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सोमवार, 25 मई 2015

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--192

 भोजन की कीमिया—(प्रवचन—पांचवां)

अध्‍याय—17
सूत्र:--
आयु:सत्त्वब्रलारौग्यसुख्तीतिविवर्थना:।
रस्‍या: स्निग्‍धा: स्थिरा हद्या आहारा: सात्‍विकप्रिया:।। 8।। कट्वब्ललवणात्युष्यातीक्श्रणीरूक्षधिदाहिन:।
आहारा राजसस्येष्टा दु:खशस्कोमयप्रदा:।। 9।।
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्‍छिष्‍टमपि चामेध्यं भोजन तामसप्रियम्।। 10।।

आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढाने वाले एवं रसयुक्‍त, चिकने स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय, ऐसे आहार सात्‍विक पुरूष को प्रिय होते हैं। और कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त और अति गरम तथा तीक्ष्‍ण, रूखे और दाहकारक एवं दुख, चिंता और रोगों को उत्पन्‍न करने वाले आहार राजस पुरूष को प्रिय होते हैं।
और जो भोजन अधपका, रसरहित और दुर्गंधयुक्त एवं बासा और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र है, वह भोजन तामस पुरूष को प्रिय होता है।


 पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न :

सुना है, नारद को कृष्ण से मिलने की बहुत प्यास थी। और उन्हें जहां भी कृष्ण के होने का समाचार मिलता, वहां पहुंचते; लेकिन कृष्ण वहां से गुजर गए होते। ऐसे मृत्यु तक वे कृष्ण से न मिल पाए। एक है अनंत प्यास से भरे नारद की स्थिति और एक मैं हूं? जिसकी अभी प्यास ही नहीं जगी। तो क्या परमात्मा को पाने की मेरी चेष्टा निरर्थक ही नहीं है?

