(रुक
जाएं और एक
क्षण को किसी
भी क्षण को, जागने का
क्षण बना लें
और क्या हो
रहा है। आप
साक्षी रह जाए
सिर्फ।)
भगवान
श्री मृत्यु
में भी जागे
रहने के लिए
या ध्यान में
सचेतन मृत्यु
की घटना को
सफलतापूर्वक
आयोजित करने
के लिए शरीर—
प्रणाली
श्वास—
प्रणाली
श्वास की
स्थिति
प्राणों की
स्थिति ब्रह्मचर्य
मनशक्ति आदि
के संबंध में
क्या— क्या
तैयारियां
साधक की होनी
चाहिए इस पर
सविस्तार
प्रकाश डालने
की कृपा करें।
मृत्यु
में जागे हुए
रहने के लिए
सबसे पहली
तैयारी दुख
में जागे रहने
की करनी पडती
है। साधारणत:
जो दुख में ही
मूर्च्छित हो
जाता है, उसकी
मृत्यु में
जागे रहने की
संभावना नहीं
है। और दुख
में मूर्च्छित
होने का क्या
अर्थ है, यह
समझ लेना
जरूरी है। तो
दुख में जागे
रहने का अर्थ
भी समझ में आ
जाएगा।
जब
भी हम दुख में
होते हैं तो
मूर्च्छित
होने का अर्थ
होता है, दुख
के साथ
आइडेंटिफिकेशन,
दुख के साथ
तादात्म्य।
जब आपका सिर
दुखता है, तो
ऐसा नहीं लगता
है कि सिर
कहीं दुख रहा
है और आप जान
रहे हैं। ऐसा
लगता है कि
मैं ही दुख
रहा हूं।
जब
आप को बुखार
होता है और
शरीर उत्तप्त
होता है, तब
ऐसा नहीं लगता
है कि कहीं
दूर शरीर गर्म
हो गया है।
ऐसा लगने लगता
है कि मैं ही
गर्म हो गया
हूं। यह है
आइडेंटिफिकेशन,
यह है
तादात्म्य।
जब पैर में
चोट लगती है
और घाव हो
जाता है, तो
पैर में चोट लगी
है और घाव हो
गया है, ऐसा
नहीं मालूम
पड़ता है। मुझे
चोट लगी है और
घाव हो गया है,
ऐसा मालूम
पड़ता है।
असल
में शरीर के
साथ हमारा कोई
फासला नहीं, कोई
डिस्टेंस
नहीं। शरीर के
साथ हम एक ही
होकर जीते हैं।
जब भूख लगती
है, तो हम
ऐसा नहीं कहते
कि शरीर को
भूख लगी है और
मुझे पता चल
रहा है। हम
ऐसा ही कहते
हैं कि मुझे
भूख लगी है।
सचाई यह नहीं
है। सचाई यह
है कि शरीर को
भूख लगी है और
मुझे पता चल
रहा है। मैं
तो बोध का
बिंदु हूं।
मुझे तो
निरंतर पता चल
रहा है। पैर
में कांटा गड़ा
है तो मुझे
पता चल रहा है,
सिर में
दर्द है तो
मुझे पता चल
रहा है, पेट
में भूख है तो
मुझे पता चल
रहा है। मैं
तो चेतना हूं
जिसे पता चल
रहा है। मैं
भोक्ता नहीं हूं, सिर्फ
ज्ञाता हूं।
यह तो सत्य है।
लेकिन
हमारी जो
मनःस्थिति है
वह ज्ञाता की
नहीं, भोक्ता
की है। जब
ज्ञाता
भोक्ता बन
जाता है, जब
वह जानता ही
नहीं, बल्कि
किया के साथ
एक हो जाता है,
जब वह दूर
साक्षी नहीं
रहता, भागीदार
बन जाता है, तब
आइडेंटिफिकेशन
हो जाता है।
तब वह एक हो
जाता है। यह
एक हो जाना ही
जागने नहीं
देता।
क्योंकि
जागने के लिए
दूरी चाहिए, डिस्टेंस
चाहिए, स्पेस
चाहिए।
अगर
मैं आपको देख
पा रहा हूं तो
इसीलिए कि आपके
और मेरे बीच
में दूरी है।
अगर मेरे और
आपके बीच की
पूरी दूरी अलग
कर दी जाए, तो
मैं आपको देख
नहीं पाऊंगा।
आपको देख पाता
हूं,
क्योंकि मेरे
और आपके बीच
में जगह है, स्पेस है।
अगर बीच का
सारा स्थान
अलग कर दिया
जाए, तो
फिर मैं आपको
देख न पाऊंगा।
इसीलिए तो
मेरी आंखें
आपको देख लेती
हैं, लेकिन
खुद मेरी ही आंखों
को मेरी आंखें
नहीं देख
पातीं। अगर
मुझे स्वयं को
भी देखना है, तो एक दर्पण
में दूसरा
बनना पड़ता है
और अपने से
फासला पैदा
करना पड़ता है
तब देख पाता
हूं। दर्पण का
मतलब है कि
मेरा चित्र अब
मेरे से फासले
पर है और अब
मैं उसे देख
लूंगा। दर्पण
कुछ भी नहीं
करता, दर्पण
सिर्फ इतना
करता है कि
आपके चित्र को
आपसे दूरी पर
उपस्थित कर
देता है। दूरी
पर उपस्थित
होने की वजह
से बीच में
स्पेस हो जाती
है और आप देख
लेते हैं।
दर्शन
के लिए दूरी
जरूरी है। और
जो व्यक्ति
अपने शरीर के
साथ एक ही
होकर जी रहा
है या जो समझ
रहा है कि मैं
शरीर ही हूं,
उसके और शरीर
के बीच में
कोई दूरी नहीं
रह जाती।
एक
मुसलमान फकीर
हुआ फरीद। और
एक दिन सुबह
एक आदमी ने
आकर उससे यही
बात पूछी जो
तुम मुझसे पूछ
रहो हो। उस
आदमी ने फरीद
से आकर कहा कि
मैंने सुना है
कि जीसस को जब
सूली लगी तब
वे रोए नहीं, चिल्लाए
नहीं, दुखी
नहीं हुए। और
मैंने यह भी
सुना है कि जब
मैसूर के हाथ—पैर
काटे गए तो
मंसूर हंस रहा
था। यह कैसे
हो सकता है? यह असंभव है!
फरीद
कुछ भी नहीं
बोला, हंसता
रहा। और पास
में पड़े हुए
एक नारियल को
जो भक्त उसके पास
चढा जाते थे, उसने उस
आदमी को दिया
और कहा कि तू
जरा इस नारियल
को ले जा, यह
कच्चा नारियल
है तो इसे
तोड़कर ले आ।
और ध्यान रखना,
गिरी न टूट
पाए। ऊपर की
खोल अलग कर
देना और गिरी
को साबित ले
आना।
उस
आदमी ने कहा, यह
न हो सकेगा।
क्योंकि
कच्चा है
नारियल, गिरी
और उसकी खोल
के बीच फासला
नहीं है। मैं
उसकी खोल को
तोडूगा, भीतर
की गिरी टूट
जाएगी।
फरीद
ने कहा, फिर
इसको छोड़ दे।
यह दूसरा
नारियल है, इसको ले जा।
यह सूखा
नारियल है।
इसकी गिरी में
और खोल में
फासला है।
क्या तू वायदा
करता है कि
इसकी खोल को
तोड़ लाएगा, गिरी को
साबित बचा
लेगा?
उस
आदमी ने कहा, यह
कौन सी कठिन
बात है। मैं
खोल को तोड़े
लाता हूं,
गिरी साबित बच
जाएगी। फरीद
ने पूछा, लेकिन
बात क्या है, इसकी गिरी
क्यों बच
जाएगी साबित?
उसने कहा, नारियल सूखा
हुआ है। गिरी
और खोल के बीच
फासला है।
फरीद ने कहा, अब तोड्ने
की फिक्र न कर।
इस नारियल को
भी यहीं रख दे।
तुझे अपना
जबाब मिल गया
कि नहीं मिल
गया?
उस
आदमी ने कहा, मैं
कुछ पूछ रहा
था और आप कहा
नारियल की
बातों में
मुझे उलझा
दिये। मैं
पूछता हूं कि
जीसस को जब
सूली लगी तो
जीसस चिल्लाए
क्यों नहीं, रोए क्यों
नहीं? और
जब मैसूर के
हाथ—पैर काटे
गए तो मैसूर
तड़फा क्यों
नहीं? हंसा
क्यों, मुस्कुराया
क्यों?
फरीद
ने कहा कि वे
सूखे नारियल
थे और हम गीले
नारियल हैं, इससे
ज्यादा और कोई
कारण नहीं है।
और जीसस को जब
सूली दी जा
रही थी तो
जीसस को नहीं
दी जा रही थी।
जीसस देख रहे
थे कि शरीर को
सूली दी जा
रही है और
देखने में वे
उतने ही फासले
पर थे, जितना
जीसस के बाहर
खड़े हुए लोग
फासले पर थे।
जैसा बाहर खड़ा
हुआ कोई आदमी
नहीं
चिल्लाया, कोई
आदमी नहीं
रोया कि मुझे
मत मारो।
क्यों? क्योंकि
जीसस के शरीर
से उन देखने
वालों का फासला
था। जीसस का
भी—जो भीतर
देखने वाला
तत्व है —उसका
और जीसस के
शरीर का फासला
था। इसलिए
जीसस भी नहीं
चिल्लाए कि मुझे
मत मारो।
मैसूर
के हाथ —पैर
काटे गए और
मैसूर हंसता
रहा। और जब
किसी ने पूछा
कि तुम हंस
क्यों रहे हो? तुम्हारे
हाथ—पैर काटे
जा रहे हैं! तो
मैसूर ने कहा,
अगर मुझे कांटा
जाता तो मैं
रोता। लेकिन
मुझे नहीं कांटा
जा रहा है। और
जिसे तुम काट
रहे हो
नासमझों, वह
मैं नहीं हूं।
और मैं तुम पर
इसलिए हंस रहा
हूं कि जब तुम
मेरे शरीर को
मंसूर समझकर
काट रहे हो, तो तुम दुखी
होकर ही मरोगे,
क्योंकि
तुम अपने शरीर
को भी स्वयं
ही समझते रहोगे
कि तुम वही हो।
तुम मेरे साथ
जो कर रहे हो, वह तुम्हारी
अपने साथ की
गई गलती की ही
पुनरुक्ति है।
अगर तुम्हें
पता चल गया
होता कि तुम
शरीर से अलग
हो, तो
शायद तुम मेरे
शरीर को काटने
की कोशिश न करते।
क्योंकि तुम
जानते कि मैं
तो कुछ और हूं?
शरीर कुछ और
है; और
शरीर को काटने
से मंसूर नहीं
कटता।
तो
सबसे बड़ी
तैयारी
मृत्यु में
जागे हुए प्रवेश
करने की, दुख
में जागे हुए
प्रवेश करना
है। क्योंकि
मृत्यु तो बार—बार
नहीं आती, रोज
नहीं आती।
मृत्यु तो एक
बार आएगी। आप
तैयार होंगे
तो तैयार
होंगे, नहीं
तैयार होंगे
तो नहीं तैयार
होंगे।
मृत्यु का कोई
रिहर्सल नहीं
हो सकता। उसकी
कोई पूर्व
अभिनय की
तैयारी नहीं
हो सकती। लेकिन
दुख रोज आता
है, पीड़ा
रोज आती है।
पीड़ा और दुख
में हम तैयारी
कर सकते हैं।
और ध्यान रहे,
अगर पीड़ा और
दुख में
तैयारी हो गई
तो मृत्यु में
वह तैयारी काम
आ जाएगी।
इसलिए
दुख को सदा ही
साधक ने
स्वागत से
स्वीकार किया
है। उसका और
कोई कारण नहीं
है। उसका कारण
यह नहीं है कि
दुख शुभ है।
उसका कारण
सिर्फ यह है
कि दुख उसे
अवसर बनता है, स्वयं
को साधने का।
इसलिए साधक ने
सदा ही दुख के
लिए परमात्मा
को धन्यवाद ही
दिया है।
क्योंकि दुख
के क्षणों में
वह अपने शरीर
से दूर होने
के लिए एक
अवसर पाता है,
एक मौका
पाता है।
और
ध्यान रहे, सुख
के क्षण में
यह साधना जरा
मुश्किल है, दुख के क्षण
में जरा आसान
है। क्योंकि
सुख के क्षण
में तो हमारा
मन ही नहीं करता
है कि शरीर से
जरा भी दूर हो
जाएं। शरीर तो
सुख के क्षण
में बहुत
प्यारा मालूम
पड़ता है। शरीर
से तो सुख के
क्षण में मन
होता है कि हम
शरीर से इंच
भर के फासले
पर भी न हों!
सुख के क्षण
में हम शरीर
के बहुत निकट
सरक आते हैं।
इसलिए सुख का
खोजी अगर शरीर
वादी हो जाता
है तो कुछ
आश्चर्य नहीं
है। और निरंतर
सुख की खोज
में लगा हुआ
व्यक्ति अगर
अपने को शरीर
ही समझने लगता
है तो भी कोई
आश्चर्य नहीं
है। क्योंकि
सुख के क्षण
में वह सूखे
नारियल की जगह
गीला नारियल
होने लगता है।
फासला कम होने
लगता है।
दुख
के क्षण में
तो मन होता है
कि हम शरीर न
होते तो अच्छा
है। जब सिर
में दर्द होता
है और जब पैर
में चोट होती
है और शरीर
दुखता है, तो
साधारणत: जो
आदमी अपने को
शरीर ही मानता
है, वह भी
एक क्षण सोच
लेता है कि हम
शरीर न होते
तो अच्छा। यह
जो फकीर
दुनिया भर के
कहते रहे हैं अगर
ठीक होता तो
अच्छा कि हम
शरीर न होते।
उस वक्त उसका
मन भी तैयार
होता है कि
किसी तरह यह
पता चल जाए कि
मैं शरीर नहीं
हूं। इसलिए
दुख का क्षण
साधना का क्षण
बन सकता है, बनाया जा
सकता है।
लेकिन
हम क्या करते
हैं?
