निद्रा
में भी हम
वहीं पहुंचते
हैं जहां ध्यान
में पहुंचते
हैं लेकिन
फर्क इतना ही
है कि निद्रा
में हम बेहोश
होते हैं और
ध्यान में हम जाग्रत
होते हैं। अगर
कोई निद्रा
में भी जाग्रत
होकर पहुंच
जाए तो वही हो
जाएगा जो
ध्यान में
होता है।
मेरे
प्रिय आत्मन्!
एक
मित्र ने पूछा
है कि ध्यान
या साधना से
मृत्यु पर
विजय मिल सकती
है तो क्या
वही स्थिति निद्रा
में नहीं होती
है?
और यदि होती
है तो निद्रा
से मृत्यु पर
विजय क्यों
नहीं मिल सकती?
पहली
बात तो यह समझ
लेनी जरूरी है
कि मृत्यु पर
विजय मिल सकती
है,
इसका यह
अर्थ नहीं है
कि मृत्यु है
और हम उसे जीत
लेंगे।
मृत्यु पर
विजय मिल सकती
है, इसका
इतना ही अर्थ
है कि मृत्यु
नहीं है, ऐसा
हम जान लेंगे।
मृत्यु का न
होना जान लेना
ही मृत्यु पर
विजय है।
मृत्यु कोई है
नहीं जिसे जीत
लेना है।
मृत्यु नहीं
है, ऐसा
जानते ही वह
जो मृत्यु से
हमारी हार चल
रही है, बंद
हो जाती है।
कुछ तो ऐसे
शत्रु हैं, जो हैं। और
कुछ ऐसे शत्रु
हैं, जो
नहीं हैं, सिर्फ
प्रतीत होते
हैं। मृत्यु
उन शत्रुओं
में से है, जो
नहीं है और
प्रतीत होता
है।
इसलिए
विजय का अर्थ
ऐसा नहीं ले
लेना कि कोई
मृत्यु कहीं
है और उसे हम
जीत लेंगे।
जैसे कोई आदमी
अपनी छाया से
लड़ने लगे और
पागल हो जाए।
और फिर हम उसे
कहें कि गौर
से देखो, छाया
है ही नहीं! और
वह छाया को
देखे और हंसने
लगे और जाने
कि मैंने छाया
को अब जीत
लिया। छाया को
जीतने का केवल
इतना ही अर्थ
है कि छाया
इतनी भी न थी
कि उससे लड़ा
जाए। जो लड़ेगा,
वह पागल हो
जाएगा। जो
मृत्यु से
लड़ेगा, वह
हार जाएगा। और
जो मृत्यु को
जान लेगा, वह
जीत जाएगा।
इसका
दूसरा मतलब यह
भी हुआ कि अगर
मृत्यु नहीं
है,
तो वस्तुत:
हम कभी मरते
ही नहीं हैं। चाहे
हम जानते हों
और चाहे न
जानते हों।
ऐसा नहीं है
कि दुनिया में
दो तरह के लोग
हैं, एक वे
जो मरते हैं
और एक वे जो
नहीं मरते हैं,
ऐसा नहीं है।
दुनिया में
कोई भी कभी
नहीं मरता है।
लेकिन दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं, एक
वे जो जानते
हैं कि नहीं
मरते हैं, और
एक वे जो नहीं
जानते हैं।
इतना ही फर्क
है।
निद्रा
में भी हम
वहीं पहुंचते
हैं,
जहां ध्यान
में पहुंचते
हैं। लेकिन
फर्क इतना ही
है कि निद्रा
में हम बेहोश
होते हैं और
ध्यान में हम
जाग्रत होते
हैं। अगर कोई
निद्रा में भी
जाग्रत होकर
पहुंच जाए, तो वही हो
जाएगा जो ध्यान
में होता है।
जैसे किसी
बगीचे में
किसी आदमी को
हम क्लोरोफार्म
देकर ले जाएं,
स्ट्रेचर
पर रखकर—बेहोश।
स्ट्रेचर पर
बेहोश पडा
आदमी है, उसको
हम बगीचे में
ले जाएं।
बगीचे में फूल
होंगे, कोई
बेहोश आदमी की
वजह से फूल
मिट नहीं
जाएंगे, हवाएं
होंगी, सुगंध
होगी, सूरज
निकला होगा, पक्षी गीत
गाते होंगे, लेकिन उस
आदमी को कुछ
भी पता नहीं
चलेगा। फिर हम
उस बेहोश आदमी
को बगीचे में
घुमाकर वापस
लौट आएं। वह
आदमी जब होश
में आए और हम
उससे कहें कि
देखा बगीचा? जाना बगीचा?
वह कहेगा, कैसा बगीचा?
फिर उस आदमी
को हम कहें कि
तब तुम होश में
चलो। तो वह
आदमी कहे कि
होश में बगीचे
में ही पहुंचूंगा
न! तो फिर
बेहोशी में
पहुंचने में
और होश में
पहुंचने में
फर्क क्या है?
तब हम उससे
कहेंगे कि
फर्क इतना है
कि होश में तुम
जान सकोगे कि
कहां पहुंचे,
क्या देखा—फूल,
सुगंध, पक्षियों
के गीत, सुबह
का सूरज। बेहोशी
में तुम नहीं
देख सकोगे।
पहुंचोगे तो
बेहोशी में भी
उतना ही, जितना
कि होश में
पहुंचे थे।
लेकिन बेहोशी
में पहुंचा
हुआ आदमी ऐसे
ही रहता है, जैसे न
पहुंचा हो।
बेहोशी में
पहुंचने का
मतलब न
पहुंचना ही है।
हम
नींद में भी
वहीं पहुंचते
हैं जहां
ध्यान में कोई
पहुंचता है।
नींद में भी
उसी बगीचे:
में प्रवेश कर
जाते हैं, उसी
जीवन के बगीचे
में, जहां
ध्यान में कोई
प्रवेश करता
है। लेकिन
नींद में हम
होते हैं बेहोश।
रोज पहुंचते
हैं और वापस
लौट आते हैं।
हां, इतनी
बात पक्की है
कि चाहे कोई
आदमी बेहोश
बगीचे में गया
हो, सुबह की
ताजी हवाओं ने
उसके शरीर को
तो छुआ ही
होगा, सुगंध
उसके
नासापुटों तक
तो गई ही होगी,
पक्षियों
के गीत उसके
कान तक तो
गंजे ही होंगे।
वह नहीं जान
सका, लेकिन
बगीचे से
बेहोश लौट आने
पर भी शायद
जगने पर वह
कहे कि आज बड़ा
अच्छा लग रहा
है, बड़ी
शाति मालूम हो
रही है। नींद
के बाद सुबह
आप रोज कहते
हैं कि नींद आ
गई तो बड़ा
अच्छा लग रहा
है। क्या लग
रहा है अच्छा?
नींद आने से
क्या अच्छा हो
गया? जरूर
नींद में आप
कहीं गए हैं, जहां कुछ
हुआ है, लेकिन
उसका कोई पता
नहीं। सिर्फ
छोटी—सी खबर
रह गई है पीछे
कि अच्छा लग
रहा है, सुबह
जागकर अच्छा
लग रहा है। तो
जो आदमी रात
गहरी नींद में
पहुंच जाता है,
वह सुबह
ताजा होकर लौट
आता है। वह
किसी ताजगी के
स्रोत तक गया
है, लेकिन
बेहोश। और जो
आदमी रात नहीं
सो पाता, वह
सुबह और भी
थका—मादा होता
है, जितना
सांझ को थका—मादा
नहीं था। और
अगर एक आदमी
कुछ दिन तक न
सो पाए, तो
जीवन दूभर हो
जाता है, क्योंकि
जीवन के स्रोत
से उसके संबंध
विच्छिन्न हो
जाते हैं। वह
वहां तक नहीं
पहुंच पाता है,
जहां तक
पहुंचना
अत्यंत जरूरी
है।
दुनिया
में कठिन से
कठिन अगर कोई
सजा हो सकती है, तो
वह मौत की
नहीं है। मौत
की सजा तो सरल
है, क्षण
भर में हो
जाती है। सबसे
बड़ी सजाएं जिन
लोगों ने ईजाद
की थीं, वह
सजाएं थीं
नींद न आने
देने की। किसी
व्यक्ति को
नींद न आने
देना सबसे बड़ी
सजा है। तो आज
भी चीन में या
रूस में या
हिटलर के
जर्मनी में
निरंतर
कैदियों को
जगाए रखने का
उपाय किया
जाता है।
पंद्रह दिन किसी
कैदी को न
सोने दिया जाए,
तो उसकी जो
पीड़ादायक
स्थिति हो
जाती है, उसकी
हम कल्पना भी
नहीं कर सकते।
वह करीब—करीब
विक्षिप्त हो
जाता है और वह
वे सब बातें बोलने
लगता है
जिन्हें उसने
रोकने की
कोशिश की थी, जिन्हें कि
उसके दुश्मन
जानना चाहते
हैं। वह अपने —
आप बोलने लगता
है, अनर्गल
उसके मुंह से
सब निकलने
लगता है। उसे
होश ही नहीं
रह जाता है कि
अब क्या हो
रहा है।
तो
चीन में तो
पूरे
व्यवस्थित
उपाय बनाए हुए
हैं कि छह—छह
महीने तक
कैदियों को न
सोने देंगे।
उनकी स्थिति
बिलकुल
विक्षिप्त हो
जाएगी। वे भूल
ही जाएंगे कि
वे कौन हैं, उनका
नाम क्या है, उनका धर्म
क्या है, उनकी
जाति क्या है,
वे किस गांव
के रहने वाले
हैं, किस
देश के रहने
वाले हैं, वे
सब भूल जाएंगे।
क्योंकि
निद्रा न आने
से अराजक, अस्तव्यस्त
उनका चित्त हो
जाएगा। फिर
उनको जो भी
सिखाना है वह
उनको सिखाया
जाएगा।
तो
अमेरिका के जो
सैनिक कोरिया
के युद्ध में
चीन में पकडे
गए थे, उन सबको
उन्होंने जगा—जगा
कर ऐसी हालत
कर दी कि जब वे
वापस लौटे, तो वे
अमेरिका को
गाली देते हुए
लौटे और कम्युनिज्म
की प्रशंसा
करते हुए लौटे।
क्योंकि उनको
पहले सोने
नहीं दिया गया,
इसके बाद जब
उनका चित्त अस्तव्यस्त
हो गया तब
उनको
कम्युनिज्म
का दिन —रात
पाठ पढाया गया।
पहले उनकी
आइडेंटिटी—वे
कौन हैं—इसको
अस्तव्यस्त
कर दिया, फिर
उनको बताया कि
तुम कौन हो।
उनको बताया कि
तुम तो
कम्मुनिस्ट
हो! वे बेचारे
यही सीखकर
वापस लौटे। उन
सैनिकों को
देखकर
अमेरिका के
मनोवैज्ञानिक
हैरान हुए कि
इनको क्या हो
गया है।
नींद
न आने दी जाए, तो
व्यक्ति अपने
जीवन—स्रोत से
असंबंधित हो
जाता है।
दुनिया में नास्तिकता
बढ़ती जाएगी
जिस मात्रा
में नींद कम
होती चली
जाएगी। जिन
मुल्कों में
नींद जितनी कम
हो जाएगी, उन
मुल्कों में
नास्तिकता
उतनी ही ज्यादा
हो जाएगी। जिन
मुल्कों में
नींद जितनी
गहरी होगी, आस्तिकता
उतनी ही
ज्यादा होगी।
लेकिन यह
आस्तिकता—नास्तिकता
बिलकुल
अनजानी है, परिचित नहीं
है, बेहोशी
की है।
क्योंकि जो
आदमी गहरा
सोता है, वह
दिन भर शांति
से जीता भी है।
और जो आदमी
गहरा नहीं
सोता है, वह
दिन भर बेचैन
और परेशान
जीता है।
बेचैन और
परेशान मन
ईश्वर को
स्वीकार करने
की किस हालत
में व्यवस्था
बनाए? पीड़ित,