 रमात्मा से वंचित रह जाने वाले दो तरह के लोग हैं। एक, जिनकी प्यास तो है ठीक, लेकिन खोज की दिशा गलत है। दूसरे, जिनकी प्यास ही नहीं है, इसलिए दिशा का सवाल ही नहीं उठता।
नारद की प्यास तो थी, लेकिन यात्रा वे गलत दिशा में कर रहे थे। जो भी कृष्ण को खोजने बाहर जाएगा, वह भटकेगा। कृष्ण को खोजना हो, तो भीतर जाना पड़ेगा। कृष्ण कोई बाहर की सत्ता नहीं है, कृष्ण तो भीतर की अवस्था है।
नारद चूके, क्योंकि कृष्ण को बाहर समझा। जिसने भी परमात्मा को बाहर समझा, वह चूकता चला जाएगा। तुम जब पहुंचोगे, पाओगे, वहां से परमात्मा हट चुका। हर बार यही होगा। क्योंकि परमात्मा वहां था ही नहीं। वह दूर से दिखाई पड़ता था। पास से जाकर पता चलता है, हट गया। मृग—मरीचिका थी। मरुस्थल में दूर से दिखाई पड़ता था, सरोवर है।
और मरुस्थल में जब सरोवर दिखाई पड़ता है, तो पक्का भरोसा आ जाता है। भरोसे के दो कारण होते हैं, एक तो कारण होता है भीतर की प्यास। प्यासा आदमी पानी पर भरोसा करना चाहता है। प्यासा आदमी पानी पर संदेह नहीं करना चाहता। क्योंकि संदेह तो मौत बनेगी। तो प्यासा तो श्रद्धालु होता है। जितनी बड़ी प्यास होती है, उतनी ही बड़ी श्रद्धा हो जाती है।
तो प्यासा यह मानना नहीं चाहता कि वह जो दूर दिखाई पड रहा सरोवर है, वह है नहीं। क्योंकि उसके न होने का मतलब तो मौत होगी। यहां प्यास से कंठ जल रहा है, तो बुद्धि सारे संदेह छोड देती है, बुद्धि अपनी बुद्धिमानी छोड़ देती है।
प्यासा भरोसा करता है। भरोसे के सहारे ही जी सकता है। प्यासा आशा से भरा होता है। क्योंकि आशा के बिना तो जीवन ही नष्ट हो जाएगा। तो जो नहीं है, उसे भी मानने की तत्परता होती है।
भयभीत आदमी भय के कारण बुद्धि को खो देता है। जो नहीं है, वह दिखाई पड़ने लगता है। तुम कभी भयभीत हालत में अंधेरी रात से गुजरे? न मालूम कितने भूत—प्रेत सब तरफ मौजूद हो जाते हैं। चोर, हत्यारे सब तरफ सरकने लगते हैं। पत्ता सरकता है और लगता है कि कोई आ गया। हवा का झोंका टकराता है वृक्षों से और लगता है, कोई आ गया। खुद की ही पदचाप सुनाई पड़ती है सुनसान रात में और लगता है, कोई पीछा कर रहा है। खुद के ही हृदय की धड़कन तेज मालूम पड़ने लगती है। भीतर उत्तेजना होती है, तुम बाहर उत्तेजना का कारण खोज लेते हो। भयभीत आदमी भूत—प्रेत पैदा कर लेता है। जैसा भयभीत आदती भूत—प्रेत पैदा कर लेता है, वैसा ही प्यासा आदमी जल को पैदा कर लेता है।
मरुस्थल में प्यास लगी हो और सरोवर दिखाई पड़े, तो इतनी हिम्मत तुम न जुटा सकोगे कि सोच सकी, यह मृग—मरीचिका है, सपना है। कठिन है। घर में बैठे होते छाया में, जल पीए बैठे होते, तो शायद तुम भी दो बार सोचते कि यह जो दिखाई पड़ रहा है, यह कहीं मृग—मरीचिका तो नहीं है! कहीं मरुस्थल का धोखा तो नहीं है! मरुस्थल में धोखा पैदा होता है प्रकाश के एक नियम के अनुसार। जब प्रकाश की किरणें तप्त रेत पर पड़ती हैं, तो तप्त रेत से वापस लौटती हैं। ये जो वापस लौटती किरणें हैं, ये कंपती हुई गरम होकर वापस लौटती हैं। इनके कंपन के कारण तुम्हें कभी—कभी यहां भी, मरुस्थल में जाने की जरूरत भी नहीं, भरी दुपहरी में किसी के छप्पर पर गौर से देखना, तो तुम्हें किरणों की लहरें कंपित होती मालूम होंगी।
ये कुछ भी नहीं हैं, क्योंकि मरुस्थल तो भयंकर अग्नि है, रेत ही रेत है; लहरें कंपती हुई मालूम पड़ती हैं किरणों की। लेकिन वह कंपन इतना साफ मालूम पड़ता है कि लगता है, पानी में लहरें उठ रही हों। और भरोसा और भी गहरा आ जाता है। आस—पास खड़े हुए वृक्षों की छाया बनने लगती है किरणों की कंपती हुई लहरों में। और वह तो पक्का हो गया कि जल है, नहीं तो छाया कैसे बनेगी! जल के बिना कहीं छाया बन सकती है? रेत में कहीं वृक्ष की छाया बन सकती है? लेकिन कंपती लहरों में वृक्ष की छाया बन जाती है किरणों में।
और फिर लगी भीतर प्यास! भीतर की प्यास और बाहर प्रकाश का जाल, भरोसा आ जाता है। लेकिन जैसे ही तुम पास पहुंचते हो, जैसे—जैसे पास पहुंचते हो, तुम बड़े चकित होते हो। जैसे—जैसे पास पहुंचते हो, ऐसे—ऐसे सरोवर पीछे हटने लगता है। तुम्हारी और सरोवर की दूरी उतनी ही रहती है, चाहे तुम कितने ही पास आ जाओ। क्योंकि अब तुम्हें दूर किरणों के जाल पर पानी दिखाई पड़ता है। प्यासा आदमी फिर भी भरोसा करता है। प्यासा तो अंधा हो जाता है।
तो जहां—जहां नारद गए होंगे, वहीं—वहीं से कृष्ण हट गए; यह कहानी बड़ी प्रीतिकर है। ऐसा हुआ हो, न हुआ हो, लेकिन खोजी के जीवन में यह घटना आती है।
तुम अपनी प्यास के कारण परमात्मा को बाहर देखते हो। क्योंकि तुमने जितनी चीजों की प्यास की है, सभी को बाहर पाया है। जल की प्यास लगी, जल बाहर पाया। भूख लगी, क्षुधा लगी, भोजन बाहर पाया। प्रेम उठा, भीतर तो प्रेमी नहीं मिला, बाहर पाया। महत्वाकांक्षा उठी, बाहर पद पाए धन पाया। जो भी भीतर जगा, उसको तृप्त करने वाला सदा तुमने बाहर पाया।
तो जब परमात्मा की प्यास जगेगी, तब भी तुम्हारे पूरे जीवन का अनुभव कहेगा, बाहर होना चाहिए। जब भी उठी प्यास, बाहर ही तृप्ति पाई। जब भी उठी अतृप्ति, बाहर ही संतोष पाया। सारे जन्मों का सार निचोड़ है, गणित है, कि भीतर होती है प्यास, जल बाहर होता है। जब परमात्मा की प्यास उठेगी, तब भी तुम बाहर खोजोगे—मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में—बाहर खोजोगे। ! आकाश में, पाताल में, सब जगह खोजोगे। वहां न खोजोगे, जहां तुम्हारी प्यास है।
संसार में प्यास तो भीतर होती है, जल बाहर होता है। परमात्मा की खोज में जहां प्यास है, वहीं सरोवर है। वे भिन्न आयाम हैं; तुम्हारे अनुभव से उसका कोई संबंध नहीं।
तो जहां—जहां नारद को खबर मिली, जहां—जहां मृग—मरीचिका बनी, जहां—जहां धोखा खड़ा हुआ, वहां—वहा नारद भागे। पता लगा, कृष्ण पूना में हैं, नारद पूना आए। पता लगा, कृष्ण कलकत्ते में हैं, नारद कलकत्ता गए। लेकिन जब तक कलकत्ता पहुंचे, तब तक कृष्ण कहीं और जा चुके। ऐसे वे भटकते रहे।
यह थोड़ा विचारने जैसी बात है कि नारद जैसा बुद्धिमान आदमी जीवनभर भटकता रहा और न खोज पाया! सबको मिल गए कृष्ण, नारद को क्यों न मिले?
नारद प्यासा है, गहरी प्यास है। प्यास अंधा कर देती है। और बाहर खोज रहा है। बाहर की खोज में जहां—जहां पाया, जहां—जहां खबर मिली, गए; लेकिन कृष्ण वहां से हट गए। पूरा जीवन ऐसे ही गया।
ऐसे ही तो तुम्हारे बहुत—से जीवन गए। न नारद को समझ आई, न तुम्हें अभी समझ आई है कि परमात्मा की प्यास और परमात्मा दो चीजें नहीं हैं। वहां द्वैत है ही नहीं। वहा प्यास ही सरोवर है। वहां भूख ही भोजन है। वहां अद्वैत है। वहां खोजी और खोजने वाला दो नहीं हैं। वहा खोजने वाला और जिसको खोज रहा है, वे दोनों एक हैं।
वहा तुम और तुम्हारा भगवान दो नहीं हैं। वहां भक्त और भगवान अन्य—अन्य नहीं हैं; वहां अनन्य है, अभिन्न है। वहां एक है। वहां तुम्हीं हो। चाहो तो भक्त बन जाओ और चाहो तो भगवान बन जाओ। अगर तुम भक्त बने, तो तुम भगवान को बाहर खोजते रहोगे।
वही तो नारद की मुसीबत है। नारद भक्त हैं। भक्त बाहर खोजता रहेगा और भटकता रहेगा। जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है, तुम भगवान बन जाओ।
भगवान बनने का क्या मतलब होता है? इतना ही मतलब होता है कि प्यास और सरोवर एक। जिसे मैं खोज रहा हूं? वही मैं हूं। जो खोज रहा है, वही मंजिल है। मार्ग और मंजिल अलग नहीं। साधन और साध्य दो नहीं। एक ही है। और जो एक की तलाश करेगा, उसे तो भीतर ही खोजना पड़ेगा।
काश! नारद आंख बंद कर लेते और भीतर देखते। तो जिस क्या को बाहर चूकते रहे थे, उसे भीतर हंसता हुआ पाते। वह वहां विराजमान है, भीतर प्रतीक्षा कर रहा है। बुला भी रहा है कि नारद, बाहर क्यों भटकता है? मैं तेरे भीतर हूं!
लेकिन जो बाहर भटकता है, वह भीतर की आवाज नहीं सुनता। नारद प्यासे थे। लेकिन प्यास ने उन्हें मृग—मरीचिका सुझा दी। तो एक तो वह आदमी है, जो प्यासा भी होता है, फिर भी चूकता है। एक वह आदमी है, जो प्यासा ही नहीं होता, इसलिए मिलने का सवाल ही नहीं है। नारद तो कभी न कभी मिल जाएंगे, एक जन्म में न मिल पाए हों, दूसरे जन्म में मिल जाएंगे, तीसरे जन्म में मिल जाएंगे। ऐसी कोई जल्दी भी नहीं है। अनंत काल है। शेष बहुत समय है। कथा चलती ही रही है। इसलिए कुछ अंत नहीं होता एक जीवन पर। एक जीवन तो एक कण है। समय का तो विस्तीर्ण सागर है 1 कोई जल्दी नहीं है। नारद कहीं न कहीं मिल ही जाएंगे। लेकिन जिसकी प्यास ही नहीं जगी, वह कैसे मिलेगा?
प्यास जगने का पहला कदम है, बाहर खोजना। और बाहर खोजकर जब असफल होते हैं, बार—बार असफल होते हैं; तब सुरति आती है, स्मृति आती है कि अब भीतर और खोज लें।
इसलिए नारद बनो। खाली बैठे रहने से कुछ भी न होगा। बाहर खोजना ही पड़ेगा, तभी तो भीतर खोजने का भान आएगा। बाहर हारोगे, तो भीतर जागोगे। बाहर गिरोगे बार—बार, तो भीतर उठोगे। बाहर टकरा—टकराकर असफलता—असफलता— असफलता हाथ लगेगी, तो एक दिन तुम्हें भी याद आ जाएगी कि बहुत खोजा बाहर, अब थोड़ा भीतर भी नजर कर लें, थोड़ा भीतर भी देख लें। पता नहीं, कहीं भीतर छिपा हो!
जब बाहर चूक ही जाता है हर बार, मिलते—मिलते चूक जाता है, पहुंचते —पहुंचते चूक जाता है, तो कितनी देर तुम बाहर खोजते रहोगे! मूढ़ से मूड आदमी को भी एक दिन समझ आ जाएगी कि दो ही तो दिशाएं हैं, बाहर और भीतर। बाहर खोज लिया, अब जरा भीतर और देख लें।
तो खोज का पहला पड़ाव नारद हैं। अगर प्यास ही न लगी, तो यह तो पक्का है कि मृग—मरीचिका पैदा न होगी। कृष्ण तुम्हारे पास से भी गुजरते होंगे, तो तुम आंख उठाकर न देखोगे। देख भी लोगे, तो भी दिखाई न पड़ेंगे। देख भी लोगे, तो कुछ और समझोगे।
कृष्ण मौजूद हैं, बहुत कम लोग ही तो देख पाते हैं। अर्जुन को भी बड़ी देर लगती है देख पाने में। अर्जुन भी पूछता चला जाता है। वह कृष्ण को टटोलने की कोशिश कर रहा है, जांचने की कोशिश कर रहा है। उसे भी पक्का भरोसा नहीं है। इसीलिए तो इतनी लंबी गीता चलती है। नहीं तो कृष्ण कह देते, लड़। भरोसा पूरा होता, वह लड़ता।
संदेह था, शक था। और शक बिलकुल स्वाभाविक मालूम होता है। क्योंकि कृष्ण मित्र थे। मित्र में भगवान देखना बहुत मुश्किल है। जो बहुत दूर है, उसमें भगवान देखना आसान है। जो बहुत पास है, उसमें देखना बहुत मुश्किल है। क्योंकि वह तुम्हीं जैसा है। तुम्हें उसकी भूल—चूके भी पता हैं। तुम उसे परम पुरुष कैसे मान सकते हो! तुमने उसे प्यासा देखा है, भूखा देखा है, थका—मादा देखा है, सोते देखा है, उठते देखा है। गरमी में पसीना बहते देखा है, सर्दी में कंपते देखा है। ठीक तुम जैसा है। किसी ने गाली दी है, तो नाराज होते देखा है। किसी ने प्रेम किया है, तो प्रसन्न होते देखा है। ठीक तुम जैसा है। कैसे तुम भगवान को मान सकोगे कि वह भगवान है?
कृष्ण को अर्जुन कैसे माने कि वे भगवान हैं? दुर्योधन भी नहीं मानता, पर उसका न मानना पक्का है। उसकी अश्रद्धा पूर्ण है। हा, अर्जुन की श्रद्धा पूरी नहीं है। अश्रद्धा भी पूरी नहीं है, डांवाडोल है।
अर्जुन शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। वह बनता है ऋजु से। ऋजु का अर्थ होता है, सीधा। जैसे ज्योति जलती हो दीए की, कंपती न हो। अऋजु का अर्थ होता है, कंपता हुआ, डावाडोल, चंचल, क्षणभर श्रद्धा, क्षणभर अश्रद्धा।
देखता है मित्र को, तो मित्र दिखाई पड़ता है। जरा गौर से देखता है, तो मित्र खो जाता है, भगवान की झलक मिलती है। भरोसा आता भी है, नहीं भी आता। इसलिए इतनी लंबी गीता चलती है। यह भरोसे की खोज है, श्रद्धा की खोज है।
