प्रभु—कृपा
और साधक का
प्रयास
मेरे
प्रिय आत्मन्!
एक
मित्र ने पूछा
है कि ओशो
क्या ध्यान प्रभु
की कृपा से
उपलब्ध होता
है?
इस
बात को थोड़ा
समझना उपयोगी
है। इस बात से
बहुत भूल भी
हुई है। न
मालूम कितने
लोग यह सोचकर
बैठ गए हैं कि
प्रभु की कृपा
से उपलब्ध
होगा तो हमें
कुछ भी नहीं
करना है। यदि
प्रभु—कृपा का
ऐसा अर्थ लेते
हैं कि आपको
कुछ भी नहीं
करना है, तो आप
बड़ी भ्रांति
में हैं।
दूसरी और भी
इसमें भांति
है कि प्रभु
की कृपा सबके
ऊपर समान नहीं
है।
लेकिन
प्रभु—कृपा
किसी पर कम और
ज्यादा नहीं
हो सकती।
प्रभु के
चहेते, चूज़न कोई भी नहीं
हैं। और अगर
प्रभु के भी
चहेते हों तो
फिर इस जगत में
न्याय का कोई
उपाय न रह
जाएगा।
प्रभु
की कृपा का तो
यह अर्थ हुआ
कि किसी पर कृपा
करता है और
किसी पर अकृपा
भी रखता है।
ऐसा अर्थ लिया
हो तो वैसा
अर्थ गलत है।
लेकिन किसी और
अर्थ में सही
है। प्रभु की
कृपा से
उपलब्ध होता
है,
यह उनका कथन
नहीं है
जिन्हें अभी
नहीं मिला, यह उनका कथन
है
जिन्हें
मिल गया है।
और उनका कथन
इसलिए है कि
जब वह मिलता
है, तो
अपने किए गए
प्रयास
बिलकुल ही इररेलेवेंट,
असंगत
मालूम पड़ते
हैं। जब वह
मिलता है, तो
जो हमने किया
था वह इतना
क्षुद्र और जो
मिलता है वह
इतना विराट कि
हम कैसे कहें
कि जो हमने
किया था उसके
कारण यह मिला
है?
जब
मिलता है तब
ऐसा लगता है
हमसे कैसे
मिलेगा? हमने
किया ही क्या
था? हमने
दिया ही क्या
था? हमने
सौदे में दांव
क्या लगाया था?
हमारे पास
था भी क्या जो
हम करते? था
भी क्या जो हम
देते? जब
उसकी अनंत—अनंत
आनंद की वर्षा
होती है तो उस
वर्षा के क्षण
में ऐसा ही
लगता है कि
तेरी कृपा से
ही, तेरे
प्रसाद से ही,
तेरी ग्रेस
से ही उपलब्ध
हुआ। हमारी
क्या
सामर्थ्य, हमारा
क्या वश!
लेकिन
यह बात उनकी
है जिनको मिला।
यह बात अगर
उन्होंने पकड़
ली जिनको नहीं
मिला, तो वे
सदा के लिए
भटक जाएंगे।
प्रयास करना
ही होगा।
निश्चित ही, प्रयास करने
पर मिलने की
जो घटना घटती
है वह ऐसी है, जैसे किसी
का द्वार बंद
है, सूरज
निकला है, और
घर में अंधेरा
है। वे द्वार
खोलकर
प्रतीक्षा
करें, सूरज
भीतर आ जाएगा।
सूरज को
गठरियों में
बांधकर भीतर
नहीं लाया जा
सकता, वह
अपनी ही कृपा
से भीतर आता
है।
यह
मजे की बात है, सूरज
को हम भीतर
नहीं ला सकते
अपने प्रयास
से, लेकिन
अपने प्रयास
से भीतर आने
से रोक जरूर
सकते हैं। द्वार
बंद करके, आंख
बंद करके बैठ
सकते हैं। तो
सूरज की महिमा
भी हमारी बंद आंखों
को पार न कर
पाएगी। सूरज
की किरणों को
हम द्वार के
बाहर रोक सकते
हैं। रोक सकने
में समर्थ हैं,
ला सकने में
समर्थ नहीं।
द्वार खुल जाए,
सूरज भीतर आ
जाता है। सूरज
जब भीतर आ जाए
तो हम यह नहीं
कह सकते कि हम
लाए; हम
इतना ही कह
सकते हैं, उसकी
कृपा, वह
आया। और हम
इतना ही कह
सकते हैं कि
हमारी अपने पर
कृपा कि हमने
द्वार बंद न
किए।
आदमी
सिर्फ एक
ओपनिंग बन
सकता है उसके
आगमन के लिए।
हमारे प्रयास
सिर्फ द्वार
खोलते हैं, आना
तो उसकी कृपा
से ही होता है।
लेकिन उसकी
कृपा हर द्वार
पर प्रकट होती
है। लेकिन कुछ
द्वार बंद हैं,
वह क्या करे?
बहुत
द्वारों पर
ईश्वर
खटखटाता है और
लौट जाता है; वे द्वार
बंद हैं।
मजबूती से
हमने बंद किए
हैं। और जब वह
खटखटाता है, तब हम न
मालूम कितनी
व्याख्याएं
करके अपने को समझा
लेते हैं।
एक
छोटी सी कहानी
मुझे
प्रीतिकर है, वह
मैं कहूं।
एक
बड़ा मंदिर, उस
बड़े मंदिर में
सौ पुजारी, बड़े पुजारी
ने एक रात
स्वप्न देखा
है कि प्रभु
ने खबर की है
स्वप्न में कि
कल मैं आ रहा
हूं। विश्वास
तो न हुआ
पुजारी को, क्योंकि
पुजारियों से
ज्यादा
अविश्वासी आदमी
खोजना सदा ही
कठिन है।
विश्वास
इसलिए भी न
हुआ कि जो
दुकान करते
हैं धर्म की, उन्हें धर्म
पर कभी
विश्वास नहीं
होता। धर्म से
वे शोषण करते
हैं, धर्म
उनकी श्रद्धा
नहीं है। और
जिसने
श्रद्धा को
शोषण बनाया, उससे ज्यादा
अश्रद्धालु
कोई भी नहीं
होता।
पुजारी
को भरोसा तो न
आया कि भगवान
आएगा, कभी
नहीं आया।
वर्षों से
पुजारी है, वर्षों से
पूजा की है, भगवान कभी
नहीं आया।
भगवान को भोग
भी लगाया है, वह भी अपने
को ही लग गया
है। भगवान के
लिए
प्रार्थनाएं
भी की हैं, वे
भी खाली आकाश
में— जानते
हुए कि कोई
नहीं सुनता—
की हैं। सपना
मालूम होता है।
समझाया अपने
मन को कि सपने
कहीं सच होते
हैं! लेकिन
फिर डरा भी, भयभीत भी
हुआ कि कहीं
सच ही न हो जाए।
कभी—कभी सपने
भी सच हो जाते
हैं; कभी—कभी
जिसे हम सच
कहते हैं, वह
भी सपना हो
जाता है, कभी—कभी
जिसे हम सपना
कहते हैं, वह
सच हो जाता है।
तो
अपने निकट के
पुजारियों को
उसने कहा कि
सुनो, बड़ी
मजाक मालूम
पड़ती है, लेकिन
बता दूं। रात
सपना देखा कि
भगवान कहते
हैं कि कल आता
हूं। दूसरे
पुजारी भी
हंसे; उन्होंने
कहा, पागल
हो गए! सपने की
बात किसी और
से मत कहना, नहीं तो लोग
पागल समझेंगे।
पर उस बड़े
पुजारी ने कहा
कि कहीं अगर
वह आ ही गया! तो
कम से कम हम
तैयारी तो कर
लें! नहीं आया
तो कोई हर्ज
नहीं, आया
तो हम तैयार
तो मिलेंगे।
तो
मंदिर धोया
गया,
पोंछा गया,
साफ किया
गया, फूल
लगाए गए, दीये
जलाए गए; सुगंध
छिडकी गई,
धूप—दीप सब;
भोग बना, भोजन बने।
दिन भर में
पुजारी थक गए;
कई बार देखा
सड़क की तरफ, तो कोई आता
हुआ दिखाई न
पड़ा। और हर
बार जब देखा
तब लौटकर कहा,
सपना सपना
है, कौन
आता है! नाहक
हम पागल बने।
अच्छा हुआ, गांव में
खबर न की, अन्यथा
लोग हंसते।
सांझ
हो गई। फिर
उन्होंने कहा, अब
भोग हम अपने
को लगा लें।
जैसे सदा
भगवान के लिए
लगा भोग हमको
मिला, यह
भी हम ही को
लेना पड़ेगा।
कभी कोई आता
है! सपने के
चक्कर में पड़े
हम, पागल
बने हम— जानते
हुए पागल बने।
दूसरे पागल
बनते हैं न
जानते हुए, हम.......हम जो
जानते हैं
भलीभांति कभी
कोई भगवान
नहीं आता।
भगवान है कहां?
बस यह मंदिर
की मूर्ति है,
ये हम
पुजारी हैं, यह हमारी
पूजा है, यह
व्यवसाय है।
फिर सांझ
उन्होंने भोग
लगा लिया, दिन
भर के थके हुए
वे जल्दी ही
सो गए।
आधी
रात गए कोई रथ
मंदिर के
द्वार पर रुका।
रथ के पहियों
की आवाज सुनाई
पड़ी। किसी
पुजारी को
नींद में लगा
कि मालूम होता
है उसका रथ आ
गया। उसने जोर
से कहा, सुनते
हो, जागो! मालूम होता
है जिसकी हमने
दिन भर
प्रतीक्षा की,
वह आ गया! रथ
के पहियों की
जोर—जोर की
आवाज सुनाई
पड़ती है!