साधारणत: हम
दुख के क्षण
में दुख को भूलने
की कोशिश करते
हैं। एक आदमी
को तकलीफ है
तो शराब पी
लेगा। एक आदमी
को दुख है तो
सिनेमा में
जाकर बैठ जाएगा।
एक आदमी को
दुख है तो भजन—कीर्तन
करके भुलाने
की कोशिश करने
लगेगा। ये अलग—
अलग तरकीबें
हैं। कोई शराब
पीता है, कहना
चाहिए कि यह
एक तरकीब है।
कोई सिनेमा
देखता
है, तो
यह दूसरी
तरकीब है। कोई
जाकर संगीत
सुनने बैठ
जाता है, यह
तीसरी तरकीब
है। कोई झांझ—मंजीरा
पीटकर भजन में
लीन हो जाता
है, यह
चौथी तरकीब है।
हजार तरकीबें
हो सकती हैं; धार्मिक हो
सकती हैं, अधार्मिक
हो सकती हैं, सेक्यूलर हो
सकती हैं, रिलीजस
हो सकती हैं।
यह सवाल बड़ा
नहीं है।
लेकिन भीतर
बुनियादी बात
एक ही है कि
आदमी अपने दुख
को भूलना चाह
रहा है।
फारगेटफुलनेस
की कोशिश में
लगा है।
विस्मरण हो
जाए।
और
जो आदमी दुख
को विस्मरण
करेगा, वह
आदमी दुख के
प्रति जाग
नहीं सकता।
क्योंकि जिस
चीज को हम
भुला देते हैं,
उसके प्रति
जागेंगे कैसे।
जाग सकते 'हैं
उस चीज के
प्रति, जिसके
प्रति हमारा
दृष्टिकोण
रिमेंबरिंग का
है, स्मरण
का है।
इसलिए
दुख के प्रति
स्मरण ही दुख
को जगाता है।
जब आप दुख में
हों,
तो इसको एक
अवसर समझें।
और अपने दुख
के प्रति पूरी
स्मृति से भर
जाएं। बड़े
अदभुत अनुभव
होंगे। जब आप
दुख के प्रति
पूरी स्मृति
से भरेंगे और दुख
को देखेंगे, भागेंगे
नहीं दुख से।
जैसे, पैर
में दर्द है, चोट लग गई है,
गिर गए हैं
आप। तब आख बंद
करके जरा भीतर
दर्द को खोजने
की कोशिश करें
कि वह कहां है।
उसे पिन
स्काइट, उसे
ठीक एक जगह
पकड़ने की
कोशिश करें कि
वह दर्द है
कहां।
क्योंकि आप
बड़े हैरान
होंगे कि
जितनी जगह दर्द
होता है, उससे
बहुत ज्यादा
बड़ी जगह में
आप उसे फैला
लेते हैं।
उतनी जगह होता
नहीं।
आदमी
अपने दुख को
बहुत एक्जेगरेट
करता है। आदमी
अपने दुख को
बहुत अतिशय
मान लेता है।
आदमी अपने दुख
को बहुत बढ़ा—चढ़ा
कर स्वीकार
करता, जितना
होता नहीं।
इसके पीछे भी
वही शरीर को
एक मानना कारण
है। दुख तो
होता है दीये
की तरह, जैसे
दीये की फ्लेम
होती है, लेकिन
अनुभव हम करते
हैं प्रकाश की
तरह। जैसे
दीये का
प्रकाश सब तरफ
फैल जाता है।
होता है दुख फ्लेम
की तरह, ज्योति
की तरह, एक
बहुत छोटी जगह
में, पर हम
अनुभव करते
हैं प्रकाश की
तरह बहुत दूर तक
फैला हुआ।
आदमी
अपने दुख को
बहुत एक्जेगरेट
करता है। आदमी
अपने दुख को
बहुत अतिशय
मान लेता है।
आदमी अपने दुख
को बहुत बढ़ा—चढ़ा
कर स्वीकार
करता है, जितना
होता नहीं।
इसके पीछे भी
वही शरीर को
एक मानना कारण
है। दुख तो
होता है दीये
की तरह, जैसे
दीये की फ्लेम
होती है, लेकिन
अनुभव हम करते
हैं प्रकाश की
तरह। जैसे
दीये का
प्रकाश सब तरफ
फैल जाता है।
होता है दुख
फ्लेम की तरह,
ज्योति की
तरह, एक
बहुत छोटी जगह
में, पर हम
अनुभव करते
हैं प्रकाश की
तरह बहुत दूर तक
फैला हुआ।
तो
जब आप अपने
दुख को आख बंद
करके भीतर से
खोजने की
कोशिश करेंगे।
और ध्यान रहे
हमने शरीर को, अपने
शरीर को भी
सदा बाहर से
ही जाना है, भीतर से
नहीं जाना है।
अगर हम अपने
शरीर को भी
जानते हैं, तो ऐसा जैसे
दूसरे जानते
हों। अगर
मैंने इस हाथ
को भी देखा है
कभी, तो
बाहर से ही
देखा है। इस
हाथ का भीतरी
हिस्सा भी है।
जैसे इस मकान
को मैं बाहर
से देखकर चला
जाऊं, तो
यह मकान का
बाहरी हिस्सा
है। इस मकान
की दीवालों का
भीतरी हिस्सा
भी है। दर्द
की घटना घटती
है भीतरी
हिस्सों पर।
दर्द का बिंदु
होता है भीतरी
हिस्सों पर।
और दर्द के
फैलाव का
विस्तार होता
है बाहरी हिस्सों
पर। दर्द की
ज्योति तो
होती है भीतर
और दर्द का प्रकाश
होता है बाहर।
चूंकि
हम अपने शरीर
को बाहर से ही
देखते रहे हैं, इसलिए
दर्द बहुत
फैला हुआ
मालूम पड़ता है।
शरीर को भीतर
से देखने की
चेष्टा बड़ी
अदभुत बात है।
आख बंद कर लें
और शरीर को
भीतर से फील
और एहसास करने
की कोशिश करें
कि शरीर भीतर
से कैसा है।
इस शरीर की
भीतरी दीवाल भी
है और इस शरीर
का भीतरी खोल
भी है। इस
शरीर का भीतरी
छोर भी है। उस
भीतरी छोर को
आख बंद करके
निश्चित ही
अनुभव किया जा
सकता है। आपने
अपने हाथ को
उठते हुए देखा
है। आख बंद
करके हाथ को
नीचे से ऊपर
तक ले जाएं, तब आप हाथ के
भीतर जो उठने
की किया हो
रही है, उसको
देख पाएंगे।
आपने भूख को
बाहर से अनुभव
किया है। आख
बंदकर लें और
भूख को भीतर
से अनुभव करें,
तब आप उसे
पहली दफे भीतर
से पकड़ पाएंगे।
शरीर
के दुख को
भीतर से पकड़ते
ही दो घटनाएं
घटती हैं। एक
तो जितना बड़ा
मालूम पड़ता था, उतना
बडा नहीं रह
जाता। तत्काल
छोटे —से
बिंदु पर
केंद्रित हो
जाता है। और
जितने जोर से
इस बिंदु पर
आप एकाग्रता
करेंगे, उतना
ही पाएंगे कि
यह बिंदु और
छोटा होता जा
रहा है, और
छोटा होता जा
रहा है, और
छोटा होता जा
रहा है। और एक
बड़े आश्चर्य
की घटना घटती
है। जब बिंदु
बहुत छोटा हो
जाता है, तो
अचानक आप पाते
हैं कि कभी वह
खो गया, कभी
दिखाई पड़ने
लगा, कभी
खो गया, कभी
दिखाई पड़ने
लगा। बीच में
गैप पड़ने शुरू
हो जाते हैं।
और जब वह खो जाता
है, तब आप
बहुत हैरान
होते हैं कि
दर्द अब कहां
है। वह कई दफा
मिस हो जाता
है। वह इतना
छोटा हो जाता
है बिंदु कि
कई बार चेतना
जब उसे खोजती
है, तो
पाती है कि
नहीं है।
जैसे
मूर्च्छा में
दर्द फैलता है, वैसे
चेतना में
दर्द सिकुड़ कर
छोटा हो जाता
है। एक तो यह अनुभव
होगा कि दर्द
हमने जितने
अनुभव किए, हमने जितने
दुख भोगे, उतने
दुख थे नहीं।
जितने दुख
हमने भोगे हैं,
उतने दुख थे
नहीं। हमने
दुखों को बहुत
बड़ा करके भोगा
है। ठीक यही
बात सुख के
संबंध में भी
सच है कि जितने
सुख हमने भोगे
हैं, वे भी
थे नहीं।
सुखों को भी
हमने बहुत बड़ा
करके भोगा है।
अगर
हम सुख को भी
स्मरणपूर्वक
भोगें, तो हम
पाएंगे कि वह
भी बहुत छोटा
हो जाता है।
अगर हम दुख को
भी
स्मरणपूर्वक
भोगें, तो
पाएंगे कि वह
भी बहुत छोटा
हो जाता है।
जितना होश हो,
उतना सुख और
दुख सिकुड़ कर
बहुत छोटे हो
जाते हैं।
इतने छोटे हो जाते
हैं कि बहुत
गहरे अर्थों
में मीनिगलेस
हो जाते हैं।
असल में उनका
अर्थ उनके
विस्तार मै है।
वह पूरी
जिंदगी को
घेरे हुए
मालूम पड़ते
हैं, लेकिन
जब बहुत
बोधपूर्वक
उनको देखा जाए,
तो छोटे
होते —होते
इतने अर्थहीन
हो जाते हैं
कि जिंदगी से
उनका कुछ लेना—देना
नहीं रह जाता
है।
और
दूसरी जो घटना
घटेगी वह यह
कि जब आप दुख
को बहुत गौर
से देखेंगे, तो
आपके और दुख
के बीच एक
फासला पैदा हो
जाएगा, एक
डिस्टेंस
पैदा हो जाएगा।
असल में किसी
भी चीज को हम
देखें, तो
फासला पैदा
होता है।
दर्शन फासला
है। किसी भी
चीज को हम
देखें, तो
फासला बनना
तत्काल शुरू
हो जाता है।
अगर आप अपने
दुख को गौर से
देखेंगे, तो
आप पाएंगे कि
आप अलग हैं और
दुख अलग है।
क्योंकि
सिर्फ वही
देखा जा सकता
है जो अलग हो।
वह तो देखा ही
नहीं जा सकता
है जो एक हो।
तो
जो आदमी अपने
दुख के प्रति
सचेतन बोध से
भरता है, कांशसनेस
से भरता है, रिमेंबरिंग
से भरता है, वह अनुभव
करता है कि
दुख कहीं और
है, मैं
कहीं और हूं।
और जिस दिन यह
पता चलता है
कि दुख कहीं
और, और मैं
कहीं और हूं, मैं जान रहा
हूं और दुख
कहीं और घटित
हो रहा है, वैसे
ही दुख की
मूर्च्छा टूट
जाती है। और
जैसे ही यह
पता चलता है कि
शरीर के दुख
कहीं और घटित
होते हैं, सुख
भी कहीं और
घटित होते हैं,
हम सिर्फ
जानने वाले
हैं, वैसे
ही शरीर के
प्रति हमारा
जो
तादात्म्य, जो
आइडेंटिटी है,
वह टूट जाती
है। तब हम
जानते हैं कि
मैं शरीर नहीं
हूं।
यह
पहली तैयारी
है। अगर यह
तैयारी पूरी
हो गई तो
मृत्यु में
जागे हुए
प्रवेश करना
आसान है। आसान
क्या, हो ही
जाएगा।
क्योंकि
मृत्यु का डर
नहीं है हमारे
मन में। आखिर
डरने के लिए
भी मृत्यु को
जानना तो जरूरी
है। जिसे हम
जानते ही नहीं
हैं, उससे
डरेंगे कैसे।
मृत्यु का भय
नहीं है हमारे
मन में। हमारे
मन में मृत्यु
एक बहुत बड़ी
बीमारी की तरह
बैठी हुई है, हमारे खयाल
में। छोटी—छोटी
बीमारियां जब
इतनी तकलीफ दे
जाती हैं—पैर
दुखता है, इतनी
तकलीफ होती है,
और सिर
दुखता है, इतनी
तकलीफ होती है—तो
जब पूरा ही
शरीर दुखेगा
और टूटेगा, तो कितनी
तकलीफ होगी!
मृत्यु का जो
डर है हमारे
मन में, वह
बीमारियों का
जोड़ है। जब कि
मृत्यु कोई
बीमारी नहीं
है। मृत्यु का
बीमारी से कोई
लेना—देना
नहीं है।
मृत्यु का
बीमारी से कोई
संबंध नहीं है।
यह दूसरी बात
है कि
बीमारियां
उसके पहले
गुजरती हों, लेकिन कोई
कार्य —कारण
नहीं है। यह
दूसरी बात है
कि बीमारी के
बाद एक आदमी
मर जाता हो, लेकिन
बीमारी से कोई
मरता है, इस
गलती में पड़ने
की कोई जरूरत
नहीं है। सचाई
शायद उलटी है।
चूंकि
कोई आदमी मरने
के करीब पहुंच
जाता है, इसलिए
बीमारी को पकड़
लेता है।
बीमारी से कोई
नहीं मरता।
मरने की वजह
से बीमारियां
पकड़ना शुरू कर
देता है। मरना
करीब आ रहा है,
तो वह कमजोर
हो जाता है।
मौत करीब आ
रही है, तो
उसकी
बीमारियों को
पकड़ने की
रिसेप्टिविटी
बढ़ जाती है।
ग्राहक हो
जाता है वह, बीमारियों
को खोजने लगता
है। यही आदमी
अगर जिंदगी के
करीब होता, तो यही
बीमारी इसको
प्रभावित न कर
पाती। हो सकता
था, इसको
पकड़ भी न पाती।
क्या
आपको पता है
कि आपके मन के
क्षण होते हैं, जब
आप बीमारियों
के लिए ज्यादा
ग्रहणशील होते
हैं, और
ऐसे क्षण होते
हैं, जब आप
ग्रहणशील नहीं
होते? उदासी,
निराशा में
आदमी बीमारी
के प्रति
ग्रहणशील हो
जाता है। आशा
से भरा हुआ
आदमी बीमारी
के प्रति
अग्रहणशील हो
जाता है।
बीमारी भी
आपके बिना
स्वीकार किए
एकदम प्रवेश
नहीं कर पाती।
आपकी आंतरिक
स्वीकृति
चाहिए।
इसलिए
जिनके चित्त
सुसाइडल हैं, जिनके
चित्त
आत्मघाती हैं,
उनको कितनी
ही औषधियां दी
जाएं, उनको
स्वस्थ नहीं
किया जा सकता।
क्योंकि
औषधियों को
उनका चित्त
ग्रहण नहीं करता
और बीमारियों
की उनका चित्त
खोज करता है।
निमंत्रण दे
आता है
बीमारियों को
कि आओ और औषधियों
के लिए बहुत
सख्त दरवाजे
बंद कर लेता
है।
नहीं, बीमारी
के कारण कोई
भी कभी नहीं
मरता है। मरने
के कारण
बीमारी के
प्रति
ग्रहणशील हो
जाता है।
इसलिए बीमारी
पहले घटती है
और मौत पीछे
आती है। तो
हमने सोच रखा
है कि जो पहले
घटता है, वह
होता है कॉज़
और जो पीछे
आता है, वह
होता है
इफैक्ट।
इसलिए गलती हो
रही है। कॉज
बीमारी नहीं
है, कॉज़
मौत ही है।
कारण मौत ही
है, बीमारी
तो सिर्फ
इफैक्ट है।
मृत्यु
का डर हमारे
मन में बीमारी
का डर है। हम
सारी
बीमारियों को
जोड़कर मृत्यु
के डर को निर्मित
करते हैं—एक।
दूसरा, हमने
जितने लोगों
को मरते देखा
है, उन
सबको हमने
मरते नहीं
देखा, हमने
सिर्फ बीमार
होते देखा।
मरते तो हम
किसी को देख
भी कैसे सकते
हैं?