अर्जुन टटोल रहा है। वह यह कह रहा है कि सच में ही, सच में ही तुम विराट पुरुष हो? सच में ही तुम वह हो, जिसका तुम दावा करते हो? सच में तुम ही हो, जिसने सब बनाया? तुम्हीं हो, जो सब में छिपे हो? भरोसा नहीं आता। मेरे सारथी होकर बैठे हो! मेरा रथ चला रहे हो! मेरे घोड़ों को पानी पिलाते हो, खुजलाते हो! शरीर तो तुम्हारा मुझ जैसा ही मालूम पड़ता है। शब्द भी तुम्हारे मुझ जैसे मालूम पड़ते हैं।
लेकिन थोड़ा—सा कुछ पार भी झलकता हुआ आता है, कुछ अतिक्रमण भी करता है। कुछ विराट भी है, छोटे—से आंगन में ही सही, आकाश भी है। उसकी भी झलक मिलती है।
दुर्योधन पक्का है, दृढ़ निश्चय है। उसकी अश्रद्धा पूरी है। उसने कभी भूलकर भी नहीं सोचा कि इस आदमी में कोई परमात्मा है। अर्जुन की श्रद्धा—अश्रद्धा के बीच दौड़ है।
जिसकी प्यास ही नहीं है, वह तो खोजता ही नहीं। उसे तो दूर भी नहीं दिखाई पड़ता परमात्मा, बाहर भी नहीं दिखाई पड़ता। उसके लिए परमात्मा शब्द व्यर्थ है। उसमें कोई अर्थ नहीं है। वह कामचलाऊ है।
अगर वह कभी परमात्मा शब्द का उपयोग भी करता है, तो तुम यह मत सोचना कि उसकी कोई सार्थकता है। उसकी कोई सार्थकता नहीं है। ऐसा आदमी कभी—कभी कहता है, कोई बात उसे मालूम नहीं, तुम उससे पूछो, वह कहता है, परमात्मा जाने। तुम यह मत समझना कि वह यह कह रहा है कि परमात्मा जानता है। जब वह कहता है, परमात्मा जाने, तो वह यह कहता है कि कोई भी नहीं जानता। उसका मतलब यह होता है कि कोई भी नहीं जानता। परमात्मा यानी कोई भी नहीं। वह उपयोग करता है।
मुल्ला नसरुद्दीन नास्तिक है। ईश्वर को मानता नहीं, पूजा—प्रार्थना को मानता नहीं। कभी मस्जिद नहीं गया; कभी कुरान उठाकर नहीं पढ़ी।
एक यात्रा में एक मौलवी का साथ हो गया। सर्द ठंडे दिन थे और मौलवी पांच बजे सुबह प्रार्थना करने को उठा कंपकंपाता हुआ; दात कैप रहे, हाथ कैप रहे। बड़ी सर्द रात। मुल्ला अपने बिस्तर में दबा है। मौलवी को उठता देखकर उसने भी जरा—सा रजाई से झांककर देखा और कहा कि धन्यवाद भगवान का कि हम आस्तिक नहीं हैं।
इसके भगवान शब्द का क्या अर्थ होगा? धन्यवाद भगवान का कि हम आस्तिक नहीं हैं! नहीं तो पांच बजे रात, इस सर्द सुबह में उठकर प्रार्थना करनी पड़ती। यह भी भगवान शब्द का उपयोग करता है, लेकिन इसका कोई प्रयोजन नहीं है। यह अर्थहीन शब्द है।
भगवान जैसे शब्द में अर्थ तो तभी आता है, जब तुम्हें थोड़ी—सी प्रतीति, थोड़ी सी झलक, थोड़ा झरोखा खुलना शुरू होता है। भगवान शब्द का अर्थ शब्दकोशों में नहीं लिखा है। वह जीवन की अनुभूति में है।
जिसकी प्यास ही नहीं है, उसे बाहर की दौड़ तो नहीं होगी, वह नारद जैसा भटकेगा नहीं। लेकिन इससे प्रसन्न मत होना कि हम भटक नहीं रहे हैं। क्योंकि जो भटकता है, वह कभी ठीक राह पर भी आ जाता है। जो भटकता ही नहीं, वह कभी ठीक राह पर नहीं आता। जो भूल करता है, वह कभी भूल सुधार भी लेता है। जो भूल करता ही नहीं, वह सुधारेगा कैसे?
इसलिए भूल करने से मत डरना और भटकने से भयभीत मत होना। जो पहुंचे हैं, सभी भटककर पहुंचे हैं। और जिन्होंने पाया है, बहुत भूलें करके पाया है। इसलिए भूल करने से मत डरना। वह कायर का लक्षण है। और भटकने से मत डरना, वह कमजोर की परिभाषा है।
हिम्मतवर आदमी भूल करने को राजी होता है, हजार भूलें करने को राजी होता है। एक बात के लिए भर राजी नहीं होता; एक ही भूल को दुबारा करने को राजी नहीं होता। नई—नई भूलें करता है। क्योंकि भूल न करोगे, तो जानोगे कैसे? पहचानोगे कैसे? टटोलोगे न, तो द्वार कैसे मिलेगा?
दीवार को टटोलने से बचना मत। क्योंकि जहां हम खड़े हैं, अंधकार में, वहां टटोला जा सकता है और कुछ किया नहीं जा सकता। लेकिन टटोलने वालों ने धीरे— धीरे द्वार पा लिया है। तुम इससे मत डरना कि टटोलने में हंसी होगी, लोग मखौल करेंगे, क्या दीवार टटोल रहे हो! अंधे हो?
तो अकड़े हुए मत बैठे रहना अंधेरे में कि टटोलने से अंधेपन का पता चलता है। ये देखो नारद, कितना टटोल रहा है। जहां पाता है, वहीं जाता है। लेकिन द्वार नहीं मिलता, दीवार ही मिलती है। खोजता है कृष्ण को, जहां खबर मिलती है, वहीं जाता है। पाता है, वे आगे चले गए, कहीं और चले गए। मिलन नहीं हो पाता। हम ही भले; अपनी जगह तो बैठे हैं! न कहीं जाते, न भटकते। कम से कम इतना तो साफ है कि हमें कोई अज्ञानी नहीं कहेगा। भूल की ही नहीं, तो अज्ञानी कोई कैसे कहेगा!
यह कमजोर का लक्षण है। ऐसे लोग बैठे—बैठे सड़ते हैं।
दुनिया में एक ही भूल है मेरे लेखे और वह भूल यह है कि तुम उठो ही न, टटोलो ही न, चलो ही न। वही एक भूल है, बस। क्योंकि टटोलोगे, तो किसी न किसी दिन द्वार मिल जाएगा। द्वार है। टटोलना कितना ही लंबा चले, लेकिन द्वार है। नारद ने कहीं न कहीं पा लिया होगा।
प्यास को जगाओ, प्यास को उभासे। मेरे पास इतना ही हो सकता है कि मैं तुम्हें प्यास दे दूं। परमात्मा को तो कोई भी नहीं दे सकता। प्यास दी जा सकती है, प्यास उकसाई जा सकती है।
एक दफा प्यास तुम्हें पकड़ ले, प्यास का ज्वर तुम्हें पकड़ ले, एक बेचैनी तुममें आ जाए एक असंतोष तुम्हें घेर ले, तुम चल पड़ो, टटोलने लगो, भटकने लगो। कोई हर्जा नहीं, कृष्ण को पहले बाहर ही खोज लेना। मंदिर—मस्जिदों में जाना, द्वार—द्वार ठकठकाना। यह करना ही पड़ता है।
इजिप्त में फकीरों का एक पुराना वचन है कि जिसे अपने घर आना हो, उसे बहुत दूसरों के घरों पर दस्तक देनी पड़ती है। अपने ही घर लौटने के लिए न मालूम कितने—कितने मार्गों पर भटकना पड़ता है।
आस्कर वाइल्ड, पश्चिम के एक बहुत विचारशील लेखक ने लिखा है कि जब मैं सारी दुनिया में भटका, तभी अपने देश को पहचान पाया। तब अपने गांव आया, तब मेरा गांव और ही हो गया। क्योंकि अब मैं और था, सारी दुनिया देखकर लौटा था। गांव के वृक्ष शानदार मालूम होने लगे, और गांव के पक्षी, पहली दफा मैंने उनके गीत सुने। क्योंकि दुनिया ने मेरी आंखें खोल दीं। अपने ही गांव में था, तो सोया—सोया था। पता ही न था।
जब तक तुम बहुत न भटक लो, तब तक तुम्हें पहचान ही न आ सकेगी कि मंदिर तुम्हारे भीतर था। वह बहुत भटकने के बाद मिला हुआ अनुभव है। वह कीमत चुकानी ही पड़ती है। उस कीमत चुकाने से मत डरना।
मैं तुम्हें परमात्मा नहीं दे सकता; कोई नहीं दे सकता, किसी ने कभी दिया नहीं। क्या दिया है बुद्ध पुरुषों ने? महावीर ने क्या दिया है लोगों को? एक पागलपन दिया, एक प्यास दी। जगा दी सोई हुई प्यास।
वह भी देना कहना ठीक नहीं है। वह है तुम्हारे भीतर, दबी पड़ी है। या तुम उस प्यास की गलत व्याख्या कर रहे हो। कोई धन खोज रहा है, लेकिन वस्तुत: परमात्मा खोजना चाहता है। कोई पत्नी खोज रहा है, पति खोज रहा है; लेकिन वस्तुत: परमात्मा खोजना चाहता है। और इसलिए तो तुम्हारे जीवन में इतनी पीड़ा है। धन न मिलेगा, तो पीड़ा रहेगी। धन मिल जाएगा, तो पीड़ा रहेगी। क्योंकि धन मिलकर भी तो वह न मिलेगा, जो तुम खोज रहे थे। तुम परमात्मा खोज रहे हो।
मेरे देखे हर आदमी परमात्मा खोज रहा है। नाम उसने अलग—अलग रखे हैं। कोई कहता है, पद खोज रहा हूं, राष्ट्रपति होना है! राष्ट्रपति होकर अचानक तुमको पता चलेगा, यह तो कुछ भी न मिला। मरोगे अब भी। इस पद का मूल्य क्या? यह कल छीन लिया जा सकता है। जो छीनी जा सकती है, वह कोई प्रतिष्ठा है?
प्रतिष्ठा का तो अर्थ ही यह है कि जो छीनी न जा सके, जो मिली, तो मिली; जो शाश्वत है, सनातन है। पद भी क्या, जिस पर चढ़ाए जाओगे और उतारे जाओगे। वह तो अपमान है। राष्ट्रपति बने, फिर भूतपूर्व राष्ट्रपति होना पड़ेगा। फिर जिंदा—जिंदा भूत हो जाओगे, जीते—जी मरे हो जाओगे।
जो छिन जाएगा, उसका मूल्य क्या? समझदार उसे खोजता ही नहीं। समझदार उसी को खोजता है, जो मिला, तो मिला, जिसको छीनने की फिर कोई जगह नहीं। लेकिन वह तो परमात्मा है, जो मिलता है, तो फिर छीना नहीं जा सकता। तुम उसी को खोज रहे हो। तुम भी ऐसा धन खोजते हो, जो छीना न जा सके। इसलिए कितना इंतजाम करते हो! तिजोरियों में बंद करते हो, बैंक लाकर्स में रखते हो, स्विटजरलैंड के बैंकों में जमा करते हो। बचाते हो सब तरफ से कि किसी तरह से कोई उपद्रव न आ जाए।
यहां तिजोरी चोरी जा सकती है। यहां सरकार का कोई भरोसा नहीं है। कुछ पक्का नहीं। क्योंकि इंदिरा गांधी के गुरु रूस में रहते हैं। कब गुरु आदेश देंगे और कब यह मुल्क कम्युनिस्ट हो जाएगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। तिजोरियां उठ जाएंगी, खुल जाएंगी, बैंक के लाकर्स काम न आएंगे। तो स्विटजरलैंड में बचाते हो। मगर कहीं भी बचाओ, धन बाहर का बच नहीं सकता, जाएगा। और धन बच भी जाए, तुम चले जाओगे। तो धन का क्या करोगे! उसे तुम ले जा न सकोगे।
खोज तुम ऐसे ही धन की कर रहे हो, जो छीना न जा सके, जो सदा—सदा हो, जिसमें शाश्वतता छिपी हो। तुम परम धन को खोज रहे हो, परमात्मा को खोज रहे हो।
तुम्हारी सारी खोज में भनक उसी खोज की है। मैं इतना ही कर सकता हूं कि तुम्हें जगाऊं और तुम्हें बताऊं कि तुम्हारी प्यास क्या है। तुम दौड़ तो रहे हो, लेकिन तुम कहां दौड़ रहे हो? किसलिए दौड़ रहे हो? तुम मंजिल क्या चाहते हो?
कोई भी व्यक्ति अगर शांत होकर थोड़ा—सा सोचेगा, तो वह पाएगा, परमात्मा के बिना तृप्ति हो नहीं सकती। कितना ही स्त्री पति में परमात्मा देखे, कुछ फर्क नहीं पड़ता। वह आदमी तो दिखाई पड़ता ही रहता है। कहती रहती है कि तुम मेरे परमात्मा हो, वक्त—बेवक्त पैर भी छू लेती है; लेकिन परमात्मा दिखाई तो पड़ता नहीं। जब तक परमात्मा ही तुम्हारा प्रेमी न होगा, तब तक तृप्ति हो नहीं सकती।
पति कितना ही प्रेम करे पत्नी को, प्रेम कभी पूरा नहीं हो पाता।
क्योंकि पूरा तो प्रेम उसी के साथ हो सकता है, जो पूरा हो। अधूरे के साथ पूरा प्रेम कैसे हो सकता है? अधूरे को तुम पूरा कैसे चाह सकते हो?
और यहां तो सभी अधूरे हैं। अधूरे की चाह अधूरी ही बनी रहेगी। पूरा कभी न होगा। एक अतृप्ति जलती रहेगी। इसलिए तो एक स्त्री से चूक जाते हो, तो दूसरी में खोजते हो, तीसरी में खोजते हो। शायद कहीं पूरा मिल जाए।
वह पूरा सिर्फ परमात्मा में मिलता है। उससे कम में मनुष्य की प्यास बुझने वाली नहीं है। और यह तुम्हारा धन्यभाग है कि नहीं बुझती। अगर बुझ जाती, तो तुम न मालूम किस कूड़े के ढेर पर बैठे होते। वहीं बुझ गई होती, तो खतम यात्रा हो जाती। धन पर बैठे रहते। नहीं बुझती। परमात्मा तुम्हें यह मौका नहीं देगा कि बुझ जाए। वह तुम्हें बुला ही लेगा अपनी तरफ।
दौड़ो! प्यासे बनो! और अपनी हर प्यास में खोजो उस एक प्यास को। जिस दिन तुम्हारी प्यास घनी होने लगेगी, पहले तो तुम नारद ही बनोगे।
नारद परम भक्त हैं। भक्त पहले भगवान को बाहर खोजता है। और बाहर खोज—खोजकर भी नहीं पाता। रोता है, चीखता है, गाता है, नाचता है, लेकिन कमी बनी रहती है, फासला बना रहता है, दूरी बनी रहती है। और जैसे—जैसे करीब आता है, वैसे—वैसे लगता है कि इतनी—सी दूरी भी खलती है। इतनी दूरी भी बर्दाश्त नहीं, लेकिन दूरी मिटती नहीं। चूक—चूक जाता है। तब भक्त एक दिन भीतर आंख ले जाता है।
भक्त पहले तो प्रार्थना करता है। प्रार्थना यानी परमात्मा बाहर है। फिर भक्त ध्यान में उतरता है। ध्यान यानी परमात्मा भीतर है। प्रार्थना पहली अवस्था है प्यास की, और ध्यान दूसरी अवस्था है प्यास की।
ध्यान का अर्थ है, अब हम भीतर जाते हैं। ध्यान का अर्थ है, अब हम शब्द भी न बोलेंगे, अब हम पूजा भी न करेंगे, अब हम आरती उठाकर आरती भी न फिराके। कोई बाहर नहीं है। अब हम भीतर की यात्रा पर जाते हैं। अंतर्यात्रा ध्यान है।
नारद ने जरूर पा लिया होगा।
प्यास को जगाओ। नारद बनो। फिर दूसरा कदम अपने से उठ जाता है। अगर प्यास प्रगाढ़ हुई, तो तुम कितनी देर मृग—मरीचिकाओ में भटकोगे? एक न एक दिन समझ गोगी, दीया जलेगा। एक न एक दिन आंख खुलेगी, नींद टूटेगी, तुम जागोगे और पाओगे कि परमात्मा भीतर बैठा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।

