( धयान
मूल तत्व
जिसकी तरलता
जिसकी सघनता
विरलता जिसका
ठोसपन तय करता
है कि आपको
जाग्रत कहें
या आपको सोया
हुआ कहें।
जागरण और
मूर्च्छा के
बीच जो तत्व
यात्रा करता
है, वह ध्यान
है।)
भगवान
श्री सजग
मृत्यु में
प्रवेश की
प्रक्रिया पर
चर्चा करने के
पहले मैं
पूछना
चाहूंगा कि और
जागृति में
क्या भेद है? बेहोशी
चेतना की किस
स्थिति को
कहते हैं? अर्थात
होश और बेहोशी
में जीवात्मा
की चेतना की
कौन— सी
स्थिति होती
है?
मूर्च्छा
और जागृति, इन
दोनों को
समझने के लिए
पहली बात तो
यह समझ लेनी
जरूरी है कि
ये दोनों
विपरीत
अवस्थाएं नहीं
हैं। साधारणत:
दोनों विपरीत
अवस्थाएं समझी
जाती हैं। असल
में जीवन को
हम द्वैत में
तोड़कर ही
देखते हैं।
अंधकार और
प्रकाश को बांट
लेते हैं और
सोचते हैं, अंधकार और
प्रकाश दो
चीजें हैं।
जैसे ही हमने यह समझा कि अंधकार और प्रकाश दो चीजें हैं, बुनियादी भूल हो गई। अब इस बुनियादी मूल के बाद जो भी चिंतन खड़ा होगा, वह भ्रांत होगा, वह ठीक कभी भी नहीं हो सकेगा। अंधकार और प्रकाश एक ही चीज की तारतम्यताएं हैं। अंधकार और प्रकाश एक ही चीज के रूप हैं, अंधकार और प्रकाश एक ही चीज की सीढ़ियां हैं।
जैसे ही हमने यह समझा कि अंधकार और प्रकाश दो चीजें हैं, बुनियादी भूल हो गई। अब इस बुनियादी मूल के बाद जो भी चिंतन खड़ा होगा, वह भ्रांत होगा, वह ठीक कभी भी नहीं हो सकेगा। अंधकार और प्रकाश एक ही चीज की तारतम्यताएं हैं। अंधकार और प्रकाश एक ही चीज के रूप हैं, अंधकार और प्रकाश एक ही चीज की सीढ़ियां हैं।
जिसे हम
अंधकार कहते
हैं,
उचित होगा
कहें कि वह
थोड़ा कम
प्रकाश है।
ऐसा प्रकाश, जिसे हमारी आंखें
नहीं पकड़ पाती
हैं। जिस
प्रकाश को
हमारी आंखें
नहीं पकड़ पाती
हैं, वह
हमें अंधकार
प्रतीत होता
है। प्रकाश को
हम कहें कि वह
थोड़ा कम
अंधकार है।
ऐसा अंहग्कार,
जिसे हमारी आंखें
पकड़ पाती हैं।
अंधकार और
प्रकाश ऐसी दो
विपरीत चीजें
नहीं हैं जो
अलग— अलग हैं।
अंधकार और प्रकाश
एक ही चीज की
डिग्रीज हैं,
मात्राएं
हैं।
और
जो अंधकार और
प्रकाश के
संबंध में सच
है,
वही जीवन के
समस्त
द्वंद्वों
में सच है।
मूर्च्छा और
चेतना भी ऐसी
ही बात है।
मूर्च्छा को समझ
लें अंधकार, चेतना को
समझ लें
प्रकाश। असल
में
मूर्च्छित से
मूर्च्छित
वस्तु भी
बिलकुल
मूर्च्छित नहीं
है। पत्थर भी
शइrच्छत
नहीं है, वह
भी चेतना की
ही एक अवस्था
है, लेकिन
इतनी कम कि
हमारी पकड़ के
बाहर है।
एक
आदमी सो रहा
है,
एक आदमी जाग
रहा है। जागना
और सोना दो
चीजें नहीं
हैं। एक ही
आदमी सोने और
जागने के बीच
में यात्रा कर
रहा है। जिसको
हम सोना कहते
हैं, वह भी
बिलकुल सोना
नहीं है।
क्योंकि सोते
वक्त हम जोर
से बोलते हैं,
राम! पांच
सौ आदमी सोए
हुए हैं तो
चार सौ निन्यानबे
आदमी नहीं
सुनते हैं, जिसका नाम
राम है, वह
आंख खोलकर
कहता है कि
कौन मेरी नींद
खराब कर रहा
है, कौन
मुझे बुला रहा
है! यह आदमी
अगर बिलकुल
सोया था, तो
इसे सुनाई
नहीं पड़ना
चाहिए था कि
इसका नाम
बुलाया गया।
और यह आदमी
अगर बिलकुल
सोया था तो
इसे यह पहचान
में नहीं आना
चाहिए था कि
मेरा नाम राम
है। इसकी यह
नींद भी जागने
की ही एक कम
अवस्था थी।
जागना थोड़ा
फीका, मद्धिम
हो गया था।
जागना थोड़ा
धुंधला हो गया
था।
फिर
एक आदमी के घर
में आग लगी
है। वह रास्ते
से भागा चला
जा रहा है। आप
उसको नमस्कार
करते हैं। वह
आपको देखता है, फिर
भी नहीं
देखता। वह
आपको सुनता है,
फिर भी नहीं
सुनता। दूसरे
दिन आप उससे
पूछते हैं कि
कल मैंने
नमस्कार किया,
आपने उत्तर
नहीं दिया। वह
आदमी कहता है,
मेरे मकान
में आग लगी
थी। मुझे उस
वक्त सिवाय
मकान के और
कुछ भी नहीं
दिखाई पड़ रहा
था। मेरे मकान
में आग लगी थी,
मुझे सिवाय
मकान के आसपास,
मकान में आग
लगी है, इस
आवाज के सिवाय
कोई आवाज
सुनाई नहीं पड़
रही थी। आपने
नमस्कार किया
होगा जरूर। आप
मिले होंगे
जरूर। लेकिन न
मैं देख पाया,
न मैं सुन
पाया। यह आदमी
जागा हुआ था
या सोया हुआ
था? यह
आदमी सब
अर्थों में
जागा हुआ था।
फिर भी इस आदमी
के लिए करीब
—करीब सोया
हुआ था। उस
आदमी से भी
ज्यादा सोया
हुआ था, जिसने
नींद में सुन
लिया था कि
राम, यह उस
आदमी से भी
ज्यादा सोया
हुआ था।
सोना
और जागना क्या
है?
पहली बात
मैं यह कहना
चाहता हूं कि
ये दो विपरीत
चीजें नहीं हैं।
पदार्थ और
परमात्मा दो
विपरीत चीजें
नहीं हैं।
नींद और जागरण
दो विपरीत
चीजें नहीं
हैं। प्रकाश
और अंधकार दो
विपरीत चीजें
नहीं हैं।
शैतान और
ईश्वर दो
विपरीत चीजें
नहीं हैं। बुरा
और भला दो
विपरीत चीजें
नहीं हैं। लेकिन
हमारी बुद्धि
हर चीज को
तत्काल दो में
तोड लेती है।
असल में
बुद्धि ने
सवाल उठाया कि
उसने दो में
तोड़ा नहीं।
बुद्धि ने
सोचा कि उसने दो
में तोड़ा
नहीं।
सोचना
और दो में
तोड़ना एक ही
चीज के दो नाम
हैं। जैसे ही
तुम सोचोगे, तुम
विभाजन
करोगे। सोचना
विभाजन की
प्रक्रिया
है। तुम
तत्काल दो
टुकड़े में कर
लोगे। और
जितना सोचने
वाला आदमी
होगा उतना
ज्यादा टुकड़े
करता जाएगा।
फिर टुकड़े ही
टुकड़े रह
जाएंगे और वह
जो द होल, वह
जो पूरा है, वह खो
जाएगा। और उस
पूरे में ही
हर सवाल का
जवाब है।
इसलिए
बुद्धि किसी
सवाल का जवाब
कभी भी नहीं खोज
पाती। ही, बुद्धि
हर जवाब में
से पच्चीस
सवाल जरूर खोज
लेती है।
कितना ही
महत्वपूर्ण
जवाब दिया गया
हो, बुद्धि
तत्काल उसमें
से पच्चीस
सवाल खोज लेगी,
लेकिन
बुद्धि कभी भी
किसी चीज का
जवाब नहीं खोज
पाती। उसका
कारण है।
क्योंकि जवाब
है पूरे में
और बुद्धि की
अपनी मजबूरी
है, क्योंकि
वह बिना तोड़कर
चल नहीं सकती।
ऐसा
ही हम समझें
कि मैं यहां
बैठा हूं,
मैं बोल रहा
हूं? मैं
यहां मौजूद
हूं? आप
मुझे सुन भी
रहे हैं, आप
मुझे देख भी
रहे हैं। जिसे
आप देख रहे
हैं और जो बोल
रहा है वह दो
आदमी नहीं है।
लेकिन जहां तक
आपका संबंध है—देख
रहे हैं आप
आंख से और सुन
रहे हैं आप
कान से। आपने
मुझे दो
हिस्सों में
तोड़ लिया है।
अगर आप मेरे
पास बैठें और
आपको मेरे
शरीर की गंध आ रही
है तो आपने
मुझे तीन
हिस्सों में
तोड़ लिया। फिर
आप इन तीन
हिस्सों को
जोड़कर मेरी
प्रतिमा बना
रहे हैं। वह
मेरी प्रतिमा
नहीं है, वह
आपका जोड़ है।
और वह जोड़
हमेशा भ्रांत
होगा, क्योंकि
किन्हीं भी
अंशों को
जोड़कर पूर्ण
नहीं बनाया जा
सकता। पूर्ण
तो वही है जो
अंशों के
तोड्ने के
पहले था।
तो
जैसे ही हम
पूछते हैं
जागृति और
मूर्च्छा, वैसे
ही हमने तोड़ना
शुरू कर दिया।
मैं मानता हूं
कि एक ही है।
लेकिन जब मैं
कहता हूं,
एक ही है, तब
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
जागृति ही
मूर्च्छा है,
मूर्च्छा
ही जागृति है।
यह मैं नहीं
कह रहा हूं।
जब मैं कहता
हूं अंधकार और
प्रकाश एक ही
है, तब भी
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
अंधेरा है तो
आप चले जाएं
तो उसी तरह
चले जाएंगे
जिस तरह
प्रकाश में जा
सकते हैं। जब
मैं कह रहा
हूं कि अंधेरा
और प्रकाश एक
है, तो मैं
यह कह रहा हूं
कि अस्तित्व
एक ही चीज की मात्राओं
का है। कम और
ज्यादा का
फर्क है, होने
और न होने का
फर्क नहीं है।
कम और ज्यादा का
फर्क है।
यह
कौन—सी चीज है
जो कम —ज्यादा
होकर
मूर्च्छा बन
जाती है और
जागृति बन
जाती है? अब
मुझे समझना
आसान हो
जाएगा। यह कौन
—सी चीज है जो
ज्यादा होती
है तो जागृति
मालूम पड़ती है,
और कम हो
जाती है तो
मूर्च्छा हो
जाती है। इस एक
तत्व का नाम
ही ध्यान है, अटेंशन है।
जितना ध्यान
प्रगाढ़ और
तीव्र होता है,
उतनी
जागृति हो
जाती है, जितना
ध्यान प्रगाढ़
और तीव्र नहीं
होता, उतनी
मूर्च्छा हो
जाती है।
मूर्च्छा और
जागृति ध्यान
की सघनताओं के
नाम हैं, डेंसिटीज
आफ अटेंशन।
कितनी प्रगाढ़
है ध्यान की
स्थिति, उतना
जागरण हो
जाएगा। कितनी
विरल है ध्यान
की स्थिति, उतनी मूर्च्छा
हो जाएगी। असल
में पत्थर और
हमारे बीच जो
फर्क है, वह
इतना ही है कि
पत्थर के पास
किसी भी दिशा
में सघन ध्यान
नहीं है। जिस
दिशा में सघन
ध्यान हो जाता
है, उस
दिशा में
जागृति हो
जाती है। जिस
दिशा में ध्यान
की सघनता कम
हो जाती है, उस दिशा में
मूर्च्छा हो
जाती है।
जैसे
कि अगर हम
किरणों को, सघन
करनेवाले
कांच के टुकड़े
में से किरणों
को निकालें तो
तत्काल आग
पैदा हो जाती
है। प्रकाश
सघन हो जाए तो
आग बन जाता
है। आग अगर
विरल हो जाए
तो प्रकाश रह
जाती है। एक
अंगारे में आग
है, क्योंकि
प्रकाश बहुत
सघन है। जहां
भी प्रकाश सघन
हो जाता है, वहां आग
पैदा हो जाती
है। जहां
प्रकाश विरल
हो जाता है, उसकी
डेंसिटी कम हो
जाती है, वहां
आग भी प्रकाश
रह जाती है।
और जितनी
सघनता कम होती
जाती है, उतना
अंधकार बढ़ता
जाता है।
जितनी सघनता
बढ़ती जाती है,
उतना
प्रकाश बढ़ता
जाता है। अगर
हम सूरज की
तरफ यात्रा
करें तो
प्रकाश बढ़ता
जाएगा, क्योंकि
सूरज से आने
वाली किरणें
सूरज पर बहुत
सघन हैं। जैसे
ही हम सूरज से
दूर हटते
जाएंगे, वैसे—वैसे
प्रकाश कम
होता जाएगा।
सूरज से बहुत
बड़ी दूरी पर
अंधकार रह
जाएगा। वह
अंधकार सिर्फ
प्रकाश की
सघनता के कम
हो जाने के
कारण है। ठीक
ऐसे ही मैं
मूर्च्छा और
जागृति को
लेता हूं।
ध्यान है मूल
तत्व, जिसकी
तरलता, जिसकी
सघनता, विरलता,
जिसका
ठोसपन तय करता
है कि आपको
जाग्रत कहें या
आपको सोया हुआ
कहें; आपको
मूर्च्छित
कहें कि आपको
होश में कहें।
और
जब भी हम इन
शब्दों का
प्रयोग
करेंगे, तब
ध्यान में
रखना कि ये
सारे शब्द
रिलेटिव, सापेक्ष
अर्थों में
प्रयुक्त
होते हैं। जैसे
हम जब कहते
हैं कि कमरे
में प्रकाश है
तो उसका कुल
मतलब इतना
होता है कि
बाहर जितना
प्रकाश है
उससे ज्यादा
है। इतना ही
मतलब होता है।
अभी इस कमरे
में प्रकाश है,
क्योंकि
बाहर अंधकार
है। बाहर अगर
सूरज निकला हो
और तीव्र
प्रकाश हो तो
यह कमरा
अंधेरा मालूम
पड़ने लगेगा।
तो जब हम कहते
हैं कि कोई
चीज जाग्रत है
या कोई सोया
है, तब भी
हमारा मतलब
इतना ही होता
है कि किसी की
तुलना में।
लेकिन भाषा
में बड़ी
कठिनाई है।
क्योंकि अगर
हम बार—बार
तुलना करें तो
कहना बहुत
मुश्किल हो
जाएगा। इसलिए
भाषा में हम
शब्दों का
प्रयोग
एकोल्युट
अर्थों में
करते हैं, जो
कि ठीक नहीं
है। ठीक तो
हमेशा
रिलेटिविटी ही
होती है। हम
यहां इतने लोग
बैठे हैं। एक
अर्थ में हम
सब जागे हुए
हैं, लेकिन
यह बात बहुत
ठीक नहीं है।
यहां जितने लोग
बैठे हैं उतनी
मात्राओं में
लोग जागे हुए
होंगे। यहां
हर आदमी एक—सा
जागा हुआ नहीं
है। इसलिए हो
सकता है कि
तुम्हारा
पड़ोसी
तुम्हारे
अर्थों में सोया
हुआ हो और
तुम्हारा
दूसरा पड़ोसी
तुम्हारी
तुलना में
जागा हुआ हो।
जागरण
और मूर्च्छा
के बीच जो
तत्व यात्रा
करता है, वह ध्यान
है। इसलिााऊ
हम ध्यान को
समझ लें तो इन
दोनों को भी
हम समझ
जाएंगे।
ध्यान का मतलब
है किसी चीज
का बोध, अवेयरनेस,
किसी चीज का
पता चलना, किसी
चीज का
काशसनेस में
प्रतिबिंब
बनना। और यह
प्रतिपल ऐसा
ही है हमारा, कि ऐसा भी
नहीं है कि
चौबीस घंटे
अगर कोई आदमी जागा
हुआ है तो वह
एक—सा जागा
हुआ रहता है, ऐसा भी नहीं
है।
आंख
की पुतली के
संबंध में
थोड़ा समझना
उचित होगा। जब
तुम बाहर
रोशनी में
जाते हो तो
आंख की पुतली
सिकुड़ जाती है, छोटी
हो जाती है, क्योंकि
उतनी ज्यादा
रोशनी भीतर
जाने की कोई जरूरत
नहीं है। कम
रोशनी से भी
दिखाई पड़
सकेगा, तो
आंख का फोकस
छोटा हो जाता
है। जब तुम
प्रकाश से
अंधेरे में
