तीन प्रकार
के यज्ञ—(प्रवचन—छठवां)
अध्याय—17
सूत्र—
यष्टध्यमेवेति
मन: समाधाय अ
सात्विक।।
11।।
अभिसंधाय
तु फलं
दम्भार्थमपि
चैव यत्।
इज्यते
भरतश्रेष्ठं
तं यज्ञं
विद्धि
राजसम् ।। 12।।
विधिहीनमसृष्टान्नं
मंत्रहीनमदक्षईणम्
।
श्रद्धाविरहितं
यज्ञ तामसं परिचक्षते
।। 13।।
और हे
अर्जुन,
जो यज्ञ
शास्त्र— विधि
से नियत किया हुआ
है तथा करना
ही कर्तव्य है, ऐसे मन को
समाधान करके फल
को न चाहने वाले
पुरूषों
द्वारा किया जाता
है, यह यज्ञ
तो सात्विक है।
और हे
अर्जुन,
जो यज्ञ केवल
दंभाचरण के ही
लिए अथवा फल
को भी
उद्देश्य रखकर
किया जाता है, उस यज्ञ को
तू राजस जान।
तथा
शास्त्र— विधि
से हीन और
अन्न— दान से
रहित एवं बिना
मंत्रों के
बिना दक्षिणा के
और बिना श्रद्धा
के किए हुए यज्ञ
को तामस यज्ञ
कहते हैं।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न : गीता
में क्या
सुनकर अर्जुन
भीतर मुड़ गया
था?
कृष्ण
को! जो वह कह
रहे थे, उसे
सुनकर नहीं, वरन कृष्ण
को, जो वे
थे, उसे
सुनकर।
इसीलिए तो
गीता तुम पढ़
सकते हो और
जैसे उलटे घड़े
पर पानी बह
जाए, ऐसी
गीता तुम पर
बह जाएगी; तुम
अछूते रह
जाओगे। वैसी क्रांति,
जैसी
अर्जुन को घटी,
तुम्हें न
घटेगी।
क्योंकि एक
बात तुम भूल
गए हो, कृष्ण
मौजूद नहीं
हैं।
अर्जुन
कृष्ण को
सुनकर रूपांतरित
हुआ। कृष्ण ने
जो कहा, उसको
सुनकर अगर
रूपांतरित
होता, तो
गीता पढ़कर तुम
भी रूपांतरित
हो जाते। क्रांति
घटती है कृष्ण
जैसे व्यक्ति
की मौजूदगी
में। एक जलता
हुआ दीया बुझे
हुए दीए को
जला देता है।
गीता में तो
वही संगृहीत
है, जो
कृष्ण ने कहा।
लेकिन जो
कृष्ण थे, उसे
तो गीता में
संगृहीत करने
का कोई उपाय
नहीं। उसे तो
किसी भी किताब
में रखने का
कोई उपाय नहीं।
इसीलिए
जब शास्ता
मौजूद होता है, तब
उसके वचन
जीवंत होते
हैं, वचनों
की किसी खूबी
के कारण नहीं,
उसकी
जीवंतता के
कारण। शास्ता
अपने वचनों
में मौजूद
होता है। क्योंकि
वे वचन आते
हैं उसके अंतर—मंदिर
से, उसके
प्राणों को
छूकर, उसके
भीतर की सुगंध
को लेकर। उसके
भीतर का नृत्य
थोड़ा—सा उन
शब्दों में भी
झनकता हुआ
तुम्हारे पास
तक पहुंच जाता
है। उसकी
मौजूदगी
रूपांतरित
करती है।
इसलिए
सदगुरु न मिले, तो
ही शास्त्र का
उपयोग है। सदगुरु
मिल जाए, तो
शास्त्र को
नासमझ पकड़ता
है। उसका कोई
मूल्य ही नहीं
है। जब
तुम्हें
जीवंत
शास्त्र मिल
गया, तो
शास्त्र का
कोई अर्थ नहीं
है। शास्त्र
तो जब जीवंत
शास्त्र
मौजूद न हो, तब उसकी
उपादेयता है।
और उसकी
उपादेयता बड़ी
संदिग्ध है।
क्योंकि तुम
उसकी क्या व्याख्या
करोगे, वह
तो तुम पर
निर्भर करेगा।
जब
कृष्ण मौजूद
होते हैं, तब
कृष्ण ही अपनी
व्याख्या कर
रहे हैं। उनकी
मौजूदगी ही
उनकी
व्याख्या बन
रही है। जब
कृष्ण मौजूद
नहीं हैं, तुम
गीता पढ़ोगे, गीता से जो
अर्थ
निकालोगे, वह
तुम्हारा
अपना होगा।
ऐसा
समझो कि गुरु
को तो मैं
कहता हूं जला
हुआ दीया। तुम
उसके पास भर
सरकते जाओ, एक
न एक दिन
तुम्हारी
बुझी हुई बाती
में लौ पकड़
जाएगी। तुम बस
पास आते चले
जाओ। पास आने
से ज्यादा
तुम्हें कुछ
भी नहीं करना है।
हम
अपने परम
शास्त्रों को
उपनिषद कहे
हैं। उपनिषद
शब्द का अर्थ
होता है, गुरु
के पास आते
जाना, उसके
पास बैठना।
जितना तुम पास
आते जाओगे, बस उतना ही
तुम्हें करना
है। शेष अपने
से हो जाएगा।
तुम दूर भर मत
रहना; तुम
फासला बनाकर
मत खड़े रहना; तुम अपने को
बचाना मत। तुम
अपने को उंडेल
देना बिना
हिसाब के, बिना
डर के; बिना
सुरक्षा का
इंतजाम किए पास
आ जाना। तुम
अपने चारों
तरफ कवच मत
ओढ़ना। बस, तुम्हारा
पास आना काफी
है, लपट
पकड़ लेगी।
शास्त्र
कैसे हैं? गुरु
तो जलते हुए
दीए जैसा है।
शास्त्र तो
दियासलाई हैं।
उनमें आग तो
छिपी है, लेकिन
उसे प्रकट तो
तुम्हें करना
पड़ेगा।
और
तुम ऐसे
अज्ञानी हो कि
दियासलाई लिए
बैठे रहोगे और
दियासलाई की
ऐसी—ऐसी
व्याख्याएं
कर लोगे कि
तुम्हें यह
कभी याद ही न
आएगी कि उसमें
छिपी हुई सलाई
में आग है; रगड़ने
की जरूरत है
और आग पैदा हो
जाएगी।
वचनों
में आग है, लेकिन
उसे निकालना
पड़ेगा। वह
प्रकट नहीं है,
वह छिपी है।
निकालेगा कौन?
तुम्हीं
निकालोगे। और
तुम्हारे
अंधकार में
भरोसा नहीं
किया जा सकता
कि तुम निकाल
पाओगे। तुम
दियासलाई की
पूजा करोगे, यह मुझे
पक्का पता है।
तुम दियासलाई
पर चंदन—तिलक
लगाओगे; फूल
चढाओगे। धीरे—धीरे
तुम इतनी
चीजें चढ़ा
दोगे कि
उन्हीं में दियासलाई
ढंक जाएगी और
तुम भूल ही
जाओगे कि पीछे
दियासलाई भी
थी।
तुम
उस दियासलाई
के चरणों में
सिर झुकाओगे।
कोई तुम्हारी
दियासलाई के
खिलाफ कुछ
कहेगा, तो
लड़ने—मरने को
उतारू हो
जाओगे। तुम
दियासलाई के
लिए मरने को
तो राजी रहोगे,
लेकिन
दियासलाई के
अनुसार जी न
सकोगे। वह आग
बंद ही पड़ी
रहेगी।
शास्त्र तो
दियासलाई
जैसे हैं।
सदगुरु जलती
हुई आग है।
उसके तुम्हें
सिर्फ पास आना
है, कुछ
करना नहीं है।
निकट होने की
क्षमता, बस
पर्याप्त
पात्रता है।
पास आते—आते
बुझी लौ जली
लौ के साथ एक
हो जाती है।
कृष्ण
को सुनकर नहीं
अर्जुन बदला, नहीं
तो कोई भी बदल
लेगा, गीता
मौजूद है।
कृष्ण की
उपस्थिति, कृष्ण
का
व्यक्तित्व, कृष्ण के
भीतर जो घटा
है, जो
ज्योति जली है।
कृष्ण
ने इतनी बातें
कहीं अर्जुन
को,
क्या तुम
सोचते हो, इसलिए
कहीं कि कृष्ण
को यह पता
नहीं कि बातों
से कुछ भी न
होगा। कृष्ण
को भलीभांति
पता है कि बातों
से कुछ भी न
होगा। सिर्फ
एक बात घटेगी
कि बातों से
भरोसा बढ़ेगा;
अर्जुन
करीब आने की
हिम्मत जुटा
लेगा।
तुमसे
मैं रोज बातें
किए चला जाता
हूं। क्या मैं
समझता हूं कि
तुम सुन—सुनकर
ज्ञानी हो
जाओगे? या
तुम मेरी
बातों को समझ
लोगे, तो
तुम्हारे
जीवन में क्रांति
आ जाएगी?
नहीं, बातें
तो सिर्फ
भुलावा हैं।
वह चर्चा तो
तुम्हें
उलझाने की है।
वह तो थोड़ी
देर को तुम
अपनी सुरक्षा
को भूल जाओ, और मेरे पास
आ जाओ। बस, इतना
ही। बातचीत तो
खेल—खिलौनों
जैसी है।
जिसमें तुम
उलझ जाओ और
तुम्हारे
अहंकार को घडीभर
को भूल जाओ, और पास सरक आओ।
मेरी
बात को पकड़ने
से कुछ न होगा।
मेरी बात में
अगर तुम डूब
गए,
लीन हो गए
और पास आ गए उस
लीनता में, तो क्रांति
घट जाएगी। तब
तुम भी हसोगे
कि इतनी बातें
करने की क्या
जरूरत थी। पास
ही क्यों न ले
लिया!
लेकिन
वह संभव न था।
अगर तुम्हें
पास लेने की
कोशिश की जाए, तुम
दूर भागोगे।
तुम्हें
बुलाया जाए, तुम डरोगे।
तुम समझोगे कि
कोई फंदा है, कोई जाल है।
तुम्हें
सीधे बुलाया
नहीं जा सकता, तुम
ऐसी उलटी दशा
में हो।
तुम्हें
बुलाना भी हो,
तो परोक्ष;
तुम्हें
निमंत्रण भी
भेजना हो, तो
सीधा नहीं
भेजा जा सकता
कि आ जाओ।
क्योंकि तुम
हजार बहाने
करोगे। और तुम
डरोगे भी, कि
बुलावा क्यों
है? जरूर
कोई स्वार्थ
होगा। बुलाया
है, तो
जरूर कोई मतलब
होगा। बिना
मतलब कोई किसी
को बुलाता है?
तुम किसी को
नहीं बुलाते
बिना मतलब। तो
तुम अपनी
सुरक्षा करके
आओगे, कवच
बांधकर आओगे,
मन को बंद
करके आओगे। तब,
तब जलता हुआ
दीया भी कुछ न
कर सकेगा।
तुम्हारी
बाती अगर छिपी
हो अस्त्र—शस्त्रों
में, तो
कोई उपाय नहीं।
सब
चर्चा
फुसलाने की है।
पूरी गीता
सिर्फ जाल है
अर्जुन को पास
आने के लिए, कि
तू पास आ जा, तुझे भरोसा
आ जाए। और तुम
सिवाय शब्दों
के और किसी
चीज से भरोसा नहीं
करते। जीवन से
तो तुम्हारा
संबंध टूट गया
है। अस्तित्व
से तुम्हारा
कोई नाता नहीं
रहा है। तुम
सिर्फ शब्दों
में जीते हो।
सब शब्दों का
जाल है। प्रेम
तुम्हारे लिए
एक शब्द है।
परमात्मा
तुम्हारे लिए
एक शब्द है।
सत्य
तुम्हारे लिए
एक शब्द है।
प्रार्थना
तुम्हारे लिए
एक शब्द है।
तो
तुम्हें अगर
खींचना हो, तो
शब्दों का ही
व्यूह रचना
पड़ेगा। कृष्ण
ने गीता कहकर
शब्दों का
व्यूह रचा।
जैसे मकड़ी
जाला रचती है।
मकड़ी का जाला
तो दिखाई भी
पड़ता है, शब्दों
का जाला तो
उतना भी दिखाई
नहीं पड़ता।
शब्दों
से बंधे तुम
खिंचे चले आते
हो;
शब्दों से
सम्मोहित तुम
पास चले आते
हो। और एक घड़ी
जब तुम इतने
पास आ जाते हो,
जहां
ज्योति छलांग
ले सकती है और
तुम्हारी
बुझी बाती को
पकड़ सकती है, वहा घटना घट
जाती है।
कृष्ण
अर्जुन को
सुनाने—समझाने
की कोशिश नहीं
कर रहे हैं।
कृष्ण अर्जुन
को पास बुलाने
की कोशिश कर रहे
हैं कि तू मत
घबड़ा अर्जुन, पास
आ जा, मामेकं
शरणं वज, सब
छोड़ मेरी शरण
आ जा। उसके
लिए सारा उपाय
है।
जिस
क्षण वह पास
सरक आया होगा, उसी
क्षण भीतर मुड़
गया। जिस क्षण
पास आ गया
होगा, उसी
क्षण अर्जुन
कृष्ण हो गया।
पास आकर दूरी
मिट जाती है, द्वैत मिट
जाता है, एकता
सध जाती है।
दूसरा
प्रश्न : आपने
कल कहा कि
भक्त भगवान को
बाहर खोजता है।
क्या ज्ञानी
भगवान को भीतर
खोजता है?
ज्ञानी
खोजता ही नहीं, क्योंकि
सब खोज बाहर
है। खोज का
मतलब ही बाहर
है।
इसे
थोड़ा समझो, यह
थोड़ा जटिल है।
क्योंकि हम
सोचते हैं कि
बाहर खोज होती
है, ऐसे ही
भीतर खोज होती
है। भीतर तो
तुम अकेले हो,
खोजोगे
क्या? किसको
खोजोगे? वहां
तो गली बहुत
संकरी है, ता
में दो न समाय।
वहां तो दो
समा नहीं सकते।
खोजेगा कौन
किसको?
सब
खोज बाहर है।
जब तक खोजते
हो,
बाहर रहोगे।
जब बाहर की
खोज व्यर्थ हो
जाएगी, खोज—खोजकर
थक जाओगे, हार
जाओगे, पराजित
हो जाओगे, जब
देख लोगे कि
सब तरफ खोज
लिया, कहीं
पाया नहीं, थककर बैठ
जाओगे, उसी
क्षण भीतर की
खोज घट गई।
जैसे ही बाहर
की खोज बंद
होती है, तुम
भीतर पहुंच
जाते हो। भीतर
की कोई खोज
थोड़े ही है।
बाहर उलझे हो,
इससे भीतर
नहीं पहुंच
पाते। बाहर
अटके हो, इससे
भीतर आना नहीं
हो पाता।
बाहर
कोई खोज न रही।
जब बुद्ध को
ज्ञान हुआ
बोधि—वृक्ष के
नीचे, तो क्या
तुम सोचते हो,
भीतर वे कुछ
खोज रहे थे? कुछ भी नहीं।
खोज बंद हो गई
थी। खोज—खोजकर
देख लिया, कुछ
न पाया; राख
हाथ लगी, सब
खोज व्यर्थ हो
गई। उस रात
उन्होंने सब
खोज छोड़ दी, खोजना ही
छोड़ दिया।
अब
यह बहुत रहस्य
की बात है, जैसे
ही तुम खोज
छोड़ते हो, वैसे
ही खोजने वाला
मिट जाता है।
क्योंकि खोज
के बिना खोजने
वाला कहां
बचेगा? वह
तो खोज में ही
जीता है; खोज
से ही बनता है।
इसलिए जितना
बड़ा खोजी, उतना
बड़ा अहंकार।
जब खोज ही न
रही, अहंकार
भी गिर जाता
है। जब पाने
को ही न रहा
कुछ, तो
पाने वाला कौन?