 दूसरा प्रश्न :
क्या नास्तिक आस्तिक हुए बिना प्रबुद्ध हो सकता है?

 स्तिकता के अर्थ पर निर्भर करेगा। आस्तिकता से तुम्हारा क्या अर्थ है? क्या तुम्हारा आस्तिकता से अर्थ है कि जो किसी ईश्वर में भरोसा करता है, विश्वास करता है? या तुम्हारी आस्तिकता से अर्थ है कि जो स्वयं भगवतस्वरूप हो जाता है, जो स्वयं भगवान हो जाता है?
दो तरह की आस्तिकताए हैं। एक आस्तिकता है भक्त की, नारद की, जो बाहर खोज रहा है परमात्मा को। वह आस्तिकता बड़ी लचर है। वह कोई आखिरी आस्तिकता नहीं है। एक आस्तिकता है महावीर की, बुद्ध की, जिन्होंने परमात्मा को भीतर पा लिया है। तो बुद्ध ने तो कह दिया कि कोई भगवान है ही नहीं। जब बुद्ध ने कहा, कोई भगवान नहीं है, तो वे यही कह रहे हैं कि सभी कुछ भगवान है, इसलिए कोई भगवान हो, इसका उपाय नहीं।
तभी तक सार्थक है यह बात कहनी कि राम भगवान हैं, जब तक कि लक्ष्मण भगवान न हों। कम से कम रावण भगवान न हो, तभी तक इस बात की कोई सार्थकता है कहने की कि राम भगवान हैं। लेकिन अगर लक्ष्मण भी भगवान हैं और रावण भी भगवान हैं, तो राम को भगवान कहने का क्या अर्थ रह जाता है? कोई अर्थ नहीं रह जाता।
महावीर और बुद्ध परम आस्तिक हैं; उनकी आस्तिकता साधारण आस्तिकता से बहुत गहरी है। वे कहते हैं, सभी कुछ भगवत्ता है। यहां पेडू—पौधे भी भगवान हैं। उनकी नींद थोड़ी गहरी लगी होगी तुमसे। यहां चट्टान, पहाड़ भी भगवान हैं। वे शायद और भी ज्यादा मूर्च्छा में पड़े हैं, कोमा में सो रहे हैं। लेकिन हैं भगवान ही, कितनी ही गहरी नींद हो।
चट्टान खूब गहरी सो रही है, आधी रात की नींद है। पौधे उतने गहरे नहीं हैं, यह ब्रह्ममुहूर्त करीब आने लगा। पशु—पक्षी—भोर हो गई; आदमी—सुबह हो गई। बुद्ध—महावीर, भरी दुपहरी में जी रहे हैं, सूरज आकाश के मध्य में आ गया। लेकिन ये सब सोने की ही और जागने की ही तारतम्यताएं हैं, ग्रेडेशंस हैं। महावीर में, बुद्ध में और हिमालय की चट्टानों में जो अंतर है, वह गुण का नहीं है, मात्रा का है, होश की मात्रा का है।
इसलिए महावीर ने पहाड़ों को भी एकेंद्रिय जीव कहा है। उनकी एक ही इंद्रिय है, सिर्फ शरीर है। न आंख है, न हाथ है, न पैर है। न वे चल सकते, न उठ सकते, न देख सकते, न सुन सकते, लेकिन शरीर है। वे स्पर्श अनुभव कर सकते हैं। बहुत गहरे सोए हैं।
महावीर ने बड़ी गहरी व्याख्या की है, पहाड़ों को कहा, एकेंद्रिय। फिर इसी मात्रा से वे उठाते आते हैं। दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय; जिनकी तीन इंद्रियां जगी हैं, ऐसे पशु—पक्षी हैं। चार इंद्रिय वाले पशु—पक्षी हैं। मनुष्य पंचेंद्रिय है। और जो मनुष्य से ऊपर उठना शुरू होता है, उसकी छठवीं इंद्रिय कानी शुरू होती है। और जो मनुष्य के बिलकुल पार चला जाता है, वह अतींद्रिय में जाग जाता है। लेकिन सारा भेद मात्रा का है।
भगवान से तुम्हारा क्या प्रयोजन है? आस्तिकता से क्या अर्थ है? क्या आस्तिकता का अर्थ है कि कोई व्यक्ति आकाश में बैठा हुआ सारे संसार को चला रहा है?
तो तुम्हारी आस्तिकता बचकानी है, बच्चों की है, कहानी है। समझाने के लिए ठीक है। तुम्हारी आस्तिकता ऐसी है, जैसे ग गणेश का। गणेश से कुछ लेना—देना नहीं है ग का। ग गधे का भी उतना ही है।
बच्चे को समझाते हैं, ग गणेश का। अब नहीं समझाते ऐसा, अब नई किताबों में लिखा है, ग गधे का। क्योंकि राज्य अब सेकुलर है। उसमें धार्मिक शब्दों का उपयोग नहीं हो सकता। मैं जब पढ़ता था, तब ग गणेश का था। अभी मैं एक दिन देखा बच्चों की किताब, ग गधे का हो गया! इसको लोग विकास कह रहे हैं। गणेश पर संदेह उठ गया, गधे पर भरोसा आ गया।
लेकिन जब हम कहते हैं, परमात्मा सारे संसार को चला रहा है, तो हम बच्चे को समझा रहे हैं, एक कहानी गढ़ रहे हैं। जिन्होंने जाना है, उन्होंने तो जाना कि परमात्मा ही संसार है; चलाने वाला और चलाए जाने वाले दो नहीं हैं, एक ही है।
इसलिए तो हिंदुओं ने परमात्मा को नटराज कहा। नटराज का अर्थ होता है, नाचने वाला। नाचने वाले की बड़ी खूबी है एक। वह खूबी यह है कि तुम नाचने वाले से नाच को अलग नहीं कर सकते। कोई चित्रकार है, तो चित्र अलग हो जाता है, बनाने वाला अलग हो जाता है। कोई मूर्तिकार है, मूर्ति अलग हो जाती है, मूर्तिकार अलग हो जाता है। मूर्तिकार मर जाए, तो भी मूर्ति बनी रहेगी हजारों साल तक। चित्रकार के चित्र को जला दो, तो चित्रकार न जलेगा।
इसलिए हिंदुओं ने परमात्मा को चित्रकार नहीं कहा, मूर्तिकार नहीं कहा। उन्होंने कहा, नटराज। नटराज का मतलब यह है कि तुम उसकी प्रकृति को और उसे अलग—अलग नहीं कर सकते, जैसे नर्तक के नृत्य को अलग नहीं कर सकते। नर्तक मर गया, नृत्य मर गया। और अगर तुम नृत्य बंद कर दो, तो उस आदमी को नर्तक कहने का अब क्या अर्थ है! वह तो नर्तक तभी तक था, जब तक नाचता था।
सृष्टि और स्रष्टा के बीच नाचने वाले और नाच का संबंध है। उन्हें तुम अलग नहीं कर सकते। इसलिए कोई परमात्मा चला रहा है, ऐसा नहीं। जब कोई नर्तक नाचता है—सिक्सडू की छोड़ दो, क्योंकि उसको तो नर्तक कहना ठीक नहीं—जब कोई कुशल नर्तक नाचता है, तो नाचने वाला और नाच दो नहीं होते।
पश्चिम में एक बहुत बड़ा नर्तक हुआ इस सदी के प्रारंभ में, उसका नाम था, निजिंस्की। मनुष्य जाति के इतिहास में थोड़े से लोग ऐसे नर्तक हुए हैं, जैसा निजिंस्की था। निजिंस्की के साथ बड़ी मुश्किल थी। नाच शुरू तो वह करता था, लेकिन फिर उस पर कोई नियंत्रण नहीं रखा जा सकता था, कि थियेटर का मैनेजर कहे कि अब घंटी बजे तो बंद। क्योंकि वह कहेगा, बंद करने वाला कौन? एक दफे शुरू हो गया, फिर जब होगा बंद, तब होगा।
तो कभी तीन घंटे नाचता, चार घंटे नाचता, कभी पंद्रह मिनट में पूरा हो जाता। मैनेजर्स बहुत परेशान थे, व्यवस्था करने वाले थियेटर के, कि किस तरह लोगों को टिकट बेचे! क्योंकि कभी वह खड़ा ही रह जाता और नाचता ही नहीं, और कभी नाचता, तो पूरी रात नाचता।
और उस जैसा नाचने वाला नहीं हुआ है। वैज्ञानिक भी चकित थे उसके नाच से, क्योंकि नाचते—नाचते ऐसी घड़ी आती थी कि वैज्ञानिकों ने भी यह निर्णय दिया कि ग्रेविटेशन का असर उस पर खतम हो जाता है। जमीन में जो कशिश है, जिससे हम जमीन से बंधे हैं, पत्थर को फेंको, वह नीचे आ जाता है। निजिंस्की नाचते—नाचते एक ऐसी घड़ी में पहुंच जाता था, जहां योगी पहुंचते हैं। उस घड़ी में वह इतनी ऊंची छलांगें भरने लगता था, जो कोई मनुष्य कभी भर ही नहीं सकता, क्योंकि जमीन में इतनी कशिश है। और वह ऐसा हलका हो जाता था, जैसे पंख लग गए।
अनेक अध्ययन किए गए हैं निजिंस्की के कि घटना क्या घटती थी! जिसको योग में लेविटेशन कहते हैं, कि कभी—कभी योगी जमीन से ऊपर उठ जाता है। तुमने ऐसी कहानियां सुनी होंगी। कभी—कभी यह घटता है।
अभी पश्चिम में एक महिला है चेकोस्लोवाकिया में, वह चार फीट ऊपर उठ जाती है ध्यान की अवस्था में। उसके बहुत अध्ययन किए गए हैं, चित्र लिए गए हैं, फिल्म ली गई है। नीचे से लकड़ियां निकाली गईं, नीचे से आदमी सरककर निकले कि पता नहीं कोई धोखा तो नहीं है! लेकिन वह चार फीट ऊपर उठ जाती है। जैसे ही वह ध्यान करती है, पंद्रह मिनट के बाद चार फीट ऊपर उठ जाती है। अब यह एक वैज्ञानिक रूप से प्रामाणिक तथ्य है।
निजिंस्की के साथ भी यही होता था। कोई पंद्रह मिनट के बाद एक ट्रांसफामेंशन हो जाता था, एक रूपांतरण हो जाता। निजिंस्की फिर था ही नहीं वहां, उसके चेहरे पर कोई आविर्भाव हो जाता था, वह एक ऊर्जा हो जाता, एक शक्ति मात्र, जो नाचती। और नाचते—नाचते इतनी ऊंची छलागें लेने लगता और हवा में तिरने लगता कि जैसे थोड़ी देर को रुक गया है, न ऊपर जा रहा है, न नीचे गिर रहा है, इतना हलका हो जाता।
निजिंस्की से जब पूछा जाता कि तुम यह कैसे करते हो? तो वह कहता, करने वाला तो कोई होता ही नहीं। बस, यह होता है। कृत्य और कर्ता में फर्क नहीं रह जाता, तभी यह होता है।
हमने परमात्मा को नटराज कहा है, क्योंकि उसका यह नाच है। यह पक्षियों के कंठ में उसी का गीत है, जो तुम सुन रहे हो। वृक्षों से निकलती हवाओं में वही निकलता है। और वृक्षों के फूलों में भी वही खिला है। झरनों में उसी का कल—कल नाद है। मुझसे वही बोल रहा है, तुमसे वही सुन रहा है। वही कहीं चोर है, वही कहीं साधु है। वही कहीं बेईमान है, कहीं परम संत है। वही कहीं रावण है, कहीं राम है। सारी लीला एक की है। और वह एक जो भी कर रहा है, सब उसके भीतर है, बाहर नहीं है।
इसलिए आस्तिक का क्या अर्थ होगा? दो अर्थ होंगे। एक तो बच्चों को सिखाई जाने वाली आस्तिकता, जिसमें हम कहते हैं, परमात्मा ऊपर है। ऐसा लगता है, कोई बड़ा इंजीनियर है, जो सब चीजों को सम्हाल रहा है। या कोई बड़ा न्यायाधीश है और वहा से कानून चला रहा है। और लोगों को दंड दे रहा है; अच्छों को बचा रहा है, बुरों को मार रहा है। या लगता है कि कोई तानाशाह है, कोई स्टैलिन, हिटलर की महाप्रतिमा, कि जो उसकी मौज में आ

 रहा है, कर रहा है। जब पत्तों को हिलाना है, हिला देता है। जब नहीं हिलाना, नहीं हिलाता। नियम उसके हाथ में है, चाहे बचाए, चाहे मारे। सब उसके हाथ में है। तुम स्तुति करो, इसके अतिरिक्त तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है।
यह बच्चों का भगवान है। बच्चों को भी चाहिए। और यह मत सोचना कि सिर्फ छोटे—छोटे बच्चे बच्चे होते हैं। सौ में से नब्बे प्रतिशत लोग तो मरते समय तक बचकाने होते है, उनकी बुद्धि में कोई प्रौढ़ता नहीं आ पाती।
फिर एक प्रौढ़ आस्तिकता है। उस आस्तिकता का कोई संबंध ही इस तरह की धारणा से नहीं है। ध्यान रखना, बच्चों की आस्तिकता में भगवान है। भगवान एक व्यक्ति की तरह, एक पर्सनल व्यक्तिवाची शब्द है। प्रौढ़ व्यक्तियों की भाषा में भगवान है ही नहीं, भगवत्ता है एक गुण, एक क्वालिटी, एक चैतन्य का विस्तार—कोई व्यक्ति नहीं है भगवान कि जिसे तुम मिलोगे। वह तुम्हारे ही होने की आत्यंतिक अवस्था है। अस्तित्व है भगवान। इसलिए बुद्ध और महावीर जैसे परम आस्तिकों ने भगवान शब्द का उपयोग ही नहीं किया। बच्चों की आस्तिकता वाले लोगों ने उनको नास्तिक कहा है, कि ये नास्तिक हैं, क्योंकि ये भगवान को नहीं मानते हैं।
अब इस प्रश्न को समझा जा सकता है।
क्या नास्तिक आस्तिक हुए बिना प्रबुद्ध हो सकता है?
अगर बचकानी आस्तिकता तुम्हारी धारणा में हो, तो नास्तिक उस तरह का आस्तिक हुए बिना प्रबुद्ध हो सकता है। उस तरह की आस्तिकता का कोई मूल्य नहीं है। लेकिन अगर बुद्ध जैसी आस्तिकता का खयाल हो, मैं जिस आस्तिकता की बात करता हूं अगर उसका तुम्हें खयाल हो, तो कैसे कोई नास्तिक बिना आस्तिक हुए प्रबुद्ध हो सकेगा?
प्रबुद्ध होना और आस्तिकता एक ही घटना के दो नाम हैं। बुद्ध होना और भगवान होना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
नहीं, आस्तिक हुए बिना कोई उपाय नहीं है। आस्तिक होना ही पड़ेगा। आस्तिकता एक क्रांति है, वह इस जगत की सबसे बड़ी क्रांति है। वह ऐसा क्षण है समाधि का, जहां तुम्हें अपने अमृत होने का पता चलता है, शाश्वत होने का पता चलता है। जहां तुम्हें पता चलता है कि तुम अलग नहीं हो अस्तित्व से, तुम उसी की तरंग हो। तुम विराट हो। बहुत बार तुम मरे और मरे नहीं। और बहुत बार तुम जन्मे और जन्मे नहीं। तुम सदा थे और सदा रहोगे।
लहर की तरह तुम्हारी धारणा मिट जाती है और सागर की तरह तुम्हें अपना अनुभव होता है। ऐसी आस्तिकता को पाए बिना कोई नास्तिक कैसे प्रबुद्ध हो सकता है!

 आखिरी प्रश्न :

शास्त्र संकेत देते हैं, उपदेश नहीं। आप संकेत भी दे रहे हैं, उपदेश भी। पर मैं अपने को कहीं पहुंचता हुआ नहीं देख या रहा हूं। मुझसे रोज—रोज क्या भूल हो रही है? क्या छूट जाता है?

