जो
अपने भीतर
प्रवेश करता
हे,
वह भीतर पहुंचते
ही पाता है कि
वह सबके भीतर
पहुंच गया है।
क्योंकि
बाहर से हम सब
भिन्न–भिन्न
नहीं है।
मेरे
प्रिय आत्मन्।
एक
मित्र ने पूछा
है कि मैने
सत्य को या
परमात्मा को
पाने की जो
विधि बताई है—
सबका निषेध कर
के और स्वयं
को जानने की—
क्या इससे
उलटा नहीं हो
सकता है कि हम
सबमें ही
परमात्मा को
जानने का
प्रयास करें? सर्व में
वही है यह भाव
करें?
इसे थोड़ा
समझना उपयोगी
होगा। जो
व्यक्ति स्वयं
में परमात्मा
को नहीं जानता
है, वह
सर्व में उसे
कभी भी नहीं
जान सकता है।
जो अभी स्वयं
में भी उसे
नहीं पहचान
पाया, वह
और किसी में
उसे नहीं
पहचान पा सकता
है। स्वयं का
मतलब है, जो
मेरे निकटतम
है। और फिर तो
कोई भी होगा
तो मुझसे थोड़ा
दूर और दूर और
दूर ही होगा।
और निकटतम मैं
हूं, उसमें
भी मुझे
परमात्मा
दिखाई न पड़ता
हो, तो:.
मुझसे जो दूर
हैं, उनमें
तो कभी भी
नहीं दिखाई पड
सकता है।
पहले
तो स्वयं में
ही जानना होगा।
पहले तो जानने
वाले में ही
जानना होगा।
वह निकटतम
द्वार है।
लेकिन ध्यान
रहे, यह
बहुत मजे की
बात है कि जो
व्यक्ति
स्वयं के
द्वार में
प्रवेश करता है,
वह अचानक
सर्व में
प्रविष्ट हो
जाता है।
स्वयं का
द्वार सर्व का
ही द्वार है।
जो अपने भीतर
प्रवेश करता है,
वह भीतर
पहुंचते ही
पाता है कि वह
सबके भीतर पहुंच
गया है।
क्योंकि बाहर
से हम सब
भिन्न—भिन्न
हैं, लेकिन
भीतर से हम
भिन्न—भिन्न
नहीं हैं।
अगर
कोई व्यक्ति
एक वृक्ष के
एक—एक पत्ते
को बाहर से
खोजने जाए तो
सभी पत्ते अलग
— अलग हैं। और
अगर एक पत्ते
के भीतर भी
प्रविष्ट हो
जाए, तो
वह उस वृक्ष
की भूल धारा
में पहुंच
जाएगा, जहां, सभी पत्ते
इकट्ठे हैं।
एक—एक पत्ते
को अलग से देखेगा
तो एक—एक
पत्ता अलग —
अलग है, लेकिन
किसी भी पत्ते
को भीतर से
जान ले, तो
वृक्ष की उस
मूल धारा में
पहुंच जाएगा,
जहां, से
सारे पत्ते
निकलते हैं और
जहां, सब
पत्ते विलीन
हो जाते हैं।
यदि हम
अपने भीतर उतर
जाएं, तो
हम सर्व के
भीतर भी उतर
जाते हैं। जब
तक हम अपने
भीतर नहीं
उतरे हैं, तभी
तक मैं और तू
का भेद है, और
जिस दिन हम
मैं के भीतर
उतर जाएंगे, उस दिन मैं
भी मिट जाता
है, और तू
भी। उस दिन
सर्व ही शेष
रह जाता है।
असल
में सर्व का
मतलब ऐसा नहीं
है कि मैं और
तू के जोड़ का
नाम सर्व है।
ऐसा नहीं।
सर्व का अर्थ
मैं और सब तू
का जोड़ नहीं
है। सर्व का
मतलब है जहां, मैं न रह
गया, तू न
रह गया। फिर
जो शेष रह
जाता है, उसका
नाम सर्व है।
और अगर मेरा
मैं अभी नहीं
मिटा है, तो
मैं सर्व का
जोड़ ही कर
सकता हूं,
लेकिन वह जोड़
सत्य न होगा।
सारे पत्तों
को भी मैं जोड़
लूं र तो भी
वृक्ष नहीं
बनता है, यद्यपि
वृक्ष में
सारे पत्ते
जुड़े हैं।
वृक्ष सारे
पत्तों के जोड़
से ज्यादा है।
असल में जोड़
से कोई संबंध
ही नहीं है, जोड़ना ही
गलत है। जोड्ने
में हमने अलग—
अलग मान ही
लिया है।
वृक्ष अलग —
अलग है ही
नहीं। जैसे ही
हम मैं में
उतर जाएं, वैसे
ही मैं विलीन
हो जाता है।
स्वयं में
उतरते ही जो
सबसे पहली चीज
मिटती है, वह
स्वयं का होना
है। और जहां, स्वयं मिट
गया, वहां, तू भी मिट
गया, पराया
भी मिट गया।
फिर जो शेष रह
जाता है, वह
सर्व है।
उसे
सर्व कहना भी
ठीक नहीं है, क्योंकि
सर्व शब्द
पुराने मैं की
ही भाषा है।
इसलिए जो
जानते हैं, वे उसे सर्व
भी न कहेंगे।
क्योंकि वे
कहेंगे, किसका
जोड़? कौन
सब? तब वे
कहेंगे, एक
ही बच जाता है।
लेकिन शायद वे
एक कहने में
भी हिचकेंगे,
क्योंकि एक
कहने से दो का
खयाल पैदा
होता है।
क्योंकि ऐसा
लगता है कि
अगर एक बच
जाता है, तो
एक का कोई
अर्थ ही नहीं
होता दो के
बिना। दो हो, तो ही एक
होता है।
इसलिए जो और
समझ पाते हैं,
वे यह भी
नहीं कहते कि
एक ही बच जाता है।
वे कहते हैं, अद्वैत बच
जाता है।
बहुत
मजे की बात है।
वे यह कहते
हैं कि दो
नहीं बचते। वे
यह नहीं कहते
कि एक बच जाता
है, वे
कहते हैं, दो
नहीं बचते।
इसलिए अद्वैत।
अद्वैत का
मतलब है, जहां, दो नहीं हैं।
यह उलटे कहने
की क्या जरूरत
है, सीधा
कहो न कि एक है।
लेकिन एक कहने
में खतरा है।
क्योंकि एक से
दो का खयाल
पैदा होता है।
और जब हम कहते
हैं, जहां, दो नहीं हैं,
वहां,
तीन भी नहीं
हैं, वहा
एक भी नहीं है,
वहां,
अनेक भी नहीं
हैं, वहां, सर्व भी
नहीं है।
असल
में वह जो
हमारे देखने
की दुनिया थी
मैं के रहते, उसकी वजह
से विभाजन
पैदा हुआ था।
अब अविभाज्य,
जो भी है, अविभाजित, इनडिवीजिबल,
वह शेष रह
जाता है।
लेकिन उसे
जानने के लिए
अगर कोई ऐसा
करे—जैसा मेरे
मित्र ने पूछा
है—कि ऐसा अगर
करे कि सब में
परमात्मा की
कल्पना करे!
लेकिन वह
कल्पना ही
होगी। और
कल्पना सत्य
नहीं है।
मेरे
पास एक फकीर
को लाया गया
था बहुत दिन
हुए। जो लोग
उन्हें लाए थे, उन्होंने
मुझे कहा कि
उन फकीर को सब
जगह परमात्मा
के दर्शन होते
हैं। आज तीस
वर्षों से निरंतर
उन्हें
प्रत्येक चीज
में परमात्मा
के दर्शन होते
हैं। फूल में,
पौधे में, पत्थर में, सब में।
मैंने उन फकीर
से पूछा कि
आपको ये दर्शन
किसी अभ्यास
से तो नहीं
हुए? अगर
अभ्यास से हुए
हैं, तो
दर्शन बड़े
झूठे हैं।
उन्होंने कहा,
मैं समझा
नहीं। मैंने
उनसे कहा, क्या
आपने कभी सब
में परमात्मा
को देखने की
कल्पना और
कामना तो नहीं
की थी? तो
उन्होंने कहा
कि निश्चित
ही! तीस वर्ष
पहले मैंने वह
साधना शुरू की
थी कि मैं
प्रत्येक चीज
में परमात्मा
को देखने का
प्रयास करता
था—पत्थर में
भगवान, पौधे
में भगवान, पहाड़ में
भगवान, सब
में भगवान।
इसको मैं
देखने का
प्रयास करता
था। फिर मुझे
भगवान दिखाई
पड़ने लगे। तो
मैंने उनसे
कहा, तीन
दिन मेरे पास
रुक जाएं और
तीन दिन कृपा
करके प्रयास न
करें, सबमें
भगवान है, इसका
प्रयास न करें।
वे
मेरे पास रुक
गए हैं, और दूसरे
दिन सुबह
उन्होंने
मुझसे कहा कि
आपने तो मुझे
बड़ा नुकसान
पहुंचाया।
बारह घंटे ही
मैंने प्रयास
नहीं किया है
तो मुझे पत्थर
पत्थर दिखाई
पड़ने लगा है
और पहाड़ पहाड़
दिखाई पड़ने
लगा। आपने तो
मेरा भगवान
छीन लिया। आप
कैसे आदमी हैं?
आपने तो
मुझे बड़ा
नुकसान
पहुंचा दिया।
मैंने उनसे
कहा कि जो
भगवान बारह
घंटे अभ्यास
छोड़ने से छूट
जाता हो, वह
भगवान नहीं था,
सिर्फ
अभ्यास का
प्रतिफलन था।
जैसे कोई आदमी
किसी चीज को
जोर—जोर से
दोहराता रहे,
दोहराता
रहे, दोहराता
रहे, तो एक
भ्रम पैदा कर
लेता है। नहीं,
पत्थर में
भगवान देखने
नहीं हैं। उस
स्थिति में
पहुंचना है जहां, पत्थर में
भगवान के
सिवाय कुछ और
देखने को शेष
ही नहीं रह
जाता है। ये
दोनों भिन्न
बातें हैं।
पत्थर
में भगवान को
देखने की
कोशिश से
पत्थर में
भगवान दिखाई
पड़ने लगेंगे, लेकिन वे
भगवान प्रोजेक्शन
से ज्यादा
नहीं हैं। वे
आपकी ही
कल्पना को
पत्थर पर
आरोपित किया गया
है। आपने ही
थोप दिया है
पत्थर के 'ऊपर
भगवान को। वे
भगवान बिलकुल
आपके बनाए हुए
हैं। वे भगवान
बिलकुल आपकी
कल्पना का
विस्तार हैं।
वे भगवान आपके
सपने से
ज्यादा नहीं
हैं। और आप
दोहरा —दोहरा
कर सपने को
मजबूत करते
रहेंगे, वे
बराबर दिखाई
पड़ते रहेंगे।
लेकिन यह
भ्रमजाल में
जीना है, यह
किसी सत्य में
उतर जाना नहीं
है।
हां,, एक दिन
ऐसा जरूर होता
है जब स्वयं
मिट जाता है व्यक्ति,
तब सिवाय
भगवान के और कोई
दिखाई नहीं
पड़ता। तब ऐसा
नहीं होता कि
पत्थर में
भगवान है, तब
ऐसा होता है
कि पत्थर कहां, है, भगवान
ही है। मेरा
फर्क समझ रहे
हैं आप? तब
ऐसा नहीं होता
है कि पत्थर
में, पौधे
में भगवान हैं।
पौधा भी है और
उसमें भगवान
भी है, ऐसा
नहीं होता है।
तब ऐसा होता
है कि पौधा कहां, गया, पत्थर
कहां, गया,
पहाड़ कहां, गया? क्योंकि
जो शेष रह गया
है, वह
भगवान ही है।
और तब आपके
अभ्यास पर
निर्भर नहीं
है वह बात।
आपके अनुभव पर
निर्भर है।
और
सबसे बड़ा खतरा
जो है साधना
की दुनिया में, वह
कल्पना का
खतरा है। सबसे
बडा खतरा जो
है वह यह है कि
हम उन सत्यों
की कल्पना भी
कर सकते हैं, जिन सत्यों
का अनुभव होना
चाहिए। अनुभव
और कल्पना में
भेद है। एक
आदमी ने दिन
भर खाना नहीं
खाया है। रात
सपने में भोजन
कर लेता है। जहां, तक भोजन
सपने में करने
का संबंध है, सपने में
बड़ी तृप्ति
मिल जाती है
भोजन करने की।
शायद जागते
में इतना आनंद
नहीं आता है
जितना सपने
में भोजन करने
में आता है।
क्योंकि
जितना चाहे और
जैसा चाहे
वैसा भोजन कर
लेता है। लेकिन
सुबह उठकर उस
भोजन से पेट
नहीं भर जाता
है, न उस
भोजन से खून
बनता है। और
अगर सपने के
भोजन पर कोई
आदमी जिंदा
रहने लगे, तो
आज नहीं कल
मरेगा, जिंदा
नहीं रह सकता
है। क्योंकि
सपने का भोजन
कितनी ही
तृप्ति देता हो,
फिर भी भोजन
नहीं है। और न
रक्त बन सकता
है, न मांस
बन सकता है, न हड्डी—मांस—मज्जा
बन सकता है।
सपने में
सिर्फ धोखा बन
सकता है।
सपने
के भोजन ही
नहीं होते, सपने के
भगवान भी होते
हैं। और सपने
का मोक्ष भी
होता है। और
सपने की शांति
भी होती है।
और सपने के
सत्य भी होते
हैं। आदमी के
मन की सबसे
बड़ी क्षमता जो
है, वह यह
है कि वह खुद
को धोखा दे
लेने की
क्षमता है।
लेकिन उस तरह
के धोखे में
पड़ने से कोई
कभी भी आनंद
को, मुक्ति
को उपलब्ध
नहीं हो सकता
है।
इसलिए
मैं आपसे यह
नहीं कहता हूं
कि आप सबमें भगवान
देखना शुरू
करें। मैं
आपसे सिर्फ यह
कहता हूं कि
आप भीतर देखना
शुरू करें कि
वहां,
क्या है। और
जब आप भीतर
देखना शुरू
करेंगे कि वहां, क्या है, तो
सबसे पहले जो
व्यक्ति विदा
हो जाएगा, वह
आप हैं। आप
सबसे पहले
विदा हो
जाएंगे। आप
नहीं बचेंगे
वहा भीतर।
पहली दफा आप
पाएंगे कि यह
मेरे होने का
बड़ा भ्रम था
कि मैं हूं।
यह तो खो गया, यह तो विदा
हो गया। भीतर झांकते ही
मैं पहले विदा
हो जाता है, अहंकार पहले
विदा हो जाता
है। असल में
हमने झांककर
नहीं देखा है,
तभी तक
मालूम होता है
कि मैं हूं।
और शायद
इसीलिए हम
भीतर झांककर
देखने में
डरते भी हैं
कि भीतर झांक
कर देखें तो
कहीं खो न
जाएं।
कभी
आपने देखा
होगा, कोई
आदमी एक मशाल
हाथ में ले ले
और जोर से
घुमाने लगे, तो एक फायर
सर्किल बन
जाता है, एक
अग्नि—वृत्त
बन जाता है।
दिखाई पड़ने
लगता है कि आग
का एक गोल
घेरा है। गोल
घेरा कहीं भी
नहीं है, सिर्फ
एक मशाल है जो
जोर से घूम
रही है। अगर
आप पास जाकर
गौर से देखें,
तो गोल घेरा
मिट जाएगा, रह जाएगी
मशाल। लेकिन
तेजी से घूमने
की वजह से
मशाल गोल घेरा
मालूम होती है
आग का। दूर से
देखने पर लगता
है कि आग का
वृत्त है, गोल
घेरा है। है
कहीं भी नहीं,
लेकिन
दिखाई पड़ता है।
लेकिन अगर
निकट जाकर पहचानें,
तो पता
चलेगा कि जोर
से घूमती हुई
मशाल है।
वृत्त झूठ है,
अग्नि—वृत्त
झूठ है। ऐसे
ही ये भीतर