अतृप्त, क्रोध
से भरा मन
इनकार करता है,
अस्वीकार
करता है।
पश्चिम
में जो निरंतर
बढ़ती हुई
नास्तिकता है, उसके
बुनियाद में
विज्ञान नहीं
है, उसके
बुनियाद में
नींद का
अस्तव्यस्त
हो जाना है।
आज न्यूयार्क
में तीस
प्रतिशत लोग
हैं कम से कम, जो बिना दवा
लिये नहीं सो
सकते हैं। और
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
सौ साल अगर
ऐसी स्थिति
रही, तो
न्यूयार्क
जैसे नगर में
कोई भी
व्यक्ति बिना
दवा लिये नहीं
सो सकेगा।
नींद
एकदम खो गई है।
और यह हो सकता
है कि जो आदमी, जिसकी
नींद खो जाती
है, वह यह
विश्वास न कर
सके। अगर वह
आपसे पूछे कि
आप कैसे सोते
हैं, आपके
सोने की तरकीब
क्या है? और
आप कहें कि
कोई तरकीब
नहीं है। मैं
तो बिस्तर पर
सिर रखता हूं
और सो जाता
हूं? कोई
तरकीब है ही
नहीं। सोने की
तरकीब है आपके
पास! बस, सिर
रखते हैं और
सो जाते हैं।
तो वह कहेगा, क्यों झूठ
बोलते हैं, असंभव है यह
बात। जरूर कोई
तरकीब होगी, जो मुझे पता
नहीं।
क्योंकि सिर
तो मैं भी
रखता हूं
तकिये पर, लेकिन
सो नहीं पाता।
तो झूठ कहते
हैं आप।
और
एक वक्त आ
सकता है आज से
हजार दो हजार
वर्ष बाद—भगवान
न करे ऐसा
वक्त आए, लेकिन
लगता है ऐसा
वक्त आ जाएगा—जब
कि स्वाभाविक
नींद सभी की
खो गई होगी।
और तब लोग यह
विश्वास न कर
सकेंगे कि आज
से हजार दो
हजार साल पहले
लोग रात को बस
बिस्तर पर सिर
रखते थे और सो
जाते थे। और
वे कहेंगे, ये
कपोलकल्पित, पुराण की
बातें मालूम
होती हैं। ये
बातें सच नहीं
हैं। यह हो ही
नहीं सकता।
क्योंकि जो
हमें नहीं
होता है, वह
किसी को कैसे
हो सकता है? यही कठिनाई
है।
मैं
आपको यह इसलिए
कह रहा हूं कि
आज से तीन या चार
हजार वर्ष
पहले लोग इसी
तरह आंख बंद
करते थे और
ध्यान में चले
जाते थे, जितनी
सरलता से आज
आप सो जाते
हैं। और दो
हजार वर्ष बाद
या आज भी
न्यूयार्क
में सोना
मुश्किल है।
बंबई में भी
मुश्किल होता
चला जा रहा है।
आज नहीं कल
द्वारका में
भी मुश्किल
होगा। यह वक्त
के फासले की
बात है और कोई
कठिनाई नहीं
है इसमें। तो
आज हम विश्वास
नहीं कर सकते
हैं कि एक
जमाना ऐसा भी
रहा होगा कि
आदमी ने सोचा
कि ध्यान में
जाऊं, बैठा,
आंख बंद की
और ध्यान में
चला गया। हम
कहेंगे, यह
कैसे हो सकता
है! क्योंकि
हम भी तो आंख
बंद करके
बैठते हैं, कहीं नहीं
जाते हैं।
विचार तो
चक्कर ही लगाए
रहते हैं। हम
तो जा ही नहीं
पाते।
ध्यान
भी प्रकृति के
निकट आदमी के
लिए इतना ही
सरल था, जितनी
नींद प्रकृति
के निकट जो
आदमी है, उसको
सरल है। पहले
ध्यान गया, अब नींद
जाएगी।
क्योंकि पहले
वे चीजें जाती
हैं जो चेतन
हैं, फिर
वे चीजें जाती
हैं जो अचेतन
हैं। और ध्यान
चला गया तो
दुनिया करीब—करीब
अधार्मिक हो
गई है और नींद
चली जाएगी तो
दुनिया पूरी
तरह अधार्मिक
हो जाएगी।
नींद से रिक्त
पृथ्वी पर
धर्म की कोई
संभावना नहीं
रह जाने वाली
है।
यह
आप कभी सोच ही
नहीं सकते कि
नींद से इतना
संबंध हो सकता
है। नींद से
इतने गहरे
संबंध हैं, जिनका
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
व्यक्ति कैसा
सोता है, इस
पर पूरा
निर्भर है कि
वह कैसा जीएगा।
अगर वह नहीं
सो पाता है तो
उसका सारा
जीवन अस्तव्यस्त
हो जाएगा, सारे
जीवन के संबंध
उलझ जाएंगे, सब विषाक्त
हो जाएगा, सब
क्रोध से भर
जाएगा। अगर
व्यक्ति गहरा
सोता है, तो
उसके जीवन में
एक ताजगी, एक
शाति, एक
आनंद का भाव
बहता रहेगा।
उसके संबंध
में, उसके
प्रेम में, उसकी सारी
चीजों में एक
शाति बनी
रहेगी। लेकिन
अगर नींद खो
गई, तो
उसका परिवार,
उसकी पत्नी,
उसका पति, उसका बेटा, उसकी मां, उसका पिता, उसका शिक्षक,
विद्यार्थी,
सब
अस्तव्यस्त
हो जाएंगे।
क्योंकि नींद
हमें अचेतन
में वहां ले
जाती है, जहां
हम परमात्मा
के भीतर डूब
जाते हैं।
ज्यादा देर को
नहीं डूबते।
स्वस्थ से
स्वस्थ आदमी
भी सिर्फ गहरे
में दस मिनट
के लिए
पहुंचता है, पूरी रात की
आठ घंटे की
नींद में। दस
मिनट के लिए
ऐसा क्षण आता
है, जब आप
पूरी तरह डूब
जाते हैं, जब
सपना भी नहीं
होता है।
जब
तक सपना चल
रहा है, तब तक
नींद पूरी
नहीं है। तब
तक जागने और
नींद के बीच
में आप भटक
रहे हैं। सपना
जो है, वह
अर्द्ध
निद्रा, अर्द्ध
जाग्रत
स्थिति है।
सपने का मतलब
है कि आंख तो
बंद है, लेकिन
आप सो नहीं गए
हैं। बाहर की
दुनिया के
प्रभाव अभी
काम कर रहे
हैं। दिन में
जिनसे मिले थे,
अभी रात में
भी सपने में
उनसे मिलना
जारी है। सपना
बीच की जगह है।
और हममें से
बहुत लोग नींद
से तो टूट गए
हैं, सपने
में ही हैं, नींद तक
पहुंचते ही
नहीं। यह
दूसरी बात है
कि सुबह आपको
याद न रह जाता
हो कि रात भर
सपना देखा।
लेकिन
अभी अमेरिका
में उन्होंने
कोई दस बड़ी प्रयोगशालाएं
स्थापित की
हैं,
जिनमें कोई
हजार आदमी आज
दस वर्षों से
निरंतर प्रयोगशालाओं
में सो रहे
हैं जाकर
रातभर। उनका
अध्ययन किया
जा रहा है कि
नींद क्या है?
अमेरिका की
उत्सुकता इस
समय नींद में
इतनी है और
इसीलिए ध्यान
में भी है।
इसलिए कोई
महर्षि योगी
या कोई भी
जाते हैं, जिनका
ध्यान से कोई
भी संबंध नहीं
है, वे लोग
भी अमेरिका
में जाकर कुछ
भी ट्रिक्स की
बातें कर दें
कि राम—राम
राम—राम जपो, तो लाखों
लोग सुनने को
उत्सुक हैं।
वह
नींद टूट गई
है,
इसलिए वे
ध्यान में भी
उत्सुक हैं।
वे सोचते हैं,
शायद इससे
भी नींद आ जाए,
शाति आ जाए।
इसलिए ध्यान
उनको एक तरह
का
टैंरक्येलाइजर
से ज्यादा
नहीं है। जब
विवेकानंद ने
पहली दफा
अमेरिका में
ध्यान की बात
की, तो एक
डक्टर ने आकर
विवेकानंद को
कहा कि मुझे तो
आपके ध्यान से
बड़ा आनंद आया।
यह तो बिलकुल
नान मेडिसनल
ट्रैंक्येलाइजर
है —बिना दवा
की नींद की
दवा—नान
मेडिसनल
टैंरक्येलाइजर।
दवा भी नहीं
है और नींद भी
आ जाती है। यह
तो बहुत ही
अच्छा है।
अमेरिका
में जो आपके
योगियों का
प्रभाव पड़ रहा
है,
उसका कारण
योगी नहीं हैं,
उसका कारण
वहा नींद का खो
जाना है। और
कोई कारण नहीं
है। वहा नींद
एकदम खराब हो
गई है। और
नींद खराब हो
गई, तो
पूरा जीवन
बोझिल और उदास
और तनाव से भर
गया है। इसलिए
टैंरक्येलाइजर
का बढ़ता हुआ
रूप निरंतर
सामने आ रहा
है—किसी तरह
नींद कैसे लाई
जा सके।
करोड़ों— अरबों
रुपए
ट्रैंक्येलाइजर
पर अमेरिका
खर्च कर रहा
है प्रति वर्ष।
दस
बड़ी
लेबोरेट्रीज
बना कर वहा
हजारों लोगों को
निरंतर
सुलाया जा रहा
है। सोने के
पैसे दिए जा
रहे हैं। सोने
का रात भर का
उनको पैसा
होता है, क्योंकि
रात भर उनकी
नींद को कई
तरह की तकलीफें
दी जाती हैं।
सब तरफ
इलेक्ट्रोड
लगे रहते हैं
बिजली के, पूरे
हजारों वायर
लगे रहते हैं
शरीर में। सब
तरफ से जांच
चलती रहती है
कि उनके भीतर
क्या हो रहा
है।
एक
सबसे अदभुत
घटना जो उन
प्रयोगों में
सामने आई है
वह यह है कि
करीब—करीब
आदमी रात भर
सपने देखता है।
वह आदमी भी, जो
सुबह कहता है
कि मैंने कोई
सपना नहीं
देखा। फर्क
स्मृति का है।
जो आदमी कहता
है सुबह कि
मैंने सपना
देखा, उसकी
स्मृति थोड़ी
ठीक है। और जो
आदमी कहता है
कि मैंने रात
सपना नहीं देखा,
उसकी
स्मृति थोड़ी
कमजोर है। और
कोई फर्क नहीं
है। सारे लोग
रात भर सपना
देख रहे हैं।
हां, यह
अनुभव हुआ है
कि दस मिनट के
लिए पूर्ण
स्वस्थ आदमी
सपने से मुक्त
हो जाता है।
सपने
अब जांचे जा
सकते हैं।
क्योंकि
हमारे
मस्तिष्क की
जो नसें हैं, वे
चलती रहती हैं।
जब सपना बंद
होता है तो वे
बंद हो जाती
हैं। उनके बंद
हो जाने से
मशीन खबर दे
देती है कि गैप
आ गया। अब यह
आदमी सपना भी
नहीं देख रहा
है। यह भीतर
विचार भी नहीं
कर रहा है, सपना
भी नहीं देख
रहा है। यह
आदमी कहीं खो
गया है।
यह
बड़े मजे की
बात है कि उन
यंत्रों से जो
उन्होंने
जांच—पड़ताल की
है,
उस जांच —पड़ताल
से तब तक तो
पता चलता है
कि आदमी क्या
कर रहा है जब
तक सब सपने
चलते हैं।
जैसे ही सपने
गए कि मशीन
गैप बता देती
है कि अब गैप हो
गया। आदमी कहौ
गया, पता
नहीं। आप समझ
रहे हैं न!