 भूल बिलकुल साफ है। कहीं पहुंचने की आकांक्षा में भूल है। यह महत्वाकांक्षा कि तुम्हें कहीं पहुंचना है। तुम्हें! मैं! अहंकार को कुछ पाना है! वहीं भूल हो रही है। अहंकार को मिटना है, पाना नहीं है। अहंकार को जाना है, होना नहीं है। अहंकार को खोना है। और वहीं भूल हो रही है।
तुम मुझे सुनते हो और तुम मुझे सुनकर अपने अहंकार में चार चांद लगा लेना चाहते हो। तुम चाहते हो, समाधि उपलब्ध हो जाए। तुम समाधि की संपत्ति को भी अपने अहंकार के साथ जोड़ लेना चाहते हो! तुम चाहते हो, भगवान तुम्हारी मुट्ठी में आ जाए। तुम चाहते हो, तुम जैसे हो वैसे ही रहते कुछ उपलब्ध हो जाए। वहीं भूल हो रही है।
तुम्हें एक बात तो करनी ही पड़ेगी, तुम्हें मिटना होगा। तुम्हारे रहते कोई उपलब्धि होने वाली नहीं है। तुम ही बाधा हो। जिस क्षण तुम मिट जाओगे, सब उपलब्ध है। उसे कभी खोया ही नहीं था। उसे खोने का उपाय नहीं है।
तुम जब तक अपने को पकड़े हो, तब तक तुम उससे चूक रहो हो। फिर तुम लाख ध्यान करो, पूजा—प्रार्थना करो, समाधि लगाओ, आंख बंद करो, खोलो, आसन लगाओ, शीर्षासन करो, कुछ न होगा। तुम वहां मौजूद हो। तुम्हारे रहते परमात्मा नहीं हो सकता। क्योंकि तुम एक भांति हो। तुम हो नहीं, और लगता है कि तुम हो। और जो तुम्हारे भीतर है, वह तुम्हारी इस भांति के कारण प्रकट नहीं हो पाता।
कौन हो तुम? तुम्हारा नाम तुम हो? पैदा हुए थे, कोई नाम लेकर न आए थे। आज उस नाम को कोई गाली दे दे, तो तलवारें निकल आती हैं। वह नाम तुम्हारा है नहीं। दिया हुआ, उधार है। दूसरों ने लेबल लगा दिया। और तुम भी अदभुत हो कि तुम उस लेबल से इतने जोर से चिपक गए! लेबल तुमसे चिपका है, ऐसा नहीं मालूम पड़ता अब, अब तुम लेबल से चिपके हो। तुम कहते हो, यह मेरा नाम है। तुमने गाली दे दी!
बुद्ध का एक शिष्य हुआ, उसका नाम था पूर्ण काश्यप। वह एक गांव से गुजरता था। लोगों ने गालियां दीं, अपमान किया। वह वैसे ही चलता रहा जैसे चल रहा था। जैसे कुछ भी न हुआ, जैसे हवा का एक झोंका भी न आया, जिसमें उसका बाल भी हिल जाता। उसके साथ के एक भिक्षु को क्रोध आ गया कि हद्द हो गई। ये लोग गाली दिए जा रहे हैं। उसने पूर्ण को कहा कि आप सुन रहे हैं और ये गाली दे रहे हैं! मेरी बरदाश्त के बाहर हुआ जा रहा है। हालांकि मुझे ये कोई गाली नहीं दे रहे हैं।
पूर्ण ने कहा, इस पर सोचो। तुम्हें गाली नहीं दे रहे हैं और तुम्हारे बरदाश्त के बाहर हुआ जा रहा है! तुम क्यों बीच में आ रहे हो? जिस तरह तुम्हें ये गाली नहीं दे रहे हैं, उसी तरह मुझे भी नहीं दे रहे हैं। ये तो पूर्ण काश्यप को दे रहे हैं। मेरा क्या लेना—देना! मेरा नाम पूर्ण रख दिया मां—बाप ने, तो पूर्ण हो गया, अपूर्ण रख देते, तो अपूर्ण हो जाता। कुछ इसमें लेना—देना है नहीं।
हिंदू घर में पैदा होते हैं, हिंदू नाम, मुसलमान घर में पैदा हो जाओ, तो मुसलमान नाम। हिंदू घर में राम हो जाते हो, मुसलमान घर में रहीम हो जाते हो। दोनों नाम का मतलब भी एक ही है। मगर राम और रहीम तलवार खींचकर लड़ जाते हैं, क्योंकि हिंदू—मुस्लिम दंगा हो गया। उसमें राम रहीम को मारता है, रहीम राम को मारते हैं। और दोनों नाम थे। नाम का झगड़ा है।
तुम नाम हो? या तुम रूप हो?
दो शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं भारत के, नाम—रूप। नाम वह सब है, जो दूसरों ने तुम्हें समझा दिया कि तुम हो। नाम का अर्थ सिर्फ तुम्हारा नाम नहीं है। दूसरों ने जो समझा दिया कि तुम हो, तुम्हारा नाम राम, रहीम। तुम हिंदू तुम मुसलमान। तुम जैन, तुम शूद्र, तुम ब्राह्मण। जो दूसरों ने तुम्हें समझा दिया, वह सब नाम के अंतर्गत आ जाता है। अगर दूसरे तुम्हें न समझाते, तो जिसका तुम्हें कभी पता न चलता, वह सब नाम के अंतर्गत आ जाता है।
थोड़ी देर को सोचो; अगर तुम हिंदू घर में पैदा न होते या हिंदू घर में पैदा होते ही तुम्हें मुसलमान घर में छोड़ दिया जाता; क्या तुम किसी तरह से खोज सकते थे अपने आप कि तुम हिंदू हो? और कौन जाने, यही हुआ हो तुम्हारे साथ। तुम्हें अपने पिता का पक्का भरोसा है कि तुम उन्हीं से पैदा हुए हो? सिर्फ खयाल है। कोई पक्का तो है नहीं।
तुम हिंदू हो कि मुसलमान हो? तुम्हें अगर छोड़ दिया जाए तुम्हीं पर, तुम्हें कोई न बताए कि तुम हिंदू हो या मुसलमान हो, तो क्या तुम अपने आप जान लोगे कभी कि तुम कौन हो? कैसे जानोगे? वह सब नाम है, दूसरों ने सिखाया है, दूसरों ने पट्टी पढ़ाई है। वह सब कंडीशनिंग है, संस्कार है।
तो नाम के अंतर्गत दूसरों ने जो सिखाया है, सब आ जाता है। और रूप के अंतर्गत तुम्हारी अपनी जो प्राकृतिक भ्रांतियां हैं, वे सब आ जाती हैं। जैसे कि तुम समझते हो, मैं पुरुष हूं। निश्चित ही, यह किसी दूसरे ने तुम्हें नहीं समझाया है कि तुम पुरुष हो। तुम पुरुष हो। क्योंकि तुम्हारे शरीर का रूप—रंग पुरुष का है। अंग पुरुष के हैं। तुम स्त्री हो, क्योंकि अंग स्त्री के हैं। यह कोई किसी ने तुम्हें समझाया नहीं। अगर तुम्हें कोई भी न बताए कि तुम पुरुष हो, तो भी तुम एक दिन खोज लोगे कि तुम पुरुष हो। यह रूप है। इसकी तुम खुद खोज कर सकते हो।
लेकिन तुमने कभी आंख बंद करके भीतर खोजकर देखा कि चेतना क्या पुरुष हो सकती है या स्त्री? तुम्हारा बोध स्त्री है या पुरुष? तुम्हारी कांशसनेस स्त्री है या पुरुष? कभी तुम बच्चे हो, कभी जवान, कभी के। कभी तुमने भीतर गौर किया कि तुम्हारी चेतना जवान से बूढ़ी होती है? कब होती है? बच्चे से जवान होती है? कब होती है?
शरीर पर तो सीमा बनाई जा सकती है, कि यह बच्चा, यह जवान, यह बूढ़ा; चेतना पर तो कोई सीमा नहीं बनती। अगर बूढ़े आदमी को पता न चलने दिया जाए कि वह बूढ़ा है, अंधेरे में रखा जाए, और कोई उसे बताए न कि कब वह जवान से का हो गया, कोई ऐसा उपाय न करने दिया जाए, जिससे उसे पता चल सके। कोई काम न हो उसके ऊपर, बिस्तर पर आराम करता रहे, भोजन वक्त पर मिल जाए शांति से पड़ा रहे, जवान से का हो जाए—अंधेरे में। क्या उसकी चेतना को कभी भी पता चलेगा कि मैं जवान से बूढ़ी हो गई?
सच तो यह है कि तुम जब भी आंख बंद करते हो, तभी तुम संदिग्ध हो जाते हो कि तुम जवान हो, के हो, बच्चे हो, क्या हो? हा, ऊपर दर्पण में जब देखते हो रूप अपना, तो लगता है, के हो गए। बाल सफेद हो गए, हाथ—पैर कमजोर हो गए।
नाम है समाज के द्वारा दी गई भांति और रूप है प्रकृति के द्वारा दी गई भ्रांति। तुम दोनों के पार हो। न तुम नाम हो, न तुम रूप हो। जब तक नाम—रूप का संगठन कुछ पाने की कोशिश करता रहेगा, तब तक तुम चूकते चले जाओगे। इन दो से छूट जाओ—नाम से, रूप से—और भीतर खोजो उसे, जो न तो नाम है और न रूप है। तत्‍क्षण जिसकी तुम तलाश कर रहे हो सदा—सदा से, तुम पाओगे, वह मिला ही हुआ है।
चैतन्य तुम्हारा स्वभाव है, न तो नाम, न रूप। वह चैतन्य ही परमात्मा है।
तो भूल इतनी ही हो रही है कि मुझे सुनकर तुम महत्वाकांक्षा से भर रहे हो। तुमने एक दौड़ बना ली है कि समाधि को पाकर रहेंगे। समाधि कोई पाने जैसी चीज थोड़े ही है। समाधि कोई वस्तु थोड़े ही है कि तुम कहीं से खरीद लाओगे, कि झपट्टा मार दोगे, कि आक्रमण कर दोगे, कि हमला करके उठा लाओगे! समाधि तो ऐसी चित्त—दशा का नाम है, जहां नाम—रूप खो जाते हैं। और नाम—रूप ही समाधि खोज रहा है, तो फिर भूल हो जाएगी।
इसलिए नाम को छोड़ो, रूप को छोड़ो। पहचानो कि न तो तुम शरीर हो और न तुम मन हो। शरीर प्रकृति का दिया हुआ है, मन समाज का दिया हुआ है। मन है नाम, शरीर है रूप, और तुम दोनों के पार हो। तुम सदा ही पार हो। वह जो पीछे खड़ा साक्षी है, जो दोनों को देख रहा है, वही तुम हो। तत्वमसि श्वेतकेतु!
वह जो साक्षी है, उसमें तुम जितने गहरे जग जाओगे, उतनी ही मंजिल पास आ जाएगी। तुम्हें चलकर जाना नहीं है, मंजिल खुद पास आती है। तुम जागे कि मंजिल पास आने लगती है। तुम जैसे—जैसे जागते हो, मंजिल पास आने लगती है। एक दिन तुम परिपूर्ण होश से भर जाते हो, पाते हो कि मंजिल तुम ही हो।
तुम्हीं हो गंतव्य, तुम्हीं हो गति, तुम्हीं हो यात्री, तुम्हीं हो पड़ाव, तुम्हीं हो यात्रा और तुम्हीं हो तीर्थ। तुमसे अन्य कुछ भी नहीं है। लेकिन नाम—रूप बाधा हैं। और तुमने उन्हें जकड़कर पकड़ा है। तुम उन्हें छोड़ते नहीं। और उनके कारण तुम सपने में जीते हो। एक सूत्र रूप से सारी बात कही जा सकती है. नाम—रूप अर्थात माया, नाम—रूप से मुक्ति अर्थात ब्रह्म।

अब हम सूत्र को लें।
आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले एवं रसयुक्त, चिकने, स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय, ऐसे आहार सात्विक पुरुष को प्रिय होते हैं।
कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, अति गरम तथा तीक्ष्ण, रूखे, दाहकारक, दुख, चिंता और रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार राजस पुरुष को प्रिय होते हैं।
और जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गंधयुक्त, बासा और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी, वह तामस पुरुष को प्रिय होता है।