अगर हम गौर से
जाकर देखेंगे,
तो पता
चलेगा कि मैं
बिलकुल ही झूठ
है। तेजी से
घूमती हुई
चेतना के कारण
मैं का भ्रम
पैदा हो जाता
है, जैसे
तेजी से घूमती
हुई मशाल के
कारण वृत्त का
भ्रम पैदा हो
जाता है। यह
एक वैज्ञानिक
सत्य है, जो
समझ लेना
चाहिए।
शायद
आपको खयाल भी
न हो कि हमारे
जीवन के सारे भ्रम
तेजी से घूमने
के भ्रम हैं।
दीवाल ठोस
दिखाई पड़ती है, पत्थर
पड़ा है पैर के
नीचे, कितना
साफ और ठोस है।
लेकिन
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
ठोस पत्थर
जैसी कोई चीज
है ही नहीं। तब
तो हम बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाएंगे।
क्या आपको पता
है कि
वैज्ञानिक
मैटर के, पदार्थ
के जितने ही
पास गया, उतना
ही पदार्थ
विलीन हो गया।
जब तक दूर था, तो समझता था
कि पदार्थ है।
और सबसे
ज्यादा
वैज्ञानिक ही
घोषणा करता था
कि पदार्थ ही
सत्य है।
लेकिन अब
वैज्ञानिक ही
कहता है कि
पदार्थ तो है
ही नहीं। तेजी
से घूमते हुए
विद्युत—क्या
इतनी तेजी से
घूम रहे हैं
कि उनकी तेजी
से घूमने की
वजह से ठोसपन
का भ्रम पैदा
होता है।
ठोसपन कहीं भी
नहीं है।
जैसे
बिजली का पंखा
जोर से घूमता
है तो उसकी तीन
पंखुड़ियां
दिखाई नहीं
पड़ती हैं। फिर
कोई गिनकर बता
नहीं सकता है
कि पंखुड़ियां
कितनी हैं। और
तेजी से घूमे, और तेजी
से घूमे तो
फिर हमें
लगेगा कि एक
टीन का गोल
चक्कर घूम रहा
है। फिर पंखुड़ियां
दिखाई ही नहीं
पड़ेगी। इतने
तेजी से भी
घुमाया जा
सकता है उसे
कि आप उसके
ऊपर बैठ जाएं
और आपको ऐसा
पता न लगे कि पंखुड़ियां
बीच से आ रही
हैं, जा
रही हैं। आपको
ऐसा ही लगेगा
कि मैं किसी
ठोस चीज पर
बैठा हुआ हूं।
अगर इतनी तेजी
से घूमे कि एक पंखुड़ी
जाए, उसके
पहले दूसरी पंखुड़ी
आपके नीचे आ
जाए, तो
आपको कभी पता
नहीं चलेगा कि
आपके बीच —बीच
में खड्डे भी
आते हैं। पंखा
इतनी तेजी से
घूमे तो आपको
पता नहीं
चलेगा।
पदार्थ
में उतनी ही
तेजी से घूम
रहे हैं उसके कण।
और कण पदार्थ
नहीं है, कण सिर्फ
विद्युत
ऊर्जा है, इलेक्ट्रिक
इनर्जी है, वह तेजी से
घूम रही है।
घूमने की वजह
से ठोसपन का
भाव दे रही है।
सारा पदार्थ
सिर्फ तेजी से
घूमती हुई ऊर्जा
का फल है।
दिखाई पड़ता है,
है कहीं भी
नहीं। ठीक ऐसे
ही चित्त की
ऊर्जा, इनर्जी
आफ काशसनेस
इतनी तेजी से
घूम रही है कि
मैं का भ्रम
पैदा होता है।
दो
भ्रम हैं जगत
में, एक
पदार्थ का
भ्रम, मैटर
का भ्रम और
दूसरा मैं का
भ्रम, ईगो
का, अहंकार
का भ्रम। ये
दोनों भ्रम
एकदम ही झूठे
हैं, लेकिन
इनके पास जाने
से पता चलता
है कि ये नहीं
हैं। विज्ञान
पदार्थ के पास
गया तो पदार्थ
विलीन हो गया।
और धर्म मैं
के पास गया, तो मैं विदा
हो गया। धर्म
की खोज है कि
मैं नहीं है
और विज्ञान की
खोज है कि
पदार्थ नहीं
है। जितने
निकट जाते हैं,
उतना ही
भ्रम टूट जाता
है।
तो
इसलिए मैं
कहता हूं कि
भीतर जाएं, निकट
करीब से भीतर
देखें, वहा
कोई मैं है? और मैं नहीं
कहता कि— ऐसा
मान लें कि
मैं नहीं हूं।
अगर मान लिया
तो झूठ हो
जाएगा। मैं
नहीं कहता हूं।
मेरी बात अगर
मानकर आप चल
गए और आप ऐसा
सोचने लगे कि
मैं नहीं हूं, अहंकार झूठ
है, मैं तो
आत्मा हूं,
मैं तो ब्रह्म
हूं अहंकार
नहीं है, तो
आप गड़बड़ में
पड़ गए।
क्योंकि आप यह
दोहरा रहे हैं
तो फिर यह झूठ
ही दोहराएंगे
आप। मैं यह
नहीं कहता हूं
कि आप ऐसा दोहराएं।
मैं यह कहता
हूं कि आप
भीतर जाएं, देखें, पहचानें। जो पहचानता
है, देखता
है, वह
पाता है कि
मैं नहीं हूं।
फिर कौन है? जब मैं नहीं
हूं कोई तो है।
मेरे न होने
से कोई भी
नहीं है, ऐसा
नहीं।
क्योंकि भ्रम
को जानने के
लिए भी कोई तो
चाहिए। भ्रम
भी पैदा हो
जाए, इसके
लिए कोई तो
चाहिए।
मैं
नहीं हूं, फिर कौन
है? फिर जो
शेष रह जाता
है, उसका
अनुभव ही
परमात्मा का
अनुभव है।
लेकिन उसका
अनुभव एकदम
विस्तीर्ण हो
जाता है। मेरे
गिरते ही तू
भी गिर जाता
है, वह भी
गिर जाता है, फिर एक सागर
ही रह जाता है
चेतना का। उस
स्थिति में
दिखाई पड़ेगा
कि परमात्मा
ही है। तब तो
शायद यह कहना
भी गलत मालूम
पड़े कि
परमात्मा ही
है। क्योंकि
यह कहना भी
पुनरुक्ति है।
जब हम कहते
हैं गाड इज,
ईश्वर है, तो हम
पुनरुक्ति कर
रहे हैं।
पुनरुक्ति
इसलिए कर रहे
हैं कि जो है, उसी का
दूसरा नाम
ईश्वर है। है
का ही दूसरा
नाम ईश्वर, है। इसलिए
ईश्वर है, ऐसा
एक ही चीज को
दोहराना है, यह टोटॉलाजी
है। एक ही बात
को दोबारा
कहना है। ठीक
नहीं है यह
बात।
ईश्वर
है का क्या
मतलब? हम
है उस चीज को
कहते हैं जो
नहीं है भी हो
सकती हो। हम
कहते हैं, टेबिल
है, क्योंकि
कल टेबिल
नहीं हो सकती
है और कल टेबिल
नहीं थी। जो
चीज नहीं थी, फिर नहीं हो
सकती है, उसको
है कहने का
कोई मतलब है।
लेकिन ईश्वर न
तो ऐसा है कि
कभी नहीं था
और न ऐसा हो
सकता है कि
कभी नहीं होगा।
उसे है कहने
का कोई भी
मतलब नहीं। वह
है हां, असल
में जो है, उसका
ही वह दूसरा
नाम है। होने
का ही दूसरा
नाम परमात्मा
है। एक्सिस्टेंस,
अस्तित्व
का ही दूसरा
नाम परमात्मा
है।
मेरी
दृष्टि में, अगर हमने
इस जो है, इस
पर अपने
परमात्मा को
थोपा तो हम
झूठ में उतर
जाएंगे। और
ध्यान रहे, परमात्मा भी
अपने — अपने
ट्रेड मार्क
के अलग— अलग
हैं। हिंदू का
अपना है थोपने
के लिए, मुसलमान
का अपना है, ईसाई का
अपना है, जैन
का अपना है, बौद्ध का
अपना है। सबके
अपने— अपने
शब्द हैं, अपने
— अपने
परमात्मा हैं।
परमात्मा का
भी बड़ा गृह
उद्योग खुला
हुआ है। अपने —
अपने घर में
परमात्मा को
डाला जा सकता
है। होम
इंडस्ट्री है
उसकी। अपने —
अपने घर में ढालो, अपने
— अपने
परमात्मा का
निर्माण करो।
और फिर
ये परमात्माओं
को ढालने वाले
वैसे ही बाजार
में लड़ते हैं, जैसे सभी
अपने — अपने घर
में सामान
डालने वाले
बाजार में, दुकानों पर
लड़ते हैं। ऐसे
बाजार में वे
भी लड़ते हुए
दिखाई पड़ते
हैं। एक —दूसरे
का परमात्मा
भी भिन्न पड़
जाता है। असल
में जब तक मैं
हूं तब तक मैं
जो भी करूंगा
वह आपसे भिन्न
होगा। जब तक
मैं हूं,
मेरा धर्म
भिन्न होगा, मेरा ईश्वर
भिन्न होगा, क्योंकि वे
मेरे मैं के
निर्माण
होंगे। मैं
भिन्न हूं
इसलिए मेरा सब
भिन्न होगा।
अगर
दुनिया में
ठीक—ठीक धर्म —निर्माण
करने की
स्वतंत्रता
हो तो जितने
आदमी हैं, उतने ही
धर्म होंगे।
इससे कम नहीं
हो सकते। वह
तो ठीक—ठीक
स्वतंत्रता
नहीं है।
हिंदू
बाप अपने बेटे
को इसके पहले
कि वह स्वतंत्र
हो जाए, हिंदू बना
डालता है।
मुसलमान बाप
अपने बेटे को
इसके पहले कि
उसमें बुद्धि
आए, मुसलमान
बना देता है।
क्योंकि
बुद्धि आने पर
न कोई हिंदू
बनेगा, न कोई
मुसलमान
बनेगा। इसलिए
बुद्धि आने के
पहले ही सब नासमझिया
अंदर डाल देने
की जरूरत है।
इसलिए सब बाप
उत्सुक हैं कि
बेटा जब छोटा
है, तभी से
धर्म की
शिक्षा हो
जानी चाहिए
उसकी।
क्योंकि कल वह
जवान हो जाए, सोचने लगे, तो फिर
दिक्कत देगा।
विचार आ जाएगा,
तो पच्चीस
प्रश्न खड़े
करेगा और
पच्चीस
प्रश्नों के
उत्तर नहीं हो
पाएंगे। और
फिर वह ऐसी
बातें करेगा
कि जिनको हल
करना मुश्किल
होगा। इसलिए
सब बाप उत्सुक
हैं कि उनके
बेटे और उनकी
बेटियों को
जन्म लेते ही
उनकी घुटी में
धर्म पिला
दिया जाए, उनके
खून में धर्म
डाल दिया जाए।
तब होश नहीं
रहता, समझ
नहीं रहती, कुछ भी
नासमझी सिखा
दो, वह सीख
लेता है। एक
आदमी
मुसलमान हो
जाता है, एक हिंदू एक
जैन, एक
बौद्ध, जो
भी सिखाओ,
वह आदमी हो
जाता है।
बुद्धि होती
नहीं पास में
इसलिए
धार्मिक
जिसको हम आदमी
कहते हैं, वह अक्सर
बुद्धिहीन
पाया जाता है।
उसमें बुद्धि
होती ही नहीं।
क्योंकि
जिसको हम धर्म
कहते हैं, वह
बुद्धि होने
के पहले ही
पकड़ ली गई चीज
है। बुद्धि
आने पर भी वह
जकड़े रहती है,
फिर वह पंजा
पकड़ लेती है
हमारे भीतर से।
हिंदू
मुसलमान लड़ता
हुआ देखा जाता
है, ईश्वर
के नाम पर
लड़ता हुआ देखा
जाता है, मंदिर—मस्जिद
के नाम पर
लड़ता हुआ देखा
जाता है।
आश्चर्य की
बात है।
क्या
ईश्वर भी बहुत
प्रकार के हैं? हिंदू का
ईश्वर अलग ढंग
का है। और
मूर्ति तोड़ दी
जाए तो हिंदू
के ईश्वर का
अपमान हो जाता
है। और
मुसलमान का
ईश्वर और
प्रकार का है।
और अगर मस्जिद
तोड़ दी जाए, आग लगा दी
जाए, तो
उसके ईश्वर का
अपमान हो जाता
है।
ईश्वर
तो उसका नाम
है जो है।
मस्जिद में भी
वह उतना ही है
जितना मंदिर
में। बूचड़खाने
में भी वह
उतना ही है
जितना मंदिर
में। और शराब
घर में भी
उतना ही है
जितना मस्जिद
में। चोर के
भीतर वह उतना
ही है, जितना
महात्मा के
भीतर है।
रत्ती भर कम
नहीं है। हो
भी नहीं सकता।
आखिर चोर के
भीतर कौन होगा,
अगर
परमात्मा न
होगा? वह
राम के भीतर
उतना ही है, जितना रावण
के भीतर।
रत्ती भर कम
नहीं हो सकता
रावण के भीतर।
वह हिंदू के
भीतर भी उतना
ही है, जितना
मुसलमान के
भीतर।
लेकिन
वह जो हमारा
गृह उद्योग है
भगवान बनाने
का, उस
गृह उद्योग को
बड़ा धक्का लग
जाएगा अगर हम
यह मान लें कि
सभी के भीतर
वही है। तो
हमें अपना—
अपना ईश्वर
थोपे चले जाना
चाहिए। अगर एक
फूल में हिंदू
भी ईश्वर देखे
और मुसलमान भी,
तो भी झगड़ा
हो सकता है, क्योंकि उस
फूल में हिंदू
अपना ईश्वर ढालेगा, मुसलमान
अपना ईश्वर ढालेगा।
हिंदू—मुसलमान
तो जरा दूर की
बातें हैं, पास—पास की
दुकानों में
भी झगड़े होते
हैं। ये
दुकानें तो
जरा फासले पर
हैं। काशी और
मक्का में
काफी फासला है,
लेकिन काशी
में राम के और
कृष्ण के
मंदिर में इतना
फासला नहीं है।
वहा भी झगड़ा
इतना ही है।
मैंने
सुना है, एक बड़े संत
को—और बड़े
सिर्फ इसलिए
कहता हूं कि
लोग कहते हैं और
संत भी सिर्फ
इसलिए कहता
हूं कि लोग
कहते हैं—वे
राम के भक्त
थे, उनको
कृष्ण के
मंदिर में ले
जाया गया तो
उन्होंने हाथ जोड्ने से
इनकार कर दिया।
उन्होंने कहा,
कृष्ण के
मंदिर में मैं
हाथ नहीं जोड़
सकता। मंदिर
की मूर्ति के
सामने खड़े
होकर
उन्होंने कहा
कि अगर धनुष—बाण
अपने हाथ में
लो, तो मैं
सिर झुका सकता
हूं। इस
बांसुरी लिये
हुए हाथ को
सिर झुकाना
मेरे वश के
बाहर है।
भगवान
पर भी भक्त
शर्त लगाता है
कि इस पोजीशन में, इस ढंग से
खड़े हो जाओ, तो हम
नमस्कार
करेंगे। यानी
नमस्कार करने
के पहले तुम
नाचो हमारे इशारे
पर, तब हम
नमस्कार
करेंगे।
हमारी
नमस्कार पीछे
होगी, पहले
तुम नमस्कार
करो हमको, धनुष—बाण
हाथ में लो या
बांसुरी हाथ
में लो। किस
आसन में बैठो,
किस ढंग से
खड़े हो, यह
भक्त प्रिस्काइब
करता है भगवान
के लिए। वह
बताता है कि
ऐसा—ऐसा करो, तब हम
तुम्हें
नमस्कार कर
सकते हैं।
भक्त भी शर्त
लगाता है, कंडीशन
लगाता है।
अब
आश्चर्य की
बात है कि
भगवान को भी
मुझे निर्धारित
करना है, आपको
निर्धारित
करना है!