जब
खोज न रही, तो
भविष्य मिट
जाता है।
क्योंकि खोज
के लिए भविष्य
चाहिए, समय
चाहिए नहीं तो
खोजोगे कैसे?
जब तक फल की आकांक्षा
है, तब तक
भविष्य रहेगा,
समय रहेगा।
जब खोज मिट
जाती है, फल
का सवाल ही न
रहा। भविष्य
विसर्जित हो
गया, समय
टूट गया, समय
की धारा विलीन
हो गई। खोजी
मिट गया, समय
मिट गया।
और
जब खोज मिट
जाती है, तो
अतीत को
किसलिए
सम्हालोगे? आदमी पिछले
साल के खाते—बही
सम्हालकर
रखता है, क्योंकि
अगले साल भी
धंधा करना है।
अभी भविष्य
कायम है, इसलिए
अतीत की हम
व्यवस्था
रखते हैं, स्मृति
रखते हैं, कहां
है, क्या
है, कैसा
है? हम
क्या थे? इसको
हम सम्हालकर
रखते हैं, क्योंकि
हमें कुछ होना
है। अपना पता—ठिकाना
तो होना चाहिए।
अतीत और
भविष्य
संयुक्त हैं।
भविष्य जब तक
है, तब तक
तुम अतीत को
बचाओगे; क्योंकि
उसी के आधार
पर तो भविष्य
का भवन खड़ा होगा।
अतीत है
बुनियाद, भविष्य
है शिखर। जब
भविष्य ही न
रहा, जब
दुकान ही बंद
कर दी, तो
खाते—बही तुम
सम्हाले
फिरोगे? आग
लगा दोगे, फेंक
दोगे सड़क पर, कूड़ा—कर्कट
है, अब
क्या करना है?
जब कुछ
मिलने को ही न
रहा आगे, जब
भवन बनाना ही
नहीं, तो
बुनियाद की अब
तुम क्या
रक्षा करोगे?
जब
खोज बंद होती
है बाहर की, खोजी
खो जाता है, भविष्य खो
जाता है, अतीत
खो जाता है।
रह जाता है यह
वर्तमान का
निपट क्षण, निष्कलुष, अतीत से
गंदा नहीं, भविष्य से
बेचैन नहीं, शांत, निर्मल,
निस्तरंग।
सब खोज खो गई, रह जाता है
वर्तमान का
क्षण और
तुम्हारे
भीतर की गहन शांति,
क्योंकि
खोज के साथ सब
वासना चली गई,
सब लहरें
चली गईं। अब
कुछ पाना नहीं
है। इस क्षण
में शाश्वत के
द्वार खुल
जाते हैं, इस
क्षण में वह
जो अनादि—अनंत
है, कालातीत
है, वह
तुममें
झांकता है।
पहली दफे
तुम्हारी इस
शून्यता में
परमात्मा की
छवि उभरती है;
पहली दफा
तुम्हारे
मंदिर में
उसका पदार्पण
होता है।
ज्ञानी
खोजता नहीं, जो
खोज छोड़ देता
है, वही
ज्ञानी है। और
खोज का छोड़
देना ही
अंतखोंज है।
अंतखोंज कोई
नई खोज नहीं
है। खोज का
बंद हो जाना है,
रुक जाना है।
सब
दौड़ बाहर है।
भीतर भी तुम
दौड़ सकते हो? कैसे
दौड़ोगे? स्थान
कहां? अवकाश
कहा जहां भीतर
तुम दौड़ोगे? जब सब दौड़
बंद हो जाती
है, तुम
बैठ गए वृक्ष
के तले, कोई
दौड़ न रही, निदौड़।
उस दशा में
कोई भी वृक्ष
के नीचे बैठो,
वही बोधि—वृक्ष
हो जाएगा, वहीं
बुद्धत्व
फलित हो जाएगा।
तुम
बुद्ध हो, लेकिन
बाहर हो। कभी
धन खोज रहे हो,
कभी पद खोज
रहे हो। कभी
परमात्मा भी
खोजते हो, उसको
भी बाहर खोजते
हो।
अगर
तुम मुझसे
पूछो, तो मैं
तुमसे कहूंगा,
खोजना
संसार है, न
खोजना मोक्ष
है।
लेकिन
शायद तब
तुममें जो
तामसी हैं, वे
कहेंगे, तब
हम भले। हम
खोज ही नहीं
रहे।
नहीं, तामसी
उसे न पा
सकेगा।
क्योंकि
तामसी ने तो
अभी बाहर भी
नहीं खोजा।
खोज के रुकने
का तो सवाल ही
तब उठता है, जब बाहर खोज
हुई हो। तामसी
तो बाहर भी
नहीं गया, भीतर
क्या जाएगा!
भीतर जाने के
लिए बाहर जाना
कदम है। अपने
घर आने के लिए
बड़ी यात्रा
करनी पड़ती है।
अभी तामसी
यात्रा पर ही
नहीं गया, अपने
घर कैसे
लौटेगा?
तो
तामसी यह न
सोचे कि हम जहां
बैठे हैं, वहीं
बुद्धत्व है।
वहां तो अभी
यात्रा ही
शुरू नहीं हुई
है।
इसे
ध्यान रखो।
बाहर की
यात्रा भीतर
की यात्रा का
प्रशिक्षण है; वह
पाठशाला है।
वह बिलकुल
अनिवार्य है।
अन्यथा लोग
पड़े—पड़े मोक्ष
को उपलब्ध हो
जाते।
इसलिए
तामसी को पहले
राजसी बनना
होता है, दौड़ना
पड़ता है बाहर
की दुनिया में।
तब राजसी
सात्विक बनता
है, बाहर
की दुनिया में
दौड़—दौड़कर थक
जाता है।
शूद्र को
क्षत्रिय
बनना पड़ता है,
क्षत्रिय
को ब्राह्मण।
और समाज ऐसा
तरल होना
चाहिए, जिसमें
तामसी को
राजसी बनने की
सुविधा हो, राजसी को
सात्विक बनने
की सुविधा हो।
हिंदुओं
ने बड़ी गहरी
बातें खोजी, लेकिन
समाज जड़ बना
लिया। उस जड़
समाज के कारण
सब गडबड़ हो
गया। यहां
शूद्र को
क्षत्रिय
बनने का उपाय
न रहा। तो
तामसी कैसे
राजसी बनेगा?
यहां
क्षत्रिय को
ब्राह्मण
बनने का उपाय
न रहा। तो
कैसे राजसी
सात्विक
बनेगा?
वस्तुत:
प्रत्येक को
यात्रा शूद्र
के तल से करनी
पडेगी। इसलिए
जो गहन
शास्त्र हैं, वे
कहते हैं, हर
आदमी शूद्र
पैदा होता है।
और हर आदमी
शूद्र ही मर
जाए, तो
जीवन व्यर्थ
गया। हर आदमी
शूद्र पैदा
होता है और हर
आदमी को ब्राह्मण
मरना चाहिए।
तो यात्रा
संगत रही, तो
यात्रा
व्यवस्थित
हुई, तो
बीज फल तक
पहुंच गया, तो मार्ग
मंजिल बना।
समाज
तरल होना
चाहिए, जिसमें
सबको सब होने
की सुविधा हो,
उठने की, चलने की।
शूद्र को रोक
दिया हिंदुओं
ने कि वह आ
नहीं सकता
दूसरे मार्ग
पर। तो यह
पूरा जीवन उसे
शूद्र ही रहना
है। तो करोड़ों
लोग शूद्र रह
गए। उनके लिए
जिम्मेवार
कौन है फिर?
हिंदू
व्यवस्था ने
बड़ा पाप किया
है। हिंदुओं
ने बड़े गहरे
सूत्र खोजे, लेकिन
सूत्रों का
ठीक उपयोग
नहीं हो पाया।
जैसे
आइंस्टीन ने
एटम का सूत्र
खोज दिया, लेकिन
उपयोग यह हुआ
कि हिरोशिमा—नागासाकी
जले। और सारी
दुनिया भयभीत
है कि कभी भी
तीसरा महायुद्ध
हो जाए।
ऐसे
ही हिंदू
मनीषियों ने
बड़ा गहरा
सूत्र खोजा
त्रिगुणों का।
उसके आधार पर
वर्ण—व्यवस्था
बना ली लोगों
ने। ज्ञान का
सूत्र
अज्ञानियों
के हाथ में पड़
गया। अन्यथा
सारी समझ इस
कोशिश में
लगनी चाहिए थी
कि शूद्र तो
सभी पैदा हुए
हैं,
वह सबकी
स्वाभाविक
दशा है, आलस्य।
रजस की तरफ
उठना है। तमस
से उठना है
ऊपर रजस की
तरफ। दौड़ शुरू
करनी है।
अपने
में बंद पड़ा
है तामसी। राजसी
दौड़ रहा है
संसार में, बडी
महत्वाकांक्षाएं
हैं। सात्विक
फिर घर लौट
आया। लेकिन इस
लौट आने में
और तामसी के
घर ही पड़े रहने
में बड़ा अंतर
है।
तामसी
का कोई अनुभव
नहीं है बाहर
का। बिना बाहर
के अनुभव के
भीतर का अनुभव
नहीं हो सकता।
तामसी ऐसा ही
है,
जैसे सफेद
दीवार पर किसी
ने सफेद लकीर
खींच दी। या
काले
ब्लैकबोर्ड
पर किसी ने
काली लकीर खींच.
दी, कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता। विपरीत
नहीं है, तो
अनुभव नहीं
बनता। विपरीत
न हो, तो
ज्ञान का जन्म
नहीं होता।
काले
ब्लैकबोर्ड
पर सफेद रेखा
खींचनी चाहिए,
तब दिखाई
पड़ती है।
सात्विक
ऐसा व्यक्ति
है,
जिसने
संसार के काले
ब्लैकबोर्ड
पर अपने जीवन
की, अपनी
चेतना की सफेद
रेखा खींच दी।
अब उसे आत्मा
उभरकर दिखाई
पड़ती है, कंट्रास्ट।
बाहर
की यात्रा
तुम्हारे
जीवन में कंट्रास्ट, विपरीत
को पैदा कर
देती। है।
उसमें आत्मा
उभरकर दिखाई
पड़ती है।
तामसी
को आत्मा दिखाई
ही नहीं पड़ती।
वह शरीर की
तरह ही पड़ा
रहता है। अभी
उसने शरीर की
दौड़ ही नहीं
की। पहले तो
शरीर दिखाई
पड़ेगा। शरीर
के अनुभव से
गुजर—गुजरकर, छन—छनकर,
निखर—निखरकर
आत्मा दिखाई
पड़ेगी।
तो
तुम ऐसा समझो, तामसी
व्यक्ति शरीर
में जीता, राजसी
मन में जीता, सात्विक आत्मा
में जीना शुरू
करता है। और
तीनों के जो
पार हो गया, वह परमात्मा
हो जाता है।
बाहर
खोजना जरूरी
है,
लेकिन सदा
खोजते रहना
जरूरी नहीं है।
बाहर खोजो भी
और छोड़ो भी
फिर। पकड़ो भी,
त्यागो भी।
पकड़कर जब तुम
त्यागोगे, तब
तुम्हें हाथ
में जो
स्वतंत्रता
अनुभव
होगी, वह
उसको नहीं हो
सकती अनुभव, जिसने कभी
पकड़ा नहीं।
तुम
कभी कारागृह
गए हो? अगर
नहीं गए हो, तो जाने
जैसा है।
कारागृह के
बाहर जब तुम
आओगे, हथकड़ियां
खुलेंगी, द्वार
के सींकचे
खुलेंगे, संतरी
तुम्हें बाहर
जाने की आज्ञा
देगा, जब
तुम खुले आकाश
के नीचे खड़े
होओगे, तो
तुम्हारे
पूरे प्राणों
से आवाज
निकलेगी, अहा!
यहां
तुम पहले भी
थे,
जाने के
पहले यहीं थे
तुम, लेकिन
कभी अहा की
आवाज नहीं उठी
थी, कभी
आकाश इतना
विराट उन्मुक्त
न मालूम हुआ
था। कभी खुले
हाथों में ऐसी
गति न मालूम
हुई थी।
दीवारों के
बाहर आकर
तुम्हें पहली
दफा पता चलता
है कि कैसी
स्वतंत्रता
है जीवन में।
विपरीत
जीवन को
समृद्ध करता
है। इसीलिए तो
परमात्मा
द्वंद्व में
तुम्हें डालता
है।
लोग
मुझसे पूछते
हैं कि अगर
निर्द्वंद्व
ही होना है, तो
परमात्मा
हमें
निर्द्वद्व
ही क्यों नहीं
बनाता?
बना
सकता है।
लेकिन तब तुम
बिलकुल बेकार
रहोगे।
तुममें धार ही
न होगी। तुम
बिना धार की
तलवार रहोगे।
साग—सब्जी
काटने के काम
आ जाओ तो बहुत।
युद्ध के काम
के न रह जाओगे।
तुम ऐसा
इस्पात रहोगे, जो
अग्नि से नहीं
गुजरा।
क्योंकि
इस्पात जब
अग्नि से
गुजरता है, जितनी बड़ी
अग्नि से
गुजरता है,
उतना ही टेंपर,
उतनी ही
त्वरा और
शक्ति इस्पात
में पैदा होती
है। बड़ी
भट्टियां
चाहिए। कच्चे
लोहे में क्या
रखा है? ऐसा
हाथ से तोड़ दो।
पका लोहा क्या
है? आग से
गुजरा हुआ
लोहा है।
उसमें शक्ति
है। आग शक्ति
देती है, अनुभव
देती है।
संसार
आग है, संसार
यज्ञ है; उससे
अगर तुम
होशपूर्वक गुजरी,
तुम इस्पात
होकर बाहर
निकलोगे।
कच्चे लोहे की
तरह भीतर गए
थे, इस्पात
होकर बाहर
आओगे। कच्चे
सोने की तरह
भीतर गए थे, जिसमें
मिट्टी और
कूड़ा—कर्कट सब
मिला था। सोना
दिखाई ही न पड़ता
था, केवल
पारखी को
दिखाई पड़ सकता
था। साधारण तो
उसे ऐसा ही
मिट्टी—पत्थर
जानकर गुजर
जाता। किसी
जौहरी को
दिखाई पड़ सकता
था।
तुम्हारा
सोना तुम्हें
नहीं दिखाई
पड़ता, मुझे
दिखाई पड़ता है।
तुम तो कहते
हो, मुझमें
और सोना? सिवाय
कूड़ा—कर्कट के
और कुछ भी
नहीं है! तुम
आग से नहीं
गुजरे हो। आग
कूड़ा—कर्कट को
जला देगी। तब
तुम लौटोगे घर,
खालिस सोना।
तब तुम्हारी
बात और होगी, तुम्हारी
सुगंध, तुम्हारा
रस और होगा।
ज्ञानी
खोजता है, खोज
को छोड़ता है।
अज्ञानी या तो
खोजता ही नहीं
या खोज को ही
पकड़कर अटक
जाता है।
भीतर
की कोई खोज
नहीं है। बाहर
खोजो और बाहर
की खोज की
व्यर्थता को
समझ जाओ। और
जल्दी मत करना; क्योंकि
कच्चे घर न
लौट सकोगे।
कच्चे की कोई
स्वाकृति
परमात्मा के
पास नहीं है।
पकोगे तो ही
लौट सकोगे।
बहुत—से
लोगों को मैं
कच्चा घर
लौटते देखता
हूं। वे ऐसे
ही हैं, जैसे
स्कूल से फेल
होकर घर चेले
आ रहे हैं।
स्कूल गए थे
माना, लेकिन
उत्तीर्ण
नहीं हुए। कोई
प्रमाणपत्र लेकर
नहीं आ रहे
हैं।
परमात्मा का
घर इनके लिए
बंद रहेगा।
संसार
में भेजा
इसलिए कि
उत्तीर्ण हो
जाओ। संसार को
जान लेना
जरूरी है, इसके
पहले कि तुम परमत्मा
को समझ सको।
व्यर्थ को
पहचान लेना
जरूरी है, इसके
पहले कि
सार्थक का
आविर्भाव हो।
असार को समझ
लेना जरूरी है,
इसके पहले
कि सार से
तुम्हारा
मिलन हो।
असत्य को
असत्य की तरह
जानने वाला ही
सत्य को सत्य
की तरह जान
पाता है।
तीसरा
प्रश्न : हम
अधूरे हैं। हम
बाहर या भीतर
कितनी ही खोज
करें, हमें
पूरा कैसे
दिखेगा? पूरा
कैसे मिलेगा?