मरने
की घटना तो
अत्यंत आंतरिक
है। उसमें कोई
भी गवाह नहीं
हो सकता। अगर
आप कभी गवाही
दें कि मैंने
फलां आदमी को
मरते देखा, तो
थोड़ा सोच कर
देना।
क्योंकि मरते
देखना बहुत मुश्किल
मामला है। आज
तक पृथ्वी पर
यह हुआ नहीं।
किसी ने किसी
को मरते देखा
नहीं। इतना ही
देखा है कि
आदमी बीमार
हुआ, बीमार
हुआ, बीमार
हुआ, और
पता चला कि अब
जीता नहीं है।
पर मरता हुआ
किसी ने नहीं
देखा कि वह अब
मर गया। किस
क्षण में मर
गया। और मरने
की प्रक्रिया
में क्या हुआ,
हमें कुछ
पता नहीं।
हमने
सिर्फ जीवन से
छूटते देखा है।
हमने एक नाव
को दूसरे तट
से लगते नहीं
देखा। सिर्फ
एक तट से
छूटते देखा है।
हमने जीवन के
तट से एक
चेतना को हटते
देखा है। और
एक सीमा के
बाद वह चेतना
हमें दिखाई
नहीं पड़ती। और
वह जो शरीर रह
जाता है हमारे
हाथ में, वह
वैसा नहीं रह
जाता जैसा कल
तक जीवित था।
तो हम सोचते
हैं, मर
गया। मरना एक
अनुमान है, इनफरेंस है।
वह एक घटना
नहीं है, जो
प्रत्यक्ष
हुई हो।
अब
यह जो हमने
सबमें बीमारी
देखी है, मरते
समय एक आदमी
की पीड़ा देखी
है, उसके
हाथ—पैर का
सिकुड़ना देखा
है, उसकी आंखों
का चढ़ना देखा
है, उसके
चेहरे का
विकृत होना
देखा है, उसके
शरीर की तड़पन
देखी है, उसके
होंठों का बंद
हो जाना देखा
है, उसके दांतों
का भिंच जाना
देखा है, देखा
है कि शायद वह
कुछ कहना
चाहता था, नहीं
कह पाता है, वह सब हमने
देखा है। उस
सबका जोड़ है
हमारे पास। वह
हमारे
कलेक्टिव
माइंड का
हिस्सा हो गया
है। हजारों—लाखों
वर्ष में हमने
मरता हुआ जो
कुछ होता है, वह सब
इकट्ठा कर
लिया है। उसी
से हम भयभीत
हैं।
हम
भी भयभीत हैं
कि मैं जब मरूंगा
तो यही सब
मुसीबतें
होंगी। और
इसलिए आदमी ने
बड़ी होशियारी
की तरकीबें निकाली
हैं। उसने
मृत्यु के
तथ्य को जीवन
के विचार के
बाहर कर दिया
है। मरघट हम
गांव के बाहर
इसीलिए बनाते
हैं कि उसकी
हमें बार—बार
याद न आए, अन्यथा
होना चाहिए
गांव के बीच
में। क्योंकि
जीवन में
जितनी
सर्टेंटी मौत
की है, उतनी
और किसी चीज
की है नहीं।
बाकी सब चीजें
अनिश्चित हैं।
हो भी सकती
हैं, न भी
हों। एक ही
चीज निश्चित
है जिसके बाबत
भरोसा किया जा
सकता है, वह
है मौत। जो
सबसे जदा
सटेंन है, जिस
पर डाउट नहीं
खड़ा किया जा
सकता है।
ईश्वर
पर संदेह किया
जा सकता है, आत्मा
पर संदेह किया
जा सकता है, जीवन पर
संदेह किया जा
सकता है, लेकिन
मृत्यु पर
संदेह करने का
कोई उपाय नहीं
है, वह है।
जो एकदम
सुनिश्चित है,
उसे हमने
गांव के बाहर
किया हुआ है।
अगर रास्ते से
कोई अर्थी
निकलती हो, तो मां अपने
बेटों को भीतर
बुला लेती है
कि भीतर आ जाओ,
कोई मर गया
है। जब कोई मर
गया हो तब
सबको बाहर ले
आना चाहिए, क्योंकि
जीवन का एक
बड़े से बड़ा
तथ्य बाहर से
गुजर रहा है।
यह सबकी
जिंदगी से
गुजरेगा। इसे
झुठलाने की
कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन
हम इतने भयभीत
हैं मौत से कि
वह बात ही नहीं
उठनी चाहिए।
मैंने
सुना है कि एक
संन्यासी के
पास एक की औरत
मिलने आई और
वह स्त्री
उनसे बात करने
लगी और कहने
लगी,
आत्मा तो
निश्चित ही
अमर है।
के
लोग अक्सर
आत्मा की
अमरता की
बातें करने लगते
हैं। मरने के
डर के कारण, और
कोई कारण नहीं
होता। बूढ़ा
आदमी अक्सर
मंदिर, मस्जिद,
गिरजे में
जाने लगता है।
मौत के डर के
कारण, और
कोई कारण नहीं
होता। मंदिर,
मस्जिद, गिरजों
में वृद्धों
की संख्या का
और कोई कारण नहीं
है कि वहां
वृद्ध ही
क्यों इकट्ठे
होते हैं, युवा
क्यों नहीं
जाते, बच्चे
क्यों उत्सुक
नहीं हैं। अभी
जरा देर है इनकी
मौत की खबर
इनको मिलने
में। अभी जरा
वक्त है। अभी
ये मौत को
झुठला सकते
हैं, भुला
सकते हैं।
लेकिन बूढ़ा
आदमी कैसे
भुलाए। अब उसे
रोज खबर मिलने
लगी है। कभी
पैर चलने से
इनकार करता है,
कभी आख
देखने से
इनकार करती है,
कभी कान
सुनने से
इनकार करता है।
सब तरफ से
खबरें मिलने
लगी हैं कि एक—एक
अंग मौत के
हाथ में जाता
हुआ मालूम
पड़ता है। अब
वह चर्च की
तरफ, मंदिर
की तरफ, मस्जिद
की तरफ जाने
लगा है। उसे
कोई ईश्वर से
मतलब नहीं है।
वह इतना पक्का
भरोसा वहां
करने जा रहा
है कि जिसको
मैंने अब तक
जीवन समझा, वह तो खतम
होता है, मैं
तो खतम नहीं
हो जाऊंगा!
यह
बड़े आश्चर्य
की बात है कि
आत्मा को अमर
मानने वाली
कौमें जितनी
मौत से डरती
हैं,
उतनी आत्मा
को अमर न
मानने वाली
कौमें नहीं डरती।
हमारा मुल्क
है, हजारों
—लाखों साल से
आत्मा की
अमरता मान रहे
हैं। हमसे
ज्यादा कायर और
हमसे ज्यादा
मरे हुए लोग
दुनिया में
नहीं हैं। एक
हजार साल तक
गुलामी झेलता
है वह मुल्क, जो कहता है
आत्मा अमर है।
जो मुल्क कहता
है, आत्मा
अमर है, और
उसके पास
चालीस करोड़
आत्माएं हों,
वह तीन करोड़
आत्माओं के
हाथ में
गुलामी भोग सकता
है? जब कि
आत्मा अमर है,
जो मर ही
नहीं सकती!
उसको क्या
गुलामी का डर
है और क्या
उसको लड़ने का
भय है? उसको
फांसी की क्या
घबराहट है!
उसे बंदूकें
और तोपें क्या
डरा सकती हैं?
नहीं, लेकिन
बात कुछ और है।
यह आत्मा की
अमरता को
मानना, आत्मा
की अमरता को
जानना नहीं है।
यह मानना तो
भय को ही
मिटाने की, झुठलाने की
तरकीब है।
जैसे गांव के
बाहर कब बनायी,
ऐसे ही
आत्मा की
अमरता के
सिद्धात को
रोज सुबह पोथी
खोलकर पढ़ लेते
हैं। ताकि
पक्का भरोसा
रहे कि मरना
नहीं है, ताकि
मन में आशा
बनी रहे कि
नहीं, जीएंगे!
कोई फिक्र
नहीं, शरीर
तो मर जाएगा, लेकिन फिर
भी हम तो जीएंगे।
और आप कौन हैं,
जो शरीर के
अलावा हैं? उसका कोई भी
पता नहीं है।
और कहते हैं
कि मैं तो
जीऊंगा, शरीर
चाहे मर जाए।
और शरीर के
अलावा आपको
पता ही नहीं
कि आप कौन हैं।
कौन जीएगा? शरीर के
अलावा अगर
सोचेंगे कि
मैं कौन हूं
तो पता चलेगा
कि कुछ भी पता
नहीं चलता है।
शरीर ही हूं।
तो
उस बूढ़ी औरत
ने उस
संन्यासी के
पास आकर कहा कि
मैं तो आत्मा
को अमर मानती
हूं। आत्मा
निश्चित ही
अमर है। आप
क्या कहते हैं? उस
संन्यासी ने
आत्मा की
अमरता की बात
तो न की। उसने
बूढ़ी की तरफ
देखा और कहा, तेरा जरा
हाथ देखें।
उसका हाथ अपने
हाथ में ले
लिया और कहा
कि मरने के
बाबत क्या
खयाल है? ज्यादा
देर नहीं है।
उस बूढ़ी औरत
ने कहा, कैसी
अपशकुन की
बातें करते
हैं। ऐसी
बातें मत
कीजिए। ऐसी
बातें कहीं की
जाती हैं? और
संन्यासी
होकर, इतने
भले आदमी होकर
ऐसी अपशकुन की
बातें करते हैं!
उस संन्यासी
ने कहा, जब
आत्मा अमर है,
तो मरना
अपशकुन कैसे
हो सकता है? अपशकुन तभी
तक हो सकता है
मरना, जब
तक आत्मा अमर
न हो। लेकिन
उस स्त्री ने
कहा, छोड़िए!
और दूसरी
बातें कीजिए।
परमात्मा की
बातें कीजिए,
मोक्ष की
बातें कीजिए।
मैं आपके पास
ये बातें
सुनने नहीं आई
हूं।
असल
में संन्यासी
के पास कोई
सुनने ही उन
बातों को जाता
है,
जो उसके भय
को, उसके
फियर को किसी
तरह का सहारा
मिल जाए। उसके
भयों को किसी
तरह के आधार
मिल जाएं। और
कोई उसे बता
दे कि नहीं, तुम मरोगे
नहीं। कोई उसे
बता दे कि तुम
पापी नहीं हो,
आत्मा तो
नित्य शुद्ध—बुद्ध
है। चोरी करते
हों—कोई चोर
नहीं है।
ब्लैक
मार्केट करते
हो—कोई ब्लैक
मार्केट नहीं
है। क्योंकि
आत्मा कहीं
ब्लैक
मार्केट कर
सकती है?
इसलिए
सब ब्लैक
मार्केट
करनेवाले उन
संन्यासियों
के आस—पास
इकट्ठे हो
जाएंगे, जो
कहेंगे कि
आत्मा शुद्ध—बुद्ध
है, निरंतर
से शुद्ध है, वह कभी
अशुद्ध होती
ही नहीं। और
उनके सामने
बैठा हुआ आदमी
जो कि सब
जमाने की चोरी
कर रहा है, वह
सिर हिला कर
कह रहा है, बिलकुल
ठीक कह रहे
हैं महाराज!