आते हो तो आंख
फैल जाती है, उसका फोकस
बड़ा हो जाता
है, क्योंकि
अब अंधेरे में
ज्यादा भीतर
जायेगा तो ही
तुम देख
सकोगे। जैसे
कैमरे में हम
पूरे वक्त
फोकस बदलते
हैं कि कितना
लेंस खुला रहे,
ठीक ऐसे ही
आंख पूरे वक्त
प्रकाश और
रोशनी की तारतम्यताओं
में अपने को
बदलती है।
जैसे
हमारी आंख
प्रतिपल
फ्लेक्सिबल
है,
लोचपूर्ण
है, ऐसे ही
हमारा ध्यान
भी प्रतिपल
लोचपूर्ण है। तुम
रास्ते पर चले
जा रहे हो।
अगर यह रास्ता
परिचित है, तो तुम्हारा
ध्यान विरल
होगा। अगर यह
रास्ता
अपरिचित है, तो तुम्हारा
ध्यान सघन
होगा। अगर यह
रास्ता रोज—रोज
वाला है, जिस
पर तुम रोज
आते हो और
जाते हो, तो
तुम्हें
जागने की कोई
जरूरत नहीं, तुम
मूर्च्छित ही
गुजरोगे। अगर
यह रास्ता बिलकुल
अपरिचित है
जिस पर तुम
कभी भी नहीं
गुजरे हो, तो
तुम जागे हुए
गुजरोगे।
क्योंकि
अपरिचित होने
की वजह से
तुम्हारे
ज्यादा ध्यान
की मांग होगी।
इसलिए
जो आदमी जितनी
सुरक्षा में
जीएगा, उतना
मूर्च्छित
जीएगा।
क्योंकि
सुरक्षा में
सब परिचित है।
जो आदमी जितनी
असुरक्षा में,
इनसिक्योरिटी
में जीएगा, उतना जागा
हुआ जीएगा।
इसलिए साधारणत:
ऐसा समझें कि
खतरे के
क्षणों को
छोड्कर हम कभी
जागते नहीं
हैं, हम
सोए ही होते
हैं। अगर मैं
तुम्हारी
छाती पर एक
छुरा रख दूं
अभी, तो
तुम जाग जाओगे
बहुत और
अर्थों में, जैसे कि तुम
अभी जागे हुए
नहीं हो।
क्योंकि तुम्हारी
छाती पर छुरा
रखा जाएगा तो
इतनी इमरजेंसी,
इतने संकट
की अवस्था
पैदा हो जाएगी,
इतनी
आपात्कालीन
घड़ी होगी कि
उस वक्त सोने
को अफोर्ड
नहीं किया जा
सकता। नहीं, उस वक्त तुम
सोए—सोए नहीं
रह सकते, क्योंकि
इतने खतरे में
अगर सोए रहे
तो मरने का डर
हो जाएगा।
इतने खतरे में
तुम्हारा
सारा प्राण
सघन हो जाएगा,
तुम्हारा
सारा ध्यान
सघन हो जाएगा।
एक छुरा ही रह
जाएगा
तुम्हारे
ध्यान में और
तुम छुरे के
प्रति पूरी
तरह जाग
जाओगे। हो
सकता है यह एक
ही सेकेंड को
हो। खतरे के
क्षणों में ही
हमारा ध्यान
साधारणत: सघन
होता है। खतरा
निकल जाता है,
हम फिर वापस
अपनी जगह पर
लौट आते हैं, फिर सो जाते
हैं।
शायद
इसीलिए खतरे
का आकर्षण भी
है। खतरा हम
उठाना चाहते
हैं। एक जुआरी
जुआ खेलता है।
शायद ही हमें
खयाल हो कि
जुआरी के जुआ
खेलने में
कौन—सा रस है।
खतरे का रस
है। दाव के
क्षण में वह
जाग जाता है, जितना
वह कभी जागा
हुआ नहीं होता
है। एक जुआरी
ने लाख रुपये
दांव पर रख
दिये हैं, पांसे
फेंकने को है,
यह क्षण बड़े
संकट का है।
और इस क्षण
में लाख इस तरफ
या लाख उस तरफ
हो जाने वाले
हैं। इस क्षण
में सोया हुआ
नहीं रहा जा
सकता है। इस
क्षण में जागना
ही पड़ेगा। एक
क्षण को, दांव
का जो क्षण है,
वह ध्यान को
प्रगाढ़ कर
जाएगा। अब तुम
हैरान होओगे
कि मेरी समझ में
जुआरी भी
ध्यान खोज रहा
है। उसे पता
हो या न हो, यह
दूसरी बात है।
एक
आदमी विएवाह
करके ले आया
है। फिर जिस
पत्नी से वह
रोज—रोज
परिचित हो
जाता है, उसके
प्रति सो जाता
है। बंधा हुआ
रास्ता है। उसी
पर वह रोज—रोज
आता—जाता है।
पड़ोस की
स्त्री एकदम
आकर्षक मालूम
होती है। कुछ
और बात नहीं
है। पड़ोस की
स्त्री ध्यान
को जगाती है।
अपरिचित है।
उसको देखते
वक्त ध्यान को
सघन होना पड़ता
है। आंख का
फोकस फौरन बदल
जाता है। असल
में पत्नी को
देखने के लिए आंख
में किसी फोकस
की जरूरत ही
नहीं होती, न पति को
देखने में
होती है। असल
में पति, पत्नी
को शायद ही
कोई कभी देखता
हो। ऐसा हम आंख
बचाकर चलते
हैं कि पत्नी,
पति को
दिखाई न पड़
जाए। इस तरह
चलते हैं, इस
तरह जीते हैं।
वहा कोई ध्यान
देने की जरूरत
नहीं रह जाती।
इसलिए दूसरी
स्त्री में
दूसरे पुरुष
का जो आकर्षण
है, मेरे
हिसाब से
ध्यान का ही
आकर्षण है। उस
एक क्षण में, पुलक में, एक क्षण को
चित्त जागता
है और जागना
पड़ता है। हम
किसी को देख
पाते हैं।
पुराने
मकान की जगह
नए मकान की
दौड़ है।
पुराने कपड़ों
की जगह नए
कपड़ों की दौड़
है। पुराने पद
की जगह नए
पदों की दौड़
है। यह सारी
की सारी दौड़
बहुत गहरे में
ध्यान के सघन
होने की आकांक्षा
है। और जीवन
में जितना भी
आनंद है वह
आनंद, ध्यान
जितना सघन हो,
इस पर
निर्भर करता
है। आनंद के
क्षण ध्यान की
सघनता के क्षण
हैं। इसलिए
जिन्हें आनंद
पाना हो, उन्हें
जागना
अनिवार्य है।
सोए—सोए आनंद
नहीं पाया जा
सकता।
धर्म
भी ध्यान की
तलाश है और
जुआ भी। और जो
आदमी युद्ध के
मैदान में
तलवार लेकर
लड़ने गया है, वह
भी ध्यान की
तलाश में गया
है। और जो
आदमी जंगल में
शेर का शिकार
करने चला गया
है, वह भी
ध्यान की तलाश
में गया है।
और जो आदमी गुफा
में बैठकर आंख
बंद करके आशा
चक्र पर श्रम
कर रहा है, वह
भी ध्यान की
तलाश में गया
हुआ है। ये
तलाश शुभ और
अशुभ हो सकती
हैं, लेकिन
यह तलाश एक
है। कोई तलाश
वांछनीय और
कोई अवांछनीय
हो सकती है, लेकिन तलाश
एक है। और कोई
तलाश असफल हो
सकती है और
कोई सफल हो
सकती है, लेकिन
तलाश की आकांक्षा
एक है।
ध्यान
का अर्थ है कि
मेरे भीतर जो
जानने की शक्ति
है,
वह पूरी
प्रकट हो।
उसमें कोई भी
हिस्सा मेरे भीतर
पोर्टेट न रह
जाए, बीज—रूप
न रह जाए।
मेरे भीतर
जितनी भी
क्षमता है
जानने की, वह
पोटेंशियल न
रह जाए, एक्चूअल
हो जाए, वास्तविक
हो जाए।
तो
जिस क्षण में
कोई व्यक्ति
पूरी तरह
जागता है, उस
क्षण में वह
पूरी तरह होता
भी है। दोनों
एक साथ घटनाएं
घटती हैं।
जैसे एक बीज
है। एक बीज में
वृक्ष छिपा
हुआ है, लेकिन
पोटेशियली, संभावना है
सिर्फ। बीज
बिना उसको
प्रकट किए भी
मर सकता है।
जरूरी नहीं कि
बीज से वृक्ष
पैदा हो ही।
हो सकता है।
यह सिर्फ एक
संभावना है, यह
वास्तविकता
नहीं है अभी।
फिर बीज वृक्ष
हो जाए, यह
भी बीज की ही
दूसरी अवस्था
है, प्रकट।
ऐसा कहें कि
बीज जो है वह
वृक्ष की अप्रकट
अवस्था है, तो गलत न
होगा। ऐसा
कहें कि वृक्ष
जो है वह बीज की
प्रगट अवस्था
है, तो गलत
न होगा।
क्योंकि
वृक्ष में वही
तो प्रकट हो
गया है, जो
बीज में छिपा
था। तो यदि हम
ऐसा कहें कि
निद्रा
जागृति की
अप्रकट
अवस्था है, तो गलत न
होगा।
मूर्च्छा
जागृति की
अप्रकट अवस्था
है, तो गलत
न होगा। या हम
ऐसा कहें कि
जागृति मूर्च्छा
की प्रकट
अवस्था है, तो गलत न होगा।
और
कौन इसमें से
यात्रा कर रहा
है जो बीज में
भी था और
वृक्ष में भी? क्योंकि
एक तो कोई
होना चाहिए, नहीं तो बीज
और वृक्ष को
जोड़ेगा कौन!
बीज अगर वृक्ष
बनता है तो
बीच में कोई
सेतु होगा, और बीच में
कोई यात्रा
करनेवाला
होगा, जो
बीज में भी था
और वृक्ष में
भी है। वह
मध्य का कौन
है जो दोनों
के बीच यात्रा
कर रहा है? जो
बीज में छिपा
था और वृक्ष
में प्रकट हुआ
है, वह कौन
है? वह न तो
बीज हो सकता
है, न
वृक्ष हो सकता
है।
इसको
थोड़ा समझ
लेना। वह जो
तीसरी ताकत है
जो बीज में
छिपी थी और
वृक्ष में
प्रकट है, अगर
वह बीज ही होती,
तो कभी
वृक्ष नहीं हो
पाती। और अगर
वृक्ष ही होती
तो फिर बीज
में कैसे होती?
वह दोनों
में थी। वह जो
प्राण —शक्ति
है, वह
तीसरी है। तो
जागना और
मूर्च्छा तो
दो स्थितियां हैं।
इनके बीच जो
यात्रा कर रहा
है तत्व, उसका
नाम ध्यान है।
वह
प्राण—शक्ति
तीसरी है। तो
तुम कितने
ध्यानपूर्ण
हो, उतने
ही जागे हुए
हो। और तुम
कितने
ध्यान—रिक्त
हो, उतने
ही सोए हुए
हो।
पत्थर
सोया हुआ
परमात्मा है।
पूरी तरह से
सोया हुआ।
बिलकुल बीज
है। कहीं से
भी अंकुर नहीं
टूट रहा है।
आदमी वृक्ष
नहीं है, टूटा
हुआ बीज है।
थोड़ा—सा अंकुर
टूट गया है।
वृक्ष भी नहीं
हो गया है, पत्थर
भी नहीं है।
दोनों के बीच
में कहीं यात्रा
पर है। आदमी
यात्रा पर है,
या और भी
ठीक होगा कहना
कि आदमी
यात्रा है या
आदमी यात्रा
का एक पड़ाव
है। बीज वृक्ष
होने की यात्रा
पर निकला है।
बीच में वह
अंकुर भी होता
है। बस, आदमी
अंकुर है, अंकुरित
बीज है। जिसको
हम जागना कह
रहे हैं, वह
भी अंकुरित ही
है अभी।
अत्यंत धूमिल
है।
जिसे
हम जागना कह
रहे हैं, वह भी
बहुत धूमिल है,
वह भी बहुत
सोया—सोया है,
स्लीपी।
करीब—करीब हम
जागते हुए
जैसा जीते हैं,
सड़क पर चलते
हैं, दफ्तर
में काम करते
हैं, वह
सोमनाबुलिज्म
से ज्यादा
भिन्न बात
नहीं है। जैसे
कोई आदमी रात
सपने में उठ
आता है, चौके
में जाकर पानी
पी आता है, या
अपनी टेबुल पर
बैठकर एक पत्र
लिख देता है और
वापस सो जाता
है। और सुबह
कहता है, मुझे
पता नहीं, मैं
तो उठा नहीं।
उसने रात सपने
में ही यह सब किया।
उसकी आंख खुली
थी, वह
रास्ता ठीक से
गया, दरवाजा
ठीक से खोला, उसने पत्र
भी लिखा है।
लेकिन फिर भी
वह सोया हुआ
था, सारा
हिस्सा सोया
हुआ था। कोई
एक जरा—सा
कोना जाग गया
होगा। वह इतना
छोटा कोना था
कि उसकी स्मृति
भी पूरे मन को
पता नहीं चल
पाई। इसलिए सुबह
वह आदमी कहता
है कि मुझे
पता नहीं है।
हमारा
जिसको हम
जागना कहते
हैं वह भी
करीब—करीब ऐसा
ही नींद में
जाग कर काम
करने वालों
जैसा है। अगर
मैं तुमसे
पूछूं कि एक
जनवरी उन्नीस
सौ पचास में
तुमने क्या
किया था, तो
तुम कुछ भी न
कह सकोगे। तुम
कहोगे, एक
जनवरी उन्नीस
सौ पचास हुई
तो जरूर थी, कुछ किया भी
था। लेकिन
क्या किया था,
कुछ भी पता
नहीं। लेकिन
तुम हैरान
होओगे, अगर
तुम्हें
हिप्नोटाइज
किया जा सके
और तुम्हें
अगर बेहोश
किया जा सके
और फिर तुमसे
पूछा जाए कि
एक जनवरी
उन्नीस सौ
पचास को तुमने
क्या किया, तो तुम सब
बता दोगे, सब
वापस दोहरा
दोगे। तुम्हारे
मन के किसी एक
कोने ने तो
संग्रह कर लिया,
लेकिन
तुमको भी पूरी
तरह से पता
नहीं है। तुम्हारे
एक हिस्से ने
तो रेकार्ड कर
लिया, लेकिन
तुम्हें भी
खुद पता नहीं
है पूरी तरह
से। वह
रेकार्ड हो
गया और रख गया
है। इसी तरह
हमारे पिछले
जन्मों की
स्मृतियां भी
रखी हुई हैं।
हमें पूरी तरह
से उनका भी
पता नहीं है।
हमारा कोई और
हिस्सा पिछले
जन्म में जागा
रहा था, उस
हिस्से ने काम
कर लिया था।
वह सो गया है, अब एक दूसरा
कोना जाग रहा
है। उसको कुछ
पता नहीं है
कि दृस्रा
कोना जाग कर
काम बहुत कर
चुका है। एक
अंकुर फूट
चुका था बीज
में पिछले
जन्म में, फिर
वह मर गया। अब
दूसरा अंकुर
फूट गया है।
उसे कुछ पता
नहीं कि इसमें
पहले भी एक
चेष्टा हो चुकी
है। उसे कुछ
पता नहीं कि
अनंत
चेष्टाएं हो
चुकीं। और अगर
पिछले जन्मों
की स्मृतियों
में जाओगे तो
बहुत हैरान हो
जाओगे।
पिछले
जन्मों की
स्मृतियां सिर्फ
मनुष्य—जन्मों
की स्मृतियां
नहीं हैं।
उनमें जाना तो
बहुत आसान है, बहुत
कठिन नहीं है।
लेकिन
मनुष्यों के
कई जन्मों के
पहले के जन्म
पशुओं के भी
थे। उनमें जाना
जरा कठिन है, क्योंकि वे
और भी गहन तल
में छिप गए
हैं। और पशुओं
के पहले
बहुत—से जन्म
वृक्षों के भी
थे। उनमें
जाना और भी
मुश्किल है, क्योंकि वे
और भी गहन तल
में छिप गए
हैं। और वृक्षों
के पहले
बहुत—से जन्म
पत्थरों के और
खनिजों के भी
थे। वे और भी
गहरे छिप गए
हैं। उनमें
जाना और भी
मुश्किल है।
अब
तक जाति—स्मरण
के जो भी
प्रयोग हैं, वे
ज्यादा से
ज्यादा पशुओं
तक जा सके।
बुद्ध या
महावीर ने भी
जो प्रयोग किए,
वे पशुओं से
आगे नहीं जा
सके। वृक्ष
होने की स्मृति
अभी जगायी
जाने को है।
और खनिज होने
की स्मृति तो
और दूर पर है, लेकिन वह सब
संगृहीत है।
लेकिन उसका
संग्रह जरूर
किसी तंद्रा
की अवस्था में
हुआ है, अन्यथा
हमारे पूरे मन
को पता होता।
हमें
जो बातें याद
रह जाती हैं, कभी
तुमने खयाल न
किया होगा कि
जो बातें हमें
कभी नहीं
भूलतीं, क्यों
नहीं भूलतीं?