ठीक
बात है। अधूरे
हो तुम, तुम्हारी
सब खोज अधूरी
रहेगी। लेकिन
अखोज पूरी हो
सकती है।
तुम
जो भी खोजोगे, तुम्हीं
खोजोगे, —तुम्हारे
हाथ की ही खोज
होगी, तुम्हारे
जैसी ही रहेगी।
तुम जो भी
बनाओगे, उसमें
तुम्हारी ही
छाप होगी। तुम
जो भी निर्मित
करोगे, सृजन
करोगे, वह
अधूरा ही होगा।
क्योंकि
अधूरा बनाने
वाला है, तो
कृति कैसे
पूरी हो सकती
है? बिलकुल
ठीक बात है।
तुम
जो भी सोचोगे, वह
अधूरा होगा।
तुम जो भी
विचार करोगे,
वह खंडित
होगा। तुम जो
भी निष्कर्ष
लोगे, वह
कभी संपूर्ण
और समग्र नहीं
हो सकता। तुम
श्रद्धा
करोगे, तो
अधूरी, तुम
संदेह करोगे,
तो अधूरा।
तुम संसार में
जाओगे, तो
आधे—आधे, तुम
मंदिर में
प्रवेश करोगे,
तो आधे— आधे।
क्योंकि तुम
अधूरे हो। बात
ठीक है।
तो
क्या फिर कोई
उपाय नहीं है? क्योंकि
परमात्मा तो
पूरा है और
तुम अधूरे हो।
और तुम जो भी
करोगे, वह
सब अधूरा होगा—प्रार्थना
भी अधूरी, साधना
भी अधूरी, समाधि
भी अधूरी। तो
तुम पूरे
परमात्मा को
कैसे पाओगे?
पा
सकते हो।
क्योंकि एक
उपाय है।
विचार तो तुम
करोगे, अधूरा
होगा। लेकिन
निर्विचार
कैसे अधूरा
होगा! क्योंकि
वह कोई कृत्य
तो नहीं है।
विचार अधूरा
होगा। इसलिए
तो विचार से
कोई परमात्मा
को नहीं पा
सकता। अधूरे
से पूरे को
पाओगे कैसे? लेकिन
निर्विचार? निर्विचार
तो अधूरा नहीं
होगा, क्योंकि
वह तुम्हारा
कोई कृत्य
नहीं है।
निर्विचार तो
तुम्हारे
कर्ता के हट
जाने का नाम
है, वह तो
अभाव है। अभाव
तो पूरा हो
सकता है।
तुम
मौजूद हो, तो
अधूरे रहोगे।
लेकिन तुम गैर—मौजूद
हो, तब तो
पूरे हो सकते
हो। अहंकार
अधूरा होगा; निरअहंकार
पूरा हो सकता
है। विचार
अधूरा, शून्य
पूरा हो सकता
है। खोजोगे, तो अधूरा
रहेगा; नहीं
खोजोगे, तो?
खोज छोड्कर
वृक्ष के नीचे
बैठे हो, कुछ
नहीं खोज रहे,
उस क्षण में
तो तुम पूरे
हो जाओगे।
तुम्हारी दौड़
.तो अधूरी
रहेगी, लेकिन
तुम बैठे हो, दौड़ ही नहीं
रहे, तो
तुम्हारा
बैठना कैसे
अधूरा होगा? वह तो पूरा
हो सकता है।
इसलिए
अक्रिया पर
इतना जोर है, शून्य
पर इतना जोर
है, ध्यान
का इतना आग्रह
है। क्योंकि
वही एक
संभावना है
तुम्हारे
भीतर, जिससे
पूरा तुम्हारे
भीतर उतर सकता
है।
तुम
शून्य हो जाओ।
शून्य अधूरा
होता ही नहीं।
या तो होता है
या नहीं होता।
या तो तुम
शून्य हो ही न
पाओगे, तब
शून्य है नहीं।
या शून्य होगा,
तो पूरा
होगा। शून्य
अधूरा कभी
नहीं होता।
तुमने
आधा वर्तुल
सुना है, हाफ
सर्किल? होता
ही नहीं।
वर्तुल का मतलब
ही पूरा होता
है। आधा हुआ, तो वह
सर्किल है ही
नहीं। उसको
वर्तुल कैसे
कहोगे?
तुमने
आधे जिंदे
आदमी देखे
होंगे, तुमने
आधा मरा हुआ
आदमी देखा है?
तुम्हें
लगेगा कि यह
बात तो एक ही
है। चाहे इसको
आधा जिंदा कहो,
चाहे आधा
मरा!
नहीं, बात
एक नहीं है।
आधा जिंदा
आदमी होता है।
सच में सभी
लोग आधे जिंदा
हैं। लेकिन
आधा मुरदा
तुमने देखा है?
आधा मुरदा
कोई कैसे हो
सकता है? आधा
मुरदे का तो
मतलब हुआ, अभी
जिंदा है, अभी
आशा है, अभी
फिर उठ सकता
है। आधे मुरदे
को अस्पताल से
डाक्टर
तुम्हें ले जाने
न देंगे। वे
कहेंगे, रुको।
अभी आक्सीजन
लगाते हैं, अभी इंजेक्शन
देते हैं; अभी
तो यह आदमी
आधा ही मरा है।
आधा मरा है, मर नहीं गया
है।
जब
कोई मरता है, तो
पूरा मरता है।
आधे तुम जी
सकते हो, क्योंकि
जीना
तुम्हारे हाथ
में है। आधे
तुम मर नहीं
सकते, क्योंकि
मरना
परमात्मा के
हाथ में है।
इसे
थोड़ा समझो।
ध्यान
एक मृत्यु है।
वहा तुम मर
जाते हो। तुम
सब परमात्मा
पर छोड़ देते
हो। वहा तुम
मिट जाते हो।
एक खाली जगह
रह जाती है
हृदय में। वह
खाली जगह सदा
पूरी है। वहा
कुछ भी नहीं
है। उस खाली
में ही उतरता
है प्रीतम, उस
खाली मंदिर
में ही प्यारा
आता है। जब तक
तुम हो, तब तक
वह आ न सकेगा।
तुम भरे हो
जगह को। तुम
नही होओगे, वह आ जाएगा।
तुम्हारा न
होना
परमात्मा के
होने की विधि
है।
चौथा
प्रश्न : आपने
बताया कि
परमात्मा उनको
ही स्वीकार
करता है, जो
अखंड उसके पास
पहुंचते हैं।
लेकिन कुब्जा,
जिसके सब
अंग विकृत हैं,
वह भी कृष्ण
की प्रिय गोपी
है। वह किस
गुण के कारण
कृष्ण को पाने
में सफल हुई?
उसका
प्रेम पूरा है।
और प्रेम भी
जब होता है ., तो
पूरा होता है;
आधा नहीं
होता। इसलिए
तो मैं कहता
हूं? प्रेम
प्रार्थना है।
जीसस ने तो
कहा, प्रेम
परमात्मा है।
अप्रेमी शरीर
देखता है, प्रेमी
शरीर को देखता
ही नहीं। अगर
शरीर दिखता
रहे, तो
समझना कि
कामवासना है,
प्रेम नहीं।
तो फिर कृष्ण
ने भी देखा
होता, यह
कुब्जा, यह
तो सब तरफ से
विकृत है, अपंग
है, आड़ी—तिरछी
है। यह तो
बहुत कुरूप
लगी होती।
लेकिन
कृष्ण तो शरीर
को देख ही
नहीं रहे हैं।
शरीर तो ऊपर
की खोल है। जैसे
तुम्हारे
वस्त्रों को
देखकर कोई
तुम्हें
इनकार कर दे।
वस्त्र तो तुम
नहीं हो, शरीर
भी तुम नहीं
हो। जिसने
तुम्हारे
शरीर को देखकर
इनकार किया है
या शरीर को
देखकर
अंगीकार किया
है, उसने
तुम्हें तो
अभी देखा ही
नहीं।
यही
तो संसार में
प्रेमियों का
कष्ट है।
प्रेमी एक—दूसरे
से कहते ही
रहते हैं कि
तुम मुझे अभी
समझे नहीं, निरंतर
कहते हैं।
वर्षों साथ
रहते हैं और
यही कहते हैं
कि तुम मुझे
समझे नहीं।
क्या
अड़चन
है?
समझने में
ऐसी मुश्किल
क्या है?
मुश्किल
यही है कि
प्रेमी चाहता
है कि तुम मेरे
शरीर को मत
देखो, मुझे
देखो। शरीर
मैं नहीं हूं।
प्रेयसी भी
यही चाहती है
कि तुम मुझे
मत देखो, मेरे
शरीर को मत
देखो। यह मैं
नहीं हूं।
मुझसे जरा पार
उठो, जो
तुम्हें
दिखाई पड़ रहा
है, उससे
जरा भीतर आओ।
वही मेरा असली
होना है। तुम
बाहर मत अटको।
लेकिन
वह देखती है, पति
का प्रेम शरीर
से है। पति देखता
है, पत्नी
का प्रेम भी
शरीर से है, मोह भी शरीर
से है, लगाव
भी शरीर से है।
भीतर को तो
कोई देखता
नहीं है, इसलिए
तड़फ पैदा
होती है। और
जब तक तुमने
भीतर को नहीं
देखा, तब
तक बिलकुल
स्वाभाविक
पीड़ा है, क्योंकि
तब तक प्रेम
तो पैदा होता
ही नहीं। शरीर
का संबंध है, काम। मन का
संबंध है, मोह।
आत्मा का
संबंध है, प्रेम।
और परमात्मा
का संबंध है, प्रार्थना।
तो
कुब्जा पूरी
ही आई थी।
तुम्हें
दिखाई पड़ती है
कि उसके सब
अंग विकृत हैं, क्योंकि
तुम्हारे पास
और गहरे देखने
की आंख नहीं
है।
बड़ी
मीठी कथा है, कि
जनक ने एक बड़ी
शास्त्रार्थ—सभा
बुलाई थी। बड़े—बड़े
पंडितों को
निमंत्रण
दिया था। वे
सब विवाद के
लिए आ गए थे।
एक ब्राह्मण
को निमंत्रण
नहीं दिया गया
था, क्योंकि
वह सभा के
योग्य न था।
हमारे
पास शब्द है, सभ्य
या सभ्यता। वह
सभा से ही बना
है। सभ्य का
मतलब होता है,
सभा में
बैठने योग्य। और
सभ्यता का
मतलब होता है,
जो सभा में
बैठने योग्य
है, वह
सभ्यता को
उपलब्ध हो गया।
एक
ब्राह्मण भर
को राजधानी
में छोड़ दिया
था,
निमंत्रण न
दिया था। वह
था अष्टावक्र।
उसका शरीर आठ
जगह से तिरछा
था। अब आठ जगह
से तिरछे आदमी
को सभा में
बुलाकर क्या
और हंसी
करवानी? वह
चलता, तो
लोग हंसने
लगते। उसका
सारा
व्यक्तित्व
एक व्यंग्य था।
वह कार्टून
ज्यादा रहा
होगा, बजाय
आदमी के। आठ
जगह से तिरछा!
एकाध जगह से
तिरछा होना ही
काफी उपद्रव
कर देता है, आठ स्थानों
से तिरछा था।
कैसे चलता था,
वह भी एक
चमत्कार रहा
होगा। उसकी
चाल ऊंट जैसी
रही होगी। उस
पर अगर तुम
सवारी करते, तो मुश्किल
में पड़ जाते।
जैसा ऊंट पर
बैठना
मुश्किल हो
जाता है। बड़े
अभ्यास की
जरूरत हैं।
लेकिन
उसे तो कुछ
पता ही नहीं
था कि यह सभा
हो रही है और
विवाद हो रहा
है। उसे तो
कुछ काम आ गया
और पिता को
कुछ बात कहनी थी।
खोजा, तो पिता
घर में न मिले।
पूछा, तो
पता चला, वे
राज—दरबार गए
हैं। तो वह
पिता को मिलने
राज—दरबार
पहुंच गया। ऐन
वक्त पर उसको
छोड़ दिया था, वह ऐन वक्त
पर हाजिर हो
गया। संयोग की
बात।
बड़ा
विवाद चल रहा
था,
ब्रह्मज्ञान
की चर्चा चल
रही थी। सब
रुक गई। लोग
हंसने लगे।
जैसे ही वह
राज—दरबार में
प्रविष्ट हुआ,
जनक तक को
हंसी आ गई। और
लोग तो मुंह
रोक लिए। उस
अष्टावक्र ने
चारों तरफ
देखा और वह भी
खिलखिलाकर
हंसा। वह आदमी
गजब का था। उस
जैसे गजब के
आदमी जमीन पर
बहुत थोडे हुए
हैं, अंगुलियों
पर गिने जा
सकें।
उसके
हंसने से सन्नाटा
छा गया दरबार
में। क्योंकि
किसी ने यह न
सोचा था कि वह
हंसेगा। जनक
ने पूछा, हम
क्यों हंसते
हैं, वह तो
साफ है। तुम
क्यों हंस रहे
हो? उसने
कहा, मैं
इसलिए हंसता
हूं कि मैंने
घर में सुना, मां ने कहा
कि पंडितों की
बड़ी सभा है, ब्राह्मणों
की, ब्रह्मज्ञानियों
की। यहां सब
चमार इकट्ठे
हैं। क्योंकि
जिनको चमडी
दिखाई पड़ती है,
वे चमार हैं।
इनमें से
आत्मा किसी को
दिखाई नहीं
पडती। मेरा
शरीर आठ जगह
से झुका है, यह सच है।
लेकिन इनमें
एक भी
ब्रह्मज्ञानी
नहीं है। इन
मूढ़ों के साथ
क्यों समय
खराब कर रहे
हो! अगर इनमें
एक भी ब्रह्मज्ञानी
होता, तो
वह मुझे देखता,
मेरे शरीर
को नहीं।
जनक
चरणों पर गिर
पड़े
अष्टावक्र के।
और बात सच थी।
ज्ञानी कहीं
शास्त्रार्थ
के लिए सभाओं
में इकट्ठे
होते हैं? कि
विवाद करने
आते हैं? कि
प्रतियोगिता
जीतने आते हैं?