कृष्ण जीवन को तीन गुणों के अनुसार सभी दिशाओं में बांट रहे हैं। उस विभाजन का बोध साधक के लिए बड़ा उपयोगी है। उससे अपनी परीक्षा करने में और अपने को कसौटी पर कसने में सुविधा होगी, एक मापदंड मिल जाएगा।
कैसा भोजन तुम्हें प्रिय है? क्योंकि जो भी तुम्हें प्रिय है, वह अकारण प्रिय नहीं हो सकता। वह तुम्हें प्रिय है, तुम्हारे संबंध में खबर देता है। तुम जो भोजन करते हो, वह खबर देता है कि तुम कौन हो। तुम कैसे उठते हो, कैसे बैठते हो, कैसे चलते हो, उससे तुम्हारे भीतर की चेतना की खबर मिलती है। तुम कैसा व्यवहार करते हो, कैसे सोते हो, उस सबसे तुम्हारे संबंध में संकेत मिलते रहते हैं।
एक सूक्ष्म शास्त्र विकसित हुआ है पश्चिम में, मनुष्य के व्यवहार को ठीक से जांच लेकर मनुष्य के भीतरी अंतःकरण के संबंध में सभी कुछ पता चल जाता है। और अनजाने भी बहुत बार तुम ऐसे काम करते हो, जिनका तुम्हें भी खयाल नहीं है।
समझो, दो आदमी खड़े बात कर रहे हैं। अगर तुम दूर से खड़े होकर चुपचाप गौर से देखो, तो कई बातें, जो उन दो को पता न होंगी, तुम्हें पता चल सकती हैं। जो आदमी ऊब गया है और बातचीत को आगे नहीं बढ़ाना चाहता, तुम उसके चेहरे पर ऊब के लक्षण देखोगे। भला वह ऊपर से बता रहा हो कि मैं बड़े रस से तुम्हारी बातें सुन रहा हूं; क्योंकि हो सकता है, सुनाने वाला मालिक हो, पैसे वाला हो, राजनेता हो, ताकत हाथ में हो, कुछ नुकसान कर सकता हो।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दफ्तर में काम करता है। दफ्तर का जो मालिक है, वह कभी—कभी लोगों को इकट्ठा करके पिटीपिटाई मजाके सुनाता है, जिनको वह कई दफे सुना चुका है। और लोग खिलखिलाकर हंसते हैं। हंसना पड़ता है। जब मालिक जोक सुनाए, तो हंसना पड़ेगा। मालिक मालिक है, न हंसे तो मुश्किल में पड़ोगे। हालांकि वह दस—पचास दफे सुना चुका है वही कहानी। फिर भी लोग हंसते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन भी हंसता था सदा, सबसे ज्यादा हंसता था, ऐसा खिलखिलाकर कि जैसे कभी यह बात सुनी ही न हो।
लेकिन एक दिन मालिक ने एक मजाक सुनाया, जो वह कई दफा सुना चुका है। सब तो हंसे, मुल्ला नसरुद्दीन चुप बैठा रहा। मालिक चौंका। उसने कहा कि तुमने सुनी नहीं कहानी? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, सुनी और बहुत दफे सुन ली। तो उन्होंने कहा, तुम हंसे नहीं? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, कल हम नौकरी छोड़ रहे हैं। हंसना क्या खाक! हंसते थे, जब तक नौकरी थी। अब नौकरी ही छोड़ रहे हैं, तो हंसना किसलिए!
अगर दो आदमी बात कर रहे हैं, तो तुम गौर से देख सकते हो कि कौन आदमी सिर्फ दिखला रहा है कि हम बड़े रस से सुन रहे हैं, लेकिन उसके चेहरे पर उबासी आ रही है। दो आदमी खड़े हैं, उनमें जो आदमी जाना चाहता है, तुम पाओगे, उसका शरीर जाने को तैयार है। भला वह उत्सुकता दिखला रहा हो। लेकिन शरीर खबर दे रहा है कि जैसे ही छूटे कि वह तीर की तरह निकल जाए। उसका तीर प्रत्यंचा पर चढ़ा हुआ है। जो आदमी उत्सुक नहीं है बात करने में, उसकी गरदन पीछे को खिंची रहेगी। जो आदमी उत्सुक है, वह आगे को झुका रहेगा।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिस स्त्री से तुम बात कर रहे हो, अगर वह तुमसे प्रेम में पड़ने को राजी है, तो वह आगे की तरफ झुकी होकर तुमसे बात करेगी। अगर वह तुमसे राजी नहीं है, तो तुम्हें समझ जाना चाहिए, वह हमेशा पीछे की तरफ झुकी होगी। वह दीवाल खोजेगी; दीवाल से टिककर खड़ी हो जाएगी। वह यह कह रही है कि यहां दीवाल है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो स्त्री तुमसे संभोग करने को उत्सुक होगी, वह हमेशा पैर खुले रखकर बैठेगी तुमसे बात करते वक्त। वह स्त्री को भी पता नहीं होगा। अगर वह संभोग करने को उत्सुक नहीं है, तो वह पैरों को एक—दूसरे के ऊपर रखकर बैठेगी। वह खबर दे रही है कि वह बंद है, तुम्हारे लिए खुली नहीं है। इस पर हजारों प्रयोग हुए हैं और यह हर बार सही बात साबित हुई है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, तुम एक होटल में प्रवेश करते हो; एक स्त्री बैठी है, वह तुम्हें देखती है। अगर वह एक बार देखती है, तो तुममें उत्सुक नहीं है। एक बार तो आदमी औपचारिक रूप से देखते हैं, कोई भी घुसा, तो आदमी देखते हैं। लेकिन अगर स्त्री तुम्हें दुबारा देखे, तो वह उत्सुक है।
और धीरे— धीरे जो डान जुआन तरह के लोग होते हैं, जो स्त्रियों के पीछे दौड़ते रहते हैं, वे कुशल हो जाते हैं इस भाषा को समझने में। वह स्त्री को पता ही नहीं कि उसने खुद उनको निमंत्रण दे दिया।
दुबारा अगर स्त्री देखे, तो वह तभी देखती है। पुरुष तो पचीस दफे देख सकता है स्त्री को। उसके देखने का कोई बहुत मूल्य नहीं है। वह तो ऐसे ही देख सकता है। कोई कारण भी न हो, तो भी, खाली बैठा हो, तो भी। लेकिन स्त्री बहुत सुनियोजित है, वह तभी दुबारा देखती है, जब उसका रस हो। अन्यथा वह नहीं देखती। क्योंकि स्त्री को देखने में बहुत रस ही नहीं है।
स्त्रियां पुरुषों के शरीर को देखने में उत्सुक नहीं होती हैं। वह स्त्रियों का गुण नहीं है। स्त्रियों का रस अपने को दिखाने में है, देखने में नहीं है। पुरुषों का रस देखने में है, दिखाने में नहीं है। यह बिलकुल ठीक है, तभी तो दोनों का मेल बैठ जाता है। आधी—आधी बीमारियां हैं उनके पास, दोनों मिलकर पूर्ण बीमारी बन जाते हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, स्त्रियां एक्झीबीशनिस्ट हैं, प्रदर्शनवादी हैं। पुरुष वोयूर हैं, वे देखने में रस लेते हैं। इसलिए स्त्री दुबारा जब देखती है, तो इसका मतलब है कि वह इंगित कर रही है, संकेत दे रही है कि वह तैयार है, वह उत्सुक है, वह आगे बढ़ने को राजी है। तुम अगर तीन सेकेंड तक, मनोवैज्ञानिक कहते हैं, किसी स्त्री की तरफ देखो, तो वह नाराज नहीं होगी। तीन सेकेंड! इससे ज्यादा देखा, तो बस वह नाराज हो जाएगी। तीन सेकेंड तक सीमा है, उस समय तक औपचारिक देखना चलता है। लेकिन तीन सेकेंड से ज्यादा देखा कि तुमने उन्हें घूरना शुरू कर दिया, लुच्चापन शुरू हो गया।
लुच्चे का मतलब होता है, घूरकर देखने वाला। लुच्चा शब्द बनता है लोचन से, आंख से। जो आंख गड़ाकर देखता है, वह लुच्चा। लुच्चे का और कोई बुरा मतलब नहीं होता। जरा आंख उनकी संयम में नहीं है, बस, इतना ही और कुछ नहीं।
शब्द का तो वही मतलब होता है, जो आलोचक का होता है। लुच्चे शब्द का वही अर्थ होता है, जो आलोचक का होता है। आलोचक भी घूरकर देखता है चीजों को। कवि कविता लिखता है, आलोचक कविता को घूरकर देखता है। वह लुच्चापन कर रहा है कविता के साथ।
छोटी—छोटी बातें तुम्हारे भीतर की खबर देती हैं। कृष्ण कहते हैं, भोजन तो छोटी बात नहीं, बहुत बड़ी बात है। तुम कैसा भोजन पसंद करते हो?
जो राजस व्यक्ति है, वह ऐसा भोजन पसंद करेगा, जिससे जीवन में उत्तेजना आए त्वरा पैदा हो, दौड़ पैदा हो, धक्का लगे।
इसलिए उसका भोजन उत्तेजक आहार होगा। जो तामसी वृत्ति का व्यक्ति है, वह ऐसा भोजन करेगा, जिससे नींद आए, उत्तेजना न पैदा हों—बासा, उच्छिष्ट, ठंडा—जिससे कोई उत्तेजना पैदा न हो, सिर्फ बोझ पैदा हो और वह सो जाए।
तमसपूर्ण व्यक्ति हमेशा नींद को खोज रहा है। उसे अगर लेटने का मौका मिले, तो वह बैठेगा नहीं। अगर उसे बैठने का मौका मिले, तो वह खड़ा न होगा। अगर खड़े होने का मौका मिले, तो वह चलेगा नहीं। अगर चलने का मौका मिले, तो वह दौड़ेगा नहीं। वह हमेशा उसको चुनेगा, जिसमें ज्यादा नींद की सुविधा हो, तंद्रा! और तंद्रा के लिए बासा भोजन बहुत उपयोगी है।
क्यों बासा भोजन तंद्रा के लिए उपयोगी है? क्योंकि जितना गरम भोजन होता है, उतने जल्दी पच जाता है। जितना बासा भोजन होता है, उतना पचने में देर लेता है। क्योंकि पचने के लिए अग्नि चाहिए। अगर भोजन गरम हो, तत्‍क्षण तैयार किया गया हो, तो भोजन की गरमी और पेट की गरमी मिलकर उसे जल्दी पचा देती है। तो जठराग्नि कहते हैं इसलिए हम पेट की अग्नि को।
लेकिन अगर भोजन बासा हो, ठंडा हो, बहुत देर का रखा हुआ हो, तो पेट की अकेली गरमी के आधार पर ही उसे पचना होता है। तो जो भोजन छ: घंटे में पच जाता, वह बारह घंटे में पचेगा। और पचने में जितनी देर लगती है, उतनी ज्यादा देर तक नींद आएगी। क्योंकि जब तक भोजन न पच जाए, तब तक मस्तिष्क को ऊर्जा नहीं मिलती। क्योंकि मस्तिष्क जो है, वह लक्जरी है। इसे थोड़ा समझ लो।
जीवन में एक इकॉनामिक्स है शरीर की, एक अर्थशास्त्र है। वहां बुनियादी जरूरतें हैं, वे पहले पूरी की जाती हैं। फिर उनके ऊपर कम बुनियादी जरूरतें हैं, वे पूरी की जाती हैं। फिर उसके बाद सबसे गैर—बुनियादी जरूरतें हैं, वे पूरी की जाती हैं।
जैसे घर में पहले तो तुम भोजन की फिक्र करोगे। भूखे रहकर तुम रेडियो नहीं खरीद लाओगे, कि भूखे तो मर रहे हैं और टेलीविजन खरीद लाए! कौन देखेगा टेलीविजन? भूखे भजन न होई गुपाला! भजन भी नहीं होता भूखे को, तो टेलीविजन कौन देखेगा! टेलीविजन बिलकुल नहीं दिखाई पड़ेगा। रोटियां तैरती हुई दिखाई पड़ेगी टेलीविजन पर। कुछ नहीं दिखाई पड़ेगा। भूखा आदमी पहले रोटी चाहता है, छाया चाहता है।
जब जरूरतें पूरी हो जाती हैं शरीर की, तब मन की जरूरतें शुरू होती हैं। तब वह उपन्यास भी पढ़ता है, तब वह गीता भी पढ़ता है।
तब वह भजन भी सुनता है, फिल्म भी देखता है। फिर जैसे—जैसे जरूरतें उसकी ये भी पूरी हो जाती हैं मन की, तब आत्मा की जरूरतें पैदा होती हैं। तब वह ध्यान की सोचता है, तब वह समाधि का विचार करता है।
तो तीन तल हैं शरीर, मन और आत्मा। शरीर पहले है, क्योंकि उसके बिना न तो मन हो सकता, न आत्मा टिक सकती यहां। वह आधार है, वह जड़ है। अगर किसी वृक्ष को ऐसा खतरा आ जाए कि फूल मरें या जडें मरें, तो फूलों को वृक्ष पहले छोड़ देगा। क्योंकि वे तो विलास हैं, उनके बिना जीया जा सकता है। और अगर जीना रहा, तो वे फिर कभी आ सकते हैं। लेकिन जड़ें नहीं छोड़ी जा सकतीं। क्योंकि जड़ें तो जीवन हैं। जड़ें गईं, तो फूल कभी न आ सकेंगे। जड़ें रहीं, तो फूल कभी फिर आ सकते हैं।
अगर वृक्ष से पूछा जाए कि पीड़ को काट दें या जड़ों को? तो वृक्ष कहेगा, पीड़ काट दो—अगर यही विकल्प है। क्योंकि पीड़ फिर पैदा हो सकती है, शाखाएं फिर निकल आएंगी; जड़ें होनी चाहिए। ऐसा ही अर्थशास्त्र शरीर के भीतर है। जब तुम भोजन करते हो, तो सारी शक्ति भोजन को पचाने में लगती है। इसलिए भोजन के बाद नींद मालूम होती है, क्योंकि मस्तिष्क को जो शक्ति का कोटा मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता।
