सत्य की खोज
और त्रिगुण का
गणित—(प्रवचन—पहला)
अध्याय—17
सूत्र—
अर्जन
उवाच:
ये
शास्त्रविधिमुत्सृज्य
यजन्ते श्रद्धायान्विता।
तेषां
निष्ठा तु का
कृष्ण तत्त्वमाहो
रजस्तम:।। 1।।
श्रॉभगवानवाच:
त्रिविधा
भवति आ
देहिनां आ
स्वभावजा।
सात्त्विकी
राजसी चैव
तामसी चेति
तां श्रृणु।।
2।।
इस प्रकार
भगवान के
वचनों को
सुनकर अर्जुन
बोला, हे
कृष्ण, जो
मनुष्य
शास्त्र— विधि
को त्यागकर
केवल
श्रृद्धा मे
युक्त हुए
देवादिकों का पूजन
करते है,
उनकी स्थिति
फिर कौन—सी है?
क्या
सात्विकी है
अथवा राजसी है
या तामसी है?
इस प्रकार
अर्जुन के
पूछने पर श्री
भगवान बोले हे
अर्जुन,
मनुष्यों की
वह बिना शास्त्रीय
संस्कारों से
केवल स्वभाव से
उत्पन्न हुई
श्रृद्धा
सात्विकी और
राजसी तथा
तामसी, ऐसे
तीनों कार की
ही होती ह्रै
उसको तू मेरे
ते सुन।
सत्य की
खोज उतनी ही
पुरानी है, जितना
मनुष्य। शायद
उससे भी
ज्यादा
पुरानी है।
मेरे देखे ऐसा
ही है, मनुष्य
से भी ज्यादा
पुरानी सत्य
की खोज है।
स्वभावत:, प्रश्न
उठेगा कि
मनुष्य से
पुरानी यह खोज
कैसे हो सकती
है! खोजेगा
कौन?
मनुष्य
से पुरानी है
खोज सत्य की, ऐसा
जब मैं कहता
हूं तो उसका
अर्थ है कि
सत्य को खोजने
की आकांक्षा
से ही मनुष्य
का जन्म हुआ
है। मनुष्य—मनुष्य
है, क्योंकि
सत्य को खोजता
है। पशुओं में
से जो चेतना
निखरकर
मनुष्य हुई है,
वह सत्य की
किसी अज्ञात
खोज के कारण
हुई है।
सभी
पशु मनुष्य
नहीं हो गए
हैं;
सभी पौधे
मनुष्य नहीं
हो गए हैं।
अनंत आत्माएं
हैं, उनमें
से बड़ा छोटा—सा
खंड मनुष्य
हुआ है। यह
मनुष्य कैसे
हो गया है? यह
सारा
अस्तित्व
क्यों मनुष्य
नहीं हो गया है?
छोटी—सी
चेतना की धारा
ऊपर उठी है।
कौन इसे ऊपर
उठा लाया है? सत्य की एक
अनजानी खोज
इसे ऊपर उठा
लाई है।
मनुष्य और
पशुओं में यही
भेद है। पशु
तृप्त हैं; जी रहे हैं।
लेकिन
जीवन क्या है, इसे
जानने की
अभीप्सा नहीं
है। जीवन कहां
से है, इसे
जानने की कोई
जिज्ञासा
नहीं है।
पशुओं के जीवन
में जीवन तो
है, चैतन्य
का आविर्भाव
नहीं; ध्यान
नहीं जागा, समाधि की आकांक्षा
नहीं जागी; सत्य को
जानने की
प्यास नहीं
उठी। इसलिए
कहता हूं र
मनुष्य से भी
ज्यादा
पुरानी खोज है
सत्य की।
मनुष्य
के कारण तुम
सत्य की खोज
करते हो, ऐसा
नहीं; सत्य
की खोज करने
के कारण तुम
मनुष्य हुए हो,
ऐसा। लेकिन
मनुष्य हो
जाने से सत्य
की खोज पूरी
नहीं हो जाती;
बस शुरू
होती है। जो
अब तक अचेतन
थी, वह
चेतन बनती है,
जो अब तक
अनजानी थी, वह जानी—मानी
बनती है, जिसे
अभी तुम ऐसे
अंधेरे में
टटोलते थे, अब तुम उसे
दीया जलाकर
खोजते हो।
इसलिए
मनुष्यों में
भी केवल थोड़े
से ही लोग मनुष्य
हो पाते हैं; शेष
मनुष्य होकर
भी चूक जाते
हैं। सभी
मनुष्य भी
सत्य के खोजी
नहीं मालूम
पड़ते। उनमें
भी बड़ा
न्यूनतम अंश
सत्य की खोज
पर निकलता है।
कठिन है
यात्रा; दुर्गम
है मार्ग, फिसलने
की, गिर
जाने की अनंत
संभावनाएं
हैं, पहुंचने
की बहुत कम।
लेकिन
जो पहुंच जाते
हैं,
वे
धन्यभागी हैं।
वे जीवन के
शिखर को
उपलब्ध होते
हैं। वे सत्य
को ही नहीं पा
लेते, वे
सत्यरूप हो
जाते हैं। वे
परमात्मा को
ही नहीं जान
लेते, वे
परमात्मा ही
हो जाते
अर्जुन
खोजती हुई
मनुष्यता का
प्रतीक है।
अर्जुन पूछ
रहा है। और
पूछना किसी
दार्शनिक का
पूछना नहीं है।
पूछना ऐसा
नहीं कि घर
में बैठे
विश्राम कर रहे
हैं और गपशप
कर रहे हैं।
यह पूछना कोई
कुतूहल नहीं
है,
जीवन दाव पर
लगा है। युद्ध
के मैदान में
खड़ा है। युद्ध
के मैदान में
बहुत कम लोग
पूछते हैं।
इसलिए तो गीता
अनूठी किताब
है।
वेद
हैं,
उपनिषद हैं,
बाइबिल है,
कुरान है; बड़ी अनूठी
किताबें हैं
दुनिया में, लेकिन गीता
बेजोड़ है।
उपनिषद पैदा
हुए ऋषिओं के
ख्यात
कुटीरों में,
उपवनों में,
वनों में।
जंगलों में
ऋषिओं के पास
बैठे हैं उनके
शिष्य।
उपनिषद का
अर्थ है, पास
बैठना। ऐसे
पास बैठे
शिष्यों से
एकांत
गुफ्तगू है।
ऐसी दो
चेतनाओं के
बीच चर्चा है।
लेकिन बड़ी
विश्रामपूर्ण
है। आसान है
कि उपनिषदों
में महाकाव्य
भरा हो।
उपनिषद पैदा
हुए शांत गिल
मौन एकांत में।
लेकिन गीता
अनूठी है; युद्ध
के मैदान में
पैदा हुई है।
किसी शिष्य ने
किसी गुरु से
नहीं पूछा है;
किसी शिष्य
ने गुरु की एकांत
कुटी में
बैठकर
जिज्ञासा
नहीं की है।
युद्ध की सघन
घड़ी में, जहां
जीवन और मौत
दाव पर लगे
हैं, वहां
अर्जुन ने
कृष्ण से पूछा
है। यह दाव
बड़ा
महत्वपूर्ण
है। और जब तक
तुम्हारा भी
जीवन दाव पर न
लगा हो अर्जुन
जैसा, तब
तक तुम कृष्ण
का उत्तर न पा
सकोगे।
कृष्ण
का उत्तर
अर्जुन ही पा
सकता है।
इसलिए गीता
बहुत लोग पढ़ते
हैं,
कृष्ण का
उत्तर उन्हें
मिलता नहीं।
क्योंकि
कृष्ण का
उत्तर पाने के
लिए अर्जुन की
चेतना चाहिए।
इसलिए
मैं नहीं
चाहता कि मेरे
संन्यासी भाग
जाएं पहाड़ों
में। जीवन के
युद्ध में ही
खड़े रहें, जहां
सब दाव पर लगा
है, भगोड़ापन
न दिखाएं, पलायन
न करें, जीवन
से पीठ न मोडे;
आमने—सामने
खड़े रहें। और
उस जीवन के
संघर्ष में ही
उठने दें
जिज्ञासा को।
तो तुम्हें
किसी दिन
कृष्ण का
उत्तर मिल
सकता है। पर
अर्जुन की
चेतना चाहिए;
युद्ध
चाहिए चारों
तरफ।
और
युद्ध है। तुम
जहां भी हो—बाजार
में,
दुकान में,
दफ्तर में,
घर में—युद्ध
है। प्रतिपल
युद्ध चल रहा
है, अपनों
से ही चल रहा
है। इसलिए कथा
बड़ी मधुर है
कि उस तरफ भी, अर्जुन के
विरोध में जो
खड़े हैं, वे
ही अपने ही
लोग हैं, भाई
हैं, चचेरे
भाई हैं, मित्र
हैं, सहपाठी
हैं, संबंधी
हैं।
अपनों
से ही युद्ध
हो रहा है।
पराया तो यहां
कोई है ही
नहीं। जिससे
भी लड़ रहे हो, वह
भी अपना ही है;
दूर का, पास
का, कोई
नाता—रिश्ता
है। सारा जीवन
ही संबंधी है।
यह पूरा जीवन
ही परिवार है
और परिवार ही
बंटा है और लड़
रहा है। युद्ध
दुश्मनों के
बीच में नहीं
है, युद्ध
अपनों के ही
बीच में है।
युद्ध में तुम
किसी और को न
मारोगे, अपनों
को ही मारोगे।
युद्ध में तुम
अपनों से ही
मारे जाओगे।
पराए
होते, कठिनाई
न थी; दुश्मन
होते, कठिनाई
न थी। अर्जुन
के मन में
द्वंद्व खड़ा
हो गया है, सब
अपने हैं। और
इनको मारकर
क्या पाऊंगा?
क्या
मिलेगा?
अर्जुन
भागना चाहता
है। वह चाहता
है,
किसी ऋषि की
कुटी में चला
जाए; अरण्य
में वास करे; शांत बैठे; ध्यान में
डूबे। उसके मन
में बड़ा विराग
उठा है। लेकिन
कृष्ण उसे
खींचते हैं, भागने नहीं
देते। उसके मन
में विराग उठा
है, वह
जंगल जाना
चाहता है।
कृष्ण उसे
युद्ध के मैदान
में रोके रखते
हैं।
कृष्ण
का प्रयोजन
क्या है? वे
क्यों समझा
रहे हैं कि तू
रुक; भाग
मत! क्योंकि
जो भाग गया
स्थिति से, वह कभी भी
स्थिति के ऊपर
नहीं उठ पाता।
जो परिस्थिति
से पीठ कर गया,
वह हार गया।
भगोड़ा यानी
हारा हुआ।
जीवन ने एक
अवसर दिया है
पार होने का, अतिक्रमण
करने का। अगर
तुम भाग गए, तो तुम अवसर
खो दोगे।
भागों
मत,
जागो। भागो
मत, रुको।
ज्यादा
जागरूक, ज्यादा
सचेतन बनो; ज्यादा
जीवंत बनो, ज्यादा
ऊर्जावान बनो,
ज्यादा
विवेक, ज्यादा
भीतर की मेधा
उठे।
तुम्हारी
मेधा इतनी हो
जाए कि
समस्याएं
नीचे छूट जाएं।
समस्याओं
से भागकर तुम
समस्याओं से
छोटे रह जाओगे।
उनसे लड़कर उठो।
उनको सीढ़ियां
बनाओ। जिनको
तुमने पत्थर
समझा है मार्ग
का,
वे पत्थर ही
हैं, ऐसा
मत समझो, वे
सीढ़ियां भी बन
सकते हैं। उन
पर पैर रखो और
तुम ऊंचाई पर
पहुंचोगे।
कृष्ण
चाहते हैं, अर्जुन
युद्ध से
निखरकर उठे।
अर्जुन चाहता
है, भाग
जाए।
कृष्ण
ने भागने न
दिया अर्जुन
को और जगत को
संन्यास का पहला
ठीक—ठीक संदेश
दिया है। वैसा
संदेश बुद्ध
से भी नहीं
मिला, महावीर
से भी नहीं
मिला; क्योंकि
उन सब ने
भागने वाले
को
स्वीकार कर
लिया। कृष्ण
की व्यवस्था
जटिल है, लेकिन
बड़ी बहुमूल्य
है।
और
इसलिए मैं
राजी हुआ गीता
पर बोलने को, क्योंकि
गीता में
मनुष्य का
भविष्य छिपा
है। अब न तो
महावीर का
संन्यासी बच
सकता है दुनिया
में, न
बुद्ध का
संन्यासी बच
सकता है।
दुनिया ही न
रही वह; भगोड़ों
का उपाय ही न
रहा। अब तो
सिर्फ कृष्ण
का संन्यासी
बच सकता है
दुनिया में।
जो भागता नहीं
है, जो पैर
जमाकर खड़ा हो
जाता है, जो
हर परिस्थिति
का उपयोग कर
लेता है, विपरीत
परिस्थिति का
भी उपयोग कर
लेता है, जो
युद्ध के बीच
में ध्यान को
उपलब्ध होता
है।
यही
तो कला है।
भागकर शांत हो
जाने में कला
भी क्या है? हिमालय
पर बैठकर तो
कोई भी शांत
हो जाएगा, कोई
भी। तुम्हारी
विशिष्टता
क्या है? लेकिन
वह शाति
हिमालय की है,
तुम्हारी
नहीं। और जब
तुम लौटोगे, तुम पाओगे, तुम उतने ही
अशांत हो, जितने
तब थे, जब
गए। बीच का
समय व्यर्थ ही
गंवाया। तीस
साल बाद भी
वापस आओगे, तुम पाओगे, वही राग, वही
क्रोध, वही
लोभ, वही
मोह, सब
बैठे हैं।
हिमालय में
मौका न मिला
निकलने का, इसलिए सोए
थे। लौटते ही
समाज में, समूह
में, भीड़
में मौका
मिलेगा; जगने
शुरू हो
जाएंगे।
सुंदर
स्त्री दिखाई
पड़ेगी, वर्षों
सोई हुई वासना
उठ आएगी। धन
दिखाई पड़ेगा,
वर्षों
सोया लोभ
कुंडली खोलकर
सर्प की तरह
फैल जाएगा।
कोई जरा सा
अपमान कर देगा,
वर्षों तक
बेजान पड़ा
क्रोध
एक
झटके में
जीवंत हो
उठेगा।
नहीं; कोई
भागकर कभी
जीता नहीं।
भागना तो हार
की स्वीकृति
है। वह तो
तुमने मान ही
लिया कि तुम
जीत न सकोगे।
कृष्ण
अर्जुन को
कहते हैं, रुक।
इसलिए संदेश
बड़ा अनूठा है।
अर्जुन की
जिज्ञासा भी
अनूठी है।
जीवन—मरण दांव
पर लगा है।
तुम्हारा भी
अगर जीवन—मरण
दाव पर लगा है,
तो मैं
तुमसे जो
कहूंगा, वह
भगवद्गीता हो
जाएगी।
तुम्हारा अगर
जीवन—मरण दांव
पर नहीं लगा
है, तुम
ऐसे ही चले आए
हो, जैसे
तुम ताश खेलने
चले गए हो।
किसी मित्र ने
बुलाया; वर्षा
के दिन हैं; फुरसत का
समय है; तुम
ताश खेल आए हो।
कुछ दाव पर
नहीं लगा है।
नहीं; ऐसे
न चलेगा। अगर
ताश खेलने में
भी तुमने पूरा
जीवन दाव पर लगा
दिया है, अगर
तुम जुआरी भी
हो, तो बात
बदल जाती है।
अगर तुमने सब
कुछ दाव पर
लगाया है, ती
मैं तुमसे जो
कहूंगा, वह
तुम्हारे लिए
भगवद्गीता हो
जाएगी। अकेले
मेरे कहने से
न होगा।
तुम्हें
अर्जुन जैसी
चेतना चाहिए।
मनुष्य
की खोज मनुष्य
से भी पुरानी
है;
वही खोज
तुम्हें यहां
ले आई है। और
तुम भाग मत
जाना।
क्योंकि यही
वह जगह है, जहां
सत्य का अंतिम
उदघाटन होगा—संसार
में, भीड़
में, गहन
में, बाजार
में, उपद्रव
में, युद्ध
में। यही
कुरुक्षेत्र
है, जहां
किसी दिन
पांडव और कौरव
इकट्ठे हो गए
थे युद्ध को।
और
ध्यान रखना, जिनसे
तुम्हारा
संघर्ष है, वे अपने ही
हैं। और ध्यान
रखना कि जिससे
तुम्हें
पूछना है, वह
तुम्हारे
कहीं बाहर
नहीं, तुम्हारी
चेतना का ही
सारथी है।
यह
प्रतीक बड़ा
मधुर है।
अशोभन भी लगता
है सोचकर कि
अर्जुन तो रथ
में सवार था
और कृष्ण
सारथी थे!