ज्ञानी को
अब जीतने को
कुछ बचा? और
ज्ञानी को कोई
पुरस्कार शेष
रहा जो जनक दे
सकते हैं? जनक
के पास क्या
रखा है? जिनको
दिखाई पड़ता है
जनक के पास
कुछ है, वे
अज्ञानी हैं,
तभी दिखाई
पड़ता है।
अष्टावक्र
तो चला गया, लेकिन
जनक के मन में
एक आग की लपट
छोड़ गया।
अष्टावक्र का
पीछा किया जनक
ने। और जनक की
जिज्ञासाओं
से इस पृथ्वी
पर एक
श्रेष्ठतम
ग्रंथ का जन्म
हुआ, वह है
अष्टावक्र—गीता।
कृष्ण की गीता
भी फीकी है।
उसको मैं
महागीता कहता
हूं। तुम जैसे—जैसे
तैयार हो
जाओगे, वैसे—वैसे
उस पर मैं
तुमसे बात
करूंगा।
कृष्ण
की गीता फीकी
है।
अष्टावक्र की
गीता का कोई
मुकाबला। ही
नहीं। कारण है, क्योंकि
कृष्ण तो एक
अज्ञानी से
बात कर रहे हैं,
अर्जुन से।
लेकिन
अष्टावक्र ने
जो बात की है, वह जनक से है।
वह अर्जुन से
बहुत ऊंची
अवस्था का
व्यक्ति है।
तभी तो
पंडितों की
सभा छोड्कर
अष्टावक्र के
चरणों का दास
हो गया। बात
समझ में आ गई, एक क्षण में
समझ में' आ
गई। एक बिजली
कौंधी और
दृश्य दिखाई
पड़ गया कि बात सच
है। सब चमार
इकट्ठे हैं।
फिजूल इनके
साथ समय गंवा
रहा हूं। बोध
जग गया।
अर्जुन
ने तो वहा से
पूछा है, जहां
से राजसी
व्यक्ति पूछ
सकता है। और
अर्जुन ने वहा
से पूछा है, जहां से
राजसी
व्यक्ति तमस
में गिरना
चाहता है। इसे
तुम ठीक से
समझ लो।
अर्जुन
कहता है, मैं
संन्यस्त हो
जाऊं। उसके
संन्यास का
मतलब इतना ही
है कि इस भाग—दौड़
की अब मेरी
हिम्मत नहीं।
वह यह कह रहा
है, मैं
आलस्य में गिर
जाऊं। अर्जुन
अगर संन्यास
लेगा, तो
सत्य में नहीं
उठेगा।
क्योंकि उसके
संन्यास का
कारण
वीतरागता नहीं
है। उसके
संन्यास का
कारण अपनों से
मोह है। ये
अपने ही
प्रियजन खड़े
हैं, जिनको
काटना पड़ेगा।
यह मोहग्रस्त
आदमी है। यह
अगर संन्यासी
होगा, तो
तमस में
गिरेगा। इसका
संन्यास
तामसी का होगा।
जनक
भी राजसी
व्यक्ति थे। लेकिन
अष्टावक्र की
मौजूदगी ने और
अष्टावक्र के
इस उदघोष ने
कि क्या
चमारों के साथ
समय खराब कर
रहे हो; एक
बिजली कौंधा
दी। एक क्षण
में जनक का
राजसी
व्यक्तित्व
खो गया और
सत्व का जन्म
हुआ।
दोनों
ही राजसी थे, क्योंकि
दोनों ही
क्षत्रिय थे।
दोनों ही
सम्राट थे, अर्जुन और
जनक। पर फर्क
कहां था? जनक
नीचे की तरफ
नहीं जा रहा
है, ऊपर की
तरफ जा रहा है।
दोनों रजस में
खड़े हैं, एक
ही सीढ़ी पर
खड़े हैं।
लेकिन जनक का
पैर ऊपर की
सीढ़ी पर पड़
रहा है, सत्व
की तरफ; और
अर्जुन का पैर
नीचे की सीढ़ी
की तरफ पड़ रहा
है, तमस की
तरफ।
इसलिए
कृष्ण गीता को
उतना ऊंचा
नहीं ले जा
सके,
जितना
अष्टावक्र ले
जा सका।
अष्टावक्र की
गीता का कोई
मुकाबला ही
नहीं। वह
बेजोड़ है।
भारत में अगर
एक शुास्त्र
बचाना हो और
सबको नष्ट
करना हो, तो
अष्टावक्र की
गीता बचा लेनी
चाहिए। बाकी
सब जला दो, कुछ
हर्जा न होगा।
लेकिन
अष्टावक्र की
गीता खो जाए, तो भारत का
मूलधन खो
जाएगा।
ऐसी
ही स्त्री है
कुब्जा, अष्टावक्र
जैसी।' वैसी
ही आड़ी—तिरछी।
कृष्ण को तो
दिखाई पड़ेगा,
कृष्ण कोई
चमार तो नहीं
हैं। कृष्ण तो
ब्रह्मज्ञानी
हैं, ब्रह्म
हैं। उनको तो
आड़ा—तिरछापन
कुछ अर्थ नहीं
रखता। और शरीर
आड़ा हो, कि
तिरछा हो, कि
सुडौल हो, क्या
फर्क पडता है!
भीतर कौन है? भीतर अखंड
प्रेम जल रहा
है।
परमात्मा
के पास अखंड
ही होकर पहुंच
सकते हो।
क्योंकि वह
अखंड है। उससे
मिलने का उपाय
अखंडता है।
खंड—खंड तुम
रहोगे, तो
अखंड से कैसे
मिलोगे? समान
ही समान से
मिल सकता है।
पांचवां
प्रश्न :
जम्हाई, यानिंग
का शरीर के
लिए क्या
उपयोग है? क्या
वह तमस की
शरीरगत
प्रक्रिया ही
है? या
हमेशा मन के
ऊबने का सूचक
है?
समझना
पड़े।
जम्हाई, यानिंग
पैदा होती है,
उसकी एक
विशेष
यात्रिक
व्यवस्था है
शरीर में, उसे
पहले समझ लें।
वह व्यवस्था
यह है कि जब भी
तुम सोने को
तैयार होते हो,
तुम्हारा
शरीर सोने को
तैयार होता है,
जब भी नींद
आने लगती है, शरीर थक गया
है काम से, जागने
से, और
नींद आसन्न है,
आने के करीब
है, तो
तुम्हारी
श्वास की
प्रक्रिया
में परिवर्तन
होता है।
साधारणत:
जब तुम जागे
हो,
तब तुम
ज्यादा
आक्सीजन लेते
हो; उसकी
जरूरत है
जागने के लिए।
तुम दौड़ रहे
हो अगर, बहुत
काम में लगे
हो, तो
बहुत जोर से
श्वास लेनी
पड़ती है।
क्योंकि शरीर
बहुत—सी
आक्सीजन
जलाता है। तो
और आक्सीजन की
जरूरत है। तो
दौड़ने में
तुम्हें जोर
से श्वास लेनी
पड़ती है। खाली
बैठे हो, तो
उतनी श्वास नहीं
लेनी पड़ती, क्योंकि
शरीर कोई
जलाता नहीं।
श्वास का कोई
उपयोग ज्यादा
नहीं है।
जब
सोने जा रहे
हो,
तब तो
आक्सीजन बहुत
कम चाहिए शरीर
में। इसलिए
श्वास धीमी हो
जाती है और
शरीर के भीतर कार्बन
डाय आक्साइड
इकट्ठा होने
लगता है।
जितनी मात्रा
कार्बन डाय
आक्साइड की भीतर
इकट्ठी होगी,
उतनी ही
गहरी नींद
आएगी। जितनी
कम मात्रा
इकट्ठी होगी,
उतनी ही
उथली नींद
आएगी। और अगर
मात्रा
इकट्ठी ही न
हो, तो
नींद आना
मुश्किल हो
जाएगा।
इसीलिए तो रात
में सारी
प्रकृति सोती
है, दिन
में नहीं।
क्योंकि जैसे
ही सूरज ढल
जाता है, हवाओं
में कार्बन
डाय आक्साइड
की मात्रा
बहुत बल्लू
जाती है, वृक्ष
सो जाते हैं, पशु—पक्षी
सो जाते हैं, आदमी सोने
लगता है। जैसे
ही सूरज उगता
है, सूरज
के साथ ही
आक्सीजन की
मात्रा बढ़ती
है। सारे
वृक्ष, पशु—पक्षी
उठने लगते हैं।
नींद यानी
कार्बन डाय
आक्साइड की एक
खास मात्रा
जरूरी है। और
जागना यानी
आक्सीजन की एक
खास मात्रा
जरूरी है।
इसीलिए
कभी—कभी तुमने
खबर अखबारों
में देखी होगी
कि एक ही कमरे
में सर्दी के
दिनों में
किसी पहाड़ी
इलाके में
बहुत—से लोग
सो गए और मर गए।
क्योंकि बहुत—से
लोगों के सोने
से इतनी
कार्बन डाय
आक्साइड
इकट्ठी हो गई, और
द्वार—दरवाजे
बंद थे, कि
नींद तो नींद,
मौत आ गई।
या कमरे में
अगर तुम सब
तरफ से दरवाजा
बंद कर लो और
आग जलाकर सो
जाओ, तो भी
मौत हो सकती
है। क्योंकि
आग आक्सीजन को
जला डालती है
और कार्बन डाय
आक्साइड को
पैदा कर देती
है।
अगर
कार्बन डाय
आक्साइड की
मात्रा
ज्यादा हो जाए, तो
उसमें नींद
इतनी गहरी लग
जाएगी कि फिर
खुलेगी ही
नहीं। अगर
आक्सीजन की
मात्रा बहुत
ज्यादा हो जाए,
तो तुम सो न
सकोगे। इसलिए
रजस गुण का
व्यक्ति सो
नहीं पाता।
क्योंकि वह
इतना दौड़ता है
जीवन में, इतना
भागा, इतनी
आपा— धापी करता
है कि उसकी
श्वास की
प्रक्रिया
आक्सीजन के साथ
एक निश्चित
अनुपात बना
लेती है। वह
जब सोने भी
जाता है, तब
भी श्वास की
प्रक्रिया
वही बनी रहती
है, उसका
वह अभ्यासी हो
गया, वह
शिथिल नहीं हो
पाता।
बौद्ध
भिक्षु
विपश्यना नाम
का ध्यान करते
हैं। उस ध्यान
में श्वास पर
ध्यान रखना
पड़ता है चौबीस
घंटे, जब तक
होश रहे।
बौद्ध
भिक्षुओं की
नींद बहुत कम
हो जाती है।
एक
भिक्षु को
सीलोन से मेरे
पास लाया गया; वह
तीन साल से सो
ही न सका था।
वह बिलकुल
पागल हुआ जा
रहा था। वह
पागल हो ही
चुका था।
चिकित्सक हार
गए। लेकिन
किसी
चिकित्सक ने
यह तो पूछा ही
नहीं कि तू
भीतर क्या
करता है? उन्होंने
ट्रैंक्येलाइजर
दिए और बड़े
डोज दिए, सब
किया, लेकिन
उसको नींद न
आए।
उसको
मेरे पास लाया
गया। मैंने
पूछा कि तू
विपश्यना तो
नहीं कर रहा
है?
उसने कहा, विपश्यना तो
कर ही रहा हूं।
क्योंकि
बौद्ध भिक्षु
हूं।
विपश्यना
ऐसा ध्यान है
कि जब तुम
श्वास पर
ध्यान रखते हो
कि श्वास भीतर
गई,
तुम भी भीतर
जाते हो।
श्वास बाहर गई,
तुम उसके
साथ बाहर जाते
हो। चेतना
श्वास के साथ
ही डोलती है।
इस चेतना के
जोड़ के कारण
श्वास बहुत
गहरी हो जाती
है। और इसका
अभ्यास अगर
गहरा हो जाए, तो नींद खो जाएगी।
इतनी भी खो जा
सकती है कि
बिलकुल ही
नष्ट हो जाए।
वह
आदमी बिलकुल
पागल अवस्था
में था। मैंने
कहा,
तीन महीने
के लिए तू
विपश्यना छोड़
दे। फिर धीरे—
धीरे शुरू
करेंगे, लेकिन
अभी तो छोड़ ही
दे।
तीन
महीने
विपश्यना छोड़
देने से कोई
चौथे—पांचवें
सप्ताह नींद
का आगमन शुरू
हो गया। तीन
महीने पर वह
पूरी तरह सो
रहा था। तो जब
तुम नींद के
करीब पहुंच
रहे हो, थक गए
दिनभर की दौड़
से, तो
शरीर इकट्ठी
करता है
कार्बन डाय
आक्साइड।
तुम्हें
बिस्तर पर चले
जाना चाहिए।
अगर तुम नहीं
जाते किन्हीं
कारणों से, जैसा कि
मनुष्य नहीं
जाता.।
कोई
जानवर यानिंग
नहीं करता, क्योंकि
जब उसे नींद
आती है, तब
वह सो जाता है।
सिर्फ आदमी
जम्हाई लेता
है या आदमी के
द्वारा पाले
गए जानवर कभी—कभी
लेते हैं।
लेकिन जंगल
में कोई जानवर
नहीं लेता, कोई सवाल ही
नहीं है।
नींद
आने को है, लेकिन
तुम बैठे
फिल्म देख रहे
हो। शरीर
तैयार है नींद
के लिए, क्योंकि
शरीर को फिल्म
से कोई लेना—देना
नहीं है।
कार्बन डाय
आक्साइड
इकट्ठा हो गया
और तुम जबरदस्ती
अपने को जगा
रहे हो। तो
कार्बन डाय
आक्साइड झटके
के साथ बाहर
निकलता है।
वही जम्हाई है।
इसलिए तुम
पूरा मुंह बा
देते हो। और
उस पूरे मुंह
से पूरी
कार्बन डाय
आक्साइड बाहर
निकल जाती है
और आक्सीजन
भीतर चली जाती
है।
वह
शरीर का
इमरजेंसी, संकटकालीन
कृत्य है।
क्योंकि इतनी
कार्बन डाय
आक्साइड है और
तुम जगने की
कोशिश कर रहे
हो। तुम
धर्मसभा में
बैठे हो, या
तुम भजन कर
रहे हो, या
तुम ध्यान कर
रहे हो, लेकिन
शरीर सोना
चाहता है।
शरीर के खिलाफ
जब तुम कुछ
करोगे, तो
शरीर तो
तैयारी कर रहा
है सोने की और
तुम सोने नहीं
जा रहे हो, तो
शरीर क्या करे?
उसने
कार्बन डाय
आक्साइड
इकट्ठी कर ली।
वह उसे
फेंकेगा बाहर।
कार्बन डाय
आक्साइड को
फेंकने से
यानिंग पैदा
होती है, जम्हाई
पैदा होती है।
ऐसी
जम्हाई बिना
नींद के भी
कभी—कभी पैदा
होती है, जब
तुम उबे होते हो।
लेकिन
प्रक्रिया
वही है। जैसे
कि तुम किसी
को सुन रहे हो
और ऊब गए हो
सुनते—सुनते।
तुम धर्मसभा
में बैठे हो, कोई समझाए
जा रहा है। और
तुम सुनना भी
नहीं चाहते हो
और छोड़ने की
भी हिम्मत
नहीं कर सकते,
क्योंकि
लोग क्या
कहेंगे। हट भी
नहीं सकते, जा भी नहीं
सकते, तो
तुम क्या
करोगे?