मस्तिष्क लक्जरी है, उसके बिना जीया जा सकता है। पशु—पक्षी जी रहे हैं, पौधे जी रहे हैं; लाखों—करोडों जीव हैं, जो बिना बुद्धि के जी रहे हैं। मनुष्य हैं, वे भी बिना बुद्धि के जी रहे हैं। बुद्धि कोई अनिवार्य चीज नहीं है। ही, जब शरीर की जरूरतें पूरी हो जाएं और ऊर्जा बचे, तो फिर बुद्धि को मिलती है। और जब बुद्धि भी भर जाए और ऊर्जा बचे, तब आत्मा को मिलती है।
तो जो आदमी तामसी है, वह इस तरह का भोजन करता है कि मस्तिष्क तक ऊर्जा कभी पहुंचती ही नहीं। इसलिए तामसी व्यक्ति बुद्धिहीन हो जाता है। जिसको बुद्धिमान होना हो, उसे तमस छोड़ना पड़ेगा।
बस वह शरीर में ही जीने लगता है। तामसी व्यक्ति यानी सिर्फ शरीर। उसमें नाम—मात्र को बुद्धि है। इतनी ही बुद्धि है, जिससे वह भोजन जुटा ले और शरीर का काम चला दे, बस। और आत्मा की तो उसे कोई खबर ही नहीं है। आत्मा का उसे सपना भी नहीं आता। आत्मा की बातें लोगों को करते देखकर वह हैरान होता है कि इन दिमागफिरो को क्या हो गया है! इनका दिमाग ठीक है कि पगला गए? कैसा परमात्मा, कैसी आत्मा?
वह एक ही चीज जानता है, एक ही रस जानता है, वह पेट का है। वह पेट ही है। अगर उसका तुम्हें ठीक चित्र बनाना हो, तो पेट ही बनाना चाहिए और पेट में उसका चेहरा बना देना चाहिए। वह बड़ा पेट है। और बाकी सब चीजें छोटी—छोटी उसमें जुड़ी हैं। तामसी व्यक्ति एक असंतुलन है, अपंग है वह, उसमें और कुछ महत्वपूर्ण नहीं है।
राजसी व्यक्ति का भोजन कडुवा, खट्टा, नमकयुक्त, अति गरम, तीक्षा, रूखा, दाहकारक होगा। महत्वाकांक्षियों का भोजन इस तरह का होगा। उनको दौड़ना है, नींद नहीं चाहिए। नींद जिसको चाहिए, वह ठंडा भोजन करता है, बासा करता है। जिसको दौड़ना है, वह अति गरम भोजन करता है।
वह भी खतरनाक है। क्योंकि अति गरम भोजन दूसरी अति पर ले जाता है, वह तुम्हें दौड़ाता है, भगाता है। धन पाना है, पद पाना है, कोई महत्वाकांक्षा पूरी करनी है। सिकंदर बनना है। वह तुम्हें दौड़ाता है। तुम ज्वरग्रस्त हो जाते हो।
अब यह बडे मजे की बात है, तामसी व्यक्ति गहरी नींद सोते हैं। उन्हें कभी ट्रैंक्येलाइजर की जरूरत नहीं पड़ती। और राजसी व्यक्तियों को हमेशा ट्रैंक्येलाइजर की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि वे इतना दौड़ते हैं कि रात जब सोने का वक्त आता है, तब भी भीतर की दौड़ बंद नहीं होती, वह चलती ही चली जाती है।
राजसी व्यक्ति कुर्सी पर भी बैठेगा, तो पैर चलाता रहेगा। अब यह पैर चलाने की कोई जरूरत नहीं। वह पैर ही हिलाता रहेगा। शरीर रुक गया है, लेकिन भीतर एक बेचैनी सरक रही है, दौड़ रही है।
राजसी व्यक्ति रात भी सोएगा, तो करवटें बदलता रहेगा; हाथ—पैर तड़फड़ाएगा, फेंकेगा। तामसी व्यक्ति मिट्टी के लोंदे की तरह पड़ा रहता है। वह हिलता—डुलता नहीं। तामसी व्यक्ति भयंकर रूप से घुर्राता है।
एक बार एक यात्रा में मैं एक बड़ी मुसीबत में पड़ गया। आज भी नहीं भरोसा होता कि यह हुआ कैसे! जिस कंपार्टमेंट में मैं था, तीन सज्जन और थे। रात जैसे ही हम चारों सोने गए अपने—अपने बिस्तर पर, एक ने घुर्राना शुरू किया। कोई विशेष बात न थी। लेकिन हैरान तो तब मैं हुआ कि जब उसकी थोड़ी देर बाद दूसरे ने उससे ज्यादा जोर से घुर्राना शुरू किया। यह भी संयोग मैंने समझा कि होगा। मगर जब तीसरे ने दोनों को हरा दिया, तब मैं थोड़ा मुश्किल में पड़ा कि यह हो कैसे रहा है। और एक के बाद एक!
कुछ ऐसा लगा—तीनों को मैं बहुत देर तक सुनता रहा, कोई उपाय न था—कुछ ऐसा लगा कि नींद अपनी रक्षा कर रही है। वे तीनों ही भयंकर सोने वाले हैं। और पहले का घुर्राना दूसरे की नींद में थोड़ी बाधा डाल रहा है। इसलिए दूसरे की नींद और जोर से घुर्रा रही है, ताकि उसको दबा दे। और तब तीसरा......! और थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि पहले ने भी गति बढ़ानी शुरू कर दी।
यह संगीत पूरी रात चला। और वे एक—दूसरे को हराने की कोशिश करते रहे, नींद में भी। शायद अपने घरों में वे इतने जोर से न घुर्राते हों। लेकिन प्रतियोगी को पाकर......! क्योंकि प्रतियोगी बाधा डाल रहा है। और शरीर अपनी रक्षा करता है बहुत रूपों में। तामसी वृत्ति का व्यक्ति घुर्राएगा। उसको अगर बीमारी होगी, तो निद्रा की होगी, वह ज्यादा निद्रा के लिए बीमार होगा।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि दिनभर उबाई आती रहती है। दिनभर, सोते भी हैं ठीक से, फिर भी ऐसा लगता है, नींद कम, नींद कम।
आठ घंटे से ज्यादा नींद की आकांक्षा पैदा हो जवान आदमी को, तो समझना चाहिए तमस। बूढ़े आदमी को तीन—चार घंटे से ज्यादा नींद की आकांक्षा पैदा हो, तो समझना चाहिए, तमस।
ध्यान रखना, उम्र के साथ नींद का अनुपात घटता जाएगा। बच्चा पैदा होता है, तो बाईस घंटे सोता है। वह तमस में नहीं है। वह उसकी जरूरत है। अगर चौबीस घंटे सोए, तो तमस है, बाईस घंटे उसकी जरूरत है। फिर जैसे—जैसे बड़ा होगा, बीस घंटे, अठारह घंटे, कम होता जाएगा। सात साल का होते—होते उसकी नींद आठ घंटे पर आ जानी चाहिए, तो संतुलित है। फिर यह आठ घंटे पर टिकेगी जीवन के बड़े हिस्से पर। लेकिन मरने के सात वर्ष पहले फिर घटना शुरू होगी। छ: घंटे रह जाएगी, पाच घंटे रह जाएगी, चार घंटे रह जाएगी।
जिस दिन नींद आठ घंटे से नीचे कम होनी शुरू हो, उस दिन समझना चाहिए, अब मौत के पहले चरण सुनाई पड़ने लगे। क्योंकि नींद आती है शरीर के निर्माण के लिए।
मां के पेट में बच्चा चौबीस घंटे सोता है। सिर्फ थोड़े—से राजसी बच्चों को छोड्कर, जो मां के पेट में पैर वगैरह चलाते हैं। नहीं तो चौबीस घंटे सोता है। जरूरत है, शरीर बन रहा है, बड़ा काम चल रहा है शरीर में। नींद से सहयोग मिलता है; नींद टूटने से बाधा पड़ती है।
फिर तुम चौबीस घंटे काम करते हो, तो आठ घंटा काफी है। उतनी देर में शरीर अपना पुनर्निर्माण कर लेता है। मरे हुए सेल फिर से बन जाते हैं। रक्त शुद्ध हो जाता है। शक्ति पुनरुज्जीवित हो जाती है। सुबह तुम फिर ताजे हो जाते हो।
लेकिन के आदमी के शरीर में बनने का काम बंद हो गया। अब मरे सेल मर जाते हैं, बनते नहीं। अब विदाई का क्षण आने लगा, नींद कम होने लगी।
मेरे पास बूढ़े आदमी आ जाते हैं। कभी सत्तर साल का आदमी, और वह कहता है, कुछ नींद का उपाय बताएं। बस, दों—तीन घंटे आती है।
क्या चाहते हो तुम? नींद की अब कोई जरूरत ही न रही। नींद तुम्हारी थोड़े ही जरूरत है! वह प्रकृति की व्यवस्था है। बूढ़ा आदमी तीन घंटे सो लेता है, बहुत है, पर्याप्त है। इससे ज्यादा की जरूरत नहीं है। मरने के एक दिन पहले नींद बिलकुल ही खो जाएगी। क्योंकि अब मौत करीब आ गई। सब टूटने का दिन आ गया। अब बनना कुछ भी नहीं है। तो अब नींद कैसे आ सकती है! नींद तो बनने के लिए आती है।
इसलिए तामसी वृत्ति का व्यक्ति भयंकर वजन इकट्ठा करने लगेगा शरीर में। क्योंकि वह सोए जाएगा, सोए जाएगा, और शरीर बनता जाएगा। और शरीर का उपयोग वह कभी न करेगा। तो शरीर पर वजन बढ़ने लगेगा, चर्बी इकट्ठी होने लगेगी। वह सिर्फ बोझ की तरह हो जाएगा।
रजस की आकांक्षा से भरा हुआ व्यक्ति हमेशा जो भी करेगा, उसमें दौड़ खोजना चाहेगा, उत्तेजना। क्योंकि उत्तेजना के बल पर ही वह जी सकता है। यह जो उत्तेजित व्यक्ति है, रात सो भी न सकेगा। उत्तेजना इतनी है कि बिस्तर पर भी पड़ जाता है, लेकिन मस्तिष्क में उत्तेजना चलती रहती है।
तमस से भरा हुआ व्यक्ति शरीर में जीता है, वह शरीर ही है। बाकी चीजें नाम—मात्र को हैं। रजस से भरा व्यक्ति मन में जीता है, वह मन ही है। बाकी चीजें नाम—मात्र को हैं। वह शरीर की कुर्बानी दे देता है मन की आकांक्षा के लिए। वह आत्मा की भी कुर्बानी दे देता है मन की आकांक्षा के लिए। वह मन में ही जीता है। वह मन का सिकंदर है। सारा साम्राज्य फैलाना है दुनिया पर।
जो व्यक्ति सत्य से भरा है, वह इन दोनों से भिन्न है। वह संतुलित है। न तो वह अति ठंडा भोजन करता है, न वह अति गरम भोजन करता है। वह उतना ही गरम भोजन करता है, जितना शरीर की जठराग्नि से मेल खाता है। उतना ही ताप वाला भोजन करता है, जितना पेट का ताप है। वह थोड़ा—सा उष्ण—एकदम गरम नहीं, एकदम ठंडा नहीं—वैसा भोजन करता है, जिससे उसका शरीर तालमेल पाता है। वह शरीर के ताप के अनुसार भोजन करता है।
उसकी आयु स्वभावत: ज्यादा होगी, क्योंकि वह प्रकृति के अनुसार जीता है, प्रकृति के समस्वरता में जीता है। उसकी बुद्धि स्वभावत: शुद्ध होगी, तीक्ष्ण होगी, स्वच्छ होगी, निर्मल दर्पण की तरह होगी, क्योंकि वह शुद्ध आहार कर रहा है; शाकाहारी होगा आमतौर से। इस तरह का भोजन लेगा, जो लेते समय उत्तेजना नहीं देता, शांति देता है, एक स्निग्धता देता है। और प्रीति को बढ़ाता है। रजस व्यक्ति का भोजन क्रोध को बढ़ाता है। तमस व्यक्ति का भोजन आलस्य को बढ़ाता है। सत्व व्यक्ति का भोजन प्रीति को बढ़ाता है। तुम उसके पास प्रीति की गंध पाओगे। तुम उसके पास हमेशा मधुमास पाओगे। उसके पास एक मधुरिमा होगी, एक मिठास होगी। उसके बोलने में, उसके उठने—बैठने में एक संगीत होगा, एक लयबद्धता होगी। क्योंकि उसका शरीर भीतर भोजन के साथ लयबद्ध है।
शरीर भोजन से ही बना है। इसलिए बहुत कुछ भोजन पर निर्भर है। भोजन न करोगे, तो तीन महीने में शरीर विदा हो जाएगा। शरीर भोजन है। शरीर भोजन का ही रूपांतरण है। इसलिए कैसा तुम भोजन करते हो, उससे शरीर निर्मित होगा।
उसके जीवन में प्रीति होगी। आलसी व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता। आलसी व्यक्ति प्रेम मांगता है। इस फर्क को ठीक से समझ लेना।
आलसी व्यक्ति प्रेम मांगता है, मुझे प्रेम करो। वह सारी दुनिया के सामने इश्तहार लगाए बैठा है, सब मुझे प्रेम करो। चारों खाने बिस्तर पर पड़ा है, सारी दुनिया उसको प्रेम करे। और शिकायत उसकी है कि कोई प्रेम नहीं करता।
राजसी व्यक्ति न तो प्रेम करता है और न मांगता है। उसे फुरसत नहीं इस धंधे में पड़ने की। उसके लिए प्रेम के सिवाय और भी बहुत काम हैं। प्रेम सब कुछ नहीं है, प्रेम गौण है।
सिकंदर को प्रेम करने की फुरसत नहीं मिल पाती। कैसे मिले? अभी बड़े युद्ध जीतने हैं। सारी पृथ्वी पर राज्य निर्मित करना है। नेपोलियन यद्यपि रोज युद्ध के मैदान से अपनी पत्नी को पत्र लिखता है, लेकिन लिखता युद्ध के मैदान से ही है, घर कभी नहीं आता। रोज लिखता है पत्र। ऐसा एक दिन नहीं छोड़ता। वह भी मुझे लगता है कि किसी अपराध— भाव के कारण करता होगा।
धीरे— धीरे पत्नी किसी और के प्रेम में पड़ जाती है। वह अपना पत्र ही लिखते रहते हैं। वह उनके पत्र पढ़ती भी नहीं फिर। जोसेफाइन के संबंध में कहा जाता है कि वह धीरे— धीरे नेपोलियन का पत्र खोलती भी नहीं, कचरे में डाल देती। क्योंकि स्त्री कब तक प्रतीक्षा करे! वह किसी और सैनिक को प्रेम करने लगी।