गहरी नींद का
मतलब है कि
आदमी कहीं ऐसी
जगह चला जाता
है जो मशीन
नहीं पकड़ पाती।
उसी गैप में
आदमी
परमात्मा में
प्रवेश कर जाता
है। वह जो
अंतराल है, बीच की जो
खाली जगह है, जो मशीन
नहीं पकड़ती है।
मशीन इतनी खबर
देती है कि
यहां तक पकड़ा,
फिर इसके
बाद गैप, फिर
आदमी कहीं खो
गया। फिर दस
मिनट के बाद
पकड़ शुरू होगी।
दस मिनट आदमी
कहा था, यह
बताना
मुश्किल है।
इसलिए आज
अमेरिका के
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
नींद सबसे बड़ा
रहस्य है। असल
में परमात्मा
के बाद नींद
ही रहस्य है
और कोई रहस्य
नहीं है, सबसे
ज्यादा
मिस्टीरियस।
आप
रोज सोते हैं, लेकिन
आपको कुछ भी
पता नहीं है
कि नींद क्या
है। जिंदगी भर
से सो रहे हैं,
लेकिन इससे
कुछ फर्क नहीं
पडता। यह मत
सोचना कि हम
जिंदगी भर से
सो रहे हैं तो
हमको पता है
कि नींद क्या
है। नींद का
आपको बिलकुल
पता नहीं है, क्योंकि
नींद तब होती
है जब आप नहीं
होते हैं।
ध्यान रखना, जब तक नींद
नहीं होती, तब तक आप
होते हैं।
इसलिए आपको
वहीं तक पता
है जहां तक
मशीन को पता
है। जहां तक
मशीन बताती है
कि ही, अभी
सपना चल रहा
है, वहां
तक आपको भी
पता हो सकता
है। क्योंकि
उस गैप में, उस रिक्त
स्थान में
जहां मशीन चुप
हो जाती है और
कह देती है, बस, हमारे
वश के बाहर हो
गयी है यह बात,
यह आदमी
कहीं चला गया
है, जहां
हम नहीं
पहुंचते, वहां
आप भी नहीं
पहुंचते।
क्योंकि आप भी
एक मशीन से
ज्यादा नहीं हैं।
उस गैप में आप
भी नहीं
पहुंचते।
इसलिए नींद एक
रहस्य है, जहां
हमारी कोई
पहुंच नहीं है।
इसलिए पहुंच
नहीं है कि हम
ही मिट जाते
हैं, तभी
नींद आती है।
और इसलिए
जितना अहंकार
बढ़ता जाता है,
उतनी नींद
कम होती चली
जाती है।
अहंकारी आदमी
की नींद खतम
हो जाती है।
क्योंकि
अहंकार कहता
है कि 'मैं',
चौबीस घंटे
कहता है, 'मैं'। उठता है तो
कहता है, 'मैं',
चलता है तो
कहता है, 'मैं
', सड़क पर
निकलता है तो
कहता है, 'मैं'। वह चौबीस
घंटे 'मैं'
इतना
ज्यादा कहता
है कि जब नींद
के वक्त 'मैं
' छोडने का
समय आता है, तब वह 'मैं'
को नहीं छोड़
पाता है और
नींद मुश्किल
हो जाती है।
नींद असंभव है।
'मैं ' के
रहते नींद
असंभव है। और
मैंने कल आपसे
कहा कि 'मैं'
के रहते
परमात्मा में
प्रवेश असंभव
है।
नींद
और परमात्मा
में प्रवेश
बिलकुल एक—सी
बात है, फर्क
इतना ही है कि
नींद बेहोशी
में प्रवेश है
और ध्यान होश
में प्रवेश है।
लेकिन यह फर्क
बहुत बड़ा है।
हजारों
जन्मों तक
नींद में आप
परमात्मा में
प्रवेश करते
रहेंगे, लेकिन
इससे आपको
परमात्मा का
कोई पता नहीं
चलेगा। लेकिन
एक क्षण भी
अगर आप ध्यान
में प्रवेश कर
गए परमात्मा
में, उस
जगह पहुंच गए जहां
नींद में
हजारों बार
पहुंचे हैं, लाखों बार
पहुंचे हैं, तो आपकी
जिंदगी पूरी
बदल जाएगी। और
मजे की बात यह
है कि जो
व्यक्ति एक
बार ध्यान में
प्रवेश कर
जाता है—उस
शून्य में, जहां नींद
ले जाती है —उसके
बाद वह नींद
में भी कभी
बेहोश नहीं
रहता।
वह
जो कृष्ण ने
गीता में कहा
है कि जब सब सोते
हैं तब भी
योगी जागता है, उसका
यह अर्थ है।
जब सब सो जाते
हैं तब भी वह
जागता है, इसका
मतलब यह नहीं
कि योगी नहीं
सोता है। योगी
से बढ़िया कोई
भी नहीं सोता
है। योगी जैसा
सोता है वैसा
कोई सोता ही
नहीं। लेकिन
फिर भी उसकी
निद्रा की उस
गहराई में भी उसका
एक तत्व, जो
ध्यान में
प्रवेश हो गया
है उसका, वह
जागा रहता है।
और वह जागता
हुआ रोज नींद
में प्रवेश
करता है। तब
उसके लिए
ध्यान और नींद
एक ही बात हो
जाती है, कोई
फर्क ही नहीं
रह जाता। तब
वह नींद में
भी होश से ही
प्रवेश करता
है। एक बार
ध्यान से कोई
भीतर चला जाए,
फिर वह कभी
भी नींद में
बेहोश नहीं है।
बुद्ध
के पास आनंद
वर्षों तक रहा।
वर्षों तक
बुद्ध के पास
सोया। एक दिन
बुद्ध से सुबह—सुबह
उसने पूछा कि
मैं बड़ा हैरान
हूं। आज
वर्षों हो गए
हैं,
मैं आपको
देखता हूं कि
आप एक ही करवट
सोते हैं रात—
भर। जैसे सोते
हैं, रात—
भर वैसे ही
सोए रहते हैं।
पैर जहां होते
हैं सांझ, वह
सुबह वहीं
होते हैं।
मैंने कई बार
रात में जागकर
भी देखा। कुछ
रातें मैंने
पूरे बैठकर भी
देखा। आपका
हाथ भी नहीं
हिलता। जहां
हाथ रख लेते
हैं, बस वह
वहीं रहता है,
जहां पैर रख
लेते हैं, वहीं
रहता है। करवट
भी नहीं लेते।
क्या रात भर
भी हिसाब रखते
हैं सोने का
भी? बुद्ध
ने कहा, हिसाब
रखने की जरूरत
नहीं है। होश
में ही सोता
हूं। तो करवट
बदलने की कोई
जरूरत नहीं
मालूम होती।
जरूरत मालूम
हो, तो बदल
सकता हूं।
बुद्ध ने कहा,
तुम जो रात
भर करवट बदलते
हो, वह कोई
नींद की जरूरत
नहीं है, वह
तुम्हारे
बेचैन चित्त
की जरूरत है।
वह बेचैन
चित्त एक जगह
रात में भी
नहीं टिक सकता,
दिन की तो
बात ही अलग है।
रात सोते में
भी शरीर पूरे
वक्त बेचैनी
जाहिर करता
रहता है।
एक
आदमी को अगर
रात भर सोते
हुए देखें —और
जो प्रयोग कर
रहे हैं वे
हैरान हुए—रात
भर बेचैनी
जाहिर है, जारी
है। जितना दिन
में हाथ चलता
है, उतना
रात में भी चल
रहा है। रात
में भी जैसे
कोई दिन में
दौड़ता हो तो
सांस भर जाए, ऐसा सपने
में दौड़ना चल
रहा है। सांस
भर जाती है, थक जाता है
आदमी। दिन में
भी लड़ रहा है, रात में भी
लड़ रहा है।
दिन में भी
क्रोध कर रहा
है, रात
में भी क्रोध
कर रहा है।
दिन में भी
वासना से भरा
है, रात भी
वासना से भरा
है। दिन और
रात में कोई
बुनियादी
फर्क नहीं है।
सिर्फ इतना ही
फर्क है कि थक
कर पड़ा हुआ है,
बेहोश हो
गया है, बाकी
सब चल रहा है।
बुद्ध ने कहा
कि मुझे बदलना
हो तो बदल लूं
र लेकिन कोई
जरूरत नहीं है।
पर
हमें खयाल
नहीं है।
देखें, एक
आदमी कुर्सी
पर बैठा है तो
पूरे वक्त
टांगें हिला
रहा है। कोई
उससे पूछे कि
ये टांगें
किसलिए हिल
रही हैं? चलते
वक्त हिले, समझ में आता
है। ये कुर्सी
पर बैठकर टांगें
क्यों हिल रही
हैं? कहते
से ही बंद हो जाएगा
एकदम। एक
सेकेंड नहीं
हिलायेगा फिर,
लेकिन बता
नहीं सकेगा कि
क्यों हिल रही
हैं। भीतर
बेचैनी कंपा
रही है, वह
सब तरफ से
सारे शरीर को
कंपा रही है।
भीतर बेचैन
चित्त है। वह
एक क्षण एक
स्थिति में
नहीं रह सकता।
पैर चलाएगा, सिर हिलाएगा।
बैठे —बैठे भी
करवट बदलना चल
रहा है।
इसीलिए
तो दस मिनट
ध्यान में
बैठना
मुश्किल हो
जाता है, क्योंकि
हजार शरीर के
हिस्से कहने
लगते हैं, यह
करो, पैर
को यहां करो, सिर को यहां
करो, इसको
ऐसा करो, इसको
वैसा करो। वह
तो पूरे वक्त
करवाते रहते
हैं, हमको
खयाल नहीं है।
लेकिन ध्यान
में हम खयाल से
बैठते हैं तो
मालूम होता है
कि यह शरीर
कैसा है कि एक
सेकेंड एक जगह
नहीं रहना
चाहता पूरे
वक्त। वह मन
की ही उलझन, तनाव और मन
की ही
उत्तेजना, मन
की ही तरंगें
शरीर तक
प्रवाहित
होती हैं।
नींद
में कोई दस
मिनट के लिए
सब खो जाता है।
वे दस मिनट
पूर्ण स्वस्थ
और शांत आदमी
को उपलब्ध
होते हैं, सभी
को नहीं। कोई
पांच मिनट, कोई चार
मिनट, कोई
तीन मिनट, कोई
दो मिनट, कोई
एक मिनट।
अधिकतम लोगों
को दो मिनट या
एक मिनट ही
उपलब्ध होता
है। उतने ही
एक मिनट पर हम
चौबीस घंटे
चलाते हैं। उस
एक मिनट में
जो रस मिल
जाता है जड़ों
में उतर कर, तो उससे ही
हम चौबीस घंटे
के जीवन को
चला लेते हैं।
उतनी देर में
दीया जो तेल
पा जाता है, उससे ही
चौबीस घंटे जल
लेता है।
इसलिए तो दीया
बहुत मंद—मंद
जलता है। उतना
तेल ही नहीं
इकट्ठा हो
पाता है जीवन
का कि दीया
तेजी से जल
सके, कि
दीया मशाल बन
सके। वह नहीं
हो पाता।
ध्यान
धीरे — धीरे, धीरे
— धीरे जीवन के
स्रोत पर खड़ा
कर देता है।
फिर ऐसा नहीं
है कि हम
उसमें से
चुल्लू भर— भर
कर लाते हैं।
फिर हम स्रोत
में ही खड़े हो
जाते हैं। फिर
ऐसा नहीं है
कि हम तेल
दीये में भरते
हैं, फिर
तो तेल का
सागर ही
उपलब्ध हो
जाता है। फिर
हम उसमें ही
जीने लगते है।
और वैसा जीना
नींद को विलीन
कर देता है।
इस अर्थ में
नहीं कि आदमी
नहीं सोता है,
इस अर्थ में
कि सोते हुए
भी भीतर कोई
जागा ही रहता
है और तब सपने
बिलकुल खो
जाते हैं।
योगस्थ
व्यक्ति
जागता है, सोता
है, लेकिन
सपने नहीं
देखता है।
सपने बिलकुल
खो जाते हैं।
और जब सपने खो
जाते हैं तो
विचार खो जाते
हैं। जागरण
में जिसे हम
विचार कहते
हैं, उसे
ही निद्रा में
स्वप्न कहते
हैं। स्वप्न
और विचार में
फर्क नहीं है,
फर्क थोड़ा—सा
ही है। विचार
थोड़े सभ्य हो
गए सपने हैं
और सपने थोड़े आदिम,
एबओरीजनल
विचार हैं।
असल में बच्चे
या पुरानी
आदिम जातियां
चित्रों में
ही सोच सकती
हैं, शब्दों
में नहीं।
मनुष्य
का पहला जो
सोचना है, वह
चित्रों में
ही होता है।
जैसे एक बच्चे
को भूख लगी है,
तो बच्चा
शब्दों में
नहीं सोचता कि
मुझे भूख लगी
है। बच्चा मां
के स्तन को
देख सकता है।
स्तन को पीते
हुए चित्र देख
सकता है। स्तन
मिलना चाहिए,
ऐसी
आकांक्षा से
भर सकता है।
शब्द नहीं बना
सकता। शब्द तो
बहुत बाद में
बनने शुरू
होते हैं, पहले
तो चित्र ही
होते हैं। और
अगर हमें भाषा
न आती हो, तो
हम भी चित्रों
का उपयोग करते
हैं। आप कहीं
परदेश चले
जाएं, जहां
की भाषा आपको
नहीं आती हो
और पानी पीना
हो, तो आप
दोनों हाथ
मुंह के पास
करके कहेंगे
कि मुझे पानी
पीना है।
क्योंकि जब