ऐसी
हालत में, जब
तुम ऐसी कोई
चीज सुन रहे
हो, जो तुम
नहीं सुनना
चाहते, या
तुम थक गए हो, या तुम्हारी
समझ के बाहर
है, तुम्हारी
बुद्धि से ऊपर
है, वह
तुम्हारी पकड़
में नहीं आ
रही—जब भी ऐसा
होता है, तब
भी तुम्हारी
श्वास धीमी हो
जाती है। उसके
पीछे कारण है।
किसी
छोटे बच्चे को
गौर से देखो।
अगर तुम बच्चे
को कोई चीज
समझाना चाहते
हो और वह नहीं
समझना चाहता, तो
वह दो काम
करेगा। वह एक
तो अपनी पीठ
पीछे की तरफ
अकड़ा लेगा और
श्वास धीमी कर
लेगा, अगर
वह नहीं मानना
चाहता तो। तुम
उसकी श्वास और
उसके शरीर के
खड़े होने का ढंग
देखकर समझ
सकते हो, वह
मानने को राजी
नहीं है। हो
सकता है, वह
तुम्हारे डर
से सुन रहा है,
लेकिन
मानने को राजी
नहीं है।
जब
भी तुम किसी
चीज को भीतर
नहीं जाने
देना चाहते, तब
तुम श्वास को
धीमा कर देते
हो, क्योंकि
श्वास से
चीजें भीतर
जाती हैं। जब
तुम किसी चीज
को भीतर ले
जाना चाहते हो,
तब तुम गहरी
श्वास लेते हो।
क्योंकि
श्वास से
चीजें भीतर
जाती हैं। जब
तुम किसी चीज
को भीतर ले
जाना चाहते हो,
तब
तुम्हारी रीढ़
सीधी हो जाती
है। जब तुम
किसी चीज को
भीतर नहीं ले
जाना चाहते, तब तुम्हारी
रीढ़ पीछे की
तरफ झुक जाती
है। जब तुम
किसी चीज को
बहुत ही
आग्रहपूर्वक
भीतर ले जाना
चाहते हो, तुम
आगे झुक जाते
हो।
श्वास
की
प्रक्रियाएं
तुम्हारे
मनोभाव पर निर्भर
होती हैं। अगर
तुम अपने
प्रेमी के पास
बैठे हो, तो
तुम गहरी
श्वासें लोगे।
अगर तुम
दुश्मन के पास
बैठे हो, तो
तुम श्वास सधी
हुई लोगे, धीमी
लोगे।
क्योंकि
दुश्मन
तुम्हारे
चारों तरफ जो
तरंगें फेंक
रहा है, वह
तुम्हारी
श्वास .से
भीतर जा सकती
हैं।
जब
तुम बगीचे में
आते हो, तुम
गहरी श्वास
लेते हो। जब
तुम किसी
दुर्गंध से
भरी गली में
से निकलते हो,
तब तुम
श्वास रोक
लेते हो, तुम
नाक पर हाथ रख
लेते हो।
क्योंकि
श्वास के साथ
दुर्गंध भीतर
जाती है, सुगंध
भीतर जाती है।
श्वास के साथ
तमस भी भीतर
जाता है, सत्व
भी भीतर जाता
है। श्वास के
साथ साधु भी
भीतर जाता है,
असाधु भी
भीतर जाता है।
श्वास सेतु है
तुम्हारे
भीतर लाने ले
जाने का।
इसलिए
जब तुम किसी
दुश्मन के पास
खड़े हो, तुम्हारी
श्वास अकड़
जाती है। जब
तुम कोई ऐसी
बात सुन रहे
हो, जो
तुम्हारी समझ
में नहीं आती
या तुम सुनना
नहीं चाहते या
जबरदस्ती आ गए
हो, तब
तुम्हारी
श्वास धीमी हो
जाती है और
कार्बन डाय
आक्साइड
इकट्ठा होने
लगता है। जब
बहुत कार्बन
डाय आक्साइड
इकट्ठा हो जाता
है, तब
शरीर को उसे
बाहर फेंकना
पड़ता है।
क्योंकि उसे
शरीर अगर न
उलीचे, तो
तुम यहीं सो
जाओगे। वह
घबड़ाहट है। तो
शरीर उसे उलीच
देता है।
इसलिए
सभाओं मैं या
किसी उबाने
वाले आदमी की
बातचीत सुन—सुनकर
तुम जम्हाई
लेने लगते हो।
या पत्नी कुछ
सुना रही है, अपना
राग रो रही है,
तो पति
जम्हाई लेता
है। वह यह कह
रहा है, कृपा
करो। उसका
पूरा शरीर
कहता है कि
नहीं सुनना है।
लेकिन वह यह
कह भी नहीं
सकता। लेकिन
शरीर से प्रकट
कर रहा है। या
कोई मित्र आ
गया; बकवासी
है, और
तुम्हारा सिर
खा रहा है।
शरीर जम्हाई
लेने लगता है।
शरीर उसे खबर
दे रहा है कि
अब जाओ भी।
मैंने
सुना है, अल्वर्ट
आइंस्टीन एक
मित्र के घर
भोजन के लिए गया
था। वह
भुलक्कड़ था, जैसा कि
बहुत बड़े
विचारक अक्सर
हो जाते हैं।
जितना बड़ा
विचारक हो, उतना
भुलक्कडू हो
जाता है। और
जितना बड़ा
ध्यानी हो, उतनी ही
उसकी स्मृति
सध जाती है।
विचारक
भुलक्कड़ हो
जाता है, क्योंकि
इतना कूड़ा—कर्कट
सम्हालना
पड़ता है उसको।
ध्यानी की
स्मृति सम्यक
हो जाती है, वह भूलता ही
नहीं। वह याद
नहीं रखता
किसी को, फिर
भी भूलता नहीं।
और विचारक याद
रखने की कोशिश
करता है, तो
भी भूल— भूल
जाता है, क्योंकि
इतनी चीजें
सम्हालता है।
ध्यानी कुछ
सम्हालता ही
नहीं, वह
खाली ही रहता
है। सब अपने
से सम्हला
रहता है।
आइंस्टीन
मित्र के घर
बैठकर खाना
खाया, पीना
चला, गपशप
हुई।
आइंस्टीन बार—बार
अपनी घड़ी
देखता है। और
परेशान है और
जम्हाई ले रहा
है। और मित्र
भी अपनी घड़ी
बार—बार देखता
है और जम्हाई
ले रहा है।
बारह बज गए
रात के। अब
मित्र घबड़ा भी
गया कि अब यह
जाए, तो हम
सोए। पत्नी भी
बेचैन है, बार—बार
बाहर— भीतर
जाती है कि अब
क्या करना। और
आइंस्टीन
जैसे बड़े आदमी
को यह कहा भी
नहीं जा सकता
कि अब आप जाइए।
यह तो सौभाग्य
है कि वह आया, अब उसे जाने
को कैसे कहें!
आखिर
आइंस्टीन ने
ही मित्र से
कहा कि जम्हाई
देखकर ऐसा
लगता है, आपको
नींद आ रही है।
अब जाइए भी, सोइए भी। तो
उसने कहा, अब
जाएं कैसे! आप
जाएं, सोए,
तो मैं सोऊ।
मेहमान जाए, तो मेजबान......।
आइंस्टीन
घबड़ाकर खड़ा हो
गया। उसने कहा, हद
हो गई, मैं
समझ रहा था, अपने घर में
हूं और तुम कब
जाओ कि मैं सो
जाऊं।
और
मैं बड़ा सोच
रहा हूं कि
घड़ी देखता हूं
फिर भी
तुम्हारी समझ
में नहीं आता!
जम्हाई लेता
हूं फिर भी
तुम्हारी समझ
में नहीं आता!
और इसे देखकर
और भी चकित हूं
कि तुम भी घड़ी
देखते हो और
तुम भी जम्हाई
लेते हो, फिर
भी उठते क्यों
नहीं? क्या
कहते नहीं
बनता कि अब
जाऊं!
जम्हाई
भाषा है, वह यह
कह रही है कि
या तो यह बात
तुम्हारे लिए
नहीं है, बहुत
कठिन है। या
बहुत उबाने
वाली है, रसपूर्ण
नहीं है। या
तुम इस बात को
जानते ही हो
पहले से, फिर
दुबारा सुन
रहे हो, इसमें
कुछ सार नहीं
है। जम्हाई
भाषा है।
लेकिन
कारण एक ही है; चाहे
नींद की वजह
से आए, चाहे
ऊब की वजह से
आए, दोनों
ही हालत में
फेफड़ों में
कार्बन डाय
आक्साइड की
मात्रा जरूरत
से ज्यादा हो
जाती है, जो
घातक है। अगर
सो जाओ, तब
तो ठीक है।
अगर न सोओ, तो
शरीर को उसे
बाहर फेंक
देना पड़ता है।
इसलिए जम्हाई
आती है।
जम्हाई
का कोई संबंध
तमस से नहीं
है। हालांकि
तामसी आदमी को
ज्यादा आएगी।
राजसी आदमी को
कम आएगी।
सात्विक को
शून्यवत हो
जाएगी। बहुत
मुश्किल से
कभी आएगी। जब
कि कोई असम्यक
स्थिति हो जाए; क्योंकि
कभी सात्विक
को भी जागना
पड़ सकता है।
कितने ही
सात्विक तुम
हो, घर में
आग लग गई, तो
भी तुम्हें
जागना पड़ेगा।
तुम सात्विक
हो और पत्नी
मर रही है, तो
उसके बिस्तर
के पास बैठना
पड़ेगा। ऐसी
स्थितियों
में ही।
अन्यथा
सात्विक को
साधारणतया
जम्हाई नहीं आती।
तमस
में बहुत
ज्यादा आएगी, क्योंकि
वह आदमी चौबीस
घंटे सोयी
हालत में ही है।
उसको जागना
कष्टपूर्ण है।
राजस को बहुत
बार आएगी, क्योंकि
वह सोने को
तैयार नहीं है,
बहुत काम
करने हैं; नींद
का दुश्मन है;
जितना कम सो
सके, उतना
अच्छा है।
क्योंकि उतने
काम को, उतने
समय को बचाना
हो जाएगा, उतने
समय में कुछ
महत्वाकांक्षा
पूरी कर लेगा।
सात्विक
की न तो कोई
महत्वाकांक्षा
है,
जिसके पीछे
दौड़ना है।
इसलिए जब नींद
आती है, वह
सो जाता है; जब भूख लगती
है, वह
खाना खा लेता
है।
रिंझाई
से किसी ने
पूछा कि क्या
है तुम्हारी
साधना? उसने
कहा, जब
भूख लगती है, तब खाना खा
लेते; जब
नींद आती, तब
सो जाते। बस
यही।
सत्य
को उपलब्ध
व्यक्ति ऐसा
ही जीता है।
दुर्घटना
स्वरूप कभी
जम्हाई आ सकती
है,
अन्यथा कोई
कारण नहीं है।
आखिरी
प्रश्न : गीता
में साधकों के
लिए सात्विक
भोजन पर बल
अवश्य दिया
गया है लेकिन
उसमें कहीं
मांसाहार का
स्पष्ट निषेध
नहीं है,।
और आपने
मांसाहार को
सुपच बताया और
यही डाक्टरों
का मत भी है।
फिर मांसाहार
से क्या बाधा
आती है? धर्म—साधना
के लिए आपने
निरामिष भोजन
की उपादेयता
पर बहुत बल
दिया। लेकिन
पुस्तकों से
पता चलता है
कि प्राय: ही सूफी,
झेन और
तंत्र मार्ग
से सिद्ध हुए
संतों का भोजन
निरामिष नहीं
रहा। और अपने
ही देश में
परमहंस
रामकृष्ण सदा
आमिष भोजन
लेते रहे। इस
विरोध का क्या
कारण है?
पहली
बात,
मांसाहार
में अपने आप
में कोई भी
बुराई नहीं है।
ध्यान रखना, कह रहा हूं
अपने आप में।
मेरा मतलब है,
अगर
वैज्ञानिक
सिंथेटिक
मांस बना सकें—जो
कि जल्दी ही
बन सकेगा—कृत्रिम
मांस बना सकें,
तो वह
शाकाहार से भी
ज्यादा
शाकाहारी
होगा।
क्योंकि जब
तुम फल को
वृक्ष से
तोड़ते हो, तब
भी चोट
पहुंचती है।
तुम सब्जी काटते
हो, तब भी
चोट पहुंचती
है। कम
पहुंचती है।
वृक्षों, सब्जियों
के पास उतना
ज्यादा
विकसित
स्नायु—संस्थान
नहीं है, जितना
पशुओं के पास
है। पशुओं के
पास उतना
विकसित
संस्थान नहीं
है, जितना
मनुष्यों के
पास है। इसलिए
जो व्यक्ति नर—मांस
का आहार करे, उसको तो
दुनिया में
कोई भी
धार्मिक
व्यक्ति
स्वीकार करने को
राजी न होगा, कि यह आदमी
का मांस खा
रहा है।
क्योंकि
मनुष्य को
मारना बहुत
पीड़ादायी है।
जितनी
पीड़ा मनुष्य
अनुभव करता है
मृत्यु में, उतनी
पशु नहीं
अनुभव करते।
क्योंकि
मनुष्य के पास
सोच—विचार है,
मृत्यु का
बोध है; मर
रहा हूं इसकी
समझ है; मारा
जा रहा हूं? इसकी समझ है।
और चेतना बहुत
प्रगाढ़ है।
इसलिए मनुष्य
को तो कोई
धर्म राजी
नहीं होगा।
ऐसा
लगता है कि
हिंदू अतीत
में यज्ञ में
मनुष्य की बलि
चढ़ाते रहे; नरमेध
यज्ञ होते रहे।
लेकिन धीरे—
धीरे उन
यज्ञों को
करने वालों को
भी पता चला कि
यह तो अतिशय
है। और इस तरह
का धर्म तो
ज्यादा दिन तक
धर्म नहीं समझा
जा सकता।
इसलिए
उन्होंने भी
व्याख्या बदल
दी। तो
उन्होंने भी
कहा कि नरमेध
सिर्फ नाम के
लिए है।
मनुष्य का
पुतला बना
लिया, उसका
वध कर दिया।
नरमेध
के लिए तो कोई
राजी नहीं है।
क्यों? क्योंकि
मनुष्य से
स्वादिष्ट
मांस तो और
कहीं मिल नहीं
सकता। अगर
स्वाद ही सवाल
है, तो
छोटे बच्चों
का जैसा मांस
स्वादिष्ट
होता है, वैसा
किसी का भी
नहीं होता। और
जितना
सुपाच्य होता
है, वैसा
दूसरा मांस
नहीं हो सकता।
क्योंकि
मनुष्य से
तालमेल है।
तुम्हारे
जैसा ही है; जल्दी पच
जाता है; समान—
धर्मा है।
आदमी
वह भी करता है, बच्चे
चुराए जाते
हैं; होटलों
में काटे भी
जाते हैं।
सारी दुनिया
में पता है कि
बच्चों का
मांस बड़ी
होटलों में
बिकता है; और
लोग बड़े स्वाद
से उसका भोजन
लेते हैं।
लेकिन
इसके लिए तो
कोई भी राजी न
होगा। क्यों
राजी नहीं
होते? क्योंकि
मनुष्य बहुत
ज्यादा
संवेदनशील है।
उसको मारने
में सवाल है।
मारना भयंकर
हिंसा है। और
उस हिंसा को
करने को जो
राजी है, वह
व्यक्ति बहुत
तामसी है।
भोजन के लिए
दूसरे का जीवन
छीनने को जो
राजी है, उसके
तमस का क्या
कहना!
नहीं, वह
तो कोई नहीं
करता। या कभी
लोग करते थे, तो बंद हो
चुका है।
पशुओं का मास
चलता है।
लेकिन
वे भी काफी
संवेदनशील
हैं। इसलिए
जिनकी
धार्मिक
संवेदना और भी
गहरी है, बुद्ध,
महावीर, उन्होंने
सिर्फ
शाकाहार के
लिए कहा।
उन्होंने कहा,
पशुओं को भी
छोड़ दो।
क्योंकि तुम
मारते' हो,
काटते हो।
भला तुम न
काटो, कोई
और तुम्हारे
लिए काटे और
मारे; लेकिन
किया तो
तुम्हारे लिए
जा रहा है।
तुम जानते तो
हो कि भोजन के
साधारण से
स्वाद के लिए
तुम जीवन की
इतनी हिंसा कर
रहे हो, तो
तुम्हारे
भीतर तमस बहुत
गहरा है, तुम
अंधे हो।
तुम्हारी संवेदना
समुचित नहीं
है। तुम
मनुष्य होने
के योग्य नहीं
हो।
इसलिए
महावीर ने तो
बिलकुल
वर्जित किया।
बुद्ध ने थोड़ी—सी
शर्त रखी। वह
शर्त भी बहुत
कीमती है।
बुद्ध ने कहा
कि मरे हुए
जानवर का मांस
खा लेने में
कोई हर्ज नहीं
है।
बात
तर्कयुक्त है।
क्योंकि अगर
मारने के कारण
ही आदमी तामसी
हो जाता है, तो
मरे—मराए
जानवर का मांस
खाने में तो
कोई हर्ज नहीं
है। इसलिए
बौद्ध मरे हुए
जानवर का मांस
खाने में मांसाहार
नहीं मानते।
गाय मर ही गई
अपने से, हमने
मारी ही नहीं,
तब इसके
मांस को खा
लेने में क्या
हर्ज है!