दूसरे
पुजारियों ने
कहा,
पागल, अब
चुप भी रहो; दिन भर पागल
बनाया, अब
रात ठीक से सो
लेने दो। यह
पहियों की
आवाज नहीं, बादलों की
गड़गड़ाहट है।
और वे सो गए, उन्होंने
व्याख्या कर
ली।
फिर
कोई मंदिर की
सीढ़ियों पर
चढ़ा,
रथ द्वार पर
रुका, फिर
किसी ने द्वार
खटखटाया, फिर
किसी पुजारी
की नींद खुली,
फिर उसने
कहा कि मालूम
होता है वह आ
गया मेहमान
जिसकी हमने
प्रतीक्षा की!
कोई द्वार खटखटाता
है!
लेकिन
दूसरों ने कहा
कि कैसे पागल
हो,
रात भर सोने
दोगे या नहीं?
हवा के थपेडे
हैं, कोई
द्वार नहीं
थपथपाता है।
उन्होंने फिर
व्याख्या कर
ली, फिर वे
सो गए।
फिर
सुबह वे उठे, फिर
वे द्वार पर
गए। किसी के
पद—चिह्न थे, कोई सीढ़ियां
चढ़ा था, और
ऐसे पद—चिह्न
थे जो बिलकुल
अशात थे। और
किसी ने द्वार
जरूर खटखटाया
था। और राह तक
कोई रथ भी आया
था। रथ के चाको
के चिह्न थे।
वे छाती पीटकर
रोने लगे। वे
द्वार पर
गिरने लगे।
गांव की भीड़
इकट्ठी हो गई।
वह उनसे पूछने
लगी, क्या
हो गया है
तुम्हें? वे
पुजारी कहने
लगे, मत
पूछो। हमने व्याख्या
कर ली और हम मर
गए। उसने
द्वार
खटखटाया, हमने
समझा हवा के थपेडे हैं।
उसका रथ आया, हमने समझी
बादलों की
गड़गड़ाहट है।
और सच यह है कि
हम कुछ भी न
समझे थे, हम
केवल सोना
चाहते थे, और
इसलिए हम
व्याख्या कर
लेते थे।
तो
वह तो सभी के
द्वार
खटखटाता है।
उसकी कृपा तो
सब द्वारों पर
आती है। लेकिन
हमारे द्वार
हैं बंद। और
कभी हमारे
द्वार पर
दस्तक भी दे
तो हम कोई व्याख्या
कर लेते हैं।
पुराने
दिनों के लोग
कहते थे, अतिथि
देवता है।
थोड़ा गलत कहते
थे। देवता
अतिथि है।
देवता रोज ही
अतिथि की तरह
खड़ा है। लेकिन
द्वार तो खुला
हो! उसकी कृपा
सब पर है।
इसलिए
ऐसा मत पूछें
कि उसकी कृपा
से मिलता है।
लेकिन उसकी
कृपा से ही
मिलता है, हमारे
.प्रयास सिर्फ
द्वार खोल
पाते हैं, सिर्फ
मार्ग की
बाधाएं अलग कर
पाते हैं, जब
वह आता है, अपने
से आता है।
प्रथम
तीन चरणों में
ध्यान की
तैयारी:
एक
दूसरे मित्र
ने पूछा है? उन्होंने
पून है : ओशो
ध्यान की चार
सीढ़ियों की
बात की है; उन
चारों का पूरा—
पूरा अर्थ
बताएं।
पहली
बात तो यह समझ
लें कि तीन
सिर्फ सीढ़ियां
हैं,
ध्यान नहीं,
ध्यान तो
चौथा ही है।
द्वार तो चौथा
ही है, तीन
तो सिर्फ सीढ़ियां
हैं। सीढ़ियां
द्वार नहीं
हैं, सीढ़ियां द्वार तक पहुंचाती
हैं। चौथा ही
द्वार है—
विश्राम, विराम,
शून्य, समर्पण,
मर जाना, मिट जाना, द्वार तो
वही है। और
तीन जो सीढ़ियां
हैं वे उस
द्वार तक पहुंचाती
हैं। वे तीन
सीढ़ियों का
मौलिक आधार एक
है कि यदि विश्राम
में जाना हो
तो पूरे तनाव
में जाने के
बाद बहुत आसान
हो जाता है।
जैसे
कोई आदमी दिन
भर श्रम करता
है तो रात सो पाता
है। जितना
श्रम, उतनी
गहरी नींद। अब
कोई पूछ सकता
है कि श्रम
करने से नींद
तो उलटी चीज
है। तो जिसने
दिन भर श्रम
किया है उसे
तो नींद आनी ही
नहीं चाहिए, क्योंकि
श्रम और
विश्राम उलटी चीजें
हैं। विश्राम
तो उसे आना
चाहिए जो दिन
भर बिस्तर पर
पड़ा रहा और
विश्राम करता
रहा!
लेकिन
दिन भर जो
बिस्तर पर पड़ा
रहा,
वह रात सो
ही न सकेगा।
इसलिए दुनिया
में जितनी
सुविधा बढ़ती
है, जितना कम्फर्ट
बढ़ता है, उतनी
नींद विदा
होती जाती है।
दुनिया में
जितना आराम
बढ़ेगा, उतनी
नींद मुश्किल
हो जाएगी। और
मजा यह है कि
आराम हम
इसीलिए बढ़ा
रहे हैं कि चैन
से सो सकें। न,
आराम बढ़ा कि
नींद गई।
क्योंकि नींद
के लिए श्रम
जरूरी है।
जितना श्रम, उतनी गहरी
नींद।
चरम
तनाव से चरम
विश्राम:
ठीक
ऐसे ही, जितना
तनाव, अगर
चरम हो सके, क्लाइमेक्स हो सके, उतना
गहरा विश्राम!
तो
वे जो तीन सीढ़ियां
हैं,
बिलकुल
उलटी हैं। ऊपर
से तो दिखाई
पड़ेगा कि इन
तीन में तो हम
बहुत श्रम में
पड़ रहे हैं—शक्ति
लगा रहे, बहुत
तनाव पैदा कर
रहे, अपने
को थका रहे, तूफान में
डाल रहे, विक्षिप्त
हुए जा रहे— और
फिर इनसे कैसे
विश्राम आएगा?
इनसे
ही आएगा।
जितने ऊंचे
पहाड़ से गिरेंगे, उतनी
गहरी खाई में
चले जाएंगे।
ध्यान रहे, सब पहाड़ों
के पास गहरी
खाइयां होती
हैं। असल में,
पहाड बनता ही
नहीं बिना
गहरी खाई को
बनाए। जब पहाड़
उठता है तो
नीचे गहरी खाई
बन जाती है।
जब आप तनाव
में जाते हैं
तो उसी के
किनारे
विश्राम की
शक्ति इकट्ठी
होने लगती है।
जितने ऊंचे
उठते हैं आप
तनाव में..
.इसलिए मैं कहता
हूं कि पूरी
ताकत लगा दें,
कुछ बचे न, पूरे चुक
जाएं, सब
भांति सब लगा
दें, सब
हार जाएं, तो
जब गिरेंगे
उस ऊंचाई से
तो गहरी अतल
खाई में डूब
जाएंगे। वह
विराम और
विश्राम होगा।
उसी विश्राम
के क्षण में
ध्यान फलित
होता है। मूल
आधार तो आपको
पूरे तनाव में
ले जाना और फिर
तनाव को एकदम
से छोड़ देना
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं
कि अगर हम यह
तनाव का कार्य
न करें, तो
सीधा विश्राम
नहीं हो सकता?
नहीं
होगा। नहीं
होगा; और अगर
होगा तो बहुत
शैलो, बहुत
उथला होगा।
गहरे कूदना हो
पानी में, तो
ऊंचे चढ़ जाना
चाहिए। जितने
ऊंचे तट से
कूदेंगे, उतने
पानी में गहरे
चले जाएंगे।
ये
वृक्ष हैं सरू
के,
चालीस फीट
ऊंचे होंगे।
इतनी ही इनकी
जड़ें नीचे चली
गईं। जितना
ऊपर जाना हो
वृक्ष को उतनी
जड़ें नीचे चली
जाती हैं।
जितनी जड़ें
नीचे जाती हैं,
उतना ही
वृक्ष ऊपर चला
जाता है। अब
यह सरू का
वृक्ष पूछ
सकता है कि छह
ही इंच जड़ें
भेजें तो कोई
हर्जा तो नहीं
है? हर्जा
कुछ भी नहीं
है, छह ही
इंच ऊंचे भी
जाएंगे। मजे
से भेजें, छह
इंच भी क्यों
भेजते हैं, भेजें ही मत,
तो बिलकुल
ही ऊंचे नहीं
जाएंगे।
नीत्शे
ने कहीं लिखा
है और बहुत
अंतर्दृष्टि का
वाक्य लिखा है
कि जिन्हें
स्वर्ग की
ऊंचाई छूनी
हो,
उन्हें नरक
की गहराई भी छूनी पडती
है।
बहुत
अंतर्दृष्टि
की बात है :
जिन्हें
स्वर्ग की
ऊंचाई छूनी
हो,
उन्हें नरक
की गहराई भी छूनी पड़ती
है। इसलिए
साधारण आदमी
कभी भी धर्म
की ऊंचाई नहीं
छू पाता, पापी
अक्सर छू लेते
हैं। क्योंकि
जो पाप की
गहराई में
उतरता है, वह
पुण्य की
ऊंचाई में भी
चला जाता है।
यह
जो विधि है, एक्सट्रीम्स,
अतियों से
परिवर्तन की
है। सब
परिवर्तन अति
पर होते हैं।
एक अति, और
तब परिवर्तन
होता है। घड़ी
का पेंडुलम
देखा आपने? वह जाता है, जाता है—बाएं,
बाएं, बाएं!