हो सकता है
तुम पांच वर्ष
की उम्र के थे
और किसी ने
तुम्हें एक
चांटा मार
दिया था, वह
तुम्हें आज भी
भलीभांति याद
है और जिंदगी
भर न भूल
सकोगे। बात
क्या है? जिस
क्षण तुम्हें
चांटा मारा
गया, तुम्हारा
अटेंशन बहुत
जागा हुआ
होगा। इसलिए वह
बहुत गहरे तक
पकड़ सका। असल
में चांटा जब
मारा जाएगा, तो स्वभावत:
ध्यान पूरा
जागा हुआ सघन
होगा। इसलिए
आदमी अपमान के
क्षणों को कभी
नहीं भूल पाता,
दुख के क्षणों
को कभी नहीं
भूल पाता, सुख
के क्षणों को
कभी नहीं भूल
पाता। ये सब
तीव्र क्षण
हैं। इन
क्षणों में वह
इतना होश से भरा
होता है कि
इनकी स्मृति
उसकी पूरी
चेतना में
व्यापक हो
जाती है।
साधारण चीजों
को वह भूलता
चला जाता है।
यह
जो ध्यान है, इसको
हम कैसे समझें
कि यह क्या है!
अनुभव है, इसलिए
थोड़ी कठिनाई
तो है। अगर
मैं तुम्हारे
हाथ में एक
आलपीन चुभाऊं,
तो
तुम्हारे
भीतर क्या
घटना घटती है?
तत्काल
तुम्हारे
ध्यान की
धाराएं उस
आलपीन के
बिंदु पर
भागने लगती
हैं। वह आलपीन
का बिंदु एकदम
महत्वपूर्ण
हो जाता है।
कहना चाहिए कि
तुम्हारी
सारी आत्मा उस
आलपीन के
बिंदु पर खड़ी
हो जाती है।
कहना चाहिए कि
उस क्षण में
तुम अपने शरीर
में सिर्फ उसी
बिंदु के
प्रति जागे रह
जाते हो जहां
आलपीन चुभ रही
है।
तुम्हारे
भीतर कौन —सी
घटना घटी? आलपीन
नहीं चुभ रही
थी, तब भी
तुम्हारे
शरीर का वह
हिस्सा था। लेकिन
तुम्हें पता
नहीं था, तुम्हें
होश नहीं था
उस जगह का।
तुम्हें खयाल भी
नहीं था कि
वैसी भी कोई
जगह हाथ पर
है। लेकिन
अचानक एक
आलपीन ने संकट
पैदा कर दिया
और तुम्हारे
ध्यान की सारी
किरणें उस
बिंदु की तरफ
दौड़ने लगीं
जहां आलपीन
चुभ रही है।
तुम्हारे भीतर
कौन—सी चीज
दौड रही है? क्या हो रहा
है तुम्हारे
भीतर? क्या
फर्क हो रहा
है? घड़ी भर
पहले इस बिंदु
पर कौन —सी चीज
नहीं थी और अब
इस बिंदु पर
कौन—सी चीज है?
घड़ी भर पहले
इस बिंदु पर
चेतना नहीं थी,
होश नहीं
था। यह बिंदु
है भी या नहीं,
यह बराबर
था। इसके होने
न होने का कोई
पता नहीं था।
इसके होने न
होने में कोई
फासला न था।
अचानक पता चला
कि यह बिंदु
भी है। और अब इसके
होने और न
होने में बड़ा
फर्क है। अब
यह है। अब
इसका
एक्सिस्टेंशियल,
इसका
अस्तित्व बोध
तुम्हारे
सामने खड़ा हो
गया है। ध्यान
जो है, वह
बोध है, अवेयरनेस
है। अब ध्यान के
दो रूप हो
सकते हैं। इसे
समझ लेना
जरूरी होगा।
क्योंकि
तुम्हारे
सवाल को समझने
में वह भी
उपयोगी है।
ध्यान
के दो रूप
होते हैं। एक
को जिसे हम
कंसन्ट्रेशन
कहें, एकाग्रता
कहें। और
एकाग्रता को
समझने के लिए यह
जानना जरूरी
है कि जब एक
बिंदु पर
तुम्हारा
ध्यान एकाग्र
हो जाता है, तो शेष सारे
बिंदुओं पर
तुम सो जाते
हो। अभी मैंने
तुमसे कहा कि
तुम्हारे हाथ
में एक आलपीन चुभा
दी गई है तो जब
आलपीन जिस जगह
पर चुभ रही है
वहां
तुम्हारी
चेतना
पहुंचेगी, तुम्हें
शेष सारे शरीर
का बोध भूल
जाएगा। असल
में बीमार
आदमी सिर्फ
उन्हीं अंगों
में जीने लगता
है जो बीमार
होते हैं।
बाकी उसका
शरीर समाप्त
हो जाता है।
जिसका सिर दुख
रहा है, वह
सिर ही हो
जाता है। बाकी
उसका शरीर
नहीं रह जाता।
जिसका पेट दुख
रहा है, वह
पेट ही रह
जाता है।
जिसके पैर में
कांटा चुभा है,
उस कांटे की
जगह ही उसका
सब हो जाता
है। यह ध्यान
की एकाग्रता
है।
तुमने
अपनी सारी
चेतना को एक
बिंदु पर अटका
दिया।
स्वभावत: जब
सारी चेतना एक
बिंदु पर
अटकती है और
एक बिंदु की
तरफ दौड़ती है, तो
शेष सारे
बिंदु शून्य
हो जाते हैं, अंधेरे में
हो जाते हैं।
जैसा मैंने
कहा कि एक
आदमी के घर
में आग लग गई
है। बस, उसको
अब एक ध्यान
है कि आग लग गई
है। बाकी की
तरफ उसका सारा
ध्यान समाप्त
हो गया है। अब
उसे और कुछ भी
पता नहीं चल
रहा है। सारी
दुनिया की तरफ
वह सो गया है।
बस, एक
मकान जिसमें
आग लगी हुई है,
वहीं उसका
जागरण रह गया।
तो ध्यान का
एक रूप है
एकाग्रता।
लेकिन
एकाग्रता में
एक बिंदु पर तुम
एकाग्र हो
जाते हो और
शेष अनंत
बिंदुओं पर सो
जाते हो।
इसलिए
एकाग्रता
ध्यान की
सघनता तो है, लेकिन साथ
ही मूर्च्छा
का फैलाव भी
है। दोनों बातें
एक साथ घट रही
हैं।
ध्यान
का दूसरा रूप
है जागरूकता, एकाग्रता
नहीं।
जागरूकता, कंसन्ट्रेशन
नहीं, अवेयरनेस।
जागरूकता का
मतलब है ऐसा
ध्यान जिसका
कोई बिंदु
नहीं है। यह
जरा समझना और
थोड़ा कठिन है,
क्योंकि
बिंदु वाले ध्यान
का हमें पता
है। पैर में
कांटा भी गड़ा
है, सिर
में दर्द भी
हुआ है, मकान
में आग भी लगी
है, परीक्षा
भी दी है, सब
किया है। तो
हमें पता है
कि बिंदु वाला
ध्यान क्या
है। एकाग्रता
का हम सबको
पता है। लेकिन
एक और ध्यान
है जहां कोई
बिंदु नहीं
होता। क्योंकि
जब तक बिंदु
होगा ध्यान के
लिए, तब तक
शेष बिंदुओं
पर मूर्च्छा
होगी।
तो
अगर हम समझें
कि परमात्मा
है,
तो निश्चित
ही परमात्मा
जागा हुआ होगा,
पूर्ण जागा
हुआ होगा।
लेकिन
परमात्मा की
पूर्ण जागृति
का बिंदु क्या
होगा? अगर
उसकी जागृति
का कोई बिंदु
होगा तो शेष
सबकी तरफ वह सो
गया होगा।
इसलिए
परमात्मा की
जागृति का कोई
बिंदु, कोई
आब्जेक्ट, कोई
सेंटर नहीं हो
सकता।
अवेयरनेस
विदाउट सेंटर।
जागृति है, लेकिन कोई
केंद्र नहीं
है। तब जागृति
अनंत हो जाती
है, तब सब
तरफ फैल जाती
है।
यह
जो सब तरफ फैल
गई जागृति है, यह
परम अवस्था है,
ऊंची से
ऊंची जो संभव
है। इसलिए
परमात्मा के
स्वरूप की
व्याख्या में
जब हम
सच्चिदानंद
कहते हैं, तो
उसमें चित
शब्द का यह
अर्थ है। चित
का अर्थ चेतना
नहीं। चित का
अर्थ चेतना
आमतौर से लोग
समझ लेते हैं।
क्योंकि
चेतना तो होती
ही किसी चीज
की है। चेतना
का मतलब ही
होता है कि
उसका कोई
आब्जेक्ट
होगा। कांशसनेस
इज आलवेज
स्काउट। अगर
तुम कहो कि
मैं चेतन हूं
तो तुमसे पूछा
जा सकता है, किस चीज के, किसके प्रति
चेतन हो? चित
का मतलब होता
है, आब्जेक्टलेस
कांशसनेस।
किसी के प्रति
नहीं, बस
चेतन। इसलिए
चित का अर्थ
चेतना नहीं
है। चित का
अर्थ चैतन्य
है।
फर्क
समझ लेना।
चेतना तो, सदा
आब्जेक्ट
सेंटर्ड होगी,
कोई वस्तु
केंद्रित
होगी। और
चैतन्य
आत्मविकीर्ण
होगा अनंत की
ओर। कहीं
रुकता नहीं, कहीं ठहरता
नहीं, सब
तरफ फैलता है।
ऐसा कोई बिंदु
नहीं है जहां इसके
कारण
मूर्च्छा
पकड़नी पड़ती
हो। यह परम अवस्था
हुई। इसको
कहें पूर्ण
जागृति। इससे
ठीक उलटी दूसरी
अवस्था होगी
जिसको कहें, पूर्ण
सुषुप्ति, पूरा
सोया होना।
उसका मतलब यह
है.. इसको भी
समझ लेना
जरूरी है।
एकाग्रता
में एक बिंदु
है,
शेष
बिंदुओं पर
मूर्च्छा है।
एक बिंदु पर
जागृति है।
पूर्ण जागरूकता
में कोई बिंदु
नहीं है जागरण
का, सब तरफ
जागृति है। या
कहना चाहिए
सिर्फ जागृति
है, जस्ट
अवेयरनेस, किसी
चीज की नहीं
है। आब्जेक्ट
खो गया है
पूर्ण
जागरूकता में,
सिर्फ
सब्जेक्ट रह
गया। सिर्फ
जाननेवाला रह गया
है और जो जाना
जाता है, वह
नहीं रह गया।
जाननेवाला रह
गया है और
जानने की
शक्ति अनंत
में फैली रह
गई है और
जानने को कुछ
भी शेष नहीं
रहा है।
क्योंकि
जहां भी कुछ
जाना जाएगा, हमेशा
किसी चीज की
कीमत पर जाना
जाएगा। अगर तुम्हें
कुछ जानना है
तो कुछ जानने
से तुम्हें बचना
पड़ेगा। ध्यान
रखना, जानने
की कीमत सदा
अज्ञान से
चुकानी पड़ती
है। इसलिए
आदमी जितनी
चीजों को
जानता जाता है
उतनी बहुत—सी
चीजों के
प्रति उसे
अज्ञानी होना
पड़ता है। अब
जैसे
वैज्ञानिक
सबसे ज्यादा
जानने वाला
आदमी है।
लेकिन अगर वह
केमिस्ट है तो
उसे फिजिक्स
का कोई भी पता
नहीं हो सकता।
अगर वह
गणितज्ञ है तो
उसे
केमिस्ट्री
का कोई पता
नहीं हो सकता
है। अगर गणित
के संबंध में
उसे बहुत
जानना है तो
उसे बहुत से
संबंधों में न
जानने को राजी
होना पड़ेगा।
यह चुनाव करना
पड़ेगा। असल
में अगर किसी
चीज का इतनी
बनना है तो
बहुत चीजों के
प्रति
अज्ञानी होने
के लिए हिम्मत
रखनी पड़ेगी।
इसलिए
महावीर और
बुद्ध इन
अर्थों में
ज्ञानी नहीं
थे। उनका
ज्ञान
स्पेशलाइज्ड
नहीं है। उनका
शान जो है, वे
किसी चीज के
एक्सपर्ट
नहीं हैं।
इसलिए एक तरफ
हम कहते हैं
कि महावीर
सर्वज्ञ हैं,
लेकिन
साइकिल का
पंक्चर
जोड्ने की
तरकीब भी नहीं
बता सकते हैं।
वह विशेषश नहीं
हैं। क्योंकि
जिसको साइकिल
का पंक्चर
जोड्ने की
तरकीब बतानी
हो, उसे
बहुत —सी
चीजों को
जानने से बचना
पड़ेगा। चेतना
को केंद्रित
होना पड़ेगा।
बहुत—सी चीजें
अंधेरे में
छूट जाएंगी।
साइंस का मतलब
ही यह है कि कम
से कम चीज के
संबंध में
ज्यादा से
ज्यादा
जानना। जितना ज्यादा
जानना होने
लगता है, उतना
जानने का
बिंदु कम से
कम होने लगता
है। आखिर में
एक बिंदु ही
जानने का रह
जाता है, शेष
सारी दिशाओं
में अज्ञान भर
जाता है।
इसलिए
वैज्ञानिक
तरह का आदमी, जो
हो सकता है
हाइड्रोजन बम
बनाए, लेकिन
बाजार में एक
साधारण—सा
दुकानदार
उसको धोखा दे
दे, इसमें
कोई कठिनाई
नहीं है।
क्योंकि वह
इतनी थोडी —सी
चीज के बाबत
जानता है कि
बाकी का उसे
कुछ पता नहीं
है। बाकी के
संबंध में वह
बिलकुल ग्रामीण
है। ग्रामीण
से भी ज्यादा
गया बीता है।
ग्रामीण
बहुत—सी बातें
जानता है। वह विशेषज्ञ
नहीं है।
इसलिए अक्सर
पुराने ढंग का
आदमी बहुत—सी
चीजें जानता
है। नए ढंग का
आदमी बहुत—सी
चीजें नहीं
जानता है। उसे
चुनाव करना
पड़ा है। एक
चीज के संबंध
में बहुत
जानने के लिए
बहुत—सी चीजों
के संबंध में
जानने का
त्याग करना
पड़ा है।
ध्यान का
अर्थ है कि
मेरे भीतर जो
जानने की शक्ति
है, वह पूरी
प्रकट हो।
उसमें कोई भी
हिस्सा मेरे भीतर
पोस्टें न रह
जाए, बीज—रूप
न रह जाए।
मेरे भीतर
जितनी भी
क्षमता है
जानने की, वह
पोटेंशियल न
रह जाए, एक्चुअल
हो जाए, वास्तविक
हो जाए।
एकाग्रता
का यह परिणाम
होगा। आब्जेक्ट
महत्वपूर्ण
होता जाएगा और
अनंत बिंदु उपेक्षा
में पड़
जाएंगे। और
एकाग्रता का
यह भी परिणाम
होगा कि जितना
आब्जेक्ट, जितनी
विषय—वस्तु
महत्वपूर्ण
हो जाएगी, उतना
ही जाननेवाला
गौण हो जाएगा।
वैज्ञानिक बहुत
कुछ जानता है,
लेकिन कौन
जानता है उसके
भीतर से, उसको
बिलकुल नहीं
जानता है।
आब्जेक्ट
सेंटर्ड हो जाएगा।
उससे किसी चीज
के संबंध में
पूछो तो वह बता
देगा, उससे
उसके संबंध
में पूछो तो
कई दफे दिक्कत
में पड़ जा
सकता है।
एक
दफा तो ऐसा
मजा हुआ कि
एडीसन जिसने
एक हजार आविष्कार
किए,
शायद इतने
ज्यादा
आविष्कार
किसी आदमी ने
नहीं किए।
पिछले पहले
महायुद्ध में
अमरीका में
राशनिंग हुई
और ग्लीसन को
भी राशन का
कार्ड लेकर दुकान
पर जाना पड़ा।
कार्ड जमा कर
दिए गए हैं।
जब उसका नंबर
आएगा....... वह क्यू
में खड़ा है।
और जब नाम
पुकारा गया
थामस ग्लीसन
का, तो वह भी
ऐसा देखने लगा
चारों तरफ
जैसे किसी
दूसरे आदमी के
लिए पुकारा
गया है। कोई
व्यक्ति भीड़
में उसे
पहचानता था।
उसने कहा, जहां
तक मैं समझता
हूं, मैंने
अखबारों में
आपके फोटो
देखे हैं, आप
ही एडीसन
मालूम पड़ते
हैं। उसने कहा,
तुमने
अच्छी याद