लेकिन
कृष्ण इससे
राजी नहीं हैं।
यह मांसाहार
बासा है। और
बासा भोजन
तामसी का है।
और मरे हुए
जानवर से
ज्यादा बासी
चीज तो तुम पा
ही नहीं सकते
दुनिया में।
और बासी चीज
क्या हो सकती
है?
जैसे ही
जानवर मरता है,
उसके सारे
मांस और खून
का गुणधर्म
बदल जाता है।
खून तो विलीन
ही हो जाता है
तत्क्षण। और
मांस में सड़ने
की प्रक्रिया
शुरू हो जाती है।
क्योंकि मांस
तभी तक जीवित
था, जब तक
प्राण थे।
प्राण के हटते
ही मास सड़ने
लगा; उसमें
से दुर्गंध
अभी आएगी
जल्दी ही। तो
वह तो बिलकुल
ही बासा भोजन
है।
इसलिए
सिर्फ
शूद्रों ने
उसे स्वीकार
कर लिया, भारत
में चमार ही
खाते हैं मरे
हुए जानवर का।
इसी वजह से जब
डाक्टर
अंबेदकर ने
शूद्रों को आह्वान
दिया बौद्ध
होने का, तो
उन्होंने
इसको भी एक
दलील बना लिया,
कि चमार
बौद्ध होने ही
चाहिए।
क्योंकि
बुद्ध भगवान
ने आज्ञा दी
है मरे हुए जानवर
का मांस खाने
की और सिर्फ
चमार खाते हैं।
इससे सिद्ध
होता है कि हो
न हो, चमार
प्राचीन समय
में बौद्ध रहे
होंगे। वे भूल
गए हैं अपना
बौद्ध होना।
तर्क
बहुत दूर का
मालूम पड़ता है।
लेकिन सार
उसमें हो सकता
है। इसकी
संभावना हो
सकती है कि
मांसाहार मरे
हुए जानवर का
करने के कारण
हिंदुओं ने उस
पूरे वर्ग को, जिसने
ऐसा मांसाहार
किया, शूद्र
मान लिया हो।
क्योंकि
शूद्र की और
तमस की कृष्ण
की व्याख्या
यही है।
बुद्ध
ने एक कारण से
आज्ञा दी, दूसरे
कारण का
उन्हें खयाल
नहीं है। एक
कारण से आज्ञा
दी कि मरे हुए
को मारा नहीं
जाता, इसलिए
कोई हिंसा
नहीं है।
लेकिन मरे हुए
जानवर का मांस
अति बासा हो
गया, मुरदा
हो गया, उसको
खाने से गहन
तमस पैदा होगा।
उस तरफ बुद्ध
की नजर चूक गई।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि मांसाहार
खुद में तो कोई
पाप नहीं है, न
बुरा है, न
तमस है।
सुपाच्य है; क्योंकि पचा—पचाया
भोजन है।
इसलिए तो सिंह
एक बार भोजन
करता है और फिर
चौबीस घंटे की
चिंता छोड़
देता है; उतना
काफी है। काफी
कनसनट्रेटेड
भोजन है। थोड़ा—सा
कर लिया, बहुत
है।
किसी
दिन अगर
वैज्ञानिक
सिंथेटिक
मांस बना लेंगे—जों
कि उन्हें बना
लेना चाहिए
जल्दी से
जल्दी, जैसे
शाकाहारी
अंडा उपलब्ध
है, ऐसे
शाकाहारी
मांस जल्दी ही
उपलब्ध हो
जाएगा—तब
मांसाहार, मैं
तुमसे कहता
हूं शाकाहार
से भी ज्यादा
शाकाहारी
होगा।
क्योंकि न तो
उसमें हिंसा
होगी, न वह
बासा होगा।
इतनी भी हिंसा
न होगी, जितनी
फल को तोड्ने
से होती है।
महावीर ने तो
अपने लिए यही
नियम बना रखा
था कि जो फल
पककर गिर जाए,
वही खाना है।
या जो गेहूं
पककर गिर जाए
बाल से, वही
खाना है।
एक
बहुत बड़ा
प्राचीन ऋषि
हुआ,
कणाद। उसका
नाम ही कणाद
इसलिए पड़ गया
कि वह खेतों
में जो कण
अपने आप गिर
जाएं पककर, और वह भी जब
खेत की फसल
काट ली जाए और
किसान सब चीजें
हटा ले, तो
जो कण पीछे
पड़े रह जाएं
थोड़े—से गेहूं
के, उन्हीं
को बीनकर खाता
था।
परम
अहिंसक रहा
होगा कणाद।
पका हुआ गेहूं,
जो अपने से
गिर गया। और
वह भी किसान
से मांगकर
नहीं; क्योंकि
किसान पर भी
क्यों बोझ
बनना! जब
पक्षी दाने
बीनकर जी लेते
हैं, तो
आदमी भी ऐसे
ही जी ले। तो
कणाद का असली
नाम क्या था, यही लोग भूल
गए हैं। उसका
नाम ही कणाद
हो गया, कण
बीनकर जीने
वाला।
अगर
कृत्रिम मांस
बने,
तो वह
शाकाहार से भी
शुद्ध
शाकाहार होगा।
लेकिन अभी
जैसी स्थिति
है, ये दो
ही उपाय हैं।
या तो जिंदा
जानवर को
मारकर खाया
जाए; उस
हालत में
कृष्ण के साथ
वह आहार राजसी
होगा। कम से
कम ताजा होगा।
बुद्ध और
महावीर के
अनुसार
हिंसात्मक
होगा और तमस
में ले जाएगा।
और दोनों ठीक
हैं। आधे—आधे
ठीक हैं।
दोनों एक—एक
पहलू से ठीक
हैं।
अगर
मरे हुए जानवर
को खाया जाए, तो
कृष्ण के
हिसाब से
तामसी होगा, क्योंकि
बासा और मुरदा
हो गया। तंद्रा
बढ़ाएगा, निद्रा
लाएगा, मूर्च्छा
बढ़ाएगा, शद्रता
पैदा करेगा
जीवन में।
ब्राह्मणत्व
का सत्व पैदा
नहीं हो सकेगा।
लेकिन बुद्ध
के हिसाब से, कम से कम
हिंसा नहीं
होगी। तुम
किसी को
मारोगे नहीं,
इतनी
सदवृत्ति
रहेगी। इतना
तो कम से कम सत
की तरफ आगमन
होगा, सत्य
की तरफ
ऊर्ध्वगमन
होगा।
मेरे
हिसाब से, मांसाहार
चाहे मुरदे का
हो, चाहे
मारे गए जानवर
का हो, तमस
में गिराएगा
नब्बे
प्रतिशत
मौकों पर। दस
प्रतिशत या नौ
प्रतिशत
मौकों पर रजस
में दौड़ाएगा।
एक ही प्रतिशत
मौका है कि
उससे कोई सत्व
में उठ सके।
इसे
थोड़ा समझना
होगा। यह साफ
है कि
रामकृष्ण
मांसाहारी थे; विवेकानंद
भी। और फिर भी
रामकृष्ण परम
ज्ञान को
उपलब्ध हुए।
जैनों के लिए
या सभी
सांप्रदायिक
लोगों के लिए
तो बड़ी सुविधा
है इन चीजों
का उत्तर देने
में। असुविधा
मुझे है। जैन
कह देंगे कि
यह हो ही नहीं
सकता कि वे
ज्ञान को
उपलब्ध हुए, बात खत्म हो
गई। रामकृष्ण
ज्ञान को
उपलब्ध हो ही
नहीं सकते।
क्योंकि मछली
खा रहे हैं; मांस खा रहे
हैं; और
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाएं?
यह
बात ही खत्म
हो गई। इसलिए
जैनों के लिए
कोई उत्तर
देने का सवाल
नहीं है।
इसलिए जहां—जहां
मांसाहार है, वहां—वहा
ज्ञान की
संभावना समाप्त
हो गई।
हिंदुओं
को भी कोई
कष्ट नहीं है।
क्योंकि वे
कहते हैं, आत्मा
मरती थोड़े ही
है, काटने
से भी थोड़े ही
मरती है।
तुमने मछली को
मार दिया, सिर्फ
आत्मा को देह
से मुक्त कर
दिया। दूसरा
शरीर धारण कर
लेगी। इसलिए
कोई अड़चन नहीं
है। रामकृष्ण
ज्ञान को
उपलब्ध हो
सकते हैं।
अड़चन
मुझे है, क्योंकि
मैं मानता हूं
कि रामकृष्ण
ज्ञान को उपलब्ध
हुए और वे
मांसाहारी
हैं। होना
नहीं चाहिए वह
हुआ। साधारण
नियम के हिसाब
से जो नहीं
होना था, वह
हुआ है। वे
मांसाहार
करते हुए परम
ज्ञान को
उपलब्ध हुए।
इसलिए अड़चन
मेरी है, तुम्हें
समझ में नहीं
आएगी।
मेरी
अड़चनें बहुत
गहरी हैं।
सीधे उत्तर
मेरे पास नहीं
हैं,
क्योंकि
उत्तर मैं
किसी सिद्धात
को देखकर नहीं
चलता। मैं
स्थिति को
देखता हूं।
देखता हूं
रामकृष्ण
ज्ञान को
उपलब्ध हुए और
यह होना तो
नहीं चाहिए; लेकिन हुआ
है। इसलिए जाल
थोड़ा जटिल है।
तब
मुझे मेरी जो
दृष्टि है, वह
यह है कि
रामकृष्ण
अत्यंत शुद्ध
पुरुष हैं।
इसलिए इतनी
थोड़ी—सी
अशुद्धि
उन्हें बाधा न
डाल पाई। यह
तुम्हारे
खयाल में न आ
सकेगा।
अत्यंत शुद्ध
पुरुष हैं।
अगर तुम मुझे
आज्ञा दो, तो
मैं कहना
चाहूंगा, महावीर
से ज्यादा
शुद्ध पुरुष
हैं। महावीर अगर
मांसाहार
करते या मछली
खाते, परम
ज्ञान को
उपलब्ध नहीं
हो सकते थे।
लेकिन
रामकृष्ण हुए
हैं।
इसका
अर्थ केवल
इतना ही है कि
यह व्यक्ति
इतना शुद्ध है
कि इतनी—सी
अशुद्धि इस पर
कुछ बाधा नहीं
डाल पाई। यह
उस अशुद्धि के
बावजूद भी पार
हो गया।
ऐसा
ही समझो कि
पहाड़ पर तुम
चढ़ते हो। तो
पहाड़ पर चढ़ने
का नियम तो
यही है कि
जितना कम बोझ
हो,
उतना ठीक।
और अगर तुम
मनों बोझ सिर
पर लेकर चढ़
रहे हो, तो
चढ़ना मुश्किल
हो जाएगा।
शायद तुम चढ़ने
का खयाल ही
छोड़ दोगे, या
बीच के किसी
पड़ाव पर रुक
जाओगे।
लेकिन
फिर एक बहुत
शक्तिशाली
मनुष्य, कोई हरक्यूलिस
भारी वजन लेकर
पहाड़ पर चढ़
रहा है और चढ़
जाता है। यह
नियम नहीं है
यह आदमी। यह
हरक्यूलिस
नियम नहीं है।
यह इतना ही
बता रहा है कि
यह इतना
शक्तिशाली
पुरुष है कि
उतना—सा वजन
इसे चढ़ने में
बाधा नहीं
डालता। यह उस
वजन के साथ चढ़
जाता है। तुम
कमजोर हो, तुम
उस वजन के साथ
न चढ़ सकोगे।
रामकृष्ण
अपवाद हैं, नियम मत
बनाना।
निन्यानबे
आदमियों को
मांसाहार
छोड्कर ही जाना
पड़ेगा।
महावीर, बुद्ध
को जाना पड़ा
है मांसाहार
छोड्कर, तो
तुम अपनी तो
फिक्र ही छोड़
देना। तुम
अपना तो हिसाब
ही मत लगाना।
अपनी तो गणना
ही मत करना।
तुम महावीर और
बुद्ध से
ज्यादा
पवित्र आदमियों
की कल्पना भी
कैसे कर सकते
हो! उनको भी
छोड़ देना पडा।
उनको भी लगा
कि यह बोझ है।
और यह बोझ
अटकाएगा, यात्रा
पूरी न होने
देगा। यह
गौरीशंकर तक
नहीं पहुंचने
देगा, बीच
में कहीं पड़ाव
बनाना पड़ेगा;
थककर बैठ
जाना पड़ेगा।
गौरीशंकर
तक चढ़ते—चढ़ते
तो सभी बोझ
छोड़ देना होता
है। सत्य की
आखिरी ऊंचाई
पर तो सब चला
जाना चाहिए।
यह नियम है।
लेकिन कभी कोई
जीसस, कभी कोई
मोहम्मद और
कभी कोई
रामकृष्ण
मांसाहार
करते हुए भी
वहा पहुंचे
हैं। वे
हरक्यूलिस
हैं। उनका तुम
ज्यादा विचार
मत करो। उनसे
तुम्हें कोई
लाभ न होगा।
तुम उनको
अपवाद समझो।
और
अपवाद सिर्फ
नियम को सिद्ध
करते हैं।
अपवाद से
अपवाद सिद्ध
नहीं होता, सिर्फ
नियम सिद्ध
होता है। उससे
केवल इतना ही
पता चलता है
कि यह भी संभव
है अपवाद
क्षणों में, कि कोई
व्यक्ति इतना
परम शुद्ध हो
जाए कि
मांसाहार कोई
अशुद्धि पैदा
न करता हो।
ऐसे
शुद्ध पुरुष
हुए हैं। जैसे
कृष्ण हैं, कृष्ण
ने
ब्रह्मचर्य
साधा, इसकी
कोई खबर नहीं
है। नहीं साधा,
ऐसा लगता है।
हजारों
स्त्रियों के
साथ राग—रंग
चलता रहा। और
कृष्ण फिर भी
खंडित न हुए, नीचे न गिरे।
उनके ऊर्ध्वगमन
में कोई बाधा
न आई। वे
गौरीशंकर के
शिखर पर पहुंच
गए।
लेकिन
इससे तुम मत
सोचना कि यह
नियम है। यह
अपवाद है।
तुम्हारे लिए
तो
ब्रह्मचर्य
उपयोगी होगा।
तुम्हारे पास
तो शक्ति इतनी
कम है कि तुम
उसे ब्रह्मचर्य
में न बचाओगे, तो
तुम्हारे पास
ऊर्ध्वगमन के
लिए ऊर्जा न
बचेगी।
कृष्ण
के पास रही
होगी बहुत
ऊर्जा। कोई
अड़चन न आई।
सोलह हजार
रानियों के
साथ नाचते रहे।
हजार—हजार
प्रेम चलते
रहे,
कोई अड़चन न
आई। यह सिर्फ
अपवाद है।
और
मेरी अड़चन तुम
खयाल में रखो।
क्योंकि मैं
इन सब विपरीत
लोगों में
देखता हूं कि
ये सब पहुंच
गए। इसलिए मैं
कहता हूं
सिद्धात
आदमियों से
बड़ा नहीं है।
और सिद्धात से
आदमियों को
कभी मत कसना।
पहले आदमी को
सीधा—सीधा
देखना और फिर
सिद्धात को उस
पर कसना।
महावीर
जो कहते हैं, वह
निन्यानबे के
लिए सही है।
और निन्यानबे
प्रतिशत लोग
ही असली लोग
हैं।
रामकृष्ण
अनुकरणीय
नहीं हैं।
उनका अनुकरण
करोगे, तो
तुम भटकोगे।
अनुकरणीय तो
बुद्ध और
महावीर हैं।
वे तुम्हें
ज्यादा निकट
तक गौरीशंकर
के पहुंचा देंगे।
रामकृष्ण
को मानकर तुम
चलोगे, तो
तुम मछली तो
खाते रहोगे, मांसाहार तो
करते रहोगे, रामकृष्ण
कभी न हो
पाओगे। और
रामकृष्ण के
मानने वाले वहीं
भटक रहे हैं।
रामकृष्ण के
बाद एक भी
रामकृष्ण की
स्थिति में
उपलब्ध नहीं
हुआ, विवेकानंद
भी नहीं। और
सैकड़ों
संन्यासी हैं
रामकृष्ण के—कचरा,
कूड़ा—कर्कट।
क्योंकि वह
रामकृष्ण
अपवाद हैं। वह
झंझट की बात
है।
रामकृष्ण
जैसे लोगों का
धर्म नहीं बन
सकता, बनना
नहीं चाहिए।
ये धर्म के
बाहर हैं। ये
सीमा के बाहर
हैं। ये
ट्रेसपासर्स
हैं। ये ऐसे
लोग हैं, जो
पीछे के
दरवाजे से
बागुड़ तोड़कर
न मालूम कहां—कहां
से घुसते हैं,
सीधे
दरवाजे से
नहीं।
तुम्हें तो
सीधे दरवाजे
से ही जाना
पड़ेगा।
इसलिए
रामकृष्ण
जैसे लोगों का
कोई धर्म नहीं
बनना चाहिए, कोई
संघ नहीं बनना
चाहिए। इनके
पीछे
रामकृष्ण
मिशन जैसा कोई
प्रचार नहीं
होना चाहिए।
क्योंकि ये
आदमी अपवाद
हैं, इनको
अनूठा रहने दो।
ये कोहिनूर
हीरे जैसे हैं।
इनकी भीड़ मत
लगाओ। धर्म तो
बनना चाहिए
बुद्ध और
महावीर जैसे
लोगों का।
उनका !, महासंघ
होना चाहिए।
करोड़—करोड़
उनके अनुयायी
हों। जितने
हों, उतने
कम। क्योंकि
उनसे
निन्यानबे
प्रतिशत को
मार्ग मिलेगा।
जीसस से लाभ
नहीं हुआ
ईसाइयों को।
हो नहीं सकता।
क्योंकि जीसस
सभी कुछ
स्वीकार करके
जीते हैं।
शराब भी पीते
हैं; न
केवल पीते हैं,
बल्कि उसे
उत्सव मानते
हैं, धार्मिक
उत्सव मानते
हैं। जीसस जिस
घर में मेहमान
होते हैं, वहा
बोतलें खुलती
हैं, खाना—पीना
चलता है।
क्योंकि यह
महोत्सव है
जीवन का।
तो
जीसस ने
रास्ता खोल
दिया जैसे
सबको शराब पीने
का। तो पश्चिम
में किसी को
समझाओ कि शराब
गलत है, लोग
हसेंगे कि
पागल हो गए
हैं! जीसस को
गलत नहीं, तो
हमें कैसे गलत?