लेकिन अब तक
जिसको हम
भगवान कहते
रहे हैं, वह
आदमियों के
द्वारा
निर्धारित
भगवान है। और
जब तक आदमियों
के द्वारा
निर्धारित
भगवान बीच में
खड़ा है, तब
तक हम उसको न
जान सकेंगे जो
हमारे द्वारा
निर्धारित
नहीं है।
जिसके द्वारा
हम निर्धारित
हैं, उसे
हम कभी भी न
जान सकेंगे।
इसलिए
आदमियों के
भगवान से
मुक्त होना है
अगर उस भगवान
को जानना हो
जो कि है।
लेकिन बड़ा
कठिन है, अच्छे
से अच्छे आदमी
को भी कठिन है।
जिसको हम
अच्छा आदमी
कहते हैं, वह
और भी मुश्किल
से छूट पाता
है। वह भी पकड़े
रहता है, वह
भी नहीं छोड़ता।
वह भी
बुनियादी नासमझियों
को उतना ही जकड़कर
पकड़ता है,
जितना
नासमझ आदमी।
नासमझ माफ
किया जा सकता
है, लेकिन
समझदार को माफ
करना एकदम
मुश्किल है।
अभी
खान अब्दुलगफ्फार
खां आए हैं।
वे सारे मुल्क
को समझाते
फिरते हैं
हिंदू —मुस्लिम
एकता की बात, लेकिन वे
पक्के
मुसलमान हैं,
उसमें
रत्ती भर कमी
नहीं है। उनके
पक्के
मुसलमान होने
में रत्ती भर
कमी नहीं है।
उनके मस्जिद
में नमाज पढ़ने
में कोई सवाल
नहीं उठता
उनको। वे
पक्के
मुसलमान हैं
और हिंदू—मुसलमान
की एकता समझा
रहे हैं। गांधीजी
पक्के हिंदू
थे और हिंदू —
मुसलमान की
एकता समझा रहे
थे। जैसे गुरु
थे वैसे उनके
शिष्य हैं। वे
पक्के हिंदू
थे, उनके
शिष्य पक्के
मुसलमान हैं।
और जब तक
दुनिया में
पक्के हिंदू
और पक्के मुसलमान
हैं, तब तक
एकता हो कैसे
सकती है। इनको
थोड़ा कच्चा
करना जरूरी है,
तभी एकता हो
सकती है। ये
पक्के होकर
एकता नहीं हो
सकती। ये ही
झगड़े की जड़
हैं। लेकिन ये
झगड़े की जड़ें
दिखाई नहीं
पड़ती हैं। ये
समझा रहे हैं
लोगों को कि
सबको एक हो
जाना चाहिए।
लेकिन ये नहीं
जानते कि एक
हो कैसे सकते
हैं।
जब तक
भगवान अलग—
अलग हैं और जब
तक मंदिर अलग—
अलग हैं, और जब तक
प्रार्थनाएं
अलग — अलग हैं
और सत्य के
शास्त्र अलग —
अलग हैं, और
किसी का कुरान
पिता है और
किसी की गीता
माता है, तब
तक यह उपद्रव
बंद नहीं हो
सकता। लेकिन
इस को तो हमने
पकड़ लिया है
कि ये बिलकुल सच्ची
बातें हैं। और
हम कहते हैं
कि कुरान की
आयत पढ़ो
और लोगों को
समझाओ कि एक
हो जाओ। गीता
के वचन पढ़ो
और लोगों को
समझाओ कि एक
हो जाओ। लेकिन
हमें पता नहीं
है कि गीता के
वचन और कुरान
की आयत झगड़े
की जड़ें हैं।
किसी
गाय की पूंछ
कट जाए तो
हिंदू—मुस्लिम
में दंगा हो
जाएगा। तो हम
कहेंगे कि
गुंडों ने
दंगा कर दिया।
और बड़े मजे की
बात है कि
किसी गुंडे ने
नहीं समझाया
है कि गऊ जो है
वह माता है।
यह समझा रहे
हैं महात्मा
कि गऊ माता है।
और गऊ माता है
जब समझा रहे
हैं तब झगड़े
का आरोपण कर
रहे हैं। किसी
दिन पूंछ कट
जाएगी, तो गऊ की
पूंछ थोडे ही
कटती है, माता
की पूंछ कट गई।
और जब माता की
पूंछ कट जाएगी,
तो झगड़ा
शुरू होगा। और
गुंडे फंस
जाएंगे पीछे
कि गुंडों ने झगड़ा करवा
दिया। सब झगड़े
की जड़ में
जिनको हम महात्मा
कहते हैं, वे
लोग हैं। और
अगर महात्मा
झगड़े की जड़ से
हट जाएं, तो
गुंडे बहुत
निरीह हैं, कोई झगड़ा—वगड़ा करने
की उनकी
सामर्थ्य
नहीं है।
महात्माओं का
बल चाहिए पीछे,
तब गुंडों
में जान आती
है, नहीं
तो गुंडों में
कोई जान नहीं
आती।
लेकिन
महात्मा बच
जाता है, क्योंकि
हमें खयाल ही
नहीं है कि
महात्मा झगड़े
की जड़ में हो
सकता है। और
झगड़े की जड़
क्या है? झगड़े
की जड़ है, वह
घर—घर में
पैदा किया गया
परमात्मा। आप
अपने घर के
परमात्मा से
बचने की कोशिश
करना। आपके घर
में आप
परमात्मा
नहीं डाल सकते।
और ढाला हुआ
निपट धोखा
होगा।
तो मैं
नहीं कहता हूं
कि आप
परमात्मा का
आरोपण करें।
आप क्या
करेंगे? परमात्मा के
नाम से करेंगे
क्या आरोपण? अगर कृष्ण
का भक्त, देखेगा
तो सीधे कहेगा
कि झाडू में
बांसुरी बजाने
वाले भगवान
छिपे हैं। और
धनुर्धारी
भगवान वाला
धनुर्धारी को
देखेगा। और
कोई कुछ और
देखेगा, कोई
कुछ और देखेगा।
यह जो देखना
है, यह
हमारी ही
इच्छाओं, हमारे
ही विचारों को
थोपना है। ऐसा
भगवान नहीं है।
हमारे विचार,
इच्छाओं को
थोपने से उसका
पता नहीं चल
सकता है। हमें
तो मिटना ही
पड़ेगा। अपने
सब विचार, अपने
सब आरोपण लेकर
डूब ही जाना
पड़ेगा। हमें
तो खत्म ही
होना पड़ेगा।
दोनों बातें
एक साथ नहीं
हो सकती हैं।
मेरे रहते
भगवान का
अनुभव असंभव
है। मुझे विदा
होना ही पड़ेगा,
तभी उसका
अनुभव हो सकता
है। ये दोनों
एक साथ नहीं
होगा। मैं, मैं रहते
हुए, भगवान
के द्वार पर
प्रवेश नहीं
पा सकता हूं।
मैंने
एक कहानी सुनी
है कि एक आदमी
सब कुछ छोड्कर
भगवान के
द्वार पर
पहुंच गया। सब
कुछ छोड़कर—धन छोड्कर, पत्नी छोड्कर, मकान छोड्कर,
बच्चे छोड्कर,
समाज छोड़कर—सब
छोड्कर
भगवान के
द्वार पर
पहुंच गया।
लेकिन
द्वारपाल ने
हाथ से उसे
रोक लिया और
कहा कि अभी
भीतर मत आ
जाना। जाओ, पहले छोड़ कर
आओ। उस आदमी
ने कहा, मैं
सब छोड्कर
आ रहा हूं।
द्वारपाल ने
कहा, मैं
को तो कम से कम
जरूर साथ ले
आए हो। और
सबसे हमें कोई
मतलब नहीं है,
हमें सिर्फ
मैं से मतलब
है। तुम कहते
हो, मैं सब छोड्कर आ
रहा हूं। हमें
इन सब से कोई
मतलब नहीं है,
हमें तो मैं
से मतलब है।
जाओ मैं छोड्कर
आओ। वह आदमी
कहता है कि
मेरे पास तो
कुछ भी नहीं
है। मेरी झोली
बिलकुल खाली
है, न धन है,
न पत्नी है,
न बच्चे, कोई भी मेरे
पास नहीं है।
वह द्वारपाल
कहता है, कम
से कम
तुम्हारी
झोली में तुम
तो हो। उसे छोड्कर
आओ। यह द्वार
बंद है उनके
लिए, जो
मैं को लेकर
आते हैं। वह
द्वार सदा से
बंद है।
लेकिन
मैं को हम
कैसे छोड़ दें।
अगर हम छोड़ने
की कोशिश
करेंगे तो मैं
कभी भी छूटने
वाला नहीं है।
क्योंकि मैं
कैसे छोडूंगा।
मैं को मैं
कैसे छोडूंगा? मैं ही
मैं को कैसे
छोडूंगा? यह
तो हो नहीं
सकता। यह तो
ऐसे ही है
जैसे कोई अपने
जूते के बंदों
से अपने को
उठाने की
कोशिश करे। तो
मुश्किल में
पड़ जाएगा। मैं
मैं को कैसे
छोडूंगा। सब
छोड़ने के पीछे
मैं फिर बच जाऊंगा।
तो यहां,
तक हो सकता है
कि एक आदमी
कहने लगे कि
मैंने सब अहंकार
छोड़ दिया।
मेरे पास
अहंकार ही
नहीं। मगर
इसके पास भी
मैं है।
अहंकार छोड़ने
का भी अपना
अहंकार है। तो
क्या करे आदमी,
बहुत
मुश्किल की
बात है।
मुश्किल की
बात नहीं है।
मैं छोड़ने को
नहीं कहता हूं।
मैं आपसे कुछ
भी करने को
नहीं कहता हूं, क्योंकि सब
करने से मैं
ही मजबूत होता
है। मैं तो
सिर्फ भीतर
जाकर जानने को
कहता हूं कि देखें,
मैं कहां, है। अगर
होगा, तो
छोड़ने का कोई
उपाय नहीं है।
है हां, तो छोड़ेंगे
क्या? और
अगर नहीं है, तब भी छोड़ने
का कोई उपाय
नहीं है।
क्योंकि जो
नहीं है, उसको
छोड़ेंगे
कैसे।
तो
भीतर जाएं और
देखें, खोजें वहां, मैं है या
नहीं। और इतना
मैं कहता हूं
कि जो भीतर
जाकर देखता है,
वह एकदम
हंसने लगता है।
वह कहता है, मैं तो हूं
ही नहीं। तब
कौन रह जाता
है? तब जो
रह जाता है, उसका नाम
परमात्मा है।
और जो मेरे न
होने पर रह
जाता है, क्या
वह आपसे अलग
होगा? जब
मैं ही न रहा, तो अलग
करनेवाला कौन
होगा? मेरा
मैं ही तो
आपको मुझसे
अलग करता है, मुझे आपसे
अलग करता है।
यह घर
की हमारी
दीवाल है। घर
की दीवाल आकाश
को दो हिस्सों
में विभाजित करती
है, ऐसा दीवालों
को भ्रम होता
है। हालाकि
आकाश दो
हिस्सों में
विभाजित होता
नहीं। आकाश
अविभाजित है।
चाहे कितनी ही
सख्त दीवाल
बनाओ, कितनी
ही ठोस, लेकिन
मकान के भीतर
का आकाश और
मकान के बाहर
का आकाश दो
चीजें नहीं हैं,
एक ही चीज
है। कितनी ही
बड़ी दीवाल
उठाओ, तो
भी मकान के
भीतर का आकाश
और बाहर का
आकाश दो नहीं
हो जाते।
लेकिन मकान के
भीतर रहने
वाले आदमी को
लगता है कि
आकाश के हमने
दो हिस्से कर
दिए—स्व मेरे
घर के भीतर का
आकाश, एक
घर के बाहर का
आकाश। लेकिन
कल अगर दीवाल
गिर जाए, तो
वह आदमी कैसे
पता लगाएगा कि
कौन मेरे घर
के भीतर का
आकाश है, कौन
मेरे घर के
बाहर का आकाश
है। कैसे पता
लगाएगा? तब
तो आकाश ही रह
जाएगा।
ऐसे ही
हमने चेतना को
मैं की
दीवालें
उठाकर खंड —खंड
किया है। और
जब मैं की
दीवाल गिर
जाएगी तो फिर
ऐसा नहीं है
कि मुझे आपमें
परमात्मा
दिखाई पड़ने
लगेगा। नहीं, तब मुझे
आप दिखाई नहीं
पड़ेंगे, और
परमात्मा
दिखाई पडने
लगेगा। इसको
ठीक से समझ
लेना, इस
बारीक फर्क को।
ऐसा नहीं है
कि मैं आपमें
परमात्मा
देखने लगूंगा,
यह गलत बात
है। ऐसा कि आप
नहीं दिखाई
पड़ेंगे और
परमात्मा
दिखाई पडेगा।
ऐसा नहीं है
कि वृक्ष में
परमात्मा
दिखाई पडने
लगेगा। नहीं,
ऐसा कि
वृक्ष नहीं
दिखाई पड़ेगा
और परमात्मा दिखाई
पड़ने लगेगा।
जब कोई कहता
है, कण—कण
में परमात्मा
है, तो वह
बिलकुल गलत
कहता है।
क्योंकि कण —कण
भी उसे दिखाई पड़
रहा है और
परमात्मा भी
दिखाई पड रहा
है। ये दोनों
बातें एक साथ
दिखाई नहीं पड़
सकतीं। सच बात
यह है कि कण—कण
परमात्मा ही
है। यानी ऐसा
नहीं है कि कण—कण
में परमात्मा
है। कोई
परमात्मा अलग
से भीतर उनके
बैठा हुआ है, कण कोई बाहर
से उसे घेरे
हुए हैं, ऐसा
नहीं है। जो
है, वह
परमात्मा है।
जो है, इसका
ही प्रेम में
दिया गया नाम
परमात्मा है।
जो है, उसका
ही नाम सत्य
है। प्रेम में
हम उसे
परमात्मा
कहते हैं।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता है।
इसलिए
मैं आपको नहीं
कहता हूं कि
आप सबमें परमात्मा
देखना शुरू
करें। मैं
आपसे कहता हूं
कि आप अपने
में देखना
शुरू करें।
देखते ही आप
मिट जाएंगे।
आपके मिटते ही
जो दिखाई
पड़ेगा, वह परमात्मा
है।
एक
दूसरे मित्र
ने पूछा है कि
यदि ध्यान से
समाधि में
जाया जा सकता
है और समाधि
से परमात्मा
को जाना जा
सकता है तो
फिर आजकल के
मंदिरों में
जाना व्यर्थ
है? और
उन्हें हटा
देना चाहिए?