लेकिन बड़े
पुराने नियमों
के अनुसार
सारी कथा को
रूप दिया गया
है। तुम्हारे
भीतर
तुम्हारा
सारथी है।
तुमने कभी
उससे पूछा
नहीं, तुमने
कभी उस पर
ध्यान ही न
दिया।
सारथियो पर
कोई ध्यान
देता है? अर्जुन
अनूठा रहा
होगा।
क्योंकि बैठा
तो ऊपर था, रथ
में था, असली
तो वही
था।
सारथी तो
सारथी ही था।
घोड़ों की साज—सम्हाल
कर लेता था, ठीक,
रथ को चला
लेता था, ठीक।
तुम्हें
कभी जिज्ञासा
उठ आए, तो कहीं
तुम कोचवान से
पूछते हो? लेकिन
अर्जुन ने
सारथी से पूछा।
तुम्हें
खोजना होगा, तुम्हारे
भीतर सारथी
कौन है? रथ
तो साफ है कि
शरीर है।
मालिक भी
तुम्हें
पक्का पता है
कि तुम्हारा अहंकार
है। सारथी कौन
है? समस्त
ज्ञानी कहते
हैं, तुम्हारा
विवेक, तुम्हारा
बोध, साक्षी—
भाव सारथी है।
उससे ही पूछना
होगा।
तुम्हारे
सारथी से ही
उठेगी वह आवाज,
जिससे
तुम्हारे लिए
गीता का
प्रकाश साफ हो
जाएगा और गीता
का मार्ग साफ
हो जाएगा।
गीता क्या
कहती है, तुम
तब तक न समझ
पाओगे, जब
तक तुम्हारा
सारथी
तुम्हें मिला
नहीं।
रथ
तुम्हारे पास
है;
मालिक भी
बने तुम बैठे
हो; घोड़े
भी इंद्रियों
के भागे जाते
हैं। इन सबके
बीच सारथी
जैसे खो ही
गया है, उसे
खोजो। सारी
ध्यान की
प्रक्रियाएं
सारथी को
खोजने के लिए
हैं। मीठी कथा
है महाभारत
में कि युद्ध
के पूर्व अर्जुन,
दुर्योधन
अपने सभी
मित्रों, सगे
—संबंधियों के
घर गए
प्रार्थना
करने कि युद्ध
में हमारी तरफ
से सम्मिलित
होना। सभी
नाते—रिश्तेदार
थे, सभी
जुड़े थे, गृहयुद्ध
था। अर्जुन भी
पहुंचा कृष्ण
के पास; दुर्योधन
भी पहुंचा।
दोनों एक ही
समय पहुंच गए।
दोनों
सदा ही एक समय
पहुंचते हैं
तुम्हारे भीतर
भी। तुम्हारी
बुराई और
तुम्हारी
भलाई सदा साथ—साथ
खडी हैं।
तुम्हारा असत
रूप,
तुम्हारा
सत रूप सदा
साथ—साथ खड़ा
है। दोनों
तुम्हीं से तो
ऊर्जा लेते
हैं; दोनों
की शक्ति तो
तुम्हीं हो; दोनों
तुम्हीं से तो
मांगते हैं और
सदा साथ—साथ मांगते
हैं।
जब
भी तुम चोरी
करने जाते हो, तब
भी तुम्हारे
भीतर का अचोर कहता
है, मत करो।
जब तुम झूठ
बोलते हो, तुम्हारे
भीतर वह स्वर
भी रहता है, जो कहता है, नहीं, उचित
नहीं है। जब
तुम सत्य
बोलते होते हो,
तब भी कोई
भीतर से कहता
है कि लाभ न
होगा, हानि
होगी। जरा—सा
झूठ बोल लेने
में हर्ज भी
क्या है? जीवन
में थोड़ा—बहुत
तो चलता ही है,
ऐसे बिलकुल
संन्यासी
होकर तो लुट
जाओगे। जब
नहीं चोरी
करते हो, तब
भी मन कहता है
कि क्या कर
रहे हो? चूके
जा रहे हो।
उठा लो! कोई
देखने वाला भी
नहीं है। और
चोरी तो तभी
चोरी है, जब
पकड़ी जाए।
यहं। तो पकड़े
जाने का कोई
उपाय भी नहीं
दिखता, कोई
है भी नहीं आस—पास;
उठा लो। चोर
और अचोर साथ—साथ
हैं; झूठ
और सच साथ—साथ
हैं।
अर्जुन
और दुर्योधन
साथ—साथ पहुंच
गए हैं कृष्ण
के पास। लेकिन
स्वभावत:
दोनों के
पहुंचने में
बुनियादी
फर्क है। वही
फर्क
निर्णायक हो
गया।
दुर्योधन
तो बैठ गया
सिर के पास।
कृष्ण सोए थे; दोपहर
का वक्त होगा,
विश्राम
करते होंगे।
विश्राम में
खलल देना उचित
नहीं।
दुर्योधन तो
बैठ गया जाकर
सिरहाने के
पास, अर्जुन
बैठ गया पैर
के पास।
वहीं
निर्णय हो गया।
उस क्षण में
सारी गीता का
निर्णय हो गया।
उस क्षण में
सारा महाभारत
जीत लिया गया, हार
लिया गया।
उसके बाद तो
विस्तार है। बीज
तो घट गया।
अर्जुन के
पैरों के पास
बैठने में बीज
घट गया।
अगर
तुम्हें अपने
साक्षी को
खोजना है, तो
विनम्र होना
पड़ेगा।
तुम्हें अगर
अपने सारथी को
खोजना है, तो
विनम्र होना
पड़ेगा।
क्योंकि
अहंकार ही तो
धुंआ पैदा
करता है और
देखने नहीं
देता। अहंकार
ही तो अटकाता है,
उलझाता है।
अहंकार ही तो
परदा बन जाता
है सख्त।
दुर्योधन
कैसे बैठ सकता
है पैरों में? दुर्योधन!
बात ही पैर
में बैठने की
उसके मन में न
उठी होगी। वह
सहज अपने
स्वभाववश ही
जाकर सिर के
पास बैठ गया।
अहंकार
सदा सिर के
पास है। और जहां
अहंकार है, वहीं
चूक हो जाती है।
फिर तुम अपने
सारथी से नहीं
मिल पाते। फिर
सब मिल जाएगा,
सारथी न
मिलेगा।
अर्जुन
बैठा है पैर
के पास। वह
विनम्र
निवेदन है, वह
निरअहंकार
भाव है।
साक्षी मिल ही
जाएगा।
कृष्ण
की आख खुली।
कथा कहती है, स्वभावत:
पहले अर्जुन
दिखाई पड़ा।
विनम्र
पर आख पड़ेगी
साक्षी की, अहंकारी
पर आख नहीं
पडेगी।
अहंकारी तो
अपने में ऐसा
अकड़ा है, वह
तो सिर के
पीछे बैठा है।
वह सम्राट
होकर बैठा है;
वह कृष्ण से
बडा होकर बैठा
है, वह
कृष्ण से ऊपर
बैठा है।
तुम्हारा
अहंकार रथ में
सवार है। और
सारथी से इतने
ऊपर बैठ गया
है कि सारथी
भी अगर देखना
चाहे, तो तुम
दिखाई न पड़ोगे।
और तुम तो
अंधे हो, इसीलिए
तुम सिर के
पास बैठे हो।
अगर थोड़ी भी
आख होती, तो
तुम पैर पकड़
लिए होते, तुम
पैर के पास
बैठे होता।
वहीं
युद्ध जीत
लिया गया।
निर्णय तो सब
हो ही गया उसी
क्षण। फिर तो
बाकी विस्तार
की बातें हैं, वे
छोड़ी भी जा
सकती हैं। जो
जानते हैं, उनके लिए
कथा पूरी हो
गई।
अर्जुन
पर आख पड़ी, तो
कृष्ण ने
स्वभावत: पूछा,
कैसे आए? जिस पर आख
पड़ी, उससे
पहले पूछा।
तत्क्षण
दुर्योधन
बोला, मैं
भी साथ ही आया
हूं। मुझे न
भूल जाएं; मैं
भी यहां मौजूद
हूं। अहंकार
को बतलाना
पड़ता है कि
मैं मौजूद हूं।
विनम्र, पता
ही चल जाता है
कि मौजूद है।
और जब बतलाना
पड़े, तो
शोभा चली जाती
है।
तो
कृष्ण ने कहा, ठीक,
तुम दोनों
साथ ही आए हो।
लेकिन मेरी।
नजर अर्जुन पर
पहले पड़ी, इसलिए
पहले स्वभावत:
मैं उससे
पूछूंगा, कैसे
आए हो? क्या
मांगने आए हो?
दुर्योधन
डरा,
भयभीत हुआ।
यह तो गलती हो
गई। गलती
इसलिए नहीं कि
मैंने
विनम्रता न
दिखाई, गलती
इसलिए हो गई
कि यह तो लाभ
का क्षण चूक
गया।
अगर
कभी अहंकारी
विनम्र भी
होना चाहता है, तो
लोभ के कारण।
विनम्रता
उसका आधार
नहीं होती।
अगर अहंकारी
कभी अक्रोधी
भी होना चाहता
है, तो
कारण निरअंहकारिता
या अक्रोध
नहीं होता, कारण कुछ और
ही होते हैं—लोभ,
पद, प्रतिष्ठा,
वासना, महत्वाकांक्षा।
डरा
कि यह तो
मुश्किल हो
जाएगी।
अर्जुन ने कहा
कि मैं भी उसी
लिए आया हूं; दुर्योधन
भी उसी लिए
आया है। हम मांगने
आए हैं आपकी
सहायता।
युद्ध टाला
नहीं जा सकता;
युद्ध होकर
रहेगा। हम
प्रार्थना
करने आए हैं
कि हमारे साथ
हों।
कृष्ण
ने कहा, तुम
दोनों आए हो, तो एक ही
उपाय है कि एक
मेरी फौजों को
मांग ले और एक
मुझे।
दुर्योधन
कैप गया होगा
कि अर्जुन
निश्चित फौजों
को मांग लेगा।
क्योंकि
कृष्ण को लेकर
क्या करेंगे? इस
अकेले को क्या
करेंगे? खाएंगे
कि पीएंगे? इस अकेले का
मूल्य क्या है?