सत्य वचन
महाराज! वह यह
मानना ही
चाहता है। वह
यह मानना
चाहता है कि
कोई उसे भरोसा
दिला दे कि
आत्मा बिलकुल
शुद्ध है, तो
शुद्ध होने की
झंझट भी मिटी,
अशुद्ध
होने की फिक्र
भी मिटी, भय
भी मिटा।
यह
जो सारी की
सारी हमारी
मनोदशा है, यह
मनोदशा जिस
मूल तथ्य पर
खड़ी है, उसे
हम ठीक से समझ
लें। मृत्यु
से हम भयभीत
नहीं हैं, बीमारी
से भयभीत हैं।
और जिसे हम
जीवन समझते
हैं, उसके
छूटने से हम
भयभीत हैं।
इस
मकान के बाहर
आप मुझे धक्का
देते हैं।
मुझे पता नहीं
कि मकान के
बाहर और बड़ा
महल है, जंगल
है, वीरान
है, मरुस्थल
है—क्या है? मुझे कुछ
पता नहीं।
जरूरी नहीं है
कि इस मकान के
बाहर पहुंचकर
मैं दुखी ही
हो जाऊंगा या
सुखी ही हो
जाऊंगा। मुझे
कुछ पता नहीं
है। अननोन है,
अज्ञात है,
दरवाजे के
बाहर जो है।
लेकिन फिर भी
इस मकान को
छोड़ने का डर
तो मुझे दुख
देता ही है।
यह सुनिश्चित
था, ज्ञात
था, परिचित
था। इस परिचित
को छोड्कर
अपरिचित में
जाने में डर
लगता है। वह
डर अपरिचित का
डर नहीं है, क्योंकि
अपरिचित का तो
मुझे पता ही
नहीं है। वह
डर सिर्फ
परिचित को
छोड़ने का डर
है।
और
आप हैरान
होंगे कि यहां
तक हमारा मन
परिचित के साथ
ग्रस्त होता
है कि परिचित
बीमारी तक को
छोड़ने में
मुश्किल हो
जाती है।
परिचित दुख को
भी छोड़ना
मुश्किल पड़ता
है। अधिकतर
डाक्टर आपकी
बीमारी को
शायद ही ठीक
करते हों, सिर्फ
आपको बीमारी
छोड़ने के लिए
राजी करते हैं।
अधिकतम दवाएं
आपकी बीमारी
को कुछ भी
नहीं करतीं, सिर्फ आपकी
बीमारी को
छोड़ने का साहस
आपको देती हैं।
अभी
एक बहुत बड़े
वैज्ञानिक ने
बहुत से
प्रयोग किए
हैं। और वह
प्रयोग यह है
कि अगर बीस
मरीज हैं एक
ही बीमारी के
तो दस मरीजों
को सिर्फ पानी
दिया जा रहा
है और दस
मरीजों को दवा
दी जा रही है।
और बड़े मजे की
बात है कि
पानी वाले भी
सात ठीक हो
जाते हैं और
दवा वाले भी
सात ठीक हो
जाते हैं।
तो
मतलब क्या हुआ? अगर
पानी वाले भी
सात ठीक हो
जाते हैं और
दवा वाले भी
सात ठीक हो
जाते हैं, तो
मतलब क्या
होता है? मतलब
सिर्फ इतना
होता है कि
सवाल न दवा का
है, न पानी
का है, बड़ा
सवाल उस आदमी
को बीमारी
छोड़ने के लिए
राजी करने का
है। अगर पानी
राजी कर लेता
है, तो
उससे भी ठीक
हो जाता है।
अगर
होम्योपैथी
की शक्कर की
गोली राजी कर
लेती है तो
उससे भी ठीक
हो जाता है।
अगर ताबीज
राजी कर देता
है तो उससे भी
ठीक हो जाता
है। अगर फकीर
की राख पर
भरोसा आ जाए
तो उससे भी
ठीक हो जाता
है। गंगा माई
का पानी भी
ठीक कर देता है।
सब चीजें ठीक
करती हैं।
अरस्तू
जैसे बहुत
बुद्धिमान
आदमी ने भी
ऐसी दवाइयां
सुझायी हैं कि
आज हंसी आती
है। और अरस्तू
तो कहना चाहिए
तर्कशास्त्र
का पिता था।
उसने न मालूम
कैसी—कैसी
दवाइयां
सुझायी हैं।
लेकिन अरस्तू
सुझा नहीं
सकता अगर वे
काम न करती
रही हों। वे
दवाएं काम
करती थीं।
उसने लिखा है
कि किसी
स्त्री को अगर
बच्चा पैदा
होते वक्त
दर्द हो रहा
है,
तो उसके पेट
पर घोड़े की
लीद बांध दो।
दर्द बिलकुल
ठीक हो जाएगा।
अरस्तु जैसा
होशियार और बुद्धिमान
आदमी कहता है
कि पेट पर
घोड़े की लीद
बांधने से उस
स्त्री के पेट
का दर्द ठीक
हो सकता है।
लेकिन दर्द
ठीक होता रहा।
दर्द
इसलिए ठीक
होता रहा कि
स्त्री के पेट
में असल में
दर्द होता ही
नहीं, सिर्फ
स्त्री ही वह
दर्द पैदा
करती है बच्चे
पैदा करते
वक्त। जितना
स्त्री अपने
बच्चे पैदा
होने से भयभीत
होती है, उतना
दर्द होता
जाता है। और
जितना भयभीत
होती है कि
दर्द होगा, उतना वह
अपने पूरे के
पूरे यंत्र को
सिकोड़ती है।
बच्चा उसके
यंत्र के बाहर
जा रहा है, शरीर
के बाहर, और
वह अपने यंत्र
को सिकोड़ रही
है। दोनों के
बीच में
कांफ्लिक्ट
पैदा हो जाती
है।
काफ्लिक्ट
दर्द ले आती
है।
इसलिए
अधिकतर
बच्चों को रात
में जन्म लेना
पड़ता है—सत्तर
प्रतिशत
बच्चों को—क्योंकि
दिन में मां
लेने नहीं
देती जन्म। वह
दिन में तो
होश से संभाले
रखती है। वह
रोकती है। तो
रात में जन्म
लेना पड़ता है।
जब मां सोई
होती है, जब
उसको पता नहीं
होता, तब
बच्चे जन्म लेते
हैं। इसलिए
सत्तर
प्रतिशत
बच्चे बेचारे
प्रकाश में
पैदा नहीं हो
पाते, अंधेरे
में पैदा होना
पड़ता है।
अभी
एक आदमी है
लावेन। वह
स्त्रियों को
सिखाता है कि
तुम कोआपरेट
करो। जब
तुम्हारा
बच्चा हो रहा
है,
तब तुम
सहयोगी बन जाओ।
और उसने
हजारों
स्त्रियों को
बिना किसी
दर्द के बच्चे
पैदा करवा
दिये हैं। न
लीद बांधता है,
न इंजेक्शन
लगाता है, न
ताबीज बांधता
है, न गुरु
का प्रसाद
लाता है, कुछ
भी नहीं करता।
सिर्फ स्त्री
को राजी करता
है कि कोआपरेट
करो। यह जो
बच्चा पैदा हो
रहा है इसको
रोको मत, इसके
साथ सहयोगी हो
जाओ। और पूरे
मन से इसको
जन्म देने की
भावना से भर
जाओ। बस काफी
है, दर्द —वर्द
नहीं होगा।
जंगली
जातियों में
सैकड़ों
जातियां हैं,
जिनकी
स्त्रियों को
कोई दर्द नहीं
होता। खेत में
काम करती
रहेगी वह
स्त्री और
बच्चा हो
जाएगा। वह
बच्चे को
टोकरी में
रखकर वापिस
खेत में काम
करने लगेगी।
आदमी
अपनी
बीमारियां तक, जो
परिचित हैं, उनको भी
नहीं छोड़ता, उनको भी जोर
से पकड़ता है।
जंजीरों तक का
आग्रह पैदा हो
जाता है।
फ्रेंच
क्रांति में, वहां
उनके मुल्क
में एक बड़े
कारागृह में,
जहां
उन्होंने बड़े
खतरनाक कैदी
रखे हुए थे, ऐसे कैदी जो
आजीवन कैदी
रहेंगे और
जिनके हाथ की
जंजीर कभी
खुलेगी नहीं।
वह जंजीर सदा
के लिए बंधी
है। जब वे मर
जाएंगे, तभी
जंजीर निकाल
दी जाएगी। फ्रांस
के
क्रांतिकारियों
ने उस कारागृह
की दीवालें
तोड़ दीं और
बंद कोठरियों
से उन लोगों
को बाहर
निकाला, जिन्होंने
बाहर निकलने
के सब खयाल
छोड़ दिए थे।
कोई
बीस साल से
बंद था, कोई
तीस साल से
बंद था, और
कोई पचास साल
से भी बंद था।
उनकी आंखें
करीब—करीब
अंधी हो गई
थीं और उनके
हाथ और पैर की
जंजीरें करीब—करीब
उनके शरीर का
हिस्सा हो गई
थीं। उनको
शरीर से अलग
नहीं कहा जा
सकता था।
उनमें कोई
स्पेस नहीं
रही थी। पचास
साल जिस आदमी
के हाथ में
जंजीर रही हो,
आप समझते
हैं उसको वह
अलग रह जाती
है? वह
उसके हाथ का
हिस्सा हो
जाती है। वह
यह भूल ही
जाता है कि यह
अलग है। वह
उसकी भी उसी
तरह साज—संभाल
करता है, जैसे
अपने हाथ की
करता है। अगर
उस जंजीर पर
कचरा लग जाए, तो उसको भी
साफ करता है, जैसे हाथ पर
से करता है।
रोज सुबह उठकर
जंजीर की भी
सफाई करता है,
चमकाता है,
जैसे अपने
शरीर को
चमकाता है। और
जो जिंदगी भर
साथ रहनी है, बात ही खतम
हो गई।
जब
उन कैदियों की
क्रांतिकारियों
ने जंजीरें
तोड़ी, तो
उनमें से अनेक
कैदियों ने
इनकार कर दिया
कि आप यह क्या
कर रहे हैं? हमें बाहर
अच्छा नहीं
लगेगा। लेकिन क्रांतिकारी
जिद्दी होते
हैं। और अभी
तक क्रांतिकारियो
को बुद्धि
नहीं आई
दुनिया में कि
आदमी के साथ
जिद्द से कुछ.
भी नहीं किया
जा सकता। वह
फिर नई तरह की
जंजीरें डाल
लेगा, अगर
जबर्दस्ती
तोड़ दोगे तुम।
उन्होंने
उनकी जंजीरें
जबर्दस्ती
तोड़ दीं और कैदियों
को जेलखाने के
बाहर कर दिया।
यह
इतनी आश्चर्य
की घटना है कि
सांझ होते —होते
आधे से अधिक
कैदी वापस लौट
आए। और
उन्होंने कहा
कि बाहर हमें
अच्छा नहीं
लगता और बिना
जंजीरों के तो
हमें ऐसा लगता
है कि जैसे हम
नंगे घूम रहे
हैं। स्वभावत:, जिस
स्त्री ने
बहुत—से सोने
के गहने पहने
हों, उसके
गहने उतार लें,
तो उसको
लगेगा, वह
नग्न घूम रही
है, शरीर
में वजन ही
नहीं है। ऐसा
लगेगा कि उसके
पास कुछ है
नहीं, शरीर
में कुछ कमी
हो गई।
उन्होंने कहा,
हमारी
जंजीरें हमें
वापस दे दो, हम दोपहर को
सो भी नहीं
सके, क्योंकि
उन जंजीरों के
बिना सो कैसे
सकते हैं।
नींद
में उनकी आवाज
भी उनके मन का
हिस्सा हो गई।
करवट लेते
वक्त उनका बोझ
भी उनके मन का
हिस्सा हो गया।
आदमी परिचित
से ऐसा बंध
जाता है कि
जंजीर तक तोड्ने
में मन दुखता
है। तो परिचित
जिसको हमने
जीवन समझा है, उसकी
गिरफ्त में
हैं। उस
गिरफ्त के
कारण हम मौत
से भयभीत हैं।
मौत का हमें
कोई पता नहीं
है। और जागने
के लिए पहला
सूत्र, दुख
के प्रति बोध
है। ताकि शरीर
का अलगाव पता
चल सके और
ज्ञात हो सके
कि मैं भिन्न
हूं —एक। और
दूसरी बात है,
जीवन में
साक्षी होने
की सामर्थ्य,
विटनेसिंग
की सामर्थ्य।
हमें
खयाल ही नहीं
है। हमें खयाल
ही नहीं है कि
कभी रास्ते पर
चलते हुए बीच
बाजार में
एकदम से झटका
दें और दो
मिनट के लिए
खड़े हो जाएं
और सिर्फ
देखें और कुछ
न करें। सिर्फ
साक्षी हो
जाएं। तो उस
सड़क पर जब आप
साक्षी होकर
खड़े हो जाएंगे, तो
अचानक आप उस
सड़क की दुनिया
से टूट जाएंगे
और बाहर हो
जाएंगे। जिस
चीज के आप
साक्षी होते
हैं, उससे
तत्काल
ट्रांसेंड कर
जाते हैं, उसके
बाहर हो जाते
हैं।
लेकिन
सड़क पर खड़ा
होना और
साक्षी होना
तो बहुत
मुश्किल है।
फिल्म देखने
हम जाते हैं, वहां
तक साक्षी
नहीं रहते।
फिल्म में एक
आदमी है.......।
सिनेमा हाल
में अंधेरा
होता है, इससे
बड़ी सुविधा
होती है। कोई
रो रहा है और
अपने आंसू
पोंछ रहा है।
अगर सिनेमा
हाल से निकले
हुए लोगों के
रूमालों की
जांच की जाए, तो पता
चलेगा कि क्या—क्या
वहां हो गया, कितने लोग
रोए। अब हम
भलीभांति
जानते हैं कि
पर्दे पर कुछ
भी नहीं है, सिर्फ पर्दा
है। और यह भी
हम भलीभांति
जानते हैं कि
जो दिखाई पड़
रहा है वह
सिर्फ दिखाई
पड़ रहा है।
वहां कुछ है
नहीं। वह
सिर्फ
विद्युत की
छाया और धूप
का खेल है। वह
सिर्फ पीछे से
फेंकी गई
किरणों का जाल
है। वह सिवाय
चित्रों के और
कुछ भी नहीं
है।
लेकिन
नहीं, सब कुछ
हो जाता है उस
पर्दे पर। और
हम उस पर्दे
के भी साक्षी
नहीं रह जाते।
हम भी उस
पर्दे में
हिस्सेदार हो
जाते हैं। इस
भ्रांति में
मत रहना आप कि
जब आप फिल्म
देखते हैं,
तो आप देखने
वाले होते हैं।
इस भूल में मत
रहना। आप भी
हिस्सेदार
होते हैं, भागीदार
होते हैं, पाटासिपेंट
होते हैं। आप
फिल्म के बाहर
नहीं रह जाते।
टाकीज के भीतर
होने के थोड़ी
देर बाद आप
फिल्म के भी
भीतर हो जाते
हैं। कोई आपको
पसंद पड़ने
लगता है, कोई
नापसंद पड़ने
लगता है। किसी
की कथा आपके
हृदय को दुख
देने लगती है।
और किसी की
बात आपके हृदय
को सुख देने
लगती है। और
आप थोड़ी देर
में
आइडेंटीफाइड
हो जाते हैं।
आप हिस्सेदार
हो जाते हैं।
फिल्म
में भी हम
साक्षी नहीं
रह पाते हैं, तो
जिंदगी में
साक्षी रहना
कठिन पड़ेगा।
वैसे जिंदगी
भी फिल्म से
बहुत ज्यादा
नहीं है। और
अगर बहुत गहरे
में देखें, तो जिंदगी
भी पर्दे से
बहुत ज्यादा
नहीं है। और
अगर बहुत गहरे
में देखें तो
जिस भांति किरणों
का जाल फिल्म
के पर्दे पर
प्रकट होता है,
उसी तरह
विद्युत का
जाल जिंदगी
में भी प्रकट
हुआ है। यह सब
भी सघन
विद्युत का