मंदिरों में
जाना तो
व्यर्थ है, हटाने की
कोशिश भी उतनी
ही व्यर्थ है।
जिनमें भगवान
है ही नहीं, उनको हटाने
की झंझट में
भी किसी को
नहीं पड़ना
चाहिए। वे
बेचारे जहां, हैं, हैं।
उन्हें हटाने
का क्या सवाल
है? और
अक्सर यह
दिक्कत होती
है। जैसे कि मोहम्मद
ने लोगों को
कहा कि मूर्ति
में परमात्मा
नहीं है। तो
मुसलमानों ने
सोचा कि
मूर्तियों को
मिटा डालना
चाहिए। और तब
एक बड़े मजे का
काम शुरू हुआ
दुनिया में—स्व
तरफ मूर्तियों
को बनाने वाले
पागल हैं और
दूसरी तरफ मूर्तियों
को मिटाने
वाले पागलों
की जमात खड़ी
हो गई। अब
मूर्ति को
बनाने वाला
मूर्ति को
बनाने में
परेशान है और
मूर्ति को
मिटाने वाला
दिन—रात इस उधेड़बुन
में लगा है कि
मूर्ति को
कैसे मिटा दें।
अब कोई
पूछे कि
मोहम्मद ने यह
कब कहा था कि
मूर्ति के तोड़
देने में
भगवान है।
मूर्ति में न
होगा, लेकिन
मूर्ति के तोड़
देने में है, यह किसने
कहा। और अगर
मूर्ति के तोड़
देने में
भगवान है तो
फिर मूर्ति के
होने में भी
क्या कठिनाई
है? उसमें
भी भगवान हो
सकता है। अगर
न होगा, तो तोड्ने में
कैसे हो जाएगा।
मैं
नहीं कहता हूं
कि मंदिरों को
हटा देना चाहिए।
मैं यह कहता
हूं कि इस
सत्य को जानना
चाहिए कि वह
सब जगह है। और
जब हम इस सत्य
को जानेंगे, तो सब कुछ
ही उसका मंदिर
हो जाएगा। तब
मंदिर और गैर—मंदिर
को अलग करना
मुश्किल होगा।
तब जहां,
हम खड़े होंगे
वहां, उसका
मंदिर होगा, जहां, आंख
उठाएंगे वहां, उसका मंदिर
होगा, जहां, बैठेंगे वहां, उसका मंदिर होगा।
तब दुनिया में
तीर्थ न रह
जाएंगे, क्योंकि
पूरी दुनिया
उसका तीर्थ
होगी। तब उसकी
अलग— अलग
मूर्तियां
डालना व्यर्थ
हो जाएगा, क्योंकि
तब जो भी है, उसकी ही मूर्ति
होगी। मैं जो
कह रहा हूं वह
यह नहीं कह
रहा हूं कि
जाकर मंदिर
मिटाने में
लगें, या
मंदिर हटाने
में लगें, या
किसी को
समझाने जाएं
कि मंदिर मत
जाओ। क्योंकि
मैंने यह कभी
नहीं कहा कि
मंदिर में भगवान
नहीं है। मैं
सिर्फ यह कह
रहा हूं कि जो
मंदिर में ही
देखता है, उसे
भगवान का कोई
पता नहीं है।
जिसे
भगवान का पता
होगा, उसे
तो सब जगह
भगवान होगा।
मंदिर में भी,
नहीं मंदिर
हैं वहा भी।
तब वह फर्क
कैसे करेगा कि
कौन—सा मंदिर
है और कौन—सा
मंदिर नहीं है।
क्योंकि
मंदिर हम उसे
कहते हैं, जहां, भगवान है।
और जब सब जगह
भगवान है, तो
सभी जगह मंदिर
है। फिर अलग
से मंदिर
बनाने की
जरूरत न रह
जाएगी। और
मंदिर तोड्ने
की भी कोई
जरूरत न रह
जाएगी।
अक्सर
यह भूल हो
जाती है।
अक्सर यह भूल
होती है कि
चीजों को
समझने की जगह
हम उलटी चीज
को समझने की
कोशिश शुरू कर
देते हैं।
बजाय इसके कि
हम समझें कि
मैं क्या कह
रहा हूं, किसको
हटाना है, किसको
तोड़ना है, किसको
मिटाना है, इसमें हम
ज्यादा
उत्सुक हो
जाते हैं।
क्या है, उसे
समझने की.......और
यह निरंतर भूल
होती रही है।
आदमी
ने जो
बुनियादी
भूलें की हैं, उनमें एक
यह है कि जब भी
उसे कुछ कहा
जाता है तब वह
तत्काल न
मालूम क्या
सुन लेता है, जो कहा ही
नहीं गया था।
अब मुझे कोई
मंदिर का
दुश्मन समझ
सकता है।
लेकिन मुझसे
ज्यादा मंदिर
को प्रेम करने
वाला आदमी
पाना मुश्किल
है। यह मैं
क्यों कहता
हूं? यह
मैं इसलिए
कहता हूं कि
मैं तो सारी
पृथ्वी को ही
मंदिर देखा जा
सके, सब
कुछ मंदिर हो
सके, इसकी
फिक्र में लगा
हूं। लेकिन
मेरी बात
सुनकर कोई यह
समझ सकता है
कि वे जो छोटे —छोटे
मंदिर बने हैं,
उनको मिटा
दो तो सब काम
पूरा हो जाएगा।
उनको मिटा
देने से काम
पूरा नहीं हो
जाएगा, सारे
जीवन को मंदिर
बना लेने से
काम पूरा होगा।
और ये
दोनों आदमी
गलत हैं। जो
मंदिर में ही
भगवान को देख
रहा है, वह यह गलती
कर रहा है कि
शेष में वह
किसको देख रहा
है। मंदिर से
बाहर किसको
देख रहा है? मंदिर उसका
बड़ा छोटा है
और भगवान बड़ा
विराट है, और
इसलिए छोटे —छोटे
मंदिरों में
समा नहीं सकता
है। और फिर
दूसरा आदमी
मंदिरों को तोड्ने
में लग जाए कि
मंदिरों को हटाओ, मंदिरों
को मिटाओ,
तब भगवान को
देख सकेंगे।
इतने छोटे —छोटे
मंदिर न तो
भगवान का आवास
बन सकते हैं
और न इतने
छोटे—छोटे
मंदिर भगवान
को देखने में
बाधा बन सकते
हैं। ध्यान
रखें, उनका
छोटा होना
इतना छोटा है
कि न तो वह
उसका घर बन
सकते हैं और न
उसका कारागृह
बन सकते हैं कि
उनको मिटाओ
तो भगवान
मुक्त हो
जाएगा। समझने
की आवश्यकता
है, मैं
क्या कह रहा
हूं।
मैं यह
कह रहा हूं कि
अगर हम ध्यान
में प्रवेश करते
हैं रु तो
ही हम मंदिर
में प्रवेश
करते हैं।
क्योंकि
ध्यान ही एक
मंदिर है, जिसकी
कोई दीवाल
नहीं है। और
ध्यान ही एक
मंदिर है, जहां, प्रवेश पाते
ही व्यक्ति
मंदिर में
प्रविष्ट हो
जाता है। और
ध्यान में जो
जीने लगता है,
वह चौबीस
घंटे मंदिर
में ही जीने
लगता है। और
जो ध्यान में
नहीं जीता है,
वह मंदिर
में भी जाकर
क्या करेगा? जिसको हम
मंदिर कहते
हैं, वहां, भी क्या
करेगा? कोई
इतना आसान तो
नहीं है मामला
कि दुकान पर बैठे
—बैठे आप एकदम
मंदिर में चले
जाएं। हां, शरीर को ले
जाना बहुत
आसान है। शरीर
बेचारा बड़ा
सरल है। उसको
कहीं भी ले
जाओ। मन इतना
सरल नहीं है।
एक दुकानदार
बैठा हुआ
दुकान कर रहा
है और गिनती
कर रहा है
रुपयों की। वह
चाहे तो उठकर
फौरन शरीर को
मंदिर में ले
जा सकता है।
लेकिन शरीर
मंदिर में चला
जायेगा और मन..!