दिलाई। असल
में तीस साल
से मुझे अपने
से मिलने का
कोई मौका ही
नहीं मिला, फुर्सत भी
नहीं मिली।
लेबोरेट्री
में तीस साल
इतने जोर से
लगा था वह
आदमी। और फिर
वह इतना कीमती
आदमी था कि
उसका नाम लेकर
तो कोई बुलाता
नहीं था। वह
अपना नाम भूल
गया था। तीस
साल से किसी
ने उसका नाम
लिया भी नहीं
था उसके
सामने।
चेतना
का जो तीर है, अगर
वह किसी वस्तु
की तरफ बहुत
तीव्रता से लग
गया, तो
कंसन्ट्रेशन
होगा। लेकिन
सारे जगत के
प्रति अंधकार
हो जाएगा और
अपने प्रति भी
अंधकार हो
जाएगा।
आखिरी
अवस्था की जो
मैं बात कर
रहा हूं वहां
आब्जेक्ट खतम
हो जाएगा, सारे
बिंदुओं पर प्रकाश
हो जाएगा और
साथ ही उस
बिंदु पर भी
प्रकाश हो
जाएगा, जो
मैं हूं। यह
अनफोकस्ट
लाइट होगा।
प्रकाश न कहें
इसे हम, आलोक
कहें।
प्रकाश
और आलोक में
इतना ही फर्क
है। वे पर्यायवाची
नहीं हैं। जब
सूरज उग जाता
है,
तब जो होता
है वह प्रकाश
है; और जब
रात खतम हो
जाती है और
सूरज नहीं उगा
होता है, तब
जो होता है वह
आलोक है।
अनफोकस्ट, अनसेंटर्ड,
सिर्फ आभा
है।
तो
परमात्मा
सिर्फ आभा है।
या परम जागृति
में पहुंची
हुई स्थिति
सिर्फ आभा की
है। इससे ठीक उलटी
स्थिति
अंधकार की या
पूर्ण
सुषुप्ति की है।
ऐसा समझें, पूर्ण
जागृति में न
तो जाननृए
वाले का बिंदु
बचता है, न
जानी जाने
वाली चीज का
बिंदु बचता है,
सिर्फ आभा
रह जाती है
अनंत, जो
एक अर्थ में
सब जानती है, लेकिन एक
अर्थ में कुछ
भी नहीं
जानती। इस
अर्थ में सब
जानती है, क्योंकि
अब कुछ भी
नहीं बचा जो
उसके प्रकाश
के बाहर है।
और एक अर्थ
में कुछ भी
नहीं जानती, क्योंकि कुछ
भी ऐसा नहीं
बचा, जिस
पर उसने जानने
की चेष्टा की
हो। अगर वह जानने
की चेष्टा करे
तो बाहर दूसरी
चीजें अनजानी
छूट जाएं।
वैज्ञानिक के
अर्थों में यह
ज्ञान नहीं
होता है, यह
कवि के अर्थों
में ज्ञान
होगा।
दूसरी
साधारण
अवस्था है
एकाग्रता की, जब
कि हम एक चीज
को जानेंगे, सबको भूल
जाएंगे अपने
को भी भूल
जाएंगे। और इससे
भी पहली
प्राथमिक
अवस्था है, जब न तो हम
वस्तु को
जानेंगे और न
अपने को जानेंगे,
पूर्ण
अंधकार होगा।
न तो हम किसी
चीज को जान रहे
हैं, एकाग्रता
भी नहीं है, न हम सबको
जान रहे हैं, जागरूकता भी
नहीं है; न
हम अपने को
जान रहे हैं।
जानना अभी
गर्भ में है, जानना अभी
बीज में है, जानना अभी
अप्रकट है, जानना अभी
जड़ में छिपा
है। यह पूर्ण
सुषुप्ति की
अवस्था होगी।
वह पूर्ण
जागृति की
अवस्था होगी।
और
इसके बीच में
ध्यान के अनंत
बिंदु होंगे
और इनमें हम
निरंतर डोलते
रहेंगे। जब
तुम दिन में
जागते हो तब
जागृति की तरफ
तुम्हारा
पेंडुलम थोड़ा—सा
झूल जाता है।
जब रात में
तुम सोते हो, तब
तुम्हारा
सुषुप्ति की
तरफ पेंडुलम
झूल जाता है।
असल में जब हम
सोते हैं, तब
हम पदार्थों
के करीब पहुंच
जाते हैं। जब
हम जागते हैं,
तब हम
परमात्मा के
करीब पहुंच
जाते हैं।
करीब, जरा—सा
हम डोल जाते
हैं। अगर यह
डोलना हमारा जारी
रहे, यह
यात्रा हमारी
बढ़ती चली जाए,
तो एक घड़ी आ
जाती है कि
तुम सोते समय
में भी पूरी
तरह नहीं
सोते। सोने को
भी तुम जानने
लगते हो। तब
सोना एक
शारीरिक
विश्राम हो
जाता है, आत्मिक
अंधकार नहीं।
तब तुम सोते
भी हो और जानते
भी हो कि सो
रहे हो। तब
तुम रात करवट
भी बदलते हो
तो जानते हो
कि करवट बदल
रहे हो। तब तुम्हारे
भीतर जानने की
अनवरत धारा
बहने लगती है।
इससे
उलटा भी हो
जाता है। एक
आदमी कोमा में
पड़ गया है, एक
आदमी
मूर्च्छित
पड़ा हुआ है, एक आदमी ने
नशा कर लिया
है। वह है, लेकिन
न तो वह बाहर
कुछ जान रहा
है, न भीतर
कुछ जान रहा
है। ये दोनों
खो गए हैं। जानने
वाला भी खो
गया है, जानी
जाने वाली
वस्तु भी खो
गई है, लेकिन
अंधकार में।
दोनों खो
जाएंगे परम
अवस्था में भी,
लेकिन
प्रकाश में।
अगर
मेरी बात
तुम्हारे
खयाल में आ
जाए,
तो वह यह
हुई
संक्षिप्त
में कि ध्यान
की एक यात्रा
है। यह ध्यान
की यात्रा
पूर्ण सोने से
लेकर पूर्ण जागने
के बीच कई
तलों पर बंटी
है।
वृक्ष
भी कुछ जानता
है। हमें अब
तक खयाल नहीं था
बहुत दिनों तक
कि वृक्ष कुछ
जानता है। जिन
लोगों ने पहली
दफे ये बातें
कही थीं, वह
हमें कुछ काल्पनिक
मालूम पड़ती
थीं, कुछ
पुराण— कथाएं
मालूम पड़ती
थीं, लेकिन
अब वैज्ञानिक
भी सबूत देता
है कि वृक्ष जानता
है। वृक्ष
सुनता है, इसके
भी सबूत देता
है। कुछ
वृक्षों की
चमड़ी आंखें भी
रखती हैँ, इसका
भी सबूत मिलता
है। हमारी
जैसी आंख नहीं
है, बाकी
उसकी देखने की
क्षमता है, सुनने की भी
क्षमता है, अनुभव करने
की भी क्षमता
है।
अभी
मैं
आक्सफोर्ड
युनिवर्सिटी
में एक लेबोरेट्री
है—डिलाबार
लेबोरेट्री—उसके
कुछ प्रयोग
देख रहा था।
उन्होंने कुछ
हैरानी के
अनुभव
वैज्ञानिक
व्यवस्था से
सिद्ध किए
हैं। एक जो
बहुत हैरानी
का अनुभव है, वह
यह है कि एक ही
पैकेट के आधे
बीज एक गमले
में बोये गए, उसी पैकेट
के आधे बीज
दूसरे गमले
में बोए गए। और
यह पचासों
प्रयोगों के
बाद कि एक
गमले के ऊपर
एक पवित्र
पुरुष से, एक
फकीर से
प्रार्थना
करवाई कि उसके
बीज जल्दी
अंकुरित हों,
उनमें फूल
आएं, उनमें
फल आएं, वे
पूर्णता को
उपलब्ध हों और
दूसरे गमले पर
वह प्रार्थना
नहीं करवाई।
और बड़ी हैरानी
की बात है कि
दूसरे गमले ने
बहुत देर
लगायी। सारी
सुविधा, सारी
व्यवस्था एक
जैसी रखी गई।
उसमें इंच भर
फर्क नहीं
किया गया।
मालियों को
बताया नहीं गया
कि इन दोनों
में कोई फर्क
है, या इन
दोनों में कोई
फर्क करना है।
लेकिन जिस
गमले पर
प्रार्थना की
गई थी, उसकी
शान ही और थी।
वह जल्दी
अंकुरित हुआ,
जल्दी
फूलों को
उपलब्ध हुआ, जल्दी फल
लगे। उसके
सारे बीज
अंकुरित हुए।
दूसरे गमले के
सारे बीज
अंकुरित नहीं
हुए। अंकुरित
हुए तो समय से
हुए, धीरे
हुए। उनके
फूलों में भी
फर्क था। उनके
फलों में भी
फर्क था।
ये
बहुत से
प्रयोग
डिलाबार
लेबोरेट्री
ने किए। और
हैरानी की बात
हुई और यह
अनुभव हुआ कि
जैसे
प्रार्थना भी
संवेदित होती
है,
प्रार्थना
भी पहुंचती
है। और इससे
भी ज्यादा आश्चर्यजनक
जो प्रयोग
वहां हुआ है, वह और हैरान
करनेवाला है।
वह यह है कि
जिस फकीर से
यह प्रार्थना
करवाई गई—वह
एक ईसाई फकीर
था, जो
अपने गले में
एक क्रास
लटकाये हुए
था—और जब उसने आँख
बंद करके
दोनों हाथ
फैला करके एक
बीज के लिए प्रार्थना
की, तब उस
बीज का जो फोटोग्राफ
लिया गया, वह
इतना
चमत्कारपूर्ण
था जिसका
हिसाब नहीं है।
उस फोटोग्राफ
में उसका
क्रास और उसके
फैले हुए हाथ
का पूरा चिह्न
आया है —बीज के
फोटोग्राफ
में। इसका
क्या मतलब
होता है? इसके
इञ्जीकेशस
बहुत बड़े हैं।
मैं तो मानता
हूं कि एटामिक
थ्योरी से
कहीं ज्यादा
बड़े इसके
प्रयोजन
सिद्ध होंगे।
बीज भी स्वीकार
कर रहा है कुछ,
बीज भी
ग्रहण कर रहा
है कुछ। बीज
भी आत्मवान है।
सोया है जरूर,
मनुष्य के
मुकाबले
ज्यादा सोया
हुआ मालूम पड़ता
है, लेकिन
फिर भी उसके
सोने में एक
तरह का जागरण
है।
पत्थर
और भी ज्यादा
सोया हुआ
मालूम पड़ता है, लेकिन
उसके सोने में
भी एक तरह का
जागरण है। सभी
पत्थर भी एकदम
पत्थर नहीं
हैं और सभी
पत्थर भी
एक—से सोए हुए
नहीं हैं।
उनके बीच भी
व्यक्तित्व
है। पत्थरों
के
व्यक्तित्व
की खोज से ही
प्रेसियस
स्टोन खोजे गए,
नहीं तो
नहीं खोजे जा
सकते थे। यह
मत सोच लेना कि
किसी भी पत्थर
को कीमती समझ
लिया गया है।
और यह भी मत
सोच लेना कि
जैसा कि
अर्थशास्त्र
भ्रांति पैदा
करता है कि
सिर्फ न्यून
होने से कुछ
चीजें कीमती
हो गई हैं।
ऐसा भी नहीं
है।
जैसे
एक आदमी खड़ा
हुआ है बुद्ध
नाम का और एक
साधारण आदमी
खड़ा हुआ है
बुद्ध के पड़ोस
में। अगर मंगल
ग्रह से कोई
यात्री आए तो
उन दोनों आदमियों
में क्या फर्क
मालूम पड़ेगा? न
वह भाषा समझे
हमारी, न
आचरण समझे
हमारा। वह
मंगल ग्रह का
यात्री अगर एक
घंटे भर के
लिए बुद्ध को
और उनके पास
खड़े हुए एक
साधारण आदमी
को देखकर वापस
लौट जाए तो क्या
वह कहेगा कि
उन दोनों में
कोई फर्क था? दोनों को
श्वास लेते
देखा, दोनों
की आंखों की
पलकें हिलते
देखा, दोनों
को उठते
—बैठते देखा, दोनों को
खाते —पीते
देखा, दोनों
को विश्राम
करते देखा, दोनों को
बातचीत करते
देखा। वह घंटे
भर बाद वापस
लौट गया। वह
कहेगा, दो
आदमी मिले, जो बिलकुल एक
जैसे थे। जब
दो पत्थर को
हम देखते हैं,
हमारी हालत
भी यही होती
है। क्योंकि
हम भी नहीं
जानते कि उनका
भी
व्यक्तित्व
है।
प्रेसियस
स्टोन जो है, कीमती
पत्थर जो है, वह बड़ी खोज
है आदमी की।
उस्में धीरे —
धीरे, धीरे
— धीरे जिनको
अंदाज गहरा
बैठता चला गया
और जो संबंधित
हो सके, उन्होंने
जाना कि
पत्थरों में
भी कुछ पत्थर
जागे हुए हैं,
ज्यादा
जागे हुए हैं।
कुछ पत्थर
ज्यादा सोए हुए
हैं। और यह भी
जाना कि कुछ
पत्थर
किन्हीं विशेष
दिशाओं में
जागे हुए हैं,
इसलिए उन
पत्थरों का
उपयोग
किन्हीं
विशेष कारणों
के लिए उपयोगी
हो सकता है।
जैसे कि कुछ
पत्थर हो सकते
हैं कि जिनको
तुम अपने पास
रख लो या अपनी
ताबीज बना लो
या गले का हार
बना लो या
अंगूठी बना लो,
और उसके बाद
तुम्हारी
जिंदगी में
कुछ घटनाएं घटने
लगेंगी जो कल
तक नहीं घटती
थीं। क्योंकि वह
उस पत्थर का
भी अपना जीवन
है। और उस
पत्थर के साथ
कुछ घटनाएं
घटनी शुरू
होंगी, क्योंकि
तुमने उसके
साथ सहजीवन
शुरू किया है,
जो कि उसके
बिना नहीं घट
सकती थीं।
ऐसे
पत्थर हैं
जिनकी
दुर्भाग्यपूर्ण
कथा है। वे
पत्थर जिसके
हाथ में पड़
गये,
वह दिक्कत
में पड़ गया और
उसे छूटना
मुश्किल हो
गया। और जब भी
वह पत्थर किसी
दूसरे के हाथ
में गया, दूसरा
दिक्कत में
पड़ा। जिनका
सैकड़ों
वर्षों का, बल्कि कुछ
पत्थरों का
हजारों
वर्षों का
इतिहास है कि
वे जिसके पास
गये उसको
दिक्कत में डालते
चले गए। वे
पत्थर अभी भी
जीवित हैं, वे अब भी
अपना काम कर
रहे हैं। वे
जहां जिसके
पास होंगे, उसे दिक्कत
में डालते चले
जाएंगे। कुछ
पत्थर हैं, वे जिसके
पास गए उसकी
जिंदगी में
सुख की संभावनाएं
बढ़ गईं। और वे
जिसके पास गये
उसकी संभावनाएं
बढ़ती चली
.गईं। उन
पत्थरों की
कीमत बढ़ती चली
गई। पत्थरों
का भी
व्यक्तित्व
है, पौधों
का भी
व्यक्तित्व
है।
इस
जगत में
प्रत्येक चीज
का
व्यक्तित्व
है। और व्यक्तित्व
निर्भर होता
है उसके सोने
और जागने की तारतम्यता
से। वह कितना
जागा हुआ है, वह
कितना सोया
हुआ है, ध्यान
उसका कितना
सक्रिय है। तो
इसे ऐसे भी सोच
सकते हो कि
ध्यान की
सक्रियता का
नाम जागरूकता,
ध्यान की
निक्तियता का
नाम निद्रा, मूर्च्छा।
ध्यान की परम
निष्कियता का
नाम पदार्थ, ध्यान की
परम सक्रियता
का नाम
परमात्मा।
इसी
उत्तर के
संबंध में एक
प्रश्न है।
आपने दो
स्थितियां
बताई पूर्ण
मूर्च्छा की
और पूर्ण जागृति
की। तो पूर्ण
मूर्च्छा से
पूर्ण जागृति
की ओर यात्रा
होती है तो पूर्ण
जागृति के बाद
कहां पहुंच
जाते हैं हम? और
पूर्ण
मूर्च्छा
कहां से शुरू
होती है कहां से
आती है?