शब्द नहीं हैं,
तब चित्र की
जरूरत पड़ जाती
है। और मजे की
बात यह है कि
शब्दों की भाषाएं
अलग हैं, चित्रों
की भाषाएं अलग
नहीं हैं।
दुनिया के
किसी कोने में
चले जाएं और
हाथ चुल्लू
बनाकर मुंह के
पास करके कहें,
कोई भी समझ
लेगा कि पानी
पीना है।
क्योंकि
चित्र की भाषा
प्रत्येक
आदमी की एक है।
शब्द
हमने अलग—अलग
ईजाद किए हैं, लेकिन
चित्र हमारी
ईजाद नहीं हैं।
चित्र तो
मनुष्य के मन
की भाषा है।
इसलिए दुनिया
की किसी भी
चित्रावली को,
किसी भी
पेंटिंग को
कहीं भी समझा
जा सकता है।
चाहे कोई
लियोनार्डो
पेंटिंग बनाए
और चाहे खजुराहो
के मूर्तिकार
मूर्तियां
बनाएं, इनको
समझने के लिए
किसी भाषा का
फर्क करने की जरूरत
नहीं।
खजुराहो की
मूर्तियां को
एक फ्रेंच, एक जर्मन, एक चीनी आकर
समझ लेगा उतना
ही जितना आप
समझते हैं। और
आप अगर लूब्र
में, फ्रांस
में जाकर उनके
म्यूजियम में
खड़े हो जाएं
चित्रों के, तो आप भी
चित्रों को
समझ लेंगे।
उनके शीर्षक
नहीं समझेंगे,
शीर्षक तो
फ्रेंच भाषा
में हैं, लेकिन
आप चित्र समझ
लेंगे कि
चित्र क्या है।
चित्र की भाषा
सबकी है।
अभी
शब्द की भाषा
हमारे दिन में
तो काम आ जाती है, लेकिन
रात में काम
नहीं आती। रात
में हम फिर
जंगली हो जाते
हैं। नींद में
हम फिर खो
जाते हैं।
हमारी सब
शिक्षा, डिग्री,
एजुकेशन, युनिवर्सिटी
सब खो जाती है।
हम वहीं खड़े
हो जाते हैं जहां
मौलिक आदमी खड़ा
हुआ है। इसलिए
रात में चित्र
उठते हैं। दिन
में शब्द, रात
में चित्र।
और
इसलिए दिन में
अगर हमें किसी
को प्रेम करना
है,
तो हम प्रेम
करने की भाषा
में सोच सकते
हैं— भाषा में।
लेकिन रात में
अगर प्रेम
करना है, तो
सिवाय
चित्रों के और
कोई उपाय नहीं
रह जाता, चित्र
ही रह जाते
हैं। इसलिए
सपने बड़े
जीवंत मालूम
पड़ते हैं, उतना
विचार जीवंत
नहीं मालूम
होता है। सपने
बहुत जीवंत
मालूम होते
हैं। पूरा
चित्र खड़ा हो
जाता है। और
इसीलिए अगर आप
एक उपन्यास
पढ़ें, तो
आपको उतना
आनंद नहीं आता।
उसी उपन्यास
की फिल्म बन
जाए, तो
बहुत आनंद आता
है देखने में।
उसका कुल कारण
इतना है कि
फिल्म जो है
वह चित्रों की
भाषा में है
और उपन्यास जो
है वह शब्दों
की भाषा में
है। इसलिए अगर
मुझे आप सामने
देखकर सुन रहे
हैं तो आपको
सुनने में
ज्यादा आनंद
आता है। मेरी
यही बात आप
टेप से
सुनेंगे, तो
उतना आनंद
नहीं आएगा।
क्योंकि यहां
चित्र भी
मौजूद है, वहां
सिर्फ शब्द
मौजूद हैं।
चित्र हमारे
निकट की भाषा
है—प्राकृतिक।
तो रात में
शब्द चित्र बन
जाते हैं, बस
इतना ही फर्क
है।
जिस
दिन स्वप्न
खोते हैं, उसी
दिन विचार खो
जाते हैं; और
जिस दिन विचार
खोते हैं, उसी
दिन स्वप्न खो
जाते हैं। दिन
विचार से खाली
हो जाए, तो
रात सपनों से
खाली हो जाएगी।
और ध्यान रहे,
सपने भी
सोने नहीं
देते और विचार
जगने नहीं देते।
इन दोनों
बातों को समझ
लेना—सपने
सोने नहीं
देते और विचार
जगने नहीं
देते। अगर
सपने खो जाएं
तो नींद पूरी
हो जाए और अगर
विचार खो जाएं
तो जागरण पूरा
हो जाए। और
अगर जागरण
पूरा हो जाए
और निद्रा
पूरी हो जाए, तो निद्रा
और जागरण में
कोई फर्क नहीं
रह जाता है, सिर्फ आंख
खुले होने और
बंद होने का
फर्क रह जाता
है। शरीर के
विश्राम करने
और श्रम करने
का फर्क रह
जाता है। और
कोई फर्क नहीं
रह जाता। जो
व्यक्ति पूरा
जाग गया है, वह पूरा
सोता है, लेकिन
जागने में और
नींद में उसकी
चेतना में कोई
फर्क नहीं
पड़ता। चेतना
एक ही होती है,
सिर्फ शरीर
में फर्क पड़ता
है। जागने में
शरीर श्रम में
होता है और
सोने में विश्राम
में होता है।
इतना ही फर्क
होता है।
तो
जिन मित्र ने
पूछा है कि
निद्रा में
क्यों
परमात्मा
उपलब्ध नहीं
हो जाता, उनसे
मेरा यह कहना
है कि हो सकता
है, अगर
निद्रा में भी
जाग सकें। और
ध्यान का इतना
ही मतलब है।
इसलिए मेरे
ध्यान की जो
प्रक्रिया है,
वह असल में
सोने की ही
प्रक्रिया है,
जागते हुए
सोने की।
जागते हुए
नींद में जाने
की। इसलिए
शरीर को शिथिल
करने को कहता हूं, श्वास को
छोड़ देने को
कहता हूँ, मन
को शांत करने
को कहता हूं।
यह नींद की
तैयारी है। और
इसलिए अक्सर
ऐसा हो जाता
है कि ध्यान
में न जाकर
कुछ मित्र
नींद में चले
जाते हैं।
अक्सर ऐसा हो
जाता है, क्योंकि
यह तैयारी नींद
की ही है। इस
तैयारी को
करते —करते वे
कब सो जाते
हैं, उन्हें
पता नहीं चलता
है। इसलिए
तीसरी बात
निरंतर कहता
हूं कि भीतर
जागे रहें, भीतर होश से
भरे रहें।
शरीर बिलकुल
शिथिल छूट जाए
और श्वास
बिलकुल शिथिल
हो जाए, जितनी
नींद में होती
है उससे भी
ज्यादा हो जाए।
लेकिन भीतर
जागे रहें
भीतर होश दीये
की तरह जलता
रहे, ताकि
नींद न आ जाए।
ध्यान
और नींद की
प्रारंभिक
शर्तें एक
जैसी हैं।
अंतिम शर्त
में फर्क है।
पहली शर्त यही
है कि शरीर
शिथिल हो। अगर
डाक्टर के पास
जायेंगे और
कहेंगे कि
नींद नहीं आती, तो
वह आपको
रिलैक्सेशन सिखाएगा,
वह कहेगा कि
शरीर को शिथिल
करें। जो मैं
आपसे कह रहा हूं, वही आपसे
कहेगा कि शरीर
को शिथिल छोड़े,
रिलैक्स
करें, शरीर
पर तनाव न
रखें, सारे
शरीर को ऐसा
छोड़ दें जैसे
रूई का फाहा
बिलकुल ढीला
छूटा है, ऐसा
छोड़ दें। वह
आपको कहेगा कि
देखें एक
बिल्ली को
सोते हुए।
कभी
बिल्ली को
सोते देखा है? कुत्ते
को सोते देखा
है? वे
कैसे सोते हैं?
जैसे हैं ही
नहीं। एकदम......
एक छोटे बच्चे
को सोते देखा
है? कैसा
सोता है? जैसे
सब मिट गया है,
कहीं कोई
तनाव नहीं है।
सब हाथ—पैर
ऐसे ढीले पड़
गए हैं कि
जिसका हिसाब
नहीं। एक आदमी
को सोते देखें,
एक जवान
आदमी को, एक
बूढ़े आदमी को
सोते देखें, सब खिंचा
हुआ है।
तो
डाक्टर कहेगा, चिकित्सक
कहेगा कि
बिलकुल ढीला
छोड़ दें। नींद
की भी शर्त
वही है कि
श्वास शिथिल
और गहरी हो
जाए, शांत
हो जाए।
क्योंकि आपने
ध्यान किया
होगा कि अगर
दौड़ना पड़े, तो श्वास
तेज हो जाएगी।
दौड़ना पडे तो
श्वास तेज हो
जाएगी। शरीर
को श्रम करना
पड़ता है तो
श्वास को तेज
होना पड़ेगा, खून की गति
बढ़ेगी। और अगर
सोना है, तो
खून की गति
शिथिल हो जानी
चाहिए, ठीक
दौड़ने से उलटी
हालत हो जानी
चाहिए, तो
श्वास शिथिल
हो जाएगी।
इसलिए दूसरी
शर्त है श्वास
शिथिल कर लें।
अगर
विचार तेजी से
चल रहे हैं, तो
मस्तिष्क में
खून को तेजी
से दौड़ना पड़ता
है। और खून
तेजी से सिर
में दौड़े, तो
नींद असंभव है।
नींद की शर्त
है कि खून की
दौड़ सिर में
कम हो जाए।
इसलिए आप
तकिया रखते
हैं। आपने कभी
खयाल नहीं
किया होगा कि
तकिया क्यों
रखते हैं।
तकिया खून की
गति को कम
करने के लिए
रखते हैं। अगर
तकिया न रखें
तो सिर शरीर
के सतह पर
होता है। सतह
पर होने से
खून की गति
पूरी होती है।
सिर से पैर तक
बराबर होती है।
सिर को ऊंचा
कर लेते हैं, तो सिर पर
खून को चढ़ने
में मुश्किल
हो जाती है।
तो सिर में कम
चढ़ता है, पूरे
शरीर में गति
करता है। सिर
में गति कम हो
जाती है।
इसलिए जिनको
जितनी
मुश्किल से
नींद आती है, उनको उतना
तकिया बढ़ाते
जाना पड़ेगा, एक, दो, तीन. बढ़ते
जाएंगे।
क्योंकि सिर
ऊंचा होना
चाहिए। और सिर
ऊंचे होने का
कुल इतना मतलब
है कि वहां खून
कम जाए। वहां
खून कम जाएगा
तो नींद जल्दी
आ जाएगी, क्योंकि
वहां गति न
होगी तो
मस्तिष्क
शिथिल हो
जाएगा।
अगर
विचार तेजी से
चलेंगे तो भी
खून की गति होती
रहेगी, क्योंकि
विचार को चलने
के लिए भी खून
का ही वाहन
पकड़ना पड़ता है।
मस्तिष्क की
नसें तेजी से
चलती रहेंगी।
कभी आपने देखा
होगा, क्रोध
में आ जाते
हैं तो सब
नसें फूल
जाएंगी। वे
फूल गई हैं
इसलिए कि खून
को इतनी तेजी
से दौड़ना पड़
रहा है कि
नसों की इतनी
सामर्थ्य
नहीं है इतनी
तेजी से
दौड़ाने की, इसलिए नसें
फूल गई हैं।
इसलिए क्रोधी
आदमी की नसें
फूली हुई ही
हो जाएंगी। शांत
हो जाएगा, नसें
कम हो जाएंगी,
क्योंकि
खून की गति कम
हो जाएगी।
आपने
देखा होगा, क्रोध
में चेहरा लाल
हो जाएगा, आखें
लाल हो जाएंगी।
उसका और कोई
कारण नहीं है।
खून की गति
तेज हो गई है।
विचार इतनी
तेजी से दौड़
रहे हैं कि
खून को बहुत
तेजी से दौड़ना
पड़ता है।
श्वास तेज हो
जाएगी। कभी जब
वासना मन को
पकड़ लेगी तो
आप पाएंगे कि
श्वास तेज हो
जाएगी, एकदम
तेज हो जाएगी।
सेक्स श्वास
को एकदम तेज
कर देगा, खून
को तेज कर
देगा, पसीना
छूट जाएगा
शरीर से।
क्योंकि इतना
तेज विचार
चलेगा, तो
मन इतना तेज
चलेगा, तो
मस्तिष्क के
सारे स्नायु
तेज खून
फेकेंगे।
तो
इसलिए शर्तें
वही हैं, जो
नींद की हैं।
शरीर को शिथिल
छोड़ दें, श्वास
को शिथिल छोड़
दें, विचार
को छोड़ दें।
नींद की भी
शर्तें यही
हैं, ध्यान
की भी शर्तें
यही हैं।
प्रारंभिक
शर्तें एक सी
हैं, अंतिम
शर्त में फर्क
है। नींद का
है कि अब सो
जाएं, और
ध्यान का है
कि अब जागे।
ये तीनों
शर्तें पूरी
हो जाएं, आप
जागे रहें, बस।
इसलिए
जिन मित्र ने
पूछा है, ठीक
ही पूछा है।
नींद और ध्यान
में बड़े गहरे
संबंध हैं।
समाधि और
सुषुप्ति में
बड़े गहरे
संबंध हैं।
लेकिन एक फर्क
है जो बहुत
कीमती है। वह
फर्क है, जागे
हुए और
मूर्च्छित
होने का। नींद
मूर्च्छा है,
ध्यान
जागृति है।
एक
और मित्र ने
पूछा है कि
जिसे आप ध्यान
कह रहे हैं
उसमें और आटो—
हिम्नोसिस
में आत्म—
सम्मोहन में
क्या फर्क है?