विराट
फौजें हैं
इसकी! और पहला
मौका अर्जुन
को मिला है, मैं गया। यह
तो बाजी चूक
गया। अच्छा
हुआ होता, चरणों
में बैठ गया
होता; अच्छा
हुआ होता, चरण
पकड़ लिए होते।
चौंका
होगा
दुर्योधन भी, जब
अर्जुन ने
निर्णय दिया।
अर्जुन ने कहा
कि अगर यही
निर्णय है, तो मैं आपको
मांग लेता हूं।
छाती फूल गई
होगी
दुर्योधन की।
सोचा होगा, ये मूढ़ ही
रहे पांडव। अहंकारियों
को विनम्र
व्यक्ति मूढ़
ही मालूम पड़ते
हैं।
अज्ञानियों
को ज्ञानी
पागल मालूम पड़ते
हैं। नासमझों
को समझदार
नासमझ मालूम
पड़ते हैं।
रोगियों को
स्वस्थ लगता
है कि कुछ
महारोग से पीड़ित
हैं। पीलिया
के मरीज को
सभी कुछ पीला
दिखाई पड़ने लगता
है। बहुत
बुखार के बाद
उठे आदमी को
स्वादिष्ट से स्वादिष्ट
भोजन भी तिक्त
मालूम पड़ते
हैं, स्वाद
नहीं मालूम पड़ता;
मिठाई में
भी मिठास नहीं
मालूम पड़ती।
दुर्योधन
हंसा होगा, प्रसन्न
हुआ होगा; हाथ
में आई बाजी
यह मूढ़ अर्जुन
फिर हार गया!
ऐसे ही ये सदा
हारते रहे हैं।
ऐसे ही वहां हारे
थे, जब
शकुनि ने दाव
फेंके। ऐसे ही
फिर हार गए।
वहां तो मेरी
चालाकी से
हारे थे। यहां
अपनी ही
बुद्धिहीनता
से हार गए। ये
हारने को ही
हैं; इनकी
विजय का कोई
उपाय नहीं।
ऐसा शुभ अवसर
चूक गया! मांग
लेता फौजों को,
कृष्ण को
लेकर क्या
करेगा? एक
कृष्ण, अकेला
कृष्ण किस
मूल्य का है!
लेकिन
यहीं निर्णय
हो गया। एक
कृष्ण एक तरफ, सारा
संसार दूसरी
तरफ, तो भी
एक कृष्ण
चुनने जैसा है।
एक चुनने जैसा
है। इक साधे सब
सधे, सब
साधे सब जाए।
एक को पकड़कर
अर्जुन जीत
गया।
लेकिन
यह कोई जीतने
के लिए एक को
नहीं पकड़ा था, यह
खयाल रखना।
नहीं तो भूल
हो जाएगी। तब
तो फिर
दुर्योधन और
अर्जुन के
गणित में कोई
फर्क न रह
जाएगा। यह
जीतने के लिए
एक को नहीं
पकड़ा था। एक
को पकड़ने के
कारण जीत गया,
यह बात और
है। अपनी
बुद्धि से भी
पूछा होता, तो खुद की
बुद्धि भी
कहती कि चुन
लो फौज—फाटा, वहां शक्ति
है। लेकिन जो
समझदार है, वह शक्ति
नहीं चुनता, शांति चुनता
है।
कृष्ण
को चुनकर
अर्जुन ने
शाति चुन ली, साक्षी—
भाव चुन लिया,
बोध चुन
लिया, बुद्धत्व
चुन लिया। वही
वक्त पर काम
आया। अंधी
फौजें, अंधी
ऊर्जा को
चुनकर
दुर्योधन ने
क्या पाया? नौकर—चाकर
इकट्ठे कर लिए;
मालिक खो
गया।
तुम
भी जीवन में
ध्यान रखना, क्योंकि
सौ में
निन्यानबे
मौके पर मैं
भी देखता हूं
कि तुम भी
दुर्योधन के
गणित से ही
सोचते हो। फौज—फाटा
चुनते हो। एक
को छोड़ देते
हो। रोज वही
घटना घट रही
है। वह एक
तुम्हारे
भीतर छिपा
तुम्हारा
विवेक है, उसे
तुम छोड़ देते
हो। कभी धन
चुनते हो, कभी
मकान चुनते हो,
कभी पद
चुनते हो, प्रतिष्ठा
चुनते हो, हजार
चीजें चुनते
हो, फौज—फांटा।
और एक को छोड़
देते हो।
तुम
सोचते भी हो, उस
एक में रखा भी
क्या है! इतना
विस्तार है
संसार का, इसे
पा लो। इतना
बड़ा
साम्राज्य है,
उस एक को
पाकर करोगे भी
क्या? होगी
आत्मा, होगी
विवेक की
अवस्था, होगा
ध्यान, होगी
समाधि, लेकिन
एक ही है। और
इतना विराट
संसार पड़ा है
अभी जीतने को;
पहले इसे कर
लो। फिर उस एक
को देख लेंगे।
अगर
तुम्हारे
सामने यह सवाल
उठे कि तुम एक
परमात्मा को
चुन लो या
सारे संसार को, तुम
क्या करोगे? सौ में
निन्यानबे
मौके पर तुम
वही करोगे, जो दुर्योधन
ने किया; और
तुम प्रसन्न
होओगे। वहीं
तुम करते रहे
हो। करोगे, यह कहना ही
गलत है। तुम
कर ही रहे हो।
लेकिन
अर्जुन
धन्यभागी हुआ।
कृष्ण को पाकर
सब पा लिया।
मालिक को पा
लिया, स्वामी
को पा लिया।
नौकर—चाकरों
का क्या हिसाब
है? घोड़े—रथों
की क्या कीमत
है? और
वक्त पर यही
एक काम आया।
वक्त पर सदा
एक काम आता है।
युद्ध
के सघन मैदान
में,
जब अर्जुन
के प्राण कंपने
लगे, होश खोने
लगा, गांडीव
थरथराने लगा,
पैर के नीचे
की जमीन खिसक
गई, कुछ
सूझ न पड़े, सब
तरफ अंधेरा हो
गया। एक क्षण
में सब शुरू
हो जाने को है,
योद्धा
तत्पर हो गए, शंखनाद होने
लगे, अर्जुन
की प्रतीक्षा
होने लगी कि
देर क्यों हो
रही है! और
उसके गात
शिथिल हो गए, उसका गांडीव
मुरदा हो गया,
उसकी ऊर्जा
जैसे कहीं खो
गई। अचानक
उसने अपने को
असहाय पाया।
और इस क्षण
में उस एक से
ही ज्योति
मिली। इस एक
क्षण में वही
सारथी काम आया।
खोजो
भीतर, कौन है
सारथी? ध्यान
की खोज सारथी
की खोज है।
कौन है, जो
तुम्हें
वस्तुत: चलाता
है? वही
सारथी है। कौन
है असली मालिक?
अहंकार! तो
तुम सिर के
पास बैठे
दुर्योधन हो।
विवेक! तो तुम
पैर के पास
बैठे अर्जुन
हो। वही काम
आएगा जीवन के
सघन युद्ध में।
अर्जुन
बनो,
तो कृष्ण की
गीता तो सदा
तुममें जन्म
लेने को तत्पर
है। तुम जरा
गर्भ दो, तुम
जरा जगह दो।
तो जैसी गीता
अर्जुन को
मिली, वैसी
ही तुम्हें भी
मिल सकती है।
अर्जुन
बोला, हे
कृष्ण, जो
मनुष्य
शास्त्र—विधि
को त्यागकर
केवल श्रद्धा
से युक्त हुए
देवादिको का
पूजन करते हैं,
उनकी
स्थिति फिर
कौन—सी है? सात्विकी
अथवा राजसी
अथवा तामसी?
इसके
पहले कि हम इस
सूत्र में
प्रवेश करें, जीवन
के गणित को
समझ लेना
जरूरी, उपयोगी
है।
जिन्होंने
भी जाना है
कभी,
अनंत काल
में जो भी
जागे हैं और
बुद्ध हुए हैं,
भगवत्ता
पाई है, उन
सब ने कुछ
बातों पर
सहमति दी है, अपने
हस्ताक्षर की
मोहर लगाई है।
वे बातें बहुत
थोड़ी हैं।
बहुत—सी बातों
में उनमें भेद
है; भेद ही
नहीं विरोध भी
है। क्योंकि
वे विभिन्न
लोगों से बोले,
इसलिए भेद
है। क्योंकि
वे विभिन्न
समयों में
बोले, इसलिए
भिन्नता है।
और क्योंकि वे
विभिन्न
दृष्टिओं से
बोले, इसलिए
विरोध भी है।
सत्य बहुत बड़ा
है, दृष्टि
बड़ी छोटी है।
विपरीत, दृष्टि
में नहीं
समाता, सत्य
में समाता है।
तो
कृष्ण बोले
अर्जुन से, वह
बात अलग, परिस्थिति
अलग। महावीर
बोले गौतम से,
वह बात अलग,
परिस्थिति
अलग। गौतम
भिन्न
व्यक्ति है
उतना ही जितने
महावीर भिन्न
हैं कृष्ण से,
उतना ही
गौतम भिन्न है
अर्जुन से।
और
सारी स्थिति
भिन्न है। वन
के एकांत में, सुबह
पक्षियों की
चहचहाहट में,
महावीर से
गौतम कुछ
पूछता और
महावीर बोलते।
वृक्ष की छाया
के तले आनंद
बुद्ध से कुछ
पूछता और
बुद्ध बोलते।
जीसस बोले, मोहम्मद
बोले, परिस्थितियां
भिन्न थीं, इसलिए बहुत
बातें भिन्न
हैं। लेकिन
मूल सत्य
भिन्न नहीं हो
सकते।
उन
कुछ मूल सत्यों
में एक है, तीन
का गणित। जीसस
कहते हैं
ट्रिनिटी, उस
तीन के गणित
को। वे कहते
हैं, परमात्मा
तीन हो गया।
हिंदू कहते
हैं, त्रिमूर्ति।
वही ट्रिनिटी,
परमात्मा
तीन हो गया।
ईसाइयों के
नाम अलग हैं।
हिंदू कहते
हैं। ब्रह्मा,
विष्णु, महेश।
ईसाई कहते हैं,
परमात्मा पिता,
बेटा जीसस
और दोनों के
बीच में
पवित्र आत्मा,
ऐसे तीन
चेहरे हैं।
लेकिन तीनों
के भीतर छिपा
है एक।
योगी
कहते हैं, त्रिकुटी,
जहां तीन
मिलते हैं, वहां एक का
अनुभव होता है।
तांत्रिक
कहते हैं, त्रिपुटी,
जहां तीन
तीन की तरह खो
जाते हैं और
एक समन्वय
सधता है, वहीं
परम का
आविर्भाव
होता है।
हिंदू
जैन,
बौद्ध, ईसाई,
मुसलमान, सभी ने तीन
की बात कही है।
और इन सब में
सर्वाधिक
गहरी
जिन्होंने
तीन की चर्चा
की है, वे
हैं सांख्य
दार्शनिक।
उनका नाम ही
सांख्य पड़ गया,
क्योंकि
उन्होंने
पहली दफा जीवन
के गणित की संख्या
खोजी। सांख्य
का अर्थ है
संख्या।
जिन्होंने
पहली दफे गणित
बिठाया। वह
सबसे प्राचीन
है। सबसे पहले
उन्होंने तीन
का राज प्रकट
किया। उसकी
वजह से वे
सांख्य ही
कहलाने लगे।
उन्होंने
जीवन के पूरे
गणित को ठीक
से पकड़ लिया।
उन्होंने
कहा,
एक से तीन
होते हैं और
फिर तीन से नौ
होते हैं। और
फिर नौ से
अनंत—अनंत
होते चले जाते
हैं। और जब
वापसी में
यात्रा होती
है, तो फिर
अनंत घटकर नौ
बनते हैं, नौ
घटकर तीन बनते
हैं; तीन
घटकर एक हो
जाता है। सारा
संसार संख्या
का विस्तार है,
एक से तीन, तीन से नौ, नौ से
इक्यासी, फिर
इक्यासी
गुणित
इक्यासी, और
आगे, और
आगे। फिर ऐसे
ही पीछे लौटना
पड़ता है।
परसों
रात एक
इटालियन
संन्यासिनी
वापस लौटती थी
नेपल्स। उसे
मैंने नाम
दिया है, कृष्ण—राधा।
उसने कभी पूछा
न था अब तक कि
अर्थ क्या है।
जाते समय
मैंने उससे
पूछा, कुछ
पूछना है? उसने
कहा कि और कुछ
नहीं पूछना है,
बड़ी तृप्त,
शांत होकर
जाती हूं। एक
बात भर पूछनी
है जो पहले
दिन मैं पूछने
से चूक गई, कृष्ण—राधा
का अर्थ क्या
है? आपने
मुझे राधा
क्यों पुकारा
है? तो उसे
मैंने जो कहा
है, वह मैं
तुमसे भी कहना
चाहूंगा, क्योंकि
इन सूत्रों से
उसका बड़ा गहरा
संबंध है।
उसे
मैंने कहा कि
पुराने शास्त्रों
में राधा का
कोई उल्लेख
नहीं है।
गोपियां हैं, सखियां
हैं, सोलह
हजार हैं।
कृष्ण उनके
साथ नाचते हैं;
उनकी
बांसुरी बजती
है। और सारा
वन—प्रांत
आनंद से गूंज
उठता है, रास
की लीला चलती
है। लेकिन
राधा का कोई
नाम पुराने
शास्त्रों
में नहीं है।
सिर्फ इतना ही
कहीं—कहीं
उल्लेख है कि
और सारी
सखियों में, और सारी
गोपियों में
एक गोपी है, जो कृष्ण के
बहुत निकट है,
जो उनकी
छाया की तरह
है। लेकिन
उसका कोई नाम
नहीं है।
यह
भी उचित ही है, क्योंकि
कृष्ण के करीब
नाम रहेगा, तो करीब ही न
आ सकोगे।
इसलिए पुराने
शास्त्रों ने
उसे कोई नाम
नहीं दिया।
छाया की तरह
है, कृष्ण
के निकट है।
अपनी
तरफ से कृष्ण
के निकट है, तो
स्वभावत:
कृष्ण की तरफ
से भी निकटता
है। क्योंकि
भक्त जितना
निकट भगवान के
आ जाए, उतना
ही निकट भगवान
भक्त के आ
जाता है। वह
भक्त पर ही
निर्भर है कि
तुम कितने
निकट भगवान को
चाहते हो, उतने
निकट तुम
पहुंच जाओ। जो
तुम भगवान से
चाहते हो
तुम्हारे
प्रति, वही
तुम भगवान के
प्रति करो, यही तो
सूत्र है।
तो
शास्त्र कहते
हैं कि निकट
है,
बहुत निकट
है, छाया
की तरह है।
लेकिन किसी
नाम का उल्लेख
नहीं है।
अच्छा किया।
क्योंकि नाम—रूप
खो जाए, तभी
तो कोई कृष्ण
के निकट आता
है। इसलिए नाम
क्या देना!