जाल है। यह सब
भी
इलेक्ट्रांस
का बड़ा खेल है।
अगर
आपके शरीर को
सब तरह से तोड़—फोड़
कर पता लगाया
जाए,
तो आखिर में
सिवाय
विद्युत कण के
और कुछ मिलता
नहीं। अगर इस
दीवाल को तोड़ —फोड़
कर आखिरी इसको
बनाने वाला
तत्व खोजा जाए,
तो विद्युत
के सिवाय कुछ
बचता नहीं। तो
बहुत फर्क
क्या है? फिल्म
के पर्दे में
और इसमें फर्क
क्या है।
फिल्म के
पर्दे पर भी
विद्युत के
कणों का खेल है।
ही, वह
जरा टू
डाइमेंशनल है,
तो यह श्री
डाइमेंशनल हो
गया। उसमें
ऐसी कोई बहुत
तकलीफ नहीं है।
उसमें और कुछ
डाइमेंशस की
कमी है, तो
वह पूरी हो
जाएगी। जिस
भांति आप
दिखाई पड़ रहे
हैं मुझे, ठीक
इसी भांति
किसी दिन
फिल्म के
पर्दे पर भी
दिखाई पड़
सकेंगे। और
इसमें भी क्या
बहुत देर, अड़चन
लगेगी कि
फिल्म के
पर्दे से एक
ऐक्टर उतर कर
हाल में घूम
जाए। इसमें
बहुत देर नहीं
लगेगी।
टेकनीक के
विकास की थोड़ी—सी
बात है, इसमें
बहुत ज्यादा
अड़चन नहीं है।
क्योंकि जब थी
डाइमेंशनल
आदमी पर्दे पर
घूम सकता है, तो थोड़ा दस
फुट पर्दे के
नीचे उतरकर
घूम जाए, यह
सिर्फ
टेक्योलाजी
के थोड़े —से
विकास की बात
है। और आपसे
जरा हाथ मिला
जाए और एक
फिल्म अभिनेत्री
नीचे उतरकर और
आपको जरा
थपथपा जाए, इसमें बहुत
कठिनाई नहीं
है। अभी उलटा
हो रहा है।
फिल्म अभिनेत्री
नहीं आती
पर्दे से, आप
ही पर्दे के
भीतर चले जाते
हैं और थपथपा
आते हैं। इस
कष्ट से आपको
बचाया जा
सकेगा। इतनी
मेहनत आपसे
करवानी उचित
नहीं है। पैसा
भी दें और
इतनी यात्रा
भी करें। आप
कुर्सी पर ही
बैठे रहें।
बाकी
जिंदगी में भी
क्या है! जब
मैं आपके हाथ
को अपने हाथ
में लेता हूं,
तो क्या घटता
है? जब मैं
आपके हाथ को
अपने हाथ में
लेकर दबाता हूं
तो आप कहते
हैं, बहुत
प्रेम किया जा
रहा है या
बहुत दुश्मनी
की जा रही है।
व्याख्याओं
की बात है।
हाथ दोनों में
दबाए जाते हैं।
सिर्फ
इटरप्रिटेशस
का फर्क है।
और कहना
मुश्किल है कि
जब हाथ दबाया
जा रहा है, तो
एक सेकेंड के
भीतर दोनों
बातें भी हो
सकती हैं कि
दबाते वक्त
शुरू किया गया
था प्रेम से और
आखिर में
दुश्मनी से
अलग किया गया।
इसमें बहुत
कठिनाई नहीं
है। एक क्षण
में इतना सब
बदलता है। जब
मैं आपका हाथ
दबा रहा हूं
तो आप कहते
हैं प्रेम कर
रहा हूं।
लेकिन हो क्या
रहा है? वस्तुत:
क्या हो रहा
है? अगर
हमारे दोनों
हाथों की जांच
की जाए तो हो क्या
रहा है? विद्युत
के कुछ कण
विद्युत के
दूसरे कणों पर
दबाव डाल रहे
हैं।
और
मजे की बात यह
है कि आपका और
मेरा हाथ कभी
भी स्पर्श
नहीं कर पाते
हैं। बीच में फासला
बना ही रह
जाता है।
स्पेस बनी ही
रह जाती है।
कम हो जाती है।
दूर होती तो
दिखाई पड़ती है, कम
होने लगती है
तो दिखाई नहीं
पड़ती है। बहुत
कम हो जाती है
तो दिखाई नहीं
पड़ती। जब दो
हाथ एक—दूसरे
को दबा रहे
हैं, तब भी
दोनों हाथ के
बीच में खाली
जगह होती है।
उसी खाली जगह
पर दबाव पड़ता
है। आपके हाथ
पर दबाव नहीं
पड़ता है। उस
खाली जगह का
दबाव आपके हाथ
पर पड़ता है।
खाली जगह के
दबाव को प्रेम
और दुश्मनी
समझी जा रही
है।
व्याख्याएं
हैं। अगर इसको
हम साक्षी की
तरह देख सकें
तो बड़ी अदभुत
घटना घटती है।
जब कोई आपका
हाथ दबा रहा
है,
तो जल्दी से
एकदम प्रेम और
दुश्मनी मत
देखें। सिर्फ
हाथ के दबाने
के साक्षी हो
जाएं। तो आप
अपनी चेतना
में एक आमूल
ट्रांसफामेंशन
पाएंगे। और जब
कोई आपके ओंठ
पर ओंठ रख रहा
है, तब आप
एक क्षण को
प्रेम
इत्यादि को
भूल जाएं और
एक क्षण को
सिर्फ साक्षी
हो जाएं। तो
आपकी चेतना
में एक अजीब
ही अनुभव होगा
जो आपको कभी
नहीं हुआ। तब
हो सकता है, आप अपने ऊपर
हंस सकें। जब
तक हम दूसरों
पर हंसते हैं,
तब तक हम
साक्षी नहीं
हैं। जिस दिन
हम अपने पर
हंस पाते हैं,
उस दिन हम
साक्षी हो
जाते हैं, उस
दिन हम साक्षी
होने लगते हैं।
इसलिए
सारी दुनिया
के लोग दूसरों
पर हंसते हैं।
संन्यासी
सिर्फ अपने पर
हंसता है। और
जो अपने पर
हंस सकता है, उसे
कुछ दिखाई
पड़ना शुरू हो
गया।
दूसरी
बात है, साक्षी
होना जीवन में,
कहीं भी, किसी भी
क्षण। भोजन कर
रहे हैं, तब
अचानक एक
सेकेंड के लिए
सिर्फ साक्षी
हो जाएं। हाथ
को भोजन उठाते
देखें। मुंह
को भोजन चबाते
देखें। पेट
में भोजन को
जाते देखें।
दूर खड़े हो
जाएं और सिर्फ
देखने लगें।
तब अचानक आप
पाएंगे कि
स्वाद खो गया।
तब अचानक आप
पाएंगे कि
अर्थ और ही हो
गया। तब अचानक
आप पाएंगे कि
भोजन यह आप
नहीं कर रहे हैं,
आप देख रहे
हैं और भोजन
किया जा रहा
है।
एक
बहुत अदभुत
कहानी है।
कहानी है कि
कृष्ण के गांव
के बाहर एक
संन्यासी का
आगमन हुआ।
बरसा के दिन
थे। नदी पूर
पर थी। संन्यासी
उस पार था।
गांव की
स्त्रियां
जाने लगीं
भोजन कराने, तो
राह में
उन्होंने
कृष्ण से पूछा
कि कैसे हम
नदी पार करें!
भारी है पूर, नाव अब लगती
नहीं।
संन्यासी
भूखा है। दो —चार
दिन हो गए।
खबरें भर आती
हैं। उस पार
खड़ा है। उस
पार तो घना
जंगल है। भोजन
पहुंचाना
जरूरी है। कोई
तरकीब बताओ कि
कैसे हम नदी
पार करें।
तो
कृष्ण ने कहा
कि तुम जाकर
नदी से कहना
कि अगर
संन्यासी ने
जीवन में कभी
भी भोजन न
किया हो, सदा
उपवासा रहा हो,
तो नदी राह
दे दे। कृष्ण
ने कहा था तो
स्त्रियों ने
मान लिया। वे
गईं और
उन्होंने नदी
से कहा कि हे
नदी, राह
दे दे। अगर
संन्यासी
जीवन भर का
उपवासा है, तो हम भोजन
लेकर उस पार
चली जाएं।
कहानी
कहती है कि
नदी ने राह दे
दी। नदी को
पार करके उन
स्त्रियों ने
संन्यासी को
भोजन कराया।
वे जितना भोजन
लाई थीं वह
बहुत ज्यादा
था। लेकिन
संन्यासी
सारा भोजन खा
गया। अब जब वे
लौटने लगीं, तब
अचानक उन्हें
खयाल आया कि
हमने लौटने की
कुंजी तो पूछी
नहीं। अब
मुश्किल में
पड़ गए।
क्योंकि तब तो
कह दिया था
नदी से कि अगर
संन्यासी
जीवन भर का
उपवासा हो!
मगर अब तो किस
मुंह से कहें
कि संन्यासी
जीवन भर का
उपवासा हो!
उपवासा कहना
तो मुश्किल है,
भोजन भी
साधारण करने
वाला नहीं है।
सारा भोजन कर
गया है। जो भी
वे लाई थीं, वह सब साफ कर
गया है। वे
बिलकुल खाली
हाथ हैं। उस
संन्यासी ने
उन्हें मनाने
की भी तकलीफ न
दी कि वे
दोबारा उससे
कहें कि और ले
लो, और ले
लो। और बचा ही
नहीं है। अब
वे बहुत घबरा
गई हैं।
उस
संन्यासी ने
पूछा कि क्यों
इतनी परेशान
हो,
बात क्या है?
तो
उन्होंने कहा,
हम बड़ी
मुश्किल में
पड़ गए हैं, हम
सिर्फ आने की
कुंजी लेकर आए
थे, लौटने
की कुंजी हमें
पता नहीं।
संन्यासी ने
पूछा, आने
की कुंजी क्या
थी? उन्होंने
कहा, कृष्ण
ने कहा था कि
नदी पार करना
तो नदी से कहना
कि राह दे दो
अगर संन्यासी
उपवासा हो। उस
संन्यासी ने
कहा, तो
फिर इसमें
क्या बात है? यह कुंजी
फिर भी काम
करेगी। जो
कुंजी ताला
बंद कर सकती
है, वह खोल
भी सकती है, जो खोल सकती
है, वह बंद
कर सकती है।
फिर उपयोग करो।
उन्होंने
कहा,
लेकिन अब
कैसे उपयोग
करें, आपने
भोजन कर लिया।
वह संन्यासी
खिलखिला कर
हंसा। उस नदी
के तट पर उसकी
हंसी बड़ी
अदभुत थी। वे
स्त्रियां
बहुत परेशानी
में पड़ गईं।
उन्होंने कहा,
आप हमारी
परेशानी पर
हंस रहे हैं।
उसने कहा, नहीं,
मैं अपने पर
हंस रहा हूं।
तुम फिर से
कहो, नदी
मेरी हंसी समझ
गई होगी। तुम
फिर से कहो।
और
उन स्त्रियों
ने बड़े डर, बड़े
संकोच और बड़े
संदेह से उस
नदी से कहा कि
अगर यह
संन्यासी
जीवन भर का
भूखा रहा हो......।
उनका मन ही कह
रहा था कि
बिलकुल गलत है
यह बात। लेकिन
नदी ने रास्ता
दे दिया। वे
तो बड़ी
मुश्किल में
पड़ गईं। लौटते
वक्त जितना
बड़ा चमत्कार
हुआ था, वह
जाते वक्त भी
नहीं हुआ था।
उन्होंने
कृष्ण से जाकर
कहा कि हद हो
गई। हम तो
सोचते थे, चमत्कार
तुमने किया है,
लेकिन
चमत्कार उस
संन्यासी ने
किया है। जाते
वक्त तो बात
ठीक थी, ठीक
है, हो गई।
लौटते वक्त भी
वही बात हमने
कही और नदी ने
रास्ता दे
दिया! तो
कृष्ण ने कहा
कि नदी रास्ता
देगी ही, क्योंकि
संन्यासी वही
है, जो
भोजन नहीं
करता है।
उन्होंने कहा,
लेकिन हमने
अपनी आंखों से
उसको भोजन
करते देखा है।
तो कृष्ण ने
कहा, जैसे
तुमने उसे
भोजन करते देखा
है, ऐसे ही
वह संन्यासी
भी अपने को
भोजन करते देख
रहा था। इसलिए
वह कर्ता नहीं
है।
यह
कहानी है।
किसी नदी के
साथ ऐसा करने
की कोशिश मत
करना। नहीं तो
नाहक किसी
संन्यासी को
फंसा देंगे आप।
कोई नदी
रास्ता देगी
नहीं।
लेकिन
बात यह ठीक ही
है। अगर हम
अपने को भी
अपनी क्रियाओं
में कर्ता की
तरह नहीं
द्रष्टा की तरह
देख पाएं—सारी
क्रियाओं में—तों
मरना भी एक
किया है और वह
आखिरी किया है।
और अगर तुम
जीवन की
क्रियाओं में
अपने को दूर रख
पाए,
तो मरते
वक्त भी तुम
अपने को दूर
रख पा सकते हो।
तब तुम देखोगे
कि मर रहा है
वही, जो कल
भोजन करता था;
मर रहा है
वही, कल जो
दुकान करता था;
मर रहा है
वही, जो कल
रास्ते पर
चलता था; मर
रहा है वही, जो कल लड़ता
था, झगड़ता
था, प्रेम
करता था। तब
तुम इस एक
क्रिया को और
देख पाओगे।
क्योंकि यह
मरने की
क्रिया है, वह प्रेम की
थी, वह
दुश्मनी की थी,
वह दूकान की
थी, वह
बाजार की थी।
यह भी एक
क्रिया है। अब
तुम देख पाओगे
कि मर रहा है
वही।
एक
मुसलमान फकीर
हुआ,
सरमद। सरमद
के जीवन में
एक बड़ी मीठी
घटना है। सरमद
पर, जैसा
कि सदा होता
है, उस
जमाने के
मौलवियों ने
एक मुकदमा
चलवाया।
पंडित सदा से
ही संत के विरोध
में रहा है।
सरमद पर एक
मुकदमा
चलवाया, सम्राट
के दरवाजे पर
सरमद को
बुलवाया गया।
मुसलमानों
में एक सूत्र
है। वह सूत्र
यह है कि एक ही
अल्लाह है और
कोई अल्लाह
नहीं उसके
सिवाय, और
एक ही पैगंबर
है उसका, मुहम्मद।
लेकिन सूफी
फकीर इसमें से
आधा हिस्सा
छोड़ देते हैं।
वे पहला
हिस्सा तो
कहते हैं कि
एक परमात्मा के
सिवाय और कोई
परमात्मा
नहीं है।
दूसरा हिस्सा
कि उसका एक ही
पैगंबर है मुहम्मद,
यह वे छोड़
देते हैं।
क्योंकि वे
कहते हैं कि
उसके बहुत
पैगंबर हैं।
इसलिए
सूफियों के
खिलाफ सदा से
ही. मुस्लिम थियोलाजी
जो है वह सदा
से सूफियों के
खिलाफ रही है।
सरमद तो और भी
खतरनाक था। वह
सूफियों के इस
पूरे सूत्र को
भी पूरा नहीं कहता
था। इसमें से
भी आधा उसने
छोड़ दिया था।
सूत्र है कि
एक ही
परमात्मा के
सिवाय कोई परमात्मा
नहीं। वह
सिर्फ इतना ही
कहता था, कोई
परमात्मा
नहीं— आखिरी
हिस्से को।
अब
यह तो हद हो गई।
मुहम्मद को
छोड़ दो चलेगा।
तब तक भी आदमी
नास्तिक नहीं
हो जाता।
सिर्फ इतना ही
है कि मुसलमान
नहीं रह जाता।
और मुसलमान न
रह जाने से
कोई धार्मिक
नहीं रह जाता, ऐसी
कोई बात नहीं
है। लेकिन इस
सरमद के साथ
क्या करोगे? यह कहता है, कोई
परमात्मा
नहीं।
तो
सरमद को दरबार
में ले जाया
गया। और
सम्राट ने
पूछा, सरमद, क्या तुम
ऐसी बात कहते
हो कि कोई
परमात्मा नहीं?