वही
फर्क है, जो
नींद में और
ध्यान में है।
इस बात को भी
समझ लेना उचित
है। नींद है
प्राकृतिक
रूप से आई हुई,
और आत्म —सम्मोहन
भी निद्रा है
प्रयत्न से
लाई हुई। इतना
ही फर्क है।
हिप्नोसिस
में—हिप्नोस
का मतलब भी
नींद होता है—हिप्नोसिस
का मतलब होता
है तंद्रा, उसका मतलब
होता है
सम्मोहन। एक
तो ऐसी नींद
है जो अपने — आप
आ जाती है, और
एक ऐसी नींद
है जो
कल्टीवेट
करनी पड़ती है,
लानी पड़ती
है।
अगर
किसी को नींद
न आती हो, तो
फिर उसको लाने
के लिए कुछ
करना पड़ेगा।
अब एक आदमी
अगर लेट कर यह
सोचे कि नींद
आ रही है, नींद
आ रही है, नींद
आ रही है मैं
सो रहा हूं? मैं सो रहा
हूं मैं सो
रहा हूं. तो
यदि यह भाव उसके
प्राणों में
घूम जाए, घूम
जाए, घूम
जाए, उसका
मन पकड़ ले कि
मैं सो रहा हूं, नींद आ रही
है, तो
शरीर उसी तरह
का व्यवहार
करना शुरू कर
देगा।
क्योंकि शरीर
कहेगा कि नींद
आ रही है तो अब
शिथिल हो जाओ।
नींद आ रही है
तो श्वासें
कहेंगी कि अब
शिथिल हो जाओ।
नींद आ रही है
तो मन कहेगा
कि अब चुप हो
जाओ।
नींद
आ रही है, इसका
वातावरण पैदा
कर दिया जाए
अगर भीतर, तो
शरीर उसी तरह
व्यवहार करने
लगेगा। शरीर
को इससे कोई
मतलब नहीं है।
शरीर तो बहुत
आज्ञाकरी है।
अगर आपको रोज
ग्यारह
बजे भूख लगती
है,
रोज आप खाना
खाते हैं
ग्यारह बजे और
आज घड़ी में
चाभी नहीं भर
पाए हैं और
घड़ी रात में
ही ग्यारह
बजे रुक गई है
और अभी सुबह
के आठ ही बजे
हैं और आपने
देखी घड़ी और
देखा कि
ग्यारह बज गए,
तो एकदम पेट
कहेगा भूख लग
आई। अभी ग्यारह
बजे नहीं हैं,
अभी तीन
घंटे हैं बजने
में। लेकिन
घड़ी कह रही है
कि ग्यारह बज
गए हैं, तो
पेट एकदम से
खबर कर देगा कि
भूख लग आई है।
क्योंकि पेट
की तो
यांत्रिक
व्यवस्था है।
ग्यारह बजे
रोज भूख लगती
है। तो ग्यारह
बज गए तो भूख
लग आयी है, पेट
खबर कर देगा।
पेट बिलकुल
खबर देगा कि.,। अगर रोज
रात आप बारह
बजे सोते हैं
और अभी दस ही बजे
हैं और घड़ी ने
बारह के घंटे
बजा दिए, तो
घड़ी के घंटे
देखकर आप फौरन
पाएंगे कि
तंद्रा उतरनी
शुरू हो गई।
क्योंकि शरीर
कहेगा कि बारह
बज गये, सो
जाना चाहिए।
शरीर
बहुत
आज्ञाकारी है।
और जितना
स्वस्थ शरीर
होगा, उतना
ज्यादा
आज्ञाकारी
होगा। स्वस्थ
शरीर का मतलब
ही यही होता
है कि आज्ञाकारी
शरीर।
अस्वस्थ शरीर
का मतलब होता
है, जिसने
आज्ञा मानना
छोड़ दिया।
अस्वस्थ शरीर
का और कोई
मतलब नहीं
होता। इतना ही
मतलब होता है
कि आप आशा
देते हैं, वह
नहीं मानता है।
आप कहते हैं, नींद आ रही
है; वह
कहता है, कहा
आ रही है। आप
कहते हैं, भूख
लगी है; वह
कहता है, बिलकुल
नहीं लगी है।
आज्ञा छोड़ दे,
वह शरीर
अस्वस्थ हो
जाता है। आशा
मान ले, वह
शरीर स्वस्थ
है, क्योंकि
वह हमारे
अनुकूल चलता
है, हमारे
पीछे चलता है,
छाया की तरह
अनुगमन करता
है। जब वह
आज्ञा छोड़
देता है, तो
बड़ी मुश्किल
खड़ी हो जाती
है।
तो
हिप्नोसिस का
मतलब, सम्मोहन
का मतलब सिर्फ
इतना है कि
शरीर को आज्ञा
देनी है और
उसको आज्ञा
में ले आना है।
हमारी
बहुत—सी
बीमारियां
ऐसी हैं, जो
झूठी हैं, जो
सच्ची नहीं
हैं। सौ में
से अंदाजन
पचास
बीमारियां
बिलकुल झूठी
हैं। दुनिया
में जो इतनी
बीमारियां
बढ़ती जाती हैं,
उसका कारण
यह नहीं है कि
बीमारियां
बढ़ती जाती हैं।
उसका कारण यह
है कि आदमी का
झूठ बढ़ता जाता
है, तो
झूठी
बीमारियां
बढ़ती चली जाती
हैं। इसको ठीक
से खयाल में
ले लें। तो
रोज
बीमारियां बढ़
रही हैं तो
इसका मतलब यह नहीं
है कि
बीमारियां
बढ़ती जाती हैं।
बीमारियों को
क्या मतलब है
कि आप शिक्षित
हो गए हैं तो
बीमारियां बढ़
जाएं, कि
गरीबी कम हो
गई तो
बीमारियां बढ़
जाएं। कम होनी
चाहिए
बीमारियां।
नहीं, आदमी
के झूठ बोलने
की क्षमता
बढ़ती चली जाती
है। तो आदमी
दूसरे से ही
झूठ नहीं
बोलता है, अपने
से भी झूठ बोल
लेता है। वह
बीमारियां भी
पैदा कर लेता
है।
अगर
समझ लें कि एक
आदमी को बाजार
जाने में
कठिनाई है, दिवाला
निकलने के
करीब है। और
उसका मन यह
मानने को राजी
नहीं होता है
कि वह
दिवालिया हो
सकता है। और
बाजार में
जाने की
हिम्मत नहीं
होती, दुकान
पर कैसे जाए।
जो देखता है, वही पैसे
मांगता है।
अचानक वह आदमी
पाएगा कि उसको
ऐसी बीमारी ने
पकड़ लिया है, जिसने उसे
बिस्तर पर लगा
दिया है। यह
क्रिएटेड
बीमारी है। यह
उसके चित्त ने
पैदा कर ली है।
इस बीमारी के
पैदा होने से
दोहरे फायदे
हो गए। एक
फायदा यह हो
गया कि अब वह
कह सकता है कि
मैं बीमार हूं
इसलिए नहीं
आता हूं। उसने
अपने को भी
समझा लिया और
दूसरों को भी
समझा लिया। अब
इस बीमारी को
किसी इलाज से
ठीक नहीं किया
जा सकता है।
क्योंकि यह
बीमारी होती
तो इलाज काम
करता। यह
बीमारी नहीं
है, इसलिए इसको
जितनी
दवाइयां दी
जाएंगी, यह
और बीमार पड़ता
जाएगा।
अगर
कभी दवाइयां
देने से आपकी
बीमारी ठीक न
हो,
तो आप जान
लेना कि
बीमारी
दवाइयों वाली
नहीं है।
बीमारी कहीं
और है, जिसका
दवाई से कोई
संबंध नहीं है।
आप दवाई को
गाली देंगे और
कहेंगे कि सब
डाक्टर मूर्ख
हैं, इतनी
चिकित्सा कर
रहे हैं और मेरा
इलाज नहीं
होता। और
आयुर्वेद से
लेकर
नेचरोपैथी तक,
और एलोपैथी
से लेकर
होम्योपैथी
तक चक्कर लगाएंगे,
कहीं भी कुछ
न होगा। कोई
डाक्टर आपके
काम नहीं पड़
सकता, क्योंकि
डाक्टर
आथेंटिक
बीमारी, प्रामाणिक
बीमारी को ही
ठीक कर सकता
है। झूठी
बीमारी पर
उसका कोई वश
नहीं है। और
मजा यह है कि
जो झूठी
बीमारी है, उसको पैदा
करने में आप
रसलीन हैं। आप
चाहते हैं कि
वह रहे।
स्त्रियों
की बीमारियां
पचास प्रतिशत
से भी ऊपर
झूठी हैं।
क्योंकि
स्त्रियों को
बचपन से एक नुस्खा
पता चल गया है
कि जब वे
बीमार होती
हैं,
तभी प्रेम
मिलता है, और
कभी प्रेम
मिलता ही नहीं।
जब बीमार होती
हैं, तब
पति दफ्तर छोड़
कर उनके पास
कुर्सी लगाकर
बैठ जाता है।
मन में कितनी
ही गालियां
देता हो, लेकिन
बैठ जाता है।
और पति को जब
भी उन्हें
बिस्तर के पास
बिठा रखना हो,
तब उनका
बीमार हो जाना
एकदम जरूरी है।
इसलिए
स्त्रियां बीमार
ही रही आई हैं।
कोई मौका ही
नहीं जब वे
बीमार न हों, क्योंकि
बीमारी में ही
वे कब्जा कर
लेती हैं, सब
पर वे हावी हो
जाती हैं।
बीमार आदमी
सारे घर का
डिक्टेटर हो
जाता है, बीमार
आदमी तानाशाह
हो जाता है।
वह कहता है, इस वक्त सब
रेडियो बंद, तो सब
रेडियो बंद
करना पड़ता है।
वह कहता है, सब सो जाओ, तो सबको
सोना पड़ता है।
वह कहता है, आज घर के
बाहर कोई नहीं
जाएगा, सब
यहीं बैठे रहो,
तो सबको
बैठना पड़ता है।
तो तानाशाही
प्रवृत्ति
जितनी होगी, उतना आदमी
बीमारी खोज
रहा है।
क्योंकि
बीमार आदमी को
कौन दुखी करे!
अब वह जो कहता
है, मान लो।
जब ठीक हो
जाएगा, तब
ठीक है। लेकिन
बड़ा खतरा है।
हम इस तरह
उसकी बीमारी
को उकसावा दे
रहे हैं।
अच्छा
है कि पत्नी
जब स्वस्थ हो, तब
पति पास में
बैठे। यह समझ
में आता है।
बीमार हो, तब
तो कृपा करके
दफ्तर चला जाए।
क्योंकि उसकी
बीमारी को
उकसावा न दे।
महंगा है यह।
बच्चा जब
बीमार पड़े तो
मां को उसकी
बहुत फिक्र
नहीं करनी
चाहिए, नहीं
तो बच्चा
जिंदगी भर जब
भी फिक्र
चाहेगा, तभी
बीमार पड़ेगा।
जब बच्चा
बीमार पड़े, तब उसकी
फिक्र कम कर
देनी चाहिए
एकदम। ताकि
बीमारी और
प्रेम में
संबंध न जुड़
पाए, एसोसिएशन
न हो पाए।
यानी बच्चे को
ऐसा न लगे कि
जब मैं बीमार
होता हूं तब
मां को मेरे
पैर दबाने
पड़ते हैं, सिर
दबाना पड़ता है।
जब बच्चा खुश
हो, प्रसन्न
हो, तब
उसके पैर
दबाओं, सिर
दबाओ, ताकि
खुशी से प्रेम
का संबंध जुड़े।
हमने
दुख से प्रेम
का संबंध जोड़ा
है। और यह
बहुत खतरनाक
है। तब उसका
मतलब यह है कि
जब भी प्रेम
की कमी होगी, तब
दुख बुलाओ। तो
दुख आएगा तो
प्रेम भी पीछे
से आएगा।
इसलिए जिसको
भी प्रेम कम
हो जाएगा, वह
बीमार हो
जाएगा, क्योंकि
बीमारी से फिर
उसको प्रेम
मिलता है।
लेकिन
बीमारी से कभी
प्रेम नहीं
मिलता है।
ध्यान रहे, बीमारी
से दया मिलती
है। और दया
बहुत
अपमानजनक है।
प्रेम बात और
है। लेकिन वह
हमारे खयाल
में नहीं है।
तो
मैं आपसे यह
कह रहा हूं कि
शरीर तो हमारे
सुझाव पकड़
लेता है। अगर
हमें बीमार
होना है, तो
बेचारा शरीर
बीमार हो जाता
है। ऐसी
बीमारियों को
दूर करने के
लिए
हिप्नोसिस उपयोगी
है,
सम्मोहन
उपयोगी है।
उसका मतलब यह
है कि झूठी
बीमारी है, झूठी
दवा से काम
होगा। सच्ची
दवा काम नहीं
करेगी। तो अगर
हमने मान लिया
है कि हम
बीमार हैं तो
अगर इससे
विपरीत हम
मानना शुरू कर
दें कि हम
बीमार नहीं
हैं, तो
बीमारी कट
जाएगी।
क्योंकि
बीमारी हमारे
मानने से पैदा
है
इसलिए
हिप्नोसिस
बड़ी कीमती चीज
है। और आज तो
विकसित
मुल्कों में
ऐसा कोई बड़ा
अस्पताल नहीं
है,
जहां एक
हिप्नोटिस्ट
न हो, जहां
एक सम्मोहन
करने वाला
व्यक्ति न हो।
अमेरिका के या
ब्रिटेन के
बड़े
अस्पतालों
में डाक्टरों
के साथ एक हिप्नोटिस्ट
भी रख दिया है।
क्योंकि
बीमारियां
पचासों ऐसी
हैं जिनके लिए
डाक्टर
बिलकुल बेकार
है, उनके
लिए
हिप्नोटिस्ट
काम में आता
है। वह उनको
बेहोश करना
सिखाता है कि
तुम बेहोश हो
जाओ और यह भाव
करो कि तुम
ठीक हो रहे हो,
ठीक हो रहे
हो।
क्या
आपको पता है
कि दुनिया में
सौ सांपों में
से सिर्फ तीन
प्रतिशत
सांपों में
जहर होता है, सत्तानबे
प्रतिशत
सांपों में
कोई जहर ही
नहीं होता।
लेकिन कोई भी
सांप कांटे, आदमी मर
जाएगा। बिना
जहर वाले सांप
से भी आदमी मर
जाता है।
इसीलिए मंत्र—तंत्र
काम कर पाते
हैं। मंत्र—तंत्र
यानी झूठा
इलाज। अब एक
आदमी को ऐसे
सांप ने कांटा
है जिसमें जहर
है ही नहीं।
अब इसको सिर्फ
इतना विश्वास
दिलाना जरूरी
है कि सांप
उतर गया। बस, काफी है!
सांप उतर
जाएगा। सांप
चढ़ा ही नहीं
था! और अगर
उसको यह
विश्वास न आए
तो यह आदमी मर
सकता है। अगर
उसको यह पक्का
विश्वास बना
रहे कि सांप ने
मुझे कांटा है,
तो यह मरेगा।
सांप ने मुझे कांटा
है, इससे
मरेगा, सांप
के काटने से
नहीं।
मैंने
सुना है, एक
बार ऐसी घटना
घटी कि एक
आदमी एक सराय
से गुजरा। और
रात उस सराय
में उसने खाना
खाया और सुबह
चला गया, जल्दी
उठकर चला गया।
साल भर बाद
वापस लौटा उस
रास्ते से, उसी सराय
में ठहरा। तो
सराय के मालिक
ने कहा कि आप
सकुशल हैं? हम तो बडे डर
गए थे। उसने
कहा, क्या
हो गया? जिस
रात आप यहां
ठहरे थे, जो
खाना बना था, उसमें एक
सांप गिर गया
था। तो चार
आदमियों ने
खाया और वे
चारों मर गए।
एक आप थे, जो
आप जल्दी उठकर
चले गए। आपके
लिए हम बड़े
चिंतित थे।
मगर आप जिंदा
हैं? उस
आदमी ने कहा, सांप? और
वह आदमी वहीं
गिर पड़ा और मर
गया, साल
भर बाद। कहा
कि सांप खा
गया हूं,
उसके हाथ पैर
कंपे और वह
वहीं गिर गया।
उस सराय के
मालिक ने कहा,
घबराइये
नहीं, अब
तो कोई सवाल
ही नहीं! पर वह
आदमी तो गया, जा चुका।
इस
तरह की बीमारी
के लिए
हिप्नोसिस
बहुत उपयोगी
है। लेकिन
हिप्नोसिस का
मतलब ही इतना
है कि जो हमने
व्यर्थ ही, झूठा
ही अपने चारों
तरफ जोड़ लिया
है, उसे हम
दूसरे झूठ से
काट सकते हैं।
ध्यान रहे, अगर झूठा कांटा
किसी के पैर
में लगा हो, तो असली कांटे
से कभी मत
निकालना।
झूठे कांटे को
असली कांटे से
निकालने में
बड़ा खतरा होगा।
एक तो झूठा कांटा
न निकलेगा और
असली कांटा और
पैर में छिद
जाएगा। झूठे कांटे
को झूठे कांटे
से ही निकालना
होता है।
ध्यान
में और
हिप्नोसिस
में क्या
संबंध है? इतना
ही संबंध है
कि जहां तक
झूठे कांटे
गड़े हैं, वहां
तक हिप्नोसिस
का उपयोग किया
जाता है। जैसे
कि मैं आपसे
कहता हूं कि
यह भाव करें
कि शरीर शिथिल
हो रहा है, यह
हिप्नोसिस है,
यह सम्मोहन
है, यह
आत्म—सम्मोहन
है।
असल
में आपने ही
यह भाव कर रखा
है कि शरीर
शिथिल नहीं हो
सकता है। उसको
काटने के लिए
इसकी जरूरत है, और
कोई जरूरत
नहीं है। अगर
आपको यह
पागलपन न हो, तो आप एक ही
दफे खयाल करें
कि शरीर शिथिल
हो गया, शरीर
शिथिल हो
जाएगा। शरीर
को शिथिल करने
के लिए यह काम
नहीं हो रहा है।
आपकी जो
धारणाएं हैं
कि शरीर शिथिल
होता ही नहीं,
उसको काटने
के लिए आपके
मन में यह
धारणा बनानी
पड़ेगी कि शरीर
शिथिल हो रहा
है, शरीर
शिथिल हो रहा
है, शरीर
शिथिल हो रहा
है। आपकी झूठी
धारणा को इस
दूसरी झूठी
धारणा से काट
दिया जाएगा।
और जब शरीर
शिथिल हो
जाएगा तो आप
जानेंगे कि ही,
शरीर शिथिल
हो गया है। और
शरीर का शिथिल
होना बिलकुल
स्वाभाविक
धर्म है।
लेकिन हम इतने
तनाव से भर गए
हैं और तनाव
हमने इतना
पैदा कर लिया
है कि अब उस
तनाव को मिटाने
के लिए भी
हमें कुछ करना
पड़ेगा।
तो
हिप्नोसिस का
इतना उपयोग है।
जब आप भाव
करते हैं, शरीर
शिथिल हो रहा
है, श्वास शांत
हो रही है, मन
शांत हो रहा
है, तो यह
हिप्नोसिस है।
लेकिन यहीं तक।
इसके बाद
ध्यान शुरू
होता है। यहां
तक ध्यान है
ही नहीं।
ध्यान इसके
बाद शुरू होता
है, जब आप
जागते हैं। जब
आप द्रष्टा हो
जाते हैं। जब
आप देखने लगते
हैं कि ही, शरीर
शिथिल पड़ा है,
श्वास शांत
चल रही है, विचार
बंद हो गए हैं
या विचार चल
रहे हैं। जब
आप देखने लगते
हैं, बस आप
सिर्फ देखने
लगते हैं, वह
जो द्रष्टा
भाव है, वही
ध्यान है। उसके
पहले तक तो
हिप्नोसिस ही
है। और
हिप्नोसिस का
मतलब है लाई
गई निद्रा, और कोई मतलब
नहीं है। नहीं
आती थी, हमने
लाई है।
प्रयास किया
है, उसे
बुलाया है, आमंत्रित
किया है।
निद्रा
आमंत्रित की
जा सकती है।
अगर हम तैयार
हो जाएं और
अपने को छोड़
दें, तो वह
आ जाती है। लेकिन
ध्यान और
हिप्नोसिस एक
ही चीज नहीं
हैं। मेरी बात
समझ लेना खयाल
से।
मैंने
कहा कि यहां
तक हिप्नोसिस
है,
यहां तक
सम्मोहन है, जहां तक सब
भाव कर रहे
हैं। जब भाव
करना बंद किया
और जाग गए, अवेयरनेस
जहां से शुरू
हुई, वहां
से ध्यान शुरू
हुआ। जहां से
द्रष्टा, साक्षी—
भाव शुरू हुआ,
वहां से
ध्यान शुरू
हुआ। और इस
हिप्नोसिस की
इसलिए जरूरत
है कि आप उलटी
हिप्नोसिस
में चले गए
हैं। यानी
इसको अगर वैज्ञानिक
भाषा में कहना
पड़े, तो यह
हिप्नोसिस न
होकर डि—हिप्नोसिस
है। यह
सम्मोहन न
होकर, सम्मोहन
तोड़ना है।
सम्मोहित हम
हैं और हमें पता
नहीं।
क्योंकि
जिंदगी में हम
सम्मोहित हो
गए हैं। हमें
पता ही नहीं, हमको खयाल
ही नहीं कि
हमने कितने
तरह के सम्मोहन
कर लिये हैं, और हमने किस—किस
तरकीब से
सम्मोहन को
पैदा कर लिया
है।
हमारी
पूरी जिंदगी
का बड़ा हिस्सा
सम्मोहन का है।
और जब हम
सम्मोहित
होना चाहते
हैं,
तो हम खयाल
ही नहीं रखते
कि हम यह क्या
कर रहे हैं।
जैसे उदाहरण
के लिए?..... हम
जिंदगी भर ऐसे
ही जीते हैं।
वह हमें खयाल
में आ जाए, तो
सम्मोहन टूट
जाए। सम्मोहन
टूटे, तो
भीतर प्रवेश
हो सकता है, क्योंकि
सम्मोहन
असत्य की
दुनिया है।
जैसे समझें कि
एक आदमी साइकिल
चलाना सीख रहा
है। बड़ा
रास्ता है, साठ फीट
चौड़ा है। और
एक पत्थर पड़ा
हुआ है किनारे
पर, एक मील
का पत्थर लगा
हुआ है। अब वह
आदमी साठ फीट
चौड़े रास्ते
पर अगर आंख
बंद करके भी
साइकिल चलाए,
तो बहुत कम
मौके हैं कि
उस पत्थर से
टकराए। आंख
बंद करके भी
चलाए तो भी
साठ फीट चौड़े
रास्ते पर जरा
सा एक पत्थर
लगा हुआ है, उससे टकराने
की क्या जरूरत
है? लेकिन
उस आदमी को
अभी साइकिल
चलाना नहीं
आता है। उसे
रास्ता पहले
नहीं दिखाई
पड़ता है, पहले
उसे पत्थर
दिखाई पड़ता है।
पहले उसे यह
डर है कि टकरा
न जाऊं।
बस, उसको
जैसे ही यह डर
हुआ कि टकरा न
जाऊं कि वह हिप्नोटाइज
हुआ। यानी
हिप्नोटाइज
होने का मतलब
यह हुआ कि
रास्ता दिखना
बंद हुआ और
पत्थर दिखना शुरू
हुआ। अब उसे
पत्थर दिखने
लगा। अब वह डर
रहा है, उसका
हैंडिल घूमने
लगा पत्थर की
तरफ। वह जितना
हैंडिल घूमता
है, उतना
ही वह डर रहा
है। और जहां
ध्यान है, वहीं
तो हैंडिल
जाएगा। और
ध्यान उसका
पत्थर पर है।
और ध्यान इसलिए
है कि टकरा न
जाऊं। टकरा न
जाऊं पत्थर से,
तो रास्ता
मिट गया, पत्थर
ही रह गया। अब
वह पत्थर की
तरफ सम्मोहित
चला जा रहा है।
और जितना जाता
है, उतना
घबराता है; जितना
घबराता है, उतना जाता
है। वह आदमी
पत्थर से टकरा
जाता है। सिक्खड़
आदमी को बड़ी
हैरानी होती
है कि इतना
बड़ा रास्ता था,
मैं इस
पत्थर से कैसे
टकरा गया?