लेकिन फिर
हजारों साल तक
नाम नहीं दिया
गया। कुछ सात
सौ वर्ष पहले
अचानक राधा का
नाम प्रकट हुआ।
गीत गाए जाने
लगे; महाकवियों
ने परम रचनाएं
रची; जयदेव
ने गीतगोविंद
गाया; राधा
का आविर्भाव
हुआ। राधा
शब्द
बहुमूल्य होने
लगा। इतना
बहुमूल्य हो
गया कि अगर
तुम अकेला अब
कृष्ण कहो, तो आधा
मालूम पड़ता है।
राधा—कृष्ण ही
पूरा मालूम
पड़ता है। और न
केवल
महत्वपूर्ण
हो गया, कृष्ण
को पीछे हटा
दिया; राधा
आगे आ गई। कोई
नहीं कहता, कृष्ण—राधा।
लोग कहते हैं,
राधा—कृष्ण।
यह
भी बड़ा
महत्वपूर्ण
है। जब भक्त
इतने निकट आ
जाता है कि
परमात्मा में
एक हो जाता है, तो
पहले तो भक्त
परमात्मा की
छाया होता है;
फिर
परमात्मा
भक्त की छाया
हो जाता है।
राधा आगे आ गई।
गम
कैसे खोज लिया
यह जब नाम
शास्त्रों
में था ही
नहीं? नाम की
खोज अलग है।
नाम की खोज के
पीछे बड़ा गणित
है, सांख्य
का गणित है।
राधा शब्द
बनता है धारा
शब्द को उलटा
देने से।
योगियों की
खोज है कि
धारा का अर्थ
होता है, बहिर्गमन।
जैसे
गंगोत्री से
गंगा की धारा
निकलती है, तो स्रोत से
दूर जाती है।
स्रोत से दूर
जाने वाली
अवस्था का नाम
है, धारा।
और राधा धारा
का उलटा शब्द
है। उसका अर्थ
है, जो
स्रोत की तरफ
वापस आती है।
जब एक से तीन
बनते हैं, तीन
से नौ बनते
हैं, नौ से
इक्यासी बनते
हैं, तो धारा।
जब इक्यासी से
नौ बनते हैं, नौ से तीन
बनते हैं, तीन
से एक बनता है,
तो राधा।
राधा
योगियों और
सांख्य
अनुभोक्ताओं
के अनुभव से निकला
—हुआ शब्द है।
उन्होंने
जाना कि जीवन
की धारा
बहिर्गामी है, बाहर
जाती है, दूर
जाती है, मूल
से दूर जाती
है, उत्स
से दूर जाती
है, उत्स
की तरफ पीठ
होती है, आंखें
अनंत क्षितिज
पर लगी होती
हैं—यह धारा
की अवस्था है।
जब कोई लौटता
है मूल उत्स
की तरफ, स्रोत
की तरफ, जब
गंगा वापस
लौटने लगती है
गंगोत्री की
तरफ, उलटी
यात्रा शुरू
होती है, अप—स्ट्रीम।
अब धारा बाहर
की तरफ नहीं
जाती है, भीतर
की तरफ आती है।
बहिर्मुखता
बंद होती है, अंतर्मुखता
शुरू होती है;
तभी तो
कृष्ण के पास
आती है राधा।
धीरे — धीरे, धीरे— धीरे, गंगोत्री में
गिर जाती है
गंगा। गंगा
विलीन हो जाती
है, एक रह
जाता है।
उस
छाया की तरह
घूमने वाली
सखी को हजारों
साल तक नाम न
मिला। कोई सात
सौ वर्ष पहले
अचानक नाम का
आविर्भाव।
हुआ। और
जिन्होंने
नाम दिया, बड़े
अदभुत लोग रहे
होंगे।
जिन्होंने
नाम नहीं दिया,
वे भी बड़े
अदभुत लोग थे।
और जिन्होंने
नाम दिया, वे
कुछ कम अदभुत
लोग न थे।
क्योंकि नाम
उन्होंने ऐसा
गहरा दिया कि
उसमें सारे
शास्त्र को
समा दिया।
मैंने
जो प्रतीक
चुना है आश्रम
के लिए, वह एक
से तीन, तीन
से नौ, इसका
ही प्रतीक है।
वह सृष्टि और
प्रलय दोनों
उसमें हैं।
अगर धारा की
तरह जाओ, तो
एक से तीन, तीन
से नौ और अनंत
होता जाता है।
अगर लौटने लगो,
घर वापस आने
लगो, तो नौ
से तीन, तीन
से एक हो जाता
है।
इस
संबंध में
समस्त ज्ञानियों
की सहमति है
कि अस्तित्व
का ढंग, सृष्टि
का ढंग है, एक
से अनेक। तीन
पहला पड़ाव है।
और फिर प्रलय,
जब सृष्टि
सिकुडती है और
यात्रा
समाप्त होती
है, लीन
होती है; सृष्टि
की रात आती है,
ब्रह्मा का
दिन पूरा होता
है, तब फिर
एक पड़ाव है, आखिरी पड़ाव,
तीन। पहला
पड़ाव भी तीन
है, आखिरी
पड़ाव भी तीन
है। इसलिए तीन
बडा
महत्वपूर्ण
है—ट्रिनिटी,
त्रिमूर्ति,
त्रिकुटी, त्रिपुटी।
महावीर
के त्रि—रत्न, बुद्ध
की त्रि—शरण, लाओत्से के
थी ट्रेजर्स,
वह सब तीन
पर उनका जोर
है। क्योंकि
वही पहला पड़ाव
है, वही।
अंतिम पड़ाव है।
वहीं से तुम
शुरू होते हो,
वहीं तुम
समाप्त होते
हो। क्योंकि
फिर एक में तो
परमात्मा ही
बचता है। जब
तक एक है, तुम
शुरू नहीं हुए;
जब फिर एक
हो गया, तुम
न रहे। तीन से
अहंकार शुरू
होता है और
तीन पर ही
अहंकार
समाप्त हो
जाता है। ये
जो सांख्यों
ने तीन सूत्र
खोजे, वे
हैं, सत्य,
रज, तम।
इन तीन से, सांख्य
कहते हैं, सारा
अस्तित्व बना
है। ये
त्रिगुण, इन
तीन का ही
सारा खेल है।
जिसने इन तीन
को जान लिया, उसके हाथ
में कुंजी आ
गई; वह
चाहे तो वापस
लौट जाए, एक
में लीन हो
जाए। तो इन
तीन के स्वभाव
को हम थोड़ा
समझ लें।
तम
का अर्थ है, आलस्य।
तम का अर्थ है,
ठहरना। तम
का अर्थ है, रुकना। तम
बांधने वाली
शक्ति है। अगर
तम न हो, तो
चीजें चलती ही
जाएंगी और रुक
न सकेंगी। तुम
एक पत्थर
उठाकर फेंकते
हो, अगर तम
न हो जगत में, कुछ रोकने
की शक्ति न हो,
अवरोध न हो
जगत में, तो
पत्थर फिर
चलता ही जाएगा,
चलता ही
जाएगा, रुकेगा
कैसे? तम
है अवरोधक
ऊर्जा।
तो
तुम फेंकते हो
पत्थर को, जब
तुम फेंकते हो,
तो तुम उसे
रज की शक्ति
देते हो।
इसलिए
तुम्हारा हाथ
दुखता है, शक्ति
हाथ से गई।
तुमने कुछ
गंवाया पत्थर
को फेंकने में।
और जितनी
शक्ति तुमने
दी, जितने
जोर से फेंका,
जितना
गंवाया, जितनी
ऊर्जा दे दी
पत्थर को, उतनी
दूर पत्थर
जाता है। जैसे
ही ऊर्जा खतम
हो जाती है, तम की शक्ति
उसे नीचे खींच
लेती है।
जिसको
न्यूटन ने
ग्रेविटेशन
कहा है, वह तम
का ही एक
स्थानीय
उपयोग है, तम
का ही एक रूप
है। तम के और
बहुत रूप हैं;
लेकिन
जिसको न्यूटन
ने
गुरुत्वाकर्षण
कहा। क्योंकि
वह बैठा है
बगीचे में और
एक फल को उसने
गिरते देखा।
और उसे सवाल
उठा कि जब फल
गिरता है
वृक्ष से, तो
ऊपर की तरफ
क्यों नहीं
जाता? बाएं
क्यों नहीं
जाता? दाएं
क्यों नहीं
जाता? नीचे
ही क्यों आता
है?
तम
है नीचे की
तरफ खींचने
वाली शक्ति।
तो जिससे तुम
नीचे गिरते हो, वह
तम है। जिससे
तुम नरक में
गिरते हो, वह
तम है। जब
तुम्हारे
भीतर चोरी तुम
करते हो, तो
तम है, झूठ
बोलते हो, तम
है। जहां—जहां
तुम नीचे
उतरते हो, वहां
तम है। तम है
एक आलस्य, एक
निद्रा।
गुरुत्वाकर्षण
तम का एक रूप
है,
और
आध्यात्मिक
अंधापन भी तम
का एक रूप है।
जिन्होंने भी
समाधि जानी, वे कहते हैं,
हलके हो गए,
जैसे पंख लग
गए, आकाश
में उड़ जाएं।
जब तुम्हारे
भीतर भी ध्यान
थोड़ा गहरा
होगा, तो
तुम अचानक
किसी दिन
पाओगे बैठे—बैठे,
जैसे शरीर
जमीन से ऊपर
उठ गया। आख
खोलकर पाओगे,
जमीन पर
बैठा है।
सोचोगे, भ्रांति
हो गई, कल्पना
हो गई। फिर आख
बंद करोगे, फिर थोड़ी
देर में पाओगे,
शरीर ऊपर उठ
गया। शरीर
नहीं उठ रहा
है, लेकिन
तम की शक्ति
कम हो रही है।
इसलिए भीतर
अनुभव होता है,
जैसे शरीर
ऊपर उठ गया, हलका हो गया।
जितना
तमस होगा, उतना
बोझ होगा।
लोगों को चलते
देखो, ऐसे
चल रहे हैं, जैसे सिर पर
बोझ रखे हों।
बोझ बिलकुल
दिखाई नहीं
पड़ता, वह
तम का बोझ है।
उसे तुम किसी
तराजू पर न
तौल सकोगे। वह
आत्मिक बोझ है।
वह चिंताओं का
बोझ है, दुर्गुणों
का बोझ है, गलत
आदतों का बोझ
है, गलत
संस्कारों का
बोझ है, गलत
संबंधों का
बोझ है, गलत
निर्णयों का
बोझ है, वह
सब बोझ वहां
है। वह सब तमस
का फैलाव है।
तमस
यानी जो रोकता, तमस
यानी जो
अटकाता, तमस
यानी जो अवरोध
बनता।
तुम्हारे पैर
अगर जमीन में
गड़े हैं, तो
वह तमस है।
तुम अगर अपनी
चेतना स्थिति
में ऊपर नहीं
उठ पाते, तो
तमस का बहुत
वजन है।
तमस
जरूरी है, याद
रखना।
क्योंकि तमस
के बिना जीवन
न हो सकेगा।
पर उसकी एक
सीमा जरूरी है।
जैसे नमक भोजन
में जरूरी है,
पर नमक ही
नमक का भोजन
करने मत बैठ
जाना। और माना
कि नमक के
बिना भोजन
बेस्वाद लगता
है, लेकिन
इससे तुम यह
गणित मत
बिठाना कि नमक
ही नमक खाओगे,
तो बहुत
स्वाद आएगा।
गणित सीधा है।
नमक के बिना
भोजन बेस्वाद
लगता है, इसलिए
स्वाद नमक में
है। तो नमक ही
नमक खाओ, स्वाद
ही स्वाद मिलेगा!