असल
में जैसे ही
पूर्ण शब्द का
प्रयोग होता
है,
वैसे ही कुछ
शर्तों को समझ
लेना जरूरी
है। जैसे जब
हम पूछते हैं,
पूर्ण कहां
समाप्त होता
है, तब हम
गलत सवाल
पूछते हैं।
क्योंकि
पूर्ण का मतलब
ही है, जो
कहीं समाप्त
नहीं हो सकता।
अगर कहीं
समाप्त होगा
तो अपूर्ण हो
जाएगा, उसी
सीमा पर बंध
जाएगा, वहीं
से अपूर्ण हो
जाएगा।
जब
हम पूछते हैं
कि पूर्ण कहां
से शुरू होता
है,
तब हम गलत
बात पूछते
हैं। क्योंकि
पूर्ण का मतलब
ही होता है जो
शुरू नहीं
होता।
क्योंकि शुरू
होगा तो पूर्ण
नहीं हो सकता।
पूर्ण सदा ही
अनादि और अनंत
होगा। न उसका
पहले कोई छोर
होगा, और न
पीछे कोई छोर
होगा। छोर हो
सके तो पूर्ण
नहीं रह
जाएगा। इसलिए
पूर्ण के
आगे—पीछे हम
सवाल नहीं पूछ
सकते। पूछना
हो तो पूर्ण
के पहले ही पूछ
लेना चाहिए।
पूर्ण का अर्थ
ही यह होता है
कि जिसके आगे
सवाल बेमानी
हो जाएंगे।
और
जब हमारे मन
में यह सवाल
उठता है कि
कहां से यह
मूर्च्छा आई? स्वाभाविक
उठेगा, कहां
से आई? क्यों
आई? कब आई? कहां समाप्त
होगी? क्यों
समाप्त होगी?
कब समाप्त
होगी? जो
अमूर्च्छा की दशा
है, वह
कहां
अस्तित्व में
है? और जो
पूर्ण
मूर्च्छा की
दशा होगी, वह
कहां
अस्तित्व में
होगी? यह
सवाल बिलकुल
ही संगत और
फिर भी बिलकुल
बेमानी है।
कोई
चीज संगत होने
से ही
अर्थपूर्ण
होती है, इस
भ्रांति में
नहीं पड़ना
चाहिए।
कसिस्टेंट हो
सकती है, मीनिंगलेस
हो सकती है।
सवाल बिलकुल
संगत है। और
इन सवालों के जो
भी जवाब दिए
जाएंगे, वे
भी बेमानी
होंगे और उनसे
कुछ हल न
होगा। इसलिए
हल न होगा कि
जो सवाल हमने
इस संबंध में
पूछा है, उस
सवाल का जो
जवाब दिया
जाएगा, उसके
संबंध में भी
वैसा ही पूछा
जा सकता है। तब
मैं तुमसे
क्या कहना
चाहूंगा?
मैं
कहना चाहूंगा
कि जैसे तुम
वैज्ञानिक से
नहीं पूछते
कुछ बातें, तुम
धार्मिक से
क्यों पूछते
हो? कुछ
बातें
वैज्ञानिक से
कभी नहीं पूछी
जातीं। वे
धार्मिक से
क्यों पूछी
जाती हैं? और
धार्मिक भी
खूब नासमझ है
कि वैज्ञानिक
उनके उत्तर
देने से इनकार
कर देता है और
धार्मिक उनके
उत्तर देने की
गलती में पड़ता
है। सारे धर्म
इसी गलती में
पड़ते हैं। ऐसे
प्रश्नों के
उत्तर देकर
फंस जाते हैं
जिनके उत्तर
नहीं हो सकते।
अब
जैसे उदाहरण
के लिए अगर
तुम एक
वैज्ञानिक से
पूछो कि वृक्ष
हरा क्यों है? तो
वह कहेगा कि
क्लोरोफिल के
कारण। और तुम
अगर यह पूछो
कि वृक्ष में
क्लोरोफिल
क्यों होता है?
तो वह कहेगा
कि यह कोई
सवाल नहीं
हुआ। यह फैक्ट
है, ऐसा
होता है। वह
यह कहेगा कि
वृक्ष में
क्लोरोफिल
होता है, इसलिए
वृक्ष हरा है।
अगर आप यह
पूछें कि ऐसा
क्यों नहीं
होता कि वृक्ष
में
क्लोरोफिल न
हो? तो वह
कहेगा कि मैं
कोई स्रष्टा
नहीं हूं और इसका
कोई उत्तर
नहीं है।
इसलिए
विज्ञान
नासमझियों से
बच जाता है।
क्योंकि वह
तथ्य के ऊपर
बात को छोड़
देता है कि
ऐसा है, ऐसा
तथ्य है। वह
यह कहता है कि
आक्सीजन और
हाइड्रोजन को
मिला देते हैं
तो पानी बन
जाता है। कोई
उससे पूछने नहीं
जाता कि ऐसा
होता क्यों है
कि आक्सीजन और
हाइड्रोजन के
मिलाने से
पानी बनता है?
ऐसा क्यों
बनता है? वह
कहेगा, यह
नहीं है सवाल।
हम इतना जानते
हैं कि इनके मिलाने
से बनता है।
और इतना हम
जानते हैं कि
इनके नहीं
मिलाने से
नहीं बनता है।
यह फैक्ट है।
इसके आगे फिक्शन
शुरू होगा।
अगर
हम कोई जवाब
दें कि ऐसा
क्यों होता है, तो
मैं तुमसे
कहना चाहूंगा
कि जगत में
मूर्च्छा है
और जागृति है।
यह फैक्ट है, यह तथ्य है।
और इन तथ्यों
के आर —पार
जाने का अब तक
कोई उपाय नहीं
खोजा गया है।
और मैं नहीं
सोचता हूं कि
कभी भी खोजा
जा सकता है।
यह परम तथ्य
है। जिसको
कहना चाहिए
अल्टीमेट
फैक्ट।
इस
छोर पर अंधकार
है,
उस छोर पर
प्रकाश है।
अंधकार भी
अंततः अनंत में
खो जाता है और
उसके अंतिम
छोर का पता
नहीं चलता कि
वह कहां शुरू
हुआ। और
प्रकाश भी
अंततः अनंत में
खो जाता है और
पता नहीं चलता
कि वह कहां
खतम हो रहा
है। और हम सदा
बीच में हैं।
हम दोनों तरफ थोड़ी
दूर तक देख
पाते हैं। इधर
थोड़ी दूर तक
देखते हैं तो
एक बात पता
चलती है कि
अंधकार पीछे की
तरफ बढ़ता जाता
है, घना
होता जाता है।
आगे की तरफ
देखते हैं तो
पता चलता है कि
अंधकार क्षीण
होता जाता है,
प्रकाश
बढ़ता जाता है,
घना होता
जाता है।
लेकिन न तो
प्रकाश का कोई
अंत दिखाई
पड़ता है और न
अंधकार का कोई
अंत दिखाई
पड़ता है। न तो
अंधकार का कोई
प्रारंभ
दिखाई पड़ता है
और न प्रकाश
की कोई सीमा
दिखाई पड़ती है।
ऐसा हम बीच
में खड़े हैं।
और जितनी दूर
तक दिखाई पड़ता
है, उतनी
दूर तक ऐसा ही
दिखाई पड़ता
है। दूर से
दूर देखने
वाले आदमी को
इससे ज्यादा
दिखाई नहीं पड़ा
है।
लेकिन
कठिनाई क्या
हो जाती है? जब
हम सवाल बना
लेते हैं, तो
कोई न कोई
नासमझ मिल
जाता है जो
उनका उत्तर दे
देता है। जब
एक दफा सवाल
बना लिया गया,
तो उत्तर
देने वाला भी
मिल ही जाएगा,
क्योंकि
कोई न कोई
उत्तर भी बना
लेगा। और इसी तरह
सारी
फिलासफीज बनी
हैं। नासमझ
सवालों के दिए
गए नासमझ
जवाबों से
सारी
फिलासफीज बन
गई हैं। और
सवाल वही के
वही हैं। जवाब
अलग— अलग हो सकते
हैं, क्योंकि
जवाब अपने —
अपने सोचने का
है। कोई कहेगा
कि परमात्मा
ने पैदा किया।
पर इससे क्या
फर्क पड़ता है!
हम पूछ सकते हैं,
क्यों पैदा
किया? और
ऐसा ही क्यों
पैदा किया? और परमात्मा
पैदा करता ही
क्यों है? तब
बात वहीं की
वहीं अटक
जाएगी। हम
कहेंगे कि नहीं,
वह ऐसा करता
है। जब ऐसा
जवाब लेना ही
है अंत में.......
कोई कहेगा कि
सब माया है, समझ के परे
है। अब वह कह
रहा है कि समझ
के परे है, सब
माया है। और
जब वह कह रहा
है, सब
माया है, तो
समझ के भीतर
की बात कह रहा
है। समझ कर कह
रहा है। अच्छी
तरह समझ लिया
कि सब माया
है। सब समझ के
परे है। अगर समझ
के परे है, तो
चुप रह जाओ।
मत कहो कि सब
माया है।
क्योंकि समझ
के जब परे है, तो उत्तर
कैसे हो सकता
है। चुप रह
जाओ, मत दो
उसका उत्तर।
कोई
कह रहा है कि
परमात्मा ने
आदमी को इसलिए
बनाया ताकि
आदमी
परमात्मा को
पा सके। क्या
पागलपन है!
अगर उस
परमात्मा ने
इसलिए आदमी को
बनाया कि
परमात्मा को
पा सके, तो
पहले से
परमात्मा
क्यों नहीं
बना दिया। झंझट
की, इतने
उपद्रव की
जरूरत क्या
है। अब कोई कह
रहा है कि
पिछले जन्मों
के कर्म —फल
भोगने के लिए
ऐसा सब चल रहा
है। लेकिन
पूछा जा सकता
है कि कभी तो
पहला जन्म हुआ
होगा, जिसके
पहले कोई जन्म
न रहे होंगे।
तो वह पहला जन्म
किस कर्म —फल
के भोग के लिए
हुआ था? वह
अकारण!
मेरे
अपने देखे
दुनिया के जो
चरम प्रश्न
हैं,
उनका किसी
दर्शन ने कोई
उत्तर नहीं
दिया है। और
सब दर्शन अपनी
बुनियाद में
बेईमान हैं।
बहुत गहरे में
बेईमानी छिपी
है। ही, एक
दफा उनकी
बुनियादी
बेईमानी अगर
आपकी नजर में
न पड़ी, तो
बाद का सब
स्ट्रक्चर
बिलकुल सही
मालूम पड़ेगा।
फिर कोई
दिक्कत नहीं
मालूम होगी।
अगर आपने एक
झूठ मान
लिया—पहला
झूठ—तो फिर
आपको सब झूठ सच
मालूम
पड़ेंगे। अगर
किसी ने यह
मान लिया कि
भगवान बनाने
वाला है, फिर
बात खतम हो
गई। मगर यह
हमें कैसे पता
चल रहा है कि
भगवान बनाने
वाला है? अगर
यह सवाल एक
दफा भी उठ गया,
तो बात कहीं
भी खतम नहीं
हुई, कहीं
भी शुरू नहीं
हुई, वहीं
की वहीं रह
गई। मेरी अपनी
दृष्टि धर्म
को भी विज्ञान
की भांति
देखने की है।
मुझे
एक संस्मरण
याद आता है।
आइंस्टीन से
मरने के कुछ
दिन पहले एक
आदमी ने पूछा
कि आप एक वैज्ञानिक
में और एक
दार्शनिक में
क्या फर्क करते
हैं?
तो
आइंस्टीन ने
कहा कि मैं
वैज्ञानिक उस
आदमी को कहता
हूं कि अगर आप
उससे सौ सवाल
पूछे तो वह एक
का जवाब देगा
और निन्यानबे
के संबंध में
कह देगा कि
मुझे पता
नहीं। और जिस
एक के संबंध
में जवाब देगा,
उस संबंध
में भी यह
शर्त रखेगा कि
इतना अभी तक पता
है। आगे जो
पता होगा उससे
कुछ बदलाहट हो
सकती है। तो
यह कोई आखिरी
वक्तव्य नहीं
है।
विज्ञान
कोई आखिरी
वक्तव्य नहीं
देता। इसलिए
विज्ञान में एक
तरह की
आनेस्टी, एक
तरह की
ईमानदारी है।
और
आइंस्टीन ने
कहा कि
दार्शनिक जो
है,
फिलासफर जो
है, उससे
अगर सौ सवाल
आप पूछें, तो
वह डेड सौ
जवाब देगा और
हर जवाब
ऐकल्युट है, जिसमें कभी
कोई फर्क नहीं
पड़ता। जो कह
दिया वह प्रमाण
है, उसमें
जो शक करता है,
वह नर्क में
जा सकता है, लेकिन
सिद्धात कभी
नहीं बदल
सकता।
सिद्धात अटल
है।
मेरी
जो दृष्टि है, वह
ऐसी है कि अगर
हम वैज्ञानिक
और धार्मिक
मस्तिष्क को
एक साथ
निर्मित कर
सकें तो वैसी
ही मेरी
दृष्टि है।
धर्म के संबंध
में ही सारी
बात कर रहा
हूं, लेकिन
मेरा खयाल सदा
वैज्ञानिक
दृष्टि का है।
इसलिए परम
प्रश्नों के
मेरे पास कोई
उत्तर नहीं
हैं। और उत्तर
हो भी नहीं
सकते। और
जिसका उत्तर
हो जाएगा, समझ
लेना, वह
परम प्रश्न न
रहा। वह फिर
कोई बीच का
प्रश्न है
जिसका उत्तर
हो गया। बात
आगे फिर बढ़
जाएगी।
परम
प्रश्न का
अर्थ है, जो सब
उत्तरों के
बाद भी खडा
रहेगा।
अल्टीमेट क्वेश्चन
का मतलब यह
होता है कि
तुम कितने ही
प्रश्न खड़े
करो, जब
तुम प्रश्न के
उत्तर देकर
निपटोगे, तुम
पाओगे प्रश्न
पीछे फिर अपनी
जगह वहीं का वहीं
खड़ा हुआ है, क्येश्चन
मार्क बना ही
हुआ है। सिर्फ
इतना ही हुआ
कि एक सीडी
पीछे जाकर लग
गया वह। इधर
से थोड़ा हटा
दिया है तुमने
धक्का देकर, वह पीछे फिर
खड़ा हो गया।
वह
जापानी गुड्डा
तुमने देखा
होगा, जिसको
तुम कैसे भी
फेंको, सीधा
खड़ा हो जाता
है। उस गड्डे
का नाम दारूमा
है। और वह एक
फकीर के ऊपर
निर्मित हुआ
है। हिंदुस्तान
से वह फकीर
गया—बोधिधर्म।
बोधिधर्म का
जापानी नाम
दारूमा, तो
दारूमा डील।
बोधिधर्म की
वजह से वह
गुड्डा बना।
बोधिधर्म को
तुम कितना ही
उठाओ —पटको, वह वैसे ही
खड़ा हो जाएगा।
वह जहां था, वह वहीं हो
जायेगा। उसकी
नकल में वह
गुड्डा बनाया
गया है। उसको
कैसे ही फेंको,
उलटा पटको,
नीचा करो, वह अपनी जगह
पर खड़ा हो
जाएगा।
जो
परम प्रश्न
हैं,
वे दारूमा
डील की तरह
हैं, वे
बोधिधर्म की
तरह हैं। तुम
कुछ भी करो, वे अपनी जगह
खड़े हो
जायेंगे। हा,
इतना ही
होगा, उनकी
जगह बदल
जाएगी।
क्योंकि
तुम्हारे
फेंकने में
इधर—उधर चले
जाएंगे, दूसरी
जगह खड़े हो
जाएंगे। तुम
वहां से उनको
धक्का दोगे, वे तीसरी
जगह खड़े हो
जाएंगे। तुम
जिंदगी भर धक्का
देते रहो, तुम
थक जाओगे, वह
गुड्डा नहीं थकेगा।
वह अपनी जगह
खड़ा होता
रहेगा।
परम
प्रश्न हैं
ये। जब हम
पूर्ण के आगे
और पीछे का
सवाल उठाते
हैं,
तब हम सवाल
के बाहर चले
जाते हैं। वह
बेमानी है, मीनिंगलेस
है। इतना ही
मैं तुमसे कह
सकता हूं कि
पीछे फैला हुआ
अंधकार है, मूर्च्छा है,
आगे फैला
हुआ प्रकाश है,
अमूर्च्छा
है। इतना भी
कह सकता हूं
कि जितना अंधकार
कम होता है, उतना आनंद
बढ़ता है। इतना
भी कह सकता
हूं कि जितना
अंधकार
ज्यादा होता
है, उतना
दुख बढ़ जाता
है। ये तथ्य
हैं। दुख
चुनने हों तो
अंधकार और
मूर्च्छा की
तरफ जाया जा
सकता है। आनंद
चुनना हो तो
प्रकाश और परम
प्रकाश की तरफ
जाया जा सकता
है। और कहीं न
जाना हो तो
दोनों के बीच
में खड़े होकर
विचार किया जा
सकता है कि
पहले क्या था?