वह
बच कर क्यों
नहीं निकल सका? वह
हिप्नोटाइज
हो गया। उसने
ध्यान दिया
पत्थर पर कि
कहीं टकरा न
जाऊं। फिर
पत्थर दिखाई
पडने लगा। फिर
जब पत्थर
दिखाई पड़ने
लगा, तब
हाथ ने वहीं
मोड़ लिया।
क्योंकि शरीर
उसी तरफ जाता
है, जहां
ध्यान जाता है।
शरीर वहीं चला
जाता है, जहां
ध्यान जाता है।
शरीर तो
अनुगामी है
ध्यान का। और
वह चल पड़ा। और
जितना वह डरा,
उतना ही
पत्थर का
ध्यान रखना
पड़ा कि कहीं
टकरा न जाऊं, तो पत्थर को
देखता रहूं।
तो जिसको उसने
देखा, उससे
वह
हिप्नोटाइज
हो गया, सम्मोहित
हो गया, वह
चला गया, वह
पत्थर से टकरा
गया। तो
जिंदगी में हम
जिन भूलों से
बहुत सचेत होकर
बचना चाहते
हैं, अक्सर
उन्हीं से
टकरा जाएंगे,
उनसे ही हम
सम्मोहित हो
जाएंगे।
एक
आदमी क्रोध से
डरता है कि
कहीं क्रोध न
आ जाए, और वह
दिन में चौबीस
घंटे में
चौबीस बार पाएगा
कि क्रोध आ
गया। और जितना
वह डरेगा कि
क्रोध न आ जाए,
क्रोध पर
सम्मोहित हो
जाएगा। फिर
चौबीस घंटे
क्रोध खोजने
लगेगा। जो
आदमी स्त्री
से डरेगा कि
कोई सुंदर
स्त्री न
दिखाई पड़ जाए
नहीं तो वासना
उठ आएगी, उसको
चौबीस घंटे
सुंदर
स्त्रियां
दिखाई पड़ेगी।
धीरे — धीरे
कुरूप
स्त्रिया भी
सुंदर हो
जाएंगी, धीरे—
धीरे पुरुष भी
स्त्रियां
मालूम होने
लगेंगे। पीछे
से कोई साधु
दिख जाए, तो
वह चक्कर
लगाकर देखकर
आएगा कि कौन
है। बड़े बाल
हों तो उसको
शक हो जाएगा
कि कहीं स्त्री
तो नहीं है।
फिर उसको
चित्रों में
भी स्त्रियां
दिखाई पड़ने
लगेंगी। एक
पोस्टर लगा
हुआ है, वह
उससे भी
सम्मोहित हो
जाएगा।
पोस्टर पर
क्या है, सिर्फ
कुछ रंग फेंका
हुआ है, लेकिन
पोस्टर भी
सम्मोहित कर
लेगा। वह एक
नंगे चित्र को
उठाकर भी. वह
गीता में छिपा
कर, कुरान
में छिपाकर एक
नंगे चित्र को
देखेगा स्त्री
के। और सोचेगा
भी नहीं कि
सिर्फ रेखाएं
खिंची हैं, इसमें इतना
सम्मोहित
क्यों हुआ जा
रहा हूं। वह
स्त्री से
बचना चाहता
रहा है, वह
घबरा गया है।
अब स्त्री के
सिवाय उसे कोई
दिखाई ही नहीं
पड़ता। अब वह
मंदिर में चला
जाए, मस्जिद
में चला जाए, कहीं भी चला
जाए, स्त्री
ही दिखाई पड़ती
है। यह भी
सम्मोहन है।
जो
समाज सेक्स—विरोधी
होगा, वह समाज
सेक्सुअल हो
जाता है। जो
समाज काम—विरोधी
होगा और जो
काम की निंदा
करेगा, उस
समाज का पूरा
चित्त कामुक
हो जाएगा।
क्योंकि
जिसकी वह
निंदा करेगा,
उससे ही
सम्मोहित हो
जाएगा, उस
पर ही ध्यान
चला जाएगा।
जितनी ही ब्रह्मचर्य
की बातें
होंगी, उतने
ही गंदे और
व्यभिचारी
लोग उस समाज
में पैदा
होंगे।
क्योंकि वह
ब्रह्मचर्य
की अति चर्चा
कामुकता पर
चित्त को
केंद्रित कर
देती है। यह
सब हमारी
हिप्नोसिस है
और हम इसमें
जी रहे हैं।
सारी दुनिया
इसमें उलझी
हुई है। और
इसको तोड़ना
मुश्किल पड़ता
है, क्योंकि
तोड्ने के लिए
हम जो करते
हैं, उससे
हिप्नोसिस
बढ़ती है।
इसी
तरह हमने बहुत
सी जिंदगी के
न मालूम क्या—क्या
हिप्नोसिस
बना रखे हैं।
और उनको हम
पैदा किए चले
जाते हैं और
फिर उन्हीं
में जीते रहते
हैं। इनको
तोड़ना जरूरी
है ताकि हम
जाग सकें। मगर
तोड्ने के लिए
भी चूंकि यह
झूठा सब जाल
है,
ठीक झूठे कांटे
ही खोजने पड़ते
हैं।
इसलिए
सब साधना एक
अर्थ में झूठ
को निकालने के
लिए है और
इसलिए झूठ है।
सब साधना, सब
मेथड, दुनिया
भर में सब प्रयोग
जिनसे हम
परमात्मा की
तरफ जाने की
कोशिश करते
हैं, झूठे
हैं। क्योंकि
परमात्मा से
दूर हम कभी गए
ही नहीं हैं।
सिर्फ हम खयाल
में चले गए
हैं।
जैसे
एक आदमी रात
सोये द्वारका
में और सपने
में कलकत्ता
पहुंच जाए। अब
वह घबराने लगे
रात में कि
मेरी तो पत्नी
बीमार है घर
पर और मुझे
द्वारका
पहुंचना है और
मैं कलकत्ता आ
गया,
अब मैं किस
ट्रेन से जाऊं,
किस टाइम—टेबिल
को देखूं,
किस हवाई जहाज
को पकडूं? किस
बस को पकडुं
कैसे जाऊं? पूछने लगे
लोगों से कि
मैं द्वारका
कैसे जाऊं? तो अगर उसको
कोई बताये कि
तुम फलां —फलां
स्टेशन पर जाकर
ट्रेन पकड़ लो,
तो वह
मुश्किल में
पड़ जाएगा।
क्योंकि पहली
तो बात यह है
कि वह कलकत्ते
में नहीं है।
कलकत्ते में
वह होता, तो
ट्रेन पकड़कर
द्वारका आ
सकता था। वह
कलकत्ता गया
ही नहीं है
कभी, सिर्फ
कलकत्ता
पहुंच गया है
सपने में, कल्पना
में, हिप्नोसिस
में। उसको जो भी
रास्ता बताया
जाएगा, वह
सब मुश्किल
में डाल देने
वाला है।
कोई
रास्ता किसी
मतलब का नहीं, सब
रास्ते झूठे
होंगे। और वह
द्वारका
लौटेगा तो
सच्चे रास्ते
से लौट ही
नहीं सकता, क्योंकि
सच्चा रास्ता
हो ही नहीं
सकता। वह
कलकत्ता कभी
पहुंचा ही
नहीं है कि
वहां से कोई रास्ता
पकड़ ले। अगर
वह किसी ट्रेन
में बैठकर
द्वारका आएगा,
तो वह ट्रेन
उतनी ही झूठी
होगी जितना
झूठा कलकत्ता
था। और अगर
कलकत्ता के
हावड़ा स्टेशन
से पकड़ेगा गाड़ी
तो वह हावड़ा
स्टेशन उतना
ही झूठा होगा
जितना
कलकत्ता था।
और टिकट अगर
खरीदेगा, तो
उतनी ही झूठी
होगी। और रास्ते
में अगर टिकट
चैकर वगैरह
आयेंगे, तो
वे सब झूठे
होंगे। जो
स्टेशन वगैरह
पड़ेंगे, वे
सब झूठे होंगे।
फिर वह
द्वारका आ
जाएगा, फिर
वह प्रसन्न
होकर उठ आएगा।
तब हैरान होगा
कि बड़े
आश्चर्य की
बात है, मैं
तो अपनी खाट
पर सोया हुआ
हूं। मैं कहीं
गया नहीं था, तो मैं लौटा
कैसे। जाना भी
झूठ था, लौटना
भी झूठ है।
परमात्मा
के बाहर कोई
कभी गया ही
नहीं है, जा भी
नहीं सकता है।
क्योंकि वही
है, उसके
बाहर जाने का
उपाय नहीं है।
इसलिए जाना भी
झूठ है, लौटना
भी झूठ है।
लेकिन जब जा
चुके हैं तो
लौटना पड़ेगा,
कोई उपाय
नहीं है। जब
जा ही चुके
हैं, तब
लौटना पड़ेगा।
इसलिए लौटने
के लिए उपाय
पकड़ने पड़ेंगे।
लेकिन जब आप
लौट आएंगे, तब आप
पाएंगे कि सब
मेथड झूठ थे, सब साधना
झूठी थी।
साधना करनी
पड़ी इसलिए कि
हम चले गए थे
सपने में, इसलिए
लौटना पड़ा।
अगर यह समझ
में आ जाए तो
शायद कुछ भी न
करना पड़े और
आप अचानक
पाएंगे कि लौट
गए हैं। लेकिन
यह समझ में
आना मुश्किल
है, क्योंकि
आप पहुंच गए
हैं। आप कहते
हैं कि यह तो
आप ठीक कहते
हैं, लेकिन
कलकत्ते में
हूं मैं, लौटूं
कैसे, यह
बताइए।
अभी
एक मित्र ने
और पूछा हुआ
है कि क्या
आपको ईश्वर
मिल गया है? अब
वे इसी तरह की
बात पूछ रहे
हैं। मैं उनसे
पूछता हू कि
क्या आपको
ईश्वर खो गया
है? अगर
मैं कहूं कि
मिल गया है, तो मैंने यह
मान लिया कि
वह खो गया था।
वह मिला ही
हुआ है। जब
हमें लगता है
कि खो गया है, तब भी मिला
हुआ है। तब भी
हम सिर्फ एक
सम्मोहन में
खो गए हैं और
लगता है कि खो
गया है। इसलिए
जो आदमी कहे
कि ही, मुझे
ईश्वर मिल गया
है, वह
आदमी अभी गलती
में है। अभी
उसको यह खयाल
समझ में नहीं
आया है कि वह
खोया ही नहीं
था। इसलिए जो
जान लेते हैं,
वे ऐसा नहीं
कहेंगे कि
ईश्वर मिल गया
है, वे
कहेंगे, उसे
खोया ही नहीं
था।
जिस
दिन बुद्ध को
शान हुआ और
गांव के लोग
इकट्ठे हो गए
और उन्होंने
पूछा कि आपको
क्या मिल गया
है?
बुद्ध ने
कहा, मिला
कुछ भी नहीं।
जो खोया ही
नहीं था, वही
दिखाई पड़ गया
है। जो खोया
ही नहीं था, जो प्राप्त
ही था, वही
प्राप्त हो
गया है। तो
गाव के लोगों
ने कहा, मतलब
कि कुछ फायदा
नहीं हुआ, बेकार
मेहनत गई!
बुद्ध ने कहा,
ही उस अर्थ
में कोई फायदा
नहीं हुआ, लेकिन
अब मेहनत करने
की कोई जरूरत
न रह गई, इतना
फायदा हो गया।
उस अर्थ में
तो कोई फायदा
न हुआ, लेकिन
अब मेहनत करने
की जरूरत न रह
गई। अब मैं
कभी खोजने न
जाऊंगा, अब
मैं कभी कुछ न पाने
निकलूंगा, अब
मैं किसी
यात्रा पर न
जाऊगा, बस
इतना फायदा हो
गया है।
क्योंकि अब
मैं जानता हूं
कि जहां हूं? वहीं हूं
सदा से। सिर्फ
सपने में हम
बाहर चले जाते
हैं, कहीं
और चले जाते
हैं, जहां
हम नहीं हैं।
इसलिए सब धर्म
एक अर्थ में
झूठ हैं। इस
अर्थ में झूठ
हैं कि वे
लौटने की
प्रक्रियाएं
हैं। और सब
साधनाएं झूठ
हैं और सब योग
झूठ है, क्योंकि
वे लौटने की
प्रक्रियाएं
हैं। लेकिन
बड़े उपयोगी
हैं।
अब
जिसको सांप ने
काट खाया है —चाहे
झूठे सांप ने
ही सही—गाव का
ओझा बड़ा
उपयोगी है, जो
मंत्र फूंककर,
झाडू मारकर
सांप का जहर
अलग कर देता
है। इसकी बड़ी
जरूरत है, यह
गांव में रहना
चाहिए। यह
नहीं रहेगा तो
लोग मर जाएंगे,
उस सांप से
कटकर जो कि है
ही नहीं।
मैं
जिस जगह रहता
हूं मेरे पड़ोस
में एक आदमी रहते
थे। अब वे
गुजर गए। उनके
पास
हिंदुस्तान
से दूर—दूर से
लोग सांप
झड़वाने आते थे।
वे बड़े
होशियार आदमी
थे। उन्होंने
दस—पांच सांप
पाल रखे थे।
उनके घर में
सांप सब पले
हुए थे। जब
कोई आदमी आता, तो
उसकी झाडू —फूंक
करते और कहते
कि कैसा सांप
था? क्या
था? कहां कांटा
था? मरा तो
नहीं? वे
सब जांच—पड़ताल
कर लेने के
बाद फिर वे
सांप को
बुलाते। वह भी
सांप कहां आने
वाला था! उनके
घर के बंधे
हुए जो सांप थे,
वे निकल आते।
वह सब उनकी ट्रिक
थी कि वह कैसे क्या
करेंगे तो कौन
से नंबर का सांप
चला आएगा।
उसका ताला
खुलवा देंगे।
वह सांप घंटा
आध—घटा में फन
फुफकारता हुआ
दरवाजे से
अंदर प्रवेश
करेगा। जैसे
ही वह प्रवेश
करेगा, चमत्कार
हो गया।
अब
जिसको सांप
काटता है, वह
ठीक से देख भी
तो नहीं पाता —किसने
कांटा, कैसा
था, क्या
नहीं था? वह
तो कांटे जाने
की झंझट में
पड़ जाता है —मर
गया! झंझट में
पड़ जाता है, सांप
तो
कहीं खो जाता
है। और अगर
सांप मर जाये, यानी
मार डाला गया
हो, तो फिर
उसकी आत्मा को
बुलाएंगे, फिर
उसकी आत्मा
उनके सांप में
आएगी। और जब
वह सांप सामने
आ जाएगा, तो
उसको बहुत
डाटेंगे, डपटेंगे।
वह सांप क्षमा
मांगेगा, सिर
पटकेगा। और उस
आदमी का विष
उतरना शुरू हो
जाएगा। और वे
कहेंगे, ठीक
है, वापिस
इसका जहर पी
लो। उसके घाव
पर वह सांप
मुंह लगाएगा।
और वह आदमी
ठीक हो गया, वह आदमी गया।
दुर्भाग्य