तमस
जरूरी है, अपरिहार्य
है, लेकिन
उसका एक
निश्चित अंश।
और जिस दिन
कोई व्यक्ति
उसके निश्चित
अंश को पहचान लेता
है, उस दिन
तमस का भी
उपयोग शुरू हो
जाता है। फिर
तमस तुम्हें
रोकता नहीं है।
फिर पत्थर
सीढ़ियां बन
जाती हैं, फिर
तुम ऊपर जाने
के लिए भी तमस
का उपयोग करते
हो। क्योंकि
पत्थर पर भी
तो पैर जमाना
पड़ेगा!
एक
सीढ़ी से तुम
पैर उठाते हो, एक
पैर उठाते हो;
एक पैर को
तो तुम जमाए
रखते हो। और
जब तुम एक पैर
उठाते हो, तो
दूसरे पैर को
ठीक से जमाकर
रखना पड़ता है।
वह तमस का
उपयोग है। फिर
दूसरे को तुम
ऊंची सीढ़ी पर
जमा लोगे ठीक
से, तब
पहले पैर को
उठाओगे। वह भी
तमस का उपयोग
है।
तमस
नीचे ला सकता
है,
अगर अतिशय
हो जाए। और
तमस
ऊर्ध्वारोहण
बन सकता है, अगर
समझपूर्वक
उसका उपयोग
किया जाए। कोई
योगी तमस को
काट नहीं
डालता। सिर्फ
तमस का सम्यक
उपयोग सीखता
है। अति मारता
है; सम्यक
उपयोग सदा
सहयोगी है, साथी है।
वैज्ञानिक
भी कहते हैं
कि तमस के
बिना अस्तित्व
नहीं हो सकता।
वैज्ञानिकों
ने भी पदार्थ
के अन्वेषण
में इलेक्ट्रान, न्यूट्रान
और पॉजिट्रान
की विभाजना की
है। और वे
कहते हैं कि
इनमें से एक
रोकता है, अन्यथा
परमाणु
विस्फोट हो
जाए। रोकने वाला
तत्व चाहिए, जो बांधकर
रखता है रस्सी
की तरह।
दूसरा
तत्व है, रजस।
रजस है ऊर्जा,
गति, त्वरा,
तेजी। तुम
जब एक पत्थर
फेंकते हो, तो तुम रजस
से फेंकते हो।
वह तुम्हारी
ऊर्जा है।
आकाश में तारे
घूमते हैं, पृथ्वी
परिक्रमा
लगाती है सूरज
की, तुम
सुबह उठते हो,
वह रजस है।
अगर तमस ही हो,
तो तुम एक
बार सोओगे, फिर कभी
उठोगे नहीं।
उठेगा कौन?
इसलिए
जो आदमी सुबह
उठने में देर
करता है, उसको
हम तामसी कहते
हैं। उसको तमस
पकड़ रहा है।
रातभर सो लिया
है, फिर भी
बिस्तर नहीं
छोड सकता।
उठता भी है, तो ऐसी
शिकायत से भरा
उठता है। दिन
का स्वागत
नहीं है उसके
मन में।
सूर्योदय की
प्रसन्नता
नहीं है उसके
मन में।
पक्षियों के
गीत उसे सुनाई
नहीं पड़ते। वह
एक ही सुख
जानता है, अपनी
दुलाई में दबा
हुआ पड़े रहना
और अपनी ही गंदी
सांस को चलाते
रहना, पीते
रहना। वह एक
ही सुख जानता
है, मुरदे
की भांति पड़े
रहना।
यह
आदमी
आत्मघाती है।
क्योंकि जीवन
का क्या अर्थ
है फिर? जीवन
तो ऊर्जा है, जागना है; जीवन तो गति
है। मृत्यु
में तमस पूर्ण
को घेर लेता
है।
इसे
समझ लो।
मृत्यु में
तमस इतना अति
हो जाता है कि
उसमें रज और
सत्व दोनों
डूब जाते हैं, तो
आदमी मर गया।
जो
आदमी सुबह उठने
में मुश्किल
पा रहा है, वह
थोड़ा— थोड़ा
मरा हुआ आदमी
है, ठीक
जिंदा आदमी
नहीं है। उसके
चेहरे पर तुम
दिनभर मक्खियां
उड़ते हुए
पाओगे। उसके
चेहरे पर एक
उदासी, उसके
चेहरे पर धूल
जमी हुई
मिलेगी, नींद
की एक पर्त
उसके चेहरे पर
तुम पाओगे।
उसकी आंखें
ताजी नहीं
होंगी; उसकी
आंखों में
स्फटिक मणि की
चमक न होगी।
उसकी आंखों पर
धुंआ जमा होगा।
वह किसी तरह
ढो रहा है, वह
राह देख रहा
है सांझ की कि
किस तरह
बिस्तर पर फिर
पड़ जाए।
ऐसा
आदमी शराब
पीएगा; क्योंकि
शराब तमस को
बढ़ा देती है।
ऐसा आदमी
धूम्रपान
करेगा, क्योंकि
धूम्रपान में
छिपा हुआ
निकोटिन तमस
को बढ़ाता है।
ऐसे आदमी की
अगर तुम जीवन—विधि
पहचानोगे, तो
तुम पा जाओगे,
कहा—कहा तमस
है। तमस का एक
रूप निकोटिन
है, वह
सिगरेट में है
छिपा हुआ, तंबाकू
में है छिपा
हुआ। ऐसा आदमी
तंबाकू चबाता
रहेगा। और हद
के लोग हैं!
ऐसे आदमियों
ने अगर
शास्त्र लिखे,
तो उनमें
उन्होंने यह
भी लिख दिया
कि वैकुंठ में
बैठे विष्णु
भगवान तांबूल
चर्वण करते
हैं।
निकोटिन
की तुमको
जरूरत होगी, विष्णु
भगवान को है, तो उनका
विष्णु होना
भी संदिग्ध है।
वह तो शास्त्र
पुराने जमाने
में लिखे, नहीं
तो पता नहीं
वह सिगरेट
पीते विष्णु
भगवान या क्या
करते! या
हुक्का
गुडगुडाते!
तामसी
आदमी की जीवन
व्यवस्था
देखो! ज्यादा
खाएगा; क्योंकि
ज्यादा भोजन
नींद लाता है,
तमस बढ़ता है।
अतिशय खाएगा;
भर लेगा इस
तरह कि सारी
ऊर्जा पेट में
चली जाए और
मस्तिष्क की
ऊर्जा खाली हो
जाए, तो वह
सो सके। इसलिए
तो भरे पेट नींद
अच्छी आती है।
उपवास करो, रात नींद
नहीं आती। अति
भोजन तमस को
बढ़ाता है।
ऐसे
आदमी की आदतें
गौर से देखो, तो
तुम पाओगे, अगर उसे
मौका मिले
सोने का, तो
वह बैठेगा
नहीं। अगर
बैठना ही पड़े,
तो वह चलेगा
नहीं, खड़ा
नहीं होगा।
अगर खड़ा ही
होना पड़े, तो
चलेगा नहीं।
उसका सार यह
है कि अगर
उसको मरने का
मौका मिले, तो वह मरना
चाहेगा, जीएगा
नहीं। ऐसे लोग
आत्मघात कर
लेते हैं। और
अगर नहीं कर
पाते, तो
केवल इस कारण
कि आलस्य की
वजह से। इतना
उपद्रव भी वे
नहीं कर पाते,
कौन जाए जहर
खरीदने!
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
घर में नौकर था।
बड़ा घर था।
बहुत नौकर—चाकर
थे। और जैसा
बड़ा घर था, शाही
ठाठ—बाठ था, बड़े नौकर—चाकर
थे, भयंकर
आलस्य था
नौकरों में।
पता ही नहीं
चलता कि कौन
क्या करता है,
कौन क्या
नहीं करता।
काम बड़ा
अस्तव्यस्त
था। मालिक
चिंतित हुआ।
सब उपाय कर
लिए, लेकिन
काम में कोई
सुधार न हुआ।
तो उसने एक
इफिशिएसि
एक्सपर्ट को
बुलाया कि जो
थोड़ी सलाह दे
कि क्या करना।
उस
विशेषज्ञ ने
कहा,
बुलाओ सब
नौकरों को।
सारे नौकर
पंक्तिबद्ध
खड़े किए गए।
उस विशेषज्ञ
ने कहा कि
तुममें जो
सबसे ज्यादा
अलाल हो, वह
बाहर निकल आए।
क्योंकि मैं
उसे ऐसा काम
दे दूंगा, जिसमेँ
ज्यादा काम
करना ही न पड़े।
लेकिन एक सड़ी
मछली पूरी नदी
को गंदा कर
देती है। तो
मुझे ऐसा लगता
है कि तुममें
कोई एक महा
अलाल है, जो
सब को खराब कर
रहा है। वह
बाहर निकल आए।
हम उसे कोई
दंड न देंगे; नौकरी न
छुडाएंगे, आश्वासन
पक्का है। हम
उसे ऐसा ही
काम दे देंगे,
जिसमें कुछ
करना ही
ज्यादा न पड़े।
पहरेदार की
तरह स्कूल पर
बैठा सोता रहे
या मालिक की
दुकान है कपड़े—लत्ते
की, और कई
दुकानें हैं,
उसे ऐसी जगह
बिठा देंगे।
जैसे उदाहरण
के लिए उसने
कहा कि जहां
मालिक के कपड़े
की दुकान में
पाजामे और
नाइट ड्रेस और
इस तरह की
चीजें बेची
जाती हैं, वहां
बिठा देंगे कि
वहा सोया रहे।
और वहा तख्ती
लिख देंगे कि
हमारे कपड़े
पहनने से ऐसी
गहरी नींद आती
है। कोई
रास्ता निकाल
लेंगे। बाहर आ
जाए जो आदमी
सब से ज्यादा
अलाल है!
सब
लोग बाहर आ गए
सिर्फ मुल्ला
नसरुद्दीन को
छोड्कर। उस
विशेषज्ञ ने
पूछा कि नसरुद्दीन, मालिक
को भी संदेह
है और मुझको
भी संदेह है
कि तुम ही हो
उपद्रवी।
लेकिन तुम
बाहर क्यों
नहीं आए? उसने
कहा, मालिक,
जहां हम हैं,
बड़े आनंद
में हैं। दो
पैर कौन चले!
अगर
आलसी
आत्महत्या
नहीं करता, तो
सिर्फ इसीलिए
कि उसमें भी
कुछ करना
पड़ेगा, अन्यथा
वह आत्मघाती
की तरह जीता
है।
रजस
है ऊर्जा, त्वरा,
शक्ति। रजस
का अगर अति हो
जाए, तो
आदमी
राजनीतिज्ञ
हो जाता है, भागता है, महत्वाकांक्षा!
या धन की दौड़
हो जाती है, या पद की दौड
शुरू हो जाती
है; वह रुक
नहीं सकता।
उसे रुकना
मुश्किल है।
उसे तुम हमेशा
भागता हुआ
पाओगे। वह कहां
जा रहा है, इसका
उसे पक्का पता
न हो; लेकिन
एक बात पक्की
होती है कि वह
तेजी से जा
रहा है। उससे
तुम यह मत
पूछो कि कहां
जा रहे हो।
इतनी उसको
फुरसत नहीं।
इतना समय भी
नहीं है रुककर
सोचने का।
गति!
पूरब
में तमस ज्यादा
है,
इसलिए लोग
गरीब हैं, भिखमंगे
हैं, मूढ़
हैं। पश्चिम
में रजस
ज्यादा है, इसलिए लोग
महत्वाकाक्षी
हैं, तनाव
से भरे हैं, परेशान हैं,
पागल हैं।
धन खूब पैदा
कर लिया, बड़ी
विशाल
अट्टालिकाएं
बना ली हैं, विज्ञान के
बड़े साधन
आविष्कृत कर
लिए हैं और स्पीड
को बढ़ाए चले
जाते हैं रोज।
उनसे पूछो, जा कहा रहे
हो? पैदल
जाओ कि जेट पर
जाओ, लेकिन
जाना कहां है?
वे कहते हैं,
जाने का कोई
सवाल नहीं है।
लेकिन तेजी से
जा रहे हैं।
मंजिल का सवाल
ही क्या है!