नेपोलियन सदा युद्धों में है। वहां से पत्र लिखता है रोज कि आज एक नगर और जीता, तेरे चरणों में समर्पित जोसेफाइन! मगर नगरों को समर्पित करने से जोसेफाइन को कोई खुशी नहीं होती। वह चाहती है, नेपोलियन आए। नगरों का क्या करेगी? नक्‍शा बड़ा होता जाता है, इससे क्या होगा? उसके हृदय में कहीं तृप्ति इससे नहीं होती।
आकांक्षी लोग न तो प्रेम चाहते हैं, न देते हैं। उन्हें फुरसत नहीं। अभी बड़े काम करने हैं। इलेक्शन लड़ना है, करीब आ रहा है इलेक्शन। उनको लड़ना है इलेक्शन, पद पर पहुंचना है, दिल्ली जाना है। पत्नी वगैरह गौण है, बच्चे गौण हैं। इसलिए राजनीतिज्ञों के, बड़े से बड़े राजनीतिज्ञों के बच्चे भी आवारा और बरबाद हो जाते हैं। हो ही जाएंगे।
धनियों के बच्चे सत्य की तरफ नहीं बढ़ पाते; बाप को फुरसत नहीं है। वह धन इकट्ठा कर रहा है। हालांकि वह कहता यही है कि इन्हीं के लिए इकट्ठा कर रहा हूं! लेकिन इनसे कभी मिलना ही नहीं होता। जब वह आता है घर वापस, तब तक बच्चे सो गए होते हैं। जब सुबह वह भागता है बाजार की तरफ, तब तक बच्चे उठे नहीं होते हैं। वह भाग—दौड़ में है। कभी रास्ते पर सीढ़ियां चलते मिल जाते हैं, तो जरा पीठ थपथपा देता है। वह भी उसे ऐसा लगता है कि बेकार का काम है। इतनी शक्ति बचती, तो और धन कमा लेते! इतना ही किसी और को थपथपाते बाजार में, तिजोरी भर जाती। यह नाहक बीच में आ गया।
धनियों के बच्चों का बाप से मिलना ही नहीं होता। और बहुत धनियों के बच्चों को उनकी मां से भी मिलना नहीं होता। क्योंकि मां को भी कहां फुरसत है! क्लब है, सोसाइटी है, पच्चीस जाल हैं। पति के साथ जाना है भोजनों में। क्योंकि उस पर पति का धंधा निर्भर करता है। पति के साथ जाकर हंसना है, बात करना है लोगों से। क्योंकि यह धंधे के लिए जरूरी है।
जब कभी कोई मुल्क किसी को एम्बेसेडर बनाकर भेजता है, तो पहले उसकी पत्नी को गौर से देखता है, कि पत्नी कुछ खूबसूरत ढंग की है? क्योंकि राजदूत का सारा काम पत्नी की खूबसूरती पर निर्भर करता है। पत्नी के सहारे राजदूत काम कर पाता है।
पत्नियों के सहारे लोग राष्ट्रपति हो जाते हैं। पत्नियों के सहारे लोग बड़े धनी हो जाते हैं। पत्नी पर यात्रा करते हैं। यह कोई प्रेम हो सकता है! पत्नी भी साधन है!
बहुत धनी के घर में न तो पत्नी का पता चलता है, न पति का पता चलता है। बच्चे आवारा होते हैं। नौकरों के द्वारा पाले जाते हैं। फिर जो परिणाम होता है, वह जाहिर है।
बड़े से बड़े लोगों के, महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति के बच्चे भी सब व्यर्थ हो जाते हैं। एक बच्चा काम का साबित नहीं होता।
इसलिए महात्मा गांधी को मैं दूसरी कोटि से ऊपर नहीं ले जा सकता। वे सत्व के व्यक्ति नहीं हैं। वे बात कितनी ही सत्य की करते हों, लेकिन वे व्यक्ति रजस के हैं। महत्वाकांक्षा भारी है। वह चाहे अपने से न जुड़ी हो। इसे ध्यान रखना।
राष्ट्र को स्वतंत्र करना है, तो सीधा नहीं लगता कि मेरी कोई महत्वाकांक्षा है। कि गरीबों का उद्धार करना है, कि हरिजनों का उद्धार करना है, मेरी कोई आकांक्षा पता नहीं चलती। लेकिन यह भी आकांक्षा है। इससे भी मुझे तृप्ति मिलेगी। जब राष्ट्र का उद्धार होगा, तब मैं कहूंगा, देखो, कर दिया उद्धार! हरिजनों को जगा दिया! स्वतंत्रता ला दी! लेकिन यह भी महत्वाकांक्षा है। इस महत्वाकांक्षा के कारण कहा फुरसत।
गांधी को फुरसत बिलकुल नहीं है। नहाने की फुरसत नहीं है। टब में बैठकर नहाते हैं और सेक्रेटरी बाहर से अखबार पढ़कर सुनाता है। वे अंदर जाकर शौच—किया कर रहे हैं और बाहर दरवाजे पर खड़ा सेक्रेटरी अखबार से खबरें पढ़कर सुना रहा है। क्योंकि फुरसत नहीं है! पत्र पढ़कर सुना रहा है। वे भीतर से जवाब दे रहे हैं कि ये—ये जवाब लिख देना।
ऐसी भाग—दौड़ की जिंदगी में प्रेम की कहां सुविधा है! कस्तुरबा दुखी मरी। कोई कहता नहीं इसको, लेकिन कस्तुरबा दुखी मरी। कस्तुरबा सुखी नहीं थी। हो नहीं सकती। क्योंकि गांधी को फुरसत ही नहीं है। कस्तुरबा की तरफ देखने की फुरसत नहीं है। बड़ा जाल है काम का।
महत्वाकांक्षी व्यक्ति मन की दौड़ में जीता है। न वह प्रेम करता है, न वह मांगता है।
सत्व को उपलब्ध व्यक्ति के जीवन में प्रेम का दान है। वह मांगता नहीं, वह सिर्फ देता है।
तमस मांगता है। सत्व देता है। रजस को फुरसत नहीं है। सत्य इतने प्रेम से भर देता है तुम्हारी जीवन—ऊर्जा को, ऐसे परितोष से, ऐसे संतोष से, ऐसी गहन तृप्ति से कि तुम बांटने में उत्सुक हो जाते हो। तुम बांटते हो, क्योंकि तुम्हारे पास इतना है, तुम करोगे क्या! और जितना तुम बांटते हो, उतना बढ़ता है।
आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले एवं रसयुक्त, चिकने, स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय आहार सात्विक पुरुष को प्रिय होते हैं।
जो स्वभाव से ही प्रिय हैं! सात्विक गुणों का व्यक्ति स्वाद के कारण भोजन नहीं करता, यद्यपि बहुत स्वाद भोजन में लेता है, जैसा कोई भी नहीं लेता। लेकिन स्वाद निर्धारक नहीं है। निर्धारक तत्व तो है शरीर की प्रकृति, स्वभाव की अनुकूलता, तारतम्य, संगीत। यद्यपि सात्विक व्यक्ति परम स्वाद को उपलब्ध होता है। सात्विक व्यक्ति के आहार को अगर तुम तामसी को दो, तो वह कहेगा, क्या घास—पात! इसमें कुछ भी नहीं है, यह क्या खाना है! अगर राजसी को दो, वह कहेगा, कोई इसमें स्वाद नहीं है, तेजी नहीं है, उत्तेजना नहीं है। मिर्च नहीं है, नमक नहीं है ज्यादा।
ध्यान रखना, जो लोग मिर्च—मसाले पर जीते हैं, वे यह न समझें कि वे स्वाद ले रहे हैं। मिर्च—मसाले की जरूरत ही इसलिए है कि उनका स्वाद मर गया है। उनकी जीभ इतनी मुरदा हो गई है कि जब तक वे जहर न रखें उस पर, तब तक उसे कुछ पता नहीं चलता, इसलिए मिर्च रखनी पड़ती है। मिर्च रखने से थोड़ी—सी तड़फन जीभ में होती है। वह मरी—मराई जीभ थोड़ी कंपती है। उन्हें लगता है, स्वाद आया!
लेकिन जिसकी जीभ जीवित है, उसे मिर्च की जरूरत नहीं है। वह मिर्च को बरदाश्त न कर सकेगा। जिसका स्वाद जीवित है, वह तो साधारण फलों से, सब्जियों से इतने अनूठे स्वाद को ले सकेगा कि वह सोच ही नहीं सकता कि तुम क्यों मिर्च डालकर सब्जियों के स्वाद को नष्ट कर रहे हो! यह स्वाद को नष्ट करना है। मसाला नष्ट करने का उपाय है। स्वाद बढ़ता नहीं मसाले से।
लेकिन तुम्हें तकलीफ होगी। अगर आज तुम अचानक मसाला छोड़ दो, तो सब बेस्वाद मालूम पडेगा। क्योंकि स्वाद का अभ्यास करना होगा।
यह तो ऐसे ही है, मेरे एक मित्र हैं, वे ट्रैवेलिंग एजेंट का काम करते हैं। तो महीने में कोई बीस—चौबीस दिन बाहर; सप्ताह के लिए, पांच—सात दिन के लिए कभी घर लौटते हैं। वे मेरे पास आकर कहने लगे कि बड़ी मुसीबत है। ट्रेन में तो नींद आती है, घर नींद नहीं आती।
अब जिंदगी हो गई उनको ट्रैवेलिंग एजेंट का काम करते, ट्रेन में उनको नींद आती है। उपद्रव, शोरगुल, आवाज, स्टेशनों का आना—जाना, भीड़— भड़क्का, उसमें उन्हें नींद आती है। घर वे कहते हैं, ऐसा सन्नाटा मालूम पड़ता है कि नींद ही नहीं लगती! आदत हो गई, अभ्यास हो गया। अब इनको फिर से अभ्यास करना पड़ेगा सन्नाटे का।
तुम्हें अगर बाजार की आदत हो जाए तो हिमालय तुम्हें सूना मालूम पड़ेगा। अगर तुम्हें झगड़े और उपद्रव की आदत हो जाए तो किसी दिन तुम मौन से बैठो तो ऐसा लगेगा कि समय कटता ही नहीं। तुम्हारी जीभ अगर मसालों से भर गई हो, तो स्वाद खो दिया है। जीभ बड़ा कोमल तत्व है। और स्वाद के जो छोटे—से हिस्से हैं जीभ पर, उनसे ज्यादा कोमल कोई चीज नहीं है तुम्हारे पास। उनको अगर तुमने बहुत तेज चीजें दी हैं, तो वे मर गए उनकी अनुभव करने की शक्ति चली गई। अब और तेज चाहिए, और तेज चाहिए, तभी थोड़ी—बहुत तडूफन होती है, तो मालूम पड़ता है कुछ स्वाद आ रहा है।
सात्विक व्यक्ति स्वाद के लिए भोजन नहीं करता, लेकिन जितना स्वाद वह लेता है, दुनिया में कोई भी नहीं लेता। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि सात्विक को तुम अस्वाद लेने वाला मत समझ लेना। वही परम स्वाद लेता है। न तो वैसा स्वाद तमस को मिलता, न वैसा स्वाद रजस को मिलता। स्वाद मिलता ही उसे है, जो प्रकृति के अनुकूल चलता है। उसे पूरे जीवन का पूरा स्वाद मिलता है। सभी दिशाओं में सात्विक व्यक्ति की संवेदना खुल जाती है। वह ज्यादा सुनता है, ज्यादा देखता है, ज्यादा छूता है, ज्यादा स्वाद लेता है, ज्यादा गंध पाता है।
सात्विक व्यक्ति गुलाब के फूल के पास से निकलता है, तो उसे गंध आती है। राजसी निकलेगा, तो उसने बाजार के कचरा इत्र लगा रखे हैं, उन इत्रों की गंध की तेजी में गुलाब के फूल से गंध ही नहीं आती। उसे सस्ते बाजार में बिकने वाले इत्र चाहिए, दो कौड़ी के। लेकिन उनसे ही उसको थोड़ी गंध आती है। उसके नासापुट मर गए। अगर कहीं कोई शास्त्रीय संगीत हो रहा हो, तो उसे मजा नहीं आता। वह कहता है, यह क्या हो रहा है!
मुल्ला नसरुद्दीन गया था एक शास्त्रीय संगीत की सभा में। और जब संगीतज्ञ आलाप भरने लगा, तो उसकी आंख से आंसू गिरने लगे। पड़ोसी ने पूछा कि नसरुद्दीन! हमने कभी सोचा भी नहीं कि तुम शास्त्रीय संगीत के इतने प्रेमी हो। तुम्हारी आंख से आंसू टपक रहे हैं!
उसने कहा, ही, टपक रहे हैं। क्योंकि यह आदमी खतरे में है। यही हालत मेरे बकरे की हो गई थी जब वह मरा। ऐसे ही भरता था आलाप। यह मरेगा। इसको बचाने का उपाय करो। ऐसे ही चिल्ला—चिल्लाकर मेरा बकरा मरा।
शास्त्रीय संगीत के लिए तुम्हें एक भीतरी सौमनस्य चाहिए। तुम्हें तो कोई फिल्मी हुड़दंग, जिसमें प्रेमनाथ बंदरों की तरह उछल—कूद रहा हो, उसमें तुम्हें रस आएगा। तुम्हारी रीढ़ सीधी हो जाएगी; ध्यान तन्मय हो जाएगा। तुम कहोगे, कुछ हो रहा है।
तुम्हारे जीवन की सभी संवेदनाएं क्षीण हो गई हैं। या तो तमस में सो गई हैं, या रजस में उत्तेजना के कारण मर गई हैं। सत्य को उपलब्ध व्यक्ति परम संवेदनशील है।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं बुद्ध पुरुष जितना जीते हैं, तुम नहीं जी सकते। तुम तो जीने का सिर्फ बहाना कर रहे हो। बुद्ध पुरुष प्रगाढ़ता से जीते हैं। फूल उनके लिए ज्यादा गंध देते हैं। हवाएं उन्हें ज्यादा शीतलता देती हैं। नदी का कल—कल नाद उन्हें ओंकार के नाद से भर देता है। वे सन्नाटे को सुनने में समर्थ हो जाते हैं। साधारण भोजन भी उन्हें परम स्वाद देता है। और साधारण मनुष्य भी उन्हें परम सुंदर की प्रतिमाएं मालूम होने लगते हैं। उन्हें सारा जगत सुंदर हो जाता है। वे सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् को उपलब्ध हो जाते हैं।

आज इतना ही।



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