से उनके लडके
को सांप ने
काट खाया, तब
बड़ी मुश्किल
हो गई, क्योंकि
उनकी दवा
बिलकुल काम न
की। वे मेरे
पास भागे हुए
आए। उन्होंने
कहा कि मैं
बड़ी मुश्किल
में पड़ गया हूं, आप कुछ
रास्ता
बताइये, मेरे
लड़के को सांप
ने काट खाया
है। और वह
जानता है कि
सारे सांप घर
में बंधे हैं।
यह सब चालबाजी
है। अब मैं
क्या करूं? यह तो मर
जाएगा लड़का, अब कुछ मैं
कर ही नहीं
सकता। मैंने
कहा, आप तो
इतने बड़े
झाडूने वाले
हैं, आपके
पास लोग दूर—दूर
से आते हैं।
उन्होंने कहा,
यह सब ठीक
है। मुझको काट
खाये, तो
मैं मुश्किल
में पड़ जाऊं।
और मुझको अगर
काट खाये तो
मुझे बचाना
मुश्किल है, क्योंकि हर
झाडूने वाला
मुझे चालाक
मालूम पड़ेगा
कि कुछ न कुछ
गड़बड़ कर रहा
होगा। और सांप
ने काट खाया
है और बचना
बहुत मुश्किल
है। उनका लड़का
नहीं बच सका।
वे अपने लडके
को न बचा सके।
ध्यान
धीरे— धीरे, धीरे
— धीरे जीवन के
स्रोत पर खड़ा
कर देता है।
फिर ऐसा नहीं
है कि हम
उसमें से
चुल्लू भर— भर
कर लाते हैं।
फिर हम स्रोत
में ही खडे हो
जाते हैं। फिर
ऐसा नहीं है
कि हम तेल
दीये में भरते
हैं, फिर
तो तेल का
सागर ही
उपलब्ध हो
जाता है। फिर
हम उसमें ही
जीने लगते हैं।
और वैसा जीना
नींद को विलीन
कर देता है।
इस अर्थ में
नहीं कि आदमी
नहीं सोता है,
इस अर्थ में
कि सोते हुए
भी भीतर कोई
जागा ही रहता
है। और तब
सपने बिलकुल
खो जाते हैं।
झूठ को
मिटाने के लिए
झूठ के उपाय
हैं। लेकिन
उनकी
सार्थकता है।
सार्थकता
इसलिए कि हम
झूठ में चले
गए हैं। इसलिए
इस भाषा में
पूछें ही मत, सम्मोहन
ही है शुरू
में तो।
प्रारंभिक
चरण सम्मोहन
के निद्रा के
हैं, अंतिम
चरण ही ध्यान
का है। वही
कीमती है।
लेकिन उसके
लिए यह भूमिका
अत्यंत
आवश्यक है।
जिस झूठ में
आप चले गए हैं,
वहां से लौट
आना आवश्यक है।
और
इस भाषा में
भी कभी न
पूछें कि
ईश्वर मिल गया
है कि नहीं
मिल गया है।
यह बात ही गलत
है। किसको
मिलेगा? कौन
मिलेगा? जो
है, वह है।
जिस दिन आप
जागेंगे, उस
दिन आप पाएंगे
कि न कुछ खोया
है, न कहीं
गए हैं, न
कुछ मिटा है, न कुछ मरा है;
जो है, वह
है। तब उस दिन
सब यात्रा, सब जाना बंद
हो जाता है।
आवागमन
से मुक्ति का
क्या मतलब
होता है? आवागमन
से मुक्ति का
मतलब यह नहीं
होता है कि यहां
पैदा नहीं
होंगे।
आवागमन से
मुक्ति का
मतलब होता है,
तब कोई आना—जाना
न रहा। कहीं
भी, किसी
तल पर भी आना—जाना
न रहा। वह
कमिंग और गोआ
गई। तब हम
वहीं रह गए, जहां हैं।
और जिस दिन हम
वहीं रह जाते
हैं, जहां
हैं, उसी
दिन आनंद के
झरने फूट पड़ते
हैं। क्योंकि
जहां हम नहीं
हैं, वहा
हम आनंदित कभी
नहीं हो सकते,
जहां हम हैं,
वहीं
आनंदित हो सकते
हैं। जो हम
हैं, वही
होकर आनंदित
हो सकते हैं, जो हम नहीं
हैं, वह हम
होकर कभी भी
आनंदित नहीं
हो सकते हैं।
इसलिए
आवागमन का
मतलब है कि हम
कहीं और भटक
रहे हैं, जहां
हम नहीं हैं।
हम कहीं और खो
गए हैं, जहां
हम कभी भी
नहीं गए। हम
कहीं ऐसी जगह
पर घूम रहे
हैं, जहां
हमारा कभी होना
ही नहीं है।
और जहां हम
हैं, वहा
से हम चूक गए
हैं। आवागमन
से मुक्ति का
मतलब है, वहां
आ जाना, जहां
हम हैं।
परमात्मा
में आने का
मतलब है, वही
हो जाना जो हम
हैं। कोई ऐसा
नहीं है कि
किसी दिन
परमात्मा मिल
जाएगा कहीं
खड़ा हुआ और आप
नमस्कार
करेंगे और
कहेंगे कि
धन्यवाद, आप
मिल गए। ऐसा
कहीं कोई
परमात्मा
नहीं है। और
अगर ऐसा कहीं
दिख जाये, तो
समझना कि सब
हिप्नोसिस चल
रही है। यह भी
क्रियेटेड है।
यह भगवान भी
अपने ही बनाए
हुए हैं। इनकी
मुलाकात भी
उतनी ही झूठी
है। जितना
इनका खोना झूठा
था उतना ही
इनका मिलना
झूठा है। कहीं
ऐसा कोई भगवान
नहीं मिल जाने
वाला है।
इसलिए
यह हमारी भाषा
हमको धोखा
देती रहती है, क्योंकि
भाषा में हमको
लगता है ईश्वर—साक्षात्कार,
ईश्वर—दर्शन।
ये शब्द बड़े
गलत हैं। इन
शब्दों से ऐसा
लगता है कि
कहीं कोई मिल
जाएगा जिसका दर्शन
कर लेंगे, साक्षात्कार
हो जाएगा, गले
मिल लेंगे, भेंट हो
जाएगी। सब
झूठी बात है।
अगर ऐसा कभी
कोई परमात्मा
मिल जाए, तो
फौरन सावधान
हो जाना। यह
परमात्मा
बिलकुल आपके
ही मन का
निर्माण होगा।
यह हिप्नोसिस
होगी।
सब
हिप्नोसिस से
लौट जाना है
वापस। उस जगह
खड़े हो जाना
है जहां कोई
निद्रा नहीं, जहां
कोई सम्मोहन
नहीं, जहां
हम पूरे जागे
हुए, जो
हैं वह खड़े रह
गए हैं। उस
जगह जो अनुभव
होगा, वह
समस्त जीवन की
एकता का अनुभव
है, वह
समग्र के एक
होने का अनुभव
है। उस
अनुभूति का
नाम परमात्मा
है।
अब
हम सुबह के
ध्यान के लिए
बैठें। कुछ और
मैं रात बात
कर लूंगा।
थोड़े
— थोड़े फासले
पर हो जाएं।
और बातचीत न
करें, चुपचाप
फासले पर हो
जाएं। जगह बना
लें। जिन्हें
लेटना हो, वे
लेट जाएं, वे
लेटने लायक
जगह बना लें।
और बीच में भी
किसी की गिरने
जैसी हालत हो
जाए तो उसे
गिर जाना है, उसे अपने को
रोकना नहीं है।
ही, ऊपर
दहलान पर चले
जाएं, लेकिन
जगह बना लें।
क्योंकि पीछे
किसी के ऊपर
गिर जाएं तो
आपको भी तकलीफ
मालूम पडे और
दूसरे का
ध्यान भी बंट
जाए। तो हट
जाएं.....। ही, यहां
नीचे आ जाएं......।
आंख
बंद कर लें......
कोई बच्चे बात
नहीं करेंगे, चुपचाप
बैठेंगे दस
मिनट... आंख बंद
कर लें शरीर
को ढीला छोड़
दें...... शरीर को
शिथिल छोड़ दें।
शरीर को
बिलकुल ढीला
छोड़ दें, जैसे
शरीर में कोई
प्राण ही नहीं
हैं। सारी
शक्ति को भीतर
चले जाने दें....
शक्ति शरीर की
भीतर जा रही
है... भीतर बही
जा रही है
भीतर हम
सिकुड़े जा रहे
हैं। और शरीर
एक खोल की तरह
बाहर टंगा रह
जाएगा. चाहे
गिर जाए...... चाहे
अटका रह जाए.....
लेकिन बाहर एक
कपड़े के खोल
की तरह रह
जाएगा। भीतर
सरक जाएं...... और
शरीर को शिथिल
छोड़ दें। फिर
मैं सुझाव
देता हूं मेरे
साथ अनुभव
करें।
अनुभव
करें, शरीर
शिथिल हो रहा
है. शरीर
शिथिल हो रहा
है..... शरीर
शिथिल हो रहा
है। भाव करें,
और शरीर को
बिलकुल ढीला
छोड़ दें। शरीर
बिलकुल
आज्ञाकारी है;
जब पूरा भाव
करेंगे, शरीर
एकदम मुर्दा
हो जाएगा। भाव
करें, शरीर
शिथिल हो रहा
है....... शरीर
शिथिल हो रहा
है शरीर शिथिल
हो रहा है......
शरीर शिथिल हो
रहा है. शरीर
बिलकुल शिथिल
होता जा रहा
है। छोड़ दें.....
सारी पकड़ छोड़
दें.. शरीर को
भीतर से पकड़े
न रहें, बिलकुल
छोड़ दें. अपनी
सारी पकड़ सरका
लें। जैसे
अपना शरीर ही
नहीं है..... अब जो
होगा, होगा.
गिरेगा, गिरेगा.....
खोएगा, खोएगा....
बिलकुल हट
जाएं पीछे.
भाव को हटा
लें।
शरीर
शिथिल हो रहा
है शरीर शिथिल
हो रहा है... शरीर
शिथिल हो रहा
है.. शरीर
शिथिल हो रहा
है... शरीर शिथिल
हो रहा है......
शरीर शिथिल हो
रहा है। शरीर
शिथिल हो गया
है...... छोड़ दें...
शरीर पर सब
पकड़ छोड़ दें.
गिरे, गिर जाए!
शरीर शिथिल हो
गया है... जैसे
बिलकुल
मुर्दा हो
गया..... जैसे
बिलकुल मृत हो
गया। मर ही
जाएं..... शरीर के
तल पर बिलकुल
मर जाएं..... जैसे
शरीर गया।
शरीर अब नहीं
है...... हम अलग हो
गए हैं...... हम दूर
हट गए हैं।
श्वास
शांत हो रही
है. भाव करें, श्वास
शांत होती जा
रही है. श्वास शांत
हो रही है...
श्वास शांत हो
रही है.....? श्वास
शांत हो रही
है..... श्वास शांत
हो रही है
श्वास शांत हो
रही है..... श्वास
शांत होती जा
रही है. श्वास
शांत होती जा
रही है। छोड़
दें..... श्वास को
भी छोड़ दें.. और
भीतर हट जाएं।
श्वास शांत हो
गई है.. श्वास शांत
हो गई है
श्वास शांत हो
गई है..... श्वास
शांत हो गई है।
श्वास से भी
पीछे हट गए
हैं... श्वास शांत
हो गई है।
विचार
भी शांत हो
रहे हैं...
विचार भी शांत
हो रहे हैं......
विचार भी शांत
हो रहे हैं।
विचार से भी
हट जाएं...
विचार को भी
छोड़ दें।
विचार शांत
होते जा रहे
हैं..... विचार शांत
हो रहे हैं...
विचार शांत हो
रहे हैं.....
विचार शांत हो
रहे हैं..
विचार शांत हो
रहे हैं...
विचार शांत हो
रहे हैं।
विचार भी छोड़
दें... विचार शांत
हो रहे हैं.....
विचार शांत हो
रहे हैं......
विचार शांत हो
रहे हैं......
विचार शांत हो
रहे हैं।
शरीर
शिथिल हो गया
है विचार शांत
हो गए हैं दस
मिनट के लिए
भीतर जागे हुए
रह जाएं..... दस
मिनट के लिए
भीतर जागे हुए
रह जाएं। दस
मिनट के लिए
सब मर गया है, हम
भीतर एक
ज्योति की तरह
जागे हुए रह
गए हैं। शरीर
दूर पड़ा रह
गया है...... श्वास
दूर सुनाई पड़
रही है... विचार शांत
हो गए हैं......
भीतर हमारी
चेतना जागी
हुई देख रही
है। सो नहीं
जाना है, भीतर
जागे रहना है।
भीतर
जागते रहें......
भीतर देखते
रहें. देखते
रहें.....
द्रष्टा हो
जाएं। और एकदम
गहराई शुरू
होगी.....
सन्नाटा शुरू
होगा शून्य
शुरू होगा। अब
दस मिनट के
लिए चुप.... भीतर
देखते रह जाएं।
( भगवान श्री
कुछ मिनट मौन
रहकर फिर
सुझाव देना
शुरू करते हैं।)
मन
शांत हो गया
है... मन बिलकुल
शांत हो गया
है। और गहरे
डूब जाएं......
जैसे कोई गहरे
कुएं में
गिरता हो..
गिरते जाएं….. गिरते
जाएं.....। भीतर
जागे रहें और
शून्य होते
चले जाएं।
भीतर होश रखें
जागे रहें..
देखते रहें।
और सब मर गया
है...... शरीर
बिलकुल दूर रह
गया है... श्वास
दूर छूट गई है?
विचार खो गए
हैं...... हम ही रह
गए हैं। बस
जागे देखते
रहें... देखते
रहें... मन और
शून्य होता
चला जाएगा।
(मौन, निर्जन,
सन्नाटा.......।)
(कुछ मिनट
बाद भगवान
श्री साधकों
को धीरे— धीरे
गहरी श्वास
लेने एवं
ध्यान से वापस
लौटने का
सुझाव देते
हैं....... और बहुत
धीरे — धीरे
उन्हें आंख
खोलने को कहते
हैं...... और सुबह
की इस बैठक की
समाप्ति की
घोषणा करते हैं।)
आज की बैठक यहीं
समाप्त होती है।
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