेना चाहते हैं। क्योंकि जब हम ही मार सकते हैं तो हमको कौन मार सकेगा। यह बहुत गहरे में मृत्यु से बचाव है। हिंसक आदमी मृत्यु से बचने वाला आदमी है। और जो मृत्यु से बचना चाहता है, वह अहिंसक कभी भी नहीं हो सकता। अहिंसक सिर्फ वही हो सकता है, जो कहता है, मृत्यु स्वीकार है। क्योंकि मृत्यु जीवन का एक तथ्य है, वह है। उससे अस्वीकृति हो ही नहीं सकती। उससे भागोगे कहां? जाओगे कहां?
सूरज उगा है, उसी वक्त डूबना शुरू हो गया है। सूर्यास्त उतना ही सत्य है, जितना सूर्योदय, सिर्फ दिशाओं का फर्क है। सूर्यास्त में सूर्य वहीं पहुंच जाता है, जहां सूर्योदय में उठा था। सिर्फ दिशाओं का फर्क है। इधर पूरब था, उधर पश्चिम है। इधर जन्म था, उधर मौत है। एक उदय है, एक अस्त है। उदय के साथ ही अस्त छिपा है। उदय में ही अस्त छिपा है। जन्म में ही मृत्यु छिपी है। ऐसा जो जान लेता है, फिर अस्वीकार करने का उपाय ही नहीं रह जाता। उपाय का सवाल ही नहीं है। तब वह स्वीकार कर लेता है। जीता है, जानता है, देखता है, स्वीकार करता है।




स्वीकार करते ही क्रांति घटित हो जाती है। जिसको मैं कह रहा हूं मृत्यु पर विजय, उसका मतलब है कि जैसे ही किसी ने स्वीकार किया, वह हंसने लगता है, क्योंकि तब पता चलता है कि मृत्यु तो है ही नहीं। सिर्फ खोल थी ऊपर की, जो बनती थी और बिगड़ती थी। भीतर की धारा तो सदा थी। सागर सदा था, लहर बनती थी और मिटती थी। सौंदर्य सदा था, फूल बनते थे, बिखरते थे। प्रकाश सदा था, सूरज उगता था, डूबता था। लेकिन जो उगता था, डूबता था, वह उगने के पहले भी था और डूबने के बाद भी था। जिस दिन यह दिख जाता है.। लेकिन यह उसी दिन दिखेगा, जिस दिन हम मौत को देखेंगे, दर्शन करेंगे, उसका साक्षात्कार करेंगे। तभी यह दिखाई पड़ सकता है। उसके पहले नहीं दिखाई पड़ सकता है।
इसलिए जिन मित्र ने पूछा है कि मृत्यु के संबंध में हम सोचें ही क्यों? विचार ही क्यों करें? मृत्यु को हम छोड़ ही क्यों न दें? हम जीएं क्यों न? मैं उनसे कहता हूं कि मृत्यु को छोड्कर न कोई कभी जीया है, न जी सकता है। और जिसने मृत्यु को छोड़ा, उसने जीवन भी छोड़ दिया।
यह ऐसा ही है जैसे एक रुपये का सिक्का मेरे हाथ में हो और मैं कहूं कि मैं उलटा जो सिक्के का हिस्सा है, उसकी फिक्र ही क्यों करूं, उसको छोड़ क्यों न दूं। अगर मैं उलटे सिक्के को छोड़ दूं तो सीधा सिक्का भी मेरे हाथ से चला जाएगा, क्योंकि वह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ऐसा नहीं हो सकता है कि सिक्के का एक पहलू मैं बचा लूं और दूसरा फेंक दूं सड़क पर। ऐसा कैसे हो सकता है! दूसरा पहलू उसी के साथ बच जाएगा। और अगर एक को मैं फेंकूंगा, तो दोनों फिंक जाएंगे और एक को मैं बचाऊंगा, तो दोनों बच जाएंगे। असल में वे दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं, वह एक ही चीज की दो बाजुएं हैं। जन्म और मृत्यु एक ही जीवन के दो पहलू हैं, दो बाजुएं हैं। और जिस दिन यह दिखाई पड़ जाता है, उसी दिन मृत्यु का दंश चला जाता है, न मरने का विचार भी चला जाता है कि नहीं मरना चाहिए। तब हम जानते हैं कि जन्म भी है और मृत्यु भी, दोनों एक आनंद है।