और फिर गिरता
है और दाएं
जाने लगता है।
आपने कभी खयाल
न किया होगा, जब घड़ी का पेंडुलम
बाईं तरफ जाता
है, तब वह
दाईं तरफ जाने
की शक्ति
अर्जित कर रहा
है। जा रहा है
बाईं तरफ और
ताकत इकट्ठी
कर रहा है दाईं
तरफ जाने की।
जितना बाईं
तरफ जाएगा
ऊंचा, उतना
ही दाईं तरफ
डोल सकेगा। तो
आपके चित्त के
पेंडुलम
को जितने तनाव
में ले जाया
जा सके, फिर
जब विराम का
क्षण आएगा, उतने ही
गहरे विराम
में उतर जाएगा।
अगर आप तनाव
में न ले गए तो
विराम में भी
नहीं जाएगा।
और
लोग बहुत अजीब—अजीब
बातें पूछते
हैं। ऐसा लगता
है कि वे
वृक्ष नहीं
लगाना चाहते, सिर्फ
फूल तोड़ना
चाहते हैं।
ऐसा लगता है, फसल नहीं
बोना चाहते, सिर्फ फल
काटना चाहते
हैं।
अब
एक मित्र आए, वे
बोले कि अगर
शरीर न हिलाएं,
न कंपन हो
शरीर में, तो
कोई कठिनाई तो
नहीं है?
कठिनाई
कुछ भी नहीं
है। कठिनाई तो
कुछ भी न करें
तो कोई कठिनाई
नहीं है।
लेकिन शरीर के
कंपन से इतने
भयभीत हो रहे
हैं,
तो जब भीतर
के कंपन
उठेंगे तो
क्या होगा? शरीर के कंपने
को रोकना
चाहते हैं, तो जब भीतर
शक्ति की
ऊर्जा कंपेगी
तब क्या होगा?
नहीं, वे
चाहते हैं कि
भीतर कुछ हो
जाए, और
बाहर सभ्य, सुसंस्कृत,
शिष्ट, जैसी
शक्ल
उन्होंने
बनाई है, जो
मूर्ति खड़ी कर
ली है अपनी, वे वैसे ही
मोम के बने
खड़े रहें और
भीतर कुछ हो जाए।
वह नहीं होगा।
वह जब भीतर
ऊर्जा उठेगी
तो यह सब मोम
का पुतला बह
जाएगा बिलकुल।
यह हटेगा, इसको
जगह देनी
पड़ेगी।
तनाव
अति पर पहुंच
जाए,
इसकी
चेष्टा करें,
ताकि फिर
विश्रांति
अति पर हो सके।
विश्रांति
फिर अपने आप
हो जाएगी।
तनाव आप कर
लें, विश्रांति
प्रभु की कृपा
से हो जाएगी।
तनाव आप उठा
लें, फिर
तो लहर गिरेगी
और शांति छा
जाएगी। तूफान
के बाद जैसी
शांति होती है
वैसी कभी नहीं
होती। तूफान
उठना जरूरी है।
और तूफान के
बाद जो शांति
होती है वह
जिंदा होती है,
क्योंकि वह
तूफान से पैदा
होती है। तो
एक जिंदा
शांति के लिए
जरूरी है, जो
मैं कह रहा
हूं उसमें कोई
चरण छोड़ा नहीं
जा सकता।
इसलिए मुझसे
कोई आकर बार—बार
न पूछे कि यह
हम छोड़ दें, यह हम छोड़
दें; शरीर
को न हिलाएं,
सिर्फ
श्वास लें; श्वास न चलाएं,
सिर्फ ‘मैं
कौन हूं?’ यह
पूछें। नहीं,
वे तीनों
चरण बहुत
व्यवस्थित
रूप से, वैज्ञानिक
ढंग से तनाव
की एक अति से
दूसरी अति पर
ले जाने के
लिए हैं।
और
इसीलिए मैं
कहता हूं एक
चरण जब पूरी
अति पर पहुंचे
तब दूसरे में
बदला जा सकता
है। जैसे कार
के गेयर
आप बदलते हैं।
अगर पहले गेयर
में गाड़ी आपने
चलाई है तो
गति में लानी पडती है।
जब पहले गेयर
पर गाड़ी पूरी
गति में आती
है,
तब आप उसे
दूसरे गेयर
में डालते हैं।
दूसरे गेयर
पर वह मंदी
गति में हो तो
आप तीसरे गेयर
में नहीं डाल
सकते हैं गाड़ी
को। सब
परिवर्तन
तीव्रता में
होते हैं।
चित्त का
परिवर्तन भी
तीव्रता में
होता है।
तीव्र
श्वास की चोट
का रहस्य:
और
तीनों का क्या
अर्थ है, वह भी
समझ लेना
चाहिए। पहला
चरण, जो कि
पूरे समय जारी
रहेगा, श्वास
को गहरी और
तीव्रता से
लेने का है।
गहरी भी लेना
है, डीप भी,
और तीव्रता
से भी, फास्ट
भी। जितनी
गहरी जा सके
उतनी गहरी
लेनी है और
जितनी तेजी से
यह लेने और
छोड़ने का काम
हो सके, यह
करना है।
क्यों? श्वास
से क्या होगा?
श्वास
मनुष्य के
जीवन में
सर्वाधिक
रहस्यपूर्ण
तत्व है।
श्वास के ही
माध्यम से, सेतु
से आत्मा और
शरीर जुड़े हैं।
इसलिए जब तक
श्वास चलती है,
हम कहते हैं,
आदमी जीवित
है। श्वास गई
और आदमी गया।
अभी
मैं एक घर में
गया जहां नौ
महीने से एक
स्त्री बेहोश
पड़ी है। वह
कोमा में आ गई
है। और
चिकित्सक
कहते हैं कि
अब वह कभी होश
में नहीं आएगी।
लेकिन कम से
कम तीन साल
जिंदा रह सकती
है अभी और। अब
उसको बेहोशी
में ही दवा और इंजेक्शन
और ग्लूकोज दे—देकर
किसी तरह से
जिंदा रखे हुए
हैं। वह बेहोश
पड़ी है। नौ
महीने से उसे
कभी होश नहीं
आया। मैं उनके
घर गया, उस
स्त्री की मां
को मैंने पूछा
कि अब यह तो करीब—करीब
मर गई।
उन्होंने कहा
कि नहीं, जब
तक श्वास तब
तक आस। उस की
औरत ने कहा, जब तक श्वास
है तब तक आशा
है। अब
चिकित्सक
कहते हैं, लेकिन
कौन जाने!
चिकित्सक
किसी को कहते
हैं कि नहीं
मरेगा और वह
मर जाता है।
कौन जाने, एक
दफा होश आ जाए,
अभी श्वास
तो है। श्वास
तो है, अभी
सेतु गिरा
नहीं, अभी
ब्रिज है। अभी
वापसी लौटना
हो सकता है।
शरीर
और श्वास से
तादात्म्य
विच्छेद:
श्वास
हमारी आत्मा
और शरीर के
बीच जोड़नेवाला
सेतु है।
श्वास को जब
आप बहुत तीव्रता
में लेते हैं
और बहुत गहराई
में लेते हैं, तो
शरीर ही नहीं
कंपता, भीतर
के आत्म—तंतु
भी कैप जाते
हैं। जैसे एक
बोतल रखी है।
और उसमें बहुत
दिनों से कोई
चीज भरी रखी
है, कभी
किसी ने हिलाई
नहीं। तो ऐसा
पता नहीं चलता
कि बोतल और
भीतर भरी चीजें
दो हैं। बहुत
दिनों से रखी
है, मालूम
होता है एक ही
है। बोतल हिला
दें जोर से!
बोतल हिलती है,
भीतर की चीज
हिलती है, बोतल
और भीतर की
चीज के पृथक
होने का
स्पष्टीकरण
होता है।
तो
जब श्वास को
आप समग्र गति
से लेते हैं, तो
एक झंझावात
पैदा होता है,
जो शरीर को
भी कंपा जाता
है और भीतर
आत्मा के
तंतुओं को भी
कंपा जाता है।
उस कंपन के
क्षण में ही
अहसास होता है
दोनों के पृथक
होने का।
अब
आप मुझसे आकर
कहते हैं कि न
लें गहरी
श्वास तो कोई
हर्ज तो नहीं?