जाने में मजा
आ रहा है।
पागलपन है
पश्चिम में।
अगर
रज ज्यादा हो
जाए,
तो आदमी को
विक्षिप्त
करता है। तुम
जानते हो राजस
आदमी को कि वह
खाली नहीं बैठ
सकता। उसे
बैठना भी पड़े
थोड़ी देर, तो
पच्चीस दफे
करवटें बदलता
है। वह रात सो
नहीं सकता, करवटें
बदलता है।
नींद में भी
उसका रजस
सक्रिय है।
उसे कुछ न कुछ
करने को चाहिए।
कोई भी
गोरखधंधा हो,
तो भी वह करना
चाहेगा, चाहे
उसका कोई
परिणाम न हो।
खाली नहीं बैठ
सकता। बैठने
की कला उसे
नहीं आती। तमस
का ?तत्व
थोड़ा कम है, रजस का तत्व
थोड़ा ज्यादा
है।
ऐसे
आदमी ही
दुनिया में
उपद्रव करते
हैं। चंगेजखा, तैमूरलंग,
नादिरशाह, हिटलर, मुसोलिनी,
माओत्से
तुंग, इंदिरा,
जयप्रकाश, सब—रजस
ज्यादा है। अब
के जयप्रकाश
को खाली बैठना
नहीं जमता।
पूर्ण क्रांति
करनी है! किसी
ने कभी पूर्ण क्रांति
की है? कभी
पूर्ण क्रांति
होती है? अगर
पूर्ण क्रांति
होगी, तो
फिर बचेगा
क्या? पूर्ण
क्रांति तो
प्रलय में ही
हो सकती है।
उपद्रव करना
है।
उपद्रवी
पैदा होते हैं, समाज—सुधारक
पैदा होते हैं,
समाज—सेवक
पैदा होते हैं।
तुम्हारे पैर
भी न दुख रहे
हों, तो भी
वे दबाते हैं।
तुम उनसे
कितना ही कहो,
संकोचवश
तुम एकदम मना
भी नहीं कर
सकते। पर वे
कहते हैं, हमें
सेवा करनी है।
दुनिया
में जितनी
मिस्वीफ और
जितना उपद्रव
होता है, वह
रजस गुणधर्मा
व्यक्तियों
का परिणाम है।
तमस वाला आदमी
अपने लिए
कितना ही
नुकसान करता
हो, दूसरे
को नहीं करता,
यह उसकी
खूबी है। आलसी
कहां दूसरे को
नुकसान करने
जाए? तुम
झगड़ा भी करो, तो वह कहता
है कि झगड़े
में हमें पड़ना
नहीं।
क्योंकि कुछ
करना पड़े! तुम
उसका कोट छीनो,
तो वह कमीज
भी दे देता है, कि तू ले जा, दोबारा न
आना पड़े।
सारा
उपद्रव संसार
का,
क्रांतिया,
इतिहास, रजस,
अति रजस से
पीड़ित लोगों
का परिणाम है,
जिनको
बुखार चढ़ा है।
वे व्यस्तता
चाहते हैं; कोई न कोई
काम चाहिए।
क्योंकि काम
के बिना वे
खाली नहीं बैठ
सकते। खाली
बैठते हैं, तो उन्हें
बेचैनी मालूम
पड़ती है, उनकी
ऊर्जा उन्हें
भगाती है, दौड़ाती
है। फिर इससे
कोई प्रयोजन
नहीं है, कहां
भागते हैं, कहा दौड़ते
हैं। लेकिन
दौड़ने में
राहत मिलती है।
ऐसे लोग खूब
धन कमा लेते
हैं। धन कमाने
के बाद बड़ी
मुश्किल में
पड़ते हैं कि अब
इसका क्या
करें? तो
उस धन से और धन
कमाते हैं।
फिर खड़े होकर
सोचते हैं, अब इसका
क्या करें? तो उस धन से
और धन कमाते
हैं। और कोई
उपाय नहीं
मालूम पड़ता।
शुरू
में धन कमाने
वाले लोग
सोचते हैं कि
जब धन कमा
लेंगे, तो
आराम करेंगे।
लेकिन आराम वे
कर नहीं सकते,
क्योंकि
आराम करने
वाले लोग धन
नहीं कमा सकते।
आराम करने
वाले पहले से
ही आराम कर
रहे हैं। जो
सोचता है कि
धन कमाकर आराम
करूंगा, महल
बन जाएगा, सब
सुविधा होगी,
नौकर—चाकर
होंगे, बस,
फिर आराम।
उसको पता नहीं
है कि इतना
तुम जो करोगे,
वह
तुम्हारा रजस
धर्म बढ़ेगा।
और एक घड़ी ऐसी
आएगी, जब
सब तो होगा, लेकिन तुम
पाओगे, आराम
कैसे करें! वह
तो भूल ही गए।
आराम हो ही न
सकेगा।
अति
रज हो जाए, तो
विक्षिप्तता
में ले जाता
है; जैसे
अति तम हो जाए,
तो आत्मघात
में ले जाता
है। पूरब
आत्मघाती है,
पश्चिम
विक्षिप्त है।
लेकिन
रजस की एक
मात्रा चाहिए; उतनी
मात्रा चाहिए,
जितने से
जीवन का
संतुलन बन जाए।
क्योंकि
बुद्ध में भी
उतना रजस तो
है, अन्यथा
कौन
तपश्चर्या
करेगा? उतना
रजस तो है, अन्यथा
कौन ध्यान
करेगा? उतना
रजस तो है, अन्यथा
कौन साक्षी को
खोजेगा? बस,
उतना ही है।
उतना तमस है, जितने से
विश्राम हो
जाता, उतना
रजस है, जिससे
जरूरी श्रम हो
जाता।
और
जिसने रज और
तम की, दोनों
की संतुलित
मात्रा को
उपलब्ध कर
लिया, उसके
जीवन में
तीसरे तत्व का
उदय होता है, वह है सत्व।
सत्व का अर्थ
है, संतुलन।
संतुलन परम
शुद्धि है।
सत्व का अर्थ
है, भीतर
की सारी
विक्षिप्तताएं
शांत हो गईं; आलस्य शांत
हो गया; कोई
अति न रही।
जिसको कबीर ने
कहा निरति; कोई अति न
रही। जब कोई
अति नहीं रह
जाती, तो
सुरति जगती है।
वह
सुरति ही सत्व
है। तब
तुम्हारे
भीतर एक
सात्विक भाव
का जन्म होता
है,
एक
कुंआरेपन का।
तुम एक संगीत
की तरह मधुर हो
जाते हो।
तुम्हारा तम
भी उस संगीत
का अंग है और
तुम्हारा रज
भी उस संगीत
का अंग है, उन
दोनों के
तारों पर ही
तुम्हारी
सात्विकता की
धुन उठती है।
सात्विकता का
अर्थ है, हार्मनी,
लयबद्धता, कुछ भी
ज्यादा नहीं,
कुछ भी कम
नहीं।
इसलिए
सत्व संतोष
लाता है और
सत्व एक परितृप्ति
देता है और
सत्य तुम्हें
योग्य बनाता
है कि तुम इन
तीनों के ऊपर
जा सको। एक
त्रिकोण बनाओ, एक
ट्राएंगल; उसमें
नीचे के दो
आधार कोण तो
हैं तम और रज
के और ऊपर का
शिखर कोण है
सत्व का।
सत्व
अंत नहीं है, सत्व
तो केवल
संतुलन की दशा
है। इसलिए वह
व्यक्ति सात्विक
है, जिसके
जीवन में अति
नहीं है। जो न
तो अति गृहस्थ
ही है और न अति
संन्यस्त ही है,
जो न तो अति
धन में लगा है,
न अति त्याग
में लगा है; जो न अति भोग
में है, न
अति विरोध में
है, जो न
अति राग में
है, न अति
विराग में है।
जिसके जीवन
में एक गहन
शाति, जिसके
भीतर लय सध गई,
जिसने अपने
भीतर के
विरोधों में
सामंजस्य खोज
लिया। जिसने
अपने तमस और
रज को जीवन के
रथ में जोत लिया,
वे दोनों
बैल हो गए और
दोनों अब जीवन
के रथ को खींचने
लगे, साथ—साथ—विरोध
में नहीं, एक—दूसरे
की दुश्मनी
में नहीं—स्व—दूसरे
के गहन सहयोग
में।
तम
और रज का जहां
सहयोग होता है, वहीं
तीसरे का जन्म
हो जाता है।
जहां तम और रज
का सहयोग होता
है, वहा
सत्व का जन्म
हो जाता है।
सत्व
गौरीशंकर का
शिखर है। वही
अंत नहीं है, लेकिन छलांग
के लिए आखिरी
जगह है। वहां
से छलांग एक
में लगती है, आदमी तीन के
पार हो जाता
है।
उस
एक को तुम समझ
सकते हो इस
ट्राएंगल, इस
त्रिकोण के
बीच का बिंदु।
वह तीनों से
बराबर दूरी पर
है। इसलिए कोई
चाहे तो तमस
से भी उसकी
तरफ जा सकता है,
यद्यपि
यात्रा बहुत
कठिन होगी।
कोई
वाल्मीकि तमस
से भी सीधा
चला जाता है, मरा—मरा
जपकर राम को
उपलब्ध हो
जाता है।
पक्के आलसी
रहे होंगे और पक्के
तमस से भरे
रहे होंगे, अंधकार से
भरे रहे होंगे।
यह भी फिक्र न
की पता लगाने
की कि मरा—मरा
जप रहा हूं यह
ठीक भी मंत्र
है या नहीं? डाकू हैं, लुटेरे हैं,
हत्यारे
हैं। गहन तमस
रहा होगा, नीचे
की तरफ प्रवाह
रहा होगा।
लेकिन यात्रा
कर ली, सीधे
उपलब्ध हो गए।
कोई
अंगुलीमाल
सीधा उपलब्ध
हो जाता है।
तो
वह जो एक है, जो
मूल उदगम है, वह इन
त्रिकोणों के
ठीक बीच का
बिंदु है।
तीनों कोने से
बराबर फासला
है—सत्व से, रज से, तम
से।
लेकिन
तम से यात्रा
बहुत कठिन है, क्योंकि
यात्रा करने
का मन ही नहीं
होता। यात्रा
करे कौन?
रज
से भी यात्रा
करनी कठिन है, उतनी
कठिन नहीं, जितनी तम से
है, पर फिर
भी कठिन है।
यात्रा तो
करनी हो जाती
है, लेकिन
रुकना नहीं
आता। और उस
परम में तो
रुकना पड़ेगा।
तम वाला आदमी
ऐसे बैठा रहता
है, जैसे
मंजिल पर
पहुंच गया, और रज वाला
आदमी मंजिल के
पास से भी
गुजर जाता है,
लेकिन
समझता है, यह
भी मार्ग है।
क्योंकि उसे
चलने की धुन
है; वह रुक
नहीं सकता।
तुमने
कहानी सुनी
होगी, एक जंगल
में आग लग गई।
और एक अंधा
आदमी है, जो
चल सकता है, लेकिन देख
नहीं सकता। और
एक लंगड़ा आदमी
है, जो देख
सकता है, लेकिन
चल नहीं सकता।
वह लंगड़ा है
तमस का प्रतीक,
वह अंधा है
रजस का प्रतीक।
अंधा चल सकता
है, दौड़
सकता है, लेकिन
देख नहीं वह
मंजिल के पास
से भी दौडता निकल
जाएगा, मंजिल
के से भी
दौड़ता निकल
जाएगा। चल
सकता है, लेकिन
देख नहीं सकता।
और जो देख
नहीं सकता वह
रुकेगा कैसे?
और
लंगड़ा है, जो
देख सकता है, मंजिल दिखाई
पड़ती रहेगी कि
दूर आकाश में
उतुंग— शिखर
दिखाई पड़ते
हैं, स्वर्ण
कलश परमात्मा
के। मगर वह
लंगड़ा है, वह
बैठा अपने
वृक्ष के नीचे
ही रहेगा; वह
चल नहीं सकता
है।
वह
जो कहानी है, वह
सांख्यों की
कहानी है। उन
दोनों का जोड़
चाहिए।
सांख्यों ने
जोड़ करवा दिया।
वह बच्चों की
कहानी नहीं है।
तुम समझना मत
कि बच्चों के
लिए लिखी गई
है। बच्चों की
किताबों में
है, बूढ़ों
के लिए है।
दोनों तो
व्यर्थ थे, एक लयबद्धता
चाहिए थी कि
दोनों सहयोगी
हो जाएं।
दोनों
सहयोगी हो गए।
समझी
उन्होंने
अपनी हालत।
अंधे ने कहा
कि मैं चल
सकता हूं दौड़
सकता हूं पैर
मेरे परिपूर्ण
स्वस्थ हैं।
मगर कहां जाऊं? कहां
दौडूं? कैसे
निकलूं बाहर
इस आग के? कहां
है मार्ग? कौन
ऐसी जगह है, जहां लपटें
न हों और मैं
बाहर निकल
जाऊं, यह
मैं नहीं
जानता। तो दौड़
तो मैं काफी
रहा हूं लेकिन
दौड़ने में उलटा
मैं जल जाऊंगा,
खतरा है।
उस
लंगड़े ने कहा, मैं
तुम्हारे काम
आ सकता हूं।
मैं देख रहा
हूं कि कहां
मार्ग है, कहां
मंजिल है। पैर
नहीं मेरे पास।
तुम मुझे अपने
कंधों पर ले
लो। अंधे ने
लंगडे को कंधे
पर ले लिया, लय बंध गई।
जिस दिन रजस
के कंधे पर
तमस बैठ जाता
है, उसी
दिन लय बंध
जाती है। उसी
दिन संगीत
पैदा हो जाता
है। अब मार्ग
खोजने में कोई
कठिनाई नहीं
है। दोनों
मिलकर सत्व की
यात्रा पर
निकल जाते हैं;
सत्व दूर
नहीं है।
तमस
से भी यात्रा
हो सकती है, हुई
है, लेकिन
अति कठिन है।
अंधा भी कोशिश
करे, तो
निकल सकता है
टटोल—टटोलकर,
लेकिन बड़ा
मुश्किल होगा।
और लंगड़ा भी
घसिट—घसिटकर
बाहर हो सकता
है, लेकिन
बडा मुश्किल
होगा। जो तमस
से यात्रा
करते हैं सीधे,
उनकी घसिट—घसिटकर
यात्रा होती
है। जो रजस से
यात्रा करते
हैं, उनको
अंधे की तरह
टटोल—टटोलकर
यात्रा करनी
पड़ती है।
संयोग है निकल
जाएं तो, अन्यथा
आग तो
भस्मीभूत कर
ही लेगी। जो
समझदार हैं, वे दोनों का
जोड़ बिठा लेते
हैं। उनके जोड़
से संगीत पैदा
होता है, वही
सत्व है।
वह
सत्व भी अंतिम
नहीं है, लेकिन
उस संगीत से
फिर मध्य के
बिंदु की तरफ
सुगमता से
यात्रा हो
जाती है। जैसे
कोई टहलता हुआ
बाहर हो
गटिहलता हुआ
कहता हूं। खेल—खेल
में बाहर हो
जाए; कुछ
श्रम नहीं
पड़ता। सत्व से
छलांग बडी
आसान है।
क्योंकि वहा
पैर भी हैं, ऊर्जा भी है,
आंखें भी
हैं और बंधी
हुई लयबद्धता
में सब साफ
दिखाई पड़ता है।
जैसे झील शांत
हो गई और कोई
लहरें नहीं और
झील दर्पण बन
गई।
अर्जुन
ने कृष्ण से
पूछा......।
यह
है
श्रद्धात्रय—विभाग—योग।
क्योंकि अगर
तीन हैं, तो
श्रद्धाएं भी
तीन होंगी।
तामसी की भी
श्रद्धा होगी,
आलसी की भी
श्रद्धा तो
होती है।
राजसी की भी
श्रद्धा होगी,
सत्य को
उपलब्ध
व्यक्ति की भी
श्रद्धा होगी।
तो
अर्जुन ने कहा, हे
कृष्ण, जो
मनुष्य
शास्त्र—विधि
को त्यागकर
केवल श्रद्धा
से युक्त हुए
देवादिको का
पूजन करते हैं,
उनकी
स्थिति फिर
कौन—सी है? सात्विकी
अथवा राजसी
अथवा तामसी?