आगे क्या है?
भगवान
श्री द्वारका
शिविर में
आपने कहा है
कि ध्यान और
समाधि
स्वेच्छा से
सचेतन मृत्यु
की स्थिति में
प्रवेश है
जिससे मृत्यु
का भ्रम
विसर्जित हो
जाता है। तो
प्रश्न उठता
है कि मृत्यु
का भ्रम किसको
होता है? शरीर
को होता है या
चेतना को होता
है? शरीर
चूंकि उपकरण—
मात्र है
इसलिए शरीर को
भ्रमरूपी बोध
नहीं हो सकता
है; और
चेतना के
भ्रमित होने
का कोई कारण
नहीं है फिर
भ्रम की घटना
का कारण आधार
क्या है?
मृत्यु
का बोध, यदि
मरते क्षण में
कोई जागा हुआ
मर सके, तो
मृत्यु
विसर्जित हो
जाती है।
अर्थात यदि कोई
मरते क्षण में
होश कायम रख
सके, तो वह
पाता है कि
मरा ही नहीं।
मृत्यु भ्रम
सिद्ध होती है,
इसका मतलब
यह नहीं है कि
मृत्यु रहती
है और भ्रम हो
जाती है।
मृत्यु भ्रम
सिद्ध होती है,
इसका मतलब
यह कि मरते
वक्त अगर कोई
जागा रहे तो
वह पाता है कि
मरता ही नहीं।
मृत्यु भ्रम
सिद्ध होती है,
इसका मतलब
यह नहीं है कि
भ्रम जैसी कोई
मृत्यु बची रह
जाती है। नहीं,
जागा हुआ
कोई मरे तो वह
पाता है कि
मृत्यु तो होती
ही नहीं। मृत्यु
असत्य हो जाती
है।
लेकिन
यह सवाल
स्वाभाविक है
कि फिर मृत्यु
का भ्रम किसको
होता है? यह भी
ठीक है पूछना
कि शरीर को तो
हो नहीं सकता,
क्योंकि
शरीर तो
जानेगा कैसे।
आत्मा को हो
नहीं सकता, क्योंकि आत्मा
मरती नहीं है।
फिर मृत्यु का
भ्रम किसको
होता है?
न
आत्मा को होता
है,
न शरीर को
होता है। असल
में मृत्यु का
भ्रम व्यक्ति
को होता ही
नहीं मृत्यु
का भ्रम सोशल
फेनामिना है।
इसको थोड़ा
समझना पड़ेगा।
मृत्यु का
भ्रम सामाजिक
घटना है, व्यक्तिगत
घटना ही नहीं
है।
एक
आदमी को हम
मरते हुए
देखते हैं और
मैं सोचता हू
कि वह मर गया
है। मैं मरा
नहीं हूं
इसलिए मुझे
सोचने का वैसा
कोई हक नहीं
है। और मेरा निर्णय
लेना बहुत ही
नासमझी की बात
है कि वह आदमी
मर गया है।
मुझे इतना ही
कहना चाहिए कि
जैसा मैं उसे
जानता था अब
तक,
वैसा वह
सिद्ध नहीं हो
रहा है। इससे
ज्यादा वक्तव्य
देना खतरनाक
है, सीमा
के बाहर चले
जाना है। मुझे
कहना चाहिए कि
कल तक वह बोलत
था, अब
बोलता नहीं।
कल तक चलता था,
अब चलता
नहीं। कल तक
जिसे मैंने
समझा था उसकी जिंदगी,
वह अब नहीं
है। असल में
इतना ही कहना
चाहिए कि कल
तक जो जिंदगी
थी, वह अब
नहीं रही। अगर
उससे भी ज्यादा
कोई जिंदगी है
तो होगी और
अगर नहीं है
तो नहीं होगी।
लेकिन यह कहना
कि वह मर गया, जरा ज्यादा
कहना है, सीमा
के बाहर बढ़
जाना है। हमें
इतना ही कहना
चाहिए कि अब
वह जिंदा न
रहा। जिसको हम
जिंदगी जानते
थे, वह अब
नहीं है।
इतना
नकारात्मक
वक्तव्य तो
ठीक है कि
जिसे हमने
जिंदगी समझी
थी कि लड़ता था, झगड़ता
था, प्रेम
करता था, खाता
था, पीता
था, वह अब
नहीं है।
लेकिन मर गया,
यह तो बहुत
पाजिटिव
असर्सन है।
इसमें जो था, वह नहीं है, इतना ही
नहीं कह रहे
हैं। हम कह
रहे हैं, कुछ
और भी हो गया
है। मर गया।
हम यह कह रहे
हैं कि मरने
की कोई घटना
भी घट गई।
सिर्फ पुरानी
घटनाएं नहीं हो
रही हैं, इतना
कहें तो ठीक
है। हम यह कह
रहे हैं कि
नहीं, एक
नई घटना भी
जुड़ गई, वह
मर भी गया। यह
हम कह रहे
हैं। हम, जो
नहीं मरे।
हमें, जिन्हें
मरने का कोई
पता नहीं। हम
चारों तरफ भीड़
लगाकर खडे हैं
और एक आदमी मर
गया है। और हम
सारी भीड तय
कर रहे हैं उस
आदमी से बिना
पूछे। उसकी
कोई गवाही
नहीं। अदालत
में फैसला
एकतरफा हो रहा
है, वह
दूसरा पक्ष
मौजूद नहीं
है। वह आदमी
बेचारा कहने
को नहीं है कि
मैं नहीं मरा,
कि मर गया।
उसकी कोई
गवाही नहीं
है। और निर्णय
वे कर रहे हैं
जिनमें से कोई
भी मरा नहीं।
समझ रहे हैं
मेरा मतलब? यह सामाजिक भ्रांति
है। यह उस
आदमी की
भ्रांति नहीं
है, यह
सामाजिक
भ्रांति है।
उस आदमी की
भ्रांति दूसरी
है।
उस
आदमी की
भ्रांति मरने
की नहीं है।
उस आदमी की
भ्रांति
दूसरी है। और
वह यह है कि वह
जिंदगी में
इतना
सोया—सोया जीया
है,
इतना
सोया—सोया
जीया है कि
मरते समय जागा
कैसे रह सकता
है। असल में
जो आदमी दिन
भर सोया—सोया रहा
हो, वह
नींद में जागा
रह सकता है? जो जागने
में ही सोया
—सोया था, वह
तो नींद में
भरपूर सो
जाएगा। सूरज
की रोशनी में
जिसको दिखाई
नहीं पड़ रहा
था, उसे
रात के अंधेरे
में दिखाई
पड़ेगा? जो
आदमी जिंदगी
भर जाग कर
जिंदगी को
नहीं देख पाया
कि क्या है, क्या तुम
सोचते हो कि
वह मरने को
देख पाएगा कि क्या
है! वह तो जैसे
ही उसके हाथ
से जिंदगी छूटेगी,
वैसे ही
गहरी नींद में
खो जाएगा।
असल
में बाहर हम
समझ रहे हैं
कि वह मर गया
है,
यह सामाजिक
निर्णय और
निष्कर्ष है,
जो कि गलत
है। क्योंकि
इसमें से कोई
भी गवाह के
योग्य नहीं
है। इसमें से
कोई भी राइट
विटनेस नहीं
है, क्योंकि
किसी ने भी
उसको मरते
नहीं देखा। आज
तक दुनिया में
कोई आदमी मरता
नहीं देखा गया
है। मरने की
किया आज तक
नहीं देखी गई
है कि कोई मर
गया। हमने
इतना ही जाना
कि अभी तक जी
रहा था और अब
नहीं जी रहा
है। बस इसके
आगे दीवाल है।
अब तक किसी ने
मरने की घटना
नहीं देखी।
असल
में कठिनाई
क्या होती है
कि बहुत —सी
बातें
प्रचलित रहते—रहते
हम उन पर
सोचना बद कर
देते हैं। जैसे
कि अगर मैं
तुमसे कहूं कि
आज तक किसी
आदमी ने प्रकाश
नहीं देखा है, तो
तुम फौरन उस
पर एतराज
करोगे कि आप
क्या बातें कर
रहे हैं? लेकिन
मैं कहता हूं
कि आज तक किसी
आदमी ने प्रकाश
नहीं देखा है।
हमने सिर्फ
प्रकाशित चीजें
देखी हैं।
प्रकाश किसी
ने नहीं देखा।
इस कमरे में
हम कहते हैं
प्रकाश है, क्योंकि
दीवाल दिखाई
पड़ती है, आप
दिखाई पड़ते
हैं। प्रकाश
नहीं दिखाई
पड़ता है। कोई
चीज प्रकाश
में प्रकाशित
दिखाई पड़ती है।
प्रकाश तो सदा
ही अननोन
सोर्स है। कुछ
चीजें उसमें
चमक जाती हैं।
उनके चमकने की
वजह से हम
कहते हैं, प्रकाश
है। जब वे
चमकती नहीं
हैं, हम
कहते हैं
अंधेरा है। न
हमने अंधेरा
देखा। जिन्होंने
प्रकाश नहीं
देखा, उन्होंने
अंधेरा कैसे
देखा होगा? यह तो हम सोच
ही सकते हैं।
कम से कम
प्रकाश दिख
जाता, तो
समझ में भी
आता। अंधेरा
तो कैसे
दिखेगा?
अंधेरे
का मतलब सिर्फ
इतना होता है
कि हमें अब
कुछ दिखाई
नहीं पड़ रहा
है। अंधेरे का
हमारा भीतरी
मतलब यह होता
है कि अब हमें
कुछ दिखाई नहीं
पड़ रहा है।
अच्छा हो कि
हम कहें कि
हमें कुछ दिखाई
नहीं पड़ रहा
है। यह तथ्य
होगा। हम कहते
हैं,
अंधेरा है,
यह बिलकुल
ही गलत बात
है। अंधेरे को
हम एक चीज बना
लेते हैं।
उचित इतना ही
है कहना कि
मुझे कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता। लेकिन
मुझे दिखाई नहीं
पड़ता, इसका
मतलब यह नहीं
है कि अंधेरा
है। मुझे नहीं
दिखाई पड़ता है,
इसका मतलब
यह है कि वह जो
स्रोत था
जिसमें चीजें
चमकती थीं, वह मंदा पड़
गया है। अब
चीजें नहीं
दिखाई पड़ रही
हैं, इसलिए
अंधेरा है।
जिस
आदमी ने खुद
भी अपनी
जिंदगी में
यही समझा हो
—खाना, पीना, सोना, उठना,
बैठना, लड़ना,
झगड़ना, प्रेम,
दोस्ती, दुश्मनी
यही जिंदगी
है—जब वह मरने
लगेगा, अचानक
उसको पता
लगेगा, जिंदगी
जा रही है।
इसको उसने
जिंदगी समझा
था, यह
जिंदगी न थी।
ये सिर्फ
जिंदगी के
प्रकाश में
दिखाई पड़ी
चीजें थीं।
जैसे कि
प्रकाश में चीजें
दिखाई पड़ती
हैं। ऐसा जब
उसके भीतर
जिंदगी थी तो
उसने कुछ
चीजें देखी
थीं। खाना
खाया था, मित्रता
की थी, दुश्मनी
की थी, घर
बनाए थे, धन
कमाया था, पदों
पर यात्रा की
थी, वह सब
जिंदगी के
प्रकाश में
दिखाई पड़ी
चीजें थीं। अब
वे सब खो रही
हैं। अब वह
सोचता है कि
गया, मर
गया, जिंदगी
गई। और उसने
भी दूसरे को
मरते देखा था।
उस आदमी ने भी
दूसरों को
मरते देखा था।
वह सोशल इल्यूजन
उसके दिमाग
में भी है कि
आदमी मरता है।
अब वह कहता है
कि मैं मरा।
यह भी उसका
निर्णय जो है,
सामाजिक
भ्रांति के
हिस्से से आ
रहा है। वह कह
रहा है, जैसे
और मर गए, अब
मैं भी मरा।
अब
वह चारों तरफ
अपने
प्रियजन—परिजनों
को छाती पीटते
देख रहा है।
अब उसका इल्यूजन
पक्का हुआ जा
रहा है। इसका
हिप्नोटिक
असर हो रहा है
उस पर। ये
सारे लोग, अब
ठीक घटना घट
गई, डाक्टर
मौजूद है, आक्सीजन
का इंतजाम हो
गया है, हाथ
—पैर बांधे जा
रहे हैं, घर
की रौनक बदल
गई है, लोगों
की आंखों में आंसू
हैं, अब
उसने समझा कि
मैं मरा। अब
वह जो सामाजिक
भ्रांति थी, वह उसको
पकड़ी कि अब
मैं मर रहा
हूं। और यह सब
आसपास मित्र,
प्रियजन
उसको
सम्मोहित कर
रहे हैं कि अब
वह मरा। कोई
उसकी नाड़ी देख
रहा है, कोई
गीता पढ़कर
सुना रहा है, कोई कान में
नमोकार मंत्र
पढ़ कर सुना
रहा है। अब वे
उस आदमी को
पक्का भरोसा
दिला रहे हैं
कि तुम मरे।
क्योंकि जो
—जो मरने
वालों के साथ
हुआ था, वह
हम तुम्हारे
साथ अब कर रहे
हैं। छाती पीट
रहे हैं। यह
सोशल
हिप्नोटिज्म
है। अब उस
आदमी को पक्का
भरोसा आ गया
है कि मैं मर
रहा हूं,
अब मैं मरा, मैं मरा, मैं
मरा। इस मरने
की हिप्नोसिस
में वह बेहोश
हो जाएगा, घबड़ा
जाएगा, डर
जाएगा, सिकुड़
जाएगा, कि
अब मर ही रहा
हूं, अब
क्या करना। इस
घबराहट में, इस भय में वह आंखें
बंद कर लेगा।
इस भय और
घबराहट में वह
मूर्च्छित हो
जाएगा।
असल
में मूर्च्छा
एक तरकीब है
हमारी। उन
चीजों के
खिलाफ हम
प्रयोग करते
हैं जिनसे हम
डरते हैं। अगर
तुम्हारे पेट
में बहुत दर्द
हो जाए, फिर
इतना दर्द हो
जाए कि
तुम्हें
असह्य हो जाए,
तो तुम
मूर्च्छित हो
जाओगे। वह
तुम्हारी ट्रिक
है, वह
मेंटल ट्रिक
है दर्द को आफ
करने की। वह
तुम्हारी
दिमागी तरकीब
है कि अब दर्द
इतना ज्यादा
हो गया है कि
हम चाहते हैं
कि अब दर्द न
हो। दर्द
मिटता नहीं।
तब दूसरा उपाय
यह है कि हम न
हो जाएं, हम
आफ हो जाएं, हमें पता न
चले कि दर्द
हो रहा है। तो
व्यक्तिगत
इंतजाम है
हमारा, अगर
बहुत ज्यादा
दर्द होगा।
ध्यान रहे, असहनीय दर्द
जैसी कोई चीज
दुनिया में
होती नहीं।
सहनीय तक ही
तुम्हें पता
चलता है।
असहनीय की
सीमा आई कि
तुम गए।
असहनीय दर्द
होता ही नहीं।
अगर कोई आदमी
कहे कि मुझे
असह्य पीड़ा हो
रही है, तो
तुम भरोसा मत
करना।
क्योंकि अभी
वह होश में है,
असह्य हो
नहीं सकता।
अगर असहनीय
होता, तो
बेहोश हो गया
होता। नेचरल
ट्रिक काम कर
गई होती और अब
तक बेहोश हो
जाता। सह्य की
सीमा को पार
करते ही आदमी
मूर्च्छित हो
जाता है।
तो
जब छोटी—छोटी
बीमारी में हम
डर जाते हैं, घबरा
जाते हैं, और
बेहोश हो जाते
हैं। तो मौत
तो बड़ा खतरनाक
खयाल लाती है।
मौत का खयाल
ही कि मरे, हमें
मार डालता है।
हम बेहोश हो
जाते हैं। और उस
बेहोशी में
मौत की घटना
घट जाती है।
इसलिए
जब मैं कहता
हूं कि मृत्यु
भ्रम है, तो उस
भ्रम को मैं न
तो आत्मा का
भ्रम कह रहा
हूं, न
शरीर का भ्रम
कह रहा हूं।
उसे मैं
सामाजिक भ्रांति
कह रहा हूं, जो हम अपने
हर बच्चे में
कल्टीवेट
करवाते हैं।
हर बच्चे को
सिखा देते हैं
कि तुम मरोगे
और मरना ऐसा
होता है। और
मरने के सब सिप्टम्स
जिंदगी भर में
आदमी सीख लेता
है। और जब उस
पर खुद घटते
हैं, तो वह
आंख बंद करके मूर्च्छित
हो जाता है।
वह
हिप्नोटाइब्द
हो जाता है।
इसके
खिलाफ ही
सक्रिय ध्यान
की व्यवस्था
है कि मृत्यु
में भी जागरूक
रूप से कैसे
जा सको।
तिब्बत में उस
प्रक्रिया का
नाम बारदो है।
मरते वक्त
आदमी को जैसे
हम
हिप्नोटाइज कर
रहे हैं, ऐसा
वे
एंटी—हिप्नोटाइज
करते हैं। जब
एक आदमी मर
रहा है तब
उसके सारे
प्रियजन
आसपास खड़े होकर
उससे कहते हैं
कि तुम मर
नहीं रहे हो, क्योंकि कोई
कभी नहीं मरा।
यह एंटी—हिप्नोटिक
सजेशन देते हैं
उसको। कोई रोएगा
नहीं, कोई
चिल्लाएगा
नहीं, कोई
कुछ नहीं
करेगा। सारे
लोग इकट्ठे
होकर, गांव
का पुरोहित या
भिक्षु या
संन्यासी आकर
उसको कहेगा कि
तुम मर नहीं
रहे हो, क्योंकि
कोई कभी नहीं
मरा। तुम
जानते हुए, जागते हुए, विश्राम में
बिदा हो जाओ।
तुम मरोगे
नहीं, क्योंकि
कोई कभी मरता
ही नहीं। अब
वह आदमी आंख
बंद कर लेता
है और वह जो
प्रक्रिया है
पूरी की पूरी
उसको कही जाती
है कि अब
तुम्हारा यह
छूटेगा, अब
तुम्हारा यह
छूटेगा, अब
तुम्हारा..