हर्ज
कुछ भी नहीं।
हर्ज इतना ही
है कि आप कभी न
जान पाएंगे कि
शरीर से पृथक
हैं। इसीलिए
उसमें एक
सूत्र और जोड़ा
हुआ है कि
गहरी श्वास
लें और भीतर
देखते रहें कि
श्वास आई और
श्वास गई। जब
आप श्वास को
देखेंगे कि
श्वास आई और
श्वास गई, तो
न केवल शरीर
अलग है, यह
पता चलेगा, बल्कि यह भी
पता चलेगा कि
श्वास भी अलग
है; मैं
देखनेवाला
हूं अलग हूं।
शरीर की
पृथकता का पता
तो गहरी श्वास
के लेने से भी
चल जाएगा, लेकिन
श्वास से भी
भिन्न हूं मैं,
इसका पता
श्वास के
प्रति साक्षी
होने से चलेगा।
इसलिए पहले
चरण में ये दो
बातें हैं। ये
दोनों अंतिम
चरण तक जारी
रहेंगी तीसरे
चरण तक।
दूसरे
चरण में मनोग्रथियों
का विसर्जन:
दूसरे
चरण में शरीर
को छोड़ देने
के लिए मैं
कहता हूं।
श्वास गहरी ही
रहेगी। शरीर
को इसलिए छोड़
देने को कहता
हूं कि उसके तो
बहुत से इंप्लीकेशंस
हैं,
दो—तीन की
बात आपसे
करूंगा।
पहली
तो बात यह है
कि शरीर में
हजारों तनाव
इकट्ठे आपने
कर रखे हैं, जिनका
आपको पता ही
नहीं है। सभ्यता
ने हमें इतना
असहज किया है
कि जब आपको
किसी पर क्रोध
आता है तब भी
आप
मुस्कुराते
रहते हैं।
शरीर को कुछ
पता नहीं है; शरीर तो
कहता है कि
गर्दन दबा दो
इसकी, मुट्ठियां बंधती
हैं। लेकिन आप
मुस्कुराते
रहते हैं, मुट्ठी
नहीं बांधते।
तो शरीर के जो
स्नायु
मुट्ठी बांधने
के लिए तैयार
हो गए थे, वे
बड़ी मुश्किल
में पड़ जाते
हैं। उन्हें
पता ही नहीं
चलता कि क्या
हो रहा है। एक
बहुत ही बेचैन
स्थिति शरीर
में पैदा हो
जाती है।
मुट्ठी बंधनी
चाहिए थी। अभी
जो लोग क्रोध
के संबंध को
बहुत गहराई से
समझते हैं, वे कहेंगे, मैं आपसे
कहूंगा, अगर
आपको क्रोध आए,
तो बजाय
इसके कि आप
झूठे
मुस्कुराते
रहें, टेबल
के नीचे जोर
से पांच मिनट मुट्ठियां
बांधें और
छोड़े। और तब
आपको जो हंसी
आएगी, वह
बहुत और तरह
की होगी।
शरीर
को कुछ भी पता
नहीं कि आदमी
सभ्य हो गया है।
शरीर का सारा
काम तो बिलकुल
यंत्रवत है।
लेकिन आदमी ने
सब पर रोक लगा
दी है। उस रोक
के कारण शरीर
में हजारों
तनाव इकट्ठे हो
गए हैं। और जब
बहुत तनाव
इकट्ठे हो
जाते हैं, तो
कांप्लेक्स
पैदा होते हैं,
ग्रंथियां
पैदा होती हैं।
तो जब मैं
आपसे कहता हूं
शरीर को पूरी
तरह छोड़ दें, तो आपकी
हजारों
ग्रंथियां जो
आपने बचपन से
इकट्ठी की हैं,
वे सब बिखरनी
शुरू होती हैं,
पिघलनी शुरू होती
हैं। उनका
पिघल जाना
जरूरी है।
अन्यथा आप कभी
भी
बॉडीलेसनेस, देहातीत न
हो पाएंगे।
देह जब फूल की
तरह हलकी हो
जाएगी, सब
ग्रंथियों से
मुक्त...।
महावीर
का एक नाम
शायद आपने
सुना हो।
महावीर का एक
नाम है, निर्ग्रंथ।
नाम बड़ा अदभुत
है। उसका मतलब
है, कांप्लेक्स—लेस।
निर्ग्रंथ का
मतलब है, जिसकी
सारी
ग्रंथियां और गांठें खो
गईं, जिसमें
अब कोई गांठ
नहीं भीतर; जो बिलकुल
सरल हो गया, निर्दोष हो
गया।
तो
यह शरीर की जो
ग्रंथियों का
जाल है हमारे
भीतर, वह
मुक्त होना
चाहे तो आप
छोड़ते नहीं।
आपकी सभ्यता,
शिष्टता, संस्कार, संकोच, किसी
का स्त्री
होना, किसी
का बड़े पद पर
होना, किसी
का कुछ, किसी
का कुछ होना, वह इस बुरी
तरह से पकड़े
हुए है कि वह
छोड़ता नहीं।
अब
आज एक महिला
ने मुझे आकर
कहा कि उसे यही
डर लगा रहता
है कि कोई का
हाथ उसको न लग
जाए! तो वह
बेचारी दूर
जाकर बैठी
होगी आज। मगर
कोई दो—चार
करवट लेकर
उसके पास
पहुंच गया। तो
उसका फिर गड़बड़
हो गया। वह
मुझे पूछने आई
थी कि क्या
मैं और बहुत
दूर जाकर
बैठूं?
मैंने
कहा,
भेजनेवाला
वहां भी भेज
दे सकता है
किसी को। वह
अच्छा ही है
कि कोई आता ही
है। वहां भी आ
जाएगा कोई।
तुम जहां
बैठती हो, वहीं
बैठो। किसी का
हाथ लग जाएगा
तो क्या हो
जाएगा?
स्त्रियों
की हालत तो
ऐसी है कि अगर
परमात्मा भी
मिले तो वे
ऐसी साड़ी
बचाकर निकल
जाएंगी। वह भी
कहीं छू न जाए।
उनका सारा का
सारा बॉडी, स्त्रियों
का तो पूरा
शरीर ग्रंथि—ग्रस्त
है। बचपन से
उसका सारा
प्रशिक्षण
ऐसा है कि
शरीर उनका एक
रोग है। शरीर
स्त्रियां ढो
रही हैं, शरीर
में जी नहीं
रहीं। वह एक
खोल है जिसको
पूरे वक्त
सुरक्षित
करके और ढोए
चली जा रही
हैं। और कुछ
भी बचाने जैसा
नहीं है उसमें।
तो यह छोटा—छोटा
आग्रह हमारा
बहुत कुछ रोक...
अब
कोई बहुत पढ़े—लिखे
हैं तो अब
उनको ऐसा लगता
है.. .कोई आज
मुझसे एक
सज्जन कह रहे
थे कि यह इमोशनल
लोगों को हो
जाता होगा, भावुक
लोगों को। इंटेलेक्चुअल
को कैसे होगा?
अब
कोई दो—चार
क्लास पढ़ गया
तो वह इंटेलेक्चुअल
हो गया! उसकी
मां मरेगी तो
रोका कि नहीं
वह?
उसका किसी
से प्रेम होगा
कि नहीं होगा?
वह इंटेलेक्चुअल
हो गया! वह चार
क्लास पढ़ गया,
उसने
युनिवर्सिटी
से
सर्टिफिकेट
ले लिया है।
तो अब वह
प्रेम करेगा
तो वह सोचकर
करेगा कि चुंबन
लेना कि नहीं,
कितने
कीटाणु ट्रांसफर
हो जाते हैं!
वह किताब पढ़ेगा,
वह जाकर
हिसाब—किताब
लगाएगा कि इमोशनल
होना कि नहीं
होना।
इंटेलेक्ट भी
बीमारी की तरह
हो गई है। इंटेलेक्ट
कुछ हमारा
सौरभ नहीं बन
पाई है।
बुद्धि हमारी
कोई गरिमा
नहीं बनी है, रोग
बन गई है। कोई
सोचता है कि
हम इंटेलेक्यूअल
हैं, हम
बुद्धिवादी
हैं; यह
हमको नहीं हो
सकता। यह तो
उनको हो रहा
है जो जरा
भावुक हैं।
भाव की
पहुंच बुद्धि
से गहरी:
लेकिन
भावुक होना
कुछ बुरा है? जीवन
में जो भी
श्रेष्ठ है वह
भाव से आता है।
बुद्धि से
किसी
श्रेष्ठता का
कोई जन्म न
कभी हुआ और न
कभी हो सकता
है। हां, गणित
का हिसाब लगता
है, खाते—बही
जोड़े जाते हैं,
यह सब होता
है। लेकिन जो
भी श्रेष्ठ है,
और आश्चर्य
की बात यह है
कि वितान, जिसको
हम समझते हैं
सबसे बड़ी
बौद्धिक
प्रक्रिया है,
उसमें भी जो
श्रेष्ठतम
आविष्कार हैं,
वे भी भाव
से होते हैं, वे भी
बुद्धि से
नहीं होते।
अगर
आइंस्टीन से
कोई जाकर पूछे
कि कैसे तुमने
रिलेटिविटी
खोजी? वह
कहेगा, मुझे
पता नहीं; आ
गई। यह बड़ी
धार्मिक भाषा
है कि आ गई। इट हैपेंड।
अगर
क्यूरी से कोई
पूछे कि कैसे
तुमने यह रेडियम
खोज निकाला? तो
वह कहेगी, मुझे
कुछ पता नहीं,
ऐसा हुआ है;
हो गया है; मेरे वश की
बात नहीं है।
अगर बड़े
वैज्ञानिक से
जाकर पूछें तो
वह भी कहेगा, हमारे वश के
बाहर हुआ है
कुछ; हमारी
खोज से नहीं
हुआ, हमसे
कहीं ऊपर से
कुछ हुआ है; हम सिर्फ
माध्यम थे, इंस्ट्रमेंट थे। बड़ी
धर्म की भाषा
है।
भाव
बहुत गहरे में
है,
बुद्धि
बहुत ऊपर है।
बुद्धि बहुत
कामचलाऊ है।
बुद्धि वैसे
ही है, जैसे
कि गवर्नर की
गाड़ी निकलती
है और आगे एक पायलट
निकलता है। उस
पायलट को
गवर्नर मत समझ
लेना। बुद्धि
पायलट से
ज्यादा नहीं
है। वह रास्ता
साफ करती है, लोगों को
हटाती है, हिसाब
रखती है कि
रास्ते पर कोई
टक्कर न हो जाए।
लेकिन मालिक
बहुत पीछे है
वह इमोशन
है। जीवन में
जो भी सुंदर
है, श्रेष्ठ
है, वह भाव
से जन्मता और
पैदा होता है।
लेकिन
कुछ लोग पायलट
को नमस्कार कर
रहे हैं। वे
कहते हैं, हम
इंटेलेक्चुअल
हैं, हम
बुद्धिवादी
हैं; हम
पायलट को ही
गवर्नर मानते
हैं। मानते
रहें, पायलट
भी खड़ा होकर
हंस रहा है।
बुद्धिवादियों
की आत्मवंचना:
कुछ
लोगों को खयाल
है कि कमजोर
लोगों को हो
जाता है। हम
शक्तिशाली
हैं,
हमको बहुत
मुश्किल है।
उनको
पता नहीं, उन्हें
कुछ भी पता
नहीं। शक्तिशालियो
को होता है, कमजोर खड़े
रह जाते हैं।
क्योंकि एक
घंटे तक संकल्पपूर्वक
किसी भी
स्थिति में
होना, बहुत
स्ट्रांग
विल्ड के
लिए संभव है, कमजोरों के लिए नहीं।
कमजोर तो दो
मिनट गहरी
श्वास लेते
हैं, फिर
बैठ जाते हैं।
अब वे दूसरे
जो उनको हो
रहा है, वे
कहते हैं, कमजोरों को हो रहा है।
वे घंटे भर
गहरी श्वास भी
नहीं ले सकते,
वे दस मिनट 'मैं कौन हूं?'