कृष्ण
ने कहा, मनुष्यों
की वह स्वभाव
से उत्पन्न
हुई श्रद्धा
सात्विकी और
राजसी तथा
तामसी, ऐसी
तीन प्रकार की
होती है। इससे
बड़ी हैरानी
होगी, क्योंकि
तुम तो सदा
सोचते रहे
होंगे कि
श्रद्धा सदा
सात्विक होती
है। श्रद्धा
भी तीन प्रकार
की होती है।
तमस
से भरे हुए
व्यक्ति की
श्रद्धा कैसी
होगी? तमस से
भरा हुआ
व्यक्ति अगर
प्रार्थना भी
करेगा, तो
इसीलिए करेगा,
ताकि उसे
कुछ करना न
पडे। वह
परमात्मा पर
भरोसा करेगा,
तो इसीलिए
करेगा, ताकि
खुद करने से
बच जाए। वह
कहेगा, सब
करने वाला वही
है। बातें वह
बड़ी शान की
करेगा। कहता
है, सब
करने वाला वही
है, देने
वाला वही है।
चलने—फिरने से
क्या होगा? करने से
क्या होगा? वह कहेगा, हम तो भाग्य
में श्रद्धा
करते हैं। वह
कहेगा, जो
होना है, वह
हो ही जाता है।
उसकी बिना आशा
के तो पता भी
नहीं हिलता।
तो कहता है कि
वह तो पशु—पक्षियों
को पालता है, तो हमें न
पालेगा?
बड़ी
शान की बातें
करता है आलसी
भी। लेकिन
छिपा रहा है
तमस को। वह यह
कह रहा है कि
हम कुछ करना
नहीं चाहते।
असल में वह यह
नहीं कह रहा
है कि
परमात्मा सब करता
है,
वह यह कह
रहा है कि हम
कुछ करना नहीं
चाहते।
परमात्मा की
ओट में वह तमस
को छिपा रहा
है।
इस
मुल्क में
करोड़ों की
संख्या है ऐसे
लोगों की
जिनकी
श्रद्धा तमस
की है, जो कुछ न
करेंगे। लेकिन
उनके जीवन में
कोई परम संगीत
भी बजता हुआ सुनाई
नहीं पड़ता।
जीवन तो उदास
थका—मादा
दिखाई पड़ता है।
बातें बड़े शान
की करते हैं
वे कि उसकी
मरजी के बिना
क्या होगा? सब उसी पर
छोड़ दिया है।
छोड़ा
उन्होंने कुछ
भी नहीं है।
कुछ कर नहीं
सकते, कुछ
करने की
हिम्मत नहीं
है, ऊर्जा
नहीं है, और
तमस से राग
बना लिया है, रस बना लिया
है। इसलिए बड़ी
ऊंची बातें
करते हैं।
अगर
कोई दूसरा धन
कमा रहा है, वह
कह रहा है, क्या
करोगे कमाकर
भी? उसकी
मरजी होगी, तो लंगड़े
पहाड़ चढ़ जाते,
अंधे पढ़ने
लगते, बहरे
सुनने लगते।
और उसकी मरजी
न होगी, तो
दौड़ते रहो, क्या होगा? वह अपने को
समझा लेता है।
वह कहता है कि
मैं संतोषी
हूं। भीतर सब
तरह की
वासनाएं जलती
हैं, भीतर
सब तरह की
महत्वाकांक्षाएं
उठती हैं, सब
सपने उठते हैं।
लेकिन उन
सपनों के लिए
तो दाव लगाना
पड़े, वह
उसकी हिम्मत
नहीं है। वह
कहता है, मैं
संतुष्ट हूं।
जो दे दिया, ठीक है, काफी
है, पर्याप्त
है। मैं
ज्यादा की माग
नहीं करता। वह
ज्ञानी का
ढोंग करता है।
तुम
ऐसे आदमी को
देख सकते हो; उसे
पहचानने में
अड़चन न होगी।
क्योंकि
जिसका संतोष
सात्विक है, तुम उसके
संतोष की कथा
उसकी आंखों, उसके चेहरे,
उसके जीवन
पर लिखी हुई
पाओगे। तुम
उसे आह्लादित
पाओगे, तुम
उसे विधायक
रूप से
प्रसन्न और
उत्कुल्ल पाओगे।
तुम उसमें फूल
खिलते देखोगे,
तुम उसके
रोएं—रोएं में
कोई बांसुरी
बजती हुई
पाओगे। तुम
उसके पास
बैठोगे, तो
धन्य हो जाओगे,
जैसे स्नान
कर लिया। उसकी
पवित्रता तुम्हें
छुएगी।
लेकिन
अगर उसका
संतोष केवल
आलस्य को
ढांकने का, छिपाने
का
रेशनलाइजेशन
है। वह कहता
है कुछ करना न
पड़े, इसलिए
वह कहता है, जो होना है, वह होगा।
तुम पाओगे, उसके चेहरे
पर उदासी की
पर्तें हैं।
उसकी आंखों
में तुम धुंध
पाओगे, उज्ज्वल
प्रकाश नहीं।
उसके पास
बैठकर
तुम्हें नींद
और जम्हाई
आएगी, स्नान
नहीं होगा।
उसके पास
बैठकर तुम थके
हुए अनुभव
करोगे, क्योंकि
तामसी
व्यक्ति
दूसरे की
शक्ति को चूसता
है। इसलिए जब
भी तुम तामसी
व्यक्ति को
मिलोगे, तुम
पाओगे, तुम
कुछ खोकर लौटे।
राजसी
व्यक्ति अपनी
शक्ति को देता
है। इसलिए
राजसी
व्यक्ति के
पास जाकर तुम
पाओगे कि तुम्हारी
भी महत्वाकांक्षा
के दीए जलने
लगे। वह
तुम्हें भी
रोग पकड़ा देगा।
वह कहेगा, क्या
कर रहे हो
बैठे—बैठे! इस
चुनाव में ही
खड़े हो जाओ।
बुद्ध से
बुद्ध मंत्री
हुए जा रहे
हैं। तुम
क्यों पीछे
खड़े हो? कुछ
न बनता हो, तो
कम से कम तीन
दिन का अनशन
ही कर लो! कम से
कम अखबारों
में नाम तो छप
जाएगा। तुम
अपनी तरफ से
आमरण अनशन करो,
तुड़वाने की
हम कोशिश
करेंगे। नाम
तो कर जाओ, ऐसे
ही मर जाओगे!
वह कुछ न कुछ
उपद्रव सुझा
देता है।
अगर
राजसी
व्यक्ति के
पास बैठें, तो
सम्हलकर
बैठना।
क्योंकि वह
खुद उपद्रव से
भरा है, वह
बांटता है, वह देता है।
उसके पास
बैठकर तुम
उपद्रव लेकर
लौटोगे। किसी
राजनेता की
सभा से तुम
लौटोगे, तो
तुम्हारी
तबियत होगी कि
उठाकर पत्थर
बस में ही मार
दें। कोई कारण
नहीं है, लेकिन
वह राजनेता
तुम्हें
बीमारी दे गया।
वे राजनेता
कहे चले जाते
हैं कि हम
बिलकुल
अहिंसात्मक
हैं। हम किसी
को हिंसा थोड़े
ही सिखाते हैं।
मगर वे सब
हिंसा सिखाते
हैं। उनका
होने का ढंग
हिंसात्मक है।
जयप्रकाश
कितना ही कहें
कि बिहार में
जो उपद्रव हुआ, उसकी
मेरी
जिम्मेवारी
नहीं......। किसी
और की
जिम्मेवारी
नहीं है। वे
कितना ही कहें
कि मैं तो
अहिंसा की बात
करता हूं; अब
अगर लोगों ने
पत्थर फेंक
दिए बसों पर
और आग लगा दी
पुलिस थानों
में, इसका
मैं क्या कर
सकता हूं?
वे
गलत बात कह
रहे हैं। ऊपर
से तुम अहिंसा
की बात करते
हो,
लेकिन भीतर
से तुम्हारे
सारे जीवन की
ऊर्जा जो है, वह रजस
की है।
तुम लोगों को
भड़काते हो, तुम
लोगों को
उकसाते हो।
पहले भड़काते
हो, फिर
उनको कहते हो,
शांत हो जाओ,
अहिंसा का
पालन करो।
पहले भाग लगा
देते हो, फिर
पानी छिड़कते
हो। पहले आग
लगा देते हो, फिर बुझाने
की कोशिश करते
हो!
लोगों
को भड्का दो, उनके
भीतर का रजस
जग जाए, उपद्रव
करने को वे
निकल पड़े, फिर
तुम्हारे हाथ
के बाहर है।
हो सकता है, तुमने सोचा
भी न हो कि वे
मकानों में आग
लगाएंगे, दुकानें
जलाएंगे।
तुम्हारे
सोचने न सोचने
का सवाल नहीं
है। तुमने जो
ऊर्जा उन्हें
दी, वह
ऊर्जा
उपद्रवी है।
तामसी
व्यक्ति
तुम्हारी
ऊर्जा को चूसता
है,
वह आलस्य से
भरा हुआ है।
वह तुम जब
उसके पास जाते
हो, तो वह
शोषण करता है।
उसके पास से
तुम थके
लौटोगे, उदास
लौटोगे, हारे
हुए लौटोगे।
तुम्हारी भी
तबियत सो जाने
की होगी।
राजसी
व्यक्ति
भड़काता है। वह
तुम्हें
त्वरा से भरता
है,
बुखार से, कि कुछ कर
गुजरो। उसके
शब्द सुनकर
दुनिया में
उपद्रव होते
हैं। उसके पास
से आकर लोग
झंझट में पड
जाते हैं।
एक
मित्र परसों
ही मुझसे पूछे
आकर।
जयप्रकाश के
साथी हैं।
कहने लगे, मैं
बड़ी मुसीबत
में पड़ गया
हूं र दुविधा
खड़ी हो गई है।
आपको क्या पढ़ा,
एक झंझट हो
गई। अब
जयप्रकाश या
आप? क्या
करूं? क्या
दोनों के बीच
कोई समन्वय
नहीं हो सकता?
मैंने
कहा,
तुम कोशिश
करो समन्वय की;
उसमें तुम
पगला जाओगे।
वह समन्वय हो
नहीं सकता।
क्योंकि दो
अलग लोग, अलग
आयाम।
वहां
तुम्हें
जयप्रकाश
भड्का रहे हैं, यहां
मैं तुम्हें शांत
करने की कोशिश
कर रहा हूं।
तुम तालमेल
कैसे बिठाओगे?
वे कह रहे
हैं, पूर्ण
क्रांति, मैं
कह रहा हूं
पूर्ण शाति।
इसमें तालमेल
कैसे बिठाओगे?
वे कहते हैं,
संसार को
बदलकर रहेंगे।
मैं कहता हूं?