लेकिन तुम बचे
ही रहोगे। अब
तुम्हारे पैर
छूट गए, अब
तुम्हारे हाथ
छूट गए, अब
तुम्हारा यह
छूट रहा है, अब तुम बोल
नहीं सकते हो,
लेकिन तुम
हो। और यह
चारों तरफ से
उसको सुझाव देंगे।
ये सुझाव
सिर्फ
एंटी—हिप्नोटिक
हैं। यानी
उसकी जो सामाजिक
भ्रांति है, वह पकड़ न जाए
कहीं कि मरा, उसको रोकने
के लिए उससे
उलटा, एंटीडोट
का प्रयोग कर
रहे हैं।
अगर
दुनिया
स्वस्थ हो
जाएगी मृत्यु
के बाबत तो
बारदो की कोई
जरूरत नहीं
है। लेकिन हम
बड़े अस्वस्थ
हैं। हम बड़ी
भ्रांति में
हैं। और उस भ्रांति
की वजह से
हमें उलटा
प्रयोग भी
करना
अनिवार्य है।
मैं
मानता हूं कि
इस मुल्क में
भी बारदो जैसे
प्रयोग की
व्यापक
शुरुआत होनी
चाहिए। कि जब
भी कोई मरे तो
उसके सारे
प्रियजन उसकी
यह भ्रांति
तोड्ने की
कोशिश करें कि
तुम मर नहीं
रहे हो। और
अगर हम उसे
सजग रख सकें, और
एक —एक बिंदु पर
उसको स्मरण
दिला सकें, और उसके
सारे बिंदु.
क्योंकि जब
चेतना शरीर से
सिकुड़ती है, तो एक साथ सब
नहीं मरता, एक —एक अंग
छोड़ती है।
एक—एक हिस्सा
छोड़ती है। धीरे
— धीरे भीतर की
तरफ सिकुड़ती
है। उसके सब
चरण हैं। वे
सब चरण याद
दिलाए जा सकते
हैं और उस आदमी
को होश में रखने
के उपाय किए
जा सकते हैं।
उपाय
बहुत तरह के
हो सकते हैं।
विशेष तरह की
सुगधियां
उसके होश को
जगाए रख सकती
हैं,
जैसे कि
विशेष तरह की
सुगधियां
मूर्च्छा ला
सकती हैं।
विशेष तरह की
सुगधियां
मूर्च्छा ला
सकती हैं, विशेष
तरह की
सुगधियां
उसके होश को
जगा सकती हैं।
लोबान और धूप
और इन सब की
ईजाद जागरण के
लिए सहयोगी होने
की वजह से
खोजी गई थी।
इस तरह का
संगीत चारों
तरफ पैदा किया
जा सकता है जो
उसको जगाए रख सके।
ऐसा संगीत हो
सकता है जो
सुला सकता है।
निद्रा लाने
वाला संगीत है,
जगाने वाला
संगीत हो सकता
है। ऐसे
शब्दों, ऐसे
मंत्रों का
उच्चार किया
जा सकता है जो
जागरण में सहयोगी
हों, जो
सुलाएं न।
उसके शरीर पर
ऐसी चोटें की
जा सकती हैं
जो उसको सोने
न दें, उसे
होश में रखें।
उसके शरीर को
ऐसे विशेष आसन
में बिठाया जा
सकता है
जिसमें कि वह
सो न पाए, जिसमें
वह जागा रहे।
एक
झेन फकीर मर
रहा था। मरते
वक्त उसने
अपने आसपास के
फकीरों को कहा
कि मैं तुमसे
एक बात पूछने
वाला हूं। अब
मेरे मरने का
वक्त है तो
मैं सोचता हूं
कि जैसे सभी मरते
हैं वैसे मरने
से क्या
फायदा! उस तरह
तो कई लोग मर
ही चुके हैं।
मैं तुमसे यह
पूछता हूं कि
तुमने कभी
किसी आदमी को
चलते हुए मरते
देखा है कि वह
चल रहा हो और
मर गया हो? तो
उन फकीरों ने
कहा, ऐसा
देखा तो नहीं
है, लेकिन
ऐसा सुना है।
एक बार ऐसा एक
फकीर चलता हुआ
मरा था। तो
उसने कहा, जाने
दो। तुमने
किसी फकीर को
शीर्षासन लगा
कर मरते हुए
देखा है? तो
उन्होंने कहा,
देखा क्या,
सोचा भी नहीं!
सपना भी नहीं
देख सकते कि
कोई आदमी उलटा
खड़ा है और मर
जाए। तो उसने
कहा कि फिर
यही ठीक रहेगा।
वह शीर्षासन
लगाकर खडा हो
गया और मर
गया।
अब
आसपास के लोग
तो बहुत घबरा
गए,
क्योंकि
शीर्षासन में
कोई मुर्दा हो,
तो उसे नीचे
उतारने में भी
डर लगेगा।
अनजान मुर्दा
भी डरा देता
है। वह बड़ा
खतरनाक आदमी
है। वह शीर्षासन
में मर गया है
और खड़ा है सिर
के बल। और
किसी की हिम्मत
नहीं पड़ती है
कि उसको कौन
लिटाए कौन
अर्थी पर रखे।
तब किसी ने
कहा कि उसकी
बहन भी
भिक्षुणी है,
वह पास की
मोनास्ट्री
में रहती है, उसको जरा
बुला लाओ। जब
भी यह कुछ
उपद्रव करता
था, तब वही
आकर इसे ठीक
करती थी। उसकी
बड़ी बहन।
उसको
खबर भेजी गई
तो वह बहुत
नाराज हुई।
उसने कहा, उसकी
सदा की यही
आदत है। बूढ़ा
हो गया, लेकिन
उसकी आदत नहीं
छूटी। मरते
वक्त भी वह
उपद्रव करेगा
ही। वह अपनी
लकडी उठाकर
आई। वह नब्बे
वर्ष की बूढ़ी
थी और उसने
आकर जोर से
लकडी पटकी और
कहा कि बंद
करो यह
शैतानी। मरना
है तो ढंग से
मरो। वह आदमी
हंसा, नीचे
उतर आया। और
उसने कहा कि
मैं जरा खेल
ही कर रहा था; मैंने कहा
कि देखें, ये
लोग क्या करते
हैं। अब मैं
ठीक लेट कर मर
जाता हूं,
कन्वेंशनली।
तो वह लेट कर
मर गया। और
उसकी बहन चली
गई कि अब ठीक है,
उसको निपटा
दो। फिर उसने
लौटकर नहीं
देखा पीछे।
उसने कहा, ठीक
है, अब
निपटा दो। हर
चीज का एक ढंग
होता है, उसकी
बहन ने कहा, ढंग से काम
करो। जो भी
काम करना है, व्यवस्था से
करो।
हमारी
मृत्यु का
भ्रम हमारी
सामाजिक भ्रांति
है। इसे तोड़ा
जा सकता है।
इसे तोड्ने की
विधि और
व्यवस्था है।
और अगर कोई भी
नहीं तोड़ रहा
हो तो मरते
वक्त
प्रत्येक
व्यक्ति, जिसने
थोड़ा—बहुत भी
ध्यान साधा है,
वह खुद ही
तोड़ लेता है।
कोई जरूरत
नहीं रहती है।
अगर तुमने
थोड़ा—सा भी
ध्यान जाना है,
अगर तुमने
थोड़ा—सा भी यह
सत्य जाना है
कि मैं शरीर
से अलग हूं, अगर
तुम्हें एक
बार भी इसकी
झलक मिल गई है
कि मैं अलग और
शरीर अलग, एक
क्षण को भी
तुम्हारे मन
में यह भाव
गहरा चला गया
कि मैं अलग
हूं, तो
फिर मरते वक्त
मूर्च्छित न
होना पड़ेगा।
असल में
तुम्हारी
मूर्च्छा टूट
चुकी है। अब
तुम जानते हुए
मर सकोगे। और
जानते हुए मर
सकना, कट्राडिक्शन
इन टर्म्स है।
जानते हुए कोई
मर नहीं सकता
है, क्योंकि
वह जानता ही
रहता है, मैं
मर नहीं रहा
हूं मैं मर
नहीं रहा हूं।
कुछ मर रहा है,
मैं नहीं मर
रहा हूं। वह
जानता ही रहता
है। आखिर में
पाता है कि वह
शरीर पड़ा रह
गया, मैं
अलग हो गया
हूं। तब
मृत्यु सिर्फ
एक वियोग है, एक संयोग का
टूट जाना।
जैसे कि मैं
इस घर के बाहर
चला जाऊं।
लेकिन अगर इस
घर के रहने
वाले लोगों को
इस घर की
दीवाल की बाहर
की दुनिया का
कोई पता ही न
हो और वे
मानते हों कि
बाहर कोई दुनिया
ही नहीं है।
और दरवाजे से
लौटकर मुझे
नमस्कार करके
रोते हुए वापस
लौट आएं कि वह
आदमी मर गया! ऐसी
ही स्थिति है।
शरीर
और चेतना का
वियोग है
मृत्यु।
वियोग है, इसलिए
मृत्यु कहना
फिजूल है।
सिर्फ एक
संबंध का
शिथिल होकर
छूट जाना है, कपड़े बदल
लेने से
ज्यादा नहीं
है, वस्त्रों
का परिवर्तन
है। इसलिए जो
मरता है जानते
हुए, वह तो
मरता ही नहीं,
इसलिए उसकी
मृत्यु का तो
कोई सवाल ही
नहीं उठता कि
मृत्यु क्या
है। मृत्यु
भ्रम है, ऐसा
भी नहीं कहेगा
वह। वह यह भी
नहीं कहेगा कि
कौन मरता है, कौन नहीं
मरता है! वह
इतना ही कहेगा
कि जीवन एक
संयोग था, जिसे
कल तक हमने
जीवन कहा। वह
संयोग टूट गया,
अब एक नया
जीवन शुरू हुआ
जो कि उन
अर्थों में संयोग
नहीं है। शायद
वह नया संयोग
है, नई
यात्रा है।
तो
जब मैंने कहा, मृत्यु
को जो जानते
हुए मरता है
उसे मृत्यु भ्रम
सिद्ध होती है,
तो मेरा
मतलब खयाल में
आया? भ्रम
का मतलब यह कि
वह थी ही
नहीं। वह एक
सामाजिक
धारणा थी और
उन्होंने
पैदा करवाई थी
जो मरना नहीं
जानते थे, जो
मरे नहीं थे, जिन्हें
मरने का कोई पता
नहीं था। और
वह अनंत काल
से चल रही है
और चलती रहेगी,
क्योंकि न
मरने वाले
मरने वाले के
बाबत निर्णय
लेते रहेंगे।
मरने वाला
लौटकर कोई खबर
नहीं देता।
सच
बात तो यह है
कि बहुत बार
तो ऐसा होता
है कि ध्यानस्थ
व्यक्ति, जिसे
थोड़े से भी
ध्यान की
संभावना बढ़ गई
हो, जब
मरता है तो
उसे बहुत देर
तक पता ही
नहीं चलता कि
वह मर गया।
उसे तो अपने
आसपास के
लोगों को रोते
देखकर हैरानी
होती है कि वे
क्यों रो रहे हैं।
और उसके शरीर
को जलाने की
व्यवस्था, या
उसके शरीर को
कब्र में
दफनाने की
व्यवस्था, या
उसे मरघट ले
जाने की
व्यवस्था, सिर्फ
उसे याद
दिलाने के लिए
महत्वपूर्ण
है कि तुम मर
गए हो, तुम
अब वह नहीं
रहे जो तुम
थे।
इसलिए
इस मुल्क में
संन्यासी को
छोड्कर हम सबके
शरीर को जलाते
थे। उसका कारण
कुल इतना था कि
अगर उसका शरीर
बचा लें तो वह
हो सकता है
महीने, पंद्रह—दिन,
दों—चार
महीने
भ्रांति में
घूमता रहे कि
मैं मरा नहीं
और इसी शरीर
के आसपास
चक्कर काटता
रहे। क्योंकि
उसको तो ऐसा ही
लगता है कि
मैं शरीर से
किसी तरह बाहर
हो गया हूं, भीतर वापस
कैसे हो जाऊं।
तो अगर यह
शरीर यहां रहेगा
तो उसकी नई
यात्रा में
थोड़ी बाधा
पडेगी। वह
व्यर्थ ही
थोड़े चक्कर
कांटेगा
इसके। इसलिए
तत्काल जला
देने की
व्यवस्था थी,
ताकि वह
जाकर मरघट पर
देख ले कि
मामला खतम हो
गया। जिसको
मैंने समझा था
मेरा शरीर, अब वह है ही
नहीं। अब इससे
रास्ता ही टूट
गया, सेतु
गिर गया, अब
उस तरफ जाने
का कोई ब्रिज
नहीं है, कोई
सीडी नहीं है।
मामला खतम हो
गया, वह
बात खतम हो
गई.। जो मैं
अपने को समझता
था, वह मैं
अब नहीं हूं।
तो
तुम ध्यान रखो, यह
मुर्दे को
जलाने की जो
व्यवस्था है,
वह सिर्फ घर
खाली करने की
ही व्यवस्था
नहीं है, उसमें
और भी कीमती
बातें हैं। वह
असल में जो आदमी
विदा हो गया
है, उसको
भरोसा नहीं
आता कि मैं मर
गया हूं। उसको
आये भी भरोसा
कैसे, क्योंकि
वह अपने को
बिलकुल वैसा
ही पाता है जैसा
था। उसमें
कहीं कोई फर्क
नहीं पड़ा।
सिर्फ
संन्यासी के
शरीर को हम
नहीं जलाते थे, क्योंकि
वह पहले ही
जान चुका है
कि मैं शरीर नहीं
हूं। इसलिए
उसके शरीर की
हम समाधि बना
सकते थे।
समाधि
संन्यासी के
शरीर की बना
सकते थे, क्योंकि
वह जानता ही
था पहले से कि
मैं शरीर नहीं
हूं। इसलिए
उसके शरीर को
बचाने में कोई
कठिनाई नहीं
है। लेकिन
साधारण आदमी
के शरीर को बचाने
में कठिनाई है,
क्योंकि वह
भटक सकता है, वह बहुत देर
तक चक्कर लगा
सकता है। वह सोच
सकता है कि
अभी तो मेरा
शरीर मौजूद है,
मैं किसी
तरह भीतर
प्रवेश कर
जाऊं।
होशपूर्वक
मरना तभी संभव
हो सकता है जब
तुम होशपूर्वक
जीयो। अगर
तुमने
होशपूर्वक
जीना सीख लिया, तो
तुम जरूर
होशपूर्वक मर
सकोगे, क्योंकि
मरना भी जीवन
की एक घटना
है। जीवन में
ही घटती है, जीवन की ही
एक घटना है।
कहना चाहिए, जिसे तुमने
जीवन समझा था,
उसकी वह
आखिरी घटना है,
जीवन के
बाहर नहीं।
साधारणत: हम
मृत्यु को ऐसा
लेते हैं कि
वह जीवन के
बाहर कोई घटना
है, या
जीवन के
विपरीत कोई
घटना है। नहीं,
वह जीवन की
ही श्रृंखला की
आखिरी घटना
है।
एक
वृक्ष पर एक
फल लगा है। वह
अभी हरा है।
फिर पीला पड़ता
जाता है, पीला
पड़ता जाता है,
फिर आखिर
में बिलकुल
पीला पड़ जाएगा
और फिर वृक्ष
से टूटकर गिर
पड़ेगा। वह
वृक्ष से
टूटना उसके
पीले होने के
बाहर की घटना
नहीं है, उसके
पीले के ही
परिपूर्ण
होने की घटना
है। वह वृक्ष
से टूटना कोई
बाह्य घटना
नहीं है कि
बाहर से आ गई।
वह उसके भीतर
ही जो पीला हो
रहा था, पक
रहा था, पक
रहा था, पक
रहा था, उसी
की चरम अवस्था
है। और जब वह
हरा था तब? तब
भी इसी की
तैयारी चल रही
थी। और जब वह
अभी शाखा पर
निकला ही नहीं
था, शाखा
के भीतर छिपा
था तब? तब
भी इसकी
तैयारी चल रही
थी। और वृक्ष
पैदा नहीं हुआ
था, बीज
में था तब? तब
भी इसकी
तैयारी चल रही
थी। जब यह बीज
भी पैदा नहीं
हुआ था और
किसी दूसरे
वृक्ष में
छिपा था, तब
भी तैयारी चल
रही थी। वह
घटना जो है
उसी घटना की
श्रृंखला का
एक हिस्सा है।
वह कुछ अंत नहीं
है, सिर्फ
एक वियोग है।
एक संबंध, एक
व्यवस्था
समाप्त हो गई,
दूसरा
संबंध, दूसरी
व्यवस्था
शुरू होती है।
निर्वाण
में मृत्यु की
क्या स्थिति
होती है?