यह भी नहीं
पूछ सकते। इस
खयाल में आप
मत पड़ना।
लेकिन
ये हमारे रेशनलाइजेशस
हैं। ये हमारी
बौद्धिक
तरकीबें हैं, जिनसे
हम अपने को
बचाते हैं। हम
कहते हैं, जो
कमजोर हैं, उनको हो रहा
है। हम बहुत
ताकतवर हैं; हमको कैसे
होगा?
बड़े
आश्चर्य की
बात है। इस
दुनिया में सब
चीजें ताकतवरों
से होती हैं, कमजोरों से कुछ भी
नहीं होता। और
ध्यान? ध्यान
तो अंतिम ताकत
मांगता है। वे
कहेंगे यह कि
कमजोर को हो
रहा है; और
उनको इसलिए
नहीं हो रहा
है कि यह बगलवाला
आदमी जोर से
रो रहा है, इसलिए
उनको नहीं हो
पा रहा। और
जिसको हो रहा
है, वह
रोने का उसे
पता नहीं, कौन
देख रहा है
उसे पता नहीं,
कौन सोच रहा
है, क्या
सोच रहा है, पता नहीं।
वह अपनी धुन
में पूरा लगा
है। उतनी धुन
का सातत्य बड़ी
शक्ति है। कमजोरों
को नहीं होता।
इसलिए
अपने अहंकार
को व्यर्थ
बचाने की
कोशिश में मत
लगना कि हम ताकतवर
हैं,
स्ट्रांग विल्ड
हैं, हम इंटेलेक्वुअल
हैं, हमको
नहीं होगा।
नहीं होगा, इतना ही
जानें। नहीं
होने के लिए
यह और शक्कर
क्यों चढ़ा रहे
हैं ऊपर से? इससे न होना
भी मीठा लगने
लगेगा। और फिर
होना हमेशा के
लिए असंभव हो
जाएगा। इतना
ही जानें कि
मुझे नहीं हो
रहा। नहीं हो
रहा, तो
कहीं कोई
कमजोरी है। उस
कमजोरी को पहचानें,
समझें और हल
करें। उसको
बहादुरी न
समझें कि हमको
नहीं हो रहा
तो हम ताकतवर
हैं।
अब
एक मित्र आए, उन्होंने
कहा कि यह तो
हिस्टेरिक है।
किसी को
हिस्टीरिया
जैसा हो जाता
है।
उन्हें
पता नहीं कि
जीवन में, जीवन
के भीतर क्या—क्या
छिपा है!
हिस्टेरिक
कहकर वे अपने
को बचा लेंगे।
अब वे समझ लिए
कि यह तो ये
कुछ
विक्षिप्त
लोग हैं, जिनको
होगा। हम, हम
तो विक्षिप्त
नहीं हैं।
हमको नहीं
होगा। तो फिर
बुद्ध भी
विक्षिप्त थे,
और महावीर
भी, और
जीसस, और
सुकरात, और
रूमी, और
मंसूर—सब
विक्षिप्त थे।
तो इन
विक्षिप्तों
की जात में
शामिल होना, आप स्वस्थों
की जात में
शामिल होने से
बेहतर है। इन
पागलों की
जमात में ही
शामिल हो जाइए।
क्योंकि इन
पागलों को जो
मिला वह बुद्धिमानों
को नहीं मिला।
जब
शक्ति बहुत
तीव्रता से
भीतर उठेगी, तो
सारे
व्यक्तित्व
में तूफान आ
जाएगा। वह
विक्षिप्तता
नहीं है, क्योंकि
विक्षिप्तता
हो, तो फिर
शांत नहीं हो
सकती। और जब
तीनों चरण के
बाद एक क्षण
में हम शांत
हो जाते हैं, तो
हिस्टेरिक
नहीं है।
क्योंकि हिस्टीरियावाले
से कहो कि
शांत हो जाओ, अब विश्राम
करो, वह
उसके वश के
बाहर है। जो
भी हो रहा है, वह हमारे वश
के भीतर हो
रहा है; हम कोआपरेट
कर रहे हैं, सहयोग कर
रहे हैं, इसलिए
हो रहा है।
इसलिए जिस
क्षण अपने
सहयोग को अलग
कर लेते हैं, वह विदा हो
जाता है।
सभ्य
लोगों की आंतरिक
विक्षिप्तता:
विक्षिप्तता
और स्वास्थ्य
का एक ही
लक्षण है
जिसकी
मालकियत हाथ
में हो उसको
स्वास्थ्य
समझना, और
जिसकी
मालकियत हाथ
में न हो उसको
विक्षिप्तता
समझना। अब यह
बड़े मजे का क्राइटेरियन
है। अब जो हो
रहा है जिनको,
जब मैं कहता
हूं शांत हो
जाएं, वे
तत्काल शांत
हो गए हैं। और
वे जो स्वस्थ
बैठे हैं, उनसे
मैं कहूं कि
अपने विचारों
को शांत कर दो,
वे कहते हैं,
होता ही
नहीं; हम
कितना ही करें,
वे नहीं
होते।
विक्षिप्त
हैं आप, पागल
हैं आप। जिस
पर आपका वश
नहीं है, वह
पागलपन है; जिस पर आपका
वश है, वह
स्वास्थ्य है।
जिस दिन आपके
विचार ऑन—ऑफ
कर सकेंगे आप—कि
कह दें मन को
कि बस, तो
मन वहीं ठहर
जाए—तब आप
समझना कि
स्वस्थ हुए।
और आप कह रहे
हैं बस, और
मन कहता है, कहते रहो; हम जा रहे
हैं जहां जाना
है, जो कर
रहे हैं, कर
रहे हैं। सिर
पटक रहे हैं, लेकिन वह मन
जो करना है, कर रहा है।
आप भगवान का
भजन कर रहे
हैं और मन सिनेमागृह
में बैठा है
तो वह कहता है—बैठेंगे,
यही
देखेंगे, करो
भजन कितना ही!
लेकिन
आदमी बहुत
चालाक है और
वह अपनी कमजोरियों
को भी अच्छे
शब्दों में
छिपा लेता है
और दूसरे की श्रेष्ठताओं
को भी बहुत
बुरे शब्द
देकर
निश्चिंत हो
जाता है। इससे
बचना। सच तो
यह है कि
दूसरे के
संबंध में
सोचना ही मत।
किस को क्या
हो रहा है, कहना
बहुत मुश्किल
है। जीवन इतना
रहस्यपूर्ण
है कि दूसरे
के संबंध में
सोचना ही मत।
अपने ही संबंध
में सोच लेना,
वही काफी है—कि
मैं तो पागल
नहीं हूं इतना
सोच लेना। मैं
कमजोर हूं
ताकतवर हूं
क्या हूं अपने
बाबत सोचना।
लेकिन हम सब
सदा दूसरों के
बाबत सोच रहे
हैं कि किस को
क्या हो रहा
है? गलत है
वह बात।
शरीर
को पूरी तरह
छोड़ देने में, एक
तो मैंने कहा,
ग्रंथि—रेचन,
वे जो रुके
हुए अवरोध हैं,
वे सब बह
जाते हैं।
दूसरा, जब
शरीर अपनी गति
से चलता है— आप
नहीं चलाते, अपनी गति से
चलता है—तब
शरीर की
पृथकता बहुत
स्पष्ट होती
है। क्योंकि
आप देख रहे
हैं, और
शरीर घूम रहा
है; आप देख
रहे हैं, और
शरीर खड़ा हो
गया है, आप
देख रहे हैं, और हाथ कैप
रहा है, आप
देख रहे हैं
कि मैं नहीं
कंपा रहा हूं
और हाथ कैप
रहा है; तब
आपको पहली दफा
पता चलता है
कि मेरा होना
और शरीर का
होना कुछ अलग
मामला है। तब
आपको यह भी
पता चल जाएगा
कि जवान भी
मैं नहीं हुआ,
शरीर हुआ है,
बूढ़ा भी
शरीर होगा, मैं नहीं
होऊंगा। और
अगर यह गहरा
आपको पता चला
तो पता चलेगा
मरेगा भी शरीर,
मैं नहीं
मरूंगा।
इसलिए शरीर की
पृथकता बहुत
गहरे में दिखाई
पड़ेगी जब शरीर
यंत्रवत
घूमने लगेगा।
उसे पूरी तरह
छोड़ देना, तभी
पता चलेगा।
'मैं
कौन हूं?' का
तीर:
और
तीसरा सवाल जो
हम पूछते हैं, 'मैं
कौन हूं?' क्योंकि
यह पता चल जाए
कि शरीर नहीं
हूं यह भी पता
चल जाए कि
श्वास नहीं
हूं तब भी यह
पता नहीं चलता
कि मैं कौन हूं।
यह निगेटिव
हुआ—शरीर नहीं
हूं श्वास
नहीं हूं। यह
तो निगेटिव
हुआ। लेकिन पाजिटिव? यह अभी पता
नहीं चलता कि
मैं कौन हूं।
इसलिए तीसरा
कदम है, जिसमें
हम पूछते हैं
कि मैं कौन
हूं। किस से
पूछते हैं? किसी से
पूछने को नहीं
है। खुद से ही
पूछ रहे हैं।
अपने को ही
पूरी तरह से
सवाल से भर
रहे हैं कि
मैं कौन हूं।
जिस दिन यह
सवाल पूरी तरह
आपके भीतर भर
जाएगा, उस
दिन आप पाएंगे—
उत्तर आ गया, आपके ही
भीतर से।
क्योंकि यह
नहीं हो सकता
कि गहरे तल पर
आपको पता न हो
कि आप कौन हैं।
जब हैं, तो
यह भी पता
होगा कि कौन
हैं। लेकिन
वहां तक सवाल
को ले जाना
जरूरी है।
जैसे
कि जमीन में
पानी है। ऊपर
हम खड़े हैं
प्यासे, और
जमीन में पानी
है, लेकिन
बीच में तीस
फीट की खुदाई
करनी जरूरी है।
वह तीस फीट
खुद जाए तो
पानी निकल आए।
हमें प्रश्न
है कि मैं कौन
हूं? जवाब
भी कहीं तीस
फीट गहरे
हममें है, लेकिन
बीच में बहुत
सी पर्तें हैं
जो कट जाएं तो
उत्तर मिल जाए।
तो वह जो 'मैं
कौन हूं?' वह
कुदाली का काम
करता है। 'मैं
कौन हूं?' उसे
जितनी गति से
पूछते हैं, खुदाई होती
है।
लेकिन
पूछ नहीं पाते।
कई दफे बड़ी
अदभुत घटना..
.एक मित्र को
सुबह एक अदभुत
घटना दो दिन
से घटती है।
वह बहुत समझने
जैसी है। वे
बड़ी ताकत से
पूछते हैं, वे
पूरा श्रम
लगाते हैं।
उनके श्रम में
कोई कमी नहीं
है। उनके
संकल्प में
कोई कमी नहीं
है, लेकिन
मन की कितनी
पर्तें हैं!
ऊपर से पूछते
जाते हैं, ‘मैं
कौन हूं?’ इतने
जोर से पूछते
हैं कि उनका
ऊपर भी निकलने
लगता है कि ' मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?'
और इसमें
बीच—बीच में
एक—एक दफा यह
भी आवाज आती
है—इससे क्या
होगा, इससे
क्या होगा। ‘मैं कौन हूं?’
यह भी पूछते
चले जाते हैं,
और बीच में
कभी—कभी यह भी
मुंह से
निकलता है, ' इससे क्या
होगा। ' यह
कौन कह रहा है?
‘मैं कौन
हूं?’ पूछ
रहे हैं; 'इससे
क्या होगा', यह कौन कह
रहा है? यह
मन की दूसरी
पर्त कह रही
है। वह कह रही
है कुछ भी न
होगा। क्यों
पूछ रहे हो? चुप हो जाओ।
मन की एक पर्त
पूछ रही है, मैं कौन हूं?
दूसरी पर्त
कह रही है, कुछ
भी न होगा, चुप
हो जाओ, क्या
पूछ रहे हो!
अगर
मन में खंड—खंड
रह गए तो फिर
भीतर न घुस
पाएंगे।
इसलिए मैं
कहता हूं—पूरी
ताकत लगाकर
पूछना है।
ताकि पूरा मन
धीरे— धीरे इनवाल्वड
हो जाए, और
पूरा मन ही
पूछने लगे कि
मैं कौन हूं? जिस क्षण
प्रश्न ही रह
जाएगा—सिर्फ
प्रश्न, तीर
की तरह भीतर
उतरता—उस दिन
उत्तर आने में
देर न लगेगी।
उत्तर आ जाएगा।
उत्तर भीतर है।
तीन चरण
आप करेंगे, चौथा
होगा:
जान
भीतर है। हमने
कभी पूछा नहीं, हमने
कभी जगाया
नहीं, वह
जगने को तैयार
है। इसलिए ये
तीन चरण।
लेकिन ये तीन
दरवाजे के
बाहर की बातें
हैं; दरवाजे
तक छोड़ देती
हैं। दरवाजे
के भीतर तो
प्रवेश चौथे
चरण में होगा।
लेकिन जो तीन सीढ़ियां
नहीं चढ़ा वह
दरवाजे में
प्रवेश भी
नहीं कर सकेगा।
इसलिए
ध्यान रखें, कल
तो अंतिम दिन
है हमारा, कल
पूरी ताकत
लगानी जरूरी
है। इन तीन
चरणों में
पूरी ताकत
लगाएं, तो
चौथा चरण घटित
हो जाएगा। वह
चौथा आप
करेंगे नहीं,
वह होगा, तीन आप
करेंगे, चौथा
होगा।
प्रश्न:
चौथा चरण हो
जाने के बाद
पहले तीन चरण
छूट जाएंगे?
फिर
कोई सवाल नहीं
है। चौथा हो
जाए,
फिर कोई
सवाल नहीं है।
फिर जैसा
जरूरी लगेगा
वह दिखाई
पड़ेगा। करने
जैसा लगेगा तो
जारी रहेगा, नहीं करने
जैसा लगेगा तो
छूट जाएगा।
लेकिन वह भी
पहले से नहीं
कहा जा सकता।
और इसलिए नहीं
कहा जा सकता
है कि पहले से
यह सवाल जब हम
पूछते हैं कि
जब चौथा हो
जाएगा तो वे तीन
छूट जाएंगे न?
तो अभी भी
हमारा मन उन
तीन को नहीं
करना चाह रहा,
इसलिए
पूछता है। उन
तीन से छूटने
की बड़ी इच्छा
है!
तो
मैं नहीं
कहूंगा कि छूट
जाएंगे।
क्योंकि अगर
मैं यह कह दूं
कि छूट जाएंगे, तो
अभी ही नहीं
पकड़ पाएंगे
उनको आप। छूट
जाएंगे, लेकिन
वह चौथे के
बाद की बात है,
पहले बात
नहीं उठानी
चाहिए।
हमारा
मन बहुत तरह
से डिसीव
करता है, वंचना
करता है। जब
पूछ रही हो तो
तुम्हें खयाल
नहीं है कि
तुम क्यों पूछ
रही हो।
बिलकुल इसलिए
पूछ रही हो कि
ये तीन से किस
तरह छुटकारा
हो। इन तीन से
छुटकारा अगर
होगा तो चौथा
पैदा ही नहीं
होनेवाला! और
इन तीन का भय
क्यों है? इनका
भय है। और वही
भय मिटाने के
लिए तो वे तीन
हैं।
दमित
वृत्तियों के
रेचन का साहस:
इनका
भय है कि शरीर
कुछ भी कर
सकता है। शरीर
कुछ भी कर
सकता है। तो
कहीं ऐसा कुछ
न कर दे। पर
क्या करेगा
शरीर? नाच
सकती हो, रो
सकती हो, चिल्ला
सकती हो, गिरोगी।
असल
कठिनाई यह है
कि पहले चरण
पर श्वास जारी
करो। दूसरे चरण
पर श्वास जारी
रखो और शरीर
को ढीला छोड़
दो। श्वास से
और शरीर के
ढीले छोड़ने
में कोई बाधा नहीं
है,
किसी तरह की
बाधा नहीं है।
श्वास गहरी
रहेगी, शरीर..
.तुम्हें करना
थोड़े ही है कि
तुम नाचो। अगर
तुम नाचो तो
फिर श्वास में
बाधा पड़ेगी।
लेकिन अगर
नाचना हो जाए
तो श्वास में
कोई बाधा नहीं
पड़ेगी।
तुम्हें नहीं
नाचना है।
नाचना हो जाए
तो हो जाए। वह
जो होता हो, हो जाए।
हमारी
कठिनाई यह है
कि या तो हम
रोकेंगे या हम
करेंगे, होने
हम न देंगे।
दो में से हम
कुछ भी करने
को राजी हैं.
या तो हम नाचने
को रोक लेंगे
या फिर हम नाच
सकते हैं।
लेकिन हम होने
न देंगे। इसका
भी डर है, बहुत
डर है। आदमी
की पूरी
सभ्यता सप्रेसिव
है। हमने बहुत
चीजें दबाई
हुई हैं और
हमें डर है कि
वे सब निकल न
आएं। हम बहुत
भयभीत हैं। हम
ज्वालामुखी
पर बैठे हैं।
बहुत डर है
हमें। नाचने
का ही सवाल
नहीं है। डर
बहुत गहरे हैं।
हमने
खुद को इतना
दबाया है कि
हमें बहुत पता
है कि क्या—क्या
निकल सकता है
उसमें। बेटे
ने बाप की
हत्या करनी
चाही है। डरा
हुआ है कि
कहीं यह खयाल
न निकल आए।
पति ने पत्नी
की गर्दन दबा
देनी चाही है।
हालांकि
गर्दन जब
दबाना चाह रहा
था,
तब भी वह
कहता रहा कि
तेरे बिना मैं
एक क्षण नहीं
जी सकता। और
उसकी गर्दन भी
दबा देनी चाही
थी। वह उसने
दबाया हुआ है
भीतर, उसे
डर लगता है कि
किसी क्षण में
यह निकल न आए।
गुरजिएफ
एक फकीर था, और
इस जमाने में
कुछ कीमती
लोगों में से
एक था। उसके
पास आप जाते, तो पहला काम
वह यह करता कि
पंद्रह दिन तो
आपको शराब
पिलाता, रात—रात
आपको शराब
पिलाता। और जब
तक पंद्रह दिन
आपको वह शराब
पिला—पिलाकर
आपकी स्टडी न
कर लेता, तब
तक वह आपको
साधना में न
ले जाता।
क्योंकि
पंद्रह दिन वह
शराब पिला—पिला
कर आपके सब
दमित रोगों को
निकलवा लेता,
और पहचान
लेता कि आदमी
कैसे हो, क्या—क्या
दबाया है, तब
वह इसके बाद
साधना में
लगाता। और अगर
कोई कहता कि
नहीं, यह
पंद्रह दिन हम
शराब पीने को
राजी नहीं, तो वह कहता
दरवाजा खुला
है, एकदम
बाहर हो जाओ।
शायद
ही दुनिया में
किसी फकीर ने
शराब पिलाई हो।
लेकिन वह
समझदार था, उसकी
समझ कीमती थी;
और वह ठीक
कर रहा था।
क्योंकि हमने
बहुत दबाया है;
हमारे दमन
का कोई हिसाब
नहीं है; कोई
अंत नहीं है
हमारे दमन का।
उस
दमन की वजह से
हम डरते हैं
कि कहीं कुछ
प्रकट न हो
जाए,
कहीं मुंह
से कोई बात न
निकल जाए; कहीं
ऐसा न हो जाए
कि जो बात
नहीं कहनी थी,
नहीं बतानी
थी, वह आ
जाए।
अब
किसी ने चोरी
की है, तो वह
पूछने से
डरेगा कि मैं
कौन हूं।
क्योंकि मन
कहेगा कि तुम
चोर हो। यह
जोर से निकल
सकता है कि
चोर हो, बेईमान
हो, काला—बाजारी
हो। यह कहीं न
निकल जाए। तो
वह तो कहेगा
कि पूछना कि
नहीं? जरा
धीरे— धीरे
पूछो कि मैं
कौन हूं!