सरमद ने कहा,
कहता हूं।
और उसने जोर
से दरबार में
कहा, कोई
परमात्मा
नहीं। सम्राट
ने कहा, तुम
नास्तिक हो
क्या? उसने
कहा, नहीं,
मैं
नास्तिक नहीं
हूं। लेकिन
अभी तक मुझे
किसी
परमात्मा का
कोई पता नहीं
चला, तो
मैं कैसे कहूं।
जितना मुझे
पता चला है, उतना ही
कहता हूं। इस
सूत्र में
मुझे आधे का
ही पता है अभी
कि कोई
परमात्मा नहीं।
आधे का मुझे
कोई पता नहीं।
जिस दिन पता
हो जाएगा, उस
दिन कह दूंगा।
और जब तक पता
नहीं है, तब
तक झूठ कैसे
बोलूं! और
धार्मिक आदमी
झूठ तो नहीं
बोल सकता। बड़ी
मुश्किल खड़ी
हो गई। आखिर
उसको फांसी की
सजा दी गई। और
दिल्ली की
जामा मस्जिद
के सामने उसकी
गरदन काटी गई।
यह
कहानी नहीं है।
पहली बात
मैंने कही, कहानी
है। यह कहानी
नहीं है।
हजारों —लाखों
लोगों ने उस
भीड़ में उसकी फांसी
को देखा। उसकी
गरदन काटी गई
मस्जिद के
दरवाजे पर और
मस्जिद की
सीढ़ियों से
उसकी गरदन
नीचे गिरी और
उसके कटे हुए
सिर से आवाज
निकली, एक
ही परमात्मा
है, उसके
सिवाय कोई
परमात्मा
नहीं।
तो
जो लाखों लोग
भीड़ में उसके
प्यार करने
वाले खड़े थे, उन्होंने
कहा, पागल
सरमद, अगर
इतनी ही बात
पहले कह दी
होती! पर सरमद
ने कहा, जब
तक गरदन न कटे,
तब तक उसका
पता कैसे चले।
जब पता चला, तब मैं कहता
हूं कि परमात्मा
है, उसके
सिवाय कोई
परमात्मा
नहीं। लेकिन
जब तक मुझे
पता नहीं था, तब तक मैं
कैसे कह सकता
था।
कुछ
सत्य हैं जो
हमें गुजर कर
ही पता चलते
हैं। मृत्यु
का सत्य तो
हमें मृत्यु
से गुजर कर ही पता
चलेगा। लेकिन
उसका पता चल
सके,
इसकी
तैयारी हमें
जिंदगी में ही
करनी पड़ेगी।
मरने की
तैयारी भी
जिंदगी में
करनी पड़ती है।
और जो आदमी
जिंदगी में
मरने की
तैयारी नहीं कर
पाता, वह
बड़े गलत ढंग
से मरता है।
और गलत ढंग से
जीना तो माफ
किया जा सकता
है, गलत
ढंग से मरना
कभी माफ नहीं
किया जा सकता।
क्योंकि वह
चरम बिंदु है,
वह
अल्टीमेट है,
वह आखिरी है,
वह जिंदगी
का सार है, निष्कर्ष
है। अगर
जिंदगी में
छोटी —मोटी
भूलें यहां —वहा
की हों तो चल
सकता है, लेकिन
आखिरी क्षण
में तो भूल
सदा के लिए
थिर और स्थायी
हो जाएगी।
और
मजा यह है कि
जिंदगी की
भूलों के लिए
पश्चात्ताप
किया जा सकता
है और जिंदगी
की भूलों के लिए
माफी मांगी जा
सकती है और
जिंदगी की
भूलों को
सुधारा जा
सकता है, लेकिन
मौत के बाद तो
सुधारने का
उपाय नहीं रहता
और भूल का
पश्चात्ताप
भी नहीं रहता,
रिपेंटेंस
भी नहीं कर
सकते, क्षमा
भी नहीं मांग
सकते, सुधार
भी नहीं कर
सकते। वह तो
आखिरी सील लग
जाती है।
इसलिए गलत ढंग
से जिंदगी माफ
भी कर दी जाए, गलत ढंग से
मरना माफ नहीं
किया जा सकता।
और
ध्यान रहे, जो
आदमी गलत ढंग
से जीया है, वह ठीक ढंग
से मर कैसे
सकता है। जिंदगी
ही तो मरेगी, जिंदगी ही
तो उस बिंदु
पर पहुंचेगी
जहां से वह
विदा होगी। तो
जो मैं जिंदगी
भर था, वही
तो मैं अपने
अंतिम क्षण
में समग्र रूप
से इकट्ठा
होकर हो
जाऊंगा। वह
अकुमलेटिव
होगा। आखिरी
क्षण में मेरी
सारी जिंदगी
का सब कुछ इकट्ठा
होकर मेरे साथ
खड़ा हो जाएगा।
मेरी पूरी
जिंदगी मैं
मरते क्षण में
होऊंगा। अगर
हम इसको ऐसा
कहें कि
जिंदगी फैली
हुई घटना है, मौत सघन है।
अगर हम इसको
ऐसा कहें कि
जिंदगी बहुत
लंबे फैलाव का
विस्तार है और
मृत्यु सारे
विस्तार का इकट्ठा,
संक्षिप्त
संस्कार है—इकट्ठा
हो जाना है।
मृत्यु बहुत एटामिक
है। एक कण में
सब इकट्ठा हो
गया।
इसलिए
मृत्यु से बड़ी
घटना नहीं है, पर
मृत्यु एक ही
बार घटेगी।
इसका मतलब यह
नहीं है कि आप
और पहले नहीं
मरे हैं। नहीं,
वह बहुत बार
घटी है। लेकिन
एक जिंदगी में
एक ही बार
घटती है। और
एक जिंदगी में
अगर आप सोए—सोए
जीए, तो वह नींद
में ही घट
जाती है। फिर
दूसरी जिंदगी
में वह नयी
होती है। फिर
एक ही बार
घटती है।
और
ध्यान रहे, जो
आदमी इस
जिंदगी में
होशपूर्वक मर
सकता है—कांशस
डेथ—वह आदमी
दूसरी जिंदगी
में
होशपूर्वक
जन्म लेता है।
वह उसका दूसरा
हिस्सा है। और
जो होशपूर्वक
मरता है और
होशपूर्वक
जन्म लेता है,
उसकी
जिंदगी किसी
और तल पर चलने
लगी। वह पहली
दफे ठीक से, होशपूर्वक
जिंदगी के
पूरे अर्थ को,
प्रयोजन को,
जिंदगी की
गहराई और
ऊंचाई को पकड़
पाता है।
जिंदगी का
पूरा सत्य
उसके हाथ में
आ पाता है।
तो
दो बातें
मैंने कहीं।
मृत्यु में
होशपूर्वक
विदा होने के
लिए एक तो दुख
के प्रति
जागना, स्मरणपूर्वक।
दुख से भागना
मत, दुख से
पलायन मत करना।
और दूसरी बात
मैंने कही कि
अनायास
जिंदगी के काम
में चलते—फिरते
चौंककर खड़े हो
जाना, एक
क्षण को
साक्षी हो
जाना। फिर
अपने रास्ते
पर चल पड़ना।
अगर चौबीस
घंटे में ऐसे
दो —चार क्षण
के लिए भी आप
साक्षी हो
जाएं, तो
आप अचानक
पाएंगे कि
जिंदगी बड़ा
भारी पागलखाना
है, जिसमें
आप साक्षी
होते से ही
बाहर हो जाते
हैं।
जब
कोई आदमी आपको
गाली दे रहा
हो,
तब आप इतने
जल्दी भोक्ता
बन जाते हैं
कि आप उस गाली
देने वाले को
देख ही नहीं
पाते। उसने
उधर गाली दी
नहीं कि इधर
आपको मिली
नहीं। असल में
वह दे भी नहीं
पाता है कि
आपको मिल जाती
है। वह आधी दे
पाता है कि आप
पूरी ले लेते
हैं। वह जितनी
देता है उससे
दुगनी ले लेते
हैं। वह भी
चौंकता है कि
इतनी गाली तो
मैंने दी ही नहीं
थी जितनी आपने
ले ली है। तो
आप देख ही नहीं
पाते कि क्या
हो रहा है।
अगर आप देख
पाएं......। जब कोई
गाली दे रहा
हो तो, एकाध
दफे साक्षी
होकर देखें, भोक्ता न
बनें, बस
खड़े होकर देखें
कि कोई गाली
दे रहा है। और
तब जो हंसी
आपको अपने पर
आएगी, वह
बड़ी
मुक्तिदाई
होगी। तब आप
जिंदगी भर जो
भोक्ता बन गए
गाली पर, आज
उस पर हंसी
आएगी। और हो
सकता है उस
आदमी को आप
धन्यवाद देकर
अपने घर चले
जाएं और
मुसीबत में
डाल दें।
क्योंकि यह
उसकी समझ के
बाहर होगा। यह
वह समझ ही
नहीं पाएगा कि
क्या हुआ।
चौबीस
घंटे जो भी हो
रहा है—क्रोध
में,
घृणा में, प्रेम में, मित्रता में,
शत्रुता
में, काम
में, विश्राम
में—जो भी हो
रहा है उसे
कभी एक क्षण
के लिए, ज्यादा
नहीं कहता हूं, बस एक क्षण
के लिए एक
झटका अपने को
दें और जाग कर
देखें कि क्या
हो रहा है। और
उस वक्त
भोक्ता न रहें,
उस वक्त जो
हो रहा है
उसके सिर्फ
देखने वाले रह
जाएं। इतना
सन्नाटा छा
जाएगा उस क्षण
में और उस क्षण
में आप इतना
जान सकेंगे!
क्योंकि उस
क्षण में आप
ध्यान से भर
जाएंगे। वह जो
जागने का क्षण
है वह ध्यान
का क्षण है।
ये
दो प्रयोग अगर
चलें तो तुमने
जो बाकी बातें
पूछी हैं, वे
इनके पीछे
आएंगी। जैसे
तुमने पूछा है
कि
ब्रह्मचर्य
साधक साधे तो
मृत्यु में
सहयोगी होगा?
वह जाग
सकेगा? असल
में
ब्रह्मचर्य
वही साध सकता
है, जो
साक्षी बने, अन्यथा नहीं
साध सकता।
भोक्ता कामी
रहेगा ही। भोक्ता
का अर्थ ही
कामी होता है,
वह भोगना
चाहता है। अगर
साक्षी बने, तो धीरे—
धीरे उसके
जीवन से काम
और सेक्स विदा
हो जाएंगे।
अगर कोई संभोग
के क्षण में
साक्षी बन सके,
तो शायद
दुबारा संभोग
में नहीं जा
सकेगा।
क्योंकि
चीजें ऐसी
बेमानी और
व्यर्थ हो
जाएंगी। इतना
बचकाना और
चाइल्डिश सब
हो जाएगा कि
लगेगा, यह
सब क्या हो
रहा है! यह
क्या किया जा
रहा है! यह है
क्या? यह
मैं अब तक
कैसे कर रहा
हूं? यह सब
मुझे कैसे
पकड़े हुए है!
लेकिन
नहीं, हम
साक्षी नहीं
हो पाते हैं, इसलिए फिर
दोहरा लेते
हैं। असल में
भूल के
दोहराने को
अगर जारी रखना
हो, तो कभी
भी साक्षी मत
बनना। हर भूल
फिर दोहरती
रहेगी। हर भूल
का भी फिर
अपना सीजन
होता है, वह
भूल दोहरती
रहती है। अगर
आप दो —चार
महीने का अपना
रेकार्ड रख
सकें सारी
बातों का, तो
आप फौरन पता
लगा लेंगे कि
आप भी उसी तरह
हैं जैसे कुछ
लोग
पीरियाडिकल
पागल होते हैं।
मेरे
एक मित्र हैं।
आज ही दोपहर
उनकी चिट्ठी
आई है। वे छह
महीने पागल
रहते हैं, छह
महीने ठीक
रहते हैं। वे
मुझसे हमेशा
कहते हैं कि
मुझे ऐसा
क्यों होता है?
मैंने कहा,
तुम्हें
सिर्फ पता चल
जाता है, क्योंकि
तुम्हारे
पीरियड बड़े
साफ और बंटे
हुए हैं।
दूसरे लोगों
के पीरियड
इतने साफ बंटे
हुए नहीं हैं।
वे दिन में छह
दफे पागल होते
हैं, छह
दफे ठीक होते
हैं। इसलिए
उनकी पकड़ में
नहीं आता। तुम
छह महीने
इकट्ठे सालिड
पागल हो जाते
हो और छह
महीने एकदम
ठीक हो जाते
हो, तो
तुम्हारा
कंट्रास्ट
बहुत साफ है।
बाकी आम आदमी
दिन में दस
दफे पागल होता
है, दस दफे
ठीक होता है।
उसको खुद भी
पता नहीं चलता,
दूसरों को
भी पता नहीं
चलता कि कब वह
पागल है और कब
वह ठीक है।
लेकिन
अगर हम दो—चार
महीने का अपना
पूरा का पूरा
ब्योरा रख सकें, तो
हम फौरन पकड़
लेंगे उस
ब्योरे में कि
सब चीजें
दोहरती हैं।
करीब—करीब
क्रोध का क्षण
बराबर ठीक समय
पर दोहरता है।
आपको ठीक समय
पर भूख ही
नहीं लगती, ठीक समय पर
क्रोध भी लगता
है। इसका
हिसाब रखें तो
पता चल सकेगा।
ठीक ग्यारह
बजे भूख लग
आती है, घड़ी
में ग्यारह
बजा और भूख लग आती
है। बारह बजे
भूख लग आती है
कि एक बजे भूख
लग आती है। जब
आप रोज भोजन
करते हैं, भूख
लग आती है।
शरीर कह देता
है, भूख
लगी है। ठीक
ऐसे ही क्रोध
भी लगता है, ठीक ऐसे ही
काम भी लगता
है, ठीक
ऐसे ही प्रेम
भी लगता है, ये सब लगते
हैं। ये भूखे
हैं। इन सबका
वक्त बंधा हुआ
है।
और
यह भूल, बार—बार
वही भूल
दोहरती चली
जाती है, क्योंकि
कभी हमने इसे
पकड़ने की
कोशिश नहीं की
है कि यह एक
मेकेनिकल
रूटीन है, यह
यंत्रवत सब हो
रहा है। इसलिए
कभी—कभी बड़ी
कठिनाई होती
है। जैसे आपको
भूख लगी हो और घर
में खाना न हो,
तभी आपको
पता चलता है
कि भूख लगी है।
भूख लगी हो और
खाना मिल जाए,
तो भूख का
पता नहीं चलता।
निपट जाती है
बात। ऐसे ही
जब आपको क्रोध
लगे और आसपास
कोई न मिले, तब आपको पता
चल सकता है।
लेकिन कोई न
कोई मिल ही
जाता है। ऐसा
तो हो भी जाता
है कि भूख लगे
और भोजन न
मिले ऐसा
मुश्किल से हो
पाता है कि
क्रोध लगे और
क्रोध करने को
कोई न मिले।
यहां तक कि
आदमी जिनको हम
निर्जीव
चीजें कहते
हैं, उन
चीजों के साथ
भी क्रोध का
व्यवहार करता
है। और कोई न
मिले तो
फाउंटेनपेन
को जोर से
गाली देकर पटक
देता है। इस
आदमी को अगर कभी
भी खयाल आ जाए,
तो क्या
सोचेगा! क्या
सोचेगा यह
आदमी!