शरीर मंदिर
में चला जाएगा
और वह धोखे
में पडेगा
कि मैं मंदिर
में आ गया।
लेकिन अपने मन
में थोड़ा झांककर
देखेगा, तो
बहुत हैरान हो
जाएगा कि मन
अब भी दुकान
पर बैठा हुआ
है और रुपयों
की गिनती कर
रहा है।
मैंने
सुना है, एक आदमी
अपनी पत्नी से
बहुत परेशान
था। ऐसे तो
सभी आदमी
परेशान रहते
हैं। वह बहुत
परेशान था।
धार्मिक आदमी
था और पत्नी
बड़ी अधार्मिक
थी। यह बड़ा
उल्टा मामला
है, होता
अक्सर उलटा है।
पत्नी
धार्मिक होती
है और पति
अधार्मिक
होते हैं।
लेकिन सब संभव
है। वह आदमी
तो धार्मिक था,
पत्नी
अधार्मिक थी।
और मेरी समझ में
ऐसा आता है कि
दो में से एक
ही धार्मिक हो
सकता है। असल
में दोनों एक
साथ हो ही
नहीं सकते। एक
कुछ हो जाएगा,
तो दूसरा
उसके विपरीत
हो जाएगा।
शायद पति पहले
धार्मिक हो
गया, तो
पत्नी
धार्मिक होने
से बच गई।
लेकिन पति रोज
कोशिश करता था
पत्नी को
धार्मिक
बनाने की।
धार्मिक
आदमी में एक
बुनियादी
खराबी होती है—अरे
को भी अपने
जैसा बनाने की।
यह बड़ी खतरनाक
बात है। यह
हिंसा की बात
है। किसी को
अपने जैसा
बनाने की
चेष्टा बड़ी
बुरी है। किसी
को हम अपनी
बात समझा दें, इतना
काफी है।
लेकिन किसी को
हम अपने जैसा
बनाने के लिए
उसकी गर्दन
पकड़ लें, तो
यह बहुत तरकीब
है दबाने की, सताने की—जिसको
कहें कि एक
आध्यात्मिक
प्रकार की
हिंसा है। और
सभी गुरु यही
काम करते हैं।
इसलिए गुरुओं
से ज्यादा
हिंसात्मक
आदमी खोजने
मुश्किल हैं।
किसी की गर्दन
पकड़कर वे
उसको डालने की
कोशिश करते
हैं कि ऐसा कपड़ा
पहनो, ऐसा
बाल रखो, ऐसा
सिर घुटाओ,
यह करो, वह
करो। सब कुछ
बिलकुल थोप
देते हैं कि
यह खाओ, वह
पीओ, ऐसे
सोओ, ऐसे
उठो। वह सब
थोप कर उस
आदमी को मार
डालते हैं।
तो पति
भी बड़ा उत्सुक
था। असल में
दूसरे को
धार्मिक
बनाने में मजा
भी बहुत आता
है। खुद
धार्मिक बनना
तो बड़ी क्रांति
की बात है।
लेकिन दूसरे
को धार्मिक
बनाने में बड़ा
संतोष मिलता
है। क्योंकि
दूसरे को
धार्मिक
बनाने में हम
तो धार्मिक
पहले से ही
स्वीकृत हो
जाते हैं। अब
दूसरे को
बनाने की बात
रह जाती है।
लेकिन पत्नी
थी कि सुनती
ही न थी। तो
उसने अपने
गुरु को कहा
कि मेरी पत्नी
को बदल दें।
एक दिन मेरे
घर आयें और
मेरी पत्नी को
समझायें। तो
सुबह ही सुबह
पांच बजे
होंगे कि उसका
गुरु उसकी
पत्नी को
समझाने उसके
घर पर आया।
पत्नी बुहारी
लगाती थी। घर
के बाहर सीढियां
साफ कर रही थी।
गुरु ने उसे
वहीं रोका और
कहा कि मैंने
सुना है, तुम्हारे
पति कहते हैं
कि तुम बड़ी
अधार्मिक हो,
पूजा नहीं
करती हो, प्रार्थना
नहीं करती हो,
घर में
मंदिर बनाया
है पति ने, उसमें
जाती नहीं हो।
सुबह पांच बजे
हैं। पति
मंदिर में
बैठे हुए हैं
जाकर। पत्नी
बाहर साफ कर
रही है बुहारी
से। उस पत्नी
ने कहा, मेरे
पति ही कभी
मंदिर में गए
हों, ऐसा
मुझे याद ही
नहीं आता। पति
मंदिर में था।
यह आग भड़क
गई।
धार्मिक
आदमी को आग
बहुत जल्दी भड़कती है।
और मंदिर में
जो बैठे हैं, उनकी आग भड़काना तो
इतना आसान है
कि जिसका कोई
हिसाब नहीं है।
पता नहीं वे
आग छिपाने के
लिए वहां,
बैठे रहते हैं
या क्या करते
हैं। धार्मिक
आदमी इतना
क्रोधी हो
जाता है कि
जिसका कोई
हिसाब नहीं।
एक आदमी घर
में धार्मिक
हो जाए, सारे
घर में उपद्रव
हो जाता है।
उसकी आग भड़क
गई। अपना
मंत्र अभी
पूरा ही कर
रहा था, तो
उसने जल्दी —जल्दी
पूरा किया कि
यह क्या सरासर
झूठ हो रहा है।
मैं मंदिर में
हूं और मेरी
पत्नी द्वार
के बाहर मेरे
गुरु से कह रही
है कि वह कभी
मंदिर में गए
हों, ऐसा
मुझे मालूम
नहीं।
गुरु
ने कहा, क्या कहती
हो! वह तो
निरंतर मंदिर
में जाते हैं।
तो पति ने वहां, जोर—जोर से
राम—राम की रट
लगाई ताकि
गुरु बाहर सुन
लें। गुरु ने
कहा, देखो,
वह इतनी जोर
से राम—राम की
रट लगा रहा है।
उसकी पत्नी ने
कहा कि इस रट
से आप भी धोखे
में आते हैं।
हद हो गई। जहां, तक मैं
समझती हूं —रट
तो वे लगा रहे
हैं—लेकिन जहां, तक मैं
समझती हूं,
मंदिर वे नहीं
गए हैं। वे
चमार की एक
दुकान पर गए
हुए हैं और
जूते खरीद रहे
हैं।
पति की
तो हद हो गई।
गुस्से की
सीमा के बाहर
हो गई बात।
मंत्र—वंत्र छोड्कर
बाहर दौड़ा
हुआ आया और
कहा कि क्या
सरासर झूठ हो
रहा है। मैं
मंदिर में
बैठा
प्रार्थना कर
रहा हूं। उसकी
पत्नी ने कहा, थोड़ा और
गौर से देखें।
सच में आप
प्रार्थना कर
रहे थे? जूते
की दुकान पर
जूता नहीं
खरीद रहे थे? झगड़ा नहीं हो गया
था जूते वाले
से? पति
एकदम हैरान
हुआ। बात यही
थी। उसने कहा,
लेकिन तुझे
यह कैसे पता
चला? पत्नी
ने कहा, रात
आप जब सोए, तब
मुझसे यही
कहते सोए थे
रात सोते वक्त
कि कल सुबह
जाकर जूता
खरीदना है। और
बड़े महंगे दाम
बता रहा है, तो बिना
जूता के ही
बहुत दिन से
काम चला रहा
हूं। कल सुबह
जूता खरीदना
ही है। तो
पत्नी ने कहा
कि मेरा अनुभव
यह है कि रात
सोते वक्त जो
आखिरी खयाल
होता है, सुबह
उठते वक्त वह
पहला खयाल
होता है।
मैंने सिर्फ
अंदाज से कहा
है कि इस वक्त
जूते की दुकान
पर होना चाहिए।
पति ने कहा कि
अब मैं कुछ कह
नहीं सकता और
बात यही सच है।
मैं जोर—जोर
से राम —राम कह
रहा था, लेकिन
जब इसने कहा
कि मैं जूते
की दुकान पर
था और जूता
फिर महंगा बता
रहा था चमार, तो मैंने
उसकी गर्दन
पकड़ ली, झगड़ा हो गया था।
और उस झगड़े
में और जोर—जोर
से राम—राम
राम —राम कह
रहा था। वह
भीतर जो झगड़ा
चल रहा था। यह
ठीक ही कहती
है। शायद यह
ठीक ही कहती
है; मैं
मंदिर में कभी
नहीं गया हूं।
मंदिर
जाना इतना
आसान तो नहीं
है कि आप एक
दीवाल के भीतर
चले गए और
मंदिर में
पहुंच गए। हो
सकता है, मंदिर में
शरीर पहुंच
गया हो, पर
मन? मन का
क्या भरोसा कि
वह कहां,
है। और जिस
दिन मन मंदिर
में चला जाता
है, उस दिन
शरीर की क्या
फिक्र कि वह
मंदिर में गया
है कि नहीं
गया है! क्योंकि
जिस दिन मन
मंदिर में चला
जाता है, उस
दिन तो आप
अचानक पाते
हैं कि उसका
बड़ा मंदिर
चारों तरफ से
घेरे हुए है।
उसके मंदिर के
बाहर जाना
संभव कहां,
है? कहां, जाइएगा कि
उसके मंदिर के
बाहर चले
जाएंगे? चांद
पर चले जाओ, अभी चांद पर आर्मस्ट्राग
चला गया, तो
क्या उसके
मंदिर के बाहर
चला गया? उसके
मंदिर के बाहर
जाने का उपाय कहां, है? क्योंकि
उसके मंदिर के
बाहर कोई जगह
कहां, है, जहां, हम
जा सकेंगे? लेकिन जो
लोग सोच लेते
हैं कि यह रहा उसका
मंदिर, वे
सोचते हैं कि
इसके मंदिर के
बाहर उसका
मंदिर नहीं है।
वे भी गलती
में हैं। और
जो सोचते हैं
कि इस मंदिर
को मिटा देंगे
क्योंकि
इसमें वह नहीं
है, वे भी
उतनी ही गलती
में हैं।
उस
मंदिर का
बेचारे का
क्या कसूर है? मंदिर
बड़े सुंदर भी
हो सकते हैं।
अगर यह भ्रम
हमारा मिट जाए
कि वहीं भगवान
है, तो
मंदिर बड़े
सुंदर हो सकते
हैं, बड़े
प्रेमपूर्ण
हो सकते हैं, बड़े आनंदपूर्ण
हो सकते हैं।
असल में एक गांव
बड़ा अधूरा
लगता है, अगर
उसमें एक
मंदिर न दिखाई
पड़ता हो।
मंदिर का होना
बड़ा आनंदपूर्ण
हो सकता है।
लेकिन हिंदू
का मंदिर आनंदपूर्ण
नहीं हो सकता
है, मुसलमान
का मंदिर आनंदपूर्ण
नहीं हो सकता
है, ईसाई
का मंदिर आनंदपूर्ण
नहीं हो सकता
है। परमात्मा
का मंदिर आनंदपूर्ण
हो सकता है।
लेकिन हिंदू
मुसलमान, ईसाई
की राजनीति
इतनी गहरी है
कि वह परमात्मा
के मंदिर का
प्रतीक भी
नहीं बनने
देती। और
इसलिए अब
हिंदू का
मंदिर और
मुसलमान की मस्जिद
तो बडी कुरूप
मालूम पड़ती है,
बहुत अग्ली।
भला आदमी उनकी
तरफ देखने में
भी सकुचाता है।
वहां, बहुत
दुष्टों का
अड्डा जमा हुआ
है। वहां,
उपद्रव की, मिस्वीफ की सारी की
सारी योजनाएं
रची जाती हैं।
और यह भी
जरूरी नहीं है
कि जो योजनाएं
रचते हों, बहुत
जानकर रचते
हों। क्योंकि
मैं समझता हूं
कि उपद्रव की
योजना कोई भी
जानकर नहीं
रचता है, सिर्फ
अज्ञान में ही
रची जाती हैं।
तो सारी
पृथ्वी को
उन्होंने इस
हालत में डाल दिया
है।
अगर
पृथ्वी से कभी
मंदिर मिटेंगे
तो नास्तिकों
के कारण नहीं, पृथ्वी
से अगर कभी
मंदिर मिटेंगे
तो तथाकथित
आस्तिकों के
कारण। करीब—करीब
मिट ही गए हैं,
मिटे जा रहे
हैं। पृथ्वी
पर अगर मंदिर
को बचाना हो, तो बड़े
मंदिर को पहले
देखना जरूरी
है। फिर छोटे
मंदिर उसमें
अपने आप बच
जाते हैं। तब
वे प्रतीक रह
जाते हैं।
जैसे कि मैंने
प्रेम में
आपको एक रूमाल
भेंट कर दिया।
तो रूमाल चार
आने का है, लेकिन
आप उसे संभाल
कर तिजोरी में
रखते हैं।
मैं एक
गांव में गया।
स्टेशन पर लोग
मुझे विदा
करने आए थे।
किसी ने
फूलमाला मेरे
गले में डाली।
मैंने उसे उतार
कर पास में एक
लड़की खड़ी थी, उसको दे
दी। छह साल
बाद उस गांव
में गया—तों
उस लड़की ने
मुझे कहा कि
आपकी फूलमाला
को बड़ा संभाल
कर मैंने रखा
है। फूलमाला
तो सूख गई।
दूसरों को
उसमें सुगंध
नहीं आती, लेकिन
मुझे अब भी
आती है— आपने
जो दी थी।
उसके घर मैं
गया हूं। उसने
एक बड़ी सुंदर
पेटी में उस
फूलमाला को
संभाल कर रखा
हुआ है। न अब
फूल बचे हैं, सब सूख गए
हैं, न अब
कोई सुगंध है।
और कोई भी
देखकर कहेगा
तो कहेगा कि
इस कचरे को इतनी
खूबसूरत पेटी
में क्यों रखा
हुआ है? कोई
भी देखकर
कहेगा तो
कहेगा इस कचरे
को इतनी खूबसूरत
पेटी में रखने
की जरूरत? यह
पेटी तो बहुत
कीमती है, और
यह कचरा तो
बिलकुल बेकीमती
है। लेकिन वह
लड़की पेटी को
फेंक सकती है,
उस कचरे को
नहीं। उस कचरे
में उसे कुछ
और दिखाई पड़ता
है। वह एक
प्रतीक है, एक सिंबल है।
उस कचरे में
किसी प्रेम की
याददाश्त है।
वह सारी
दुनिया के लिए
कचरा होगा, उसके लिए
कचरा नहीं है।
अगर
मंदिर, मस्जिद और
गिरजे किसी
दिन प्रभु की
तरफ उठती हुई आकांक्षा
की सिर्फ
याददाश्त रह
जाएं...... और सच
बात तो यही है,
देखें
गिरजे की उठती
हुई मीनार, मस्जिद की
उठती हुई
मीनार, मंदिर
का गुंबद, आकाश
को छूते हुए
कलश। वह मनुष्य
के भीतर जो
ऊपर उठने की आकांक्षा
है, उस
परमात्मा की
तलाश के लिए
जो यात्रा है,
वे उसके
सिर्फ प्रतीक
हैं, उससे
ज्यादा कुछ भी
नहीं हैं।
उसके सिर्फ
प्रतीक हैं कि
मनुष्य सिर्फ
मकान से राजी
नहीं है, मनुष्य
मंदिर भी
बनाना चाहता
है। मनुष्य
सिर्फ पृथ्वी
से राजी नहीं
है, आकाश
की तरफ उठना
भी चाहता है।
इसलिए
मंदिरों में
दीये जल रहे
हैं। कभी सोचा
है कि वे दीये किसलिए जल
रहे हैं? घी के दीये
जल रहे हैं।
कभी सोचा है, वे घी के
दीये किसलिए
जल रहे हैं? कभी सोचा कि
दीया भर एक
चीज है जमीन
पर, जो
नीचे की तरफ
कभी नहीं जाता,
सदा ऊपर की
तरफ ही जाता
है। नीचे की
तरफ ले जा
नहीं सकते
दीये को। अगर
दीये को हम
उलटा कर दें, तो भी
ज्योति ऊपर की
तरफ ही भागती
रहेगी।
ज्योति नीचे
की तरफ भगाई
जा नहीं सकती।
दीया निरंतर
ऊपर जा रहा है।
तो वह दीये की
जो जलती हुई
ज्योति है, वह जो
निरंतर ऊपर
भाग रही है, वह प्रतीक
है मनुष्य की आकांक्षाओं
का। पृथ्वी पर
हम रहते होंगे,
लेकिन आकाश
को भी अपना घर
बनाना चाहते
हैं। बंधे हम
होंगे जमीन से,
लेकिन हम
खुले आकाश में
मुक्त भी हो
जाना चाहते
हैं।
और
देखा है कभी
कि वह दीये की
ज्योति कितनी
शीघ्र उठ रही
है और विलीन
हो रही है! कभी
यह देखा कि
ज्योति उठी और
विलीन हुई! फिर
खोजने से भी
पता न चलेगा
कि कहां, गई। वह भी
प्रतीक है इस
बात का कि जो
ऊपर की तरफ
जाएगा, वह
विलीन हो
जाएगा। दीया
बहुत ठोस है
और ज्योति बड़ी
तरल है, और
जरा उठी नहीं
है ऊपर कि खो
गई है। जो ऊपर
की तरफ उठेगा,
वह मिट
जाएगा। वह
उसकी भी
प्रतीक है, वह उसकी भी
खबर है।
फिर
आदमी अपने
प्रेम में घी
का दीया जला
रहा है। कोई
हर्जा नहीं कि
मिट्टी का तेल
का जलाए।
भगवान उसको
मना करने नहीं
आएगा। लेकिन
हमारे भाव, हमारे
भाव ये हैं कि
ऊपर की तरफ
वही जा सकता
है जो नीचे घी
की तरह पवित्र
हो। ऊपर की
तरफ जाने की
संभावना तभी
है। ऐसे तो
मिट्टी के तेल
का दीया भी
ऊपर की तरफ जाएगा
और मिट्टी के
तेल में घी से
कुछ कमी नहीं
है। लेकिन
हमारे भाव के
प्रतीक हैं।
और प्रतीक यह
है कि घी की
तरह पवित्र
ऊपर जा सकेगा,
ऊपर की
यात्रा हो
सकेगी।
मंदिर
भी ऐसे ही प्रतीक
हैं, मस्जिदें भी ऐसे ही
प्रतीक हैं, गिरजे भी वे
बड़े प्यारे हो
सकते थे। बहुत
एस्थैटिक
हैं, बहुत
सौंदर्य के
प्रतीक हैं। बडे अदभुत
चित्र हैं जो
आदमी ने बनाए।
लेकिन बड़े
कुरूप हो गए
हैं, क्योंकि
उनके साथ बहुत
बेहूदगियां
जुड़ गई हैं।
मंदिर मंदिर
नहीं रहा, हिंदू
का मंदिर हो
गया। हिंदू का
भी नहीं रहा, वैष्णव का
हो गया।
वैष्णवों का
भी नहीं रहा, फलाने का हो गया।
टूटते—टूटते —टूटते
सारे मंदिर
राजनीति के
अड्डे हो गए
हैं, जहां, से संगठन और
संप्रदाय
प्राण पाते
हैं और खतरे
में ले जाते
हैं। और धीरे —
धीरे वे सब
दुकानें हो गए
हैं, जहां, शोषण चलता
है और जहां, न्यस्त
स्वार्थ हैं।
तो मैं
आपसे यह नहीं
कहता कि मंदिर
मिटा देना, मैं आपसे
यह कहता हूं
कि मंदिर से
जुड़ा हुआ जो भी
व्यर्थ है, उसको जरूर
मिटाना है।
न्यस्त
स्वार्थ
मिटाना है, मंदिर को
दुकान होने से
बचाना है।
मंदिर को संगठनों
और
संप्रदायों
से बचाना है।
वह निपट
परमात्मा की
याद रह जाए, वह प्रतीक
रह जाए, भागता
हुआ आकाश की
तरफ, तो
मंदिर तो बड़ा
सुंदर है।
और मैं
आपसे यह कहता
हूं कि जब तक
मंदिर राजनीति
के अड्डे हैं.