क्योंकि पता
तो है कि मैं
कौन हूं! मैं
चोर हूं। तो
वह दबा रहा है
उसे। तो वह डर
रहा है, वह
धीरे— धीरे
पूछ रहा है कि
यह बगलवाले
को कहीं सुनाई
न पड़ जाए! कहीं
यह मुंह से
निकल जाए कि
मैंने चोरी की
है! यह निकल
सकता है, इसमें
कोई कठिनाई
नहीं है बहुत।
तो
हमारे कारण
हैं,
हमारे
पूछने के कारण
हैं कि हम
क्यों पूछते
हैं कि ये
जल्दी छूट
जाएं, न
करने पड़े।
लेकिन नहीं, छूटने से
नहीं। करने ही
पड़ेंगे। छूट
सकते हैं, करने
से छूटेंगे।
और भीतर से जो
आता है उसे
आने दें। वहां
बहुत गंदगी
छिपी है, वह
बाहर आएगी।
हमने एक चेहरा
ऊपर बनाया है,
वह हमारा
असली चेहरा
नहीं है। तो
हम डरते हैं।
नकली
चेहरों का
प्रकटीकरण:
अब
एक आदमी अपना
चेहरा लीप—पोत
कर किसी तरह
बनाकर बैठा
हुआ है। अब वह
डरता है कि
अगर छोड़ा तो
चेहरा कुरूप
हो जाता है।
तो वह डरता है
कि यह कुरूप
चेहरा कोई देख
न ले। क्योंकि
वह तो कितना
आईने में
तैयार होकर आया
है घर से। अब
वह डरता है कि
कहीं मैंने
चेहरा बिलकुल
छोड़ दिया तो
चेहरा कुरूप
भी हो सकता है।
और जब छोडूंगा
तो पाउडर और लिपिस्टिक
उस पर काम
नहीं पड़ेंगे, वे
एकदम गड़बड़ हो
जाएंगे। असली
चेहरा निकल
सकता है। तो
वह डरेगा वह कहेगा
कि नहीं, और
सब छोड़ा जा
सकता है, लेकिन
चेहरे को नहीं
छोड़ा जा सकता।
उसको किसी तरह
बनाकर... और
हमारे सब
चेहरे मेकअप
के चेहरे हैं,
असली चेहरे
नहीं हैं। और
ऐसा मत सोचना
कि जो पाउडर
नहीं लगाते, उनके मेकअप
के नहीं हैं।
मेकअप बहुत
गहरा है, बिना
पाउडर के भी
चलता है।
तो
असली चेहरा
निकल आएगा। अब
असली चेहरा
निकल आए तो घबड़ाहट
हो सकती है, कोई
देख न ले।
इसलिए हमारे
डर हैं। लेकिन
ये डर खतरनाक
हैं। इन डरो
को लेकर भीतर
नहीं जाया जा
सकता है। ये
डर छोडने पडेंगे।
शक्तिपात
और अहंशून्य
माध्यम:
एक अंतिम
सवाल एक मित्र
पूछते हैं कि
ओशो शक्तिपात
है?
क्या कोई शक्तिपात
कर सकता है?
कोई कर
नहीं सकता, लेकिन
किसी से हो
सकता है। कोई
कर नहीं सकता।
और अगर कोई
कहता हो कि
मैं शक्तिपात
करता हूं तो
फिर सब धोखे
की बातें हैं।
कोई कर नहीं
सकता, लेकिन
किसी क्षण में
किसी से हो
सकता है। अगर
कोई बहुत
शून्य
व्यक्ति है, सब भांति
समर्पित, सब
भांति शून्य,
तो उसके
सान्निध्य
में शक्तिपात
हो सकता है।
वह कंडक्टर का
काम कर सकता
है—जानकर नहीं।
परमात्मा की
विराट शक्ति
उसके माध्यम
से किसी दूसरे
में प्रवेश कर
सकती है।
लेकिन
कोई जानकर
कंडक्टर नहीं
बन सकता, क्योंकि
कंडक्टर बनने
की पहली शर्त
यह है कि आपको पता
न हो; ईगो न
हो। नहीं तो
नॉन—कंडक्टर
हो जाते हैं
फौरन। जहां
ईगो है बीच
में, वहां
आदमी नॉन—कंडक्टर
हो गया, फिर
वहां से शक्ति
प्रवाहित
नहीं होती। तो
अगर ऐसे
व्यक्ति के
पास जो समग्र
भांति भीतर से
शून्य है, और
जो कुछ नहीं
करना चाहता
आपके लिए— कुछ
करता ही नहीं
वह—उसके
वैक्यूम से, उसके शून्य
से, उसके
द्वार से, उसके
मार्ग से
परमात्मा की
शक्ति आप तक
पहुंच सकती है;
और गति बहुत
तीव्र हो सकती
है। कल दोपहर
के मौन में
इसको खयाल में
लें।
तो
कल के लिए दो
सूचनाएं भी
मैं इसके साथ
दे दूं।
शक्तिपात का
अर्थ है कि
परमात्मा की
शक्ति आप पर
उतर गई। शक्ति
दो तरह से
संभव है—या तो
आपसे शक्ति
उठे और
परमात्मा तक
मिल जाए, या
परमात्मा से
शक्ति आए और
आप तक मिल जाए।
बात एक ही है, दो तरफ से
देखने के ढंग
हैं। वह वैसे
ही, जैसे
कोई गिलास में
आधा गिलास
पानी भरा रखा
हो, और कोई
कहे कि आधा
गिलास खाली, और कोई कहे
आधा गिलास भरा।
और अगर पंडित
हों तो विवाद
करें, और
तय न हो पाए
कभी भी कि
क्या मामला
है! क्योंकि
दोनों ही
बातें सही हैं।
ऊपर
से भी शक्ति
उतरती है और
नीचे से भी
शक्ति जाती है।
और जब उनका
मिलन होता है, जहां
आपके भीतर सोई
हुई ऊर्जा
विराट की
ऊर्जा से
मिलती है, तब
एक्सप्लोजन, विस्फोट हो
जाता है। उस
विस्फोट के
लिए कोई
भविष्यवाणी
नहीं की जा
सकती। उस
विस्फोट से
क्या होगा, यह भी नहीं
कहा जा सकता।
उस विस्फोट के
बाद क्या होगा,
यह भी नहीं
कहा जा सकता।
वैसे उस विस्फोट
के बाद, दुनिया
में जिन लोगों
को भी वह
विस्फोट हुआ
है, वे
जिंदगी भर यही
चिल्लाते रहे
कि आओ और तुम भी
उस विस्फोट से
गुजर जाओ। कुछ
हुआ है जो
अनिर्वचनीय
है।
शक्तिपात का
अर्थ है, ऊपर
से शक्ति आ
जाए। आ सकती
है। रोज आती
है। और किसी
ऐसे व्यक्ति
के माध्यम को
ले सकती है वह
शक्ति जो सब
भांति शून्य
हो। तो वह
कंडक्टर हो
जाता है, और
कुछ भी नहीं।
लेकिन अगर
अहंकार थोड़ा
भी है इतना भी
कि मैं कर
दूंगा शक्तिपात,
तो नॉन—कंडक्टर
हो गया वह
आदमी, उससे
शक्ति नहीं
प्रवाहित
होगी।
खड़े
होकर प्रयोग
करने से गति
तीव्रतम:
सुबह
के लिए और
सांझ के लिए
दो सूचनाएं
खयाल में ले
लें। कल आखिरी
दिन है, और
बहुत कुछ संभव
हो सकता है।
और बहुत
संभावनाओं से
भरकर ही कल
सुबह प्रयोग
करना है।
एक
तो,
जिन लोगों
को कुछ भी हो
रहा है, कल
सुबह वे खड़े
होकर प्रयोग
करेंगे।
जिनको कुछ भी
हो रहा है, जिनको
थोड़ा भी शरीर
में कहीं भी
कुछ हो रहा है,
कल वे सुबह
खड़े होकर
प्रयोग
करेंगे, क्योंकि
खड़े होकर
तीव्रतम गति
संभव होती है।
यह आपको पता न
होगा कि
महावीर ने
सारा ध्यान खड़े
होकर किया।
खड़ी हालत में
तीव्रतम
प्रवाह होता
है। मैं आपको
इसलिए अब तक
खड़े होने के
लिए नहीं कहा
कि आप बैठे की
ही हिम्मत नहीं
जुटा पाते तो
खड़े की हिम्मत
कैसे जुटा पाएंगे।
खड़े होने पर
बहुत जोर से
शक्ति का आघात
होता है। तो
वह जो मैं कह
रहा हूं कि
नाच उठ सकते
हैं, बिलकुल
पागल होकर नाच
सकते हैं, वह
खड़े होने में
संभव हो जाता
है।
तो
कल चूंकि
आखिरी दिन है, और
कुछ दस—पच्चीस
मित्रों को तो
बहुत गहराई
हुई है, तो
वे तो कल खड़े
हो जाएं। मैं
नाम नहीं
लूंगा, अपने
आप आप खड़े हो
जाएं। और शुरू
से ही खड़े
होकर करना है।
कुछ लोग, जिनको
बीच में लगेगा,
वे भी खड़े
हो जाएंगे। और
खड़े होकर जो
भी होता हो, होने देना
है।
और
दोपहर के लिए, कल
दोपहर के मौन
में जब हम बैठेंगे,
तो मेरे पास
थोड़ी ज्यादा
जगह छोड़ना। और
मेरे पास जो
लोग भी आएंगे,
जब मैं उनके
सिर पर हाथ
रखूं तब उनको
जो भी हो, तब
उन्हें उसमें
भी होने देना
है। अगर उनके
मुंह से चीख
निकल जाए, हाथ—पैर
हिलने लगें, वे गिर पड़े, खड़े हो जाएं;
उन्हें जो
भी हो वह होने
देना है। जो
हम सुबह ध्यान
में कर रहे
हैं, वह
दोपहर के मौन
में, जो
मुझसे मिलने
आएंगे, मेरे
हाथ रखने पर
उनको जो कुछ
भी हो, उन्हें
हो जाने देना
है। इसलिए
मेरे पास थोड़ी
कल दोपहर
ज्यादा जगह छोड्कर
बैठेंगे।
और
सुबह, जिनको
भी हिम्मत हो
उनको खड़े होकर
ही सुबह का
प्रयोग करना
है। मेरे आने
के पहले ही आप
चुपचाप खड़े
रहें। कोई
सहारा लेकर
खड़ा नहीं होगा,
कि आप कोई
वृक्ष से
टिककर खड़े हो
जाएं, कोई
सहारा लेकर
खड़ा नहीं होगा,
सीधे आप खड़े
रहेंगे।
शक्तिपात की
बात आपने पूछी
है। खड़ी हालत
में बहुत
लोगों को शक्तिपात
की स्थिति हो
सकती है। और
वातावरण बना
है,
उसका पूरा
उपयोग किया जा
सकता है। तो
कल, चूंकि
आखिरी दिन
होगा शिविर का,
कल पूरी
शक्ति लगा
देनी है।
इस
प्रयोग का
शारीरिक व
मानसिक परिणाम:
प्रश्न:
ओशो जो तीन
चरण अभी आपने
कहे उनका बॉडी
के ऊपर हार्ट
के ऊपर नर्वस
सिस्टम और
ब्रेन के ऊपर
फिजिकल और मेटल
क्या असर होता
है?