अभी
अमरीका में वे
इसकी खोजबीन
करते हैं कि
गाड़ियों के जो
ऐक्सीडेंट
होते हैं, उनमें
कितना मानसिक
कारण है। तो
बड़ी भारी
मात्रा में
दिखाई पड़ता है।
क्योंकि
क्रोध में
आदमी जोर से
ऐक्सीलेटर दबा
देता है, उसे
पता नहीं रहता।
हो सकता है, वह पत्नी का
सिर दबा रहा
हो, कि
बेटे की गरदन
दबा रहा हो।
मगर
ऐक्सीलेटर पर
पैर है उसका
इस वक्त।
ऐक्सीलेटर
किसी के इमेज
का काम कर रहा'
है। अब वह
दबाए चला जा
रहा है। अब वह
भूल गया है कि
कार चला रहा
है। अब वह
क्रोध चला रहा
है। मगर किसी
को तो पता
नहीं कि वह
क्या कर रहा
है। वह क्रोध
चला रहा है।
खतरा होने ही
वाला है।
क्योंकि कार
को क्रोध से
कोई लेना—देना
नहीं है, कार
को क्रोध का
कोई पता नहीं
है। और कार
में कोई बिल्ट—इन
ऐसी व्यवस्था
हम अभी तक
नहीं कर पाए
हैं कि जब
आदमी क्रोध
करे तो कार
चलने से इनकार
कर दे। कार का
ऐक्सीलेटर
दबाते हैं, कार समझती
है कि जोर से
चलाना है। कार
को पता नहीं
है कि इस वक्त
धीमे चलने की
जरूरत है। इस
वक्त यह आदमी
खतरे की हालत
में है। इसको
इस वक्त कुछ
भी नहीं दिखाई
पड़ रहा है।
चौबीस
घंटे में
हमारे क्रोध
के क्षण लौट
रहे हैं, काम
के क्षण लौट
रहे हैं। और
एक बंधी हुई
व्यवस्था है
जिसमें हम
डोलते रहते
हैं मशीन की
भांति। जब आप
जागकर
देखेंगे, तब
आपको दिखाई
पड़ेगा कि यह
मैं जी रहा
हूं कि सिर्फ
कोल्हू के
बैल की तरह
घूम रहा हूं!
निश्चित
ही जीना कोल्हू
के बैल की तरह
घूमना नहीं हो
सकता है।
कोल्ह के बैल
की तरह घूमने
में जिंदगी
कहां है? एक
यांत्रिकता, एक मेकेनिकल
इंतजाम है, वह चल रहा है।
कभी आपने सोचा
है?
अभी
मैं एक किताब
पढ़ता था। एक
बहुत अदभुत
आदमी है और
उसने एक अनूठा
प्रयोग किया
है। उसने यह
समझने की
कोशिश की कि
रास्ते पर एक
आदमी मिलता है
और आपसे पूछता
है कि कहिए
कैसे हैं? आप
कहते हैं, बिलकुल
ठीक। आपने कभी
खयाल न किया
होगा कि उस
आदमी को आपने जो
उत्तर दिया, वह उसने
सुना ही नहीं।
न उसने उस उत्तर
को सुनने के
लिए आप से
प्रश्न पूछा
था। वह तो उसे
कुछ और पूछना
होगा, यहां
से शुरुआत की
थी। और कहीं
से एकदम से
शुरुआत करना
जरा अजीब मालूम
पड़े। तो वह
शुरू करता है,
कहिए कैसे
हैं? फोन
पर भी बात
करता है तो
कहता है, आपकी
तबीयत कैसी है?
और आपकी तबीयत
से उसको कोई
मतलब नहीं है,
कभी नहीं
रहा, न कभी
रहेगा। इसलिए
आप जो उत्तर
देते हैं, वह
उसको सुनने
वाला नहीं है।
बस, वह
उसको आगे
लांघकर दूसरी
बात करेगा।
तो
उस आदमी ने
सोचा कि यह
प्रयोग करने
जैसा है। सुबह
उसने प्रयोग
किया। उसको
किसी ने फोन
किया। और उसने
पूछा, कहिए, आप कैसे हैं?
उसने कहा कि
गाय अच्छा दूध
दे रही है।
उसने कहा कि
बहुत अच्छा, बड़ा अच्छा
है। आपकी
पत्नी कैसी है?
तब उसे पता
चला कि कोई
सुन नहीं रहा
है। चीजें हम
ले रहे हैं
बिलकुल
यंत्रवत।
एक
दूसरे आदमी की
मैं अभी जीवनी
पढ़ता था। वह
सारी दुनिया
घूमा हुआ है।
तो जिस मुल्क
में भी जाओ, वहीं
पच्चीस तरह के
फार्म भरने
पड़ते हैं। तो
वह परेशान हो
गया था कि वह
फार्म किस लिए
भरवाते हैं।
उसमें उसने
अनर्गल बातें
भरी। लेकिन
उसने सारी
दुनिया के सब
फार्म अनर्गल
भर आया, किसी
सरकार ने उसको
रोका नहीं।
उम्र में
लिखता है पांच
हजार साल, और
कोई नहीं
रोकने वाला है।
कौन पढ़ता है!
किसको मतलब
है! किसको
प्रयोजन है! किसी
को कोई मतलब
नहीं है।
जिंदगी
बिलकुल सोई—सोई
यंत्रवत चल
रही है। सब
यांत्रिक
उत्तर हैं।
दूसरा पूछ रहा
है, कैसे
हैं? आप भी
कह रहे हैं, ओ के, बिलकुल
ठीक हैं। ये
काम कंप्यूटर
भी कर सकते
हैं। एक
कंप्यूटर
पूछे, कैसे
हैं? तो
दूसरा
कंप्यूटर कहे,
ओ के। ऐसे
ही चल रहा है।
इसमें कोई
चेतना, इसमें
कोई होश, इसमें
कोई जागृति—कुछ
भी नहीं है।
इसके प्रति
थोड़ा जागने की
जरूरत है।
इसके प्रति
साक्षी, इसके
प्रति
विटनेसिंग की
जरूरत है।
रुक
जाएं और एक
क्षण को, किसी
भी क्षण को, जागने का
क्षण बना लें
और चौंक कर
देखें चारों
तरफ कि क्या
हो रहा है। आप
साक्षी रह
जाएं सिर्फ।
ये
दो तैयारियां
अगर चलें, तो
आप पाएंगे कि
आपके जीवन से
क्रोध कम होने
लगा है।
क्योंकि
साक्षी चेतना
क्रोध नहीं कर
सकती। क्रोध
करने के लिए
आइडेंटिटी
चाहिए ही, मूर्च्छा
चाहिए ही।
साक्षी चेतना
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
होने लगेगी, क्योंकि
साक्षी चेतना
कामवासना से
ग्रसित नहीं
हो सकती।
साक्षी चेतना
ज्यादा भोजन
नहीं कर सकती
है। इसलिए उसे
कोई कसम और
व्रत नहीं
लेना पडेगा कि
मैं अब थोड़ा
कम भोजन करूंगा।
हमें
पता नहीं है
कि हम अगर
भोजन भी
ज्यादा करते
हैं,
तो उसका
कारण बहुत
गहरा होता है,
भोजन नहीं
होता है। अब
जैसे समझें
थोड़ा—सा इस
बात के लिए कि
एक आदमी
ज्यादा भोजन
कर रहा है।
उसे पता भी
नहीं होता कि
वह क्यों
ज्यादा भोजन
कर रहा है।
कभी आपने सोचा
कि जब आप क्रोध
में होते हैं,
तो ज्यादा
भोजन कर जाते
हैं? कभी
इसका रेकार्ड
रखा? कभी
आपने सोचा कि
जब आपको जीवन
में प्रेम की
कमी अखरती है,
तब आप
ज्यादा भोजन
कर जाते हैं? इसका कोई
रेकार्ड रखा? इसका कभी
होशपूर्वक
खयाल किया है
कि जब जीवन में
प्रेम भरा—पूरा
होता है, तो
आदमी ज्यादा
भोजन नहीं
करता? अगर
किसी प्रेमी
से मिलना हो
जाए, तो
भोजन की भूख
ही मर जाती है।
प्रेम के क्षण
में भूख मर
जाती है।
लेकिन प्रेम न
हो जिंदगी में
तो आदमी भोजन
करने लगता है
जोर से। लेकिन
क्यों? इसके
पीछे बड़ी
मेकेनिकल
व्यवस्था है।
बड़ी दूर से
हमारे मन की
कंडीशनिंग है।
मां
से बच्चे को
प्रेम और भोजन
दोनों मिलते
हैं। और बच्चे
के लिए जो
पहला अनुभव है
प्रेम का, वह
भोजन का ही
अनुभव है। अगर
मां उसको भोजन
न दे तो
अप्रेम का पता
चलता है, और
भोजन दे तो
प्रेम का पता
चलता है। पहले
अनुभव में
भोजन और प्रेम
दो चीजें नहीं
हैं—बच्चे के
पहले अनुभव
में— भोजन और
प्रेम, यानी
एक चीज। बच्चे
का पहला अनुभव
प्रेम और भोजन
का एक ही है।
तो अगर मां
बच्चे को बहुत
प्रेम करती है,
तो वह कम
दूध पीता है।
क्योंकि वह
सदा आश्वस्त
है कि कभी भी
दूध मिल सकता
है। कोई भय
नहीं है
भविष्य का।
इसलिए पेट को
ज्यादा भर
लेने की कोई
जरूरत नहीं है।
तो जो मां
बच्चे को
ज्यादा प्रेम
करती है, उसका
बच्चा कम दूध
पीएगा। जो मां
बच्चे को
प्रेम नहीं
करती, जो
दूध
जबर्दस्ती
पिलाती है, किसी तरह
पिलाती है, हटाने की
कोशिश में लगी
रहती है, वह
बच्चा ज्यादा
दूध पीने
लगेगा।
क्योंकि
आश्वासन नहीं
है। हो सकता
है, घड़ी भर
बाद मां फिर
उसको दूध दे, न दे। फिर दो
घंटे चार घंटे
कितनी देर
भूखा रहना पड़े।
तो
प्रेम की कमी
उसे भोजन
ज्यादा लेने
को कहती है और
प्रेम का
ज्यादा भाव
उसको भोजन कम
लेने को कहता
है। फिर यह
उसके मन की
कंडीशनिंग का
हिस्सा हो जाता
है। जब भी
उसकी जिंदगी
में प्रेम
बहता है, तब वह
भोजन कम करता
है। और जब
प्रेम रुक
जाता है, तब
वह भोजन
ज्यादा करने
लगता है।
हालांकि उसे
अब इससे कोई
संबंध नहीं है।
लेकिन अब वह
यंत्रवत बहाव
है।
इसलिए
जिन लोगों की
जिंदगी में
प्रेम कम है, वे
ज्यादा भोजन
करने लगेंगे।
लेकिन अगर
इसके प्रति
होश आ जाए, तो
तुम बहुत
हैरान हो
जाओगे कि जब
तुम ज्यादा भोजन
कर रहे हो, तो
सवाल यह नहीं
है कि तुम कम
भोजन करने की
कसम खाओ। सवाल
यह है कि
तुम्हारी
जिंदगी में
प्रेम जैसी
घटना नहीं घटी
है। तब तुम
रूट कॉजेज को
पकड़ पाते हो
कि कहां बुनियादी
गड़बड़ है? कहां
तकलीफ है? असली
बात क्या है?
अब
एक आदमी है।
वह ज्यादा
भोजन करता है।
वह जाकर मंदिर
में किसी मुनि, किसी
संन्यासी के
सामने कसम खा
लेता है कि अब हम
एक ही दफा
भोजन करेंगे।
वह एक दफे में
दो —तीन दफे का
भोजन करने
लगता है। तीन
दफे का भोजन
करने लगता है
एक दफे में और
दिन भर भूखा
मरता है। और
दिन भर भोजन
की सोचता है।
फिर वह मेनिआक
हो जाता है।
फिर वह भूखा
नहीं रह जाता,
वह
विक्षिप्त हो
जाता है। भूख
की
विक्षिप्तता
पैदा हो जाती
है। फिर वह
चौबीस घंटे
भोजन में ही
जीता है। अब
हमारे मुल्क
में इतने
हजारों साधु —संन्यासी
हैं, जो
चौबीस घंटे
भोजन की चिंता
में ही जीते
हैं। ये
मेनिआक हैं, ये
विक्षिप्त
हैं। इनको पता
नहीं कि
इन्होंने
क्या कर लिया
है। यह क्या
पागलपन कर
लिया है। पूरे
वक्त भोजन का
ही चिंतन रह
गया है। जैसे
कि भोजन ही
कुछ चितना का
विषय है जगत
में, जैसे
भोजने के
संबंध में ही
सोचते रहना
जीवन का
लक्ष्य है।
सुबह से लेकर
सांझ तक। अगर
उन्होंने
भोजन का सारा
इंतजाम कर
लिया है, जैसा
वे चाहते हैं
वैसा कर लिया
है, तो सब
हल हो गया।
विवेकानंद
ने अमरीका में
कहा था कि
मेरा मुल्क
बर्बाद न होता, लेकिन
मेरे मुल्क का
सारा धर्म
किचन का धर्म
हो गया है, चौके
का धर्म हो
गया है, इसलिए
मर गया मेरा
मुल्क। और
धर्म जब चौके
का हो जाए, तो
क्या धर्म रह
जाता है?
इसके
पीछे कारण है
कि हम जागकर
अपने भीतर की
पूरी व्यवस्था
नहीं देख पाते
कि हम कब क्या
करते हैं।
अब
एक आदमी है।
शराब पीए जा रहा
है। और हम सब
भिड़े हुए हैं
कि वह शराब
छोड़े। वह भी
कोशिश करता है
कि मैं शराब
छोडूं। लेकिन
वह कभी नहीं
फिक्र करता कि
बात क्या है? आखिर
वह शराब क्यों
पीए जा रहा है?
आखिर बेहोश
होने की इच्छा
उसमें क्यों
पैदा हो रही
है? जरूर
इसकी जिंदगी
में कुछ है
जिसे वह भूल
जाना चाहता है;
जिंदगी में
कुछ है जो याद
करने से बचना
चाहता है; जिंदगी
में कुछ है
जिस पर पर्दा
डाल देना चाहता
है। इसके
प्रति अगर वह
जागे, तो
कुछ हल हो जाए।
लेकिन इसके
प्रति न जागकर
वह उलटा पर्दा
डालता चला
जाएगा। फिर वह
पर्दों पर
पर्दे डालना
चाहेगा। फिर
इस पर्दे पर
भी पर्दा
डालना चाहेगा,
क्योंकि इस
पर्दे के पीछे
कुछ छिपा रखा
है। वह पता न
चल जाए। फिर
यह जिंदगी एक
दौड़ हो जाएगी
पर्दा डालने की
और सब झूठा हो
जाएगा। और एक
दिन उसी आदमी
को पता लगाना
मुश्किल हो जाएगा
कि मैंने किस
लिए भूलना
शुरू किया था।
वह खुद ही भूल
चुका होगा।
उसे खुद ही
पता न रह
जाएगा कि कब
मैंने शराब पीनी
शुरू की थी और
क्यों शुरू की
थी।
अब
एक आदमी
सिगरेट फूंके
जा रहा है, दिन
भर सिगरेट
फूंक रहा है।
कोई पूछ सकता
है कि बड़ी
अजीब बात है
कि एक आदमी धुएं
को भीतर ले
जाता है, बाहर
निकालता है, इसकी बात
क्या हो सकती
है? कारण
क्या हो सकता
है? इस
धुएं को बाहर
और भीतर
निकालने की
प्रक्रिया
में राज जरूर
होना चाहिए।
क्योंकि सारी
दुनिया के
इतने अधिक लोग
बिलकुल ही
व्यर्थ
सिगरेट पी रहे
हों, ऐसा
नहीं हो सकता।
और एक सिगरेट
पीने वाला भी
अगर गौर करे, तो पता लगा
सकता है कि कब
सिगरेट पीता
है। जब भी वह
लोनली अनुभव
करता है, जब
भी अकेला
अनुभव करता है,
जब कोई
कंपनी नहीं
होती, तभी
वह तत्काल
सिगरेट पीने
लगता है। अब
वह सिगरेट से
साथी का काम
ले रहा है। और
सिगरेट सस्ता
साथी है। झंझट
भी नहीं है
उससे, खीसे
में डालो, जहां
चाहो ले जाओ।
अकेले बैठो।
जब चाहो, तब
उसके साथ काम
शुरू कर दो।
वह आकुपेशन है।
और एक अर्थ
में निर्दोष
है। निदोंष
व्यर्थता है।
इनोसेंट
आकुपेशन है।
आप किसी का
कुछ भी नहीं
बिगाड़ रहे हैं।
अगर बिगाड़ रहे
हैं तो अपना
थोड़ा—बहुत
बिगाड़ रहे हैं।
धुआं निकाल
रहे हैं, धुआं
फेंक रहे हैं।
कुछ कर नहीं
रहे हैं, पर
व्यस्त हैं।
मैं
एक ट्रेन में
था। तो ट्रेन
में तो मेरी
आदत है कि
चुपचाप सो जाऊं
और जितनी देर
सो सकूं सोया
रहूं। साथ में
एक सज्जन थे।
वे बड़े परेशान
थे। उन्होंने
मुझे कई दफा
जगाने की
कोशिश की। जब
कोई छह घंटे
बाद मैं उठा
और स्नान करके
फिर सोने लगा, तो
उन्होंने कहा,
आप यह क्या
कर रहे हैं!