तुम अपने को
बदल लो, तो
काफी है।
इसमें कोई
तालमेल हो
नहीं सकता।
तो
मैंने उनको
कहा कि तुम
मुझे भूल जाओ।
इस झंझट में
तुम पड़ो ही मत।
किताबें
वगैरह मेरी
फेंक दो; मुझे
भूल जाओ। और
तुम जयप्रकाश
के पीछे चलो।
उन्होंने कहा,
वह तो असंभव
है। वह नहीं
हो सकता अब।
शक तो पैदा हो
ही गया है। तो
फिर मैंने कहा
कि शक अगर
पैदा हो गया
है, तो
जयप्रकाश को
छोड़ दो। कहने
लगे, लेकिन
यह भी बड़ा
मुश्किल है।
तो
मरो,
दुविधा में
मरो। इसमें
मैं क्या कर
सकता हूं? कोई
भी क्या कर
सकता है? तो
तुम्हारी
बैलगाड़ी में
दोनों तरफ बैल
जोत लो और चलो।
दोनों को हाको।
अस्थिपंजर
टूट जाएंगे।
घसिटोगे; पहुंचोगे
कहीं भी नहीं।
क्योंकि
मेरे लिए तो
जयप्रकाश
रुग्ण हैं, विक्षिप्त
मन की दशा है, सभी
राजनीतिज्ञ
होते हैं।
इसलिए जब मैं
यह कह रहा हूं
तो मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि इंदिरा
विक्षिप्त
नहीं है। पद
पर जो होते
हैं, उनकी
विक्षिप्तता
दिखाई नहीं
पड़ती। जो पद
पर नहीं होते,
उनकी
विक्षिप्तता
दिखाई पड़ती है।
मोरारजी पद पर
होते हैं, तब
बड़े समझदार
मालूम पड़ते
हैं। जब पद के
बाहर होते हैं,
तब
विक्षिप्त हो
जाते हैं।
पद
की समझदारी
कोई समझदारी
है?
पद की
समझदारी तो यह
है कि जो अपने
पास है, वह
छूट न जाए, इसलिए
उपद्रव से
डरने लगता है
आदमी। लेकिन
जिसके पास कुछ
नहीं है, उसका
तुम छुडाओगे
क्या? नंगा
नहाएगा, निचोड़ेगा
क्या? तो
वह कहता है, पूर्ण क्रांति
करवा देंगे।
उसका तो कुछ
खोना नहीं है,
इसलिए वह
उपद्रवी हो
जाता है।
पद
पर बैठे हुए
लोग उतने ही
पागल हैं, जितने
पद के बाहर।
उनकी जमात एक
है। उनकी भाषा
एक है। उनकी
दुनिया एक है।
रजस वाले
व्यक्ति के
पास से तुम
रोग लेकर लौटोगे।
सात्विक
व्यक्ति न तो
तुम्हें कुछ
देता है, न तुम
से कुछ लेता
है। सात्विक
व्यक्ति के
पास बैठकर तुम
तुम ही हो जाओगे।
यही थोड़ी
समझने की बात
है। वह तुमसे
कुछ नहीं लेता;
वह तुम्हें
कुछ देता भी
नहीं। वह
तुम्हें
सिर्फ
तुम्हारे
होने का मौका
देता है। उसकी
छाया में
बैठकर तुम तुम
हो जाओगे, तुम
जो हो।
तुम्हें अपना
सत्य सुनाई
पड़ने लगेगा।
तुम्हें अपने
भीतर के संगीत
की थोड़ी भनक
पड़ने लगेगी।
सात्विक
व्यक्ति कुछ
देता नहीं, लेता
नहीं; सिर्फ
उसकी मौजूदगी
तुम्हारे
भीतर एक रूपांतरण
बनने लगती है।
तुम उसकी
मौजूदगी में शांत
होने लगते हो।
तुम उसकी
मौजूदगी में
भीतर के
द्वंद्व को
क्षीण करने
लगते हो। तुम
उसकी मौजूदगी
के प्रकाश में
एक भीतर के आतरिक
सहयोग को
उपलब्ध हो
जाते हो। वह
तुम्हें
सामंजस्य
देता है, कुछ
देता नहीं, कुछ लेता
नहीं। वह
तुम्हें
तुम्हारी सुध
देता है, तुम्हें
तुम्हारी
थोड़ी—सी भनक
देता है; वह
तुम्हें
तुम्हीं
बनाना चाहता
है।
सात्विक
व्यक्ति वही
है,
जो तुम्हें
तुम्हीं
बनाना चाहे।
इसलिए
तुम्हारे
बहुत—से महात्मा
सात्विक नहीं
हैं।
तुम्हारे
बहुत—से
महात्मा राजसिक
हैं। वे
तुम्हें गति
देते हैं कि
छोड़ो। यह छोड़ो,
वह छोड़ो।
यह व्रत
ले लो, वह कसम
ले लो। चलो, ब्रह्मचर्य
की कसम खा लो।
वह कुछ न कुछ
उपद्रव तुम
उनके पास से
लेकर लौटोगे।
वह महात्मा
सात्विक नहीं
है। उन्हें
राजनीतिज्ञ
होना था। वे
गलती जगह फंस
गए हैं।
कई
दफा हो जाता
है,
आदमी गलती जगह
फंस जाता है।
कुछ महात्मा
राजनीति में
फंस जाते हैं,
कुछ
राजनीतिज्ञ
महात्मा होने
में फंस जाते
हैं। तब बड़ी
अड़चन होती है।
जो
महात्मा
तुम्हें
बदलने की
कोशिश करे, तुम्हें
कुछ देने की
कोशिश करे कि
तुम ऐसे हो जाओ,
तुम वैसे हो
जाओ, जो
तुम्हें
आदर्श दे, वह
महात्मा नहीं
है, वह
राजनीतिज्ञ
है।
सात्विक
व्यक्ति
तुम्हें
आदर्श देता ही
नहीं, तुम्हारी
स्वयंता देता
है, तुम्हारी
निजता देता है।
तुम जो हो, बस
वही। उसी के
लिए तुम राजी
हो जाओ। जैसा
संगीत उसने
अपने भीतर
पाया, वैसा
संगीत
तुम्हारे
भीतर भी हो
जाए।
सात्विक
व्यक्ति एक
आशीष है बस, उपदेश
नहीं; आदेश
तो बिलकुल
नहीं, सिर्फ
एक आशीष।
इसलिए पुरानी
परंपरा है कि
हम संतों के
पास सिर्फ
आशीर्वाद
मांगने जाते
हैं, और
कुछ मांगने
नहीं। और कुछ
मायने की बात
ही गलत है। और
कुछ मांगना हो,
तो राजसी के
पास जाना
चाहिए, तामसी
के पास जाना
चाहिए।
सात्विक के
पास तो सिवाय
आशीष के और
कुछ भी नहीं
है। लेकिन
उसके आशीष की
छाया में परम
रूपांतरण घटित
होते हैं।
उसके आशीष की
छाया में
अंधेरे घर
प्रकाशित हो
जाते हैं, बुझे
दीए जल जाते
हैं।
और
जो सत्य को
उपलब्ध हो
जाता है—सत्य
चट्टान है, जहां
से एक में छलांग
लगती है।
तामसी
व्यक्ति की
श्रद्धा
आलस्य की होगी।
वह अपने आलस्य
को ही अपनी
श्रद्धा
बनाएगा।
राजसी
व्यक्ति की
श्रद्धा राजस
की होगी। वह
अपने राजसीपन
को ही अपनी
श्रद्धा
बनाएगा। वह
कहेगा, कर्म—योग।
वह राजसी
व्यक्ति की
श्रद्धा है।
लोकमान्य
तिलक ने गीता—रहस्य
लिखा। वह
किताब राजसी
व्यक्ति की
लिखी गई किताब
है। और उसका
बड़ा प्रभाव
हुआ। क्योंकि
गीता में
उन्होंने
सिद्ध किया कि
कर्म—योग ही
गीता का
प्रतिपाद्य
विषय है।
इससे
झूठी कोई बात
नहीं हो सकती।
इसमें
लोकमान्य
तिलक ने अपने
को ही गीता
में पढ़ लिया।
वे राजसी
व्यक्ति थे, राजनेता
थे। वे खाली
नहीं बैठ सकते
थे। यह गीता—रहस्य
भी खाली न
बैठने के कारण
लिखी गई।
मंडाले के जेल
में क्या करें?
कुछ काम—
धाम न रहा।
खाली बैठ नहीं
सकते।
सात्विक
व्यक्ति होता,
तो ध्यान कर
लेता। मंडाले
का जेल महान
समाधि बन जाता।।
लेकिन अब यह
राजसी
व्यक्ति क्या
करे? कुछ
उपाय नहीं।
तो
कोयले के
टुकड़ों से
दीवाल पर गीता—रहस्य
की पहली
टीकाएं लिखनी
उन्होंने
शुरू कीं। फिर
कागज के
टुकड़ों पर
धीरे— धीरे
टीका लिखी।
यह
टीका राजसी
व्यक्ति की
टीका है, राजनेता
की। फिर इसी
टीका ने गांधी
को प्रभावित
किया विनोबा
को प्रभावित
किया। और वह
गीता—रहस्य
हिंदुस्तान
के लिए पचास
साल का पूरा
इतिहास बन गई।
कर्म
करो,
तिलक ने कहा।
और गांधी ने
कहा, कर्म—योग
ही असली योग
है। सेवा करो,
समाज
सुधारो, अस्पताल
बनाओ। गरीबों
को मकान दो, जमीन दो। यह
करो, वह
करो। भूदान
आया, सर्वोदय
आया। वह सब
गीता—रहस्य से
सूत्रपात हुआ।
लेकिन वह
राजसी
व्यक्ति की
व्याख्या थी।
सात्विक
व्यक्ति की
व्याख्या बडी
भिन्न होगी।
सात्विक
व्यक्ति की
व्याख्या
शाति की होगी, सेवा
की नहीं। इसका
यह अर्थ नहीं
है कि शांत
व्यक्ति सेवा
नहीं कर सकता।
लेकिन शांत
व्यक्ति का
सेवा लक्ष्य
नहीं होता, उसकी शाति
से निकलती है।
इसका यह अर्थ
नहीं कि शांत
व्यक्ति कुछ
भी नहीं करेगा।
लेकिन करने की
उसमें त्वरा
नहीं होती, करने की आकांक्षा
नहीं होती।
जीवन जो करा
ले, वह
करता है।
लेकिन करने के
पीछे पागल
नहीं होता।
ऐसा नहीं है
कि वह खाली
नहीं बैठ सकता,
इसलिए करता
है। जरूरत हो,
तो करता है,
जरूरत नहीं
होती, तो
शांत बैठता है।
कर्म उसके लिए
कोई रोग नहीं
है, कोई
न्यूरोसिस
नहीं है। कर्म
उसके लिए जीवन—ऊर्जा
का खेल है।
और
जीता वह सदा
अपने सत्व में
है,
अपनी शाति
में है। कोई
कर्म उसकी
शांति को व्याघात
नहीं कर पाता।
आग लगी हो, तो
वह बुझाका; बैठा नहीं
रहेगा। लेकिन
आग लग गई है, बुझाएगा।
जरूर, लेकिन
भीतर आग की
कोई भी खबर न
पहुंचेगी।
भीतर की शाति
अखंड रहेगी। आग
भीतर की शाति
को न जलाएगी।
वह बेचैन न
होगा। वह कर्म
भी करेगा, वह
विश्राम भी
करेगा। वह
जीवन के अनेक
रंग—रूपों में
रहेगा। लेकिन
भीतर का स्वर
संगीत का
रहेगा, वह
लयबद्धता
कायम रहेगी।
सात्विक
व्यक्ति की
श्रद्धा क्या
है?
सात्विक
व्यक्ति की
श्रद्धा है भीतर
की परम
कुंवारी दशा,
चैतन्य की
शुद्धतम दशा
को उपलब्ध हो
जाना। वह अपने
सारे जीवन के
दर्शन को इस
भांति सोचेगा,
जैसे कि वह
भी भाग्य की
बात करेगा......।
अब
यह थोड़ा समझ
लेने जैसा है।
तामसी
व्यक्ति
भाग्य की बात
करेगा, अपने
को कर्म से
बचाने के लिए।
राजसी
व्यक्ति
भाग्य की बात
करेगा, अपने
को कर्म में
डालने के लिए।
वह कहेगा, भाग्य
में जो लिखा
है वह होगा।
अब भाग्य में
लिखा है कि
मुझे
प्रधानमंत्री
होना है। मैं
पूरी क्या कर
सकता हूं? लिखा
है, वह
होकर रहेगा।
जो भाग्य में
लिखा है, उससे
बचा कैसे जा
सकता है? वह
अपने कर्म को
बचाएगा, भाग्य
से।
सात्विक
व्यक्ति भी
भाग्य की बात
करेगा, लेकिन
उसके भाग्य
में कोई बचाव
नहीं होगा। वह
कहेगा, जो
होगा, वह
होगा; जो
होना है, वह
होता है।
इसलिए न तो वह
करने को बेचैन
होगा और न वह न—करने
को पकड़ेगा।
जीवन उसे जहां
ले जाएगा—युद्ध
के मैदान में,
तो युद्ध के
मैदान में खड़ा
हो जाएगा, पहाड़
की कंदराओं
में, तो
पहाड़ कंदराओं
में मौन होकर
बैठ जाएगा।
उसे सब
स्वीकार है।
और उसकी
स्वीकृति तुम
पहचान सकोगे,
क्योंकि
उसके चारों
तरफ अहोभाव का
नाद बजता रहेगा।
श्रीकृष्ण
बोले, मनुष्यों
की वह स्वभाव
से उत्पन्न
हुई श्रद्धा
सात्विकी और
राजसी तथा
तामसी, ऐसी
तीन प्रकार की
होती है, उसको
तू मुझसे सुन।
आज
इतना ही।
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