सुबह जब हम उठते हैं और श्रम के लिए निकलते हैं। कोई गड्डा खोदता है, कोई और काम करता है, दिन भर पसीना बहाता है। सुबह उठना भी एक आनंद है, लेकिन क्या सांझ सो जाना आनंद नहीं है? किसने कहा? अगर कुछ पागल दुनिया में पैदा हो जाएं और लोगों को समझाएं कि सोना मत, तो फिर सुबह का जागना भी बंद हो जाएगा। क्योंकि जो नहीं सोएगा, वह जाग भी नहीं पाएगा। फिर जीवन ही बंद हो जाएगा। कोई सोने से डराने लगे और कहे कि देखो, सुबह जागने में इतना आनंद आता था, सोने में सब खराब हो जाएगा।
लेकिन हम जानते हैं कि सोना जागने का ही दूसरा हिस्सा है। जो ठीक से सोंका, वह ठीक से जागेगा। जो ठीक से जागेगा, वह ठीक से सोएगा। जो ठीक से जीएगा, वह ठीक से मरेगा। जो ठीक से मरेगा, वह ठीक से जीवन के आगे भी कदम उठाएगा। जो ठीक से मरेगा नहीं, वह ठीक से जीएगा नहीं। जो ठीक से जीएगा नहीं, वह ठीक से मरेगा नहीं। सब अस्तव्यस्त हो जाएगा, सब विकृत और कुरूप हो जाएगा। और इस सारी विकृति और कुरूपता में मौत का भय काम कर रहा है। सोने का भय अगर किसी को पकड़ जहर, तो है न कठिनाई!
मैं जानता हूं एक महिला को। जिसका बेटा उस वृद्धा को मेरे पास लेकर आया और उसने कहा, मेरी मां को सोने का भय पकड़ गया है। मैंने कहा, क्या हो गया? उसने कहा, इधर वह कुछ दिनों से बीमार है और उसे ऐसा लगता है कि मैं अगर कहीं सोऊं और सोते में ही मर जाऊं! तो वह सोने से डरने लगी है। वह कहती है, मैं कहीं सोऊं और उठूं ही न! तो वह रात भर जागने की कोशिश में लगी है। और उसके लड़के ने कहा, हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। इसकी बीमारी ठीक नहीं होती, क्योंकि रात भर जागती है। और इसको हम कहते हैं, तो वह कहती है, मुझे डर लगता है कि अगर मैं सोई, तो फिर मेरा कोई वश ही नहीं है। मैं सो गई और मौत आ गई तो फिर गई। तो वे मेरे पास लाए और कहा कि उसे किसी तरह सोने के भय से बचा दें, नहीं तो हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। उसकी बीमारी ठीक ही नहीं होती। क्योंकि जब वह सोएगी नहीं, तो उसकी बीमारी कैसे ठीक होगी।
जैसे सोने का भय है। सोना एक तरह से रोज मृत्यु है। दिन भर जीवन है, रात मृत्यु है। वह टुकड़े —टुकड़े की मृत्यु है। रोज थोड़ा—सा मरते हैं, भीतर डूबते हैं, सुबह फिर ताजे होकर वापिस लौट आते हैं। फिर सत्तर और अस्सी साल में पूरा शरीर थक जाता है, श्रम, श्रम, श्रम, शरीर थक जाता है। फिर पूरी मृत्यु पकड़ लेती है, फिर यह शरीर पूरा बदल जाता है। लेकिन उससे हम बहुत डरे हुए हैं। वह गहरी निद्रा ही है। लेकिन उससे हम बहुत डरे हुए हैं।
क्या आपने खयाल किया है कि शरीर सुबह भी रोज बदल जाता है! थोड़ा बदलता है, इसलिए आपको खयाल में नहीं आता। पूरा नहीं बदलता। पार्शियल ट्रासफामेंशन होता है। जब आप सांझ को थके —मांदे सोते हैं तो शरीर और हालत में होता है, और सुबह जब आप उठते हैं तो शरीर और हालत में होता है। सुबह शरीर ताजा हो गया होता है, नया हो गया होता है। फिर शक्ति आ गई होती है, फिर काम की दुनिया शुरू हो जाती है। आप अब फिर गीत गा सकते हैं। सांझ आप गीत नहीं गा सकते थे। थक गए थे, टूट गए थे। लेकिन कभी आपने खयाल नहीं किया कि इसमें डर का क्या कारण है। बल्कि आप खुश होते हैं, क्योंकि अंग ही बदलता है, अंश ही बदलता है। मृत्यु पूरे को बदल देती है। वह टोटल ट्रांसफामेंशन है।