बहुत से
असर पड़ते हैं।
प्रश्न:
हार्टफेल
तो नहीं हो
जाएगा?
हार्टफेल हो
जाए तो मजा ही
आ जाए, फिर
क्या है! वही
तो फेल नहीं
होता, उसे
हो जाने दें।
हो जाने दें, हार्ट फेल
हो जाए, फिर
तो मजा ही है, फिर क्या है।
उसको बचाए फिरिका,
फिर होगा तो
फेल। मत बचाइए,
हो जाने
दीजिए। और
इतना तो आनंद
रहेगा कि
भगवान के
रास्ते पर हुआ।
उतना काफी है।
वे
मित्र पूछते
हैं कि क्या—क्या
परिणाम होंगे?
बहुत, परिणाम
तो बहुत होंगे।
ध्यान के, जिस
प्रयोग को मैं
कह रहा हूं
ध्यान, उससे
शरीर पर बहुत फिजियोलाजिकल
परिणाम होंगे।
शरीर की बहुत
सी बीमारियां
विदा हो सकती
हैं, शरीर
की उम्र बढ़
सकती है, केमिकल
बहुत
परिवर्तन
होंगे। शरीर
में बहुत सी
ग्रंथियां
हैं जो करीब—करीब
मृतप्राय पड़ी
रहती हैं, वे
सब सक्रिय हो
सकती हैं।
जैसे
हमें खयाल
नहीं है, अभी
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, फिजियोलाजिस्ट
भी कहते हैं, कि क्रोध
में शरीर में
विशेष तरह के
विष छूट जाते
हैं। लेकिन
अभी तक
मनोवैज्ञानिक
और
फिजियोलाजिस्ट
यह नहीं बता
पाते कि प्रेम
में क्या होता
है। क्रोध में
तो विशेष प्रकार
के केमिकल
शरीर में छूट
जाते हैं, विष
छूट जाते हैं।
सारा शरीर
विषाक्त हो
जाता है।
प्रेम में भी
अमृत छूटता है।
लेकिन चूंकि
मुश्किल से
कभी छूटता है,
इसलिए
फिजियोलाजिस्ट
की लेबोरेटरी
में अभी वह
आदमी नहीं
पहुंचा, इसलिए
उसे पता नहीं
चल पाता।
अगर
ध्यान का पूरा
परिणाम हो, तो
शरीर में जैसे
क्रोध में विष
छूटता है, ऐसे
प्रेम के अमृत
रस छूटने शुरू
हो जाते हैं।
केमिकल
परिणाम और भी
गहरे होते हैं।
जैसे कि जो
लोग भी ध्यान
में थोड़े गहरे
उतरते हैं
उन्हें अदभुत
रंग दिखाई
पड़ते हैं
अदभुत सुगंधें
मालूम पड़ने
लगती हैं, अदभुत
ध्वनियां
सुनाई पड़ने
लगती हैं, प्रकाश
की धाराएं
बहने लगती हैं,
नाद सुनाई
पड़ने लगते हैं।
ये सबके सब
केमिकल
परिणाम हैं।
ऐसे रंग जो
आपने कभी नहीं
देखे, दिखाई
पड़ने लगते हैं।
शरीर की पूरी
केमिस्ट्री
बदलती है।
शरीर और ढंग
से देखना, सोचना,
पहचानना
शुरू कर देता
है। शरीर के
भीतर बहनेवाली
विद्युत— धारा
की सारी
धाराएं बदल
जाती हैं। उन
विद्युत—
धाराओं के
सारे सर्किट
बदल जाते हैं।
बहुत
कुछ होता है
शरीर के भीतर।
मानसिक तल पर
भी बहुत कुछ
होता है।
लेकिन वह
विस्तार की
बात है। वे जो
मित्र पूछते
हैं,
उनसे कभी
अलग से बात कर
लूंगा। बहुत
कुछ
संभावनाएं
हैं।
गहरी
श्वास का
रासायनिक
प्रभाव:
प्रश्न:
ओशो डीप
ब्रीदिंग का
ब्रेन के ऊपर
और नर्वस सिस्टम
के ऊपर क्या
असर पडता
है?
जैसे ही
शरीर में डीप
ब्रीदिंग
शुरू करेंगे
तो कार्बन डाइआक्साइड
और आक्सीजन की
मात्राओं का
जो अनुपात है, वह
बदल जाएगा। जो
मात्रा हमारे
भीतर कार्बन डाइआक्साइड
की है और
आक्सीजन की है,
उसका
अनुपात
बदलेगा सबसे
पहले। और जैसे
ही कार्बन डाइआक्साइड
का अनुपात
बदलता है वैसे
ही सारे
मस्तिष्क और
सारे शरीर और
खून और
स्नायुओं में,
सब में
परिवर्तन
शुरू हो जाएगा।
क्योंकि
हमारे
व्यक्तित्व
का सारा आधार
आक्सीजन और
कार्बन डाइआक्साइड
के विशेष
अनुपात हैं।
उनके अनुपात
में परिवर्तन
सारा
परिवर्तन ले आएगा।
तो
इसीलिए मैंने
कहा कि वह अलग
से आप आ जाएं, वह
तो टेक्यिकल
बात है, उस
सबको उसमें
कोई रस नहीं
भी हो सकता, तो आपसे बात
कर लूंगा।
ध्यान
का प्रयोग और
आत्म—सम्मोहन:
और
एक मित्र ने
इधर पूछा है
कि ओशो यह जो
ध्यान की बात
है?
यह कहीं आटो—
हिमोसिस
आत्म— सम्मोहन
तो नहीं? आत्म—सम्मोहन
से बहुत दूर
तक मेल है, आखिरी
बिंदु पर
रास्ता अलग हो
जाता है।
हिप्नोसिस से
बहुत दूर तक
संबंध है।
सारे तीनों
चरण
हिप्नोसिस के
हैं, सिर्फ
साक्षी— भाव
हिप्नोसिस का
नहीं है। वह
जो पीछे पूरे
समय विटनेसिंग
चाहिए—कि मैं जान
रहा हूं देख
रहा हूं कि
श्वास आई और
गई; मैं
जान रहा हूं
देख रहा हूं
कि शरीर कंपित
हो रहा है, घूम
रहा है। मैं
जान रहा हूं
देख रहा हूं—यह
जो भाव है, वह
सम्मोहन का
नहीं है। वही
फर्क है। और
वह बहुत
बुनियादी
फर्क है। बाकी
तो सारा
सम्मोहन की
प्रक्रिया है।
सम्मोहन
की प्रक्रिया
बड़ी कीमती है, अगर
वह साक्षी—
भाव से जुड़
जाए तो ध्यान
बन जाती है; और अगर
साक्षी— भाव
से अलग हो जाए
तो मूर्च्छा
बन जाती है।
अगर सिर्फ हिम्मोसिस
का उपयोग करें
तो बेहोश हो
जाएंगे; अगर
साक्षी— भाव
का भी साथ में
उपयोग करें, तो जाग्रत
हो जाएंगे।
फर्क दोनों
में बहुत है, लेकिन
रास्ता बहुत
दूर तक एक सा
है, आखिरी
बिंदु पर अलग
हो जाता है।
और कुछ
प्रश्न रह गए, वह
कल रात हम बात
कर लेंगे।
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