और राजनीति के
अड्डे ही हैं
मंदिर अब। जब
कोई मंदिर
हिंदू का है, तो वह
राजनीति का
अड्डा हो गया।
क्योंकि
राजनीति यानी
संगठन, और
धर्म यानी
जिसका संगठन
से कोई संबंध
नहीं। धर्म
यानी साधना और
राजनीति यानी संगठना।
इतना खयाल
रखना, धर्म
का साधना से
तो संबंध हो
सकता है, संगठना
से कोई भी
नहीं। और
राजनीति
संगठन पर जीती
है। संगठन घृणा
पर जीता है, घृणा खून पर
जीती है। और
वह सब उपद्रव
चलता रहता है।
मंदिर
को नहीं मिटा
देना है, मंदिर का
प्रतीक
अपवित्र हो
गया है, वह
अपवित्रता
उससे झाड़ देनी
है। तब बड़े
सौंदर्य का
प्रतीक रह
जाएगा वह। अगर
गांव में एक
मंदिर रह जाए
जो न हिंदू का
है, न
मुसलमान का, न ईसाई का, तो वह गांव
बड़ा सुंदर हो
जाएगा। वह
मंदिर उस गांव
का आभूषण बन
जाएगा। वह
गांव के बीच
असीम की एक
याद बन जाएगा।
और तब उस
मंदिर में
जानेवाले ऐसा
न समझेंगे कि
मंदिर में
जाकर हम भगवान
के पास पहुंच
गए और बाहर थे
तो भगवान के
पास नहीं थे।
उस मंदिर में
जानेवाले
सिर्फ इतना ही
समझेंगे कि
मंदिर एक जगह
है, जहां, हम अपने
भीतर उतरने के
लिए सुविधा, सौंदर्य, शांति, एकांत
उपलब्ध करने
के लिए हैं और
कुछ भी नहीं।
तब मंदिर
भगवान के पास
जाने का नहीं,
ध्यान में
जाने के लिए
सिर्फ एक
उपयुक्त स्थल रह
जाएगा। और
ध्यान
परमात्मा में
ले जाने का
मार्ग बन जाता
है।
हर
आदमी अपने घर
को इतना शांत
नहीं बना सकता, मुश्किल
है। लेकिन कम
से कम गांव
मिलकर तो एक
घर ऐसा बना सकता
है जो शांत हो।
हर आदमी अपने
घर में एक
शिक्षक लगाकर
अपने बच्चों
को नहीं पढ़ा
सकता। और अगर पढ़ाए भी, तो स्कूल
जैसा भवन नहीं
दे सकता, बगीचा
नहीं दे सकता,
मैदान नहीं
दे सकता। एक—एक
आदमी एक—एक
स्कूल बनाए, अपने बच्चों
के लिZn शिक्षक
लाए, तो
बड़ी मुश्किल
हो जाएगी। फिर
थोड़े से ही
बच्चे दुनिया
में शिक्षित
हो सकेंगे। हम
गांव में एक
स्कूल बना
लिये हैं। जो
घर में उपलब्ध
नहीं है, वह
हमने स्कूल
में जुटा दिया
है। इतना
मैदान नहीं है
खेलने को, इतने
सुंदर स्वच्छ
कमरे नहीं हैं
बैठने को, इतने
शिक्षक नहीं
हैं समझाने को,
तो गांव का
एक स्कूल है
उसमें सारे
बच्चे इकट्ठे
हो जाते हैं।
तो
गांव के पास
साधना का भी
एक स्थल होना
चाहिए। इतना
ही मंदिर का
अर्थ है, मस्जिद का
अर्थ है, और
कोई अर्थ नहीं
है। लेकिन अब
वे साधना के
स्थल नहीं रह
गए हैं। अब वे
उपद्रव के
स्थल हो गए
हैं, जहां, से झगड़े और
आग फैलती है।
तो
मंदिर को नहीं
मिटा देना है।
मंदिर उपद्रव
न रह जाए, इसकी जरूर
फिक्र. करनी
है। और मंदिर
धर्म के हाथ
में आ जाए, हिंदू—मुसलमान
के हाथ में न
रह जाए, इसकी
भी जरूर फिक्र
करनी है। और
जिस गांव के
बच्चे उतनी ही
सरलता से
मस्जिद में जा
सकते हों
जितनी सरलता
से मंदिर में,
उतनी ही
सरलता से
गिरजे में जा
सकते हों
जितनी सरलता
से किसी और
शिवालय में, वह गांव
धार्मिक गांव
है। उस गांव
के लोग भले
हैं। उस गांव
के मां —बाप
अपने बच्चों
के दुश्मन
नहीं हैं। उस
गांव के मां —बाप
अपने बच्चों
को प्रेम करते
हैं। और उस
गांव के मां —बाप
एक बुनियाद रख
रहे हैं कि
उनके बच्चे
कभी नहीं
लड़ेंगे। उस
गांव के मां—बाप
कहते हैं, मस्जिद
भी उसका घर है,
मंदिर भी
उसका घर है, जाओ जहां, तुम्हें शांति
मिले वहां,
बैठो, वहां, उसे खोजो।
घर तो सब कुछ
उसका ही है, लेकिन एक
दफा उसकी झलक
मिल जाए, उसके
लिए भीतर जाओ,
कहीं भी जाओ।
उस दिन दुनिया
में ठीक—ठीक
मंदिर बन
सकेगा। अब तक
वह नहीं बन
सका है।
इसलिए
मैं कोई मंदिर
मिटाने वालों
में से नहीं
हूं। मैं तो
यह कह रहा हूं
कि मंदिर मिटा
दिए गए हैं।
और जो मंदिर
के रक्षक
मालूम हो रहे
हैं, वे
ही मंदिर के
मिटाने वाले
हैं। लेकिन कब
हमें यह दिखाई
पड़ेगा, कहना
कठिन है। और
तब कई दफे
उलटा खयाल हो
जाता है। ऐसा
खयाल हो जाता
है कि मैं कोई
मंदिर को
मिटाने वाले
लोगों में से
हूं। मुझे
मंदिर को
मिटाने से
क्या प्रयोजन
हो सकता है? हां, मंदिर
के पास जो—जो
गैर मंदिर
जैसा इकट्ठा
हो गया है, वह
विदा जरूर हो
जाना चाहिए।
उसकी चेष्टा
में जरूर रत
होना उचित है।
एक
अंतिम प्रश्न
और फिर हम
ध्यान के लिए बैठेगें एक
मित्र ने सुबह
की चर्चा के
बाद पूछा है
कि क्या कुछ
आत्माएं शरीर
छोड़ने के बाद
भटकती रह जाती
हैं?
कुछ आत्माएं
निश्चित ही
शरीर छोड़ने के
बाद एकदम से
दूसरा शरीर
ग्रहण नहीं कर
पाती हैं।
उसका कारण? उसका
कारण है। और
उसका कारण
शायद आपने कभी
न सोचा होगा
कि यह कारण हो
सकता है।
दुनिया में
अगर हम सारी
आत्माओं को
विभाजित करें,
सारे
व्यक्तित्वों
को, तो वे
तीन तरह के
मालूम पड़ेंगे।
एक तो अत्यंत
निकृष्ट, अत्यंत
हीन चित्त के
लोग; एक
अत्यंत उच्च,
अत्यंत
श्रेष्ठ, अत्यंत
पवित्र किस्म
के लोग; और
फिर बीच की एक
भीड़ जो दोनों
का तालमेल है,
जो बुरे और
भले को मेल —मिलाकर
चलती है। जैसे
कि अगर डमरू
हम देखें, तो
डमरू दोनों
तरफ चौड़ा है
और बीच में
पतला होता है।
डमरू को उलटा
कर लें। दोनों
तरफ पतला और
बीच में चौड़ा
हो जाए तो हम दुनिया
की स्थिति समझ
लेंगे। दोनों
तरफ छोर और
बीच में मोटा—डमरू
उलटा। इन
छोरों पर थोड़ी—सी
आत्माएं हैं।
निकृष्टतम
आत्माओं को भी
मुश्किल हो
जाती है नया
शरीर खोजने
में और
श्रेष्ठ
आत्माओं को भी
मुश्किल हो
जाती है नया
शरीर खोजने
में। बीच की
आत्माओं को
जरा भी देर
नहीं लगती। यहां, मरे नहीं,
वहां, नई
यात्रा शुरू
हो गई। उसके
कारण हैं।
उसका कारण यह
है कि साधारण,
मीडियाकर मध्य की जो
आत्माएं हैं,
उनके योग्य
गर्भ सदा
उपलब्ध रहते
हैं।
मैं
आपको कहना
चाहूंगा कि
जैसे ही आदमी
मरता है, मरते ही
उसके सामने सैकड़ों
लोग संभोग
करते हुए, सैकड़ों
जोड़े दिखाई
पड़ते हैं, मरते
ही। और जिस
जोड़े के प्रति
वह आकर्षित हो
जाता है वहां, वह गर्भ में
प्रवेश कर
जाता है।
लेकिन बहुत
श्रेष्ठ
आत्माएं
साधारण गर्भ
में प्रवेश
नहीं कर सकतीं।
उनके लिए
असाधारण गर्भ
की जरूरत है, जहॉं असाधारण
संभावनाएं
व्यक्तित्व
की मिल सकें।
तो श्रेष्ठ
आत्माओं को
रुक जाना पड़ता
है। निकृष्ट
आत्माओं को भी
रुक जाना पडता
है, क्योंकि
उनके योग्य भी
गर्भ नहीं
मिलता।
क्योंकि उनके
योग्य मतलब
अत्यंत
अयोग्य गर्भ
मिलना चाहिए
वह भी साधारण
नहीं।
श्रेष्ठ
और निकृष्ट, दोनों को
रुक जाना पड़ता
है। साधारण जन
एकदम जन्म ले
लेता है, उसके
लिए कोई
कठिनाई नहीं
है। उसके लिए
निरंतर बाजार
में गर्भ
उपलब्ध हैं।
वह तत्काल
किसी गर्भ के
प्रति
आकर्षित हो
जाता है।
सुबह
मैंने बारदो
की बात की थी।
बारदो की
प्रक्रिया
में मरते हुए
आदमी से यह भी
कहा जाता है
कि अभी तुझे सैकड़ों
जोड़े भोग करते
हुए, संभोग
करते हुए
दिखाई पड़ेंगे।
तू जरा सोच कर,
जरा रुक कर,
जरा ठहर कर,
गर्भ में
प्रवेश करना।
जल्दी मत करना,
ठहर, थोड़ा
ठहर! थोड़ा ठहर
कर किसी गर्भ
में जाना।
एकदम मत चले
जाना।
जैसे
कोई आदमी
बाजार में
खरीदने गया है
सामान। पहली
दुकान पर ही
प्रवेश कर
जाता है। शो
रूम में जो भी
लटका हुआ
दिखाई पड़ जाता
है, वही
आकर्षित कर
लेता है।
लेकिन
बुद्धिमान
ग्राहक दस
दुकान भी
देखता है। उलट—पुलट
करता है, भाव—ताव
करता है, खोज—बीन
करता है, फिर
निर्णय करता
है। नासमझ
जल्दी से पहले
ही जो चीज
उसकी आंख के
सामने आ जाती
है, वहीं
चला जाता है।
तो
बारदो की
प्रक्रिया
में मरते हुए
आदमी से कहा
जाता है कि
सावधान! जल्दी
मत करना।
जल्दी मत करना।
खोजना, सोचना, विचारना,
जल्दी मत
करना।
क्योंकि सैकड़ों
लोग निरंतर
संभोग में रत हैँ। सैकड़ों
जोड़े उसे
स्पष्ट दिखाई
पड़ते हैं। और
जो जोड़ा उसे
आकर्षित कर
लेता है, और
वही जोड़ा उसे
आकर्षित करता
है जो उसके
योग्य गर्भ
देने के लिए
क्षमतावान
होता है।
तो
श्रेष्ठ और
निकृष्ट
आत्माएं रुक
जाती हैं।
उनको
प्रतीक्षा
करनी पड़ती है
कि जब उनके
योग्य गर्भ
मिले।
निकृष्ट
आत्माओं को
उतना निकृष्ट
गर्भ दिखाई
नहीं पड़ता, जहां,
वे अपनी
संभावनाएं
पूरी कर सकें।
श्रेष्ठ
आत्मा को भी
नहीं दिखाई
पड़ता।
निकृष्ट
आत्माएं जो
रुक जाती हैं, उनको हम
प्रेत कहते
हैं। और
श्रेष्ठ
आत्माएं जो
रुक जाती हैं,
उनको हम
देवता कहते
हैं। देवता का
अर्थ है, वे
श्रेष्ठ
आत्माएं जो
रुक गईं। और
प्रेत का अर्थ
है, भूत का
अर्थ है, वे
आत्माएं जो
निकृष्ट होने
के कारण रुक
गईं। साधारण
जन के लिए
निरंतर गर्भ
उपलब्ध है। वह
तत्काल मरा और
प्रवेश कर
जाता है। क्षण
भर की भी देरी
नहीं लगती। यहा
समाप्त नहीं
हुआ, और वहां, वह प्रवेश
करने लगता है।
उन्होंने
यह भी पूछा है
कि ये जो
आत्माएं रुक जाती
हैं क्या वे
किसी के शरीर
में प्रवेश
करके उसे परेशान
भी कर सकती
हैं?