मैं अपने एक
ही अखबार को दस
बार पढ़ चुका
हूं। इस खिड़की
को खोलता हूं
उसको बंद करता
हूं। और आप
हैं कि सो रहे
हैं। मैं तो
सोचता था, कुछ
कंपेनियनसिप
होगी, कोई
बात होगी कोई
चीत होगी। और
इतनी सिगरेट
मैंने कभी
नहीं पी, जितनी
मैं अभी पी
चुका हूं। अब
आप उठ आइए।
वे
ठीक कह रहे
हैं। आदमी
अकेला है, इतनी
भीड़ में भी।
इतनी भीड़— भाड़
हमें दिखाई
पड़ती है—पत्नी
है, बेटे
हैं, बेटियां
हैं, पिता
हैं, मां
हैं, घर है,
परिवार है—इतना
भीड़— भड़क्का
है, सब कुछ
है, लेकिन
फिर भी आदमी
अकेला है। अभी
हम आदमी के
अकेलेपन को
नहीं मिटा पाए।
और वह अकेलेपन
को मिटाने के
लिए कुछ—कुछ
कर रहा है।
कभी सिगरेट पी
रहा है, कभी
ताश खेल रहा
है। दूसरे के
साथ छोड़िए, खुद के साथ
खेल रहा है।
दोनों तरफ से
बाजियां चल
रहा है। तब तो पागलपन
की हद हो जाती
है न! कि एक
आदमी दोनों
तरफ की
बाजियां
बिछाये हुए है।
उधर से भी
चलता है, इधर
से भी चलता है।
बुद्धिमान से
बुद्धिमान
आदमी यह काम
करते मिल
जाएगा। तो
हमारा
बुद्धिमान भी
बहुत
बुद्धिमान है,
ऐसा मालूम
नहीं पड़ता।
कारण क्या है?
इसके
प्रति जागना
पड़े। इसके
प्रति साक्षी
होना पड़े। अगर
यह आदमी जो
दोनों तरफ ताश
की बाजियां चल
रहा है, खुद
ही अगर एक
क्षण को होश
से भर जाए और
साक्षी होकर
देखे, तो
जैसे आप इस पर
हंसे हैं, क्या
ऐसे ही यह
अपने पर नहीं
हंस पाएगा? कि हंस
पाएगा! वह
देखेगा, यह
क्या हो रहा
है! यह मैं कर
क्या रहा हूं
जिंदगी के
साथ!
और
यह अगर दिखाई
पड़ जाए, तो
कसम नहीं लेनी
पड़ती, व्रत
नहीं लेना
पड़ता, कुछ
छोड़ना नहीं
पड़ता। चीजें
जो व्यर्थ हैं,
छूटती हैं।
और उनके मूल
कारण को पकड़
कर अगर हम उस
कारण के प्रति
और गहरे में
सजग होते चले
जाएं, तो
वह धीरे — धीरे,
धीरे — धीरे
हमें उस जगह
पहुंचा देता
है जहां से
जड़ें उखाड़कर
फेंक दी जा
सकती हैं बिना
किसी कष्ट के।
और
ध्यान रहे, अगर
आपने किसी
वृक्ष के
पत्ते काटने
शुरू किए, तो
आप मुश्किल
में पड़ जाएंगे।
क्योंकि एक
पत्ता काटो, तो चार पैदा
होते हैं, क्योंकि
वृक्ष समझता
है कि आप कलम
कर रहे हैं।
और वृक्ष की
कोई गलती नहीं
है। वह सोचता
है कि आपको
चार पत्ते की
जरूरत होगी, इसलिए एक
काट रहे हैं, तो वह चार
पैदा कर देता
है। जब चार हो
जाते हैं, तो
आप घबड़ाकर चार
काटते हैं, तो सोलह हो
जाते हैं।
नहीं, जड़ों
से चीजें
उखाड़ी जाती
हैं, पत्तों
से नहीं काटी
जातीं। हम
जिंदगी भर
पत्तों से
खेलते रहते
हैं और जड़ों
का हमें कोई
पता नहीं। कोई
कहता है कि
ब्रह्मचर्य
की कसम ले लो..।
कलकत्ते
में एक घर में
मैं मेहमान था।
एक मेरे मित्र
भी साथ थे।
जिन बूढ़े के
घर मैं मेहमान
था वह बहुत
ईमानदार
आदमियों में
से एक थे। सत्तर
साल उनकी उम्र
हो गई।
उन्होंने
मुझसे कहा कि
अब मैं क्या
करूं आप ही
बताइए, मैं
जिंदगी में
तीन बार
ब्रह्मचर्य
का व्रत ले
चुका।
उन्होंने यह
कहा यह तो ठीक
था, इससे
भी
आश्चर्यजनक
घटना यह थी कि
मेरे मित्र जो
थे वे बड़े
प्रभावित हुए।
उन्होंने कहा
कि तीन बार! मैंने
कहा कि तुम
समझो भी तो कि
तीन बार का
मतलब क्या
होता है!
मैंने उन
वृद्ध से पूछा
कि चौथी बार
क्यों नहीं
लिया? क्या
तीसरी बार
लिया हुआ सफल
हो गया? उन्होंने
कहा कि नहीं, तीसरी बार
मेरी हिम्मत
ही टूट गई।
इसलिए लिया
नहीं।
वे
ईमानदार आदमी
थे। तीन बार
जो व्रत लेगा
उसका मतलब ही
यह है कि हर
बार टूटेगा।
और तीन बार
व्रत टूटेगा, लेकिन
तीन बार व्रत
के टूटने की
निराशा तो सघन
होगी। और तीन
बार व्रत
टूटेगा तो तीन
बार की हताशा
तो सघन होगी।
तीन बार व्रत
टूटेगा तो तीन
बार के आत्म —विश्वास
के टूटने की
स्थिति तो
गहरी हो जाएगी।
चौथी दफे
हिम्मत न रह
जाएगी व्रत
लेने की। तो
मैंने उनसे
कहा कि जिस
साधु ने आपको
यह व्रत
दिलवाया है वह
आपका दुश्मन
था। आपने समझा
कि मित्र है।
उसने आपकी
हिम्मत ही तोड़
दी। अब सत्तर
साल की उम्र
में भी
ब्रह्मचर्य
का व्रत लेने
की हिम्मत
नहीं है आपमें
अब। पर कारण
क्या है? पत्ते!
एक पत्ता कांटा
तीन पैदा हो
गए।
ब्रह्मचर्य
के व्रत लिए
जाते हैं? ब्रह्मचर्य
के व्रत नहीं
होते, सिर्फ
कामवासना की
समझ होती है।
कामवासना की
जागरूकता
होती है।
कामवासना की
जागरूकता
ब्रह्मचर्य
का फल बन जाती
है। जब कोई
आदमी अपनी
कामवासना के
प्रति जागता
है, समझता
है, खोजता
है, जीता
है, पहचानता
है, तो अचानक
पाता है कि वह
किस खेल में
लगा हुआ है।
यह खेल भी उस
पत्ते बिछाने
से ज्यादा
नहीं है। यह
सब खेल पत्ते
बिछाने का खेल
चल रहा है। जब
पूरी तरह होश
से उसके भीतर
प्राणों की
गहराई में तीर
की तरह यह बात
पहुंच जाती है,
तो वह अचानक
पाता है कि
ब्रह्मचर्य
फलित हो गया।
ब्रह्मचर्य
कोई व्रत नहीं
है।
ध्यान
रहे,
धर्म का
व्रत से कोई
भी संबंध नहीं
है। और व्रती
कभी धार्मिक
नहीं होते। हो
भी नहीं सकते।
धार्मिक आदमी
वह है, जिसके
जीवन में व्रत
के फल लगते
हैं, कान्सीक्येन्स
की तरह, परिणाम
की तरह। वह
जितना ही जिंदगी
को देखता है
उतना ही पाता
है कि कुछ
चीजें बदलती
जा रही हैं, कुछ चीजें
बदलती जा रही
हैं।
एक
आदमी के हाथ
में कंकड—पत्थर
हैं। हम उससे
चिल्ला रहे
हैं कि छोड़ो
यह कंकड़—पत्थर।
लेकिन उसको
रंगीन हीरे
दिखाई पड़ रहे
हैं और हैं
रंगीन पत्थर।
चमक है उनमें।
वह आदमी समझता
है,
हीरे हैं।
वह कैसे छोड़
दे। वह आदमी
कहता है कि
जिन्होंने
छोड़ा, उनको
हम भगवान
मानते हैं
लेकिन हम
साधारण आदमी
हैं, हम न
छोड़ सकेंगे।
लेकिन यह आदमी
हीरे की खदान
पर पहुंच गया
है और हीरे
सामने दिखाई
पड़ने लगे हैं।
फिर क्या इसको
समझाना पड़ेगा
कि कंकड़ —पत्थर
छोड़ दो? इसको
पता ही नहीं
चलेगा कि कब
कंकड़—पत्थर
छोड़ दिए और
दौड़ पड़ा और कब
इसने हीरों से
हाथ भर लिये।
और इससे अगर
बाद में आप
पूछेंगे कि उन
कंकड़—पत्थरों
का क्या हुआ
जो पहले तुम
हाथ में लिये
रहते थे? तो
यह कहेगा कि
अच्छी याद
दिलाई। मैं
भूल ही गया था
कि उनका क्या
हुआ। वे कहां
गए, मुझे
पता नहीं। वे
कब गिर गए, मुझे
पता नहीं है।
क्योंकि जब
हीरे दिखाई पड़
जाएं, तो
हाथ तत्काल
खाली करने
पड़ते हैं।
जीवन
एक विधायक
चढ़ाव है, एक
निषेधात्मक
उतार नहीं।
जीवन एक
पाजिटिव
अचीवमेंट है,
एक निगेटिव
रिनंशियेसन
नहीं। जीवन एक
त्याग नहीं है,
जीवन एक
उपलब्धि है।
और जितनी
साक्षी चेतना
गहरी होती है,
उतने परम
आनंद के नए तल
दिखाई पड़ने
लगते हैं।
उतने दुख के
तल छूटने लगते
हैं, उतना
कचरा फिंकने
लगता है।
पत्थर फिंकने
लगते हैं।
हीरे हाथ में
आने लगते हैं।
तो जिन और
बातों के
तुमने प्रश्न
पूछे हैं, वे
सारी बातें इन
दो घटनाओं के
साथ चलेंगी।
तुम्हारा दुख—बोध
तीव्र हो। तुम
दुख—बोध में
तादात्म्य
छोड़ो। तुम दुख—बोध
में शरीर के
साथ एक न रहो।
और जीवन की
समस्त
क्रियाओं, प्रक्रियाओं
में तुम
साक्षी बनो, भोक्ता न
रहो। एक छोटी—सी
घटना से मैं
तुम्हें और
समझाऊं, निरंतर
मुझे
प्रीतिकर रही
है।
अभी—
अभी शायद जन्म—तिथि
गुजरी है
ईश्वरचंद
विद्यासागर
की। वे एक
नाटक को देखने
गए थे। चल रहा
है नाटक और
उसमें एक
विलेन है। उस
नाटक में एक
आदमी है, जो एक
स्त्री को
सताने के लिए
उसके पीछे पड़ा
हुआ है। वह सब
तरह से उसको
परेशान कर रहा
है। अब
ईश्वरचंद बड़े
आदमी थे, बुद्धिएमान
आदमी थे। पहली
ही कुर्सी पर,
नंबर एक की
कुर्सी पर
देखने के लिए
उन्हें आमंत्रित
किया गया था।
वे बैठकर देख
रहे थे। सज्जन
आदमी थे। उनका
संयम टूट गया।
इतने क्रोध
में आविष्ट हो
गए कि वे यह
भूल गए कि
नाटक है।
निकाला जूता
पैर से..। और
आखिरी क्षण था,
क्लाइमेक्स
था उस नाटक का।
कि आखिर एक
घने जंगल में
अंधेरी रात
में वह खलनायक,
वह अभिनेता,
वह पात्र उस
स्त्री को पकड़
लेता है।
अंधेरी रात है,
सन्नाटा है।
कोई भी आसपास
नहीं है। वह
स्त्री
चिल्लाती है,
लेकिन उसकी
चिल्लाहट
सन्नाटे में
गूंजती है। बस
ईश्वरचंद ने
निकाला जूता,
छलांग
लगाकर मंच पर
चढ़ गए और लगे
उसे मारने, उस
अभिनेता को
मारने लगे।
अभिनेता
ने उनका जूता
अपने हाथ में
ले लिया, सिर
से लगाया।
अभिनेता ने
जितनी समझ
दिखलाई उतनी
ईश्वरचंद
नहीं दिखला
पाए। और उसने
लोगों से कहा
कि इतना बड़ा
पुरस्कार मुझे
जीवन में कभी
नहीं मिला।
ईश्वरचंद
जैसा
बुद्धिमान
आदमी नाटक को
सत्य समझ ले, तो अभिनेता
की कुशलता
नहीं तो और
क्या है! तो उसने
कहा, इस
जूते को मैं
संभालकर
रखूंगा
विद्यासागर जी,
इसको वापस
नहीं करता। यह
मेरा सबसे बड़ा
पुरस्कार है।
ईश्वरचंद
विद्यासागर
जैसा आदमी
नाटक को सत्य
समझ ले, तो हम
जैसे साधारण
आदमी, जिसको
हम सच कहते
हैं, उसको
नाटक कैसे समझ
पाएंगे।
लेकिन अगर
साक्षी होने
के थोड़े
प्रयोग करें,
तो समझ
पाएंगे। वह
नाटक दिखाई
पड़ने लगेगा।
और यह हो जाए, तो मृत्यु
में जागे हुए
प्रवेश किया
जा सकता है।
कल
फिर बात
करेंगे।
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