पूरा शरीर व्यर्थ हो गया है, अब दूसरे शरीर को देने की जरूरत आ जाती है, मृत्यु दूसरा शरीर दे देती है। लेकिन मृत्यु से हम डरे हुए हैं। और उस डर के कारण जीवन पूरा का पूरा क्रिपिल्ड, पंगु हो गया है, सब तरफ से पंगु हो गया है। पूरे क्षण वही भय हमें पकड़े हुए है। पूरे क्षण वही डर हमें पकड़े हुए है। उस डर के कारण हमने ऐसे जीवन की, ऐसे परिवार की, ऐसे समाज की व्यवस्था की है, जो जीता कम है, मरने से डरता ज्यादा है। और जो मरने से डरता है, वह जी ही नहीं सकता है। ये दोनों बातें एक साथ संभव ही नहीं हैं। जो मरने के लिए बिलकुल सहज तैयार है, वही जीने के लिए भी तैयार है। ये दोनों एक ही चीज के पहलू हैं।
इसलिए मैं कहता हूं, मृत्यु को देखें। विचार करने को नहीं कहता हूं, क्योंकि विचार आप करेंगे तो आप धोखे में पड़ेंगे। क्या करेंगे विचार?
एक बहुत दुखी और पीड़ित आदमी है तो सोच सकता है कि मृत्यु में सब समाप्त हो जाता है। उसे यह विचार प्रीतिकर लगेगा। इसलिए नहीं कि यह सही है। और ध्यान रहे, जो आपको प्रीतिकर लगता है, इसलिए सही है, ऐसा कभी मत मान लेना। क्योंकि प्रीतिकर लगना सत्य पर निर्भर नहीं है, आपकी सुविधा पर निर्भर होता है। एक आदमी दुखी है, परेशान है, पीड़ित है, बीमार है, तो वह सोचता है कि मृत्यु में पूरा ही मर जाना चाहिए, कुछ न बचना चाहिए। क्योंकि कुछ भी बचेगा, तो मैं ही बचूंगा न—दुखी, बीमार।
एक मित्र ने पूछा है कि कुछ लोग आत्महत्या कर लेते हैं उनके बाबत आप क्या कहते हैं वे लोग क्या मृत्यु से नहीं डरते?
नहीं, मृत्यु से तो वे भी डरते हैं। लेकिन वे जीवन से मृत्यु से भी ज्यादा डर गए होते हैं। जीवन उनको मृत्यु से भी ज्यादा दुखद मालूम पड़ने लगता है। और तब वे समाप्त ही कर देना चाहते हैं। उस समाप्त करने में ऐसा नहीं है कि उनको जीवन का कोई आनंद है। जीवन मृत्यु से भी बदतर मालूम पड़ने लगा है। इसलिए मृत्यु को ही चुन लेना उचित है।
जो आदमी दुखी है, पीड़ित है, परेशान है, वह इस सिद्धात को मान लेगा कि आत्मा बिलकुल मर जाती है, कुछ नहीं बचता। क्योंकि वह अपना कुछ भी हिस्सा बचाना नहीं चाहता, क्योंकि बचाएगा तो दुखी रहेगा। जो आदमी मृत्यु से भयभीत है और अपने को बचाना चाहता है, वह यह सिद्धात स्वीकार कर लेता है कि आत्मा अमर है। ये सब कन्वीनिएंस हैं हमारी। इसमें हमारा ज्ञान नहीं है, हमारी सुविधा का ध्यान है। हमें जो सुविधापूर्ण लगता है।
इसलिए जिंदगी में कई दफे सिद्धात बदल जाते हैं। जवानी में आदमी नास्तिक होता है, बुढ़ापे में आस्तिक हो जाता है। अक्सर बदल जाते हैं। असल में सच तो यह है कि सिर में दर्द हो जाए, तो सिद्धात बदल जाते हैं। जब सिर ठीक रहता है, सिद्धात दूसरे रहते हैं। सिर में दर्द है, तब सिद्धात बदल जाते हैं। पक्का पता नहीं है कि आपके सिद्धांतों पर शास्त्रों का कितना असर होता है और लीवर का कितना असर होता है। लीवर का ज्यादा असर होता है। गुरुओं का कितना असर होता है, इसका कोई पक्का भरोसा नहीं है। लेकिन शरीर के भीतर क्या चल रहा है, उसका ज्यादा असर होता है। जब पेट खराब होता है तो नास्तिक होने की तबियत होती है, जब पेट बिलकुल ठीक होता है, आराम में होता है, तो आस्तिक होने की तबियत होती है। जब सिर में दर्द हो, तो आदमी कैसे माने कि ईश्वर है! ईश्वर है, तो सिरदर्द का मेल कहां बैठता है—ईश्वर के होने और सिरदर्द के होने में।
इस पर प्रयोग किए जा सकते हैं। पचास आदमियों को क्रानिक बीमारियां पकडाओ और पचास आदमियों को पूरा स्वस्थ रखो, उनका जीवन एक आनंद हो और पचास आदमियों का जीवन एक दुख हो। तो आप देखेंगे कि उन पचास आदमियों में नास्तिकता बढ़ती चली जाएगी, और उन पचास आदमियों में आस्तिकता बढ़ती चली जाएगी। ऐसा नहीं है कि आस्तिकता की वजह से आनंद मिलता है, अगर कोई आनंदित है तो आस्तिक हो जाता है। दुखी चित्त नास्तिक हो जाता है। इसलिए ध्यान रहे, अगर नास्तिकता बढ़ती हो दुनिया में, तो समझ लेना चाहिए कि दुख बढ़ रहा होगा। अगर आस्तिकता बढ़ती हो, तो समझ लेना चाहिए सुख बढ़ रहा होगा।
इसलिए मैं आपसे कहता हूं कि रूस की संभावना है पचास साल में आस्तिक हो जाने की, आपकी संभावना है पचास साल में और नास्तिक हो जाने की। सिद्धांतों से कुछ नहीं होता है कि रूस में मार्क्स की किताब चलती है और आपके यहां महावीर की किताब चलती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। महावीर और मार्क्स की किताब दो कौड़ी का फर्क नहीं ला सकतीं। रूस में अगर सुख बढ़ता चला जाए तो पचास साल में आस्तिकता वापस लौट आएगी। मंदिरों में घंटियां बजने लगेंगी, वह सुखी चित्त बजाता है। दीये जलने लगेंगे, वह सुखी चित्त जलाता है। प्रार्थनाएं होने लगेंगी, सुखी चित्त प्रार्थना करता है। भगवान को धन्यवाद दिया जाने लगेगा, सुखी चित्त किसी को धन्यवाद देना चाहता है। और किसको दे! क्योंकि भीतर के सुख के लिए कोई कारण दिखाई नहीं पड़ते, तब वह अज्ञात को धन्यवाद देता है कि उसी के कारण होगा। दुखी चित्त क्रोध प्रकट करना चाहता है और जब कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता, तो किस पर क्रोध प्रकट करे! तो वह अज्ञात के प्रति नाराजगी से भर जाता है। वह कहता है, वह जो अननोन है, वह जो अज्ञात है, परमात्मा, उसी की वजह से सब गड़बड़ है। या तो वह है ही नहीं या पागल हो गया है। मैं आपसे यह कह रहा हूं कि हमारी आस्तिकता, हमारी नास्तिकता, हमारे सिद्धात, सब हमारी स्थितियों की सुविधाओं के फल हैं।
जो व्यक्ति मृत्यु से भागेगा, वह कोई सिद्धात पकड़ लेगा। जो मरना चाहेगा, वह कोई सिद्धात पकड़ लेगा। लेकिन इनमें से कोई भी मृत्यु को जानने के लिए उत्सुक और आतुर नहीं है। सुविधा और सत्य में बड़ा फर्क है। अपनी सुविधा का बहुत विचार मत करना। और विचार सदा सुविधा का ही होता है। दर्शन सत्य का होता है, विचार सुविधा का होता है।
अभी एक आदमी कम्युनिस्ट है और भारी शोरगुल मचाता है कि क्रांति होनी चाहिए और गरीब को संपत्ति मिलनी चाहिए और संपत्ति का विभाजन होना चाहिए। जरा कोशिश करें, उसको एक कार दे दें, एक बड़ा बंगला दे दें, एक अच्छी पत्नी दे दें, तो पंद्रह दिन बाद देखेंगे कि वह आदमी एकदम बदल गया है। वह कहता है कम्युनिज्म वगैरह सब बेकार की बातें हैं। क्या हो गया है इस आदमी को? इसको हो क्या गया! कन्वीनिएंस जो थी, वही विचार था। इसमें सुविधा थी उस दिन कि संपत्ति बंट जाए, अब इसमें असुविधा है कि संपत्ति बंट जाए। क्योंकि अब संपत्ति बटेगी तो यह कार भी बटेगी, यह बंगला भी बंटेगा। जिस व्यक्ति को सुंदर स्त्री नहीं मिली, वह कह सकता है कि स्त्रियों का भी कम्मुनिज्म चाहिए। सुंदर स्त्रियों पर कुछ लोग कब्जा क्यों करें? स्त्रियां सब की होनी चाहिए। इसका भी खयाल है लोगों को। इसका प्रस्तावना देने वाले लोग पृथ्वी पर हैं, जो कहते हैं, आज संपत्ति, कल स्त्री। और इसमें भूल भी नहीं है, क्योंकि स्त्री को संपत्ति आप मानते ही रहे हैं। वह संपत्ति तो है ही। अगर आज हम यह कहते हैं कि एक आदमी बड़े मकान में रहे यह गलत है और एक आदमी झोपड़े में रहे यह गलत है, तो कल इसमें कठिनाई क्या है कि हम यह कहें कि एक आदमी को सुंदर स्त्री मिल जाए और एक आदमी को सुंदर स्त्री न मिले, यह कैसे संभव है! विभाजन बराबर होना चाहिए। इसके खतरे हैं। इसके आज नहीं कल सवाल उठ जाने वाले हैं। जिस दिन संपत्ति वितरित हो जाएगी, उसी दिन स्त्री को बांटने का सवाल खड़ा हो जाने वाला है। मगर जिसके पास सुंदर स्त्री है, वह कहेगा, ऐसा कैसे हो सकता है! यह क्या बेहूदी बातें हैं, ये बिलकुल गलत बातें हैं।
सुविधा हमारा विचार बन जाती है। हम सब सुविधा से विचार बनाए हुए हैं। हमारे सब विचार हमारी सुविधा के पोषक होते हैं या हमारी असुविधा को मिटाने वाले होते हैं। दर्शन की बात और है। दर्शन का सुविधा से कोई संबंध नहीं है। इसलिए ध्यान रहे कि दर्शन एक तपश्चर्या है। तपश्चर्या का मतलब कि जहां सुविधा का ध्यान नहीं रखना पड़ता है; जहां जो है, उसे ही जानना पड़ता है, जैसा है, उसे ही जानना पड़ता है।
तो मृत्यु के तथ्य का दर्शन करना है, विचार नहीं। विचार तो आप अपनी सुविधा से कर लेंगे। जो आपको लगेगा सुविधापूर्ण, वह कर लेंगे। सुविधा नहीं है सवाल। मृत्यु क्या है, उसे जानना है, जैसी है। मेरी सुविधा—असुविधा कोई फर्क नहीं लाती। जैसा है, वही जानना पड़ेगा। और उसे जानते ही व्यक्ति के जीवन में क्रांति घटित हो जाती है, क्योंकि मृत्यु नहीं है। जानते ही पता चलता है कि नहीं है। जब तक नहीं जाना, तभी तक पता चलता है, है। मृत्यु अज्ञान का अनुभव है, अमरत्व ज्ञान का अनुभव है।
कुछ और प्रश्न हैं, वह हम रात बात कर सकेंगे, अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे।
ध्यान यानी मृत्यु। ध्यान यानी उसमें जाना, जो है, जहां हम हैं। इसलिए मरने की तैयारी हो, तो ही कोई ध्यान में जाता है। नहीं तो कोई ध्यान में नहीं जाता।
थोडे फासले पर बैठ जाएं। थोड़े फासले पर बैठ जाएं.. जिन्हें लेटना हो, वे पहले से लेट जाएं। और बीच में भी किसी को लेटने का खयाल आ जाए तो उसे लेट जाना है। और थोड़े फासले पर बैठें, ताकि कोई लेटे, कोई गिर जाए, तो आपके ऊपर न गिर जाए।
आंख बंद कर लें. आंख ढीली छोड़ दें और पलक बंद कर लें. आंख को ढीला छोड़ दें और पलक बंद कर लें। शरीर को शिथिल छोड़े.. शरीर को ढीला छोड़े. शरीर को ढीला छोड़े.. शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें, जैसे उसमें कोई प्राण नहीं हैं। एक दिन छूटेगा, अभी ही छोड्कर देखें। एक दिन बिलकुल छूट जाएगा, रखना भी चाहेंगे प्राण, तो नहीं रह सकेगा। तो उसको भीतर सरका लें.....प्राण को कहें, लौट आओ भीतर! शरीर को ढीला छोड़ दो।
शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ते जाएं। अब मैं सुझाव देता हूं, मेरे साथ अनुभव करें। शरीर शिथिल हो रहा है अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है..... शरीर शिथिल हो रहा है.... शरीर शिथिल हो रहा है शरीर शिथिल हो रहा है। ढीला छोड़ते जाएं, भाव करें, शरीर शिथिल हो रहा है...... शरीर शिथिल हो रहा है..... शरीर शिथिल हो रहा है। शरीर शिथिल होता जा रहा है...... मरता जा रहा है मरता जा रहा है। हम भीतर सरकते जा रहे हैं वहां, जहां जीवन है। छोड़ दें..... छोड़ दें...... लहर को छोड़ दें. सागर में हो जाएं। छोड़ दें शरीर को बिलकुल, अगर गिरता हो गिर जाए, उसकी चिंता न करें। रोकें नहीं.. पकड़ न रखें छोडे।
शरीर शिथिल हो रहा है शरीर शिथिल हो रहा है शरीर शिथिल हो रहा है.... शरीर शिथिल हो रहा है। शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है...... शरीर शिथिल हो रहा है शरीर शिथिल हो रहा है। छोड़ दें..... जैसे मर ही गया..... शरीर बिलकुल निष्प्राण हो गया है। हम भीतर सरक गए हैं...... चेतना भीतर सरक गई है..... शरीर बिलकुल खोल की तरह रह गया है। गिर जाए, गिर जाए। शरीर शिथिल हो गया है...... शरीर शिथिल हो गया है शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है।
श्वास शांत हो रही है...... श्वास शांत हो रही है। श्वास को भी ढीला छोड़ दें। श्वास शांत होती जा रही है...... श्वास शांत हो रही है। श्वास से भी पीछे हट जाएं, उससे भी शक्ति भीतर बुला लें। श्वास शांत होती जा रही है..... श्वास शांत हो रही है...... श्वास शांत हो रही है श्वास शांत हो रही है व श्वास शांत हो रही है...... शांत हो रही है। शिथिल छोड़ दें... श्वास को भी छोड़ दें... श्वास शांत होती जा रही है..... श्वास शांत होती जा रही है..... श्वास शांत हो गई है।
विचार को भी छोड़ दें...... उससे भी पीछे हट जाएं और पीछे हट जाएं। विचार शिथिल हो रहे हैं...... विचार शिथिल हो रहे हैं। भाव करते रहें, विचार शिथिल हो रहे हैं..... विचार शिथिल हो रहे हैं..... विचार शिथिल होते जा रहे हैं। विचार भी छूटते जा रहे हैं..... और पीछे हट गए..... और पीछे हट गए। विचार शांत होते जा रहे हैं..... विचार शांत होते जा रहे हैं…. विचार शांत होते जा रहे हैं, विचार शांत हो गए हैं।
अब दस मिनट के लिए भीतर जागे रह जाएं, होश से भर जाएं। भीतर जाग कर देखें, बाहर मौत घट गयी है। शरीर पड़ा है, करीब—करीब मृत, दूर...... हम पीछे हट गए हैं…... चेतना सिर्फ एक ज्योति की तरह जली रह गयी है। सिर्फ जान रहे हैं सिर्फ देख रहे हैं…द्रष्टा रह जाएं...... दर्शन में ठहर जाएं। दस मिनट के लिए सिर्फ देखते रहें भीतर...... और कुछ न करें….. सिर्फ देखते रहें। भीतर और भीतर...... भीतर देखते रहें...... धीरे — धीरे गहरे में उतरना हो जाएगा। जैसे कोई किसी गहरे कुएं में गिरता जाए. गिरता जाए...... गिरता जाए। देखें.. दस मिनट के लिए सिर्फ देखते रह जाएं।
(मौन, निर्जन, सन्नाटा....... भगवान श्री कुछ मिनट मौन रहकर फिर सुझाव देना शुरू करते हैं।)
बिलकुल पकड़ छोड़ दें और भीतर चले जाएं और भीतर चले जाएं। सिर्फ जागे हुए देखते रहें? धीरे — धीरे, धीरे — धीरे सब शून्य हो जाएगा..... सिर्फ शून्य में जानने की एक ज्योति भर जलती रहेगी कि मैं जान रहा हूं. जान रहा हूं......, देख रहा हूं...... देख रहा हूं। छोड़ दें बिलकुल....... सारी पकड़ छोड़ दें..... गहरे में डूब जाएं और देखते रहें..... मन शांत होता चला जाएगा।
(मौन, निर्जन, सन्नाटा.....)
मन शून्य होता जा रहा है मन शून्य होता जा रहा है..... बिलकुल छोड़ दें...... मिट जाएं....... मर ही जाएं। बाहर से बिलकुल मिट जाएं.... बाहर से बिलकुल छोड़ दें...... जैसे कोई लहर मिट जाए और सागर हो जाए। बिलकुल छोड़ दें. जरा भी पकड़ न रखें। मन शून्य होता जा रहा है...... मन शून्य होता जा रहा है मन शून्य होता जा रहा है।
मन बिलकुल शून्य हो गया है मन शून्य हो गया है...... मन शून्य हो गया है। सिर्फ एक ज्योति जली रह गई है...... जानने की..... देखने की...... दर्शन की। बाकी जैसे मृत्यु घटित हो गयी..... शरीर दूर पड़ा हुआ दिखाई पड़ेगा खुद का शरीर बहुत दूर दिखाई पड़ेगा..... खुद की श्वासें बहुत दूर मालूम पड़ेगी। भीतर..... और भीतर डूब जाएं...... बिलकुल छोड़ दें जरा भी पकड़ न रखें...... छोड़ दें...... छोड़ दें..... बिलकुल छोड़ दें।
(मौन, निर्जन, सन्नाटा......)
बिलकुल छोड़ दें शरीर गिरता हो, गिर जाए.. बिलकुल छोड़ दें... शून्य हो जाएं... बिलकुल शून्य हो जाएं। मन शून्य हो गया है. मन शून्य हो गया है सिर्फ एक जानने की ज्योति भर भीतर रह गई है. और सब शून्य हो गया सब मिट गया।
(मौन, निर्जन, सन्नाटा.....)
छोड़ दें बिलकुल छोड़ दें….. मरने की तैयारी दिखाएं बाहर से बिलकुल मर जाएं। शरीर निष्प्राण हो गया है हम बिलकुल भीतर सरक गए हैं..... बिलकुल भीतर सरक गये हैं..... सिर्फ हृदय के पास एक ज्योति जलती रह गई है। देख रहे हैं? जान रहे हैं...... और सब मिट गया है...... द्रष्टामात्र रह गए हैं मन बिलकुल शून्य हो गया है।
इस शून्य में गौर से देखें.. भीतर इस शून्य को गौर से देखें..... उसी शून्य में बड़े आनंद की किरणें फैल जाएंगी...... उसी शून्य में बड़े आनंद का प्रकाश भर जाएगा। जैसे कोई झरना फूट पड़े और आनंद ही आनंद बह जाए...... रग—रग, रेशे —रेशे में, कण—कण में फैल जाए। उस शून्य में गौर से देखें..... जैसे सूरज के निकलने पर फूल खिल जाए, ऐसा भीतर शून्य में देखने पर आनंद का झरना फूट जाता है सब तरफ आनंद ही आनंद छा जाता है। देखें...... भीतर देखें..... उस झरने को फूटने दें..... भीतर देखें जैसे फव्वारा फूट जाए और कण—कण में आनंद भर जाए।
(मौन, निर्जन, सन्नाटा.....)
अब धीरे — धीरे दो —चार गहरी श्वास लें। श्वास बहुत दूर मालूम पड़ेगी...... धीरे — धीरे गहरी श्वास लें...... श्वास को देखते रहें...... मन और शांत हो जाएगा। धीरे— धीरे दो —चार गहरी श्वास लें...... धीरे — धीरे दो —चार गहरी श्वास लें...... धीरे — धीरे दो —चार गहरी श्वास लें। मन और शांत हो जाएगा...... मन और शांत हो जाएगा। फिर धीरे — धीरे आंख खोलें...... धीरे — धीरे आंख खोलें..... ध्यान से वापस लौट आएं।
जो लेटे हैं या गिर गए हैं, वे धीरे — धीरे गहरी श्वास लें...... फिर आंख खोलें...... और बहुत आहिस्ता उठें।
आज इतना ही।


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