इसकी भी
संभावना है।
क्योंकि वे
आत्माएं, जिनको शरीर
नहीं मिलता है,
शरीर के
बिना बहुत
पीड़ित होने
लगती हैं।
निकृष्ट
आत्माएं शरीर
के बिना बहुत
पीड़ित होने
लगती हैं।
श्रेष्ठ
आत्माएं शरीर
के बिना
अत्यंत प्रफुल्लित
हो जाती हैं।
यह फर्क ध्यान
में रखना
चाहिए।
क्योंकि
श्रेष्ठ
आत्मा शरीर को
निरंतर ही किसी
न किसी रूप
में बंधन
अनुभव करती है
और चाहती है
कि इतनी हलकी
हो जाए कि
शरीर का बोझ
भी न रह जाए।
अंततः वह शरीर
से भी मुक्त
हो जाना चाहती
है, क्योंकि
शरीर भी एक
कारागृह
मालूम होता है।
अंततः उसे
लगता है कि
शरीर भी कुछ
ऐसे काम करवा
लेता है, जो
न करने योग्य
हैं। इसलिए वह
शरीर के लिए
बहुत
मोहग्रस्त
नहीं होता।
निकृष्ट
आत्मा शरीर के
बिना एक क्षण
भी नहीं जी
सकती।
क्योंकि उसका
सारा रस, सारा
सुख, शरीर
से ही बंधा
होता है।
शरीर
के बिना कुछ
आनंद लिये जा
सकते हैं।
जैसे समझें, एक
विचारक है। तो
विचारक का जो
आनंद है, वह
शरीर के बिना
भी उपलब्ध हो
जाता है।
क्योंकि
विचार का शरीर
से कोई संबंध
नहीं है। तो
अगर एक विचारक
की आत्मा भटक
जाए, शरीर
न मिले, तो
उस आत्मा को
शरीर लेने की
कोई तीव्रता
नहीं होती, क्योंकि
विचार का आनंद
तब भी लिया जा
सकता है।
लेकिन समझो कि
एक भोजन करने
में रस लेने
वाला आदमी है,
तो शरीर के
बिना भोजन
करने का रस
असंभव है। तो
उसके प्राण
बड़े छटपटाने
लगते हैं कि
वह कैसे
प्रवेश कर जाए।
और उसके योग्य
गर्भ न मिलता
हो, तो वह
किसी कमजोर
आत्मा में—कमजोर
आत्मा से मतलब
है ऐसी आत्मा,
जो अपने
शरीर की मालिक
नहीं है—उस
शरीर में वह
प्रवेश कर
सकता है, किसी
कमजोर आत्मा
की भय की
स्थिति में।
और
ध्यान रहे, भय का एक
बहुत गहरा
अर्थ है। भय
का अर्थ है जो
सिकोड़ दे। जब
आप भयभीत होते
हैं, तब आप
सिकुड़ जाते
हैं। जब आप
प्रफुल्लित
होते हैं, तो
आप फैल जाते
हैं। जब कोई
व्यक्ति
भयभीत होता है,
तो उसकी
आत्मा सिकुड
जाती है और
उसके शरीर में
बहुत जगह छूट
जाती है, जहां, कोई दूसरी
आत्मा प्रवेश
कर सकती है।
एक नहीं, बहुत
आत्माएं भी
एकदम से
प्रवेश कर
सकती हैं।
इसलिए भय की
स्थिति में
कोई आत्मा
किसी शरीर में
प्रवेश कर
सकती है। और
करने का कुल
कारण इतना
होता है कि
उसके जो रस
हैं, वे
शरीर से बंधे
हैं। वह दूसरे
के शरीर में
प्रवेश करके
रस लेने की कोशिश
करती है। इसकी
पूरी संभावना
है, इसके
पूरे तथ्य हैं,
इसकी पूरी
वास्तविकता
है। इसका यह
मतलब हुआ कि
एक तो भयभीत
व्यक्ति
हमेशा खतरे
में है। जो
भयभीत है, उसे
खतरा हो सकता
है। क्योंकि
वह सिकुड़ी हुई
हालत में होता
है। वह अपने
मकान में, अपने
घर के एक कमरे
में रहता है, बाकी कमरे
उसके खाली पड़े
रहते हैं।
बाकी कमरों
में दूसरे लोग
मेहमान बन
सकते हैं।
कभी—कभी
श्रेष्ठ
आत्माएं भी
शरीर में
प्रवेश करती
हैं, कभी—कभी।
लेकिन उनका
प्रवेश बहुत
दूसरे कारणों
से होता है।
कुछ कृत्य हैं
करुणा के, जो
शरीर के बिना
नहीं किए जा
सकते। जैसे
समझें कि एक
घर में आग लगी
है और कोई उस
घर को आग से
बचाने को नहीं
जा रहा है।
भीड़ बाहर घिरी
खड़ी है, लेकिन
किसी की हिम्मत
नहीं होती कि
आग में बढ़ जाए।
और तब अचानक
एक आदमी बढ़
जाता है और वह
आदमी बाद में
बताता है कि
मुझे समझ में
नहीं आया कि
मैं किस ताकत
के प्रभाव में
बढ़ गया। मेरी
तो हिम्मत न
थी। वह बढ़
जाता है और आग
बुझाने लगता
है और आग बुझा लेता
है। और किसी
को बचा कर
बाहर निकल आता
है। और वह
आदमी खुद कहता
है कि ऐसा
लगता है कि
मेरे हाथ की
बात नहीं है
यह, किसी
और ने मुझसे
यह करवा लिया
है। ऐसी किसी
घडी में जहां, कि किसी शुभ
कार्य के लिए
आदमी हिम्मत न
जुटा पाता हो,
कोई
श्रेष्ठ
आत्मा भी
प्रवेश कर
सकती है।
लेकिन ये
घटनाएं कम
होती हैं।
निकृष्ट
आत्मा निरंतर
शरीर के लिए
आतुर रहती है।
उसके सारे रस
उनसे बंधे हैं।
और यह बात भी
ध्यान में रख
लेनी चाहिए कि
मध्य की
आत्माओं के
लिए कोई बाधा
नहीं है, उनके लिए
निरंतर गर्भ
उपलब्ध हैं।
इसीलिए
श्रेष्ठ आत्मायें
कभी—कभी सैकड़ों
वर्षों के बाद
ही पैदा हो
पाती हैं। और
यह भी जानकर
हैरानी होगी
कि जब श्रेष्ठ
आत्माएं पैदा
होती हैं, तो करीब—करीब
पूरी पृथ्वी
पर श्रेष्ठ
आत्माएं एक
साथ पैदा हो
जाती हैं।
जैसे कि बुद्ध
और महावीर
भारत में पैदा
हुए आज से
पच्चीस सौ
वर्ष पहले।
बुद्ध, महावीर
दोनों बिहार
में पैदा हुए।
और उसी समय
बिहार में छह
और अदभुत
विचारक थे।
उनका नाम शेष
नहीं रह सका, क्योंकि
उन्होंने कोई
अनुयायी नहीं
बनाए। और कोई
कारण न था, वे
बुद्ध और
महावीर की ही
हैसियत के लोग
थे। लेकिन
उन्होंने बड़े
हिम्मत का
प्रयोग किया।
उन्होंने कोई
अनुयायी नहीं
बनाए। उनमें
एक आदमी था
प्रबुद्ध
कात्यायन, एक
आदमी था अजित केसकंबल, एक था संजय विलट्ठीपुत्र,
एक था मक्सली
गोशाल, और लोग थे।
उस समय ठीक
बिहार में एक
साथ आठ आदमी
एक ही प्रतिभा
के, एक ही
क्षमता के
पैदा हो गए।
और सिर्फ
बिहार में, एक छोटे — से
इलाके में
सारी दुनिया
के। ये आठों
आत्माएं बहुत
देर से
प्रतीक्षारत
थीं। और मौका
मिल सका तो
एकदम से भी
मिल गया।
और
अक्सर ऐसा
होता है कि एक
श्रृंखला
होती है अच्छे
की भी और बुरे
की भी। उसी
समय यूनान में
सुकरात पैदा
हुआ थोड़े समय के
बाद, अरस्तू
पैदा हुआ, प्लेटो
पैदा हुआ। उसी
समय चीन में कंक्यूशियस
पैदा हुआ, लाओत्से
पैदा हुआ, मेन्शियस पैदा हुआ, च्चांगत्से पैदा हुआ।
उसी समय सारी
दुनिया के
कोने —कोने
में कुछ अदभुत
लोग एकदम से
पैदा हुए।
सारी पृथ्वी
कुछ अदभुत
लोगों से भर
गई।
ऐसा
प्रतीत होता
है कि ये सारे
लोग
प्रतीक्षारत
थे, प्रतीक्षारत
थीं उनकी
आत्माएं और एक
मौका आया और
गर्भ उपलब्ध
हो सके। और जब
गर्भ उपलब्ध
होने का मौका
आता है, तो
बहुत से गर्भ
एक साथ उपलब्ध
हो जाते हैं।
जैसे कि फूल
खिलता है एक।
फूल का मौसम
आया है, एक
फूल खिला और
आप पाते हैं
कि दूसरा खिला
और तीसरा खिला।
फूल
प्रतीक्षा कर
रहे थे और खिल
गए। सुबह हुई,
सूरज
निकलने की
प्रतीक्षा थी
और कुछ फूल खिलने
शुरू हुए।
कलियां टूटी,
इधर फूल
खिला उधर फूल
निकला। रात भर
से फूल
प्रतीक्षा कर
रहे थे, सूरज
निकला और फूल
खिल गए।
ठीक
ऐसा ही
निकृष्ट
आत्माओं के
लिए भी होता
है। जब पृथ्वी
पर उनके लिए
योग्य
वातावरण
मिलता है, तो एक साथ
एक श्रृंखला
में वे पैदा
हो जाते हैं।
जैसे हमारे इस
युग में भी
हिटलर और
स्टैलिन और
माओ जैसे लोग
एकदम से पैदा
हुए। एकदम से
ऐसे खतरनाक
लोग पैदा हुए,
जिनको
हजारों साल तक
प्रतीक्षा
करनी पड़ी होगी।
क्योंकि
स्टैलिन या
हिटलर या माओ
जैसे आदमियों
को भी जल्दी
पैदा नहीं
किया जा सकता।
अकेले
स्टैलिन ने
रूस में कोई
साठ लाख लोगों
की हत्या की—अकेले
एक आदमी ने।
और हिटलर ने —अकेले
एक आदमी नें—कोई
एक करोड़
लोगों की
हत्या की।
हिटलर
ने हत्या के
ऐसे साधन ईजाद
किए, जैसे
पृथ्वी पर कभी
किसी ने नहीं
किए। हिटलर ने
इतनी सामूहिक
हत्या की, जैसी
कभी किसी आदमी
ने नहीं की। तैमूरलंग
और चंगेजखां
सब बचकाने
सिद्ध हो गए।
हिटलर ने गैस चेंबर्स
बनाए। उसने
कहा, एक—एक
आदमी को मारना
तो बहुत महंगा
है। एक—एक
आदमी को मारो,
तो गोली
बहुत महंगी
पड़ती है। एक—एक
आदमी को मारना
महंगा है, एक—एक
आदमी को कब्र
में दफनाना
महंगा है। एक—एक
आदमी की लाश
को उठाकर गांव
के बाहर
फेंकना बहुत
महंगा है। तो
कलेक्टिव
मर्डर, सामूहिक
हत्या कैसे की
जाए! लेकिन
सामूहिक हत्या
भी करने के
उपाय हैं। अभी
अहमदाबाद में
कर दी या कहीं
और कर दी, लेकिन
ये बहुत महंगे
उपाय हैं। एक—एक
आदमी को मारो,
बहुत तकलीफ
होती है, बहुत
परेशानी होती
है, और
बहुत देर भी
लगती है। ऐसे
एक —एक को
मारोगे, तो
काम ही नहीं
चल सकता। इधर
एक मारो, उधर
एक पैदा हो
जाता है। ऐसे
मारने से कोई
फायदा नहीं
होता।
हिटलर
ने गैस चेंबर
बनाए। एक—एक चेंबर में
पांच—पांच
हजार लोगों को
इकट्ठा खड़ा
करके बिजली का
बटन दबाकर
एकदम से वाष्पीभूत
किया जा सकता
है। बस, पांच हजार
लोग खड़े किए, बटन दबा और
वे गए। एकदम
गए और इसके
बाद हाल खाली।
वे गैस बन गए।
इतनी तेज
चारों तरफ से
बिजली गई कि
वे गैस हो गए।
न उनकी कब्र
बनानी पड़ी, न उनको कहीं
मार कर खून गिराना
पड़ा।
खून—जून
गिराने का
हिटलर पर कोई
नहीं लगा सकता
जुर्म। अगर
पुरानी
किताबों से
भगवान चलता
होगा, तो
हिटलर को
बिलकुल
निर्दोष
पाएगा। उसने
खून किसी का
गिराया ही
नहीं, किसी
की छाती में
उसने छुरा
मारा नहीं, उसने ऐसी
तरकीब निकाली
जिसका कहीं
वर्णन ही नहीं
था। उसने
बिलकुल नई
तरकीब निकाली,
गैस चेंबर।
जिसमें आदमी
को खड़ा करो, बिजली की
गर्मी तेज करो,
एकदम
वाष्पीभूत हो
जाए, एकदम
हवा हो जाए, बात खतम हो
गई। उस आदमी
का फिर
नामोल्लेख भी
खोजना
मुश्किल है, हड्डी खोजना
भी मुश्किल है,
उस आदमी की
चमड़ी खोजना
मुश्किल है।
वह गया। पहली
दफा हिटलर ने
इस तरह आदमी उड़ाए जैसे
पानी को गर्म
करके भाप
बनाया जाता है।
पानी कहां,
गया, पता
लगाना
मुश्किल है।
ऐसे सब खो गए
आदमी। ऐसे गैस
चेंबर
बनाकर उसने एक
करोड़
आदमियों को
अंदाजन गैस चेंबर में
उड़ा दिया।
ऐसे
आदमी को जल्दी
गर्भ मिलना
बड़ा मुश्किल
है। और अच्छा
ही है कि नहीं
मिलता। नहीं
तो बहुत
कठिनाई हो जाए।
अब हिटलर को
बहुत
प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी
फिर। बहुत समय
लग सकता है
हिटलर को
दोबारा वापस
लौटने के लिए।
बहुत कठिन है
मामला।
क्योंकि इतना
निकृष्ट गर्भ
अब फिर से
उपलब्ध हो। और
गर्भ उपलब्ध
होने का मतलब
क्या है? गर्भ उपलब्ध
होने का मतलब
है, मां और
पिता, उस
मां और पिता
की लंबी
श्रृंखला
दुष्टता का पोषण
कर रही है—लंबी
श्रृंखला।
एकाध जीवन में
कोई आदमी इतनी
दुष्टता पैदा
नहीं कर सकता
है कि उसका
गर्भ हिटलर के
योग्य हो जाए।
एक आदमी कितनी
दुष्टता
करेगा? एक
आदमी कितनी हत्याएं
करेगा? हिटलर
जैसा बेटा
पैदा करने के
लिए, हिटलर
जैसा बेटा
किसी को अपना
मां—बाप चुने
इसके लिए सैकड़ों,
हजारों, लाखों
वर्षों की
लंबी कठोरता
की परंपरा ही
कारगर हो सकती
है। यानी सैकड़ों,
हजारों
वर्ष तक कोई
आदमी बूचड़खाने
में काम करते
ही रहे हों, तब नस्ल इस
योग्य हो
पाएगी, वीर्याणु
इस योग्य हो
पाएगा कि
हिटलर जैसा बेटा
उसे पसंद करे
और उसमें
प्रवेश करे।
ठीक
वैसा ही भली
आत्मा के लिए
भी है। लेकिन
सामान्य
आत्मा के लिए
कोई कठिनाई
नहीं है। उसके
लिए रोज गर्भ
उपलब्ध हैं।
क्योंकि उसकी
इतनी भीड़ है
और उसके लिए
चारों तरफ
इतने गर्भ
तैयार हैं और
उसकी कोई
विशेष मांगें
भी नहीं हैं।
उसकी मांगें
बड़ी साधारण
हैं। वही खाने
की, पीने
की, पैसा
कमाने की, काम—
भोग की, इज्जत
की, आदर की,
पद की, मिनिस्टर
हो जाने की, इस तरह की
सामान्य
इच्छाएं हैं।
इस तरह की
इच्छाओं वाला
गर्भ कहीं भी
मिल सकता है, क्योंकि
इतनी साधारण
कामनाएं हैं
कि सभी की हैं।
हर मां —बाप
ऐसे बेटे को
चुनाव के लिए
अवसर दे सकता
है। लेकिन अब
किसी आदमी को
एक करोड़
आदमी मारने
हैं, किसी
आदमी को ऐसी
पवित्रता से
जीना है कि
उसके पैर का
दबाव भी
पृथ्वी पर न
पड़े, और
किसी आदमी को
इतने प्रेम से
जीना है कि
उसका प्रेम भी
किसी को कष्ट
न दे पाए, उसका
प्रेम भी किसी
के लिए बोझिल
न हो जाए, तो
फिर ऐसी
आत्माओं के
लिए तो
प्रतीक्षा
करनी पड़ सकती
है।
इस
संबंध में एक—दो
प्रश्न और हैं, वह कल
सुबह हम बात
कर सकेंगे।
आपके जो भी और
प्रश्न हों वह
आप लिखकर दे देंगे'।
अब हम
रात्रि के
ध्यान के लिए
बैठेंगे।
तो दो —तीन
बातें समझ लें।
एक तो मैं
अनुभव करता
हूं कि आप पास—पास
ही बैठे रहते
हैं। तो फिर
परिणाम यह
होता है कि
प्रत्येक
व्यक्ति को
संभल कर बैठा
रहना पड़ता है
कि कहीं वह
किसी पर गिर न
जाए। तो इतना
संभल कर बैठने
से गहराई में
न जा सकेंगे।
इसलिए पहला
काम तो यह करें
कि फासले पर
हो जाएं। धूल
में बैठना
उतना बुरा
नहीं है जितना
पास में बैठना, धूल में
बैठ जाएं उसका
कोई हर्ज नहीं।
ऊपर दहलान
में चले जाएं।
लेकिन आवाज न
करें, चुपचाप
हट जाएं......।
बातचीत न करें।
सारा वातावरण
फिर पुन: आप
खराब कर देते
हैं। घंटे — भर
की बात के बाद
सारे वातावरण
को खराब कर
लेते हैं।
चुपचाप हट
जाएं। हटने
में बातचीत का
कोई सवाल ही
नहीं है। हटने
से बातचीत का
क्या संबंध है?