और कुछ न
मानें जीसस
में, कम से
कम इतना तो
मानते ही हैं।
और बातें कठिन
हों, मगर
यह तो सरल है।
इसका तो हम
अनुगमन कर
लेते हैं।
जीसस
जैसे लोगों के
पीछे धर्म
नहीं होना
चाहिए। लेकिन
दुर्भाग्य कि
जीसस के पीछे
दुनिया का सबसे
बड़ा धर्म है।
दुनिया में
सबसे ज्यादा
संख्या
ईसाइयों की है।
और सबसे कम
संख्या
जैनियों की है, महावीर
के पीछे। कारण
है इसमें भी।
क्योंकि
महावीर
तुम्हारी
कमजोरियों को
जरा भी मौका
नहीं देते।
उनके साथ
तुम्हें
यात्रा ऊपर की
करनी ही पड़ेगी।
करनी हो, तो
ही साथ चल
सकते हो; न
करनी हो, तो
बहाना नहीं
खोज सकते
महावीर में।
लेकिन जीसस के
साथ न भी
यात्रा करनी
हो, तो भी
तुम ईसाई रह
सकते हो।
मांसाहार करो,
शराब पीओ, सब कर सकते
हो और ईसाई भी
हो सकते हो।
सुविधा है।
इसलिए ईसाइयत
फैलकर बड़ा
वृक्ष बन गई।
महावीर तो
खजूर के वृक्ष
हैं; उनके
नीचे छाया भी,
छाया भी
मुश्किल है।
मेरी
कठिनाई यह है
कि मैं पाता
हूं इन सभी
लोगों ने पा
लिया। इसलिए
तुम बड़ा सोच—समझकर
चलना। तुम
अपने पर ध्यान
रखना। इसकी
फिक्र छोड़
देना कि
रामकृष्ण ने
मछली खाकर पा
लिया, तो हम भी
पा लेंगे, मछली
क्यों
त्यागें? मछली
और मोक्ष अगर
साथ—साथ सधता
हो, तो साथ
ही साथ साध
लें।
मछली
ही सधेगी, मोक्ष
न सधेगा। कभी—कभी
अपवाद घटित
होते हैं। वे
इसलिए घटित
होते हैं कि
व्यक्ति की
क्षमता पर
निर्भर होता
है, कैसी
उसकी क्षमता
है। कोई
वेश्याघर में
रहकर भी परम
ज्ञान को
उपलब्ध हो
सकता है।
तुम्हें तो
मंदिर में
रहकर भी
उपलब्ध होगा,
यह भी
संदिग्ध है।
तुम
अपना ही सोचना
और अपने को ही
देखकर विचार करना।
और ध्यान रखना; क्योंकि
मन बहुत चालाक
है। वह रास्ते
खोजता है गलत
को करने के, और सही को
करने से बचने
के उपाय, तर्क
खोजता है। उसी
मन के कारण तो
तुम भटक रहे
हो जन्मों—जन्मों
से। खूब भटक
लिए; अब
वक्त है और
जाग जाना
चाहिए।
अब
सूत्र :
और हे
अर्जुन, जो
यज्ञ शास्त्र—विधि
से नियत किया
हुआ है तथा
करना कर्तव्य
है, ऐसे मन
को समाधान
करके फल को न
चाहने वाले
पुरुषों
द्वारा किया
जाता है, वह
सात्विक है।
और हे
अर्जुन, जो
केवल दंभाचरण
के लिए ही
अथवा फल को भी
उद्देश्य
रखकर किया जाता
है, उसे तू
राजस जान।
तथा
शास्त्र—विधि
से हीन, अन्न—दान
से रहित, बिना
मंत्रों के, बिना
दक्षिणा के और
बिना श्रद्धा
के किए हुए यज्ञ
को तामस कहते
हैं।
यज्ञ का
अर्थ है, धर्म
की समस्त
प्रक्रियाएं।
यज्ञ तो
प्रतीक है।
धर्म की समस्त
प्रक्रियाएं
तीन ढंग से की
जा सकती हैं।
एक
ढंग है
सात्विक का।
वह किसी फल की आकांक्षा
से नहीं करता।
उसकी कोई मांग
नहीं है। वह
यश करता है, तो
कुछ मांगने के
लिए नहीं, कुछ
पाने के लिए
नहीं। उसकी
कोई महत्वाकांक्षा
नहीं। रजस शांत
हो गया है। वह
इसलिए भी यज्ञ
नहीं करता कि
जो मेरे पास
है, वह बचा
रहे। उसकी
सुरक्षा रहे,
उसे चोर
चुरा न ले
जाएं। उसे
राज्य न छीन
ले। वह मुझसे
खो न जाए।
नहीं, उसका
तमस भी शांत
हो गया है।
फिर
यज्ञ वह करता
क्यों है!
सात्विक
व्यक्ति क्यों
यज्ञ करता है!
तामसी मंदिर
जाता है, समझ में
आता है। राजसी
भी जाता है, समझ में आता
है। सात्विक
क्यों जाता है?
और वस्तुत:
केवल सात्विक
ही जाता है।
बाकी कोई नहीं
जाते।
सात्विक
सिर्फ अहोभाव
प्रकट करने
जाता है, आनंद
भाव प्रकट
करने जाता है,
धन्यवाद
देने जाता है,
अनुग्रह के
कारण जाता है।
वह
अगर यश करता
है,
तो शास्त्र
कहते हैं।
शास्त्र का
अर्थ है, शास्ताओं
के वचन।
जिन्होंने
जाना है, उन्होंने
कहा है। वह
अपनी बुद्धि
को नहीं लगाता।
निरअहंकार
भाव से जानने
वालों ने कहा
है, ठीक
कहा होगा।
जानने वाले
कहते हैं, ऐसा
करने से लाभ
है, ऐसा
करना आनंद है,
ऐसा करना
कर्तव्य है, वह करता है।
उसकी अपनी कोई
मांग नहीं है।
वह समर्पण भाव
से करता है।
सदगुरु
कहते हैं, इसलिए
करता है।
श्रद्धा से
करता है। उसका
अपना कुछ लेना—देना
नहीं है।
लेकिन जब
जानने वाले
कहते हैं, तो
जरूर कोई राज
होगा। जब
जानने वाले
कहते हैं, तो
जरूर कोई
रहस्य होगा।
जो मुझे दिखाई
नहीं पड़ता, उन्हें
दिखाई पड़ता है।
वे दूर तक देख
सकते हैं, उनके
पास दूरगामी
दृष्टि है। वे
ऊंचाई पर खड़े
हैं, वहां
से उन्हें सब
दिखाई पड़ता है।
मैं जमीन पर
खड़ा हूं वहां
से मुझे इतने
दूर की चीजें
दिखाई नहीं
पड़ती। उनकी
दृष्टि
विहंगम है। वे
पक्षी की तरह
हैं। वे ऊपर
से उड़कर देखते
हैं। मैं तो
जमीन पर खड़ा
हूं मुझे
विस्तार
दिखाई नहीं
पड़ता। थोड़ा—सा
अपने आस—पास
दिखाई पड़ता है।
वे कहते हैं, ठीक कहते
होंगे। वे
कहते हैं, तो
जरूर करने
योग्य है, ऐसी
श्रद्धा से
करता है, वासना
से नहीं, कामना
से नहीं।
जो
यज्ञ शास्त्र—विधि
से नियत किया
हुआ है.।
वह
बिलकुल
शास्त्र के
अनुसार करता
है। वह कोई
जबरदस्ती
नहीं कर लेता
कि किसी तरह
निपटा दो।
तुम
भी प्रार्थना
करते हो, जल्दी
निपटा देते हो।
अगर अदालत
जाना है, तो
पांच मिनट में
पूरी हो जाती
है। ट्रेन
पकड़ना है, तो
एक ही मिनट
में पूरी हो
जाती है। और
कोई काम नहीं
है, रविवार
का दिन है, तो
एक घंटा चलती
है; घंटी
हिलाते रहते
हो बैठकर।
तुम्हारी
प्रार्थना
तुम्हारी
श्रद्धा और शास्त्र
से नहीं
निकलती।
तुम्हारी
प्रार्थना
तुम्हारे
हिसाब से निकलती
है। जब जैसी
जरूरत पड़ी! कभी
जरूरत पड़ी, तो
एक दिन तुम दो
दिन की भी कर
लेते हो।
मैंने
सुना है कि एक
इफिशिएंसी
एक्सपर्ट, जो
लोगों को कैसे
कम समय में
ज्यादा काम
करना, रोज
अपने
प्रार्थना के
कमरे में जाकर
कहता, डिट्टो!
जस्ट एज लाइक
दि अदर डे, वही
जैसा कल। और
बाहर निकल आता।
परमात्मा
इतना तो समझता
ही है कि
डिट्टो। अब
इसमें रोज—रोज
क्या दोहराना,
घंटी बजाना,
प्रार्थना,
पूजा, चंदन—तिलक—घंटा
खराब करना!
भगवान क्या
कोई नासमझ है?
शास्त्र—विधि
से नियत किया
हुआ,
शास्त्रोक्त,
शास्ताओं
द्वारा कहा
हुआ, कर्तव्य
है, करने
जैसा है.......।
इसे
समझ लो।
तुम्हें बहुत
बातें पता
नहीं हैं। अगर
तुम जिद करो
कि जब हमें
पता होंगी, तभी
हम करेंगे, तो तुम कर ही
न पाओगे। मैं
तुम्हें कहता
हूं ध्यान करो।
तुम कहते हो, क्यों करें?
इससे क्या
लाभ? हमें
कभी लाभ नहीं
हुआ।
तुमने
कभी किया नहीं; लाभ
कैसे होगा? तुम कहते हो,
बिना लाभ का
पक्का हुए, हम करें
क्यों? होगा,
इसका
आश्वासन क्या
है? अगर न
हुआ तो? अगर
समय खराब गया
तो? गारंटी
है कोई।
तुम
कैसे ध्यान कर
सकते हो? तुम
भरोसे से
ध्यान करते हो।
एक छोटा बेटा
चलना शुरू
करता है। अगर
वह भरोसा न
करे बाप पर...।
बाप उससे कहता
है कि तू भी
मेरे जैसा चल
सकेगा। मान तो
नहीं सकता।
क्योंकि बाप
है छ: फीट का और
वह इतना—सा।
कैसे बाप जैसा
हो सकता है? बाप को
देखता है, तो
टोपी गिर जाती
है उसकी। बाप
जैसा मैं कैसे
हो सकता हूं? तुम इतने
शक्तिशाली, लोग तुमसे
डरते हैं। घर
में आते हो, तो नौकर—चाकर
घबड़ा जाते हैं।
मुझसे कोई
डरता ही नहीं।
बल्कि जहां भी
मैं जाता हूं
नौकर—चाकर भी
डरवाते हैं।
यह हो नहीं
सकता कि मैं
तुम्हारे
जैसा हूं। तुम
चल सकते हो।
मैं तो चार
हाथ—पैर
घुटनों पर ही
घिसटूंगा।
नहीं, लेकिन
बाप कहता है, भरोसा कर, तेरे पास
मेरे जैसे पैर
हैं। वह खड़ा
भी होता है, गिर भी जाता
है, चोट भी
खाता है। फिर
भी भरोसा नहीं
छोड़ता।
अगर
बच्चे जरा
ज्यादा कुशल
हों,
चालाक हों,
तर्क कर
सकें, तो
वे कहेंगे, गिर गए बस अब
हो गया, घुटने
छिल गए। क्षमा
करो, देख
लिया। एक दफे
देख लिया, जांच
लिया। अब, अब
ये बहाने मत
बनाओ, घुटने
मत तुड़वा दो।
हम ठीक चल रहे
हैं।
सुविधापूर्ण
है सब। तो
बच्चे सदा ही
घिसटते रहें।
धर्म
के जीवन में
फिर एक नया
बचपन है
तुम्हारा।
तुम्हें पता
नहीं, तुम जब
देखते हो
बुद्ध—महावीर
की तरफ, तो
वे आकाश छूते
मालूम पडते
हैं. टोपी
गिरती है।
तुम्हें
भरोसा नहीं
आता कि तुम भी
उन जैसे हो।
वे लाख कहें
तुमसे, कैसे
भरोसा आए?
अंडे
में छिपा हुआ
है मुर्गी का
चूजा और मुर्गा
अकड़कर खड़ा है
बाहर। उसकी
शान देखो, उसकी
बांग देखो।
उसकी कलगी की
रौनक देखो
सूरज की रोशनी
में। और वह
चिल्लाकर कह
रहा है, घबड़ा
मत, निकल आ
बाहर अंडे के।
तू भी मेरे
जैसा है। चूजा
और घबड़ाकर सरक
जाता है भीतर।
इस तरह का मैं
कैसे हो सकता
हूं! इतना—सा
द्या, अंडे
में छिपा, अंडा
तक तोड़ना
मुश्किल है। न
ऐसी बाग दे
सकता हूं।
बुद्ध
के वचनों को
बुद्ध के
भिक्षुओं ने
सिंहनाद कहा
है। कि उनकी
गर्जना सुनकर
सोए हुए सिंह
जाग जाते हैं।
लेकिन
तुम्हें पहले
तो यही लगेगा
कि चारों
घुटने—पैर से
ही चलने दो।
मत झंझट में
डालो। यह हमसे
न हो सकेगा।
लेकिन भरोसा
तुम करते हो, तो
आगे उठते हो।
सत्य
को मानने वाला
व्यक्ति
श्रद्धापूर्ण
होता है। और
ऐसा नहीं है
कि एक बार
श्रद्धा टूट
जाती है, तो
श्रद्धा खो
देता है। कई
बार बच्चे को
गिरना पड़ता है।
कई बार
तुम्हारा
ध्यान चूकेगा,
नहीं लगेगा।
कई बार समाधि
लगते—लगते चूक
जाएगी, खड़े
होते—होते गिर
जाओगे। लेकिन
फिर भी
श्रद्धावान
श्रद्धा को
कायम रखता है।
कोई चीज उसकी
श्रद्धा को
नहीं तोड़ पाती,
विपरीत
अनुभव भी नहीं
तोड़ पाते।
उसकी श्रद्धा
सबसे बड़ी है।
विपरीत
अनुभवों से
बड़ी है। वह
भरोसा किए
जाता है।
शास्त्र—विधि
से नियत किया
हुआ,
कर्तव्य है,
ऐसे मन को
समाधान करके...।
क्योंकि
अभी समाधि तो
उपलब्ध नहीं
हुई,
अभी तो
समाधान करना
पड़ेगा। अभी तो
मन को समझाना
पड़ेगा कि मन, थोड़ा चल, देख,
शायद कुछ हो।
निर्णय मत ले;
विरोध में
पहले से मत
सोच; निषेध
को पक्का मत
कर; शायद
कुछ हो। द्वार
खुला रख; निष्कर्ष
मत बना; चलकर
देख। शायद कुछ
अनुभव में आए
तो आगे की
यात्रा सुगम
हो जाए।
अभी
समाधि तो मिली
नहीं। जिसको
समाधि मिली, उसे
समाधान की कोई
जरूरत नहीं।
साधक को तो
समाधान करके
चलना पड़ता है।
ऐसा मन को
समाधान करके,
फल की आकांक्षा
न करते हुए, वह यज्ञ
करता है। वह
धार्मिक पूजा,
प्रार्थना,
अर्चना, यश,
साधना करता
है। ऐसा
व्यक्ति
सात्विक है।
इसको
जरा अपने भीतर
खोजना।
तुम्हारा
ध्यान भी ऐसा
ही हो, सत्व से
अनुप्राणित
हो, तब
तुम्हें बहुत
मिलेगा। यही
तो अड़चन है।
मांगते हो, मिलता नहीं,
न मांगोगे,
मिलेगा।
वर्षा होगी
तुम्हारे ऊपर
रत्नों की।
लेकिन तुम
मांगोगे, तो
कंकड़—पत्थर भी
न मिलेंगे।
और
हे अर्जुन, जो
यश केवल
दंभाचरण के
लिए है.।
सिर्फ
अहंकार के लिए
है कि लोगों
को दिखा दूं
कि मैंने
अश्वमेध यश
किया! दंभाचरण
के लिए है, कि
देखो मैंने
कितना बड़ा यश
किया, हजारों
ब्राह्मणों
ने पूजा—पाठ
की, लाखों
ने भोजन किया।
सिर्फ दंभ के
लिए है।
सम्राट
किया करते थे
अश्वमेध यश, वह
दंभाचरण था।
भेजते थे घोड़े
को, वह
सारे राज्य
में घूमता था।
कोई उस घोड़े
को छेड़ दे, तौ
युद्ध छिड़
जाता। वह घोड़ा
इस बात की खबर
थी, जैसे
कि पहलवान
लंगोट घुमाते
हैं अखाड़े में
कि अगर कोई
बीच में बोल
दे कि ठहरो, रुक जाओ, मैं
लड़ने को तैयार
हूं। ऐसा घोड़ा
घुमाते थे
पूरे राज्य
में। वह खबर
थी कि घोड़ा
छुआ न जाए, रोका
न जाए। अगर
कहीं भी रोका
गया, तो
तुम झगड़ा मोल
ले रहे हो
सम्राट से। वह
चक्रवर्ती
होने की घोषणा
थी। जब घोड़ा
वापस लौट आता,
कोई रोकने
वाला न होता, तो वह
सम्राट
चक्रवर्ती हो
जाता।
वह
राजस है, वह
महत्वाकांक्षा
का है। उसमें
कुछ पाने की
कामना है।
दभाचरण के लिए
अथवा फल को
उद्देश्य में
रखकर किया
जाता है। कि
कुछ फल मिल
जाए; राज्य
और बड़ा हो, धन
और बढ़े; यश,
पद, प्रतिष्ठा
हो।
और
फिर तामसी का
यश भी है, तामसी
की धर्म—साधना
भी है।
शास्त्र—विधि
से हीन..।
वह
मनगढंत होती
है। वह खुद ही
बना लेता है
अपनी।
क्योंकि अगर
वह शास्त्र को
मानकर चले, तो
चलना पड़ेगा, उठना पड़ेगा।
वह अपनी खुद
ही बना लेता
है; अपने
तमस के हिसाब
से बना लेता
है। तमस
निर्धारक
होता है। तमस
से भरा हुआ
चित्त अपना ही
शास्त्र बन
जाता है, अपना
ही गुरु हो
जाता है।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं
कि क्यों
समर्पण किया
जाए? क्या
हम खुद ही
नहीं पा. सकते?
अब
खुद ही पा
सकते हो, तो
मेरे पास इतना
बताने भी
किसलिए आए? खुद ही पा
सकते हो, मजे
से पा लो।
इसके लिए भी
मेरे पास आने
की क्या जरूरत
है? नहीं, वे कहते हैं,
आपसे जरा
सलाह लें।
सलाह का क्या
काम? सलाह
भी मेरी होगी,
उसको भी
छोड़ो। तुम अपना
ही कर डालो।
तमस
अपना ही कर
लेना चाहता है।
क्योंकि तब वह
अपने लिए
सुविधा बनाकर
करता है। अगर
शास्त्र में
विधि है कि
पद्यासन
लगाकर बैठो, अब
तामसी को
पद्यासन
लगाना
मुश्किल होता
है। तो वह
कहता है, क्या
हर्जा है अगर
लेटकर करें? हर्जा तो
कुछ भी नहीं
है। लेटने का
जो लाभ होगा, वही लाभ
होगा।
तामसी
अपनी
व्यवस्था बना
लेना चाहता है, ताकि
तमस न टूटे।
इसलिए
शास्त्र—विधि
से हीन, दान
से रहित।
तामसी
मांगता है, दे
नहीं सकता।
राजसी देता है,
ताकि पा सके।
तामसी तो दे
ही नहीं सकता।
इतने के लिए
भी नहीं दे
सकता कि पाने
के लिए भी दे
सके। वह बिना
दिए मांगता है।
तामसी भिखारी
है। वह सिर्फ
भिक्षापात्र
सामने करता है।
वह कुछ देना
नहीं चाहता।
दान से रहित, बिना
मंत्रों के..।
क्योंकि
मंत्र तो
जिन्होंने तय
किए हैं, वे
बड़ी मेहनत से
तय किए गए हैं।
उनमें सत्य को
पैदा करने की
क्षमता है, मंत्रों में।
उनके
अनुच्चार में,
उनकी गज में,
उनसे पैदा
होने वाले
वातावरण में
सत्व फलित
होता है।
तुमने
कभी ख्याल
किया होगा, पश्चिमी
संगीत को
सुनकर तुममें
कामवासना जोगी।
पूर्वीय
शास्त्रीय
संगीत को
सुनकर तुम
थोड़ी देर को
कामवासना को
बिलकुल भूल
जाओगे। खयाल
ही न आएगा।
पश्चिमी
संगीत को
सुनकर
तुम्हारे
भीतर कुछ करने
का भाव जगेगा।
वह राजस से
भरा है। पूरब
के संगीत को
सुनकर तुम
ध्यानस्थ हो
जाओगे। वीणा
बजती रहेगी, तुम्हारे
भीतर के शब्द,
विचार खो
जाएंगे.। तुम
पाओगे, एक
धुन बंध गई।
एक
वेश्या को
नाचते देखकर
तुम्हारे
भीतर कामवासना
जोगी। लेकिन
कृष्ण को
नाचते देखकर
तुम्हारे
भीतर, वह जो
पारलौकिक है,
उसका
आविर्भाव
होगा। शरीर एक
ही है। अंग
वही हैं। उनका
कंपन भी वही
है। लेकिन फिर
भी रूपांतर हो
जाता है। शब्द
वही हैं, ध्वनि
वही है, संगीत
के वाद्य वही
हैं, अंगुलियां
वही हैं, लेकिन
सब बदल जाता
हैं।
मंत्र
बड़ी लंबी
यात्रा में
खोजे गए हैं।
उन्हें बड़ी
मेहनत से
निर्णीत किया
गया है। अगर
तुम ओंकार की
ध्वनि ही करते
रहो बैठकर, तो
तुम पाओगे, तुम्हारे
भीतर
रूपांतरण
शुरू हो गया।
क्योंकि
ध्वनि को
मात्र ध्वनि
मत समझना; क्योंकि
ध्वनि तो
तुम्हारे
प्राणों का
सार है। तुम
जो भी ध्वनि
अपने भीतर
करोगे, उस
जैसे ही होने
लगोगे। इसलिए
मंत्र का बड़ा
मूल्य है।
मंत्र जीवन को
बदलने की एक
कीमिया है। वह
ध्वनिशास्त्र
है। उसके भीतर
बड़ा विज्ञान
छिपा है।
तुमने कभी
सोचा, एक
नग्न स्त्री
का चित्र
देखकर
तुम्हारे
भीतर सारे
शरीर में
कामवासना दौड़
जाती है। कुछ
भी नहीं है
कागज में, सिर्फ
लकीरें खिंची
हैं। हो सकता
है, सिर्फ
स्केच हो एक
नग्न स्त्री
का। लेकिन बस,
तुम्हारे
भीतर सपना जग
जाता है, वासना
उठ आती है, विचार
वासना के
दौड़ने लगते
हैं।
बुद्ध
का भी क्या है? एक
कागज पर बुद्ध
का चित्र बना
है। लकीरें
खिंची हैं।
उसको भी तुम
गौर से देखो।
कुछ और पैदा
होता है।
लकीरें वही, कागज वही, स्याही वही,
खींचने
वाला भी हो
वही। लेकिन
जरा—सा फर्क
लकीरों का, कागज का, स्याही
का, और
तुम्हारे
भीतर
बुद्धत्व की
थोड़ी—सी
प्रतिमा
निर्मित होती
है। ऐसे ही
ध्वनि के
द्वारा हमने
ऐसे मंत्रों
को चुना है, जिन मंत्रों
का उपयोग
तुम्हारे
भीतर एक वातावरण
पैदा करता है,
एक परिवेश
पैदा करता है।
और वह परिवेश
तुम्हें
बचाता है, बदलता
है, नया
कर्ता है, पुनरुज्जीवित
करता है।
तामसी
बिना मंत्रों
के,
बिना दक्षिणा
के......।
दक्षिणा
बड़ी अनूठी चीज
है;
भारत ने
खोजी। दुनिया
में कहीं
दक्षिणा जैसा
कोई शब्द नहीं
है। दक्षिणा
का अनुवाद
करना हो, तो
दुनिया की
भाषाओं में
शब्द नहीं है,
कि इसका
अनुवाद कैसे
करो? दक्षिणा
का मतलब बड़ा
अजीब है।
एक
आदमी को तुम
दान देते हो, तो
स्वभावत: तुम्हारी
आकांक्षा
होती है कि वह
तुम्हें
धन्यवाद दे।
तुमने दान
दिया और वह
आदमी चल पड़े
और धन्यवाद भी
न दे। तो तुम
कहोगे, गलत
आदमी को दे
दिया, अपात्र
को दे दिया।
इसको कम से कम
धन्यवाद तो
देना चाहिए।
दक्षिणा
का अर्थ है, जिसने
दान दिया, वह
लेने वाले को
धन्यवाद भी दे।
क्योंकि उसने
लेने की कृपा
की। न लेता तो?
दान दो, और
फिर उसने लिया,
इसके लिए जो
धन्यवाद दिया
जाता है, वह
दक्षिणा। कि
आपने दान
स्वीकार किया,
राजी हुए
मुझे दानी
होने का मौका
दिया, मुझ
ना—कुछ को
देने की
सुविधा दी, इसके लिए
दक्षिणा।
इतना और लो।
यह धन्यवाद।
तो
शूद्र तो कैसे
धन्यवाद दे
सकता है!
शूद्र पहले तो
दान ही नहीं
दे सकता। राजस
दान दे सकता
है। सात्विक
दक्षिणा भी दे
सकता है। यह
फर्क है।
शूद्र दान
नहीं दे सकता, सिर्फ
ले सकता है।
राजस व्यक्ति
लेने में जरा
कठिनाई पाता
है, वह
उसके अहंकार
के विपरीत है।
वह दे सकता है।
लेकिन वह
चाहेगा कि
जिसको दिया है,
वह धन्यवाद
दे। उतना सौदा
कायम है।
सात्विक
व्यक्ति देता
भी है और देने
के पीछे दक्षिणा
भी देता है कि
धन्यवाद, आपने
स्वीकार किया।
ऐसा दान पूर्ण
हो जाता है, जो दक्षिणा
से संयुक्त है।
अन्यथा दान
अधूरा रह जाता
है।
यह
बात भारत की
अनूठी है कि
दान दो और
दक्षिण। दो।
यह दुनिया में
कोई न समझ
पाएगा। यह तो
व्यवसाय के
बिलकुल बाहर
मामला हो गया।
यह तो बाजार
को बिलकुल तोड़
ही दिया।
बाजार के नियम
और
अर्थशास्त्र
को,
इकॉनामिक्स
को किनारे रख
दिया। दान भी
और दक्षिणा भी?
लेकिन
सात्विक पुरुष
धन्यभागी
मानता है कि
किसी ने
स्वीकार किया, कोई
राजी हुआ, किसी
ने मौका दिया,
तो दक्षिणा
देनी जरूरी है।
दान तभी पूरा
है, जब
दक्षिणा से
संयुक्त हो; अन्यथा
अधूरा दान है।
राजस का रह
जाता है, सात्विक
का नहीं।
बिना
दक्षिणा के, बिना
श्रद्धा के
किए हुए यज्ञ
को तामस कहते
हैं।
वह
करता भी है, लेकिन
उसकी श्रद्धा
बिलकुल नहीं
है। वह करता
है कि शायद फल
मिल जाए, करता
है कि शायद
कोई सुरक्षा
मिल जाए।
लेकिन
श्रद्धा नहीं
है, भीतर
अश्रद्धा है।
तामस
व्यक्ति
अश्रद्धा से
करता है। राजस
व्यक्ति
अधूरी
श्रद्धा से
करता है।
सात्विक व्यक्ति
पूर्ण
श्रद्धा से
करता है।
लेकिन
श्रद्धा
पूर्ण तभी
होती है, जब
तुम बिलकुल
मिट गए, जब
तुम हो ही
नहीं। गुरु
कहता है, इसलिए
करता है; अपना
कोई होना न
रहा। शास्त्र
कहते हैं, इसलिए
करता है ०
अपना कोई होना
न रहा। आदेश
है, इसलिए
पूरा करता है,
अपनी कोई आकांक्षा
नहीं, अपनी
कोई वासना
नहीं। ऐसे
सत्व में ही
परमात्मा का
आविर्भाव
होता है। सत्व
के मंदिर में
ही परमात्मा
का सिंहासन है।
वहीं उसकी
प्रतिमा
विराजमान है।
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