निर्वाण
का मतलब ही यह
है कि जिस
व्यक्ति ने मृत्यु
होती ही नहीं, ऐसा
परिपूर्ण रूप
से जान
लिया—एक।
दूसरा, जिसे
हम जीवन कहते
हैं, उसमें
कुछ मिलता ही
नहीं, ऐसा
भी जान लिया।
निर्वाण का
मतलब है दो
सत्यों की
जानकारी—जिसे
हम मृत्यु हैं,
मृत्यु
नहीं है; और
जिसे हम जीवन
कहते हैं, वह
जीवन नहीं है।
मेरी बात समझ
रहे हो न.
यह
तो मैंने एक
बात तुमसे कही
कि मृत्यु को
जो जानेगा, वह
कि मृत्यु
मृत्यु नहीं
है। लेकिन
इससे ही संयुक्त
दूसरी घटना भी
है कि जो जीवन
को पूरा जागकर
देखेगा, वह
पाएगा कि
जिसको दुनिया
जीवन कह रही
है, वह
जीवन भी नहीं
है। वह श्री
एक सामाजिक
भ्रांति है, जैसे मृत्यु
एक सामाजिक
भ्रांति है।
निर्वाण का
मतलब है, इन
दोनों बातों
का पूरी तरह
अनुभव हो
जाना।
मृत्यु
अगर मृत्यु
नहीं है, इतना
ही तुमने जाना
तो अभी और
जीवन चलता
रहेगा। अभी
आधा ही जाना।
अभी आकांक्षा
रहेगी कि फिर
जीये, फिर
शरीर पकड़े, फिर जन्म
लें। वह चलता
रहेगा। जिस
दिन दूसरा सत्य
भी पूरी तरह
जान लोगे कि
जीवन भी जीवन
नहीं है और
मृत्यु भी
मृत्यु नहीं
है, उस दिन
लौटना नहीं
है। प्वाइंट
आफ नो रिटर्न
आ गया। फिर
यहां लौटने का
कोई मतलब नहीं
है। मेरा मतलब
समझे आप?
हमने
एक आदमी को घर
के बाहर विदा
किया, घर के
लोग समझते हैं
कि बस, यह
घर अंत था। वह
आदमी भी जब तक
घर के भीतर था,
ऐसा ही
समझता था कि
यह घर अंत है।
बाहर होकर वह
दरवाजे
खटखटाएगा कि
मुझे भीतर आने
दो। अगर इस घर
की सीढ़ी टूट
जाएगी, तो
किसी दूसरे घर
के दरवाजे खटखटाका
कि मुझे भीतर
आने दो। क्योंकि
जीवन तो घर के
भीतर है। वह
फिर कोई घर
में प्रवेश कर
जाएगा। यह घर
न मिला तो
दूसरा घर मिला।
ऐसे ही जब एक
आदमी मरता है,
जैसे ही
मरता है, तत्काल,
चूंकि उसने
शरीर को ही
जीवन समझा, वह तत्काल
शरीर को पाने
के लिए बेचैन
होकर, तड़प
कर भागने लगता
है।
तुमने
कभी खयाल न
किया होगा कि
रात जब तुम
सोते हो तो
तुम्हारा जो
आखिरी विचार
होता है, वह
सुबह उठकर
तुम्हारा
पहला विचार
होता है। उसे
थोड़ा जांचना।
आखिरी जो
विचार होगा तुम्हारा
सोते वक्त, सात घंटे के
बाद सुबह
तुम्हारा वह
पहला विचार होगा।
सात घंटे वह
प्रतीक्षा
करेगा कि आप
कब जगें। वह
दरवाजे पर
बैठा रहेगा।
जगो, कि
काम शुरू करो।
अगर रात किसी
से लड़कर सोए
हो, तो सुबह
सबसे पहले उसी
का खयाल आएगा।
अगर रात प्रार्थना
करके सोए हो, तो सुबह
सबसे पहले
प्रार्थना
वापस लौटेगी।
जो रात अंत था,
वह सुबह
प्रारंभ
होगा।
तो
जो आदमी मरते
वक्त आखिरी
क्षण में जो
सोच रहा है, जो
उसकी कामना और
वासना है, मरते
ही वह उसकी
पहली वासना हो
जाएगी। वह
तत्काल
यात्रा पर
निकल जाएगा।
अगर मरते वक्त
वह यह कह रहा
है कि मेरा
शरीर नष्ट हुआ
जा रहा है, मैं
मरा जा रहा
हूं, मेरा
शरीर गया, मेरा
शरीर गया, तो
तत्काल मरते
ही वह कहेगा, मुझे शरीर, मुझे शरीर, शरीर चाहिए,
शरीर
चाहिए। वह
भागेगा, दौड़ेगा,
जल्दी से
खोज करेगा कि कहां
उसे मार्ग मिल
जाए कि वह
जल्दी से शरीर
को ग्रहण कर
ले। तो जो
तुम्हारी
मरते वक्त
आखिरी वासना
है..... और आखिरी
वासना, ध्यान
रहे, तुम्हारे
जीवन भर का
निचोड़ होगी।
असल
में रात का भी
आखिरी खयाल
तुम्हारे दिन
भर का निचोड़
होता है। वह
दिन भर का सार
है,
संक्षिप्त है।
जैसे दिन भर
एक आदमी दुकान
करता है और
रात खाते —बही
में सार
—संक्षिप्त
लिखकर सो जाता
है। तो दिन भर
तुम जो कर रहे
हो वह सार
—संक्षिप्त
तुम्हारा
आखिरी विचार
होता है। अगर
कोई आदमी रात
के अपने आखिरी
विचारों को
लिखता रहे, सिर्फ आखिरी
विचार को
लिखता रहे, तो जितनी
अदभुत
आत्मकथा वह
लिख पाएगा, उतनी अदभुत
आत्मकथा कोई
भी नहीं लिख
सकता। वह उसकी
सार
—संक्षिप्त
कथा होगी।
जिसमें सब एसेंशियल
आ जाएगा और
नान —एसेंशियल
छूट जाएगा। अगर
तुम रोज सुबह
तुम्हारा
पहला खयाल है
उसे लिखते रहो,
तो
तुम्हारे
पंद्रह दिन के
पंद्रह
खयालों को
देखकर जिंदगी
के बाबत सब
कुछ कहा जा
सकता है कि
तुम क्या थे, क्या हो रहे
हो, क्या
होना चाह
जिंदगी
का मरते वक्त
जो विचार है, वह
तुम्हारे
पूरे सत्तर —
अस्सी साल की
जिंदगी का सार
—संक्षिप्त
है। अब वही
सार—संक्षिप्त
तुम्हारे
अगले जीवन का
पोटेंशियल
होगा। वह तुम्हारी
पूंजी होगी
जिसको तुम
अगले जीवन में
लेकर चले
जाओगे। उसे
तुम कर्म कहो,
उसे तुम
वासना कहो, उसे तुम कुछ
भी नाम दे
सकते हो।
संस्कार कहो,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। वह
तुम्हारी
जिंदगी भर का
सारा का सारा
जिसको कहना
चाहिए बिल्ट — इन
—प्रोग्राम है,
जो भविष्य में
काम करेगा।
अब
एक छोटे —से
बीज को जब हम
बोते हैं तो
बडे मजे की
बात है कि उस
बीज में से बट
वृक्ष ही
क्यों पैदा
होता है! बीज
में जरूर बट
वृक्ष का
बिल्ट—इन—प्रोग्राम
होना चाहिए, नहीं
तो हो नहीं
सकता। ब्लू
प्रिंट होना
चाहिए उसके
पास, नहीं
तो वह कैसे
पत्ते निकालेगा,
वह कैसे
शाखाएं
निकालेगा, और
वे सभी शाखाएं
बट वृक्ष की
क्यों कर
होंगी? उसके
पास योजना
होनी चाहिए न!
उस छोटे से
बीज में सारी
की सारी योजना
होनी चाहिए।
अगर हम उस बीज
के भविष्य की
कोई कुंडली
बना सकें, तो
हम उसके पत्ते
—पत्ते की खबर
दे सकते हैं
कि उसमें
कितने पत्ते
निकलेंगे, इसमें
कितने फल
लगेंगे, इसमें
कितने बीज
लगेंगे, यह
कितना लंबा
होगा, यह
कितना चौड़ा
होगा, इसकी
शाखाएं कितनी
बड़ी होंगी, कितनी
बैलगाड़ियां
इसके नीचे
विश्राम कर
सकेंगी। यह सब
इस छोटे —से
बीज में है, किसी दिन
अगर हम इसको
पूरा परख
सकें! क्योंकि
है तो इसमें
सब छिपा हुआ।
यह ब्लू
प्रिंट है
पूरी
बिल्डिंग का।
वह जो बनेगा
उसका सब इसमें
है।
मरते
वक्त हम सब
अपनी जिंदगी
का सार
—संक्षिप्त
सिकोड़ लेते
हैं,
इकट्ठा कर
लेते हैं। जो
—जो हमने
महत्वपूर्ण समझा,
वह बचा लेते
हैं; जो —जो
हमने व्यर्थ
समझा, वह
छोड़ देते हैं।
अब जिस आदमी
ने लाख रुपए
कमाए थे और हजार
रुपए मंदिर
बनाने में
लगाए थे, ध्यान
रखना, मरते
वक्त हजार
रुपए वाला
मंदिर याद
नहीं आएगा, निन्यानबे
हजार रुपए
वाली तिजोरी
याद आएगी। जो
सिग्नीफिकेट
था वह बचाया
जाएगा, जो
नान
—सिग्नीफिकेट
था वह छोड़
दिया जाएगा। मरते
क्षण में
तुम्हारा सार—
असार छंट
जाएगा। जो
बेकार था वह
छूट जाएगा। जो
सार था वह तुम
एकदम इकट्ठा
करके खींच
लोगे जाते
वक्त। वह तुम्हारी
यात्रा बन
जाएगी। वह
तत्काल
तुम्हें नया
बिल्ट—इन—प्रोग्राम
मिल जाएगा। अब
तुम नई यात्रा
पर निकल
जाओगे। और वह
जो तुम्हारे पास
अब भविष्य की
योजना है, उस
योजना के
अनुसार
तुम्हारा नया
जन्म होगा और
नई यात्रा
शुरू हो जाएगी,
नया शरीर
होगा। सारी नई
व्यवस्था हो
जाएगी। और यह
उतने ही
वैज्ञानिक
ढंग से होता
है जैसे कुछ
और होता है।
निर्वाण
का मतलब यह है
कि एक आदमी ने
यह भी जान लिया
कि मृत्यु
मृत्यु नहीं
है,
और यह भी
जान लिया है
कि जीवन जीवन
नहीं है। जब उसने
दोनों ही जान
लिये, तो
उसके पास अब
कोई
बिल्ट—इन—प्रोग्राम
नहीं है। उसने
प्रोग्राम
छोड़ दिया। अब
वह कहता है कि
सार— असार
दोनों छोड्कर
जाते हैं। समझ
रहे हैं न! जब
वह मरता है तब
वह कहता है, सार— असार
दोनों छोड़े
जाते हैं। अब
हम अकेले जाते
हैं—पंछी जाए
अकेला। अब वह
अकेला जा रहा
है। अब वह सब
छोडे जा रहा
है। अब वह कह
रहा है, तिजोरी
भी रखो, मंदिर
भी रखो। जो ऋण
लिया था वह भी
छोड़ जाते हैं,
जो ऋण दिया
था वह भी छोड़
जाते हैं।
अच्छा किया था
वह भी छोड़ देते
हैं, जो
बुरा किया था
वह भी छोड़
देते हैं। असल
में हम छोड्कर
जा रहे हैं।
कबीर
ने कहा है, 'ज्यों
की त्यों रख
दीन्ही
चदरिया, बड़े
जतन से ओढ़ी!' कि कहीं कोई
हिसाब— किताब
पीछे न रह
जाए। कहीं न
हो जाए मामला
कि कुछ सार—
असार मालूम
पड़ने लगे। कुछ
बचाने योग्य,
कुछ छोड़ने
पड़ने लगे। तो
कबीर कहते हैं
कि बहुत जतन से
ओढ़ी और फिर
ज्यों की
त्यों रख
दीन्ही चदरिया,
जैसी की
तैसी रख दी।
तब कोई
बिल्ट—इन—प्रोग्राम
नहीं हो सकता
आगे के लिए।
क्योंकि सारा
मामला ही वैसे
का वैसा रखकर
आदमी गया।
उसमें से कुछ
चुना नहीं, उसमें से
कुछ बचाया नहीं।
यह नहीं कहा
कि एक चीज तो
कम से कम ले
चलें, इतनी
जिंदगी भर
कमाई की है।
वह सब छोड़
दिया। इसलिए
कबीर कहते हैं,
हंसा जाई
अकेला। अब वह
अकेला जा रहा
है हंसा, वह
कुछ भी नहीं
ले जा रहा है।
न मित्र, न
शत्रु—कोई भी
नहीं। न अच्छा,
न बुरा; न
शास्त्र, न
सिद्धात—कुछ
भी नहीं।
निर्वाण
का मतलब यह है
कि जीवन भी
जीवन नहीं था, ऐसा
जाना, मृत्यु
भी मृत्यु
नहीं थी, ऐसा
जाना। और जब
हम यह जान
लेते हैं कि
जो —जो नहीं था,
उसे जान
लेते हैं; तो
जो है, वह
हमें दिखाई
पड़ना शुरू हो
जाता है।
फिर
कल।
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