पैर से काम
ले लें और हट
जाएं।
हां, और जिन
मित्रों को
जाना हो वे
बिलकुल मजे से
चले जाएं, वापिस
बीच में कोई
नहीं जाएगा।
और कल के जो
मित्र हों अगर
वे बदल कर आए
हों तो ठीक है,
नहीं तो वे
चुपचाप विदा
हो जाएं। हां,
जिन्हें
जाना है वे
जल्दी चले
जाएं ताकि
जिन्हें
बैठना है उनके
लिए जगह भी हो
सके। और दर्शक
की तरह न कोई
बैठेगा और न
कोई खड़ा रहेगा,
दर्शक की यहां, कोई जरूरत
नहीं है। हां,
ये जो बच्चे
ऊपर सीढ़ियों
पर बैठे हैं, ये पास से
हटें वहां,
से, अलग—
अलग बैठ जाएं।
दूरी पर बैठें,
यहां,
बैठने का ऐसा
कोई फायदा
नहीं होगा।
फासले पर बैठें
नीचे, इकट्ठे
मत बैठें।
और पास बैठने
में तुम्हारा
खतरा भी है, तुम बात
करोगे। थोड़ा
हटो वहां,
से।
हां, जिनको
लेटना है वे
पहले ही
चुपचाप लेट
जाएं ताकि
पीछे किसी पर
गिर न सकें।
चुपचाप लेट
जाएं। अभी सब
अंधेरा हो
जाएगा, अपनी
जगह बना लें
और लेट जाएं।
और बाद में भी
किसी को गिरने
जैसा लगे, तो
वह अपने को
रोके नहीं, बिलकुल छोड
दे और गिर जाए।
पहली
बात है, आंख बंद कर
लें. आंख बंद
कर लें...... आंख
बंद कर लें.......
शरीर को ढीला
छोड़ दें...... शरीर
को बिलकुल
ढीला छोड़ दें,
जैसे शरीर
है ही नहीं।
शरीर की सारी
शक्ति भीतर आ
रही है, ऐसा
भाव करें शरीर
से हम भीतर
वापिस लौट रहे
हैं। अपनी
सारी शक्ति को
भीतर सिकोड़
लेना है, अपनी
सारी शक्ति को
भीतर बुला
लेना है। तो
मैं तीन मिनट
तक सुझाव
दूंगा कि शरीर
शिथिल हो रहा
है, शिथिल
हो रहा है।
वैसा ही अनुभव
करेंगे।
अनुभव करेंगे
और शरीर को
ढीला छोड़ते
जायेंगे, ढीला
छोड़ते जाएंगे।
धीरे — धीरे
ऐसा लगेगा कि
जैसे शरीर गया।
और जब शरीर
गिर जाए या
गिरने लगे, तो रोकेंगे
नहीं, बिलकुल
छोड़ देंगे और
गिर जाने
देंगे। आगे
झुके, आगे
झुके जाए, पीछे
गिरे, पीछे
गिर जाए। अपनी
तरफ से कोई
पकड़ शरीर पर
नहीं रखनी है।
सब पकड़ छोड़
देनी है, यह
पहला चरण है।
अब मैं तीन
मिनट सुझाव
देता हूं। फिर
श्वास के लिए,
फिर विचार
के लिए कहूंगा।
और अंत में दस
मिनट के लिए
हम मौन में खो
जायेंगे।
शरीर
शिथिल हो रहा
है, ऐसा
अनुभव करें.....
शरीर शिथिल हो
रहा है....... शरीर
शिथिल हो रहा
है..... शरीर
शिथिल हो रहा
है....... शरीर
शिथिल हो रहा
है...... छोड़ दें, जैसे शरीर
है ही नहीं।
अपनी सारी पकड़
छोड़ दें। शरीर
शिथिल हो रहा
है...... शरीर
शिथिल हो रहा
है. शरीर
शिथिल हो रहा
है...... शरीर
बिलकुल शिथिल
हो रहा है।
छोड़ दें, शरीर
पर से सारी
शक्ति छोड़ दें.....
जैसे शरीर मर
ही गया, कोई
प्राण न रहा, हम तो भीतर
सरक गए, शरीर
में प्राण
कैसे रह
जाएंगे। हम तो
भीतर सरक आए, शरीर बिलकुल
खोल की तरह रह
गया है।
शरीर
शिथिल हो रहा
है. शरीर
शिथिल हो रहा
है. शरीर
शिथिल हो रहा
है. शरीर शिथित्न
हो रहा है......
शरीर शिथिल हो
रहा है...... शरीर
शिथिल होता जा
रहा है. शरीर
बिलकुल शिथिल
हो गया है।
छोड़ दें.....
बिलकुल लगेगा
कि गया, गया, गया।
गिर जाए तो
गिर जाने दें।
शरीर शिथिल हो
रहा है. शरीर
शिथिल हो रहा
है...... शरीर
शिथिल हो रहा
है. शरीर
शिथिल होता
रहा है...... शरीर
शिथिल हो रहा
है...... शरीर
बिलकुल शिथिल
होता जा रहा
है। जैसे मर
ही गए, जैसे
शरीर है ही नहीं..
शरीर बिलकुल न
रहा, शरीर
बिलकुल मिट
गया।
श्वास
भी शिथिल छोड़
दें। श्वास शांत
हो रही है.....
श्वास शांत हो
रही है...... अनुभव
करें कि श्वास
शांत होती जा
रही है...... श्वास शांत
हो रही है.....
श्वास शांत हो
रही है..... श्वास शांत
होती जा रही
है। अनुभव करें, श्वास शांत
होती जा रही
है... श्वास शांत
हो रही है.....
श्वास शांत हो
रही है..... श्वास
शांत हो गई है
श्वास बिलकुल शांत
हो गई है। छोड़
दें, शरीर
को भी, श्वास
को भी। छोड़
दें। श्वास शांत
हो गई है।
विचार
भी शांत होते
जा रहे हैं.....
विचार शांत
होते जा रहे
हैं...... विचार शांत
हो रहे हैं.....
अनुभव करें, विचार
बिलकुल शांत
होता जा रहा
है..... विचार
शांत हो रहे
हैं. विचार शांत
हो रहे हैं.....
विचार शांत हो
रहे हैं...... भीतर
भाव करें, विचार
शांत होता जा
रहा है....। शरीर
शिथिल हो गया,
श्वास शांत
हो गई, विचार
शांत हो गये......।
भीतर
सब शून्य हो
गया...... इस शून्य
में हम डूब
रहे हैं, डूब रहे हैं,
डूब रहे हैं,
जैसे कोई
गहरे कुएं में
गिरता जाए, गिरता जाए, गिरता जाए।
और गिरता ही
जाए. गिरता ही
जाए..... और नीचे
तक न पहुंचे
और गिरता ही
जाए। ऐसे ही
हम भीतर शून्य
में गिरते जा
रहे हैं...... भीतर
गिरते जा रहे
हैं। छोड़ दें
अपने को, बिलकुल
पकड़ छोड़ दें!
इस शून्य में
डूबते जाएं, डूबते जाएं,
डूबते जाएं!
फिर भीतर
सिर्फ चेतना
रह जाएगी, एक
ज्योति की तरह
जली, जो
देख रही है, भीतर जान
रही है, जो
सिर्फ
द्रष्टा है, साक्षी है।
अब
सिर्फ साक्षी
भाव रखें।
देखते रहें
भीतर। बाहर सब
मर गया है, शरीर
बिलकुल मृत हो
गया है श्वास शांत
हो गई, विचार
बंद हो गए, हम
भीतर गिरते जा
रहे हैं शून्य
में। देखते
रहें...... देखते
रहें. देखते
रहें। देखते
ही देखते और
गहरी शांति और
गहरा शून्य
प्रकट हो
जाएगा। उसी
देखते —देखते
में मैं भी खो
जाएगा.. बस
सिर्फ एक
प्रकाश, एक
ज्योति भर शेष
रह जाएगी। — अब
दस मिनट के
लिए मैं चुप
हो जाता हूं, आप खो जाएं......
भीतर...... और
भीतर... और भीतर!
सब छोड़ दें, पकड़ छोड़े।
सिर्फ देखते
रह जाएं। दस
मिनट के लिए
द्रष्टा भाव
में, साक्षी
भाव में रह
जाएं।
( भगवान
श्री कुछ मिनट
मौन रहकर फिर
सुझाव देना शुरू
करते हैं।)
मन शांत
होता जा रहा
है..... देखते
रहें.. भीतर
देखें..... भीतर
देखें। सिर्फ
देखना मात्र
भीतर रह जाए।
मन शांत होता
जा रहा है।
शरीर दूर पड़ा
दिखाई पड़ने
लगेगा? जैसे किसी
और का शरीर
पड़ा हो.. शरीर
से दूर हट
जाएंगे, जैसे
शरीर से बहुत
दूर चले गए
हैं... श्वास
सुनाई पड़ती है
बहुत दूर जैसे
कोई और लेता
हो। और भीतर?. और भीतर हट
जाएं... देखते
रहें.. देखते
रहें और मन शून्य
में उतर जाता
है।
(मौन,
निर्जन, सन्नाटा.....)
मन शांत
होता जा रहा
है। और गहरे
डूब जाएं, और गहरे
डूब जाएं.....
देखते रहें
भीतर..... मन शांत
हो रहा है...... मन शांत
हो रहा है ...... मन
शांत हो रहा
है...... मन बिलकुल शांत
हो गया है।
शरीर
तो दूर रह गया
है….. शरीर
जैसे मर ही
गया है..... हम
शरीर से दूर
हट गए हैं...... छोड़
दें, बिलकुल
छोड़ दें, जरा
भी पकड़ न रखें
भीतर, जैसे
मर ही गए.।
बिलकुल छोड़
दें ....बिलकुल
छोड़ दें..... मन और
शून्य होता जा
रहा है......।
(मौन,
निर्जन, सन्नाटा.)
शरीर
बिलकुल छूट
गया है। देखें
भीतर, शरीर
दूर पड़ा रह
गया है....., हम
शरीर से बहुत
दूर निकल आए
हैं. .....मन
बिलकुल शांत हो
गया है…..।
देखें भीतर, मैं तो
बिलकुल मिट
गया हूं....... मैं
बिलकुल मिट
गया...... शेष
रह गई है
चेतना, सिर्फ
जानना शेष रह
गया है और सब
मिट गया है.....।
(मौन, निर्जन, सन्नाटा.....)
धीरे—
धीरे दो —चार
गहरी श्वास
लें…... मन
बिलकुल शांत
हो गया है।
धीरे — धीरे
दों—चार गहरी
श्वास लें।
प्रत्येक
श्वास को
देखते रहें, मन और शांत
मालूम होगा।
धीरे — धीरे
श्वास लें, श्वास को भी
देखते रहें।
श्वास भी अलग
मालूम पड़ेगी,
स्वयं से
बहुत दूर
मालूम पड़ेगी.......
धीरे — धीरे
श्वास लें......
देखें, श्वास
भी कितनी दूर
है....... श्वास भी
कितनी अलग है।
धीरे—
धीरे दो —चार
गहरी श्वास
लें...... फिर धीरे —
धीरे आंख
खोलें...... धीरे —
धीरे आंख
खोलें। न तो
कोई जल्दी उठे, और अगर आंख
न खुलती हो तो
भी जल्दी न
खोले। दो —चार
गहरी श्वास
लें... फिर धीरे—
धीरे आंख
खोलें और एक
मिनट आंख
खोलकर बाहर
देखते रहें.......।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें